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एक अस्वस्थ परंपरा की शुरुआत

फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे

केवल निपट राजनीतिक विरोधियों को ऐसा भले न लगे लेकिन आम जनता में कइयों को ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी पिछली सरकारों की तुलना में अर्थव्यवस्था, विदेशों से संबंध और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली में आवश्यक सुधार लाने वाले हैं. वे हर दिन बीस के हिसाब से सरकारी तागों में लिपटी आम आदमी की जिंदगी को कुछ आसान, कम उलझी बना सकते हैं ऐसा कैमरों और माइक के पीछे उनके कुछ विरोधियों को भी डर है. अगर ऐसी सोच उनके प्रति कुछ लोगों की है तो उसके पीछे उनका काम करने का वह तरीका है जिसमें बाबू दिन में 12 घंटे काम करते हैं और न्यायपालिका में नियुक्ति वाले बिल को पास कराने जैसे कदम आनन-फानन में उठा लिए जाते हैं. अगर सरकार

आते ही प्रमाणपत्रों को गजेटेड अधिकारियों से अटैस्ट न कराने और ईसाई मांओं को उनके मृत बच्चों की जायदाद में हिस्सा दिलाने जैसे जरूरी निर्णय लेती है तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं.

लेकिन पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाने का फैसला इस सोच को मुकम्मल होने से पहले ही रोक लेता है. जस्टिस सदाशिवम के राज्यपाल बनने में कुछ कानूनी अड़चन भले न हो, ऐसा करना सही नहीं है ऐसा सोचने में भी कोई अड़चन नहीं है. सरकार कितना भी कहे कि वह समाज के प्रतिष्ठित लोगों को राज्यपाल बनाकर इस पद का गैर-राजनीतिकरण कर रही है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उसका यह निर्णय ज्यादा जाने और कुछ अनजाने में थोड़ा-बहुत ही सही लेकिन न्यायपालिका का राजनीतिकरण करने की क्षमता भी रखता है.

सीबीआई के अलावा राज्यपालों का भी केंद्र सरकारों ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया है

अगर सरकार राज्यपाल के पद का ऐसा ही गैर-राजनीतिकरण करना चाहती है तो उसे केवल तुरंत-अवकाशप्राप्त पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही इसके लिए क्यों मिला? और उसने बाकी सारे गवर्नरों की नियुक्ति भी राजनीतिक आधार पर ही क्यों की? यहां तक कि शीला दीक्षित सहित जिन कुछ राज्यपालों को उनके पद से हटाया गया उसके पीछे भी राजनीतिक वजहें ही थीं.

भारतीय संविधान ने देश की सर्वोच्च न्यायालय को असीम शक्तियां दी हैं. यह अमेरिका के फेडरल कोर्ट से ज्यादा शक्तिशाली है और आजादी से पहले के हमारे फेडरल कोर्ट से भी. अमेरिकी फेडरल कोर्ट केवल संघीय कानूनों से जुड़े मसलों पर ही सुनवाई कर सकता है और आजादी से पहले का भारत का फेडरल कोर्ट वह आखिरी कोर्ट नहीं था जिसमें किसी मामले की सुनवाई हो सकती थी. तब देश की आखिरी अपीलीय अदालत ब्रितानी प्रिवी काउंसिल थी. लेकिन हमारा सर्वोच्च न्यायालय न सिर्फ राज्यों के कानूनों पर सुनवाई कर सकता है बल्कि आखिरी अपीलीय अदालत भी है. इसके अलावा हमारा सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने, मूलभूत अधिकारों की रक्षा करने और व्यवस्था के सबसे ऊंचे स्तर को सलाह-सुझाव देने का कार्य भी करता है. इतने अधिकारों-शक्तियों को इस्तेमाल करने वाली संस्था की न केवल स्वतंत्रता सुनिश्चित करना जरूरी है बल्कि उसे हर लोभ-लालच-डर से बचाना भी जरूरी है. इसके लिए संविधान में तरह-तरह के उपाय किए गए हैं.

उदाहरण के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति की अलग तरह की व्यवस्था है – जिसे वर्तमान सरकार ने कुछ और बेहतर बना दिया है, उनका कार्यकाल निश्चित है और सर्वोच्च न्यायालय का खर्चा देश के कंसॉलिडेटेड फंड से आता है. इसके अलावा सर्वोच्च अदालत अपना स्टाफ खुद नियुक्त करती है, इसकी शक्तियों को कोई छीन नहीं सकता और इसके क्रियाकलापों की चर्चा किसी विधायिका और संसद में नहीं की जा सकती. न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक-दूसरे से अलग रखने की व्यवस्था भी इसी वजह से की गई है. संविधान के अनुच्छेद 124(7) में यह भी प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी अवकाशप्राप्त जज भारत की किसी भी अदालत में या प्राधिकरण के समक्ष जिरह या उसमें कार्य नहीं कर सकता.

अब इतने तरह के प्रावधानों से सुरक्षित-संरक्षित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक को –वह भी पूर्व मुख्य न्यायाधीश– सरकार ने एक राज्य का राज्यपाल बना दिया है. ऐसे में कोई जज गवर्नर बनने के लालच में अपने कार्यकाल के आखिर में कुछ गड़बड़ी कर सकता है, ऐसी आशंका से कैसे इनकार किया जा सकता है. इंदिरा गांधी के समय ऐसे उदाहरण मिलते ही हैं जब दो जजों को बिना बारी के देश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था.

हालांकि कई ऐसे कानून हैं जो सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद अहम पदों पर नियुक्त करने का काम करते हैं जैसे कि उपभोक्ता संरक्षण कानून और मानवाधिकार सुरक्षा कानून. लेकिन इन पदों का कार्य न्यायपालिका के कार्य से मिलता-जुलता ही है और दूसरा एक बार नियुक्ति के बाद इन पर कार्यपालिका के दखल की गुंजाइश भी न के बराबर है.

दूसरी ओर राज्यपाल का पद घोषित तौर पर संवैधानिक होते हुए भी असल में राजनीतिक ही है. राष्ट्रपति के माध्यम से नियुक्त करके केंद्र सरकार कभी भी राज्यपाल को हटा सकती है. यानी कि किसी का गवर्नर बनना और बने रहना सरकार की इच्छा पर ही निर्भर करता है. इसीलिए सीबीआई के अलावा राज्यपालों का भी केंद्र सरकारों ने अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया है.

किसी लोकतंत्र में न केवल संविधान के मुताबिक चलना जरूरी है बल्कि समय-समय पर उसमें अनुपस्थित व्यवस्थाओं के लिए स्वस्थ परंपराएं बनाना भी जरूरी है. ऐसा इसलिए भी है कि आपकी सरकार न सही आगे या उसके भी आगे की सरकार इनके थोड़ा आड़ा-तिरछा होने की आड़ में अपने गलत खेल, खेल सकती हैं. लेकिन मोदी सरकार का यह निर्णय इतनी दूरंदेशी की बात नहीं करता. और पूरी तरह पारदर्शी भी नहीं लगता.

एलबमः खूबसूरत

khubsurat
एलबमः खूबसूरत
गीतकार » इकराम राजस्थानी, सुनील चौधरी, अमिताभ वर्मा
संगीतकार » स्नेहा खानवलकर, अमल मलिक

जिन स्नेहा खानवलकर को हम जानते हैं, ‘प्रीत’ के हर रेशे में उनकी रौनक है. वही तबीयत, कभी न सुने गीत को बुनना-बनाना-सुनाना, और साजों-आवाजों से वही आवारागर्दी वाली यारी रखना. जसलीन कौर रॉयल ‘प्रीत’ को ‘काला रे’ की स्नेहा के आस-पास बैठकर ही गाती हैं और ऐसा सुखद जैसे कोई भोला बचपन सफेद कागज पर पहाड़, सूरज धीरे-से धीमे-से गढ़कर दुनिया की रगड़ खत्म कर रहा हो. शकील बदायूँनी के ‘जो मैं जानती बिसरत हैं सैंया’ से आत्मा लेता ‘प्रीत’ देह अपनी बनाता है, और अमिताभ वर्मा अपनी लिखाई से उस देह को प्यार के दुख में खोई एक जिंदगी की चमक देते हैं.

साउंड ट्रिपिंग वाली स्नेहा इसके बाद के दो गीतों में हैं. और साउंड ट्रिपिंग वाली शिकायतें भी. एहतियात से सहेजे साजों और आवाजों का अच्छी कोशिश के बाद भी शोर हो जाना. ‘बाल खड़े’ ऐसी ही नाकाम प्रयोगधर्मिता का उदाहरण हैं. लेकिन एक राष्ट्रीय समस्या के लिए समर्पित अगले गीत के लिए हम अपनी शिकायतों को झाड़कर सपोर्ट में खड़े हो जाते हैं. ‘मां का फोन’ हर देश की उस विकल राष्ट्रीय समस्या की तरफ इशारा करता है जिसे आप-हम हर रोज कई दफे मुस्कुराते हुए आत्मसात करते हैं, इसलिए जब गाने में दो मौकों पर अठाईस-अठाईस बार ‘मां का फोन आया’ प्रिया-मौली-स्नेहा लगातार गाती हैं, एक जगत-पीड़ा को स्वर देकर अमर कर देती हैं. राष्ट्रीय गीत!

गाने भी दिलचस्प सफर तय करते हैं. कादर खान से लेकर सोनम कपूर तक. अनू मलिक से लेकर स्नेहा खानवलकर तक. ‘इंजन की सीटी’ ऐसा ही गीत है जिसे सुनिधि और मलयाली गायिका रश्मि सतीश मौज से थिरकता मस्ती का गोला बना देती हैं. सुस्त को मस्त कर देने वाला गीत. आखिरी गीत अमल मलिक का रचा ‘नैना’ प्रीतम के ‘कबीरा’ सा है जो सिर्फ सोना मोहापात्रा की सुनहरी आवाज से जीवन पाता है. मगर अधूरा.

‘इंतजार कराते रहना’ स्वाद है या यात्रा ?

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िफल्म » फाइंडिंग फैनी
निर्देशक» होमी अदजानिया
लेखक » होमी अदजानिया, केरसी खंबाटा
कलाकार » नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, दीपिका पादुकोण, डिंपल कपाड़िया, अर्जुन कपूर

जो हैं नसीर हैं. पता नहीं यह समझदार विवेचना है कि नहीं लेकिन ‘फाइंडिंग फैनी’ में नसीर ऐसे लगे जैसे अपने दुख-भरे भोले किरदार में वे चार्ली चैपलिन हो गए हों. बस न छड़ी थी न हैट न काला कोट-पैंट न वो नायाब करतबी चेहरा. चैक की लाल शर्ट के ऊपर एक बो-टाई और सिर्फ नसीर.

फिर थोड़े-से पंकज कपूर हैं. वे पूरे नहीं हैं इसकी नाराजगी ज्यादा है. लेकिन एक सीक्वेंस में, जहां वे डिंपल कपाड़िया की तस्वीर बनाते हैं, अभिनय के खुदा हो जाते हैं. जैसे वे ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ के उस दृश्य में हो गए थे जब विकास और पैसे के अर्थशास्त्र को समझाते वक्त अपने सपने की क्रूर कविता कह रहे थे, ‘जब भी मैं इन बदसूरत खेतों की बदमस्त फसलों को झूमते देखता हूं, मेरा सपना मेरी पलकें नोंचने लगता है….’. उस फिल्म की सिर्फ यही यादगार याद है और फाइंडिंग फैनी की अच्छी बात यह है कि उसके पास थोड़े ज्यादा हथियार हैं. उसके पास नसीर हैं, पंकज कपूर हैं, डिंपल कपाड़िया हैं, आश्चर्यजनक रूप से दीपिका हैं, और एक यात्रा है. लेकिन कहानी नहीं है.

जब हमारी फिल्मों के पास कहानी नहीं होती और वे यात्राओं पर निकलती हैं, हम अभिनेताओं, उनके कम खराब या अच्छे अभिनय, आला दर्जे की सिनेमेटोग्राफी, हास्य, और फरसी पर फोड़कर तोड़े गए दर्द में उस फिल्म का जीवन तलाशते हैं. इस तरह के जीवन की तलाश हम फाइंडिंग फैनी में भी करते हैं. चूंकि फिल्म यात्रा पर निकलने से पहले की तैयारी सलीके से करती है, अपने दिलचस्प किरदारों और उनकी सोती-सी मगर उलझी जिंदगियों की झलक दिखाकर हमें अपने ज्यादा करीब सरका लाती है. ये आनंद के पल हैं और हम सफर करने को लेकर उत्साहित हैं. फिल्म कहानी की नींव में इतना लोहा डालती है, इतनी उम्मीद जगाती है, कि आसमान को जल्द ही छूने वाली उसकी इमारत की आखिरी छत जल्द ढले, इसका हम सपना पाल लेते हैं. और यहीं गलती करते हैं. सफर पर निकलने के बाद फाइंडिंग फैनी को याद ही नहीं रहता कि उसके साथ हम भी सफर में हैं. वह खुद घमंड से है, चाहती है कि उसके सफर को हम समझें, हमारे सफर को वे नहीं. फिल्म अपनी पूरी यात्रा में हमें इंतजार कराती है. कुछ अच्छा, दिलचस्प, नया, विकिड, रोचक होने का. यह ‘इंतजार कराते रहना’ उसके लिए शायद एक खास किस्म का स्वाद है जिसे एक्वायर करना होता है, या फिर यह एक पीड़ादायक यात्रा है जिसमें दर्शक को पीड़ा का अहसास हरदम होता है? फाइंडिंग फैनी यही सवाल बनकर रह जाती है.

फिर हम लौटते हैं, वहीं, अभिनेताओं के अच्छे अभिनय में जीवन तलाशने. यहां सुकून मिलता है. दीपिका को ऐसी फिल्में करते देख अच्छा लगता है. वे इतनी परिपक्व हुई हैं कि राम-लीला वाले अभिनय से बाहर निकलकर ठहराव वाला सहज अभिनय करने लगी हैं, बड़ी बात है. अर्जुन कपूर के अभिनय पर इस बार हम कटाक्ष नहीं कर रहे, और भी बड़ी बात है. डिंपल कपाड़िया आखिरी बार ‘बीइंग साइरस’ में अभिनय करती मिली थीं, और इतने साल बाद अब फाइंडिंग फैनी में.

