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पंकज-राजनाथ विवाद : देखने के कुछ सीधे और कुछ कम सीधे तरीके

Rajnath-Singh-by-Shailendraगृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह और इसलिए राजनाथ सिंह से भी जुड़े विवाद को चाहें तो सीधे-साधे आम आदमी की तरह भी देखा जा सकता है. राजनाथ सिंह से ज्यादा सहानुभूति न रखनेवाले इस ‘अफवाह’ को सच मान सकते हैं कि पंकज ने कुछ गलत किया था और इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें उनके पिता के ही सामने लताड़ लगाई. राजनाथ और भाजपा से दिल का और मीडिया से कुछ बेदिली का रिश्ता रखनेवाले सोच सकते हैं कि यह सब मीडिया का किया-धरा है जिसे कोई और काम-धाम नहीं है.लेकिन इस विवाद को देखने के इनसे कुछ कम सीधे तरीके भी हैं.

पहला तो यह ही कि यह विवाद तकरीबन उस दौरान ही पैदा हुआ जब पार्टी में दो सक्रिय वयोवृद्ध वरिष्ठ सदस्यों के सन्यास आश्रम में जबरन प्रवेश की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जा रहा था. भाजपा के तीनों शीर्ष नेताओं –अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी – को पार्टी की दो शीर्ष संस्थाओं – संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति – से हटाने का फैसला 27 अगस्त को सार्वजनिक हुआ और 28 अगस्त को एक राष्ट्रीय अखबार के पन्नों पर पंकज सिंह के कथित ‘गलत व्यवहार’ और उस पर पिता-पुत्र को प्रधानमंत्री की हिदायत की खबर छप गई. हालांकि चर्चाओं का बाजार पहले से ही गर्म था मगर अखबार में ‘अफवाह’ के आने का मतलब उससे कुछ ज्यादा बड़ा हो गया. इसकी धार खत्म करने के लिए पीएमओ और पार्टी अध्यक्ष तक को मैदान में आना पड़ गया. जाहिर है राजनाथ सिंह को तो आना ही था.

पिछले कुछ दिनों से जितनी भी चर्चाएं बाजार में हैं उनके केंद्र में नरेंद्र मोदी की हर चीज पर नजर और नियंत्रण रखने वाली छवि भी है

विवाद को देखने का दूसरा इससे भी कुछ कम सीधा तरीका यह है कि केंद्र सरकार में कथित तौर पर चल रहे सत्ता-संघर्ष के चश्मे से इसे देखा जाए. मोदी के बाद केंद्र सरकार में कौन, यह एक ऐसा रहस्य है जिस पर पिछले दिनों काफी पन्ने काले किए जा चुके हैं (इस लेख के प्रेस में जाते वक्त खबर आई है कि पीएमओ ने एक नोट भेजा है कि प्रधानमंत्री की जापान यात्रा के दौरान राजनाथ सिंह सरकार के मुखिया होंगे. जैसा उनकी पिछली यात्रा के दौरान हुआ था. हालांकि पिछली बार के बारे में किसी को इससे पहले तक पता नहीं था). पारंपरिक बुद्धि तो यही कहती है कि गृहमंत्री ही सरकार में नंबर -2 होना चाहिए. यह बात सरकार बनने के पहले महीने तक कुछ साफ भी थी. क्योंकि तब तक राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष बने हुए थे और अरुण जेतली की लोकसभा चुनाव में हार भी ताजा थी. जेतली को मिला दो बड़े मंत्रालयों का प्रभार भी तब बस कुछ दिनों की ही बात लग रहा था. लेकिन कुछ ही दिनों में उनके जबर्दस्त आर्थिक और कानूनी ज्ञान और योजना आयोग को खत्म कर उसके कुछ अधिकार वित्त मंत्रालय को दिए जाने की घोषणा ने अरुण जेतली के महत्व को लगातार बढ़ते जानेवाला बना दिया. ऊपर से जेतली की रक्षामंत्री वाली स्थिति भी कुछ लोगों को अब उतनी अस्थायी नहीं लग रही है. साथ ही उनके दूसरे और मुख्य मंत्रालय, वित्त मंत्रालय के ऊपर इस घोर आर्थिक अराजकता वाले समय में समय-समय पर कुछ न कुछ करते रहने की जिम्मेदारी भी है. इसके चलते चर्चाओं में बने रहना जेतली की नियति है. जेतली को जो एक और बात मोदी के लिए महत्वपूर्ण बना देती है वह है उनका दिल्ली के उस विशिष्ट तबके से होना जिससे खुद के बाहर होने की बात खुद नरेंद्र मोदी 15 अगस्त को लाल किले से कह चुके हैं.

सरकार बनने के कुछ समय बाद राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष नहीं रहे. उनका मंत्रालय भी अपेक्षाकृत उतनी चर्चाओं में नहीं था. राज्यपालों के मसले पर तमाम धक्का-मुक्की ने भी अपना असर डाला और धीरे-धीरे उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही. ऊपर से प्रधानमंत्री ने भी स्थिति को स्पष्ट नहीं किया, जोकि उनकी अनुपस्थिति में कैबिनेट की अध्यक्षता कौन करेगा इस पर स्थिति साफ करके, किया जा सकता था (हालांकि अब ऐसा हो गया है). अब अगर कोई यह कहे कि पंकज-राजनाथ विवाद या इसकी ‘अफवाह’ इसी नंबर-2 के सत्ता संघर्ष की उपज है तो उसको ऐसा कहने से कैसे रोका जा सकता है!

विवाद से जुड़ा तीसरा और शायद सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि कुछ लोग इसे मोदी की संपूर्ण नियंत्रण रखने वाली छवि के संदर्भ में भी देख रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से जितनी भी चर्चाएं बाजार में हैं उनके केंद्र में मोदी की हर चीज पर नजर और नियंत्रण रखनेवाली छवि भी है. एक अफवाह के मुताबिक प्रधानमंत्री ने अपने एक मंत्री को हवाई अड्डे से फोन कर उन्हें दूसरे कपड़े पहनने का आदेश दे डाला. दूसरी के मुताबिक उन्होंने अपने एक अन्य मंत्री को किसी बड़े उद्योगपति के साथ रात्रिभोजन के दौरान फोनकर इसके लिए फटकार लगाई. एक अन्य जानकार की मानें तो उन्हें भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने यह बताया कि उनकी पार्टी के नेताओं के मंत्रियों के लिए आधी बांह का कुर्ता पहनना वर्जित है क्योंकि मोदी ऐसा कुर्ता पहनते हैं. और फिर यह पंकज-राजनाथ विवादवाली ‘अफवाह’ तो है ही.

गुजरात में उनके कार्यकाल के वक्त की और भाजपा में प्रधानमंत्री बनने के बाद की अनगिनत अखबारी रपटों को इन अफवाहों के साथ रखकर देखें तो मोदी की यह ‘हरेक पर नजर और नियंत्रण’ वाली छवि कइयों को सच लग सकती है. इस छवि में इजाफा करने का काम हाल ही में अपने मंत्रियों-सांसदों की क्लास सी लेने वाली नरेंद्र मोदी की तस्वीर भी कर देती है और मंत्रियों और नेताओं को मीडिया से दूर रहने की उनकी और पार्टी की हिदायत भी.

इन अफवाहों में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना की उड़ान, यह तो इनसे पास-दूर से जुड़े लोग ही जानें, लेकिन इनके उड़ने का फायदा बाहरी और अंदरूनी दोनों तरह के मोदी विरोधी खेमों को तो मिल ही सकता है. बाहरी खेमे को ये अफवाहें चुनाव के दौरान उन्हें तानाशाह प्रचारित कर फायदा उठाने के मौके देती हैं तो दूसरे को इसके बाद की स्थिति का फायदा उठा सकने के.

हां, इसे देखने का एक और महत्वपूर्ण नजरिया यह भी है कि सरकार और उसकी तरफ से मीडिया और जनता को जानकारियां मिलना पिछले कुछ समय से न के बराबर हो गया है. जो जानकारियां मिलती भी हैं वे एकतरफा और सूखी सी होती हैं. इसके कुछ फायदे भी हैं जैसे कि सरकार को कोई बात जनता तक पहुंचानी हो तो उसका सुर एक होता है और वह वक्त से पहले, अधपकी अवस्था में बाहर भी नहीं निकलती है. लेकिन यदि मोदी सरकार, जैसाकि भाजपा के नेता-प्रवक्ता दावा करते हैं, पूरे तन-मन-धन से जन-सेवा के उपायों में लगी है, तो यही संपूर्ण चुप्पी वाली व्यवस्था तमाम भ्रामक मान्यताओं को भी जन्म दे सकती है.

एक राज्य की सरकार में इस व्यवस्था के कुछ फायदे हो सकते हैं.. लेकिन हर वक्त और हर जगह वाले मीडिया और ऐसी ही जनता की नजरों मे रहने वाली केंद्र सरकार के लिए ऐसा करते चले जाना मुमकिन और मुनासिब नहीं है. दिल्ली में खबरें न देने का मतलब खबरें न छपना नहीं है.

बेबाक ‘उग्र’ का रचना संसार

पुस्तक ः उग्र संचयन संपादन ः राजशेखर व्यास मूल्य ः 400 रुपये प्रकाशन ः ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तक ः उग्र संचयन संपादन ः राजशेखर व्यास मूल्य ः 400 रुपये प्रकाशन ः ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तकः उग्र संचयन संपादन ः राजशेखर व्यास  मूल्यः 400 रुपये  प्रकाशन ः ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तक:  उग्र संचयन
संपादन: राजशेखर व्यास
मूल्य: 400 रुपये
प्रकाशन:  ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली

हिंदी साहित्य में रुचि रखने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ से न परिचित हो. उनकी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ को भला कौन भूल सकता है! वह एक अनूठी आत्मकथा है जहां ‘उग्र’ पूरी अलमस्त फकीरी के साथ समाज की तहों को खोलते हैं. इस तरह वे उनमें छुपी दुर्बलताओं, दोषों को निहायत अक्खड़पन से उजागर करते हैं. ‘अपनी खबर’ अपनी तरह की पहली रचना है जहां लेखक खुद की भी हजार बुराइयों को साहस के साथ स्वीकारता और प्रायश्चित करता नजर आता है. ऐसा नहीं है कि ‘उग्र’ ने ‘अपनी खबर’ के अलावा कुछ नहीं लिखा. उन्होंने तो अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं कीं लेकिन विडंबना ही है कि उनकी पहचान उनकी आत्मकथा तक सिमट कर रह गई है.

