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मोदी लहर पर शाह की सवारी

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पिछली मई की गर्मियों में जिस लहर पर सवार होकर भाजपा ने लोकसभा चुनावों में फतह हासिल की थी उसी पर सवार होकर अब पार्टी ने हरियाणा और महाराष्ट्र की सत्ता भी हासिल कर ली है. ये दो ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ पिछले दस और 15 सालों से सत्ता में थी.

भाजपा का इन दोनों राज्यों के चुनाव में अकेले दम पर उतरने का दांव हालांकि सफल रहा (इसने हरियाणा में बहुमत हासिल किया और महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी). पर पार्टी महाराष्ट्र में बहुमत के आंकड़े को छूने से थोड़ा पीछे रह गई. खुद भाजपा के कुछ नेताओं के मुताबिक महाराष्ट्र की जीत भी बहुत आसान हो जाती अगर वे भाजपा-शिवसेना महायुति को कायम रख पाते.

तथ्य यह है कि भाजपा मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद 288 सदस्यों की विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 145 के आंकड़े से पीछे रह गई. फिलहाल देवेंद्र  फडणवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र में भाजपा की अल्पमत सरकार बन गई है लेकिन उसे एक बार फिर अपने पुराने खार खाए साथी शिवसेना के साथ रिश्ते जोड़ने की नौबत आ सकती है. जब सरकार संकट में होगी और उसे अपना बहुमत सिद्ध करना होगा तब उसे शिवसेना या एनसीपी की तरफ ताकना होगा ताकि वे सरकार के इस संकट को और बढ़ाने का काम न करें.

एनसीपी द्वारा महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार को बिना शर्त समर्थन की घोषणा उसके हाथ में एक बड़ा हथियार बन गई है. 25 सितंबर को जब भाजपा ने शिवसेना के साथ अपने 25 साल पुराने गठबंधन को तोड़ा था, शायद इसकी बुनियाद तभी पड़ गई थी. इसका एक संकेत उस घटना में भी छिपा हुआ है कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने के दिन ही महज कुछ घंटे बाद एनसीपी ने कांग्रेस के साथ अपना गठबंधन भी तोड़ लिया.

अल्पमत की सरकार बनाने के विकल्प को भाजपा की एक चाल के तौर पर भी देखा जा सकता है. इसके जरिए वह शिवसेना को किसी तरह से भी ज्यादा मोलभाव करने की छूट नहीं लेने देगी. इसके साथ ही अल्पमत की सरकार होने की वजह से वह गठबंधन धर्म की किसी भी तरह की मजबूरियों से मुक्त रहते हुए काम कर पाएगी. गठबंधन धर्म की मजबूरियां ऐसा बहाना रहा है जिसे समय-समय पर दिल्ली में मनमोहन सिंह और मुंबई में पृथ्वीराज चह्वाण सुविधानुसार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. खैर ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह होगा कि ऐसी किसी सरकार का भविष्य और इसके टिकाऊ होने की संभावना कितनी होगी. कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यह सरकार विपक्ष की एकता के भरोसे रहेगी. जितनी मजबूत या कमजोर विपक्ष की एकता रहेगी उतनी ही इस कमजोर या ताकतवर यह सरकार होगी.

भाजपा के खेमे में शिवसेना को साथ लेने के विकल्पों पर बातचीत का सिलसिला लगातार चल रहा है. शिवसेना नेता अनंत गीते ने 20 अक्टूबर को प्रधानमंत्री द्वारा अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों की दी गई दावत में हिस्सा लिया था, भाजपा आज भी बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (बीएमसी) में शिवसेना का समर्थन कर रही है. ये स्थितियां बताती हैं कि दोनों पार्टियों के बीच बातचीत के दरवाजे अभी भी खुले हुए हैं.

एक तरफ भाजपा जो कि महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर की भूमिका से बाहर निकलना चाहती थी, वह लक्ष्य उसने हासिल कर लिया है. अपनी सीटों की संख्या सैकड़े में पहुंचाकर वह उस स्थिति में पहुंच गई हैं जहां से गठबंधन की कुछ मजबूरियों से मुक्त हो सकती है. दूसरी तरफ कांग्रेस इन दोनों ही राज्यों में तीसरे नंबर पर जा पहुंची है. फिलहाल वह राष्ट्रीय राजनीति में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की लड़ाई लड़ रही है. एक के बाद एक राज्य उसके हाथ से निकलते जा रहे हैं. इस लिहाज से महाराष्ट्र के नतीजे जहां भाजपा के लिए संतुष्टिजनक हैं वहीं कांग्रेस के लिए ये नतीजे निराशाजनक हैं.

महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों से पैदा हुई खलबली और राजनैतिक गतिविधियों के बीच हरियाणा में भाजपा को मिली सफलता का महत्व सीमित होता दिख रहा है. लेकिन हरियाणा में भाजपा की बदली हुई किस्मत बेहद चमत्कारिक और उल्लेखनीय है. ऐसा राज्य जहां 2009 में भाजपा को चार सीटें, 2005 में दो सीटें और 2000 में छह सीटें हासिल हुई थीं. पहली बार भाजपा यहां 74 सीटों पर किस्मत आजमा रही थी. पहली बार उसे यहां 47 सीटों पर विजय हासिल हुई है. हरियाणा जहां से लोकसभा की दस और राज्यसभा की पांच सीटें आती हैं उसके विपरीत महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं जबकि राज्यसभा की 19 सीटें आती हैं. यह संख्या हरियाणा की तुलना में महाराष्ट्र को मिल रही जरूरत से ज्यादा तवज्जो का मुख्य कारण है.

नतीजों के मुताबिक महाराष्ट्र में भाजपा को 122 सीटें हासिल हुई हैं जबकि 2009 में उसका आंकड़ा 46 सीटों का था. अगर हम वोट शेयर की बात करें तो 2009 में भाजपा को 14 फीसदी वोट मिले थे जो इस बार बढ़कर 28 फीसदी तक पहुंच गया है. 1990 के बाद यह पहला अवसर है जब महाराष्ट्र की विधानसभा में किसी दल को सौ से ऊपर सीटें हासिल हुई हैं. 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 141 सीटें मिली थीं. भाजपा की सफलता इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि उसने अपनी सीटों की संख्या ही तीन गुनी नहीं की है बल्कि कुल लड़ी गई और उनमें से जीती गई सीटों का अनुपात भी सबसे बेहतर रहा है. यही बात उसके वोट शेयर में वृद्धि और उसके पक्ष में हुए ध्रुवीकरण के बारे में भी कही जा सकती है. ऐसा तब हुआ है जब भाजपा इससे पहले राज्य में कभी भी 119 से ज्यादा सीटों पर चुनाव ही नहीं लड़ी थी.

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सामने सिर्फ पार्टी संगठन का ढांचा खड़ा करने की ही चुनौती नहीं थी बल्कि उन 150 से ज्यादा सीटों पर योग्य उम्मीदवार ढूंढ़ने की भी चुनौती थी जहां पार्टी पहले कभी चुनाव ही नहीं लड़ी थी. भाजपा ने कई जगहों पर दूसरी पार्टियों (एनसीपी और कांग्रेस) को छोड़कर आए लोगों का साथ लिया. ऐसे करीब 50 उम्मीदवार थे. इनमें से सिर्फ 20 ही चुनाव जीतने में सफल रहे हैं. भाजपा के लिए एक और महत्वपूर्ण बात यह रही कि उसके साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ रही पार्टियों में सिर्फ राष्ट्रीय समाज पक्ष को एक सीट पर जीत हासिल हुई है.

आमने-सामने: इस समय उध‍व ठाकरे और शरद पवार दोनों को भाजपा की जरूरत है
आमने-सामने इस समय उध‍व ठाकरे और शरद पवार दोनों को भाजपा की जरूरत है, फोटोः विजय पांडे

maharatraमैन ऑफ द मैच

जीत से उल्लासित पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा में इतिहास रच दिया है. उनके मुताबिक भाजपा ने सिर्फ खुद को सरकार बनाने की स्थिति में ही नहीं पहुंचाया बल्कि कांग्रेस को भी ऐसी दशा में पहुंचा दिया है कि उसके पास इन दोनों विधानसभाओं में नेता प्रतिपक्ष का पद भी नहीं रहेगा. ‘हमने कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में दो कदम और बढ़ा दिया है,’ अमित शाह कहते हैं.

अमित शाह का स्पष्ट मानना है कि दोनों राज्यों की जनता ने मोदी सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और उसके प्रदर्शन को बहुमत से स्वीकार किया है. इस बात में कहीं किसी शक-सुबहे की गुंजाइश नहीं बची है. उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा के एकला चलो नीति की वजह तत्कालीन परिस्थितियों को बताया.

पहली नजर में उन तमाम परिस्थितियों में एक बड़ी वजह यह थी कि भाजपा लोकसभा चुनाव में किए गए प्रदर्शन को दोनों राज्यों में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़कर भुनाना चाहती थी. हरियाणा में उसके इस फैसले की राह में हरियाणा जनहित कांग्रेस रोड़ा बन रही थी तो महाराष्ट्र में शिवसेना. ऐसा करके भाजपा ने इन राज्यों में सिर्फ अपनी चुनावी जीत को ही पुख्ता नहीं किया बल्कि इस कदम से इसे इन राज्यों में अपना संगठन भी मजबूत करने में मदद मिलेगी. इसका एक और छिपा लाभ यह हुआ कि पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर दायरा और व्यापक हुआ है.

अमित शाह के लिए हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के साथ रिश्ते तोड़ने का फैसला लेना एक हद तक आसान रहा. जैसे ही हजकां ने 50:50 फीसदी सीटों की शर्त रखी उन्हें अलग होने का अवसर मिल गया. महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ फैसला लेना इतना आसान नहीं रहा. उनके साथ बातचीत की प्रक्रिया नामांकन दाखिले की अंतिम तारीख से दो दिन पहले तक खिंची. जबकि हफ्ते भर पहले से दोनों के अलग-अलग चुनाव लड़ने की अटकलें लगने लगीं थीं.

इसी दौरान पड़ गए श्राद्ध ने हालात और मुश्किल कर दिए (8-23 सितंबर). किसी भी नए काम की शुरुआत के लिए श्राद्ध पक्ष को अशुभ माना जाता है. इस चक्कर में चार और अहम दिन निकल गए थे. नामांकन की प्रक्रिया 20 सितंबर को ही शुरू हो गई थी. और विडंबना देखिए कि अशुभ दिन को टालते-टालते दोनों दलों ने अपने रास्ते अलग करने की घोषणा जिस दिन की वह नवरात्रि का पहला दिन था. यानी हिंदू परंपरा के हिसाब से एक शुभ दिन दोनों दल अलग हो गए.

पार्टी सूत्रों के मुताबिक शाह को भाजपा के बेहतर प्रदर्शन का पूरा भरोसा था. लेकिन उन्होंने बातचीत का सिलसिला बनाए रखा क्योंकि वे कहीं से भी खुद को ऐसा नहीं दिखाना चाहते थे कि यह रिश्ता उनकी वजह से टूटा. इसके बजाय वे अंत तक इंतजार करते रहे और शिवसेना के एक गलत कदम ने उन्हें मनचाहा मौका दे दिया. वे इस बात पर कायम रहे कि अलग होने का फैसला शिवसेना का है, भाजपा का नहीं.

‘न तो हमने कभी शिवसेना से रिश्ते तोड़ने की कोशिश की थी न ही हमने अपनी तरफ से इसे तोड़ा,’ यह बयान उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय में आयोजित एक प्रेस वार्ता में दिया. लगे हाथ उन्हीं शाह ने, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों की जीत का मैन ऑफ द मैच कहा था, यह बात भी कह डाली कि कोई भी गठबंधन कार्यकर्ताओं की कीमत पर नहीं बचाया जाएगा.

एकला चलो रे की नीति

यह लगभग पहले से तय था कि महाराष्ट्र और हरियाणा में जीत के बाद भाजपा में मोदी-शाह की जोड़ी एक बार फिर अपनी अपरिहार्यता और श्रेष्ठता साबित कर देगी. यह जोड़ी भाजपा को देश के उन हिस्सों तक पहुंचा रही है जहां उसकी कोई अलग पहचान नहीं थी.  पार्टी की इस सफलता का श्रेय मोदी के प्रशासन और शाह की संगठन क्षमता की जुगलबंदी को जाता है. यह अमित शाह की रणनीति थी जिसने महाराष्ट्र में गैर मराठा और हरियाणा में गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण कर दिया.  साथ ही मोदी के विकास से जुड़े एजेंडे ने जाति और क्षेत्रीय समीकरणों की बाड़बंदी में सेंध लगा दी.  मोदी का अतीत बताता है कि उनका कद चुनौतियां आने के साथ-साथ बढ़ता गया है और इसमें शाह उनके सबसे बड़े मददगार साबित हुए हैं. इन चुनावों के पहले 14  राज्यों की 54 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे. इनमें भाजपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा (पार्टी मात्र 20 सीटें जीत पाई जबकि उसके पास पहले 36 सीटें थीं).  आलोचकों को कहना था कि मोदी लहर का असर अब जा चुका है.  अमित शाह इन बातों पर काफी समय तक शांत रहे फिर एक दिन उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए बयान दिया, ‘ कुछ लोग उपचुनावों के नतीजों के बाद मोदी लहर के खत्म होने की बात कर रहे हैं लेकिन मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि मोदी लहर अभी भी कायम है और यह सुनामी अब भी विरोधियों को बहा ले जाने की ताकत रखती है. ‘

खाली मुख्यालय: हाल-मफलहाल ऐसा लगता नहीं मक कांग्रेस मुख्यालय तक बुरी खबरें आने का मसलमसला थमेगा, फोटोः राम कुमार एस
खाली मुख्यालय:हाल-फिलहाल ऐसा लगता नहीं कि कांग्रेस मुख्यालय तक बुरी खबरें आने का सिलसिला थमेगा. फोटोः राम कुमार एस

उधर शिवसेना के मुखपत्र सामना ने उसी समय एक संपादकीय छापा था कि मोदी लहर कुछ नहीं बस समंदर के पानी में फेन की तरह है जो किनारे पर आते-आते सूख जाएगा.  शाह ने मोदी के बारे में यह भी कहा कि देश ने प्रधानमंत्री को निर्विवाद रूप से अपना नेता मान लिया है. अपनी इन बातों को सही साबित करने के लिए शाह ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.  मोदी ने महाराष्ट्र में 27 और हरियाणा में 11 रैलियां कीं.  वहीं शाह ने महाराष्ट्र में 17 और हरियाणा में 22 रैलियां की थीं. (कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में चार और हरियाणा में तीन रैलियां की थीं जबकि राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में छह और हरियाणा में चार रैलियां की थीं.)

यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि महाराष्ट्र और हरियाणा में जीत के बाद केंद्र में भाजपा सरकार के लिए विदेशी मोर्चे और घरेलू मोर्चों पर अपनी नीतियां आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी.  यह सफलता मोदी को कैबिनेट में फेरबदल के लिए और भी ताकत देगी. इसलिए इस बात पर लोगों को हैरानी नहीं हुई जब 20 अक्टूबर को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सार्वजनिक रूप से यह बात मानी कि हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने से केंद्र सरकार के सुधारों वाले एजेंडे को आगे बढ़ाना आसान होगा. जेटली ने वहां एक पत्रकारवार्ता में कोयला क्षेत्र में सुधारों की घोषणा भी कर दी.  इसी दिन वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने बेंगलुरु में कहा कि सरकार एक वैधानिक योजना को अंतिमरूप देने के करीब पहुंच चुकी है जिससे कि वस्तु और सेवाकर (जीएसटी) को लागू किया जा सके. 18 अक्टूबर को सरकार ने तेल क्षेत्रों में सुधारों की घोषणा की थी और इसके एक कदम के रूप में डीजल की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया गया.

