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अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

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आज से कोई सौ बरस पुरानी घटना है. वह घटना यदि घटी न होती तो शायद हम आज यहां एकत्र भी न हो पाते. सन 1910 का किस्सा है. राजेंद्र बाबू तब कलकत्ता में वकालत पढ़ रहे थे. यहां एक दिन उन्हें उस दौर के प्रसिद्ध बैरिस्टर परमेश्वर लाल ने बुलाया था. वे कुछ समय पहले ही गोखलेजी से मिले थे. बातचीत में गोखलेजी ने उनसे कहा था कि वे यहां के दो-चार होनहार छात्रों से मिलना चाहते हैं. परमेश्वर जी ने सहज ही राजेंद्र बाबू का नाम सुझा दिया था.

राजेंद्र बाबू गोखलेजी से मिलने गए, अपने एक मित्र श्रीकृष्ण प्रसाद के साथ. सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी. गोखलेजी उस काम के लिए हर जगह कुछ अच्छे युवकों की तलाश में थे. उन्हें यह जानकारी परमेश्वरजी से मिल गई थी कि वे बड़े शानदार विद्यार्थी हैं. वकालत उन दिनों ऐसा पेशा था जो प्रतिष्ठा और पैसा एक साथ देने लगा था. इस धंधे में सरस्वती और लक्ष्मी जुड़वां बहनों की तरह आ मिलती थीं.

कोई डेढ़ घंटे चली इस पहली ही मुलाकात में राजेंद्र बाबू से श्री गोखले ने सारी बातों के बाद आखिर में कहा था, ‘हो सकता है तुम्हारी वकालत खूब चल निकले. बहुत रुपये तुम पैदा कर सको. बहुत आराम से ऐश-इशरत में दिन बिताओ. बड़ी कोठी, घोड़ा-गाड़ी इत्यादि दिखावट का सामान सब जुट जाए. और चूंकि तुम पढ़ने में अच्छे हो तो तुम पर यह दबाव और भी अधिक है.’

गोखलेजी थोड़ा रुक गए थे. कुछ क्षणों के उस सन्नाटे में भी राजेंद्र बाबू के मन में न जाने कितनी उथल पुथल मची होगी. वे फिर बोलने लगे ‘मेरे सामने भी यही सवाल आया था, ऐसी ही उमर में. मैं भी एक साधारण गरीब घर का बेटा था. घर के लोगों को मुझसे बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं. उन्हें लगता था कि मैं पढ़कर तैयार हो जाऊंगा, रुपये कमाऊंगा अौर सबको सुखी बना सकूंगा. पर मैंने उन सबकी आशाओं पर पानी फेरकर देशसेवा का व्रत ले लिया. मेरे भाई इतने दुखी हुए कि कुछ दिनों तक तो वे मुझसे बोले तक नहीं. हो सकता है यही सब तुम्हारे साथ भी हो. पर विश्वास रखना कि सब लोग अंत में तुम्हारी पूजा करने लगेंगे.’ श्री गोखले के मुख से मानों एक आकाशवाणी सी हुई थी.

बाद का किस्सा लंबा है. लंबी है राजेंद्र बाबू के मन में कई दिनों तक चले संघर्ष की कहानी औैर घर में मचे कोहराम की, रोने धोने की, बेटे के साधू बन जाने की आशंका की. यह घटना नहीं हुई होती तो आज आकाशवाणी के इस कार्यक्रम के निमित्त आदरणीय राजेंद्र प्रसाद जी की पावन स्मृति में उनको प्रणाम करने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाता.

इस किस्से से ऐसा न मान लें हम लोग कि वे अगले ही दिन अपना सब कुछ छोड़कर देशसेवा में उतर पड़े थे. श्री गोखले खुद बड़े उदार थे. उन्होंने उस दिन कहा था कि ‘ठीक इसी समय उत्तर देना जरूरी नहीं है. सवाल गहरा है. फिर भी एक बार और मिलेंगे, तब अपनी राय बताना.’

अगले दस बारह दिनों का वर्णन नहीं किया जा सकता. भाई साथ ही रहते थे. इनके व्यवहार में आ रहे बदलाव वे देख ही रहे थे. राजेंद्र बाबू ने कोर्ट जाना बंद कर दिया था. न ठीक से खाते पीते, न किसी से मिलते जुलते थे. फिर एक दिन हिम्मत जुटाई. एक पत्र, काफी बड़ा पत्र, भाई को लिखा और घर छोड़ने की आज्ञा मांगी. पत्र तो लिख दिया पर सीधे उन्हें देते नहीं बना. सो एक शाम जब भाई टहलने के लिए गए थे, तब उसे उनके बिस्तरे पर रख खुद भी बाहर टहलने चले गए.

भाई ने लौटकर पत्र देखा, और अब वे खुद राजेंद्र बाबू को तलाशने लगे. जब वे बाहर कहीं मिल गए तो भाई बुरी तरह से लिपटकर रोने लगे. राजेंद्र बाबू भी अपने को रोक नहीं पाए. दोनों फूट-फूट कर रोते रहे. ज्यादा बातचीत की हिम्मत नहीं थी फिर भी तय हुआ कि कलकत्ता से गांव जाना चाहिए. मां, चाची और बहन को सब बताना होगा.

राजेंद्र बाबू को अब लग गया था कि देश प्रेम और घर प्रेम में घर का वजन ज्यादा भारी पड़ रहा है. वे इतनी आसानी से इस प्रेम बंधन को काट नहीं पाएंगे. गोखलेजी अभी वहीं थे. राजेंद्र बाबू एक बार और उनसे भेंट करने गए. सारी परिस्थिति बताई. गोखलेजी ने भी उन्हें पाने की आशा छोड़ दी.

‘रेल लाइनों के कारण बाढ़ की भयंकरता बढ़ जाती है. मेरा यह दृढ विचार है कि रेलवे लाइन और दूसरी ऊंची-ऊंची सड़कें बाढ़ के प्रमुख कारण हैं’

गांव पहुंचने का किस्सा तो और भी विचित्र है. चारों तरफ रोना-धोना. बची खुची हिम्मत भी टूट गई थी. जैसे थे वैसे ही बन गए. फिर से लगा कि पुरानी जिंदगी पटरी पर वापस आने लगी है.

पर उस दिन जो आकाशवाणी हुई थी, वह झूठी कैसे पड़ती? यही वकालत उन्हें आने वाले दिनों में, पांच-छह बरस के बाद चंपारण ले गई. वहां उन पर, उनके जीवन पर नील का रंग चढ़ा. नील का रंग यानी गांधी जी के चंपारण आंदोलन का रंग. यह रंग इतना चोखा चढ़ा कि वह फिर कभी उतरा ही नहीं.

गांधी रंग में रंगे राजेंद्र बाबू फिर बिना किसी पद की इच्छा के देश भर घूमते रहे और सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में जितनी तरह की समस्याएं आती हैं उनके हल के लिए अपने पूरे मन के साथ तन अर्पित करते रहे और जहां जरूरत दिखी वहां धन भी जुटाते-बांटते रहे. उन समस्याओं की, उन विषयों की गिनती गिनाना कठिन काम है. आज तो हम दो विषयों पर, दो समस्याओं पर ही कुछ बातें करेंगे. ये हैं बाढ़ और अकाल. पानी के स्वभाव के ये दो छोर हैं. एक में, बाढ़ में चारों तरफ पानी ही पानी और दूसरे में हर कहीं पानी का अभाव ही अभाव. राजेंद्र बाबू ने इनमें से जो भी समस्या सामने आई, बाकी हाथ के कामों को गौण मानकर सबसे पहले इन्हीं पर ध्यान दिया. लेकिन इसके विस्तार में जाने से पहले हम जरा आज का संदर्भ भी दुहरा लें.

