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चिंताकारी चाय

DSC_4658एक चाय, हजार अफसाने. कुछ ऐसी ही स्थिति है इस देश में चाय की. शायद ही कोई हो जिसके पास सियासत से लेकर अड्डेबाजी तक तमाम चीजों का जरिया बन चुकी चाय से जुड़ी एकाध दिलचस्प कहानी न हो. अब तो देश के प्रधानमंत्री भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने कभी चाय बेचकर जीवन-यापन किया था. लेकिन हो सकता है कि जो चाय आप पी रहे हैं उसमें चीनी की मिठास के साथ खतरनाक जहर भी घुला हो. पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली चर्चित गैर सरकारी संस्था ग्रीनपीस द्वारा हाल में किए गए एक व्यापक सर्वेक्षण के नतीजे कुछ ऐसा ही कह रहे हैं. अगस्त के पहले पखवाड़े जारी हुई इस सर्वेक्षण रिपोर्ट की मानें तो देश की तमाम छोटी-बड़ी चाय उत्पादक कंपनियां अपने चाय बागानों में भारी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग कर रही हैं. गौरतलब है कि कुछ साल पहले आए एक दूसरे और चर्चित सर्वेक्षण में पाया गया था कि देश की तमाम कोला कंपनियां अपने पेय में कीटनाशकों का उपयोग कर रही हैं. देश में चाय पीनेवाली आबादी का आंकड़ा कोला कंपनियों के उत्पाद इस्तेमाल करन ेवाले लोगों की संख्या से कहीं बड़ा माना जाता है. इस लिहाज से ग्रीनपीस की यह हालिया रिपोर्ट चिंताजनक है. साफ है कि देश के औद्योगिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा यह परवाह किए बगैर उत्पादन प्रक्रिया में धड़ल्ले से कीटनाशकों का उपयोग कर रहा है कि इसका सीधा दुष्प्रभाव लोगों की सेहत पर पड़ सकता है.

चाय उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर है. अगर हम निर्यात के नजरिए से देखें तो भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक है. चाय राज्य तथा केंद्र सरकार की आय का एक बड़ा जरिया भी है. साल 2011-12 में भारत सरकार ने चाय के निर्यात से लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए कमाए. अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक भारत की चाय कंपनियां दस लाख से अधिक लोगों के रोजगार का जरिया हैं. लेकिन ग्रीनपीस की रिपोर्ट बता रही है कि चाय कंपनियों का चेहरा आंकड़ों में जितना गुलाबी दिखता है हकीकत में उतना है नहीं. इसके कुछ स्याह पहलू भी हैं.

भारत में जितनी चाय पैदा होती है उसका 80 फीसदी हिस्सा देश के भीतर ही इस्तेमाल होता है. यदि ग्रीनपीस की मानंे तो एक आंकड़ा यह भी है कि देश में उपलब्ध चाय के अधिकतर ब्रांडों में कोई न कोई कीटनाशक मौजूद है. कह सकते हैं कि जो चाय देश का राष्ट्रीय पेय होने की हैसियत रखती है वह एक बड़ी आबादी की सेहत के लिए खतरा भी बन सकती है.

ग्रीनपीस ने साल 2013 से 2014 के बीच देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग ब्रांडों के कुल 49 चाय नमूने इकट्ठा कर उनका परीक्षण करवाया. इस परीक्षण में देश के शीर्ष आठ चाय ब्रांड शामिल थे. गौरतलब है कि इन आठों ब्रांडों का ही देश के चाय बाजार के करीब 65 फीसदी हिस्से पर कब्जा है. इनमें सबसे ऊपर हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड और टाटा ग्लोबल बेवरिजेस लिमिटेड का नाम है जिनकी भारतीय चाय बाजार में 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी है. इनके अलावा इस सर्वेक्षण में वाघ-बकरी टी, गुडरिक टी, ट्विनिंग्स, गोल्डेन टिप्स, खो-चा और गिरनार कंपनियों के उत्पाद शामिल थे.

ग्रीनपीस की जांच के नतीजे जितना चौंकाते हैं उतना ही चिंता में भी डालते हैं. 49 नमूनों में सिर्फ तीन सुरक्षित पाए गए यानी इनमें कोई भी कीटनाशक नहीं मिला. बाकी बचे 46 नमूनों में किसी न किसी प्रकार के कीटनाशक मौजूद थे. इन नमूनों में जांचकर्ताओं ने कुल 34 किस्म के कीटनाशक पाए. इस आंकड़े के हिसाब से मौजूदा समय में भारतीय बाजार में उपलब्ध लगभग 94 फीसदी चाय ब्रांडों में कोई न कोई कीटनाशक मौजूद है. 46 प्रदूषित नमूनों में से 29 ऐसे थे जिनमें एक साथ 10 से ज्यादा किस्म के कीटनाशक मौजूद थे. एक नमूना तो ऐसा भी था जिसमें कुल 20 किस्म के कीटनाशक एक साथ इस्तेमाल हुए थे.

ये आंकड़े हमें क्या बताते हैं? इनके सहारे अगर हम भारतीय चाय उत्पादक कंपनियों और सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली समझने की कोशिश करें तो कंपनियों के लिहाज से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वे मुनाफे की नीयत से इस तरह के हानिकारक तत्वों का इस्तेमाल करती होंगी. लेकिन सरकारी मशीनरी के स्तर पर समस्या कहीं ज्यादा बड़ी है.

नमूनों में पाए गए कुल 34 कीटनाशकों में से बड़ी संख्या ऐसे कीटनाशकों की है जिनका चाय के उत्पादन में कहीं कोई योगदान ही नहीं है. कम से कम ये कीटनाशक भारतीय कृषि से जुड़े किसी भी नियम कानून में चाय उत्पादन के लिए आवश्यक नहीं बताए गए हैं. यानी इनके इस्तेमाल के बिना भी चाय का उत्पादन हो सकता है. दुनिया के दूसरे हिस्सों में जहां सुरक्षा मानक कड़े हैं वहां चाय उत्पादक कंपनियां ऐसा कर भी रही हैं. लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. गैर जरूरी होने के बावजूद चाय कंपनियां धड़ल्ले से इन कीटनाशकों का इस्तेमाल चाय बागानों में करती आ रही हैं. ऐसे कीटनाशकों की संख्या 23 है. सवाल खड़ा होता है कि जब इनके इस्तेमाल की अनुमति या आवश्यकता ही नहीं है तब भी इनका उपयोग ये कंपनियां क्यों कर रही हंै. ग्रीनपीस से जुड़ीं नेहा सहगल कहती हैं, ‘रेगुलेशन (नियमन) के स्तर पर बड़ी समस्या है. अवैध और प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल पर टी बोर्ड ऑफ इंडिया ने कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया है. उनका सिर्फ इतना कहना है कि हमारी चाय भारतीय मानकों के अनुरूप है जबकि सच्चाई यह है कि हमारे अधिकतर नमूनों में प्रतिबंधित कीटनाशक मिले हैं.’

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यह एक बड़ी समस्या की तरफ इशारा है. देश में कीटनाशकों के निर्माण और उनकी उपलब्धता में इतना झोल है कि इस दिशा में सरकारी स्तर पर आज तक प्रभावी नियंत्रण स्थापित ही नहीं हो सका है. हालत यह है कि लोग आत्महत्या तक करने के लिए सल्फास जैसे जहरीले कीटनाशक आसानी से दुकानों से खरीद लाते हैं. इस विषय में टी बोर्ड ऑफ इंडिया से बात करने की तहलका की कोशिश नाकाम रही. बोर्ड के चेयरमैन सिद्धार्थ और मीडिया प्रमुख को ईमेल द्वारा भेजे गए प्रश्नों का भी खबर लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला. ग्रीनपीस से ही जुड़े जीतेंद्र कुमार बताते हैं, ‘टी बोर्ड ऑफ इंडिया ने पहले ही दिन पूरी रिपोर्ट को खारिज कर दिया था.’

हालांकि कुछ कंपनियों ने इस रिपोर्ट पर अपनी स्थिति साफ कर दी है. हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ने एक प्रेस वक्तव्य जारी किया है जिसमें कहा गया है, ‘हमारे सभी चाय उत्पाद पूरी तरह से सुरक्षित हैं. लोग बिना किसी भय के अपने पसंदीदा पेय का इस्तेेमाल कर सकते हैं. हम फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) के मानकों का कड़ाई से पालन करते हैं… एचयूएल के पास किसी चाय बागान का मालिकाना हक नहीं है. हम चाय उगाते नहीं हैं. हम चाय दूसरे बागानों से नीलामी के माध्यम से खरीदते हैं.’ ग्रीनपीस के नतीजे बताते हैं कि एचयूएल के दो ब्रांडों लिप्टन और ब्रुक बॉन्ड में बड़ी संख्या में कीटनाशक मिले हैं.

एचयूएल की तर्ज पर ही टाटा ग्लोबल बेवरिजेस और गिरनार टी ने भी अपनी सफाई दी है. टाटा बेवरिजेस का कहना है, ‘टाटा ग्लोबल बेवरिजेस चाय खेती में इस्तेमाल होने वाले सुरक्षा उपायों (कीटनाशक) से उत्पन्न किसी भी समस्या को न्यूनतम रखने के लिए प्रतिबद्ध है… हमारा लक्ष्य है कि चाय उत्पादन और संरक्षण की प्रक्रिया में रसायनों का इस्तेमाल न्यूनतम रखा जाए.’ इन दोनों अगुआ कंपनियों के उलट गिरनार टी ने अपनी सफाई बेहद साफ शब्दों में दी है. कंपनी के शब्दों में ‘गिरनार चाय उत्पादन के क्षेत्र में नान पेस्टिसाइड मैनेजमेंट (एनपीएम) का समर्थन करने की घोषणा करती है. इससे कीटनाशकों को चाय उत्पादन की प्रक्रिया से हटाने में मदद मिलेगी.’

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एक स्थिति तो यह है कि देश के चाय बगानों में इस्तेमाल हो रहे ज्यादातर कीटनाशक अनावश्यक रूप से इस्तेमाल हो रहे हैं. दूसरा पक्ष यह है कि चाय कंपनियां तमाम ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल कर रही हैं जिनका उपयोग सालों पहले देश में प्रतिबंधित किया जा चुका है. इनमें से कुछ तो दुनिया के सबसे जहरीले कीटनाशकों में शुमार होते हैं. यह और भी ज्यादा चिंता की बात है. उदाहरण के तौर पर डीडीटी जिसे भारत में कृषि क्षेत्र के लिहाज से 1989 में ही प्रतिबंधित किया जा चुका है, वह चाय बागानों में आज भी इस्तेमाल हो रहा है. यह घातक कीटनाशक 49 में से 33 नमूनों में पाया गया है. मोनोक्रोटोफॉस भी ऐसा ही एक कीटनाशक है जिसके चाय की खेती में इस्तेमाल की मनाही है. यह कीटनाशक विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सर्वाधिक जहरीले कीटनाशकों की श्रेणी में रखा गया है. 2013 में जब बिहार के सारण में 23 स्कूली बच्चों की मौत मिड डे मील में मोनोक्रोटोफॉस की मिलावट से हुई थी तो फूड एवं एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन (एफएओ) ने ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल धीरे-धीरे बंद करने की अपील की थी. ट्राइजोफॉस भी इसी श्रेणी का एक अन्य कीटनाशक है जो कुल पांच नमूनों में पाया गया है. एक नाम टेब्युफेनपाइराड का है. यह कीटनाशक भारत में रजिस्टर्ड ही नहीं है, लेकिन चाय के नमूनों में यह मौजूद है. एक और कीटनाशक एंडोसल्फान को तो उच्चतम न्यायालय ने 2011 में देश में बनने से ही प्रतिबंधित कर दिया था. पर कुछ बागान आज भी अवैध रूप से एंडोसल्फान का इस्तेमाल कर रहे हैं. जांच के आठ फीसदी नमूनों में एंडोसल्फान पाया गया है.

इन कीटनाशकों के इस्तेमाल का प्रभाव दो रूपों में सामने आता है. पहला तो इसके पर्यावरणीय प्रभाव जो बेहद घातक हैं और दूसरा मानव शरीर पर पड़नेवाला असर. पर्यावरणीय प्रभाव तो इसके कमोबेश वही हैं जो सामान्य खेती में इस्तेमाल हो रहे कीटनाशकों के होते हैं. मिट्टी, पानी और हवा तीनों ही इसकी चपेट में हैं. इस देश में चाय की पहुंच जितनी व्यापक है उसे देखते हुए मानव शरीर पर पड़ने वाले इसके असर को भी नजरअंदाज करना नामुमकिन है. मानव शरीर दो तरीकों से इसकी चपेट में आ रहा है. ग्रीनपीस के मुताबिक एक बड़ा हिस्सा तो वह है जो चाय पीता है. यह वह हिस्सा है जो कीटनाशक की थोड़ी मात्रा के संपर्क में आता है. इससे होने वाला असर लंबे समय में दिखता है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक लंबे समय तक इसका उपयोग करने वालों में पेट की तकलीफें, जननांगों में विकार, तंत्रिका संबंधी समस्याएं और कैंसर जनित दिक्कतें पैदा हो जाती हैं.

दूसरा हिस्सा उन लोगों का है जो चाय बगानों में काम करते हैं और सीधे-सीधे कीटनाशकों के संपर्क में रहते हैं. अलग-अलग समय पर चाय बागानों में काम करने वालों पर किए गए परीक्षण से पता चला है कि यहां के कामगार सांस, मुंह या त्वचा के माध्यम से बड़ी मात्रा में कीटनाशकों के संपर्क में आ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक प्रतिवर्ष कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली मौतों में लगभग 20 हजार खेती से जुड़े लोगों की होती है. इनमें चाय बागान के कामगारों की भी एक बड़ी संख्या है.

चाय की पहुंच और उसकी लोकप्रियता का दायरा देखते हुए ग्रीनपीस के नतीजे बेहद चिंताजनक हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि जिस सरकारी मशीनरी (टी बोर्ड ऑफ इंडिया) के ऊपर चाय कंपनियों की गतिविधियों पर नजर रखने की जिम्मेदारी है उसका रवैया इस रिपोर्ट के प्रति नकारात्मक दिख रहा है.

atul@tehelka.com

‘जुड़ते यूरोप के टूटते देश’

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न तो बर्लिन की दीवार गिरती, न विभाजित जर्मनी का पुन: एकीकरण हो पाता, ढाई दशक पूर्व, तत्कालीन सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचोव ने यदि इसे रोकना चाहा होता. इससे भी बड़ी विडंबना यह रही कि जर्मनी का एकीकरण होते ही सोवियत संघ स्वयं ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. आज उसकी जगह 15 नए देश बन गए हैं. जर्मनी का एकीकरण पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के लिए ऐसा अपशगुन साबित हुआ कि उस समय के चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया का भी अस्तित्व नहीं रहा. चेक गणराज्य और स्लोवाकिया भूतपूर्व चेकोस्लोवाकिया के नए उत्तराधिकारी हैं, जबकि युगोस्लाविया को जर्मनी की अगुआई में ‘नाटो’ देशों ने मिलकर ऐसा तोड़ा कि उस की जगह पर अब तक सात नए देश बन चुके हैं.

कह सकते हैं कि समाजवादी देशों की दिखावटी एकता वहां की कम्युनिस्ट तानाशाहियों की बनावटी सफलता थी. कभी न कभी इस आडंबर का बेड़ा गर्क होना ही था. लेकिन, विडंबना यह भी है कि अब बारी पश्चिमी यूरोप के उन देशों के टूटने की है, जो अपने आप को लोकतंत्र का सिरमौर समझते हैं. वे ‘नाटो’ और यूरोपीय संघ दोनों के सदस्य हैं. अन्य देशों में पृथकतावाद को पोषित करते रहे हैं. अपनी सभ्यता-संस्कृति पर इतराने और भारत जैसे बहुजातीय देशों को राष्ट्र-राज्य (एक देश में एक जैसी सभ्यता, संस्कृति, भाषा, इतिहास एवं उद्भव वाली जनता की राज्यसत्ता) का उपदेश देते रहे हैं. इसी सिद्धांत के चलते अब अपने ही टूटने की नौबत आती देखकर वे सन्नाटे में आ गए हैं. सबसे बड़ा विरोधाभास तो यह है कि उनके जो प्रदेश उद्भव, बोल-भाषा या रहन-सहन वाली परिभाषा की आड़ लेकर अलग होना चाहते हैं, वे किसी गरीबी या पिछड़ेपन के कारण नहीं, अपनी अमीरी और सफलता का सुखभोग अन्य प्रांतों के साथ बांटने से बचने के लिए ऐसा कर रहे हैं. बाद में, यूरोपीय संघ की छत्रछाया में वे उन्हीं की बगल में बैठना भी चाहते हैं जिनसे अलग होने के लिए वे आज मचल रहे हैं.

इस समय 28 देशों का यूरोपीय संघ यूरोप महाद्वीप के लगभग 45 सार्वभौम देशों को मिला कर उन्हें एक ही माला में पिरोने का प्रयास कर रहा है. कुछ जानकारों का कहना है कि इससे इन देशों के कुछ प्रदेशों को स्वतंत्र देश बन कर स्वयं ही इस माला के मनके बनने की प्रेरणा मिल रही है. अगले कुछ वर्षों में यूरोप में 10 नए स्वतंत्र देश जन्म ले सकते हैं. शुरुआत हो चुकी है. सितंबर और अक्टूबर 2012 में सिर्फ तीन हफ्ते के भीतर पश्चिमी यूरोप के तीन प्रमुख देशों- ब्रिटेन, स्पेन और बेल्जियम के चार प्रदेशों ने स्पष्ट कर दिया कि वे अलग देश बनने के लिए दृढ़ संकल्प हैं. इटली और फ्रांस के पृथकतावादी भी फिर से अंगड़ाई लेने लगे हैं.

अलगाववादी आंदोलनों की ताकत जिस तरह से बढ़ रही है उससे लगता है कि 45 देशों वाले यूरोप में कुछ साल के भीतर ही 10 नए देश जन्म ले सकते हैं

यूरोप के ये प्रमुख देश भारत के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, या महाराष्ट्र से भी छोटे हैं. कुछ दूसरे देश तो भारत के सबसे छोटे राज्यों से भी बौने हैं. ऐसे में, यूरोप में पृथकतावाद के पुनरुत्थान को समझ पाना और भी दुरूह हो जाता है.

स्कॉटलैंड में जनमत संग्रह
अलग होने की इस आतुरता में सबसे आगे है ब्रिटेन का स्कॉटलैंड प्रदेश.यानी भारत को दो टुकड़ों में बांट कर स्वतंत्रता देने वाले जिस ब्रिटेन के साम्राज्य में सूर्य कभी डूबता ही नहीं था, उसके अब अपने ही टुकड़े होने की नौबत आ गई है. दो साल से भी कम समय में हो सकता है कि ब्रिटेन का विधिवत बंटवारा हो जाए. उसका उत्तरी प्रदेश ‘स्कॉटलैंड’  एक नया देश बनने के लिए मचल रहा है. 18 सितंबर के दिन वहां जनमत संग्रह है. बहुमत यदि स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता के पक्ष में गया तो 24 मार्च 2016 के दिन स्कॉटलैंड यूरोप के नक्शे पर एक नया देश बन कर उभरेगा. यह वह दिन है, जब ‘राजशाही स्कॉटलैंड’ और ‘राजशाही इंगलैंड’ के मेल (यूनियन ऑफ क्राउन्स)  को 413 साल हो जाएंगे. दोनों राजशाहियों को मिला कर एक मई 1707 को बर्तानिया महान (ग्रेट ब्रिटेन) की स्थापना हुई थी, हालांकि स्कॉटलैंड के विभिन्न शहरों में इसके खिलाफ भीषण दंगे भी हुए थे. ब्रिटेन का हिस्सा हो जाने पर भी स्कॉटलैंड की न्याय प्रणाली शेष ब्रिटेन से अलग ही रही.

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स्कॉटलैंड में स्वतंत्रता समर्थक एक रैली.

