Home Blog Page 1376

जेटगेट पड़ताल: जिन्हें जेट ने दिए फायदे

रॉबटट वाड्रा |  व्यवसायी
रॉबटट वाड्रा | व्यवसायी
रॉबर्ट वाड्रा और उनके सहयोगी मनोज अरोड़ा ने कम से कम आठ बार इकोनॉमी दर्जे की टिकट को प्रथम श्रेणी के टिकट में अपग्रेड करवा कर विदेश यात्रा की. वाड्रा ने अपनी मां के साथ लंदन और मिलान की यात्रा भी अपग्रेड किए हुए टिकटों पर की. उन्हें हर यात्रा के दौरान एमएएएस की सुविधा भी दी गई.अपग्रेड करने में हुए नुकसान की कीमत एक करोड़ रुपए

जेनिफर डीसिल्वा (नरेश गोयल की मुख्य कार्यकारी सहायक) द्वारा विनोद सरीन (वाइस प्रेसीडेंट कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन) को भेजा गया एक मेल इस मामले से पर्दा हटा देता है

proof_screeshot

जेनिफर डीसिल्वा का मेल

‘विनोद जी, आप तीनों के साथ काम करना बेहद कठिन है. राज से जो बात मुझे पता चली उसके मुताबिक शिवनंदन ने प्रथम श्रणी अपग्रेड के लिए आवेदन भेजा था और उसे खुद ही कर भी दिया. वे (वाड्रा) हमारे मामलों में बाहरी लोगों को क्यों शामिल करते हैं?’

विनोद सरीन का मेल

‘अतीत में भी उन्होंने इकोनॉमी क्लास में टिकट बुक करके उसे प्रथम श्रेणी में अपग्रेड करवाया है.’


केएन श्रीवास्तव | पूर्व नागरिक उड्डयन सचिव
केएन श्रीवास्तव | पूर्व नागरिक उड्डयन सचिव
2012 से 2014 के बीच केएन श्रीवास्तव और उनके परिजनों को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय उड़ानों की लगभग 50 मुफ्त टिकटें जेट एयरवेज ने मुहैया करवाई. एक आंतरिक मेल कहता है, ‘वे अतिविशिष्ट व्यक्ति हैं. उन्हें जो भी चाहिए वह उपलब्ध करवाएं और जो भी उनके साथ हो उसका ध्यान रखें.’ श्रीवास्तव ने अपने कई रिश्तेदारों, दोस्तों और सहयोगियों को मुफ्त का टिकट पाने में सहायता की. उन सभी टिकटों की वास्तविक कीमत करीब 5 से 6 करोड़ रुपए है

वीपी अग्रवाल | पूर्व अध्यक्ष, एएआई
वीपी अग्रवाल | पूर्व अध्यक्ष, एएआई
वर्ष 2012 से 2013 के बीच जेट एयरवेज ने अग्रवाल और उनके परिजनों को 10 अंतरराष्ट्रीय और ढेर सारे घरेलू टिकट नि:शुल्क उपलब्ध करवाए. उनको दिए गए टिकटों का वास्तविक मूल्य 3 से 4 करोड़ रुपए है

आलोक सिन्हा  | पूर्व अध्यक्ष, एएआई
आलोक सिन्हा | पूर्व अध्यक्ष, एएआई
आलोक सिन्हा और उनकी पत्नी प्रीति सिन्हा ने केएन श्रीवास्तव की संस्तुति नई दिल्ली से नेवार्क आने जाने की यात्रा जेट एयरवेज से की. इस यात्रा के लिए उन्होंने 7,440 रुपए बतौर किराया चुकाया जबकि इस यात्रा के टिकटों का वास्तविक मूल्य 15 लाख रुपए था

ललित गुप्ता | संयुक्त निदेशक डीजीसीए
ललित गुप्ता | संयुक्त निदेशक डीजीसीए
वर्ष 2012 में ललित गुप्ता को 20 लाख रुपए
की अंतरराष्ट्रीय टिकटें नि:शुल्क मुहैया करवाई गईं

ईके भरत भूषण | केरल के मुख्य सचिव और पूर्व महानिदेशक, नागरिक उड्डयन विभाग
ईके भरत भूषण | केरल के मुख्य सचिव और पूर्व महानिदेशक, नागरिक उड्डयन विभाग
कथित तौर पर ईमानदार छवि वाले भरत भूषण ने अपने और परिजनों के लिए अमृतसर से दिल्ली की यात्रा करने के लिए 1 लाख रुपए मूल्य की मुफ्त टिकटें जेट एयरवेज से प्राप्त की. भूषण और उनके परिजनों को लाभ पहुंचाने के लिए जेट एयरवेज ने उन यात्रियों को विमान से उतार दिया जिनके टिकट पहले से कन्फर्म थे. सीबीआई ने अपनी जांच के दौरान जेट एयरवेज से डीजीसीए की संस्तुति पर दिए गए नि:शुल्क टिकटों की जानकारी भी मांगी थी लेकिन हमारी पड़ताल में सामने आया कि खुद डीजीसीए ही मुफ्त की टिकटों का लाभ उठा रहे थे

कमलनाथ  | कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री
कमलनाथ | कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री
कमलनाथ की सिफारिश पर गौतम मिगलानी और चिंकी पुरी (कमलनाथ के निजी सचिव आरके मिगलानी के पुत्र और बहू) ने पिछले साल अगस्त में नई दिल्ली से सिंगापुर की रिटर्न यात्रा की थी. इस जोड़े की टिकट को प्रथम श्रेणी में अपग्रेड किया गया था जिसकी वास्तविक कीमत तीन लाख रुपए थी

अजित सिंह | पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री
अजित सिंह | पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री
अजित सिंह की सिफारिश पर उनके ओएसडी समरपाल सिंह ने फरवरी 2013 में दुबई से नई दिल्ली की यात्रा की. उनके टिकट को अपग्रेड किया गया जिसका मूल्य 50,000 रुपए था. इसी साल के अंत में अजित सिंह की पत्नी रेशमी सिंह ने नई दिल्ली से रायपुर की यात्रा मुफ्त के टिकट पर की जिसका मूल्य 25,000 रुपए था

जेएस मान  | एयरफोर्स स्टेशन श्रीनगर मैं तैनात रहे पूर्व अधिकारी
जेएस मान | एयरफोर्स स्टेशन श्रीनगर मैं तैनात रहे पूर्व अधिकारी
2013 में जेएस मान और उनके परिवार को श्रीनगर से दिल्ली आने-जाने के लिए 25,000 रुपए की मुफ्त हवाई टिकटें दी गईं. जेट एयरवेज के आंतरिक मेल से पता चला है कि मान ने भी श्रीनगर में नियुक्ति के दौरान कंपनी को फायदा पहुंचाया

अनुज कुमार  | रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष अरुणेंद्र कुमार के पुत्र
अनुज कुमार | रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष अरुणेंद्र कुमार के पुत्र
इस साल की शुरुआत में अनुज कुमार ने नई दिल्ली से नेवार्क की यात्रा जेट एयरलाइन के विमान से प्रथम श्रेणी के टिकट पर की. यह टिकट उन्हें मुफ्त में दिया गया था जिसका वास्तविक मूल्य पांच लाख रुपए था

जेट के जमाई

एक जोड़े को हवाई जहाज के इकॉनोमी क्लास में दिल्ली से लंदन आने जाने के लिए करीब एक लाख रुपए तक खर्च करना पड़ता है. लेकिन मनोज मालवीय इतने ही खर्च में पिछले कुछ सालों के दौरान दुनिया भर की 28 खूबसूरत जगहों की सैर कर चुके हैं.

पश्चिम बंगाल कैडर के 1986 बैच के आईपीएस अधिकारी मालवीय ने ये यात्राएं उस दौरान की जब वे नागरिक उड्डयन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) में प्रतिनियुक्ति पर थे. उन्होंने कथित रूप से अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए निजी विमान कंपनियों की घरेलू व अंतरराष्ट्रीय उड़ानों का जमकर लाभ उठाया और मुफ्त में दुनिया भर की सैर की. जिन उड़ानों पर मालवीय ने मात्र एक लाख रुपये खर्च किए उनका वास्तविक खर्च करीब छह करोड़ रुपये होता है.

निजी विमान कंपनी जेट एयरवेज द्वारा मुफ्त में हवाई सैर कराने के इस मामले की पड़ताल जब तहलका ने शुरू की तब एक ऐसी कहानी सामने आई जिसमें उड्डयन विभाग के तमाम अधिकारी और नेता लिप्त थे. पड़ताल से सामने आए पूरे आंकड़ों के सामने मुफ्त उड़ान का लुत्फ लेने वाले मालवीय बहुत छोटे खिलाड़ी सिद्ध हुए. पिछले कई साल से नागरिक उड्डयन मंत्रालय और नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) के उच्च अधिकारी, वीआईपी और राजनेता अपनी हैसियत का दुरुपयोग कर निजी विमान कंपनियों से मुफ्त हवाई सैर का फायदा उठाते आ रहे हैं. उनकी इस शाहखर्ची की कीमत कई करोड़ रुपए में है.

जाहिर है, जब ये निजी विमान कंपनियां इन लोगों पर मुफ्त सेवाओं की बरसात कर रही हैं तो बदले में उड्डयन विभाग की नियामक संस्थाओं के ये वरिष्ठ अधिकारी भी इन विमान कंपनियों को किसी न किसी तरह का लाभ पहुंचाते होंगे. जैसे एक उदाहरण विदेशी लायसेंसधारक पायलटों की नियुक्ति को विस्तार देने से भी जुड़ा है ( बॉक्स- इस हाथ दे, उस हाथ  ले ).

jet_airwaysइस हाथ दे, उस हाथ ले

निजी एयरलाइन कंपनियां उड्डयन विभाग के कर्मचारियों को हमेशा खुश रखना चाहती हैं. इसकी एक वजह ‘फाटा (फॉरेन एयरक्रू टेंपरेरी अथॉराइजेशन)’ भी है. इस प्रावधान के तहत उड्डयन विभाग भारतीय एयरलाइन कंपनियों में विदेशी लाइसेंसधारी पायलटों को एक निश्चित समयावधि के लिए काम करने की अनुमति देता है. इसे फाटा एक्सटेंशन कहा जाता है. अगस्त में नागरिक उड्डयन मंत्री जीएम सिद्धेश्वरा ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि भारतीय एयरलाइनों में कुल 277 विदेशी पायलट काम कर रहे हैं और जेट एयरवेज में इनकी संख्या (121) सबसे ज्यादा है. तहलका के पास जेट एयरवेज के अध्यक्ष नरेश गोयल की चीफ एग्जिक्यूटिव असिस्टेंट जेनिफर डीसिल्वा और उनके जनसंपर्क विभाग के कर्मचारियों के बीच हुए मेल हैं. जेनिफर एक जुलाई, 2013 के एक मेल में रागिनी (चोपड़ा) और विनोद (सरीन) को लिखती हैं.

प्रिय रागिनी/विनोद,
‘हमें यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि कुछ महीनों पहले डीजीसीए ने फाटा के तहत हमें एक्सटेंशन दिया है. हमें यह आश्वासन भी दिया गया था कि इस बारे में लिखित में कुछ दिया जाएगा. मैंने श्री विनोद सरीन को कई बार फोन किए और रिमाइंडर भेजे लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया. हर बार यह बताया गया कि यह 2/3 दिन या अगले हफ्ते तक हो जाएगा….हमें मौखिक रूप से अनुमति दी गई थी और हम बस यह चाहते हैं कि लिखित रूप से इसकी पुष्टि कर दी जाए. क्या यह मुमकिन है? या हमें फिर से डीजीसीए और बंबई एयरपोर्ट के संबंधित अधिकारियों से मीटिंग करने की जरूरत है?’

सरीन ने उसी दिन जवाबी मेल लिखा, ‘… मैं शुक्रवार, 28 जून को डीजीसीए में ही था. मुझे यह बताया गया कि फाइल को वापस उड्डयन मंत्रालय भेजा गया है ताकि पत्र की भाषा में कुछ जरूरी बदलाव किए जा सकें. मैं आज मंत्रालय गया था और वहां बताया गया कि जेट एयरवेज को जरूरी अनुमति के लिए नया वाला पत्र डीजीसीए को कल तक भेजा जाएगा.’

एक हफ्ते बाद सरीन ने जेनिफर को सरकारी आदेश की एक प्रति भेजी जिसमें फाटा एस्टेंशन को 31 दिसंबर, 2016 तक बढ़ाए जाने की अनुमति दी गई थी. दिलचस्प बात है कि यह सूचना डीजीसीए की वेबसाइट पर बाद में आई. अप्रैल, 2013 में जेट एयरवेज के पायलटों के संगठन नेशनल एविएटर्स गिल्ड (नैग) ने तत्कालीन उड्डयन सचिव केएन श्रीवास्तव को एक पत्र लिखकर जेट एयरवेज को मिले फाटा एक्सटेंशन से जुड़ी अपनी चिंताएं जाहिर की थीं. उस समय जेट एयरवेज 100 विदेशी पायलटों को एयरलाइन में लाने की कोशिश कर रही थी. नैग के पत्र में साफ-साफ कहा गया था कि भारत में कमर्शियल लाइसेंसधारी पायलट पर्याप्त संख्या में हैं और उनकी संख्या 5000 से ज्यादा है. जेट एयरवेज के पायलटों को तब इस बात की जरा भी भनक नहीं होगी की जिस समय वे श्रीवास्तव को पत्र लिख रहे थे उसी समय उनकी पत्नी साधना नई दिल्ली से सिंगापुर जा रहे जेट एयरवेज की प्रीमियर क्लास की टिकट पर मुफ्त में यात्रा कर रही थीं. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अधिकारियों में श्रीवास्तव ने ही जेट एयरवेज का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है. ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर क्यों एयरलाइन कंपनियां सरकारी अधिकारियों को खुश रखती हैं.

साल 2013 की शुरुआत में सीबीआई ने मुफ्त हवाई टिकटों के दुरुपयोग के मामले की जांच शुरू की थी. इससे पता चला कि डीजीसीए के अधिकारी कथित तौर पर नियमों में मौजूद खामी का धड़ल्ले से गलत फायदा उठा रहे हैं.

एयरोनॉटिकल सूचना परिपत्र (एआईसी) – 2/1978 के मुताबिक भारत में पंजीकृत हर विमान ऑपरेटर या विमान मालिक को अपने विमान में एक सीट महानिदेशक की अनुशंसा पर नागरिक उड्डयन विभाग के अधिकारियों को आधिकारिक कामकाज के लिए मुफ्त में उपलब्ध करानी होगी. वर्ष 2012 में इस नियम को बदल दिया गया. इसके जरिए अनुशंसा करने का अधिकार अब महानिदेशक के अलावा दूसरे अधिकारियों को भी मिल गया. नियमों में यह बदलाव संभवतः केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा मुफ्त टिकटों के दुरुपयोग के मामले की जांच शुरू करने के कारण किया गया था.

मनोज मालवीय वर्तमान में बंगाल में एडीजीपी (वन) के पद पर कार्यरत हैं. वे उन लोगों में शामिल हैं जिनके खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही है.

तहलका के पास निजी विमान कंपनी जेट एयरवेज की आंतरिक सूचनाओं के आदान-प्रदान से जुड़े दस्तावेज मौजूद हैं. इन दस्तावेजों में नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अधिकारियों, नौकरशाहों, राजनेताओं और विशिष्ट लोगों के नाम और कितनी बार उन्होंने अपने परिवार और साथियों के साथ एयलाइन से मुफ्त उड़ान भरी, उसका खुलासा होता है.

naresh_jetking

इस सूची में सबसे महत्वपूर्ण नाम रॉबर्ट वाड्रा का है. सोनिया गांधी के दामाद और करोड़पति व्यवसायी वाड्रा को के अनुरोध पर नई दिल्ली से लंदन और वहां से दिल्ली रूट पर यात्रा करने के दौरान कम से कम आठ बार उनके इकॉनमी क्लास के टिकट को प्रथम श्रेणी में अपग्रेड किया गया. अंतिम बार बीते अक्टूबर  में उनका टिकट अपग्रेड किया गया था.

नई दिल्ली-लंदन रूट पर इकॉनमी क्लास का रिटर्न टिकट 78,090 रुपये में आता है जबकि फर्स्ट क्लास का किराया 3,09,560 रुपए है. अपनी हैसियत का दुरुपयोग करते हुए वाड्रा और उसके सहयोगी मनोज अरोड़ा ने बार-बार इकॉनमी क्लास के टिकट को प्रथम श्रेणी के टिकट में अपग्रेड करवाया.

जेट एयरवेज की आंतरिक सूचनाओं से इस कंपनी में वाड्रा के रसूख और असर का पता चलता है. कंपनी में ऊपर से लेकर नीचे तक उनकी हैसियत किसी भी संशय के परे थी.

वैसे तो एक प्राइवेट एयरलाइन के पास अपने विवेक के आधार पर किसी भी व्यक्ति को उच्च श्रेणी में अपग्रेड करने का अधिकार है. लेकिन जब वह व्यक्ति रॉबर्ट वाड्रा हों तो ‘विवेक’ की बात शायद सबसे आखिर में आए. दरअसल वाड्रा के जो फायदा पहुंचाया गया उससे साफ होता है कि वह उनकी  राजनीतिक हैसियत और तंत्र को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को देखते हुए किया गया. जिस तत्परता के साथ जेट एयरवेज का स्टाफ वाड्रा के लिए प्रथम श्रेणी का टिकट जारी कर रहा था और जिस तरीके से उनके सहयोगी जेट ऑफिस के वरिष्ठ अधिकारियों को फोन कर रहे थे उससे पता चलता है कि जितना सामने दिख रहा था उससे कहीं ज्यादा चीजें छुपी हुई थीं.

