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सीपीआई (एम) : आधी सदी, अधूरा सफर

aadhi_sadi(आलेख के बीच-बीच में आए इटैलिक पैराग्राफ एक सीपीआई (एम) कार्यकर्ता की डायरी के संपादित अंश हैं. इससे वामपंथी नेतृत्व के फैसलों और जमीन से उनके कटाव को समझने में आसानी होती है)

आधी सदी पहले चीनी आक्रमण के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की नेशनल काउंसिल की एक मीटिंग से 32 सदस्य उठकर बाहर निकल गए थे, जिन्होंने देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई (एम) की बुनियाद डाली. मसला था- भारत में क्रांति कैसे होगी, इसकी रणनीति पर मतभेद. लेकिन बुर्जुआ पार्टियों के घाघ नेताओं के बीच मध्यस्थता कराने, उनके ईगो सहलाने और पुचकारने के माहिर सीपीआई (एम) के पूर्व महासचिव और उसके पहले पोलित ब्यूरो के सदस्य कॉमरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत ने इसे कुछ और तरह से व्याख्यायित किया था, ‘नेतृत्व के एक हिस्से को चीन समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तारकर जेल में डाल दिया गया था, इसका फायदा उठाकर दूसरे गुट ने पार्टी पर कब्जा कर लिया. जो जेल गए थे वही सीपीआई (एम) बनानेवाले थे.’

यह साफगोई सच के ज्यादा करीब है कि झगड़ा भारतीय परिस्थितियों में क्रांति का रास्ता पहचानने का नहीं था, बल्कि सोवियत रूस या चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों की लाइन में से एक को स्वीकार करने का था, जिनके आपसी मतभेद जगजाहिर हो चुके थे. विभाजन के बाद मुंबई में हुई सोवियतपंथी सीपीआई की पार्टी कांग्रेस में भी चीनी आक्रमण और गुटबाजी को जिम्मेदार बताया गया था. इस तरह कम्युनिस्टों का पहला घरेलू बंटवारा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के मतभेदों के कारण हुआ था.

(सारे देश में पार्टी दफ्तर, फंड, फादरलैंड से संबंध, कम्युनिस्ट आंदोलन की विरासत के दस्तावेज उन्हें और नेता हमें मिले. हमारी पार्टी को सब कुछ लगभग शून्य से शुरू करना पड़ा)

तीन साल बाद 1967 में सीपीआई (एम) में फिर विभाजन हुआ. चारू मजूमदार, कानू सान्याल के नेतृत्ववाले गुट सीपीआई (एम-एल) ने संसदीय राजनीति की भर्त्सना करते हुए सशस्त्र क्रांति को लक्ष्य घोषित किया. नक्सलबाड़ी विद्रोह के प्रभाव में इस गुट को नक्सलाइट कहा गया. जंगल और कागज दोनों जगहों पर खुद को नक्सल कहनेवाले अब इतने संगठन हैं कि गिनती मुश्किल है.

(मुझे लगता है पार्टी क्लास और जार्गनबाजी से कम्युनिस्टों के मतभेदों को नहीं समझा जा सकता, इसके बजाय उनके खानपान, बॉडी लैंग्वेज, उपन्यास-कहानियों से ज्यादा मदद मिलती है. पार्टी क्लास में बंगाल से केंद्रीय कमेटी के एक नेता आए थे, जो अजीब भाषा में बोल रहे थे. अधिरचना, प्रतिक्रियावादी, प्रोलेतेरियत, सिन्थेसिस, पेटी बोर्जुआ, त्रात्सकाइट, लुम्पनाइजेशन वगैरह अनजानी मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले किसानों पर फेंके जा रहे थे. ये प्राइमरी स्कूल में भी मास्टर से पिटने के डर से ऐसे ही झूठ-मूठ मुंडी हिलाते रहे होंगे. हमारे सूबे के एक नेता हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अकेले हैं जिन्होंने पंखे में चुटिया बांध कर कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल पढ़ी है, उन्हीं को आर्थिक प्रश्नों पर अमूर्त प्रवचन के लिए हर बार खड़ा कर दिया जाता है. वे ज्ञान के गुमान से तने रहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि पढ़े-लिखे मूर्ख हैं. किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती की किताब के पहले पन्ने पर लिखा है, हमको ऐसा समाजवाद चाहिए जो खैनी की पिचपिच और रजाई की चीलर से पैदा हुआ हो, राहुल सांकृत्यायन तो छत्तीस भाषाएं जानते थे, लेकिन उन्होंने “भागो नहीं दुनिया को बदलो” भोजपुरी में लिखी, सव्यसाची की कितबिया को भी जोड़ लें, तो यही तीन अपने पल्ले पड़ी बाकी पार्टी, क्लास-कचहरी की मिसिल है जिसको बूझने के लिए पहले बैरिस्टरी, फिर फारसी की पढ़ाई करनी पड़ेगी. हद तो यह है कि बिना समझे कॉमरेड लोग बहस भी करने से लगे हैं और उन्हीं पहेली जैसे शब्दों से डराकर चुप भी करा देते हैं.)

सीपीआई (एम) ने इमरजेंसी का विरोध तो किया, लेकिन उसका ताप इतना नहीं था कि जनता के गुस्से को जनता पार्टी की तरह समर्थन में बदल सके

सीपीआई (एम) बनने के चार साल बाद केरल में ईएमएस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में इनकी पहली सरकार बनी. 1977 में बंगाल में वाममोर्चा की सरकार बनी, जो लगातार चुनाव जीतते हुए 2011 तक यानी तीन दशक से अधिक समय तक सत्ता में रही. अस्सी का दशक आते-आते सीपीआई (एम) राष्ट्रीय राजनीति की बड़ी ताकत बन चुकी थी, जो वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल की सेकुलर सरकारों को चलाने में अहम भूमिका अदा करने लगी. नब्बे के दशक में बनी युनाइटेड फ्रंट सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे. इस प्रस्ताव को पार्टी ने ठुकरा दिया जिसे ज्योति बसु ने ‘हिस्टाेरिक ब्लंडर’ यानी ऐतिहासिक चूक कहा था.

सीपीआई (एम) के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के अनुसार इस समय सीपीआई (एम) के सत्तर लाख पार्टी सदस्य और फ्रंटल संगठनों के सात करोड़ से अधिक सदस्य हैं, लेकिन यह पार्टी अपने इतिहास के सबसे बुरे दिन काट रही है. 2009 के ही लोकसभा चुनाव में इसके सांसदों की संख्या 44 से घटकर 16 हो गयी थी. एक तरफ नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध और दूसरी तरफ बंगाल के औद्योगीकरण के लिए उन्हीं नीतियों को लागू करने के नतीजे में हुए सिंगुर-नंदीग्राम के गोलीकांड और कैडर की गुंडागर्दी का नतीजा यह हुआ कि 2011 में ममता बनर्जी ने वामपंथियों का सबसे मजबूत किला ढहाकर सत्ता से बाहर कर दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल से सीपीआई (एम) के सिर्फ दो सांसद जीत पाए.

पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद वामपंथियों ने दक्षिणपंथ के नए उभार से लड़ना प्रमुख लक्ष्य घोषित किया है. उनका मानना है कि भारत की वास्तविक सत्ता बुर्जुआ और जमींदारों के नुमाइंदों के नियंत्रण में है, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के मुनाफाखोरों के साथ गठजोड़ कर लिया है.
अरबों के घोटालों, वंशवाद, सतही मुद्दों पर अपराधियों को चुनाव जिताने के अभ्यस्त और साथ ही घुटन भी महसूस करते समाज में वामपंथियों की ईमानदारी, गरीबों, वंचितों को राजनीति के एजंडे पर लाने की नीयत, विपरीत परिस्थितियों में लड़ने की क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता. हर लिहाज से सबसे बड़े और निर्णायक हिंदी पट्टी के इलाके में अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उनकी नाकामी स्तब्ध करती है, यह एक ऐसा अवरोध है जिसने न सिर्फ वामपंथ, बल्कि किसी भी अन्य प्रगतिशील राजनीतिक विकल्प का रास्ता रोक रखा है.

(कम्युनिस्ट समाज की व्यावहारिक सच्चाइयों को मार्क्सवादी फर्मे में कसकर देखने के बजाय उन सच्चाइयों के फर्में में सिद्धांत को परखते तो बाजी पलट सकते थे. एक अच्छी बात है कि कम्युनिस्ट वंशवादी नहीं हो सकते क्योंकि कम्युनिज्म कभी पारिवारिक मूल्य नहीं बन पाया. कम्युनिस्ट नेताओं के बच्चे या तो नौकरी करते हैं या उन पार्टियों की ओर लपकते हैं, जिनके नेताओं से तुलना करते हुए वे बचपन से अपने बाप को कोस रहे होते हैं.)

हर लिहाज से सबसे बड़े और निर्णायक हिंदी पट्टी के इलाके में तमाम तरह की अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद पार्टी की नाकामी स्तब्ध करती है

आजादी के बाद कांग्रेस के एकछत्र राज के जमाने में सीपीआई ने हिंदी पट्टी में सशक्त विपक्ष की भूमिका अदा करते कई बड़े जनसंघर्षों को संगठित किया, लेकिन वह सोवियत संघ की ओर झुकाव रखनेवाले जवाहरलाल नेहरू के विचित्र ब्रांड के बांझ समाजवाद के झांसे में ऐसा फंसी कि उसकी चमक खत्म होने लगी, यहां तक कि वह इमरजेंसी का समर्थन करने की हद तक गई, जिससे उसकी साख को बहुत बुरी तरह धक्का लगा.

यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि सीपीआई जिस समय कांग्रेस के साथ दिखाई दे रही थी वह गैर कांग्रेसवाद का दौर था, कांग्रेस के वंशवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अभिजन कल्चर और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ एक राजनीतिक विकल्प आकार ले रहा था. इसमें कोई दो राय नहीं कि
सीपीआई का नेतृत्व उस वक्त की राजनीतिक आकांक्षाओं को पहचान पाने में नाकाम रहा था या अगर पहचान भी गया, तो उनके अनुरूप चलने की हिम्मत नहीं कर सका.

इमरजेंसी के दौर में कांग्रेस का समर्थन करना ऐसा राजनीतिक पाप था जिसका कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता था और इसकी कीमत सीपीआई को जनाधार के घटने और नेताओं के निस्तेज हो जाने के रूप में चुकानी पड़ी. रही-सही कसर नब्बे के दशक की शुरुआत के तुरंत पहले सोवियत संघ के विघटन ने पूरी कर दी, इससे समूचे वामपंथ को भारी सदमा लगा, लेकिन सीपीआई तो जैसे पितृविहीन होकर अस्तित्व के संकट से जूझने लगी.

वामपंथियों का ठेठ देशी यथार्थ से पाला अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक में पड़ा, जब धर्म और जाति राजनीति की केंद्रीय धुरी बनकर सामने आए

(नकली कम्युनिस्ट नेताओं की पहचान है कि उनके ओसारे के एक कोने में कुल्हड़ और शीशे के गिलास रखे रहते हैं, ताकि घर आनेवाले दलित और मुसलमान कार्यकर्ताओं को चाय पिलाई जा सके. अक्सर निचली जाति का कोई कॉमरेड जिला कमेटी की बैठक में छुआछूत बनाम मेहनतकश कतारों से नेतृत्व की दूरी का सवाल उठाता है, तो नेता किचकिचाते हैं कि डी-क्लास वे हुए उनका परिवार नहीं, क्या आप लोग मुझे घर से ही निकलवा देना चाहते हैं? ज्यादातर ऐसे नेता इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी में आए थे कि उनके परिवारों को खेती के लिए समय पर सस्ते मजदूर मिल सकें, उन्हीं के बच्चे फादरलैंड के स्वर्णकाल में डाक्टरी, इंजीनियरी पढ़ने सोवियत रूस गए. मंहगी मुसहर मजाक करता है- अगर लेनिन जी के कहनाम से कामरेड आंख की पुतली होता है तो हम लोगों को अलग बरतन में काहे चाय पिलाते हैं.)

दूसरी तरफ सीपीआई (एम) ने इमरजेंसी का विरोध तो किया, लेकिन उसका ताप इतना नहीं था कि जनता के गुस्से को जनता पार्टी की तरह समर्थन में बदल सके, लेकिन कांग्रेस विरोधी मिजाज का फायदा उठाते हुए वह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार बनाने में कामयाब रही. वहां वामपंथियों ने संगठन का विस्तार गांव स्तर तक करते हुए संविधान के दायरे में भूमि सुधार लागू करने, पंचायती राज का विकेंद्रीकरण करने और एक हद तक वंचित तबकों को उनके अधिकारों का अहसास कराने में कामयाबी हासिल की जिसके कारण वे तीन दशक से भी ज्यादा समय तक सत्ता के नशे में चूर होकर बहक जाने तक टिके रहे.
वामपंथियों को मानने में चाहे जितना गुरेज हो, लेकिन इस कामयाबी में खुद को विशिष्ट माननेवाली बंगाली उपराष्ट्रीयता का सांस्कृतिक रंग भी घुला हुआ था जिसके कारण पार्टी का विस्तार बंगालियों और स्थानीय आदिवासियों के संघर्ष से जलते त्रिपुरा तक तो हुआ, लेकिन पड़ोसी बिहार और उसके आगे हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में नहीं हो पाया.

(अजीब नारा है- यूपी भी बंगाल बनेगा, बलिया ही शुरुआत करेगा. यूपी अपनी कद काठी और पहचान के साथ क्यों नहीं वामपंथियों के साथ खड़ा हो सकता है.)
अगर वामपंथी अपने कट्टर वैचारिक मतभेदों, झंडे की तरह फहरानेवाली नास्तिकता, वर्ग संघर्ष के स्वप्नों के साथ भी स्वतंत्र भूमिका निबाहते रहते, तो भी गनीमत होती, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. हिंदी पट्टी में बड़े उद्योग लगभग नहीं हैं, जहां हैं भी, वहां पार्टी के सबसे जहीन नेता कारखानों और लेबर कोर्ट के बीच उलझकर रह गए. अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेताओं के चमकदार नामों के आभामंडल में ट्रेड यूनियन करना कुछ वैसी ही प्रेरणा थी जैसे बॉलीवुड के ज्यादातर अभिनेता और एक्स्ट्रा अमिताभ बच्चन हो जाने का अरमान पाले रहते हैं.

(ट्रेड यूनियन का नेता अंततः लेबर कोर्ट का वकील होकर समाप्त हो जाता है. सिर्फ वेतन, भत्ते और काम की परिस्थितियां सुधारने की लड़ाई लड़ने के कारण मजदूर तभी तक यूनियन के साथ रहते हैं जब तक आर्थिक मसलों पर लड़ाई चलती है. बाकी समाज से अलगाव रेलवे, बैंक, बीमा से छोटे कारखानों तक की यूनियनों में महसूस किया जा सकता है. इन मजदूरों का भी कोई वर्ग नहीं है क्योंकि वे जाति से ही गांव और यहां जाने जाते हैं. इस प्रश्न से कम्युनिस्टों को टकराना ही होगा, वे कैसी भी बुल्गागिन कट दाढ़ी रख लें, लेकिन जाति उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. ऐसा तभी संभव है जब अनगढ़, देसी, मौलिक सोच वाले नेताओं को उभरने का मौका दिया जाएगा)

वामपंथियों का ठेठ देशी यथार्थ से पाला अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक में पड़ा, जब धर्म और जाति राजनीति की केंद्रीय धुरी बनकर सामने आए. मंडल और कमंडल यानी धर्म और जाति की राजनीति को निहायत अभारतीय ढंग से समझने की कोशिश करने के कारण पलिहर के बानर बन कर रह गए. पहले कांग्रेस से लड़ने के नाम पर फिर सांप्रदायिकता के विरोध में दोनों वामपंथी पार्टियों ने जनता दल, समाजवादी पार्टी जैसी मध्यमार्गी, अवसरवादी पार्टियों के एजंडे के पीछे-पीछे चलना शुरू कर दिया जो सबसे अधिक घातक साबित हुआ.

अजीब स्थिति थी उस दौर की जब साझा रैलियों में सबसे अधिक लाल झंडे दिखाई देते थे, लेकिन मुद्दा वीपी सिंह, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह का आभामंडल हुआ करता था. इन्हीं नेताओं के नामों के आगे कॉमरेड लगाकर लाल सलाम करने का अजीबोगरीब फैशन भी साफ नजर आ रहा था.

(भारतीय राजनीति के इतिहास का सबसे बड़ा मोतियाबिन्द है कि कम्युनिस्टों को जाति नहीं दिखाई देती और उनके कार्यकर्ता पिछड़े मुलायम सिंह और दलित कांशीराम के साथ जा रहे हैं. क्या यह अपवाद था कि केरल में एके गोपालन जैसे नेता ने गुरूवयूर मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने के लिए पुजारियों के घंटे से मार खाई थी. उन्हीं के नाम पर बने गोपालन भवन में पार्टी का हेडक्वार्टर है. पोलित ब्यूूरो में गोपालन जैसे कम लोग पहुंच पाए, ज्यादातर कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, एडिनबर्ग और देश के इलीट कालेजों से पढ़कर आए नेताओं ने मार्क्सवाद के द्वारा उपलब्ध कराए वर्ग के फर्मे में कसकर जाति को देखने की कोशिश की. वाकई यह मास्को में बारिश-भारत में छाता जैसी गलती थी जिसका नतीजा रहा कि भूमिहीन खेत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दिलाने का नारा कांशीराम के सम्मान और सत्ता में भागीदारी के नारे के आगे नहीं चल पाया. मंडल कमीशन लागू हुआ, सर्वण लड़के आत्मदाह करने लगे, कम्युनिस्टों ने गजब किया. नेताओं ने कहा-, ‘आरक्षण पौधों में वाष्पोत्सर्जन जैसी आवश्यक बुराई है.’ यहां बौखलाए छात्र और युवा पूछ रहे हैं, मंडल के साथ हो या खिलाफ हो, लेकिन कॉमरेड लोग वनस्पतिशास्त्र पढ़ाकर अपना मजाक बना रहे हैं. अलग बात है चुनाव में जाति के आधार पर टिकट पाया कॉमरेड भी इतनी सफाई से बात करता है कि वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाता नजर आता है. किताब पढ़कर राजनीति करने वाले नेताओं को जाति से मुंह इसलिए चुराना पड़ता है क्योंकि मार्क्स से लेकर माओ तक ने जाति पर कुछ नहीं कहा है.)

इस रणनीति को वामपंथ ने बृहद मोर्चा नाम दिया था, जिसके अनुसार इन मध्यमार्गी दलों के कैडर को वामपंथियों की ईमानदारी और संगठन शक्ति से प्रभावित होकर उनके साथ आ जाना था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा. जिस अनुपात में वामपंथियों की स्वतंत्र पहलकदमी की ताकत समाप्त होने लगी. उनका किसान आधार भी इन मध्यमार्गी पार्टियों की ओर खिसकने लगा. इन पार्टियों के साथ तालमेल और गठबंधन को बनाए रखने के लिए वामपंथियों ने समाज में रेडिकल बदलाव यानी क्रांति की तैयारी में चलाए जा रहे जनसंघर्षों को भी छोड़ दिया. मध्यमार्गी पार्टी के नेताओं के व्यक्तिगत विचलनों और अवसरवादी कलाबाजियों की अनदेखी की और छोटी-छोटी चुनावी सफलताओं के लिए बहुत से समझौते किए. इस दौर को वाममोर्चे के सरकारी वामपंथ के रूप में पतित होने के दौर के रूप में याद किया जाता है. वामपंथी भी जातिगत आधार पर टिकट देने लगे और पार्टी कार्यालयों में टिकटार्थियों के धरने और उपवास होने लगे.
इसी समय पार्टी में एक किस्म की नौकरशाही भी हावी होने लगी, जिसके लिए सदस्यता की रसीदें आंदोलन से ज्यादा जरूरी हो गईं. गेहूं कटाई के बाद लेवी की वसूली और धान कटाई के बाद जेल भरो कर्मकांड हो गए. राज्यों का काम ऊपर से आए सर्कुलर का पालन करना हो गया, नेतृत्व के आचरण पर सवाल उठाने की बहुत पुरानी परंपरा खत्म हो गई.

सिंगुर-नंदीग्राम गोलीकांड के बाद तो वामपंथियों ने नवउदार और पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के विरोध का नैतिक अधिकार भी जैसे खो दिया है

(तिरूवनन्तपुरम में बड़ी पार्टी कांग्रेस होनेवाली है. अगर किसान सभा की दस हजार मेम्बरशिप नहीं हुई, तो पार्टी के जिला सचिव डेलीगेट नहीं बन पाएंगे. आज चाय की गुमटी पर एक डोली रुकी, तो उन्होंने पास के गांव के कहारों से मेंबर बन जाने के लिए कहा. कहारों ने कहा, उनके टोले में किसी के भी पास एक धुर जमीन नहीं है वे किसान सभा के मेंबर कैसे बन सकते हैं. नेताजी ने कहा, अभी किसान सभा में हो जाओ बाद में खेत मजदूर सभा में भी कर देंगे. उन्होंने कहा, नेताजी हमारे रसीद लेने से आपकी इज्जत बढ़ती है तो बना दीजिए, लेकिन हम लोग फीस नहीं दे पाएंगे. नेताजी ने कहारों से दुलहिन का नाम पूछकर उसकी भी रसीद काट दी, जिसे कभी पता नहीं चल पाएगा कि उस पर कितनी भारी जिम्मेदारी आ पड़ी है. सम्मेलनों में जब जनसंगठनों की बढ़ती सदस्यता का जिक्र आता है तो मुझे उन कहारों और दुलहिन की याद आती है.)

अगले साल उन कहारों को खेत मजदूर सभा का भी मेंबर बना दिया गया.

(आज समझ में आया कि दलित औरतें पार्टी के बारे में क्या सोचती हैं. एक महिला ने पार्टी के एक नेता पर बलात्कार का आरोप लगाया था जिसके लिए पंचायत बुलाई गई थी और मुझे जिला कमेटी ने आब्जर्वर बनाकर भेजा था. नेताजी एक साल से अक्सर उसके घर पर रुकते थे, उसके दो बच्चों को पढ़ा दिया करते थे. महिला ने कॉमरेडों के बीच बेधड़क कहा, ‘सवर्ण जमींदार हमारे साथ कुछ करते हैं, तो बदले में ज्यादा मजदूरी, साबुन, साड़ी या नकद रुपया देते हैं. इनसे पूछो कि मुझे क्या दिया जो साल-भर से हैंडपंप चला रहे हैं.’ मुझसे कुछ कहते नहीं बना. क्या पार्टी का उससे संबंध कुछ लेने-देने का ही है. वह ऐसा सोचती है तो कुछ गलत नहीं है, क्योंकि बुर्जुआ पार्टियां उन्हें लालच देकर मुफ्त की बस से रैली, धरने में ले जाती हैं. पहले चुनाव के समय से ही इस गांव में वोट के लिए पैसा और शराब चलते हैं. उसे हम बता ही कहां पाए हैं कि वह पार्टी में किसी दूसरे का काम नहीं करती, बल्कि अपने हक के लिए लड़ रही है.)
इसी दौर में सीपीआई (एम) महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत को बुर्जुआ राजनीतिज्ञों ने चाणक्य का खिताब दिया, जिनका काम मध्यमार्गी पार्टियों के नेताओं के बीच समझौते कराना, गठबंधन को चलाना और जोड़-तोड़ करना था. ऊपर से चल रही हवा के प्रभाव में राज्य इकाइयों में भी सुरजीत के पेपरबैक संस्करण पैदा हो गए और वहां की सरकारों से लाभ लेने लगे. जिस समय सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पुछल्ले के रूप में वामपंथी लगे हुए थे, वे अच्छी तरह जानते थे कि इसके पुरोधा भी इन मूल्यों के प्रति कितने गंभीर हैं. ये मुद्दे सिर्फ सत्ता पाने के औजार हैं. जल्दी ही राज्यों में उनकी सरकारें बनने के बाद सामाजिक न्याय की जगह वंशवाद, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और कांग्रेस जैसी ही पूंजीपरस्त नीतियों का जलवा नजर आने लगा. जब जनता का मोहभंग दिखने लगा तब भी वे उनके पीछे लगे रहे.

