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बरसात की एक रात !

Aap Beeti-1कर भला तो हो भला! कहने को तो यह महज एक कहावत है, दूसरी कहावतों जैसी लेकिन जीवन में कई वाकये ऐसे होते हैं, जो इन कहावतों पर यकीन पक्का कर देते हैं.

करीब 12 साल पुरानी बात है. स्कूल से घर लौटते वक्त गांव में घुसते ही पता चला कि धनई मास्टर के बेटे कमरू को पड़ोसी गांव के भैंसवार यानी भैंस चरानेवाले लड़कों ने क्रिकेट के खेल के दौरान हुई लड़ाई में बुरी तरह पीट दिया है.

मैं वहां पहुंचा, तो धनई मास्टर और उनका पूरा परिवार रोनेपीटने में लगा हुआ था. वहीं गांववाले इकठृठा होकर दूसरे गांव की धज्जियां उड़ाने को बेताब थे. इन सबको पार करते हुए मैं कमरू के पास पहुंचा, जो अब तक तकरीबन बेहोश हो चुका था. मैंने धनई मास्टर से पूछा, इसे अस्पताल क्यों नहीं ले गए? इतना पूछना था कि गांव के एक नेतानुमा जीव बोल पड़े- अस्पताल क्यों? मारपीट का मामला है, पहले थाने में रपट लिखवाई जाएगी. उस पूरे गांव को एक ही रस्सी में बंधवाकर जेल भेजा जाएगा. मैं समझ गया कि एक के बाद एक प्रधानी का चुनाव हार चुके नेताजी वाहवाही लूटने का यह मौका गंवाना नहीं चाहते. मैंने जरा तेज आवाज में लड़के को अस्पताल ले जाने की बात दुहराई तो धनई मास्टर रोने लगे. बोले मैं तो कब से फरियाद कर रहा हूं, कोई सुन ही नहीं रहा है, आप ही कुछ कीजिए, शायद मेरा बेटा बच जाए.

शाम का धुंधलका गहरा चुका था. जिला अस्पताल हमारे गांव से पैंतीस किलोमीटर दूरी पर है. मैंने गांव के लोगों को सुनाया- लड़के को फिलहाल अस्पताल पहुंचाना ज्यादा जरूरी है. क्या कुछ लोग धनई मास्टर के साथ लड़के को लेकर जिला अस्पताल जा सकते हैं? इतना सुनना था कि लोगों की भीड़ छंटने लगी. धनई मास्टर ने फरियादी निगाहों से मुझे देखा. मैं स्कूल से थका-हारा लौटा था. मेरी पत्नी की तबीयत भी कुछ नासाज़ चल रही थी. लेकिन हालात कुछ ऐसे थे कि मेरे मुंह से झट से निकला- चलो मेरी मोटर साईकिल पर कमरू को लेकर बैठो, नोनहवां से जीप कर लेंगे. नोनहवां में एक जीप वाला मिला, लेकिन वह आगे केवल बर्डपुर तक जाने को तैयार हुआ. उसके आगे हमें खुद इंतजाम करना था. रास्ते में मेरा चचेरा भाई चिनकू मिल गया, तो वह भी साथ हो लिया.

‘प्रधान जी ने कहा- नौकर ने सिर्फ मेरे हिस्से का खाना बनाया होगा, वरना आप लोगों को भी खाना खिलाकर भेजता’

हम लोगों ने घायल लड़के को जिला अस्पताल में भरती कराया और उसकी हालत में सुधार होने लगा. धनई मास्टर उन दिनों बर्डपुर चौराहे पर ही अपनी टेलरिंग की दुकान चलाया करते थे. उनकी दुकान एक संपन्न प्रधान जी के बड़े से कटरे में किराए पर चलती थी. संयोग से लड़के को जिला अस्पताल लाते वक्त प्रधान जी हमें बर्डपुर में मिल गए थे और साथ हो लिए थे.

बरसात की उमस भरी गर्मियों का मौसम था. रात के लगभग साढ़े आठ बज रहे थे. टैक्सी स्टैंड पर बर्डपुर के लिए शायद ही कोई सवारी गाड़ी मिलती. लेकिन प्रधान जी लौट रहे थे, तो मैंने उनसे कहा कि वे मुझे और चिनकू को भी साथ में लेते चलें. प्रधान जी ने कहा ठीक है, बर्डपुर तक चलिए, लेकिन आगे कैसे जाएंगे? चूंकि मेरी पत्नी की तबीयत खराब थी, इसलिए मैं प्रधान जी के साथ बर्डपुर के लिए चल पड़ा.

हम बर्डपुर पहुंचे तो रात के साढ़े नौ बज चुके थे. प्रधान जी ने हमें अपने बड़े से व्यावसायिक कॉम्पलेक्स के सामने मोटर साईकिल से उतारते हुए कहा- नौकर ने सिर्फ मेरे हिस्से का खाना बनाया होगा, वरना आप लोगों को भी खिलाकर भेजता, मोटर साईकिल में तेल भी कम है, वरना ले जाने देता. मौसम काफी खराब हो रहा है, अब आप लोग निकल लीजिए. बड़े मकान और छोटे दिल वाले प्रधान जी के सर्द रवैये से दुखी, मैं और चिनकू तेज कदमों से गांव के लिए चल पड़े.

थोड़ा आगे जूनियर हाई स्कूल के सामने पहुंचते ही टार्च की तेज रोशनी मेरे चेहरे पर पड़ी. साथ ही किसी ने कड़क कर पूछा- कौन है, रुक जाओ, नहीं तो अच्छा नहीं होगा! एक शख़्स लड़खड़ाता हुआ मेरे पास पहुंचा. टार्च की रोशनी में हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा. शराब के नशे में मस्त वह मेरे परिचित ‘बुलई’ बैटरीवाले थे.

पूरी बात सुनकर बुलई हाथ जोड़कर कहने लगे, गुरु जी गरीब जरूर हूं, लेकिन मेरा दिल नहीं गरीब है. आप मेरे घर चलकर रुकें, सवेरे जाइएगा. तबतक मेरी नज़र पीछे खड़ी उनकी साईकिल पर पड़ चुकी थी. मैंने घर जाने के लिए साईकिल मांगी. बुलई काफी भावुक हो चुके थे, बोले साईकिल जरूर दूंगा, लेकिन पहले आपको कुछ खिला दूं. जिद पर अड़े बुलई ने स्कूल गेट के सामने की दुकान में सो रहे अंडेवाले को जगाया और आमलेट बनवाकर देने के बाद ही हमें साईकिल दी. साथ ही अपनी टार्च भी दी. मैंने घर पहुंच कर सारी कहानी बयान की तो मेरी अम्मा के मुंह से यही शब्द निकले थे- कर भला तो हो भला!

टेस्ट को टाटा

mahendra_singhजयपुर के सवाई मानसिंह स्टेडियम में 31 अक्टूबर 2005 को तीसरे वनडे मुकाबले में श्रीलंका ने भारत के सामने 299 रनों का विशाल लक्ष्य रखा था. सहवाग और सचिन सस्ते में पवेलियन लौट चुके थे. ऐसे में हैल्मेट से बाहर कंधे तक झूलते बालोंवाले एक नये लड़के के सामने अनुभव से बड़ी चुनौती खड़ी थी. श्रीलंकाई आक्रमण का इसके बाद जो हश्र हुआ, वह अद्भुत और अकल्पनीय था. यह एक नायक के सृजन की शुरुआत थी. झारखंड की राजधानी रांची के साधारण युवा महेंद्र सिंह धोनी की चमत्कारिक यात्रा का पहला अध्याय था. धोनी ने जब ताबड़तोड़ बैटिंग शुरू की तो लाखों-करोड़ों दर्शकों ने तालियों के साथ इस नए नायक का इस्तकबाल किया. बार-बार सीमा रेखा के पार जाती गेंदों ने बता दिया कि धोनी सीमाओं में बंधकर नहीं रहेंगे. उनकी कामयाबी की स्वर्णिम किताब का पहला अध्याय लिखा जा चुका था. नाबाद 183 रनों की इस जीवट पारी के बाद भी किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन इस लड़के की कप्तानी में भारत टेस्ट रैंकिंग में नबंर वन और वनडे, टी-20 का विश्व विजेता बनेगा.

धोनी के उभार के साथ भारतीय क्रिकेट टीम एक नये सांचे और युग में ढल गई. टेस्ट क्रिकेट में धोनी के अलविदा कहते ही उस युग का भी अवसान हो गया. बड़े खिलाड़ी हमेशा स्थापित मान्यताओं से आगे बढ़ते हुए खेल को कुछ नया दे जाते हैं. धोनी ने क्रिकेट को हेलीकॉप्टर शॉट दिया. यह क्रिकेट के शब्दकोश में नया शब्द था. वनडे और टी-20 मैचों में धोनी निसंदेह बेहतरीन मैच फिनिशर हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि धोनी अपनी तरह के नायक थे. सचिन की तुलना ब्रैडमेन और गावस्कर से होती रही, गांगुली की कप्तानी की तुलना पोंटिंग से होती थी, लेकिन धोनी की तुलना किसी से करना तर्कसंगत नहीं है. इसलिए नहीं कि इन महान खिलाड़ियों से धोनी का कद बड़ा है, इसलिए कि धोनी अलग परिस्थितियों में बने नायक थे. नायक एक लम्हे में नहीं, उसके वक्त के पूरे फैलाव में बनता है. धोनी महानगर से निकलकर नायक नहीं बने थे. सामान्य परिवेश में रहकर महान सपने देखने और अपनी काबिलियत पर विश्वास ने उन्हें सफलतम बनाया. धोनी की उपलब्धि का लेखा-जोखा महज हार-जीत, शतक-अर्धशतक और रैंकिंग से नहीं हो सकता. ‘स्माल टाउन बिग ड्रीम्स’ का टैग धोनी के साथ शुरू हुआ और इसने क्रिकेट से इतर सभी क्षेत्र में छोटे शहरों के युवाओं की सफलता की नई परिभाषा लिखी. कभी कोका कोला ने यह कहकर उन्हें विज्ञापन में लेने से मना कर दिया था कि उनका उच्चारण ठीक नहीं है. बाद में वही धोनी राफेल नाडाल से भी बड़े ब्रॉण्ड बन गये.

धोनी ने महत्वपूर्ण सफलताएं देखीं, तो आलोचनाओं के निर्मम प्रहार भी सहे. सम्मान और प्रशंसकों का हुजूम देखा तो विवाद और आरोपों से भी अछूते नहीं रहे. सफलताओं ने जब आगे बढ़कर उन्हें चूमा तो लोगों ने कहा कि धोनी किस्मत के धनी हैं. जिस चीज को छूते हैं सोना बन जाती है. फिर उनके करियर, खेल और कप्तानी में ठहराव दिखने लगा. कप्तानी और बतौर खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट में खास तौर पर उनका भटकाव भी नजर आने लगा. आनेवाले समय में इतिहास जब इस खिलाड़ी का मूल्यांकन करेगा, निसंदेह उसमें उनकी आलोचनाएं और असफलताओं की भी लंबी फेहरिस्त रहेगी.

धोनी के पास सपने थे, लगन थी और थी उन्हें पूरा करने की जिद. मेकॉन कंपनी में एक मामूली मुलाजिम पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि उन्हें वर्ल्ड क्लास ट्रेनिंग दे सकें. रेलवे में टीसी से अपना सफर शुरू करनेवाले इस सतत योद्धा ने कभी हार नहीं मानी. कभी खड़गपुर में महज 300 रुपये की मैच फीस के साथ खेलनेवाले धोनी देखते-देखते खेल जगत के सबसे धनी खिलाड़ियों में शुमार हो गए.

सफलताओं ने जब आगे बढ़कर उन्हें चूमा तो लोगों ने कहा कि धोनी किस्मत के धनी हैं. फिर उनके करियर, खेल और कप्तानी में ठहराव का दौर आ गया

परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाना, प्रयोग करने और निर्णय लेने की क्षमता से उन्होंने असाधारण उपलब्धियां हासिल कीं. 33 वर्षीय धोनी ने अपना पहला टेस्ट मैच 2 दिसंबर 2005 में श्रीलंका के खिलाफ चेन्नई में खेला था. उन्होंने भारत के लिए 90 टेस्ट मैचों की 144 पारियों में 4,876 रन बनाए. इसमें 6 शतक और 33 अर्ध शतक शामिल हैं. टेस्ट मैचों में उनका उच्चतम स्कोर 224 रन है. कह सकते हैं कि एक मामले में धोनी के चरित्र में एक विरक्ति का अंश भी है, वरना 100 टेस्ट के मुहाने पर खड़ा होने के बावजूद वे उसके मोह में नहीं पड़े.

2008 में जब अनिल कुंबले ने चेन्नई में टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहा, तो उन्हें कंधे पर बिठाकर धोनी मैदान से बाहर ले गए. इसके बाद टेस्ट कप्तानी का भी भार उन्होंने अपने कंधे पर उठा लिया. इस जिम्मेदारी को न सिर्फ उठाया, बल्कि बखूबी निभाया. सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण जैसे सीनियर खिलाड़ियों के साथ युवाओं की टीम को धोनी ने एकजुट किया. सबकी प्रतिभा पहचानकर सबसे बेहतर टीम बनाने का सफर इतना आसान नहीं था. एक ओर अहं का टकराव था तो दूसरी ओर युवाओं का जोश. ऐसे में किसी कुशल सेनानायक की भूमिका धोनी ने बखूबी निभाई. धोनी के करिश्माई नेतृत्व का ही कमाल था कि टीम इंडिया टेस्ट क्रिकेट में नंबर वन बनी. सितंबर 2009 से जून 2011 तक टीम टेस्ट में नंबर वन रही. साल 2011 में ही उन्होंने भारत को 28 साल के इंतजार के बाद फिर से विश्व कप जिताया. उनकी कप्तानी में भारत ने 60 टेस्ट में से 27 जीते और 18 गंवाए. धोनी के नाम कप्तान के तौर पर भारत के लिए सबसे ज्यादा टेस्ट जीत का रिकॉर्ड दर्ज है. इसके साथ ही विकेटकीपर के तौर पर सबसे अधिक स्टंपिंग का रिकॉर्ड भी धोनी के ही नाम है.

मैदान पर अपने फैसलों को लेकर धोनी हमेशा चौंकाते रहे हैं. वहीं मैदान के बाहर बहुत खामोशी से अपनी जिंदगी जीते हैं. धोनी की जिंदगी से जुड़े लोगों का कहना है कि कप्तान बनने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में वही सहजता और स्नेह है. रांची में उनके पहले कोच रहे चंचल भट्टाचार्य कहते हैं, ‘माही ने कभी अहसास नहीं होने दिया कि वह स्टार है. रांची आता है तो मुझसे जरूर मिलता है. फरवरी 2013 में मेरे घर आते ही सीधे किचेन में घुस गया और मेरी पत्नी से फरमाइश की चाउमीन बनाने की.’ रांची के देउड़ी मंदिर में माथा टेकना या स्कूल-कॉलेज जमाने के दोस्त, सबके लिए कैप्टन कूल वही पुराने माही हैं.

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धोनी का टेस्ट क्रिकेट से संन्यास का फैसला भी वैसा ही चौंकाने वाला रहा. किसी को भनक तक नहीं लगने दी और मेलबर्न में तीसरा टेस्ट खत्म होने के बाद संन्यास की घोषणा कर दी. संन्यास की इस घोषणा के साथ ही उनके समर्थन और विरोध में आवाजें उठने लगीं. पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद ने उन्हें ‘रणछोड़ दास’ कहा तो सौरभ गांगुली ने भी असहमति दर्ज की. बिशन सिंह बेदी ने भी इसे एक ‘असामान्य’ फैसला बताया. वहीं द्रविड़, सचिन समेत कई खिलाड़ियों ने उनके फैसले का सम्मान करने की बात कही. क्रिकेट जगत में इस बात की भी चर्चा है कि टीम में रवि शास्त्री और विराट कोहली के बढ़ते दखल के कारण भी धोनी ने यह फैसला लिया.

धोनी में निर्णय लेने और अपने निर्णय पर कायम रहने की गजब की क्षमता है. टीम में उन्होंने खुलकर युवा चेहरों को मौका देने की वकालत की और वनडे और टी-20 के साथ टेस्ट में भी नये चेहरों को मौका देते रहे. हालांकि सीनियर्स की अनदेखी करने, टीम में गुटबाजी, चेन्नै सुपर किंग्स के खिलाड़ियों को टीम में तरजीह देने जैसे आरोप भी उन पर लगे. साथी खिलाड़ियों से संवादहीनता और अनुपलब्ध रहने की खबरें भी मीडया में आती रहीं. सबसे महत्वपूर्ण विवाद रहा फैब फोर के एक स्तंभ वीवीएस लक्ष्मण का बयान जिसके मुताबिक धोनी उनसे बात तक नहीं करते थे. आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग मामले में बोर्ड अध्यक्ष  श्रीनिवासन और मयप्पन के साथ नजदीकियों के चलते उनके ऊपर हितों के टकराव जैसे सवाल भी उठे. सोशल मीडिया में तो यहां तक कहा जाने लगा कि टीम इंडिया अब इंडिया सीमेंट्स की टीम है और धोनी उसके मैनेजर की तरह काम करते हैं.

वरिष्ठ खेल पत्रकार अयाज मेमन ने भी एक टीवी इंटरव्यू में कहा, ‘जब आग लगी है, तो उसकी आंच धोनी तक भी जाएगी ही.’ टेस्ट क्रिकेट से उनके संन्यास के फैसले को भी वे इससे जोड़कर देख रहे हैं.  2011 के बाद बतौर कप्तान और खिलाड़ी भी टेस्ट क्रिकेट में उनका प्रदर्शन गिरता चला गया.

2011-12 में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ लगातार 8 टेस्ट मैच गंवाने के बाद उन्हें टेस्ट की कप्तानी से हटाए जाने की जबर्दस्त मांग उठी थी. विदेशी धरती पर टेस्ट मैचों में टीम इंडिया की लगातार हार ने धोनी को हमेशा से ही आलोचकों के निशाने पर रखा. इसके बाद धोनी ने 2013-14 में साउथ अफ्रीका और न्यूजीलैंड की धरती पर टेस्ट सीरीज गंवाई और फिर इसी साल इंग्लैंड के हाथों टेस्ट सीरीज में 0-3 से हार के बाद ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट सीरीज भी गंवा बैठे.

आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग मामले में बोर्ड अध्यक्ष  श्रीनिवासन और मयप्पन के साथ नजदीकियों के चलते उनके ऊपर हितों के टकराव जैसे सवाल भी उठे

2012 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान धोनी ने कहा था कि मैं टीम से निकाले जाने का इंतजार नहीं करूंगा. मुझे निकाला जाए, इससे पहले ही सम्मानजनक विदाई ले लूंगा. इस लिहाज से महाकवि निराला की पंक्तियां ‘जो मार खा रोई नहीं, वह गौरव और गरिमा थी.’ पूरी तरह उपयुक्त बैठती हंै. यह नायकत्व की पहचान है कि जिसने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को खुशी और उपलब्धियों के बेतहाशा मौके दिए, उसने हारी हुई टेस्ट श्रृंखला में ड्रॉ खेलकर सम्मानजनक विदाई ली. सफेद जर्सी पहने धोनी को अपने पूर्ववर्ती खिलाड़ियों सचिन, गांगुली या कुंबले की तरह साथियों के कंधे पर आखिरी बार मैदान से जाते नहीं देख सकने का अफसोस लाखों-करोड़ों प्रशंसकों को जरूर रहेगा.

कई खिलाड़ियों का मानना है कि एक दशक के क्रिकेट करियर में महेंद्र सिंह धोनी टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से ‘अंडरअचीवर’ रहे हैं. आलोचकों का कहना है कि खिलाड़ी के तौर पर धोनी टेस्ट क्रिकेट में अपनी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर सके. टेस्ट कभी धोनी की प्राथमिकता में नहीं था. क्रिकेट के इस ‘ज्यादा थकाऊ और कम कमाऊ’ फॉर्मेट के लिए धोनी में वैसी गंभीरता नजर नहीं आती थी. सौरभ गांगुली, अजहरुद्दीन समेत कई पूर्व खिलाड़ियों का कहना है कि आईपीएल में धोनी टीम के लिए ऊपरी क्रम में आकर बैटिंग करते हैं, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में ऐसा नहीं करते.

आईपीएल फिक्सिंग विवाद में धोनी की छवि धूमिल हुई. हितों के टकराव को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सीधे-सीधे सवाल उठाए. फिलहाल मामले की जांच चल रही है. एक दशक के उनके करियर में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनमें उनका भटकाव साफ नजर आता है. 2009 में पद्मश्री सम्मान लेने की जगह किसी ऐड फिल्म की शूटिंग में जाना, 2011 में न्यूजीलैंड दौरे पर जब टीम लगातार हार रही थी, तब प्रैक्टिस सेशन छोड़कर अंगूरों के बाग की सैर करना. भारतीय उच्चायोग की तरफ से आयोजित डिनर में शामिल नहीं होना, जैसी कई घटनाओं के लिए उनकी आलोचना हुई. आलोचनाओं से परे कभी महानता की इबारत नहीं लिखी जा सकती और धोनी भी इसके अपवाद नहीं हैं.

आने वाले वक्त में जब धोनी का मूल्यांकन होगा तो उनकी असाधारण उपलब्धियों के साथ उनके व्यक्तित्व और कमजोरियों पर भी बात होगी. प्रतिभा, अवसर और अनुकूल परिस्थितियों के बाद भी धोनी सफलतम कप्तान और महत्वपूर्ण खिलाड़ी से आगे नहीं जा सकेंगे. बहुत संभव है कि 2015 वर्ल्ड कप के बाद धोनी क्रिकेट के सभी संस्करणों से संन्यास ले लें. उनके जाने के बाद भी धोनी की झलक टीम में ढूंढ़ी जाएगी. जैसे आज भी सचिन की झलक क्रिकेट प्रेमी ढूंढ़ते हैं. हो सकता है कोहली की कप्तानी में, पुजारा के धैर्य में और रोहित शर्मा की आक्रामकता में धोनी का एक-एक हिस्सा प्रंशंसक ढूंंढ़ते रहें.