स्कॉटलैंड के मुख्यमंत्री अलेक्स सालमंड का नारा है, ‘हमारी सफलता का फल हमारे हाथों में होना चाहिए.’ उनकी सरकार जनता को सब्जबाग दिखाती रही है कि जब स्थानीय संपदा और कार्यकुशलता को पूरे ब्रिटेन के साथ बंटना नहीं पड़ेगा तब जनता की खुशहाली और तेजी से बढ़ेगी. जनमत संग्रह के लिए एक ऐसा दिन चुना गया है, जो मतदाताओं को एक तरह से शपथ दिलाता है कि उन्हें अपने वोट द्वारा स्कॉटलैंड को विजयी बनाना ही है. ठीक 700 वर्ष पूर्व, 1314 के इन्हीं दिनों में, स्कॉटिश राष्ट्रवादियों ने तथाकथित ‘बनकबर्न युद्ध’ में अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई थी. स्कॉटलैंड की सत्तारूढ़ ‘स्कॉटिश नैशनल पार्टी’  (एसएनपी) के मुख्यमंत्री अलेक्स सालमंड को पूरा विश्वास है कि मतदाता इस दिन की ऐतिहासिक महत्ता को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्वाधीनता के रथ को रुकने नहीं देंगे. वे 2010 से ही जनमत संग्रह का दिन तय करने के लिए व्याकुल थे. लेकिन, उस समय स्कॉटलैंड की विधानसभा में उनकी पार्टी का बहुमत नहीं था और दूसरी पार्टियों का समर्थन मिल नहीं रहा था. 2011 का विधानसभा चुनाव वे इसी वादे के साथ लड़े कि उनकी पार्टी को यदि पूर्ण बहुमत मिला तो स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता के प्रश्न पर जनमत संग्रह होकर रहेगा.

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imgअलगाव की आग

ब्रिटेन के स्कॉटलैंड में 18 सितंबर 2014 को होने वाला जनमत संग्रह यदि उसकी आजादी के पक्ष में गया तो 2016 में वह नया देश बन जाएगा.

स्पेन के उत्तर में स्थित उसके दो प्रदेशों बास्क और कतालोनिया में स्वाधीनता के लिए जबर्दस्त आंदोलन चल रहे हैं. पृथकतावादियों की राजनीतिक ताकत वहां काफी बढ़ गई है.

बेलजियम में उत्तर के डच भाषी फ्लांडर्स दक्षिण के फ्रेंच भाषी वालोनिया से अलग होना चाहते हैं. उनकी शिकायत है कि देश का दक्षिणी हिस्सा उनके खर्च पर पल रहा है. एनवीए नाम की उनकी नई पृथकतावादी पार्टी हाल के संसदीय चुनावों में वहां सबसे ताकतवर दल बनी है.

फ्रांस दक्षिण-पूर्वी हिस्से के बास्क और कतालान अल्पसंख्यक बास्क और कतालान के अलग देश बनने पर उनमें शामिल हो सकते हैं. भूमध्य सागर में स्थित कोर्सिका द्वीप पर भी फ्रांस से अलग होने की मांग चल रही है.

इटली के उत्तरी हिस्से में स्थित पदानिया और दक्षिणी टिरोल नाम के इलाके आजादी या ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता की मांग को लेकर मुखर हैं[/box]

जनमत संग्रह ब्रिटेन को स्वीकार्य
चुनाव में सालमंड की पार्टी ‘एसएनपी’ को कुल 129 में से 69 सीटें मिलीं. उनका एकछत्र राज हो गया. इस पूर्ण बहुमत का अर्थ उन्होंने यही लगाया कि जनता उनके साथ है. इससे उत्साहित होकर जनवरी 2012 में उन्होंने घोषणा की कि 2014 की गर्मियों के बाद जनमत संग्रह होगा. मार्च 2013 में तय हुआ कि जनमत संग्रह 18 सितंबर 2014 के दिन होगा. इससे पहले, 21 अक्टूबर 2012 को, स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर के साथ विधिवत मान लिया था कि स्कॉटलैंड यदि ब्रिटिश संयुक्त राजशाही (यूके) के भीतर रहने के लिए कतई राजी नहीं है, तो वह 2014 के अंत तक इस विषय पर जनमत संग्रह करवाने का अधिकारी है.

मतदाताओं को केवल ‘हां’ या ‘नहीं’  में इस प्रश्न का उत्तर देना है कि ‘क्या स्कॉटलैंड एक स्वतंत्र देश होना चाहिए ?’ एडिनबरा समझौते के अनुसार,16 वर्ष या उससे अधिक आयु के वे सभी ब्रिटिश नागरिक मतदान के अधिकारी हैं जो स्कॉटलैंड के निवासी हैं. यानी वे गैर-स्कॉटिश भी मतदान कर सकते हैं जो स्कॉटलैंड में रहते हैं. लेकिन, स्कॉटिश मूल के वे लोग मतदान नहीं कर सकते जो स्कॉटलैंड से बाहर ब्रिटेन के किसी दूसरे हिस्से में रहते हैं. यूरोपीय संघ वाले देशों के वे नागरिक भी मतदान के अधिकारी हैं, जो स्कॉटलैंड के स्थायी निवासी हैं.

जीडीपी पांचवें नंबर पर
स्कॉटलैंड ब्रिटेन के कुल क्षेत्रफल के एक-तिहाई (78 हजार वर्ग किलोमीटर) के बराबर है जबकि वहां ब्रिटेन की केवल साढ़े आठ प्रतिशत (53 लाख) जनता बसती है. उत्तरी सागर से होने वाली तेल की अच्छी आय के कारण इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 44, 378 डॉलर प्रति व्यक्ति है जो पूरे ब्रिटेन के औसत से अधिक है. सत्तारूढ़ पार्टी ‘एसएनए’ का दावा है कि प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की दृष्टि से स्कॉटलैंड पूरे यूरोप में पांचवें नंबर पर है. 1980 के बाद से वहां संपन्नता शेष ब्रिटेन की अपेक्षा कहीं तेजी से बढ़ी है.

लंदन के बाद स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा में ही देश-विदेश के बैंकों का सबसे बड़ा जमघट है. प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद का नौ प्रतिशत बैंकिंग सेक्टर से आता है. सात प्रतिशत लोग इसी सेक्टर में काम करते हैं. बैंकों की तिजोरियों में जो धन जमा है, वह पूरे यूरोप में चौथा सबसे बड़ा धन-भंडार है. वित्त-विशेषज्ञ मानते हैं कि स्कॉटलैंड के बैंकों में जो धन जमा है, वह उसके सकल घरेलू उत्पाद के 12 गुने के बराबर है. उनका कहना है कि जब तक ऐसा कोई संकट नहीं आता कि बैंकों का दीवाला निकलने लगे, तब तक तो सब कुछ ठीक है. किंतु, यदि कभी बैंकों का दीवाला निकलने लगा- जैसा कि यूरोप के कई देशों में 2008 से लेकर 2011 के बीच हुआ- तब उन्हें बचाने के प्रयास में सरकार भी दीवालिया हो जाने के कगार पर पहुंच जाएगी.

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समझौता पर हस्ताक्षर करते अलेक्स सालमंड व डेविड कैमरन

झगड़ा साझी मुद्रा का
इसी संभावना के डर से स्कॉटलैंड की सरकार स्वतंत्रता के बाद भी ब्रिटिश पाउंड को देश की सर्वमान्य मुद्रा बनाए रखना चाहती है क्योंकि उसकी साख बनाए रखना ब्रिटेन का काम होगा. लेकिन, ब्रिटेन की सरकार ऐसे किसी ‘मुद्रा-संघ’ के लिए कतई राजी नहीं है. स्कॉटलैंड के राष्ट्रवादी इसे स्वतंत्रता के समर्थक मतदाताओं को डराने की धौंसबाजी मानते और इसकी निंदा करते हैं. मुख्यमंत्री सालमंड ने स्वतंत्रता-प्राप्ति की अपनी कार्यसूची में पाउंड को बनाए रखने का संकल्प लिया था. उनका कहना है कि जनमत संग्रह के परिणाम के बाद वे ब्रिटेन से इस विषय पर आगे बात करेंगे. वे शायद सोच रहे हैं कि परिणाम यदि स्वतंत्रता के पक्ष में रहा, जैसा कि वे चाहते और मानते हैं, तो इसका मतलब यह होगा ब्रिटिश सरकार स्कॉटिश जनता को डराने-धमकाने में सफल नहीं रही. तब, हो सकता है कि वह अपना अड़ियल रुख छोड़ दे. शायद सोचे कि स्कॉटलैंड भी तो आखिरकार ब्रिटेन की वर्तमान महारानी या भावी राजा को अपना राष्ट्राध्यक्ष मानने जा रहा है!

ब्रिटेन यदि तब भी अड़ियल बना रहता है तो स्कॉटलैंड को या तो अपनी अलग मुद्रा चलानी होगी या फिर यूरोपीय संघ के साथ-साथ उसके यूरो मुद्रा-संघ (यूरो-जोन) की भी सदस्यता प्राप्त करनी होगी. इसकी कुछ कठोर शर्तें हैं. अपनी अलग मुद्रा चलाने का तुक तभी है जब बैंकिंग सेक्टर का आयाम इस हद तक घटे कि बैंकों का दीवाला निकलने से सरकार दीवालिया न हो जाए. यूरोपीय संघ के ‘यूरो-जोन’  की सदस्यता मिलने पर स्कॉटलैंड को अपने यहां ‘यूरो’ का प्रचलन करना और जर्मनी में फ्रैंकफर्ट स्थित यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) के नियमों से बंधना पड़ेगा. इसका मुख्य लाभ यह होगा कि बैंकिंग सेक्टर में किसी बड़े संकट की स्थिति में साझी यूरोपीय मुद्रा ‘यूरो’ के बचाव के लिए बनी कार्यप्रणाली उसके बैंकों के उद्धार की भी चिंता करेगी. नुकसान यह होगा स्कॉटलैंड के लिए तब विदेशी कालेधन का वैसा स्वर्ग बन पाना टेढ़ी खीर बन जायेगा जैसा वहां के नेता शायद सोच रहे हैं.

अलग-अलग मतसर्वेक्षणों में स्वतंत्रता के विरोधियों का ही पलड़ा भारी रहा है, हालांकि स्वतंत्रता के समर्थकों का अनुपात लगातार बढ़ता गया है

ताम-झाम आसान नहीं
विधि विशेषज्ञों का मानना है कि यह सारा ताम-झाम वैसे भी उतना आसान नहीं होगा जितना स्कॉटिश राष्ट्रवादी समझते हैं. इससे भी बड़ी बाधा यह है कि यूरोपीय संघ की साझी मुद्रा ‘यूरो’ स्वयं भी कुछ कम संकट में नहीं है. ‘यूरो’ स्कॉटलैंड में भी उतनी ही अलोकप्रिय है जितनी शेष ब्रिटेन में. 80 प्रतिशत लोग ‘यूरो’ नहीं चाहते. ‘यूरो’ के प्रति दुराव और पाउंड के प्रति लगाव ही ब्रिटेन के हाथ में वह तुरुप का पत्ता है, जिससे वह स्कॉटलैंड के जनमत संग्रह को विफल करने की आशा कर रहा है.

दूसरी ओर, स्कॉटलैंड उम्मीद कर रहा है कि ब्रिटेन से अलग होकर वह यूरोपीय संघ का 29वां सदस्य बन जाएगा. यूरोपीय संघ के विधि-विशेषज्ञ इसे भी इतना सरल नहीं मानते. उनके मुताबिक नियम यह है कि जो कोई क्षेत्र या प्रदेश संघ के किसी सदस्य देश से अलग होगा, वह अपने आप यूरोपीय संघ से भी बाहर हो गया माना जाएगा. यदि वह अपने नाम पर अलग से सदस्यता चाहता है तो उसे इसके लिए अलग से आवेदन करना होगा. यह आवेदन तभी स्वीकार हो सकता है, जब यूरोपीय संघ का हर सदस्य देश उसका अनुमोदन करेगा- यानी नयी सदस्यता के प्रश्न पर हर देश को वीटो का अधिकार है- ब्रिटेन को भी. ब्रिटेन चाहे तो अपने वीटो द्वारा स्कॉटलैंड की सदस्यता में टांग अड़ा सकता है. मजे की बात यह है कि ब्रिटेन स्वयं 2017 में अपने यहां जनमत संग्रह करवाना चाहता है कि वह यूरोपीय संघ का सदस्य बना रहे या नहीं. स्कॉटिश जनमत संग्रह का परिणाम यदि ब्रिटेन से स्वतंत्रता के पक्ष में, और ब्रिटिश जनमत संग्रह का परिणाम यूरोपीय संघ की वर्तमान सदस्यता के विपक्ष में निकला तब तो ब्रिटेन अपनी टांग नहीं अड़ा पाएगा.

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स्वतंत्रता विरोधियों का पलड़ा भारी
इन्हीं सब अड़चनों, दुविधाओं और दांव-पेचों भरी उलझनों के कारण 18 सितंबर को हो रहे जनमत संग्रह से पहले यह स्पष्ट नहीं था कि जनता का बहुमत स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता के पक्ष में है या विपक्ष में. पिछले कुछ महीनों से मीडिया व विभिन्न संस्थाओं द्वारा कराए जा रहे मत सर्वेक्षणों (ओपिनियन पोल) में स्वतंत्रता के विरोधियों का ही पलड़ा भारी रहा है, हालांकि स्वतंत्रता के समर्थकों का अनुपात लगातार बढ़ता गया है. उदाहरण के लिए, इन पंक्तियों के लिखने तक उपलब्ध ‘येस स्कॉटलैंड’ की ओर से 12 से 15 अगस्त के बीच करवाए गए मत सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लोग स्वतंत्रता के पक्ष में थे. 46 प्रतिशत विरुद्ध थे. 12 प्रतिशत कुछ तय नहीं कर पाए थे. ‘स्कॉटलैंड ऑन सन्डे’ की ओर से भी ठीक उन्हीं दिनों कराए गए मत सर्वेक्षण में केवल 38 प्रतिशत ने स्वतंत्रता का समर्थन किया. 47 प्रतिशत स्वतंत्रता के विरोधी थे और नौ प्रतिशत अनिश्चित थे. उन्हीं दिनों ‘द टाइम्स’ द्वारा कराए गए मत सर्वेक्षण के परिणाम तो और भी चौंकाने वाले थेः स्वतंत्रता के पक्ष में 38 प्रतिशत, उसके विरुद्ध 51 प्रतिशत और अनिश्चित 13 प्रतिशत.

सभी मत सर्वेक्षणों में औसतन एक हजार लोगों से उनकी राय पूछी गई. केवल इतने लोगों की राय 53 लाख की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती. मतसर्वेक्षणों से यदि फिर भी कुछ संकेत मिलता है, तो यही कि स्कॉटलैंड के भाग्य का फैसला वही लोग करेगे, जो जनमतसंग्रह के तीन सप्ताह पहले तक अपना मन नहीं बना पाए थे. उन्हीं के वशीकरण के लिए 25 अगस्त को स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता के पक्षधर मुख्यमंत्री अलेक्स सालमंड और स्वतंत्रता-विरोधी आन्दोलन के नेता एलिस्टेयर डार्लिंग के बीच दूसरी बार टेलीविजन-मुठभेड़ हुई. इस बहस के तुरंत बाद 41 प्रतिशत दर्शकों का मत था कि सालमंड ने कहीं बेहतर छाप छोड़ी है, जबकि 29 प्रतिशत को डार्लिंग की बातें पसंद आयीं. बहस के बाद मीडिया द्वारा कराए गए मतर्वेंक्षणों के परिणाम इन पंक्तियों के लिखने तक प्रकाशित नहीं हुए थे इसलिए कहा नहीं जा सकता कि बहस ने ‘हां’ और ‘ना’ के बीच की दूरी घटाई है या बढ़ाई है. स्कॉटलैंड के यदि आधे से कुछ अधिक मतदाता 18 सितंबर के दिन ‘येस’ (हां) पर निशान लगा देते हैं, तो ब्रिटेन ही नहीं, पश्चिमी यूरोप के ऐसे कई देशों के विघटन का भी बिगुल बज जायेगा, जो कभी साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी हुआ करते थे और आज अपने आप को संसार में लोकतंत्र का कर्णधार बताते हैं.

3--4641533426_e90d6027a9_bअगली बारी स्पेन की
लगभग 5,05, 000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और पौने पांच करोड़ जनसंख्या वाला देश स्पेन 17 स्वायत्तशासी क्षेत्रों व प्रदेशों वाला एक संसदीय राजतंत्र है. वैसे तो उसके लगभग सभी प्रदेशों में किसी न किसी रूप में पृथकतावाद की सुगबुगाहट चल रही है, पर देश के उत्तर में स्थित उसके दो प्रदेश- बास्क देश (बास्क अपने प्रदेश को देश ही कहते हैं) और कतालोनिया- अपने स्वाधीनता आंदोलनों के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं. दोनों के साथ एक बड़ा पेंच यह है कि वे जिस भूभाग को अपना मानते हैं, उसका कुछ हिस्सा पड़ोसी देश फ्रांस में भी पड़ता है. बास्क लोगों का आंदोलन बहुत ही उग्र एवं हिंसापूर्ण रहा है, जबकि कतालोनिया का अहिंसक और शालीन.

कतालोनिया के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग 1931 से चल रही है. यह मांग करने वाली वहां की राष्ट्रवादी पार्टियों को उस साल के नगरपालिका चुनावों में सबसे अधिक वोट मिले थे. 1932 में कतालोनिया को एक ‘संवैधानिक स्वायत्तता’ मिली भी, लेकिन 1936 में स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ जाने और 1939 में वहां जनरल फ्रांसिस्को फ्रांको की तानाशाही आ जाने के साथ छिन भी गई. इस तानाशाही का अंत 1975 में फ्रांको की मृत्यु और स्पेन में राजशाही लोकतंत्र की स्थापना के साथ हुआ. 1977 में कतालोनिया को अपनी स्वायत्तता वापस मिल गई, लेकिन समय के साथ पू्र्ण स्वतंत्रता की मांग भी जोर पकड़ती गई. कतालान लोग अपने आप को एक अलग राष्ट्र समझते हैं और हर वर्ष 11 सितंबर के दिन अपना राष्ट्रीय दिवस मनाते हैं. 2012 और 2013 के 11 सितंबर वाले दिन प्रादेशिक राजधानी बार्सेलोना में स्वाधीनता की मांग करती लाखों लोगों की ऐसी भीड़ उमड़ी कि सभी लोग दंग रह गए. ऐसे अनुशासित और शांतिपूर्ण प्रदर्शन स्पेन ने पहले कभी नहीं देखे थे.

कतालोनिया का स्वाधीनता-संकल्प
2012 वाले प्रदर्शन का असर यह हुआ कि कतालोनिया की विधानसभा को भंग कर, 25 नवंबर 2012 को, मध्यावधि चुनाव करवाए गए. चुनाव में पूर्ण स्वाधीनता की समर्थक पार्टियों को पूर्ण बहुमत मिल गया. इस बहुमत के बल पर विधानसभा ने 41 के विरुद्ध 85 मतों से ‘स्वतंत्रता और कतालान जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की घोषणा’ पारित करते हुए कहा कि ‘कतालोनिया की जनता का चरित्र एक सार्वभौम राजनीतिक एवं वैधानिक सत्ता’ जैसा, अर्थात एक स्वतंत्र राष्ट्र जैसा है. लेकिन, स्पेन के संविधान व्याख्या न्यायालय ने पहले तो इस घोषणा को निलंबित कर दिया और बाद में अवैध घोषित करते हुए ठुकरा दिया. इसके विरोध में 11 सितंबर 2013 को कतालोनिया के करीब 16 लाख निवासियों ने हाथ से हाथ मिलाते हुए 480 किलोमीटर लंबी मानव-श्रृंखला बना कर दुनिया का ध्यान अपने दृढ़निश्चय की ओर आकर्षित किया.