चुनाव के दिनों में हम देखते हैं किसी को किसी राजनीतिक दल ने अपना उम्मीदवार नहीं बनाया तो उसने गुस्से में आकर दल छोड़ दिया. किसी ने निराश होकर आत्महत्या कर ली तो किसी ने उस दल की ऐसी बखिया उधेड़ दी, इतने सारे दोष अवगुण गिना डाले कि सुनने पढ़ने वाले को अचरज होने लगे कि ये अब तक उस दमघोटू संसार में सांस कैसे ले रहे थे. इसके पीछे एक धारणा यह बन गई है कि मुझे कोई पद नहीं मिलेगा तो देश की सेवा कैसे हो पाएगी मुझसे.

इस विचित्र धारणा को पालने पोसने और आगे बढ़ाने में सारे दल उनके सदस्य धर्म, लिंग, जाति, अगड़े, पिछड़े सभी में गजब की सहमति दिखती है. ऐसे में हमें राजेंद्र बाबू के कुछ विचार आज एक फिर दुहरा लेने चाहिए.

यह प्रसंग आज से कोई 93 बरस पहले का है. नवंबर का महीना था. अवसर था कौंसिल और असेम्बली के चुनाव का. छोटी-छोटी बातों पर तब के बड़े-बड़े नामों तक में मतभेद ही नहीं, मनभेद के भी कड़वे किस्से सामने आने लगे थे. क्या ऐसी ही नींव पर, कमजोर नींव पर आजादी के बाद की दलगत राजनीति का महल नहीं बन रहा था.

राजेंद्र बाबू ने उस समय अपना मन मजबूत कर ‘देश’ नामक अखबार में एक लेख लिखा था. उन्हें उन्हीं के साथियों ने पसंद नहीं किया था. उन्हीं के शब्दों को यहां दुहरा लेना चाहिए ‘जब देश के स्थान पर हम किसी जाति विशेष अथवा धर्म विशेष अथवा दल विशेष को बिठाना चाहते हैं, तब इस तरह की लड़ाई हुए बिना नहीं रह सकती.’

‘देश सेवकों के लिए एक ही रास्ता है कि कम से कम तब तक जब तक देश पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं हो जाता, वे किसी स्थान, पद अथवा प्रतिष्ठान के लिए लालायित न हों और केवल सेवा को ही ध्येय बनाकर काम करते जाएं.’

इस लेख में वे आगे लिखते हैं ‘मैं इसको प्रवंचना मात्र मानता हूं, जब कोई यह सोचता और कहता है कि सेवा करने के लिए उसे किसी पद विशेष की आवश्यकता है तथा उस पद के बिना वह सेवा नहीं ही कर सकता.’

इस ऐतिहासिक लेख के अंत में वे कहते हैं, ‘सेवक के लिए हमेशा जगह खाली पड़ी रहती है. उम्मीदवारों की भीड़ सेवा के लिए नहीं हुआ करती. भीड़ तो सेवा के फल के बंटवारे के लिए लगा करती है. जिसका ध्येय केवल सेवा है, सेवा का फल नहीं है, उसको इस धक्का-मुक्की में जाने की और इस होड़ में पड़ने की जरूरत नहीं है.’

जमीन पर यह सब हो रहा था और उधर आसमान से भी एक भयानक विपत्ति उतर आई थी. आश्विन के महीने में बिहार के छपरा जिले में एक दिन घोर बरसात हुई. चौबीस घंटों में लगभग छत्तीस इंच वर्षा हुई. नतीजा यह हुआ कि पूरा जिला भयानक बाढ़ में डूब गया. वहां के सरकारी कर्मचारियों ने लोगों की इस मुसीबत में बहुत उदासीनता और उपेक्षा का भाव दिखाया. तब आज की तरह ढेर सारे अखबार, दिन रात निरर्थक खबरें बहाने वाले ढेर सारे टेलीविजन चैनल तो थे नहीं, पर जो भी थोड़े से अखबार छपते थे, सभी ने यह बात लिखी कि जब लोग, घर, गांव, खेत, मवेशी पानी में डूब रहे थे, त्राहि-त्राहि पुकार रहे थे, ऐसे में कुछ अधिकारी कर्मचारी नावों में चढ़कर ‘झिरझिरी’ खेल रहे थे.

झिरझिरी एक तरह से लुकाछिपी का खेल होता है. डूबते लोगों को, यहां तक कि सि्त्रयों और बच्चों को भी बचाने में इन अधिकारियों ने कोई मदद नहीं की. लोग डूबते रहे, प्रशासन लुकाछिपी ही खेलता रहा. ऐसी भयंकर परिस्थिति में एक अंग्रेज न्यायाधीश और एक भारतीय उप न्यायाधीश ने खूब मदद की लोगों की. राजेंद्र बाबू जैसे शालीन व्यक्ति अपनी आत्मकथा में उस दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कलेक्टर और पुलिस के अफसर तथा डिप्टी मजिस्ट्रेट ‘टस से मस’ नहीं हुए. सरकार के ऐसे घृणित व्यवहार को लेकर अगले दिन बाढ़ के पानी के बीच ही छपरा में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई और उसमें सरकार की खुलेआम निंदा की गई और साथ ही मदद देने आगे आए लोगों की खूब प्रशंसा भी हुई और उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की गई थी.

देहातों का हाल तो और भी बुरा था. उन दिनों छपरा से मशरक तक जाने वाली रेल लाइन के कारण बाढ़ का सारा पानी आगे बहने के बदले एक बड़े भाग में फैल गया था और पीछे से आने वाली विशाल धारा उसका स्तर लगातार उठाते जा रही थी. लोगों को इससे बचने का एक ही रास्ता दिखा था रेलवे लाइन काट देना और चढ़ते पानी को आगे के भूभाग में फैलने देना ताकि यहां कुछ सांस ली जा सके. पर कलेक्टर ने उनकी एक न सुनी. और तो और ऐसी ही तबाही मचा रही अन्य रेलवे लाइनों पर सशस्त्र पहरा बिठा दिया गया था. सीवान के पास एक ऐसी ही जगह बहुत पानी जमा हो गया था. गांव वालों ने तब खुद ही रेल लाइन काटना तय कर लिया पर सामने सशस्त्र पुलिस देख उनकी हिम्मत न पड़ी.

राजेंद्र बाबू इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं ‘कष्ट सहते गए लोग. पर जब वह बर्दाश्त से बाहर हो गया तो दो चार आदमी कंधे पर कुदाल रखकर पानी में तैरते हुए रेल लाइन की तरफ बढ़े. पुलिस ने उन्हे देखा और उनको धमकाया. उन्होंने जवाब दिया कि पानी में डूबकर तो हम मर ही रहे हैं और तुम लाइन काटने नहीं देते. अब तक हमने बर्दाश्त किया. अब और बर्दाश्त नहीं कर सकते. मरना तो दोनों हालातों में है डूब कर मरें या गोली खाकर मरें. हमने निश्चय कर लिया है कि गोली खाकर मरना बेहतर है. हम लाइन काटेंगे तुब गोली मारो.’

बहते पानी में यह बहादुर लोग तैरते हुए मजबूत बांध की तरह उठी उस रेल लाइन पर अपने दृढ़ निश्चय से कुदाल चलाते गए. पुलिस की हिम्मत नहीं हुई गोली चलाने की. लाइन अभी थोड़ी सी ही कट पाई थी कि पीछे भर रहे पानी की ताकत ने लोगों के संकल्प में साथ दिया और लाइन भड़ाक से टूटी और विशाल बाढ़ का पानी उसे किसी तिनके की तरह अपने साथ न जाने कहां बहा ले गया. पीछे के अनेक गांव पूरी तरह से डूबने से बच गए थे. बाद में पुलिसवालों ने भी रिपोर्ट में लिखा कि बाढ़ के पाने के दबाव से ही रेल लाइन कट गई थी.