इस अवसरवादी राजनीति ने हिंदी पट्टी में एक ओर विशुद्ध पॉवर पालिटिक्स और सत्ता पाकर व्यक्तिगत हितों में उसका दुरुपयोग करने वाली सपा, बसपा, राजद, जेडी (यू) जैसी बुर्जुआ पार्टियों को और उनकी प्रतिक्रिया में भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टियों को जड़ें जमाने का मौका दिया. कांग्रेस के कमजोर होने से हिंदी पट्टी में जो स्पेस बना उसे भरने की सबसे स्वाभाविक दावेदार होते हुए भी वामपंथी पार्टियां इमरजेंसी के बाद एक बार फिर मुंह ताकती रह गईं क्योंकि शार्टकट के चक्कर में वामपंथी अपने मुद्दे और स्वतंत्र पहलकदमी भूल चुके थे.

(जब सोवियत संघ का अमेरिका से शीतयुद्ध चला करता था तब कम्युनिस्टों का प्रिय कर्तव्य दिल्ली में रैली कर विश्वशांति की कामना और साम्राज्यवाद का विरोध हुआ करता था. राममंदिर मुद्दे से भाजपा के उभार के बाद से वे सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए किसी भी सामंतवादी, पूंजीवादी, वंशवादी पतनशील पार्टी के साथ जनवादी मोर्चा बना लेते हैं और न्यूनतम साझा कार्यक्रम की लग्गी लगाकर किसी भी सरकार का समर्थन कर देते हैं. यह पिछली सीट पर बैठकर ड्राइवर को निर्देश देने का सुखद काल होता है. जल्दी ही ड्राइवर आवश्यक बहुमत का जुगाड़कर उन्हें सड़क किनारे उतार देता है और वे धकियाए जाने के बाद कहते हैं, भाजपा, कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन फिर गठबंधन का अवसर आते ही शामिल हो जाते हैं, जिससे उनकी विश्वसनीयता को जबरदस्त नुकसान हुआ है. ताज्जुब है कि जितनी आसानी से वे बुर्जुआ पार्टियों से गठजोड़ कर लेते हैं, आपस में नहीं कर पाते. वाम मोर्चे का न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की बैठकों में जूते में दाल बंटती है. वर्तमान को दफना कर अतीत को जिलाया जाता है, प्रतिक्रियावादी, संशोधनवादी, नक्सलवादी और छद्म जनवादी आपस में लड़कर अपने दफ्तरों को लौट जाते हैं. पूछने का मन करता है- कॉमरेड धर्म अफीम है और दंगे का आधार धर्म है, तो आप घोषित नास्तिक कैसे उसे रोक लेंगे.)

2004 के बाद सत्ता में आई कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए-वन और टू की सरकारों को वामपंथियों ने जिस पैंतरेबाजी से चलाया, उसने जनता को विकल्पहीन बनाकर कांग्रेस को नई जिंदगी दी और उनके सबसे मजबूत किले बंगाल को भी ढहाने का गोला बारूद ममता बनर्जी को मुहैया कराया. सिंगुर-नंदीग्राम गोलीकांड के बाद तो वामपंथियों ने नवउदार आर्थिक नीतियों के विरोध का नैतिक अधिकार भी जैसे खो दिया है.

मध्यमार्गी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे चलते हुए संसदीय राजनीति में कामयाब होने की आकांक्षा की भूल को वामपंथी अब भी स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहे हैं, लेकिन वे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जनता की स्वतःस्फूर्त, लेकिन क्षणिक भागीदारी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के उभार और अब बिखराव से जूझने की प्रक्रिया को बड़े गौर से देख रहे हैं. हो सकता है उन्हें कभी समझ में आए कि राजनीति में अपना एजेंडा, स्वतंत्र पहलकदमी, सत्ता लोलुप तिकड़मी नेताओं से दूरी और भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से खुद को ढालते हुए जनता से दीर्घकालीन रिश्ता कायम करने में ही कामयाबी की कुंजी छिपी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)

गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ : अनवरत विद्रोही

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वह कौन-सी बात है जो किसी रचना या रचनाकार को कालजयी बनाती है? शायद उसके द्वारा रचित साहित्य की प्रासंगिकता. हिंदी कविता का कोई कवि अगर पिछले 50 सालों के दौरान हर छोटी-बड़ी घटना पर बार-बार प्रासंगिक बनकर सामने आता रहा है तो वह हैं- गजानन माधव मुक्तिबोध. भरे विश्वास से मुक्तिबोध को सर्वकालिक महान रचनाकारों में शुमार किया जा सकता है. वजह केवल इतनी भर है कि उन्होंने जो भी रचा वह कालातीत हो गया. 11 सितंबर 1964 को नई दिल्ली में इलाज के दौरान जब मुक्तिबोध का निधन हुआ तब वे महज 46 साल के थे.
उस वक्त तक उनका कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका था. छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) के राजनांदगांव में रहने वाले मुक्तिबोध को उस दौर के युवा साहित्यकार श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई और अशोक वाजपेयी इलाज के लिए दिल्ली लाए थे. उस वक्त वो कोमा में थे.
मुक्तिबोध का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा. वैचारिक धरातल पर अपने समकालीनों के बीच सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा यह कवि भौतिकता के मध्यवर्गीय मानकों के मुताबिक कभी संपन्न नहीं रहा. यहां तक कि साहित्य जगत में गंभीर दस्तक के बावजूद मुक्तिबोध सही मायनों में वह पहचान हासिल नहीं कर सके थे जिसके वह हकदार थे. लेकिन उनके निधन के तत्काल बाद उनकी ख्याति का ऐसा बवंडर उठा जिसने सारे हिंदी साहित्याकाश को ढंक लिया. अगले दो दशक तक हिंदी साहित्य और खासकर कविता जगत मुक्तिबोधमय रहा.

मुक्तिबोध का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा. अपने समकालीनों के बीच ऊंचे पायदान पर खड़ा यह कवि भौतिकता के मध्यवर्गीय मानकों के मुताबिक कभी संपन्न नहीं रहा

मुक्तिबोध अपने समय की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते थे, लेकिन उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’, उनकी मौत के बाद ही प्रकाशित हो सका. हालांकि उससे पहले तारसप्तक में अज्ञेय उन्हें चिह्नित कर चुके थे. मुक्तिबोध की कविताओं का दूसरा संग्रह ‘भूरी भूरी खाक धूल’ उनके निधन के 15 साल बाद पाठकों तक पहुंचा. इस संग्रह की भूमिका में अशोक वाजपेयी ठीक ही लिखते हैं कि इन 15 वर्षों की अवधि में हिंदी कविता पर मुक्तिबोध छाये रहे हैं. युवतम पीढ़ी अगर किसी बुजुर्ग से खुद को जोड़ती है और प्रामाणिकता और सार्थकता पाने की कोशिश करती है, तो वह मुक्तिबोध ही हैं.
राजनांदगांव जैसी अपेक्षाकृत छोटी जगह पर रहते हुए भी मुक्तिबोध साहित्य में भरपूर सक्रियता रखते थे. आलोचना तथा हंस जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके आलेख देश के तमाम बौद्धिकों के बीच चर्चा का विषय हुआ करते थे. उनके निधन के बाद एक-डेढ़ दशक तक पूरा साहित्य विमर्श मुक्तिबोध पर ही केंद्रित रहा. यहां तक कि उस दौर में नई कविता का कोई भी कवि ऐसा नहीं था जो मुक्तिबोध से प्रभावित न हो.
वे सही मायनों में जनवादी कवि थे, निहायत आम जीवन जीते थे. यही वजह थी कि आम आदमी के जीवन में उनकी गहरी रुचि और आस्था थी. संभवत: इस जीवन ने ही उनको एक व्यक्ति के जीवन संघर्ष, उसकी वैयक्तिकता, उसकी असुरक्षा और अनिश्चितता से रूबरू कराया. ये तमाम चीजें जब उनकी आंतरिक बेचैनी से टकराईं, तो हिंदी कविता को एक से एक नायाब रचनाएं मिलीं.
मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ दरअसल उनके इसी आत्मसंघर्ष तथा उस वक्त के नग्न यथार्थ (दुर्भाग्यवश हालात आज भी वही हैं) का चित्रण करती है. यह लंबी कविता सन 1957 से 1962 के बीच रची गई. सन 1964 में यह ‘आशंका के द्वीप : अंधेरे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. ‘अंधेरे में’ समेत मुक्तिबोध की तमाम कविताओं में फैंटेसी एक प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर सामने आती है. यह दरअसल खांटी देसी जादुई यथार्थवाद का नमूना है. लेकिन ‘अंधेरे में’ केवल फैंटेसी नहीं है.
मुक्तिबोध की दो सबसे प्रखर और प्रसिद्ध रचनाओं की बात की जाए, तो ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अंधेरे में’ का ही जिक्र आता है. ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस के मिथक के जरिये तत्कालीन बौद्धिक वर्ग के द्वंद्व और आम लोगों से उसके अलगाव की नग्न तस्वीर पेश की थी. यह एक ऐसा आईना था, जिसमें अपनी शक्लें झांकने में लोगों को डर लगता था.
मुक्तिबोध की कविताओं के लंबा होने की एक वजह यह थी कि वह कविताओं के जरिये एक पूरी पीढ़ी या पूरी सभ्यता की पड़ताल में लग जाते थे. उन्होंने स्वयं कहा भी है कि उनकी छोटी कविताएं दरअसल अधूरी कविताएं हैं.

मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ दरअसल उनके आत्मसंघर्ष तथा उस वक्त के नग्न यथार्थ (दुर्भाग्यवश हालात आज भी वही हैं) का चित्रण करती है

‘अंधेरे में’ कविता में उन्होंने सत्ता और बौद्धिक वर्ग के बीच के गठजोड़ को बेनकाब किया. शासक वर्ग द्वारा जनता के दमन और नये के सृजन तक इस कविता में भारत का संपूर्ण अतीत और वर्तमान प्रतिध्वनित होता है. अगर हम ‘अंधेरे में’ कविता के रचनाकाल पर गौर करें, तो आजादी को एक-डेढ़ दशक बीत चुके थे. स्वतंत्रता से जुड़े सारे स्वप्न भंग हो चले थे. सामाजिक विषमता, बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और उद्योग-धंधों के अभाव और सत्ता के षडयंत्रों और कुत्सित गठजोड़ों ने जनता में गहरी निराशा भर दी थी. उसका पूरी तरह मोहभंग हो चुका था. यह वह दौर था जब वाम दलों का विभाजन तत्काल ही हुआ था. ऐसे वक्त में जब हर ओर संदेह, संशय और विश्वासभंग का माहौल था, मुक्तिबोध ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’ के खरे जुमले के साथ सामने आए. इस बात को समझने के लिए ‘अंधेरे में’ कविता की कुछ पंक्तियां देखते हैं-

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‘ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,
भूतों की शादी में कनात-से तन गए,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,

दुखों के दागों को तमगों-सा पहना,
अपने ही खयालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए,
बन गए पत्थर,
बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी मां को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिए,
हृदय के मंतव्य–मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम…’

भले ही मुक्तिबोध की कविताओं में कोई गीतात्मकता न हो, लेकिन उसमें एक आंतरिक लय है. वे वास्तव में जनता के एक राजनीतिक कवि थे. मुक्तिबोध को पढ़ना वास्तव में अपने भीतर और बाहर एक लंबी यात्रा से गुजरना है. उन कविताओं को पढ़ते हुए आप अपने आपे में नहीं रहते, निकल पड़ते हैं उन कविताओं के साथ जंगल, पहाड़, अंदर, बाहर की यात्रा पर अपनी पूरी संवेदनाओं के साथ. कभी गौर किया है आपने मुक्तिबोध की कविता पढ़ने के तत्काल बाद बहुत थकान महसूस होती है. उस थकान की वजह यही यात्रा है.

बर्लिन की दीवार : 45 वर्ष बाद मिटी दीवार

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घंटियों की आवाज, जर्मन प्रार्थनाओं के उच्चार और बीते जमाने के जर्मन संगीत उम-पा-पा के कानफोड़ू शोर के बीच हार और अपमान का लंबा अतंराल झेल चुके दो अलग-अलग जर्मनी 45 वर्षों बाद आज आधी रात को फिर से एक हो गए.

मंगलवार की ठीक मध्यरात्रि में अमेरिका के लिबर्टी बेल की एक नकल, जो उसने शीत युद्ध के चरमोत्कर्ष वाले दिनों में उपहार के तौर पर भेंट की थी, टाउन हॉल से बजने लगी. और उस ऐतिहासिक रिकस्टॉग (जर्मन संसद भवन) के ऊपर फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी का काला, लाल व सुनहरे रंगोंवाला झंडा लहराने लगा, जहां जर्मनी के सांसद बैठा करते थे.

उसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड वॉन वीजसैकर ने रिकस्टॉग की सीढ़ियों से घोषणा की- ‘स्वतंत्र आत्मनिर्णय के जरिए हम जर्मनी की एकता हासिल करना चाहते हैं. ईश्वर और लोगों को ध्यान में रखते हुए हम इस काम  के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह वाकिफ हैं. एक संयुक्त यूरोप के जरिए  हम दुनिया में शांति स्थापित करना चाहते हैं.’

दस लाख लोगों ने साथ गाया राष्ट्रगीत 
इसके साथ ही लगभग 10 लाख लोगों की भीड़ ने एक साथ मिलकर पश्चिमी जर्मनी का राष्ट्रगीत गाया, जो अब संयुक्त जर्मनी का राष्ट्रगीत बन गया है. ‘एकता और न्याय और स्वतंत्रता, जर्मन फादरलैंड के लिए…’ ये शब्द युद्ध से पहले के राष्ट्रगीत के तीसरे अनुच्छेद से लिए गए हैं. इसकी शुरुआती पंक्तियों को अब प्रतिबंधित कर दिया गया है. ये पंक्तियां कुछ इस तरह शुरू होती थीं- ‘डॉयचलैंड, डॉयचलैंड उबर एलेस.’

इस एक पल ने उस राष्ट्र की वापसी का बिगुल बजा दिया है, जिसे कभी पूरब और पश्चिम के बीच विभाजित कर दिया गया था. यह वापसी एक आर्थिक शक्ति के रूप में है. इस बार इसने शपथ ली है कि यह अपने महाद्वीप को फिर से उस दुख और संताप में नहीं धकेलेेगा, जिसका सामना इसे बीती पूरी सदी के दौरान करना पड़ा था.

इस तरह प्रशियन राज के तहत ओट्टो वॉन बिस्मार्क द्वारा जर्मनों को पहले-पहल एक छाते के नीचे इकट्ठा करने के बाद से पिछले 119 सालों में खड़ा होनेवाला यह सबसे छोटा संयुक्त जर्मन राज्य बन गया है.

और उत्सव बदल गया उन्माद में  
देखते ही देखते जर्मनी के सैकड़ों झंडे लहराने लगे और पतझड़ की वह सर्द रात पटाखों की आवाज में खो गई. बियर और शराब सड़कों पर पानी की तरह बहाई जा रही थी. अलग-अलग बैंड की धुन एक साथ मिलकर एक अजीब-सा कोलाहल पैदा कर रही थी. फिर जल्दी ही बोतलें सड़कों पर तोड़ी जाने लगीं और उत्सव को उन्माद में बदलते देर नहीं लगी. सुबह होते-होते नई राजधानी की सड़कें शराब की टूटी बोतलों से भरी हुई नजर आने लगीं थी.

उत्साही लोगों को उत्सव में बाधा डालने से रोकने के लिए 5,000 पुलिस अधिकारियों का सैन्य बल तैनात किया गया था और पुलिस ने सात लोगों की गिरफ्तारी की. लेकिन जो भी थोड़ी बहुत अराजकता पैदा हुई वह बिना किसी बड़ी दुर्घटना के गुजर गई.

इस एकता का मतलब यह हुआ कि जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक का अपने 1.6 करोड़ नागरिकों के साथ फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी में विलय हो गया. इस तरह फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी 137,900 वर्ग मील क्षेत्रफल और 7.8 करोड़ नागरिकों वाला राष्ट्र बन गया. इस विलय का मतलब यह भी हुआ कि फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी का नाम, राष्ट्रगीत, संविधान और सरकार ही अब पूरी जर्मनी का नाम, राष्ट्रगीत, संविधान और सरकार बन गए हैं. चांसलर हेलमुट कॉल फिर से एक हुए जर्मनी के पहले चांसलर बने, जबकि वॉन वीजसैकर पहले राष्ट्रपति.

बर्लिन बनी राजधानी 
बर्लिन एक बार फिर जर्मनी की राजनीतिक और आध्यात्मिक राजधानी बन गई है. कुछ समय पहले तक यह एक कुख्यात दीवार की वजह से कम्युनिस्ट राजधानी और पूंजीवादी राजधानी के बीच बंटी हुई थी.

फ्रैंकफर्टर अल्गेमाइना अखबार के लिए लिखे गए एक विशेष आलेख में हेलमुट कॉल ने इन शब्दों में एकीकृत जर्मनी के प्रति अपना समर्पण जाहिर किया, ‘सभी लोग जान लें कि जर्मनी अब न तो एकपक्षीय राष्ट्रवाद का समर्थन करेगा न ही वह साम्राज्यवादी जर्मनी के रूप में आगे बढ़ेगा.’

एकीकरण का अवसर अंत में कुछ निराश क्षणों का गवाह भी बना. जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक, जिसकी स्थापना सोवियतों ने ‘जर्मन धरती पर कामगारों और किसानों के पहले देश’ के तौर पर की थी, दीवालिया होकर खत्म हो गया. कुछ लोगों ने इसके गम में भी आंसू बहाए.

नागरिक आंदोलनों के एक नेता जेन्स रॉइश, जिन्होंने एक साल पहले कम्युनिस्टों का तख्ता पलटने के लिए किए गए प्रदर्शनों का नेतृत्व किया था, ने संसद के आखिरी सत्र में पूर्वी जर्मनी की पहली और एकमात्र लोकतांत्रिक सभा का नेतृत्व किया, ताकि इसे पश्चिम जर्मनी में समाहित किया जा सके. रॉइश ने कहा, ‘अंत समय में एकता पीठ में छुरा घोंपने की घटना नहीं होनी चाहिए.’

विदाई बगैर आंसुओं के
लेकिन इन सबसे अधिक प्रासंगिक बात पूर्वी जर्मनी के प्रधानमंत्री रहे लोथार डे मैजेरे ने आलीशान शॉसपिलहॉस कन्सर्ट हॉल में पूर्वी जर्मनी की सरकार की आखिरी कार्यवाही के दौरान कही. उस सभा में देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण हस्तियां उपस्थित थीं.

लोकतांत्रिक रूप से चुने गए पूर्वी जर्मनी के इस पहले और आखिरी नेता ने इन शब्दों के साथ अपने देश को इतिहास को समर्पित किया, ‘कुछ ही पलों में जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक का विलय फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी में हो जाएगा. इसी के साथ हम जर्मन लोग आजादी के साथ एकता हासिल कर लेंगे. यह हर्ष और उल्लास की घड़ी है. यह कई दुविधाओं का अंत है. यह बगैर आंसुओं की विदाई है.’

उसके बाद कुर्ट मैजू, जो पिछले पतझड़ में चले शांतिपूर्ण विरोधों के अगुवा रहे थे, आखिरी क्षणों में बीथोविन की नाइन्थ सिंफनी को संचालित करने के लिए उठे, शानदार ‘ओडे टू जॉय’ के साथ, यह संगीत जर्मनों के लिए उम्मीद के आध्यात्मिक मंत्र की तरह है.

मध्यरात्रि में अमेरिका के लिबर्टी बेल की एक नकल टाउन हॉल से बजने लगी, और रिकस्टॉग के ऊपर फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी का काला, लाल व सुनहरे रंगोंवाला झंडा लहराने लगा

हेलमुट कॉल का भाषण 
राजनीतिक सफलताओं के एक साल को सारबद्ध करते हुए कॉल ने एकीकरण से पहले अपने देश को कई घंटों तक टेलीविजन पर संबोधित किया.

उन्होंने कहा, ‘एक सपना कुछ ही घंटों में हकीकत में तब्दील हो जाएगा. विघटन के 45 कड़वे वर्षों के बाद हमारा फादरलैंड जर्मनी फिर से एक हो जाएगा. यह मेरे जीवन के सर्वाधिक खुशी भरे लम्हों में से एक है. आपसे मिले खतों और बातचीत के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि आप लोगों में से भी अधिकांश को अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है.’ कोल जब यह बोल रहे थे, उनकी आंखों में नमी थीं.

एक सच यह भी है कि कुछ जर्मन पिछले कुछ हफ्तों से इस एकीकरण और विस्थापन पर आनेवाले खर्च की शिकायत करते पाए जा रहे थे. लेकिन एकता के इस क्षण में कॉल की नजरों ने यह पहचानने में कोई भूल नहीं की कि यह वास्तव में उत्सव मनाने का अवसर है, गम का नहीं.

आगे बढ़ रहा है देश
चांसलर कॉल ने इस मौके पर जर्मनी के मित्रों और पड़ोसियों को धन्यवाद तो दिया ही, उन्हें आश्वस्त भी किया. उन्होंने कहा, ‘खास तौर पर हम संयुक्त राज्य अमेरिका को धन्यवाद देते हैं और उससे भी अधिक प्रेसिडेंट जॉर्ज बुश को. दरअसल दुनिया-भर के प्रमुख नेताओं में बुश वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जर्मनी की एकता से जुड़ी दिक्कतों को अधिक महत्व नहीं दिया था और कॉल की कोशिशों का समर्थन किया था.

पिछले कुछ हफ्तों में पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही भागों से एकीकरण की प्रक्रिया के खिलाफ नाराजगी बढ़ती दिखी थी क्योंकि जर्मनों को यह पता चल चुका था कि इस विलय की लागत काफी अधिक थी. लेकिन उन हजारों सैकड़ों लोगों के लिए, जो जर्मनी के अलग-अलग भागों और विदेशों से वहां एकत्र हुए थे, यह दुखी होने की नहीं, बल्कि उत्सव मनाने की रात थी.

बर्लिन के एक दुकानदार हॉइन्ज शोबर, जो अपनी पत्नी के साथ आए थे, ने कहा, ‘चीजें आगे बढ़ रही हैं. हम यहीं थे, जब दीवार बनाई गई, हम यहीं थे, जब दीवार गिरा दी गई और अब हम कुछ ऐसा देख रहे हैं जिसके बारे में हमारे बच्चे इतिहास की किताबों में पढ़ेंगे.’

तेज बदलावों का एक साल 
उन घटनाओं को एक साल भी नहीं हुआ था जब पूर्वी जर्मनी के काफी लोग हंगरी और चेकोस्लोवाकिया के साथ नई बनी सीमाओं से उस पार जाने लगे थे, जिसकी वजह से पूर्वी जर्मनी के नेता एरिक हॉनेकर को ऐसे वक्त में संकट का सामना करना पड़ा, जब वह देश की 40वीं वर्षगांठ के मौके पर होनेवाले आयोजनों की अध्यक्षता की तैयारी कर रहे थे.