स्पेन में बास्क लोगों का आंदोलन बहुत ही उग्र एवं हिंसापूर्ण रहा है जबकि कतालोनिया का आंदोलन अपने अहिंसक और शालीन रूप के लिए जाना जाता है

ब्रिटेन के स्कॉटलैंड में नियोजित जनसंग्रह से प्रेरणा लेते हुए कतालोनिया की पृथकतावादी प्रादेशिक सरकार ने भी, नौ नवंबर 2014 को, अपने यहां जनमत संग्रह का आयोजन करने की घोषणा की है. स्पष्ट है कि यह जनमत संग्रह स्पेन के सर्वोच्च न्यायालय की संविधान-व्याख्या और केंद्रीय सरकार की इच्छा के विरुद्ध होगा. मतदाताओं के सामने दो प्रश्न रखे जाएंगेः पहला, ‘क्या आप चाहते हैं कि कतालोनिया एक राज्य (स्टेट) बन जाए?’  दूसरा प्रश्न होगा, ‘यदि आप का उत्तर सकारात्मक है, तो क्या आप चाहते हैं कि यह राज्य स्वतंत्र हो?’ स्पेनी सरकार ने कहा है कि वह इस जनमत संग्रह को नहीं होने देगी. सरकार ने यदि उसे रोकने के लिए बलप्रयोग किया तो प्रश्न यह होगा कि क्या उसके बाद भी कतालोनिया का स्वाधीनता आन्दोलन अहिंसक बना रहेगा?

कतालोनिया की अपनी अलग भाषा और संस्कृति है. उसकी गिनती स्पेन के सबसे खुशहाल प्रदेशों में होती है. वहां के 75 लाख निवासी 200 अरब यूरो के बराबर सकल घरेलू उत्पाद पैदा करते हैं, जो प्रति व्यक्ति 27,430 यूरो (लगभग 36 हजार डॉलर) बैठता है. कतालोनिया के नेताओं को शिकायत है कि स्पेन में चल रहे आर्थिक एवं वित्तीय संकट के इस दौर में उनके प्रदेश ने केंद्र सरकार द्वारा थोपी गई सारी कटौतियों को अब तक शिरोधार्य किया और अब वह स्वयं 44 अरब यूरो के ऋणभार से दब गया है. प्रदेश के सरकार प्रमुख आर्तुर मास कहते रहे हैं कि वे अपनी जनता की कमाई दूसरों के साथ बांट कर उसे हमेशा घटाते नहीं रह सकते. उनका यह भी कहना है कि स्पेन का संविधान कुछ भी कहे, वे जनमत संग्रह करा कर रहेंगे. उनकी सरकार द्वारा कराए गए एक मतसर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश की 74 प्रतिशत जनता कतालोनिया की स्वतंत्रता के पक्ष में है.

3-Flemish-nationalist-rallyबास्क लोगों का हिंसक आंदोलन
उग्र राष्ट्रवादी बास्क संगठन ‘एता’ (ईटीए) 1959 से ही स्पेन से अलग होने के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहा था. 2011 में हिंसा का रास्ता छोड़ने की अपनी घोषणा तक ‘एता’ लगभग चार हजार आतंकवादी हमलों और बम धमाकों में 830 लोगों की जान ले चुका था. इस हिंसा के कारण न केवल स्पेनी जनमानस, स्वयं बास्क प्रदेश के निवासियों में भी स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति सहानुभूति घटने लगी थी. स्पेनी बास्क अपने क्षेत्र को ‘एउस्काल ऐर्रिया’ (बास्क देश) कहते हैं. वे स्पेन और फ्रांस के जिस पूरे भूभाग को अपना बताते और उसे स्वतंत्र देश बनाना चाहते हैं, वह कुल मिलाकर 31 लाख जनसंख्या वाले सात जिलों- जैसे अंचलों का केवल 21, 000 वर्ग किलोमीटर बड़ा इलाका है. उसके तीन अपेक्षाकृत छोटे अंचल फ्रांस में पड़ते हैं और चार बड़े स्पेन में. दोनों देश बास्क स्वतंत्रता की मांग को ठुकराते हैं.

बेल्जियम के 63 लाख फ्लेमिशों का आरोप है कि देश का दक्षिणी हिस्सा उनके पैसे पर पल रहा है. वे जल्दी से जल्दी बेल्जियम से पल्ला झाड़ना चाहते हैं

लगभग 22 लाख की जनसंख्या वाला स्पेनी बास्क प्रदेश स्पेन का सबसे प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र है. 66 अरब यूरो के बराबर उसका सकल घरेलू उत्पाद 31,288 यूरो (लगभग 42 हजार डॉलर) प्रति व्यक्ति बैठता है जो स्पेनी प्रदेशों के बीच सबसे अधिक है. उदाहरण के लिए, भारत में यह अनुपात डेढ़ हजार डॉलर प्रति व्यक्ति से कुछ अधिक है. अपनी भाषाई व सांस्कृतिक भिन्नताओं तथा स्पेन का सबसे संपन्न प्रदेश होने के नाते बास्क पृथकतावादियों का मानना है कि वे एक स्वतंत्र देश होने पर और अधिक प्रगति कर सकते हैं. स्पेन तो किसी हद तक उनकी भाषा और संस्कृति को स्वीकार करता है, किंतु फ्रांस उन्हें पूरी तरह पचा लेना चाहता है.

बास्क प्रदेश में 20 अक्टूबर, 2012 को हुए प्रादेशिक चुनावों से पृथकतावादियों के हाथ और भी मजबूत हुए हैं. इनमें एक नया वामपंथी गठबंधन ‘एउस्काल ऐर्रिया बिल्दू’ (एएचबी) पहली ही बार में 21 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रहा. इस गठबंधन को अतीत में उग्रवादी रहे ‘एता’ का नया राजनीतिक चेहरा माना जाता है. बास्क राष्ट्रवादी पार्टी ‘पीएनवी’ और ‘ईएचबी’ को मिलाकर बास्क प्रदेश की विधानसभा में पृथकतावादियों के पास अब दो-तिहाई सीटों का अपूर्व बहुमत हो गया है. बास्क पृथकतावादी अब पूरी तन्मयता के साथ देखेंगे कि कतालोनिया में नौ नवंबर को होने वाले जनमत संग्रह के बाद स्पेन में घटनाचक्र क्या मोड़ लेता है. देर-सवेर वे भी अपने यहां जनमत संग्रह के माध्यम से स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करने का पूरा प्रयास करेंगे.

4-south-tyrol-is-not-italiaदो पाटों के बीच बेल्जियम
क्षेत्रफल में राजस्थान के 10वें हिस्से के बराबर और केवल एक करोड़ 10 लाख की जनसंख्या वाला बेल्जियम शुरू से ही एक ऐसा अजूबा रहा है, जिसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह दशकों पहले ही टूट नहीं गया. अतीत में फ्रांस और हॉलैंड शासित दो इलाकों को जोड़कर 1830 में बने इस बनावटी देश के दोनों हिस्से कभी पूरी तरह जुड़ नहीं पाए. उत्तर के डच भाषी फ्लांडर्स और दक्षिण के फ्रेंच भाषी वालोनिया के बीच हमेशा खटपट बनी रही. डचभाषियों की जनसंख्या फ्रेंच भाषियों की दोगुनी है. दोनों के बीच विद्वेष ने देश को कई बार टूटने के कगार तक पहुंचाया, पर वह अब तक हर बार बाल-बाल बचता गया.

द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक औद्योगिक दृष्टि से कहीं विकसित फ्रेंच भाषी वालोनिया-वासी, खेती-किसानी की प्रधानता वाले डच भाषी फ्लेमिशों की खिल्ली उड़ाया करते थे. विश्वयुद्ध के बाद संपन्नता और विकास का पलड़ा फ्लेमिशों के पक्ष में पलट गया. अब वे फ्रेंच भाषियों की खिल्ली उड़ाते हैं और नहीं चाहते कि उन्हें अपनी खुशहाली उनके साथ बांटनी पड़े. 63 लाख फ्लेमिश, जो बेल्जियम के सकल घरेलू उत्पाद में करीब 28 हजार यूरो (लगभग 37,500 डॉलर) प्रति व्यक्ति के हिस्सेदार हैं, यथासंभव बेल्जियम से पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं.

बेल्जियम का ‘चेक-बुक संघवाद’
बंदरगाह नगर एन्टवर्प बेल्जियम के फ्लांडर्स हिस्से का सबसे बड़ा और राजधानी ब्रसेल्स के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा नगर है. 15 अक्टूबर 2012 को एन्टवर्प में स्थानीय चुनाव हुए थे. चुनाव परिणामों में 36 प्रतिशत मतों के साथ ‘नियू-फ्लाम्से अलियांसी’ (नव फ्लेमिश गठबंधन- एन-वीए) नाम की एक नई पृथकतावादी पार्टी सबसे आगे रही. उसके नेता और एन्टवर्प के नए मेयर बार्त दे वेवर ने चुनाव से पहले कहा था कि फ्लेमिश लोग ‘ऐसी गायों की तरह हमेशा दुहे जाने से थक गए हैं जिनका काम बस खूब मलाईदार दूध देना है.’  उनका यह भी कहना था कि बेल्जियम मात्र एक ‘ट्रांसफर यूनियन’ बन कर रह गया है जिसका एक हिस्सा दूसरे के धन पर पल रहा है और जो पूरी तरह ‘चेक-बुक संघवाद’ पर आश्रित है. चुनाव के बाद प्रधानमंत्री को ललकारते हुए उन्होंने कहा कि वे ‘देशव्यापी परिवर्तनों’ की तैयारी शुरू कर दें.

बार्त दे वेवर की पार्टी 2010 में बेल्जियम में हुए उन संसदीय चुनावों में भी पूरे देश में सबसे आगे रही थी जिनके बाद डेढ़ साल तक वहां कोई नई सरकार ही नहीं बन पाई. वर्तमान प्रधानमंत्री एलियो दी रूपो फ्रेंच भाषी हैं. वे अब भी प्रधानमंत्री हैं, क्योंकि जुलाई 2014 में हुए संसदीय चुनावों के बाद इस बार भी किसी नई सरकार का गठन नहीं हो पाया है. इन चुनावों से फ्लेमिश पार्टी ‘एन-वीए’ की शक्ति और बढ़ी है. आशंका है कि 2010 की तरह इस बार भी महीनों तक कोई नई सरकार नहीं बन पाएगी. राजनीतिक अस्थिरता भी किसी देश की एकता के लिए घातक होती है. अब तो फ्लांडर्स क्षेत्र के उद्योगपति और कारोबारी भी देश के विभाजन का समर्थन करने लगे हैं.

इन देशों में पृथकतावाद की आग को गरीबी, बेरोजगारी या किसी भेदभाव से ज्यादा अपने ही धनवान अंचलों की स्वार्थपरता से हवा मिल रही है

बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स ही यूरोपीय संघ की राजधानी और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन ‘नाटो’ का मुख्यालय भी है. ब्रसेल्स फ्लांडर्स में पड़ता है, पर वहां फ्रेंच भाषा का बोलबाला है. देश यदि टूटता है, तो उस के दो नहीं तीन टुकड़े बन सकते हैं. तीसरा टुकड़ा उन 76 हजार जर्मन भाषियों का होगा जो देश के पूर्व में जर्मनी की सीमा के पास बसे हुए हैं और संभवतः जर्मनी के साथ विलय की मांग कर सकते हैं.

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कोर्सिया में दिशासूचकों पर लिखे गए शब्द मिटा दिए गए हैं.

फ्रांस भी आक्रांत 
पश्चिमी यूरोप के प्रमुख देशों में फ्रांस सबसे अधिक केंद्रवादी देश है. वहां उस तरह के प्रांत या प्रदेश नहीं हैं जिस तरह के ब्रिटेन, स्पेन या बेल्जियम में हैं. दूर से देखने पर फ्रांस बहुत ठोस, समरूपी और शक्तिशाली लगता है, लेकिन पृथकतावाद से वह भी अछूता नहीं है. स्पेन की सीमा से लगे फ्रांस के दक्षिण-पूर्वी भाग में जो बास्क और कतालान अल्पसंख्यक रहते हैं, वे भी जब-तब याद दिलाया करते हैं कि वे अपनी भाषा और संस्कृति के दमन से व्यथित हैं. बास्क और कतालोनिया यदि स्पेन से अलग होकर स्वतंत्र देश बनने में सफल हो गए, तो फ्रांस का सिरदर्द और बढ़ जाएगा. तब वे या फ्रांस के बास्क और कतालान सीमा के दोनों ओर के भूभागों के विलय की मांग कर सकते हैं.

भूमध्य सागर में स्थित फ्रांस के कोर्सिका द्वीप पर भी फ्रांस से अलग होने की मांग होती ही रहती है. वहां राष्ट्रवादियों के विद्रोह का दमन करने के लिए, 1970 के दशक के मध्य में, फ्रांस को सैनिक बलप्रयोग का सहारा लेना पड़ा था. वहां फ्रांस के प्रति असंतोष की शुरुआत तब हुई जब पिछली सदी में फ्रांस की मुख्य भूमि से आए या उसके अफ्रीकी उपनिवेश अल्जीरिया की स्वतंत्रता के बाद अल्जीरिया से भागे फ्रांसीसी भारी संख्या में वहां आकर बसने लगे. उनके बसने या बसाए जाने से मूल कोर्सिकन अपने ही घर में अल्पसंख्यक बन गए. साथ ही कोर्सिका की स्थानीय भाषा को स्कूलों और सार्वजनिक स्थानों पर वर्जित किया जाने लगा.

वहां का पृथकतावादी ‘एफएलएनसी’ आंदोलन 1976 से हत्याओं और बम धमाकों द्वारा बाहर से आए फ्रांसीसियों को भगाने और कोर्सिका को आजाद कराने का प्रयास करता रहा है. केवल तीन लाख जनसंख्या वाले कोर्सिका द्वीप की आजादी तो अभी भी दूर है, लेकिन 1980 और 1990 में आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक,  कृषि, ऊर्जा, परिवहन जैसे कई मामलों में वहां के स्थानीय प्रशासन के अधिकार बढ़ा दिए गए. एक समय ऐसा भी आया जब फ्रांस की संसद ने मान लिया कि कोर्सिका की जनता एक अलग राष्ट्र है. लेकिन, इस मान्यता को बाद में यह कहते हुए वापस भी ले लिया गया कि यह संविधान के विरुद्ध जाती है. जून 2014 में ‘एफएलएनसी’ ने सशस्त्र संघर्ष छोड़ शांतिपूर्ण संघर्ष जारी रखने की घोषणा की है. जनमत संग्रह के बल पर ब्रिटेन का स्कॉटलैंड स्वतंत्र हो जाता है, तो इससे कोर्सिका के पृथकतावादियों को ही नहीं, फ्रांस की मुख्य भूमि पर ‘ब्रेतान’, ‘प्रोवैंस’ और ‘अल्जास’ जैसे क्षेत्रों के निवासियों को भी एक नई स्फूर्ति और फ्रांसीसी सरकार को नया सिरदर्द मिलेगा.

इटली में दक्षिणपंथ की धूम
उत्तरी इटली की कई पार्टियों का एक गठबंधन है, जिसे संक्षेप में ‘लेगा नोर्द’ (नॉर्दर्न लीग) कहा जाता है. उसके पूरे नाम का हिंदी में अर्थ होगा ‘पदानिया की स्वतंत्रता के लिए उत्तरी लीग.’ 1991 में बने इस दक्षिणपंथी गठबंधन का उस समय उद्देश्य था ‘पदानिया’ को एक स्वतंत्र देश बनाना, या कम से कम उसे व्यापक स्वायत्तता दिलवाना. ‘पदानिया’ उसकी शब्दावली में उत्तरी इटली का वह भाग है, जिसे ‘पदानियाई-वेनेतो मैदान’ भी कहा जाता है और जो देश के दक्षिणवर्ती हिस्सों की अपेक्षा अधिक विकसित है. ‘लेगा नोर्द’ के संस्थापक और मुख्य नेता उम्बेर्तो बोस्सी इटली के पू्र्व प्रधनमंत्री सिल्वियो बेर्लुर्स्कोनी की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं.

2010 के क्षेत्रीय चुनावों में यह गठबंधन अपने क्षेत्र में सबसे बड़ा राजनीतिक घटक बन कर उभरा. वह चाहता है कि या तो इटली को एक ऐसी संघात्मक शासन प्रणाली में बदल दिया जाए जिसमें उसकी संघटक इकाइयों के पास व्यापक अधिकार हों- विशेषकर व्यापक आर्थिक अधिकार- या फिर उत्तर के ‘पदानिया’ को शेष इटली से छुटकारा मिले. उत्तरी इटली काफी औद्योगीकृत और संपन्न है, जबकि देश के कृषिप्रधान दक्षिणी भागों में बेरोजगारी और ग़रीबी का अनुपात कहीं अधिक है. ‘लेगा नोर्द’  के नेता कर-राजस्व का अधिकतर हिस्सा अपने ही पास रखना चाहते हैं. वे बहुत खुल कर तो नहीं कहते कि ऐसा नहीं होने पर वे इटली से अलग हो जाएंगे पर उनके आलोचकों का मानना है कि वे इटली के बंटवारे की भूमिका तैयार कर रहे हैं. इस बीच उत्तरी इटली के एक नामी उद्योगपति ने स्वतंत्रता की मांग करने वाली एक अलग संस्था बनाई है जिसमें ‘लेगा नोर्द’ के भी कुछ लोग शामिल हैं. इस संस्था ने बीती फरवरी में एक जनमतसंग्रह करवाया. इसमें, उसके कहने के अनुसार, 47 प्रतिशत लोगों ने इटली से अलग हो जाने का समर्थन किया. इटली में व्यापक भ्रष्टाचार और वर्षों से अपनी उपेक्षा के कारण उसके सिसली और सार्डीनिया द्वीपों से भी पृथकतावादी प्रवृत्तियों के समाचार मिला करते हैं.

खुशहाल अंचलों के निवासी अपनी मलाईदार खीर पिछड़े अंचलों के साथ बांटना नहीं चाहते. वे अलग देश बनाकर उसे अकेले ही डकार जाना चाहते हैं

4-padaniaभाग्य को कोसता दक्षिणी टिरोल
उत्तरी इटली का जर्मन भाषी दक्षिणी टिरोल धन-धान्य से संपन्न तो है ही, ऑस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड की तरह ही स्वर्ग-समान सौंदर्य से भी भरपूर है. पहले वह ऑस्ट्रिया का ही एक हिस्सा हुआ करता था और टिरोल कहलाता था. पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1919 में बने यूरोप के नए नक्शे में टिरोल को दो भागों में बांट दिया गया. उत्तर-पूर्वी भाग जर्मन भाषी ऑस्ट्रिया के पास रहने दिया गया. दक्षिणी भाग इटली को दे दिया गया.

दक्षिणी टिरोल वाले तभी से अपनी किस्मत को कोस रहे हैं. इटली में 1922 में सत्ता में आई फासिस्ट सरकार ने जर्मन भाषा और संस्कृति पर रोक लगा दी. वह गांवों, शहरों, सड़कों, झीलों और पहाड़ों को मनमाने इतालवी नाम देने लगी. स्थिति तब बदली जब द्वितीय विश्वयुद्ध में तानाशाह मुसोलिनी की पराजय और उसकी हत्या के बाद इटली में एक जनतांत्रिक सरकार बनी. उसने 1946 में दक्षिणी टिरोल को स्वायत्तशासी दर्जा दिया, लेकिन साथ ही उसे इतालवी भाषी त्रेन्तीनो प्रदेश का हिस्सा बनाकर भाषायिक अल्पमत में डाल दिया. दक्षिणी टिरोल वासियों ने इसके विरोध में हिंसा और आतंकवाद को अपनाना शुरू कर दिया. हार मानकर इटली ने उन्हें 1992 में व्यापक स्वायत्तशासी अधिकार दिए.

इस बीच इटली भी यूरो मुद्रा वाले कई अन्य देशों की तरह दीवालिया होने से बचने की जी-जान से कोशिश कर रहा है. सरकार अपने बचत और कटौती अभियान में दक्षिणी टिरोल को भी शामिल करने लगी है. इससे वहां पुराने घाव फिर से हरे होने लगे हैं. भारत में गोआ से कुछ बड़े दक्षिणी टिरोल की जनसंख्या केवल पांच लाख 10 हजार है, लेकिन प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद लगभग 35 हजार यूरो है.