इस सारी विपत्ति में राजेंद्र बाबू और वे जिस दल से जुड़े थे उसके अनगिनत कार्यकर्ताओं ने दिनभर काम किया था. छपरा की उस बाढ़ में किसी बड़े अधिकारी ने यहां तक कह दिया था कि ये सारी शिकायतें लेकर मेरे पास क्यों आए हो, जाओ जाओ गांधी के पास जाओ. और गांधी मतलब कांग्रेस के लोग, और उसमें भी राजेंद्र बाबू होता था.

इन सब दुखद प्रसंगों से राजेंद्र बाबू ने देखा था कि बाढ़ और साथ ही अकाल अकेले नहीं आते. इससे पहले समाज में और भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो होना नहीं चाहिए. यह सब कभी धीरे-धीरे तो कभी बड़ी तेजी से होता है. गति जो भी हो, समाज के नीति निर्धारकों, संचालकों और नेतृत्व का ध्यान इन बातों की तरफ नहीं जा पाता और फिर बाढ़ या अकाल सामने आ खड़ा हो जाता है.

बुरे कामों की बाढ़ आ जाती है. बिना पानी का स्वभाव समझे ही विकास के नाम पर कई तरह के काम होते रहते हैं. यह किसी एक कालखंड की बात नहीं है. दुर्भाग्य से सब समय में ऐसी ही गलतियां दुहराई जाती रहती हैं. तो एक तरफ प्रकृति, पर्यावरण के खिलाफ ले जानेवाले कामों की बाढ़ आ जाती है तो दूसरी तरफ अच्छे कामों का अकाल पड़ने लगता है. अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है.

राजेंद्र बाबू के जमाने में उन इलाकों में अंग्रेजों की व्यापारिक नीतियों या कहें अनीतियों के कारण बड़ी तेजी से रेल की लाइनें बिछाई गई थीं. रेल लाइन उनके व्यापार और शासन के लिए भी बड़ी खास चीज बन गई थी. इसलिए उसे आसपास की जमीन से ऊंचा उठाकर रखना जरूरी था. आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि कभी हमारे देश में फैल रहा रेल व्यवस्था का यह जाल अंग्रेज सरकार के हाथों में नहीं था. वह कुछ निजी अंग्रेजी कंपनियों की जेब में था.

खुद राजेंद्र बाबू अपनी आत्मकथा में इस दुखद प्रसंग में लिखते हैं, ‘रेल लाइनों के कारण बाढ़ की भयंकरता बढ़ जाती है. अपने सूबे में पिछले तीस बरसों में जितनी बड़ी और भयंकर बाढ़ें आईं हैं सबका मुझे काफी अनुभव है. मेरा यह दृढ़ विचार है कि रेलवे लाइन और डिस्ट्रिक बोर्ड की तथा दूसरी ऊंची सड़कें बाढ़ के प्रमुख कारण हैं. यदि इनमें जगह-जगह काफी संख्या में चौड़े पुल बने रहते तो हालत ऐसी न होती… पर यहां तो रेल की कंपनियों के मुनाफे पर ही अधिक ध्यान रखा जाता है. उनको पुल बनवाने के लिए मजबूर नहीं किया जाता, लाइन काटना तो दूर की बात है… बीएडब्ल्यू रेलवे ने इस मामले में बहुत कंजूसपन दिखलाया है. यद्यपि अब उसमें कई जगह पुल बने हैं. तथापि अब भी बहुत से ऐसे स्थान है, जहां पुल की जरूरत है. उसने जो पुल बनवाए हैं, वे जनता के कष्ट दूर करने के ख्याल से नहीं, अपने मुनाफे के ख्याल से, क्योंकि जब तक केवल जनता के कष्ट की बात रही, एक न सुनी गई, पर जब प्रकृति ने लाइन को इस तरह तोड़ा कि महीनों रेल चलनी बंद हो गई तो उसने मजबूरन कई पुल बनवा दिए.’

कहीं कम कहीं ज्यादा, वर्षा हर जगह होती है, विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इसके साथ अपना तालमेल बिठा लिया था

सन 1937 तक आते-आते तो उस बड़े भूभाग की हालत ऐसी हो गई थी कि बिहार के राज्यपाल ने उस वर्ष बाढ़ की समस्या को लेकर एक बड़ा सम्मेलन पटना में बुलाया था. इसमे राजेंद्र बाबू को भी भाग लेने का निमंत्रण भेजा गया था. खुद राज्यपाल ने अपने मुख्य भाषण में बाढ़ के आने के जो कई कारण बताए जाते हैं, प्रकृति के विरुद्ध जाने के जो अनेक बुरे काम किए जाते हैं, उन सबका वर्णन करते हुए श्रोताओं से माफी तक मांगी थी कि उनके भाषण का एक बड़ा भाग सकात्मक होने के बदले काफी कुछ नकारात्मक सा हो गया था.

राजेंद्र बाबू अचानक अस्वस्थ हो गए थे. वे उस सम्मेलन में भाग नहीं ले पाए थे, लेकिन उन्होंने इस विषय पर एक बड़ी टिप्पणी लिखकर भेजी थी. सम्मेलन में इसे उस दिन श्री अनुग्रह नारायण सिन्हाजी ने पढ़कर सुनाया था.

वर्षा तो हर साल होती ही है पूरे देश में. कहीं कम कहीं ज्यादा, कहीं बहुत ज्यादा भी पर इन विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इस कम ज्यादा वर्षा के साथ अपना जीवन कैसे ढालना है- यह ठीक से सीख लिया था.

एक तरफ तो है जैसलमेर, जहां वर्षा का आंकड़ा इंचों में बात करें तो वर्षभर में मात्र 6 इंच से ऊपर नहीं जाता, तो दूसरी तरफ हमने देखा कि बिहार के छपरा में मात्र एक दिन में 36 इंच वर्षा हो गई थी. फिर उत्तर पूर्व में हमारे एक प्रदेश का तो नाम ही मेघों का घर रखा गया है. इन सभी जगह के समाजों ने पीढ़ियों के अनुभव से अपने आसपास के मौसम, धरती, हवा, पेड़-पौधे और वहां के पशुओं के साथ आत्मीय संबंध बना लिए थे.

आज हम देखते हैं कि जलनीतियां बनाई जाने लगी हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. समाज अपना एक जलदर्शन बनाता था और उसे कागज पर न छापकर लोगों के मन में उकेर देता था. समाज के सदस्य उसे अपने जीवन की रीत बना लेते थे. फिर यह रीत आसानी से टूटती नहीं थी. जलनीतियां आती जाती सरकारों के साथ बनती बिगड़ती रहती हैं पर जलदर्शन बदलता नहीं. इसी रीत से उस क्षेत्र विशेष की फसलें किसान समाज तय कर लेता था. सिंचाई के लिए अपने साधन जुटा लेता था.

अभी हमने जैसा बिहार के संदर्भ में देखा कि अंग्रेजों ने बिना उस इलाके को समझे रेल की पटरियां खूब ऊंची उठाकर बिछा दीं और गंगा और अन्य नदियों के विशाल मैदान को जगह-जगह रोक लिया. उस बड़े भूभाग में पानी की बेरोकटोक आवक जावक के लिए उसने समुचित प्रबंध भी नहीं सोचा, उसे करने की बात तो कौन कहे. रेल लाइन में कितने अंतर पर बड़ी-बड़ी पुलिया बननी चाहिए इस पर उसने ध्यान नहीं दिया, कम खर्च में ज्यादा मुनाफा खींच लेने का काम किया और बाद में पता चला कि यह तो उनकी अपनी भाषा अंग्रेजी की कहावत की तरह परिणाम दे रहा है. कहावत है ‘पैनी वाईज, पाउंड फुलिश.’ पैसा बचाने में होशियारी की, रुपया गंवा बैठे.

