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मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह

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फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

राजनीति की दुनिया में अगर कोई एक लाइन सबसे ज्यादा बार दुहराई गई है तो वह है, यहां कोई किसी का न तो स्थायी दोस्त होता और न ही दुश्मन होता है. इस पंक्ति को राजनेता, पत्रकार और विश्लेषक सब बार-बार दोहराते हैं. फिर भी यहां समय-समय पर जोड़ियां बनती-बिगड़ती रहती हैं. दोस्त बनते हैं, साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाई जातीं हैं.

इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी एक राजनीतिक जोड़ी बनी. बात 1995 की है. विदेशी कारों से सफर करने वाले, पांच सितारा होटलों में होने वाली फिल्मी पार्टियों में शामिल होने का शौक रखने वाले अमर सिंह मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह और अमर सिंह की नई जोड़ी अस्तित्व में आई. जब यह जोड़ी बन रही थी तभी कुछ लोग इसे बेमेल बता रहे थे. कारण अमर सिंह का व्यक्तित्व जो समाजवाद और समाजवादी मूल्यों से बिल्कुल अलग था. अमर सिंह धन-दौलत और अपने संपर्कों के लिए जाने जाते थे तो मुलायम सिंह अपनी जमीनी राजनीति की वजह से पहचाने जाते थे. लेकिन फिर भी यह राजनीतिक जोड़ी 14 साल तक टिकी रही और दिन प्रतिदिन मजबूत होती गई. अमर सिंह खुद को मुलायम का छोटा भाई और सेवक बताते थे. कई साक्षात्कारों में उन्होंने खुद को हनुमान और मुलायम को राम बताया. पार्टी में आने के बाद अमर सिंह ने जमीन से जुड़ी इस पार्टी की चौखट पर कई सितारे टांक दिए. जया प्रदा, संजय दत्त,  जया बच्चन और मनोज तिवारी जैसे कई फिल्मी सितारे समाजवादी पार्टी में दिखने लगे. अमिताभ बच्चन से लेकर अनिल अंबानी तक की आवक-जावक लखनऊ होने लगी. समाजवाद की बात करने वाली पार्टी और उसके मुखिया, अमर सिंह का साथ पाकर ‘पांच सितारा’ चकाचौंध से सराबोर होने लगे.

लेकिन इस चमक-दमक की वजह से पार्टी के कई खांटी समाजवादी नेता हाशिये पर चले गए. कुछेक नेता खुदबखुद किनारे हो गए तो कई को अमर सिंह ने किनारे लगा दिया.

पार्टी के कार्यकर्ताओं में असंतोष फैलने लगा और पार्टी के वरिष्ठ नेता, अपने ‘नेता जी’ से नाराज रहने लगे. जमीनी राजनीति के माहिर मुलायम सिंह यादव पर अमर प्रेम इस कदर हावी हुआ कि वे न तो कोई असंतोष देख पा रहे थे और न ही किसी की नाराजगी महसूस कर पा रहे थे. इस समय के हालात के बारे में लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गोविंद पंत राजू ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुलायम के केंद्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए जब 1997 में लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक एक पांच सितारा होटल में आयोजित की गई तो आलोचना करने वालों में मुलायम के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के आम नेता और कार्यकर्ता भी थे. मुलायम सिंह के खांटी समाजवाद का यह एक विरोधाभासी चेहरा था. इस शुरुआत के बाद सपा में पांच सितारा संस्कृति का सिलसिला शुरू हो गया. पार्टी समाजवादी सिद्धांतों और जमीनी राजनीति को एक-एक कर ताक पर रखते हुए

 

‘कॉरपोरेट कल्चर’ के शिकंजे में फंसती चली गई. नेतृत्व में एक ऐसा मध्यक्रम उभरने लगा जिसे न समाजवादी दर्शन की परवाह थी और न समाजवादी आचरण की चिंता.’

अपने इसी लेख में राजू आगे लिखते हैं, ‘तब मुलायम के पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता माने जाते थे, उन्हें तक किनारे करने की कोशिशें शुरू हो गई थीं. उन दिनों लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में सपा के एक विधायक सीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा पर आए दिन पार्टी हितों और पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए टेलीविजन कैमरों के सामने खड़े दिखाई देते थे. ‘अमर प्रभाव’ से प्रताड़ित, पीड़ित और उपेक्षित होकर सपा से विदाई लेने वालों में राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खान जैसे दिग्गज समाजवादी नेता रहे.’ ये घटनाएं उस दौर में मुलायम सिंह के ऊपर अमर सिंह के प्रभाव की बानगी हैं.

1994 में समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले और आगरा से दो बार सांसद रहे समाजवादी नेता और अभिनेता राज बब्बर पहले ऐसे सपाई रहे जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमर सिंह के लिए दलाल जैसे शब्द का इस्तेमाल किया. इसके बाद राज बब्बर पार्टी से बाहर कर दिए गए लेकिन अमर सिंह जस के तस बने रहे. इस दौर में ऐसी स्थितियां पैदा हुईं जिसमें समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले, मुलायम के चचेरे भाई रामगोपाल यादव तक राजनीतिक एकांतवास में जाना पड़ा था. पार्टी के वैचारिक तुर्क जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह बिल्कुल खामोश हो गए थे. लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे गैरराजनीतिक समाजवादी चिंतक दूर से तमाशा देख रहे थे.

‘अमर प्रभाव’ की वजह से एक जमीनी पार्टी दिन प्रति दिन जमीन में धंसती जा रही थी. कार्यकर्ता नाराज थे. पार्टी के वरिष्ठ नेता और चिंतक कहे जाने वाले चेहरे पार्टी से दूर हो रहे थे. तो ऐसे में सवाल उठता है कि अमर सिंह के साथ में ऐसा क्या था जिसकी वजह से धरतीपुत्र मुलायम सिंह उनके खिलाफ कुछ बोलने या करने की स्थिति में नहीं रह गए थे.

इस बार में दो बातें कहीं जाती हैं पहली यह कि मुलायम सिंह का स्वभाव ही ऐसा है कि वे अपने साथ के किसी व्यक्ति के खिलाफ जल्दी कोई कड़ा कदम नहीं उठाते या ना ही कुछ बोलते हैं. दूसरी बात यह कि अमर सिंह समाजवादी पार्टी में वित्त के सबसे मुख्य स्रोत थे. मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए अमर सिंह उत्तर प्रदेश में निवेश लाने के लिए बनाई गई संस्था के प्रमुख रह चुके थे और अनेक अवसरों पर उन्होंने अनिल अंबानी सहित देश के कई बड़े उद्योगपतियों को यूपी में बुलाया था.

इसके अलावा अमर सिंह जोड़-तोड़ के भी माहिर खिलाड़ी थे.  इन सब वजहों से मुलायम ने अमर को अपने साथ बनाए रखा लेकिन जब जनेश्वर मिश्र यानी ‘छोटे लोहिया’ ने सिद्धांतों का सवाल उठा दिया तो मुलायम सिंह के लिए हालात को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया. इस तरह फरवरी 2010 में अमर-मुलायम की इस राजनीतिक जोड़ी का अलगाव हो गया. चौदह साल की राजनीतिक जोड़ी अलग हो गई. अमर सिंह ने लोकदल के नाम से एक असफल राजनीतिक पारी भी खेली.

इसी साल अगस्त महीने में एक बार फिर से दोनों साथी एक मंच पर दिखे. जिस जनेश्वर मिश्र के एतराज पर अमर सिंह की पार्टी से विदाई हुई थी उन्हीं की जयंती के अवसर पर लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में अमर और मुलायम साथ आए. जब इस मुलाकात के बारे में पत्रकारों ने अमर सिंह से सवाल किया तो वे बोले, ‘भूगोल बदला जा सकता है, इतिहास नहीं, अतीत नहीं.’

सोनिया गांधी और अहमद पटेल

साभारः द हिंदू
साभारः द हिंदू
साभारः द हिंदू

लोकसभा चुनावों के समय पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर : द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ सामने आई. अपनी किताब में बारू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के 64 वर्षीय राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की राजनीतिक शख्सियत और कांग्रेस तथा मनमोहन सिंह सरकार में उनकी भूमिका को लेकर कई खुलासे किए. बारू ने अपनी किताब में बताया कि कैसे यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सभी संदेश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचाने का काम नियमित तौर पर अहमद पटेल किया करते थे.  वे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच की राजनीतिक कड़ी थे. बारू के मुताबिक प्रधानमंत्री निवास में जब अचानक पटेल की आवाजाही बढ़ जाती तो यह इस बात का संकेत होता कि कैबिनेट में फेरबदल होने वाला है. पटेल ही उन लोगों की सूची प्रधानमंत्री के पास लाया करते थे जिन्हें मंत्री बनाया जाना होता था या जिनका नाम हटाना होता था. बारू यह भी बताते हैं कि कैसे पटेल के पास किसी भी निर्णय को बदलवाने की ताकत थी. वे एक उदाहरण भी देते हैं, ‘एक बार ऐसा हुआ कि ऐन मौके पर जब मंत्री बनाए जाने वाले लोगों की सूची राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए प्रधानमंत्री निवास से जाने ही वाली थी कि पटेल प्रधानमंत्री निवास पहुंच गए. उन्होंने लिस्ट रुकवाकर उसमें परिवर्तन करने को कहा. उनके कहने पर तैयार हो चुकी सूची में एक नाम पर वाइट्नर लगाकर पटेल द्वारा बताए गए नाम को वहां लिखा गया.’

बारू के इन खुलासों से इस बात का अच्छी तरह से पता चलता है कि कांग्रेस पार्टी में अहमद पटेल की क्या स्थिति है और सोनिया से उनके किस तरह के संबंध हैं. अहमद पटेल सोनिया के सबसे करीबी व्यक्ति उस समय से हैं जब सोनिया ने राजनीति में कदम भी नहीं रखा था. पार्टी में अहमद पटेल को गांधी परिवार के बाद कांग्रेस का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है. कोई अहमद पटेल को सोनिया का संकट मोचक कहता है तो कोई क्राइसिस मैनेजर. ‘सोनिया गांधी का रास्ता अहमद पटेल से होकर गुजरता है’ कहने वाले राजनीतिक गलियारों में बहुत से लोग मिल जाएंगे. सोनिया और अहमद पटेल की जोड़ी वैसे तो तभी से सक्रिय है जब सोनिया राजनीति में आई भी नहीं थीं. वैसे अहमद पटेल का कांग्रेस पार्टी से संबंध बहुत पुराना है. गांधी परिवार के इस वफादार सिपाही ने कांग्रेस का हाथ मजबूती से तभी से पकड़ रखा है जब इसकी कमान इंदिरा और उसके बाद राजीव गांधी के हाथों में हुआ करती थी. दोनों के साथ बेहद करीब से काम कर चुके अहमद पटेल सोनिया गांधी के संपर्क में तब पहली बार आए जब उन्हें जवाहर भवन ट्रस्ट का सचिव बनाया गया. उस दौर में सोनिया राजनीति से दूर थीं लेकिन उनकी ट्रस्ट के कामों में बहुत रुचि थी. कहते हैं कि पटेल ने ट्रस्ट से जुड़े कार्यों को पूरा करने के लिए न सिर्फ कड़ी मेहनत की बल्कि उसके लिए जरूरी पैसों का भी इंतजाम किया. इसके अलावा राजीव गांधी फाउंडेशन की स्थापना में भी पटेल की बेहद अहम भूमिका रही. सोनिया के मन के सबसे करीब इस प्रोजेक्ट को पूरा करने और उसका बेहतर संचालन करने में पटेल ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी. यहीं से उन दोनों के मजबूत संबंध की नींव पड़ी जो आज तक कायम है. सोनिया-पटेल के संबंधों की चर्चा करते हुए गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला कहते हैं,   ‘ राजीव गांधी की हत्या के बाद अहमद पटेल ने सोनिया गांधी से लेकर राहुल और प्रियंका सभी की जिम्मेदारी संभाली. चाहे वह राहुल व प्रियंका की पढ़ाई हो या फिर परिवार की आर्थिक या अन्य जरूरतें. पटेल ने एक सेवक की तरह परिवार की सेवा की.’

राजीव गांधी के देहांत के सात साल बाद तक खामोश रहने वाली सोनिया गांधी ने जब अंततः अपनी राजनीतिक चुप्पी तोड़ी तो पटेल उनके सारथी बने. वाघेला कहते हैं, ‘ सोनिया गांधी को पार्टी की कमान संभालने के लिए तैयार करने में पटेल की बहुत बड़ी भूमिका थी.  सीताराम को बाहर करके सोनिया गांधी की ताजपोशी में पटेल ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया.’ सोनिया गांधी के पार्टी संभालने के बाद पटेल का राजनीतिक कद और रुतबा दिनों दिन बढ़ता चला गया.

सोनिया के पटेल पर आंख बंद कर भरोसा करने के पीछे यह कारण भी बताया जाता है कि गांधी परिवार के इतने करीब और प्रभावशाली होने के बावजूद पटेल ने कभी अपनी राजनीतिक हैसियत का इस्तेमाल अपने निजी फायदे के लिए नहीं किया. गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र पटेल कहते हैं,  ‘यूपीए की पिछली दो सरकारों में सभी जानते थे कि प्रधानमंत्री से ज्यादा अहमद पटेल शक्तिशाली हैं लेकिन उन्होंने कभी अपनी हैसियत का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल नहीं किया.’

