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अभियानों के अभियान पर

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प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का पिछले पांच महीने का कार्यकाल भारतीय इतिहास के किसी भी दूसरे प्रधानमंत्री से ज्यादा सक्रिय और जीवंत रहा है. इन चंद महीनों में मोदी ने एक ऐसे व्यक्तित्व से देश का साक्षात्कार करवाया है जो अपनी से आधी उम्र के लोगों से भी ज्यादा सक्रिय रहता है, जो रोज कुछ न कुछ नया करने कि कोशिश करता है, जिसके मस्तिष्क में नई-नई योजनाओं की भरमार है, जिसके बारे में धारणा है कि वह कभी थकता नहीं है. यह प्रधानमंत्री इस बात को लेकर भी चैतन्य रहता है कि किसी नेता या शख्सियत से मुलाकात होने के बाद कौन सी फोटो मीडिया में जारी हो. जिसके लिए हर कार्यक्रम एक उत्सव है, एक आयोजन है और उसकी सफलता में कोई कमी उसे मंजूर नहीं. जिसकी हर कोशिश इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की भावना से की गई जान पड़ती है. जिसकी मार्केटिंग रणनीति को देखकर बड़े-बड़े एमबीएधारी भी बगलें झांकने को मजबूर हो जाते हैं. मोदी खुद को देश का प्रधान सेवक बताते हैं जबकि उनके आलोचक उन्हें सबसे बड़ा सेल्समैन बताते हैं. उनके बारे में सोशल मीडिया पर एक मजाक आजकल ट्रेंड कर रहा है कि उनके पैदा होने के बाद डॉक्टर ने कहा, ‘मुबारक हो मित्रों आईडिया हुआ है.’

अपने पांच महीने के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई कारणों से सुर्खियां बटोरी. इस दौरान उन्होंने बहुत कुछ ऐसा किया जिसे नवाचार कहा जा सकता है. यानी ऐसी चीजें जो या तो पहले नहीं हुईं थीं या उस रूप में नहीं की गईं थीं जिस रूप में मोदी ने उन्हें किया है. मोदी के ऐसे नए प्रयोगों की लिस्ट बहुत लंबी है. इन योजनाओं में कितनी संभावनाएं हैं, क्या ये योजनाएं वास्तव में किसी बड़े बदलाव की नींव तैयार कर रही हैं, या फिर ये योजनाएं और अभियान भी अतीत में बनाई गई तमाम योजनाओं की भीड़ का हिस्सा भर हैं. इनकी उपयोगिता क्या है और सफलता की क्या उम्मीद है, इनमें कितनी मौलिकता और कितनी नकल है? इन तमाम सवालों की पड़ताल इस लेख में करने की कोशिश की गई है.

‘जहां बड़ों की सुनवाई नहीं है वहां प्रधानमंत्री बच्चों से कहां बात करता है. यह संवाद बहुत जरूरी था. बच्चों से संवाद का सिलसिला रुकना नहीं चाहिए’

राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

बचपन में आप और हम जैसे देश के लगभग अधिकांश बच्चों के पास तीन चाचा हुआ करते थे. एक तो वे जो रिश्ते के चाचा थे, दूसरे चाचा चौधरी और तीसरे जवाहर लाल नेहरू. ये जो तीसरे व्यक्ति हैं उनके बारे में स्कूल में ही रटाया जाता था कि फलाना फोटो में जैकेट पहने, टोपी लगाए और शेरवानी में गुलाब खोंसे जो व्यक्ति हैं वे चाचा नेहरू हैं. बताया जाता था कि उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था. जिनका सीधे तौर पर उनसे संपर्क हुआ था वे तो उन्हें चाचा मानते ही थे ही लेकिन जिन्होंने उन्हें सिर्फ तस्वीरों में देखा था वे भी नेहरु जी को चाचा ही कहा करते थे. अब ये चाचा वाली छवि खुद ब खुद बन गई या सोच-विचार कर बनाई गई इसके बारे में तो उस दौर के लोग ही बताएंगे लेकिन नेहरू की मृत्यु के बाद देश को फिर कोई ‘पॉलिटिकल’ चाचा नहीं मिला. अलग-अलग राज्यों ने इस दौरान मुख्यमंत्री के रूप में मामा और ताऊ जरूर देखे लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में बच्चों से संवाद साधने या रिश्ता बनाने की कहानी नेहरू के बाद कभी सुनने को नहीं मिली.

इस टूटे हुए तार को हाल ही में एक दूसरे प्रधानमंत्री ने फिर से जोड़ने की कोशिश की. बच्चों और देश के प्रधानमंत्री के बीच संवाद के रिश्ते को नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर से बहाल किया है. लेकिन उनकी भूमिका बिल्कुल बदली हुई थी. नेहरू जहां बच्चों के चाचा बने थे वहीं मोदी उनके शिक्षक के रूप में उनसे मिले. पांच सितंबर यानी शिक्षक दिवस के अवसर पर देश के सभी स्कूलों को यह निर्देश दिया गया था, जिसे बाद में सलाह बताया गया, कि कक्षा एक से लेकर बारहवीं तक के सभी स्कूलों में उस दिन छात्र-छात्राओं को नरेंद्र मोदी का भाषण लाइव सुनाया जाए. स्थिति यह थी कि जिस देश के एक बड़े हिस्से में आज भी कई स्कूलों को छत नसीब नहीं है, कहीं शिक्षक नहीं हैं तो कहीं बैठने की जगह नहीं है, उस देश में एक दिन, एक ही समय पर टीवी या रेडियो के माध्यम से प्रधानमंत्री का भाषण बच्चों तक पहुंचाना था जो कि असंभव के आसपास की चीज थी. खैर दिल्ली में बैठे हाकिमों ने चाबुक फटकारा तो जो अधिकारी सालों से स्कूलों की दुर्दशा जानने समझने के बाद भी हाथ पर हाथ धरे बैठे थे वो अचानक से काम में लग गए. इस दौरान ऐसी कई तस्वीरें आईं जहां नाव पर लोग टीवी रखकर ले जाते दिखे. कई स्कूलों में जहां बिजली नहीं थी वहां जनरेटर या बैट्री की व्यवस्था की गई. आखिरकार कार्यक्रम के दिन दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों को संबोधित किया. जिसे तमाम स्कूलों में बच्चों ने सुना. देश के कई दूर दराज के इलाके जैसे बस्तर, लेह, मणिपुर आदि से बच्चों के प्रधानमंत्री से सीधे प्रश्न करने की व्यवस्था की गई थी. बच्चों ने प्रश्न पूछा और उन्होंने जवाब दिया.

इस पूरे कार्यक्रम से मोदी ने उस तबके तक पहुंचने में सफलता पाई जो किसी भी राजनीतिक दल की प्राथामिकता या टार्गेट में नहीं है. पिछले लंबे समय से किसी राजनीतिक दल या नेता ने बच्चों से संवाद करने की जरूरत नहीं समझी थी. बच्चे चूंकि वोट नहीं देते इसलिए वे किसी संवाद का हिस्सा नहीं रहे. ऐसे में प्रधानमंत्री की इस पहल को कई लोगों ने सराहनीय कदम बताया.

आंकड़े बताते हैं कि देवालय से पहले शौचालय का नारा देनेवाले नरेंद्र मोदी के गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं था

हालांकि मोदी के स्कूली बच्चों से उस दिन के संवाद को अगर ध्यान से देखें तो यह भी पता चलता है कि कैसे प्रश्नों से लेकर तमाम चीजें पहले से ही तय थीं और सब कुछ एक तय स्क्रिप्ट के हिसाब से हुआ. लेकिन घंटे-भर से अधिक के संवाद में ऐसे हिस्सों की भी कमी नहीं थी जहां एक समय के बाद बच्चे मोदी से बातचीत करने में काफी सहज नजर आए वहीं नरेंद्र मोदी ने भी शुरूआती गंभीरता और हिचक के बाद बच्चों से खुलकर हंसी-ठिठोली की.

इस एक दिन के मेल-मिलाप, जिसमें काफी कुछ पूर्वनिर्धारित था, को किसी बड़े बदलाव की शुरुआत मानना जल्दबाजी होगी लेकिन कई लोग इसे एक सकारात्मक शुरुआत के तौर पर देखते हैं. इलाहाबाद के प्रयाग स्कूल के प्रिंसिपल शारदा प्रसाद कहते हैं, ‘देखिए जिस व्यवस्था में बड़ों की सुनवाई नहीं है वहां देश का प्रधानमंत्री स्कूली बच्चों से कहां बात करता है. इस कार्यक्रम ने बच्चों से संवाद के प्रश्न को बेहद मजबूती के साथ रेखांकित किया है. हां ये सिलसिला बंद नहीं होना चाहिए.’

बच्चों पर इस संवाद का क्या असर पड़ा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. बिहार के नवादा जिले के एक प्राइमरी स्कूल में एक छात्र ने शिक्षक के दो दिन से गैरहाजिर रहने का कारण पूछा तो शिक्षक ने उसे पीट दिया. रोता हुआ छात्र शिक्षक के सामने ये कहते हुए चिल्ला उठा, ‘मैं आपकी शिकायत नमो (नरेंद्र मोदी) से करुंगा. उनसे कहूंगा की आप स्कूल में देर से आते हैं, पढ़ाते नहीं हैं और हम लोगों को मारते हैं.’ एक बच्चे को अपनी शिकायत के लिए अपना घर, परिवार, रिश्तेदार कोई काम का नहीं नजर आया, उसे नरेंद्र मोदी की याद आई. यह घटना कई बातें खुद ब खुद बयान करती है.

चतुर चाल दिवाली के मौके पर सियाचिन में सैनिकों के साथ मुलाकात करके प्रधानमंत्री ने एक नई शुरुआत की है
चतुर चाल दिवाली के मौके पर सियाचिन में सैनिकों के साथ मुलाकात करके प्रधानमंत्री ने एक नई शुरुआत की है

स्वच्छ भारत अभियान

इसे देखने के कई तरीके हो सकते हैं.  कुछ लोगों के लिए यह बेकार की कवायद हो सकती ह,ै तो कुछ लोग यह भी मान सकते हैं कि जब जागो तभी सवेरा. कुछ दिन पहले अखबारों में एक खबर आई कि रेलवे के अधिकारियों में इन दिनों एक होड़ लगी हुई है. सेवा और साफ सफाई करने की होड़. हुआ यह कि रेलवे अधिकारियों ने प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से प्रेरित होकर रेलवे के प्लेटफॉर्मों को गोद लेना शुरू कर दिया. मकसद यह था कि गोद लेकर प्लेटफॉर्म की साफ सफाई अच्छी तरह की जा सके. कहनेवाले कहेंगे कि सफाई प्रेमी ये अधिकारी आज तक कहां थे. क्या मोदी के कहने से पहले उन्हें नहीं पता था कि देश के रेलवे स्टेशन गंदे स्थानों में सबसे ऊपर हैं.

गांधी जयंती के अवसर पर शुरु हुए स्वच्छता अभियान के तहत कथित तौर पर प्रधानमंत्री का सपना महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के सपने को पूरा करना है. इस स्वच्छता अभियान में जहां पूरी सरकार और उसके अधिकारियों से लेकर विभिन्न क्षेत्रों के तमाम सितारे शामिल हुए वहीं ऐसे लोग भी इस अभियान का हिस्सा बने जिन्हें न तो सरकार की तरफ से ऐसा करने को कहा गया था और न ही वे किसी तरह से राजनीति से जुड़े हैं. आम लोगों की झाडू लगाने वाली तस्वीरों से फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया भर उठा. जगह-जगह से लोग प्रधानमंत्री के नारे पर झाड़ू लेकर घर के बाहर निकल गए.

तमाम लोग हैं जो मानते हैं कि प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के कारण लोगों में साफ-सफाई को लेकर जागरूकता आई है. एक धारणा प्रबल हुई है कि साफ सफाई सिर्फ एक तबके की या सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है. देश का प्रधानमंत्री झाड़ू लगा रहा है तो कोई भी लगा सकता है. इस तरह मोदी ने अपने इस अभियान से साफ सफाई को एक किस्म की अभिजात्यता दे दी है. जो वर्ग झाड़ू जैसी चीजों को पकड़ने की कल्पना भी नहीं करता था उसे भी झाड़ू के साथ सेल्फी खींचने में गर्व का अनुभव होने लगा है.

हालांकि इस अभियान की गंभीरता और प्रतीकात्मकता को लेकर भी हाल में खूब बहस हुई है. हाल ही में एक ऐसी घटना भी सामने आई जहां स्वच्छता के नाम पर पहले पत्ते फैलाये गए और फिर उन्हें झाड़ू से साफ करने की रस्म निभाई गई. नेताओं द्वारा की जा रही सफाई की ऐसी हास्यास्पद तस्वीरों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है. ऐसे और भी उदाहरण होंगे जो सामने नहीं आएं हैं.

स्वच्छता अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस के दौर पर पहुंचे प्रधानमंत्री वहां लोगों को अपनी प्रिय योजना का संदेश देना नहीं भूले
स्वच्छता अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस के दौर पर पहुंचे प्रधानमंत्री वहां लोगों को अपनी प्रिय योजना का संदेश देना नहीं भूले

प्रधानमंत्री का देश को स्वच्छ बनाने का जो दावा है उस पर कुछ लोग उनके अतीत के प्रदर्शन को देखते हुए प्रश्नचिन्ह लगाते हैं. आंकड़े बताते हैं कि देवालय से पहले शौचालय का नारा देनेवाले नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत और भी बदतर है. वहां 67 फीसदी घर शौचालय की सुविधा से वंचित हैं. गुजरात में आज भी 2,500 से अधिक परिवार सिर पर मैला ढोने के लिए अभिशप्त हैं.

कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर मोदी सरकार के इस अभियान की आलोचना करते हुए लिखते हैं, ‘ हमारे पास पहले से ही निर्मल भारत अभियान है, जिसे मोदी ने पूरी तरह से हड़प लिया है. इस तरह कांग्रेस की ही पुरानी बोतल पर बस भगवा लेबल चस्पां कर स्वच्छता अभियान का नाम दे दिया गया है. निर्मल भारत अभियान से पहले वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार ने संपूर्ण सफाई अभियान चलाया था ,लेकिन हमारे मोदी जी अपनी ही पार्टी के पूर्ववर्ती कार्यक्रमों को हड़पने में भी संकोच नहीं करते. कार्यक्रमों का इस तरह हड़पा जाना भी बर्दाश्त किया जा सकता है बशर्ते मोदी कम से कम निर्मल भारत अभियान तथा संपूर्ण सफाई अभियान के बारे में सोचने तथा उन्हें लागू करने के पीछे लगी अथक मेहनत तथा अतीत में उनमें रह गई खामियों का अध्ययन कर लें कि इस अभियान के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कौन से नए उपाय किए जाने चाहिए. उनके पास इनके विस्तार में जाने का समय ही नहीं है. वह जिस बात पर ध्यान देते हैं, वह है उनकी जैकेट का रंग, जो किसी फैशन मॉडल के लिए तारीफ की बात हो सकती है लेकिन किसी प्रधानमंत्री के लिए यह निंदनीय है’.

अय्यर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘अगर मोदी संकीर्ण सोच से इतर कहीं भी आगे बढ़ रहे होते तो वह ‘ब्रांड एम्बैसेडर’ के रूप में फिल्म अभिनेताओं और एजेंटों के रूप में काम कर रहे कांग्रेसियों को नहीं तलाश करते, बल्कि स्वच्छता के क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों से बात करते. उनकी राय जानते. ताकि यह समझा जा सके कि हमारे पास पहले से मौजूद सफाई कार्यक्रमों में अब तक क्या-क्या सही हुआ है, क्या-क्या गलत हुआ है और अपनी रणनीति को सही दिशा में लाने के लिए क्या-क्या करने की ज़रूरत है.’

बहुत से लोगों का मानना है कि जहां देश में सफाई कर्मचारियों की जिंदगी खुद बहुत बुरी स्थिति में है, उनकी स्थिति सुधारने के लिए सरकार के पास कोई योजना भी नहीं दिखती है. ऐसे में ये अभियान फोटो खिंचवाने से आगे कहां तक जा सकते हैं?

स्मार्ट सिटी के नाम पर इंदिरा गांधी हवाई अड्डे के टीथ्री टर्मिनल और रिलायंस कंपनी द्वारा संचालित मुंबई मेट्रो की याद आती है जहां बारिश हर साल खेल दिखाती है

मेक इन इंडिया

15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए पहली बार प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया का नारा दिया था. मेक इन इंडिया से मोदी का आशय तमाम छोटी-बड़ी, देशी-विदेशी कंपनियों को भारत के निर्माण उद्योग में निवेश करने के लिए प्रेरित करना है. उनकी इच्छा कुछ-कुछ उसी तर्ज पर निवेश लाने की है जैसा चीन में विश्व की नामचीन कंपनियों ने किया है. आज तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों पर ‘मेड इन चाइना’ का लेबल मिलता है. इस तरह से मोदी का मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया के सपने को सच करने के लिए उठाया गया पहला कदम कहा जा सकता है. कई मायनों में यह एक महत्वाकांक्षी और दूरदर्शी योजना भी है.

ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी सरकार ने निवेश के लिए प्रयास नहीं किए थे. विभिन्न सरकारों ने इस दिशा में काम किया है. लेकिन मोदी का मेक इन इंडिया इस मायने में अलग है कि इसकी मार्केंटिंग बेहद आक्रामक है. मोदी ने एक टर्म ईजाद किया मेक इन इंडिया. ये संभव है कि इस टर्म के बाद भी भारत में निवेश उतना ही हो जितना पिछली सरकारों में हुआ था लेकिन माहौल बनाने में मोदी कोई कमी नहीं रखना चाहते. भाजपा से मोहभंग की हालत में चल रहे एक नेता कहते हैं, ‘मोदी छोटा कुछ करते नहीं. काम अगर छोटा भी होता है तो वे मार्केटिंग के जरिए उसे बड़ा बना देते हैं.’