इस बीच साहित्यकार राजशेखर व्यास के संपादन में ‘उग्र संचयन’ शीर्षक से ज्ञानपीठ प्रकाशन ने उनकी तमाम रचनाओं को एकसाथ पेश किया है. इस संग्रह में पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का संतुलित व्यक्तित्व देखने को मिलता है. दस खंडों में विभक्त इस पुस्तक में ‘उग्र’ की सम्पूर्ण रचनाधर्मिता का अनूठा संगम नजर आता है. उग्र कथा, उग्र निबंध, उग्र रिपोर्ताज, उग्र लघुकथा, उग्र भूमिका, पत्र, अपनी नजर में उग्र, उग्र विश्लेषण, उग्र साहित्य के सम्पूर्ण पक्षों को अपने गंभीर संपादन में राजशेखर व्यास ने एक जगह लाने का अद्भुत कार्य किया है जो ‘उग्र’ को समग्रता में जान पाने के लिए सहायक है. चार सौ पृष्ठों की यह वृहद् पुस्तक एक साथ हमें ‘उग्र’ के विशाल रचना-संसार को समझ पाने में सहायता करती है. इस पुस्तक में ‘उग्र’ को लिखे तमाम प्रसिद्ध व्यक्तियों के पत्र हैं जिनमें समूचा जीवन दर्शन और अपने वक्त की झांकी नजर आती है.

‘उग्र’ की रचनाधर्मिता, उनके सरोकार उन्हें हिंदी-संसार में विशिष्ट बनाते हैं. तथाकथित सभ्य समाज के भीतर व्याप्त स्याह अंधेरों का ‘उग्र’ ने पर्दाफाश किया, उन्हें बेनकाब किया और समाज को सचेत किया! इसके लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी अपने जीवनकाल में ही, पर वे निरंतर अडिग साधनारत रहे, उन्होंने किसी की परवाह नहीं की! ‘उग्र संचयन’ को पढ़ते हुए चकित होना पड़ता है ऐसे विरल फक्कड़ कबीरी की धुन में मगन शब्दशिल्पी के जीवन के अनगिन अनछुए प्रसंगों पर. ‘उग्र’ जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाकार के सम्पूर्ण लेखन का विस्तृत कैनवास है यह किताब. प्रत्येक साहित्य-प्रेमी पाठक के लिए संग्रहणीय!

कभी मिले तो पूछिएगा !

tehelka-fulka-rain-rain
मनीषा यादव

अभी मैं लिखने बैठा ही था कि अचानक अंधेरा छा गया. कुछ नजर नहीं आता था. जबकि लाइट आ रही थी. आंखों को कई बार भींचा. ट्यूब लाइट की तरह लपलपाया. मगर कोई फायदा नहीं. तभी किसी ने मेरा हाथ पकड़ा. मैं कांप गया. ‘डरो नहीं! अराम से बैठो यहां!’ एक आवाज गूंजी. आवाज एक महिला की थी. ‘तुम कौन हो!’ ‘…मैं बरसात हूं..’ ‘बरसात!’ बरबस मेरे मुंह से निकल पड़ा. ‘हां, बरसात…’ ‘मगर यहां कैसे!’ ‘मैं अपना दर्द तुम से बांटने आई हूं. ‘तुम्हें कैसा दर्द?’ मैंने पूछा. ‘हूंऽऽऽ यही तो!’ ‘बताओ तो सही!’ ‘सबसे ज्यादा भला-बुरा मुझे ही सुनना पड़ता है.’ ‘नेताओं से भी ज्यादा!’ ‘हां नेताओं से भी ज्यादा!’ ‘नेता तो हर दिन कोसे जाते है. तुम्हारे साथ भी ऐसा है क्या!’ ‘सही कह रहे हो. मगर मेरा दर्द उनसे बढ़ कर है.’ यह कहते हुए उसकी आंखे नम हो गईं. ‘वह कैसे भला!’ ‘उनसे कोई उम्मीद नहीं करता और मुझसे सब उम्मीद लगाए रहते हैं.’ ‘यह तो अच्छी बात है!’ ‘यही तो सबसे बड़ी मुसीबत है!’ ‘मैं समझा नहीं!’ ‘समझना चाहते हो!’ ‘हां क्यों नहीं! आखिर कुछ सोचकर ही आई होगी यहां.’ ‘तो चलो मेरे साथ!’

मैं और बरसात; अब दोनों साथ-साथ चलने लगे. हम दोनों जहां से गुजरते जाम लगता जाता. राहगीरों की झुंझलाहट. उनके तीखे स्वर. परस्पर होड़ लेती हार्न की आवाजें. ‘देख रहे हो मंजर-ए-आम!’ ‘हां…’ ‘वो तो आजकल मेरी तबीयत खराब चल रही है.’ ‘क्या हुआ है तुम्हें!’ मैंने सहानुभूति दिखाई. ‘अलनीनो!’ वह बोली. ‘अलनीनो! ये कैसा रोग! ‘अरे मुआ बड़ा जबदस्त रोग है अलनीनो! देखो, सूख के कांटा हो गई हूं…’ ‘वह तो मैं देख ही रहा हूं…’ ‘और देखो यहां, तब यह हाल है!’ यह सुनकर मुझ पर घड़ो पानी पड़ गया.

बहरहाल, हम दोनों फिर निकल पड़े थे. आवारा बादलों की मानिंद. थोड़ी दूर उड़ने के बाद उसने एक ऊंची बिल्डिंग के पास रुकने को कहा. और देखते ही देखते वह उसमें समा गई. जाते वक्त उसने कहा था कि थोड़ा रुक कर मेरे पीछे आना. मैंने वैसे ही किया. ‘बादल बहुत लकी है! सही समय पर निकल गया!’ ‘ये साली बरसात रुके तो हम भी निकलंे!’ ‘इसे भी अभी आना था!’ थोड़ी देर बाद ही वह वहां से निकल आई और उसके पीछे-पीछे मैं भी. वह बोली, ‘समय क्या हुआ है?’ ‘साढ़े पांच!’ वह मुस्कुरायी और मैं झेंपा. मैं यह कतई नहीं बताऊंगा कि अभी कुछ देर पहले जहां हम दोनों गए थे, वह एक सरकारी कार्यालय था.

हम आगे बढ़े. वह बोली, ‘चलो एक चीज दिखाती हूं!’ उसने इशारा किया और मैंने मोटरसाइकिल उस ओर मोड़ दी. अब हम हाल ही में बनी एक सड़क के ऊपर थे. उस सड़क का नाम एक साहित्यकार के नाम पर रखा गया था. इससे पहले कि मैं कुछ पूछता वह बोली, ‘चुपचाप देखते जाओ!’ वह सड़क के जैसे गले मिली. नवनिर्मित सड़क बोली, ‘मैं नीर भरी दुख की बदली/ उमड़ी कल थी मिट आज चली’ माहौल काफी भावुक हो गया था. बरसात को मैंने वहां से चलने के लिए इशारा किया. वहां से निकलते वक्त मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मुड़कर उस सड़क को दोबारा देख लूं.

हम दोनों काफी देर तक बेसबब इधर-उधर घूमते रहे. मैं अब उकता चुका था. मैंने उसे वापस घर चलने को कहा. उसने अपनी सहमति सहर्ष दे दी. मैं गाड़ी मोड़ने लगा. वह बोली, ‘उधर से चलो न!’ ‘नहीं उधर से नहीं, इधर से ही चलते है!’ ‘क्या दिक्कत है! उधर से ही चलो!’ ‘तुम जानती नहीं बहुत कूड़ा है उधर! बरसात के महीने में बहुत बदबू आती है!’ मेरे यह कहते ही वह गायब हो गई. जैसे आई थी वैसे ही चली गई. अचानक!

इस समय बरसात हो रही है. मगर कह नहीं सकता कि वह बरस रही है या रो रही है! कभी आप को मिले तो पूछिएगा!