जब अंग्रेज हमारे यहां आए थे तो हमारे देश में कोई सिंचाई विभाग नहीं था. कोई इंजीनियर नहीं था, इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं थी, वैसी शिक्षा देने वाला कोई विद्यालय, महाविद्यालय तक नहीं था. सिंचाई की शिक्षा नहीं थी पर सिंचाई का शिक्षण हर जगह था और समाज उस शिक्षण को अपने मन में संजोकर रखता था और उस शिक्षण को अपनी जमीन पर उतारता था. जब अंग्रेज यहां आए थे- एक बार फिर दुहरा लें तब हमारे यहां एक भी सिविल इंजीनियर नहीं था पर सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूरब तक कोई 25 लाख छोटे-बड़े तालाब थे. इनमें से भी ज्यादा संख्या में जमीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुएं बनाए गए थे. वर्षा का पानी तालाबों में कैसे आएगा, किस तरह के क्षेत्र से, यहां वहां से बहता आएगा. उसका आगौर अनुभवी आंखों से नाम लिया जाता था. फिर यह पानी साल भर कैसे पीने का पानी जुटाएगा और किस तरह की फसलों को जीवन देगा. इस सबकी बारीक योजना कहीं सैकड़ों मील दूर बैठे लोग नहीं बनाते थे, वहीं बसे लोग उस क्षेत्र में अपना बसना सार्थक करते थे. यह परंपरा आज भी पूरी तरह से टूटी नहीं है, हां उसकी प्रतिष्ठा जरूर गिर गई है, नए पढ़े लिखे समाज के मन में. पर हमारे इस पढ़े लिखे समाज को आज यह जानकर अचरज होगा कि हमारे देश की तकनीकी शिक्षा, सिविल इंजीनियरिंग की सारी आधुनिक शिक्षा की नींव में ये अनपढ़ माना गया, अनपढ़ बता दिया गया समाज ही प्रमुख था. आज बहुत कम लोग यह बता पाएंगे कि हमारे देश में पहला इंजीनियरिंग काॅलेज कहां और कब खुला था. इसे संक्षेप में दुहरा लेना चाहिए.

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अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था हरिद्वार के पास रुड़की नामक एक छोटे से गांव में. और सन था 1847. तब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था. ब्रितानी सरकार भी नहीं आई थी. कंपनी का घोषित लक्ष्य देश में व्यापार था. प्रशासन या लोक कल्याण नहीं. व्यापार भी शिष्ट शब्द है. कंपनी तो लूटने के लिए ही बनी थी. ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी देश में उच्च शिक्षा के झंडे भला क्यों गाड़ती. वह किस्सा लंबा है. आज उसे यहां पूरा बताना जरूरी नहीं. पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उस दौर में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह भाग एक भयानक अकाल से गुजर रहा था. अकाल का एक कारण था वर्षा का कम होना. पर अच्छे कामों और अच्छे विचारों का अकाल पहले ही आ चुका था और इसके पीछे एक बड़ा कारण था ईस्ट इंडिया कंपनी की अनीतियां.

सौभाग्य से उस क्षेत्र में, तब उसे नाॅर्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेस कहा जाता था, एक बड़े ही सहृदय अंग्रेज अधिकारी काम कर रहे थे. ऊंचे पद पर थेे. वे वहां के उपराज्यपाल थे. नाम था उनका जेम्स थॉमसन. लोगों को अकाल में मरते देख उनसे रहा नहीं गया. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों को एक पत्र लिखकर इस क्षेत्र में एक बड़ी नहर बनाने का प्रस्ताव रखा था. ऊपर से उस पत्र का कोई जवाब तक नहीं आया. शायद पत्र मिलने की सूचना, पहुंच तक नहीं आई. थॉमसन ने फिर एक पत्र लिखा. इस बार फिर वही हुआ. कोई जवाब नहीं.

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तब जेम्स थॉमसन ने तीसरे पत्र में अपनी योजना में पानी और अकाल, लोगों के कष्टों के बदले व्यापार की, मुनाफे की चमक डाली. उन्होंने हिसाब लिखा कि इससे इतने रुपये लगाने से इतने ज्यादा रुपये सिंचाई के कर की तरह मिल जाएंगे. ईस्ट इंडिया कंपनी की आंखों में चमक आ गई. मुनाफा मिलेगा तो ठीक. बनाओ. पर बनाएगा कौन? कोई इंजीनियर तो है नहीं कंपनी के पास. थॉमसन ने कंपनी को आश्वस्त किया था कि यहां गांवों के लोग इसे बना लेंगे. कोई ऐरी गैरी छोटी मोटी योजना नहीं थी यह. हरिद्वार के पास गंगा से एक नहर निकाल कर उसे कोई 200 किलोमीटर तक के इलाके में फैलाना था. यह न सिर्फ अपने देश की एक पहली बड़ी सिंचाई योजना थी, कई अन्य देशों में भी उस समय ऐसा कोई काम नहीं हुआ था.

विस्तृत योजना का विस्तार से वर्णन यहां नहीं करना है. बस इतना ही बताना है कि वह योजना खूब अच्छे ढंग से पूरी हुई. तब थॉमसन ने कंपनी से इसकी सफलता को देखते हुए इस क्षेत्र में इसी नहर के किनारे रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा. इसे भी मान लिया गया क्योंकि थॉमसन ने इस प्रस्ताव में भी बड़ी कुशलता के साथ कंपनी को याद दिलाया था कि इस कॉलेज से निकले छात्र बाद में आपके साम्राज्य का विस्तार करने में मददगार होंगे.

यह था सन 1847 में बना देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज. देश का ही नहीं, एशिया का भी यह पहला कॉलेज था, इस विषय को पढ़ाने वाला. और आगे बढ़ें तो यह भी जानने लायक तथ्य है कि तब इंग्लैंड में भी इस तरह का कोई कॉलेज नहीं था. रुड़की के इस कॉलेज में कुछ साल बाद इंग्लैंड से भी छात्रों का एक दल पढ़ने के लिए भेजा गया था.

तो इस कॉलेज की नींव में हमारा अनपढ़ बता दिया गया समाज मजबूती से सिर उठाए खड़ा है. वह तब भी नहीं दिखा था अन्य लोगों को और आज तो हम उसे पिछड़ा बताकर उसके विकास की बहुविध कोशिश में लगे हैं. इस प्रसंग के अंत में यह भी बता देना चाहिए कि सन 1847 में कॉलेज खुलने से पहले वहां बनी वह लंबी नहर आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में गंगा का पानी सिंचाई के लिए वितरित करती जा रही है. आज रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज को शासन ने और ऊंचा दर्जा देकर उसे आईआईटी रुड़की बना दिया है.

कॉलेज का दर्जा तो उठा है पर दुर्भाग्य से कॉलेज जिन लोगों के कारण बना, जिनके कारण वह विशाल सिंचाई योजना जमीन पर उतरी, जिन लोगों ने अंग्रेजों के आने से पहले देश में देश के मैदानी भागों में, पहाड़ों में, रेगिस्तान में, देश के तटवर्ती क्षेत्रों में जल दर्शन का सुंदर संयोजन किया था वे लोग आज कहीं पीछे फेंक दिये गए हैं.

कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूरब तक 25 लाख छोटे बड़े तालाब थे. इनमें से भी ज्यादा संख्या में जमीन का स्वभाव देखकर कुएं बनाए गए थे

देश ने कई मामलों में खूब उन्नति की है, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन बेशक इतना तो जोड़ना ही पड़ेगा कि इसी दौर में देश में सबसे सस्ती कार बिकने आई थी और सबसे महंगी दाल भी तथा देश के आधे भाग में भयानक अकाल भी पड़ा था. पानी तो गिरता ही है. कभी कम तो कभी ज्यादा. औसत का एक आंकड़ा हम पिछले सौ-पचास साल से भले ही रखने लगे हों, यह बहुत काम नहीं आता. गणित के दम पर आंकड़ों के दम पर जीवन नहीं चल पाता.