इसे आप उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में शुरू की गई योजनाओं से भी समझ सकते हैं. जैसे पूरे देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने निवेश आकर्षित करने के लिए हर साल इनवेस्टर्स मीट आयोजित करने शुरु किए वैसे ही गुजरात ने भी एक आयोजन शुरू किया था. वहां देश-विदेश के तमाम उद्योगपति आते हैं. गुजरात में भी निवेश सम्मेलन आयोजित होता था लेकिन उसकी पैकेजिंग और तौर-तरीका अलग था. बाकी राज्य इनवेस्टर्स मीट कराते थे लेकिन मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ कराते थे. इतने बड़े पैमाने पर उसकी मार्केंटिग होती थी कि देश का प्रधानमंत्री भी ऐसे कार्यक्रमों से कतराने लगे. हालांकि इस भड़कीले कार्यक्रम की हकीकत कुछ और भी थी. पता चलता था कि वाइब्रेंट गुजरात में आए निवेशकों ने निवेश का वादा तो सागर भर का किया था लेकिन अंत में गागर भर ही निवेश हुआ. जैसे 2005 के आयोजन में यह दावा किया गया कि इसमें 1.06 लाख करोड़ रुपये के निवेश के लिए सहमति बनी है. लेकिन आरटीआई से मिली जानकारी ने बताया कि कि इसमें से सिर्फ 23.52 फीसदी यानी 24,998 करोड़ रुपये का निवेश ही हुआ. खुद गुजरात सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2003 से लेकर अब तक वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में जितने निवेश की घोषणा हुई है उसका सिर्फ 6.13 फीसदी असल में निवेश हो पाया है. लेकिन फिर भी मोदी पूरे आत्मविश्वास से वाइब्रेंट गुजरात की सफलता के किस्से सुनाते रहते हैं.

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जानकार मेक इन इंडिया को भी वाइब्रेंट गुजरात के तर्ज की ही एक योजना के रूप में देखते हैं. यह भव्य है, इसकी माकेंर्टिंग और पैकेजिंग में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी गई है. लेकिन इस मेक इन इंडिया के तहत देश का कितना निर्माण होता है इस पर कई तरह के किंतु-परंतु हैं.

जिस मेक इन इंडिया को लेकर मोदी सातवें आसमान पर हैं और चाहते हैं कि पूरी कायनात उसे सफल बनाने में उनका साथ दंे, उस मेक इन इंडिया को उनकी मातृ संस्था आरएसएस ही लाल झंडा दिखा रही है. हाल ही में एक बयान जारी कर संघ के आनुषंगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने मेक इन इंडिया को देश के लिए आत्मघाती कदम ठहराया. मंच के अखिल भारतीय सह संयोजक भगवती प्रकाश शर्मा के मुताबिक मेक इन इंडिया बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सामान आयात करने जैसा है. यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक होगा. उनके अनुसार देश को मेक इन इंडिया नहीं बल्कि मेक बाई इंडिया की जरूरत है.

अपनी महत्वाकांक्षी योजना की राह आसान करने के लिए प्रधानमंत्री ने श्रम कानून में बड़े बदलाव की शुरुआत की है. इसका नाम उन्होंने श्रमेव जयते दिया है. इसकी भी विभिन्न हलकों में काफी आलोचना हो रही है. श्रमेव जयते पर सवाल उठाने का सबसे पहला काम खुद संघ ने ही किया. भारतीय मजदूर संघ के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय कहते हैं, ‘मजदूरों से जुड़ा फैसला करते समय प्रधानमंत्री ने मजदूर संगठनों से ही कोई बात नहीं की, यहां तक की मजदूर संघ से भी नहीं. ऐसा लगता है कि औद्योगिक घरानों के हित साधने के लिए मोदी सरकार रास्ता बना रही है.’

मेक इन इंडिया भी वाइब्रेंट गुजरात के तर्ज की योजना हैं. यह भव्य है, इसकी पैकेजिंग शानदार है लेकिन इसकी राष्ट्रनिर्माण की क्षमता साबित होना बाकी है

संघ के अलावा भी अन्य कई हिस्सों से मेक इन इंडिया के विचार और उसके लिए किए जा रहे श्रम सुधारों की आलोचना हो रही है. उद्योगपतियों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने, मजदूरों के मानवाधिकारों के साथ खिलवाड़ करने से लेकर पूंजीपतियों के फायदे के लिए कुछ भी कर गुजरने के आरोप लगाए जा रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार इसे कुछ इस तरह बयान करते हैं, ‘आपने कहा कि कम मेक इन इंडिया यानी विदेशी कंपनियों आओ अपना माल भारत में बनाओ, यह काम तो अमीर देशों की कंपनियां दसियों सालों से कर रही हैं, यह मुनाफाखोर कंपनियां उन्हीं देशों में अपने कारखानें खोलती हैं जहां उन्हें सस्ते मजदूर मिल सकें और पर्यावरण बिगाड़ने पर सरकारें उन्हें रोक न सकें.’

सांसद आदर्श ग्राम योजना

मोदी के नवाचारों में सांसद आदर्श ग्राम योजना भी एक महत्वपूर्ण कदम है. इस योजना के अनुसार देश का हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के एक गांव को गोद लेगा और उसे अगले एक साल में आदर्श गांव के रूप में विकसित करेगा. मोदी के मुताबिक यह विकास आपूर्ति पर आधारित मॉडल की बजाय मांग और जरूरत तथा जनता की भागीदारी पर आधारित होगा. योजना के तहत गांवों में बुनियादी और संस्थागत ढांचा विकसित किया जाएगा, साफ-सफाई रखी जाएगी और वहां शांति-सौहार्द के साथ लैंगिक समानता और सोशल जस्टिस पर जोर दिया जाएगा. प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘हमारे देश में हर राज्य में 5-10 ऐसे गांव जरूर हैं जिसके विषय में हम गर्व कर सकते हैं. उस गांव में प्रवेश करते ही एक अलग अनुभूति होती है. हमें ऐसे बहुत सारे गांव बनाने हैं.’

इस योजना के अनुसार 2016 तक प्रत्येक सांसद एक गांव को विकसित करेगाे और 2019 तक दो और गांवों का विकास होगा. प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर राज्य सरकारें भी विधायकों को इस योजना के लिए काम करने को प्रोत्साहित करें तो इसी समय सीमा में जिले के 5 से 6 और गांवों को विकसित बनाया जा सकता है.

इस योजना पर लोग दो सवाल उठाते हैं. पहला यह कि क्या देश-भर में मुट्ठीभर गांवों के आदर्श बन जाने से देश के सारे गांव आदर्श हो जाएंगे. और दूसरा यह कि क्या ये सिर्फ प्रचार पाने का तरीका नहीं है कि हम आदर्श ग्राम बनाने जा रहे हैं. क्योंकि गांवों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की दर्जनों योजनाएं पहले से गांवों में काम कर रही हैं. गांवों को आदर्श बनाने के लिए जब पहले से ही इतनी योजनाएं हैं तब यह योजना उन योजनाओं की संख्या में एक और वृद्धि भर नहीं है?

प्रधानमंत्री अपनी जनता से सीधे ‘मन की बात’ कह रहा है. वह चिट्ठियों के माध्यम से दूर-दराज के क्षेत्रों से भेजे गए लोगों के सवालों का जवाब भी देता है

स्मार्ट सिटी

एक तरफ जहां मोदी गांवों को आदर्श बनाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ देश में 100 स्मार्ट शहरों को बसाने का सपना भी देख रहे हैं. सरकार का कहना है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत जिन शहरी इलाकों को शामिल किया जाएगा वहां 24 घंटे बिजली और पानी की व्यवस्था होगी, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं होंगी, साइबर कनेक्टिविटी और ई-गवर्नेन्स की सुविधा होगी, हाईटेक ट्रांसपोर्ट नेटवर्क बहाल किया जाएगा और सीवर और कचरा निबटान का सौ फीसदी इंतजाम होगा.

मोदी के स्मार्ट शहर की योजना जमीन पर कब और कैसे आकार लेगी यह तो समय बताएगा लेकिन इसको लेकर अभी से दो हिस्से हो चुके हैं. एक तबका इसको लेकर बहुत आशान्वित है तो वहीं दूसरा इसे लेबल बदलने से ज्यादा नहीं मानता. शहरी विकास मंत्रालय के पूर्व अधिकारी ए.एस वासुदेव कहते हैं, ‘ देखिए तमाम योजनाओं के बाद भी शहरों का क्या हाल है यह हमारे सामने है. वजह ये है कि हम हवा में शहर खड़ा करने की सोचते हैं. नए शहर के लिए सबसे जरूरी है इंफ्रास्ट्रक्चर, उसमें हम कोई निवेश ही नहीं करते. यह ऐसा ही है कि आप भैंस को चारा-पानी न दें लेकिन दूध निकालने के लिए घर के सारे बर्तन लेकर पहुंच जाएं. अभी तो हम सिटी बनाने से ही दूर हैं. स्मार्ट सिटी तो कल्पना की बात है. खाली मार्केटिंग से न तो शहर बनते हैं न ही वो स्मार्ट हो जाते हैं.’

स्मार्ट सिटी पर चर्चा करते हुए देश के कुछ स्मार्ट कंस्ट्रक्शंस की बरबस याद आ जाती है. मसलन इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पिछले दो साल से टीथ्री नाम का टर्मिनल बारिश के मौसम में पानी में डूब जाता है. यात्री तैराकी करते हुए अंदर-बाहर आते-जाते हैं. दूसरी घटना हाल ही की है जब रिलायंस कंपनी द्वारा संचालित मुंबई मेट्रो में बारिश के समय चलती मेट्रो की छत से पानी बरसने लगा. ये उदाहरण प्रासंगिक इसलिए हैं क्योंकि ये दोनों ही प्रोजेक्ट हमारी चरम स्मार्टनेस का प्रतीक रहे हैं. इन पर खूब धन और मन खर्च हुआ है. इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा तो कॉमनवेल्थ खेलों के समय विशेष रूप से तैयार किया गया था. ऐसे ही कॉमनवेल्थ खेलों के समय बने पूल और मकान भी हैं जिनमें टूट-फूट की खबरें आए दिन आ रही हैं. ऐसे में स्मार्ट सिटी का विचार किस रूप में सामने आता है यह देखना दिलचस्प होगा.

जनता और सरकार के बीच मौजूद खाई को खत्म करने के लिए एक पुल बनाए जाने की आवश्यकता है. उसी का परिणाम है माईगवडॉटइन नामक वेबसाइट

मन की बात

मोदी के नए-नवेले विचारों की श्रृंखला में मन की बात एक अहम शुरुआत है. पिछले कुछ समय में जिस तरह से लोक और तंत्र के बीच दूरियां बढ़ती गई हैं, सत्ता का समाज से संवाद खत्म होता गया है उस रौशनी में इसे देखें तो यह एक अच्छी शुरुआत जान पड़ती है. पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि वे बोलते नहीं थे. सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह का मजाक बनाते तमाम पोस्ट इसकी गवाही देते हैं. हमारे यहां स्थिति कुछ ऐसी है कि प्रधानमंत्री कुछ करें या न करें लेकिन वो चुप नहीं रहने चाहिए. इस देश का मिजाज ऐसा है कि उसे चुप रहनेवाले रास नहीं आते. यहां कहा भी जाता है कि बात करने से बहुत सारी चिंताएं और समस्याएं दूर हो जाती हैं. इतिहास में जाकर देखें तो पता चलता है कि कैसे जनता ने उन नेताओं को सर पर उठाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी जो बात करते थे, मिलते-जुलते थे, हालचाल पूछते थे. ऐसे नेता जमीनी स्तर पर बिना कुछ खास किए लंबे समय तक लोगों के दिल में राज कर सके. इस कड़ी में सबसे बड़ा उदाहरण जवाहरलाल नेहरू का है जिनके बारे में कहा जाता है कि वे जिस अधिकार के साथ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और महारानी से संवाद करते थे उसी सहजता के साथ देश की ज्यादातर अशिक्षित जनता के साथ भी घुलमिल जाते थे.

काफी लंबे समय से जनता और नेता के बीच का यह संवाद गायब था. मोदी ने इस टूटी हुई कड़ी को फिर से जोड़ने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने बेहद जन लोकप्रिय माध्यम रेडियो को चुना है. मोदी ने तय किया है कि वो महीने में दो बार रेडियो के माध्यम से जनता को संबोधित करेंगे. जनता से हो रहे इस एकतरफा संवाद में कोई ऐसी खास बात नहीं है जो मोदी अपनी सभाओं और दूसरी जगहों पर नहीं कहते हों. इसका महत्व इस बात में छिपा है कि देश का प्रधानमंत्री अपने देश के लोगों से सीधे ‘मन की बात’ कह रहा है. वह चिट्ठियों के माध्यम से देश के दूर-दराज से भेजे गए लोगों के सवालों का जवाब भी देता है. मोदी के लिए मन की बात जनता तक पहुंचने के साधनों का विस्तार है. वो जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हर उस माध्यम का प्रयोग कर रहे हैं जो अस्तित्व में है.

रन फॉर यूनिटी

देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को इस साल से मोदी सरकार ने एकता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है. कांग्रेसी रहे पटेल की मोदी तमाम अवसरों पर तारीफ करते रहे हैं. उन्हें जानबूझकर या अनजाने में गांधी और नेहरू के बराबर या उनसे बड़ा बनाकर खड़ा करते रहे हैं. अगर हम ध्यान दें तो पिछले कुछ सालों में दो पुराने नेता बड़ी तेजी से चर्चा के केंद्र में आए हैं. एक भीमराव अंबेडकर और दूसरे सरदार पटेल. सियासत की जमीन पर तेजी से दौड़ रहे नरेंद्र मोदी ने उस तबके को रन फॉर यूनिटी के जरिए आकर्षित किया है जिसके मन में बहुत गहरे तक यह बात बैठी है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ न्याय नहीं किया. यह वो तबका है जो मानता है कि नेहरु की जगह यदि पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो तस्वीर कुछ और होती. देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इस तरह की शिकायत करते हुए मिल जाएंगे कि कैसे पटेल की जयंती और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ‘बलिदान’ दिवस एक ही दिन पड़ने के बावजूद कांग्रेस इंदिरा के योगदानों पर तो चर्चा करती है लेकिन पटेल का जिक्र तक नहीं आता. एकतरफ अखबारों में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा के आशय वाले विज्ञापन छपते हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी में पटेल को उनके कामों के माध्यम से याद करने का प्रयास तक नहीं दिखता. कुछ लोग इसे कांग्रेस की बौद्धिक बेईमानी बताते हुए पटेल के जन्मदिन को एकता दिवस के रूप में मनाए जाने की तारीफ करते हैं. इतिहास के प्राध्यापक रहे निर्मल कोठारी कहते हैं, ‘इतिहास में मिट्टी डालने और खोदने का काम चलता रहता है. कांग्रेस ने जिस पटेल पर मिट्टी डाली थी उन्हें मोदी ने खोद निकाला है. धीरे-धीरे आप देखेंगे वो कांग्रेस के हर उस नेता को ढूंढ निकालेंगे जिन्हें जनमानस में बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने कोई प्रयास नहीं किया. इतिहास अपने आप को इसी तरह दुरुस्त करता है.’

प्रधानमंत्री जन-धन योजना

पिछले पांच महीने में मोदी की तूफानी तेजी ने एक और योजना को जन्म दिया है. नाम है प्रधानमंत्री जन धन योजना. प्रधानमंत्री ने 68वें स्वाधीनता दिवस पर ऐतिहासिक लाल किले के अपने भाषण में पहली बार इस योजना का जिक्र करते हुए कहा था, ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना के माध्यम से हम देश के गरीब से गरीब लोगों को बैंक खाता की सुविधा से जोड़ना चाहते हैं. देश में ऐसे करोड़ों परिवार हैं जिनके पास मोबाइल फोन तो है लेकिन बैंक में खाता नहीं है. किसान साहूकार का कर्ज नहीं दे पाता तो मजबूरन आत्महत्या कर लेता है. यह योजना ऐसे परिवारों के लिए सोचकर बनायी गयी है.’

इस योजना के तहत लोगों के या तो नए खाते खोले जा रहे हैं या फिर अगर पहले से उनके पास बैंक खाता है तो इस योजना को उससे जोड़ दिया जाएगा. योजना के तहत तहत 15 करोड़ गरीब लोगों के बैंक खाते खोले जाने हैं. इसमें 5,000 रुपए की ओवरड्राफ्ट सुविधा तथा एक लाख रुपये के दुर्घटना बीमा संरक्षण की सुविधा भी होगी. इस योजना के तहत पिछले 4 महीने में करीब 5.29 करोड़ खाते खोले गए हैं. इस योजना की घोषणा होने के बाद जो बैंक खाता खोलने में ना-नुकुर किया करते थे वे लोगों का हाथ पकड़कर खाता खुलवाते दिखे. इस योजना की तारीफ कांग्रेस के नेता भी करते दिखे. आंकड़ों के आइने में योजना की सफलता और साफ हो जाती है. योजना लागू होने के पखवारे भर के भीतर इन खातों के जरिए बैंकों के पास पांच हजार करोड़ रुपए पहुंच गए.