एकीकरण से एक साल पहले, 3 अक्टूबर 1989 को, पूर्वी जर्मनी के शरणार्थियों का एक भारी हुजूम चेकोस्लोवाकिया के पश्चिमी जर्मनी के दूतावास पहुंच गया था और पूर्वी जर्मनी की सरकार को आखिरकार इन लोगों को पश्चिमी जर्मनी जाने की अनुमति देनी पड़ी थी. इसके साथ ही इसने अपनी सीमाओं को भी बंद कर दिया, जिसकी वजह से नए झगड़े और अव्यवस्थाएं पैदा हुईं.

पूर्वी जर्मनी की वर्षगांठ के चार दिनों बाद इसके विलय की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई. सोवियत नेता मिखाइल एस गोर्बाचेव ने पहली बार ये संकेत दिए कि वह पूर्वी जर्मनी की सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं हैं. पूर्वी बर्लिन व अन्य शहरों में प्रदर्शनकारियों के कई समूहों से पुलिस की झड़पें हुईं.

इस तरह के प्रदर्शनों की संख्या तेजी से बढ़ी, जिसकी वजह से सरकार अस्थिरता की तरफ बढ़ने लगी. फिर प्रदर्शनकारियों ने नौ नवंबर 1989 को एक ऐतिहासिक घटना को अंजाम दे डाला. इन लोगों ने बर्लिन की दीवार में दरार पैदा कर दी. यह जर्मनी की एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण घटना साबित हुई. 18 मार्च तक पूर्वी जर्मनी के पहले लोकतांत्रिक चुनाव हुए और एक जुलाई तक इसकी अर्थव्यवस्था को पश्चिमी जर्मनी की अर्थव्यवस्था के साथ मिला दिया गया. गर्मियों के दौरान इसकी गति और तेज हो गई. तीन अक्टूबर को इनका औपचारिक विलय हो गया, जिसकी वजह से उत्सव का यह दृश्य बन सका.

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इन घटनाओं के क्रम में यह भी जरूरी था कि दोनों ही जर्मनी और बर्लिन अपनी पुरानी चली आ रही व्यवस्थाओं को जल्द खत्म करें. एकता के इस क्षण से पहले कई सारी व्यवस्थाएं और कार्रवाइयां की गईं ताकि सहयोगी देशों के नियंत्रण को खत्म किया जा सके.

पश्चिमी मित्र देशों, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के कमांडर आखिरी बार मिले और पश्चिमी बर्लिन पर अपने अधिकार को त्यागने की घोषणा कर दी. इन देशों की सेनाओं ने युद्ध के बाद अपने कार्यभार को बांटकर पश्चिमी बर्लिन बनाया था और उसके बाद के वर्षों में कम्युनिस्टों से इसकी रक्षा की थी.

मित्र देशों के मुख्यालय पर एक जोरदार मुनादी के साथ एक ब्रिटिश कमांडर मेजर जनरल रॉबर्ट कॉर्बर्ट ने कहा, ‘मैं मित्र कोमांदातुरा की इस अंतिम बैठक को अब एक जबरदस्त उद्घोष के साथ खत्म करता हूं.’

भागलपुर दंगा : नृशंसता के छह माह

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पिछली 24 अक्टूबर को भागलपुर का माहौल बहुत बोझिल था. शहर की चहल-पहल वैसी ही थी. लोग उसी तरह की भागदौड़ में व्यस्त थे. भागलपुर से ही सटे नाथनगर और चंपानगर में हैंडलूम और पावरलूम के करघे भी हर रोज की तरह अहलेसुबह से ही एकसुर में खटखट-खटखट किए जा रहे थे. मंदिरों में घंटियां और मस्जिदों की अजान भी तयशुदा वक्त पर हो रही थी, लेकिन इस सामान्य से दिखते माहौल के बीच शहर के कुछ कोने ऐसे भी थे जहां उदासी और निराशा फैली हुई थी. कुछ नए मोहल्ले ऐसे भी थे जहां मातमी सन्नाटा पसरा हुआ था. 24 अक्तूबर को इस शहर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग माहौल की कुछ खास वजह थी. ये निराश और उदास लोग इस शहर के दामन पर चिपकी उस घटना के भुक्तभोगी हैं, जिससे इनका सामना 25 साल पहले हुआ था. 24 अक्टूबर को अखबारों की सुर्खी थी कि भागलपुर दंगे के 25 साल पूरे हो रहे हैं, इस मौके पर फलां-फलां जगह फलां-फलां आयोजन होंगे. इन उदास मोहल्लों के लिए ये खबर पुराने घाव को कुरेदने वाली थी. नब्बे के बाद जवान हुई पीढ़ी के लिए यह सिर्फ आयोजन-भर थे लेकिन भागलपुर शहर के परवती, तातरपुर, आसानंदपुर से लेकर नाथनगर तक ऐसे कई मोहल्ले थे, जहां के पुराने निवासी उन खबरों को पढ़-सुन कर 25 साल पुरानी यादों में डूब गए थे, उनकी आंखों में आंसू उतर आया था.

भागलपुर में तहलका ने सबसे पहले नाथनगर और चंपानगर मुहल्ले की यात्रा की. भागलपुर से लगे ये दो ऐसे मोहल्ले हैं, जो इस शहर को न जाने कितने सालों से सिल्क नगरी के रूप में स्थापित किये हुए हैं. सिर्फ बिहार में ही नहीं, देश और दुनिया के तमाम कोनों में. नाथनगर और चंपानगर में किसी से बातचीत किए बिना ही यह साफ अहसास हो जाता है कि यह इलाका कभी भागलपुर की बड़ी पहचान रहा होगा. घरों के चौखट-दरवाजों की नफासत बताती है कि यह शौकीनों और पैसेवालों का इलाका रहा होगा. गलियों को देखकर लगता है कि यह कभी तो गुलजार रही होंगी. वहां मोहम्मद इरशाद से भेंट होती है. बातचीत के दौरान वे आग्रह करते हैं कि पुराने दिनों की याद न दिलाएं, अब हमारी पहचान इतनी-भर है कि हम एक मजदूर हैं, जिन्हें आसामियों से काम मिलता है. हम मजदूरों के भरोसे ही यह भागलपुर सिल्क नगरी कहलाता है. इरशाद यह बताते-बताते रोने लगते हैं. वह कहते हैं, ‘यहां हर घर में अपने लूम चलते थे. हर कोई यहां हुनरमंद बुनकर था और मालिक भी.’ इरशाद बहुत सारी बातें बताते हैं. उनसे बातचीत के दौरान वह आंकड़ा आंखों के सामने तैरने लगता है जिसे हमने अब तक सिर्फ पढ़ा और सुना था कि 25 साल पहले एक दंगे ने सिल्क नगरी भागलपुर के 600 पावरलूम, 1700 हैंडलूम को आग के हवाले कर राख कर दिया था. बुनकरों के घर-परिवार में हर किसी के पास अथाह पीड़ा होती है. सभी घरों के अपने स्वर्णिम इतिहास और अंधेरे भविष्य के पन्ने होते हैं.

इसके बाद आगे की यात्रा शुरू होती है. बुनकरों का मोहल्ला छोड़ हसनपुर, डुमरागांव, सलमपुर जैसी बस्तियों में जाना होता है. सलमपुर में नूरजहां, इदरीस जैसे लोग मिलते हैं, जिन्हें अपनी पीड़ा और बीते कल को साझा करने में भी संकोच होता है. इदरीस, जो अब एक पैर के सहारे जिंदगी गुजार रहे हैं, कहते हैं, ‘मुझे छर्रा लगा था. एक साल तक छर्रे के घाव वाला पैर लेकर घूमता रहा. वहां सड़न हो गई, तो डॉक्टरों ने मेरा एक पैर काटकर अलग कर दिया. मैंने कई बार सरकार से कहा कि दंगे ने मुझे जिंदगी-भर के लिए अपाहिज इंसान बना दिया, मैं अपनी जिंदगी गुजारने लायक काम-धाम कर सकता हूं, लेकिन सरकार मुझे दंगा पीड़ित नहीं मानती इसलिए मैं मुआवजे का हकदार भी नहीं बन सका.’ नूरजहां के पति इजराइल भी इस दंगे में मारे गए थे. नूरजहां कहती हैं, ‘मैं साबित नहीं कर पायी कि मेरे पति को भी दंगे में मारा गया है, इसलिए सरकार ने मुझे किसी मुआवजे के लायक ही नहीं माना.’

इन बस्तियों में इदरीस, नूरजहां के जैसी कहानियां तमाम लोगों की हैं. सबकी पीड़ा अंतहीन है, अंदर तक हिला देनेवाली है. मुआवजे और सरकारी सहायता का अपना खेल होता है, उसकी अपनी राजनीति होती है. लिहाजा मुआवजे को छोड़कर दूसरी बातों पर ध्यान देते हैं. भागलपुर घूमते हुए, वहां के लोगों से बात करते हुए साफ महसूस होता है कि 25 साल पहले हुए उस दंगे ने शहर को इस कदर, इतने रूपों में तोड़ा है कि शहर आज तक संभल नहीं पाया है. शहर उन दंगों के बाद कभी भी अपनी पुरानी रवायत और लय में लौट ही नहीं सका.

25 साल पहले हुआ दंगा यूं ही इतना पीड़ादायी नहीं है भागलपुरवालों के लिए. कहा जाता है कि आजाद भारत में यानी 1947 के बाद यह सबसे लंबे समय तक चला दंगा है, जिसमें अनगिनत लोगों की जान गई थी. आजाद भारत में भी भागलपुर की तरह दंगे बहुत कम हुए हैं. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि इस दंगे में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. सामाजिक कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संस्थाओं व स्थानीय लोगों का मानना है कि इस दंगे में कम से कम दो हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. वह भी ऐसे नहीं कि सिर्फ मार दिए गए, कहीं मारे गए, कहीं काटे गए, कहीं मारकर कुएं में फेंक दिया गया, कहीं तालाब में डाल दिया गया, तो कहीं खेत में डालकर उन पर हल चला दिया गया. लाशों के ऊपर खेती का अमानवीय कृत्य भी यहां हुआ. यह दंगा इसलिए भी एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है कि जब देश में सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनना शुरू ही हुआ था, तब उसके समानांतर अपराधियों, गिरोहबाजों, राजनेताओं और अधिकारियों ने आपसी गठजोड़ से दंगा भड़काकर इस तरह सरेआम लोगों का कत्लेआम करवाया था. लगभग छह महीने तक यह अराजकता भागलपुर की पहचान बनी रही.

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भागलपुर में छिटपुट दंगों का इतिहास रहा है. 1989 के पहले 1924, 1936, 1946 और 1966 में भी यहां दंगे हुए थे, लेकिन वे दंगे ऐसे थे जिन्हें स्थानीय प्रशासन ने कुछ ही घंटे में संभाल लिया था. लेकिन 1989 में जो दंगा हुआ उसके पीछे खुद प्रशासन की भूमिका बेहद संदिग्ध रही. यह दंगा महीने-भर तक पूरे उन्माद पर रहा और फिर अगले छह महीने तक छिटपुट हत्याओं का दौर चलता रहा. मरने वालों का सही आंकड़ा आज तक किसी के पास नहीं है, बस अनुमान है कि करीब दो हजार लोग इसकी भेंट चढ़ गए. भागलपुर जिले के 21 में से 15 ब्लॉक में इसकी लपटें फैली, 195 गांवों में पीढ़ियों से चली आ रही साझी संस्कृति का तानाबाना देखते ही देखते बिखर गया, 48 हजार लोग अपने गांव, घर, मकान, कारोबार सब छोड़कर दूसरी जगहों पर विस्थापित हो गए.

ठीक 25 साल पहले हुए इस हादसे की वजहें भी बेहद सपाट हैं. 1989 में, अयोध्या में मंदिर बनाने के नाम पर बड़ी राजनीति शुरू हो गई थी. पूरे देश में, विशेषकर उत्तर व पूर्वी भारत में रामशिला पूजन का आयोजन गांव-गांव में हो रहा था. हर जगह की तरह भागलपुर में भी आयोजन चल रहा था. इस आयोजन को लेकर देश के लगभग हर हिस्से में तनाव था. भागलपुर भी उसी तनाव से गुजर रहा था. अक्टूबर में शिलापूजन का जुलूस निकलना था, उसके पहले, अगस्त में ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी. भागलपुर में उत्साह को उन्माद में बदलने की पूरी तैयारी थी. इसके संकेत उस साल के अगस्त महीने में ही मिल गए थे, जब कुछ ही दिनों के अंतराल पर मुहर्रम और स्थानीय स्तर पर मशहूर विषहरी पूजा का आयोजन हुआ था. विषहरी पूजा को मनाने के क्रम में उस साल बड़े पैमाने पर जलूस वगैरह निकाले गए. तरह-तरह के नारे भी लगे थे. पहली बार ऐसा हुआ था जब परंपरागत तरीके से मनाया जानेवाला विषहरी पूजा का स्वरूप बदल गया. इससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव की स्थिति बनी, लेकिन मामला संभल गया. विषहरी पूजा से जो अनुभव हुए, उसके विरोध में मुसलमानों ने उस साल मुहर्रम का जुलूस नहीं निकाला. बात आई-गई नहीं हुई, बल्कि अंदर ही अंदर सुलगती रही. इसी दौरान दो माह बाद रामलला शिलापूजन का अवसर आ गया. पहले से ही माहौल बना कि शिलापूजन का जुलूस बड़े स्तर पर निकलेगा. तब बिहार के मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा हुआ करते थे. सूचना मुख्यमंत्री तक भी पहुंची कि भागलपुर में कुछ दिन पहले ही तनाव का माहौल बना था, इसलिए वहां विशेष ध्यान देना चाहिए. शांति समिति की बैठक हुई और तय हुआ कि शिलापूजन का जुलूस तो निकलेगा और कुछ मुस्लिम इलाके से भी गुजरेगा, लेकिन न तो कोई बैनर-तख्ती होगी और न ही नारेबाजी होगी. लेकिन इन बातों का पालन नहीं हो सका.

24 अक्तूबर को भागलपुर के परवती इलाके से रामशिला पूजन का एक जुलूस तातरपुर मोहल्ले की ओर बढ़ा. यह जुलूस किसी तरह गुजर गया, लेकिन, तभी एक विशाल जुलूस नाथनगर की ओर से आ गया. जुलूस मुस्लिम मोहल्ले के बीचोबीच चौराहे पर पहुंचा था तभी भीड़ में शामिल लोगों ने मुस्लिमों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी. जब यह सब हो रहा था, तब भागलपुर के एसपी केएस द्विवेदी और जिलाधिकारी अरुण झा वहां मौजूद थे. जुलूस के नारे बढ़ते गए, आवाज भी तेज होती गई. इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई. अभी डीएम कुछ समझने या संभालने की कोशिश करते कि तभी वहां बम का धमाका हो गया. हालांकि इससे किसी तरह की जनहानि नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. इसमें दो लोग मारे गए. दोनों मुसलमान थे. शिलापूजन का जुलूस उन्मादी भीड़ में बदल गया. जंगल में आग की तरह अफवाहें फैलने लगीं कि संस्कृत विद्यालय में 40 हिंदू छात्रों को मुसलमानों ने मार दिया है. उससे मिलती-जुलती तमाम अफवाहें फैलने लगीं. इन अफवाहों की परिणति जिस रूप में हुई उसने इतिहास का एक नया पन्ना तैयार किया. वह पन्ना आजाद भारत में सबसे लंबे समय तक चलनेवाले दंगे के रूप में दर्ज हुआ.

25 साल पहले हुआ भागलपुर दंगा आजाद भारत में यानी 1947 के बाद सबसे लंबे समय तक चला दंगा है, जिसमें अनगिनत लोगों की जान गई थी

इसके बाद देखते ही देखते दुकानों की लूट शुरू हो गई, लोगों को मारा जाने लगा. अकेले परवती में 40 मुस्लिमों की हत्या कर दी गई. आसानंदपुर में भी बलवा हो गया. मदनीनगर से लूट की खबर आई. नया बाजार में 11 बच्चे समेत 18 मुस्लिमों के मारे जाने की खबर आई. खबर यह भी आई कि कई जगहों पर पुलिस की मौजूदगी में यह सब होता रहा. आस-पास के गांवों में भी आग फैलने लगी थी. इस दौर में कुछ हिंदुओं ने मुस्लिमों की मदद करने की कोशिश भी की. 40 मुस्लिमों को शहर की जमुना कोठी में एक हिंदू ने शरण दे रखी थी. कहीं से यह खबर दंगाइयों को लग गई और उन्मादी भीड़ ने 18 मुसलमानों को वहां से जबरन खींचकर मार डाला. दोनों ओर से ऐसे ही मारकाट चलता रहा. इसके बाद शहर में कर्फ्यू लगाने और सुरक्षा बल तैनात करने की औपचारिकताएं निभाई गईं. दंगे की लपट भागलपुर शहर को पार कर रजौन घोरैया जैसे उस इलाके में भी पहुंच गई जो वामपंथी राजनीति का गढ़ था. उसके बारे में यह माना जाता था कि वहां प्रगतिशील लोग रहते हैं. पास के जिले साहेबगंज, गोडडा भी इसकी चपेट में आ गए. उन दिनों को याद करते हुए भागलपुर के सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, ‘कुछ पता ही नहीं चल रहा था उस वक्त. ऐसी-ऐसी खबरें आ रही थी कि बता नहीं सकते.’ उदय बताते हैं कि लौगांय से उस वक्त खबर आयी थी कि 125 लोगों को मारकर तालाब में डाल दिया  गया. रजौना चंदेरी से खबर मिली कि तालाब में 50 लोग मार दिये गए. कहीं खेतों में लाशों को गाड़कर रातों-रात खेती कर देने की बात भी सामने आयी. उदय कई घटनाओं का जिक्र करते हैं. उनकी बताई हर घटना पहले वाले से ज्यादा वीभत्स थी.

भागलपुर में लोगों से बात करने पर पता चलता है कि कामेश्वर यादव, महादेव सिंह, सल्लन मियां और अंसारी जैसे कुछ माफिया ठेकेदार और अपराधी किस्म के लोग इस दंगे के जरिये अपनी गुटबाजी का खेल खेल रहे थे. भागलपुर के दंगे में घटनाओं को नृशंस तरीके से अंजाम देने की कई कहानियां तो हैं ही, लेकिन इसके लंबा खिंचने के पीछे इन्हीं अपराधियों-राजनेताओं का गठजोड़ काम कर रहा था. लेकिन उस समय सबसे शर्मसार करनेवाली जो बात सामने आई वह थी जिले के पुलिस कप्तान केएस द्विवेदी की भूमिका, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने खुद खुलेआम इस कत्लेआम को करने-करवाने में रुचि ली और उनके इशारे पर उनके मातहत पुलिस वाले भी इस खूनी खेल का हिस्सा बन गए थे.

इस दंगे ने शहर को इस कदर, इतने रूपों में तोड़ा है कि शहर आज तक संभल नहीं पाया है. शहर उन दंगों के बाद कभी भी अपनी पुरानी रवायत और लय में लौट ही नहीं सका

पुलिस कप्तान का इस दंगे से क्या संबंध था इसे दूसरे तरीके से समझा जा सकता है. घटना के बाद द्विवेदी को उनके पद से हटा दिया गया. उनकी जगह नए पुलिस कप्तान की नियुक्ति हुई. घटना की तपिश ज्यादा थी इसलिए दिल्ली से प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी भागलपुर का दौरा करने पहुंचे, लेकिन एयरपोर्ट पर ही उन्हें पुलिसवालों के विरोध का सामना करना पड़ा. एसपी को हटाये जाने के विरोध में नारे लगते रहे और यह विरोध इतना तीव्र और उन्मादी स्वरूप लिए हुए था कि देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी इसके सामने विवश नजर आ रहे थे और वे भागलपुर पहुंचकर भी प्रभावित इलाके का दौरा नहीं कर सके, सिर्फ अस्पतालों का दौरा कर वापस लौट गए. उस समय बिहार में कांग्रेस की सत्ता थी और कांग्रेसी आपस में ही दंगे के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा का एक अन्य कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के साथ छत्तीस का आंकड़ा था. सत्येंद्र नारायण सिन्हा दंगे को रोकने में नाकाम साबित हुए थे और उन्हें अपने पद से जाना पड़ा था. उनकी जगह जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया गया. बाद में सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी यादें-मेरी भूलें’ में लिखा कि कांग्रेस के लोगों ने ही मेरे साथ खेल किया. उन्होंने सीधे तौर पर आजाद के खेल की ओर इशारा किया. सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने यह भी लिखा कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी अनावश्यक रूप से राज्य की सत्ता में हस्तक्षेप कर मामले को गलत दिशा में जाने दिया. एसपी द्विवेदी को हटाने के पहले एक बार राज्य सरकार से बात करनी चाहिए थी, जो प्रधानमंत्री ने नहीं की थाा.

भागलपुर दंगे में ऐसे कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे. कांग्रेसी आपस में ही उस दंगे पर सालों तक झगड़ते रहे. कांग्रेसियों में कौन सही था, कौन गलत, यह कांग्रेसी ही बेहतर जानते हैं, लेकिन उसके बाद कांग्रेस के साथ बिहार में जो हुआ, उससे वह आज तक उबर नहीं पायी है. आजादी के बाद एक दो मौके को छोड़, लगातार मनमानेपन से सत्ता पर काबिज रहनेवाली कांग्रेस पार्टी भागलपुर दंगे के बाद पूरे बिहार से उखड़ गई. भागलपुर में यह इतिहास भी बना कि वहां से कांग्रेस दोबारा संसदीय सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी. पूरे बिहार में मुस्लिम कांग्रेस से नाराज होते चले गये. 1989 में दंगा हुआ था, 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार की सत्ता में आ गये थे. लालू प्रसाद जान गये थे कि यही वक्त है जब दुखी मुस्लिमों को लेकर सियासत में नए समीकरण बन सकते हैं. लालू प्रसाद यादव ने माई समीकरण को साधना शुरू किया. माई यानी मुस्लिम-यादव और इस दो समूहों के समीकरण से वे बिहार के बड़े नेता बन गये. कह सकते हैं कि भागलपुर दंगे ने बिहार में कांग्रेस का बिस्तर गोल कर दिया. लालू प्रसाद यादव जैसे अनाम नेता बड़ी शख्सियत बन गए. भाजपा ने भी उसी बुनियाद पर अपनी जड़ें मजबूत कर ली.

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भागलपुर के दंगे बीत चुके थे, लेकिन राजनीति का खेल बाद में भी जारी रहा. मरहम की राजनीति करते हुए लालू प्रसाद यादव ने भागलपुर दंगे की जांच के लिए न्यायिक समिति बनाई. समिति ने रिपोर्ट तैयार की. न्यायिक जांच समिति बनाने के बाद भी लालू यादव पीड़ितों को न्याय नहीं दे पाए. यह बात सबको पहले से पता थी कि लालू यादव असल में जांच के बहाने मुस्लिमों को साधना चाहते थे. एक और वजह यह रही कि इस दंगे में कामेश्वर यादव समेत उनके कई स्वजातीय भी शामिल थे. लालू प्रसाद के लिए एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति थी. मामला गोल-मटोल होकर रुक गया. कुछ को मुआवजा वगैरह देकर इस अध्याय को बंद करने की कोशिश हुई लेकिन सरकारी फाइलों में बंद कर देने से यह अध्याय बंद होनेवाला नहीं था. इसमें राजनीतिक संभावनाएं शेष बची हुई थी इसलिए नीतीश कुमार जब बिहार में 2005 में सत्ता में आए, तो उन्होंने फिर से इस अध्याय को खुलवाया. कामेश्वर यादव जैसे लोगों का ट्रायल फिर से शुरू करवाने की बात हुई. दंगे के नाम पर एक आयोग नये सिरे से जांच करने की प्रक्रिया में लग गया. भागलपुर दंगे में पीड़ित मुसलमानों का एक वर्ग मानता है कि उन्हें कभी भी इस मामले में न्याय नहीं मिलने वाला क्योंकि जब लालू प्रसाद थे, तब उनके सामने यादवों की मजबूरी थी, जब तक नीतीश कुमार थे, तब उनके साथ भाजपा जुड़ी हुई थी. अब नीतीश कुमार फिर से लालू प्रसाद यादव के साथ मिल चुके हैं, तो जांच उसी दिशा में बढ़ेगी जिधर लालू ले जाना चाहते थे.