जहां तक राज्यसभा की बात है तो इन चुनावों का उसकी संरचना पर तुरंत कोई असर नहीं होने जा रहा.  भाजपा के यहां 43 सदस्य हैं और 68 सदस्य कांग्रेस के हैं.  लेकिन आने वाले समय में जब हरियाणा और महाराष्ट्र से सदस्य चुनें जाएंगे तो उच्च सदन में भाजपा के सांसदों की संख्या बढ़ जाएगी और सरकार को कई विधेयकों को पारित करवाने में आसानी हो जाएगी.

hariyanaमराठी मानुस और अस्मिता

अपने पिता बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद यह पहला चुनाव है जिसमें उद्धव ठाकरे ने शिवसेना का नेतृत्व किया है.  उद्धव ने इस चुनाव में खुद को अपने चचेरे भाई राज ठाकरे से इक्कीस साबित किया है. शिवसेना के 2009 में 44 विधायक थे जो इसबार बढ़कर 63 हो गए हैं (शिवसेना ने 1995 में सबसे ज्यादा 73 सीटें जीती थीं).  महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का इस चुनाव में जो प्रदर्शन रहा है उससे पार्टी के मराठी अस्मिता वाले नारे की चमक फीकी पड़ती दिख रही हैै. शिवसेना भी इसी मराठी मानुस वाली विचारधारा को आगे रखकर चुनाव लड़ी थी लेकिन दोनों पार्टियां भाजपा के विकास के एजेंडे से पार नहीं पा सकीं. मनसे तो पिछली बार की  13 सीटों के मुकाबले इस बार महज एक सीट पर सिमट गई. महाराष्ट्र के चुनाव में एक और चौंकाने वाला प्रदर्शन हैदराबाद की पार्टी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) का रहा है. इसने मराठवाड़ा में दो सीटों पर जीत हासिल की है.

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उद्धव की सबसे बड़ी गलती यह रही कि वे जमीनी वास्तविकताओं को समझ नहीं पाए. शिवसेना आखिर तक भाजपा के साथ 151-119 सीटों के फॉर्मूले पर अड़ी रही.  पहले बाल ठाकरे का प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के साथ एक आत्मीय संबंध था. जबकि भाजपा का नया नेतृत्व यानी मोदी और शाह,  उद्धव को किसी तरह की छूट देने को राजी नहीं हैं.  लोकसभा चुनाव में अनपेक्षित और अभूतपूर्व जीत का स्वाद चख चुके शाह के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना से गठबंधन तोड़ना एक समय के बाद दुविधापूर्ण स्थिति नहीं थी. भाजपा को जूनियर पार्टनर की भूमिका और महायुति के जीत के बाद उद्धव का मुख्यमंत्री बनना ऐसी मांगें थीं जिनपर भाजपा ने शुरू से कोई नरमी नहीं दिखाई. आखिर में विधानसभा चुनाव के नतीजों ने शाह की रणनीति को सही साबित कर दिया. नतीजों के तुरंत बाद भाजपा अध्यक्ष का बयान भी आया, ‘ नतीजों ने साबित कर दिया कि कौन सही था कौन गलत.’ चुनावों में भाजपा को सीधे-सीधे चुनौती देने वाले उद्धव ने नतीजों के बाद शिवसेना के साथ पार्टी के गठबंधन की संभावना पर बयान दिया था कि इसकी पहल भाजपा को करनी चाहिए. उनका कहना था, ‘ मैं अपने घर में शांति से बैठा हूं और यदि किसी को हमारे समर्थन की जरूरत है तो हमारे पास आएं.’ हालांकि बाद में उनकी मोदी और शाह से बात भी हुई जिसे रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलाने की कवायद के रूप में देखा गया. सामना में छपे एक संपादकीय में भी कहा गया कि दोनों पार्टियों को अब बीती बातें भूलकर आगे बढ़ना चाहिए. संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी शिवसेना से गठबंधन की इच्छा जाहिर कर चुके हैं लेकिन अभी पार्टी किसी जल्दबाजी में नहीं दिखती. वैसे पार्टी का एक धड़ा मानता है कि उद्धव ने इस चुनाव में खुद को साबित किया है और शिवसेना से उनकी वैचारिक समानता है ही तो ऐसे में दोनों पार्टियों को गठबंधन के लिए एक साथ आना चाहिए.  देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा कुछ दिनों बाद विधानसभा में बहुमत साबित करेगी और दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन पर फैसला भी तब तक ही होना है.  पिछले दिनों राजनाथ सिंह और जेपी नड्डा जब शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने की बातचीत करने दिल्ली से रवाना हुए थे उससे पहले ही नितिन गडकरी शिवसेना से गठबंधन पर अनौपचारिक बातचीत शुरू कर चुके थे. वे उन शर्तों को टटोल रहे थे जिनके आधार पर गठबंधन सरकार बन सकती है. दरअसल दोनों पार्टियों के बीच जो मतभेद की सबसे बड़ी जो वजह आने वाले समय में बन सकती है वह है एकीकृत महाराष्ट्र और अलग विदर्भ राज्य बनाने की मांग. शिवसेना महाराष्ट्र विभाजन के विरोध में है लेकिन भाजपा सालों से अलग विदर्भ का समर्थन करती रही है. एक मुद्दा मंत्रालयों के बंटवारे का भी है जो सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि केंद्र की सरकार में भी इसका असर देखा जाएगा.

क्षेत्रीय पार्टियों के लिए सबक

हरियाणा में भाजपा की जीत का श्रेय उसकी इस रणनीति को जाता है जहां उसने गैरजाट वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में किया वहीं जाट वोटों को कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) के बीच विभाजित कर दिया.  इसका नतीजा यह रहा कि भाजपा की तरफ से जीतने वाले ज्यादातर विधायक और मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए मनोहर लाल खट्टर गैर जाट हैं. हरियाणा का चुनाव पूर्व के जनता दल परिवार की पार्टियों- जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और जनता दल (सेक्यूलर) के लिए काफी महत्वपूर्ण रहा है. इन सभी पार्टियों के समर्थन से आईएनएलडी राज्य में भाजपा के मुकाबले में खड़ी थी. लेकिन जैसा कि चुनाव नतीजे दिखाते हैं, सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति का इस्तेमाल करते हुए भाजपा ने पिछड़े और दलित तबके के वोटों को इन पार्टियों से दूर कर दिया. दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए यह साफ लगता है कि आने वाले एक दो सालों में जिन राज्यों में भी चुनाव होने हैं वहां क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भाजपा बड़ा खतरा होगी. जहां उसका गठबंधन है,  वह अपने सहयोगी दलों से पीछा छुड़ा सकती है (कुछ ही दिनों बाद जम्मू और कश्मीर व झारखंड में चुनाव होने हैं. बिहार में 2015 में चुनाव होंगे, बंगाल में 2016 में तो उत्तर प्रदेश और पंजाब में 2017 में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं). भाजपा की इस समय कोशिश है कि जो भी महत्वपूर्ण राज्य हैं उनमें वह अपने दम पर पहले नंबर की पार्टी बनकर उभरे.  कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की बात करें तो महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव इनके लिए एक चेतावनी की तरह हैं.  यानी आनेवाला समय भाजपा के लिए भारतव्यापी अभियान साबित हो सकता है.

आम आदमी पार्टी: कहां गए वे लोग?

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दो-ढाई साल पुराने किसी राजनीतिक दल से यह उम्मीद करना कि वह बेहद व्यवस्थित और संगठित तरीके से काम करेगा, थोड़ा ज्यादा हो जाएगा. और वह पार्टी अगर आम आदमी पार्टी हो जिसका उदय और सफलता ही अनपेक्षित और उठापटक भरी रही है तो इसकी संभावना और भी कम हो जाती है. लेकिन एक गंभीर राजनीतिक दल होने के लिहाज से यह अपेक्षा करना लाजिमी है कि वह भी अपनी क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए अपना दायरा फैलाएगी. क्या ऐसा होता दिख रहा है? लोकसभा के चुनावों से मिल सकने वाली लोकप्रियता और फायदे का लालच और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मिली चमत्कारिक जीत ने शायद आम आदमी पार्टी (आप) को उतना व्यावहारिक नहीं रहने दिया जितना दो-ढाई साल पुरानी एक पार्टी को होना चाहिए.

सवा चार सौ लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का आप का फैसला ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरा था. चुनाव के नतीजों ने भी साबित किया कि पार्टी जरूरत से ज्यादा उम्मीद और आत्मविश्वास पाल बैठी थी. इस विषय पर पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया का कहना था कि लोग संगठन बनाकर चुनाव लड़ते हैं जबकि उन्होंने चुनाव लड़कर संगठन खड़ा किया है. यह उल्टी दिशा की राजनीति आप का कितना भला कर पाएगी यह तो फिलहाल समय के गर्भ में है. लेकिन एक बात साफ है कि जिन सवा चार सौ लोगों ने लोकसभा चुनावों के दौरान आप की सवारी की थी उनमें से कई लोग फिलहाल अपने-अपने रास्ते जा चुके हैं. अगर इसमें चुनाव नहीं लड़ने वाले नामचीन और चमकदार चेहरों को भी शामिल कर दिया जाय तो लिस्ट काफी लंबी हो जाती है. हालांकि ऐसे भी तमाम लोग हैं जो अभी भी पूरी गंभीरता से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं. तमाम ऐसे भी लोग मिले जो मोहभंग की स्थिति में हैं पर पार्टी का हिस्सा बने हुए हैं.

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आप को मिली जीत के बाद फिल्म अभिनेता, नौकरशाह, वकील और पत्रकारों का हुजूम आप में शामिल होने को लालायित था. लेकिन लोकसभा चुनाव आते-आते स्थितियां बदलने लगी थीं. इसकी वजह से पार्टी के लोकसभा चुनावी अभियान का ज्यादातर हिस्सा नकारात्मक सुर्खियां बटोरता रहा. सबसे पहले पार्टी का टिकट वापस करने की खबर वीवीआईपी सीट रायबरेली से आई थी. इससे पार्टी की बेहद किरकिरी भी हुई. हुआ यूं कि पार्टी ने सोनिया गांधी के खिलाफ रिटायर्ड जस्टिस फखरुद्दीन को अपना उम्मीदवार घोषित किया लेकिन जल्द ही उन्होंने टिकट वापस कर चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी. इसी समय प्रतिष्ठित कोलकाता दक्षिण की सीट से आप उम्मीदवार मुदार पाथेर्य के टिकट वापस करने की खबर भी सुर्खी बनी. सामाजिक कार्यकर्ता पाथेर्य ने स्वास्थ्यगत कारणों से चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी. गौरतलब है कि पाथेर्य उस आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे जिसने रिजवानुर रहमान की हत्या के विरोध में पैदा हुए जनआक्रोश का नेतृत्व किया था. लक्स नामक अंत:वस्त्र बनाने वाली कंपनी के मालिक अशोक टोडी के खिलाफ उनका आंदोलन बेहद प्रभावी रहा था. उनके टिकट वापस करने के पीछे तमाम अटकलें और कहानियां बनीं.

आगे आने वाले दिनों में पार्टी में आने-जाने वालों का एक लंबा सिलसिला चला. अकेले उत्तर प्रदेश से कुल आठ लोगों ने आप का टिकट लौटाकर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. इनमें जालौन से अभिलाषा जाटव, लखीमपुर खीरी से इलियास आजमी, फैजाबाद से इकबाल मुस्तफा, शाहजहांपुर से अशर्फीलाल आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण विवाद रहा फर्रूखाबाद से पार्टी के उम्मीदवार मुकुल त्रिपाठी का. फर्रूखाबाद की सीट तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की वजह से चर्चा में थी. आप ने मुकुल त्रिपाठी को सलमान खुर्शीद के खिलाफ अपना उम्मीदवार घोषित किया. त्रिपाठी ने सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद द्वारा संचालित जाकिर हुसैन ट्रस्ट के फंड में हेरफेर उजागर करके खुब लोकप्रियता बटोरी थी. लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्होंने आप का टिकट यह कहकर वापस कर दिया कि आप के भीतर भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य गुल पनाग कहती हंै, ‘ऐसे तमाम लोग चुनाव से पहले हमसे जुड़े थे. कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है. ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए कि राजनीति में बदलाव रातो-रात नहीं होता.’

‘कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है’

चुनाव के पहले और बाद में तमाम नामचीन हस्तियों का आना-जाना पार्टी की संगठनात्मक असफलता की तरफ भी इशारा करता है. बहुत कम समय में पार्टी ने अपनी क्षमता से ज्यादा पंख फैला लिए थे. इंटरनेट पर दूर-दराज के इलाकों से जुड़े दो-चार उत्साही युवाओं के दम पर पार्टी ने ऐसे-ऐसे स्थानों से चुनाव लड़ने की कोशिश की जहां वास्तव में जमीन पर पार्टी ने कभी कोई काम नहीं किया था. इस हड़बड़ाहट से पार्टी को किसी तरह के फायदे की जगह नुकसान ही हुआ. मीडिया और सोशल साइटों पर जहां पार्टी की सबसे ज्यादा धमक थी वहीं पर उसकी सबसे ज्यादा आलोचना शुरू हो गई. इस वजह से पार्टी अपने ही मानकों और सिद्धांतों का पालन करने में असफल हुई. एक अध्ययन के मुताबिक मध्य प्रदेश से आप के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले करीब 40% उम्मीदवारों के खिलाफ किसी न किसी तरह के अदालती मामले चल रहे थे. यह ऐसी पार्टी थी जिससे लोगों की अपेक्षा थी कि यह भ्रष्टाचार और कुशासन से लड़ेगी और देश के गवर्नेंस के पुराने तौर-तरीकों को बदलेगी. पर हुआ यह कि अंत में यह पार्टी खुद को ही व्यवस्थित नहीं रख सकी. एयर डेक्कन के मालिक कैप्टन गोपीनाथ, पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी समेत तमाम बड़े नामों ने चुनावों के बाद पार्टी का साथ छोड़ दिया. ठीक लोकसभा चुनाव से पहले उभरे आप नेता आशीष खेतान कहते हैं, ‘कुछ लोग हो सकता है बहती गंगा में हाथ धोने की नीयत से पार्टी में शामिल हुए हों, लेकिन ज्यादातर लोग अच्छी नीयत और उद्देश्य से जुड़े हैं. अभी आपको लग सकता है कि लोग अपने-अपने रास्ते चले गए हैं लेकिन वे किसी न किसी रूप में पार्टी के लिए काम कर रहे हैं.’

तहलका ने ऐसे कई चमकदार नामों के बारे में जानने की कोशिश की जो लोकसभा चुनाव के पहले बहुत तेजी से चमके थे और आप के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े थे. हमने यह जानने का प्रयास किया कि फिलहाल वे लोग क्या कर रहे हैं.