इटली की सरकार अपने ऋणभार को घटाने के लिए दक्षिणी टिरोल से भी अतिरिक्त योगदान की मांग कर रही है. नतीजा यह हो रहा है कि बहुत से टिरोल वासी एक बार फिर पूछने लगे हैं कि इटली में बने रहने का आखिर फायदा क्या है. वहां के पृथकतावादी कह रहे हैं कि उनके प्रदेश का 90 प्रतिशत राजस्व उन्हीं के पास रहना चाहिए, वर्ना वे इटली से अलग हो जाने के लिए फिर से उठ खड़े होंगे.

अमीरों का पृथकतावाद
अलगाववादी प्रवृत्तियों की व्याख्या करते समय अब तक मुख्य तर्क यही दिया जाता रहा है कि उनकी जड़ में आंचलिक गरीबी, बेरोजगारी, अत्याचार, भेदभाव या आर्थिक पिछड़ापन होता है. लेकिन, यूरोप के प्रसंग में हम पाते हैं कि दो दशक पहले (तत्कालीन सोवियत संघ के एशियाई हिस्सों के इतर) पू्र्वी यूरोप में लगभग एक दर्जन नए देशों का उभरना स्थानीय राष्ट्रवाद की आग का ही नहीं, उस आग में नाटो के यूरोपीय सदस्य देशों द्वारा डाले गए घी का भी परिणाम था. जर्मनी को छोड़कर, उस समय की आग में घी डालने वाले कई पश्चिमी यूरोपीय देशों का अपना हाथ इस समय जल रहा है. 1990 वाले दशक में तत्कालीन युगोस्लाविया में प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप कर जब ये देश उसे छिन्न-भिन्न कर रहे थे, तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि अलगाव के इस अलाव की आंच से कभी वे भी झुलस सकते हैं.

इन देशों में पृथकतावाद की आग को गरीबी, बेरोजगारी या किसी भेदभाव से अधिक उनके अपने ही धनवान, खुशहाल अंचलों की अवसरवादिता और स्वार्थपरता से या फिर ऐतिहासिक यादों से हवा मिल रही है. खुशहाल अंचलों के निवासी अपनी मलाईदार खीर पिछड़े अंचलों के साथ बांटने के बदले अलग देश बनाकर अकेले ही डकार जाना चाहते हैं. उनके नेताओं को यूरोपीय संघ में व्याप्त आर्थिक और वित्तीय संकट से अलग होने का एक सुनहरा मौका नजर आ रहा है, हालांकि यूरोपीय संघ में वे भी बने रहना चाहते हैं. वे यह भी जानते हैं कि आज का यूरोपीय संघ ही एक दिन अमेरिका जैसा ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ बनने वाला है. उसके झंडे तले तब वे एक ही मेज पर उन्हीं लोगों की बगल में फिर बैठेंगे जिन्हें आज बुरा-भला कह रहे हैं.

एक नया धर्मसंकट
इस बीच पश्चिमी यूरोप के देशों में राजनीतिज्ञों और समाजशास्त्रियों की कई ऐसी पुस्तकें या लेख आदि भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें अगले कुछ दशकों में जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्वीडन जैसे देशों में इस्लामी पृथकतावाद के उभरने के प्रति आगाह किया गया है. उनका कहना है कि 40-50 वर्ष पूर्व इन देशों में मुसलमानों की संख्या नगण्य हुआ करती थी. इस बीच एशिया और अफ्रीका से आकर इन देशों में बस गए मुस्लिम शरणार्थियों तथा वैध-अवैध अप्रवासियों की कुल संख्या इन देशों की अपनी जनसंख्या के चार से 10 प्रतिशत के बराबर हो गई है. वे अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान खोने के डर से स्थानीय समाज के साथ घुलना-मिलना पसंद नहीं करते. स्थानीय समाज में भी उनके प्रति नस्लीय या अन्य प्रकार के पूर्वाग्रह हैं. ऐसे ही तनावों के कारण ब्रिटेन, फ्रांस और स्वीडन में भारी दंगे भी हो चुके हैं. इन लेखकों का मत है कि कुछ इस्लामी देश स्वयं जिस तरह टूट रहे हैं और पश्चिमी यूरोप के देश अपने यहां इस्लामी कट्टरपंथ या आतंकवाद से जिस तरह जूझ रहे हैं, वह सब मिल कर पश्चिमी यूरोप को इस्लामी पृथकतावाद के लिए उर्वर भूमि बना रहा है. पश्चिमी यूरोप के देश इस नई चुनौती को लेकर बड़े धर्मसंकट में हैं. एक तरफ तो उदार मानवीय मूल्यों पर आधारित उनके लोकतांत्रिक संविधान जातीय या धार्मिक भेदभाव की अनुमति नहीं देते, दूसरी तरफ नेताओं को वोट के लिए उसी जनता के सामने जाना पड़ता है, जो अपने ही देश में विदेशी बन जाने की शिकायत करती है.

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पद की पिटी भद

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कहा जाता है कि गुजरात की राज्यपाल रहते हुए वहां की नरेंद्र मोदी सरकार के साथ टकराव ही मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल की विदाई का कारण बना.

26 मई को केंद्र में नई सरकार का गठन हो जाने के बाद ‘नये युग का सूत्रपात’, ‘अब आएंगे अच्छे दिन’, और ‘नमो राज’ जैसी हेडलाइनों के बाद उन सुर्खियों की शुरुआत हुई जो मोदी सरकार के भावी कदमों की तरफ इशारा करती थीं.  कई तरह के अनुमानों, आशंकाओं और संभावनाओं के बीच राज्यपालों के संबंध में भी एक भविष्यवाणी हुई. इसके मुताबिक बहुत जल्द ऐसे राज्यपालों की उलटी गिनती शुरू होने वाली थी जिनकी नियुक्ति पिछली यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुई थी. अलग-अलग खबरों में दावा किया गया कि ऐसे सभी राज्यपालों को हटा कर मोदी सरकार अगले पांच सालों के लिए अपने ‘फ्लेवर’ वाले लोगों को राजभवनों में स्थापित करने वाली है. इसी बीच 17 जून को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. भविष्यवाणी सच होती दिखने लगी. जोशी के बाद अगले कुछ ही दिनों के अंदर तीन और राज्यपालों (पश्चिम बंगाल, नागालैंड, और छत्तीसगढ़) ने भी राजभवन छोड़ दिए. भूतपूर्व हो चुके इन राज्यपालों के स्थान पर केंद्र सरकार ने भाजपाई पृष्ठभूमि वाले चार वरिष्ठ नेताओं को महामहिम बना कर मीडिया के दावे पर पूरी तरह से मुहर लगा दी. इसके कुछ दिनों बाद केंद्र सरकार ने मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल और पुडुचेरी के उप राज्यपाल वीरेंद्र कटारिया को बर्खास्त करके अन्य राज्यपालों को भी संकेत कर दिया कि जल्द से जल्द इस्तीफा देने में ही उनकी भलाई है. तबसे लेकर अब तक राज्यपालों के हटने का यह क्रम बदस्तूर जारी है. 24 अगस्त को महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकर नारायण  और इसके दो दिन बाद केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित के इस्तीफे के बाद यह संख्या आठ तक पहुंच गई है.

लेकिन इस्तीफों के इस पतझड़ के बीच उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी ने राजभवन छोड़ने से साफ इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, अंगद के पांव की तरह राजभवन में जमे कुरैशी ने खुद को हटाए जाने की आशंका जताते हुए उच्चतम न्यायालय में एक याचिका तक दायर कर दी. इस याचिका में उन्होंने केंद्र सरकार पर खुद को हटाये जाने के लिए दबाव डालने का आरोप लगाया. कुरैशी का आरोप है कि 30 जुलाई और आठ जून को गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उन्हें फोन करके इस्तीफा देने के लिए कहा था. याचिका में यह भी कहा गया है कि इस अधिकारी ने कुरैशी से खुद इस्तीफा न देने की सूरत में उन्हें मजबूरन हटा दिए जाने की धमकी दी. कुरैशी की याचिका पर सुनवाई करने के बाद उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर छह हफ्ते के अंदर जवाब मांगा है. भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब कोई राज्यपाल अपनी कुर्सी बचाने के लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार से टकराया है. इसके बावजूद जानकारों का मानना है कि आज नहीं तो कल, कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले अजीज कुरैशी को उत्तराखंड के राजभवन से रुखसत होना ही पड़ेगा.

राज्यपालों पर पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने के आरोप लग रहे हैं. उनकी नियुक्ति में भी केंद्र सरकारों द्वारा किया जा रहा पक्षपात साफ दिखता है

जानकारों ने ऐसा क्यों कहा, इसे समझने के लिए आज से 10 साल पहले हुआ इसी तरह का एक घटनाक्रम याद करना जरूरी है. 3 जुलाई, 2004 को अचानक खबर आई थी कि केंद्र सरकार ने चार राज्यों के राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया है. दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि वाले इन राज्यपालों की नियुक्ति अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई थी. इनको हटाने की वजह बताते हुए तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने तब इतना ही कहा था कि, ‘इनके साथ तालमेल बिठाने में केंद्र को दिक्कतें आ सकती हैं.’ भारतीय जनता पार्टी उस वक्त विपक्ष में थी और उसने केंद्र के इस कदम का विरोध करते हुए इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया था. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का तब कहना था कि ‘पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में नियुक्त किए गए राज्यपालों को हटाना गलत परंपरा की शुरुआत है.’ मगर अपने फैसले पर अड़े केंद्र ने तब भाजपा की एक न सुनी.

3-tarun-sir-newवक्त का पहिया आज 180 डिग्री घूम चुका है. उस वक्त अपने फैसले की तरफदारी करने वाली कांग्रेस आज भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों को हटाए जाने का विरोध कर रही है. उधर, तब इसे ‘गलत परंपरा की शुरुआत’ बताने वाली भाजपा आज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रही है.

ऐसे में राज्यपालों को उनके पद पर बनाए रखने, हटाए जाने और नियुक्त किये जाने को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं. इन सवालों का संबंध इस पद की संवैधानिकता, प्रासंगिकता और उपयोगिता से जुड़ता है. पूछा जा रहा  है कि अतीत में जैसा कांग्रेस ने किया, उसी तरह इस पद पर अपने अनुकूल चलने वाले लोगों को नियुक्त कर मोदी सरकार भी कहीं राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की जमीन तो तैयार नहीं कर रही.

सवाल यह भी है कि इस संवैधानिक पद के इस हद तक राजनीतिकरण के बाद इसका क्या औचित्य बचता है. यानी ऐसे राज्यपाल का क्या मतलब जिसकी शानो-शौकत में जनता की गाढ़ी कमाई खर्च हो रही हो, लेकिन वह जनता से ज्यादा किसी पार्टी के हितों को समर्पित हो ?

इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए संविधान के उन पन्नों को टटोलने से शुरुआत करनी होगी जिनमें राज्यपाल पद का जिक्र किया गया है. संविधान निर्माताओं ने केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन साधने वाले सेतु के रूप में राज्यपाल पद को संवैधानिक मान्यता दी थी. इसके पीछे यही उद्देश्य था कि राज्यपाल नियुक्त होने वाला व्यक्ति राज्य में केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर इस तरह का समन्वय बनाएगा ताकि भारत के संघीय ढांचे की अवधारणा किसी भी स्थिति में बिगड़ने न पाए. इस लिहाज से राज्यपाल के पद को विशेष सम्मान और गरिमा प्रदान की गई थी. लेकिन धीरे-धीरे यह गौरवमयी संस्था अपने उद्देश्यों के उलट नकारात्मक भूमिका के चलते आलोचना के दायरों में आने लगी है. संसद से लेकर राज्यों की विधान सभाओं और सार्वजनिक मंचों से लेकर व्यक्तिगत मोर्चों पर इसकी उपयोगिता को लेकर कई तरह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं. यहां तक कि इस पद को भविष्य में बरकरार रखे जाने पर तक असंतोष के स्वर उठने लगे हैं.

आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह सम्मानजनक पद आलोचना की श्रेणी में आ गया? जानकारों की मानें तो राज्यपाल के पद को लेकर पिछले लंबे अर्से से की जाने वाली खास तरह की राजनीति ही इसकी सबसे बड़ी वजह है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि केंद्र सरकार की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है, लेकिन पिछले लंबे समय से इस संवैधानिक पद का जिस तरह से राजनीतिकरण किया गया है उसके चलते इसकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है.’ अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहती हैं, ‘राज्यपाल पद पर बैठे व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत भावना से ऊपर उठकर काम करेंगे, लेकिन पिछले कुछ सालों में ही ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं जिनमें राज्यपालों पर पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने के आरोप लगे हैं. इसके अलावा राज्यपालों को नियुक्त करने में भी सरकारों ने अब तक जिस तरह का पक्षपात किया है उससे भी इस पद की निष्पक्षता संदेहास्पद हो गई है.’

राजनितक विश्लेषक प्रोफेसर विवेक कुमार भी नीरजा चौधरी की बातों से पूरी तरह सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘सत्ता के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था के तहत हमारे देश में केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों का प्रावधान भी बनाया गया है. इसी के तहत केंद्र तथा राज्यों के बीच कामकाज तथा अधिकारों का बंटवारा भी तय किया गया है. इस लिहाज से राज्यपाल के पद की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी गई है, ताकि इन दोनों के बीच किसी भी तरह के विवाद से निपटने में उसकी अहम भूमिका हो. लेकिन वर्तमान में राज्यपाल पद पर मनमुताबिक लोगों की नियुक्ति करके केंद्र सरकारों ने इसके महत्व को पूरी तरह कम कर दिया है.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्यों में अपना एजेंडा चलाने के लिए केंद्र सरकारों द्वारा राज्यपालों को इस्तेमाल किया जाने लगा है. यही वजह है कि पहले कांग्रेस और अब भाजपा राज्यों में अपने हिसाब से चलने वाले वाले लोगों को राज्यपाल बनाने में लगी हुई है. आगे चलकर ये राज्यपाल वही करते हैं जो उनसे करवाया जाता है.’

‘अगर राज्यपालों का काम सिर्फ केंद्र के इशारों पर अमल करना रह गया है तो इससे न तो आम आदमी का कुछ भला हो सकता है और न ही राजनीति का’

राज्यपालों के दलगत भावनाओं से ऊपर न उठने और पार्टी विशेष की तरफदारी या मुखालफत करने वाले जिस आचरण की ओर नीरजा चौधरी और विवेक कुमार का इशारा है, उसकी पड़ताल करने पर ऐसे मामलों की एक लंबी फेहरिस्त सामने आती है जिससे पता चलता है कि राज्यपालों ने केंद्र और राज्यों के बीच सेतु का काम करने वाली अवधारणा को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इतिहास के पन्ने टटोलने पर पता चलता है कि भारत की आजादी के एक दशक के अंदर ही राज्यपालों द्वारा केंद्र के पक्ष में काम करने वाली परिपाटी शुरू हो गई थी. 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को राज्यपाल की सिफारिश के बाद बर्खास्त कर दिया गया था. इससे पहले 1952 में भी मद्रास प्रेसीडेंसी के राज्यपाल द्वारा सत्ताधारी दल के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन किया जा चुका था. उस वक्त राज्यपाल ने कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिल पाने के बावजूद सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया था. इसके बाद सी राजगोपालाचारी वहां के मुख्यमंत्री बने थे. इसके अलावा अन्य राज्यों में भी राज्यपालों द्वारा कांग्रेस के प्रति सहानुभूति साफ देखी जा सकती थी. लेकिन तब ये बातें उतना जोर नहीं पकड़ पाईं. इसकी वजह पुडुचेरी के उपराज्यपाल पद से हाल ही में हटाए गए वीरेंद्र कटारिया की बातों से स्पष्ट होती है. कुछ दिन पहले एक टीवी कार्यक्रम में उनका कहना था कि उस वक्त केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी की सरकार होती थी लिहाजा राज्यपाल के कामकाज को लेकर किसी तरह का विवाद कम ही देखा सुना जाता था.

लेकिन जैसे-जैसे राज्यों में दूसरी पार्टियां राजनीतिक रूप से और ताकतवर होने लगीं, राज्यपालों की भूमिका भी असल मायनों में समीक्षा के दायरे में आने लगीं. 1980 के दशक तक आते-आते तो आलम यह हो गया था कि केंद्र सरकार के इशारों पर राज्यपालों द्वारा ‘जो हुक्म मेरे आका’ की तर्ज पर अंजाम दिए जाने वाली करामातें खुल कर दिखने लगीं थी. 1984 में एनटी रामाराव के नेतृत्व वाली तेलगू देशम पार्टी नें आंध्र प्रदेश विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की करारी मात देते हुए जोरदार बहुमत हासिल किया था. इसके बावजूद वहां के राज्यपाल रामलाल ने कुछ समय बाद ही रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया. कई दिनों तक जोड़-तोड़ करने के बाद भी कांग्रेस जब सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाई तो आखिरकार राष्ट्रपति ने हस्तक्षेप किया और एनटी रामाराव फिर से मुख्यमंत्री बन गए. यह घटना किसी राज्यपाल द्वारा केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने के लिए आज भी कुख्यात उदाहरण के तौर पर गाहे-बगाहे याद की जाती है. इसी तरह की एक और घटना उत्तर प्रदेश में भी हुई जब वहां के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने विश्वास मत हासिल कर चुकी कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी थी. भंडारी को कांग्रेस ने राज्यपाल बना कर उत्तर प्रदेश भेजा था. केंद्र के इशारों पर राज्यपालों का राज्य सरकारों से टकराने का यह सफरनामा इतना लंबा है कि इसकी पदचाप बिहार, झारखंड और कर्नाटक से होते 2005 में गुजरात तक से सुनाई पड़ने लगी थी. राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव की इन अलग-अलग कहानियों के बीच एक दिलचस्प बात यह है कि जिन-जिन राज्य सरकारों के साथ अब तक राज्यपालों का टकराव हुआ उन सभी राज्यों में ऐसी पार्टियों की सरकार थी, जो केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी की विरोधी थी. इस बार भी, यानी मोदी सरकार के बनने के बाद जिन राज्यों से राज्यपालों की विदाई हुई है उनमें भी छत्तीसगढ को छोड़ कर बाकी सभी जगहों पर गैर भाजपा की सरकार है.

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इसीलिए आशंका जताई जा रही है कि इन राज्यों के राज्यपालों को हटाने और इनके स्थान पर अपने अनुकूल चलने वाले लोगों को नियुक्त कर मोदी सरकार भी कहीं राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की जमीन तो तैयार नहीं कर रही.

देश का राजनीतिक मिजाज समझने वाले जानकार इसका जवाब ‘हां’ में देते हैं. प्रसिद्ध समाज शास्त्री और अब आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘केंद्र सरकारों द्वारा अपने लोगों को राज्यपाल बनाने की जो गलत परंपरा कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी के दौर में शुरू की थी वह अब तक बदस्तूर जारी है. अपने मिजाज के लोगों को राज्यपाल बनाने के पीछे केंद्र सरकारों का सबसे बड़ा उद्देश्य यही रहा है कि इनके जरिए उन राज्यों में अपना एजेंडा आसानी से लागू करवाया जा सके जहां विरोधी पार्टी की सरकार है. यही वजह है कि भाजपा भी अब अपने लोगों को राज्यपाल बना कर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्यों में भेजने की शुरुआत कर चुकी है. चिंताजनक बात यह है कि यह इन राज्यों के राज्यपालों का कार्यकाल बचा होने के बावजूद हो रहा है.’

1988 में सरकारिया आयोग ने राज्यपालों की नियुक्ति पर कुछ अहम सुझाव दिए थे. लेकिन न सरकार और न ही विपक्ष ने कभी इन पर कोई संजीदगी दिखाई

लेकिन क्या किसी राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाया जाना गलत है? संविधान के जानकार और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है और इसी आधार पर राज्यपालों को उनके पद पर बनाए रखना और हटाना भी राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है. लेकिन ऐसा कई बार हुआ है जब राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटा दिया गया.’ अपनी बात को और सरल करते हुए वे कहते हैं, ‘संविधान में राज्यपाल को बदलने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन ऐसा करने के पीछे उचित कारण होने चाहिए.’

