‘यह मूर्ति कैसी?’ ‘ये लाफिंग बुद्धा है.’ ‘मजेदार लग रहा है.’ ‘सो तो है, इससे ‘गुडलक’ आता है’ ‘कैसे?’ ‘देख नहीं रहे, कितना खिलखिला कर हंस रहा है!’ ‘तो!’ ‘हंसने से वैसे भी मनहूसियत दूर हो जाती है.’ ‘तो आप खुद क्यों नहीं हंसते?’ मेरी इस बात पर वे मुस्कुराए. ‘कहां यार, हंसने के मौके ही कितने मिलते हैं! बहुत फास्ट लाइफ हो गई है.’ तभी मुझे कमरे में भाई साहब की हंसती हुई तस्वीर दिखी. ‘इसमें तो आप हंस रहे हैं!’ ‘हंस कहां रहा हूं?’ ‘मुझे तो साफ दिख रहा है!’ ‘जो तुम समझ रहे हो, वो नहीं है.’ ‘क्या मतलब?’ ‘अरे यार, फोटो खींचने से पहले फोटोग्राफर कहता नहीं है, ‘से चीज’, वही ‘चीज’ बोल रहा हूं.’ वहां से विदा लेते समय एक बार फिर मैंने लाफिंग बुद्धा को देखा.
आज भाई साहब के ऑफिस आया हूं. किसलिए? वहीं पुराना कारण- इधर से गुजर रहा था, सोचा कि आप से मिलता चलूं. ऑफिस में घुसते ही मैंने भाई साहब को हंसते देखा. कमाल है! भाई साहब हंस रहे हैं! मैंने पूछा, ‘क्या बात है भाई साहब बहुत हंस रहे थे!’ मेरा ये कहना था कि यकायक भाई साहब ने गंभीर मुद्रा अख्तियार कर ली. जैसे मैंने कोई हल्की बात करके उनकी शान में गुस्ताखी कर दी हो. थोड़ी देर बाद कुछ सोचते हुए खुद ही बोले, ‘वो क्या है कि बॉस हंस रहे थे न!’ ‘मैं कुछ समझा नहीं भाई साहब!’ भाई साहब थोड़ा तैश में बोले, ‘नौकरी करोगे तो खुद ही जान जाओगे !’ मैं सहमकर उनके ऑफिस में इधर-उधर देखने लगा. भाई साहब मेरी वस्तुस्थिति भांप कर बोले, ‘अरे यार, यह समझ लो कि ऑफिस का यह अघोषित परंतु अनिवार्य नियम होता है, बॉस के साथ उसके मातहत को भी हंसना पड़ता है.’ ‘समझ गया हूं भाई साहब, यह ऑफिस वाली हंसी है!’ मैंने कहा. मेरी यह बात सुनकर भाई साहब मुस्कुराए़.
‘हा हा हा, हा हा हा…’ ‘नमस्कार भाई साहब!’ ‘नमस्कार!’ ‘अरे आप यहां क्या कर रहे हैं?’ ‘यहां तो मैं रोज आता हूं, मगर तुम यहां कैसे?’ ‘वो क्या है भाई साहब, उम्र अधिक हो रही है, सोचा कि जरा सेहत का ध्यान रखा जाए, सो आज सुबह-सुबह ही इस पार्क में टहलने निकल आया. मगर भाई साहब, आपने कभी बताया नहीं कि आप सुबह टहलने आते हैं.’ ‘अरे भाई, इसमे बताने वाली क्या बात है!’ ‘अच्छा भाई साहब, मुझे भी वह लतीफा सुनाइए न!’ ‘कौन सा!’ ‘अरे वही वाला, जिसे सुन कर आप और आप के बाकी साथीगण अभी हंस रहे थे.’ ‘अरे, यह तो एक प्रकार की एक्सरसाइज है.’ ‘एक्सरसाइज!’ ‘हां भई, इसमें जोर-जोर से हंसा जाता है.’ ‘हंसी न आए फिर भी.’ ‘हूं…’ ‘भला यह कैसी हंसी हुई भाई साहब?’ ‘यह एक तरह की थेरेपी है, इसे लाफ्टर थेरेपी कहते हैं. अच्छा तो मैं चलूं. ‘ठीक है भाई साहब! नमस्कार!’ ‘नमस्कार!’
भाई साहब भी अजीब हैं! जब हंसी अंदर से नहीं आती, तो बाहर से हंस कर काम चला लेते हैं. जबकि भाई साहब के घर में खड़ी वह बेजान मूर्ति भी (उसको बेजान कैसे कहा जा सकता है! क्योंकि वह मूर्ति तो हंस रही थी). बिना किसी प्रतीक्षा के, बेतकल्लुफ हंस रही थी. निश्चित ही, वो इस वक्त भी हंस रही होगी. उसके सामने तो भाई साहब बेजान लगते हैं! कैसे वो इतना गंभीर काम, जिसे स्वयं ही करना श्रेयस्कर होता, किसी दूसरे को यानी मूर्ति को सौंप कर, खुद मुर्दे जैसे निश्चिंत हो गए हैं. वह हंसती हुई मूर्ति ‘गुडलक’ लेकर आएगी, क्योंकि वह हंस रही है.
फिलहाल भाई साहब रोज पार्क में ‘थेरेपी वाली हंसी’ और ‘ऑफिस वाली हंसी ‘ हंस रहे हैं. जब नहीं हंसते हैं, तो ‘चीज’ कहकर फोटो में हंस कर काम चला लेते हैं. बेचारे भाई साहब!
संरक्षण गृहों तथा नारी निकेतनों में किशोरियां विशेष और विकट परिस्थितियों के कारण लाकर रखी जाती हैं. इन्हें मजिस्ट्रेट के आदेशों पर यहां लाया जाता है और उनके आदेशों से ही ये यहां से निकल सकती हैं. यहां की निवासिनियां गृह के दरवाजे से बाहर कदम नहीं निकाल सकतीं. उनका खाना पीना, पढ़ाई, इलाज सब इसी गृह की चारदीवारी के भीतर ही होने का कानून है. संरक्षणगृह परिस्थितियों के बीच फंसी किशोरी की शरणस्थली तो हैं पर दरवाजे़ पर ताला और पहरेदार भी हैं, बाहर जाना मना है, बाहरी लोगों का आना मना है, चिट्ठी भेजना, टेलीफोन करना मना है.
इसलिए यह बंदीगृह है या संरक्षणगृह इस बात का निर्णय करना कठिन है.
संरक्षणगृह में निरपराध किशोरियां रखी जाती हैं, केवल तीन या चार प्रतिशत बाल अपराधिनियां होती हंै, जिन्हें नये ज्युविनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की दृष्टि से अपराधी कहना मना हो गया है क्योंकि बच्चे का अपराध अधिकतर वयस्क द्वारा प्रेरित होता है. अतः सुधार की दृष्टि से ये यहां रहती हैं. गृह में कुछ ऐसी किशोरियां भी हैं जो ‘मॉरल डेंजर’ नामक प्रावधान के अन्तर्गत यहां आईं क्योंकि वे ‘भटकती हुई पाई गईं’ थीं. इनके अतिरिक्त अधिकांश वे किशोरियां हैं जो किसी ‘लड़के के साथ पकड़ी गईं’. इनका कहना है कि ये बालिग हैं और इन्होंने विवाह किया है पर इनके पिता का कहना है कि ये नाबालिग हैं और लड़का इन्हें भगा ले गया. गृह में निरुद्ध 60 प्रतिशत लड़कियां पति और पिता के बीच विवाद की शिकार हैं और यहां फंसी हुई हैं.
यहां पर कुछ ऐसी ही लड़कियों के विषय में बात करते हैं और उनसे जुड़े गंभीर मुद्दों को समझने की कोशिश करते हैं.
नसीमा
लखनऊ के संरक्षण गृह में हमें एक लड़की मिली – नसीमा. कम उम्र, यही लगभग अट्ठारह उन्नीस साल. हमें बताया गया कि उसके घर वालों को बुलाया गया था, पर कोई उसे लेने ही नहीं आया.
मूलतः मोहनलालगंज की रहने वाली नसीमा ने हमें बताया कि उसके पिता के देहांत के बाद उसके चाचा ने उसकी मां से शादी कर ली. फिर एक दिन नसीमा को बाग़ में भेज दिया. अकेली. वहां पर उसके दोस्त फखरू ने नसीमा के साथ बलात्कार किया. थाने में रिपोर्ट लिखी गई. चाचा ने नसीमा पर दबाव डाला कि तुम कोर्ट में फखरू का नहीं जुम्मन का नाम लेना. चाचा अपने दुश्मन को फंसाना चाहता था. नसीमा ने कहा कि अपराध तो फखरू ने किया है मैं गलत नाम क्यों लिखवाऊं. नसीमा ने बयान नहीं बदला. चाचा नसीमा को घर नहीं ले गया. मजिस्ट्रेट ने नसीमा को संरक्षणगृह में रखने का आदेश कर दिया.
जाहिर था कि जब चाचा आता, तभी नसीमा छूट पाती. न वह आया- न वह छूटी. वैसे भी चाचा की इच्छा यही रही होगी कि जमीन की हकदारी वाली भतीजी होम में पड़ी रहे तो बेहतर. होम के अधिकारियों ने पत्र भेजकर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया और नसीमा के दिन यों ही कटने लगे.
नसीमा का नसीब कि इस बीच उसकी मुलाकात हमारे स्वयंसेवी संगठन सुरक्षा की कांउसलर डॉ कविता उपाध्याय से हो गई. कविता ने उसकी फाइल देखी. नसीमा गर्भवती थी. 18 वर्ष की कम उम्र लड़की बलात्कार से गर्भवती – पारिवारिक रंजिश की निर्दोष शिकार होम से तभी छूटे जब घरवाले ले जाएं या किसी से शादी हो जाए. घरवाले ही अपराधी हैं, वे तो आएंगे नहीं, अब क्या होगा, सब पसोपेश में. उसके परिवार का पता लगाया गया. एक बहन भी थी और जीजा भी. उन्हें गर्भ की बात बताएं या नहीं-अपराध की शिकार, शर्मिंदगी का शिकार भी क्यों बने. खूब सोच-समझकर पहले केवल बहन को बुलाकर समझाया, फिर उसकी सहमति से नसीमा के जीजा को. वे लोग हमारी यह सलाह मान गए कि वे होने वाले बच्चे को गोद ले लेगें और नसीमा को अपने साथ रख भी लेगें.
नियमानुसार मजिस्ट्रेट अभिभावक के हाथ ही किशोरी को सौंपता है. वकील की मदद से हम लोगों ने बहन-जीजा से एफिडेविट बनवाया कि वे ही अभिभावक हैं. इस प्रकार यह गर्भवती किशोरी होम से निकाल कर बहन के संरक्षण में सौंप दी गई.
मनीषा यादव
नसीमा का वृतान्त हमारे सामने कई प्रश्न खड़े करता है. सरकार ने ‘मॉरल डेन्जर’ यानी नैतिक खतरा नामक प्रावधान बनाया है. जो लड़कियां नाबालिग किशोरियां हंै, जो घर से भाग गईं, जो ‘भटकती पाई गईं’ उन पर नैतिक खतरा मंडरा रहा है, सो पहले उन्हें गृह में संरक्षण दो फिर उन्हें उनके घरवालों को सौंप दो. पर जिन किशोरियों के प्रति उनके घर वालों ने ही अपराध किया, जो घर से त्रस्त होकर भागीं और ‘भटकती पाई गईं’ उन्हें घरवालों के हाथों में ही सौंपकर हम उन्हें किस खतरे से बचाते हैं? बाहरी समाज से उन्हें बचाने के नाम पर हम फिर उन्हें शोषक परिवार को सौपते हैं. होम की नियमावली में इनके घरवालों को समझाने, जिम्मेदार ठहराने, और सजा दिलाने का शायद कोई प्रावधान ही नहीं है. परिवार की जिन शोषक परिस्थितियों से ये लड़कियां भागीं या निकाल फेंकी गईं, उन परिस्थितियों को बदलने का कोई भी प्रयास किए बगैर इन्हें उसमें वापस भेज दिया जाता है.
संविधान के अनुसार बालिग होने की उम्र है अट्ठारह वर्ष. किशोरी अट्ठारह की होने के बाद शादी तय करके ब्याह दी जाती है या पिता के हाथों सौंप दी जाती है. पति या पिता – इक्कीसवीं शताब्दी में मनुस्मृति के सूत्रों का अक्षरशः पालन हो रहा है. एक बेपरवाह उदासीनता के साथ.
सावित्री
मलीहाबाद की रहनेवाली सावित्री का नसीब नसीमा से बेहतर है. कम से कम वह गर्भवती तो नहीं है. उसका अपराध है प्रेम विवाह. वह चमार है, सुरेन्द्र पासी के साथ भाग गई. दोनों ने विवाह कर लिया. पिता ने थाने में एफआईआर. लिखवा दी. सुरेन्द्र फरार हो गया. मजिस्ट्रेट ने सावित्री को संरक्षणगृह भेज दिया क्योंकि सुक्खू चमार ने पिता के रूप में रिपोर्ट तो लिखा दी पर बेटी को ले नहीं गया. अपराधी फरार, शिकार कैद में.
जब हमें मिली, उस दिन सावित्री की खाना बनाने की ड्यूटी थी, दाल ,कद्दू, चावल और 120 रोटियां. चेहरा तमतमाया हुआ और पसीने से तर. होम में गैस होते हुए भी, खाना लकड़ी के चूल्हे पर ही बनवाया जाता है. हमने उससे पूछा तुम सुरेन्द्र के साथ जाओगी या पिता के साथ. वह बोली सुरेन्द्र के साथ, उसे बस एक बार बुलवा दें.
मजिस्ट्रेट के सामने अनेक पेशियां हुई, हर बार सावित्री ने सुरेन्द्र के साथ जाने की बात कही. सुरेन्द्र का हमने पता लगवाया. पता चला वह दो बच्चों का पिता था. सुक्खू ने उस पर बलात्कार और नाबालिग के अपहरण का इल्जाम लगाया था, सो कैद के डर से वह दूसरी जगह रहने लगा था. वह नहीं आया. गांव जाकर हमने वहां के लोगों से बातचीत की. गांव की टीचर बोली सावित्री चमार हो कर पासी के साथ क्यों भागी, आखिर 14 साल की है, उसे पता होना चाहिए था कि सुरेन्द्र का पासी बाप चमार की लड़की कभी नहीं आने देगा.’ हमने कहा गलती सुरेन्द्र की है, जो दो बच्चों का पिता था, सावित्री तो नादान है. पर गांववालों का मत था कि चौदह साल की लड़की नादान नहीं होती.
जो घर से त्रस्त होकर भागीं और ‘भटकती पाई गईं’ उन्हें घरवालों के हाथों में ही सौंपकर हम उन्हें किस खतरे से बचाते हैं?
आखिरकार निराश होकर सावित्री ने पिता के ही घर वापस जाने के लिये हामी भर दी. पुलिस अपनी जीप में सावित्री को उसके पिता के घर ले गई. पिता ने कहा नाक कटानेवाली बेटी नहीं चाहिए. प्रेमी तो खैर अपने घर से भाग ही चुका था. सावित्री उल्टे पैरों फिर संरक्षण गृह वापस आ गई.
नियमानुसार होम के अधिकारियों ने ‘भले लड़के’ देखकर आठ बालिग लड़कियों की शादी तय कर दी, उनमें एक सावित्री भी थी. एक दिन जब हम लोग होम पहुंचे तो उसने खिड़की के सींखचों के पीछे से आवाज लगाकर कहा, ‘हमें शादी से डर लग रहा है.’ हम लोगों ने अधीक्षिका से अनुरोध किया कि वे जल्दी न करें. मगर दो महीने बाद विवाह की तैयारियां होने लगी. हमने सावित्री से पूछा, ‘अब तुम तैयार कैसे हो गई, हमने तुम्हारे पिता से बात की है वह तुम्हें वापस लेने को तैयार है.’ सावित्री ने मुंह फुलाकर कहा, ‘अब हम नहीं जाएगें, उन्होंने पहले हमें क्यों नहीं वापस आने दिया?’
बाद में हमें सूचना दी गई है, कि सावित्री की शादी शिवलाल से हो गई है, वह कुर्मी है, बरेली में टेम्पो चलाता है, उसकी पहली पत्नी शादी के दो महीने बाद ही उसे छोड़ गई थी. मामला क्या था और इस बारे में अधिक क्या जानकारी जुटाई गई है, हमारे यह पूछने पर होम की अधीक्षिका ने कहा, ‘बाल तो मैडम देखिये आजकल सभी काले कर लेते हैं सो उसकी असली उम्र क्या है यह तो पता नहीं चल सकता पर वह सुमित्रा के लिए जो सलवार सूट और शॉल लाया है उससे पता चलता है कि उसकी चॉयस अच्छी है.’
शायद सावित्री सुखी हो.
सावित्री के प्रकरण में दोष किसका है? पिता ने बेटी के प्रेमी के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवा दी – अपहरण और बलात्कार की – पर स्वयं बेटी को लेने नहीं आया, बल्कि जब पुलिस उसके घर उसकी बेटी को पहुंचाने गई तो दरवाजे से उसे लौटा दिया. पितृसत्ता को पूरी कुरूपता और नृशंसता से लागू करने में पिता की भूमिका प्रेमी से भी भयानक है. इस तथ्य को इसलिए भी रेखांकित करना जरूरी है क्योंकि दहेज हत्या के प्रकरणों में भी अधिकतर यही पाया जाता है कि जिनके पिता ने उन्हें वापस घर नहीं लौटने दिया, वे ही लड़कियां मारी गईं.
पिता ऐसा क्यों करते हंै, शायद इसलिए कि समाज यही सोचता है. गांववालों ने कहा कि 14 साल की लड़की नादान नहीं होती, दूसरी बिरादरी के लड़के के साथ भागी क्यों? पर होम की ही नौ अन्य लड़कियों का प्रश्न है कि हमने तो अपनी ही बिरादरी वाले के साथ ब्याह रचाया था, फिर भी बाप ने क्यों पकड़वा दिया?
प्रश्न है लड़की भागी क्यों? सावित्री वगैरह पांच बहने हैं. मां के मरने के बाद सारा दिन घर का काम करना और मवेशी चराना, न स्कूल, न पढ़ाई, न खेल. हमने गांव में सामूहिक चर्चा करके बात उठाई कि बच्ची को प्यार नहीं मिला होगा, तभी प्यार की तलाश में भागी. गांव के लोगों ने कहा – प्यार क्या होता है? बाप चाहता तो खुद दूसरी शादी कर लेता, सौतेली मां नहीं लाया यही क्या कम है? बेटी ही हरामखोर हैं.
किसी भी बच्ची को बाप द्वारा कहे गए प्यार के कोई शब्द याद नहीं. ऐसे में सावित्री सुरेंद्र के साथ भाग जाए तो उसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए?