पटेल और सोनिया के बीच मजबूत संबंधों की चर्चा करते हुए कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘कांग्रेस में राहुल और प्रियंका के बाद यही हैं जिनकी शिकायत मैडम (सोनिया) से कोई नहीं कर सकता. क्योंकि अगर कोई अहमद पटेल का विरोध करेगा तो फिर वह पार्टी में नहीं रह पाएगा. किसी को याद नहीं कि पिछली बार कब कांग्रेस अध्यक्ष पटेल से किसी विषय पर सख्ती से पेश आई थीं.’

कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि कैसे पिछले 10 सालों में सोनिया गांधी द्वारा लिए गए हर निर्णय के पीछे अहमद पटेल का ही दिमाग रहा. पार्टी के एक पूर्व महासचिव कहते है, ‘पिछले 10 सालों में पार्टी में कोई भी ऐसा निर्णय नहीं हुआ जिसमें पटेल की सहमति ना हो. जब भी मैडम ने यह कहा कि वे सोच कर बताएंगी कि इस विषय पर क्या करना है तो पार्टी के लोग समझ जाते थे कि अब वे अहमद पटेल से सलाह लेंगी फिर फैसला करेंगी.’

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई सोनिया के अहमद पटेल पर भरोसे की वजह बताते हुए कहते हैं, ‘पटेल की कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं है. राजनीति में ऐसा होना बहुत दुर्लभ है. वफादारी में भी इनका कोई मुकाबला नहीं है. लो प्रोफाइल रहते हैं, खामोश रहते हैं. एक बेहतरीन पॉलिटिकल मैनेजर हैं.’

सोनिया के पटेल पर अति विश्वास का एक कारण यह भी माना जाता है कि उतार-चढ़ाव के दौर में जब तमाम नेता पार्टी छोड़कर यहां वहां जा रहे थे तब भी अहमद पटेल ने पार्टी से दूरी बनाने की कोशिश नहीं की.

आज जब पार्टी लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद राज्यों में भी हारती चली जा रही है. और कांग्रेस के छोटे से लेकर बड़े नेता नेतृत्व को सीधे या घुमा फिराकर पार्टी की फजीहत का दोषी ठहरा रहे हैं वहीं किसी ने अहमद पटेल को कुछ बोलते हुए शायद ही सुना होगा. इससे पता चलता है कि कैसे यह जोड़ी (सोनिया-पटेल) अन्य जोड़ियों से अलग हटकर राजनीतिक हैसियत के कमजोर या मजबूत होने के चंगुल से आजाद है.

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी

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भारतीय जनता पार्टी इन दिनों अपने सुनहरे दौर से गुजर रही है. एक ऐसा दौर जो किसी भी राजनीतिक दल का ख्वाब होता है. पहले उसने लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया और फिर दो राज्यों में भी विरोधियों को करारी शिकस्त देकर सरकार बना ली. इस शानदार प्रदर्शन के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जुगलबंदी को सबसे बड़ा फैक्टर बताया जा रहा है. मौजूदा हालात पर नजर रखने वाले किसी व्यक्ति को शायद ही इससे गुरेज होगा. लेकिन वर्तमान का अध्ययन अगर अतीत को ध्यान में रखकर किया जाए तो उसे समझना बहुत आसान हो जाता है. तीन दशक पुरानी पार्टी की इस बेहद सफल यात्रा को रिवर्स गियर लगाकर देखा जाए तो दूसरे छोर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के रूप में एक ऐसी जोड़ी नजर आती है, जिसने बुलंदियों पर सवार भाजपा की बुनियाद ऐसे वक्त में खड़ी की, जब देश भर में कांग्रेस का एकछत्र राज था. अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद कांग्रेस ही देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी.

उसके पास महात्मा गांधी के सानिध्य में बड़े हुए नेहरू और सरदार पटेल जैसे मंझे हुए नेताओं की विरासत थी, उसकी जड़ें गांव-गांव और कस्बे-कस्बे तक फैली हुई थीं. ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने अपने अथक परिश्रम से देश के सामने एक ऐसा राजनीतिक विकल्प रखा जिसका परिणाम आज सबके सामने है. 1951 में संघ की शाखा से होकर भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुए इन दो नेताओं की राजनीतिक यात्रा एक दूसरे के सहयोग से ही आगे बढ़ी. इस जोड़ी ने 1975 में आपातकाल विरोधी आंधी के बाद अपनी सांगठनिक क्षमता का शानदार उपयोग किया और 80 के दशक में जनसंघ को भाजपा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तक भाजपा मात्र दो सांसदों की पार्टी थी. लेकिन जैसे ही पार्टी की कमान लालकृष्ण आडवाणी के पास आई वैसे ही भगवा झंडा देश के गांवों में लहराने लगा. वाजपेयी गजब के वक्ता थे, और आडवाणी संगठनकर्ता थे. उनकी भाषण शैली लोगों को भाजपा के प्रति आकर्षित करने में खूब कारगर रही और पार्टी का सांगठनिक ढांचा परवान चढ़ने लगा. अटल-आडवाणी की इस जोड़ी ने उदार और कट्टर हिंदुत्व का ऐसा तालमेल स्थापित किया कि अगले आम चुनाव में भाजपा ‘अटल-आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’ के नारे के साथ दो सीटों से 89 सीटों तक पहुंच गया. इसी दौरान राम मंदिर निर्माण को लेकर आडवाणी ने रथयात्रा करके भाजपा के प्रति देशव्यापी लहर पैदा की और यह जोड़ी भारतीय राजनीति में बेहद प्रभावशाली मानी जानी लगी. यह राम लहर का वह दौर था जब आडवाणी की छवि हार्डलाइनर और हिन्दू पुरोधा के रूप में विकसित हुई, और अटल बिहारी वाजपेयी को निर्विवाद तौर पर भाजपा का उदारवादी नेता मान लिया गया. अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री, माइ लाइफ’ में खुद आडवाणी उस दौर को अपने जीवन का सबसे आनंददायक दौर बताते हैं. इस संतुलित जोड़ी का ही करिश्मा था कि 1996 में पहली बार भाजपा ने एनडीए की अगुआई करके दिल्ली की सत्ता पाने में कामयाबी हासिल की. इस तरह पहले तेरह दिन, फिर तेरह महीने और आखिरकार 1999 से 2004 तक पूरे पांच साल तक पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार ने केंद्र पर राज किया. यह इस जोड़ी का ही करिश्मा था कि दो दर्जन से भी अधिक दल एनडीए की सरकार में शामिल थे और इन सभी को अटल-आडवाणी पूरी तरह स्वीकार्य रहे. इस बीच दोनों की आपसी होड़ का कोई मामला शायद ही कभी सामने आया हो. भारतीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि वाजपेयी और आड़वाणी की जोड़ी ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में जिस समन्वय और सहयोग के साथ भाजपा को आगे बढ़ाया वह अपने आप में एक ऐसी मिसाल है जिसे बहुत लंबे समय तक याद किया जाएगा. अपनी महत्ता को प्रासंगिक तथा प्रभावशाली बनाए रखने के साथ ही इस जोड़ी ने दूसरी पीढ़ी का नेतृत्व तैयार करने में भी अपनी बेशुमार ऊर्जा लगाई. यही वजह है कि आज जहां लालू प्रसाद यादव, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी की पार्टी के सामने विरासत का संकट खड़ा है, वहीं भाजपा में नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे नेता पार्टी को लंबे समय तक चलाने के लिए तैयार हो चुके हैं.

हालांकि गिरते स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी के एक दशक पहले रिटायर हो जाने और अब आडवाणी के भी मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाने के बाद यह जोड़ी राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं है लेकिन बावजूद इसके इस जोड़ी की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. हालिया लोकसभा चुनाव जीत कर भाजपा ने दस साल के बाद सत्ता में वापसी की है. निस्संदेह भाजपा के इस शानदार प्रदर्शन का श्रेय मोदी, अमित शाह और वर्तमान भाजपा संगठन की रणनीति को दिया जा चुका है, लेकिन इस बात से भी शायद ही किसी को ऐतराज होगा कि अटल आडवाणी की जुगलबंदी का भी इस जीत में बहुत बड़ा योगदान है. इस योगदान को ठीक वैसे ही देखा जा सकता है जैसे ताजमहल का जिक्र आने पर शाहजहां का नाम तो जेहन में आता है लेकिन उन बेनाम कारीगरों का खयाल किसी को नहीं रहता जिन्होंने उस खूबसूरत इमारत की तामीर में अपनी पूरी ऊर्जा खपा दी थी.

 

 

तुम कहती हो या मैं कहता हूं

sfsdयूं तो बड़ा अटपटा लगता है कि मैं हिंदी भाषा के बारे में कुछ कहूं पर ऐसा आग्रह है कि तहलका के प्रथम हिंदी संस्करण के लिए मैं अपने अनुभवों और विशेष रूप से उन अनुभवों का जो हिंदी भाषा से जुड़े हैं, जिक्र करूं. हिंदी मेरे लिए एक ऐसी भाषा कभी नहीं रही जिसे मैंने विधिवत सीखा हो. जैसे मुझे यह स्मरण नहीं कि कैसे मैंने सरकते-सरकते दो पैरों पर खड़ा होकर चलना शुरू किया, ऐसे ही मुझे यह भी याद नहीं कि कब और कैसे मैंने हिंदी बोलना और लिखना शुरू किया. मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि मेरे हिंदी ज्ञान में कभी कोई त्रुटि नहीं हो सकती या हिंदी के महापंडित अगर कोई मीन-मेख निकालने पर उतारू हो जाएं तो उन्हें कुछ भी इधर-उधर नहीं मिलेगा. लेकिन एक बात जरूर कह सकता हूं कि हिंदी और मेरे बीच मां और बेटे का-सा संबंध है. जो सहजता एक शिशु और मां के बीच होती है मैं हिंदी के साथ वही सहजता महसूस करता हूं. मैं जब चाहे उसकी चोटी, उसका आंचल खींच सकता हूं और वह जब चाहे मुझे डपट कर चुप करा सकती है. यह हिंदी से मेरी सहजता ही थी जिसके कारण चाहे विज्ञापन की दुनिया हो या फिल्म जगत मैंने अपनी ही तरह से स्वाभाविक लेखन किया, बिना किसी परंपरा को निभाने की कोशिश किए.

मुझे याद है, जब मैंने विज्ञापन के क्षेत्र में कदम रखा था तब यहां पूरी तरह से अंग्रेजी का बोलबाला था. ऐसा नहीं था कि हिंदी में विज्ञापनों की रचना नहीं होती थी परंतु किसी को यह विश्वास नहीं था कि हिंदी में सोचने वाले लोग भी विज्ञापनों की रचना कर सकते हैं. अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य था या यह कहूं कि पहली शर्त ही यही थी कि आप अंग्रेजी जानते हों. मैं जब भी अंग्रेजी में लिखे विज्ञापनों का हिंदी में अनुवाद होते देखता तो मुझे बड़ा कष्ट होता था. मैनेजमेंट की डिग्री होने की वजह से अगर मैं चाहता तो उस समय विज्ञापन जगत को सदा के लिए अलविदा कह देता. पर थोड़ा सोचने के बाद मुझे लगा कि भागना तो गलत होगा. यदि मुझे सचमुच यह लगता है कि विज्ञापन जगत की यह धारणा गलत है कि मूलत: हिंदी में सोचने वाले लोग विज्ञापन की रचना नहीं कर सकते, तो मुझे यह लड़ाई लड़नी होगी. उस समय तक एक बात मैं समझ चुका था कि यहां क्रोध और आक्रोश के लिए कोई जगह नहीं है. क्योंकि बाजार का हवाला देकर आपका मुंह कभी भी कोई भी बंद करा सकता है.

भाषा सिर्फ व्याकरण में बंधे शब्दों से बना कोई गुच्छा नहीं है. भाषा तो संस्कृति के घोल में डूब-डूब कर, सामाजिक बदलावों से गुजर-गुजर कर, पल-पल बदलता सत्य है

और यहां से शुरू हुआ मेरा सफर, उतार-चढ़ावों, खट्टे-मीठे अनुभवों से भरा-पूरा. मैं हमेशा से यही मानता आया हूं कि झूठ की लड़ाई आप कभी नहीं जीत सकते इसलिए मेरे लिए सर्वप्रथम यह जानना निहायत ही जरूरी था कि  हिंदी में सोचने वालों की जरूरत इस व्यवसाय को सचमुच है भी या यह सिर्फ मेरा कोरा हिंदी-प्रेम है? विज्ञापन व्यवसाय में सबसे बड़ा होता है उपभोक्ता, ग्राहक. क्योंकि कोई भी उत्पाद हो उसका कोई न कोई खरीदार तो होना ही चाहिए अन्यथा उसका औचित्य ही क्या. और विज्ञापन का उद्देश्य है उस उत्पाद की जानकारी उपभोक्ता तक पहुंचाना. जब मैंने बाजार का बारीकी से अध्ययन किया तो सच साफ हो गया. यहां पर हिंदी में सोचने की बहुत बड़ी जरूरत थी क्योंकि आम आदमी अपनी जुबान में ही संदेश सुनना चाहता था और उसे उस समय के विज्ञापनों की भाषा बड़ी अटपटी लगती थी. और क्यों न लगती, कुछ ऐसे लोग विज्ञापनों की रचना कर रहे थे जिनका आम जीवन से कुछ लेना-देना ही नहीं था.

