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‘मेरे लिए तो मेरा कच्चा रास्ता उनकी सड़क से बेहतर है’

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मेरा बचपन मेरठ में गुजरा. मेरे पिता कवि थे और एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. सिनेमा ही हमारे मनोरंजन का इकलौता साधन था. बचपन की देखी फिल्में याद करूं तो मुझे ‘परदे के पीछे’ याद आती है. उसमें विनोद मेहरा और नंदा थे. लेकिन फिल्मों में असली रुचि ‘शोले’ से जगी. तब हम पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ते थे. उसके बाद तो अमिताभ बच्चन के ऐसे दीवाने हुए कि उनकी ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘नसीब’, ‘सुहाग’, हर फिल्म देखी. ऐसी फिल्में ही हम देखते थे. इन फिल्मों ने ही असर डालना शुरू किया. श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखी थीं. कॉलेज में आते-आते ‘उत्सव’ और ‘कलयुग’ आ गई थीं. उस दौर की फिल्म ‘विजेता’ याद है. ज्यादातर फिल्में दोस्तों के साथ देखीं. फिल्मों में इंटरेस्ट था, लेकिन मैं इतना सीरियस दर्शक नहीं था. सच कहूं तो बहुत बाद में म्यूजिक डायरेक्टर बन जाने के बाद भी फिल्मों और डायरेक्शन का खयाल नहीं आया था.

मेरे पिता जी ने मुंबई आकर फिल्मों के लिए कुछ गाने भी लिखे. उनकी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से दोस्ती थी. मेरे पिता जी का नाम राम भारद्वाज हुआ. वे शौकिया तौर पर गाने लिखते थे. वे छुट्टी लेकर मुंबई आते. बाद में उन्होंने बिजनेस में आने की भी कोशिश की. फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन में उतरे, लेकिन नाकाम रहे. उस वजह से घर कर्ज में आ गया. मेरा तो तब संगीत का भी इरादा नहीं था. मैं क्रिकेट खेलता था और उसी में आगे बढ़ना चाहता था. तब मैं स्कूल की टीम में खेलता था और उत्तर प्रदेश की तरफ से खेलने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी भी गया था. दिल्ली आने पर एक दोस्त की वजह से संगीत में दिलचस्पी हुई. मेरी दिलचस्पी थी संगीत में, लेकिन संगीतकार बनने के बारे में नहीं सोचा था. यह इंटरेस्ट बाद में इतना सीरियस हो गया कि क्रिकेट छूट गया.

उन दिनों गजलों का दौर था. हम सभी गजल गाते थे. एक दोस्त पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के जानकार थे. उनके साथ रहने से पश्चिमी संगीत का ज्ञान बढ़ा. मैंने ‘पेन म्यूजिक’ रिकॉर्डिंग कंपनी ज्वाइन कर ली. उसी जॉब में ट्रांसफर लेकर मुंबई आ गया. एक-डेढ़ साल यहां स्ट्रगल किया. तभी दिल्ली में गुलजार साहब से मुलाकात हुई. दरअसल मैं लंबे अरसे से उनसे मिलना चाहता था. उसके लिए युक्ति की थी. उन्होंने हौसला बढ़ाया और पीठ पर हाथ रखा. गुलजार भाई की वजह से ही मैं कुछ बन पाया. वे मेरे पिता की तरह हैं. उन्हीं के साथ ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’ गीत की रिकॉर्डिंग की. उसके बाद ‘माचिस’ का ऑफर मिला और मैं फिल्मों के लिए संगीत बनाने लगा.

अवसर कब आपके सामने आ जाएगा, आपको पता नहीं चलेगा. आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. लोग मेरे काम को पसंद भी कर रहे थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में स्पॉट ब्वॉय से लेकर प्रोड्यूसर तक के मन में डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश रहती है. मैं अक्सर कहता हूं कि हिंदुस्तान में फिल्म और क्रिकेट दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हर किसी को लगता है कि उससे बेहतर कोई नहीं जानता. सचिन को ऐसा शॉट खेलना चाहिए और डायरेक्टर को ऐसे शॉट लेना चाहिए. हर एक के पास अपनी एक कहानी रहती है. रही मेरी बात तो संगीतकार के तौर पर जगह बनाने के बाद मैं फिल्मों की स्क्रिप्ट पर निर्देशकों से बातें करने लगा था. स्क्रिप्ट समझने के बाद ही आप बेहतर संगीत दे सकते हैं. स्क्रिप्ट सेशन में निर्देशकों से ज्यादा सवाल करने लगा था. उन बैठकों से मुझे लगा कि जिस तरह का काम ये लोग कर रहे हैं, उससे बेहतर मैं कर सकता हूं. इसी दरम्यान संगीत निर्देशन के लिए फिल्मों का मिलना कम हो गया तो लगा कि इस रफ्तार से तो दो साल के बाद मेरे लिए काम ही नहीं रहेगा. मेरा काम और एटीट्यूड भी आड़े आ रहा था. उन्ही दिनों संयोग से मुंबई में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हुआ. तब यह देश के विभिन्न शहरों में हुआ करता था. गुलजार साहब की वजह से मैं फेस्टिवल देखने गया. वे अपने साथ ले जाते थे. उस फेस्टिवल में किस्लोवस्की की फिल्म ‘रैड’, ‘ब्लू’ और ‘व्हाइट’ देखी. उसे देखने के बाद झटका लगा. एहसास हुआ कि फिल्में तो ऐसी ही होनी चाहिए. अगले साल त्रिवेंद्रम में किस्लोवस्की की ‘डे के लॉग’ देखी. उसे देखकर मेरा दिमाग खराब हो गया. मुझे लगा कि सिनेमा इतनी बड़ी मानवीय अभिव्यक्ति है. उससे पहले सिनेमा मेरे लिए सिर्फ मनोरंजन था. सिनेमा का वास्तविक असर उस फिल्म को देखने के बाद ही हुआ. उसके बाद मैंने फिल्म फेस्टिवल मिस नहीं किए. फेस्टिवल की फिल्में देख-देख कर फिल्मों के बारे में जाना और समझा. फिल्म फेस्टिवल ही मेरा फिल्म स्कूल रहा.

उससे पहले जो सिनेमा देखा था, उसे और उसके असर को भूला (अनलर्न) तो नहीं जा सकता. हमारे अवचेतन में सारे अनुभव जमा हो जाते हैं, लेकिन सही में सिनेमा की शक्ति, अभिव्यक्ति और मीडियम की समझ फेस्टिवल की फिल्मों के बाद ही आई. बहुत बड़ा कंट्रास्ट था. उन फिल्मों ने हिला कर रख दिया कि फिल्में इस तरह से भी असर कर सकती हैं. हमारी कमर्शियल फिल्में मुख्य रूप से मनोरंजन होती हैं. विषय और प्रभाव के स्तर पर वे सतह पर ही रहती हैं. जबकि अच्छी फिल्में तो सीने में कुछ जोड़ देती हैं. सत्यजित राय की फिल्में देखीं. उनकी ‘चारुलता’ कई बार देखी. इतने बड़े फिल्मकार को लोगों ने बदनाम कर दिया कि वे केवल गरीबी बेचते हैं. हिंदुस्तान में अगर गरीबी है तो क्यों नहीं दिखायी जाए? हमें गरीबी पर शर्म नहीं आती, उन पर बनी फिल्मों पर आती है. उन्होंने 40-50 साल पहले जैसी फिल्में बनाईं, वैसी फिल्में आज भी फिल्ममेकर नहीं बना पा रहे हैं. उनकी ‘चारुलता’ की छवियां ‘देवदास’ की ऐश्वर्या राय में दिखती हैं.

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इन सब फिल्मकारों के असर और अपने भीतर की बेचैनी में मैंने निर्देशन पर किताबें पढ़नी शुरू कर दीं. खासकर ‘आर्ट ऑफ रोमांटिक राइटिंग’ का बहुत असर हुआ. उन दिनों जीटीवी के लोग ‘गुब्बारे’ के संगीत के लिए मेरे पास आए. मैंने एक शर्त रखी कि मैं आपका म्यूजिक कर दूंगा लेकिन आप मुझे एक शॉर्ट फिल्म बनाने के लिए दो. एक तरह से उन्हें ब्लैकमेल किया और मुझे दो शॉर्ट फिल्में मिल गईं. उन फिल्मों को करने के बाद लगा कि मैं कितना खराब लेखक हूं. सबसे पहले मुझे लिखना सीखना होगा.

उत्तराखंड का मेरा एक दोस्त प्रेम कहानियों की एक सीरीज कर रहा था. मैंने उसे दो और कहानियों के बीच अपनी कहानी रख कर दे दी. उसे कहानी पसंद आई तो फिर स्क्रीनप्ले और संवाद मैंने ही लिखे. फिर भी लगा कि लेखन पर पढ़ना जरूरी है. बहुत पढ़ने के बाद नए विषय की खोज में निकला. अब्बास टायरवाला के पास एक थ्रिलर कहानी थी ‘मेहमान’. मैं मनोज बाजपेयी से मिला. वह मेरा दोस्त था. उसे बड़ी रेगुलर टाइप की कहानी लगी. उस वक्त मेरे पास हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो सैनिकों की एक कहानी थी. उन्होंने कहा कि इस पर काम करते हैं. वे फिल्म के लिए राजी हो गए. इसी बीच रॉबिन भट्ट ने मुझे अजय देवगन से मिलवा दिया. उन्हें कहानी पसंद आ गई और वे फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए तैयार हो गए. फिल्म के गाने रिकॉर्ड हो गए, एक्टर साइन हो गए और लोकेशंस देखी जाने लगीं. मगर इस बीच उनकी ‘राजू चाचा’ फ्लॉप हो गई. एक महीने बाद मेरी फिल्म की शूटिंग थी, लेकिन वह ठप हो गई. उस फिल्म की स्क्रिप्ट और गानों पर मैंने एक साल से अधिक समय तक काम किया था.

हमारे यहां एक अजीब-सा सिस्टम है जिसमें सबके लिए जगह है. ‘इश्किया’ भी हिट होती है और ‘वो आती जवानी रात में’ भी चलती है  

उसके बाद मैंने हर डायरेक्टर को कहानी सुनाई. एक्टर कहानी सुनने के नाम पर भाग जाते थे और प्रोड्यूसर मेरी कहानी समझ नहीं पाते थे. मुंबई में ज्यादातर प्रोड्यूसर को नाम समझ में आता है, काम समझ में नहीं आता है. एक साल की कोशिश के बाद भी कुछ नहीं हुआ तो मैं चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी गया. वहां ‘मकड़ी’ की स्क्रिप्ट जमा की. वह उन्हें पसंद आ गई. वह स्क्रिप्ट मजबूरी में मैंने स्वयं लिखी थी. तब मेरे दोस्त अब्बास टायरवाला व्यस्त थे और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि किसी लेखक को दूं.

‘मकड़ी’ के साथ दूसरे किस्म का हादसा हुआ. फिल्म बन जाने के बाद सोसायटी ने फिल्म रिजेक्ट कर दी. कहा, बहुत ही खराब फिल्म है. मैंने गुलजार साहब और दोस्तों को दिखाई. सभी को फिल्म अच्छी लगी. मैंने फिल्म को स्वयं रिलीज करने का फैसला किया. दोस्तों से पैसे उधार लेकर चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के पैसे वापस किए. उन दिनों मल्टीप्लेक्स शुरू हो रहे थे. मेरी फिल्म डेढ़ घंटे की थी. ऐसी फिल्म के लिए कोई स्लॉट नहीं था. उसे बेचने और रिलीज करने में नानी याद आ गई. लेकिन ‘मकड़ी’ रिलीज होने के बाद कल्ट फिल्म बन गई और मेरा सफर शुरू हुआ.

यूं तो ‘मकड़ी’ और ‘मकबूल’ भी जैसी मैं चाहता था, वैसी ही बनीं लेकिन उनके बाद अड़चनें कम हो गईं. ‘मकड़ी’ के बारे में ज्यादातर लोग मानते हैं कि वह बच्चों की फिल्म है. ‘मकड़ी’ में मुझे 12 लाख का नुकसान हुआ था. ‘मकबूल’ के साथ मामला अलग हुआ. उसे बनाने के लिए पैसे नहीं मिल रहे थे. एक्टर भी तैयार नहीं हो रहे थे. मैंने तब एनएफडीसी भी संपर्क किया तो उन्हें फिल्म का बजट ज्यादा लगा. मैंने बैंक लोन की कोशिश की तो वह अटका रहा. तभी संयोग से बॉबी बेदी से मुलाकात हो गई. बॉबी बेदी उस फिल्म के निर्माण के लिए तैयार हो गए. उन्होंने कहा कि फिल्म का बजट ज्यादा है, लाभ हुआ तभी तुम्हें पैसे दूंगा. इस तरह मैंने फ्री में ही काम किया. इस फिल्म से मुझे कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन फिल्म पसंद आई और मुझे पांव टिकाने की जगह मिल गई. डायरेक्टर के तौर पर मुझे स्वीकार कर लिया गया. उस फिल्म की वजह से मुझे आमिर खान ने बुलाया. हालांकि वह फिल्म नहीं बन पाई. उसके बाद ‘ओमकारा’ में मेरे साथ सारे एक्टर काम करना चाहते थे.

अब तक मेरी समझ में आ गया था कि यह माध्यम निर्देशक का ही है. निर्देशक गलत भी बोल रहा हो तो सभी को बात माननी पड़ेगी. साथ ही यह भी लगा कि फिल्म मेकिंग से बड़ा कोई क्रिएटिव एक्सप्रेशन नहीं है. यह सारे फाईन आर्ट्स का समागम है. इसमें संगीत, कविता, नाटक, सब कुछ है. फिल्ममेकर होने पर सर्जक की फीलिंग आ जाती है. हां, कभी-कभी तानाशाह भी बनना पड़ता है, लेकिन कभी-कभी बच्चे की तरह सुनना भी पड़ता है. निर्देशक को हर तरह की सलाह और विचार के लिए खुला रहना होता है. आप अपने फैसलों पर दृढ़ रहें, लेकिन अहंकार और डिक्टेटरशिप आ गई तो आपके हाथ से कमान छूट भी सकती है.

