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फाइनल के बाद

महाराष्ट्र: साथ पर संशय

साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ शिवसेना के मुशिया उ व ठाकरे(बाएं)
साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ
शिवसेना के मुशिया उ व ठाकरे(बाएं)

बीते लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र उन राज्यों में शामिल था जहां की राजनीति को भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने सिर के बल लाकर खड़ा कर दिया. यानी जिस जगह पर वे राजनीतिक हाशिए पर थे वहां जनता के आशीर्वाद ने उन्हें रातोंरात राजनीति का सबसे बड़ा सितारा बना दिया. महाराष्ट्र में भी भाजपा गठबंधन (जिसमें भाजपा और शिवसेना के साथ चार अन्य दल शामिल हैं) ने कुछ ऐसा ही कमाल दिखाया. चुनाव में प्रदेश की 48 सीटों में से भाजपा गठबंधन को 42 सीटें मिलीं. वहीं कांग्रेस मात्र दो और उसकी सहयोगी एनसीपी चार सीटों पर सिमट गई. भाजपा गठबंधन में किसी को इतनी शानदार सफलता की उम्मीद नहीं थी. गठबंधन ने मिलकर कांग्रेस-एनसीपी को उनके सबसे बुरे राजनीतिक दौर पर लाकर खड़ा कर दिया था. प्रदेश एक बार फिर से विधानसभा चुनाव में जाने की तैयारी में है. ऐसे में यह चर्चा आम है कि क्या भाजपा शिवसेना गठबंधन लोकसभा में मिली अभूतपूर्व सफलता को विधानसभा चुनाव में दोहरा पाएगा. या फिर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन लोकसभा में अपनी खोई हुई सियासी हैसियत की भरपाई विधानसभा चुनाव में कर लेगा.

जनमत सर्वेक्षणों और आम चर्चाओं को अगर आधार मानें तो प्रदेश की राजनीति फिलहाल भाजपा गठबंधन के पक्ष में झुकी हुई है. सर्वेक्षणों में बताया जा रहा है कि अगली सरकार भाजपा गठबंधन की ही बनने जा रही है. कांग्रेस और एनसीपी की 15 साल से चली आ रही सरकार पर अब ब्रेक लगने वाला है. भाजपा गठबंधन भी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त दिख रहा है कि बस अब उनकी सरकार बनने ही वाली है. Read More>>


जम्मू-कश्मीर: बाढ़ ने बदले समीकरण

जम्मू-कश्मीर की भयानक बाढ़ एक तरफ नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की दुर्गति तो दूसरी ओर भाजपा के लिए अच्छे दिनों का सबब बन सकती है.

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

जम्मू-कश्मीर बाढ़ से उपजी त्रासदी की गिरफ्त में है. बाढ़ के पहले प्रदेश में राजनीतिक गतिविधियों की बाढ़ आई हुई थी. माना जा रहा था कि हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के साथ ही जम्मू कश्मीर में लगभग एक साथ ही विधानसभा चुनाव होंगे. लेकिन बाढ़ के कारण जम्मू-कश्मीर का चुनाव टल गया है. कब होगा ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता. जब भी चुनाव होगा तो उसके परिणाम क्या होंगे, आज इस प्रश्न से ज्यादा बड़ा प्रश्न यह है कि राज्य में चुनाव कब होंगे. क्योंकि प्रदेश में विधानसभा चुनाव में क्या होगा यह काफी कुछ इस पर भी निर्भर करेगा कि चुनाव होते कब हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव जब भी होंगे बाढ़ से आई त्रासदी उसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी. यानी जनता जब वोट देने जाएगी तब ईवीएम का बटन दबाते समय उसके दिमाग में इस समय की त्रासदी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी.

ऐसे में पहले यह जानना जरूरी है कि बाढ़ के कारण राजनीतिक तौर पर प्रदेश में क्या बदला है और इसके कारण आने वाले समय में क्या-क्या और कितना बदल सकता है. Read More>>


हरियाणा: मोदी की भाजपा बनाम अन्य

इसमें शक नहीं कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे आगे है लेकिन उसके सामने अचानक ही ऐसा होने से जुड़ी कुछ बड़ी चुनौतियां भी हैं

modi-huddaपिछले कुछ समय में हरियाणा की राजनीति ने ऐसे बदलाव देखें हैं जिनकी कल्पना चंद महीने पहले तक शायद ही किसी ने की हो. कौन सोच सकता था कि कांग्रेस से अपना 45 साल पुराना रिश्ता तोड़ते हुए चौधरी बीरेंद्र सिंह विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा में शामिल हो जाएंगे? या फिर हुड्डा के लंगोटिया दोस्त और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचानेवाले विनोद शर्मा उनका और कांग्रेस का साथ छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना लेंगे. किसे पता था कि अपनी खोई सियासी जमीन पाने के लिए बड़ी शिद्दत से 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों का इंतजार कर रहे इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) के कर्ताधर्ता वयोवृद्ध ओमप्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला चुनाव के साल भर पहले ही जेल पहुंच जाएंगे.

लेकिन ये बड़े बदलाव भी उस उलटफेर के आगे कुछ बौने दिखाए देते हैं जो भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में पिछले लोकसभा चुनाव में किये. राज्य की 10 लोकसभा सीटों में से जिन आठ पर पार्टी ने चुनाव लड़ा उनमें से सात पर उसने जीत दर्ज की. चुनाव में उसे सबसे अधिक 34 फीसदी वोट मिले. दूसरे नंबर पर आईएनएलडी थी जिसे उससे 10 फीसदी कम 24 फीसदी मत मिले. प्रदेश के 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 50 पर भाजपा सबसे आगे रही. जबकि 2009 में वह हांफते हुए सिर्फ सात सीटों पर बढ़त बना पाई थी. Read More>>


रांची वाया दिल्ली

दिल्ली का सपना दिखाकर रांची को अपना बनाना भाजपा के लिए कितना आसान है कितना मुश्किल?

rachiamitshahसात-आठ सितंबर को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह झारखंड की राजधानी रांची में थे. मौका था पार्टी के कार्यकर्ता समागम आयोजन का. आधिकारिक तौर पर शाह विधानसभा चुनाव के पहले झारखंड में पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए पहुंचे थे. इससे कुछ समय पहले अनाधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यहां चुनावी रणभेरी बजा चुके थे, जब वे एक सरकारी आयोजन में यहां पहुंचे थे. शाह के आगमन के पहले रांची की सड़कों पर स्थिति देखने लायक थी. कोई सड़क, कोई गली ऐसी नहीं बची थी जहां भाजपा के झंडे-बैनर-होर्डिंग न लगे हों. जिन-जिन रास्तों से अमित शाह को गुजरना था उन्हें देखकर लग रहा था कि भाजपा के नेताओं के बीच बैनर-पोस्टर-होर्डिंग-झंडे की होड़ लगी है. प्रदेश भाजपा के सभी बड़े नेताओं के अपने-अपने कार्यकर्ताओं ने पूरी कोशिश की थी कि अपने नेताजी का होर्डिंग विरोधी नेताजी से बड़ा और आकर्षक तरीके से लगे. पता नहीं अमित शाह उन होर्डिंगों में से किसी को देख भी सके या नहीं, लेकिन आठ सितंबर को रांची के प्रभात तारा मैदान में आयोजित कार्यकर्ता समागम में अपने भाषण में उन्होंने यह जरूर साफ कर दिया कि लाखों रुपये फूंककर अंजाम दी गई बैनर-पोस्टर-होर्डिंग की लड़ाई का असर नहीं होनेवाला. शाह ने साफ कहा कि अगले कुछ ही माह में झारखंड में जो विधानसभा चुनाव होनेवाला है, वह नरेंद्र मोदी के नाम और नेतृत्व के आधार पर लड़ा जाएगा और किसी को भी मुख्यमंत्री के तौर पर चुनाव के पहले पेश नहीं किया जाएगा.

अमित शाह ने कार्यकर्ता समागम में और कई बातें कहीं. मसलन, लोकसभा में कांग्रेसमुक्त नारे के साथ झारखंड के 14 संसदीय सीटों में से 12 पर कब्जा हुआ, विधानसभा में भाजपायुक्त नारे के साथ 81 में से 70 सीटों पर कब्जा कीजिए और इसके लिए विधानसभा सीट की बजाय एक-एक बूथ को जीतने की योजना पर काम कीजिए. उन्होंने यह भी गुरुमंत्र दिया कि झारखंड में भाजपा कार्यकर्ता विधायक को विजयी बनाने के लिए ऊर्जा नहीं लगाएं बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बनवाने के लिए चुनाव में भाग लें. Read More>>

हरियाणा: मोदी की भाजपा बनाम अन्य

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पिछले कुछ समय में हरियाणा की राजनीति ने ऐसे बदलाव देखें हैं जिनकी कल्पना चंद महीने पहले तक शायद ही किसी ने की हो. कौन सोच सकता था कि कांग्रेस से अपना 45 साल पुराना रिश्ता तोड़ते हुए चौधरी बीरेंद्र सिंह विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा में शामिल हो जाएंगे? या फिर हुड्डा के लंगोटिया दोस्त और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचानेवाले विनोद शर्मा उनका और कांग्रेस का साथ छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना लेंगे. किसे पता था कि अपनी खोई सियासी जमीन पाने के लिए बड़ी शिद्दत से 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों का इंतजार कर रहे इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) के कर्ताधर्ता वयोवृद्ध ओमप्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला चुनाव के साल भर पहले ही जेल पहुंच जाएंगे.

लेकिन ये बड़े बदलाव भी उस उलटफेर के आगे कुछ बौने दिखाए देते हैं जो भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में पिछले लोकसभा चुनाव में किये. राज्य की 10 लोकसभा सीटों में से जिन आठ पर पार्टी ने चुनाव लड़ा उनमें से सात पर उसने जीत दर्ज की. चुनाव में उसे सबसे अधिक 34 फीसदी वोट मिले. दूसरे नंबर पर आईएनएलडी थी जिसे उससे 10 फीसदी कम 24 फीसदी मत मिले. प्रदेश के 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 50 पर भाजपा सबसे आगे रही. जबकि 2009 में वह हांफते हुए सिर्फ सात सीटों पर बढ़त बना पाई थी.

तो क्या यह माना जाए कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी भाजपा यही करामात दिखानेवाली है? राजनीतिक विश्लेषक कमल जैन भाजपा की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘ लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पार्टी की उम्मीदें सातवें आसमान पर हैं. इस समय हरियाणा में कोई दल अगर अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है तो वह भाजपा ही है.’

हरियाणा में भाजपा की राजनीतिक हैसियत लंबे समय तक एक जूनियर पार्टनर की ही रही है. यह पहला मौका है जब भाजपा से जुड़ने के लिए दूसरे दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं की लाइन लगी है. बड़ी संख्या में कांग्रेस एवं अन्य दलों से आए नेताओं ने उसका दामन थामा है. विधानसभा चुनाव में पार्टी का टिकट पाने के लिए कतार दिनों-दिन लंबी होती जा रही है. अमित शाह की अध्यक्षता में पार्टी प्रदेश में ‘अबकी बार, भाजपा सरकार’ का नारा लगा रही है. प्रदेश में सरकार बनाने का सपना देखने का साहस पार्टी को लोकसभा चुनाव में सात सीटें जीतने से तो मिला ही है, लेकिन जैसाकि ऊपर बताया गया है, उसके अरमानों को पंख देने का काम 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 50 पर उसकी बढ़त ने भी किया है. पार्टी आश्वस्त है कि विधानसभा में 50 के आंकड़े का विस्तार होगा. इस सफलता के लिए पार्टी को अपने उसी तुरुप के इक्के पर भरोसा है जिसने उसे लोकसभा में प्रदेश की राजनीति का महानायक बना दिया. यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी का चेहरा मोदी ही हैं. पार्टी के नेताओं का दावा है कि मोदी के प्रति दीवानगी जनता में अभी भी कायम है. यही कारण है कि पार्टी नेता सभाओं में ‘मोदी के नाम पर फिर से दे दे’ वाले भाव के साथ वोट मांगते नजर आ रहे हैं.

भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण सत्तारुढ़ कांग्रेसी खेमे में मची अस्थिरता भी है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा बेहद कमजोर दौर से गुजर रहे हैं

भाजपा नेताओं के भीतर यह आत्मविश्वास इस बात से भी आता है कि उन्हें पता है उनके पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है. प्रदेश के एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘2009 के विधानसभा चुनाव में हमें सिर्फ चार सीटें हासिल हुईं थी. 2005 में मात्र दो सीटें थीं. पिछले चुनावों को देखते हुए हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है. पाने के लिए पूरी 90 सीटें हैं.’ कमल जैन कहते हैं, ‘यह सही है कि भाजपा के पास बहुत कुछ खोने के लिए नहीं है क्योंकि उसकी राजनीतिक ताकत यहां बहुत सीमित रही है. लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि इस बार पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है. इसलिए अगर एक तरफ उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है तो उसके लिए दांव पर भी बहुत कुछ लगा है.’

पार्टी अपनी जीत को लेकर किस कदर निश्चिंत है इसका उदाहरण उस समय भी दिखा जब लंबे समय से हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के साथ चले आ रहे गठबंधन के टूटने पर उसके नेता परेशान होने की बजाय खुशी से उछलते नजर आए. दोनों के रिश्ते में दरार लोकसभा चुनाव के समय ही पड़ गई थी. हिसार में भाजपा के एक अन्य सहयोगी अकाली दल के कर्ताधर्ता मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल ने कुलदीप बिश्नोई के खिलाफ और ओमप्रकाश चौटाला के पोते दुष्यंत चौटाला के पक्ष में प्रचार किया था. बिश्नोई ने इसके खिलाफ कई बार भाजपा नेतृत्व से शिकायत की लेकिन पार्टी ने उसे अनसुना कर दिया. रही-सही कसर लोकसभा चुनाव परिणामों ने पूरी कर दी. हजकां जिन दो सीटों पर लड़ी थी, उन दोनों पर बुरी तरह हारी. उसके बाद भी विश्नोई ने मनोबल समेटते हुए आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी. उनकी पार्टी ने मोदी की तर्ज पर पूरे प्रदेश में ‘अबकी बार, कुलदीप सरकार’ का नारा बुलंद किया. हजकां की इस हरकत को भाजपा ने हिमाकत माना. गठबंधन टूटने का दूसरा बड़ा कारण विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से जुड़ा था. भाजपा का मानना था कि चूंकि लोकसभा में उसका प्रदर्शन ऐतिहासिक रहा है ऐसे में पुराने फॉर्मूले के आधार पर सीटों का विभाजन नहीं होगा. इसके तहत विधानसभा की 90 सीटों में से दोनों पार्टियों को 45-45 सीटों पर चुनाव लड़ना था. भाजपा इस बार हजकां को 15-20 से अधिक सीटें देने के मूड में नहीं थी. इसलिए रिश्ता टूट गया. भाजपा नेता राजीव अग्रवाल कहते हैं, ‘हजकां के कुछ नेता अपनी राजनीतिक हैसियत भूल गए थे. अच्छा है उन्होंने खुद ही गठबंधन से बाहर जाने का फैसला कर लिया. लोकसभा चुनाव से पहले की स्थिति कुछ और थी, अब और है.’

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हरियाणा में तमाम चुनौतियों के बावजूद भाजपा आशान्वित है.

अब भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटी है. पार्टी सभी 90 सीटों पर प्रत्याशी उतारने जा रही है. हालांकि कहा जा रहा है कि आईएनएलडी के साथ पर्दे के पीछे उसका करार हो चुका है. स्थानीय पत्रकार बलवंत अस्थाना कहते हैं, ‘ देखिए लोकसभा में भाजपा आईएनएलडी से दूरी सिर्फ इस कारण से बनाए हुई थी क्योंकि भ्रष्ट्राचार के कारण पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को सजा हुई. ऐसे में काला धन और भ्रष्ट्राचार को लेकर कांग्रेस पर हमलावर भाजपा किसी भी तरह से आईएनएलडी के करीब नहीं दिखना चाहती थी. लेकिन अब वह चुनाव जीत चुकी है. प्रदेश में इस समय आईएनएलडी एक मजबूत स्थिति में है. ऐसे में पूरी संभावना है कि चुनाव पूर्व या उसके बाद दोनों दलों में एक गठबंधन उभर कर आए.’ आईएनएलडी नेता विनोद प्रकाश कहते हैं, ‘देखिए लोकसभा चुनावों में भले ही हमारा भाजपा से गठबंधन नहीं था, लेकिन हमारी पार्टी ने औपचारिक तौर पर ये घोषणा कर दी थी कि वह मोदी जी का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करती है. भाजपा से हमारा संबंध बहुत गहरा है. उसे सिर्फ चुनावी चश्मे से नहीं देखा जा सकता.’

इस तरह से हजकां के पार्टी से छिटकने की स्थिति में भी भाजपा की पांचों उंगलियां घी में हैं. अंबाला के एक भाजपा कार्यकर्ता अमित उनियाल कहते हैं, ‘इस बार पार्टी कार्यकर्ता जितना जोश से भरा है वह अभूतपूर्व है. पहले किसी भी विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ता इतना चार्ज नहीं रहता था. हम भी सोचते थे कि चाहे जितनी भी मेहनत क्यों न कर लें सेहरा किसी और के माथे पर ही बंधेगा. यानी मुख्यमंत्री तो गठबंधन दल के व्यक्ति का ही होगा. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. इस बार हरियाणा में भाजपा का मुख्यमंत्री बनेगा.’

भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण सत्तारुढ़ कांग्रेसी खेमे में मची राजनीतिक अस्थिरता भी है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपने राजनीतिक करियर के एक बेहद कमजोर दौर से गुजर रहे हैं. पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने उनके खिलाफ खुलेआम बगावत की है. उनको हटाने के लिए प्रदेश कांग्रेस के दर्जनों नेताओं ने दिल्ली-चंडीगढ़ एक कर दिया. बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी में रहते हुए ही लंबे समय तक हुड्डा की सार्वजनिक आलोचना की. फिर दोनों पार्टी छोड़कर भाजपा में चले गए. कुमारी शैलजा, कैप्टन अजय यादव, किरण चौधरी से लेकर तमाम नेता प्रदेश में है, जिन्हें हुड्डा फूटी आंख भी मंजूर नहीं हंै. अजय यादव ने तो इसी वजह से कैबिनेट से इस्तीफा तक दे दिया था जिसे हाईकमान के मानमनौव्वल के बाद उन्होंने वापस ले लिया. इन नेताओं ने सामूहिक एवं व्यक्तिगत कई स्तरों पर कई बार हुड्डा को निपटाने का प्रयास किया, लेकिन हाईकमान की मेहरबानी से वे बचे रहे. यह जरूर है कि प्रदेश में उनकी राजनीतिक स्थिति तेजी से कमजोर हुई. प्रदेश में कांग्रेस के कई विधायकों और नेताओं ने (जिनमें से कइयों ने पार्टी छोड़ दी) हुड्डा पर प्रदेश के विकास में भेदभाव करने का आरोप लगाया. प्रदेश के कांग्रेसी नेता ही हुड्डा को हरियाणा का नहीं बल्कि रोहतक का सीएम बताते नजर आते हैं. लोकसभा चुनाव के परिणाम हुड्डा के लिए कोढ़ में खाज बनकर आए. लोकसभा की 10 सीटों में से कांग्रेस मात्र एक सीट जीत सकी. वह एक सीट भी हुड्डा के बेटे दीपेंद्र हुड्डा की थी. पार्टी नेता मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का हश्र लोकसभा जैसा ही होनेवाला है. चुनाव करीब आने के साथ ही पार्टी से खिसक रहे नेताओं की तादाद बढ़ रही है. कांग्रेस की यही कमजोरी भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रदेश में भाजपा के हिस्से में सब हरा ही हरा है. प्रदेश में पार्टी की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वह दूसरे दलों से आए नेताओं के दम पर सिंघम बनने की कोशिश कर रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ऐसी स्थिति थी कि उसके पास चुनाव लड़ने लायक नेता तक नहीं थे. ऐसे में उसे दूसरे दल से आए नेताओं को टिकट देना पड़ा. जिन आठ सीटों पर उसने चुनाव लड़ा उसमें से पांच पर या तो उसने दूसरे दल से आए व्यक्ति को टिकट दिया या किसी नए व्यक्ति को. पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ने वाले ये वे लोग थे जो चुनावी रणभेरी बजने के बाद पार्टी में शामिल हुए थे. हरियाणा में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को यही करना पड़ेगा.

जमीन पर चुनाव-प्रचार में भी भाजपा के अपने नेताओं से ज्यादा दूसरे दल से आए नेता ही दिखाई दे रहे हैं. उदाहरण के लिए कांग्रेस से भाजपा में आए राव इंद्रजीत और बीरेंद्र सिंह का नाम लिया जा सकता है. बीरेंद्र सिंह हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं. वे पिछले 2-3 सालों से अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री हुड्डा से नाराज चल रहे थे. बीरेंद्र का कहना था कि हुड्डा प्रदेश के विकास में भेदभाव कर रहे हैं और इस कारण से जनता की कांग्रेस से नाराजगी लगातार बढ़ती जा रही है. ऐसे में हुड्डा को हटाकर किसी और को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए. अपनी बात मनवाने के लिए बीरेंद्र ने साम, दाम, दंड, भेद समेत सारी रणनीति आजमा ली, लेकिन हाईकमान की आंखों में हुड्डा के प्रति प्रेम बरकरार रहा. सारे उपाय खर्च करने के बाद वे अंततः कांग्रेस से अपने 45 साल पुराने संबंधों को सलाम करते हुए भाजपा में अपना भाग्य आजमाने चले आए.

हरियाणा में भाजपा की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वह दूसरे दलों से आए नेताओं के दम पर सिंघम बनने की कोशिश कर रही है

कमल जैन कहते हैं, ‘पार्टियों में दूसरे दलों के नेताओं का आना-जाना लगा रहता है लेकिन इसका एक अनुपात होता है. चंद माह पहले दूसरे दलों से आए लोगों के हाथ में कमान नहीं दी जाती. लेकिन यहां  स्थिति यह है कि दशकों तक कांग्रेस की राजनीति करते रहे नेता, राज्य में भाजपा का चेहरा बने घूम रहे हैं. जनता इसे कैसे लेती है यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे.’

भाजपा का दूसरे दलों के नेताओं पर आश्रित होने का मामला प्रदेश में उसके कमजोर संगठन से भी जुड़ा हुआ है. उसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि पिछले पांच सालों भाजपा ने प्रदेश में कोई बड़ा विरोध प्रदर्शन, आंदोलन नहीं किया. आलम यह रहा कि कुछ समय पहले तक लोग कहा करते थे कि हुड्डा का रास्ता साफ है, उनके सामने कोई चुनौती नहीं है क्योंकि चौटाला पिता-पुत्र जेल में हैं, हजकां की राजनीतिक हैसियत है नहीं और भाजपा की राजनीतिक ताकत पर चर्चा टाइम पास करने का साधन थी. पार्टी की यही संगठनात्मक कमजोरी उसके जीत के दावों पर प्रश्न खड़ा कर देती है.

भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर भी है. प्रदेश में पार्टी ने किसी को सीएम पद के लिए औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया है. पार्टी का कहना है कि वह प्रदेश में मोदी को सामने रखकर ही चुनाव लड़ेगी. लेकिन इससे दो तरह की दिक्कतें आ रही हैं. पहली यह कि सत्तारुढ कांग्रेस इसके माध्यम से भाजपा पर यह कहते हुए हमला कर रही है कि क्या अब मोदी हरियाणा में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भी हैं जो पार्टी उनके नाम पर चुनाव लड़ रही है. सीएम उम्मीदवार घोषित न होने के कारण जनता में भी एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है. स्थानीय पत्रकार हितेष रघुवंशी कहते हैं, ‘सीएम कैंडीडेट सामने न आने की स्थिति में भाजपा समर्थक भी भ्रम की स्थिति में हैं. जनता को भी समझ नहीं रहा कि मन बनाए तो किसके लिए बनाएं.’

एक तरफ जनता भ्रम की स्थिति में है तो दूसरी तरफ पार्टी के भीतर ‘मैं सीएम’ नामक विषाणु तेजी से फैला है. हाल में उसके दो सांसदों अश्विनी चोपड़ा और राव इंद्रजीत सिंह के समर्थकों के बीच खूब जूतम-पैजार हुई. सूत्रों के मुताबिक इसकी वजह यह थी कि करनाल के सांसद चोपड़ा अपने अखबार के माध्यम से गुड़गांव से पार्टी सांसद राव इंद्रजीत पर लगातार हमलावर थे. राव साहब को लगा कि ऐन चुनाव के वक्त चोपड़ा उनके मुख्यमंत्री बनने के अरमानों को चौपट करने में लगे हैं.

फिर बीरेंद्र सिंह भी हैं. हुड्डा को हटाने का उनका असफल महाभियान उनकी जगह सीएम बनने की लालसा से ही शुरू हुआ था. कुछ समय पहले ही एक सभा में उन्होंने कहा, ‘कौन ऐसा आदमी होगा जो उस राज्य का मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहेगा जहां उसने जन्म लिया है. मैं भी सीएम बनना चाहता हूं.’ सूत्र बताते हैं कि जब बीरेंद्र कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ आए हैं तो वे इससे कम पर राजी भी नहीं होंगे. बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत के बीच हरियाणा भाजपा में अपना वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई अलग चल रही है. प्रदेश के भाजपा नेताओं के आए दिन फेसबुक पेज बन रहे हैं. जहां उन्हें हरियाणा के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजक्ट किया जा रहा है. मुख्यमंत्री बनने को बेताब लोगों की लिस्ट में प्रदेशाध्यक्ष रामबिलास शर्मा, कैप्टन अभिमन्यु, प्रदेश संगठन मंत्री मनोहर लाल खट्टर, केंद्रीय राज्य मंत्री कृष्णपाल गुर्जर, अंबाला से भाजपा विधायक अनिल विज, रोहतक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ चुके ओमप्रकाश धनखड़ का नाम भी शामिल है. इन सभी के समर्थक जनता से अपने नेता को सीएम बनाने की अपील करते देखे जा सकते हैं.

अभी इन नेताओं के बीच सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम लट्ठा वाला मामला चल ही रहा था कि तेजी से यह खबर फैली कि पार्टी सुषमा स्वराज को प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर सकती है. सुषमा का नाम सामने आने के बाद भाजपा के कई स्थानीय नेताओं ने सुषमा को बधाई तक दे डाली. नेताओं ने सुषमा के पक्ष में बयान देना जारी कर दिया. मामला बिगड़ता देख केंद्रीय भाजपा ने सुषमा के नाम को अफवाह बताकर किसी तरह मामले को शांत किया.

इन तमाम चुनौतियों और सीमाओं के बाद भी भाजपा आशान्वित है. वह अन्य दलों को हताश करने की सीमा तक आत्मविश्वास का प्रदर्शन कर रही है. अब यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि उसके इस आत्मविश्वास में दम कितना था और अति कितनी.

brijesh.singh@tehelka.com

रांची वाया दिल्ली

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सात-आठ सितंबर को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह झारखंड की राजधानी रांची में थे. मौका था पार्टी के कार्यकर्ता समागम आयोजन का. आधिकारिक तौर पर शाह विधानसभा चुनाव के पहले झारखंड में पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए पहुंचे थे. इससे कुछ समय पहले अनाधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यहां चुनावी रणभेरी बजा चुके थे, जब वे एक सरकारी आयोजन में यहां पहुंचे थे. शाह के आगमन के पहले रांची की सड़कों पर स्थिति देखने लायक थी. कोई सड़क, कोई गली ऐसी नहीं बची थी जहां भाजपा के झंडे-बैनर-होर्डिंग न लगे हों. जिन-जिन रास्तों से अमित शाह को गुजरना था उन्हें देखकर लग रहा था कि भाजपा के नेताओं के बीच बैनर-पोस्टर-होर्डिंग-झंडे की होड़ लगी है. प्रदेश भाजपा के सभी बड़े नेताओं के अपने-अपने कार्यकर्ताओं ने पूरी कोशिश की थी कि अपने नेताजी का होर्डिंग विरोधी नेताजी से बड़ा और आकर्षक तरीके से लगे. पता नहीं अमित शाह उन होर्डिंगों में से किसी को देख भी सके या नहीं, लेकिन आठ सितंबर को रांची के प्रभात तारा मैदान में आयोजित कार्यकर्ता समागम में अपने भाषण में उन्होंने यह जरूर साफ कर दिया कि लाखों रुपये फूंककर अंजाम दी गई बैनर-पोस्टर-होर्डिंग की लड़ाई का असर नहीं होनेवाला. शाह ने साफ कहा कि अगले कुछ ही माह में झारखंड में जो विधानसभा चुनाव होनेवाला है, वह नरेंद्र मोदी के नाम और नेतृत्व के आधार पर लड़ा जाएगा और किसी को भी मुख्यमंत्री के तौर पर चुनाव के पहले पेश नहीं किया जाएगा.

अमित शाह ने कार्यकर्ता समागम में और कई बातें कहीं. मसलन, लोकसभा में कांग्रेसमुक्त नारे के साथ झारखंड के 14 संसदीय सीटों में से 12 पर कब्जा हुआ, विधानसभा में भाजपायुक्त नारे के साथ 81 में से 70 सीटों पर कब्जा कीजिए और इसके लिए विधानसभा सीट की बजाय एक-एक बूथ को जीतने की योजना पर काम कीजिए. उन्होंने यह भी गुरुमंत्र दिया कि झारखंड में भाजपा कार्यकर्ता विधायक को विजयी बनाने के लिए ऊर्जा नहीं लगाएं बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बनवाने के लिए चुनाव में भाग लें.

शाह की इन बातों से कार्यकर्ताओं में जोश आता रहा. मंच पर भाजपा के दो सबसे चर्चित दुश्मनों पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और पूर्व उपमुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को वर्षों बाद एक दूसरे से गले मिलते देख, एक दूसरे को शॉल ओढ़ाते देख कार्यकर्ताओं को खुशी भी हुई. लेकिन कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ में जोश के बीच यह सवाल भी उछलता रहा कि जब कोई मुख्यमंत्री का उम्मीदवार ही घोषित नहीं होगा तो यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर कैसे लड़ेंगे!

कार्यकर्ताओं के मन में उठने वाले ये सवाल बेजा नहीं हैं. भाजपा मोदी के नाम पर जिस तरह झारखंड में 14 में से 12 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही, उसी तरह वह विधानसभा चुनाव में भी मोदी के सहारे बेड़ा पार कर लेना चाहती है. लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? माना जा रहा है कि भले ही झारखंड की जनता ने लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा की झोली भर दी हो, लेकिन मुख्यमंत्री कौन होगा, यह आश्वस्त किए बिना विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए यह प्रदर्शन दोहराना मुमकिन नहीं. इसके अलावा जब आदिवासी या गैर आदिवासी मुख्यमंत्री होने के सवाल पर अमित शाह ने चुनाव के बाद ही कुछ तय करने की बात कही तो उससे भी ऊहापोह की स्थिति बढ़ गई है. कुछ महीने पहले व्यक्ति के नाम पर वोट पाकर झारखंड में इतिहास रचनेवाली पार्टी अब विधानसभा चुनाव में व्यक्ति निरपेक्ष होकर सिर्फ पार्टी के नाम पर वोट चाहती है. जानकारों के मुताबिक यह दांव उलटा पड़ जाने की भी गुंजाइश कोई कम नहीं!

आदिवासी या गैर आदिवासी मुख्यमंत्री होने के सवाल पर जब शाह ने चुनाव के बाद ही कुछ तय करने की बात कही तो उससे भी ऊहापोह की स्थिति बढ़ गई है

फिलहाल सभी दलों के बागियों, और अपने कुंठित या अपार आकांक्षा रखनेवाले नेताओं के लिए एक मजबूत प्लेटफॉर्म की तरह बनी भाजपा प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में बड़े सपने देख रही है. यह सपना देखने का हक भी उसे लोकसभा चुनाव परिणाम ने दिया है. लेकिन सवाल यह है कि कहीं पार्टी के लिए ज्यादा जोगी मठ उजाड़ जैसी स्थिति नहीं हो रही. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा से पांच विधायक भाजपा की झोली में आ चुके हैं. झामुमो के हेमलाल मुर्मू जैसे नेता भी अब पार्टी की झोली में हैं. और भी कई दलों के नेताओं का थोक में भाजपा में आना हुआ है. इन नेताओं की भाजपा से ज्यादा रुचि अपनी सीट की पक्की जीत में है. भाजपा से इनका कितना सरोकार है, इसे अमित शाह के भाषण के दौरान भी देखा जा सकता था. जब शाह मंच से बड़े-बडे़ मंत्र दे रहे थे और जोर-जोर से आह्वान कर रहे थे, तब नए-नए भाजपाई बने इन नेताओं में से अधिकांश नीचे दर्शक दीर्घा में लगभग सो ही रहे थे. वैसे उनकी नींद भी बाद में तब गायब हो गई जब भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने यह कहा कि यह जरूरी नहीं कि जो भाजपा में आए हैं या आ रहे हैं, उन्हें टिकट दिया ही जाए.

बहरहाल, यह दूसरी बात है. सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर ही अगर भाजपा झारखंड में विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है तो क्या प्रदेश भाजपा के ही दिग्गज उतनी ऊर्जा से चुनाव लड़ पाएंगे. प्रदेश भाजपा में नेताओं का एक समूह है, जो किसी तरह मुख्यमंत्री बनने के सपने के साथ दिन-रात जीता है. अर्जुन मुंडा तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वे स्वाभाविक तौर पर इस कुर्सी के सबसे बड़े दावेदार माने जाते हैं. मुंडा आदिवासी नेतृत्व के नाम पर सबसे बड़े दावेदार होंगे तो दूसरी ओर यह बात भी हवा में इन दिनों तेजी से फैली है कि संघ की इच्छा है कि लोहरदगा से सांसद और पक्के संघनिष्ठ सुदर्शन भगत को भी एक बार आदिवासी के नाम पर आजमाया जाना चाहिए.

यह तो आदिवासी के नाम पर भाजपा से मुख्यमंत्री बनाने की बात हुई. गैर आदिवासी नेतृत्वकर्ता में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा अपनी इच्छा का इजहार खुद कर चुके हैं तो रघुवर दास की अर्जुन मुंडा से लड़ाई ही इस बात की रही है कि वे योग्य होते हुए भी अब तक एक बार भी मुख्यमंत्री बनने का स्वाद क्यों नहीं चख सके.