विनोद सरीन (वाइस प्रेसिडेंट, कॉर्पोरेट कम्यूनिकेशन, जेट एयरवेज) और जेनिफर डी सिल्वा (जेट एयरवेज के मालिक नरेश गोयल की चीज एग्जिक्यूटिव असिस्टेंट) के बीच हुए एक ई-मेल के आदान-प्रदान से पता चलता है कि वाड्रा हमेशा ही इकोनॉमी क्लास की टिकट खरीदते थे और फिर उसे प्रथम श्रेणी में अपग्रेड कर दिया जाता था. इसके साथ ही उन्हें मीट एंड असिस्ट सर्विसेज (एमएएएस) जैसी विशिष्ट सुविधा भी यात्रा के दौरान उपलब्ध करवाई जाती थी.

एक मेल में सरीन लिखते हैं, ‘अतीत में भी वाड्रा इकोनॉमी क्लास की टिकट खरीदते रहे हैं, जिन्हें बाद में प्रथम क्षेणी में अपग्रेड कर दिया जाता था.’ इसके जवाब में जेनिफर लिखती हैं ‘तुम तीनों लोगों के साथ काम करना बहुत ही मुश्किल है. राज की बातों से जो मुझे समझ आया उसके मुताबिक इस टिकट को प्रथम श्रेणी में अपग्रेड करने का निवेदन शिवनंदन की तरफ से आया था और उन्होंने इसे कर भी दिया. हमारे दफ्तर में वे (रॉबर्ट वाड्रा) हर बार किसी तीसरे व्यक्ति से बात क्यों करते हैं?’  एके शिवनंदन जेट एयरवेज में जनसंपर्क विभाग के वाइस प्रेसीडेंट हैं.

वाड्रा लंदन यात्रा का प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदने में सक्षम हैं तो फिर उनका ऑफिस टिकट अपग्रेड के लिए जेट एयरवेज के पास बार-बार निवेदन क्यों भेजता है. उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जेट एयरवेज उनकी मांग बार- बार पूरी क्यों करता है?

अपने बचाव में वाड्रा आसानी से दावा कर सकते हैं कि वे एक आम नागरिक हैं और इस तरह की मांग कर सकते हैं लेकिन नागरिक उड्डयन विभाग के अधिकारियों को इस तरह का कोई भी लाभ लेने की स्पष्ट मनाही है. इसके बावजूद मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी जेट एयरवेज से हर तरह की सुविधाएं लेने से खुद को रोक नहीं पाए.  ईके भारत भूषण (पूर्व प्रमुख डीजीसीए), केएन श्रीवास्तव ( पूर्व सचिव, नागरिक उड्डयन मंत्रालय), ललित गुप्ता (संयुक्त महानिदेशक, डीजीसीए) और वीपी अग्रवाल (एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष) जैसे अधिकारी इस मुफ्त की हवाई सैर में शामिल हैं.

अपनी जांच के दौरान सीबीआई ने जेट एयरवेज के नाम 10 जून, 2013 को एक मेल लिखा. इसका रेफरेंस नंबर पीई 6(A)/2012-डीएलआई है. मेल में पूछा गया था कि क्या सरकारी अधिकारियों ने 2009 से 2012 के बीच डीजीसीए के निवेदन पर मुफ्त टिकट जैसी कोई सुविधा हासिल की है? इसके जवाब में शिवनंदन ने 20 जून, 2013 को एक पत्र लिख कर सीबीआई को बताया कि उनकी कंपनी ने इस तरह का कोई मुफ्त टिकट किसी सरकारी अधिकारी को जारी नहीं किया है. जेट की तरफ से दी गई यह जानकारी पूरी तरह गलत है. तहलका को मिले ई-मेल इसके उलट कहानी बयान करते हैं. इसी तरह के एक मेल में जेनिफर, रागिनी चोपड़ा (जेट एयरवेज में कॉर्पोरेट कम्यूनिकेशन की वरिष्ठ अधिकारी) और सरीन से पूछती हैं, ‘ विनोद ने सरकारी अधिकारियों के लिए जो मांग की है उसके बारे में क्या राय है?… इस समस्या से अब तुम दोनों लोग ही निपटो.’

यह बहुत सामान्य बात है कि जिन अधिकारियों को मुफ्त टिकट की जरूरत होती है वे आधिकारिक तरीके से इसका आवेदन नहीं करते हैं. जेनिफर के मेल से यह बात साबित होती है कि जेट एयरवेज सरकारी अधिकारियों को इस पूरी समयावधि में मुफ्त के टिकट जारी करता रहा. जेनिफर और गोरांग शेट्टी (सीनियर वाइस प्रेसिडेंट, कमर्शियल) ही यात्रा से संबंधित आवेदन को स्वीकृत करने के लिए अधिकृत हैं.

तहलका के पास मौजूद ई-टिकट से साबित होता है कि भारत भूषण और उनके नौ करीबी लोगों ने 21 मार्च, 2012 को अमृतसर से नई दिल्ली की यात्रा जेट एयरवेज में मुफ्त के टिकट पर की. भुगतान की रसीद पर ‘एकाउंट्स 9w’ लिखा था. इसका मतलब होता है कि टिकट का मूल्य सभी कर सहित जेट एयरवेज ने वहन किया है.

भूषण और उनका परिवार अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर घूमने गया था. इस यात्रा से वापसी के दौरान नई दिल्ली की यात्रा के लिए जेट एयरवेज के सीईओ ने इन मुफ्त टिकटों की व्यवस्था की थी (टिकट पर दर्ज विवरण के मुताबिक).

भूषण वर्तमान में केरल के मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं. इनकी छवि एक ईमानदार अधिकारी की है. और कहा जाता है कि इन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान नागरिक उड्डयन मंत्रालय को साफ-सुथरा बनाने की कोशिशें की थी. बाद में जब अजित सिंह नागरिक उड्डयन मंत्री बने तब उन्हें डीजीसीए के प्रमुख पद से हटा दिया गया.

हवा हवाई सुरक्षा

airway_jetking

एयरलाइन कंपनियां मनोज मालवीय की नाराज करने का खतरा मोल नहीं ले सकती थीं. मालवीय उड्डयन विभाग में सुरक्षातंत्र संभालने वाले उच्चाधिकारी रहे हैं और उनके पास रूट तय करने के साथ ही इतने अधिकार हैं कि वे किसी भी एयरलाइन कंपनी की नाक में दम कर सकते थे. जाहिर है कि मालवीय को यह भी पता था कि यह ताकत कंपनियों से फायदा उठाने के लिए पर्याप्त है. सीबीआई के मुताबिक तत्कालीन नागरिक उड्डयन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) के अतिरिक्त आयुक्त मालवीय ने 2005 से लेकर 2010 तक अपने परिवार को लेकर दुनिया भर में 28 यात्राएं की थीं. कहा जा रहा है कि इन यात्राओं के टिकट की कुल कीमत करीब छह करोड़ रुपए होती है लेकिन उन्होंने इसके बदले सिर्फ एक लाख रुपये चुकाए. आईपीएस अधिकारी रहे मालवीय प्रतियुक्ति पर नागरिक उड्डयन विभाग में सेवाएं दे रहे थे. बाद में उन्हें पश्चिम बंगाल भेज दिया गया जहां वे अब एडीजीपी (वन विभाग) हैं. फिलहाल मालवीय के खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है.
तहलका के पास जेट एयरवेज के कॉर्पोरेट कम्यूनिकेशन विभाग के उपाध्यक्ष विनोद सरीन के मेल हैं. इनसे पता चलता है कि कैसे मालवीय और उनके परिवार को मुफ्त की हवाई सैर करवाई गई है. 22 सितंबर, 2009 को सरीन ने अपनी सहयोगी प्रेमिला कांगा को एक मेल लिखा था :

डियर मैडम,
श्री मनोज मालवीय को आईसीसीओ मीटिंग के लिए एक आधिकारिक यात्रा पर मॉन्ट्रियल जाना है. साथ में उनका परिवार भी होगा. उन्होंने मुझे सहयोग करने के लिए फोन किया था और इसलिए हम उन्हें कुछ टिकट दे रहे हैं. टोरंटो- मॉन्ट्रियल-टोरंटो की एक टिकट की कीमत 27 हजार रुपये है और ये चार (पत्नी और तीन बच्चे) लोग हैं. मैडम मैं आपकी अनुमति चाहता हूं जिससे कि टोरंटो- मॉन्ट्रियल-टोरंटो के बीच उनकी यात्रा के लिए एयर कनाडा से टिकट लिए जा सकें या फिर आप हमारे टोरंटो ऑफिस से टिकट के लिए कह दें, वहां टिकट सस्ती मिल सकती हैं.’

25 मार्च, 2010 को जेट एयरवेज के मुख्य सुरक्षा अधिकारी लेफ्टिनेंड कर्नल जोती शंकर ने सरीन को एक मेल किया :

डियर मि. सरीन,
जैसी कि हमारी चर्चा हुई थी, नागरिक उड्डयन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) के अतिरिक्त आयुक्त श्री मनोज मालवीय ने एम्सटर्डम में दो रातों (27 और 28 मार्च, 2010) के लिए किसी होटल में कमरा बुक करने का निवेदन किया है लेकिन ये बुकिंग किसी अलग नाम से की जानी है. उन्होंने ब्रुसेल्स से एम्सटर्डम तक के लिए एक वाहन की व्यवस्था करने का भी निवेदन किया है.’

नागरिक उड्डयन विभाग के भ्रष्ट सुरक्षा अधिकारी और उनका साथ देने वाले एयरलाइन के कर्मचारियों की मिलीभगत से एयरलाइनों का सुरक्षातंत्र खतरे में पड़ गया है. 2011 और इस साल जून के बीच 100 से ज्यादा पायलट उड़ानपूर्व परीक्षण में नशे की हालत में पाए गए. इनमें सबसे ज्यादा संख्या (28) जेट एयरवेज के पायलटों की है. इसके बाद इंडिगो और स्पाइसजेट (दोनों के 17) के पायलट दोषी पाए गए.

दो साल पहले बीसीएएस की एक ऑडिट रिपोर्ट से पता चला था कि कैसे मेट्रो शहरों के अतिरिक्त अन्य जगहों पर बने हवाई अड्डों की सुरक्षा व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं. जांच में पाया गया था कि इन हवाई अड्डों की एक्स-रे मशीनें और मेटल डिटेक्टर काम लायक नहीं थे. बहुत से हवाई अड्डों पर विस्फोटक जांच के उपकरण भी नहीं थे.

बीसीएएस का वरिष्ठ अधिकारी होने नाते इन सुरक्षा चूकों की जिम्मेदारी मालवीय की भी बनती है. लेकिन वह अधिकारी जिसका परिवार मुफ्त में हवाई यात्रा करता हो आखिर कैसे इन गंभीर खामियों पर कड़ी कार्रवाई कर सकता है? ऐसे गठजोड़ों से कई सवाल खड़े होते हैं. जैसे निजी एयरलाइन कंपनियां मालवीय जैसे अधिकारियों को उपकृत क्यों करती रहती हैं? इसके बदले में उन्हें क्या मिलता है? मालवीय इस मामले में बस एक छोटा सा उदाहरण भर हैं. मालवीय जैसे कई अधिकारी और हो सकते हैं जो ऐसी मुफ्त यात्रा के बदले एयरलाइन कंपनियों को अपनी मनमानी करने देते होंगे. यह गठजोड़ देश की हवाई सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है.

डीजीसीए प्रमुख के पद पर रहते हुए जिस तरह से भूषण ने अपने परिवार और नजदीकी लोगों को मुफ्त टिकट मुहैया कराए वह दिखाता है कि इस नियामक संस्था और निजी विमानन कंपनियों के बीच किस तरह का अनैतिक गठजोड़ कायम हो चुका है.

लेकिन पूर्व उड्डयन सचिव केएन श्रीवास्तव उन नौकरशाहों में सबसे आगे हैं जिन्होंने जेट एयरवेज की मुफ्त सेवाओं का लाभ उठाया. श्रीवास्तव और उनका परिवार मुफ्त के टिकटों पर पूरी दुनिया की सैर कर चुका है.

इसकी एक झलक 10 जुलाई, 2013 को सरीन द्वारा जेनिफर को भेजे गए एक मेल से मिलती है-

डियर मैम,

मिस्टर केएन श्रीवास्तव की तरफ से एक निवेदन आया है. इसमें उन्होंने अपने पुत्र और परिजनों के लिए 4 टिकट मांगे हैं. इनके विवरण निम्नवत हैं-

नाम –

नितीश श्रीवास्तव

मुक्ता श्रीवास्तव

गर्व श्रीवास्तव

सैक्टर- बीएलआर-डीईएल / 9 डब्ल्यू-814 / 10 अक्टूबर

डीईएल-वीएनएस / 9 डब्ल्यू / 2423 / 11 अक्टूबर

वीएनएस-डीईएल / 9 डब्ल्यू / 2424 / 15 अक्टूबर

डीईएल- बीएलआर / 9 डब्ल्यू/ 807 / 16 अक्टूबर

 नौ फरवरी, 2013 को उन्होंने जेनिफर को एक और मेल भेजा.

डियर मैम

नागरिक उड्ययन सचिव केएन श्रीवास्तव ने अपने और अपनी पत्नी के लिए टिकट का आग्रह किया है, जिसका विवरण नीचे है-

 नाम – केएन श्रीवास्तव

साधना श्रीवास्तव

सैक्टर- डीईएल-वीएनएस / 04 सितंबर, 13 /9 डब्ल्यू- 2423

डीईएल-वीएनएस / 07 सितंबर, 13 /9 डब्ल्यू- 2424

तहलका के पास मौजूद ई-टिकट की प्रतियों से साबित होता है कि श्रीवास्तव और उनकी पत्नी साधना श्रीवास्तव ने चार सितंबर को नई दिल्ली से वाराणसी की नि:शुल्क हवाई यात्रा की थी. नौ अप्रैल, 2013 को साधना ने प्रीमियर श्रेणी के टिकट से सिंगापुर की मुफ्त यात्रा की. यहां तक कि उनकी तरफ से टैक्स के रूप में भरे जाने वाले 2,115 रुपये भी जेट एयरवेज ने ही चुकाए.श्रीवास्तव को दी गई सुविधाओं की सूची बहुत लंबी है. ऐसे में इस बात की सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि नागरिक उड्डयन विभाग के इस उच्च अधिकारी ने खुद को मिली मुफ्त यात्राओं के एवज में जेट एयरवेज और अन्य निजी कंपनियों को क्या-क्या लाभ पहुंचाए होंगे.

भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) के पूर्व अध्यक्ष रह चुके वीपी अग्रवाल भी इन्हीं लोगों की फेहरिश्त में शामिल हैं जिन्होंने जेट एयरवेज की मुफ्त सेवाओं का लाभ उठाया. 11 मई 2012 को भेजे गए एक ई-मेल में सरीन ने अपनी टीम से अभिषेक अग्रवाल के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था (एमएएएस) करने और प्रीमियर श्रेणी में टिकट अपग्रेड करने को कहा. यह यात्रा नई दिल्ली से न्यूयॉर्क (वाया ब्रुसेल्स) और फिर वहां से दिल्ली वापसी की थी. अपने मेल में सरीन ने यह भी लिखा कि ‘अभिषेक भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) के अध्यक्ष वीपी अग्रवाल के पुत्र हैं और जेट एयरवेज के लिए काफी मददगार हैं.’

दो दिन बाद सरीन ने अग्रवाल की बहू सुगंध अग्रवाल के लिए भी इसी तरह की व्यवस्था का आग्रह करने वाला एक मेल लिखा. उन्होंने लिखा, ‘वे भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) के अध्यक्ष वीपी अग्रवाल की बहू हैं. वीपी अग्रवाल जेट एयरवेज के लिए काफी मददगार हैं.’

तहलका को मिले एक अन्य मेल से पता चलता है कि सरीन ने पिछले साल इसी तरह की सुविधाएं वीपी अग्रवाल की बेटी चारुवी अग्रवाल को भी नई दिल्ली से टोरंटो की हवाई यात्रा के लिए भी मुहैया करवाई थीं.

Jet_Airways_tehelka

किसी को भी इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि वीपी अग्रवाल आखिर किस प्रकार से जेट एयरवेज के लिए मददगार रहे हैं.

सरीन के ई-मेल से और भी कई अधिकारियों के ‘जेट एयरवेज के लिए मददगार’ होने का पता चलता है. इस कड़ी में अगला नाम डीजीसीए के संयुक्त निदेशक ललित गुप्ता का है. गुप्ता को हवाई यात्राओं का लाभ देने के लिए भी सरीन ने एक से अधिक मौकों पर अपनी टीम से उसी तरह का आग्रह किया जैसा उन्होंने वीपी अग्रवाल के परिजनों के लिए किया था.