इन्होंने आम आदमी को या तो कार के शीशों के उस पार देखा तो या फिर घरों में पोंछा लगाते, खाना बनाते, चौकीदारी करते या फि र हिंदी फिल्मों में. वह कैसे सोचता है, उसके जीवन के सत्य क्या हैं, इन सबसे उसका कोई नाता नहीं था. मार्केट रिसर्च रिपोर्ट में जब मैं आम आदमी की छवि देखता तो मन खट्टा हो जाता था. गोरखपुर की गीता – मार्केटिंंग और एडवर्टाइजिंग से जुड़े हर आदमी ने यह नाम ज़रूर सुना होगा. गोरखपुर की गीता  यानी एक आम मध्यवर्गीय महिला. पर इस बात की परवाह किसी को नहीं थी कि इस महिला के धड़कते हृदय में क्या कुछ चल रहा है? किस कोने में पल रहे हैं उसके सपने? किस कोने में संजो रही हैं वह यादें, किस धड़कन में छिपी है प्रतीक्षा और किसमें भय या वहम? उन रिसर्च रिपोर्ट्स में उसका जिक्र तो होता था पर वहां वह सिर्फ एक उपभोक्ता थी. मुट्ठी में एक मुड़ा-तुड़ा नोट लिए किसी दुकान के काउंटर पर  खड़ी, खरीदारी करने के लिए लालायित, नए-नए उत्पादनों से अपने घर को भर देने पर उतारू. मुझे इसी गीता को जीवंत करना था, मुझे इसी गीता की भावनाओं को स्वर देना था और उसका संपूर्ण परिचय  कराना था विज्ञापन जगत से. सवाल तर्क से जीतने का नहीं था, सवाल था सफलता का. विज्ञापनों की सफलता का, उत्पादनों की सफलता का. तो बस एक ही रास्ता था, कलम का. और अंतत: वहीं किया – मैं लिखता रहा, विज्ञापन पर विज्ञापन, हेडलाइंस पर हेडलाइंस, जिंगल्स पर जिंगल्स, स्लोगन पर स्लोगन. और तब तक ताबड़तोड़ लिखता रहा जब तक बाजार से प्रतिध्वनि नहीं सुनाई दी.

धीरे-धीरे विज्ञापन जगत को यह अहसास होने लगा कि अंतर है. हिंदी में सोचे गए विज्ञापन अलग हैं. मैं यह नहीं कह सकता कि इस तरह  का काम सिर्फ मैं ही कर रहा था. उस समय कुछ और लोगों को भी इस बात पर विश्वास था कि विज्ञापनों में बदलाव की ज़रूरत है, और विज्ञापन जगत इस ओर जागरुक हो रहा था. दरअसल दोष विज्ञापन जगत का भी नहीं था. हमारे देश ने विज्ञापनों की संस्कृति विदेशियों से सीखी थी तो विज्ञापनों की रचना भी उसी तरह से हो रही थी. पर उस समय हम भूल रहे थे कि हमारे देश की संस्कृति और यहां का सामाजिक ढांचा इतना सरल नहीं है. परतें हैं. परतों पर परतें हैं. और यहां लोगों से संवाद करने के लिए भाषा की सहजता को और भाषा को समझना बहुत ही जरूरी है. क्योंकि भाषा सिर्फ व्याकरण में बंधे शब्दों से बना कोई गुच्छा नहीं है. भाषा तो संस्कृति के घोल में डूब-डूबकर, सामाजिक बदलावों से गुजर-गुजरकर, पल-पल बदलता सत्य है. एक सतत बहती धारा है. और उस धारा के साथ जुड़ कर ही आप अपना संदेश आम जनता तक, उपभोक्ताओं तक पहुंचा सकते हैं. सच कहूं तो भाषा के सही अर्थ का अहसास मुझे भी विज्ञापन जगत से जुड़ने के बाद ही हुआ. उससे पूर्व मैं भी भाषा के संप्रेषण पक्ष को पूरी तरह नहीं समझता था. इसके लिए मैं विज्ञापन व्यवसाय का सदैव ऋणी रहूंगा.

बोलचाल की हिंदी की शक्ति का अंदाजा मुझे बिल्कुल नहीं था. मैं नहीं जानता था कि अगर आप डायलॉग लिखने की कला जानते हैं तो आप मुश्किल से मुश्किल बात भी बड़ी आसानी से लोगों तक पहुंचा सकते हैं. ठंडा मतलब कोका कोला सीरिज के तहत मैंने कई विज्ञापन लिखे जहां मैंने बोलचाल की हिंदी को खूब इस्तेमाल किया और परिणामस्वरूप उन विज्ञापनों को ऐतिहासिक सफलता मिली. हालांकि मैंने आरंभ से ही हिंदी में लिखना शुरू कर दिया था, कविताएं, कहानियां, गीत इत्यादि पर विज्ञापनों से जुड़ने के बाद मेरी लेखन-शैली में बहुत अंतर आ गया था. मुझे उसमें ज्यादा स्वाभाविकता और स्वच्छंदता का अनुभव हो रहा था. और इसी समय मेरे सामने अवसर आया गीत लिखने का. पहले-पहल मैंने शुभा मुद्गल जी के साथ कुछ निजी एलबमों के लिए गीत लिखे जैसे — अब के सावन, मन के मंजीरे इत्यादि जो श्रोताओं को खासे पसंद आए और एक सिलसिला-सा चल निकला. मैं फिल्मों के लिए भी गीत और डायलॉग्स लिखने लगा. फिल्मों में ना ही मैं किसी को जानता था और ना ही मेरे परिवार में कोई मुझसे पहले इस क्षेत्र से जुड़ा था. मेरे पास अगर कुछ था तो कलम और हिंदी से मेरी सहजता. यहां का दृश्य विज्ञापनों से बिल्कुल अलग था. यहां हिंदी समझने वालों की कमी नहीं थी मगर ज़्यादातर लोग एक घिसी-पिटी स्टाइल में ही लिख रहे थे. मुझे याद है जब शुरू-शुरू में मैं अपने गीतों को पढ़कर सुनाता था तो कई लोग मुझे अजीब-सी दृष्टि से देखते थे. यह कौन है जो फिल्मी गीतों की जांची-परखी भाषा के साथ छेड़छाड़ कर रहा है? और तब मैं बार-बार यही सुनता था कि जो बिकता है वही टिकता है. पर क्योंकि बेचने और खरीदने से मेरा रिश्ता सर्वविदित और पुराना हो चुका था इसलिए मैं बार-बार विवाद करता और प्रयास करता था कि मैं अपनी तरह की रचनाओं को फिल्मों में जगह दिला पाऊं. मेरा विज्ञापन जगत का अनुभव कई निर्देशकों और निर्माताओं के साथ बहुत काम आया. उन्होंने यह समझ कर मुझे छूट दी कि यह व्यक्ति कम से कम बाज़ार को तो समझता ही है. इसलिए एक अवसर इसे दे देना चाहिए. और इसी तरह धीरे-धीरे रंग दे बसंती, हम-तुम, और तारे जमीं पर के गीत में मैं वह लिख पाया जो मेरी जुबान थी. वह भाषा जिसमें मैं बात कर सकता था, और यहां मैं भाग्यशाली रहा. क्योंकि मुझे फिल्मों से जुड़े ऐसे लोग मिले जो स्वयं नएपन की तलाश में थे. जो स्वयं फार्मूलों को तोड़ना चाहते थे.

भाषा से मैंने पूछा — तुम कहती हो या मैं कहता हूं.
तुम गढ़ती हो या मैं गढ़ता हूं.
भाषा गहरी निद्रा में थी.
उसने लिहाफ थोड़ा और ऊपर खींचा.
और मुंह ढंक लिया
मैंने उसके तलवों में गुदगुदी की
और कुहनी से ठेल कर पूछा…
बताओ ना, सत्य क्या है?
तुम मात्र अभिव्यक्ति हो
या फिर बूंद-बूंद में टपकती हो
मेरी हर रचना में
मस्तिष्क की सीली दीवारों से रिसती हो
मेरे विचारों के पलस्तरों पर
भाषा फिर भी मौन रही.
पर मैं लिखता रहा
शब्द हंसे — मैंने पास जाक र देखा
भाषा के होंठों पर एक मुस्कान थी
बात समझ में आ रही थी,
पर गुत्थी अब तक गुत्थी थी.
31 अक्टूबर 2008
तुम कहती हो या मैं कहता हूं

मस्तिष्क और यंत्र

imgकुछ समय हुआ द संडे टाइम्स  में एंड्रयू सूलिवान की टिप्पणी पढ़ी थी, द वे वी थिंक नाउ (हम आज जैसा सोचते हैं). इस विचारपरक टिप्पणी में ‘निकोलस कार’ के एक लेख का हवाला था. श्री कार टेक्नॉलाजी से जुड़े प्रसंगों, पहलुओं और विषयों पर लिखने वाले विशेषज्ञ हैं.

इसे पढ़ते हुए गांधीजी याद आये. याद आयी उनकी पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ जिसे लिखे, 100 वर्ष हो रहे हैं. ‘हिंद स्वराज’ के मौलिक विचार, तब आघात की तरह लोगों को लगे. हर विचार, चिंतन या कृति, देश, काल और परिस्थितियों के सापेक्ष होती है. लेकिन उन दिनों ही मनुष्य और मशीन के रिश्ते पर गहराई से सोचने की बात, गांधीजी ने की. आज सूचना क्रांति के इस दौर में तकनीकी विशेषज्ञ भी इन सवालों पर नए सिरे से सोच-विचार रहे हैं. सच है कि तकनीक ने जीवन को सुखद बनाया है, दुनिया समृद्ध हुई है, पर अनेक नये सवाल भी जन्मे हैं.

निकोलस कार ने दार्शनिक नीत्से का एक प्रसंग बताया है. अपने एक मित्र को नीत्से ने लिखा, हमारे लिखने का यंत्र भी, हमारे विचार गढ़ने-सोचने की प्रक्रिया में हिस्सेदार होता हैं. नीत्से पहले हाथ से लिखते थे फिर वे टाइपराइटर पर काम करने लगे. निकोलस को लगा, अगर एक टाइपराइटर का यह असर हो सकता है, तो आज गूगल का क्या असर होगा? ईमेल, ब्लॉग, गूगल पर उपलब्ध सामग्रियों के अथाह सागर में गोते लगाना, ब्राउजिंग करना, हमारे सोचने-समझने और काम के तरीके पर असर डालते हैं? विशेषज्ञ मानते हैं कि यह सब मिलकर मस्तिष्क पर बंबार्डमेंट कर रहे हैं.

एंड्रयू यह सवाल उठाते हैं कि क्या इस रास्ते चिंतन-मनन संभव है? क्या इससे हमारे लिखने-पढ़ने की प्रक्रिया पर असर पड़ेगा? इस क्रम में हम क्या अनमोल चीज खो रहे हैं? गहराई और शांति से सोचने-विचारने की क्षमता! चिंतन शांत परिवेश में ही संभव है, एंड्रयू ऐसा मानते हैं. वे कहते हैं कि तेज इन्फार्मेशन हाइवे जैसी चीजें मनुष्य को स्थिरचित्त नहीं रहने देंगी. ऐसे माहौल में अंदर की शांत और खामोश आवाज शायद न निकले. निकोलस कार अपने लेख में एक सज्जन ब्रूस फ्रीडमैन का जिक्र  करते हैं जो मेडिसिन के क्षेत्र में लगातार ब्लाग बनाते हैं, सूचनाएं दर्ज करते हैं.

तेज इन्फार्मेशन हाइवे जैसी चीजें मनुष्य को स्थिरचित्त नहीं रहने देंगी. ऐसे माहौल में अंदर की शांत और खामोश आवाज शायद निकलना ही बंद हो जाए

वे कहते हैं कि इंटरनेट ने उनकी मानसिक आदतों को बदल दिया है, ‘मैंने पढ़ने की पूरी क्षमता खो दी है. मेरा मस्तिष्क वेब पर या छपा हुआ लंबा लेख ग्रहण नहीं कर पाता है.’ कहने का आशय है, पढ़ने की आदत घटना. पहले पुस्तकों को पढ़कर लोग बहस-चिंतन करते थे. उसमें उठाये गये सवालों पर सोचते-विचारते थे, अब वह चिंतन की प्रक्रिया छीज रही है.

टेलीविजन के सामाजिक असर पर भी लगातार अध्ययन हुए हैं. लगातार मोबाइल या टीवी से चिपके रहने के कारण, समाज या परिवार में संवादहीनता का माहौल बना है. ऐसा आकलन है कि तकनीकों के कारण आज समाज में अधिक सूचनासंपन्न नागरिक हैं, भौगोलिक दूरियां मिटी हैं, पर सार्वजिनक सवालों पर सामाजिक सरोकार घटे हैं.

