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ग्रीनपीस : प्रताड़ना का पर्यावरण

Rape Victim

मैं एक वालंटियर के तौर पर 2009 में ग्रीनपीस से जुड़ी. 2012 में बेंगलुरु ऑफिस जॉइन किया. ग्रीनपीस इंडिया के माहौल में अजीब से लगने वाले द्विअर्थी मजाक आसानी से सुने जा सकते हैं. ये यहां हमेशा से होते रहे हैं पर शुरुआत में आप हर मजाक पर इस वजह से सवाल नहीं उठाते कि कहीं कोई आपको झगड़ालू न समझ बैठे. मेरे साथ भी यही हुआ. वहां स्त्री विरोधी और जेंडर संबंधी मजाक आम हैं पर मुझे इनसे तब तक ज्यादा फर्क नहीं पड़ा जब तक मैंने इस घटिया सोच को मेरे साथ हुए दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम में बदलते नहीं देखा.

 अक्टूबर, 2012 में ऑफिस के कई साथियों के साथ मैं हैदराबाद में टूर पर थी. सीनियर एडमिन मैनेजर उदय कुमार भी वहीं था. एक दिन अचानक रात में उसने मुझे फोन करके कहा कि अपना कमरा खाली करो और मेरे कमरे में सोने आ जाओ! ये बहुत ही घटिया बात थी. मुझे वो शराब के नशे में लग रहा था इसलिए मैंने बात ज्यादा नहीं बढ़ाई. इसके बाद वो हर जगह मेरा पीछा करता, मेरी असहजता भांपने के बावजूद करीब आने की कोशिशें करता. उसने कई बार मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की. मेरे जन्मदिन पर मुझे जबरदस्ती केक खिलाने लगा. मैं उससे परेशान हो गई थी. पूरी मेज पर जगह खाली होने के बाद भी नाश्ते के समय मेरे ही पास आकर बैठता.

 वापस आकर लगभग डेढ़ महीने बाद मैं उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत जुटा पाई. तब मुझे पता चला कि नवंबर 2011 में उदय एक और महिला कर्मचारी सीमा से भी बदतमीजी कर चुका है. मैं उसके ओछे स्वभाव को समझ चुकी थी इसलिए मैंने अपनी शिकायत में उसके लिए ‘रिपीट ऑफेंडर’ (अपराध दोहराने वाला) शब्द का प्रयोग किया. दिसंबर 2012 में ही सीमा ने भी एक-दो दिन के अंतराल पर उदय के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज कराई थी. बाद में (2015 में) पता चला कि एचआर मैनेजर ने उस शिकायत को यौन प्रताड़ना की श्रेणी में रखा ही नहीं था जिससे इसकी जांच आंतरिक शिकायत समिति द्वारा हो पाती.

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पढ़ेंं: ‘मुझसे ऐसा व्यवहार किया गया जैसे मानो मैं अपराधी हूं’
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‘ये लड़ाई मेरी अकेली नहीं उन सब महिलाओं की है जो इस सो-कॉल्ड ‘सिविल’ सोसाइटी में बिना किसी उत्पीड़न या शोषण के डर के अपने अधिकारों की जमीन तलाश रही हैं’

 हम दोनों लड़कियों से इस बारे में कोई आधिकारिक बातचीत नहीं हुई कि उदय को क्या सजा मिली है पर हमने ऐसा सुना कि क्योंकि दोनों घटनाएं आउटस्टेशन टूर पर हुई थीं इसलिए उदय को एक साल के लिए टूर पर बाहर नहीं भेजा जाएगा. इसके बावजूद उसे एक टूर पर भेजा गया. वैसे ये सभी फैसले ऑर्गनाइजेशनल डायरेक्टर अनंत ने लिए थे, जिस पर पहले ही एक और महिला कर्मचारी उत्पीड़न का आरोप लगा चुकी थी. 2013 में ग्रीनपीस में कार्यरत मेरे एक दूसरे सहकर्मी ने अचेतावस्था में मुझसे बलात्कार किया. वह खुद को मेरा दोस्त कहता था. इस हादसे ने मुझे तोड़कर रख दिया. मैं दहशत में थी. मामले की शिकायत दर्ज कराना तो दूर, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि इसके बारे में किसी दोस्त को बता सकूं. बाद में पता चला कि वह व्यक्ति और भी कई महिला कर्मचारियों के साथ बदतमीजी कर चुका था, जिसमें कई वालंटियर्स भी शामिल थीं. एक बार उसने एक वालंटियर को अपने निजी अंगों की तस्वीरें भी भेजी थीं. ये मेरा दुर्भाग्य था कि मेरे बलात्कारी के साथ मुझे काम करना पड़ता था. उसकी घटिया नजरों का सामना करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था और जब मेरी सहनशीलता जवाब दे गई तो मैंने नौकरी छोड़ दी. तब मैंने अपने मैनेजर को इस्तीफा देने की बात कही तो उसने हंसते हुए कहा, चलो अच्छा है… अब मुझे तुम्हारा पेपरवर्क तो नहीं करना पड़ेगा! किसी संस्थान को अपना सौ प्रतिशत देने के बाद आप इस तरह के व्यवहार की तो उम्मीद नहीं रखते!

 ये बहुत मुश्किल समय था. एक बड़े शहर में मुझे खुद को हर तरह से संभालना था. मैं मानसिक रूप से बहुत परेशान थी. पर धीरे-धीरे मैंने साहस जुटाया जिसका परिणाम इस साल फरवरी में फेसबुक पोस्ट के रूप में सामने आया. मैंने इस पोस्ट में मेरी आपबीती लिखी और प्रबंधन के ढुलमुल रवैये पर सवाल खड़े किए. इसके कुछ दिनों बाद ग्रीनपीस ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मुझसे माफी मांगी. एचआर मैनेजर परवीन ने मुझे ईमेल पर बताया कि मामले की दोबारा जांच होगी (पर पहली बार तो कभी जांच हुई ही नहीं थी!) मैंने अब तक अपने और कुछ दूसरी लड़कियों के मामले को लेकर ग्रीनपीस इंटरनेशनल से भी संपर्क किया था, उन्होंने बात तो सुनी पर किसी कार्रवाई के नाम पर चुप्पी साध ली.

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पढ़ें : ‘उसने कहा, मैं इतनी खूबसूरत हूं कि उसे खुद को याद दिलाना पड़ता  है कि वो शादीशुदा है’
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 कुछ दिनों बाद पता चला कि एक नई समिति बनी है जो मामले कि जांच करेगी पर फिर भी हम दोनों लड़कियों से कोई संपर्क नहीं किया गया. इस समिति ने उदय कुमार को निकलने का फैसला लिया पर कार्यकारी निदेशक समित एच ने पता नहीं किन कारणों से समिति भंग करके उदय की सजा को एक लिखित माफीनामे तक सीमित कर दिया. गौर करने वाली बात ये है कि लगभग ढाई साल बाद उदय कुमार ने अपने किए की माफी मांगी, वो भी ईमेल में. ईमेल की भाषा बहुत भ्रामक और अस्पष्ट थी. उसने लिखा था, ‘मैं अपने संवेदनहीन व्यवहार के लिए माफी मांगता हूं… आशा है हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे.’ क्या ये कोई स्कूली बच्चों का झगड़ा था? वो किस बात के लिए माफी मांग रहा था जिसका जिक्र तक उसने नहीं किया? ये बहुत ही निराशाजनक था. क्या यौन उत्पीड़न भोग चुका इंसान उस व्यक्ति को माफी दे सकता है?  मेरे कई सवाल हैं पर जवाब देने वाले संस्थान से एक-एक कर के इस्तीफा दे के जा चुके हैं. इस बीच मेरे बारे में बहुत-सी घटिया बातें की गईं. मुझे ग्रीनपीस को बदनाम करने की साजिश करने वाला भी कहा गया पर मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता. ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है. ये उन सब महिलाओं के लिए है जो इस सो-कॉल्ड ‘सिविल’ सोसाइटी में बिना किसी उत्पीड़न या शोषण के डर के अपने अधिकारों की जमीन तलाश रही हैं. मैं डरना छोड़ कर जीना सीख चुकी हूं. मेरी सच्चाई लोगों की छोटी सोच से बड़ी है.

अपनी एक कर्मचारी की ओर से बलात्कार के आरोप लगाए जाने पर ये रवैया उस संस्था का था जो मानव अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करती है

ये व्यथा मेघना की है. ग्रीनपीस की पूर्व कर्मचारी मेघना 2009 में संस्था से जुड़ी थीं. मेघना ने बीते फरवरी में अपने साथ हुई इस घटना का सोशल मीडिया पर जिक्र किया. मामले के सामने आने के साथ ही जो ग्रीनपीस संस्था मेघना के छेड़खानी और बलात्कार के आरोपों को लंबे समय से नजरअंदाज करती आई थी वो एकाएक हरकत में आ गई. आनन फानन में संस्था ने कुछ आरोपी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाने के साथ ही पूरे मामले को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और कहा हमसे गलती हो गई.

मेघना बताती हैं, ‘इस साल फरवरी में हिम्मत जुटाकर मैंने फेसबुक पर अपनी आपबीती एक पोस्ट में अपने दोस्तों से शेयर की, जिसके बाद ग्रीनपीस की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मुझसे माफी मांगी गई और उस कथित आरोपी ने मुझे ईमेल में सॉरी लिख के भेजा! क्या माफ कर देना इतना आसान होता है! फिर मैंने एचआर मैनेजर से फोन पर बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने को लेकर बात की, पर वो बोलीं कि कोई पूर्व कर्मचारी आंतरिक शिकायत समिति में कोई शिकायत दर्ज नहीं करा सकता. हालांकि बाद में भेजे गए एक ईमेल में वो अपनी ही इस बात से पलट गईं. तब उन्होंने कहा कि मैं शिकायत दर्ज करा सकती हूं. उनकी बातों में इतने विरोधाभास थे कि किसी शिकायत के संदर्भ में मैं उन पर विश्वास ही नहीं कर पाई.’ मेघना के अनुसार, ‘2012 में एक आउटस्टेशन टूर के दौरान वो यौन उत्पीड़न की शिकार हुई. उसके बाद फिर 2013 में उनके एक सहकर्मी ने उनके साथ अचेतावस्था में बलात्कार किया.’ बकौल मेघना, ‘मैं इस घटना से पूरी तरह से टूट गई थी, डिप्रेशन में थी. उत्पीड़न की शिकायत पर मैं प्रबंधन का नकारा रवैया भी देख चुकी थी. मेरा साथ देने वाले गिने-चुने ही लोग थे. कुछ लोगों का कहना था कि मैंने लोगों को छूट दी कि वो मेरे साथ ऐसा व्यवहार करें. जब मैं लोगों के ताने-फब्तियां नहीं सह पाई तो नौकरी छोड़ दी.’

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पढ़ें: ‘हमने अपने पूर्व कर्मचारियों को बहुत निराश किया है, इसके लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं और माफी मांगते हैं’
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सोशल मीडिया पर ये मामला सामने आने के बाद मेघना से संस्थान की कई दूसरी कर्मचारियों ने भी संपर्क कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में जानकारी दी (देखे बाॅॅक्स, मामला आगे बढ़ाया तो…). इस संबंध में ग्रीनपीस के कई वालंटियर्स ने ग्रीनपीस इंटरनेशनल के प्रमुख कुमी नायडू को ईमेल कर उचित कार्रवाई के लिए कहा पर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला.