आधुनिक बांधों से भी अकाल दूर हो गए हों- आज भी ऐसा पक्के तौर पर नहीं कह सकते. पंजाब, हरियाणा में, देश के अन्य भागों में, महाराष्ट्र में भयानक अकाल पड़ा था. पूर्व कृषिमंत्री शरद पवार इसी प्रदेश से हैं और उन्होंने ही अपने एक बयान में कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में महाराष्ट्र सा भयानक अकाल पहले कभी नहीं देखा था. इसलिए बड़े बांधों से बंध जाना ठीक नहीं है. उन बांधों में भी पानी तो तभी भरेगा जब ठीक वर्षा होगी.पर प्रकृति ठीक नहीं, ठीक ठाक वर्षा करती है. वह मां है हमारी, लेकिन मदर डेयरी की मशीन नहीं कि जितने टोकन डालो, ठीक उतना ही पानी गिरा देगी. एक तरफ हम बड़े बांधों से बंध गए और दूसरी तरफ नई तकनीक से भूजल को बाहर उलीज लेने के लिए नए साधन खोज निकाले हैं. शहरों, गांवों में छलनी की तरह छेदकर डाले हमने और सचमुच मिट्टी की विशाल गुल्लक में पड़ी इस विशाल जलराशि को ऊपर खींच निकाला. उसमें डाला कुछ नहीं इस तरह यह धरती की गुल्लक ही खाली हो चली है. भूजल भंडार में आई गिरावट को बताने के लिए यों तो जिलावार, प्रदेशवार आंकड़े भी दिए जा सकते हैं पर जब जीवन का प्राणदायी रस ही निचुड़ता जा रहा हो तो नीरस आंकड़े नया और क्या बता पाएंगे. फिर भी बिना किसी कटुता के यह तो कहा ही जा सकता है कि इस दौर में हमारी राजनीति ज्यादा गिरी है कि भूजल, यह तय कर पाना कठिन है. इन दोनों का स्तर ऊपर उठना होगा.

पिछले कुछ समय से एक नया शब्द हमारे बीच आया है, जन-भागीदारी. जैसा अक्सर होता है ऐसे शब्द पहले अंग्रेजी में आते है, फिर हम बिना ज्यादा सोचे समझे उनका अपनी भाषा में अनुवाद कर लेते है. पर जब यह शब्द नहीं था, यह नकली शब्द नहीं था तब हमारे समाज में पानी के मामले में गजब की भागीदारी थी. उस जन-भागीदारी में सचमुच तीन भूमिकाएं होती थीं. लोग खुद अपने गांव में शहर में पानी की योजना बनाते. यह हुई पहली भूमिका. फिर उस योजना को अमल में उतारते थे, तालाब नहर, कुएं आदि बनाते थे. यह थी दूसरी भूमिका. और तीसरी भूमिका में इन बन चुनी योजनाओं के रखरखाव की जिम्मेदारी भी स्वयं ही उठाते थे. वह भी कोई दो चार बरस के लिए नहीं बल्कि दो चार पीढ़ी तक उसका रखरखाव करते थे. उसे अपना काम मानकर करते थे. ऐसे में कहीं-कहीं समाज राज की भागीदारी भी कबूल कर लेता था. एक तरह से देखा जाए तो राज और समाज परस्पर तालमेल बिठाकर इन कामों को बड़ी सहजता से संपन्न कर लेते थे. आज बहुत कम लोगों को इस बात का कुछ अंदाज बचा है कि हमारे कुछ नामों के, परिवारों के नामों के चिह्न इन्हीं कामों में से निकले थे. नहर की देखरेख करने वाले नेहरू थे तो पहाड़ों में सिंचाई करने का ढांचा एक तरह की पहाड़ी नहर, कूल बनाने वाले कोहली थे तो गूल बनाने वाले गुलाटी थे. देश में इस कोने से उस कोने तक ऐसी अनेक जातियां, अनेक लोग थे जो गांवों और शहरों के लिए पानी का काम करते थे. इसमें अकाल और बाढ़ की मार को कम करने का काम भी शामिल था और यह सचमुच अपने तन, मन और धन से करते थे.

जो काम उनके मन में उतर गया था, उसे वे अपने तन पर भी संजोकर रखते थे. देश के सभी भागों में शरीर पर गुदना गोदवाने की एक बड़ी परंपरा रही है. इसमें शुभ चिह्न आदि तो चलन में थे ही पर पूरे देश के कुछ भागों में एक विशेष चिह्न भी पाया जाता था. इसका नाम था सीता बावड़ी. सीधी सादी आठ दस रेखाओं से एक भव्य चित्र कलाई पर किसी भी मेले, ठेले में देखते ही देखते गोद दिया जाता था. इस तरह पानी का काम मन से तन पर तन से श्रम में उतरता जाता था जमीन पर.

लेकिन आज जमीन की कीमतें आसमान छूने लगी हैं. शहरों में भी और अनेक गांवों में भी तालाब एक के बाद एक पुरते जा रहे हैं, कचरे से पटते जा रहे हैं. जल संकट सामने है पर हम उसे पीठ दिखा रहे हैं. अपने तालाबों को, अपने जलस्रोतों को नष्टकर देने के बाद ऐसे प्यासे शहरों के लिए दूर से, बहुत दूर से किसी और का हक छीनकर बड़ी खर्चीली योजनाओं को बनाकर पानी लाया जा रहा है. पर हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए. इन्द्र देवता से इन शहरों ने ऐसी अपील तो की नहीं है कि हमारा पीने का पानी तो अब सौ दो सौ किलोमीटर दूर से आ रहा है. आप हम पर पानी ना बरसायें. पहले ये तालाब ही वर्षा के दिनों में शहरों से गिरने वाले पानी को अपने में संजोकर, समेट कर इन शहरों को बाढ़ से बचा लेते थे.

इंद्र का एक पुराना नाम, विशेषण है पुरंदर. पुरंदर यानी जो पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ देता है. इस नाम को रखा गया है तो इसका अर्थ यह भी है कि इंद्र के समय में भी शहर नियोजन में कमियां होती थीं. और ऐसे अव्यवस्थित शहरों को इंद्र अपनी वर्षा के प्रहार से ढहा देता था, बहा देता था.

दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, बंगलुरु, जयपुर, हैदराबाद जैसे पुराने, महंगे हो चले आधुनिक हो चले, सभी शहर बारी-बारी ऐसी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, जैसी बाढ़ उन जगहों में पहले कभी नहीं आती थी.

हमारे देश की समुद्रतटीय रेखा बहुत बड़ी है. पश्चिम में गुजरात के कच्छ से लेकर नीचे कन्याकुमारी घूमते हुए यह रेखा बंगाल में सुंदरबन तक एक बड़ा भाग घूम लेती है. पश्चिमी तट पर बहुत कम, लेकिन पूर्वी तट पर अब समुद्री तूफानों की संख्या और उनकी मारक क्षमता भी बढ़ती जा रही है. अभी कुछ साल पहले ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आए चक्रवात की पूर्व सूचना समय रहते मिल जाने से बचाव की तैयारियां बहुत अच्छी हो गई थीं और इस कारण बाकी नुकसान एक तरफ, कीमती जानें बच गईं. लेकिन उसी के कुछ ही दिनों बाद वहां आई बाढ़ में उससे भी ज्यादा नुकसान हो गया था.

हमारे पूर्वी तटों पर समुद्री तूफान आते हैं पर अब नुकसान करने की उनकी क्षमता बढ़ती ही जा रही है. इनके पीछे एक बड़ा कारण है हमारे कुल तटीय प्रदेशों में उन विशेष वनों का लगातार कटते जाना, जिनके कारण ऐसे तूफान तट पर टकराते समय विध्वंस की अपनी ताकत काफी कुछ खो देते थे.