जेट एयरवेज की हवाई सेवाओं से कृतार्थ होने वालों में सिर्फ राजनीतिक शख्सियत और अधिकारी ही नहीं हैं. तहलका द्वारा जुटाए गए दस्तावेज बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में चीफ ऑपरेशन अधिकारी रह चुके ग्रुप कमांडर जेएस मान ने भी जेट एयरवेज की तरफ से मिली निशुल्क हवाई यात्रा का आनंद लिया है. तहलका के पास इससे जुड़े दस्तावेज मौजूद हैं.

पिछले महीने सरीन ने जेनिफर को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने जेएस मान तथा उनके परिवार के लिए नई दिल्ली से श्रीनगर तक रियायती टिकट उपलब्ध कराने को कहा. उन्होंने लिखा, ‘मान 9डब्ल्यू में हमारे लिए काफी मददगार रहे है और हमारी दैनिक उड़ानों के संचालन में मान काफी सहायता की है. आने वाले शीतकालीन शेड्यूल के लिए भी उन्होंने मंजूरी दे दी है.’

सूत्रों के मुताबिक जिस वक्त सीबीआई मालवीय मामले की जांच कर रही थी, उसी दौरान सीबीआई ने सरीन को मालवीय के खाते में ढाई लाख रुपये जमा करते हुए पकड़ा था. लेकिन बताया जाता है कि राजनीतिक दबाव के चलते यह मामला बंद कर दिया गया. बाद में कहा गया कि सरीन ने मालवीय से लिए गए कर्ज की अदायगी की थी.

निजी विमान कंपनियों द्वारा नागरिक उड्ययन विभाग के अधिकारियों को टिकट में दी गई छूट या मुफ्त यात्राओं की अनुमानित राशि करोड़ों रुपये में है. सिर्फ एक कंपनी की पड़ताल में तहलका के हाथ इतना बड़ा घोटाला लगा है. यह पूरी व्यवस्था में व्याप्त सड़ांध की एक बानगी है. यह सिर्फ हमारे सरकारी कामकाज की दुर्दशा की एक तस्वीर भर नहीं है बल्कि उड्डयन विभाग के अधिकारियों और निजी विमानन कंपनियों के बीच पनप चुके एक घातक गठजोड़ को भी उजागर करता है. दुर्भाग्य से ये वही अधिकारी हैं जिनका काम निजी विमानन कंपनियों को नियम और कानूनों के मुताबिक चलाने का था.

निजी विमान कंपनियों के लिए घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर व्यापार करने के लिए भारत का उड्डयन क्षेत्र पूरी तरह खुला हुआ है. लेकिन भ्रष्ट अधिकारी, अवसरवादी राजनेता और बिचौलिए इस सुविधा का उपयोग मुफ्त की यात्राओं और दूसरे हितों के लिए कर रहे हैं, और इसके बदले में ये रसूखदार लोग निजी विमान कंपनियों को भिन्न-भिन्न तरीकों से लाभ पहुंचा रहे हैं. इस तरह इनके बीच में सुविधा का एक घृणित गठजोड़ जड़ें जमा चुका है. कहावत भी है कि एक बार किसी को मुफ्त की लत लग जाए तो ये आसानी से छूटती नहीं है.

एक अनार, अनगिनत बीमार

फोटोः अमित
फोटोः अमित
फोटोः अमित

पिछले एक सप्ताह के दौरान झारखंड की राजधानी रांची में सभी मुख्य पार्टियों के कार्यालयों के बाहर नजारा देखते ही बन रहा था. रास्ते में टकटकी लगाए कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी दिखती थी. इस उम्मीद के साथ कि पता नहीं किस क्षण कौन उनकी पार्टी में आ जाए और उन्हें जय-जयकार करते हुए माला पहनाकर उसका स्वागत करना पड़े. करीब एक सप्ताह तक राज्य के सभी दलों में भगदड़ वाली स्थिति रही.  अप्रत्याशित तरीके से आखिरी क्षण में प्रत्याशी हटते रहे, जुटते रहे और पाला बदलकर सीधे एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर जाते रहे. यह हलचल अब भी जारी है. दूसरे कार्यकर्ताओं या नेताओं की बात कौन करे, वर्तमान विधायकों में से भी तकरीबन 20 प्रतिशत ने आखिरी समय में पाला बदला. कुल 81 में 16 विधायक ऐसे रहे, जिन्होंने अपने दल का दामन छोड़ दूसरे का दामन थामा है. पल भर में पाला बदलने का खेल चल रहा है. क्षण भर नजरों में बसे रहनेवाले को नजरों में चढ़ा लेने और नजरों में चुभते रहनेवालों को नजरों में बसा लेने का खेल. चुनाव के पहले लगभग हर जगह ऐसे खेल होते हैं.

बतौर राज्य, छोटी-सी उम्र में ही राजनीति के क्षेत्र में कई अनोखे कीर्तिमान स्थापित कर चुके झारखंड में इस बार स्थिति बिल्कुल भिन्न है. एक-दूसरे को मात देकर मंत्री-मुख्यमंत्री तक  बन जाने का खेल तो यहां बाकी राज्यों की तर्ज पर होता रहा है लेकिन चुनाव के वक्त किसी दल को पता तक न हो कि वह किस रास्ते चले और आखिरी समय तक प्रत्याशी तक का अभाव हो जाए, यह शायद पहली बार देखा जा रहा है. लेकिन इन तमाम बातों में यह बात साफ भी हुई कि झारखंड के चुनाव में इस बार की लड़ाई कैसी होगी. यह एकदम से साफ हुआ कि एक छोर पर भाजपा होगी और दूसरी ओर उससे लड़ने के लिए कई दलों का समूह.

भाजपा का मानना है कि उसे अपनी रणनीतियों के साथ-साथ विरोधी दलों के बिखराव का फायदा मिलना तय है

भाजपा अपना रुख पहले ही साफ कर चुकी है. कुछ माह पहले ही प्रधानमंत्री के तौर पर एक सरकारी आयोजन में आए नरेंद्र मोदी चुनावी बिगुल बजाकर जा चुके हैं. उनके तुरंत बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आकर कार्यकर्ताओं के बीच पार्टी की नीति और रणनीति का खुलासा कर गए थे. मोदी ने विकास का पासा फेका था. शाह ने द्वंद्व और दुविधा के बीच झारखंडवासियों को झूला दिया था. शाह ने कहा था कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी, मुख्यमंत्री का कोई उम्मीदवार पहले से घोषित नहीं होगा और यह भी जरूरी नहीं होगा कि आदिवासी ही मुख्यमंत्री बने. ‘जो योग्य होगा और जिसके नाम पर पार्टी की मुहर लगेगी, वही मुख्यमंत्री बनेगा.’ ऐसा कहकर भाजपा अध्यक्ष ने पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती लेते हुए झारखंड में पहली बार गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं की ओर संकेत दे दिए थे. झारखंड में आमतौर पर ऐसे बयान बहुत जोखिम भरे माने जाते हैं, लेकिन शाह ने किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाने का संकेत देकर पार्टी के कार्यकर्ताओं को एकजुट जरूर कर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि झारखंड में भाजपा के जो भी चार-पांच बड़े नेता हंै, उनके मातहत नेता व कार्यकर्ता अपनी पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. इस उम्मीद के साथ कि क्या पता, बिल्ली के भाग से छींका फूटे और उनके नेता ही मुख्यमंत्री बन जाएं. भाजपा में उत्साह है, उम्मीदों की लहर है लेकिन उसके सामने चुनौतियां भी कोई कम नहीं. अमित शाह ने पहले से घोषणा कर रखी थी कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी लेकिन आखिरी समय में उसे झारखंड की एक प्रमुख पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन यानी आजसू  से समझौता करना पड़ा. भाजपा को आजसू को आठ सीटें देनी पड़ीं और उनमें भी वैसी दो सीटों को छोड़ना पड़ा जो उसके लिए आसान थीं. इनमें से एक सीट रांची से सटे तमाड़ की है. यहां के विधायक राजा पीटर हाल ही में भाजपा में टिकट की उम्मीद में शामिल हुए थे. पीटर भाजपा की टिकट पर आसानी से जीतने वाले प्रत्याशी माने जा रहे थे. पार्टी को रांची से ही सटी एक और सीट सिल्ली छोड़नी पड़ी है. आजसू प्रमुख व राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो यहां से चुनाव लड़ने वाले हैं. गठबंधन से पूर्व चर्चा थी कि भाजपा में हाल ही में शामिल हुए युवा नेता अमित महतो इस सीट से चुनाव लड़ेंगे. यहां से उनकी जीत की पूरी संभावना बताई जा रही थी. भाजपा और आजसू के बीच आखिरी समय में तालमेल हुआ है. भाजपा के कई वरिष्ठ नेता इस मेल-मिलाप को लेकर हो-हल्ला मचाते रहे और विरोध जताते रहे लेकिन गठबंधन का खाका दिल्ली में अमित शाह ने तय किया था इसलिए विरोध करने वालों की आवाज रांची में ही दबकर रह गई. बताया जा रहा है कि भाजपा से आजसू के इस मेल-मिलाप में रिलायंस के प्रमुख पदाधिकारी और झारखंड से राज्यसभा सांसद परिमल नाथवाणी की भूमिका सबसे प्रमुख रही. नाथवाणी को राज्यसभा भेजने में आजसू ने मदद की थी और आजसू के सामने मुश्किल घड़ी आई तो उन्होंने भी भाजपा से मेल-मिलाप करवाकर आजसू के प्रति अपने फर्ज को पूरा किया. नाथवाणी कहते हैं, ‘ आजसू और भाजपा में नेचुरल एलायंस हुआ है, इसे किसी और नजरिये से देखे जाने की जरूरत नहीं.’

भाजपा में यह गठबंधन ही कलह की एकमात्र वजह नहीं है. इस बार झारखंड में यह भी हुआ कि भाजपा ने दिग्गज नेताओं जैसे पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, पूर्व उपमुख्यमंत्री रघुवर दास समेत कई नेताओं के खासमखास संभावित प्रत्याशियों के टिकट काट दिए और उनकी जगह  दल-बदलकर आए लोगों को टिकट दिया गया है या फिर संघ की पृष्ठभूमि से आए कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारा है. झारखंड में संघ से जुड़े एक वरिष्ठ कार्यकर्ता बताते हैं, ‘पार्टी की रणनीति साफ है. चुनाव जिताने के लिए संघ और भाजपा के बीच बातें हो चुकी हंै. चुनाव में जीतने की संभावना देखी जाती है इसलिए दल बदलकर आए लोगों से लेकर जीत जाने की संभावना वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया जा रहा है.’ संघ ने भी इस बार पुराने चेहरों को हटाकर अपने कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारा है ताकि भाजपा की इस लहर में उन्हें भी सक्रिय राजनीति में जाने का मौका मिल सके. चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने मनोज नगेशिया जैसे चर्चित नक्सली से लेकर ढुल्लू महतो जैसे आपराधिक मुकदमे झेल रहे लोगों को भी दिल खोलकर टिकट बांटे हंै. भाजपा ने अपने तरीके से और भी तैयारियां पुख्ता की हैं. संथाल परगना में एक सीट बिहार में गठबंधन के साथी रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को दी गई है. पार्टी ने राज्य की सभी 81 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव रथ रवाना किए हैं. झारखंड में अमित शाह की 30 सभाएं तय की गई हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस छोटे से राज्य में पांच चुनावी सभाएं करने आएंगे. भाजपा ने इतनी तैयारियों के बाद यह दांव भी अभी ही खेल दिया है कि वह गैर आदिवासी को भी मुख्यमंत्री बना सकती है. भाजपा जानती है कि आदिवासी मतों को लेकर कई दलों के बीच घमासान मचना है, इसलिए उसने गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का दांव चला है. इसके जरिए वह गैर आदिवासी मतों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में है. इसी तरह की कोशिश वह हिंदू मतों के ध्रुवीकरण को लेकर भी कर रही है. यही वजह है कि राज्य में 15 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने से परहेज किया है.

कांग्रेस अपने लिए उम्मीदवार भी नहीं जुटा पा रही है और वह दूसरी पार्टियों से थक- हारकर आनेवाले लोगों पर निर्भर कर रही है

भाजपा का मानना है कि उसे अपनी रणनीतियों के साथ-साथ विरोधी दलों के बिखराव का फायदा मिलना तय है. पार्टी का ऐसा सोचना गलत भी नहीं है. पहली बार ऐसा हुआ है जब विरोधी दलों के बीच अंतर्कलह चरम पर दिखी और आखिरी समय तक वे अपने उम्मीदवार जुटाने में ही उर्जा लगाते रहे. इन दलों की स्थिति देखकर ऐसा लग रहा था जैसे चुनाव की कोई संभावना नहीं थी और चुनाव अचानक से आ गया. यह स्थिति भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी में लगे लगभग सभी दलों में देखी जा रही है. राज्य के सबसे प्रमुख दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की इस समय कांग्रेस के साथ सरकार है.  यह बड़ी दिलचस्प बात है कि आखिरी समय में दोनों के बीच गठबंधन नहीं बन सका. अब झामुमो अकेले मैदान में है और उसकी निगाहें दूसरे दलों से आनेवाले नेताओं पर है. पार्टी किसी भी तरह जीत जानेवाले उम्मीदवारों की तलाश में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए है. लेकिन उसकी मुश्किल स्थिति रांची विधानसभा सीट से समझी जा सकती है. इस सीट पर उसे आखिरी दिनों तक कोई उम्मीदवार नहीं मिला. यहां से उसने हिंदी की मशहूर लेखिका और राज्य में महिला आयोग के अध्यक्ष पद पर आसीन महुआ मांझी को उम्मीदवार बनाने का एलान किया है. मजेदार बात यह है कि महुआ मांझी की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं रही और उनके चुनाव लड़ने की चर्चा भी दूर-दूर तक नहीं थी. सत्ताधारी झामुमो की तैयारी देखकर ऐसा लगता है जैसे वह भी नवंबर-दिसंबर में चुनाव की उम्मीद नहीं कर रही थी. न तो गंठबंधन की बात पहले से पार्टी तय कर सकी और न ही उम्मीदवारों का चयन. सबसे गौर करनेवाली बात यह रही कि चुनाव की घोषणा होते और कांग्रेस से गंठबंधन टूटते ही हेमंत सोरेन ने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दे दिया कि कांग्रेस ने भाजपा को वॉकओवर दे दिया. ऐसा कहकर हेमंत ने एक तरीके से हथियार ही डाल दिए और भाजपा को एक आधार भी दे दिया. झामुमो मूल रूप से आदिवासी वोट बैंक के जरिए चुनाव जीतने की रणनीति में है. साथ ही उसने  कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर एक जिताऊ मेल बनाने की कोशिश की है. आदिवासी मतदाताओं के लिए झामुमो सबसे बड़ी और विश्वसनीय पार्टी मानी  जाती रही है. हेमंत सोरेन कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने तय किया है कि जीत के बाद आदिवासी ही मुख्यमंत्री होगा और हम भाजपा की तरह नेता को लेकर दुविधा में नहीं रहते.’ हेमंत ने यह बयान तो दे दिया कि उनकी पार्टी अगर जीत जाती है तो आदिवासी ही राज्य का मुख्यमंत्री बनेगा लेकिन उनके पिता व राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन यह जान गए  कि उनके बेटे ने नामसमझी में एक ऐसा बयान दे दिया है. ऐसा बयान जिसका नफा कम, नुकसान ज्यादा होनेवाला है. इसलिए उन्होंने अगले ही दिन से लगातार बयान देना शुरू किया, ‘गैर आदिवासी भी मुख्यमंत्री बन सकता है.’ शिबू सोरेन अपने बेटे के बयान के बाद उपजनेवाली स्थिति से निपटने  के लिए डैमेज कंट्रोल करने में लगे हुए हैं लेकिन जाननेवाले जानते हैं कि शिबू की पूरी राजनीतिक आकांक्षा अपने बेटे हेमंत को राज्य का मुखिया बनाए जाने तक सिमट कर रह गई है. हेमंत बताते हैं कि वे भी अपने तरीके से हाईटेक प्रचार कर रहे हैं और इस चुनाव को बुद्धि से जीतकर दिखाएंगे.  हालांकि यह इतना आसान नहीं दिख रहा.  जिस आदिवासी और मुस्लिम मतदाताओं का मेल बनाकर वे जीत का समीकरण बनाना चाहते हैं, उसमें एक बड़े दावेदार की तरह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा भी है. हालांकि बाबूलाल मरांडी अभी सबसे मुश्किल दौर में चल रहे नेता हैं. पार्टी के कई प्रमुख नेता छह माह पहले ही उनका साथ छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं. बाबूलाल मरांडी की ताकत यह है कि वे आदिवासी नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में तो ऊर्जा लगाए ही रहते हैं, साथ ही वे गैर आदिवासियों के बीच भी अपनी पैठ बनाए हुए हैं. इस बार वे तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. इसका फायदा उन्हें बंगाल से सटे झारखंड के हिस्से में मिल सकता है. झारखंड में भी बंगालियों की संख्या अच्छी-खासी होने की वजह से वे राज्य की राजनीति में खुद का बहुत भला कर पाएं या नहीं, दूसरों का खेल बिगाड़ने की स्थिति में जरूर आ सकते हैं.