लेकिन यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था. मुझे भी जल्दी अवसर नहीं मिला. लंबा संघर्ष करना पड़ा. एक बात गुलजार साहब ने समझाई थी कि अवसर टारगेट की तरह होते हैं. वह कब आपके सामने आ जाएगा, आपको पता नहीं चलेगा. आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी. अगर आप यह सोचते हैं कि अवसर आएगा तो गन साफ करके, गोली भरकर, फिर फायर करेंगे तो टारगेट निकल जाएगा. इसलिए हमेशा तैयार रहना होगा और धैर्य भी बनाए रखना होगा.

संघर्ष लंबा तो था लेकिन मुझे लगता है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आने वाले लोगों के जितने विरोधी हैं, उससे ज्यादा समर्थक हैं. मैं अपनी ही फिल्मों की बात करूं तो अब मेरी ऐसी कमाल की जगह बन गई है कि मुझे हिट या फ्लॉप की चिंता नहीं रहती. अब फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या बोल रहा है. सच तो बाहर आ ही जाता है. यह नैचुरल प्रोसेस है. यह सभी के साथ होगा, इसलिए बगैर घबराए ईमानदारी से अपनी सोच पर काम करने की जरूरत है. अगर सभी लोग सड़क पर चल रहे हों और आप निकल कर कच्चे रास्ते पर आ जाएंगे तो लोग कहेंगे कि उल्लू का पट्ठा है. वे आपको खींच कर सड़क पर लाने की कोशिश करेंगे. उन्हें डर रहेगा कि कच्चे रास्ते से ही कहीं यह आगे न निकल जाए. वे चाहेंगे कि हम उनकी चाल में आ जाएं. लेकिन मेरे लिए तो अपना चुना कच्चा रास्ता ही ज्यादा अच्छा है.

लेकिन इस कच्चे का अर्थ डार्क फिल्म नहीं था. यह संयोग से ही हुआ कि मेरी फिल्में डार्क होती हैं. बस लोगों को पसंद आ गईं फिल्में. मुझे मानव मस्तिष्क में चल रही खुराफातें आकर्षित करती हैं. इंसानी दिमाग की अंधेरी तरफ जबरदस्त ड्रामा रहता है. हमलोग सिनेमा में उसे दिखाने से बचते हैं. हम लोग डील ही नहीं कर पाते. मुझे लगता है कि इस पर काम करना चाहिए. अगर ‘मैकबेथ’ और ‘ओथेलो’ चार सौ साल से लोकप्रिय है तो उसकी अपील का असर समझ सकते हैं. सच कहूं तो मैं तो कॉमेडी फिल्म बनाने की पूरी तैयारी कर चुका था. ‘मिस्टर मेहता और मिसेज सिंह’ की स्क्रिप्ट तैयार थी, लेकिन वह फिल्म नहीं बन सकी.

अब भी मैं देश-विदेश की फिल्में देखता रहता हूं. मुझे व्यक्तिगत तौर पर स्कॉरसीज, कपोला, वांग कार वाई और किस्लोवस्की की फिल्में पसंद हैं.

राजकुमार हिरानी की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देख कर बहुत जोश आया और प्रेरणा मिली. ‘लगान’ या ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ बना पाना बहुत मुश्किल है जिसमें मुख्यधारा में भी रहें और अपने सेंस भी ना छोड़ें. आप पूरी डिग्निटी के साथ एक बड़ी फिल्म बना दें, यह बड़ा मुश्किल काम है. दर्शकों में जहां एक्सपोजर है, जहां अच्छी पढ़ाई-लिखाई है, उनकी समझ अलग है. जहां रोटी-पानी के लिए ही दिक्कत है, उनको फिर आप उस तरह से सिनेमा कैसे दिखा सकते हैं? हमारे यहां ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ भी हिट होती है, ‘इश्किया’ भी हिट होती है. ‘वो आती जवानी रात में’, वो भी चलती है अपने लेवल पर. हमारे यहां दर्शकों के तीन-चार प्रकार हैं. एक अजीब-सा सिस्टम है जिसमें सबके लिए जगह है. आप जिस तरह के लोगों से आयडेंटीफाई करते हैं, अगर उन्हीं से आप प्रशंसा चाहते हैं तो फिर आपको उन्हीं के लिए फिल्म बनानी चाहिए.

लेकिन मेरे खयाल से अब भी हिंदी सिनेमा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. हम अभी भी जीरो हैं. आप्रवासी भारतीयों की संख्या ज्यादा है. वे फिल्में देखने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करते हें. किसी भी फिल्म का बिजनेस 75 और 100 करोड़ हो जाता है, लेकिन क्वालिटी जीरो रहती है. मेरे खयाल से ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद कोई भी हिंदी फिल्म इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की नहीं बनी है. मीरा नायर की फिल्में अच्छी होती हैं. अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारा कमर्शियल सिनेमा ‘लाफिंग स्टॉक’ ही है. माना जाता है कि हम केवल हंसते-नाचते और गाते रहते हैं. धारणा ऐसी बन गई है कि हमारी फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता. अजीब बात तो यह है कि टोरंटो फेस्टिवल में ‘कभी अलविदा ना कहना’ चुन ली जाती है और ‘ओमकारा’ रिजेक्ट हो जाती है. मैं यह नहीं कहता कि एक ही प्रकार का सिनेमा बने. हर कोई ‘ओमकारा’ बनाने लगेगा तो माहौल रूखा हो जाएगा. लेकिन ऐसा चुनाव मेरी समझ में नहीं आता और मैं कनफ्यूज्ड हो जाता हूं.

इस पर यह और कि मुंबई में जान-पहचान के लोग केवल फिल्मों की ही बातें करते हैं. बचने के लिए मैं अक्सर मुंबई से बाहर निकल जाता हूं. आम आदमी की तरह रहने और जीने की कोशिश करता हूं. टिकट की कतार में लग जाता हूं, किसी रेस्तरां में बैठ जाता हूं. बाहर निकलो तो दुनिया के आम लोगों से मेलजोल होता है और अपनी भी खबर लगती है. पता चलता है कि अभी क्या और कैसे हो रहा है. वैसे तो सूचना के इतने माध्यम आ गए हैं, लेकिन दुनिया से सीधे जुड़ने का अब भी कोई विकल्प नहीं है.

इन दिनों एक बहुत अच्छा परिवर्तन यह आया है कि मल्टीप्लेक्स के आने की वजह से छोटी और गंभीर फिल्में भी हिट हो रही हैं. मुझे लगता है कि राज कपूर के समय में श्याम बेनेगल और सत्यजीत रे की फिल्मों के दर्शक बिल्कुल नहीं थे. अब 25 प्रतिशत दर्शक वैसे हैं. उस वक्त विश्व सिनेमा का बिल्कुल एक्सपोजर नहीं था. यूरोपियन फिल्में आती नहीं थीं. फेस्टिवल में खास प्रतिशत में ही लोग देखते थे. करोड़ों की आबादी में चार हजार लोग ही ढंग की विदेशी फिल्में देख पाते थे. अब एक्सपोजर के बाद दर्शक और फिल्ममेकर दोनों बदले हैं. पहले शायद मजबूरी में राज कपूर को व्यावसायिक फिल्में बनानी पड़ती होंगी. हमें नहीं पता. हो सकता है कि राज कपूर यूरोप में जाकर देखते हों तो उनको लगता हो कि यार मैं ऐसी फिल्में बना पाता, पर मेरे देश में दर्शक ही नहीं हैं यह देखने के लिए. आज वे होते तो बहुत खुश होते.

अजय ब्रह्मात्मज से बातचीत पर आधारित.

मुलत: 100 साल का सिनेमा(15 मई 2012) में प्रकाशित

टनाटन पर्यटन

Anupam-jee-Pic‘बोरिया-बिस्तरा बांधना’ एक पुराना मुहावरा है. लेकिन इसका अर्थ हमेशा एक-सा नहीं रहा. एक जगह से ऊब गए तो बोरिया-बिस्तरा बांधा और चल पड़े देशाटन को. जी हां, तब पर्यटन शब्द चलन में नहीं था पर देशाटन के लिए निकलने वालों की कोई कमी नहीं थी. अपने आसपास या दूर को जानना-पहचानना, दो-चार-दस दिन के लिए नहीं, लंबे निकल जाना और लौट कर बिना बुद्धू बने घर वापस आना खूब चलता था. इस देशाटन में दिशाएं, पड़ाव या मंजिल, कुछ भी तय नहीं रहता था.

तीर्थाटन इससे बिल्कुल अलग था. दिशा, जगह, पड़ाव, मंजिल, मौसम सब कुछ तय रहता था. तीर्थ सब दिशाओं में थे. सचमुच उत्तर, दक्खिन, पूरब और पच्छिम. तीर्थ भी सब धर्मों के, केवल हिंदुओं के नहीं. फिर कुछ तीर्थ ऐसे भी जिनमें अन्य धर्मों के लोग भी आते-जाते थे. हर पीढ़ी की ऐसी इच्छा होती कि अपनी अगली पीढ़ी के हाथों घर-गिरस्ती सौंपने से पहले एक बार इनमें से कुछ तीर्थों के दर्शन कर ही लें. शरीर में सामर्थ्य हो तो अपने दम पर नहीं तो श्रवण या सरवण कुमारों की भी कोई कमी नहीं थी जो अपने बूढ़े माता-पिता को बहंगी में उठा कर सब दिखा लाते थे, घुमा लाते थे.

ये तीर्थ भी दो तरह के माने गए थे. एक स्थावर यानी किसी विशेष स्थान पर बने थे. इन तक लोगों को खुद ही जाना पड़ता था, पुण्य कमाने. लेकिन कुछ ऐसे भी तीर्थ बन जाते थे, जिन तक जाना नहीं पड़ता था- वे तो आपके शहर, गांव, घर दरवाजे पर स्वयं आकर दस्तक दे देते थे. ऐसे तीर्थ जंगम-तीर्थ कहलाते थे- यानी चलते-फिरते तीर्थ. समाज में बिना स्वार्थ साधे, सबके लिए कुछ न कुछ अच्छा करते-करते कुछ विशेष लोग संत, विभूति जंगम तीर्थ बन जाते थे. उनका घर आ जाना या उनको कहीं मिल जाना तीर्थ जैसा पुण्य, आनंद दे जाता था. आज भी हमारे-आपके जीवन में सारी भागदौड़ के बाद ऐसे कुछ लोग मिल ही जाते हैं जिनसे मिलकर सब तनाव दूर हो जाते हैं.

समय के साथ बहुत-सी चीजें, व्यवस्थाएं बदलती हैं. सब कुछ रोका नहीं जा सकता. लेकिन हमें पता तो रहे, होश तो रहे कि हमारे आसपास धीरे-धीरे या खूब तेजी से क्या-कुछ बदलता जा रहा है.

आज के पर्यटन से पहले देशाटन और तीर्थाटन था और सब जगह इसके साथ एक पूरी अर्थव्यवस्था थी. उससे तीर्थों के आसपास के अनगिनत गांव, शहर भी जुड़े रहते थे. वह आज के पर्यटन उद्योग की तरह नहीं था. एक तरह का ग्रामोद्योग या कुटीर उद्योग था.

सैर-सपाटे पर जाने का या कहें आकर्षक विज्ञापन छापकर जबरन सैर करवाने का एक नया उद्योग खड़ा हो चुका है

उदाहरण के लिए, बदरीनाथ या हिमालय की चार धाम यात्रा को ही लें. यह तीर्थयात्रा साल में तब भी आज की तरह ही कोई छह महीने चलती थी. पूरे देश से लोग यहां आते थे. हिमालय में तब सड़कें नहीं थीं. मैदान में बसे हरिद्वार या ऋषिकेश से सारी यात्रा पैदल ही पूरी की जाती थी. प्रारंभिक मैदानी पड़ाव में, हरिद्वार आदि में धर्मशालाएं, बड़े-बड़े भवन थे. पर फिर उसके बाद सारे पैदल रास्ते में ठहरने, रुकने, खाने-पीने का सारा इंतजाम रास्ते में दोनों तरफ पड़ने वाले छोटे-बड़े गांवों के हाथों में ही रहता था. पूरा देश स्वर्ग जाने वाली इन छोटी-छोटी पगडंडियों से पैदल ही चढ़ता-उतरता था. हां, कुछ लोग तब भी सामर्थ्य, मजबूरी आदि के कारण पालकी, डोली या खच्चर का प्रयोग कर लेते थे. इंदौर रियासत की रानी अहिल्या बाई पालकी से ही बदरीनाथ गई थीं और आज के चमोली जिले के पास गोचर नामक एक छोटे-से कस्बे में अपनी उदारता, जीव दया और किसानों की जमीन के अधिग्रहण के कुछ सुंदर नमूने आज के नए राजा-रानियों के लिए भी छोड़ गई थीं.

यह सारा रास्ता मील में नहीं बांटा गया था. कहां पगडंडी सीधी चढ़ाई चढ़ती है, कहां थोड़ी समतल भूमि है, कितनी थकान किस हिस्से में आएगी, उस हिसाब से इसके पड़ाव बांटे गए थे. इतनी चढ़ाई चढ़ गए, थक गए तो सामने दिखती थीं सुंदर चट्टियां. चट्टी यानी मिट्टी-गोबर से लिपी-पुती सुंदर बड़ी-बड़ी, लंबी-चौड़ी सीढ़ियां. रेल के पहले दर्जे की शायिकाओं जैसी अनगिनत सीढ़ियां. इन पर प्रायः साफ-सुथरे बोरे स्वागत में बिछे रहते थे. लोग अपने साथ कुछ हल्का-फुल्का बिछौना लाए हैं तो उसे इन चट्टियों पर बोरे के ऊपर बिछाकर आराम करेंगे. नहीं तो गांव के कई घरों से चट्टी पर जमा किए गए गद्दे-तकिए, रजाई, कंबल, मोटी ऊन की बनी दरियां नाममात्र की राशि पर प्रेम से उपलब्ध हो जाती थीं. इन दरियों को दन कहा जाता था और गलीचे, कालीननुमा ये दन इतने आकर्षक होते थे कि यात्रा से लौटते समय इनमें से कुछ के सौदे भी हो जाते थे. हाथ के काम का उचित दाम बुनकर को मिल जाता था. इन सेवाओं का शुल्क भी बाद में ही आया. शुरू में तो एक-सी सुविधा का दाम अलग-अलग लोग अपनी हैसियत और इच्छा, श्रद्धा से चुकाते थे.