हमारे काम के दौरान ही छह नई किशोरियां लखनऊ के होम में लाई गईं जो मुर्शिदाबाद से ‘बरामद’ की गई थीं. लड़कों के साथ पकड़े जाने की वजह से. पिताओं ने सावित्री के पिता की तरह रपट तो लिखा दी पर बेटी को ले नहीं गए. अपने घरों में ही यह किशोरियां क्या पाती थीं, कैसा था इनका जीवन, ये अपने जीवन के किन क्षणों को याद करती हैं यह जानने की उत्कंठा में इनसे लंबी बातचीत की गई. वे पढ़ने नहीं भेजी जाती थी, मवेशी चराती थीं और सारा दिन खाना बनाती थीं. उनकी कोई सहेलियां-मित्र नहीं थे और उन्होंने कोई खेल नहीं खेला. सैंतीस में से केवल एक लड़की ने यह बताया कि वह खूब पहिया चलाती थी, डंडी से पहिया चलाने में मजा आता था और कभी-कभी माचिस की तीलियों से भी खेलती थी. यह लड़की गांव से नहीं शहर की ही मलिन बस्ती से यहां आई थी. ऐसा बेरंग नीरस जीवन जीने वाली किशोरियां थोड़े भी प्रेम या सहानुभूति से फुसलाई जा सकती हैं यह बात समझने के लिए किसी बड़ी भारी स्टडी की जरूरत नहीं है. परिवार किशोरी को बाल श्रमिक के रूप में घर में इस्तेमाल का रहा है. किसी भी बच्ची को बाप द्वारा कहे गए प्यार के कोई शब्द, स्नेह का कोई स्पर्श याद नहीं. ऐसे में सावित्री सुरेंद्र के साथ भाग जाए तो उसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए?
सुमित्रा का प्रेमी सुरेन्द्र पासी विवाहित था, आयु में उससे काफी बड़ा और दो बच्चों का पिता. हमारे बुलवाने के बावजूद वह सुमित्रा को लेने नहीं आया. यह बात और है कि इस व्यवस्था में पिता की शिकायत पर, प्रेम विवाह करनेवाली लड़की तो तुरन्त पकड़कर होम भेज दी गई पर एक साल गुजर जाने के बाद भी पुलिस, न्यायालय, और सरकारी अफसर उस पुरुष को गिरफ्तार न कर सके.
सुमित्रा का पिता जो उसे न पढ़ा सका, न लिखा सका, न प्यार कर सका, न देखभाल कर सका, अपने अभिभावकीय अधिकार का प्रयोग करके उसके जीवन को अंधेरा बना गया और जीवन जीने की किसी भी तैयारी के बगैर यह निर्दोष लड़की एक अजनबी पुरुष के हाथ सौंप दी गई.
सुशीला
मनीषा यादव
सुशीला करीम के साथ सूरत जाकर रहने लगी थी. उसके पिता ने लखनऊ के एक ब्लॉक के थाने में रिपोर्ट लिखा दी. पुलिसवाले नौ-दस महीने में सूरत से लड़की को ‘बरामद करा लाए.’ लड़की होम में, लड़का जेल में, फिर बेल पर. बात करने पर लड़की ने पति का साथ चुना. लड़के के पिता ने हेबियस कॉर्पस का केस करके लड़की को अदालत में हाजिर करवा लिया. उसने वहां भी यही बात कही. लड़की हिन्दू थी, लड़का मुसलमान. उन्हें बाकायदा शादी करके रहने का परामर्श दिया गया. लड़की का धर्म परिवर्तन हुआ फिर निकाह. पिछले छह-सात साल से वे लोग सूरत में रह रहे हैं और हम लोगों को फोन करते रहते हैं.
किशोरियों के साथ बातचीत करते हुए हमने पाया कि किसी लड़के के साथ दोस्ती करके घर से भाग जानेवाली किसी भी किशोरी को यह नहीं मालूम था कि विवाह की कानूनी उम्र अठारह वर्ष है और मंदिर में चुपचाप माला बदल लेने को विवाह नहीं माना जाता. वे अपने प्रेमी के साथ घर बसाना चाहतीं थीं इसीलिए अब मजिस्ट्रेट के सामने अपनी उम्र बीस वर्ष बताती हैं ताकि नाबालिग कहकर उन्हें पिता के पास न भेज दिया जाय. होम का दायित्व है कि वे इनके घर वालों को बुलवाएं मगर केवल एक अन्तर्देशीय पत्र डालकर खानापूरी करने से तो काम नहीं चलता. इसलिए बच्चियां यहां पर दसियों साल पड़ी रह जाती हैं. ज्यादातर मामलों में स्वयंसेवी संगठनों के लगातार प्रयासों से ही इन्हें पुनर्स्थापित करना संभव हो पाता है. इनमें से अस्सी प्रतिशत लड़कियां अपने द्वारा चुने गए लड़कों के साथ गईं. सुशीला इन्हीं में से एक है.
होम से छूटने की तीन ही विधियां हैं – किशोरी को उसके माता-पिता ले जाएं, उसकी शादी कर दी जाए या वह अपने पांव पर खड़ी होने लायक हो
परन्तु क्या इन सारी परिस्थितियों के लिए शासन ही उत्तरदायी है? पत्रकार तथा स्वयंसेवी संगठन भी अक्सर चटखारेदार सनसनीखेज खबर छापने और यश कमाने के लोभ में, सरकारी प्रयासों की बखिया उधेड़ते हैं. वे इन्सेस्ट तथा बलात्कार की शिकार किशोरी को जनसुनवाइयों में सरेआम पेश करके अपने संगठन के लिए धन व ख्याति बटोरते हैं. सशक्तीकरण के उद्देश्य से काम करनेवाली संस्थाओं और व्यक्तियों को न केवल ऐसा करने से बचना है बल्कि होम के भीतर मानसिक सशक्तीकरण के लिए काम करने के साथ-साथ उससे बाहर भी समाज में चेतना जगानी होगी. उन सिद्धातों को देखना और उनसे निपटना होगा जिनकी रक्षा के लिए मां-बाप ने बच्चियों को घर से निकाला – जाति? तयशुदा विवाह? या केवल पिता का ही कहना मानना? ये भी देखना होगा कि वे कौन से कष्ट है जिन्हें न सह सकने के कारण किशोरी ने घर छोड़ा – इन्सेस्ट? डांट-फटकार? नीचा दिखाना? सारे दिन का बेगार श्रम?
मुझे याद है कि हमारे पास एक प्रकरण आया था जिसमें पति ने पत्नी के ऊपर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. वह मरी नहीं बच गई. पति ने बेहयाई से मुझसे कहा ‘दीदी, वह लूज कैरेक्टर थी. एक बार मुझसे लड़कर संस्था में भी रह चुकी है. आप तो जानती ही हैं, संस्था में कैसे चरित्र की लड़कियां रहती हैं.’ पत्नी को जिन्दा जला कर मारने की चेष्टा करने वाला खूंखार अपराधी पत्नी को लूज कैटेक्टर बता रहा था क्योंकि उसके अत्याचार से त्रस्त होकर वह एक बार संस्था की पनाह ले चुकी थी. इस प्रकरण से एक और बात का संकेत मिलता है कि वे पुरुष, जो यहां की संवासिनियों से विवाह कर रहे हैं, वे उन्हें, उनके अतीत का ताना भी दे सकते हैं. परिस्थिति की शिकार किशोरी अपराधी के कटघरे में खड़ी रहेंगी, ‘तुमने कुछ न कुछ तो किया ही होगा जो तुम्हें संस्था में रख गया.’
संरक्षणगृहों में रह रहीं लड़कियों से जुड़ी एक जटिलता यह भी है कि इनकी पहचान गोपनीय रखने के नाम पर शासन, अखबार या टीवी के विज्ञापनों आदि में इनका नाम नहीं आने देता. ऐसी अनेक लड़कियां यहां बंद हैं जिन्हें केवल अपने पिता का नाम मालूम है, अपने घर का पता नहीं. हम ऐसी अनेक बच्चियों से मिले जो बचपन में यहां आई थीं और यहीं किशोरी हो गईं. संवासिनियों की पहचान की गोपनीयता बनाए रखकर उनकी पहचान कैसे उनके परिजनों तक पहुंचाई जाए इसके प्रभावी तरीके ढूंढ़ने होंगे.
किसी भी होम से छूटने की तीन विधियां हैं – किशोरी को उसके माता-पिता ले जाएं, उसकी शादी कर दी जाए या किशोरी यह सिद्ध कर सके कि वह आर्थिक सामाजिक नैतिक दृष्टि से अपने पांव पर खड़ी हो जाएगी. बातचीत के दौरान संरक्षणगृह की एक अधीक्षिका हमें बताती हैं कि मजिस्ट्रेट यदि स्वतन्त्र मुक्ति का आदेश दे भी दे तो वे किशोरी को आखिर किस पते पर भेज दें. आखिर उन्हें फॉलोअप भी तो करना पड़ता है. इसलिए 99 प्रतिशत प्रकरणों में किशोरी को पिता या पति के हाथों ही सौंपा जाता है. यदि लड़कियां पिता के घर न जाना चाहें या पिता उन्हें घर न बुलाना चाहें या उनका पता नहीं चल पा रहा हो तो ऐसी हालत में उनके सामने दो ही विकल्प होते हैं या तो वे शादी कर लें या आजीवन होम में रहें. इसलिए न चाहते हुए भी कई मामलों में संवासिनियां शादी के लिए अक्सर हामी भर देती हैं.
गर्भपात की सहमति देने के लिये इनके मां-बाप मौजूद नहीं. लेडी डॉक्टर्स इन नाबालिग बच्चियों को मां बनने देने के लिए मजबूर हैं
होम में रहकर किशोरियां शिक्षा की मुख्य धारा से कट जाती हैं क्योंकि बाहर निकलकर वे स्कूल नहीं जा सकतीं. जिस देश में प्रशिक्षित युवावर्ग विश्वविद्यालय तथा तकनीकी संस्थानों से डिग्री लेकर नौकरी के लिए भटक रहा है वहां क्या ये किशोरियां होम में निरुद्ध रह कर स्वावलंबी बन पाएंगी? जाहिर है तीसरा विकल्प दिखावटी है, और उनकी शादी ही की जानी है.
संरक्षण गृह में कुछ बच्चियां बाल अपराध के कानून में भी बंद हैं. एक बच्ची ने बताया कि वह चाचा-चाची के साथ बस में जा रही थी. एक पर्स सीट के नीचे पड़ा था, चाचा ने कहा इसे उठा कर दे दो . तीनों गिरहकटी के जुर्म में पकड़े गए. चाचा-चाची छूट गए, बच्ची यहीं रह गई. आज बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के आरोपी सबसे पहले स्वयं को नाबालिग साबित करने पर इसीलिए तुल जाते हैं ताकि सज़ा से बच जाएं लेकिन जो असल में नाबालिग हैं उनके साथ सरकार क्या कर रही है?
मनोवैज्ञानिक मैस्लो ने हाइरारकी ऑफ नीड्स का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था. इसके अनुसार चलें तो संरक्षणगृह किशोरियों की बेसिक आवश्यकताओं को तो पूरा कर रहे हैं जैसे कि छत, खाना और सुरक्षित महसूस करना लेकिन स्नेह, अपनापन, आत्मसम्मान और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में यह कुछ भी नहीं करता. उदारमना लोग अक्सर अपने माता-पिता की पुण्यतिथि पर होम में पूड़ी, परांठे, हलुआ और कभी पुराने कपड़े भिजवा देते है,. पर क्या किशोरियों को यही चाहिए?
समाज ने किशोरियों की उपेक्षा की है, सरकार ने उपेक्षित किशोरियों को निरुद्ध किया है. किसी ने उन्हंे समाज में पुनर्स्थापित करने की चेष्टा नहीं की.
नारी निकेतनों में निरुद्ध किशोरियों का जीवन समाज के एक घर में निरुद्ध किशोरी के जीवन का आईना है. पारदर्शिता और समाज के साथ सहयोग करके काम करने के तमाम दावों के बावजूद सरकार अपनी इन संस्थाओं को गोपनीयता के आवरण में रखना चाहती है. न जाने क्यों सरकार समाज के लोगों को निकेतनों में जाने से किसी न किसी बहाने से रोकती रही है. यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि निरपराध किशोरियों को, जिन्हें केवल गवाही के लिए यहां रखा गया है, समाज से काटकर आखिर किस नियम के तहत रखा जा सकता है?
अंजू
मनीषा यादव
अंजू की कहानी सुनाए बगैर बात पूरी नहीं हो सकती. अंजू नाम की किशोरी लखनऊ के पास के गांव की थी. 2001 में जब वह हमें मिली, गर्भवती थी. तेरह साल की लड़की के चेहरे पर बचपना था. होमवालों ने तो उसके घर के पते पर पोस्ट कार्ड भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, हम लोगों ने उसके घर का पता लगा लिया. मुहल्ले का नाम था चमरही. जिस देश के संविधान में जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव करने की सख्त मनाही है उस देश में आज भी मुहल्लों के नाम चमरटोला और चमरही आदि हैं. अंजू का बाप शराबी था, मां मर चुकी थी और उसे नानी पाल रही थी. जिस करीम के कारण वह गर्भवती थी वह उसे लेने होम नहीं आया. हम लोगों ने उसे सुरक्षा के परामर्श केन्द्र में बुलवा लिया. लड़की 13 साल की, करीम 34-35 साल का. करीम बोला ‘उसकी नानी हमारे खेत में काम करती थी मैं लड़की को वहीं बुला लिया करता था जहां पर हमारी गाय भैसें बांधी जाती हैं.’ मैंने सख्ती से कहा ‘खुद से बीस साल छोटी बच्ची को इस तरह इस्तेमाल करते आपको शर्म नहीं आई?’ ‘मैं नहीं करता तो उसका बाप उसे धंधे मेंे लगा देता, उनकी बिरादरी ही ऐसी है, ‘निर्लज्जता से इतनी गिरी हुई बात कहते करीम को संकोच नहीं हुआ.
अपने विषय में हो रही इन तमाम बातों से अनभिज्ञ अंजू को गर्भधारण से जुड़ी जटिलता का अहसास ही न था. फुसलाकर इस्तेमाल करनेवाले की हरकतों के बारे में वह सोचती थी कि यही प्यार है. हमारी आंखों के सामने ही चौदह साल की लड़की सरकार के संरक्षणगृह में मां बन गईं.
संवासिनी गृह में लेडी डॉक्टर रेनू वर्मा अंजू को विजिट करती थीं जो बड़ी निष्ठा से लड़कियों की सेहत का ध्यान रखती थीं. नेक नर्स जयश्री की देखरेख में गर्भवती लड़कियों को रोज एक उबला अंडा और एक केला दिया जाता था. गरीब घर की बेटियों के लिये एक बहुत बड़ी नेमत. मगर अनचाहे गर्भ का गर्भपात कराना कानूनी जटिलता से भरा है. नये ज्युविनाइल जस्टिस एक्ट के अनुसार किशोरावस्था नाम की कोई अवस्था नहीं होती.अठारह वर्ष की उम्र से छोटा व्यक्ति बच्चा है, और अठारह वर्ष की उम्र से बड़ा व्यक्ति वयस्क. नाबालिग़ की सहमति को सहमति नहीं माना जाता. गर्भपात की सहमति देने के लिये इनके मां-बाप मौजूद नहीं. लेडी डॉक्टर्स इन नाबालिग बच्चियों को मां बनने देने के लिए मजबूर हैं.
आज सन 2014 में यह रिपोर्ट आपसे साझा करते समय लगता है कि यदि ये किशोरियां संवासिनीगृह में निरुद्ध न होतीं तो शायद बदायूं के उस ऊंचे पेड़ पर लाल और हरी चुन्नियों से लटके शव बन चुकी होतीं. हमारे प्रदेश के धर्मनिरपेक्ष नेता जी का कहना है, ‘लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है,क्या उन्हें फांसी दे दोगे?’ लड़कों को फांसी नहीं दी जा सकती, मगर तेरह साल की लड़कियों को तो सरेआम फांसी दे ही दी गई है.
दिल्ली में घटे निर्भया कांड के बाद जब स्वयं को अति प्रगतिशील बतानेवाले लिबरल लेफ़्ट नारीवादी समूह सेक्स के लिए सहमति की उम्र 18 वर्ष से घटा कर 16 करने का ईमेल अभियान चला रहे थे तब मेरा दिल कांप रहा था. उस समय आंखों के सामने इन किशोरियों के चेहरे थे जो मां बनने को मजबूर हो गईं. लिबरल लेफ़्ट नारीवादी समूह शायद उन किशोर-किशोरियों की बात कह रहे थे जिनके लिए सेक्स एक नया खेल हो सकता है. वे लोग कह रहे थे कि शारीरिक रूप से बच्चे आजकल जल्दी मेच्योर हो रहे हैं इसलिए सहमति की उम्र घटा कर 16 कर दी जाए.
इन नारीवादियों और उन अनपढ़ बड़ी-बूढ़ियों की राय में क्या फर्क है जो कहा करती थीं कि ‘बिटिया सयानी हो गई है इसके हाथ पीले कर दो’
मेरी जिज्ञासा है कि इन नारीवादियों की राय और उन अनपढ़ बड़ी-बूढ़ियों की राय में क्या फर्क है जो कहा करती थीं कि‘बिटिया सयानी लगने लगी है अब इसके हाथ पीले कर दो’ क्या सेक्स और प्रजनन को प्रेम और जिम्मेदारी से पूरी तरह अलग करके देखा जाना सही होगा?
‘मैरी स्टोप्स क्लिनिक’ के कार्यकर्ताओं के मुताबिक उनके क्लीनिक में एमटीपी के लिए आने वाली अविवाहित किशोरियों और युवतियों के साथ कभी भी उनके पुरुष साथी नहीं आते. वे अपनी किसी सहेली के साथ आती हैं, अक्सर छिपकर. मुझे लगा कि इससे यही पता लग रहा है कि हमारे समाज में आई आधी-अधूरी आधुनिकता का इस्तेमाल पुरुष, स्त्री के शारीरिक शोषण के लिए ही कर रहे हैं. विवाहपूर्व या विवाहेतर सेक्स उनके लिए मनोरंजन है, जिम्मेदारी नहीं और न ही कोई लंबा रिश्ता.
मनुष्य ने सामाजिक व्यवस्था इसलिए बनाई होगी ताकि मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ चैन से जी सके. परन्तु सामाजिक नियम, मूल्य-मान्यताएं, उम्र का लिहाज, जाति की परंपरा, नैतिकता के मानदंड इतने कठोर, जटिल और इतने महत्वपूर्ण मान लिए गए कि जिन्दगी जीना दूभर हो गया. इतने बड़े समाज और इतनी बड़ी व्यवस्था के बीच एक इंसान के नाजुक से दिल और छोटी सी चाहतों का क्या हो?
इन जीवनों की जटिलता को नजदीक से देखने पर लगता है कि परामर्श की जरूरत किशोरी को नहीं, उसके परिवार को है. अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, मिस्त्री, सिपाही कुछ भी बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है लेकिन माता-पिता बनने का कोई प्रशिक्षण नहीं. प्रेमविहीन, संवेदनाशून्य, क्रूर सभी लोग माता-पिता बनने को स्वतन्त्र हंै. स्नेह-प्यार-दुलार-प्रशंसा के दो शब्द सुनने की किशोरी में उत्कट चाहत है, परन्तु उपेक्षा, अवहेलना, उदासीनता और घर के निरानंद कामकाज के बोझ के अतिरिक्त इनमें से ज्यादातर को यह समाज दे क्या रहा है?
2006 में पूरी दुनिया को हिलाकर रख देने वाले निठारी हत्याकांड के अभियुक्त सुरेंद्र कोली को फांसी होने वाली है. चार सितंबर 2014 को उसे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद स्थित डासना जेल से मेरठ जिला जेल ट्रांसफर कर दिया गया जहां उसे फांसी दी जाएगी. इससे एक दिन पहले ही गाजियाबाद स्थित सीबीआई अदालत ने कोली को डासना से मेरठ जेल भेजने और उसे फांसी पर लटकाने का आदेश दिया था.