इन सबके बीच भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय हैं जिनके लिए भाजपा से ज्यादा महत्व सत्ता का रहा है. वे बीच में बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो की बेहतर स्थिति होने से उसके पाले में भी खिसक चुके थे. बाद में लौटे तो अर्जुन मुंडा ने एंड़ी-चोटी का जोर लगाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया ताकि स्थिति उनके अनुकूल रहे.

नेतृत्वविहीन चुनाव लड़ने के सवाल पर कई भाजपा नेताओं से बात होती है. कोई साफ-साफ जवाब नहीं दे पाता. भाजपा सांसद सुदर्शन भगत कहते हैं, ‘भाजपा विकास करेगी, इसलिए यह प्रमुख एजेंडा होगा और जनता वोट देगी.’ अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘भाजपा समस्याओं का समाधान करना जानती है, इसलिए जनता का रुझान भाजपा की ओर होगा.’ भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव कहते हैं कि झारखंड की जनता बेचैन है, वर्तमान सरकार से परेशान है, इसलिए जनता कमल पर बटन दबाएगी.

सब गोलमटोल बातें रखते हैं, लेकिन सवाल फिर वही है कि क्या वाकई भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभा की भी वैतरणी पार कर लेना इतना आसान होगा. क्या लोकसभा में 14 में से 12 सीटों को पा लेने का मतलब इसके लिए आश्वस्त होना है कि विधानसभा में भी वैसा ही जादू चलेगा?

इस सवाल का कुछ ठीक-ठाक जवाब भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान देते हैं. वे कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने अकेले ही विधानसभा में चुनाव लड़ने का मन बनाया है लेकिन राजनीति में कभी किसी से परहेज नहीं होता. हमेशा बातचीत के रास्ते खुले होते हैं.’ अतीत की याद दिलाते हुए वे बताते हैं कि 2004 में पार्टी को लोकसभा में मात्र एक सीट पर संतोष करना पड़ा था जबकि उसी वक्त विधानसभा में 31 सीटें आई थीं. फिर 2009 में लोकसभा में जब भाजपा के सांसदों की संख्या आठ हो गयी तो विधानसभा में सीटें घट गईं. प्रधान कहते हैं, ‘इस बार हमें 14 में से 12 सांसद मिले हैं तो इतिहास देखते हुए बिल्कुल ही अलग रणनीति से चुनाव लड़ना होगा.’

प्रधान की चिंता वाजिब है. लोकसभा के आधार पर विधानसभा का अनुमान लगाना इतना आसान नहीं. यानी नरेंद्र मोदी के नाम पर केंद्र की सत्ता पर कब्जा करने का मतलब यह नहीं कि उनके ही नाम पर रांची की सत्ता पर भी कब्जा हो जाए. और फिर इस बार झारखंड विधानसभा में भाजपा के सामने इसके पहले वाले विधानसभा चुनाव से ज्यादा बड़ी चुनौती भी है. बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 67 सीटों पर चुनाव लड़ा. 24.44 फीसदी वोट के साथ उसकी सीटों की संख्या 18 रही. उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस 61 सीटों पर चुनाव लड़कर 21.43 प्रतिशत मतों के साथ 14 सीटें पाने में सफल रही थी. झामुमो ने 78 सीटों पर चुनाव लड़ा. 15.79 प्रतिशत वोट पाए और उसकी सीटों की संख्या भाजपा के ही बराबर रही यानी 18. उधर, महज 25 सीटों पर चुनाव लड़कर बाबूलाल मरांडी की पार्टी का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा रहा. 28.24 प्रतिशत वोट पाकर झाविमो 11 सीटों पर कब्जा करने में सफल हो गई. लालू प्रसाद की पार्टी राजद ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा और 7.28 प्रतिशत वोटों के साथ पांच सीटें पाईं. उधर, बिहार में नीतीश कुमार की लोकप्रियता के उफानी दिनों में उनकी पार्टी जदयू 14 सीटों पर नीतीश कुमार के ही नाम पर चुनाव लड़ी और 5.94 प्रतिशत वोटों के साथ दो सीटें हासिल करने में सफल रही.

ये आंकड़े भाजपा की चुनौतियों को बड़ा करते हैं. साफ है कि एक-दो प्रतिशत का वोट इधर-उधर होना भी खेल बिगाड़ सकता है. भाजपा के विरोधी इसकी तैयारी भी कर रहे हैं. भाजपा के खिलाफ जदयू, राजद, कांग्रेस और झामुमो महागठबंधन बनाने की तैयारी है. यानी बिहार की तर्ज पर ही समीकरण बन सकता है. बिहार में विगत माह उपचुनाव के आये नतीजे से यह महागठबंधन बनने की प्रक्रिया और तेज हुई है. जैसे बिहार में नीतीश और लालू प्रसाद के मिलने से भाजपा को नुकसान हुआ, वैसे ही झारखंड में विरोधियों को लगता है कि सबके मिलने से वोट प्रतिशत अचानक बढ़ेगा और भाजपा चारों खाने चित्त हो जाएगी.

यह अनुमान लगाना कोई हवाई महल बनाने जैसा भी नहीं. ऐसा हो सकता है. लेकिन दूसरी ओर भाजपा को इससे लाभ होने की भी गुंजाइश होगी, क्योंकि तब भाजपा बनाम अन्य की लड़ाई होगी. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक तब भाजपा को शहरी मतदाताओं के साथ-साथ सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में आसानी होगी. महागठबंधन बनने की स्थिति में भाजपा के पास दो दलों से गठबंधन करने की गुंजाइश बनती दिखती है. राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो की पार्टी आजसू के साथ और दूसरा पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो के साथ. दोनों को साथ लेकर एक साझा गठबंधन बनाने का विकल्प भी है. सूत्र बता रहे हैं कि इसके लिए कोशिशें जारी हैं. दोनों ही ओर से. लेकिन सीटों पर बात नहीं बन पा रही. आजसू से तो फिर भी भाजपा को कोई परहेज-गुरेज नहीं, क्योंकि दोनों वर्षों साथ-साथ रह चुके हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव में आजसू के ही मुखिया सुदेश महतो ने भाजपा को कमजोर करने के लिए रांची संसदीय सीट से खुद चुनाव लड़ा था. फिर भी यह इतना बड़ा मसला नहीं कि दोनों का मेल न हो सके. संभव है दोनों में साझा-समझौता हो जाए, लेकिन बाबूलाल मरांडी, जो इन दिनों सबसे मुश्किल दौर में हैं और जिनके विधायक समूह बनाकर भाजपा में जा चुके हैं, उनसे तालमेल करना भाजपा के लिए इतना आसान नहीं होगा. हालांकि संघ का एक बड़ा खेमा और भाजपा में भी एक छोटा खेमा यह चाहता है कि बाबूलाल की घर वापसी हो जाए यानी वे फिर भाजपा में आ जाएं या कम से कम भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ें.

लेकिन, बाबूलाल मरांडी की महात्वाकांक्षा दूसरी है. शिबू सोरेन काफी बुजुर्ग हो चले हैं. सक्रिय राजनीति में उतने सक्रिय नहीं रहते. अपने बेटे हेमंत को लगभग राजपाट सौंप चुके हैं. जानकारों के मुताबिक हेमंत भले नंबर गेम के तहत मुख्यमंत्री बन गये हैं लेकिन अभी भी उनमें अपने पिता की तरह राजनीतिक नेतृत्व के गुण और गुर नहीं दिखते. बाबूलाल की महत्वाकांक्षा शिबू सोरेन के बाद सबसे बड़ा और सर्वमान्य आदिवासी नेता बनने की है. इसी के चलते वे एक बड़ा दांव खेलते हुए सोरेन से टकराने संथाल परगना चले गए थे. यह अलग बात है कि चुनाव हार गए.

दूसरी बात यह भी है कि बाबूलाल किसी भी तरह भाजपा से सटें, यह भाजपा के ही कई नेता नहीं चाहते. कम से कम अर्जुन मुंडा तो कतई नहीं क्योंकि वे बाबूलाल के समय में ही अचानक उभरे थे और बाबूलाल के बाद मुख्यमंत्री बन गए थे. मुंडा जानते हैं कि बाबूलाल अगर किसी तरह भाजपा से सट गए तो भाजपा में आदिवासी नेता होने की वजह से उन्हें वह तरजीह नहीं मिलेगी, जो संघ से संबंध होने की वजह से बाबूलाल को मिल सकती है.

उधेड़बुन के ऐसे ही दौर से गुजर रही भाजपा के बीच नरेंद्र मोदी पिछले माह तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पिछले सप्ताह कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच चुनावी शंखनाद कर जा चुके हैं. मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने का असर क्या होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी है. बस भाजपा के लिए सुकून की बात यही है कि कांग्रेस अभी आपस में ही माथाफोड़ी दौर में है. राज्य के वर्तमान मंत्रियों के कारनामे सामने आ रहे हैं. और इस वजह से कांग्रेस से लेकर झामुमो के खिलाफ एक निराशा का माहौल है.

जम्मू-कश्मीर: बाढ़ ने बदले समीकरण

फोटोः एएफपी
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फोटोः एएफपी

जम्मू-कश्मीर बाढ़ से उपजी त्रासदी की गिरफ्त में है. बाढ़ के पहले प्रदेश में राजनीतिक गतिविधियों की बाढ़ आई हुई थी. माना जा रहा था कि हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के साथ ही जम्मू कश्मीर में लगभग एक साथ ही विधानसभा चुनाव होंगे. लेकिन बाढ़ के कारण जम्मू-कश्मीर का चुनाव टल गया है. कब होगा ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता. जब भी चुनाव होगा तो उसके परिणाम क्या होंगे, आज इस प्रश्न से ज्यादा बड़ा प्रश्न यह है कि राज्य में चुनाव कब होंगे. क्योंकि प्रदेश में विधानसभा चुनाव में क्या होगा यह काफी कुछ इस पर भी निर्भर करेगा कि चुनाव होते कब हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव जब भी होंगे बाढ़ से आई त्रासदी उसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी. यानी जनता जब वोट देने जाएगी तब ईवीएम का बटन दबाते समय उसके दिमाग में इस समय की त्रासदी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी.

ऐसे में पहले यह जानना जरूरी है कि बाढ़ के कारण राजनीतिक तौर पर प्रदेश में क्या बदला है और इसके कारण आने वाले समय में क्या-क्या और कितना बदल सकता है.

बाढ़ की त्रासदी आम जनता पर तो पहाड़ बनकर टूटी ही है, उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार के लिए भी यह सबसे बड़ी राजनीतिक त्रासदी साबित हुई है. आज उमर सरकार को जिस स्तर पर आम जनता के विरोध का सामना करना पड़ रहा है उसकी कल्पना उसने शायद ही की थी. बाढ़ प्रभावितों के बीच प्रदेश सरकार की छवि अक्षम, यहां तक कि एक ऐसी सरकार की बनी है जो हाथ पर हाथ धरे लोगों को मरते हुए देख रही है. उधर, अब्दुल्ला के पास अपने तर्क हैं. उन्होंने कहा कि उनकी सरकार बाढ़ में बह गई थी. उनके अपने आवास में बिजली नहीं है, उनके मोबाइल फोन में कनेक्टिविटी नहीं है. उनके मंत्री लापता हैं. राज्य विधानसभा भवन, उच्च न्यायालय, पुलिस मुख्यालय और अस्पताल सभी पानी में हैं.

मुख्यमंत्री अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आम जनता में सरकार को लेकर गुस्सा बहुत है. कुछ समय पहले ही एक राहत शिविर में पहुंचने पर स्थानीय जनता ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रदेशाध्यक्ष सैफुद्दीन सोज को बाहर जाने पर मजबूर कर दिया.

भाजपा कितनी उत्साहित है यह इससे भी जाहिर होता है कि पार्टी जम्मू-कश्मीर में अगला मुख्यमंत्री हिंदू होने का दावा कर रही है

प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार खालिद अख्तर कहते हैं, ‘बाढ़ ने जिस पैमाने पर तबाही मचाई है. आम लोगों को जिस त्रासदी से गुजरना पड़ा है. उससे देखते हुए इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में अगले कुछ समय में जब भी विधानसभा चुनाव होंगे, यह त्रासदी उस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाली है.’ खालिद अकेले नहीं है. जम्मू स्थित वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी चिंग्रू कहते हैं, ‘इस बाढ़ ने बहुत सारी चीजों को एक्सपोज किया है. लोगों को बहुत सारी चीजें पहली बार करीब से जानने-समझने को मिली हैं. आज जनता बाढ़ में फंसी हुई है. चुनाव आने दीजिए नेताओं को तब पता चलेगा कि बाढ़ कितनी भयावह थी.’

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आगामी विधानसभा चुनाव में इस बाढ़ से सर्वाधिक नुकसान नेशनल कॉफ्रेंस (एनसी) को होने जा रहा है. खालिद कहते हैं, ‘पार्टी की स्थिति तो पहले से ही बहुत खराब है. लोकसभा के परिणाम सबके सामने हैं. बाढ़ ने तो विधानसभा चुनावों में उसकी होने वाली फजीहत पर अंतिम मोहर लगा दी है.’

पिछले लोकसभा चुनाव में नेशनल कॉफ्रेंस ने कश्मीर घाटी की तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था और तीनों पर वह हार गई थी. उसके लिए सबसे शर्मनाक हार उसके पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के पिता फारूख अब्दुल्ला की थी. पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को 40 साल के अपने राजनीतिक करियर में पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा था. नेशनल कॉफ्रेंस के लिए उसकी 60 साल की राजनीति में यह पहली बार था जब जम्मू-कश्मीर में उसे एक भी सीट नहीं मिली. कांग्रेस की स्थिति भी ऐसी ही रही. कांग्रेस ने भी जिन तीन सीटों पर चुनाव लड़ा उन पर वह बुरी तरह हारी. खालिद कहते हैं, ‘जनता इन दोनों की गठबंधन वाली सरकार से त्रस्त हो चुकी है. ये दोनों जनता की नजरों में बहुत पहले ही भरोसा खो चुके थे. इनके प्रति जनता में बहुत गुस्सा है जो लोकसभा चुनावों में दिखाई दिया.’

Amitshahऐसे में कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों की स्थिति कुछ वैसी ही रहने वाली है जैसी लोकसभा में रही थी. बल्कि हो सकता है कि उनकी हालत बदतर हो. जानकार बताते हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन सरकार के खिलाफ तो पहले ही लोगों में गुस्सा भरा था. इस बाढ़ के बाद तो वह सातवें आसमान पर पहुंच गया है. ऐसे में विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों का सूपड़ा साफ होना काफी हद तक निश्चित है. उमर अब्दुल्ला सरकार की स्थिति समय के साथ और खराब होगी. जैसे-जैसे बाढ़ प्रभावितों का दर्द बढ़ेगा वैसे-वैसे सरकार के खिलाफ भी गुस्सा बढ़ता जाएगा. इसका नुकसान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और एनसी को उठाना पडेगा.

दोनों दलों खासकर कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ गुस्सा और नाराजगी ही वह संजीवनी है जिसके दम पर पीडीपी प्रदेश में एक बार फिर से सत्ता में वापसी की राह देख रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में श्रीनगर सीट पर एनसी के अध्यक्ष फारुक अब्दुल्ला को उनकी ऐतिहासिक हार का स्वाद चखाने का काम पीडीपी ने ही किया. 1999 में अपने गठन के बाद पीडीपी के लिए यह पहला मौका था जब उसने कश्मीर घाटी की तीनों सीटें जीतीं. कश्मीर क्षेत्र की तीनों सीटें तो पार्टी ने जीती हीं, जम्मू और उधमपुर की सीट पर भी उसके प्रत्याशियों को ठीक-ठाक मत मिले थे. स्थानीय पत्रकार मीर इमरान पीडीपी की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘अगले विधानसभा चुनावों के बाद पीडीपी नेतृत्व की सरकार बननी लगभग तय है. बस भाजपा कोई बडा उलटफेर न कर दे.

जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक रंगमंच पर कोई किरदार अगर पिछले कुछ समय में बहुत तेजी से चर्चा में आया है तो वह भाजपा है. इसके पीछे पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी की सफलता सबसे बड़ा कारण है. पार्टी पिछले चुनाव में प्रदेश की छह लोकसभा सीटों में से तीन पर भगवा फहराने में कामयाब रही. लद्दाख की लोकसभा सीट तो उसने अपने राजनीतिक इतिहास में पहली बार जीती थी. इन सीटों को जीतने से ज्यादा जिस तथ्य से उसकी आंखों में चमक आई है वह यह है कि पार्टी जम्मू इलाके के 37 विधानसभा क्षेत्रों में से 30 पर पहले नंबर पर आई. जम्मू के अलावा जिस लद्दाख सीट को उसने पहली बार जीतने में सफलता पाई है उस संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाली चार विधानसभा क्षेत्रों में से तीन पर वह पहले नंबर पर रही. ऐसे में जिस पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में 11 सीटें मिली थीं वह इस बार 33 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे आगे रही.

भाजपा को अगले विधानसभा में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा इन्हीं आंकड़ों से मिल रही है. यही कारण है कि पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर एक व्यापक रणनीति बनाते हुए काम कर रही है. जम्मू के भाजपा नेता दिवाकर शर्मा कहते हैं, ‘हमारी रणनीति बहुत साफ है. हमें जम्मू और लद्दाख की कुल 41 सीटों को हर हाल में जीतना है और हम जीतेंगे. इस बार चूकने का कोई चांस ही नहीं है. जनता ने लोकसभा चुनावों मे बता दिया है कि वह किससे साथ है. कश्मीर घाटी में स्थिति थोड़ी अलग है, लेकिन हम वहां भी इस बार अपना खाता जरूर खोलेंगे.’