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इन्हीं चट्टियों के किनारे के गांव अपने-अपने घरों से अपनी बचत का सामान, फल, सब्जी, दूध-घी, आटा, दाल, चावल, गरम पानी- सारा इंतजाम किया करते थे. पूरे देश के कोने-कोने से आए तीर्थयात्रियों का पैसा इन गांवों में बरस जाता था. छह महीने की यह मौसमी अर्थव्यवस्था पहाड़ों की सर्दी को थोड़ा गरम बनाए रखती थी.

आजादी के बाद इन पैदल रास्तों के किनारे-किनारे धीरे-धीरे मोटरगाड़ी जाने लायक सड़कें बनने लगीं. पर इन सड़कों का विस्तार बहुत ही धीमी गति से हो रहा था. अचानक सन 1962 में चीन की सीमा पर हुई हलचल ने इस काम में तेजी ला दी. सेना को अपना भारी साजो-सामान सीमा चौकियों तक पहुंचाना था. इस तरह ये पगडंडियां उजड़ने लगीं. इस शानदार व्यवस्था की कुछ पुरानी स्मृति लंबे बदरीनाथ मार्ग पर बदरीनाथ मंदिर से थोड़ा नीचे बनी हनुमान चट्टी नाम की सुंदर जगह अभी भी छिपी है.

इन चट्टियों की इस तरह विदाई से इतने बड़े तीर्थक्षेत्र के पैदल रास्ते के दोनों ओर बसे गांवों में कैसी उदासी छाई होगी- इस बारे में उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों ने, सामाजिक संस्थाओं तक ने शायद ही कभी ध्यान दिया हो. साथ ही मोटर सड़क के आ जाने से कैसे कुछ इने-गिने होटल मालिकों, पांच-सात बस कंपनियों पर कितनी नयी भगवत कृपा बरसी होगी- इसका भी लेखा-जोखा नहीं रखा जा सका है.

आज यह तीर्थाटन पर्यटन में बदल गया है. सैर-सपाटे पर जाने का, या कहें आकर्षक विज्ञापन छापकर जबरन सैर करवाने का पूरा एक नया उद्योग खड़ा हो चुका है. अब तो यह देश की सीमाएं तोड़कर लंदन, पेरिस, हांग कांग, मकाऊ, सिंगापुर, दुबई- न जाने कहां-कहां की चाट लगा रहा है. तीर्थयात्राएं अभी भी हो रही हैं पर वे भी इसी पर्यटन का हिस्सा बन गई हैं. उन्हें भी बाजार की टनाटन पैसा कमाने वाली व्यवस्था ने निगल लिया है. उत्तर से दक्षिण तक के बड़े-बड़े मंदिर, तीर्थ स्थान अब कंप्यूटर से जुड़ गए हैं. ई-आरती, ई-बुकिंग, ई-दर्शन, ई-यात्रा – भगवान का सब कुछ बाजार ने अपनी लालची तिजोरी में डाल लिया है. शायद भगवान भी आने वाले दिनों में ई-कृपा बांटने लगें.

ऐसा नहीं है कि सड़कें आनंद के स्वर्ग तक नहीं ले जातीं. लेकिन पर्यटन और तीर्थ के स्थानों तक आनन-फानन में पहुंचाने की यह व्यवस्था अपने साथ एक विचित्र भीड़-भाड़, भागमभाग, कुछ कम या ज्यादा गंदगी, थोड़ी बहुत छीना-झपटी, चोरी-चपाटी सब कुछ लाती है. ऐसे में नरक बनती जा रही इन सड़कों से आनंद के स्वर्ग की यात्रा कठिन भी बनती जा रही है और पर्यटकों, तीर्थयात्रियों के मन में उस जगह दुबारा न आने का फैसला छोड़ जाती है.

चट्टी वाले दौर में देश के आम माने गए लोगों को हिमालय का अद्भुत सौंदर्य देखने को मिलता था. सड़क आने से यह दर्शन तो और भी सुलभ होना चाहिए था. पर सड़क से सिर्फ पर्यटक या तीर्थयात्री ही नहीं आते. पूरा व्यापार आता है. उस व्यापार ने यहां के जंगलों का सौदा भी बड़ी फुर्ती से कर दिखाया है. अब हरिद्वार से बस में बैठा पर्यटक पूरा हिमालय पार कर ले- उसे कहने लायक सुंदर दृश्य, सुंदर जंगल कम ही दिखेंगे.

पर्यटन की किसी भी जगह पर उतरते ही कौन-सा पर्यटक मेरा है, कौन-सा तेरा- इसका खुला बंटवारा, झगड़ा होने लगता है

फिर तुरत-फुरत पैसा कमाने की होड़ ने, दौड़ ने कई रास्ते बदल दिए हैं. पहले की यात्रा में तुंगनाथ और रुद्रनाथ शामिल थे. इनमें तुंगनाथ तो पूरे चार धाम के अनुभव में विशेष स्थान रखता था. उसके रास्ते में चोब्ता नाम की एक जगह के पास बनी चट्टियों में सचमुच ‘अनुपम सौंदर्य आपकी प्रतीक्षा में’ खड़ा मिलता था. इस पैदल सड़क को बनाने वाले पीडब्ल्यूडी विभाग ने एक बोर्ड यहां ऐसा ही लिखकर टांग दिया था. बताया जाता है कि सन1975 में आपातकाल को लगाने, दिन-रात राजनीतिक उठापटक से बिलकुल थक गई श्रीमती इंदिरा गांधी ने दो-चार दिन आराम करने के लिए चोब्ता को ही चुना था. घने जंगलों से ढकी इस अदभुत देवभूमि में बने एक छोटे-से डाक बंगले में श्रीमती गांधी के इस पर्यटन की भनक शायद देवताओं के अलावा किसी को भी नहीं लग पाई थी.

पर्यटन ने इस शांति को, आनंद को थोड़ा हटाकर टनाटन पैसा कमाने की एक नयी व्यवस्था कायम कर ली है. यह नया ढांचा विज्ञापन और स्वामित्व के तरह-तरह के दावों से पटा पड़ा है. पर्यटन की किसी भी जगह पर उतरते ही कौन-सा पर्यटक मेरा है, कौन-सा तेरा- इसका खुला बंटवारा, झगड़ा होने लगता है.

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ऐसी छीना-झपटी के कड़वे अनुभवों से बिलकुल अलग थीं राजस्थान की भर्तृहरि और चाकसू तीर्थक्षेत्रों की व्यवस्थाएं. अलवर और जयपुर जिलों में बने इन स्थानों में आज भी कोई 50 हजार यात्री पहुंचते हैं. यहां की पूरी बसावट कुछ अलग ढंग की है. यहां प्रवेश करते ही आपको अनेक धर्मशालाएं चारों तरफ दिखने लगेंगी. पर आपकी आंखों में कुछ खटकने लगेगा. इनमें से किसी भी धर्मशाला में न दरवाजे हैं, न खिड़कियां. भवन छोटा हो या बड़ा, प्रवेश द्वार तक नहीं मिलेगा यहां. सब कुछ पूरा खुला खेल. किसी भी धर्मशाला में बोर्ड नहीं, नाम नहीं, चौकीदार नहीं, दफ्तर या प्रबंधक नहीं. जहां मन करे, जगह मिल जाए, उसी कमरे में रुक जाएं.

ऐसी व्यवस्था बहुत सोच-समझकर बनाई गई थी. तीर्थक्षेत्र में अपना नाम, अपना महत्व, अपना पैसा, खानदान, स्वामित्व की भावना सब कुछ बिसार दो, सब कुछ भुला दो. तीर्थयात्री के रहने का प्रबंध करो और श्रेय प्रभु-अर्पण कर दो. स्वामित्व विसर्जन- यानी यह तेरे लिए है जरूर पर है तो मेरा- इसे भूल जाओ. कहो कि यह तेरा ही है. तेरे लिए ही है.

एक पुराना किस्सा बताता है कि यहां किसी सेठ ने तीन मंजिल की एक सुंदर धर्मशाला बनाई थी. उनके मुंशी की किसी गलती में उस नवनिर्मित भवन में बस पहले ही दिन कुछ क्षणों के लिए ‘यह मेरा है’ की गंध आई थी. तीर्थक्षेत्र में यह दुर्गंध तेजी से फैली. तीर्थक्षेत्र ने तुरंत सेठ को आदेश दिया कि यह पूरी धर्मशाला, तीन मंजिला भवन तुम अपने हाथ से हथौड़ा मार-मारकर गिरा दोगे. सेठ ने खूब समझाया कि मिल्कियत का निशान तो अब मिटा दिया है. इतनी सुंदर बनी हुई इमारत भला क्यों तुड़वा रहे हो. न जाने कितने सालों तक कितने ही तीर्थयात्रियों के काम आएगी यह. पर निर्णय हो चुका था. पूरी धर्मशाला तोड़ दी गई.

यह किस्सा शायद 500 बरस से यहां आने वाले हर तीर्थयात्री को याद है- एक आदर्श की तरह. ऐसी सख्ती तब नहीं दिखाई गई होती तो वह धर्मशाला भी मुंबई की आदर्श सोसायटी की तरह सीना तानकर खड़ी रहती और यहां आने-जाने वालों को कानून तोड़ने का सुंदर रास्ता, सुंदर तर्क सुझाते रहती.

भाग-दौड़ भरी इस नयी जिंदगी में यदि कुछ समय बचा लिया है, कुछ पैसा जमा कर लिया है तो फिर ‘बिस्तरा बांध’ पर्यटन के लिए निकल पड़ें. इसमें कोई आगा-पीछा न करें. हां, इतना जरूर करें कि जहां भी जाएं वहां यदि देशाटन और तीर्थाटन की पुरानी यादें खोज सकें तो इस टनाटन पर्यटन में भी कुछ नया आनंद जुड़ सकेगा.

मुलत: पर्यटन विशेषांक (15 जून 2011) में प्रकाशित

मुक्ति का मिथक

imgजिस समाज में छायाकारों को आमंत्रित करके समारोहात्मक रूप से अपने यौनांगों की तस्वीरें उतरवाने  के लिए बेताब विदुषियां हों वहां एक पुलिस अधिकारी द्वारा स्त्री परिधान पर कर दी गई टिप्पणी से ऐसी और इतनी हलातोल मच सकती है कि उसकी अनुगूंजें पश्चिमी समाज की नारी स्वतंत्रता की पक्षधर बिरादरी में भी ऊंचे तारत्व पर सुनाई देने लगें. दरअसल ऑस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने कुछेक स्त्रियों के ‘देह दर्शना परिधान में सार्वजनिक स्थल पर विचरण‘ को स्लट वॉक कह दिया. कथन का क्वथनांक इतना बढ़ा कि यहां के स्थानीय अखबारों के नारी केंद्रित पृष्ठों पर भी अभिव्यक्ति का तापमान बढ़ गया. नारीवादी चिंतक भी तैश में आ गए.

विगत में कर्नाटक उच्च-न्यायालय के पूर्व और संप्रति उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति माननीय सीरिएक जोसेफ को भी उनके इस वक्तव्य पर चौतरफा घेर लिया गया था कि ‘ऐसे देह-दर्शना परिधानों में पूजास्थलों पर युवतियों का आगमन श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि ऐसे वस्त्रों से छेड़छाड़ की घटनाएं घटती हैं.’ यह निश्चय ही समाज के एक वरिष्ठ नागरिक की सामान्य और सदाशयी टिप्पणी थी. वह न्यायघर की कुर्सी पर बैठ कर दिया गया कोई फैसलाकुन कथन नहीं था. दरअसल उनका आशय कदाचित कम कपड़ों से स्त्री के स्त्रीत्व से कौन-सा काम लिया जा रहा है इसकी ओर ही उनका सहज संकेत था. बेशक वह कोई असावधान भाषा में की गई मर्दवादी टिप्पणी नहीं थी. लेकिन स्त्रीवादियों ने आपत्ति उठाते हुए प्रश्न किया कि आखिर स्त्री क्या पहने और क्या न पहने इसको तय करने वाले पुरुष कौन होते हैं. ऐसी टिप्पणियां स्त्री की स्वतंत्रता का हनन करती हैं.

अब हम थोड़ा-सा स्त्री परिधान की स्थिति का आकलन कर लें. हमारे यहां खासकर उदारीकरण के बाद पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर उनमें हीनताबोध छा गया है. वह पूरा पहनावा ही उनके लिए लज्जास्पद बन गया है. अमूमन इस तरह के परिधान -प्रसंग में लगे हाथ प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया कुरुक्षेत्र में कूद पड़ता है. वह परिधान के मुद्दे को लगे हाथ कट्टरवादियों की हरकत बताता हुआ आग उगलने पर उतारू हो जाता है.

बहरहाल देह-दिखाऊ वस्त्रों को लेकर आपत्ति प्रकट करने वालों को लगे हाथ सीधे-सीधे ‘ड्रेस कोड के पक्षधर फासिस्टों’ की जमात में शामिल कर दिया जाता है.  इसमें उभर कर आया, फैशन की डगर पर तेजी से चलता नया पश्चिमी वस्त्र-व्यवसाय भी अपनी  ‘साम-दाम’ वाली अप्रत्यक्ष भूमिका अदा करने लगता है. अंत में सारी उठापटक का ‘विसर्जन’ इस निष्कर्ष पर होता है कि स्त्री के परिधान और उसके ‘चयन की स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करने वाला पुरुष कौन होता है.’

पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर हीनताबोध छा गया है

लेकिन, ऐसे सवाल खड़े करने वाले ‘स्त्री स्वतंत्रता’ के गुणीजन भूल जाते हैं कि आज स्त्री जो ‘पहन’ या ‘उतार’ रही है वह ‘बाजार-दृष्टि’ के इशारे पर ही हो रहा है और कहने की जरूरत नहीं कि समूची ‘बाजार-दृष्टि’ पुरुष के अधीन है. वही तय करता है और बताता है कि स्त्री का कौन-सा अंग कितना और कैसे खुला रखा जाए कि वह ‘सेक्सी’ लगे. मैन-ईटर लगे. वह ‘स्त्री की इच्छा’ का मानचित्र अपनी कैंची से काट-काट कर बनाता है.

दरअसल, आज समूचा बाजार और मीडिया ‘युवा केंद्रित’ है और गठजोड़ के जरिए वे यह प्रचारित करने में सफल हो चुके हैं कि जो कुछ भी वे ‘बता’ और ‘बेच’ रहे हैं वही ‘यूथ कल्चर’ है. वे युवाओं में एक मनोवैज्ञानिक भय उड़ेल देते हैं कि यदि उसने वैसा ‘उठना-बैठना’, ‘पहना-ओढ़ना’ या ‘पोशाक’ नहीं पहनी तो ‘लोग क्या कहेंगे’. माता-पिता उसे पिछड़े हुए और ‘तानाशाह’ लगते हैं. वे समझा पाने में असफल रहते हैं कि जिस पोशाक के न पहनने से उसके ‘जीवन-मरण’ का संकट खड़ा हो गया है वह अमेरिका की ‘एसयूजी क्राउड’ का गणवेश है और लो वेस्ट जींस का इतिहास समलैंगिकों (‘गे’ और ‘लेस्बियन’) के ड्रेस कोड से शुरू होता है, जो बाद में चलकर ‘जीएलबीटी समूह’ का पहनावा बन गया.

आज वस्तुस्थिति यह है कि ‘विज्ञापन’ की दुनिया आम तौर पर और ‘फैशन’ की दुनिया खास तौर पर स्त्री की ‘यौनिकता’ के व्यावसायिक दोहन पर आधारित है. यह भी कह सकते हैं कि फैशन का समूचा ‘समाजशास्त्र’ अब परंपरागत ‘सांस्कृतिक आधार’ को छोड़ कर केवल स्त्री की ‘यौनिकता’ के इर्द-गिर्द विकसित होता और चलता है. अब वस्त्र का रिश्ता पहनावे से नहीं, ‘कामुकता’ से है. इसलिए पोशाकें तन ढंकने की जिम्मेदारी की प्राथमिकता से पूर्णत: बाहर होकर, अब केवल तन के कुछ खास हिस्सों की तरफ पुरुष की आंख खींच कर, ‘स्त्री देह की सेंसुअसनेस’ को उभारने में लगी हैं. ‘फ्री साइज’ का फंडा विदा हो चुका है. अब तो उस ‘लापरवाही के सौंदर्य’ की सैद्धांतिकी के दिन भी लद गए. दरअसल, तब भारत में ‘वेस्टर्न गारमेंट ट्रेड’ अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद में था. ‘फिटिंग’ के लिए ग्राहक में क्रेज बनाने से उत्पाद की ‘फटाफट खपत’ में बाधा आती थी. ‘इंडिविजुअल वेरिएशंस’ इतने होते हैं कि हर रेंज का ‘माल’ बनाना और दुकान में रखना व्यापारी के लिए घाटे का सौदा बन जाता.

अब ‘फिटिंग’ वस्त्र विन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य है. एक बार एशियाटिक सोसाइटी के बाहर सीढ़ियों पर एक ‘लो-वेस्ट जींस’ की ‘एड फिल्म’ की शूटिंग देखने का मौका मिला. वहां चार-पांच युवतियां हाथों में किताबें पकड़े सीढ़ियां चढ़ते हुए खिलखिलाती हुई ‘बैक शॉट’ में हंस रही थीं. पहले ‘टेक’ के बाद फिल्म निर्देशक कैमरामैन को समझाने लगा कि हमें लो-वेस्ट जींस की ‘बैक फिटिंग’ बतानी है. इसलिए, ‘लुक बैक शॉट’ को ऐसा होना चाहिए कि देखने वाले के मन में वह ‘डॉगी फक’ की ‘सेक्सुअल फैंटेसी’ पैदा करे.’ कहने की जरूरत नहीं कि अब यही वस्त्र की भूमिका है. और जींस निर्माता का अभीष्ट भी. न्यायमूर्ति श्री जौसेफ वस्त्रों के विन्यास पर जोर देकर बस यही तो बताना चाहते थे.

बाद इसके उसी लोकेशन पर एक शीतलपेय का शूट था. युवतियां बदल गईं. फिल्म निर्देशक माॅडलों को भद्र भाषा में गंभीर-चिंतनपरक मुद्रा बनाकर समझा रहा था- ‘मैडम लिप्स को ऐसे गोल करिए कि ‘ओरल’ का ‘जेस्चर’ लगे और ‘फेस पर फक्ड का एक्सप्रेशन’ (दैहिक आनंद के चरम की चेहरे पर अभिव्यक्ति) आना चाहिए.’ अंग्रेजी में दिए जाने वाले अश्लील निर्देश भी गूढ़ता अर्जित कर लेते हैं.

बहरहाल, यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि फैशन अपने अभीष्ट में परंपरागत और पूर्व निर्धारित सामाजिकता के ध्वंस पर अपना आकाश रचता है. वह जहां एक ओर स्त्री की देह की उत्तेजना का दोहन करता है, वहीं दूसरी ओर पुरुष को ‘सांस्कृतिक’ नहीं, ‘शिश्न-केंद्रित’ बनाता है. याद करें, पुरुष में यौनिकता की ‘प्रदर्शन प्रियता’ जो पूर्व में व्यक्ति की सरासर लंपटई लगती थी, अब वह विज्ञापन की दुनिया के ‘माचो मैन’ की अदा में बदल गई है. वस्त्रों में हेर-फेर करके ‘पुरुष’ को नया बनाने में वक्त जाया नहीं होता, जितना स्त्री को नया बनाने में. अब ‘ब्यूटी ऐंड बीस्ट’ का फंडा यहां भी गढ़ा जा रहा है. ‘ब्यूटी’ का अर्थ ‘चेहरे की सुंदरता’ और ‘कमनीयता’ से कम, उसकी अनावृत्त की जाने वाली ‘यौनिकता’ से ज्यादा है. इसलिए, कुछ ही वर्ष पूर्व जिन कपड़ों में ‘स्त्री’ घर के बाथरूम से बाहर नहीं आ पाती थी – वह उन्हीं कपड़ों में अब, चौराहों पर चहचहा रही है. अब देह पर वस्त्रों की न्यूनता स्त्री को ‘हॉट’ के विशेषण से अलंकृत करती है. उन्हें बताया जा रहा है कि माल के खरीदने में ‘चयन की स्वतंत्रता’ ही ‘स्त्री स्वतंत्रता’ है. फैशन के सिद्धांतकार कहते हैं ‘पर्सोना’ पढ़ाई नहीं, ‘परिधान’ से प्रकट होता है. इसलिए युवती जो परिधान पहनती है, वह उसका वक्तव्य है. मसलन वह रोमांटिक है. वह सेक्सी है. वह मैन-ईटर है. वैसे फैशन बाजार ने स्त्री के कई और भी वर्गीकरण और नाम आविष्कृत कर रखे हैं.

शशि थरूर ने एक बार अपने स्तंभ में लिख दिया था कि बाजार साड़ी को इसलिए बाहर कर रहा है चूकि उसमें स्त्री देह की ‘सनसनाती उद्दीप्तता’ िछप जाती है. जबकि बाजार के लिए ‘सेक्सुुएलिटी’ ही प्रधान है. साथ ही उन्होंने साड़ी को भारतीय स्त्री की ‘सांस्कृतिक गरिमा’ से भी जोड़ दिया था. नतीजतन, तमाम ‘नारीवादी समूह’ संगठित हो कर शशि थरूर पर पिल पड़े. यह ‘बाजार-दृष्टि’ का प्रायोजित आक्रमण था. स्त्री की गरिमा की परिभाषा तय करने वाला ये कौन? कहने की जरूरत नहीं कि अब इस ‘फैशन-बाजार समय’ में युवतियों के लिए साड़ी एक निहायत ही ‘लज्जास्पद’ परिधान है. वह ‘इथनिक’ है. वह सेक्सी फीगर वाली युवती को भी ‘भैनजी’ बना देती है.

आज स्त्री यह नहीं जानती कि अंतत: वह पुरुषवादी व्यवस्था का विरोध करती हुई पुरुष के इशारे पर ‘पुरुष’ के लिए पुरुष के अनुरूप खुद ही खुल और खोल रही है. आज स्त्री के ‘निजता’ के क्षेत्र को तोड़कर उसे ‘सार्वजनिक संपदा’ में बदल दिया गया है. मसलन, भारतीय स्त्री के वक्ष पर रहने वाले दुपट्टे या पल्ले को देखें. जो दुपट्टे से ढांका जाता था वह स्त्री की ‘यौनिक निजता’ को बचाता था. अब दुपट्टे के विस्थापन ने उसकी ‘निजता’ को पूरी तरह खोलकर ‘पुरुष दृष्टि’ के उपभोग के अनुकूल और सुलभ बना कर रख दिया है. यह प्रकट ‘यौनिकता’ है जो पब्लिक प्रदर्शन के परिक्षेत्र में है. यह प्रकारांतर से पुरुष की ‘यौन-आकांक्षा के’ अनुरूप स्त्री की ‘यौनिक निजता’ का खुशी-खुशी करवा लिया गया नया लोकार्पण है. पहले चरण में उसने स्थान बदला. वह वक्ष से थोड़ा उठा और गले से लिपटा रहने लगा. फिर वह गले के बजाय कंधे पर आ गया. बाद में वह कंधे से भी उड़ गया.

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खुले समाजों में  फैशन व्यवसाय का ‘स्पेस’ कम हुआ है. चूंकि जो पहले से ही पर्याप्त खुला हुआ है उसके खोलने में ‘थ्रिल’ नहीं है, वहां अब न्यूडिटी में वृद्धि की मांग है. थ्रिल तो अब एक ‘बंद समाज’ को खोलने में है. भारतीय समाज में अभी भी ‘वस्त्रों’ के जरिए स्त्री की ‘सामाजिकता’ परिभाषित होती है. दुर्भाग्यवश वह अभी भी ‘मां’, ‘बहन’, ‘बेटी’ की पहचान से मुक्त नहीं है. फैशन तभी अपना विस्तार कर पाता है, जब स्त्री को इन पहचानों से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए. तभी वह अपनी सेक्सुएलिटी का संकोचहीन प्रदर्शन कर सकता है. भारतीय समाज में लोग अभी ‘बहन’ या ‘मां’ को ‘सेक्सी’ नहीं कह पा रहे हैं, लेकिन जिस तरह फैशन ‘परंपरागत सांस्कृतिक संकोच’ का ध्वंस कर रहा है, जल्दी पिता कह सकेगा, ‘वाउ! यू आर लुकिंग वेरी सेक्सी माय डॉटर. भाई अपनी बहन को कह सकेगा, ‘यू आर वेरी हॉट!’. कहना न होगा कि मीडिया से मिलकर ‘बाजार’ भारतीय पिताओं और भाइयों को इन संभावनाओं के लिए धीरे-धीरे तैयार कर ही रहा है. हालांकि महानगरीय अभिजन समाज में मां को बिच कहने का सांस्कृतिक साहस कुलदीपकों में आ चुका है.

बहरहाल, यह भारतीय समाज का पश्चिम के वर्जनाहीन खुलेपन की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया का पूर्वार्द्ध है. परिधानों में खुलापन आया है, तो निश्चय ही धीरे-धीरे देह और दिमाग दोनों का भी खुलापन आ जायेगा और जब दोनों के खुलेपन बराबर हो जाएंगे, तब उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे यहां जल्द ही कस्बों में भी क्लासमेट्स सेक्समेट्स हो सकने की सामाजिक वैधता पा लेंगे.  बस थोड़े-से धैर्य की जरूरत है. अभी तो हमारे भीतर उन्होने पश्चिम के सांस्कृतिक फूहड़पन (यूरो- अमेरिकी ट्रेश) के लिए केवल वस्त्रों के क्षेत्र में ही जबरदस्त भूख बढ़ाई है.

मुलत: 31 जुलाई 2011 को प्रकाशित

लछमन सम नहीं कोऊ

Laxman1996 की कक्षा के तीन विद्यार्थी जब 2021 में अपने रजत जयंती पुनर्मिलन समारोह में मिलेंगे तो तब तक इतिहास एक क्रम व्यवस्थित कर चुका होगा. उनकी उपलब्धियां भी एक परिप्रेक्ष्य में रखी जा चुकी होंगी. अभी जो महत्वपूर्ण लग रहा है तब वह सिर्फ प्रासंगिक लग रहा होगा. 1996 में सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखा था. 1961-62 के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि कौशल में इतनी विविधता और उपलब्धियों में इतनी असाधारणता रखने वाले तीन खिलाड़ियों ने एक ही सत्र में शुरुआत की हो. तब मंसूर अली खान पटौदी, फारुख इंजीनियर और रापल्ली प्रसन्ना कुछ हफ्तों के अंतराल पर ही भारतीय क्रिकेट टीम में आए थे.

सोचना दिलचस्प है कि क्या उस समारोह में गांगुली लॉर्ड्स में अपने पहले ही मैच में जमाए गए शतक की बात करेंगे या फिर उस कप्तानी की जिसमें द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी चमके? गौरतलब है कि गांगुली की कप्तानी में द्रविड़ का टेस्ट में बल्लेबाजी औसत 73 रहा और लक्ष्मण का 52. क्या द्रविड़ लॉर्ड्स में अपने पहले मैच में बनाए गए 95 रन की पारी को याद करेंगे या फिर यह कि वे 1999 के विश्व कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी रहे थे? क्या लक्ष्मण यह याद करेंगे कि कैसे उन्होंने चयनकर्ताओं को अल्टीमेटम दे दिया था कि वे सिर्फ मध्य क्रम में खेलेंगे? या फिर वे आखिरकार इस रहस्य से पर्दा उठा ही देंगे कि आखिर क्यों उन्होंने अप्रत्याशित रूप से अचानक ही खेल को अलविदा कहने का फैसला किया.