2010 में उच्चतम न्यायालय भी ऐसा ही एक निर्णय सुना चुका है जो कश्यप की बातों को पुख्ता करता है. दरअसल 2004 में यूपीए द्वारा चार राज्यपालों को अचानक हटाए जाने के बाद बाद भाजपा नेता बीपी सिंघल उच्चतम न्यायालय में चले गए थे. उन्होंने सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए न्यायालय में दलील दी थी कि राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले बे-वजह नहीं हटाया जाना चाहिए. जिसके बाद मई  2010 में अदालत ने आदेश दिया कि राज्यपाल केंद्र सरकार के कर्मचारी नहीं हैं और उन्हें बिना किसी ठोस वजह के नहीं हटाया जा सकता है. अपने आदेश में सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपालों को हटाने के लिए सरकार को उचित कारण बताने होंगे.

ऐसे में एक और सवाल पैदा होता है कि क्या हटाए गए राज्यपालों को लेकर मोदी सरकार ने अभी तक इसका कोई वाजिब कारण बताया है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘यूपीए द्वारा नियुक्त किए गए और अब इस्तीफा दे चुके आठ राज्यपालों मे से कुछ ने शुरुआती वक्त में इस्तीफा नहीं देने के संकेत दिए थे तो इस पर गृह मंत्री का कहना था कि ‘अगर मैं उस जगह पर होता, तो इस्तीफा दे देता.’ इस बयान से ही साफ हो जाता है कि राज्यपालों के मसले पर यह सरकार भी उसी रास्ते पर चलने का मन बना चुकी है जिसका उसने किसी जमाने में जोरदार विरोध किया था.’ वे आगे कहती हैं, ‘यह स्थिति तब है जबकि राज्यपालों के पक्ष में 2010 का अदालती आदेश मौजूद है.’

प्रोफेसर विवेक कुमार की मानें तो सत्ता का केंद्रीकरण करने की महत्वाकांक्षा के चलते ऐसा हो रहा है. यही वजह है कि राज्यपाल को केंद्र सरकारें ऐसे आदमी के रूप में देखने लगी हैं, जो राज्यों में उसके राजनीतिक उद्देश्यों को परवान चढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है. कई और जानकारों की मानें तो यह प्रवृति आगे चल कर और भी खतरनाक रूप में सामने आ सकती है.

तो फिर सवाल उठता है कि केंद्र और राज्यों के बीच समन्वयक की भूमिका निभाने के लिए बनाए गए राज्यपाल का काम यदि केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति करना-भर रह गया है तो फिर इस पद की जरूरत ही क्या है? क्योंकि अब तक की इस कथा से इतना तो पूरी तरह साफ हो चुका है कि पिछले लंबे अर्से से चल रहा राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण अब भी जारी है. इसके अलावा ऐसे मामलों की भी कोई कमी नहीं है जो बताते हैं कि राज्यपालों का कामकाज पाक-साफ नहीं रह गया है.

नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अगर राज्यपालों का काम सिर्फ केंद्र के इशारों पर अमल करना रह गया है तो फिर इस संदर्भ में एक नई बहस की जरूरत है. क्योंकि राज्यपालों की इस भूमिका से न तो आम आदमी का भला हो सकता है और न ही राजनीति का. वैसे भी राज्यपालों की शानो-शौकत में बहुत ज्यादा पैसा खर्च होता है जिसकी भरपाई जनता की जेब से ही की जाती है.’ वरिष्ठ टेलीवीजन पत्रकार राजदीप सरदेसाई भी राज्यपाल पद की उपयोगिता को लेकर हाल ही में एक लेख के जरिए सवाल उठा चुके हैं. वे लिखते हैं, ‘सरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करने, उद्घाटनों के फीते काटने और नीरस भाषण देने जैसे कामों में व्यस्त राज्यपालों की भूमिका सिद्धांतत: रस्मी ही है. ऐसे में कोई राज्यपाल देश के लोकतंत्र में सार्थक योगदान किस प्रकार देता है ? वह केवल त्रिशंकु विधानसभा होने की दशा में ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जब जोड़-तोड़ से विश्वासमत हासिल किया जाता है. और यहां भी ज्यादातर बार उसकी भूमिका विवादास्पद ही होती है.’ 2013 में लोकसभा के अंदर भी राज्यपाल के पद को समाप्त करने संबंधी बातें उठ चुकी हैं. उस वक्त भारतीय जनता पार्टी के सांसद कीर्ति आजाद ने इस पद को औचित्यहीन बताते हुए इसे खत्म कर देने की मांग की थी. आजाद की इस मांग को कई दूसरे सांसदों ने भी तब समर्थन दिया था.

हालांकि राजनीतिक मामलों की एक अन्य जानकार मनीषा प्रियम राज्यपाल पद को खत्म करने की हिमायती नहीं हैं. अपने एक लेख में वे तर्क देती हैं कि, ‘किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आने पर तत्काल राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की जा सकती. इसके अलावा राज्य के हालात की जानकारी भी राज्यपाल ही राष्ट्रपति को मुहैया कराते हैं, जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन का फैसला लिया जाता है.’ वे आगे लिखती हैं, ‘देखा जाय तो उतना विवाद राज्यपालों की नियुक्ति या हटाए जाने को लेकर नहीं है, जितना कि उनके द्वारा किये जाने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर देखने में आता है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राज्यपालों द्वारा राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के उपाय ढूंढे जाएं.’

ऐसा नहीं है कि इस तरह के उपाय ढूंढे नहीं गए. केंद्र तथा राज्यों के संबंधों में शक्ति-संतुलन की समीक्षा करने के उद्देश्य से 1983 में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश, जस्टिस राजिंदर सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था. सरकारिया आयोग ने 1988 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. रिपोर्ट में आयोग ने राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. इनमें तीन महत्वपूर्ण बातें थीं. पहला सुझाव यह था कि, राजनीति में सक्रिय लोगों को राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए. दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह था कि राज्यपालों का चयन केंद्र सरकार की बजाय एक ऐसी समिति द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, उपराष्ट्रपति और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री बतौर सदस्य शामिल हों. इसके अलावा आयोग ने यह भी राय दी थी कि, राज्यपाल का पद छोड़ने के बाद ऐसे व्यक्ति को किसी भी लाभ वाले पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए.

लेकिन इन तीनों ही सुझावों को लेकर न तो कभी सरकार ने संजीदगी दिखाई और न ही विपक्षी दलों ने इसको लेकर कोई मजबूत पैरवी की. इन तीनों सुझावों के उलट देखा जाए तो राज्यपाल पद पर सक्रिय राजनीति में रहने वाले लोगों की नियुक्तियां लगातार जारी हैं. राज्यपाल को चुनने के लिए कोई भी समिति नहीं बनाई गई है और आखिरी बात यह कि इस पद से रिटायर होने के बाद कई लोग सक्रिय राजनीति में वापस आ कर केंद्रीय मंत्री तक बन चुके हैं. पिछली यूपीए सरकार में गृह मंत्री रहे सुशील कुमार शिंदे और विदेश मंत्री रहे एसएम कृष्णा इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं. हाल ही में महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद के शंकरनारायण भी सक्रिय राजनीति में वापसी की बात कर चुके हैं.

बहरहाल इतना साफ है कि राज्यपाल पद को लेकर उभरी मौजूदा विसंगतियों के समाधान में ही इस संवैधानिक पद की सार्थकता निहित है. तमाम सवालों के बीच राज्यपाल पद की खूबियों और खामियों की पहचान एक बड़ा मुद्दा है और चुनौती भी. जानकारों की मानें तो इस पद के औचित्य को लेकर उठने वाले तरह-तरह के सवालों का जवाब ढूंढना इसलिए भी जरूरी है ताकि यह पता लग सके कि वर्तमान में केंद्र के रहमोकरम पर चलने वाली राज्यपाल रूपी यह संवैधानिक संस्था क्या वाकई में केंद्र और राज्य के बीच सेतु की भूमिका निभाने वाली बन सकती है, जैसा कि संविधान निर्माताओं ने इसके बारे में चाहा था. अगर नहीं तो इसका विकल्प क्या है?

pradeep.sati@tehelka.com

 

न्याय की रक्षक को न्याय की तलाश

Aruna-Rai

23 अप्रैल 2014 का दिन खबरों के लिहाज से बेहद घटनापूर्ण था. आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की जांच के लिए बनी जस्टिस मुद्गल कमेटी ने इसी दिन बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन की भूमिका अपनी जांच के दायरे में लेने का फैसला किया था. इसी दिन एक वीडियो सामने आया था जिसमें पूर्व ‘आप’ नेता शाजिया इल्मी मुसलमानों से वोट देते समय ‘कम्युनल’ हो जाने की अपील करती दिख रही थीं. इसी दिन बॉलीवुड के दो चमकदार नामों रानी मुखर्जी और आदित्य चोपड़ा ने एक-दूजे का हो जाने की घोषणा भी की थी. इतनी सारी खबरों के बीच दिल्ली से सटे मेरठ शहर से आई एक खबर लगभग गुम हो गई. यह खबर थी मेरठ के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में तैनात एक महिला सब इंसपेक्टर (एसआई) के साथ हुए यौन दुर्व्यवहार की. हालांकि खबर पूरी तरह दम तोड़ती उससे पहले सोशल मीडिया और दूसरे माध्यमों के जरिए इस पर बहस छिड़ गई. इस चर्चा में आने का नतीजा यह हुआ कि मामले की जांच के लिए पुलिस को विभागीय जांच बिठानी पड़ी और प्रदेश सरकार को एक अलग जांच कमेटी बनानी पड़ी. तहलका को मिली जानकारी के मुताबिक कमेटी ने अपनी फाइनल रिपोर्ट में आरोपी को दोषी भी पाया है.

लेकिन अब उस रिपोर्ट को लेकर सरकार और पुलिस विभाग का रुख कुछ स्पष्ट नहीं है. आरोपी अधिकारी एक बार फिर से बहाल हो चुका है. पीड़िता एसआई अपनी लड़ाई को फिर भी आगे बढ़ाने में लगी हुई है. उधर, इस मामले में आरोपी और उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उलटे खुद को ही पीड़ित बताते हैं .

यह कहानी मेरठ के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में तैनात एसआई अपूर्वा राय (बदला हुआ नाम) की है. 23 अप्रैल को अपूर्वा अपने दफ्तर में थीं जब उनके वरिष्ठ अधिकारी उप महानिरीक्षक (डीआईजी) देवी प्रसाद श्रीवास्तव ने उन्हें अपने कमरे में तलब किया. अपूर्वा के मुताबिक उनके कमरे में प्रवेश करने के बाद श्रीवास्तव ने उनके साथ मौखिक और शारीरिक रूप से अभद्रता करने की कोशिश की. अपूर्वा किसी तरह से उनके कमरे से निकलीं और अपने वरिष्ठ अधिकारी सीओ धुरेंद्र कुमार सिंह से डीआईजी के आचरण की शिकायत की. श्रीवास्तव यहीं नहीं रुके उन्होंने मोबाइल के जरिए अपूर्वा से संपर्क करने की कई कोशिशें की. पीड़िता द्वारा बतौर सबूत पेश किए गए मोबाइल रिकॉर्ड से भी इस बात की पुष्टि होती है. आरोपों के मुताबिक डीआईजी ने आगे भी पीड़िता को परेशान करना जारी रखा. उन्होंने अपने पद की धौंस देते हुए पीड़िता पर किसी तरह की शिकायत न करने का दबाव डाला. आरोप है कि इससे भी बात नहीं बनी तो उन्होंने अपनी पत्नी को अपूर्वा को मनाने के लिए भेजा. बाद में फोन पर उन्होंने अपूर्वा से माफी मांगते हुए उन्हें अपनी बहन बनाने का प्रस्ताव भी रखा जिसे अपूर्वा ने रिकॉर्ड कर लिया. यह रिकॉर्डिंग भी बतौर साक्ष्य जांच कमेटी के सामने प्रस्तुत की गई है. तहलका ने जब इस मामले पर श्रीवास्तव से बात की तो उनका कहना था, ‘मैंने उसकी गलती पर उसे डांटा था. इन लोगों ने मेरठ पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में अपना गुट बना रखा है. इसके जरिए ये लोग उलटे-सीधे काम करते हैं. वरिष्ठ होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं चीजों पर नजर रखता. लेकिन उसने इस डांट को यौन उत्पीड़न के रूप में लोगों के सामने रखा. इससे मैं बहुत नर्वस हो गया. उसी दबाव में मैंने उससे माफी मांगी थी.’

अपूर्वा के मुताबिक अपने साथ हुई इस घटना से घबराकर उन्होंने वरिष्ठ अधिकारी के अनैतिक व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया. 26 अप्रैल को डीजी ट्रेनिंग अरविंद कुमार जैन का पुलिस ट्रेनिंग स्कूल, मेरठ का दौरा था. अपूर्वा ने उनसे डीआईजी की लिखित शिकायत कर दी.

यहां एक बात पर ध्यान देना जरूरी है. शुरुआत से ही अपूर्वा कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिए बने नए कानून के तहत शिकायत दर्ज करवाना चाहती थीं. लेकिन विभाग ने उनकी बात पर ध्यान दिए बिना एक विभागीय जांच शुरू कर दी. लेकिन अपूर्वा पूरे समय अपनी इस बात पर अड़ी रहीं कि उन्हें महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न कानून के तहत मामला दर्ज करवाना है. इसके तहत एक स्वतंत्र कमेटी का गठन करना अनिवार्य था. इस बीच अपूर्वा ने एक और काम किया, उन्होंने अपने साथ हुए शोषण को सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से भी आगे बढ़ाया.

अपूर्वा की शिकायत के आधार पर उनके विभाग ने आंतरिक जांच शुरू कर दी. लेकिन अपूर्वा को इस विभागीय जांच पर भरोसा नहीं था. उनका दबाव था कि मामले की जांच यौन उत्पीड़न के नए कानूनों के तहत एक कमेटी करे. मामला बड़ा होता जा रहा था. पुलिस विभाग पर दबाव बढ़ गया था लिहाजा आनन-फानन में तीन मई को विशाखा गाइडलाइंस के तहत एक और जांच कमेटी का गठन कर दिया गया. बाद में इस कमेटी को यौन उत्पीड़न के नए कानून के तहत पूर्ण कालिक कमेटी का दर्जा दे दिया गया. यह कमेटी विभागीय जांच के समानांतर अपनी जांच आगे बढ़ाने लगी. यहां से इस मामले में पेंच फंसते दिखते हैं. अपूर्वा कहती हैं, ‘मुझे विभागीय कार्रवाई पर कभी भी भरोसा नहीं था. यह लोग मामले में लीपापोती करने की कोशिश कर रहे थे. इसीलिए मैं शुरू से ही यौन उत्पीड़न अधिनियम के तहत मामला दर्ज करवाना चाहती थी.’

जांच के दौरान हुए घटनाक्रम से अपूर्वा का यह आरोप समझा जा सकता है. विभागीय जांच कर रही कमेटी को अपनी रिपोर्ट 45 दिनों के भीतर देनी थी. पर यह जांच अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. विभागीय जांच के एक नियम के मुताबिक अगर नियत समय के भीतर जांच की रिपोर्ट नहीं आती है तो आरोपी व्यक्ति का निलंबन वापस लेकर उसे बहाल कर दिया जाना चाहिए. इस कानूनी पेंच की मदद से आरोपी डीपी श्रीवास्तव का निलंबन वापस ले लिया गया है. बहाल करते हुए उन्हें डीजी ऑफिस लखनऊ से अटैच कर दिया गया है.

समय सीमा के भीतर रिपोर्ट आ जाने के महीने भर बाद भी पुलिस महानिदेशक कार्यालय ने अभी तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है

इस मामले में पुलिस विभाग की हीलाहवाली का एक दूसरा पक्ष भी है. जो पुलिस विभाग 45 दिन में रिपोर्ट न दे पाने की तकनीकी सीमाओं का फायदा उठा कर आरोपी अधिकारी को तत्काल बहाल कर देता है उसी विभाग का विशाखा कमेटी की रिपोर्ट के प्रति जो रवैया है वह सवाल खड़े करता है. तहलका को मिली जानकारी के मुताबिक रिपोर्ट में आरोपी डीआईजी श्रीवास्तव के खिलाफ संस्तुतियां की गई हैं जिसमें विभागीय कार्रवाई के साथ ही उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न कानून 2013 के तहत एफआईआर दर्ज करने की बात कही गई है. गौरतलब है कि इस कमेटी को अपनी रिपोर्ट 90 दिनों के भीतर दे देनी थी. कमेटी ने इससे पहले ही पांच अगस्त को अपनी रिपोर्ट पुलिस महानिदेशक को सौंप दी. लेकिन जो पुलिस विभाग 45 दिन के नियम का हवाला देकर आरोपी को बहाल करने में कोई वक्त नहीं लगाता वह समय से पहले कमेटी की रिपोर्ट आ जाने पर भी उसकी संस्तुतियों पर कार्रवाई करने की बजाय चुप है. इस जांच कमेटी की एक सदस्य शालिनी माथुर कहती हैं, ‘मैं जांच के निष्कर्षों के बारे में तो कुछ नहीं कहूंगी. इतना जरूर कहूंगी कि लगभग महीना होने को आ रहा है, लेकिन पुलिस महानिदेशक कार्यालय ने अभी तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है.’ तहलका ने यह जानने की कई कोशिशें कीं कि कमेटी द्वारा दी गई जांच रिपोर्ट पर पुलिस विभाग क्या कार्रवाई कर रहा है. उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक आनंद लाल बनर्जी से फोन और ईमेल से संपर्क करने के प्रयास किए गए. लेकिन खबर लिखे जाने तक उनका कोई जवाब नहीं आया था.

वैसे शुरुआत से ही इस पूरे मामले में विभाग का रवैय्या सवालिया रहा है. तीन मई को जांच कमेटी का गठन होने के बाद जांच की प्रक्रिया आगे बढ़ी. इसी के तहत 31 मई को आरोपी अधिकारी के खिलाफ मेरठ के महिला थाने में एक एफआईआर भी दर्ज करवाई गई. इसमें तमाम धाराओं के साथ ही धारा 364 भी लगाई गई थी. यह गैर जमानती धारा है जिसमें आरोपी की गिरफ्तारी संभव थी. 13 जून को पुलिस ने चुपके से यह धारा एफआईआर से हटा दी. इससे अपूर्वा के आरोपों को बल मिलता है कि पुलिस विभाग मामले में लीपापोती कर रहा था. लेकिन आरोपी डीआईजी श्रीवास्तव का इस पूरे प्रकरण पर अपना अलग मत है. वे कहते हैं, ‘पुलिस ने प्रथम दृष्टया अपनी जांच में ऐसा कुछ पाया ही नहीं तो धारा लगाने का सवाल ही पैदा नहीं होता.’

अपूर्वा राय का पूरा मामला असल में उत्तर प्रदेश समेत देश के सारे पुलिस विभाग में महिलाओं के प्रति फैली एक किस्म की उदासीनता की कहानी है. अपूर्वा कहती हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद आज तक प्रदेश के पुलिस विभाग में विशाखा गाइडलाइंस की तर्ज पर कोई कमेटी नहीं है जहां महिलाएं अपने साथ हुए किसी तरह के दुर्व्यवहार की शिकायत कर सकें. मेरे साथ भी यही हुआ. अगर मीडिया और सोशल मीडिया में लोगों ने सहयोग नहीं किया होता तो शायद इस मामले में भी जांच कमेटी का गठन नहीं किया जाता.’ इस मामले की जांच कमेटी की सदस्य शालिनी माथुर कहती हंै, ‘महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न से जुड़े कानूनों को लेकर किसी को ज्यादा कुछ पता नहीं है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़ा कानून है लेकिन उसके बारे में महिलाकर्मियों को ज्यादा कुछ पता नहीं है. इस एक्ट का एक प्रमुख हिस्सा है कि इस कानून का प्रचार-प्रसार संबंधित विभाग द्वारा किया जाए और लोगों को इसके बारे में जागरुक किया जाए, लेकिन इस किस्म की कोई प्रयास विभागीय स्तर पर नहीं होता है. यह चिंता का विषय है.’