लोकसभा चुनाव के परिणामों का पार्टी पर कितना गहरा असर पड़ा है वह इस बात से भी जाहिर होता है कि पार्टी जम्मू-कश्मीर में अगला मुख्यमंत्री हिंदू होने का दावा कर रही है. कुछ समय पहले ही जम्मू क्षेत्र में एक रैली को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा ‘अगली बार इस प्रदेश का मुख्यमंत्री भाजपा का होगा. आप लोग एक बार सोच कर तो देखिए. अगर हमने एक भाजपा कार्यकर्ता को यहां का मुख्यमंत्री बना दिया तो पूरी दुनिया में उसका मैसेज जाएगा. हमें इस बार यह कर दिखाना है. बाकी राज्यों की मुझे चिंता नहीं है क्योंकि वहां तो हम जीतेंगे, लेकिन यहां अगर हम जीत गए तो उसके मायने अलग होंगे.’

केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर के दौरे पर तीन-चार बार जा चुके हैं. लगभग उतनी ही बार अमित शाह भी प्रदेश का दौरा कर चुके हैं. इससे वहां भाजपा का कार्यकर्ता उत्साहित हंै. दिवाकर कहते हैं, ‘पहले भी पार्टी यहां चुनाव लड़ती थी, लेकिन वह आक्रामकता नहीं थी. कोई मजाक में भी प्रदेश में अपनी पार्टी का सीएम होगा ऐसा नहीं सोचता था. लेकिन अब इसके अलावा हम कुछ और नहीं सोच रहे.’

नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन सरकार के खिलाफ तो पहले ही लोगों में गुस्सा भरा था. इस बाढ़ के बाद तो वह सातवें आसमान पर पहुंच गया है

भाजपा मिशन 44+ को लेकर कितना गंभीर है इस बात का पता उन मीडिया रिपोर्टों से भी चलता है जिसमें बताया गया है कि कैसे भाजपा जम्मू-कश्मीर के अलावा देश के अन्य हिस्सों में पलायन कर चुके कश्मीरी पंडितों की सूची तैयार कर रही है. उन्हें पार्टी से जोड़ने और अगले चुनाव में जम्मू-कश्मीर आकर भाजपा के लिए वोट करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.

भाजपा के इन प्रयासों का कांग्रेस पर क्या असर पड़ा है इसका पता उसके मंत्री श्यामलाल के बयान से चलता है जिसमें उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर का अगला मुख्यमंत्री कोई हिंदू बनना चाहिए. जानकारों की मानें तो कांग्रेस को पता है कि अगर प्रदेश में ध्रुवीकरण होता है तो सबसे अधिक नुकसान उसी का होने वाला है.

हालांकि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो भाजपा के प्रयास को दुस्साहस करार देते हैं. खालिद कहते हैं, ‘यह सही है कि भाजपा ने लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन किया. एसेंबली सेग्मेंट्स में उसे अच्छी सफलता मिली. लेकिन अपना मुख्यमंत्री बनाने की बात करना थोड़ा ज्यादा हो गया. उसके पास कश्मीर और लद्दाख में एक भी विधायक नहीं है. हां, यह अमित शाह की तरफ से कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के लिए छोड़ा गया शिगूफा हो सकता है. वे इसके लिए जरूर प्रयास कर सकते हैं कि उनके बगैर राज्य में किसी की सरकार बन नहीं पाए.’

भाजपा बेहद आक्रामक तौर पर पूरे प्रदेश में अपना चुनावी अभियान चला रही है. पार्टी को सत्ता के शिखर पर पुहंचाने के लिए संघ परिवार भी पूरी जोर-शोर से लगा हुआ है. संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘यह कहना गलत है कि हम भाजपा के लिए लगे हुए हैं. संघ का तो बहुत पहले से यहां काम रहा है. हां, अब यह काम लोगों की नजरों में आ रहा है वह अलग बात है.’

सूत्र बताते हैं कि कैसे जम्मू-कश्मीर खासकर जम्मू के इलाकों में लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से ही संघ और उससे जुड़े संगठनों ने बेहद आक्रामक तौर पर काम करना शुरु कर दिया था. लोगों को ‘मोबिलाइज’ करने का काम भाजपा कार्यकर्ताओं से अधिक संघ के स्वयंसेवकों ने किया. कांग्रेस को हिंदू विरोधी ठहराते हुए उन्होंने प्रदेश की हिंदू आबादी को भाजपा से जोड़ने की कोशिशें कीं. जम्मू क्षेत्र के गांवों में संघ के प्रचारक पिछले दो साल से लगातार दौरे और कैंप कर रहे थे. खालिद कहते हैं, ‘जम्मू इलाके में संघ बहुत लंबे समय से काम कर रहा है. संघ की सालों की मेहनत का ही इस बार फायदा भाजपा को चुनावों में मिला. धीरे-धीरे ये लोग घाटी की तरफ भी आ रहे हैं. यहां इन्होंने प्रॉक्सी नामों से तमाम सहायता संगठन खड़े कर लिए हैं.’

फोटोः तहलका आकार्इव
फोटोः तहलका आकार्इव

कश्मीर के लोगों के बीच भाजपा की पैठ बनाने की कोशिश का पता इस बात से भी चलता है कि जिस धारा 370 को हटाने को लेकर भाजपा हमेशा मुखर रहती है वह अब पीछे छूट चुकी है. पार्टी का कहना है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा उसके घोषणापत्र में शामिल नहीं होगा.

लद्दाख में भी पार्टी ने बौद्धों को जोड़ने का बड़ा प्रोजेक्ट चलाया है. वहां शिया मुसलमानों और बौद्धों के बीच की लड़ाई के बाद संघ ने अपनी एक जगह बना ली है.

कुछ समय पहले ही पाकिस्तान की तरफ से सीमा के इलाकों में जारी भारी फायरिंग से बड़ी संख्या में वहां रहने वाले लोग हताहत हुए. लोगों को अपना घर बार छोड़कर भागना पड़ा. ऐसा पहली बार था कि इन इलाकों में संघ ने कई राहत शिविर खोले जिनमें लोगों के रहने से लेकर उनके खाने-पीने और इलाज तक का इंतजाम किया गया था. प्रदेश में विश्व हिंदू परिषद मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदू धार्मिक स्थानों के जीर्णोद्धार और यात्राओं का अलग मोर्चा खोले हुए है. कुछ समय पहले ही उसने पूंछ जिले के मंडी क्षेत्र में बुद्ध अमरनाथ यात्रा को शुरू कराया. 1990 में आतंकवाद के कारण इस यात्रा को बंद करा दिया गया था.

भाजपा प्रदेश में कैसे पिछले कुछ समय में मजबूत हुई है, इसका पता इससे भी चलता है कि प्रदेश में तमाम नेताओं ने भाजपा का दामन थामा है. जैसे पीडीपी नेता हाजी ताज मोहम्मद खान, पीडीपी की युवा इकाई के प्रदेश महासचिव शौकत जावेद, पूर्व एनसी नेता मोहम्मद शफी भट्ट की बेटी हीना भट्ट, राजौरी से वरिष्ठ नेता चौधरी तालिब हुसैन समेत तमाम नेता आज भाजपा का झंडा बुलंद कर रहे हैं.

ऐसे समय में जब प्रदेश सरकार के खिलाफ लोगों में काफी नाराजगी है और बाढ़ में पूरा राज्य प्रशासन लगभग जलमग्न हो गया है, केंद्र सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. जानकार बताते हैं कि भाजपा को लेकर तो पहले से ही जम्मू क्षेत्र में माहौल है. अगर केंद्र सरकार ने बाढ़ से उपजी इस त्रासदी में लोगों के राहत और पुनर्वास पर अच्छी तरह से काम किया तो भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर में एक नए दौर की शुरुआत हो सकती है. लोग ऐसा मानते हैं कि मोदी के लिए यह भी एक बड़ा मौका है. अगर वे वहां के लोगों को बेहतर तरीके से राहत पहुंचा पाते हैं, उनकी सरकार अगर कश्मीर के लोगों का अच्छी तरह से पुनर्वास कर पाती है तो मुख्यमंत्री बनाने से ज्यादा बड़ा संदेश वे अंतराष्ट्रीय बिरादरी के साथ ही वहां के लोगों को भी दे पाएंगे.

बाढ़ ने जिन दो दलों के राजनीतिक भविष्य पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है वे भाजपा और एनसी ही हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थिति खराब तो पहले ही थी. अब वह और खराब हो गई है. राजनीतिक टिप्पणीकार बताते हैं कि अगर प्रदेश में नवंबर तक चुनाव हुए और केंद्र सरकार ने राहत और बचाव का काम अच्छे से किया तो जरूर भाजपा को इसका चुनावी लाभ मिल सकता है. और अगर बाढ़ त्रासदी के कारण चुनाव और टले और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की नौबत आई, जिसकी हल्की संभावना दिखाई दे रही है तो ऐसी स्थिति में भाजपा को प्रदेश में अपनी छवि चमकाने के लिए बड़ा मौका मिल सकता है. राष्ट्रपति शासन भाजपा के पक्ष में ही जाएगा.

एक तबके का ऐसा मानना है कि चुनाव टलने और राष्ट्रपति शासन लगने की स्थिति में अगर मोदी सरकार ने बाढ़ प्रभावितों के पुनर्वास का काम सही तरह से कर दिया तो इससे भाजपा अपने बेस जम्मू में तो मजबूत होगी ही, वह कश्मीरी जनता की नजरों में भी जगह बनाने में कामयाब हो सकती है.

brijesh.singh@tehelka.com

महाराष्ट्र: साथ पर संशय

साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ शिवसेना के मुशिया उ व ठाकरे(बाएं)
साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ शिवसेना के मुशिया उ व ठाकरे(बाएं)
साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ शिवसेना के मुशिया उ व ठाकरे(बाएं)
साथ-साथ? नरेंद्र मोदी के साथ शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे(बाएं)

बीते लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र उन राज्यों में शामिल था जहां की राजनीति को भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने सिर के बल लाकर खड़ा कर दिया. यानी जिस जगह पर वे राजनीतिक हाशिए पर थे वहां जनता के आशीर्वाद ने उन्हें रातोंरात राजनीति का सबसे बड़ा सितारा बना दिया. महाराष्ट्र में भी भाजपा गठबंधन (जिसमें भाजपा और शिवसेना के साथ चार अन्य दल शामिल हैं) ने कुछ ऐसा ही कमाल दिखाया. चुनाव में प्रदेश की 48 सीटों में से भाजपा गठबंधन को 42 सीटें मिलीं. वहीं कांग्रेस मात्र दो और उसकी सहयोगी एनसीपी चार सीटों पर सिमट गई. भाजपा गठबंधन में किसी को इतनी शानदार सफलता की उम्मीद नहीं थी. गठबंधन ने मिलकर कांग्रेस-एनसीपी को उनके सबसे बुरे राजनीतिक दौर पर लाकर खड़ा कर दिया था. प्रदेश एक बार फिर से विधानसभा चुनाव में जाने की तैयारी में है. ऐसे में यह चर्चा आम है कि क्या भाजपा शिवसेना गठबंधन लोकसभा में मिली अभूतपूर्व सफलता को विधानसभा चुनाव में दोहरा पाएगा. या फिर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन लोकसभा में अपनी खोई हुई सियासी हैसियत की भरपाई विधानसभा चुनाव में कर लेगा.

जनमत सर्वेक्षणों और आम चर्चाओं को अगर आधार मानें तो प्रदेश की राजनीति फिलहाल भाजपा गठबंधन के पक्ष में झुकी हुई है. सर्वेक्षणों में बताया जा रहा है कि अगली सरकार भाजपा गठबंधन की ही बनने जा रही है. कांग्रेस और एनसीपी की 15 साल से चली आ रही सरकार पर अब ब्रेक लगने वाला है. भाजपा गठबंधन भी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त दिख रहा है कि बस अब उनकी सरकार बनने ही वाली है.

गठबंधन में शामिल दोनों प्रमुख दल भाजपा और शिवसेना एक तरफ जहां मिलजुलकर आगामी विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आने की बात कह रहे हैं. हालांकि दोनों दलों की पिछले कुछ समय की गतिविधियों पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनाव के बाद गठबंधन में कुछ गांठें उभर आई हंै–ऐसी गांठे जिनके बारे में जानकारों का मानना है कि अगर उन्हें समय रहते सुलझाया नहीं गया तो संभव है कि प्रदेश में अगली बार सरकार बनाने का दोनों दलों का सपना, सपना ही न रह जाए.

मोदी का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ना भाजपा की मजबूरी भी है. पार्टी नेताओं ने बीते कुछ वक्त में ऐसा कुछ खास नहीं किया है कि जनता उन तक खिंची आए

राजनीतिक में गठबंधन सामान्यतः तनाव का शिकार तब होते हैं जब दोनों दलों में से कोई एक दूसरे से बेहद कमजोर हो जाता है. ऐसे में दूसरे को सामने वाला बोझ लगने लगता है और वह उससे पीछा छुड़ाने की सोचने लगता है. लेकिन भाजपा-शिवसेना गठबंधन में मामला उलटा है. दोनों के संबंध में तनाव का उदय पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें मिली शानदार सफलता से जुडा है. लोकसभा चुनाव में जहां भाजपा ने 23 सीटों पर सफलता पाई वहीं शिवसेना को 18 सीटें हासिल हुई थीं.

इससे दो स्तरों पर समस्या खड़ी हुई. पहली समस्या का उदय भाजपा की बढ़ती ताकत से जुड़ा है. लोकसभा में पार्टी के शानदार प्रदर्शन के बाद भाजपा के नेताओं को लगने लगा कि उन्हें अब गठबंधन में शिवसेना की तरफ से जूनियर पार्टनर समझा जाना बंद किया जाना चाहिए. अभी तक महाराष्ट्र में भाजपा की स्थिति गठबंधन में छोटे भाई की ही रही है. चूंकि उन्होंने शिवसेना से कम सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उससे अधिक सीटें वे जीत के आए हैं, ऐसे में पुराने सत्ता समीकरण बदले जाने चाहिए. भाजपा के भीतर यह बात भी गहरे तक थी कि शिवसेना को चुनाव में जो सफलता मिली है वह पूरी तरह से भाजपा अर्थात मोदी के करिश्मे के कारण हासिल मिली. ऐसे में गठबंधन ने जो 42 सीटें जीती हैं वे एक तरह से सब भाजपा ने ही जीती हैं. इस तरह से अब समय आ गया है कि पुरानी सत्ता संरचना और सीट बंटवारे के सालों से चले आ रहे गणित को बदला जाए. अभी तक प्रदेश में स्थिति यह रही है कि शिवसेना हमेशा भाजपा से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती आई है. पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 288 सीटों में शिवसेना ने 169 व भाजपा ने 119 सीटों पर चुनाव लड़ा था. भाजपा प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे के दौर के इस बंटवारे के नियम में बदलाव चाहती है. पार्टी चाहती है कि अब दोनों दल बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ें. यानी गठबंधन के बाकी चार छोटे भागीदारों के लिए 18 सीटें छोड़कर शेष 270 सीटों में से वह आधी पर दावेदारी चाहती है. लेकिन शिवसेना अपने लिए 150 से कम सीटों पर तैयार नहीं है.  इसके साथ ही पहले जहां यह नियम था कि सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा इसमें भी बदलाव होना चाहिए. भाजपा का कहना है कि जिस दल को अधिक सीटें मिलें मुख्यमंत्री उसी दल का होना चाहिए.

महाराष्ट्र भाजपा के नेता राघवेंद्र तवड़े कहते हैं, ‘हम हमेशा शिवसेना से कम सीटों पर लड़ते आए हैं लेकिन लोकसभा हो या विधानसभा, शिवसेना से हमेशा अधिक सीटें जीतते हैं. पिछला लोकसभा चुनाव सबसे बड़ा प्रमाण है. अब पुराने नियम के आधार पर गठबंधन नहीं होगा.’  भाजपा अपनी इन मांगों पर पीछे हटने के मूड में नहीं है. यही कारण है कि दोनों दलों के बीच तनाव दिनों दिन बढ़ता जा रहा है. भाजपा की इस मांग पर शिवसेना कितनी बौखलाई हुई है यह सामना अखबार में छपे संपादकीय से पता चलता है. पार्टी मुखपत्र में भाजपा की इस मांग की आलोचना करते हुए उसे हवस बताया गया और कहा गया कि ज्यादा हवस तलाक का कारण होती है.

दूसरी समस्या का जन्म उस भावना से होता है जो दोनों दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद घर कर गई है. उनकी सोच यह है कि जिस तरह की सफलता उन्हें हासिल हुई है उसका एकमात्र कारण उनकी अपनी ताकत है. और उन्हें अब दूसरे के सहारे की जरूरत नहीं है. ऐसे में प्रदेश की सभी सीटों पर उन्हें अकेले लड़ना चाहिए. भाजपा में यह भावना कितनी मजबूत है इसका पता तब चला जब हाल ही में प्रदेश भाजपा की बैठक मुंबई में आयोजित हुई. पूरे आयोजन के दौरान कार्यकर्ता प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग करते रहे. उनका कहना था कि प्रदेश की जनता भाजपा की राह देख रही है और ऐसे में पार्टी को प्रदेश की सभी विधानसभा सीटों पर नेतृत्व प्रदान करना चाहिए. कार्यकर्ता एक सुर में शिवसेना से गठबंधन खत्म करने की मांग कर रहे थे.