गांगुली और द्रविड़ दोनों ने ही अपनी शर्तों पर संन्यास लिया था. लक्ष्मण चर्चित रूसी उपन्यासकार चेखव के किसी पात्र की तरह निकले. उन्होंने तब खेल छोड़ा जब उनके पास अपने शहर में अलविदा कहने का बढ़िया मौका था. हैदराबाद टेस्ट में खेलकर वे घरेलू दर्शकों के सामने शान से विदा लेते, लेकिन वे इस दिखावे के चक्कर में नहीं पड़े. वैसे भी खेल में किसी चीज की कोई गारंटी नहीं होती. हैदराबाद से ही ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मण के गुरु एमएल जयसिम्हा ने अपना आखिरी टेस्ट घरेलू मैदान पर ही खेला था. उनका करियर दोनों पारियों में शून्य के स्कोर के साथ खत्म हुआ.

लक्ष्मण ने हर चीज की खबर रखने वाले मीडिया और उन चयनकर्ताओं को भी चौंकाया जिन्हें इस तरह उनके अचानक खेल छोड़ने की उम्मीद नहीं थी. संन्यास का फैसला उनके लिए आसान भी नहीं रहा होगा. लक्ष्मण प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान थोड़े-से संकोच में भी लग रहे थे. वैसे भी भाषण देने से ज्यादा आनंद उन्हें शेन वार्न को खेलने में आता रहा है. कोई भी खिलाड़ी चाहता है कि दर्जनों माइकों के बजाय वह मैदान में हजारों दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच संन्यास ले. इस मौके पर भी उनमें वह ईमानदारी दिखी जिनके लिए उन्हें जाना जाता रहा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने दिल की सुनी और तब यह फैसला लिया. अलग-अलग मौकों पर लोग यह जुमला इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन लक्ष्मण सरीखे कुछ विरले ही होते हैं जिनके चेहरे पर इस साधारण बात की सच्चाई पढ़ी जा सकती है.

उनकी 281 रन की पारी उस सुनहरे दौर की प्रतिनिधि पारी है जिसमें भारतीय टीम का कायाकल्प हुआ और वह दुनिया की नंबर एक टीम बनी

कई बार जिन स्थितियों की हमने कल्पना नहीं की होती उनसे अचानक सामना होने पर हमारी जो प्रतिक्रिया होती है वह हमारे चरित्र के बारे में काफी कुछ बताती है. लक्ष्मण का चरित्र ऐसी कई परिस्थितियों में दिखा. द्रविड़ संन्यास लेने के फैसले पर महीनों सोचते रहे थे. लक्ष्मण ने यह फैसला लेने में एक-दो दिन ही लगाए. इससे पहले वे पूरे सत्र के लिए कड़ा अभ्यास करते रहे थे जिसमें इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया दोनों के खिलाफ होने वाले टेस्ट मैच शामिल थे. हैदराबाद में न्यूजीलैंड के खिलाफ टेस्ट मैच खेलने की तो उनमें प्रबल इच्छा रही होगी. वे टीम में भी थे ही. नवंबर में वे 38 साल के हो जाएंगे. जब वे 17 साल के थे तो उन्होंने खुद के लिए एक लक्ष्य तय किया था. यह लक्ष्य था पांच साल के भीतर टेस्ट टीम में शामिल होने का. उन्होंने सोच लिया था कि अगर ऐसा नहीं हो पाया तो वे अपने परिवार की लीक पर चलेंगे. उनके माता-पिता और ज्यादातर रिश्तेदार डॉक्टर हैं. यानी अपने लिए एक रास्ता तय करने और कर्मठता से उस पर चलने का गुण उनमें नया नहीं है. संन्यास लेने के फैसले में भी दिखा कि उनके चरित्र की यह मजबूती आज भी कायम है. भले ही यह एक सुनहरे करियर का आकस्मिक अंत हो मगर लक्ष्मण ने दिखा दिया कि वे किस मिट्टी के बने हैं. चयनकर्ताओं ने शायद ही सोचा हो कि लक्ष्मण यह अवश्यंभावी फैसला इतनी जल्दी ले लेंगे, इसलिए वे भी इस फैसले से हैरान हुए. यह अलग बात है कि इस अवश्यंभावी फैसले में जल्दी उनके चलते ही हुई थी.

उनके संन्यास लेने की खबर आते ही सबने उनकी सर्वश्रेष्ठ पारियां याद कीं. उनकी इस योग्यता को भी याद किया कि कैसे वे बल्लेबाजी को बहुत आसान बना दिया करते थे. कुछ ने यह भी कहा कि उनकी क्षमता के अनुसार उनका प्रदर्शन थोड़ा कम ठहरता है. शायद यह लक्ष्मण के औसत को देखते हुए कहा गया होगा जो 46 के करीब है. दरअसल 50 के ऊपर रहने वाले तेंदुलकर और द्रविड़ के रिकॉर्ड ने पिछले कुछ समय से हम भारतीयों की आदत खराब कर दी है. लेकिन अगर इतिहास टटोला जाए तो इन दोनों के अलावा सिर्फ सुनील गावस्कर ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिनका टेस्ट औसत 50 से ऊपर रहा. इससे भी अहम यह है कि लक्ष्मण खिलाड़ियों के उस दूसरे वर्ग में आते हैं जिनके खेल में एक विशेष तरह का सौंदर्य होता है. यह ऐसा वर्ग है जिसका औसत चालीस से पचास के बीच ठहरता है. इस औसत की वजह यह है कि इन खिलाड़ियों के प्रदर्शन में उतनी निरंतरता नहीं रही. दरअसल एक ही जगह पर पिच की गई गेंद को कलाई के जादू से तीन या चार अलग-अलग जगहों पर भेजने की कला में खतरा यह भी होता है कि उन्हीं जगहों पर खिलाड़ी लगाकर आपको आउट कर दिया जाए.

तो आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो लक्ष्मण डेविड गॉवर (औसत 44), मार्क वॉ (42), मोहम्मद अजहरुद्दीन (45), गुंडप्पा विश्वनाथ (42), मार्टिन क्रो (45) और जहीर अब्बास (45) के साथ खड़े दिखते हैं. यह संगत निश्चित रूप से प्रभावशाली है. क्रीज पर उनकी जादुई कलाई और टाइमिंग की बदौलत क्रिकेट ऐसा खेल लगता था जिसमें नतीजे से ज्यादा खेल का सौंदर्य और उसकी भावना ही सब कुछ थी.

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सारे खेलों में क्रिकेट ही ऐसा है जहां संदर्भ सबसे कम मायने रखता है. इसमें ही ऐसा हो सकता है कि हारने वाली टीम के किसी खिलाड़ी द्वारा बनाए गए बढ़िया 70 रन की जीतने वाली टीम के किसी खिलाड़ी के उबाऊ शतक से ज्यादा चर्चा हो. फिर भी लक्ष्मण का मतलब सिर्फ स्टाइल नहीं था. उनमें वह बात भी थी. कोलकाता में स्टीव वॉ की ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ भारतीय टीम के फॉलोऑन के बाद उनकी 281 रन की पारी ने भारतीय क्रिकेट का चेहरा बदल दिया था. यह उस सुनहरे दौर की प्रतिनिधि पारी है  जिसमें भारतीय टीम का कायाकल्प हुआ और वह दुनिया की नंबर एक टीम बनी.

गौर करें कि यह पारी लक्ष्मण ने उस समय खेली है जिसे तेंदुलकर का दौर कहा जाता है. आज से करीब एक दशक पहले उस दिन जब लक्ष्मण और द्रविड़ बल्लेबाजी कर रहे थे तो यह एक तरह से उस टीम के भविष्य की झलक भी थी जो कुछ समय पहले अपने कप्तान के मैच फिक्सिंग में फंसने के झटके से उबर ही रही थी. मोहम्मद अजहरूद्दीन की जगह कप्तानी गांगुली ने संभाली थी. लेकिन अजहर की जगह गांगुली ने ही नहीं बल्कि लक्ष्मण ने भी भरी थी

जिनकी कलाई से निकले शॉट उतने ही जादुई थे जितने पूर्व कप्तान के.

खेलने की एक खास शैली की विरासत लक्ष्मण ने अनुकरणीय रूप से संभाली. किसी ओवरपिच गेंद पर द्रविड़ थोड़ा आगे बढ़ते और ऑफ स्टंप के बाहर पूरे बल्ले से शॉट लगाते हुए गेंद को कवर बाउंड्री की तरफ भेजते. यह एक आदर्श शॉट होता. अगर उनकी जगह लक्ष्मण होते तो वे एड़ियों के बल थोड़ा पीछे जाते और गेंद को स्क्वायर लेग पर फ्लिक कर देते. जब वे अपने रंग में होते थे तो बड़ी रेंज और रिकॉर्ड के बावजूद तेंदुलकर भी उनके सामने उन्नीस ही लगते थे. लक्ष्मण के खेल की खूबसूरती ही इस बात में थी कि उनके शॉट बहुत सहज लगते थे.

इसके बावजूद क्या भारतीय सर्वकालिक एकादश में वे सबकी पसंद के उम्मीदवार होंगे? द्रविड़ और तेंदुलकर इसमें निर्विवाद रूप से नंबर तीन और चार पर आते हैं और दो ऑल राउंडर वीनू मांकड़ और कपिल देव छठे और सातवें नंबर पर. इस तरह देखा जाए तो इसके बाद मध्य क्रम में एक ही जगह बचती है. अब सवाल यह है कि लक्ष्मण किसकी जगह ले सकते हैं. विजय हजारे? दिलीप वेंगसरकर? मोहिंदर अमरनाथ? विजय मांजरेकर? गुंडप्पा विश्वनाथ? भावनाओं का ज्वार भले ही अभी लक्ष्मण के साथ हो मगर तर्क से काम लिया जाए तो हो सकता है कि कुछ दूसरे उम्मीदवार लक्ष्मण से इक्कीस साबित हो जाएं.

यहीं वह दिक्कत समझ में आती है जो लक्ष्मण के साथ रही है. ऐसा कभी-कभार ही हुआ कि वे विपक्ष पर हावी रहे. हो सकता है ऐसा उनके सौम्य, भद्र और निस्स्वार्थ स्वभाव की वजह से हुआ हो. उनमें गेंदबाजों को सबक सिखाने का वैसा जुनून नहीं था जैसा तेंदुलकर और द्रविड़ में देखने को मिलता है. तेंदुलकर ऐसा अपनी आक्रामक शैली के साथ करते हैं जबकि द्रविड़ रक्षात्मक शैली के साथ.

इसके बावजूद दुनिया भर के गेंदबाज राहत की सांस ले रहे होंगे. यह सोचकर कि अब उन्हें उस खिलाड़ी का सामना नहीं करना पड़ेगा जो उनकी सबसे अच्छी गेंदों को भी कलाई की एक हल्की-सी घूम और हल्की-सी मुस्कान के साथ सीमा पार भेज देता था. हालांकि इस राहत में एक अफसोस भी होगा. इस बात का कि अब वे अपने उस साथी के साथ कभी मैदान साझा नहीं कर पाएंगे जिसके कौशल ने खेल का स्तर ऊंचा किया.

मुलत: 15 सितंबर 2012 को प्रकाशित

पड़ोस का राष्ट्रवाद और मैकडॉनल्ड की दुकान नजरिया

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इलेस्ट्रेशन: आनंद नॉरम

मेरे घर की खिड़की से पीले रंग का एम दिखने लगा है. दसवीं मंजिल पर फ्लैट की खिड़की से बराबर में दिखता है एम. मैकडॉनल्ड अमेरिका से चल कर मेरे पड़ोस में आ गया है. अमेरिका का स्ट्रीट फूड इंडिया में रेस्त्रां के नाम से चल रहा है. व्यस्त मध्यमवर्गीय अमीरों को सस्ता खाना खिलाने का नुस्खा है एम. कई साल पहले केंटकी फ्राइड चिकेन आया तो लोग अपने तंदूरी चिकन को लेकर इमोशनल हो गए. तंदूरी नेशनलिज्म का नारा बुलंद हो गया. बाद में ग्लोबलाइजेशन के एक्सचेंज आॅफर में अमेरिका और भारत के लोगों ने अपने-अपने राष्ट्रवाद का एक्सचेंज कर लिया. इसी एक्सचेंज आॅफर में मैकडॉनल्ड मेरे पड़ोस में आया है.

मैं दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के उस गाजियाबाद के वैशाली में रहता हूं जहां की सड़कें बेहद खराब हैं. ठेकेदारों और इंजीनियरों ने खुलेआम चुनौती दे रखी है कि अपार्टमेंट में रहने वाला ताकतवर मध्यवर्ग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. बेईमान ठेकेदारों की बनाई टूटी सड़कों पर चल कर ही आपको उन दफ्तरों में जाना होगा जिनमें दीवारों की जगह शीशे लगे होते हैं.

यह उस नए हिंदुस्तान का चेहरा है जो मेक-अप के सहारे जीने लगा है. बाहर के यथार्थ को अपनी जातिवादी जागरूकता के हवाले कर भीतर एक सोसायटी बना लेता है. आठ-दस गार्ड खड़े हो जाते हैं. सफाई से लेकर बिजली का चंदा देने लगते हैं. ऊपर से फ्लैट वाले निगम को टैक्स भी दे आते हैं. हिंदुस्तान का अपार्टमेंट नागरिक यही कर सकता है. वह टैक्स भी देगा लेकिन अपने पैसे से सुरक्षा का इंतजाम भी करेगा. देश में अघोषित रूप से थानों का निजीकरण हो चुका है. खेतिहर मजदूर रंगीन वर्दियों में रातों की नींद सुनिश्चित कर रहे है. हर अपार्टमेंट के भीतर जेनसेट वाला बिजली विभाग बन गया है. परमाणु बिजली का विकल्प जेनसेट नहीं हो सकता था? एक रियल एस्टेट कंपनी ने विज्ञापन दे दिया है जिसका नायक खुद को अपार्टमेंट का सिटिजन कहता है.