यह सही है कि हमारे दौर के संकट भरे सवालों पर आज गंभीर विचार नहीं हो रहा. कुछ ही दिनों पहले लेस्टर आर ब्राउन की चर्चित पुस्तक आयी ‘ईको-इकोनॉमी: बिल्डिंग एन इकोनॉमी फार द अर्थ’. इस पुस्तक का मूल संदेश है कि हमने ऐसी अर्थव्यवस्था बना ली है, जो इस आर्थिक प्रगति की गति को नहीं बनाये रख सकती है. इससे तेजी से प्राकृतिक संपदा का क्षय हो रहा है. गंभीर पर्यावरण संकट के सवाल खड़े हो रहे हैं. और इसका असर होगा, आर्थिक प्रगति में उतार और संकट.

ब्राउन की इस चेतावनी की अनदेखी का परिणाम सामने है. द आॅब्जर्वर  (10 अगस्त 2008) के साइंस संपादक की रिपोर्ट है कि पांच वर्षों में ही उत्तरी ध्रुव बर्फमुक्त क्षेत्र बन जायेगा. पहले अनुमान था कि 60 वर्ष में ऐसा होगा. शायद आज की दुनिया के लिए इससे गंभीर मुद्दा दूसरा नहीं होगा. अगर उत्तरी ध्रुव पांच वर्षों में बर्फविहीन हो जाता है, तो इस दुनिया का क्या होगा?

खाद्यान्न संकट, पेट्रोलियम संकट, पर्यावरण संकट जैसे सवाल अलग हैं. पूरी दुनिया में इन सवालों को लेकर बेचैनी न होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? क्या सूचना क्रांति के इस दौर में मनुष्य व्यक्तिवादी हो गया है? मशीनों से जुड़कर उसने खुद एक नयी दुनिया बना ली है, जो आत्मसीमित, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आत्मलीन है. और इस निजी दुनिया में सिमटा मनुष्य गंभीर सार्वजनिक सवालों को तरजीह नहीं देता या इनके प्रति तटस्थ बन जाता है. जानना रोचक होगा कि ऐसी स्थिति के लिए मनुष्य और मशीन के रिश्ते कहां तक जिम्मेवार हैं?

हरिवंश जी प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैंं

समझ बूझ बन चरना, हिरना

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सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री आनंद शर्मा को जब करना होता है तो तेजी से काम करते हैं. अब देखिए कि सात फरवरी को उनने कहा कि मीडिया उद्योग के लिए हम जल्द ही राहत पैकेज ला रहे हैं. और चार दिन बाद ही ग्यारह फरवरी को सरकार ने अखबारी कागज और पत्रिकाओं के छपने के चिकने कागज से सीमा शुल्क खत्म कर दिया.

पता नहीं यह राहत पैकेज का ही एक काम था या जल्दी में राहत देने का कोई फौरी कदम. लेकिन इससे मीडिया उद्योग को कुछ राहत तो मिलेगी. सरकार और क्या-क्या करने जा रही है यह उसने बताया नहीं है. लेकिन देश भर के उद्योगों को वित्तीय संकट से बचाने के जितने उपाय वह कर रही है उससे कुछ ज्यादा ही मीडिया उद्योग के लिए करने को तत्पर होगी. मीडिया उद्योग को सबसे बड़ी चिंता मंदी के कारण विज्ञापनदाताओं के घटते विज्ञापन बजट की होगी. विज्ञापन से आनेवाला राजस्व घट जाए तो बाकी सब चीजों पर होने वाला खर्च अखरने लगता है. कई मीडिया संस्थानों ने आने वाले समय के अंदेशे में काम करने वालों की छंटनी शुरू कर दी है. कई अखबारों ने अपने पेज घटा दिए हैं. लागत में कटौती के दूसरे और उपाय भी किए जा रहे हैं.

कुल अर्थव्यवस्था और उद्योग-व्यापार मंदी में हों और दुनिया में चारों तरफ वित्तीय संकट हो तो मीडिया उद्योग बचा नहीं रह सकता. उसका उद्योग तो प्रभावित होगा ही. पिछले पंद्रह वर्षों में मीडिया का उद्योग देश के दूसरे उद्योग-व्यापार की तरह ही तेजी से बढ़ा है. विज्ञापन आखिर बम-बम करती अर्थव्यवस्था में से ही निकल कर आते हैं. इसलिए मीडिया उद्योग खूब पनपा. उसमें काम करने वालों की तनख्वाएं खूब बढ़ीं. मीडिया घरानों के मुनाफे बढ़े. जो अखबार घाटे में या पतली हालत में चला करते थे वे मुनाफे में न भी आएं हों तो बिना नफे-नुकसान के चलने लगे. इससे कुल मिलाकर उसमें पूंजी लगाने वालों और उसमें काम करने वालों की माली हालत सुधरी. कमाई होने लगी तो उसमें निवेश भी बढ़ गया. इस कारण उसमें ऐसे लोग भी आए जिनका प्रभाव मीडिया के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं है.

कई अखबारों और चैनलों में खबरों और विज्ञापनों का भेद जान-बूझकर मिटा दियागया. इससे बाजार सेवा हुई पर पाठकों और दर्शकों के भरोसे में भी कमी हुई

मीडिया के उद्योग और व्यापार के बढ़ने का मतलब मीडिया के सकारात्मक प्रभाव का बढ़ना नहीं है. कई जगह तो देखा गया कि मीडिया पत्रकारिता छोड़ कर मनोरंजन के उद्योग में लग गया. कई अखबारों और चैनलों में खबरों और विज्ञापनों का भेद जान-बूझकर मिटा दिया गया. इससे बाजार की तो सेवा हुई पर पाठकों और दर्शकों के भरोसे में कमी हुई. विश्वसनीयता और लाभदायिता के चुनाव में मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा विश्वसनीयता  की बजाए लाभदायिता में लग गया. पत्रकारिता में अब तक जो लोकहित और लोकसेवा का तत्व था वह कम हुआ और लाभ के लिए कुछ भी छापने और दिखाने का चलन बढ़ गया. संपादक की भूमिका और पूछ घट गई और प्रबंधक मालिक हो गया.

मीडिया के उद्योग और व्यापार के बढ़ने का यह अनिवार्य परिणाम था. कुछ लोकसेवकों ओर लोकसेवी पत्रकारों और समाज के एक छोटे जागरुक तबके के अलावा इस स्थिति से किसी को कोई खास शिकायत नहीं थी. मीडिया की सत्ता प्रतिष्ठान, प्रशासन और उद्योग-व्यापार पर निगरानी और चौकीदारी की भूमिका लगातार घटती गई. कई क्षेत्रों में तो मीडिया उद्योग व्यापार का सहायक और भागीदार हो गया. कई जगह वह पब्लिसिटी एजंट होने के नाते मुनाफे में अपने हिस्से की मांग करने लगा. उसकी मांग कुछ इलाकों में उचित भी मानी गई क्योंकि अगर आप पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं तो आपके तटस्थ और निस्वार्थ पर्यवेक्षक बने रहने में तुक क्या है. आप भी आखिर मुनाफे के लिए मीडिया में हैं जैसेकि दूसरे उद्योग और व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं.

लेकिन मीडिया के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसका उद्योग और व्यापार तो है लेकिन वह शुद्ध उद्योग और व्यापार नहीं है. कार बनाने या टूथपेस्ट का उत्पादन करने वाले समाज के लिए उपयोगी काम करते हैंलेकिन अपने काम के जरिए वे लोगों को जानकारी देने और देश का लोकमत बनाने के कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करते. अखबार और चैनल भले ही खबरोंऔर मतों को बेच कर चलते हों वे निर्मूल्य और महज विक्रेता होकर नहीं रह सकते. उन्हें जिम्मेदारी लेनी पड़ती है. अपने उत्पाद की जिम्मेदारी तो उत्पादक और विक्रेता को भी लेनी पड़ती है. लेकिन मीडिया की जिम्मेदारी अपने उत्पाद से परे जातीहै क्योंकि वह प्रभाव के काम में है. इसलिए उसे किसी भी उत्पादक की तुलना में नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल करना ही पड़ता है और यह तटस्थता, निस्वार्थता और न्यायशीलता के बिना संभव ही नहीं है.

इसलिए अपनी तटस्थता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मीडिया को विचार करना पड़ता है कि वह किससे क्या ले और किन शर्तों पर ले. उसका लेन-देन शुद्ध व्यापारिक नहीं हो सकता. जगव्यापी वित्तीय संकट और मंदी का असर मीडिया पर होगा ही और वह मुश्किल में पड़ेगा ही. लेकिन क्या इससे मुक्ति या राहत वह अपनी तटस्थता और स्वतंत्रता की कीमत पर ले सकता है? भारत में मीडिया का अनुभव है कि राज्य अपनी शक्ति से उसे अपनी तरफ रखने की कोशिश लगातार करता रहता है. और मीडिया जरूरी कीमत चुका कर अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में सफल होता आया है. मीडिया का आग्रह रहा है कि राज्य को उसके काम में दखल नहीं देना चाहिए. लेकिनअपने संकट   में वह राज्य को पुकारेगा तो मदद करने वाला राज्य क्या लक्ष्मणरेखा का सम्मान करेगा? राज्य तो प्रेस की स्वतंत्रता की सीता का अपहरण करने के लिए हमेशा ही रावण की तरह कोशिश में लगा रहता है? क्या सीता खुद ही अपने संकट से निपटने के लिए लक्ष्मण रेखा लांघ कर आएगी?

फिर नवउदार पूंजीवादी विचार को मानने वाला अपना मीडिया क्या किसानों को राज्य की तरफ से दिए गए राहत पैकेज का विरोध और उसकी आलोचना नहीं करता रहा है? सरकार ने जब देश के देहात में फैली आम बेरोजगारी से लोगों को राहत दिलाने के लिए राष्ट्रीय रोजगार योजना बनाई थी तो हमारे अखबारों ने नहीं लिखा था कि रोजगार देना सरकार का काम नहीं है. और इससे न रोजगार मिलेगा न कोई निर्माण होगा. करदाता का पैसा लोकलुभावन काम के भ्रष्टाचार में जाएगा. क्या मीडिया दलील नहीं देता रहा है किराज्य के संसाधन ऐसी अनुत्पादक योजनाओं में बरबाद नहीं किए जाने चाहिए? क्या यह सिद्धांत भारत जैसे गरीब देश को बताया नहीं जा रहा था कि राज्य का पैसा ऐसे कामों में लगना चाहिए जिससे और पूंजी पैदा की जा सके. राज्य के संसाधन उद्योग और व्यापार की सेवा में हों और गरीब-गुरबों के हित बाजार पर छोड़ देने चाहिए?

फिर देश में टीवी के दर्शकों की गणना और उनकी पसंदगी पर संसद की स्थायी समिति की रपट पर भी ध्यान देने की जरूरत है. रपट में समिति ने बार-बार कहा है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को अच्छी तरह से मालूम है कि टीआरपी में कितनी धोखाधड़ी, झूठ और फरेब का धंधा होता है. टीवी वाले बारह करोड़ घरों में से सिर्फ शहरों के मात्र तेरह हजार घरों में नापने-गिनने के उपकरण लगे हैं और उनसे निकली जानकारी भी सार्वजनिक नहीं की जाती. इसी फरेबी टीआरपी से कार्यक्रमों की विषयवस्तु, समय और प्राथमिकता तय होते हैं. इसी से विज्ञापन मिलते हैं. यह दर्शकों और लोकहित की सरासर आपराधिक अनदेखी है. सूचना प्रसारण मंत्रालय के पास अधिकार हैं लेकिन दर्शक और देशहित में उसने कभी हस्तक्षेप कर के इसे ठीक नहीं किया. इस बात को मानने के बावजूद कि टीआरपी उद्योग को विनियमित करने के लिए कुछ सरकारी पर्यवेक्षण अनिवार्य है, मंत्रालय कीअकर्मण्यता ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है – समिति का निष्कर्ष है. जो सूचना प्रसारण मंत्रालय इतने वर्षों से टीवी को बिगड़ने दे रहा है वह मुंबई पर आतंकवादी हमले की कवरेज के बाद केबल टेलीविजन नेटवर्क्स रूल्स में नौ दमनकारी संशोधन लेकर क्यों आ गया? और संशोधन अगर लोकहित में जरूरी थे तो चैनलों के हल्ला मचाते ही पीछे क्यों हट गया? क्योंकि वह टीवी वालों को अपने लालच में ही गलतियां करने देना चाहता है ताकि उनकी गर्दन उसके हाथ में रहे. क्या मीडिया उद्योग को राहत देने की तत्परता इससे कोई भिन्न प्रयोजन के लिए हो सकती है? मीडिया को सोच लेना चाहिए.

(शून्यकाल, 28 फरवरी 2009 में प्रकाशित)

न्यूटन सरीखा एक भारतीय बाबू

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उत्साह से भरे भारतीय मूल के एक प्रोफेसर स्विटजरलैंड के यूरोपियन इंस्टीट्यूट आॅफ न्यूक्लियर रिसर्च में छात्रों को सुपरस्ट्रिंग थ्योरी के बारे में बता रहे हैं. यह थ्योरी एक ही समीकरण के जरिये समूचे ब्रह्मांड की व्याख्या करने जैसी असाधारण चीज को हासिल करने की एक कोशिश है. वे श्रीनिवास रामानुजन का नाम लेते हैं और बताते हैं कि यह भारतीय गणितज्ञ इस थ्योरी को समझने के सबसे करीब पहुंच गया था.

