लोकतंत्र, स्वतंत्रता, विविधता और उद्यमशीलता के लिए अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत और अमेरिका को साझे मूल्य और पारस्परिक हित एक-दूसरे से जोड़ते हैं. हम दोनों ने ही मानव इतिहास की सकारात्मक यात्रा को गढ़ा है और अपनी साझा कोशिशों के जरिये हमारी सहज और अनोखी साझीदारी अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और शांति को एक आकार देने में आगामी कई वर्षों तक मददगार हो सकती है.
अमेरिका और भारत के बीच रिश्ते की जड़ें न्याय और समानता के लिए हमारे नागरिकों की साझी इच्छा में हैं. जब स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म को विश्व धर्म के रूप में प्रस्तुत किया था तो ऐसा उन्होंने 1893 में शिकागो में हुई विश्व धर्मसंसद में किया था. जब मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में अश्वेतों के खिलाफ होने वाले भेदभाव और पूर्वग्रह को खत्म करना चाहा था तो उन्हें महात्मा गांधी की अहिंसा की शिक्षाओं से प्रेरणा मिली थी. खुद गांधी जी हेनरी डेविड थोरो के साहित्य से प्रभावित थे.
हम दोनों ही देश अपने नागरिकों की उन्नति के लिए दशकों से साझीदार रहे हैं. भारत के लोग हमारे आपसी सहयोग की मजबूत बुनियाद को याद करते हैं. हरित क्रांति के तहत बढ़ा अन्न उत्पादन और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) हमारे पारस्परिक सहयोग के कई नतीजों में से हैं.
आज हमारी साझेदारी मजबूत, विश्वसनीय और टिकाऊ है और इसका विस्तार हो रहा है. हमारे बीच पहले से भी ज्यादा आपसी सहयोग हो रहा है. केवल केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर ही नहीं बल्कि हमारी सेनाओं, हमारे निजी क्षेत्र और नागरिक समाज के बीच भी. वास्तव में इतने अधिक सहयोग के चलते ही 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐलान किया था कि हम स्वाभाविक साझीदार हैं.
तब से लेकर अब तक कई वर्षों के दौरान हमारा यह आपसी सहयोग बढ़ता ही गया है. हर दिन हमारे छात्र शोध परियोजनाओं पर साथ-साथ काम करते हैं, हमारे वैज्ञानिक अत्याधुनिक तकनीक विकसित करने के काम में लगे हैं और हमारे वरिष्ठ अधिकारी वैश्विक मुद्दों पर करीबी बातचीत करते हैं. हमारी सेनाएं जल, थल और नभ में संयुक्त अभ्यास कर रही हैं. हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम इस सहयोग को अभूतपूर्व क्षेत्रों में ले जाते हुए हमें पृथ्वी से मंगल तक ले जा रहे हैं.
इस साझीदारी में भारतीय अमेरिकी समुदाय हमारे बीच एक जीवंत सेतु की तरह काम करता रहा है. इसकी सफलता हमारे नागरिकों की चेतना, अमेरिका के उदार समाज और दोनों देशों के मेल की मजबूती का सबसे सजीव प्रतिबिंब रही है.
फिर भी इस संबंध की वास्तविक क्षमताओं का फलीभूत होना अभी बाकी है. भारत में एक नई सरकार का आगमन हमारे रिश्ते को व्यापक और गहरा बनाने का एक स्वाभाविक अवसर है. एक नई ऊर्जा से युक्त महत्वाकांक्षा और पहले से भी ज्यादा विश्वास के साथ हम अपने पारंपरिक लक्ष्यों के परे जा सकते हैं. यह एक नये एजेंडे का समय है जो हमारे नागरिकों को ठोस लाभ पहुंचा सके. यह एजेंडा ऐसे पारस्परिक लाभप्रद रास्ते खोजने में हमारी मदद करेगा जो व्यापार, निवेश और प्रौद्योगिकी में हमारे सहयोग का विस्तार कर सकें. ऐसे रास्तेे जो भारत के महत्वाकांक्षी विकास एजेंडे अनुरूप हों और साथ ही प्रगति के एक वैश्विक इंजन के रूप में अमेरिका को भी मजबूती दें. आज जब हम वाशिंगटन में मिलेंगे तो हम उन तरीकों पर चर्चा करेंगे जिनसे हम विनिर्माण को बढ़ावा और सस्ती अक्षय ऊर्जा को विस्तार दे सकें और इसके साथ ही अपने साझे पर्यावरण का भविष्य भी सुरक्षित कर सकें. हम चर्चा करेंगे कि किस तरह हमारे कारोबार, वैज्ञानिक और सरकारें आपस में साझीदारी कर सकते हैं. भारत खासकर अपने निर्धनतम नागरिकों के लिए बुनियादी सुविधाओं की गुणवत्ता, विश्वसनीयता और उपलब्धता को सुधारना चाहता है. इस काम में अमेरिका सहयोग के लिए तैयार है. हमारे तत्काल और ठोस समर्थन का एक क्षेत्र स्वच्छ भारत अभियान है जिसमें हम सारे भारत में स्वच्छता और सफाई की स्थिति सुधारने के लिए नए तरीकों, विशेषज्ञता और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाएंगे.
हमारे साझे प्रयासों से हमारे अपने लोगों को फायदा होगा. हम चाहते हैं कि हमारी साझेदारी बड़ी से बड़ी हो. एक राष्ट्र और समाज के रूप में हम सबके लिए बेहतर भविष्य की कामना करते हैं. एक ऐसा भविष्य जिसमें हमारी रणनीतिक साझेदारी बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया के लिए फायदेमंद हो. भारत को अमेरिकी निवेश और तकनीकी साझेदारियों से उपजने वाली प्रगति से लाभ होता है तो अमेरिका भी एक मजबूत और पहले से ज्यादा खुशहाल भारत से लाभान्वित होता है. नतीजतन एक क्षेत्र और पूरी दुनिया को भी उस स्थिरता और सुरक्षा से लाभ होता है जो हमारी मित्रता से उपजती है. हम उन प्रयासों के लिए प्रतिबद्ध हैं जिससे दक्षिण एशिया को संगठित किया जा सके और इसे केंद्रीय और दक्षिण पूर्व एशिया के बाजारों और लोगों के साथ जोड़ा जा सके.
वैश्विक साझीदारों के रूप में आतंकवादी विरोधी और कानून का पालन करवाने वाले तंत्र के आपसी सहयोग के जरिये हम अपने देश की सुरक्षा बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. साथ ही हम समुद्री रास्तों में परिचालन की स्वतंत्रता और वैध कारोबार की निरंतरता के लिए भी प्रतिबद्ध हैं. स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारा आपसी सहयोग मुश्किल से मुश्किल चुनौतियों से निपटने में हमारी मदद करेगा, फिर भले ही वह ईबोला को फैलने से रोकना हो, कैंसर के इलाज पर शोध हो या टीबी, मलेरिया और डेंगू जैसे रोगों पर विजय पाने की कवायद. साथ ही हम चाहते हैं कि महिला सशक्तिकरण, क्षमताओं के संवर्धन और अफगानिस्तान व अफ्रीका में खाद्य सुरक्षा सुधारने के लिए सहयोग के जो नए क्षेत्र हमने बनाए हैं उनका विस्तार हो.
अंतरिक्ष का अन्वेषण आगे भी हमारी कल्पनाओं को पंख देता रहेगा और हमें अपनी महत्वाकांक्षाएं बढ़ाने के लिए ललकारता रहेगा. मंगल की परिक्रमा करते हम दोनों के उपग्रह अपनी कहानी खुद कहते हैं. एक बेहतर भविष्य का यह वादा सिर्फ भारतीयों और अमेरिकियों के लिए नहीं है. यह हमें
संकेत भी देता है कि एक बेहतर दुनिया के लिए हम साथ-साथ आगे बढ़ें. यह 21वीं सदी के लिए एक नई परिभाषा गढ़ती हमारी साझीदारी का केंद्रीय आधार है. चलें साथ-साथ.
भारत में क्रिकेट के लिए जूनून घड़ी के पेंडुलम की तरह दोनों दिशाओं में आवृत्ति करता है. टीम जीती तो वह सारे देश की आंखों की तारा हो जाती है और हारी तो खिलाड़ियों के घरों पर पत्थर पड़ने तक की खबरें आने लगती हैं. कुछ ऐसा ही टीम के कप्तान के मामले में होता है. कई कहते भी हैं कि भारत में राष्ट्रीय क्रिकेट टीम का कप्तान प्रधानमंत्री के बाद सबसे अहम व्यक्ति होता है.
लेकिन क्या यह सिर्फ भारतीयों का क्रिकेट के प्रति जूनून ही है जो इद दिनों भारतीय क्रिकेट टीम और उसके मुखिया महेंद्र सिंह धोनी को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है? या फिर बात कुछ और भी है ?
सचिन तेंदुलकर के बाद धोनी भारत के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर हैं. बतौर कप्तान धोनी 2007 में ट्वेंटी ट्वेंटी वर्ल्ड कप जीते. 2008 में उन्होंने टेस्ट टीम की कमान संभाली और एक साल के भीतर ही भारतीय टेस्ट टीम खेल के इस संस्करण की रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंच गई. धोनी से पहले कोई भी भारतीय कप्तान ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया था. फिर मार्च 2011 में वह दिन या कहें कि रात भी आई जब धोनी की कप्तानी में भारत वन डे क्रिकेट का चैंपियन बना. 2013 में भारत चैंपियंस ट्रॉफी भी जीता. क्रिकेट के अलग अलग प्रारूपों में ऐसी उपलब्धियां हासिल करने वाले धोनी एक मात्र कप्तान हैं.
लेकिन आज भारतीय टेस्ट टीम रैंकिंग में पांचवें स्थान पर है. जो क्रिकेट प्रशंसक धोनी -धोनी जपा करते थे आज वे ही धोनी के टेस्ट टीम की कप्तानी क्या बल्कि उनके टेस्ट टीम में होने तक पर सवाल उठा रहे हैं. हाल में ही खत्म हुए इंग्लैंड दौरे में भारतीय टीम लॉर्ड्स में 28 साल बाद टेस्ट मैच जीतने में कामयाब रही. लेकिन उसके बाद वह लगातार तीन टेस्ट मैच हार गई. हार क्या गई बल्कि कहिए तो ध्वस्त हो गई. ओवल में हुए सीरीज के अंतिम टेस्ट में तो टीम पारी और 244 रनों अंतर से हारी. 1974 से ओवल के इस टेस्ट के बीच की अवधि में भारतीय टेस्ट टीम को ऐसी बुरी पराजय कभी नहीं झेलनी पड़ी थी.
सीरीज के बाकी दो टेस्ट मैचों पर नजर डालें तो टीम और कप्तान की कमजोरियों का एक पिटारा सा खुलता है. साउथेम्प्टन में 266 रनों की हार और मैनचेस्टर में एक पारी और 54 रनों की हार. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है लार्ड्स टेस्ट को छोड़ भारतीय टीम बाकी के टेस्ट मैचों के दौरान इंग्लैंड की टीम से किसी भी स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई. साउथेम्प्टन के टेस्ट मैच में जो 13 सत्र थे उनमें हर एक में भारतीय टीम 19 ही ठहरी. वहीं मैनचेस्टर और ओवल टेस्ट मैचों में सीम और स्विंग करती गेंदों के सामने भारतीय बल्लेबाजों की कलई खुल गई और टीम का पुलिंदा 150 से 170 रनों के बीच बंध गया. इसके बाद भी जब दौरे के आखिर में पूर्व इंग्लिश कप्तान नासिर हुसैन ने धोनी से पूछा कि आप दौरे को कैसे देखते हैं तो धोनी का जवाब था, ‘दौरा अच्छा था’. एक दशक में लगातार दूसरी बार इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज बुरी तरह से हारने के बाद कप्तान का ऐसा जवाब सुनकर कइयों को हैरानी हुई.
बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि भारतीय खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है
इससे कई अहम सवाल खड़े होते हैं. मसलन क्या भारतीय क्रिकेटरों की मौजूदा पीढ़ी के लिए टेस्ट क्रिकेट की कोई खास अहमियत नहीं है. अगर नहीं है तो क्यों? सवाल और भी हैं. जैसे कि आखिर क्या वजह है जो भारतीय टीम की क्रिकेट के इस लंबे संस्करण में इतनी दुर्गति हो रही है. यह भी कि खेल के आम प्रशंसकों के दिल में अब टेस्ट क्रिकेट की क्या जगह है?
दरअसल देखा जाए तो खेल का शास्त्रीय प्रारूप कहे जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में भारत की दुर्गति कुछ तो खिलाड़ियों और खेल प्रशासकों के रवैय्ये का नतीजा है और कुछ इस संस्करण के वक्त से तालमेल न बिठा पाने का. ज्यादातर लोग मानते हैं कि इसका नुकसान आखिरकार खेल को ही होना है.
पहले सवाल से शुरू करते हैं. टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से देखें तो भारतीय टीम लगातार नीचे लुढ़कती जा रही है. इंग्लैंड दौरे ने इस कथन पर मुहर भी लगा दी है. लेकिन दौरे के तुरंत बाद भारतीय टेस्ट टीम के अधिकांश खिलाडी चैंपियंस लीग (ट्वेंटी ट्वेंटी सीरीज) में जीतोड़ ताकत लगा रहे हैं. उधर, मैनचेस्टर टेस्ट मैच तीन दिन में ही हारने के बाद धोनी बोल रहे थे कि तीन दिन में हार का एक पहलू यह भी है कि अगला टेस्ट मैच शुरू होने पहले टीम को दो दिन का अतिरिक्त आराम मिल जाएगा. उनकी यह बात साफ संकेत देती है कि बतौर क्रिकेटर और टीम वे टेस्ट क्रिकेट से कितनी जल्दी छुट्टी लेना चाहते हैं. 2011 में लगातार दो विदेशी दौरों पर करारी हार के बाद कप्तान धोनी ने यहां तक कह दिया था कि 2013 के आखिर तक वे यह फैसला ले लेंगे कि उन्हें टेस्ट क्रिकेट आगे खेलना चाहिए या नहीं.
आखिर क्यों मौजूदा भारतीय खिलाड़ी इस खेल के लंबे प्रारूप को लेकर उत्साहित नहीं दिखते जबकि कहा जाता है कि टेस्ट क्रिकेट शास्त्रीय संगीत की तरह है जो सही मायने में खिलाड़ी की गहराई को परखता है. उसके खेल को संपूर्णता देता है. वर्तमान में क्रिकेट खेल रहे खिलाड़ियों ने 90 का वह दशक देखा है जब एकदिवसीय क्रिकेट की लोकप्रियता अपने चरम पर थी. यही वजह है कि उनके मन और खेल पर खेल के इस छोटे प्रारूप की बनिस्बत बड़ी छाप पड़ी. बाद में ट्वेंटी ट्वेंटी मैचों ने क्रिकेट के छोटे प्रारूप को नए आयाम दे डाले. इनका संबंध सिर्फ खेल से ही नहीं, उसमें छिपी कारोबार और नतीजतन आर्थिक मुनाफे से भी था. पांच दिन तक चलने वाले टेस्ट मैच से कहीं गुना ज्यादा मैच फीस खिलाड़ियों को तीन घंटे के एक आईपीएल मैच में मिलने लगी. टेस्ट मैच धैर्य और तकनीक की परीक्षा लेता है तो आईपीएल जैसे आयोजनों में धैर्य की दीवारों को तोड़ने की मांग रहती है. महेंद्र सिंह धोनी, रविंदर जडेजा, विराट कोहली, शिखर धवन, अश्विन आज एक दिवसीय क्रिकेट के माने जाने सितारे हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं जो इन्हें तेंदुलकर, द्रविड़, कुंबले और गांगुली की कतार में रखने से हिचकते हैं. कहते हैं कि जो क्रिकेट खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट में सफल हो सकता है वह क्रिकेट की किसी भी विधा में सफल हो सकता है. तेंदुलकर, गांगुली और द्रविड़ की इस खूबी ने ही उन्हें क्रिकेट की हर विधा में सफल बनाया. मुरली विजय, चेतेश्वर पुजारा, शिखर धवन, विराट कोहली और अजिंक्य रहाणे ऐसे नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम के नए स्तंभ हैं. कोहली को जब से टेस्ट टीम में सचिन तेंदुलकर द्वारा छोड़ी गई जगह यानी नंबर चार पर बल्लेबाजी करने का मौका मिला है तब से मीडिया पंडित एक अति आशावाद से साथ उनमें नए तेंदुलकर को ढूंढ़ने का अथक प्रयास कर रहे हैं. लेकिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी ग्लैमर की चकाचौंध नहीं बल्कि विशुद्ध खेल के प्रति सम्मान का परिणाम होते हैं.
कुछेक अपवाद जरूर होंगे, लेकिन मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों के मन में टेस्ट क्रिकेट के लिए कितना सम्मान है यह तो टीम के मुखिया धोनी का रवैय्या काफी कुछ बतला देता है. बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि इन खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है. बल्लेबाजी को ही लें. ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट के इस दौर में छक्के-चौकों की अहमियत इतनी बढ़ गई है कि लगभग सारे बल्लेबाज अपने बल्ले को मजबूती से पकड़ते हैं ताकि शॉटों में जान आ सके. टेस्ट क्रिकेट, खासकर इंग्लेंड, दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में खेली जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में सफलता के लिए जरूरी है कि बल्लेबाज बैट पर मजबूत पकड़ यानी हार्ड ग्रिप न बनाएं बल्कि गेंद की दिशा (Length) और उछाल (Bounce) को देखते हुए ग्रिप का इस्तेमाल करें. इंग्लैंड की परिस्थितियों में यही तकनीकी दिक्कत भारतीय बल्लेबाजो के पतन का कारण बनती रही है. दरअसल वहां की परिस्थितयों में गेंद सीम और स्विंग करती है. ऐसे में बल्लेबाज के लिए जरूरी होता है कि वह गेंद को जितना हो सके देर से खेले. मतलब गेंद को पूरी तरह से भांपने की कोशिश करे और फिर उसे सॉफ्ट हैंड्स के साथ खेले. लेकिन हुआ इसका उल्टा. भारतीय बल्लेबाज अपने अति उत्साह के चलते गेंद को जल्दी खेलने की कोशिश करते रहे. नतीजा टेस्ट सीरीज के आखिरी तीन मैचों में पूरी टीम का 150 -160 रनों के बीच पुलिंदा बंधने के रूप में सामने आया. यदि तकनीक की खामियां ढूंढने लगें तो बहुत कुछ मिल सकता है, लेकिन इन तकनीकी कमियों की जड़ बल्लेबाजों की उस ही प्राथमिकता में नजर आती है जिसका जिक्र लेख में पहले आ चुका है. यानी ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट.