समुद्र और धरती के मिलन बिंदु पर, हजारों वर्षों से एक उत्सव की तरह खड़े ये वन बहुत ही विशिष्ट स्वभाव लिए होते हैं. दिन में दो बार ये खारे पानी में डूबते हैं तो दो बार पीछे से आ रही नदी के मीठे पानी में. मैदान, पहाड़ो में लगे पेड़ों से, वनों से इनकी तुलना करना ठीक नहीं. वनस्पति का ऐसा दर्शन अन्य किसी स्थान पर संभव नहीं. यहां इन पेड़ों की, वनों की जड़ें भी ऊपर रहती है. अंधेरे में, मिट्टी के भीतर नहीं, प्रकाश में, मिट्टी के ऊपर. जड़ें, तना फिर शाखाएं, तीनों का दर्शन एक साथ करा देने वाला यह वृक्ष, उसका पूरा वन इतना सुंदर होता है कि इस प्रजाति का एक नाम हमारे देश में सुंदर, सुंदरी ही रख दिया गया था. उसी से बना है सुंदरबन.

लेकिन आज दुर्भाग्य से हमारा पढ़ा लिखा संसार, हमारे वैज्ञानिक कोई 13-14 प्रदेशों में फैले इस वन के, इस प्रजाति के अपने नाम एकदम से भूल गए हैं. जब भी इन वनों की चर्चा होती है, इन्हें अंग्रेजी नाम मैंग्रोव- से ही जाना जाता है. हमारे ध्यान में भी यह बात नहीं आ पाती कि देश में कम से कम इन प्रदेशों की भाषाओं में, बोलियों में तो इन वनों का नाम होगा, उसके गुणों की स्मृति होगी. प्रसंगवश यहां यह भी जान लें कि मैंग्रोव शब्द भी अंग्रेजी का नहीं है, उस भाषा में यह पुर्तगाली से आया है.

तटीय प्रदेशों से प्रारंभ करें तो पश्चिम में ऊपर गुजराती, कच्छी में इसे चैरव, फिर मराठी, कोंकणी में खारपुटी, तिवर, कन्नड में कांडला काडु, तमिल में सधुप्पू निल्लम काड्ड, तेलुगू में माडा आडवी, उड़िया में झाऊवन कहा जाता है. बांग्ला में तो सुंदरबन सबने सुना ही है. एक नाम मकडसिरा भी है और हिंदी प्रदेश में तो समुद्र के तट से दूर ही है. पर ऐसा नहीं होता कि जो चीज जिस समाज में नहीं है उस समाज की भाषा उसका नाम नहीं रखे. हिंदी में चमरंग वन कहते थे. पर अब यह नए शब्दकोषों से बाहर हो गया है.

शहरों, गांवों में छलनी की तरह छेद कर डाले हमने और मिट्टी की विशाल गुल्लक में पड़ी इस विशाल जलराशि को खींच निकाला. उसमें डाला कुछ नहीं

पर्यावरण को ठीक से जानने वाले बताते हैं कि आंध्र प्रदेश और ओडिशा में खासकर पारद्वीप वाले भाग में चमरंग वनों को विकास के नाम पर खूब उजाड़ा गया है. इसलिए पारद्वीप ऐसे ही एक चक्रवात में बुरी तरह से नष्ट हुआ था. फिर यह भी कहा गया था कि उसके लिए एक मजबूत दीवार बना दी जाएगी.

कुछ ठंडे देशों का अपवाद छोड़ दें तो पूरी दुनिया में धरती और समुद्र के मिलने की जगह पर प्रकृति ने सुरक्षा के ख्याल से ही यह हरी सुंदर दीवार, लंबे-चौड़े सुंदरवन खड़े किए थे. आज हम अपने लालच में इन्हें काटकर उनके बदले पांच गज चौड़ी सीमेंट कंक्रीट की दीवार खड़ी कर सुरक्षित रह जाएंगे- ऐसा सोचना कितनी बड़ी मूर्खता होगी- यह कड़वा सबक हमें समय न सिखाए तो ही ठीक होगा. चौथी की कक्षाओं में यह पढ़ा दिया जाता है कि पृथ्वी के कोई सत्तर प्रतिशत भाग में समुद्र है और धरती बस तीस प्रतिशत ही है. समुद्र के सामने हम नगण्य हैं. ये सुंदरबन, चमरंग वन हमारी गिनती बनी रहे, ऐसी सुरक्षा देते हैं.

दीवारें खड़ी करने से समुद्र पीछे हट जाएगा, तटबंद बना देने से बाढ़ रुक जाएगी, बाहर से अनाज मंगवाकर बांट देने से अकाल दूर हो जाएगा, बुरे विचारों की ऐसी बाढ़ से, अच्छे विचारों के ऐसे ही अकाल से हमारा यह जल संकट बढ़ा है.

राजेंद्र बाबू ने अपने समय में या कहें समय से ही पहले ही समाज का ध्यान ऐसी अनेक बातों की तरफ खींचा था. श्री गोखले से भेंट होने के बाद राजेंद्र बाबू कोई बावन बरस तक सार्वजनिक जीवन में रहे. उनका बचपन जिस गांव में बीता था, उस गांव में नदी नहीं थी, वे तैरना नहीं सीख पाए थे. लेकिन इस बावन बरस के एक लंबे दौर में उन्होंने अपने समाज को देश को अनेक बार डूबने से बचाया था. अंतिम बारह बरस वे देश के सर्वोच्च पद पर रहे. जब वह निर्णायक भूमिका पूरी हुई तो सन 1962 के मई महीने में वे एक दिन रेल में बैठे और दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए थे. उसी सदाकत आश्रम के एक छोटे से घर में रहने के लिए, जहां से उन्होंने सार्वजनिक जीवन की अपनी लंबी यात्रा प्रारंभ की थी.

ललित मोदी विवाद

3 sawalललित मोदी पर क्या हैं आरोप?

आईपीएल के पूर्व अध्यक्ष ललित मोदी पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने वित्तीय अनियमितताओं (फेमा) के आरोप लगाए हैं. उनपर आईपीएल में घोटाले और मैच फिक्सिंग के भी आरोप हैं. आईपीएल 2010 फाइनल के बाद ललित मोदी को आईपीएल के अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद से मोदी लंदन में हैं. ईडी का आरोप यह भी है कि मोदी जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं. पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने भाजपा पर आरोप लगाते हुए कहा कि 2011 में ही ललित मोदी का पासपोर्ट रद्द किया गया था फिर वो लंदन में कैसे रह सकते हैं. उन्होंने कहा कि उनके खिलाफ 16 केस हंै. यह समझ से परे है कि उन्हें नया पासपोर्ट किस आधार पर जारी किया गया? फिलहाल भारत में उनके खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी किया जा चुका है.

क्या है सुषमा-ललित प्रकरण?

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा ललित मोदी को मदद पहुंचाने का मामला सामने आते ही भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया है. विपक्षी दल सुषमा से इस्तीफे की मांग कर रहा है. लंदन के संडे टाइम्स में छपी खबर से इस बात का खुलासा हुआ है कि सुषमा स्वराज ने ललित मोदी को पत्नी के इलाज के लिए पुर्तगाल भेजने में मदद की. उन्होंने इस बारे में ब्रिटेन की सांसद कीथ वाज से सिफारिश की थी. इस मामले पर सफाई देते हुए सुषमा स्वराज ने कहा कि हमने मानवीय आधार पर उनकी मदद की क्योंकि उनकी पत्नी को कैंसर है. हमने सिर्फ ब्रिटेन से यह आग्रह किया था कि अगर वहां का कानून इजाजत देता है तो उनकी पत्नी को इलाज के लिए पुर्तगाल जल्द भेज देना चाहिए.