एक दृष्टिविहीन आयोजन

book-review
पुस्तक : हिंदी कहानी का युवा परिदृश्य
संपादक:  सुशील सिद्धार्थ
मूल्य : 1400 रुपये (तीन खंड)
प्रकाशन : सामयिक प्रकाशन

हिंदी कहानी के हालिया इतिहास को देखें तो लगभग हर दस साल पर कहानीकारों की एक नई पीढ़ी दस्तक देती रही है. हर पीढ़ी के रचनाकारों को उनके दशक या कहानी की किसी धारा के साथ जोड़कर पहचाना गया. ऐसा पहली बार हुआ कि सन 2000 के बाद बड़ी संख्या में सक्रिय हुए रचनाकारों को ‘नई पीढ़ी’ और उनकी कहानियों को ‘युवा कहानी’ जैसा बेतुका नाम दे दिया गया. इस नई पीढ़ी को कहानियां लिखते हुए लगभग डेढ़ दशक हो चुके हैं. बावजूद इसके वे अब भी युवा हैं. हिंदी कहानी के इतिहास में ‘युवा कहानी’ एक ऐसी परिघटना है जिसमें कोई भी युवा कभी भी शामिल होकर युवा परिदृश्य का विस्तार कर सकता है. भले ही प्रारंभिक युवा कहानीकार और शामिल नए युवा कहानीकार के बीच रचनाशीलता और उम्र की दृष्टि से दो दशक का ही फर्क क्यों न हो. ऐसा प्रतीत होता है कि ‘युवा कहानी’ के साथ ही हिंदी कहानी के इतिहास का अंत हो चुका है. यह हमारे संपादकों, समीक्षकों और आलोचकों की दृष्टिविहीनता का ज्वलंत उदाहरण है जो दो-दो दशक के अंतर के बावजूद सबको एक साथ समेटकर युवा परिदृश्य का निर्माण कर रहे हैं. सुशील सिद्धार्थ द्वारा तीन खंडों में संपादित ‘हिंदी कहानी का युवा परिदृश्य’ एक ऐसा ही दृष्टिविहीन आयोजन है. इसमें कुल सत्ताइस रचनाकारों की एक-एक कहानी और उनके वक्तव्य को शामिल किया गया है. प्रत्येक खंड में नौ-नौ रचनाकार हैं. इन रचनाकारों में सबसे वरिष्ठ युवा कहानीकार शरद सिंह (51) हैं तो सबसे कनिष्ठ युवा कहानीकार सोनाली सिंह (32) हैं. संपादक के इस युवा परिदृश्य में चौदह स्त्रियां हैं और तेरह पुरुष. सबसे आश्चर्य तो यह है कि यहां इतिहास बनाने वाले युवा कहानीकारों की श्रेणी में जयंती रंगनाथन, हुस्न तबस्सुम निहां, गीताश्री, सोनाली सिंह, ज्योति चावला आदि तो शामिल हैं लेकिन कुणाल सिंह, मो. आरिफ, गीत चतुर्वेदी, मनोज कुमार पांडेय, अनिल यादव, राजीव कुमार, सूर्यनाथ सिंह, प्रेम भारद्वाज आदि जैसे कहानीकार शामिल नहीं हैं. राजीव कुमार और मनोज कुमार पांडेय से तो वक्तव्य मंगवाकर भी इन्हें शामिल नहीं किया गया. उम्र, रचनाकाल का आरंभ, प्रकाशन, प्रतिनिधित्व, आदि जैसा एक भी वस्तुनिष्ठ आधार नहीं है जो इस संकलन में कहानीकारों के शामिल किए जाने और न किए जाने के औचित्य को सिद्ध कर सके. यह संकलन निजी रुचि-अरुचि और राग-द्वेष पर आधारित एक असफल प्रयास है.

सबसे हैरतअंगेज बात तो यह है कि इन तीनों खंडों के लिए एक ही भूमिका से काम चलाया गया है. संपादक का कहना है कि पूरी पुस्तक एक है, खंड विभाजन प्रकाशन की सुविधा के लिए किया गया है. इस संपादकीय उदारता का कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता जो पंकज मित्र और जयश्री रॉय की रचनाशीलता को एक ही परिप्रेक्ष्य से देखने की वकालत करती हो और वंदना राग की ‘यूटोपिया’ और गीताश्री की ‘बनाना नाइट’ को एक ही तराजू में तौलती है. सुशील सिद्धार्थ से यह स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे अपने चयन के औचित्य को सही ठहराते हुए एक गंभीर भूमिका लिखते और देश की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में इन सत्ताइस कहानीकारों की समान प्रवृतियों के रेखांकन के साथ-साथ प्रत्येक की अपनी विशेषता को विस्तार से उजागर करते जिसके कारण वे उन्हें हिंदी कहानी में महत्वपूर्ण मानते हैं. इसके अभाव में इस संकलन का कोई महत्व नहीं है. ऐसे संकलन का महत्व तब होता जब इसमें शामिल कहानीकारों के संग्रह नहीं आए होते और उनकी शुरुआती तीन-चार कहानियों के आधार पर हिंदी की साहित्यिक दुनिया से उनका परिचय कराया जाता. स्थापित हो चुके कहानीकारों के साथ युवा परिदृश्य के नाम पर कुछ औसत दर्जे के कहानीकारों को शामिल कर उन पर ध्यान आकर्षित करवाने की जगह अगर सुशील सिद्धार्थ पिछले दो दशक की सर्वश्रेष्ठ कहानियों का चयन करके उन पर बेहतरीन आलोचना के साथ एक संकलन तैयार करते तो अधिक मूल्यवान काम होता. यह संकलन तो अच्छे के साथ खराब की मिलावट करके बाजार में बेचने का उपक्रम मात्र है. वैसे तो तीनों खंडों में मिलावट है, पर तुलनात्मक दृष्टि से पहला खंड सबसे बेहतर है और तीसरा खंड सबसे खराब.

संकलन में सभी कहानियां पुरानी है इसलिए उन पर अलग से बात करने का कोई मतलब नहीं है. इनके वक्तव्यों पर जरूर बात हो सकती है. इस अधूरे संकलन के बावजूद यह तो निष्कर्ष निकाला ही जा सकता है कि हिंदी कहानी के इतिहास में यह शायद पहली बार है जब इतनी अधिक स्त्रियां सक्रिय हुई हैं. यह आने वाले समय में हिंदी की साहित्यिक दुनिया में पुरुष वर्चस्व की समाप्ति का मजबूत संकेत है. इसके साथ-साथ एक और बात गौर करने लायक है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह आदि जैसी इस पीढ़ी की स्थापित और सशक्त स्त्री रचनाकारों ने हिंदी में प्रचलित स्त्री विमर्श से अपने को अलगाया है. इससे यह संकेत स्पष्ट है कि रचनाशीलता के संदर्भ में अब स्त्री विमर्श बहुत दूर तक जाने वाला नहीं है. निकट भविष्य में इसकी विदाई तय है. ऐसे कुछ सकारात्मक संकेतों के अतिरिक्त इन सत्ताइस रचनाकारों के वक्तव्यों को पढ़ने से कुछ बेचैन कर देने वाले तथ्य भी सामने आते हैं. कुछ को छोड़कर अधिकांश के लिखने के पीछे कोई सामाजिक-राजनीतिक कारण या प्रतिबद्धता नहीं है. अधिकांश रचनाकारों ने अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के दाय को स्वीकार करने से इंकार किया है. इनके आत्ममुग्ध वक्तव्यों से लगता है कि हिंदी कहानी की परंपरा इन्हीं से शुरू हो रही है. एक ऐसे समय में जब बाजार निर्मम और क्रूर हो चुका है किसान आत्महत्या कर रहे हैं, आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं, भ्रष्टाचार चरम पर है, आम आदमी का जीना दूभर है, स्त्रियां असुरक्षित हैं, तब एक सरोकारविहीन, गैरप्रतिबद्ध और अराजनीतिक युवा परिदृश्य से कभी-कभी डर लगने लगता है.

खत्म ही नहीं होती गलतफहमियों की फेहरिस्त’

Gyanयहां हम स्वास्थ तथा विभिन्न बीमारियों को लेकर फैली आम गलतफहमियों की चर्चा कर रहे हैं. तो कुछ और ऐसी ही गलतफहमियों की चर्चा हो जाए.

1. एंटीबायटिक्स ‘गरम’ करती हैं :

कोई इंफेक्शन हो जाए तो डॉक्टरों के हाथ में ‘एंटीबायटिक्स’ नाम का एक बड़ा कारगर हथियार है. वह निमोनिया, टायफायड, टीबी आदि हजारों बीमारियों का इलाज उचित एंटीबायटिक देकर करता है. और हम क्या करते हैं?

– हम यह मानते हैं कि एंटीबायटिक्स बड़ी ‘गरम’ दवाइयां हैं. डॉक्टर ने चार गोलियां लेने को लिखा है, हम दो ही लेते हैं. मानते हैं कि चार की जगह दो भी लेंगे तो थोड़ा कम ही सही पर काम तो करेंगी ही, गरमी भी कम होगी. ऐसा नहीं है.

हर एंटीबायटिक का एक तय ‘डोज’ होता है. जब तक रक्त में दवा का वह लेवल न पहुंचे यानी कि ‘मारक लेवल’ न बने, दवा बैक्टीरिया को नहीं मार पाती. इसी कारण एंटीबायटिक्स की उतनी ही गोलियां  लिखी जाती हैं जितनी रक्त में उसको ‘मारक स्तर’ तक पहुंचा सके. कम गोली खाईं तो असर नहीं होगा.

इसे हम डॉक्टरी भाषा में ‘ऑल ऑर नन’ का खेल कहते हैं. या तो गोली पूरा काम करेगी, या बिल्कुल भी नहीं करेगी. ऐसा कभी नहीं होगा कि हम यदि स्वयं ही डोज कम करके एंटीबायटिक ले लेंगे तो वह थोड़ा ही सही परंतु कुछ न कुछ लाभ तो जरूर पहुंचाएगी. समझ लें और याद रखें कि एंटीबायटिक्स उसी डोज में लें, जिसमें डॉक्टर द्वारा बताई गई हो. वरना, लेना, न लेना बराबर.

– इसी सिद्धांत पर चलकर हम एंटीबायटिक्स उसी दिन बंद कर डालते हैं, जिस दिन बुखार उतरा या जो तकलीफ थी, वह कम हुई. यह तो और भी खतरनाक बात है. हम बैक्टीरिया को अधमरा छोड़े दे रहे हैं. उसकी आधी-पौनी फौज को ही मार के हमने अपने एंटीबायटिक के हथियार वापस धर दिए. तो जो दुश्मन जीवित बचे, वे अब नई तैयारी से, प्रतिरोध (एंटीबायटिक रेजिस्टेंस) के रक्षा कवच पहन कर वापस आक्रमण करेंगे. कुछ समय बाद आपको फिर तकलीफ होगी और तब ये ही एंटीबायटिक आप पर काम नहीं करेगी. याद रहे कि हर इंफेक्शन में दवाएं देने की समय अवधि अलग-अलग होती है. इस मामले में खुद का दिमाग न चलाएं. डॉक्टर की मानें.

