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अ से अमिताभ

Amitab--1

सिक्के खनकते हैं, लेकिन जब उनकी कीमत बढ़कर उन्हें नोटों में बदल देती है तब वे आवाज नहीं करते. करते भी हों, उन्हें आवाज करनी तो नहीं चाहिए.

अमिताभ बेशकीमती हैं. वे अपनी लोकप्रिय विनम्र शैली में इसे कहेंगे कि वे कुछ नहीं हैं और उन्हें बेशकीमती बना दिया गया है. मगर किसी खामखयाली में मत रहिए. वे हमेशा इतने विनम्र नहीं रहते. वे भूलते नहीं और न ही माफ करते हैं. चटपटी खबरों की तलाश में रहने वाले मुंबई मिरर के एक पत्रकार ने एक हड़बड़ी वाली दोपहर में जब ऐश्वर्या को टीबी होने की खबर लिखी तो उसे इसका अंदाजा नहीं था. किसी गलतफहमी में वह अमिताभ के गुस्से को भूल गया होगा या उन्हें बूढ़ा मानकर बेफिक्र रहा होगा.

मगर यह 1996 नहीं है, जब उदास और हारे हुए से एक इंटरव्यू के बीच में एक पत्रकार ने अमिताभ से अचानक पूछा कि वे कितना काम और करेंगे. उनका उत्तर था, ‘दो साल और. मैं बूढ़ा हो रहा हूं और हमेशा इस गति से काम नहीं कर सकता.’

तब वे 54 साल के थे और उन्हें लग रहा था कि अपनी निरंतर कम होती क्षमताओं के साथ वे ज्यादा दिन तक लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाएंगे.

इस बात को चौदह साल बीत चुके हैं और आज भी उन्हें बूढ़ा कहना, बुढ़ापे को असीम ऊर्जा, रफ्तार और अटूट इच्छा-शक्ति का पर्याय बनाने जैसा है. यह अदम्य उत्साह शायद इलाहाबाद में बीते बचपन की उन गर्मियों से निकला है, जब वे दोपहर की लू में साइकिल पर घर लौटते थे और सुराही का ठंडा पानी, एक टेबल फैन या खस की चटाई ही सबसे आरामदेह चीजें हुआ करती थीं. आज ‘प्रतीक्षा’ में अपनी उपलब्धियों पर गर्व करते हुए जब वे अपने मैक पर टाइप कर रहे होते हैं तब उन्हें जुबान पर डाक टिकट फिराकर उसे चिट्ठी पर चिपकाने वाले दिन भी उसी शिद्दत से याद आते हैं.

‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं ‘

यही बात है जो उन्हें उस विशालता से अलग करती है जो हमारे महानायकों को हमसे कई हाथ ऊंचे सिंहासन पर बिठा देती है और हम उन्हें बिलकुुल सामने से कभी नहीं देख पाते. वे हमारे पिताओं और बच्चों दोनों को अपने दोस्त-से लगते हैं. हम जादुई सचिन या प्रतिभावान शाहरुख से चाहकर भी वह स्नेहिल पारिवारिक रिश्ता नहीं जोड़ पाते, जो अमिताभ से अपने आप जुड़ जाता है. लेकिन क्या इस रिश्ते का भ्रम जान-बूझकर रचा गया है और हम एक बड़े खेल का बेवकूफ-सा हिस्सा भर हैं?

कुछ लोगों का मानना है कि वे हमेशा से इतने अपने नहीं लगते थे और अपनी सबसे नई पारी में उन्होंने यह नया व्यक्तित्व जान-बूझकर रचा है. मतलब यह कि बहुत सारी असफलताओं के बाद दिखा उनका यह सार्वजनिक चेहरा भी शहंशाह या ऑरो की तरह एक किरदार है, जिसे वे पूरी लगन के साथ निभा रहे हैं.

जो भी हो, हम सब उस अपनेपन को नहीं खोना चाहते. इसलिए हमें वह रास्ता खोजना था जिससे हम उनके मन की कुछ और तहों तक पहुंच सकें. अमिताभ ने कहीं लिखा है कि उनका लिखना, उनके अस्तित्व को अर्थ देता है. सो हमने भी उनके ब्लॉग पर लिखे हुए की उंगली थामी और उसमें छिपे अर्थों के जरिए उन्हें एक व्यक्ति के रूप में जानने की कोशिश की.

अमिताभ को जानना सिर्फ उन्हें जानना नहीं है. वे हमारे पूरे दौर की परिभाषा से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं. उन्हें जानना चूर-चूर होकर बिखर जाने के बाद फिर से पहाड़ पर चढ़ने के ख्वाब को देखने जैसा है. उन्हें जानना एक चोटिल अभिनेता के लिए एक धार्मिक देश की असंख्य दुआओं को महसूस करना है और इस तरह घोर मसाला फिल्मों के प्रति एक रूढ़िवादी समाज की रोचक आस्थाओं को जानना है. उन्हें जानना भारत की राजनीति के उलझे काले रहस्यों को जानना भी है. उन्हें जानना भारत की संकल्पना के उस जिद्दी स्वप्न को देखने जैसा भी है जो तमाम विषमताओं के बावज़ूद अपनी राह पर बढ़ते रहने का हौसला देता है. उन्हें जानना उस मध्यवर्गीय भारत को जानने जैसा है जो एक लॉटरी के टिकट या एक घंटे के टीवी शो के माध्यम से अपनी तकदीर बदल देना चाहता है.

उनके काम को छोड़ दिया जाए तो वे किसी रिटायर्ड कस्बाई अध्यापक की तरह ही लगते हैं. ब्लॉग पर आम बातों के बीच में वे अचानक दार्शनिक हो जाते हैं, गुस्से में बहुत डांटते हैं और कभी-कभी बहुत दुलारते भी हैं. इस उम्र में उन्हें अपने पिता बहुत याद आने लगे हैं और अपनी सीमाओं में वे हम सबके लिए बहुत फिक्रमंद हैं. कम से कम ऐसा कहते तो हैं ही.

 अमिताभ अपने मां-बाबूजी और परिवार के सदस्यों के साथ
अमिताभ अपने मां-बाबूजी और परिवार के सदस्यों के साथ.फोटो: इंडिया टुडे

घर-परिवार
पारिवारिक सदस्य के रूप में यदि अमिताभ की तुलना किसी फिल्मी चरित्र से करनी हो तो नब्बे के दशक की सुपरहिट फिल्मों में आलोकनाथ और अनुपम खेर द्वारा निभाए गए किरदार याद आते हैं. वे एक समृद्ध परिवार के मुखिया हैं. ऐसा परिवार जिसके पास पांच पद्म सम्मान हैं. वे किसी सामान्य भारतीय से ज्यादा आस्तिक हैं. ‘मोहब्बतें’ के सख्त पिता के उलट वे प्यार के बीच में नहीं खड़े होते. उनका सबसे पहले नजर में आने वाला गुण विनम्रता है (कभी-कभी गुस्सा भी), विनम्रता इतनी ज्यादा कि कभी-कभी बनावटी भी लगती है. वे उत्सवप्रिय हैं. वे अपनी समधिन का जन्मदिन मनाने पूरे परिवार के साथ डिनर पर जाते हैं. वे अपने बच्चों के दोस्त और आदर्श हैं. वे अपनी बहू को बेटी जैसा मानते हैं और इस तरह बेटे जैसा भी, क्योंकि भारत में बेटियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का यह राजदूत बार-बार स्त्री-पुरुष समानता के पक्ष में खड़ा होता है (मुंबई मिरर और दूसरे अखबारों की उन खबरों के बावजूद जिनमें बार-बार कहा जाता है कि अमिताभ पोता पाने के लिए बेताब हैं). बहुत-से पुरुषों की तरह वे मानते हैं कि अपनी पत्नी में वे मां का अक्स भी तलाशते और पाते रहते हैं.

वे अपने पुराने दोस्त राजीव गांधी का उतना ही कम जिक्र करते हैं जितना अपने भाई अजिताभ का

उन फिल्मी किरदारों से समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं. यदि आप परिवार के किसी भी सदस्य को कुछ गलत कहते हैं तो अमिताभ दुर्भेद्य सुरक्षा-कवच की तरह सामने आ खड़े होते हैं. उन्हें इतना गुस्सा आता है कि अकसर वे फिर से पारंपरिक भारतीय मर्द का चोला पहन लेते हैं और कहते हैं, ‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं.’

परिवार की दो औरतों, जया और श्वेता के बारे में आम तौर पर कोई उल्टा-सीधा नहीं कहता, लेकिन उनकी विश्व-सुंदरी को (वे स्नेह और क्रोध, दोनों के अतिरेक में ये ही शब्द इस्तेमाल करते हैं- ‘मेरी विश्व सुंदरी’) अफवाहों से बचाकर रखना इतना आसान नहीं. कभी उन्हें मांगलिक बताया जाता है और यह भी कि उनकी ग्रह-दशा शांत करवाने के लिए पूरा बच्चन परिवार मंदिरों में घूम रहा है और कभी यह कहा जाता है कि उन्हें पेट की टीबी है और इस कारण वे गर्भवती नहीं हो पा रहीं.

वे बार-बार सफाई देते हैं, क्रोध में दहाड़ते हैं और कभी-कभी अंधविश्वास के पैरोकार बड़े अखबारों के दफ्तरों में जाकर उनके पचासों संपादकों को समझाते भी हैं कि उन्होंने ऐश्वर्या की शादी कभी किसी पेड़ से नहीं करवाई. लेकिन कोई फायदा नहीं होता. वह बहू, कान्स में उन्हें जिसके नाम से जाना जाता है, हिंदी फिल्मों की एक अभिनेत्री है और उसे मसाला खबरों की खुराक बनना ही पड़ता है.

परिवार के सदस्यों में अभिषेक और ऐश्वर्या के नाम उनके ब्लॉग पर सबसे ज्यादा दिखते हैं. हां, पिता हरिवंशराय बच्चन से थोड़ा कम. मां का जिक्र सबसे कम होता है. यह बात और है कि आजकल उनकी आस्थाएं मां के सिख धर्म की ओर मुड़ने लगी हैं. मां को कम याद करने की बात इस फिल्मी संदर्भ में मजेदार है कि अपनी जवानी में उन्होंने हिन्दी फिल्मों को ऐसे कई हीरो दिए हैं जो अपनी मां को बहुत प्यार करते थे और पिता के बारे में कम जानते थे. मगर यह याद इतनी कम भी नहीं क्योंकि उदयपुर के भीड़ भरे बाजारों से गुजरते हुए अचानक मां का आईसीयू में जिंदगी और मौत से चला संघर्ष आंखों के आगे घूम जाना इतना अनायास भी नहीं हो सकता.

सिख धर्म की ओर झुकाव होने, गले में गुरु नानक देव जी के लॉकेट पहनने और सच्चे बादशाह से ऊर्जा पाने की बात 1984 में सिख-विरोधी दंगे भड़काने के ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के आरोपों को धीमे जहर की तरह खत्म करती है. वैसे अमिताभ कहते हैं कि वे आम खूबियों वाले आम आदमी हैं और उनकी बातों के गहरे अर्थ न तलाशे जाएं.

उन्हें आंगन बहुत प्यारा है और उसमें नीम का पेड़ भी हो तो उन्हें उसमें खो जाने से रोकना और भी मुश्किल हो जाता है. जया का जिक्र वे दिल्ली के अपने घर ‘सोपान’, आंगन और नीम से बस थोड़ा ही ज्यादा करते होंगे.

सच्चाई, स्वतंत्रता, पारदर्शिता और प्रतिभा के सम्मान की बातें वे बार-बार करते हैं, मगर बॉलीवुड में बढ़ते वंशवाद की कभी नहीं करते. शायद उन्हें इकतीसवें दिन की अपनी पोस्ट पर अभिषेक का वह कमेंट याद आ जाता होगाे जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं. वैसा होने के लिए जो आप हैं- दुनिया के सबसे अच्छे पिता..’

कभी-कभी अच्छा पिता होने के लिए बाकी बातों को भूल जाना पड़ता है. और आप हैं कि हर बात में नुक्स तलाशते हैं.

मीडिया
1997 के पहले अंक में आउटलुक की आवरण कथा थी. पिछले वर्ष के खलनायक. उसमें अमिताभ बच्चन छठे स्थान पर थे. ये वे साल थे जब उनकी कंपनी एबीसीएल उन्हें कर्ज में डुबाकर डूब गई थी. उस कर्ज में एक बड़ा हिस्सा दूरदर्शन का भी था और देश के हर चौराहे पर कहा जा रहा था कि अमिताभ का सुनहरा दौर अब खत्म हो गया है. मीडिया शत्रुघ्न सिन्हा के उन बयानों को गर्व से छाप रहा था जिनमें कहा गया था कि वे सिर्फ कट-आउट में ही अच्छे लगते हैं, असल में नहीं. हर दौर में उन्होंने गलत कहानियां और निर्देशक ज्यादा चुने हैं और यह वे तब भी कर रहे थे और असफल हो रहे थे. अपने करियर को उठाने के लिए उन्हें गोविंदा की फूहड़ कॉमेडी का सहारा लेना पड़ रहा था. नसीरुद्दीन शाह के मुताबिक वे दुनिया के इकलौते ऐसे एक्टर हैं जो हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा स्तरीय थे. अमिताभ हताश दिखते थे और टीवी पर साजिद खान उन्हें राष्ट्रीय मजाक बनाकर मशहूर होने की कोशिश में लगे हुए थे. इस हाल से बाहर आने के लिए वे मिरिंडा का विज्ञापन करते थे तो देश भर को वे अपने गरिमामयी शिखर से गिरते हुए नजर आते थे. अखबार और पत्रिकाएं ईश्वर के अंदाज में यह घोषणा कर रहे थे कि अमिताभ नाम का सितारा मिस वर्ल्ड के तंबुओं की तरह टूटकर गिर गया है. मिस इंडिया करवाने वाला अखबार मिस वर्ल्ड के आयोजन के उनके इरादों को देखकर कुछ अधिक भारतीय हो गया था और उन्हें संस्कृति के पाठ पढ़ाने लगा था. उन्हीं दिनों में एक बार बहुत धीमे स्वर में उन्होंने कहा था, ‘मुझे उम्मीद है कि अगले दस साल में भारतीय कुछ अधिक उदार हो जाएंगे.’ लेकिन वे कभी उदार नहीं हुए बल्कि हमेशा या तो सनकी भक्त रहे या कटु आलोचक.

पिता ही हैं जिनके लिखे ‘सिलसिला’ और ‘बागबान’ के होली वाले गीत होली के दिन सड़कों पर सुनकर अमिताभ का सीना चौड़ा हो जाता है

क्या विडंबना थी कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में सबसे लंबे समय तक परदे पर लोगों के सपनों को सच करता और उनकी लड़ाइयां लड़ता यह महानायक मुंबई के एक अखबार के सर्वे में तीसरे स्थान पर था, जिसका सवाल था कि आप किस मशहूर शख्सियत से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं.

उन्होंने यह दौर बार-बार देखा है और अपने ब्लॉग के माध्यम से मीडिया पर उनके बार-बार बरसने को यदि आप बिलकुल गैरजरूरी मानते हैं तो क्या आपको अस्सी के दशक का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का वह पहला पन्ना याद नहीं जो अमिताभ के बारे में था और जिसका शीर्षक था- देश का गद्दार.

एक समय में उन पर आरोप था कि वे इंदिरा गांधी के नजदीकी हैं और आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप के लिए वे ही उत्तरदायी थे. पहले मीडिया ने उन पर घोषित प्रतिबंध लगाया और बाद में उन्होंने मीडिया पर. मीडिया से अमिताभ का रिश्ता इसी पंक्ति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. सब सेलिब्रिटियों की तरह मीडिया उनकी जिंदगी के भी बिलकुल अंदर तक बेरोकटोक घुसना चाहता है और जब वे अपने बेटे की शादी में बिना बुलाए घुस आए पत्रकारों पर थोड़े सख्त हो जाते हैं तो वह फिर से उनका पूरा बायकॉट कर देता है. इस रिश्ते में बीच का कोई रास्ता नहीं है, इसीलिए वे ब्लॉग लिखते हैं, जो कई मायनों में उनकी व्यक्तिगत न्यूज एजेंसी की तरह भी है.

