अभिव्यक्ति के बारे में सोचना एक गुदगुदाने वाला ख्याल है. हर कोई अभिव्यक्ति के खतरे जानता है, लेकिन खतरे उठाकर भी लोग खुद को अभिव्यक्त करते हैं, करना चाहते हैं. पर जैसे स्त्री और पुरुष की अभिव्यक्ति की भाषा, कथ्य, अनुभव और शैली में फर्क है वैसे ही उनके अभिव्यक्ति के खतरों में भी फर्क है. स्त्रियों के लिए अभिव्यक्ति के खतरे ज्यादा बड़े, व्यापक और तीव्र हैं. खुद को अभिव्यक्त करना उनके लिए एक चुनौती है. लेखन की ही बात करें तो हिंदी साहित्य का इतिहास ‘अज्ञात हिंदू औरत’, ‘बंग महिला’ आदि कईं गुमनाम लेखिकाओं की बेहद महत्वपूर्ण रचनाओं का गवाह है. आखिर ‘सीमन्तनी उपदेश’ जैसी आधुनिक, प्रगतिशील, और विस्फोटक विचारों वाली पुस्तक की लेखिका को गुमनाम क्यों रहना पड़ा? क्यों उन्हें ‘अज्ञात हिंदू औरत’ के नाम से किताब लिखनी पड़ी? इसी गुमनामी का नतीजा है कि दुनिया 19वीं सदी के अंत में आने वाली स्त्री विमर्श की बेहद महत्वपूर्ण किताब ‘सीमन्तनी उपदेश’ को नहीं जानती. 20वीं सदी की ‘सेकेंड सेक्स’ (हिंदी में स्त्री उपेक्षिता) को जानती है लेकिन ‘सीमन्तनी उपदेश’ या उसकी लेखिका ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ को कोई नहीं जानता. क्यों? सवाल उठता है कि यदि यह पुस्तक किसी पुरुष ने लिखी होती तो क्या वह भी ‘अज्ञात पुरुष’ के नाम से लिखता और हम उसे नहीं पहचानते. निश्चित तौर पर नहीं. यह है स्त्री लेखन और लेखिकाओं का कड़वा सच.
हमारी पूरी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक संरचना स्त्री लेखन के लिए बड़ी चुनौती है. महिलाओं की साक्षरता दर (65.46 प्रतिशत) आज भी पुरुषों की साक्षरता दर (82.14 प्रतिशत) से कम है. आज भी देश की ज्यादातर लड़कियां आठवीं, दसवीं, या ज्यादा से ज्यादा बारहवीं तक ही पढ़ पाती हैं. नि:संदेह सिर्फ किताबी ज्ञान ही लेखन की बुनियाद नहीं है, लेकिन किताबें हमारे वैचारिक मानस को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं. लेकिन कोर्स से अलग किताब पढ़ना न तो हमारी शैक्षिक व्यवस्था हमें सिखाती है, न ही हमारी सामाजिक-पारिवारिक संरचना लड़कियों से यह अपेक्षा करती है कि वे हर तरह की मनचाही किताबें पढ़ें क्योंकि यह उनके लिए ‘समय की बर्बादी’ माना जाता है.
संवैधानिक समानता के बावजूद आज भी लड़कियों को परिवार में लड़के के समान प्यार, सम्मान और स्वतंत्रता नहीं मिलती. लड़कियों की जिंदगी घर, स्कूल-कॉलेज, ससुराल और फिर बच्चों के स्कूल तक ही सिमट कर रह जाती है. गांव, कस्बे या शहरों में ऐसी लड़कियों की तादाद आज भी बड़ी है जो सिर्फ शादी के वक्त ही अपने गांव से पहली बार दूसरे गांव, कस्बे या शहर जा रही होती हैं. घर की परिधि ही लड़कियों के लिए पार्क, सिनेमाहॉल, मेला, पर्यटन स्थल आदि है. आखिर घर और पड़ोस किसी लड़की या स्त्री के अनुभवों में कितने अध्याय दर्ज कर सकते हैं और कब तक? जबकि लड़कों के लिए न घर के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने की बाध्यता है न ही समय पर घर में घुसने की. जो लड़कियां कॉलेज जाने की आजादी पा गई हैं उनमें भी ये डर हमेशा रहता है कि निश्चित समय तक उन्हें घर में होना है नहीं तो सवालों की बौछार के लिए तैयार रहें. जब दिमाग सवालों की लंबी फेहरिस्त के झूठे जवाब बनाने में लगा रहेगा तो आप घर से दूर रहकर भी कितना किसी घटना, स्थान या बात में डूब सकते हैं?
संवैधानिक समानता के बावजूद लड़कियों को परिवार में लड़के के समान स्वतंत्रता नहीं मिलती. लड़कियों की जिंदगी घर, स्कूल-कॉलेज, ससुराल और फिर बच्चों के स्कूल तक ही सिमट कर रह जाती है
फिर शादी के बाद भी यदि ऑफिस जाने की आजादी है तो सिर्फ घर से ऑफिस और ऑफिस से घर की ही तो आजादी है. वह भी स्त्री की आर्थिक आजादी या व्यक्तित्व निर्माण के लिए नहीं बल्कि मंहगाई दर का सारा बोझ सिर्फ बेटे पर ना पड़े इसलिए मिलती है. रूटीन से हटकर घर से बाहर समय बिताने के लिए स्वीकृति पत्र लेना पड़ता है वह भी ढेर सारे सवालों के ‘संतोषजनक’ जवाब देने के बाद ही मिलता है. घर से स्कूल, स्कूल से घर, घर से ऑफिस, ऑफिस से घर ये सब न लिखने की बुनियादी शर्तें हो सकती हैं लिखने की नहीं. ये लिखने में सिर्फ ‘अनुभवहीनता’ बढ़ाने में सहयोग करती हैं अनुभव बढ़ाने में नहीं यानी हमारी पूरी सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक बुनावट हमें न सिर्फ अनुभव संपन्न होने से रोकती है बल्कि हमें स्वतंत्र रूप से अपनी कोई वैचारिक दृष्टि रखने में भी बाधक बनती है. शिक्षा, विचार और अनुभव से वंचित हम जब तक किसी अनुभव को डूबकर महसूस नहीं करेंगे या फिर बार-बार नए-पुराने अनुभवों से नहीं गुजरेंगे तक तक ‘स्मृति’ कैसे बनेगी दिमाग में? लेकिन हमारी साक्षरता, शिक्षा, विचार, अनुभव, स्मृति और व्यक्तित्व निर्माण पर तो परिवार, समाज, संस्कृति और पितृसत्ता के पहरे लगे हैं. ये तमाम पहरे स्त्रियों के लेखन की बुनियादी समस्या है.
घर, परिवार और बच्चों की अंतहीन जिम्मेदारी हमेशा ही लेखन में बाधा बनती है. कोई नया वैचारिक अंकुर फूटा नहीं कि खाना बनाने का समय हो गया जिसे आप चाहें भी तो नहीं टाल सकतीं. आप विचार या लेखन के चरम क्षणों में डूबकर बही जा रही हंै कि बच्चा या पति अपनी-अपनी जरूरतों के साथ सामने हाजिर हैं. आप पति को एक बार को टाल सकती हैं लेकिन बच्चे को टाला तो अपराधबोध से घिर जाएंगी. वर्जीनिया वुल्फ ‘अपने कमरे’ के होने पर जोर देती है. लेकिन ‘अपने कमरे’ में समय भी हमारा अपना ही होगा इसकी क्या गारंटी है? गारंटी इसकी तो है कि भारतीय स्त्री के अपने कमरे में भी समय सिर्फ उसका नहीं है. स्त्री के अपने समय पर पहला हक बच्चे, पति, सास-ससुर व रिश्तेदारों का है. उसके बाद भी यदि समय बचे तो फिर वह जो चाहे करे. मां, पत्नी, बहू के रोल निभाने के साथ हममें लेखन का माद्दा बचा हो तो हो. हम अपने कमरे का दरवाजा बंद करके लिख जरूर सकती हैं, लेकिन उन तमाम भूमिकाओं में से चाहे जिसकी भी जरूरत हो उठकर तो हमें ही कमरे से कागज और कलम छोड़कर आना होता है. हाल ही में ब्रिटेन की एक सामाजिक मुद्दों पर शोध करने वाली संस्था ने कामकाजी महिलाओं पर एक शोध किया. शोध में सामने आया कि गृहस्थी के साथ नौकरी करने वाली महिलाएं एक दिन में सिर्फ 26 मिनट का समय ही अपने लिए निकाल पाती हैं. यानी सप्ताह में सिर्फ तीन घंटे का समय हमारा अपना है जिसमें हम चाहे जो करें.
एक शोध में सामने आया है कि गृहस्थी के साथ नौकरी करने वाली महिलाएं एक दिन में सिर्फ 26 मिनट का समय ही अपने लिए निकाल पाती हैं. यानी के सप्ताह में सिर्फ तीन घंटे का समय हमारा अपना है जिसमें हम चाहे जो करें
इन तमाम बुनियादी अड़चनों के बाद भी यदि लिखने का कीड़ा दिमाग में कुलबुलाता है तो फिर कुछ और ‘रचनात्मक तरह’ की मुश्किलें हमार इंतजार करती हैं. तमाम तरह के दैनिक, पाक्षिक या मासिक पत्र-पत्रिकाओं में शीर्ष पदों पर पुरुषों की उपस्थिति है. जहां-जहां (अधिकांशत:) पुरुष और पितृसत्ता का गहरा गठबंधन रहता है वहां-वहां हम ज्यादातर दो तरह के व्यवहारों से टकराती हैं. एक तरफ लिखे हुए प्रकाशन के एवज में सत्ताधारी लोगों की तरफ से प्रत्यक्ष/ परोक्ष दैहिक या अर्धदैहिक संबंधों की तलवार लटकती है. यदि ऐसी किसी संभावना से हम बच निकल आती हैं तो फिर हमारे लेखन को महत्वहीन या फालतू समझा जाता है. हमारे लेखन को यथायोग्य मान्यता नहीं मिलती. यहां पितृसत्ता का ‘दंभ’ अपनी अहम भूमिका निभाता है कि एक औरत उससे अच्छा या ज्यादा महत्व का भला कैसे लिख सकती है? पार्टी, गुट और खेमे से बचकर हम ज्यादा दूर तक नहीं चल सकतीं क्योंकि जो ‘तटस्थ’ होते हैं वे कहीं
नहीं होते! अकसर ही स्त्रियों के सिर्फ स्त्री संबंधी मुद्दों पर लिखे हुए को ही मान्यता मिलती है. इतर विषयों पर किए गए स्त्री लेखन को न तो स्वीकृति मिलती है, न सम्मान मिलता है, न ही मान्यता. इसके पीछे भी वही सामंती सोच है कि औरत की जगह सिर्फ रसोई और प्रसव घर ही है बाकी जगह का उसे क्या ज्ञान और कितना ज्ञान? जैसे हरेक क्षेत्र के अपने-अपने ज्ञानी मठाधीश हैं वैसे स्त्री को सिर्फ स्त्री विषयों का ही ज्ञाता मानने का दबाव पितृसत्ता के दिमाग में हमेशा रहता है. इतर विषयों पर उसके ज्ञान को अक्सर ही अधूरा, कच्चा और स्तरहीन ही माना जाता है. यदि महिलाओं द्वारा किए गए लेखन को हिंदी के शीर्षस्थ, परम विद्वान आचार्यों, आलोचकों, समीक्षकों ने स्वीकार किया होता, उसे उचित सम्मान व मान्यता दी होती तो सुमना राजे को ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ अलग से लिखने की जरूरत ना पड़ती.
भाषा और उसके पीछे की समस्या भी स्त्री लेखन के सामने अक्सर ही आती है. लिंगभेदी भाषा खासतौर से उस वक्त हमें सताती है जब हमें अपना गुस्सा और आक्रोश प्रकट करना होता है. लाख ना चाहने पर भी हमें भी उन्हीं मां-बहन की गंदी गालियों का प्रयोग करना पड़ता है जिन पर हम नाक-भौं सिकोड़ती हैं. आखिर हमारी आक्रोश की भाषा क्या हो? साहित्य का पूरा इतिहास लेखकों द्वारा स्त्री देह और स्त्री देह के साथ मनचाहे संबंधों के बखान से भरा पड़ा है. यहां तक कि एक काल का नाम ही ‘श्रृंगार काल या रीति काल’ है लेकिन जब हम अपने देह और अपने संबंधों को अपने नजरिए से देखती और लिखती हैं तो हमारे लेखन को अश्लील, पोर्न, स्तरहीन, घटिया की श्रेणी में रखा जाता है. क्यों? एक लेखक को कभी भी अपने अनुभवजन्य सत्य या विचार लिखने के लिए मां-बाप, ससुराल या रिश्तेदारों में अपमानित नहीं होना पड़ेगा चाहे वह सत्य या विचार कितना भी सामाजिक मर्यादाओं, नियमों के विरुद्ध हो. लेकिन एक स्त्री को सामाजिक मर्यादा विरुद्ध सत्य या विचार लिखने के एवज में न सिर्फ मायके, ससुराल, रिश्तेदारों में अपनी मान-प्रतिष्ठा गंवानी पड़ेगी बल्कि उसे खौलते हुए सवालों के कड़ाह में भी फेंका जाएगा!
छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में कई शौचालय ऐसी हालत में हैं जिनका उपयोग नहीं किया जा सकता. दोनों फोटो: प्रतीक चौहान
बात इसी पंद्रह अगस्त की है. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्रचीर से दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की. वह ऐसा भाषण था जिसकी पूरे देश में चर्चा हुई. कई लोग इससे प्रभावित भी हुए होंगे लेकिन कुछ के लिए वह उनके पुराने जख्म कुरेदने वाला साबित हुआ. हम यहां राजनीतिक जख्मों की बात नहीं कर रहे हैं. दरअसल प्रधानमंत्री ने उस दिन बेझिझक स्वीकार करते हुए यह कहा था कि देश के अधिकांश स्कूलों में शौचालय नहीं हैं. यह बात छत्तीसगढ़ के धमतरी में रहने वाली 13 साल की सुनीता (बदला हुआ नाम) को इतना परेशान कर गई कि वे तुरंत रुआंसी हो गई. सुनीता बताती है, ‘ मुझे लगा जैसे प्रधानमंत्री मेरी ही बात कर रहे थे. हमारे यहां तो कोई सुनता-समझता ही नहीं कि हम लड़कियां को बिना शौचालय वाले स्कूलों में क्या झेलना पड़ता है. ‘ सुनीता बेशक राज्य की सभी लड़कियों की बात कर रही थीं लेकिन ऐसे स्कूल से जुड़ी खुद उनकी आपबीती हमारी शिक्षा व्यवस्था के एक खतरनाक पक्ष को उजागर करती है. एक साल पहले तक एक सरकारी स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा थीं. यहां लड़कियों का शौचालय नहीं है इसलिए वे स्कूल से कुछ दूरी पर खड़े खंडहर को शौचालय की तरह इस्तेमाल करती हैं. आमतौर पर लड़कियां यहां अकेले नहीं जाती बल्कि अपनी किसी सहेली के साथ जाती हैं. लेकिन एक दिन सुनीता को लघुशंका के लिए वहां अकेले जाना पड़ा. उन्हें इसबात का कतई अंदाजा नहीं था कि वह खंडहर उनके लिए किसी तरह खतरनाक साबित हो सकता है. सुनीता जब वहां नित्यकर्म से निवृत्त हो रही थीं तभी वहां कुछ लड़के आ गए जो शायद कई दिनों से यहां आनेवाली लड़कियों पर नजर रखे हुए थे. इससे पहले की सुनीता कुछ समझ पाती दो लड़कों उसे दबोच लिया. लेकिन शायद सुनीता की किस्मत कुछ अच्छी थी कि ठीक उसी समय स्कूल की कुछ और लड़कियां वहां आ गई और उनके शोर मचाने के बाद ये लड़के भाग गए. किसी अनहोनी घटना से बच जाना इस सातवीं की छात्रा के लिए बहुत अच्छी बात रही लेकिन इस घटना के बाद वह कभी स्कूल नहीं जा पाई. उसके माता-पिता आज भी ऐसे स्कूल में अपनी बेटी को भेजने के लिए तैयार नहीं है. उस घटना के बाद खुद सुनीता भी स्कूल नहीं जाना चाहती लेकिन उसे यह बात सालती रहती है कि अब वह किताबों की उस दुनिया में कभी नहीं लौट पाएगी जो उसे बहुत अच्छी लगती थी. प्रधानमंत्री के भाषण ने उसके इसी जख्म को अनजाने में ही फिर कुरेद दिया था.
यदि हम छत्तीसगढ़ में शिक्षा व्यवस्था के बुनियादी ढांचे को देखें तो यह बात साफ समझ में आती है यहां सुनीता जैसी एक नहीं बल्कि और भी लड़कियां होंगी जिन्होंने ऐसी ही कुछ घटनाओें की वजह से स्कूल जाना छोड़ा होगा. ऐसी लड़कियां की संख्या का कोई सीधा आंकड़ा तो दिया जाना मुमकिन नहीं है. लेकिन दूसरे आंकड़ों से यह बात साबित होती है कि राज्य में शौचालय विहीन स्कूलों की वजह से कई छात्र-छात्राओं को एक अलग तरह की दिक्कत का सामना करना पड़ रहा होगा.
ऊपर लिखी बातें हैरान इसलिए करती हैं क्योंकि कभी सूचना प्रोद्यौगिकी में तरक्की तो कभी धान के उत्पादन के लिए, तो कभी सावर्जनिक वितरण प्रणाली को कम्प्यूटरीकृत करने के लिए देश में अव्वल रहने वाला छत्तीसगढ़ अब पिछड़ा राज्य नहीं कहलाता. हर साल प्रति व्यक्ति आय में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी छत्तीसगढ़ की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक बनती जा रही है. राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011-12 में जहां राज्य की प्रति व्यक्ति आय 44 हजार 505 रुपए थी वह 2012-13 में 50 हजार 691 रुपए हो गई. वर्ष 2013-14 में यह 56 हजार 990 रुपए होने का अनुमान है. लेकिन इसके बावजूद छत्तीसगढ़ उन राज्यों में भी शुमार है, जहां हजारों स्कूलों में आज भी शौचालय नहीं हैं और जहां हैं, वे उपयोग करने लायक स्थिति में नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में 47 हजार 526 स्कूल हैं. इनमें 17 हजार से ज्यादा स्कूलों में छात्रों और छात्राओं दोनों के लिए शौचालय ही नहीं हैं. इनमें प्रदेश के 8 हजार 164 कन्या विद्यालय भी शामिल हैं. कुछ समय पहले रायपुर से अलग होकर नया जिला बना है गरियाबंद. यहां 1561 स्कूलों में से 604 स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय नहीं है, जबकि 206 स्कूलों में छात्रों के लिए शौचालय नहीं है.
सुनीता की तरह ही 17 वर्षीय राधा (बदला हुआ नाम) की पढ़ाई छूटने की वजह भी स्कूल में शौचालय न होना रहा है. राधा रायपुर के सबसे सघन इलाके मोदहापारा में रहती है. तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उसने कभी मुड़कर स्कूल की तरफ नहीं देखा. ऐसा नहीं है कि वह पढ़ना नहीं चाहती थी या उसके परिजन उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे. लेकिन राधा मजबूरी यह थी कि उसके स्कूल में शौच या लघुशंका के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी. ऐसे में पढ़ाई के दौरान अपने इन प्राकृतिक क्रियाकलापों को निपटाने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर स्थित अपने घर का रुख करना पड़ता था. यह ऐसी दिक्कत थी जिसका हल उसकी समझ से यही आया कि वह अपनी पढ़ाई छोड़ दे. उसके मां-बाप को भी यही ठीक लगा. आज तीसरी पास यह लड़की एक दफ्तर में चाय-पानी पिलाने का काम करती है और अपने आसपास पढ़ी लिखी लड़कियों को देखकर अफसोस करती है कि काश वह और आगे पढ़ पाती.
छत्तीसगढ़ में 47 हजार 526 स्कूल हैं. इनमें 17 हजार से ज्यादा स्कूलों में छात्रों और छात्राओं दोनों के लिए शौचालय नहीं हैं
राधा की कहानी में सबसे बड़ी विंडबना यह है कि वह तो प्रदेश की राजधानी रायपुर में रहती है. तब भी उसे उसके विद्यालय में शौचालय की सुविधा नहीं मिल पाई. इन हालात में उन लड़कियों की मुश्किल तो और भी ज्यादा है जो अल्पसंख्यक समुदाय से आती हैं. राधा की ही सहेली फौजिया (बदला हुआ नाम) (15 वर्ष) की भी यही कहानी है. फौजिया के पिता शेख उस्मान फलों का ठेला लगाते हैं. उस्मान अपनी इकलौती संतान को खूब पढ़ाना चाहते थे ताकि समुदाय में उनका मान सम्मान बढ़ सके. लेकिन शासकीय प्राथमिक शाला, कचना में पढ़ने वाली फौजिया ने पांचवीं के बाद ठीक उसी वजह से पढ़ाई छोड़ी जिस वजह से राधा ने स्कूल जाना बंद किया था. अब फौजिया नमकीन बनाने वाले एक कारखाने में काम करती है.
राधा और फौजिया के साथ ही अकेले रायपुर में हजारों लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने या तो स्कूल छोड़ दिया या फिर पढ़ाई के दौरान उस यातना को भोगने को मजबूर हैं, जिसकी तरफ आजादी के 67 साल बीतने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों ने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया.
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के हालिया सर्वे के मुताबिक अकेले रायपुर के 78 स्कूलों में छात्राओं और 220 स्कूलों में छात्रों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है. वहीं राजधानी के 1000 स्कूलों में छात्राओं के 583 और छात्रों के लिए बने 516 शौचालय खराब स्थिति में हैं. इन शौचालयों का इस्तेमाल करना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो गया है. यह स्थिति तब है जब रायपुर को राजधानी बने 13 साल बीत चुके हैं. मानव संसाधन मंत्रालय का सर्वे यह भी बताता है कि प्रदेश के जिन स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय बनाया गया था वे रख-रखाव के अभाव में अनुपयोगी हो चुके हैं. इनकी संख्या रायपुर में 583, कांकेर में 156, धमतरी में 150, बेमेतरा में 213, मुंगेली में 149 और बलौदाबाजार में 135, सूरजपुर में 503, बस्तर में 359, सरगुजा में 323, गरियाबंद में 235, कोरबा में 238, कोरिया में 189, जशपुर में 166 है. आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों की बात करें तो यहां हालत और भी बुरी है. बस्तर में 738, सूरजपुर में 683, सरगुजा में 560, गरियाबंद में 394, जशपुर में 369, कोरिया में 358 और कांकेर में 323 स्कूलों में शौचालय का निर्माण तो किया गया था लेकिन अब वे अनुपयोगी हो चुके हैं. इसी पखवाड़े की शुरुआत में राज्य के स्कूल शिक्षा मंत्री केदार कश्यप खुद भी शौचालय विहीन स्कूलों को लेकर चिंता जता चुके हैं. कश्यप ने नए रायपुर स्थित मंत्रालय में आला अफसरों की बैठक बुलाकर उन्हें जल्द से जल्द स्कूलों में शौचालयों के निर्माण के निर्देश दिए हैं. केदार कश्यप तहलका से कहते हैं, ‘यह सच है कि कई छात्राओं ने केवल इसी कारण स्कूल जाना छोड़ दिया. लेकिन हम उन लड़कियों के लिए भी किसी ऐसी योजना पर विचार कर रहे हैं, जो उनकी स्कूली पढ़ाई फिर से शुरू करवा सके.’ स्कूली शिक्षा के सचिव सुब्रत साहू का कहना है, ‘ प्रदेश के सभी स्कूलों में शौचालय की समुचित व्यवस्था की दिशा में काम शुरू कर दिए हैं. आने वाले समय में सभी स्कूलों में इसकी बेहतर व्यवस्था देखने को मिलेगी.’
भले ही स्कूल शिक्षा मंत्री स्कूल छोड़ रही छात्राओं पर दुख जता रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे इसे पहले नहीं रोक सकते थे. छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षा विभाग तीसरा ऐसा विभाग है, जिसका सालाना बजट दूसरे विभागों से कहीं ज्यादा होता है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य निर्माण के वक्त यानि वर्ष 2001-2002 में स्कूल शिक्षा विभाग का बजट केवल 813 करोड़ 58 लाख रुपये था, जो 2013-14 में बढ़कर 6 हजार 298 करोड़ रुपये हो गया है. बजट में जो बिंदु विशेष रूप से उल्लेखित किए गए हैं, उसमें कहीं भी शौचालय निर्माण को शामिल करने की जहमत भी नहीं उठाई गई है. जबकि शालाओं में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए (जिसमें प्रयोगशाला उपकरण के साथ फर्नीचर खरीदी को भी शामिल किया गया है) 175 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. जाहिर है कि मूलभूत सुविधाओं में शौचालय भी आता है, लेकिन इसके निर्माण में राज्य सरकार ने कुछ कम ही दिलचस्पी दिखाई है. छत्तीसगढ़ में लंबे समय से काम कर रहे है ऑक्सफैम इंडिया के कार्यक्रम अधिकारी विजेंद्र अजनबी कहते हैं, ‘स्कूलों में आवश्यक सुविधाओं का अभाव लड़कियों में कई बीमारियों को भी जन्म दे रहा है. हमारी टीम के सामने लगातार कई ऐसे मामले आए हैं, जो चिंताजनक हैं.’
अपने निर्माण के 13 साल बाद ही सही इस संवेदनशील मुद्दे पर राज्य सरकार सक्रिय होते दिख रही है. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं की ही नहीं बल्कि छात्र-छात्राओं से सहित उनके अभिभावकों की भी चिंताएं जल्दी दूर होंगी.
1998 से 2001 के बीच दिल्ली में नौकरी से हटाए गए होम गार्ड्स जवान
कब
2006 से
कहां
जंतर मंतर, नई दिल्ली
क्यों
‘आज मेरी उम्र 45 साल है. घर में दो बच्चे हैं. नौकरी तो गई लेकिन परिवार और अपने खर्चे तो बंद नहीं हुए. खाना चाहिए. बच्चों को स्कूल भेजना होता है. कम से कम दो वक्त की रोटी तो चाहिए ही. इसलिए अब हम दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. जब जैसा काम मिल जाता है, कर लेते हैं. दस-ग्यारह साल नौकरी करने के बाद आज मजदूरी करके पेट भर रहे हैं. मजदूरी करके रोटी कमाना और नौकरी पाने के लिए धरने पर बैठना. यही रोज का किस्सा है.’ चार लाइनों की यह आपबीती है 1990 में दिल्ली में होम गार्ड्स ज्वाइन करने वाले लक्ष्मी प्रसाद की. वे उन हजारों जवान में से एक हैं जिन्हें 1998 से 2001 के बीच कार्य मुक्त कर दिया गया. यह सब अचानक हुआ. किसी को कोई कारण नहीं बताया गया. बस एक दिन उनको सीधे-सीधे जानकारी दी गई कि उस दिन से वे अपनी सेवाएं समाप्त समझें. होम गार्डस एक तरह अर्धसैन्य बल है जिसका गठन पुलिस की मदद के लिए किया गया है. यह विभाग बंबई होम गार्ड्स अधिनियम, 1947 के प्रावधानों से संचालित होता है. इसके मुताबिक होम गार्ड्स ‘स्वंयसेवक’ का कार्यकाल तीन साल का होता है और इसके बाद स्वंयसेवक को कार्यमुक्त कर दिया जाता है लेकिन दिल्ली सहित देश कुछ दूसरे राज्यों में ऐसा हो नहीं रहा है.