– यह भी याद रहे कि एंटीबायटिक मात्र एक हथियार है. उसे चलाने वाला आपका शरीर है. शरीर की प्रतिरोधी शक्तियां यदि पहले ही बुढ़ापे, मधुमेह, एड्स, कुपोषण आदि के कारण कमजोर होंगी, तब एंटीबायटिक्स भी प्रभावी सिद्ध नहीं होंगी. हमें दवा की यह सीमा समझनी ही चाहिए और उचित खान-पान, व्यायाम आदि द्वारा शरीर मजबूत रखने की कोशिश करनी चाहिए.

2. कि हमारी तो सारी जांचें ठीक निकली हैं सो अब हमें कुछ भी नहीं हो सकता :

बहुत से मरीज अपनी जांच रिपोर्टों को गर्व से तमगे की भांति लिए घूमते हैं. उन्हें तब बड़ा धक्का पहुंचता है जब ‘सब ठीक’  रहते हुए भी किसी बड़ी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. तब उन्हें जांच रिपोर्टों की सत्यता पर भी शक होता है. इतनी बढ़िया रिपोर्टें थीं, फिर कैसे? वे पूछते हैं.

याद रखें कि हर जांच रिपोर्ट की सेंसिटिविटी तथा स्पेसिफिसिटी होती है. कोई भी जांच सौ प्रतिशत पूरी नहीं होती. इसे मरीज के हाल से जोड़कर ही समझा जाता है. उदाहरण के लिए जिस टीएमटी जांच के ठीक निकल आने पर हम खुश होकर सोचते हैं कि इसका मतलब है कि हमारा दिल एकदम बढ़िया है, उसकी भी अपनी सीमा है. मान लें कि यदि दिल की एक ही नली बंद हो रही हो तो हार्ट अटैक तो आगे पीछे आएगा पर टीएमटी की जांच लगभग साठ प्रतिशत ऐसे केसों में ठीक ही बताती रहेगी. मेरी अपनी प्रैक्टिस में मैंने ऐसा देखा है कि जिसका टीएमटी मैंने पंद्रह दिन पूर्व नार्मल (निगेटिव) बताया था, वही हार्ट अटैक से भर्ती हो गया. ऐसे लोग यही शिकायत करते हैं कि जब जांच में सब ठीक था तो फिर ऐसा कैसे हुआ? जवाब यह कि कोई भी जांच प्राय: सौ प्रतिशत सेंसिटिव नहीं होती. ईसीजी की जांच नार्मल बताकर इमर्जेंसी से घर वापस भेज दिया था पर दो घंटे बाद ही हार्ट अटैक हो गया क्योंकि शायद डॉक्टर को भी यह सीमा नहीं पता थी कि ईसीजी लगभग 40 प्रतिशत केस में शुरू में नार्मल हो सकता है.

‘हमें दवा की सीमा समझनी चाहिए और उचित खान-पान, व्यायाम आदि द्वारा शरीर मजबूत रखने की कोशिश करनी चाहिए’

फिर तो मर गए सा’ब? जब जांच पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता तो आदमी कहां जाएं? इसका उत्तर यही है कि हर जांच डॉक्टर को निर्णय लेने में सहायता के लिए बनी है. एक अच्छा डॉक्टर कभी भी रिपोर्ट का इलाज नहीं करता है. वह हर जांच को मरीज की बीमारी से जोड़कर ही फिर तय करता है कि जांच रिपोर्ट को कितना महत्व दिया जाए. एक अच्छा डॉक्टर रिपोर्टों की सीमा को समझता है. सो हर रिपोर्ट उसी को समझने दें. स्वयं रिपोर्ट पढ़कर अपने नतीजे न निकालें.

कई मरीज यही कहते हैं कि हमारी हर संभव जांच करा दें क्योंकि ‘आई वॉन्ट टू बी श्योर.’ आप कभी, किसी जांच के बाद भी ऐसा श्योर नहीं हो सकते. भ्रम में न रहें. ऐसी कोई मशीन अभी तक नहीं बनी है जिसमें से शरीर को गुजार दें तो दूसरी तरफ से अदालत का प्रभावीकृत शपथपत्र निकल आए जो बता दे कि आप एकदम ठीक हैं. रिपोर्ट सही आने पर ये मीठे भ्रम न पाल बैठें. यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करे.

3. कि पीलिया के मरीज को हल्दी तथा अन्य मसाले नहीं खाने देना चाहिए :

बीमारी में क्या खाएं क्या न खाएं- इस पर बहुत बहस होती है और गलतफहमियां तो इतनी कि क्या कहें. कुछ खाने गरम होते हैं, कुछ ठंडे. ऐसा भी सोचा जाता है. दूध लेने से कफ बढ़ जाएगा, यह भी माना जाता है. जितनी गलतफहमियां भोजन को लेकर हैं, उतनी किसी को लेकर नहीं. पीलिया के मरीज को केवल उबला खाना ही दिया जाए क्योंकि मसाले, तेल, हल्दी देने से बीमारी बढ़ सकती है. पर वास्तविकता क्या है? क्या यह अवधारणा सही है या मात्र एक और गलतफहमी?

मेरा मत है कि अगली बार का पूरा कॉलम ही विभिन्न बीमारियों में खान-पान को लेकर लिखूं. उसी में पीलिया की चर्चा भी कर ली जाएगी. क्या कहते

हैं आप?

आंकड़ों की खेती सवालों की फसल!

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मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किसानों की बर्बाद फसल का जायजा लेते हुए.

पिछले तीन सालों के दौरान देश के कृषि मानचित्र में मध्य प्रदेश का तेजी से उभार हुआ है. ‘बीमारू’ की श्रेणी में आनेवाला यह राज्य देश में सबसे अधिक कृषि विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है. राज्य की कृषि विकास दर वित्त वर्ष 2011-12 में 18.90  फीसदी और वित्त वर्ष 2012-13 में 20.44 फीसदी रही. इस विकास दर को देखते हुए मध्य प्रदेश को लगातार दो बार केंद्र सरकार का कृषि कर्मठ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. इन दो सालों में प्रदेश का मौसम तो औसत रहा लेकिन कृषि उत्पादन लगातार बढ़ता रहा.

यहां तक सबकुछ ठीक चल रहा था किंतु वित्त वर्ष 2013-14 में इंद्रदेव देश के इस हृदयस्थल पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए. जून से शुरू हुआ बारिश का सिलसिला इस साल फरवरी तक चलता रहा. पिछली बार राज्य में जून से सितंबर के दौरान ही सामान्य से तकरीबन 18 फीसदी ज्यादा बारिश हुई. उसके बाद आगे चार महीने बारिश होती रही. इतना ही नहीं फरवरी, 2014 के दौरान तो अतिवृष्टि के साथ ही ओलावृष्टि भी हुई. इस भारी बारिश और ओलावृष्टि के चलते राज्य में खरीफ (जिन फसलों की बुवाई मॉनसून में होती है) और रबी (ठंड के मौसम में बोई जानेवाली फसलें) दोनों सीजन की फसलों को भारी नुकसान हुआ. राज्य सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार खरीफ में 28 जिलों और रबी में सभी 51 जिलों में फसलों को नुकसान हुआ. इन स्थितियों के बाद भी चमत्कार यह कि राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश की कृषि और उससे संबंधित पशुपालन क्षेत्र की विकास दर 24.99 फीसदी तक पहुंच गई. इसमें से यदि पशुपालन को हटा दिया जाए तो केवल कृषि क्षेत्र की विकास दर 24 फीसदी होती है. यानी लगातार तीसरे साल कृषि विकास दर में बढोत्तरी. और वह भी बीते साल की तुलना में साढ़े तीन फीसदी ज्यादा !

राज्य सरकार के इन आंकड़ों ने सभी को चौंका दिया है. खुद किसानों से लेकर विशेषज्ञ तक इस नतीजे पर हैरानी जता रहे हैं. इस संदेह का कारण खुद सरकार द्वारा दिए आंकड़ों का विरोधाभास है. इनके हिसाब से दोनों सीजनों में फसलों को भारी नुकसान तो हुआ लेकिन कुल उत्पादन पिछले सालों की तुलना में बढ़ गया है. तो क्या ये दोनों स्थितियां एक साथ संभव हैं? राज्य सरकार तो इस सवाल पर पहले ही अपना पक्ष साफ कर चुकी है लेकिन विशेषज्ञों से बातचीत और उत्पादन-नुकसान के आंकड़ों का हमारा आकलन इस संभावना पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है.

चूंकि यहां सारे दावे और उनपर सवाल आंकड़ों पर आधारित हैं तो पहले इन्हीं को अलग-अलग कर देखते हैं. पहले खरीफ की फसल की बात करते हैं. मध्य प्रदेश में इस सीजन की मुख्य फसलें, सोयाबीन, धान, ज्वार और मक्का हैं. बीते खरीफ के सीजन में हुई भारी बारिश से सभी मुख्य फसलों को भारी नुकसान हुआ. सोयाबीन का रकबा अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा होता है और इसकी फसल ही सबसे ज्यादा बर्बाद हुई. प्रदेश के 28 जिलों में 9.24 लाख हेक्टेयर में फसलों को नुकसान हुआ. इसमें 5.62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ऐसा रहा जहां पर फसलों का नुकसान 50  फीसदी से अधिक था. राज्य सरकार ने खरीफ सीजन में फसलों के नुकसान का जो आकलन किया है वह 4,640 करोड़ रुपये का है. राज्य सरकार भी उत्पादन आंकड़ों के आधार पर इसे स्वीकार करती है. वर्ष 2012 में खरीफ का कुल कृषि उत्पादन करीब 165  लाख टन था, जो वर्ष 2013 में घटकर 128 लाख टन रह गया. हालांकि कुल बुआई क्षेत्रफल वर्ष 2012 के 119.40 लाख हेक्टेयर की तुलना में वर्ष 2013 में बढ़कर 124 लाख हेक्टेयर हो गया था.