उत्तराखंड के एक छोटे से गांव मंगरूखाल का रहने वाला सुरेंद्र कोली दिसंबर 2006 में दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया जब नोएडा के एक कारोबारी मोनिंदर सिंह पंढेर के मकान से खुदाई के दौरान बड़ी संख्या में बच्चों के कंकाल मिले. कोली पंढेर के घर में काम करता था. इस मामले में कोली और पंढेर, दोनों को आरोपी बनाया गया और दोनों ही तब से गाजियाबाद की डासना जेल में बंद हैं. बाद में मामला सीबीआई को सौंपा गया जिसने अपनी जांच के दौरान कोली को 16 मामलों में दोषी बताते हुए उसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की. इन 16 में से पांच मामलों में उसे गाजियाबाद की सीबीआई अदालत से फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है. कोली को इनमें से सबसे पहले मामले में अभियुक्त साबित होने के बाद फांसी पर लटकाया जाएगा जिसका फैसला फरवरी 2009 में आया था. यह मामला 14 साल की रिम्पा हलदर की नृशंस हत्या का है. इस मामले में उसकी दया याचिका राष्ट्रपति पिछले दिनों खारिज कर चुके हैं. चार अन्य मामलों में फांसी को लेकर कोली की याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित है.
चार सितंबर को सीबीआई के विशेष जज ने कोली का डेथ वारंट गाजियाबाद जेल प्रशासन को भिजवाया. इसमें कहा गया है कि अदालत गाजियाबाद के जेल सुपरिटेंडेंट को मौत की सजा पाए सुरेंद्र कोली को जिला जेल मेरठ भेजने और वहां उसे फांसी देने की इजाजत देती है. हालांकि दो पेज के इस आदेश में सुरेंद्र कोली को फांसी पर लटकाने की कोई तिथि या दिन निश्चित नहीं है, लेकिन आधिकारिक सूत्रों का कहना है कि आदेश के सात से 10 दिन के भीतर उसे फांसी दे दी जाने की संभावना है.
सूत्रों का कहना है कि सुरेंद्र कोली को फांसी देने के लिये मेरठ जेल भेजने की प्रक्रिया में अदालत, राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच काफी लंबी प्रक्रिया चली. ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि फांसी की सजा पाए किसी कैदी की राष्ट्रपति द्वारा खारिज की गई दया याचिका अदालत द्वारा मंगवाई गई हो. केंद्रीय गृह मंत्रालय से सीलबंद लिफाफे में आई खारिज दया याचिका देखने के बाद ही अदालत ने उसे मेरठ जेल भेजने का आदेश दिया.
फांसी के बारे में सुनने के बाद भी सुरेंद्र कोली की मनोदशा और हाव-भाव में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिला. डासना जेल अधीक्षक एसपी यादव ने तहलका को बताया कि उसका व्यवहार रोजमर्रा जैसा ही रहा. उनका यह भी कहना था कि कोली अपनी हाई सिक्योरिटी बैरक में अपने खिलाफ चल रहे मामलों को लेकर तैयारी करता रहता है या फिर आरटीआई से सूचना मांगने के काम में लगा रहता है. इसके अलावा उसने हाल ही में अपनी फांसी की सजा को लेकर उत्तराखंड सरकार को भी एक चिट्ठी लिखी है जिसमें उसने सरकार से अपने लिये सहायता मांगी है.
मेरठ के जेल अधीक्षक एसएमएच रिजवी ने तहलका को बताया कि सुरेंद्र कोली को गाजियाबाद जेल की तरह मेरठ में भी हाई सिक्योरिटी बैरक में रखा जाएगा. उनका कहना था, ‘कोली को फांसी देने के लिये हमारे पास पवन नाम का जल्लाद है जिसे सरकार की तरफ से 3000 रुपए प्रतिमाह तनख्वाह दी जाती है.’ उन्होंने यह भी बताया कि कोली को फांसी देने से पहले उसके परिवार को जेल प्रशासन की तरफ से सूचना भिजवाई जाएगी.
मेरठ जेल में 39 साल बाद किसी को फांसी दी जाएगी. इससे पहले 1975 में यहां एक कैदी को फांसी पर लटकाया गया था. कोली को फांसी देने के लिये प्रदेश की तीन जेलों का नाम दिया गया था-मेरठ, बरेली और इलाहाबाद. कोली को चार अन्य मामलों में भी गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है. ये सभी मामले अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चल रहे हैं. इसके अलावा कोली पर लंबित 12 अन्य विचाराधीन मामलों का निस्तारण गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत में हो रहा है.
गाजियाबाद की जेल से मेरठ जेल ले जाए जाते समय ‘वज्र’ वाहन में बैठे और चेहरे से भावशून्य लग रहे सुरेंद्र कोली से निशांत गोयल ने बात की. इस दौरान वह बार-बार यही कहता रहा कि कि उसे फांसी नहीं हो रही है बल्कि सरकार उसकी हत्या करवा रही है.
पता है तुम्हें कहां और क्यों ले जाया जा रहा है? हां मुझे पता है मुझे मेरठ जेल ले जाया जा रहा है और मुझे यह भी पता है कि मुझे जल्द ही मार दिया जाएगा.
अब जब तुम्हें पता है कि तुम्हें कहां और क्यों ले जाया जा रहा है तो तुम्हें आखिरी बार कुछ कहना है?
मुझे बिना किसी गुनाह के फांसी की सजा दी रही है. यह सजा नहीं है बल्कि सरकार मेरी हत्या कर रही है. मैं बिल्कुल बेकसूर हूं. मैंने अदालत और सरकार को अपनी पूरी बात बताई. मैंने लगातार अपनी बेकसूरी साबित करने की कोशिश की लेकिन मेरी बात किसी ने नहीं सुनी. मैं गरीब हूं इसलिये मेरी हत्या की जा रही है. मेरी हत्या कानून का मजाक है.
तुम आखिरी बार अपने परिवार से मिलना चाहते हो? मैं पिछले कई महीनों से अपने परिवार और बच्चों से मिलने की गुहार लगा रहा हूं, लेकिन कोई मेरी बात सुनने को तैयार ही नहीं है. मैंने कई बार अदालत में भी यह बात कही, एप्लीकेशन भी लगाई, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अब जब मैं मरने ही वाला हूं तो अब मुझे अपने परिवार और बच्चों से मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. अगर मेरे मरने से पहले मेरे परिवार को मुझसे मिलवाने के लिये लाया जाता है तो उन्हें मुझसे मिलवाने के बाद सकुशल मंगरूखाल भिजवा दिया जाए.
और कोई बात जो तुम कहना चाहते हो. निठारी के बच्चों की हत्या से मेरा कोई लेना-देना नहीं है. मैंने एक भी बच्चे की हत्या नहीं की और न ही किसी के साथ बलात्कार किया. इसके अलावा न ही मैंने किसी को पका कर खाया जैसा कि मेरे बारे में अखबारों ने और टीवी ने दिखाया है. सीबीआई ने इस मामले की ठीक तरीके से तफ्तीश नहीं की. सीबीआई ने हमारी पड़ोस वाली कोठी डी-6 के मालिक डाक्टर अग्रवाल से कोई पूछताछ नहीं की. डाक्टर अग्रवाल बच्चों को मारकर उनकी किडनी और दूसरे अंग बेचने का कारोबार करता था. इस सबके अलावा मेरा मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर कोठी में अय्याशी करता था और कई बड़े-बड़े नेता और अधिकारी उसके यहां लगातार आते रहते थे. सीबीआई ने इन सबको बचाने के लिए मुझे फंसाया है.
लेकिन तुमने अपने बयान में पंढेर या डाक्टर के बारे में कुछ नहीं बताया.
साहब जिस आदमी के सिर पर सीबीआई के दस-दस अधिकारी खड़े हों वह और क्या करेगा. मैंने अपने बयान में वही कहा जो मुझे सीबीआई वालों ने कहने के लिये कहा था. मुझे प्रेशर में लेकर यह सब मुझसे कहलवाया गया.
गोरखपुर, यानी एक ऐसा शहर, जिसे बचपन से ही जाना. गीताप्रेस के जरिए. गोरखनाथ मंदिर के जरिए. थोड़ा बड़े होने पर फिराक गोरखपुरी का अपना शहर होने की वजह से. चौरा-चौरी के क्रांतिकारियों की वजह से. क्रांतिकारी कवि और गीतकार गोरख पांडेय की वजह से भी. बलेस्सर के बिरहा के जरिए गोरखपुर को सबसे ज्यादा जाना. निक लागे टिकुलिया गोरखपुर के… जैसे गीत. हालिया वर्षों में गोरखपुर के साथियों द्वारा फिल्म फेस्टिवल की जो शुरुआत हुई है, उस वजह से भी उस शहर से एक स्वाभाविक लगाव हुआ. गोरखपुर से ही सटे औरंगाबाद गांव के टेराकोटा आर्ट के शिल्पियों की कहानी भी सुनता रहा हूं. रहस्यमयी होकर बच्चों को कीड़े-मकोड़े की तरह मार देनेवाली बीमारी इंसेफलाइटिस की राजधानी के रूप में विकसित हुए गोरखपुर को भी जाना. वर्षों तक तिवारी और शाही के बीच चली मुठभेड़ के बहाने सवर्णों के दो गुटों के वर्चस्व की लड़ाई के जरिए भी गोरखपुर को जाना-समझा था. बाद में बाहुबली और चर्चित शूटर श्रीप्रकाश शुक्ला के कारण भी. लेकिन गोरखपुर इलाके से सबसे ज्यादा अनुराग वहां के जोगियों की वजह से था. उन्हें बचपन में अपने गांव में सारंगी लिए आते देखता और घंटो उनके गीतों को सुनते रहता था. अबकी बरस बहुरी नहीं अवना से लेकर केहू ना चिन्ही, माई ना चिन्ही, भाई ना चिन्ही… जैसे गीत. वैरागी मन से जीवन के मायने बतानेवाले जोगी गीत. उन जोगियों के गीत सुनते हुए मानस में गोरखपुर एक अलग तरीके से रचा-बसा रहा. हमेशा यही लगता रहा कि उस इलाके की आबोहवा का ही तो असर रहा होगा कि वहां से सिद्ध होकर या वहां सिद्ध होने की कतार में लगे जोगी जीवन के ऐसे गीत गाते हैं. उन जोगियों की वजह से बचपन से ही गोरखपुर की एक ऐसी तगड़ी पहचान रची-बसी मन में कि हालिया वर्षों में बार-बार वहां के एक दूसरे योगी की बात बार-बार आने पर भी लगता रहा कि यह नए योगी एक क्षणिक प्रवृत्ति की तरह हैं, गोरखपुर की प्रकृति के अनुकूल नहीं. नए योगी यानी गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ, जो आए दिन सुर्खियों में रहते हैं. योगी का हालिया बयान, जो चर्चा में है और उसके पहले भी सुने गये बयानों के बावजूद लगता है कि यह महज एक व्यक्ति के खुराफाती मगज की उपज है. शहर के बारे में इन बातों से धारणा बदलना ठीक नहीं. लेकिन तीन सितंबर को प्रेस क्लब एसोसिएशन के शपथ ग्रहण समारोह के बहाने पहली दफा गोरखपुर जाने पर धारणा बदली.
योगी और उनकी हिंदू वाहिनी सेना के लोग हर रोज इंतजार करते रहते हैं कि कहीं भी हिंदू-मुस्लिम विवाद के नाम पर कोई मसला आए तो वे तुरंत जाकर वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दें
गुरू गोरखनाथ की परंपरा के अनुयायी और निकट भविष्य में गोरखनाथ मंदिर के प्रमुख बन जाने को तैयार और साथ ही भाजपा के बहुचर्चित सांसद आदित्यनाथ के बारे में जानकर तो धारणा बदली ही, उनके कृत्यों और कारनामों पर शहर की चुप्पी पर भी.
जिस दिन गोरखपुर पहुंचे, उस दिन वहां के सभी अखबारों में योगी आदित्यनाथ की बड़ी-बड़ी तसवीरें छपी थीं. बिजली को लेकर सड़क पर प्रदर्शन करते हुए. मालूम हुआ कि योगी आदित्यनाथ को बस यही और एक दूसरा काम करना आता है. बात-बेबात धरना-प्रदर्शन और जरा-सी बात पर जहरीले बयान देकर एक खौफ का माहौल बना देना. आदित्यनाथ के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करते रहे, गोरखनाथ मंदिर के राजनीतिक वर्चस्व के बारे में पता चला. मालूम हुआ कि आजादी के बाद से चार-पांच मौके छोड़ दें तो ज्यादातर समय वहीं की संसदीय राजनीति में गोरखनाथ मंदिर का ही कब्जा रहा है. कभी हिंदू महासभा के जरिए तो बाद में भाजपा के जरिए. गोरखपुर में साथियों से पूछा कि जब आदित्यनाथ बोलते हैं तो देश भर में बवाल मचता है, गोरखपुर में क्या होता है! जवाब मिला- कुछ नहीं होता! होगा क्या? एक बड़ा खेमा है जो खुश हो लेता है कि उसका सांसद ऐसा है, जिसकी चर्चा देश भर में होती है और एक खेमा है जो आपस में ही बतकही कर के अपना दायित्व पूरा कर लेता है. गोरखपुर में हर कोई जानता है कि योगी आदित्यनाथ कभी भी, कुछ भी बोल सकते हैं. इसे ऐसे भी कह सकते हैं पिछले तीन बार से वे बोलकर ही सांसद बनते रहे हैं. सिर्फ एक बार को छोड़ दें तो उन्हें कभी तगड़ी चुनौती नहीं मिली. गोरखपुर में ही मालूम हुआ कि यहां जरा-जरा सी बात पर यदि हिंदू-मुसलमानों के बीच कुछ हो जाए तो मुसलमानों को धमकाया जाता है. घुड़की यही होती है कि हमारी बात नहीं मानोगे तो जाते हैं कल योगी जी के दरबार में. शहर के आम लोग बताते हैं कि योगी और उनकी हिंदू वाहिनी सेना के लोग, जिसका गठन योगी ने एक बार चुनाव में क़ड़ी चुनौती मिलने के बाद किया था, हर रोज इंतजार करते रहते हैं कि कहीं भी हिंदू-मुस्लिम विवाद के नाम पर कोई मसला आए तो वे तुरंत जाकर वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दें.
हम गोरखपुर में बार-बार पूछते रहे कि इतनी बार सांसद रहे आदित्यनाथ, उसके पहले उनके गुरू भी सांसद रहे, तो ऐसा कोई निर्माणकार्य है जो इनके कार्यकाल में हुआ हो! कोई जवाब नहीं दे पाता. यह जरूर पता चलता है कि हर साल योगी आदित्यनाथ की सांसद निधि का एक बड़ा हिस्सा उपयोग न होने की वजह से लैप्स हो जाता है. सुनने में आया है कि फिलहाल उनका जो अपना आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज है, वे उसे मेडिकल कॉलेज में बदलने की तैयारी में है. कहने के लिए योगी इसे जरूर भविष्य में अपनी एक बड़ी उपलब्धि बता सकते हैं. बाकी जो काम गोरखपुर में दिखता है, वह वीर बहादुर सिंह ने किया था. ऐसा है तो आखिर आदित्यनाथ हमेशा चुनाव कैसे जीत जाते हैं? जवाब मिलता है, ‘ सभी दल के लोग मिलकर सहयोग करते हैं और आदित्यनाथ नाथ भी जानते हैं कि दलों के साथ जनता को मिलकर सहयोग करना ही होगा, नहीं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे! ‘ इसका बड़ा सीधा सा गणित है. आदित्यनाथ और उनकी हिंदू ब्रिगेड, हिंदू वाहिनी सेना ने पूरे इलाके में हिंदू-मुसलमानों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर इतनी दूरी बढ़ा दी है कि अब सबको यह लगता है कि एक बार भी योगी आदित्यनाथ नहीं रहे तो इतने वर्षों का बदला उनसे लिया जा सकता है. जबकि यह आदित्यनाथ के लोगों द्वारा फैलाए गए भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं है. लेकिन इस भ्रम का असर ऐसा हुआ है कि गोरखपुर के जो असल जोगी होते थे, सारंगी लेकर चलने वाले, उनकी नई पीढ़ी ने उनकी सारंगियों को तोड़ दिया है कि तुम मुसलमान हो तो हिन्दू फकीरी क्यूं करोगे!
हम बार-बार पूछते हैं लोगों से कि यह शहर इंसेफलाइटिस की बीमारी का गढ़ है, हर साल बच्चे मरते हैं, आदित्यनाथ की ओर से क्या किया गया उसे लेकर. बताया गया कि योगी जी ने एक फॉर्मूला तय कर लिया है. हर साल एक पैदल मार्च निकालते हैं इंसेफलाइटिस के खिलाफ, अखबारों में बड़ी-बड़ी सुर्खियां और तस्वीरें आती हैं और फिर संसद में कुछ सवाल उठाते हैं, कुछ दिनों बाद उनकी बुकलेट तैयार होकर बांट दी जाती है कि देखिए सांसद जी ने कितने सवाल उठाए गोरखपुर वालों के लिए. यहां के लोगों की बात से मालूम हो जाता है कि आदित्यनाथ की असली ताकत गोरखपुर का विकास या गोरखपुर को आगे ले जाने की रणनीति वाली राजनीति नहीं बल्कि मानसिक तौर पर और पीछे, और पीछे बनाकर ही खुद को आगे बढ़ाने की रणनीति रही है. देशभर में आदित्यनाथ के बयानों पर विरोध होता है लेकिन गोरखपुर में ऐसा क्यों नहीं है. इसका जवाब कोई नहीं देता. सब कहते हैं कि विरोध करनेवाली संस्थाएं सिमट गई हैं. व्यक्ति भी सिमट गए हैं. नाटक की सौ से ज्यादा मंडलियां यहां थीं, सबकी गतिविधियां थमी हुई हैं. कई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन थे, जो विरोध के स्वर निकालते थे. सब अपने अपने काम में लगे हुए हैं. दूसरे दल के नेता भी गोरखपुर तभी आना चाहते हैं या गोरखपुर पर तभी बात करना चाहते हैं, जब उन्हें चुनाव का टिकट मिल जाए. बाकी समय योगी को वॉकओवर मिला रहता है, मनमर्जी की राजनीति करने का और कुछ भी काम नहीं कर के सिर्फ इलाके का दौरा कर नेता बने रहने का.
यूपीए-2 के तीसरे साल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एसपीजी, रॉ और आईबी के कुछ भूतपूर्व और तत्कालीन अधिकारियों की एक बैठक बुलाई. बैठक में मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी भी मौजूद थीं. उस मीटिंग में मनमोहन सिंह ने अधिकारियों से कुछ सवालों पर उनकी राय जाननी चाही- क्या इंटेलीजेंस एजेंसियों में मुस्लिम समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के संबंध में कोई फैसला लिया जा सकता है? क्या रॉ में मुस्लिमों को शामिल करने के बारे में सोचा जा सकता है. क्या एसपीजी में सिखों और मुसलमानों पर लगे बैन को हटाने पर विचार किया जा सकता है?
मनमोहन सिंह के इन प्रश्नों पर राय जाहिर करते हुए अधिकारियों ने कहा कि ऐसा हो तो सकता है लेकिन इसमें खतरा बहुत बड़ा है. सालों से चले आ रहे सिस्टम को बदलने से अगर कुछ गड़बड़ हुई तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? अंततः पीएम ने और सोचने की बात कहकर मीटिंग समाप्त कर दी. फिर कभी इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई.