आज की तारीख में होम गार्ड्स से पूरे आठ घंटे की ड्यूटी ली जाती है. तीन साल की जगह 10 साल और 15 साल तक सेवा ली जाती है और फिर उन्हें कार्यमुक्त कर दिया जाता है. देश के कई राज्यों में होम गार्ड्स को 60 साल की उम्र तक सेवा देने का प्रावधान है. लेकिन दिल्ली में 1998 के बाद से हर साल कुछ न कुछ पुराने होम गार्ड्स को हटा दिया जाता है फिर उनकी जगह नए लोगों की भर्ती होती है. विभाग इसके पीछे कानून का हवाला देता है लेकिन विरोध कर रहे जवान इसके पीछे भ्रष्टाचार को जिम्मेदार मानते हैं. दस साल तक होम गार्ड्स रहे और आज इस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे सुरेश कुमार कौशिक का मानना है कि ऊंचे पद पर बैठे अधिकारियों की मुट्ठी तभी गर्म होती है जब नए लोगों की बहाली होती है. आज तो लाख-लाख रुपये की घूस चलती है. सुरेश बताते हैं, ‘सीधा-सा हिसाब है. पुराने जाएंगे, तभी नए आएंगे. नए लोगों की बहाली होगी तो माल मिलेगा. इसी वजह से हम बाहर हैं. दस साल नौकरी बजाने के बाद सड़क पर धरना दे रहे हैं. कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं.’ इन जवानों की समस्या कई विभागों के बीच गोल-गोल घूम रही है. दिल्ली सरकार का कहना है कि होम गार्ड्स एक अलग विभाग है इसलिए वह ही इस बारे में फैसला लेगा.
संसद में पूछे गए एक सवाल (अतारांकित प्रश्न संख्या 2982, दिनांक: 11.03.2003) के जवाब में केंद्र सरकार कहती है कि ऐसे होमगार्ड्स जिन्हें कार्यमुक्त कर दिया गया है उन्हें फिर से सेवा में लिए जाने के लिए कार्यवाही शुरू हो गई है. लेकिन जब ये जवान इस बाबत दिल्ली होम गार्ड्स विभाग से संपर्क करते हैं तो विभाग कहता है कि ऐसी किसी कार्यवाही के बारे में उसे जानकारी नहीं है. यह सब जानकारी उन फाइलों के पुलिंदे में कैद है जिसे धरने पर बैठे ये जवान अपने पास रखे हुए हैं. कुछ मिनटों की बातचीत के बाद ये लोग इन कागजों को दिखाने लगते हैं. भूतपूर्व होम गार्ड्स जवानों में से एक का सवाल है, ‘अगर नहीं करना तो ये इतने साल से हमारे से साथ ऐसा मजाक क्यों कर रहे हैं. नेता कुछ कहते हैं. संसद कुछ कहती है और विभाग कुछ और ही बात समझाता है. हमें समझ नहीं आ रहा कि किसका भरोसा करें. क्या करें और क्या न करें?’ एक लंबी और बेहद थकाऊ लड़ाई के बाद इन लोगों को टूट जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं है. ये और मजबूती से एक साथ आए हैं. अपने अधिकारों के लिए. अपनी रोजी-रोटी के लिए. सुरेश कौशिक कहते हैं, ‘देखिए, कोई और रास्ता भी नहीं था. हम जान दे नहीं सकते थे. सो हमने लड़ने का फैसला किया. हम लड़ रहे हैं. रोज. घर के भीतर भी और बाहर भी. पता नहीं क्या होगा. लेकिन अब तो लड़ना भी नहीं छोड़ सकते. इसकी भी आदत हो गई है.’
यह घटना 1985 की है. तब मेरी तैनाती उत्तराखंड में चमोली जिले के अगस्त्यमुनि विकास खंड में थी. क्षेत्र में एक विभागीय बैठक के बाद मैं शाम के लगभग छह बजे रुद्रप्रयाग पहुंचा. इस कस्बे से अगस्त्यमुनि लगभग 20 किमी दूर है. शाम हो चुकी थी इसलिए बस मिलने का तो प्रश्न ही नहीं था, लेकिन उस दिन आमतौर पर चलने वाली कोई एंबेसडर कार भी नहीं दिख रही थी. पहाड़ों में सर्दियों में सात बजे लगभग अंधेरा हो जाता है इसलिए थोड़े इंतजार के बाद मैंने सोचा कि रात यहीं गुजारी जाए.
तभी सामने से मेरे एक पूर्व विभागीय मित्र बंशीलाल आते दिख गए, उनका घर भी अगस्त्यमुनि से कुछ पहले एक गांव में था. मैंने उन्हें कोई गाड़ी न होने की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि एक ड्राइवर उनका परिचित है जो हम दोनों को छोड़ देगा. बंशीलाल ने एक दुकान से फोन करके उसे बुलाया. वह आ गया और हम कार में बैठकर चल दिए. थोड़ी ही दूर जाकर ड्राइवर ने तेल भरवाने के लिए एक पेट्रोल पंप पर कार लगा दी. वहीं हमने देखा कि पंप से कुछ दूर एक इंस्पेक्टर सहित चार-पांच पुलिस वाले वाहनों की चेकिंग कर रहे थे. हमारे ड्राइवर ने तेल भरवाकर गाड़ी आगे बढ़ाई तो सामने खड़े पुलिसवाले ने हाथ देकर उसे रोक दिया और कहा कि वह गाड़ी के कागज इंस्पेक्टर से चेक करवाए.
लभगग 20 मिनट बाद ड्राइवर बड़बड़ाता हुआ लौटा. उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वह परेशान है. हम पांच मील आगे आ गए थे लेकिन वह अपने आप से बड़बड़ाए जा रहा था, अचानक उसने जेब से एक कागज निकाला तथा उसे पीछे बंशीलाल की तरफ बढ़ाते हुए बोला, ‘देखो तो साहब इन लोगों ने मुझे किस बात पर टांगा है.’
वह चालान पेपर था जिसमें लिखा था कि उसकी गाड़ी में ओवरलोडिंग (सात सवारी) है जबकि हम केवल दो व्यक्ति ही थे. ‘फिर पुलिसवालों ने कैसे चालान कर दिया,’ हम दोनों एकसाथ बोले, ‘अरे भाई तुमने बताया नहीं कि गाड़ी में सात सवारी कहां हैं? सिर्फ दो जन बैठे हैं?’
ड्राइवर ने पुलिसवालों को एक भद्दी गाली दी और बोला, ‘साहब अगर इनकी मुट्ठी गर्म करो तो सब ठीक है नहीं तो सब गलत है’
ड्राइवर ने पुलिस वाले को एक भद्दी गाली दी और बोला, ‘अरे साहब अगर इनकी मुट्ठी गर्म कर दो तो सब ठीक है, नहीं तो सब गलत है.’ बंशीलाल बोले, ‘गाड़ी मोड़ो और वापस चलो.’ ड्राइवर ने कहा, ‘कुछ नहीं होगा सर, उल्टे आपको बेइज्जत होना पड़ेगा.’ बंशीलाल मानने को तैयार नहीं थे. बोले, ‘होने दो, वापस लौटो.’
मैं भी इन सब लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता था, इसलिए मैंने भी कहा, ‘वहां जाकर कुछ नहीं होगा, उल्टा हमको भी कुछ सुनना पड़ेगा.’ लेकिन बंशीलाल नहीं माने. नतीजतन थोड़ी ही देर में हम वापस रुद्रप्रयाग में थे. बंशीलाल चालान पेपर हाथ में लेकर सीधे इंस्पेक्टर के पास गए और जाते ही बिना किसी प्रस्तावना के बोले, ‘अभी कुछ देर पहले यह चालान आपने किया है, किस वजह से? ओवरलोडिंग के कारण जबकि गाड़ी में केवल दो व्यक्ति थे, आपने ऐसा क्यों किया?’
इसंपेक्टर पुलिसिया अंदाज में बोला, ‘अरे तू है कौन जो इस ड्राइवर का वकील बनकर मुझे सिखा रहा है. हमें क्या करना है और क्या नहीं यह अब तुझसे पूछना पड़ेगा.’ बंशीलाल ने जवाब दिया, ‘मैं केवल एक पैसेंजर हूं. इस गाड़ी में केवल हम दो लोग बैठे थे.’ इंस्पेक्टर फिर गुर्राया, ‘अच्छा तुम केवल दो पैसेंजर थे.’ इसके बाद वह एक पुलिसवाले से बोला, ‘इनको ले चल थाने, गाड़ी होगी सीज और इन तीनों को वहीं बैठा, इनको नेतागिरी का शौक लगा है.’
मुझे काटो तो खून नहीं, ड्राइवर अलग परेशान. लेकिन बंशीलाल अविचल थे. वे बोले, ‘पहले तो तमीज से बात करो, फिर चलो जहां चलना है, लेकिन थाने जाने से पहले मैं आपके एसपी से जरूर बात करना चाहूंगा.’ यह कहने के साथ ही वे पेट्रोल पम्प कार्यालय के अंदर गए और वहां रखा फोन घुमाने लगे.
इंस्पेक्टर पल भर में ही जमीन पर आ गया. वह मुझसे बोला, ‘इन भाई साहब को समझाइए. इतना गुस्सा ठीक नहीं.’ फिर ड्राइवर से बोला, ‘ला इधर कागज.’ ड्राइवर ने वह चालान इंस्पेक्टर को पकड़ाया और इंस्पेक्टर ने उसके कई टुकड़े कर हवा में उछालते हुए ड्राइवर की तरफ देखते हुए कहा, ‘ले खुश! जा तू भी मजे कर.’
मैं पेट्रोल पम्प कार्यालय में गया तो देखा बार-बार नंबर डायल कर रहे बंशीलाल लाइन व्यस्त होने के कारण बुरी तरह झुंझला रहेे हैं. मैं लगभग धकियाते हुए उन्हें बाहर लाया. उनके चेहरे पर गुस्से, झुंझलाहट और प्रतिरोध के वही भाव पूर्ववत तैर रहे थे.
रात लगभग 10 बजे मैं अपने कमरे पर पहुंचा. लेकिन एक नई सीख के साथ कि अन्याय चाहे खुद के साथ हुआ हो या किसी और के साथ, उसका प्रतिरोध अत्यंत दृढ़ता के साथ किया जाना चाहिए.
–लेखक सेवानिवृत्त जिला समाज कल्याण अधिकारी हैं और देहरादून में रहते हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे न्यूज चैनल तब तक अंतर्राष्ट्रीय खबरों और वैदेशिक मामलों की कवरेज से परहेज करते हैं, जब तक कि कोई बहुत बड़ी घटना (जैसे युद्ध जिसमें अमेरिका शामिल हो या जैसा आतंकवादी हमला) न हो जाए. इस मामले में भारतीय चैनल सचमुच, ‘भारतीय’ हैं. आमतौर पर हमारे चैनलों की विदेश और वैदेशिक-कूटनीतिक रिपोर्टिंग की सीमा पाकिस्तान और बहुत हुआ तो चीन से आगे नहीं जाती है. लेकिन मजा देखिए कि इन्हीं चैनलों पर इन दिनों कभी भूटान, कभी नेपाल, कभी जापान और पिछले पखवाड़े अमेरिका छाया हुआ था.
सुर कुछ ऐसे थे जैसे चैनलों को अचानक इलहाम हुआ हो कि भारत दुनिया की एक बड़ी ताकत बन चुका है और अब महाशक्ति बनने की ओर है. कहना मुश्किल है कि यह कितने दिन रहेगा लेकिन उनका जोश देखते ही बनता है. उनके रिपोर्टरों/संपादकों में अचानक वैदेशिक/कूटनीतिक मामलों के कई जानकार निकल आए हैं और प्राइम टाइम पर भारत-जापान, भारत-चीन, भारत-अमेरिका संबंधों पर बहसें और चर्चाएं छा सी गईं हैं.
आखिर यह ह्रदय परिवर्तन कैसे हुआ? बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है. यह ‘न भूतो, न भविष्यति’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चमत्कार है. वे जहां जाते हैं, चैनल उनके आगे-पीछे रहते हैं. असल में, मोदी में खबर है और खबर में मोदी हैं. आजकल खबरें उन्हीं से शुरू होती हैं और उन्हीं से खत्म होती हैं. चूंकि पिछले चार महीनों में उन्होंने चार देशों की यात्राएं की हैं, चीन के राष्ट्रपति और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भारत आए, इसलिए चैनलों पर भी उनकी यात्राएं और मुलाकातें छाईं हुईं हैं. मजे की बात यह है कि अपने पूर्ववर्तियों के उलट मोदी विदेश दौरों पर पत्रकारों/संपादकों के भारी-भरकम दल को साथ नहीं ले जा रहे हैं. इसके बावजूद उनकी विदेश यात्राओं के लेकर चैनलों का अतिरेकपूर्ण उत्साह देखते बनता है. यह चमत्कार नहीं तो क्या है!
मोदी की ताजा अमेरिका यात्रा को ही लीजिए. टीवी पत्रकारिता के सभी स्वनामधन्य संपादकों, एंकरों और स्टार रिपोर्टरों सहित चैनलों की टीमें कई दिन पहले ही अमेरिका पहुंच गईं. आप किसी स्टार संपादक/एंकर/रिपोर्टर का नाम लीजिए और पूरी संभावना है कि वे उस दौरान न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर या पार्क या ह्वाइट हाउस के आसपास ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाती भीड़ के साथ ‘नमो-नमो’ करते दिखाई दें. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, यह अब तक सबसे बड़ा मीडिया दल था जो प्रधानमंत्री के दौरे को कवर करने अमेरिका पहुंचा था और उसने प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों की 24X7 कवरेज में कोई कोर कसर नहीं उठा रखा.
लेकिन इस कवरेज में हमेशा की तरह उत्साह अधिक और तैयारी कम थी. गल्प अधिक और तथ्य कम थे. तत्व कम और तमाशा अधिक था. ऐसा लग रहा रहा था कि यह प्रधानमंत्री मोदी की नहीं रॉकस्टार मोदी की यात्रा हो. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के स्टार पत्रकारों के पास इस यात्रा के राजनीतिक-कूटनीतिक निहितार्थों, प्रधानमंत्री और उनकी राष्ट्रपति ओबामा, इजरायली प्रधानमंत्री नेतान्याहू समेत अन्य राष्ट्राध्यक्षों, नेताओं और बड़ी कंपनियों के सी.ई.ओ से हुई मुलाकातों के बारे में तथ्यपूर्ण और ठोस जानकारियां कम थीं. जाहिर है कि घोषित बयानों/भाषणों और प्रेस रिलीज से आगे पर्दे के पीछे की कूटनीति के बारे में अनुमानों और कयासों से ही काम चलाया जा रहा था. देश ने इन मुलाकातों और शिखर वार्ताओं क्या खोया और क्या पाया- इसकी कोई बारीक तथ्यपूर्ण पड़ताल नहीं दिखी.