इस हादसे की वजहें भी बेहद सपाट हैं. 1989 में, अयोध्या में मंदिर बनाने के नाम पर बड़ी राजनीति शुरू हो गई थी. उत्तर व पूर्वी भारत में रामशिला पूजन का आयोजन किए जा रहे थे

भागलपुर दंगे में जिन्हें मुआवजा मिलना था उन्हें प्रधानमंत्री राहत कोष से दस हजार रुपये, बिहार सरकार की ओर से एक लाख रुपये और सिख दंगे की तर्ज पर साढ़े तीन लाख रुपये दिए गए हैं. यह मुआवजा उन्हें मिला है, जो साबित कर पाये हैं कि वे दंगा पीड़ित हैं. अभी ऐसे बहुतेरे लोग हैं, जो साक्ष्य के साथ साबित नहीं कर पा रहे कि वे दंगों के पीड़ित हैं. पिछले तीन सालों में नई दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर सोशल इक्विटी ने 50 गांवों का दौरा कर और करीब दो हजार लोगों से मिलकर दंगों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है. सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि 50 परिवार तो ऐसे मिले, जिन्हें आज तक एक पाई भी मुआवजे के तौर पर नहीं मिल सकी है. जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने भी सियासत की. उन्होंने सबको उचित मुआवजा, सहयोग देने का वादा किया था. पेंशन देने का भी वादा किया था, लेकिन 1100 में 700 लोगों को ही अब तक मुआवजा मिल सका है.’ वे आगे बताते हैं, ‘भागलपुर दंगा भले ही 25 साल पहले का हो, लेकिन उसका असर अब तक है. उसकी स्मृतियां सबको कचोटती है. उससे सिर्फ भागलपुर का वास्ता नहीं, उससे पूरे बिहार का वास्ता है और पूरे देश का भी.’

भागलपुर में हुए इस दंगे के दौरान बिहार में कांग्रेस की सत्ता थी और कांग्रेसी आपस में ही दंगे के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए थे

भागलपुर से लौटते हुए एक बार फिर हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि 25 साल होने पर दंगे को याद करना तो ठीक है, मुआवजे की बात भी की जा सकती है लेकिन असल चीज है कि उस दंगे का अब यहां के लोगों पर कितना असर है. उदय बताते हैं, ‘जो नई बस्तियां दंगे के बाद या दंगे की वजह से बसी हंै, वहां जाकर यह महसूस किया जा सकता. 50 के करीब अलग-अलग टोले दंगे के बाद अस्तित्व में आए हैं. दंगे की वजह से बसी बस्तियों में सबको याद रहता है कि वे यहां के वासी नहीं है, बल्कि उन्हें यहां मजबूरी में आकर रहना पड़ा है.’ उदय के मुताबिक साझी संस्कृति के इस शहर में आज कई जगहों पर दिखता है कि दंगों के बाद बिखरा सामाजिक तानाबाना फिर से गुंथ नहीं सका है.

दंगा पीड़ितों को मुआवजा के तौर पर प्रधानमंत्री राहत कोष से दस हजार रुपये, बिहार सरकार की ओर से एक लाख रुपये और सिख दंगे की तर्ज पर साढ़े तीन लाख रुपये दिए गए

जब सब कुछ बिखर गया था तब भी कुछ चीजों को यहां लोगों ने सहेज लिया था. दंगों के दौरान जब पूरे भागलपुर में 20 मजारों को ध्वस्त कर दिया गया था तब भी यहां के अम्मापुर गांव स्थित एक मजार को गांव के हिंदू सुरेश भगत ने बचाया था. सिर्फ बचाया ही नहीं, मुसलमानों के चले जाने के बाद उसकी रवायत को भी जिंदा रखा. अब तक.

प्रथम विश्वयुद्ध : हिंदुस्तान की लड़ाई

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‘यह कोई लड़ाई नहीं है. यह तो दुनिया का अंत है. हमारे पूर्वजों के महाभारत जैसा महायुद्ध है,’ ब्रिटेन के एक अस्पताल में पड़े एक गुमनाम भारतीय सैनिक ने, 29 जनवरी, 1915 के अपने एक पत्र में लिखा था. इंदर सिंह नाम के एक सिख सैनिक ने, जो फ्रांस के सॉम मोर्चे पर लड़ते हुए घायल हो गया था, सितंबर 1916 के अपने एक पत्र में लिखा, ‘इसे तो असंभव ही समझो कि मैं जीवित घर लौट सकूंगा. मेरी मौत पर दुखी मत होना, मैं अपनी बांह थामे एक योद्धा की पोशाक में मरूंगा.’

100 साल पहले 28 जुलाई, 1914 से 11 नवंबर, 1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध में इस तरह के न जाने कितने पत्र लिखे गए होंगे. न तो सभी पत्र आज उपलब्ध हैं और न सभी भारतीय सैनिक इतने साक्षर थे कि पत्र लिख सकते. ब्रिटिश सरकार उनके पत्र सेंसर करती थी. इसलिए अंग्रेजों की ओर से एशिया, अफ्रीका और यूरोप में लड़ रहे भारतीय सैनिक अपने मन की व्यथा-कथा न खुद लिख सकते थे और न किसी और से लिखवा सकते थे. उनकी मर्मांतक पीड़ा न तो भारत ने कभी जानी-समझी और न अंग्रेजों ने उसे कभी जानना चाहा. भारतवासियों के लिए वे ‘फिरंगियों के भाड़े के सैनिक थे’ और फिरंगियों के लिए ऐसे भाड़े के टट्टू, जिन की पीठ केवल बोझ ढोने के लिए ही बनी थी.

युद्ध के लिए 15 लाख की भर्ती
भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था. पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे. तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे. उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे. अगस्त 1914 और दिसंबर 1919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए. इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े. इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए.

इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था. भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई. लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए. भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया. मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था. 13, 000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को ‘विक्टोरिया क्रॉस.’ किसी भारतीय को कोई ऊंचा अफसर नहीं बनाया गया. न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जानलेवा हथियारोंवाली ‘औद्योगिक युद्ध पद्धति’ से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती.

पिस्तौल से निकली युद्ध की चिंगारी
इस विश्वयुद्ध की आग भड़कानेवाली चिंगारी बनी थीं, पिस्तौल से निकली तीन गोलियां. युद्ध छिड़ने से ठीक एक महीना पहले, 28 जून, 1914 के दिन, तत्कालीन ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य के युवराज फ्रांत्स फर्डिनांड अपनी पत्नी सोफी के साथ बोस्निया की राजधानी सरायेवो के दौरे पर आए थे. ऑस्ट्रिया और हंगरी के इस मिले-जुले साम्राज्य ने 1878 से ही आज के बोस्निया-हे्र्त्सेगोविना पर कब्जा कर रखा था और 1908 में इसका अपने भीतर विलय भी कर लिया था. इससे राजशाही सर्बिया और अपने आप को स्लाव जातियों का संरक्षक समझनेवाला तत्कालीन जारशाही रूस बहुत नाराज था. दूसरी ओर, ऑस्ट्रिया भी बोस्निया में रहनेवाले क्रोएटों और मुसलमानों को वहां रहनेवाले सर्बों के विरुद्ध भड़काया करता था. युवराज की यात्रा से कुछ पहले सरायेवो में सर्बों के विरुद्ध दंगे भी हो चुके थे. इसी गहमागहमी में राष्ट्रवादी सर्बों के एक गिरोह ‘म्लादा बोस्ना’ के छह नौजवानों ने सरायेवो यात्रा के समय युवराज फर्डिनांड की हत्या का षडयंत्र रचा.

एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े. इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए

28 जून, 1914 के उस अभिशप्त दिन जब कई कारोंवाला युवराज का काफिला एक सड़क से गुजर रहा था, तो घात लगाकर बैठे षडयंत्रकारियों ने उस पर एक हथगोला फेंका. इस घटना में कुछ लोग घायल हो गए, पर युवराज बच गए और काफिला आगे बढ़ गया. एक अस्पताल का दौरा कर युवराज जब कोई एक घंटे बाद वापस लौट रहे थे, तो उनका काफिला एक गलत मोड़ लेते हुए एक ऐसी सड़क पर पहुंच गया, जहां षडयंत्रकारियों में से एक, गवरीलो प्रिंत्सीप नाम का 19 वर्ष का एक छात्र खड़ा था. रविवार का दिन था. पौने ग्यारह बजे थे. उसने आव देखा न ताव, युवराज पर पिस्तौल से दनादन तीन गोलियां दाग दीं. युवराज के साथ-साथ उनकी गर्भवती पत्नी ने भी कुछ समय बाद दम तोड़ दिया.

स्वाभाविक ही था कि ऑस्ट्रिया का राजघराना इस घटना से आगबबूला हो गया. उसने इस हत्याकांड का अपने ढंग से बदला लेने की ठानी. उसका मानना था कि युवराज और उनकी पत्नी की हत्या सर्बिया ने ही करवाई है. लेकिन, सर्बिया को दंडित करने का मतलब यह भी था कि जारशाही रूस उसकी मदद के लिए मैदान में कूद पड़ता. इसलिए रूस को दूर रखने या जरूरत पड़ने पर उससे भी दो-दो हाथ कर लेने के विचार से ऑस्ट्रिया ने तत्कालीन जर्मन सम्राट विलहेल्म द्वितीय को पटाया. उन्होंने ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का बिना शर्त साथ देने का आश्वासन दिया. लगभग इसी तरह का एक आश्वासन उन्हीं दिनों जारशाही रूस ने सर्बिया को भी दिया.

जिस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पश्चिमी जगत दो गुटों में बंटा हुआ था, उसी तरह प्रथम विश्वयुद्ध के समय भी यूरोप के दो शक्तिशाली साम्राज्यवादी गुट आमने-सामने थे. एक तरफ था, 31 अगस्त, 1909 के एक गठबंधन-समझौते से बना, जारशाही रूस, फ्रांस और ब्रिटेन का फ्रांसीसी नाम ‘अंतांत’ (मैत्री) वाला ‘मित्र-राष्ट्र’ गुट, जिसे ‘मित्र-राष्ट्र तिकड़ी’ (ट्रिपल अंतांत) भी कहा जाता था. दूसरी तरफ था, जर्मन साम्राज्य, ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य और राजशाही इटली का त्रिगुट जिसे मध्यवर्ती शक्तियां (सेंट्रल पॉवर्स) कहा जाता था. तुर्की के तत्कालीन उस्मानी साम्राज्य से भी उसकी नजदीकी थी. तब भी, मध्यवर्ती शक्तियोंवाला गुट सैन्यशक्ति और आर्थिक दृष्टि से मित्रराष्ट्र-तिकड़ी के आगे पौना ही बैठता था. हालांकि उसे अपनी ताकत का नशा कुछ ज्यादा ही था.

युद्ध की विधिवत घोषणा
सरायेवो हत्याकांड के तीन सप्ताह बाद ही, 20 से 23 जुलाई तक, फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति रेमोंद प्वांकार और प्रधानमंत्री रेने विवियानी जारशाही रूस की राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग में थे. दोनों देशों का मत था कि ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई युवराज की हत्या के लिए सर्बिया को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. इसलिए सर्बिया पर यदि हमला होता है और रूस को उसकी मदद करनी पड़ती है, तो फ्रांस रूस का साथ देगा. इसके बाद घटनाचक्र तेजी से चला. ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य के सम्राट फ्रांत्स योजेफ ने, 28 जुलाई, 1914 को, सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की विधिवत घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए. कहा जाता है कि सम्राट युद्ध की घोषणा को 12 अगस्त तक टालना चाहते थे, लेकिन जर्मनी दबाव डाल रहा था कि वे जल्द ही ‘खुल कर बोलें.’ 28 अगस्त की मध्यरात्रि के कुछ समय बाद सर्बिया की राजधानी बेल्ग्रेड पर तोपों के गोले बरसने लगे.

इसके बाद तो सैनिक जमावों और युद्ध-घोषणाओं का तांता लग गया. जर्मनी ने पहली अगस्त को रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. बेल्जियम और फ्रांस की ओर बढ़ते हुए जर्मन सैनिकों ने दो अगस्त को लक्सेम्बुर्ग पर अधिकार कर लिया. जर्मनी ने तीन अगस्त को फ्रांस के विरुद्ध और ब्रिटेन ने चार अगस्त को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया. उसी दिन भारत सहित ब्रिटेन के सभी वर्तमान और पुराने उपनिवेशों की सरकारों ने भी घोषणा कर दी कि वे जर्मनी तथा मध्यवर्ती शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की स्थिति में हैं. 1914 का नवंबर महीना आते-आते दक्षिण-पूर्वी यूरोप, पश्चिमी एशिया और उत्तर अफ्रीका तक फैला हुआ तुर्की का तत्कालीन विशाल उस्मानी साम्राज्य भी विश्वयुद्ध की चपेट में आ गया. आज के इराक, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, फिलिस्तीन आदि देश 100 साल पहले तक तुर्की के उस्मानी साम्राज्य के झंडे तले ही होते थे.

भारतीय सैनिक जत्था सबसे बड़ा
ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने उस समय के अपने-अपने उपनिवेशों के जितने भी सैनिक प्रथम विश्वयुद्ध में झोंके, उनमें ब्रिटेन के भारतीय सैनिकों की संख्या सबसे अधिक थी. उन्हें अपनी पहली लड़ाई 1914 और 15 की कठोर सर्दियों में फ्रांस के इप्र मोर्चे पर लड़नी पड़ी. ‘मेरठ’ और ‘लाहौर’ नाम की पहले दो भारतीय डिवीजन, जिनमें कुल मिलाकर 24 हजार सैनिक थे, सितंबर 1914 के अंत और अक्टूबर के शुरू में फ्रांस के मार्से बंदरगाह पर पहुंचे थे. उन्हें तुरंत तथाकथित ‘पश्चिमी मोर्चे’ की उन खंदकों में उतार दिया गया जिन्हें भारी क्षति के कारण अंग्रेज सैनिकों को खाली करना पड़ा था. दिसंबर 1915 आते-आते उन्हें और उनके बाद आए सैनिकों को फ्रांस और बेल्जियम में स्थित जीवोंशी, नौएव शपेल, फेस्तुबेअर और लोस जैसे एक से एक भयंकर युद्ध-मैदानों पर भारी हथियारों से लैस जर्मन सैनिकों से लोहा लेना पड़ा.

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भारतीय सैनिकों को आधुनिक भारी हथियारों का सामना करने और बर्फीली ठंड में लड़ने की न तो पर्याप्त ट्रेनिंग मिली थी और न उस तरह के पहनावे और साज-सामान ही. इसलिए वे गाजर-मूली की तरह कटे. अंग्रेज खुद पीछे रहते और उन्हें मरने-कटने के लिए आगे कर देते. फ्रांस में लड़े गए एक-तिहाई मोर्चे भारतीयों ने ही संभाले. कुल 1,38,000 भारतीय सैनिक वहां लड़े. 7,700 ने वीरगति पाई और 16,400 घायल हुए. 10 से 12 मार्च 1915 तक चली नौएव शपेल की लड़ाई में आधे सैनिक भारतीय ही थे. इसी लड़ाई के लिए भारत के खुदादाद खान को पहला ‘विक्टोरिया क्रॉस’ मिला था.

यूरोप के बाद मध्यपूर्व में घमासान
1915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियमवाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्यवाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए. केवल दो घुड़सवार डिविजन 1918 तक यूरोप में रहे. तुर्की भी नवंबर 1914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था. भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे. मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती. वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुंचाना भी आसान था. यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था. इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए.

ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था. इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए. लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई.

कमाल पाशा का कमाल
इसलिए तय हुआ कि गालीपोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए. 25 अप्रैल,  1915 को भारी गोलाबारी के बाद वहां ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए. पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए. गालीपोली अभियान अंततः विफल हो गया. जिस तुर्क कमांडर की सूझबूझ के आगे मित्रराष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा. युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया. 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया.

मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े. इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे. उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है, ‘सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था. एकमात्र अपवाद वे मुस्लिम-बहुल इकाइयां थीं, जिन्होंने तुर्कीवाले उस्मानी साम्राज्य के अंत की आशंका से अवज्ञा अथवा बगावत का रास्ता अपनाया. उन्हें कठोर सजाएं भुगतनी पड़ीं.’

इस्लामी अतिवाद की जड़ प्रथम विश्वयुद्ध? 
एक दूसरे इतिहासकार और अमेरिका में पेन्सिलवैनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप जेंकिन्स इस बगावत का एक दूसरा पहलू भी देखते हैं. उनका मानना है कि वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में उस्मानी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने से मुस्लिम सैनिकों का इनकार और युद्ध में पराजय के साथ उस्मानी साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना ही वह पहला निर्णायक आघात है जिसने आज के इस्लामी जगत में अतिवाद और आतंकवाद जैसे आंदोलन पैदा किए. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘वही उस पृथकतावाद की ओर भी ले गया, जिसने अंततः इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया और वे नयी धाराएं पैदा कीं जिनसे ईरानी शियापंथ बदल गया.’.

भारतीय सैनिकों को आधुनिक हथियारों का सामना करने और बर्फीली ठंड में लड़ने की पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं मिली थी इसलिए वे इस महायुद्ध में गाजर-मूली की तरह कटे

प्रो. जेंकिन्स का तर्क है कि ‘जब युद्ध छिड़ा था, तब उस्मानी साम्राज्य ही ऐसा एकमात्र शेष बचा मुस्लिम राष्ट्र था, जो अपने लिए महाशक्ति के दर्जे का दावा कर सकता था. उसके शासक जानते थे कि रूस व दूसरे यूरोपीय देश उसे जीतकर खंडित कर देंगे. जर्मनी के साथ गठजोड़ ही आशा की अंतिम किरण थी. 1918 में युद्ध हारने के साथ ही सारा साम्राज्य बिखरकर रह गया.’ प्रो. जेंकिन्स का मत है कि 1924 में नये तुर्की द्वरा ‘खलीफा’ के पद को त्याग देना 1,300 वर्षों से चली आ रही एक अखिल इस्लामी सत्ता का विसर्जन कर देने के समान था. इस कदम ने ‘एक ऐसा आघात पीछे छोड़ा है, जिससे इस्लामी दुनिया आज तक उबर नहीं सकी.’

‘खलीफत’ का अंत बना ‘खिलाफत’ का आरंभ
प्रो. जेंकिन्स के शब्दों में, ‘खलीफत के अंत की आहटभर से’ ब्रिटिश भारत की तब तक शांत मुस्लिम जनता एकजुट होने लगी. उससे पहले भारत के मुसलमान महात्मा गांधी की हिंदू-बहुल कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता की ओर बढ़ते झुकाव से संतुष्ट थे. लेकिन अब, खिलाफत आंदोलन चलाकर मुस्लिम अधिकारों और एक मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी. यही आंदोलन 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म का स्रोत बना.’
स्मरणीय यह भी है कि महात्मा गांधी प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई आन्दोलन छेड़कर ब्रिटिश सरकार की परेशानियां बढ़ाने के बदले उसे समर्थन देने के पक्षधर थे. ब्रिटिश अधिकारी भी यही संकेत दे रहे थे कि संकट के इस समय में भारतीय नेताओं का सहयोग भारत में स्वराज या स्वतंत्रता का इंतजार घटा सकता है. लेकिन, युद्ध का अंत होने के बाद सब कुछ पहले जैसा ही रहा. लंदन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल की बैठकों में तो यहां तक कहा गया कि भारत को अपना शासन आप चलाने लायक बनने में अभी 500 साल लगेंगे.

बलिदान किसी का, वरदान किसी को
1939 में जब दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा और ब्रिटेन को एक बार फिर भारतीय सैनिकों और उनकी निष्ठा की जरूरत पड़ी, तब कांग्रेस पार्टी के नेता किसी झांसे में नहीं आए. 1942 में गांधी ने नारा दिया, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’. लेकिन, मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इस शर्त पर ब्रिटेन को समर्थन देना मान लिया कि बदले में उसे पाकिस्तान जरूर मिलेगा. 1947 में अंग्रेज जब भारत से गए, तो पाकिस्तान बनाकर ही गए. भारत दोनों बार ठगा गया. बलिदान उसने दिए, वरदान दूसरों को मिले.

प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की 100 वीं वर्षगांठ पर यूरोप के सभी देशों ने अपने सैनिकों की गौरव गाथाएं याद कीं. यदि किसी देश ने इसकी जरूरत नहीं समझी तो वह था भारत, जिसके लाखों सैनिक युद्ध में लड़े और हजारों वीरगति को प्राप्त हुए थे. जिनका अपना देश उन्हें भुला देता है, उन्हें पराए देशवाले क्यों याद करेंगे? उस ब्रिटेन ने भी इनको याद करना मुनासिब नहीं समझा, जिसके साम्राज्य की रक्षा के लिए वे जंग में उतरे थे. वे अभागे सैनिक भी दोनों तरफ से ठगे गए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक हैं)

ख्वाजा अहमद अब्बास – परिवर्तन का पुरोधा

Khwaja Ahmed Abbas

हिन्दी सिनेमा जगत में बहुत कम फिल्म निर्देशक ऐसे रहे हैं जिन्होंने सिनेमा की ताकत का सही मायनों में इस्तेमाल किया है. ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम हिन्दी के उन नामचीन फिल्मकारों में शुमार होता है जिन्होंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के अनुरूप फिल्में बनाने की शुरुआत की. ख्वाजा ने अपनी पहली ही फिल्म नया संसार के जरिए यह साबित कर दिया कि देश और समाज के निर्माण में कला और सिनेमा अधिक अहम भूमिका निभा सकते हैं. उपन्यासकार, कहानीकार, फिल्मकार और फिल्म समीक्षक ख्वाजा अहमद अब्बास ने हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में 73 किताबें लिखीं. साथ ही उन्होंने 13 फिल्में भी बनाईं जिनमें से अधिकांश सही मायनों में सामाजिक परिवर्तन का संदेशवाहक बनीं.

पानीपत में 7 जून 1914 को जन्मे ख्वाजा अहमद अब्बास ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की तालीम ली थी. उनका ताल्लुक मशहूर शायर ख्वाजा अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ के घराने से था. उनके दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों की अग्रिम पंक्ति में शामिल थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने तोप से बांधकर शहीद कर दिया था. देश के लिए कुछ करने की सीख ख्वाजा अहमद अब्बास को अपने पुरखों से मिली थी. उस पर अमल करते हुए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया. अलीगढ़ में रहते हुए उन्होंने ‘नेशनल कॉल’ अखबार और ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ पत्रिका में लिखा. तालीम पूरी कर 1935 में जब वह फिल्म नगरी पहुंचे तो ‘बांबे क्रॉनिकल’ अखबार से जुड़े. वहां उन्होंने फिल्मी लेखन पर ज्यादा ध्यान दिया. इसी बीच उनका नाता ‘ब्लिट्ज’ जैसे अखबार से जुड़ा, तो जीवन के आखिर (1 जून 1987) तक कायम रहा. इसमें हर सप्ताह छपने वाले उनके स्तम्भ ‘द लास्ट पेज’ को काफी ख्याति मिली, जिसे उन्होंने लगभग 52 साल तक लिखा. उनका यह स्तम्भ उर्दू संस्करण में ‘आजाद कलम’ और हिंदी में ‘आखिरी पन्ने’ नाम से प्रकाशित होता था.