मनमोहन सिंह जिस मुद्दे पर इन अधिकारियों से चर्चा कर रहे थे वह भारत की इंटेलीजेंस और सुरक्षा एजेंसियों से जुड़ी ऐसी कड़वी हकीकत है जिसके बारे में कभी कोई खुलकर चर्चा नहीं करता. हकीकत यह कि भारत की आजादी के इतने सालों बाद भी देश की इंटेलीजेंस एजेंसियों में मुसलमानों के लिए नो-एंट्री का बोर्ड लगा हुआ है और एसपीजी(स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) और एनएसजी (नेशनल सिक्योरिटी गार्ड) में सिखों और मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है. रॉ के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, ‘ये कोई आज की बात नहीं है. 1969 में अपने गठन से लेकर आज तक रॉ ने किसी मुस्लिम अधिकारी की नियुक्ति नहीं की है. हालांकि उसके अपने कारण हैं.’ एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी इसकी चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘शुरू-शुरू में एक अनरिटन कोड था कि इंटेलिजेंस एजेंसियों में खासकर सेंसिटिव जगहों पर मुस्लिमों को नियुक्त नहीं किया जाता था. यही अलिखित नियम इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के लिए भी बन गया.’
सन 84 में स्थापित एसपीजी से जुडे़ एक पूर्व अधिकारी तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘ये सही है कि सिख और मुस्लिमों को वीवीआईपी सुरक्षा में नहीं लगाया जाता. पूर्व में हमने सुरक्षा से जुड़े अलग-अलग मामलों के कारण ही देश के प्रधानमंत्रियों की हत्या होते देखी है. एसपीजी सुरक्षा का अंतिम घेरा होता है. ऐसे में उसमें किसी तरह का कोई जोखिम नहीं ले सकते. मैडम इंदिरा गांधी और राजीव जी की हत्या के उदाहरण हमारे सामने हैं.’
फोटो: विकास कुमार
रॉ और एसपीजी की तरह ही एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) ने भी किसी मुस्लिम अधिकारी को अपने यहां नियुक्ति नहीं किया. कुछ ऐसा ही हाल मिलिट्री इंटेलीजेंस (एमआई) का भी है. एमआई के एक अधिकारी कहते हैं, ‘अभी इसमें कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि सालों से चले आने के कारण ये चीजें परंपरा के रूप में स्थापित हो चुकी हैं. इसमें किसी को कुछ अजीब नहीं लगता.’ मीडिया से बातचीत में इसको कुछ और स्पष्ट करते हुए रॉ के पूर्व विशेष सचिव अमर भूषण कहते हैं, ‘मुस्लिमों को संवेदनशील और सामरिक जगहों से बाहर रखने का एक सोचासमझा प्रयास किया जाता है. समुदाय को लेकर एक पूर्वाग्रह बना हुआ है.’
भूषण की बात की पुष्टि कुछ साल पहले अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ में छपी एक खबर से हो जाती है. खबर में लिखा था कि पूर्व केंद्रीय शिक्षामंत्री हुमायूं कबीर के पोते की रॉ में भर्ती सिर्फ इस आधार पर रद्द कर दी गई क्योंकि वे मुस्लिम थे. हिमायूं कबीर उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने के बजाय भारत को चुना. रिटायर्ड वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी भी कहते हैं, ‘इन संस्थाओं में बंटवारे के बाद से ही एक सांप्रदायिक पूर्वाग्रह बना हुआ है. उनकी (मुस्लिमों की) देशभक्ति पर ये एजेंसियां संदेह करती हैं.
ऐसा नहीं है कि इसको लेकर इन संस्थाओं और सरकार में कोई चर्चा नहीं हुई. रॉ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि लंबे समय से रॉ की रिक्रूटमेंट पॉलिसी को लेकर संस्था के भीतर चर्चा चल रही है. लेकिन एजेंसी में ही एक तबका ऐसा है जो इसमें किसी तरह के बदलाव का सख्त विरोधी है. पूर्व प्रमुख पीके ठाकरन के समय में (2005-2007) इस दिशा में कुछ काम हुआ था. ठाकरन ने रिक्रूटमेंट पॉलिसी को बेहतर करने और उसमें धर्म के आधार पर भेदभाव खत्म करने के उद्देश्य से एक कमेटी बनाई थी. हालांकि उस कमेटी की न तो कभी रिपोर्ट आई और न ही पॉलिसी में कोई बदलाव हुआ.
एनडीए के कार्यकाल में भी ये मामला चर्चा में रहा. एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘कारगिल युद्ध के मद्देनजर एक कमेटी बनाई गई थी जिसको पूरे इंटेलीजेंस सिस्टम पर रिपोर्ट तैयार करनी थी कि क्या और किस तरह के सुधार लाए जाएं. उस समय ब्रजेश मिश्रा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे. उस दौरान इस बात पर भी चर्चा हुई थी कि कैसे सुरक्षा एजेंसियों में एक धर्म विशेष के लोगों का प्रभुत्व है और एक समुदाय के लिए वो जगह वर्जित है.’ उस कमेटी से जुड़े रहे एक अधिकारी कहते हैं, ‘मैंने इस बाबत ब्रजेश मिश्रा से बात की कि कैसे मुसलमान अधिकारियों के लिए हमें इंटेलीजेंस सिस्टम खोलना चाहिए तो वे ये बात सुनकर जोर से हंसे. फिर कहा बताइए किसे रखवा दें. आप परेशान मत होइए. करेंगे इस दिशा में भी करेंगे. सही सलाह दीजिए ऐसी मत दीजिए कि आपकी और हमारी दोनों की नौकरी पर बन आए.’
यूपीए के कार्यकाल में जब जेएन दीक्षित एनएसए बने तो उस समय भी यह मामला उठा था. गृह मंत्रालय में पदस्थ रहे एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘उस समय भी रिक्रूटमेंट पॉलिसी में बदलाव के लिए चर्चा हुई थी. लेकिन रॉ के भीतर ही एक धड़ा इसके सख्त खिलाफ था. उसने सख्त लहजे में सरकार को बता दिया था कि सरकार को इस दिशा में सोचने की जरूरत नहीं है.’ यूपीए-2 का जिक्र तो हम ऊपर कर ही चुके हैं.
रॉ के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, ‘देखिए इसमें किसी को हाथ नहीं डालना चाहिए. पहले से एक व्यवस्था बनी हुई है वो डिस्टर्ब हो जाएगी. जो बदलाव करेगा उसे भविष्य में होनेवाली गड़बड़ी की जिम्मेवारी लेने के लिए तैयार रहना होगा. ऐसा नहीं है कि मैं मुसलमानों को एजेंसी में शामिल करने के खिलाफ हूं. लेकिन अभी वो समय नहीं आया है. जब देश के भीतर के लोग ही इस्लामिक आतंकवाद में गिरफ्तार हो रहे हों तब ऐसा सोचना किसी देशद्रोह से कम नहीं है.’
कुछ लोग मानते हैं कि समुदाय की देशभक्ति और उसके समर्पण को लेकर संदेह की वजह से ही 1998 में आईबी ने राष्ट्रीय स्तर पर यह सर्वे कराया था कि क्या मुस्लिम समुदाय से देश की आंतरिक सुरक्षा को कोई खतरा तो नहीं है. 28 बिंदुओं वाले सर्वे में यह प्रश्न भी था कि पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति में मुसलमान भारत के साथ खड़े होंगे या नहीं. तब तक भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु परीक्षण कर चुके थे. ऐसे में सर्वे के माध्यम से यह जानने का भी प्रयास किया गया था कि दोनों देशों के बीच शुरू हुई न्यूक्लियर रेस को समुदाय किस तरह से देखता है. कुछ और प्रश्न थे जैसे- क्या मुस्लिम समुदाय ने पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण का विरोध किया है? मुसलमानों की पाकिस्तान के परीक्षण पर क्या प्रतिक्रिया है. मुस्लिम उम्मा की एकता का आह्वान करनेवाले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाषण के बारे में वे क्या सोचते हैं.
रॉ के पूर्व प्रमुख आनंद कुमार वर्मा कहते हैं, ‘देखिए जहां सिक्यूरिटी का सवाल उठता है वहां जरूरत से ज्यादा सेंसिटिव होना पड़ता है. वहां नजदीक के ही नहीं बल्कि दूर के खतरों के बारे में भी सोचना पड़ता है. इसलिए भर्ती के समय बहुत ध्यान दिया जाता है कि कहीं अभी न भी सही लेकिन बाद में तो कोई खतरा पैदा नहीं हो जाएगा.’
तो क्या यह मान लें कि मुसलमानों को नियुक्त करने को लेकर कोई पूर्वाग्रह इंटेलीजेंस एजेंसियों में नहीं है? पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते, ‘व्यवस्था में कुछ लोगों को अभी भी लगता है कि इनकी लॉयल्टी उधर (पाकिस्तान के प्रति) हो सकती है. इसीलिए जो सेंसिटिव डेस्क होती हैं आईबी में उनको नहीं दी जाती हैं. इस कारण से ये रॉ में भी नहीं रखे जाते.’
फोटो: विजय पांडे
वफादारी के प्रश्न पर आईपीएस अधिकारी तथा इंटेलीजेंस की ज्वाइंट कमिटी के पूर्व सचिव केकी दारुवाला एक स्थान पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कह चुके हैं कि उन्होंने इंटेलीजेंस ब्यूरो के अपने एक साथी से पूछा कि पाकिस्तान के लिए जासूसी करने वाले भारतीयों एजेंटों की सामुदायिक स्थिति क्या है. उसका उत्तर था कि अधिकांश जासूस बहुसंख्यक समाज से हैं.
एके वर्मा के मुताबिक, ‘ नियुक्ति करने वाले अधिकारी में एक पूर्वाग्रह हो सकता है लेकिन यह उस अधिकारी की अपनी व्यक्तिगत सोच है. ऐसी कोई सरकारी पॉलिसी नहीं है. अब नियुक्ति करने वाला ही पूर्वाग्रह से भरा है तो सरकार क्या कर सकती है’ वर्मा मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह की बात को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘ शुरू में लोगों को इस तरह के संदेह रहे होंगे लेकिन देखिए हमारे गृहमंत्री और गृहसचिव भी गैर हिंदू लोग बन चुके हैं. अब ये तो बेहद संवेदनशील पोस्ट होती हैं. उनका दखल सब जगह रहता है. हां ये एक तथ्य तो है ही कि मुस्लिम समुदाय के जो लोग हैं अगर उनसे पूछा जाए कि आपकी लॉयलिटी किसकी तरफ है – धर्म के प्रति या देश के प्रति तो मेरा अनुमान है कि वो हमेशा कहेंगे कि उनकी पहली वफादारी तो धर्म की तरफ है. सवाल फिर यहीं से उठता है.’
अपनी बात को विस्तार देते हुए वे कहते हैं, ‘देखिए उनके जो धर्म के सिद्धांत हैं. उसमें जो बातें लिखी गई हैं जिन्हें मानने के लिए वे बाध्य हैं उनमें ही लिखा है कि देश के प्रति नहीं बल्कि उम्मा के प्रति वफादार होना चाहिए. उम्मा यानी जो पूरा इस्लामिक डायसपोरा है वो आपके वतन के समान है. आपकी पहली लॉयलिटी उम्मा के प्रति है उस देश के प्रति नहीं जहां आप पैदा हुए हैं, जहां रहते हैं. इसलिए आप देख रहे हैं कि यूरोप और अमेरिका में वहीं पर पैदा हुए लोग, उसी वातावरण में पले बड़े लोग, जिनके बारे में मानना चाहिए कि वो वहां के वैल्यूज को अपने आप स्वीकार कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि मस्जिद में या उनकी कम्यूनिटी की जो मजलिसें होती हैं या परिवार में जो चर्चा होती है उसमें हमेशा ये बात उठती रहती है कि आपको अपने धर्म के प्रति हमेशा निष्ठा दिखानी है. अगर आपने कभी स्टडी किया हो तो आप समझ जाएंगे कि उस धर्म में कई ऐसी चीजें है जो किसी और धर्म में नहीं हैं. ऐसी चीजें जो हमें और आपको आपत्तिजनक लगें लेकिन उनको नहीं लगती हैं. उनका धर्म कहता है कि अगर किसी ने धर्म को छोड़ दिया तो कोई भी बिलीवर उसको जान से मार सकता है.’
धर्म के आधार पर मुसलमानों के साथ भेदभाव के सवाल पर आईबी के एक अधिकारी कहते हैं, ‘इसे धर्म के चश्मे से देखना ठीक नहीं होगा. इंटेलीजेंस में किसी भी अधिकारी पर आंख बंदकर विश्वास नहीं किया जाता. यह हिंदुओं के साथ ही हर धर्म के व्यक्ति पर लागू होता है. वे एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘हमारे यहां सभी अधिकारियों के भूत और वर्तमान का पूरा हिसाब दर्ज रहता है. इस मामले में हम पूरी सख्ती बरतते हैं. एक अधिकारी जो हमारे यहां आए थे उन्होंने एजेंसी ज्वाइन करते समय जो जानकारी दी थी उसमें इस बात का जिक्र नहीं था कि उनके नाना ने दो शादियां की थी. उनकी दूसरी नानी के दोनों बेटे आजादी के बाद पाकिस्तान चले गए थे. जब उनसे ये पूछा गया तो वो कहने लगे कि ये तो बहुत पुरानी बात है. इससे क्या मतलब. उनसे फिर कुछ और नहीं पूछा गया. जिस राज्य से वो आए थे उन्हें वहां वापस भेज दिया गया.’
एक तरफ जहां एजेंसी के अधिकारी इस तरह के उदाहरणों के आधार पर अपने निर्णय को जायज ठहराते हैं वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय से आने वाले ऐसे अधिकारी भी हैं जो इस तरह की प्रोफाइलिंग को षडयंत्र के रूप में देखते हैं. एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘ये लोग हमें नहीं लेना चाहते हैं तो सीधे कह दें. ये जानबूझकर कोई न कोई रिश्ता किसी न किसी मुस्लिम देश से निकाल देते हैं. और फिर कहते हैं कि ये तो सेंसिटिव मामला है. आप खुद सोचिए कि भारत में ऐसा कौन-सा मुसलमान होगा जिसके परिचय का कोई पाकिस्तान या बांग्लादेश में नहीं होगा. एक पीढ़ी पहले जाते ही कोई न कोई उस पार का निकल आता है. बस इस आधार पर ये उस अधिकारी को ब्लैक लिस्ट कर देते हैं. ‘
लेकिन सुरक्षा एजंसियों का मानना है कि भले अधिकारी में कोई दिक्कत नहीं हो लेकिन ऐसे हालात में एक द्वंद की स्थिति तो उत्पन्न होती ही है. इसके अलावा मुसलिम समुदाय से खुफिया संस्थाओं में भर्ती की कुछ अन्य व्यावहारिक समस्याओं के बारे में भी रॉ के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, ‘मान लीजिए किसी हिंदू अधिकारी का ब्रैकग्राउंड आपको चेक करना है. इसके लिए आपको उससे जुड़े 50 लोगों को चेक करना होगा. वहीं किसी मुस्लिम अधिकारी की पृष्ठभूमि जानने के लिए आपको 100-150 लोगों के बारे में पूरी की पूरी जानकारी इकट्ठी करनी होती है. सामान्य तौर पर हिंदुओं का परिवार देश में सिमट जाता है लेकिन मुसलमानों के परिजनों को जानने के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं.’
मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर यूपी के पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘सवाल ये है कि जब आप आधुनिक शिक्षा नहीं लेंगे तो जाहिर सी बात है सरकारी नौकरी या अन्य कई प्रतियोगी परीक्षाओं में नहीं आ पाएंगे. मान लीजिए थोड़ी बहुत आपने शिक्षा ले भी ली तो इस समुदाय के मनोविज्ञान में ये है कि हम सरकारी नौकरी और खासकर की पुलिस या फौज की नौकरी नहीं करेंगे. क्योंकि पुलिस या फौज की नौकरी करने के लिए आपको देश के प्रति अटूट देशभक्ति चाहिए. और आपको मर मिटना पड़े तो मर मिटने के लिए तैयार रहिए. ये कहते हैं कि ठीक है, हम बहादुर हैं. हम मर मिटने को तैयार हैं लेकिन हम इस्लाम के लिए मर मिटने को तैयार हैं. ये खुलकर कोई नहीं कहेगा लेकिन ये बातें इनके भीतर गहरी मानसिकता में है. तो ये पुलिस में आते नहीं, फौज में जाते नहीं. और उसके बाद कहते हैं कि हमारा प्रतिनिधित्व कम है. इनके रिप्रजेंटेशन को बढ़ाने की बार-बार चर्चा होती है लेकिन सवाल ये है कि वो पढ़ें तो. वो तो खाली कुरान पढ़ना चाहते हैं. तो हम क्या करें.’
इंटेलिजेंस से जुड़े तमाम ऐसे अधिकारी भी हैं जो ये राय रखते हैं कि सालों से चले आ रहे इस भेदभाव को समाप्त किया जाना चाहिए. वे बताते हैं कि कैसे ये अलिखित नियम अंततः इंटेलीजेंस को ही नुकसान पहुंचाता आया है. आईबी और रॉ दोनों से पूर्व में जुड़े रहे अधिकारी बी रमन ने अपनी किताब काव बॉयज में मुसलमानों के आईबी और रॉ में भर्ती होने की जरूरत पर बल दिया है. आउटलुक पत्रिका से बातचीत में रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत कहते हैं, ‘मुसलमानों की नियुक्ति न सिर्फ जरूरी है वरन वो बेहद महत्वपूर्ण भी है. एक मुस्लिम अधिकारी ही मुस्लिम समाज के मानस को बेहतर तरीके से समझ सकता है. कोई गैर मुस्लिम कितना भी दावा करे कि वो समुदाय के बेहद करीब है वो उस समाज की बारीकियों को पूरी तरह नहीं समझ सकता. वहीं एक मुस्लिम भाषा, रूपक और संस्कृति के स्तर पर उससे संवाद कर सकता है.’
पाकिस्तान में जासूसी के लिए एजेंट्स के चयन में शामिल रहे एक अधिकारी कहते हैं, ‘आपको गैर मुस्लिम को किसी मुस्लिम देश में भेजने के लिए उसे पूरी तरह से बदलना पड़ता है. शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर. भाषा बोलचाल और संस्कृति की तमाम बारीकियां उसे सिखानी पड़ती हैं. जिसमें न सिर्फ ढेर सारा पैसा और समय खर्च होता है बल्कि उसकी सफलता पर भी हमेशा संदेह बना रहता है. वे एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘एक अधिकारी को हमने एक मुस्लिम देश में भेजने के लिए तैयार किया. वो एक गैर मुस्लिम था. उसे ‘मां दुर्गा की कृपा से’ और ‘मां दुर्गा सब ठीक कर देगी’ जैसे लाइनें बोलने की आदत थी. उसकी ट्रेनिंग के दौरान इसे छुड़ाने की खूब कोशिश की गई. हम कामयाब रहे उसने मां दुर्गा वाली बात बोलनी बंद कर दी थी. जाने से एक दिन पहले मैंने उसे बुलाया और कहा कि तुम रिलैक्स रहना. सब ठीक से हैंडिल हो जाएगा. उसने तपाक से बोला, यस सर मां दुर्गा की कृपा से सब ठीक हो जाएगा. उसने हमारी कई महीनों की मेहनत पर पानी फेर दिया था.’