एक आम व्यक्ति जो क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है वह टी-20 के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है. उसे टेस्ट क्रिकेट नहीं भाता
जहां तक स्पिनरों की बात है तो तो उनके लिए भी प्राथमिकता वही है जिसका जिक्र बल्लेबाजों के संदर्भ में आ चुका है. ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट के बाद से स्पिनरों की वह खेप खत्म होती दिख रही है जो गेंद को फ्लाइट कराना चाहती है या बल्लेबाज को फ्रंट फुट पर लाना चाहती है. आजकल स्पिनर ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट में छक्के-चौकों के डर से इतना भयभीत हैं कि गेंद को फ्लाइट कराने से डर रहे हैं. आर अश्विन, रविंदर जडेजा से लेकर हरभजन सिंह जैसे गेंदबाज तक लगभग हर गेंद पर कंधे का इस्तेमाल करते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इंग्लैंड दौरे पर भारतीय टीम में एक लेग स्पिनर जरूर होना चाहिए था. इंग्लिश बल्लेबाज लेग स्पिन के सामने कुशलता से नहीं खेल पाते. इसकी पुष्टि समकालीन इतिहास के महानतम लेग स्पिनर शेन वार्न के इंग्लैंड के खिलाफ रिकार्ड पर नजर डालने से भी होती है. वार्न हर एशेज श्रृंखला में इंग्लिश बल्लेबाजों को अपनी लेग स्पिन की धुन से परेशान कर दिया करते थे. भारतीय क्रिकेट में अमित मिश्रा और पीयूष चावला को छोड़ ऐसा कोई भी लेग स्पिनर नहीं है जिसे इस दौरे पर ले जाया जा सकता था. फिर यह भी है कि लेग स्पिनरों पर कप्तान धोनी का विश्वास हमेशा संदेह की नजर से देखा गया है. भारतीय टीम शुरूआती तीन टेस्ट मैचों में सपाट विकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी खेलने वाले रविंदर जडेजा के साथ उतरी. जडेजा अपनी गेंदबाजी से कम और इंग्लिश तेज गेंदबाज जेम्स एंडरसन के साथ विवाद के लिए सुर्खियां बटोरते रहे. यह विवाद न जडेजा की गेंदबाजी में कुशलता का सृजन कर पाया न भारतीय टीम के प्रदर्शन में. साफ है कि भ्रमवश या फिर मजबूरी के मारे भारतीय टीम उन खिलाड़ियों के साथ खेल रही है जो टेस्ट क्रिकेट के माकूल नहीं दिखते.
बदलाव एक जमाना था जब टेस्ट मैचों के दौरान स्टेडियम खचाखच भरे रहते थे, लेकिन अब दर्शक नाममात्र के होते हैं
लेकिन क्या बात सिर्फ क्रिकेट खिलाड़ियों की कुशलता और अकुशलता तक जाकर खत्म हो जाती है? भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) और प्रसंशकों का इसमें कोई योगदान नहीं? कहते हैं कि किसी भी समाज की पहचान उसकी राजनीति में परिलक्षित होती है. उसी तरह भारत के क्रिकेट प्रशंसक की रुचि भारतीय क्रिकेट में परिलक्षित होती है. सवाल यह है कि क्या आज भारतीय क्रिकेट टीम का कोई आम प्रशंसक टेस्ट क्रिकेट को गंभीरता से लेता है. यदि हां तो फिर यह ‘हां’ टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम को सफलता के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर पा रहा?
शायद इसका जवाब उस विशाल बाजार के पास है जो क्रिकेट को क्रिकेट से ज्यादा जैकपॉट समझ रहा है और इसे जैकपॉट जैसा दिखाने में बीसीसीआई की अहम भूमिका है.एक तर्क यह दिया जाता है कि बोर्ड को सर्वाधिक राजस्व आईपीएल जैसे निजी उपक्रम से प्राप्त होता है. अगर देश में लोक सभा चुनाव हो रहे हों तो आईपीएल को मध्य पूर्व एशिया के क्रिकेट मैदानों जैसे शारजाह और आबू धाबी में कराने पर कोई आपत्ति नहीं होती. ज्ञात हो कि आईपीएल से पहले मध्य पूर्व एशिया में तकरीबन 13 सालों से भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान के साथ एक दिवसीय मैचों की एक सीरीज को छोड़ अन्य कोई भी मैच नहीं खेली है क्योंकि इन देशों को सट्टेबाजो का गढ़ बताया जाता रहा. लेकिन आज वैश्वीकरण और स्पोर्ट्स प्रोफेशनलिज्म के नाम पर शारजाह और आबू धाबी जेसे स्थानों पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती. इन जुमलों के पीछे जाकर कोई यह बात नहीं करना चाहता कि क्यों हर साल आईपीएल में भ्रष्टाचार का कोई न कोई मामला सुर्खियां बनता है या फिर क्यों देश की सर्वोच्च अदालत बोर्ड अध्यक्ष को आईपीएल की गतिविधियों से दूर रखने के लिए उन्हें अध्यक्ष पद से हटा देती है.
दुनिया के अधिकांश खेल आज बाजार की दिशाओं के अनुसार वक्त बेवक्त नियंत्रित और अनियंत्रित होते रहते हैं ऐसे में हर खेल को देखने वाली सर्वोच्च संस्था की यह जिम्मेदारी होती है कि वह किस हद तक खेल को खेल बने रहने दे और किस हद तक इसमें बाजार का योगदान हो. भारतीय क्रिकेट बोर्ड के संदर्भ में उक्त कथन संतुलन की अवस्था में नहीं दिखता. जब 90 के दशक में कोलकाता के ईडेन गार्डन्स में टेस्ट मैच होते थे तो एक लाख की क्षमता वाला यह मैदान खचाखच भरा होता था. लेकिन अब यही मैदान अपनी क्षमता के महज दस फीसदी दर्शकों का गवाह बन रहा है. भारत के अन्य टेस्ट मैदानों का भी यही हाल है. बताते हैं 80 और 90 के दशक में भारत के अधिकांश मैदानों में साधारण दर्जे के टायलेट भी नहीं थे लेकिन मैदान खचाखच भरे रहते थे. आज पूंजी की बयार में टॉयलेट तो विश्व स्तरीय हैं लेकिन टेस्ट मैचों के दौरान उनका प्रयोग करने के लिए लोग ही नहीं आते. दर्शकों की यह कम भीड़ भी टेस्ट स्तरीय खिलाड़ियों को हतोत्साहित करती है. कई यह भी मानते हैं कि पिछले दो दशक में आए सामाजिक बदलावों के चलते आज क्रिकेट प्रशंसकों के एक बड़े वर्ग के पास टेस्ट क्रिकेट के लिए समय ही नहीं है. उसे आईपीएल जैसे आयोजन ज्यादा आकर्षित करते हैं जिनका समय तब होता है जब ऑफिस का समय नहीं होता और जो फटाफट निबट जाते हैं. एक आम व्यक्ति जो क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है वह टी-20 के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है जिसे लाइव ड्रामा और एक्शन के साथ रिजल्ट चाहिए. उसे पांच दिन तक चलने वाला टेस्ट मैच देखना भारी लगता है.
साफ है कि यह टेस्ट क्रिकेट के लिए संकट काल है. कुछ हद तक अंतरष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) भी इसके लिए जिम्मेवार है. क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था होने के बाद भी यह बीसीसीआई की महत्वकांक्षाओं पर लगाम नहीं लगा सकी. हालांकि दूसरी तरफ से देखा जाए तो क्रिकेट की इस सर्वोच्च संस्था की लगाम आज पूरी तरह से बीसीसीआई के हाथ में ही है. आज आईसीसी के मामलों में उसके पास सबसे ज्यादा वीटो पावर है. इस वीटो पावर के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत से आने वाली स्पांसरशिप और राजस्व है. बीसीआई नहीं तो आईसीसी का क्या होगा, यह सवाल बीसीसीआई अधिकारियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से आईसीसी के सामने खड़ा किया जाता रहा है. जिन एन श्रीनिवासन पर बतौर बोर्ड के अध्यक्ष और चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक के रूप में हितों के टकराव का आरोप लगा आज वे ही आईसीसी के चेयरमैन हैं और भारत की सर्वोच्च अदालत आईसीसी के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती. फलस्वरूप, ग्लैमर, चकाचौंध, चीयर गर्ल्स और दर्शकों का रुझान सब कुछ बीसीसीआई के हिसाब से चल रहा है. यह आर्थिक शक्ति भारत के उस मध्यवर्ग को बहुत लुभाती है जो भारत को विश्व पटल पर एक महाशक्ति के रूप में देखना चाहता है. यह भी एक वजह है कि टेस्ट क्रिकेट पुराने जमाने की किसी बात की तरह देखा जा रहा है तो ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट के भविष्य के रूप में.
जिन श्रीनिवासन पर बोर्ड के अध्यक्ष और चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक के रूप में हितों के टकराव का आरोप लगा आज वे ही आईसीसी के चेयरमैन हैं
ऐसे में सवाल उठता है कि फिर सारा दोष खिलाड़ियों पर डालना कितना वाजिब है. जानकारों का एक वर्ग है जो मानता है कि कुछ तो खेल खिलाड़ी को बदलता है और कुछ खिलाड़ी भी खेल को बदलते हैं. इस लिहाज से टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम की दुर्गति में उसके खिलाड़ियों का अहम योगदान तो है ही. कप्तान धोनी को ही लीजिए. पूर्व ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर और दिग्गज इयान चैपल तो अभी से कह चुके हैं कि यदि धोनी टेस्ट मैचों में ऐसे ही कप्तानी करते रहे तो भारतीय टीम को साल के अंत में आस्ट्रेलिया में फिर से 4-0 से शिकस्त झेलनी पड़ेगी. गौर से देखा जाए तो पता चलता है कि भले ही बतौर कप्तान धोनी की रणनीतियां क्रिकेट के छोटे प्रारूप में उन्हें बहुत सी सफलताएं दिला चुकी हैं, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में उनकी यही रणनीतियां टीम को हार की और लेकर जाती हैं. कहते हैं कि टेस्ट क्रिकेट में आक्रामकता ही सुरक्षा का सबसे बेहतरीन तरीका है. लेकिन धोनी किसी छोटी सी साझेदारी के बनने से पहले ही ऐसी फील्डिंग लगा लेते हैं मानो किसी एक दिवसीय मैच के अंतिम ओवरों के लिए फील्डिंग सजा रहे हों. टेस्ट मैच के पहले दिन ही 20 वें ओवर तक लॉन्ग आन या फिर डीप मिड विकेट पर फील्डिंग लगाना गेंदबाज के उत्साह को तो कमजोर करता ही है, विपक्षी बल्लेबाज को रन बनाने का मौका भी देता है. यही वजह है कि आज क्रिकेट जगत में धोनी को एक सुरक्षात्मक कप्तान के रूप में जाना जाने लगा है.
साथ ही धोनी की बल्लेबाजी तकनीक टेस्ट क्रिकेट के लिए कितनी माकूल है, इस पर भी कई सवाल उठ रहे हैं. अगर बतौर बल्लेबाज उनके रिकार्डों पर नजर डालें तो महसूस होता है कि भारत में विकेटकीपर बल्लबाजों की एक ऐसी खेप जरूर रही है जो शायद टेस्ट में धोनी से बेहतर बल्लेबाजी कर सकते थे. कई साल तक तमिलनाडु के दिनेश कार्तिक घरेलू क्रिकेट में रनों का अंबार लगाते रहे . लेकिन एक दिवसीय क्रिकेट में धोनी की सफलता भारत के चयनकर्ताओं से लेकर जनमानस क को इस कदर प्रभावित करती रही की किसी ने धोनी से आगे देखने की कोशिश ही नहीं की.
धोनी आईपीएल में खेलने वाली एक टीम चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान हैं. इस टीम का स्वामित्व इंडिया सीमेंट्स नाम की एक कंपनी के पास है जिसके मुखिया वर्तमान आईसीसी चेयरमैन एन श्रीनिवासन हैं. धोनी इंडिया सीमेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट भी हैं. हितों के इस टकराव पर चर्चा होती रहती है और दबी जबान में यह भी कहा जाता रहता है कि भारतीय टीम में उन खिलाड़ियों को तरजीह मिलती है जिनका संबंध चेन्नई सुपरकिंग्स से हो. इंग्लेंड दौरे पर कमेंट्री करते वक्त शेन वॉर्न ने रविंदर जडेजा को टेस्ट स्तर का गेंदबाज मानने से असहमति जता दी थी. ज्ञात हो कि जडेजा चेन्नई सुपर किंग्स के लिए खेलते हैं. कई आरोप लगाते हैं कि आर अश्विन, मुरली विजय, मोहित शर्मा आदि को भारतीय टीम में जगह मिलती है तो इसकी वजह यह भी है कि वे चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ी हैं. उधर, प्रज्ञान ओझा, अमित मिश्रा और उमेश यादव जैसे कई और नाम कुछ मैचों में मेहमान के तौर पर बुलाए जाते हैं और फिर बिना कोई मैच खेले अगले दौरे से बाहर कर दिए जाते हैं.
धोनी की मैदान के अंदर और बाहर की नीतियां भारतीय क्रिकेट आगे कहां लेकर जाती हैं इसका जवाब अगले साल आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में होने वाले विश्व कप तक मिल जायेगा. तब तक चयनकर्ता धोनी को ही कप्तान बनाए रखेंगे इसमें कोई संदेह नहीं दिखता. धोनी साल के अंत में आस्ट्रेलिया में तीन टेस्ट मैचों की सीरीज हारते हैं तो वे ऐसे कप्तान बन जाएंगे जिसका रिकॉर्ड घर से बाहर कप्तानी करने के मामले में सबसे खराब रहा है.
धोनी के समर्थक कहते हैं कि अगर धोनी नहीं तो कप्तानी का विकल्प कौन है. धोनी के विकल्प के रूप में देखे जा रहे विराट कोहली का प्रदर्शन इंग्लैंड में बहुत खराब रहा इसलिए टेस्ट कप्तानी के लिहाज से उनकी संभावनाएं भी कमजोर हुई हैं. लेकिन टेस्ट क्रिकेट में जिस प्रकार से भारत हार झेल रहा है उसे देखकर लगता है कि कप्तान कोई भी हो क्या कोई टीम इस से बुरा प्रदर्शन कर सकती है.
नयी सहस्त्राब्दी में भारतीय क्रिकेट टीम ने सौरव गांगुली की कप्तानी में जो सबसे बड़ी छवि बनाई थी वह यही थी कि अब भारतीय टीम उपमहाद्वीप के बाहर भी प्रतिस्पर्धा करती है. लेकिन धोनी की कप्तानी में यह छवि आसमान पर पहुंचने के बाद अब गर्त तक पहुंच गई है. लेकिन इसके बाद भी बीसीसीआई की ओर से वैसे कदम नहीं उठाए गए जो उठाए जाने चाहिए थे.
हार, हार होती है और बिना प्रतिस्पर्धा के हो जाए तो ज्यादा दुखदायी होती है. भले ही भारत एक दिवसीय क्रिकेट में चैम्पियन हो, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में उसकी प्रत्येक हार खेल के हर प्रारूप में किसी न किसी तरह से उसके लिए नुकसानदेह ही होगी. गायक भले ही गीत गाए या गजल, रियाज की उपेक्षा आखिरकार उसका नुकसान ही करती है. इसलिए टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से देखें तो बीसीसीआई और खिलाड़ियों की सोच और प्राथमिकताओं में बदलाव होना जरूरी है क्योंकि सवाल खेल का है और कोई भी खिलाडी खेल से बड़ा नहीं होता.
परिवर्तन सनातन सिद्धांत है. जितना सच यह भौतिक जगत के लिए है उतना ही खरा यह वैचारिक और सैद्धांतिक धरातल पर भी है. बदलाव की प्रक्रिया दो रूपों में सामने आती है. ज्यादातर मामलों में होता यह है कि परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें लोग बदलाव करने के लिए विवश हो जाते है. जिस तरह के हालात बनते हैं लोग खुद को उसके हिसाब से ढालते रहते हैं. चार्ल्स डार्विन ने इसे सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट यानी योग्यतम की उत्तरजीविता कहा था. कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ विलक्षण लोग ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देते हैं जिनमें लोगों को अपने भीतर बदलाव करने पड़ते हैं. भारतीय राजनीति ऐसे दुर्लभ पड़ावों की साक्षी रही है. 1947 में भारत ने पश्चिम द्वारा ईजाद की गई लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनी राजव्यवस्था का हिस्सा बनाया. ये वे लोग थे जिनका उससे पहले लोकतंत्र से दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था. उस दौर के दूरदर्शी नेतृत्व ने एक और बड़ा काम किया. संविधान के रूप में एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जिसकी मूल आत्मा धर्मनिरपेक्षता थी. आजाद भारत के शुरुआती दिनों में ये कुछ ऐसे कदम थे जिनके सफल-असफल होने की संभावना एक समान थी. पिछले 67 सालों से यह विचार पूरी सफलता के साथ काम करता रहा. देश की राजव्यवस्था धर्म और पंथ के मसलों से खुद को दूर रखते हुए अपना काम बखूबी करती रही है.
अब भारतीय राजनीति में एक नए दौर की आहट है. एक नया नेतृत्व आया है जिसने पिछले 60-65 सालों की स्थापित मान्यताओं को पुनर्परिभाषित करना शुरू किया है. एक आम सोच देखने को मिल रही है कि भारतीय जनता पार्टी को हालिया लोकसभा चुनावों में मिली भारी सफलता के पीछे की तमाम वजहों में से एक वजह गैर भाजपाई दलों की अत्यंत मुसलिम परस्त छवि भी थी. इसकी वजह से बहुसंख्यक हिंदू समाज का बड़े पैमाने पर भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ. नतीजों के बाद जो हालात पैदा हुए हैं उनमें गैर भाजपा दल तेजी से खुद में ऐसे बदलाव करते दिख रहे हैं जिनके बारे छह महीने पहले तक सोचना भी मुश्किल था. उदाहरण के लिए कांग्रेस ने अपनी राज्य इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि वे आगे से सभी हिंदू त्यौहार मनाएं, समाजवादी पार्टी ने भी अपने मुसलिम हितैषी रुख में नरमी दिखाई है. आजम खान जैसे नेता फिलहाल हाशिए पर डाल दिए गए हैं. सुदूर दक्षिण की सनातन धर्म विरोधी पार्टी डीएमके ने भी पहली बार विनायक चतुर्थी की शुभकामना दी है. साफ है कि चुनावी नतीजों के बाद राजनीतिक फलक पर बदलाव की एक नई इबारत लिखी जा रही है. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय के शब्दों में, ‘यह भारतीय राजनीति में एक नए चरण की शुरुआत है. पुराने स्थापित मापदंड पिघल रहे हैं. नए मापदंड स्थापित हो रहे हैं. भारत की राजनीति करवट ले रही है.’
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने कुछ दिलचस्प तथ्य सामने रखे हैं. 282 सीटें जीतने वाली भाजपा के पास एक भी मुसलिम सांसद लोकसभा में नहीं है. इससे पैदा हुई स्थितियों में बाकी राजनीतिक दल तेजी से अपनी वैचारिक और राजनैतिक जमीन टटोल रहे हैं, उसे ‘रीएडजस्ट’ कर रहे हैं. इसके जो संदेश हैं वे एक ही बात का इशारा करते हैं कि अब देश की राजनीति 16 मई 2014 के पूर्व की स्थापित मान्यताओं के मुताबिक नहीं चलेगी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक परंजय गुहा ठाकुर्ता कहते हैं, ‘यह सच है कि भारत एक धर्म प्रधान देश है, लेकिन यह राजनीति में धर्म का नया रूप है. मंदिर आंदोलन के समय भी दूसरे राजनीतिक दल इस तरह से नहीं बदले थे. यह एक खतरनाक ट्रेंड है. धर्म और मेजोरिटेरियन आइडियोलॉजी यानी बहुसंख्यकवादी विचारधारा का आपस में मिलना बहुत गंभीर बात है. देश की ज्यादातर अशिक्षित और गरीब जनता को समय रहते इस खतरे को समझना होगा.’
‘बाकी पार्टियों को चिंता सताने लगी है कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता पर ज्यादा जोर दिया तो उन्हें चुनावी नुकसान होगा. इसलिए वे अपने पुराने स्टैंड से पीछे हट रही हैं’
सबसे पहले बात देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की. पिछले 14 अगस्त को पार्टी की दिल्ली इकाई ने एक घोषणा की. इसके मुताबिक 17 अगस्त को पार्टी के दिल्ली स्थित प्रदेश कार्यालय में कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाना था. साथ में भजन संध्या का भी आयोजन किया गया था. दिल्ली इकाई के नेताओं ने इस कार्यक्रम में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी आमंत्रित किया था. बहरहाल राहुल गांधी इस कार्यक्रम से दूर रहे लेकिन कार्यक्रम निर्धारित योजना के हिसाब से संपन्न हुआ. पूरे देश में महज 44 सीटों पर सिमट गई कांग्रेस के इस कदम को भाजपा के उस आरोप का जवाब माना जा रहा है जिसके मुताबिक कांग्रेस मुसलिम परस्त राजनीति करती है. इन आरोपों को चुनाव से पहले हुई उस घटना से भी बल मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर पर जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अहमद बुखारी मिलने पहुंचे और बाद में उन्होंने मुसलमानों से कांग्रेस के पक्ष में वोट डालने की अपील की. ताजा हालात के मद्देनजर पार्टी ने जो कदम उठाए हैं उसके बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी गैर मुसलिमों को साफ-साफ संदेश देना चाहती है कि वह सबकी आस्था का सम्मान करती है. दिल्ली के बाद पार्टी दूसरे राज्यों और दूसरे त्यौहारों में भी इस प्रयोग को दोहराएगी.’