मेरी सरकार (mygov.in)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केन्द्र की सत्ता में अपने 60 दिन पूरे होने पर बयान दिया कि उन्हें यह महसूस हो गया है कि सरकारी कामकाज और जनता के बीच बड़ी दूरी होती है. जनता और सरकारी कामकाज की प्रक्रिया के बीच मौजूद इस खाई को खत्म करने के लिए एक पुल बनाए जाने की आवश्यकता है. उसी का परिणाम है माईगवडॉटइन नामक वेबसाइट. इसे इस रूप में विकसित किया गया है जहां आम जनता सरकार की विभिन्न योजनाओं को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है और साथ ही अगर उसके पास शासन से जुड़ी कोई योजना है तो उसे सरकार से साझा कर सकती है. सरकार का दावा है कि इसके जरिए देश के विकास की बुनियाद में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है. मोदी के मुताबिक इसके माध्यम से हर नागरिक की ऊर्जा और उसकी क्षमता का राष्ट्र के विकास के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. वेबसाइट को निर्मल गंगा, बालिका शिक्षा, स्वच्छ भारत, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे कई समूहों में बांटा गया है.

वेबसाइट के पिछले कुछ समय के कामकाज से पता चलता है कि बड़ी संख्या में जनता ने सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. इसके साथ ही सरकार द्वारा शुरू किए जा रहे किसी कार्यक्रम की घोषणा होने के बाद उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे- लोगो डिजाइन से लेकर अन्य विषयों पर यहां आम जनता के लिए प्रतियोगिता आयोजित की जाती है. ये सारी चीजें किसी ने किसी रूप में पहले भी थीं लेकिन अंतर यह है कि इस बार इसके लिए एक अलग मंच (वेबसाइट) का निर्माण कर दिया गया है. यह पूरी तरह से प्रतिक्रिया के लिए ही बनाई गई है.

मोदी के पिछले पांच महीने का कार्यकाल जिन कई नवाचारों और प्रयोगों से भरा है उसमें दिवाली के मौके पर उनका कश्मीर जाना भी शामिल है. दिवाली के कुछ दिन पहले मोदी ने घोषणा कर दी कि वो दिवाली कश्मीर के बाढ़ पीड़ितों के साथ मनाएंगे. मोदी वहां गए भी. इसे मोदी का बेहद चतुर राजनीतिक कदम माना गया. कई हलकों में इसकी तारीफ हुई. राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती समेत तमाम सियासी पार्टियों ने मोदी के इस कदम की सराहना की. जम्मू कश्मीर से देश के प्रधानमंत्री का यह संवाद एक नए संबंध की तरफ इशारा था. हालांकि उनके राजनीतिक विरोधियों ने इसे दिखावा कहकर खारिज भी किया. कुछ का ये भी कहना था कि जो लोग दिवाली नहीं मनाते उनके बीच दिवाली मनाने का क्या मतलब. अगर लगाव ही है तो ईद मनाने क्यों नहीं आए. लोगों ने उसे आगामी राज्य विधानसभा चुनाव के प्रचार के रूप में भी देखा. कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार मीर इमरान कहते हैं, ‘मोदी राजभवन आए और वहां पहले से चुने हुए लोगों से मिल कर चले गए. आम कश्मीरी तो बाढ़ से तबाह अपने घर को बनाने में लगा है. उसको क्या पता कौन आ रहा है कौन जा रहा है.’ खैर अपनी इसी कश्मीर यात्रा में मोदी सियाचिन भी गए. वहां जाकर सैनिकों से मिले और उन्हें दिवाली की बधाई दी. ये पहली बार था जब भारत का कोई प्रधानमंत्री किसी त्योहार के मौके पर सियाचिन की दुर्गम चोटियों पर जाकर सैनिकों से मिल रहा था. इन कदमों का अपना एक प्रतिकात्मक महत्व है और नरेंद्र मोदी इसके माहिर नेता माने जाते हैं. मोदी की इस सक्रियता और उनकी प्लानिंग को कई लोग इवेंट मैनेजमेंट करार देते हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उन्हें पीएम की जगह ईएम अर्थात इवेंट मैनेजर बताते हैं. वो कहते हैं, ‘सभी देशों के पास ‘पीएम’ (प्राइम मिनिस्टर) होता है, हमारे पास ‘ईएम’ (ईवेन्ट मैनेजर) है.’

फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जो कुछ किया जा रहा है वह सब बहुत विशाल दिख रहा है. एक भव्य आयोजन की तरह. चाहे उनकी अमेरिका यात्रा हो या नेपाल की. हर जगह लगता है मानों मोदी गए और छा गए. जानकारों के मुताबिक अभी शुरुआत है इसलिए लोगों का रुझान बना हुआ है लेकिन जल्द जनता इससे ऊब जाएगी. उसे कुछ ठोस चाहिए होगा. वो जानना चाहेगी कि अमेरिका में उनका प्रधानमंत्री खाली घूमने और ओबामा के साथ फोटो खिंचावाने गया था या वहां से देश के लिए कुछ लेकर भी आया. पांच साल के बाद चुनावों में जनता के पास जाने के लिए मोदी के पास कुछ जमीनी बताने लायक होना चाहिए. इन योजनाओं और अभियानों की सारी सफलता आनेवाले कुछ दिनों में जमीन पर महसूस कर सकने लायक बदलाव से तय होगी. प्रधानमंत्री का हनीमून पूरा हो चुका है, लेकिन जनता का हनीमून जारी है. अभी वो इस बात से ही खुश है कि उनका प्रधानमंत्री उनसे बात करता है, लालकिले से बुलेटप्रूफ शीशे के बगैर बात करता है. विदेश में जाता है तो माहौल बना देता है. आम मजदूरों की तरह फावड़ा लेकर मिट्टी निकालता है, झाड़ू लगाता है, अपने घर-परिवार वालों को कोई लाभ नहीं पहुंचाता है. गाहेबगाहे अपने पड़ोसी को ललकारता भी है. इस खुशनुमा माहौल को बनाए रखने में सिर्फ एक ही चीज नरेंद्र मोदी के काम आएगी वह है आनेवाले कुछ दिनों में इन सारी योजनाओं से होनेवाले कुछ स्थायी और वास्तविक जमीनी बदलाव. अगर जल्द ही जनता यह बदलाव महसूस नहीं करती है तो फिर मोहभंग की शुरुआत भी हो सकती है.

‘मोहल्लों की लड़ाई बन गई सांप्रदायिक दंगा !’

इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव
इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव

दीवाली का दूसरा दिन था. मैं शाम को नोएडा की तरफ निकल गई. रात के 9 बजते-बजते मेरे पास घर से एक के बाद एक कई फोन आने लगे. पता चला, मेरा घर जो कि त्रिलोकपुरी में है, वहां पथराव हो रहा है. घरवालों ने कहा अभी कहीं बाहर ही रहो, जब मामला शांत होगा, हम बुला लेंगे. उस रात तकरीबन दो-ढाई बजे मैं घर पहुंची. इलाके में काफी पुलिस तैनात थी, लेकिन माहौल शांत हो चुका था.

अगले दिन भाईदूज था. छुट्टी का एक आैैर दिन. रात को देर से लौटने की वजह से घर में मेरी किसी से पिछली रात के पथराव और लड़ाई के बारे में बात नहीं हुई थी. मैं आधी नींद में ही थी कि अचानक गली से हल्का शोर आने लगा. मेरा 23 साल का छोटा भाई शोर सुनते ही मामला जानने के लिए बाहर की तरफ निकल गया. शोर थोड़ा और बढ़ा तो मैं और मेरे घर की बाकी महिलाएं खिड़की तक पहुंचकर बाहर देखने लगीं.

गली से सड़क का एक हिस्सा दिख रहा था जहां लोग चिल्लाते हुए भागते-दौड़ते दिख रहे थे. मैं समझ गई जरूर आसपास कहीं लड़ाई हुई है. लेकिन फिर मिनटों में लोग गली से गुजरकर भाग रहे थे. गली में रहनेवाले लोग फटाफट अपने दरवाजे और खिड़कियां बंद करने लगे. भागते दौड़ते लोगों से टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारियां मिल रही थी, ‘ ब्लॉक-27 की दुकानों में आग लगा दी है… पथराव हो रहा है…आंसू गैसे के गोले छोड़े जा रहे हैं… गोलियां चल रही हैं…’

मेरे घर में उस वक्त कोई पुरुष सदस्य मौजूद नहीं था. बड़े भाई सुबह ऑफिस निकल चुके थे. छोटा भाई जो मामला जानने निकला था, वह फोन रिसीव नहीं कर रहा था. इस इलाके में आठ-नौ साल रहते हुए मुझे दिन के वक्त ऐसा डरावना अहसास पहली बार हुआ. जिन ब्लॉकों की बात हो रही थी वे हमारे बिल्कुल बगल में थे और गलियों के रास्ते इंटर-कनेक्टिड भी. अक्सर उन ब्लॉकों में कुछ लड़कों के आपसी झगड़ों को हल्की-फुल्की पत्थरबाजी में बदलते मैंने कई बार देखा था लेकिन यह कुछ अलग था.

कुछ ही मिनटों में अफवाहें तेजी से फैलने लगीं. मेरे ही ब्लॉक के दूसरी गली में रहनेवाली मेरी बहन ने तो यह तक सुन लिया कि लोग तलवारें लेकर आ रहे हैं… दो छोटे बच्चों की मां के लिए वह पल कितना खौफनाक होगा इसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं. यहां मेरे घर पर अलग डर और आशंकाओं का माहौल था. मेरे छोटे भाई का फोन नॉट रीचेबल आने लगा था और बाहर से शोर बढ़ने लगा था.

11-11:30 बजते बजते दो-तीन ब्लॉकों की लड़ाई को हिंदु-मुसलमानों की लड़ाई का नाम दे दिया गया था. मेरे ब्लॉक में हिंदु-मुसलमानों का अनुपात 85:15 ही है. मेरी अपनी गली में हम तीन से चार मुस्लिम परिवार रहते हैं. मेरा परिवार अब दूसरी वजहों से खौफ में आने लगा था. सबसे ज्यादा खराब हालत शायद मेरी ही थी. अपनी 25 साल की ज़िंदगी में पहला मौका था जब मैंने हिंदु-मुस्लिम दंगों के बीच खुद को पाया था. यह मेरी अच्छी किस्मत ही है कि मैंने अब तक ऐसा कुछ अपने आसपास नहीं देखा था. एक मुस्लिम परिवार में रहते हुए भी अपने आपको इस तरह से कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया था.

सड़क का जो हिस्सा हमारी बालकनी से दिखता था, उस पर अब भागती-दौड़ती पुलिस दिख रही थी. हवा में फायरिंग की कुछ आवाजें हम तक आने लगी थीं. पुलिस गली में आकर लोगों को घर में रहने की हिदायत दे रही थी. इस इलाके में सारे घर एकदूसरे से सटे हुए हैं और गली संकरी है. इसलिए बाहर तेज आवाज में कोई बात करे तो घरों में आवाजें पहुंच जाती हैं. ऐसे ही गली से भागते हुए कुछ लोगों से सुना कि कुछ लोगों को गोलियां लगी हैं.

इतना सुनना था कि घबराहट की वजह से मेरी हालत खराब होने लगी. मेरा छोटा भाई अब-तक घर नहीं आया था. सब बहुत डरे हुए थे. पिता के दुनिया में, और बड़े भाई के घर पर न होने के बाद ऐसे मौकों पर एक वही हम सबका सहारा बनता है. मैं रो रही थी, चिल्ला रही थी और बस ये कह रही थी कि भाई को बुला दो. इसी वक्त मैंने अपने एक दोस्त को फोन करके आधी-अधूरी जानकारी देते हुए बोलना शुरू कर दिया कि यहां बहुत गड़बड़ हो गई है. कभी भी कुछ भी हो सकता है. यहां आग लगाई जा रही है, गोलियां चल रही हैं. बिना ज्यादा जानकारी दिये बस मैं ये कह रही थी, ‘मुझे बचा लो, प्लीज !’

डर का कारण जो हो रहा था, सिर्फ वही नहीं था. मैं यह सोच-सोचकर ज्यादा घबरा रही थी कि और क्या-क्या हो सकता है. मैंने बचपन से लेकर अब तक अपने घर में मम्मी-पापा को 1984 के सिख-विरोधी दंगों के बारे में बात करते सुना है. उन दिनों जब मैं पैदा भी नहीं हुई थी, इस इलाके में जो घटा वह बहुत खौफनाक और अमानवीय था. इसके अलावा अलग-अलग प्रदेशों में हुए दंगों पर पढ़े लेख, उनसे जुड़ी तस्वीरें, दंगों पर देखी तमाम फिल्में, अब तक सब मेरे दिमाग में घूमने लगा था.

करीब दो घंटे बीत जाने के बाद मेरा छोटा भाई घर लौट आया. वह पास रहनेवाले अपने एक दोस्त के घर पर फंसा था. ‘जो हो सकता था’ उसके डर से मैं अपने पूरे परिवार से घर छोड़कर कहीं और चलने की जिद करने लगी. लेकिन घर के बाकी लोगों को अपने मोहल्ले और पड़ोसियों पर इतना ऐतबार था कि उन्हें लगा इसकी जरूरत नहीं. हालांकि, डर से सबके चेहरे सफेद-पीले से होने लगे थे. दोपहर होते-होते इलाके में भारी पुलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स ने इलाके को घेर लिया. मैं अभी भी किसी सुरक्षित जगह जाने की जिद पर अड़ी थी.

‘दोपहर होते-होते पुलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स ने इलाके को घेर लिया. मैं अभी भी किसी सुरक्षित जगह जाने की जिद पर अड़ी थी’

जैसे-जैसे शाम हो रही थी, मेरी घबराहट बराबर बढ़ रही थी. जब दिन के उजाले में इतना सब हो गया हो, तब रात का क्या भरोसा? मेरे घरवालों ने मेरी हालत देखकर मुझे कुछ दिनों के लिए कहीं और भेज दिया. अगले दिन मीडिया में ये झड़पें ‘हिंदू-मुसलमानों का दंगा’ बनकर खबरों में छाई हुई थीं.

इस घटना को अब दो हफ्ते बीत चुके हैं. लेकिन रात को गली या पास की सड़क से आनेवाली छोटी से छोटी आहट मेरे परिवार के लोगों को चौंका देती है. मैं खुद यह सोचते हुए रात बिताती हूं, कि बस जल्दी से सुबह हो जाए. मेरा परिवार किसी और जगह शिफ्ट होने की कोशिश कर रहा है. काश कि यह मोहल्लों की लड़ाई मोहल्लों तक ही रह जाती हमेशा की तरह, जाने वह कौन-सी साजिशें थीं कि इस इलाके को दंगाग्रस्त इलाका बनाकर बदनाम कर गई!

उपद्रव की उपकथा

 

फोटोः विजय पंडेय
फोटोः विजय पंडेय

महफूज आलम मूलरूप से बिहार के समस्तीपुर जिले के रहनेवाले हैं. वे पिछले छह साल से पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में रह रहे हैं. पेशे से दर्जी महफूज के लिए ब्लॉक 27 के चौराहे पर बनी अपनी छोटी-सी दुकान ही पूरी दुनिया रही है. इस दुकान के बगल में ही बिहार के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले छह और लड़के रहते थे और उनके रहते महफूज को कभी ऐसा नहीं लगा कि वे अपने घर यानी समस्तीपुर से इतनी दूर हैं. लेकिन अब उनके दिन दिल्ली में बहुत उदासी भरे बीत रहे हैं. सिलाई-कटाई के काम में ही लगे उनके आसपास के सभी लड़के इस समय जेल में बंद हैं और इन सब के अकेले ‘अभिभावक’ महफूज आलम इन्हें छुड़ाने के लिए दिनरात लगे रहते हैं. उनकी दुकान पिछले कई दिनों से बंद है. कुछ दिन पहले ही छह में से दो लड़कों को जमानत मिली है और वे वापस अपने गृह राज्य बिहार लौट चुके हैं. बाकी के चार लड़के अभी भी जेल में हैं. महफूज को इनके छूटने की उम्मीद जरूर है, लेकिन यह कब तक होगा उन्हें नहीं पता. वे बताते हैं, ‘ कानूनी तौर पर जो हो सकता है उसकी पूरी कोशिश कर रहा हूं. लेकिन इन लड़कों के बाहर आने के बाद अब ये यहां रुकेंगे मुझे इसका भरोसा नहीं. मेरी दुकान तो अभी बंद है. खुलेगी तो पता नहीं फिर वैसा माहौल रह पाएगा कि नहीं.’ इन लड़कों के साथ ही तकरीबन 70 और लोग हैं जिन्हें पुलिस ने त्रिलोकपुरी में हिंसा भड़काने, अफवाह फैलाने और पत्थरबाजी करने के आरोप में गिरफ्तार किया है. महफूज की तरह इन सबके संबंधियों को इनकी रिहाई की उम्मीद तो है लेकिन उसके बाद जल्दी ही हालात सुधरने की किसी को उम्मीद नहीं.

त्रिलोकपुरी में दीपावली (23 अक्टूबर) की रात दो समुदायों के बीच झड़प हुई थी. इसकी शुरुआत ब्लॉक-20 से हुई. इस ब्लॉक में माता की चौकी रखी गई थी. दीपावली की रात चौकी से थोड़ी दूर पर अलग-अलग समुदायों के दो शराबियों के बीच कुछ कहासुनी हुई और फिर हाथापाई हुई. बात थाने तक पहुंची तो पुलिस ने दोनों के परिवारवालों को थाने में बुलाया और थोड़ी समझाइश, थोड़ी डांट-डपट के साथ मामला खत्म कर दिया.