कश्मीर में चरमपंथ के चरम समय में मुस्लिम अधिकारियों का रोल बेहद महत्वपूर्ण रहा है. एक वरिष्ठ आईबी अधिकारी कहते हैं, ‘उस समय एक रणनीति के तहत मुस्लिम अधिकारियों को वहां भेजा गया था. इसका बहुत फायदा हुआ. ये अधिकारी वहां के लोगों के बीच ज्यादा बेहतर तरीके से घुल मिल गए. वो वहां के लोगों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाते थे. धीरे-धीरे स्थानीय लोगों ने भी इन ऑफिसरों पर भरोसा करना शुरू कर दिया. इससे हमें पाकिस्तान के प्रोपेगेंडा को वहां खत्म करने में मदद मिली.’
फोटो: पीआईबी
आईबी से जुड़े एक अधिकारी कहते हैं, ‘इस्लामिक आतंकवाद के जिस खतरे से भारत जूझ रहा है उसमें मुस्लिम अधिकारी बहुत काम के साबित हो सकते हैं. जिन लोगों से आपको निपटना है अगर उनकी भाषा और तौर तरीके को आपका अपना कोई अधिकारी समझ सकता है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है. लेकिन हम अभी भी लकीर के फकीर बने हुए हैं. हिंदुओं और सिखों को मुस्लिम बनाने का काम बंद होना चाहिए. जब आपके पास लोग हैं तो फिर नकली मुसलमान बनाने का क्या मतलब.’
इंटेलीजेंस एजेंसी में मुसलमानों को नहीं रखने संबंधी यह नियम वैसे तो सभी खुफिया विभागों में आजादी के समय से ही चल रहा था जो अब तक जारी है. लेकिन इनमें से एक विभाग में समय के साथ थोड़ा परिवर्तन आ चुका है. वह विभाग है आईबी. इस खुफिया संस्था में सालों से चले आ रहे मुसलमानों पर बैन को खत्म करने की शुरूआत नरसिंहा रॉव के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुई. रॉव के दौर में ही आईबी के द्वार मुस्लिमों के लिए खोलने का निर्णय लिया गया.
उस दौर को बेहद करीब से देख चुके आईबी के एक अधिकारी कहते हैं, ‘ये बदलाव इतना आसान नहीं था. सरकार की तरफ से जब मुस्लिम अधिकारियों को भर्ती करने का फैसला लिया गया तो इसको लेकर आईबी में ही विरोध के स्वर उठने लगे. ये स्वाभाविक था क्योंकि दशकों से एक खास तरह की व्यवस्था कायम थी और अब उसमें परिवर्तन होने जा रहा था. लेकिन सरकार ने उस विरोध को खारिज कर दिया. उस समय सरकार की यह सोच थी कि आईबी में मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए अगर ऐसे मुस्लिम अधिकारी नहीं मिल रहे हैं जो पूरी तरह से उस पद के योग्य हैं तब भी उन्हें रखा जाना चाहिए.’
जल्द ही कुछ युवा मुस्लिम अधिकारियों को आईबी में शामिल किया गया. इस बदलाव का परिणाम ये हुआ कि आज आईबी के डायरेक्टर एक मुस्लिम हैं. 2013 में आसिफ इब्राहिम स्वतंत्र भारत के पहले आईबी चीफ बने. हालांकि बहुत से लोग आसिफ इब्राहिम को आईबी प्रमुख बनाने पर भी सवाल उठाते हैं. प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘आसिफ इब्राहिम आईबी के डायरेक्टर बनने के योग्य नहीं हैं. उन्होंने तीन आदमियों को सुपरसीड किया है जो उनसे योग्य थे. ये डायरेक्टर सिर्फ इसलिए बने क्योंकि वो मुस्लिम हैं.’
मुस्लिमों को लेकर इंटेलीजेंस एजेंसियों में बायस की बात को तमाम जानकार लोग पूरी व्यवस्था में ही उनके प्रति बायस से जोड़कर देखते हैं. इसमें वह ट्रेनिंग भी शामिल है जो नौकरशाही को दी जाती है. आईबी के पूर्व ज्वाइंट डायरेक्टर एमके धर ने अपनी किताब ओपेन सीक्रेट्स में लिखा है कि उनकी मुस्लिम विरोधी धारणाएं तब और मजबूत हो गईं जब वे आईबी की ट्रेनिंग के लिए उसके ट्रेनिंग सेंटर आनंद पर्वत गए. वहां जो कुछ ट्रेनिंग के दौरान सिखाया गया उससे उनके मुस्लिम विरोधी विचार और मजबूत हुए… मैं आरएसएस और आईबी की मुसलमानों को लेकर समान धारणा से चौंक गया.’ दारापुरी कहते हैं, ‘ट्रेनिंग के दौरान ही मुस्लिमों का प्रोजेक्शन व्यवस्था के लिए एक खतरे के तौर पर किया जाता है. ये ही बात ट्रेनिंग लेने वाले अधिकारी के दिमाग में बैठती है.’
हालांकि ऐसी किसी तरह की ट्रेनिंग को खुफिया विभाग के अधिकारी खारिज करते हैं. वर्मा कहते हैं, ‘देखिए ऐसी कोई ट्रेनिंग हिंदुस्तान में नहीं दी जाती है. लेकिन अगर किसी विभाग में काम करनेवाले लोगों के मन में कोई भावना पहले से ही हो तो आप क्या कर सकते हैं. हिंदू समाज के किसी भी परिवार से आप पूछें कि क्या आप अपनी बेटी की शादी मुस्लिम परिवार में करने को तैयार हैं तो उसका जवाब होगा नहीं. चाहें कितना भी सुशिक्षित हो, मॉर्डन हो. इसलिए कि उसकी एक ऐतिहासिक सभ्यतामूलक बैकग्राउंड है. अगर उसी सिविलाइजेशनल बैकग्राउंड की वजह से किसी अधिकारी वर्ग में कोई भावना है तो उसको तो आप रोक नहीं सकते हैं. लेकिन ये देखना है कि उस भावना की वजह से वो कोई गलत काम तो नहीं कर रहा.’
लेखक और चिंतक सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि पूरी ब्यूरोक्रेसी का कम्यूनलाइजेशन हुआ है. ब्यूरोक्रेसी के भीतर तो बहुत पहले से ऐसा माइंडसेट बना हुआ है.’
हालांकि प्रकाश सिंह मुस्लिम समुदाय की खुफिया और सुरक्षा संस्थाओं में अनुपस्थिति के लिए व्यवस्था के मुस्लिम विरोधी होने से ज्यादा खुद समुदाय को ही जिम्मेदार मानते हैं, ‘सवाल मुसलमानों के आईबी और रॉ में जाने का नहीं है. सवाल मुसलमानों के सरकारी नौकरियों में आने का है. मैं तो अपने व्यक्तिगत अनुभव से बता सकता हूं कि कई बार हम लोगों ने बहुत प्रयास किया कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए यूपी पुलिस और पीएसी में. हालत ये थी कि इनकी सिफारिश करनी पड़ रही थी. अधिकारियों को मुस्लिम इलाकों में जा कर कहना पड़ता था कि भइया अपने लड़कों को भेजो तो सही. हम तो भर्ती करने को तैयार हैं.’
वे उदाहरण देते हुए कहते हैं ‘अभी तो सीबीआई में स्पेशल डायरेक्टर मुसलमान था. एडिशनल डायरेक्टर मुसलमान था. डायरेक्टर आईबी खुद मुसलमान हैं. विदेश विभाग के प्रवक्ता मुस्लिम हैं. असलियत ये है कि जितना इनको बढ़ने का मौका मिलना चाहिए उससे ज्यादा मिलता है. देश के प्रति निष्ठा तो होनी पड़ेगी. देश के प्रति निष्ठा जिस आदमी में है वो है. जैसे अट्टा हुसैन 15 कोर में श्रीनगर में आर्मी के कमांडर थे. ये एक सेंसिटिव पोस्ट है. आखिर इंडियन आर्मी ने उन्हें क्यों रखा. क्योंकि उनकी देशभक्ति पर किसी को संदेह नहीं था. उन्हें कहीं हैदराबाद, बंबई या नॉर्थ ईस्ट में लगाया जा सकता था लेकिन उन्हें कश्मीर में लगाया गया. जो आदमी काबिल है उसे कोई माई का लाल इस देश में आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता. और अगर वो मुसलमान है सिख है तो आवश्यक्ता से अधिक तवज्जो मिलती है. अगर इस देश में योग्यता के बावजूद मान्यता नहीं मिलती तो वो हिंदू को नहीं मिलती. पर ये बात कोई कहने को तैयार ही नहीं होगा. सच्चाई यही है कि आप चाहें जितने काबिल हों अगर आप हिंदू हैं तो आपको प्राथमिकता नहीं मिलेगी.’
अपना अनुभव बताते हुए सिंह कहते हैं, ‘मैं यूपीएससी बोर्ड में था तब जब भी कोई मुसलमान लड़का आता था तो हम कहते थे कि चलो एक तो मिला अरे इसे किसी तरह से धक्का देकर ऊपर चढ़ा दो. मैं आपको अपने अनुभव से बता सकता हूं कि उसको इंटरव्यू लेवल पर हमेशा बोर्ड की तरफ से मदद मिलती है. सवाल है कि अगर आप पढ़ेंगे नहीं तो कहां से हम आपको आईपीएस और आईएएस बना दें. आप सिपाही में भर्ती नहीं होंगे क्योंकि हमें देश की सेवा करनी पड़ेगी. हमको नक्सलियों से लड़ना पड़ेगा, हम क्यों लड़ें. हमें नॉर्थ इस्ट में लड़ना पड़ेगा हम क्यों लड़ें. हमें कश्मीर में पृथकतावादियों से लड़ना होगा, हम उनसे नहीं लड़ेंगे. जब ये चीजें आपके जहन में बैठी हुई हैं और फिर आप दोष देते हैं भारत सरकार को.’
उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी रिजवान अहमद अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘मेरा तो अनुभव है कि मुस्लिम अधिकारियों की बहुत कदर ही होती है. उन्हें सेंसिटिव पोस्टिंग भी दी जाती है. हां, इंटेलिजेंस के बारे में मुझे नहीं पता. मैं वहां कभी रहा नहीं.’
लेकिन दारापुरी व्यूरोक्रेसी के सांप्रदायिकता में गहरे तक धंसे होने का सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘आपने देखा होगा कि चुनाव के पहले कितने वरिष्ठ अधिकारियों ने दक्षिणपंथी पार्टी का दामना थामा. आप कल्पना कीजिए कि जब ये सर्विस में रहे होंगे तो क्या कर रहे होंगे. ये कहां और कितने सेक्यूलर रहे होंगे ये समझा जा सकता है.’
लेकिन क्या व्यवस्था में प्रतिनिधित्व को लेकर मुस्लिम समाज के अधिकारियों की तरफ से कोई आवाज उठती है? वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट कहते हैं, ‘तमाम जगहों पर जो मुसलमान अधिकारी बैठे हैं वो सोचते हैं कि हम तो कौम से अलग हैं. और वो बड़े गर्व से कहते भी हैं कि हम बाकी मुसलमानों जैसे नहीं है. इसका मतलब क्या है मुझे नहीं पता. दूसरे मुसलमान कैसे होते हैं मुझे नहीं पता. आजकल आप देखिए तो मुस्लिम अफसर सरकार के प्रति ज्यादा लॉयल होगा. सरकार की खिलाफत करने वाले अफसरों को देखेंगे तो वो अधिकांश हिंदू रहे हैं. मुसलमान अफसर की कोशिश रहती है कि वो दिखाए कि वो सबसे ज्यादा वफादार है. वो दूसरे से ज्यादा झुकेगा, दूसरे से ज्यादा खुशामद करेगा. इंटेलीजेंस में भी यही है.’
‘वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है.’ यह टिप्पणी प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने सबसे चर्चित उपन्यास ‘राग दरबारी’ में की थी. यह उपन्यास आज से लगभग पचास साल पहले लिखा गया था. यह वह दौर था जब शिक्षा के लिए लोग सरकारी स्कूलों पर ही आश्रित थे. गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह निजी स्कूल तब तक नहीं उगे थे. तब सरकारी स्कूल संख्या में तो काफी कम थे लेकिन जो थे उनकी स्थिति आज की तुलना में काफी बेहतर समझी जाती थी. ऐसे में यदि श्रीलाल शुक्ल की टिप्पणी पर आप थोड़ा भी विश्वास करते हैं तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि अब तक तो इस व्यवस्था को इतनी लातें पड़ चुकी हैं कि यह मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है. पिछले ही महीने सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीएस चौहान और जस्टिस एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला की खंडपीठ ने भी कहा है कि ‘भारतीय शिक्षा व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने में पूरी तरह से विफल रही है.’
मगर इससे भी बुरी स्थिति उन प्राथमिक शिक्षकों की है जिन पर इस व्यवस्था को जीवित रखने की जिम्मेदारी है. इसका अंदाजा आप दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका की बातों से लगा सकते हैं जो कहती हैं, ‘सरकार हमें जिस काम की तनख्वाह देती है उसे छोड़कर हमसे सब कुछ करवाती है’. इस शिक्षिका की बातों की सच्चाई आप किसी भी नजदीकी प्राथमिक विद्यालय में एक दिन गुजार कर जांच सकते हैं. दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के अलावा लगभग सारे देश में सरकारी प्राथमिक शिक्षा की एक ही कहानी है. यही कहानी हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के एक प्राथमिक स्कूल में भी आप देख सकते हैं.
इस स्कूल में महेश कुमार (बदला हुआ नाम) बतौर शिक्षक तैनात हैं. वे यहां के एकमात्र शिक्षक हैं. वैसे इनका साथ देने को एक शिक्षिका भी हैं. लेकिन वे पिछले दो साल में सिर्फ तीन दिन स्कूल आई हैं. तीन दिन भी इसलिए कि आगे के लिए छुट्टियां ले सकें. पिछले दो साल से महेश ही शिक्षा के इस प्राथमिक मोर्चे पर अकेले डटे हुए हैं. महेश के अलावा राम सिंह (बदला हुआ नाम) भी स्कूल में हैं. वे चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं और दशकों से इसी स्कूल में हैं.
सुबह सबसे पहले राम सिंह ही स्कूल पहुंचते हैं. स्कूल का मुख्य प्रवेश द्वार खोलने के बाद वे महेश का ऑफिस खोलते हैं. यह ऑफिस प्रधानाध्यापक कक्ष होने के साथ ही मध्याह्न भोजन की सामग्री का भंडार भी है, स्टाफ रूम भी और तीन अलग-अलग कक्षाओं के लिए क्लास रूम भी. दो कमरों और पांच कक्षाओं वाले इस स्कूल में बाकी दो कक्षाओं के छात्र दूसरे कमरे में बैठते हैं.
राम सिंह के साथ ही स्कूल के छात्र भी वहां पहुंचते हैं. लगभग आठ बजे ही महेश भी अपनी मोटर साइकिल से स्कूल पहुंच जाते हैं. उनके आने तक जितने भी बच्चे स्कूल आ चुके हैं वे मैदान में प्रार्थना के लिए इकट्ठा होते हैं. प्रार्थना शुरू होती है-
मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी, वेदों की भाषा पुराणों की वाणी…. हम भी तो समझें, हम भी तो जानें, विद्या का हमको अधिकार दे मां …. हे शारदे मां…हे शारदे मां….
आप पूछ सकते हैं कि भारत सरकार तो शिक्षा का अधिकार तीन साल पहले ही इन बच्चों को दे चुकी है तो फिर ये बच्चे मां शारदे से वही अधिकार हर रोज क्यों मांगे जा रहे हैं. इस सवाल का जवाब आपको इस कहानी के अंत तक खुद ही मिल जाएगा.
प्रार्थना के बाद बच्चों की उपस्थिति दर्ज करने का पहला चरण शुरू होता है. इस प्रक्रिया को कई चरणों में करने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि पांच अलग-अलग कक्षाओं की उपस्थिति महेश को अकेले ही दर्ज करनी है. दरअसल स्कूल में छात्रों के आने का सिलसिला सुबह आठ बजे से शुरू होकर दोपहर का भोजन खत्म होने तक चलता ही रहता है. कई बच्चे सिर्फ भोजन करने ही स्कूल आते हैं इसलिए भोजन के बाद ही उपस्थिति दर्ज करने का अंतिम चरण निपटता है.
उपस्थिति रजिस्टर बंद करते ही महेश एक अन्य रजिस्टर खोलते हैं. यह मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील का रजिस्टर है. इसमें प्रतिदिन मध्यह्न भोजन से संबंधित ब्योरा दर्ज करना होता है. एक दिन पहले ही महेश बाजार से सारा राशन खरीद कर लौटे हैं. यह सारा राशन उन्होंने अपने पैसों से ही खरीदा है क्योंकि अब तक सरकारी पैसा नहीं पहुंचा है. राशन की खरीद के लिए महेश विद्यालय की जरूरत को नहीं बल्कि सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों को आधार बनाते हैं. इनके अनुसार एक बच्चे के लिए प्रति दिन का जो राशन आवंटित है, उसी अनुपात में उसे खरीदना और पकाना होता है. फिर भले ही रोज खाना ज्यादा बने और उसे फेंकना पड़े. ऐसा ही होता भी है. महाराष्ट्र के लगभग 30 हजार स्कूलों में तो शिक्षकों ने 16 अगस्त से इसी कारण मध्याह्न भोजन बनवाना ही बंद कर दिया है.
बिहार के एक शिक्षक ने लगभग दो साल पहले इस समस्या का उपाय खोज निकाला था. ये शिक्षक विद्यालय की जरूरत के मुताबिक ही खाना बनवाते थे. महीने भर में जो भी पैसा इसकी वजह से बच जाता था उससे स्कूल की अन्य आवश्यक चीजें खरीद ली जाती थीं. ऐसा करके उन्होंने स्कूल में पंखों से लेकर बच्चों के लिए कई सुविधाएं उपलब्ध करवाईं. लेकिन ऐसा करना उनको भारी पड़ा. उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई हो गई, जांच बिठाई गई और उन पर वित्तीय घोटाले के आरोप लगा दिए गए. शायद इसीलिए अब शिक्षक खाना फेंकना ही ज्यादा सुरक्षित मानते हैं.
महेश भी इन्हीं में से एक हैं. वे रोज सरकारी मानकों के हिसाब से खाना बनवाते हैं, इसका हिसाब रजिस्टर में दर्ज करते हैं, प्रतिदिन इसकी रिपोर्ट संबंधित अधिकारियों को भेजते हैं और प्रतिदिन ही बचा हुआ खाना फिंकवाते भी हैं.
महेश इस रजिस्टर को अभी भर ही रहे हैं कि स्कूल की दोनों भोजन-माताएं भी आ जाती हैं. महेश इनको भोजन सामग्री देते हैं जिसे लेकर वे रसोई की तरफ बढ़ जाती हैं. महेश उनको दिए गए एक-एक सामान को विस्तार से अपने रजिस्टर में दर्ज करते हैं. भोजन माताएं दिन के खाने की तैयारी शुरू करती हैं. इस समय से भोजन निपटने तक बस यही काम स्कूल में सबके लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है. आम तौर पर तो महेश का काम बस रजिस्टर में हिसाब-किताब दर्ज करके सामान को आगे भेजने तक का ही होता है. लेकिन जब से बिहार में मिड डे मील से कई बच्चों की मौत हुई है, तब से उनका काम और बढ़ गया है. अब वे खाना बनने के दौरान विशेष निगरानी रखते हैं और कई बार रसोई की तरफ हो आते हैं.