दावेदार? झारखंड विकास मोर्चा के बाबू लाल मरांडी आदिवासी-गैरआदिवासी, दोनों को रिझाने की कोशिश में हैं, फोटोः अमित
दावेदार? झारखंड विकास मोर्चा के बाबू लाल मरांडी आदिवासी-गैरआदिवासी, दोनों को रिझाने की कोशिश में हैं, फोटोः अमित

इन चार प्रमुख दलों भाजपा, आजसू, झामुमो और झाविमो के बाद एक बड़ा दूसरा ध्रुव कांग्रेस के नेतृत्व में है, जो इस बार बिहार की दो प्रमुख पार्टियों राजद और जदयू के साथ चुनावी मैदान में है, लेकिन मजेदार यह है कि गंठबंधन में गांठ ही गांठ दिख रही हैं. भले ही बिहार में राजद और जदयू ने एक साथ मिलकर उपचुनाव लड़ा और जीत लिया लेकिन झारखंड में वे एक साथ आने में हिचकिचाते हुए दिखते रहे. नतीजा यह हुआ कि एक-दो सीट ऐसी भी रहीं जहां राजद और जदयू दोनों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी. इस गठबंधन में कांग्रेस ने अपने पास 66 सीटें रखी हैं जबकि राजद-जदयू गठबंधन को 15 सीटें दी हंै. राजद-जदयू विरोधियों से भिड़ने से पहले आपस में भिड़ रहे हैं. पलामू की दो सीटों पर राजद और जदयू के बीच घमासान मचा हुआ है और जदयू नेता कांग्रेस से आग्रह कर रहे हैं कि वह उनके बीच सुलह करवा दे. पलामू इलाके में हुसैनाबाद सीट राजद के कब्जे में रही है, अब यहां जदयू ने अपना उम्मीदवार उतार दिया है.  दूसरी ओर पलामू की ही छतरपुर सीट पर जदयू की उम्मीदवार राज्य की पूर्व मंत्री सुधा चौधरी हैं और वह सीट राजद को मिल चुकी है. इस तरह बिहार में दो प्रमुख साथी दलों के बीच झारखंड में हल्की झड़पें हो रही हैं जिससे यूपीए गंठबंधन की किरकिरी हो रही है.

 

दूसरी ओर कांग्रेस 66 सीटों पर अपने लिए उम्मीदवार नहीं जुटा पा रही है, वह कछुआ चाल से अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रही है. कांग्रेस सभी दलों में चक्कर मारकर थक जाने के बाद आनेवाले उम्मीदवारों पर भी नजर टिकाए हुए है. इन सबके बीच वाम दलों का अपना मोर्चा है. वाम दलों में यहां भाकपा माले एक प्रमुख पार्टी है, जिसके विनोद कुमार सिंह, बगोदर के विधायक हैं. उनके पिता कॉमरेड महेंद्र सिंह भी उस सीट से जीत हासिल करते रहे हैं. वाम दलों के बाद राज्य के चर्चित पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, अपने कारनामों की वजह से चर्चित रहे पूर्व मंत्री एनोस एक्का आदि के साथ मिलकर भारत समानता पार्टी बनाकर कोल्हान इलाके में चुनाव लड़ रहे हैं और उस इलाके में पूरे जोश के साथ प्रचार कर रहे हैं. इन सबके अलावा कई और दल भी चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं.

झारखंड में अलग-अलग वोट बैंक के सहारे किसी तरह सत्ता के नजदीक पहुंचने की जुगत में दिखे दलों में एक बात समान है कि अभी तक किसी ने अपना कोई ठोस चुनावी एजेंडा आगे नहीं बढ़ाया है. जितने दल चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं, कमोबेश किसी न किसी रूप में सत्ता का स्वाद चख चुके हैं. इतने सालों में राज्य की जो दुर्गति हुई है, उसमें सभी किसी न किसी तरह साझेदार भी रहे हैं, इसलिए एक-दूसरे पर प्रहार तो कर रहे हैं लेकिन कोई खुलकर भ्रष्टाचार या राज्य की दुर्गति के बारे में बोलने की स्थिति में नहीं है. बहरहाल, अब सबके घोषणा पत्र का इंतजार है, जिसके बारे में अभी से ही अनुमान लगाया जा रहा है कि उसमें शायद ही ऐसा कुछ हो जो लोगों को चौंका पाए.

उपद्रव की उपकथा

updravaमहफूज आलम मूलरूप से बिहार के समस्तीपुर जिले के रहनेवाले हैं. वे पिछले छह साल से पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में रह रहे हैं. पेशे से दर्जी महफूज के लिए ब्लॉक 27 के चौराहे पर बनी अपनी छोटी-सी दुकान ही पूरी दुनिया रही है. इस दुकान के बगल में ही बिहार के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले छह और लड़के रहते थे और उनके रहते महफूज को कभी ऐसा नहीं लगा कि वे अपने घर यानी समस्तीपुर से इतनी दूर हैं. लेकिन अब उनके दिन दिल्ली में बहुत उदासी भरे बीत रहे हैं. सिलाई-कटाई के काम में ही लगे उनके आसपास के सभी लड़के इस समय जेल में बंद हैं और इन सब के अकेले ‘अभिभावक’ महफूज आलम इन्हें छुड़ाने के लिए दिनरात लगे रहते हैं. उनकी दुकान पिछले कई दिनों से बंद है. कुछ दिन पहले ही छह में से दो लड़कों को जमानत मिली है और वे वापस अपने गृह राज्य बिहार लौट चुके हैं. बाकी के चार लड़के अभी भी जेल में हैं. महफूज को इनके छूटने की उम्मीद जरूर है, लेकिन यह कब तक होगा उन्हें नहीं पता. वे बताते हैं, ‘ कानूनी तौर पर जो हो सकता है उसकी पूरी कोशिश कर रहा हूं. लेकिन इन लड़कों के बाहर आने के बाद अब ये यहां रुकेंगे मुझे इसका भरोसा नहीं. मेरी दुकान तो अभी बंद है. खुलेगी तो पता नहीं फिर वैसा माहौल रह पाएगा कि नहीं.’ इन लड़कों के साथ ही तकरीबन 70 और लोग हैं जिन्हें पुलिस ने त्रिलोकपुरी में हिंसा भड़काने, अफवाह फैलाने और पत्थरबाजी करने के आरोप में गिरफ्तार किया है. महफूज की तरह इन सबके संबंधियों को इनकी रिहाई की उम्मीद तो है लेकिन उसके बाद जल्दी ही हालात सुधरने की किसी को उम्मीद नहीं.

त्रिलोकपुरी में दीपावली (23 अक्टूबर) की रात दो समुदायों के बीच झड़प हुई थी. इसकी शुरुआत ब्लॉक-20 से हुई. इस ब्लॉक में माता की चौकी रखी गई थी. दीपावली की रात चौकी से थोड़ी दूर पर अलग-अलग समुदायों के दो शराबियों के बीच कुछ कहासुनी हुई और फिर हाथापाई हुई. बात थाने तक पहुंची तो पुलिस ने दोनों के परिवारवालों को थाने में बुलाया और थोड़ी समझाइश, थोड़ी डांट-डपट के साथ मामला खत्म कर दिया.

Read More>


‘मोहल्लों की लड़ाई बन गई सांप्रदायिक दंगा !’

rapid_electionदीवाली का दूसरा दिन था. मैं शाम को नोएडा की तरफ निकल गई. रात के 9 बजते-बजते मेरे पास घर से एक के बाद एक कई फोन आने लगे. पता चला, मेरा घर जो कि त्रिलोकपुरी में है, वहां पथराव हो रहा है. घरवालों ने कहा अभी कहीं बाहर ही रहो, जब मामला शांत होगा, हम बुला लेंगे. उस रात तकरीबन दो-ढाई बजे मैं घर पहुंची. इलाके में काफी पुलिस तैनात थी, लेकिन माहौल शांत हो चुका था.

अगले दिन भाईदूज था. छुट्टी का एक आैैर दिन. रात को देर से लौटने की वजह से घर में मेरी किसी से पिछली रात के पथराव और लड़ाई के बारे में बात नहीं हुई थी. मैं आधी नींद में ही थी कि अचानक गली से हल्का शोर आने लगा. मेरा 23 साल का छोटा भाई शोर सुनते ही मामला जानने के लिए बाहर की तरफ निकल गया. शोर थोड़ा और बढ़ा तो मैं और मेरे घर की बाकी महिलाएं खिड़की तक पहुंचकर बाहर देखने लगीं.

गली से सड़क का एक हिस्सा दिख रहा था जहां लोग चिल्लाते हुए भागते-दौड़ते दिख रहे थे. मैं समझ गई जरूर आसपास कहीं लड़ाई हुई है. लेकिन फिर मिनटों में लोग गली से गुजरकर भाग रहे थे. गली में रहनेवाले लोग फटाफट अपने दरवाजे और खिड़कियां बंद करने लगे. भागते दौड़ते लोगों से टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारियां मिल रही थी, ‘ ब्लॉक-27 की दुकानों में आग लगा दी है… पथराव हो रहा है…आंसू गैसे के गोले छोड़े जा रहे हैं… गोलियां चल रही हैं…’

Read More>

‘ग्रीन पीस का हर अभियान देशहित में है’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

बातचीत की शुरुआत आईबी की उस बहुचर्चित रिपोर्ट से करते हैं जिसमें ग्रीनपीस को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त बताया गया है. क्या आप उस विवाद को निपटाने के लिए यहां आए हैं?
इस यात्रा का एक मकसद सरकार और सविल सोसाइटी के साथ अपने संबंधों को परखना और उसे नए सिरे से तय करना है. इस दौरान हमारा मुख्य ध्यान सरकार और सिविल सोसाइटी के हमारे साथियों के बीच तालमेल को बेहतर करना भी है. जहां तक आईबी रिपोर्ट का सवाल है तो मैं यही कहूंगा कि यह कैसे संभव है, क्या हमारा कोई खाता सील किया है सरकार ने? सरकार इस बात की पड़ताल कर सकती है. बल्कि मैं तो यही कहूंगा कि हमारे एक के बाद एक हर अभियान देश के हित में चलाए जा रहे हैं, इसलिए यह बात मेरी समझ से परे है. मैं सरकार के साथ बातचीत की कोशिश कर रहा हूं पर अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हुआ है. मुझे उम्मीद है कि जल्द ही हमारी मुलाकात होगी.

क्या सरकार के किसी प्रतिनिधि या सिविल सोसाइटी के सदस्यों से आपकी कोई मुलाकात हुई है?
मैं कुछ दिन पहले ही आया हूं. हमने दो महत्वपूर्ण मंत्रालयों से संपर्क किया है, पहला गृह मंत्रालय और दूसरा पर्यावरण मंत्रालय. अगले हफ्ते हमारी बैठक होने की संभावना है. इस दौरान हम सिविल सोसाइटी के तमाम सदस्यों और समूहों से मिल रहे हैं.

आईबी रिपोर्ट के मद्देनजर मौजूदा सरकार का सिविल सोसाइटी के प्रति किस तरह का रवैया आप देखते हैं?
मैं इसे अलग तरह से देखता हूं. इससे पहले पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थे, उनके सामने भी तमाम चुनौतियां थीं, हमारे बीच तमाम तरह के मतभेद थे, हमनें उनकी कई नीतियों के खिलाफ अभियान भी चलाया था. लेकिन कई बार यह जानते हुए भी कि ग्रीनपीस उनके लिए परेशानी खड़ा कर रहा है, उन्हें यह भरोसा था कि अंतत: हम इसे जनता के हित में चला रहे हैं. मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार ने भी वही नीति अपनायी है. हम इस बात पर बहस कर सकते हैं कि भारत सरकार को जितनी जरूरत सिविल सोसाइटी की है उतनी ही जरूरत सिविल सोसाइटी को भी है. पर्यावरण के मामले में जिस तरह की गंभीर चुनौती आज भारत के सामने उपस्थित हुई है उसका हमें अहसास है. अफ्रीका में तो गलत नीतियों के चलते पहले ही तांडव मच  चुका है.

आईबी रिपोर्ट का जोर महान कोयला खदान इलाके में आपके द्वारा किए जा रहे कामकाज पर था जहां एस्सार-हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम चल रहा है. वहां ग्रीनपीस का सारा विरोध एस्सार के खिलाफ दिखता है, हिंडाल्को का नाम भी नहीं लिया जाता. ग्रीनपीस के अभियान में यह दोहरापन क्यों दिखता है?
एस्सार-हिंडाल्को का मामला हो या इस तरह के दूसरे और भी जितने मामले हैं, उनमें हमारा ध्यान मालिकाना हक अनुपात पर होता है. जैसे महान में एस्सार के पास 60 फीसदी हिस्सेदारी है जबकि हिंडाल्को की हिस्सेदारी 40 फीसदी है. अगर आप इसे और विस्तार से देखें तो हम पाएंगे कि महान कोयला खदान का मामला पूरी व्यवस्था में मौजूद खामी का मामला है. किस तरह से खदान के लाइसेंस दिए गए और फिर किन स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट ने उनके लाइसेंस निरस्त कर दिए? कोर्ट के मुताबिक इस पूरी प्रक्रिया में नियन कानूनों की जमकर धज्जी उड़ाई गई. यह सिर्फ ग्रीनपीस का विरोध नहीं है, बल्कि देश की  न्यायपालिका भी ऐसा ही मानती है. ग्रीनपीस में हम सब एक कहावत में गहराई से यकीन करते हैं- ‘यहां न तो कोई स्थायी दोस्त है न कोई स्थायी दुश्मन है.’ अगर कोई कंपनी अच्छा काम करती है तो हम उसका समर्थन करते हैं और गलत करती है तो उसका विरोध भी करते हैं. मसलन कोका कोला का उदाहरण ले लीजिए. कोका कोला ने हमारे सालों के अथक अभियान के बाद  अपने रेफ्रीजरेशन यूनिट से हाइड्रो फ्लूरो कार्बन जैसी नुकसानदेह ग्रीन हाउस गैस को हटाने का फैसला किया तो हमने खुले तौर पर कहा ‘वेल डन कोका कोला, आपने सही काम किया.’ कुछ चीजों को लेकर एक गलत धारणा लोगों में बन सकती है लेकिन हमारी नीयत ऐसी नहीं है.

ग्रीनपीस के खिलाफ एक और बड़ा आरोप यह लगता है कि यह संगठन लोकप्रियता बटोरने की नीयत से और कई बार सिर्फ दिखावटी अभियान आयोजित करता है?
क्या है कि भारत समेत पूरी दुनिया में मीडिया का माहौल पर्यावरण के प्रति बेरुखी वाला है. इसलिए हमारे सामने आम लोगों के बीच अपनी पैठ बनाना एक बड़ी चुनौती रहती है. ऊपर से हमारा ज्यादातर मीडिया भी अब कॉर्पोरेट के मालिकाना हक में चला गया है इसलिए वो हमारे अभियानों से दूरी बनाए रखता है. हमारे अभियान अनोखे और मनोरंजक होते हैं ताकि मीडिया का ध्यान खींच सके. पर यकीन मानिए ये सब हमारे असल अभियानों का 20 प्रतिशत भी नहीं होता.  मैं ये नहीं कहूंगा की हम पूरी तरह से संपूर्ण हैं. सिविल सोसाइटी के एक हिस्से में ग्रीनपीस की आलोचना भी हो रही है. लेकिन हमारे कामकाज को मिल रहा समर्थन इन आलोचनाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है. आलोचना बहुत जरूरी है क्योंकि यह आपको जवाबदेह बनाती है, आदमी को जमीन पर बनाए रखती है.

एक राजनीतिक सवाल है. मौजूदा सरकार के मुकाबले क्या पिछली यूपीए सरकार आपके लिए ज्यादा मुफीद थी?
आपको पता है कि हमारा इस मामले में नजरिया एकदम निष्पक्ष होता है. यहां तक की जब ग्रीन पार्टी भी सत्ता में होती है तब भी हमारा रवैया निरपेक्ष ही रहता है. कोई विशेष संबंध नहीं होता सरकारों से. हमारे लिए जनता की पसंद मायने रखती है. अंतत: हम जनता की राय का ही सम्मान करते हैं. जब तक जनता के द्वारा चुनी हुई कोई लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में है तब तक हमें किसी तरह की परेशानी नहीं होती. ऐसी सरकार जो संविधान का सम्मान करे, माज में सिविल सोसाइटी की भूमिका को समझे, बस.

मेरा मानना है कि जितनी जरूरत आज सुनीता नारायण को सरकार की है उससे कहीं ज्यादा सरकार को सुनीता नारायण की जरूरत है. मैं एक बार फिर से सरकार से आग्रह करूंगा कि वह विचारों की विविधता को अपने यहां स्थान दे, इससे उसे बेहतर से बेहतर पर्यावरण संबंधी नीति बनाने में मदद मिलेगी

आप अपने दायरे में निष्पक्ष हो सकते हैं लेकिन कई चीजें सत्ताधारी दल के विचारों से भी तय होती हैं. यह एक राष्ट्रवादी दल की सरकार है. जाहिर सी बात है महिला अधिकारों को लेकर आपका जो रुख है सरकार का रुख उससे अलग होगा. इस तरह की समस्याओं से आप कैसे निपटेंगे?
भारत समेत दुनियाभर में हमने देखा है कि नीति के स्तर पर सरकारें जिन चीजों की हिमायत करती हैं असल व्यवहार में उसके एकदम विपरीत काम करती हैं. लेकिन मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले में स्थापित नीतियों पर ही चलेगी. अगर पर्यावरण नीति और अर्थव्यवस्था के मामलों में सरकार लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करेगी तब हम उसका विरोध जरूर करेंगे. आप जो कह रहे हैं उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता, लेकिन मुझे इतना भरोसा है कि चाहे किसी भी विचारधारा की सरकार बने उसे चलना तो संविधान के दायरे में होता है. अगर ऐसा नहीं होगा तब हम उसका विरोध करेंगे.