इलाके के कुछ लोगों के मुताबिक अगले दिन यानी 24 अक्टूबर को त्रिलोकपुरी के पूर्व विधायक और भाजपा नेता सुनील वैद्य ने ब्लॉक 21 स्थित अपने दफ्तर के बाहर करीब-करीब 200 से 300 लोगों को संबोधित किया था. इस बारे में वैद्य कहते हैं कि लोग खुद उनके कार्यालय तक आए थे और उन्होंने जनप्रतिनिधि होने के नाते उनसे बात की. सुनील ने पुलिस के सामने दिए गए अपने बयान में किसी भी तरह के भाषण देने से भी साफ इनकार किया है. वैद्य आगे बताते हैं, ‘करीब-करीब 200 लोग 24 तारीख की सुबह मेरे दफ्तर पहुंचे थे और पुलिस के ढुलमुल रवैये की शिकायत की थी. लोग चाहते थे कि माता की चौकी पर हंगामा करनेवाले युवकों को सजा दी जाए. मैंने इलाके के एसीपी को बुलाया और इस बारे में पूछा. एसीपी दफ्तर में जब लोगों से बातचीत कर ही रहे थे कि उनके पास फोन आया कि माता की चौकी पर भीड़ ने हमला कर दिया है. इसके बाद सब लोग मौके पर पुहंचे.’

त्रिलोकपुरी में पथराव की पहली घटना 24 तारीख को हुई. निशाने पर था ब्लॉक-27. इस ब्लॉक में ज्यादातर मुस्लिम परिवार रहते हैं. बाबू खान अपने पूरे परिवार के साथ पिछले 50 साल से इस ब्लॉक में रहते आ रहे हैं. उस दिन के बारे में वे बताते हैं, ‘जब 1984 के दंगे हुए, मैं दिल्ली से बाहर गया था. जब लौटा तो माहौल के बारे में कई भयावह बातें सुनने को मिलीं.  24 तारीख को मैंने यहां जो देखा उससे ऐसा लगा कि जैसे 84 के दंगों का दोहराव होने वाला है. ऐसा लग रहा था कि आज हमें मरने से कोई नहीं बचा सकता. हर तरफ शोरगुल हो रहा था. हालांकि पुलिस की मुस्तैदी ने हमें और इस ब्लॉक को बचा लिया.’

दीपावली के बादवाले दिन में पूरे समय दूसरे ब्लॉकों से पत्थरबाजी की खबरें आती रहीं. 25 अक्टूबर को भी यही चला. दोनों दिन पुलिस किसी तरह स्थिति पर नियंत्रण की कोशिश करती रही. आंसू गैस के गोल दागे गए, हवाई फायरिंग हुई और कई जगह लाठी चार्ज किया गया. पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया था. दोनों समुदाय से संदिग्ध लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. फिलहाल इन लोगों कि पेशियां चल रही हैं. जो घायल हुए वे इलाज के लिए अस्पतालों में भर्ती हैं. इलाके के बड़े बुजुर्गों के लिए ये हालात आज से ठीक तीस साल पहले की घटना को याद दिलानेवाले साबित हुए हैं.  पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में जो सिख विरोधी दंगा भड़का था, उसमें सबसे ज्यादा, 350 सिख इसी त्रिलोकपुरी में मारे गए थे. इस भीषण मार-काट के बाद से यह इलाका लगभग शांत था.

मेहनत-मजदूरी या कहें निम्न-मध्यम आय वर्ग के लोगों का यह इलाका पहली नजर में काफी शांत लगता है. बुनियादी सुविधाओं की कमी और लोगों की रोजाना कमाने की जद्दोजहद के बीच दंगे जैसे हालात में फंसने की यहां कोई वजह नहीं दिखती. त्रिलोकपुरी की कुल आबादी 1.5 लाख के करीब है. आबादी का आधा से ज्यादा हिस्सा वाल्मिकी समाज के लोगों का है. इस समुदाय के ज्यादातर लोग आसपास के इलाकों में सफाईकर्मी का काम करते हैं. तकरीबन 20 फीसदी आबादी मुसलमानों की है और लगभग दस फीसदी अन्य लोग हैं, जो मूलत: उत्तर प्रदेश या बिहार से यहां आए हैं. ये लोग दिल्ली से सटे इलाकों के कारखानों में मजदूर हैं या निजी सुरक्षा गार्ड की नौकरी कर रहे हैं. इस आबादी के तमाम लोग सालों से एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रहते आए हैं. तो फिर इन दिनों ऐसा क्या हुआ जिसकी परिणति इस तनाव में दिख रही है? क्यों एक मामूली से झगड़े में पूरा का पूरा इलाका कूद पड़ा? क्यों मेहनत-मजदूरी करने-वाले लोग और वर्षों से साथ-साथ रहनेवाले दो समुदाय एक-दूसरे पर पत्थर और बोतलें फेंकने लगे?  क्या त्रिलोकपुरी में कुछ ऐसा घट रहा था जो धीरे-धीरे मेहनतकश लोगों के वर्ग को हिंदू और मुसलमान में बांट रहा था. ये सारे सवाल हम त्रिलोकपुरी में सालों से रह रहे सामाजिक कार्यकर्ता सी अधिकेशवन के सामने रखते हैं. अधिकेशवन मूलरूप से तमिलनाडु के रहनेेवाले हैं. इस उपद्रव के दौरान वे पुलिस टीम के साथ लगातार एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक जा रहे थे. तनावभरे माहौल में वे पूरे समय पुलिस टीम के साथ रहे और स्थिति को बहुत करीब से देखा-महसूस किया.

इस उपद्रव पर बात करते हुए अधिकेशवन कहते हैं कि कोई भी धार्मिक उन्माद या झगड़ा अपने आप नहीं बढ़ता. इसके लिए माहौल बनाया जाता है. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ इस देश में जितने दंगे या धार्मिक उन्माद हुए हैं उन्हें उठाकर देख लीजिए. सब में यही मिलेगा. अलग-अलग समय में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों ने ऐसा किया और करवाया है. इसी मामले को लीजिए. त्रिलोकपुरी बड़ा इलाका है. कई ब्लॉक हैं. एक ही बार में अलग-अलग ब्लॉकों में पत्थरबाजी शुरू हुई. ऐसा लगा कि कोई निर्देश दे रहा है. इंटरनेट और खासकर वाट्सएप के माध्यम से एक-दूसरे तक अपवाहें फैलाई गईं. फिलहाल ये सारे मैसेज पुलिस के पास हैं. 23 या 24 तारीख को वॉट्सएप की मदद से मैसेज भेजा गया था कि कल रात मुसलमानों ने ब्लॉक-20 में स्थित माता की चौकी तोड़ दी है और एक हिंदू की हत्या कर दी है. जबकि यह सरासर झूठ था. न तो माता की चौकी को कुछ हुआ था और न ही किसी हिंदू को मारा गया था. सवाल यह है कि आखिर वे कौन से तत्व थे जो ऐसी अपवाह पूरे इलाके में फैला रहे थे.’ अक्टूबर की 23, 24 और 25 तारीख को जो हुआ वह तो सबकी नजर में है. पुलिस इसकी जांच भी कर रही है. लेकिन इन तीन तारीखों से कुछ महीने पहले त्रिलोकपुरी ऐसी दो और घटनाओं का भी गवाह रहा जो शायद इस तनाव का आधार बनीं.

अधर्म का धर्म:  त्रिलोकपुरी में अगस्त के महीने में हुई विहिप की एक रैली
अधर्म का धर्म: त्रिलोकपुरी में अगस्त के महीने में हुई विहिप की एक रैली

पहली घटना इसी साल 17 अगस्त की है. इस दिन विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने कल्याणपुरी से एक रैली निकाली थी जो कि त्रिलोकपुरी के मदीना चौक पर आकर खत्म हुई थी. इस रैली के गवाह अधिकेशवन भी रहे हैं. वे बताते हैं, ‘ रैली में शामिल लोग चाकू, लाठी, हॉकी, तलवार और इन जैसे दूसरे हथियार लहराते हुए पैदल मार्च कर रहे थे. कल्याणपुरी से त्रिलोकपुरी की दूरी करीब दो किलोमीटर है. जब-जब यह रैली किसी मुस्लिम बहुल ब्लॉक से गुजरती तब-तब रैली में शामिल लड़के मुस्लिम विरोधी और पाकिस्तान विरोधी नारे लगाने लगते. बड़ी बुरी हालत थी. शाम के वक्त रैली मदीना चौक पहुंची. यहां लोगों ने भाषण दिए. मदीना चौक के आसपास बड़ी संख्या में मुस्लिम परिवार रहते हैं. मुझे तो उसी दिन लगा था कि आज ही कुछ गड़बड़ जो जाएगी, लेकिन तब कुछ नहीं हुआ.’  कहा जा रहा है विहिप की यह रैली वाल्मीकि नौजवानों को संगठन और हिन्दुत्व की विचारधारा से जोड़ने की कवायद थी लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसका एक और छिपा हुआ मकसद था. इलाके के हिंदू और मुसलमानों के बीच दरार डालना. इस रैली के बाद से त्रिलोकपुरी में दोनों समुदायों के लोगों के बीच पहले जैसी सहजता घटने लगी थी.

त्रिलोकपुरी में जब दंगे का माहौल बना था तब वॉट्सएप पर भड़काऊ मैसेज भेजे जा रहे थे. पुलिस इन मैसेज की जांच कर रही है

दूसरी घटना अक्टूबर के मध्य की है. दिल्ली मेट्रो के लिए मेट्रो लाइन का काम त्रिलोकपुरी में चल रहा है. इस लाइन के बीच में त्रिलोकपुरी का ब्लॉक-15 है. यहां ज्यादातर मुस्लिम परिवार हैं. मेट्रो ने इस ब्लॉक को तोड़ने और यहां के निवासियों को त्रिलोकपुरी के ब्लॉक-16, 17 और 18 के सामने के एक खाली प्लॉट पर बसाने का फैसला लिया था. लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि अक्टूबर के मध्य में पूर्वी दिल्ली से भाजपा सांसद महेश गिरी और पूर्व विधायक सुनील वैद्य ने ब्लॉक-16,17 और ब्लॉक-18 में रहनेवाले हिंदू परिवारों के साथ एक बैठक करके उन्हें भरोसा दिलाया कि उनके ब्लॉक के सामने कोई मुस्लिम कॉलोनी बसने नहीं दी जाएगी. इन लोगों को यह कहकर भी उकसाया गया कि यहां केवल ब्लॉक-15 के मुस्लिम नहीं आएंगे बल्कि सीलमपुर आदि से भी मुसलमान लाकर यहां बसाए जाएंगे. अधिकेशवन इस मीटिंग और इस तरह की अपवाह फैलाए जाने की पुष्टि करते हैं. वहीं ब्लॉक-16 में रहनेवाले और वाल्मीकि दलित महापंचायत के अध्यक्ष महेश कुमार ऐसी किसी भी मीटिंग से इनकार करते हैं. महेश का कहना है, ‘हम किसी समुदाय के बसाए जाने के खिलाफ नहीं हैं. हम तो बस इतना चाहते हैं कि हमारे ब्लॉक के आगे जो ग्रीन बेल्ट (खुला क्षेत्र) है उसे सुरक्षित रहने दिया जाए.’ बकौल अधिकेशवन इन दोनों घटनाओं ने त्रिलोकपुरी में ऐसी जमीन तैयार की जिसपर खड़े होकर ही लोगों ने दीपावली के बाद एक-दूसरे पर पत्थर चलाए और दंगा भड़काने की कोशिश की.

1984 के बाद 2014 में एक बार फिर सांप्रदायिक हिंसा को झेल चुका त्रिलोकपुरी धीरे-धीरे सामान्य दिनचर्या की तरफ लौट रहा है. गलियों में बच्चे खेल रहे हैं. दुकानें धीरे-धीरे खुल रही हैं. सड़कों और चौराहों पर पुलिस की भारी मौजूदगी अभी-भी है. रात के समय चौकसी और बढ़ जाती है. पुलिस वाहनों के चक्कर अभी-भी जारी हैं और हिंसा के इतने दिनों बाद अफवाहें भी उसी गति से चल रही हैं. हर किसी के पास अपनी एक कहानी है. हर किसी के मोबाइल में एक वीडियो है. कोई पुलिस उत्पीड़न की कहानी लिए बैठा है तो कोई बता रहा है कि कल शाम फिर से फलां ब्लॉक में तनाव था. किसी के पास कोई तथ्य नहीं है.  बातचीत के दौरान एक समुदाय दूसरे को तो दूसरा पहले को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है. मूल में एक ही कहानी है लेकिन इसे दोनों समुदाय के लोग अपने-अपने नजिरए से सामने रखते हैं. एक बात जो साफ तौर पर दिखती है वह यह कि इस हिंसा के बाद पूरा इलाका दो खेमों में बंट चुका है.

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‘हम दोस्त ही रहे, हिंदू मुसलमान नहीं बन पाए’

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फोटोः विकास कुमार

साठ साल के बाबू खान अपने परिवार के साथ त्रिलोकपुरी के ब्लॉक- 27 में रहते हैं और उनसे नौ साल बड़े अमर सिंह अपने परिवार के साथ ब्लॉक-11 में रहते हैं. ये दोनों पिछले 40 साल से दोस्त हैं. इस दीपावली की शाम को भी अमर सिंह, मिठाई देने के लिए बाबू खान के घर आए थे. थोड़ी देर बैठे. वे अपनी बातों में मशगूल थे कि तभी इलाके में तनाव फैल गया. इस तनाव के बीच बाबू खान ही अमर सिंह को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचा के आए थे. दोनों की दोस्ती कबूतर उड़ाने की है. पिछले 40 साल से दोनों साथ में शाम बिताते हैं और साथ में कबूतर उड़ाते हैं. पहले दोनों ने कबूतर पाले हुए थे, लेकिन समय की कमी की वजह से अमर सिंह ने कबूतर पालना छोड़ दिया और कबूतर उड़ाने के लिए हर शाम बाबू खान की छत पर आने लगे.

अमर सिंह बातचीत में बाबू खान को ‘बबुआ भाई’ बुलाते हैं. दोनों के बच्चे एक-दूसरे को चाचा-ताऊ बुलाते हैं. हर खुशी साथ में मनाते हैं. बाबू खान ईद पर अमर सिंह के यहां सेवई लेकर जाते हैं तो सिंह साहब अपने हर त्योहार पर खान साहब के घर मिठाई लेकर आते हैं. इन अलबेले दोस्तों से हमारी मुलाकात तब हुई जब दोनों साथ में बैठकर कबूतरों को दाना दे रहे थे. हर दिन की तरह आवाज लगाकर उन्हें उड़ा और बुला रहे थे. जब हमने इनसे हालिया तनाव के बारे में जानना चाहा तो दोनों ने एक स्वर में इसके लिए राजनीति और राजनीतिक पार्टियों को जिम्मेदार ठहराया. खान साहब बोले, ‘हम तो दिल्ली के निवासी हैं. साथ में हैं. दोनों दोस्त हैं.  पिछले चालीस साल से एक साथ हैं. हर खुशी. हर गम हमने साथ में जिया है. अभी तक तो कभी न ये हिंदू हुए और न हम मुस्लिम. पता नहीं बाकी लोग कैसे हो जाते हैं? हम दोनों का तो एक ही शौक है. कबूतर पालना और उन्हें यूं आसमान में गोल-गोल घूमते हुए देखना’ बगल में बैठे अमर सिंह अपने दोस्त की बात से सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं लेकिन जो हुआ सो बहुत गलत हुआ.’

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‘मौत’ के स्वास्थ्य शिविर

नसबंदी के बाद तबीयत खराब होने वाली महिलाओं का बिलासपुर के अस्पताल में इलाज चल रहा है. फोटो: विनय शर्मा
नसबंदी के बाद तबीयत खराब होने वाली महिलाओं का बिलासपुर के अस्पताल में इलाज चल रहा है. फोटो: विनय शर्मा

छत्तीसगढ़ के सरकारी स्वास्थ्य शिविरों में इलाज के दौरान मौत या लोगों के स्वास्थ्य को स्थाई नुकसान पहुंचने के मामलों की फेहरिस्त को देखते हुए लगता नहीं है कि पेंडारी का नसबंदी कांड इस तरह का आखिरी मामला होगा. 10 नवंबर, 2014 बिलासपुर के तखतपुर के ग्राम पेंडारी में आयोजित नसबंदी शिविर में ऑपरेशन के बाद दो दिन के भीतर 13 महिलाओं (रिपोर्ट लिखे जाने तक) की मौत हो चुकी है. जान गंवाने वाली सभी महिलाओं की उम्र 32 साल से कम है. इंफेक्शन के कारण करीब एक दर्जन महिलाओं की किडनी ने भी काम करना बंद कर दिया है. इन्हें डायलिसिस पर रखा गया है. इनके अलावा तकरीबन पचास महिलाओं की हालत गंभीर बनी हुई है. यहां यह बताना जरूरी है कि प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल खुद बिलासपुर से विधायक हैं. अग्रवाल पिछली सरकार में भी सूबे के स्वास्थ्य मंत्री थे. उपरोक्त सारे कांड उन्हीं के कार्यकाल के हैं.