बेईमान ठेकेदारों की बनाई टूटी सड़कों पर चल कर ही आपको उन दफ्तरों में जाना होगा जिनमें दीवारों की जगह शीशे लगे होते हैं

महान भारत के अपार्टमेंटी नागरिक तंदूरी राष्ट्रवादियों को लात मार कर स्वयंभू अपार्टमेंट का नारा बुलंद कर रहे हैं. हर अपार्टमेंट अपने आप में राज ठाकरे का महाराष्ट्र लगता है जिसमें बाहरी लोगों का प्रवेश मना है. एक रजिस्टर पर साइन कर अंदर जाना होता है और बाहर आने का समय लिख देना होता है. राज ठाकरे तो महाराष्ट्र से बिहारियों को भगाने की राजनीति कर रहे हैं लेकिन अपार्टमेंट वालों के लिए हर वह आदमी बाहरी है जो रेसिडेंट नहीं है. कहीं हर अपार्टमेंट वाला राज ठाकरे तो नहीं?

इस बीच तंदूरी राष्ट्रवादियों को भी इस बात से संतोष होने लगा है कि पनीर बर्गर भी बिकने लगा है. ग्रेट इंडियन नेशनलिज्म बर्गर पनीर से स्वादिष्ट होता है. बगल में ठेले पर मद्रासी चाट बेचने वाला बिहारी मजदूर आहत नहीं है. वह जानता है जब तक गरीब रहेंगे और अब तो अमीर भी गरीब हो रहे हैं, तब तक ठेले की ठेलेदारी चलती रहेगी. नगर निगमों की हल्ला-गाड़ी इन ठेलों को जमाने से धकियाती रही है, लेकिन बाजार कोई मल्टीप्लेक्स थोड़े ही है कि मर्जी हुई और फ्रंट स्टॉल गायब कर दिया गया. आम जनता को टीवी वाले न्यूज छोड़ हीरो दिखाने लगे. भारत का फुटपाथ वर्ग अमिताभ बच्चन को दौ सौ रुपये में नहीं देख सकता, इसलिए अमिताभ को खबर बनाकर परोस दिया गया.

मंदी की मार से पंसारी बच गया है. जो पंसारी बिग से लेकर स्माल बाजारों के नाम वाले डिपार्टमेंटल स्टोर से भय खा रहा था, मुस्कुरा रहा है. रिटेल का तेल निकलने वाला है, यह सुनकर मेरा किरानेवाला खुश है. कहता है उधार पर सामान देने का आइडिया, वह भी बिना ब्याज के सिर्फ हमारा था. हम किरानेवालों ने न जाने कितने लोगों का घर चलाया है. आगे भी चलायेंगे.

मुझे चिंता हो रही है. पड़ोस में एक-एक करोड़ के फ्लैट वाला अपार्टमेंट बन रहा था. पर्यावरण के लिहाज से ग्रीन अपार्टमेंट. अस्सी करोड़पतियों का पड़ोसी होने का सुख कहीं छिन न जाए. हम सबको गरीबी-रेखा की तरफ ले जाते इस सेंसेक्स को देखकर डर लगता है तो भरोसा भी बनता है कि पड़ोस में मैकडॉनल्ड तो है. बीस रुपये का बर्गर खाते हुए कम से कम प्रतिष्ठा तो नहीं जाएगी. वर्ना ठेले पर छोले भटूरे. ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास का राष्ट्रवाद कुंठित हो सकता है.

(मुलत: 5 नवंबर 2008 को नजरिया कॉलम में प्रकाशित )

छह साल पर शून्यकाल

तहलका की हिंदी पत्रिका को छह साल पूरे हो गए. जुलाई या 2007 का अगस्त माह रहा होगा जब मैं प्रभाष जी के पास गया था. हम तहलका की हिंदी वेबसाइट शुरू करने की योजना बना रहे थे. संकर्षण ठाकुर को, जो उस समय तहलका की अंग्रेजी पत्रिका संपादक थे, उतना यकीन नहीं था कि प्रभाष जी वेबसाइट के लिए भी लिखने को तैयार हो सकते हैं. लेकिन, वे न केवल इसके बारे में सुनते ही लिखने को तैयार हो गए बल्कि तुरंत ही अपने स्तंभ का नाम भी बता दिया- औघट घाट.

तहलका की हिंदी पत्रिका अक्टूबर 2008 में शुरू हुई और उसमें अपने दो पन्नों के कॉलम को उन्होंने स्वयं ही नाम दिया- शून्यकाल. इसे अब प्रियदर्शन जी लिखते हैं.

तहलका के इस विशेष अंक का नाम भी हमने शून्यकाल रखा है. ऐसा इसमें मौजूद सामग्री का इस शब्द से कोई विशेष संबंध सोचकर नहीं किया गया है. हालांकि वह भी निकाला ही जा सकता है. तहलका की हिंदी पत्रिका के लिए जो स्तंभ हमने सबसे पहले तय किया था वह शून्यकाल ही था. और प्रभाष जी का इस पत्रिका के लिए लिखना हमें शून्य से शिखर तक पहुंचने जैसी अनूभूति देने वाला भी था.

तहलका के इस विशेषांक में पत्रिका में छपे विशिष्ट लेखकों के चुने हुए आलेख हैं. इसमें प्रभाष जी का मीडिया पर ही लिखा शून्यकाल है तो अनुपम जी का लिखा ‘टनाटन पर्यटन’ जैसे अनुपम शीर्षक वाला वह अग्रलेख भी है जो उन्होंने तहलका के पर्यटक विशेषांक के लिए लिखा था.

तहलका की प्रवृत्ति कुछ ऐसी रही कि इसमें मौजूद आलेखों की स्थिति हमेशा कुछ दबी-दबी सी रही. इसे हमेशा इसकी जमीनी या खोजी या खांटी राजनीतिक पत्रकारिता के लिए जाना जाता रहा. हालांकि तहलका में हमेशा कुछ बेहद उत्कृष्ट और चुनिंदा लेखकों के – जो जरूरी नहीं है कि पत्रिका में लिखते वक्त भी उतने ही नामचीन रहे हों – लेख भी मौजूद रहे.

तहलका ने हरसंभव ऐसी पत्रकारिता करने की कोशिश की जो आलेखों के लिए प्राथमिक स्रोत का काम करने वाली होती है. लेकिन इसमें मौजूद आलेख हमेशा ऐसे स्रोतों से मिली जानकारियों को एक अलग ही धरातल पर ले जाने वाले रहे. किसी एक लेख से इस बात का अनुभव करना चाहें तो प्रियदर्शन का लिखा ‘हुसेन चले गए सरस्वती को बचा लें’ पढ़ा जा सकता है या कोई भी और.

ये आलेख इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें से कुछ ऐसे मुद्दों पर हैं जो अभी भी पहले वाली स्थिति में ही हैं. कुछ इसलिए कि इन्हें आधार बनाकर अन्य जरूरी सामयिक विषयों पर नई दृष्टि अर्जित की जा सकती है. और कुछ केवल भाषाई और लेखन संबंधी जानकारियों पर नई समझ बनाने के लिए भी पढ़े जा सकते हैं. इनमें से कुछ लेख इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये पहली बार पत्रिका में तब छपे थे जब तहलका प्रसार की दृष्टि से न के बराबर था इसलिए ये अपेक्षित संख्या में पाठकों तक पहुंचे ही नहीं.

वैसे इन आलेखों के पुनर्मुद्रण का सही औचित्य इस प्रस्तावना को पढकर समझने से ज्यादा इन लेखों को पढ़कर ही समझा जा सकता है. तो आप इन्हें पढ़े, गुनें और इनका आनंद लेने के बाद इनपर अपनी प्रतिक्रिया दें जो हमेशा की तरह हमारे सर माथे पर होगी.


प्रभाष जोशी

समझ बूझ बन चरना, हिरना

व्यापारिक प्रयोजनों और तटस्थता के बीच संतुलन साधने की कोशिश करते भारतीय मीडिया को सत्ता येन-केन प्रकारेण अपनी ओर झुकाने की कोशिश करती ही रहती है Read More>>

 

हरिवंश

मस्तिष्क और यंत्र

अस्तित्व से जुड़े सवालों तक पर आज गंभीर चिंतन का कोई रिवाज़ ही नहीं. क्या इस तकनीकी दौर ने हमें आत्मसीमित, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आत्मलीन बना दिया है? Read More>>

 

प्रभाष जोशी

तुम कहती हो या मैं कहता हूं

अंग्रेज़ी सोच को हिंदी में परोसने वाले विज्ञापन जगत और बंधे-बंधाए खांचों में गुनगुनाने वाली फिल्मी गीतों की दुनिया में, एक आम भारतीय की भाषा का इस्तेमाल मुश्किल भी था और फलदायी भी Read More>>

सत्ता का इकबाल खत्म?

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दशहरे के दिन खूनी मैदान में बदले पटना के गांधी मैदान की कहानी कुछ दिनों तक देश भर में चर्चा बटोरने के बाद अब उसी तेजी से हाशिये का विषय बनने की राह पर है. उतनी ही तेजी से, जितनी तेजी से छपरा के गंडमन गांव में मिड डे मील में जान गंवा चुके निर्दोष बच्चों वाली घटना को हाशिये पर धकेल धीरे-धीरे निगल लिया गया था. जिस तरह धमहारा में हुई रेल दुर्घटना में बेमौत मरे लोगों की जान पर कुछ दिनों तक बड़ी-बड़ी बातें कर के, चंद दिललुभावन घोषणाएं करके- करवा के बातों को खत्म कर दिया गया था. जैसे कुछ साल पहले फारबिसगंज के भजनपुरा में पुलिस द्वारा मारे गये लोगों पर सियासत कर उस पर बाद में परदेदारी कर दी गयी थी. और कुछ उस तरह भी, जैसे कि इसी गांधी मैदान से ढाई किलोमीटर की दूरी पर ही पिछले साल छठ के दौरान एक हादसे में 18 लोगों की मौत की कहानी पर थोड़े दिन हो-हल्ला मचाने के बाद सब कुछ निगल लिया गया था.

पटना के गांधी मैदान में दशहरे के दिन यानि तीन अक्तूबर की शाम क्या हुआ, यह अब कमोबेश सबको पता है. सार यही है कि हर शहर और हर साल और हर बार की तरह यहां भी रावण दहन का आयोजन था. परंपरागत तौर पर मुख्यमंत्री समेत कई वीवीआईपी मौजूद थे. इस  बार पटना सिटी में होनेवाले रावण दहन की इजाजत कोर्ट ने नहीं दी थी, इसलिए उत्सवधर्मी व पर्व के अवसर पर मेले-सा आनंद लेने वाले अधिकतर लोगों की भीड़ गांधी मैदान ही पहुंची. एक अनुमान पांच लाख लोगों का लगाया गया है. माई-भाई-भौजाई-बाल-बच्चों के साथ. रावण का दहन हुआ. मुख्यमंत्री अपने पैतृक इलाके गया में एक भोज में शामिल होने के लिए निकले. फिर एक-एक कर वीवीआईपी अमला निकलने लगा. सुरक्षा की जो व्यवस्था थी, वह वीवीआईपी को निकालने-निकलवाने में लग गयी. पास में ही बिहार के सबसे बड़े होटल में पटना के डीएम साहब की संतान का जन्मोत्सव भी उसी शाम आयोजित था, सो बहुत सारे बड़े लोग उधर पार्टी में चले गये. इस बीच रावण का दहन देखकर और उत्सवी रस से सराबोर होकर निकल रही जनता के बीच भगदड़ मची. कोई कहता है बिजली का तार गिरने के अफवाह की वजह से, कोई कहता है पुलिस के लाठी चार्ज से. कुछ कहते हैं संकरे रास्ते में यह तय था. कुछ कहते हैं कि अंधेरे ने बवाल के लिए रास्ता बनाया. कारण कुछ भी रहा हो लेकिन सच यह रहा कि देखते ही देखते 33-34 लोगों के जीवन की कहानी खत्म हो गयी.

गांधी मैदान हादसे का सार बस इतना ही है. उसके बाद कार्रवाई के तौर पर यह हुआ कि बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को इस घटना की जानकारी 50 मिनट बाद मिली. लगभग उसी वक्त जब दिल्ली से प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का फोन उनके पास आया. किसी अधिकारी ने इस घटना को इतना बड़ा नहीं माना कि वह मुख्यमंत्री तक इस बात को पहुंचाये. हां केंद्र सरकार की ओर से दो-दो लाख और राज्य सरकार की ओर से पांच-पांच लाख रुपये की मुआवजे की घोषणा करके तुरंत कार्रवाई जैसा दिखाने की कोशिश जरूर हुई. यहां तक एक कहानी है. इस कहानी में सूत्रों के हवाले से कुछ छिटपुट जानकारी भी है. एक जानकारी यह भी कि जब गांधी मैदान हादसा हुआ और लोग मर रहे थे, उस वक्त भी पास में ही एक बड़े अधिकारी का जश्न वैसे ही जारी रहा था जिसमें कई आला अधिकारी मौजूद थे और सबको सूचना मिलने के बावजूद वे जश्न के माहौल को छोड़ आने को तैयार नहीं थे.

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बहरहाल, गांधी मैदान हादसे की इतनी-सी कहानी के आगे पीछे की जो कहानी है, वह भी कोई कम भयावह नहीं. इस एक हादसे के आगे पीछे की जो कहानी है अथवा कहानियां बन रही हैं, उससे यह पता चलेगा कि कैसे बिहार अब एक ऐसा राज्य हो चुका है, जहां शासन और राजपाट का इकबाल लगभग खत्म हो चुका है और सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों की राजनीति का स्तर रसातल को पहुंच गया है.