ख्वाजा अहमद अब्बास का फिल्म समीक्षा लिखने का अपना बेलौस अंदाज था. यह अंदाज कुछ फिल्मकारों को रास नहीं आता था. कुछ ने टिप्पणी कर दी थी कि फिल्म समीक्षा लिखना आसान है, पर फिल्म लिखना व बनाना कठिन है. फिल्मकारों की यह टिप्पणी ख्वाजा को नागवार गुजरी. उन्होंने फिल्म बनाने की चुनौती स्वीकार की. उनकी लिखी कहानी पर बॉम्बे टाकीज ने ‘नया संसार’ (1941) फिल्म बनाई. एक आदर्शवादी पत्रकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी को प्रशंसा मिली तो ख्वाजा को तीन और फिल्में लिखने को मिलीं. रिलीज होने पर ख्वाजा ने देखा कि उनकी कहानियों के अधिकांश हिस्से बदल दिए गए हैं. जब उन्होंने इसका शिकवा निर्देशकों से किया, तो व्यंग्य में जवाब मिला कि अपनी कहानी पर बिल्कुल वैसी ही फिल्म देखने की तमन्ना है तो निर्देशन क्यों नहीं कर लेते. उन्होंने अचानक आने वाली इस दूसरी चुनौती को भी स्वीकार किया. यह वह समय था जब बंगाल में अकाल पड़ा था, तो द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका ने गांवों को बदहाल कर दिया था. भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) ने इस विपत्ति में देशवासियों की सहायता करने का फैसला किया. इप्टा के संस्थापक सदस्यों में शामिल ख्वाजा ने संगठन के इस प्रस्ताव को आजादी के एक साल पहले सिनेमा के परदे पर ‘धरती के लाल’ फिल्म के जरिए पेश किया. यह फिल्म युद्ध और अकाल की विभीषिका के बीच किसानों की मुसीबतों और उनके पलायन की पीड़ा का चित्रण करती है, साथ ही उससे मुक्ति का हल भी सुझाती है. इसी साल आने वाली दो और फिल्मों ‘नीचा नगर’ और ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ में भी ख्वाजा का योगदान था.

ख्वाजा ने अपनी पहली ही फिल्म नया संसार के जरिए यह साबित कर दिया कि देश और समाज के निर्माण में कला और सिनेमा अधिक अहम भूमिका निभा सकते हैं

ख्वाजा अहमद अब्बास के लिए सिनेमा समाज के प्रति एक प्रतिबद्धता थी. इसी के तहत उन्होंने ‘राही’ (1952) में चाय बागान के मजदूरों के हालात को दिखाया. ‘बंबई रात की बांहों में’ (1968) में महानगरों में रात में चलने वाले अवैध धंधों का चित्रण किया. ‘शहर और सपना’ (1963) फुटपाथ पर जिंदगी गुजारने वालों की समस्याओं को चित्रित करने वाली फिल्म थी. वहीं ‘दो बूंद पानी’ (1971) के जरिए उन्होंने राजस्थान में पानी की विकट समस्या को दिखाया. उनकी फिल्मों में ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेश मौजूद हैं.

ख्वाजा को फिल्म जगत को अनेक रत्न देने का भी श्रेय जाता है. ‘धरती के लाल’ के रास्ते अभिनेता बलराज साहनी और संगीतज्ञ पंडित रविशंकर ने फिल्मों में कदम रखा. इस सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ (1969) के निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास ही थे. ख्वाजा ने अपने करीब चार दशक के फिल्मी कॅरियर में 40 फिल्मों की कहानियां और पटकथाएं लिखीं. अपनी कंपनी ‘नया संसार’ के अलावा उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में राज कपूर के लिए लिखीं. ख्वाजा ने सामाजिक और राजनीतिक मसलों को तरजीह देते हुए फिल्मों में गरीबी, अकाल, छुआछूत और सांप्रदायिकता जैसे मसलों को पेश किया.

साहित्य की बात करें तो ख्वाजा अहमद अब्बास के अफसाने उस समय के मशहूर कहानीकारों कृश्न चंदर व सआदत हसन मंटो आदि के साथ छपते थे. कृश्न चंदर से उनका याराना मशहूर था. अपनी हर रचना और फिल्म पर कृश्न चंदर की सहमति को वह सबसे बड़ा प्रमाण पत्र मानते थे. ख्वाजा के प्रमुख कहानी संग्रहों में ‘एक लड़की’, ‘गेंहू और गुलाब’, ‘जाफरान के फूल’ और ‘मैं कौन हूं’ शामिल हैं. ‘इंकलाब’ और ‘दिया जले सारी रात’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं. सांप्रदायिकता पर प्रहार करने वाले उनके उपन्यास ‘इंकलाब’ की काफी चर्चा रही है. वह ‘जो सही लगता है…जो सही दिखता है’ में यकीन रखकर शब्दों को आकार देते थे. इस खरेपन के कारण उनकी कुछ कहानियों को लेकर विवाद भी खड़े हुए. उन्हें अदालतों के चक्कर तक काटने पड़े. इसके बावजूद उन्होंने कभी कलम से समझौता नहीं किया. जीवन में अनेक दुश्वारियों का सामना करते हुए भी सामाजिक प्रतिबद्धता से मुंह नहीं मोड़ा.

गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ : सीधे-सादे और जटिल

mukti

भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ताज ने कहा था–

उम्र भर जी के भी न जीने का अन्दाज आया,
जिन्दगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया.

जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया. वरना यहां ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आन्दोलन के कन्धे पर चढ़कर ‘नया पथ’ में फ्रन्ट पेजित भी होते थे, फिर पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं. इसे मानना चाहिए कि पुराने प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया. बहुतों को दिया. कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे. न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे. वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे. मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे.

दूसरी तरफ के लोग उनके पीछे विच हण्ट लगाए थे. उनके ऊबड़-खाबड़पन से अभिजात्य को मतली आती थी. वे उनके दूसरे खेमे में होने की बात को इस तरह से कहते थे, जैसे- अ गुड मैन फालेन अमंग फेबियंस.

वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे. मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे

ऐसा भी नहीं है कि मुक्तिबोध को समझने वाले लोग नहीं थे. पर निष्क्रिय ईमानदार और सक्रिय बेईमान मिलकर एक षडयंत्र-सा बना लेते हैं. मजे की बात यह है कि प्रगतिवादी सत्ता प्रतिष्ठान के नेता भी, जिन्हें प्रतिक्रियावादी कहते थे, उन्हीं की चिरौरी करके उन्हें अपने बीच सम्मान से बिठाकर रिस्पैक्टेबिलिटी प्राप्त करते थे, मगर जो अपना था उसे अवहेलित करते थे. वह तो अपना है ही, उसकी नियति तय है, वह कम्बख्त कहां जाएगा? पूर्वी यूरोप से साहित्य के आयात-निर्यात की जो फर्म है, उसके माल की लिस्ट में भी मुक्तिबोध की एक लाइन नहीं थी. हां, उन्हें बराबर भेजा जाता था, जिन्हें घर में फासिस्ट कहा जाता रहा है.

मुझे याद है, जब हम उन्हें भोपाल के अस्पताल में ले गए और मुख्यमंत्री की दिलचस्पी के कारण थोड़ा हल्ला हो गया, पत्रकार मित्रों ने प्रचार किया, तब कुछ लोग, जो साहित्य की राजधानियों के थे या वहां से बढ़कर आए थे, यह कहते थे कि हम प्रान्तीयता से ग्रस्त लोग उसे हीरो बना रहे हैं. हम लोग प्राविंशियल संस्कार के लोग कहलाते थे. प्रोफेसरान और ऊंचे लेखक उन्हें देखने शुरू-शुरू में इसलिए नहीं आते थे कि कहीं प्रयाग, दिल्ली और कलकत्ता में बदनामी न फैल जाए कि हम प्राविंशियल में दिलचस्पी ले रहे हैं. प्रयाग और दिल्लीवालों ने जब गेटपास दे दिया और अदीब ने टाइम्स ऑफ इण्डिया में अंग्रेजी में तारीफ कर दी, तब इनका दिलचस्पी लेने का साहस बढ़ा. बाद में तो लेख के शुरू में मुक्तिबोध की पंक्तियां मंगलाचरण के रूप में लिखने लगे- वन्दौ वाणी विनायकौ होने लगा. उनकी मृत्यु के बाद फूल बांटने की झपटा-झपटी में कबीर की चादर की बड़ी फजीहत हुई.

यह सब-बाई दी वे. मुझसे तो नामवरजी ने कुछ संस्मरणात्मक लिखने को कहा है. संस्मरणात्मक कुछ भी लिखने में अपने को बीच में डालना पड़ता है. संस्मरणात्मक की यह मजबूरी है. यह सावधानी बरतते हुए कि उनके बहाने अपने को प्रोजेक्ट न कर दूं, कुछ चीजें लिखता हूं… गो सफल संस्मरण का वही गुण है, जिससे मैं बचना चाहता हूं.

जबलपुर में जिस स्कूल में मुक्तिबोध ने नौकरी की थी, उसी में बाद में मैंने की. अपनी मुदर्रिसी का वह आखिरी दौर था, उनकी मास्टरी उसी अहाते में खत्म हुई थी. पुराने अध्यापक उनकी बात करते थे. साहित्य में, बल्कि पत्रकारिता में मेरा प्रवेश तब हो चुका था. सुनता था, यहां तारसप्तक वाले मुक्तिबोध रहते थे. उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की. फिर वे नागपुर प्रकाशन विभाग में चले गए. तब मुक्तिबोध की नई जवानी थी. छरहरे खूबसूरत आदमी थे. तब का उनका एक चित्र है, जो राष्ट्रवाणी के मुक्तिबोध अंक में छपा है. बड़ी-बड़ी गहरी भावुक आँखें हैं. नाक बहुत सेन्सुअस है. शरीर सूख जाने पर भी मुक्तिबोध की आंखें धुंधली नहीं हुईं, सूखा चेहरा भी खूबसूरत रहा.

मैं कुछ लिखने लगा था. वे देखते रहते थे. मित्रों ने भी बताया होगा. मैं नागपुर शिक्षक सम्मेलन के सिलसिले में गया था. एक मित्र उनसे मिलाने शुक्रवारा स्थित शायद उनके मकान पर ले गए. सच, कहूं, मुझे मुक्तिबोध से डर लगता था. मित्रों, प्रशंसकों में वे महागुरु कहलाते थे. एक आतंक मेरे ऊपर था. मैं अपने अज्ञान में सिकुड़ा-सिकुड़ा पहुंचा. वे दरी पर पालथी मारे बैठे थे. पास पानी का लोटा और उस पर प्याला. हम लोग दरी पर बैठ गए. मुझसे बोले, आइए साहब! निहायत औपचारिक दो-चार मामूली बातें हुईं. यह जानकर कि मैं शिक्षकों के श्रम-संगठन के काम से आया हूं, उन्होंने आंखें फाड़कर गौर से देखा. मुझसे न लिखने की बात की, न कोई तारीफ. चाय जरूर पिलाई. आगन्तुक के बहाने खुद चाय पीने का मौका वो चूकते नहीं थे. यह मुलाकात बहुत सुखी रही. मुक्तिबोध मुझे शंका से देख रहे थे. जांच रहे थे. वे एकदम गले किसी से नहीं मिलते थे. प्रकृति से वे शंकालु थे. किसी को जैसा-तैसा स्वीकार नहीं करते थे. बाद के अनुभव और अकेलेपन ने यह शंका की प्रवृत्ति और बढ़ा दी थी. राजनांदगांव में वे कई लोगों की कल्पना में न जाने कैसी-कैसी तस्वीरें बनकर परेशान हुआ करते थे.

दिल्ली, कलकत्ता, प्रयाग के बहुत-से लोगों की इतनी अतिरंजित तस्वीर वे बनाते थे कि लगता ये सब विकट शैतान हैं, जबकि वे अपने काम में लगे तटस्थ लोग थे. शंका व असुरक्षा की भावना इतनी तीव्र हो उठी थी, बाद में, कि वह भयावह कल्पना करते रहते थे कि अमुक-अमुक लोग मेरे खिलाफ षडयंत्र कर रहे हैं, जबकि उन्हें अपना भला करने से ही इतनी फुरसत नहीं मिलती थी कि उनका बुरा करें. उनके मित्रों को यह नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध भयंकर शैतान के रूप में उनकी कल्पना कर चुके हैं. सामान्य आदमी का वे एकदम भरोसा करते थे, लेकिन राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के आदमी के प्रति शंकालु रहते थे. कोई महज ही उनके समीप होना चाहता था या उनकी मदद करना चाहता, तो सशंकित हो जाते. कहते, ‘पार्टनर, इसका इरादा क्या है?’ ज्यों-ज्यों उनकी मुसीबतें बढ़ती गईं, ज्यादा कड़वे अनुभव होते गए, उनके कई विश्वसनीयों का चारित्रिक पतन होता गया, उनकी शंका बढ़ती गई. वे अपने को असुरक्षित अनुभव करते गए. अंत के एक-दो साल तो वे अपने चारों तरफ डर के कांटे लगाकर जीते थे. उन्हें लगता, कोई भयंकर षडयंत्र चारों तरफ से उन्हें घेर रहा है. यह स्थिति तब बहुत तीव्र हो गई, जब सरकार ने उनकी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया. इस बात को आगे लिखूंगा.

परिवेश से कटकर आदमी रह नहीं सकता. मुक्तिबोध-जैसे पारदर्शी सच्चाई के सरल आदमी को अपने आसपास की यह अविश्वसनीयता और अकेलापन दे देती थी

नागपुर में चार-पांच दिन रहकर भी मैं उनसे दोबारा नहीं मिला. उन्होंने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं की. यह सीधा कहलानेवाला आदमी, कुछ मामलों में बड़ा काइयां था. वह चुपचाप बैठा जांच रहा था. आगे साल-भर तक कोई संबंध नहीं रहा. एक दिन ‘नया खून’ का ताजा अंक खोला, तो तीन कालम की एक टिप्पणी का शीर्षक था ‘थाट और परसाई की स्पिरिट में अन्तर है.’ टिप्पणीकार- गजानन माधव मुक्तिबोध. मेरी एक कहानी का अनुवाद ‘थाट’ ने छापा था. मुक्तिबोध ने थाट की राजनीति बतलाई थी और मेरी कहानी को जैसे मिसफिट कहा था. चेतावनी थी कि ये पत्र प्रचार और पैसे का लोभ देकर किसी बनते लेखक को फंसाते हैं. मेरी उस कहानी का अर्थ थाट ने साम्यवादी व्यवस्था में रेजिमेण्टेशन के सन्दर्भ में लगाकर छापा था. यों मेरी एक फैण्टेसी को पांचजन्य ने पौराणिक कथा समझकर धर्मार्थ उद्धृत कर लिया था. अपनी समझ का उपयोग करने का हर एक को हक है.

मैंने उन्हें नहीं लिखा. वे भी चुप रहे. सालेक बाद जब वसुधा निकालने की योजना बनी, तो मैंने उन्हें पत्र लिखा. वे भरे बैठे थे. बड़ा लंबा पत्र आया. लिखा था कि नया खून की उस टिप्पणी के बाद यहां लोगों ने मुझसे बार-बार कहा कि आपको बहुत बुरा लगा है. मैं दूर हूं. लोगों से संपर्क होता नहीं है. सुनता रहता हूं. सोचा, सीधे आपसे बात कर लूं. मैं साफ बात करना पसंद करता हूं. आप मुझे साफ बताइए कि क्या उस टिप्पणी से आपको बुरा लगा?

मैं समझ गया कि मेरी-उनकी निकटता को घटित न होने देने में किन्हीं लोगों ने अपना फायदा देखा होगा. अपना फायदा देखने का भी हर एक को हक है. बाद में पता चला कि इन लोगों ने अपने समकालीनों के लिए खुफिया विभाग भी खोल रखा था और जगह-जगह एलची नियुक्त कर रखे थे. हमारे मित्र प्रमोद वर्मा जब तबादले पर जबलपुर आए, तब उन्हें हेड ऑफिस से चिट्ठी मिली थी कि यहां किससे संबंध रखना और किससे नहीं, इस बारे में अमुक से हिदायत ले लो. प्रमोद ने लिख दिया था कि शत्रु और मित्र मैं खुद बनाता हूं. उस चिट्ठी को मुक्तिबोध के सामने हम लोगों ने पढ़ा और खूब हंसते रहे. खैर, ये स्थानीय मधुर पालिटिक्स की बातें हैं. मगर परिवेश से कटकर आदमी रह नहीं सकता. मुक्तिबोध-जैसे पारदर्शी, सच्चाई के सरल आदमी को अपने आसपास की यह अविश्वसनीयता और अकेलापन दे देती थी.

‘कामायनी ः एक पुनर्विचार’ को छापने के लिए एक पुस्तक विक्रेता मित्र शेषनारायण राय राजी हो गए थे. वे पेशे से प्रकाशक नहीं हैं. पैसा लगा देने को तैयार थे. मुक्तिबोध जी पर उनकी श्रद्धा थी. तब मुक्तिबोध को कोई प्रकाशक नहीं मिलता था. पुस्तक की कम्पोजिंग चल रही थी, तब वे जबलपुर आए. तीन दिन हो गए, पर उन्होंने न किताब की बात की, न राय से मिलने की इच्छा. पहले तो रात-दिन पुस्तक छापने की लौ लगी रहती थी और अब यह विराग. मैंने कहा- आप प्रकाशक से तो मिल लीजिए. वे यहीं पास में रहते हैं. मुक्तिबोध खिन्न भाव से बोले- मिल लेंगे, पार्टनर. कोई उससे मिलने थोड़े ही आए हैं. मैंने कहा- सच बताइए मामला क्या है? वे बोले- अब पाण्डुलिपि तो दे ही चुके हैं. अमुक साहब कह रहे थे कि आप बुरे फंस गए. वह राय तो बहुत खराब आदमी है. खैर! मैंने राय से कहा, राय हंसा. कहने लगा- वही साहब मुझसे कह गए थे कि तुम पैसा पानी में डाल रहे हो. उस किताब को कौन खरीदेगा. मुक्तिबोध उनका विश्वास करते थे. वे बड़े हैरान हुए. कहने लगे- आखिर उसने ऐसा किया क्यों? बाद में राय ने उन्हें रुपये पेशगी दिए. दुकान से वो कुछ किताबें भी ले गए. बहु गदगद थे. ऐसे मौकों पर वे बच्चे की तरह हो जाते थे- वाह पार्टनर, आपका यह राय भी मजे का आदमी है. उसने इतने रुपये दे दिए. अगर उन्हें किसी से मुश्किल से सौ रुपये मिलने की उम्मीद है और वह दो सौ रुपये दे दे, तो वह चकित हो जाते. कहते- पार्टनर, यह भी बड़ी मजे की बात है. उसने तो दो सौ रुपये दे दिए. इतने रुपये कोई कैसे दे देता है. इस पुस्तक का प्रकाशन वो अपने ऊपर अहसान मानते थे. राजनांदगांव से उन्होंने राय को अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिखी, जो कोई लेखक प्रकाशक को नहीं लिखेगा. लिखा था- पुस्तक अच्छी छपनी चाहिए. मैं आपको लिखकर देता हूं कि मुझे आपसे एक भी पैसा नहीं चाहिए, बल्कि आपका कुछ ज्यादा खर्च हो जाए तो मैं हरजाना देने को तैयार हूं.

राजनांदगांव में वे अपेक्षाकृत आराम से रहे. शरद कोठारी तथा अन्य मित्रों ने उनके लिए सब कुछ किया. पर वे बाहर निकलने को छटपटाते थे. वे साल में एक-दो बार किसी सिलसिले में जबलपुर आते और खूब खुश रहते, रंगीन सपने में डूबते हुए कहते- पार्टनर, ऐसा हो कि एक बड़ा-सा मकान हो. सब सुभीते हों. कोई चिंता न हो. वहां हम कुछ मित्र रहें. खूब बातें करें, खूब लिखे-पढ़ें और जंगल में घूमें. फिर कहते- आप राजनांदगांव आइए. वहीं कुछ दिन रहिए. बहुत बड़ा मकान है. कोई तकलीफ नहीं होगी. नो, नो, आई इनवाइट यू.

मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी. उन्हें और तरह के क्लेश भी थे. भयंकर तनाव में वे जीते थे. पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे. उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे. पैसे-पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था. वे पैसा देनेवाली पत्रिकाओं में लिखकर आमदनी बढ़ा सकते थे, पर लिखते नहीं थे. कहते – अपनी पत्रिका में लिखेंगे. बस मुझे कागज आप दे दीजिए. यों वे बहुत मधुर स्वभाव के थे. खूब मजे में आत्मीयता से बतियाते थे. मगर कोई वैचारिक चालबाजी करे या ढोंग करे, तो मुक्तिबोध चुप बैठे तेज नजर से उसे चीरते रहते. उस वक्त उनके ओठ किसी बदमाश स्कूली लड़के की तरह मुड़ जाते. आपस में मित्रों से एकरस हो जाते, मगर तभी वर्ग-चेतना जाग उठती, तो अजनबी होने लगते. जबलपुर आये तो मेरे घर पर एक मित्र हनुमान वर्मा से मुलाकात हुई. हनुमान कॉलेज में पढ़ाते हैं. खूब यारबाश आदमी हैं. दो-तीन दिन खूब मजे में उनसे मुक्तिबोध की जमती रही. फिर हनुमान अपने घर ले गया. वहां अच्छा-सा सोफा था. डाइनिंग टेबल भी थी. मुक्तिबोध को खटका लग गया. वे शिष्ट व्यवहार करने लगे. लौटते वक्त रास्ते में मुझसे बोले- पार्टनर, इस आदमी से अपनी कैसे पट सकती है! उसका सोफा देखो, डाइनिंग टेबल देखो. यह अपनी दुनिया का आदमी नहीं है. ही बिलांग्ज टू ए डिफरेण्ट वर्ल्ड. मैंने कहा – छह-सात सौ ही पाता है वह. अपनी ही दुनिया का आदमी है. पर यह बात गले उतरने में देर लगी.

वर्ग-चेतना के तीव्र बोध की एक-दो घटनाएं दिलचस्प हैं. मुझ पर एक प्रकाशक ने कॉपीराइट का मुकदमा चला दिया था. मुक्तिबोध आये हुए थे. दिसंबर का महीना था. भोजन करके वे सामने के मैदान में बैठे थे. मैं कचहरी जाने लगा, तो पूछा, पार्टनर, मजिस्ट्रेट कौन है? मैंने नाम बताया. वे बोले – नाम से मालूम होता है कि वह नीची जाति का है. विदर्भ में होते हैं ये लोग. आप छूट जाएंगे. मैंने यह पूछा – यह अन्दाज आपको कैसे लगा? उन्होंने कहा – वह नीची जाति का है न! उसकी वर्ग-सहानुभूति लेखक के प्रति होगी, प्रकाशक के साथ नहीं. संयोग से मुकदमा खारिज भी हो गया.

संबंधों में लचीले, मगर विचारों में इस्पात की तरह. कहीं कोई समझौता नहीं. पैसे-पैसे के लिए तंग रहते थे, पर पैसे को लात भी मारते थे. कभी बिल्कुल निस्संग हो जाते, कभी मोहग्रस्त

एक साहित्य-समारोह में एक वयोवृद्ध ब्राह्मण आचार्य थे. विवाद की स्थिति थी ही. आचार्य के मातहत एक अध्यापक ने भी भाषण में आचार्य जी का समर्थन किया. बाद में मुक्तिबोध अकेले में हम लोगों से बड़ी गंभीरता से बोले – वह जो अध्यापक है, उसकी सहानुभूति हमारी तरफ है. नौकरी के लिए आचार्य की बात बोल रहा था. वह जाति का अहीर है न! वह हमारा साथ देगा, ब्राह्मण आचार्य का नहीं.