एक अनूठी यात्रा का वादा करके पीछे हट जाने वाली यह फिल्म फिर भी आप देखिएगा जरूर. नसीर के लिए. थोड़े पंकज कपूर के लिए. इसलिए भी कि शायद आपको फिल्म की यात्रा पसंद आए, समझ आए. समीक्षक को आए न आए.

योगी आदित्यनाथ

बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
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गोरखनाथ मंदिर केप्रांगण में हर दिन योगी अपने समथर्कों का मजमा लगाते हैं. फोटोः तहलका आर्काईव

100 दिन का जमा हासिल नापने का रिवाज अमेरिका में शुरू हुआ था. हमारे देश में यह परंपरा नई-नई है. यूपीए-2 की सरकार ने पहली बार खुद को सौ-दिनी सांचे में दिखाने का प्रयास किया था. नरेंद्र मोदी ने इस परंपरा को संजीदगी से आगे बढ़ाया है. नई सरकार के लिहाज से यह महत्वपूर्ण था क्योंकि अर्थव्यवस्था से लेकर आम जनता तक का विश्वास पिछली सरकार से बुरी तरह हिला हुआ था. सौ दिनों के कार्यकाल में मोदी सरकार ने कई मोर्चों पर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैंः अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रयास दिख रहे हैं, विदेश नीति के कल-पुर्जे चुस्त-दुरुस्त दिख रहे हैं, न्यायिक सुधार की दिशा में सरकार बढ़ रही है और पर्यावरण के मोर्चे पर भी संवेदनशीलता दिखी है.

इन्ही सौ दिनों में सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने कुछ ऐसे कदम भी उठाए हैं जिनसे कुछ तबकों में संशय पैदा हुआ हैः भूमि अधिग्रहण अधिनियम को सरकार बदलना चाहती है, मुजफ्फरनगर दंगों के एक आरोपी विधायक संगीत सोम को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया करवाई गई, लव जिहाद जैसा जुमला भाजपा की फोरमों में बहस का हिस्सा बन गया है और इन सबसे ऊपर एक समुदाय के खिलाफ सीधा आग उगलने वाले योगी आदित्यनाथ को पार्टी ने अनपेक्षित रूप से तरजीह देना शुरू कर दिया है. हाल ही में एक ऐसा वीडियो सामने आया जिसमें योगी आदित्यनाथ एक हिंदू बालिका के बदले 100 मुसलिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाने की अपील कर रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में होने वाले 11 विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव के लिए पार्टी ने उन्हें प्रचार प्रमुख नियुक्त कर दिया.

बीते कुछ वर्षों के दौरान योगी आदित्यनाथ की राजनीति एक प्रकार से सुप्तावस्था में थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली चमत्कारिक सफलता के बाद वे अचानक बड़ी तेजी से उभरे हैं. इसका पता इस बात से भी चल जाता है कि लोकसभा में पार्टी के वरिष्ठ नेता और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी के बावजूद सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा जैसे संवेदनशील मसले पर बहस की शुरुआत योगी से करवाई. इस दौरान योगी ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया उसकी अपेक्षा संविधान की शपथ लेनेवाले किसी व्यक्ति से संसद में नहीं की जाती.

इसके बाद से योगी आदित्यनाथ एक के बाद एक विवादित बयान दिये जा रहे हैं. उनका ताजा जुमला है- ‘मुलायम सिंह यादव को पाकिस्तान जाकर बस जाना चाहिए’. लव जिहाद जैसे कथित मसले पर वे एक समुदाय विशेष को चेतावनी वाली भाषा में सुधर जाने की नसीहत देते हैं. उन्होंने आंकड़ों की बाजीगरी वाला एक ऐसा बयान भी दिया जिसके मुताबिक जहां मुसलिम अधिकता में रहते हैं वहां हिंदुओं का जीना मुहाल हो जाता है.

ऐसे तमाम विवादों के बावजूद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से खुद को योगी के बयानों से अलग करने या उसका खंडन करने की आधी-अधूरी कोशिश भी नहीं दिखी. 13 सितंबर को हुए उपचुनावों से कुछ पहले तहलका से बातचीत में पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रवक्ता मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘वे पांच बार पार्टी के सांसद रहे हैं और समर्पित कार्यकर्ता है. इसलिए पार्टी उन्हें कुछ न कुछ काम तो देगी ही. पार्टी अध्यक्ष ने उनके महत्व और प्रतिष्ठा के अनुकूल काम उन्हें सौंपा है.’

उन्होंने गोरखपुर के कई मुहल्लों के नाम जबरन बदलवा दिए. शहर का उर्दू बाजार, हिंदी बाजार बन गया, अली नगर, आर्य नगर और मियां बाजार, माया बाजार हो गया

मिश्रा की बात ठीक हैं. योगी उत्तर प्रदेश की गोरखपुर लोकसभा सीट से लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज कर लोकसभा पहुंचे हैं. लेकिन उनकी राजनीति का पहिया विकास के ईंधन से नहीं घूमता. उसे ऊर्जा मिलती है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से. योगी का जो मौजूदा चेहरा हम आज देख रहे हैं, सियासी गलियारों से लेकर गली-मुहल्लों में जिसकी चर्चा है, वह उनकी राजनीति का जांचा-परखा फार्मूला है. जब से उन्होंने सक्रिय राजनीति में कदम रखा है उनके समर्थकों का एक ही नारा रहा है- ‘गोरखपुर में रहना है तो, योगी-योगी कहना है’. उनकी अपनी वेबसाइट पर लव जिहाद और मुसलिम समुदाय पर जो राय लिखी गई है वह कुछ यूं है – ‘लव जिहाद क्या है? लव जेहाद एक ऐसी विचित्र अवस्था है, जिसमंे खुशबू में रहनेवाली एक लड़की बदबूदार प्राणी के आकर्षण में पड़ जाती है, एक ऐसी दुनिया जहां एक लड़की अपने सभ्य माता-पिता को छोड़ ऐसे माता- पिताओं के पास पहुंच जाती है जो पूर्व में भाई-बहन भी रहे होंगे. अपने आंगन की चहचहाती चिड़ियों और पूजाघर की घंटियों को छोड़, ऐसे आंगन में पहुंच जाना जहां खाना, पखाना और मुर्गियों का दड़बा एक ही बरांडे में मिलें. अपने पवित्र रिश्तोंवाले भाई-बहनों के सुनहरे संसार को अलविदा कहकर ऐसी दुनिया में चले जाना जहां रिश्तों की कोई कीमत नही और औरत की देह ही साध्य हो. जिस दुनिया में स्त्री को देवी समझ कर पूजा जाता हो उसे त्याग ऐसी दुनिया में चले जाना जहां औरत के लिए हर नौंवें महीने बच्चा जनना बाध्यता हो. जहां लव जिहाद में फंसी लड़की की अपनी कोई धार्मिक स्वतंत्रता नहीं हो. और अगर किसी लड़की को इसके बाद भी आत्मबोध हो जाए और वह बगावत कर दे तो 10-20 लोगों की हवस पूर्ति के बाद किसी कोठे पर बेच दी जाए. यही है लव जेहाद.’

योगी आदित्यनाथ के अब तक के राजनीतिक सफर का एक परिवर्तन बिंदु भी है. यह बिंदु है साल 2007. इससे पहले के योगी और इसके बाद के योगी में जमीन-आसमान का अंतर दिखता है. इस अंतर और इसके जरिए योगी आदित्यनाथ और उनकी राजनीति को समझने के लिए हमें साल 2007 में और उसके आगे-पीछे घटी घटनाओं के बारे में जानना होगा.

बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
 2007 में सुरक्षा वापस लिए जाने से घबराए योगी आदित्यनाथ संसद भवन में रो पड़े

1998 में पहली बार लोकसभा पहुंचने से लेकर 2007 के बीच गोरखपुर और इसके आसपास के इलाकों में योगी आदित्यनाथ ने अपना सियासी प्रभाव फैलाना शुरू किया था. इसके लिए उन्होंने हिंदु युवा वाहिनी नाम से अपना एक संगठन गोरखपुर, बस्ती, देवरिया, आजमगढ़, कुशीनगर, गाजीपुर आदि जिलों के गांव-गांव में खड़ा किया. गोरखपुर में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता चतुरानन ओझा कहते हैं, ‘यह संगठन मूलत: बेरोजगार युवाओं और अपराधी किस्म के लोगों का जमघट था. ये लोग योगी की शह पर जगह-जगह मुसलमानों पर हमले करते, छोटी-छोटी बातों को सांप्रदायिक तनाव में बदलने का काम करते थे.’

इस संगठन के जरिए योगी ने अपना प्रभाव गोरखपुर की सीमा से बाहर फैलाना शुरू कर दिया. इस दौरान होता यह था कि लगभग हर छोटी-मोटी बात पर योगी अपने लावलश्कर के साथ खुद ही घटनास्थल पर पहुंच जाते थे और शासन-प्रशासन की हालत बंधक जैसी हो जाती. उनकी इस अतिवादी राजनीति के चक्कर में इन नौ सालों के दौरान गोरखपुर में छह-सात बार जिलाधिकारी और पुलिस प्रमुखों के तबादले हुए. इन्हीं अधिकारियों में से एक तहलका के साथ बातचीत में कहते हैं, ‘हिंदु युवा वाहिनी असल में छोटे-मोटे अपराधियों की शरणगाह बन गया था. कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षावाले लोग भी जुड़े थे जो समय के साथ धीरे-धीरे उनसे दूर हो गए. योगी खुद ही हर जगह पहुंचकर अधिकारियों से गालीगलौज करते थे और अपने मनमुताबिक कार्रवाई करने का दबाव डालते थे.’

योगी के तौर-तरीकों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने गोरखपुर के कई ऐतिहासिक मुहल्लों के नाम जबरन बदलवा दिए. शहर का उर्दू बाजार, हिंदी बाजार बन गया, अली नगर, आर्य नगर हो गया, मियां बाजार, माया बाजार हो गया. योगी का तर्क है कि देश की पहचान हिंदी और हिंदू से है. बकरीद के पहले गांव-गांव से युवा वाहिनी के लोग मुर्गों और बकरों को उठा ले जाते थे ताकि कुर्बानियां न हो सकें. इन नौ सालों में गोरखपुर और आसपास के जिलों में 30-40 छोटी-मोटी सांप्रदायिक वारदातें हुईं. मजे की बात यह है कि उनके इन कारनामों से भाजपा अक्सर दूर ही रहती थी, खुद योगी भी भाजपा के समानांतर अपनी हिंदु युवा वाहिनी खड़ी कर चुके थे लिहाजा वे भी भाजपा को अपने इन आक्रामक अभियानों से दूर ही रखते थे.

गोरखपुर समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिरोध का सिनेमा नाम से फिल्म महोत्सव आयोजत करने वाले मनोज कुमार सिंह बताते हैं, ‘पार्टी से इनका रिश्ता खट्टा-मीठा रहता था. शुरुआत में तो ये भाजपा को भाव भी नहीं देते थे. 2007 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने हिंदू युवा वाहिनी के बैनर तले अपने लोगों को चुनाव तक लड़ा दिया था. यही स्थिति पार्टी की भी थी. वह इन्हें अपने मन मुताबिक इस्तेमाल करती फिर वापस बिठा देती.’ शुरुआती दिनों में योगी की कार्यशैली खुद को बाल ठाकरे की तर्ज पर एक इलाकाई मसीहा और आजाद शख्सियत के तौर पर स्थापित करने की थी. 2002 में गुजरात के दंगों के बाद योगी की यह इच्छा और भी बलवती हो गई थी. उनके समर्थकों का तब सबसे प्रिय नारा हुआ करता था, ‘यूपी भी गुजरात बनेगा, गोरखपुर शुरुआत करेगा.’

2007 के बाद उनकी उग्रता कम हो गई है. वे समझदार भी हुए हैं. पहले वे अधिकारियों से गाली-गलौज करते थे पर अब ऐसा नहीं करते हैंे

अंतत: 2007 में योगी की सालों से चल रही धर्म की राजनीति अपने वीभत्स अंजाम तक पहुंच गई. शहर और उसके आसपास के इलाकों में हिंदू-मुसलिम दंगे हो गए. इसमंे दो लोगों की जान चली गई. सैंकड़ों मकान और दुकान फूंक दिए गए. कई दिनों तक गोरखपुर में कर्फ्यू लगा रहा. तत्कालीन डीएम डॉ हरिओम ने योगी को गिरफ्तार कर लिया. एक बार फिर से जिले के डीएम और एसपी का तबादला कर दिया गया. मनोज सिंह के मुताबिक अक्सर योगी खुद स्थितियों को इस हालात तक पहुंचा देते थे कि तनाव बढ़ जाता था और उसे घटाने के लिए सरकार को स्थानीय अधिकारियों का तबादला करना पड़ता था. योगी अधिकारियों के तबादले का इस्तेमाल अपनी छवि और प्रतिष्ठा चमकाने के लिए करते थे. उनके समर्थकों के बीच यह संदेश आसानी से चला जाता था कि शासन और प्रशासन उनके आगे हमेशा झुकता है. इसके चलते योगी की प्रतिष्ठा अपने इलाके में रॉबिनहुड सरीखी हो गई थी. इलाके के गरीब-गुरबा उनके ओसारे में फरियाद करने पहुंचते, हर दिन वहां दरबार लगता, कुछ की मुश्किलें हल होती, कुछ को सांत्वना मिल जाती.

प्रशासन पर योगी के लगातार बढ़ते दबाव और इसके खतरों को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना रुख कड़ा कर लिया. दंगों के बाद सरकार ने जगमोहन सिंह यादव जैसे तेज-तर्रार अधिकारी को गोरखपुर मंडल का डीआईजी बनाकर भेजा. उनके नेतृत्व में बड़े पैमाने पर योगी का कद छांटने की कवायद शुरू की गई. सबसे पहली चोट उनकी ताकत बन चुकी युवा वाहिनी पर की गई. गांव-गांव में पुलिस दस्ते बनाकर युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को उठाया गया, उनके अपराधों के अनुपात में उनके ऊपर मुकदमे कायम किए गए और कइयों को पुलिसिया लाठी से ही सीधे रास्ते लाने का काम किया गया. लगभग सालभर के भीतर युवा वाहिनी का पूरा संगठन तितर-बितर हो गया.