मध्याह्न भोजन का कागजी काम निपटाते ही महेश कुछ बच्चों को अपने पास बुलाते हैं. ये बच्चे वे हैं जिनका बैंक का खाता खुल चुका है. महेश पिछली शाम को ही बैंक से इनकी पासबुक लेकर आए हैं. इन बच्चों को वे उनकी पासबुक सौंपते हैं और यह भी सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों ने उन्हें संभाल कर रख लिया है. इसके बाद वे कुछ अन्य बच्चों को नाम लेकर बुलाते हैं. ये वे बच्चे हैं जिनका खाता अब तक नहीं खुला है. इनमें से कुछ बच्चे तो अपनी फोटो और खाता खोलने के लिए जरूरी दस्तावेज ले आए हैं. कुछ ने आज भी ऐसा नहीं किया है. महेश इन बच्चों के बिना किताब स्कूल आने पर तो गुस्सा नहीं होते लेकिन खाता खुलवाने के लिए जरूरी दस्तावेजों का न लाना उनको परेशान कर देता है.
दरअसल किताबें तो बच्चे इसलिए भी नहीं लेकर आते कि लगभग आधे से ज्यादा सत्र बीतने पर भी अभी तक किताबें बच्चों को मिली ही नहीं हैं. कक्षा एक और दो की किताबें तो पिछली गर्मी की छुट्टियों में आ गई थीं लेकिन बाकियों का आना अभी बाकी है. यह आलम सिर्फ हरियाणा का ही नहीं बल्कि अधिकतर राज्यों की यही स्थिति है.
लेकिन खाता खुलवाने में जो देरी हो रही है उसका जवाब महेश से कभी भी लिया जा सकता है. अब सरकार ने यह तय किया है कि बच्चों के वजीफे का पैसा सीधे उनके खातों में जमा करवाया जाए. इसके लिए बैंक में बच्चों के खाते खुलवाए जा रहे हैं. स्कूल शिक्षक के अलावा और कौन इस काम को बेहतर कर सकता है? इसलिए महेश को ही यह काम भी जल्द से जल्द पूरा करना है. ऐसे में कुछ बच्चों का अब तक दस्तावेज न लेकर आना महेश को परेशान करेगा ही. लेकिन वे बच्चों पर अपनी नाराजगी जाहिर नहीं करते. ऐसा करने पर उन्हें दंडित भी होना पड़ सकता है. इसलिए फीकी मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘कल मैं ही इनके घर जाकर सारी औपचारिकताएं पूरी कर लूंगा.’
इन बच्चों के खाते खुलवाने के फॉर्म अभी महेश भर ही रहे होते हैं कि स्कूल में चार-पांच लोग दाखिल होते हैं. ये सभी लोग गांव के ही हैं जिनको अपना फोटो पहचान पत्र बनवाना है. इस क्षेत्र के ‘बूथ लेवल ऑफिसर’ यानी बीएलओ भी महेश ही हैं. वे बताते हैं, ‘सरकार के निर्देश हैं कि कोई यदि क्लास के बीच में भी अपना पहचान पत्र बनवाने आता है तो उसको मना नहीं कर सकते.’ महेश उन लोगों के साथ लग जाते हैं और लगभग एक पूरा घंटा उनका काम करते हैं.
शिक्षक को चुनाव संबंधी जो काम सौंपा गया है उसे मोटे तौर से देखने पर आप कह सकते हैं कि चुनाव तो पांच साल में बस एक बार ही होते हैं. ऐसे में शिक्षक के लिए इसे करना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए. लेकिन तब आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि हर पांच साल में लोकसभा चुनाव के अलावा विधान सभा और निकाय चुनाव भी तो आते हैं. इस तरह से हर साल-दो साल में कोई-न-कोई चुनाव आ जाता है. लेकिन इनसे जुड़े कामों में सबसे बड़ा मतदाताओं के पहचान पत्र बनाने का है. इसके लिए कोई भी महेश की कक्षा में बिना सोचे-समझे आ सकता है.
जिस दौरान स्कूल का एकमात्र शिक्षक बाहर के लोगों के साथ जरूरी कागजी काम में उलझा हो, उस दौरान स्कूल के बच्चों की कल्पना आप कर सकते हैं. अब तक जो कुछ बच्चे क्लास में बैठे भी थे, वे भी बाहर खेल रहे उन बच्चों के पास चले जाते हैं जो सुबह से एक बार भी कक्षा में दाखिल नहीं हुए हैं. महेश इन बच्चों को क्लास में ही रुकने को बोलते हैं लेकिन बच्चे उन्हें अनसुना करके बाहर निकल जाते हैं, वैसे महेश इस मामले में खुशनसीब हैं कि उनके स्कूल के चारों तरफ ऊंची दीवारें हैं. इससे उन्हें आगरा की एक एकल शिक्षिका की तरह यह चिंता नहीं रहती कि बच्चे कहीं सड़क पर न चले जाएं. आगरा के एक प्राथमिक विद्यालय में तैनात ये शिक्षिका भी महेश की ही तरह सारे काम करती हैं. लेकिन अपने प्राथमिक स्कूल में उनका प्राथमिक काम दिन भर किसी भी तरह बच्चों को सड़क पर जाने से रोकना है. स्कूल में चारदीवारी नहीं है, इसलिए हर वक्त उनका ध्यान बस इसी पर लगा रहता है कि किसी बच्चे के साथ कोई हादसा न हो जाए. यह चिंता देश के उन लाखों अन्य शिक्षकों की भी है जिनके स्कूलों में चारदीवारी नहीं हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में लगभग 45.3 प्रतिशत स्कूल ऐसे ही हैं.
अब तक स्कूल में दिन का भोजन बनकर तैयार हो गया है. सभी बच्चे अपनी-अपनी थालियां लेकर भोजन करने बैठते हैं. भोजन माता इन सभी बच्चों को खिचड़ी बांटती है. धूप तेज होने के कारण सभी बच्चे स्कूल की नई-नई बनी इमारत की छांव में बैठ जाते हैं. इस इमारत को बनवाने का काम भी पिछले साल महेश ने ही पूरा करवाया है. इसके इंजीनियर भी वही हैं और ठेकेदार भी.
सर्व शिक्षा अभियान के तहत नए भवन बनाने का अनुदान दिया जाता है. इस अनुदान को स्कूल प्रबंधन समिति के खाते में भेजा जाता है. समिति में शिक्षकों के साथ ही बच्चों के अभिभावक भी सदस्य होते हैं. नियम यह भी है कि यह समिति हर महीने बैठक करेगी और बच्चों की पढ़ाई से लेकर स्कूल के विकास तक सभी मुद्दों पर विमर्श करेगी. लेकिन महेश बताते हैं कि इसके लिए कोई भी अभिभावक नहीं आता. समिति का गठन भी औपचारिकता मात्र के लिए किया गया है. वह भी तब जब समिति के खाते से पैसा निकलना था. महेश बताते हैं, ‘पैसे के लेन-देन से संबंधित जब भी कोई काम होता है तब तो समिति के सदस्य आगे आ जाते हैं. इसके अलावा कभी समिति के लोग न तो स्कूल आते हैं और न ही गांव में कहीं और बैठक करते हैं.’ स्कूल में नई बनी इस बिल्डिंग के लिए भी जब सामग्री खरीदी गई तो गांव के कुछ लोग बड़ी रुचि दिखाकर सामने आए थे. लेकिन बाद में बिल्डिंग बनवाने का पूरा काम महेश को ही करना पड़ा. यदि बिल्डिंग ठीक नहीं बने और उसे कुछ हो जाए तो सबसे पहले महेश पर ही बात आनी है. इसलिए महेश ने पूरी ईमानदारी से यह बिल्डिंग बनवाई. इससे सभी गांववाले पीछे हो गए और महेश अकेले ही रह गए.
महेश और उनके प्राथमिक स्कूल की इस कहानी से शिक्षा पूरी तरह से गायब है. लेकिन हकीकत यही है कि पढ़ाई के लिए समय बचता ही नहीं. राशन खरीदने, खाते खुलवाने, वजीफा बांटने, बिल्डिंग बनवाने, मध्याह्न भोजन का रजिस्टर तैयार करने, रोज उसका ब्योरा भेजने, पहचान पत्र बनवाने, जनगणना, पशु गणना, आर्थिक गणना करने आदि के बाद भी यदि थोडा-बहुत समय बचता है तो महेश किताब उठा लेते हैं. कक्षा एक और दो के बच्चों को यदि वे परेशान न भी करें और खेलने दें, तो भी तीन कक्षा के बच्चे रह जाते हैं. इन तीन कक्षाओं के कुल 17 विषय हैं. अब महेश को बचे हुए थोड़े-से समय में ही तीन अलग-अलग कक्षा के बच्चों को कुल 17 विषय पढ़ा डालने का जादू करना होता है.
ऐसा भी नहीं है कि इस प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई के नाम पर कुछ भी न हो. दिन में दो घंटे के लिए यहां एक स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) की दो लड़कियां आती हैं. ये लड़कियां गांव की ही रहने वाली हैं और बारहवीं पास कर चुकी हैं. एनजीओ इन लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने के एवज में एक कंप्यूटर कोर्स करवा रहा है. सैद्धांतिक नजरिये से देखने पर आप इस बात से नाराज भी हो सकते हैं कि ये लोग सरकारी स्कूलों में क्यों पढ़ा रहे हैं. आप यह भी कह सकते हैं कि जब सरकार ने शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया है तो उस अधिकार को सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है स्वयंसेवी संस्थाओं की नहीं. लेकिन फिर आपको यह भी समझना होगा कि घर में आग लगने पर साफ पानी का इतंजार नहीं किया जाता. न ही आग बुझाने के लिए उस व्यक्ति का इतंजार होता है जो उसे लगाने के लिए जिम्मेदार है. यही आलम सरकारी प्राथमिक शिक्षा का भी है. जब एकमात्र शिक्षक-महेश के ऊपर गैरशिक्षण कामों का इतना बोझ लाद दिया जाता है तो ऐसे में एनजीओ की ये लड़कियां ही इस स्कूल के बच्चों के लिए शिक्षक का पर्याय बनकर उभरती हैं.
दिन भर स्कूल में बिताने के बाद, खाना-पीना खाकर ये बच्चे अपने घरों की तरफ वापस चल देते हैं. लेकिन महेश का काम अभी भी समाप्त नहीं होता. स्कूल के वक्त महेश को यहां रहते हुए ही सारे गैरशिक्षण कार्य करने होते हैं. स्कूल बंद होने के बाद वे ऐसे कामों को निपटाने स्कूल के बाहर निकलते हैं. अब उन्हें बच्चों के घर जाकर उनके बैंक खातों से संबंधित दस्तावेज लेने हैं और फिर बैंक जाकर उन्हें जमा भी करना है. इसके साथ ही उन्हें बाल-गणना भी करनी है. यदि उनके क्षेत्र में कुछ ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र छह से 14 साल हो और उनका नामांकन किसी भी स्कूल में नहीं हुआ हो तो महेश को यह भी सुनिश्चित करना है कि वे बच्चे स्कूल आएं. अपनी मोटर साइकिल से बैंक और गांव में घूम-घूम कर सारा काम निपटाने के बाद महेश दिन ढले अपने घर पहुंचते हैं.
मगर महेश की किस्मत उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के उन कई शिक्षकों से अच्छी है जिनका स्कूल सड़क से पांच-छह किलोमीटर या उससे भी ज्यादा की दूरी पर है. उन शिक्षकों को स्कूल की डाक के लिए ब्लाक कार्यालय जाना हो तो स्कूल बंद करना पड़ता है. साल भर में लगभग एक महीना तो स्कूल सिर्फ इसीलिए बंद रहता है कि शिक्षक डाक के काम से या मीटिंग में गए होते हैं. ऐसे काम किसी भी शिक्षक के लिए सबसे जरूरी बनाए गए हैं. इनमें से कोई भी काम यदि समय पर पूरा न हो तो विभागीय कार्रवाई हो सकती है. इसलिए स्कूल में पढ़ाई भले ही न हो लेकिन सारे गैर-शिक्षण कार्य समय पर हो जाते हैं. इसके लिए शिक्षा विभाग की निगरानी भी बड़ी ‘जबरदस्त’ किस्म की होती है. शिक्षा विभाग के इसी निगरानी तंत्र पर कुछ साल पहले उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार राजेन टोडरिया ने एक सम्मलेन में कहा था, ‘शिक्षा विभाग ने बिल्लियां तो कई पाल ली हैं लेकिन चूहे मारने का काम इनमें से कोई भी नहीं करती.’
इस निगरानी का एक उदाहरण दिल्ली के कालकाजी क्षेत्र के प्राथमिक स्कूल का है. इस स्कूल में रोज बच्चे सारा दिन यहां-वहां घूमते नजर आते हैं. स्कूल से हर रोज बच्चों की आवाज तो आती है लेकिन किसी शिक्षक की पढ़ाते हुए कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ती. कुछ दिन पहले अचानक इसका उल्टा हो गया. सभी बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में बैठे थे. तीन कक्षाओं में शिक्षक तैनात थे और बाकी की दो, एक ही चपरासी के हवाले थी जो बखूबी दोनों कक्षाओं के बीचोबीच खड़ा था. उसका काम था दोनों कक्षाओं के बच्चों को बाहर जाने से रोकना. स्कूल का ऐसा बदला हुआ माहौल स्थानीय लोगों को आकर्षित कर रहा था. मालूम करने पर पता चला कि शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी जांच के लिए आए हैं. इन अधिकारियों ने प्रधानाध्यापक के कक्ष में बैठकर मध्याह्न भोजन से लेकर बच्चों की उपस्थिति और वजीफे तक के रजिस्टर बड़े गौर से जांचे. जांच में अधिकारियों को कुछ भी गलत नहीं मिला. इसी जांच के दौरान वहां पहुंचे इस संवाददाता ने पाया कि पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा में तीनों शिक्षक ‘अ’ से अनार पढ़ा रहे थे. लेकिन इस बात पर जांचकर्ताओं ने ध्यान ही नहीं दिया.
आज सरकारी प्राथमिक शिक्षा के पूरे तंत्र में शिक्षा के अलावा सब कुछ है. इसके लिए सभी बड़े शिक्षाविद आपको अपने-अपने कारण भी गिना सकते हैं. इनमें सरकार की उदासीनता और नीयत की कमी के अलावा जो कारण सभी शिक्षाविद समान तौर से बताते हैं वह है, प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा मित्रों के भरोसे छोड़ देना. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार कहते हैं ‘सरकार ने राजस्व बचाने के लिए बच्चों की शिक्षा से समझौता किया. नियमित शिक्षक की जगह बहुत ही कम वेतन पर शिक्षा मित्रों को संविदा पर नियुक्त करने का सिलसिला आज भी कई राज्यों में जोरों पर है.’ ऐसे शिक्षकों के बारे में प्रोफेसर कुमार आगे कहते हैं, ‘ये शिक्षा-मित्र अपने ही नियमितीकरण के लिए चिंतित रहते हैं तो बच्चों को क्या और कैसे पढ़ाएंगे?’
सरकारी शिक्षा की इस दुर्गति के पीछे आप निजी स्कूलों की आई बाढ़ को भी जिम्मेदार मान सकते हैं. ऐसे में दिल्ली के एक केंद्रीय विद्यालय की शिक्षिका की बात आपको सही लग सकती है जो कहती हैं कि ‘निजी स्कूल लोगों के लिए प्रतिष्ठा के प्रतीक बन गए हैं. अब सरकारी स्कूलों में सिर्फ वही बच्चे रह गए हैं जिनके पास अन्य कोई भी विकल्प नहीं है.’ बात सही है. जो शिक्षक इन सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, उनके अपने बच्चे भी आपको किसी निजी स्कूल में ही पढ़ते मिलेंगे. देश के 90 प्रतिशत लोगों की तरह आप भी इस तथ्य के लिए सरकारी शिक्षकों को कोससे हुए यह सवाल कर सकते हैं कि जब तुम अपने बच्चों को ही अपने स्कूल में नहीं पढ़ाते तो तुमसे कैसे उम्मीद करें कि तुम बाकी बच्चों को वहां पढ़ाते होगे. लेकिन ऐसे में आपको दिल्ली के युवा कार्यकर्ता संजीव माथुर की बात भी जरूर जाननी चाहिए. संजीव बताते हैं, ‘सरकारी शिक्षकों का मनोबल सरकार ने इस कदर तोड़ दिया है कि अब वो अपने बच्चों को ही पढ़ा पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं. शिक्षक को भी मालूम है कि लोग उन्हें इस बात के लिए खूब कोसते हैं. लेकिन वो ऐसा करने को मजबूर कर दिए गए हैं.’
संजीव मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति में सरकारी नीतियों और ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून की बड़ी भूमिका रही है. ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून को दोषपूर्ण मानने वाले संजीव अकेले नहीं हैं. तमिलनाडु के सामाजिक कार्यकर्ता भास्करन रामदास भी मानते हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून एक ऐसा छलावा है जिसकी आड़ में सरकार पूरी तरह से प्राथमिक शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है. दरअसल यह कानून 2010 से लागू किया गया. इसके बाद से ही शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया और राज्यों को जिम्मेदारी दी गई कि प्रत्येक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा देना सुनिश्चित किया जाए. इस अधिनियम में सभी स्कूलों के लिए कुछ जरूरी पैमाने भी बनाए गए. इन पैमानों के अनुसार सभी स्कूलों को छात्र-शिक्षक अनुपात, शिक्षक-कक्षा अनुपात, पीने का पानी, शौचालय आदि की व्यवस्था सुनिश्चित करनी थी. इसके लिए तीन साल का समय दिया गया था जो इस साल मार्च में पूरा हो गया. अधिनियम में यह भी लिखा है कि समय रहते इन पैमानों को पूरा न करने वाले स्कूलों की मान्यता रद्द कर दी जाएगी. यानी बिना मान्यता के अंततः ऐसे स्कूल बंद हो जाएंगे. आज देश के लाखों स्कूल इन पैमानों पर खरे नहीं उतरते. अब यदि इनकी मान्यता रद्द की जाती है तो गांव-गांव तक स्कूल खुलवाने की जो एकमात्र उपलब्धि इतने साल में हासिल हुई है वह भी समाप्त हो जाएगी. ऐसी दशा में शिक्षा का अधिकार कानून ही गांव-गांव से शिक्षा के केंद्र छीनने का कारण बन जाएगा.
‘शिक्षा का अधिकार’ कानून में जो छात्र-शिक्षक अनुपात बताया गया है उसके अनुसार किसी भी प्राथमिक विधालय में कम से कम दो शिक्षक होना अनिवार्य है. साथ ही हर तीस बच्चों पर एक शिक्षक भी होना होना चाहिए. जब राज्यों से इस अनुपात का आंकड़ा मांगा जाता है तो अधिकतर राज्य इसे देश की प्रति व्यक्ति आय की तरह से पेश करते हैं. उदाहरण के लिए, दो करोड़पति लोगों की आय को दस गरीब लोगों के साथ जोड़कर उसे 12 से भाग दे दिया जाता है. ऐसे में गरीब की प्रति व्यक्ति आय भी ठीक-ठाक लगने लगती है. यही आलम शिक्षा के क्षेत्र में भी है. विभाग के कर्मचारी राज्य के कुल छात्रों और कुल शिक्षकों की गिनती से यह अनुपात पेश कर देते हैं. जबकि हकीकत यह है कि शहरों के पास के स्कूलों में तो दस-दस शिक्षक मौजूद हैं मगर दूरस्थ इलाकों के कई स्कूल तरह-तरह के कामों के बोझ से दबे एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं.