कुछ ऐसी ही स्थिति शिवसेना में भी है. वहां भी पार्टी की तमाम बैठकों में शिवसैनिक अकेले विधानसभा चुनाव में जाने की वकालत करते दिखाई-सुनाई देते हैं. अभी यह चल ही रहा था कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने नई इच्छा प्रदर्शित करके बाकी लोगों को तो चौंकाया, लेकिन भाजपा के तनाव को और बढ़ा दिया. उद्धव ने कहा कि अगर प्रदेश की जनता चाहेगी तो वे मुख्यमंत्री पद का दायित्व लेने से पीछे नहीं हटेंगे. भाजपा के नेता उद्धव के इस नए शौक से सन्नाटे में चले गए. इस बयान के कुछ समय बाद ही महाराष्ट्र के कई इलाकों में नमो भारत की तर्ज पर उठा महाराष्ट्र जैसे पोस्टर और बैनर दिखाई देने लगे.

दोनों दलों के बीच वर्चस्व की इस लड़ाई पर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रतीक साठे कहते हैं, ‘प्रदेश की राजनीति में इस समय भाजपा और शिवसेना के असल प्रतिद्वंदी वे दोनों खुद हो गए हैं. पहले दोनों ने मिलकर कांग्रेस एनसीपी को हराया. अब ऐसा लगता है मानों एक-दूसरे को हराकर ही दम लेंगे.’ वे आगाह करते हुए कहते हैं कि जल्द दोनों दलों ने आपसी वर्चस्व की लड़ाई से निजात नहीं पाया तो पासा पलट भी सकता है. वे कहते हैं, ‘यह सही है कि कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन राज्य में बहुत बुरी स्थिति में है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे इतने कमजोर हो गए हैं कि वापसी न कर सकें. राजनीति में माहौल बदलते समय नहीं लगता.’

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और एनसीपी नेता व उपमुख्यमंत्री अजित पवार (दायें)
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण
और एनसीपी नेता व उपमुख्यमंत्री अजित पवार (दायें)

भाजपा के लिए महाराष्ट्र अब एक ऐसा राज्य बन गया है जहां वह किसी भी कीमत पर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहती है. हरियाणा और झारखंड की तरह ही पार्टी यहां भी काफी हद तक मोदी के जादू के भरोसे बैठी है. पार्टी के एक नेता शंकर कदम कहते हैं, ‘मोदी जी का असर पूरे महाराष्ट्र में है. लोकसभा के जैसी ही सफलता पार्टी को विधानमंडल में भी मिलेगी. कांग्रेस-एनसीपी के कुशासन के बस चंद दिन बचे हैं.’

एक तरफ जहां स्थानीय नेता मोदी मैजिक के सहारे मैदान मार लेने की उम्मीद लगाए बैठे हैं, वहीं पार्टी नेतृत्व पूरी तरह से मोदी के नाम पर आश्रित रहने से स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को चेता रहा है. हाल ही में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जब मुंबई दौरे पर गए तो वहां विधानसभा चुनाव में जीत को लेकर आश्वस्त कार्यकर्ताओं और नेताओं को स्वप्न से बाहर आने की सलाह दे आए. शाह ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि वे नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव जीतने का जो सपना देख रहे हैं उससे बाहर आएं और जाकर लोगों के बीच काम करें.

तो क्या माना जाए कि शाह को चुनाव में मोदी फैक्टर के नहीं चलने का अंदेशा है. प्रतीक कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है. सभी को पता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में मोदी एक फैक्टर रहने वाले हैं. लेकिन अमित शाह के कार्यकर्ताओं और नेताओं को नसीहत देने के पीछे कारण दूसरा था. हुआ यह है कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से ही प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ता और नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. कोई कुछ कर ही नहीं रहा. सब ये मानकर चल रहे हैं कि उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है क्योंकि जनता मोदी के प्रेम में ऐसी दीवानी हो चुकी है कि भाजपा के अलावा किसी और को वोट देगी ही नहीं. शाह ने इसी सोच को बदलने के लिए वे बात कहीं.’

भाजपा और शिवसेना यह भी देख रहे हैं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस और एनसीपी कुछ इस तरह एक-दूसरे से लड़ रही हैं मानो दूसरा सत्ता में था और वे विपक्ष में थे

स्थानीय पत्रकार मनोहर गायकवाड़ विधानसभा चुनाव में मोदी फैक्टर पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘भाजपा अगर यह सोच रही है कि विधानसभा चुनाव में भी जनता की वही फीलिंग रहने वाली है जो लोकसभा के समय थी तो वह बहुत बड़ी गलती कर रही है. स्थानीय चुनाव स्थानीय मुद्दे और चेहरे पर लड़े जाते हैं. दोनों चुनावों में मुद्दे अलग हैं. भाजपा को इस भ्रम से बाहर आना होगा. मोदी के प्रति लोगों में क्रेज हो सकता है लेकिन विधानसभा चुनाव पर वे कितना असर डालेंगे यह कहा नहीं जा सकता. उत्तराखंड और बिहार उपचुनाव का उदाहरण सामने है.’

खैर, एक तरफ जहां भाजपा खुद शिवसेना में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है वहीं भाजपा के भीतर भी चीजें बहुत ठीक नहीं हैं. भाजपा के कद्दावर नेता रहे गोपीनाथ मुंडे–जिनकी कुछ समय पहले कार दुर्घटना में मौत हो गई–को लेकर यह तय हो गया था कि पार्टी की तरफ से आगामी विधानसभा चुनाव में वे ही मुख्यमंत्री पद का चेहरा होंगे. मोदी ने मुंडे के नाम को हरी झंडी दे दी थी. नितिन गडकरी को भी इसके लिए मनाया जा चुका था. सब ठीक चल रहा था कि एकाएक मुंडे चल बसे. ऐसे में एक बार फिर मुख्यमंत्री पद को लेकर पार्टी के भीतर तनाव पैदा हो चुका है. मुंडे जब तक जीवित थे तो महाराष्ट्र की राजनीति में वर्चस्व को लेकर नितिन गडकरी और उनके बीच लगातार संघर्ष चलता रहता था. लेकिन प्रदेश में प्रभाव और लोकप्रियता के मामले में मुंडे हमेशा गडकरी पर भारी रहे. खैर, प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने यह साफ कर दिया था कि महाराष्ट्र की कमान मुंडे को ही सौंपी जाएगी. कोई विकल्प न देख गडकरी ने मोदी के उस फैसले को स्वीकार कर लिया था. लेकिन मुंडे के नहीं रहने की स्थिति में गडकरी दोबारा से महाराष्ट्र भाजपा पर अपने दावे को लेकर तैयार हैं. लेकिन इस बार उनकी राह में महाराष्ट्र के प्रदेशाध्यक्ष देवेंद्र फडणवीस खड़े हैं. देवेंद्र ने बहुत कम समय में प्रदेश में अपनी एक मजबूत पहचान बनाई है. वे अमित शाह और मोदी के भी बेहद करीब हैं. यानी इस बार भी गडकरी की राह आसान नहीं रहने वाली है. प्रतीक कहते हैं, ‘गोपीनाथ मुंडे की मौत के बाद सवाल बना हुआ है कि पार्टी का चेहरा कौन होगा. लगता है कि पार्टी अभी किसी को चेहरा बनाने के मूड में नहीं है लेकिन अगर प्रदेश में उसे कुछ करना है तो इस सवाल से वह मुंह नहीं चुरा सकती. दिल्ली से बैठकर महाराष्ट्र की राजनीति नहीं की जा सकती.’

ऐसे में पार्टी की स्थिति यह है कि उसके लिए मोदी के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ना मजबूरी भी है. पार्टी नेताओं को भी पता है कि पिछले कुछ सालों में उन्होंने महाराष्ट्र में कुछ ऐसा खास नहीं किया कि जनता उनकी तरफ खिंची चली आए. ऐसे में कांग्रेस-एनसीपी सरकार के खिलाफ पिछले 15 सालों की एंटी इनकमबेंसी, उनकी सरकार और नेताओं पर लगे भ्रष्ट्राचार के गंभीर आरोप आदि ने प्रदेश की जनता को किसी और की तरफ देखने के लिए मजबूर कर दिया है. जनता के भीतर का यही गुस्सा भाजपा और शिवसेना को ऊर्जा दे रहा है.

भाजपा और शिवसेना यह भी देख रहे हैं कि कैसे प्रदेश में कांग्रेस और एनसीपी कुछ इस तरह एक-दूसरे से लड़ रहे हैं मानो दूसरा सत्ता में था और वे विपक्ष में थे. लोकसभा में कांग्रेस के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद एनसीपी उसे बड़ा भाई मानने से इंकार कर चुकी है. अर्थात पार्टी सालों से चले आ रहे सीट बंटवारे के नियम को बदलना चाहती है जिसमें कांग्रेस हमेशा एनसीपी से अधिक सीटों पर लड़ती आई है. एनसीपी नेता जवाहर पटेल कहते हैं, ‘ कांग्रेस से हम अधिक सीट देने की भीख नहीं मांग रहे. यह कांग्रेस को करना ही होगा. हमें बराबर सीट देनी होगी. प्रदेश में कांग्रेस की क्या स्थिति है यह पिछले चुनाव में उसे पता चल गया होगा. महाराष्ट्र को सांप्रदायिक ताकतों के हाथ में जाने से बचाने के लिए उसे हमारी मांग माननी ही होगी.’ लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस गठबंधन जाए पर सीट न जाए वाली मुद्रा अख्तियार करती दिख रही है.

सत्तारुढ़ कांग्रेस की समस्या यहीं खत्म नहीं होती. एक तरफ प्रदेश में उसकी जूनियर पार्टनर एनसीपी लगातार उसे आंख दिखा रही है वहीं पार्टी के भीतर भी घमासान मचा हुआ है. कुछ दिन पहले ही पार्टी नेता नारायण राणे ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ने की धमकी दे दी कि पार्टी में उनके आने के समय अगले एक महीने में उन्हें सीएम बनाने का वादा किया गया था लेकिन वे अभी तक मुख्यमंत्री नहीं बनाए गए. इसलिए वे पार्टी छोड़कर जा रहे हैं. हाईकमान ने किसी तरह हाथ जोड़कर राणे को रोका. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को लेकर प्रदेश कांग्रेस का ही एक धड़ा लगातार हमलावर रहा है और वह लोकसभा चुनाव में पार्टी की फजीहत के बाद और आक्रामक हो गया है. इनमें प्रदेशाध्यक्ष माणिकराव ठाकरे का भी नाम शामिल है. ठाकरे समेत तमाम नेताओं का दर्द यह रहा है कि पार्टी ने कहां से दिल्ली से इस आदमी को लाकर यहां बैठा दिया जिसे न महाराष्ट्र की राजनीति पता है न तौर तरीके. एनसीपी भी लगातार चव्हाण को हटाने का अपना अभियान चलाती रही है.

प्रदेश में राज ठाकरे की मनसे भले ही पिछली लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई लेकिन वह भाजपा के लिए उस नकेल का काम करती है जिसे वह समय-समय पर शिवसेना पर कसती रहती है. यानी शिवसेना जैसे ही भाजपा पर हावी होने की कोशिश करती है भाजपा तुरंत राज ठाकरे के साथ गलबहियां करने लगती है. इस तरह से भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू है. शिवसेना का बेहतर प्रदर्शन उसके खाते में जुड़ता ही है. अगर मनसे अच्छा करती है तो उससे भी भाजपा के चेहरे पर चमक आती है. हालांकि कई बार इसका नुकसान भी हुआ है जहां मनसे और शिवसेना के बीच वोट बंटने से कांग्रेस-एनसीपी का उम्मीदवार जीत गया क्योंकि दोनों पार्टियों (शिवसेना, मनसे) का आधार वोट एक ही है. यही कारण है कि भाजपा दोनों भाइयों में सुलह कराकर एक महागठबंधन बनाने का प्रयास करती रही है, लेकिन दोनों भाई साथ आने का राजनीतिक साहस नहीं जुटा पाते.

खैर, इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा के आशावादी बने रहने के लिए कई कारण मौजूद हैं. अब ये तो परिणाम ही बताएंगे कि लोकसभा वाला राजनीतिक जलवा विधानसभा में भी कायम रहा या नहीं.

brijesh.singh@tehelka.com

आईएस: समस्याजनक समाधान

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पिछले हफ्ते खबरें आई कि चेन्नई के एक युवा ने आईएस यानी इस्लामिक स्टेट (आईएस) के फिदायीन हमले में शामिल होकर खुद को बम से उड़ा लिया है. इससे कुछ ही पहले महाराष्ट्र में ठाणे के चार नौजवानों के आईएस में भर्ती होने की बात सुर्खियां बनी थीं. बाद में पता चला कि उनमें से आरिफ मजीद नाम के एक युवा की लड़ाई में मौत भी हो गई. हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित तमाम हस्तियां तर्क दे रही हैं कि भारत के मुसलमान आईएस का विरोध करते हैं, लेकिन सुरक्षा एजेंसियां चिंतित हैं. उनके पास पक्की जानकारी है कि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के करीब 20 से 30 युवा आईएस में भर्ती होकर सीरिया और इराक के युद्धग्रस्त इलाकों में लड़ रहे हैं. खतरा यह है कि जब वे लौटेंगे तो भारत में आतंकवादी गतिविधियों के तार इस्लामिक स्टेट से सीधे जुड़ जाएंगे. सुरक्षा एजेंसियों के हवाले से यह भी खबरें आ रही हैं कि इनके भारत लौटने पर इन पर कोई मामला दर्ज करना भी मुश्किल है क्योंकि अपराध उन्होंने दूसरे देश की धरती पर किया है और जिस संगठन के लिए उन्होंने काम किया है वह प्रतिबंधित आतंकी संगठन नहीं है.

यह एक उदाहरण है जो बताता है कि आईएस के उभरने के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा और भी ज्यादा जटिल हो गया है. चिंताजनक बात यह है कि इस समस्या के खिलाफ नए सिरे से लड़ने की तैयारी कर रहा अमेरिकी नेतृत्व उसी समाधान की तरफ बढ़ता दिख रहा है जिसमें समस्या की जड़ छिपी है.

अपनी बर्बरता के लिए कुख्यात आईएस ने सीरिया और इराक का जितना इलाका कब्जा लिया है उसका क्षेत्रफल ब्रिटेन से भी बड़ा बताया जा रहा है. कभी आईएस अल कायदा की ही एक शाखा हुआ करता था. 1999 में वजूद में आए इस संगठन का नाम तब जमात उल ताविद वल जेहाद था. बाद में इसे अल कायदा इन इराक भी कहा जाने लगा. आज इसने अपने मातृसंगठन को हर मामले में पीछे छोड़ दिया है. इसलिए जब हाल ही में अलकायदा ने भारतीय उपमहाद्वीप में कायदात अल जिहाद के नाम से अपनी एक नई शाखा खोलने का ऐलान किया तो बहुत से लोगों ने यही माना कि वह आईएस के चलते खुद को पिछड़ता पा रहा है और यह ऐलान उसकी खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की एक कोशिश है.

बगदादी की अगुवाई वाला आईएस इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसी नई दौर की तकनीकों का इस्तेमाल बखूबी जानता है

आईएस और अलकायदा में कुछ बुनियादी फर्क हैं. इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनकी आईएस के उभार में महत्वपूर्ण भूमिका रही है. अलकायदा की नीति स्थानीय आतंकी संगठनों के हाथ मजबूत करने की रही है. जैसे अफगानिस्तान में वह तालिबान का साथ दे रहा है तो नाइजीरिया में बोको हरम का. वह सीधे सत्ता की लड़ाई में शामिल नहीं है. अलकायदा का मकसद यह रहा है कि दुनिया के सारे मुसलमान अपने भेद भुलाकर एक हो जाएं और तब शरीयत पर आधारित इस्लामी साम्राज्य बनाने के मसद की ओर बढ़ा जाए. आईएस का मामला इसके उलट है. वह सीधे सत्ता की लड़ाई लड़ रहा है. सीरिया और इराक के कई इलाके अपने कब्जे में लेकर इस आतंकी संगठन के मुखिया अबू बकर अल बगदादी ने खुद को मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया है. वहाबी इस्लाम की राह पर चल रहा आईएस सुन्नियों का संगठन है जो खुद से असहमति रखनेवालों को जरा भी बर्दाश्त नहीं करता. यही वजह है कि अपने कब्जे वाले इलाकों में उसने बड़ी संख्या में गैरमुस्लिमों और शिया मुसलमानों की नृशंस हत्याएं की हैं. एक वजह यह भी थी कि मार्च 2014 में अल कायदा ने इसे खुद से अलग कर दिया.

दूसरी बात यह है कि जो काम अलकायदा भविष्य में करने की सोच रहा था वह आईएस ने तुरंत कर दिया. यानी इस्लामी राज्य की स्थापना का ऐलान. इस वजह से दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपंथियों में आईएस के लिए जबर्दस्त आकर्षण पैदा हो गया है. आलम यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के कई दूसरे विकसित देशों के नागरिक तक आईएस के लिए लड़ रहे हैं. उधर, अल कायदा ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद कमजोर पड़ा है. जानकार मानते हैं कि अयमान अल जवाहिरी की अगुवाई वाला इसका नेतृत्व अब बूढ़ा हो रहा है जो अब लड़ाकों में पहले जितना जोश नहीं जगा पा रहा. उधर बगदादी की अगुवाई वाले आईएस का नेतृत्व अपेक्षाकृत युवा है जो इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसी नई दौर की तकनीकों का इस्तेमाल बखूबी जानता है. इसके चलते वह बहुत तेजी से सुर्खियों में छाया है. हाल में जब इसने दो अमेरिकी और एक ब्रिटिश पत्रकार का सिर कलम किया और उसके वीडियो इंटरनेट पर जारी किए तो दुनिया में खलबली मच गई. अमेरिका के जनमानस में इतना रोष फैला कि वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सीरिया और इराक में आईएस के ठिकानों पर मिसाइल और हवाई हमले करने का ऐलान कर किया. अमेरिका की योजना यह भी है कि आईएस से निपटने के लिए वह सऊदी अरब और तुर्की सहित इस क्षेत्र के कई देशों के साथ मिलकर एक साझा क्षेत्रीय गठबंधन बनाए.