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gaurishankar_bisen-BK2013-14 में दोनों सीजन की फसलों को काफी नुकसान हुआ लेकिन मुख्य फसल के स्थान पर दूसरी फसलों की उपज बढ़ने से नुकसान की भरपाई हो गई’

गौरीशंकर बिसेन कृषि मंत्री, मप्र

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जैसा हमने पहले बताया है कि राज्य सरकार खरीफ सीजन में तो नुकसान स्वीकार कर रही है. लेकिन रबी सीजन के उत्पादन में वह काफी बढ़ोतरी दिखा रही है. जबकि इस सीजन में बारिश और ओलावृष्टि से खरीफ की तुलना में ज्यादा क्षेत्रफल में नुकसान हुआ था. अब यदि हम बुवाई क्षेत्रफल और उत्पादकता के सरकारी आंकड़ों को आधार मानें तो इससे भी साबित हो जाता है कि उत्पादन सरकारी अनुमान से काफी कम है. रबी सीजन में बारिश और ओलावृष्टि से नुकसान के बारे में सरकार कहती है कि कुल 37 लाख हेक्टेयर में नुकसान हुआ है. इसमें से करीब 11 लाख हेक्टेयर ऐसा क्षेत्र है जहां पर फसल का नुकसान पचास फीसदी से ज्यादा है. सरकारी प्रावधानों के मुताबिक यदि फसल का नुकसान 30 फीसदी से अधिक होता है तभी सरकार उसे नुकसान मानती है और उसका मुआवजा तय करती है. इस आधार पर माना जा सकता है कि 26 लाख हेक्टेयर में नुकसान कम से कम 30 फीसदी हुआ होगा और 11 लाख हेक्टेयर में कम से कम 50 फीसदी. रबी सीजन का कुल बुवाई क्षेत्रफल 112 लाख हेक्टेयर है. इसमें से 37 लाख हेक्टेयर को हटा दिया जाए तो करीब 75 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं हुआ. मध्य प्रदेश में रबी की उत्पादकता लगभग 2.10 टन प्रति हेक्टेयर बताई गई है. इस तरह से 75 लाख हेक्टेयर में कुल उत्पादन करीब 157.50 लाख टन हुआ. नुकसान वाले 26 लाख हेक्टेयर में उत्पादन 38 लाख टन और शेष 11 लाख हेक्टेयर में तकरीबन 11.50 लाख टन होना चाहिए.  इस तरह से 2013 की रबी फसल का कुल उत्पादन करीब 207  लाख टन होता है. हमारा अनुमान नुकसान के न्यूनतम आकलन पर आधारित है जबकि राज्य सरकार उत्पादन 238 लाख टन बता रही है. यहां उत्पादन में लगभग 31 लाख टन की बढ़ोतरी मामूली नहीं मानी जा सकती. एक  कृषि विशेषज्ञ नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘ खरीफ सीजन में उत्पादन में कमी खुद सरकार स्वीकार कर रही है. दूसरी ओर यदि रबी उत्पादन के आंकड़ों को सही भी मान लें तब भी विकास दर में 24 फीसदी की बढ़ोत्तरी संभव नहीं है. वैसे भी रबी में ज्यादा उत्पादन की बात को सही नहीं माना जा सकता’  वित्त वर्ष 2012-13 में जब औसत मौसम था तब रबी का कुल उत्पादन 221.15 लाख टन हुआ था, जो वित्त वर्ष 2013-14 में खराब मौसम के बावजूद बढ़कर 238 लाख टन हो गया. इस सीजन की सबसे प्रमुख फसल गेहूं होती है, जिसका उत्पादन 161 लाख टन से बढ़कर 178 लाख टन हो गया है.  इन आंकडों पर कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘ जो भी आंकड़े राज्य सरकार ने प्रस्तुत किए हैं  उन पर पूरी तरह विश्वास करना मुश्किल है. उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी हो रही होती तो दोनों ही स्थितियां एक साथ संभव थीं पर ऐसा नहीं हुआ.’

मध्य प्रदेश की कृषि विकास दर में सबसे ज्यादा योगदान सोयाबीन और गेहूं का होता है. सरकार के दावे को आधार बनाकर इन्हीं दोनों के उत्पादन आंकड़ों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया जा रहा है.

सोयाबीन हुआ तो गया कहां?
मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा सोयाबीन (देश के कुल सोयाबीन उत्पादन में 55 फीसदी योगदान) उत्पादन करनेवाला राज्य है. सबसे ज्यादा सोयाबीन प्रोसेसिंग  प्लांट भी यहीं पर हैं. इसी कारण यहां से सबसे ज्यादा सोयामील (सोयाबीन की खली) का निर्यात भी होता है. सोया उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि राज्य सरकार सोयाबीन उत्पादन के जो आंकड़े प्रस्तुत कर रही है वे जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते. सरकार ने वित्त वर्ष 2013-14 में सोयाबीन का उत्पादन लगभग 47 लाख टन बताया है जो पिछले साल के 83 लाख टन से काफी कम है. लेकिन इस हिसाब से भी प्लांटों के लिए बाजार में सोयाबीन अपेक्षानुसार उपलब्धता नहीं है. इसी का परिणाम है कि इस वर्ष सोयामील निर्यात में भारी गिरावट आई है. सोयाबीन की फसल अक्टूबर से मंडियों में आने लगती है. आंकड़े बताते हैं कि अक्टूबर, 2013 से लेकर जुलाई, 2014 तक सोयामील का निर्यात लगातार कम हुआ है.

पिछले तीन सालों के दौरान मध्य प्रदेश के विभिन्न जिलों में गेहूं की सरकारी खरीद 50 फीसदी से लेकर दोगुना तक बढ़ी और घटी है

इंदौर की सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन (सोपा) के आंकड़ों के अनुसार जुलाई, 2014 के दौरान देश से सोयामील का निर्यात 6,682 टन हुआ है, जबकि जुलाई, 2013 में यह निर्यात 1.07 लाख टन था. इसी तरह अक्टूबर, 2013 से जुलाई, 2014 के दौरान कुल निर्यात 20.58 लाख टन हुआ है जबकि पिछले तेल वर्ष (अक्टूबर, 2012 से सितंबर, 2013 तक) में निर्यात 31.15 लाख टन था. सोपा के प्रवक्ता राजेश अग्रवाल बताते हैं, ‘ निर्यात में जो कमी आई है उसकी मुख्य वजह सोयाबीन की उपलब्धता का अभाव है. बाजार में सरकार के अनुमान के हिसाब से सोयाबीन नहीं है. इसके चलते दाम भी काफी ऊंचे हंै. वास्तविक उत्पादन सरकारी अनुमान से कहीं कम है.’

गेहूं का गोलमाल
राज्य सरकार का दावा है कि गेहूं का उत्पादन वर्ष 2012 के 161.25 लाख टन की तुलना में वर्ष 2013 में 174.78 लाख टन हुआ है. इसके लिए सरकार गेहूं की सरकारी खरीद को आधार बता रही है. उसका कहना है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस साल अधिक उत्पादन की वजह से सरकारी खरीद में बढ़ोत्तरी हुई है. इसके विपरीत जानकारों का कहना है कि राज्य में गेहूं की सरकारी खरीद में एक बड़ा हिस्सा पड़ोसी राज्यों से आई गेहूं का है. असल में मध्य प्रदेश में गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर 150 रुपये प्रति क्विंटल का बोनस होता है इस वजह से अन्य राज्यों के किसानों ने काफी मात्रा में यहां गेहूं बेचा है.  यही वजह है कि गेहूं ‘उत्पादन’ में मध्य प्रदेश भारी बढ़ोतरी दर्ज कर रहा है.

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फोटो: विकास कुमार

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सवाल और भी हैं…

2013-14 का उत्पादन ज्यादा कैसे?
मध्य प्रदेश सरकार के उत्पादन आंकडे़ बताते हैं कि वर्ष 2012-13 में खरीफ का कुल उत्पादन करीब 165  लाख टन और रबी का 221 लाख टन था. इस साल उद्यानिकी में उत्पादन तकरीबन 228 लाख टन रहा. यानी वर्ष 2012-13 में कुल उत्पादन करीब 614 लाख टन है. अब हम यही आंकड़े वर्ष 2013-14 के लिए लेते हैं. इस साल खरीफ का उत्पादन 128 लाख टन, रबी का 238 लाख टन और उद्यानिकी में 234.55 लाख टन का उत्पादन हुआ है. यानी कुल उत्पादन तकरीबन 600.50 लाख टन हुआ. यह पिछले वित्त वर्ष से 14 लाख टन कम है ऐसे में सरकार कृषि वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी का दावा कैसे कर सकती है?

मंडी आवक नकारात्मक
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उत्पादन में बढ़ोत्तरी का दावा मंडियों में आवक से पुष्ट नहीं होता है. वित्त वर्ष 2012-13 में मंडियों की कुल आवक 250.82 लाख टन थी, जो वित्त वर्ष 2013-14 में कम होकर 249.39 रह गई है. हालांकि यह गिरावट मामूली है किन्तु जब उत्पादन में करीब 24 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है तो मंडियों की आवक में गिरावट होने के स्थान पर उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए. इन मंडियों की आवक में वित्त वर्ष 2013-14 का गेहूं उत्पादन शामिल नहीं है, किन्तु वित्त वर्ष 2012-13 का शामिल है. यदि इस साल की आवक को जोड़ा जाए तो यह बढ़ोत्तरी बहुत ही मामूली होगी.