पर एक दूसरे मौके पर दूसरी ही तरह की बात कहकर उन्होंने हमें चौंकाया. एक आदमी बड़ा ओछा व्यवहार कर रहा था. हम सब लोगों की पीठ पीछे निंदा करता था. मुक्तिबोध सुनते-सुनते बोले – पार्टनर, वह जात का लोधी है न! इसलिए.

मुक्तिबोध विचारों से आधुनिक लेकिन इसके साथ ही व्यवहार में कई बातों में बिल्कुल सामंती. किसी को अपने घर में साग्रह खाना खिलाना, अपनी हैसियत से बाहर खातिर करना उनकी खास प्रकृति थी. लगता था, कोई पुराने ठाकुर साहब हैं, जिन्हें मूंछें मुड़ाना पड़ेगा, अगर मेहमाननवाजी में कमी आयी. एक बार नागपुर में जब वे तीव्र ज्वर में नया खून के टीन के नीचे काम कर रहे थे, मैं पहुंच गया. भर-दोपहर में पास की दुकान पर मुझे मिठाई खिला लाए, तब चैन पड़ा. मैंने बहुत मना किया, पर वे कहते- नहीं साहब, आप आए हैं, तो कुछ खाना तो पड़ेगा. पक्षाघात से पीड़ित थे, तब हम उन्हें भोपाल के लिए लेने पहुंचे. उस हालत में भी वो हड़बड़ा रहे थे कि इनके लिए क्या कर दिया जाए. कहने लगे- आप मेरे महमान हैं. आप मेरे यहां क्यों नहीं ठहरेंगे, कोठारी के यहां क्यों? कोठारी से भी शिकायत की- क्यों साहब, यह क्या हरकत है? इन्हें आपने रास्ते में क्यों रोक लिया? इसमें बनावट नहीं थी. उनकी सच्ची ममता थी, उनके आंतरिक संस्कार थे. वे नयी से नयी वैज्ञानिक उपलब्धि से मुग्ध होते थे, पर परिवार-नियोजन के खिलाफ थे. परिवार-नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे. विचारों के मामले में जितने सधे हुए, जिंदगी की व्यवस्था में उतने ही लापरवाह. स्वास्थ्य के प्रति अत्यंत असावधान थे. संबंधों में लचीले, मगर विचारों में इस्पात की तरह. कहीं कोई समझौता नहीं. पैसे-पैसे के लिए तंग रहते थे, पर पैसे को लात भी मारते थे. कभी बिल्कुल निस्संग हो जाते, कभी मोहग्रस्त.

मुक्तिबोध विद्रोही थे. किसी भी चीज से समझौता नहीं करते थे. स्वास्थ्य के नियमों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से भी नहीं. उनकी राजनीति है, यह बात सर्वविदित थी. नागपुर में सरकारी नौकरियों में थे, तब उनके पीछे साम्यवाद विरोधी भूत लगे रहते थे. उनके विचारों ने कभी उन्हें नौकरी में ऊपर नहीं उठने दिया. राजनांदगांव के प्राइवेट कॉलेज की नौकरी उन्हें अनुकूल पड़ी. वहां उन्हें लोगों ने बड़े श्रद्धा-प्रेम से रखा.

मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे. आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे. उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी. वे संत्रास में जीते थे. आजकल संत्रास का दावा बहुत किया जा रहा है. मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता तो उनसे आधी उम्र में मर जाता. मृत्यु से दो साल पहले वे जबलपुर आए थे. रात-भर वे बड़बड़ाते थे. एक रात चीखकर खाट से फर्श पर गिर पड़े. संभले, तब बताया कि एक बहुत बड़ी छिपकली सपने में सिर पर गिर रही थी.

उन दिनों उनकी पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लग चुका था. वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी. उसके खिलाफ आन्दोलन करानेवाले मुख्यत ः दूसरे प्रकाशक थे. आंदोलन में जनसंघ प्रमुख था. इसके साथ ही गैर-सांप्रदायिक पत्रों के भी बिके हुए संपादक थे. जनसंघ उनके पीछे पड़ गया था. राजनांदगांव में उसके स्वयंसेवक उन्हें परेशान करते थे. उस वक्त विद्वान लेकिन अधिकारहीन राज्यपाल था और भ्रष्ट तथा मूर्ख मुख्यमंत्री. राज्यपाल ने डेढ़ घण्टे बात की, बात मानी भी, पर कहा- मैं क्या कर सकता हूं. मुख्यमंत्री के पोर्टिको के पास मुक्तिबोध घण्टे-भर खड़े रहे. वह बंगले से निकला तो ये बात करने बढ़े. बात शुरू ही की थी कि बोला- उसमें अब कुछ नहीं हो सकता. इन्होंने कहा- पर आप मेरी बात को सुन लीजिए. वह बोला- मेरे पास इतना वक्त नहीं है. मुझे जरूरी काम है.

अपनी तरफ बढ़ती हुई मृत्यु को जो साफ देख रहा था, उसकी जिंदगी की जकड़ कम नहीं हुई थी. यह किसी भी तरह जीवन से अटके रहने का घटिया मोह नहीं था

जबलपुर लौटे तो बहुत टूटे हुए और बहुत क्रोधित. वह आदमी चट्टान जैसा था. लेकिन इस घटना ने उनके भीतर भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी. वे बेहद उत्तेजित थे. इस प्रतिबंध से उनकी अपार क्षति हुई. यदि पुस्तक चलती, तो उन्हें इतनी रायल्टी मिलती कि सारा संकट खत्म हो जाता. व्यक्तिगत क्षति का आघात तो था ही. पर इस पूरे काण्ड को व्यापक राजनीतिक संदर्भ में देखकर वे बहुत त्रस्त थे. कहते थे- यह नंगा फासिज्म है. लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें, इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जा रही है. गला दबाकर आवाज घोंटी जा रही है.

‘अंधेरे में’ कविता का यही रचनाकाल है. उन दिनों मुक्तिबोध बहुत आशंकाग्रस्त थे. छोटी-से-छोटी बात उन्हें विचलित कर देती थी. चाबी जिस जेब में रखी होने की उन्हें याद थी, अगर उस जेब में नहीं है तो वे ऐसे सशंकित हो उठते थे, जैसे कोई बड़ा षडयंत्र उन्हें घेर रहा है. उन दिनों वे बहुत उत्तेजित होकर घण्टों बहुत जोर से बोलते रहते थे. गले की नसें तनी हुई साफ दिखती थीं. कनपटी लौकती थी, दम भर आता था और वे डबल स्ट्रॉन्ग चाय की मांग करते थे.

अंतिम बीमारी के महीने-भर पहले वे जबलपुर आए थे. हाथ और पांव में एक्जिमा था. पांवों को धोकर नीम की पट्टी करते. बहुत दुर्बल हो गए थे. बहुत परेशान थे. पर शारीरिक और आर्थिक कष्ट की बात लगभग नहीं करते थे. रात को उन्होंने हम लोगों को ‘अंधेरे में’ कविता सुनायी थी. डेढ़ घण्टे के पाठ के बाद वे शिथिल होकर बिस्तर पर लुढ़क गए थे. हम लोगों ने उन्हें थोड़ी ब्राण्डी देकर सुला दिया था. सुबह बोले- पार्टनर, दवा बहुत अच्छी थी.

महीने-भर बाद ही उन्हें पक्षाघात हो गया. आदमी यह सोचने को मजबूर है कि अगर ऐसा हो गया होता, तो वैसा नहीं होता. बहुत-से मित्र यहां सोचते हैं, अगर वे तभी जबलपुर रुक गए होते तो बीमारी न बढ़ती. यहां मेडिकल कॉलेज में उन्हें कुछ दिनों के लिए भरती करा देने का हम लोगों ने तय किया था. पर उन्हें बीमार पिताजी से मिलने नागपुर जाना था. वे कह गए थे कि महीने-भर में मैं लौटकर आता हूं और कुछ दिन रहकर यहीं आराम करूंगा और इलाज करूंगा. पर महीने-बाद उन्हें पक्षाघात हो गया. दिल्ली से जब मैं चल ही रहा था कि श्रीकान्त के नाम उनके पत्र से यह खबर मिली.

मुक्तिबोध अपनी बीमारी की भयंकरता जानते थे. वे जानते थे कि यह बीमारी प्राणांत भी कर सकती है. शारीरिक कष्ट उन्हें बहुत था. छोटे-छोटे बच्चों के भविष्य की चिंता भी थी. रात कराहते बीतती थी. भोपाल के मित्र रात-भर कमरे के बाहर बरामदे में बैठे आई ग (ओ मां) और अग (पत्नी को बुलाने के लिए) सुना करते थे. पर मुक्तिबोध का उत्साह कम नहीं हुआ था. वे टूटे नहीं थे. संज्ञाहीन होने के पहले तक वे बीमारी की शिकायत लगभग नहीं करते थे. वे साहित्य और राजनीति की बातें करते थे. खूब उत्साह से बोलते थे. कभी हम उन्हें स्वास्थ्य के बारे में झूठा भरोसा दिलाते तो वे पलकें नीची करके कहते- हां, पार्टनर, ठीक तो हो ही जाएंगे. उनके भाव से हम समझने लगे थे कि यह आदमी जानता है कि ये लोग मुझे दिलासा दे रहे हैं. वे संकेत से बता देते थे कि मैं सब जानता हूं. मुझे क्यों बहलाते हो!

अपनी तरफ बढ़ती हुई मृत्यु को जो साफ देख रहा था, उसकी जिन्दगी की जकड़ कम नहीं हुई थी. यह किसी भी तरह जीवन से अटके रहने का घटिया मोह नहीं था. सिगरेट और चाय के लिए अलबत्ता वे बाल-हठ-जैसा करते थे. बाकी अपने बारे में कुछ नहीं. नेहरू जी की तबीयत कैसी है? देश की राजनीति किस ओर से गुजर रही है? साहित्य में इन दिनों क्या चला हुआ है? यही सब बातें वे करते थे. पीड़ा होती तो कराह देकर वे फिर वैसे ही नॉर्मल हो जाते थे.

बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध निश्चित जीत गए थे. बीमारी ने उन्हें मार दिया, पर तोड़ नहीं सकी. मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा. जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे.

वे मरे. हारे नहीं. मरना कोई हार नहीं होती.

दोस्ती – मर्मस्पर्शी भावनाओं की कामयाबी

Dosti

रामनाथ अपनी मां के साथ रहता है. कंपनी की नौकरी करते हुए उसके पिता की मौत हो जाती है. मां और बेटे को उम्मीद है कि कंपनी से मदद मिलेगी. वे लोग गरीबी में जिंदगी बसर करते हैं. मां को दिल की बीमारी है. रामनाथ प्रतिभाशाली लड़का है. पढ़ाई और खेलकूद में आगे रहता है. कंपनी से मदद न मिलने की जानकारी होने पर मां सदमे में सीढ़ी से लुढ़क जाती है. मां को बचाने की फिक्र में भागता रामनाथ एक गाड़ी से टकरा जाता है. उसकी टांग में चोट आती है और वह पैर से अपाहिज हो जाता है. अस्पताल से निकलने पर उसे अपने किराए के घर में ताला लगा दिखता है. मां गुजर चुकी है. वह अनाथ सड़क पर भटकता है. उसकी मुलाकात मोहन से होती है. मोहन अंधा है. वह अपनी दीदी मीना की खोज में गांव से आया है. दोनों एक-दूसरे का सहारा बन जाते हैं.

आम तौर पर हिंदी फिल्मों में अनाथ बच्चों को भीख मांगते या फिर अपराधियों के हत्थे चढ़ते दिखा दिया जाता है.  लेकिन इस कहानी में वे मेहनत की राह चुनते हैं

‘दोस्ती’ एक अपाहिज और एक अंधे लड़के की दोस्ती, त्याग और समर्पण की भावपूर्ण कहानी है. एक-दूसरे के प्रति प्रेम और लगाव से वे जीवन की कठिनाइयों को पार करते हैं. उनके इस संघर्ष में पड़ोसी, शिक्षक और अन्य लोग सहायक बनते हैं. नैतिकता और आदर्श से भरपूर दोस्ती की इस कहानी में दुख और पीड़ा के साथ प्रेम, सुख और सहयोग भी है. फिल्म के अन्य किरदारों की बात करें, तो मंजुला, मंजुला के भाई, मोहन की बहन मीना, शिक्षक शर्मा जी, हेड मास्टर, मोहल्ले की मौसी, नंदू और कुत्ता टफी इन दोनों मुख्य किरदारों के कार्य-व्यापार में सहयोगी की भूमिका निभाते हैं. फिल्म में कोई खलनायक नहीं है. रामनाथ को स्कूल में तंग करते बच्चों को खल नहीं कहा जा सकता, वे उद्दंड हैं.

रामनाथ और मोहन परिस्थितियों की वजह से अनाथ हो गए हैं. आम तौर पर हिंदी फिल्मों में अनाथ बच्चों को भीख मांगते या फिर अपराधियों के हत्थे चढ़ते दिखा दिया जाता है. वे या तो अभावों में असहाय जिंदगी जीते हैं या फिर अपराध की दुनिया में शामिल हो जाते हैं. बाण भट्ट की लिखी इस कहानी में अपाहिज और अंधा होने के बावजूद रामनाथ और मोहन भटकाव के शिकार नहीं होते. वे मेहनत की राह चुनते हैं. आरंभ से ही वे स्वावलंबी होने की कोशिश करते हैं. फिल्म के एक शुरुआती दृश्य में रामनाथ बेसुध होकर माउथ ऑर्गन बजाता है, तो एक मुसाफिर उसकी जेब में सिक्का डाल जाता है. रामनाथ इसे भीख समझकर खीझता है, तो मोहन उसे समझाता है कि तूने मांगा नहीं है. तुम्हारे संगीत से खुश होकर किसी ने कुछ दिया, तो उसे भीख नहीं कहेंगे. फिल्म में ऐसी घटनाएं घटती हैं कि रामनाथ फिर से स्कूल में दाखिला लेना चाहता है. उसे 50-60 रुपयों की जरूरत है और कहीं से मदद नहीं मिल पाती, तो रामनाथ और मोहन मिलकर पैसे जुटाने की कोशिश करते हैं. इसके लिए वे गाने की मदद लेते हैं और उनके गीत में आह्वान है,

‘जानेवालों जरा, मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूं, मैं तुम्हारी तरह
जिसने सबको रचा, अपने ही रूप से, उसकी पहचान हूं, मैं तुम्हारी तरह’

‘दोस्ती’ 1964 में रिलीज हुई थी. उस साल राज कपूर की ‘संगम’, मोहन कुमार की ‘आई मिलन की बेला’, शक्ति सामंत की ‘कश्मीर की कली’, चेतन आनंद की ‘हकीकत’ और राज खोसला की ‘वो कौन थी’ जैसी बड़ी फिल्में रिलीज हुई थीं. ये हिट भी हुई थीं. इन फिल्मों में उस समय के लोकप्रिय सितारे थे. आज की तरह तब भी फिल्में सितारों और गीत-संगीत की वजह से चलती थीं. गौर करें तो उन दिनों प्रचलित राज कपूर, शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, विश्वजीत, जॉय मुखर्जी और किशोर कुमार जैसे लोकप्रिय सितारों के बीच बिल्कुल नए कलाकारों के साथ फिल्म बनाने की हिम्मत राजश्री प्रोडक्शंस के ताराचंद बड़जात्या ही कर सकते थे.

संगीतकारों में उन दिनों मदन मोहन, शंकर-जयकिशन और ओपी नैय्यर जैसे दिग्गजों के संगीत का जादू चल रहा था. याद करें तो ‘दोस्ती’ लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की पहली फिल्म थी, हालांकि इस जोड़ी की दूसरी फिल्म ‘पारसमणि’ कुछ कारणों से पहले रिलीज हो गई. ‘दोस्ती’ में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को अपने प्रिय गायकों मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर का भरपूर सहयोग मिला. कहते हैं, मोहम्मद रफी को जब पता चला कि इस फिल्म में उन्हें दो किशोरों के लिए अपनी आवाज देनी है, तो वे पसोपेश में पड़ गए. दिलीप कुमार, देव आनंद और शम्मी कपूर के लिए वह अपनी आवाज में फेरबदल कर लेते थे, लेकिन कम उम्र के सुशील कुमार और सुधीर कुमार के लिए सही आवाज लाने के लिए उन्हें अभ्यास करना पड़ा. ‘दोस्ती’ के गीतों को सुनते समय यह बिल्कुल एहसास नहीं होता कि यह वही मोहम्मद रफी हैं, जो दिलीप कुमार, देव आनंद और शम्मी कपूर की आवाज हैं.

इस फिल्म का एक और रोचक वाकया है. इस फिल्म में गीतों के अलावा अन्य जगहों पर भी माउथ आर्गन का इस्तेमाल हुआ है. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने माउथ आर्गन बजाने के लिए आरडी बर्मन को बुलाया था. उन दोनों से अपनी दोस्ती निभाते हुए आरडी ने इस फिल्म के लिए माउथ आर्गन बजाया और क्या खूब बजाया. मुश्किल धुनों पर रची गई माउथ आर्गन की स्वर लहरी में गहरी और लंबी सांसों का इस्तेमाल किया गया. जब भी माउथ आर्गन प्रेमी इन धुनों को बजाने की कोशिश करते हैं, तो उनकी सांसें उखड़ने लगती हैं.

साल 1964 के लिए फिल्मफेयर के पुरस्कारों की संगीत श्रेणी में ‘दोस्ती’ के साथ ‘संगम’ और ‘वो कौन थी’ भी नामांकित थीं, लेकिन ‘संगम’ के संगीतकार शंकर-जयकिशन और ‘वो कौन थी’ के संगीतकार मदन मोहन के मुकाबले लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार के लायक समझा गया. इस फिल्म में गाए गाने ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे’ के लिए मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मिला था. दरअसल ‘दोस्ती’ को कुल मिलाकर छह फिल्मफेयर पुरस्कार मिले थे.

‘दोस्ती’ के गाने सभी की जुबान पर चढ़ गए थे. इसकी वजह यह थी कि इसके संगीत की ही तरह फिल्म की थीम के अनुरूप लिखे गए इसके गीतों ने भी काफी असर डाला था. इसके लिए मजरूह सुल्तानपुरी को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के सभी गीत लोकप्रिय हुए- ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे’, ‘मेरा तो जो भी कदम है’, ‘कोई जब राह न पाए’, ‘जानेवालों जरा मुड़ के देखो मुझे’, ‘राही मनवा दुख की चिंता’ और ‘गुड़िया हमसे रूठी रहोगी’.

बड़जात्या को बाण भट्ट की कहानी पर पूरा भरोसा था. इसके अलावा गोविंद मुनीस ने फिल्म के अर्थपूर्ण और मार्मिक संवाद लिखे थे. बानगी देखें- ‘रोने से क्या होगा? इस दुनिया में गरीबों का जीना मुश्किल है’, ‘गरीब घर में जन्म लिया है, तो तुझे हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा’, ‘आंखों में रोशनी नहीं, पानी तो है’, ‘क्या आदमी की पहचान कपड़े-लत्ते से ही होती है’, ‘अच्छा कपड़ा पहनने से कोई बड़ा नहीं होता. अच्छे गुण होने चाहिए.’ इसके अलावा गोविंद के संवादों में नेहरू युग की नैतिकता और आजादी के बाद के समाज का सपना भी है. फिल्म के एक दृश्य में मोहन से रामनाथ पूछता है, ‘कुछ देशों में मुफ्त शिक्षा है, अपने देश में कब होगी?’

इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद इसके बाद सुशील कुमार और सुधीर कुमार की फिल्में नहीं आईं. इस फिल्म से लॉन्च हुए संजय खान बाद में लोकप्रिय हुए

बड़जात्या ने इस फिल्म के  निर्देशन के लिए ‘जागृति’ के निर्देशक सत्येन बोस को आमंत्रित किया था, जिन्होंने इस फिल्म की सादगी और सरलता बरकरार रखी. फिल्म के दृश्य संयोजन और संरचना में अधिक नाटकीयता नहीं है. बोस ने अभिनय में भी कलाकारों को सहज रखा. फिल्म के मेलोड्रामैटिक सीन लाउड नहीं हैं. अनेक दृश्यों में इमोशंस की सघनता से हृदय द्रवित होता है. बोस ने फिल्म के अहम किरदारों को कमजोर नहीं रखा. वे सहानुभूति नहीं चाहते. दोनों ही अपनी मेहनत और लगन से सब कुछ हासिल करने की कोशिश करते हैं. दोनों ही किरदार नेक हैं. यहां तक कि जब रामनाथ हाजत से छूटने पर गुरुजी के साथ चला जाता है, तब भी मोहन के मन में दुर्भावना नहीं आती. जब उसे पता चलता है कि रामनाथ को परीक्षा में बैठने के लिए पैसों की जरूरत है, तब वह पैसों का इंतजाम कर देता है. जब फिल्म के अंतिम दृश्य में दोनों मिलते हैं, तब भी वे एक-दूसरे से शिकायत करना और एक-दूसरे को सफाई देना जरूरी नहीं समझते.

आश्चर्य की बात है कि इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद इसके बाद सुशील कुमार और सुधीर कुमार की फिल्में नहीं आईं. इस फिल्म से लॉन्च हुए अब्बास खान उर्फ संजय खान बाद में लोकप्रिय हुए, जबकि इसमें उनकी छोटी भूमिका थी. फिल्म के अन्य कलाकारों में बेबी फरीदा अभी तक सक्रिय हैं. वह टीवी पर फरीदा दादी के नाम से दिखती हैं. बीच में अफवाह उड़ी थी कि सुशील कुमार और सुधीर कुमार की हत्या हो गई थी और उस हत्या में किसी बड़े सितारे का हाथ था. लेकिन मशहूर रेडियो प्रोग्राम ‘सुहाना सफर’ की रिसर्च टीम से जुड़े विजय दुबे ने सुशील कुमार को खोज निकाला. सुशील कुमार अभी मुंबई के चेंबूर इलाके में अपनी पत्नी के साथ रहते हैं.

विजय दुबे को सुशील कुमार ने बताया कि उन्होंने बाल कलाकार के तौर पर अभिनय की शुरुआत की थी. 1958 में सिंधी भाषा में बनी ‘अबाना’ उनकी पहली फिल्म थी. वह मशहूर अदाकारा साधना की भी पहली फिल्म थी. बाल कलाकार के तौर पर सुशील कुमार ने अनेक फिल्मों में काम किया था.

जब बड़जात्या ने 1959 में रिलीज हुई बांग्ला फिल्म ‘लालु-भुलु’ को हिंदी में बनाने का फैसला किया, तो उन्हें 17-18 साल के दो ऐसे लड़कों की जरूरत थी, जो रामनाथ और मोहन का किरदार निभा सकें. कहते हैं कि बडज़ात्या की बेटी राजश्री ने सुशील कुमार को ‘फूल बने अंगारे’ में देखा था. सुशील के काम से प्रभावित राजश्री ने ही अपने पिता को उनका नाम सुझाया. इसके बाद फिल्म के निर्देशक बोस ने श्री साउंड स्टूडियो में उनका स्क्रीन टेस्ट लिया था. फिर सुधीर कुमार को अंधे मोहन और सुशील कुमार को अपाहिज रामनाथ की भूमिकाओं के लिए चुना लिया गया. उनके साथ तीन सालों का अनुबंध किया गया और तनख्वाह 300 रुपये तय हुई.