इस प्रशासनिक दबाव से उत्पन्न स्थितियों में 12 मार्च 2007 की एक घटना महत्वपूर्ण हो जाती है. दंगों में आरोप के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने योगी को दी गई सुरक्षा भी वापस ले ली थी. संगठन की पतली हालत और सरकार के बेरुखे रवैए से परेशान योगी संसद भवन में अपनी बात रखने के लिए खड़े हुए तो पहले तो काफी देर तक कुछ कह नहीं सके और फिर फफक-फफक कर रो पड़े. बाद में उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी से अपील की कि उनकी जान को खतरा है, उनकी सुरक्षा वापस ले ली गई है और यही हालत रही तो उन्हें भी झामुमो नेता सुनील महतो की तरह मार दिया जाएगा (उसी समय नक्सलियों ने सुनील महतो की हत्या की थी). हिंदू हृदय सम्राट की इस भावुकता पर जितने मुंह उतनी कहानियां बनी. उनके समर्थक इसे योगी के संवेदनशील और भावुक हृदय की वेदना बताते रहे जबकि विरोधी कहते हैं कि योगी वास्तव में डरपोक किस्म के आदमी हैं जो भीड़ के भरोसे हिंसा फैलाते हैं. बहरहाल इस घटना से उनकी कठोर, आक्रामक छवि काफी हद तक धूमिल हुई.

संगठन की पतली हालत और सरकारी दबाव के चलते योगी की उग्र राजनीति को विराम लग गया. 2007 से पहले गोरखपुर के डीएम रहे एक आईएएस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘2007 के बाद उनकी उग्रता कम हो गई. वे समझदार भी हुए हैं. पहले वे अधिकारियों से गाली-गलौज करते थे पर अब नहीं करते. यह मठ की प्रतिष्ठा के खिलाफ था. खुद घटनास्थल पर जाकर धावा नहीं बोलते. धरना-प्रदर्शन यदि करते भी हैं तो प्रशासन के समझाने पर उठ जाते हैं. पहले उनका रवैया बेहद अक्खड़ हुआ करता था. समय के साथ वे समझ गए हैं कि प्रशासन के साथ तालमेल बिठाकर चलना कितना जरूरी है.’ यह समझदारी उनकी राजनीति में भी झलकती दिखाई दी. जिस तरह से उन्होंने 2007 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के साथ टकराव मोल लिया था वह 2014 के लोकसभा चुनाव में नहीं दिखा. तब भी नहीं जब उनके एकमात्र समर्थक कमलेश पासवान को बांसगांव लोकसभा से टिकट दिया गया.

90 के दशक के आखिरी दिनों में पूर्वांचल और गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के उभार के पीछे उस इलाके की जातिगत राजनीति की भी बड़ी भूमिका रही. योगी आदित्यनाथ का असली नाम अजय मोहन बिष्ट है. वे उत्तराखंड के पौड़ी जिले में पड़ने वाली यमकेश्वर तहसील के मूलवासी हैं. चार भाइयों और तीन बहनों में तीसरे अजय सिंह (योगी आदित्यनाथ का एक और नाम) पर गोरखनाथ मठ के पूर्व महंत स्वर्गीय अवैद्यनाथ की निगाह पड़ी जो इसी इलाके से आते थे. अवैद्यनाथ उन्हें अपने साथ गोरखपुर ले आए थे. महंत अवैद्यनाथ ने आदित्यनाथ के नाम से उन्हें दीक्षा देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया. पूर्वांचल का यह इलाका अपने बाहुबली माफियाओं की खेमेबंदी के लिए मशहूर रहा है. इन खेमों की हमेशा से दो धुरियां रही हैं. ये धुरी हैं इलाके की दो प्रमुख सवर्ण जातियां, ठाकुर और ब्राह्मण. लंबे समय तक यहां हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही के बीच जातिगत गोलबंदी की हिंसक वारदातें देखने को मिलीं.

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राजनीति के शुरुआती दिनों में योगी का पार्टी से रिश्ता बहुत मधुर नहीं रहता था.

1997 में वीरेंद्र प्रताप शाही एक अन्य उभरते ब्राह्मण माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला की गोलियों का निशाना बन गए. इस घटना से इलाके में ठाकुर वर्चस्व का दायरा पूरी तरह खाली हो गया. जाति से ठाकुर योगी ने इस खालीपन को तेजी से भरा. हालांकि इस काम में उनकी अपनी प्रतिभा से ज्यादा योगदान तात्कालिक परिस्थितियों, मठ की प्रतिष्ठा और उसकी आर्थिक संपन्नता का भी था. गोरखपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं, ‘कोई बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं है योगी का. शहर की मेयर डॉ. सत्या पांडेय इनकी घनघोर विरोधी हैं. योगी जी के तमाम विरोध के बावजूद वे भाजपा से मेयर हैं. शहर के विधायक भी योगी के तमाम िवरोध के बावजूद जीते हैं. जिसे आप हिंदू युवा वाहिनी कह रहे हैं उसे वास्तव में ठाकुर युवा वाहिनी कहना ठीक होगा. वे यहां पर जमकर ठाकुरवादी राजनीति करते हैं. ऊपर से लेकर नीचे तक वाहिनी के पदाधिकारियों में ठाकुरों का बोलबाला है.’

इस दौरान गोरखनाथ मठ के आचार-विचार और उसके स्वरूप में आए भटकाव को समझना भी जरूरी है क्योंकि इसका सीधा संबंध योगी की आक्रामक राजनीति से है. इस मठ की मूल अवधारणा को अगर हम समझें तो पाते हैं कि आज यह अपने मूल स्वरूप से बिल्कुल विपरीत धारा में बह रहा है. ग्यारहवीं सदी में हुए संत महंत गोरखनाथ ने इस पीठ की स्थापना की थी. महंत गोरखनाथ उदासीन पंथ के अनुयायी थे. यहां सिर्फ एक अखंड धूनी जलती थी. महान सुधारक कबीरदास के गोरखपुर जाकर प्राण त्यागने की एक प्रेरणा गोरखनाथ के प्रति उनका लगाव भी था. कबीर कहीं न कहीं खुद को गोरखनाथ की निर्गुण धारा के आस-पास ही पाते थे. मठ की दीवारों आदि पर गोरखवाणी के साथ कबीरवाणी भी खुदी हुई है. सिंह के शब्दों में, ‘आज जिस दिशा में योगी आदित्यनाथ मठ को ले जा रहे हैं वह मठ की मूल धारणा के बिल्कुल विपरीत है. जिस मठ की स्थापना निर्गुण परंपरा में हुई थी वहां आज लगभग सारे देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करके मठ को सनातनी परंपरा से जोड़ दिया गया है. जिस गोरखनाथी संप्रदाय का ये नेतृत्व करते हैं उस गोरखवाणी को जानबूझ कर कभी उद्धृत तक नहीं करते क्योंकि वह इनके मौजूदा क्रिया-कलापों से मेल नहीं खाती.’

गोरखवाणी गाने और आटा मांगनेवाले अधिकतर नाथी मुसलमान हैं. पर अब गोरखनाथ मठ में इनके लिए कोई स्थान नहीं है

नाथ संप्रदाय निर्गुण धारा के लिए पूरे पूर्वी भारत और नेपाल के एक बड़े हिस्से में मशहूर है. काला और भगवा चोला ओढ़े पूर्वांचल और बिहार की गली-गली में घूमकर आटा मांगनेवाले जोगियों का जुड़ाव इसी मठ से है. हाथ में सारंगी लिये ‘अबकी बरस बहुरी नहीं अवना से लेकर केहू ना चिन्ही, माई ना चिन्ही, भाई ना चिन्ही…’ जैसे वैरागी गीत गाने वाले जोगी बाबा असल में इसी मठ के अनुयायी हैं जिन्हें आदित्यनाथ ने जोगी से योगी बना दिया है. गोरखवाणी गाने और आटा मांगने वाले अधिकतर नाथी मुसलमान हैं. पर अब गोरखनाथ मठ में इनके लिए कोई स्थान नहीं है. मठ का हिंदूकरण चालीस के दशक में शुरू हुआ. उस समय मठ के महंत रहे दिग्विजयनाथ ने हिंदू महासभा का हाथ थाम लिया. बाद में वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बने. 1948 में महंत दिग्विजयनाथ के ऊपर महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का आरोप भी लगा. इस आरोप में वे जेल में भी रहे. बाद में वे जेल से छूट गए. इसके बाद गोरखनाथ मठ लगातार गोरखनाथ मंदिर बनता गया. उनके बाद महंत बने अवैद्यनाथ ने इस परंपरा को उत्तरोत्तर मजबूत किया. इसी पखवाड़े में ब्रह्मलीन हुए महंत अवैद्यनाथ ने 1962 में सक्रिय राजनीति में कदम रख दिया था. उसके बाद से गोरखपुर की राजनीति में किसी न किसी रूप में मठ का हस्तक्षेप बना हुआ है. 1990 में राम मंदिर आंदोलन जब सिर चढ़ रहा था तब मठ की राजनीति ने भी एक नया मुकाम हासिल किया. महंत अवैद्यनाथ किसी महत्वपूर्ण धार्मिक पीठ के पहले पीठाधीश थे जो खुलकर भाजपा के इस आंदोलन के साथ खड़े हुए थे. इसका फायदा भी उन्हें हुआ. वे मंदिर आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक बन गए. 1991 में वे भाजपा के टिकट पर लोकसभा भी पहुंचे. अशोक चौधरी के शब्दों में, ‘सक्रिय राजनीति में एक बार घुसने के बाद से आज तक गोरखपुर की राजनीति में मठ के महंतों का कब्जा बना हुआ है…मठ के महंत के पद पर ठाकुरों को नियुक्त करने की परंपरा चल पड़ी है. यह परंपरा दिग्विजयनाथ ने डाली थी. पहले मठ के महंत पिछड़ी या अति पिछड़ी जातियों के लोग हुआ करते थे. अब यहां धूनी जमानेवालों के लए स्थान नहीं है.’

जाति विशेष (ठाकुर) की राजनीति करने के बावजूद लगातार सफल होते रहने की क्या वजह है? बाकी जातियां इन्हें क्यों समर्थन देती हैं? स्थानीय लोगों से बातचीत में साफ होता है कि उनका समर्थन असल में व्यक्ति को नहीं बल्कि मठ और उसके प्रति श्रद्धा को जाता है. प्रारंभ से ही जिस धारा का सूत्रपात इस मठ ने किया था उसके चलते समाज का पिछड़ा और दलित तबका उससे बहुत लगाव महसूस करता था. आज भी इलाके की सबसे बड़ी दलित जाति निषाद, मठ को आंख मूंदकर समर्थन देती है.

2007 के घटनाक्रम के बाद योगी ने अपनी राजनीति की दिशा मोड़ दी. अब वे उग्रता की राजनीति न करके विकास और सुशासन की बात करने लगे. उन्हें नजदीक से जाननेवालों की मानें तो यह व्यक्ति कई मायनों में  नाम का ही नहीं, काम का भी योगी है. सवेरे तीन बजे उठना, रात में 11 बजे सोना. गोरखनाथ मंदिर में जाकर देखें तो इसका विशाल प्रांगण किस्म-किस्म के लोगों से चौबीसों घंटे भरा रहता है. किसी फिल्मी सामंत की तरह योगी के दरबार में सिर्फ एक कुर्सी होती है. जिस पर वे बैठते हैं और जनता की समस्याएं सुनते और दूर करते हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान मंदिर का अपना आयुर्वेदिक अस्पताल योगी के दिशा-निर्देश में सुपर मल्टी स्पेशियेलिटी अस्पताल में विकसित हो चुका है. यहां किसी सितारा अस्पताल की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं. यह इलाका जापानी इंसेपेलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी के गढ़ के रूप में सालों से बदनाम है. योगी के भक्तों का मानना है कि जल्द ही वे इस दिशा में भी एक बड़ा कदम उठाएंगे.

पिछले काफी समय से नेपथ्य में रहने के बाद योगी एक बार फिर से पार्टी के लिए से प्रासंगिक हो गए हैं साथ ही उनका जो रूप आज हम देख रहे हैं वह एक तरह से 2007 से पहले वाला ही है. आखिर ऐसा क्या हुआ कि महज तीन महीने पहले विकास और सुशासन के नाम पर जिस पार्टी को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था वह अब विकास के साथ हिंदुत्व का राग भी रट रही है. पिछले तीन महीनों के दौरान पार्टी के भीतर से लेकर बाहर तक चीजें बदली हैं. अमित शाह के रूप में  पार्टी को नया अध्यक्ष मिला है. उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा और एक लोकसभा के उपचुनाव होने थे. चार महत्वपूर्ण राज्यों में जल्द ही विधानसभा चुनाव भी होने हैं. बिहार उपचुनाव के नतीजों के बाद पार्टी का वह भ्रम भी टूटा कि उसके पक्ष चल रही लहर अब भी कायम है. इंडिया टुडे के पूर्व संपादक जगदीश उपासने कहते हैं, ‘बिहार उपचुनाव में जिस तरह से जातिगत गठजोड़ करके नीतीश-लालू ने भाजपा को हराया उसकी काट भाजपा को योगी जैसे फायरब्रांड हिदुत्व में दिख रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी की पहली प्राथमिकता किसी भी कीमत पर सरकार बनाने की है. उन्हें लगता है कि विकास जैसे एजेंडे को सरकार बनाने के बाद भी लागू किया जा सकता है. इस बदली हुई भाषा के पीछे सबसे बड़ी भूमिका अमित शाह की है जो अपने अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद आने वाली चुनावी परीक्षाएं हर हाल में पास कर लेना चाहते हैं.’ जनसत्ता के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘मोदी और शाह जिस मिजाज के नेता हैं उन्हें उसी टेंपरामेंट का नेता पार्टी और सरकार की नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए चाहिए. ऐसे में योगी से बेहतर कौन हो सकता है. लगता है पार्टी अपने वोटरों के बीच हिंदुत्व का संदेश देने से चूकना नहीं चाहती.’