अपनी एक महिला कर्मचारी की ओर से बलात्कार जैसे गंभीर आरोप लगाए जाने पर ये रवैया उस संस्था का था जो मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करती है. जो न्याय की बात करती है और जिसका ध्येय एक ऐसे विश्व का निर्माण है जहां शांति हो. लेकिन दुनिया में शांति को स्थापित करने की लालसा पालने वाली ये संस्था अपने संस्थान में ही छेड़खानी और बलात्कार से उठने वाली चीखों को या तो सुन नहीं पाई या उसने सुनकर भी अनसुना कर दिया. एक महिला कर्मचारी सालों तक संस्था में कथित तौर पर छेड़खानी और दुष्कर्म का शिकार होती रहीं लेकिन प्रबंधन के कान पर जू तक नहीं रेंगी. उसने प्रबंधन से छेड़खानी और दुष्कर्म करने वाले की शिकायत की. उन्हें कई बार मेल किया, कार्रवाई करने की विनती की, लेकिन संस्था ने उन शिकायतों को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया. उसने आरोपों की जांच कराने तक की सुध नहीं ली. सबसे शर्मनाक और चौंकाने वाला तथ्य तो ये है कि मेघना का मामला अपवाद नहीं है. ‘तहलका’ ने अपनी पड़ताल में पाया कि ग्रीनपीस में मेघना जैसी तमाम कर्मचारी हैं जो ग्रीनपीस इंडिया के अलग-अलग दफ्तरों में छेड़खानी और हाल में अस्तित्व में आए नए रेप कानून के तहत बलात्कार बने इस कृत्य का शिकार हुई हैं. लेकिन इन सभी के साथ भी संस्था ने वही सलूक किया जो मेघना के साथ किया था.

 ग्रीनपीस की इन पूर्व पीड़ित कर्मचारियों से बातचीत करने पर पता चलता है कि कैसे संस्था के भीतर लंबे समय से स्त्री विरोधी माहौल है. जहां छेड़खानी और महिलाओं को लेकर तंग नजरिया बेहद आम है. उतना ही आम है इनको लेकर संस्था का रवैया. अपने ही दफ्तरों में हुए महिला उत्पीड़न के खिलाफ कदम उठाने में ग्रीनपीस इंडिया पूरी तरह नाकाम रही है. उसने कभी यौन उत्पीड़न को यौन उत्पीड़न न मानकर आरोपी को माफ करने या फिर दूसरा मौका देने के लिए कहा, तो कभी पुरुष कर्मचारियों की भद्दी टिप्पणियों को ‘हार्मलेस जोक’ ठहराया.

मेघना इसके पीछे ग्रीनपीस के वर्क कल्चर को दोष देती हैं. वो कहती हैं, ‘ग्रीनपीस का वर्क कल्चर ही ऐसा है. अनौपचारिक व्यवहार के नाम पर पुरुष कर्मचारी अनुचित छूट लेते हैं. शुरुआत छोटे-छोटे मजाक से होती है जिन पर अमूमन लड़कियां प्रतिक्रिया नहीं करतीं पर बात धीरे-धीरे बढ़ते हुए कंधे पर हाथ रखने, जबरन हाथ पकड़ने और जबरदस्ती नजदीक आने की कोशिशों में बदल जाती है.’

 एक अन्य पीड़िता सीमा अपनी व्यथा साझा करते हुए कहती हैं, ‘साल 2०11 की बात है. मेरे साथ संस्था के एक वरिष्ठ अफसर ने शराब के नशे में बदतमीजी की. उस समय संस्थान के तमाम वरिष्ठ लोग वहां मौजूद थे. किसी ने उसको न रोका न ही विरोध किया. मैंने इसकी शिकायत दर्ज करवाई पर बाद में पता चला कि एचआर मैनेजर ने इसे यौन उत्पीड़न की श्रेणी में ही नहीं रखा था. इसके बाद ऐसी किसी घटना के दोहराव के डर से मैंने दफ्तर की किसी भी पार्टी या कार्यक्रम में जाना ही बंद कर दिया.

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पढ़ें: ‘मामला आगे बढ़ाया तो ग्रीनपीस  को एक वालंटियर कम होने से कोई  फर्क नहीं पड़ेगा’
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संस्था के वर्क कल्चर के बारे में बताते हुए मेघना कहती हैं, ‘वहां हाईस्कूल की क्लास जैसा माहौल है, जहां किसी भी महिला का पुरुष सहयोगी से बात करना, उसके साथ कॉफी पी लेना, कही बाहर चले जाना, नई-नई अफवाहों को जन्म दे देता है. वहां आपके ड्रेसिंग सेंस से लेकर आपकी शारीरिक बनावट तक पर टिप्पणियां की जाती हैं, अश्लील द्विअर्थी मजाक होते हैं. ऐसे माहौल में उन्हें आगे बढ़ने का हौसला तब मिल जाता है जब इसकी शिकायत पर इसे ‘हार्मलेस जोक’ कहकर टाल दिया जाता है. वहां सिर्फ कागजों में महिला अपराधों के मामले में जीरो टॉलरेंस की बात की गई है, पर ऐसा कभी अमल में नहीं लाया गया. महिलाओं का शराब पीना उनके लिए अजूबे की तरह है और सड़कछाप, जाहिल लोगों की तरह वे शराब पीने, दोस्तों के साथ पार्टी करने वाली लड़कियों को आसानी से उपलब्ध समझने लगते हैं.’

‘वहां आपके ड्रेसिंग सेंस से लेकर आपकी शारीरिक बनावट तक पर लगातार टिप्पणियां की जाती हैं. इसकी शिकायत पर इसे ‘हार्मलेस जोक’ कहकर टाल दिया जाता है’

ग्रीनपीस इंडिया की एक पूर्व कर्मचारी कहती हैं, ‘इन मामलों के बारे में संस्थान को भनक भी होती है पर जिन ‘वेल एजुकेटेड’ व्यक्तियों के खिलाफ ये असंतुष्टि थी वे उच्च पद पर थे तो उन्हें कोई क्यों और कैसे नाराज करना चाहेगा!’ महिला उत्पीड़न के लेकर संस्था के नजरिए पर चर्चा करते हुए एक पीड़िता कहती हैं, एक बार जब एक वालंटियर ने अपने सहकर्मी पर यौन प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए उसे कड़ी सजा की मांग की तब उसे जवाब मिला कि जो सजा मिली है वो ठीक है. (सजा के नाम पर उसे संस्थान से साल भर के लिए बैन करने की बात कही गई थी.) प्रबंधन का कहना था कि आरोपी ने उन्हें ये विश्वास दिलाया है कि वो आगे से ऐसा नहीं करेगा. लेकिन अगर तुम मामला आगे ले जाओगी तो ग्रीनपीस को एक वालंटियर के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’

 इन महिलाओं से हुई बातचीत को आधार मानें तो पिछले कुछ सालों में ग्रीनपीस इंडिया में महिला उत्पीड़न की तमाम घटनाएं हुई हैं. कुछ मामले प्रकाश में आए जहां महिलाओं ने आगे बढ़कर प्रबंधन से इनके खिलाफ शिकायत की. लेकिन उन मामलों की संख्या और ज्यादा है जहां नौकरी की मजबूरी के चलते महिलाओं ने चुप रहना बेहतर समझा. क्योंकि ऐसे भी कई मामले संस्थान में हुए जहां सवाल उठाने पर किसी महिलाकर्मी को इस कदर प्रताड़ित किया गया कि उसे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. जबकी उसी समय जिन लोगों पर आरोप थे वे बेतकल्लुफी से वहां काम करते रहे.

 ऐसी ही कहानी कीर्ति की है. कीर्ति ने इस एनजीओ में हुए शारीरिक उत्पीड़न के मामलों को जब सीनियर मैनेजमेंट टीम के सामने उठाया तो उन्हें पागल और मानसिक रूप से असंतुलित करार देते हुए नौकरी से निकालने की धमकी दी गई. उनके अनुसार, ‘उन्होंने मेरी निजी जिंदगी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आपके जीवन में सब ठीक नहीं चल रहा इसलिए आपको हर पुरुष से परेशानी है. कौन छेड़ेगा आपको!’ वह कहती हैं, ‘मामला मेरा नहीं उन बच्चियों का था पर उनका उद्देश्य बस मेरी बेइज्जती करना था. मेरे मैनेजर ने सरेआम मुझ पर चिल्लाते हुए कहा कि 47 साल की उम्र में आपको पता होना चाहिए कि आपके पास नौकरी के क्या विकल्प हैं! वो कहना चाहता था कि अगर मैं वहां पर बनी रहना चाहती हूं तो मुझे अपने काम से काम रखना चाहिए. पर फिर भी मैंने ये शिकायत ग्रीनपीस के बोर्ड तक पहुंचाई, जहां उन्होंने (समित एच) साफ झूठ बोल दिया कि यौन शोषण का कोई मामला नहीं हुआ है. इसके बाद मुझे मानसिक रोगी करार देते हुए इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया. प्रबंधन ने अगर तब यौन शोषण के उन मामलों को गंभीरता से लेते हुए कथित आरोपियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए होते तो बलात्कार की दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती ही नहीं. पुरुष सहकर्मियों को पहले से ही एक चेतावनी मिल गई होती पर ऐसा हुआ नहीं.’

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पढ़ें: ग्रीनपीस के एक वालंटियर का इंटरनेशनल हेड कुमी को भेजा गया ई-मेल
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एक पीड़िता कहती हैं, ग्रीनपीस ने मार्च 2015 में अपनी आतंरिक शिकायत समिति में यौन प्रताड़ना से जुड़े कुछ मामलों को उठाया तो सही लेकिन किसी पीड़िता से कोई बात नहीं की. बाद में पता चला कि उन्होंने आरोपियों को पीड़िताओं से क्षमा मांगने का कहकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया. मामले पर नवनियुक्त अंतरिम कार्यकारी निदेशक विनुता गोपाल सफाई देते हुए कहती हैं, ‘आतंरिक प्रक्रियाओं में बहुत चूक हुई है.’

 ग्रीनपीस ने फरवरी में मेघना के फेसबुक पोस्ट के बाद प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी गलती मान पीड़िता से माफी मांगी है और जांच करवाने की बात भी कही है. जून में उनकी वेबसाइट पर लिखे गए एक ब्लॉगपोस्ट में भी कमोबेश यही बातें कही गई हैं. इसमें लिखा है कि अब हमारा उद्देश्य खुद में बदलाव लाना है, हमें ग्रीनपीस इंडिया का कल्चर बदलना है और ख्याल रखना है कि आगे से ऐसी कोई शिकायत न हो. पर फिर भी अगर दुर्भाग्य से कभी ऐसा हुआ तो हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि संबंधित व्यक्ति को न्याय मिले. ग्रीनपीस की बात पर भरोसा तो किया जा सकता है पर गौर करने वाली बात ये रहेगी कि जिसे ग्रीनपीस ‘नैतिक जिम्मेदारी’ लेना कह रहा है, ये फजीहत से बचने के लिए किया गया ‘डैमेज कंट्रोल’ न हो!

(सभी पीड़िताओं के नाम बदले गए हैं.)

जंग से तंग

Arvind Graphic

‘दिल्ली के साथ केंद्र जो सौतेला व्यवहार कर रहा है वो ठीक नहीं है. इसे रोकें. एक तरफ तो इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स पर बैठ जाते हैं. इसका जायज शेयर नहीं देते. ऊपर से जब हम बस स्टॉप, बस डिपो या नए अस्पताल खोलने के लिए जमीन मांगते हैं तो कहतें हैं, 10 करोड़ रुपये प्रति एकड़ में ले लो. चार करोड़ रुपये प्रति एकड़ में ले लो. ये जो समस्या है वो बहुत गंभीर है. इसकी ओर ध्यान दिलाना जरूरी है. दिल्ली का हक मांग रहे हैं. दिल्ली के हक के लिए आवाज उठाते रहेंगे. हम कोई खैरात थोड़े मांग रहे हैं लेकिन कोई बात नहीं हम यह भी जानते हैं  कि न रहबर से मिलेगा न, रहगुजर से मिलेगा, ये हमारे पांव का कांटा है हम ही से निकलेगा’

25 जून की शाम आम आदमी पार्टी सरकार का पहला बजट पेश करते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने ये बातें विधानसभा में कहीं. साल 2015-16 के लिए 41,129 करोड़ रुपये के प्रावधान वाले बजट को पेश करते हुए सिसोदिया करीब एक घंटे तक सदन में बोले लेकिन उनके भाषण के कुछ शुरुआती मिनटों में ही यह साफ हो गया कि मौजूदा केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच सब कुछ सामान्य नहीं है. देश में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तल्खी और तनातनी कोई नई बात नहीं है. फिर दिल्ली में तो ऐसी तल्खी बेहद आम बात है, क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है. दिल्ली सरकार के इतिहास में पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है जब मुख्यमंत्रियों ने इस बात की शिकायत की है कि पूर्ण राज्य का दर्जा न होने की वजह से वो जनता के लिए ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं. हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोप के केंद्र में दिल्ली के उप राज्यपाल रहे हैं. हम यहां जिस विवाद की चर्चा कर रहे हैं उसके केंद्र में भी दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग हैं.