धर्म का आसरा सपा नेता पवन पांडे एक धार्मिक कार्यक्रम में शिलान्यास करते हुए
कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसका अपना इतिहास भी भगवा खेमे के आरोपों को बल देता है. पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय 24 अकबर रोड में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जन्म और मृत्यु से संबंधित आयोजनों के अलावा जो एकमात्र आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाता है वह है रमजान के दौरान होने वाली ‘इफ्तार पार्टी’. पार्टी के नेता कहते हैं, ‘अब हमें खुद में बदलाव की जरूरत है. इसलिए हमने अब दूसरे त्यौहारों को भी मनाने का फैसला किया है.’ पार्टी के रुख को भांपते ही कांग्रेस की राज्य इकाइयां अपने-अपने स्तर पर हरकत में आ गई हैं. 29 अगस्त को मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित कांग्रेस दफ्तर में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने एक भव्य गणेश प्रतिमा स्थापित करवाई और गणेश चतुर्थी पर पूजा-पाठ किया. ऐसा पहली बार हुआ. देखादेखी पूरे प्रदेश के कांग्रेस कार्यालयों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने की होड़ लग गई. परंजय कहते हैं, ‘अस्सी और नब्बे के दशक में तेजी से भाजपा का कांग्रेसीकरण हुआ था. उतना ही बड़ा सच यह भी है कि हाल के सालों में कांग्रेस का उससे ज्यादा तेजी से भाजपाईकरण हुआ है. जब भाजपा और संघ ने हिंदुत्व को विकास से जोड़ने का काम किया तो दबे-छुपे कांग्रेस ने भी वही काम करना शुरू कर दिया.’
पार्टी के रुख में आए इस बदलाव की एक वजह लोकसभा चुनाव में हुई हार की समीक्षा करने के लिए बनी एके एंटनी कमेटी की रिपोर्ट भी मानी जा रही है. अपनी रिपोर्ट में पूर्व रक्षा मंत्री ने कहा है कि पार्टी के ऊपर जो मुसलिम परस्त होने का ठप्पा लगा हुआ है वह पार्टी को भारी पड़ा है. इस नई परंपरा की बाबत मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव का कहना था कि उन्हें नहीं पता कि अब तक ऐसा क्यों नहीं किया गया और न ही वे इस पर कोई टिप्पणी करना चाहते हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति विभाग के प्रोफेसर और वरिष्ठ चिंतक प्रो. तुलसीराम बताते हैं, ‘धर्म निरपेक्ष पार्टियां संघ और भाजपा के व्यूह में फंस गई हैं. भाजपा राष्ट्रवाद के रूप में असल में सांप्रदायिकता को बढ़ा रही है. बाकी राजनीतिक पार्टियों को यह चिंता सताने लगी है कि यदि उन्होंने धर्म निरपेक्षता पर ज्यादा जोर दिया तो उन्हें चुनावी नुकसान होगा. इसलिए वे अपने पुराने स्टैंड से पीछे हट रही हैं. लेकिन तय मान लीजिए कि ऐसा करके बाकी राजनीतिक पार्टियां आने वाले समय में और भी कमजोर होंगी. सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद जैसे विषयों में संघ को महारत है. कोई भी उन्हें उनकी पिच पर जाकर मात नहीं दे सकता. यह बड़े खतरे का समय है और बाकी राजनीतिक दलों को इस समय धर्मनिरपेक्षता पर डटे रहने की जरूरत है.’
जो प्रयोग कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर कर रही है वही रसायन क्षेत्रीय दल राज्यों के स्तर पर तैयार कर रहे हैं. चुनाव के नतीजे उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के लिए भी बेहद निराशाजनक रहे हैं. इन नतीजों की पृष्ठभूमि में पार्टी ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जिससे यह लगता है कि पार्टी अपने पुराने रुख में कुछ बदलाव कर रही है. पार्टी के सबसे अहम मुसलिम नेता आजम खान को हाशिए पर डाल दिया गया है. ये वही आजम खान हैं जिन्हें पार्टी अब तक अपने सबसे मुखर मुसलिम चेहरे के तौर पर पेश करती आई है. लोकसभा चुनावों के दौरान आजम खान ने भी माहौल को हिंदू बनाम मुसलिम बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. पर नतीजे आने के बाद पार्टी ने आजम खान से लगभग किनारा कर लिया है. पार्टी मुखिया मुलायम सिंह ने आजम खान की कीमत पर उनके सबसे बड़े विरोधी अमर सिंह से रिश्ते सुधारने की पहल की है. पार्टी की अहम बैठकों से फिलहाल उन्हें दूर रखा जा रहा है या शायद वे स्वयं ही उनसे दूर रह रहे हैं.
सपा पर मुसलिम तुष्टिकरण का जो आरोप लगा था उससे निपटने की कोशिश मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने स्तर पर भी कर रहे हैं. मुख्यमंत्री ने उस बनारस के घाटों के पुनरोद्धार और सौंदर्यीकरण के लिए करोड़ों की योजना की घोषणा की है. गौरतलब है कि बनारस उनके धुर विरोधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र है. इतना ही नहीं, बनारस नगर से सपा का कोई विधायक भी नहीं है. जाहिर है बनारस जैसे धार्मिक नगर से शुरू किए गए किसी कार्यक्रम का अपना राजनीतिक संदेश होता है. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘आजम खान को लेकर पार्टी के रुख में आया बदलाव महत्वपूर्ण है. बाकी घटनाओं के बारे में अभी पूरे विश्वास से कुछ कह पाना मुश्किल है.’
डीएमके नेता एमके स्टालिन द्वारा ट्विटर पर दी गई बधाई
बदलाव की सुगबुगाहट सपा के विधायकों और नेताओं में व्यक्तिगत स्तर पर भी देखने को मिल रही है. अयोध्या से विधायक तेज नारायण पांडेय उर्फ पवन पांडे का उदाहरण प्रासंगिक है. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद पवन पांडे ने अपने क्षेत्र में विकास की गतिविधियों और शिलान्यास की झड़ी लगा दी है. ध्यान देने पर हम पाते हैं कि इनमें से ज्यादातर काम काज हिंदू धार्मिक महत्व से जुड़े हैं न कि सामान्य विकास से. अयोध्या में हर साल लगने वाले सावन मेला, राम विवाह मेला और रामायण मेला को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पांच सौ की क्षमता वाले सत्संग भवन की नींव रखी है. इसके अलावा एक करोड़ की लागत से पांच सुलभ शौचालयों का काम भी चल रहा है. सबसे महत्वपूर्ण काम उन्होंने अयोध्या के नया घाट पर 65 लाख रुपये की लागत से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वार की आधारशिला रखने का किया है. पांडे के इस अतिशय धार्मिक रुझान पर उनकी पार्टी क्या सोचती है? इस बारे मंे पवन पांडे बताते हैं, ‘पार्टी ने मुझे कभी भी नहीं रोका. बल्कि स्वयं मुख्यमंत्रीजी ने हर तरह से मुझे समर्थन और प्रोत्साहन दिया है. मुख्यमंत्रीजी ने अयोध्या में पांच हजार की क्षमता वाले एक ऑडिटोरियम का निर्माण करवाने का आश्वासन भी दिया है.’
बदलाव की बयार उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक की राजनीतिक पार्टियों में चल रही है. तमिलनाडु में डीएमके ने 29 अगस्त को एक ऐसा काम किया जिससे देखते ही देखते द्रविड़ राजनीति में भूचाल आ गया. डीएमके के उत्तराधिकारी स्टालिन ने अपने फेसबुक और ट्विटर एकाउंट पर तमिलनाडु की जनता को विनायक चतुर्थी की शुभकामनाएं दी. पेरियार की ब्राह्मणवाद विरोधी विचारधार पर चलने वाली डीएमके ने पहली बार किसी हिंदू धार्मिक त्यौहार की बधाई दी थी. अब तक आम तौर पर पार्टी के मुखिया एम करुणानिधि सनातन धर्म की परंपराओं का विरोध करते ही पाए जाते थे. शुरुआत में स्टालिन के स्टेटस को उनके समर्थकों का जबर्दस्त समर्थन मिला. देखते ही देखते फेसबुक पर 2700 से ज्यादा लाइक आ गए, 200 से ज्यादा कमेंट आ गए और करीब इतने ही लोगों ने इसे शेयर भी कर दिया. इसके बाद विरोध के सुर उभरने शुरू हुए.
दरअसल पेरियार की जिस विचारधारा पर डीएमके की राजनीति टिकी है उसमें हिंदू धर्म के तमाम प्रतीकों और स्थापित परंपराओं का विरोध निहित है. इस बात को लेकर स्टालिन की आलोचना शुरू हो गई कि क्या डीएमके अपनी पुरानी विचारधारा से पीछे हट रही है. क्या इसके पीछे तमिलनाडु में भाजपा को मिली सफलता की भी कोई भूमिका है और क्या इसे करुणानिधि का समर्थन भी प्राप्त है. गौरतलब है कि लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु की 39 सीटों में से 37 सीटें जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने जीती हैं जबकि दो सीटें भाजपा और उसके सहयोगी दल पीएमके के खाते में आई हैं. दक्षिण के सूबे में भाजपा को मिली यह सफलता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि पार्टी की अब तक वहां नाममात्र की भी उपस्थिति नहीं रही है और सूबे की दूसरी महत्वपूर्ण पार्टी डीएमके का सूपड़ा ही साफ हो गया. नतीजा यह हुआ कि शाम होते-होते डीएमके पिछले पांव पर आ गई. पार्टी की तरफ से जारी सफाईनामे में कहा गया कि वह पोस्ट गलतीवश प्रकाशित हुआ है. पार्टी पेरियार की सोच पर कायम है. दोनों पोस्ट डिलीट कर दिए गए. पार्टी समर्थक टेलीविजन नेटवर्क कलाइनार टीवी पर शाम को ही इससे संबंधित कार्यक्रम प्रसारित कर विनायक चतुर्थी की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया.
तो राजनीतिक दलों के रुख में आए इस बदलाव को क्या माना जाय? यह समय की मांग है या राजनीतिक दलों का अवसरवाद है. राम बहादुर राय के शब्दों में, ‘संसदीय राजनीति में वोटरों का रुझान महत्व रखता है. तथ्य इतना भर है कि 2014 में आए नतीजे न तो यह हिंदुत्व को वोट हंै न ही भाजपा को. जिस तरह से नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया जा रहा था उनके समर्थकों ने उसी तरह से उसका प्रतिकार भर किया है. मैं इसे राजनीतिक दलों का अवसरवाद नहीं कहूंगा. यह स्थापित सच है कि जो शासक दल होता है वह देश की राजनीतिक संस्कृति को निर्धारित करता है, उसे परिभाषित करता है और उसे पुनर्निर्धारित करता है.’
तो क्या यह सिर्फ मोदी समर्थकों और विरोधियों के बीच का मसला है. जानकारों की राय इस विषय में अलग-अलग है. प्रो. तुलसीराम के शब्दों में, ‘भाजपा की जीत के साथ सांप्रदायिकता व्यवस्था का हिस्सा बन गई है. इससे धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण तेज हुआ है. पहले लोग धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को हर फोरम पर मजबूती से रखते थे. इसकी वजह से कम्युनल ताकतें पिछले पांव पर रहती थीं. अस्सी के दशक तक स्थिति यह थी कि जनसंघ और भाजपा यही बयान देते थे कि हमारा हिंदुत्व से कोई लेना-देना नहीं है. पिछले दो दशकों में आरएसएस और भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत की है और दूसरी पार्टियों ने अपना रुख तेजी से बदला है. इन राजनीतिक पार्टियों के लचर रवैये के कारण ही नरेंद्र मोदी आज इस रूप में हमारे सामने उभरे हैं वरना अगर धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अपने रुख पर मजबूती से कायम रहती तो 2002-03 में ही नरेंद्र मोदी का राजनीतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता.’
बदली हवा के हिसाब से खुद ढालने में राजनेताओं का कोई सानी नहीं होता. यह बात साफ है कि इस समय राजनीतिक दलों के रुख में आ रहे बदलाव के पीछे कुछ हद तक भाजपा की प्रचंड जीत की भूमिका है. पर बहती हवा के साथ बह जाने का नाम लोकतंत्र नहीं है. वैचारिक विभिन्नता लोकतंत्र की ऑक्सीजन है. जल्द ही राजनीतिक दलों को नकल से होने वाले नुकसान का अहसास हो जाएगा. अपने आप नहीं होगा तो लोकतंत्र में खुद भी इतनी ताकत होती है कि वह गलतियों को सुधारने के लिए विवश कर दे.
विनाश श्रीनगर में पानी की निकासी का एकमात्र स्रोत झेलम नदी गाद भरने के चलते काफी उथली हो चुकी है. इसके चलते भी बाढ़ विकराल हुई
विनाश श्रीनगर में पानी की निकासी का एकमात्र स्रोत झेलम नदी गाद भरने के चलते काफी उथली हो चुकी है. इसके चलते भी बाढ़ विकराल हुई. फोटो: आबिद भट्ट
कश्मीर के राजवंशों का विस्तृत वर्णन करने वाले कल्हण के महाकाव्य राजतरंगिणी में एक दिलचस्प किस्सा मिलता है. यहां आठवीं सदी में हुए राजा ललितादित्य पीड़ चाहते थे कि राजधानी को श्रीनगर से हटाकर इससे कुछ आगे झेलम किनारे ही स्थित एक इलाके परिहासपुर ले जाया जाए. दरअसल कभी श्रीनगर को राजधानी बनाने की वजह यह थी कि एक तो यह राज्य के केंद्र में था और दूसरे, एक विशाल दलदली जमीन पर होने के कारण इसमें दर्जनों जलमार्ग थे जिनसे नावों के जरिये सुगमता से व्यापार हो सकता था. लेकिन पानी की प्रचुरता का दूसरा पक्ष यह था कि बाढ़ के खतरे के चलते यहां एक निश्चित सीमा से ज्यादा आबादी नहीं बसायी जा सकती थी. फिर भी जब आबादी बढ़ने लगी तो ललितादित्य को लगा कि जान-माल की तबाही से बेहतर है कि राजधानी कहीं और ले जाई जाए. लेकिन लोग इसके लिए खास इच्छुक नहीं थे. इससे क्षुब्ध ललितादित्य ने एक दिन मदिरा के नशे में अपने मंत्री को आदेश दिया कि वह राजधानी को आग लगा दे ताकि इससे डरकर लोग शहर छोड़ दें. मंत्री चतुर था. उसने घास के एक विशाल ढेर में आग लगाकर राजा को बताया कि आदेश का पालन हो गया है. यह अलग बात है कि अगले दिन सुबह नशा उतरने पर राजा को बहुत ग्लानि हुई, लेकिन जब उसने श्रीनगर को सुरक्षित देखा तो वह मंत्री की चतुराई से बहुत खुश हुआ.
यह किस्सा बताता है कि कश्मीर घाटी में बाढ़ का खतरा एक ऐसा मुद्दा है जो नया नहीं है. यह अलग बात है कि इसके समाधान के मामले में स्थिति कमोबेश वही है जो सदियों पहले ललितादित्य के समय में थी.
कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ को एक महीना हो चुका है. पानी धीरे-धीरे श्रीनगर की कालोनियों, गलियों और सड़कों से उतर रहा है. घरों के भीतर घुस आई गाद को साफ करने में लगे लोग अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं. इसी के साथ बहुत से सवालों पर भी बहस शुरू हो चुकी है. पूछा जा रहा है कि अगर जरूरी उपाय किए गए होते और लोगों को वक्त रहते चेतावनी दे दी गई होती तो क्या बाढ़ का विनाशकारी असर कम किया जा सकता था.
भूविज्ञानी शकील रामशू ने 2010 में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि कश्मीर अपने इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ के मुहाने पर खड़ा है और अगर नीति बनाने वालों ने युद्धस्तर पर अतिरिक्त पानी निकालने वाले एक वैकल्पिक चैनल का निर्माण नहीं किया तो श्रीनगर ऐसी बर्बादी देखेगा जैसी उसने पहले कभी नहीं देखी होगी. रामशू कहते हैं, ‘लोगों को यह पता ही नहीं था कि वे ऐसी बाढ़ की जद में आ सकते हैं. जागरूकता के अभाव ने अतिआत्मविश्वास पैदा किया और यही सबसे बड़ी वजह थी कि सरकार ने बिल्कुल आखिरी वक्त पर शहर के कुछ इलाकों को खाली कराने की सोची.’
रामशू आगे कहते हैं, ‘बारिश का ठीकरा तो आप मौसम में आ रहे बदलाव पर फोड़ सकते हैं, लेकिन शहर को जो नुकसान हुआ उसमें तो साफ तौर पर इंसानों की ही भूमिका है. इस विनाश को टाला भले ही न जा सकता हो, लेकिन कम तो किया ही जा सकता था. सरकार ठीक से काम करती तो लाल चौक तक पानी पहुंचता ही नहीं.’
हालांकि राज्य सरकार इस आरोप को सिरे से खारिज करती है. सत्ताधारी नेशनल कॉनफ्रेंस के नेता तनवीर सादिक कहते हैं, ‘हमारे यहां बाढ़ के खतरे का जो निशान बना हुआ है उसकी अधिकतम ऊंचाई 28 है. इस बार पानी की ऊंचाई 34 तक पहुंच गई. और पानी डाइवर्ट करते भी तो कहां? कश्मीर के दक्षिणी हिस्से में तो पहले से ही बाढ़ आई हुई थी और ऊपर से झेलम के साथ इतना सारा पानी श्रीनगर की तरफ आ रहा था.’
क्या हो सकता था और क्या नहीं, इस पर बहस अभी लंबे समय तक जारी रहेगी. हो सकता है कि इसकी आधिकारिक जांच की प्रक्रिया भी जल्द शुरू हो जाए. लेकिन यह निष्कर्ष निकालने के लिए किसी भारी कवायद की जरूरत नहीं कि अनियोजित विकास और पानी के प्राकृतिक रास्तों में अतिक्रमण ने कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी कि श्रीनगर इस बाढ़ से बच पाता.