उनकी और भी शिकायतें हैं. उन फोटोग्राफरों से जो उन्हें तब मुस्कुराकर फोटो खिंचवाने को कहते हैं जब वे किसी अस्पताल में मौत से जूझते बेसहारा बच्चों से मिल रहे होते हैं. उन पत्रकारों से जो हर इंटरव्यू में वही सवाल पूछते हैं और उनकी आधी शक्ति उनका अलग-अलग तरह से जवाब देने में खर्च हो जाती है.

मगर क्या उन एक जैसे सवालों के लिए अमिताभ ही कहीं न कहीं उत्तरदायी नहीं हैं? बहुत-से सवालों को वे व्यक्तिगत सवालों की लिस्ट में डाल देते हैं और कुछ पर उनकी प्रतिक्रिया इतनी ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होती है कि इंटरव्यू को नीरस बनने से बचाने के लिए उसे काटना पड़ता है. अब सिर्फ एक जैसे कुछ सवाल ही सुरक्षित बचते हैं, मसलन इस फिल्म में आपका क्या रोल है और भविष्य की क्या योजनाएं हैं. आप कितने भी वाकपटु हों, उनसे ऐसे किसी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे पर राय नहीं ले सकते जिस पर किसी के नाराज हो जाने का खतरा हो.

अमिताभ जब देर रात में पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आधी प्रतिक्रियाएं तो यही होती हैं कि उन्हें जल्दी सोना चाहिए 

गलती चाहे किसी की भी रही हो, उनका ब्लॉग मीडिया को कोसने का एक मंच बन गया है. उनका साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार उनका कोई एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आसानी से अपने अखबार में नहीं छाप सकते, क्योंकि उसे अकसर अमिताभ अपने ब्लॉग पर छाप चुके होते हैं (कभी-कभी अखबार से पहले ही) और वे नहीं चाहते कि उनकी एक भी पंक्ति से कोई छेड़छाड़ की जाए. नतीजा होता है, एक जैसे सपाट उत्तरों की एक लिस्ट, जिससे आप किसी भी मुद्दे पर उनका स्टैंड नहीं जान सकते.

वे अपनी प्राइवेसी के बारे में बहुत सतर्क रहते हैं, लेकिन इस चक्कर में वे कई बार उन पत्रकारों की प्राइवेसी का सम्मान करना भूल जाते हैं जिनकी ईमेल आईडी और एसएमएस वे अपने ब्लॉग पर जनता के सामने रख देते हैं. ये वे संदेश और संवाद होते हैं जो यह समझकर लिखे गए होते हैं कि इन्हें वे अपने तक ही सीमित रखेंगे. दूसरों की निजता का हनन करने वाली इस हंसी में कभी-कभी अहंकारी अट्टहास दिखता है, जो उनके जायज गुस्से के बावजूद उतना ही नाजायज है.

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दोस्त और कुछ कम अच्छे दोस्त
अमिताभ के नजदीकी मित्रों की संख्या ज्यादा नहीं है और यदि है भी तो वे उनके बारे में उतनी ही कम बातें करते हैं. दोस्ती के दिनों में भी अमर सिंह को वे अमर सिंह जी लिखते थे, जो सुनने में दोस्ती का संबोधन तो नहीं लगता. पुराने दोस्त राजीव गांधी का वे उतना ही कम जिक्र करते हैं जितना अपने भाई अजिताभ का. छुट्टी के दिन उन्हें परिवार के साथ फिल्म देखना और फिर शाम को कहीं बाहर खाने पर जाना पसंद है. परिवार के लोग व्यस्त हों (और ऐसा तो अक्सर होता होगा) तो वे अकेले रहना पसंद करते हैं. उनकी जिंदगी में ऐसा कोई वीरू नहीं दिखाई पड़ता जिसके लिए जान देने को भी तैयार हुआ जा सके. चाहे-अनचाहे उनके इर्द-गिर्द ऐसा आभामंडल बन गया है जो उन्हें जय की तरह मुंहफट और बेपरवाह नहीं होने देता और दुर्भाग्यवश, वीरू जैसा कोई दोस्त आपके पास होने के लिए यही पहली शर्त है.

फिल्मी दुनिया की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखें तो पहले दर्जे के अधिकांश सक्रिय लोग उम्र में उनसे काफी छोटे हैं और बीच में आया सम्मान का परदा उन्हें अनौपचारिक नहीं होने देता. यह गांव के सबसे बूढ़े बचे व्यक्ति के अकेलेपन जैसा है, जो अपने दोस्तों को एक-एक कर जाते हुए देख चुका है. इस फिल्मफेयर में व्हीलचेयर पर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार लेने आए शशि कपूर को देखने के बाद से वे उन्हें कई बार याद कर चुके हैं. शशि ही थे जिन्होंने ‘शेक्सपीयरवाला’ की शूटिंग के दौरान उन्हें अंतिम-संस्कार की भीड़ में एक्स्ट्रा बनकर खड़े देखा था और खींचकर यह कहते हुए बाहर ले आए थे कि तुम्हें बहुत बड़े काम करने हैं.

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मैं स्टूडियो की ओर भागता हूं. यथार्थ की ओर. अपनी राह की ओर. संघर्ष करने, तलाशने, बाधाएं झेलने और घायल होने, उन लोगों का भेदभाव झेलने जो अपने इलाकों में मुझे नहीं देखना चाहते, जो मुझे शिकायतों और विवादों से चिढ़ाते हैं, मेरे काम, मेरे बर्ताव, मेरे दृष्टिकोण की बुराई करते हैं. जो मेरे हर काम को अविश्वास से देखते हैं, मेरी ईमानदारी, मेरी हर दोस्ती, मेरे लिखे और बोले हर शब्द को चुनौती देते हैं…

जब कैमरा शुरू होता है और निर्देशक ‘एक्शन’ बोलता है, कहीं किसी विचार या भावना के लिए जगह नहीं होती, जगह होती है सिर्फ मेरे शरीर के लिए, मेरे किरदार के लिए, मेरी आवाज और मेरे भावों के लिए. उस स्पेस में न कोई आ सका है, न आ पाएगा. वह मेरी अपनी दुनिया है, जिसमें मेरी आस्था है और जिसे मैं पाना चाहता हूं. वहां कोई भेदभाव नहीं है, न नफरत, न गुस्सा, न राजनीति, न सामाजिक और नैतिक बंधन. वहां सिर्फ वह किरदार है जिसे मैं कैमरे के खूबसूरत लेंस के लिए जीता हूं और जो मुझे मेरी मधुशाला में ले जाता है… (ब्लॉग से)

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उनके सबसे नए फिल्मी दोस्त शायद रामगोपाल वर्मा हैं और दोनों एक-दूसरे को ‘सरकार’ कहकर पुकारते हैं.

कुछ कम अच्छे दोस्तों की फेहरिस्त थोड़ी लंबी है. उसमें सलीम खान भी हैं, जो आम आदमी की अभागी याददाश्त के कारण ‘शोले’ और ‘दीवार’ के लेखक के रूप में कम और सलमान के पिता के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं. जब भी अमिताभ की आलोचना होती है, उनके बयान सबसे पहले आते हैं. अमिताभ की नाराजगी का बड़ा कारण वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि अमिताभ पैसे लेकर यूपी सरकार के लिए विज्ञापन कर रहे हैं. पुराने साथी कलाकार और पड़ोसी शत्रुघ्न सिन्हा भी साल में एक बार तो उनके विरुद्ध बोल ही देते हैं. शत्रुघ्न ही थे जिन्होंने अभिषेक की शादी की शगुन की  मिठाई लौटा दी थी और आईफा पुरस्कारों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, ‘सब किसी का बेटा है या किसी की बहू या किसी की बीवी.’ मगर उसकी प्रतिक्रिया में जब अमिताभ आपा खोते हैं तो उसकी चपेट में उनकी पत्नी पूनम, शोले के सांभा मैकमोहन, रवीना टंडन और राष्ट्रीय पुरस्कार तक आ जाते हैं. यह उनके गुस्से का खास शालीन स्टाइल है.

कभी दोस्त रहे खालिद मोहम्मद जब भूतनाथ की कुछ अधिक व्यक्तिगत होती समीक्षा में यह लिखते हैं कि अमिताभ ऐक्टिंग भूल गए हैं तो अमिताभ भी किसी तार्किक आधार पर उन्हें गलत नहीं ठहराते. वे खालिद को वह महंगी शराब याद दिलाते हैं जो उन्हें अमिताभ की डाइनिंग टेबल पर ही नसीब हुआ करती थी.

आप उनकी मुलाकातों और मुस्कुराहटों से उनके नए दोस्तों का अनुमान लगाएंगे तो शायद नरेंद्र मोदी का नाम भी लेंगे, मगर अमिताभ कहते हैं कि वे अपने काम और रुतबे के सिलसिले में इतने लोगों से मिलते हैं कि तब तो सीएनएन आईबीएन के राजदीप सरदेसाई, एनडीटीवी के प्रणय रॉय, इंफोसिस के नारायणमूर्ति से भी उनकी दोस्ती की चर्चा होनी चाहिए और लेबर पार्टी से लेकर डीएमके, भाजपा, कांग्रेस और बाल ठाकरे से भी. हां, याद आया, जिस विवाद में ‘ठाकरे’ जुड़ जाए उसमें वे चुप्पी साध लेते हैं. तब वे वैसी तल्ख प्रतिक्रियाएं नहीं देते जैसी खालिद मोहम्मद या शत्रुघ्न सिन्हा को देते हैं. यह शायद मुंबई में रहने का नया नियम है, जिसे ‘सरकार’ तोड़ना नहीं चाहते.

पिता
अमिताभ अपने पिता के पिता के पुनर्जन्म जैसे हैं. ऐसा उनके पिता कहते थे. हरिवंशराय बच्चन भी ऐश्वर्या की तरह, जितना अमिताभ को सिर ऊंचा करने के कारण देते हैं, उतना ही लोग उन्हें अमिताभ को परेशानी देने वाले माध्यम की तरह इस्तेमाल करते हैं.

मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा.

ये पंक्तियां अमिताभ अकसर अपने आप को निष्कपट बताने के लिए ब्लॉग पर लिखते हैं, लेकिन उसी तरह लोग उनके पिता की पंक्तियां लिखते हैं- मैं हूं उनके साथ, जो सीधी रखते अपनी रीढ़, और उन्हें याद दिलाते हैं कि वे तटस्थ दिखने की बजाय सच का रास्ता चुनें और अपने पिता की राह पर चलें. गुस्से में अमिताभ कहते हैं कि कोई ऐसा कॉपीराइट होना चाहिए जिससे कोई भी उनके पिता की पंक्तियों को यूं ही मनचाहे संदर्भ में इस्तेमाल न कर सके. वे ब्लॉग पर अपने पिता की विरासत को बार-बार महान और संग्रहणीय भी कहते हैं और कोशिश करते रहते हैं कि उसे और अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उनका नाम काम आ सके. हिंदी के किसी और लेखक के पास अपने प्रचार-प्रसार के लिए इतना सफल बेटा नहीं है.

जया के शब्दों में अमिताभ भोले-भाले स्कूली लड़के की तरह हैं जो होमवर्क समय पर और अच्छी तरह पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं जानता. वह स्कूली लड़का अपने पिता के सर्वाधिक निकट है और उसे वे दिन अच्छी तरह याद हैं जब आर्थिक तंगी के बीच कैंब्रिज में अपनी थीसिस पूरी करके लौटे उनके पिता बच्चों के लिए उपहार के रूप में उस थीसिस के रफ ड्राफ्ट लेकर आए थे (वैसे यह अलग बहस का विषय है कि आज भी आर्थिक तंगी में कितने प्रतिशत भारतीय कैंब्रिज पढ़ने जा सकते हैं). अमिताभ ने उस उपहार को आज भी संभालकर रखा है, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अपनी मां और पिता के कमरे आज भी उसी स्थिति में रखे हैं जिसमें वे उन्हें छोड़ गए थे.

यदि आपको लगता है कि ‘सात हिंदुस्तानी’ उनकी पहली फिल्म थी तो मैं आपको टोकना चाहूंगा. उनकी आंखों ने चमक, प्रसिद्धि और तालियों की जिस दुनिया में पहली बार अपने आपको पाया वह उन कवि सम्मेलनों की थी जिनमें वे अपने पिता की उंगली पकड़कर जाते थे और फिर मंत्रमुग्ध-से उन्हें हजारों की भीड़ के सामने मधुशाला गाते हुए देखते थे. वही फिल्म है जिसकी रील सब मुश्किल घड़ियों में आंखें बंद करते ही उनके सामने घूमने लगती है और उन्हें पिता की एक और बात याद आती है- मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा.

पिता ही हैं जिनके लिखे ‘सिलसिला’ और ‘बागबान’ के होली वाले गीत होली के दिन सड़कों पर सुनकर अमिताभ का सीना चौड़ा हो जाता है. शायद पिता की दी हुई शक्ति ही है कि आप अमिताभ को कितना भी तोड़ें, वे दुगुनी हिम्मत के साथ हर बार फिर से जुड़कर खड़े हो जाते हैं. नैनीताल के शेरवुड कॉलेज के दिनों में अपने अध्यापकों के लाख रोकने के बावजूद वे हर बार बॉक्सिंग रिंग में कूदते थे. चूंकि अपने लंबे कद के कारण हमेशा वे अपनी सामर्थ्य से अधिक भारवर्ग में होते थे और इसलिए हारते भी थे, लेकिन उन्होंने लड़ना नहीं छोड़ा. इसी तरह वे तब भी लड़ना नहीं छोड़ते जब सवा अरब लोगों की आंखें उनकी निजी जिंदगी को और उम्मीदें उनके प्रयोगों को अपने बोझ तले कुचल डालना चाहती हैं. आज भी पिता की कविताएं पढ़ने से उनकी बेचैन रातें कुछ आसान हो जाती हैं, कुछ मुश्किल फैसले उतने मुश्किल नहीं रह जाते, जीवन उतना रंगीन और मृत्यु उतनी भयावह नहीं लगती.

Amitab--6सरकार और उनके दीवाने
अमिताभ की छवि ऐसी है कि कोई भी उत्तरभारतीय मध्यवर्गीय परिवार उन्हें अपने घर के बुजुर्ग जैसा मान सकता है. बीस साल पहले तक वह उन्हें अपने लिए लड़ने वाला जवान बेटा मानता था. आप कस्बों और गांवों की ओर बढ़ेंगे तो वह छवि कई मिथक अपने साथ जोड़ती जाएगी. मसलन अपने बचपन में हम सबके लिए वही दुनिया के सबसे लंबे आदमी थे. मेरे पिता के लिए वे ऐसे आदमी हैं जिन्होंने अदभुत सफलता को अपने सिर नहीं चढ़ने दिया और सब संस्कार बचाकर रखे. यह सब सितारों के साथ होता है, इसीलिए ‘अमिताभ बच्चन’ एक व्यक्ति न होकर एक संस्कृति हो गए हैं. अमिताभ शराब-सिगरेट नहीं पीते, मांस नहीं खाते, झूठ नहीं बोलते वाली यह छवि पौराणिक नायकों जैसी है और अमिताभ खुद महसूस करते हैं कि कई बार वह उन पर अतिरिक्त बोझ डाल देती है.

लेकिन आप उनका ब्लॉग पढ़ेंगे तो लगेगा कि यह बोझ थोड़ा तो जान-बूझकर भी डाला गया है. जब आप उन्हें घर के बाहर जमा भीड़ के लिए हाथ हिलाते देखेंगे तो उनके चेहरे पर उपलब्धि का भाव होगा, कुछ-कुछ ‘सरकार’ जैसा. उन्हें किसी भी दूसरे सितारे से थोड़ा ज्यादा अपने प्रशंसकों को अपना बनाए रखने का खयाल है. ब्लॉग के पाठक उनकी एक्सटेंडेड फैमिली हैं और कभी-कभी वे उनमें से कुछ को जन्मदिन की बधाई भी दे देते हैं और कुछ के लिए उनके किसी अपने की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं. अब अमिताभ बच्चन एक बार भी ऐसा कर दें तो हजार लोग इस उम्मीद में महीनों उनके ब्लॉग पर अपनी टिप्पणियां देते रहेंगे कि उनका नंबर भी आएगा. वैसे उन टिप्पणियों को पढ़ना भी एक रोचक अनुभव है और तब आप जान पाते हैं कि उस दीवानगी की हदें कितनी दूर तक हैं.