राजमोहन गांधी

पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से आप ने राजमोहन गांधी के नाम की घोषणा करके पूरे चुनावी माहौल को गर्मा दिया था. राजमोहन गांधी महात्मा गांधी के पौत्र हैं और खुद उनकी अपनी शख्सियत बहुत विस्तृत है. अमेरिका के इलिनॉय विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया विभाग के प्रोफेसर राजमोहन गांधी को चुनाव से पहले राजनीतिक जगत में बहुत कम जाना जाता था. हालांकि 1990-92 के बीच वे राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं लेकिन उनकी पहचान अकादमिक और बौद्धिक जगत में ज्यादा रही है. वे आईआईटी गांधीनगर से जुड़े हुए हैं. 1975-77 के बीच जब देश में आपातकाल लगा हुआ था तब राजमोहन गांधी ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना और मानवाधिकारों के लिए अपने साप्ताहिक जर्नल ‘हिम्मत’ के जरिए बहुत बेबाकी से एक अभियान छेड़ा था. उस दौरान उन्होंने अपनी भूमिका एक पत्रकार के रूप में निभाई थी. अपने लंबे अकादमिक और पत्रकारीय जीवन में राजमोहन गांधी प्रतिष्ठित अखबार इंडियन एक्सप्रेस के चेन्नई संस्करण के संपादक के तौर पर भी 1985 से 87 तक काम कर चुके हैं. लेकिन अब अपने राजनीतिक दल से उनका जुड़ाव ढीला-ढाला प्रतीत होता है. जब तहलका ने उनसे दो हफ्ते पहले संपर्क किया था तब वे अमेरिका के दौरे पर थे. क्या वे अभी भी आप से जुड़े हैं, पार्टी में उनका पद क्या है, अपने लोकसभा क्षेत्र के लोगों से उनका किस तरह का जुड़ाव है आदि सवालों के जवाब उन्होंने ई-मेल के जरिए भेजे हैं जिसका लब्बोलुआब यह है कि वे पार्टी में तो हैं पर अपने निर्वाचन क्षेत्र से उनका कोई जुड़ाव नहीं है. उनके जवाब के मुताबिक पार्टी से उनका जुड़ाव सक्रिय स्तर पर नहीं है, मगर वे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हैं.

लोकसभा चुनावों से पहले बना उनका फेसबुक पन्ना 17 मार्च 2014 के बाद से अपडेट नहीं हुआ है. साथ ही उनके दफ्तर के दोनों नंबर भी फिलहाल बंद पड़े हैं. पार्टी के कार्यकर्ता भी उनके संबंध में पूछे गए किसी सवाल का जवाब टाल जाते हैं. जिस तरह के हालात हैं उनके आधार पर एक ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद आप और राजमोहन गांधी के रिश्तों में गर्मजोशी नहीं रही है. पूर्वी दिल्ली सीट के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘चुनाव के बाद से हमने उन्हें अपने क्षेत्र में कभी नहीं देखा.’

‘चुनाव से पहले हमने कुल 32 लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में बनाए थे. पार्टी को चुनाव में कुल साढ़े आठ लाख वोट मिले. यह चयन में गड़बड़ी का नतीजा है’

गुल पनाग

पूर्व मिस इंडिया और फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग की चंडीगढ़ सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा दूसरे विकल्प के रूप में हुई थी. आप ने पहले चंडीगढ़ सीट से दिवंगत हास्य कलाकार जसपाल भट्टी की पत्नी सविता भट्टी को टिकट दिया था जिन्होंने एक हफ्ते बाद टिकट लौटाकर पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी थी. सविता भट्टी ने अपनी खुद की नोटा पार्टी का गठन करने का ऐलान किया था. बहरहाल गुल पनाग ने काफी हाई प्रोफाइल चुनाव लड़ा. उनके खिलाफ भाजपा ने किरण खेर को खड़ा किया था. इस चुनाव में गुल पनाग तीसरे स्थान पर रही. चंडीगढ़ की स्थानीय इकाई के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘चुनाव के बाद उनका चंडीगढ़ आना कम हो गया है, वालंटियरों को भी अब समय नहीं दे पाती हैं. हम लोगों के लिए समस्या यह है कि पार्टी का कोई बड़ा स्ट्रक्चर तो है नहीं. आम आदमी, पार्टी कार्यकर्ता हर दिन अपने छोटे-मोटे काम के लिए आते रहते हैं पर उनका काम नहीं हो पाता. जबकि दूसरी पार्टियों में ऐसा नहीं होता है. उन छोटे-मोटे कामों से पार्टी का जनाधार बनता है. पर हमारे पास ऐसा कोई नहीं है. इससे निचले स्तर पर थोड़ा असंतोष है.’ हालांकि गुल पनाग ऐसे किसी भी दावे को सच नहीं मानती हैं. उनका कहना है कि अमूमन हर दूसरे हफ्ते में वे चंडीगढ़ जाती रहती है. वे कहती हैं, ‘मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हूं, इसके अलावा मेरा अपना भी कामकाज है. इन तमाम कामों में मेरी व्यस्तता रहती है. अगर आप मुझसे यह उम्मीद करेंगे कि राजनीति में होने के नाते मैं हर वक्त सिर्फ पार्टी और राजनीति की बात करूंगी तो यह पूरी तरह से गलत होगा. पार्टी से जुड़ी बातों के लिए मैंने गुल4चेंज नाम से एक अलग पेज बना रखा है. पार्टी से जुड़ी गतिविधियों को मैं वहीं पर रखती हूं. लोगों को लगता है कि मैंने फिल्म और खेल आदि पर तो बातें कर रही हूं, लेकिन पार्टी पर नहीं. यह लोगों की गलतफहमी है.’ गुल के इतर पार्टी भी चंडीगढ़ और पंजाब को बेहद गंभीरता से ले रही है क्योंकि पार्टी को सबसे ज्यादा सफलता पंजाब से ही मिली है.

जावेद जाफरी

लखनऊ लोकसभा सीट पर फिल्म अभिनेता और कमेडियन जावेद जाफरी की उम्मीदवारी भी दूसरे विकल्प के तौर पर सामने आई थी. आप ने इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र आदर्श शास्त्री को लखनऊ लोकसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था. बाद में किन्हीं कारणों से आदर्श को इलाहाबाद भेज दिया गया और जावेद जाफरी को लखनऊ से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. जावेद जाफरी का मामला बहुत सीधा है. वे चुनावों के बाद न तो अपने लोकसभा क्षेत्र में कभी दिखे हैं न ही पार्टी के किसी फोरम पर. लखनऊ के आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता मनुज सिंह की बातों से कार्यकर्ताओं की निराशा साफ झलकती है. मनुज बताते हैं, ‘पार्टी ने जिस तरह से काम किया उसका खामियाजा पार्टी ने भुगता है. मैं यहां मेंबरशिप कोऑर्डिनेटर था. चुनाव से पहले हमने कुल 32 लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में बनाए थे. जबकि पार्टी को चुनाव में कुल साढ़े आठ लाख वोट मिले. यह पार्टी द्वारा उम्मीदवारों को चयन में की गई गड़बड़ी का नतीजा है. जावेद जाफरी को यहां सिर्फ 43000 वोट मिले. हमने निचले स्तर पर तय किया है कि हम सब पार्टी से जुड़े रहेंगे लेकिन प्रत्याशी के चयन में पार्टी को हमारी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी, चाहे वह सलाह के तौर पर ही क्यों न हो.’ मनुज और उनके जैसे तमाम कार्यकर्ताओं से बातचीत में एक बात साफ होती है कि बाहर से लाकर बैठा दिए गए सेलीब्रेटी उम्मीदवारों से कुछ हद तक तो फायदा हो सकता है, लेकिन संगठनात्मक मजबूती के लिए उसका स्थानीय होना और क्षेत्र में जमे रहना बहुत जरूरी होता है. आप जैसी नई पार्टी के लिए यह बेहद जरूरी है. जबकि जावेद जाफरी जैसे बाहरी लोगों की व्यावसायिक मजबूरियां भी उन्हें संगठन के लिए काम करने की छूट नहीं देती.

‘जिस तरह से काम करना चाहिए वैसा काम पार्टी कर नहीं रही है. पार्टी का जनाधार बढ़ाने का एक तरीका होता है, पार्टी में इसको लेकर भारी गड़बड़ी है’

हरविंदर सिंह फूल्का

1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने के मकसद से सिटिजन फॉर जस्टिस कमेटी की स्थापना करके फूल्का करीब तीस साल पहले सुर्खियों में आए थे. लगभग 25 सालों तक फूल्का अकेले दंगों के पीड़ितों के लिए लड़ाई लड़ते रहे. सुप्रीम कोर्ट में एक वकील के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा है और सिख दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ने की वजह से उनका काफी सम्मान है. इनका एक बहुत महत्वपूर्ण बयान आज भी राजनीति और जुडीशियरी के गलियारों में कहा-सुना जाता है- ‘1984 के दंगों से पहले राजनीति में अपराधी नहीं थे. अपराधी नेताओं के पीछे खड़े रहते थे. लेकिन 1984 के दंगों के बाद अपराधियों को लगने लगा कि लूटमार और हत्या करने वाले भी चुनाव जीत सकते हैं. इस तरह से अपराधियों ने राजनीति को करियर बनाना शुरू कर दिया.’ फूल्का को आप ने लुधियाना से अपना उम्मीदवार घोषित किया था. पर वे चुनाव हार गए. हार के बाद लुधियाना में अपनी राजनीतिक गतिविधियों को लेकर वे कहते हैं, ‘मैं तो दिल्ली और लुधियाना के बीच ही घूमता रहता हूं. पार्टी के स्तर पर मेरी सक्रियता पूरी तरह से बनी हुई है. फिलहाल मैं पंजाब इकाई की कार्यकारिणी का सदस्य और पंजाब प्रदेश का प्रवक्ता भी हूं.’ बहुत सारे नामचीन लोगों में पार्टी को लेकर आई शिथिलता के बारे में फूल्का का मानना है कि चुनाव हारने के बाद थोड़ा धीमा पड़ जाना स्वाभाविक है. आगे कोई चुनाव भी नहीं है और पार्टी भी फिलहाल संगठन को मजबूत करने पर ज्यादा जोर दे रही है. एक बात साफ है कि पार्टी छोड़कर जाने वालों की भीड़ के बावजूद पंजाब इससे कमोबेश अछूता रहा है. इसकी एक वजह शायद यह भी है कि वहां से पार्टी को अनपेक्षित रूप से चार लोकसभा सीटें प्राप्त हुई हैं.

बाबा हरदेव सिंह

बाबा हरदेव सिंह को उत्तर प्रदेश में एक प्रभावशाली प्रशासक के रूप में जाना जाता है. 2007 में वे शारदा सहायक कमांड एरिया डेवलपमेंट प्रोजेक्ट से रिटायर हुए थे. आप में शामिल होने से पहले हरदेव सिंह राष्ट्रीय लोकदल के उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष थे. ठीक चुनाव से पहले वे आम आदमी पार्टी से जुड़े थे. उन्हें पार्टी ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के खिलाफ मैनपुरी चुनाव लड़ाया था. जैसी ख्याति और सफलता बाबा हरदेव सिंह को प्रशासनिक सेवा में मिली थी कह सकते हैं कि उनकी राजनीतिक यात्रा उतनी सफल नहीं रही. दो जून के बाद से उन्होंने आम आदमी पार्टी और खुद के नाम से बनाए गए वेब पेज पर कुछ भी अपडेट नहीं किया है. फिलहाल वे आम आदमी पार्टी से भी मोहभंग की हालत में हैं. क्या आप अभी भी आम आदमी पार्टी से जुड़े हुए हैं, इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘हां, बस जुड़ा हुआ हूं. जिस तरह से काम करना चाहिए वैसा काम पार्टी कर नहीं रही है. पार्टी का जनाधार बढ़ाने का एक तरीका होता है, पार्टी में इसको लेकर भारी गड़बड़ी है. दिल्ली में मिली सफलता की हवा जैसे ही निकली पार्टी जमीन पर आ गई. लोकसभा चुनाव में आप देखिए पार्टी के पास कुछ था ही नहीं. जब तक स्थानीय स्तर पर संगठन और नेतृत्व तैयार नहीं होगा कभी भी सफलता नहीं मिलेगी.’ बाबा हरदेव का मानना है कि जिस साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद मे लोगों ने पार्टी को दिल्ली में अपना समर्थन दिया था वह उम्मीद शायद टूटती दिख रही है. फिलहाल बाबा हरदेव के पास संगठन से जुड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं है.

आशीष खेतान

लोकसभा चुनावों से पहले आप से जुड़ने वाले बड़े और हैरत में डालने वाले नामों में एक नाम तेज तर्रार खोजी पत्रकार आशीष खेतान का भी था. आप ने उन्हें नई दिल्ली सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था. आशीष खेतान राजनीति में आने से पहले गुजरात दंगों से लेकर स्नूपगेट तक अपनी तमाम दमदार खोजी रिपोर्टों के लिए काफी सुर्खियां बटोर चुके थे. तमाम दूसरे नामचीन नेताओं के विपरीत खेतान चुनावों के बाद भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पार्टी की तरफ से लगातार सक्रिय रहे हैं. सेलीब्रेटी चेहरों का चुनाव के बाद गायब हो जाने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘आप बाकी पार्टियों में सेलिब्रेटी लोगों को देखिए वे तो चुनाव जीतने के बाद भी कितने दिन अपने क्षेत्र या लोकसभा में नजर आते हैं. यह मानने की कोई वजह नहीं है कि लोग पार्टी से अलग होकर अपने-अपने रास्ते चले गए हैं. सारे लोग पार्टी के अलग-अलग फोरमों पर काम कर रहे हैं. समस्या यह होती है कि वे फोरम इतने विजिबल नहीं हैं. इस वजह से लगता है कि ज्यादातर लोग पार्टी के लिए सक्रिय नहीं हैं. ऐसे इक्का-दुक्का लोग होंगे जो अपने रास्ते चले गए होंगे.’

आदर्श शास्त्री

आदर्श शास्त्री की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल यह है कि वे देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र हैं. पर राजनीतिक पहचान के इतर उनकी अपनी एक दुनिया थी जिसमें वे काफी ऐश और आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. अमेरिका में एप्पल कंपनी की अपनी सुरक्षित नौकरी छोड़कर उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थामा. उनके पिता अनिल शास्त्री अभी भी कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं. आदर्श कहते हैं, ‘आज जो कांग्रेस है उसका शास्त्रीजी के विचारों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है. मुझे लगता है कि फिलहाल आप ही वह पार्टी है जो शास्त्रीजी के विचारों के करीब है.’ आदर्श शास्त्री उन नेताओं की फेहरिस्त में शुमार हैं जो पूरी तरह से आप के साथ जुड़े हुए हैं. जिस समय तहलका ने उनसे बात करने की कोशिश की वे दिल्ली के जंतर मंतर पर ई-रिक्शा चालकों की रैली में हिस्सा ले रहे थे. उन्हें पार्टी ने कुछ बेहद गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी हैं. पार्टी ने मिशन विस्तार योजना के तहत उन्हें हिमाचल प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया है. आदर्श बताते हैं, ‘कुछ लोग मौकापरस्ती में आए थे. वे लोग अलग हो गए हैं.’ तो फिर वे अपने निर्वाचन क्षेत्र इलाहाबाद क्यों नहीं जा रहे हैं, इस सवाल के जवाब में आदर्श कहते हैं कि पार्टी ने मेरे ऊपर केंद्रीय स्तर पर तमाम जिम्मेदारियां सौंपी है जिसकी वजह से इलाहाबाद जाना थोड़ा कम हो गया है, लेकिन यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. मेरा अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से लगातार संपर्क बना रहता है.

ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो पार्टी के भीतर नेतृत्व के कामकाज और अलोकतांत्रिक हालात की वजह से पार्टी से दूर हुए हैं

चुनाव के दौरान उभरे तमाम नए-चमकदार चेहरों से बातचीत में एक बात साफ तौर पर सामने आती है कि आप कोई परंपरागत ढांचे वाली पार्टी नहीं है. काफी हद तक उसका विस्तार और प्रभाव वालंटियरों और चंदे में मिले पैसों के ऊपर निर्भर रहा है. पार्टी के ज्यादातर कार्यकर्ता ऐसे थे जो चुनाव के दौरान अपना काम-काज छोड़कर चुनाव में आप के लिए काम कर रहे थे. आदर्श शास्त्री के शब्दों में, ‘ज्यादातर कार्यकर्ता चुनाव से पहले वालंटियर के तौर पर जुड़े थे. जाहिर सी बात है कि चुनाव के बाद वे लोग अपने काम-धंधों में लौट गए हैं. इसका ये अर्थ नहीं है कि वे पार्टी से अलग हो गए हैं. समय-समय पर ये लोग पार्टी को अपनी सेवाएं देते रहते हैं.’

फोटो: विकास कुमार
फोटो: विकास कुमार

इसके इतर भी कुछ वजहें सामने आई हैं जिनकी वजह से तमाम बड़े चेहरे पार्टी से दूर हुए हैं. चुनाव के बाद तात्कालिक लाभ की नीयत से जुड़े लोग तो पार्टी से दूर हुए ही हैं साथ ही ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो पार्टी के भीतर नेतृत्व के कामकाज और अलोकतांत्रिक हालात की वजह से पार्टी से दूर हुए हैं. इस बिना पर पहला झटका पार्टी को उसके सबसे विश्वसनीय चेहरों में से एक रहे योगेंद्र यादव के रूप में लगा था. किसी तरह से पार्टी इस झटके से उबरने मे सफल रही और यादव पार्टी में बने रहे. पार्टी को दूसरा बड़ा झटका पूर्व पत्रकार और पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी के रूप में लगा. शाजिया ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पार्टी में व्याप्त कामियों को गिनाया था और अरविंद केजरीवाल के ऊपर एक मंडली के प्रभाव में काम करने का आरोप लगाया था. बाद में पार्टी ने शाजिया को वापस बुलाने की भी कोशिश की थी, लेकिन वह कोशिश सिरे नहीं चढ़ सकी. शाजिया गाजियाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ी थी. उनको लेकर यह खबरें भी उस दौरान उड़ी थीं कि वे गाजियाबाद की बजाय दिल्ली की किसी सीट से चुनाव लड़ना चाहती थीं. लेकिन पार्टी ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की. फिलहाल शाजिया के बारे में खबर है कि वे स्वच्छ भारत अभियान के जरिए भाजपा के मंचों पर देखी जा रही है. अटकलें लग रही हैं कि शायद वे भाजपा से जुड़ सकती है लेकिन शाजिया ने इसका खंडन किया है. इसी दौर में कुछ और बड़े चेहरों ने भी पार्टी को अलविदा कहा. इनमें अश्विनी उपाध्याय, कैप्टन गोपीनाथ, अशोक अग्रवाल सुरजीत दासगुप्ता, मधु भादुड़ी, नूतन ठाकुर आदि प्रमुख नाम हैं.

जहां तक पार्टी का सवाल है तो ऐसा लग रहा है कि वह शुरुआती दौर की झिझक और झटकों से उबर कर खुद को लंबी लड़ाई के लिए तैयार कर रही है. गुल पनाग कहती हैं, ‘राजनीति रातोंरात होने वाले बदलाव का नाम नहीं है. इसमें कम से कम तीन पीढ़ियां लगती हैं. हम इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं.’ मिशन विस्तार के तहत पार्टी बूथ स्तर पर संगठन खड़ा कर रही है. इस महत्वाकांक्षी योजना पर पंजाब और दिल्ली में गंभीरता से काम हो रहा है. इन शुरुआती झटकों से एक संकेत यह भी मिल रहा है कि शायद पार्टी अब लोकसभा चुनाव जैसी गलती से सबक सीख चुकी है.

हाथ के सहारे खिला कमल!

पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच आपसी रिश्ते भी इस बुरे दौर में पार्टी का काम कठिन कर रहे हैं. पीजे कुरियन (बाएं), चिदंबरम(दाएं)

अगर हालिया उपचुनाव और विधानसभा चुनाव को संकेत माना जाए तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस की हालत दयनीय हो चली है. एक सदी से अधिक पुरानी यह पार्टी जिसने आजाद भारत पर 60 वर्षों तक राज किया, उसकी पहुंच देश के अधिकांश राज्यों में दिन पर दिन सिमटती जा रही है.

सबसे पहले उत्तर प्रदेश और बिहार में और अब महाराष्ट्र और हरियाणा में उसका पराभव सबको साफ नजर आ रहा है. महाराष्ट्र और हरियाणा तो लंबे समय से पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ रहे हैं लेकिन इन दोनों ही राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी मुख्य विपक्षी दल तक नहीं बन पाई. दोनों ही जगह उसे तीसरा स्थान मिला. नरेंद्र मोदी नामक तूफान ने पार्टी का सफाया कर दिया है.

साफ-साफ कहा जाए तो भाजपा की इस सफलता के पीछे एक बड़ा श्रेय  कांग्रेस को जाना चाहिए जिसने अपनी रणनीतिक चूकों के जरिए भाजपा को बढ़ने में मदद की. यह पूरी तरह कांग्रेस की गलत नीतियों की वजह से हुआ. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपनी पिछली गलतियों से कुछ नहीं सीखा है और वह चुनाव दर चुनाव वही गलतियां दोहराती चली जा रही है.

लोकसभा चुनाव के दुस्वप्न के बाद पूर्व रक्षा मंत्री ए के एंटनी की अध्यक्षता वाली समिति का गठन किया गया ताकि वह पार्टी के बुरे प्रदर्शन की समीक्षा करे. अपनी रिपोर्ट में एंटनी समिति ने खासे बदनाम हो चुके राहुल गांधी को क्लीन चिट दे दी और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को चुनावी हार की सबसे बड़ी वजह करार दिया. रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम समुदाय को खुश करने की कोशिश में पार्टी सवर्ण हिंदू और अन्य पिछड़ा वर्ग से दूर होती चली गई.

रिपोर्ट में कहा गया कि कांग्रेस ने अनचाहे ही मोदी को बहुसंख्यक समुदाय की उम्मीदों का वाहक बना दिया और भाजपा ने इसका पूरा लाभ उठाया. जहां तक मुस्लिम समुदाय की बात है तो उन्होंने बढ़-चढ़कर मतदान नहीं किया क्योंकि उनको लगा कि कांग्रेस की हार अपरिहार्य है और उनके वोट देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. रोचक बात यह है कि रिपोर्ट एक ऐसे नेता ने तैयार की थी जो बतौर मुख्यमंत्री वर्ष 2004 में केरल में पार्टी को एक भी लोकसभा सीट जिता पाने में नाकाम रहा था.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने गोपनीयता की शर्त पर बताया कि अगर सोनिया गांधी, एंटनी और अहमद पटेल का नाम निकाल दिया जाए तो पार्टी में बस गिनेचुने लोग रह जाएंगे. इनके बिना पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं रह जाएगा जिसकी राष्ट्रीय अपील हो और इस तरह पार्टी में नेतृत्व का संकट उत्पन्न हो जाएगा.

पार्टी के अनेक नेता महसूस करते हैं कि मणिशंकर अय्यर और पी चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेता अमित शाह का मुकाबला नहीं कर सकते और पार्टी नेतृत्व में सुधार बहुत लंबे समय से लंबित है. वास्तव में अय्यर ने मोदी के चाय बेचने को लेकर एक गैरजरूरी और असंवेदनशील टिप्पणी की थी जिससे कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना. उस बयान ने कांग्रेस को गरीब विरोधी साबित किया. चिदंबरम ने भी पार्टी की संभावनाएं खराब करने में योगदान दिया लेकिन उस पर हम बाद में बात करेंगे. दो साल पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा के उपाध्यक्ष पीजे कुरियन को पता था कि पार्टी में गंभीर खामी है. वे समस्या के देख रहे थे लेकिन पार्टी के नेता उसे स्वीकार और उसका सामना करना नहीं चाहते.

ऐसे में उन्होंने सोनिया गांधी से मुलाकात की और कहा कि पार्टी को दूसरों को दांव पर लगाकर एक खास अल्पसंख्यक समुदाय को खुश करना बंद करना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि संप्रग सरकार को तत्काल उच्च वर्ग के गरीब लोगों के लिए 1000 से 2000 करोड़ रुपये की योजना लानी चाहिए. इस फंड को समाज के बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को बेहतर शिक्षा और आजीविका देने में इस्तेमाल किया जा सकता है. कुरियन के मुताबिक एक खास समुदाय को खुश करना पार्टी के लिए किसी न किसी तरह नुकसानदेह साबित हो रहा है.

सोनिया ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक खत लिखा जिसकी एक प्रति तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को भी भेजी गई. इस खत में कुरियन की बातों का उल्लेख किया गया था. उन्होंने कुरियन से यह भी कहा कि वह इस मामले पर आगे मनमोहन सिंह, चिदंबरम और एंटनी से संपर्क में रहे. बहरहाल प्रधानमंत्री ने इस प्रस्ताव को बहुत तवज्जो नहीं दी और चिदंबरम ने इसे खारिज कर दिया. इस तरह कुरियन के प्रयासों पर पानी फिर गया.

अनेक नेता महसूस करते हैं कि मणिशंकर अय्यर और पी चिदंबरम जैसे नेता अमित शाह का मुकाबला नहीं कर सकते. पार्टी नेतृत्व में सुधार बहुत जरूरी है

कुरियन को इससे निराशा हुई. चुनाव के बाद उन्होंने इस मुद्दे को एंटनी के समक्ष उठाया. उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि पार्टी को अल्पसंख्यक राजनीति का खमियाजा उठाना पड़ा है. कुरियन ने यह भी कहा कि पार्टी की हार की कई वजहों में यह सिर्फ पहली थी. एक के बाद एक खराब नीतियों ने कांग्रेस की दिक्कतों में और इजाफा ही किया.

खाद्य सुरक्षा विधेयक और बुनियादी ढांचा सुधार जैसी उपलब्धियों को प्रमुखता देने के बजाय पार्टी ने मोदी और गुजरात दंगों पर अधिक बात की. इन बातों का मतलब यही था कि कांग्रेस अपनी जमीन गंवाती जा रही है और मोदी की संभावनाओं को मजबूत करते हुए भाजपा के हाथों में खेल रही है.

अय्यर के चायवाले बयान की बात करें तो कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि चाय बेचना किसी भी लिहाज से अपमानजनक काम नहीं है. भारत में जहां सड़क किनारे चाय के ठेले पर बहस-मुबाहिसा आम बात है वहां भाजपा के चाय पे चर्चा कार्यक्रम ने लोकसभा चुनाव में उसकी जबरदस्त मदद की. दुखद बात यह है कि यह पूरा मामला कांग्रेस पर भारी पड़ा क्योंकि वह आम भारतीयों के मनोविज्ञान को समझ पाने में वह नाकाम रही. अय्यर और चिदंबरम जैसे उच्च शिक्षित और विदेशों में पढ़े मंत्रियों को इसकी बेहतर जानकारी होनी चाहिए थी. क्या अय्यर को जमीनी राजनीति की समझ है? या फिर बतौर वित्तमंत्री चिदंबरम ने अल्पसंख्यक समुदाय की तुलना में बहुसंख्यकों को क्या दिया? पार्टी नेता अगर इन सवालों पर गौर करने का वक्त निकालें तो यह उनकी बेहतरी में होगा.

जानकार सूत्रों के मुताबिक चिदंबरम की पत्नी नलिनी और बेटे कार्ती बैंकिंग क्षेत्र और सरकारी कंपनियों में प्रमुख पदों पर होने वाली नियुक्तियों में शामिल थे. इस चयन में शायद ही कभी श्रेष्ठता पर ध्यान दिया गया हो. हर नियुक्ति से ये दोनों लाभान्वित होते रहे.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नाम जाहिर न करने की शर्त पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि नलिनी और कार्ती ऐसे मामलों में शामिल थे. दरअसल नलिनी तो कई निजी क्षेत्र की कंपनियों की विधिक सलाहकार भी हैं जबकि कार्ती कई सरकारी बैंकों में ऋण को मंजूरी दिलाने तथा उसे आगे बढ़वाने का काम करते थे.

वित्तीय मामलों में कार्ती के शामिल होने को आईडीबीआई द्वारा संप्रग के कार्यकाल में अब बंद हो चुकी किंगफिशर एयरलाइंस को 950 करोड़ रुपये के कर्ज के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. किंगफिशर बहुत लंबे समय से बुरी हालत में है और यह बात किसी से छिपी नहीं है.

कांग्रेस ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए शायद ही कभी कुछ किया हो. वास्तव में ऐसी कई बातों को लेकर पार्टी ने जो खामोशी ओढ़े रखी उसने भी चुनाव में उसकी छवि को धक्का पहुंचाया. हम सब जानते हैं उसे इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. लाख टके का सवाल यह है कि कांग्रेस खुद को मौजूदा संकट से कैसे बाहर निकालेगी? पार्टी को इस समय एक ऐसे

नेता की जरूरत है जो उसे अस्तित्वविहीन होने की आशंका से निजात दिला सके.

बढ़ी ओवैसी की आस

owasi
फोटोः विजय पांडे

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शानदार प्रदर्शन के बीच कुछ छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण घटनाएं राजनीतिक पंडितों की नजर में आने से रह गई. ऐसी ही एक घटना है ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमीन (एआईएमआईएम) को महाराष्ट्र चुनाव में दो सीटों पर मिली जीत. यह बात इसलिए और महत्वपूर्ण  है क्योंकि राज ठाकरे के दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को महज एक सीट पर जीत मिली. यह जीत हैदराबाद तक सीमित रही इस पार्टी के लिए बेहद अहम है. असदुद्दीन और अकबरुद्दीन ओवैसी भाइयों के इस दल को पहली बार अपने पारंपरिक क्षेत्र के बाहर इस तरह की सफलता मिली है. इतना ही नहीं इसे देश में मुस्लिम-दलित राजनीति के नए स्वरूप की शुरुआत के तौर पर भी देखा जा सकता है.

पार्टी की ओर से अधिवक्ता वारिस यूसुफ पठान ने बायकुला सीट पर 1,357 मतों से जीत हासिल की. उन्होंने भाजपा के निवर्तमान विधायक मधुकर चव्हाण और अखिल भारतीय सेना की गीता गवली को हराया. जीत का अंतर भले ही कम हो लेकिन इससे इसका महत्व कतई कम नहीं होता.

औरंगाबाद मध्य सीट से एमआईएम प्रत्याशी और पूर्व टेलविजन पत्रकार इम्तेयाज अली ने शिव सेना के प्रदीप जायसवाल को 30,000 मतों से आसान शिकस्त दी. वह पहली बार चुनाव लड़ रहे थे. एमआईएम 24 सीटों पर लड़ी और उसके उम्मीदवार तीन सीटों पर दूसरे जबकि 9 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहे.