एक उदाहरण से इसे समझते हैं. कुछ दिन पहले सरकार ने पर्यावरण परिवर्तन कमेटी से प्रमुख पर्यावरणविद सुनीता नारायण को हटा दिया. इस तरह के फैसलों का नीतियों पर दीर्घकालिक असर होता है. अब इस पैनल में प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का प्रभुत्व है. इस तरह के फैसलों को आप कैसे देखते हैं?
मैंने यह खबर नहीं सुनी है लेकिन पहली नजर में यह दुर्भाग्यपूर्ण कदम है. सरकार अगर ऐसे प्रतिभाशाली लोगों का सहयोग नहीं लेगी तो अच्छी नीतियां कैसे बनेंगी. हालांकि मैं इस मामले से अनभिज्ञ हूं, पर मेरा मानना है कि जितनी जरूरत सुनीता नारायण को सरकार की है उससे कहीं ज्यादा सरकार को सुनीता नारायण की जरूरत है. मैं एक बार फिर से सरकार से आग्रह करूंगा कि वह विचारों की विविधता को स्थान दे ताकि, उसे बेहतर से बेहतर पर्यावरण नीति बनाने में मदद मिले.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की योजना है?
मैं उनसे जरूर मिलना चाहूंगा, फिलहाल मैंने सरकार से मुलाकात की अर्जी भेजी है. ग्रीनपीस के हमारे सहयोगी सरकार के संपर्क में हैं लेकिन अभी तक मुझे कोई जवाब नहीं मिला है. इस बीच हम सिविल सोसाइटी के सदस्यों से मिल रहे हैं, फिलहाल गेंद सरकार के पाले में है.

 

मोदी से मुठभेड़ की तैयारी

अपनी परंपरागत राजनीति के लिए प्रसिद्ध मुलायम सिंह यादव फिलहाल बेटे अखिलेश यादव को छूट देने को तैयार दिखते हैं
अपनी परंपरागत राजनीति के लिए प्रसिद्ध मुलायम सिंह यादव फिलहाल बेटे अखिलेश यादव को छूट देने को तैयार दिखते हैं

2017 के विधानसभा चुनावों में अभी कुछ वक्त है लेकिन उत्तर प्रदेश में सिर उठा रही नई राजनीतिक स्थितियों के मद्देनजर समाजवादी पार्टी ने अपने संगठन के भीतर आमूल परिवर्तन की शुरुआत की है. पार्टी आम जनता के बीच सरकार की सकारात्मक छवि बनाने और सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है.

पार्टी के भीतर मौजूद ऐसे तत्वों से छुटकारा पाने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूरी तरह से तैयार और सतर्क दिखते हैं, जो लोकसभा चुनाव में पार्टी के भीतर रहकर उसकी दुर्गति का कारण बने थे. पार्टी सूत्र बताते हैं कि इन योजनाओं के अलावा 2017 में प्रस्तावित उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए समय रहते योग्य उम्मीदवारों का चयन करना भी पार्टी के एजेंडे में सर्वोपरि है.

‘उत्तर प्रदेश में लंबे समय से एक राजनीतिक ठहराव की स्थिति बन गई थी. अब समय आ गया है कि इसे खत्म कर एक नई शुरुआत की जाय.’ एक वरिष्ठ सपा नेता कहते हैं. वे तहलका को बताते हैं कि पहले चरण में उनकी योजना पूर्वी उत्तर प्रदेश के 26 जिलों में पर्यवेक्षकों को भेजने की है. उन्हें साफ शब्दों में हिदायत है कि वे हर क्षेत्र में साफ और ईमानदार छवि वाले संभावित उम्मीदवारों का चयन करें.

अक्टूबर महीने में पार्टी की तीन दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पार्टी के सबसे ताकतवर महासचिव रामगोपाल यादव ने खुले शब्दों में पार्टी के साथ लोकसभा चुनावों में दगाबाजी करने वाले नेताओं की पहचान करके उन्हें पार्टी से निकाल बाहर करने की बात कही थी. उनके इस बयान से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की स्थिति भी काफी मजबूत हुई है. रामगोपाल यादव के साथ उनके रिश्ते बहुत गहरे माने जाते हैं. इस घोषणा का समर्थन करके अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव और दूसरे चाचाओं की छाया से बाहर निकलने में एक हद तक कामयाब हुए हैं. उन्हें स्वतंत्र रूप से पार्टी हित में कठोर फैसले करने की छूट मिल गई है.

हालिया हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भी सपा की चिंता को चार गुना किया है. दोनों राज्यों की जनता ने परिवारवादी, सामंती राजनीति को अंगूठा दिखा दिया है. लंबे समय से लोगों में भय और जात-पात की राजनीति कर रहे क्षेत्रीय दलों को मुंह की खानी पड़ी है. सपा की अपनी राजनीति भी काफी हद तक इन्हीं फार्मूलों से संचालित होती आई है. सपा खुद यादव परिवार कि निजी संस्था की तरह काम करती आई है.

सपा के रुख में आए बदलाव से लगता है कि उसने दोनों राज्यों (हरियाणा, महाराष्ट्र) के नतीजों से बड़ा सबक सीखा है. पार्टी की मंशा है कि वह दागी और अपराधी किस्म के नेताओं से समय रहते मुक्त हो जाय. ‘इसी वजह से पार्टी विधानसभा चुनावों से काफी पहले ही जनता से जुड़ने का अभियान शुरू कर चुकी है,’ सीपीआई के पूर्व राज्य सचिव अशोक मिश्रा कहते हैं.

‘पार्टी की यह कोशिश दरअसल हालिया लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद पार्टी के भीतर हुए घोर मंथन का नतीजा है. उन हालात की गहराई से समीक्षा की गई है कि आखिर क्यों अपनी तमाम अच्छी कोशिशों के बाद भी सपा सरकार आम जनता के भीतर कोई विश्वास पैदा नहीं कर सकी. शुरुआत में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव सरकार की योजनाओं को लागू कर पाने में असफलता और हीला हवाली का ठीकरा नौकरशाही के सिर फोड़ते रहे. इस दौरान 1500 से ज्यादा आईएएस और दूसरे अधिकारियों का तबादला सरकार ने किया. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. गहराई से पड़ताल करने पर पता चला कि आम आदमी के सपा से दुराव की वजह कार्यकर्ताओं द्वारा फैलाया गया आतंक था,’ एक मंत्री नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं. उनके शब्दों में, ‘पार्टी नेतृत्व आगामी विधानसभा चुनावों से पहले इस समस्या का समाधान ढूंढ़ लेना चाहता है.’

2014 के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद समाजवादी पार्टी को हाल ही में संपन्न हुए 11 विधानसभाओं के उपचुनाव से बेहद जरूरी ऊर्जा मिली है. सपा को नौ विधानसभा सीटें जीतने में सफलता हासिल हुई. हालांकि सपा की यह खुशी क्षणिक सिद्ध हुई क्योंकि हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के नतीजों में भाजपा को मिली कामयाबी ने सपा का फील गुड खत्म कर दिया.

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपना सारा ध्यान पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को सुधारने पर केंद्रित कर रखा है. यह सुधार लंबे समय से लंबित थे. इसकी शुरुआत उन्होंने हाल ही में 92 नेताओं को पार्टी से बर्खास्त करके की है. उनका मानना है सपा की आम जनता के बीच बिगड़ी हुई छवि के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं.

अपनी सरकार के कामकाज को सुधारने और उसमें तेजी लाने की भी कई कोशिशें इस बीच अखिलेश यादव ने शुरू की हैं. मुख्यमंत्री ने स्वयं ही अपनी सरकार की तमाम विकास योजनाओं की निगरानी और उनके क्रियान्वयन का जिम्मा अपने हाथों में ले लिया है. उनका विशेष ध्यान गरीबों के लिए शुरू की गई योजनाओं को अमलीजामा पहनाने पर है. जानकारों के मुताबिक यह नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का प्रभाव है. अखिलेश यादव कहीं से भी यह संदेश नहीं देना चाहते हैं कि वे और उनकी सरकार किसी मामले में पीछे है. अपने कैबनेट सहयोगियों और नौकरशाहों को भी उन्होंने नई योजनाओं के साथ जनता के बीच जाने की हिदायत दी है.

‘आधा कार्यकाल पूरा करने के बाद आज सपा सरकार के पास जनता को दिखाने या बताने के लिए कोई भी बड़ी सफलता नहीं है. इसके बावजूद पार्टी पूरी तरह से आत्मविश्वास से भरी हुई है और आगे की लड़ाई के लिए तैयार है. इस आत्मविश्वास की एक वजह उपचुनावों में पार्टी को 11 में से नौ सीटों पर मिली सफलता की भी भूमिका है. यह आत्मविश्वास बेवजह नहीं है. सपा के राजनीतिक विरोधी इस हालत में नहीं है कि कोई बड़ा आंदोलन इनके खिलाफ छेड़ सकें. कांग्रेस का आधार सिमट चुका है. बसपा ने रहस्यमयी चुप्पी साध रखी है. भाजपा ने लोकसभा चुनावों में मिली बढ़त को विधानसभा के उपचुनावों में गंवा दिया है,’ यह कहना है लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर आशुतोष मिश्रा का.

हालांकि समाजवादी पार्टी के नेता संगठन और सरकार के कामकाज में आई इस तेजी के पीछे हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों की भूमिका से इनकार करते हैं. उनके मुताबिक इस तेजी का सीधा संबंध 2017 में होने वाले राज्य के विधानसभा चुनावों से पहले खुद को चुस्त-दुरुस्त करने से है.

‘आनेवाले दिनों में कुछ और लोगों के ऊपर कार्रवाई होगी. 200 से ज्यादा भीतरघाती पार्टी नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा. इसके अलावा दो दर्जन के करीब पार्टी के वे वर्तमान विधायक भी हैं जिन्हें अगले चुनाव में टिकट नहीं दिया जाएगा,’ ये कहना है पूर्व राज्यसभा सांसद वीरपाल सिंह यादव का जिन्हें मुलायम सिंह यादव का करीबी माना जाता है. ‘हमारे लिए 2017 के चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, हमारे पास किसी और काम के लिए फिलहाल फुरसत नहीं है अब.’

रहेगा नरेगा?

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

साल 2005 में जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कानून बनकर जमीन पर उतरी, तो इसके बारे में सुनकर दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा जैसे कई छोटे बड़े शहरों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले बहुत से लोग वापस अपने गांव लौटने लगेे. इसकी वजह यह थी कि इस कानून के जरिए उन्हें गांव में ही रोजगार मिलना शुरू हो गया था. हालांकि इस रोजगार से प्राप्त आमदनी शहर में होनेवाली कमाई से काफी कम थी, लेकिन दर-दर भटकानेवाले हालात से निजात मिलने और अपने लोगों के बीच मिलनेवाले सुकून की बदौलत इस कमी की भरपाई हो जाती थी. पिछले सात-आठ सालों से मनरेगा के सहारे अपने हालात बेहतर बनाने में जुटे इन लोगों की जिंदगी में मौजूद यह हल्की-फुल्की राहत फिलहाल जारी है. लेकिन सबकुछ ठीक-ठाक नहीं रहा, तो बहुत जल्द इस राहत को बुरी नजर लग सकती है. सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जरिए हाल ही में जानकारी मिली है कि केंद्र सरकार मनरेगा कानून के प्रावधानों में बदलाव करना चाहती है. इन बदलावों को लेकर जानकारों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि यदि ये लागू हो गए तो शहरों में दर-दर भटकनेवाले बुरे दौर को पीछे छोड़ चुके कई लोग वापस उन्हीं शहरों का रुख करने को मजबूर हो सकते हैं. इस कहानी को पूरी तरह समझने के लिए मनरेगा कानून को लेकर सामने आई सरकार की मंशा और उसकी पृष्ठभूमि से शुरुआत करते हैं.

कुछ दिन पहले आरटीआई के जरिए पता चला कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने मनरेगा के प्रावधानों में बदलाव करने का आदेश दिया है. इसमें प्रमुख तौर पर तीन अहम बातें थी. पहली यह कि दैनिक मजदूरी और निर्माण सामग्री पर होनेवाले खर्च के वर्तमान अनुपात 60:40 को घटाकर 51:49 कर दिया जाए. इसके अलावा मनरेगा को सिर्फ सबसे पिछड़े ढाई सौ जिलों तक सीमित करने की बात भी इस आदेश में कही गई (वर्तमान में यह योजना देश के लगभग साढे़ चार सौ जिलों में लागू है). इस आदेश में तीसरी अहम बात यह थी कि केंद्र द्वारा राज्यों को मनरेगा के तहत अब एक नियत राशि दी जाएगी और राज्य अपने विवेक के आधार पर कामों का चयन कर सकेंगे. लेकिन सरकार की इस मंशा के सार्वजनिक होने के बाद मनरेगा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं और अर्थजगत के जानकारों ने इसे गलत करार दिया है. इन लोगों का मानना है कि यदि ये बदलाव लागू हो जाते हैं तो मनरेगा के तहत मिलनेवाले रोजगार में 40 प्रतिशत तक कमी आ जाएगी. इसका सबसे अधिक नुकसान उस गरीब तबके को उठाना पड़ेगा जो पिछले पांच-छह सालों से इस योजना के जरिए रोजगार पा रहा है.  इसके अलावा जानकारों का यह भी मानना है कि मजदूरी का हिस्सा कम करके निर्माण सामग्री के लिए खर्च की सीमा बढ़ा देने से भ्रष्टाचार की संभावना और भी ज्यादा बढ़ जाएगी. मनरेगा को कानून बनाने में अहम भूमिका निभानेवाली प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने तो सरकार पर मनरेगा को खत्म करने का आरोप ही लगा दिया है. उनका कहना है, ‘यह एक ऐसा महत्वपूर्ण कानून है, जिसे संसद ने सर्वसम्मति से ग्रामीण गरीबों की बेहतरी और उन्हें रोजगार देने के लिए बनाया था, लेकिन अब सरकार की तरफ से इसमें फेरबदल किए जाने से सबसे बुरा असर उन्हीं पर होगा’.

 ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए नितिन गडकरी ने ही मनरेगा में बदलाव के  आदेश दिए थे
ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए नितिन गडकरी ने ही मनरेगा में बदलाव के आदेश दिए थे

अरुणा के साथ एक और जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाया है. वे कहते हैं, ‘मनरेगा के तहत लोगों को मिल रहे रोजगार को किसी भी स्थिति में कम नहीं किया जाना चाहिए.’

इन दोनों के अलावा दूसरे कई जानकारों की राय भी काफी हद तक मनरेगा के मौजूदा स्वरूप को बरकरार रखने के पक्ष में खड़ी है. जाने-माने अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक कहते हैं, ‘मनरेगा के जरिये न सिर्फ लोगों को गरीबी से बाहर निकलने में मदद मिली है, बल्कि इसी की बदौलत भारत कुछ साल पहले सामने आए वैश्विक आर्थिक संकट के कुप्रभावों की चपेट में आने से बच सका था’. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘लोगों को रोजगार दिलाना इस कानून की मुख्य अवधारणा है जिसे किसी भी स्थिति में कमजोर नहीं किया जाना चाहिए’. मनरेगा में बदलाव को लेकर सरकार की मंशा से देश के कई अर्थशास्त्री भी नाराज हैं. इन अर्थशास्त्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इसके मूल स्वरूप को बरकरार रखने की मांग भी की है. प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर दस्तखत करनेवालों में योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन तथा बोस्टन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक दिलीप मुखर्जी समेत प्रणब वर्धन, वी भास्कर, ऋतिका खेरा, अभिजीत सेन, जयंती घोस, अश्विनी देशपांडे तथा ज्यां द्रेज जैसी हस्तियां भी शामिल हैं. इस पत्र के माध्यम से उन्होंने यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में लागू हुए मनरेगा की वजह से देश के लाखों लोगों की जिंदगी पर पड़नेवाले सकारात्मक असर का जिक्र किया है. पत्र में लिखा गया है, ‘सभी राजनीतिक दलों के सहयोग से साकार हो सके इस कानून ने अनेक बाधाओं के बावजूद अच्छे परिणाम दिए हैं. इस योजना से हर साल करीब पांच करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है, जबकि इस योजना पर जीडीपी का मात्र 0.3 प्रतिशत ही खर्च होता है. इस लिए सरकार को इस योजना में ऐसे किसी बदलाव से बचना चाहिए जिससे लोगों की आमदनी पर बुरा प्रभाव पड़े’. इस पत्र में अर्थशास्त्रियों ने मनरेगा को लोगों की आर्थिक सुरक्षा और मानवाधिकार से जुड़ा मामला बताया है. इन अर्थशास्त्रियों के अलावा देशभर के सौ से अधिक बुद्धिजीवियों ने भी पीपुल एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी के बैनर तले जुटकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मनरेगा में हो रहे बदलाव को रोकने की मांग की है. मगर इस सबके बावजूद बताया जा रहा है कि सरकार इन बदलावों को लागू करने को लेकर गंभीर है. इसकी संभावना को बल इस बात से भी मिलता है कि नितिन गडकरी द्वारा मनरेगा में बदलाव करने संबंधी आदेश मिलने के बाद मंत्रालय के उच्च अधिकारियों ने उन्हें तभी बता दिया था कि ऐसा करने से मनरेगा के तहत रोजगार पानेवाले लोगों की संख्या में भारी कमी आ सकती है, लेकिन तब भी गडकरी ने अधिकारियों की इस राय को दरकिनार कर दिया था.