प्रोफेसर पश्चिमी जगत के उन कई लोगों में से एक हैं जो रामानुजन के विलक्षण दिमाग से सम्मोहित हैं–ऐसे लोग जो इस भारतीय गणितज्ञ की मृत्यु के 88 साल बाद भी उनकी नोटबुक्स में छिपे रहस्यों को समझने की कोशिश कर रहे हैं.

विलक्षण प्रतिभा के धनी रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर 1887 को तमिलनाडु के इरोड शहर में हुआ था. इतिहास की किताबों में वे कहीं-कहीं महान भारतीय विभूति के रूप में मिलते हैं. 1962 में रामानुजन के जन्म के 75 वर्ष पूरे होने पर भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया था. मगर आज की दुनिया में जब जमा-घटाना और गुणा-भाग भी कैलकुलेटर और एक्सेल स्प्रेडशीट पर हो रहा हो तो समझना मुश्किल नहीं कि रामानुजन को हमने कैसे भुला दिया.

अर्थशास्त्री अजय शाह अपने छात्रों को रामानुजन की दृढ़ता और अडिगता के बारे में बताना पसंद करते हैं. दिल्ली में रहने वाले शाह कहते हैं, ‘रामानुजन ने दिखाया कि आप मुख्यधारा से दूर रहकर भी असाधारण प्रतिभाशाली हो सकते हैं. उनकी कहानी इस बात का प्रतीक है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत में ऐसी प्रतिभाएं जन्म लेती हैं जो ज्ञान के क्षेत्र में दुनिया को रास्ता दिखाने का माद्दा रखती हैं. जब भी कोई छात्र कहता है कि इंटरनेट डाउन है और इसलिए वह वेक्टर स्पेस की पढ़ाई नहीं कर पा रहा तो मैं उसे रामानुजन का उदाहरण देता हूं.’

‘जब भी कोई छात्र कहता है कि इंटरनेट डाउन है और इसलिए वह वेक्टर स्पेस की पढ़ाई नहीं कर पा रहा तो मैं उसे रामानुजन का उदाहरण देता हूं’

भारत के परे दुनियाभर में रामानुजन को औपनिवेशक काल में जन्मी एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में याद किया जाता है. उनकी जिंदगी कैंब्रिज विश्वविद्यालय के क्रिकेटप्रेमी गणितज्ञ जीएच हार्डी से अभिन्न रूप से जुड़ी रही. गणित को संगीत और पेंटिंग से भी बड़ी कला मानने वाले हार्डी ने ही रामानुजन की प्रतिभा को पहचानकर उसे उपयुक्त मंच दिया. इससे पहले रामानुजन मद्रास में बीस रुपये महीना पाने वाले एक क्लर्कमात्र थे जिसका विश्वास था कि एक देवी संख्याओं की भाषा में उससे संवाद करती है. जब संसाधनों की सड़क खत्म हो गई तो रामानुजन ने अपने काम के नमूने ब्रिटेन के गणितज्ञों को लिख भेजे. इन कच्ची गणनाओं से हार्डी ने उस तीक्ष्णबुद्धि गणितज्ञ को पहचान लिया जिसकी प्रतिभा महान वैज्ञानिक न्यूटन से किसी भी मायने में कम नहीं थी. हार्डी की कोशिशों से रामानुजन कैंब्रिज पहुंच गए और वहां की फैलोशिप भी हासिल की. 1919 में वह भारत लौटे और साल भर के भीतर ही उनकी मृत्यु हो गई. दरअसल ब्रिटेन में प्रवास के दौरान ही रामानुजन की सेहत बिगड़ने लगी थी. वह प्रथम विश्वयुद्ध का दौर था और वहां साग-सब्जियों की भारी किल्लत हो गई थी. इससे अंदाजा लगाया जाता है कि उनकी अकाल मृत्यु के पीछे की वजह कुपोषण से गिरता स्वास्थ्य रहा होगा.

यूनिवर्सिटी के गलियारों में रामानुजन की जिंदगी फिर से चर्चा का विषय बन रही है. पिछले साल सितंबर में ब्लूम्सबरी ने डेविड लीविट द्वारा लिखित ‘द इंडियन क्लर्क’ नामक उपन्यास प्रकाशित किया जिसमें रामानुजन की जिंदगी और उनकी गणित का दिलचस्प वर्णन किया गया है. इस उपन्यास ने उन लोगों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा है जो विज्ञान या गणित में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते. ब्रिटिश अभिनेता स्टीफन फ्राई भारतीय निर्देशक देव बेनेगल के साथ मिलकर रामानुजन की जिंदगी पर फिल्म बनाने की संभावनाएं तलाश रहे हैं. 1991 में रामानुजन पर एक बैले (नृत्य नाटिका) बना चुकीं जानी-मानी ब्रिटिश कोरियोग्राफर शोभना जयसिंह कहती हैं,’अपने शोध के दौरान मैंने पाया कि रामानुजन की जिंदगी की कहानी उनकी गणितीय कल्पनाओं जैसी ही भव्य और उतार-चढ़ाव से भरी है.’ बाद में दक्षिण अफ्रीकी संगीतकार और गणितज्ञ केविन वोलंस ने जयसिंह की नृत्य नाटिका का संगीत ‘द रामानुजन नोटबुक्स’ के नाम से जारी किया. साफ है कि मौत के लगभग नौ दशक बाद भी रामानुजन में लोगों की दिलचस्पी बनी हुई है.

इसका कुछ श्रेय इस बात को भी जाता है कि गणित में लोगों की रुचि बढ़ रही है. गणित की जटिल पहेली को विषय बनाकर ‘फेरमैट्स एनिग्मा’ नामक एक चर्चित उपन्यास लिखने वाले ब्रिटिश लेखक साइमन सिंह कहते हैं,’विज्ञान और गणित की दुनिया विलक्षण प्रतिभाओं और उनकी हैरतअंगेज ऐसी कहानियों से भरी पड़ी है जिनके बारे में सिर्फ वही चंद लोग जानते हैं जो इस क्षेत्र में जुनून के साथ काम कर रहे हैं. अचानक कोई व्यक्ति इनमें से एक कहानी लिखता है जो मशहूर हो जाती है तो उस व्यक्तित्व में लोगों की दिलचस्पी एकदम से बढ़ जाती है. ऐसा जॉन नैश पर सिल्विया नासर की किताब से हुआ जिसके बाद उन पर कई और किताबें लिखी गईं और फिर ‘अ ब्यूटिफुल माइंड’ फिल्म बनी. अब यही   रामानुजन के मामले में भी हो रहा है.’’

लेकिन पश्चिम में इतनी दिलचस्पी के बावजूद भारत में रामानुजन की विरासत को संजोने की सुध किसी को नहीं. जयसिंह बताती हैं कि वह चेन्नई में रामानुजन की विधवा पत्नी से मिली थीं जिनकी बस यह इच्छा थी कि वहां पर उनके पति की एक मूर्ति लग जाए. जयसिंह कहती हैं, ‘कुंभकोणम में रामानुजन का घर जीर्ण-शीर्ण हालत में था और दीवार पर लगे एक छोटे से फोटो को छोड़ दिया जाए तो उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो बताता कि इसका संबंध कभी रामानुजन से था. इस फोटो को देखने के लिए भी मुझे फ्लैशलाइट की जरूरत पड़ी.’

रामानुजन का काम आज भी उतना ही प्रासंगिक है. यूनिवर्सिटी आॅफ मैनचेस्टर में प्रोफेसर जॉर्ज जी. जोसेफ कहते हैं, ‘रामानुजन को हालिया थ्योरिटिकल फिजिक्स के क्षेत्र में सबसे क्रांतिकारी अवधारणाओं में से एक की व्याख्या श्रेय दिया जा सकता है. यह है ‘द सुपरस्ट्रिंग थ्योरी आॅफ कॉस्मॉलॉजी’. दरअसल व्यावहारिक रूप से कहा जाए तो यह उनकी गणित थी. यह संख्याओं को कई तरह से विभाजित करने का सिद्धांत है जो आज एटीएम मशीनों में भी इस्तेमाल होता है. इसी सिद्धांत की मदद से उनमें करेंसी नोटों को विभाजित करके व्यवस्थित किया जाता है.’ रामानुजन की बायोग्राफी ‘द मैन हू न्यू इनफिनिटी’ के लेखक राबर्ट कैनिगेल के मुताबिक रामानुजन काम में अद्भुत समृद्धता, सुंदरता और रहस्य का मेल हैं.

सुंदरता वास्तव में रामानुजन के काम में भी दिखाई देती थी. हर तरह की नकल यानी प्रूफ से नोटबुकों को भरने वाले पश्चिमी गणितज्ञों के उलट रामानुजन पहले चॉक की सहायता से स्लेट पर गणनाएं करते थे और फिर उत्तरों को सफाई से अपनी नोटबुक में लिख लेते थे. उनके लिए महत्व परिणाम का था, इस बात का नहीं कि आप उस तक कैसे पहुंचे. यह परंपरा भारतीय और चीनी गणितीय परंपराओं में पाई जाती है जहां गुरुओं की प्राथमिकता विस्तार में जाने की बजाय सीधे परिणाम बताना होती है.

इस तरीके से हार्डी को चिढ़ होती थी जिनके लिए पूरी प्रक्रिया का प्रूफ, परिणाम जितना ही महत्वपूर्ण था. वरिष्ठ पत्रकार हरतोष सिंह बल कहते हैं, ‘किसी मुश्किल को हल करते हुए गणितज्ञ कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हैं और कई तरह से उन प्रक्रियाओं का मिलान करते हैं. लेकिन रामानुजन इसके उलट थे. उनका सहज ज्ञान उन्हें कई कदमों की छलांग लगाकर सीधा परिणाम की तरफ ले जाता था. इसलिए कई बार ऐसा होता था कि रामानुजन ऐसे परिणामों तक पहुंच जाते थे जिनके बारे में सोचना बाकी लोगों की मानसिक क्षमताओं से परे था. अपने सहज ज्ञान को

रामानुजन किसी दैवीय शक्ति की प्रेरणा बताते थे. लेकिन दूसरी ओर कई बार वह भटक भी जाते थे और किसी साधारण इंसान की तरह गलतियां भी करते थे.’

दैवीय शक्ति वाली बात आज भी भारतीय तर्कवादियों को हजम नहीं होती. रामानुजन का दावा था कि देवी नामिगरी उनसे बात करती हैं और वे उनके माध्यम मात्र हैं. हो सकता है कि अगर रामानुजन यह न कहते तो तर्कवादी उन्हें गले लगा लेते. दूसरी तरफ दर्शनशास्त्र के दोहरेपन के उलट संख्याओं की निश्चितता में उनका विश्वास उन्हें उन लोगों से दूर कर देता था जो धार्मिक कारणों से उनको सही कह सकते थे. इसलिए मौत के नौ दशक बाद भी रामानुजन एक रहस्य बने हुए हैं. उनकी दैवीय प्रेरणा की व्याख्या करना अनंत को समझाने जैसा ही मुश्किल है.

व्यावहारिक रूप से कहा जाए तो नंबरों को कई तरह से विभाजित करने का सिद्धांत उनकी गणित थी जिसका इस्तेमाल आज एटीएम मशीनों में भी हो रहा है

तर्क और आस्था के बीच की खाई बहुत पुरानी है. जयसिंह कहती हैं कि रामानुजन के लिए संख्याएं रहस्यमय और काफी हद तक दैवीय प्रतीक थीं जो सत्य की तरफ ले जाती थीं. नृत्य नाटिका बनाने के लिए इसी बात ने उन्हें खास तौर से प्रेरित किया. इसके उलट कैंब्रिज की गणितीय धरोहर तर्क से संचालित होती थी. वे कहती हैं, ‘एक तरह के गणितीय जगत से दूसरी प्रकृति वाली गणितीय दुनिया तक की रामानुजन की इसी सांस्कृतिक यात्रा ने मुझे सबसे ज्यादा रोमांचित किया.’’

हार्डी और रामानुजन के रिश्ते के बारे में यह भी अनोखी बात थी कि सोच में बुनियादी फर्क के बावजूद भी यह जिंदा रहा. रामानुजन को यह

जानने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि उनकी शैली हार्डी से बिल्कुल अलग थी. हार्डी के लिए तर्क की महत्ता थी जबकि रामानुजन का विश्वास

दैवी प्रेरणा में था. हार्डी हर तरह से पक्की पड़ताल के बाद ही अगला कदम उठाते थे जबकि रामानुजन की प्रेरणा उन्हें बाधाओं के ऊपर से छलांग लगाने के लिए प्रेरित करती थी.

दरअसल रामानुजन को किसी ने गणित का व्याकरण तो पढ़ाया था नहीं, इसीलिए उन्हें अपनी बातों को तर्क से सिद्ध करना नहीं आता था. ‘द इंडियन क्लर्क’ में इसका सजीव वर्णन किया गया है कि कैसे हार्डी इस बात से क्षुब्ध और निराश थे. उन्हें समझ में ही नहीं आता था कि क्यों रामानुजन जैसा प्रतिभाशाली गणितज्ञ एक साधारण प्रूफ नहीं लिख सकता.