‘बारिश का ठीकरा तो आप मौसम में आ रहे बदलाव पर फोड़ सकते हैं, लेकिन शहर को जो नुकसान हुआ उसमें तो साफ तौर पर इंसानों की ही भूमिका है’
1989 में जब घाटी में अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ तो श्रीनगर में अवैध निर्माण की प्रक्रिया ने काफी गति पकड़ ली. इसके साथ शहर की आखिरी सांसें भी उखड़ने लगीं. एक के बाद एक अवैध आवासीय कालोनियां बनती गईं जिन्होंने शहर के चप्पे-चप्पे को भर दिया. इन्हें बनाने वालों ने श्रीनगर नगर निगम से इसके लिए कोई अनुमति नहीं ली थी. वे नगर निगम के अधिकारियों को रिश्वत देते और निर्माण चलता रहता. जहां बगीचे थे, खेत थे, दलदल थे या नहरें थीं वहां मकान बन गए. लोगों ने डल झील को भी नहीं बख्शा. उसे भी पाटकर इमारतें खड़ी कर दी गईं. इन कालोनियों के पीछे वे जमीन माफिया थे जिन्हें किसी भी कीमत पर सिर्फ मुनाफे से मतलब था. श्रीनगर के पश्चिम में स्थित बेमीना का ही उदाहरण लें. इस पॉश इलाके को एक दलदली जमीन पर बसाया गया. इसमें कुछ सरकार की भी भूमिका रही जिसने इस जमीन को पाटा, फिर इसमें प्लॉट काटे और फिर इन्हें लोगों को बेचा. यही नहीं, इस इलाके में सरकारी इमारतें तक बनवा दी गईं. हज हाउस, झेलम वैली मेडिकल कॉलेज, भू अभिलेख विभाग की इमारतें यहां पर बनीं. यहां तक कि शहर के व्यवस्थित विस्तार का जिम्मा संभालने वाले श्रीनगर विकास प्राधिकरण ने भी बेमीना में अपना दफ्तर बना लिया. बाढ़ ने इन इमारतों को 10 फीट पानी के भीतर खड़ा कर दिया. सात सितंबर को पानी आने तक भी इलाके में भरी जेब और खाली समझ को साफ-साफ दर्शाती दर्जनों इमारतों के निर्माण का काम चल रहा था. ऐसे कई उदाहरण हैं. झेलम के बहाव के साथ लगता इसका जो बायां किनारा था वह कभी खाली हुआ करता था. झेलम का जलस्तर बढ़ता तो तटबंध पर बने निकास खोलकर अधिकारी अतिरिक्त पानी वहां छोड़ देते थे. लेकिन बीते कुछ समय में इस जगह भी अवैध बस्तियां बस गईं. तो ऐसे में झेलम का पानी वहां छोड़ना भी मुश्किल हो गया. सोइतांग एक ऐसी ही कालोनी थी. यहां स्थानीय विधायक जावेद मुस्तफा कई हजार निवासियों के साथ चौकसी कर रहे थे ताकि तटबंध से पानी छोड़ने का सरकार का कोई भी प्रयास असफल किया जा सके. यह अलग बात है कि श्रीनगर को डुबाने के बाद तटबंध खुद ही टूट गया.
आपदा निचले इलाकों में अवैध कालोनियों के निर्माण ने बाढ़ की विभीषिका और बढ़ा दी
श्रीनगर की इस समस्या का राज्य में चल रहे राजनीतिक टकराव से भी गहरा सबंध है. स्थानीय जानकार बताते हैं कि निर्माण के मामले में यहां अराजकता 1975 से शुरू हुई. यह वही साल था जब शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच एक समझौता हुआ था जिसके बाद कश्मीरियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के अब्दुल्ला के 23 साल पुराने अभियान का अंत हो गया था. अब्दुल्ला का राजनीतिक लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया इसलिए उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को दूसरे तरीके से संतुष्ट करने की सोची. ऐसा उन्होंने उनके लिए नियमों में ढील देकर किया. इसका नतीजा शहर के व्यावसायिक इलाकों में खुल्लमखुल्ला अतिक्रमण के रूप में सामने आया और इसके चलते ही बेमीना जैसे इलाके वजूद में आए.
पिछले 25 साल के अलगाववाद ने इस समस्या को और विकराल किया. 90 के दशक में जब सरकारी तंत्र ढह गया था तो उसी दौरान राज्य के ग्रामीण इलाकों से से लोग बड़ी संख्या में श्रीनगर की तरफ पलायन कर रहे थे. इन लोगों में एक बड़ी संख्या उनकी थी जो पैसे वाले थे और आतंकवाद और इसके चलते हो रही परेशानियों के चलते गांव छोड़ना चाहते थे. इस पलायन के चलते मकानों की जरूरत काफी बढ़ गई. इस जरूरत को भूमाफियाओं ने पूरा किया. जल्द ही बिल्डरों और प्रॉप्रटी डीलरों के एक नेटवर्क ने खाली जमीनों को कंक्रीट के जंगल में तब्दील करना शुरू कर दिया. इनमें से ज्यादातर जमीनें उन इलाकों में पड़ती थीं जो कभी झेलम का विस्तार संभालते थे. लेकिन ये महंगे दामों पर बिकने लगीं और कइयों के दाम तो साल भर में दोगुने हो गए. बाद में सरकारी तंत्र में थोड़ी जान लौटी भी तो अधिकारी और नेता इस नेटवर्क के साथ मिल गए. इसके एवज में उन्हें अकूत मुनाफा जो मिलने वाला था. रियल एस्टेट पिछले एक दशक के दौरान घाटी में सबसे प्रमुख कारोबार बन गया और इसने श्रीनगर के हर खाली हिस्से को पाटकर आपदा को न्यौतने जैसा काम कर दिया.
पीडीपी नेता नईम अख्तर कहते हैं, ‘देखा जाए तो नया श्रीनगर की प्लानिंग सरकार ने नहीं बल्कि भूमाफिया ने की है. पिछले 20 साल के दौरान जो भी कॉलोनियां बनीं उन्होंने श्रीनगर का गला घोंटने का काम किया और इस बाढ़ से हुए विनाश की भूमिका लिखी.’ अख्तर बताते हैं कि 1975 से पहले राज्य सरकार ने श्रीनगर में दो आवासीय कॉलोनियां बसाई थीं और दोनों इस बाढ़ से अछूती रहीं. इनमें पहली शहर के उत्तर में स्थित सौरा इलाके में है और दूसरी दक्षिणी हिस्से में स्थित संतनगर और रावलपुरा में. 1947 से पहले महाराजा हरि सिंह ने कर्णनगर बसाया था. आज यह एक भव्य बाजार है. यह इलाका भी बाढ़ से अछूता रहा.
लेकिन बाढ़ से अपना भविष्य सुरक्षित करने के ऐसे प्रयासों में क्या यह भी शामिल होगा कि पिछले 25 साल की गलतियों को सुधारा जाए?
1903 की भयानक बाढ़ के समय हरि सिंह के चाचा महाराजा प्रताप सिंह का शासन था. इस बाढ़ के बाद उन्होंने आगे इससे बचने के रास्ते सुझाने के लिए अंग्रेज इंजीनियरों को श्रीनगर बुलाया था. 1902 में भी श्रीनगर में भारी बाढ़ आई थी. तब भी वह श्रीनगर के एक बड़े हिस्से को निगल गई थी और हर तरफ तबाही का मंजर हो गया था. इन इंजीनियरों ने शहर में छोटी और बड़ी नहरों का एक नेटवर्क बनाया जो बाढ़ की स्थिति में अतिरिक्त पानी को शहर से बाहर ले जाता था. प्रताप सिंह ने कई जगहों पर झेलम के तल की खुदाई भी करवाई थी. इससे नदी की गहराई और नतीजतन ज्यादा पानी आने की सूरत में भी खतरा न होने की संभावना बढ़ गई थी. श्रीनगर में कोई निर्माण करवाते हुए भी काफी ध्यान रखा जाता था कि वह पानी के स्वाभाविक रास्ते में न हो. नहरों के नेटवर्क और दूरदर्शिता से बना यह एक तंत्र था जो श्रीनगर शहर को बाढ़ से बचाए रखता था.
लेकिन बीते दो दशक के दौरान इस तंत्र की धज्जियां उड़ा दी गईं. अराजक तरीके से हुए निर्माण ने आपदा का असर काफी बढ़ा दिया. बाढ़ में कई पुलों का बह जाना साफ संकेत है कि लोग भूल चुके थे कि यह पानी का रास्ता है. रामशू कहते हैं, ‘2014 की इस भयानक बाढ़ का सबसे अहम कारण यही है कि झेलम से उसकी जगह छीन ली गई. पानी के रास्तों पर हुए अतिक्रमण, नदियों में जमी गाद और नदी के किनारों पर सड़क निर्माण ने झेलम घाटी में बाढ़ का खतरा बढ़ा दिया था.’
बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी का भी मानना है कि कि आपदा की प्रमुख वजह दलदली जमीन (वेटलैंड्स) पर हुआ अतिक्रमण था. सोसायटी के निदेशक डॉ. असद रहमानी कहते हैं, ‘पिछले 30 सालों के दौरान कश्मीर घाटी में वेटलैंड्स में करीब 50 फीसदी की कमी आई है. इसका कारण है अंधाधुंध निर्माण जिसमें पर्यावरण के लिए कोई सम्मान नहीं है. यह निर्माण मुख्यत: व्यावसायिक गतिविधियों के चलते हुआ है.’ वे आगे कहते हैं, ‘अगर इन वेटलैंड्स को सुरक्षित रखा जाता तो जान-माल को हुए इस भयानक नुकसान को कम से कम किया जा सकता था.’
इस आपदा ने राज्य सरकार के लिए मुश्किल में डालने वाले कुछ सवाल पैदा कर दिए हैं. लोग पूछ रहे हैं कि आखिर क्यों प्रशासन ने उस जगह को बचाने के लिए सारे जरूरी कदम नहीं उठाए जो राज्य की राजधानी होने के साथ-साथ प्रशासन और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी है.
सवाल यह भी उठ रहे हैं कि इन वजहों को देखते हुए श्रीनगर को राजधानी बनाए रखना कितना व्यावहारिक है. अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण शहर हमेशा ही बाढ़ के खतरे की जद में है. ऊपर से अंधाधुध और बेतरतीब निर्माण के बाद यह खतरा और बढ़ गया है. शहरों की योजना में विशेषज्ञता रखने वालीं अनीस द्रबू कहती हैं, ‘हकीकत यह है कि श्रीनगर और इसके आसपास का इलाका बाढ़ के लिहाज से खतरनाक है. मौसम में आ रहे बदलावों के चलते ग्लेशियरों का पिघलना इस खतरे को और बढ़ा रहे हैं. शहर के लिए पानी की निकासी का एकमात्र रास्ता झेलम है जिसमें गाद भरी होने के चलते उसका दम फूल रहा है. निकासी के लिए जब तक तत्काल गंभीर प्रयास नहीं किए जाते तब तक ऐसी बाढ़ भविष्य में आम हो सकती है.’
श्रीनगर स्थित शेरे कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नॉलॉजी का एक अध्ययन बताता है कि 2031 तक श्रीनगर में एक इंच भी जगह खाली नहीं बचेगी. राज्य के मुख्य सचिव इकबाल खांडे कह रहे हैं कि भविष्य में ऐसी किसी भी आपदा को रोकने के लिए झेलम दरिया में स्पिल चैनल निर्माण के लिए 22 हजार करोड़ की योजना का प्रस्ताव है और उन्हें उम्मीद है कि केंद्र सरकार इसे मंजूरी दे देगी. उनके मुताबिक दक्षिण कश्मीर में संगम के निकट झेलम दरिया के पास से ही एक स्पिल चैनल अथवा फ्लड चैनल बनाया जाएगा. यह नहर उत्तरी कश्मीर में वुल्लर झील तक होगी और जब भी झेलम का जलस्तर बढ़ेगा, यह नहर बढ़े हुए पानी को वुल्लर तक पहुंचाएगी.
लेकिन बाढ़ से अपना भविष्य सुरक्षित करने के ऐसे प्रयासों में क्या यह भी शामिल होगा कि पिछले 25 साल की गलतियों को सुधारा जाए? लालच, भ्रष्टाचार और हिंसा के जिस गठजोड़ ने बादशाहों, यात्रियों, कवियों और सूफियों को लुभाने वाले श्रीनगर को बदसूरत बना दिया है, वह खत्म हो.
जो हालात हैं उनमें फिलहाल तो ऐसा होना संभव नहीं लगता.
बिहार में एक लोककथा अक्सर सुनने को मिलती है. अमावस की रात एक पंडित के यहां चोरों ने सेंध मारी. पंडित-पंडिताइन दोनों जान गए कि चोर आए हैं. पंडिताइन पंडित से बोली, ‘देखोजी, चोर आए हैं. शोर मचाओ.’ पंडित ने पंडिताइन को इशारे से समझाया, ‘भाग्यवान, अभी कुछ नहीं बोलो. अभी शोर मचाने का साइत नहीं.’ चोर चोरी करके चलते बने. लगभग एक महीने बाद पूर्णिमा की रात पंडित ने जोर-जोर से चोर-चोर का शोर मचाना शुरू किया. गांववाले पंडित के घर की ओर लाठी-डंडा लेकर दौड़े. पूछा कि किधर है चोर. पंडित ने कहा, ‘आज और अभी थोड़ी न आए हैं चोर, वे तो अमावस्या की रात आए थे, आज तो शोर मचाने का साइत-संजोग ठीक बन रहा है, इसलिए शोर मचाया.’ गांववाले पंडित को कोसते हुए आधी रात को वापस लौट आये और यही बतियाते रहे कि पंडितजी की बात भरोसे लायक नहीं .
इन दिनों जब बिहार में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के एक मंदिर में जाने के बाद उस मंदिर की सफाई के प्रसंग पर जमकर राजनीतिक बवाल हो रहा है तो बहुत से लोग इस किस्से को भी याद कर रहे हैं. यह विवाद 28 सितंबर को तब शुरू हुआ जब बिहार के दिग्गज दलित नेता रहे और पूर्व मुख्यमंत्री भोलापासवान शास्त्री के जयंती समारोह में मांझी ने यह बताया कि राज्य में हालिया उपचुनाव के दौरान जब वे मधुबनी जिले के एक मंदिर में गए तो उनके जाने के बाद मंदिर का शुद्धिकरण करने के लिए उसे धोया गया. मूर्तियों को भी धोया गया. मांझी ने कहा कि यह सूचना उन्हें राज्य के खान एवं भूतत्व मंत्री रामलखन राम रमण ने दी. मांझी ने कहा कि उन्हें बहुत दुख हुआ. उनका कहना था, ‘मेरे पास काम के लिए लोग आते हैं तो पैर छूते हैं. मैं जान नहीं पाता कि उनके मन में क्या है? बाद में ऐसा व्यवहार करते हैं. मैं अछूत हूूं, इसलिए… मेरा अनुसूचित जाति के घर में जन्म लेना ही कसूर है न!’ मांझी ने ऐसी कई भावुक बातें कहीं. इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था. देखते ही देखते मांझी के पक्ष में सहानुभूति की लहर चलने लगी.
लेकिन अब मांझी अपने ही बयान में फंसते दिख रहे हैं. सबसे पहले तो उन्हें उनके ही मंत्री रामलखन राम रमण ने झटका दिया. रमण के हवाले से ही मंदिर के शुद्धिकरण की सूचना मिलने की बात मांझी ने सार्वजनिक मंच पर साझा की थी. रमण ने कहा कि पता नहीं क्यों और कैसे मुख्यमंत्री ने उनका नाम लिया क्योंकि वे उस आयोजन में मांझी के साथ नहीं थे. रमण यहां तक बोले कि वे चुनाव प्रचार में भी मांझी के साथ नहीं थे. जदयू के प्रमुख नेता, राज्य सरकार में मंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र ने भी बिना देर किए कहा कि मुख्यमंत्री को दी गई सूचना गलत और भ्रामक है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘उपचुनाव के दौरान मुख्यमंत्री का कार्यक्रम अंधराठाढ़ी में था, रास्ते में मां परमेश्वरी का मंदिर पड़ता है, मुख्यमंत्री ने वहां रुककर पूजा-अर्चना की थी. बात बस इतनी-सी ही है.’ मिश्र आगे जोड़ते हैं, ‘जिस मूर्ति को धोने की बात मुख्यमंत्री बता रहे हैं वह मिट्टी का पिंड है, जिसे कभी धोया ही नहीं जाता.’
मंदिर प्रकरण को छोड़ भी दें तो मांझी शुरुआत से ही महादलितों व दलितों के मसले पर अपना अलग रुख दिखाकर एक निश्चित दिशा में जाते हुए दिखते हैं
मांझी यह बात कहकर अपनों से तक घिरते गए. उनके दो मंत्रियों के अलावा जदयू के ही विधान पार्षद विनोद सिंह ने भी कहा कि उस दिन वे मुख्यमंत्री के साथ थे और ऐसी कोई घटना नहीं हुई. उधर, मंदिर के पुजारी अशोक कुमार झा भी इसकी पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘मंदिर में भगवती की कोई प्रतिमा नहीं है. वैसे तो रोजाना ही सुबह-शाम मंदिर की साफ-सफाई होती है, लेकिन 18 अगस्त को सीएम के आने की वजह से ज्यादा लोग आए थे तो उस शाम सफाई तक भी नहीं हो सकी थी. 19 की सुबह ही सफाई हुई थी.’
मांझी ने भोला पासवान को याद करते हुए जो कहा, वह क्यों कहा, किस मकसद से कहा, यह तो वही बता सकते हैं. लेकिन वे फिलहाल यह बताने की बजाय अपने बयान से बने जाल से निकलने की कोशिश में लगे हुए हैं. मांझी ने जब यह बात कही तो तुरंत जांच की बात उठी और बिना कोई वक्त लिए जांच कमिटी भी गठित हो गई. जांच का जिम्मा दरभंगा प्रमंडल के आयुक्त बंदना किन्नी और आईजी एके आंबेडकर को दिया गया है. जो परिणाम सामने आएंगे, हो सकता है उनमें वक्त लगे, लेकिन अभी से जो संकेत मिल रहे हैं, उससे मांझी इस मामले में फंसते ही नजर आ रहे हैं. मंदिर के पुजारी अशोक झा ने जांच दल को बताया कि मंदिर के पिंड को कभी धोया नहीं जाता, सुबह-शाम घी लगाया जाता है. उनके मुताबिक जिस दिन मुख्यमंत्री आए थे उस दिन मंदिर के बाहर मटका फोड़ का आयोजन भी था इसलिए भीड़-भाड़ की वजह से शाम को साफ-सफाई भी नहीं हुई थी. पुजारी अशोक झा ताल ठोकते हुए कह रहे हैं कि हर तरह की जांच हो जाए. यह भी कि अगर वे गलत हैं तो उन्हें फांसी पर चढ़ाया जाये और अगर बात में सच्चाई नहीं है तो गलत बात कहने वाले को सजा मिले. स्थानीय ग्रामीणों का भी कहना है कि जिस मंदिर की बात मुख्यमंत्री उठा रहे हैं उसमें इस रास्ते से गुजरनेवाले दलित-महादलित अधिकारी नियमित आते हैं और कभी किसी को रोका नहीं गया. गांव के लोग यह भी बताते हैं कि उस मंदिर में होने वाले भजन में जो नियमित ढोल बजानेवाला है, वह दलित चौठी राम ही है.
ऐस कहनेवाले अब सिर्फ पुजारी या ग्रामीण नहीं हैं. मांझी इस मामले में अब चारों तरफ से घिरते नजर आ रहे हैं. एक तरफ उन्हें इस मुद्दे पर अपने दल की ओर से कोई सहयोग नहीं मिल रहा तो दूसरी ओर भाजपा को जैसे बैठे-बिठाए एक मौका मिल गया है. पार्टी नेता सुशील मोदी कहते हैं कि अगर यह घटना सही है और सीएम के जाने की वजह से मंदिर का शुद्धिकरण हुआ है तो वे इसकी निंदा करते हैं लेकिन अगर यह सही नहीं है तो फिर जिस मंत्री ने मुख्यमंत्री को यह सूचना दी, उसे बर्खास्त करना चाहिए. उनका कहना था, ‘अगर सीएम झूठ बोल रहे हैं तो उन पर आईपीसी की धारा 152 एक के तहत मामला दर्ज होना चाहिए जिसके तहत गैर जमानती वारंट और तीन साल की सजा का प्रावधान है.’ मोदी इस मसले पर सवर्णों के बीच पार्टी को और मजबूत करने में लगे हैं. साथ ही वे इसे मिथिला इलाके का अपमान बताकर क्षेत्र की राजनीति को भी साध लेने की जुगत लगाये हुए हैं.