कहानी को घटना की रात से ही समझ सकते हैं. घटना के तुरंत बाद पटना के जिलाधिकारी यानी डीएम इतने बड़े हादसे का दोष भीड़ पर मढ़ देते हैं. एसएसपी अंधेरे को दोष देते हैं और कहते हैं कि हर गेट पर तीस-तीस पुलिसवाले थे. ऐसा कहके एसएसपी सफेद झूठ ही बोलते हैं लेकिन वे सीना तानकर यह झूठ बोलते हैं. शर्मनाक यह होता है कि हादसे की रात ही जब पटना में बिजली वितरण की जिम्मेवारी निभानेवाली इकाई पेसू से पूछा जाता है तो जवाब मिलता है कि हाईमास्ट लाइट अगर गांधी मैदान में नहीं जल रही थी तो यह नगर निगम का जिम्मा है, उनसे पूछिए. और जब निगम अधिकारियों से बात होती है तो वे कहते हैं कि लाइट तो लगी हुई थी पहले, चोर चोरी कर लिये थे तो क्या कहें-क्या करें? वे एक बार भी नहीं मानते कि चाहे जिस विभाग की गलती हो या फिर सभी विभागों की मिलीजुली लापरवाही रही हो लेकिन इस हादसे की सबसे पहली और बड़ी जिम्मेवारी सरकारी तंत्रों की ही बनती है.

इस बीच यह तथ्य भी बताते चलें कि सबको पता था कि चूंकि इस बार पटना सिटी में रावण दहन मेला नहीं लगनेवाला इसलिए भीड़ का बोझ गांधी मैदान पर हर बार से ज्यादा रहेगा लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि जिला प्रशासन, पुलिस और मेला आयोजन समिति के बीच एक बार भी व्यवस्था पर बैठक नहीं हुई. यह कोई और नहीं बल्कि आयोजन समिति के सचिव अरुण कुमार ही बताते हैं. जहां तक अंधेरे की बात है तो उससे जुड़ा तथ्य यह रहा कि गांधी मैदान में कहने को तो जिला प्रशासन ने 90 लाइट टांग दी थी, लेकिन सारी ही नहीं जल रही थीं. गांधी मैदान में स्थाई रूप से लगी छह में से चार हाईमास्ट लाइट से ही पांच लाख लोगों को संभालने की व्यवस्था की गई थी. एसएसपी ने जहां तक हर गेट पर तीस-तीस पुलिसवालों को तैनात रखने की बात कही, उसकी सच्चाई यह है कि अव्वल तो पब्लिक के लिए सारे गेट खोले ही नहीं गये थे और जिस गेट को खोला गया था, वह अंधेरे में डूबा हुआ था और जो पुलिसवाले थे वे वीवीआईपी को ही निकालने में ही सारी ऊर्जा लगाए हुए थे. बाद में जब भीड़ को नियंत्रित करने की बारी आई तो वे लाठी चार्ज कर आग में घी डालने जैसा ही काम कर गए. बहरहाल, पुलिस-प्रशासन की यह गलती किसी को भी दिखी थी, इसलिए सरकार ने भी आनन-फानन में एसएसपी, डीएम, डीआईजी वगैरह का तबादला कर अपनी जान बचाने की कोशिश की और यह बताया कि कार्रवाई हुई है.

लेकिन शासन के इकबाल का क्या हाल है, वह उस शाम पीएमसीएच यानि पटना मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल में पता चला जहां घायलों का इलाज हो रहा था. जिस दिन घटना घटी, उस दिन लाशों को पोस्टमार्टम रूप में ले जाया गया. पोस्टमार्टम का एक कर्मी योगेंद्र ने लाशों को पोस्टमार्टम रूम में बंद किया और चाबी लेकर घर चलता बना. परिजन बिलखते रहे, लाश मांगते रहे लेकिन कर्मचारी तक जाने और वहां से चाबी मांगकर लाने की जहमत मेडिकल कालेज से किसी ने नहीं की. बाद में चाबी लाने की बजाय उसका ताला ही तोड़कर रास्ता निकाला गया.

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यह तो घटनावाली रात की बात है जिस दिन आवश्यक दवाओं के अभाव में भी कई घायलों ने वहां दम तोड़ा. उसके अगले दिन उसी पटना मेडिकल कालेज में जो हुआ, वह अलग ही कहानी रच गया. अचानक मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पीएमसीएच पहुंचे. मुख्यमंत्री के आने की सूचना मेडिकल कालेज के अधीक्षक को थी, कई डाक्टरों को भी थी लेनिक सीएम के जाने पर भी अधीक्षक वहां नहीं मिले. उन्हें संदेश भिजवाया गया कि मुख्यमंत्री बुला रहे हैं, वे फिर भी नहीं आये. जीतन राम मांझी ने कहा कि पीएमसीएच भगवान भरोसे चल रहा है. मुख्यमंत्री ने कहा कि वे अधीक्षक और गैरहाजिर चिकित्सकों पर कार्रवाई करेंगे. अगले दिन उन्होंने ऐसा किया भी. लेकिन विचित्र यह हुआ कि मुख्यमंत्री की कार्रवाई करते ही इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और बिहार स्वास्थ्य सेवा संघ की बैठक हो गयी कि यह गलत है. बैठक करने के बाद पदाधिकारी सीएम के पास पहुंच गये कि उन्हें हटाइये नहीं बहाल कीजिए और सीएम ने भी बिना वक्त लिये कह दिया कि लिख कर दीजिए, मुंहा-मुंही नहीं कहिए,विचार करेंगे. यह सब एक घिनौने नाटक की तरह चलता रहा.

शासन के इकबाल के खत्म हो जाने का नमूना सिर्फ घटना के दिन अधिकारियों के बयान या उनकी मनमानी और सीएम तक को ठेंगे पर रखने से ही नहीं दिखा. बल्कि उसके बाद भी अधिकारियों का जो रवैया रहा और जिस तरह सरकार लचर रवैया अपनाती रही, उससे भी यह साफ दिखा. घटना की जांच का जिम्मा मुख्यमंत्री ने राज्य के गृह सचिव अमीर सुबहानी औरपुलिस मुख्यालय के एडीजी गुप्तेश्वर पांडेय को सौंपा. निर्देश दिया गया कि सात दिनों के अंदर रिपोर्ट सौंपें. जनसुनवाई की प्रक्रिया शुरू हुई. आम आदमियों की जमात में से लोग सुनवाई में अपनी बात रख आये. लेकिन सात दिनों से अधिक का समय गुजर जाने के बाद कई अधिकारी जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को तैयार नहीं हुए. समय देनेको तैयार नहीं हुए. कई आज समय नहीं होने का हवाला देते रहे तो कई अपनी भारी व्यवस्तता का वास्ता देते रहे. रिपोर्ट समय पर तैयार ही नहीं हो सकी है, उसे जमा करने या पेश करने की तो बात ही दूर.

ये सब तो शासन-प्रशासन पर सरकार के इकबाल के खत्म होने के संकेत थे. मुख्यमंत्री भी झल्लाये ही रहे. उन्होंने एक टीवी चैनल को इंटरव्यू में कह दिया कि ऐसे हादसे होते रहते हैं, मुख्यमंत्री क्या करेगा. मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग की गई. दूसरी ओर से मुख्यमंत्री की बातों का विस्तार उनकी पार्टी के लोगों ने शुरू किया. जदयू प्रवक्ता संजय सिंह ने कहा,  ‘क्या गुजरात और मध्यप्रदेश में ऐसे हादसे नहीं हुए हैं, नहीं होते हैं, क्या इस्तीफा दिया गया है?’ विपक्ष की राजनीति कर रही भाजपा तो लगा ऐसे मौके की तलाश में ही थी. अभी शव वहीं थे कि भाजपाइयों ने बिना वक्त लिये कैंडल मार्च कर राजनीति की शुरुआत कर दी. मांझी सरकार के एक मंत्री ने कहा कि भाजपा लाश की राजनीति कर रही है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंडल पांडेय ने कहा, ‘मारे गये अधिकांश लोग पटना और आसपास के ही थे,सरकार की ओर से कोई मातमपुर्सी में भी नहीं गया.’ जदयू प्रवक्ता संजय सिंह ने इसी मातमी वक्त में जातीय राजनीति की शुरुआत की और कहा कि ‘भाजपा क्या बात करेगी, रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया जब मारे गये थे और शवयात्रा पटना पहुंची थी तो यही भाजपा के नेता सुशील मोदी शवयात्रा में शामिल लोगों पर फायरिंग करवाना चाहते थे, भूमिहार भाइयों का खेल बिगाड़ना चाहते थे.’

बात की शुरुआत कहीं से हुई, बात कहीं और चलती गयी. गांधी मैदान हादसा पीछे छूटता गया, राजनीति आगे बढ़ती गयी. लालू प्रसाद ने तो साफ-साफ कम से कम यह कहा कि उनकी तबीयत ठीक नहीं, इसलिए वे नहीं जा सके लेकिन यह घटना प्रशासनिक लापरवाही की लगती है. नीतीश कुमार ने रस्मअदायगी की तरह इस पूरी घटना पर एक बयान दिया कि यह दुखद है, निंदा करते हैं और साथ ही कह दिया कि लापरवाही और चूक हुई है तो उसकी जांच हो रही है, कार्रवाई होगी. नीतीश कुमार ने यह बयान देकर अपनी चुप्पी तोड़ी तो इस घटना और इस घटना के बहाने अराजक स्थिति पर बोलने के लिए नहीं, बल्कि उन्होंने पाकिस्तान के बहाने केंद्र सरकार पर हमला करने के लिए मुंह खोला कि नरेंद्र मोदी सही तरीके से पाकिस्तान से नहीं निपट रहे. नीतीश समयानुसार बोलने और लंबे समय तक चुप्पी साधे रहने के उस्ताद नेता माने जाते हैं. इस मामले में उनका लंबा अभ्यास भी है. नीतीश ने गांधी मैदान हादसे को अपनी जगह छोड़ा और अपने दल को मजबूत करने के अभियान में लग गये और प्रकारांतर से यह बताने में भी कि जनता अगर मजबूती देगी, मेहनताना देगी तो वे मजूरी को तैयार हैं. कहां तो जीतन राम मांझी, नीतीश कुमार को घिरना था गांधी मैदान हादसे के बाद लेकिन नीतीश कुमार 20 अक्तूबर को केंद्र सरकार को घेरने, बिहार को विशेष राज्य दर्जा वगैरह दिलाने और उसके बाद अपनी यात्रा का भी एलान करने लगे.

गांधी मैदान हादसा पीछे छूटने लगा है. उसका अध्याय भी लगभग बंद होने की राह पर बढ़ चुका है. कुछ इसी तर्ज पर कि ऐसे मेले-ठेले में गरीब ही आते हैं और अकारण-असमय मर जाना उनकी नियति ही होती है. वे मरे हैं, शासन पर कोई असर नहीं पड़ेगा, भले ही इकबाल खत्म हो चुका हो.

ग्रह से पहले पूर्वग्रह

ellमिशन- बृहस्पति के चंद्रमा ‘टाइटन’ पर जीवन की खोज.

मिशन की मौजूदा बाधा- उड़ान के वक्त नारियल का पहली बार में न फूटना.

वैज्ञानिक अब टाइटन पर- अभी टाइटन की सरजमीं पर उतर के अपना ताम-झाम सेट करते और जीवन की खोज में खटते कि उनकी नजर सामने एक बड़ी सी चट्टान पर गई. वहां पर कोई बैठा हुआ था. चमत्कार! उतरते ही दिख गए साले! वे दो एलियंस थे. वैज्ञानिक खुशी से उछलना चाहते थे, क्योंकि जब वह यान की तरफ बढ़ रहे थे, तब एक अनहोनी और हुई थी. हुआ यह कि जब वैज्ञानिकों का दल यान की ओर बढ़ रहा था, तब बिल्ली ने उनका रास्ता काट दिया था. वह भी काली. लेकिन यहां आकर कुछ भी अशुभ नहीं हुआ, जैसा कि उनके मन में खटका था. इतनी महत्वपूर्ण खोज, इतना कुछ होने के बाद भी वे उछल नहीं सके. मन मसोस कर रह गए. अगर उछलते तो न जाने कहां जाते. वहां पृथ्वी के जैसा गुरूत्वाकर्षण नहीं था. उछलने से खुद को रोक लेना एलियंस की खोज के बाद वैज्ञानिकों की दूसरी बड़ी उपलब्धि थी.

टाइटन पर कुछ शंकाएं- एलियंस मिल तो गए, तो अब आगे क्या किया जाए! अभी वैज्ञानिकों का दल सोच ही रहा था कि दोनों ऐलियन पास आ गए. उनका व्यवहार मित्रवत लग रहा था. उनसे सम्पर्क बनाने में कोई खतरा नहीं, यह सूंघने के बाद दल भी उनके पास आ गया. फिर भी एहतियातन दल के एक वैज्ञानिक ने एक एलियन को छूकर भी देखा. सुरक्षा का विश्वास होते ही दल ने एलियंस पर प्रश्नों की बौछार कर दी.

दल द्वारा सबसे पहला सवाल जो पूछा गया, वह था, ‘तुम किस जाति के हो? कुछ अन्य सवाल जो उनकी तरह उछाले गए, वे इस प्रकार हैं- ‘तुम सबका धर्म क्या है?’ ‘तुम्हारी उपासना पद्धति क्या है?’ ‘तुम्हारा ईश्वर कौन है?’ ‘कौन-सा सम्प्रदाय है तुम्हारा?’ ‘तुम्हारी भाषा क्या है?’ ‘तुम कौन-सी बोली बोलते हो?’ ‘तुम्हारी बिरादरी के बाकी लोग कहां हैं ?’ ‘क्या तुम दोनों की आपस में रिश्तेदारी है?’ ‘तुम में एक ज्यादा काला क्यों हैं?’

वैज्ञानिकों का दल मुश्किल में- अभी उनके ऊपर प्रश्नों की बौछार हो रही थी कि दल को प्रश्न दागने  के क्रम को तोड़ना पड़ा. ऐसा स्वर्णिम अवसर कौन खोना चाहता था, मगर मजबूरी थी, क्योंकि तब तक एक एलियन की मौत हो चुकी थी. प्रश्नों की संख्या से या प्रश्नों की प्रकृति से, आदमी की संगत से या उसके संसर्ग में आने से हुए किसी, संक्रमण से, यह बता पाना बहुत मुश्किल है. बहरहाल, एक एलियन का शव सामने था और दूसरा एलियन सरपट अपने सिर पर पैर रख कर वहां से भाग चुका था. दो वैज्ञानिकों को छोड़कर दल के बाकी सदस्य भूलोक पर लौट आए.