कहते हैं महान से महानतम बनने की यात्रा बहुत मुश्किल होती है. आईपीएल और विवादों के साथ टेस्ट के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया, कुछ चुनिंदा खिलाड़ियों को असफल रहने के बाद भी बार-बार मौके देना. ये कुछ ऐसी बातें हैं जो महेंद्र सिंह धोनी के मूल्यांकन में हमेशा उनके लिए नकारात्मक रहेंगी. इसके बाद भी धोनी सिर्फ एक खिलाड़ी और कप्तान भर नहीं हंै. छोटे शहरों और कस्बाई युवाओं के सपनों और संघर्ष की मिसाल हैं. लाखों युवाओं के लिए सपने देख सकने की हिम्मत देने वाले स्रोत हैं. दरअसल निम्न मध्यवर्ग से आए सभी संकोची, लेकिन महत्वाकांक्षी युवाओं के प्रेरणास्त्रोत हैं. भारतीयों के जीवन में ही क्रिकेट है और क्रिकेट के विशालतम ग्रंथ का महत्वपूर्ण अध्याय टेस्ट में धोनी के संन्यास के साथ समाप्त हो गया.

जन-धन योजना: आंकड़ों के आगे क्या?

 

Pradhan-Mantri-Jan-Dhan-Yojana-by-Modi-Inc.-1अगर कम वक्त में भारी-भरकम संख्या तक पहुंच जाना किसी योजना की कामयाबी का पैमाना हो, तो प्रधानमंत्री जन धन योजना की गिनती देश की अब तक की सबसे कामयाब योजनाओं में की जानी चाहिए. अपनी शुरुआत के 18 हफ्तों के भीतर ही इसके तहत 11 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं. लेकिन जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इस बात की आशंका भी बढ़ती जा रही है कि कहीं यह योजना सिर्फ आंकड़ों का खेल बनकर न रह जाए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से इस महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य देश के उन परिवारों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ना है, जो अभी तक इससे बाहर हैं. अपने पहले आम बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी वादा किया था कि देश के हर परिवार को दो बैंक खाते उपलब्ध कराए जाएंगे, जिन पर कर्ज की सुविधा भी होगी. वैसे तो भारतीय रिजर्व बैंक कई सालों से वित्तीय समावेशन अभियान के जरिए लगातार इस दिशा में प्रयास कर रहा है, लेकिन इसकी प्रगति काफी धीमी रही है.

इस धीमी प्रगति को देखते हुए जब इस बार लोगों के खाते खोलकर उन्हें बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने की योजना बनाई गई, तो इसके साथ कुछ खास फायदे भी जोड़ दिए गए. मसलन, इस योजना के तहत खोले गए खाते में न्यूनतम राशि रखने की जरूरत नहीं है, लेन-देन के लिए रुपे डेबिट कार्ड मिल रहा है, खाताधारक को 30 हजार रुपये के जीवन बीमा के साथ एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा दिया जा रहा है और छह महीने तक उचित तरीके से खाता चलाने पर खाताधारक को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी मिलेगी. इसके अलावा सरकार ने सब्सिडी, पेंशन, छात्रवृत्ति आदि का पैसा सीधे इन्हीं खातों में भेजने की योजना बनाई है.

लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे

वैसे तो वित्तीय समावेशन के इस विस्तृत एजेंडा के तहत देश के सभी परिवारों को बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराई जानी हैं, लेकिन शुरुआत से ही यह बात कही जा रही है कि इस अभियान में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण पर दिया जाएगा. पिछले साल अगस्त में वित्त मंत्री जेटली ने जोर देते हुए यह बात कही थी कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में रहनेवाली महिलाओं, छोटे किसानों और श्रमिकों को यह सुविधा देने पर विशेष जोर दिया जाएगा. इस अभियान को सफल बनाने के लिए वित्तीय सेवा विभाग ने पिछले साल 11 अगस्त को एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था ताकि देश के कमजोर वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए उपलब्ध तकनीकों को समझा जा सके. लेकिन योजना के साथ लक्ष्य जुड़ा होने की वजह से बैंकों का ध्यान इसको पूरा करने में ही लग गया और कमजोर वर्गों पर ध्यान देने की बात कहीं पीछे ही छूट गई. प्रधानमंत्री मोदी ने जब 28 अगस्त 2014 को इस योजना की औपचारिक शुरुआत की तो 26 जनवरी 2015 तक देश-भर में 7.5 करोड़ बैंक खाते खोले जाने का लक्ष्य तय किया गया था. लेकिन जब सरकार को लगा कि खाते काफी तेजी से खुल रहे हैं, तो यह लक्ष्य संशोधित कर 10 करोड़ कर दिया गया था. लक्ष्य को संशोधित करने के बावजूद सरकार ने पिछले साल 24 दिसंबर को ही यानी तय समय सीमा से एक महीने पहले 10 करोड़ बैंक खाते खोलने का यह लक्ष्य हासिल कर लिया. यही नहीं, नौ जनवरी 2015 तक इस योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले जा चुके हैं.

लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. योजना से जुड़े फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इस योजना के तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे. इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही. सरकार को जागने में काफी वक्त लगा और 15 सितंबर को उसने स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि जिन लोगों के पास पहले से ही बैंक खाता है, उनको इस योजना के फायदे लेने के लिए फिर से खाता खुलवाने की जरूरत नहीं है. ऐसे लोग अपने मौजूदा बैंक खाते पर ही रुपये डेबिट कार्ड के लिए आवेदन कर मुफ्त बीमा का फायदा ले सकते हैं. लेकिन तब तक गड़बड़ी हो चुकी थी.

हड़बड़ी में शुरू की गई थी योजना
इसकी वजह यह थी कि अगस्त में जल्दबाजी में जन धन योजना घोषित तो कर दी गई, लेकिन इसके दिशा-निर्देशों और बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया.

ऐसे में वित्त मंत्रालय को कई बार स्पष्टीकरण जारी करने पड़े. योजना की घोषणा के समय कहा गया था कि 26 जनवरी 2015 तक इसके तहत खाता खुलवानेवाले व्यक्ति को 30 हजार रुपये का जीवन बीमा दिया जाएगा. इस बारे में इससे अधिक जानकारी किसी के पास नहीं थी. लेकिन सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता. भारी संख्या में लोगों ने जीवन बीमा जैसी सुविधाओं से आकर्षित होकर इस योजना के तहत खाता खुलवाया था, लेकिन नवंबर में यह पता लगा कि उनमें से अधिकांश लोग इसके हकदार ही नहीं हैं.

जीवन बीमा लाभ का दायरा सिमटा
वित्त मंत्रालय ने योजना शुरू होने के तीन महीने बाद नवंबर में बैंकों को दिशा-निर्देश जारी कर बताया कि किसी परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को जीवन बीमा का लाभ दिया जाएगा और यह बीमा सिर्फ पांच सालों के लिए है. वह व्यक्ति उस परिवार का मुखिया या ऐसा सदस्य होना चाहिए, जिसकी कमाई से घर चलता हो. उसकी उम्र 18 साल से 59 साल के बीच होनी चाहिए. उसके पास वैध रुपे कार्ड होना चाहिए. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, पीएसयू में कार्यरत या वहां से सेवानिवृत्त कर्मचारी इस जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा उनके परिवार के लोग भी इसके हकदार नहीं होंगे. जिनकी आमदनी कर-योग्य (टैक्सेबल) है, जो आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं और जिनका टीडीएस कटता है, वे लोग और उनके परिवार के लोग भी इस जीवन बीमा के दायरे से बाहर कर दिए गए हैं. जिन लोगों को आम आदमी बीमा योजना के तहत बीमा कवर मिल रहा है, वे भी इस योजना के तहत जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा जिन लोगों को किसी अन्य योजना के तहत जीवन बीमा का लाभ मिल रहा है, उनको भी इस योजना के तहत जीवन बीमा नहीं मिल सकता.
जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को सौंपी गई है. यह बात दीगर है कि इससे अधिक जानकारी अभी बैंकों के पास नहीं है.

दुर्घटना बीमा की गफलत
योजना के तहत बैंक खाताधारक को दुर्घटना बीमा दिए जाने का प्रावधान भी है. इस बीमा का प्रीमियम देने की जिम्मेदारी नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) पर डाली गई है. यह शुल्क 0.47 रुपये प्रति कार्ड है. लेकिन चार महीने से अधिक वक्त बीत जाने और योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक खाते खुल जाने के बाद भी अभी तक यह पता नहीं है कि यह बीमा कौन देगा.

हालांकि जब प्रधानमंत्री जन-धन योजना मिशन के कार्यालय से इस बारे में सवाल किया गया, तो उसने जवाब में लिखा कि 18 से 70 साल तक की उम्र के सभी रुपे कार्डधारकों को एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा मिलेगा. यह लाभ तब मिलेगा, जब कार्ड जारी करनेवाला बैंक उस खाताधारक से जुड़े सभी जरूरी दस्तावेज एचडीएफसी एर्गो जनरल इंश्योरेंस कंपनी के पास जमा कर देगा.

लेकिन बैंकों को अभी तक इस बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है, लिहाजा दुर्घटना बीमा का दावा आने पर वे खाताधारकों को उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं. झारखंड के डाल्टनगंज में बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी के मुताबिक, ‘अभी हमें इस बारे में ऊपर से कोई आदेश नहीं मिला है. ऐसे में हम खाताधारकों को इंतजार करने की ही सलाह दे रहे हैं.’ बैंक ऑफ महाराष्ट्र के एक अधिकारी ने भी तहलका से बातचीत में इस बारे में अनभिज्ञता ही जताई.

दूसरी ओर जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को इस काम की जिम्मेदारी देने की बात कही गई ह,ै वह योजना के चार महीने बीत जाने के बाद भी इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है. इस बारे में तहलका ने कंपनी को जो ईमेल भेजा, उसके जवाब में उन्होंने लिखा, ‘अभी हम इस स्टोरी के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहते.’

सरकार ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है

दुर्घटना बीमा का लाभ किसको मिलेगा, उसके प्रावधानों पर नजर डालने से पता चलता है कि मौजूदा स्थिति में बहुत कम लोग इसका फायदा उठा सकने की स्थिति में होंगे. इस बीमा का लाभ लेने के लिए यह जरूरी है कि पिछले 45 दिनों के दौरान कम से कम एक बार रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किया गया हो. लेकिन नौ जनवरी तक खोले गए 11.02 करोड़ खातों में से आठ करोड़ खातों में पैसा ही नहीं है (ये जीरो बैलेंस खाते हैं). इसके अलावा 9.12 करोड़ लोगों को ही डेबिट कार्ड दिया गया है. इसका मतलब यह है कि 1.9 करोड़ खाताधारक ऐसे हैं जिनको डेबिट कार्ड नहीं दिया गया है. ऐसे में कुछ बड़े और वाजिब सवाल उठते हैं कि खाते में जीरो बैलेंस होने की स्थिति में खाताधारक रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल क्यों करेगा, इसी तरह 1.9 करोड़ डेबिट कार्ड से महरूम खाताधारक कैसे कार्ड का इस्तेमाल करेंगे.

बैंकों के सामने बड़ी चुनौती
दिशा-निर्देशों की अस्पष्टता और उचित सोच-विचार के बिना शुरू की गई योजना के चलते जहां अधिकांश खाताधारक इससे जुड़ी सुविधाओं से वंचित होते दिख रहे हैं, वहीं खाता खोलनेवाले बैंकों के सामने यह योजना कई दूसरी चुनौतियां भी पेश कर रही है. दरअसल सरकार ने इस अभियान को पूरा करने की जिम्मेदारी बैंकों के ऊपर डाल दी है, लेकिन न तो बैंकों का देश-भर में इतना विस्तार है और न ही उनके पास पर्याप्त संसाधन हैं कि वे इस जिम्मेदारी को उठा सकें. डेलॉयट और सीआईआई की ओर से सितंबर 2014 में जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री जन धन योजना के पहले चरण (15 अगस्त 2014 से 14 अगस्त 2015 तक) के दौरान ही बैंकों को 50,000 अतिरिक्त बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त करने होंगे और 7,000 से अधिक नई शाखाएं खोलनी होंगी. इसके अलावा इस दौरान उन्हें 20,000 नए एटीएम स्थापित करने होंगे. लेकिन बैंक ऐसा करने की स्थिति में नहीं दिखते.

खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम
खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम

चूंकि बैंक इस योजना के अनुपात में जरूरी एटीएम नहीं लगा पा रहे हैं. इसलिए इन खातों की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है. ऐसे में यह आशंका भी जताई जा रही है कि एटीएम की कमी की वजह से कहीं यह योजना पटरी से ही न उतर जाए. यहां ध्यान देने वाली बात है कि रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किए बिना खाताधारक योजना के फायदों के लिए अर्ह नहीं होगा. दूसरी समस्या यह है कि एटीएम ऑपरेटरों और बैंकों के लिए एटीएम चलाने का बिजनेस मॉडल फायदेमंद नहीं दिख रहा है. उनके मुतािबक, मौजूदा इंटरचेंज फी इतनी कम है कि उनके लिए इस बिजनेस मॉडल को चला पाना मुश्किल हो रहा है. इसी वजह से वे अधिक एटीएम लगा पाने की स्थिति में नहीं हैं. अप्रैल-जून 2014 के दौरान देश में कुल एटीएम की संख्या में महज एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. जून 2014 तक देश में कुल एटीएम की संख्या 1,66,894 थी, जबकि कुल पीओएस (प्वाइंट ऑफ सेल्स) की संख्या 1.08 करोड़ थी.

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11 करोड़ पार, लेकिन दिक्कतें बेशुमार

जन धन योजना में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों पर दिया जाना है, लेकिन लक्ष्य पूरा करने की होड़ में बैंक इस बात को भुला चुके हैं

योजना की शुरुआत के कुछ ही समय बाद यह बात पीछे छूट गई कि यह उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे

योजना के फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इसके तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे

इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही

योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए

यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों

अगस्त में जल्दबाजी में योजना तो घोषित कर दी गई, लेकिन बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया

सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता

जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी एलआईसी को सौंपी गई है. लेकिन चार महीने बाद भी इससे अधिक जानकारी बैंकों के पास नहीं है

बैंकों को दुर्घटना बीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लिहाजा बीमा का दावा आने पर वे उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं

जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को दुर्घटना बीमा की जिम्मेदारी देने की बात कही गई है, वह इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है

योजना के तहत बड़ी संख्या में खाते खुलने की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है

देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा

बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी

इतनी बड़ी संख्या में खातों पर ओवरड्राफ्ट देने से बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है

अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा
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बैंकों के लिए चुनौतियां यहीं खत्म नहीं होतीं. इन खातों पर बैंकों को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी देनी है. हर परिवार में केवल एक व्यक्ति को 5,000 रुपये की ओवरड्राफ्ट सुविधा मिलेगी. प्राथमिकता इस बात को दी जाएगी कि यह उस परिवार की महिला को मिले. लेकिन अब तक 11 करोड़ खाते खुल चुके हैं और खातों का खुलना लगातार जारी है. ऐसे में ओवरड्राफ्ट के रूप में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है.

बैंकिंग विशेषज्ञ यूएस भार्गव बताते हैं, ‘अगर रुपपे कार्ड लोकप्रिय हो गए और लोगों ने एटीएम में जाकर पैसे निकालना सीख लिया और बैंक शाखा में जाकर लेन-देन नहीं किया, तब तो बैंकों का काम मौजूदा कर्मचारियों से चल जाएगा, लेकिन अगर ये खाताधारक छोटे लेन-देन के लिए शाखाओं में आने लगे, तब बैंकों की सामान्य सेवाओं पर भी विपरीत असर पड़ने लगेगा.’ देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा. ऐसे में बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी. अभी तो इनमें से 30 फीसदी खातों में ही कुछ कामकाज हो रहा है. बैंकों को असली चुनौती का सामना तो तब करना पड़ेगा, जब इन सारे खातों में कामकाज होने लगेगा. इसका एक दूसरा पहलू भी है. अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा.

बिजनेस कॉरेस्पांडेंट का सवाल
वित्तमंत्री जेटली ने जन-धन योजना की सफलता में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स की भूमिका को काफी अहम माना है. आरबीआई के सुझाव के अनुरूप बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त भी किए हैं, लेकिन यह व्यवस्था अभी तक सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ पाई है. आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती द्वारा वित्तीय समावेशन पर मार्च 2013 में जो रिपोर्ट पेश की गई थी, उसमें साफ कहा गया था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स में पेशेवर रवैये का अभाव है. रिपोर्ट ने यह भी माना था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स को इस काम से काफी कम आमदनी हो रही है, जिसकी वजह से ये लोग काम छोड़ रहे हैं. इन स्थितियों में योजना की सफलता पर सवालिया निशान लगना लाजमी है.

आरबीआई कोे बदलनी पड़ी समय सीमा
जन धन योजना के शुरू हो जाने की वजह से अब देश में वित्तीय समावेशन की दो समांतर योजनाएं चल रही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक की पहले से चल रही वित्तीय समावेशन योजना में उन गांवों को दायरे में लाने का लक्ष्य बनाया गया है जिनकी आबादी 2000 से अधिक है. देश के 5.92 लाख गांवों में से 74,000 गांवों को अब तक वित्तीय समावेशन के दायरे में लाया जा चुका है.

इतनी भारी संख्या में खुल रहे खातों पर ओवरड्राफ्ट देने में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है

लेकिन इस योजना के तहत ध्यान गांवों पर था, न कि परिवारों पर. इसके अलावा यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में लाने के लिए काम करती थी. जन धन योजना परिवारों को बैंक खाते उपलब्ध कराने पर ध्यान देती है और इसका ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरी क्षेत्रों पर भी है.
आरबीआई की पहले से चल रही योजना का पहला चरण 2009-10 में शुरू हुआ था. इसका दूसरा चरण 2013 से शुरू होकर मार्च 2016 तक चलना था. दूसरी ओर जन धन योजना का पहला चरण 14 अगस्त 2015 तक चलना है. ऐसे में इस योजना की वजह से आरबीआई को वित्तीय समावेशन की अपनी पहली योजना की तिथियां बदलनी पड़ गई हैं. दो जनवरी 2015 को जारी सर्कुलर में आरबीआई ने मार्च 2016 तक की समय सीमा को कम करके 14 अगस्त 2015 कर दिया है, ताकि इसे जन धन योजना के तालमेल में लाया जा सके.

और भी सवाल हैं
खातों की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच कई और सवाल उठ खड़े हुए हैं. आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने सितंबर में एक बैंकिंग कांफ्रेंस में बोलते हुए कहा था, ‘जब हम कोई योजना शुरू करते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह पटरी से न उतरे. इसका लक्ष्य लोगों को शामिल करना है, सिर्फ तेजी और संख्या इसका लक्ष्य नहीं है.’ साथ ही राजन ने यह चिंता भी जताई थी कि यदि एक ही व्यक्ति कई-कई खाते खोले, नए खातों में कोई लेन-देन न हो और बैंकिंग व्यवस्था में पहली बार शामिल हो रहे व्यक्ति को खराब अनुभव का सामना करना पड़े, तो यह योजना निरर्थक साबित हो सकती है. भार्गव बताते हैं, ‘ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इस योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए.’ इसके अलावा यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों. ऐसे में स्मर्फिंग (बड़ी राशि को कई हिस्सों में बांटकर कई खातों के जरिए भेजना) और मनी लांड्रिंग की समस्या भी बढ़ सकती है.

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एसएस मुंद्रा ने भी डुप्लिकेट खाते खुलने की बात स्वीकार की है. पिछले दिनों उन्होंने कहा, ‘मैं डुप्लिकेट खातों की सही संख्या तो नहीं बता सकता, लेकिन कुछ सर्वेक्षणों के मुताबिक इनकी संख्या 30 फीसदी तक हो सकती है.’ दिक्कत यह है कि वक्त के साथ जैसे-जैसे कुल खातों की संख्या बढ़ेगी, इस तरह की गड़बड़ी को दूर करना काफी मुश्किल होता जाएगा.

इसके अलावा सवाल यह भी है कि 11 करोड़ का यह आंकड़ा कितना विश्वसनीय है. भार्गव कहते हैं, ‘दरअसल इस योजना के साथ सबसे बड़ी गड़बड़ी यह हो गई कि बैंकों को छोटी अवधि में एक लक्ष्य पूरा करने को दे दिया गया. इससे इस बात का खतरा हो गया है कि दबाव में आकर बैंक कहीं गलत रिपोर्टिंग न करने लगे हों.’ यह जानना भी जरूरी है कि इनमें से कितने खाते बैंकिंग सुविधा की पहुंच से दूर उन ग्रामीण क्षेत्रों में खुले हैं, जहां वाकई इनकी जरूरत है. ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इतनी भारी संख्या में खाते खोलेजाने के बावजूद इसके असली हकदार इससे वंचित रह गए हों.

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देश में राजनीति का अनुभव यही कहता है कि राजनेता अपनी उपलब्धियां दिखाने के लिए आंकड़ों के खेल में उलझ जाते हैं. इस योजना के साथ भी ऐसी आशंकाएं जन्म लेने लगी हैं. भार्गव कहते हैं, ‘अगर सरकार ने इस योजना के साथ देख-रेख और निगरानी का काम जारी नहीं रखा और इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है.’ हालांकि भार्गव यह भी कहते हैं कि जल्दीबाजी में इस योजना के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले कम से कम छह महीने और इंतजार करना बेहतर होगा.