जैसे बनारस में जन्मी एक बंगाली लड़की तीन साल की उम्र से उनकी दीवानी है. और बहुत-से प्रशंसकों की तरह वह दावा करती है कि उसने उनकी सभी फिल्में कम से कम पच्चीस बार देखी हैं. उसे एक लड़के से सिर्फ इसलिए प्यार हुआ क्योंकि वह हर बात में अमिताभ के डायलॉग बोलता था और शादी के बाद वे जब भी घूमने जाते थे, रास्ते भर ‘सिलसिला’ के गाने गुनगुनाते थे. एक जनाब दावा करते हैं कि अमिताभ उन्हें अकसर सपने में दिखते हैं – घर के सदस्य की तरह –  और उन्होंने चार साल पहले खरीदी एक किताब अब तक इसलिए नहीं खोली कि उसे उस पर अमिताभ के साइन चाहिए. अखबार के समस्या-समाधान वाले कॉलम की तरह लोग अपनी घरेलू समस्याएं तक लिखते हैं और अमिताभ से मार्गदर्शन मांगते हैं, जैसे वे जादू की छड़ी घुमाएंगे और सब ठीक हो जाएगा. अमिताभ जब देर रात में पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आधी प्रतिक्रियाएं तो यही होती हैं कि उन्हें जल्दी सोना चाहिए और अपनी सेहत का खयाल रखना चाहिए. कुछ उनके लिए लंबी कविताएं लिखते है तो कुछ उन्हें तीस साल पहले की कोई मुलाकात याद दिलाने की भी कोशिश करते हैं, जब भीड़ में अमिताभ ने हाथ मिलाने के बाद उनका नाम भी पूछा था.

लेकिन यह अपनापन इतना अनायास नहीं है. मुंबई की बारिश में वे कुछ लड़कियों को अपनी कार में लिफ्ट देते हैं, बारिश इतनी है कि उनके घर में भी पानी घुस आया है जिसे बाल्टियों से निकालना पड़ रहा है, सड़क पर मिलने वाले भूखे लोगों और अनाथ बच्चों से उनकी सहानुभूति है और कभी-कभी वे उन्हें खाना या कपड़े भी दे देते हैं, औरतों के अधिकारों के वे प्रबल समर्थक हैं, एक नौकर की पत्नी के बीमार होने पर वे उसकी आर्थिक मदद करते हैं और हर सुख-दुख में साथ रहे घर के नौकर ही बेटे की शादी में उनके लिए सर्वाधिक अपने और महत्वपूर्ण मेहमान हैं, उस दिन अमिताभ उन्हें कुर्सी पर बिठाकर अपने हाथों से खाना परोसते हैं.

अब ऐसा इंसान किसे अपना नहीं लगेगा? आप उनके काम के भी प्रशंसक हों तब तो इतने दीवाने हो ही जाएंगे. अमिताभ को गुस्सा आता है कि मीडिया उनका यह पहलू कभी नहीं दिखाता. लेकिन एक बात और गौर करने लायक है कि ये सब चीजें तो कम या ज्यादा, हम सभी करते हैं. फिर अमिताभ इन्हें बार-बार खूबियों की तरह क्यों लिखते हैं? वह भी तब जब वे उस मुकाम पर हैं जहां अपनी अच्छाइयां अपने आप बताना न तो जरूरी है और न ही ठीक.

(सिनेमा, 15 अक्टूबर 2010 में प्रकाशित)

हिंद स्वराजः एक हमलावर किताब!

ghandiबमुश्किल 70 छोटे पन्नों में समा जाने वाली एक पतली किताब जिसने सौ साल का सफर पूरा कर लिया हो और इस सफर में वह लगातार मोटी भी हो रही हो तो उसे अनदेखा करना मुश्किल है. इसलिए हिंद स्वराज्य की अनदेखी नहीं की जा सकती. मनुष्य और मनुष्य समाज की स्वतंत्रता व सार्थकता की खोज में रमा हुआ इसका एक-एक शब्द कालजयी है.

महात्मा गांधी ने बहुत ही कम किताबें लिखी हैं—गिनती की! बाकी जो कुछ अथाह साहित्य है उनका, वह सारा का सारा उनके पत्रों-भाषणों में से लेकर तैयार किया गया है. यह जानना भी दिलचस्प है कि अपनी कलम से जो कुछ भी लिखा है उन्होंने, वह सब महात्मा गांधी बनने से पहले के मोहनदास करमचंद गांधी ने ही लिखा है!

उनकी लिखी किताबों में ही एक है हिंद स्वराज्य !

1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए, पानी के जहाज के डेक पर बैठ कर, एक गहरे आध्यात्मिक अनुभव के वशीभूत इस छोटी सी पुस्तिका को लिखा उन्होंने, किताब 10 दिनों में, सीधे हाथ-कलम से गुजराती में लिखी गई. दाहिना हाथ थकता तो वे बाएं हाथ से लिखने लगते, क्योंकि यह किताब लिखी नहीं गई, किसी अज्ञात ने साधना के किन्हीं गहरे क्षणों में यह लिखवा ली. गांधीजी लिखते हैं: ‘बहुत सोचा, बहुत पढ़ा… और जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा… जो विचार यहां रखे गए हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं, वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं;  वे मेरी आत्मा में गड़े-जड़े हुए जैसे हैं. वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं, कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं. दिल में भीतर-ही-भीतर जो मैं महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया.’

इंग्लैंड से चले पानी के जहाज ने जब दक्षिण अफ्रीका की धरती छुई, गांधी अपनी चेतना के उन्मेष का शिखर छू चुके थे. सबसे पहले गांधी ने इसका धारावाहिक प्रकाशन दक्षिण अफ्रीका से निकलने वाले अपने अखबार इंडियन ओपीनियन में किया. उनके मित्र केलनबैक को बहुत कौतूहल था कि इसमें लिखा क्या है, सो गांधीजी ने खुद ही अपने एक पाठक के लिए इसका अंग्रेजी अनुवाद भी किया. वह अंग्रेजी अनुवाद सालों बाद दुनिया के सामने तब आया जब, तब की मुंबई सरकार ने इसके प्रचार पर रोक लगा दी थी. तब इसका अंग्रेजी में प्रकाशन सत्याग्रह का एक रूप बनकर सामने आया था. बाद में इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ.

अपने जन्म से आज तक यह गहरे विचार और तुमुल विवाद का विषय बनी हुई है. इसके प्रारंभिक पाठकों में से एक थे गोपालकृष्ण गोखले. वे 1912 में मो. क. गांधी के आमंत्रण पर, उनका आंदोलन देखने दक्षिण अफ्रीका गए थे और तभी उन्हें यह किताब पढ़ने का मौका मिला. पढ़ कर उनके होश उड़ गए थे कि यह आदमी, जिसमें वे देश-समाज के भले की कई संभावनाएं देख रहे हैं, ऐसी उल्टी खोपड़ी के विचार रखता है! बहुत संभालकर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की: गांधीजी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही इस पुस्तक का नाश कर देंगे. उन्हें पक्का लगा था कि इस किताब में कालजयी कुछ भी नहीं है. (वे गलत साबित हुए. गांधीजी ने भारत आकर, सालों काम करने के बाद भी इस किताब को जलाने लायक नहीं समझा. किताब लिखने के छह साल बाद गोखले जी की और 38 साल बाद गांधीजी की चिता जली, किताब अभी भी बनी हुई है!). गांधीजी के एक मित्र ने, जिसका नाम उन्होंने बताया नहीं, इसे पढ़कर कहा: यह एक मूर्ख आदमी की रचना है. (वे भी गलत साबित हुए क्योंकि उस मूर्ख आदमी के पीछे, दुनिया भर में मूर्खाें का काफिला चलता-बढ़ता ही जा रहा है!)… और गांधी?… भारत आने और एक नहीं कई साल यहां बिताने के बाद उन्होंने लिखा: इसे लिखने के बाद के तीस साल मैंने आंधियों में बिताए हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में बताए हुए विचारों में फेर-बदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला.

वे हर मुद्दे पर बहस में उतरते हैं, कटाक्ष भी करते हैं, ललकारते भी हैं. वे उन सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आज की सभ्यता की ध्वजा उठाए फिरती हैं

किताब संपादक व पाठक के बीच सवाल-जवाब की शैली में लिखी गई है और इसमें भारत की आजादी के सवाल से कहीं ज्यादा, मनुष्य-मात्र की आजादी के सवाल को उठाया गया है. सभ्यता के जिस संघर्ष की बात आज एकदम ही अलग ढंग से की जा रही है, गांधी ने उस संघर्ष को तभी पहचाना था और अपनी पूरी तीव्रता व गहनता से हमें समझाया भी था. यह वह दौर था जब मोहनदास करमचंद गांधी के भीतर ‘गांधी’ का बीजारोपण हो चुका था और वे अपनी जमीन मजबूत करने के दौर से गुजर रहे थे. दक्षिण अफ्रीका का अनोखा संघर्ष अपनी पांखे खोल रहा था. (‘मुश्किल से दो ही साल का बच्चा था!’) और गांधी पर, उनकी सोच पर चारों तरफ से हमले हो रहे थे. हमले में बाहर के आलोचक भी शामिल थे और उनके साथ लड़ रहे लोग भी. इतिहास, संस्कृति, लड़ाई, हथियार, सभ्यता, विकास आदि-आदि तमाम बातें थीं जिनकी परिभाषा भी उन्हें नई बनानी थी, उन्हें लोगों के सामने पूरी गहनता व तीव्रता से रखना था और लड़ाई के हथियारों के रूप में स्थापित भी करना था.

hinduइस किताब में गांधी इन सारे रूपों में दिखाई देते हैं- अपनी स्थापनाओं के प्रति आग्रही भी, आक्रामक भी. वे हर मुद्दे पर बहस में उतरते हैं, कटाक्ष भी करते हैं, ललकारते भी हैं. वे उन सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते  हैं जो आज की सभ्यता की ध्वजा उठाए फिरती हैं. उन्हें इसका पूरा अंदाजा है कि औद्योगिक सभ्यता की तड़क-भड़क इतनी सम्मोहक है और उसकी पहुंच इतनी व्यापक है कि उस पर हमला करते हुए किसी संकोच से काम नहीं चलेगा. लेकिन वे जो लिखते हैं, वह उनकी गहरी समझ में से विकसित हुआ है: ‘लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया. उनकी शूर-वीरता का असर मेरे मन में पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है. मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृति को देखते हुए आत्मरक्षा के लिए कोई अलग व ऊंचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए.’

लेकिन यह किताब मात्र तो थी नहीं; थी यह गांधी की लड़ाई की गीता जिससे वे अपना महाभारत रचना चाहते थे. इसलिए विरोधी इसी किताब से उनकी पिटाई करते रहे थे. इसलिए 1921 में गांधी फिर इस किताब को सही संदर्भ में दुनिया के सामने रखते हैं: ‘मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है… इस किताब में आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई है… क्योंकि… मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा… रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा. रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊंची और बिल्कुल शुद्ध संस्कृति की सूचक नहीं है. ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि वह ऐसी बुराई हैं जो टाली नहीं जा सकतीं. दोनों में से एक भी हमारे राष्ट्र की नैतिक ऊंचाई में एक इंच की भी बढ़ती नहीं करती. उसी तरह से मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य अच्छा लगेगा. यंत्रों और मिलों के नाश के लिए मैं उससे भी कम कोशिश करता हूं. उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है… हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज्य स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा. लेकिन मुझे दुख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है. ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक की बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता मैंने देखा है. मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूं, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर पर लादने की कोशिश कर रहा हूं और हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचाकर, अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूं. इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई खोखली चीज नहीं है. इसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है.’

बहुत बाद में, जब आजादी फलक पर किसी क्षीण रेखा सी दिखाई देने लगी थी और गांधी के लोग गांधी से अलग किसी भारत की रेखाएं खींचने की सोचने लगे थे, गांधी ने जवाहरलाल नेहरू को सीधे ही सामने खड़ा किया था. उन्होंने लिखा कि मैंने तुम्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है लेकिन मेरे-तुम्हारे बीच फासले बढ़ते ही जा रहे हैं और वे बहुत बुनियादी किस्म के हैं, इसिलए कहीं दुनिया में भ्रम न रह जाए, अत: मैं चाहता हूं कि भारत के भावी के बारे में हमारी-तुम्हारी साफ बात हो जाए. ऐसा कह कर वे फिर इसी पतली सी किताब की याद दिलाते हैं. जवाहर जवाब में लिखते हैं कि हां, ऐसी एक आपकी किताब थी तो जरूर जिसे मैंने सालों पहले पढ़ा था. उसकी कुछ धुंधली सी स्मृति है मुझे लेकिन वह तब भी मुझे किसी खास मतलब की नहीं लगी थी, और आज तो हालात एकदम ही बदल गए हैं. ऐसे में उस किताब की बात… गांधी तुरंत जवाब देते हैं: मैं आज भी अपनी उस किताब पर उसी तरह कायम हूं और जिसे तुम बदले हुए हालात कहते हो, उनमें मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता है जिनके कारण मैं इस किताब में कुछ बदलूं… इसलिए जरूरी है कि हम समय निकालकर साथ बैठ लें और देश-दुनिया के सामने अपना नजरिया साफ कर दें. जवाहरलाल ने इस घनचक्कर के साथ किसी चक्कर में न पड़ना ही ठीक समझा और व्यस्तता आदि लिखकर इस किताब से छुटकारा पाया. बाद में तो देश ने गांधी से ही छुटकारा पा लिया !

1909 में लिखी गई इस किताब ने 100 साल का सफर पूरा किया है और आज भी हमारे बीच खड़ी है. किसी वैचारिक किताब की शताब्दी को लेकर देश-दुनिया में चर्चा हो रही हो, आयोजन हो रहे हों तो उसकी शक्ति समझी जा सकती है. यह किताब सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी (उ.प्र.) से प्राप्त की जा सकती है.

(कालजयी लेखन, 15 अप्रैल 2009 में प्रकाशित)

फतवा है, फरमान नहीं

अरबी में ‘फतवे’ का अर्थ होता है ‘कानूनी सुझाव’, लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. इस काम को मौलानाओं ने कानूनी संस्थाओं के साथ मिलकर योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.

इस्लामी कानून भी देश के बाकी दूसरे कानूनों की तरह ही देश के संविधान द्वारा स्थापित कानूनी संस्थाओं द्वारा ही लागू किए जाने चाहिए. इन्हें लागू करने का अधिकार मुल्लाओं और मदरसों के शिक्षकों के हाथ में नहीं होना चाहिए. संभव है कि मदरसों के शिक्षक कानून के अच्छे जानकार हों पर उनके हाथ में राज्य की ताकत नहीं दी जा सकती. हां, सुझाव या राय देने के लिए सभी स्वतंत्र हैं. अपनी मशहूर किताब ‘फिक़ उमर’ में शाह वलीउल्लाह ने इस तरह के एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया है. यह वाकया पैगंबर मुहम्मद साहब के निकटतम सहयोगी अब्दुल्ला बिन मसूद से जुड़ा है जो उस वक्त कुफ़ा में कुरान की शिक्षाएं देने के लिए नियुक्त थे. उनसे एक आदमी मिलने आया. उसके खिलाफ कुछ फतवे जारी हुए थे और वह उनका निदान चाहता था. जैसे ही खलीफा उमर को इस बात का पता चला उन्होंने अब्दुल्ला को पत्र लिखकर पूछा, ‘मैंने सुना है कि आपने लोगों के कानूनी झगड़े भी निपटाने शुरू कर दिए हैं, जबकि आपको इसका अधिकार भी नहीं है.’ इसी तरह के एक अन्य पत्र में खलीफा उमर ने अबू मूसा अंसारी को साफ शब्दों में बताया, ‘कानूनी झगड़ों का निपटारा सिर्फ कानूनी तौर पर स्थापित संस्थाएं करेंगी. इसके अलावा कोई नहीं करेगा.’

उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं है जब तक वह इस बात को स्पष्ट करते हुए चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है और साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. इस हालत में यह कानून और न्याय व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, ‘उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.’ (कुरान 2.79)

इतिहास इस बात का गवाह है कि हर दौर में उलेमाओं के कारनामों ने इस्लाम के दामन पर दाग लगाने का काम किया है

फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो आप पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुसलिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.’ मौलानाओं के कृत्य के प्रति और भी कठोर नजरिया अपनाते हुए उन्होंने 1946 में एक साक्षात्कार में कहा, ‘हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि हर दौर में उलेमाओं के कारनामों ने इस्लाम के ऊपर धब्बा लगाया है.’

फतवे का स्वरूप लोकतांत्रिक बनाने और अंतिम निर्णय में ज्यादा से ज्यादा लोगों के विचारों को शामिल करने के लिए इसमें आम आदमी की भागीदारी इस्लाम के नजरिये से बेहद महत्वपूर्ण है. यहां एक बात साफ तौर पर समझनी होगी कि मूल इस्लाम किसी भी तरह के पंडा-पुजारीवाद का विरोधी है. पैगंबर साहब ने खुद कहा है कि व्यक्ति को बंधनों और रूढ़ियों से आजाद करना होगा क्योंकि उसकी आजादी में सबसे बड़ी बाधा यही है. उन्होंने कहा है, ‘ला रहबानियत फी इस्लाम’ यानी इस्लाम में पुजारीवाद के लिए कोई स्थान नहीं है.

इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. कुछ मसलों में अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे व्यक्ति को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं है.

अकसर फतवे को संस्थागत करने की बात भी चलती है. लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं है. ऐसा करने से देश की न्यायपालिका के समक्ष एक समानांतर न्यायिक तंत्र खड़ा हो जाएगा. यह हमारे संविधान के मूल धर्म निरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ है और साथ ही किस हद तक इसका दुरुपयोग हो सकता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. फतवे को किसी तरह की वैधता प्रदान करने की कोशिश से संविधान द्वारा स्थापित न्यायपालिका के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसकी इजाजत कभी नहीं दी जा सकती. 1864 में देश भर  से काजी दफ्तर की व्यवस्था खत्म करने के बाद से ही उलेमा और मौलाना देश के कानूनों से नाराजगी और विरोध जताते आ रहे हैं. लिहाजा इस तरह का कोई संस्थान खड़ा करना उन्हें दोबारा से न्यायिक ताकत देने जैसा होगा.

यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर, परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो इसके नतीजे बेहद विनाशकारी होंगे. सीधे शब्दों में कहें तो मौजूदा दौर में फतवा व्यक्ति की आजादी और निजता में ही दखल नहीं है बल्कि नृशंस है और आम आदमी को इस नृशंसता से बचाना समय की जरूरत है.

(अतुल चौरसिया से बातचीत पर आधारित)

नजरिया
15 दिसंबर 2010

हुसेन चले गए सरस्वती को बचा लें

husanमकबूल फिदा हुसेन अब कतर के नागरिक हैं. हालांकि इस दस्तावेजी नागरिकता से उनकी भारतीयता खत्म नहीं हो जाएगी. वे चाहें तो भी यह मुमकिन नहीं है. अपनी कोख, भाषा और मिट्टी हम चुनते नहीं, वह हमारी पैदाइश के साथ चली आती है. बाद में हम जो हो जाएं, जहां चले जाएं, जैसी भी बोली बोलने लगें, चाहे जिस भी देश की नागरिकता ले लें, हमारी बनावट और बुनावट तय करने वाले गुणसूत्र वही रहते हैं, हमारा मुल्क वही रहता है.

मकबूल फिदा हुसेन नाम का कलाकार भी इन्हीं गुणसूत्रों की देन है. उसे पंढरपुर के तीर्थ की मिट्टी ने बनाया है, उसे जैनब की कोख ने बनाया है, उसे हिंदी की फिल्मों ने बनाया है. जिस कला ने उसे शोहरत दी, उसके रंगों में, उसकी रेखाओं में यह पूरी परंपरा तरह-तरह से बोलती है. कतर में भी वे जो काम करेंगे, उसमें हिंदुस्तान बोलेगा. हालांकि शायद तब वह उतना चटख न रह जाए. क्योंकि अंततः अपनी अनुपस्थिति की कीमत उन्हें कुछ तो चुकानी ही होगी.

लेकिन अनुपस्थिति की ऐसी नौबत आई क्यों?  यह एक मासूम सवाल लग सकता है, क्योंकि सबको मालूम है कि मकबूल फिदा हुसेन के बनाए कुछ चित्रों से नाराज़ समूहों ने उनके विरुद्ध मुकदमों और प्रदर्शनों की झड़ी लगा रखी थी. लेकिन हुसेन सिर्फ इस असहिष्णुता से घबरा कर भागे हों, ऐसा लगता नहीं. वे खुद मानते और बताते हैं कि 99 फीसदी भारतीय उनके साथ खड़े हैं. फिर हुसेन ने अपने विरुद्ध खड़ी कट्टरपंथी ताकतों से संघर्ष क्यों नहीं किया?  उनका कुछ बेबसी भरा जवाब यह है कि वे 40 के होते तो करते, 95 बरस की उम्र में उनके पास न इतना वक्त बचा है न सब्र कि अपने बाकी काम छोड़कर यह लड़ाई लड़ें. कतर ने उन्हें सहूलियतें दीं और साधन दिए इसलिए वे कतर के हो गए.

अब इस प्रश्न को दूसरी तरफ से पूछना चाहिए. भारत अपने एक कलाकार को रोक क्यों नहीं सका?  और क्या हुसेन अकेले कलाकार हैं जो भारत छोड़कर चले गए और किन्हीं और देशों के हो गए? ध्यान दें तो ऐसे अनेक भारतीय मूर्द्घन्य हैं जिन्होंने अपनी कला और साधना के लिए पश्चिम को चुना है. भारतीय संगीत और नृत्य से जुडे़ कई बड़े गुरु विदेशों में बसे हुए हैं. हुसेन आज पराये हुए, सितारवादक पंडित रविशंकर न जाने कब से पराये हैं. यही बात फ्रांस में रह रहे सैयद हैदर रजा के बारे में कही जा सकती है. इन लोगों का परायापन चलेगा क्योंकि यह किसी असंतोष से पैदा हुआ परायापन नहीं है, यह बात कुछ जमती नहीं.

बहरहाल, क्या हम हुसेन की, रजा की या किसी दूसरे बड़े मूर्द्धन्य की कमी महसूस करते हैं? क्या हमारा समाज अपने कलाकारों और गुरुओं के बिना कोई खला, कोई खालीपन महसूस करता है? हुसेन के संदर्भ में यह तर्क हाल के दिनों में कई बार सुनने को आया है कि अगर हुसेन हिंदुस्तान के न भी रहें तो क्या फर्क पड़ेगा? वैसे भी हुसेन इन दिनों बाज़ार के, बॉलीवुड की सस्ती चमक-दमक के और अपनी शोहरत के गुलाम की तरह कहीं ज्यादा चित्र बना रहे थे, एक ऐसे मेधावी भारतीय की तरह कम, जिसका भारतीय समाज से सीधा संवाद हो. लेकिन यह आरोप सिर्फ हुसेन पर क्यों? क्या हमारी समूची समकालीन चित्रकला अपने समाज में कोई जगह बनाने के लिए बेताब दिखती है? उसे आम तौर पर गुणग्राहक दर्शकों से ज्यादा गांठ के पूरे ग्राहकों की तलाश रहती है जो उसके नाम पर बडी रकम का टैग लगा सकें. हाल के वर्षों में भारतीय चित्रकारों के नाम जब भी सार्वजनिक चर्चा में आए हैं तो बस यह बताते हुए आए हैं कि सदेबी या क्रिस्टी में किसी ग्राहक ने उनका कितना बड़ा मोल लगाया है.

कमोबेश यही बात संगीत गुरुओं के बारे में कही जा सकती है. उनकी स्थिति बस इस लिहाज से बेहतर है कि उनके कैसेट और सीडी-डीवीडी हिंदुस्तान चले आते हैं, वरना उनके कंसर्ट अक्सर विदेशों में या फिर बड़े भारतीयों के बीच होते हैं. वे ग्रैमी और ऑस्कर के लिए जाना जाना ज्यादा पसंद करते हैं.

सवाल है, यह किसका कसूर है? क्या कलाकारों का, जो अपने समाज और देश के प्रति उस तरह निष्ठावान नहीं हैं जिस तरह उनके होने की अपेक्षा हम उनसे कर रहे हैं? या फिर समाज का, जिसमें अपने कलाकारों को प्रेरित कर सकने लायक ऊर्जा और ऊष्मा नहीं बची है?

इस सवाल का जवाब आसान नहीं है. कुछ अफसोस के साथ हमें यह मानना पड़ता है कि हाल के वर्षों और दशकों में भारतीय समाज की सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना कुंद पड़ी है. इस दौर में पैदा हुई नई उपभोक्तावादी भूख ने उसकी प्राथमिकताएं जैसे बदल दी हैं. संगीत के लिए उसकी कॉलर ट्यून है, चित्रों के लिए उसके स्क्रीनसेवर हैं, नाटक की जगह वह कॉमेडी सर्कस और रियलिटी शो देखता है और मनोरंजन और संस्कृति की बची-खुची जरूरत फिल्मों से पूरी कर लेता है. इस सांस्कृतिक शून्य में सतही राजनीति उसे समझाती है कि साहित्य और धर्म का मतलब क्या होता है, कला और देश का मतलब क्या होता है. जब यह सतही राजनीति हमारे सांस्कृतिक मूल्य निर्धारित करने लगती है तो वह कलाकार का धर्म देखती है, कला के आवरणों को समझने की जगह निरावृत्त सरस्वती और भारतमाता को देखकर उत्तेजित होती है और कलाकार से पूछती है कि वह किसी दूसरे धर्मगुरु की तस्वीर क्यों नहीं बनाता.

कलाकार इस सवाल का जवाब कैसे दे? कैसे बताए कि कला की प्रेरणाओं के पीछे धर्म के ऐसे सुचिंतित आग्रह नहीं होते? किसे बताए कि उसने जो चित्र बनाए हैं, वे उस तरह अश्लील या नग्न नहीं, जिस तरह प्रचारित किए जा रहे हैं. वे बस चित्रकला की बहुत आम परंपरा के प्रयोग हैं जिसमें नग्नता कहीं से वर्जित नहीं है और न ही वह अश्लील नजर आती है.

अगर समाज इन प्रयोगों से परिचित होता तो वह शायद बहस कर पाता कि ये चित्र अच्छे हैं या नहीं. हुसेन के अपने कृतित्व में सीता, सरस्वती या भारत माता के जैसे चित्रों की जगह कितनी है. तब शायद उसे यह भी मालूम होता कि हुसेन ने सिर्फ ऐसे चित्र ही नहीं बनाए हैं, इनसे कई गुना ज्यादा ऐसे देवी-देवताओं को चित्रित किया है जो हमारी परंपरा का सुरुचिपूर्ण और कलात्मक विस्तार करते हैं. उन्होंने ऐसे गणेश बनाए हैं जो लुभाते हैं, ऐसी सरस्वती भी चित्रित की है जो श्रद्धा जगाती है, अपनी मां की तलाश करते-करते हुसेन मदर टेरेसा तक पहुंच गए हैं और नीली कोर वाली उजली साड़ी में उन्होंने करुणा की ऐसी मूरतें बनाई हैं जिनके सामने सिर झुकाने की इच्छा होती है.

जो व्यवस्था न्यूनतम मानवीय मूल्यों की कद्र नहीं करती, उससे हम कला और साहित्य से जुड़े मूल्यों के सम्मान की उम्मीद रखें तो इसमें हमारी नादानी झांकती है

यह सब मालूम होता तो समाज अपने कलाकार का ज्यादा सम्मान करता. जिन चित्रों को वह आपत्तिजनक मानता, उनके प्रति भी क्षमाशील होता. लेकिन कलाकार और उसका समाज एक-दूसरे से अजनबी हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सिर्फ एक कलाकार की स्थिति नहीं, हमारे पूरे सांस्कृतिक संसार की नियति है.

यह स्थिति किसी मकबूल फिदा हुसेन को कतर जाने के लिए मजबूर करती है. राजनीतिक व्यवस्था बताती है कि हुसेन भारत लौटने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्हें यहां पूरी सुरक्षा दी जाएगी. वह व्यवस्था यह नहीं समझती कि मामला किसी ख़ास नागरिक को सुरक्षा मुहैया कराने का नहीं, स्वतंत्रता का एक ऐसा माहौल बनाने का है जिसमें कोई आदमी आजादी से घूम-फिर सके, लिख-पढ़ सके, सोच-विचार सके. जहां उसे यह डर न हो कि उसकी किताबें जलाई जाएंगी, उसकी तस्वीरें नष्ट की जाएंगी, उसकी फिल्मों के प्रदर्शन रोके जाएंगे, उसके रंगमंच के दौरान हंगामा होगा. राज्य या समाज से यह न्यूनतम अपेक्षा है जो कोई लेखक या कलाकार कर सकता है, वरना राज्य के फर्ज कहीं ज्यादा दूर तक जाते हैं, उसे कला और साहित्य को संरक्षण देने की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है.

लेकिन जो व्यवस्था न्यूनतम मानवीय मूल्यों की कद्र नहीं करती, उससे हम कला और साहित्य से जुड़े मूल्यों के सम्मान की उम्मीद रखें तो इसमें हमारी नादानी झांकती है. दुर्भाग्य से अभी जो कुछ हो रहा है, वह इन अपेक्षाओं का विलोम है. हमारी लोकतांत्रिक आजादी पर दबाव बढ़े हैं, हमारी अभिव्यक्ति पर पहरे कड़े हुए हैं. जो लोग हुसेन से यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्होंने संघर्ष किए बिना कट्टरपंथियों से हार मान ली, उन्हें बताना चाहिए कि उन्होंने एक दूसरे बूढ़े, रंगकर्मी हबीब तनवीर के संघर्ष में कितना साथ दिया था. हबीब के नाटकों पर लगातार हमले हुए. उन्हें बचाने कौन आया? बांग्लादेश की एक लेखिका हमसे सम्मानजनक शरण्य मांग रही है, हम वह देने को तैयार नहीं हैं.

यह सिर्फ कला–संस्कृति का नहीं, पूरे समाज के प्रति सरोकार और संवेदनशीलता का मामला है. जिस व्यवस्था में यह संवेदनशीलता नहीं होती, उसमें फासीवादी ताकतों की गुंजाइश बढती जाती है. दुर्भाग्य से हमारी व्यवस्था इसी दिशा में बढ़ रही है.

कतर जाने का फैसला मकबूल फिदा हुसेन की मजबूरी हो या मंशा, इसमें जितनी उनकी दरारें दिखती हैं, उससे ज्यादा हमारे समाज की. 95 साल की उम्र में जिस बूढ़े को अपना घर छोड़ना पड़े, वह एक बदनसीब बूढ़ा होता है. लेकिन जिस मुल्क को उसके लेखक और कलाकार छोड़कर चले जाते हैं, वह कहीं ज्यादा बदनसीब होता है, और इस अर्थ में असुरक्षित भी कि वहां आततातियों और फासीवादियों का कब्जा बढ़ने का अंदेशा बड़ा होता जाता है. अब हुसेन नहीं हैं तो हमारी सरस्वती कहीं ज्यादा खतरे में है.