सुशील मोदी राजनीति करते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि वे हर मुमकिन मौके से राजनीतिक फायदा उठाना चाहेंगे और वे वैसा ही कर रहे हैं. लेकिन इस पूरे प्रकरण में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर मांझी ने एक घटना के इतने दिनों बाद, वह भी एक प्रमुख दलित नेता के जयंती समारोह में अचानक ही यह बात हवा में क्यों उछाल दी. जदयू के पूर्व पार्षद रहे और अब राजद से ताल्लुक रखनेवाले नेता व लेखक प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘मांझी ऐसी बात कर रहे हैं कि समझ में ही नहीं आ रहा. मान लिया कि घटना सही भी हो. लेकिन क्या कोई एसपी, डीएसपी आकर कहे कि उसे तो एक उचक्के ने आज रास्ते में पीट दिया तो क्या करें?’ वे आगे कहते हैं, ‘मांझी मुख्यमंत्री हैं. अगर इस बात की सूचना उन्हें एक माह से भी अधिक समय पहले मिली थी तो उन्होंने तुरंत ही क्यों नहीं इसकी पुष्टि और जांच करवाकर अस्पृश्यता निवारण कानून के तहत केस नहीं किया? एक मुख्यमंत्री इतनी उम्मीद तो की ही जाती है.’
ऐसे सवालों के जवाब में मांझी कहते हैं कि वह उपचुनाव का समय था और वे ऐसा कहते तो सामाजिक तनाव का खतरा होता. उधर, मणी कहते हैं, ‘उस दिन भी जीतन राम मांझी सार्वजनिक तौर पर यह बात एक महादलित की तरह बता रहे थे, जबकि उन्हें हमेशा यह याद रखना चाहिए िक वे सिर्फ महादलित नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं और इस तरह की बातें, इतने दिनों बाद कहकर भी वे सामाजिक तनाव बढ़ाने का ही काम करेंगे.’ उनके मुताबिक सवाल यह भी है कि अगर महादलितों के साथ आज भी बिहार में ऐसा ही सुलूक होता है तो यह तो नीतीश कुमार के शासनकाल पर भी एक सवाल है. वे कहते हैं, ‘इसलिए कि उनके शासनकाल में सबसे ज्यादा महादलितों की स्थिति ही सुधारने और उनके विकास की बात कही जाती है लेकिन इतने सालों क्या स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ.’ इस बारे में बात करने पर हाल तक जद यू के प्रमुख नेता रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘मामला समझ में नहीं आ रहा. क्यों मांझी इतने दिनों तक चुप रहने के बाद बोले? जिसके हवाले से बोले वही इंकार कर रहा है, उनकी पार्टी के नेता इंकार कर रहे हैं.’ तिवारी कहते हैं कि इस बात को सार्वजनिक मंच से कहकर मांझी अपनी पार्टी की फजीहत ही करवा रहे हैं.
‘वे जानते हैं कि अगर महादलितों और दलितों का नेता बना जाए तो जदयू-राजद गठबंधन के लिए उन्हें नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा’
मंदिर धुलाई मामले में मांझी सच बोल रहे हैं या झूठ अभी तो साफ-साफ नहीं कहा जा सकता. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बिहार के कई हिस्सों में आज भी दलितों से अछूतों की तरह व्यवहार किया जाता है और रोजमर्रा के जीवन में उन्हें मानसिक प्रताड़ना का सामना भी करना पड़ता है. लेकिन मांझी अगर दूसरे संदर्भ में, दूसरे प्रसंग के साथ यह बात रखते तो बात इतनी आगे नहीं बढ़ती. यह भी सच है कि अब आगे जांच के परिणाम चाहे जो आएं, घटना के लगभग डेढ़ माह बाद सनसनी के साथ, वह भी किसी के जरिये प्राप्त जानकारी का हवाला देकर सार्वजनिक मंच पर ऐसी बात कहकर उन्होंने अपनी पार्टी को न उगलने-न निगलनेवाली स्थिति में ला दिया है.
अब सवाल दो हैं. पहला यह कि क्या मांझी इतने नासमझ नेता हैं कि ऐसा कहने के पहले उन्होंने जरा भी सोचा नहीं होगा कि इसके आगे-पीछे ढेरों सवाल खड़े होंगे. इससे पार्टी की छवि को भी नुकसान होगा और इससे एक नयी बहस का दौर भी शुरू होगा. या फिर मांझी ने सबकुछ सोच-समझकर यह बात कही होगी.
मांझी को नासमझ नेता मानने को शायद ही कोई तैयार हो. इसकी वजहें भी हैं. मांझी पिछले तीन दशक से अधिक समय से बिहार की राजनीति में सक्रिय हैं और अच्छे ओहदे के साथ भी राजनीति करते उन्हें एक लंबा समय हो गया है. यूं भी राजनीति में वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और धाकड़ कूटनीतिक नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा के चेले माने जाते हैं. जगन्नाथ मिश्र को भी उनका गुरू कहा जाता है. सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र की राजनीति को जाननेवाले जानते हैं कि दोनों सधी हुई चाल चलने में उस्ताद नेता रहे हैं. कई राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस लिहाज से देखें तो मांझी को कभी भी इतना नासमझ नेता नहीं माना जा सकता कि वे बिना सोचे कुछ भी बोल दें.
मंदिर शुद्धिकरण मामले की जांच के चाहे जो नतीजे निकलंे. संभव है मांझी ने किसी के कहे पर ही जो बात हवा में उछाली है, वह सही भी साबित हो जाए. तब भी इस मामले को लेकर मांझी पर उठे सवाल अपनी जगह रहेंगे. सबसे पहला सवाल कि वे इतने दिनों तक वह चुप्पी क्यों साधे रहे. अगर उन्हें सार्वजनिक तौर पर यह कहना ही था तो पहले जांच ही क्यों नहीं करवा ली? उसके बाद इस बात को सार्वजनिक तौर पर कहते. मांझी को करीब से जाननेवाले गया के एक पत्रकार बताते हैं, ‘मंदिर मामले में क्या सच्चाई है, मैं यह तो नहीं कह सकता, लेकिन यह तय है कि मांझी जो बोलते हैं बहुत कैलकुलेट कर बोलते हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘मांझी एक साथ कई तरह की राजनीति साध लेने की जुगत में हैं. जिस दिन वे मंदिर प्रकरण पर बोले थे, उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि वे सिर्फ 15 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेता नहीं है, बल्कि महादलित के साथ दलितों को मिलाकर 23 प्रतिशत की आबादी होती है बिहार में और अगर यह एकजुट हो जाए तो फिर अगला मुख्यमंत्री इसी समुदाय से होगा.’ मांझी को करीब से जाननेवाले गया के इस पत्रकार जैसी बातें ही कुछ दूसरे जानकार भी कहते हैं.
भाजपा नेता सुशील मोदी चुटकी लेने के अंदाज मंे कहते हैं कि मांझी को नीतीश कुमार ने रोबोट सीएम बनाया था, लेकिन मांझी खुद ही रोबोट के माउस को आॅपरेट करने लगे हैं. मोदी विपक्षी नेता हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि वे चुटकी ले रहे हैं या मंदिर मामले से राजनीतिक फसल काटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन और भी कई हैं जो मानते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही मांझी अपनी अलग राह बना रहे हैं और मंदिर मामले को उठाकर उन्होंने बिना किसी की परवाह करते हुए सोच-समझकर एक चाल चली है.
साथ-साथ! विरोधियों का आरोप है कि मांझी, नीतीश कुमार की छाया से बाहर निकलने की कोशिश में हैं
दरअसल मंदिर मामले को भोला पासवान शास्त्री के नाम पर होनेवाले आयोजन के दिन उठाकर और उसी दिन दलित-महादलितों की संख्या के अनुसार राजनीतिक ताकत बताकर मांझी अपनी पार्टी के अंदर भी बहुत संदेश देना चाहते थे. वे अपनी आकांक्षा भी बयां कर रहे थे. असल में मांझी बिहार में दलितों-महादलितों के सर्वमान्य नेता बनने और उनकी सहानुभूति-समर्थन बटोरकर अपनी स्थिति को और मजबूत करना चाहते हैं. हालांकि विश्लेषकों के एक वर्ग दूसरी बात भी कहता है. उसके मुताबिक जीतन राम मांझी यह जानते हैं कि विपक्षी पार्टी भाजपा ने हालिया वर्षों में महादलितों और दलितों के मतों में भी संेधमारी की है और आगामी विधानसभा चुनाव में भी वह ऐसी सेंधमारी करने की कोशिश में है. इसलिए भाजपा की कोशिशों को नाकाम करने के लिए उन्होंने भावनात्मक राजनीति की चाल चली है. हालांकि ऐसा माननेवाले विश्लेषकों का समूह थोड़ा छोटा है. उतना ही छोटा समूह, जितना छोटा समूह यह मानता है कि आनेवाले दिनों में अगर जदयू-राजद की ओर से मांझी को सीएम की तरह पेश नहीं किया गया तो वे दलितों-महादलितों के बड़े नेता के तौर पर खुद को स्थापित कर कभी भी पाला बदलने का खेल कर सकते हैं और दुश्मन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं.
मंदिर मामले में मांझी ने इतने दिनों बाद क्या सोचकर बयान दिया और इससे वे क्या मकसद साधना चाहते हैं, यह वही बता सकते हैं. हां, यह साफ है कि उन्होंने आहत-मर्माहत होकर बयान नहीं दिया है. अगर आहम-मर्माहत होने वाली बात होती तो वे इतने दिनों तक चुप नहीं रहते. मंदिर प्रकरण को छोड़ भी दें तो मांझी शुरुआत से ही महादलितों व दलितों के मसले पर अपना अलग स्टैंड रखकर खुद को महादलितों के सर्वमान्य और बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे हुए नेता की तरह दिखते रहे हैं. जब वे मुख्यमंत्री बने थे तो कई समारोहों-सभाओं में यह कहा करते थे कि बिहार में सर्वांगीण विकास हुआ है, बहुत कुछ हुआ है लेकिन महादलित समुदाय का उस तरह से विकास नहीं हुआ है, वह करेंगे. ऐसा कहककर मांझी नीतीश कुमार के सबसे बड़े एजेंडे और उपलब्धिगान पर ही प्रहार करते रहे हैं. कुछ समय पहले तहलका से बातचीत में ही जीतन राम मांझी ने कई ऐसी बातें कही थी जिनसे साफ संकेत मिले थे कि वे दलितों व महादलितों के बड़े नेता के तौर पर स्थापित होकर आगे सत्ता और शासन की राजनीति को साधने की नयी जुगत में हैं. तहलका से बातचीत में मांझी ने कहा था कि एससी/एसटी छात्रों के लिए जो आवासीय विद्यालय हैं, उसकी स्थिति बहुत दयनीय है, बहुत ही खराब हाल है और संख्या भी बहुत कम है. यह काम हो ही नहीं सका है, वे पहले करेंगे. उन्होंने यह भी कहा था कि ‘यह पूरा बिहार और पूरा देश जानता है कि जीतन राम मांझी जिस दल में रहता है, महादलित उधर ही वोट करते हैं. जब जीतन राम मांझी कांग्रेस में था तो महादलित कांग्रेस को वोट करते थे, जब मांझी राजद में आया तो महादलित राजद के साथ हुए और अब जदयू के पास मांझी है ता महादलित बिना इधर-उधर गये जदयू के साथ इंटैक्ट हैं.’ तहलका से ही बातचीत में मांझी ने यह भी कहा था कि जो जाति जदयू के साथ इंटैक्ट है, उस दल का नेता अब प्रदेश का मुखिया है और काम हो रहा है तो बिहार में आगे किसके नेतृत्व में चुनाव होगा, इस पर भी वक्त आने पर सोचना पड़ेगा और तभी देखा जाएगा.
तहलका से ही बातचीत में कई ऐसी बातें कहकर मांझी कुछ और संकेत दे रहे थे जिसकी एक पराकाष्ठा अभी मंदिर वाले मामले में दिख रही है, जब वे एक पुरानी घटना को बड़े समारोह में उचित अवसर देखकर हवा मंे उछाल देते हैं. इसके पहले पिछले माह जहानाबाद में भी उन्होंने ऐसा ही कुछ किया था. वे एक बड़े पिछड़े नेता के जयंती समारोह में गए थे. वहां लोगों ने तख्तियों के साथ बिजली की मांग की और नारा लगाया कि बिजली नहीं तो वोट नही तो मांझी मंच से ही भड़कते हए बोल पड़े थे कि ‘तख्ती नहीं दिखाइए, आपलोगों के वोट से हम मुख्यमंत्री के पद तक नहीं पहुंचे हैं.’ तब भी बवाल मचा था लेकिन मांझी ने चुप्पी साध ली थी.
मांझी को करीब से जाननेवाले एक अधिकारी कहते हैं, ‘वे कुछ भी अनायास या औचक नहीं बोल रहे. सब आगे की राजनीति को ध्यान में रखकर कह रहे हैं. वे जानते हैं कि अगर महादलितों और दलितों का नेता बना जाए तो जदयू-राजद गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा कि उन्हें नजरअंदाज कर फिर नीतीश कुमार या किसी और के नाम पर चुनाव लड़ने की बात दिलेेरी के साथ कह सके.’ और अगर ऐसा होता भी है तो मांझी इस कोशिश में भी हैं कि वे खुद को 23 प्रतिशत मतदाता समूह के एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर दें जिसकी उस समुदाय पर सबसे ज्यादा पकड़ हो ताकि किसी दूसरे दल के साथ जाने पर भी अधिक से अधिक तवज्जो मिले.
संभव है, मांझी यह सब बातें सोचकर ही ऐसा कर रहे हों. यह भी संभव है कि ऐसा न हो और वे जीवन के अनुभव से उपजी कड़वी सच्चाइयों को सामने बयां करनेवाले सहज व्यक्ति के तौर पर सारी बातें कर रहे हों. दोनों में से जो भी सही हो लेकिन इससे उनकी पार्टी जदयू की बार-बार फजीहत हो रही है. हालांकि फिलहाल जदयू और नीतीश कुमार के पास ऐसा कोई रास्ता भी नहीं िक वे मांझी को भी सार्वजनिक मंच से सलाह देकर समझा सकें. इसके अलग खतरे हैं.
मंदिर मामले को उठाकर अपने ही दल में लगभग अकेले पड़ चुके मांझी को समर्थन देने के लिए भी कुछ लोग सामने आ रहे हैं. राजद के एक नेता, दरभंगा के जिलाध्यक्ष फुलहसन अंसारी ने अपनी ओर से कोशिश की िक वे मंदिर में जांच करने गई टीम के सामने अपनी बात रखंे. वे जांच टीम के पास पहुंचकर यह कहने लगे कि पास के महादलित गांव के लोगों के बयान भी लिये जाएं. लेकिन गांववालों ने अंसारी का विरोध किया तो वे वापस चले गए. बिहार सरकार के एक मंत्री भीम सिंह ने भी यह कहकर भी मुख्यमंत्री को समर्थन देने की कोशिश की है कि ऐसा कई जगहों पर होता है. यह बात सच है. बिहार में बहुत जगह अभी ऐसा होता है. महादलित-दलित क्या दूसरे कई समुदायों के साथ सामाजिक स्तर पर अछूत जैसा व्यवहार होता है. दलितों पर अत्याचार के मामले में बिहार देश के अग्रणी राज्यों में भी शामिल है. लेकिन यहां सवाल दूसरा है. यहां सवाल एक महादलित के साथ-साथ एक मुख्यमंत्री के बयान का है, जो एक घटना होने पर डेढ़ माह बाद बड़े समारोह में अपनी बात रखता है. वह भी कहासुनी का हवाला देकर और उसके बाद उस बात के समर्थन में ठोस तथ्य नहीं जुट पाता.
विवाद के उस्ताद
मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही जीतन राम मांझी के बयान निरंतरता के साथ विवाद का विषय बन रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि उनकी जबान फिसल जाती है. कुछ कहते हैं िक वे सरल स्वभाव वाले हैं इसलिए बिना ज्यादा सोचे मन की बात कह डालते हैं. कई यह भी मानते हैं कि मांझी, लालू प्रसाद के साथ भी बहुत दिनों तक राजनीति कर चुके हैं इसलिए जानबूझकर ऐसा कुछ कहते रहते हैं जिससे सुर्खियों में बने रहें. उधर, कुछ राजनीतिक विश्लेषक मांझी के बयानों को सधी हुई राजनीतिक चाल की तरह भी देखते और आंकते हैं.
मांझी इस बार मंदिर प्रकरण को लेकर विवाद मंे हंै. मधुबनी जिले के एक मंदिर मंे उनके जाने के बाद मंदिर के शुद्धिकरण की बात घटना के डेढ़ माह बाद बताकर. इससे कुछ दिन पहले वे दानापुर मंे एक बयान देकर चर्चा में आए थे. मांझी वहां भूमिहीनों के बीच थे. दलितों के भविष्य की चिंता जताते हुए वे बोल पड़े, ‘आप बच्चों पर ध्यान नहीं देते क्योंकि आप नशा करते हैं. दारू पीजिए, लेकिन रात में. थोड़ा-थोड़ा, दवाई जैसा.’ अभिभावक या हितैषी वाले अंदाज में कही गई उनकी इस बात का खूब मजाक उड़ा. इससे पहले वे बिहार राज्य खाद्यान्न व्यवसायी संघ के राज्यस्तरीय सम्मेलन में अतिथि के तौर पर पहुंचे थे. वहां छोटे व्यवसायियों का मन बढ़ाने के उत्साह में कह बैठे कि छोटे कारोबारी अगर जमाखोरी करके माल बटोरते हैं और अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाते हैं तो यह चलेगा और ऐसा करनेवाले धन्यवाद के पात्र हैं. आगे बोले कि देश को बड़े कारोबारी अपने कालाबाजारी से खोखला कर रहे हैं. छोटे कालाबाजारी पोठिया मछली की तरह हैं जबकि बड़े वाले मगरमच्छ हैं. मांझी के इस बयान पर भी बवाल कटा. इससे पहले भी वे ग्रामीण विकास विभाग के एक आयोजन में गए थे. वहां भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बताने के फेर में अपना एक प्रसंग भी सुना गए. उन्होंने कहा कि उनके मंत्री रहते हुए उनके घर का बिजली का बिल 25 हजार का आ गया तो बेटे ने बिजली विभाग से सेटिंग कर उसे पांच हजार करवाकर मामला निबटा दिया. और फिर लगे हाथ भ्रष्टाचार पर यह भी बोल गए कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में बेशक बिहार का विकास हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार भी बढ़ा.
मांझी यह सब सहजता में कहते जाते हैं या कुछ सोचकर, यह उनके करीबी भी नहीं बता पाते. एक बार दलित स्टूडेंट वेलफेयर के एक आयोजन में गए तो वहां उन्होंने जाति बंधन को तोड़कर अंतरजातीय विवाह की अच्छी बातें शुरू कीं और फिर लगे हाथ यह सलाह भी दे दी कि अधिक से अधिक जनसंख्या बढ़ाइए तभी भला होगा. इस सबके बीच जहानाबाद के एक आयोजन में बिजली की मांग करनेवालों को हड़काते हुए उनका बयान तो खूब चरचे में रहा ही था जिसमें उन्होंने मांग करनेवालों से कहा था कि ‘आपलोग वोट नहीं देते हैं, आपके वोट से सीएम नहीं बने हैं, हम अपने वोट से यहां तक पहुंचे हैं.’
जीतन राम मांझी बोलते समय शायद यह भूल जाते हैं कि वे प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ जदयू के एक अहम नेता भी हैं जिनके कहे का असर पार्टी और सरकार दोनों पर पड़ता है. वे समय-समय पर अपनी पार्टी की राजनीति को प्रभावित करनेवाले बयान भी देकर सुर्खियों मंे बने रहते हैं. जब लालू प्रसाद के साथ महागठबंधन बनने की बात चल ही रही थी कि मांझी ने अपनी ओर से कह दिया था कि महागठबंधन के नेता नीतीश ही होंगे. उनके इस बयान के बाद कुछ दिन तक राजद और जदयू में वाकयुद्ध भी चला. नीतीश कुमार जब महागठबंधन बनाने में ऊर्जा लगाए हुए थे तो उस समय मांझी ने यह भी कहा था कि लालू प्रसाद के दिल में पिछड़ों के लिए ही सबकुछ है, वे दलितों-महादलितों को तरजीह नहीं देते.