विवाद को लेकर उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री राष्ट्रपति और गृहमंत्री से मिले व अपना-अपना पक्ष रखा. लेकिन मामला अभी भी थमा नहीं है

मई के दूसरे सप्ताह से दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच तनातनी बनी हुई है. हालिया विवाद उस वक्त शुरू हुआ जब दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव केके शर्मा दस दिन की छुट्टी पर गए. शर्मा के छुट्टी पर जाने के बाद उप राज्यपाल ने ऊर्जा सचिव शकुंतला गैमलिन को कार्यकारी मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस नियुक्ति को असंवैधानिक करार देते हुए उप राज्यपाल को चिट्ठी लिखी. चिट्ठी में केजरीवाल ने कहा, ‘आपने चुनी हुई सरकार को नजरअंदाज किया है. आप एक संवैधानिक पद पर हैं. आप पर चाहे जैसा दबाव हो, आपको संविधान के मुताबिक काम करना चाहिए.’ इस चिट्ठी में केजरीवाल ने शकुंतला की नियुक्ति को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को प्रभावहीन करने की कोशिश बताया है. इस मामले में उप राज्यपाल की तरफ से जारी बयान में यह कहा गया कि नियमों के मुताबिक मुख्य सचिव के पद को 35 घंटे से ज्यादा खाली नहीं रखा जा सकता. इसी के चलते जब दिल्ली सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो उन्होंने कार्यवाहक मुख्य सचिव के पद पर वरिष्ठता के हिसाब से शकुंतला गैमलिन की नियुक्ति कर दी. केजरीवाल ने शकुंतला को पद ग्रहण करने से मना किया लेकिन उन्होंने पद ग्रहण किया. शकुंतला के पद ग्रहण करने के साथ मामला थमा नहीं बल्कि हर रोज बढ़ता गया.

16 मई को अरविंद केजरीवाल ने शकुंतला की नियुक्ति का आदेश निकालने वाले प्रधान सचिव (सेवा) अनिंदो मजूमदार को उनके पद से हटाकर उनका कामकाज प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार को सौंप दिया. उसी दिन उप राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के इस आदेश को खारिज कर मजूमदार को अपने पद पर बने रहने का आदेश दिया. उप राज्यपाल का तर्क था कि इस फैसले के बाबत मुख्यमंत्री ने उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया था. अगले दिन मजूमदार दिल्ली सचिवालय स्थित अपने दफ्तर पहुंचे तो वहां उन्हें ताला लगा मिला. जानकारी मिली की मुख्यमंत्री के आदेश से उनके दफ्तर में ताला लगाया गया है. यहां से शुरू हुआ विवाद राष्ट्रपति भवन, गृह मंत्रालय से होता हुआ कोर्ट-कचहरियों तक पहुंचा. दिल्ली के मुख्यमंत्री और उप राज्यपाल बारी-बारी से राष्ट्रपति और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिले. दोनों ने अपना पक्ष रखा. फिर भी मामला थमा नहीं. समय के साथ-साथ इस तनाव ने राजनीतिक रंग भी ले लिया. दिल्ली की सत्ता संभाल रही आम आदमी पार्टी और केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा आमने-सामने आ गए. टीवी स्टूडियो में होने वाले बहसें तेज हुईं और दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे.

मनीष सिसोदिया ने इस मसले पर मीडिया से बात करते हुए कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार उप राज्यपाल के जरिए जनता द्वारा चुनी गई सरकार का तख्ता पलट करवाना चाह रही है. वहीं केजरीवाल ने ट्विटर पर दिल्ली वालों से पूछा कि क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री को अपने हिसाब से एक अधिकारी तक रखने का अधिकार नहीं है. उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी टकराव का दूसरा राउंड तब शुरू हुआ जब केजरीवाल ने भ्रष्टाचार निरोधी शाखा (एसीबी) की निर्भरता दिल्ली पुलिस पर से खत्म करने की कोशिश के तहत बिहार से एसीबी में अधिकारी शामिल करने की इच्छा जताते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से संपर्क किया. बिहार सरकार ने दिल्ली सरकार की तरफ से की गई इस मांग को मंजूरी दे दी और बिहार पुलिस के तीन निरीक्षक और दो उप निरीक्षक दिल्ली सरकार के एसीबी में शामिल होने के लिए दिल्ली आ गए लेकिन उप राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के इस आदेश को भी खारिज कर दिया. उनका कहना है कि एसीबी दिल्ली पुलिस का ही एक हिस्सा है. इस नाते एसीबी से जुड़ा कोई भी फैसला मुख्यमंत्री अकेले नहीं ले सकते. मुख्यमंत्री का फैसला निरस्त करने के बाद उप राज्यपाल ने एसीबी पर अपना अधिकार साबित करने की मंशा से दिल्ली पुलिस के एक संयुक्त आयुक्त मुकेश मीणा को एसीबी का प्रमुख बना दिया. इस पर दिल्ली सरकार की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया जताई गई.

‘उप राज्यपाल केंद्र की शह पर काम कर रहे हैं, जो पूरी तरह से असंवैधानिक है. ऐसी हालात में एक निर्वाचित सरकार के लिए काम करना मुश्किल होगा’

 फिलहाल दिल्ली में एसीबी के दो प्रमुख हैं. एक हैं- मुख्यमंत्री की ओर से नियुक्त एसीबी प्रमुख एसएस यादव  और दूसरे हैं मुकेश कुमार मीणा, जिनकी नियुक्ति उप राज्यपाल ने की थी. इस मामले को लेकर दिल्ली सरकार हाई कोर्ट तक पहुंच गई है. सरकार की तरफ से दायर याचिका में कहा गया है कि एसीबी में संयुक्त आयुक्त के पद का कोई प्रावधान नहीं है. सरकार के मुताबिक जब ऐसे किसी पद का प्रावधान ही नहीं है, तो एसीबी में  संयुक्त आयुक्त के पद पर मीणा की नियुक्ति गैरकानूनी और असंवैधानिक है. याचिका में दिल्ली सरकार ने ये दलील भी दी है कि जिस व्यक्ति के खिलाफ पहले ही एसीबी में हवाला के आरोपों की जांच चल रही हो, उसे कैसे एसीबी का सर्वेसर्वा बनाया जा सकता है. हालांकि हाई कोर्ट ने कह दिया है कि मामले की अगली सुनवाई तक मीणा पद पर बने रहेंगे. मामले की अगली सुनवाई 11 अगस्त को होगी. उसी दिन फैसला होगा कि वह पद पर बने रहेंगे या नहीं.

उप राज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच पिछले एक महीने से चल रही रस्साकशी पर जस्टिस काटजू का कहना है, ‘उप राज्यपाल पूरी तरह से केंद्र की शह पर काम कर रहे हैं, जो गलत ही नहीं पूरी तरह से असंवैधानिक है. ऐसी हालात मे एक निर्वाचित सरकार के लिए काम करना मुश्किल होगा. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता केटीएस तुलसी इस मामले में जीएनसीटी एक्ट (गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी एक्ट) 1991 की 42वीं धारा का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘जिन मुद्दों पर दिल्ली विधानसभा को कानून बनाने का अधिकार नहीं है वहां उप राज्यपाल अपने विवेक से काम कर सकते हैं. दिल्ली में ऐसे दो मुद्दे हैं. पहला जमीन और दूसरा पुलिस. इन दोनों जगहों पर उप राज्यपाल अपने विवेक से फैसला ले सकते हैं, लेकिन मुख्य सचिव की नियुक्ति का मामला उनके विशेषाधिकार में नहीं आता है. विधान मंडल की सिफारिश के आधार पर ही ऐसे मामलों में उप राज्यपाल को फैसला लेना चाहिए.’

दूसरी तरफ आप के पूर्व मार्गदर्शक रहे वरिष्ठ वकील अधिवक्ता शांति भूषण का मानना है कि अरविंद केजरीवाल बिना वजह इस लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं. मीडिया से हुई एक बातचीत में शांति भूषण कहते हैं, ‘केजरीवाल या तो यह समझ नहीं पा रहे या समझना नहीं चाहते कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं, बल्कि केंद्र शासित प्रदेश है. संविधान की धारा 239 में स्पष्ट है कि केंद्र शासित प्रदेश का शासन, केंद्र की चुनी हुई सरकार उप राज्यपाल के माध्यम से करेगी. स्थानीय शासन को, विधायकों को कोई अधिकार नहीं है. उन्हें सिर्फ यही अधिकार है कि जो फैसला वह लें उसे उप राज्यपाल को भेजें. अगर उप राज्यपाल को सही लगेगा तो वह लागू होगा, वरना वो मामले को केंद्र को भेज सकते हैं. केंद्र के फैसला लेने तक मामले में उप राज्यपाल के निर्देश लागू होंगे. आज जो स्थिति है उसमें केंद्र सरकार जब चाहे तब राष्ट्रपति शासन लगा सकती है, विधानसभा को भंग कर सकती है. केंद्रीय गृह मंत्रालय पहले ही एक गजट अधिसूचना लाकर यह साफ कर चुका है कि इस लड़ाई में उप राज्यपाल का पक्ष जायज है.’ इस मसले पर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह साफ किया है, ‘दिल्ली में शक्तियों के बंटवारे को लेकर पैदा विवाद राजनीतिक नहीं बल्कि संवैधानिक मुद्दा है.’

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि महीने भर पहले अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले से शुरू हुआ विवाद आज पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है. इस लड़ाई में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का समर्थन पहले ही मिल चुका है. अगर राजनीतिक दलों की बात करें तो सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख अजय माकन इस मसले पर दिल्ली के मुख्यमंत्री के साथ खड़े दिख रहे हैं. अजय माकन का कहना है, ‘लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार के मत का सम्मान होना चाहिए. अधिकारियों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री का अधिकार होना चाहिए. उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच समुचित तालमेल होना चाहिए.’ वहीं सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का मानना है, ‘केंद्र को राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए. अगर केंद्र उप राज्यपाल के जरिए राज्य सरकार के अधिकारों में अतिक्रमण करेगा तो यह गलत है. हम इसका विरोध करते हैं.’

इस लड़ाई में नीतीश कुमार और ममता बनर्जी का समर्थन पहले ही केजरीवाल को मिल चुका है. माकपा और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस भी साथ दिख रहे हैं

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल नजीब जंग के बीच छिड़ी लड़ाई पर सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर अभय कुमार दुबे का मानना है, ‘भाजपा दिल्ली में उप राज्यपाल के मार्फत शासन करना चाह रही है जिसका अधिकार उसे जनता ने दिया ही नहीं है. भाजपा बड़ी गलती कर रही है. जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को उप राज्यपाल के जरिए जिसे, खुद केंद्र की सरकार कुर्सी पर बिठाती है इस कदर परेशान करना ठीक बात नहीं है. जो संदेश दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों में जा रहा है वह यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार अरविंद केजरीवाल को काम नहीं करने दे रही है.’