26 मई को नई सरकार बनने के बाद सबसे पहले राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने मनरेगा कानून में बदलाव की मांग की थी. उन्होंने छह जून को प्रधानमंत्री  को एक पत्रलिख कर मनरेगा के कानूनी वजूद को खत्मकर इसे सरकारी योजना-भर बना देने की वकालत की थी. उनके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी प्रधानमंत्री से मुलाकात करके मनरेगा में बदलाव करने की मांग की. सात जुलाई को मोदी से मिलकर शिवराज ने मजदूरी और निर्माण सामग्री के अनुपात को 50-50 करने तथा राज्य सरकार को अपने विवेक से मनरेगा के लिए कामों का चयन करने का अधिकार भी मांगा. अपनी मांग के पीछे शिवराज ने दलील दी कि ऐसा करने से ज्यादा से ज्यादा स्थाई निर्माण कार्य किए जा सकेंगे. माना जा रहा है कि शिवराज और राजे की मांगों के बाद ही सरकार ने मनरेगा में बदलाव करने फैसला किया है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि अब तक मनरेगा में सब कुछ दूध का धुला हो और इसमंे बदलाव की कोई जरूरत न हो. 2006 में यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस योजना को कानून बनाकर लागू किया था. ग्रामीण लोगों को साल-भर में 100 दिन का रोजगार देने के वादे के साथ शुरू हुई इस स्कीम को उस वक्त काफी सराहना भी मिली.2009 में यूपीए को दोबारा सत्ता दिलाने में इस योजना की अहम भूमिका भी मानी जाती है. लेकिन साल 2011 के बाद इस योजना को लेकर तमाम तरह की गड़बड़ियां सामने आने लगीं. देश के तमाम गांवों में इस योजना को लेकर भ्रष्टाचार के हजारों मामले तब से लेकर अब तक सामने आ चुके हैं. इनमें काम की गुणवत्ता में कमी, भुगतान में अनियमितता, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से लाखों रुपयों का वारा-न्यारा करने जैसे कई गंभीर मामले शामिल हैं. यहां तक कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में भी मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार की बातें सामने आ चुकी हैं. 100 दिन के न्यूनतम रोजगार दिलाने के लक्ष्य को यह योजना कई राज्यों में 2012 और 2013 में पलीता भी लगा चुकी है. यही वजह है कि पिछले एक-दो सालों से मनरेगा में बदलाव को लेकर तरह-तरह के सुर उठ रहे थे. पिछली सरकार के दौर में भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों ने मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार की खूब आलोचना भी की थी. खुद नरेंद्र मोदी भी प्रधानमंत्री बनने से पहले कई बार इस योजना की आलोचना करके इसमें व्याप्त खामियों को दूर करने की बात कर चुके हैं. लेकिन अब जबकि इस योजना को लेकर उनकी अगुआईवाली सरकार द्वारा किए जानेवाले बदलावों का पता चल चुका है, तो सवाल उठता है, कि क्या यही वे बदलाव हैं जिनके जरिए मनरेगा की खामियां दूर की जा सकती हैं.

मनरेगा में जिन बदलावों की बात की जा रही है उनसे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ने की संभावना ज्यादा दिखाई दे रही है 

इस सवाल का जवाब जानने से पहले उन वजहों की बात करना जरूरी है जिनके चलते मनरेगा में बदलावों की मांग की जाती रही है. मनरेगा में बदलाव की मांग को लेकर तमाम दलीलों के बीच सबसे बड़ा कारण इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को बताया जाता रहा है. जानकारों की मानें तो मनरेगा में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ चुका है जिसके चलते इसकी विश्वसनीयता ही संकट में आ गई है. देखा जाए तो यह बात काफी हद तक सही भी मालूम पड़ती है. देश-भर में शायद ही ऐसा कोई इलाका होगा जहां मनरेगा के पाक-साफ होने का दावा किया जा सके. हर गांव में इससे जुड़े भ्रष्टाचार के कई तरह के किस्से सुने जा सकते हैं. कैग की रिपोर्ट से लेकर तमाम विभागीय जांचों में भी मनरेगा में फैली गड़बड़ियां कई बार उजागर हो चुकी हैं. 2012 में मनरेगा-2 की लॉन्चिंग के वक्त तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी मनरेगा में बदलाव की जरूरत पर बल दिया था. उनका कहना था कि इस कानून को भ्रष्टाचार मिटाने और उत्पादकता बढ़ाने के उपकरण में बदले जाने की जरूरत है. ऐसे में इसके स्वरूप को लेकर बदलाव की जोरदार मांगों के बीच सरकार द्वारा कदम उठाया जाना अपरिहार्य हो गया था. लेकिन जिस तरीके का बदलाव सरकार के एजेंडे में अभी दिख रहा है, उसको लेकर तमाम लोगों  की राय यही है कि इन कदमों के जरिए भ्रष्टाचार दूर नहीं किया जा सकता है.

मनरेगा में प्रस्तावित एक महत्वपूर्ण बदलाव मजदूरी के हिस्से को कम करने और निर्माण सामग्री के हिस्से को बढ़ाने को लेकर है . आरटीआई आंदोलन से जुड़े निखिल डे के मुताबिक यह कदम भ्रष्टाचार को कम करने की बजाय और भी ज्यादा बढ़ा सकता है. वे कहते हैं, ‘इस बदलाव से सीधे तौर पर लोगों की आमदनी तो कम होगी ही साथ ही बेनामी ठेकेदारों को अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण भी मिलने लगेगा. क्योंकि निर्माण सामग्री के लिए मिलनेवाले पैसे में होनेवाली हेराफेरी को रोकने के लिए कोई सटीक मैकेनिज्म नहीं है.’ हालांकि निर्माण सामग्री के लिए खर्च राशि का हिस्सा बढ़ाए जाने को लेकर सरकार का तर्क यह है कि ऐसा करने से मनरेगा के तहत स्थाई निर्माण कार्यों को तवज्जो मिलेगी. लेकिन जानकार इस राय को भ्रामक करार देते हैं. उनकी मानें तो यदि निर्माण कार्यों में लगनेवाली सामग्री के लिए धन बढ़ाने की ही बात है तो फिर उसका संपूर्ण खर्च मनरेगा की आवंटित राशि से ही निकालना क्यों जरूरी है ? क्या सरकार कोई ऐसा तरीका नहीं निकाल सकती जिससे कि मजदूरी का प्रतिशत वही रहे और निर्माण कार्य के लिए अतिरिक्त धन की व्यवस्था दूसरे विभागों को मिलनेवाले अनुदान से की जाए.

मनरेगा के प्रावधानों में किए जानेवाले बदलावों की कड़ी में एक बदलाव यह भी है कि अब मनरेगा के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियत अनुदान ही दिया जाएगा जबकि पहले इस योजना में मांग के अनुसार निवेश राशि कम या अधिक होती रहती थी. सरकार के इस कदम को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ही आम लोगों में भी नाराजगी है. हरियाणा के रोहतक जिले के एक ग्रामीण रामपाल सिंह कहते हैं, ‘हम लोगों ने भी सुना है नरेगा में कुछ हो रहा है. कहा जा रहा है कि पहले जितने लोगों को मनरेगा के आधार पर काम चाहिए होता था उसके हिसाब से ही बजट का जोड़-घटाना किया जाता था, लेकिन अब तो बजट के आधार पर काम में जोड़-घटाना किया जाएगा. इससे सबसे ज्यादा नुकसान हमारा ही है.’ अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गए जिस पत्र का जिक्र इस रिपोर्ट में पहले किया गया है उस पत्र में भी इस बदलाव को लेकर कड़ी आपत्ति जताई गई है. अर्थशास्त्रियों ने सरकार की मंशा पर हैरत जताते हुए लिखा है, ‘पहली बार केंद्र सरकार राज्य सरकारों के लिए मनरेगा खर्च की सीमा तय कर रही है. यह पूरी तरह से मांग पर काम के सिद्धान्त की अनदेखी है.’

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने सबसे पहले यह मांग उठाई थी कि मनरेगा कानून को खत्म कर इसे सरकारी योजना बना दिया जाए

अब सरकार द्वारा किए जा रहे तीसरे सबसे बड़े बदलाव की बात करते हैं. सरकार की मंशा के मुताबिक मनरेगा के तहत जिलों की संख्या अभी के साढ़े चार सौ से कम कर के ढाई सौ तक सीमित कर दी जानी चाहिए. लेकिन इसको लेकर भी तमाम तरह के विरोध के स्वर अभी से उठने शुरू हो गए हैं. मनरेगा में बदलाव संबंधी विषय पर आयोजित एक परिचर्चा के दौरान ऋतिका खेड़ा कहती हैं, ‘इस योजना को ढाई सौ जिलों तक सीमित कर दिए जाने से बाकी इलाकों के बेरोजगार लोग खुद ब खुद इस योजना से बाहर हो जाएंगे. इन लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था किए बिना ऐसा करना किसी भी नजरिए से सही नहीं होगा.’ सरकारी सूत्रों की मानें तो इस योजना के आकार को सीमित करके सरकार का एक इरादा वित्तीय घाटे की भरपाई करना भी है. लेकिन तब यह सवाल तो उठता ही है कि जरूरतमंद लोगों से रोजगार का एक अदद माध्यम छीनकर सरकार किस वित्तीय घाटे को कम करना चाहती है? प्रख्यात समाजशास्त्री और आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘जो सरकार लोगों को रोजगार देने के वादे पर सत्ता में आई है, उसके इस कदम से कम से कम पांच करोड़ लोगों का रोजगार छिन सकता है.’ वित्तीय मजबूरियों के चलते मनरेगा को खत्म करने की सरकार की मंशा को लेकर वामपंथी पार्टियां भी सरकार से नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं. इसी क्रम में सीपीएम की नेता वृंदा कारत ने कुछ दिन पहले तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर चेताया था कि वित्तीय घाटा कम करने के लिए सरकार के कदमों से मनरेगा पर आंच नहीं आनी चाहिए. उनकी राय है, ‘इस कानून का सीधा संबंध जरूरतमंद लोगों की आर्थिक जरूरतों से है, लिहाजा इस कानून को और मजबूत किया जाना चाहिए.’ वृंदा का यह भी कहना था, ‘वित्तीय घाटे की कीमत पर इस योजना के पर कतरना आम लोगों को रोजगार देने के उस वादे के साथ बड़ा मजाक होगा जिसके दम पर पिछली सरकार ने जनादेश हासिल किया था.’ गडकरी को लिखी चिट्ठी के जरिए उन्होंने सरकार से मनरेगा पर नीति साफ करने की मांग भी की.

इस योजना को कम विकसित इलाकों तक ही सीमित करने को लेकर सरकार की एक दलील यह भी है कि विकसित क्षेत्रों में इसकी कोई जरूरत नहीं है.  मनरेगा को लेकर काम कर रहे लोग इस दलील को बेकार मानते हैं. निखिल डे कहते हैं, ‘विकसित इलाकों में भी गरीब पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं. ऐसे में यदि इन क्षेत्रों से मनरेगा को खत्म कर दिया जाएगा तो ये लोग फिर से बेरोजगार हो जाएंगे. ‘

एक ध्यान देनेवाली महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मनरेगा में काम करनेवाले अधिकांश लोग असंगठित और अकुशल श्रमिक होते हैं. ऐसे में एक सवाल यह भी है कि इस योजना के स्वरूप को सीमित कर देने से ऐसे लेगों के सामने आनेवाले संकट को लेकर सरकार के पास क्या समाधान है. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि इस योजना के सीमित हो जाने से ऐसे लोगों के सामने रोजगार का संकट किस कदर भयावह रूप में सामने आ सकता है.’

‘मनरेगा के तहत होनेवाले कामों की गुणवत्ता पर कैग सवाल उठा चुुका है, ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस कानून में बदलाव हों’

हालांकि इस सबके बावजूद कई लोग मनरेगा के प्रावधानों मंे बदलाव को बेहद जरूरी बताते है. मनरेगा कानून की अच्छी समझ रखनेवाले राजकुमार कुंभज की मानें तो भले ही इस योजना को समाप्त कर देने या कुछ इलाकों तक ही सीमित कर देने की बात ठीक नहीं है, लेकिन तब भी इसके प्रावधानों मंे व्यापक संशोधन किए जाने चाहिए.’ एक लेख के जरिए वे तर्क देते हैं, ‘जब मनरेगा के अंतर्गत किए गए कामों की गुणवत्ता पर कैग तक सवाल उठा चुका है, तो ऐसे में जरूरी हो जाता है कि  इस कानून में कुछ ऐसे बदलाव किए जाएं, जिससे कि यह योजना अधिक व्यावहारिक और पारदर्शी बन सके.’ मनरेगा में बदलाव की जरूरत पर बल देनेवाली जमात में शामिल एक और सामाजिक कार्यकर्ता राकेश कपूर भी मनरेगा के नकारात्मक बिंदुओं को चिह्नत करके उन्हें दूर करने की दिशा में प्रयास करने की जरूरत पर जोर देते हैं.

बहरहाल इस बारे में अभी तक भारतीय जनता पार्टी ने पूरी तरह से अपना पक्ष साफ नहीं किया है. उसके नेताओं द्वारा अलग-अलग मौकों पर जो भी बातें कही गई हैं उनका लब्बोलुआब यही है कि मनरेगा में बदलाव को लेकर उसकी मंशा अभी भी जस की तस है. कुछ दिन पहले पार्टी प्रवक्ता और अब केंद्रीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का कहना था, ‘मनरेगा को पूरी तरह से खत्म करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन इस योजना के प्रावधानों की समीक्षा में कोई हर्ज नहीं है.’

बहरहाल मनरेगा को लेकर होनेवाले प्रस्तावित बदलावों के पक्ष और विपक्ष में उठ रही तमाम दलीलों के बीच एक बात तो साफ है कि तमाम तरह की बुराइयों, कमियों और सुधार की गुंजाइशों के बाद भी मनरेगा ने देश के बहुत सारे गरीब लोगों को थोड़ा-बहुत रोजगार तो दिया ही है, ऐसे में यदि सरकार इस योजना के आकार को सीमित करके गुणवत्तापरक कार्यों, स्थाई निर्माण और वित्तीय खामियों को दूर करने में सफल भी हो जाती है तब भी उन लाखों लोगों के रोजगार का सवाल बना रहेगा, जो इन बदलावों के चलते सीधे-सीधे प्रभावित होनेवाले हैं.

मांझी के बोलः महत्वाकांक्षा या रणनीति?

फोटोः सोनू किशन
फोटोः सोनू किशन

13 नवंबर से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में एक और राजनीतिक यात्रा पर निकले हैं. मकसद जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों और नेताओं से संवाद करना है. नीतीश ने इस नई यात्रा की शुरुआत भी अपनी हर यात्रा की तरह चंपारण के दो जिला मुख्यालयों, बेतिया और मोतिहारी से ही की. नीतीश कुमार की संपर्क यात्रा के ठीक पहले बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी चंपारण इलाके में ही थे. वे थारू आदिवासियों के किसी आयोजन में भाग लेने गये थे. मांझी ने चंपारण के इलाके में घूमते हुए कई बातें कहीं. उन्होंने एक आयोजन में कहा कि वे पहले दलित हैं, बाद में बिहार के मुख्यमंत्री. फिर अगले आयोजन में कहा कि जो सवर्ण हैं, वे विदेशी हैं, आर्य हैं, अनार्यों पर आक्रमण कर यहां काबिज हुए हैं. मांझी से इस पर सवाल पूछे गये. मांझी ने कहा, ‘हमने सच कहा है, दलित हैं तो क्या कहें कि ब्राह्मण हैं!’ मांझी इस बयान को और आगे ले गए. वाल्मीकी टाइगर प्रोजेक्ट रेंज में उन्होंने कहा कि यहां के अधिकारी जंगल में रहने वाले लोगों को शादी-ब्याह आदि में बाजा तक नहीं बजाने देते जबकि खुद रात में उसी जंगल में रंगरेलियां मनाते हैं. अपनी चंपारण यात्रा के पूरे पड़ाव में मांझी इसी तरह की बयानबाजी करते रहे. उनके इन बयानों पर बिहार की राजनीति गरमायी हुई है और एक बड़ा समूह मांझी, मांझी के बहाने नीतीश कुमार और नीतीश कुमार के बहाने उनकी पार्टी जदयू का राजनीतिक मर्सिया गाने में लगा हुआ है. खुद नीतीश कुमार की पार्टी के दबंग नेता और मोकामा के विधायक अनंत सिंह ने सवर्णों के विदेशी होने वाले बयान पर कहा, ‘मांझी को अविलंब मुख्यमंत्री पद से हटाया जाना चाहिए, वे सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ रहे हैं.’ जदयू के ही प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा कि यह जीतन राम मांझी का बयान है, इससे जदयू का कोई लेना-देना नहीं. और भाजपा नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं कि इस पर नीतीश कुमार को कुछ बोलना चाहिए. नीतीश कुमार चुप्पी साधे हुए हैं. वे मांझी के लगभग हर बयान पर ऐसे ही चुप्पी ही साधे रहते हैं. मांझी के बयानों के इतर भी वे चुप्पी को ही सबसे धारदार राजनीतिक हथियार मानते हैं और उसी के जरिये ज्यादातर राजनीति भी करते हैं.