 


आरबीआई की अब तक की कोशिशों का हाल
डेलॉयट और सीआईआई की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में केवल 50 फीसदी लोगों के पास ही बैंक खाते हैं और 20 फीसदी से कम लोगों के पास बैंकों से कर्ज की सुविधा है. इसका सीधा मतलब यह है कि शेष जनता को औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था के तहत लाने के लिए अभी काफी लंबी दूरी तय की जानी बाकी है. भारतीय रिजर्व बैंक काफी समय से वित्तीय समावेशन की दिशा में प्रयास भी कर रहा है. साल 2004 में इसने खान आयोग का गठन किया था, जिसे इस बारे में सुझाव देने के लिए कहा गया था. आयोग की सिफारिशों को आरबीआई की साल 2005-06 की मध्यावधि समीक्षा रिपोर्ट में शामिल किया गया. इसके तहत बैंकों से कहा गया कि कमजोर वर्गों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने के लिए वे नो-फ्रिल्स खाते (बेसिक एकाउंट) उपलब्ध कराएं. जनवरी 2006 में आरबीआई ने बैंकों को इस बात की अनुमति दे दी कि वे इस काम के लिए एनजीओ, स्वयं सहायता समूहों, माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं आदि की मदद ले सकते हैं और इन्हें बिजनेस कॉरेस्पांडेंट के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है.

लेकिन इस दिशा में प्रगति की दर काफी धीमी है. दरअसल इसकी एक बड़ी वजह इसके लिए जरूरी उपयोगी बिजनेस मॉडल का अभाव है. चक्रबर्ती रिपोर्ट के अनुसार, ‘वित्तीय समावेशन के काम को आगे बढ़ाने के लिए देश में उपयोगी बिजनेस मॉडल अभी तक विकसित नहीं हो सका है. इसके लिए रेवेन्यू जेनरेशन मॉडल का अभाव इसकी असफलता की एक बड़ी वजह है.’

इसके अलावा वित्तीय समावेशन के प्रयासों के तहत अब तक जो खाते खोले भी गए हैं, उनमें से काफी अधिक खातों में कोई कामकाज नहीं हो रहा है या फिर काफी कम लेन-देन हो रहा है. यह इस बात का प्रमाण है कि महज खाता खोल देने भर से कोई व्यक्ति वित्तीय रूप से व्यवस्था का हिस्सा नहीं बना जाता.
भार्गव के मुताबिक, इस लिहाज से वित्तीय साक्षरता और जागरुकता की भूमिका काफी अहम है. लोगों को इस बारे में शिक्षित करने की जरूरत है कि अगर वे बैंकिंग व्यवस्था में सक्रिय रूप से भागीदारी करते हैं, तो आनेवाले समय में उनको क्या-क्या लाभ होंगे. ऐसे उपाय करने होंगे कि ये लोग सूदखोरों और पोंजी स्कीमों के चंगुल में न फंसें. खास तौर पर उन लोगों के लिए वित्तीय उत्पाद तैयार करने होंगे, जो पहली बार बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं. उन्हें छोटी बचतों के लिए प्रेरित करना होगा और कामकाज के लिए छोटे कर्ज मुहैया कराने होंगे.

कद से बड़ी कोशिश

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फोटोः विकास कुमार

जनवरी महीने की तीन तारीख है. सुबह के दस बज चुके हैं, लेकिन धूप नहीं निकली है. हम इस वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक छोटे से गांव कोठिया में हैं. गांव के लोग घरों से निकलकर पास की खाली जगह की तरफ जा रहे हैं. गांव के बच्चे भी कमेरा-कमेरा चिल्लाते उसी ओर दौड़ रहे हैं. यहां एक 20-22 साल की युवती एक खबर बोल रही है और उसकी टीम उसे रिकॉर्ड कर रही है. लेकिन बीच-बीच में बच्चों के चिल्ला देने की वजह से उसे बार-बार रुकना पड़ रहा है. लेकिन इसके बावजूद वह खीझ नहीं रही. मुस्कुराते हुए वह उन बच्चों से कहती है, ‘थोड़ा देर चुप रह जो, फेरू फोटो खिंच देबऊ.’ बच्चों के शोर की वजह से चार-पांच बार रिकॉर्डिंग रुकती है और हर बार टीम की लड़कियां उन बच्चों का मनुहार करती हैं. कुछ कोशिशों के बाद रिकॉर्डिंग पूरी हो जाती है.

समझा-बुझाकर काम करने का यह सिलसिला पिछले सात साल से चल रहा है. साल 2007 के दिसंबर महीने में मुजफ्फरपुर के पारु ब्लॉक के एक छोटे से गांव चांदकेवारी से इस अनूठे समाचार माध्यम ‘अप्पन समाचार’ की शुरुआत हुई, जिसे सात लड़कियां चलाती हैं. संसाधन के नाम पर इनके पास आया एक सस्ता वीडियो कैमरा, एक ट्राईपॉड और एक माईक्रोफोन, और इसके साथ ही शुरू हो गई खबरों के लिए इन लड़कियों की भागदौड़. तब से अब तक यह भागदौड़ बदस्तूर जारी है.

‘अप्पन समाचार’ के पीछे पहल है युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की. हिम्मत, जुनून और जज्बा उन सात लड़कियों का, जो खबर के लिए साईकिल से गांव-गांव जाती हैं. और सहयोग स्थानीय लोगों का, जिन्हें अब उनके इस काम से कोई परेशानी नहीं है. अब तो उन्हें अपने गांव की इन खबरचियों पर गर्व है.

टीम की लड़कियां एक साथ गांव में स्टोरी खोजने और शूट करने निकलती हैं. आपस में कभी गंभीर चर्चा तो कभी हंसी-ठिठोली करती ये लड़कियां जब गांव के बीच से निकलती हैं, तो लोग टकटकी लगाकर इन्हें देखते हैं. अच्छी स्टोरी की तलाश में 'अप्पन समाचार' की टीम गांव-देहात की कच्ची-पक्की सड़कों और खेतों की मेढ़ के सहारे कई-कई घंटे पैदल चलती है.फोटोः विकास कुमार
टीम की लड़कियां एक साथ गांव में स्टोरी खोजने और शूट करने निकलती हैं. आपस में कभी गंभीर चर्चा तो कभी हंसी-ठिठोली करती ये लड़कियां जब गांव के बीच से निकलती हैं, तो लोग टकटकी लगाकर इन्हें देखते हैं. अच्छी स्टोरी की तलाश में ‘अप्पन समाचार’ की टीम गांव-देहात की कच्ची-पक्की सड़कों और खेतों की मेढ़ के सहारे कई-कई घंटे पैदल चलती है.
फोटोः विकास कुमार

ये सारी लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. दो लड़कियां गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं, जहां इन्हें हर महीने महज 600 रुपये मिलते हैं. इनकी उम्र 14 से 24 साल के बीच है, लेकिन बुलंद हौसलों से लबरेज ये लड़कियां लगातार काम कर रही हैं. सबके सहयोग से अब तक पच्चीस एपिसोड बना चुकी हैं. खबरों के चयन और उनकी रिपोर्टिंग-रिकॉर्डिंग के बाद इन लड़कियों में से कोई उसे लेकर मुजफ्फरपुर जाता है, जो गांव से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर है. वहां एक स्टूडियो में इनकी एडिटिंग होती है. यह स्टूडियो चलानेवाले राजेश बिना किसी शुल्क के इन टेप्स को एडिट करते हैं और एडिट टेबल पर लड़कियों को वीडियो एडिटिंग की बारीकियां भी समझाते जाते हैं. उसके बाद खबरों की सीडी गांव वापस आती है और उसे सीडी प्लेयर के माध्यम से गांववालों के बीच दिखाया जाता है.

मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी ब्लॉक के कोठिया गांव में ‘अप्पन समाचार’ की टीम गांव की एक महिला से बात कर रही है. अप्पन समाचार की लड़कियों से बात करते हुए इलाके की महिलाएं बेबाकी से अपनी बात रख पाती हैं, क्योंकि ये लड़कियां उनकी बोली में ही उनसे संवाद करती हैंैं.फोटोः विकास कुमार
मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी ब्लॉक के कोठिया गांव में ‘अप्पन समाचार’ की टीम गांव की एक महिला से बात कर रही है. अप्पन समाचार की लड़कियों से बात करते हुए इलाके की महिलाएं बेबाकी से अपनी बात रख पाती हैं, क्योंकि ये लड़कियां उनकी बोली में ही उनसे संवाद करती हैं.
फोटोः विकास कुमार

सवाल यह है इतनी मेहनत से इस समाचार माध्यम को चलाने की जरूरत क्या है? इस सवाल के जवाब में टीम की सदस्य सविता कहती हैं, ‘बड़े समाचार चैनल न तो हमारे गांव तक पहुंच पाते हैं और न ही वे हम लोगों की रोजमर्रा की परेशानियां दिखाते हैं. हम लोग इन दिक्कतों से रोज दो-चार होते हैं. ऐसे में हमें अपने बीच की परेशानियों को उठाने और लोगों के बीच दिखाने में खुशी होती है.’

सविता की इस बात को टीम की दूसरी सदस्य ममता आगे बढ़ाती हैं. वह कहती हैं, ‘इस तरह की खबर हम ही दिखा सकते हैं. बड़े-बड़े चैनल्स को बड़े-बड़े मुद्दे चाहिए. वह इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं.’ इस तरह बातों-बातों में ममता यह अहसास करा जाती हैं कि कथित बड़े चैनल केवल शहरों तक सीमित हो गए हैं. वे चुनाव या किसी बड़ी आपदा के वक्त ही गांव पहुंचते हैं.

इनकी दिखाई खबरों का असर भी हुआ है. ममता कहती हैं, ‘किसान क्रेडिट कार्ड देने के लिए किसानों से पैसे लिए जा रहे थे. हमने खबर बनाई और दिखाई. बैंक मैनेजर से सवाल किया. हमारी खबर की वजह से इलाके के किसानों को मुफ्त में किसान क्रेडिट कार्ड मिले. पास के स्कूल में कमरों का निर्माण घटिया किस्म की ईंटों से किया जा रहा था. हमने उसकी रिपोर्टिंग की और इस वजह से ईंटों की पूरी खेप वापस भेजी गई. जब हमारी वजह से कुछ अच्छा होता है, किसी को उसका हक मिलता है, तो हम सब को बहुत खुशी होती है और इस खुशी के लिए हम और अधिक मेहनत करना चाहते हैं.’

इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही है. इस बारे में संतोष बताते हैं, ‘यह इलाका नक्सल-प्रभावित रहा है. शाम होते ही इस इलाके में आना-जाना बंद हो जाता था. लड़कियों का पढ़ना-लिखना तो दूर की बात थी. आज स्थिति ऐसी नहीं है. आज लड़कियां पढ़ रही हैं.’ दरअसल पहली बार इलाके के लोगों को यह दिख रहा है कि उनकी बिटिया बैंक मैनेजर से लेकर बीडीओ तक से सवाल कर रही है. उन्हें यह भी दिख रहा है कि इनके सवाल करने से उनकी जिंदगी की दुश्वारियां थोड़ी कम ही हुई हैं.

किसी स्टोरी को शूट करने जाने से पहले या शूट करके आने के बाद लड़कियां आपस में चर्चा करती हैं. एक पुराने और छांवदार बरगद के पेड़ के नीचे जमनेवाली बैठकी को 'अप्पन समाचार' की सम्पादकीय मीटिंग भी मान सकते हैं. फील्ड में काम करके आने या काम करने जाने से पहले लडकियां आपस में काफी चर्चा करती हैं। इसी चर्चा से स्टोरी तय होती है..फोटोः विकास कुमार
किसी स्टोरी को शूट करने जाने से पहले या शूट करके आने के बाद लड़कियां आपस में चर्चा करती हैं. एक पुराने और छांवदार बरगद के पेड़ के नीचे जमनेवाली बैठकी को ‘अप्पन समाचार’ की सम्पादकीय मीटिंग भी मान सकते हैं. फील्ड में काम करके आने या काम करने जाने से पहले लडकियां आपस में काफी चर्चा करती हैं। इसी चर्चा से स्टोरी तय होती है..
फोटोः विकास कुमार

लेकिन यह कोशिश आसान नहीं रही है. खबरों की खोज में निकलनेवाली लड़कियों और संतोष के सामने इस दौरान कई तरह की दिक्कतें भी आईं, लेकिन इनके बुलंद हौसलों के सामने दिक्कतें छोटी पड़ गईं. संतोष कहते हैं, ‘संसाधनों के मामले में हम शुरू से कमजोर हैं. इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन इस कमी की वजह से यह प्रयास थमेगा नहीं.’

अभी कुछ ही समय पहले की बात है. अमेरिका के एक स्वयंसेवी संस्थान ने टीम से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि वे ‘अप्पन समाचार’ को सहयोग देना चाह रहे हैं. संतोष बताते हैं, ‘हमने उनका स्वागत किया. लड़कियां भी खुश थीं, लेकिन जब वे लोग आए तो पता चला कि इस सहयोग के बहाने वे हमारी पूरी मेहनत को हथियाना चाह रहे हैं. हमने लड़कियों के सामने पूरा प्रस्ताव रख दिया और कहा कि वे चुनाव कर लें. लड़कियों और ग्रामीणों ने एक सिरे से उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सहयोग जरूर चाह रहे हैं, लेकिन कोई हमारी कीमत लगाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं है.’

स्टोरी एडिट करने के लिए लड़कियों को अपने गांव से करीब-करीब 40 किमी दूर मुजफ्फरपुर शहर में आना पड़ता है. यहां एक वीडियो स्टूडियो ह,ै जिसे राजेश चलाते हैं. राजेश ने इस टीम को अपने यहां स्टोरी एडिट करने की छुट दे रखी है. राजेश का मानना है कि यह बिलकुल ही अलग तरह का काम है सो वो टीम की जितना हो सके मदद करते रहना चाहते हैं.फोटोः विकास कुमार
स्टोरी एडिट करने के लिए लड़कियों को अपने गांव से करीब-करीब 40 किमी दूर मुजफ्फरपुर शहर में आना पड़ता है. यहां एक वीडियो स्टूडियो ह,ै जिसे राजेश चलाते हैं. राजेश ने इस टीम को अपने यहां स्टोरी एडिट करने की छुट दे रखी है. राजेश का मानना है कि यह बिलकुल ही अलग तरह का काम है सो वो टीम की जितना हो सके मदद करते रहना चाहते हैं.
फोटोः विकास कुमार

प्यादों से पिटता वजीर!

hindi-cover2हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निदा फाजली का यह शेर बिल्कुल सटीक बैठता है. 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के मुंह से विकास और सुशासन जैसे शब्दों के निकलने की गति इतनी तेज थी, मानों कंठ के भीतर कोई सॉफ्टवेयर फिट हो. एक ऐसा सॉफ्टवेयर जो नियमित अंतराल पर विकास और सुशासन का जिक्र करता है. लोकसभा चुनाव के अपने पूरे प्रचार में मोदी ने विकास का नारा दिया, गुजरात के विकास का हवाला दिया और पूरे भारत से विकास के लिए वोट मांगा. मोदी का पूरा चुनावी अभियान मानों विकास का, विकास के लिए और विकास पुरुष द्वारा, में परिवर्तित हो गया था. इसके अतिरिक्त वह चुनाव प्रचार में एक भारत श्रेष्ठ भारत, सबका साथ सबका विकास, इंडिया फर्स्ट जैसे नारों और जुमलों से लोगों को यह बताने की कोशिश करते रहे कि भले ही उनके विरोधी उन्हें सांप्रदायिक, दंगाई, झूठा और फेंकू बताते हों, लेकिन उनका एजेंडा विकास का है. विरोधी आरोप लगाते रहे कि एक बार सत्ता हाथ में आने के बाद मोदी देश में आरएसएस का सांप्रदायिक एजेंडा ही आगे बढ़ाएंगे. मोदी फिर भी अभियान के दौरान विकास की माला ही जपते रहे. अपने अभियान के दौरान उन्होंने कोई सांप्रदायिक बात नहीं की, कोई विभाजनकारी बयान नहीं दिया. जाति और धर्म की चर्चा नहीं की, युवाओं से श्रेष्ठ भारत का निर्माण करने के लिए सहयोग मांगा. टीवी शो में वह अल्पसंख्यकों को विश्वास दिलाते नजर आए कि ‘मेरा काम है सभी संप्रदायों का सम्मान करना. सभी परंपराओं का सम्मान करना.’ यानी मोदी का एजेंडा प्रगति का था.

चुनाव खत्म हुए, मोदी को प्रचंड बहुमत मिला. वह प्रधानमंत्री बन गए. आज उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठे सात महीने से कुछ अधिक वक्त हो चुका है. मोदी के पिछले सात महीने के शासन में हुए कामकाज को देखकर लगता है कि मोदी के आलोचकों ने जो अंदेशा व्यक्त किया था, उसमें पूरी नहीं, लेकिन कुछ हद तक सच्चाई जरूर है. पिछले सात महीनों में देश के चौकीदार मोदी के राज में वह सब कुछ हुआ और हो रहा है, जो उनके विकास और सुशासन के दावों को मुंह चिढ़ाता है. इन महीनों में सरकार ऐसे तमाम बयानों और कामों की वजह से चर्चा में रही, जिसका सुशासन और विकास से कोई रिश्ता नहीं था. इन महीनों में रामजादे बनाम हरामजादे, राष्ट्रभक्त गोडसे, लव जेहाद, लॉउडस्पीकर्स का झगड़ा, हिंदू राष्ट्र, दीनानाथ बत्रा की किताब, पीके फिल्म का विरोध, घर वापसी, चार बच्चे पैदा करना, रुपये से गांधी की फोटो हटाना, गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाना, अयोध्या में राम मंदिर बनाने समेत वे तमाम मुद्दे चर्चा में रहे, जिनका मोदी के चुनावी अभियान के दौरान किए गए वादों से कोई वास्ता तक नहीं था. जाहिर है कि उन्हें मिला जनादेश उनके चुनावी अभियान के दौरान किए गए वादों की वजह से था न कि इस समय उनके सहयोगियों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों की वजह से.

पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा इससे सहमत नहीं हैं, ‘भले ही कुछ तत्व यह सब कर रहे हों, लेकिन मोदी का विकास का एजेंडा इससे प्रभावित होनेवाला नहीं है. मोदी की यह सख्त हिदायत है कि कोई आदमी ऐसी बयानबाजी न करे. आज के समय में इस बात का क्या मतलब कि तुम पाकिस्तान चले जाओ. यह बकवास है. देश में संविधान और कानून का राज है.’

जिस सरकार के मुखिया ने विकास को एजेंडा बताया था, उसके पीएम बनने के महीनेभर के भीतर ही देश को यह पता चला कि कैसे लव जेहाद भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. लव जेहाद के खिलाफ बिगुल फूंकने की शुरुआत की पार्टी के गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ ने. योगी के साथ संघ और उससे जुड़े अन्य संगठन भी बेहद आक्रामकता के साथ लव जेहाद के खिलाफ सक्रिय हो उठे.

यूपी में लव जेहाद के खिलाफ अभियान का श्रीगणेश उसी समय हुआ, जिस वक्त प्रदेश में विधानसभा की 10 और लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव होने वाले थे. मजेदार बात यह है कि विकास और सुशासन के एजेंडे पर सत्ता में आई भाजपा और नरेंद्र मोदी ने यूपी उपचुनाव के प्रचार अभियान की जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ को सौंपी.

15 अगस्त को मोदी ने लालकिले से दिए अपने भाषण में कहा था कि सांप्रदायिकता की राजनीति पर दस सालों तक के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए. लेकिन मोदी के सहयोगी अमित शाह ने भाजपा के चुनावी अभियान का नेतृत्व करने के लिए योगी आदित्यनाथ को चुना. आदित्यनाथ के चयन की इस मजबूरी पर स्वयं मोदी और अमित शाह ही रोशनी डाल सकते हैं. भाजपा के आलोचकों और राजनीतिक पंडितों का मानना था कि आदित्यनाथ को पार्टी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए चुना, ताकि उपचुनाव में राजनीतिक लाभ उठाया जा सके. आरोप यह भी लगा कि लव जेहाद का ईजाद और इसके खिलाफ हिंदू समाज को एकजुट करने की ललकार उसी राजनीतिक फायदे के लिए दी गई. उस समय उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न इलाकों से लव जेहाद के मामले सामने आने लगे. हिंदू लड़कियों की लव जेहाद से रक्षा करने का दावा करनेवाले इन नेताओं का कहना था कि मुसलमान लड़के प्रेम के जाल में फांसकर इन लड़कियों का पहले दैहिक शोषण करते हैं, फिर इनका जबरन धर्म परिवर्तन कराकर शादी करते हैं. पूरे देश में संस्कृति के स्वघोषित रखवालों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इसके अगुवा थे आदित्यनाथ. आदित्यनाथ के राजनीतिक जीवन का यह अहम मोड़ था. आदित्यनाथ इससे पहले तब चर्चा में आए थे, जब कुछ साल पहले वह संसद भवन में रो पड़े थे. आदित्यनाथ का बयान आया कि वह एक हिंदू लड़की के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाएंगे.