लेकिन चैनलों को इससे क्या लेना-देना? उनकी दिलचस्पी तो वैसे भी तमाशे में ज्यादा रहती है. जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं था कि वहां तमाशे का भी भरपूर इंतजाम था. चैनल हमेशा की तरह उसी में खुश थे. चलिए, बजाइए ताली-हो गई वैदेशिक-कूटनीतिक रिपोर्टिंग!
मत बन ओशो, अच्छा नहीं ये शो रितिक रोशन नए रजनीश ओशो हैं. फिल्म इंडस्ट्री के ओशो. लेकिन वे जितने अच्छे अभिनेता हैं, बतोलेबाजी में उतने ही खराब ओशो. दुख किसके जीवन में नहीं है, हारता कौन नहीं है, घर में दरारें किसके नहीं हैं, लेकिन रितिक अपनी परेशानियों को फिल्म के लिए की जाने वाली पीआर से आगे ले जाकर दर्शकों को इरीटेट करने वाला ओशो-छाप प्रवचन बना देते हैं. एक सामान्य सवाल के जवाब में पूरा हस्तिनापुर बसा देते हैं, त्रासदी की कथा वाचना के साथ. ‘बैंग बैंग ने व्यक्तिगत परेशानियों का सामना करने में मेरी मदद की.’ ‘बैंग बैंग मेरी सबसे बड़ी विजय है, उसका पूरा होना ही विजय है.’ ‘विषम परिस्थितियां ही, संघर्ष या दर्द, आदमी के दिमाग की मसल्स को मजबूत बनाती हैं. जैसे आप शरीर के लिए जिम जाते हैं, विषम परिस्थितियां आपके दिमाग के लिए जिम हैं.’ क्या है ये सब आखिर? एक सेंसिबल अभिनेता दुनिया को यह दिखाने के लिए कि वह पाजिटिव है और संघर्ष से हार नहीं मानता आखिर इतना बैचेन क्यों हैं? गंभीर शोध तो बनता है!
अभिनय की ऐसी की तैसी! कैटरीना सबकुछ करेंगी. बहन इसाबेल की फिल्मों में मदद. लांच के वक्त महंगी कारों के रुख से परदा हटाना. जरूरत पड़ने पर सलमान से मदद लेना. सर्जरी कराकर लौटे रणबीर कपूर का ध्यान रखना. शॉपिंग करना. बैंग बैंग के लिए एक्शन सीन्स करना. उन एक्शन सीन्स को अभिनय बताकर उसकी पीआरगीरी करना. अपनी भविष्य की ननद करीना कपूर की तारीफ करना. बैंग बैंग को अपने जीवन की कठिनतम फिल्म बताना. लेकिन वे अभिनय नहीं करेंगी. बैंग बैंग भी धूम 3 की तरह करेंगी, जैसा कि फिल्म के ट्रेलर से विदित है, और आगे भी वे ही फिल्में करेंगी जो भले ही उनसे अच्छा अभिनय न मांगें, उनकी खूबसूरती मांगें, उनका नृत्य मांगें. लेकिन इसमें उनका भी पूरा कसूर नहीं है. जब लोग-बाग सिर्फ उनका कमली गाना देखने के लिए धूम 3 जैसी फिल्म तीन बार देखने जाते हैं, आलोचना आलू-चना खाकर सो जाती है, और कैट जैसे सुपरसितारे फिल्मों में अभिनय की जरूरत पर सवाल अपनी मुस्कान से हर जगह उठाते नजर आते हैं.
काजोल काहे तुम ऐसी घनघोर? काजोल की तुनकमिजाजी से सब वाकिफ हैं. कई सालों तक अच्छे अभिनय की आड़ में वे कभी कुनकुनी तुनकती रहीं कभी उबल के तुनकती रहीं. लेकिन जैसे-जैसे करण जौहर सरीखों ने उनका साथ छोड़ा उनके तुनकने का तना कम चौड़ा होता गया. अब हाल ये है कि एक प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए हाल ही में हुई शूटिंग के दौरान सभी उनका प्यार से भरापूरा व्यवहार देखकर दंग रह गए. वे समय से आईं, और नन्हे-मुन्ने बच्चों के सही शॉट देने का पेशेंस से इंतजार करती रहीं. कलयुग से सतयुग में जाने की जल्दी रखने वाले जरा रुकें. कुछ दिन बाद, एक दूसरे विज्ञापन की शूट के दौरान वे पुराने घनघोर रूप में फट से लौट आई, और सहायकों पर ऐसे जमकर चिल्लाई जैसे चिली खाकर आईं हों. जब डायरेक्टर ने उनसे एक सीन के लिए दूसरा टेक देने को कहा, काजोल ने उन्हें ऐसे घूरा जैसे डायरेक्टर ने टेक नहीं चाय देने को कहा. अच्छा हुआ डायरेक्टर ने तमीज से अभिनय करने को नहीं कहा, वरना…!
एलबमः हैदर
गीतकार » गुलजार, फैज अहमद फैज
संगीतकार » विशाल भारद्वाज
एलबमः हैदर गीतकार » गुलजार, फैज अहमद फैज संगीतकार » विशाल भारद्वाज
हैदर का ‘आओ न’ पांच के ‘सर झुका खुदा हूं मैं’ की ऊंचाई का गीत है. और बस यही सर्वश्रेष्ठ है कहा ही था कि बाकी के गीत आंखें तरेरते खड़े हो गए. अच्छी चीजों का घमंड भी अच्छा ही होता है. बाकी के अच्छे-गजब गीतों में ‘सो जाओ’ मरे हुए लोगों का गीत है, कश्मीर की वह त्रासदी कहता गीत जिसे गुलजार-विशाल ही गीत बना सकते थे. अद्भुत को छोटा शब्द बना देने वाला गीत. रूह में चुभकर सुकून छीनने वाला गीत. बाद इसके ‘बिसमिल’ है, हैदर के आक्रोश को दुनिया के लिए कमाल तरीके से मंचित करता, कहानी कहता और उसपर नाचता नचवाता. गवाता. तीन गीत बाद फैज के ‘गुलों में रंग भरे’ को मेंहदी हसन से गाने के सबक लेकर गाते अरिजित हैं, और उतना ही सुख देते हैं जितना सर्दी में अदरक डले गर्म दूध के साथ गुड़ की डेली. वे इसके बाद ‘खुल कभी’ गाते हैं, और हम सुनना विशाल को चाहते हैं, फिर भी उन्हें सुनते जाते हैं, बस अनगिनत से थोड़े कम बार. झुमका-झूमकर की तुकबंदी संग गुलजार की तपती इमेजरी की दुकान है ये गीत. अगले दो गीत ‘त्रासदी नदी की भी है इंसान की भी’ सिखाते हैं. सालों से अपने किनारों पर जुल्म होते देख रही झेलम को विशाल भारद्वाज ‘झेलम’ गीत बनाकर बहा देते हैं. आप बह सकें साथ तो बहें, नहीं तो सहें. लेकिन सारे दुख जो हम सहते हैं छोटे लगते हैं जब रेखा भारद्वाज फैज की नज्म ‘आज के नाम’ गाती हैं. मां, ब्याहताओं, हसीनाओं, बेवाओं के दर्द को चादर पर बिछाकर धूप में सुखाने रख देने वाला यह रूदन-गीत दिल ठहरा देता है, सृष्टि के बाकी दर्दों को झुठला देता है. आखिर में सुरेश वाडेकर हैं. बादल सी मुलायम उनकी आवाज है और उतना ही मुलायम गीत है. ‘दो जहान’, जो हमारी किस्मत से हमारे जहान में है.
आइए, इंस्पेक्टर साहब. मुझे शुबहा था कि आप लोग मेरे घर भी जरूर आएंगे. इलाके में जितने मुसलमान हैं, उनमें से ज्यादातर के दरवाजों पर आप पहले ही दस्तक दे चुके हैं. खैर, यह तो बता दीजिए कि मेरा जुर्म क्या है?
क्या कहा? आपको मुझ पर भी शक है? तो आइए और मेरे घर की तलाशी भी ले लीजिए, हालांकि मैं पहले ही बता दूं कि मैं एक गरीब दर्जी हूं. शहर में हुए बम-धमाकों से मेरा कोई लेना-देना नहीं.
जनाब, उधर तसबीह लिए बैठे सहमे बुजुर्गवार मेरे वालिद हैं. नहीं-नहीं, उनका भी शहर में हुए बम-धमाकों से कुछ भी वास्ता नहीं. पुलिसवालों को अपने घर में घुस आया देखकर जैसे कोई भी आम इंसान सहम जाता है वैसे ही वो भी सहम गए हैं.
जी, जनाब! ये दोनों बच्चे मेरे ही हैं. मदरसे में पढ़ते हैं. आप लोगों को देखकर डर गए हैं. उस कोने में मेरी बच्ची है जो बुर्के में खड़ी अपनी मां की टांगों से चिपकी हुई है. घर में किसी को समझ नहीं लग रही है कि हमारे यहां पुलिस क्यों घुस आई है. पर आप अपना काम कीजिए, जहां चाहे तलाशी लीजिए.
क्या कहा, जनाब? आप अलमारी खोलकर देखना चाहते हैं? शौक से देखिए. हर घर में जो आम चीजें होती हैं, बस वैसी ही कुछ चीजें अलमारी में रखी हैं. वह हमारी ऐल्बम है, साहब. आप जानना चाहते हैं कि उसमें यह फोटो किसकी है? यह मेरा छोटा भाई है, हुजूर, जो हाल ही में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों में मारा गया था. नहीं-नहीं, आप गलत समझ रहे हैं. वह दंगाई नहीं था. वह पुलिस-फायरिंग में नहीं मारा गया था. वह बेचारा तो शहर के कॉलेज में पढ़ता था. दंगाइयों ने उसे फसाद के समय छुरा मार दिया था. मेरे वालिद इस सदमे से अपनी आवाज खो बैठे. वो आपके सवालों के जवाब नहीं दे पाएंगे. आप अपने सारे सवाल मुझसे पूछिए.
अच्छा, आप जानना चाहते हैं कि कोने में पड़े ट्रंक में क्या है? जनाब, एक गरीब दर्जी के यहां आपको क्या मिलेगा? कुछ पुराने कपड़े-लत्ते हैं एक-दो पुरानी दरियां हैं. एक-दो फटे हुए कम्बल हैं, जो सर्दियों में काम आते हैं.
आइए, आइए, आप खुद ही तलाशी ले लीजिए. हुजूर, वह कुरान शरीफ है और अब जो किताबें आपने उठा रखी हैं वो मेरे बच्चों की किताबें हैं. आप किताबें खोलकर देख रहे हैं. देखिए, देखिए. किताबों में और कुछ नहीं है.
ये किताबें उर्दू में क्यों हैं? साहब, हमारे यहां तो उर्दू में लिखी किताबें ही मिलेंगी. ये किताबें आपने जब्त कर ली हैं? क्यों, हुजूर? क्या उर्दू किताबें घर में रखना जुर्म है? क्या कहा? आपको उर्दू नहीं आती और आप किसी उर्दू के जानकार से ये किताबें पढ़वाएंगे. कहीं इनमें मुल्क के खिलाफ कुछ न लिखा हो, इसलिए? आप ख्वामखाह शक कर रहे हैं. लाइए, मैं ही पढ़ देता हूं. ये ऊपर वाली तो अलिफ, बे वाली किताब है. नीचे वाली किताब में कुछ नज्में हैं. क्या कहा? आपको मेरी बात पर यकीन नहीं. जैसी आपकी मर्जी, साहब. अब मैं आपको कैसे यकीन दिलाऊं?
नहीं, नहीं, जनाब! मैंने कहा न, वो मेरी बीवी है. बुर्के में क्यों है? जनाब, हमारे यहां घर की औरतें गैर-मर्दों के सामने बुर्के में ही रहती हैं. ये हमारा रिवाज है. नहीं, आप उसका चेहरा नहीं देख सकते. माफ कीजिएगा, मैं इस बात की इजाजत आपको नहीं दूंगा. क्या कहा? आपको मेरी बीवी पर शक है? आप उसकी तलाशी लेना चाहते हैं. इसके लिए आप जनाना-कांस्टेबल लेकर आइए.
अरे, आप तो नाराज हो गए. मेरी बात का बुरा मत मानिए, इंस्पेक्टर साहब. मोहल्ले वाले पहले ही गली में खड़े हैं. इलाके में आपकी तलाशी की वजह से लोगों में पहले ही जबर्दस्त गुस्सा भरा है. अगर मोहल्ले के लोगों को पता चला कि घर की औरत की बेइज्जती हुई है तो इसी बात पर यहां दंगा हो जाएगा, जो मैं नहीं चाहता.
नहीं-नहीं, हुजूर, मैं आपको डरा नहीं रहा, सिर्फ हालात से वाकिफ करवा रहा हूं. क्या कहा? आप लेडी-पुलिस बुला रहे हैं? जरूर बुलाइए, साहब. इसमें मुझे क्या एतराज हो सकता है.
हां, इंस्पेक्टर साहब, यह हिंदोस्तान का झंडा है. क्या कहा, जनाब? हमने अपने घर में मुल्क का परचम क्यों रखा है? साहब, क्या अपने मुल्क का परचम अपने घर में रखना जुर्म है? यह झंडा मेरा भाई ले कर आया था. उसे क्रिकेट का बहुत शौक था. जब भी हिंदोस्तान की टीम का कोई मैच शहर में होता था, वह मुल्क का परचम ले कर मैच देखने जरूर जाता था. जब हमारी टीम जीत रही होती थी, तब मेरा भाई शान अपने मुल्क का झंडा लहराता था. जब से भाई दंगे में मारा गया है, यह परचम घर में यूं ही पड़ा हुआ है. क्या करूं, जनाब? भाई की याद आती है तो रोना आ जाता है.