एमआईएम ने राजनीतिक बदलाव का संकेत देते हुए दलितों को भी टिकट दिए. पार्टी की ओर से विष्णुपंत गावड़े सोलापुर नगर (उत्तर), अर्जुन सलगार सोलापुर (दक्षिण), अविनाश गोपीचंद कुर्ला और सुभाष शिंदे अक्कालकोट से चुनाव लड़े. इन उम्मीदवारों ने भाजपा, शिवसेना और राकांपा तथा कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी. ये सभी तीसरे  या चौथे नंबर पर रहे. पैंथर्स रिपब्लिकन पार्टी ने एमआईएम के साथ गठजोड़ किया था और औरंगाबाद में उसका उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहा.

एमआईएम को एक ऐसे दल के रूप में देखा जाता है जो मुस्लिमों की असुरक्षा को आधार बनाकर फलता-फूलता है. हैदराबाद तक सीमित रहा यह दल अब देश के दूसरे इलाकों में भी प्रभाव बढ़ा रहा है.

एक प्रमुख उर्दू अखबार सियासत के संपादक जहीरुद्दीन अली खान कहते हैं, ‘मुस्लिमों को देश के धर्मनिरपेक्ष दलों से कुछ नहीं मिला फिर चाहे वह कांग्रेस हो या समाजवादी पार्टी या फिर बसपा. इसीलिए वे असदुद्दीन की ओर आकर्षित हुए. वह प्रतिरोध की बात करते हैं जो उन्हें ताकतवर होने का अहसास कराता है लेकिन आखिर में एमआईएम एक ध्रुवीकरण करने वाला दल है और यह बात दुखद और खतरनाक दोनों है. हैदराबाद में उनका कोई राजनीतिक विरोधी नहीं है. ऐसे में वे महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश का रुख कर रहे हैं. यह देखा जाना है कि बाकी जगहों पर वे किस तरह की राजनीति करते हैं.’

एमआईएम को अक्सर एक ऐसे दल के रूप में देखा जाता है जो मुस्लिमों की असुरक्षा को ढाल बनाकर अपनी राजनीति करती आई है. इसके हैदराबाद तक सीमित रहने की यह भी एक बड़ी वजह रही है. अब तक वह आंकड़ों में इसकी हैसियत सात विधायकों और हैदराबाद में एक सांसद तक सीमित रही है. लेकिन असदुद्दीन ओवैसी द्वारा भाजपा और नरेंद्र मोदी पर लगातार किए जाने वाले हमलों ने उन्हें देश के दूसरे इलाकों में भी लोकप्रिय बनाया है.

पिछले तीन सालों के दौरान एमआईएम ने महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा इलाके में तेजी से विस्तार किया है. कर्नाटक के बीदर क्षेत्र में भी पार्टी पनपी है. 2012 में इसने नांदेड़ के नगरीय चुनावों में शिवसेना और कांग्रेस से टक्कर लेते हुए 81 में से 11 सीटें जीती थी. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि फैसला आने के तुरंत बाद असदुद्दीन ने अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक में विस्तार करने की घोषणा कर दी.

पीपल वाले पीर की फिल्म

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जेड प्लस उस मोहल्ले से निकली है जिसमें वेलकम टू सज्जनपुर, सारे जहां से महंगा, वार छोड़ ना यार, तेरे बिन लादेन जैसी फिल्में बसती हैं. अपने आस-पास की घटनाएं, आस-पास की राजनीति, वहीं का समाज, वहीं की छुद्रताएं, वहीं की उदारता. सौ करोड़ रुपये के नशे में डूबी, चमचमाती कारों, शानदार बिल्डिंगों और विश्वास से परे दृश्यों से इसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं है. फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी एक बार फिर से एक अनूठी टीम के साथ सामने आए हैं. पुराने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के साथी, चाणक्य और पिंजर के सहयोगी और साथ में मोना सिंह और आदिल हुसैन जैसे कुछ नए साथी.

जेड प्लस की कहानी मौजूदा भारत के एक छोटे से गांव में बसने वाले आम आदमी और इस देश की शीर्ष राजनीति के आपसी संबंधों की कहानी है. कहानी इस मायने में जरूरी है कि देश की राजनीति बुरी तरह से उन्हीं लोगों से कटी हुई है जिनसे उसकी सारी ताकत आती है. साथ ही कहानी छोटे-छोटे कई ताने-बाने को भी उधेड़ती है. मसलन जो सरकार सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने का दम भरती है वह अपनी सरकार बचाने के लिए किस हद तक सांप्रदायिक हो सकती है कि अपने सारे राजनैतिक कौशल और कामकाज को किनारे रख कर दरगाह पर चादर के भरोसे हो जाती है. इतना ही नहीं जब वह राजनीति अपने दिखावे में संवेदनशील होना चाहती है तब ऐसा काम करती है जिससे उसकी साख और समझ दोनों पर सवाल खड़ा हो जाता है. वह गांव के एक पंक्चरवाले को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया करवाती है. सरकार की यह नेमत गांव के गरीब पंक्चरवाले की जिंदगी में किस किस्म की उथल-पुथल ले आती है उसी उठापटक और असमंजस का नाम है जेड प्लस. अपनी छवि के विपरीत और इस समय में जेड प्लस की जरूरत पर डॉ. द्विवेदी कहते हैं, ‘भारतीय समाज के लिए पिछले कुछ साल बेहद उठापटक भरे रहे हैं. एक समाज के स्तर पर, इस पर कई तरह के प्रश्न खड़े हुए हैं, लेकिन साथ ही यह समय समाज में आई चेतना और जागरुकता का समय भी रहा है. समाज के हर हिस्से में देश के नए स्वरूप को तय करने की ललक उठ रही है. इसके नतीजे में हम देख रहे हैं कि देश एक बड़े बदलाव से गुजर रहा है. आम आदमी की इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं राजनीति में जगह पाने लगी हैं. सामाजिक मंचों से लेकर टेलीविजन तक पर इन बदलावों की सुगबुगाहट है. लेकिन भारत का सिनेमा इससे एक हद तक अभी भी अछूता है. मेरी कोशिश है कि इन बदलावों और आम आदमी को फिल्मों में भी जगह मुहैया करवाई जाय.’

डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के पिछले कामकाज की बात की जाए तो वह प्राचीन भारतीय इतिहास और साथ ही सामयिक भारतीय साहित्य से गहरे तक प्रभावित रहा है. चाणक्य हो, उपनिषद गंगा हो, पिंजर हो या फिर रिलीज के इंजार में बैठी मोहल्ला अस्सी. खुद उनके शब्दों में, ‘लोग अपने आस-पास की चीजों से ज्यादा आसानी से जुड़ते हैं. मैं भी उन्हीं का हिस्सा हूं. मुझे भी भारतीय साहित्य और इतिहास की वो कहानियां गहराई तक प्रेरित करती है जिन्हें हम पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते पढ़ते आ रहे हैं. इसके अलावा मुझे इस मायने में भी अपने काम से एक सुख मिलता है कि एक नए माध्यम (फिल्म) में इन चीजों का दस्तावेजीकरण हो रहा है.’ तो क्या जेड प्लस का भी ऐसा ही कोई साहित्यिक-ऐतिहासिक संबंध है? वे बताते हैं, ‘इस कहानी का प्रवेश चंदा मामा और बेताल पचीसी जैसी कहानियों की तरह मेरे जीवन में हुआ. मेरे एक मित्र हैं राम कुमार सिंह. राजस्थान के हैं. उनकी रचनाओं के लिए उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित रागे राघव पुरस्कार मिल चुका है. उन्होंने कुछ साल पहले मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के दौरान मुझे जेड प्लस की कहानी मेरा समय काटने के लिए सुनाई थी. जिस अंदाज में और जिस रस के साथ वे कहानी सुना रहे थे उसने मुझे पहली बार में ही कहानी का मुरीद कर दिया. मेरे आग्रह पर उन्होंने पहले कहानी का ड्राफ्ट भेजा और फिर कुछ दिन बाद कहानी का कॉपीराइट भी मुझे सौंप दिया. तो आप कह सकते हैं कि फिल्म का और मेरा इतिहास और साहित्य से जुड़ाव अभी भी कायम है.’

रामकुमार सिंह से कहानी के अधिकार मिलने और फिर उसके फिल्मी कहानी में तब्दील होने की कहानी भी लंबी और दिलचस्प है. इस कहानी से डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के व्यक्तित्व के कई और पहलू भी सामने आते हैं. मसलन रामकुमार जो कि राजस्थान के उसी फतेहपुर से आते हैं जो इस फिल्म की पृष्ठभूमि है. लेखक और निर्देशक दोनों के बीच फिल्म के संवादों को लेकर अपने-अपने आग्रह थे. डॉ. द्विवेदी फिल्म को नई कहावतों और मुहावरों के जरिए कम्युनिकेशन सेंट्रिक बनाना चाहते थे न कि डायलॉग केंद्रित. इस समस्या से निपटने के चक्कर में फिल्म के ड्राफ्ट पर ड्राफ्ट बनते गए. अंतत: 23वें ड्राफ्ट के बाद स्क्रिप्ट अपने असली रूप में सामने आई. आज जब वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि उनके पिछले कामों में भी सुधार की बहुत गुंजाइशें हैं. वे कहते हैं, ‘मैं यही सीख पाया हूं कि स्क्रिप्ट लेखन असल में लिखना और फिर उसे बार-बार लिखने का नाम है. पिंजर की स्क्रिप्ट मेरा पहला ड्राफ्ट था और वही आखिरी ड्राफ्ट था. आज अगर मुझे इसे लिखने को कहा जाय तो मैं इसमें तमाम फेरबदल करूंगा. मोहल्ला अस्सी के कुल चौदह ड्राफ्ट बने. और अब जेड प्लस 23 ड्राफ्ट के बाद सामने आ पाया है.’

अपनी कहानियों की तरह ही द्विवेदी अपने पात्रों के मामले भी बहुत सावधान रहते हैं. एक बार फिर से उन्होंने संजय मिश्रा, मुकेश तिवारी जैसे पुराने साथियों को जोड़कर फिल्म के मोटी मोटा मिजाज का संकेत लोगों को दे दिया है. बिना किसी बड़े नाम और तड़क भड़क के उन्होंने बाकी सबकुछ दर्शकों के ऊपर छोड़ दिया है. इस बार उन्होंने दो नए साथी भी ढूंढ़े हैं जिनका जिक्र करना जरूरी है. पहला नाम है फिल्म के मुख्य कलाकार आदिल हुसैन का यानी फिल्म का असलम पंक्चरवाला. यह सुझाव उन्हें उनकी पत्नी मंदिरा से मिला. हुसैन की अपनी फिल्मी यात्रा उन्हें जेड प्लस जैसी फिल्मों का स्वाभाविक दावेदार बनाती है. इससे पहले विशाल भारद्वाज की इश्किया के अलावा इंगलिश विंगलिश और लाइफ ऑफ पाई में दर्शकों का पाला उनसे पड़ चुका है. आदिल हुसैन के शब्दों में, ‘शायद कोई दूसरा निर्देशक मेरे भीतर के उस एक्टर को नहीं देख सकता था जो विटी है, ह्युमरस है, जो कॉमेडी कर सकता है. डॉ. साब ने मेरी उस क्षमता को पहचाना और मौका दिया. उनके साथ मेरे बेहतर तालमेल की एक वजह यह भी रही कि हम दोनों ही छोटे शहरों से आए लोग हैं. शरारत और बदमाशी तो उनमें भी है लेकिन छोटे शहरों वाली मासूमियत उनके भीतर अभी भी बची हुई है. इसके अलावा अपने काम पर उनकी पकड़ का कोई जवाब नहीं है. एक-एक शब्द और डायलॉग वे जिस तरह से चुनते हैं वह उनके काम के लिए उनका समर्पण दिखाता है. इसीलिए वे एक एक शब्द को बनाए रखने पर जोर देते हैं, बिना उसे बदले.’

‘हम दोनों ही छोटे शहरों से आए लोग हैं. शरारि और बदमाशी िो हम दोनों में ही है लेककन छोटे शहरों वाली मासूकमयि उनके भीिर अभी भी बची हुई है’

द्विवेदी की दूसरी नई पसंद हैं एक्टर मोना सिंह जो फीमेल लीड कर रही हैं. इस नाम का सुझाव भी मंदिरा ने ही दिया था. पर सुझाव से उनके जुड़ाव तक की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. मोना के बिजनेस मैनेजर ने पहले मंदिरा से निर्देशक का रेज्युमे मांगा. इस पर मंदिरा ने उनसे निर्देशक का नाम गूगल पर सर्च करने के लिए कहा. किसी तरह से मोना डॉ. द्विवेदी से मिलने को राजी हो गईं. मोना को कहानी बताने से पहले उन्हें मैनेजर को यह भरोसा देना पड़ा कि उनके पास फिल्म और मोना सिंह को निर्देशित करने की पूरी क्षमता और योग्यता है. खैर बात आगे बढ़ी और मोना सिंह फिल्म करने के लिए राजी हो गईं. शूटिंग के पहले ही दिन फिल्म के संवाद को लेकर मोना और डॉ. द्विवेदी के बीच कुछ बातें हुईं. डॉ. द्विवेदी ने मोना के सामने जयशंकर प्रसाद की एक कविता कही और उसे मोना से दुहराने या लिखने को कहा. इसके बाद उन्होंने गुलजार का एक गीत सुनाया और उसे मोना से लिखने को कहा. बात मोना को समझ आ गई. इसके बाद उन्होंने फिल्म के किसी भी संवाद में एक भी शब्द का हेरफेर करने की जिद नहीं की.

फिल्म को एक मोटे दायरे में देखें तो यह समाज के सबसे निचले और सबसे ऊंची पायदान पर पहुंचे आदमी के बीच का अंतर है, उनके बीच के विरोधाभास हैं, और पूरी कहानी के दौरान मौजूद एक ब्लैक ह्यूमर है जो अपनी पूरी कड़वाहट और गड़बड़ियों में भी दूसरों को हंसने का मौका देती है. और साथ में जेड प्लस सत्ता में बैठकर ताकत की कैंची चलाने वाली उस राजनीति की कहानी तो है ही जो खुद की जड़ें भी काट चुकी है.


‘सिनेमा अाज भी मेरे लिए जुनून है’ 

पिंजर जैसी बहुचर्चित फिल्म के निर्देशक  डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी अपनी नई फिल्म जेड प्लस के साथ एक बार फिर से दर्शकों के सामने हैं. फिल्म के प्रोमो रिलीज से पहले  अतुल चौरसिया के साथ हुई उनकी बातचीत

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क्या अब मान लिया जाए कि डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी इतिहास के पन्नों से बाहर निकल चुके हैं?
नहीं, इसमें भी आपको देश के 67 सालों के इतिहास की झलक मिल जाएगी. जो राजनैतिक उथल-पुथल इस पूरे समय में देश ने देखी है, और वह जिन वजहों से हुई है उसकी झलक इसमें दर्शकों को मिल जाएगी. यह एक राजनैतिक-सामाजिक व्यंग्य है. मेरा यह भी मानना है कि देश का जो भी साहित्य लिखा जाता है वह कहीं न कहीं उसके इतिहास का दस्तावेज होता है. हमारे प्राचीन शास्त्र भी यही कहते हैं कि नाट्य शास्त्र भी इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है. नाट्य के जरिए हम अतीत की अनुकरणीय घटनाओं का उल्लेख करते हैं. मैंने इतिहास की जमीन नहीं छोड़ी है. इसमें भी मैं गाहे बगाहे इतिहास को छूते हुए निकल जाता हूं.