इस तरह से देखें तो सिर्फ 32 साल जिए रामानुजन की कहानी किसी परीकथा की तरह लगती है. एक ऐसी कहानी जिसमें एक प्रतिभा पर सात समंदर पार रह रहे ऐसे व्यक्ति की नजर जाती है जो उस प्रतिभा को अनुकूल जमीन में रोपना चाहता है. लेकिन राजनीतिक परिदृश्य इसके लिए माकूल नहीं है क्योंकि ब्रिटेन निर्विवादित विश्वशक्ति है और भारत उसका एक उपनिवेश. सांस्कृतिक अभिमान अपने चरम पर है और कहा जाता है कि यूरोप की किसी लाइब्रेरी के एक कोने में रखी किताबों का महत्व एशिया के कुल जमा साहित्य से कहीं ज्यादा है.

परीकथा की तरह रामानुजन की कहानी में भी अच्छे लोग हैं. रामानुजन की ब्रिटेन यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कैंब्रिज के गणितज्ञ ईएच नेविल के मुताबिक रामानुजन ऐसे पहले व्यक्ति हैं जो गणित के क्षेत्र में उनकी महान विभूतियों के समकक्ष हैं. यह धारणा कि श्वेत जाति हर मामले में अश्वेतों से बेहतर है, रामानुजन ने तोड़ी.

‘द इंडियन क्लर्क’ में इस बात का सजीव वर्णन है कि हार्डी और रामानुजन गणित की दुनिया में सबसे ज्यादा खुश रहते थे. वह दुनिया जो धर्म, युद्ध, साहित्य, सेक्स और यहां तक कि दर्शन से भी दूर थी. दरअसल सच्चे गणितज्ञ को न पियानो की जरूरत होती है न बर्तन की और बाइबिल की तो बिल्कुल नहीं. उसे चाहिए तो बस एक स्लेट और चॉक.

(नजरिया, 31 दिसंबर 2008)

जहां धर्म घुले, मिले और खिले

imgनवंबर 1989 की बात है. एक नौजवान पत्रकार के रूप में मैं भारत बस पहुंचा ही था कि कश्मीर में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. इस घटना को कवर करने के लिए मुझे श्रीनगर भेजा गया. तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये प्रदर्शन भारतीय शासन के खिलाफ विरोध की उस आग में तब्दील होने वाले हैं जो हजारों जिंदगियां लील लेगी और घाटी पर कट्टरपंथ का रंग चढ़ा देगी. इस घटना को हुए 19 साल हो गए हैं. विरोध की यह आग आज भी धधक रही है और कुछ समय पहले तो इस मुद्दे पर दो परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध की नौबत तक आ ही पहुंची थी.

अब इस विवाद को चलते हुए इतना लंबा अरसा हो चला है कि कश्मीर का नाम लेते ही लोगों के दिमाग में फौरन हिंसा, लड़ाई और आतंकवाद जैसे शब्द अपने-आप ही घुमड़ने लगते हैं. शायद ही किसी को भिन्न-भिन्न आस्थाओं के मेल से बनी कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और शानदार कला-शैली का ध्यान आता हो.

कुछ समय पहले मुझे कश्मीर पर आयोजित एक कला प्रदर्शनी में जाने का मौका मिला जिसका आयोजन न्यूयॉर्क स्थित एशिया सोसाइटी ने किया था. द आर्ट्स आॅफ कश्मीर  नामक इस प्रदर्शनी में कश्मीर की कला के वे नायाब नमूने रखे गए थे जो न सिर्फ यहां की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को दर्शाते हैं बल्कि  जिन्होंने लंबे समय तक वादी-ए-कश्मीर को एक अलग पहचान भी दी है.

मेरे लिए सबसे अद्भुत अनुभव रहा कश्मीर के शुरुआती हिंदू और बौद्ध अतीत के दौरान यहां पर पनपी शानदार कला को देखना. गौरतलब है कि आज से करीब 2000 साल पहले पश्चिमी हिमालय का यह क्षेत्र कला और संस्कृति की दृष्टि से आज जैसा सुदूर नहीं था. दुर्गमता के बावजूद ये पहाड़ और घाटियां वह चौराहा थीं जहां यूनानी, फारसी, मध्य एशियाई, भारतीय और चीनी दुनियाएं आपस में मिलीं और खिलीं.

कश्मीर की शुरुआती मूर्तिकला गंधार (आज अफगानिस्तान का एक भाग) शैली से बहुत ज्यादा प्रभावित थी जिसमें शांत बैठे बुद्ध ध्यानमग्न दिखाई देते हैं. गंधार शैली की तरह कश्मीर में भी इन मूर्तियों को भूरी चट्टानों से तैयार किया जाता था. कुछ समय बाद कश्मीर ने इस कला में अपनी एक अलग ही शैली विकसित कर ली और यह अपने-आप में ही बौद्ध कला और साहित्य का केंद्र बन गया. पहली शताब्दी के दौरान यहां पर एक बौद्ध परिषद का आयोजन भी हुआ था. चौथी शताब्दी में चीनी भिक्षु भी कश्मीरी विद्वानों से परामर्श लेने घाटी में पहुंचने लगे. इन विद्वानों में से एक थे कुमारजीव जिन्होंने बाद में कमल सूत्र का चीनी में अनुवाद किया. यह कश्मीर ही था जहां सातवीं शताब्दी में तिब्बती शासकों ने बौद्ध धर्म के अध्ययन और इसके ज्ञान को अपनी भाषा में लिपिबद्ध करने के लिए अपने दूतों को भेजा.

प्रदर्शनी में रखी गई मूर्तियां प्राचीन काल की थीं. तांबे से निर्मित इन मूर्तियों को इस कुशलता से बनाया गया है कि ये बेहद सजीव लगती हैं. इनमें बोधिसत्व, मैत्रेय और अवलोकित्सेवर की शानदार मूर्तियां हैं जिनके हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हैं.

कश्मीर सिर्फ बौद्ध ही नहीं बल्कि  हिंदू कला और दर्शन का भी केंद्र था. घाटी के शुरुआती शासक हिंदू थे और उन्होंने ही यहां पर हिंदू देवियों की मूर्तियां बनवार्इं. इनमें देवी इंद्राणी की सुंदर मूर्ति उल्लेखनीय है जिसे देखकर लगता है मानो वह संगीत की धुन में मदमस्त होकर नृत्य कर रही हैं.

कला के ये नमूने इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कश्मीर एक ऐसी जगह थी जहां राजा, संगीत, नृत्य और कविता जैसी कलाओं को संरक्षण दिया करते थे. इस शैली में देवताओं को राजसी तरीके से चित्रित किया जाता था. मसलन भगवान शिव को मुकुटधारी राजा के रूप में दिखाया गया है और वे किसी कश्मीरी रानी की तरह लग रहीं पार्वती के साथ चौसर खेलते दिखाई देते हैं.

800 साल तक कश्मीर में हिंदू और बौद्ध धर्म साथ-साथ चलते और आपस में घुलते-मिलते रहे. दोनों धर्माें को राजाओं, मंत्रियों और व्यापारियों का संरक्षण मिला. इनमें से कई तंत्र विद्या के प्रति भी रुचि रखते थे. ऐसा लगता है कि कश्मीर में ही तंत्र-मंत्र हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में आया होगा. इससे महायान शाखा का निर्माण हुआ जो आगे चलकर तिब्बत और नेपाल में फली-फूली.

प्रदर्शनी में रखी गई कुछ सबसे बढ़िया मूर्तियां बौद्ध धर्म के तंत्र देवों की थीं. इनमें तांबे से निर्मित, चार सिरों और दस भुजाओं वाले चक्रसंवर की एक मूर्ति भी थी जो भूमि पर गिरे अपने दानवी शत्रुओं के ऊपर नाच रहे हैं. आठवीं शताब्दी की इस कलाकृति में चक्रसंवर क्रोधित मुद्रा में नजर आते हैं. उनके सिर पर नरमुंडों का मुकुट है और गले में नरमुंडों की माला. उनसे बिजलियां फूट रही हैं और उन्होंने अपने सिर के ऊपर एक मृत हाथी की खाल थाम रखी है.

यह लगभग वैसी ही आकृति है जो बाद में तिब्बती कला में काफी प्रचिलत हुई और जिसका इस्तेमाल भूत-प्रेतों को दूर रखने के लिए किया जाता है.

प्रदर्शनी से साफ जाहिर हो रहा था कि शुरुआत में गांधार और बाद के वर्षाें में नेपाल और तिब्बत में विकसित हुई बौद्ध कला के बीच की गायब कड़ी कश्मीर ही है.

मगर जब हम प्रदर्शनी के उन कक्षों  में पहुंचे जहां कश्मीर में इस्लाम के आगमन के बाद की कलाकृतियां रखी गई हैं तो हमें बिल्कुल अलग ही चीजें देखने को मिलीं. अब देवताओं और देवियों के दर्शन ही नहीं होते. इनकी जगह देखने को मिलती है बारीकी के साथ की कई नक्काशी और कालीन तथा मिट्टी के बरतन.

वैसे यह जानना दिलचस्प है कि कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक कोई आक्रमणकारी नहीं बल्कि  लद्दाख का एक बौद्ध राजा रिंछना था जिसने बाद में इस्लाम अपना लिया था. चौदहवीं सदी में हुई इस घटना के साथ ही घाटी के इस्लामीकरण की धीमी प्रक्रिया शुरू हो गई थी.

1589 में मुगलों द्वारा घाटी को जीतने के साथ ही कश्मीरी विद्वानों के शाही दरबार में जाने का सिलसिला शुरू हुआ. कैलीग्राफर मुहम्मद हुसैन कश्मीरी, जिन्हें सुनहरी कलम भी कहा जाता था, समेत कई कश्मीरी कलाकारों ने अकबर के दरबार की शोभा बढ़ाई. एक लघु चित्र, जिसमें शॉल ओढ़े एक कैलीग्राफर कालीन पर बैठकर अपने चेलों को पढ़ा रहा है, इस प्रदर्शनी में रखी गई सबसे मोहक कलाकृतियों में से एक था.

img1मुगल दरबार में मेलभाव की कश्मीरी संस्कृति का सबसे ज्यादा प्रभाव अकबर के पड़पोते दाराशिकोह के समय में रहा. दाराशिकोह ने मुल्लाशाह बदख्शनी से नई कश्मीरी सूफी परंपरा को आत्मसात किया. 1638 में मुल्लाशाह ने इस्लामी और हिंदू रहस्यवाद की समानताओं के बारे में दाराशिकोह का ज्ञान बढ़ाया. श्रीनगर से कुछ ही दूर स्थित परी महल में दाराशिकोह ने सूफीवाद पर अपने विचारों को कलमबद्ध किया जो बाद में काफी मशहूर हुए.

कुछ हद तक यह कश्मीर के संतों की संगत का ही फल था कि दारा शिकोह ने भगवद्गीता और उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया. उसने हिंदुत्व और इस्लाम पर एक तुलनात्मक अध्ययन भी लिखा. इसमें दोनों धर्मों के सहअस्तित्व और उनके आध्यात्मिक दर्शन के समान स्रोत की बात पर जोर दिया गया था. उसने अपने उन सपनों के बारे में भी लिखा जिनमें उसको हिंदू देवी-देवताओं के दर्शन हुए थे. सपने में एक जगह राम के गुरू वशिष्ठ से मिलने का उल्लेख करते हुए दाराशिकोह ने लिखा है, ‘उन्होंने मुझ पर दया दिखलाई और मेरी पीठ थपथपाई. उन्होंने भगवान राम को बताया कि मैं उनका भाई हूं क्योंकि हम दोनों ही सत्य की खोज कर रहे हैं. उन्होंने भगवान राम से मुझे गले लगाने के लिए कहा जो उन्होंने प्रेमपूर्वक किया. इसके बाद उन्होंने भगवान राम को प्रसाद दिया जो मैंने भी लिया और खाया.’

मगर कश्मीर का यह रंग फिर तेजी से बदलना शुरू हुआ. 20वीं सदी का मध्य आते-आते कश्मीर से अनेकता वाली एकता के रंग गायब होने लगे और इसकी जगह कट्टरवाद से पैदा हुए ध्रुवीकरण ने ले ली. फिर हालात खराब हुए और कश्मीर की पुरातात्विक विरासत की न सिर्फ उपेक्षा हुई बल्कि कई जगहों पर उसे काफी नुकसान भी पहुंचा. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जिन कर्मचारियों पर इन विरासतों को संभालने की जिम्मेदारी थी उन्होंने डर के मारे घाटी ही छोड़ दी. दूसरी विरासतों की तरह परीमहल भी ढहने के कगार पर पहुंच गया है.

मगर इस झगड़े का सबसे दुखद पक्ष रहा वादी से ज्यादातर विद्वान कश्मीरी पंडितों का पलायन. गौरतलब है कि 1947 में घाटी की जनसंख्या में 15 फीसदी पंडित थे. आज घाटी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि वहां पर सिर्फ एक ही धर्म है.

कश्मीर की समस्या का कोई हल जल्द होता दिखाई नहीं देता. मगर प्रदर्शनी में जाकर मुझे महसूस हुआ कि इसका हल बहुलतावाद की सहिष्णु धाराओं में छिपा है. 19 सदी के कश्मीरी सूफी दीन दरवेश कहते भी हैं कि हिंदू और मुसलमान मूंग के एक दाने के दो हिस्से हैं. फिर कौन बड़ा और कौन छोटा?