खैर, पूरे देश में बवाल मचने के बाद मामला संसद में पहुंचा. वहां विरोधी दलों ने मोदी की कड़ी आलोचना की. उस समय तकरीबन दो महीने तक योगी आदित्यनाथ आग उगलते रहे. लव जेहाद के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ सबकुछ बोलते रहे, देश में बवाल मचता रहा, लेकिन प्रधानमंत्री चुप रहे. न उन्होंने आदित्यनाथ को रोका और न ही दूसरे कार्यकर्ताओं को. उस दौरान लव जेहाद के कई मामले सामने आए, लेकिन थोड़ी जांच-पड़ताल के बाद सारे मामले झूठे साबित हुए. जिस मेरठ के मामले को लेकर आदित्यनाथ ने बवाल शुरू किया था, उसमें पीड़िता ने खुद ही पुलिस के पास जाकर न सिर्फ पूरे मामले को फर्जी बताया, बल्कि अपने परिवार से ही जान का खतरा होने की शिकायत भी दर्ज कराई. बाद में भाजपा के स्थानीय नेता पर परिवार को पैसा देकर मामले को भड़काने के भी आरोप लगे. एबीपी न्यूज चैनल ने भाजपा के व्यापार प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष विनीत अग्रवाल को पीड़ित लड़की की मां को पैसे देते कैमरे में कैद किया. भाजपा नेता का अपने बचाव में कहना था कि उन्होंने ये पैसे पीड़ित परिवार को मदद के तौर पर दिए थे. लड़की ने मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराए बयान में कहा कि न तो उसके साथ कोई गैंगरेप हुआ था और न ही उसका किसी ने धर्म परिवर्तन कराया था. उसने पहले जो भी कहा था, वह परिजनों के दबाव में कहा था, क्योंकि उसकी जान को उसके खुद के ही परिवार से खतरा था. वह अपनी मर्जी से दूसरे समुदाय के अपने प्रेमी के साथ गई थी.

लेकिन जिस आक्रामक तरीके से संघ परिवार और आदित्यनाथ ने लव जेहाद के खिलाफ अभियान चलाया, उससे ऐसा लगा मानों देश के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. यह सब कुछ उस व्यक्ति के राज में और आंखों के सामने हो रहा था, जो चुनावों में विकास के इतर कुछ और बोलता ही नहीं था, जिसके लिए दरिद्र नारायण ही सब कुछ था. मोदी की धुर समर्थक रही वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह भी उनसे नाराज दिखती हैं. वह लिखती हैं, ‘लोगों ने मोदी के विकास के एजेंडे को अपना समर्थन दिया था. ऐसे में मोदी पता नहीं क्यों आरएसएस को अपना एजेंडा थोपने का मौका दे रहे हैं.’

भाजपा का रवैया इस मामले में क्या था, इसका अंदाजा एक घटना से लगता है. उसी दौरान गृहमंत्री राजनाथ सिंह से एक पत्रकार ने पूछा कि आजकल लव जेहाद की बहुत चर्चा है देश में. आपको क्या लगता है, यह कितनी बड़ी समस्या है? राजनाथ सिंह ने हंसते हुए पूछा, ‘यह क्या है?’ उस समय देश में उनकी पार्टी और संघ के कार्यकर्ता हर दिन लव जेहाद के खिलाफ ऊधम मचा रहे थे, उसी समय पांचजन्य ने लव जेहाद पर एक कवर स्टोरी छापकर इसे देश के लिए बड़ा खतरा बताया था. ऐसे गरमाए हुए माहौल में भी देश के गृहमंत्री द्वारा मासूमियत से सवाल पूछना कई सवाल खड़े करता है.

जिसने विकास को एजेंडा बताया था, उसके पीएम बनने के महीनेभर के भीतर ही देश को यह पता चला कि कैसे लव जेहाद भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है

मोदी के राज में देश ने एक नए इतिहासकार और शिक्षाविद से साक्षात्कार किया. उनका नाम है दीनानाथ बत्रा. बत्रा खुद को किताबों का सोशल ऑडिटर कहते हैं और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता हैं. उनकी सबसे बड़ी पहचान यह रही है कि उन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वेंडी डोनिगर नाम की विदेशी महिला द्वारा हिंदू धर्म पर लिखी किताब ‘द हिंदूज- द अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को अदालत से प्रतिबंधित करवा दिया था. चूंकि वह आरएसएस के साथ जुड़े रहे हैं, लिहाजा उनके पास चीजों को जांचने-परखने का एक राष्ट्रवादी चश्मा है. बत्रा की किताबें विद्याभारती से संबद्ध स्कूलों में लंबे समय से पढ़ाई जाती रही हैं. लेकिन उसके बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर न तो बत्रा की कोई बड़ी पहचान थी और न ही देश की शिक्षा व्यवस्था को सुधारने में उनकी कोई बड़ी भूमिका थी. लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उनके दिन फिर गए हैं. देश में शिक्षा व्यवस्था कैसी हो और बच्चों को क्या पढ़ाया जाए से लेकर क्या न पढ़ाया जाए. इन सभी सवालों का निर्धारण करने का अधिकार बत्रा को दिया जा चुका है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के महीनेभर के भीतर ही बत्रा द्वारा तैयार की गई किताबें गुजरात के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हो गईं. गुजरात सरकार ने बत्रा की नौ किताबों के 42 हजार सेट प्रदेश के प्राइमरी और हाई स्कूलों में बंटवाने का निर्णय किया. एक मोटी रकम देकर खरीदी गई ये किताबें वैसे तो मूलतः हिंदी में लिखी गई थीं, लेकिन गुजरात सरकार ने अपने खर्च से उनका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया. इन किताबों की कुछ खास बातें इस प्रकार हैं-

• ‘आप भारत का नक्शा कैसे बनाएंगे? क्या आप जानते हैं कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका और बर्मा अविभाजित भारत का हिस्सा हैं.’
• ‘मित्रों, तैयार हो जाओ अखंड भारत की महिमा और अस्मिता को पुनः स्थापित करने के लिए… अगर 1700 वर्ष बिना भूमि के रहे यहूदी अपने संकल्प से इजराइल ले सकते हैं, अगर खंडित वियतनाम और कोरिया फिर एक हो सकते हैं, तो भारत भी फिर से अखंड हो सकता है.’
• ‘आज के युग में लोगों के पहनावे ने शरीर को बाजार में लाकर सुंदरता की नीलामी में लाकर खड़ा कर दिया है. पहनावे से चंचलता और विचारों में उत्तेजना आना स्वाभाविक है.
• ‘वेस्टर्न म्यूजिक, डिस्को जैसे उत्तेजक गीत पशुभाव जागृत करते हैं. बच्चों को भजन और देशभक्ति के गीत सुनने चाहिए.’
• ‘बच्चों को जन्मदिन पर मोमबत्ती बुझाकर नहीं, बल्कि गायत्री मंत्र पढ़कर अपना जन्मदिन मनाना चाहिए.’
• ‘जो विद्यार्थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में रोज जाते हैं, उनके जीवन में चमत्कारी बदलाव आ जाते हैं. इनमें से कई विद्यार्थी अपनी पढ़ाई अच्छे नंबरों से पास कर अब अपनी युवा क्षमता और इच्छाओं का देशहित में उपयोग कर रहे हैं.’
• ‘इंग्लिश शिक्षा ने हिंदू शब्द को विकृत किया है. मैकाले और मार्क्स के पुत्रों ने हमारे इतिहास के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया है.’

ये कुछ अंश हैं बत्रा की उन किताबों से, जो गुजरात के स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं. बत्रा कहते हैं, ‘मेरी किताबों में भारत के इतिहास की झलक है, जो स्कूल की किताबों में नहीं होती. बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाया जाता है. इसे बदलना होगा. मैं चाहता हूं कि ऐसी किताबें अन्य राज्य भी बांटें.’ अभी हाल ही में यह खबर आई कि हरियाणा के स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी बत्रा की किताबों को शामिल किया जा रहा है. ऐसी खबर है कि सरकार जो नई शिक्षा नीति लानेवाली है, उसमें बत्रा की बड़ी भूमिका होनेवाली है.

शिक्षा के भगवाकरण का संघ का एजेंडा किसी से छुपा नहीं है. शिक्षा को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि के हिसाब से परोसने का संघ हमेशा प्रयास करता रहा है, लेकिन कभी इसमें बहुत बड़े स्तर पर सफल नहीं हो पाया. हालांकि केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद उसकी उम्मीदें फिर से सातवें आसमान पर हैं. देश की शिक्षा व्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित करने का उसका सपना अब उसे पूरा होता दिख रहा है. बत्रा की किताबों को स्कूलों में शामिल कराकर उसी दिशा में कदम बढ़ाया जा रहा है.

पिछले सात महीने में देश की शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालनेवाले मानव संसाधन मंत्रालय ने भी कम चर्चा नहीं बटोरी. इसकी शुरुआत ही मानव संसाधन विकास मंत्री के पद पर स्मृति ईरानी की नियुक्ति से हुई. मोदी द्वारा तमाम वरिष्ठ नेताओं को पीछे छोड़ते हुए स्मृति को शिक्षा मंत्री बनाना काफी चर्चा में रहा क्योंकि उनके पास न तो सरकार के किसी पद का कोई अनुभव था और न ही पहले शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कोई काम किया था. कुछ समय बाद ही यह खबर आई कि स्मृति मात्र 12वीं पास हैं. उन्होंने चुनाव आयोग को भी गलत जानकारी दी है कि वह बीए पास हैं.

यह सारा विवाद उसको लेकर था जिसका चयन मोदी ने देश की मानव संसाधन मंत्री के तौर पर किया था. स्मृति ईरानी के कार्यकाल पर संघ के एजेंडे को भी लागू करने का आरोप लगा, जब केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के तौर पर जर्मन के बदले संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता लागू कर दी गई. सत्र के बीच में पाठ्यक्रम में बदलाव की आलोचना भी हुई और मंत्री पर संघ के दबाव में बच्चों पर संस्कृत थोपने और शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप भी लगा, लेकिन प्रधानमंत्री इस विवाद पर भी चुप रहे.

पिछले सात महीनों के दौरान विकास के एजेंडे पर एक और मसला हावी रहा है- घर वापसी का. यह संघ का एजेंडा है. घर वापसी अभियान का मतलब है, जो लोग अलग-अलग समय पर हिंदू धर्म को छोड़कर किसी और धर्म में शामिल हो गए हैं, उन्हें वापस हिंदू धर्म में ले आना. घर वापसी के कार्यक्रम पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना था, ‘लोग लालच और जबरदस्ती से हमसे लूट लिए गए थे. चोर पकड़ा गया, उसके पास मेरा माल है. दुनिया जानती है वह मेरा माल है, मैं मेरा माल वापस लेता हूं. इसमें कौन सी बड़ी बात है. इसमें किसी को क्या दिक्कत है? आपको पसंद नहीं है तो कानून लाओ.’

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भागवत और उनकी पूरी टीम अपना माल वापस लेने के लिए बेहद आक्रामक तरीके से काम कर रही है. अलीगढ़, आगरा से लेकर पंजाब और बिहार तक घर वापसी का कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहा है. घर वापसी के संघ के कार्यक्रम को अन्य राजनीतिक दलों ने जबरन धर्म परिवर्तन कराने की साजिश के तौर पर देखा. इसको लेकर काफी हो-हल्ला मचा. नेताओं ने यह मामला संसद में उठाया. विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से इसे रोकने और इस पर बयान देने की मांग करता रहा. राज्यसभा की कार्यवाही इस कारण कई दिनों तक ठप रही. आरएसएस के इस घर वापसी कार्यक्रम की काफी आलोचना हुई, लेकिन तमाम बवाल के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने न तो संसद में इस पर बयान दिया, न ही घर वापसी का कार्यक्रम रुका.

अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयायी या प्रशंसक के तौर पर नहीं जाने गए थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद सदन में अपने पहले संबोधन में मोदी ने महात्मा गांधी का जिक्र किया. मोदी का कहना था, ‘2019 में युगपुरुष महात्मा गांधी की 150वीं जयंती है. क्या हम यह सोच सकते हैं कि हम गांधी जी की जयंती कैसे मनाएं? महात्मा गांधी को जो कई चीजें पसंद थीं, उनमें एक थी स्वच्छता, साफ-सफाई. क्या हम गांधी की 150वीं जयंती पर एक साफ-सुथरा हिंदुस्तान उनके चरणों में रख सकते हैं.’ मोदी की इस सोच से भारत स्वच्छता अभियान का जन्म हुआ. दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती के दिन से मोदी ने इस अभियान की शुरुआत की. यह केंद्र सरकार का एक बड़ा अभियान बन गया. सरकार के मंत्री, अधिकारी, भाजपा के नेता-कार्यकर्ता से लेकर दूसरे दलों के नेता, खिलाड़ी और अभिनेता से लेकर आम लोग भी इसका हिस्सा बने. इस तरह मोदी के स्वच्छता अभियान से गांधी एक बार फिर से चर्चा में आए.

अभी माहौल गांधीमय बना ही था कि मोदी के एक सिपहसालार ने गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की महिमा गानी शुरू कर दी. उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार दिया. जब बवाल मचा तो माफी मांग ली. उन्हीं की वैचारिक जमीन से आनेवाले एक संगठन अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने मांग रखी कि गोडसे की प्रतिमा संसद भवन परिसर समेत देश के कोने-कोने में लगनी चाहिए. इसके लिए महासभा ने राजस्थान के किशनगढ़ से गोडसे की संगमरमर से निर्मित प्रतिमा भी मंगवा ली. फिलहाल यह प्रतिमा मंदिर मार्ग स्थित महासभा के कार्यालय में स्थापित है. महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रप्रकाश कौशिक के शब्दों में, ‘अब तक देश पर शासन करनेवाली सरकारों ने गोडसे की छवि को महात्मा गांधी के हत्यारे के तौर पर ही पेश किया है, जबकि गोडसे अनन्य देशभक्त थे. देश में आज भी ऐसे युवाओं की कमी नहीं है, जो गोडसे को सच्चा देशभक्त मानते हैं. युवा उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लें, इसी मकसद से महासभा गोडसे की प्रतिमा को देश के विभिन्न हिस्सों में स्थापित करना चाहती है. इस कार्य की शुरुआत हम संसद परिसर से करना चाहते हैं. सरकार से अनुमति मिलते ही उनकी प्रतिमा को संसद परिसर में स्थापित कर दिया जाएगा.’ महासभा की ताजा राष्ट्रवादी मांग है कि नोटों पर से गांधी जी की फोटो हटायी जाए.

केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद संघ की उम्मीदें फिर से सातवें आसमान पर हैं. शिक्षा व्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित करने का सपना अब उसे पूरा होता दिख रहा है

गोडसे को लेकर उमड़ रहे प्रेम में वह दौर भी आया जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पत्र केसरी में 17 अक्टूबर को छपे एक लेख में केरल से भाजपा नेता बी गोपालकृष्णन ने अप्रत्यक्ष रूप से यह इशारा किया कि नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी को नहीं, बल्कि जवाहरलाल नेहरू को मारना चाहिए था. गोपालकृष्णन ने लिखा है कि देश के बंटवारे और महात्मा गांधी की हत्या सहित देश की सभी त्रासदियों का कारण नेहरू का स्वार्थ था. गोपालकृष्णन की दलील थी कि अगर इतिहास के छात्रों ने ईमानदारी से बंटवारे के पहले के ऐतिहासिक तथ्यों और गोडसे के विचारों का अध्ययन किया होता, तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे कि गोडसे ने गलत निशाना चुना. लेख में कहा गया है कि वैश्विक नेता बनने के लिए नेहरू को गांधी जी का नाम, खादी और टोपी चाहिए थी. गोडसे जवाहरलाल नेहरू से कहीं बेहतर था. उसने सम्मानपूर्वक झुकने के बाद गांधी को गोली मारी थी. वह नेहरू जैसा नहीं था कि आगे से झुका और पीठे में छुरा घोंप दिया.

यह भी गजब इत्तफाक है कि मोदी सरकार के बीते कार्यकाल में गांधी से जुड़ा हर पात्र चर्चा में है. गांधी स्वच्छता अभियान के कारण चर्चा में हैं, उनके हत्यारे गोडसे का नाम हिंदू महासभा के कारण चर्चा में है और गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगानेवाले सरदार पटेल भी चर्चा में हैं.

आरएसएस पर इस बात का आरोप लगता रहा है कि गांधी की हत्या में उसका हाथ था. आरएसएस भी गांधी की विचारधारा की मुखालफत करती रही है. ऐसे में गांधी और गोडसे को लेकर आरएसएस के स्टैंड से काफी हद तक लोग वाकिफ थे. लेकिन प्रधानमंत्री खुद इन दिनों गांधी का गुणगान करते थकते नहीं है. बावजूद इसके गोडसे एकाएक चर्चा में आ जाते हैं और लंबे समय तक चर्चा में बने रहते हैं. यह थोड़ा अटपटा लगता है. यह साहस कहां से आता है कि प्रधानमंत्री बापू की 150वीं जयंती मनाने की बात करते हैं और उनके सहयोगी गोडसे को महिमामंडित करने लगते हैं. गोडसे की मूर्ति लगाने के सवाल पर बैतूल से पार्टी सांसद ज्योति धुर्वे कहती हैं, ‘देखिए अगर कोई व्यक्ति यह चाहता है, तो देश में लोकतंत्र है, हम उसे कैसे रोक सकते हैं. हमें रोकना भी नहीं चाहिए. हम हिंदू धर्म के लोग हैं. हम मूर्ति पूजा करते हैं. अगर वह आदमी भी मूर्ति पूजा करना चाहता है, तो उसे अधिकार होना चाहिए. हमारा भारत एक हिंदू राष्ट्र है.’

इन्हीं सात महीनों में जुबान फिसलने या यूं कहें कि मन की बात जुबान पर आने का भी खेल खूब हुआ. दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए केंद्रीय खाद्य राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने सार्वजनिक मंच से विपक्षी दलों को गाली दी. साध्वी ने कहा, ‘दिल्ली में या तो रामजादों (राम के पुत्रों) की सरकार बनेगी या फिर हरामजादों की सरकार बनेगी. फैसला आपको करना है.’

साध्वी का यह बयान सामने आने के बाद संसद से लेकर सड़क तक हंगामा मच गया. उनकी खूब आलोचना हुई. संसद में विपक्ष के लगातार हमलावर रुख को देखते हुए प्रधानमंत्री ने बयान दिया, ‘मंत्रीजी गांव से आती हैं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए इस मामले को अब यहीं खत्म कर देना चाहिए.’ मंत्री ने भी चलते-फिरते खेद व्यक्त करने की रस्मअदायगी कर दी.

निरंजन ज्योति के बाद साक्षी महाराज हिंदू महिलाओं को चार बच्चा पैदा करने की नसीहत के साथ फिर से मैदान में वापस आ गए. यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि इस्लाम और ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले हिंदुओं को मौत की सजा दी जानी चाहिए. सरकार एक बार फिर से विपक्ष के निशाने पर आ गई. लेकिन अपने सांसदों और कार्यकर्ताओं पर कड़ा नियंत्रण रखनेवाले नरेंद्र मोदी आश्चर्यजनक रूप से चुप रहे. कांग्रेस ने अबकी बार मोदी सरकार की तर्ज पर अबकी बार बच्चे चार का नारा उछाला.

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इसी दौरान राजधानी से दूर छत्तीसगढ़ के मिशनरी स्कूलों के साथ विश्व हिंदू परिषद एक नया खेल खेल रही थी. मिशनरी स्कूलों पर दबाव बनाया गया कि हर स्कूल में सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की जाए, स्कूल के प्रिंसिपल को प्राचार्य और शिक्षकों को फादर की जगह सर कहा जाए. इसी दौरान क्रिसमस को सुशासन दिवस के रूप में मनाने का विवाद भी उठा और भगवाधारियों ने आमिर खान की फिल्म पीके के खिलाफ खूब उत्पात मचाया. विरोध करने वालों का कहना था कि मुस्लिम आमिर खान ने हिंदू देवी देवताओं और गुरुओं का अपमान किया है. पूरे देश में रामदेव समर्थकों और संघ कार्यकर्ताओं ने फिल्म के पोस्टर फाड़े और फिल्म को कई जगहों पर प्रदर्शित करने से रोका. यह सब होता रहा और मोदीजी खामोश रहे.

इन्हीं सात महीनों में पहली बार बहुत खुलकर देश और दुनिया को बताने की कोशिश की गई कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने एक बयान में कहा, ‘हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है. हिंदुत्व हमारे राष्ट्र की पहचान है और यह अन्य (धर्मों) को स्वयं में समाहित कर सकता है. सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिंदुत्व है और देश के वर्तमान निवासी इसी महान संस्कृति की संतान हैं.’

आरएसएस के घर वापसी कार्यक्रम की काफी आलोचना हुई, लेकिन तमाम बवाल के बावजूद प्रधानमंत्री ने न तो संसद में इस पर बयान दिया, न ही घर वापसी का कार्यक्रम रुका

भागवत के हिंदू राष्ट्र संबंधी बयान देने के बाद तो भाजपा और संघ से जुड़े लोगों में भारत को हिंदू राष्ट्र साबित करने की होड़ लग गई. भारतीय जनता पार्टी की गोवा सरकार में तत्कालीन उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा ने भी कहा कि भारत हिंदू राष्ट्र है. उनके मुताबिक, ‘यह हिंदुस्तान है. हिंदुस्तान में सभी भारतीय हिंदू हैं. मैं भी एक ईसाई हिंदू हूं.’

डिसूजा के बयान का गोवा सरकार में मंत्री दीपक धवलीकर ने और विस्तार किया. दीपक का कहना था, ‘बहुत जल्द पीएम नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्र के तौर पर विकसित करेंगे. मुझे पूरा विश्वास है कि बहुत जल्द पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक हिंदू राष्ट्र बनेगा’. हिंदू राष्ट्र को लेकर मचे बवाल पर भी मोदी ने चुप्पी जारी रखी.