अपनी फिल्म जेड प्लस के बारे में कुछ बताएं. 
जेड प्लस राजनैतिक व्यंग्य है. एक मिली-जुली साझा सरकार जो सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से जूझ रही है. सरकार के घटक दल किसी भी समय समर्थन वापस लेने को तैयार बैठे हैं. और ऐसे समय में सरकार का एक सहयोगी दल एक ऐसे विचार के साथ सामने आता है जो बेहद दिलचस्प है. उसका दावा है कि सरकार अगर राजस्थान के फतेहपुर में पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाती हैं तो उसकी सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा. मरता क्या न करता की तर्ज पर प्रधानमंत्री पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाने को राजी हो जाते हैं. फतेहपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री की मुलाकात एक पंक्चर वाले से होती है और उसके बाद एक प्रधानमंत्री और पंक्चरवाले के बीच बातचीत और घटनाओं की जो दिलचस्प कड़ी तैयार होती है वह राजनीति की विद्रूपताओं और उसके समाज से कटाव की कहानी को एक मनोरंजक अंदाज में रखती चली जाती है.

हमारी राजनीति में जो भ्रष्टाचार, संप्रदायवाद या अवसरवाद जैसी गहरी और बड़ी समस्याएं हैं उन्हें व्यंग्य जैसे हल्के माध्यम से कहना कितना सही हैं. क्या व्यंग्य ही गंभीर चीजों को लोगों तक पहुंचाने का सबसे सफल माध्यम है.
इसके कई कारण है. एक कारण यह है कि व्यंग्य पर हमारे यहां बहुत कम फिल्में बनी हैं. दूसरा राजनीति में आम जनता की रुचि नहीं है. समाज की जिन कड़वी सच्चाइयों की बात आप कर रहे हैं वह व्यक्ति अखबार टेलीविजन के जरिए हर दिन देखता रहता है. इसलिए जब वह थिएटर में जाता है तब उसे कुछ नया चाहिए होता है. और जब आप अपने कहने की शैली बदल देते हैं तो लोगों की रुचि बढ़ जाती है. हर दिन हमारे संपादकीयों में कड़े प्रहार होते हैं. शरद जोशी और हरिशंकर परसाईं इसीलिए सफल रहे क्योंकि उन्होंने एक अलग शैली में चोट की. उन शैलियों में अगर हास्य जुड़ जाए तो वह ज्यादा कारगर होता है. गंभीर बात को गंभीर तरीके से कहना तो आम बात है. लेकिन उसी गंभीर बात को हंसते-हंसते कह दिया जाए और आपका काम भी हो जाए तो यह किसी भी फिल्मकार की सबसे बड़ी सफलता है.

आपका अब तक का कामकाज देखें तो हम पाते हैं कि वह इतिहास और साहित्य के साए में रहा है. प्राचीन भारतीय कथाएं भी आपको बहुत आकर्षित करती हैं. चाणक्य से लेकर उपनिषद गंगा तक सारा कामकाज इसका सबूत है. आपने एक बार महाभारत बनाने की कोशिश भी की थी. ऐसा क्यों हैं.
मुझे लगता है कि ये सारी कहानियां टाइम टेस्टेड हैं. समय ने इन कहानियों को अच्छी तरह से परख लिया है. नाट्य शास्त्र में इस बात को मजबूती से कहा गया की ऐसे चरित्र जिन्हें हम जीवन मंे देख सकें और जिनसे कुछ पा सकें, जो हमारे आस-पास का हो, तो वह लोगों को आसानी से समझ आ जाते हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ईश्वर ने हमें दो आंखें आगे दी तीसरी आंख क्यों नहीं दी. क्या उसने गलती की. नहीं उसने गलती नहीं की है असल में हमारी तीसरी आंख हमारा इतिहास है. यह इतिहास की ताकत है. इतिहास हमें इतनी ताकत देता है कि हम वर्तमान की समस्याओं का उत्तर अपने अतीत में खोज सकते हैं. इसीलिए इतिहास मुझे आकर्षित करता है. अगर हम सांप्रदायिकता की बात करें तो मुझे लगता है कि हमने हमेशा इस मसले को कालीन के नीचे छुपाने का काम किया. कभी भी इस पर ईमानदारी से बात नहीं की. फिल्मों में भी हमने इस पर बहुत छिछले तरीके से चर्चाएं देखी हैं.

साहित्य और इतिहास पर फिल्म बनाने की परंपरा पश्चिमी फिल्मों में बहुत गहरी और लंबी रही है. इसके विपरीत भारतीय फिल्म जगत में यह परंपरा बहुत कमजोर दिखती है. आपको और एकाध और लोगों को छोड़ दें तो हमारे यहां ऐसे नाम और फिल्में कम हैं.
बिल्कुल, इसका कारण यह है कि हमारा समाज ऐसा है कि इसको अक्सर शब्दों तक से आपत्ति हो जाती है. यहां जितनी ऐतिहासिक फिल्में बनती हैं उसको लेकर कोई न कोई विवाद हो जाता है. कल जो शब्द प्रचलित थे वे आज नहीं हैं. लोग थिएटरों पर पत्थरबाजी करते हैं. इससे निवेशक को लगता है कि वह चला था कुछ और करने हो कुछ और रहा है. इतिहास को लेकर हमारे यहां भय है. एक और गंभीर समस्या यह है कि हमें अपने इतिहास को लेकर गर्व नहीं है. उससे एक तरह का डिसकनेक्ट है. एक वजह यह भी है कि हमें ऐतिहासिक विषयों में बड़ी सफलताएं नहीं मिली हैं. पश्चिम में देखें तो उनकी ऐतिहासिक फिल्मों को बड़ी सफलताएं मिली हैं. क्लियोपेट्रा को देखें तो पहली को छोड़कर बाद में बनी दोनों फिल्मों को बड़ी सफलता मिली. तीसरी बार जो सीरीज बनी वह सर्वश्रेष्ठ थी. इस तरह के प्रोजेक्ट लगातार चल रहे हैं वहां. हमारे यहां ऐतिहासिक पात्रों को लेकर ज्यादा रुचि नहीं है. इसके अलावा एक कारण यह भी है कि इतिहास पर फिल्में बनाने में लंबा वक्त लगता है और काफी अध्ययन करना पड़ता है. लोगों को लगता है कि इतना समय लगाने के बाद विवाद हो तो इससे अच्छा है कि कम समय में कुछ और कर लिया जाए.

आप अक्सर कहा करते हैं कि आपको विदेशी साहित्य और इतिहास की बजाय भारतीय कहानियां ज्यादा रास आती है.
मैं सारे बिंब भारतीय समाज से ढूंढ़ता हूं. मैं हमेशा कहता हूं कि मैं अपने दिमाग के द्वार हमेशा खुले रखता हूं. मैं सिनेमा कम देखता हूं. जब तक मुझे विचार प्रेरित नहीं करते तब तक मैं फिल्म नहीं बनाता हूं. अभी भी मैंने सिनेमा को जुनून के स्तर पर ही बनाए रखा है.

आज से दस या बीस साल बाद जब हम मुड़कर देखेंगे और डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी की समीक्षा करेंगे तब हम पाएंगे कि एक बड़े फिल्मकार के हिस्से में कुल तीन-चार फिल्में ही दर्ज हैं. यह किसकी असफलता होगी?
कुछ हद तक यह मेरी असफलता है. और कुछ हद तक समाज ने इस तरह के काम को स्वीकार नहीं किया है. मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूं जो चाणक्य को रिफरेंस के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. श्रीलंका में बुद्ध के ऊपर एक फिल्म बन रही थी तब उन्होंने चाणक्य को बार-बार देखा. इसी तरह से पिंजर का इस्तेमाल रिफरेंस के तौर पर लोग करते हैं. यह कम सफलता नहीं है

असरदार जोड़ीदार

नरेंद्र मोदी और अमित शाह

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नरेंद्र मोदी-अमित शाह. ये दोनों आज भारतीय राजनीति के सबसे सफल चेहरे हैं. लोकसभा चुनाव में इस जोड़ी के अभूतपूर्व प्रदर्शन को देखकर इनके आलोचकों के साथ ही प्रशंसकों की आंखें भी चौंधिया गईं थी. इनकी आसमानी राजनीतिक सफलता का सिलसिला अभी भी जारी है. हाल ही में इन दोनों की जुगलबंदी से हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने वह सफलता अर्जित की जिसकी कल्पना लोग मजाक में भी नहीं करते थे. स्थिति यह हुई कि जिस हरियाणा में दशकों तक सक्रिय रहने के बाद भी अपने दम पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी थी उस हरियाणा में पार्टी बिना संगठन और बिना किसी बड़े स्थानीय चेहरे के उतरी और गठबंधन की बैसाखी फेंककर दौड़ते हुए बहुमत रेखा के पार निकल गई. महाराष्ट्र में भी पार्टी शिवसेना से अपना पुराना याराना तोड़ते हुए बिना किसी मजबूत संगठन के चुनावी समर में उतरी थी. यहां से भी नतीजा उसे सातवें आसमान पर भेजने वाला ही मिला. पार्टी प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. उसका आंकड़ा सौ सीटों को पार कर गया. महाराष्ट्र में भी पार्टी अपनी सरकार (अल्पमत) बना चुकी है.

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अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी

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भारतीय जनता पार्टी इन दिनों अपने सुनहरे दौर से गुजर रही है. एक ऐसा दौर जो किसी भी राजनीतिक दल का ख्वाब होता है. पहले उसने लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया और फिर दो राज्यों में भी विरोधियों को करारी शिकस्त देकर सरकार बना ली. इस शानदार प्रदर्शन के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जुगलबंदी को सबसे बड़ा फैक्टर बताया जा रहा है. मौजूदा हालात पर नजर रखने वाले किसी व्यक्ति को शायद ही इससे गुरेज होगा. लेकिन वर्तमान का अध्ययन अगर अतीत को ध्यान में रखकर किया जाए तो उसे समझना बहुत आसान हो जाता है. तीन दशक पुरानी पार्टी की इस बेहद सफल यात्रा को रिवर्स गियर लगाकर देखा जाए तो दूसरे छोर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के रूप में एक ऐसी जोड़ी नजर आती है, जिसने बुलंदियों पर सवार भाजपा की बुनियाद ऐसे वक्त में खड़ी की, जब देश भर में कांग्रेस का एकछत्र राज था. अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद कांग्रेस ही देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी.

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सोनिया गांधी और अहमद पटेल

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लोकसभा चुनावों के समय पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर : द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ सामने आई. अपनी किताब में बारू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के 64 वर्षीय राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की राजनीतिक शख्सियत और कांग्रेस तथा मनमोहन सिंह सरकार में उनकी भूमिका को लेकर कई खुलासे किए. बारू ने अपनी किताब में बताया कि कैसे यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सभी संदेश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचाने का काम नियमित तौर पर अहमद पटेल किया करते थे.  वे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच की राजनीतिक कड़ी थे. बारू के मुताबिक प्रधानमंत्री निवास में जब अचानक पटेल की आवाजाही बढ़ जाती तो यह इस बात का संकेत होता कि कैबिनेट में फेरबदल होने वाला है. पटेल ही उन लोगों की सूची प्रधानमंत्री के पास लाया करते थे जिन्हें मंत्री बनाया जाना होता था या जिनका नाम हटाना होता था. बारू यह भी बताते हैं कि कैसे पटेल के पास किसी भी निर्णय को बदलवाने की ताकत थी. वे एक उदाहरण भी देते हैं, ‘एक बार ऐसा हुआ कि ऐन मौके पर जब मंत्री बनाए जाने वाले लोगों की सूची राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए प्रधानमंत्री निवास से जाने ही वाली थी कि पटेल प्रधानमंत्री निवास पहुंच गए. उन्होंने लिस्ट रुकवाकर उसमें परिवर्तन करने को कहा. उनके कहने पर तैयार हो चुकी सूची में एक नाम पर वाइट्नर लगाकर पटेल द्वारा बताए गए नाम को वहां लिखा गया.’

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मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह

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राजनीति की दुनिया में अगर कोई एक लाइन सबसे ज्यादा बार दुहराई गई है तो वह है, यहां कोई किसी का न तो स्थायी दोस्त होता और न ही दुश्मन होता है. इस पंक्ति को राजनेता, पत्रकार और विश्लेषक सब बार-बार दोहराते हैं. फिर भी यहां समय-समय पर जोड़ियां बनती-बिगड़ती रहती हैं. दोस्त बनते हैं, साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाई जातीं हैं.

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लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार

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बात दो महीने पहले की है. बिहार में 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के प्रचार का समय था. पटना से सटे हाजीपुर में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की एक सभा थी. वर्षों बाद दोनों नेताओं का एक साथ इस तरह राजनीतिक मंच साझा करने का अवसर था. कौतूहल और उत्सकुता का उफान स्वाभाविक था. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ओबी वैन अहले सुबह से ही पोजिशन लेकर वहां खड़े हो चुके थे. बड़े-बड़े पोस्टरों के जरिये कुछ सप्ताह पहले से ही माहौल को गरमाने की पूरी कोशिश हुई थी लेकिन जिस दिन लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सभा हुई, भीड़ जुट ही नहीं सकी. मुश्किल से भीड़ उतनी ही हो सकी, जितनी एक आम विधायकी का उम्मीदवार बिना किसी बड़े नामचीन नेता के खुद के दम पर जुटा लेता है. लालू नीतीश की सभा में भीड़ का नहीं जुटना तो एक अलग बात रही, सबसे विचित्र तो नीतीश कुमार के चेहरे पर उभरा भाव था. नीतीश कुमार मंच पर लगातार किसी शरमाते, झेंपते हुए बालक की तरह इधर से उधर देखते रहे और पसीने-पसीने होते रहे. लालू प्रसाद अपनी लय  में थे और नीतीश के हाथों को पकड़कर दनादन तसवीरें उतरवा रहे थे. नीतीश कुमार सिर्फ उसी दिन पसीने-पसीने नहीं हुए, जनसभा के बाद जिस दिन विधानसभा उपचुनाव का परिणाम आया और दस में से छह सीटों पर लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन को जीत हासिल हुई उस दिन भी खुशी व्यक्त करने के लिए नीतीश कुमार ने संवाददाता सम्मेलन तो जरूर बुलाया लेकिन उन्होंने सबसे ज्यादा समय इसी बात को बताने में लगा दिया कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के राज को उन्होंने कभी भी जंगलराज नहीं कहा बल्कि भाजपावाले इस शब्द का इस्तेमाल करते थे.

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mayaमायावती और सतीश चंद्र मिश्र

साल 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसे ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ कहा था. जानकारों की मानें तो राव के ऐसा कहने के पीछे वजह यह थी कि जिस दलित वोट के दम पर मायावती ने यह कामयाबी हासिल की थी, उसको अब तक कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. उस दौर में सत्ता की धुरी सवर्णों के इर्द गिर्द ही घूमा करती थी.

उस दौर में एक स्थापित धारणा यह भी थी कि अच्छी खासी तादाद में होने के बाद भी दलित वर्ग अपने समुदाय के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकता है. लेकिन कांशीराम के सानिध्य में मायावती ने दलित समाज की अगुआई की और उनका वोट कांग्रेस से छिटक कर बसपा के पाले में आ गया. बहरहाल 1995 के बाद मायावती 1997 और 2002 में फिर से मुख्यमंत्री बनीं, इन मौकों पर भी दलित वोट ने ही माया की नैया पार लगाई थी. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में ऐसा चमत्कार हुआ कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे समीकरण ही धराशाई हो गए. उस चुनाव में दलितों के साथ ही ब्राह्मणों ने भी मायावती को अपना समर्थन दे दिया और वे चौथी बार अपने दम पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई. इन नतीजों ने राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया था कि, आखिर वे ब्राह्मण, बसपा के साथ कैसे खड़े हो गए जिन्हें मायावती ने एक दौर में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था.