क्या कहा, साहब? झंडे को इस तरह से मोड़कर कोने में रखना झंडे की बेइज्जती है? उसका अपमान है? इस बात के लिए आप हमारे खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं? इंस्पेक्टर साहब, मैं तो एक गरीब दर्जी हूं. मुझे मुल्क के कायदे-कानून की बारीकियां नहीं पता. पर हमारे यहां सभी अपने मुल्क के परचम की इज्जत करते हैं. देश के झंडे की बेइज्जती की बात हम सोच भी नहीं सकते. जनाब, एक बात पूछूं? आपकी वर्दी कैसे फट गई है? इस पर कालिख और दाग-धब्बे कैसे लग गए हैं? आपको नई वर्दी की सख्त जरूरत है. आप जब वर्दी सिलवाएं तो मेरे पास आइएगा. मैं आपके लिए एक उम्दा वर्दी सिल दूंगा.
नहीं, नहीं, साहब, आप गलत समझ रहे हैं. मैं आपको रिश्वत नहीं दे रहा. अल्लाहतआला ने हाथ में कुछ हुनर दिया है. किसी के काम आ सकूं तो अच्छा लगता है.
क्या कहा, जनाब? मैं बहुत बोलता हूं? नहीं हुजूर, बोलते तो हमारे मुल्क के लीडर हैं. बहुत बोलते हैं, बस करते कुछ नहीं हैं.
आप भीतर के कमरे की तलाशी लेना चाहते हैं? शौक से लीजिए. हम आपसे क्या छिपाएंगे? हमारे पास है ही क्या छिपाने के लिए.
एक बात पूछूं, इंस्पेक्टर साहब? जब भी कभी शहर में दहशतगर्द कोई बम-धमाका कर देते हैं, तब आप और आपकी पुलिस हम लोगों के इलाकों में तलाशी की मुहिम शुरू कर देती है. हर याकूब, नफीस और अशफाक जैसों के घरों की तलाशी ली जाती है. पर इंस्पेक्टर साहब, धमाकों के बाद आप ओंकारनाथ, हरिनारायण और श्यामसुंदर जैसों के घरों की तलाशी लेने कभी नहीं जाते. ऐसा क्यों है साहब? क्या अपने मजहब की वजह से आपकी निगाह में हम सभी दहशतगर्द हो गए हैं? किसी और के जुर्म की सजा आप मुझे क्यों देना चाहते हैं?
नहीं, नहीं, इंस्पेक्टर साहब! नाराज मत होइए. अगर मेरी बातें आपको बुरी लगी हों तो माफी चाहता हूं. मेरी बीवी भी कहती है कि मैं खरी बात मुंह पर कह देता हूं. यह भी नहीं देखता कि किससे बात कर रहा हूं. वह देखिए, मेरी बीवी उधर कोने में से मुझे इशारा कर रही है कि मैं चुप हो जाऊं.
ठीक है, जनाब! आपने मेरे घर में उथल-पुथल मचा दी है, पर मैं चुप रहूंगा. आपके सिपाहियों के बूटों और डंडों की आवाज से सहमकर मेरे दोनों बेटे थर-थर कांप रहे हैं, पर मैं चुप रहूंगा. सिपाहियों को देख कर मेरी छोटी बच्ची का डर के मारे फ्राक में ही पेशाब निकल गया है, पर मैं चुप रहूंगा.
आप पुलिसवालों को घर में घुस आया देखकर मेरे बूढ़े वालिद सहम गए हैं और उनकी आंखों में भरा धुंधलका कुछ और बढ़ गया है. डर के मारे उन्हें दिल का दौरा पड़ सकता है, पर मैं चुप रहूंगा. अपने घर में आपको तलाशी लेता देखकर मेरा बीपी भी बढ़ गया है. मुझे सांस लेने में तकलीफ हो रही है, पर मैं चुप रहूंगा. आपकी तलाशी की मुहिम से मेरी बीवी घबराई हुई और सकते में है. वह बेचारी समझ नहीं पा रही कि हमने कौन-सा जुर्म किया है जिसकी वजह से पुलिस हमारे घर में घुस आई है. बुर्के के भीतर से झांकती उसकी सहमी आंखों में डर भरा है, पर मैं चुप रहूंगा. कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि आपके सामने मेरी औकात ही क्या है? आप मुझे पकड़कर न जाने कौन-कौन से जुर्म में कौन-कौन सी दफाओं के तहत जेल में बंद कर सकते हैं. आप हवालात में मेरी पिटाई करके मुझसे कुछ भी कबूल करवा सकते हैं. मैं गरीब आदमी हूं. मामूली दर्जी हूं. किसी को नहीं जानता. मेरी तो कोई जमानत भी नहीं कराएगा. इन्हीं सब वजहों से मैं चुप रहूंगा. आप मेरे घर में भूचाल ला दीजिए. आप मेरी छोटी-सी दुनिया में अफरा-तफरी मचा दीजिए. तो भी मैं चुप रहूंगा. तुम ठीक कहती हो बच्चों की अम्मा. अब मैं चुप रहूंगा. कोई शिकायत नहीं करूंगा. आम आदमी चुपचाप सहते रहने के सिवा कर ही क्या सकता है?
क्या हुआ, इंस्पेक्टर साहब? हमारे घर की तलाशी में आपको कुछ नहीं मिला? यकीन मानिए, आप हमारे मन की तलाशी लेंगे तो भी खाली हाथ ही लौटेंगे. हमारे मन में अब कोई उम्मीद नहीं बची. हमारी आंखों में अब कोई सपने नहीं बचे हैं.
क्या कहा, जनाब? मुझ जैसों को ‘टाडा’ या ‘पोटा’ में बंद कर देना चाहिए.
आप साहब हैं. पुलिस अफसर हैं. आप कुछ भी कह सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं. पर आपकी ऐसी बातें मुझे चुप भी तो नहीं रहने देतीं. कुछ लोग औरंगजेब के कामों की सजा अब हमें देना चाहते हैं. आप ‘लश्कर -ए-तयबा’ या ‘हूजी’ के दहशतगर्दों की तलाश में हम जैसे बेकसूर आम लोगों के घर पर छापे मारते हैं. अंधाधुंध गिरफ्तारियां करने लगते हैं. हम पर क्या बीतती है, कभी आपने सोचा है?
इंस्पेक्टर साहब, आप मुझ पर बिना सबूत के शक क्यों कर रहे हैं? मेरा जुर्म क्या है? क्या यह कि मैं इस मुल्क में एक गरीब, कम पढ़ा-लिखा मुसलमान हूं? या यह कि मेरा नाम अब्दुल्ला है, रामनारायण नहीं?
खाली हाथ! कांग्रेस कार्यालय परिसर में अब कोई गहमागहमी नहीं दिखती. फोटो: विकास कुमार
कुछ समय पहले लोकसभा सत्र के दौरान एक वीडियो के सामने आने पर काफी हो हल्ला मचा था. वीडियो में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सदन में चल रही महंगाई पर चर्चा के दौरान सोते हुए दिखाई दिए. मीडिया और कांग्रेस के आलोचकों ने मामले पर चुटकी लेते हुए कहना शुरू किया कि देखिए कैसे सदन में इतनी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही है और कांग्रेस के ‘पीएम इन वेटिंग’ खर्राटे भर रहे हैं. कांग्रेस जैसा कि अपेक्षित था राहुल की बंद आंखों के पीछे का अध्यात्म समझाती नजर आई. कोई राहुल द्वारा आंखें बंद करने को उनके गहन चिंतन में लीन होना बता रहा था तो कोई यह कहते हुए मानव शरीर का विज्ञान समझा रहा था कि नींद तो प्राकृतिक जरूरत है, आंख तो किसी की भी लग सकती है. कुछ कांग्रेसी वीर आगे बढ़कर वे तमाम तस्वीरें और वीडियो ले आए जिनमें अलग-अलग समय पर भाजपा समेत अन्य दलों के नेता आंख बंद कर नींद का आनंद ले रहे थे. इन सबके बीच कांग्रेसियों का एक धड़ा ऐसा भी था जो राहुल के सोने को पार्टी की सोई हुई किस्मत से जोड़ रहा था. इस तबके का कहना था कि जिसके हाथ में पार्टी की कमान है अगर वही सो रहा है तो पार्टी की स्थिति क्या होगी.
राहुल सो रहे थे या चिंतन में लीन थे यह तो वही बता सकते हैं लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से आज के दिन तक के कांग्रेस के सफर पर नज़र डालने से पता चलता है कि 16 मई को आए परिणामों में पार्टी की जो दुर्गति हुई उसे बीते करीब सौ दिनों में और गति मिली है.
हार के बाद के कांग्रेस के प्रदर्शन को मुख्य रूप से दो आधारों पर देखा जा सकता है. पहला हिस्सा पार्टी और उसकी आंतरिक स्थिति से जुड़ा है. दूसरा सदन और सड़क पर विपक्ष के नाते उसके प्रदर्शन से संबंधित है.
भीतर केे हाल पार्टी के रूप में कांग्रेस के 16 मई के बाद से आज तक के सफर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनावों में उसकी हार ने उसके भीतर पहले से पल रहे गुस्से को जुबान दे दी. कैसे चुनाव में पार्टी की हुई बुरी हार से उसके नेताओं को पार्टी लाइन के इतर कुछ और कहने की हिम्मत मिल गई. सबसे पहले पार्टी के पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा ने पार्टी की हार के लिए दबी जुबान में राहुल को जिम्मेवार ठहराया. देवड़ा ने यह कहते हुए राहुल पर हमला बोला कि सलाहकारों से गलत सलाह लेने वाला व्यक्ति भी उतना ही जिम्मेवार है जितना गलत सलाह देकर चुनाव हरवाने वाले सलाहकार.
जैसे-जैसे समय गुजरता गया पार्टी नेताओं का नेतृत्व पर हमला भी बढ़ता गया. हार से पचासवें दिन के आसपास पंजाब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जगमीत बरार का बयान आया कि राहुल गांधी और सोनिया को अगले दो सालों तक पार्टी की कमान छोड़कर देश भ्रमण पर निकल जाना चाहिए. उन्हें पार्टी की कमान किसी और के हाथों में सौंप देनी चाहिए. मीडिया में आए बरार के बयान में उन्हें यह कहते बताया गया कि सोनिया और राहुल कुछ समय तक पार्टी को बख्श दें तो उसकी स्थिति जरूर बेहतर हो जाएगी. अपनी इन बातों के साथ ही बरार ने अध्यक्ष के लिए 10 साल से अधिक का कार्यकाल नहीं होने की भी मांग की. बरार ने सार्वजनिक तौर पर यह आरोप भी लगाया कि कांग्रेस के बड़े नेता आम कार्यकर्ताओं के साथ आवारा कुत्तों से भी बदतर व्यवहार करते हैं.
केरल में कांग्रेस के कई नेता सार्वजिनक तौर पर मोदी सरकार की तारीफ करते दिखे. स्थिति यह थी कि इसको लेकर कांग्रेस में ही वहां लडाई हो गई. केरल कांग्रेस मोदी प्रशंसकों और मोदी विरोधियों में बंट गई
इधर बरार हाईकमान को कमान छोड़ने की सलाह दे रहे थे तो दूसरी तरफ केरल में पार्टी नेता टीएच मुस्तफा राहुल गांधी को जोकर बताते नजर आए. यही नहीं पिछले चार महीनों में केरल कांग्रेस ने कई मौकों पर मोदी सरकार की तारीफ की है. हाल ही में ईराक से नर्सों को सुरक्षित भारत लाने पर केरल में कांग्रेस के कई नेता सार्वजिनक तौर पर मोदी सरकार की तारीफ करते दिखे. स्थिति यह थी कि इसको लेकर कांग्रेस में ही वहां लड़ाई हो गई. केरल कांग्रेस मोदी प्रशंसकों और मोदी विरोधियों में बंट गई.
हंगामा उस समय भी मचा जब कुछ समय पहले ही पार्टी के महासचिव और कभी राहुल गांधी के गुरु बताए जाने वाले दिग्विजय सिंह ने उनपर यह कहते हुए सवाल खड़ा कर दिया कि कैसे राहुल की शासक वाली तबीयत नहीं है और कैसे राहुल में मुखरता की कमी के कारण पार्टी लोगों की नजरों में कमजोर दिखी. इस वजह से चुनाव में युवा राहुल जैसे 44 साल के युवा की तरफ आकर्षित होने की बजाय 64 साल के मोदी की तरफ चले गए.
बीते 120 दिनों में राहुल की क्षमताओं को लेकर सार्वजिनक रूप से लगातार प्रश्न उठते रहे. उन पर सवाल उस समय भी उठा जब पार्टी ने लोकसभा में अपने नेता के रूप में दक्षिण से आने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे का चुनाव किया. पार्टी का एक बड़ा वर्ग इससे सहमत नहीं था. इसका कहना था कि चूंकि चुनाव में पार्टी का चेहरा राहुल थे और उसकी जीत की स्थिति में वे ही प्रधानमंत्री बनते तो नेता विपक्ष की जिम्मेवारी भी उन्हीं को लेनी चाहिए. दिग्विजय सिंह ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि अगर राहुल को पार्टी का नेतृत्व करना है तो उन्हें सामने आकर करना चाहिए.
बीते सौ-सवा सौ दिनों में पूरे नेतृत्व को लेकर प्रश्न तो उठे ही, राहुल गांधी को लेकर पार्टी के भीतर हताशा, संदेह और नाराजगी वाले सवालों की सूची और बढ़ती गई. लेकिन राहुल इस दौरान एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पार्टी के एक कार्यकर्ता के मुताबिक ‘माटी के माधव’ ही बने रहे. ऐसा नहीं था कि राहुल को लेकर पार्टी नेताओं की हताशा बीते 100 दिनों की ही उपज है. संदेह और ‘राहुल से न होगा’ जैसी भावना पार्टी के कई नेताओं में बहुत पहले से थी लेकिन लोकसभा के परिणामों ने उसे और मजबूती दे दी. बाकी की कसर खुद राहुल ने हार के बाद अपनी निष्क्रियता से पूरी कर दी है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘पहले से ही कार्यकर्ताओं में राहुल को लेकर कोई जोश नहीं था. लेकिन सब हां में हां मिलाते रहे. लेकिन जब आप चुनाव हार गए और आप प्रधानमंत्री नहीं बन सकते लेकिन आगे वही बनने का आपका ख्वाब है तो फिर संसद में पार्टी को लीड करो ना भाई. वहां क्यों पीछे भाग रहे हो. उनके इस कदम से कार्यकर्ताओं में रहा सहा भ्रम भी दूर हो गया है. नेता में संघर्ष करने और जिम्मेदारी उठाने का दम होना चाहिए जो उनमें नहीं है.’