जानकारी या कहें कि विकल्पों के अभाव में अक्सर इस तरह के मामले लीपापोती करके बंद कर दिए जाते हैं. अपूर्वा इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि उन्हें कानूनों की भी जानकारी थी और उन्होंने इस मामले मंे अपनी पहचान न छिपाने का फैसला किया. इससे उन्हें अपनी लड़ाई को सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म पर ले जाने में आसानी हुई. इसके बावजूद उनकी लड़ाई अभी अधर में है. फिलहाल मामले में पुलिस विभाग का रवैया लचर है, लेकिन अपूर्वा का हौसला कायम है. वे कहती हैं, ‘मैं अपनी लड़ाई को अंतिम मुकाम तक पहुंचाऊंगी. आगे की लड़ाई में मैं सूचना कानून के अधिकार का सहारा लूंगी.’

जीत-हार का सार

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25 अगस्त को दोपहर के पहले तक समाचार चैनलों पर घूमती पर्टियां यह संकेत दे रही थीं कि बिहार उपचुनाव में कांटे का मुकाबला हो रहा है. इस दौरान पटना स्थित भाजपा कार्यालय में एक पार्टी कार्यकर्ता का चेहरा देखने लायक था. आंखें बंद करके बुदबुदाते हुए वे मनौती पर मनौती मांगे जा रहे थे कि हे भगवानजी, ज्यादा नहीं, बस पांच-पांच का खेल किसी तरह कर दीजिए, हम यह करेंगे, वह करेंगे.

लेकिन मनौती और मन्नत काम न आई. थोड़ी ही देर में नतीजे साफ हो गए.10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा गठबंधन की पारी चौके पर सिमट गई थी और उसके मुकाबले नये-नवेले जदयू-राजद महागठबंधन ने छक्का लगा दिया था. इसके बाद पटना के वीरचंद पटेल पथ पर आधे किलोमीटर के दायरे में ही बने तीनों प्रमुख दलों, भाजपा, जदयू और राजद के दफ्तरों का माहौल मौके के हिसाब से ढल गया. जदयू कार्यालय में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल था. राजद कार्यालय में पटाखे फोड़े जाने लगे. उधर, भाजपा कार्यालय में मायूस चेहरों का जुटान होने लगा.

जदयू कार्यालय थोड़ी ही देर में शांत हो गया क्योंकि पार्टी नेता नीतीश कुमार ने मीडिया को घर पर ही बुला लिया था. अपने सरकारी आवास पर मीडिया से बात करते हुए नीतीश कुमार की हंसी देखने लायक थी. बहुत दिनों बाद वे संवाददाताओं से खुलकर बात कर रहे थे. उनका ठहाका तो कैमरे के लिए एक दुर्लभ फ्रेम जैसा था. नीतीश जानते थे कि यह जीत इतनी बड़ी नहीं है कि इसे लोकसभा चुनाव में मिले झटके की भरपाई कहा जा सके. लेकिन जब वे मीडिया से बात कर रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि बहुत दिनों बाद बहुत खुश होना चाहते हैं. कृत्रिम या स्वाभाविक, जिस रूप में भी सही, लेकिन बहुत खुश होने के मूड में दिख रहे थे नीतीश. इसके कारण भी थे. वे अरसे बाद अपने घोर राजनीतिक दुश्मन लालू प्रसाद के साथ मिले थे. जनता इस पर मुहर लगाती है या नहीं, इसका परीक्षण इस चुनाव में होना था. इसे लेकर ही सबसे ज्यादा धुकधुकी भी हुई होगी उन्हें. चुनाव परिणाम ने जदयू को बताया कि परीक्षण पर जनता की मुहर लग गई है. लेकिन शायद उस रूप में नहीं, जिस रूप में उम्मीद थी.

साफ है कि भाजपा न तो अगड़ों के बीच ऐसा आधार बना पाई है कि निश्चिंतता में जी सके और न ही वह नीतीश-लालू के मूल वोट बैंक में सेंधमारी कर सकी है

जिन 10 सीटों पर चुनाव हुए, उनमें से छह पर पहले भाजपा काबिज थी. उसे दो सीटें गंवानी पड़ीं. पार्टी को सबसे बड़ा झटका भागलपुर और छपरा में लगा. ये शहरी क्षेत्र उसका गढ़ थे. अपने ही गढ़ में हारने की उम्मीद भाजपा को नहीं रही होगी. लेकिन भागलपुर में कांग्रेस ने भाजपा से सीट छीन ली तो छपरा में भाजपा के बागी ने खेल बिगाड़कर राजद की जीत आसान कर दी.

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की तबीयत चूंकि ज्यादा खराब हो गयी थी, इसलिए पार्टी में जश्न उस तरह से नहीं मन पाया जैसा उनकी मौजूदगी में मनता. इस चुनाव परिणाम के समय लालू पटना में न होकर इलाज के लिए मुंबई में थे. वहीं से उन्होंने ट्वीट कर संदेश दिया कि यह सामाजिक न्याय की जीत है. लालू प्रसाद पटना में होते तो चुनाव परिणाम के समय बयानों का रंग कुछ और होता. संभवतः वे यह भी कहते कि वे असल भविष्यवक्ता हैं बिहार के. लोकसभा चुनाव में हारने के बाद वे लगातार तोतारटंत अंदाज में बोलते आ रहे थे कि हमारा, नीतीश कुमार का और कांग्रेस का वोट मिला देने से लोकसभा चुनाव में 45 प्रतिशत के करीब वोट होता है, तीनों साथ मिलकर लड़ते तो भाजपा कहीं की नहीं होती. विधानसभा चुनाव में तीनों साथ मिलकर लड़े तो वोट सच में 45.23 प्रतिशत पहुंच गया और भाजपा गठबंधन, जो लोकसभा में 45.24 प्रतिशत वोट पाने में सफल रहा था, 37.56 प्रतिशत पर सिमट गया.

इस चुनाव के पहले और परिणाम आने के बाद एक बड़ा सवाल चर्चा में रहा कि क्या लालू प्रसाद द्वारा बार-बार हवा में उछाला गया जुमला हकीकत में बदलेगा. यानी क्या मंडलवादी ताकतों का एका होगा. सवाल यह भी है कि वर्षों तक लालू के विरोधी रहे और इस विरोध पर ही अपनी राजनीति खड़ी करनेवाले नीतीश कुमार दो दशक बाद अपनी पूरी साख और राजनीतिक सिद्धांत दांव पर लगाकर उन्हीं लालू से मिल गए हैं तो क्या उनकी स्वीकार्यता होगी? या वे और भी पीछे चले जाएंगे? भाजपा ने हाल ही में बिहार में आश्चर्यजनक तरीके से उफान और तूफान पैदा करते हुए जीत का परचम लहराया था. लेकिन उपचुनाव में उसे हार मिली. तो क्या लोकसभा में उसे जो वोट मिला वह सिर्फ एक लहर की ताकत थी जो अब घट रही है?

ऐसे तमाम सवालों के जवाब इस उपचुनाव के जरिये छोटे दायरे में ही मिलने थे. मिले भी. मंडल की राजनीति की संभावनाएं अब कितनी बाकी हैं? कमंडल की लहर क्या जाति की राजनीति पर भारी पड़ चुकी है? क्या मंडल के जरिये कमंडल और कमंडल के जरिये मंडल की राजनीति से लड़ा जा सकता है? इन सवालों के जवाब भी इस चुनाव से एक हद तक मिले. यह अलग बात है कि बहुत साफ नहीं.

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उपचुनाव के नतीजों के बाद मीडिया से बात करते भाजपा सुशील मोदी. फोटो: सोनू किशन

मंडल बनाम कमंडल

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को सामाजिक न्याय की दो शक्तियां कहा जाता है. उनके अरसे बाद मिलन और उसके बाद व्यक्त की जा रही संभावनाओं के आधार पर क्या यह परिणाम वाकई मंडलवादी ताकतों के एकजुट हो जाने के फल जैसा रहा? अरसे बाद खुलकर किए गए प्रयोग के जरिये क्या राजनीति में मंडल प्रभाव अब भी असरदार साबित हुआ या नतीजे कुछ और बताते हैं? यह भी सवाल उठा कि क्या वाकई मंडल के हथियार से कमंडल से लड़ना अब भी उसी तरह संभव है, जैसा दो दशक पहले हुआ करता था.

बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं. उपचुनाव था कुल 10 सीटों पर यानी पांच फीसदी से भी कम जगह के लिए. तिस पर मतदान हुआ सिर्फ 44 फीसदी. यानी लोगों के बढ़-चढ़कर वोट देने जैसी बात नहीं रही. साफ है कि ऐसे उपचुनाव के नतीजे देखकर इन सवालों का जवाब देना इतना आसान नहीं है. फिर भी कुछ संभावित जवाब चुनाव परिणाम वाले दिन ही गढ़ लिए गए. जैसे कि, मंडल प्रभाव जैसा कुछ नहीं, दस सीटों में से पांच सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों की जीत हुई है. इन पांच में से चार सवर्ण महागठबंधन खेमे से ही जीते हैं, भाजपा से सिर्फ एक. महागठबंधन के जिन छह उम्मीदवारों की जीत हुई, उनमें से चार सवर्ण, एक पासवान और एक यादव थे. इसके दूसरे संकेत और संदेश भी मिले. यानी महागठबंधन में न तो महादलित कोटे से कोई जीत  सका, न अतिपिछड़ा समूह से और न ही महागठबंधन की ओर से मैदान में उतारे गए दो मुस्लिम उम्मीदवारों में से किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित हो सकी.

महागठबंधन खेमे से सवर्ण उम्मीदवारों की आसानी से जीत और मुस्लिम उम्मीदवारों का हार जाना दूसरे संकेत लेकर आया. कहा जा रहा है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन का असर सिर्फ यही नहीं रहा कि पिछड़ी जातियां मंडलवादी ताकतों से जुड़ गईं बल्कि यह भी कि इसका असर सभी जातियों पर रहा. यह नीतीश कुमार के लिए खुशी की बात हो सकती है. उन्होंने चुनाव परिणाम आते ही तुरंत कहा भी कि भाजपा यह समझती है और हवा फैला रही है कि सवर्ण उसके खेमे में चले गए हैं, लेकिन चुनाव परिणाम से यह साफ हुआ कि बिहार में लोगों ने जाति से ऊपर उठकर वोट किया, सभी जातियों की इस महागठबंधन पर मुहर लगी.

लोकसभा चुनाव की सफलता नीतीश से निराशा या लालू से पुरानी नाराजगी की वजह से नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के नाम पर बनी लहर की वजह से मिली थी

नीतीश कुमार यह सोचकर खुश हो सकते हैं. लेकिन बांका और नरकटियागंज सीट के नतीजों के निहितार्थ उलट दिशा में जाते दिखते हैं. इन सीटों पर महागठबंधन की ओर से मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे गए थे. वे हार गए. इस नतीजे का एक विश्लेषण यह भी किया जा रहा है कि मुस्लिम उम्मीदवार उतारने के खिलाफ मतदाता जाति से ऊपर उठकर संप्रदाय और धर्म के आधार पर गोलबंद हो गए और मुस्लिम उम्मीदवार हार गए. यानी विश्लेषण किसी एक निष्कर्ष की तरफ जाता नहीं दिखता.

चुनाव परिणामों से न तो यह पता चल पा रहा है कि मंडलवादी ताकतों की गोलबंदी हुई या नहीं और न ही इस बात की थाह कोई लगा पा रहा है कि कमंडलवादी ताकतों के दिन गुजर गए हैं या नहीं. यह उहापोह सबसे ज्यादा भाजपा के लिए पीड़ा लेकर आया है. भाजपा के विधायक दल के नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं, ‘भले ही महागठबंधन को छह सीटें मिल गई हों और हमें आशानुरूप सफलता न मिली हो, लेकिन सुकून है कि महागठबंधन की यह जीत मंडलवादी प्रभाव की जीत के रूप में सामने नहीं आई है. यह स्थानीय कारणों से हुई जीत है.’

नंदकिशोर यादव की बात सही है कि यह मंडलवादी ताकतों की जीत नहीं है, लेकिन महागठबंधन की इस जीत ने भाजपा को न निगल पाने और न उगल पाने वाली स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है. अगर यह मंडल प्रभाव की जीत नहीं है और महागठबंधन ने लालू-नीतीश के एक हो जाने के बाद भी चार-चार सवर्ण उम्मीदवारों को जितवा लिया है तो भाजपा के लिए भविष्य के लिहाज से यह बुरा संकेत है. माना जा रहा था कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन से सवर्ण मतदाताओं का पूरा समूह उनसे खिसककर भाजपा के खाते में शिफ्ट हो चुका है. लेकिन उपचुनाव के परिणाम ने यह अवधारणा झुठला दी है. साथ ही यह संदेश भी दिया है कि महागठबंधन ने अगर भविष्य में सामाजिक न्याय के नारे और मंडलवादी ताकतों के एका के साथ सीट के हिसाब से मुफीद उम्मीदवार चुने  तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि भाजपा के लिए छोटे स्तर पर ही हुआ यह उपचुनाव साफ संदेश लाया है कि बिहार, जहां की राजनीति जब-तब जाति के खोल में समाती रहती है, वहां भाजपा न तो ठीक से अगड़ों के बीच ऐसा आधार बना पाई है कि निश्चिंतता में जी सके और न ही वह नीतीश-लालू के मूल वोट बैंक में सेंधमारी कर सकी है.

खैर! इस चुनावी नतीजे का सब अपने-अपने तरीके से विश्लेषण कर रहे हैं. पटना स्थित अनुग्रह नारायण सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान के निदेशक डॉ डीएम दिवाकर कहते हैं कि इस चुनाव परिणाम को सामाजिक न्याय की धारा की जीत के रूप में देखा जाना चाहिए और सांप्रदायिक ताकतों की हार के रूप में. इस बीच राजग के एक प्रमुख घटक और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का अपना मत है. वे इसे जातिवाद के साथ जोड़ते हैं. कुशवाहा कहते हैं कि केंद्र की सरकार में एक जाति को, जिसने बिहार में राजग का साथ दिया था, प्रतिनिधित्व नहीं मिला, इसलिए इस बार राजग की यह हार हुई.

अलग-अलग लोगों के अलग-अलग तर्क हैं. किसके सही हैं, किसके नहीं, यह कहना भी इतना आसान नहीं. लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि कुछ महीने पहले ही बिहार में कई मान्यताओं को ध्वस्त करते हुए 40 में से 31 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाने वाले भाजपा गठबंधन को जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं था. यह भी साफ हुआ कि लोकसभा चुनाव में मिली अपार सफलता नीतीश कुमार से उभरी निराशा या लालू प्रसाद से पुरानी नाराजगी की वजह से नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के नाम पर बनी लहर की वजह से मिली थी जिससे फौरी तौर पर सीटें तो मिल गईं, लेकिन लहर उसी तेजी के साथ वापस भी चली गई. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि जिन 10 सीटों पर उपचुनाव हुए, उनमें आठ विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा बढ़त बनाने में सफल रही थी. लेकिन उप चुनाव में उनमें से चार सीटें पार्टी के हाथ से निकल गईं. कइयों के मुताबिक यह बहुत हद तक भाजपा के अतिआत्मविश्वास और मोदी लहर के जरिये ही राज्य में भी बेड़ा पार कर लेने का मंसूबा पाल लेने की वजह से हुआ. लोकसभा चुनाव में भारी जीत की खुमारी और अगले साल होनेवाले चुनाव के लिए शीर्ष पर विराजमान हो जाने के ख्वाब के साथ आपस में ही उलझे भाजपा नेताओं के सामने यह छोटा-सा चुनाव बड़ी चुनौती की तरह सामने आ गया है.

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पटना में महागठबंधन की जीत पर खुशी मनाते राजद कार्यकर्ता. फोटो: सोनू किशन

भाजपाः  बाहर बड़ी लड़ैय्या, घर में उठापटक

इस अहम चुनाव को भाजपा के नेता परिणाम आने के बाद भले ही महत्वहीन करार देने में लगे हुए हों, लेकिन यह सच सबको पता है कि भाजपा को अगर एक और सीट मिल गई होती, जिसकी मनौती चुनाव परिणाम आने के पहले भाजपा कार्यालय परिसर में एक छुटभैय्या कार्यकर्ता मांग रहे थे तो पार्टी नेताओं के बोल कुछ और होते. फिर इस चुनाव का महत्व भी वे किसी दूसरे ध्रुव से जाकर समझाते. सच यही है कि बिहार के इस उप-चुनाव परिणाम ने उनमें हताशा का भाव भरा है. यह चुनाव परिणाम वाले दिन ही लाख कोशिशों के बावजूद छुप नहीं सका. चुनाव परिणाम आने के बाद मीडिया से बात करने प्रदेश भाजपा कार्यालय में पहुंचे भाजपा के नेताओं ने इसका इजहार भी कर दिया. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय और विधायक दल के नेता नंदकिशोर यादव इस चुनाव को अल्पमहत्व का बताकर और इससे किसी भी किस्म का तनाव नहीं होने का अहसास करवाने में लगे रहे. लेकिन जब सुशील मोदी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने यहां तक कह डाला कि राजनीति के इस खेल में अब हम बराबरी के स्कोर पर हैं. उनका कहना था, ‘लोकसभा में हम जीते, विधानसभा उपचुनाव में वे ज्यादा जीते, हिसाब बराबर हुआ.’ यानी यह सीधी स्वीकारोक्ति थी कि इस चुनाव में भी जीत-हार का वही महत्व था जितना महत्व लोकसभा चुनाव में जीतने या हारने का था. मोदी इस उप चुनाव को बेहद महत्वपूर्ण करार दे रहे थे तो उनके साथ ही बैठे नंदकिशोर यादव और मंगल पांडेय इसे महत्वहीन साबित करने की कवायद कर रहे थे.

लालू बार-बार संकेत देते रहे हैं कि वे ही इस गठबंधन में बड़े भाई की हैसियत में रहेंगे. यानी विधानसभा सीटों पर टिकट बंटवारे में कोई कम पेंच नहीं फंसेगा 

मोदी, मंगल पांडेय या नंदकिशोर यादव कुछ भी कहें, बिहार का यह उपचुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण था. हालिया लोकसभा चुनावों में भाजपा की जो लहर बनी थी, उसका भी परीक्षण होना था कि क्या वह महज केंद्र के चुनावों या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने भर के लिए थी या फिर नीतीश से अलगाव के बाद कमल के पक्ष में उभरे उस जनज्वार का बड़ा हिस्सा सच में भाजपा के साथ अगले कुछ साल के लिए ‘फिक्स’ सा हो गया था. जानकारों के मुताबिक इस उपचुनाव ने यह साबित किया कि वह जनज्वार नीतीश से नाराजगी की बजाय केंद्र की कांग्रेस या मनमोहन सरकार के खिलाफ नाराजगी से उभरे तत्कालीन कारणों वाला था. भाजपा को यह भी पता है कि इस चुनाव के जरिये सबसे अहम परीक्षण भविष्य के रास्ते तय करने के लिए होना था. लगभग दो दशक बाद मिले लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के गठबंधन की स्वीकार्यता जनता में हो पाती है या नहीं, इसका भी छोटा परीक्षण इस उपचुनाव के जरिये होना था. इस परीक्षण में महागठबंधन सफल रहा जो आनेवाले दिनों में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरेगा.

भाजपा की परेशानी तो अपनी जगह है ही, उसमें भी बिहार में पार्टी नेता सुशील मोदी की चुनौतियां बढ़ गई हैं जिन्हें आजकल नमो की तर्ज पर सुमो या छोटका मोदी कहने का चलन चला है. यह उपचुनाव एक तरह से सुशील मोदी के नेतृत्व और उनके ही मार्गदर्शन में ल़ड़ा गया था. परोक्ष तौर पर बिहार में भाजपा की ओर से भविष्य के नेता के तौर पर उनको रखते हुए. लेकिन इसमें भाजपा को असफलता मिली. अब आगे की कमान भाजपा सुशील मोदी के हाथों में ही देना चाहेगी या नहीं, यह भी तय करने में इस उपचुनाव परिणाम की भूमिका अहम होगी. हालांकि भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री के रूप में सुशील मोदी का नाम आएगा, यह पूछे जाने पर मोदी खुद कहते हैं कि यह अभी से वे कैसे कह सकते हैं, यह संसदीय बोर्ड तय करेगा. और जब उनसे पार्टी की अंतर्कलह पर सवाल पूछते हैं तो वे कहते हैं कि कहीं कोई अंतर्कलह नहीं है.