काम और कामयाबी इसरो के मंगल मिशन के साथ काम करने वाले वैज्ञानिक
मंगल का एक पारंपरिक नाम भौम भी है. इसका अर्थ होता है भूमि या पृथ्वी का पुत्र. जैव विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह क्या यह पुत्र पृथ्वी पर चल रहे जीवन को एक नया विस्तार दे सकता है, इस संभावना पर लंबे समय से बहस होती रही है. इस पुरानी संभावना को नई नजर से जांचने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) का मंगलयान बीते पखवाड़े अपने अंतिम लक्ष्य यानी मंगल ग्रह की अंडाकार कक्षा में सफलतापूर्वक पहुंच गया. करीब 10 महीनों और 67 करोड़ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यहां पहुंचा यह उपग्रह मंगल के वायुमंडल और उसकी सतह का अध्ययन करेगा.
भारत के लिए यह उपलब्धि दो तरह से अहम है. एक तो वह दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने मंगल अभियान के अपने पहले ही प्रयास में कामयाबी का झंडा गाड़ दिया. सफल मंगल अभियानों की कतार में भारत से पहले खड़े अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ का इस दिशा में पहला प्रयास असफल रहा था. दूसरे, उसने सबसे कम लागत में यह सफलता अर्जित की. इस अभियान पर खर्च हुई 450 करोड़ रु की रकम दूसरे देशों के ऐसे ही अभियानों के मुकाबले काफी कम है. उदाहरण के लिए लगभग इसी अवधि के दौरान भेजे गए नासा के ऐसे ही मंगल अभियान मैवन की लागत इससे करीब 10 गुना ज्यादा है. कुछ लोग यह दिलचस्प तथ्य भी साझा कर रहे हैं कि मंगलयान पर बनी हॉलीवुड की हालिया चर्चित फिल्म ग्रैविटी से भी कम लागत आई है जिसका बजट करीब 600 करोड़ डॉलर था. ग्रैविटी की कहानी भी एक अंतरिक्ष अभियान के इर्दगिर्द ही घूमती है.
करीब 200 अरब डॉलर राजस्व वाले अंतरिक्ष उत्पाद और सेवा क्षेत्र में मंगलयान जैसे अभियान भारत के लिए बड़ी उम्मीद जगाते हैं
मानव जीवन के भविष्य के लिहाज से मंगल को बहुत अहम माना जाता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक कई अरब साल पहले जब पृथ्वी आग का दहकता हुआ गोला थी तो मंगल पर जीवन के लिए बेहद अनुकूल वातावरण मौजूद था. इसकी सतह पर पर्याप्त पानी था और इस ग्रह का अपना एक घना वायुमंडल भी था. धीरे-धीरे धरती ठंडी और फलत: जीवनदायिनी हुई और मंगल पर परिस्थितियां कठोर होती चली गईं. उसकी सतह बहुत ठंडी हो गई. वायुमंडल सघन से विरल हो गया और इस ग्रह की सतह का सारा पानी सूखकर उड़ गया. मंगलयान से मिली जानकारी बेहतर तरीके से यह जानने में मदद कर सकती है कि ऐसा कैसे हुआ और क्या अब भी मंगल पर जीवन की कोई संभावना मौजूद है. यह मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मौजूदगी भी जांचेगा. गौरतलब है कि धरती पर अरबों टन मीथेन है जिसका अधिकतर हिस्सा छोटे-छोटे जीवाणुओं से आता है. एक वर्ग है जो मानता है कि मीथेन पैदा करने वाले जीवाणु यानी मीथेनोजेंस मंगल पर भी हो सकते हैं जो वहां के कठोर वातावरण के चलते सतह के नीचे मौजूद हों.
माना यह भी जा रहा है कि मंगलयान जैसे अभियानों से मिलने वाली जानकारियां भविष्य में वहां मानव बस्तियां बसाने के लिहाज से काफी अहम होंगी. 2030 तक इंसान के मंगल पर उतरने की बात हो रही है. दरअसल आज भी हमारे सौरमंडल में पृथ्वी के बाद मंगल ही है जो इंसानों के रहने के लिए अनुकूल है. इसकी सतह के नीचे पानी की मौजूदगी है. यह न तो बहुत गर्म है और न बहुत ठंडा. सोलर पैनलों के लिए यहां पर सूरज की पर्याप्त रोशनी है. इसका गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के मुकाबले 38 फीसदी है और बहुत से वैज्ञानिक मानते हैं कि मानव शरीर खुद को इसके मुताबिक ढाल सकता है. विरल ही सही, पर यहां एक वायुमंडल है जो सौर विकिरण से ढाल का काम कर सकता है. मंगल पर दिन-रात का चक्र भी पृथ्वी जैसा है. यहां एक दिन 24 घंटे 39 मिनट और 35 सेकेंड का है.
हालांकि मंगलयान सहित भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम एक वर्ग में आलोचना का विषय भी बना है. ऐसे भी लोग हैं जिनका मानना है कि अंतरिक्ष कार्यक्रम अमीर औद्योगिक देशों के शगल हैं जिनकी देखादेखी भारत को नहीं करनी चाहिए. वह इस पैसे का इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी उन बुनियादी सेवाओं में कर सकता है जो आम आदमी को सीधे प्रभावित करती हैं और जिनका हाल देश में बहुत बुरा है. वहीं इसके उलट बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि इसके अपने फायदे हैं. अंतरिक्ष उत्पाद और सेवा क्षेत्र का बाजार भविष्य के लिए काफी संभावनाओं से भरा हुआ है. अमेरिका स्थित सेटेलाइट इंडस्ट्री एसोसिएशन की सितंबर 2014 में ही आई एक रिपोर्ट बताती है कि 2013 में सेटेलाइट उद्योग से करीब 195 अरब डॉलर का राजस्व पैदा हुआ. कई दूसरी रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि अगले कुछ साल में व्यावसायिक मकसद के लिए लांच किए जाने वाले सेटेलाइटों का कारोबार कम से कम 15 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगा. इस क्षेत्र में सफल खिलाड़ी गिने-चुने ही हैं. मंगलयान ने एक बार फिर संदेश दिया है कि कोई कम खर्च में अपना उपग्रह अंतरिक्ष में भेजना चाहे तो उसे नासा या यूरोपियन स्पेस एजेंसी की बजाय इसरो की तरफ देखना चाहिए.
लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि विज्ञान और तकनीक में निवेश अंतत: योग्यता और क्षमता को प्रोत्साहन देता है. इससे उन प्रतिभाओं के उभरने में मदद मिलती है जो व्यापक रूप में अर्थव्यवस्था और समाज को लाभ पहुंचाती हैं. इस लिहाज से देखें तो मंगलयान की सफलता हर नजरिये से मंगलकारी दिखती है.
वर्ष 2014 के राष्ट्रमंडल खेलों (ग्लास्गो में आयोजित) के ट्रायल से एक दिन पहले जीतू राय बहुत उत्साहित थे. उनकी खुशी की वजह यह नहीं थी कि उन्हें अपनी पसंदीदा स्पर्धा 10 मीटर एयर पिस्टल में क्वालिफाई करने का यकीन था, बल्कि वह इसलिए खुश थे क्योंकि उनकी छुट्टी मंजूर कर ली गई थी. उनका दिमाग कहीं और था और यही वजह थी कि वे क्वालिफाई करने से चूक गए. हालांकि 27 साल का यह नौजवान निशानेबाज 50 मीटर पिस्टल में क्वालिफाई करने में सफल रहा. उन्होंने स्कॉटलैंड में डंडी स्थित बैरी बडॉन शूटिंग रेंज में इस स्पर्धा का स्वर्ण पदक भी जीता.
नेपाली मूल के इस निशानेबाज के लिए पिछले कुछ महीने कठिनाई भरे रहे. एक सूटकेस के साथ शिविरों में जीवन बिता रहे राय का जीवन 10 मीटर अथवा 50 मीटर दूर स्थित लक्ष्य पर निशाना साधते बीत रहा था. इस बीच उन्हें जबरदस्त तरीके से ध्यान केंद्रित करना पड़ता था. एकाग्रता इतनी जरूरी कि दिल धड़कने तक से संतुलन बिगड़ा और निशाना चूका.
स्वर्ण पदक या कोई भी पदक उनके लिए बहुत मायने रखता है. हालांकि उनके मन का एक हिस्सा अभी भी आराम करने और जिंदगी की आम खुशियां हासिल करने के लिए तरसता है. मसलन पहाड़ों पर जाना और धान या आलू के खेतों पर नजर दौड़ाना जहां एक वक्त वे कड़ी मेहनत करते थे, या फिर अपनी मां के साथ नेपाल स्थित अपने जन्मस्थान संखूवसाभा में समय बिताना.
दक्षिण कोरिया के इंचियोन में आयोजित 17वें एशियाई खेलों में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतने के कुछ ही मिनट बाद उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘मैं घर जाकर आराम करना चाहता हूं.’ लेकिन इसके तत्काल बाद उन्होंने कहा, ‘लेकिन मैं आराम नहीं कर सकता. अभी विश्व कप फाइनल्स बाकी हैं.’ यह मुकाबला अक्टूबर में अजरबैजान के गबाला में होना है.
पदकों की बात की जाए तो राय काफी खुशकिस्मत रहे हैं लेकिन निशानेबाजी में जिस कदर कठिन परिश्रम की आवश्यकता होती है उसे देखते हुए यह तो सोचा भी नहीं जा सकता है कि उन्हें यह सब आसानी से हासिल हुआ होगा.
लेकिन इसके बावजूद जब आप उनसे बात करेंगे तो आपको लगेगा कि वह इस बात को समझते हैं यह उनके खेल के लिए जरूरी है. हालिया सफलता के बाद स्वदेश वापसी पर तो मीडिया उन पर टूट ही पड़ा. उनकी मुस्कान किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती है. उनकी सादगी का आलम यह है कि वे खेल जगत के सुपरस्टार की छवि में बेमेल नजर आते हैं.
राय कहते हैं कि उनकी मां उनकी उपलब्धियों की अहमियत नहीं समझती है. शायद वह खुद भी नहीं समझते लेकिन एक बात जिसे वह बखूबी समझते हैं वह यह कि अभी बहुत कुछ हासिल करना है. शायद यही उनका स्वभाव है और वह यह मानते भी हैं कि वह अपने भविष्य के निशानेबाजी कार्यक्रमों के अलावा बहुत कुछ नहीं सोचते.
वह अपने रूसी कोच पॉवेल स्मिरनोव का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उन्हें उनका साथ पसंद है. राय अपना ज्यादातर समय उन्हीं के साथ बिताते हैं. राय कहते हैं, ‘मैं उनसे बात करता हूं और मैंने उनसे काफी कुछ सीखा है… उनके पास बताने को काफी कुछ है. मैं उनका ऋणी हूं.’
निशानेबाजी ऐसी विधा है जिसमें मामूली सी चूक समस्या खड़ी कर सकती है. यहां चूक की गुंजाइश बहुत कम है क्योंकि निशानों का दायरा सीमित होता हैै
भारतीय टीम के सबसे सम्मानित कोच में से एक मोहिंदर पाल, राय के बारे में कहते हैं, ‘मानसिक रूप से वह बेहद मजबूत है, शायद हमारी टीम में सबसे ज्यादा लेकिन इसके बावजूद जीतू भीतर एक कोना ऐसा है जिसका ख्याल रखना पड़ता है. ऐसा इसलिए क्योंकि उसका पूरा ध्यान शूटिंग पर होता है. इसमें कोई दोराय नहीं कि वह बेहद प्रतिभाशाली है.’
राय तथा अन्य भारतीय खिलाड़ियों के साथ काम करने वाले खेल मनोविज्ञानी वैभव अगाशे कहते हैं, ‘यह सीजन बहुत लंबा खिंचा और यह स्वर्णपदक पूरी तरह शारीरिक स्थायित्व और मानसिक मजबूती की बदौलत है. वह हमारी टीम के सबसे मजबूत निशानेबाज हैं और उनके प्रशिक्षण में कार्डियो भी शामिल है जो उनको मजबूत बनाता है.’
उनके कोच स्मिरनोव इस बात से सहमति जताते हुए कहते हैं कि वह लगातार मेहनत किए जा रहे हैं और अब उनको पूरी तरह आराम की आवश्यकता है.
राय के लिए यह सत्र बहुत लंबा साबित हुआ है. जून में उन्होंने विश्व कप में नौ दिन के भीतर तीन पदक जीते. उसके बाद राष्ट्रमंडल खेल और विश्व चैंपियनशिप का आगमन हुआ और उसके बाद एशियाई खेल. निश्चित तौर पर ये पदक उनके लिए आर्थिक समृद्धि लाएंगे लेकिन जो बात उनको कष्ट पहुंचाती है वह है उत्तर प्रदेश के निवासी के रूप में उनकी मान्यता को लेकर राज्य सरकार की संवेदनहीनता. तमाम दस्तावेजों की मौजूदगी के बावजूद राज्य में उनको बाहरी समझा जाता है और यह बात उनको बहुत व्यथित करती है. उन्होंने अन्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के बारे में भी चर्चा की लेकिन ऐसा प्राय: तात्कालिक क्रोध में हुआ. अब जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनके लिए 50 लाख रुपये के पुरस्कार की घोषणा कर दी है तो कहा जा सकता है कि पैसा और मान्यता दोनों उनकी ओर बढ़ रहे हैं.
हाल के दिनों में राय 10 मीटर एयर पिस्टल में दुनिया के पहले जबकि 50 मीटर एयर पिस्टल में पांचवे नंबर के खिलाड़ी रह चुके हैं. हालात हमेशा से ऐसे नहीं थे.
वह 11 साल पहले सेना में शामिल हुए और वहीं उनका परिचय निशानेबाजी से हुआ. वह निशानेबाजी के बजाय अन्य विधाओं में अधिक रुचि दिखा रहे थे लेकिन आखिरकार उनको लगा कि वह इस विधा में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं. सन 2007 में लगातार खराब प्रदर्शन ने उन्हें सेना के निशानेबाजी शिविर से बाहर कर दिया लेकिन 2009 में वे वापस लौटे.
जुलाई, 2011 में जब उन्होंने तीन पदक जीते तो यह उनके लिए एक नई शुरुआत थी. उनको सेना की मार्क्समैन इकाई में बुलाया गया और वर्ष 2012 उनके लिए सबक से भरा वर्ष बन गया. फिर उन्हें देश की राष्ट्रीय टीम के लिए चुन लिया गया.
एयर पिस्टल और फ्री पिस्टल प्रतियोगिताओं में निरंतरता के साथ ही उन्होंने गत वर्ष दक्षिण कोरिया में अपनी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा के लिए भारतीय टीम में जगह सुनिश्चित कर ली. वहां वह अंतिम दौर तक पहुंचे और सातवें स्थान पर रहे. उसके बाद कुवैत में एशियाई एयर गन प्रतियोगिता में उन्होंने तीन रजत पदक हासिल किए. फोर्ट बेनिंग में आयोजित विश्व कप के बाद वह भारतीय टीम के स्थायी सदस्य बन गए. उस दौर को याद करते हुए राय कहते हैं, ‘उसी वक्त मुझे लगा कि मैं बड़ी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी पदक जीत सकता हूं.’
शारीरिक और मानसिक शक्ति का तालमेल एक विश्वस्तरीय निशानेबाज के लिए बेहद जरूरी होता है. यही वह जगह है जहां प्रतिभागी की मजबूती और हर चीज से निजात पाने की उसकी क्षमता काम आती है. राय ने अपनी फिटनेस के लिए कड़ी मेहनत की. उनकी सहायता करने वालों में फिर चाहे वह कोच मोहिंदर और स्मिरनोव हों या मानसिक प्रशिक्षक अगाशे, सभी उनकी बहुत तारीफ करते हैं. निशानेबाजी एक ऐसी विधा है जिसमें मामूली सी चूक समस्या खड़ी कर सकती है. गले और कंधों को इसमें काफी दबाव झेलना पड़ता है. इस खेल में चूक की गुंजाइश बहुत कम है क्योंकि इन निशानों का दायरा बहुत सीमित होता है. 10 मीटर की प्रतियोगिता में बुल्स आई 11.5 मिमी जबकि 50 मीटर में 50 मिमी की होती है.
राय 11 गोरखा रेजिमेंट के जवान हैं और मानसिक रूप से मजबूत होने के बावजूद हर सफलता के बाद उन पर उम्मीदों का बोझ जरूर बढ़ता होगा. आश्चर्य नहीं कि उनके कोच आसपास मौजूद सभी लोगों से यह कहते नजर आते हैं कि इन निशानेबाजों पर और बोझ न डाला जाए. उन पर पहले ही उम्मीदों का भारी बोझ है. अब जबकि 2016 का ओलंपिक करीब है, उम्मीद की जानी चाहिए कि राय ब्राजील में बिना किसी दबाव के शानदार प्रदर्शन करेंगे.
देश के पूर्वोत्तर इलाके में स्थित सात राज्यों, अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा की बात की जाए तो वहां अशांति या कहें तो किसी छोटे-मोटे युद्ध जैसी परिस्थितियां हर वक्त बनी रहती हैं. यहां एक तरफ विद्रोही गुट हैं तो दूसरी तरफ सुरक्षा बल. इनके बीच सालों से चल रहे संघर्ष की आम नागरिकों ने बड़ी कीमत चुकाई हैै. इस मायने और कई सामाजिक आयामों में सुदूर उत्तर-पूर्व के ये राज्य शेष भारत से काफी अलग हैं. पर तहलका की हालिया तहकीकात बताती है कि कम से कम एक मामले यानी भारतीय संस्थानों की व्यवस्थागत बुराइयों में यहां तैनात संगठन भी शेष भारत से अलग नहीं हैं. हम भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैैं. छिपे हुए कैमरों से जरिए की गई हमारी पड़ताल बताती है कि इस इलाके में अशांति दूर करने के लिए तैनात असम राइफल्स में भ्रष्टाचार नीचे से लेकर ऊपर तक, हर स्तर पर है.
अतीत में भी देश के इस सबसे पुराने अर्द्धसैन्य बल पर विवेकाधीन फंड के दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं. तहलका ने अपने छिपे कैमरे के जरिए यह खुलासा किया है कि कैसे असम राइफल्स के कुछ अधिकारी निर्माण कार्यों के लिए जारी निविदाओं आदि को आसानी से पास करने के लिए ठेकेदारों से हिस्सा ले रहे हैं. असम राइफल्स में अनेक अधिकारी सेना से प्रतिनियुक्ति पर आते हैं. तहलका को अपनी पड़ताल में यह भी पता चला कि ये अधिकारी जब वापस अपने मूल संस्थान में लौटते हैं तो इनके पास अकूत अवैध संपत्ति जमा हो जाती है. चौंकाने वाली बात यह है कि सुरक्षाबल में यह काम संगठित तरीके से अंजाम दिया जा रहा है. इस रैकेट में क्लर्क और उच्चाधिकारी तक सभी समान रूप से शामिल हैं.
मुश्किल लड़ाई मोर्चों पर तैनात जवानों की जान हमेशा जोखिम में रहती है जबकि उनके अधिकारी पैसा बनाने में लगे रहते हैं. फोटोः एएफपी
यह कैसे होता है
हर वित्त वर्ष में केंद्र सरकार सुरक्षा बलों के लिए बजटीय आवंटन करती है. इस वर्ष (2014-15) के बजट में असम राइफल्स को 3,580 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. इससे पहले के दो सालों में यह आवंटन क्रमश: 3,358 करोड़ और 2,966 करोड़ रुपये था.