लेकिन क्या इससे आईएस को वास्तव में खत्म किया जा सकेगा? जानकार मानते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में सऊदी अरब या तुर्की जैसे देशों का व्यवहार लंबे समय से दोहरे मापदंडों वाला रहा है. सऊदी अरब को परदे के पीछे से सुन्नी चरमपंथियों की खूब मदद करने के लिए जाना जाता रहा है. सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ अभियान छेड़ने वाली फ्री सीरियन आर्मी के लड़ाकों को उसने हथियार और तनख्वाहें दी थीं, यह जगजाहिर है. कतर भी इस काम में उसका सहयोगी था. कुछ ऐसा ही हाल तुर्की का भी है. इराक से सटा तुर्की कभी नहीं चाहेगा कि आईएस से निपटने के लिए कुर्दों के हाथ मजबूत किए जाएं जो अमेरिका सोच रहा है. कुर्दों की एक बड़ी आबादी तुर्की के इराक से सटे इलाकों में भी है और उसे चिंता है कि कहीं मजबूत होकर कुर्द कुर्दिस्तान नाम से अपना एक अलग देश न बना लें जिसके लिए वे काफी समय से मांग कर रहे हैं. इसके अलावा जब आईएस ने इराक के मोसुल शहर पर कब्जा किया था तो वहां तुर्की दूतावास के करीब 50 अधिकारियों को भी अपने कब्जे में ले लिया था. इन्हें उसने आज तक नहीं छोड़ा है. माना जा रहा है कि यह तथ्य भी तुर्की को पूरे मन से आईएस के खिलाफ जाने से रोक सकता है. संयुक्त अरब अमीरात से भी आतंकी संगठनों को मोटा चंदा मिलता रहा है. जानकारों के मुताबिक ऐसे में आईएस को हराने के लिए जरूरी है कि उसे मिलने वाली आर्थिक सहायता रोकने के लिए एक मजबूत क्षेत्रीय रणनीति बनाई जाए.

चिंता उस नीति से भी उपजती है जो अमेरिका दुनिया भर के अस्थिर इलाकों में लंबे समय से इस्तेमाल करता रहा है. यानी विरोधी को निपटाने के लिए उसके विरोधियों के हाथ मजबूत कर दो. लेकिन इससे समस्या और विकराल हुई है. जैसे  फ्री सीरियन आर्मी को अमेरिका ने भी जमकर हथियार दिए. बाद में जब यह संगठन बिखरने लगा तो इसके सदस्यों की एक बड़ी संख्या आईएस में शामिल हो गई. बगदादी के बारे में तो कहा जा रहा है कि उसे अमेरिका की मिलीभगत से इजरायली जासूसी एजेंसी मोसाद ने ट्रेनिंग दी थी. यानी पश्चिम ने खुद अपने लिए एक भस्मासुर पैदा किया है. अमेरिका की इस रणनीति का परिणाम अक्सर यही रहा कि एक आतंकी संगठन खत्म हुआ तो दूसरा पैदा हो गया. एक लेख में सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी लिखते हैं, ‘ अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं का मुकाबला करने के लिए रीगन प्रशासन ने खुलेआम इस्लाम का हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया. 1985 में व्हाइट हाउस में अफगान मुजाहिदीनों के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम में रोनाल्ड रीगन ने कहा था कि नैतिकता में ये भद्रपुरुष अमेरिका की स्थापना करने वाले महापुरुषों जैसे हैं. बाद में ये ही भद्रपुरुष अलकायदा के कर्णधार बने जिन्होंने अपने आतंक से दुनिया को थर्रा दिया. अफगान युद्ध के लड़ाकों में आईएस का स्वयंभू खलीफा अबू बकर अल बगदादी भी शामिल था.’

दोस्त हुआ दुश्मन: एक फाइल फोटो में अमेरिकी सीनेटि जॉन मैकेन (सबसे दाएं) के साथ बगदादी (सबसे बाएं)
दोस्त हुआ दुश्मन: एक फाइल फोटो में अमेरिकी सीनेटि जॉन मैकेन (सबसे दाएं) के साथ बगदादी (सबसे बाएं)

आईएस से लड़ना इसलिए भी बनिस्बत पेचीदा है क्योंकि दूसरे आतंकी संगठनों के उलट वह कहीं छिपा हुआ नहीं है. अपने कब्जे में आ चुके ब्रिटेन जितने बड़े इलाके  में वह व्यवस्थित तरीके से शासन चला रहा है. कई शहरों में बिजली-पानी, यातायात, बैंकों, अदालतों और स्कूलों को संभालने के लिए उसने एक तंत्र खड़ा कर लिया है. तेल की कई इकाइयां उसके कब्जे में हैं और अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक तेल की बिक्री और बंधकों को छोड़ने के एवज में वसूली जैसे कामों के चलते उसकी रोज की कमाई करीब तीस लाख डॉलर के बराबर है. स्वाभाविक ही है कि वह अपने नियंत्रणवाला इलाका एक दिन चीन और यूरोप तक फैलाने के सपने देख रहा है.

सवाल है कि ऐसे में क्या किया जाए. माना जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट को हवाई हमलों से कमजोर तो किया जा सकता है लेकिन उसे हराया तभी जा सकेगा जब उसके सुन्नी समर्थक उसके खिलाफ हो जाएं. इसके लिए जरूरी है कि सीरिया और इराक में ऐसी जिम्मेदार सरकारें बनें जो सभी धड़ों को साथ लेकर चलें. जानकार मानते हैं कि इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी तो हट गए लेकिन इससे समस्या नहीं सुलझेगी. यह बस इराक में ऐसी सरकार स्थापित करने की दिशा में पहला कदम हो सकता है जिसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व हो. माना जा रहा है कि नूरी अल मालिकी की पक्षपाती नीतियों के कारण आईएस को पनपने का मौका मिला. यानी नए प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी में प्रतिद्वंदी धड़ों शिया, सुन्नी और कुर्दों को साथ लेकर चलने की कितनी क्षमता है, इस पर भी यह निर्भर करेगा कि आईएस से लड़ाई का भविष्य क्या होता है.

आईएस को हराने के लिए जरूरी है कि सीरिया और इराक में ऐसी जिम्मेदार सरकारें बनें जो शिया, सुन्नी और कुर्द, सभी धड़ों को साथ लेकर चलें

एक वर्ग का यह भी मानना है कि अमेरिका और ईरान मिलकर काम करें तो आईएस को खत्म किया जा सकता है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में ईरानी राजनीतिक विश्लेषक मोहम्मद अली शबानी  कहते हैं, ‘ईरान और अमेरिका के बीच बहुत सारे मुद्दों पर मतभेद हंै, लेकिन जब बात आईएस की आती है तो उनका एक ही लक्ष्य है.’ शबानी मानते हैं कि ईरान और अमरीका के बीच मैदान-ए-जंग बनने की बजाय पुल बनने का इराक को कहीं ज्यादा फायदा होगा. विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि अगर इराकी और कुर्द बल एकजुट होकर काम करें और उन्हें ईरान और अमेरिका से मदद मिले तो आईएस के खिलाफ हमले कहीं ज्यादा कारगर होंगे. इसके बाद आईएस के स्थानीय और क्षेत्रीय समर्थकों को कमजोर किया जा सकता है. अहम यह भी है कि सीरिया के संकट को सुलझाया जाए. गौरतलब है कि आईएस के लड़ाकों की एक बड़ी संख्या सीरिया से भी आती है.

अमेरिकी थिंक टैंक सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज से जुड़े एंथनी कॉर्डसमैन का मानना है कि आईएस से सैन्य नहीं बल्कि राजनीतिक तरीके से निपटा जा सकता है. इराक की नई सरकार को सुन्नी और कुर्दों को साथ लेकर चलना होगा, उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं होगा और देश की राजनीतिक शक्ति और तेल संपदा पर सबका हक है. पश्चिमी देश इस काम में बस मदद कर सकते हैं, लेकिन इस लड़ाई में मुख्य भूमिका उस जमीन के बाशिंदों की ही होनी चाहिए.

vikas@tehelka.com

सैलाब के बीच सेना

armyजम्मू-कश्मीर में बाढ़ की भयावह विभीषिका के बीच एक दिन राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खुद हेलीकॉप्टर से बाढ़ पीड़ितों के लिए खाने के पैकेट और फल गिराते नजर आए. यह दृश्य देखकर हमारे एक सहकर्मी ने टिप्पणी की कि उमर अब्दुल्ला को अंदेशा रहा होगा कि कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आकर यह काम करने लगें तो वे पीछे छूट जाएंगे. इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की तत्परता अपने-आप में एजेंडा सेट करती रही है. जम्मू-कश्मीर में भी उन्होंने जिस तरह ‘राजधर्म’ निभाया, उसकी भरपूर वाहवाही हुई. जिस तरह वे निजी तौर पर इस बाढ़ का जायजा लेते दिखे, और जैसे उन्होंने आगे बढ़कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी मदद की पेशकश की, इस पर कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी और दिग्विजय सिंह ही नहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ तक ताली बजाते दिखाई पड़े. राहत और बचाव में स्थानीय प्रशासन की गैरमौजूदगी के लिए आलोचनाएं झेल रहे उमर अब्दुल्ला ने यह हल्की शिकायत जरूर की कि सारी राहत वर्दी वाले नहीं दे रहे हैं, वे भी काम कर रहे हैं जिन्होंने वर्दी नहीं पहन रखी है, लेकिन साथ में यह भी माना कि केंद्र और राज्य की तमाम एजेंसियों के आपसी तालमेल की वजह से जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को कुछ राहत मिली है.

जम्मू-कश्मीर के इस राहत अभियान की तुलना अगर पिछले साल केदारनाथ में चले राहत अभियान से करें तो खयाल आता है कि यहां वह अशोभनीय तमाशा नहीं दुहराया गया, जो कांग्रेस और बीजेपी ने उत्तराखंड में किया था. शायद इसलिए भी कि फिलहाल राज्य में मुख्यधारा के इन दो दलों का दखल वैसा नहीं है जैसा उत्तराखंड में है. फिलहाल कहा जा सकता है कि संकट की इस घड़ी को नरेंद्र मोदी ने अपने लिए एक अवसर में बदला और कश्मीरियों को एहसास कराने की कोशिश की कि वह उनके भी प्रधानमंत्री हैं. भारतीय सेना ने भी सही साबित किया कि वह सिर्फ कश्मीरियों पर गोली चलाने के लिए नहीं है, उनकी जान बचाने के लिए भी है.

हालांकि इस दौरान भी आम कश्मीरियों की यह शिकायत सामने आती रही कि बचाव में सैलानियों और वीआइपी लोगों को कहीं ज्यादा अहमियत दी जा रही है, स्थानीय बाशिंदे अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं. हमारे देश की पूरी व्यवस्था में आम और खास का जो फर्क है, उसे याद करते हुए यह शिकायत वैध भी मालूम पड़ती है. जम्मू-कश्मीर में जो तमाम सैलानी घूमने गए हैं, उनके समृद्ध-संपन्न घरवाले दिल्ली से अपने लोगों के लिए संदेश भेजने और उन्हें जल्दी निकलवा लेने में कहीं ज्यादा कामयाब रहे होंगे, इसमें संदेह नहीं. इसके अलावा बाढ़ में डूबे कश्मीर में ऊंचे होटलों और ऊंचे घरों से लोगों को निकालना आसान रहा होगा- सबसे ज्यादा परेशानी एकमंजिला मकानों और तंग गलियों में रहने वाले कमजोर लोगों ने झेली होगी, इसमें भी किसी को शक नहीं होगा. फिर दुहराने की जरूरत है कि हमारी पूरी व्यवस्था में जो कमजोर है, वह सबसे ज्यादा पिटता है और सबसे कम पाता है- आम कश्मीरियों को अगर बाढ़ के इन दिनों में अपनी पिटी हुई पुरानी हालत और बचाव में अपने छोड़े जाने की नई हकीकत तंग कर रही हो तो यह स्वाभाविक है. भूख, हताशा और परेशानी में वे कभी राहतकर्मियों और कभी मीडिया के साथ गुस्ताख हो उठते हों तो यह बात भी समझ में आती है.

यह अनुभव बताता है कि जम्मू-कश्मीर या किसी भी राज्य को बंदूकों के दबाव से नहीं, बराबरी और बिरादरी के भाव से ही जोड़ा जा सकता है

लेकिन दिल्ली में बैठे लोग जो बात समझ नहीं पा रहे, वह दूसरी है. वे तकलीफ की इस घड़ी में कुछ परपीड़क आनंद के साथ याद दिला रहे हैं कि कश्मीरी जिस सेना को निकाल बाहर करने की मांग करते रहे, वही उन्हें बचा रही है- सीमा पार से उन्हें कोई बचाने नहीं आ रहा. जाहिर है, दहशत, शिकायत, सियासत और इंसानियत की कहीं ज्यादा जटिल दुनिया को समझने की जगह वे उसका एक सरलीकृत भाष्य पेश कर रहे हैं जिसमें उन्हें न भारतीय सेना के जोखिम का एहसास है और न कश्मीरी नागरिकों की जिल्लत का. वे सेना के मानवीय अभियान की कीमत उस राजनीतिक दमन की वैधता के रूप में वसूलना चाहते हैं जो कश्मीर में बीते वर्षों में होता रहा है, जो, जाहिर है, हमें मंजूर नहीं होना चाहिए.

दरअसल हम चाहें तो इस सैलाब में सेना की भूमिका और कश्मीरियों की प्रतिक्रिया के बीच एक सबक सीख सकते हैं. गोली चलाती हुई सेना किसी को मंजूर नहीं होगी, जान बचाने वाली सेना का सब स्वागत करते हैं. सेना की मौजूदा भूमिका से अगर कश्मीरियों में यह एहसास जाग पाता है कि उन्हें भी भारत का नागरिक माना जाता है और उनकी भी जान की भारतीय राष्ट्र राज्य को परवाह है तो वे भारत के कहीं ज्यादा करीब आते हैं.

तो बतौर प्रधानमंत्री मोदी जम्मू-कश्मीर से जो रिश्ता अब जोड़ते दिख रहे हैं, उसका एक तकाजा यह भी है कि वह अब इस सूबे में अलगाव का जो एहसास है उसको ठीक से समझें और अपनी पार्टी को भी समझाएं. बाढ़ का यह अनुभव शायद कारगर ढंग से बता सकता है कि जम्मू-कश्मीर या किसी भी राज्य को बंदूकों के दबाव से नहीं, बराबरी और बिरादरी के भाव से ही जोड़ा जा सकता है. मुश्किल यह है कि कश्मीर पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का जो रुख रहा है, वह अब तक इस मानवीय सिद्धांत के बिल्कुल विरुद्ध रहा है. असली सवाल यही है कि जब यह सैलाब उतर जाएगा तो क्या कश्मीरियों को बचाने-बसाने की मानवीय पहल चलती रहेगी या फिर उनकी जान बचाने की एवज हम उन पर नई ज्यादतियों का जुर्माना लगाएंगे? एक सैलाब में लड़खड़ाते-उखड़ते जम्मू-कश्मीर के हाथ थामना एक बात है और आम दिनों में उसके बाजू उमेठ कर उसको यह याद दिलाना दूसरी बात कि हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं, तुम्हें कभी अलग नहीं होने देंगे.

अधिकार जीने का, बीमार पड़ने का नहीं

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आर्काइव

महानगर में एक रिक्शा चलानेवाला, अपने बेटे को एक जानलेवा बीमारी से बचाने के लिए दिन-रात पैसों की जुगाड़ में लगा है. रकम भी छोटी-मोटी नहीं है. बीमारी का खर्च करीब पांच लाख रुपए महीना है. इतनी बड़ी रकम का इंतजाम रिक्शा चलाकर तो नहीं हो सकता इसलिए मजबूरी में उसे अलग रास्ता अख्तियार करना पड़ता है. दुर्भाग्य से यह किसी फिल्म का सीन नहीं है और वह ‘अलग रास्ता’ दरअसल कोर्ट कचहरी का है.

अप्रैल 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक केस के संदर्भ में दिल्ली सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था – सिर्फ इसलिये कि कोई गरीब है, सरकार उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकती. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि किसी को गरीब बताकर उसकी मौत को उचित नहीं ठहराया जा सकता.