इस मामले में भाजपा सुषमा स्वराज के साथ खड़ी है, गृहमंत्री राजनाथ सिंह के मुताबिक उन्होंने कोई गलती नहीं की. ललित मोदी की पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं और मानवीय आधार पर सुषमा ने उनकी मदद की.

वसुंधरा राजे को लेकर क्या है विवाद?

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर भी ललित मोदी की मदद करने के आरोप लग रहे हैं. वसुंधरा ने ललित की इमिग्रेशन अर्जी का अपने नाम की गोपनीयता रखने के शर्त पर समर्थन किया और सीक्रेट विटनेस बनी रहीं. 2011 में उन्होंने ललित के पक्ष में दिए बयान में कहा था, ‘मैं यह बयान ललित मोदी की इमिग्रेशन एप्लीकेशन के समर्थन में दे रही हूं लेकिन मेरे इस सहयोग का पता भारतीय अधिकारियों को नहीं चलना चाहिए’

कांग्रेस ने दस्तावेज पेश करते हुए वसुंधरा राजे पर ललित मोदी के साथ मिलकर धौलपुर महल को निजी जायदाद में बदलने का भी आरोप लगाया है. हालांकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा है कि 1954 के दस्तावेज यह साबित करते हैं कि धौलपुर महल किसी की निजी नहीं बल्कि सरकारी संपत्ति है. इस प्रकरण के बाद कांग्रेस जहां वसुंधरा राजे का इस्तीफा मांग रही है वहीं वसुंधरा ने इस मुद्दे पर चुप्पी ओढ़ रखी है.

दिवालिया होने की दहलीज पर ग्रीस

greeceग्रीस बीते कुछ सालों से आर्थिक संकट से जूझ रहा है. लगातार संकट गहराने की वजह से कभी दुनिया जीतने का सपना देखने वाला यह देश दिवालिया होने की कगार पर आ खड़ा हुआ है. ग्रीस पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का 11 लाख करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ चुका है. आईएमएफ ने ग्रीस को 12 हजार करोड़ रुपये की पहली किश्त चुकता करने के लिए 30 जून तक की मोहलत दी थी.

आईएमएफ ने ग्रीस के सामने कुछ शर्तें रखी हैं और यदि वह उन शर्तों को नहीं मानता है तो वह यूरोपियन यूनियन और यूरो जोन से बाहर हो सकता है. ग्रीस की लगातार कोशिशों के बाद भी आईएमएफ कर्ज चुकाने की मोहलत बढ़ाने को राजी नहीं हो रहा है. ग्रीस के प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास ने देश के बैंकों को 7 दिन तक बंद रखने का ऐलान किया है. वहां के लोगों को एटीएम से सिर्फ 60 यूरो तक ही निकालने की इजाजत दी गई है. साथ ही सभी विदेशी लेनदेन पर भी पाबंदी लगा दी गई है. आम लोग इस बात से चिंतित हैं कि अगर यूरो को पुरानी करेंसी ड्रैकमा में तब्दील कर दिया गया तो उनकी मुद्रा की कोई कीमत नहीं रह जाएगी.

इधर ग्रीस के कर्ज में डूबने की वजह से भारत सहित हांगकांग और जापान के शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई. जानकारों का मानना है कि ग्रीस में आए इस संकट का भारतीय अर्थव्यवस्था पर लंबी अवधि में कोइ फर्क नहीं पड़ेगा. इस संकट की वजह 1999 में आए भीषण भूकंप को माना जा रहा है. इस भूकंप के बाद 50000 इमारतों का पुनर्निर्माण सरकारी पैसे से कराया गया था. ग्रीस पर 2004 के ओलंपिक खेलों में जरूरत से ज्यादा पैसा खर्च करने के भी आरोप हैं. अगर वह आईएमएफ का कर्ज चुकाने में नाकाम रहा तो उसे 21वीं सदी का पहला डिफॉल्टर देश बनने से कोई नहीं बचा पाएगा. आईएमएफ ने कर्ज चुकाने की मियाद बढ़ाकर 20 जुलाई घोषित की है. डिफॉल्टर घोषित होने पर उसे अपनी पुरानी मुद्रा ड्रैकमा लागू करनी होगी.

ग्रीनपीस के एक वालंटियर का इंटरनेशनल हेड कुमी को भेजा गया ई-मेल

कुमी

मैं आपसे ये चुप्पी तोड़कर कोई ठोस कदम लेने की गुजारिश करता हूं.

ग्रीनपीस इंडिया में ये सब बहुत लंबे समय से चल रहा है और अब तक दोषियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया है.

क्या आपने कभी सोचा कि क्यों पुराने वालंटियर और कार्यकर्ता जो पूरे जोश से सार्थक और कुछ अलग करने के लिए ग्रीनपीस से जुड़े थे, अब संस्थान छोड़ चुके हैं या छोड़ रहे हैं? क्या आप भी वही कहेंगे जो सीनियर मैनेजमेंट ने कहा- कि अब इन कामों में उनकी दिलचस्पी नहीं या फिर उनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं?

कुमी, मैं निजी तौर पर आपको 10-15 उत्साही वालंटियर के नाम बता सकता हूं जिन्होंने ग्रीनपीस इंडिया इसलिए छोड़ दिया क्योंकि ये वो ग्रीनपीस नहीं रहा जिससे वो जुड़े थे. उनके और (मेरे लिए भी) ग्रीनपीस एक विचार है. हमने उस ग्रीनपीस को जॉइन किया था जो सच्चाई और न्याय के लिए सिर उठाकर खड़ा होता था. अब जो घटनाक्रम यहां हो रहे हैं हम उन से नाराज और दुखी हैं. हमारा मोहभंग हो चुका है.

मैं ये शिकायतें और किस्से काफी समय से सुनता आ रहा हूं. मुझे समझ नहीं आता कि इतना सब होने के बावजूद परवीन जैसी स्वार्थी व्यक्ति ग्रीनपीस में क्यों है? वो एक एचआर डायरेक्टर के रूप में पहले ही असफल हो चुकी हैं. हमारे पास उदाहरण हैं- यौन शोषण के मामलों को गंभीरता से न लेने के अलावा उन्होंने ग्रीनपीस इंडिया की नौकरियों में भर्ती के समय कुछ विशेष लोगों को अनुचित रूप से महत्व दिया. उन्होंने कई कर्मचारियों द्वारा लगातार की जा रही अनुचित गतिविधियों को ग्रीनपीस का ‘इनफॉर्मल कल्चर’ कहकर टाला.

किस बिना पर समित एच जैसा दंभी और अशिष्ट व्यक्ति ग्रीनपीस इंडिया में कार्यकारी निदेशक  के पद पर बना हुआ है? लगभग दो साल पहले, एक पत्रकार के बतौर (बद)किस्मती से मुझे उनसे मिलने का मौका मिला था और मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि मैं आज तक समित जितने दंभी और अहंकारी व्यक्ति से नहीं मिला.

क्या आपको लगता है कि मोदी सरकार की कार्रवाई से इतर अगर भारत में ग्रीनपीस को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है तो इसके अनेक कारणों में से एक कारण कई प्रचारकों और सीनियर मैनेजमेंट का सार्वजानिक रूप से किया हुआ अहंकारी व्यवहार है?

जैसा कि मैंने अपने पिछले ईमेल में भी बताया मैंने मेनस्ट्रीम मीडिया में हमेशा ग्रीनपीस और इसके अभियानों का समर्थन किया है, उनके बारे में लिखा है. मैं जब भी किसी विश्वस्तरीय मंच पर खुद को ग्रीनपीस का कार्यकर्ता बताता हूं तो मुझे बहुत गर्व का अनुभव होता है. पर भारत के इस ग्रीनपीस को मैं नहीं स्वीकारता.