मांझी के हालिया बयानों का चलते-फिरते आकलन करने वालों का मानना है कि वे लगातार जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उससे अगले साल नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू का सूपड़ा साफ हो जाएगा क्योंकि उनके अनोखे बयानों के चलते जदयू के मतदाता तेजी से नीतीश कुमार से दूर हो रहे हैं.

यादव, कुरमी, और मुस्लिमों को मिलाकर एक मजबूत ब्लॉक बनता है. मांझी के जरिए नीतीश कुमार इसमें अतिपिछड़ा और महादलित भी जोड़ना चाहते है

आकलन और अनुमान के जरिए अभी से आगामी चुनावों का परिणाम घोषित कर देने का यह खेल चंपारण में मांझी के दिये गए बयानों से काफी पहले से चल रहा है. पहले भी मांझी ने जब-जब इस तरह के बयान दिए, चौक-चौराहों से लेकर सोशल मीडिया में इसी तरह की बातें होती रहीं. इसी तरह की बातें जब मांझी ने मधुबनी के एक मंदिर में उनके जाने के बाद शुद्धिकरण की बात कही तब भी हुईं.  उन्होंने दलितों का आह्वान किया कि बिहार में आपकी संख्या 23 से 25 प्रतिशत है, आप चाहेंगे तो आपके समुदाय का ही मुख्यमंत्री बनेगा, अभी तो मुझे जदयू और नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया है. हर बार उनके बयान पर इसी तरह की बातें हुईं.

मांझी के बयानों का बिहार में अमूमन दो-तीन निहितार्थ तलाशे गए. या तो इसे नीतीश कुमार से उनके मनभेद-मतभेद के तौर पर देखा गया या फिर इसे मांझी की महत्वाकांक्षा माना गया. एक तीसरा नजरिया यह भी रहा कि मांझी एक नासमझ नेता हैं. नीतीश कुमार से उनकी बढ़ती दूरियों वाली बात में कई बार दम भी लगा, क्योंकि इधर हालिया दिनों में कई ऐसे मौके आये, जब नीतीश कुमार और मांझी का एक मंच पर साथ में रहने का कार्यक्रम बहुत पहले से तय था लेकिन आखिरी वक्त में नीतीश कुमार किसी न किसी कारण उस आयोजन में नहीं जा सके. इस बढ़ती हुई दूरी को जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के एक बयान ने और भी बल दे दिया. शरद यादव ने कहा कि पिछले 20 दिनों से नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी में बात नहीं हुई है. नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के बयान भी कई बार एक-दूसरे के विपरीत आये. इससे लगा कि दोनों के बीच दूरिया वाकई बढ़ी हुई हैं. नीतीश कुमार शायद मांझी को सीएम बनाकर फंस गए हैं. उन्हें न तो अब उगलते बन रहा है, न निगलते.

लेकिन ये तमाम विश्लेषण मांझी की राजनीति, नीतीश कुमार की रणनीति और बिहार की राजनीति के शायद एक पक्ष को देखकर हो रहे हैं. इसका एक दूसरा पक्ष भी है, जिस पर बहुत कम चर्चा हो रही है. मांझी के साथ बहुत करीबी रिश्ता रखनेवाले गया के एक पत्रकार कहते हैं कि पिछले दिनों मांझी से उनकी बात हुई थी तब उन्होंने साफ-साफ कहा था कि वे जो भी कह रहे हैं पार्टी के भले के लिए ही कह रहे हैं और रणनीतिक तौर पर सोच समझकर बयान दे रहे हैं. एक अन्य जदयू नेता और राज्यसभा सांसद के मुताबिक मांझी पार्टी लाईन पर काम कर रहे हैं और उन्हें पार्टी ने यह जिम्मेदारी सौंपी है. मांझी खुद कहते हैं कि जो उन्हें बुद्धू समझ रहे हैं, वे समझते रहें, वक्त आने पर सब पता चलेगा.

जो बात जदयू के अंदरूनी सूत्र कह रहे हैं या जिस रणनीति का जिक्र राज्यसभा सांसद करते हैं वह रणनीति क्या है? क्या इस पूरे मामले को देखने का कोई दूसरा तरीका भी हो सकता है? जानकारों की माने तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक नई और सधी हुई चाल चल रहे हैं. मांझी के जरिए जदयू आज उफान पर दिख रही भाजपा को आनेवाले समय में काबू कर सकती है. मौन को ही मुखर राजनीति का सबसे मजबूत हथियार माननेवाले नीतीश कुमार भाजपा को उसके ही बिछाये मोहरे पर घेर भी सकते हैं. इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि आखिर क्यों जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों के भीतर ऐसे बयानों की बौछार कर दी है. बयानों के बीच जीतन राम मांझी की उस बात पर भी गौर करना होगा, जिसमें वे बार-बार कहते हैं कि नीतीश कुमार से उनका कोई मतभेद नहीं है, नीतीश कुमार तो उन्हें समय-समय पर टिप्स देते रहते हैं.

जीतन राम मांझी के बयानों को समझने से पहले जदयू की राजनीतिक गणित को समझना होगा. भाजपा से अलगाव के बाद जदयू की राजनीति बहुत साफ है. भाजपा पर बिहार में सवर्णों की पार्टी होने का ठप्पा लग चुका है. एक तथ्य यह भी है कि नीतीश कुमार का जो कोईरी-कुरमी का मजबूत गठजोड़ था, उसमें भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा के जरिए सेंध लगा दी है इसलिए कोईरी अब नीतीश के साथ उस तरह से नहीं रह गये हैं. वैश्य जातियां परंपरागत तौर पर भाजपा के साथ ही रहती आई हैं. पिछले लोकसभा में जिस तरह से महादलितों और अतिपिछड़ों ने भी नरेंद्र मोदी की ओर रूझान दिखाया, वह भी नीतीश के लिए खतरे की घंटी है. यादवों के युवा मतदाता भी भाजपा की ओर गए. ऐसी हालात में लालू से मेल-मिलाप के बाद नीतीश कुमार को बिहार में अपनी राजनीति बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि वे कुछ खास समूहों को अपने साथ मजबूती से जोड़ें, तभी नवंबर 2015 में वे भाजपा को पछाड़ सकेंगे और लोकसभा चुनाव में अपनी खोई हुई साख को बहाल कर सकेंगे.

फिलहाल लालू प्रसाद यादव से मेल के बाद यादवों का एक बड़ा समूह जदयू-राजद गठबंधन के पास है. मुस्लिम मतदाता स्वाभाविक तौर पर इस गठबंधन के पाले में रहेंगे, क्योंकि बिहार में कांग्रेस खस्ताहाली में पहुंच चुकी पार्टी है. नीतीश कुमार जिस जाति से आते हैं यानी कुरमी, वह भी नीतीश कुमार के साथ स्वाभाविक तौर पर रहेगा. इस तरह यादवों का करीब 14 प्रतिशत, कुरमी का करीब तीन प्रतिशत, मुस्लिमों का करीब 16 प्रतिशत एक मजबूत सियासी समीकरण बनाता है. यह ऐसा ब्लॉक है जिसमें भाजपा के लिए सेंधमारी आसान नहीं है. लेकिन यह समीकरण मजबूत होते हुए भी इतना आश्वस्तकारी नहीं है कि भाजपा के विजयी अभियान को रोक सके. इसके लिए नीतीश कुमार को खुद के द्वारा सृजित अतिपिछड़ा समूह और महादलितों को मजबूती से अपने साथ जोड़ना होगा. ये दोनों समूह मिलकर बिहार में एक बड़े मतदाता समूह का निर्माण करते हैं और मतदान भी जमकर करते हैं. अतिपिछड़ा एक राजनीतिक समूह के रूप में अभी ठीक से बन नहीं सका है, क्योंकि उसके किसी सर्वमान्य नेता का उभार बिहार में अभी तक नहीं हो सका है. इसके अलावा इसमें अलग-अलग तमाम जातियों का मिश्रण भी इसके एक समूह बन जाने की राह का रोड़ा है. जबकि महादलितों में मांझी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद एक ऐसा नेता मिला है, जो पद की वजह से ही सही, पूरे राज्य में अपील रखता है और जब वे अपनी बात रखते हैं तो पूरे बिहार में बातें जाती हंै.

राजनीतिक विश्लेषक जिस दिशा में जा रहे हैं, बिहार के गांव-जवार मांझी के बयानों के बाद उसकी दूसरी दिशा में बढ़ रहे हैं. वे जितनी बार सवर्णों के खिलाफ या दलितों-महादलितों के पक्ष में बयान दे रहे हैं, उससे एक दूसरे किस्म का माहौल बन रहा है. जमीनी स्तर पर सवर्ण मांझी की खिल्ली उड़ा रहे हैं, उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप महादलित और दलित खामोशी से गोलबंद हो रहे हैं. इसका फायदा जीतन राम मांझी को मिल रहा है.

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘मांझी के मन की बातों को दो-तीन तरीके से समझना होगा. एक तो जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनको अधिकारी तवज्जो ही नहीं देते थे, वे सीधे नीतीश कुमार से ही संचालित होते थे, इसलिए मांझी ने अपनी उपस्थिति और ताकत का अहसास कराने के लिए इस तरह के बयानों का रास्ता चुना. दूसरा यह कि मांझी जिस समुदाय से आते हैं, वह समुदाय सहज होता है, इसलिए वे सहजता में ऐसे बयान दे देते हैं. तीसरा, वे जातीय राजनीति के इस दौर में खुद की पहचान को भी मजबूत करना चाहते हैं.’ इसके अलावा जिस तरह से वे लगातार बयान दे रहे हैं और उनके बयान पर भूचाल मचने के बावजूद जिस तरह से लालू प्रसाद या नीतीश कुमार रहस्यमय चुप्पी साधे हुए हैं, उससे साफ लगता है कि यह एक रणनीति का हिस्सा है.

अंजाम क्या होगा, यह भविष्य की बातें हैं. भाजपा इसकी क्या काट निकालेगी, यह भी देखा जाना बाकी है. मांझी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ बने रहकर भविष्य में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपनी उम्मीदों की कुरबानी आसानी से दे देंगे या नहीं, इस पर भी अभी कोई राय बनाना जल्दबाजी होगी.

और अंत में मांझी को समझने के लिए उनके राजनीतिक इतिहास को भी समझना जरूरी है. मांझी पिछले तीन दशक से बिहार के सक्रिय नेता हैं. कांग्रेस, राजद और जदयू के साथ रह चुके हैं, मंत्री भी रह चुके हैं. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता के अनुयायी माने जाते हैं और लालू के साथ रहने का लंबा अनुभव रहा है. नीतीश कुमार के भरोसेमंद भी रहे, इसीलिए उन्हें मुख्यमंत्री भी बनाया गया. मांझी अपनी राजनीति करना जानते हैं. वे जानते हैं कि लालू प्रसाद कैसे बयानों के जरिये राजनीति को साधकर 15 सालों तक बिहार में राजनीतिक फसल काटते रहे हैं. और नीतीश कुमार से वे यह भी जानते हैं कि कैसे जातियों का बंटवारा कर अपने राजनीतिक आधार का विस्तार किया जाता है. संक्षेप में मांझी न तो नौसिखुवा नेता हैं न ही नासमझ.

उनका नरक, इनका स्वर्ग

पुस्तक ःनरक मसीहा लेखक ः भगवानदास मोरवाल मूल्य ः 550 रुपये प्रकाशन ः राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
पुस्तकःनरक मसीहा लेखक ः भगवानदास मोरवाल मूल्यः 550 रुपये  प्रकाशन ः राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
पुस्तक: नरक मसीहा
लेखक: भगवानदास मोरवाल
मूल्य: 550 रुपये
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

यह महज संयोग है कि एक तरफ बच्चों को बंधुआ मजदूरी और शोषण से बचाने के लिए एनजीओ चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलता है, तो वहीं दूसरी तरफ हिंदी में एनजीओ की भीतरी दुनिया के जाल-फरेब, अमानवीयता और संवेदनहीनता को परत दर परत उधेड़ता भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’ का प्रकाशन होता है. उपन्यास जनता की गरीबी, अशिक्षा, जहालत, भूख जैसे नरक से छुटकारा दिलाने के नाम पर अपने लिए स्वर्ग पैदा करने वाले नरक मसीहाओं की दिलचस्प गाथा है.

पिछले दो दशकों में तेजी से पनपी और फली-फूली एनजीओ संस्कृति ने इस देश में जनआंदोलनों को लगभग समाप्त कर दिया है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के गठजोड़ ने एनजीओ का एक ऐसा महासमुद्र बनाया है जिसमें सभी परिवर्तन कामी धाराएं आकर मिलती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं. फिर मार्क्सवादी, गांधीवादी और अंबेडकरवादी सभी का रंग और चरित्र एक-सा हो जाता है. सभी के लिए लोगों के दुख और सपनों को बेचकर आर्थिक लाभ उठाना ही प्रधान उद्देश्य बन जाता है जिसके चलते सामाजिक परिवर्तन का स्वप्न कहीं खो जाता है. तात्पर्य यह कि एनजीओ आर्थिक लाभ और शोहरत का एक ऐसा अचूक साधन बनकर उभरा है जिसने व्यवस्था परिवर्तन या व्यापक बदलाव के लिए हो रहे हर एक प्रयास को खोखला कर दिया है.

प्रतिरोध का एनजीओकरण वर्तमान दौर की सबसे बड़ी समस्या है. एनजीओ संस्कृति में शामिल हो जाने के बाद कोई व्यक्ति न तो मार्क्सवादी रहता है और न ही गांधीवादी, न नारीवादी और न ही दलितवादी; वह सिर्फ और सिर्फ एनजीओवादी होता है. हिंदी में संभवतः यह पहला उपन्यास है जिसमें एनजीओ के पीछे की वैचारिक पृष्ठभूमि, पूंजीवाद से उसके नाभि-नाल संबंध और उसकी कारगुजारियों को एक आख्यान का रूप दिया गया है. एनजीओ युग के इस प्रचंड दौर में यह उपन्यास न सिर्फ एक सार्थक हस्तक्षेप है बल्कि इसे एक हिंदी लेखक के लेखकीय प्रतिरोध के रूप में भी देखा जाना चाहिए.

उपन्यासकार के रूप में मोरवाल की खासियत यह है कि वे नैरेटर के तौर पर अलग से अपनी बात नहीं कहते बल्कि उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे पात्रों के संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त कर देते हैं. इसका सफल यह होता है कि कथा-प्रवाह कहीं बाधित नहीं होता और अपने पात्रों के बीच संवाद के माध्यम से आगे बढ़ता उपन्यास बहुत जल्दी ही अपने पाठक से भी संवाद का एक रिश्ता बना लेता है. कॉमरेड सोहनलाल ‘प्रचंड’ का बेटा जब उनके पास एक एनजीओ खोलने का प्रस्ताव लेकर जाता है और अपने तर्क देकर उनसे पूछता है कि आखिर इसमें बुराई क्या है, तब प्रचंड कहते हैं, ‘माना इस आर्थिक विषमता और जातिवादी समाज में ऐसा करना कोई बुराई नहीं है. मगर, संघर्ष और कुर्बानी के जरिए हक दिलाने के लिए लोगों को इकट्ठा करने के बजाय, उनमें मुफ्त में मिली खैरात से जीने की आदत डालना बुराई है. बुराई है इस साम्राज्यवादी शोषण और मुनाफे की दुकानों का सेल्समैन बनने में.’ उपन्यास में ऐसी अनेक वैचारिक बहसें पात्रों के संवादों में सामने आती हैं. संवादधर्मिता इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण विशेषता है.