उन्हें नजदीक से जाननेवालों की मानें तो यह व्यक्ति कई मायनों में  नाम का ही नहीं, काम का भी योगी है. सवेरे तीन बजे उठना, रात में 11 बजे सोना

हालांकि इसके पीछे कुछ लोगों को और भी समीकरण दिखाई देते हैं. योगी पांचवी बार लोकसभा पहुंचे हैं. उत्तर प्रदेश से आने वाले दूसरे भाजपा नेताओं की बनिस्बत उन्हें जनाधार वाला नेता माना जाता है. लेकिन पार्टी ने उन्हें चुनावों के ठीक पहले तक ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी. जबकि लोकसभा चुनाव के पहले गोरखपुर में आयोजित नरेंद्र मोदी की रैली उनकी सबसे बड़ी और सफल रैली में शुमार होने लायक थी. योगी चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश और विशेषकर पूर्वांचल के कोटे से मंत्री बनने के गंभीर दावेदार थे लेकिन पार्टी ने अपेक्षाकृत जनाधारविहीन वरिष्ठ नेता कलराज मिश्रा और गाजीपुर के सांसद मनोज सिन्हा को मंत्रिपद से नवाजा. पार्टी सूत्रों की मानें तो इस बात से योगी और उनके उनके समर्थकों में नाराजगी बढ़ गई थी. पार्टी को इस स्थति से निपटने के लिए कुछ न कुछ करना ही था. एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में, ‘भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू हैं, पार्टी उन्हें जिम्मेदारी देकर एक तरफ नाराजगी से बच गई है और दूसरी तरफ उनकी शैली से पार्टी को फायदा मिलने की भी उम्मीद है.’ (लेकिन इस स्टोरी के प्रेस में जाते वक्त ही आए उपचुनावों के परिणाम बताते हैं कि आदित्यनाथ भाजपा के लिए लड्डू साबित नहीं हुए हैं. देश भर के उपचुनावों के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं रहे. उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां आदित्यनाथ के आक्रामक अभियान के बावजूद भाजपा को 11 में से सिर्फ दो ही सीटें मिली हैं.)

योगी आदित्यनाथ का उदय भाजपा की अंदरूनी धुरियों के बीच मची खींचतान का भी नतीजा है. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मोदी जी की अपनी एक कार्यशैली है. इसका अंदाजा लोगों को आसानी से नहीं लगता.’ उत्तर प्रदेश की ठाकुर राजनीति में लंबे समय से राजनाथ सिंह का एकाधिकार रहा है. अपने इलाके में योगी भी ठाकुरवादी राजनीति करते हैं. जानकारों की मानें तो योगी और दूसरे नेताओं को ऊपर उठाकर धीरे-धीरे पार्टी उस एकाधिकार को समाप्त करने की दिशा में बढ़ रही है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगीत सोम को दी जा रही तरजीह भी इसी रणनीति का हिस्सा है.

अमित शाह के बारे में सबको पता है कि वे प्रधानमंत्री के सबसे अंदरूनी दायरे का हिस्सा हैं. लिहाजा उनके हर कदम को यह मानकर चला जाता है कि इसे प्रधानमंत्री का भी समर्थन हासिल होगा. थानवी कहते हैं, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पार्टी का अध्यक्ष प्रधानमंत्री का इतना करीबी रहा हो. इस हालात में अमित शाह की सफलता की चिंता उनसे ज्यादा नरेंद्र मोदी को होगी.’ योगी को आगे लाने में नरेंद्र मोदी की रजामंदी से इसलिए भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वे सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की शुरुआत प्रधानमंत्री की मर्जी के बिना कर ही नहीं सकते थे.

तो फिर उस भाषण का क्या जो मोदी ने लाल किले से दिया था जिसमें उन्होंने 10 साल तक हर किस्म की हिंसा से मुक्त रहने की अपील की थी. जानकारों का मानना है कि वह मोदी की अपनी छवि बदलकर इतिहास-पुरुष बनने की इच्छा से निकली थी. लेकिन वे प्रतीकात्मक और तात्कालिक लाभों का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं. उन्हें समझना होगा कि उन्हें अपना समर्थन देने वाली अधिकांश जनता की अपेक्षाएं और योगी आदित्यनाथ जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं वे मेल नहीं खाते. योगी आदित्यनाथ वाली सोच से अगर कुछ हो सकता तो उनकी पार्टी देश में कब की बहुमत वाली सरकार बना चुकी होती. यह सरकार जनता की विकास और बेहतरी की अपेक्षाओं से जन्मी है और वे इतिहास पुरुष इन अपेक्षाओं पर खरा उतरकर ही बन सकते हैं. उनकी पार्टी भी सत्ता की स्वाभाविक अधिकारी तभी बन सकती है.

जिन्होंने पहले से ही विवादित संस्था को और भी विवादित बना दिया है

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव

हमारे देश के कई हिस्सों में एक बेहद प्रचलित कहावत है, – ‘जब मेड़ ही खेत को खाने लगे तो बेचारे खेत का क्या होगा?’ इन दिनों यह कहावत देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी मानी जानेवाली सीबीआई पर अक्षरश: लागू होती जान पड़ती है. सत्ता प्रतिष्ठानों के इशारों पर काम करने के आरोपों से पहले ही अनेकों बार ‘अलंकृत’ होती रहनेवाली यह संस्था इस बार खुद अपने मुखिया के कारनामों के चलते ‘अभिभूत’ है. जब से इस बात का पता चला है कि देश में हुए अब तक के सबसे बड़े घोटालों – 2जी स्पैक्ट्रम और कोयला घोटाले – के कई आरोपी सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा से पिछले एक साल में कई बार उनके घर पर जाकर मिले हैं, तब से यह एजेंसी बुरी तरह से सन्निपात में है. ऐसा होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि जिन दागियों से उसके मुखिया की मुलाकातें उजागर हुई हैं, उनकी जांच वह खुद ही कर रही है. इन मुलाकातों के बाद उसकी अब तक की पूरी जांच प्रक्रिया पर तो प्रश्नवाचक चिन्ह लग ही चुका है साथ ही ‘सीबीआई प्रमुख’ पद की गरिमा भी सिर के बल खड़ी हो गई है. जानकारों का मानना है कि इससे पहले किसी भी अधिकारी के चलते सीबीआई की ऐसी दुर्गति नहीं हुई. ऐसे में कई तरह के सवाल उठना लाजमी है. मसलन, सीबीआई निदेशक का आरोपियों से मिलना सही था या गलत? इन मुलाकातों का उद्देश्य जांच प्रक्रिया को प्रभावित करना तो नहीं था? और, इन मुलाकातों के जरिए सीबीआई को साध तो नहीं लिया गया है? आदि आदि…

पिछले साल नौ मई को देश की सबसे बड़ी अदालत ने सीबीआई को जलालत के भारी-भरकम प्रशस्ति पत्र से नवाजते हुए उसे ‘सरकारी तोता’ तक कह दिया था. तब शायद ही किसी को अंदेशा होगा कि सालभर के अंदर ही यह तोता पिंजरे से बाहर निकल कर फिर से ऐसा और इतना कुछ कर देगा. इस पूरी कहानी को समझने के लिए इसी महीने की दो तारीख को सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई एक याचिका से शुरुआत करते हैं.

दो सितंबर को नामी वकील और आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई प्रमुख पर टूजी स्पैक्ट्रम घोटाले में आरोपित रिलायंस कंपनी को बचाने का आरोप लगाते हुए एक याचिका दायर की. गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) की तरफ से दायर की गई इस याचिका में उन्होंने अदालत को बताया कि पिछले एक साल के दौरान अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले रिलायंस ग्रुप के दो अधिकारियों ने सिन्हा से तकरीबन पचास बार उन्हीं के घर पर मुलाकात की. याचिका में आरोप लगाया गया कि सिन्हा से मिलने वाले इन अधिकारियों का नाम 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के उन आरोपितों में शामिल था जिनकी जांच खुद सीबीआई इस दौरान कर रही थी. अपने आरोपों के पक्ष में प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के सामने रंजीत सिन्हा के दो जनपथ स्थित सरकारी आवास की एक विजिटर्स डायरी का बतौर सबूत हवाला दिया. उन्होंने अदालत को बताया कि इस डायरी में उन अधिकारियों के नाम, सिन्हा के घर आने की तारीख, आने-जाने का समय और यहां तक कि उन गाड़ियों के नंबर भी दर्ज हैं जिनमें बैठकर वे सीबीआई प्रमुख से मिलने पहुंचे थे. 2जी घोटाले में जांच का सामना कर रहे ऐसे अधिकारियों के साथ सीबीआई प्रमुख की मुलाकात को खतरनाक बताते हुए प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की कि सिन्हा को इस मामले की जांच से अलग कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने आशंका जताई कि ऐसा न करने से जांच प्रक्रिया के निष्पक्ष रहने पर संदेह हो सकता है.

2जी मामले में आरोपित महेंद्र नहाटा के अलावा  कोयला घोटाले में जांच का सामने कर रहे कांग्रेस नेता विजय दर्डा भी सीबीआई प्रमुख से कई बार मिले हैं

प्रशांत भूषण के आरोपों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनसे उस विजिटर्स डायरी को कोर्ट में पेश करने को कहा और साथ ही सीबीआई निदेशक को भी नोटिस जारी कर दिया. इस बीच देशभर का मीडिया अपने कैमरों का रुख रंजीत सिन्हा के सरकारी आवास की तरफ करके चंद मिनटों में ही इस खबर को देश भर में पहुंचा चुकी था. लेकिन इस खबर की असली ‘यूएसपी’ का सामने आना अभी बाकी था. जिस विजिटर्स डायरी का जिक्र प्रशांत भूषण ने अपनी याचिका में किया था उसके मीडिया के हाथ लगते ही यह कमी भी पूरी हो गई. इस डायरी में एक से बढ़कर एक और भी कई चौंकाने वाली बातें थी. डायरी से पता चला कि मई 2013 से अगस्त 2014 के बीच सिर्फ रिलायंस के ही अधिकारियों ने रंजीत सिन्हा से मुलाकात नहीं की, बल्कि उनसे मिलनेवाले लोगों का दायरा 2जी से लेकर कोयला आवंटन घोटाला, हवाला कांड और आयकर विभाग की जांच समेत कई अन्य जांचों का सामना करनेवाले संदिग्धों तक फैला है.

इन मुलाकातियों में रिलायंस के अधिकारियों के अलावा 2जी मामले के ही एक और आरोपित महेंद्र नहाटा भी शामिल हैं जो 71 बार सिन्हा के घर पहुंचे. इसके अलावा कोयला आवंटन घोटाले में सीबीआई जांच का सामना कर रहे कांग्रेस नेता विजय दर्डा और नीरा राडिया फोन टेपिंग मामले से सुर्खियों में आए कॉरपोरेट लॉबीइस्ट दीपक तलवार का नाम भी इनमें शुमार था. लेकिन इस रजिस्टर में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला नाम विवादास्पद मांस निर्यातक मोइन कुरैशी का था जिन्होंने सिन्हा के आवास पर तकरीबन 70 बार दस्तक दी. इनके अलावा और भी कई विवादित लोगों के नाम इस रजिस्टर में दर्ज थे.

इस खुलासे के बाद इन दुर्लभ मुलाकातों और मुलाकातियों के बारे में ठीक से स्पष्टीकरण देने के बजाय सिन्हा ने पहले तो विजिटर्स रजिस्टर को ही फर्जी बता दिया. फिर सुप्रीम कोर्ट से मांग कर दी कि इस मामले में मीडिया कवरेज पर रोक लगा दी जाए. अपनी निजता पर चोट की दुहाई देते हुए सिन्हा का कहना था कि उनके आवास पर दो और विजिटर्स रजिस्टर मौजूद हैं जिनमें ऐसा कोई भी नाम दर्ज नहीं है. लेकिन उन्होंने रिलायंस अधिकारियों के साथ ही अन्य विवादित लोगों के साथ अपनी मुलाकातों को स्वीकार भी कर लिया. उनका कहना था कि टूजी मामले में जांच के सिलसिले में उन्होंने नियमों के दायरे में रहकर ही रिलायंस के उन अधिकारियों से मुलाकात की थी. इसके अलावा उनकी दलील थी कि बाकी के कुछ लोगों ने उनके साथ मित्रता के नाते मुलाकात की तथा कुछ ने अन्य जरूरी कामों के सिलसिले में उनकी डोरबेल बजाई थी.

15 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का जवाब देते हुए भी उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को गलत बताया और प्रशांत भूषण को डायरी उपलब्ध करवाने वाले व्हिसिल ब्लोअर का नाम उजागर करने की मांग की. सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण से ऐसा करने को भी कह दिया है. लेकिन इस सबके बाद भी सवाल बंद नहीं हुए हैं.

नामी वकील और आम आदमी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके एचएस फुलका कहते हैं, ‘किसी भी मामले की जांच को लेकर जांच अधिकारी का सबसे अहम काम यही होता है कि वह उस मामले की जांच के संबंध में होने वाली हर गतिविधि को लिखित रूप से संकलित करे. कानूनी भाषा में इसे रिकॉर्ड मेंटेन करना कहते हैं. इस लिहाज से कहा जाए तो सिन्हा को उन सभी लोगों के साथ हुई मुलाकातों का लेखा-जोखा रखना चाहिए था जिन्होंने उनसे टूजी या कोयला घोटाले की जांच के संबंध में मुलाकात की थीं. लेकिन वे खुद ही एक तरफ इस रजिस्टर को झूठा बता रहे हैं और दूसरी तरफ इस बात को भी स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने रिलायंस के कुछ अधिकारियों से मुलाकात की. अगर उन्होंने उन अधिकारियों से नियमों के अधीन बातचीत की थी तो फिर इसका रिकॉर्ड उनके घर पर रखे बाकी के दो रजिस्टरों में भी क्यों नहीं है? शक की सुई तो यहीं से उठती है.’ राष्ट्रीय सहारा अखबार के समूह संपादक रणविजय सिंह कहते हैं, ‘होना तो यह चाहिए था कि अपने ऊपर लगे आरोपों को लेकर सिन्हा साफ तौर पर अपना पक्ष रखते और सच को सामने लाते, लेकिन उन्होंने ऐसा करना तो दूर उलटे मीडिया कवरेज पर ही रोक लगाने की मांग कर डाली. साफ है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनके पास कोई जवाब था ही नहीं.’