सरकार को दल के अगुए द्वारा भेजी गई रिर्पोट- हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि हमने वहां जीवन ही नहीं जीवधारियों की भी खोज कर ली है. हमारे दो सदस्य वहीं पर बने हुए हैं. एक, भागे हुए एलियन की खोज में वहां भाग रहे हैं. दूसरे, शव की सुरक्षा में बैठे हुए हंै. जीवित या मृत एलियन लाने के विषय में हमारे पास कोई पूर्व दिशा-निर्देश या योजना नहीं थी. अतः सरकार से अनुरोध है कि इस विषय को अपने संज्ञान में लेते हुए हमें शीघ्र निर्देशित करने का कष्ट करें. साथ में बहुत दुख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि कुछ मुख्य बातें जैसे उनकी जाति-धर्म-कर्मकांड वगैरह के विषय में हम कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सके. हमें आशा नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि हम जैसे ही दूसरे एलियन को खोज निकालेंगे, वैसे ही ये महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल कर लेंगे. यह जानकारी निस्संदेह हमारे देश की उन्नति में योगदान करेगी. धन्यवाद! जय हिंद!

 

कथा जैसी दिलचस्प

पुस्तक ः उस रहगुजर की तलाश है लेखक ः राजेन्द्र राव मूल्य ः 300 रुपये प्रकाशन ः सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तकः उस रहगुजर की तलाश है लेखक ः राजेन्द्र राव मूल्यः 300 रुपये  प्रकाशन ः सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तक ः उस रहगुजर की तलाश है
लेखक ः राजेन्द्र राव
मूल्य ः 300 रुपये
प्रकाशन ः सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली

क्या कथेतर लेखन भी कहानी या उपन्यास की तरह दिलचस्प और मार्मिक हो सकता है? वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव के कथेतर लेखन के संग्रह ‘उस रहगुजर की तलाश है’ को पढ़कर लगता है कि ऐसा संभव है. संग्रह में शामिल रिपोर्ताज, संस्मरण और साक्षात्कार खासे दिलचस्प हैं. कोलकाता की यौनकर्मियों के जीवन पर लिखा गया रिपोर्ताज ‘हाटे बाजारे’ किसी उपलब्धि से कम नहीं है. यह लंबा रिपोर्ताज मनोहर श्याम जोशी के आग्रह पर लिखा गया था जिसे उन्होंने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में तीन किस्तों में छापा था. यौनकर्मियों के जीवन का इतना जीवंत वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है. यह रिपोर्ताज यौनकर्मियों के प्रति करुणा का भाव जागृत करता है. एक जगह लेखक लिखता है, ‘मेरी आंखों के आगे बहुबाजार के वे मकान छा गए, जिनके बाहर बीस-बीस लड़कियां, औरतें और प्रौढ़ाएं सज-धजकर शाम से रात तक बैठी रहती हैं. उनकी आंखंे सड़क पर आने-जाने वालों पर लगी रहती हैं. आखिर कितने खरीदार आ सकते हैं. ज्यादातर बैठे-बैठे जम जाती हैं, उनके शरीर सुन्न पड़ जाते हैं.’ ऐसी पंक्तियां सोचने पर मजबूर करती हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम ऐसा क्यों देख-सुन रहे हैं?

शिवमूर्ति पर लिखे संस्मरण में लेखक ने उनके व्यक्तित्व के कई गुणों की चर्चा की है. सहजता, फक्कड़पन किसी के मदद के लिए सदैव तत्पर रहना आदि अनेक चीजें शिवमूर्ति को बेहतर लेखक होने के साथ बेहतर मनुष्य भी बनाती हैं. लेकिन राव बताना नहीं भूलते कि साहित्यकारों के फितरती व्यसनों से दूर रहने के बावजूद उनमें कमजोरी भी है और वह है नारी सौंदर्य के प्रति अदम्य आकर्षण. शिवमूर्ति के गांव पर लिखे अपने रिपोर्ताज में लेखक ने उनके जीवन और रचनाओं में शामिल स्त्रियों का आंखों देखा हाल प्रस्तुत किया है. पुस्तक में कथाकार कामतानाथ और दुबई में रह रहे लेखक कृष्ण बिहारी पर भी रोचक संस्मरण है. सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि सोहनलाल द्विवेदी और राजेन्द्र यादव का लेखक द्वारा लिया गया साक्षात्कार खासा जरूरी है. दोनों साक्षात्कारों को संस्मरण की शक्ल में प्रस्तुत किया गया है. लाखों-करोड़ों लोगों को अपनी कविताओं के द्वारा हिंदी से जोड़ने वाले इस अघोषित राष्ट्रकवि को उसके जीवन के अंतिम दिनों में उसके हाल पर उपेक्षित छोड़ दिया गया था. इस कवि का संस्मरणनुमा साक्षात्कार हमारी संवेदना को झकझोरता है. दिलचस्प अंदाज में लिया गया राजेन्द्र यादव का साक्षात्कार भी उनके व्यक्तित्व और चिंतन की कई परतों को उद्घाटित करता है.

‘दारु-विमर्श तथा अन्य स्वास्थ्यवर्धक बातें’

ellक्या दारू स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकती है? क्या शुगर फ्री टाइप की चीजें या जीरो कैलोरी ड््रिंक्स वगैरह लेने से वजन नहीं घटता? आपका लेख पढ़कर तो ऐसा ही लगा. कभी एंटीऑक्सीडेंट्स क्या होते हैं, यह भी तो बतला दें. कहते हैं कि स्वस्थ रहने में इनका भी बड़ा रोल होता है, साहब.

मेरे पिछले कॉलम (मेटाबॉलिक सिंड्रोम) के छपने के बाद बहुतों ने मुझे फोन करके ये बातें कीं. विशेष तौर पर अल्कोहल को लेकर तो कई पाठक आश्चर्य प्रकट करने लगे कि दारू भी क्या स्वास्थ्यप्रद हो सकती है? एक-दो ने तो इसे मेरे व्यंग्यकार पक्ष से जोड़ने की कोशिश की और माना कि बात मजाक में लिखी गई होगी. कॉलम की अपनी सीमा होती है. मेटाबॉलिक सिंड्रोम में कदाचित ये बातें इस विस्तार से नहीं बता पाया तभी इतने भ्रम तथा प्रश्न उठे हैं. आज मैं दारू, बनावटी मिठास वाले प्रॉडक्ट्स औैर एंटीऑक्सीडेंट नाम की बला के बारे में कुछ ऐसी बातें बताता हूं कि आप भी कहेंगे कि वाह, क्या बात है.

दारू लाभदायक भी हो सकती है.
दारू से हमारा तात्पर्य है- बीयर, वाइन और व्हिस्की जैसी अन्य कोई भी दारू. सुना तो यही था कि दारू पीना बुरी बात है. इससे अल्सर, लीवर सिरोसिस और न जाने क्या बीमारियां हो जाती हैं. यह भी पता था. पी के नाली में घुस जाते हैं, यह तो स्वयं देखा भी था, बल््कि एकाध बार तो स्वयं ही घुस गए थे. फिर? फिर कोई कैसे कह सकता है कि यह स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, मेटाबॉलिक सिंड्रोम कंट्रोल करती है, डायबिटीज, हार्ट अटैक आदि खतरे भी कम कर सकती है?

हां, यह सत्य है.
दारू यदि कंट्रोल डाेज में ली जाए तो ये सारे फायदे हो सकते हैं, ऐसा कई अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है. पर यह कंट्रोल डोज क्या है? फिर कब लेना ठीक कहाएगा? यह माना गया है कि रात के खाने से ठीक पहले यदि दो (पुरुषों के लिए) या डेढ़ (महिलाओं के लिए) ड्रिंक्स लिए जाएं तो यह फायदा पहुंचाएगी. अब आप पूछोगे कि एक ड्रिंक का क्या मतलब? तो सुनिए, एक ड््रिंक का मतलब है 360ml बीयर, 150ml वाइन या फिर 45ml की तथाकथित हार्ड ड्रिंक्स. अब इसे डेढ़ से दो ड््रिंक्स के हिसाब से लगा लें. बस इतना लें. वाइन में भी रेड वाइन.

हां! इस डाेज को पार किया कि दारू के उल्टे असर शुरू. वहां फिर वे सारी बीमारियां शुरू जिनके कारण दारू बदनाम है. यदि दारू को नशे या किक प्राप्त करने के लिए न पीकर स्वास्थ्यवर्धक दवाई के तौर पर पीना चाहते हैं तो पी सकते हैं. नशे के लिए पीने वाला कुछ समय बाद ही इस सुरक्षित डोज को पार कर जाता है और कहीं का नहीं रह जाता. गड़बड़ बस इतनी है. वर्ना इस सुरक्षित डोज में दारू क्या-क्या लाभ पहुंचा सकती है, इसकी लिस्ट लंबी है. बताता हूंः

क्या आप जानते हैं कि इस मात्रा में दारू एक बेहतरीन इंसुलिन सेेंसीटाइजर है?
तात्पर्य यह कि दारू का डोज इंसुलिन के प्रभाव को बढ़ाता है जिसके कारण ब्लड शुगर बेहतर कंट्रोल होता है. देखा गया है कि रात में खाने से ठीक पहले यदि ‘रेड  वाइन’ का एक ग्लास पी लें तो एक स्वस्थ व्यक्ति में भोजन के बाद का  ’ब्लड शुगर लेवल’ 30% तक कम हो सकता है. यही प्रभाव डायबिटीज और मेटालॉजिक सिंड्रोम में भी देखा गया है. बीयर और अन्य दारूओं से भी यह 20 % तक कम हो सकता है.

दारू के साथ दिक्कत यही है कि आदमी तय डोज पर रुकने को राजी नहीं होता. इसीलिए डॉक्टर लोग इस इलाज का जिक्र ही नहीं करते  

खाना खाने के बाद की ’ब्लड शुगर’ कम होने से क्या फायदा है? फायदा है न. फायदा समझने के लिए पहले यह वैज्ञानिक तथ्य समझें कि जब हम भोजन करते हैं तो खाना खाने के बाद का ’ब्लड शुगर’ लेवल बढ़ सकता है जो शरीर चलाने के लिए जरूरी भी है. पर यह बढ़ा लेवल शरीर में ’फ्री रेडिकल्स’ नामक हानिकारक पदार्थ भी पैदा करता है. अचानक बढ़ी शुगर से पूरे शरीर में ऊतकों में ‘इन्फ्लेमेशन’ (एक किस्म की सूजन कह लें) भी हो जाता है. यह होता बहुत कम समय के लिए है पर होता तो है. ये फ्री रेडिकल्स और यह ‘सिस्टेमिक इन्फ्लेमेशन’ हार्ट अटैक, स्ट्रोक, डायबिटीज, हार्ट फेल्योर और डेमेंशिया आदि खतरनाक बीमारियों की जड़ में माने जाते हैं. कई स्टडीज से यह सिद्ध हुआ है कि यदि रात के खाने से ठीक पूर्व, बताए गए डोज में दारू ली जाए तो डायबिटीज होने का खतरा 30% से 40% तक कम किया जा सकता है. कहा तो यहां तक जाता है कि इससे हार्ट अटैक का खतरा भी लगभग 30% और ‘ओवर ऑल’ मृत्यु को लगभग 20% तक कम किया जा सकता है. अब और क्या चाहिए, यार?

परंतु मैं पुन: कहूंगा कि दारू के साथ दिक्कत यही है कि आदमी तय डोज पर रुकने को राजी नहीं होता. यही वह खतरा है जिसकी वजह से डॉक्टर लोग इस इलाज का जिक्र ही नहीं करते जिसकी चर्चा मैंने ऊपर विस्तार से की.

‘आर्टिफिशियल स्वीटनर्स’ वजन बढ़ा सकते हैं.
हम या तो मिठाइयां  भकोसते हैं या एकदम से सैकरीन-एस्पार्टेम आदि कृत्रिम मिठास वाली चीजों पर उतर आते हैं. याद रखें कि हमारी जीभ को मीठा स्वाद पता तब चलता है जब 200 में से 1 पार्ट भी शक्कर का हो. जबकि कृत्रिम स्वीटनर्स मिठास का इतना ‘स्ट्रोग सेंसेशन’ पैदा कर सकते हैं कि हमारी जीभ को 1,000 में से एक पार्ट भी पता चल जाएगा. नतीजा? नतीजे दो हैं. विशेष तौर पर ऐसी ’जीरो कैलोरी’ ड्रिंक्स जो मीठी तो हैं पर कैलोरीज से खाली हैं. लोग इन्हें पीते हैं. सोचते हैं, कितना भी पिओ इनमें कैलोरीज तो हैं नहीं! पर इन्हें पीने, पीते रहने से हमारे शरीर में एक अनोखा बदलाव हुआ जाता है. अब हमारा शरीर मिठास और कैलोरी भक्षण के संबंध को समझना बंद कर देता है. यह महाखतरनाक है. इससे हार्मोंस तथा दिमाग के ‘न्यूरोबिहेवियर’ कनेक्शनों में गड़बड़ पैदा हो जाती है. ज्यादा खाते हैं और दिमाग के सेटइटी (तृप्ति) सेंटर को पता ही नहीं चलता. तृप्ति का भाव दब जाता है. आदमी पतले के बजाए मोटा हो सकता है. स्टडीज से पता चला है कि ये ’कृत्रिम मिठास’ वाले पदार्थ कोकीन के नशे से भी ज्यादा आदी बनाने वाले पदार्थ हैं. इनकी जीरो कैलोरी ड्रिंक्स के आप आदी भी हो सकते हैं.

देखिए कि फिर भी एंटीऑक्सीडेंट्स आदि के बारे में इस बार भी बताने को रह ही गए. क्या करें? कॉलम की सीमा पर खड़े होकर वायदा ही कर सकते हैं कि फिर कभी!