उद्यानिकी में नुकसान फिर भी वृद्धि
बारिश और ओलावृष्टि से दोनों सीजन में अनाजों के साथ ही उद्यानिकी फसलों को भी इससे काफी नुकसान हुआ था. फल, सब्जी और मसाले सभी पर इसका असर पड़ा. उसके बाद भी मध्य प्रदेश सरकार का दावा है कि वर्ष 2013-14 में उद्यानिकी फसलों का उत्पादन बढ़ा है. वर्ष 2013-14  में कुल 14.66 लाख हेक्टेयर में उद्यानिकी फसलों की बुआई हुई, जहां से 234.55 लाख टन का उत्पादन हुआ है. वित्त वर्ष 2012-13 में 14.26 लाख हेक्टेयर में बुआई हुई जहां से 227.71 लाख टन उत्पादन हुआ है. उद्यानिकी फसलों का सबसे ज्यादा उत्पादन मालवा (पश्चिम मध्य प्रदेश) और निमाड़ क्षेत्र (दक्षिण मध्य प्रदेश) में होता है. यहीं पर सेंधवा के एक बड़े किसान समर विजय सिंह कहते है, ‘ निमाड़ में शायद ही कोई ऐसा किसान होगा जिसको बारिश से नुकसान न हुआ हो. मेरी कुल उद्यानिकी फसल का करीब 25-30 फीसदी हिस्सा भारी बारिश की वजह से नष्ट हुआ. सबसे ज्यादा नुकसान टमाटर, संतरा, केला और मिर्च को हुआ है.’  वे आगे बताते हैं कि सरकार ने नुकसान का आकलन तो किया है और मुआवजा भी दिया है किंतु उसका आकलन वास्तविक नुकसान से काफी कम है. यही वजह है कि किसानों को नुकसान के एवज में मुआवजा काफी कम मिला.

हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि हर साल बढ़ कैसे रही है?
मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों से सभी प्रमुख फसलों का बुवाई क्षेत्रफल बढ़ रहा है. इसमें उद्यानिकी फसलें भी शामिल हैं. पिछले पांच सालों के दौरान खाद्यान्नों के बुवाई क्षेत्रफल में करीब 27 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई है. इसी तरह उद्यानिकी में करीब सात लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई है.  वित्त वर्ष 2009-10 की तुलना में वित्त वर्ष 2013-14 में उद्यानिकी फसलों का बुआई क्षेत्रफल दोगुना बढ़कर 14.25 लाख हेक्टेयर हो गया है. इतना ही नहीं चालू वित्त वर्ष में भी सरकार ने करीब पांच लाख हेक्टेयर बुआई क्षेत्र बढ़ाने का लक्ष्य रखा है. इन सभी को शामिल कर लिया जाए तो करीब 46 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल बढ़ा है.  यहां यह संदेह पैदा होता है कि इतना बढ़ा क्षेत्र आया कहां से . राज्य में कुल सिंचित क्षेत्र करीब 25 लाख हेक्टेयर है  और बढ़ी हुई कृषिभूमि इससे भी ज्यादा है. इस बारे में केंद्रीय कृषि संस्थान, इंदौर  के एक वैज्ञानिक कहते हंै, ‘राज्य में जिस तेजी से कृषि क्षेत्र बढ़ रहा है वह समझ से परे है. एक ओर शहरीकरण बढ़ रहा है. उद्योगों के लिए भी जमीन दी जा रही है. ऐसे में इतनी सारी जमीन कहां से आई. वन क्षेत्रफल में जो कमी आई है वह उद्योगों के पास जा रही है. यही वजह है कि सरकार के आंकड़ों पर विश्वास करना मुश्किल है.’

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गेहूं खरीद के आंकड़ों में भारी उतार-चढ़ाव देखकर इस बात को और आसानी से समझा जा सकता है. पिछले तीन सालों के दौरान विभिन्न जिलों के गेहूं खरीद के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि खरीद 50 फीसदी से लेकर दोगुना तक बढ़ और घट रही है. किसी भी जिले में सामान्य स्थितियों में उत्पादन में इस तरह का उतार-चढ़ाव नहीं होता. गेहूं अनुसंधान केंद्र, इंदौर के एक कृषि वैज्ञानिक बताते हैं, ‘गेहूं की उत्पादकता में पिछले पांच सालों के औसत की तुलना में पचास फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी दिखाई जा रही है. यह बढ़ोत्तरी विशेषकर तभी से हो रही है जब से बोनस की घोषणा हुई है. इसके चलते अचानक से आई उत्पादकता में बढ़ोतरी पर पूरी तरह विश्वास करना मुश्किल है. इसकी असलियत तभी पता चलेगी जब गेहूं खरीद पर बोनस  न दिया जाए.’

पड़ोसी राज्यों से गेहूं बिकने के लिए आ रहा है इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान गेहूं बिक्री के लिए जो पंजीकरण हुए  उनमें करीब 20 लाख हेक्टेयर के पंजीकरण फर्जी पाए गए थे. जांच के बाद उन्हें रद्द कर दिया गया. किसानों को गेहूं बिक्री से पहले अपनी जमीन का पंजीकरण करवाना होता है. पंजीकरण रद्द होने की वजह से उस वर्ष खरीद न केवल अनुमान से कम हुई बल्कि इसके पिछले साल की तुलना में काफी घट गई थी. हालांकि राज्य सरकार इस तरह के  आरोपों को सही नहीं मानती. मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन सफाई देते हैं, ‘ राज्य में किसानों से जो खरीद की जाती है उसका पहले ऑनलाइन पंजीयन होता है. उसके बाद पंजीयन का उनके जमीन के कागजातों से मिलान किया जाता है. केवल इन्हीं के साथ खरीद की जाती है. उसके बाद खरीद का जो मूल्य होता है वह उस किसान के खाते में सीधे भेजा जाता है. इस तरह की व्यवस्था में यह कहना की बाहर से आकर लोग अपनी उपज बेच रहे है सही नहीं होगा.’

कृषि मंत्री का दावा जो भी हो लेकिन हाल के कुछ उदाहरण बताते हैं कि राज्य सरकार द्वारा बनाई गई व्यवस्था पूरी तरह कारगर नहीं है. गेहूं की सरकारी खरीद में सबसे ज्यादा उतार-चढ़ाव दूसरे राज्यों से सटे हुए जिलों में देखने को मिलता है.  इसमें उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से लगे हुए जिले शामिल हंै. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि दूसरे जिलों में ऐसा नहीं था. हरदा जिले (मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्व का जिला) में भी उत्तर प्रदेश का गेहूं सरकार द्वारा पहले जब्त किया जा चुका है. जिलों में गेहूं खरीद में जो भारी उतार-चढ़ाव है उसका एक उदाहरण प्रस्तुत है. दतिया, उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा मध्य प्रदेश का एक छोटा-सा जिला है. वर्ष 2011-12  में यहां गेहूं की खरीद तकरीबन 79,000  टन थी, जो वित्त वर्ष 2012-13 में बढ़कर 1,60,628 टन हो जाती है.  स्पष्ट है कि खरीद में दोगुनी बढ़ोतरी हो गई. इसके बाद वित्त वर्ष 2013-14 के दौरान यह खरीद घटकर 65,000 टन पर आ जाती है. यह वही वर्ष है जब बड़ी संख्या में पंजीकरण रद्द किए गए थे. यहां यह याद रखना होगा कि वित्त वर्ष 2013-14 में जो गेहूं खरीद हो रही है वह वित्त वर्ष 2012-13 के उत्पादन की होती है और खरीद अप्रैल से शुरू होती है. प्रदेश के पश्चिम स्थित जिले नीमच में खरीद को देखें जो वित्त वर्ष 2011-12 में 18,978 टन थी और अगले वित्त वर्ष में यह दोगुनी से ज्यादा बढ़कर 43,000 टन पहुंच जाती है. वित्त वर्ष 2013-14 में यह घटकर 18,900 टन हो जाती है. इसके बाद  2014-15 में फिर से बढ़कर 38,900 टन हो जाती है. इसी तरह की स्थिति मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह के गृह जिले और केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र विदिशा में भी है. यहां पर वित्त वर्ष 2011-12 में गेहूं की सरकारी खरीद 1.35 लाख टन हुई, जो वर्ष 2012-13 में बढ़कर 3.25 लाख टन पहुंच गई. यह बढ़ोतरी दोगुने से भी ज्यादा है. उसके बाद अगले वित्त वर्ष में यह घटकर 2.27 लाख टन हो गई है जो करीब पचास फीसदी की कमी है. पड़ोसी राज्यों से आ रहे गेहूं के पक्ष में एक और तर्क जाता है. राज्य सरकार ने रबी सीजन में जिन जिलों में बड़े क्षेत्र में फसल का नुकसान दिखाया है, आश्चर्यजनक रूप से वहां गेहूं खरीद में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है.

मुमकिन है राज्य सरकार के आंकड़ों के आधार पर इसबार भी मध्य प्रदेश को कृषि कर्मण पुरस्कार मिल जाए. लेकिन इनपर उठे सवाल और गहराए तो प्रदेश का बीते दो सालों का कृषि प्रदर्शन भी संदिग्ध हो जाएगा

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न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज

supreme-court-300x199राष्‍ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के गठन और कॉलेजियम सिस्टम को हटाने के लिए संविधान संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल सुनवाई करने से इनकार कर दिया है. पिछले दिनों इस तरह की चार याचिकाएं कोर्ट में दाखिल की गई थीं.

जस्टिस एआर दवे की अध्यक्षता बनी तीन जजों की बेंच ने 121 वें संविधान संशोधन और एनजेएसी विधेयक की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर कहा कि इन्हें अभी से दाखिल करना जल्दबाजी है और याचिकाकर्ता इन्हीं आधारों पर याचिकाएं दोबारा दाखिल कर सकते हैं. इस बेंच का गठन विशेषतौर पर इस मामले की सुनवाई के लिए हुआ था. बेंच ने इस मामले पर आज डेढ़ घंटे तक सुनवाई की लेकिन विधेयक पर चल प्रक्रिया के बीच में इस में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया.

जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम व्यवस्‍था को हटाने से जुड़े 121 वें संविधान संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चार जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं. ये याचिकाएं पूर्व अतिरिक्त महा न्यायाधिवक्ता बिश्वजीत भट्टाचार्य, एडवोकेट आरके कपूर व मनोहर शर्मा और सुप्रीम कोर्ट की एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड असोसिएशन की ओर से दायर की थीं.

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि संविधान में 121 वां संशोधन विधेयक और एनजेएसी विधेयक 2014, असंवैधानिक हैं क्योंकि ये संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव करते हैं.