एक तरफ यह सब चल रहा था, तो दूसरी तरफ देश में एक नए किस्म के विज्ञान का सृजन हो रहा था. जनवरी के पहले हफ्ते में मुंबई में संपन्न विज्ञान कांग्रेस में वैज्ञानिक कैप्टन आनंद जे बोडास ने कहा कि हवाई जहाज की खोज हमने वैदिक काल में ही कर ली थी. भारत में 7,000 साल पहले विमान बना लिए गए थे और हम एक देश से दूसरे देश तथा एक ग्रह से दूसरे ग्रह उन विमानों के माध्यम से ही जाया करते थे. बोडास के इस व्याख्यान के बाद उनकी आलोचना भी शुरू हो गई. लेकिन सरकार में वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि प्राचीन भारत का विज्ञान तर्कसंगत है, इसलिए इसे सम्मान से देखा जाना चाहिए.

उसी विज्ञान कांग्रेस में एक और खास शोध पत्र में कहा गया कि भारतीयों ने सर्जरी के लिए 20 तरह के उन्नत यंत्र और 100 प्रकार के सर्जरी उपकरण बना लिए थे, जो दिखने में बिलकुल आजकल के सर्जिकल उपकरणों की तरह ही थे.

भारतीय विज्ञान कांग्रेस में इस तरह के चर्चे और पर्चे पहले कभी नहीं देखे-सुने गए. जाहिर सी बात है आलोचकों ने इसके पीछे संघ की भूमिका बताना शुरू कर दिया.

कुछ दिन पहले ही स्वयं प्रधानमंत्री ने भी कुछ इसी तरह की बात मुंबई में एक अस्पताल के उद्घाटन के मौके पर कही थी, ‘महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था. इसका मतलब यह हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था. तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा. हम गणेश जी की पूजा करते हैं. कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सिर रखकर प्लास्टिक सर्जरी का आरंभ किया होगा.’

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में उपजी अधिकांश समस्याओं का संबंध उनके वैचारिक परिवार के सदस्यों और सहयोगियों से ही रहा है

विज्ञान से जुड़े अवैज्ञानिक बयानों का सिलसिला आगे संसद भवन में भी सुनने को मिला. उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने संसद में बयान दिया कि भारत का ज्ञान और विज्ञान किसी से भी पीछे नहीं है. बकौल निशंक, आज सभी परमाणु परीक्षण की बात करते हैं, लेकिन सालों पहले दूसरी सदी में ही संत कणाद ने परमाणु परीक्षण कर लिया था. निशंक ने कहा कि प्लास्टिक सर्जरी और जेनेटिक साइंस भी भारत में बहुत पुराने समय से मौजूद हैं.

जाहिर है इन बयानों की आलोचना होनी ही थी. जानकारों के मुताबिक एक साथ इतने मोर्चों पर हो रही ये कारगुजारियां धीरे-धीरे संघ के एजेंडे को मजबूत करने की कोशिश है. भौतिकी के पूर्व प्रोफेसर रंजन मलिक कहते हैं, ‘यह तो संघ का सालों से एजेंडा रहा है. वह हमेशा विज्ञान में पुराण को मिलाता रहा है. उसके हिसाब से विश्व में जो कुछ हो रहा है या आगे होगा, वह सब भारतीय शास्त्रों में पहले से हो चुका है. समस्या यह है कि यह सब उस पीएम के कार्यकाल में हो रहा है, जो मंगल और चांद पर जाने की बात करता है, विज्ञान में भारत को विश्व में नंबर एक बनाने की बात करता है. एक तरफ सरकार आगे बढ़ने की बात कर रही है, लेकिन उसी समय वह पुरातनपंथी मान्यताओं और गल्पों को भी विज्ञान का चोला पहनाना चाहती है.’

एक जरूरी सवाल उठता है कि यह सब कुछ उस व्यक्ति के कार्यकाल में कैसे हो रहा है, जिसका चुनावों में एकमात्र एजेंडा था विकास, जिसके बारे में चर्चित था कि अपनी सरकार में अपने अलावा किसी और की नहीं सुनता, जिसका दावा था कि वह विकास और सुशासन के माध्यम से ही श्रेष्ठ भारत बनाएगा, जो अभी भी सार्वजनिक सभाओं में विकास और सुशासन के इतर अपना और कोई एजेंडा नहीं बताता. ऐसे व्यक्ति के कार्यकाल में विकास और सुशासन को मुंह चिढ़ानेवाले बयानों और गतिविधियों की बाढ़ क्यों आई हुई है? ऐसा क्यों दिख रहा है कि मोदी के एजेंडे पर संघ का एजेंडा भारी पड़ गया है. मोदी सरकार संघ सरकार की भांति दिख रही है. यह सही है कि उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल में उपजी अधिकांश समस्याओं का संबंध मोदी के वैचारिक परिवार के सदस्यों से रहा है, लेकिन ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि अगर मोदी इन सभी चीजों को गलत मानते हैं, तो इनके खिलाफ बोलते क्यों नहीं हैं, इसे रोकते हुए क्यों नजर नहीं आते?

इन सवालों के दो जवाब हो सकते हैं– या तो मोदी इन तत्वों को रोक नहीं पा रहे या वह इन्हें रोकना नहीं चाहते.

जहां तक मोदी द्वारा इन तत्वों को न रोक पाने की बात है, तो जानकार इसके पीछे लोकसभा चुनावों में मोदी को जिताने के लिए संघ की ओर से की गई कड़ी मेहनत को इसका कारण मानते हैं. जानकारों के मुताबिक जिस आक्रामक तरीके से संघ के कार्यकार्ताओं ने पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें जिताने और उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए पसीना बहाया था, उसे देखते हुए मोदी के लिए यह संभव नहीं है कि वह इन स्वयंसेवकों की बांह मरोड़ने की कोई कोशिश करें. संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘मोदी भाईसाहब को यह अहसास है कि वह जहां पहुंचे हैं, वहां उन्हें पहुंचाने में लोगों ने बहुत मेहनत की है. अब जब वह पीएम बन गए हैं, तो जाहिर सी बात है कि आम स्वयंसेवक अपने मन की कुछ तो करेगा. वह अपनी विचारधारा से जुड़ी चार चीजें भी नहीं कर पाएगा, तो फिर उनको पीएम बनाने के लिए उसने इतना परिश्रम क्यों किया.’ लोकसभा के चुनावी नतीजों के बाद संघ प्रमुख भागवत ने जब कहा था कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत किसी एक आदमी की जीत नहीं है, तब शायद उनका आशय यही था.

वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘देखिए लोकतंत्र में कोई प्रधानमंत्री आदेश देकर अपने समर्थकों को चुप नहीं करा सकता. आप डांट नहीं सकते. आपको उन्हें ऐसा न करने के लिए मनाना पड़ेगा. मुझे पता है कि मोदी उनको मनाने का काम कर रहे हैं.’

मोदी संघ की गतिविधियों से कितने त्रस्त हैं, यह बतानेवाली एक खबर कुछ दिन पहले सुर्खियों में थी कि कैसे मोदी ने संघ के नेताओं को बेहद सख्त लहजे में चेता दिया है कि अगर संघ ने अपने लोगों को काबू में नहीं किया, तो वह इस्तीफा दे देंगे. यह खबर मीडिया के पास कैसे आई, इसका स्रोत क्या था, आज तक किसी को पता नहीं है. एक सोच यह भी है कि यह खबर जानबूझकर प्लांट की गई. एक बड़े अखबार के राजनीतिक संवाददाता, जिन्होंने यह खबर की थी, से यह सवाल पूछने पर कि इस खबर का सोर्स क्या था, वह कहते हैं कि यह खबर मैंने नहीं निकाली, बल्कि मुझे मेरे संपादक ने करने को कहा था. उनके बताए आधार पर ही खबर की गई.

वह अगर इनकी हरकतों से असहमत हैं, तो एक ट्वीट तो कर ही सकते हैं. ऐसा लगता है कि उन्होंने एक रणनीति के तहत चुप्पी साध रखी है

इस खबर के माध्यम से यह संदेश देने की कोशिश की गई कि मोदी रोकना चाह रहे हैं, लेकिन रोक नहीं पा रहे हैं. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘देखिए जो कुछ हो रहा है, उससे मोदी जी बहुत दुखी हैं. मैं आपको बताऊं कि संघ के नेताओं से कई बार इस बारे में बैठक हो चुकी है. मोदी जी ने उन्हें सख्त लहजे में कह दिया है कि यह सब बंद करो. भाजपा सदस्यों को भी चेता दिया गया है कि अगर उन्होंने पार्टी की फजीहत कराई, तो खैर नहीं.’

राय मोदी को क्लीन चिट देते हुए कहते हैं, ‘देखिए मोदी अपने विकास के एजेंडे से भटके नहीं हैं. उन्होंने फालतू मुद्दे नहीं उठाए हैं. वह तो अपने विकास के एजेंडे पर लगातार काम कर रहे हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि उनके समर्थक अति उत्साहित हैं. उनको लगता है कि हमारा समय आ गया है, इसलिए अपने एजेंडे को पूरा कर लेना चाहिए, लेकिन मोदी की इसमें सहमति नहीं है.’

इन घटनाओं का बुरा असर यह हुआ है कि सरकार के अच्छे कामकाज की बजाय जनता और मीडिया का सारा ध्यान इन विवादों पर केंद्रित हो गया है. बलदेव शर्मा कहते हैं, ‘इन विवादों से छवि पर बुरा असर तो पड़ता ही है. जनता में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि मोदी इन लोगों को नहीं रोक पा रहे हैं और संघ का एजेंडा हावी हो रहा है. हालांकि ऐसे लोग चुनाव प्रचार के समय भी सक्रिय थे. आपको मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजनेवाला वह बयान याद होगा.’

मोदी के एजेंडे पर आरएसएस का एजेंडा हावी होने के आरोप को दरकिनार करते हुए उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘मैं यही कहूंगा कि हाथी चलता जाएगा और कुत्ता भौंकता जाएगा. मोदी जी की विकास के अलावा किसी और चीज पर नजर नहीं है. मैं क्या कहूं आप खुद देखें कि जिन लोगों ने अप्रासंगिक विषयों को उठाया है, उन्हें जनता ने खुद ठुकराया है.’ बाजपेयी का इशारा शायद योगी आदित्यनाथ की ओर है.

मोदी के राज में उत्पात मचानेवालों से भाजपा कैसे निबट रही है, उसका उदाहरण देते हुए बाजपेयी कहते हैं, ‘हमारे यहां उन्नाव से सांसद हैं साक्षी महाराज. अब बताइए, इनको बोलने की क्या जरूरत थी. बहुत जल्दी उनको अपनी हैसियत का पता लग जाएगा. प्रदेश का कोई नेता अब बयानबाजी नहीं करेगा. सबको टाइट कर दिया गया है. बहुत हो चुका. अब जनता सांप्रदायिकता कतई नहीं चाहती.’

इन सबके बीच एक ऐसा समूह भी है जो मानता है कि बीते दिनों विकास और सुशासन को मुंह चिढ़ानेवाली जो भी घटनाएं और बयान सामने आए, वह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. जो कुछ हो रहा है, उसे मोदी रोकना नहीं चाहते. उसमें उनकी भी सहमति है. वह दोनों तरह की जनता को साधने में लगे हुए हैं. वह दोहरी नीति पर काम कर रहे हैं. पहली नीति के तहत सरकार और उससे जुड़े सदस्य सिर्फ विकास और गुड गर्वनेंस की बात करेंगे. इससे देश में वे लोग, जो विकास के नाम पर आकर्षित हुए हैं, उनसे जुड़ेंगे. दूसरी तरफ पार्टी और संघ परिवार रहेगा, जो उन मुद्दों को हवा देता रहेगा, जो देश के एक तबके को आकर्षित करता है और जो भाजपा और संघ का एजेंडा भी है. इससे विकास चाहने और हिंदू राष्ट्र की चाह वाले दोनों जुड़े रहेंगे. इस रणनीति से भाजपा के ही कई नेता सहमत नहीं दिखते. यूपी भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘जनता ने आपको गुड गवर्नेंस के नाम पर वोट दिया है. ये क्या कि आप लव जेहाद और घर वापसी कराने लगे. मोदी के नाम पर चुनाव जीता गया है, भागवत के नाम पर नहीं. अगर इसे ठीक नहीं किया गया, तो अगले चुनाव में जनता लात मार देगी.’

संघ पर करीबी निगाह रखने वाले वरिष्ठ चिंतक सुभाष गाताड़े कहते हैं, ‘लोगों को यह भ्रम था कि मोदी पीएम बनने के बाद बदल जाएंगे. वह बदले नहीं हैं. वह संघ के प्रचारक थे और आज भी मन-मस्तिष्क से वह उसके प्रचारक हैं. चूंकि आप प्रधानमंत्री हैं और एक मर्यादा से बंधे हैं, संविधान से बंधे हैं, इसलिए मजबूरी में आपको ‘सबका साथ सबका विकास’ कहना पड़ता है.’

गताडे बड़े दिलचस्प तरीके से इसकी व्याख्या करते हैं, ‘संघ परिवार में श्रम विभाजन बहुत स्पष्ट होता है. यह अटलजी के समय से चल रहा है. वह मौन रहते थे और आडवाणी समेत बाकी लोग कारनामे किया करते थे. इस तरह अटलजी सेक्युलर और प्रोग्रेसिव कहलाए. वही हाल आज मोदी का है. यह एक बड़े ऑरकेस्ट्रा की तरह है. सबको अपना-अपना बाजा पकड़ा दिया गया है और सब ईमानदारी से अपना-अपना बाजा बजा रहे हैं.’

मोदी की दोहरी नीति की चर्चा करते हुए वह कहते हैं, ‘जो आदमी 24 घंटे ट्विटर और फेसबुक पर सक्रिय रहता है, वह अगर इनकी हरकतों से असहमत हैं, तो एक ट्वीट तो कर ही सकते हैं. उन्होंने एक रणनीति के तहत चुप्पी साध रखी है.’

रणनीति की तरफ इशारा करते हुए वह कहते हैं, ‘आप देखिए कि जब भी सरकार अपनी किसी पॉलिसी की वजह से फंसती दिखती है, तो तुरंत कोई न कोई विवाद खड़ा हो जाता है.’

हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने भी इस पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘आप दिल्ली में विकास और मुजफ्फरनगर में लव जेहाद की चर्चा नहीं कर सकते.’

पीके, पेरिस और पेशावर

प्रदीप कुमार
प्रदीप कुमार

यह धर्मिक असहिष्णुता के अतिवाद का दौर है. पूरी दुनिया में यह प्रवृत्ति उफान पर है. हमारे यहां फिल्म पीके को लेकर आस्था आहत है. फ्रांस की राजधानी पेरिस में शार्ली हेब्दो नामक पत्रिका के कुछ कार्टूनों पर आपत्ति के जवाब में अतिवादी इस्लामी संगठन के युवकों ने 12 लोगों की हत्या कर दी. हमारे देश में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर काफी पहले ही इस तरह की स्थिति पैदा हो चुकी है. दुनिया भर में यह चलन बढ़ रहा है. क्षणभंगुर आस्थाएं हर पल आहत हो रही हैं. इसके चलते भारत के महानतम चित्रकारों में एक रहे एमएफ हुसैन को अंत समय में देश निकाला की स्थिति से गुजरना पड़ा. दिलचस्प यह है कि ये घटनाएं धार्मिक अतिवादियों का चेहरा और उनका पाखंड भी सामने लाती हैं. जिन लोगों ने एमएफ हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनियों में उत्पात मचाया, उन्हें जान से मारने की धमकियां दी वही लोग तस्लीमा नसरीन की तरफदारी में खड़े हो जाते हैं. लव जेहाद और घर वापसी का प्रहसन रचते हैं. पाखंड की यही धारा दूसरी तरफ भी बह रही है. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कोलकाता से लेकर हैदराबाद तक लज्जा की प्रतियां जलायी, लेकिन यही लोग पर्दाप्रथा, कानूनी मामलों में पुरुष के मुकाबले स्त्रियों की आधी हैसियत के सवाल पर कुरान की आयतों का हवाला देने लगते हैं. धर्म की आड़ में ये लोग संविधान के ऊपर पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए किसी भी हद तक जाने के तैयार रहते हैं.

ऐसा लगता है कि धर्म की मार्गदर्शकवाली भूमिका कहीं पीछे छूट गई है. धर्म कटुता, टकराव और ओछी राजनीति का साधन बन गया है. एक अटल सत्य यह है कि जितनी गहरी जड़ें दुनिया में धर्म को माननेवालों की है, उतनी ही पुरानी और गहरी परंपरा इस पर सवाल उठानेवालों की भी रही है और भारत इससे अलग नहीं है. आज से पांच-छह सौ साल पहले कबीर ने जिस अंदाज में धर्म की लुकाठी तोड़ी थी उसकी तो आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती.

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना मुक्ति का मर्म उनहुं नहि जाना,
हबीबी और नबी कै कामा, जितने अमल सो सबै हरामा. (कबीर बीजक)

कबीर धर्म पर सवाल उस दौर में उठा रहे थे, जिसे दुनिया मध्ययुग यानी अंधकार का युग मानती है. कहने का अर्थ है कि हमेशा से धार्मिक मतावलंबियों के साथ उसे न माननेवालों का स्थान भी रहा है और समाज में उसके लिए स्थान रहा है. सवाल है कि उस दौर में भी कबीर कटु हमले करके निबाह ले जाते हैं लेकिन आज के कथित आधुनिक दौर में इसके लिए स्थान शेष नहीं बचा है. कह सकते हैं कि धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है. वैश्विक चलन को देखें तो मिली-जुली बातें सामने आती हैं. धर्म का प्रभाव बढ़ा है लेकिन साथ ही ताजा आंकड़े बताते हैं कि इस समय दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी आबादी धर्म को न माननेवाले नास्तिकों की है. यानी यह दुनिया का सबसे नया और बड़ी संख्या वाला धर्म है, भले ही इसका कोई सांस्थानिक रूप नहीं है. तो धर्म को न माननेवालों के मानवाधिकारों का क्या होगा? यह मजबूरी क्यों है कि नास्तिक व्यक्ति को समाज सीधे खारिज कर देता है, या उसे अपना दुश्मन समझता है. जितनी आस्था किसी को अपने धर्म में है उतना ही भरोसा किसी को उसके न होने में भी हो सकता है. ऐसे में पीके फिल्म पर हमले होना या पेरिस में शार्ली हेब्दो के दफ्तर में 12 लोगों की हत्या को किस आधार पर जायज करार दिया जा सकता है. अगर धर्म की उंगली ही पकड़कर चलें तो भगवत गीता का यह श्लोक क्लाश्निकोव और त्रिशूलधारियों को आइना दिखाने के लिए पर्याप्त है –

धर्म यो बाधते धर्म, न स धर्मं कुधर्म तत्,
धर्माविरोधी यो धर्म: स धर्म: सत्यविक्रम:

जो धर्म किसी दूसरे धर्म को बाधा पहुंचाए वह धर्म नहीं कुधर्म है. जो धर्म अन्य धर्मों का अविरोधी है वही वास्तविक धर्म है.

अपनी प्रसिद्ध साहित्यिक रचना संस्कृति के चार अध्याय में रामधारी सिंह दिनकर ने असल धर्म की स्थापना महाभारत के इसी श्लोक से की है. मौजूदा दौर की परिभाषाएं मसलन सेक्युलरिज्म या अभिव्यक्ति की आजादी और क्या हैं. संस्कृति के चार अध्याय कहती है कि भारत की पहली संस्कृति आर्य संस्कृति थी, इसके पश्चात देश में इसके सुधार के रूप में बुद्ध और महावीर की संस्कृतियां स्थापित हुईं. तीसरा अध्याय देश में इस्लाम के आगमन के साथ शुरू हुआ, और यूरोपियों के आगमन के साथ चौथा अध्याय शुरू हुआ जो अभी तक जारी है. लेकिन एक के आने से किसी का ह्रास नहीं हुआ. सब साथ-साथ अस्तित्व में रहे. जाहिर है संस्कृतियां चिरस्थायी और सनातन होती, वह खान-पान, रहन-सहन, वातावरण और उत्पन्न परिस्थितियों से जुड़ी होती हैं, जबकि धर्म बहुत बाद की चीज है. यह संस्कृतियों को संस्थागत रूप दे देता है, उसे चारदीवारी में बांध देता है. धर्म की इस चारदीवारी को ढीला और हवादार बनाने की जरूरत है जिससे ताजी हवा का प्रवाह बना रहे और जीवन पनपता रहे. धर्म की दीवार मजबूत होगी तो पीके से लेकर पेरिस और पेरिस से पेशावर तक खून बहता रहेगा.

मुजफ्फरपुर: गुस्साई भीड़ ने घरों में लगाई आग,चार की मौत

घटना के बाद गांव का मंज़र
घटना के बाद गांव का मंज़र

मुजफ्फरपुर के सरैया थाने के अज़ीज़पुर गांव में अपहृत हिंदू युवक का शव मिलने के बाद गुस्साई भीड़ ने दूसरे समुदाय के 50 से अधिक घरों में आग लगा दी. दोनों पक्षों के बीच हुई हिंसक भिड़ंत और आगजनी में चार लोगों की मौत हो गई. इसके अलावा कई और लोग गंभीर रूप से घायल हैं. मामले में 14 लोगों की गिरफ्तारी हुई है और 5,000 अज्ञात लोगों को नामजद किया गया है. घटनास्थल पर 1000 पुलिसकर्मी तैनात हैं.स्थिति पर काबू पाने के लिए लगाए गए प्रशासनिक कैंप में सूबे के आईजी, आयुक्त, डीएम, एसएसपी सहित कई वरिष्ठ अधिकारियों ने डेरा डाल रखा है. सरैया व आसपास के गांवो में भी अतिरिक्त पुलिस बल तैनात कर दिया गया है.