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई इसे राहुल के पार ले जाने की बात करते हैं. वे कहते हें, राहुल ही नहीं लोकसभा चुनावों में हार ने सबसे बडा प्रश्न पूरे गांधी परिवार पर लगाया है. पूरी फैमली फ्लॉप साबित हुई है.’
हालाकि रशीद के विपरीत ऐसी सोच वालों की कमी नहीं है जिन्हें प्रियंका गांधी उम्मीद के तौर पर दिखाई दे रही हैं. 16 मई के बाद के दिनों में ‘प्रियंका लाओ, पार्टी बचाओ’ का नारा पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की तरफ से और भी बुलंद हुआ है. तमाम शहरों में इस आशय के पोस्टर बैनर दिखाई दे रहे हैं. पार्टी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग मुखर होकर यह कहने लगा है कि अब राहुल से नहीं होगा और प्रियंका ही पार्टी का बेड़ा पार लगा सकती हैं. ऐसा नहीं है कि प्रियंका में प्रताप बस कार्यकर्ताओं को ही दिख रहा है. कुछ समय पहले ही पार्टी के वरिष्ठ नेता और महासचिव जनार्दन दिवदी ने प्रियंका पर बयान देते हुए कहा था कि प्रियंका गांधी की बचपन से ही राजनीति में रुचि है. द्विवेदी का कहना था, ‘जहां तक मुझे जानकारी है, राजनीति में प्रियंका की रुचि बहुत कम उम्र से ही थी. वे राजनीतिक घटनाओं की गहराई को शुरू से ही समझना चाहती थीं. प्रियंका की राजनीतिक समझ के बारे में 1990 में ही राजीव जी ने मुझे बता दिया था.’
जनार्दन दिवदी के इस बयान के कुछ समय बाद ही पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता ऑस्कर फर्नाडिस ने प्रियंका को और सक्रिय भूमिका दिए जाने की वकालत की. उनका कहना था कि प्रियंका को पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. उनमें बहुत क्षमता है. ऑस्कर के बाद पूर्व मंत्री जयराम रमेश भी प्रियंका को राहुल से अधिक करिश्माई बताते हुए प्रियंका लाओ मुहिम में शामिल होते दिखे.
‘प्रियंका लाओ, पार्टी बचाओ’ वाली इस मुहिम में सबसे आगे इलाहाबाद के कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं. ‘कांग्रेस का मून, प्रियंका कमिंग सून’ सरीखे पोस्टर वहां पिछले 100 दिनों में कई दफा दिखाई दिए. इलाहाबाद के कांग्रेस कार्यकर्ता अजय तिवारी कहते हैं, ‘ देखिए राहुल भैया का टेस्ट दूसरा है. वो अलग टाइप के इंसान हैं. सीधे आदमी हैं. अभी की जो राजनीति हो रही है उसको प्रियंका दीदी सही से हैंडिल कर सकती है.’
खैर, इस तरह से पूरी पार्टी में एक धड़ा मजबूती से प्रियंका को पार्टी का चेहरा बनाने की मांग कर रहा है. चुनाव हारने के बाद पिछले 100 दिनों में यह मांग और मुखर हुई है. लेकिन इसका सबसे मजेदार पहलू यह है कि जैसे ही यह चर्चा गर्म होती है प्रियंका खुद इस पर पानी डाल देती हैं. प्रियंका के ऐसा करने को पार्टी के एक नेता उनकी मजबूरी बताते हैं.
कांग्रेस के शैडो ट्विटर अकाउंट्स को जनता ने कितनी गंभीरता से लिया ये उन अकाउंट्स के फॉलोवर्स की संख्या देखकर पता चलता है. किसी के 22 फॉलोवर हैं तो किसी के 24 या 64
‘प्रियंका भी जानती हैं कि पार्टी कार्यकर्ता क्या चाहते हैं. लेकिन जब सोनिया जी ही कह देती हैं कि प्रियंका अमेठी और रायबरेली तक सीमित रहेंगी तो फिर प्रियंका के पास विकल्प क्या बचता है. सोनिया जी ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन लिया है. वो राहुल हैं. अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया. अब या तो प्रियंका पावर के लिए अपनी मां और भाई से युद्ध करें जोकि वो कर नहीं सकतीं.’ गांधी परिवार के करीबी एक कांग्रेसी नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘अपनी तरफ से घरवाले जो दे दें लेकिन भारतीय समाज में लड़कियां घरवालों से अपना हिस्सा नहीं मांगती क्योंकि उन्हें डर होता कि ऐसा करने के बाद जब वो अगली बार मायके आएंगी तो कोई उन्हें पानी के लिए भी नहीं पूछेगा. इसी मनःस्थिति से प्रियंका भी जूझ रही हैं.’
प्रियंका के पक्ष में हो रही बयानबाजी और लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल पर लगातार हो रहे हमलों के कारण पार्टी के भीतर अलग युद्ध चल रहा है. राहुल की लगातार हो रही आलोचना और प्रियंका से उनकी तुलना के कारण कांग्रेस के भीतर राहुल कांग्रेस का भी तेजी से उदय हुआ है. आज से लगभग 30 दिन पहले पार्टी के तकरीबन 16 पार्टी सचिवों ने कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी से मुलाकात की. इन सचिवों की मांग थी कि राहुल के खिलाफ जो भी पार्टी के बड़े नेता बयानबाजी कर रहे हैं उनको तत्काल ऐसा करने से रोका जाए. सारे महासचिवों और वरिष्ठ नेताओं को उनकी तरफ से एक चिट्ठी भेजी जाए कि किसी रूप में सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी की आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाएगी. अगर बयानबाजी बंद नहीं हुई तो इन नेताओं से भी उनके राजनीतिक जीवन का हिसाब-किताब लिया जाएगा. और यह सब सार्वजनिक होगा. द्विवेदी सचिवों के इस आक्रामक रवैये से हतप्रभ थे. उन्होंने इस मांग स्वीकारते हुए सारे महासचिवों और कई वरिष्ठ नेताओं को इस बाबत चिट्ठी भेज दी.
राहुल के बचाव में उतरी सचिवों की टीम को पुराने और नए कांग्रेसियों के बीच बढ़ती तकरार से जोड़ कर भी देखा जा सकता है. राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘पार्टी अब दो खेमों में बंट गई हैं. एक तरफ सोनिया कांग्रेस है तो दूसरी तरफ राहुल कांग्रेस. दोनों समूहों में तनातनी जारी है.’
जानकार बताते हैं कि इस तनातनी की शुरूआत उसी समय हो गई थी जब राहुल ने पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की बात शुरु की. पार्टी के एक सचिव कहते हैं, ‘ पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल के प्रयोगों से हमेशा नाखुश रहे. राहुल ने पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने की जो पहल शुरू की उससे ये लोग हमेशा नाराज रहे. क्योंकि पहले ये अपने पिट्ठुओं को एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में भरते थे. आम कांग्रेसी को कभी उसमें जगह नहीं मिलती थी. अगर सही मायने में कांग्रेस संगठन का लोकतांत्रीकरण हो गया जो कि राहुल चाहते हैं और संगठन के चुनाव होने लगे तो इन लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगी.’
लोकसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी के भीतर संगठन के चुनाव कराने की चर्चा एक बार फिर गर्म हुई थी. पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद कमलनाथ का कहना था कि कांग्रेस की स्थिति सुधारने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि वर्किंग कमिटी का चुनाव किया जाए. पहले एक निर्वाचित वर्किंग कमिटी बनाई जानी चाहिए. बकौल कमलनाथ, ‘हमें पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है. लेकिन पार्टी में कई ऐसे नेता है जो इसका विरोध करते हैं. एक बार चुनाव हो जाएं तो फिर ऐसे लोगों को संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा.’
कमलनाथ और पार्टी के कई अन्य नेताओं के संगठन के चुनाव कराने संबंधी बयान आने के बाद राहुल ने उससे सहमति जताई थी. उनका कहना था कि उनका प्रयास है कि पार्टी में ब्लॉक स्तर से लेकर अध्यक्ष पद तक के लिए चुनाव होना चाहिए. पार्टी के एक युवा नेता कहते हैं, ‘राहुल की इसी सोच के कारण ये नेता लोकसभा हारने के बाद उनके पीछे पड़े हुए हैं. ये लोग हर सार्वजनिक मंच पर राहुल को नाकाबिल ठहराने में लगे हैं. ये कांग्रेसी राहुल की राजनीतिक हत्या करना चाहते हैं. ये लोग प्रियंका जी के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं. राहुल विरोधी इन कांग्रेसियों ने ही हाल में मीडिया में यह खबर प्लांट कराई कि राहुल अपनी बहन प्रियंका के बड़े बेटे को गोद लेने वाले हैं. और अब वही उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी होगा.’
चुनाव हारने के बाद पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती इस रूप में भी आई कि उसके कई नेता उसका दामन छोड़कर या तो बाहर जा चुके हैं, या ऐसा करने की तैयारी कर रहे हैं. एक महीने पहले ही 45 साल से पार्टी का झंडा-डंडा उठाकर घूमने वाले हरियाणा के खांटी कांग्रेसी नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह ने पार्टी को अलविदा कह दिया. बीरेंद्र, सोनिया के समर्थन में कांग्रेस छोड़कर तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गए थे. महाराष्ट्र में कुछ समय पहले शिवसेना से पार्टी में आए नारायण राणे आर या पार की मुद्रा में आ गए थे. खुद को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी मांग से निपटने के लिए पार्टी को बहुत पापड़ बेलने पड़े. असम में पार्टी की करारी हार के बाद तरुण गोगोई ने सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंपा जिसे सोनिया ने खारिज कर दिया. सोनिया के इस्तीफा खारिज करने संबंधी निर्णय का असम में पार्टी के कई विधायकों ने सरेआम विरोध किया. वहां स्वास्थ्य मंत्री हिमांता बिस्व सर्मा समेत कई कांग्रेसी इस्तीफा देकर बाहर जा चुके हैं.
पिछले कुछ समय में हुए उपचुनाव पार्टी के लिए थोड़ी राहत जरूर लेकर आए. उसे उत्तराखंड, बिहार, कर्नाटक, राजस्थान में हुए उपचुनावों में सफलता मिली. पार्टी की वरिष्ठ नेता और यूपी की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, ‘देखिए तेजी से लोगों का मोदी सरकार से मोहभंग हो रहा है.
इसी का नतीजा आपको उपचुनावों में दिखाई दिया है. हमारा कार्यकर्ता फिर से खड़ा हो रहा है.’
जोशी को भले लगता है कि उनका कार्यकर्ता खड़ा हो रहा है लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी स्थानीय स्तर पर अधिकांश राज्यों में पार्टी हताशा का माहौल है. आनेवाले दिनों में हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले हैं. पार्टी इन दोनों जगहों पर लंबे समय से सत्ता में है. पार्टी हारती है या जीतती है यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा लेकिन इन राज्यों में उसकी गतिविधियों को देखें तो लगता है कि वह मनोवैज्ञानिक तौर पर पहले ही हार चुकी है. हरियाणा में एक पार्टी कार्यकर्ता केवल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘पार्टी ने लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी कोई सबक नहीं लिया. आप देख ही रहे हैं पिछले तीन महीने से क्या चल रहा है. बडे नेता तो अपनी-अपनी नौकरियों पर वापस चले गए. किसी ने वकालत शुरु कर दी तो किसी ने कुछ और. गरीब कार्यकर्ता के पास क्या विकल्प बचा है. लोकसभा चुनाव में जो हुआ वो तो हुआ ही उसके बाद तो हालत और खराब होती जा रही है.’ केवल जैसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है जो पार्टी की दिन-प्रतिदिन हो रही फजीहत को देखने के लिए अभिशप्त हैं.
पिछले चार महीने में पार्टी नेताओं की गतिविधियों को देखें तो उससे नेतृत्व के अभाव के साथ ही पार्टी नेताओं की आपसी खींचतान का भी प्रमाण मिलता है. उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार ने जैसे ही पी सदाशिवम का नाम केरल के राज्यपाल के लिए फाइनल किया, कांग्रेस की तरफ से इस पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं. पार्टी नेता आनंद शर्मा ने जहां इसकी जमकर आलोचना करते हुए इसे गलत ठहराया वहीं पूर्व मंत्री मनीष तिवारी भाजपा के इस फैसले में कोई भी कानूनी गड़बड़ी नहीं है जैसा स्टैंड लेते नजर आए.
पार्टी में अव्यवस्था का क्या आलम है यह साक्षी महाराज के बयान से उपजे विवाद के समय भी पता चला. भाजपा नेता साक्षी महाराज द्वारा मदरसों पर दिए विवादित बयान के बाद पार्टी का एक धड़ा कुछ भी बोलने से बचता रहा. उसे लगता था कि इससे वे भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले जाल में फंस सकते हैं. वहीं मनीष तिवारी और राशिद अल्वी जैसे नेता भी थे जो साक्षी महाराज की उच्चतम स्वर में आलोचना करते दिखाई-सुनाई दिए. इस घटना के बाद ही पार्टी के संचार सेल प्रमुख अजय माकन ने ट्विट कर कहा कि पार्टी के प्रवक्ताओं को ही केवल पार्टी का दृष्टिकोण रखने का अधिकार है. माकन ने लगे हाथ पार्टी के प्रवक्ताओं की सूची भी जारी कर दी.
‘अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया’
माकन के इस कदम को पार्टी के एक धड़े ने मुंह बंद रखने की धमकी के तौर पर देखा. लेकिन जिन मनीष तिवारी और राशीद अल्वी के कारण यह किया गया था वे चुप होने वालों में नहीं थे. कुछ समय बाद ही तिवारी का बयान आ गया कि वे पार्टी के बहुत पुराने कार्यकर्ता हैं और उन्हें अपनी बात रखने से कोई नहीं रोक सकता.
बयानों के कारण पार्टी की फजीहत उस समय भी हुई जब जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि 60-70 साल के कांग्रेसी नेताओं को सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए. द्विवेदी के बयान को आनन फानन में पार्टी ने उनका निजी बयान बताकर राहत की सांस ली.