सालाना बजट में जिन निर्माण परियोजनाओं का उल्लेख होता है उनका क्रियान्वयन निविदाओं के जरिए किया जाता है. हर स्तर पर अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें हर प्रस्ताव (निर्माण ठेके के लिए) को एक जगह से दूसरी जगह भेजते समय उनके हिस्से का पैसा मिले. रिश्वत देने वाले ठेकेदार बताते हैं कि किसी भी परियोजना की लागत अधिकारियों की जेब भरने के क्रम में सीधे 30 फीसदी तक बढ़ जाती है. इसका असर निर्माणकार्य की गुणवत्ता पर पड़ता है. असम राइफल्स में हालात इतने खराब हो चुके हैं कि अधिकारी अपने कार्यालयों में खुले आम रिश्वत लेने से नहीं हिचकते.
इन भ्रष्ट सैन्कर्मियों के काम करने का तरीका एकदम साधारण है. जब भी कोई ठेकेदार असम राइफल्स के प्रशासन और उसकी निगरानी वाले इलाके में किसी निर्माण कार्य के लिए निविदा भरता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह एक खास नेटवर्क से संपर्क करेगा. इसके जरिए ही हर स्तर पर धन पहुंचाया जाता है. लूट का माल छोटे क्लर्कों से लेकर महानिदेशक तक बंटता है. महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल के रैंक के अधिकारी हंै. बड़े अधिकारी सीधे नकदी नहीं लेते हैं बल्कि उनके लिए उनके अधीनस्थ अधिकारी धन लेते हैं.
एक पुराना ठेकेदार जो इस काम में पिछले सात सालों से है, उस दिन को याद करके अफसोस करता है जब उसने इस पेशे में आने की ठानी थी. यह अफसोस स्वाभाविक है. अगर कोई निविदा एक करोड़ रुपये की है तो करीब 30 फीसदी यानी 30 लाख रुपये यह सुनिश्चित करने में खर्च करने पड़ते हैं कि आगे कोई गतिरोध न आए और पूरा काम सहज ढंग से संपन्न हो. दूसरे शब्दों में कहें तो परियोजना की 30 फीसदी राशि काम शुरू होने के पहले ही खर्च हो जाती है. वह ठेकेदार कहता है, ‘प्रस्तावित निविदा का 30 फीसदी हिस्सा असम राइफल्स के विभिन्न अधिकारियों को देना पड़ता है. कई बार तो यह राशि 35 फीसदी तक हो जाती है. हमें बचे हुए पैसे से ही कच्चे माल, श्रमिकों और मुनाफे का जुगाड़ करना होता है.’ स्पष्ट है कि इसका असर काम की गुणवत्ता पर पड़ता है.
ठेकेदार आगे समझाता है, ‘पहले आप एक निविदा भरते हैं ताकि वह पास हो जाए. वह शिलॉन्ग जाती है. वहां आपको पांच से आठ फीसदी रिश्वत देनी होती है. अगर आप रिश्वत नहीं देंगे निविदा वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगी. आपकी परियोजना शुरू होने के पहले ही समाप्त हो जाएगी. लब्बोलुआब यही कि किसी भी हालत में 30 फीसदी राशि देनी ही होगी. कुल खर्च 30 फीसदी है लेकिन रिश्वत की राशि एक बार में नहीं देनी होती. वह चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ती है. पहले निविदा के स्तर पर, फिर बिलिंग के स्तर पर और इसी तरह आगे. इसका एक बड़ा हिस्सा विशेष अधिकारी के पास जाता है, जहां से निविदा आरंभ होती है.’
ठेकेदार असम राइफल्स के साथ कुल मिलाकर 543 ठेकेदार पंजीकृत हैं. मोटेतौर पर उनकी पांच श्रेणियां हैं. उनको स्पेशल, ए, बी,सी और डी श्रेणियों में बांटा गया है. यह वर्गीकरण पैसे के आधार पर किया जाता है. जो स्पेशल यानी खास श्रेणी में होते हैं, वे ऐसी परियोजनाओं में शामिल होते हैं जिसमें बेशुमार पैसा होता है. ए और बी श्रेणी में वे ठेकेदार होते हैं जो क्रमश: दो करोड़ और एक करोड़ रुपये तक की परियोजनाओं के लायक होते हैं. सी और डी श्रेणी में इससे कम पैसे वाले ठेकेदार होते हैं. नए ठेकेदार स्वत: डी श्रेणी में आते हैं. बाद में उनको उनके प्रदर्शन के मुताबिक आगे बढ़ाया जाता है.
[box]
साड़ी, केक और स्कॉच
असम राइफल्स पर सरकारी फंड के हेरफेर के आरोप नए नहीं हैं. दस्तावेज बताते हैं कि सरकारी पैसे का सबसे ज्यादा दुरुपयोग गृह मंत्रालयों और सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को तोहफे देने के लिए किया गया है. इनमें साड़ियों से लेकर केक, मिठाई और स्कॉच की बोतल तक शामिल हैं. इन सामानों के लिए खर्च किया गया पैसा असम राइफल्स के विवेकाधीन फंड से आता है. हालांकि विवेकाधीन फंड के तहत भी पैसे का इस्तेमाल अर्द्धसैन्यबल के कल्याण कार्याें और अन्य जरूरतों के लिए ही खर्च किया जाना चाहिए. इस साल के बजटीय प्रावधानों में असम राइफल्स को 3,580 करोड़ रुपये आवंटित किया गया है. खबरें हैं कि विवेकाधीन फंड जो अर्द्धसैन्यबल के महानिदेशक (डीजी) के जिम्मे होता है, से लगभग हर दिन पैसे का दुरुपयोग किया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस फंड के तहत एक अधिकारी के निजी खर्च, विशेषतौर पर उनकी पत्नी के लिए 23 हजार रुपये खर्च किए गए थे. सेना मुख्यालय द्वारा इस मामले की शुरुआती जांच के दौरान दस्तावेजों की सत्यता की पुष्टि हुई है.
[/box]कैसे होता है बंटवारा
अवैध रूप से हासिल की गई धनराशि को बांटने का तरीका एकदम व्यवस्थित है. पांच फीसदी पैसा उस क्षेत्र को जाता है जहां परियोजना होनी होती है. कुछ मामलों में तो यह राशि 10 फीसदी तक होती है. इसके अलावा पांच फीसदी धन राशि डीजीआर (पुनर्वास महानिदेशक या डायरेक्टर जनरल रीसेटलमेंट) को जाती है. इसके बाद उस यूनिट को पांच फीसदी जहां बिल जाता है. जब बिल संबंधित क्षेत्र में वापस आता है तो तीन फीसदी राशि अधिकारियों को दी जाती है और पांच फीसदी अन्य राशि डीजीआर को. आखिर में सात फीसदी मूल्यवर्धित कर (वैट) भी इस खर्च में जुड़ता है. इस तरह कुल मिलाकर 30 फीसदी राशि खर्च हो जाती है. इसके अलावा एक फीसदी राशि लेखा विभाग को भी देनी होती है क्योंकि पैसा वहीं से जारी होता है.
ऑपरेशन ‘हिलटॉप’
इसकी शुरुआत सी श्रेणी के एक ठेकेदार के साथ हुई जो असम राइफल्स के लिए काम करता था. केरल निवासी सीसी मैथ्यू नाम के इस शख्स ने तहलका से संपर्क किया. मैथ्यू एक भूतपूर्व जवान हैं और वे असम राइफल्स के भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहते थे. तहलका से संपर्क करने से पहले वे विभिन्न मीडिया संस्थानों के पास मदद के लिए गए लेकिन उनको हर जगह से निराश होकर लौटना पड़ा. इसके बाद तहलका की विशेष खोजी टीम ने इस व्हिसलब्लोअर का साथ देने की ठानी.
बीते साल इस ठेकेदार ने मणिपुर के तमांगलॉन्ग जिला मुख्यालय में एक शेल्टर खड़ा किया था. 24 लाख रुपये के इस अनुबंध में वह निविदा लेने के लिए ही 16 फीसदी राशि रिश्वत के रूप में दे चुका था. अब वह 18 फीसदी और राशि रिश्वत के रूप में अधिकारियों को देने जा रहा था ताकि उसका बिल पास हो सके. इस बार तहलका का यह संवाददाता, मैथ्यू का रिश्तेदार बनकर उनके साथ गया और देश के इतिहास में पहली बार सैन्य वर्दियों में सजे अधिकारी कैमरे पर रंगे हाथ रिश्वत स्वीकार करते पकड़े गए! इसमें एक कर्नल और दो लेफ्टिनेंट कर्नल शमिल थे. स्तब्ध करने वाली बात यह है कि असम राइफल्स के प्रमुख ने भी अप्रत्यक्ष रूप से अपने अधीनस्थ के जरिये अपना हिस्सा लिया. जूनियर कमीशंड ऑफिसर एच देब ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के लिए धन लिया. इन अधिकारियों में डीजी, एडीजी और चीफ इंजीनियर शामिल थे.
देब: मुझे तीन (हजार) और दीजिए. ठेकेदार: सर प्लीज, तीन रहने दीजिए. देब: मुझे देना होगा, प्लीज समझिए. ठेकेदार: (हंसता है) देब: मुझे लिंबू (सूबेदार, इंजीनियर जेसीओ) और अन्य लोगों को देना होगा. इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो पांच फीसदी लेते हैं.
हमारा स्टिंग ऑपरेशन क्लर्क कर्मचारियों के साथ शुरू हुआ और एकदम शीर्ष तक पहुंचा. सूबेदार गौतम चक्रवर्ती ने न केवल बिल पास करने के लिए अपना हिस्सा लेने पर जोर दिया बल्कि उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि ठेकेदार एक पुरानी परियोजना के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल कक्कड़ का बकाया पैसा भी दे जिनका अब दूसरी जगह स्थानांतरण हो चुका है. लेफ्टिनेंट कर्नल कक्कड़ की ओर से पैसा लेने के बाद चक्रवर्ती ने उनको फोन करके ‘अच्छी खबर’ भी दी.
चक्रवर्ती: आपको देना है तो दो नहीं तो भूल जाओ चक्रवर्ती : (फोन पर) सर एक अच्छी खबर है. मैथ्यू ने आपके हिस्से के 20 हजार दे दिए. (उसके बाद वह फोन मैथ्यू को दे देता है) ठेकेदार मैथ्यू (फोन पर): सर 30 लाख के बिल में जो भी बकाया था वह सब दे दिया.
एक अधिकारी जिसकी पहचान लेफ्टिनेंट कर्नल गोगोई के रूप में हुई वह मैथ्यू को निर्देश देता है कि वह पैसा उसके अधीनस्थ को सौंप दें.
लेफ्टिनेंट कर्नल गोगोई: यहां काम करना थोड़ा मुश्किल है. थोड़ी जुगत भिड़ानी पड़ती है… मेरा हिस्सा उन साहब को दे दो (एक व्यक्ति की ओर इशारा)
इस पर सूबेदार पी लिंबू अपने वरिष्ठ अधिकारी तथा अपने हिस्से का पैसा लेते हैं.
सूबेदार लिंबू: (पैसा लेते हुए) सर ने क्या कहा? ठेकेदार: सर ने यह हिस्सा आपको देने को कहा.
बी के सरकार असम राइफल्स के महानिदेशालय के भुगतान और लेखा कार्यालय में वरिष्ठ लेखा अधिकारी हैं. यह लेखा विभाग का सबसे बड़ा पद है. जिस वक्त तहलका की टीम उनके केबिन में घुसी उन्होंने ठेकेदार मैथ्यू के सारे बिल निकाले और अपने हिस्से के पैसे का हिसाब लगाया और कहा कि पहले उनका बकाया निपटाया जाए.
तहलका की पड़ताल से यह भी पता चलता है कि बीते सालों के दौरान इनमें से कुछ अधिकारियों ने अवैध रूप से बहुत अधिक संपत्ति एकत्रित कर ली है. सूत्रों के मुताबिक असम राइफल्स के एक वरिष्ठ अधिकारी कथित तौर पर पूर्वोत्तर में इसी अवैध कमाई से एक पांचसितारा होटल बनवा रहे हैं.
तहलका को मिली जानकारी के मुताबिक इंफाल के करीब एक शिविर को जल्द ही खाली कराया जा रहा है ताकि एक नया शिविर बनाने के लिए परियोजना को मंजूरी दी जा सके. ऐसा करके और अधिक धन बनाया जा सकेगा. इसी तरह अनेक ऐसी परियोजनाएं हैं जो फिजूल में चल रही हैं.
एक और स्तब्ध करने वाली बात यह है कि एक ठेकेदार ने असम राइफल्स के शिविर के भीतर ही अपना गोदाम बना रखा है. उसका दावा है कि उसने डीआईजी की मंजूरी ली है. इसका इस्तेमाल निर्माणा सामग्री तथा अन्य उपकरण रखने के लिए किया जाता है. हालांकि नियमानुसार किसी शिविर का इस्तेमाल ऐसे काम में नहीं किया जा सकता. यह पूरी तरह अवैध है. एक ठेकेदार सुरेश ने तो कैमरे पर ही यह भी स्वीकार किया कि उसने इस संवेदनशील क्षेत्र में डीआईजी की इजाजत से यह निर्माण अपने निजी इस्तेमाल के लिए किया है.
ठेकेदार सुरेश: यह पूरा इलाका एकदम शुरुआत से ही हमने बनाया है. मैंने यह इलाका ले रखा है, मुझे इसके लिए डीआईजी की अनुमति हासिल है.
[box]
उत्तर-पूर्व के रक्षक
अंग्रेजों ने 1835 में असम में एक अर्द्ध सैन्यबल की स्थापना की थी. इसका काम था कछारी जमीन को पहाडों पर वास करने वाली ‘जंगली जनजातियों’ से बचाना. इसे बीच में बल को कई नाम दिए गए जैसे असम फ्रंटियर पुलिस (1883), द असम मिलेटरी पुलिस (1891) और ईस्टर्न बंगाल एंड असम मिलेटरी पुलिस (1913). प्रथम विश्व युद्ध में इस बल के योगदान के बाद इसे 1917 में असम राइफल्स नाम दिया गया. क्षेत्र में असम राइफल्स से जुड़ाव के कारण इस बल को ‘उत्तर-पूर्व के रखवाले’ और ‘पहाड़ी लोगों के मित्र’ जैसे नामों से नवाजा जाता रहा है. आज असम राइफल्स में 46 बटालियन हैं और इन्हें आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ भारत-म्यांमार सीमा की रखवाली की जिम्मेदारी दी गई है.
[/box]
अतीत में भी असम राइफल्स के ताकतवर और रसूखदार लोगों पर वित्तीय अनियमितताओं के इल्जाम लगते रहे हैं लेकिन वे मामले किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सके. इससे खुफिया विभाग और सतर्कता विभाग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं. लेकिन एक सवाल जिससे हर किसी को चिंतित होना चाहिए वह यह कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर इन लालची अधिकारियों का भरोसा कैसे किया जाए? क्या देश बाहरी दुश्मनों के नापाक इरादों से सुरक्षित है?
इन अवैध गतिविधियों का असम राइफल्स जैसी संस्था पर असर पड़ना तय है. भ्रष्टाचार में जो लोग शामिल हैं वे मूलरूप से डेस्क पर यानी कार्यालय में काम करने वाले हैं. इनमें क्लर्क, जेसीओ, इंजीनियर और अन्य अधिकारी हैं. इनके विपरीत अशांत माहौल में अपनी जान जोखिम में डालकर विद्रोहियों से लोहा लेने वालों को इन कार्यालयीन कर्मियों की तुलना में कम वेतन मिलता है.
हो सकता है असम राइफल्स के जवानों के लिए विपरीत परिस्थितियों में विद्रोहियों से मुकाबला अब भी आसान हो. लेकिन उनका मनोबल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सरकार इस संस्थान में अमरबेल की तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जल्दी से सख्त कदम उठाए.
2011 में भारी-भरकम बहुमत हासिल करके जयललिता ने जब चौथी बार तमिलनाडु की सत्ता संभाली तो कहा जाता है कि उनके जेहन में 2014 का लोकसभा चुनाव भी घूम रहा था. उस चुनाव को फतह करने के लिए तब उन्होंने बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जिनके तार सीधे-सीधे लोगों की आम जरूरतों से जुड़े हुए थे. ‘अम्मा रसोई, ‘अम्मा नमक’ और ‘अम्मा मिनरल वाटर’ जैसी इन योजनाओं का उद्देश्य तमिलनाडु के लोगों को रियायती दरों पर खाना, पानी, कपड़े और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध कराना था. इन लोकलुभावन योजनाओं ने अपना पूरा असर दिखाया और उनकी पार्टी को आमचुनाव में राज्य की कुल 39 में से 37 सीटें मिल गईं.
अपने ‘अम्मा नामधारी योजना’ अभियान में इजाफा करते हुए जयललिता ने बीते 26 सितंबर को एक और योजना ‘अम्मा सीमेंट’ का श्रीगणेश किया. इसका मकसद गरीब लोगों को मकान बनाने के लिए बाजार मूल्य से कम कीमत पर सीमेंट उपलब्ध कराना था. तमिल राजनीति के जानकारों के मुताबिक अम्मा सीमेंट की मदद से वे 2016 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपने राजनीतिक दुर्ग को और भी मजबूती देना चाहती थीं. लेकिन जयललिता का यह सपना परवान चढ़ने से पहले ही भरभरा गया. इस योजना की लॉन्चिंग के दो दिन बाद ही आय से अधिक संपत्ति रखने के एक मामले में बंगलुरू की विशेष अदालत ने उन्हें चार साल कैद की सजा सुना दी. पिछले साल आए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक अब किसी भी कोर्ट से सजा होते ही जनप्रतिनिधियों की संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म हो जाएगी. अदालत से सजा मुकर्रर होने के बाद वे अब सलाखों के पीछे हैं और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की वजह से वे अब जनप्रतिनिधि भी नहीं रहीं. इस सजा ने उनका मुख्यमंत्री पद तो छीना ही, साथ ही उन्हें अगले दस सालों तक चुनावी अखाड़े में उतरने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया है. ऐसे में जयललिता के राजनीतिक भविष्य के साथ ही उनकी खुद की पार्टी और उससे भी ज्यादा तमिलनाडु की सियासत को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि पूरे एक दशक तक सक्रिय राजनीति में न रह पाने के चलते जयललिता का राजनीतिक रसूख कितना बचा रह पाएगा? इन सवालों की पड़ताल करने से पहले एक सरसरी नजर उस घटनाक्रम पर डालते हैं जिसने जयललिता को मुख्यमंत्री की कुर्सी से सलाखों के पीछे पहुंचाया.
1991 में पहली बार मुख्यमंत्री बनी जयललिता ने तब अपनी कुल आमदनी तकरीबन तीन करोड़ रुपये बताई थी. इसके साथ ही उन्होंने ऐलान किया था कि मुख्यमंत्री रहते हुए वे सिर्फ एक रुपया मासिक वेतन ही लेंगी. लेकिन इस बीच उनकी संपत्ति में आश्चर्यजनक रूप से लगातार बढ़ोत्तरी होने की खबरें सामने आने लगीं. जयललिता की शाही जीवनशैली के चलते भी इन बातों को बल मिलने लगा कि उनके पास बेहिसाब पैसा हो सकता है. जून 1996 में तत्कालीन जनता दल नेता (अब भाजपाई) डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने जयललिता पर 1991 से 1996 के बीच अकूत संपत्ति बनाने तथा अपने करीबी लोगों को लाभ पहुंचाने का आरोप लगाया और शिकायत कर दी. इसके बाद तमिलनाडु के सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक विभाग ने उनके खिलाफ मामला दायर कर इसकी जांच शुरू कर दी. 2003 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मामले को चेन्नई से बंगलुरु स्थानांतरित किया गया. अट्ठारह साल के बाद आखिरकार अदालत ने जयललिता पर लगे आरोपों को सही पाया और बीती 28 सितंबर को फैसला देते हुए उन्हें चार साल की कैद के साथ 100 करोड़ रुपये के जुर्माने की सजा दे दी.