केंद्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत हर साल अक्टूबर से फरवरी के बीच महिला एवं पुरुष नसबंदी शिविरों का आयोजन किया जाता है. इसी कड़ी में तखतपुर के ग्राम पेंडारी में आयोजित नसबंदी शिविर का आयोजन शनिवार को किया गया था. स्वास्थ्य विभाग ने सरकारी शिविर को एक निजी अस्पताल (नेमीचंद जैन अस्पताल) में आयोजित किया था. यहां पर लेप्रोस्कोपी से महिलाओं की नसबंदी की जानी थी. शिविर में नवीन जिला अस्पताल के सर्जन डॉ. आरके गुप्ता की ड्यूटी लगी थी. इसके अलावा शेष स्टाफ बीएमओ तखतपुर ने उपलब्ध कराया था. यहां पर नौ नंवबर यानी शनिवार को सुबह 11 बजे के बाद महिलाओं की नसबंदी शुरू हुई. स्थानीय पत्रकारों और लोगों का कहना है कि सर्जन ने टारगेट पूरा करने के लिए बिना विश्राम किए छह घंटे के भीतर ही 83 महिलाओं की नसबंदी की थी. टारगेट पूरा करने की बात इसलिए भी सही मानी जा रही है क्योंकि डॉ आरके गुप्ता को इसी 26 जनवरी को 50 हजार ऑपरेशन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत किया गया था.  प्राथमिक जांच में यह बात भी सामने आई है कि नसबंदी शिविर में अधिकांश महिलाओं को बहला फुसलाकर लाया गया था. परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए मितानिन (स्वास्थ्य कार्यकर्ता) की सहायता ली जाती है. इन मितानिनों को नसबंदी कैम्प तक लाने के लिए हर एक महिला पर प्रोत्साहन राशि के रूप में 150 रुपए मिलते हंै. ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए कई मितानिन महिलाओं को बहलाकर कैम्प तक लाई थीं. छत्तीसगढ़ में काम कर रहे ऑक्सफैम इंडिया के कार्यक्रम अधिकारी विजेंद्र अजनबी कहते हैं, ‘ कुछ सालों पहले भोपाल में स्वास्थ्य अधिकार पर एक कार्यशाला हुई थी. वहां यह बात उठी थी कि एनएचआरए (राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण नियामक) के स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि जहां भी सरकारी स्वास्थ्य शिविर लग रहे हैं, वहां ऑपरेशन थियेटर मौजूद हो. उसके सारे जरूरी उपकरण मौजूद हों. अगर ऑपरेशन थियेटर मौजूद नहीं हों तो कैम्प न लगाया जाए. लेकिन छत्तीसगढ़ के संदर्भ में आप देखेंगे कि यहां किसी भी दिशा निर्देश का पालन नहीं किया जा रहा है. आधे अधूरे ऑपरेशन थियेटर के सहारे सैकड़ों ऑपरेशन किए जा रहे हैं. उपकरणों को कीटाणुरहित बनाने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं होता है. हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जब सरकार भ्रष्ट होती है तो लाचार भी होती है. राज्य सरकार यदि अपने अमले को नहीं सुधार पा रही तो वो भी संदेह के दायर में तो आएगी ही.’

 प्राथमिक जांच में यह बात भी सामने आई है कि नसबंदी शिविर में अधिकांश महिलाओं को बहला फुसलाकर लाया गया था. 

इस घटना की प्रथम दृष्टया जांच में लेप्रोस्कोप से संक्रमण होने की बात कही जा रही थी लेकिन बाद में खबरें आईं कि नैमीचंद जैन अस्पताल के जिस ऑपरेशन थियेटर में दवाएं और उपकरण रखे थे उसकी सील तोड़कर कुछ दवाएं और दस्तावेज जलाए गए थे.  इस खबर ने कई बड़े संदेहों को जन्म दे दिया.  इस बारे में बिलासपुर के कलेक्टर सिद्धार्थ कोमल परदेशी का कहना है, ‘ नेमीचंद अस्पताल का ऑपरेशन थियेटर सोमवार की रात को ही सील कर दिया गया था और मुझे इंजेक्शन और दवाएं जलाने की कोई जानकारी नहीं है.’ हालांकि सरकार ने दवाओें के फर्जी होने की इस संभावना के मद्देनजर ऑपरेशन के दौरान इस्तेमाल की गई छह विभिन्न औषधियों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है. औषधि निरीक्षक बिलासपुर द्वारा इन दवाइयों के नमूने लिए गए हैं. इन नमूनों को जांच और विश्लेषण के लिए कोलकाता स्थित केन्द्रीय औषधि परीक्षण प्रयोगशाला को भेजा जा रहा है.

बिलासपुर के पेंडारी में अभी मौतों का सिलसिला थमा भी नहीं था कि इसी जिले के पेंड्रा और बस्तर के जगदलपुर  में भी नसबंदी शिविर में ऑपरेशन करवाने वाली महिलाओं की हालत गंभीर होने की खबरें मिल रही हैं. पेंड्रा की 16 महिलाओं को बिलासपुर रेफर किया गया है. वहीं जगदलपुर के महारानी अस्पताल में सात महिलाओं को अत्यधिक ब्लीडिंग की वजह से केजुअल्टी वार्ड में भर्ती कराया गया है. बस्तर के सीएमओ देंवेद्र नाग ने इस बात की पुष्टि की है कि नसबंदी शिविर में ब्लीडिंग की शिकायत आई है. इन दोनों जगहों पर भी महिलाओं की बिगड़ती हालत के बाद दवाइओं और इंजेक्शन फर्जी होने की बात पर संदेह बढ़ रहा है.

इस घटना ने राज्य में राजनीतिक हलचल अचानक बढ़ा दी है. कांग्रेस नेता भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव कार्यकर्ताओं के हुजूम के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह और स्वास्थ्य मंत्री को घटना का दोषी मानते हुए उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग कर रहे हैं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल  कहते हैं, ‘ ऐसा लग रहा है जैसे सरकारी अमला सबूतों को मिटाने में लगा हुआ है. ऑपरेशन के बाद हुई मौत की नैतिक जिम्मेदारी राज्य सरकार की बनती है. इसलिए मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री को तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए.’ उधर महिलाओं की मौत का आंकड़ा बढ़ते ही मुख्यमंत्री रमन सिंह स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल को लेकर बिलासपुर पहुंच गए थे. मुख्यमंत्री का इस घटना पर अभी तक रस्मी बयान ही आया है, ‘दोषी पाए गए किसी अधिकारी कर्मचारी को बख्शा नहीं जाएगा.’ पूरे मामले में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल चुप्पी साधे हुए हैं.

छत्तीसगढ़ में सरकारी शिविरों में लगातार हो रही लापरवाही पर जन स्वास्थ्य अभियान की कार्यकर्ता सुलोचना नंदी कहती हैं, ‘इन घटनाओं की पुनरावृत्ति का पहला कारण तो शुद्ध रूप से राज्य सरकार और स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही ही है. दूसरा कारण सरकारी तंत्र की सोच है कि गरीब आदमी की जिंदगी की कोई अहमियत नहीं होती. छत्तीसगढ़ में पिछले 7-8 सालों में लगातार ऐसे निर्णय लिए गए हैं, जिनसे स्वास्थ्य विभाग की दिशा ही गलत हो गई है. सुलोचना इन घटनाओं पर एक अन्य कोण भी देखती हैं. उनके मुताबिक राज्य सरकार में बैठे कुछ लोग निजी स्वार्थ के कारण खुद ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को घटिया बनाकर उन्हें बदनाम करना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यहां कि आबादी पूरी तरह से निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर हो जाए. नंदी अपनी बात आगे बढ़ाती हैं, ‘ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ की सही पोस्टिंग तक नहीं हो पा रही है. मैं मानती हूं कि प्रदेश में चिकित्सकों की कमी है, लेकिन मौजूदा स्टाफ को यदि सही और जरूरत के हिसाब से पदस्थ किया जाए तो भी काम चल सकता है. आप देखिए रायपुर, बिलासपुर जिला मुख्यालयों में तो 40-40 चिकित्सक मिल जाएंगे जबकि इन्हीं जिलों के ब्लॉक में डॉक्टर ढूंढे से भी नहीं मिलते.’ सुलोचना सवाल उठाती हैं, ‘आप बताइए जब सरकार पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) को सुधार सकती है तो क्या स्वास्थ्य महकमे को, स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं सुधार सकती?’

सरकार ने इस घटना के बाद स्वास्थ्य विभाग के संचालक डॉ कमलप्रीत सिंह को पद से हटा दिया है वहीं परिवार कल्याण कार्यक्रम के राज्य समन्वयक डॉ. केसी ओराम, बिलासपुर के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. एससी भांगे, तखतपुर के खंड चिकित्सा अधिकारी डॉ. प्रमोद तिवारी और एक सरकारी सर्जन डॉ. आरके गुप्ता को निलंबित किया गया है. डॉ गुप्ता को एफआईआर दर्ज कर पुलिस हिरासत में लिया जा चुका है.

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टारगेट की मार

छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य अमले द्वारा टारगेट पूरा करने का खामियाजा किस तरह आम इंसान भुगतते रहे हैं, उसकी एक बानगी इस घटना से भी मिल सकती है. 27 नंवबर 2013 को छत्तीसगढ़ के सुदूर दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी मंदिर के बाहर बैठकर भीख मांगनेवाले दो भिखारियों की यहां जबरिया नसबंदी कर दी गई थी. इसे लेकर काफी हो-हल्ला भी मचा था, लेकिन बाद में मामला रफा-दफा कर दिया गया. तब खून और त्वचा की जांच के बहाने प्रहलाद भतरा और रामू नामक दो भिखारियों की नीतीश नाम के एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने नसबंदी करवा दी थी. इन दोनों मजदूरों को नसबंदी के बाद प्रोत्साहन राशि के रूप में 1100-1100 रुपए भी दिए गए थे. टारगेट पूरा करने की होड़ का ही नतीजा था कि बीते 10 नवंबर, पेंड्रा (बिलासपुर) में लगे नसबंदी शिविर में संरक्षित बैगा जनजाति की दो महिलाओं की भी नसबंदी कर दी गई. इन में से एक चैती बाई की मौत हो चुकी है. इस जनजाति के लोगों की कम होती संख्या के चलते इनकी नसबंदी करने पर रोक लगाई गई है. इस जनजाति के लोग राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहलाते हैं क्योंकि इन्हें सरंक्षित करने के साथ ही राष्ट्रपति ने इन्हें गोद लिया हुआ है.

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‘मेरी नाप के जूते लेकिन मेरे नहीं !’

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मनीषा यादव

यह करीब 40-42 साल पुरानी बात है. देश को अंग्रेजों से आजाद हुए कुछ वक्त हो गया था लेकिन आंटी और अंकल जैसे अंग्रेजी संबोधन आम नहीं थे. उस वक्त मां की सहेलियां हमेशा मौसी हुआ करती थीं और पिता के मित्र ताऊ जी या चाचाजी. मां स्कूल में पढ़ाती थीं इसलिए स्वाभाविक तौर पर सभी अध्यापिकाएं मेरी मौसी हुआ करती थीं. मेरा ननिहाल कानपुर था और संयोगवश उस स्कूल की प्रधानाध्यापिका का मायका भी कानपुर ही था.

गर्मी की छुट्टियों के अलावा दीपावली की छुट्टियों में भी मम्मी के साथ कानपुर जाना होता था. गड़रिया मोहल्ले में नानी का घर था. रिक्शा जैसे ही मोहल्ले में दाखिल होता, मोहल्ले के रहने वाले मामा, मामी, मौसी और भैया लोग ऐसी खुशी से भर जाते जैसे हमारा रिश्ता बिल्कुल सगे-सम्बंधियों का हो. नानी ने भी हम भाई-बहनों को बता रखा था, ये गोपाल मामा हैं, ये रामदास मामा हैं, ये तिलकू मामा हैं. ऐसे रिश्तों की अब स्मृतियां ही बाकी हैं.

उसी उम्र की एक घटना याद आती है तो आज भी हंसी आ जाती है. फिर मन को समझाता हूं कि वह बालसुलभ ललक थी जो किसी को भी हो सकती है. हुआ यह कि दीपावली की छुट्टियों में कानपुर जाने का कार्यक्रम बन रहा था. मम्मी के स्कूल की प्रधानाध्यापिका यानी हमारी मौसी कानपुर जा रही थीं मम्मी कुछ दिन बाद जाने वाली थीं. उन्होंने मौसी जी से बात करके मुझे साथ भेज दिया. उनका घर गोविन्द नगर में था. मौसी ने मम्मी को बतला दिया था कि सुनील को हम दो-तीन दिन अपने साथ रखेंगे, गांव भी ले जाएंगे फिर सुरेश (उनके छोटे भाई) से नानी के यहां छुड़वा देंगे. मां ने हामी भर दी.

हम कानपुर पहुंचे और सुरेश मामा हमें गोविन्द नगर वाले घर ले गए जहां मौसी जी के माता-पिता थे, मौसी ने बताया कि ये नाना-नानी हैं, हमने उनके पांव छुए. और भी दूसरे मामा-मामी से परिचय कराया, मुन्ना मामा जिनका नाम दिनेश था, रक्कू मामा जिनका नाम राकेश था. बड़े मामा तो सुरेश थे ही. अगले दिन सुरेश मामा हमें गांव ले गए.

तीन दिन वहां रहकर वापस लौटे तो फिर दिन भर के लिए गोविन्द नगर वाले घर में रुके थे, वहीं से शाम को सुरेश मामा हमें नानी के घर छोड़ने ले जाने वाले थे. मुझे याद है उस दिन सुबह सुरेश मामा कहीं बाजार चले गए थे, वहां से लौटकर आए तो उनके हाथ में जूते का एक डिब्बा था. उन्होंने जूते का डिब्बा खोला और मुझे आवाज दी. मैं उनके पास गया तो कहने लगे, जरा ये जूते पहनकर दिखाओ. अपन बड़े खुश, पहन लिए, एकदम फिट आ गए. मामा कहने लगे, जरा चलकर दिखाओ, ठीक हैं? मैंने वह भी किया, उनके सामने दो चक्कर लगाए, कहा, मामाजी एकदम नाप के हैं. बात सुनकर मामा कहने लगे, अब उतार दो, रख देते हैं. मामा ने उनको जमाकर डिब्बे में रख दिया.

जूते उतारकर मामा को देने के बाद मैं कल्पनाओं में डूब गया. मन ही मन सोच रहा था कि शाम को मामा जब नानी के यहां हमें पहुंचाने जाएंगे तो ये जूते मेरे साथ होंगे. शाम होते-होते एक बार मैं फिर सुरेश मामा के पास पहुंचा और बोला, मामा, मामा जूते एक बार फिर पहनकर देख लें? मामा कहने लगे, हां-हां क्यों नहीं, पहनो. मैंने जूते फिर पहने, चले-फिरे दो चक्कर, खुश हो गए, फिर उतारकर डिब्बे में रख दिए. शाम हुई. मामा ने हमसे कहा, तैयार हो जाओ, तुम्हें नानी के यहां पहुंचा आते हैं. मैं तैयार हो गया. कामनाएं बलवती होने लगीं. मामा भी तैयार हुए और अपनी सायकिल बाहर निकाली. मैं अपना छोटा सा बैग लेकर बाहर आ गया. मामा ने  कहा, आगे बैठ जाओ, मैं सीट के आगे डण्डे पर बैठ गया. मामा चल पड़े. मैं सोचता रहा, मामा जूते शायद भूल गये देना. रास्ते भर चुपचाप रहे, आखिर में जब नहीं रहा गया तो पूछ लिया, मामा जी वो जूते जो दिन में पहने थे. इतने में मामा बोले अरे, सुनील वो टीटू भैया के लिए खरीदे थे. तुम्हारे जितना ही तो है वो, इसीलिए तुम्हें पहिनाकर नपवाया था.

यह बात सुनकर मैं मायूस हो गया. नानी के घर तक पहुंचाने वाला सफर थमे उत्साह और किंचित उदासी से भरा रहा. वह घटना कभी भूल नहीं पाया. आज उसे  अलग ढंग से याद करता हूं, बचपन में जिज्ञासा, लालच और आकर्षण के अपने मनोविज्ञान होते हैं, सोचा हुआ पूरा भी होता है तो कई बार ऐसे तजुर्बे उदास भी कर जाते हैं. लेकिन आज जब उस बात को याद करता हूं तो उसमें एक नया आयाम जुड़ जाता है, बचपन की उदासी की जगह आज हंसी ने ले लिया है.

(लेखक फिल्म आलोचक हैं और भोपाल में रहते हैं.)

नई दास्तान, नया दास्तानगो!

दास्तानगो; नई दास्तान सुनाते हिमांशु वाजपेयी (बाएं), अंकित चड्ढा (दाएं)
दास्तानगो; नई दास्तान सुनाते हिमांशु वाजपेयी (बाएं), अंकित चड्ढा (दाएं)

महमूद फारूकी और उनके साथियों की तकरीबन दस साल की मेहनत और कोशिशें रंग लाईं हैं. सुखद है कि दास्तानगोई जैसी विलुप्त हो चुकी मध्यकालीन कला एक नए कलेवर के साथ जी उठी है. अब दास्तानें सिर्फ तिलिस्म और अय्यारी तक सीमित नहीं हैं बल्कि विनायक सेन की गिरफ्तारी, मुल्क का बंटवारा, मोबाइल की अहमियत और मंटो की मंटोइयत जैसे बेशुमार नए एवं समसामयिक विषय दास्तानों को एकदम नयी और अनोखी शक्ल दे रहे हैं. सुनने वाले नए और पुराने के इस अद्भुत मेल को न सिर्फ पसंद कर रहे हैं बल्कि ये दास्तानें उनके मन में एक खलबली पैदा करके इन विषयों पर उनकी सोच को भी विस्तार दे रहीं हैं. दास्तानों की इस फेहरिस्त में एक बिल्कुल नई और अद्भुत दास्तान की बढ़ोत्तरी हो गई है. ये दास्तान है उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ लखनवी की जि़ंदगी और शायरी पर आधारित दास्तान- ‘दास्तान-ए-आवारगी’. महमूद फारूकी के निर्देशन में इसे तैयार किया है दास्तानगो-युगल अंकित चड्ढा और हिमांशु वाजपेयी ने. हिमांशु के रूप में इस दास्तान से दास्तानगोई टीम में एक नया दास्तानगो भी जुड़ गया है. गौरतलब है कि वे उस लखनऊ के पहले आधुनिक दास्तानगो हैं, जो पुराने दौर में दास्तानगोई के बेमिसाल उस्तादों का शहर था.