‘शिक्षा का अधिकार’ कानून का एक बहुत ही चर्चित प्रावधान यह भी है कि अब किसी भी छात्र को फेल नहीं किया जा सकता. इस संबंध में यदि आप शिक्षकों की राय जानना चाहेंगे तो वे इससे खुश नहीं हैं. अधिकांश शिक्षकों का मानना है कि इसकी वजह से अब छात्र पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते. उनके अनुसार यह बिल्कुल ऐसा है जैसे बीमार होने पर कड़वी दवा से परहेज करना. दूसरी तरफ यदि आप शिक्षाविदों से इस संबंध में पूछेंगे तो वे इस प्रणाली की सराहना करते मिलेंगे. उनका मानना है कि किसी छात्र का फेल होना असल में शिक्षक का छात्र को शिक्षित करने में फेल होना है. प्रख्यात शिक्षाविद अनिल सदगोपाल मानते हैं कि फेल न करना बहुत ही अच्छी परंतु बहुत महत्वाकांक्षी व्यवस्था है. वे मानते हैं कि ऐसी व्यवस्था को लागू करने से पहले शिक्षा व्यवस्था में कई महत्वपूर्ण बदलावों की जरूरत है. बाकी की सभी व्यवस्थाओं को जस का तस रखते हुए इस फेल न करने वाली व्यवस्था को लागू करने का कोई भी औचित्य नहीं है.
किसी भी छात्र को फेल न करने और वार्षिक परीक्षाओं के स्थान पर उनका सतत, समग्र मूल्यांकन करने का जो प्रावधान अधिनियम में है वह कागजों पर अत्यधिक सुंदर प्रतीत होता है. लेकिन जमीन पर पूरी तरह से धराशायी हो जाता है. इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि जिस शिक्षक को पढ़ाने के लिए ही समय मुश्किल से मिल पाता हो वह कैसे विभिन्न मानकों पर बच्चे की प्रगति लगातार दर्ज करेगा. इसके साथ ही बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की जो बात किताबों में लिखी गई है, जमीन पर पहुंचते-पहुंचते वह पूरी तरह बदल जाती है. स्कूल में आपको खेल-खेल में शिक्षा तो नहीं मिलेगी लेकिन शिक्षा से ही खेल होता जरूर मिल जाएगा.
जिन गैर शिक्षण कार्यों में शिक्षक उलझ कर रह गए हैं, उन पर भी शिक्षा का अधिकार अधिनियम स्पष्ट नहीं है. एक तरफ अधिनियम की धारा 27 में लिखा है कि शिक्षकों को किसी भी गैर शिक्षण कार्य में नहीं लगाया जाएगा. दूसरी तरफ उसी धारा में यह भी लिखा है कि लोकसभा, विधान सभा और निकाय चुनावों के साथ ही जनगणना और आपदा राहत में शिक्षकों को कार्य करना होगा. अब सिर्फ चुनाव के ही कार्य में पहचान-पत्र तक बनाने का काम शामिल हो जाता है जिसमें शिक्षकों का बहुत समय जाता है. इसके साथ ही आप उन शिक्षकों की स्थिति भी समझ सकते हैं जो उत्तराखंड जैसे राज्यों में तैनात हैं जहां हर साल ही आपदा आती है और कई बार तो साल में दो बार भी.
प्राकृतिक आपदा के अलावा शिक्षकों पर कई बार सूचना का अधिकार भी आपदा बन कर टूटता है. अक्सर क्षेत्र का कोई अति जागरूक नागरिक स्कूल में सूचना के अधिकार के तहत कोई ऐसी सूचना मांग लेता है जिसका जवाब तैयार करने में शिक्षकों को पिछले कई साल के सारे रिकॉर्ड खंगालने पड़ जाते हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तराखंड के चमोली जिले के एक स्कूल से किसी ने यह सूचना मांग ली कि पिछले पांच वर्ष में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की कितनी छात्राएं स्कूल में आई, कितने साल रहीं और प्रत्येक को प्रतिवर्ष कितना वजीफा दिया गया.
‘असर’ नामक एक एनजीओ की हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों की कक्षा तीन में पढ़ने वाले 50 प्रतिशत बच्चे एक से 100 तक के अंक भी नहीं पहचान सकते. रिपोर्ट यह भी बताती है कि कक्षा पांच के लगभग 75 प्रतिशत बच्चे मामूली भाग का सवाल हल नहीं कर सकते. यानी प्राथमिक शिक्षा का आलम यह है कि लगभग 75 प्रतिशत बच्चे बिना मामूली गणित सीखे ही अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर रहे हैं. हां, इनके स्कूल जाने से इतना जरूर हो रहा है कि देश की साक्षरता दर बढ़ रही है. इस साक्षरता दर के बढ़ने को यदि आप मामूली उपलब्धि मान रहे हैं तो यह जानना भी जरूरी है कि इसके लिए भारत सरकार एक साल में लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये खर्च कर रही है.
यानी इन बच्चों को देने के लिए सरकार के पास पैसों की कोई कमी नहीं है. इतना भारी बजट है, रोज का भोजन है, स्कूल की यूनिफार्म है, किताबें हैं और साथ ही वजीफा भी है. सिर्फ शिक्षा ही नहीं है. अब आपको अपने उस सवाल का जवाब शायद मिल गया होगा जो बच्चों की प्रार्थना सुनने पर आपके मन में आया था. शिक्षा का अधिकार मिलने के इतने साल बाद भी बच्चे हर सुबह मां शारदे से विद्या का अधिकार क्यों मांगते हैं?
महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए गठित जस्टिस सीएस धर्माधिकारी समिति ने महाराष्ट्र सरकार से डांस बारों पर ‘ पूर्ण प्रतिबंध’ लगाने को कहा है. समिति ने साथ में यह भी सुझाव दिया है कि फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर अश्लील सामग्री रोकने के लिए सरकार को एक नीति बनानी चाहिए.
समिति ने ये बातें बांबे हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में दाखिल अपनी चौथी और पांचवी अंतरिम रिपोर्ट में कही हैं. डांस बारों पर पूर्ण प्रतिबंध के पक्ष में दलील देते हुए समिति ने कहा है कि जब राज्य में इनपर प्रतिबंध था उस दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी देखी गई थी.
साल 2012 में डांस बारों पर प्रतिबंध को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहरा दिया था. लेकिन इस साल 13 जून को महाराष्ट्र विधानसभा ने एक बिल पारित करके बड़ी होटलों और अन्य विशिष्ट सार्वजनिक जगहों पर चल रहे डांस बारों पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. इससे पहले 2005 में जब सरकार ने डांस बारों पर प्रतिबंध लगाया तब थ्री स्टार और उसे ऊपर की होटलों को इससे बाहर रखा गया था. यह फैसला तुरंत विवादित हो गया था. बाद में जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो वहां सरकार अपने फैसले के पक्ष में उचित तर्क नहीं रख पाई और कोर्ट ने प्रतिबंध को पक्षपाती करार दिया.
2010 में बनी धर्माधिकारी समिति ने अपनी चौथी रिपोर्ट में कुल 22 और पांचवीं अंतरिम रिपोर्ट में 6 सिफारिशें राज्य सरकार से की हैं. समिति ने राज्य सरकार को यह सलाह भी है कि शादी के पंजीयन के समय विवाहिता से शपथ द्वारा यह पूछा जाना चाहिए कि विवाह के दौरान दहेज का लेन देन तो नहीं हुआ और महिला सुरक्षा से जुड़े तमाम कानूनों का इस दौरान पालन हुआ है. समिति ने इन सुझावों को दहेज विरोधी कानूनों को और प्रभावी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण माना है.
भारत और इसके आसपास के देशों में अपनी एक नई शाखा खोलने की अलकायदा की घोषणा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने खुफिया विभाग (आईबी) के बड़े अधिकारियों के साथ बैठक की है. इसके बाद आइबी ने पूरे देश में हाई अलर्ट जारी कर दिया है. गौरतलब है कि अपने ताजा वीडियो में इस आतंकी संगठन के नेता अयमन अल जवाहिरी ने ऐलान किया है कि क़ायदात अल जिहाद नाम की यह नई शाखा उसकी लड़ाई को भारत, बांग्लादेश और म्यांमार तक ले जाएगी. अपने 55 मिनट के वीडियो संदेश में जवाहिरी ने कहा कि क़ायदात अल जिहाद इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी को बांटने वाली बनावटी सीमाओं को नष्ट कर देगा. इस शाखा की कमान आसिम उमर को दी गई है जो पाकिस्तान का नागरिक है.
लेकिन बहुत से जानकार इस ऐलान का एक दूसरा पक्ष भी देख रहे हैं. उनके मुताबिक अलकायदा की इस नई कवायद का मकसद भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभाव फैलाने से ज्यादा यह है कि इस्लामिक स्टेट या आईएस के असर को कम किया जाए. आईएस 2013 में अल-कायदा से अलग हो गया था. यह संगठन सीरिया और इराक के बड़े हिस्से पर कब्जा जमाकर उसे इस्लामी राज्य घोषित कर चुका है. इसके नेता अबू बकर अल बग़दादी ने खुद को मुसलमानों का नया खलीफा भी घोषित कर दिया है. बगदादी ने हाल ही में दक्षिण एशिया में भी अपने संगठन की शाखा खोलने की इच्छा जताई थी. माना जा रहा है कि अल कायदा के नेता इस वक्त परेशान हैं क्योंकि नए लड़ाके उनसे ज्यादा आईएस से जुड़ने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ तालिबानी नेता तो अल-कायदा का साथ छोड़कर आईएस से जुड़ चुके हैं. माना जा रहा है कि इसके चलते ही अल-कायदा ने यह नया दांव चला है. यानी यह खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की कवायद है.
फिर भी माना जा रहा है कि भारत को यह ऐलान हल्के में नहीं लेना चाहिए. जानकारों के मुताबिक कमजोर अलकायदा भी कम खतरनाक नहीं है क्योंकि तब भी अच्छा-खासा प्रभाव रखता है. माना जाता है कि इस विकेंद्रीकृत संगठन का लचीला स्वरूप उसे उन जगहों पर तेजी से फैलने में मदद करता है जो अस्थिरता के शिकार हों. पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात फिर से अस्थिरता की तरफ ही जाते दिख रहे हैं. साफ है कि भारत को इससे चिंतित होने की जरूरत है.
रिचर्ड एटनबरो ‘क्राई फ्रीडम’ को अपनी सबसे बेहतर फिल्म मानते थे. ‘गांधी’ को नहीं. नस्लवाद-रंगभेद के खिलाफ श्वेत एटनबरो के आक्रोश से सनी आवाज थी यह फिल्म. अश्वेतों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले दक्षिण अफ्रीका के स्टीवन बीको का जीवन-मृत्यु कहती यह फिल्म थी भी बहुत शानदार, एक आंदोलन के साथ-साथ संपादक और एक्टिविस्ट के बीच की दोस्ती की कहानी. लेकिन बन जाने के बाद फिल्म कहां निर्देशक या अभिनेता की रहती है, कहां उसे हक होता है अपनी सबसे अच्छी और सबसे खराब फिल्म का फैसला करने का. फिल्म को तो दर्शकों का हो जाना होता है. या नहीं हो जाना होता.
‘गांधी’ इसीलिए महान फिल्म है. बनने के बाद यह एक पूरे देश की फिल्म हो गई. किताबों से निकलकर पहली बार कोई महान हिंदुस्तानी सिनेमा के परदे पर इस कदर ओजस्वी लगा. फिल्म के लिए इकट्ठा की गई लाखों लोगों की भीड़ ने हमारे दिलों में किताबों से बनी राष्ट्रपिता की छवि को वृहद आसमान दिया, गांधीजी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो’ को सुनते वक्त, कवि प्रदीप के ‘साबरमती के संत’ सुनते वक्त, गांधीजी का चेहरा दिया. बेन किंग्सले. किंग्सले कई पीढ़ियों के उन करोड़ों लोगों के लिए दशकों तक गांधीजी का चेहरा रहे जिनके लिए कृष्ण नितीश भारद्वाज थे, कर्ण पंकज धीर, राम अरूण गोविल, चंद्रप्रकाश द्विवेदी चाणक्य और जिनके लिए दिलीप ताहिल कभी जवाहरलाल नेहरू नहीं हो पाए, रोशन सेठ ही नेहरू रहे. बेन किंग्सले का गांधीजी के रूप में एक स्थायी चेहरा हो जाना इसलिए भी मुमकिन हुआ क्योंकि तब 15 अगस्त को ‘सिंघम 2’ सिनेमाघरों में आजादी मनाने नहीं आती थी, ‘गांधी’ आती थी दूरदर्शन पर. यह ‘तब’ काफी सालों को समेटे है, एक लंबा सुनहरा वक्त जिसका लौटना अब असंभव है.
रिचर्ड एटनबरो की तरह कई निर्देशकों ने सुदूर देशों में स्थापित फिल्में बनाई. हॉलीवुड तो इसके लिए खास तरह का प्रोफेशनलिज्म रखता है. और यही परेशानी की वजह है. अंजान जगहों पर वहां के नायकों के ऊपर फिल्में बनाने पश्चिम के निर्देशक जाते रहे, और उस मुल्क उसकी संस्कृति को अपने ‘आउटसाइडर व्यू’ वाले कैमरे के संकरे व्यूफाइंडर से देख उसी घमंड से फिल्म बनाते रहे जैसे कोई इनसाइडर बनाता. हिंदुस्तान की गरीबी और उस गरीबी में धाराप्रवाह अंग्रेजी ने डैनी बॉयल को ऑस्कर दिलाया, अमेरिकी निर्देशक एली रोथ ने ‘हॉस्टल’ बनाई और स्लोवाकिया दुनिया-भर में कहता फिरा कि हम ऐसे नहीं हैं महाराज. वेस एंडरसन जैसे कमाल निर्देशक ने ‘द दार्जिलिंग लिमिटिड’ में आज का भारत ऐसे दिखाया जैसे अभी भी सांपों को पूजने वाला पाषाणकालीन कोई देश हो. स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘इंडियाना जोंस एंड द टेंपल ऑफ डूम’ में भारत को इतना बुरा चित्रित किया कि माफी उन्हें आज भी नहीं मिल सकती, और अमरीश पुरी को ऐसा मूर्ख दिखाया, जैसे सारे उपासक हिंदुस्तानी मूर्ख ही हों. वह समझदारी जो ‘गांधी’ को उस संकरे आउटसाइडर व्यूफाइंडर से देखकर बनाई गई फिल्म होने से बचाती है, फिल्म का खानाबदोशी संस्कार है. जहां रहे जब तक रहे वहीं की रहे, विदेशी होकर देसी रहे. जैसे निर्देशक भारत आकर ऐसा टूरिस्ट हो जाए कि वह न मुंबई का धारावी देखना चाहे न साहिर लुधियानवी की नज्म जिससे कभी प्यार न कर सकी वह ताजमहल, बस पहाड़गंज में रहने को एक कमरा तलाशे और वहीं का बाशिंदा होकर कुछ वक्त गुजारे. किसी महर्षि को नहीं खोजे, इंदौर में पोहा-जलेबी खाए. और फिल्म बनाए.
एटनबरो ब्रिटेन की तरफ से युद्ध लड़ चुके थे लेकिन जब उन्होंने ‘गांधी’ बनाई तो यहां उनकी नजर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की रही
गांधीजी को वैसे भी गांधी बने रहने का मौका बहुत कम मिला. हमेशा ही उनके मुकाबले किसी न किसी को उतारा ही गया. सब ने अपनी पैनी-पैनी विचारधाराओं को लेकर उनके सामने कभी भगत सिंह को खड़ा कर दिया कभी भीमराव अंबेडकर को. गांधी इनमें से ज्यादातर लड़ाइयां हार ही रहे हैं. लोगों के बीच बहसों में, सोशल मीडिया के तंजों में, बच्चों के बीच. गांधी सलमान खान भी नहीं हैं. अगर होते, तो उनके पास भी सलमान खान के फैंस जैसे चाहने वाले होते, जो ट्विटर चौक पर उनका बचाव करते, उनके बारे में बात करते, उनका युद्ध खुद लड़ते. गांधी जनमानस की नजरों से ओझल हैं, फेसबुक पर सिर्फ पौने तीन लाख लाइक्स के साथ जीवित हैं, ज्यादातर की स्मृति में कहीं नहीं शेष हैं. यही है हमारे राष्ट्रपिता का आज का जीवन. जीवनी से मुक्त, चौराहों पर चुस्त, घाव युक्त. इसीलिए गांधीगिरी करती ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ एक जरूरी फिल्म है. और सिर्फ इसीलिए ‘गांधी’ सबसे ज्यादा जरूरी फिल्म है. कुछ चीजों का होना, महान इंसानों के बड़े कामों को छोटा होने से बचाने के लिए जरूरी है.
रिचर्ड एटनबरो को पीरियड फिल्मों के टेंपलेट में सटीक बैठने वाली महान विभूतियों ने हमेशा ही आकर्षित किया. ‘गांधी’ बनाने से पहले वे विंस्टन चर्चिल पर पीरियड फिल्म बना चुके थे. प्रथम विश्व युद्ध और दूसरे विश्व युद्ध पर विरली कहानियां कह चुके थे. गांधी जी के बाद उन्होंने चार्ली चैप्लिन पर भी फिल्म बनाई. क्राई फ्रीडम बनाई. लेखक सीएस ल्यूइस और अर्नेस्ट हैमिंग्वे पर फिल्में बनाई. इसलिए वे ‘गांधी’ के बड़े कैनवास पर होने की जरूरत को समझते थे. इसीलिए बड़े बजट के कारण स्टूडियो दर स्टूडियो किवाड़ खटखटाते रहे, और गांधी जी पर फिल्म बनाने का फैसला करने के 20 साल बाद ही ‘गांधी’ बना पाए. 20 साल पहले यानी 1962 में लंदन स्थित भारतीय हाई कमीशन के अधिकारी मोतीलाल कोठारी, एक गांधीवादी, के गांधीजी पर फिल्म बनाने के आग्रह से शुरू हुआ ये सफर गांधीजी को जानते-समझते हुए, जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी से मिलते रहते हुए, 1982 में पूरा हो पाया. और ‘गांधी’ ने आठ ऑस्कर जीते. जीतने पर एटनबरो खुश थे और ऑस्कर समारोह में स्टीवन स्पीलबर्ग साफतौर पर नाराज जिनकी ई.टी. ‘गांधी’ से हार गई थी. बाद के सालों में लेकिन दोनों ने साथ काम किया, और स्पीलबर्ग की जुरासिक पार्क से एटनबरो ने अभिनय में तेरह साल बाद एक बार फिर वापसी भी. एटनबरो दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की रॉयल एयर फोर्स में पायलट थे, और युद्ध के लिए बनने वाली प्रोपेगेंडा फिल्मों में अभिनय करते-करते मुख्यधारा की फिल्मों के अभिनेता बन गए. सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी में अभिनय किया और रे के निर्देशन ने निर्देशक बनने का सपना दिया. प्यार, युद्ध और राष्ट्रीयता एटनबरो की सभी फिल्मों की थीम रही. उन्होंने ब्रिटेन की तरफ से युद्ध भी लड़ा और अपने देश से प्यार भी किया, लेकिन जब ‘गांधी’ बनाई तो अपने देश का पक्ष नहीं लिया, एक मुल्क के स्वतंत्रता आंदोलन को उसी की नजर का चश्मा चढ़ाकर देखा और उसी का पक्ष दिखाती फिल्म बनाई. ‘गांधी’ की अपनी त्रुटियां थीं, ऐतिहासिक तथ्यों में सचेतना कम थी, लेकिन ऐतिहासिक हस्तियों पर बनने वाली ज्यादातर फिल्मों में ऐसा होता है. ‘गांधी’ बहस का मुद्दा हमेशा रहेगी, इसलिए बहस करते रहिए, क्योंकि तभी ‘गांधी’ ज्यादा जिएगी.