दरअसल पहले इन सभी मुलाकातों से मुकर जाने के बाद, सिन्हा ने जब बाद में इन्हें स्वीकार किया था तो एक तर्क यह भी दिया था कि उनके घर पर भी दफ्तर है और वे वहां से भी सीबीआई की गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं. लेकिन इस रजिस्टर से जितनी भी बातें सामने आ रही हैं उनसे इस बात का संकेत नहीं मिलता. इस रजिस्टर में सीबीआई अधिकारियों के सिन्हा के आवास पर आने-जाने का जिक्र नहीं है. कानूनी जानकारों की माने तो इससे यह पता चलता है कि सिन्हा अपने घर का प्रयोग दफ्तर के रूप में शायद ही करते होंगे, वरना उनके मातहत अधिकारियों का भी वहां पर आना-जाना होना चाहिए था.

ऐसे में इस रजिस्टर को यदि झूठा ही मान लिया जाए, जैसा कि सिन्हा ने कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा भी है, तब भी इतना तो साफ ही हो चुका है कि पिछले एक साल के दौरान वे किन-किन लोगों से मिल रहे थे. सवाल उठता है कि एक जांच अधिकारी का उन लोगों से मिलना जिनकी वह खुद जांच कर रहा हो, किस बात का संकेत देता है ?

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के संपादक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब इन दोनों मामलों की निगरानी सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के हाथों में है, तब सीबीआई चीफ आरोपितों से क्यों मिले? इतनी अधिक बार हुई ये मुलाकातें अपने आप में कई तरह की आशंकाओं को जन्म देने के लिए पर्याप्त हैं. इन आशंकाओं को इस बात से और बल मिलता है कि ये मुलाकातें सिन्हा के घर पर हुई हैं. ऐसे में इन दोनों ही मामलों में जांच प्रक्रिया पर सवाल उठना स्वाभाविक है.’ रणविजय सिंह कहते हैं, ‘पहले से ही विवादित अफसर रहनेवाले सिन्हा ने सीबीआई का मुखिया बनने के बाद अपनी विवादित फितरत में कई और आयाम जोड़ दिए हैं’

दिसंबर, 2012 में सीबीआई प्रमुख के रूप में नियुक्त होने से लेकर अब तक रंजीत सिन्हा के कार्यकाल का गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो रणविजय सिंह द्वारा उनको लेकर कही गई बातों में दम नजर आता है.

बात इसी साल अप्रैल के आखिरी दिनों की है. 2जी मामले में आरोपी पूर्व दूर संचार मंत्री दयानिधि मारन और उनके भाई के खिलाफ सीबीआई, एयरसेल-मैक्सिस सौदे में हुई गड़बड़ियों की जांच कर रही थी. उनके खिलाफ आरोप पत्र तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. इस बीच अचानक ही रंजीत सिन्हा ने मारन बंधुओं के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं होने की दलील देकर कहा कि सबूतों के अभाव में उनको आरोपी नहीं बनाया जाना चाहिए. इस मामले की जांच कर रहे अधिकारियों का तर्क था कि मारन भाइयों के खिलाफ उनके पास काफी मजबूत सबूत हैं और उनको आरोपी बनाया ही जाना चाहिए. जांच अधिकारियों तथा सीबीआई मुखिया के बीच पैदा हुए इस टकराव को देखते हुए इस मामले को अटॉर्नी जनरल के पास भेज दिया गया. तब तक देश में आम चुनावों का परिणाम सामने आ चुका था और एनडीए को बहुमत मिल गया. ऐसे में पूर्व अटॉर्नी जनरल ने इस पर कोई राय देने से इंकार कर दिया. इसके बाद नई सरकार ने इस मामले में जब अटॉर्नी जनरल की राय मांगी तो, नये अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सीबीआई के जांच अधिकारियों की बात को सही माना. इसके बाद सीबीआई ने इस मामले में हाल ही में आरोप पत्र दायर कर दिया है. इसमें मारन बंधुओं को आरोपी बनाया गया है.

चारा घोटाले के बाद लालू प्रसाद यादव के पक्ष में रिपोर्ट तैयार करने के आरोप में पटना हाई कोर्ट ने रंजीत सिन्हा को जांच से हटाने का आदेश दिया था

इसी तरह का एक और मामला लोकसभा चुनावों से पहले का भी है. तब चुनाव के ठीक पहले रंजीत सिन्हा चारा घोटाले से जुड़े तीन और मामलों में लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप समाप्त करवाना चाहते थे. उनका तर्क था कि इन तीनों मामलों में भी लालू के खिलाफ वही सब सबूत हैं जिनके चलते वे एक मामले में पहले ही पांच साल की सजा पा चुके हैं. तब भी सीबीआई के ही एक अधिकारी, (निदेशक अभियोजन) के अलावा सॉलिसिटर जनरल का विरोध उनके आड़े आ गया. बिहार में इस घोटाले की जांच के दौरान भी वे लालू यादव की मदद के आरोपों में घिर गए थे. डेढ़ दशक पहले इस घोटाले की जांच के दौरान वे पटना में सीबीआई के डीआईजी थे. लालू के पक्ष में रिपोर्ट तैयार करने के आरोप में तब पटना हाईकोर्ट ने सिन्हा को जांच से हटाने का आदेश दे दिया था.

रंजीत सिन्हा के कार्यकाल में उठनेवाले विवादों की यह कथा पिछले साल अप्रैल में हुए कोयला घोटाले की स्थिति रिपोर्ट के लीक होने का जिक्र किए बगैर अधूरी ही कही जाएगी. यही वह मामला है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था. तब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कोयला आवंटन घोटाले की जांच कर रही थी. इसी दौरान कोर्ट ने सीबीआई से इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट जमा करने को कहा. कायदे के मुताबिक सीबीआई को यह रिपोर्ट सीधे सुप्रीम कोर्ट को दिखानी चाहिए थी, लेकिन उसने इस रिपोर्ट को पहले कानून मंत्री अश्विनी कुमार के साथ ही कोयला मंत्रालय के अधिकारियों को भी दिखा दिया. यह बात खुद रंजीत सिन्हा ने अदालत में स्वीकार की, साथ ही यह भी माना कि सरकार के निर्देश पर इनमें बदलाव भी किए गए. रंजीत सिन्हा का यह कदम हर लिहाज से गलत था. उस वक्त प्रशांत भूषण का कहना था कि, ‘हवाला मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को साफ तौर पर कहा था कि अदालत की निगरानी में होने वाले मामलों की जांच के संबंध में उसे सिर्फ और सिर्फ अदालत के प्रति ही जवाबदेह होनी चाहिए.’ इसके अलावा सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा ने भी तब सीबीआई द्वारा स्टेटस रिपोर्ट सरकार को दिखाए जाने को गलत बताया था. सीबीआई की इस हरकत को सुप्रीम कोर्ट ने अपने भरोसे के साथ खिलवाड़ बताया था. और उसे जम कर लताड़ लगाई थी.

इनके अलावा और भी कई विवाद ऐसे ढूंढे जा सकते हैं जिनका कालखंड भी रंजीत सिन्हा का अब तक का कार्यकाल ही रहा है. फिलहाल वापस उसी मूल कथा पर आते हैं.

इस मूल कथा को लेकर केंद्र सरकार के रुख की बात की जाए तो माना जा रहा है कि इस मामले में उसकी निगाहें भी न्यायपालिका की तरफ ही जमी हैं. छह सितंबर को प्रशांत भूषण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्र लिख कर इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सिन्हा को हटाने की मांग की थी. अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘बेशक मामला कोर्ट के संज्ञान में है और बहुत संभव है कि कोर्ट इस पर फैसला भी करेगा लेकिन बेहतर होता कि सरकार अपने स्तर पर कम से कम ऐसा कोई संकेत तो देती जिससे आम जनता को लगता कि पिछली सरकार के मुकाबले यह सरकार भ्रष्टाचार को मिटाने को लेकर ज्यादा गंभीर है. सरकार के पास गठबंधन जैसी मजबूरी भी नहीं है, और कार्रवाई करने का पर्याप्त आधार भी है.’

बहरहाल, सरकार अथवा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से इतर बात की जाए तो सबसे सरल और सबसे अहम सवाल अब भी वही है कि, 1974 बैच के इस आईपीएस अधिकारी ने एक बेहद गरिमामयी पद पर रहते हुए 2जी स्पैक्ट्रम, और कोयला घोटाले के आरोपितों के साथ बीसियों बार अपने घर पर मुलाकात करके क्या सीबीआई की निष्पक्षता को लेकर आम जनता के मन में पहले से ही गहरी बैठी हुई शंकाओं को यकीन की तरफ ले जाने का काम नहीं किया है? दिल्ली में पिछले सात-आठ साल से ऑटो चला रहे सिन्हा के ही गृहराज्य के एक मेहनतकश युवा दिनेश कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि बड़ा अधिकारी लोगों से अपने घर पर मिलने को किस लिए कहता है.’

pradeep.sati@tehelka.com

कथा और पूर्वकथा

Gulzar

तब गुलजार मुंबई में आए ही थे और नेशनल कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहे थे. यह उनके लिए बहुत मुश्किल दौर था. लेकिन इन हालात के बाद भी साहित्य के प्रति उनका लगाव और समर्पण कभी कम नहीं हुआ. जब वे एक मोटर गैराज में एकाउंटेंट की नौकरी करने लगे तो उनका जीवन कुछ व्यवस्थित हो गया. सीधे शब्दों में कहें तो दुनियावी स्थिरता ने उनकी कलम को उड़ान भरने की आजादी दे दी और फिल्मकार बिमल रॉय की संगत ने इसके लिए आसमान. रॉय ने ही उन्हें बाद में बंदिनी (1963) जैसी महान फिल्म में ‘मोरा गोरा अंग लै ले’ लिखने का मौका दिया था.

तब गुलजार फिल्मों में आने के बारे में नहीं सोचते थे और लेखन को बड़ी गंभीरता से लेते थे. इसी दौरान उनका संपर्क तमाम प्रगतिशील लेखकों से हुआ. उन दिनों गुलजार प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्लूए) जन नाट्य मंच (इप्टा) और पंजाबी साहित्य सभा के साथ पूरी सक्रियता के साथ जुड़े थे. इसी दौर में उन्होंने मार्क्स को पढ़ा और मार्क्सवाद के दर्शन से प्रभावित हुए. एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘मुझे प्रगतिशील फिल्में ज्यादा पसंद थीं. मोहन सहगल की फिल्में पसंद थीं, ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फिल्में भी अच्छी लगती थीं पर उन्होंने कम फिल्में बनाईं. गहरे सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में मुझे अच्छी लगती थीं. मेरा यकीन मार्क्सवाद पर था और आज भी है. मेरे सभी करीबी दोस्त मार्क्सवादी रहे हैं. मार्क्सवादी भरोसेमंद होते हैं.’

इन्हीं दिनों सुप्रसिद्ध पंजाबी लेखक सुखबीर ने गुलजार को विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण लेखकों के बारे में बताया और इस तरह वे ज्यां पॉल सार्त्र, पाब्लो नेरुदा, डब्लूएच ऑडेन जैसे रचनाकारों की रचनाओं से परिचित हुए. पीडब्लूए  और पंजाबी साहित्य सभा से बलराज साहनी , राजेन्दर सिंह बेदी, भीष्म साहनी आदि रचनाकार भी जुड़े हुए थे. बलराज साहनी अपनी मातृभाषा में लिखने के हिमायती थे और पंजाबी पत्रिका ‘प्रीत लड़ी’ में नियमित लिखते थे. गुलजार अपने को,  उर्दू लेखकों की उस महान पीढ़ी से जोड़ना पसंद करते हैं जिनकी मातृ भाषा तो पंजाबी थी पर उन्होंने लेखन उर्दू में किया. अल्लामा इकबाल, फैज अहमद ‘फैज’, अहमद नदीम काजमी,  सआदत हसन मंटो,  कृष्ण चंदर अहमद फराज, साहिर लुधियानवी आदि ऐसे ही पंजाबी रचनाकार थे जिन्होंने उर्दू साहित्य को समृद्ध किया.

गुलजार ने अपने कूवर लॉज में रहते हुए अपने से वरिष्ठ लेखकों कृष्ण चंदर और साहिर लुधियानवी को नजदीक से काम करते हुए देखा था तो अपने हमउम्र संघर्षशील रचनाकारों के साथ भी एक जीवंत रिश्ता कायम किया था. सागर सरहदी, भीमसेन, मेहबूब स्यालकोटी तो उनके साथ कूवर लॉज में ही रहते थे.

गुलजार की संगीत और चित्रकला में भी रुचि रही है. इन प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों के साथ काम करते हुए उन्होंने चित्रकार चित्तप्रसाद को नजदीक से देखा-समझा. इसी दौर में नृत्य के क्षेत्र में  इप्टा में सक्रिय शांति वर्धन और संगीत में रविशंकर के जनवादी संगीत से भी परिचित हुए. इप्टा की नाट्य प्रस्तुतियों से जुड़े रहने के साथ-साथ उनका परिचय रंग निर्देशक रमेश तलवार से भी हुआ जो उन दिनों बलराज साहनी की नाट्य मंडली ‘जुहू आर्ट्स’ में काम कर रहे थे. उन्हीं दिनों मुंबई में (1957-58) सलिल चौधरी ने बॉम्बे यूथ कॉयर की स्थापना की, जहां गुलज़ार की मुलाकात शैलेंद्र से हुई. राजनीति से जुड़े उनके कई परिचित रचनाकारों  को जेल में भी रहना पड़ा था जिनमें सुखबीर, अली सरदार जाफरी, यूसुफ मन्नान आदि शामिल थे इसलिए गुलजार भारतीय वामपंथ की कट्टर और उग्र धारा से अपरिचित नहीं रहे.