बीते अक्टूबर में जब लखनऊ में दास्तान-ए-आवारगी का प्रीमियर शो हुआ तो ये शाम यादगार बन गई. आयोजन लखनवी युवाओं के एक समूह ‘बेवजह’ की तरफ से किया गया था जो युवाओं को कला-साहित्य से जोड़ने को लेकर काम करता है. मजाज़ के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर, मजाज़ की दास्तान सुनने के लिए उनके शहर का संत गाडगे सभागार खचाखच भरा हुआ था और हर उम्र के लगभग सात सौ लोग एक घंटे तक जैसे किसी तिलिस्म में बांध दिए गए थे. तिलिस्म जिसका नाम था मजाज़. जिसके पाश में दर्शक मंत्रमुग्ध थे, आश्चर्यचकित थे, बेपनाह लुत्फ उठा रहे थे, वाह-वाह, क्या बात है, क्या कहने… जैसी दाद दे रहे थे, आनंदविभोर होकर ताली बजाते थे (जबकि दास्तानगोयों ने दास्तान शुरू करने से पहले उनसे आग्रह किया था कि वे ताली न बजाएं, ज़बानी तौर पर दाद दें) झूम रहे थे, हंस रहे थे और आखिर तक पहुंचते-पहुंचते रोने लगे थे. दास्तान खत्म हुई तो सभागार में मौजूद हर शख्स खड़ा होकर ताली बजा रहा था और इसके बाद मजाज़ के बेहद करीबी रहे प्रो. शारिब रूदौलवी ने मंच पर आकर जो प्रतिक्रिया दी उसने दास्तान-ए-आवारगी के प्रीमियर शो की कामयाबी पर मुहर लगा दी. शारिब रूदौलवी ने नम आंखों के साथ मुस्कुराते हुए कहा- ‘ये विशाल सभागार जो सामान्य आयोजनों में आधा भी नहीं भर पाता, अगर मजाज़ के नाम पर पूरा भरा हुआ है, यहां तक कि बहुत से लोग खड़े होकर दास्तान सुन रहे थे, ये बताता है कि लखनऊ मजाज़ से कितनी मोहब्बत करता है. अंकित और हिमांशु ने आज जो कमाल किया है उसे हाॅल में मौजूद हर शख्स लंबे वक्त तक याद रखेगा. अगर मुझे मालूम होता कि यहां ऐसा कुछ होने वाला है तो मैं अपनी तरफ से दोनों के लिए कोई तोहफा ज़रूर लाता.’

अंकित चड्ढा पुराने दास्तानगो हैं, वे इस बार भी हमेशा की तरह सहज थे वहीं हिमांशु वाजपेयी की ये पहली ही परफॉर्मेंस थी, इसके बावजूद ऐसा नहीं लगा कि वे पहली बार दास्तान सुना रहे हैं. हालांकि अंकित जैसी सहजता पाने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी होगी. बहरहाल दोनों की जोड़ी ने मिलकर दर्शकों पर खूब जादू चलाया. अपने पहले शो के बारे में बात करते हुए हिमांशु ने कहा- ‘मुझे थोड़ा डर लग रहा था कि जाने क्या होगा लेकिन अंकित ने सब संभाल लिया. मुझे खुशी है कि लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. पहले ही शो की हमें तीन सौ के करीब लिखित प्रतिक्रियाएं मिलीं हैं जिनमें शो को पसंद करते हुए इसे दोबारा किए जाने का निवेदन किया गया है. सुनने वालों के साथ-साथ मुझे भी इसके दोबारा होने का इंतज़ार है.’ शो में मजाज़ के रिश्तेदारों और करीबियों के अलावा उनके पैतृक निवास रूदौली से भी कई लोग तशरीफ लाए थे. मजाज़ की भतीजी जऱीना भट्टी ने दास्तान के बारे में बात करते हुए कहा- ‘स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई थी और परफॉर्मेंस भी बेहद शानदार थी. यकीनन इस पर बहुत मेहनत की गई होगी. हालांकि कुछ एक जगह पर नाटकीयता थोड़ी और होनी चाहिए थी ऐसा मुझे लगता है. पर आखिरकार ये पहला शो था. मेरी ख्वाहिश है कि ये दास्तान अलग-अलग जगह पर ज्यादा से ज्यादा बार हो ताकि लोग मजाज़ को जान सकें.’

गौरतलब है कि असरार उल हक उर्फ मजाज़ लखनवी उर्दू के सबसे चहेते शायरों में से एक हैं, जिनकी अपार लोकप्रियता एक अफसाना बन चुकी है. उनकी शायरी रूमान और इंकलाब का खूबसूरत संगम है. उनके लतीफे उनकी बेमिसाल हाजिर जवाबी का सबूत हैं. 1911 में उत्तर प्रदेश के रूदौली कस्बे में जन्मे मजाज़ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के दिल की धड़कन थे. लेकिन एएमयू से ग्रेजुएट होने के बाद जब वे नौकरी करने दिल्ली गए तो रोजगार और इश्क़ की नाकामी ने उन्हें इस कदर तोड़ दिया कि उनकी जि़ंदगी शराब में डूबकर रह गई. तमाम कोशिशों के बावजूद वह इससे उबर नहीं पाए और दिसंबर 1955 में मजाज़ नाम की इस ख़ूबसूरत कहानी का बेहद दर्दनाक अंत हुआ. मजाज़ को सिर्फ 44 साल की जि़ंदगी मिली लेकिन इतनी कम उम्र में भी वे उर्दू को आवारा, ख्वाब-ए-सहर, शिकवा-ए-मुख्तसर, रात और रेल, नौजवान ख़ातून से और ऐतराफ जैसी यादगार नज़्में दे गए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तराना मजाज़ का ही लिखा हुआ है. फिल्मी गीतकार जावेद अख़्तर जो कि मजाज़ के भांजे हैं ऑटोग्राफ देते हुए अपना शेर न लिखकर हमेशा मजाज़ का ही ये शेर लिखते हैं- ‘उनका करम है उनकी मोहब्बत/ क्या मेरे नग़मे क्या मेरी हस्ती.’ कहा जाता है कि उर्दू के तमाम शायरों में सबसे ज्यादा शायराना और ड्रामाई जि़ंदगी मजाज़ को ही मिली.

मजाज़ को सिर्फ 44 साल की जि़ंदगी मिली लेकिन इतनी कम उम्र में भी वे उर्दू को आवारा, ख्वाब-ए-सहर, शिकवा-ए-मुख्तसर, रात और रेल, नौजवान ख़ातून से और ऐतराफ जैसी यादगार नज़्में दे गए

मजाज़ की जि़ंदगी का हर वाकया अपने आप में एक मुकम्मल दास्तान लगता है, ऐसे में उनकी पूरी जि़ंदगी और शायरी को घंटे-भर की एक दास्तान में समा देना बेहद मुश्किल काम था. लेकिन महमूद फारूकी के मार्गदर्शन में अंकित और हिमांशु ने ये काम बखूबी किया है. दास्तान में मजाज़ के पैदा होने से लेकर उनके इंतकाल तक की हर महत्वपूर्ण घटना को शायरी और लतीफों के साथ बेहद संवेदनशील तरीके से बयान किया गया है. इसी का कमाल है कि दास्तान दर्शकों को हंसने, दाद देने, रोने के लिए मजबूर कर देती है. इस चुनौती के बारे में बात करते हुए हिमांशु वाजपेयी तहलका से कहते हैं- ‘जब आप मजाज़ जैसी किसी शख्सियत पर दास्तान तैयार कर रहे होते हैं तो सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि क्या रखा जाए और क्या छोड़ा जाए. फिर मेरा मजाज़ से जो ज़ाती रिश्ता है उसकी वजह से मेरे लिए तो ये काम आम आदमी से हज़ार गुना ज़्यादा कठिन है. लेकिन अंकित ने इस मुश्किल से उबरने का एक बेहद कारगर तरीका सुझाया. उन्होंने कहा कि सामान्यत: हम उन्हीं अशआर और लतीफों को रखेगें जो नैरेटिव में फिट बैठते हों और अनिवार्य हों. क्योंकि आखिरकार हम एक कहानी सुना रहे हैं. फिर हमने ईमानदारी से व्यक्तिगत पसंद नापसंद से ऊपर उठकर सिर्फ कहानी की पसंद-नापसंद के आधार पर चीज़ों का चुनाव किया. यहां तक कि अपनी ही लिखी दास्तान में मैं मजाज़ की उस नज्म (नज्रे दिल) को शामिल नहीं कर पाया जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है.’ इस तरह अंकित और हिमांशु ने इस दास्तान का नैरेटिव लिखा और फिर उस्ताद महमूद फारूक़ी ने इसमें ज़रूरी सुधार किए और महत्वपूर्ण जोड़-घटाव किए. इसके बाद दिल्ली में अपने घर पर रिहर्सल भी करवाईं.

मजाज़ पर दास्तान करने का विचार कहां से आया और ये आगे कैसे बढ़ा, इस बारे में अंकित चड्ढा कहते हैं- ‘2012 में लखनऊ में हमने सआदत हसन मंटो की दास्तान मंटोइयत का शो किया था जो काफी सफल रहा था. तब हिमांशु ने मुझे ये सुझाव दिया था कि मजाज़ पर भी एक दास्तान की जा सकती है, जो बहुत पसंद की जाएगी. मजाज़ हिमांशु के सबसे पसंदीदा शायर हैं, मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ मिलकर ये दास्तान तैयार कीजिए और बतौर दास्तानगो इसे परफॉर्म कीजिए. इसके बाद रिसर्च शुरू हुई. मजाज़ पर लिखा गया हर अहम लेख, चुटकुला और किताब जुटाई गई और फिर उसमें से सामग्री का चुनाव किया गया.’ इस तरह ये दास्तान लिखी गई. दास्तान लिखे जाने के बाद उसकी परफॉर्मेंस भी एक बड़ी चुनौती थी. क्योंकि हिमांशु वाजपेयी का प्रोफेशनल दास्तानगोई के लिए तैयार होना अभी बाकी था. ये काम मुश्किल था क्योंकि वह पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आते थे और उन्होंने जीवन में कभी विधिवत थिएटर वगैरह नहीं किया था.

मुश्किल ये भी थी कि अंकित दिल्ली में रहते हैं और हिमांशु वर्धा में, लेकिन इसके बावजूद इन दो गहरे दोस्तों ने ठान लिया था कि मजाज़ के लिए ये लोग एक जोड़ी की तरह दास्तानगोई करने उतरेंगे. इसीलिए हिमांशु ने दिल्ली में महमूद फारूकी के निर्देशन में दास्तानगोई की वर्कशॉप में शिरकत की और इस कला की बारीकियां सीखीं. महमूद ये वर्कशॉप नए लोगों को दास्तानगोई से जोड़ने के लिए ही आयोजित करते हैं. इसके बाद अंकित ने हिमांशु को स्काइप के जरिए जम के रिहर्सल करवाई और दास्तानगोई के लिए पूरी तरह तैयार कर दिया. इसी प्रक्रिया में एक-दो बार हिमांशु वर्धा से दिल्ली भी गए. फिर तय हुआ कि दास्तान-ए-आवारगी का सबसे पहला शो मजाज़ के शहर लखनऊ में होगा और मजाज़ के जन्मदिन पर होगा. इस तरह अंतत: एक नई दास्तान और एक नए दास्तानगो का जन्म हुआ जो कि शहर-ए-दास्तां लखनऊ का पहला आधुनिक दास्तानगो है. हिमांशु के बारे में बात करते हुए महमूद फारूकी कहते हैं- ‘बहुत खुशी की बात है कि नए लोग दास्तानगोई से जुड़ रहे हैं और सब बहुत अच्छा कर रहे हैं. हिमांशु में काफी पोटेंशियल है. वह उर्दू अदब और दास्तानगोई से मोहब्बत करते हैं. मजाज़ की दास्तान का आइडिया भी उनका और अंकित का था.’

महमूद पिछले दस सालों से अपने साथियों के साथ दास्तानगोई को लोगों के बीच ले जाने के लिए काम कर रहे हैं और इसमें कामयाब भी हुए हैं. ये कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने ही इस मर चुकी कला को फिर से जीवित किया है और लोकप्रिय बनाया है. ये काम महमूद ने मशहूर उर्दू आलोचक शम्सुररहमान फारूकी के प्रेरित करने पर किया. शम्सुररहमान फारूकी का दास्तानों पर बहुत काम है.  उन्होंने नवल किशोर प्रेस से छपी दास्तान-ए-अमीर हमज़ा की कई अप्राप्य जि़ल्दों को फिर से खोज निकाला है. उन्होंने ही महमूद फारूकी को दास्तानगोई की कला और इसके सुनहरे इतिहास से परिचित करवाया और कहा कि अच्छा होगा अगर वे लोगों को दास्तान सुनाएं और इस ख़त्म हो चुकी कला को फिर से उनके बीच ले जाएं. इसके बाद महमूद ने दास्तानगोई पर गंभीरता से काम करना शुरू किया और 2005 में आधुनिक दास्तानगोई की पहली महफिल दिल्ली में सजी. इस तरह तकरीबन अस्सी साल बाद प्रोफेशनल दास्तानगोई फिर लोगों के सामने पेश हुई और इसे बहुत पसंद किया गया. इसके बाद से दास्तानगोई की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई है. वक्त के साथ-साथ इसमें नए लोग और नए विषय भी जुड़ते जा रहे हैं. आज उस्ताद महमूद फारूकी और दानिश हुसैन के अलावा अंकित चड्ढा, नदीम शाह, दारैन शाहिदी, मनु सिकंदर, पूनम और फौजिया जैसे कई दूसरे लोग भी दास्तान सुना रहे हैं साथ ही कई लोग दास्तानगो बनने की तैयारी कर रहे हैं. हालात बताते हैं कि दास्तानगोई का सुनहरा दौर फिर से लौट रहा है.

दास्तानगोई की शुरुआत हिन्दुस्तान में अकबर के काल से हुई. सबसे पहले इस फन को दिल्ली के आस-पास के लोगों ने नवाज़ा. लेकिन इस कला को उसका असल मक़ाम उन्नीसवीं सदी में लखनऊ में मिला

गौरतलब है कि 1928 में देश के अंतिम बड़े दास्तानगो मीर बाकर अली देहलवी की मौत के साथ ही ये कला दुनिया से उठ गई थी. जबकि एक ज़माने में इसका डंका बजता था. दास्तानगोई की शुरुआत हिन्दुस्तान में अकबर के काल से हुई. सबसे पहले इस फन को दिल्ली के आस-पास के लोगों ने नवाज़ा. लेकिन इस कला को उसका असल मक़ाम उन्नीसवीं सदी में लखनऊ में मिला. लखनऊ में पहली बार दास्तानगोई का भारतीयकरण हुआ और उसे देशज रंग मिला. इतना ही नहीं लखनऊ से ही दास्तानगोई को तिलिस्म और अय्यारी के रूप में वो दो मौलिक चीज़ें मिलीं जो दास्तानगोई की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण बनीं. लखनऊ आने से पहले तक दास्तान में सिर्फ रज़्म यानी युद्ध और बज़्म यानी महफिल का ही जि़क्र होता था. लखनऊ में ही दास्तान-ए-अमीर हमज़ा को उसका सबसे लोकप्रिय हिस्सा तिलिस्म-ए-होशरूबा मिला. लेकिन दास्तानगोई को लेकर लखनऊ में सबसे बड़ा काम ये हुआ कि यहां की नवल किशोर प्रेस ने लखनऊ के मशहूर दास्तानगो मोहम्मद हुसैन जाह, अहमद हुसैन कमर, अंबा प्रसाद रसा, शेख तसद्दुक हुसैन वगैरह को नौकरी पर रखा और उनसे दास्तानें लिखवाकर छापीं. अमीर हमज़ा की दास्तान जो कि सदियों से वाचिक परंपरा के ज़रिए आगे बढ़ रही थी, पहली बार छपे हुए रूप में कागज़ पर महफूज़ हुई. ये दास्तानें 1881 से 1910 के बीच लगातार छपती रहीं. इनके कुल 46 खण्ड प्रकाशित हुए और हर खण्ड में तकरीबन एक हज़ार पन्ने थे. अगर आज महमूद और उनके साथी लोगों को दोबारा दास्तान-ए-हमज़ा से रूबरू करवा पा रहे हैं तो ये काम नवल किशोर प्रेस की वजह से ही मुमकिन हुआ. क्योंकि अगर ये दास्तानें छपी नहीं होतीं तो मीर बाकर अली के साथ दास्तानगोई ही नहीं, दास्तानें भी दुनिया से चली गईं होतीं. लेकिन दास्तानगोई की विधा में ऐसे तमाम कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद 1920 के बाद लखनऊ में ये विधा लगभग खत्म हो गई. एक-एक करके सारे उस्ताद दास्तानगो दुनिया से कूच कर गए और नई पीढ़ी ने इसमें रूचि लेना बंद कर दिया.

अब जबकि तकरीबन सौ साल बाद लखनऊ को फिर से एक नया दास्तानगो मिला है तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में और भी लखनवी इससे जुड़ेंगे और लखनऊ को एक बार फिर शहर-ए-दास्तां कहा जाएगा.