शिकागो से शिकोहाबाद तक…

facebooklogoइस दौर में ज्यादातर लोगों को चार तरह के घरों में जाना बुरा लगता है. एक वे जिनमें जूते बाहर उतार अंदर जाना पड़े. दूसरे वे जहां पैर छूने को परंपरा/संस्कृति की सर्वोत्तम कसौटी माना जाए. तीसरे वे जहां 40 पार का मनुष्य दूसरे 40 पार के मनुष्य को सामने देखते ही चेहरे की झुर्रियों में चिंता भर सिर्फ ‘तबीयत’ से जुड़े सवाल-जवाब करता मिले, ‘कैसी तबीयत है आपकी?’,‘तबीयत ठीक नहीं लग रही, आराम करिए आप’. और फिर चौथे वे घर जहां लोग चेहरे पर, कपड़ों पर और बातों में रुपये-पैसे चिपकाए घूमते-बैठते मिलें. आपका फेसबुक इन चारों तरह के घरों से अलग है. यहां न भेद है, न वेद है. यह यत्र तत्र सर्वत्र है.

आभासी दुनिया की किसी चीज को इस तरह रूपक से जोड़ना अपने आप में एक नया अनुभव है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लदी-फदी यह किताबी चेहरे वाली दुनिया कब इतनी मानवीय हो लोगों रूपी बिंदुओं को जोड़ते-जोड़ते खूबसूरत पोर्ट्रेट हो गई, पता ही नहीं चला. इसका ऐसा भविष्य होना किसी ने सोचा भी नहीं था. मार्क जकरबर्ग ने भी नहीं. जब 2005 में एक इंटरव्यू के दौरान ‘द फेसबुक’ के भविष्य पर सवाल किए गए तो जवाब देने में संघर्ष करता 20 साल का यह लड़का इतना ही कह पाया था, ‘कोई जरूरी नहीं है कि फेसबुक अभी दी जा रही सुविधाओं के अलावा भी कुछ नया, या आज से ज्यादा बेहतर आने वाले वक्त में दे सके.’

लेकिन फेसबुक ने काफी कुछ दिया. बहुत सारे परिवर्तन किए और खुद कई बार परिवर्तित भी हुआ. इसलिए आपके फेसबुक पन्ने को घर कहना, पूरे फेसबुक को एक शहर कहना बतकही नहीं है. किसी एक उपमहाद्वीप की किसी खास तरह की मिट्टी वाली जमीन पर इसकी बसाहट नहीं है फिर भी दुनिया के नक्शे के हर कोने को छूते इस शहर में बने घरों में रह हम सब खुश हैं. आप शिकागो के हैं, फिर भी आप शिकोहाबाद को जान सकते हैं. शिकोहाबाद की रबड़ी पर लोगों के साथ वाद-विवाद कर सकते हैं, देसी घी वाली सोन पपड़ी और बेड़ई-सब्जी के जायकों की तस्वीरों से इलाके के लोगों के रहन-सहन की झलक ले सकते हैं. हूबहू ऐसे ही एक शिकोहाबादी शिकागो से भी रूबरू हो सकता है. और फिर यह भी तो है कि घर बनाने के लिए यहां किसी को भी किसी राजीव गांधी आवास योजना की जरूरत नहीं! उसके आगे-पीछे की राजनीति की भी नहीं.

एक अनुमान के अनुसार अगर फेसबुक का यूजर बेस इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो 2015 तक इसके यूजर चीन की जनसंख्या से ज्यादा हो जाएंगे

फेसबुक की तरह ही विशाल शहर है ट्विटर. लेकिन वहां घर नहीं है. घर के होने वाली जगहों पर बड़े-बड़े होर्डिंग हैं जिन पर लिखे 140 अक्षरों के ज्ञान को रंग-बिरंगे लट्टुओं की झालर से जगमग-चकमक कर दुनिया के सामने रोशन करने की कवायद रोज का कारोबार है. फेसबुक में ‘घर-घर’ खेल वाली आत्मीयता है तो ट्विटर में बड़े-ऊंचे लोगों के बीच जगह बनाने की कोशिश करने वाले एक प्रवासी का संघर्ष. और 140 अक्षरों की ऐंठन. जहां ट्विटर की कुलीनता कुछ वक्त बाद काटने को दौड़ती है, फेसबुक का घरेलूपन परायेपन को काटता है. लोगों को अपनाता है. शायद यही वजह है कि हर महीने ट्विटर का सक्रिय रूप से उपयोग करने वाले 23.2 करोड़ वाले उसके संपूर्ण यूजर बेस के बराबर के लोगों को तो फेसबुक सिर्फ पिछले साल ही अपने से जोड़ चुका है. अर्थात, पिछले साल फेसबुक अपने अंदर एक पूरा ट्विटर बसा चुका है!

इस चार फरवरी को जब फेसबुक दस का हुआ तो एक दिन बाद अभिषेक बच्चन 48 में दस कम के हुए. 2004 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में जब एक 19 साल का सोफोमोर (दूसरे साल का अंडर ग्रैजुएट) छात्र ‘द फेसबुक’ लॉन्च कर चुका था तब तक अभिषेक बच्चन 13 खराब फिल्मों में 13 बार खराब अभिनय कर चुके थे. और इत्तफाकन, द फेसबुक के लांच होने के बाद ही उन्होंने पहली बार अच्छा अभिनय किया और पहली बार ही किसी हिट बॉलीवुड शाहकार का हिस्सा रहे. ये क्रमश: युवा और धूम थीं! लेकिन उसके बाद कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो उनका फिल्मी करियर कट चुकी पतंग के जमीन पर गिर चुकने से पहले के  जीवन को चरितार्थ कर रहा है. ठीक इसी तरह का जीवन फेसबुक के पहले-साथ-बाद आए कई दूसरे सोशल नेटवर्क भी चरितार्थ कर रहे हैं/थे. ये एक जमाने में फेसबुक के प्रतिद्वंद्वी थे, अब अभिषेक बच्चन हैं.

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फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी का आईपीओ लॉन्च करते हुए.

फेसबुक पर आज हर महीने करीब 1.2 अरब एक्टिव यूजर अपना वक्त गुजारते हैं. यह आंकड़ा लिंक्डइन, ट्विटर और गूगल प्लस अपने-अपने यूजरों को एक साथ जोड़ कर भी नहीं छू पा रहे हैं. अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए फेसबुक शुरू से ही इतना अपराजेय रहा है. फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद ‘कॉलेज टूनाइट’ (college tonight) आया, और चुपचाप गायब हो गया. ‘एनीबीट’ (anybeat) भी आया और उसकी भी चाप कोई नहीं सुन पाया. इन छोटे और कम सुने नामों के अलावा ‘मायस्पेस’ (Myspace) था, जो 2008 के बाद से ही फेसबुक की छाया से मुक्त नहीं हो पाया और अब नए सिरे से शुरुआत करने को विवश है. ऐसा ही कुछ ‘फ्रेंडस्टर’ (Friendster) के साथ भी हुआ. और समीक्षकों द्वारा सराहे गए ‘डाइस्पोर’ (diaspora) के साथ भी. आज के जीवित दूसरे सोशल नेटवर्कों में लिंक्डइन और ट्विटर अपनी सीमाओं की वजह से फेसबुक जैसा नहीं बन पा रहे, वहीं गूगल प्लस की कहानी में मनोरंजन ज्यादा है. जीमेल की बदौलत मिले वृहत यूजर बेस के बावजूद गूगल प्लस की असफलता के बाद अब जब कोई ज्ञानी फेसबुक और गूगल प्लस की तुलना करता है तो लगता है जैसे कोई वालमार्ट और वी-मार्ट पर तुलनात्मक शास्त्रार्थ कर रहा हो!

लेकिन ऐसी कई सफलताओं के बावजूद फेसबुक को शुरू से खारिज करने वालों की बड़ी संख्या रही है. इनका निराशावाद से सामंजस्य ऐसा है कि इन लोगों व संस्थाओं द्वारा फेसबुक आज भी खारिज हो रहा है. कभी कोई इनवेस्टर आने वाले कुछ सालों में फेसबुक के गायब होने की भविष्यवाणी कर देता है तो कभी कोई लेखक लिखता है कि फेसबुक इंटरनेट के इतिहास में सिर्फ एक फुटनोट बन कर रह जाएगा. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने हाल ही में निष्कर्ष निकाला है कि फेसबुक 2015 तक खत्म हो जाएगा. इंटरनेट के जनक  विंट सर्फ जो गूगल के वाइस प्रेजिडेंट भी हैं, ने 2011 में कहा कि फेसबुक चारों तरफ से बंद एक ऐसा गार्डन बन चुका है जो अपने उपभोक्ताओं की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा और जल्द ही एओएल (AOL – America Online Inc.) की तरह हो कर असफल हो जाएगा. 2012 में जब फेसबुक अपना आईपीओ लाया, तब उसके शेयर खरीदने के लिए लगी लंबी कतार में वॉरेन बफे (विश्वप्रसिद्ध निवेशक और दुनिया के सबसे धनी लोगों में शुमार) नहीं थे. उनका तर्क था कि फेसबुक जैसी कंपनियों की कीमत आंकना टेढ़ा काम है क्योंकि यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है कि आने वाले 5-10 साल में फेसबुक कहां पहुंचेगा. वॉरेन बफे के बिजनेस पार्टनर चार्ली मुंगर थोड़े ज्यादा तीखे थे, ‘मैं उन चीजों में निवेश नहीं करता जिन्हें मैं नहीं समझता. और मैं फेसबुक को समझना ही नहीं चाहता.’ युवा भी पीछे नहीं थे. आईपीओ के समय रेडिट (Reddit) के को-फाउंडर ऐलेक्स ओहानियन भी तल्ख थे, ‘अगर फेसबुक ऐसे ही यूजर्स की प्राइवेसी का अनादर करता रहा तो वह जल्द ही गुजरे कल की बात हो जाएगा.’

फेसबुक ने ‘पेपर’ नाम एक एेप लॉन्च किया है. इसके बाद संभावना जताई जा रही है कि वह खुद को एक मीडिया कंपनी के तौर पर स्थापित करना चाहता है

लेकिन फेसबुक टिका है. दुनिया की आबादी के 17 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को सक्रिय रूप से खुद से जोड़कर. और हर महीने 1.23 अरब एक्टिव यूजर और एक अरब के नजदीक पहुंचते मोबाइल यूजरों के साथ. इन आंकड़ों में चीन शामिल नहीं है क्योंकि चीन के ज्यादातर हिस्सों में फेसबुक पर पाबंदी है. लेकिन एक-दूसरे से विपरीत दिशा में होने के बावजूद चीन और फेसबुक आने वाले वक्त में एक अनोखे रिश्ते में बंध सकते हैं! एक अनुमान के अनुसार अगर फेसबुक का यह यूजर बेस इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो 2015 तक इस सोशल नेटवर्क के यूजर्स चीन की जनसंख्या से ज्यादा हो जाएंगे.  इस जनसंख्या विस्फोट को संभालने के लिए अभी फेसबुक के पास 6,000 से ज्यादा कर्मचारी और विश्व भर में 37 से ज्यादा दफ्तर हैं. वैसे यह वही 2015 है जब फेसबुक के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी शोध के माध्यम से की जा चुकी है! लेकिन इंटरनेट कंपनियों के बाजार को समझने वाले जानते हैं कि दस साल तक अपना ऑनलाइन साम्राज्य और अस्तित्व बनाए रखना इस युग में कितना मुश्किल है. कुछ ही और इंटरनेट कंपनियां हैं जो दस साल में फेसबुक जैसी ऊंचाइयों पर पहुंची हैं. और गूगल, अमेजन जैसी एक-दो कंपनियों को छोड़ शायद ही कोई हो जिसके आने वाले भविष्य पर इतने विमर्श होते हों. यही वजह है कि बाजार उन अटकलों से भरा पड़ा है कि आने वाले दस साल में फेसबुक क्या-क्या करेगा.

फेसबुक के पिछले दस साल वैसे ही गुजरे जैसा मार्क जकरबर्ग को शुरू में अपने इस स्टार्ट-अप से उम्मीद थी. हालांकि उसका दायरा उम्मीदों से ज्यादा वृहत होता गया लेकिन वह विचार, कि आभासी दुनिया में एक ऐसा स्पेस बनाया जाए जहां नए लोग मिलें और आपस में नई जानकारियां बांटें आज भी कंपनी के काम का आधार है. फेसबुक के शुरुआती दिनों में जकरबर्ग का कहना था, ‘जब हमने इसे लॉन्च किया तो उम्मीद थी कि 400 से 500 लोग इससे जुड़ेंगे. अब जब एक लाख लोग फेसबुक से जुड़ चुके हैं, हो सकता है हम एक ‘कूल’ चीज बना जाएं.’ फेसबुक के कूलत्व ने उसके दस साल के सफर को तो आरामदायक बना दिया, लेकिन अब आने वाले दस साल का क्या?

फेसबुक की सबसे बड़ी सफलता है कि इसमें ‘सभी कुछ’ है. यह एक सर्च इंजन है, लोगों को जोड़ने वाला नेटवर्क है, डेटिंग साइट है, फैमिली फोटो एलबम है, एक एड्रेस बुक है, इंस्टेंट चैट है, बर्थडे अलार्म है, नई-नवेली शादी का उद्घोषक है, कॉलेज के दोस्तों की रि-यूनियन है, और एक अखबार है. लेकिन फेसबुक की यही सफलता – सोशल मीडिया की सारी जरूरी चीजों को समाहित कर सभी कुछ एक जगह देना – अब उसे परेशान कर रही है.  मतलब अब ऐसा क्या नया है, जो फेसबुक खुद को प्रासंगिक बनाए  रखने के लिए कर सकता है?

पिछले दो पैराग्राफों के आखिर में किए दो सवालों के जवाब आगे के तीन सवालों में हैं. क्या आने वाले वक्त में फेसबुक अभी की तरह एक ‘सोशल नेटवर्क’ ही रहेगा या एक ‘मीडिया कंपनी’ बनेगा? जिस तरह आज गूगल को लोग एक सर्च इंजन के तौर पर कम और एक बड़ी मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जानते हैं, क्या आने वाले दस साल में फेसबुक भी उसी राह पर चलेगा? क्या 2024 का फेसबुक अपने आज के यूजर बेस में एक और अरब लोगों को जोड़ने वाला सोशल नेटवर्क होते हुए भी एक मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जाना जाएगा? फेसबुक द्वारा उठाए गए कुछ नए कदम उसकी मीडिया कंपनी की आधारशिला की तरफ ही इशारा करते हैं.

पहला कदम है मोबाइल स्पेस में उसकी बदली हुई रणनीति. आपको आपके फेसबुक मोबाइल पर नए-नए फीचर देने की बजाय फेसबुक अब गूगल जैसी मीडिया कंपनी के तरह अलग-अलग प्रकार के एप बाजार में ला रहा है और उन्हें मोबाइल पर आपके फेसबुक पेज से जोड़ रहा है. जैसे पहले मैसेंजर एेप आया, व्हाट्सएप को टक्कर देने के लिए. उसके बाद स्नैपचैट को टक्कर देने के लिए पोक आया. हालांकि मैसेंजर साधारण निकला और पोक बुरी तरह फ्लॉप रहा, लेकिन इससे 2014 में कई नए एप बाजार में लाने की फेसबुक की स्ट्रैटजी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. और इसी रणनीति के तहत अपनी दसवीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पहले फेसबुक ने ‘पेपर’ नाम का एेप लांच किया. ‘पेपर’ ने ही इस बात को पुख्ता किया है कि आने वाले वक्त में फेसबुक की मंशा खुद को एक मीडिया कंपनी के तौर पर स्थापित करना ही है. किसी भी मीडिया कंपनी के लिए कंटेंट क्रिएट करना एक मुख्य काम होता है. और ‘पेपर’ का कंटेंट सिर्फ यूजर्स से ही नहीं आ रहा. खबर है कि फेसबुक ने इसके कंटेंट को रचने के लिए खास तौर पर एडिटरों की नियुक्ति की है. अभी संपादक आए हैं, हो सकता है कुछ समय बाद फेसबुक लेखकों को नियुक्त करे, और फिर अभिनेताओं को. और इन सभी को साथ लेकर हो सकता है आने वाले समय में फेसबुक टीवी शो भी प्रोड्यूस करे! ये पतंग को कुछ ज्यादा ऊंचा उड़ाना लग सकता है लेकिन कुछ वक्त पहले किसने सोचा था कि अमेजन जैसी विशालतम ई-कॉमर्स कंपनी अपने खुद के टीवी शो और फिल्में बनाएगी?