अभय दुबे इस लड़ाई का असर बिहार में होने वाली विधानसभा चुनाव में भी देख रहे हैं. वो कहते हैं, ‘बिहार में चुनाव होने हैं. आप के नेता पहले ही यह कह चुके हैं कि वो बिहार चुनाव में भाजपा के विरोध में प्रचार करेंगे. कल्पना कीजिए एक तरफ भाजपा के नेता चुनाव प्रचार के दौरान केंद्र की ‘सुशासन सरकार’ पक्ष में गीत गाएंगे और उसी बिहार में आप के नेता ये बताएंगे कि दिल्ली में इसी ‘सुशासन सरकार’ ने जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को किस-किस तरह से परेशान किया. नतीजा आप खुद सोच लीजिए.’ राजनीति से इतर जब हम अभय कुमार दुबे से यह जानने की कोशिश करते हैं कि इस लड़ाई में क्या सारी गलती एक ही पक्ष यानी उप राज्यपाल की है. अरविंद केजरीवाल भी तो सहयोग के लिए तैयार नहीं दिखते. फिर दिल्ली में न तो पहली बार उप राज्यपाल का पद बना है और न ही पहली बार कोई मुख्यमंत्री चुनकर आया है. इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं, ‘बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. ये दोनों पद लंबे समय से दिल्ली में हैं और यह भी सच है कि इनके बीच अधिकारों को लेकर खींचतान पहले भी होते रहे हैं. अरविंद से पहले भी कई मुख्यमंत्रियों ने यह कहा है कि उप राज्यपाल की वजह से उनके हाथ बंधे हुए हैं लेकिन उन्होंने कभी अपने अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी. अरविंद लड़ रहे हैं. इनकी स्थिति बाकी के मुख्यमंत्रियों से अलग है. वो जन आंदोलन से निकले हैं. इन्हें जनता को हमेशा यह संदेश देना होगा कि वो जनता के लिए सभी से लड़ रहे हैं. जनता की उम्मीदें बहुत बड़ी हैं और उसे पूरा करने के लिए इन्हें अधिकार भी चाहिए. ये बाकी मुख्यमंत्रियों की तरह केवल ‘हाथ बंधे हैं’ जैसा बयान देकर चुप नहीं बैठ सकते.’

आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष यह मानने को कतई तैयार नहीं हैं कि इस लड़ाई से दिल्ली में जनता के काम प्रभावित हो रहे हैं

अरविंद केजरीवाल के साथी रह चुके प्रो. आनंद कुमार ऐसा नहीं मानते हैं कि सब मिलकर अरविंद केजरीवाल को परेशान कर रहे हैं. वह कहते हैं, ‘दिल्ली के मुख्यमंत्री को उप राज्यपाल के साथ मेलजोल बनाकर ही काम करना होता है. यह पूर्ण राज्य नहीं है. यहां अधिकार बंटे हुए हैं. अरविंद को हमेशा टकराव की भूमिका में नहीं रहना चाहिए. कोई भी मुख्यमंत्री दिल्ली में बिना उप राज्यपाल के सहयोग के शासन नहीं कर पाएगा.’ हालांकि आप के प्रवक्ता आशुतोष इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि अरविंद केजरीवाल, नजीब जंग से टकराव मोल ले रहे हैं. इस बारे में वो कहते हैं, ‘सरकार क्यों उप राज्यपाल से टकराव चाहेगी? लेकिन वे दिल्ली सरकार के अधिकारों का हनन करेंगे तो सरकार चुप कैसे रह जाएगी?हमने जनता से वोट लिया है. हमने वायदे किए हैं. कल हमें चुनाव में फिर से जाना है. हम दिल्ली में एक साफ-सुथरी सरकार देने का वायदा करके आए हैं और सबसे बड़ी बात दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल को चुना है और मुख्यमंत्री बनाया है.’ यह पूछने पर कि इस टकराव से ही दिल्ली की जनता के लिए मुश्किलें खड़ी हो रही हैं. जनता के हित के कई काम रुके  हैं. सफाई कर्मियों को समय से वेतन नहीं मिल पाया. उन्हें हड़ताल करना पड़ा. इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘कोई काम रुका नहीं है. देखिए, एक के बाद एक कई काम हो रहे हैं. महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिल्ली की हर बस में मार्शल्स तैनात किए जा रहे हैं. बजट सरकार पेश कर चुकी है. सरकार काम भी कर रही है और अपने अधिकारों के लिए केंद्र सरकार और उप राज्यपाल से लड़ भी रही है.’

बहरहाल इस खींचतान को शुरू हुए एक महीना हो गया है, लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि ऊंट किस करवट बैठेगा. उप राज्यपाल की तरफ से जो बयान आते हैं उसमें वो अपने फैसलों को सही ठहराते हैं. वहीं दिल्ली सरकार की तरफ से जो बयान दिए जाते हैं उसमें दिल्ली सरकार और मुख्यमंत्री के फैसलों को सही ठहराया जाता है.

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tomarफर्जी डिग्री और ‘आप’ के फर्जी वायदे

आठ जून की सुबह दिल्ली के तत्कालीन कानून मंत्री और आम आदमी पार्टी के विधायक जितेंद्र सिंह तोमर को दिल्ली पुलिस ने फर्जी डिग्री मामले में गिरफ्तार किया. फिलहाल तोमर न्यायिक हिरासत में हैं और मामला अदालत के समक्ष है. गिरफ्तारी के अगले दिन तोमर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. आप ने तोमर के इस्तीफे के बाद करावल नगर से विधायक कपिल मिश्रा को दिल्ली का नया कानून मंत्री बनाया है. तोमर के फर्जी डिग्री मामले को जिस तरीके से पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल ने हैंडल किया उससे यह साफ हो जाता है कि पार्टी द्वारा राजनीति को बदलने के बारे में जो-जो कहा गया वो शायद एक जुमला भर था. इस मामले में तोमर की गिरफ्तारी तक पूरी पार्टी और खुद केजरीवाल बार-बार यह कहते रहे कि केंद्र की भाजपा सरकार दिल्ली पुलिस के जरिए उनके नेता को बिना वजह गिरफ्तार करवा रही है.

केजरीवाल ने खुद कई मौकों पर यह कहा कि तोमर की डिग्रियां सही हैं. उन्होंने उसकी जांच कर ली है. उसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन जब जितेंद्र तोमर की गिरफ्तारी हुई और पुलिस की शुरुआती जांच से यह लगने लगा कि उनकी डिग्रियों में कुछ बड़ा झोल है तो 23 जून को विधानसभा में बोलते हुए केजरीवाल ने कहा कि तोमर ने उन्हें भी अंधेरे में रखा. वहीं केजरीवाल के पुराने साथी योगेंद्र यादव ने 28 जून को मीडिया से बात करते हुए यह दावा किया कि अंधेरे में रखने वाली बात गलत है. केजरीवाल को पहले दिन से इस बात की जानकारी थी. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा अंधेरे में रखने की जो बात कही गई है वो असल में किसी के भी गले नहीं उतर रही. अभय कुमार दुबे इस बात को सिरे से खारिज करते हैं कि इतनी बड़ी बात अरविंद से कोई छुपा भी सकता है. वो कहते हैं, ‘इस मामले में मैं केजरीवाल को सौ फीसदी दोषी मानता हूं. अंधेरे में रखने वाली बात समझ ही ही नहीं आ रही. मैं यह मान ही नहीं सकता कि उन्हें कोई अंधेरे में रख रहा हो और वो पार्टी से टिकट पा जाए. चुनाव जीत जाए और तो और कानून मंत्री भी बन जाए. इस मामले में ऐसा लगता है कि केजरीवाल ने सब कुछ जानते-समझते हुए भी अपनी आंखे बंद रखी.’ जितेंद्र तोमर जेल में हैं. मामला अदालत के सामने है. क्या सही और क्या गलत का फैसला भी अदालत से ही होगा. दिल्ली को नया कानून मंत्री मिल चुका है. विपक्षी दल भाजपा और कंग्रेस हर रोज इस मसले पर कोई न कोई प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि राजनीति में आने के दौरान और चुनाव लड़ने के दौरान अरविंद केजरीवाल ने जिस राजनीतिक शुचिता की दुहाई बार-बार दी और वो इस मामले में ताक पर रखते नजर आए.

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उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच की रस्साकशी

घटनाक्रम : उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच की रस्साकशी

  • 16/05/15:  दिल्ली के मुख्य सचिव केके शर्मा छुट्टी पर गए. उप राज्यपाल ने शकुंतला गैमलिन को कार्यवाहक मुख्य सचिव बनाया. केजरीवाल ने इसे नकारते हुए गैमलिन को चार्ज नहीं लेने को कहा. केजरीवाल परिमल राय को कार्यवाहक मुख्य सचिव बनाना चाहते थे. लेकिन वरिष्ठ आईएएस अधिकारी शकुंतला गैमलिन ने सुबह दफ्तर पहुंच कर औपचारिक तौर पर कामकाज संभाल लिया.
  • 17/05/15:  केजरीवाल ने कहा गैमलिन बिजली कंपनियों के लिए लॉबिंग करती थीं, इसलिए सरकार का उन पर भरोसा नहीं. गैमलिन की नियुक्ति को मंजूरी देने वाले अधिकारी अनिंदो मजूमदार को सचिव (सेवा) के पद से हटाकर उनका कामकाज प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार को दिया. प्रधान सचिव के पद पर राजेंद्र कुमारी की नियुक्ति के एक घंटे बाद ही उप राज्यपाल ने आदेश नामंजूर कर दिया
  • 18/05/15:  उप राज्यपाल से विवाद के बाद केजरीवाल ने अनिंदो मजूमदार को फिर बहाल कर दिया. एक रैली में उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि गैमलिन के काम पर नजर रखेंगे
  • 19/05/15:  मंगलवार को राष्ट्रपति से मिलकर केजरीवाल ने उप राज्यपाल की शिकायत की. केजरीवाल ने अरविंद राय को प्रशासनिक विभाग का प्रधान सचिव बनाया. इससे पहले अरविंद राय के पास प्रशासनिक विभाग का अतिरिक्त चार्ज था. उप राज्यपाल ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह से की मुलाकात. उधर, केजरीवाल के समर्थन में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि मुख्य सचिव की नियुक्त मुख्यमंत्री का अधिकार. उन्होंने केंद्र सरकार को जनमत का सम्मान करने की सलाह दी
  • 20/05/15:   उप राज्यपाल ने गृहमंत्री से सलाह के बाद राज्य सरकार द्वारा पिछले चार दिनों में की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया. इस पर केजरीवाल ने खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के ऊपर भी आरोप लगाए. दिल्ली में तैनात 83 आईएएस अफसरों में से केजरीवाल ने 39 अफसरों की सूची तैयार कर केंद्र सरकार से उन्हें हटाने को कहा
  • 22/05/15:   केंद्र सरकार ने विवाद में दखल देते हुए नोटिफिकेशन जारी कर एलजी को सुप्रीम बता दिया. संविधान के अनुच्छेद 293एए (69वां संशोधन अधिनियम, 1991) का दिया हवाला. केजरीवाल ने कहा कि उनकी लड़ाई उपराज्यपाल से नहीं, बल्कि पीएम नरेंद्र मोदी से है. केजरीवाल ने कहा कि केंद्र दिल्ली सरकार की कार्रवाई से डर गया है, इसलिए वे भ्रष्ट कर्मचारियों को बचाना चाहता है
  • 23/05/15:   कानूनी विशेषज्ञों से केजरीवाल ने सलाह ली. कई केजरीवाल के पक्ष में तो कई उप राज्यपाल से सहमत दिखे. केंद्र के नोटिफिकेशन के बाद अनिंदो मजूमदार ने दिल्ली में फिर से प्रधान सचिव (सेवा) का कामकाज संभाला. केजरीवाल ने केंद्र के नोटिफिकेशन के मामले को अदालत में ले जाने के संकेत दिए.
  • 25/05/15:   हाई कोर्ट ने माना कि 21 मई को जारी की गई गृह मंत्रालय की अधिसूचना ‘संदिग्ध’ है. फैसला दिया कि एसीबी के पास पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार करने का अधिकार है. कोर्ट ने एक हेड कांस्टेबल की याचिका को खारिज कर दिया जिसे एसीबी ने भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया था
  • 27/05/15:   केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में दिल्ली हाई कोर्ट  के  फैसले को चुनौती दी
  • 01/06/15:   बिहार पुलिस के पांच कर्मचारी एसीबी में शामिल हो गए. केजरीवाल ने बिहार सरकार से इस बाबत मदद मांगी थी
  • 02/06/15:   इस नियुक्ति को उप राज्यपाल ने खारिज कर दिया
  • 06/06/15:   एसीबी ने 2002 के 100 करोड़ रुपये के कथित सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच दोबारा शुरू की
  • 08/06/15:   उप राज्यपाल नजीब जंग ने दिल्ली पुलिस के एक संयुक्त आयुक्त एमके मीणा को एसीबी का प्रमुख नियुक्त कर दिया. अभी तक इस पद पर एसएस यादव कार्यरत थे. यादव की नियुक्ति मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने की थी
  • 09/06/15:   उप राज्यपाल द्वारा नियुक्त भ्रष्टाचार निरोधी शाखा (एसीबी) प्रमुख मुकेश मीणा को दिल्ली सरकार ने पदग्रहण करने से रोका. मीणा की एसीबी में नियुक्ति करने वाले दिल्ली के गृह सचिव धर्मपाल के तबादले का आदेश दिल्ली सरकार ने दिया लेकिन उप राज्यपाल ने इस आदेश को नामंजूर कर दिया
  • 15/06/15:   मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात कर उप राज्यपाल नजीब जंग से सरकार के टकराव पर चर्चा की
  • 26/06/15:   दिल्ली सरकार द्वारा एसीबी के प्रमुख बनाए गए  एसएस यादव ने उप राज्यपाल द्वारा नियुक्त मुकेश मीणा पर धमकी देने, दबाव डालने और सरकारी कामकाज को बाधित करने का आरोप लगाया
  • 28/06/15:   दिल्ली सरकार ने राज्यपाल द्वारा एमके मीणा को एसीबी का प्रमुख बनाए जाने को उच्च न्यायालय में चुनौती दी
  • 29/06/15:    उच्च न्यायालय ने मीणा की नियुक्ति को चुनौती देने वाली दिल्ली सरकार की याचिका पर कहा कि वह एसीबी के प्रमुख अगली सुनवाई तक बने रहेंगे. हाई कोर्ट ने इस मामले में केंद्र को नोटिस भेजकर जवाब मांगा. मामले की अगली सुनवाई 11 अगस्त को होगी