पात्रों के चयन और कथानक को गढ़ने में लेखक ने काफी सूझ-बूझ का परिचय दिया है. इस उपन्यास में राष्ट्रीय बाल एवं महिला कल्याण परिषद् की अध्यक्ष बहन भाग्यवती, वहां कार्यरत मिसेज मौर्य, ग्रासरूट फाउंडेशन की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सानिया पटेल और सर्वहारा फाउंडेशन चलाने वाला उनका पति कबीर, इंस्टीट्यूट फॉर वीमेंस स्टडीज की डायरेक्टर डॉ. वंदना राव, डॉ. अंबेडकर दलित महिला उद्धार सभा की सुप्रीमो सुमन भारती, अखिल भारतीय अबला मंच की अध्यक्ष सरला बजाज, राहत फाउंडेशन की कर्ता-धर्ता अमीना खान और अपने जमाने की मशहूर अदाकारा एवं हॉरमनी फॉर गोल्डन फाउंडेशन की सीईओ टीना डालमिया के साथ-साथ पुराने गांधीवादी गंगाधर आचार्य तथा पुराने कम्युनिस्ट सोहनलाल ‘प्रचंड’ मुख्य पात्र हैं. उपन्यासकार ने धर्म, जाति, वर्ग, विचारधारा आदि सभी श्रेणियों के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा है. इनमें से लेखक ने गंगाधर आचार्य और सोहनलाल ‘प्रचंड’ को गैरसमझौतावादी तथा अपने मूल्यों और उसूलों पर टिके रहने वाला दिखाया है, जबकि गांधीवादी बहन भाग्यवादी, वामपंथी सानिया पटेल और कबीर, अंबेडकरवादी सुमन भारती, नारीवादी वंदना राव आदि सभी को एक ही जैसे पतनशील कार्यों में लिप्त दिखाया गया है. यानी, उपन्यास में संपूर्ण आस्था नहीं है. उपन्यासकार ने पुरानी पीढ़ी में विश्वास भी व्यक्त किया है. उपन्यास इस बात को अत्यंत सशक्त ढंग से स्थापित करता है कि आचरण के स्तर पर नई पीढ़ी के लिए विचारधारा, मूल्यों और संस्कारों का कोई अर्थ नहीं रह गया है. पूंजी और बाजार ने सबको एक रंग में रंग दिया है. उपन्यास में सरला बजाज के संगठन और सरकारी संस्था राष्ट्रीय बाल एवं महिला कल्याण परिषद् द्वारा आयोजित करवाचौथ उत्सव का दिलचस्प प्रसंग है. वहां गांधीवादी, मार्क्सवादी, नारीवादी, अंबेडकरवादी सभी करवाचौथ के पक्ष में अपने-अपने तर्क दे रही हैं. यह प्रसंग इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि व्यक्तिगत लाभ और लालच ने विचारधारा और मूल्यों को किस तरह देश निकाला दे दिया है.

उपन्यास का एक दलित कोण भी है. इसमें बहन भाग्यवती, उनकी उपसचिव मिसेज मौर्य और सुमन भारती, ये तीनों दलित हैं, और समझौतापरस्त हैं. गांधीवादी गंगाधर आचार्य और कम्युनिस्ट सोहनलाल ‘प्रचंड’ की तरह विचारधारा को मानने वाला कोई अंबेडकरवादी पात्र उपन्यास में नहीं है. इससे भी बड़ी बात यह है कि लेखक ने इन तीनों में आंतरिक एकता दिखलाई है. मुनाफे और लूट की संस्कृति वाले इस दौर में व्यक्तिगत लाभ और हानि से ही संबंध निर्धारित होते हैं, यह एक बड़ा सत्य है पर इस बड़े सत्य के भीतर भी कई छोटे-छोटे सत्यों का अस्तित्व बना रहता है. जातिवाद भी एक ऐसा ही सत्य है. समस्या यह है कि लेखक ने सिर्फ दलितों को ही जातिवादी दिखाया है. यह बहुत संभव है कि इसे लेखक के दलित विरोधी नजरिए के रूप में देखा जाएगा.

‘महाराष्ट्र-हरियाणा की तर्ज पर हम दिल्ली में भी बिना किसी चेहरे के चुनाव लड़ेंगे’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

चुनाव का सामना करने से भाजपा इतना हिचक क्यों रही थी. क्या अरविंद केजरीवाल से पार्टी में किसी तरह का डर था?
हमारे मन में चुनाव को लेकर कोई हिचक नहीं है. भाजपा कभी भी दिल्ली में गलत तरीके से सरकार बनाने की पक्षधर नहीं थी. हमारे मन में यह कभी नहीं था कि हमें गलत तरीके से, जोड़-तोड़ करके या खरीद फरोख्त करके दिल्ली में सरकार बनानी है. अगर हमारी ऐसी मंशा होती तो उस समय ही करते जब हमारे पास 32 विधायक थे. लेकिन तब भी हमने इन चीजों से दूरी बनाए रखी.

दिल्ली में भाजपा का इतिहास रहा है कि वह मुख्यमंत्री पद का एक चेहरा घोषित करके चुनाव में उतरती आई है. ऐसा पहली बार हो रहा है कि भाजपा बिना किसी चेहरे के चुनाव में उतर रही है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में सबने देखा कि कैसे पार्टी बिना किसी चेहरे के भी जीत हासिल कर सकती है. हम इस बार किसी चेहरे की बजाय विचारधारा के ऊपर चुनाव लड़ने जा रहे हैं. पर दिल्ली में हमारे पास पर्याप्त बड़ी संख्या में नेता हैं. हमारा चेहरा इस बार पार्टी का चुनाव चिन्ह, विचारधारा और केंद्र सरकार का कामकाज होगा. मोदी जी के आने के बाद जो विश्वास जनता के मन में पैदा हुआ है वह इस चुनाव में हमारा चेहरा बनेगा. और निश्चित रूप से मोदी जी का नेतृत्व भी इसमें हमारी मदद करेगा.

सवाल वही है कि नरेंद्र मोदी के चेहरे पर देश ने भाजपा को इतना बड़ा जनादेश दिया तो फिर दिल्ली में एक चेहरे से परहेज क्यों कर रही है भाजपा. अगर भाजपा अपने पिछले रुख से पीछे हट रही है तो इसके पीछे कोई तो वजह होगी. अगर मोदी से देश में फायदा हुआ तो क्या दिल्ली में सतीश उपाध्याय या किसी और चेहरे के साथ जाने में नुकसान होता?

हम पीछे नहीं हट रहे हैं. ये कोई नई बात नहीं है. हमने महाराष्ट्र और हरियाणा में इसी रणनीति पर चुनाव जीता है. रणनीति तो पार्टियां बदलती रहती हैं और यह हमारा अधिकार है कि हम चुनाव दर चुनाव उत्पन्न स्थितियों के मुताबिक अपनी रणनीति तैयार करें. हमने साथ मिलकर यह तय किया है कि चुनाव में हमें किस तरह से उतरना है. हमारा विधायक दल तय करेगा कि कौन नेता बनेगा.

पिछले विधानसभा चुनावों में हमने देखा कि आम आदमी पार्टी रणनीति के मामले में भाजपा से इक्कीस सिद्ध हुई थी. इस बार भी हम ऐसा ही कुछ देख रहे हैं. उन्हें अपनी वेबसाइट तक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो इस्तेमाल करने में गुरेज नहीं होता है. कुछ लोगों का आकलन था कि आप को हल्के में लेने का खामियाजा भी भाजपा को पिछले चुनाव में भुगतना पड़ा था. तो इस बार आप से निपटने की क्या कोई अलग रणनीति होगी आपकी?
ऐसा है कि जिस अभियान की बात आप कर रहे हैं तब की स्थितियां बिल्कुल अलग थीं. आज की स्थितियां एकदम बदली हुई हैं. तब दिल्ली में मनमोहन सिंह की सरकार थी, तब भाजपा की सरकार नहीं थी. तब अरविंद केजरीवाल भी दिल्ली में कुछ नहीं थे. उनकी कोई राजनीतिक पहचान नहीं थी. अनजाने में दिल्ली के लोगों ने उनसे एक उम्मीद लगा ली थी कि शायद वे कुछ अलग और नया करेंगे. लोगों को उनसे आशाएं थीं. उन्होंने इतने बड़े-बड़े वादे कर डाले थे जिससे जनता भुलावे में आ गई. फिर दिल्ली और पूरे देश की जनता ने उनकी सत्ता लोलुपता भी देखी. वे दिल्ली की सरकार से 49 दिनों में ही भाग गए और देश के प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे थे. अपने लालच के चक्कर में उन्होंने दिल्ली की जनता से किए गए वादे तक नहीं निभाए. उनकी घोषणाएं खोखली सिद्ध हुईं. मुफ्त पानी की घोषणा की और सिर्फ तीन महीने तक के लिए ऐसा करके भूल गए. उसका फायदा भी ऐसे लोगों को हुआ जिनके पास पानी के मीटर थे. गरीब और कमजोर आदमी को इसका कोई लाभ नहीं मिला. ऐसे तमाम कारण हैं जिनकी वजह से आज अरविंद केजरीवाल की विश्वसनीयता दिल्ली की जनता के बीच खत्म हो चुकी है.

पिछले चुनाव के दौरान ही कुछ वादे भाजपा ने भी किए थे मसलन बिजली की कीमतें 30 फीसदी तक कम करने की, लोगों को मुफ्त पानी देने की आदि. इन चुनावों में भाजपा उन लोकलुभावन वादों पर कायम रहेगी?
जो वादे हमने जनता के से किए थे उन्हें पूरा करने की कोशिश हम आगे भी करेंगे. चाहे वह बिजली की कीमतें घटाने का मामला हो, चाहे बिजली चोरी रोकने का मामला हो, गैरकानूनी कॉलोनियों को नियमित करने की बात हो, पानी का मुद्दा हो या फिर महिला सुरक्षा का मुद्दा, इन सभी वादों को हम पूरा करंेगे. बिजली पर हमने पहले ही केंद्र सरकार की तरफ से सब्सिडी दिलवाई है.

आज के दौर में चुनाव निर्वाचन क्षेत्रों के अलावा सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर भी लड़े जाते हैं. इस मामले में अरविंद केजरीवाल हमेशा बहुत तेज सिद्ध हुए हैं. उनकी तुलना में देखें तो सोशल मीडिया पर आपकी पहुंच बहुत सीमित दिखती है. यह सोची-समझी रणनीति है या फिर आप उनका मुकाबला नहीं कर पा रहे?
सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया, वेबसाइट आदि बहुत जरूरी तकनीकें हैं और इनका हर स्तर पर इस्तेमाल होना चाहिए. अब तक हमारी कोशिश यह थी कि पहले अपने संगठन को अच्छी तरह से मजबूत कर लिया जाय. इसके आगे की रणनीति हमने बना ली है. इसके तहत हम अपनी इंटरैक्टिव वेबसाइट को अगले एक या दो दिनों में शुरू करने वाले हैं. जहां तक आप अरविंद केजरीवाल के अभियान का जिक्र कर रहे हैं तो कई बार हमने देखा कि वे सिर्फ मीडिया का अटेंशन पाने के लिए गलत-सही ट्वीट करते रहते हैं, ऐसी-ऐसी बातें जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता. उदाहरण के लिए वे खुद लिख रहे हैं कि मोदीजी फॉर पीएम, केजरीवाल फॉर सीएम. यह किस मानसिकता की राजनीति है. इसी तरह एक दिन उन्होंने ट्वीट कर दिया कि आज साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली के उपराज्यपाल भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. मुझे लगता है कि सोशल मीडिया का इस तरह ओछा इस्तेमाल करना गलत है. अगर इसका इस्तेमाल उसके सही अर्थों में हो तो बात ठीक है और मैं हमेशा यही कोशिश करता हूं.

पिछले दिनों स्वच्छ भारत अभियान के दौरान आपके साथ एक बड़ा विवाद जुड़ गया. जिस तरह से कचरा फैलाकर उसे साफ करने की रस्म निभाई गई उससे यह पूरा अभियान ही बेमायने लगने लगा है.
इंडिया इस्लामिक सेंटर में जो घटना हुई उस कार्यक्रम के बारे में लोगों को ठीक से जानकारी नहीं है. लोगों को उसे समझना होगा. दो-ढाई सौ लोगों ने मिलकर वह कार्यक्रम आयोजित किया था. उसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज थे, तमाम वकील थे, दूसरी पार्टियों के नेता भी थे, मीनाक्षी लेखी भी थीं वहां. उन्हीं लोगों की तरह से मैं भी एक आमंत्रित सदस्य था. उसी कार्यक्रम में अपने संबोधन के दौरान मैंने कहा कि प्रधानमंत्रीजी का यह अभियान सिर्फ फोटो खिंचवाने का अवसर नहीं बनना चाहिए. इतने सारे आमंत्रित लोगों के बीच सिर्फ मुझे ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है. जैसे तमाम मेहमान उस कार्यक्रम में झाड़ू लेकर पहुंचे थे वैसे ही मैं भी था. जब आप किसी सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा लेते हैं तो आप आयोजक के प्रति कोई अविश्वास लेकर नहीं जाते, आप यह सोचकर नहीं जाते की कोई आपके साथ वहां गड़बड़ी की जाएगी. पता नहीं यह कोई इंसानी गड़बड़ी थी या जानबूझकर किसी ने किया, मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता.

आपको लगता है कि किसी ने जानबूझकर आपको फंसाया है?
मैं इस मामले में कुछ भी नहीं कह सकता. हो सकता है कि किसी ने बदनाम करने के लिए ही ऐसा किया हो तभी वो सारी फोटो खिंचवाई गई हों. पर मुझे कुछ भी नहीं पता. आप यह देखिए कि इस कार्यक्रम में मेरी भूमिका क्या थी, मैं कोई आयोजक तो था नहीं इसके बावजूद मीडिया में सिर्फ मेरा ही नाम उछाला गया. यह बहुत दुखद है.

पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि दिल्ली में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं बढ़ रही हैं. पिछले 15-20 सालों में इस तरह की चीजें दिल्ली में देखने-सुनने को नहीं मिलती थीं. बवाना में ताजिये को लेकर हुआ विवाद हो या त्रिलोकपुरी में हुआ दंगा. कुछ जगहों पर भाजपा नेताओं के नाम भी सामने आए हैं. चुनावों से पहले ही अचानक से ये तनाव क्यों बढ़ गए हैं?
देखिए त्रिलोकपुरी की जो घटना थी वह दुकान में शॉर्टसर्किट से लगी आग के बाद हुई. मैं दिल्ली पुलिस को बधाई देता हूं कि उन्होंने दो दिन के भीतर उसे काबू कर लिया. अब अगर इस पर राजनीति करनी हो तो वहां के विधायक तो आम आदमी पार्टी के हैं वे क्या कर रहे थे, उनकी क्या भूमिका थी. पर हम इस तरह की राजनीति में नहीं पड़ते. बवाना में हमारे विधायक हैं गुगन सिंह. मैंने उन्हें फोन करके कहा कि आप ताजिए को सही-सलामत निकलवाने में मदद कीजिए. दोनों पक्षों की सहमति और सद्भावना के साथ ताजिया निकलवाने की व्यवस्था हमने की. हमारी भूमिका दोनों ही मामलों में एकदम साफ थी कि किसी तरह मामलों को बढ़ने न दिया जाय और उसे समय रहते सुलझा लिया जाय.

आपकी व्यक्तिगत राजनीति की बात करते हैं. लंबे समय से आप संगठन में थे. पहली बार आप पार्षद बने थे. और अब राज्य के मुखिया की जिम्मेदारी भी आपके ऊपर आ गई है. संगठन और चुनावी राजनीति के बीच तालमेल कैसे बिठाते हैं. कहीं आपकी प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी के पीछे पार्षद की जिम्मेदारियां नजरअंदाज तो नहीं हो रहीं.
मेरी जो पार्षद की जिम्मेदारियां हैं वो बखूबी पूरी हो रही हैं. कल ही मैं अपने इलाके की सभी आरडब्लूए अधिकारियों से मिला हूं. उनके साथ दो घंटे लंबा कार्यक्रम रहा मेरा. वो जिम्मेदारियां भी बखूबी पूरी हो रही हैं. आरडब्लूए के एक भी सदस्य ने अपने इलाके में किसी तरह की गड़बड़ी की शिकायत नहीं की. नियमित अंतराल पर उनके साथ मेरा संवाद होता रहता है. अपने चुनाव के दौरान मैंने लोगों से कहा था कि मैं आप लोगों को काम करने के लिए अपने घर नहीं बुलाऊंगा बल्कि मैं खुद आपके यहां आऊंगा. अंतिम बात यह है कि लोगों के काम हो जाने चाहिए बिना परेशान हुए. जहां तक मेरी जिम्मेदारी का सवाल है तो यह मल्टीटास्किंग का मामला है, और जिम्मेदारियां इन्हीं चीजों को ध्यान में रखकर दी जाती हैं. अगर हम यह भी नहीं कर सकते तो फिर इतनी बड़ी दिल्ली को कैसे संभालेंगे.

इसी जिम्मेदारी से जुड़ा एक सवाल है. आपके एक कार्यकर्ता हैं, वे एक एमसीडी इंस्पेक्टर को भद्दी भाषा में धमकी देते हुए सुने जा रहे हैं. ऐसे लोगों से आप कैसे निपटेंगे. अगर ऐसे कार्यकर्ता होंगे तो फिर भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर पार्टी की बात का भरोसा कैसे करेगी जनता.
जिस ऑडियो की बात आप कर रहे हैं उसे मैंने सुना है. उसमें दो चीजें हैं. एक तो वे इस बात का विरोध कर रहे हैं कि अधिकारी वैध चीजों पर एक्शन ले रहे थे जबकि अवैध के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रहे थे. इससे वे आपे के बाहर हो गए. दूसरा पक्ष है उनकी भाषा. जिस तरह की भाषा वे इस्तेमाल कर रहे थे उसकी मैं कड़े शब्दों में निंदा करता हूं. किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. हमारे कार्यकर्ता ने पार्टी के कड़े संदेश के बाद अपनी गलती के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगी है और आगे से इस तरह का व्यवहार न करने की बात कही है. पार्टी इस तरह की चीजों का कतई समर्थन नहीं करती है.

चुनाव के बाद सतीष उपाध्याय के मुख्यमंत्री बनने की क्या संभावना है.
इस सवाल की आवश्यकता नहीं है. यह गैर जरूरी है. हमारा विधायक दल तय करेगा कि कौन उसका नेतृत्व करेगा.