उनका यह भी तर्क है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को संविधान की धारा 50 के मुताबिक स्पष्ट रूप से अलग-अलग किया गया है और इससे न्यायप्रणाली को स्वतंत्र होकर कार्य करने की ताकत मिलती है. याचिकाओं के मुताबिक संविधान में राज्य के नीति निर्देशक प्रावधानों के तहत यह अनुच्छेद निचली अदालतों के साथ-साथ ऊपरी अदालतों तक बराबरी से लागू होता है.

याचिकाकर्ताओं में से एक भट्टचार्य का कहना है कि संविधान भारत के मुख्य न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का अधिकार देता है. वे तर्क देते हैं, ‘ अब यह अधिकार एनजेएसी को दिया जा रहा है. आयोग में शामिल चीफ जस्टिस और उनके साथ दो और जस्टिसों की राय को कानून मंत्री वीटो पावर के इस्तेमाल से कभी-भी नकार सकते हैं. इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होती है और यह संविधान की उस मूल भावना, जिसके तहत न्यायपालिका को अलग से अधिकार दिए गए हैं, के खिलाफ है.’

राज्य सभा में बीते 14 अगस्त को ही 121वें संविधान संशोधन और एनजेएसी विधेयक को पारित किया है और इससे एक दिन पहले यह लोकसभा में पारित हुआ था.

‘गांधी’ के निर्माता एटनबरा का निधन

richard-attenboroughमशहूर ब्रिटिश फिल्मकार रिचर्ड एटनबरा का 90 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. गांधी फिल्म के निर्देशन के लिए ऑस्कर पुरस्कार पाने वाले एटनबरा को भारत में भले ही गांधी फिल्म के लिए जाना जाता हो लेकिन सचाई यह है कि वह ब्रिटिश और हॉलीवुड फिल्म जगत का एक बड़ा नाम थे. उन्होंने कई फिल्मो में अभिनय भी किया.

एटनबरा के करियर की बात की जाए तो सन 60 के दशक में वह ब्रिटिश सिनेमा में बतौर अभिनेता अच्छी पहचान बना चुके थे लेकिन अभी भी उन्हें हॉलीवुड में अपनी छाप छोड़ना बाकी था. सन 1963 में उन्होंने हॉलीवुड की युद्ध आधारित फिल्म ‘द ग्रेट एस्केप’ से अपने काम की शुरुआत की. इस फिल्म में उन्होंने एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी की भूमिका निभाई थी जो जर्मनी के युद्धबंदी शिविर से भागने की योजना बनाता है. इस फिल्म को द्वितीय विश्वयुद्ध बनी बेहतरीन फिल्मों में से एक माना जाता है. इस फिल्म में उनके अभिनय ने उनके कदम हॉलीवुड में जमा दिए और उसके बाद उन्होंने एक के बाद एक कई भूमिकाएं निभाईं. इनमें फ्लाइट ऑफ द फीनिक्स, द सैंड पेबल्स, डॉक्टर डॉलिटल आदि शामिल हैं. दिग्गज भारतीय निर्देशक सत्यजित रॉय द्वारा निर्देशित फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में उन्होंने एक ब्रिटिश जनरल की भूमिका अदा की.

लेकिन एटनबरा के करियर का सुनहरा हिस्सा अभी बाकी था जो उन्होंने बतौर निर्देशक जिया. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायक महात्मा गांधी पर उन्होंने एक बेहद संजीदा फिल्म बनाई जिसका नाम था ‘गांधी.’ इस फिल्म ने उन्हें जबरदस्त शोहरत दिलाई. अगर यह कहा जाए तो गलतबयानी न होगी कि इस फिल्म के रिलीज होने के बाद दुनिया में गांधी को जानने वाला हर शख्स एटनबरा को जान गया.

बेन किंग्सली जैसे अपेक्षाकृत कम चर्चित अभिनेता को लेकर बनाई गई इस फिल्म की इतिहासकारों ने जमकर आलोचना की. उन्होंने कहा कि यह फिल्म गांधी को लेकर कई तरह के मिथक गढ़ती है. बहरहाल, गांधी फिल्म को 11 ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामित किया गया और फिल्म को आठ श्रेणियों में जीत हासिल हुई. इनमें सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफी, सर्वश्रेष्ठ मूल पटकथा, सर्वश्रेष्ठ वस्त्र सज्जा और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (बेन किंगस्ली) आदि शामिल थे.

हॉलीवुड के निर्माता इस फिल्म में रुचि नहीं ले रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि इस फिल्म को दर्शक नहीं मिल सकेंगे. बहरहाल, एटनबरा ने पैसा जुटाने के 20 साल लंबे संघर्ष के बाद इस फिल्म को बनाया. गांधी के निर्माण के लिए एटनबरा ने लंदन के उपनगरीय इलाके में स्थित अपना घर गिरवी रख दिया और अपनी तमाम कलात्मक वस्तुएं बेच दीं. फिल्म में गांधी के अंतिम संस्कार के लिए 300,000 एक्स्ट्रा जुटाए गए थे. किसी ने नहीं सोचा था कि यह फिल्म 2.2 करोड़ डॉलर की अपनी लागत निकाल सकेगी लेकिन इस फिल्म ने अपनी लागत से 20 गुना अधिक आय अर्जित की.

गांधी के बाद एटनबरा ने कई फिल्में बनाईं लेकिन उन्हें वैसी कामयाबी नहीं मिल सकी. गांधी के रिलीज होने के 10 साल बाद सन 1992 में उन्होंने चार्ल चैपलिन के जीवन पर आधारित फिल्म चैपलिन बनाई. रॉबर्ट डाउनी जूनियर के शानदार अभिनय के बावजूद यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल न कर सकी.

एटनबरा ने अपने जीवन के आखिरी वर्षों में अमेरिकी राजनीतिक कार्यकर्ता थॉमस पेन के ऊपर गांधी की तर्ज पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनकी यह तमन्ना उनके निधन के चलते अधूरी रह गई.

इरोम फिर हिरासत में

irom_sharmila_feat-300x241बुधवार को अदालत से रिहाई के बाद सामाजिक कार्यकर्त्ता इरोम चानू शर्मिला को आज मणिपुर पुलिस ने फिर गिरफ्तार कर लिया. उनको सरकारी अस्पताल के बाहर बने एक अस्थाई निवास स्थल से गिरफ्तार किया गया है. इरोम वहां सैकड़ों महिला प्रदर्शनकारियों और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (आफ्स्पा) को हटाने की अपनी मांग को जारी रखते हुए अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठी थीं.

सन 2000 में असम राइफल्स के जवानों ने दस कथित विद्रोहियों को गोली मार दी थी. इसके विरोध में इरोम ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की थी और आत्महत्या के प्रयास के आरोप में वे तब से ही पुलिस हिरासत में थीं. इस 42 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता को पिछले 14 साल से इंफाल के जेएन अस्पताल के एक कमरे में नजरबंद रखा गया था. यहां इरोम को ड्रिप लगाकर नाक के जरिए खाना दिया जा रहा था. इरोम को इन सालों में समय-समय पर रिहा करके दोबारा हिरासत में लिया जाता रहा है. लेकिन बीते 20 अगस्त को सेशन कोर्ट ने उनको आत्महत्या के प्रयास के आरोप से मुक्त कर दिया था.

आज सुबह पुलिस उनको मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना चाहती थी लेकिन इरोम ने इससे मना कर दिया. इसके बाद पुलिस उन्हें जबर्दस्ती वहां से ले गई. मणिपुर के गृह मंत्री गैखंगम का कहना है कि सरकार उनकी सेहत और सुरक्षा को लेकर पूरी तरह तत्पर है.

अपनी गिरफ्तारी से पहले इरोम का कहना था कि वे कोर्ट के अपनी रिहाई के फैसले का स्वागत करती हैं लेकिन जब तक विवादित कानून हटाया नहीं जाता वे अपना अनशन जारी रखेंगी.

दौड़ी कबड्डी की गड्डी

कहते हैं कि कबड्डी महाभारत के उस युद्ध से निकला हुआ खेल है जिसमें सात योद्धाओं का चक्रव्यूह तोड़ने की कोशिश में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुआ था. छोटे से मैदान में सात खिलाड़ियों के चक्रव्यूह से भिड़ते एक खिलाड़ी वाला यह खेल सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप में खेला जाता रहा है. यह अलग बात है कि विश्व चैंपियन जैसे कई प्रतिष्ठित खिताबों के बावजूद भारत में कबड्डी के खिलाड़ियों की धमक इस खेल में दिलचस्पी रखने वालों के अति सीमित दायरे तक ही रही.

लेकिन अचानक ही इस खेल की जमीन फैलती दिख रही है. हाल ही में शुरू हुए कबड्डी के दो आयोजन प्रो कबड्डी लीग और वर्ल्ड कबड्डी लीग देश-दुनिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं. क्रिकेट के बहुचर्चित आयोजन इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की तरह कबड्डी की इन लीगों में भी फ्रेंचाइजी, फिल्मी सितारों, कारोबारियों और टीवी प्रसारण के मेल का फार्मूला है और यह फॉर्मूला चलता भी दिख रहा है.

26 जुलाई से शुरू हुई प्रो कबड्डी लीग में भारत की आठ टीमें हिस्सा ले रही हैं जिनमें शिमला से लेकर सियेरा लिओन तक के खिलाड़ी हैं. लीग के दौरान कुल 60 मैच होंगे. कुल 34 दिन के इस मेले का फाइनल 31 अगस्त को मुंबई में होगा. लीग की टीमों के मालिकों में अभिनेता अभिषेक बच्चन से लेकर  फ्यूचर ग्रुप जैसे कारोबारी समूह तक शामिल हैं. इस बीच नौ अगस्त से वर्ल्ड कबड्डी लीग भी शुरू हो चुकी है. लंदन से शुरू हुए इस आयोजन के 94 मैच देश-विदेश के 16 शहरों में होंगे. अक्षय कुमार और यो यो हनी सिंह जैसी हस्तियों की टीमों से सजी इस लीग में अलग-अलग देशों के 144 खिलाड़ी भाग ले रहे हैं. इसका समापन 14 दिसंबर को भारत के मोहाली में होगा.