खैर, मोदी क्या, उनकी जगह किसी भी पार्टी का कोई भी नेता तो यही जवाब देता. लेकिन सब जानते हैं कि प्रदेश भाजपा के अंदर अंतर्कलह चरम पर है.  भागलपुर से विधायक रह चुके और अब भाजपा सांसद अश्विनी चौबे कहते हैं कि प्रदेश स्तर पर नेताओं की कमजोरी के कारण पार्टी को हारना पड़ा. पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद डॉ सीपी ठाकुर ने तो केंद्रीय नेतृत्व से आग्रह किया है कि वह गंभीरता से इस चुनाव परिणाम को देखे और आंके क्योंकि सीटें भी कम मिली हैं और वोट प्रतिशत भी अचानक कम हो गया है. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य व विधानपार्षद हरेंद्र प्रताप कहते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व से ही उम्मीद है  कि वह देखकर दुरुस्त करे. हरेंद्र प्रताप कहते हैं, ‘कुछ माह पहले हम छपरा जैसी सीट पर शानदार जीत लोकसभा में हासिल किये और अब तीसरे नंबर पर चले गये, यह तो बेहद ही चिंता की बात है.’

भाजपा के कई नेता ऐसी ही बातें करते हैं. हताशा-निराशा के साथ एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़नेवाले अंदाज में. प्रदेश भाजपा की स्थिति कैसी है, उसे दूसरे तरीके से भी जाना-समझा जा सकता है. तीन-तीन, चार-चार गुटों में बंटकर भाजपा के नेता अपना काम कर रहे हैं और सबको यह आशा है कि अगली बार वे सत्ता में आ जाएंगे. हालांकि उप चुनाव के बाद उनके उत्साह की मात्रा कुछ कम हुई है. इन गुटों में एक ओर सुशील मोदी हैं तो दूसरी ओर नंदकिशोर यादव. तीसरी ओर रविशंकर प्रसाद को भी सीएम पद का आकांक्षी बताया जाता है, चौथी ओर शहनवाज हुसैन को भी इस रेस में शामिल माना जाता है और पांचवीं ओर मंगल पांडेय की भी अपनी दावेदारी बताई जाती है.

हालांकि भाजपा की इस हार से पार्टी का एक कुनबा बहुत खुश भी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि रखने वाले भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जिस हार का आप आकलन और विश्लेषण कर रहे हैं, उसका आकलन-विश्लेषण पार्टी ने ऊपर के स्तर पर पहले ही कर लिया था. इस उपचुनाव में बिहार प्रदेश के भाजपा नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व, नए अध्यक्ष अमित शाह और नरेंद्र मोदी तक से संपर्क किया था कि टिकट बंटवारे में मदद करें या मुहर लगाएं. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने साफ कह दिया कि 10 सीटों पर चुनाव हैं, प्रदेश के स्तर पर प्रदेश के नेता ही निपटा लंे, सिर्फ ध्यान रखंे कि किसी परिजन को टिकट न मिले. दिल्ली की बंदिश हटने के बाद प्रदेश भाजपा के नेताओं ने आपस में तय कर राजी-खुशी टिकट का बंटवारा किया और चुनाव लड़ा. केंद्रीय नेतृत्व ने किसी बड़े नेता को बिहार में प्रचार करने के लिए भी नहीं भेजा.’ ये नेताजी आगे कहते हैं, ‘अब जब परिणाम सामने आया है तो सब ठीक हो गया है. अगले साल विधानसभा का आम चुनाव होगा. अब केंद्रीय नेतृत्व सबकुछ अपने हाथ में  ले लेगा. टिकट बंटवारे में संघ की भूमिका होगी. तब प्रदेश के नेताओं की खेमेबंदी खत्म होगी और भाजपा के लिए कुछ बेहतर हो जाने की उम्मीद होगी.’

ऐसा होगा या नहीं. होगा तो राज्य में भाजपा की स्थिति इससे कितनी बेहतर होगी, इसका अनुमान कम से कम अभी तो नहीं लगाया जा सकता.

दूसरी ओर यह भी सच है कि उपचुनाव का यह परिणाम महागठबंधन, विशेषकर नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के लिए इतना सुकूनदायी संकेत भी लेकर नहीं आया है, जिससे वे यह उम्मीद कर सकें कि भविष्य की चुनौतियों से भी इतनी ही आसानी से पार पा लेंगे.

महागठबंधन की चुनौतियां : ट्रेलर बनाम सिनेमा

उपचुनाव के परिणाम वाले दिन पटना में नहीं होने और स्वास्थ्य संबंधी कारणों के चलतेे भले ही लालू प्रसाद अपनी खुशी, अपने अंदाज में जाहिर नहीं कर सके और भले ही उस दिन नीतीश कुमार खुलकर खिलखिलाते दिखे, लेकिन यह सच है कि नतीजों में सबसे बड़ी जीत लालू प्रसाद की पार्टी को ही मिली. देखा जाए तो यह चुनाव परिणाम महागठबंधन की जीत के बहाने कई दूसरे संकेत और संदेश भी समेटे हुए आया है. अव्वल तो यह बिल्कुल साफ हुआ कि यह चुनाव परिणाम इतने बड़े फलक पर संदेश देनेवाला नहीं रह जिसके आधार पर यही प्रयोग देश के दूसरे हिस्सों, विशेषकर हिंदी पट्टी में आजमाने को दूसरे दल तुरंत तैयार हो जाएं. इस प्रयोग के पहले ही महागठबंधन की ओर से उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे विरोधियों को साथ आकर भाजपा से मुकाबला करने का न्योता दिया जा चुका था. मायावती ने इसे फौरन खारिज कर दिया. दूसरा यह भी कि इस चुनाव परिणाम से भविष्य के साफ-साफ कुछ संकेत भी नहीं मिल सके हैं. सवर्ण उम्मीदवारों का चुनाव जीत जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं. यह बिहार में पहले से ही होता रहा है कि सवर्ण उम्मीदवार राजद या जदयू के जरिये चुनाव लड़कर कोर वोट तथा अपनी जाति या समूह का वोट एक मंच पर लाकर बहुत आसानी से चुनाव जीत जाते हैं. लेकिन उसी दल से जब दूसरी जाति का उम्मीदवार होता है तो वे उस तरह दरियादिली नहीं दिखाते. इसका एक बड़ा उदाहरण तो यही रहा है कि पिछली लोकसभा में लालू प्रसाद की पार्टी से जो पांच सांसद थे उनमें से चार सवर्ण ही थे. लेकिन मुस्लिम उम्मीदवारों का तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं जीतना यह संकेत देता है कि महागठबंधन को अभी सामाजिक समीकरण ठीक से साधने होंगे. इस तरह कि उसका कोर वोट बैंक किसी हाल में खिसक न पाए.

बिहार उपचुनाव के नतीजों को अगर कोई मुख्य सिनेमा का ट्रेलर या सेमीफाइनल जैसा मानकर चल रहा है तो उसे निराशा हाथ लग सकती है

इतना ही नहीं, महागठबंधन के सामने दूसरी तरह की चुनौतियां भी आने वाली हैं. इस उपचुनाव और इसके पहले लोकसभा चुनाव में भी लालू प्रसाद की जीत ही बड़ी जीत रही. लालू प्रसाद की पार्टी की ओर से शुरू से ही इस महागठबंधन को राजद गठबंधन कहा जाता रहा है. लालू प्रसाद गठबंधन के नाम पर बार-बार नीतीश कुमार को यह संकेत देते रहे हैं कि वे ही इस गठबंधन में बड़े भाई की हैसियत में रहेंगे. यानी आगे विधानसभा सीटों पर टिकट बंटवारे को लेकर भी कोई कम पेंच नहीं फंसेगा. जदयू के जितने विधायक अभी हैं कम से कम उतनी सीटों पर वह टिकट चाहेगा. उधर, लालू प्रसाद लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य में कई सीटों पर जदयू से आगे रहकर भाजपा से मुकाबला करने और फिर उपचुनाव में भी आये परिणाम आदि का हवाला देकर अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेंगे. पेंच और भी हैं. महागठबंधन के बावजूद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार अभी भी दो ध्रुवों से बात कर रहे हैं. नीतीश भले ही फिर मंडलवाद का नारा दे रहे लालू प्रसाद के साथ आ गए हों, लेकिन अभी भी वे पुराने अंदाज में ही सियासत कर अपना ‘सॉफ्ट’ चेहरा बनाए रखना चाहते हैं. जानकारों के मुताबिक इसीलिए वे अब भी मंडलवादी ताकतों के एक होने जैसी बात को खुलकर कहने से साफ-साफ बच रहे हैं और सभी जातियों और समुदायों को लेकर समाजवादी राजनीति की बात कर रहे हैं. दूसरी ओर, लालू का ज्यादा से ज्यादा जोर मंडलवादी ताकतों के एका पर है.

बात इतनी ही नहीं है, दोनों दलों के महागठबंधन और उसके साथ कांग्रेस के आ जाने से एक फायदा तो होगा कि कम से कम कुछ समूहों का मत उसे मिलना पक्का हो जाएगा. मुस्लिम, महादलित, बहुत हद तक यादव और कुरमी मतदाताओं के साथ आने की गारंटी तो मिल जाएगी, लेकिन इस महागठबंधन में एक यादव, एक कुरमी और एक महादलित नेता की प्रमुखता होने की वजह से अतिपिछड़ा समूह के छिटकने का डर भी बना रहेगा क्योंकि उस समूह से कोई नेता महागठबंधन में प्रमुखता से अब तक, फेसवैल्यू बनाने के लिए ही सही, इस्तेमाल नहीं हुआ है. भाजपा की भी कोशिश होगी कि वह अतिपिछड़ा समूह पर ही नजर जमाए जो एक बड़ी आबादी रखता है और जिस समूह के अंदर हालिया वर्षों में नीतीश कुमार के ही सौजन्य से राजनीतिक महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी है. कुछ विशेषज्ञ भी साफ-साफ कह रहे हैं कि भले ही महागठबंधन को यह जीत मिल गई है, लेकिन यह जीत अभी भी पूर्णता के रास्ते पर नहीं है. एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘इस महागठबंधन के बावजूद भाजपा को चार सीटों पर जीत मिलना उसकी कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं. गुप्ता आगे कहते हैं, ‘यह महागठबंधन तभी सफल हो पाएगा जब यह जुड़ाव धरातल पर भी हो. सिर्फ उपचुनाव के जरिये इसकी पूर्णता का आकलन ठीक नहीं.’

शैबाल गुप्ता जो कहते हैं वह तो एक बात है ही, दूसरी बात और भी अहम है. इस उपचुनाव को मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बिहार में अगले साल होनेवाले विधानसभा के आम चुनाव के सेमीफाइनल की तरह दिखाने में लगा हुआ था जबकि बिहार के हालिया वर्षों के राजनीतिक इतिहास को देखें तो कोई उपचुनाव या आम चुनाव अगले चुनाव के लिए सेमीफाइनल क्या क्वार्टर फाइनल जैसा भी साबित नहीं हुआ है. इसे जदयू के नेता भी और राजद के नेता भी अच्छी तरह जानते हैं. 2004 में लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद, लोजपा और कांग्रेस गठबंधन को अपार सफलता मिली थी. लेकिन उसके अगले साल ही हुए विधानसभा चुनाव में राजद सत्ता से बाहर हो गया था. 2009 में लोकसभा चुनाव हुआ तो जदयू और भाजपा गठबंधन को अपार सफलता मिली. दोनों ने मिलकर 32 सीटों पर कब्जा जमाया. लेकिन कुछ माह बाद ही जब 13 सीटों पर उपचुनाव हुए तो भाजपा-जदयू की करारी हार हुई. लालू प्रसाद की पार्टी की लहरमय तरीके से जीत हुई. लालू प्रसाद ने उसी उपचुनाव के आधार पर उसके अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में भी अपनी जीत पक्की मान ली. लेकिन जब अगले साल यानी 2010 में बिहार में विधानसभा के आम चुनाव हुए तो फिर जदयू और भाजपा ने मिलकर इतिहास रच दिया और लालू प्रसाद और पीछे चले गए. यानी बिहार उपचुनाव के नतीजों को अगर कोई मुख्य सिनेमा का ट्रेलर या सेमीफाइनल जैसा मानकर चल रहा है तो उसे निराशा हाथ लग सकती है. बिहार में उपचुनावों का मुख्य चुनावों पर असर नहीं पड़ता दिखता.

हां, यह जरूर है कि महागठबंधन के नाम पर इसके घटकों में ऊहापोह की जो धुंध थी कि इसकी जनता के बीच स्वीकार्यता होगी या नहीं, वह साफ हो गई. संकेत मिले कि अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद की सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति और नीतीश कुमार का सामाजिक न्याय के साथ विकास वाला फॉर्मूला मिलाकर सही तरीके से कॉकटेल बने तो अतीत की परछाइयों को पीछे छोड़ जनता इस महागठबंधन का साथ दे सकती है. भाजपा के लिए बिहार की सत्ता दूर रह सकती है. लेकिन यह तब, जब वोटों का बिखराव और तमाम सांप्रदायिकता विरोधी ताकतों का जुटान हो. इस उपचुनाव में तो वाम दल ही इस महागठबंधन के साथ नहीं थे. तीनों वामदलों ने साथ आकर चुनाव लड़ा था. उन्हें एक सीट पर भी जीत नहीं मिली. जीत क्या, किसी सीट पर वे दूसरे नंबर तक पर नहीं आ सके. यानी संकट के सबसे बड़े दौर से गुजर रहे वामपंथी दलों के लिए इस उपचुनाव ने अलग से संकेत और संदेश दिए हैं.

आखिर में कांग्रेस की बात. भले ही उपचुनाव में उसने एक सीट पर जीत हासिल कर ली हो, लेकिन सभी जानते हैं कि वह अब भी बिहार में अपने वजूद की ही लड़ाई लड़ रही है. पार्टी पूरी तरह से नीतीश और लालू पर ही निर्भर है और आगे भी उसके इन दोनों नेताओं की शर्त पर ही चलने की संभावना है. इसके इतर राज्य में कुछ बड़ा करने का सपना वह देखे भी तो पार्टी संगठन की जो जीर्ण-शीर्ण हालत है उसे देखते हुए वह ख्याली पुलाव ही होगा.

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एक लव जेहाद चाहिए

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इलस्ट्रेशनः तहलका आका्इव

इन दिनों कठमुल्ला ताकतों ने डरने और डराने के लिए, और फिर हमला करने के लिए एक नए शब्द का सहारा लिया है- लव जेहाद. सबसे पहले शायद केरल से यह शब्द चला, और फिर जांच से पता चला कि यह शब्द जितना हवा में है, उतना हकीकत में नहीं. केरल सरकार ने बाकायदा अदालत में कहा कि उसे इस तथाकथित लव जेहाद का एक भी मामला नहीं मिला.

अब अचानक उत्तर प्रदेश से लेकर झारखंड तक में यह शब्द नई गूंज लेकर फिजाओं में तैर रहा है. यह शुरुआत इधर तब हुई जब मेरठ की एक लड़की ने आरोप लगाया कि उसे अगवा करके मदरसों में रखा गया, उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, उसका ऑपरेशन कराया गया, उस पर धर्म बदलने का दबाव था और फिर उसे सऊदी अरब भेजने की तैयारी थी. माहौल में अचानक सांप्रदायिक तनाव पैदा कर सकने वाली ताकत से लैस इन आरोपों की पोल पट्टी जब धीरे-धीरे खुलने लगी और दिखने लगा कि यह मामला दरअसल एक प्रेम प्रसंग का है जिसे छुपाने के लिए इतने सारे झूठ बोले गए, तब अचानक कठमुल्ला भाषा ने इसे लव जेहाद का नाम दिया. उनके मुताबिक इस लव जेहाद में मुस्लिम लड़के हिंदू लड़कियों को फुसलाते हैं और फिर शादी करके उनका धर्म परिवर्तन कराते हैं. इन आरोपों को असली गरमी तब मिली जब रांची की एक राष्ट्रीय निशानेबाज लड़की तारा शाहदेव का मामला सामने आया. तारा ने बताया कि रकीबुल हसन नाम के एक शख्स ने उसे झांसा देते हुए अपना नाम रंजीत सिंह कोहली बताया और फिर उससे शादी कर ली. यह बात बाद में खुली कि वह मुस्लिम है और उसके बाद उसने धर्म परिवर्तन का दबाव बनाना शुरू किया- तारा के साथ बुरी तरह मारपीट भी की. अब इस मामले की जांच पुलिस कर रही है.

हालांकि यह बात कुछ अचरज में डालती है कि जिस भारतीय समाज में शादी से पहले पूरे खानदान का पता लगाने का रिवाज है, वहां एक शख्स इस तरह का झांसा देने में कैसे कामयाब रहा. लेकिन इस शक को मुल्तवी करते हुए तारा शाहदेव के आरोप को बिल्कुल सही भी मानें तो भी यह मामला एक लड़की के साथ छल का, उसके शारीरिक और यौन उत्पीड़न का है जिसके लिए रकीबुल हसन को वाकई सजा मिलनी चाहिए. लेकिन इंसाफ के इस जरूरी तकाजे को भाजपा और संघ परिवार ने अपनी राजनीतिक मुहिम में बदल डाला और जोर-जबरदस्ती रांची बंद करवाई. यह मामला उनके लिए तथाकथित लव जेहाद की ऐसी नायाब मिसाल है जिसके आधार पर भावनाएं भड़काई जा सकती हैं और झारखंड में इसी साल होने वाले चुनावों से पहले एक उपयोगी ध्रुवीकरण किया जा सकता है.

लव जेहाद का यह शिगूफा एक थकी और चिढ़ी हुई पितृसत्तात्मक व्यवस्था अपने को बचाए रखने की आखिरी कोशिश के तौर पर छोड़ रही है

लेकिन तथाकथित लव जेहाद के इस तथाकथित विरोध से किसे डरना चाहिए? क्या अल्पसंख्यकों को? शायद कुछ हद तक, इसलिए कि इससे पैदा हुए तनाव का असर उन्हें भुगतना पड़ सकता है. लेकिन इस मानसिकता के असली शिकार वे लड़के-लड़कियां होंगे जो अपनी जाति, अपने धर्म भूल कर एक-दूसरे से प्रेम और शादी करने की जुर्रत करते रहे हैं और इसके लिए कई तरह की सजाएं पहले से झेलते रहे हैं. कहीं उन्हें खाप वालों के हाथ मरना पड़ता है, कहीं दूसरी पंचायतों के हाथ. जहां मरना नहीं पड़ता, वहां कई दूसरी सजाएं होती हैं. प्रेम करने वाली लड़कियां तो सीधे बदचलन मान ली जाती हैं और सबसे पहले उनके परिवार उनका बहिष्कार करते हैं, उन्हें संपत्ति तो वैसे भी नहीं देते, मामूली संरक्षण से भी वंचित कर देते हैं.

ऐसे भयानक प्रेम विरोधी माहौल में, जब अपने कल्पित लव जेहाद के खिलाफ जेहाद छेड़ने वाले डंडा लेकर निकलेंगे तो इसकी सबसे ज्यादा मार उन लड़कियों पर पड़ेगी जो घर की दहलीज लांघ कर निकलने की कोशिश करती हैं. अभी से इन तथाकथित जेहादियों का यह मशविरा शुरू हो गया है कि अपनी बहनों-बेटियों को संभालिए, उन पर नजर रखिए. जाहिर है,  इससे बेकार और बेमकसद भटकने वाले बेरोजगार भाइयों और रिश्तेदारों को एक काम और मकसद मिल गया है जिसे वे अपनी पूरी प्रतिभा के साथ अंजाम देंगे. लड़के पिटेंगे, लड़कियां चोटी पकड़ कर घर पर लाई जाएंगी, अगर नहीं मानेंगी तो उन्हें भूखा रखा जाएगा और इस पर भी नहीं मानेंगी तो ऐसी ‘कुलच्छनियों’ को मार दिया जाएगा.