आगे चलकर गुलजार में जब हम एक शायर, कहानीकार, निर्देशक, गीतकार, पटकथा लेखक, अनुवादक को एक साथ और लगभग समान रूप से विकसित होते देखते हैं तो निस्संदेह हम उनके जीवन के इस दौर को एक बड़ी इमारत की बुनियाद के रूप मे चिह्नित कर पाते हैं. सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की विविध विधाओं में काम कर रहे इतने समर्थ रचनाकारों के इतने करीब रहने के इस विरल अवसर ने गुलजार को एक विशिष्ट परिपूर्णता दी.

वह दौर हिंदुस्तान की राजनीति का एक युगसंधि काल था. एक ओर उपनिवेशवादी विदेशी ताकतों से मुक्ति का आरंभिक उल्लास धीरे-धीरे हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के लिए अर्थहीन होता जा रहा था, वहीं दूसरी ओर वामपंथ अपने विदेशी अनुभवों और मुल्क की जमीनी हकीकतों के बीच दिशाहीन-सा नजर आ रहा था. इस धारा के केंद्रीय नेतृत्व में जब फूट पड़ी तो विभाजन से हताश कई कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी पार्टी से अलग हो गए. लेकिन यह सुखद सच्चाई रही कि इनमें से कोई भी इस विचारधारा से दूर नहीं हुआ. गुलजार का रचना संसार इस वामधारा के मूल्यों पर भरोसे को बखूबी रेखांकित करता है.

वामपंथी राजनीति का मंच चरमराने के बाद सांस्कृतिक संगठनों में अपने होने के मकसद पर नई बहस छिड़ चुकी थी. नए समाज गढ़ने के सपनों और  संकल्पों को अपनी आंखों में संजोए, प्रगतिशील रचनाकारों का एक प्रतिबद्ध समूह नए-नए सवालों से रूबरू हो रहा था.

तीखी बहसों का दौर था यह. नौजवान गुलजार के पास अपने वयस्क और अनुभवी साथियों के विचारों से टकराने की तार्किकता शायद नहीं थी. लेकिन अपने इन साथियों की सभी बातों को मान लेने में उन्हें कठिनाई हो रही थी. इसलिए वे निरंतर अपने आप से नए-नए जटिल सवाल पूछते और उनके जवाबों को जांचते थे. एक बहस के बारे में जिक्र करते हुए गुलजार कहते हैं,’ पीडब्लूए की एक बैठक चल रही थी. सुखवीर जी, बलराज साहनी जी आदि कई वरिष्ठ रचनाकार मौजूद थे. बहस का मुद्दा था- समाज में कलाकारों की भूमिका. विषय गंभीर था और मुझे लगा अधिकांश लोगों का मत मेरे मत से भिन्न था. उन सबों  का मानना था कि प्रगतिशील समाज की संरचना में किसान, मजदूर और अन्य श्रमजीवियों की भूमिका सबसे बड़ी होगी. यह बात इस सवाल को भी उठा  रही थी  कि क्या कला और कलाकार की वाकई समाज निर्माण में कोई जरूरत है या नहीं.’

गुलजार आगे बताते हैं, ‘मेरे पास इस सवाल का कोई स्पष्ट जवाब नहीं था. छोटा या नया ही सही,  मैं एक रचनाकार था.  और यह सवाल मेरे वजूद, मेरे अस्तित्व से जुड़ा हुआ था. मुझे लगा कि क्या हम सब ‘कला ‘ जैसे एक गैरजरूरी काम में जुटे हुए हैं? मीटिंग में मैंने अपना कोई तर्क सामने नहीं रखा पर मैं बेहद विचलित था. तीन, चार या हो सकता है उससे कुछ ज्यादा वक्त मैं मीटिंग मंे उठाए गए सवालों पर गंभीरता से सोचता रहा. फिर एक दिन मैंने ‘सतरंगा’ कहानी लिखी. इसे आप मेरा जवाब कहें या तर्क. मंैने पीडब्लूए की अगली मीटिंग में इस कहानी का पाठ किया था. कहानी सभी को पसंद आई थी. किसी ने इस कहानी की किसी बात पर आपत्ति नहीं की.’

‘सतरंगा’ कहानी अपने उपरोक्त संदर्भ के बगैर भी एक सार्थक कहानी है जहां हमें गुलजार के लेखकीय उद्देश्य के साथ-साथ, उनके लेखन का संयम और छोटे-छोटे वाक्यों के जरिए किसी दृश्य को जीवंत बना देने की कला दिखाई देती है. कला और श्रम के बीच के संबंध पर गुलजार बेहद सहजता के साथ अपनी बात को कह लेते हैं. गुलजार ने यहां कलाकार और समाज के पारस्परिक संबंध को पूरी मार्मिकता के साथ उजागर किया है.

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सतरंगा

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मनीषा यादव

आधी रात में जब चौपाल से खैरू के गाने की आवाज गूंजी, तो बहुतों ने नाक सिकोड़कर, गुद्दी खुजाकर, करवट बदल ली.

‘ओफ्फोह! इस पगले को दिन में काम नहीं होता, रात में आराम नहीं.’

ममदू की बीवी शायद जाग रही थी, सोई सी आवाज में बोली.

‘कमबख्त किसी काम भी तो नहीं लगता’ अपनी-अपनी करवट बदलकर दोनों फिर सो गए. खैरू चौपाल पर अकेला पड़ा, देर तक गाता रहा.

उस गांव में किसी को काम से पलभर की फुर्सत नहीं थी, बस यही था जिसे पलभर को भी काम नहीं था. चौपाल पर सोता, चौपाल पर जागता, सुबह-सुबह रहट पर जाता. एक पेड़ के खड़वे पर अला झोला टांगता, कपड़े उतारकर धोता, सूखने डालता और फिर तब तक नहाता रहता जब तक कपड़े सूख न जाएं.

कोई ठौर-ठिकाना तो था नहीं. जाता क्यों? तो ममदू के खेतों पर निकल गया. लेकिन ममदू को अपने खेतों से कहां फुर्सत थी कि वो उसकी तरफ ध्यान देता. वो बैल जोते, हल ठोके, पसीना-पसीना जलती-जलती दोपहर में चलता रहता. कहीं मुंडेर संवारता, कहीं मिट्टी के ढेले फोड़ता. खैरू झोले से बांसुरी निकालकर उसके साथ हल पर खड़ा हो जाता, या कभी रात का देखा हुआ सपना सुनाने लगता. ममदू को हमेशा उलझन होती. ना उसे मना कर पाता था, ना खुद हट सकता था. एक बार जब खैरू ने बैलों के सींग रंगने के लिए हल रोका था तो वो सचमुच नाराज हो गया था.

‘चल हट तेरी निकम्मी हरकतों के लिए वक्त नहीं है मेरे पास.’

खैरू उस वक्त तो पीछे हट गया लेकिन दोपहर को जब ममदू खाना खाने लगा तो उसने झट से बैलों के सींग रंग डाले. ममदू की बीवी खाने के लिए बुलाती ही रह गई ‘काम बस काम’.

नज्जो ममदू से कह रही थी.

‘जल्दी से खा लो-समीना को जाकर दूध

पिलाना है.’

‘ताजू को दवा दे देना ममदू ताकीद करता.’

‘तुम खा लो, जब तक मैं पानी भर लूं.’

‘सुबह नहीं भरा?’

‘सुबह चक्की पर गई थी आटा पिसवाना था.’

‘बुश चाचा के यहां से लिहाफ भी भरवा लेना.’

‘अभी धान भी चुनना है.’

ये सब काम उसे फालतू से लगते थे. लेकिन हर आदमी उन्हीं से मसरूफ था- बहुत ही मसरूफ.

अगले दिन फिर वही हुआ. ममदू खाने लगा तो खैरू को आवाज दी.

खैरू झोले से घंटिया निकालकर तागे में पिरो रहा था.

‘ओ खैरू- क्या कर रहा है?’

‘बैलों को घंटिया पहना रहा हूं. जब चलेंगे तो अच्छा लगेगा.’

‘चल आ. खाना खा ले. छोड़ ये बेकार के धंधे. बैल तो चलते ही रहेंगे. यही काम है उनका.’

‘तू भी तो बैलों जैसा ही है. एक घंटी तू भी बांध ले.’ खैरू ने मजाक किया.

शाम को खैरू पनघट पर पहुंच गया, प्यास लगी थी लेकिन किसी को फुर्सत कहां कि उसे पानी पिलाए. एक को जाके दाल बघारनी थी. तो दूसरी आटा गूंथकर आई थी. तीसरी को बीमार मां की फिक्र थी. एक नींबू से गागर गांज रही थी. दो-तीन मिलकर पानी खींच रही थीं. खैरू एक तरफ बैठ गया. झोले से उसने कुछ रंग निकाले और एक मटकी पर बेल बूटे बनाने लगा.

‘खैरू!’

लड़की ने मुड़कर देखा लेकिन मटकी उसके हाथ से ले नहीं सकी. बस यही तो मुश्किल थी. खैरू के सारे काम फालतू थे. उसे मना करते हुए भी रोक नहीं पाते थे, हां बहुत तरस आता तो ‘बेचारा’ कहके चुप हो जाते. लेकिन इस गांव में काम भी नहीं रुका. जैसे ही मटकी की बारी आई, उसने खैरू की गोद से मटकी ले ली. खैरू भी माहिर हो चुका था. वो काम के बीच, उन्हीं छोटे-छोटे वक्फों में अपनी जगह बनाता रहता था.

एक बार हीरा जुलाहे के यहां ठहर गया. हीरा खेस बुन रहा था. खैरू बहुत देर तक खड़ा देखता रहा. और ताने की आवाज सुनता रहा.

‘धुतंग तुंग! धुतंग तुंग! धुतंग तुंग!’ और फिर गांव भर घूमता रहा- गाता हुआ.

‘धुतंग तुंग! धुतंग तुंग!’

‘उस दिन मुखिया ने कहा इसका दिमाग चल गया है.’

अगले दिन खैरू फिर वहीं था हीरा के यहां-

‘हीरा चाचा तुम हर रंग के तागे क्यूं बनाते हो? दो-दो तीन-तीन रंगों के तागे क्यों नहीं मिलाते?’

‘मेरा दिमाग अभी चुका नहीं ना-इसलिए.’

‘लेकिन चाचा वो देखने में अच्छा लगेगा.’

‘खेस बिछाने को होता है. देखने को नहीं.’

बेचारा क्या समझाता. हीरा की बेटी, बरखा सूत की टोकरी संभाले सामने खड़ी थी. वो हंस पड़ी. टोकरी रखते-रखते बरखा के बाल कंधे पर बिखर गए. फिर बरखा जब जूड़ा गूंथती हुई अंदर गई तो खैरू पता नहीं किस बात से शर्मा गया.

‘बरखा’ उसने साफ नाम से पुकारा. बरखा पलट कर खड़ी हो गई.

‘मुझे थोड़ा सा सूत देगी?’

‘तो क्या करेगा?’

‘तेरे लिए परांदी बनाऊंगा.’ खैरू जितना शर्मीला था उतना ही बेशर्म बोला-

‘लेकिन एक रंग की नहीं- सब रंगों की चूनी दे दे.’

बेचारे को बहुत दिन आना पड़ा, वो सब रंग जमा करने. और जिस दिन सब चूनियां मिल गईं तो सारा दिन बड़े बरगद के नीचे बैठ परांदी बनाता रहा, और गाता रहा- ‘धुतंग तुंग- धुतंग तुंग’

सब हंसकर गुजर गए. सिर्फ उस स्कूल मास्टर ने जाते-जाते पूछा था.

‘ये क्या कर रहा है खैरू?’

एक मिनट तो चुप रहा फिर हंसकर जवाब दिया.

‘घने-घने बादलों के लिए परांदी बुन रहा हूं.’

काम करते तो उसे सचमुच किसी ने नहीं देखा. लेकिन यूं भी नहीं देखा कि जब वो कुछ न कर रहा हो.

सुबह रहट से लेकर रात चौपाल पर आने तक पता नहीं वो कितनी बार गांव से घूम जाता. हजार बार किसी दरवाजे के आगे से गुजरने के बाद अचानक एक दिन उसी दरवाजे पर रुक जाता. झोले से चाकू निकालकर फौरन उस पर कोई तस्वीर खोद देता. कहीं हिरन. तो कहीं स्वास्तिक का निशान बना देता. उस एक झोले के अलावा उसकी और कोई पूंजी नहीं थी, पर घूमता वो इस तरह था जैसे सारे गांव का मालिक हो. जिस जगह जी चाहा ठहर गया. जिस तरह जी चाहा, चल दिया. जिसने बर्दाश्त कर लिया, उसके पास बैठ गए. किसी ने हटा दिया तो वहां से उठ गया. किसी ने कुछ दिया तो अपना लिया, किसी ने कुछ मांगा तो सौंप दिया. दूर का सफर और कहीं का सफर नहीं!

और आधी रात जब सब सो जाते, वो अपनी आवाज से सारे गांव को जगा देता. नाक सिकोड़ कर लिहाफ झटककर फिर कोई करवट ले लेता.

वो जो धीरे-धीरे आ रहा था, एक दिन अचानक सामने  आ पहुंचा. कब तक कोई उसे मुफ्त में रोटी देता. उसके लिए गर्म-सर्द कपड़ों का ध्यान रखता?

खैरू फिर बीमार रहने लगा, मगर अपने रंगों में सारे दुख छुपाए रहा. चुपचाप सहता रहा, और एक दिन मुखिया नींद से उठकर चौपाल चला आया.

‘हरामखोर’ एक ही थप्पड़ में बेचारा खैरू जमीन पर आ गिरा. खिड़कियां जो खुली थी, वो भी

बंद हो गई.

उस सुबह लगभग हर शख्स चौपाल से होकर गुजरा. खैरू कहीं नहीं था. उसका झोला वैसे का वैसा ही लटका हुआ था. लोग एक-दूसरे से पूछते रहे. किसी ने रहट पर भी नहीं देखा.

खूतों पर भी नहीं, पनघट पर भी नहीं. पहली बार लोगों ने दरवाजों के ‘मोर’ टटोले. पहली बार ममदू ने हल रोककर बैलों की घंटियां छूकर नहीं देखी. किसी ने पनघट पर आह भरके मटकी गोद में ले ली. काम जो कभी नहीं रुका था, आज कदम-कदम पर रुककर इंतजार कर रहा था. खैरू का नाम जैसे होंठों से उठकर आंखों में आ गया.

रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी. चौपाल पर बस एक अकेला झोला लटका हुआ था. और उस आवाज के बगैर सारा गांव जाग रहा था.

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नायक जिसे बिहार ने बिसरा दिया

_MG_2793‘कौन संन्यासी? कुछ और बताइये उनके बारे में. शाहाबाद की इस धरती पर तो बहुतेरे साधु-संन्यासी, महात्मा-योगी हुए हैं.’ कुछ ब्यौरा देने के बाद थो़ड़ी देर इधर-उधर देखते हैं प्रोफेसर साहब, दिमाग पर जोर देते हैं. अंत में कहते हैं, ‘ईमानदारी से कहूं तो यह नाम पहली दफा सुन रहा हूं.’

प्रोफेसर साहब बिहार में सासाराम के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ाते हैं. चौक-चैराहे पर रोजाना चौपाल सजाते हैं. इधर-उधर की बातों को हैरतअंगेज तरीके से रखने के साथ शेखियां बघारने के भी उस्ताद हैं. सासाराम के बहुतेरे लोग प्रोफेसर साहब को गंभीर अध्येता, जानकार और इलाके का इनसाइक्लोपीडिया भी मानते हैं. कुछेक पीठ पीछे हवाबाज भी कहते हैं. सासाराम की उस चौपाली बहस में हम भवानी दयाल संन्यासी के बारे में कुछ जानकारियां विस्तार से देते हैं जैसे वे मूलतः इसी जिले के निवासी थे. उनका नाम भवानी दयाल संन्यासी था, लेकिन वे कोई साधु-संन्यासी नहीं थे. कुदरा से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर बसा बहुआरा उनका पैतृक गांव था. उनके पिताजी पहले अपने गांव में मजदूरी का काम करते थे, बाद में गिरमिटिया बनकर दक्षिण अफ्रीका गए और लौटे तो अपने ही गांव के जमींदार हो गए. संन्यासी ने भी जमींदारी की कमान कुछ दिनों तक थामी. लेकिन उनकी पहचान इससे बनती है कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आंदोलन में अहम भूमिका निभायी. वहां धोबी का काम करते रहे, फिर सोने की खान में मजदूर बने. संन्यासी रात में मजदूरी का काम करते, दिन में ‘सत्याग्रह का इतिहास’ लिखते. गांधी से भी पहले दक्षिण अफ्रीका में चले सत्याग्रह का इतिहास उन्होंने ही लिखा. आज भी उनके नाम पर दक्षिणी अफ्रीकी देशों में कई शैक्षणिक संस्थान चलते हैं. जब संन्यासी भारत लौटे तो उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका तय की. अपने गांव बहुआरा में रहते हुए उन्होंने मुंबई के वेंकटेश्वर समाचार में पत्रकारिता शुरू की. फिर प्रदेश के कोने-कोने में घूमने लगे. हजारीबाग जेल में बंदी बनाकर ले जाए गए तो वहां से उन्होंने ‘कारागार’ नामक हस्तलिखित पत्रिका की शुरुआत की. जेल में रहते हुए तीन ऐतिहासिक अंक निकाले. संन्यासी ने 800 पृष्ठों के सत्याग्रह विशेषांक का संकलन व संपादन किया जिसका अब कोई अता-पता नहीं.

ऐसी तमाम बातें संन्यासी के बारे में बताने पर सासाराम की उस चौपाल में प्रोफेसर साहब समेत अन्य लोगों की उत्सुकता बढ़ती जाती है. कुछ तुरंत जाति भी जानना चाहते हैं. जाति नहीं बताने पर अनुमान लगाते रहते हैं और जाति न सही, इलाके के आधार पर ही संन्यासी में नायकत्व के तत्व तलाशे जाने लगते हैं.

यह बात सिर्फ सासाराम की नहीं. पटना और रांची, जहां कस्बाई शहरों की तुलना में बुद्धिजीवियों की संख्या कुछ ज्यादा है, संन्यासी के बारे में ऐसे ही जवाब मिलते हैं. कुछ ही ऐसे लोग मिल पाते हैं जो संन्यासी के व्यक्तित्व के बारे में कुछ बता सकें. गांधी संग्रहालय के मंत्री डॉ रजी अहमद तो संन्यासी का नाम लेते ही किसी बच्चे की तरह चहकते हुए कहते हैं, ‘उनके बारे में अधिक से अधिक बताइये लोगों को, बिहार के लोग अपने नायकों को नहीं जानते, तभी तो आज चोर-गुंडा-मवाली भी समाज के नायक बनते जा रहे हैं.’ रजी अहमद की तरह ही कुछ-कुछ बातें वरिष्ठ नाट्य समीक्षक और साहित्यकार हृषीकेश सुलभ करते हैं. सुलभ कहते हैं, ‘यही दुर्भाग्य है बिहार का कि वह अपने वास्तिवक नायकों को भुलाकर छद्म नायकों में नायकत्व की तलाश कर रहा है, जिससे समाज, राजनीति सबकी गति गड़बड़ा गयी है.’

संन्यासी के बारे में पहली जानकारी हमें चंपारण के हरसिद्धी प्रखंड के एक गांव कनछेदवा में मिली. यहां रहनेवाले प्रभात कुमार ने ही पहली बार फोन पर यह जानकारी दी कि उन्होंने कबाड़ी से एक किताब ली है जिसमें बिहार के स्वतंत्रता संग्राम का दिलचस्प इतिहास दिया हुआ है. यह भी कि किताब किसी भवानी दयाल संन्यासी ने लिखी है और इसकी भूमिका राजेंद्र प्रसाद ने लिखी थी. हमारी उत्सुकता बढ़ी तो हम प्रभात से मिलने और इस किताब को देखने पिछले दिनों कनछेदवा गांव पहुंचे. ‘ प्रवासी की आत्मकथा’ नाम से लिखी गयी किताब देखने के बाद भवानी दयाल संन्यासी के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती गई और तभी यह भी पता चला कि उस एक व्यक्तित्व का अंगरेजों के जमाने में कैसा प्रभाव रहा होगा कि जब 1939 में संन्यासी पर 1939 में प्रेमशंकर अंग्रवाल ने ‘‘ भवानी दयाल संन्यासी- ए पब्लिक सर्वेंट ऑफ साउथ अफ्रीका’’ नाम से किताब लिखी और उसे इंडिनय कोलोनियल एसोसिएशन, इटावा के द्वारा प्रकाशित करवाया गया तो यह देखते ही देखते देश-विदेश में छा गई लेकिन तब तक अंगरेजों की नजर इस पर पड़ चुकी थी और अंगरेजों ने भवानी दयाल संन्यासी पर लिखी हुई इस किताब की सारी प्रतियों को सदा-सदा के लिए जब्त कर लिया. बाद में देश की आजादी के वर्ष यानि 1947 में संन्यासी ने फिर से अपने अनुभव ओर संस्मरण को एक आकार दिया तो उसकी भूमिका डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लिखी और उसे सस्ता साहित्य मंडल के द्वारा देश भर में बेचा गया. अब सस्ता साहित्य मंडल में उस किताब यानि ‘ एक प्रवासी की आत्मकथा’ के बारे में पूछने पर संचालक नरेंद्र सिंह बिष्ट कहते हैं, ‘ऐसी किसी किताब की जानकारी मुझे नहीं है. 25 सालों से सस्ता साहित्य मंडल से जुडा हुआ हूं, कभी इस किताब की चर्चा नहीं हुई.’

बिष्ट की तरह कई लोगों को संन्यासी के किताब के बारे में जानकारी नहीं. बिहार भर में घूम-घूमकर दुर्लभ दस्तावेज तलाशने वाले चंद्रशेखरम कहते हैं, ‘मुझे जो जानकारी है, उसके अनुसार संन्यासी ने 40 किताबें लिखी थीं, जिनके बारे में पता नहीं चल पा रहा. हमलोग उनकी किताबों की तलाश में है.’

चंद्रशेखरम जिन 40 किताबों के बारे में चर्चा कर रहे हैं उनकी जानकारी अभी तो नहीं मिल पा रही, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास, वर्ण व्यवस्था या मरण अवस्था नामक किताबों के बारे में जानकारी जरूर मिल सकी है. इस सत्याग्रही संन्यासी के बारे में जानने के लिहाज से जब हमने इंटरनेट की दुनिया में विचरण करना शुरू किया तो उस नाम से 9820 परिणाम दिखते हैं. देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्से में उन पर हुए कामों का विस्तृत ब्यौरा मिलता है उनके नाम स ेचल रहे संस्थानों की सूची मिलती है.

लेकिन बिहार में संन्यासी का कोई नामलेवा नहीं. उनके नाम पर संस्थान या उन्हें नायक बनाने की तो बात दूर …!

असहमति का अधिकार

tamashaमीडिया वेबसाइट ‘न्यूजलॉन्ड्री’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपने पूर्व संपादकीय निदेशक कमर वहीद नकवी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया है. चैनल का आरोप है कि उन्होंने चैनल से अपने इस्तीफे की खबर उसके स्वीकार होने से पहले लीक करके चैनल की छवि धूमिल करने की कोशिश की. चैनल ने सबूत के तौर पर ‘टाइम्स आफ इंडिया’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी खबरों का हवाला दिया है जिनमें कहा गया था कि नकवी ने आम चुनावों के दौरान चैनल पर नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू के स्वरूप और लहजे से असहमति में इस्तीफा दिया है.

नकवी ने न्यायालय में चैनल के आरोपों का सिलसिलेवार और तथ्यपूर्ण जवाब दाखिल कर दिया है. फिलहाल चैनल ने उनके अध्ययन और अपने जवाब के लिए कोर्ट से समय मांगा है. इस मामले ने न्यूजरूम में आंतरिक लोकतंत्र, असहमतियों के प्रति असहिष्णुता, एक पत्रकार/संपादक की पत्रकारीय मूल्यों और अंतरात्मा के प्रति जवाबदेही जैसे अहम सवाल उठा दिए हैं. सवाल यह है कि क्या एक पत्रकार/संपादक की अगर संस्थान की किसी नीति से असहमति है तो उसे यह जताने और उसके लिए इस्तीफा देने का अधिकार नहीं? दूसरे, क्या उसे अपनी असहमति सार्वजनिक तौर पर उजागर करने का अधिकार नहीं होना चाहिए?

याद रहे कि चुनावों के दौरान इंडिया टीवी पर दिखाए गए मोदी के उस इंटरव्यू और उसमें प्रश्नों की प्रकृति, लहजे और प्रस्तुति को लेकर पत्रकारीय स्वतंत्रता, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के आधार पर कई सवाल उठे थे. खासकर सोशल मीडिया में उस इंटरव्यू की बहुत आलोचना हुई थी. नकवी उस समय चैनल के संपादकीय निदेशक थे और रिपोर्टों के मुताबिक, वे उस इंटरव्यू से असहमत थे. यह भी कहा गया कि वे उस दौरान चैनल पर आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल की कवरेज पर प्रतिबंध और तोड़मरोड़ कर हो रही कवरेज से भी सहमत नहीं थे.

खबरों के मुताबिक जब नकवी को लगा कि चैनल में उन पत्रकारीय मूल्यों की अनदेखी और उल्लंघन हो रहा है जिन्हें वे महत्वपूर्ण मानते हैं तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया. चैनल को उनके इस्तीफे से कोई आपत्ति नहीं है बल्कि उसका दावा है कि वह नकवी के कामकाज से संतुष्ट नहीं था. आपत्ति यह है कि इस्तीफे और वह भी मोदी के इंटरव्यू के विरोध में की खबर कैसे लीक हुई?

अब सवाल यह है कि क्या नकवी ने मोदी के इंटरव्यू के विरोध में इस्तीफा दिया था. अगर उन्होंने वास्तव में चैनल की संपादकीय नीति से असहमति के आधार पर इस्तीफा दिया था और वह कोई निजी मुद्दा नहीं था तो उसे सार्वजनिक क्यों नहीं होना चाहिए.

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि तमाम चैनल और अखबार जो लोकतंत्र में सभी संस्थाओं से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करते रहते हैं, वे खुद पारदर्शिता और जवाबदेही से क्यों बचते हैं? आखिर चैनलों के अंदर पत्रकारों/संपादकों की महत्वपूर्ण संपादकीय और पत्रकारीय मूल्यों-नैतिकता के मुद्दों पर असहमतियों को सार्वजनिक क्यों नहीं होना चाहिए? उदाहरण के लिए, अगर कोई चैनल या अखबार पेड न्यूज या ऐसे ही किसी अनैतिक धंधे में शामिल है और उसका कोई पत्रकार या संपादक इससे असहमत है तो क्या उसे इस्तीफा देने और उसे सार्वजनिक करने का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या ऐसे पत्रकारों/संपादकों को ‘व्हिसल-ब्लोअर’ नहीं मानना चाहिए और उन्हें संरक्षण नहीं मिलना चाहिए? सच यह है कि अगर न्यूज मीडिया के ‘अंडरवर्ल्ड’ का पर्दाफाश करना है, चैनलों/अखबारों के अनैतिक धतकरमों को उजागर करना है और उन्हें लोगों के प्रति जवाबदेह बनाना है तो ऐसा होना ही चाहिए.

असम-नागालैंड पुलिस संघर्ष

imgअसम देश का अकेला ऐसा राज्य है जिसका अपने ज्यादातर पड़ोसी राज्यों से सीमा विवाद है. इन विवादों का एक बुनियादी पहलू यह है ये सभी असम से काटकर ही बनाए गए हैं. 1972 में मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश को असम से अलगकर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था तो वहीं मेघालय को इसी साल पूर्ण राज्य बनाया गया. इस कड़ी में नागालैंड पहला राज्य था जिसे असम से अलग किया गया. और यही वह राज्य है जिसके साथ असम का सीमा विवाद कई बार हिंसक संघर्षों के कारण चर्चा में रहा है.