अर्जुन के लक्ष्य पर अकबर का निशाना

Arjun Munda -1MJ-Akbar

 

21 जून की शाम झारखंड की राजधानी रांची के भाजपा कार्यालय में गहमागहमी का माहौल था. दिल्ली से उड़ान भरकर वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता एमजे अकबर वहां पहुंचे थे. झारखंड में एक साल के लिए खाली हुई एक राज्यसभा सीट पर उन्हें भेजने की घोषणा हुई थी. अचानक हुई यह घोषणा कोई चौंकानेवाली नहीं थी. राज्य के लगभग सभी दलों में लंबे समय से यह परंपरागत तौर पर होता रहा है. जब अकबर भाजपा कार्यालय मे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बतिया रहे थे, तब राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा के वरिष्ठ नेता अर्जुन मुंडा भी मौजूद थे. लगभग खामोश से. क्यों, कोई नहीं जानता लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में अपने सीट से हार जाने के बाद चाय में गिरी मक्खी की तरह निकालकर अलग रख दिए गए मुंडा को यह उम्मीद थी कि कम से कम पार्टी इस छोटे-से अवसर पर स्वाभाविक तौर पर उन्हें ही याद करेगी. लेकिन ऐसा हो न सका. मुंडा को यह उम्मीद करना गैरवाजिब भी नहीं था. राज्य बनने के बाद भाजपा की ओर से वे तीन बार मुख्यमंत्री बने हैं. देशभर में तेजी से आदिवासी नेताओं के बीच पहचान कायम करने वाले नेता रहे हैं. ऐसी तमाम संभावनाओं व खासियतों के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद वे जिस तरह से एकदम से किनारे कर दिए गए, उससे कई सवाल भाजपा के अंदरखाने में ही उठते हैं. कुछेक मानते हैं कि अर्जुन मुंडा को महज एक चुनाव हारने के बाद इस तरह से उपेक्षित किया जा रहा है तो उसकी वजह सिर्फ चुनाव हारना नहीं बल्कि यह राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास से वर्षों तक चले 36 के आंकड़े का परिणाम है, जिसे अब रघुबर के सत्ता में आने के बाद उन्हें भुगतना पड़ रहा है. कुछेक यह बताते हैं कि चूंकि मुंडा घोषित तौर पर आडवाणी खेमे के नेता रहे हैं, इसलिए नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आडवाणी की चेलई की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है. ऐसी ही कई और वजहें लोग बताते हैं. वजह जो भी हो लेकिन खुद भाजपा के अंदर भी एक बड़ा खेमा यह मानता है कि इस तरह से मुंडा को उपेक्षित करना पार्टी के स्वरूप के अनुसार ठीक नहीं दिखता. चुनाव हारने वाले लोग केंद्र में अहम मंत्री बनाए गए हैं. चुनाव न लड़ने वाले लोग भी बहुत महत्व पा रहे हैं. एक वर्षों के लिए राज्यसभा की एक खाली हुई सीट पर मुंडा के नाम पर एक बार भी विचार नहीं किए जाने के बाद ऐसे तमाम सवाल भाजपा के अंदर ही उठने शुरू हो गए हैं.

सबको मालूम है कि ये सवाल धरे के धरे रह जाएंगे. सूत्र बताते हैं कि झामुमो से आने के बाद भाजपा में छा जाने वाले अर्जुन मुंडा अगर चुनाव हारने के बाद से एकदम से खामोश हैं और चुपचाप पार्टी के हर सभा-सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं तो उनकी इस खामोशी में भी एक राजनीति है, जिसका स्वरूप आने वाले दिनों में देखा जा सकता है. क्या एक समय में बाबूलाल मरांडी को अपदस्थ कर मुख्यमंत्री बनने वाले मुंडा भी कभी मौका पाकर बाबूलाल की तरह राह अपनाने का साहस जुटा पाएंगे? क्या मुंडा तब तक एक अनुशासित ‌सिपाही की तरह रघुबर दास को उनके कार्यकाल के बीच में ही हटा दिए जाने की उम्मीद में टकटकी लगाए रखेंगे? क्या अर्जुन मुंडा वक्त की नजाकत तो समझकर अभी चुपचाप ही रहेंगे, क्योंकि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है. और एक बार भी मुंह खोलना उन्हें भारी झमेले में फंसा सकता है. ऐसे कई सवाल मुंडा को लेकर आए दिन भाजपा कार्यालय में सुनने को मिलते रहते हैं.

जिस दिन एमजे अकबर के नाम की घोषणा हो रही थी, उस दिन भी कार्यालय के बाहर भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच बतकही में एक विषय मुंडा थे. जाहिर सी बात है कि यह सवाल अर्जुन मुंडा से पूछने का मतलब नहीं था कि आपकी ओर पार्टी ने ध्यान क्यों नहीं दिया, आपके नाम पर एक बार विचार तक क्यों नहीं हुआ? मुंडा का सीधा जवाब होता कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व फैसला करता है और उनका हर फैसला सिर आंखों पर होगा. एमजे अकबर हमारी पार्टी के बड़े और योग्य नेता हैं, इसलिए यह फैसला लिया गया. यही सवाल दूसरे तरीके से एमजे अकबर के सामने रखा जाता है कि आप तो 1989 में बिहार के किशनगंज से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की थी. दोबारा भी लड़े मगर जीत नहीं सके. लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा में शामिल हुए और फिर अचानक झारखंड से उम्मीदवार बनने कैसे आ गए. एमजे अकबर कहते हैं, ‘मैंने पत्रकारिता के दौरान बहुत समय झारखंड में गुजारा हैं, इसलिए मेरा झारखंड से रिश्ता बहुत पुराना और गहरा है. यह मेरा सौभाग्य है कि झारखंड की सेवा करने का मौका मिला है.’

खैर! आगे क्या होगा, आगे की बात है. अकबर का राज्यसभा जाना तय है. भाजपा के पास खुद का अंकगणित है. बाबूलाल मरांडी की पार्टी को तोड़ देने के बाद यह गणित और मजबूत हो चुका है. आजसू पार्टी का साथ उसके पास है ही. हालांकि इस बहाने झामुमो ने अपनी स्थिति मजबूत जरूर कर ली है. झामुमो ने पार्टी की ओर से हाजी हुसैन का नामांकन करवाया है. हाजी हुसैन जीत भले न सके लेकिन हेमंत सोरेन ने हाजी के बहाने पूरे विपक्ष को एकजुट कर उसका सिरमौर नेता बनने की कवायद की और यह उनकी सफलता भी रही.

नेत्रदान तो दूर, लोग रक्तदान से पहले भी लाख बार सोचेंगे…

eye 52009 में जब नीरज अग्रवाल की दादी का निधन हुआ तब वे 85 वर्ष की थीं. नीरज ग्वालियर शहर में ही एक मेडिकल स्टोर के संचालक हैं, लिहाजा वह मरीजों का दर्द समझते हैं. जब उनकी दादी का निधन हुआ तो उन्होंने परिवार में सबकी मर्जी के खिलाफ जाकर उनकी आंखें दान करा दीं. सोचा कि आंखें किसी जरूरतमंद के काम आ जाएंगी. लेकिन हाल में उन्हें जयारोग्य अस्पताल में हुई घटना का पता चला तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई. अस्पताल के नेत्र विभाग को ही उन्होंने अपनी दादी की आंखें दान की थीं. नवीन का कहना है, ‘हमारे समाज के कुछ हिस्सों में माना जाता है कि मनुष्य अगर अपने शरीर का कोई अंग दान करता है तो अगले जन्म में वह उस अंग से वंचित रहता है. ऐसी रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर मैंने दादी की आंखें दान की थीं, लेकिन देखिए अस्पताल के प्रबंधन को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता. आखिर कैसे कोई इतनी अमानवीयता दिखा सकता है कि दान में दी गईं आंखों को कूड़े में फेंक दे?’ नवीन ने जब दादी की आंखें दान करने का फैसला किया था तो परिवार में उनकी काफी  आलोचना हुई थी और अब इस मामले के सामने आने के बाद अपने परिवार के लोगों का सामना करना उनसे मुश्किल हो रहा है. वे कहते हैं, ‘सुनने में आ रहा है कि 6 सालों में महज एक जोड़ी आंखें ही किसी जरूरतमंद को लगाई गई हंै. डाॅक्टरी का पेशा इन दिनों एक धंधा बन चुका है.’ एक पीड़ित राहुल गुप्ता की मां की दान की गईं आंखों को अस्पताल के रजिस्टर में दर्ज भी नहीं किया गया है. इस पर उनका मानना है कि और भी न जाने ऐसे कितने दानदाता होंगे जिन्हें नहीं पता कि उनकी ओर से दान में दी गईं आंखों का क्या किया गया. घटना के बाद नीरज जयारोग्य अस्पताल के नेत्र विभाग में अपनी दादी की आंखों के बारे में पूछने गए तो उनसे कहा गया, ‘आपकी दादी की आंखों से संबंधित जानकारी गोपनीय है. अगर हम आपको बता दें कि वे आंखें किसे लगाई गईं तो हो सकता है कि आप उससे या उसके परिजनों से पैसे की मांग करने लगें.’ नीरज ने बताया कि अस्पताल के स्टाफ का ये रवैया निहायत ही शर्मनाक है. वे कहते हैं, ‘चिकित्सा का पेशा तो पहले से ही बदनाम है. इस तरह की घटनाओं से लोगों का बचा-खुचा भरोसा भी खत्म हो जाएगा. आंखें दान करना तो दूर की बात है, लोग अब रक्तदान करने से पहले भी लाख बार सोचेंगे. क्या पता कहीं उसे भी बाल्टी में भर नाली में न बहा दिया जाए.’