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नीतीश कुमार और सुशील मोदी

 

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ज्यादा नहीं, बस बरस भर से थोड़ा ही ज्यादा हुआ होगा, भाजपा से जदयू की कुट्टी होने का समय. बिहार भाजपा के कई  मंझले और निचले दर्जे के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि सुशील मोदी भाजपा के नेता हैं कि जदयू के, यह स्पष्ट करें. ये नेता यूं ही इस तरह की बातें नहीं कर रहे थे. इसके ठोस कारण भी थे. सुशील मोदी सबसे मजबूत ढाल की तरह नीतीश कुमार के साथ रहते थे. जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने का कानाफूसी वाला बयान देना शुरू किया तब जूनियर मोदी यानि सुशील मोदी ही वे नेता थे, जिन्होंने खुलेआम कहा कि नीतीश कुमार भी नरेंद्र मोदी से कोई कम योग्य नेता नहीं हैं. तब यह माना गया कि सुशील मोदी ऐसा इसलिए कह गये, क्योंकि वे आडवाणी के खेमे के आदमी हैं और आडवाणी नीतीश को पसंद करते हैं. लेकिन यह कोई पहला मौका नहीं था. पिछले 17 सालों से भाजपा-जदयू की दोस्ती में पार्टी स्तर पर कार्यकर्ताओं व दूसरे नेताओं का एक-दूसरे से कितना मेल-मिलाप बढ़ा, यह तो साफ-साफ कोई नहीं कह सकता लेकिन यह हर कोई मानता और जानता है कि नीतीश कुमार, सुशील मोदी की जोड़ी फेविकोल के जोड़ जैसी हो चली थी. लालू प्रसाद हमेशा कहा भी करते थे कि सुशील मोदी, नीतीश के अटैची है और कभी-कभी पोसुआ सुग्गा (पालतू तोता) भी कहते थे.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ सुशील मोदी ही नीतीश कुमार का गुणगान करते रहे बल्कि कुछ मौके ऐसे भी आये, जब नीतीश कुमार ने अपनी साख और अपने वोट बैंक तक की परवाह किये बिना मोदी की राह की रुकावटों को डंके की चोट पर और सार्वजनिक तौर पर दूर करने की कोशिश की. इसका एक बड़ा नमूना तीन-चार साल पहले बिहार के फारबिसगंज के भजनपुरा में पुलिस फायरिंग में मारे गये छह अल्पंख्यकों वाले प्रकरण में देखा गया था. कहा जाता है कि भजनपुरा गोलीकांड के बाद नीतीश कुमार ने बिना कोई ठोस कार्रवाई किए गहरी चुप्पी साध ली थी, इसकी एक वजह यह थी कि वह सुशील मोदी के करीबी की फैक्ट्री से जु़ड़ा मामला था.

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह

फोटोः मयूर भट
फोटोः मयूर भट

नरेंद्र मोदी-अमित शाह. ये दोनों आज भारतीय राजनीति के सबसे सफल चेहरे हैं. लोकसभा चुनाव में इस जोड़ी के अभूतपूर्व प्रदर्शन को देखकर इनके आलोचकों के साथ ही प्रशंसकों की आंखें भी चौंधिया गईं थी. इनकी आसमानी राजनीतिक सफलता का सिलसिला अभी भी जारी है. हाल ही में इन दोनों की जुगलबंदी से हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने वह सफलता अर्जित की जिसकी कल्पना लोग मजाक में भी नहीं करते थे. स्थिति यह हुई कि जिस हरियाणा में दशकों तक सक्रिय रहने के बाद भी अपने दम पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी थी उस हरियाणा में पार्टी बिना संगठन और बिना किसी बड़े स्थानीय चेहरे के उतरी और गठबंधन की बैसाखी फेंककर दौड़ते हुए बहुमत रेखा के पार निकल गई. महाराष्ट्र में भी पार्टी शिवसेना से अपना पुराना याराना तोड़ते हुए बिना किसी मजबूत संगठन के चुनावी समर में उतरी थी. यहां से भी नतीजा उसे सातवें आसमान पर भेजने वाला ही मिला. पार्टी प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. उसका आंकड़ा सौ सीटों को पार कर गया. महाराष्ट्र में भी पार्टी अपनी सरकार (अल्पमत) बना चुकी है.

मोदी और शाह की सफल जुगलबंदी आज की बात नहीं है. दोनों का साथ बहुत पुराना है. पिछले 20 साल से राजनीति के बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक सुपरहिट परिणाम देने वाली इस जोड़ी की पहली मुलाकात गुजरात के अहमदाबाद में लगने वाली संघ की शाखाओं में हुई थी. दोनों अपने बाल्यकाल से ही संघ की शाखाओं में जाया करते थे. हालांकि दोनों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि में काफी अंतर था. मोदी जहां एक गरीब परिवार से आते थे, वहीं शाह गुजरात के एक बेहद संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे. गुजरते समय के साथ जब दोनों युवा हुए तो दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली. मोदी जहां सब कुछ छोड़ते हुए कथित तौर पर ज्ञान की तलाश में हिमालय की ओर चले गए, वहीं दूसरी तरफ शाह संघ से जुड़े रहते हुए शेयर ट्रेडिंग तथा प्लास्टिक के पाइप बनाने का अपना पारिवारिक व्यापार करने लगे.

अस्सी के दशक की शुरुआत में गुजरात वापस आने के बाद मोदी की मुलाकात एक बार फिर से अमित शाह से हुई. शाह ने मोदी से भाजपा में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर की. पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला उस दिन को कुछ इस तरह याद करते हैं, ‘मैं पार्टी ऑफिस में ही बैठा था. मोदी अपने साथ एक लड़के को लेकर मेरे पास आए. कहा कि ये अमित शाह हैं. अच्छे व्यवसायी हैं. आप इन्हें पार्टी का कुछ काम दे दीजिए.’ इस तरह से मोदी की सिफारिश पर अमित शाह भाजपा में शामिल हो गए. पार्टी में शामिल होने के बाद शाह धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के करीब होते चले गए.

नब्बे के दशक में जब गुजरात में भाजपा मजबूत हो रही थी उस समय अमित शाह के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा मौका आया. 1991 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसद का चुनाव लड़ने के लिए गांधीनगर का रुख किया. उस समय शाह ने नरेंद्र मोदी के सामने लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने की इच्छा जाहिर की. शाह का दावा था कि वे अकेले बहुत अच्छे से पूरे चुनाव की जिम्मेदारी संभाल सकते है. अगर आडवाणी यहां अपना चुनाव प्रचार नहीं करते हैं तब भी वे इस सीट को आडवाणी के लिए जीत कर दिखाएंगे. शाह के इस आत्मविश्वास से मोदी बड़े प्रभावित हुए और आडवाणी की उस सीट के चुनावी प्रबंधन की पूरी कमान उन्हें सौंप दी. आडवाणी उस चुनाव में भारी मतों से जीते. इस चुनाव के बाद शाह का कद गुजरात की राजनीति और मोदी के हृदय में बढ़ता चला गया.

शाह की राजनीति को करीब से देख चुके एबीपी न्यूज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश सिंह कहते हैं, ‘ चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की मास्टरी रही है. अपनी इसी काबिलियत के दम पर वे मोदी पर प्रभाव डालने में सफल रहे.’

जिस तरह कुछ समय पहले मोदी देश के शीर्ष पद पर बैठने को बेताब थे उसी तरह की बेकरारी से वे उस समय भी ग्रस्त थे जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मोदी की नजर सीएम की कुर्सी पर थी. मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षा से शाह को अवगत करा दिया था. लेकिन प्रदेश के राजनीतिक समीकरण आने वाले समय में कुछ इस कदर बदले कि मोदी को केशुभाई पटेल और तत्कालीन संगठन मंत्री संजय जोशी ने गुजरात से बाहर भिजवाने का इंतजाम कर दिया. वर्ष 1996 में मोदी राष्ट्रीय सचिव बनकर दिल्ली आ गए. लेकिन उनका मन गुजरात से दूर नहीं हो पाया और वे अमित शाह के माध्यम से गुजरात पर नजर बनाए रहे.

उधर केशुभाई पटेल के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही थी. पार्टी स्थानीय चुनावों में लगातार हार रही थी. रही सही कसर 2001 में आए भयानक भूकंप ने पूरी कर दी. भूकंप पीड़ितों को राहत पहुंचाने के मामले में विफल रहने का आरोप केशुभाई सरकार पर लगने लगा. भाजपा को लगने लगा कि यदि केशुभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार को छोड़ा गया तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ेगा. केशुभाई के खिलाफ दिल्ली में खूब लॉबीइंग हुई. पद्मश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल कहते है, ‘केशुभाई के खिलाफ माहौल बनाने का काम नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह ने ही किया था.’

केशुभाई को मुख्यमंत्री पद से हटाकर मोदी को प्रदेश की कमान सौंप दी गई. यहां से मोदी और अमित शाह के संबंधों का एक नया दौर शुरू हुआ.

2002 में जब प्रदेश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो सबसे कम उम्र के अमित शाह को मोदी ने गृह (राज्य) मंत्री बनाया. यही नहीं, सबसे अधिक 10 मंत्रालय उन्हें दे दिए गए. अमित शाह के रसूख में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की होने की यह सिर्फ शुरुआत भर थी. धीरे-धीरे प्रदेश में स्थिति ऐसी होती गई कि अमित शाह राज्य में मोदी के बाद सबसे अधिक प्रभाव वाले नेता बन गए.

गुजरात में अमित शाह अपनी क्षमता साबित कर चुके थे. इसलिए जब मोदी की दिल्ली पर नजर पड़ी तो उन्होंने गांधीनगर से 7 आरसीआर (भारत के प्रधानमंत्री का आधिकारिक आवास) तक की राह सुनिश्चित करने का दायित्व भी शाह को सौंपा. शाह अपने ‘साहेब’ की उम्मीदों पर खरे उतरते हुए उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने में सफल रहे. शाह को इसका तुरंत इनाम भी मिला और वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिए गए.
मोदी की तरफ से शाह को हमेशा खुली छूट मिली है. उसका एक उदाहरण हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी देेखने को मिला. हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने को लेकर भाजपा के भीतर काफी असमंजस था तो वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना के खिलाफ लड़ने पर भी पार्टी एकराय नहीं थी. लेकिन अमित शाह किसी दुविधा में नहीं थे. उन्होंने सारी आशंकाओें को किनारे रख गठबंधन तोड़ने और अकेले चुनाव में उतरने का फैसला ले लिया. जितने आत्मविश्वास के साथ शाह आगे बढ़े उसी भरोसे के साथ मोदी ने भी उनके निर्णयों पर अपनी मोहर लगा दी. उसी तरह जब महाराष्ट्र चुनाव में शाह ने मोदी की 30 के करीब रैलियां रखीं तो बतौर प्रधानमंत्री मोदी को यह कुछ अव्यावहारिक सा लगा. उन्होंने शाह से रैलियों की संख्या कम करने के लिए कहा लेकिन पार्टी अध्यक्ष ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इससे कम में काम नहीं हो पाएगा. मोदी ने शाह की बात मान ली.

खैर चुनावी राजनीति में जीत या हार कुछ भी अंतिम नहीं होता. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अगर पार्टी आने वाले विधानसभा चुनावों में हारती है या 2019 में शाह अपने ‘साहेब’ को फिर से पीएम नहीं बना पाते हैं तब इस जोड़ी के आपसी रिश्ते किस रूप में सामने आएंगे?

मायावती और सतीश चंद्र मिश्र

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

साल 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसे ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ कहा था. जानकारों की मानें तो राव के ऐसा कहने के पीछे वजह यह थी कि जिस दलित वोट के दम पर मायावती ने यह कामयाबी हासिल की थी, उसको अब तक कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. उस दौर में सत्ता की धुरी सवर्णों के इर्द गिर्द ही घूमा करती थी.

उस दौर में एक स्थापित धारणा यह भी थी कि अच्छी खासी तादाद में होने के बाद भी दलित वर्ग अपने समुदाय के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकता है. लेकिन कांशीराम के सानिध्य में मायावती ने दलित समाज की अगुआई की और उनका वोट कांग्रेस से छिटक कर बसपा के पाले में आ गया. बहरहाल 1995 के बाद मायावती 1997 और 2002 में फिर से मुख्यमंत्री बनीं, इन मौकों पर भी दलित वोट ने ही माया की नैया पार लगाई थी. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में ऐसा चमत्कार हुआ कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे समीकरण ही धराशाई हो गए. उस चुनाव में दलितों के साथ ही ब्राह्मणों ने भी मायावती को अपना समर्थन दे दिया और वे चौथी बार अपने दम पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई. इन नतीजों ने राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया था कि, आखिर वे ब्राह्मण, बसपा के साथ कैसे खड़े हो गए जिन्हें मायावती ने एक दौर में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था.

इस चमत्कार की नींव 2007 के विधानसभा चुनावों से साल भर पहले ही पड़ चुकी थी. दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के इस कारगर फार्मूले को ईजाद करने में मायावती के साथ सतीश चंद्र मिश्र नाम के एक ब्राह्मण जोड़ीदार ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी. मिश्र को पार्टी का ब्राह्मण चेहरा बनाकर मायावती ने ब्राहमणों का दिल जीता और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नये गठजोड़ की इबारत लिखी. सतीश चंद्र मिश्र को मायावती की इस सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी का मुख्य कर्ताधर्ता माना जाता है. उन्होंने मायावती के सारथी के रूप में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को हाथी पर मुहर लगाने के लिए प्रेरित किया.

इससे पहले तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी मायावती को तीनों बार दूसरे दलों की बैसाखी से सरकार चलानी पड़ी थी. लिहाजा बसपा ने अपनी पुरानी रणनीति बदलते हुए अपने दम पर सरकार बनाने की योजना तैयार की. जानकारों के मुताबिक इसको लेकर उस दौर में पार्टी के भीतर जोरदार मंथन चला. इसी क्रम में सतीश चंद्र मिश्र ने मायावती के सामने सोशल इंजीनियरिंग का एक फार्मूला रखा, जिसके तहत बसपा के बहुजन वाले कलेवर को सर्वजन वाला रूप दिया जाना था. इस बीच मायावती को इतना तो महसूस हो ही चुका था कि जब तक सर्वसमाज के लोगों की भागीदारी उनकी पार्टी में नहीं होगी, तब तक वे अकेले दम पर पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकती हैं. ऐसे में मिश्र का विचार था कि सबसे पहले उस ब्राह्मण वर्ग का विश्वास जीतना जरूरी है जिसका उत्तर प्रदेश में वोट 11 फीसदी के करीब है. मायावती को यह राय जंच गई और उन्होंने ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ के नारे को बदल कर ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ कर दिया.