यह मसला दिल्ली में रिक्शा चलानेवाले मोहम्मद सिराजुद्दीन के सात साल के बेटे मोहम्मद अहमद का है. अहमद को गॉशे नाम की गंभीर बीमारी है. यह एक जन्मजात बीमारी है जिसमें शरीर के कई हिस्सों  में चरबी जमा हो जाती है और यह धीरे-धीरे लीवर, किडनी, दिमाग से लेकर फेफड़ों तक पर असर डालने लगती है. सही इलाज की कमी से मरीज़ को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है. इससे पहले, यह बीमारी, अहमद के चार भाई-बहनों को अपने लपेटे में ले चुकी है. अब अहमद के माता-पिता अपनी पांचवीं औलाद को नहीं खोना चाहते और इसलिए वे कभी अस्पताल, तो कभी कोर्ट के चक्कर लगाते नहीं थक रहे हैं. अप्रैल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी सिलसिले में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को अहमद का इलाज मुफ्त में करने का आदेश दिया है. इस बीमारी के इलाज में हर महीने साढ़े चार लाख रुपये महीने से भी ज्यादा का खर्च है और जब सही वक्त पर अहमद के परिजन इतनी बड़ी रकम नहीं जमा कर पाए तो एम्स को अहमद का इलाज बीच में ही रोकना पड़ गया.

खैर, हाई कोर्ट के आदेश के बाद एम्स में अहमद का इलाज फिर से शुरु हो गया है. लेकिन उसके परिवार के लिए राह अभी भी आसान नहीं है. सरकारी काम में होने वाली ढिलाई की वजह से इलाज कभी भी बीच में रुक सकता है. तहलका से बातचीत में अहमद के पिता सिराज़ुद्दीन अपने इस डर का इजहार करते हैं. वे बताते हैं कि दिल्ली सरकार की योजना, दिल्ली आरोग्य निधि के तहत उन्हें इलाज के लिए आर्थिक मदद दी जाती है. इस योजना के तहत इलाज का खर्च चेक के जरिए सीधे अस्पताल में पहुंचा दिया जाता है. लेकिन सही समय पर रकम नहीं पहुंचने पर मजबूरीवश अस्पताल को इलाज बीच में ही रोकना पड़ता है. अपनी बात को पूरा करते हुए सिराज़ुद्दीन कहते हैं, ‘इसमें डॉक्टरों की गलती नहीं है. वे तो अपनी और से पूरी कोशिश करते हैं लेकिन कभी-कभी उनके हाथ में भी कुछ नहीं होता.

उन्हें भी सरकारी तरीकों से चलना पड़ता है और ये तरीके अक्सर सब्र का इम्तिहान लेते हैं.’

अहमद अकेले नहीं हैं. भारत में उनके जैसे अनगिनत मरीज पैसे के अभाव में छोटी-बड़ी बीमारियों से एक लंबी लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं. सुपरपॉवर बनने का महत्वाकांक्षी सपना देखने वाले देश में जन-स्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ) से जुड़ी बुनियादी जरूरतों के लिए एक गरीब परिवार को पता नहीं कितने सरकारी-गैर सरकारी अस्पतालों, योजनाओं और अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं.

इस तरह के मामलों में कई याचिकाएं और मुकदमे दायर करनेवाले दिल्ली हाई कोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल मानते हैं कि भारत में शिक्षा के अधिकार के बाद अब स्वास्थ्य का अधिकार (राइट टू हेल्थ) अधिनियम को लाने की जरूरत है. अफसोस की बात है कि एक गरीब आदमी को इलाज के लिए कभी मुख्यमंत्री तो कभी प्रधानमंत्री का दरवाजा खटखटाना पड़ता है. अग्रवाल के मुताबिक इस मामले में राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी ने ऐसी स्थिति पैदा की है.

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अर्चना को अपनी बेटी अनन्या के इलाज का खर्च उठाने में तमाम दिक्कतें हुईं जिसके बाद उन्होंने केबीसी में भाग लेने की सोची

हर दिन कई निम्न और मध्यम वर्ग के मरीजों के मसले सुलझाने वाले एडवोकेट अग्रवाल बताते हैं कि पूरे देश में स्वास्थ्य सेवा का हाल इतना लचर है कि भारत के हर कोने से हर छोटी बड़ी बीमारी के लिए मरीज को सीधे दिल्ली के एम्स अस्पताल भेज दिया जाता है. कई बार तो स्थिति यह होती है कि बाहर से आया हुआ मरीज स्टेशन से पैदल चलकर सरकारी अस्पताल पहुंचता है. ऐसा भी होता है कि अपने गांव में कम में भी खुशी-खुशी गुजारा करने वाले आदमी को रेल के किराए के लिए भी किसी से उधार लेना पड़ता है. ऐसे में दूसरे शहर आकर इलाज करवाना उसके लिए एक बुरे सपने से भी बदतर है.

अग्रवाल के मुताबिक जरुरी है कि स्वास्थ्य जैसे विषय को राज्य सरकार की सूची से निकालकर समवर्ती सूची में शामिल किया जाए ताकि केंद्रीय स्तर पर भी इस क्षेत्र में जरूरी कदम उठाए जा सकें. गौरतलब है कि 2014 चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में स्वास्थ्य-सेवा के अधिकार को लाने की बात कही थी. यह और बात है कि पिछले दस साल से लगातार सत्ता में रही पार्टी को जब इस बुनियादी मुद्दे की याद आई तब तक उनके लिए बहुत देर हो चुकी थी.

मामला सिर्फ जानलेवा बीमारियों या गरीब वर्ग पर जाकर ही नहीं अटकता. आपातकाल या एमरजेंसी की हालत में एक कम या मध्यम आय के शख्स के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि वह कहां जाए?  अब्दुल रहीम, उत्तर प्रदेश के संभल जिले के रहने वाले हैं. महीने में चार, साढ़े चार हजार रुपये कमानेवाले अब्दुल के घर ईद के दिन पहाड़ टूट पड़ा. अचानक उनकी बहन के पति (फरहाद हुसैन) को सीने में दर्द शुरु हो गया. पैसों का बंदोबस्त नहीं होने की वजह से फरहाद को तीन दिन तक घर में ही रखा गया. तीसरे दिन, अब्दुल, अपने जीजा को लेकर डिस्पेंसरी भागे जहां से उन्हें तुरंत मुरादाबाद ले जाने के लिए कहा गया. मुरादाबाद के एक निजी अस्पताल में आठ-दस दिन बिताने और 25-30 हजार रुपए खर्च करने के बाद भी जब फरहाद को आराम नहीं मिला तो उन्हें दिल्ली के एम्स में भर्ती करने की सलाह दे दी गई. अब्दुल ने रातों रात बस पकड़कर दिल्ली का रास्ता नापा, लेकिन एम्स पहुंचने से पहले ही फरहाद की तबियत और बिगड़ गई. आनन-फानन में अब्दुल ने पास ही में मौजूद एस्कॉर्ट अस्पताल में जाना मुनासिब समझा लेकिन भर्ती करने के बाद उन्हें बताया गया कि यह अस्पताल उनकी जेब के बस के बाहर है. हालांकि यह बताते हुए अब्दुल का गला भर आता है कि किस तरह अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें पूरा सहयोग दिया और पैसों की कमी के बावजूद इलाज को अधूरा नहीं छोड़ा गया.

इलाज अधूरा छोड़ा भी नहीं जा सकता था. इसकी वजह है 2011 में सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश जिसके तहत दिल्ली के जिन निजी अस्पतालों को सरकार द्वारा रियायती दरों पर जमीन दी गई हंै, उन्हें अपने ओपीडी की दस और आईपीडी की पच्चीस प्रतिशत क्षमता को आर्थिक रूप से कमजोर यानी ईडब्ल्यूएस श्रेणी के लिए सुरक्षित रखना होगा और उनका पूरा इलाज मुफ्त में करना होगा. हालांकि इसी साल अप्रैल में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा गठित एक समिति ने खुलासा किया कि आदेश के बावजूद कई निजी अस्पतालों में चालीस प्रतिशत बेड अभी भी खाली पड़े हैं.

अब्दुल खुशनसीब थे कि दिल्ली आ गए क्योंकि अगर दिल्ली से बाहर निकलकर देखा जाए तो कई राज्यों में तो ऐसे परिवारों की सुध लेनेवाला ही कोई नहीं है. कुछ राज्यों में स्वास्थ्य सेवा और विशेषकर एमरजेंसी को लेकर सख्ती बरती गई है. साल 2010 में असम ने सबसे पहले पब्लिक हेल्थ बिल लाकर शाबाशी बटोरी थी जिसके तहत राज्य के सभी निजी और सरकारी अस्पतालों के लिए ये अनिवार्य कर दिया गया था कि एमरजेंसी की स्थिति में शुरु के 24 घंटे मरीज का मुफ्त और सही इलाज किया जाए. हालांकि चार साल बाद, इस नियम की जमीनी हकीकत क्या है और इसे लेकर लोग कितने जागरूक है, यह जानना दिलचस्प हो सकता है.

इस मामले पर थोड़ी व्यावहारिक रोशनी डालते हुए एम्स के लैप्रोस्कोपिक सर्जन और स्त्री रोग एंव प्रसूति विशेषज्ञ प्रोफेसर के के रॉय कहते हैं, ‘कागजी तौर पर तो सरकारी अस्पताल की सेवाएं लेना हर नागरिक का हक है जो उससे कोई नहीं छीन सकता. असली समस्या आती है इस अधिकार का इस्तेमाल करने में. एक मरीज काफी उम्मीद से एम्स जैसे अस्पताल में आता है, डॉक्टर से मिलने के लिए उसे काफी पापड़ भी बेलने पड़ते हैं. एक प्रक्रिया से गुजरकर वह डॉक्टर से मिल पाता है.’

लेकिन यह भी समझने की भी जरूरत है कि अकेले एम्स में हर दिन करीब 15000 मरीज आते हैं. एक सीनियर डॉक्टर, एक दिन में ज्यादा से ज्यादा 20 मरीजों को ही देख पाता है. इससे ज्यादा मरीजों को देखने का लालच कई बार इलाज के स्तर को गिरा देता है. ऐसे में जिन मरीजों का केस ज्यादा सीरियस नहीं होता वे सीनियर की जगह जूनियर डॉक्टर से ही मिल पाते हैं और कभी कभी ये शायद उनकी असंतुष्टि का कारण भी बन जाता है.

सेहत और संकट1. आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति भी महंगे इलाज का खर्च उठा सकें, इसके लिए राज्य सरकारें विभिन्न योजनाएं चलाती हैं, लेकिन जानकारी के अभाव और लालफीताशाही के चलते लोगों को उनका पूरा फायदा नहीं मिल पाता

2.  2011 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि दिल्ली के जिन निजी अस्पतालों को रियायती दरों पर जमीन दी गई है, उन्हें ओपीडी की 10 और आईपीडी की 25 प्रतिशत क्षमता को आर्थिक रुप से कमजोर श्रेणी के लिए सुरक्षित रखते हुए उनका इलाज मुफ्त में करना होगा. फिर भी कई निजी अस्पतालों में 40 प्रतिशत बेड अभी भी खाली पड़े रहते हैं

3. यही वजह है कि शिक्षा के अधिकार के बाद अब स्वास्थ्य का अधिकार (राइट टू हेल्थ) अधिनियम लाने की मांग उठ रही है. इसके पैरोकारों के मुताबिक यह जरूरी है कि एक केंद्रीकृत फंड के तहत लोगों को स्वास्थ्य लाभ दिया जाए, साथ ही हर व्यक्ति का अनिवार्य रूप से स्वास्थ्य बीमा करवाया जाए

मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या और कम स्टाफ को एक बहुत बड़ी वजह बताते हुए डॉक्टर रॉय कहते हैं, ‘जरूरी है कि सिस्टम में कुछ और सुधार लाए जाएं. जिस तरह छह अलग-अलग शहरों में एम्स के सेंटर बना दिए गए हैं, उसी तरह एक स्क्रीनिंग सेंटर बनाया जाए ताकि शुरुआती स्तर पर ही पता चल सके कि मरीज को दरअसल पेट की बीमारी है या फिर दिल की. इससे अस्पताल के समय की बचत तो होगी ही, साथ ही साथ मरीज भी एक विभाग से दूसरे विभाग के चक्कर लगाने से बचेगा.’

डॉक्टर रॉय जोर देते हुए कहते हैं कि सर्जरी के अलावा सरकारी अस्पतालों में खर्चा न के बराबर होता है. जो काम बाहर एक रुपये में होता है, वह एम्स में 20 पैसे में ही हो जाता है, लेकिन अक्सर सर्जरी या रिप्लेसमेंट पर जाकर बात अटक जाती है क्योंकि यह काफी खर्चीली प्रक्रिया है जिसको पूरी तरह अस्पताल भी वहन नहीं कर सकता. लेकिन ऐसे हालात में भी उनके जैसे कई डॉक्टरों की पूरी कोशिश होती है कि पैसे की कमी की वजह से कोई भी स्पेशल केस नजरअंदाज न होने पाए और ये कोशिश अक्सर रंग भी लाती है.

सरकारी नौकरी के बावजूद अर्चना को अपनी बेटी अनन्या के इलाज का खर्च उठाने में तमाम दिक्कतें हुईं जिसके बाद उन्होंने केबीसी में भाग लेने की सोची

वहीं, हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर केके अग्रवाल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहते हैं कि प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार है जिसकी रक्षा करने का दायित्व सरकार का है. वे कहते हैं, ‘इसमें सरकार या सरकारी अस्पतालों का किसी भी तरह की मजबूरी का रोना नहीं चल सकता. अगर कोई बच्चा जन्मजात बीमारी के साथ पैदा होता है तो जरूरी है कि एक केंद्रीकृत फंड के तहत उसका इलाज किया जाए, फिर वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो. इसके साथ ही इस बात की तसल्ली होना भी जरूरी है कि किसी भी तरह की एमरजेंसी की स्थिति में मरीज को भटकने की जरूरत न पड़े.’

सरकारी रवैये पर सवाल उठाते हुए डॉक्टर अग्रवाल कहते हैं कि सरकार कैसे कह सकती है कि उनके पास सुविधाएं नहीं है और अगर नहीं हैं तो उसके लिए जिम्मेदार भी वह खुद है. अफसोस की बात है कि कई क्षेत्रों में भारी भरकम निवेश करने वाली सरकार के पास स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं है.

अपनी बात पूरी करते हुए डॉक्टर अग्रवाल कहते हैं, ‘मरीज किसी भी वर्ग से क्यों न हो, मूलभूत स्वास्थ्य सेवा, निवारक बीमारियों का इलाज और एमरजेंसी सेवा, यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार होना चाहिए. राज्य और केंद्रीय स्तर पर चलनेवाली अलग-अलग स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं के हाल सबके सामने हैं. ऐसे में जरूरी है कि एक केंद्रीकृत फंड के तहत लोगों को स्वास्थ्य लाभ दिया जाए, साथ ही अनिवार्य रूप से स्वास्थ्य बीमा करवाया जाए. जब इतने बड़े देश में स्कूटर या कार का बीमा अनिवार्य हो सकता है तो सेहत का बीमा मुमकिन क्यों नहीं है ?’

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अर्जना अपने परिवार के साथ

यहां गौर करनेवाली बात यह है कि भारत में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 4.1 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किया जाता है जिसमें जल आपूर्ति, स्वच्छता और भारतीय रेलवे व रक्षा विभाग के स्वास्थ्य-संबंधी जुड़े खर्चे भी शामिल हैं. सेहत से जुड़ी ज्यादातर योजनाएं निजी कंपनियों द्वारा शुरू की गई हैं और यही वजह है कि आम आदमी और खासतौर पर कम आय का तबका, इनसे दूरी बनाकर चलता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक हालिया सर्वे के अनुसार भारतीय परिवारों के घर-खर्च का औसतन 10 प्रतिशत हिस्सा अचानक सिर पर पड़नेवाली सेहत संबंधी परेशानियों में चला जाता है. करीब 24 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जिन्हें इस बिन बुलाए खर्चे से निपटने के लिए अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से समझौता करना पड़ता है. बुनियादी संघर्षों से जूझनेवाले व्यक्ति के लिए निजी कंपनियों द्वारा शुरु किए गए स्वास्थ्य बीमा के बारे में सोचना नामुमकिन है.

इसी साल, अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था कि नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा देने का काम यूरोपियन देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही कर दिया था. जापान, चीन और कई एशियाई देश भी इसमें पीछे नहीं रहे हैं. लेकिन अफसोस कि वैश्विक स्तर पर एक अहम स्थान रखनेवाले भारत देश को अभी भी इस विषय पर इतना सोचना और विचारना पड़ रहा है. सेन का मानना है कि किसी भी देश के स्थायी विकास के लिए मजबूत, साक्षर और स्वस्थ मानव संसाधन से अच्छी ‘रेसिपी’ और कुछ नहीं हो सकती.

इन सबके बीच आर्थिक मदद के लिए मौजूद तमाम विकल्पों का दरवाजा खटखटाना जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं है. रांची, झारखंड की अर्चना तिरके ने हाल ही में लोकप्रिय कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति में 50 लाख रुपए की रकम जीती है. कार्यक्रम के दौरान अर्चना ने बताया कि अपनी बेटी के इलाज के लिए उन्होंने शो में हिस्सा लिया. अर्चना की 13 साल की बेटी अनन्या को जन्म से ही क्रेनियोफेशियल नाम की बीमारी ने जकड़ रखा है. जन्म से ही अनन्या के माथे में हड्डी नहीं है जिसकी वजह से उसके दिमाग का कुछ हिस्सा बाहर निकला हुआ था. उसकी दोनों आंखों के बीच की दूरी में भी समस्या थी. जब अनन्या पांच महीने की थी, तब उसका पहला ऑपरेशन हुआ. दूसरा ऑपरेशन साढ़े पांच साल की उम्र में हुआ. 16 साल की उम्र में उसे एक और अहम ऑपरेशन से गुजरना होगा जिसके लिए अर्चना ने केबीसी में हिस्सा लिया और 50 लाख रुपए जीते.