मुजफ्फरपुर के जिलाधिकारी अनुपम कुमार ने कहा, ‘घटना प्रेम-प्रसंग से जुड़ी है. दोनों पक्षों के उपद्रवी तत्वों की गिरफ्तारी हो गई है. मुख्य आरोपित भी गिरफ्तार किया जा चुका है. मुआवजा देने की कार्रवाई की जा रही है. स्थिति नियंत्रण में है.’

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राख़ में तब्दील गांव

अज़ीज़पुर के पड़ोसी गांव बहिलवारा साहनी टोला का उन्नीस वर्षीय भारतेंदु साहनी नौ जनवरी से लापता था. अपहरण की प्राथमिकी 11जनवरी को दर्ज कराई गई थी, जिसमें अज़ीज़पुर निवासी सदाकत अली उर्फ विक्की को नामजद किया गया था. पुलिस अपहरण की गुत्थीसुलझाने में लगी हुई थी, लेकिन रविवार की सुबह अभियुक्त के घर के समीप खेत से लापता युवक की लाश मिलने के बाद सनसनी फैल गई. इसके बाद गुस्साई भीड़ ने अजीतपुर के 50 से अधिक घरों को आग के हवाले कर दिया. गांव की घेराबंदी की वजह से जहां हिंसा के दौरान वहां के लोग बचकर भागने में विफल रहे, वहीं दूसरी ओर पुलिस भी मौके पर पहुंचने में नाकामयाब रही.

बिहर के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं. जांच की जिम्मेदारी गृह सचिव सुधीर कुमार और एडीजी गुप्तेश्वर पाण्डेय दी गई है. मांझी ने दिल्ली व मुंबई का दौरा बीच में रद्द कर मामले की जानकारी के लिए वापस लौटने का फैसला किया है. राज्य सरकार ने घटना को दुखद बताया है और मृतकों के परिवारवालों को 5 लाख रूपये मुआवजा देने का एलान किया गया है. घायलों को 50-50 हजार रुपये दिए जाएंगे और क्षतिग्रस्त मकानों को फिर से बनवाया जाएगा.

साल 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में इसी तरह की पृष्ठभूमि पर शुरू हुए विवाद ने बाद में सांप्रदायिक रूप ले लिया था. इस वजह से बिहार सरकार किसी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं है. ऐसे में प्रशासन ने लोगों से अफवाहों पर ध्यान न देने की अपील की है.एक उच्च अधिकारी ने कहा, ‘यह स्थानीय मामला था. दोनों पक्षों के ग्रामीणों ने गलती मान ली है. हमारी प्राथमिकता शांति बहाल करने और उससे बनाए रखने की है.’

जोन बड़ी है जहमत

jahmat

उत्तराखंड में इन दिनों ईको सेंसटिव जोन का मुद्दा सुर्खियों में है. राजनीतिक दलों समेत तमाम संगठन ईको सेंसटिव जोन को लेकर सड़क पर हैं. खास बात यह है कि प्रदेश का सत्ताधारी दल कांग्रेस तथा मुख्य विपक्षी दल भाजपा, दोनों इसके विरोध में हैं. साथ ही सूबे में इसके समर्थक भी मौजूद हैं. लेकिन मजेदार बात यह है कि इनमें से कई लोगों को पता ही नहीं है कि ईको सेंसिटिव जोन दरअसल है क्या?

18 दिसंबर 2012 को भारत सरकार ने शासनादेश के जरिए उत्तराखंड में भागीरथी नदी के किनारे 100 किलोमीटर लंबे और 4179.59 वर्ग किलोमीटर जल संभरणवाले इलाके को ईको सेंसटिव जोन घोषित किया था. इसके बाद इस इलाके में निर्माण कार्यों के लिए मंजूरी हासिल करना खासा कठिन हो गया था.

इस अधिसूचना के जारी होने के बाद दो साल का समय राज्य सरकार को इस इलाके के लिए आंचलिक महायोजना या मास्टर जोनल प्लान बनाने के लिए दिया गया था. इस मास्टर जोनल प्लान को बनाने के लिए राज्य सरकार को राज्य के कई विभागों को साथ लेकर चलना था. इनमें पर्यावरण, वन, शहरी विकास, पर्यटन नगरपालिका, राजस्व, लोक निर्माण विभाग, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जल संसाधन, बागवानी, ग्रामीण विकास जैसे विभागों की समान भागीदारी तय थी.

पहाड़ की जटिल भू-संरचना और पारिस्थितिकी को देखते हुए इस मास्टर जोनल प्लान को बनाने में स्थानीय महिलाओं से विशेष परामर्श लिए जाने की बात कही गई थी. मास्टर जोनल प्लान में जहां ईको सेंसटिव जोन में पड़नेवाली इमारतों, होटलों, रिसोर्ट के निर्माण में परंपरागत वास्तु के उपयोग की बात कही गई है, वहीं नदियों और सहायक नदियों की प्राकृतिक सीमाओं में कोई परिवर्तन न हो इसकी बाध्यता भी रखी गई है. इसके साथ ही वन और कृषि क्षेत्र में भी किसी तरह का क्षरण न हो इसका प्रावधान रखा गया है. सड़क निर्माण के मसले पर भी इस अधिसूचना में निर्देश दिए गए हैं. इसके मुताबिक ईको सेंसटिव जोन में बननेवाली सड़कों का निर्माण मास्टर जोनल प्लान के तहत होगा.

उत्तराखंड के साथ विद्युत परियोजनाओं का मुद्दा हमेशा से जुड़ा रहा है. उत्तराखंड की सरकारें हमेशा से राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने की बात करती रहीं हैं. इसका आधार राज्य की नदियों की अथाह जलराशि है. ईको सेंसटिव जोन में इन बिजली परियोजनाओं के लिए भी दिशा-निर्देश दिए गए हैं. ईको सेंसटिव जोन में किसी भी नई बिजली परियोजना की सख्त मनाही है. इसके साथ ही पुरानी किसी भी परियोजना के विस्तार की अनुमति तभी मिलेगी, जब वह स्थानीय लोगों के लिए आवश्यक हो.

राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस व विपक्षी भाजपा, दोनों दलों ने इस जोन का विरोध किया है. मुख्यमंत्री हरीश रावत भी इसके खिलाफ हैं. उनका कहना है कि राज्य सरकार कोई मास्टर जोनल प्लान नहीं तैयार कर रही है. इस तरह वे गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल देते हैं. उनकी मांग है कि केंद्र सरकार खुद मास्टर जोनल प्लान तैयार करे. ईको सेंसटिव जोन का मामला उत्तराखंड कैबिनेट में भी उठा. कैबिनेट ने भी इस मसले पर मुख्यमंत्री का साथ दिया और तय हुआ कि मुख्यमंत्री इस मामले में प्रधानमंत्री से मुलाकात करेंगे और ईको सेंसटिव जोन को वापस लेने की मांग करेंगे.

पूरे मामले का दिलचस्प पहलू ये है कि ईको सेंसटिव जोन की अधिसूचना 18 दिसंबर 2012 को जारी हुई थी और तब केंद्र में संप्रग सरकार थी और उस समय हरीश रावत ने इसका विरोध नहीं किया था. दो साल बाद 2014 में अधिसूचना लागू हो चुकी है, केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई है और इस बीच हरीश रावत बतौर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इस जोन के विरोधी बन चुके हैं.

राज्य के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने भी ईको सेंसटिव जोन का विरोध शुरू कर दिया है. भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य में नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ईको सेंसटिव जोन को विकास के लिए रुकावट मानते हैं. उनका कहना है, ‘ईको सेंसटिव जोन बन जाने से भागीरथी नदी के किनारे के इलाकों में विकास की गतिविधियां पूरी तरह से ठप्प हो जाएंगी. इससे पलायन बढ़ेगा. इसके अलावा यह जोन देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा है. ईको सेसंटिव जोन की वजह से चीन से सटे सीमांत क्षेत्रों में पलायन होगा और गांव खाली हो जाएंगे. ऐसी दशा में देश की सीमाओं पर हो रही पड़ोसी देश की गतिविधियों का पता नहीं चलेगा या फिर देर से चलेगा.’ इन्हीं वजहों को आधार बनाकर उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर ईको सेंसटिव जोन पर पुनर्विचार की सलाह दी है.

भागीरथी नदी के किनारे 100 किलोमीटर लंबे और 4179.59 वर्ग किलोमीटर जल संभरण वाले इलाके को केंद्र सरकार ने ईको सेंसटिव जोन घोषित किया था

ईको सेंसटिव जोन का विरोध अदालत के दरवाजे तक भी पहुंच चुका है. उत्तरकाशी के लोकेंद्र बिष्ट ने ईको सेंसटिव जोन के विरोध में नैनीताल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है. इस याचिका में लोकेंद्र ने ईको सेंसटिव जोन से जुड़ी आपत्तियां नहीं सुने जाने का आरोप लगाया है. ईको सेंसटिव जोन के विरोध में उतरे लोकेंद्र ईको सेंसटिव जोन की व्यावहारिकता पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘पहाड़ की वन संपदा का प्रयोग पहाड़ में रहनेवाले नहीं करेंगे तो कौन करेगा?’ लगे हाथ लोकेंद्र वन अधिनियम का भी जिक्र करना नहीं भूलते. लोकेंद्र की राय में वन अधिनियम में भी कहीं ये नहीं लिखा कि वन क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण नहीं होगा, लेकिन कठिन शर्तों की वजह से सड़कों का निर्माण सालों तक लटका रहता है. उनका मानना है कि वन अधिनियम की तरह ही सरकारी अफसर ईको सेंसटिव जोन का भी सहारा लेकर वाजिब और जरूरी कामों में रोड़े अटकाएंगे. लोकेंद्र की नाराजगी इस बात को लेकर भी सामने आती है कि पिछले दो साल के वक्त में राज्य की सरकार ने कभी भी ईको सेंसटिव जोन में आने वाले गांवों और कस्बों के लोगों से बात नहीं की. सरकार का कोई नुमाइंदा इन लोगों के पास नहीं आया. न तो लोगों को ईको सेंसटिव जोन के बारे में बताया गया और न ही उनकी राय मांगी गई. लोकेंद्र ने अदालत में दायर अपनी याचिका में भी इस बात का उल्लेख किया है.

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में सिर्फ ईको सेंसटिव जोन का विरोध ही हो रहा है. राज्य में कई लोग ऐसे भी हैं जो ईको सेंसटिव जोन के समर्थन में आवाज उठा रहे हैं. विकास का रास्ता पर्यावरण सरंक्षण के साथ निकालने की राय रखनेवालों में से एक शख्स हैं राजीव नयन बहुगुणा. राज्य से जुड़े मुद्दे पर बेबाक राय रखनेवाले राजीव विरोध और समर्थन के सवाल पर आने से पहले ही पूछते हैं, ‘क्या उत्तरकाशी का क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज के संवेदनशील नहीं है? आज जरूरी है कि उत्तरकाशी और आस-पास के क्षेत्र में ईको सेंसटिव जोन की बाध्यता को कड़ाई से लागू की जाए.’ राजीव बहुगुणा की मानें तो ईको सेंसटिव जोन लागू होने के बाद क्षेत्र के लोगों का कोई नुकसान नहीं होगा. नुकसान होगा तो सिर्फ पूंजीपतियों का.

हालांकि कई लोग ऐसे भी हैं, जो ईको सेंसटिव जोन का सीधे तौर पर न तो समर्थन करते हैं और न ही विरोध. इनको मौजूदा स्वरूप में ईको सेंसटिव जोन स्वीकार नहीं है. ऐसे ही एक शख्स हैं, इंद्रेश मैखुरी. उत्तराखंड में जनसरोकार के मुद्दों पर मुखर रहने वाले इंद्रेश मैखुरी ईको सेंसटिव जोन की अवधारणा पर सवाल खड़ा करते करते हुए कहते हैं, ‘ईको सेंसटिव जोन एक पर्यावरणीय सनक की तरह पेश किया जा रहा है, जो पूंजीपतियों के रिजोर्ट के लिए रास्ता बनाएगा. सरकार तय ही नहीं कर पाई कि उसे पहाड़ों में विकास कैसे करना है? पहाड़ों में रहने वालों  को मूलभूत सुविधाएं भी मिल जाएं और पर्यावरण को नुकसान भी न हो, इस तरह की कोई योजना आज तक बन ही नहीं पायी है.’

इंद्रेश कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही ईको सेंसटिव जोन का मुद्दा पटल पर आया और अटल सरकार इसकी हिमायती थी. लेकिन भाजपा अब इसका विरोध कर रही है. वहीं हरीश रावत को आड़े हाथों लेते हुए इंद्रेश सवाल पूछते हैं कि केंद्रीय मंत्री रहते हुए हरीश रावत ने विरोध नहीं किया तो अब क्यों कर रहे हैं?

ईको सेंसटिव जोन की हद में 88 गांव आ रहे हैं. इनमें रहनेवाली लगभग पचास हजार से अधिक आबादी इस ईको सेंसटिव जोन के दायरे में आती है. ईको सेंसटिव जोन के दायरे में बड़ा वन क्षेत्र आ रहा है. प्राकृतिक रूप से बेहद संपन्न इस क्षेत्र में पौधों की कई दुर्लभ प्रजातियां पाईं जाती हैं. उत्तराखंड में हाल ही में आई प्राकृतिक आपदा के बाद राज्य के विकास कार्यों को लेकर नई बहस छिड़ गई है. भले ही सरकारें ये न मानें कि केदारनाथ में आई आपदा के लिए पहाड़ों पर असंतुलित विकास जिम्मेदार है, लेकिन इतना सभी मानते हैं कि अगर इस इलाके में हो रहे निर्माण कार्यों पर नजर रखी गई होती, तो आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता था.

नियोजित विकास की अवधारणा का राज्य में कितना अभाव है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में सीवरेज सिस्टम के लिए अस्सी के दशक में एक योजना बनी, लेकिन अभी तक ये काम पूरा नहीं हो पाया. सीवेज ट्रीटमेंट प्लान का निर्माण भी अब तक नहीं हो पाया है। जाहिर है कि ऐसे में इस पूरे क्षेत्र का मल-जल सीधे नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है. ये महज एक उदाहरण हैं जो बताता है कि पर्वतीय क्षेत्रों के विकास को लेकर सरकारें कितनी गंभीर हैं.

ईको सेंसटिव जोन के विरोध में उत्तराकाशी और आस-पास के क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन भी होने लगे हैं. व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बंद रखकर भी ईको सेंसटिव जोन का विरोध दर्ज कराया गया. हो सकता है कि ईको सेंसटिव जोन को लेकर केंद्र सरकार की अधिसूचना में कुछ व्यवहारिक दिक्कतें हों, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तराखंड में विकास के नाम पर बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिनके परिणाम आनेवाले समय में परेशान करनेवाले होंगे.

‘मेरी अच्छी किताब को साहित्य अकादमी मिला ही नहीं’

फोटोः तहलका अका्इव
फोटोः तहलका अका्इव

मुनव्वर राना को हाल ही में उनके कविता संग्रह ‘शहदाबा’ के लिए उर्दू के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. वाली ‘आसी’ के शागिर्द मुनव्वर राना निम्न एवं मध्यम वर्ग के जनजीवन को शेरगोई का मौज़ू बनाने के लिए, ख़ासकर मां पर शेर कहने के लिए जाने जाते हैं. इस तरह की शाइरी ने उन्हें एक निराली पहचान दी है. राना सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए भी मशहूर हैं. उनकी शाइरी ने अपने यहां हिन्दी उर्दू की दूरियों को मिटा दिया है. लंबे वक़्त से वे उर्दू-हिंदी दुनिया में लोकप्रियता के शिखर पर विराजमान हैं. वाणी प्रकाशन के मुताबिक उनके यहां से छपी मुनव्वर की किताब ‘मां’ की एक लाख प्रति बिक चुकी हैं. जिस दौर में प्रकाशकों को हिन्दी-उर्दू में कविता की किताब के एक हज़ार प्रति बिकने पर भरोसा न हो उसमें किसी कविता संग्रह की एक लाख प्रति बिकना साधारण बात नहीं है. मुनव्वर की इसी असाधारण लोकप्रियता ने ही उनके वस्तुनिष्ठ साहित्यिक मूल्यांकन में मुश्किलें भी पैदा की हैं. उनको साहित्य अकादमी मिलने के बाद ‘लोकप्रिय बनाम साहित्यिक’ की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है. मुनव्वर के आलोचकों का कहना है कि मुनव्वर राना साहित्य अकादमी के योग्य नहीं हैं. वे महज़ एक मुशायरेबाज़ और आवामी मकबूलियत के शायर हैं, उनकी शाइरी अदबी शाइरी नहीं यानी साहित्य में उनकी कोई जगह नहीं. आलोचकों का ये भी कहना है कि मुनव्वर राना मजमे को, अकसर जिसकी पसंद प्राय: छिछली होती है, को खुश करने के लिए सस्ते शेर कहते हैं, जैसे- ‘बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है, हमारे घर के एक बरतन पे आईएसआई लिक्खा है.’  या ‘हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है, हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है.’ मुनव्वर अपने आलोचकों के प्रति हमेशा बेपरवाह नज़र आते हैं. बक़ौल उनके अगर बच्चा है तो भी मेरी शाइरी हाथी का बच्चा है, चूहे के बच्चे उस पर हंस भी नहीं सकते. साहित्य अकादमी मिलने के तुरंत बाद  मुनव्वर राना ने  हिमांशु बाजपेयी से अपनी शाइरी के तमाम पहलुओं पर बेबाकी से बात की और अपनी तमाम आलोचनाओं पर खुलकर जवाब भी दिया. 

पिछले कुछ सालों से आप लगातार साहित्यिक पुरस्कारों की तीखी आलोचना कर रहे थे. शहरयार को ज्ञानपीठ मिलने पर आपने कहा था कि ज्ञानपीठवाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठे हैं, ऐसे में क्या तंज़िया लहजे में ये कहा जा सकता है कि साहित्य अकादमी आपको मिला नहीं है, आपने डरा-धमका कर ले लिया है ?
ये सही बात है कि अवॉर्ड हमको मिला ही नहीं है, ये तो हमारे उन चाहनेवालों को मिला है जो हमें गोद में उठाए रहते हैं, जिस वजह से हमारी हाइट ज़्यादा दिखाई देने लगी. जिसकी वजह से साहित्य अकादमी को ये धोखा हुआ कि हम बड़े शायर हैं, और उसने ये अवॉर्ड हमको दे दिया. दूसरी बात ये है कि हमने अपने बुज़ुर्गों की जूतियां बहुत सीधी की हैं, तो मुझे लगता है कि शायद उनकी दुआओं का करिश्मा है कि मेरी शाइरी लोगों को पसंद आती है, वो मुझसे मोहब्बत करते हैं और इसकी बराबरी साहित्य अकादमी समेत दुनिया का कोई पुरस्कार नहीं कर सकता. सबसे बड़ा अवॉर्ड यही है कि हमको दुनिया ने बसा रखा है दिल में अपने, हम किसी हाल में बेघर नहीं होनेवाले.

देखिए शोलाबयानी मिज़ाज में होती है, पुरस्कार नसीब में होते हैं. इसलिए इनामात से शोलाबयानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़नेवाला

अहमद फ़राज़ कहते थे कि अवॉर्ड अदीबों का मुंह बंद करने की कोशिश है और कुछ नहीं. आपका भी एक शेर है- हुकूमत मुंह भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ है, ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है. तो क्या ये अवॉर्ड मिलने के बाद आपका मुंह बंद नहीं हो जाएगा. पहले आप अवॉर्ड्स की राजनीति के ख़िलाफ बहुत कुछ बोलते थे, अब चूंकि आपको भी एक मिल गया है तो अब उस शोलाबयानी का क्या होगा ?
देखिए शोलाबयानी मिज़ाज में होती है, पुरस्कार नसीब में होते हैं. इसलिए इनामात से शोलाबयानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़नेवाला. जिस किताब को ये अवॉर्ड मिला है, मैंने उसके इब्तेदाई वरक पर लिखा है कि ये कोई किताब नहीं है ये तो सड़क किनारे लगे महुए के पेड़ की बटोरन है, तो जब मैं खुद अपनी किताब के बारे में मान रहा हूं कि वो कोई बड़ी किताब नहीं है, फिर ज़ाहिर है कि साहित्य अकादमी वालों ने इसे बड़ी किताब मानते हुए ये अवॉर्ड नहीं दिया. क्यों दिया ये उनकी समझ, लेकिन अगर मेरी बड़ी किताब पर पुरस्कार मिलता तो मुझे मुहाजिरनामा पर मिलता. पुरस्कार मिलने लायक किताब वो थी. उसका अवॉर्ड तो अभी ड्यू ही है, उर्दू शाइरी में वैसा काम दूसरा नहीं हुआ. या अगर गद्य में मिलना था तो मेरी जो पांच-छह किताबें हैं, उनमें जो मशहूर किताब है ‘सफ़ेद जंगली कबूतर’ उसे मिलता. साहित्य अकादमी ने हमारी अच्छी किताबों पर अवॉर्ड दिया ही नहीं है.