‘जयललिता भी एकला चलो की परिपाटी पर चलने वाली हैं. उनकी पार्टी में नंबर दो तो क्या तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर भी कोई नेता नहीं है’
लगभग दो दशक तक चली इस अदालती प्रक्रिया के बाद वे बतौर मुख्यमंत्री सजा पाने वाली पहली नेता बन गई हैं. इसके साथ ही वे लालू प्रसाद यादव, ओेमप्रकाश चौटाला और मधु कोड़ा जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों की जमात में शामिल हो गई हैं जिन्हें भ्रष्टाचार करने के चलते जेल जाना पड़ा. अपने दम पर राजनीति के शिखर पर पहुंची जयललिता के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा रहा है. जानकारों का एक बड़ा वर्ग इसे उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह के रूप में देखने लगा है. इस वर्ग की मानें तो कानून के हथौडे़ ने जयललिता के राजनीतिक भविष्य पर इतनी बड़ी चोट कर दी है कि इससे उबरने में उन्हें और उनकी पार्टी को जबर्दस्त चुनौतियां झेलनी पड़ेंगी. यह चुनौती इसलिए भी बड़ी मानी जा रही है क्योंकि अब तक अपनी पार्टी की एकमात्र धुरी वे ही रही हैं. इस का प्रमाण यह भी है कि उनको सजा हो जाने के बाद पार्टी को नया मुख्यमंत्री तय करने में तीन दिन का समय लग गया. इसके बाद उन्हीं पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाया गया है जो एक बार पहले भी वर्ष 2001 में तांसी मामले में जयललिता को सजा मिलने के बाद मुख्यमंत्री बनाए गए थे और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर नहीं बैठा करते थे. ऐसे में सवाल उठता है कि इस तरह की स्थितियों में पार्टी का आगामी भविष्य क्या होगा.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के हावी होने के बावजूद जयललिता के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में शानदार सफलता हासिल की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में उनका प्रभाव किस कदर है.’ वे आगे कहती हैं, ‘जयललिता को सजा मिल जाने से उनकी पार्टी में नेतृत्व को लेकर जो शून्य पैदा हो गया है उसकी भरपाई बहुत कठिन है. ऐसे में 2016 में जब तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होंगे तब पार्टी को उनके बिना भारी चुनौतियां सहनी पड़ सकती हैं.’ जयललिता की अनुपस्थिति में पैदा होने वाले जिस शून्य की ओर नीरजा और इशारा कर रही हैं, उसको देखते हुए यह जानना जरूरी हो जाता है कि जयललिता के नहीं होने के चलते पार्टी में नेतृत्व का सूखा पड़ने की आखिर कौन सी वजहें हैं. जयललिता के राजनीतिक अवतरण की कथा के आलोक में जाने पर इस सवाल का जवाब आसानी से ढूंढा जा सकता है.
मात्र पंद्रह साल की उम्र में बतौर अभिनेत्री अपना सिनेमाई कैरियर शुरू करने वाली जयललिता ने 1984 में सक्रिय रूप से राजनीति शुरू की. तब राज्य के मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन काफी बीमार थे और जयललिता पार्टी में अपना प्रभाव जमा रहीं थी. उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी और कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति का माहौल था. इसी का लाभ उठाते हुए एआईएडीएमके ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और चुनाव में जीत हासिल कर ली. इस बीच मुख्यमंत्री रामचंद्रन को इलाज के लिए अमेरिका भेजा गया, जहां 1987 में उनका निधन हो गया. रामचंद्रन के निधन के बाद उनकी पत्नी जानकी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन जयललिता ने इसका विरोध करते हुए खुद को रामचंद्रन का असली उत्तराधिकारी करार दिया और बगावत कर दी. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में उन्होंने शानदार प्रदर्शन करके इस बात को सच साबित कर दिखाया. विधानसभा चुनाव में उनके धड़े को 23 सीटें मिलीं, जबकि जानकी गुट एक सीट ही हासिल कर पाया. इसके बाद जयललिता ने दोनों गुटों को एकजुट करने का काम किया और निर्विवाद रूप से पार्टी की सर्वेसर्वा बन गईं. तबसे लेकर अब तक एआईडीमके पर उनका वर्चस्व कायम है. इसी का परिणाम है कि आज तक उनकी पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता के रूप में कोई नहीं उभर पाया.
कुछ साल पहले सीनियर पत्रकार करन थापर को दिए एक इंटरव्यू में जयललिता का कहना था कि जहां इंदिरा गांधी, बेनजीर भुट्टे, भंडारनायके और शेख हसीना जैसी एशियाई नेत्रियों को राजनीति विरासत में मिली थी वहीं उन्होंने अपने खुद के दम पर अपना वजूद स्थापित किया है. बहुत से जानकार इस बात को स्वीकार भी करते हैं. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि जयललिता ने राजनीति में अपने बूते इतना बड़ा कद हासिल किया है. यही वजह है कि आज उनकी पार्टी में दूर-दूर तक कोई भी एेसा व्यक्ति नहीं दिखता जिसे उनके विकल्प के रूप में देखा जा सके’. एक वेबसाइट पर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन लिखते हैं, ‘नरेंद्र मोदी, मायावती, ममता बनर्जी और अन्य प्रमुख व्यक्ति केंद्रित नेताओं की तरह जयललिता भी एकला चलो की परिपाटी पर चलने वाली हैं. उनकी पार्टी में नंबर दो तो क्या तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर भी कोई नेता नहीं है.’
समर्थन जयललिता के जेल जाने की खबर से राज्यभर में उनके समर्थकों के बीच शोक का माहौल हो गया था. फोटोः एएफपी
यही तथ्य उनके और उनकी पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करने वाला भी है. किदवई कहते हैं, ‘जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी जैसी नेत्रियों की पार्टी में पहले तो दूसरे नंबर का कोई घोषित नेता नहीं है साथ ही एक और तथ्य यह भी है कि अविवाहित होने की स्थिति में इनके पास लालू, मुलायम और चौटाला जैसा वंशवादी राजनीतिक विकल्प भी नहीं है. ऐसे में इन पर संकट आने से पूरी पार्टी पर संकट आना स्वाभाविक है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जयललिता को दोषी ठहराए जाने का यह अदालती फैसला यदि ऊपरी अदालतों में भी बरकरार रहता है तो ऐसे में मजबूत उत्तराधिकारी न होने के चलते दूसरे राजनीतिक दल राज्य में अपने लिए संभावनाएं तलाश सकते हैं. ऐसे में अब दूसरे दलों की गतिविधियों को देखा जाना भी महत्वपूर्ण होगा कि जयललिता की अनुपस्थिति को वे किस तरह अपने पक्ष में कर सकते हैं.’
तमिलनाडु की राजनीति में अन्नाद्रमुक के अलावा दूसरा सबसे प्रमुख दल डीएमके है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये दोनों दल ही तमिल राजनीति की धुरी रहे हैं. 1967 में एम भक्तवत्सलम के नेतृत्व में आखिरी बार तमिलनाडु में कांग्रेस पार्टी की सरकार रही. तब से अब तक लगभग आधी सदी के दौरान तमिलनाडु की सत्ता इन्ही दो पार्टियों के बीच बंटती रही है. ऐसे में यह सवाल उठना वाजिब लगता है कि क्या जयललिता के जेल चले जाने के बाद विपक्षी दल डीएमके के पास कोई मौका हो सकता है?
कई राजनीतिक जानकार इसका जवाब ‘ना’ में देते हैं. उनका मानना है कि बेशक जयललिता को सजा हो जाने के बाद द्रमुक के नेतृत्व और उसके कैडर का उत्साह बढ़ेगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इससे उसकी स्थिति में सुधार होगा ही. 2014 के लोकसभा चुनावों में सूपड़ा साफ होने के साथ ही द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि के कुनबे में चल रही पारिवारिक कलह को इसकी बड़ी वजह के रूप में देखा जा रहा है. किदवई कहते हैं, ‘बेशक पिछले कई दशकों से तमिलनाडु की राजनीति अन्नाद्रमुक और द्रमुक के बीच ही घूमती रही है. लेकिन जयललिता के कमजोर पड़ जाने के बाद भी द्रमुक के लिए यह उतना अच्छा अवसर शायद ही साबित हो. क्योंकि करुणानिधि के परिवार में आपसी झगड़े और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी पार्टी को हाल के समय में काफी कमजोर कर दिया है.’ वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं, ‘वे कहते हैं, पिछले कुछ सालों से डीएमके की हालत राज्य में लगातार खस्ता हुई है. पहले विधानसभा चुनावों में उसे करारी हार मिली और फिर लोकसभा चुनाव में उसका सफाया हो गया. ऐसे में राज्य में उसका काडर पूरी तरह बिखरा हुआ है. इसके अलावा करुणानिधि की बढ़ती उम्र के साथ ही उनके बेटों स्टालिन और अलागिरी के बीच सत्ता संघर्ष ने भी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है. ऐसे में जलयलिता का जेल जाना शायद ही डीएमके के लिए फायदा पहुंचा सकेगा.’
डीएमके की खस्ता हालत को लेकर राजनीतिक पंडितों की इस राय को यदि सही मान लिया जाए तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि तमिलनाडु की राजनीतिक तस्वीर में किस तरह के बदलाव आ सकते हैं. सवाल यह भी उठता है कि क्या इन स्थितियों में भाजपा तथा कांग्रेस के लिए राज्य में कोई संभावना पैदा हो सकती है?
जयललिता को सजा हो जाने के बाद द्रमुक के नेतृत्व और उसके कैडर का उत्साह बढ़ेगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इससे उसकी स्थिति में सुधार हो ही जाए
कांग्रेस पार्टी की बात की जाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में उसकी दुर्गति किसी के छिपी नहीं है. लेकिन आंकड़े यह भी बताते हैं कि इस चुनाव से पहले उसे तमिलनाडु में नौ से 15 प्रतिशत के बीच वोट मिलते रहे हैं. ऐसे में बहुत संभव है कि कांग्रेस अपने इस वोट बेंक को फिर से हासिल करने की कोशिश करे. लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी के लिए इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का मोहभंग चल रहा है, उसे देखते हुए पार्टी की डगर यहां भी काफी मुश्किल नजर आती है. इसके अलावा उसकी मुश्किल यह भी है कि उसके पास प्रदेश स्तर पर कोई राजनीतिक चेहरा ऐसा नहीं है जो जयललिता की परछाईं भी साबित हो सके.’ कांग्रेस के बाद यदि भाजपा की बात करें तो तमिलनाडु के छोटे दलों के साथ गठजोड़ करके वह लोकसभा चुनाव में अपना खाता यहां से खोल चुकी है. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभाव के सहारे पार्टी देशभर के सभी राज्यों में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश जारी रखे हुए हैं. ऐसे में तमिलनाडु की राजनीति में आए इस परिवर्तन को अपने पक्ष में भुनाने में शायद ही वह कोई कमी रखे. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जिस तरह से भाजपा इन दिनों कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में लगी है उसे देखते हुए इस बात की बहुत संभावना है कि 2016 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए वह यहां के राजनीतिक समीकरणों में खुद को शामिल करने की पूरी कोशिश करेगी. हालांकि महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी भाजपा की रणनीति काफी हद तक निर्भर करेगी.’ लेकिन अजय बोस नीरजा की बातों से असहमति जताते हुए कहते हैं, ‘बेशक भाजपा ने लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में खाता खोल लिया हो लेकिन अंतत: यहां क्षेत्रीय राजनीति की चलेगी. ऐसे में हो सकता है कि कोई नया क्षेत्रीय दल राज्य में आकार लेने की कोशिश करे, लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता.’
इन बातों के साथ ही अजय बोस तमिलनाडु की राजनीति में जया के प्रभाव को कम आंकने को जल्दबाजी भी करार देते है. वे कहते हैं, ‘बेशक अदालत ने जयललिता को सजा सुना दी है लेकिन इससे हाल-फिलहाल में उनकी पार्टी और उनके प्रभाव को कोई नुकसान नहीं दिख रहा है. इसकी प्रमुख वजह तमिलनाडु में कमजोर विपक्ष के साथ ही उनका खुद का मजबूत कद है.’ इसके अलावा जयललिता के पास अभी ऊपरी अदालत का विकल्प मौजूद है, और यदि उन्हें किसी तरह वहां से राहत मिल जाती है तो वे पहले के मुकाबले और भी मजबूत हो जाएंगी. राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन की मानें तो जयललिता के खिलाफ आए फैसले से तमिलनाडु की राजनीति में कुछ बदलाव देखने को भले ही मिल जाएं लेकिन जिस तरह से उन्होंने लगातार पिछले कुछ चुनाव शानदार ढंग से जीते हैं, उन्हें पूरी तरह से खारिज कर देना जल्दबाजी होगी. अपने एक लेख में अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ के मैनेजिंग एडिटर जयंत वासुदेवन लिखते हैं, ‘जयललिता के खिलाफ आए हालिया फैसले से तमिलनाडु में उनकी पार्टी की राजनीति पर फिलहाल बुरा असर पड़ने की कोई आशंका नहीं है. वैसे भी राज्य में विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं. तब तक के लिए जयललिता ने सरकार पर पकड़ बरकरार रखने के लिए ‘रामचरितमानस’ के राम की तरह ‘भरत’ का चयन कर लिया है. हालांकि इस सबके बावजूद इस बात में बहुत दम है कि जयललिता की आगे की राजनीति काफी हद तक अदालत के आदेश से ही तय होगी.’
इन सब तर्कों के आधार पर देखा जाए तो एक बात साफ तौर पर नजर आती है कि तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति में जयललिता का कद बाकी सबके मुकाबले कहीं ऊंचा है. उनकी सजा का ऐलान होते ही राज्यभर में लोगों ने जोर-शोर से विरोध प्रदर्शन आयोजित किए. उनके जेल जाने के बाद से कई लोग भारी सदमे में हैं. यहां तक कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों से दर्जनभर से ज्यादा आत्महत्याओं की खबरें अब तक सामने आ चुकी हैं. ऐसे में माना यही जा रहा है कि तमिलनाडु के लोग इस वक्त जयललिता के पक्ष में पूरी तरह लामबंद हैं और जल्द से जल्द उनकी रिहाई चाहते हैं.
लेकिन सच यही है कि यदि उन्हें अदालत से राहत नहीं मिली तो दस साल बाद जब वे फिर से चुनावी राजनीति में उतरेंगी तब तक बहुत कुछ बदल चुका होगा. उनकी खुद की ही बात करें तो हिंदू मान्यताओं के मुताबिक वे तब ‘वानप्रस्थ’ वाली अवस्था (76 साल) को प्राप्त कर चुकी होंगी. उस हालत में फिर से सारी ऊर्जा समेटकर राजनीति के क्षितिज पर पहले की तरह चमकना किसी के लिए आसान नहीं हो सकता. फिर चाहे वह जयललिता ही क्यों न हों.
फिल्म : हैदर
निर्देशक : विशाल भारद्वाज
लेखक : बशारत पीर, विशाल भारद्वाज
कलाकार : तब्बू, के के, शाहिद कपूर, नरेंद्र झा, इरफान खान, श्रद्धा कपूर
फिल्म : हैदर निर्देशक : विशाल भारद्वाज लेखक : बशारत पीर, विशाल भारद्वाज कलाकार : तब्बू, के के, शाहिद कपूर, नरेंद्र झा, इरफान खान, श्रद्धा कपूर
हैदर’ गोल-गोल कंटीली बाड़ों से हर तरफ लिपटा हुआ एक इंद्रधनुष है. वो कंटीले तार जो उन शहरों में बिछते हैं जिन्हें आर्मी अपना घर बना लेती है. कश्मीर में. हर तरफ. फिल्म के पास हर वो रंग है जो जिंदगी के साथ आता है, लेकिन क्योंकि कश्मीर है, त्रासदी की कंटीली तारों से झांकने को हर वो रंग मजबूर है. वो फिर भी खूबसूरत है, रिसता है, बदले की बात करता है, खून के छींटे उछालता है, मगर खालिस सच दिखाता है.
फिल्म के पास क्या नहीं है. कब्रों को खोदते फावड़ों का शोर, कब्रों को दड़बे बनाने का हुनर, झेलम की रक्तरंजित गाथा, श्रापित इंसानियत, और सच दिखाने का साहस. हैदर का साहस देखिए, पागलपन को जो आवाजें राष्ट्रभक्ति कहती हैं उन्हीं की दुनिया में वो बन रही है, हमें उधेड़ रही है, कुरेद रही है. वो फिल्म के रूप में भी उत्कृष्ट है और जो बात कहना चाहती है उसमें भी गजब की ईमानदार. वो कभी जिंदगी की खाल खींचती है कभी खींची खाल वापस लगाकर सहलाती है. वापस खींचने के लिए उसे फिर तैयार करती है.
मगर आप हेमलेट से तुलनात्मक अध्ययन करके हैदर का मजा मत खराब करिएगा. विशाल पर विश्वास करिएगा. वे हैं तो शेक्सपियर को भी थोड़ा बदलेंगे ही, और नया कुछ कहेंगे ही. हैदर के लिए उनके पास हेमलेट भी था और बशारत पीर भी. और उनकी किताब ‘कर्फ्यूड नाइट’ भी. किताब के बशारत पीर के निजी अनुभवों को फिक्शन के साथ जोड़ने की विशाल की अद्भुत कला ने ही फिल्म को दुर्लभ दृश्य भी दिए हैं. आइडेंटिटी कार्ड लेकर परेड करने का दृश्य हो या एक स्कूल में बना इंटेरोगेशन सेंटर. एक बार जब विशाल कश्मीरी जिंदगियों की नब्ज पकड़ लेते हैं, तब हेमलेट को लाते हैं. शाहिद कपूर को लाते हैं. फिल्म के शुरूआत में शाहिद को किरदार हो जाने में जो कसमसाहट होती है, साफ दिखती है. मगर धीरे-धीरे जब वे रवां होते हैं, क्या खूब अभिनय करते हैं. लाल चौक पर वो अभिनय के सर्वोत्तम मुकाम को छूते हैं,‘टू बी और नाट टू बी’ को हिंदी आत्मा देते गुलजार के शब्दों का शरीर हो जाते हैं, और ‘बिसमिल’ में हमें बताते हैं कि अगर चाहो तो नृत्य भी अभिनय हो सकता है. लेकिन अभिनय जब साक्षात दर्शन देता है, समझ लें वो के के मेनन के रूप में आता है. उन्होंने अपनी नसों में भर के हैदर के चाचा का किरदार जिया है. और वे सर्वश्रेष्ठ होते अगर फिल्म में तब्बू नहीं होतीं.
फिल्म जहां-जहां धीमी होती है, हेमलेट से न्याय करने के चक्कर में, वहां भी उसके पास तब्बू हैं जिनका सिर्फ चेहरा ही अभिनय की पाठशाला है यहां. यही चेहरा कश्मीर की सारी बेवाओं, सारी ब्याहताओं के दर्द को सामने लाने का बीड़ा उठाता है. या शायद आधी बेवाओं और आधी ब्याहताओं का. हैदर और उसकी मां के रिश्ते को जिस साहस से विशाल परदा देते हैं, हमारे सिनेमा में ऐसी हिम्मत इससे पहले कभी नहीं रही.इसके अलावा इरफान खान हैं, जिनकी राकस्टार एंट्री दिलचस्पी बढ़ाती है. बेहद छोटे रोल में कुलभूषण खरबंदा हैं, एक जरूरी संवाद के साथ, जिसे सुना जाना चाहिए. और भुलाये जा चुके नरेंद्र झा हैं, हैदर के पिता, जिनके ईमानदार अभिनय को देखकर अच्छा लगता है. बहुत अच्छा.
कुछ चीजों की तलब जरूरी है. इसलिए हैदर देखिए. बशारत पीर की किताब पढ़िए. ठंड आने से पहले कुछ तो समझदार करिए.