ऐसे उदाहरण पार्टी की उस दशा की तरफ ही इशारा करते हैं जहां नेतृत्व या तो नहीं है या फिर उसमें पहले वाली ताकत नहीं. एक भ्रम की स्थिति है. शीर्ष के कमजोर होने के कारण चीजें अधिक लोकतांत्रिक तो हो जाती हैं लेकिन उनके अराजक होने का खतरा बना रहता है.
संसद में और सड़क पर
संसद में और सड़क पर विपक्ष के रूप में कांग्रेस ने अभी तक अपनी भूमिका कुछ उसी तरह निभाई है जैसी हमारे अधिकांश बॉलीवुड कलाकार हॉलीवुड की फिल्मों में निभाते दिखते हैं. यानी उनका वहां होना न होना एक बराबर ही है.
चुनाव परिणामों ने जब पार्टी की झोली में कुल जमा 44 सीटें सौंपी उसी दिन से उसमें चर्चा शुरू हो गई कि सरकार तो गई ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के भी लाले पड़ गए हैं. नेता प्रतिपक्ष के लिए 55 सीटों का होना जरूरी है. खैर पार्टी को जब पता चला कि अधिकार के तौर पर तो उसे नेता प्रतिपक्ष का पद मिलने से रहा सो उसने नैतिकता की दुहाई देनी शुरू कर दी. लेकिन भाजपा कांग्रेस के इस चक्कर में नहीं फंसी. पार्टी ने शुरू में ही अनौपचारिक तौर पर यह मैसेज दे दिया कि वह उस कांग्रेसी परंपरा को बनाए रखना चाहती हैं जिसमें संख्या कम होने पर विपक्ष को स्थान देने की गुंजाइश नहीं हुआ करती है.
कांग्रेस के पिछले चार महीने से अधिक के कार्यकाल का 95 फीसदी हिस्सा रागदरबारी के लंगड़ की तरह धर्म की उस लड़ाई में चला गया जिसमें पार्टी नैतिकता के आधार पर सत्ता पक्ष से नेता प्रतिपक्ष का पद देने की मांग करती रही. ऐसे में भाजपा सरकार बिना किसी खास विपक्षी ब्रेकर के टॉप गियर में ही चलती रही. कांग्रेस के साथ यहां दोहरा संकट था. पहला यह कि उसे नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए गिड़गिड़ाना पड़ रहा था. दूसरा भाजपा उसे विपक्ष के रूप में भी स्वीकार नहीं कर रही थी. वह विपक्षी दलों में एआईएडीएमके, बीजू जनता दल और तृणमुल कांग्रेस जैसे दल यहां तक कि सपा तक को संबोधित करती नजर आती थी, लेकिन कांग्रेस कांग्रेस की अनदेखी कर रही थी.
कांग्रेस के लिए इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह थी कि उसके जैसे ही विपक्ष में बैठी हुई पार्टियां भी उससे दूर भाग रही थीं. टीएमसी और एआईएडीएमके जैसी पार्टियों ने स्पीकर से विनती की कि सदन में सीटों का निर्धारण होते समय उन्हें कांग्रेस के साथ बैठने के लिए सीटें नहीं दी जाएं. ये पार्टियां कांग्रेस के साथ कहीं से जुड़ती हुई नहीं दिखना चाहती थीं. यहां तक कि लोकसभा की जिस उपसभापति की कुर्सी पर बैठने के अरमान कांग्रेस संजो रही थी उस पर पानी फेरते हुए भाजपा ने वह भी जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके को दे दी.
इस तरह से भाजपा ने तो सदन में कांग्रेस को हाशिए पर फेंका ही अन्य विपक्षी दलों ने भी उसे अछूत मानकर उससे दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझी. इसका उदाहरण उस समय भी दिखा जब मोदी के प्रिंसिपल सेक्रेट्री नृपेंद्र मिश्रा की अध्यादेश के माध्यम से हुई नियुक्ति पर संसदीय मोहर लगाने का समय आया. कांग्रेस सभी विपक्षी दलों से इसकी खिलाफत करने की साझा रणनीति बनाती रही. लेकिन तृणमूल और सपा-बसपा जैसी पार्टियों ने – जिन्होंने लोकसभा में इसका विरोध किया था – यूटर्न मारते हुए राज्यसभा में अध्यादेश समर्थन कर दिया.
जिन एक-दो मौकों पर कांग्रेस लोकसभा में थोड़ा सक्रिय दिखी उनमें से एक था मल्लिकार्जुन खड़गे का वह संबोधन जिसमें उन्होंने कांग्रेस को सौ कौरवों के सामने पांच पांडवों के समान बताया था. इसके अलावा राहुल भी जब सांप्रदायिक हिंसा पर चर्चा की मांग को लेकर लोकसभा के वेल में उतरे तो सदन के बाहर चर्चा का माहौल गर्म हो गया. लेकिन जब इसपर सदन में चर्चा हुई तो उन्होंने उस चर्चा में हिस्सा नहीं लिया. इन गिने-चुने अवसरों के अलावा कांग्रेस सदन में वही कर रही थी, जो करते हुए कैमरे ने राहुल गांधी को पकड़ा था. यानी वह सो रही थी.
पार्टी का बचाव करते हुए रीता कहती हैं, ‘देखिए विरोध के लिए अभी बहुत जल्दी है. हम सरकार के कामों पर नजर बनाए हुए हैं. जहां जरूरी होगा वहां जरूर हम विरोध करेंगे. हम पूरी तरह सक्रिय हैं.’
रीता भले सक्रियता की बात करें लेकिन सदन के बाहर सड़क पर भी कांग्रेस मोदी सरकार को किसी मुद्दे पर न तो सही से घेरते हुई दिखी और न ही दिल्ली दरबार पहली बार परिचित हो रहे नरेंद्र मोदी को अपने 10 साल के प्रशासनिक अनुभव के आधार पर कोई सलाह ही दे पाई. जो थोड़ा-बहुत उसने कुछ किया भी तो ऐसा था मानों किसी ने कनपटी पर बंदूक रखवाकर कराया हो. उल्टा, वह अपनी हरकतों से हास्य का संचार जरूर करती नजर आई.
उदाहरण के लिए. प्रधानमंत्री मोदी जब जापान यात्रा पर गए थे उसी समय राहुल गांधी अमेठी गए हुए थे. वहां लंबे समय से जनता बिजली कटौती से त्रस्त थी. सो सांसद महोदय को देखा तो अपना रोष व्यक्त करने लगी. जनता का गुस्सा देख राहुल ने मामला मोदी के सिर मढ़ने की ठानी. मीडिया से कहा कि आप देख रहे हैं देश की जनता कैसे बिजली कटौती से जूझ रही है लेकिन मोदी जी जापान में जाकर ड्रम बजा रहे हैं. जनता ने राहुल के बयान पर क्या सोचा यह तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया पर लोग उनके इस बयान पर मनोरंजन करते जरूर दिखे.
जो राहुल गांधी पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा थे और जिनके ऊपर भाजपा को घेरने की प्राथमिक जिम्मेवारी थी, वे पिछले सवा-सौ दिन ईद का चांद बने रहे. राहुल से 20 साल ज्यादा उम्र वाले मोदी ने जहां चुनावों में उनसे ज्यादा रैलियां की, ज्यादा दूरी कवर की और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे छुट्टी पर जाते नहीं दिखे वहीं राहुल पिछले चार महीने में अधिकांश समय छुट्टी पर ही रहे. औपचारिक रुप से उनके बारे में मीडिया क्या बताएगा जब उनकी पार्टी के नेताओं को ही पता नहीं रहता कि वे देश में हैं भी कि नहीं. पूरी पार्टी को शर्मिंदा करने वाला वह वाकया लोगों के जहन में ताजा होगा जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदाई भोज से राहुल गायब थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ शर्मनाक उनका गायब रहना नहीं था बल्कि ये था कि पार्टी के लोगों को पता ही नहीं था कि वे कहां हैं.’
पिछले चार महीनों में न तो राहुल ने कोई प्रेस कॉंफ्रेंस की और न ही सरकार के किसी कदम की मजबूत आलोचना. यहां भी मोर्चा संभालने का काम सोनिया गांधी ने ही किया. वे ही भाजपा की सांप्रदायिकता से जनता को आगाह करती नजर आईं. स्थिति को ऐसे समझा जा सकता है कि मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी.
मोदी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर कांग्रेस ने एक रचनात्मक कदम उठाते हुए दर्जन भर सरकारी मंत्रालयों के शैडो ट्विटर अकाउंट जरूर बनाए. यहां विशेषज्ञों की सेवा लेते हुए वह इन मंत्रालयों की कथित नाकामियां सामने लाती दिखी. लेकिन कांग्रेस के इस प्रयास को जनता ने कितनी गंभीरता से लिया ये उन ट्विटर अकाउंटों के फॉलोवरों की संख्या देखकर पता चलता है. किसी के 22 फॉलोवर हैं तो किसी के 24 या 64.
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘पिछले चार महीनों में कांग्रेस हर मोर्चे पर फेल ही दिखाई दी है. पूरी पार्टी में हताशा का भाव है. न उसमें कहीं कोई जिम्मेदारी उठाता दिख रहा है और न ही जल्द इसमें बदलाव की ही सूरत दिख रही है.’
मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी
एक तरफ जहां मोदी सरकार की रचनात्मक आलोचना से पार्टी चूकती दिखाई दी वहीं उसके नेता समय-समय पर मोदी सरकार की प्रशंसा करके पार्टी की फजीहत भी कराते रहे. मोदी सरकार के शपथ लेने के एक महीने के भीतर ही तिरुअनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने मोदी की तारीफ करके पूरी पार्टी को सकते में डाल दिया. थरूर ने अपने एक लेख में लिखा ‘ बहुमत मिलने के बाद मोदी और बीजेपी के जिस रवैये का विरोधी दलों को अंदेशा था वह गलत साबित हुआ है. बीजेपी ने पुराने तरीकों को त्याग कर सभी को चौंका दिया है. मोदी के सकारात्मक रवैये के साथ सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश की हम प्रशंसा करते हैं और इस बदलाव की अनदेखी करना गलत होगा.’ थरूर के इस लेख के सामने आते ही कांग्रेस में हड़कंप मच गया. किसी को उम्मीद नहीं थी कि उनकी अपनी पार्टी का नेता एक महीने में ही मोदी सरकार को इस तरह का प्रशंसा पत्र भेंट करेगा. कांग्रेस थरूर की प्रशंसा से कितना बौखलाई थी यह मणिशंकर अय्यर के बयान से साबित हो जाता है. अय्यर ने थरूर की आलोचना करते हुए कहा कि उनके इस बयान के बाद लोकसभा में पार्टी की संख्या 44 से 43 हो गई है.
कुछ दिनों बाद ही थरूर ने एक बार फिर हंगामा तब मचाया जब मोदी सरकार में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से मुलाकात के बाद उन्होंने ट्वीट किया. थरूर ने लिखा कि भारत की शैक्षणिक चुनौतियों पर ईरानी के साथ अच्छी चर्चा हुई. मैं समर्पित और मिलनसार मंत्री की सराहना करता हूं. मानव संसाधान विकास मंत्रालय के लिए शुभकामनाएं.’ थरूर के इस ट्वीट के बाद फिर से कांग्रेस के कई नेता सफाई देते और मांगते दिखाई दिए.
अभी कुछ समय पहले ही कांग्रेस तब अवाक रह गई जब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का ठीक उस समय एक बयान आया जब बीजेपी जोड़-तोड़ करके दिल्ली में अपनी सरकार बनाना चाहती थी, शीला का कहना था, ‘लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें हमेशा अच्छी होती हैं क्योंकि वे लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. और अगर बीजेपी सरकार बना सकती है तो यह दिल्ली के लिए अच्छा है.’ शीला के इस बयान से पहले तो पूरी पार्टी सकते में आ गई. फिर अपनी चिढ़ को छुपाते हुए पार्टी नेताओं ने कहा कि ये शीला जी के अपने विचार हैं. शीला द्वारा कांग्रेस को दिए इस जख्म पर भाजपा ने यह कहकर नमक रगड़ा कि शीला जी वरिष्ठ राजनेता हैं अगर कुछ कह रही हैं तो इसका मतलब है.
कांग्रेस को शीला दीक्षित से मिले जख्म अभी हरे ही थे कि दिग्विजय सिंह ने उस पर एक और हमला कर दिया. हाल ही में कश्मीर में आई बाढ़ और उससे मची त्रासदी को लेकर कांग्रेस मोदी सरकार पर हमलावर थी. तर्क वही पारंपरिक थे कि सरकार सो रही थी. लोगों को राहत नहीं मिल रही है. सरकार त्रासदी को लेकर गंभीर नहीं है आदि आदि. लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पार्टी लाइन को छोड़कर किसी और पटरी पर ही दौड़ने लगे. दिग्विजय ने कश्मीर बाढ़ में मोदी सरकार के कार्यों की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि मोदी के पीओके में राहत पहुंचाने की पेशकश की भी खूब तारीफ की. इसके अलावा जिस जन-धन योजना को कांग्रेस अपनी पिछली सरकार का आइडिया बता रही थी उसके लिए दिग्विजय सिंह ने मोदी सरकार की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की.
फजीहत कराने के इस क्रम में कमलनाथ भी पीछे नहीं रहे. विनोद राय के इंटरव्यू से 2जी मामले में एक बार फिर शुरू हुई चर्चा के बीच कमलनाथ का बयान आया कि कैसे उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर 2जी आवंटन के बारे में चेताया था. कमलनाथ ने कहा, ‘मैंने उस वक्त प्रधानमंत्री को लेटर लिखकर 2जी आवंटन को लेकर आगाह किया था. यह लेटर सरकारी फाइलों में है’. अपने ही पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में पार्टी के ही वरिष्ठ नेता की टिप्प्णी से कांग्रेस एक बार और शर्मसार हुई.
करीब 125 दिनों के इसी कालखंड में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश मोदी को भारत का रिचर्ड निक्सन बताते नजर आए. एक साक्षात्कार में जयराम ने मोदी की तारीफ करते हुए कहा, ‘ मोदी में भारत के रिचर्ड निक्सन के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता है. जिस तरह से निक्सन ने चीन को अमेरिका के लिए खोला, उसी तरह से मोदी में क्षमता है और वह चीन और पाकिस्तान से डील करते समय निक्सन जैसा बन सकते हैं. इन देशों से डील करने में जो आज़ादी मोदी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास नहीं थी.’