(खुलामंच, 31 दिसंबर 2008 में प्रकाशित)

विदेशी दृष्टि हमें कहां ले जाएगी?

delhi_dpsवीएस नायपाल ने हमारे अंग्रेजी मीडिया पर कहा था कि वे भारत की ही स्थितियों पर ऐसे बोलते-लिखते हैं जैसे किसी दूसरे देश की रिपोर्टिंग कर रहे हों. वस्तुत: यह यहां के प्रभावशाली पूरे बौद्धिक वर्ग के बारे में सच है.  विश्वविद्यालयों में समाज अध्ययन (विज्ञान) विषय की सामग्री इसका प्रमाण है.

स्कूलों के लिए लिखी पाठ्य-पुस्तकों में भी वही झलक है. राजनीति, समाजशास्त्र, इतिहास जैसे विषयों की पुस्तकें मानो बाहरी लोगों द्वारा लिखी प्रतीत होती हैं. यद्यपि लेखक, प्रकाशन संस्थान आदि सब यहीं के हैं किंतु उसकी सामग्री इतनी दूरी, तटस्थता और अजनबियत से लिखी है कि जैसे किसी विदेशी ने उसे लिखा हो. पाठों में दिए गए उदाहरण विदेशी नामों और प्रसंगों से अटे होते हैं.

जैसे एक स्कूली पाठ्य-पुस्तक में मनुष्य का रहन-सहन समझाने के लिए बस्तियों के चित्रों में यूरोपीय गांव, नगरों के चित्र दिए गए हैं. अन्य वर्णन भी ऐसे हैं मानो जीवन केवल उच्चवर्गीय, महानगरीय ही होता है. घर में कार होना, खाने के लिए रेस्टोरेंट जाना, टूरिज्म का आनंद लेना, टिन-बंद शीतल पेय का सेवन आदि ऐसे प्रस्तुत है मानो यह तो हर घर की सामान्य बात हो. इनकी उपलब्धता सब पाठकों, बच्चों के लिए सहज, रोजमर्रा की बात मान कर चली गई है. जबकि वह पुस्तक किन्हीं विशेष मंहगे विद्यालय के बच्चों के लिए नहीं, पूरे देश के सामान्य विद्यालयों के लिए लिखी गई है.

हमारी परजीविता इतनी सामान्य बन गई है कि कई लेखकों, प्रकाशकों को चिंता भी नहीं कि जो वे लिख-परोस रहे हैं, उसका कोई स्पष्ट अर्थ या सार्थकता बच्चों, शिक्षकों के लिए बनती भी है या नहीं. चैप्टर बन गए, पन्ने भर गए, तस्वीरें डल गईं, अशुद्धियां जैसे-तैसे देख ली गईं और हो गया. अब और क्या चाहिए! दिए गए पाठों में संगति और अंतर्विरोध तक देखने वाला कोई नहीं होता. जैसे, एक पुस्तक की प्रस्तुति में एक ओर तो पूरा महानगरीय वातावरण छाया हुआ है क्योंकि गांव के उदाहरण, प्रसंग, अनुभूतियां उसमें नदारद हैं. दूसरी ओर उसी पुस्तक के एक अभ्यास में बच्चे से कहा गया है, ‘अपने बगीचे से पानी छिड़कने वाला डब्बा ले आएं’. मूल पंक्ति है, ‘यू कैन टेक द स्प्रिंक्लिंग केन फ्रॉम योर गार्डेन.’ लेखक मान कर चल रहा है कि गार्डन तो है ही हर बच्चे के बंगले में!! मानो सभी बच्चे लोदी इस्टेट या बंजारा हिल्स पर रहते हों. ऐसे पाठ किस दृष्टि से लिखे गए?

अनेक पाठ्य-पुस्तकों में, चाहे इतिहास हो या भूगोल, राजनीति या अर्थशास्त्र, सभी कुछ अमेरिका या यूरोप से ही आरंभ होता है. विचार, विवरण, उदाहरण, महापुरुष, चित्र सब कुछ. विवरण भारत पहुंचता भी है तो ‘फार-ईस्ट’ (या अब ‘साउथ एशिया’) वाली विदेशी, औपनिवेशिक दृष्टि से! एक पुस्तक में लद्दाख और मध्य-एशिया के बारे में परिचयात्मक विवरण है. मात्र चार पंक्तियों में भी यह बात प्रमुखता से लिखी गई है, फिर अभ्यास-पाठ में भी दुहराई है कि वहां के लोग बौद्ध या मुसलमान हैं. किंतु उसी पुस्तक में उत्तरी अमेरिका के बारे में दिए बहुत बड़े अंश में भी यह कहीं नहीं मिलता कि वहां के लोग ईसाई हैं. क्यों? क्योंकि पाठ ही अमेरिकी-ईसाई दृष्टि से लिखा गया है, जो अपने लिए तो जानता ही है कि वह ईसाई है. उसे क्या लिखना! यह तो दूर फार-ईस्ट के देशों के बारे में ही जानने लायक बात है कि वहां के लोग मुस्लिम या बौद्ध हैं, ईसाई नहीं. भारतीय लेखकों में ऐसी दृष्टि जाने-अनजाने एक विदेशी दृष्टि के सिवा और क्या है!

इसीलिए यहां समाज विज्ञान पुस्तकों/ पत्रिकाओं का विवरण भारत के बारे में लिखते हुए भी जिन स्थितियों, समस्याओं की, अच्छी या बुरी जो भी चर्चा करता है वह प्राय: आॅक्सफोर्ड, कैंब्रिज, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालयों के प्रकाशनों या फिर उधर की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में महत्व पाई चीजों तक ही घूमता है. भारत के संबंध में भी कोलोनियलिज्म, नेशनलिज्म, सोशलिज्म, डेमोक्रेसी, कास्ट, दलित, वीमेन, जेंडर, रेन फॉरेस्ट, गुजरात, ह्यूमन राइट्स, सेक्युलरिज्म, मायनॉरिटीज, मल्टीकल्चरिज्म, अरुंधंती राय, गे राइट्स, एनवायरमेंट आदि विषय-बिंदु ही पढ़ने-पढ़ाने के लायक माने जाते हैं. अर्थात यहां के बारे में जो पश्चिमी मीडिया या विमर्श का दुराग्रह है. मानो उन चीजों के अतिरिक्त भारतीय छात्रों, लोगों के लिए और विषय महत्वपूर्ण, शिक्षणीय या विचारणीय नहीं हो सकते.

इस प्रकार, यहां समाज अध्ययन की अधिकांश पाठ्य-पुस्तकें अपने ही देश की चिंताओं, मान्यताओं, प्राथमिकताओं, तथा यहां के चित्त और मानस के प्रति निर्विकार दिखती हैं. इसीलिए उनमें भारतीय चिंतन, अध्ययन और जीवन को कोई स्थान नहीं मिलता या फिर नगण्य स्थान मिलता है, वह भी उस आलोचनात्मक दृष्टि से जैसे पश्चिमी-ईसाई विमर्श उसे देखता है. इसीलिए रामायण के बारे में भी अमेरिकी, यूरोपीय लेखकों के लिखे पाठ हमारे सिलेबस में हैं! दिल्ली विश्वविद्यालय, इतिहास विभाग के ‘मेनी रामायण्स’ विवाद में यह उजागर हुआ.

एक स्कूली पाठ्य-पुस्तक में किसी अभ्यास में एक शब्द-पहेली (क्रासवर्ड्स पजल) दी गई है. हिंदी में प्रस्तुत उस पुस्तक में वहां सीधे लिख दिया गया है कि वह पहेली और इसके उत्तर अंग्रेजी में हैं. लेखक-प्रकाशक को परवाह नहीं कि जो लाखों बच्चे हिंदी या बंगला में पढ़ रहे हैं, वे उस अभ्यास का क्या करेंगे? ऐसे उदाहरण केवल लापरवाही ही नहीं, अपराध भी हैं   क्योंकि हिंदी और भारतीय भाषाओं में भी शब्द-पहेलियां मजे से बनती हैं. पत्र-पत्रिकाओं में नियमित ऐसी पहेलियां रहती हैं यानी उन्हें बनाना कोई बड़ा कार्य नहीं है. लेकिन उस हिंदी पाठ्य-पुस्तक के पाठ के लिए हिंदी की शब्द-पहेली नहीं बनवाई गई, जिसे पूरे वर्ष लाखों बच्चों के लिए उपयोग में आना हो! जबकि समय और साधन की कमी नहीं थी. तब यह किस कारण है?

यह वही चीज है जिसे मोहनदास गांधी ने भी समझा था, जिसे नायपाल ने भिन्न रूप में कहा है कि हमारा उच्च-आंग्ल-बौद्धिक वर्ग संपूर्ण देश और देशवासियों की चिंता नहीं करता. वह ‘हार्ड-हर्टेड इंटेलीजेंसिया’ है जो मात्र अपने स्वार्थ में मगन है. वह अपनी स्वार्थ पूर्ति को ही राष्ट्रीय कर्म भी मान लेता है और उसी को देश पर थोप देता है. यह वर्ग किसी ऐसे परिवार प्रमुख की तरह आचरण कर रहा है जो अपने काम-धाम, खर्च-वर्च, घूमना-फिरना, आदि यह भूल कर करता हो कि उसके घर में पत्नी, बच्चे, बूढ़े माता-पिता भी हैं जो उस पर आश्रित हैं. वह अपने रोजगारदाता तथा सरकार से उनकी आवश्यकता पूर्ति के नाम पर भी अतिरिक्त वेतन और सुविधाएं लेता है. किंतु उस जिम्मेदारी को भूल कर केवल व्यक्तिगत सुख-सुविधा के हिसाब से व्यवहार करता है. उसकी पूरी दृष्टि पश्चिमी-भोगवादी, व्यक्तिवादी और दासवत है. वह जाने-अनजाने हर उस बात की चिंता करता है जो सेमेटिक-पश्चिमी दृष्टि की चिंता है. चाहे भारत हो या विश्व के बारे में जैसे, पर्यावरण. विलासितापूर्ण, मात्र भोग-आधारित, असंयमित, अप्राकृतिक जीवन-पद्धति से उसे कोई परेशानी नहीं होती जो भयावह कचरे, प्रदूषण, प्राकृतिक असंतुलन और तरह-तरह की अपरिमित हानियों की जड़ में है. किंतु यदि लोग देश में दातून प्रयोग करते हैं, नदियों पर दाह-संस्कार करते हैं तो इसे पर्यावरण को नष्ट करने वाला कारक बताया जाता है. अनियंत्रित शहरीकरण, यूज एंड थ्रो वाली मर्मांतक प्रदूषणकारी उपभोग-पद्धति, अनष्टनीय औद्योगिक कचरा, गंदगी का ढेर, शहरों का सीवर नदियों में डालना आदि रोकने की उसे चिंता नहीं, क्योंकि अमेरीकियों को उसकी चिंता नहीं है. बेतहाशा जंगल काटकर धनाढ्य वर्गों और कंपनियों के लिए नित नए फर्नीचर बनाने, वायुयान, पेट्रोलियम वाहनों की अंधाधुंध वृद्धि रोकने की उसे चिंता नहीं, जो पर्यावरण को सबसे अधिक नष्ट कर रही हैं.

अर्थात जो सब पश्चिमी-उपभोगवादी जीवन-पद्धति की आवश्यकताएं हैं, उन्हें हमारे बुद्धिजीवी भी स्वभाविक मानते हैं. इसीलिए जब वे वायु, नदी, वन की रक्षा भी करना चाहते हैं तो उसी पश्चिमी-सेमेटिक उपभोगवादी, प्रकृति-विरोधी, साम्राज्यवादी दृष्टि से. भारत की स्वस्थ, सामंजस्यपूर्ण धर्म-परंपरा से नहीं जो अपनी सहज दृष्टि से प्रकृति-पूजक और चरित्र से ही नदी, पहाड़, पेड़, जीव-जंतुओं का आदर करने वाली है. पर्यावरण तो एक उदाहरण भर है. वस्तुत: अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास जैसे तमाम विषयों में सभी जगह उसी पश्चिमी सेमेटिक दृष्टि से लिखी चीजों का बोलबाला है. हमारा अकादमिक, शैक्षिक विमर्श उसी अंदाज से होता है. इसीलिए यहां इसी देश के क्लासिक शिक्षा दर्शन, धर्म-परंपरा को आधार मान कर कही गई सुविचारित बातों को भी लांछित किया जाता है. विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ, श्रीअरविंद, अज्ञेय,जैसे बड़े से बड़े मनीषी के विचारों को भी सांप्रदायिक या बेकार कह कर किनारे कर दिया गया है. ऐसी आत्म-विरोधी दृष्टि हमें कहां ले जाएगी? अब तक इसका क्या परिणाम हुआ है?