अगर ऐसा हुआ और फेसबुक कंटेंट रचने लगा तो उसके बाद एपल, गूगल और अमेजन को टक्कर देने के लिए उसे हार्डवेयर के बाजार में भी उतरना होगा. और इसके बाद आपको आपका पन्ना देने वाला एक सोशल नेटवर्क एक विशाल मीडिया कंपनी में तब्दील हो जाएगा, जिसका मुख्य लक्ष्य आज की तरह सिर्फ लोगों को अपने सोशल नेटवर्क से जोड़ना नहीं रह जाएगा. 2024 का फेसबुक ऐसा ही होने की उम्मीद है. लेकिन उम्मीद यह भी है कि फेसबुक का उपयोग करने वाले यूजर्स के लिए यह तब भी लोगों से जुड़ने और संवाद स्थापित करने का माध्यम बना रहेगा. क्योंकि हमारे लिए कल भी फेसबुक का आज जैसा होना ही जरूरी है.

फेसबुक के आज के स्वरूप के परिपक्व होने की कई वजहें हैं. ये वजहें परिवर्तन है. वे परिवर्तन जो फेसबुक अपने मौजूदा रूप में दुनिया भर के समाज में लाया है. दुनिया छोटी है, इसे फेसबुक ने ही सच किया. जितने लोगों को फेसबुक ने आपस में जोड़ा, उतने लोगों को आज तक के इतिहास में किसी और कंपनी ने आपस में नहीं जोड़ा. आपस में जुड़ने के बाद जिस तरह लोग एक-दूसरे से कनेक्ट हुए, पहले कभी नहीं हुए. पूरी दुनिया को ‘ऑनलाइन’ करने का परिवर्तन फेसबुक ही लाया. फेसबुक ने यूजर को आत्म-मोहित नहीं बनाया, उसे सोशल शेयरिंग का नया चलन सिखाया जिसमें लोगों ने ऐसी चीजों को भी खूब शेयर किया जिसमें ‘वे’ नहीं थे, सिर्फ उनसे जुड़ी खबरें, गाने, वीडियो नहीं थे. और इसी नये चलन वाली शेयरिंग ने ‘न्यूज फीड’ को एक गैर-पारंपरिक और मजेदार अखबार बना दिया. फेसबुक ने राजनीति को भी बदला. लगभग हर देश की. ओबामा ने 2008 में जिस तरह फेसबुक का अपने कैंपेन के लिए उपयोग किया उसकी नकल हम आज-कल भारत के फेसबुक पन्नों पर देख ही रहे हैं. लेकिन फेसबुक ने सबसे ज्यादा राजनीति को मिडिल ईस्ट में बदला, इतना कि फेसबुक को उस क्रांति का ‘जीपीएस’ तक कहा गया. फेसबुक ने भाषा को भी बदला. इंग्लिश शब्दकोशों को फ्रेंड, लाइक, पोक, वॉल, टैग, अनलाइक, अनफ्रेंड जैसे हर्फों के नए अर्थ देकर.

हिंदुस्तान में फेसबुक ने कई चीजों के साथ हिंदी को भी बदला. क्षेत्रीय भाषाओं को भी. नए लेखक दिए. चिरकुट नज्म लिखने वाले कवियों को अपने-अपने पन्नों पर छपने का मौका भी. अभिव्यक्ति की एक नई और बड़ी खिड़की खोली. जिज्ञासु मगर हिंदी साहित्य से दूर हिंदी प्रेमियों को ‘नौकर की कमीज’ और मुक्तिबोध से परिचित करवाया. खत्म होते जा रहे ब्लॉग कल्चर को नया ‘लिंक’ दिया. भाषाओं को सहेजा, उनमें नए शब्द जोड़े.

भाषाओं से हटकर, इसने हमें प्यार भी करवाया. यह भी बताया कि एक किताब है जो कभी खत्म नहीं होगी. और वैसे तो यह फेसबुक के नाम प्रेम-पत्र नहीं है, लेकिन उसके लिए हमारा प्रेम कम भी नहीं है!

(फेसबुक का­ एक दशक, 28 फरवरी 2014 में प्रकाशित)

‘चांद उनका संग-ए-मील है’

lataजैसे पुरखों का बिरसा (विरासत) होता है, गायिकी का बिरसा भी इसी तरह ध्रुपद, ख्याल, भजन, ठुमरी के बहाने हमें मिला हुआ है. अगर हम पिछले सौ सालों के भारतीय फिल्मों के इतिहास में चले आए हुए आवाज के बिरसे की बात करें, तो उसमें मिली हुई लता जी की आवाज एक नेमत की तरह लगती है.

पिछली सदी में बहुत बड़े-बड़े फनकारों ने खूब कमाल का गाया है. उसमें बड़े गुलाम अली खां, अमीर खां साहेब और किशोरी अमोनकर जी ने बहुत उम्दा गाया है, मगर उन सबका गाना खुद के लिए है. यहीं से लता जी की आवाज की एक अलग विरासत बनती है. दूसरे की आवाज़ बनकर गाना कमाल की चीज है. यह वाहिद मिसाल लता जी से शुरू होती है. सहगल भी कभी दूसरे की आवाज नहीं बने. उनका गायन बहुत स्तरीय होकर भी खुद का गायन था. लता जी की आवाज चांद पर पहुंची हुई आवाज है. वे नील आर्मस्ट्रांग हैं, जो सबसे पहले चांद पर कदम रखने की सफलता हासिल करती हैं. हालांकि आशा जी भी उसी यान में खिड़की की दूसरी तरफ बैठी थीं.

लता जी की गायिकी के बारे में कुछ बातें हैरत में डालती हैं. मसलन यह कि कहानी, कैरेक्टर, सिचुएशन, फिल्म, संगीत और गीत किसी के भी हों, अगर उसे लता जी गा रही हैं, तो वह बरबस लता जी का गाना बन जाता है. बाद में और कोई जानकारी या तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाते. यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. उनकी आवाज, मेलोडी और तैयारी कमाल की है, डेडीकेशन जैसी चीज लता जी से सीखने वाली है. उनकी गायिकी में कुछ अलग है, अब यह अदा है, फन है या अलग तरह की आर्ट. या सब का मिला-जुला एक निहायत खुशनुमा पड़ाव. उन्होंने अरेबियन नाइट्स की कहानियों की तरह आवाज का ऐसा जादुई कालीन अपने गीतों के बहाने बिछाया हुआ है जिस पर पिछले पचास-साठ साल से न जाने कितने लोग चहलकदमी कर रहे हैं. आप उनका ‘रसिक बलमा’ सुनें तो उसी सम्मोहन में पड़ जाते हैं, जैसे बच्चे जादू और तिलिस्म की कहानियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. सलिल दा जैसे जटिल धुनों को बनाने में माहिर संगीतकार की धुनों में भी कितनी भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ ऐसी ही एक जटिल धुन पर सहजता से फिसलती हुई रचना है.

उनके लिए गाना लिखते हुए हमेशा यही लगता है कि कोई सिमली (रूपक) अगर जेहन में आती है, तो लता जी उस पर किस तरह रिएक्ट करेंगी. एक बार ‘देवदास’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त मेरे गीत में आई हुई इस पंक्ति ‘सरौली से मीठी लागे’ के बारे में वे बोलीं, ‘ये सरौली क्या है?’ ‘सरौली एक आम है, बहुत सुर्ख होता है, हम बचपन में उसे चूस-चूस कर खाते थे. क्या गाने से इसे निकाल दूं’ मैंने पूछा. ‘अरे नहीं! इसे ऐसे ही रहने दीजिए, मैं बस इसलिए पूछ रही हूं कि जानना चाहती थी कि इसकी मिठास कितनी होती है’ इसी तरह जब हम ‘घर’ के एक गाने की रिहर्सल पंचम के साथ कर रहे थे, तब वह उसके गाने ‘आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं’ में आगे आने वाली लाइन ‘आपकी बदमाशियों के ये नये अंदाज हैं’ के बारे में बेहद परेशान था. उसने मुझसे कहा, ‘शायरी में बदमाशी कैसे चलेगी? फिर ये लता दीदी गाने वाली हैं.’ मैंने कहा ‘तुम रखो, लता जी को पसंद नहीं आया तो हटा देंगे.’ लता जी से रिकार्डिंग के बाद पूछा ‘गाना ठीक लगा आपको? ‘हां अच्छा था.’ ‘वह बदमाशियों वाली लाईन?’ ‘अरे, वही तो अच्छा था इस गाने में. उसी शब्द ने तो कुछ अलग बनाया इस गाने को.’ लता जी का यह गाना आपको ध्यान होगा, वहां गाते हुए वे खनकदार हंसी में बदमाशियों वाले शब्द का इस्तेमाल करती हैं और उसकी अभिव्यक्ति को और अधिक बढ़ा देती हैं.

हम खुशकिस्मत हैं कि पिछली सदी में उनकी आवाज को हमने करीब से सुना है और उनके लिए कुछ गीतों को लिखने का सौभाग्य अपने खाते में दर्ज करा पाए हैं. आप उनके गाने को सुनकर ऐसा नहीं कह सकते कि ‘अरे यार, क्या कमाल का गाती हैं.’ आप ऐसा कर ही नहीं सकते. उनके संगीत के लिए हमेशा एहतराम लगता है. इज्जत की भावना अपने आप मन में उठती है. कोई नाशाइस्ता शब्द उनकी गायिकी के लिए हम सोच भी नहीं सकते. उनकी आवाज और गायन में कोई मशक्कत नजर नहीं आती. वह सहज है और भीतर से निकली हुई इबादत की तरह है. वे संग-ए-मील हैं.

(यतीन्द्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)

(सुर अविनाशी, 30 सितंबर 2011 में प्रलाशित)

लतीफे भी हमसे कुछ कहते हैं!

एक लतीफा सुनिए!
चोर अभी चोरी करता कि सोने वाले से टकरा गया. लाइट जली तो उसे पता चला कि वह एक नेता के घर घुस आया है. चोर ने नेता के पैर छुए और पाइप के रास्ते नीचे उतरने लगा. नेता ने पूछा, ‘और तो सब ठीक है मगर तुमने मेरे पैर क्यों छुए?’ चोर ने कहा, ‘मैं अपने सीनियर की इज्जत करता हूं.’

लतीफा सुनकर हंसी आ सकती है. मगर यह हंसी-हंसी में बहुत कुछ कह जाता है. कुछ रहस्यों को खोलता है. हमारी लोकतांत्रिक बीमारी को डायग्नोस भी करता है. न किसी का दिल टूटा, न किसी का सर फूटा. इतने बड़े काम एक नाकुछ लतीफे ने कर डाले.

कमाल के होते हंै ये लतीफे भी. उन खिड़कियों की तरह जहां से ताजी हवा का झोंका ही नहीं आत्म-स्वीकारोक्ति का प्रकाश भी आता है. कल्पनाओं में जन्म लेने वाले, मगर खोजें तो इनकी जड़ें वर्जनाओं, विद्रूपताओं और विसंगतियों के ठोस धरातल में धंसी मिलेंगी. अकसर कुछ ठेठ सवालों से टकराने वाले ये लतीफे अपनी गुदगुदी की पॉलिश वाले आईने में हमें हमारा वह अकसर  दिखाते हैं जिसे देखने से अक्सर हम बचते हैं.

लतीफों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी आदम के पैदा होने की कहानी. पैदा होने से जीवन के अवसान तक इनकी लय-ताल बराबर हमारे साथ चलती है. हमारे जीवन के स्पंदन को लतीफों के चटखारे में महसूस किया जा सकता है. हमारी भागती जिंदगी की गति की संगति जब बिगड़ने लगती है तब अपनी हंसी से ऊर्जा देते  हैं लतीफे. आज की हमारी जीवनशैली हमें तनाव और अवसादों के उपहार थमा रही है. हम मुरझा रहे हैं. लतीफे हमें खिलने के लिए विवश कर देते हैं. वे अपना पार्ट डॉक्टर से बढ़कर अदा कर रहे हैं और हमसे ठीक करने की कोई फीस भी नहीं लेते. हमारी चिकोटी लेते, चुटकी में अपनी बात कहते, हमें एहसास कराते कि सांस लेने और खुलकर सांस लेने में अंतर होता है. अपने जीवन में अगर हमारी हिस्सेदारी बढ़ाओगे तो अपनी जिंदगी में और ताजगी पाओगे. वे व्यक्तित्व में पाए जाने वाले नीरसता नाम के अयस्क को शोधित करते हैं.

लतीफों की दुनिया में हो सकता है, बहुतेरे जाति-वर्ग पर आधारित मिलें. मगर इसमें नटखट लतीफों का क्या दोष? हमारी क्षुद्र मानसिकता का प्रक्षेपण उस दुनिया में भी हो गया है

हमारी दुनिया की तरह इनकी भी एक दुनिया है. बहुरंगी. भेदभाव से परे. जाति-धर्म से मुक्त. हमारी दुनिया कितनी भी क्रूर हो मगर लतीफों की दुनिया जिंदादिली से भरपूर है. जब भी वहां दस्तक देंगे हमेशा ‘आपका स्वागत है’ सुनेंगे. हो सकता है आप को वहां सरदार या बाबा जी अधिक दिखें. यह भी मुमकिन है कि बहुतेरे लतीफे जाति-वर्ग पर आधारित मिलें. मगर इसमें नटखट लतीफों का क्या दोष. हमारी क्षुद्र मानसिकता का प्रक्षेपण उनकी दुनिया में भी हो गया है. इसे हमारी दुनिया का अतिक्रमण भी कहा जा सकता है.

लतीफों को सुनने में मजा आता है, मगर उनको सुनाने में अच्छे-अच्छों का दम फूल जाता है. अमूमन इनकी छवि ‘हल्के-फुल्के’ की बन गई है. क्या हम इनमें छुपे हुए मनोभावो को पढ़ पाएंगे कभी! क्योंकि हमारी यह हंसी उड़ाने की मनोवृत्ति उन्हें पकड़ने में अक्सर नाकाम हो जाती है और यह टाइमपास का तमगा लतीफों के नाम कर दिया जाता है. एक गंभीर लतीफा सुनिए. गंभीर और लतीफा! जी, सुनिए तो. जापान ने एक ऐसा टायर बनाया जिसमें छेद नहीं हो सकता था. सारे देशों में वह घूमा पर कोई सूई की नोक बराबर छेद नहीं कर सका. हमारे देश में आया. उसमें छेद तो नहीं हुआ पर वह ‘मेड इन इंडिया’ हो गया. इस लतीफे में कही गई बात कपोल-कल्पित या अतिरंजित लग सकती है. मगर क्या यह गलत है कि यह हमारे विशेष हुनर का प्रदर्शन करता है. क्या इस लतीफे को केवल मनोरंजक कहा जा सकता है?

हमने कभी सोचा है कि हर महान शख्सियत के साथ अमूमन कोई न कोई लतीफा क्यों जुड़ा होता है. चाहे वे शेख सादी हों या मिर्जा गालिब. चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या विंस्टन चर्चिल. गालिब की मकबूलियत और बड़ी से बड़ी बात सरल ढंग से कह जाने की काबिलियत और बीरबल की हाजिरजवाबी का सूत्र क्या उनसे जुडे लतीफों में नहीं ढूंढ़ा जा सकता!

हम सभ्य मनुष्यों में संभवत: वे संस्कार अभी नहीं आए जो लतीफों के पास हैं. वे लड़ते हुए अपनी बात नहीं कहते. शायद यही बात समझाने हमें, उनकी दुनिया के चरित्र, रोज हमारी दुनिया में विचरण करने आते हैं. हमारी दिनचर्या से आबद्ध उनकी रसमय बातें, उनकी चंचल शैतानियां. अलार्म घड़ी चाहे न बजे. चाहे मुर्गा बांग न  लगाए. मगर सुबह-सवेरे ही मोबाइल पर संता और बंता हमसे मिलने हमारे घर आते हैं. हमारे दिन की शुरुआत उनके लतीफों के उगे बिना अब नहीं होती. होती है क्या?