अगर आप शरीर दान करने जा रहे हैं तो छुट्टी के दिन मरना मना है…

‘आंखें कचरे में फेंक दीं. इसमें कौन-सी चौंकाने वाली बात है? आप नेत्रदान की बात कर रहे हैं, जीआरएमसी में देहदान की भी कोई कद्र नहीं.’ ऐसा बोलते हुए अनिल शर्मा के चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कान उभर आती है. ग्वालियर के गोविंदपुरी इलाके के निवासी अनिल शर्मा के पिता स्वर्गीय लक्ष्मीनारायण शर्मा ने अपने जीते जी ही अपनी देहदान करने का फैसला लिया था. देहदान करने वाली ये बात बताते हुए अनिल शर्मा से हमने जानना चाहा कि क्या उन्हें भी लगता है कि उनके पिता की भी आंखें कचरे में फेंकी दी गईं होंगी? इस सवाल के जवाब में उन्होंने हमें जो बताया वह वाकई चौंकाने वाला और जीआरएमसी प्रबंधन की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाने वाला भी था.

वह कहते हैं, ‘निधन से साल-दो साल पहले ही बाबूजी ने यह सोचकर अपना शरीर जीआरएमसी को दान कर दिया था कि उनका शव मेडिकल छात्र-छात्राओं के शोध करने और सीखने के काम में आएगा. उन्होंने सोचा था कि उनकी आंखें किसी का जहां रोशन कर सकेंगी.’ दुखी होते हुए वह आगे कहते हैं, ‘18 जून 2013 को पिताजी का निधन हुआ. वह छुट्टी का दिन था. हमने जयारोग्य अस्पताल से फोन पर संपर्क किया. जवाब मिला कि आज छुट्टी का दिन है, घर पर ही शव किसी फ्रीजर में रखवा दो, कल ले जाएंगे.’ आखिर यहां-वहां से दबाव बनाने के बाद वे राजी तो हुए. फिर अस्पताल का स्टाफ हमें पुलिस थाने तो कभी किसी दूसरे विभाग से सर्टिफिकेट ले आने के लिए भेजता रहा. दुख के समय में हम इस विभाग से उस विभाग के चक्कर लगा रहे थे और शव घर पर पड़ा था. ये सब करते-करते ही एक दिन बीत गया. अगले दिन अस्पताल का स्टाफ शव लेने के लिए घर आया. अस्पताल पहुंचने पर पिताजी का शव लावारिस शवों के साथ रखा जाने लगा. हमने ऐतराज किया तो किसी तरह उनके पार्थिव शरीर को ठीक तरीके से रखा गया.’

गिलास से एक घूंट पानी पीते हुए वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं, ‘अगर आप शरीर दान करने जा रहे हैं तो छुट्टी के दिन मरना मना है. कम से कम जयाराेग्य अस्पताल के मामले में तो यही कहा जा सकता है. उन लोगों के अंदर का इंसान मर चुका है. वे शव की बेकद्री कर सकते हैं तो कचरे में आंखें फेंकना कौन सी बड़ी बात है? कम से कम मेरे लिए तो इसमें चौंकने जैसा कुछ भी नहीं. हां, बस ये लगता है कि अगर अस्पताल का स्टाफ आंखें फेंक दे रहा हैं तो शव का क्या करता होगा, ये एक बड़ा सवाल है.’ वे आगे बताते हैं, ‘जब शव दान किया था तब खूब जिल्लत झेलनी पड़ी. लोगों ने हमसे सवाल किए, क्या पैसे नहीं हैं दाह-संस्कार के? हमारे समाज ने ये कहकर हमसे दूरी बना ली कि हमारे यहां दाह-संस्कार नहीं हुआ. हम ब्राह्मण नहीं हैं. आज इस मामले के आने के बाद उन्होंने फिर से हमारा उपहास बनाना शुरू कर दिया है. ऐसे में इस तरह के धर्मार्थ और पुण्य के कामों को करने के लिए कोई कैसे आएगा. जयारोग्य अस्पताल में जो कुछ भी हुआ वह निंदनीय है. इस तरह की घटनाएं डॉक्टर और उसके पेशे काे ठेस पहुंचाती हैं. हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया गया है. इस घटना के जिम्मेदारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए.’

मुझे चार माह का गर्भ था, जब मेरे पति का देहांत हुआ, उनकी आखिरी इच्छा थी नेत्रदान

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‘उनकी मौत एक सड़क दुर्घटना में हुई थी. वे हमेशा ही नेत्रदान करने के लिए कहा करते थे. उनका मानना था कि अगर माैत के बाद हम अपनी आंखों से किसी और की दुनिया रोशन कर सकें तो भला इससे अच्छा और क्या होगा? वे मां-बाबूजी का भी नेत्रदान का पर्चा भरवाने जाने ही वाले थे, लेकिन तब तक दुर्घटना के शिकार हो गए. बस आंखें दान करने को उनकी आखिरी इच्छा मानकर हमने आंखें दान कर दीं, लेकिन क्या पता था कि उस अस्पताल में आंखें कचरे में फेंक दी जाएंगी.’

ये बातें कहते हुए विनीता जैन की आंखें आंसुओं से भर जाती हैं. महज 30 वर्ष की उम्र में पति को खोना और उसके छह महीने बाद ही यह सुनना कि जिन आंखों को अपने पति की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने दान में दिया था, वह शायद कचरे में फेंक दी गई हैं, उनके ऊपर बिजली गिरने के समान था. सात वर्षीय रिद्धि और दुधमुंहे रिद्धिम की मां विनीता बताती हैं, ‘मेरा चार माह का गर्भ था, जब मेरे पति का देहांत हुआ. पिछले अक्टूबर की ही तो बात है. इतना आसान नहीं था सब कुछ भुलाना पर अब जब डॉक्टरों की ये घिनौनी करतूत सामने आई है तो जख्म फिर से हरे हो गए हैं.’ वह अस्पताल प्रबंधन पर सवाल उठाती हैं, ‘अगर आपके बस का नहीं है तो आखिर क्यों चला रहे हैं अस्पताल? क्यों लोगों की भावनाओं से खेल रहे हैं? अगर यह डॉक्टरों के खिलाफ षडयंत्र भी है तो हमें षडयंत्रकारियों के नाम क्यों नहीं बताते? इस षडयंत्र से हमारे दिलों को ठेस पहुंची है और हुआ तो यह सब उन डॉक्टरों के अंडर में ही, वही हेड थे न? जिम्मेदार वही हैं. बताइए आखिर ऐसा कैसे संभव है कि छह सालों में सिर्फ एक ही व्यक्ति की आंखें प्रत्यारोपण योग्य पाई गईं? शोध भी चल रहा है तो कहां हैं शोधार्थी और शोध के परिणाम? इस बीच विनीता के ससुर सुरेश जैन कमरे में दाखिल होते हुए कहते हैं, ‘ये कोई छोटी-मोटी गलती नहीं है जो हम उन्हें माफ कर देंगे. कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर वाकई डॉक्टर गुनहगार हैं तो अपना गुनाह कबूल करने पर जनता उन्हें माफ कर देगी. ऐसे कैसे कर देगी? हमारी भावनाओं का क्या कोई मोल नहीं? हम तो सोचते हैं कि इंसान गया लेकिन अगर उसकी आंखें किसी की अंधेरी दुनिया को रोशन कर दें तो लगेगा कि वह अभी भी यहीं है और दुनिया देख रहा है. हमारे लिए तो यह दोहरे सदमे सा है. जवान बेटा खोया और फिर ये सब. अब तो कोई आंखें दान करेगा भी तो यही कहेंगे मत करो, वो लोग इंसान नहीं हैं, फेंक देंगे कचरे में.’ सुरेश जैन की आंसुओं से भरी आंखें बार-बार यही सवाल कर रही थीं, क्या हमारे जख्म हरे करने वालों को सजा मिलेगी? विनीता पूछती भी हैं, ‘सर, वो लोग सजा तो पाएंगे न?’

मैंने मां की आंखें दान की थीं लेकिन लिस्ट में हमारा नाम नहीं

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‘हमारे भांजे को एनीमिया हुआ था. उसे हर हफ्ते-दस दिन में खून की जरूरत पड़ती थी. उस समय ऐसे-ऐसे लोगों ने हमें खून दान में दिया था जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. बस उसी समय माताजी ने मन बना लिया था कि उन्हें भी ऐसा कुछ करना है जिससे किसी के जीवन में खुशहाली आ सके. यही सोचकर उन्होंने मौत के बाद अपनी आंखें दान करने का फैसला लिया था.’

अपनी मां को याद करते हुए राहुल गुप्ता और अंकित गुप्ता थोड़ा भावुक हो उठते हैं. राहुत बताते हैं, ‘हमारी मां राधा गुप्ता का निधन एक जनवरी 2014 को हुआ था. उनकी अंतिम इच्छा आंखें दान करने की थी, इसलिए हमने जयारोग्य अस्पताल से संपर्क किया था. इसके बाद अस्पताल की एक गाड़ी से कुछ लोग आए थे मां की आंखें लेने. उस वक्त उन्होंने हमसे एक शपथ पत्र भी भरवाया था.’

शपथ पत्र दिखाते हुए वह कहते हैं, ‘दुख का समय ऐसा होता है जब हम कानूनी औपचारिकताओं की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं. शपथ पत्र पर न कोई सील है न सिक्का. आई बैंक के दानदाताओं के रजिस्टर में हमारी मां का नाम भी नहीं है. अस्पताल में पूछने पर वहां का स्टाफ कहता है कि आपके परिवार से तो आंखें दान ही नहीं की गई हैं. हमारे पास शपथ पत्र के अलावा कुछ भी नहीं है, अब कैसे साबित करूं की मेरी मां की मौत के बाद मैंने उनकी आंखे जयारोग्य अस्पताल के नेत्र विभाग को दान में दी थीं?’  अंकित बताते हैं, ‘मेरी मां की उम्र पचास वर्ष थी. आंखें निकालते वक्त डॉक्टर बोल भी रहे थे कि आंखें ठीक हैं, किसी को लग सकती हैं, इसीलिए हमने कोई जानकारी नहीं जुटाई कि आंखें किसी को लगीं या किसी दूसरे काम में ले ली गईं? अब पता चल रहा है कि अस्पताल में दान की गईं आंखे कचरे में फेंक दी गई थीं तो सदमा लगा. अगर अस्पताल प्रबंधन से जुड़े लोगों को आंखें फेंकनी ही थीं तो निकाली ही क्यों? उन्हें आंखें दान में ही नहीं लेनी चाहिए थीं. इससे अच्छा तो ये होता कि वे आंखें हमें वापस ही दे देते, हम गंगा में विसर्जित कर देते.’ राहुल कहते हैं, ‘अब तक आंखें दान करने के बारे में सोचकर बहुत अच्छा लगता था. सोचते थे कि मां की आंखें दान करके पुण्य का काम किया है, लेकिन इस तरह की घटनाओं से आगे कोई कैसे अपने परिजन की आंखें दान करने की हिम्मत जुटा पाएगा. शहर के सबसे बड़े और नामी अस्पताल और वहां के डॉक्टरों पर विश्वास किया और बदले में क्या हुआ? इस मामले की अच्छी तरह से जांच कर सच्चाई का पता लगाया जाना चाहिए. साथ ही इस निंदनीय घटना को अंजाम देने वाले जिम्मेदारों को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए.’

 

दान की आंखें कूड़ेदान में

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‘कुछ लोगों के लिए मेरी आवाज ही मेरी पहचान है, क्योंकि वो मुझे देख नहीं सकते. हमारे देश में एक करोड़ से भी ज्यादा लोगों के पास आंखें नहीं हैं. आप देख रहे हैं ना, मैं क्या कह रहा हूं आप भी वो क्यों नहीं करते जो हमने किया अपनी आंखें किसी के नाम कर दें जिससे उनकी आंखें भी देख सकें वो सब जिसे वे सिर्फ आवाज से पहचानते आए हैं. लिखिए अमिताभ बच्चन को या जया बच्चन को केयर ऑफ, द आई बैंक एसोसिएशन ऑफ इंडिया  पर. आपकी आंखें किसी के जीवन में उजाला ला सकती हैं.’ 

बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज में नब्बे के दशक में जब यह विज्ञापन दूरदर्शन पर दिखाया जाता तब लोग टीवी के सामने चिपक जाते हैं. नेत्रदान करने की अपील के साथ यह विज्ञापन ‘द आई बैंक एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ की ओर से प्रसारित करवाया जाता था. हालांकि नेत्रदान के लिए प्रेरित करने वाले इस विज्ञापन का प्रसारण धीरे-धीरे सीमित और बाद में पूरी तरह से खत्म कर दिया गया. तमाम लोगों ने इस विज्ञापन को भी भुला दिया होगा, मगर बीते दिनों ग्वालियर में हुई एक घटना ने इस विज्ञापन की अचानक याद दिला दी. शहर के इस सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में लोगों की ओर से दान की गईं आंखें कूड़ेदान में पाई गईं. जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापनों और आंखें दान करने को लेकर सरकार व सरकारी अस्पताल कितने सजग हैं, इस घटना ने उसकी कलई खोलकर रख दी है.

मामला ग्वालियर के जयारोग्य अस्पताल का है. यहां दान में मिली आंखें कूड़ेदान में पाई गईं हैं. अमिता गंभीर की मौत के बाद उनकी आंखें 22 अप्रैल को उनके परिवार ने अस्पताल को दान की थीं. जून के दूसरे हफ्ते में इस परिवार को पता चला कि दान की गई आंखों को कूड़े में डाल दिया गया है. परिवार के लोगों ने अस्पताल जाकर जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की तो इस बड़ी घटना का खुलासा हुआ. जांच हुई तो अस्पताल के नेत्र विभाग की इमारत  के पिछले छज्जे पर लगे कूड़े के ढेर में कई आंखें मिलीं. आनन फानन में विभाग के डॉ. यूएस तिवारी, कॉर्निया यूनिट प्रभारी डॉ. डीके शाक्य सहित ओटी इंचार्ज लिसी पीटर को निलंबित कर घटना की मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए गए हैं. वहीं गजराराजा मेडिकल कॉलेज (जीआरएमसी) के डीन ने एक चार सदस्यीय समिति बनाकर मामले की तफ्तीश शुरू करा दी है. घटना की खबर फैलते ही नेत्रदान करने वाले दूसरे परिवारों के लोग भी अपने परिजन की आंखों का हिसाब-किताब मांगने अस्पताल पहुंच गए. फिलहाल अमृता गंभीर के बेटे किशन गंभीर ने दो आरोपियों डॉ. यूएस तिवारी व डॉ. डीके शाक्य के खिलाफ आईपीसी की धारा 405, 406, 415 और 420 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया है. मामले की जांच जारी है. इस मामले में दिलचस्प मोड़ तब आया जब घटना के अगले दिन कूड़े में मिली आंखों को गायब कर दिया गया और इसके दूसरे दिन जब पुलिस जांच के लिए पहुंची तो नाटकीय तरीके से आंखें वहीं से बरामद की गईं. इस वाकये ने पूरे घटनाक्रम को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है.

अब हर दिन गुजरने के साथ डॉक्टरों पर आरोपों की संख्या बढ़ती जा रही है. दोनों डॉक्टरों के खिलाफ थाने में अब तक तकरीबन आधा दर्जन शिकायती आवेदन आ चुके हैं. इनमें से एक शिकायत पर केस दर्ज कर लिया गया है और बाकी आवेदनों पर डॉक्टरों से पूछताछ जारी है. एक आवेदन राहुल गुप्ता का है. राहुल बताते हंै, ‘अस्पताल के नेत्रकोष के नेत्र दानदाताओं की लिस्ट वाले रजिस्टर में मेरी मां का तो नाम ही नहीं है. पूरे मोहल्ले के सामने अस्पताल के डॉक्टर मां की आंखें ले गए थे लेकिन अब इंकार कर रहे हैं. अगर आंखें उनके पास नहीं हैं तो कौन ले गया? आखिर कहां गईं मेरी मां की आंखें?’

जीआरएमसी के डीन रिटायर होने वाले हैं. यह पद पाने के लिए एक डॉक्टर साजिश रच रहा है. स्थानीय स्तर पर इसमें कुछ पत्रकार भी शामिल हैं

किशन गंभीर कहते हैं, ‘आंखें दान कर के क्या हमें कोई आर्थिक लाभ होता है? बस यह सोचकर एक आत्मिक तसल्ली मिलती है कि हम किसी जरूरतमंद के काम आ सकेंगे. लेकिन अगर दान की आंखें कूड़ेदान में फेंक दी जाएं तो बताइए हम पर क्या बीतेगी? इस तरह तो नेत्रदान के लिए कोई आगे ही नहीं आएगा. यह घोर अमानवीय कृत्य है. इसके गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए मैं अंतिम सांस तक लड़ूंगा. मुझे धमकियां दी जा रही हैं कि केस वापस ले लूं लेकिन मैं पीछे हटने वाला नहीं. यह मेरी नहीं, समाज की लड़ाई है.’

इसके उलट दोनों आरोपी डॉक्टर किशन गंभीर पर ही आरोप लगा रहे हैं. डॉ. शाक्य कहते हैं, ‘जिस समय यह घटना हुई, उस समय मैं छुट्टी पर था. यह मेरी छवि खराब करने के लिए रची गई एक साजिश है, जिसका एक मोहरा किशन गंभीर है.’ दो जूनियर डॉक्टरों पर भी आरोप लगाते हुए वह कहते हैं, ‘हां, हमने 22 अप्रैल को अमृत गंभीर की आंखें निकाली थीं. 23 मार्च को उन्हें किसी और को लगाए जाने की पूरी तैयारी भी थी लेकिन आखिरी समय में ऑपरेशन रद्द करना पड़ा क्योंकि आंखें प्रत्यारोपण के लिए अनुपयुक्त पाई गईं. उसी समय हमने आंखें दो जूनियर डॉक्टरों के हवाले कर दी थी. तब से वह उन्हीं के पास थीं. इस साजिश में वे दोनों भी शामिल हैं.’

आखिर कौन कर रहा है उनके खिलाफ षडयंत्र? इसके जवाब में डॉ. शाक्य कहते हैं, ‘जीआरएमसी के डीन डॉ. जीएस पटेल जल्द ही रिटायर होने वाले हैं और वरिष्ठता सूची के हिसाब से नेत्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. तिवारी डीन बनने की होड़ में पहले पायदान पर हैं. उनसे चार पायदान नीचे यानी छठे नंबर पर मेरा नंबर हैं. बीच में जो भी चार नाम हैं, वह किन्हीं कारणों से इस पद के अयोग्य हैं. इसलिए इस पद की महत्वाकांक्षा रखने वाले एक डॉक्टर, एक निजी अस्पताल के नेत्र विशेषज्ञ के साथ मिलकर साजिश रच रहे हैं. स्थानीय स्तर पर इसमें कुछ पत्रकार भी शामिल हैं.’ अपने नेत्रकोष का पंजीकरण ‘तहलका’ को दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘हमारा नेत्रकोष पंजीकृत है, फिर कैसे यह प्रचारित किया गया कि वह बिना पंजीकरण काम कर रहा है.’

डॉ. शाक्य के आरोप के संबंध में ग्वालियर जूनियर डॉक्टर एसोसिएशन दोनों जूनियर डॉक्टर का बचाव करते हुए इसे निराधार बता रहा है. एसोसिएशन के अध्यक्ष गिरीश चतुर्वेदी कहते हैं, ‘जूनियर डॉक्टर को आखिर उनके खिलाफ षडयंत्र कर के क्या हासिल होगा? हम विभागाध्यक्ष तो बन नहीं जाएंगे. सच तो ये है कि विभाग में सब कुछ सही नहीं चल रहा. आप नेत्रकोष की हालत ही देख लीजिए. दान की गईं आंखों को रक्त कोष के फ्रीजर में रखा जाता है. अगर हमको दोषी ठहराया जाता है तो हम न्यायिक जांच की मांग करेंगे.’

जीआरएमसी के डीन डॉ. जीएस पटेल पूरे मामले को डॉक्टरी पेशे को बदनाम करने वाला करार देकर कड़ी कार्रवाई का आश्वासन देते हुए कहते हैं, ‘विभागीय जांच पूरी कर ली गई है. डॉ. जेएस सिकरवार की अध्यक्षता में जांच समिति ने 200 पेजों की अपनी रिपोर्ट हमें सौंप दी है. अस्पताल की साख पर बट्टा लगाने वालों को बख्शा नहीं जाएगा.’

बहरहाल उनकी बातों में कितना दम है इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि जांच समिति की अध्यक्षता जयारोग्य अस्पताल के डॉ. सिकरवार को दी गई थी, जो खुद ओहदे में डॉ. यूएस तिवारी और डॉ. डीके शाक्य के कनिष्ठ हैं. इसलिए अस्पताल के अंदरुनी हलकों में दबी जुबान में ये जुमला खूब उछल रहा है, ‘जब सैंया भए कोतवाल, तब डर काहे का?’ अस्पताल के ही एक डॉक्टर बताते हैं, ‘जयारोग्य अस्पताल में बनी जांच समितियां महज खानापूर्ति के लिए ही होती हैं. इसी समिति का ही हाल देख लो. डॉ. शाक्य अनुसूचित जाति से आते हैं लेकिन समिति का कोई भी सदस्य एससी कोटे का नहीं है. कल को अगर फैसला डॉ. शाक्य के खिलाफ भी हुआ तो वह इस समिति के गठन को ही चुनौती दे देंगे. फिर किया-धरा सब बेकार.’

वैसे दोनों आरोपी डॉक्टर यह भी दावा कर रहे हैं कि कूड़ेदान में मिलीं आंखें इंसान की नहीं जानवर की हैं. इस पर किशन गंभीर ने पुलिस अधीक्षक ग्वालियर हरिनारायणचारी मिश्रा से आंखों के डीएनए परीक्षण की गुहार लगाई है. किशन कहते हैं, ‘पुलिस जांच जिस कछुआ गति से चल रही है उससे तो कोई निष्कर्ष निकलेगा, ऐसी उम्मीद कम है. अब तो बस मजिस्ट्रेट की जांच ही एकमात्र सहारा है.’ इस बीच दोनों आरोपी डॉक्टरों ने भी एक आवेदन देकर पुलिस का ध्यान कुछ अहम बिंदुओं की ओर आकर्षित कराते हुए षडयंत्रकारियों का पता लगाने की गुजारिश की है. इस मामले में कौन सही या कौन गलत यह तो भविष्य में पता चलेगा, फिलहाल मजिस्ट्रेट की जांच के नतीजे भी कुछ दिनों में सामने आने वाले हैं, तभी मामले की स्थिति साफ हो पाएगी.

नेत्र विभाग में सब कुछ ठीक नहीं

मामला सामने आने के बाद जयारोग्य अस्पताल के नेत्र विभाग की कार्यप्रणाली भी शक के घेरे में आ गई है. विभाग की खामियां एक के बाद एक उजागर होने लगी हैं. इससे विभागाध्याक्ष डॉ. तिवारी और कॉर्निया यूनिट प्रभारी डॉ. शाक्य की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठने लगे. नेत्र विभाग के नेत्रकोष में पिछले छह वर्षों के दौरान 15 बार आंखें दान की गईं, लेकिन इस दौरान क्रेटोप्लास्टी (कॉर्निया प्रत्यारोपण) सिर्फ एक बार ही हुई. बाकी 14 जोड़ी आंखों के बारे में बताया गया कि ये शोध के काम में ले ली गईं. अब सवाल उठता है कि अगर शोध हुआ तो शोध पत्र कब प्रकाशित हुए? शोध के लिए अस्पताल की एथिकल कमेटी से अनुमति क्यों नहीं ली गई? ऐसा आज से नहीं पिछले पंद्रह वर्षों से चला आ रहा था. तो क्या वे सभी आंखें भी कचरे में फेंक दी गईं?