‘गांधी’ ने अनेकों भारतीय अभिनेताओं को भी मौका दिया. बेन किंग्सले के पिता भारतीय गुजराती थे लेकिन बेन ब्रिटिश थे. दिल्ली के जिस अशोक होटल में वे ‘गांधी’ की शूटिंग के दौरान छह महीने रहे, वहां उनके कमरे को पूरा खाली कराया गया. वे फर्श पर सोते थे, गांधी जैसे उठते, पालती मारकर बैठना सीखते थे, मदिरा से दूर रहते थे, व्रत रखते थे. दीवार पर हर तरफ अलग-अलग भंगिमाओं में गांधी की तस्वीरें चस्पा थीं. गांधी के उनके मेकअप को साढ़े तीन घंटे लगते, और जब पहली बार वे गांधी बन सेट पर पहुंचे थे, सारे गांववालों ने उनके पांव छुए थे. तकरीबन 500 भारतीय चेहरों के साथ बनी ‘गांधी’ में कई छोटे बहुत-छोटे किरदारों में अमरीश पुरी, सईद जाफरी, रोशन सेठ, टॉम आल्टर, नीना गुप्ता, रोहिणी हट्टंगडी, सुप्रिया पाठक, पंकज कपूर, ओम पुरी, मोहन अगाशे और आलोक नाथ थे. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय सीखने के आखिरी पड़ाव से गुजर रहे पंकज कपूर का फिल्म में एक भी डायलॉग नहीं था. लेकिन जब फिल्म हिंदी में डब हुई तो बेन किंग्सले बने गांधी को आवाज पंकज कपूर ने ही दी. कल्ट फिल्म ‘ओम दर-ब-दर’ बनाने वाले कमल स्वरूप ‘गांधी’ में एटनबरो के असिस्टेंट थे और फिल्म की कास्ट्यूम डिजाइन में भानू अथैय्या के रिसर्चर. वे बताते हैं कि एटनबरो का बेन किंग्सले को गांधी हो जाने के लिए सुझाव था कि वे एक ही रोल में एक साथ हेमलेट और किंग लीयर को समाहित करें. वे कहते हैं कि सुधीर मिश्रा को अपर क्लास वाली भीड़ का हिस्सा बनने पर रोज के सौ रुपये मिलते थे, और बाकियों को पंद्रह. कुछ खुशनसीबों को 75 भी मिलते थे. सेट पर पैसों की जगह प्लास्टिक के रंगीन टोकन बांटे जाते, जिन्हें भीड़ का हिस्सा रहे कलाकार बाद में भुनाते. दिल्ली में शूट हुई गांधी जी की शवयात्रा में चार लाख से ज्यादा की भीड़ बुलाई गई, जिसको अखबारों द्वारा सवेतन आमंत्रित किया गया. लेकिन शूटिंग पूरी करने के बाद बेहद कम लोग अपना वेतन लेने पहुंचे. ये गांधीजी के प्रति तब के लोगों की श्रद्धा थी.
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रिचर्ड एटनबरो को भिन्न-विभिन्न वजहों से याद किया जा रहा है. लोग उनके अभिनय के मुरीद हैं, उनकी समाज सेवा के, उनके भले इंसान होने के, उनके राजनीतिक तौर पर हमेशा चेते रहने के, ‘गांधी’ के अलावा उनकी दूसरी फिल्मों के. पर हिंद और भारतवासियों के लिए वे गांधी जी को खूबसूरती से परदे पर उकेरने वाले शिल्पकार ही रहेंगे.
साई भक्त मनुष्यमित्र ने जब मंच पर अपनी बात कही तो उनके साथ मंच पर ही झूमझटकी की गई. फोटो प्रतीक चौहान
‘जाको राखे साईयां, मार सके ना कोय…’ पीढ़ियों से सुनी जा रही इस कहावत में साई का आशय है सिद्ध पुरुष या ईश्वरीय अवतार. हालांकि जनसामान्य लंबे समय से इस कहावत में ‘साई’ को साई बाबा (शिरडी वाले) के लिए ही प्रयोग करता रहा है. कहावतें समाज के बीच पैदा होती और पनपती हैं इसलिए उनका भविष्य भी समाज ही तय करता है. इसी तरह से अवतार या सिद्ध पुरुष भी समाज ही बनाता है.
हाल ही में आयोजित धर्म संसद में भले ही साधु-संतों ने साई बाबा की पूजा को धर्म विरुद्ध करार दिया हो लेकिन जनसामान्य के लिए यह फैसला कितना अनुकरणीय होगा यह भविष्य में ही तय होना है. फिलहाल यह जानना जरूर दिलचस्प होगा कि इस धर्म संसद की कार्यवाही चली कैसे और साधु-संत इस नतीजे पर कैसे पहुंचे.
राजू सेठ (30 वर्ष) की पान की गुमटी है. धर्म संसद के फैसले से बेखबर राजू कहते हैं, ‘जिसको जो भगवान अच्छा लगे, वह उसे माने. हमें तो दो वक्त की रोटी कमाने से फुर्सत नहीं है.’ राजू की बात यहां इसलिए मायने रखती है, क्योंकि उनकी पान की दुकान ठीक वहीं स्थित है, जहां धर्म संसद आयोजित की गई और देश-भर में इसी वजह से चर्चा में रही कि यहां साधु-संतों ने एकमत होकर साई बाबा के सिद्ध पुरुष होने की बात को खारिज कर दिया. राजू को धर्मसंसद देखने-सुनने की न तो फुर्सत है, न ही उत्सुकता. उन्हें यहां भीड़ इकट्ठी होने की खुशी है क्योंकि इससे उनकी अच्छी-खासी कमाई हो रही है.
न्यायिक लड़ाई की भी तैयारीद्वारिकापुरी और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती मंदिरों में साई की फोटो अथवा मूर्ति लगाने के खिलाफ न्यायिक लड़ाई लड़ने की तैयारी भी कर चुके हैं. इसकी शुरुआत शंकराचार्य ने इस साल के शुरु होते ही नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लैटर पिटीशन (पत्र याचिका) भेजकर सनातन धर्म मंदिरों में साई की मूर्तियां हटाने का आग्रह करने के साथ कर दी थी. इस पिटीशन में कहा गया था कि सनातन धर्म के मठ-मंदिरों में देवी-देवताओं के साथ साई की मूर्ति अथवा फोटो लगाई जा रही है. यहां तक कि साई से संबंधित साहित्य में वेद-उपनिषद के मंत्र तक बदल दिए गए हैं. इस बारे में शंकराचार्य के प्रवक्ता अजय गौतम कहते हैं, ‘ जब बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों की शब्दावली को नहीं बदला जा सकता तो वेद उपनिषद के मंत्रों में साई को शामिल कर करोड़ों लोगों की आस्था से खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है.’ इस वर्ष जून में हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में भी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद साई की मूर्तियां हटाने का प्रस्ताव पारित करवा चुके हैं.
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 130 किलोमीटर दूर स्थित कबीरधाम (कवर्धा) में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के चार्तुमास के कारण पिछले दो महीने से बहुत गहमागहमी है. लेकिन इस सप्ताह के दो दिन 24 और 25 अगस्त कुछ ज्यादा की खास रहे. इन्हीं दो दिनों में कबीरधाम में साधु संतों और उनके अनुयायियों का मेला लगा रहा. मौका था शंकराचार्य द्वारा बुलाई गई 19वीं धर्म संसद का. धर्म संसद का एंजेडा तो लंबा-चौड़ा था लेकिन मुख्य विषय था शिरडी के साई बाबा के भगवान होने या न होने पर निर्णय करना. इस मसले पर दो दिनों तक बहस चली, शास्त्रार्थ किया गया, लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि शास्त्रार्थ करने के लिए दूसरा पक्ष मौजूद ही नहीं था. शिरडी के साई संस्थान से कोई प्रतिनिधि इस धर्म संसद में नहीं आया. तीन साई भक्तों मनुष्यमित्र (मध्य प्रदेश से), प्रेम कुमार और अशोक कुमार (दोनों दिल्ली से) ने जरूर अपना पक्ष रखने की कोशिश की लेकिन उनकी बात को पूरा सुने बगैर उनके कपड़े फाड़कर मंच से नीचे उतार दिया गया. दरअसल मनुष्यमित्र ने मंच पर पहुंचकर यह कह दिया था कि साधु-संत गौ हत्या जैसे विषयों पर धर्म संसद क्यों नहीं बुलाते, धर्म से जुड़े दूसरे मुद्दों पर अनशन क्यों नहीं करते. इस पर कुछ अन्य साधुओं ने इस साई भक्त के कपड़े फाड़ दिए. पुलिस ने बीच-बचाव करते हुए साई भक्तों को मंच से सुरक्षित उतारकर कार्यक्रम से बाहर निकालकर सीधे रायपुर पहुंचा दिया.
‘साई ट्रस्ट साधु संतों को शिरडी बुलाकर साई बाबा की पूजा संबंधित सारी बातें स्पष्ट कर चुका है. इसके बाद भी धर्म संसद का आयोजन किया जाना पाखंड की पराकाष्ठा है’
इसके बाद दो दिन तक चली धर्म संसद में काशी विद्वत परिषद ने अपना फैसला सुनाया कि साई भगवान नहीं हैं. वे गुरू भी नहीं हैं, संत और अवतारी पुरुष भी उन्हें नहीं माना जा सकता इसलिए साई की पूजा बंद होनी चाहिए. धर्म संसद ने एक फैसला और लिया है कि देश में भविष्य में कोई साई मंदिर नहीं बनाया जाए. सनातन धर्म के मंदिरों में साई की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाएगी. अपने फैसले के बारे में काशी विद्वत परिषद ने तर्क दिया कि दो दिन के मंथन के बाद साई किसी भी कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं, इसलिए उन्हें भगवान कहना वेद सम्मत या धर्म सम्मत नहीं है.
जिन करोड़ों लोगों के लिए धर्म संसद यह फैसला सुना रही थी उनमें से एक राजेश चौहान (36वर्ष) के विचार भी राजू सेठ से अलहदा नहीं हैं. पेशे से ड्राइवर राजेश ने इन दो दिनों में धर्म संसद के आयोजन स्थल तक सैकडों लोगों का पहुंचाया है. उन्हें भी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसको पूज रहा है, या किसको पूजा जाना चाहिए. उन्हें तो बस अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना है क्योंकि वह नहीं चाहते कि उनके बच्चे भी उनकी तरह ड्राइवरी करें.
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धर्म की राजनीति या राजनीति का धर्म
शिरडी के साई बाबा के अवतार होने या उनकी पूजा के मामले में केंद्र की नई-नवेली भाजपा सरकार और मुख्य विरोधी दल कांग्रेस दोनों ही चुप हैं. शुरुआत में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने जरूर शंकराचार्य की बात को काटते हुए टिप्पणी कर दी थी लेकिन बात उनके इस्तीफे की मांग तक आ गई तो उन्होंने भी चुप्पी साध ली. उमा की बात काटते हुए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी शंकराचार्य का दबी जुबान से समर्थन कर दिया था. लेकिन अब कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है. दरअसल शिरडी के साई बाबा की प्रामाणिता पर सवाल उठाने वाले शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को कांग्रेस समर्थक माना जाता रहा है. यह अलग बात है कि शंकराचार्य ने धर्म संसद के लिए भाजपा शासित प्रदेश छत्तीसगढ़ को चुना. शंकराचार्य चातुर्मास के लिए कवर्धा आए थे. मुख्यमंत्री रमन सिंह का पैतृक निवास भी कवर्धा में ही है. शंकराचार्य ने रमन सिंह के निवास से चंद कदम दूर ही अपना डेरा डाला हुआ है. उन्हें राज्य अतिथि का दर्जा दिया गया है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्म संसद में आने वाले 28 साधु-संतों को भी राज्य अतिथि का दर्जा दिया गया है. यानी कहा जा सकता है कि धर्म संसद राज्य सरकार के सरंक्षण में ही बुलाई गई. अब यहां गौर करने वाली बात यह है कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि शिरडी महाराष्ट्र में धार्मिक आस्था का बड़ा केंद्र है. महाराष्ट्र में स्थित तीन ज्योतिर्लिंग घृष्णेश्वर (औरंगाबाद), भीमाशंकर (पुणे) और त्र्यंबकेश्वर (नासिक) कभी चढ़ावे को लेकर सुर्खियों में नहीं रहते, जबकि शिरडी में चढ़ने वाले अकूत चढ़ावे की आए दिन चर्चा होती है. जाहिर है कि भक्तों की आमद शिरडी में ही ज्यादा होती है. साई से महाराष्ट्र का दलित समुदाय भी गहरा जुड़ा हुआ है. साई के प्रचार-प्रसार में इस समुदाय का खासा योगदान रहा है. मतदाताओं का एक बड़ा समूह शिरडी में आस्था रखता है. ऐसे में ऐन चुनाव के वक्त भाजपा या कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे पर बीच में पड़ना नहीं चाहती. शिवसेना और मनसे ने भी मौन धारण कर रखा है. इस पर पेंच यह है कि शंकराचार्य समेत धर्म संसद में शामिल होने वाले साधु संत भाजपा से जवाब चाहते हैं. आयोजन के दौरान केवल भाजपा को बार-बार कोसा गया जबकि कांग्रेस पर किसी ने टीका-टिप्पणी नहीं की. आयोजन में शामिल होने आए भारत साधु समाज के उपाध्यक्ष एवं महामंडलेश्वर स्वामी डॉ प्रेमानंद जी महाराज का कहना था, ‘ भाजपा हिंदुओं की रक्षा करने वाली पार्टी होने का दावा करती है लेकिन धर्म संसद में भाजपा, संघ या विहिप की तरफ से कोई प्रतिनिधि नहीं आया.’ हालांकि इसके बाद भी भाजपा का कोई बयान नहीं आया. पार्टी के साथ दिक्कत यह है कि वह संगठन या सरकार के तौर पर यदि इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर करती है तो उसे लाखों साई भक्तों की आस्था पर चोट माने जाने की आशंका है. ऐसा होने पर इसका खामियाजा भाजपा को महाराष्ट्र समेत दूसरे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में चुकाना पड़ सकता है. शंकराचार्य का यह चक्रव्यूह भाजपा भी खूब समझ रही है यही कारण है कि भाजपा शासित प्रदेश होने के बावजूद पार्टी या सरकार का कोई जनप्रतिनिधि धर्म मसंसद के आसपास भी नहीं फटका.
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साई को अवतार मानने पर सबसे पहले बहस शंकराचार्य स्वरूपानंद ने ही शुरू की थी और उनके द्वारा बुलाई गई इस धर्म संसद में पहुंचे 13 अखाड़ा प्रमुखों ने भी उनकी बात का समर्थन किया है. निरंजनी अखाड़ा के अध्यक्ष नरेंद्र गिरी का कहना है, ‘जब धर्म पर संकट आता है तब धर्म संसद का आयोजन किया जाता है. यह 19वीं धर्म संसद थी. फकीर को भगवान मानना पूरी तरह से गलत है. शंकराचार्य इसी बात का तो विरोध कर रहे हैं.’ पंचायती जूना अखाड़ा हरिद्वार के प्रमुख संत हरिगिरि का कहते हैं, ‘हिंदू सनातन धर्म की सुदृढ़ धार्मिक परंपराओं से कुछ लोग अंजान हैं. वेदों और शास्त्रों में सप्रमाण वर्णित व्यक्ति ही भगवान है. इसी प्रामाणिकता के आधार पर हिंदू धर्म में पूजा करने की परंपरा है. लाखों हिंदू भटकर साई की पूजा करने लगे हैं. उन्हें समझा बुझाकर सही राह पर लाया जाएगा. साई ट्रस्ट का नाम लिए बगैर स्वामी हरिगिरि ने कहा कि आपको व्यवसाय करना है तो करिए. हिंदूओं को भ्रमित मत करिए. लोगों को समझाने का काम शंकराचार्य और संतों का है. हमने अपना काम कर दिया है. धीरे-धीरे लोग भी इसे मानेंगे.’
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कबीरधाम के एक मंदिर में स्थापित हनुमान व साई बाबा की मूर्ति. फोटो: प्रतीक चौहान
हिंदू साधु-संतों को इस बात पर घोर आपत्ति है कि करीब दशक-भर पहले तक साई के आगे बाबा शब्द लगाया जाता था लेकिन अब उन्हें साई राम के रूप में स्थापित किया जा रहा है. पहले लोग ओम सीताराम का जाप किया करते थे अब ओम साई राम का प्रचार कर रहे हैं. साधु-संतों का आरोप है कि साई भक्त सनातन धर्म के प्रतीकों का इस्तेमाल करके साई को प्रतिष्ठित और धार्मिक लोगों को बरगलाने का काम कर रहे हैं. वे इसके पक्ष में यह तर्क भी देते हैं कि पहले लोग गुरुवार को भगवान विष्णु का व्रत रखते थे लेकिन उस व्रत की जगह साई के व्रत ने ले ली है.
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शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने धर्म संसद के दौरान साई को असत्य, अचेतन और अयोग्य करार दिया है. साई संस्थान से किसी भी प्रतिनिधि के धर्म संसद में नहीं पहुंचने के सवाल पर शंकराचार्य कहते हैं, ‘वे लोग विज्ञापन जारी करते हैं लेकिन धर्म संसद में पहुंचकर विमर्श करने को तैयार नहीं है. जब वे जवाब देने को तैयार नहीं हैं तो उनको जिम्मेदारी लेनी होगी कि धर्म संसद में जो निर्णय हो, उसे वे मानेंगे.’ शंकराचार्य ने साई के अवतार के बारे में प्रमाण मांगते हुए कहा कि सनातन धर्म में शिव, गणेश, विष्णु और सूर्य या उनके अवतारों की पूजा होती है ऐसे में साई भक्त स्पष्ट करें कि साई किनके अवतार हैं. वहीं कई साई भक्त धर्म संसद को जबर्दस्ती का नाटक बता रहे हैं. छत्तीसगढ़ के ही एक साई भक्त संजय साई धर्म संसद पर आरोप लगाते हैं, ‘साई ट्रस्ट साधु-संतों को शिरडी बुलाकर साई बाबा की पूजा
संबंधित सारी बातें स्पष्ट कर चुका है. इसके बावजूद भी धर्म संसद का आयोजन किया जाना पाखंड की पराकाष्ठा है.’ संजय यह भी बताते हैं कि कवर्धा में धर्म संसद के मंच पर जिस तरह एक साई भक्त के साथ बदसलूकी की गई इसकी उन्हें आशंका थी इसलिए शिरडी साई संस्थान से कोई प्रतिनिधि धर्म संसद में नहीं पहुंचा. हालांकि साईं ट्रस्ट शिरडी ने इस आयोजन से पर कोई टिप्पणी नहीं की है. ट्रस्ट के जनसपंर्क अधिकारी मोहन यादव का कहना है, ‘हम धर्म संसद के फैसले पर कोई टिप्पणी या प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते.’