आपकी मकबूलियत एक तरफ, लेकिन आपको अवॉर्ड मिलने के बाद ऐसी बहुत सी प्रतिक्रियाएं आईं, जिनमें कहा गया कि आप साहित्य अकादमी डिज़र्व नहीं करते. आपके एक उस्ताद भाई ने यहां तक कहा कि मुनव्वर राना की शाइरी मजमे की शाइरी है, मुशायरों में उनका मकाम ज़रूर है, लेकिन अदब में उनका कोई मकाम नहीं. आपकी प्रतिक्रिया ?
 कौन? जो हर वक्त नाशाद रहते हैं? देखिए मै जानता हूं कि मेरी शाइरी क्या है और इसे लेकर मुझे कोई गलतफहमी नहीं. बेहतर है कि मेरी चिंता छोड़कर वो ये समझें कि उनकी शाइरी क्या है और इसे बेहतर करें. मुमकिन है कि अगले साल उनको भी सम्मान मिल जाए. मुझे सिर्फ इतना याद है कि बहुत पहले मेरे उस्ताद वाली आसी के यहां एक सिख लड़का अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए लेकर आता था. जिसे उर्दू लिखनी भी नहीं आती थी और शायद आज भी पूरी तरह न आती हो. उसकी ग़ज़लें उस्ताद ठीक किया करते थे और कई बार मुझे भी ठीक करने के लिए दे देते थे. जब उस्ताद नहीं रहे तो वो अपनी ग़ज़लें हमारे उस्ताद भाई भारत भूषण पंत से ठीक करवाने लगा. पंत के बारे में मैं उस्ताद से कहता था कि उस्ताद भाइयों में मुझे डर सिर्फ पंत की शाइरी से लगता है कि वो मुझसे आगे निकल जाएगा. पंत निहायत शरीफ़ आदमी था और उसकी शराफ़त का इसने बहुत फ़ायदा उठाया. मैं तो मुशायरों का शायर हूं. ये आज तक तय नहीं कर पाए कि ये कहां के शायर हैं. ये मुशायरों को कोसते भी हैं और साल-साल भर मुशायरे पाने की जोड़-तोड़ में भी लगे रहते हैं. जिन अख़बारों और रिसालों को कोई देखता तक नहीं, उनमें छपने के लिए एडिटर की ख़ुशामद करते हैं.

मूल सवाल अब भी वही है कि क्या आवामी मकबूलियत या लोकप्रियता  ही  किसी को अदब में मकाम दिलवाने के लिए काफ़ी है ? लोकप्रिय तो बहुत सी ख़राब चीज़ें भी हो जाती हैं और अच्छी चीज़ों से जल्दी हो जाती हैं
क्या कोई चीज़ सिर्फ इसलिए ख़राब हो जाती है कि वो लोकप्रिय हो गई है या मुशायरों में पढ़ी गई है. और फिर अगर मुशायरा या लोकप्रियता इतनी ही बुरी चीज़ ह,ै तो ये लोग मुशायरे में जाना छोड़ क्यों नहीं देते, उसकी भीख क्यों मांगते हैं. मुशायरे इस देश में लोगों की शाइरी में दिलचस्पी जगाने का सबसे बड़ा ज़रिया हैं. ग़ज़ल को कोठों और दरबारों से निकालकर आम आदमी तक पहुंचाने का काम सबसे पहले मुशायरों ने ही किया. तब शबखून और शाइर नहीं छपती थी. जिगर मुरादाबादी और फिराक़ गोरखपुरी भी मुशायरे पढ़ते थे. बेपनाह पापुलर भी थे. क्या वो अदबी शायर नहीं. देखिए हमारी लोकप्रियता हमारा नसीब है और हमारी शाइरी हमारा फन है, हमारा काम है. तो आप हमारे काम पर सम्मान देंगें या हमारे नसीब पर सम्मान देंगे ? अच्छे -बुरे का फैसला इतनी जल्दी नहीं होता. ये फ़ैसला वक्त करता है, तारीख़ करती है ज़माना करता है. नज़ीर अकबराबादी को भी लंबे वक्त तक आवामी और बेकार के विषयों पर लिखनेवाला शाइर कहकर  अदब से खारिज किया गया. आज उनके बिना अदब की तारीख़ मुकम्मल नहीं होती. शबख़ून में छपना एक ज़माने में स्टेटस सिम्बल तो था, लेकिन बड़े शाइर उसने कितने पैदा किए ? जदीदियत के नाम पर घटिया शाइर बहुत छापे. शबखून में ही छपी एक ग़ज़ल का शेर मैं आपको सुना रहा हूं- बत्ती जला के देख ले सब कुछ यहीं पे है, बनियान मेरे नीचे है सलवार उस तरफ.

दुनिया सुलूक करती है हलवाई की तरह, तुम भी उतारे जाओगे बालाई की तरह या मोहब्बत को ज़बरदस्ती तो लादा जा नहीं सकता कहीं खिड़की से मेरी जान अल्मारी निकलती है…इस तरह के आपके कई शेर हैं जिनकी तरकीबें, लफ्ज़ियात, काफिया-रदीफ और लबो-लहजा आलोचकों को सख़्त नागवार गुज़रता है, उनके मुताबिक़ ये शेर हैं ही नहीं, क्योंकि ये ग़ज़ल के मिज़ाज से मेल नहीं खाते. इन शेरों पर आप क्या कहेंगे ?
बने बनाए रास्तों पर तो हम कभी नहीं चले. हम ग़ज़ल में नई राह निकालते हैं. यही नयापन हमारी पहचान है. मीर ने अपने शेरों में ‘लौंडा’ लफ्ज़ का इस्तेमाल किया है, ग़ालिब ने अपने शेर में ‘बलगमी’ लफ्ज़ इस्तेमाल किया है, उनसे पूछिए कि क्या ये ‘बलगम’ और ‘लौंडा’ ग़ज़ल  में अच्छा लगता है, और तो और यगाना चंगेज़ी ने अपने बहुत से शेरों में ऐसे लफ्ज़ इस्तेमाल किए जो उस वक्त तक ग़ज़ल के लिए अछूत समझे जाते थे. लखनऊवालों ने उनके ख़िलाफ़ हंगामा कर दिया था. ये लोग नयेपन और बदलाव को स्वीकार करना नहीं जानते. जिस पारंपरिक ग़ज़ल की वो बात कर रहे हैं उसके शेर आप घरवालों के सामने नहीं पढ़ सकते थे- दुपट्टे को आगे से दोहरा न ओढ़ो, नमूदार चीज़ें छुपाने से हासिल. अगर इस परंपरा को तोड़ा न गया होता तो ग़ज़ल दरबारों और कोठों में ही रहती. आम लोगों तक कभी नहीं पहुंचती. उसमें मां की ममता कभी नज़र नहीं आती. मेरी शाइरी आम आदमी की शाइरी है. उसमें मां दिखाई देती है, बहन दिखाई देती है, बच्चे दिखाई देते हैं. गांव और कस्बा दिखाई देता है, घर दिखाई देता है, गरीब की ज़िंदगी दिखाई देती है. प्रो. वारिस अल्वी ने लिखा है कि मुनव्वर राना की शाइरी पढ़ते हुए मुझे धान के खेतों की हमवारी का अहसास होता है.

आपकी मां से जुड़ी शाइरी पर भी एक सवाल है, हमारी अहलिया तो आ गईं मां छूट गई आख़िर, कि हम पीतल उठा लाएं हैं सोना छोड़ आए हैं. क्या किसी हद तक ये सामंती और पितृसत्तात्मक सोच से उपजा शेर नहीं है ? क्या मां को ग्लोरीफाई करने के चक्कर में आपने बीवी की भूमिका के साथ अन्याय नहीं किया है ?
ये एक ऐसा आदमी कह रहा है जो बंटवारे में अपनी बीवी को तो ले आया, लेकिन मां उधर छोड़ आया है. सरहद पार उसकी मां बहुत मुश्किलों में है और फिर एक दिन मर जाती है, तो उस बेटे पर क्या गुज़रेगी. बंटवारे के आदमी की कैफियत को, उसके रंज और अफसोस को, दूर बैठकर इतने सपाट तरीके से नहीं समझा जा सकता. और फिर इसमें बीवी के साथ अन्याय किया गया है, उसे कमतर बताया गया है ऐसा वही लोग कह सकते ह,ैं जो सोचते हैं कि बीवी कभी मां नहीं बनेगी. सच ये है कि मां पर मंैने जो शाइरी की है, उसे उर्दू अदब को मेरे योगदान के रूप में लोग हमेशा याद रखेगें.

मजमे की डिमांड पर तो हमने कभी शेर नहीं कहे. कहा वही जो खुद महसूस किया. ऐसा वो करते हैं जिनके लिए मुशायरा पैसा कमाने का ज़रिया होता है

पुराने लोग कहते हैं कि मुनव्वर राना को मुशायरों ने बिगाड़ दिया. देखा भी गया है कि मुशायरों में जानेवाले शायर मजमे की डिमांड के मुताबिक शेर करने लगते हैं, चाहे वो डिमांड कितनी ही छिछली क्यों न हो, इससे शाइरी का स्तर गिरता है. इस पर आप क्या कहेंगे ?
मजमे की डिमांड पर तो हमने कभी शेर नहीं कहे. कहा वही जो खुद महसूस किया. डिमांड पर सप्लाई वो लोग करते हैं जिनके लिए मुशायरा पैसा कमाने का ज़रिया होता है, जिनका घर मुशायरे की पेमेंट से चलता है. उन्हंे डर होता है कि वो अगर मजमे की डिमांड पूरी नहीं करेंग, तो अगले मुशायरे में बुलाए नहीं जाएंगे. हमारा अपना ट्रांसपोर्ट का बिजनेस है जिसका सालाना टर्नओवर करोड़ों में है. हम पैसा कमाने के लिए मुशायरे नहीं पढ़ते. हम जितने मुशायरे पढ़ते हैं उससे कहीं ज़्यादा पढ़ने से इंकार कर देते हैं.

इमरान प्रतापगढ़ी जैसे शायर मुशायरों में अकबरूद्दीन ओवैसी और मुख़्तार अंसारी जैसे लोगों की तारीफ़ कर रहे हैं, और लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं, इसे आप कैसे देखते हैं ? इमरान कहते हैं कि आपके दौर में भी यही सब होता था…
सबसे पहले तो ये हमारे प्रशासन के कमज़ोर होने की निशानी है. एक आदमी खुलेआम, चौराहे पर, हज़ारों लोगों के सामने ऐसी शाइरी पढ़ रहा है और आपको इसके ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है. प्रशासन अगर एक बार सख्ती कर दे और ऐसे लोगों को डिटेन करवा दे तो ऐसी शाइरी खत्म हो जाएगी. ये शाइरी नुकसान पहुंचा रही है. इस तरह की शाइरी से सबसे बड़ा नुकसान तो मुशायरों का ही हुआ. मुशायरों में गैर-मुस्लिमों और सेक्यूलर शरीफ़ मुसलमानों ने जाना छोड़ दिया. शाइरी का काम जोड़ना होता है, तोड़ना नहीं. हमने कभी तोड़नेवाली शाइरी नहीं की. इनके पसंद करने वाले और हमको पसंद करने वाले अलग-अलग हैं. मेरे प्रशंसकों में मुसलमानों से बहुत ज़्यादा गैर-मुस्लिम लोग हैं. सिर्फ मुसलमान प्रशंसक वाणी प्रकाशन से नागरी में छपी मेरी किताब ‘मां’ की एक लाख प्रतियां नहीं बिकवा सकते.

आख़िरी सवाल, आपने भी बहुत से राजनीतिक लोगों पर प्रशंसापूर्ण लेख और नज़्में लिखी हैं, किताबें भी समर्पित की हैं। इसे चापलूसी क्यों न माना जाए?
अगर किसी पर मैने कोई नज़्म लिखने के बाद उससे बदले में कोई लाभ लिया हो, तो आप भरी सड़क पर मेरा गिरेबान पकड़कर मुझे चापलूस कह सकते हैं. मैं रायबरेली का रहने वाला हूं. सोनिया गांधी हमारी सांसद हैं, मैंने उनपर नज़्म कही है, क्योंकि मैं उनसे प्रभावित हुआ था. मैं आज तक उनसे मिलने नहीं गया. अगर मैं उनसे मिलने चला जाता तो मुमकिन है कि ये अवॉर्ड मुझे आज से 10 साल पहले मिल जाता. दूसरे भी लोग जिनपर मैने नज़्में कहीं हैं या समर्पण किए हैं वो मेरे दोस्त या शुभचिंतक हैं. वो मेरी बीमारी में अस्पताल में मेरे साथ खड़े रहे हैं. अगर मैं उनको किताब नहीं समर्पित करूंगा तो क्या अपने दुश्मनों को समर्पित करूंगा.

अभिशप्त आदिवासी

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव

31 अगस्त 2010 को संसद में एक यादगार दृश्य पैदा हो गया था. उस दिन अरुण जेटली ने राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित परियोजनाओं को पूरा करने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए निर्धारित फंड के कथित इस्तेमाल पर तत्कालीन यूपीए सरकार को घेरने की कोशिश की थी.

जेटली तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार द्वारा राष्ट्रमंडल खेलों से संबधित परियोजनाओं के लिए इस फंड के कथित इस्तेमाल पर सवाल उठा रहे थे.

जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे. उन्होंने कहा था, ‘महज इसलिए कि दिल्ली में रहनेवाले कुछ लोग, जिनका संबंध अनुसूचित जाति से है, राष्ट्रमंडल खेल देखने जाएंगे, आप यह नहीं कह सकते कि अनुसूचित जातियों के लिए तय फंड से स्टेडियम बनाए जाने चाहिए. राष्ट्रमंडल खेल ऐसी परियोजना नहीं है जो अनुसूचित जातियों को प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष तौर पर या दूर-दूर से भी फायदा पहुंचाती हो.’

उस समय हर राजनीतिक दल ने जेटली की बात से सहमति जताई थी. उन्होंने कहा, ‘जब एयर इंडिया कोई विमान उड़ाता है, तो किसी भी जाति या नस्ल का व्यक्ति उसमें यात्रा कर सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए निर्धारित फंड का ऐसी परियोजना में इस्तेमाल कर लिया जाए और सरकार कहे कि ये परियोजनाएं उनको फायदा पहुंचाती हैं. इन पैसों का इस्तेमाल कमजोर वर्गों की मदद के लिए उन क्षेत्रों में किया जाना चाहिए जहां इनकी बड़ी जनसंख्या बसती है.’

जेटली राजनीतिक तौर पर सही हो सकते हैं, विशेषकर जब बात वंचित वर्गों के लिए बजटीय आवंटन की हो. इसे ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) और शिड्यूल्ड कास्ट्स सब-प्लान (एससीएसपी) भी कहा जाता है. यह आदिवासियों व दलितों के कल्याण और उनकी आर्थिक व सामाजिक बेहतरी के लिए होता है. इसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कुल जनसंख्या में एससी और एसटी के अनुपात के आधार पर उनके लिए बजटीय आवंटन करें. उदाहरण के तौर पर, साल 2011 की जनगणना के हिसाब से दलितों और आदिवासियों को सेंट्रल प्लान बजट की राशि का क्रमशः 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी आवंटित होना चाहिए. इसी तरह सभी राज्य सरकारों को अपनी जनसंख्या में इनकी संख्या के आधार पर अपने प्लान बजट में इन वर्गों के लिए राशि आवंटित करनी होती है.

लेकिन जब बात व्यवहार की आती है तो भारत का राजनीतिक वर्ग और यहां की नौकरशाही इस उचित बात को दरकिनार कर देती है और देश के इन सबसे गरीब वर्गों को उनके फंड के हक से वंचित करने और उनके लिए तय फंड के कहीं और इस्तेमाल में लग जाती है. दरअसल यह हमारी व्यवस्था में मौजूद भेदभाव ही है, जिसने यह सुनिश्चित किया है कि ये वर्ग वंचित बने रहें.

यह बात गौर करने लायक है कि इन वर्गों के लिए तय फंड पर कुछ साल पहले सवाल उठानेवाले जेटली ने पिछले आम बजट में क्या किया. आम बजट 2014-15 में जेटली ने दलितों को 47,260 करोड़ रुपयों से वंचित किया, जबकि इसमें आदिवासियों को 25,490 करोड़ रुपयों से वंचित किया गया. हालांकि, जेटली ऐसा करनेवाले पहले या अकेले वित्तमंत्री नहीं हैं. भारत में आम बजटों का इतिहास उठाकर देखें तो हर बार इन वर्गों को उस फंड से वंचित किया गया है, जिसके वे हकदार थे.

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झारखंड

nवित्त वर्ष 2014-15 में बिल्डिंग एंड कंस््ट्रक्शन डिपार्टमेंट ने टीएसपी के तहत 97.75 करोड़ रुपये आवंटित किए. इसमें से 50 करोड़ रुपये का इस्तेमाल सर्किट हाउस बनाने में और 25 करोड़ रुपये का इस्तेमाल न्यायालय भवन बनाने में किया गया.

nवित्त वर्ष 2013-14 में 12 करोड़ रुपये में से 7 करोड़ रुपये का इस्तेमाल एक ट्रेनर एयरक्राफ्ट और एक मोटर ग्लाइडर की खरीदारी में किया गया, जबकि देवघर सहित विभिन्न जिला मुख्यालयों में रनवे निर्माण और विस्तार के लिए 4.82 करोड़ रुपये खर्च किए गए.

nटीएसपी के तहत गृह विभाग को 32.64 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जिनमें से एक करोड़ रुपये का इस्तेमाल जेल कर्मचारियों के आवास के निर्माण के लिए किया गया.

nवित्त वर्ष 2011-12 में 1.83 करोड़ रुपये का इस्तेमाल निर्माण गतिविधियों के लिए किया गया, जिसमें सीएम हाउस में एक हैलीपैड का निर्माण शामिल है.

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दलित और आदिवासी समूहों के प्रमुख संगठन नेशनल कोएलीशन फॉर एससीएसपी-टीएसपी लेजिस्लेशन ने बजट के दस्तावेजों और सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए पिछले दिनों यह गणना की कि सातवीं से लेकर 12वीं पंचवर्षीय योजना (साल 2014-15 तक) के बीच आम बजट में दलितों और जनजातियों को कितने फंड से वंचित किया गया है. आंकड़ा देखकर आप चौंक जाएंगे- 5,27,723.72 करोड़ रुपये!

आइए इसी बात को दूसरे तरीके से समझते हैं. तकरीबन 30 सालों की इस अवधि के दौरान आम बजटों में इनके लिए 8,75,380.36 करोड़ रुपए आवंटित किए जाने चाहिए थे, लेकिन इनके लिए केवल 3,47,656.64 करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए. इसका मतलब यह हुआ कि समाज के इन वंचित वर्गों को कायदे से जितनी राशि का आवंटन किया जाना चाहिए था, उसका सिर्फ 60 फीसदी तक ही आवंटित किया गया.

पूर्व केंद्रीय सचिव पीएस कृष्णन, जिन्होंने शुरुआती वर्षों में टीएसपी और एससीएसपी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाई, कहते हैं, ‘राजनीतिक नेतृत्व और असंवेदनशील नौकरशाही संविधान के उन आधारभूत सिद्धांतों को ध्वस्त कर रही हैं, जिनके आधार पर टीएसपी और एससीएसपी का ढांचा बनाया गया है. आवंटन के अनुमानित और काल्पनिक आंकड़े देकर इनको वैधता का जामा पहनाया गया है और इसे महत्वहीन बनाया गया है. लिहाजा यह पूरी प्रक्रिया महज अंकगणितीय कवायद बनकर रह गई है. इसका आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए जरूरी उपायों से कोई नाता नहीं है. केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आर्थिक स्वतंत्रता और शैक्षिक समानता के अहम आयामों को भुला बैठी हैं.’ (नोउशनल एलोकेशन वह आवंटन है जो केवल कागज पर है, जहां जरूरी बजट का जिक्र तो होता है, लेकिन उसका समुदायों के लाभ के लिए उपयोग नहीं होता).

ऐसे में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संस्थागत रूप से वंचित किए जाने की प्रक्रिया में इनको फंड से वंचित करना और इनके लिए आवंटित फंड का दूसरी जगह इस्तेमाल करना एक घातक संयोग बन जाता है. यह व्यवस्थित भेदभाव किस तरह काम करता है, इसे समझने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि पिछली सरकारों के योजनागत व्यय से संबंधित दस्तावेजों की बारीकी से जांच की जाय.

इस काम की शुरुआत केंद्रीय और पूर्वी राज्यों से की जा सकती है जहां संवैधानिक और सरकारी संस्थाओं ने यह बार-बार कहा है कि अन्याय और गरीबी ने वामपंथी अतिवाद के लिए उर्वरा भूमि तैयार की है.

झारखंड

झारखंड सरकार के योजनागत व्यय के विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि टीसपी फंड के करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल दो वीआईपी जहाजों (एक ट्रेनर एयरक्राफ्ट और एक मोटर ग्लाइडर) की खरीद, हजारीबाग, पलामू, धनबाद, दुमका और गिरिडीह में झारखंड फ्लाइंग इंस्टीट्यूट के बुनियादी ढांचे के विकास, कई जिला मुख्यालयों में रनवे के निर्माण और विस्तार, न्यायालय परिसर में न्यायालय भवन, आवासीय भवन, पुलिस बैरक के निर्माण और न्यायालय से संबंधित अन्य निर्माण कार्यों, रांका में एडिशनल कमांडेंट भवन/ एसडीओ भवन, महुआटांड में डिप्टी एसपी भवन, माननीय मंत्रियों के लिए आवासीय भवन, एमएलए आवास/ वरिष्ठ अधिकारियों के आवास, रांची में मुख्यमंत्री आवास/ ऑफिसर्स क्वार्टर में हैलीपैड के निर्माण, रांची और खूंटी के कलेक्ट्रेट के भवन के निर्माण और अन्य कार्यों, माननीय न्यायाधीशों के लिए आठ घरों, माननीय मंत्रियों के लिए आवासीय भवन, खूंटी में एमएलए आवास/ बंगले के निर्माण सहित कई अन्य कामों पर हुआ है.