हाल ही में मोदी के अमेरिका यात्रा पर उनके दिए भाषणों पर भी कांग्रेसी नेता विभाजित दिखे. एक धड़ा जहां मोदी के भाषणों की सार्वजनिक तौर पर तारीफ करता दिखा वहीं पार्टी का दूसरा वर्ग आलोचना कर रहा था. इस तरह से एक तरफ जहां कांग्रेस का एक धड़ा मोदी और उनकी सरकार की समय समय पर पिछले 125 दिनों में प्रशंसा करता दिखा वहीं पार्टी के दूसरे नेता दूसरे सुर में बात करते दिखाई दिए. इसे कांग्रेस समर्थक परिवक्वता और पार्टी में लोकतंत्र का उदाहरण बता सकते हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता.
आने वाले समय में कांग्रेस किस दिशा में आगे बढ़ेगी या उसने पिछली हार से कितना सीखा है इसका पता उस एंटनी कमेटी रिपोर्ट से भी चलता है जिसको लोकसभा चुनाव में हार के कारणों को पता लगाने की जिम्मेदारी दी गई थी. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि चुनाव में हार के लिए पार्टी का नेतृत्व अर्थात राहुल गांधी और सोनिया गांधी किसी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. नेतृत्व से कोई गलती नहीं हुई. अपनी रिपोर्ट में एंटनी ने नेतृत्व के अलावा पूरी कायनात को कांग्रेस की हार का जिम्मेवार ठहरा दिया. ऐसे आत्मनिरीक्षण के दम पर पार्टी का कल आज से कितना बेहतर होगा आने वाला समय ही बताएगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे पर प्रचार की इतनी धूल-धुंध छाई हुई है कि उसका ठीक-ठीक और तटस्थ मूल्यांकन मुश्किल हो गया है. बेशक, ऐसी यात्राओं का प्रतीकात्मक मूल्य अक्सर उनके वास्तविक मूल्य से बड़ा होता है और वह बाद में इस वास्तविक मूल्य को निर्धारित करने में भी मदद करता है, लेकिन प्रतीकात्मक ढंग से भी इस पूरी यात्रा पर जिस तरह का मोदीमेनिया हावी रहा, उससे यह समझना आसान नहीं रह गया है कि हम इस पूरे दौरे को किस निगाह से देखें.
इसमें शक नहीं कि आज की दुनिया में भारत की मजबूत होती हैसियत की वजह से नरेंद्र मोदी के इस दौरे की अपनी एक अहमियत रही. इसमें भी शक नहीं कि भारत में उन्हें जो विराट बहुमत मिला है, वह कहीं न कहीं उस भरोसे से प्रेरित रहा है जो नरेंद्र मोदी लोगों के भीतर जगाने में कामयाब रहे- लेकिन यह भरोसा जितना देसी धरती पर जनमा है, उससे ज्यादा उस विदेशी धरती पर, जहां अनिवासी भारतीयों का एक बहुत बड़ा समुदाय नरेंद्र मोदी से बिल्कुल किसी जादू की उम्मीद लगा बैठा है. यही वजह है कि नरेंद्र मोदी का अमेरिका दौरा जितना अमेरिकियों या बराक ओबामा के लिए महत्वपूर्ण था, उससे कई गुना ज्यादा महत्वपूर्ण इस अनिवासी समुदाय के लिए था- खासकर इसलिए भी कि कहीं न कहीं इस समुदाय के भीतर 2005 में नरेंद्र मोदी को वीजा न दिए जाने की कसक रही और वह इस तथ्य में प्रगट भी हुई कि नरेंद्र मोदी के लिए 2014 में वही कुर्सी तैयार रखी गई, जिस पर 2005 के अपने दौरे में उन्हें बैठना था. इसी अनिवासी भारतीय समुदाय ने नरेंद्र मोदी के लिए मैडिसन स्क्वेयर को मोदीसन स्क्वेयर में बदल डाला.
निस्संदेह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी नरेंद्र मोदी के दौरे को अहमियत दी, इसका प्रमाण यह तथ्य है कि दोनों ने मिलकर वाशिंगटन पोस्ट में एक साझा टिप्पणी लिखी जिसे पहले संपादकीय का नाम दिया जा रहा था. आजकल नरेंद्र मोदी जो कुछ भी करते है, उसे ऐतिहासिक करार दिए जाने की बहुत ख़तरनाक बीमारी के प्रति एक सुचिंतित दूरी बरतते हुए भी यह कहना पड़ेगा कि यह कदम वाकई इस मायने में ऐतिहासिक है कि पहले ऐसी कोई दूसरी मिसाल याद नहीं आती जब दो राष्ट्राध्यक्षों ने मिलकर किसी साझा लेख पर अपनी मुहर लगाई हो. यह प्रश्न गौण है कि उस लेख में कहा क्या गया, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा रिश्तों के स्तर पर इतने करीब आए या दिखने की कोशिश करते रहे जिसमें वे साथ-साथ लेख तक लिख सकते हैं.
तो नरेंद्र मोदी की एक बड़ी उपलब्धि तो यही है कि उन्होंने बराक ओबामा के साथ ऐसी संगति बिठाई जो बिल्कुल बराबरी पर दिखाई पडती है. बेशक, मोदी की इस हैसियत के पीछे भारत में उनको मिले विराट बहुमत के अलावा अमेरिका में बसे 33 लाख भारतीय प्रवासियों की लगातार मजबूत हो रही आर्थिक-सामाजिक और कुछ हद तक राजनीतिक पकड़ का भी हाथ है जिन्हें बराक ओबामा की पार्टी नजरअंदाज नहीं कर सकती. अमेरिका में बसे 40 लाख चीनियों के बाद भारतीयों की तादाद सबसे बड़ी है और कई इलाकों में उनकी राजनीतिक हैसियत भी अहमियत रखती है. इस हैसियत को ध्यान में रखते हुए बराक ओबामा के लिए यह मुमकिन नहीं था कि भारतीय प्रधानमंत्री पांच दिन के लिए अमेरिका की धरती पर आएं और उन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाए.
लेकिन क्या वाकई अमेरिका भारत या नरेंद्र मोदी के आगे उस तरह बिछा या नतमस्तक दिखाई देता रहा जैसा भारतीय मीडिया अमेरिका में बसे भारतीयों की मार्फत दिखाता और बताता रहा? दरअसल मोदी के अमेरिका दौरे के मूल्यांकन की सीमाएं और मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं. भारतीय मीडिया जैसे बताता रहा कि ओबामा को नरेंद्र मोदी का बेसब्री से इंतज़ार है. जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका या बराक ओबामा की तात्कालिक चिंता भारत या दक्षिण एशिया की नहीं, पश्चिम एशिया की राजनीति है जहां आइएस जैसा खूंखार आतंकवादी संगठन बाकायदा अपना राज स्थापित करता दिखाई पड़ रहा है. लीबिया से इराक तक सबकुछ तहस-नहस करने के बाद अमेरिका पा रहा है कि इन आतंकवादियों को रोकने में उसकी मदद भी अब तक कारगर नहीं हो पाई है. इसके अलावा सीरिया, सऊदी अरब, ईरान और इराक के उलझे हुए राजनीतिक समीकरणों के बीच कोई शांतिपूर्ण समाधान भी फिलहाल नज़र से दूर है. इन सबसे अलग अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तालिबानी पट्टी अमेरिका का एक और सिरदर्द है.
बराक ओबामा ने सिर्फ नरेंद्र मोदी के लिए अपना दस्तरखान बिछाया हो, ऐसा नहीं है. इस साल रमजान के महीने में वे छह बार वाइट हाउस में इफ्तार डिनर दे चुके हैं और एक दिन उपवास भी रख चुके हैं. जाहिर है, उन्हें मालूम है कि अमेरिका की बदनीयती या नेकनीयती या नासमझी की वजह से इस्लामी दुनिया में उसके प्रति जो शत्रु भाव पैदा हुआ है, वह हथियारों से नहीं, दूसरी तरह के सरोकारों से ही ख़त्म होगा. लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत की उनके लिए कोई अहमियत ही नहीं है. 70 और 80 के दशकों में अमेरिका के लिए एशिया में जो हैसियत चीन रखता था, वह अब भारत की है. चीन अब अमेरिका के लिए दोस्त से ज्यादा प्रतिद्वंद्वी है और इस विशाल प्रतिद्वंद्वी की पूरी घेराबंदी के लिए अमेरिका को भारत जैसे विशाल देश से ज्यादा उपयुक्त साथी और कौन मिलेगा. इत्तेफाक से अमेरिका अगर अपने पीछे लगे चीन से परेशान है तो भारत अपने से काफी आगे खड़े चीन से. अगर आने वाले दशक एशिया के होने हैं तो एशिया में वह चीन के साथ-साथ भारत के भी दशक हों, इसके लिए भारत को अमेरिका जैसा मजबूत सहयोगी चाहिए. दरअसल नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा के बीच की बातचीत का सबसे अहम पहलू यही है- दोनों अगर साथ चलते हैं तो दोनों के हित सधते हैं. भारत के साथ इस दोस्ती में अमेरिका की हिचक बस इतनी होगी कि वह उस पाकिस्तान का क्या करे जो अपनी भौगोलिक हैसियत से दक्षिण एशिया में है, लेकिन अपनी मज़हबी पहचान के साथ पश्चिम एशिया के राजनीतिक समीकरणों से भी जुड़ा हुआ है.
जहां तक भारत और अमेरिका के आपसी लेनदेन का सवाल है, वहां इस दौरे के बावजूद दोनों ने एक-दूसरे की अपेक्षाएं पूरी की हों, ऐसा नहीं दिखता. सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर अमेरिका ने एक लंबा कूटनीतिक जवाब दिया है जिसमें बदली हुई सुरक्षा परिषद में भारत की नुमाइंदगी बढ़ाने की ज़रूरत को रेखांकित भर किया गया है. अमेरिका सीधे-सीधे एक बार भी कहने को तैयार नहीं है कि वह भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करता है. दूसरी तरफ विश्व व्यापार संगठन के समझौते को लेकर भी भारत ने अपना रुख़ बरक़रार रखा है कि जब तक भारत की खाद्य सुरक्षा का खयाल नहीं रखा जाता, तब तक ऐसे समझौते उसके लिए संभव नहीं हैं. शांतिपूर्ण ऐटमी सहयोग की बातचीत आगे बढ़ाने की बात है, लेकिन यह साफ़ नहीं है कि भारत में ऐटमी जवाबदेही कानून के मौजूदा रूप से नाखुश अमेरिकी कंपनियां अब यहां कारोबार करने को तैयार हैं या नहीं. बेशक, भारत ने मेक इन इंडिया नीति के तहत अमेरिका की प्रतिरक्षा कंपनियों को भारत आने का न्योता दिया है और नरेंद्र मोदी अमेरिका की 17 बड़ी कंपनियों के कर्ताधर्ताओं से निजी तौर पर मिले हैं, लेकिन उनकी दिलचस्पी के बावजूद उनके निवेश की ठोस हकीकत खुलनी अभी बाकी है.
बहरहाल, नरेंद्र मोदी के इस कामयाब अमेरिकी दौरे का सबसे बड़ा खतरा वही दिखाई पड़ता रहा जो उनकी अंदरूनी राजनीति में दिखाई पड़ता है- उनके पीछे किसी अविवेकी हुजूम की तरह खड़ा वह घोर दक्षिणपंथी और अतिराष्ट्रवादी तबका, जिसे देश में उसकी राजनीतिक हैसियत ने नई ताकत दे दी है और विदेश में उसकी आर्थिक हैसियत ने. यह तबका देश में लव जेहाद से लेकर सांस्कृतिक उन्माद तक फैलाता रहता है और विदेश में नरेंद्र मोदी के दौरे की ठोस हकीकत को नजरअंदाज कर कुछ इस तरह पेश करना चाहता है जैसे वे अमेरिका न गए हों, आसमान में उड़ रहे हों. दुर्भाग्य से इस देसी-विदेशी तबके के साथ वह नया भारतीय मीडिया भी खड़ा है जिसके भीतर तार्किक विश्लेषण का गुण लगातार कम हो रहा है. वरना संयुक्त राष्ट्र की जिस आम सभा में पौने दो सौ मुल्कों के नेता अपनी बारी आने पर 15-15 मिनट बोलने वाले हों, वहां नरेंद्र मोदी के हिंदी भाषण में भी ऐतिहासिकता खोजने की नासमझ कोशिश करता वह नहीं दिखता. इसी तरह मैडिसन स्क्वेयर गार्डन के कार्यक्रम में भी अपने देश के प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए टिकट ख़रीद कर बैठे उत्साही प्रवासी भारतीयों के ‘मोदी-मोदी’ के स्वाभाविक हुंकारे को वह अखिल अमेरिकी आह्वान में बदलने का उत्साह न दिखाता. या फिर भारत के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के साथ हुई बदतमीज़ी को वह तरह-तरह के वीडियो पेश करके ढंकने की कोशिश न करता.
दरअसल यह एक आसान देशभक्ति है जो छोटे-छोटे कर्तव्य पूरे करके संतुष्ट हो लेती है और उसके बड़े दाम वसूल करना चाहती है. अमेरिकियों के लिए भारत आने पर वीजा या आप्रवासी भारतीयों के लिए जीवन भर का वीजा जैसी घोषणाओं के साथ मोदी ने इसकी शुरुआत की है. आने वाले दिनों में उसे कारोबार में रियायतें चाहिए, गुड़गांव और ग्रेटर नोएडा के फ्लैटों में इन्वेस्टमेंट के नाम पर लगाई गई रकम का शानदार रिटर्न चाहिए और हवाई अड्डों, सड़कों और इमारतों के बीच ऐसा साफ-सुथरा हिंदुस्तान चाहिए जहां धरती पर पांव रखने से वे गंदे न हों. इस तबके के लिए नरेंद्र मोदी का दौरा ऐतिहासिक होगा, लेकिन बाकी सवा अरब के भारत के लिए उसकी अहमियत क्या है. यह आने वाले दिन बताएंगे.