नागालैंड का गठन 1963 में हुआ था. तत्कालीन नागालैंड सरकार का दावा था कि असम की जिन नगा पहाड़ियों के क्षेत्र को मिलाकर राज्य बना है उसका एक बड़ा हिस्सा उसे नहीं दिया गया. इस दावे के पीछे तर्क था कि अंग्रेजों के असम पर शासन से पहले ऐतिहासिक रूप से नागा आबादी एक विस्तृत भूभाग में रहती थी इसलिए यह नए राज्य में शामिल होना चाहिए. जबकि असम सरकार का कहना था कि संवैधानिक रूप से जो सीमा तय की गई है, दोनों राज्यों को उसका सम्मान करना चाहिए. हालांकि ऐसा हुआ नहीं. नागालैंड के गठन के साथ ही असम के सीमावर्ती जिलों (जिनके कुछ इलाकों पर नागालैंड अपना अधिकार जताता है) में नगा विद्रोहियों द्वारा छिटपुट हमले की घटनाएं होने लगीं. इस दौरान केंद्र सरकार ने कई बार दोनों राज्यों को बातचीत से सीमा विवाद हल करने के लिए कहा लेकिन कोई समाधान न निकलते देख 1971 में वीके सुंदरम को विवाद सुलझाने की जिम्मेदारी दे दी. सुंदरम तब विधि आयोग के अध्यक्ष थे. उन्होंने सुझाव दिया कि सीमा तय करने के लिए दोनों राज्यों को संयुक्त सर्वेक्षण करना चाहिए लेकिन नागालैंड सरकार ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया. हालांकि इसके बाद दोनों राज्यों के बीच चार बार अंतरिम समझौते हुए. इनके चलते कुछ समय तक सीमा पर शांति रही लेकिन 1979 की एक घटना ने इन समझौतों को पूरी तरह महत्वहीन बना दिया. उस साल नगा विद्रोहियों ने असम के गोलघाट जिले के गांवों पर हमला कर 60 लोगों की हत्या कर दी थी. इस माहौल में 25,000 लोगों को इन इलाकों से पलायन करना पड़ा. केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बाद यहां बमुश्किल शांति स्थापित हुई लेकिन 1985 में ठीक ऐसी ही एक और घटना हो गई जिसने इस सीमा विवाद की एक अलग जटिलता उजागर कर दी. इस बार गोलघाट के मेरापानी में असम पुलिस की चौकी पर हमला किया गया था और कहा जाता है कि यह हमला नागालैंड पुलिस के सिपाहियों ने किया था. उधर नागालैंड पुलिस का कहना था कि उनके सिपाहियों पर असम के पुलिसकर्मियों ने फायरिंग की है. भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना थी जहां दो राज्यों के पुलिस बलों के बीच मुठभेड़ हुई. इसमें तकरीबन 100 लोग मारे गए थे जिनमें 28 असम के पुलिसकर्मी थे.

इसी घटना के बाद 1988  में असम सरकार ने सीमा विवाद के निपटारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी. 2006 में न्यायालय के निर्देश के बाद सीमा निर्धारण के लिए एक स्थानीय आयोग बनाया गया लेकिन इसकी अंतिम रिपोर्ट आने के बाद भी आज तक सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर कोई आखिरी फैसला नहीं सुनाया है.

‘हिंदी साहित्य आलोचकों के लिए रचा जा रहा है’

TJsharma
चर्चित कथाकार तजेंद्र शर्मा को हिंदी साहित्य का प्रतिष्ठित ‘हिंदी सम्मान’ प्रदान किया गया है. फोटो: पूजा सिंह

 

एयर इंडिया में फ्लाइट पर्सर के रूप में करियर की शुरुआत, फिर अचानक लंदन बस जाना और हिंदी कहानियां लिखना. सरसरी तौर पर देखें तो कोई तारतम्य नहीं बनता.

हिंदुस्तान में ये होता कहां है कि हर कोई अपने मन का काम करे. मेरे ख्याल से यहां सिर्फ 5 फीसदी लोग ही ऐसे होंगे जो अपनी पसंद का काम करते होंगे. मेरे पिताजी को ही लीजिए, वह लेखक थे लेकिन सारी उम्र रेलवे में नौकरी करते रहे. इस तरह आप कह सकती हैं कि मैंने लेखन जीन में पाया. मैंने जब पहली कहानी लिखी उस समय मैं एमए में था. मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया है. मैं अंग्रेजीदा था और अंग्रेजी में सोचता और लिखता था. मेरी पहली किताब 25 साल की उम्र में छप चुकी थी. इस तरह लिखने तो बहुत पहले लगा था लेकिन हिंदी लिखने की शुरुआत पत्नी इंदु की वजह से हुई. इंदु मेरी पहली पाठक, आलोचक और टीचर भी हुआ करती थीं. वह हिंदी साहित्य से एमए थीं. उनके जोर देने पर ही मैंने हिंदी में कहानियां लिखना शुरू किया. वे इन मायनों में मेरी गुरु थीं कि वे मेरी कहानियों की वर्तनी सुधारा करती थीं.

आप खुद लंदन में रहते हैं. प्रवासी हिंदी लेखन पर आपकी गहरी नजर रहती होगी. नया प्रवासी हिंदी लेखन कैसा है. भारत में रचे जा रहे साहित्य और विदेशों में बैठकर भारत अथवा भारतीयों पर रचे जा रहे साहित्य में क्या कोई महत्वपूर्ण अंतर देखते हैं?

देखिए बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रवासी हिंदी लेखन से मुझे कोई उम्मीद नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि सभी प्रमुख प्रवासी साहित्यकार पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं. अब तक कोई प्रवासी लेखक देखने को नहीं मिला है जो अमेरिका या ब्रिटेन में जन्मा हो तथा हिंदी साहित्य लिखता हो. साफ है कि बाद वाली पीढ़ी हिंदी से उस तरह जुड़ाव महसूस नहीं करती जैसा हम करते हैं. अगर प्रवासी साहित्य को मजबूत करना है तो यहां भारत में हिंदी को मजबूत करना होगा. क्योंकि आज के बच्चे ही कल विदेश जाएंगे अगर उनको आज हिंदी नहीं आएगी, वे हिंदी में सोचेंगे नहीं तो हिंदी में लिखेंगे कैसे? हां यह जरूर है कि जिस तरह भारत में महानगरों में रहने वाले लेखक अपने गांव-घर के बारे में नॉस्टैल्जिक होकर लेखन कर रहे हैं उसी तरह विदेशों में रह रहे लेखक भारत की अपनी यादों को कलमबद्ध कर रहे हैं.

किसी भी लेखक के लिए विचारधारा अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है. इंदु शर्मा कथा सम्मान के बारे में आपका एक वक्तव्य पढ़ा था कि उसके विजेताओं के चयन में कोई राजनीतिक विचारधारा आड़े नहीं आती. लेकिन बतौर लेखक आपकी कोई विचारधारा तो होगी.

मेरे लिए हमेशा से विचार, विचारधारा की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं. विचार भीतर से पैदा होता है जबकि विचारधारा बाहर से आरोपित की जाती है. किसी के दर्द को महसूस करने के लिए विचारधारा की जरूरत नहीं. अगर किसी मजलूम पर अत्याचार होगा, किसी का दमन होगा तो सबको तकलीफ होगी, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी. आप मुझे एक बात बताइए. अगर किसी व्यक्ति को चोट लगती है तो क्या यह हो सकता है कि नरेंद्र कोहली व चित्रा मुद्गल को उसका दुख देखकर दर्द हो लेकिन असगर वजाहत व संजीव को न हो? नहीं न. विचारधारा कभी भी साहित्य को संचालित नहीं कर सकती वह केवल राजनीतिक जुमलेबाजी करवा सकती है. मेरा स्प्ष्ट मानना है कि विचारधारा नारे उछालने और पैम्फलेट के लिए तो ठीक है लेकिन साहित्य के लिए गैर जरूरी. विचारधारा व्यक्ति को बांधती है जबकि विचार उसे उदार बनाता है.

आपने अपनी अर्धांगिनी इंदु शर्मा की याद में इंदु कथा सम्मान शुरू किया लेकिन उस पर भी ऐसे आक्षेप लगते रहे हैं कि इसके जरिये लोगों को उपकृत किया जाता है?  इन आरोपों पर आपका क्या कहना है? इस सम्मान की चयन प्रक्रिया क्या है?

यह सम्मान मेरी भावना का ताजमहल है. इसमें किसी तरह की हेराफेरी की तो मैं कल्पना तक नहीं कर पाता. पता नहीं आरोप लगाने वालों की मंशा क्या है? ऐसे आरोपों का आधार क्या है? आप इंदु शर्मा कथा सम्मान पर नजर डालें तो संजीव, हृषिकेश सुलभ, विभूति नारायण राय, असगर वजाहत जैसे तमाम घोषित वामपंथी नाम आपको मिलेंगे. इनको उपकृत करके मुझे क्या मिल जाएगा? दूसरी बात यह कि यह सम्मान किसी व्यक्ति को मिलता ही नहीं बल्कि रचना को दिया जाता है. उसमें भी अब तक कोई नकद राशि नहीं दी जाती है, केवल आने-जाने का खर्च व वहां ठहरना घूमना शामिल होता है. इतने से भला कोई उपकृत हो जाएगा? आप बीते सालों में पुरस्कृत रचनाओं के लेखकों के नाम देखें आपको पता चल जाएगा कि यह एकदम निष्पक्ष चयन है. चयन के लिए एक निर्णायक मंडल होता है जिसका फैसला अंतिम होता है.

‘मेरे लिए हमेशा से विचार, विचारधारा की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं. विचार भीतर से पैदा होता है जबकि विचारधारा बाहर से आरोपित की जाती है’

भारत में अचानक अंग्रेजी लिखने वाले युवा लेखकों की बाढ़ आ गई है. वे खूब सफल भी हैं. उसके उलट हिंदी में लेखक और पाठक घूमफिरकर एक ही हैं. मोटे तौर पर कुछ ही लोग हैं जो एक-दूसरे का लिखा पढ़ते हैं और आपस में समीक्षाएं करते हैं. यह स्थिति क्यों है?

इसकी प्रमुख वजह है एक खास विचारधारा का दबदबा होना. करीब 15 से 20 साल तक हिंदी साहित्य एक विशेष विचारधारा के दबाव में लिखा गया. इसकी वजह से हिंदी में पॉपुलर लिटरेचर और साहित्य में खाई पैदा हो गई है. अंग्रेजी में जो बेस्ट सेलर है वह साहित्य हो सकता है लेकिन बेस्ट सेलर हिंदी में लुगदी साहित्य कहलाता है. ये एक बहुत बड़ी समस्या है. कोई नहीं सोचता आखिर गुलशन नंदा में ऐसा क्या था जो कि दो जनरेशन उसके प्रभाव में रही. गुनाहों के देवता में आखिर ऐसा क्या है जो उसके 40 संस्करण निकल गए. हम उसे साहित्य नहीं कहते. हमारे यहां तो शैलेंद्र जैसे अदभुत लेखक को साहित्यकार नहीं माना जाता. दरअसल आलोचकों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से दूर कर दिया. हिंदी साहित्य की दिक्कत यह है कि यह पाठकों के लिए नहीं बल्कि आलोचकों के लिए लिखा जा रहा है. हमारे यहां 500 प्रतियों के सर्कुलेशन वाली पत्रिकाएं बड़ी शान से लिखती हैं कि हमें अप्रकाशित रचनाएं ही भेजिए. वहीं अगर कोई लेखक किसी व्यावसायिक पत्रिका में लिख दे तो उसे बिरादरी से खारिज कर दिया जाता है. हिंदी साहित्य जबरदस्त खेमेबाजी का शिकार है. अब आते हैं आपके प्रश्न के पहले हिस्से पर. अंग्रेजी के लेखक सफल हैं क्योंकि उन्होंने बहुत तरीके से अपने पाठकों को लक्ष्य किया है. वे पूरी तैयारी से लगभग किसी उत्पाद की मार्केटिंग वाली शैली में अपनी किताब को बाजार में लाते हैं. उसके आने से पहले ही उसकी इतनी चर्चा हो जाती है कि उसे तो बिकना ही है.

आप भी अंग्रेजी में लिखना चाहेंगे?

देखिए जैसा कि मैंने शुरू में कहा मैंने अपनी शुरुआती किताबें अंग्रेजी में ही लिखीं. हालांकि उनमें से कोई फिक्शन नहीं थी. अपनी पत्नी की प्रेरणा से मैंने हिंदी में लिखना शुरू किया. फिलहाल तो मैं एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं लेकिन हां, अंग्रेजी में न लिखने की कोई कसम नहीं खाई है हो सकता है कि देर-सबेर मैं अंग्रेजी में भी फिक्शन लिखूं.

बतौर प्रवासी भारतीय आप पिछले दो-तीन साल में देश के राजनीतिक घटनाक्रम को कैसे देखते हैं. मसलन, अन्ना आंदोलन, केजरीवाल का राजनीतिक दल बनाना, उनकी सरकार बनना-गिरना और केंद्र में भाजपा की भारी बहुमत वाली सरकार आना.

केजरीवाल ने मुझ समेत सभी प्रवासियों को बहुत ठेस पहुंचाई. हमने बहुत उम्मीदें पाल ली थीं उनसे. कभी-कभी दुख भी होता है कि पढ़ा-लिखा आदमी होकर मैं कैसे झांसे में आ गया लेकिन ऐसा होता है. नेताओं से नफरत का दिखावा करने वाला वह व्यक्ति सबसे महत्वाकांक्षी राजनेता निकला. उनको दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया था लेकिन उनकी चाह कुछ दूसरी ही थी. रही केंद्र में भाजपा की भारी जीत की तो पिछली सरकार की नाकामियों को देखते हुए यह तो होना ही था. क्योंकि जनता के पास तीसरा विकल्प नहीं है इसलिए कांग्रेस के बाद भाजपा का सत्ता में आना तय था. नई सरकार से प्रवासियों को बहुत उम्मीदें हैं. विदेश में मोदी की छवि भारत के मुकाबले एकदम अलग है. वहां उन्हें बेहद साफ सुथरा नेता माना जाता है जो भ्रष्टाचार के सख्त विरोध में है और देश को प्रगति पथ पर ले जाएगा.