‘जूनियर डॉक्टर को उनके खिलाफ षडयंत्र कर क्या हासिल होगा? हम विभागाध्यक्ष तो बन नहीं जाएंगे. सच तो ये है कि विभाग में सब ठीक नहीं चल रहा’

मामले में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के स्टेट प्रेसिडेंट डॉ. एएस भल्ला कहते हैं, ‘भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय अंधत्व नियंत्रण कार्यक्रम (एनपीसीबी), 2009 के तहत देश में नेत्र संग्रह के कुछ मानक तय किए गए हैं जिनके अनुसार अगर कॉर्निया क्रेटोप्लास्टी के योग्य नहीं पाया जाता है तो उसे शोध या शैक्षणिक प्रशिक्षण में प्रयोग किया जा सकता है, जिसके लिए किसी एथिकल कमेटी से अनुमति नहीं लेनी होती और जहां तक शोध पत्र का सवाल है तो शोध तो उन्होंने किया ही नहीं. उन्होंने मेडिकल छात्रों के प्रशिक्षण के लिए आंखों का इस्तेमाल किया है.’ अगर डॉ. भल्ला की ये बात मान ली जाए तो अस्पताल के नेत्रकोष का रजिस्टर कुछ और ही कहानी बयां करता है. इसमें आंखों को शोध में प्रयुक्त बताया जा रहा है. इस पर सफाई देते हुए डॉ. यूएस तिवारी इसे तकनीकी खामी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘दान की आंखों का हमने क्या प्रयोग किया, रजिस्टर में यह एंट्री जूनियर डॉक्टर करते हैं. 20 वर्षों से हम यह रजिस्टर मेंटेन कर रहे हैं. शुरुआती सत्रों के जूनियर डॉक्टरों ने रजिस्टर में आंखों के आगे ‘शोध के उद्देश्य के लिए’ लिख दिया था, तब से ही यह परिपाटी चल पड़ी.’ लेकिन अगर ऐसा ही था तो इतने वर्षों में उन्होंने इसे सुधारने की कोई कोशिश क्यों नहीं की? इस सवाल का वह कोई जवाब नहीं दे पाते.

एनपीसीबी के जिन दिशा-निर्देशों को ढाल बनाकर दोनों डॉक्टर बचने का प्रयास कर रहे हैं, वही दिशा-निर्देश उन्हें एक दूसरे मामले में सवालों के कठघरे में खड़ा करते हंै. एनपीसीबी गाइडलाइंस में स्पष्ट बताया गया है कि एक नेत्रकोष के लिए रेफ्रीजरेटर और बिजली का निर्बाध संचालन जरूरी है. नेत्रकोष की खस्ता हालत को अनजाने में डॉ. शाक्य खुद स्वीकारते हैं. उनके अनुसार दान में आईं आंखों को ‘रक्त कोष’ के फ्रीजर में रखा जाता है क्योंकि नेत्रकोष में कोई पावर बैकअप सिस्टम ही नहीं है. यह भी सवाल उठता है कि 15 में से 14 जोड़ी आंखें किस आधार पर प्रत्यारोपण के लिए अनुपयुक्त पाई गईं? इसका जवाब कुछ जूनियर डॉक्टर दबी जुबान में इस प्रकार देते हैं, ‘विभाग के पास आंखें जमा करने के लिए जरूरी यंत्र ही नहीं हैं. होना तो यह चाहिए कि दान की आंखों को आठ से दस घंटे के अंदर प्रत्यारोपित कर दिया जाए पर हमारे वरिष्ठ लापरवाही कर देते हैं और कॉर्निया अपनी उपयोगिता खोकर प्रत्यारोपण योग्य ही नहीं रह जाता. इसी लापरवाही के चलते पिछले कुछ समय से क्रेटोप्लास्टी ही नहीं हो पा रही है, जबकि जरूरतमंदों की वेटिंग लिस्ट कहीं अधिक लंबी है.’

नेत्रकोष की वैधता सवालों के घेरे में

अस्पताल का नेत्र विभाग भले ही लाख दावे करे कि उसका नेत्रकोष ह्यूमन ऑर्गन ट्रांसप्लांट एक्ट, 1994 के तहत पंजीकृत है, लेकिन सच ये है कि नेत्रकोष का रजिस्ट्रेशन वर्ष 2013 में कराया गया. इससे पहले यह दशकों तक अवैध रूप से चलाया जाता है. इसकी पुष्टि एनपीसीबी का ‘परिशिष्ट 21’ करता है. इसमें दिए देशभर के नेत्रकोषों की सूची में इसका नाम नहीं है. इससे पता चलता है कि सभी दिशा-निर्देशों को ताक पर रखकर जयारोग्य अस्पताल का नेत्र विभाग वर्षों तक अवैध रूप से आई बैंक संचालित करता रहा.

नेत्र दान से मोहभंग

मामले में कितनी सच्चाई है इस बारे में तो अभी कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इसका असर ये हुआ है कि लोगों का नेत्रदान के प्रति मोहभंग हो गया है. लोगों का कहना है कि भले ही यह डॉक्टरों के खिलाफ कोई साजिश हो लेकिन आंखें तो फेंकी ही गई हैं न. सबसे अहम ये है कि लोग नेत्रदान को लेकर असमंजस में हैं. आंखें दान कर चुके एक परिवार के सदस्य सुरेश जैन कहते हैं, ‘साहब क्या होगा? सब बड़े लोग ही तो हैं कुछ नहीं बिगड़ेगा उनका. व्यापमं का ही उदाहरण ले लीजिए. जो असली गुनहगार हैं वो बच निकलेंगे और फंसेगा कोई लिसी पीटर जैसा ओटी इंचार्ज. जांच चलती रहेगी पर हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले को क्या कोई सजा मिल पाएगी? ये व्यवस्था अंदर तक खोखली है.’

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व्यथा कथा : 1
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मुझे चार माह का गर्भ था, जब मेरे पति का देहांत हुआ, उनकी आखिरी इच्छा थी नेत्रदानread

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व्यथा कथा : 2
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व्यथा कथा : 3
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नेत्रदान तो दूर, लोग रक्तदान से पहले भी लाख बार सोचेंगे…read

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व्यथा कथा : 4 – अगर आप शरीर दान करने जा रहे हैं तो छुट्टी के दिन मरना मना है…
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प्रतिबंध लगाकर आप किसी चीज काे बदल नहीं सकते, इसलिए मैं स्वतंत्र प्रेस को तरजीह दूंगा…

kuldeepप्रिय प्रधानमंत्री महोदया

मुझे लगता है कि आपका ये कहना गलत है कि किसी भी पत्रकार ने कभी जेपी की या उनके सशस्त्र बल को बुलाने की आलोचना नहीं की. उनकी टिप्पणियों पर सभी बड़े अखबारों ने उनकी गंभीर निंदा की थी. मुझे यकीन है कि वैसी ही कुछ टिप्पणियां आपने भी सहन की होंगी. इसी तरह, प्रेस काउंसिल पर लगा ये आरोप भी गलत है कि उसने कुछ अपमानजनक और मिथ्या लेखों का विरोध नहीं किया. एक सदस्य के बतौर मैं बता सकता हूं कि आपके और आपके परिवार के विरोध में उस गैर-जिम्मेदाराना आलेख को लिखने वाले संस्थान के संपादक को अच्छी फटकार मिली थी. दुर्भाग्य से, लंबी और बोझिल प्रकियाओं के चलते फैसले की घोषणा टल गई.

ये तो आप भी स्वीकार करेंगी कि सांप्रदायिकता के खिलाफ सभी प्रमुख अखबारों ने लगातार सरकार के विरोध का साथ दिया है. कुछ की शिकायत ये है कि प्रशासन सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ नरम रवैया अपना रहा है. प्रेस काउंसिल ‘सांप्रदायिक’ और ‘ओछे’ लेखों को छापने वाले कई अखबारों को चेतावनी दे चुका है. यदि अखबारों ने सरकार की आलोचना की भी है तो उसका बड़ा कारण सुस्त प्रशासन, धीमा आर्थिक विकास और किए गए वादों का पूरा न होना है. अगर मैं यहां तक भी कहूं कि सरकार के पास कोई अच्छा मामला भी हो तब भी वह नहीं जानती कि इससे कैसे जनता के सामने रखना है, तो ये अतिश्योक्ति नहीं होगी. उदाहरण के लिए, प्रशासन के कामों पर कभी कोई सरकारी पत्र सामने नहीं आए..प्रकाशन के लिए यहां-वहां से तथ्य जुटाने पड़ते हैं.

महोदया, एक पत्रकार के लिए क्या बताना है-क्या नहीं, इसका निर्णय लेना हमेशा ही कठिन होता है और इस पूरी प्रक्रिया में, कहीं न कहीं, किसी न किसी को नाराज या रुष्ट करने का खतरा हमेशा बना रहता है. सरकार के मामले में कुछ छिपाना और बाद में उसके जाहिर होने का डर, किसी व्यक्ति के मामले से बहुत अधिक होता है. पता नहीं क्या कारण हैं कि प्रशासन में काम करने वालों को लगता है कि सिर्फ वे ही ये जानते हैं कि जनता को कब, कैसे और क्या जानकारी दी जाए. और जब कोई ऐसी खबर जो वो नहीं बताना चाहते हैं, प्रकाशित हो जाती है तो वो नाराज हो जाते हैं.  ऐसे में जो बात नहीं समझी जाती वो ये कि ऐसे तरीके अपनाने से आधिकारिक तथ्यों के प्रति विश्वसनीयता कम होती है. यहां तक कि सरकार के ईमानदार दावों पर भी सवाल उठने लगते हैं. ऐसे लोकतंत्र में जहां विश्वास पर ही जनता का रवैया टिका हो, वहां सरकार को अपने किए या कहे किसी काम पर संदेह की गुंजाइश भी नहीं रहने देनी चाहिए. आपातकाल के बाद से आप लगातार ये बात कह रही हैं कि आपका विश्वास है कि एक मुक्त समाज में जनता को सूचित रखना, जानकारियां देना प्रेस की ही जिम्मेदारी होती है. कई बार ये एक अप्रिय काम होता है, फिर भी इसे करना होता है क्योंकि एक मुक्त समाज कि नींव मुक्त सूचनाओं पर ही टिकी होती है. यदि प्रेस सिर्फ सरकारी घोषणाएं व आधिकारिक बयान ही छापेगी (जो वो अब कर ही रही है) तो कोई चूक या कमी कौन दुरुस्त करेगा?

मैं कई बार 3 दिसंबर 1950 को, ऑल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कॉन्फ्रेंस में नेहरु की कही बात को पढ़ता हूं, ‘मुझे इस बात पर कोई शक नहीं हैं कि सरकार प्रेस के द्वारा ली जा रही स्वतंत्रता को पसंद नहीं करती, और इसे खतरनाक भी समझती है, पर प्रेस की आजादी में दखल देना गलत होगा. प्रतिबंध लगाकर आप किसी चीज को बदल नहीं सकते, आप बस उस बात की अभिव्यक्ति पर रोक लगा सकते हैं, उसके पीछे छिपे भाव और अंतर्निहित विचार को आगे बढ़ने से रोक सकते हैं. इसीलिए, मैं एक दबे या सुनियंत्रित प्रेस की तुलना में एक पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस को तरजीह दूंगा भले ही उसमें इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग का खतरा ही क्यों न शामिल हो.’ जिस तरह की सेंसरशिप अभी लगाई गई है ये किसी भी नई पहल, सवालों-जवाबों के लिए खुले माहौल और खुली सोच का गला घोंट देगी. मुझे यकीन है कि आप ऐसा तो नहीं चाहेंगी.

कुलदीप नैयर