दर-बदर परदेसी

दर-बदर परदेसी

एशिया और अफगानिस्तान के कई शरणार्थियों के लिए दिल्ली एक अस्थायी ठिकाना है. इन्हें यह तो पता है कि भारत कभी उनका घर नहीं बन सकता लेकिन वे नहीं जानते कि यहां से कहां जाएं ?

आलेख : जी विष्णु

तस्वीरें : विजय पांडे

बीते जुलाई और अगस्त के दौरान गाजा पट्टी ने हिंसा का एक और भयावह दौर देखा. इन दो महीनों में इजरायल की सैन्य कार्रवाई से तकरीबन 2100 लोग मारे गए थे. उस समय पूरी दुनिया इन बर्बर हमलों की निंदा कर रही थी. वहीं नई दिल्ली के तकरीबन 50 परिवारों के लिए यह हिंसा दिन बीतने के साथ नाउम्मीदी भरती जा रही थी. ये फलस्तीन-सीरिया में जन्मे फिलस्तीनी शरणार्थियों की दूसरी या इसके बाद की पीढ़ी के परिवार हैं और सभी पिछले पांच सालों के दौरान दिल्ली आए हैं. ये किसी देश के नागरिक नहीं हैं. दिल्ली इनके लिए फिलहाल एक वेटिंग रूम की तरह है. सिर्फ फलस्तीनियों के लिए ही नहीं, एशिया के दूसरे संकटग्रस्त क्षेत्रों के लोगों के लिए भी भारत की राजधानी वेटिंग रूम रही है. हालांकि फिलस्तीनियों की तरह इन्हें शरणार्थी का दर्जा नहीं है. ये तब तक दिल्ली में रहना चाहते हैं जब तक कि कोई विकसित देश उन्हें पनाह नहीं दे देता. रोजमर्रा की दिक्कतें और हालात इन लोगों के लिए बदलते रहते हैं लेकिन भारत सरकार से इन्हें शरणार्थी का दर्जा मिलना पूरी तरह किस्मत पर निर्भर है. इसकी वजह है भारत की अस्पष्ट शरणार्थी नीति, जो लोगों के हिसाब से अलग हो जाती है. इन लोगों की भारत में सही संख्या बता पाना मुश्किल है. फिर भी एक अनुमान के मुताबिक इस समय देश में तकरीबन दो से चार लाख शरणार्थी रह रहे हैं. शरणार्थियों पर नजर रखने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था, यूएनएचसीआर यह संख्या 30 हजार बताती है. देश में शरणार्थियों से जुड़ा कोई कानून नहीं है. हमारे यहां शरणार्थी दर्जा दिए जाने की कार्रवाई कई बातों पर निर्भर करती है. जैसे संबंधित देश के साथ भारत के संबंध. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. इस समय भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदू और सिखों को शरण देने की नीति सरल बना रहा है ताकि भविष्य में ये भारतीय नागरिक बन सकें. लेकिन यह नीति म्यांमार से आए लोगों के लिए नहीं है. यूएनएचसीआर के मुताबिक देश में 25 हजार शरणार्थी हैं और पांच हजार ऐसे लोग भी यहां रह रहे हैं जो भारत में औपचारिक रूप से शरण चाहते हैं. इनके अलावा तमिल और तिब्बती भी हैं जिन्हें सरकार स्पष्ट रूप से समर्थन देती है. हम यहां जिन लोगों की बात कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर दिल्ली में रह रहे हैं. फिलस्तीन और अफगानिस्तान को छोड़ दें तो पश्चिम एशिया के देशों- सीरिया, ईरान और ईराक से आए तकरीबन 12 हजार लोग भारत में रह रहे हैं. इनमें से कुछ को शरणार्थी का दर्जा हासिल है तो कुछ इसकी उम्मीद में हैं. ये यूएनएचसीआर की भारतीय इकाई में पंजीकृत हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा संख्या (10,500) अफगानिस्तान से आए लोगों की है. संस्था के अधिकारी दावा करते हैं कि इन लोगों को शरणार्थी पहचान पत्र दिया गया है ताकि इन्हें बेवजह परेशान न किया जा सके या हिरासत में न लिया जा सके. यूएनएचसीआर का यह भी कहना है कि ये परदेसी आत्मनिर्भर हैं और अपनी आजीविका चला रहे हैं हालांकि असलियत यह है कि इनके लिए गुजारा करना ही बड़ा मुश्किल होता है. जिन जरियों से वे आजीविका अर्जित कर रहे हैं वह उनकी शिक्षा से मेल नहीं खाती. तहलका ने दिल्ली में रहने वाले ऐसे ही नौ लोगों से मुलाकात की. आगे के पृष्ठों पर दी गई इन शरणार्थियों की कहानी बताती है कि वे भारी अनिश्चितता के बीच रह रहे हैं. क्या वे अपने घर वापस जा पाएंगे? यह सवाल तमाम दुश्वारियों के बीच इन लोगों के जेहन में पूरी ताजगी के साथ हमेशा मौजूद रहता है लेकिन इनमें से किसी के पास इसका जवाब नहीं है.

मोहम्मद दाउद शरीफी । 50 | अफगानिस्तान
मोहम्मद दाउद शरीफी । 50 | अफगानिस्तान

मोहम्मद दाउद शरीफी । 50| अफगानिस्तान

दिल्ली स्थित भोगल के कब्रिस्तान में वे कभी-कभार शाम को आते हैं. एक कब्र के नजदीक बैठना उनके लिए सिर्फ अपने करीबी को याद करना नहीं होता, अपनी जन्मभूमि की याद इसमें हमेशा शामिल होती है. इस अनजाने शहर में दाउद के लिए अपने पिता की कब्र ही सबसे सुकून भरी जगह है. कुछ सालों पहले तक उनकी जिंदगी ऐसी नहीं थी. वे बेहतरी के दिन थे. 2004 में हामिद करजई के राष्ट्रपति बनने के बाद लगने लगा था कि अफगानिस्तान में हालात सुधर जाएंगे. अफगानिस्तान के नारकोटिक्स विभाग के तहत काबुल में तैनात दाउद के लिए वे दिन अक्सर व्यस्तता भरे रहते थे. देश में अमेरिकी फौजें आने के बाद अफीम का अवैध कारोबार दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रहा था. दाउद को उस समय कतई अंदाजा नहीं था कि यह कारोबार एक दिन उन्हें पूरे परिवार सहित अपने देश से बाहर कर देगा. नारकोटिक्स विभाग के इस इंस्पेक्टर के लिए ऐसी नौबत तब आई जब उसकी स्थानीय माफिया से अफीम तस्करी के मसले पर ठन गई. आपराधिक गिरोहों ने उन्हें धमकी दी कि वे या तो उनके कारोबार में मदद करें या मरने को तैयार रहें. दाउद इन हालात का सामना नहीं करना चाहते थे और उन्होंने देश छोड़ने का फैसला कर लिया. अफगानिस्तान से जुड़ी भारत की दोस्ताना नीति को ध्यान में रखकर वे दिल्ली आ गए. इस उम्मीद के साथ कि अब नए सिरे से जिंदगी शुरू होगी. पर वह भली-सी शुरुआत कभी नहीं हो पाई. दाउद बताते हैं, ‘ यहां मेरे पास कोई नौकरी नहीं है. मैं अपने जिन हमवतनों को जानता हूं वे सभी छोटे-मोटे कामधंधों से किसी तरह जिंदगी चला रहे हैं. भारत सरकार को हमें यहां लंबे समय तक नहीं रखना चाहिए. हम यहां बस मेहमान हैं.’ दाउद की उम्मीद अब बस यही है कि भारत सरकार कुछ ऐसा कर दे कि वे अपने देश आसानी से लौट सकें.


 

हबीबा यूसुफजिया । 46 | अफगानिस्तानपेशे से शिक्षिका रहीं हबीबा अपने देश के कई स्कूलों में गई हैं. इन स्कूलों में घूमते हुए ‘ नया अफगानिस्तान’ से जुड़ा अपना सपना उन्हें हकीकत के करीब लगता था. वे खुद इसका हिस्सा थीं. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की मदद से ग्रामीण क्षेत्रों के लड़के-लड़कियों को पढ़ाते हुए हबीबा सोचती थीं कि यह पीढ़ी नए अफगानिस्तान की बुनियाद बनेगी. लेकिन उनका सपना उस समय टूटने लगा लगा जब कट्टरपंथी उन्हें धमकाने लगे. इन लोगों का मानना था कि हबीबा धर्मांतरण के काम में लगी हैं. ‘जब अफगानिस्तान में तालिबान आया तब मैंने देश नहीं छोड़ा. सोवियत सेना जब यहां घुसी तब भी मैंने मुल्क नहीं छोड़ा. लेकिन जब देश में लोकतंत्र आया जब मुझे देश छोड़ना पड़ा.’ वे बताती हैं, ‘ हमारे लिए ईरान में जाना मुश्किल था. हमने सोचा कि भारत हमारे लिए सुरक्षित देश होगा. मेरे बेटे की शहादत के बाद आखिरकार मैंने फैसला कर लिया और भारत आ गई. लेकिन यहां आकर एक तरह से मुसीबत में फंस गई हूं. मैं वापस नहीं लौट सकती. मेरा पासपोर्ट रीन्यू नहीं हो पाया है. हमारे पास वीजा नहीं है. अब हम यहां और नहीं रह सकते. ‘ हबीबा और उनके तीन बच्चों के लिए दिल्ली में कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब वे अपने ऊपर बीत रहे मुश्किल हालात को एक क्षण के लिए भी भुला पाते हों. हालांकि हबीबा ने अब भी हिम्मत नहीं हारी है. वे कहती हैं,’ हम मुस्लिम हैं और हमारा धर्म कहता है कि हम हर हाल में उम्मीद का दामन पकड़े रहें.’

सैय्यद अरब शाह । 38, रिहाना अहमदी । 32 अफगानिस्तानजब हम रिहाना से उनके बच्चों के बारे में कोई सवाल करते हैं तो उनके सब्र का बांध टूट जाता है. उनकी आंखों से आंसु थमने का नाम नहीं लेते. 2010 में जब रिहाना देश छोड़ने की सोच रही थीं उस समय उन्हें अपने एक बेटे को सिर्फ इसलिए खोना पड़ा क्योंकि समय पर वे उसका इलाज नहीं करवा पाईं. उनके पति सैय्यद काबुल में वकील रहे हैं. वकालत के दौरान उनके कई विरोधी बन गए. वे अपनी कहानी सुनाते वक्त बहुत सावधानी बरतते हैं क्योंकि उन्हें आज भी उन लोगों का डर है. फिलहाल दिल्ली में अपने एक कमरे वाले घर में मुश्किल हालात के बीच रह रहे सैय्यद भविष्य को लेकर मायूसी से भरे हुए हैं. उनकी मायूसी और लाचारी उस वक्त और बढ़ी हुई लगती है जब वे फर्श पर लेटी हुई अपनी पांच साल की बेटी नीलोफर को देखते हैं जो बुखार से तप रही है.

 वनदाद । 31, विस्ता । 38 ईरान
 वनदाद । 31, विस्ता । 38 ईरान

 वनदाद । 31, विस्ता । 38 ईरान

ईरान असहमति को दबाने के लिए कुख्यात रहा है. इस देश में इस्लाम से अलग दूसरे धर्म को मानने , समलैंगिक रुझान रखने या मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले कभी-भी सरकार का कोपभाजन बन सकते हैं. वनदाद के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा. उनका जन्म ईरान के गेम्शर शहर में रहने वाले एक उदारवादी परिवार में हुआ था. परिवार का असर उनपर बचपन से था. उम्र बढ़ने के साथ समानता और मानवाधिकारों के प्रति उनकी निष्ठा बढ़ती गई. जल्दी ही वे सरकार की निगरानी में आ गए. पहले उन्हें देश की खुफिया संस्था में काम करने का प्रस्ताव दिया गया था जो उन्होंने ठुकरा दिया और इसके बाद सरकारी प्रतिष्ठानों ने उनका शारीरिक उत्पीड़न शुरू कर दिया. इस समय तक वे अपनी महिला मित्र विस्ता से मिल चुके थे. इस जोड़े को जल्दी ही एहसास हो गया कि वह ईरान में ज्यादा समय सुरक्षित नहीं है. वे मई, 2010 में दिल्ली आ गए. विस्ता की इच्छानुसार वनदाद ने पारसी धर्म अपना लिया. लेकिन इन लोगो के लिए यह संघर्ष का अंत साबित नहीं हुआ. वनदाद बताते हैं, ‘ कभी-कभी तो ऐसे ईरानी लोग जिन्हें हम अपना दोस्त समझते हैं, हमारे राजनीतिक विचारों के कारण हम पर संदेह करते हैं. दिल्ली में हम बहुत अकेले हैं. अनिश्चितता के बीच रहते हुए हम मानसिक रूप से बहुत परेशान हो चुके हैं. पांच साल से यहां हैं और ऐसा लगता है जैसे यह पूरा समय बर्बाद हो गया. अब बस यही उम्मीद करते हैं कि किसी दूसरे देश में जाने का मौका मिल जाए.’ वनदाद यहां परेशान जरूर हैं लेकिन अभी-भी वे अपने ब्लॉग के जरिए ईरान में मानवाधिकार उल्लंघन के मसले लगातार उठाते रहते हैं.


Abdullah_Hamuda अब्दुल्ला हमुदा । 48 | फिलस्तीन/सीरिया’मैं बस यही चाहता हूं कि इन दोनों को किसी देश की नागरिकता मिल जाए.’ अब्दुल्ला अपनी दोनों बेटियों, मारिया (6 वर्ष) और मरजाना (3 वर्ष) की ओर इशारा करते हुए कहते हैं. ये दोनों बच्चियां फिलस्तीन की तीसरी पीढ़ी की शरणार्थी हैं. अब्दुल्ला के माता-पिता 1948 में इजरायल के निर्माण के समय विस्थापित हुए और सीरिया में आधिकारिक रूप से शरणार्थी बनकर रहने लगे. अब्दुल्ला यहीं दमिश्क के पास अल मलीहा में फोटोग्राफर का काम करने लगे. यहीं अचानक एक दिन सरकार ने उन्हें बेवजह जेल भेज दिया. वे जब वहां से रिहा हुए तबतक उन्हें समझ आ गया था कि फिलस्तीनी शरणार्थियों के ऊपर सीरियाई सरकार के ‘दमन’ की कार्रवाई अब बढ़ती रहेगी. आखिरकार वे भारत आ गए. यहां वे एक रेस्टोरेंट में कबाब व बिरयानी बनाने का काम करते हैं. अब्दुल्ला बताते हैं, ‘ इस एक कमरे के घर का किराया ही छह हजार रुपये है. हम छह लोगों का परिवार इस घर में रहता है. मेरे एक भाई को सेरेब्रल पाल्सी है. ऐसे में आपको लगता है कि मैं इन बच्चों को पढ़ा पाउंगा?’ वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ मेरा जन्म फिलस्तीन में नहीं हुआ. मेरे जेहन में घर की कोई याद नहीं है. क्योंकि हमारे पास कभी घर नहीं रहा. लेकिन अब हम जहां रह रहे हैं वह जहन्नुम से बदतर है.

Muhab_Zaidan मुहाब जैदान। 31 |फिलस्तीन/सीरियासालों पहले फिलस्तीन-सीरिया में रह रहे शरणार्थी परिवार के एक लड़के ने लीबिया से सीरिया तक एक खतरनाक सफर तय किया था. शरणार्थियों से भरी बोट का अनुभव सुनाते हुए मुहाब कहते हैं, ‘ सीरियाई सरकार ने हमें बोट से उतरने की अनुमति नहीं दी और हम सब वहीं तट के पास फंस गए.’ वे तीन साल पहले दिल्ली की जामिया मिलिया युनिवर्सिटी में मास्टर्स की पढ़ाई करने आए थे. मुहाब के माता-पिता 1948 में शरणार्थी बनने वाली पहली पीढ़ी के सदस्य रहे हैं. पहले वे सीरिया में रहे उसके बाद स्वीडन चले गए. लेकिन मुहाब के लिए भारत से निकलना आसान नहीं है. वे काफी समय से दूसरे देश का वीजा बनवाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अभी तक इसमें सफल नहीं हो पाए हैं. मुहाब अनुवाद का काम करके अपना जीवनयापन करते हैं. लेकिन यह काम हमें लगातार नहीं मिल पाता. मुहाब बताते हैं, ‘ ज्यादातर शरणार्थी हालात ठीक होने के साथ-साथ वापस लौट जाएंगे लेकिन हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम कहां जाएं? इजरायल अधिकृत फिलस्तीन में? सीरिया में? यूएनएचसीआर इस काम में हमारी मदद कर सकता है. वह हमारी फाइल सरकार को भेज सकता है और उससे हमें मदद हो सकती है. ‘ मुहाब अपनी पूरी जवानी पराए देश में गंवाना नहीं चाहते लेकिन अब उनके हाथ में भी कुछ नहीं है.

 अनाम | फिलस्तीन/सीरिया
अनाम | फिलस्तीन/सीरिया

 अनाम | फिलस्तीन/सीरिया वे अपनी बीती जिंदगी की बेहद दिलचस्प बातें हमारे सामने रखते हैं लेकिन इस शर्त के साथ कि उनका नाम पत्रिका में न छापा जाए. वे बताते हैं, ‘ मैं अपने मां-बाप के साथ रहता था और मेरे आठ भाई-बहन थे. युद्ध और हिंसा के चलते वे सभी यहां वहां जा चुके हैं. मैं बहुत जिज्ञासु छात्र था. मुझे इतिहास, संगीत, नई-नई चीजें बनाने और आउटडोर खेलों में बहुत मजा आता था. मेरी पढ़ाई संयुक्त राष्ट्र द्वारा संचालित एक स्कूल में चल रही थी. वहां के छात्र और शिक्षक दोनों ही फिलस्तीनी शरणार्थी थे. उस समय मैं हमेशा यही सोचा करता था कि एक दिन हम फिलस्तीन में अपने पिता के गांव लौटेंगें. मेरा जन्म सीरिया में ही हुआ था लेकिन मेरे सपनों में पिता का गांव ही आता था. आज जो गुलाम फिलस्तीन है वह मेरी मां की तरह है. सीरिया एक पत्नी की तरह है, जिसे आपने चुना है. जिसे आप प्यार करते हैं. आज में उतना ही सीरियाई हूं जितना फिलस्तीनी.’ वे भारत में पढ़ाई के लिए आए थे लेकिन सीरिया में युद्ध की वजह से कभी वापस नहीं जा पाए.