सुशील कुमार ने विजय दुबे को असल किस्सा बताया कि ‘दोस्ती’ के बाद उन दोनों को फिल्में क्यों नहीं मिल सकीं. दरअसल सुधीर कुमार ने राजश्री प्रोडक्शंस का अनुबंध तोड़ दिया और एवीएम की फिल्म ‘लाडला’ करने मद्रास चले गए थे. बड़जात्या ने सुशील और सुधीर से वादा किया था कि वह उन दोनों के साथ अगली फिल्म भी बनाएंगे, लेकिन सुधीर कुमार के अनुबंध तोड़ने की वजह से सुशील कुमार का अनुबंध भी समाप्त हो गया. बाद में 1968 में आई ‘तकदीर’ में बड़जात्या ने फिर सुशील कुमार को मौका दिया, लेकिन तब तक फिल्म इंडस्ट्री से निराश सुशील ने तय कर लिया था कि वह आगे फिल्मों में काम नहीं करेंगे. उन्होंने पढ़ाई खत्म करने के बाद एयर इंडिया में नौकरी कर ली.

सुधीर कुमार ने हिंदी और मराठी की कुछ फिल्मों में काम करने के बाद अभिनय से सन्यास ले लिया. चूंकि फिल्मों के ऑफर नहीं मिल रहे थे, इसलिए छोटी-मोटी भूमिकाएं करने के बजाय उन्होंने सन्यास लेना ही बेहतर समझा. साल 2004 में सुशील को ‘दोस्ती’ के अपने दोस्त सुधीर की मौत की खबर मिली.

‘दोस्ती’ सरल भावनाओं पर आधारित आदर्श फिल्म थी. आजादी के बाद के सपने और सवाल इस फिल्म में मुखर हुए थे. लोगों के शहरों में पलायन और कर्मचारियों के प्रति कंपनियों की बेपरवाही के संकेत भी इस फिल्म में मिलते हैं. भाई को देखने के बाद भी उसकी पहचान से इन्कार करती बहन मीना की दुविधा भी समझ में आती है. वह मंजुला के अमीर भाई की नजरों में छोटा होने से बचना चाहती है. भला वह किसी भिखमंगे की बहन कैसे  हो सकती है. बाद में भाई को न पहचानने का दुख उसे कचोटता है, तो वह बिलख पड़ती है. बाद में हम देखते हैं कि अभी तक गरीब और भिखमंगा समझकर रामनाथ और मोहन को दुत्कारने वाले किरदार अशोक का मन बदल चुका है. शायद बीमारी की वजह से गुजर चुकी अपनी बहन के मर्म को समझने के बाद वह पश्चाताप करता है. फिल्म में ऐसे आदर्श के अनेकों दृश्य हैं. ‘दोस्ती’ की कामयाबी की वजह इसमें दिखाई गई ऐसी कोमल भावनाएं तो हैं ही, इनके अलावा इसके भावपूर्ण गीतों और मधुर संगीत ने इसे लोकप्रियता की नई बुलंदियों तक पहुंचाया.

(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं)

जवाहरलाल नेहरू: 125 सवालों के घेरे में

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गुलाम भारत के अंतिम वाइसरॉय अौर स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने अपने प्रिय मित्र, ब्रितानी साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी अौर अपनी पत्नी एडविना के गहरे अनुरागी जवाहरलाल नेहरू के बारे में, उनकी मृत्यु के बाद जो लिखा, जवाहरलाल का उससे बेहतर मूल्यांकन शायद ही किसी ने किया होगा, ‘अगर जवाहरलाल की मृत्यु 1947 में हो जाती तो वे इतिहास के महानतम नायकों की कतार में रखे जाते, अब वे दुनिया के महान राजनेताअों की श्रेणी में रखे जाएंगे!’

ऐसा ही कुछ कभी उनके भाई समान रहे, कभी के उनके अनन्य प्रशंसक अौर कभी के उनके अनन्यतम राजनीतिक विरोधी लोकनायक जयप्रकाश ने भी कहा था, ‘हमें एक साथ दो जवाहरलाल को देखना, समझना व सीखना होगा – 1947 से पहलेवाले अौर 1947 के बादवाले!’ अाजाद भारत में अमेरिका के राजदूत बनकर अाए चेस्टर बाउल्स ने 15 अगस्त, 1947 के बाद लिखा, ‘अब दुनिया गांधी को इतिहास का नायक (हीरो अॉफ द पास्ट) अौर जवाहरलाल को भविष्य की अाशा (होप अॉफ द फ्यूचर) की नजर से देखेगी.  ऐसे कितने ही, कम से कम 125, उद्गारों से हम उन जवाहरलाल को याद कर सकते हैं जिनकी 125वीं जयंती का यह वर्ष है अौर जिसे लेकर सब तरफ यह बहस चल पड़ी है कि जवाहरलाल ने ऐसा क्या किया कि वे 125 साल जी सके. उन पर अारोपों के भी कम से कम 125 तीर तो चलाए ही जा सकते हैं. अगर उपलब्धियों अौर विफलताअों के 125 तीर दोनों अोर से चलाए जा रहे हैं, तो इस जवाहरलाल में कुछ खास तो जरूर था. कोई 50 वर्ष पहले ही मर चुका यह अादमी अगर अाज भी इस कदर जिंदा है, तो यह मानना ही होगा कि यह कोई साधारण अादमी नहीं था. अाज हम उस दौर में जवाहरलाल को याद कर रहे हैं जिस दौर में लोग-बाग जनता के पैसों से टूटी हुई सड़क या पुलिया भी ठीक करवाते हैं, तो उस पर यह बोर्ड लगवाना नहीं भूलते कि यह हमारी सांसद निधि से बनाया गया है, जहां लोग नकली लालकिला बनवाकर, उस पर चढ़कर खुद को प्रधानमंत्री घोषित कर देते हैं अौर फिर अपनी ही पार्टी का गला दबोचकर उससे चूं करवा लेते हैं! इस मोड़ से देखता हूं, तो जवाहरलाल दो अंगुल अौर बड़े नजर अाते हैं. उनके नाम की तख्ती इतिहास ने ही टांग रखी है.

जवाहरलाल संत, साधक, क्रांतिकारी या प्रशासक में से कुछ भी नहीं थे, लेकिन इतिहास ने उन पर ये सारी भूमिकाएं थोप दीं और दूसरों की अपेक्षा उन्होंने बेहद सफलता से इनका निर्वाह किया

जवाहरलाल की सबसे बड़ी खुशकिस्मती यह हुई कि वे उस युग में पैदा हुए जो एकाधिक अर्थों में गांधी-युग था, अौर यही उनका दुर्भाग्य भी बना. गांधी ने उनके भीतर छुपे उन गुणों को पहचाना, जिनके बारे में खुद जवाहरलाल को ही पता नहीं था. उन्हें तराशा-चमकाया अौर फिर वक्त की भट्ठी में झोंक दिया. फिर गांधी ने उनकी ऐसी कसौटी करनी शुरू कर दी कि जवाहरलाल का दम फूल गया. गांधी ने अपने समेत सबके साथ ऐसा ही किया, अौर इसलिए अाश्चर्य नहीं कि उस दौर के सारे गुलिवर अाज की कसौटी पर लिलिपुटियन नजर अाते हैं. जवाहरलाल को गांधी न मिले होते तो वे किसी भी सूरत में हिंद के जवाहरलाल तो न बने होते, शायद प्रधानमंत्री भी नहीं. लेकिन हम ऐसा कहें, तो उसी सांस में यह भी कहना होगा कि गांधी नहीं होते तो जिन्ना भी अौर सरदार भी अौर राजेन्द्र बाबू, मौलाना अौर राजाजी अौर जयप्रकाश नारायण अौर विनोबा भावे भी वो नहीं होते जो वे बने अौर अाज जहां वे हैं. यह तो उस गांधी का विभूतिमत्व ही था कि उसने कविगुरु रवींद्र अौर बाबा साहेब अंबेडकर अौर ठक्करबापा जैसों को एक ही दरी पर ला बिठाया अौर सबने इसमें धन्यता का अनुभव किया. इसलिए अाज हम गांधी को किनारे रखकर, केवल जवाहरलाल की बात करेंगे.

महात्मा गांधी ने जिस देश की कमान जवाहरलाल को सौंपी थी, वह देश अभी-अभी खून की नदियां पारकर, अाजादी के किनारे लगा था अौर इस जद्दोजहद में इसका एक हिस्सा वक्त के समंदर में टूटकर किसी दूसरे किनारे जा लगा था- पाकिस्तान ! वह अलग ही नहीं हुअा था, इस हिंदुस्तान में से दूसरा भी जो हड़पा जा सके, उसे हड़पने की कोशिश में लगा था.  इधर जो हिंदुस्तान जवाहरलाल के हाथ अाया था, उसके मुंह में भी खून लग चुका था. वह तन से भले ही एक दीखता था, मन से एक नहीं था अौर एक-दूसरे के प्रति गहरी हिकारत से भरा था. गरीबी अौर अशिक्षा अौर कुशिक्षा अौर जहालत अौर अालस्य ऐसा था जो अाप ही प्रतिमान बन गया था. धार्मिकता का कहीं पता नहीं था, धर्मांधता का बोलबाला था. भौतिक विकास की गहरी भूख थी, लेकिन भौतिक विकास का कोई ढांचा नहीं था. बाहरी अौर भीतरी खतरों से घिरे इस मुल्क के हर कोने से एक ही अावाज उठती थी कि उसे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फौज-पुलिस चाहिए अौर देश के पास राजधानी दिल्ली को बचाने के लिए भी बहुत अपर्याप्त अौर अकुशल फौज-पुलिस थी. अौर ऐसे में जो देश का सबसे बड़ा अौर वर्षों का जांचा-परखा रहनुमा था, हमने उसकी हत्या कर डाली थी. देश ऐसी ही हालत में था तब, जैसे वक्त के समंदर में बिना पतवार की नाव. जवाहरलाल ने ऐसा देश संभालने की नहीं सोची थी. लेकिन जैसा भी िमला, उसे संभालने अौर बचाने की कोशिश में वे पहले क्षण से अंतिम क्षण तक जुटे रहे.

जवाहरलाल संत, साधक, विचारक, क्रांतिकारी या दुर्धर्ष प्रशासक में से कुछ भी नहीं थे लेकिन इतिहास ने उन पर ये सारी भूमिकाएं थोप दीं अौर वे उस दौर के दूसरे नायकों की अपेक्षा इनके निर्वाह में न केवल बहादुरी से लगे रहे, बल्कि एक प्रतिमान भी बना गये. वे इतिहास की गहरी समझ रखनेवाले, उत्साह व ऊर्जा से भरपूर मोहक व्यक्तित्व के धनी थे. कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें वैसे ही ‘ऋतुराज’ या गांधी ने ‘हिंद का जवाहर’ नहीं कहा था. वे सच में ऐसे ही थे. अपने इस व्यक्तित्व के कारण, अाजादी की लड़ाई के अग्रणी सिपाही की राष्ट्रीय पहचान अौर इतिहास की बारीकियों को पहचानने के कारण वे इस डगमागते देश में अाशा का संचार कर सके, इसका भौगोलिक ढांचा बनाने व मजबूत करने का काम कर सके अौर दुनिया के सामने इसके भूत, वर्तमान व भविष्य का मोहक व चुनौतीपूर्ण नक्शा रख सके. उन्होंने देश को मजबूत व स्थिर करने के दो सबसे महत्वपूर्ण तत्व को पहचाना – संसदीय लोकतंत्र की नींव मजबूत की जाए अौर देश को अार्थिक निर्भर बनाया जाए. सवाल था कि कैसे हो यह काम? इन दोनों के बारे में एक काल्पनिक तस्वीर थी, महात्मा गांधी की दी हुई, जिसे उनकी बुद्धि स्वीकारती नहीं थी. गांधी से अलग समाज का कोई नया ढांचा बना सकने की बौद्धिक क्षमता उनमें नहीं थी. उनके सामने अपेक्षाकृत अासान व बुद्धिगम्य रास्ता था कि वे रूस का साम्यवादी या अमरीका का पूंजीवादी ढांचा अपनाएं. लेकिन गांधी से मिली दृष्टि उन्हें इसकी कमियों-कमजोरियों के प्रति सावधान करती थी. उन्होंने एक तीसरा रास्ता खोजा- हम इन दोनों मॉडलों के अच्छे-अच्छे तत्वों को लेकर अपने भारत का स्वरूप गढ़ें. क्या इसमें कोई गलती थी?

जिस संविधान सभा में देश की सारी अाला प्रतिभाएं लंबे समय तक दिमाग जोड़ कर बैठीं – राजेंद्र प्रसाद से लेकर डॉक्टर अंबेडकर तक – वह भी वही संविधान बना सकी न जिसमें दुनिया के प्रचलित संविधानों से ले-लेकर प्रावधान जोड़े गये थे. हम कह सकते हैं कि एक अच्छी-सुंदर टेपेस्ट्री है हमारा संविधान. उसमें हिंदुस्तान की अपने जीनियस की, लंबी अार्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परंपरा व अनुभव की कोई झलक मिलती नहीं है, क्योंकि वह काम बहुत मौलिकता व दृढ़ता की मांग करता है. हम अपनी फिल्मों का संदर्भ लें तो बात समझना अासान होगा. अधिकांश भारतीय फिल्में कैसे बनती हैं? किसी विदेशी फिल्म की हम नकल मारते हैं अौर अपनी-अपनी समझ से उसका भारतीयकरण कर लेते हैं. हमारा संविधान भी अौर हमारा सारा राजनीतिक दर्शन भी ऐसी ही मानसिकता से बना है.

उन्होंने देश को मजबूत व स्थिर करने के दो सबसे महत्वपूर्ण तत्व को  पहचाना – संसदीय लोकतंत्र की नींव मजबूत की जाए अौर देश को आर्थिक निर्भर बनाया जाए

संविधान बन गया, तब किसी ने ध्यान खींचा कि इसमें कहीं भी भारतीय सामाजिक परंपरा, ग्रामीण संस्कृति अौर ग्रामस्वराज्य की गांधी की परिकल्पना का तो जिक्र भी नहीं अाया. हवा में यह सनसनी तो थी ही कि बूढ़े गांधी को संविधान निर्माण की यह पूरी कसरत ही व्यर्थ की लग रही है, वे इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं कर रहे हैं. ऐसे में अगर वे देखेंगे कि इस संविधान से बनने व चलनेवाला राज्य उन मूल्यों के बारे में अपनी कोई प्रतिबद्धता जाहिर ही नहीं करता है जिसका वादा अाजादी की लड़ाई के दौरान गांधी के साथ सबने देश से किया था, तो क्या होगा? सभी जानते थे कि इस संविधान की नैतिक बुनियाद ही धसक जाएगी अौर यह खोटा सिक्का भर रह जाएगा. यदि इस पागल बूढ़े ने इसके बारे में कोई नकारात्मक टिप्पणी कर दी, तो राजेंद्र प्रसाद की नींद हराम हुई. डॉक्टर अंबेडकर गांधी के रवैये को लेकर ज्यादा संवेदनशील नहीं थे, लेकिन एक रास्ता निकाला गया अौर गांधी की वह सारी खब्त थोक के भाव से संविधान के एक नये बेशकीमती अध्याय में डाल दी गई अौर उसे राज्य के नीति-निर्देशक तत्व का नाम दिया गया. खाना-पूर्ति का यह अध्याय ही कहीं गले की फांस न बन जाए, इसका खतरा भांप कर, इसके अंत में यह पंक्ति भी जोड़ दी गई कि राज्य इनकी पूर्ति की दिशा में तो काम करेगा, लेकिन इसके अाधार पर उसे किसी अदालत में अपराधी बनाकर खड़ा नहीं किया जा सकता है. यह पूरा प्रसंग यह समझने में सहायक होगा कि सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही नहीं, देश का तब का पूरा नेतृत्व यह बुनियादी बात समझ नहीं सका था कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर सड़कें-इमारतें तो शायद बन भी जाएं, मुल्क नहीं बनते हैं. इसलिए नेहरू के नेतृत्व में भारतीय समाज के विकास की कहानी बहुत अाधी-अधूरी अौर जयप्रकाश नारायण के शब्दों में बेहद नकली बनी. लेकिन कौन था कि जिसके पास तब कोई दूसरा प्रतिमान था?

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद सैकड़ों कमरोंवाले उसी वाइसरॉय भवन में अाराम से अवस्थित हो रहे थे, जिसे गांधी तुरंत ही सार्वजनिक अस्पताल में बदल देना चाहते थे. सरदार पटेल अंग्रेजों की बनाई अौर छोड़ी उसी नौकरशाही से वही सब काम करवाने में जी-जान से जुटे थे जिसे गांधी ने देश के लिए अनुपयोगी व घातक साबित कर दिया था. मौलाना अाजाद शिक्षामंत्री की अारामदेह कुर्सी पर अात्ममुग्ध बैठे थे. डॉक्टर अंबेडकर सत्ता में भी भागीदारी चाहते थे अौर विपक्ष में भी अपनी जगह  सुरक्षित रखने की कसरत कर रहे थे. जयप्रकाश नारायण का समाजवादी खेमा देश की नहीं, अपनी जड़ें मजबूत करने में लगा था क्योंकि उनका समाजवाद सत्ता में अाने के बाद ही शुरू होता था. तब के सारे संघ परिवारी राष्ट्र-निर्माण की किसी भी चुनौती से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि हिंदुत्व की जड़ें सींचने में लगे थे. उनके लिए हिंदू राष्ट्र का निर्माण ही राष्ट्रनिर्माण था. देश का सारा व्यापार जगत जेआरडी टाटा के नेतृत्व में कह रहा था कि देश की सारी अार्थिक गतिविधियों का सूत्र-संचालन राज्य के हाथों में ही होना चाहिए. तब के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में एक (तब के मनमोहन सिंह) पीसी महालनोबीस हमारे पहले योजनाकार थे अौर सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रम खड़ा करने की शुरुअात उनकी पहल से ही हुई थी. राजेंद्र प्रसाद अौर सरदार पटेल ने उस अार्थिक ढांचे की जोरदार पैरवी की, जिसे हम मिश्रित अर्थतंत्र का नाम देते हैं अौर जिसका श्रेय जवाहरलाल को देते हैं. तो इन सारे प्रयासों का अच्छा-बुरा ठीकरा केवल जवाहरलाल के सर कैसे फोड़ा जा सकता है? अगर इस अर्थ में यह बात कही जा रही हो कि सबसे बड़ा सर उनका ही था, तो सबसे अधिक जिम्मेवारी भी उनकी ही है, तो इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन तब हमारा स्वर अभियोग का नहीं, अफसोस का होना चाहिए.

जवाहरलाल को देखने की एक खिड़की अौर भी है. हम भारत की अाजादी के साथ या उसके अासपास अाजाद हुए दुनिया के प्रमुख देशों की अाजादी, लोकतंत्र अौर उनके सामाजिक-अार्थिक विकास का जायजा लें. पाकिस्तान का हाल क्या रहा अौर अाज क्या है, यह लिखने की जरूरत नहीं है. तब के पाकिस्तान की जेल में बैठे फैज अहमद फैज ने लिखा था, ‘निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म की कोई न सर उठाकर चले’ अौर अाज के पाकिस्तान में घुटते अजहर रफीक लिख रहे हैं, ‘मुझको अब यह मुल्क, ये अपना घर नहीं अच्छा लगता / दहशतगर्दों का यह खौफ नगर नहीं अच्छा लगता / शहर में एक तन्जीम क्लाशननिकोव लिए फिरती है / लोगों के कंधों पर इसको सर नहीं अच्छा लगता / मैं अाजाद वतन का शहरी, कैदी अपने घर में / अब इस अरज-ए-पाक पे, सैर-अो-सफर नहीं अच्छा लगता.’ पाकिस्तान उस प्रेत से लड़ने को अभिशप्त है, जिसकी ताकत से इसका जन्म हुअा है. हर वक्त के िजन्नाअों को यह समझना ही होगा कि मुल्कों की जड़ में अाप कैसे सपनों की खाद भरते हैं, इसका निर्णायक महत्व होता है. घृणा, द्वेष, चालों-कुचालों की ताकत से सत्ता की अपनी भूख को तृप्त करने की कोशिश में बने मुल्क पाकिस्तान जैसे अंधेरे, रक्तरंजित वर्तमान अौर भविष्यहीन भविष्य से घिरे रह जाते हैं. गुलामी के हमारे दौर में ही गांधी ने अाजाद भारत के सपनों की ऐसी खाद हमारे मनों में भरी कि उसकी कसौटी पर, बाद में उगी सारी फसलें हमें कमतर नजर अाती हैं- जवाहरलाल की उपलब्धियां भी बौनी नजर अाती हैं. लेकिन गांधी के तराजू पर जवाहलाल को तौलना न्याय नहीं है क्योंकि यह अादमी इस तराजू से हरदम इंकार ही करता अाया था.  हम सोचें तो यह कि गांधी अगर हुए ही नहीं होते अौर हमारे पास विकास का एक ही मानक होता, जो पश्चिम से लिया हुअा है, तब जवाहरलाल की उपलब्धियां कैसी नजर अाती हैं?

जवाहरलाल को जैसा रक्तरंजित देश मिला था उसमें इसका टूट जाना, लोकतंत्र का चोला उतार फेंकना, दरबारियों का जमावड़ा लगना, कुछ भी अस्वाभाविक नहीं होता

तटस्थ राष्ट्रों की परिकल्पना में जवाहरलाल के साथ अा जुड़े चार सबसे कद्दावर नेताअों को देखिए – मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर, घाना के क्वामे एंक्रूमा, इंडोनेशिया के सुकर्णो अौर यूगोस्लाविया के मार्शल जोसेफ ब्रोज टीटो. 1952 में राजशाही को खत्मकर मिस्र अागे अाया अौर 1956-1970 तक नासिर उसके राष्ट्रपति रहे. एकाधिकारशाही अौर मतांतर को फौजी बूटों से कुचलना, मनमानी फौजी कार्रवाइयों से अपनी ताकत का प्रदर्शन करना – नासिर ने अपने देश को इस रास्ते पर जो तब डाला, वह अाज तक मिस्र को जकड़े हुए है. कभी ‘अफ्रीका के लेनिन’ कहे जानेवाले एंक्रूमा ने 1951-1966 के दौर में अपनी निजी सत्ता बनाए रखने के लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया जिसने राजनीतिक-अार्थिक भ्रष्टाचार का अभूतपूर्व मायाजाल रचा. अफ्रीकी दुनिया की एका के सपने का कब अंत हुअा यह तो नहीं पता चला, लेकिन घाना की बीमारी सारे अफ्रीकी देशों को ग्रस ले गई, यह तो हम देख ही सकते हैं. 1949 में सुकर्णो ने इंडोनेशिया को अपने हाथ में लिया अौर फिर वहां कभी भी राजनीतिक स्थिरता नहीं अाई- राजनीतिक व फौजी तख्तापलट, भ्रष्टाचार, परिवारवाद अौर सामाजिक अशांति की बैसाखी पर ही चलता रहा है इंडोनेशिया. टीटो 1953-1980 तक यूगोस्लाविया के राष्ट्रनेता रहे. वहां की अार्थिक संपन्नता का श्रेय उन्हें दिया जाता है, लेकिन सत्ता के इस्तेमाल के बारे में मतांतर के कारण अपने अनन्यतम सहयोगी मिलोवान जिलास को जेल में ठूंसने से जो बात शुरू हुई, वह टीटो से असहमत हर व्यक्ति की नियति ही बन गई. अपने राजनीतिक विरोधियों की कमर तोड़ते-तोड़ते टीटो ने वह माहौल रचा कि अंतत: यूगोस्लाविया ही  टूट गया. जवाहरलाल को जैसा रक्तरंजित देश मिला था, उसमें इसका टूट जाना, सांप्रदायिक दंगों की अाग में झुलसते रहना, लोकतंत्र का चोला उतार फेंकना, दरबारियों का जमावड़ा अौर राजनीतिक-अार्थिक भ्रष्टाचार का घटाटोप कुछ भी अस्वाभाविक नहीं होता. लेकिन कदम-दर-कदम यह देश अागे ही बढ़ा, मजबूत हुअा, संसदीय लोकतांत्रिक संस्थाअों व परंपराअों के प्रति हमारी मजबूत प्रतिबद्धता बनी, अार्थिक विकास व अात्मनिर्भरता के बारे में देश सचेत हुअा, तो इन सबका श्रेय हम किसे दें? गांधी द्वारा फैलाई गई चेतना का, उस दौर में बने-उभरे दूसरे प्रखर राजनीतिक नेताअों का, विनोबा-जयप्रकाश जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों की सतत जद्दोजहद का योगदान तो है ही, लेकिन जवाहरलाल को हम इस श्रेय से वंचित कर सकेंगे क्या? माअो के चीन, सिंगमन री के दक्षिण कोरिया, जिन्ना के पाकिस्तान, भंडारनायके के श्रीलंका, जनरल अांग सन के बर्मा अौर गुरियन के इजराइल से हम अपना हिंदुस्तान या अपना जवाहरलाल बदलना चाहेंगे क्या? कम से कम मैं तो नहीं, हर्गिज नहीं! इन सबने पहली चुनौती में ही लोकतंत्र को गंदे कपड़े की भांति उतार फेंका था. जवाहरलाल ने हर गंदगी को पार करते-झेलते हुए भी लोकतंत्र को एक मूल्य की तरह पकड़कर रखा.