एक परिणाम तो सामने है: देश में मौलिक चिंतन की संभावना कम से कमतर हो गई है. सभी विषयों में स्थिति यह है कि विदेशी भाषाओं के पुराने, नए चिंतन का पहले अंग्रेजी में अनुचिंतन होता है. फिर उस का घटिया अंग्रेजी में अनुलेखन होता है. तब उस का जैसा-तैसा अनुवाद भारतीय भाषाओं में आता है. इसी तीसरे दर्जे की बौद्धिक सामग्री पर हमारी संपूर्ण व्यवस्था पल रही है. उसी से हमारे कर्णधार, शिक्षाविद्, पत्रकार, प्रशासक आदि बन रहे हैं. उनमें दर्शन, साहित्य आदि किसी विषय में मौलिक चिंतन से लेकर सामाजिक, राष्ट्रीय समस्याओं से निपटने की क्षमता ही कहां से पैदा होगी?

खुला मंच
31 अक्टूबर 2008

उत्थान का जातिवादी वर्तमान

वर्तमान भारत में जितने भी विमर्श चर्चित हैं, उनमें दलित विमर्श सर्वाधिक सम्पन्न मुद्दा बन चुका है. दलितों के संबंध में सबसे पुरानी दार्शनिक अवधारणा यह थी कि भारत मेंं जिस जातिव्यवस्था के  चलते दलित सदियों से शिक्षा, संपत्ति, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार आदि से वंचित होते आ रहे थे, वह ईश्वरीय लीला थी और ईश्वर या धर्म के विरुद्ध उंगली नहीं उठाई जा सकती. यही कारण है कि आज भी मीडिया में अक्सर खबरें छपती रहती हैं कि किसी विशेष हिन्दू मंदिर में दलित प्रवेश या उसके द्वारा पूजा करने के प्रयास में उसे मार डाला गया. यानी जाति व्यवस्था इतनी पवित्र है कि उसकी रक्षा में की गई हत्या को धर्म-रक्षा का रूप देकर बड़ी आसानी से भारतीय जनतांत्रिक प्रणाली तथा संवैधानिक ढांचे को हवा में उड़ा दिया जाता है. अभी ऐसा ही नजारा उड़ीसा के कई हिस्सों में देखने को मिला था. जाति व्यवस्था के नाम पर धर्म रक्षा का यह अभियान प्राचीन काल से होता चला आ रहा है. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जाति व्यवस्था का ऐसा दर्शन चुनौती-विहीन रहा. वास्तविकता यह है कि जिस युग में यह विकसित हो रही थी, उस युग से ही इसे चुनौतियां भी मिलने लगीं थीं.

जाति व्यवस्था विरोध को गौतमबुद्ध ने अपने सामाजिक दर्शन का मूल आधार बनाया. उन्होंने धर्मजनित जाति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए इसके मूल स्रोत ईश्वर को ही निशाना बनाया. इस प्रकार दलित विमर्श की प्रथम उत्पत्ति गौतम बुद्ध के दर्शन से होती है. इस संदर्भ में एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस शुरुआती विमर्श का नेतृत्व गैर दलित दार्शनिकों ने किया. अनगिनत बौद्ध दार्शनिकों ने वेदों के साथ-साथ ईश्वर तथा धार्मिक कर्मकाण्डों को मानव के दिन-प्रतिदिन के व्यवहार से अलग कर एक धर्मनिरपेक्ष समाज का ताना-बाना खड़ा किया था. कालान्तर में वेदानुयाइयों के उग्र रूप धारण कर लेने से बौद्धों द्वारा स्थापित जातिविहीन समाज का ढांचा चकनाचूर हो गया. विशेष रूप से नवीं सदी में आदि शंकराचार्य के उत्थान के बाद जाति व्यवस्था अत्यंत उन्मादी हो गई जिसके कारण दलित समाज क्रूरतम अत्याचारों का शिकार होता रहा.

बारहवीं सदी के बाद जब मध्ययुगीन अत्याचार चरम पर थे तो कुछ दलित संतों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने जाति व्यवस्था के विरुद्ध ईश्वर को चुनौती कभी नहीं दी, बल्कि ये उसके सामने रोते-गिड़गिड़ाते रहे. ऐसे संतों में चोखामेला, रविदास, कबीर, नंदनार, तुकाराम आदि प्रमुख थे. यद्यपि ये सारे संत बुद्ध के सभी सिद्धांतों का पालन करते थे, किन्तु कभी बुद्ध का नाम नहीं लेते थे. शायद इसका कारण यह था कि बौद्ध-विरोधी अभियान के दौरान घटित भीषण हिंसा से ये संत भयाक्रांत थे. इसलिए उन्होंने बौद्धों की तरह ईश्वर को चुनौती नहीं दी. इन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद दलित संतों ने समाज को जागृत करने में अहम भूमिका निभाई. दलित विमर्श के इस अनोखे स्वरूप से घबड़ा कर वर्णव्यवस्थावादियों ने इन दलित संतों के विरुद्ध अनर्गल दुष्प्रचार शुरू कर दिया. विशेष रूप से उनकी पैदाइश को लेकर यह कहा गया कि दलित संत किसी न किसी विधवा ब्राह्मणी की अवैध संतान हैं क्योंकि कोई दलित बुद्धि या विवेक के योग्य नहीं हो सकता. इस संदर्भ में रोचक तथ्य यह भी है कि ये ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता तथा बुद्धिमत्ता को सर्वोपरि रखने के लिए अपनी ही ब्राह्मणियों को अवैध शिशुओं की जननी बताने में जरा भी हिचक नहीं दिखाते थे.

‘जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है इसलिए जब जाति की अवधारणा मजबूत होती है तो हिंदू धर्म मजबूत होता है अर्थात् हिंदुत्ववादी पार्टियां मजबूत होती हैं’

इसके  बाद का काल औपनिवेशक भारत में राष्ट्रवादी मांगों से शुरू होता है, किन्तु उसकी एक शाखा बिल्कुल अलग दिशा में जाती है जिसका नेतृत्व महात्मा फुले, पेरियार तथा अंबेडकर करते हैं. इन तीनों ने एक बार फिर वर्णव्यवस्था के जनक ईश्वर तथा हिन्दू धर्म को अपना निशाना बनाया. दलित विमर्श का यह तीसरा युग था. पहली बार ऐसा हुआ जब भारत किसी धर्मग्रंथ या ईश्वरीय विचारधारा से हटकर मानवीय कानूनों के आधार पर शासित होने लगा और इससे धीरे-धीरे दलित  मुक्ति का रास्ता साफ होने लगा. इस कड़ी में आरक्षण व्यवस्था सही मायनों में युगांतकारी सिद्ध हुई.

जहां तक आशाओं और आशंकाओं का सवाल है तो वह आरक्षण की अवधारणा से ही जुड़ी हुई हैं. आज आरक्षण मुक्तिकामी न होकर मतकामी हो गया है. डॉ अंबेडकर की आरक्षण की अवधारणा यह थी कि जातिव्यवस्था की वजह से वंचित लोगों के सदियों पुराने दुख-दर्द की भरपाई के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाए. किन्तु यह आरक्षण सिर्फ नौकरी-धंधे तक ही सीमित नहीं था. दलितमुक्ति की असली कुंजी शिक्षा थी. हिंदू धर्म वाली गुरुकुल शिक्षा प्रणाली ने दलितों को सदियों शिक्षा से वंचित रखा था. इस कड़ी में अंबेडकर ने सामाजिक चेतना जगाने पर भी विशेष बल दिया. इसके लिए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के तमाम स्रोतों पर हमला बोल दिया, जैसे मनुस्मृति जलाना आदि. उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म कभी मिशनरी धर्म नहीं बन सका क्योंकि इसमें ‘ऊंच-नीच’ की अवधारणा पर आधारित जाति-व्यवस्था थी जिसके चलते हिंदू धर्म बाहर केवल हिंदू प्रवासियों के बीच तक ही सीमित रहा. उन्होंने बौद्ध धर्म को दलित मुक्ति का असली मार्ग बताया, क्योंकि इसमें जाति-व्यवस्था है ही नहीं. डॉ. अंबेडकर का यह भी कहना था कि सामाजिक आंदोलन का राजनैतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए, क्योंकि राजनैतिक आंदोलन से स्वशासन तो प्राप्त हो सकता है, किंतु सामाजिक परिवर्तन तो सामाजिक जागृति से ही होगा.

बाद में 60 के दशक के बाद का समय अति महत्वपूर्ण रहा है, जब काशीराम ने वर्षों तक सामाजिक जागृति के माध्यम से उत्तर भारत में एक बड़ा दलित आंदोलन खड़ा कर दिया जो दलितों को एक प्रभावशाली भूमिका में ले आया. किंतु उनका आंदोलन जब सामाजिक जागृति के दौर से गुजर कर राजनीति में प्रवेश करता है तो स्थिति बिल्कुल बदलने लगती है. जैसे 1984 मेंं बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना के बाद 1992 में जब संघ परिवार बाबरी मस्जिद को गिरा कर देश के अनेक हिस्सों में सांप्रदायिकता भड़का रहा था तो उस समय कांशीराम की बीएसपी ने पिछड़ी जातियोें वाली सपा से 1993 में चुनावी समझौता कर देश के सबसे बड़े प्रदेश – उत्तर प्रदेश की सत्ता अपने हाथों में ले ली. इससे ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान को एक नई दिशा साफ दिखाई देने लगी थी क्योंकि यह दलितों एवं पिछड़ों का गठबंधन था जो यदि उत्तर प्रदेश से होते हुए देश के अन्य राज्यों में फैल जाता, तो इस समय देश की सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति कुछ और ही होती.

किंतु दोनों पार्टियों के नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने इस संभावना को चकनाचूर कर दिया. 1995 में अपने गठबंधन की सरकार को गिराकर बीएसपी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी से समझौता कर डाला जिसकी वजह से मायावती तीन बार क्रमश: चार, छ: तथा 14 माह तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहीं. बाकी सात साल बीजेपी का शासन रहा. इस तरह पहली बार दलित आंदोलन अपने सबसे बड़े दुश्मन यानी संघ परिवार का शिकार हो गया.

2007 के आते-आते दलित आंदोलन का सदियों पुराना ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान ब्राह्मण सहयोग में बदल गया. विशेष रूप से मायावती ने डॉ. अंबेडकर की एक उक्ति को गलत संदर्भों में बड़े पैमाने पर उद्धृत करना शुरू कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता हर ताले की मास्टर चाभी होती है. अत: जातिव्यवस्था विरोधी संपूर्ण ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को लात मार कर मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया. ब्राह्मणों के साथ अन्य सवर्ण जातियों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने इस कड़ी में अलग-अलग जातियों के सम्मेलन आयोजित करवाने के साथ-साथ आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण का वादा करना शुरू कर दिया. परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर जातीय चेतना का विकास होने लगा. दलित-आरक्षण की अवधारणा हिंदू धर्म की शिकार जातियों के शोषण पर विकसित हुई थी. इसे मायावती ने चकनाचूर कर दिया.

यह बात सही है कि गरीब सभी जातियों में पाए जाते हैं. किंतु ऐसे सवर्ण-गरीब कभी दलितों की श्रेणी में नहीं लाए जा सकते. उनकी गरीबी एक विशुद्ध गरीबी उन्मूलन योजना के तहत दूर करने का प्रयास होना चाहिए, न कि दलितों की तरह आरक्षण से. इस तरह आरक्षण जिसका सीधा संबंध सामाजिक न्याय से है, उसे तोड़-मरोड़कर मायावती ने सत्ता की राजनीति में बदल दिया. इस दार्शनिक तोड़-मरोड़ के चलते धीरे-धीरे पार्टियां सत्ताच्युत्त हो रही हैं और जातियां सत्ता में आने लगी हैं. परिणामस्वरूप भारत की जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली विशुद्ध जातीय प्रणाली में बदलती जा रही है. इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध के प्रसिद्ध नारे ‘सर्व जन हिताय’ का नारा देकर दलित मुक्ति की दिशा को उल्टा खड़ा कर दिया गया है. फलत: बुद्ध से लेकर अंबेडकर तक का जो दलित आंदोलन जाति व्यवस्था-विरोधी था, उसने अब जातिवादी स्वरूप हासिल कर लिया है. इसके चलते जातीय सत्ता की होड़ मच गई है. इसका एक खतरनाक पहलू यह है कि चूंकि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है इसलिए जब जाति की अवधारणा मजबूत होती है तो उससे जाति व्यवस्था मजबूत होती है तो हिंदू धर्म मजबूत होता है, अर्थात् हिंदुत्ववादी पार्टियां मजबूत होती हैं. यह क्रमिक विकास इस समय भारत की राजनीति में धीरे-धीरे छाने लगा है.

जाहिर है, जब दलित खुद ही जातीय चेतना भड़काने लगें तो हिंदुत्ववादी चेतना कैसे रुक सकती है? अत: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में बीएसपी की नीतियों के चलते संघ परिवार का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित हिंदुत्ववादी फासीवाद धीरे-धीरे सामाजिक तौर पर विकसित होने लगा है. भविष्य में हिंदुत्ववादी यदि सत्ता में पुन: आएंगे, तो अब तक का सारा सामाजिक आंदोलन हमेशा के लिए नेस्तनाबूद हो जाएगा. संयोगवश समय रहते यदि चेता नहीं गया, तो ऐसा संभव हो सकता है. इस संदर्भ में दलित विमर्श निश्चित रूप से एक घोर अंधकारमय दौर से गुजर रहा है.’