कबड्डी का खेल 12.5 गुणा10 मीटर के मैदान में खेला जाता है. इसके बीच में खिंची रेखा के दोनों तरफ सात-सात खिलाड़ी होते हैं. हमला करने वाले दल का एक खिलाड़ी कबड्डी-कबड्डी कहता हुआ दूसरे पाले में जाता है. उसकी कोशिश होती है कि बिना सांस तोड़े विपक्ष के अधिक से अधिक खिलाड़ियों को छुए और अपने खेमे में लौट आए. वह जितने खिलाड़ियों को छूता है उसकी टीम को उतने ही अंक मिलते हैं. अगर  विरोधियों ने उसे घेर लिया और उसकी सांस टूट गई तो वह खेल से बाहर हो जाता है. जिस दल के जितने अधिक अंक बनते हैं वही विजयी रहता है. अलग-अलग जगहों पर नियमों में थोड़ा बदलाव भी दिखता है. कबड्डी के इस खेल को दक्षिण में चेडुगुडु और पूरब में हुतूतू के नाम से भी जाना जाता है.  भारत के अलावा यह बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया में भी खेला जाता है. बांग्लादेश का तो यह राष्ट्रीय खेल ही है.

इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की तरह कबड्डी की इन लीगों में भी फ्रेंचाइजी, फिल्मी सितारों, कारोबारियों और टीवी प्रसारण के मेल का फार्मूला है

लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय उपमहाद्वीप में कबड्डी को अब तक वह बुलंदी नहीं मिल पाई थी जिसका यह हकदार है. वैसे तो कबड्डी भारत की मिट्टी में बसा एक सरल खेल है. भारत इसमें पांच बार का एशियाई चैंपियन और दो बार का विश्व चैंपियन है. फिर भी यह कभी क्रिकेट, कुश्ती, मुक्केबाजी या शतंरज जैसे दर्जे को नहीं छू सका. कई मौके आए जब किसी बड़े टूर्नामेंट से टीम जीतकर आई और एयरपोर्ट पर कोई उसकी अगवानी करने तक को नहीं पहुंचा. खिलाड़ी और अधिकारी शिकायत करते रहते हैं कि कोई उन्हें तवज्जो नहीं देता. विंध्यवासिनी देवी का उदाहरण ही लें. 2012 में विश्व चैंपियन बनी भारतीय टीम कबड्डी का हिस्सा रहीं विंध्यवासिनी ने इस साल की शुरुआत में अपने पदक और प्रमाणपत्र लौटाने का ऐलान किया था. दरअसल उनके शानदार प्रदर्शन को गर्व का विषय बताते हुए झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने उन्हें दस लाख रुपये का ईनाम और सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी. लेकिन दो साल तक दर-दर भटकने के बाद विंध्यवासिनी के हाथ खाली रहे.

कई लोग मानते हैं कि प्राथमिकताओं में कबड्डी का कहीं न होना इस खेल की उपेक्षा का अहम कारण रहा है. एक वेबसाइट से बातचीत में खेल पत्रकार जसविंदर सिद्धू कहते हैं, ‘मीडिया ने धीरे-धीरे अपना ध्यान क्रिकेट जैसे खेलों पर केंद्रित कर लिया. उसने पारंपरिक खेलों को जगह देने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि उसे लगता था कि गांवों में न तो केबल टीवी है और न ही वहां उसके दर्शक हैं. इन खेलों के आयोजकों की ओर से भी पूरी कोशिश नहीं हुई कि कैसे खेलों को आगे ले जाया जाए. उन्हें प्रायोजक नहीं मिले. सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया.’

लेकिन पिछले एक दशक के दौरान तस्वीर बदली है. भारत के गांवों तक भी अब केबल टीवी की अच्छी-खासी पहुंच है. वहां दर्शक भी हैं और कबड्डी की लोकप्रियता भी. प्रो कबड्डी लीग के मैचों का प्रसारण कर रहे स्टार स्पोर्ट्स ने दावा किया है कि इस लीग के पहले मैच के लिए ही टीवी दर्शकों की संख्या 2.2 करोड़ रही. यह आंकड़ा 21 लाख दर्शकों की उस संख्या से 10 गुना ज्यादा है जो ब्राजील और क्रोएशिया के बीच हुए फीफा फुटबॉल वर्ल्ड कप के शुरुआती मैच के दौरान भारत में दर्ज की गई थी. ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भी कबड्डी ट्रेंड करता रहा. आयोजन की इस सफलता को देखकर अब महिला कबड्डी लीग शुरू करने की भी चर्चाएं हो रही हैं.

kabaddiमाना जा रहा है कि कारोबारी पैकेजिंग और ग्लैमर के तड़के ने कबड्डी के इस नए उभार में अहम भूमिका निभाई है. जानकारों का एक वर्ग मानता है कि भारत में कुछ को छोड़कर बाकी खेलों के प्रति लोगों का जो रवैय्या है उसे देखते हुए यह मजबूरी है कि फिल्म या मनोरंजन जगत के सितारों को कबड्डी से जोड़ा जाए. एक साक्षात्कार में चर्चित कमेंटेटर और प्रो कबड्डी लीग करवा रही संस्था मशाल स्पोर्ट्स के प्रबंध निदेशक चारु शर्मा कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि ग्लैमर के आ जाने से खेल बदल जाता है. मगर ग्लैमर के आने से यह खेल उनका भी ध्यान खींचने लगता है जिनकी पसंद में यह नहीं होता. सितारों की वजह से कुछ लोग आकर खेल देखना शुरू कर देते हैं. तो कबड्डी ऐसा क्यों न करे?’ प्रो कबड्डी लीग के मैचों का सीधा प्रसारण कर रहे मीडिया समूह स्टार इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी उदय शंकर का मानना है कि मानसिक और शारीरिक ताकत का मेल कबड्डी में हर वह खासियत है जो इसे एक लोकप्रिय खेल के रूप में उभार सकता है. वर्ल्ड कबड्डी लीग के चेयरमैन और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के मुताबिक कबड्डी का स्तर उठाने और उसे एक पेशेवर खेल के रूप में उभारने वाला उनका आयोजन आने वाले दिनों में और भी बड़ा और बेहतर होगा.

कई लोग हैं जो मानते हैं कि कबड्डी में प्रोफेशनल लीग शुरू होने से इस खेल को उसका जायज हक मिलेगा. खिलाड़ियों की पूछ बढ़ेगी, खेल का दायरा बढ़ेगा और ओलंपिक में इसे शामिल करवाने की मुहिम को ताकत मिलेगी. अपने एक आलेख में वरिष्ठ पत्रकार गोविंद सिंह मानते हैं कि इस तरह के आयोजनों से एक देशज खेल बड़े फलक पर स्थापित होगा. अंतरराष्ट्रीय कबड्डी फेडरेशन के अध्यक्ष जे एस गहलोत का मानना है कि कबड्डी में प्रोफेशनल लीग के आने से इस खेल को सही पहचान मिलेगी. एक वेबसाइट से बातचीत में गहलोत कहते हैं, ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अगर इस खेल को सही तरीके से हाइलाइट करेगा तो निश्चित तौर से बच्चों में इसके प्रति दिलचस्पी और बढ़ेगी. इसमें क्रिकेट के युवराज सिंह की तरह खिलाड़ियों की 14 करोड़ रुपये की बोली तो नहीं लग सकती, लेकिन 14-15 लाख रुपये की बोली लगना सही शुरुआत है.’

गहलोत राकेश कुमार की बात कर रहे हैं जिनके खाते में भारतीय कबड्डी टीम की कप्तानी, दो विश्व कप और अर्जुन पुरस्कार जैसी उपलब्धियां दर्ज हैं. हाल में उनका नाम तब सुर्खियों में आया जब प्रो कबड्डी लीग के लिए पटना फ्रेंचाइजी ने उन्हें 12.8 लाख रुपये में खरीदा.  विदेशी खिलाड़ियों में सबसे महंगी बोली ईरान के मुस्तफा नौदेही की लगी. उन्हें 6.6 लाख रुपये में पुनेरी पल्टन ने खरीदा.

मिट्टी से मैट और टीवी चैट तक आ चुकी कबड्डी में एक नई जान आती दिख रही है. खिलाड़ी इससे बहुत खुश हैं. तहलका से बातचीत में राकेश कुमार कहते हैं, ‘स्कूल के दिनों में जब हम दिल्ली और हरियाणा के लोकल टूर्नामेंटों में जाते थे तो जीतने पर प्लेट या चम्मच मिलते थे. बहुत हुआ तो टीम को एक-दो हजार रुपये मिल गए. तब हमने सोचा भी नहीं था कि एक दिन यहां पहुंचेंगे. उन दिनों तो नाते-रिश्तेदार घर वालों को समझाते थे कि िफजूल में वक्त बर्बाद कर रहा है तुम्हारा लड़का, यही खेल रह गया है क्या? लेकिन हमें तो जो मिला इसकी वजह से ही मिला. आज तो और भी खुशी होती है जब स्टेडियम फुल होता है. टीवी पर मैच आता है, लोग ऑटोग्राफ मांगते हैं और मीडिया वाले फोन करते रहते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘किसने सोचा था कि एक दिन अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर जैसे सितारे कबड्डी का मैच देख रहे होंगे.’

तो क्या मान लिया जाए कि कबड्डी का भविष्य अब सुनहरा है? इस सवाल के ठीक-ठीक जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा. हॉकी और बैडमिंटन को लेकर शुरू हुई लीगें तमाम शोर-शराबे के बावजूद फुस्स होती दिखी हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि कबड्डी के साथ ऐसा न हो.

vikas@tehelka.com