उबासी के तेल में तले गर्म पकौड़े लतीफे. जिंदगी को स्वाद देते लतीफे. हमारे सिर का बोझ अपनी लुत्फ-मस्ती के फीते में बांधते लतीफे. नटखट-चुलबुले लेकिन जिनमें हमारी खूबसूरत जिंदगी के बुलबुले दिखाई देते हैं. जोक,चुटकुला या लतीफा, हम उन्हें सुनाते जरूर हैं मगर कभी उनकी सुनते हंै क्या! क्या हमने कभी सोचा है कि लतीफे हमें हंसी-हंसी में बता जाते हैं कि हम हैं क्या? क्या पता आपको भी इनमें जीवन का कोई सूत्र  मिल जाए.

(लतीफे और हम, 15 मार्च 2010 में प्रकाशित)

खुले से ज्यादा छुपे भगत

Bhagat-Singh--1पहले-पहल जब मैंने भगत सिंह को लेकर एक फिल्म की संभावनाओं पर शोध करना शुरू किया तो मुझे उनके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी.मैं उनकी तरफ उसी वजह से आकर्षित हुआ था जिस वजह से हम जैसे बाकी दूसरे लोग हुए-एक रूमानी व्यक्तित्व, मिथक जैसा चरित्र जिसने सिर्फ 23 साल की उम्र में देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. जो फिल्म मैं बनाना चाहता था उसका नाम था आहुति यानी बलिदान. इसकी कल्पना एक विशेष समय पर आधारित एक्शन फिल्म के रूप में थी और इसके शोध पर मैंने तकरीबन तीन साल लगाए. जल्द ही मुझे अहसास होने लगा कि यह सिर्फ एक साधारण युवक नहीं था जिसने अपने हाथों में बंदूक उठा ली. मुझे लगने लगा कि ऐसा उसने केवल उत्साह के अतिरेक में नहीं किया था.

भगत सिंह के लिए हमारी सोच फिल्मों में उनकी छवि से प्रभावित है. उनका जिक्र आते ही हमारे दिमाग में चेहरे पर तेज लिए फांसी की ओर बढ़ते और जोशीला गीत गाते युवक की तस्वीर उभरती है. हम इसके परे तो जा पाए लेकिन मुझे पता था कि हम अभी भी बिल्कुल सही जगह नहीं पहुंच पाए थे. कहानी तैयार थी, हम सभी काफी उत्साहित भी थे लेकिन कुछ चीजें मुझे कचोट रही थीं. मेरे मन में कई तरह के सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे. उनमें से एक यह भी था कि आज के दौर में क्या लोग इस तरह की फिल्म को देखने थियेटर में आएंगे. जवाब की तलाश में हमने इस विचार को युवाओं के सामने रखा. इसके लिए हमने दिल्ली-मुंबई के 18 से 23 साल के युवाओं को चुना. जवाब हमें मिल गया था- किसी को इसमें रुचि नहीं थी.

ऐसा लगा कि भगत सिंह अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं. आज का युवा उन चीजों से जुड़ा महसूस ही नहीं करता जिनके लिए भगत सिंह जिए और लड़े. मुझे गहरा धक्का लगा. भगत सिंह पर की गई तीन साल की रिसर्च का कोई फायदा नहीं हुआ था. मैं उधेड़बुन में था कि तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंधी. जब भगत सिंह ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की शुरुआत की तो उन्होंने कहा था कि उनकी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ नहीं है बल्कि यह लड़ाई एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण के खिलाफ है. उन्होंने चेतावनी दी थी कि अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के बाद हम अपने लोगों द्वारा ही दास बना दिए जाएंगे. 21 साल के युवा की ये सूफियाना दूरदृष्टि अभिभूत कर देने वाली थी. मेरे दिमाग में कौंधा कि क्यों न भगत सिंह की कहानी को आज के युवाओं के साथ रख दिया जाए. इस विचार ने एकदम सही तार छेड़ा. आहुति, रंग दे बसंती में तब्दील हो गई. मैंने यही दिखाने की कोशिश की कि अंग्रेजों के जाने के बाद हम अब अपने ही लोगों के गुलाम हो गए हैं. फिल्म की जबर्दस्त सफलता ने मुझे तरोताजा कर दिया.

रंग दे बसंती ने काफी समय तक युवाओं को झिंझोड़ा, गुस्सा दिलाया, उत्साहित किया और उनमें बेचैनी भरी. एक तरह से देखा जाए तो इस फिल्म ने मुझे बेहतर इंसान बनाया है. इससे भी ज्यादा अहम यह कि इसने मुझे यह सिखाया कि एक फिल्मकार लोगों का मनोरंजन करने के साथ-साथ बदलाव की बयार भी ला सकता है. वैसे तो यह बात सैद्धांतिक रूप से मुझे पहले भी पता थी लेकिन इसे अनुभव करना कुछ अलग ही था. हालांकि अभी भी मुझे लगता है कि हम भगत सिंह को सही तरह से नहीं जान पाए हैं. वे एक बुद्धिजीवी थे, एक पत्रकार भी थे जो प्रताप नाम के अखबार के लिए बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे. उन्होंने नेशनल ड्रैमेटिक क्लब की स्थापना की और चंद्रगुप्त और राणाप्रताप पर आधारित ऐसे नाटकों का इतना सफल और जोरदार मंचन किया कि सरकार ने इस क्लब को ही बंद कर दिया.

वे शादीपुर के एक स्कूल के प्रिंसिपल थे और मार्क्स, एंजल्स और लेनिन को पढ़ा करते थे. दूसरी तरफ उन्होंने अपना घर छोड़ दिया, शादी तोड़ दी और मौत को गले लगा लिया ताकि लोगों तक अपने विचार पहुंचाने के लिए वे अपने मुकदमे को मंच के रूप में इस्तेमाल कर सकें. वे सिर्फ 23 साल के ही तो थे. सांन्डर्स को मारने के बाद भगत सिंह और उनके साथी भागे-भागे फिर रहे थे, उन्होंने हफ्तों से खाना नहीं खाया था. एक दिन चंद्रशेखर आज़ाद उनसे मिलने आए और उन्हें दो रुपए दिए. भगत सिंह और साथियों ने उन्हें गले लगा लिया और खींचते हुए उन्हें एक हलवाई की दुकान पर ले गए.सड़क के दूसरे छोर पर एक सिनेमा हॉल था. इधर, हलवाई उनके आॅर्डर ले रहा था उधर, भगत सिंह जिनके पास पैसे थे सड़क पार करके सिनेमाहॉल पहुंचे और फिल्म देखने के लिए टिकट खरीद लिया. इस घटना सेज्यादा मुझे कुछ भी ये नहीं बताता कि भगत सिंह असल में क्या थे.

उन्होंने चेतावनी दी थी कि अंग्रेज़ी दासता से मुक्ति पाने के बाद हम अपने लोगों द्वारा ही दास बना दिए जाएंगे. 21 साल के   युवा की यह सूफियाना दूरदृष्टि अभिभूत कर देने वाली थी

भगत का अनछुआ जगत

Bhagatसंगीत, कविता और सिनेमा से गहरा जुड़ाव होने के नाते मुझे जिज्ञासा होती है कि क्या मैं भगत सिंह को इतिहास के पन्नों से कुछ देर के लिए उधार लेकर उनके व्यक्तित्व को एक अलग रोशनी में देख सकता हूं.

जेल में लिखी गई भगत सिंह की नोटबुक को पलटते हुए मेरी नजर उमर खय्याम की कुछ रु बाइयों के अंग्रेजी अनुवाद पर पड़ती है

जिसका मतलब कुछ यूं बनता है –
ओ मेरे प्रियतम वो प्याला भर
जो मिटा दे बीते का अफसोस और आने वाले कल का डर
यहां एक दरख्त के नीचे रोटी के एक टुकड़े के साथ
शराब की बोतल और शायरी की एक किताब
और इस वीराने में तुम मेरे पास गाती हुई
वीराने को जन्नत बनाती हुई

पहली नजर में ये रुबाइयां देखकर अजीब लगता है. क्या ये वही भगत सिंह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एक घोर यथार्थवादी थे? ऐसे आवेगों से दूर जो तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. लोकप्रिय छवि में भी भगत सिंह ऊर्जावान की बजाय गरिमामयी युवा ज्यादा नजर आते हैं. उनकी लेखन शैली, समझाने और पाठकों से संवाद स्थापित करने वाली है. इसमें युवाओं वाली आक्रामकता भी नजर आती है मगर एक संयत दायरे में रहकर. इसलिए भगत सिंह की नोटबुक में लिखी इन रुबाइयों को देखना कुछ अजीब सा लगा.

भले ही दोनों रुबाइयों में कोई मेल जुड़ता न लगता हो, लेकिन इनमें वर्तमान के साथ एक गहरा जुड़ाव झलकता है – जो मिटा दे बीते का अफसोस और आने वाले कल का डर. वर्तमान ही सब कुछ है इसका अहसास दरख्त के नीचे प्याले और प्रियतम के साथ की इच्छा और गहरा कर देती है. एक युवा क्रांतिकारी की कोमल भावनाएं….ऐसा कम ही हुआ है कि भगत सिंह प्रेम से जुड़े सवालों में उलझे हों. इसकी एक हल्की सी झलक उनके द्वारा सुखदेव को लिखे एक पत्र में मिलती है जिसमें एक संभावित आकर्षण की चर्चा की गई थी जिसे वे बाद में पलटते तो प्रतीत होते हैं पर पूरी तरह से नकारते नहीं.

यथार्थ में जीने के बावजूद भगत सिंह की कल्पनाएं मुझे आलंकारिक और भव्य लगती हैं. फांसी से कुछ घंटे पहले लिखी गई उनकी पंक्तियों में वे तल्लीनता से खुद को परिभाषित करते प्रतीत होते हैं.

कोई दम का मेहमान हूं
अहले महफिल
चराग-ए-सहर हूं बुझना चाहता हूं
मेरी हवा में रहेगी ख्याल
की बिजली
ये मुश्त-ए-खाक है फानी,
रहे न रहे

अगर ये पंक्तियां वास्तव में भगत सिंह की हैं तो इनमें आत्ममुग्धता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है. बाकी जगहों पर वे स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि मुझमें महत्वाकांक्षाएं, उम्मीदें और जीवन के प्रति आकर्षण कूट-कूट कर भरा है. लेकिन जरूरत पड़ने पर मैं इन सबका त्याग कर सकता हूं.’ लोगों के दिमाग में बसी अपनी छवि की क्षणभंगुरता से भी वे अच्छी तरह वाकिफ दिखते हैं. द्वितीय लाहौर षड्यंत्र केस में आरोपियों को पत्र लिखते हुए भगत कहते हैं, ‘मेरा नाम भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया है….आज लोग मेरी कमजोरियों के बारे में नहीं जानते.’

फांसी से कुछ देर पहले वे लेनिन पर एक किताब पढ़ रहे थे. जब उनसे फांसी के फंदे तक चलने के लिए कहा गया तो वे फुसफुसाए, ‘जरा ठहरो…एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है’

भगत सिंह 23 वर्ष के ही थे जब वे सुखदेव और राजगुरू  के साथ निर्भय होकर फांसी के तख्ते पर झूल गए. उनके चेहरे पर एक क्षण के लिए भी मौत का भय या जीवन का मोह नहीं दिखाई दिया. आखिरी वक्त तक उनका व्यवहार कुछ-कुछ परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र जैसा रहा. उनके बारे में मौजूद जानकारियां बताती हैं कि उनका ज्यादातर समय किताबों के साथ बीतता था. यह हक उन्होंने और उनके साथियों ने जेल में एक लंबी और कष्टकारी भूख हड़ताल के बाद हासिल किया था. वे किताबों के ढेर से ढेरों नोट्स बनाते थे और उनकी रुचियों की विविधता अविश्वसनीय थी. जेल में बिताए अपने आखिरी दिनों में उन्होंने पत्र लिखना भी शुरू कर दिया था. कामरेड साथियों और सरकार को ये समझाना जरूरी था कि क्यों राजगुरू, सुखदेव और उनके लिए मौत का विकल्प चुनना हर तरह से सही है और क्यों बाकी आरोपी साथियों का जिंदा रहकर काम करते रहना. भगत सिंह को माफी देने की अपील करते हुए उनके पिता ने सरकार को एक पत्र लिखा था. भगत को जब यह पता चला तो वे बहुत नाराज हुए. उन्होंने पिता की पुत्र के प्रति इस स्वाभाविक कमजोरी का विरोध भी किया. पंजाब सरकार को लिखे एक पत्र में उन्होंने मांग की कि राजगुरू, सुखदेव और उनके साथ युद्धबंदियों जैसा व्यवहार किया जाए और साधारण अपराधी की तरह फांसी देने की बजाय उन्हें गोली से उड़ाया जाए.

असाधारण साहस, असीमित आदर्शवाद और युवा जोश की बहुत सी कहानियां भगत सिंह के इर्द-गिर्द घूमती हैं. कहा जाता है कि फांसी से कुछ देर पहले वे लेनिन पर एक किताब पढ़ रहे थे. जब उनसे फांसी के फंदे तक चलने के लिए कहा गया तो वे फुसफुसाए, ‘जरा ठहरो…एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है’ इन संदर्भाें की कोई पुष्टि तो नहीं होती लेकिन ये देश की मिट्टी में बस गए हैं.

अपने पिता और पंजाबी कवि हरभजन सिंह के एक आत्मकथात्मक निबंध के जरिये मैं उस रात की कल्पना कर सकता हूं जब तीनों क्रांतिकारियों को लाहौर की सेंट्रल जेल के भीतर फांसी दी गई. जेल के सबसे नजदीक स्थित इंसानी बस्ती हमारा पैतृक गांव इच्छरा था. गांव और जेल के बीच तीन ही चीजें थीं – सांपों से भरीं कांटेदार झाड़ियां, एक श्मशान और रेल की पटरी. मंैं 23 मार्च की रात की कल्पना करता हूं. इस समय आम तौर पर खामोश रहने वाले गांव में आज रोमांच का माहौल है. संभावित फांसी की अफवाहें उड़ रही हैं. शाम रात में ढलती है और गांव धीरे-धीरे अंधेरे की चादर ओढ़ लेता है. दूर से आती इंकलाब जिंदाबाद की आवाजें गांव के सन्नाटे को तोड़ने लगती हैं. क्रांतिकारियों को फांसी दी जा चुकी है. शुरुआती और संकोच भरी खामोशी के बाद छतों पर खड़े लोग भी जवाब में नारे लगाने लगते हैं. उनकी आवाज जेल के कैदियों तक पहुंचती है और वे भी इसका उत्तर देते हैं. माहौल में अब जोश आ जाता है. हिंदू, मुसलमान, सिख एक आवाज में नारे लगाते हैं और रात की खामोशी कई टुकड़ों में बिखर जाती है. दोनों तरफ से एकता का ये प्रदर्शन देर रात तक जारी रहता है. किसी ने भी आज घर में दिया नहीं जलाया है. दूर से दिख रहा जेल का उजाला रोशनी के किसी छोटे से टापू की तरह लग रहा है. लंबी और अंधेरी रात की कोख से एक नई कहानी पैदा हो रही है.

23 साल के भगत सिंह ने एक नास्तिक के रूप में फांसी के फंदे को चूमा था. खुदीराम और अशफाकउल्ला की तरह उन्होंने फांसी के समय गीता या कुरान अपनी छाती से नहीं लगाई थी. चीफ वार्डन छतर सिंह की वाहेगुरू बोलने की प्रार्थना को भी उन्होंने ये कहकर विनम्रता से ठुकरा दिया था, ‘नास्तिक होने के लिए मेरी आलोचना की जा सकती है. लेकिन कोई यह तो नहीं कहेगा कि भगत सिंह मौत को सामने देखकर घबरा गया.’

उनकी नास्तिकता का उनके धर्मनिरपेक्ष आदर्शवाद की तलाश से गहरा संबंध था. बीसवीं सदी के पहले 25 साल में बदलाव की बयार बड़ी तेजी से बह रही थी. वह सूफी आंदोलनों का दौर था और प्रथम विश्व युद्ध से झटका खाए ब्रिटिश राज की चमक भी फीकी पड़ने लगी थी.