हम यह न भूलें कि जवाहरलाल सत्ता की ताकत से समाज का कल्याण करने के प्रचलित दर्शन में विश्वास करनेवाले व्यक्ति हैं. वे सत्ता के बारे में वैसी तटस्थता कभी नहीं रखते हैं कि कोई छीन ले जाए तो ले जाए. वे संगठन व सरकार दोनों पर अपनी पूरी पकड़ रखना चाहते हैं अौर इसलिए संसदीय राजनीति की मान्य मर्यादाअों को भंग किए बिना अपने लोग चुनते भी हैं अौर उन्हें खास जगहों पर बिठाते भी हैं. उन पर तरह-तरह के अारोप लगानेवाले अधिकांश लोग वे ही हैं, जो उनकी तरह ही सत्ता से समाज का कल्याण करने के दर्शन में विश्वास करते हैं. वे सब सत्ता पाने की जितनी जुगत करते हैं, जवाहरलाल सत्ता बनाए रखने की वैसी ही जुगत करते मिलते हैं, तो हम किस अाधार पर शिकायत करें? जवाहरलाल पर खानदानी राजनीति का अारोप इसलिए कि उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को राजनीति में स्थापित किया. यह सच है, लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि इंदिरा गांधी में राजनीतिक प्रतिभा अौर नेतृत्व का कीड़ा जन्मजात ही था. एक जागरूक किशोरी की तरह उन्होंने अाजादी के अांदोलन में भी हिस्सा लिया था. उन्होंने अपने पिता की राजनीति को निकट से देखा भर ही नहीं था, बल्कि उसे संभाला भी था. अपने वैवाहिक जीवन को बहुत तवज्जो न देकर भी वे इस क्षेत्र की थाह लेती रही थीं. अपनी ऐसी बेटी की प्रतिभा को पहचानकर, पिता ने उन्हें इस समुद्र में उतरने की इजाजत दी. यह अपने बेटे या बेटी को या भाई या भतीजे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की खानदानी सियासत जैसी बात नहीं है. राजनीति को या सत्ता को अपना खानदानी पेशा बनाने वाले ये लोग भले अपनी कमजोरी या बेईमानी को छिपाने के लिए जवाहरलाल की अोट लें, लेकिन इससे उनकी नंगई छिपती नहीं है. अौर फिर यह तथ्य तो सामने है ही कि जवाहरलाल के बाद इंदिरा गांधी नहीं, लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. अचानक हुई उनकी मौत ने फिर से वह पद खोल दिया अौर सिंडिकेट ने अपना पूरा हिसाब लगाकर, इस गूंगी गुड़िया को कुर्सी पर बिठाया. यह उनकी रणनीति थी. इसमें जवाहरलाल की कोई भूमिका नहीं थी.

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हमें यह भी सोचना चाहिए कि यदि शास्त्री जी की असमय मृत्यु नहीं हुई होती और वे अगले 5-7 सालों तक प्रधानमंत्री रह जाते, तो इंदिरा गांधी कहां होतीं? फिर खानदानी राजनीति का अारोप किसके सर जाता? क्या उनके जो संघ परिवार की अनुमति या अादेश के िबना एक चपरासी भी नियुक्त नहीं करते हैं? अौर क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने यह साबित नहीं कर दिया, ये सभी राजनीति का जैसा खेल खेलने में लगे थे, अौर अाज भी लगे हैं, उस खेल की सबसे चतुर, सबसे क्रूर खिलाड़ी वे ही हैं! इंदिरा गांधी जवाहरलाल के बल पर नहीं, अपने अौर सिर्फ अपने बल पर प्रधानमंत्री बनीं अौर लंबी पारी खेलकर सिधारीं. हम उनका सकारामक या नकारात्मक जैसा भी विश्लेषण करें, इतनी ईमानदारी तो बरतें ही कि वह इंदिरा गांधी की अाड़ में जवाहरलाल पर हमला बनकर न रह जाए.

प्रधानमंत्री के रूप में, अाज 67 सालों के बाद भी वही रोल मॉडल हमारे राजनेताअों के सामने है, जिस पर खरा उतरने की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी ने भी की अौर अाज नरेंद्र मोदी भी उनकी ही नकल करते दिखाई देते हैं. गांधी तो बहुत दूर की बात है, जवाहरलाल जैसा बनना अौर उसे निभा ले जाना भी बहुत बड़ा सीना मांगता है – 56 इंच का हो कि न हो, दूसरे किसी से भी ज्यादा गहरा अौर पारदर्शी तो हो ही – अौर वैसा सीना जवाहरलाल नेहरू के पास था. हम अाज भी उसकी कमी अौर उसकी ऊष्मा महसूस करते हैं.

अादमी पूरा हुअा तो देवता हो जाएगा, है जरूरी कि उसमें कुछ कमी बाकी रहे !

(लेखक वरिष्ठ गांधीवादी चिंतक हैं)

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नियति से मुलाकात

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का यह ऐतिहासिक भाषण 14 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि को संसद भवन में दिया गया था. उनका यह भाषण ट्रिस्ट विद डेस्टिनी नाम से मशहूर है
जवाहरलाल नेहरू

कई वर्षों पहले हमने नियति से मिलने का एक वचन दिया था, अब वह समय आ गया है कि हम अपने वचन को निभाएं, पूरी तरह न सही, जहां तक संभव हो सके वहां तक ही सही. आज आधी रात के समय जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और आजादी की नई सुबह के साथ उठेगा. एक ऐसा क्षण जो इतिहास में कभी-कभार आता है. जब हम पुराने को छोड़ नए की तरफ जाते हैं, जब एक युग का अंत होता है और वर्षों से शोषित एक देश की आत्मा, अपनी बात कह सकती है. यह एक संयोग है कि इस पवित्र मौके पर हम समर्पण के साथ भारत और उसकी जनता की सेवा और उससे भी बढ़कर सारी मानवता की सेवा करने की प्रतिज्ञा ले रहे हैं.

इतिहास के आरंभ के साथ ही भारत ने एक अंतहीन खोज की दिशा में कदम बढ़ा दिया था. न जाने कितनी ही सदियां इसकी महान सफलताओं और असफलताओं से भरी हुई हैं. चाहे अच्छा वक्त हो या बुरा, भारत ने कभी इस खोज से अपनी दृष्टि नहीं हटाई और कभी भी अपने उन आदर्शों से डिगा नहीं जिसने इसे शक्ति दी. आज हम दुर्भाग्य के एक युग का अंत कर रहे हैं और भारत पुनः खुद को खोज पा रहा है. आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो महज एक मौका है, नए अवसरों के खुलने का. इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं. क्या हममें इतनी शक्ति और बुद्धिमत्ता है कि हम इस अवसर को समझें और भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करें?

भविष्य में हमें विश्राम करना या चैन से नहीं बैठना है, बल्कि निरंतर प्रयास करना है, ताकि हम जो वचन बार-बार दोहराते रहे हैं और जिसे हम आज भी दोहराएंगे उसे पूरा कर सकें. भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा करना. इसका मतलब है गरीबी और अज्ञानता को मिटाना, बीमारियों और अवसर की असमानता को मिटाना. हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की यही दिली इच्छा रही है कि हर एक आंख से आंसू मिट जाए. शायद ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों की आंखों में आंसू हैं और वे पीड़ित हैं, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा.

इसलिए हमें परिश्रम करना होगा, और कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि हम अपने सपनों को साकार कर सकें. ये सपने भारत के लिए हैं, पर साथ ही वे पूरे विश्व के लिए भी हैं. आज कोई खुद को बिलकुल अलग-थलग रखकर आगे नहीं बढ़ सकता, क्योंकि सभी राष्ट्र और लोग एक-दूसरे से बड़ी निकटता से जुड़े हुए हैं. शांति को अविभाज्य कहा गया है, इसी तरह से स्वतंत्रता भी अविभाज्य है, समृद्धि भी और विनाश भी. अब इस दुनिया को छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बांटा जा सकता है. हमें स्वतंत्र भारत का निर्माण करना है, जहां उसके सारे बच्चे रह सकें.

आज वह समय आ गया है, एक ऐसा दिन जिसे नियति ने तय किया था-और एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र खड़ा है. कुछ हद तक अभी भी हमारा अतीत हमसे चिपका हुआ है, और हम अक्सर जो वचन देते रहे हैं, उसे निभाने से पहले बहुत कुछ करना है. फिर भी निर्णायक बिंदु बीते वक्त की बात हो चुका है, और हमारे लिए एक नया इतिहास आरंभ हो चुका है, एक ऐसा इतिहास जिसे हम गढ़ेंगे और जिसके बारे में और लोग लिखेंगे.

यह हमारे लिए सौभाग्य का क्षण है, एक नए तारे का उदय हुआ है, पूरब में स्वतंत्रता के सितारे का उदय. एक नई आशा का जन्म हुआ है, एक दूरदृष्टि अस्तित्व में आई है. काश ये तारा कभी अस्त न हो और ये आशा कभी धूमिल न हो! हम सदा इस स्वतंत्रता में आनंदित रहें. भविष्य हमें बुला रहा है. हमें किधर जाना चाहिए और हमारे क्या प्रयास होने चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और कामगारों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम गरीबी, अज्ञानता और बीमारियों से लड़ सकें, हम एक समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील देश का निर्माण कर सकें और हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना कर सकें, जो हर एक आदमी-औरत के लिए जीवन की संपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सकें?

हमें कठिन परिश्रम करना होगा. हम में से कोई भी तब तक चैन से नहीं बैठ सकता है, जब तक हम अपने वादों को पूरी तरह निभा नहीं देते, जब तक हम भारत के सभी लोगों को उस गंतव्य तक नहीं पहुंचा देते, जहां भाग्य उन्हें पहुंचाना चाहता है. हम सभी एक महान देश के नागरिक हैं, जो तीव्र विकास की कगार पर है, और हमें उस उच्च स्तर को पाना होगा. हम सभी चाहे जिस धर्म के हों, समान रूप से भारत मां की संतान हैं, और हम सभी के बराबर अधिकार और दायित्व हैं. हम सांप्रदायिकता और संकीर्ण सोच को बढ़ावा नहीं दे सकते, क्योंकि कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या उनके कर्म संकीर्ण होंं.

विश्व के देशों और लोगों को शुभकामनाएं भेजिए और उनके साथ मिलकर शांति, स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बढ़ावा देने की प्रतिज्ञा लीजिए. और हम अपनी प्यारी मातृभूमि, प्राचीन, शाश्वत और निरंतर नवीन भारत को नमन करते हैं और एकजुट होकर नए सिरे से इसकी सेवा करने का प्रण लेते हैं.

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इरोम चानू शर्मिला : लौह महिला

इस साल नवम्बर महीने में मणिपुर की 42 वर्षीय इरोम चानू शर्मिला, जिन्हें लोग ‘आयरन लेडी ऑफ मणिपुर’ के नाम से भी बुलाने लगे हैं, की भूख हड़ताल 15वें वर्ष में दाखिल हो गई. दो नवम्बर 2000 को मणिपुर के मालोम कस्बे में बस स्टॉप पर इन्तजार कर रहे 10 लोगों को कथित तौर पर असम राइफल्स ने मार डाला था. मृतकों में 62 वर्ष की एक महिला और 18 वर्ष की एक लड़की भी शामिल थी. इन हत्याओं के विरोध में शर्मिला ने भूख हड़ताल शुरू कर दी थी.

आफ्स्पा के विरोध में मणिपुरी महिलाओं का बहुचर्चित नग्न विरोध

इस देश में अगर भूख हड़तालों के इतिहास पर एक नजर डालें, तो पता चलता है कि यह पहली भूख हड़ताल है जो इतने लंबे समय से जारी है. अगर यह इसी तरह चलती रही तो पहली वास्तविक ‘आमरण भूख हड़ताल’ भी सिद्ध हो सकती है. क्या इरोम शर्मिला पागल हैं, क्या वह आम इंसानों से अलग हैं, क्या उन्हें भूख नहीं लगती, क्या वह इस दुनियावी लाग-लपेट से ऊपर उठ चुकी हैं या फिर वह महज नाम और शोहरत के लिए ये सब कर रही हैं? ऐसे कई सारे सवाल उनकी लंबी भूख हड़ताल के संदर्भ में उठते हैं और अक्सर पूछे जाते हैं. इन सवालों का एक ही उत्तर है और वह है नहीं, कदापि नहीं!

अपने एक बाल प्रशंसक से आत्मीयता जताती इरोम शर्मिला

इस जवाब के पीछे भरोसा क्या है? जवाब खुद शर्मिला देती हैं, ‘मैं जीना चाहती हूं. एक आम इंसान की तरह जिंदगी जीना चाहती हूं, बिल्कुल आप लोगों की तरह. मैं भी अन्न खाना चाहती हूं. तरह-तरह के लजीज खानों का स्वाद लेना चाहती हूं. मुझे भी प्यार और रोमांस में दिलचस्पी है. मैं शादी भी करना चाहती हूं. पर यह सब तभी मुमकिन है जब मणिपुर से आफ्स्पा (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट) को खत्म कर दिया जाए. और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऊपर जताई गई मेरी तमाम इच्छाओं के कोई अर्थ नहीं रह जाते. इसे खत्म होने तक मुझे अपनी इच्छाओं को दबाना होगा और अपने संघर्ष को जारी रखना होगा.’ ये शर्मिला के शब्द थे जब कुछ महीने पहले दिल्ली में कुछ पत्रकारों ने उनसे बातचीत की थी. उस दिन दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में शर्मिला की पेशी थी. उन पर आरोप है कि 2006 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर उन्होंने खुदकुशी करने की कोशिश की थी, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 के अनुसार एक अपराध है. उस दिन शर्मिला का पत्रकारों को दिया गया यह बयान सुनकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि कोई व्यक्ति इतना ऊर्जावान कैसे हो सकता है, पन्द्रह साल बिना खाए-पिए अपनी सोच-विचार के दायरे को इतना विस्तृत और संतुलित कैसे रख सकता है?

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शर्मिला के बालपन की एक दुर्लभ तस्वीर

शर्मिला की इस जिजीविषा भरी कहानी और इसके पीछे छिपे संघर्ष को समझने के लिए उन हजारों मणिपुरी लोगों की कहानी को समझना होगा जिनकी वजह से शर्मिला की भूख हड़ताल आज तक जारी है. इस बीच क्या कुछ नहीं हुआ, जेल, खुदकुशी का आरोप, तरह-तरह के लांछन, राजनीतिक दलों के प्रलोभन, परिवार का दबाव. और भी बहुत कुछ ऐसा, जिसकी चर्चा नहीं की जा सकती. लेकिन बात उस वजह की, जिसने शर्मिला को यह फैसला लेने लिए मजबूर किया और अपनी लड़ाई को लगातार जारी रखने का साहस दिया. वह है आफ्स्पा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन दशकों (1979-2012) के दौरान मणिपुर के अंदर 1,528 आम नागरिक सशस्त्र बलों की गोलियों के शिकार बन चुके हैं

साल 2009 के चार मार्च की बात है. मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नु गांव की घटना है. दोपहर के 12 बजने वाले थे. 12 साल का मोहम्मद आजाद खान अपने घर के बरामदे में एक दोस्त के साथ बैठा हुआ था. अचानक से मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान जबरन उस घर में दाखिल हो गए. एक जवान ने आजाद को दोनों हाथों से पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया और उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूर स्थित एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है और यह कहते हुए उसके मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया. जवानों ने आजाद को खेत में ले जाकर पटक दिया. इस बीच जब आजाद के घरवालों ने बीच-बचाव की कोशिश की, तो जवानों ने उन पर बन्दूकें तान दीं और बुरे अंजाम की धमकी दी. इसके बाद का दृश्य बेहद निर्मम था. एक जवान ने बंदूक से गोली चला दी और 12 साल का आजाद खान वहीं पर बेजान होकर गिर पड़ा. इसके बाद प्रचलित पुलिसिया हथकंडों के तहत लाश के पास एक अवैध बंदूक रख दी गई. इसे आजाद के पास से बरामदगी के रूप में दिखाया गया. लाश को थाने ले जाया गया. जब परिवार और गांव के लोग भी साथ थाने जाने लगे, तो उन्हें वापस भगा दिया गया.

यह किसी हिन्दी फिल्म की पटकथा या क्राइम थ्रिलर का हिस्सा नहीं है, एक वास्तविक घटना है, जिसकी सत्यता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जस्टिस संतोष हेगड़े की जांच समिति भी अपनी मुहर लगा चुकी है. आजाद की ही तरह चोंग्खाम संजीत, मनोरमा, सोंजित सिंह, गोबिंद मेतेई, नोबो मेतेई, अकोइजम परियोब्राता जैसे कई नाम हैं, जिनके साथ ज्यादती हुई. यह सूची बहुत लंबी है. विडंबना यह है कि इस तरह की अनगिनत कहानियां मणिपुरियों के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं. इनके बारे में कोई बात नहीं करता.

स्कूल के दिनों में शर्मिला अपने भाई-बहनों और परिजनों के साथ

फर्जी मुठभेड़ में मारा जाना, पुलिस की बदतमीजी का शिकार होना, यातना सहना, महिलाओं के साथ बलात्कार, यह सब मणिपुर के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गया है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक समिति ने पाया कि मणिपुर में कथित मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों के एक समूह एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्जिक्यूशन विक्टिम फेमिलीज एसोसिएशन ऑफ मणिपुर द्वारा लगाये गए आरोप बिलकुल सही हैं. इस समूह द्वारा 2012 में तैयार एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन दशकों (1979-2012) में मणिपुर के अंदर 1,528 आम नागरिक सशस्त्र बलों की गोलियों के शिकार हो चुके हैं. इन सभी मौतों के पीछे जो मुख्य कारण उभरकर सामने आता है, वह है- आफ्स्पा. इस कानून के संरक्षण में सुरक्षा बल किसी भी तरह की जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं. अपने किसी भी ऑपरेशन या अभियान में मारे गए लोगों के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. ऐसे में इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि अगर किसी जवान का दिमाग फिर जाए, तो किसी की भी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है. इसी बर्बर कानून को खत्म करवाने के लिए शर्मिला इतने वर्षो से भूख हड़ताल पर हैं.

प्रतिरोध के इतर शर्मिला का अपना एक रचनात्मक संसार भी है

विद्रोही नगा गुटों को नियंत्रित करने के मकसद से यह विवादास्पद कानून 22 मई 1958 को अस्तित्व में आया था. उस समय भी नगा लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया था. बावजूद इसके भारतीय संसद ने एक अलोकतांत्रिक कानून को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में कानून बना दिया. उस समय सरकार का कहना था कि इस कानून का मकसद नगा-बहुल इलाकों में शांति स्थापित करना है, जैसे ही यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, सरकार आफ्स्पा को वापस ले लेगी. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. हुआ इसके बिल्कुल विपरीत. धीरे-धीरे यह कानून नगा-बहुल इलाकों से फैलते हुए पूरे पूर्वोत्तर और फिर जम्मू कश्मीर तक पहुंच गया. आज पूर्वोत्तर के सातों राज्यों में यह कानून लागू है.

इस कानून में ऐसा क्या है कि देश के रक्षक इसे पाते ही अचानक से बेकाबू होते दिखने लगते हैं. इस ‘कानून’ के अनुसार सरकार द्वारा घोषित ‘अशांत’ इलाकों में सशस्त्र बलों को सिर्फ विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार मिल जाता है. आफ्स्पा के दायरे में एक तरह से लोकतंत्र समाप्त हो जाता है और सेना की सत्ता कायम हो जाती है. सैन्यकर्मियों के ऊपर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती. सशस्त्र बल जब चाहे, जहां चाहे, हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं. उनका तर्क ही इसमें मायने रखता है. मसलन अमुक व्यक्ति गैरकानूनी काम कर रहा था या फलां व्यक्ति देश की संप्रभुता के लिए खतरा था आदि. यह विशेषाधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च अधिकारियों के पास ही नहीं है बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) तक को हासिल है.

पिछले 56 वर्षों में बार-बार यह बात साबित हुई है कि यह कानून किसी भी सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों से मेल नहीं खाता. इसके बावजूद यह कानून दिनोंदिन मजबूत होता गया है. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों में इसकी अमानवीयता पर रोशनी डाली गई है. वर्ष 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट में भी इसे कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट का एक हिस्सा कहता है, ‘चाहे जो भी कारण रहे हों, यह कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का जरिया बन गया है.’ हाल ही में मणिपुर के एक न्यायालय ने शर्मिला को बरी करते हुए कहा कि राजनीतिक मांग के लिए इरोम शर्मिला का आंदोलन एक लोकतांत्रिक और कानूनी तरीका है, इसलिए उन्हें इसकी सजा नहीं दी जा सकती. पर दो दिन बाद ही पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया. आज भी वह एक कैदी की जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं.

‘मैं तभी अपनी भूख हड़ताल खत्म करूंगी जब मणिपुर से आफ्स्पा को खत्म किया जाएगा’ इरोम शर्मिला 4 नवंबर, 2010 को दिल्ली यात्रा के दौरान
‘मैं तभी अपनी भूख हड़ताल खत्म करूंगी जब मणिपुर से आफ्स्पा को खत्म किया जाएगा’ इरोम शर्मिला 4 नवंबर, 2010 को दिल्ली यात्रा के दौरान

इन 15 वर्षों में शर्मिला ने अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है. उन्होंने सरकार और उसकी तमाम संस्थाओं से आफ्स्पा को खत्म करने की गुहार लगाई है. हर नए व्यक्ति, सरकार और पार्टी में एक उम्मीद देखी है. इसी उम्मीद को लेकर उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने के लिए समय भी मांगा, जो उन्हें आज तक नहीं मिला है. इन सबके बावजूद शर्मिला को न केवल उम्मीद, बल्कि यकीन है कि एक न एक दिन आफ्स्पा जरूर खत्म होगा. हाल ही में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे एक बात कही थी, जिसका जिक्र करना जरूरी है- ‘मुझे उम्मीद है कि मैं अपना अगला जन्मदिन (14 मार्च) आफ्स्पा मुक्त मणिपुर में मनाऊंगी.’ उनकी इस उम्मीद पर हिंदुस्तान यही कह सकता है- आमीन!

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)