 

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव

मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश सरकार के वित्तीय वर्ष 2014-15 के बजट के विश्लेषण से भी एससीएसपी और टीएसपी के अन्य कामों के लिए इस्तेमाल की बात पता चलती है. इस फंड को राजमार्गों और पुलों सहित बुनियादी ढांचे से संबंधित बड़ी परियोजनाओं में इस्तेमाल किया गया है. इसके अलावा इसे झीलों और तालाबों के सुंदरीकरण, एनिमल इंजेक्शंस, सिंथेटिक हॉकी टर्फ बनाने, स्टेट इंडस्ट्रियल प्रोटेक्शन फोर्स के गठन के लिए इस्तेमाल किया गया है. और तो और इस फंड को सिंहस्थ मेला, जिसे उज्जैन कुंभ मेला के नाम से जाना जाता है, के लिए भी खर्च किया गया है. सामाजिक दृष्टि से देखें, तो यह मेला अछूत प्रथा को बढ़ावा देने के लिए कुख्यात है. इसके अतिरिक्त एससीएसपी और टीएसपी के फंड का उपयोग गौसेवकों को भत्ता देने के लिए भी किया गया है, जो संघ परिवार की परियोजना है.

छत्तीसगढ़

यही हाल मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ का भी है. अगर हम वित्त वर्ष 2014-15 के छत्तीसगढ़ के बजट पर नजर डालें, तो पता चलता है कि यहां टीएसपी और एससीएसपी फंड को अन्य कामों के अलावा ‘स्पेशल पुलिस’ और ‘पुलिस’ के लिए इस्तेमाल किया गया. एससीएसपी से 3.03 करोड़ रुपये पुलिस विभाग को दे दिए गए.

 

राजनीतिक नेतृत्व और असंवेदनशील नौकरशाही उन आधारभूत सिद्धांतों को ध्वस्त कर रही हैं जिनके ऊपर टीएसपी और एससीएसपी का ढांचा बनाया गया

ओडीसा
ओडीसा के विश्लेषण में साफ हुआ कि टीएसपी और एससीएसपी फंड का इस्तेमाल पुलिस और अन्य बलों के आधुनिकीकरण, जेलों और पुलिस बैरकों के निर्माण, ओडीसा स्टेट पुलिस हाउसिंग एंड वेलफेयर कॉरपोरेशन के जरिए पुलिस के लिए आवासीय भवनों के निर्माण के लिए किया गया.

गुजरात

कई सालों से देश का आदर्श राज्य माने जा रहे गुजरात ने भी व्यवस्थित तरीके से एससीएसपी और टीएसपी फंड को अन्य मदों में इस्तेमाल किया है. इस फंड का इस्तेमाल मुख्यतः बुनियादी ढांचा क्षेत्र की बड़ी परियोजनाओं और अहम सिंचाई परियोजनाओं में किया गया है, जो काफी हद तक अमीर किसानों को फायदा पहुंचाते हैं. गुजरात की भूमिहीन जनसंख्या में बड़ी संख्या दलितों की है. साल 2012-13 में इस फंड का इस्तेमाल स्वामी विवेकानंद की 150वी जयंती मनाने के लिए किया गया. अंबेडकर जयंती मनाने पर दलितों के खिलाफ हिंसा के देशभर में कई मामलों के मद्देनजर देखें, तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए तय फंड का ऐसा इस्तेमाल वाकई रोचक है.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली

जब बात फंड के दूसरी जगह इस्तेमाल की आती है, तो इस मामले में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का अपना अलग ही इतिहास है- राष्ट्रमंडल खेलों के लिए फ्लाईओवर और हाईवे बनाने के लिए इस फंड के कुख्यात और विवादित इस्तेमाल से लेकर दीवाली की मिठाइयां बांटने जैसे काम इस फंड के जरिए हुए.

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आंध्र प्रदेश
दलित और आदिवासी समूहों द्वारा प्रभावी राजनीतिक ध्रुवीकरण के फलस्वरूप आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने दिसंबर 2012 में एससीएसपी एंड एसटीपी सब-प्लान एक्ट लागू किया. अपनी तरह के इस पहले अधिनियम की कई सीमाएं हैं, लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विकास के लिए बनाए जानेवाले कानूनों के इतिहास के शुरुआती कदम के रूप में इस अधिनियम का स्वागत किया गया.

हालांकि इस अधिनियम के लागू होने से पहले आंध्र प्रदेश में भी उनके हक के फंड से उन्हें वंचित किए जाने और फंड का दूसरे मदों में इस्तेमाल करने का लंबा इतिहास रहा है. साल 2010-11 में इनके फंड का इस्तेमाल रिंग रोड परियोजनाओं, कॉलेज अध्यापकों को वेतन देने और मंडल मुख्यालयों में वीडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा स्थापित करने आदि के लिए किया गया. साल 2011-12 में उनके लिए आवंटित फंड का उपयोग प्रिंट मीडिया में सरकारी विज्ञापन देने और आंध्र प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम (एपीएसआरटीसी) को मदद करने के लिए किया गया. साल 2012-13 में इस फंड का इस्तेमाल हुसैन सागर झील, कैचमेंट एरिया इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट और हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना के लिए किया गया.

बिहार

केंद्र और राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में कभी-कभी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण के लिए आधिकारिक रूप से फंड अलग रख दिया जाता है. लेकिन व्यवस्था में मौजूद असंतुलित शक्ति संबंध और संरचनात्मक कारक इस लाभ को उन लोगों तक पहुंचने से रोकते हैं, जिनके लिए इन्हें रखा गया होता है. बिहार के जहानाबाद जिले के मखदूमपुर प्रखंड में एससीएसपी फंड से पांच सड़कों के निर्माण के बारे में प्रयास ग्रामीण विकास समिति का हालिया अध्ययन इस बात का जीवंत उदाहरण है. दरअसल इस परियोजना के जरिए दलित बस्तियों को मुख्य सड़कों से जोड़ा जाना था, लेकिन अधिकांश मामलों में सड़क को दलित बस्तियों से एक या दो किलोमीटर पहले वहीं तक रोक दिया गया जहां अन्य हिंदू जातियां रहती हैं. इस तरह उस जातीय जनसंख्या को इससे लाभ मिला जिसका वहां पर दबदबा है और दलित अभी भी कच्ची सड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं. बिहार में अछूत प्रथा के कई ऐसे उदाहरण भी देखे गए हैं जिनमें दलितों को उन सड़कों पर चलने से रोका गया है, जिनका सवर्ण इस्तेमाल करते हैं.

नेशनल कोएलीशन ऑफ दलित ह्यूमन राइट्स (एनसीडीएचआर) की नेशनल कोऑर्डिनेटर बीना जे पल्लिकल पूछती हैं, ‘क्या यह अजीब नहीं है कि आदिवासियों और दलितों के लिए आवंटित पैसों का इस्तेमाल राज्य की दमनकारी शक्तियों जैसे पुलिस बल को मजबूत करने में किया जाता है? क्या वे लोग उन पैसों के इस्तेमाल के जरिए सताए या मारे नहीं जाते, जो दरअसल उन्हीं के लिए आवंटित किए गए होते हैं? क्यों इन पैसों का इस्तेमाल उनके लिए रोजगार के मौके बनाने में नहीं किया जाता?’

इनके लिए आवंटित पैसों का दूसरी जगह इस्तेमाल किए जाने और जेलों में कैदियों की संख्या के बीच एक सीधा संबंध भी दिख रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से हाल ही में जारी किए आंकड़ों के मुताबिक 53 फीसदी भारतीय कैदी दलित, आदिवासी और मुस्लिम हैं, जबकि देश की कुल जनसंख्या में इनकी संख्या इससे कम है.

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गुजरात

nवित्त वर्ष 2012-13 में 37.02 करोड़ रुपये जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (जेएनएनयूआरएम) को इन्््फ्रास्ट्रक्चर और गवर्नेंस के लिए दे दिए गए.

nइसके अलावा 115 करोड़ रुपये स्वर्ण जयंती मुख्य मंत्री शहरी विकास योजना के तहत निगमों को सहायता अनुदान के तौर पर दे दिए गए.

nस्वर्णिम गुजरात के उद्देश्य हासिल करने और आदर्श कस्बे बनाने के लिए नगरपालिकाओं को मदद के तौर पर 124.27 करोड़ रुपये दे दिए गए.

nशेयर कैपिटल कंट्रिब्यूशन के तौर पर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की ओर 700 करोड़ रुपए बढ़ा दिए गए.

nवित्त वर्ष 2013-14 में 5 करोड़ रुपए का इस्तेमाल स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती मनाने के लिए कर दिया गया.

nमेडिकल, डेंटल, नर्सिंग और फिजियोथेरेपी कॉलेजों और अस्पतालों के िलए चिकित्सा उपकरणों और मोटर वाहनों के लिए 72 करोड़ रुपये का इस्तेमाल कर लिया गया.

nशेयर कैपिटल कंट्रिब्यूशन के तौर पर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड को 200 करोड़ रुपये दे दिए गए.

nवित्त वर्ष 2014-15 में 32.61 करोड़ रुपये जल संरक्षण से जुड़े कामों में इस्तेमाल कर लिए गए, जिनमें अन्य कामों के अलावा तालाबों की खुदाई, चेक डैम आदि का निर्माण शामिल है.

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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विकास रावल ने 2011 की जनगणना और नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के आंकड़ों का विश्लेषण कर यह पाया है कि ‘केवल तीन फीसदी ग्रामीण आदिवासियों के घरों में नल से पानी आता है, इस समुदाय के 5 फीसदी से भी कम लोग बिजली का इस्तेमाल करते हैं, (केवल) लगभग 16 फीसदी लोगों के घर में किसी भी तरह के शौचालय हैं, 1.7 फीसदी के घरों में बाथरुम और बंद नालियां हैं, केवल 2.6 फीसदी के पास धुंआरहित ईंधन और घर के भीतर रसोई की सुविधा है. साल 2011 की जनगणना के साथ लिए गए आंकड़ों के मुताबिक 41 फीसदी ग्रामीण आदिवासी परिवारों के पास किसी भी तरह की मूलभूत संपत्ति (जैसे साईकिल, रेडियो या टेलीविजन) नहीं है.’

एनएसएसओ के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए उसी अध्ययन ने यह भी साबित किया कि ‘पीने के पानी और साफ-सफाई जैसी मूलभूत सुविधाओं के मामले में साल 1993 से 2012 के बीच मामूली विकास हुआ.’ अगर योजना आयोग की ओर से प्रकाशित विवादित अनुमानों पर भरोसा करें, तो 47 फीसदी आदिवासी परिवार गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रहे हैं (स्वतंत्र विश्लेषकों के मुताबिक यह आंकड़ा और अधिक है). सवाल उठता है कि इन लोगों को टीएसपी और एससीएसपी फंड से वंचित कर और उनके लिए आवंटित फंड को दमनात्मक व्यवस्थाओं को मजबूत करने व एयरक्राफ्ट, हैलीपैड और शानदार आवासीय कॉम्प्लैक्स जैसी विलासिता के लिए इस्तेमाल कर क्या राज्य स्वयं ही वित्तीय साधनों के बीच एक गृह युद्ध जैसी स्थितियां पैदा नहीं कर रहा है?

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मध्य प्रदेश

वित्त वर्ष 2014-15 में मध्य प्रदेश में एससीएसपी फंड का इस तरह बेजा इस्तेमाल किया गया-

nराज्य के राजमार्गों के लिए 46.80 करोड़ रुपये लगाए गए.

nसिंहस्थ मेला (उज्जैन कुंभ मेला, जो अछूत प्रथा को बढ़ावा देने के लिए कुख्यात है) के लिए 25 करोड़ रुपये दिए गए.

nपुलिस स्टेशनों के निर्माण, स्टेट इंडस्ट्रियल प्रोटेक्शन फोर्स के गठन और ऑफिस फर्नीचर की खरीद के लिए 18.05 करोड़ रुपये इस्तेमाल किए गए.

nबड़े पुलों के निर्माण के लिए 15 करोड़ रुपये लगाए गए.

nस्टेडियम के निर्माण के िलए 4.5 करोड़ रुपए और सिंथेटिक हॉकी टर्फ के लिए 0.65 करोड़ रुपये दिए गए.

nजेलों में सुविधाएं देने के लिए 1.22 करोड़ रुपये दिए गए.

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योजनाओं और परियोजनाओं के स्तर पर भी होता है भेदभाव
नेशनल कोएलीशन ऑफ एससीएसपी/टीएसपी के कन्वेनर पॉल दिवाकर शिक्षा का उदाहरण देते हुए बताते हैं, ‘आरटीआई के माध्यम से हमें इस बात के सबूत मिले हैं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को टीएसपी और एससीएसपी फंड से पैसे दिए गए हैं. यह स्पष्ट है कि इस पैसे में से अधिकांश का इस्तेमाल संस्थाओं के लिए संपत्तियां बनाने के लिए किया गया है. नाममात्र की राशि का इस्तेमाल ही फेलोशिप और स्कॉलरशिप के लिए किया गया है, जो इस अतिशय जातिवादी शिक्षा व्यवस्था में दलित और आदिवासी छात्रों के आगे बढ़ने में काफी मददगार साबित होती है.’

अगर योजना आयोग की ओर से प्रकाशित विवादित अनुमानों पर भरोसा करें, तो 47 फीसदी आदिवासी परिवार गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रहे हैं

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटिबिलिटी, दिल्ली में फैकल्टी के तौर पर काम कर रहे सुब्रत दास कहते हैं, ‘इन फंड को दूसरे कामों में इस्तेमाल किए जाने को कड़ाई से रोकने के अलावा अहम यह भी है कि इसमें सीधे हस्तक्षेप करके अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीधे नीतिगत लाभ सुनिश्चित किए जाएं.’

फोटोः ववजय पांडेय
फोटोः ववजय पांडेय

अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए दास राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल कार्यक्रम का उदाहरण देते हैं. वह कहते हैं, ‘इस योजना के दिशा-निर्देश ग्रामीण क्षेत्रों में पाइप के जरिए जल आपूर्ति के लिए हैं. हालांकि देश के कुछ हिस्सों में अनुसूचित जनजाति समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं, जहां पाइप के जरिए जल आपूर्ति नहीं की जा सकती. ऐसे स्थानों के लिए स्प्रिंग बॉक्स जैसी चीज सबसे

उपयुक्त हो सकती है, जहां हमेशा बने रहनेवाले स्प्रिंग होते हैं. लेकिन इस योजना के दिशा-निर्देश इस तरह की परेशानी और चुनौती को उठाने के लिए तैयार नहीं दिखते.’

इसी तरह इस बात का उल्लेख किया जाता है कि एससीएपी और टीएसपी फंड के इस्तेमाल के मामले में मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी संवेदनहीन है. केंद्र सरकार के कार्यक्रम सर्व शिक्षा अभियान के विस्तृत अध्ययन के दौरान जयश्री मंगूभाई ने अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों के सामने पेश आनेवाले तीन तरह के भेदभावों का उल्लेख किया है- शिक्षकों द्वारा, साथी समूहों द्वारा और ‘व्यवस्था’ द्वारा. ‘बैठने की अलग व्यवस्था, अनुसूचित जाति के छात्रों को डांटने के दौरान अनावश्यक कड़ाई, अनुसूचित जाति के छात्रों को समय न देना, उन पर ध्यान न देना, स्कूल के सार्वजनिक कार्यक्रमों से अनुसूचित जाति के छात्रों को बाहर रखना, अनुसूचित जाति के छात्रों की पढ़ाई की क्षमता के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां देना, स्कूल की खेल गतिविधियों में अनूसूचित जाति के छात्रों को शामिल न करना, पाठ्यक्रम और किताबों में जातिगत विशिष्टताओं को शामिल करना, अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए लाभकारी योजनाओं को पूरी तरह लागू न करना, शिक्षकों के प्रशिक्षण के दौरान उनके संवेदीकरण का अभाव’ जैसी चीजें इसमें शामिल होती हैं.

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छत्तीसगढ़

nवित्त वर्ष 2014-15 के दौरान एससीएसपी से 3.03 करोड़ रुपये पुलिस विभाग को इस्तेमाल के लिए दे दिए गए, जबकि टीएसपी से 2 करोड़ रुपये स्पेशल पुलिस के काम के लिए लगा दिए गए.

आंध्र प्रदेश

nवित्त वर्ष 2010-11 में एससीएसपी से 62.4 करोड़ रुपये क्वार्टर रिंग रोड परियोजना के लिए एचएमडीए को बतौर कर्ज दिए गए.

nवित्त वर्ष 2011-12 में एससीएसपी से 9.7 करोड़ रुपये हुसैनसागर झील और कैचमेंट एरिया इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट के लिए इस्तेमाल किए गए.

nइसके अलावा 3.4 करोड़ रुपये सरकार के प्रचार कार्यों में खर्च किए गए.

ओडीसा

nवित्त वर्ष 2014-15 में एससीएसपी से 172 करोड़ रुपये िसंचाई और सड़कों के सुधार से जुड़ी परियोजनाओं के लिए लगाए गए.

nएससीएसपी से 73 करोड़ रुपये बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम में लगा दिए गए.

nटीएसपी से 12.8 करोड़ रुपये न्यायालय भवन और 12.41 करोड़ रुपये पुलिस कल्याण के लिए भवन बनाने में लगाए गए.

दिल्ली

nवित्त वर्ष 2006-07 में शीला दीक्षित के नेतृत्ववाली दिल्ली सरकार ने मैला ढोने वालों के कल्याण और विकास के लिए आवंटित 9.12 लाख रुपये का इस्तेमाल दीवाली की मिठाइयां और उपहार खरीदने में किया.

nवित्त वर्ष 2007-08 में भी दिल्ली सरकार ने मैला ढोने वालों के लिए आवंटित 7.85 लाख रुपये का इस्तेमाल दीवाली की मिठाइयां और उपहार खरीदने में किया.

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एक शोधकर्ता और कार्यकर्ता संजय भारती कहते हैं, ‘जब इस तरह के भेदभाव का माहौल हो, तो यह कल्पना करना ही बेवकूफी है कि आम योजनाओं से अनुसूचित जाति/ जनजाति के छात्रों को बाकी छात्रों के बराबर फायदा होगा.’

पॉल दिवाकर कहते हैं, ‘सभी राजनीतिक दलों के नेता दिवास्वप्न देखते हैं कि भारत एक मजबूत आर्थिक शक्ति बनेगा. लेकिन दलितों और आदिवासियों के साथ हो रहे व्यवस्थागत भेदभाव के साथ आर्थिक शक्ति कैसे बना जा सकता है?’

दिवाकर कहते हैं, ‘हमने अधिकांश केंद्रीय बजटों और राज्य बजटों का विश्लेषण किया है. फंड से वंचित किए जाने, फंड का उपयोग न करने और फंड का दूसरी जगह इस्तेमाल करने जैसे गंभीर मसलों के अलावा आम स्थिति यह है कि लगभग 70 फीसदी आवंटित राशि सर्वाइवल योजनाओं में जाता है, विकास योजनाओं के लिए नहीं, जो आर्थिक क्षेत्र के तहत आता है. यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर करती है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आर्थिक विकास सरकारों की प्राथमिकता नहीं हैं. अगर सरकारें सर्वाइवल योजनाओं के साथ स्वामी-सेवक के संबंध जारी नहीं रखना चाहतीं, तो उन्हें लंबी अवधि की संपूर्ण विकास परियोजनाओं की पहल करनी चाहिए. इसीलिए हम एससीएसपी/टीएसपी के लिए विधेयक लाए जाने की मांग कर रहे हैं ताकि नियमों के उल्लंघन को फौजदारी अपराध माना जाए. फिलहाल इससे निपटने के लिए सर्फ दिशा-निर्देश हैं.’

दलितों और आदिवासियों के साथ हो रहे व्यवस्थागत भेदभाव के रहते भारत भला मजबूत आर्थिक शक्ति कैसे बन सकता है

क्या भारत सरकार दलितों और आदिवासियों की इस विकराल समस्या के समाधान के लिए कोई कड़ा कानून लाएगी? इस मसले पर काम करनेवालों और सार्वजनिक दस्तावेजों के मुताबिक, आंतरिक बहस और सक्रिय समूहों के दबाव के बाद यूपीए सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इस बारे में एक विधेयक लाने और पारित कराने का प्रयास किया था.

इस विधेयक का मसौदा बनाने और उसे आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाने वाले पीएस कृष्णन कहते हैं, ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से बनाए गए विधेयक में कई कमियां थीं. लेकिन यह एक सकारात्मक कदम था. फिर भी यह विधेयक आगे नहीं बढ़ पाया, क्योंकि यूपीए सरकार से जुड़े दो अहम लोगों- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया- ने जोरदार तरीके से इसका विरोध किया था.’

रोचक बात यह है कि 27 जून 2005 को राष्ट्रीय विकास परिषद की 51वीं बैठक में बोलते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘1970 के दशक के मध्य में स्पेशल कंपोनेंट प्लान और ट्राइबल सब-प्लान की शुरुआत की गई थी. ट्राइबल सब-प्लान और स्पेशल कंपोनेंट प्लान दरअसल वार्षिक योजनाओं और पंचवर्षीय योजनाओं के अभिन्न हिस्से होने चाहिए. इसमें यह प्रावधान होने चाहिए कि इन फंड को दूसरी योजनाओं के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और ये फंड लैप्स नहीं हो सकते. इसके अलावा इनके साथ एक स्पष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि 10 वर्षों की अवधि के दौरान अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास के अंतर को मिटा दिया जाए.’

लेकिन यूपीए सरकार को जो दो कार्यकाल मिले, उसमें आदिवासियों और दलितों के लिए आवंटित फंड को दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल किया गया, जिससे साफ होता है कि सिंह का यह भाषण महज शब्दों का आडंबर था. हालांकि सिंह और कांग्रेस अब सत्ता में नहीं हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलती दिख रही है.

भारत में लंबे समय से दमित दलित और वंचित आदिवासी इन सबके बीच मानो यह सवाल पूछ रहे हों कि हमारे लिए तय सारे पैसे आखिर कहां गए?