सर्वजन फार्मूले को अपनाने के बाद मायावती अपनी अधिकांश रैलियों में सतीश चंद्र मिश्र को अपने साथ ही ले जाती थी़. इससे मिश्र की छवि पार्टी के दूसरे नंबर के नेता की बन गई. ऐसे में पहले कांग्रेस तथा बाद में भाजपा से नाराज चल रहे ब्राह्मण समुदाय ने सत्ता में साझेदारी के लिए बसपा का न्यौता स्वीकार कर लिया. मायावती और मिश्र की इस जोड़ी ने दलितों और सवर्ण जातियों के साथ ऐसा तालमेल बिठाया जिसने पहली बार बसपा को पूर्ण बहुमत दिला दिया. राजनीति के जानकार बताते हैं कि सतीश चंद्र मिश्र अगर मायावती के साथ नहीं होते तो माया को यह बुलंदी शायद ही मिल सकती थी. मिश्र इस बात को भी भली-भांति जानते थे कि राज्य के अधिकतर नौकरशाह सवर्ण जातियों से आते हैं, इसलिए उनके साथ तालमेल बिठाने के लिए सवर्ण नेताओं को साथ लेना जरूरी है. इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे अगड़ी जाति के लोगों को पार्टी में प्रवेश की वकालत की. इसके बाद नीचे से लेकर ऊपर तक फेरबदल करके संगठन का स्वरूप ऐसा बनाया कि पार्टी सिर्फ दलितों की प्रतिनिधि न लगे.

इसी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत पार्टी ने बाद में मुसलमानों को भी तरजीह देने की कोशिश की. हालांकि 2012 तक आते-आते उत्तर प्रदेश की जनता का मायावती से मोहभंग हो गया और विधानसभा चुनाव में उनकी करारी हार हो गई, लेकिन बावजूद इसके सतीश चंद्र मिश्र और उनकी जोड़ी को उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक कामयाब जोड़ी के रूप में ही देखा जाता है, क्योंकि इस जोड़ी ने बसपा को ऐसे वक्त में शिखर पर पहुंचाया था, जब उसके शून्य पर सिमटने का खतरा मौजूद था और उसके सबसे विश्वसनीय चेहरे कांशीराम का अवसान हो चुका था. 2007 में तब कोई भी मायावती की जीत को लेकर इस कदर आशान्वित नहीं था, यहां तक कि अधिकतर मीडिया मायावती को चुनाव से पहले ही खारिज कर चुका था.

नीतीश कुमार और सुशील मोदी

फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे

ज्यादा नहीं, बस बरस भर से थोड़ा ही ज्यादा हुआ होगा, भाजपा से जदयू की कुट्टी होने का समय. बिहार भाजपा के कई  मंझले और निचले दर्जे के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि सुशील मोदी भाजपा के नेता हैं कि जदयू के, यह स्पष्ट करें. ये नेता यूं ही इस तरह की बातें नहीं कर रहे थे. इसके ठोस कारण भी थे. सुशील मोदी सबसे मजबूत ढाल की तरह नीतीश कुमार के साथ रहते थे. जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने का कानाफूसी वाला बयान देना शुरू किया तब जूनियर मोदी यानि सुशील मोदी ही वे नेता थे, जिन्होंने खुलेआम कहा कि नीतीश कुमार भी नरेंद्र मोदी से कोई कम योग्य नेता नहीं हैं. तब यह माना गया कि सुशील मोदी ऐसा इसलिए कह गये, क्योंकि वे आडवाणी के खेमे के आदमी हैं और आडवाणी नीतीश को पसंद करते हैं. लेकिन यह कोई पहला मौका नहीं था. पिछले 17 सालों से भाजपा-जदयू की दोस्ती में पार्टी स्तर पर कार्यकर्ताओं व दूसरे नेताओं का एक-दूसरे से कितना मेल-मिलाप बढ़ा, यह तो साफ-साफ कोई नहीं कह सकता लेकिन यह हर कोई मानता और जानता है कि नीतीश कुमार, सुशील मोदी की जोड़ी फेविकोल के जोड़ जैसी हो चली थी. लालू प्रसाद हमेशा कहा भी करते थे कि सुशील मोदी, नीतीश के अटैची है और कभी-कभी पोसुआ सुग्गा (पालतू तोता) भी कहते थे.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ सुशील मोदी ही नीतीश कुमार का गुणगान करते रहे बल्कि कुछ मौके ऐसे भी आये, जब नीतीश कुमार ने अपनी साख और अपने वोट बैंक तक की परवाह किये बिना मोदी की राह की रुकावटों को डंके की चोट पर और सार्वजनिक तौर पर दूर करने की कोशिश की. इसका एक बड़ा नमूना तीन-चार साल पहले बिहार के फारबिसगंज के भजनपुरा में पुलिस फायरिंग में मारे गये छह अल्पंख्यकों वाले प्रकरण में देखा गया था. कहा जाता है कि भजनपुरा गोलीकांड के बाद नीतीश कुमार ने बिना कोई ठोस कार्रवाई किए गहरी चुप्पी साध ली थी, इसकी एक वजह यह थी कि वह सुशील मोदी के करीबी की फैक्ट्री से जु़ड़ा मामला था.

ऐसे ही कई उदाहरण बिहार की राजनीति में चर्चित दोनों जोड़ियों को लेकर मिलते हैं जिसमें वे एक-दूसरे से दांत-काटी दोस्ती वाला रिश्ता निभाते रहे हैं, एक दूसरे पर जान छिड़कते नजर आये हैं. लेकिन अब जबकि दोनों नेताओं के दलों में अलगाव हो चुका है तो बिहार में एक दूसरे को सबसे ज्यादा निशाने पर लेनेवाले यही दोनों नेता सामने आए हैं. हालांकि नीतीश कुमार अब भी सुशील मोदी को कम ही निशाने पर लेते हैं लेकिन जदयू-भाजपा अलगाव के बाद शायद ही कोई दिन ही ऐसा गुजरता है, जब सुशील मोदी नये-नये तर्कों से लैस होकर नीतीश पर निशाना नहीं साधते हो.

फिलहाल यह जोड़ी एक-दूसरे के विरोध में है और दोनों की पूरी उर्जा अगले साल बिहार में होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव के जरिये सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने में लगी हुई है. समय का फेर देखिए कि दोनों ही पूर्व दोस्तों की राह में रोड़े अटकने शुरू हो  गए हैं. भाजपा में सुशील मोदी सर्वमान्य नेता नहीं हैं तो दूसरी ओर नीतीश कुमार के लिए उनके द्वारा ही चयनित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी मुसीबत बढ़ाते जा रहे हैं. वैसे वर्षों तक एक-दूसरे के साथ रहने के बाद अब मजबूरी में बढ़ी दूरी और अलगाव के बावजूद सुशील मोदी और नीतीश कुमार के बारे में यही कहा जाता है कि दोनों एक दूसरे की पार्टी की बखिया तो रोज उधेड़ते है, राजनीतिक बददुआएं और अभिशाप भी देते हैं लेकिन दोनों दोस्त एक-दूसरे पर निशाना साधने में शालीनता बनाए रखते हैं. यही अनुमान लगाया जा रहा है कि कल को अगर लालू प्रसाद के साथ रहने और साथ मिलकर चुनाव लड़नेवाली शर्त में कभी कोई टूट-फूट होती है, गठबंधन टूटता है तो भाजपा में नीतीश कुमार का स्वागत करने के लिए उनका एक दोस्त हमेशा तैयार है. सुशील मोदी तो गाहे-बगाहे नीतीश कुमार के उस बयान की चर्चा मीडिया में करते रहते हैं जिसमें नीतीश कुमार कहते रहते थे कि जो भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देगा, उसके साथ हो जाएंगे. सुशील मोदी पूछते हैं बिहार को विशेष दर्जा मिल जाने के बाद क्या नीतीश कुमार फिर से भाजपा से यारी कर लेंगे? नीतीश कुमार फिलहाल इन अटकलों पर चुप्पी साधे हुए हैं. माननेवाले यह मानकर चलते हैं कि जब एनसीपी जैसी पार्टियां भाजपा के शरणागत होने को तैयार हैं तो फिर जदयू से क्या बैर हो सकता है, नीतीश कुमार से तो भाजपा का 17 साल लंबा संबंध रहा है.

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार

फोटोः सोनू किशन
फोटोः सोनू किशन

बात दो महीने पहले की है. बिहार में 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के प्रचार का समय था. पटना से सटे हाजीपुर में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की एक सभा थी. वर्षों बाद दोनों नेताओं का एक साथ इस तरह राजनीतिक मंच साझा करने का अवसर था. कौतूहल और उत्सकुता का उफान स्वाभाविक था. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ओबी वैन अहले सुबह से ही पोजिशन लेकर वहां खड़े हो चुके थे. बड़े-बड़े पोस्टरों के जरिये कुछ सप्ताह पहले से ही माहौल को गरमाने की पूरी कोशिश हुई थी लेकिन जिस दिन लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सभा हुई, भीड़ जुट ही नहीं सकी. मुश्किल से भीड़ उतनी ही हो सकी, जितनी एक आम विधायकी का उम्मीदवार बिना किसी बड़े नामचीन नेता के खुद के दम पर जुटा लेता है. लालू नीतीश की सभा में भीड़ का नहीं जुटना तो एक अलग बात रही, सबसे विचित्र तो नीतीश कुमार के चेहरे पर उभरा भाव था. नीतीश कुमार मंच पर लगातार किसी शरमाते, झेंपते हुए बालक की तरह इधर से उधर देखते रहे और पसीने-पसीने होते रहे. लालू प्रसाद अपनी लय  में थे और नीतीश के हाथों को पकड़कर दनादन तसवीरें उतरवा रहे थे. नीतीश कुमार सिर्फ उसी दिन पसीने-पसीने नहीं हुए, जनसभा के बाद जिस दिन विधानसभा उपचुनाव का परिणाम आया और दस में से छह सीटों पर लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन को जीत हासिल हुई उस दिन भी खुशी व्यक्त करने के लिए नीतीश कुमार ने संवाददाता सम्मेलन तो जरूर बुलाया लेकिन उन्होंने सबसे ज्यादा समय इसी बात को बताने में लगा दिया कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के राज को उन्होंने कभी भी जंगलराज नहीं कहा बल्कि भाजपावाले इस शब्द का इस्तेमाल करते थे.

लालू प्रसाद के साथ ही बिहार में सत्ता की राजनीति की शुरुआत करनेवाले नीतीश कुमार लगभग दो दशक बाद फिर से लालू प्रसाद के साथ आए हैं लेकिन साथ आने के बाद भी वे कभी उतने सहज नहीं दिखे हैं जैसी सहजता उनकी स्वाभाविक पहचान हुआ करती थी. नीतीश कुमार का असहज होना स्वाभाविक भी है. लालू प्रसाद के संग सत्ता की सियासत की शुरुआत करने वाले नीतीश कुमार वर्षों मेहनत करने और लालू प्रसाद को बिहार से उखाड़ फेंकने के लिए ही लाल पार्टी से लेकर भगवा पार्टी यानि भाजपा के साथ जाते रहे. आखिरकार 2005 में उन्हें लालू प्रसाद और उनकी पार्टी को बिहार से हटाने में सफलता भी मिली. उसके बाद 2010 के विधानसभा चुनाव में भी लालू प्रसाद के भूत को जिंदा रखकर और फिर से राजद के सत्ता में आने के बाद के खतरों का अहसास कराकर नीतीश कुमार दुबारा सत्ता पाने में कामयाब रहे. लेकिन राजनीतिक हालात के बदलाव और बिहार की राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाये रखने की चुनौती ने ही उन्हें फिर से लालू प्रसाद के साथ ला दिया है. इस राजनीतिक गठजोड़ के बन जाने के बावजूद भी स्थिति अब तक असहज-सी बनी हुई है. मीडिया में लालू प्रसाद को बड़े भाई और नीतीश कुमार को छोटे भाई का उपनाम हमेशा से दिया जाता रहा है. यह भी कहा जाता रहा है कि एक जमाने में नीतीश कुमार ही लालू प्रसाद के चाणक्य हुआ करते थे. लेकिन ये दोनों ही नेता इन उपनामों और विशेषणों को लगातार खारिज करते रहे हैं. नीतीश कुमार के नजदीकी लोग कहते हैं कि जबर्दस्ती मीडिया लालू प्रसाद को बड़ा भाई कहती है और नीतीश को छोटा भाई. दूसरी तरफ लालू प्रसाद खुद मौके-बेमौके कहते रहे हैं कि नीतीश को हमने राजनीति सिखाई है, वे कभी हमारे चाणक्य नहीं रहे.

समाजवादी पाठशाला से राजनीति सीखकर कभी जिगरी दोस्त रहने के बाद दो दशक तक जानी-दुश्मन की तरह रहे बिहार के इन दोनों कद्दावर नेताओं की जोड़ी एक बार फिर से अस्तित्व में है

एक ही समाजवादी पाठशाला से राजनीति का ककहरा सीखकर कभी जिगरी दोस्त रहने के बाद लगभग दो दशक तक राजनीति में जानी-दुश्मन की तरह रहे बिहार के इन दोनों कद्दावर नेताओं की जोड़ी एक बार फिर से अस्तित्व में है. लेकिन राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए बनी यह जोड़ी कितने दिनों तक चलेगी, यह कह सकने की स्थिति में दोनों ही दल अभी भी नहीं हैं. दोनों के संग आ जाने का एक साफ फायदा तो यह दिख रहा है, जिसे लालू प्रसाद भी मूल मंत्र की तरह दुहराते रहे हैं, कि पिछड़ों, दलितों व मुसलिमों का वोट एक साथ जुड़ जाएगा तो बिहार की सियासत में इसके सामने खड़े किसी भी गठबंधन को धूल चटाना बहुत आसान हो जाएगा. वोट के इस समीकरण को लेकर लालू प्रसाद सबसे ज्यादा आश्वस्त रहते हैं और इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने यह भी बार-बार दुहराया है कि मंडलवादी ताकतों के एक हो जाने से कमंडलवादी ताकतों की हार तय है. सैद्धांतिक तौर पर लालू-नीतीश की जोड़ी को एक आधार देने के लिए यह फार्मूला तो सही लगता है लेकिन नीतीश कुमार और उनके लोग जानते हैं कि पिछले दो दशक में नदी का पानी भी ठहरा हुआ नहीं है. दो दशक पहले नीतीश कुमार, लालू प्रसाद का ही साथ छोड़कर आये थे और अपनी पूरी सियासी पहचान भी लालू प्रसाद के विरोध के जरिये ही बना सके हैं. दस सीटों के उपचुनाव में जोड़ी बनाकर और उसके जरिये समीकरण को उभारकर छह सीटों पर कब्जा जमाना तो अलग बात रही है लेकिन अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में इस जोड़ी का जलवा भी इसी तरह चलेगा और उसके नतीजे भी इतने ही सकारात्मक फल देंगे, इसे लेकर कोई आश्वस्त नहीं है. वजह भी साफ है. मंडल के इस समीकरण को मात देने के लिए भाजपा अपने साथ उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान जैसे नेता को जोड़ चुकी है. बिहार भाजपा में पिछड़े समुदाय से आने वाले नेताओं की एक लंबी सूची तैयार है. भाजपा के पास सबसे ताकतवर नेता नरेंद्र मोदी तो है हीं, जिन्हें बिहार भाजपा के नेता बार-बार अपनी सहूलियत के अनुसार बिहारी लोकमानस में स्थापित करने की कोशिश करते हैं. बिहार के भाजपाई, सवर्णों के बीच मोदी को करिश्माई नेता के तौर पर तो पिछड़ों के बीच पिछड़ा समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं. इस बीच अपने लिए एक और मुसीबत खुद नीतीश कुमार ने ही खड़ी कर ली है. महादलितों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था और मांझी खुद की आकांक्षाओं से घिरे हुए नजर आते हैं. मांझी की इस कोशिश में लालू-नीतीश की बनी-बनाई जोड़ी पर पानी फिरने की पूरी संभावना पैदा हो चुकी है.