जाहिर है, लव जेहाद का यह शिगूफा भी एक थकी और चिढ़ी हुई पितृसत्तात्मक व्यवस्था अपने को बचाए रखने की आखिरी कोशिश के तौर पर छोड़ रही है. उसे मालूम है, वह तभी बची रहेगी जब समाज में पहले से चले आ रहे पूर्वाग्रह बचे रहेंगे, सांप्रदायिकता का भूत बचा रहेगा और लड़कियों में अच्छी लड़की बने रहने का डर बचा रहेगा. लेकिन दुर्भाग्य से लगता नहीं कि अब वह व्यवस्था इतिहास का चक्का वापस उलटी तरफ मोड़ पाएगी. देश के हजारों स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले लाखों-करोड़ों लड़के-लड़कियां अंततः धीरे-धीरे अपने जीवन के फैसले करना सीख रहे हैं. बेशक, उनके बीच भी कई तरह की कट्टरताएं मौजूद हैं, ऊंच-नीच के फर्क भी हैं और अलग-अलग वर्गों का फासला भी है, लेकिन इन सबके बीच एक बात साझा है- अगर उन्हें कोई चीज बदल और जोड़ रही है तो वे किताबों में दिए जाने वाले आदर्शवादी वाक्य नहीं हैं, पिताओं की नसीहतें नहीं हैं, बल्कि वह प्रेम है जो बता रहा है कि सब बराबर हैं और एक जैसे हैं. इस ढंग से सोचें तो हिंदुस्तान को वाकई एक लव जेहाद की जरूरत है- मोहब्बत के ऐसे चलन की, जो कई तरह की बाड़ेबंदियों को अंगूठा दिखा सके और तमाम मुश्किलों के बीच और बावजूद अपना घर बसा सके. निस्संदेह ऐसी दुनिया आज से ज्यादा न्यायप्रिय और इसलिए सुंदर भी होगी.

लेकिन यह बाद का सपना है, ताजा हकीकत और जरूरत यह है कि लव जेहाद के झूठे प्रचार की कलई खोली जाए.

‘मैं चिकित्सा की प्रयोगशाला का शिकार हुआ’

imgकहने को तो आजादी को 65 साल बीत चुके हैं और हम चांद और मंगल पर जाने की तैयारी में हैं लेकिन ये सब बातें मेरे गांव के लिए महज किस्से-कहानियां भर हैं. दो पहाड़ी नदियों के संगम पर बसे गांव में अगर आज भी पीने का पानी मिलना दुस्वार हो तो उसके लिए भला किसे दोष दिया जाए? प्रशासन को दोष देना तो केवल एक रस्म ही रह गई है क्योंकि उसे दोष देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़ता.

बीती गर्मियों (दिल्ली के लिए अभी बीती नहीं हैं क्योंकि वहां बारिश का मौसम आया ही नहीं) में मैं अपने गांव गया था. घर में शादी थी और हम पांच किलोमीटर दूर से नहर के जरिए पानी लाने की कोशिश में थे. नहर की दीवार तो कमजोर ही थी उस पर काई की मोटी परत भी पड़ गई थी. अचानक मेरा पांव फिसला और संभलते-संभलते भी न जाने क्या हुआ कि पांव में बुरी तरह मोच आ गई. पांव सूज गया.

सूजा हुआ पैर लेकर मैं घरवालों के साथ सरकारी अस्पताल पहुंचा लेकिन किस्मत ने शायद मेरी पूरी परीक्षा लेने की ठान ली थी. उस दिन पंचायत चुनाव का मतदान होने के कारण कोई भी वहां मौजूद नहीं था. आसपास के लोगों ने फ्रैक्चर होने की आशंकता जताकर हमें सदमें में डाल दिया.

केवल इस आशंका को दूर करने के लिए गाड़ी बुक कर 100 किमी दूर रानीखेत जाने की आशंका ने ही मेरा दिल दहला दिया क्योंकि इसमें समय और पैसा दोनों लगने थे. मुझे याद आया कि हाल ही में हमारे कस्बे में 1.76 करोड़ रुपये की लागत से एक भव्य सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बना है जिसमें कागज पर छह विशेषज्ञ चिकित्सकों की नियुक्ति की घोषणा की गई है किंतु हकीकत में इस तीन मंजिला सरकारी अस्पताल में स्थायी चिकित्सक क्या स्थायी सफाईकर्मी तक नहीं है जो अस्पताल को रोज साफ ही कर सके. संविदा पर एक चिकित्सक हैं लेकिन आम राय है कि उनसे चिकित्सा कराने से बेहतर है घर पर ही दादी-नानी के नुस्खे अपना लिए जाएं.

तब तक मेरे पैर के साथ तरह-तरह के प्रयोगों का दौर शुरू हो गया था. घरवालों ने अपने से मेरे पैर का एक एक्सरे करवा दिया. अब दूसरा सवाल पैदा हुआ कि एक्सरे तो हो गया अब उसकी जांच किसके करवाई जाए? सारी उम्मीदें वापस संविदा वाले डॉक्टर साहब पर टिक गईं. अगले दिन उनको पैर दिखाया तो लगा कि चिकित्सा शास्त्र पर से मेरा यकीन ही उठ जाएगा. काफी देर तक मेरे पैर का निरीक्षण करने के बाद डॉक्टर साहब एक किताब में कुछ पढ़ने लगे. फिर दो पैराग्राफ पर गोला मारकर उन्होंने मुझे समझाया, ‘शायद तुम्हें इन दोनों में से कोई बीमारी हुई है. चलो पहले लक्षण से इलाज शुरू करते हैं अगर इससे आराम नहीं मिला तो दूसरे लक्षण पर दवाई शुरू करेंगे. डॉक्टर साहब थोड़ी दूर खड़े होकर इंजेक्शन तैयार कर रहे थे और मैं खुद को कक्षा 11-12 की उस स्कूली प्रयोगशाला की तरह महसूस कर रहा था जिसमें पहुंचकर बच्चे उत्साहपूर्वक एक परखनली का रसायन दूसरे में मिलाने लगते हैं. इस बीच उनके चेहरे पर विज्ञान के नोबल पुरस्कार विजेता जैसा जो भाव होता है वही भाव मुझे इन चिकित्सक महोदय की आंखों में नजर आ रहा था.’

खैर मेरे सामने इस समय यही सर्वश्रेष्ठ विकल्प था. मैंने इंजेक्शन लगवाए और जल्दी आराम हो जाएगा के आश्वस्तकारी वचन सुनकर वहां से रवाना हुआ.

तीन दिन गुजर चुके थे पर चोट में कोई सुधार नहीं था. छ: इंजेक्शन लगवाने के बाद भी आराम का नामोनिशान नहीं था. घर में शादी होने के कारण रानीखेत जाना मुश्किल था. कहीं से सुझाव आया कि क्यों न हरीश भाई को दिखाया जाए. अब उस एक्स-रे रिपोर्ट को हाथ में लिए हम हरीश भाई के पास पहुंचे. दरअसल हरीश भाई कस्बे के सरकारी अस्पताल में वार्ड-ब्वाय हैं. कहा जाता है कि उन्हें हड्डियों की अच्छी जानकारी है… कभी-कभार जरूरत पड़ने पर प्लास्टर भी लगा देते हैं. इसके पीछे की कहानी यह है कि हरीश भाई ने अपनी आरंभिक नौकरी अल्मोड़ा स्थित जिला अस्पताल में हड्डी विशेषज्ञ के सहायक के तौर पर की थी. इसी दैरान उन्हें हड्डियों की चोट का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो गया. हरीश भाई ने भी अपनी समझ के अनुसार कुछ उपचार किया पर चोट में कोई खास सुधार नहीं हुआ.

मैं थका-हारा वापस लौट रहा था. चुनाव अभी-अभी बीते थे. बाजार में तमाम चुनावी दलों के बैनर-पोस्टर लहरा रहे थे. न जाने मुझे क्यों लगा कि ‘अच्छे दिन’ वाला एक पोस्टर मुझ पर हंस रहा है. गौर किया तो पाया वह पोस्टर मुझ पर नहीं तमाम आम हिंदुस्तानियों पर हंस रहा था.

चाट मसाला

actress-poonam-pandeyभीगी पूनम, भड़का फेसबुक
आप भी अगर सर पर बर्फीला पानी डालने और उसका वीडियो बना फेसबुक पर अपलोड करने का सोच रहे हैं तो सब्र रखिए! वरना बाबा छटपटिया का बारह महीने की ईएमआई पर मिलने वाला चौबीस कैरट सोने का हनुमान लाकेट भी आपका फेसबुक एकाउंट डीएक्टिवेट होने से नहीं बचा पाएगा. पूनम के पास यही सब्र की बर्फ नहीं थी इसलिए उन्होंने आइस बकिट चैलेंज लिया, वीडियो फेसबुक-ट्विटर पर पोस्ट किया और फेसबुक ने उनका एकाउंट डीएक्टिवेट कर दिया. पूनम पांडे पर इस तरह नकेल कोई क्यों कसेगा, वजह आप इसकी जानते ही हैं. ऐसा कर फेसबुक ने खैर 21 लाख दोस्तों से पूनम को दूर कर दिया, मगर ट्विटर उन्हें हमसे दूर कब करेगा, पता नहीं! लेकिन अगर आप इस चैलेंज को करना चाहते हैं तो ठंड के मौसम में करिए. एक तो स्वेटर-जैकेट से पूरे ढंके रहेंगे तो फेसबुक पेज आपका सही-सलामत रहेगा, और दूसरे ठंड में ठंडा बर्फीला पानी सर पर डालेंगे तो लगेगा चैलेंज लिया है.

Salman-Khan-French-Cut-Wallकब सिलेंगे सलमान भंसाली से अपनी फटी दोस्ती?
भंसाली के साथ सलमान का रिश्ता उतना ही इंटेंस लव-हेट का है जितना एक्स-गर्लफ्रेंड्स के साथ रहता है. सलमान ने लेटेस्ट प्रवचन दिया है कि भंसाली को काम करते वक्त जब चीखते-चिल्लाते और सहायकों पर चीजें फेंकते देखते थे, उन्हें सूरज बड़जात्या की तरह शांत रहकर फिल्म बनाने का मशवरा देते थे. बड़जात्या उनकी आने वाली फिल्म के निर्देशक हैं. भंसाली की फिल्में मक्खी भी देखने नहीं जाती जैसी बातें करने वाले सलमान ऐसा करते क्यूं हैं, जबकि उनके करियर की वह दो बहुमूल्य फिल्में जिसमें उन्होंने ‘अच्छा’ अभिनय किया है भंसाली की ही हैं. इसलिए क्योंकि भंसाली ने उन्हें भूलकर शाहरुख को देवदास में लिया और ऐश्वर्या के साथ उनके झगड़े के बाद तो काम किया, लेकिन उनके साथ नहीं किया. अब चूंकि वादा करने के बावजूद बाजीराव मस्तानी में भी उन्हें नहीं लिया, सलमान नए सिरे से भंसाली की भर्त्सना के मौके ढूंढने में ‘खाली हाथ शाम आई है’ सुनकर वक्त बिता रहे हैं.

Amirkhanजागो रे जागो रे जागो रे आमिर !   
आमिर खान पता नहीं आजकल कौन-सी ग्रीन टी पी रहे हैं कि इतना बहक रहे हैं. पहले तो वह रानी मुखर्जी की मर्दानी की ट्विटर एटसेक्ट्रा पर तारीफ करते हैं और फिर कहते हैं कि इसे बच्चों को नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसकी भाषा खराब है और हिंसा जोरदार है. वे सेंसर बोर्ड की कैंची भी हाथों में लेते हैं और जिन फिल्मों को परिवार-बच्चों के साथ देखने का सर्टिफिकेशन प्राप्त है, उनके कंटेंट पर सवाल उठाकर कहते हैं कि ये फिल्में अनर्थक-अजीब चीजें बच्चों को दिखाती हैं. वह ज्ञान की इस मटमैली गंगा को बहाते वक्त गजनी को भूल जाते हैं. पूरी तरह. ये सत्यमेव जयते का बुखार भी हो सकता है, या फिर हो सकता है कि आमिर की कोई फिल्म आ रही हो जिसकी टारगेट आडियंस बच्चे भी हों (पीके !). क्योंकि जब तारे जमीन पर आयी थी आमिर ने ‘ब्लैक’ में बच्चे के साथ हुई ज्यादती पर खूब झंडा बुलंद किया था. अब वही झंडा आमिर सूटकेस से वापस बाहर निकाल लाए हैं. गजब!

एलबमः फाइंडिंग फैनी

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एलबमः फाइंडिंग फैनी
गीतकार » मुख्तियार अली, ऐलन मर्सर, मयूर पुरी
संगीतकार » मठियास डप्ल्सी, सचिन-जिगर

गाना है या सराय! संगीतकार फ्रेंच, गायक राजस्थानी लोकगीतों की आवाज, म्यूजिक अरेंजमेंट यूरोपियन लोकसंगीत वाला, और लिखाई पंजाबी से लबरेज. और जिस सराय में ये सब ठहरे, वह गोवा में. लेकिन ये सब जब सराय की बैठक के मूढ़ों पर बैठते हैं, गजब कर जाते हैं. गोवा की मधुशालाओं के मशहूर द्रव को इंसान बना जब गाकर उसे ढूंढते हैं, ‘ओ फैनी रे’, रेमो फर्नांडिस वाले गोवा से अलग एक गोवा दिल में जगह बनाता है. मुख्तियार अली गाते-गाते कई बार ऑफ-नोट होते हैं, ऑटो ट्यून के बिना उनकी आवाज सफर करती है, लेकिन यह सबकुछ फ्रेंच संगीतकार मठियास डप्ल्सी जानबूझकर करते हैं. कंप्यूटर निर्मित संगीत को इत्र की तरह हर लिखे गाने पर छिड़कने की बॉलीवुड की संस्कृति से खिलवाड़ करने का यह उनका पहला कदम है. शुरू-शुरू में दूसरे अंतरे में जब आवाज तयशुदा रस्ता छोड़ती है, आंखें चढ़ती हैं, लेकिन गाने के दो-चार दौर हो जाने के बाद रस्ता छोड़ना और रस्ते पर वापस आना मजेदार हो जाता है.

फैनी रे का एक जुड़वा भाई भी है, माही वे. एक-सी लंबाई और चेहरे के साथ, बस बाल बनाने का अंदाज अलग, इसलिए फैनी की जगह बॉलीवुड का फेवरेट लफ्ज आता है: माही वे! तीसरा इंग्लिश गीत है, फिल्म के दृश्यों के साथ शायद अच्छा लगे, यहां साधारण है.

आखिरी गीत सचिन-जिगर का है, जो इन दिनों छोटी-अजीब आवाजों को जिस तरह गानों में टांक रहे हैं, कहीं दूर इस रचनात्मकता पर उनके लिए कोई ताली ठोंक रहा है. ओपेरा का मजाक बनाने से शुरू होकर ‘शेक योर बूटिया’ मस्ती पर पागलपन का वर्क चढ़ाता है और दिव्य कुमार इन क्रियाओं के उस्ताद बनकर कभी न नाचे बंदे को भी हाथों से लहर बनाने पर मजबूर कर देते हैं. यह एलबम छोटा है पर सुनो तो ह्दय की रिक्तता कम करता है.

खंडित ठगी

िफल्म » राजा नटवरलाल   निर्देशक» कुणाल देशमुख    लेखक » परवेज शेख, नरेंद्र कुमार, संजय मासूम                          कलाकार » इमरान हाशमी, केके मेनन, हुमैमा मलिक, परेश रावल, दीपक तिजोरी
िफल्म » राजा नटवरलाल
निर्देशक» कुणाल देशमुख
लेखक » परवेज शेख, नरेंद्र कुमार, संजय मासूम
कलाकार » इमरान हाशमी, केके मेनन, हुमैमा मलिक, परेश रावल, दीपक तिजोरी

एक कालखण्ड में समय का इक टुकड़ा था जिसका नाम इमरान-खण्ड था. इसे सलमान-खण्ड से प्रेरित बताया जाता है और यह दौरा-ए-फिल्में (दौर-ए-फिल्में नहीं) ‘शंघाई’ से पहले की  बात है. राजा नटवरलाल उसी कालखण्ड की फिल्म है, बस खंडित है.

उस कालखण्ड में इमरान हाशमी एक जैसी अनेकों फिल्मों में सिर्फ कपड़े बदल-बदल कर नजर आते थे और सैकड़ों चाहने वाले फैंस के लिए वे उनके सलमान थे. हर फिल्म में एक ही रूप में दर्शन देने की सलमान वाली प्रतिभा रखने वाला हीरो जो किसर भी है और चलते वक्त सलमान की तरह ही कंधे अकड़ाकर चलने के अभिनय में पारंगत भी. सलमान की तरह ही हाशमी ने भी उन्हीं चौड़े कंधों पर कई फिल्में अकेले उठाईं. ये कंधे कभी निढाल नहीं होते थे. चलते वक्त, बैठे वक्त, दाल-चावल खाते वक्त, लेटे वक्त या सोते वक्त, ये चौड़े कंधे और उन कंधों से जुड़ी पीठ की खींचकर चौड़ी की गई अकड़ सूत-भर भी ढीली नहीं होती थी. सड़कों पर फिर उस खास अंदाज (जिसमें बाकी शरीर के सभी हिस्सों को मन-माफिक हिलने-डुलने की इजाजत हो, लेकिन अंगार भी गिरे तब भी कंधे को ढीला छोड़ना कुफ्र हो) में अकड़कर चलने वालों की तादात में बढ़ोतरी करने में हाशमी का भी अहम योगदान रहा. किसी सामान्य समय में, इसे कंधे का लकवा कहा जाता लेकिन सलमान-हाशमी युग में यह हीरो जैसा हो जाना है.

समय के इस टुकड़े के गुजर जाने के बाद ‘शंघाई’ आई. ‘एक थी डायन’ आई. ‘घनचक्कर’ आई. करोड़ों रुपये साथ नहीं लाई इसलिए हाशमी को उसी रूप में लौटा लाई जो बिकता है. राजा नटवरलाल में वही हाशमी हैं, ‘मर्डर’ से लेकर ‘जन्नत 2’ वाले, बस आत्मविश्वास से लबरेज हैं और अभिनय सीख चुके हैं. उनकी सिग्नेचर सिनेमाई हरकतें अभी भी वैसी ही हैं. बैकग्राउंड में बज रहे सूफी गीत को चलती बस में आराम से बैठे होने के बावजूद तपाक से खड़े होकर बीच में ही पकड़ लेने के बाद उस गीत को लिप-सिंक करते हुए बस में टहलने की प्रतिभा पुरानी वाली ही है. और अभी तक राजा नटवरलाल फिल्म के बारे में एक भी पंक्ति नहीं लिखने की वजह भी पुरानी वाली ही है. फिल्म पुरानी है. इसका समय पुराना है. और इसकी ठगी में न ‘ब्लफ मास्टर’ हो जाने के गुण हैं, न ‘स्पेशल छब्बीस’.

विलेन केके को एक ऐसी आईपीएल-प्रेरित क्रिकेट टीम, जो है ही नहीं, बेचने निकली यह फिल्म अगर समझदार होती तो अपनी ठगी में लगने वाली तैयारियों और अक्ल से उत्सुकता जगाते हुए पूरी फिल्म के दौरान रोमांचित कर सकती थी. लेकिन इसके लिए उसे प्यार, यार और परिवार के आस-पास घूमते सिनेमाई इमोशन्स को तजना होता और चूंकि कारोबार करना ही एक फिल्म का इन दिनों काम है तो वह ऐसा कुछ नहीं करती. वह जिस जगह पर अपना मंकी-कैप उतारकर असल चेहरा दिखाती है, क्षणिक मजा तो आता है, लेकिन आंखें जो फटनी चाहिए, और फिल्म की चालाकी पर फिदा होते हुए एक छोटी-सी तारीफ लिपटी हंसी जो निकलनी चाहिए, नहीं निकलती.

मटर के दानों को चना समझकर दर्शकों को चबाने को कहना ही अगर फिल्म की ठगी है, तो यह खंडित ठगी है, दिल को न अच्छी लगी है.