शुरू होनेवाला है हिंदी के लिए हिंदी में रूदन-क्रंदन मौसम

पुस्तक मेले का मौसम बस आ ही गया है. राजधानी वाले शहरों से लेकर जिला मुख्यालयों तक के कई शहर में आयोजन शुरू होनेवाले हैं. बड़ी-बड़ी बातें कि हिंदी साहित्य की धाक तो देखिए, धमक तो देखिए…वगैरह-वगैरह. बड़ी-बड़ी चिंताएं भी कि अंगरेजी वालों ने तो यह कर दिया है हिंदी साहित्य का, वह कर दिया है हिंदी का…वगैरह-वगैरह. हिंदी में छपनेवाले लोकप्रिय लुगदी साहित्य से बचा भी जाएगा, क्योंकि उससे प्रतिष्ठा के हनन का भाव आता है. मोटे तौर पर कहें तो आत्ममुग्धता और सौतिया डाह का भाव एक साथ अगले कुछ माह तक एक-दूजे से टकराने का मौसम आ गया है. पुस्तक मेले में बननेवाले बड़े-बड़े मंचों पर और यूजीसी का फंड खत्म होने से पहले उसकी फंडेबाजी करने के लिए नवंबर-दिसंबर-जनवरी-फरवरी में सेमिनारों का पिकनिक अथवा सपरिवार अथवा सप्रेमी-सपे्रमिका सैर-सपाटा भी तो होता है. उसमें भी बड़ी-बड़ी बातें होंगी. पूर्वोत्तर के सुदूर शैक्षणिक संस्थानों से लेकर कन्याकुमारी तक के शैक्षणिक संस्थानों तक में. हिंदी का विभाग है तो भी तो प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में और अमूमन सभी इलाके में. हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का यह एक बड़ा फायदा तो हिंदी को मिला ही है कि दे-दनादन विभाग खुले हैं और उन विभागों में प्रोफेसरों की नियुक्ति हुई है और फिर हिंदी के नाम पर सेमिनार आदि के लिए उदार मन से फंड जारी होता है, शातिर तरीके से उसकी फंडेबाजी होती है.

बहरहाल बात दूसरी. आत्ममुग्धता और सौतिया डाह के बीच असल बातों पर बात नहीं होगी. पुस्तक मेले में होनेवाले आयोजनों में हिंदी साहित्य की किताबें न बिकने का रोना तो रोया जाएगा लेकिन इसकी मूल वजह क्या है, इस पर शायद ही कोई खुलकर बोले. पाठकों को गरियाया जाएगा, थोड़ा लुका-छिपाकर प्रकाशकों को कोसा जाएगा और फिर इधर-उधर की कुछ और बातों का घालमेल कर एकरसा बातें हर मंचों पर दुहरायी जाएगी. कहा जाएगा- हिंदी का समाज मरा हुआ है, कंजूस है, संस्कृति ही नहीं है पढ़ने की. लेकिन ऐसे मंचों पर यह सवाल नहीं उठेगा कि देश के लगभग तमाम हिस्से में, तमाम विश्ववविद्यालयों में हिंदी विभाग है और लाखों की संख्या में हिंदी साहित्य पढ़नेवाले छात्र-छात्राएं हैं, हजारों की संख्या में हिंदी के प्राध्यापक-शिक्षक हैं तो फिर हिंदी साहित्य के किताबों की यह दशा क्यों है? क्यों बाजार में हजार निकल जाना ही बेस्टसेलर जैसा बना देता है. आखिर क्या कर रहे हैं हजारों की तनख्वाह लेकर देश के तमाम इलाके में पसरे हिंदी के प्राध्यापक. वे हिंदी साहित्य को लेकर कैसी चेतना विकसित कर रहे हैं अपने छात्र-छात्राओं में कि कम से कम वे भी पाठक नहीं बन पा रहे. और यह भी कि अगर हिंदी साहित्य के पाठक तक विश्वविद्यालयों के जरिये तैयार नहीं हो पा रहे तो क्या वे हिंदी साहित्य में शोध की दुनिया में कुछ नया देने में उर्जा लगाये हुए हंै, जो ऐसा नहीं कर पा रहे.

फिलहाल, हिंदी साहित्य में पाठक बनाने, साहित्य में रुचि जगाने से पहले हिंदी साहित्य में शोध की क्या स्थिति है और क्या है, उसके लिए एक उदाहरण पर भी बात कर लेते हैं. बात कुछ माह पहले की है. पूर्वोत्तर की एक खबर थी. मणिपुर विश्वविद्यालय की. साल के आरंभ में ही यह खबर आयी थी. खबर थी कि मणिपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की एक प्राध्यापिका डॉ एच सुबादानी देवी ने अपने शोध विद्यार्थियों को गजब तरीके से शोध करवाकर पीएचडी करवाया है. इस मामले को लेकर उत्तरप्रदेश में कार्यरत संस्था सेव एजूकेशन ग्रुप ने यूजीसी में मामला भी दर्ज करवाया था. टाईम्स आफ इंडिया ने विस्तृत रिपोर्ट छापी थी. क्या हुआ कुछ पता नहीं. मामला यह था कि डॉ सुबादानी ने एक विषय का छोर पकड़ी थी और उसी पर दे-दनादन हिंदी में पीएचडी करवाने लगी थी. जैसे भिष्म साहनी के उपन्यायों का समाजशास्त्रीय अध्ययन, अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन, कमलेश्वर के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन, मन्नु भंडारी के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन. ऐसे ही न जाने कितने लोगो के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन करवायी थी. यह मान भी लिया जाए कि साहित्य के सामाजिक पक्षों से उनका विशेष अनुराग रहा होगा इसलिए वे ऐसे विषयों पर श्रृंखला में शोध करवायी होंगी लेकिन यह मान लेने का कोई कारण नहीं बचता, क्योंकि उनके शोधार्थी, एक दूसरे के थेसिस से सीधे-सीधे कई-कई पन्ने कट-पेस्ट मारकर साहित्य के समाशास्त्रीय पक्ष का अध्ययन करते रहे. इस मामले पर केस हुआ, रिपोर्ट फाइल हुई लेकिन हिंदी साहित्य की प्रगति में अंग्रेजी साहित्य को बाधा माननेवाले और लोकभाषाओं के साहित्य को महत्वहीन माननेवाले हिंदी के साहित्य जगत में ऐसे विषय चिंता के प्रश्न नहीं बने. विरोध दर्ज कराने के सवाल नहीं बने.

हिंदी साहित्य जगत में विश्वविद्यालयी परिसर में जो खेल चलता है, उसमें डॉ सुबादानी का कारनामा कोई इकलौता कारनामा हो,यह नहीं कहा जा सकता. वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति कहते हैं कि ऐसे-ऐसे प्राध्यापक हिंदी साहित्य में भरे हुए हैं, जिन्हें यह तक नहीं पता रहता कि आखिर हिंदी साहित्य जगत में हो क्या रहा है. वे किसी भी रचनाकार के साहित्य पर पीएचडी करवाने को तैयार हो जाते हैं और फिर खुद से रचनाकार से बात करने भी हिचक होती है  तो छात्र-छात्राओं से रचनाकारों को फोन कर पूछते रहते हैं कि आपकी कोई नयी किताब आयी है क्या, फलनवा ने कुछ लिखा है क्या, हिंदी साहित्य में और क्या हुआ है नया. शिवमूर्ति कहते हैं कि दूसरी ओर विडंबना यह होती है कि जो शोध करने छात्र पहुंचे हैं, उनका स्तर यह होता है  कि वे ठीक से एक आवेदन तक नहीं लिख सकते.

बहरहाल डॉ सुबादानी या मणिपुर विश्वविद्यालय के इस प्रकरण की चरचा प्रसंगवश हो गयी. यह बताने के लिए हिंदी साहित्य की पुस्तकों पर रोना रोने के मौसम में यह सब बातों पर बात नहीं होगी. हिंदी में अधिक से अधिक आयोजन हो, हिंदी के नाम पर जैसे हर साल सितंबर में सरकारी पैसे हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा आदि मनता है, वह चलता रहे, यही चिंता रहती है.

रूदन-क्रंदन से हिंदी का भला होगा, इसकी संभावना तो नहीं दिखती. आत्ममुग्ध होने से हिंदी साहित्य अपनी जड़ता को तोड़ पाएगा, इसकी संभावना भी नहीं दिखती. जड़ता को तोड़ने के लिए जड़ों को ही देखना होगा. विश्वविद्यालय में लाखों की संख्या में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को पहले हिंदी साहित्य से जोड़ना होगा, प्राध्यापकों को खुद हिंदी साहित्य का पाठक बनना होगा, और देश के हर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में बैठे डॉ सुबादानियों के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज भी बुलंद करनी होगी.

बाल यौन शोषण रैकेट

इस मामले के एक आरोपित रेमंड वेर्ली के प्रत्यर्पण के लिए ब्रिटेन में मुकदमा चल रहा है.

भारत में ऐसी कई आपराधिक घटनाएं हुई हैं जिनके बाद कानूनों में बदलाव हुए या नए कानून बने. गोवा में उजागर हुआ बाल यौन शोषण रैकेट का मामला भी ऐसा ही था. 1991 में गोवा अचानक उस समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आया जब पुलिस ने गुरुकुल नाम के एक अनाथाश्रम में छापा मारकर यहां रहने वाले बच्चों के यौन शोषण का मामला उजागर किया. इस अनाथाश्रम का संचालक जर्मन मूल का एक नागरिक फ्रेडी अल्बर्ट पीट्स था. पीट्स इस रैकेट का मुखिया था. इस प्रकरण के दुनियाभर में चर्चित होने की वजह यह थी कि इसके सातों मुख्य आरोपित विदेशी थे. ये लोग स्वीडन, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड जैसे विकसित देशों से थे इसलिए सभी जगह इस मामले की चर्चा हुई. भारत में भी यह अपनी तरह का पहला मामला था. जांच आगे बढ़ने के साथ-साथ यह भी साफ हुआ की कुछ बच्चों को आरोपितों के साथ कई बार विदेश भेजा गया और कई दिनों तक उनका वहां शोषण किया गया. यह रैकेट 1989 से चल रहा था.

पीट्स को 1991 में गिरफ्तार किया गया और इसके एक साल बाद सभी आरोपितों के खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया गया. बाद में सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गई. इस मामले की सुनवाई में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि आरोपितों को कैसे उनके मूल देश से प्रत्यर्पित करवाया जाए. सीबीआई को इस मामले में पहली सफलता तब मिली जब ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने 1998 में इस अपराध में शामिल अपने नागरिकों को भारत सरकार को सौंप दिया. पीट्स के साथ इन दोनों को सजा सुनाई गई थी. इस मामले के बाकी आरोपित आज तक पकड़ में नहीं आ सके हैं. इनमें से एक रेमंड वेर्ली पिछले कुछ महीनों से चर्चा में है. ब्रिटेन के नागरिक वेर्ली ने वहां की अदालत में अपने प्रत्यर्पण के खिलाफ अपील की है जिस पर अभी अंतिम फैसला आना बाकी है.

इस घटना के बाद गोवा में बाल यौन शोषण के खिलाफ एक नया कानून- गोवा बाल अधिकार कानून- 2003  बनाया गया था. आज यह इस तरह के मामलों में सबसे आदर्श और सक्षम कानून माना जाता है.

‘यह सिर्फ मांग नहीं है, जिंदगी का सवाल है’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

कौन

उत्तर प्रदेश की आशा बहू कार्यकर्ताएं

कब

07-14 अक्टूबर 2014

कहां

जंतर मंतर, नई दिल्ली

क्यों

‘हम और हमारी साथी आशा बहुएं सरकार की स्वास्थ्य योजना को गांव-देहात में लागू करवाती हैं. हम गली-देहात में भटक-भटक कर काम करती हैं और सरकार हमारी ही अनदेखी करने में लगी हुई है. सरकार के डॉक्टर देहात में जाना नहीं चाहते. जहां वो नहीं जाते या जाना नहीं चाहते वहां आशा बहुएं पहुंचती हैं. नवजात बच्चों और माताओं की देखभाल करती हैं. बालिका भ्रूण की हत्या रोकने में हम सरकार की मदद कर रही हैं. लेकिन इन आशा बहुओं की चिंता किसी को नहीं है. इतनी बड़ी संख्या में हम पिछले कई दिनों से यहां धरने पर बैठी है लेकिन किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा,’ अपनी नाराजगी का इजहार करती सीमा सिंह वर्ष 2005 से आशा बहू कर्यकर्ता हैं. तब से लेकर आजतक वो अपने इलाके के हर गांव, हर टोले में घूम-घूम कर महिला और नवजात बच्चों के स्वास्थ्य की देखरेख कर रही हैं. आज सीमा सिंह के नेतृत्व में ही प्रदेश भर की आशा बहुएं दिल्ली के जंतर-मंतर पर जुटी हैं. इनकी मांगों को जानने से पहले यह जान लिया जाए कि इनकी नियुक्ति कैसे और किस आधार पर हुई. भारत सरकार ने साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के तहत ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने के लिए आशा बहू नियुक्त करने की शुरुआत की थी. भारत सरकार ने प्रति 1000 आबादी पर 1 आशा कार्यकर्ता रखने का लक्ष्य रखा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 1,139 लोगों पर एक आशा कार्यकर्ता है. आज की तारीख में उत्तर प्रदेश में 1,36,094  आशा बहू कार्यकर्ता  हैं, जो भारत में सबसे ज्यादा हैं. उत्तर प्रदेश की आशा कार्यकर्ताओं को कोई निश्चित मानदेय नहीं मिलता. अगर कोई कार्यकर्ता किसी गर्भवती महिला को प्रसव के लिए अस्पताल लेकर जाती है तो उसे 600 रुपये और बच्चों के टीकाकरण पर 150 रुपये मिलते हैं.

वहीं देश के कुछ दूसरे राज्यों में आशा बहू कार्यकर्ताओं को महीने में तय मानदेय दिया जाता है. इसी आधार पर उत्तर प्रदेश की आशा कार्यकर्ताएं मांग कर रही हैं कि उन्हें भी महीने में तय मानदेय दिया जाए. उन्हें शिक्षामित्र की तरह स्वास्थमित्र या स्वास्थ्य कार्यकर्ता का दर्जा दिया जाए. आजमगढ़ जिले के ठेकमा पंचायत में आशा कार्यकर्ता के तौर पर जुड़ी विभा राय का कहना है, ‘इसी देश में जब कई राज्य अपनी कार्यकर्ताओं को तय मानदेय दे रहे हैं  तो यूपी सरकार क्यों नहीं दे सकती. हम काम करती हैं तो अपना हक मांग रही हैं. कोई बिना वजह बात तो नहीं कर रहीं.’ विभा आगे बताती हैं, ‘अलग-अलग मदों में मिलने वाले अनुदान को अधिकारी आपस में ही बंदरबांट कर लेते हैं. हमें जो मिलता है वो बहुत कम होता है. हम दिन रात काम करती हैं, लेकिन हमंे सरकार से मानदेय तक नहीं मिलता. हम दूसरी महिलाओं के स्वास्थ्य की रिपोर्ट तैयार करती हैं लेकिन अपनी सेहत ठीक नहीं रख पाती हैं. नवजात बच्चों की देखरख का जिम्मा हमारा है. लेकिन हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए एक पैसा नहीं जोड़ पाती हैं. अब बताइए ऐसे कैसे सुधरेगा देश का भविष्य? आशा कार्यकर्ता के बच्चे भी तो देश का भविष्य हैं. इनका ध्यान कौन रखेगा?’

गांव में स्वास्थ्य को लेकर जागरुकता फैला रही ये कार्यकर्ताएं अब अपनी मांग को लेकर मोर्चा खोल चुकी हैं. तय मानदेय के अलावा ये चाहती हैं कि आशा बहू कार्यकर्ता के जीवन की बीमा सरकार कराए ताकि अगर कल को ड्युटी के दौरान किसी कार्यकर्ता के साथ कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसके परिवार को कुछ मदद मिल सके. अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

चार दिन जंतर मंतर पर बैठने के बाद केंद्रीय स्वास्थ मंत्री ने इनसे बातचीत की है और विश्वास दिलाया कि अगर इनकी मांगे जायज हुई तो इन्हें पूरा करने की कोशिश की जाएगी. स्वास्थ्य मंत्री से मिले भरोसे के बाद फिलहाल जंतर मंतर का धरना स्थगित कर दिया गया है. लेकिन आशा कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर स्वास्थ्य मंत्री ने अगले कुछ महीनों में उनकी मांगों को लेकर कोई घोषणा नहीं की तो फिर से दिल्ली में धरना दिया जाएगा. जिला मऊ में बतौर आशा कार्यकर्ता काम करने वाली संजू सिंह कहती हैं, ‘ई केवल मांग नहीं है. ई हम कार्यकर्ताओं के लिए जिनगी(जिंदगी) का सवाल है इसलिए लड़ना तो पड़ेगा ही.’