इसी दौर में कहीं हमें 12 साल के उस भगत की कहानी मिलती है जो जालियांवाला हत्याकांड के अगले दिन स्कूल से भागकर अमृतसर पहुंचा था. वह बच्चा जो जालियांवाला बाग की मिट्टी अपने साथ ले जाने के लिए एक छोटा सा डिब्बा साथ लाया था. इस घटना में बालसुलभ कोमलता, भावुकता और बुद्धि की परिपक्वता की झलक मिलती है. कुछ साल बाद ही भगत सिंह डीएवी स्कूल छोड़कर राजनीतिक हलचल का हिस्सा बन गए. उन्हीं दिनों गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया था.

राज के खिलाफ अब तक बड़ी सीमा तक सांप्रदायिक रहा प्रतिरोध अब संस्कृतियों, धर्माें और सोच से ऊपर उठना शुरू हो चुका था. लाहौर, जालंधर, दिल्ली, इलाहाबाद, कानपुर, कलकत्ता, बंबई और पूना में हो रहे विरोध ने देश को क्रांति के एक सूत्र में गूंथ दिया. क्षेत्रीय पहचान की चमक अब धुंधली पड़ रही थी. दुनिया को दिखने लगा था कि पूरा भारत अब अंग्रेजों का विरोध कर रहा है.

यह वह दौर भी था जब किताबें, विचारधाराएं, कविताएं, संगीत, सिनेमा और रंगमंच जैसे मनबहलाव के कई नए माध्यम उभर रहे थे. भगत सिंह की नई तकनीकों में काफी रुचि थी. कहा जाता है कि वे अक्सर क्रांतिकारी साथियों को खाने के पैसे बचाकर सिनेमा देखने के लिए फुसलाते थे.

राज को योजनाबद्ध तरीके से चुनौती देने का समय आखिरकार आ गया था. विचारधाराओं में तीखा टकराव हो रहा था जिसमें मेल-मिलाप की संभावना नजर नहीं आ रही थी. दूसरे तरीकों से ब्रिटिश राज का विरोध कर रहे गांधी, नेहरू और पटेल एक ऐसी परंपरा से आए थे जो भगत सिंह, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त से काफी अलग थी. यह भी रोचक है कि इन क्रांतिकारियों को जनसाधारण ने कभी बापू, चाचा, मौलाना या सरदार जैसे संबोधनों से नहीं पुकारा.

भगत सिंह का दौर गुजरे लगभग सौ साल हो चुके हैं मगर जनमानस में उनकी छवि आज भी वैसी की वैसी ही है. यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे एक कालजयी व्यक्तित्व बनकर अमर हो ग­ए हैं लेकिन यह भी तय है कि समय और नजरिये में बदलाव के साथ भगत सिंह की प्रासंगिकता और लोगों की सोच पर उनकी पकड़ नित नए सांचों में ढलती रहेगी.

(लेखक, शिक्षक होने के साथ-साथ संगीत, गायन, और अभिनय के क्षेत्र से जुड़े हैं) 

(नजरिया, 31 मार्च 2009 में प्रकाशित)

भोज और गंगू के बीच

picmumएक लोकगीत में कहा गया है कि श्रीराम और सीता के विवाह के समय राजा जनक ने उत्सव के आयोजकों-प्रबंधकों को निर्देश दिया था कि बारातियों के स्वागत-सम्मान में कोई कमी न रहे, लेकिन इतना ही खर्च किया जाए कि उनकी प्रजा के निर्धनतम पिता को भी यह लगे कि वह अपनी बेटी का ब्याह बिना किसी आर्थिक कठिनाई के आसानी से कर सकता है. रंगकर्म भी मूलत: साधन-संपन्नता का प्रदर्शन नहीं, कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के कुशल प्रयोग का कलाकर्म है. लेकिन आदि काल से आज तक साधन-संपन्न राज्याश्रित (शास्त्रीय) रंगमंच और सीमित-साधनों वाले जनसाधारण के रंगमंच में हमेशा जमीन-आसमान का फर्क रहा है. मुहावरे में कहें तो ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली’?

आंतरिक सर्जनात्मकता और प्रतिभा का स्थान जब साधन-संपन्नता लेती है तो कला का ह्रास होने लगता है. उदाहरण के लिए जब राज्याश्रित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना हुई तो स्थान और साधन सीमित थे, लेकिन सरोकार, लक्ष्य और हौसले असीमित. इस से ही ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘अंधायुग’ और ‘तुगलक’ जैसी अविस्मरणीय-कीर्तिमान प्रस्तुतियां संभव हुईं. रंगमंडल बना. प्रदर्शन-मूल्यों के नए प्रतिमान स्थापित हुए. फीरोजशाह कोटला, तालकटोरा और पुराना किला के खंडहरों में बड़े आयामों वाले नाटकों के प्रदर्शन किए गए. प्रदर्शन भव्य थे लेकिन उनमें संसाधनों की, धन की कैसी भी प्रदर्शनीयता नहीं थी.

धीरे-धीरे संस्थान का विकास होता गया और उसके आर्थिक-संसाधन भी बढ़ते गए. आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के एक पूर्व निदेशक का दावा है कि रंगकर्म में कोई व्यावहारिक समस्या या चुनौती नहीं है और प्रशिक्षित कलाकारों के लिए जीविका चलाने के पर्याप्त अवसर हैं. आर्थिक संसाधन तो इतने ज्यादा उपलब्ध हैं कि ‘हम उन्हें इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं.’ जाहिर है कि ‘हम’ का अर्थ यहां देश के हजारों सामान्य रंगकर्मी नहीं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक और उनके करीबी मुट्ठी भर विशिष्ट कलाकार हैं. यह संस्थान छात्र-प्रस्तुतियों, अपने रंगमंडल के प्रदर्शनों, किताबों-पुस्तिकाओं, नाट्य-समारोहों आदि के कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपए प्रति वर्ष खर्च करता है. पर कैसी विडंबना है कि संस्थान में रचनात्मक काम और अधिकांश प्रदर्शनों में कल्पनाशीलता के स्थान पर धन का निरर्थक दिखावा बढ़ता जा रहा है. इनकी बेटी के ब्याह की तामझाम और फूहड़पने से आतंकित होकर कोई आम बाप तो बेटी के ब्याह की कल्पना तक नहीं कर सकता. इन्हें राजा जनक और राजा भोज के बीच संतुलन तलाशना चाहिए. तभी रंगकर्म की मुख्यधारा को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा सकेगा.

रंगमंच मूलत: शब्द, अभिनेता और दर्शक की धुरी पर टिका है. इनमें से किसी भी तत्व को छोड़ देने पर वह चमत्कृत करने वाला कोई मनोरंजक प्रदर्शन भर रह जाएगा – रंगमंच नहीं रहेगा

यह सच है कि सरकारी आर्थिक सहायता और धन के बिना अर्थपूर्ण और गंभीर रंगकर्म नहीं हो सकता मगर नए मौलिक प्रयोगों के बिना भी किसी माध्यम का विकास नहीं होता. प्रयोग हमेशा सफल ही हों, यह जरूरी नहीं है. इसके बावजूद रचनाकार नए प्रयोग करते हैंं. समकालीन रंगकर्म में भी कई नाट्य-निर्देशक अपने माध्यम में अनेक मौलिक रंग-प्रयोग कर रहे हैं. भरतमुनि ने नाट्य को सभी विधाओं, कलाओं और विद्याओं का संगम माना था. एक लंबी गोलाकार यात्रा के बाद आज हम फिर से उसी आरंभ-बिंदु पर पहुंच गए हैं.  इधर तकनीकी क्रांति और संचार-माध्यमों ने जीवन और जगत का स्वरूप बिल्कुल बदल दिया है. नए रंग-प्रयोगों में तकनीकी उपकरणों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. शब्द और अभिनेता की भूमिका लगातार घटती जा रही है. इस दृष्टि से अनुराधा कपूर, अमाल अल्लाना, नीलम मानसिंह चौधरी, माया राव, कीर्ति जैन इत्यादि का काम विशेष रूप से ध्यानाकर्षक है. संयोग से ये सभी महिला-निर्देशक हैं. इनके रचना-कर्म पर श्रव्य की अपेक्षा दृश्य/बिंब हावी है. पिछले दिनों दिल्ली में प्रदर्शित रुद्रदीप चक्रवर्ती के ‘कर्ण: द वारियर आॅफ द सन’ में जिस व्यापक स्तर पर स्क्रीन, वीडियो, कंप्यूटर, सीजीआई प्रभावों और आधुनिक ध्वनि-प्रकाश यंत्रों का प्रयोग किया गया – वह समकालीन भारतीय रंगकर्म में पैसे और तकनीक के अतिशय इस्तेमाल का एक बड़ा उदाहरण है.

अगर देश में अंग्रेजी के रंगमंच की बात की जाए तो इसे अधिकांशत: औद्योगिक घरानों या विदेशी अनुदान द्वारा प्रायोजित किया जाता है. समृद्ध समाज का खाया-अघाया एक खास वर्ग इन नाटकों को सिर्फ इसलिए देखता है कि प्रदर्शन बेडरुम फार्स है या कॉमेडी, इसका आलेख विदेशी है और भाषा अंग्रेजी. इसकी टिकिट भी काफी महंगी होती है. कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एक छोटा-सा रास्ता कुछेक हिंदी नाट्य-दलों के लिए भी खोला है. ये सुविधा-संपन्न रंगकर्म राजा भोज का रंगमंच है. शायद इसीलिए इस संपन्न रंगकर्म का एक रूप ‘भोज रंगमंच’(सपर थियेटर) भी है जिसमें मुख्यत: अंग्रेजी और थोड़ा-बहुत हिंदी रंगकर्म को पांच सितारा होटलों में खाने-पीने के साथ परोसा जाने लगा है. वातानुकूलित शानदार होटल के बार या हॉल में सिगरेट के धुएं, शराब के जाम और फूहड़ हंसी-मजाक के बीच का थियेटर बड़े पैसे के बावजूद इसे एक बाजारू चीज बना देता है.

विदेशों में प्रदर्शित किए जाने के लिए ही खास तौर से तैयार किए गए नाट्य-प्रदर्शनों का भी एक अच्छा-खासा बाजार है. इससे पैसा भी मिलता है और प्रसिद्धि भी. फिल्म और टीवी के लोकप्रिय कलाकारों के रंगकर्म का भी एक अलग वर्ग है. उनकी लोकप्रिय छवि को ये नाट्य-प्रदर्शन खूब भुनाते हैं. इनके हाउस हमेशा फुल रहते हैं. परंतु एक नसीरूद्दीन शाह और कभी-कभी फिरोज खान को छोड़ कर शायद ही इन ग्लैमरस-प्रदर्शनों में कोई गंभीरता, ईमानदारी या प्रतिबद्धता दिखाई पड़ती है.

सातवें-आठवें दशक में मोहन राकेश और बादल सरकार ने एक अभिनेता के सम्मुख कई चरित्र निभाने की चुनौती प्रस्तुत की. बांग्ला एकपात्री नाटक ‘अपराजिता’ जैसे एकल भी कलाकार की अभिनय-प्रतिभा के लिए बड़ी कसौटी हैं. लेकिन अनेक समकालीन निर्देशक एक ही चरित्र के विविध रूपों और पक्षों को मंच पर मूर्त करने के लिए अनेक अभिनेताओं का प्रयोग करके कलाकार की अभिनय-चुनौती को खत्म करते जा रहे हैं.

परंतु राजा भोज के इस भव्य रंगमंच के बरक्स आर्थिक दृष्टि से विपन्न लेकिन अपनी रंग-निष्ठा, लगन, जिद और ईमानदार अभिव्यक्ति के लिए कटिबद्ध गंगू तेली का शौकिया रंगकर्म भी मौजूद है जो पूर्वाभ्यास स्थलों, सस्ते प्रेक्षागृहों, दर्शकों, अच्छे मौलिक नाटकों, श्रेष्ठ कलाकारों और आर्थिक संसाधनों के अभाव जैसी समस्याओं और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की नई चुनौतियों से लड़ने के बाद भी बढ़ रहा है. इस रंगमंच का विस्तार और वैविध्य आश्चर्यजनक है, किंतु इसका चरित्र और स्तर भी हैरतअंगेज ढ़ंग से ऊंचा-नीचा है. कहीं अपनी गंभीर कल्पनाशीलता और जीवंतता के कारण यह प्रोफेशनल रंगकर्म से टक्कर लेता है तो कहीं बिल्कुल अपरिपक्व और बचकाना भी नजर आता है.

आज शौकिया रंगकर्म के कई रूप मौजूद हैं. अच्छे मौलिक रंग-नाटक लिखे तो जा रहे हैं, लेकिन निर्देशक उन्हें करने के बजाए पूर्व-प्रकाशित-मंचित सफल भारतीय या विदेशी नाटकों के अनुवादों पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं. स्वयं निर्देशक भी नाटक लिखने लगे हैं. कहानी-उपन्यासों के नाट्य-रूपांतर या उन्हें ज्यों-का-त्यों भी प्रस्तुत किया जाता है. कविताओं पत्रों, व्यंग्य-लेखों और जीवनियों को भी को भी मंच पर प्रस्तुत किया जाता है. लोक-नाटकों और शैलियों को लेकर भी नए रंग-प्रयोग हो रहे हैं और नाट्यधर्मी शास्त्रीय संस्कृत नाटकों को लेकर भी. एकल नाट्य की लोकप्रियता भी बढ़ रही है.

शंभु मित्रा, शीला भाटिया, ब.व. कारंत जैसे वरिष्ठ निर्देशक रहे नहीं. हबीब तनवीर, कावालम नारायण पणिक्कर, बादल सरकार, सत्यदेव दुबे और श्यामानंद जालान, रजिन्दर नाथ वाली पीढ़ी अपना योगदान देकर थक चुकी है. इब्राहिम अल्काजी कब का रंगमंच से संन्यास ले चुके हैं और उनके प्रतिभावान शिष्यों में भी अब शिथिलता दिखाई देने लगी है. रतन थियम अपनी पीढ़ी के शायद अकेले ऐसे रंगकर्मी हैं, जिन्होंने निजी रंग-शैली बनाई है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समकालीन भारतीय रंगमंच का प्रतिनिधित्व करते हैं. नई पीढ़ी सक्रिय है – संभावनामय भी है. लेकिन आज के घोर भौतिकतावादी समय में कब तक घर फूंक कर तमाशा करने की जुर्रत कर पाएगी. फिर इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों का अदम्य आकर्षण भी है.

मुश्किल तो इस सवाल का जवाब देना भी है कि भविष्य में रंगकर्म बचा भी रहेगा या नहीं? यदि बचा भी रहा तो उसका रूप-रंग क्या होगा? पहले प्रश्न का उत्तर तो इतिहास देता है. आरंभ से लेकर आज तक, विपरीत परिस्थितियों और संकटों के बावजूद, रंगकर्म हमेशा जीवित रहा है. उसने समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ अपने स्वरूप और सरोकारों को भी बदला है.

साहित्य में जैसे नई कविता को नए उपमानों की जरूरत पड़ी थी, उसी तरह अब रंगमंच को नए मंच-उपकरणों की जरूरत महसूस हो रही है. नए अनुभवों के संप्रेषण के लिए नए अभिव्यक्ति-रूप आ रहे हैं – आएंगे ही. अपने जीवन में जब हम पश्चिम की नकल और तकनीकी उपकरणों के उपयोग रोक नहीं पा रहे हैं तो रंगमंच को इससे कैसे अलग हो? मगर अभी तक हमारे यहां कथ्य और तकनीक से लदी-फदी प्रस्तुति शैली में रचनात्मक साम्य नहीं बन पाया है. यदि ऐसा हो पाया तभी यह सिर्फ चौंकाने के बजाए दर्शक को सहज ग्राह्य हो सकेगा.

रंगमंच मूलत: शब्द, अभिनेता और दर्शक की धुरी पर टिका है. इनमें से किसी भी तत्व को छोड़ देने पर वह चमत्कृत करने वाला कोई मनोरंजक प्रदर्शन भर रह जाएगा – रंगमंच नहीं रहेगा.

भविष्य के रंगमंच का स्वरूप कैसा भी हो लेकिन इतना तो लगभग निश्चित है कि रंगकर्म में राजा भोज और गंगू तेली के रंगमंच की दो प्रमुख धाराएं बनी रहेंगी.’

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009