अर्चना एक सरकारी बैंक में नौकरी करती हैं और उनके पति रेलवे विभाग में हैं. इसके बावजूद उनके लिए ऑपरेशन की रकम इकट्ठा करना आसान नहीं था. वैसे तो सरकारी नौकरी में होने की वजह से अर्चना को ऑपरेशन के खर्च का 75 प्रतिशत वापिस मिलने की पात्रता है लेकिन इसके लिए उनको काफी पापड़ बेलने पड़े.

तहलका से फोन पर हुई बातचीत में अर्चना बताती हैं कि जब उन्होंने अपने बैंक में ऑपरेशन खर्चे की अर्जी भरी तो उन्हें यह कहकर वापिस लौटा दिया गया कि यह रकम किसी बीमारी पर नहीं, बल्कि सौंदर्यता पर किया गया खर्च है. बेटी की हालत जानने के बावूजद भी बैंकवालों ने क्रेनियोफेशियल को बीमारी मानने से ही इंकार कर दिया और पांच साल की लंबी खींचतान के बाद आखिरकार उन्हें खर्चे का 75 तो नहीं लेकिन 50 प्रतिशत वापिस किया गया. दवाइयों का खर्चा हटा दिया जाए तो 13 साल में ऑपरेशन पर उनके करीब नौ लाख रुपए खर्च हो चुके हैं. अर्चना नहीं चाहती थीं कि बड़े ऑपरेशन के लिए उन्हें फिर से इन्हीं हालात का सामना करना पड़े इसलिए उन्होंने कौन बनेगा करोड़पति में अपनी किस्मत आजमाने का फैसला किया जिसके लिए वे दिन में करीब 50 फोन लगाती थीं.

अनन्या का इलाज हैदराबाद के अपोलो अस्पताल में चल रहा है. अर्चना की मानें तो जानकारी की कमी की वजह से जमशेदपुर के डॉक्टर बीमारी की जड़ तक नहीं पहुंच पाए. वे कहती हैं कि जब उनके बैंकवालों ने इसे बीमारी मानने से इंकार कर दिया तो समाज के बाकी वर्ग से क्या उम्मीद की जाए. चेहरे की इस परेशानी के अलावा अनन्या को और किसी भी तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्कत नहीं है. वह एक सामान्य स्कूल में बाकी बच्चों के साथ पढ़ती लिखती है लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग उसे असामान्य समझने की गलती कर बैठते हैं.

अर्चना पढ़ी-लिखी और सरकारी नौकरी करनेवाली जागरुक महिला हैं तो अहमद के पिता सिराजुद्दीन एक गरीब तबके से ताल्लुक रखते हैं. ये विश्व पटल पर आगे बढ़ते भारत के दो सिरे हैं. इन दोनों सिरों के बीच कई जिंदगियां, अनेकों छोटी बड़ी बीमारियां और उनके साथ जूझती स्वास्थ्य सेवाएं उलझी हुई हैं जिन्हें सुलझाने के लिए अधिनियम के साथ साथ संवेदनशीलता और नीयत की भी जरूरत है.

उत्तराखंड: अनर्थ को आमंत्रण

फोटो साभारः मोहित हिमरी

वन्य जीव संरक्षण कानून लागू होने तक, कुछ दशक पहले हम भारतीय जान जोखिम में डाल कर भी आखेट करते थे. बाजार में वधिक की दुकान पर हर तरह का मांस सुलभ होने के बावजूद पूरे दिन और कभी-कभी तो कई दिनों तक जंगलों में एक हिरन या खरगोश की तलाश में भटकते थे. इसमें निहित जोखिम का रोमांच, स्वयं के तीस मार खां होने की दंभ पूर्ति और स्वयं को बुरी तरह थका देने का जुनून इसके पीछे प्रमुख कारण था. मध्य हिमालय में नंदा देवी राज जात के नाम से होने वाले धमाल को मैं इसी रूप में देखता हूं. प्रायः हर बारहवें साल होने वाले इस आयोजन को हिमालयी कुम्भ कह कर महिमा मंडित किया जाता है. बगैर यह सोचे– समझे कि हरिद्वार, प्रयाग, नासिक या उज्जयिनी में होने वाले कुंभ पर्व एक समतल भूमि पर होते हैं जहां महान सरिताएं वहां जमा होने वाले अनगिनत मनुष्यों के दैहिक कलुष धोने में  यथा शक्ति सक्षम हैं. वहां की स्थिर और समतल भूमि उन सबका बोझ भी उठा लेती है. लेकिन उच्च हिमालय का जो क्षेत्र खुद अपना ही बोझ उठा पाने में सक्षम नहीं है, वहां एक साथ हजारों लोगों की धमा चौकड़ी क्या कहर बरपाएगी? सचमुच यह भेड़ चाल है. सड़क पर दो मनुष्यों, दो गाड़ियों या दो सांडों की टक्कर को देखने, एक के पीछे एक हम जिस तरह मजमा लगा देते हैं, भले ही हमारा उससे कुछ भी लेना देना नहीं होता. लेकिन चूंकि दस लोग वहां पहले से जमा हैं इसलिए ग्यारहवां भी अपनी गाड़ी साइड लगा कर दर्शक बन जाता है.

उत्तर मध्य युग में कभी गढ़वाल के राजा, उसके उप सामंतों और पुरोहितों द्वारा शुरू की गयी यह रस्म वर्ष 2000 तक स्थानीय स्तर पर ही निभायी जाती रही है. शिव उत्तराखंड और खास तौर पर गढ़वाल के आराध्य देव रहे हैं. एक सह्स्राब्धि पूर्व, यहां देश के अन्य हिस्सों से उच्च जाति के सवर्ण समुदाय के आ बसने तक शिव ही यहां के आदिवासी और दलित मूल निवासियों के मुख्य आराध्य थे. बाहरी लोगों ने यहां आकर उन पर तथा उनकी मूल परंपराओं पर कुठाराघात किया. (उन बाहरी लोगों में हमारी जाति के बंद्योपाध्याय भी शामिल थे, जो यहां आकर बहुगुणा कहलाए). मूल निवासियों की कुछ मान्यताओं को अपनी सुविधा के अनुसार ढाल दिया गया जिसमें नंदा देवी राज यात्रा भी शामिल है. चार सींग वाले एक मेंढे को नंदा देवी का वरद मवेशी मान कर उसकी अगुआई में चमोली जिले के नौटी गांव से नंदा देवी पर्वत शिखर की ओर एक वार्षिक लोक यात्रा आयोजित की जाने लगी. हर बारहवें साल इस पर्व को बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता था, फिर भी इसमें गढ़वाल और कुमाऊं के कुछ सौ स्थानीय लोग ही शामिल होते थे. वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य गठन की प्रक्रिया अंतिम चरण में थी. उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने लोगों को रिझाने के लिए इस यात्रा के लिए एक भारी-भरकम बजट का प्रावधान कर दिया. संयोगवश उस वक्त उत्तर प्रदेश के धर्म और संस्कृति पद पर इस क्षेत्र  के स्थानीय विधायक आसीन थे. उन्होंने इस आयोजन के महिमा मंडन में विशेष रुचि ली. भारी राजकीय ढिंढोरे के फलस्वरूप हजारों लोग इस यात्रा में शामिल होने को यहां इकट्ठा हो गए जिनमें से कुछ दुरूह प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काल कलवित भी हुए. तबसे यह नितांत स्थानीय आयोजन एक तमाशा बन गया. मैदानी क्षेत्रों में पावस की उमस से आकुल और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटे प्रवासी जन भी इस यात्रा में भागीदार बनने को बढ़-चढ़ कर दौड़े आये. दिल्ली- बद्रीनाथ हाईवे पर बसे कर्णप्रयाग कस्बे से 20 किलोमीटर दूर नौटी गांव से शुरू होने वाली 200 किलोमीटर से अधिक की इस 19 दिवसीय यात्रा में शामिल होने के लिए उत्तराखंड के प्रवासी जिस तरह से तन , मन और धन से शामिल होने टूट पड़ते हैं, काश ऐसी ही त्वरा उन्होंने यहां चिपको, टिहरी बांध विरोधी या नशा विरोधी आंदोलनों में दिखाई होती तो आज राज्य की तस्वीर ही कुछ अलग होती. मीडिया के द्वारा रचित आभा मंडल के कारण इस बार की यात्रा में भी 50 हजार ‘श्रद्धालु’ आ जुटे. नौबत यहां तक पहुंची कि केदारनाथ जैसी दुर्घटना की आशंका को भांप सरकार को अपील जारी करनी पड़ी, कि अब विशाल जन समूह 12 हजार फीट की ऊंचाई से आगे न जाए, जबकि पहले सरकारी तौर पर ही इस यात्रा को हिमालयी कुंभ की संज्ञा देते हुए भारी प्रचार किया गया था.

कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी शहर मेंआकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें

जात का अभिप्राय स्थानीय भाषा में यात्रा या पशुबलि से है. उत्तराखंड के निवासी बहुधा परंपरा से ही मांसाहारी रहे हैं इसलिए इस तरह की ‘जात’ का प्रचलन यहां शुरू से ही रहा है. सार्वजनिक तौर पर और बड़े पैमाने पर पशु बलि की प्रथा सामाजिक प्रयासों से समाप्त प्रायः हो चुकी है. पहले यहां देवी के विविध मंदिरों में खास अवसरों पर एक साथ सैकड़ों बकरों, भेड़ों और भैंसों की बलि दी जाती थी. उन्हें देवी को अर्पित करने के बाद भक्तगण खुद खा जाते थे. अब देवी के नाम पर एक मात्र सार्वजनिक और बड़ा मजमा नंदा देवी राज जात पर ही जुटता है. यद्यपि इस जलसे के नायक खाडू ( चमत्कार नर मेढ़े ) को 19 दिन की कठिन यात्रा में यात्रा समाप्ति के बाद इस मान्यता के साथ वहीं छोड़ दिया जाता है कि वह सशरीर देवी के पास चला जाता है, लेकिन स्वतः ही समझा जा सकता है कि वह कहां जाता होगा. यह मान्यता है कि यह चार सींग वाला खाडू बारह साल में एक बार देवी की विशेष अनुकम्पा के फलस्वरूप खास गांव और खास घर में जन्म लेता है, लेकिन कौन नहीं जानता कि किसी पशु के दो की बजाय चार सींग उग आना कोई दैवी चमत्कार नहीं बल्कि एक जन्मजात शारीरिक विकृति है जो मनुष्यों और दूसरे प्राणियों में भी होती है. इसी बार की यात्रा में वीआईपी खाडू के अलावा कम से कम चार खाडू ऐसे शामिल थे जिनके दो की बजाय चार सींग थे.

स्थानीय लोगों द्वारा अपने स्तर पर पहले की तरह यह आयोजन होता रहे, तो शायद ही किसी को आपत्ति हो, लेकिन हर तरह के मीडिया और प्रचार माध्यमों के जरिए हजारों लोगों को यहां हांका लगाकर जुटा लाना भारी अनर्थ का द्योतक है. यह यात्रा चार हजार फीट से शुरू होकर अठारह हजार फीट से अधिक ऊंचाई तक पहुंचती है. इस क्षेत्र में कस्तूरी मृग, मोनाल, गोरल, काकड़ जैसे दुर्लभ और संकट ग्रस्त प्रजाति के थल और नभ चर पशु-पक्षियों का सुरक्षित आवास है. उनका एक अलग ही लोक है. उन्हें शायद यह आभास भी नहीं होगा कि इस सृष्टि में मनुष्य नाम का कोई प्राणी भी है. कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी गांव या शहर में आकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें ? कभी-कभार इक्का-दुक्का बाघ या हाथी के आबादी में आ जाने पर हम कैसी हाय-तौबा मचाते हैं? मुझे यह तथ्य इसी बार और इसी संदर्भ में विदित हुआ कि कस्तूरी मृग के शिकारी कस्तूरी मृग को देखते ही जोर से शंख बजाते हैं. इस अपूर्व शंख ध्वनि को  सुनते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ता है. तब उस पर गोली चलाई जाती है. हजारों लोगों की तुमुल ध्वनि और अनगिनत शंख नाद से उनकी क्या गति हुई होगी, यह कल्पनातीत है.

उच्च हिमालय पर रहने वाले इन प्राणियों की वहां उपस्थिति केवल सजावट के लिए नहीं है. वहां वृक्ष तथा वनस्पतियों, नदियों, झरनों और ग्लेशियरों का अस्तित्व उन्हीं से है. एक छोटी-सी चिड़िया अपने जीवन काल में कितने महावृक्षों को जन्म देती है, जिनके कारण नदियां अखंड सौभाग्यवती हैं, यह अपने कौतूहल में उन्मत्त धर्मध्वजियों को कौन समझाए. इसी यात्रा पथ पर, सोलह हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थित रूप कुंड सरोवर के तट पर पड़े मानव कंकालों का सटीक रहस्य आज भी पता नहीं चल सका है. सच्चाई के सर्वाधिक निकट यही तथ्य प्रतीत होता है कि उत्तर मध्य युग में कभी तिब्बत की ओर विजय यात्रा पर जाने या वहां से इस ओर आने वाली कोई सैन्य वाहिनी यहां बर्फ के अंधड़ में फंसकर काल कलवित हो गई. आज हम इस यात्रा के रूप में वस्तुतः प्रकृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वहां जा रहे हैं जिसमें अंतिम और निर्णायक हार हमारी ही होनी है. आठ हजार फीट से ऊपर की ऊंचाई पर नर्म घास और फूलों के ढालदार मैदान जिन्हें स्थानीय भाषा में बुग्याल और अंग्रेजी में अल्पाइन कहा जाता है, इस बार हजारों लोगों की धमाचौकड़ी के फलस्वरूप मिनटों में रेगिस्तान में तब्दील हो गए. ये बुग्याल वस्तुतः यहां धरती की त्वचा हैं, जिन्हें पुनर्जीवित होने में वर्षों लगेंगे और शायद वे अपने वास्तविक स्वरूप में कभी आ भी न पाएं. तब तक केदारनाथ और जम्मू-कश्मीर जैसी विपत्तियों को झेलने के लिए हमें प्रस्तुत रहना चाहिए.

धार्मिक यात्रा के नाम पर यह अंधाधुंध पर्यावरण नाश रोकने के लिए दृढ इच्छा शक्ति और राजनीतिक जोखिम उठाने का साहस चाहिए, जो फिलहाल यहां के राजनेताओं में नजर नहीं आता. यह यात्रा अपनी निर्धारित अवधि के अनुसार गत वर्ष होनी थी, लेकिन केदारनाथ की भीषण आपदा ने सरकार और आयोजकों, दोनों के होश फाख्ता कर दिए. वरना गत वर्ष भी राज्य सरकार ने वाह-वाही और वोट बैंक लूटने के लिए इस आयोजन के लिए अच्छी खासी रकम नियत की थी. इस बार साल बीतते न बीतते सभी पक्ष पिछली आपदा भूल गए. इस बार की यात्रा में कांग्रेस और भाजपा दोनों के प्रमुख नेता जहां-तहां यात्रा में शामिल हुए. लेकिन यह परिवर्तन अवश्य दिखा कि यात्रा में शामिल आम लोगों और राजनेताओं, सभी ने पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर भी चिंता जताई. मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भले ही यात्रा को समर्थन और सरकारी संरक्षण दिया, पर अंततः लोगों से अति संवेदनशील क्षेत्र में न जाने की अपील भी की. विडंबना यह है कि यात्रा में शामिल श्रद्धालु वहां अपने लिए हर तरह की सुविधा मांगने लगे हैं. अर्थात तम्बू से लेकर चूल्हा तक. जनबल से सहमी सरकार ने कुछ हद तक यह किया भी. सरकारी तौर पर भारी तादाद में जगह जगह तम्बू गाड़े गए, बगैर यह सोचे कि उन्हें गाड़ने के लिए जो जमीन खुर्ची जाएगी और उनके तले कई दिन तक वहां की संवेदनशील भूमि का जो दम घुटेगा, उसके नतीजे क्या होंगे. इस बार पर्यावरण को लेकर आई लोक चेतना का ही सबूत है कि वहां होने वाले प्रकृति विध्वंस के चित्र और विवरण वहां से लौटने वाले श्रद्धालुओं ने ही सार्वजनिक किए. उनसे ही पता चला कि यात्रा मार्ग पर यहां-वहां प्लास्टिक की बोतलों के अंबार ने नर्म घास और फूलों का कबाड़ा कर दिया है. आखिर किसी को इतनी अक्ल भी नहीं आई कि वहां कम से कम मिनरल वाटर की बोतलें ले जाने से तो लोगों को रोका जाता. उस क्षेत्र में हर झरने का पानी उच्च गुणवत्ता वाला प्राकृतिक मिनरल वाटर ही है. लेकिन बहती गंगा को छोड़ कूप में नहाने वालों का क्या इलाज?

दरअसल उत्तराखंड में बीते 13 वर्षों से लचर नेतृत्व के कारण नौकरशाही के लिए आपदा और उत्सव दोनों ही सुखद हैं. इनसे उनकी जेब हरी होती है. बड़ी उम्मीदों और वादों के हिंडोले पर बैठ कर आए नए मुख्यमंत्री हरीश रावत भी यह सब न रोक पाए तो माना जाना चाहिए कि नदियों और गाड-गदेरों (लघु-सरिताएं) की बात वह भी सिर्फ कहने भर को ही करते हैं.