मैं आपसे निवेदन करता हूं कि बहुत हो चुका है, अब अपनी चुप्पी तोड़िए और कोई एक्शन लीजिए. अब तक मैंने यहां, ग्रीनपीस इंडिया में चल रहे नकारात्मक मामलों को बाहरी दुनिया के सामने उजागर नहीं किया है और यकीन मानिए, अगर जरूरत पड़ी तो मुझे इस मुद्दे को उजागर करने और ग्रीनपीस इंडिया को मीडिया ट्रायल में लाने में घंटे भर से भी कम समय ही लगेगा.

अगर मैं विश्व मीडिया में भारत सरकार द्वारा ग्रीनपीस के साथ हुए अन्याय के बारे में लिख सकता हूं तो ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं और कर्मचारियों के साथ हो रहे अन्याय के बारे में लिखना भी ईमानदारी ही होगी. और इसमें सबसे ऊपर यहां प्रचलित ‘इनफॉर्मल रेप कल्चर’ ही होगा. इस वक्त सबसे आखिरी चीज जिससे ग्रीनपीस जूझ सकता है वो है मीडिया.

कुमी, मैं ग्रीनपीस को गिरते हुए नहीं देख सकता. मैं आपसे फिर ये अनुरोध करता हूं कि आप इस मामले में संज्ञान लें और भारत में ग्रीनपीस की गिरती हुई साख को बचाएं.

धन्यवाद

अविक रॉय, (पत्रकार व ग्रीनपीस से लंबे समय से जुड़े वालंटियर)

‘हमने अपने पूर्व कर्मचारियों को बहुत निराश किया है, इसके लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं और माफी मांगते हैं’

ग्रीनपीस के दो पूर्व कर्मचारियों पर आपकी ही एक पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपों पर आपका क्या कहना है?

जी, संबंधित महिला ने 2012 में यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी हालांकि उस शिकायत पर उचित तरीके से कार्रवाई नहीं हुई, जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. जहां तक बलात्कार के आरोप की बात है, ये घटना 2013 में एक निजी पार्टी में हुई थी और इसका जिक्र सबसे पहले फरवरी 2015 में एक फेसबुक पोस्ट में किया गया, फिर जून में एक ब्लॉग पर. संबंधित महिला इस बारे में न तो पुलिस में और न ही ग्रीनपीस में कोई शिकायत दर्ज करना चाहती हैं. ये उनका अपना फैसला है और हम इसका पूरी तरह सम्मान करते हैं. ग्रीनपीस इंटरनेशनल ने भी इस मामले की जांच कर समीक्षा की है और 16 जून को अपना निष्कर्ष दिया. ग्रीनपीस ने एक एक्सटर्नल ऑडिट करवाने का भी सोचा है. वैसे आंतरिक मूल्यांकन के बाद ग्रीनपीस इंडिया के पूर्व कार्यकारी निदेशक समित एच और प्रोग्राम डायरेक्टर दिव्या रघुनंदन ने इस्तीफा दे दिया है. अब हम कर्मचारियों को काम करने के लिए एक सुरक्षित माहौल देने के लिए आतंरिक प्रक्रियाएं और व्यवस्थाएं सुधारने की ओर कार्य कर रहे हैं.

पीड़िता का आरोप यह भी है कि ग्रीनपीस ने कभी भी उनकी शिकायतों पर गौर नहीं किया और ग्रीनपीस की आतंरिक शिकायत समिति ने भी कभी इस मामले की जांच नहीं की, जो कि विशाखा गाइडलाइंस और कार्यस्थल पर महिलाओं का शारीरिक शोषण एक्ट, 2013 का साफ-साफ उल्लंघन है.

हां, ये बात सही है कि स्टाफ के सदस्य की 2012 में की गई आधिकारिक शिकायत, विशाखा गाइडलाइंस पर बनी आंतरिक शिकायत कमेटी तक नहीं पहुंची थीं, जैसा कि उन्हें पहुंचना चाहिए था. ग्रीनपीस इंटरनेशनल के मूल्यांकन में ये बात सामने आई कि उस समय के एचआर मैनेजर की ये सबसे बड़ी गलती यही थी कि उन्होंने इस केस को सेक्सुअल हरासमेंट की श्रेणी में नहीं रखा.

2015 में बनी आंतरिक शिकायत कमेटी ने अपनी ओर से इस मामले को संज्ञान में लिया हालांकि कार्यस्थल पर महिलाओं के शारीरिक शोषण एक्ट, 2013 के अनुसार ये शिकायत खारिज हो चुकी थी. एक समय पर जब जांच की विश्वसनीयता पर संदेह हुआ तो कानूनी सलाह पर पूर्व कार्यकारी निदेशक ने आरोपी कर्मचारी को चेतावनी देने का निर्णय लिया. अब एक बाहरी ऑडिट किया जाएगा जिससे हमें सही फैसले लेने में मदद मिलेगी. जहां तक बलात्कार के मामले की बात है संबंधित महिला शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहतीं, जिसके बिना हम कोई जांच नहीं कर सकते हैं. हमने उन्हें एफआईआर और पुलिस जांच करवाने की भी सलाह दी थी पर वो ऐसा नहीं करना चाहतीं.

अब जब सभी शिकायतें सार्वजानिक हो चुकीं हैं, तो ग्रीनपीस ने इन शिकायतों पर क्या कार्रवाई की है?

जैसा मैंने बताया कि ग्रीनपीस इंटरनेशनल ने भारत ऑफिस में हुई जांच के मूल्यांकन के बाद कहा था कि आतंरिक प्रक्रियाओं में बहुत चूक हुई हैं. जिसके बाद तीन दिन तक ग्रीनपीस इंडिया के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने इस केस से जुड़ी पिछली बातचीत और दस्तावेजों की जांच की. समित एच और दिव्या रघुनंदन ने इन खामियों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया जिसे बोर्ड ने मंजूर भी कर दिया. यौन प्रताड़ना के मामले के कथित आरोपी ने भी हाल ही में इस्तीफ़ा दे दिया. बलात्कार के कथित आरोपी ने भी पिछले दिनों अपना इस्तीफा सौंप दिया जिसके बाद हमने उन्हें नोटिस पीरियड पूरा किए बिना ही जाने को कह दिया.

क्या प्रबंधन एफआईआर दर्ज करने की सोच रहा है?

इस मामले में काफी स्पष्ट कानून हैं, जिनके अनुसार हम पीड़िता की सहमति के बिना कोई कदम नहीं उठा सकते. हमने उन्हें एफआईआर करवाने का अनुरोध किया है और कानूनी मदद देने का भी प्रस्ताव रखा है.

ग्रीनपीस महिला अधिकारों के प्रति सतर्कता और लोकतंत्र में उठती असंतुष्टों की आवाज सामने लाने का दावा करता रहा है, इस तरह देखें तो दफ्तर के माहौल में लोकतंत्र की कमी और असंतुष्टों की बात को तवज्जो न दिए जाने के पीड़िता के आरोप पर आपका क्या कहना है? इन आरोपों पर संस्थान ने क्या कदम उठाए हैं?

हमें लगता है कि हमने अपने पूर्व कर्मचारियों को बहुत निराश किया है और इसके लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं और माफी मांगते हैं. ये मामला रोशनी में तब आया जब इस साल फरवरी में पीड़िता के सोशल मीडिया अकाउंट पर एक पोस्ट आई, जिससे संस्थान में आक्रोश बढ़ गया. इसके बाद हमने कई आतंरिक स्टाफ मीटिंग की, जिससे ये फैसला हो सके कि हम किस तरह इस मुद्दे से वाकिफ हो सकें. बोर्ड ने इस केस में हुई चूकों को संज्ञान में लिया और स्थिति की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उस समय के कार्यकारी निदेशक और प्रोग्राम डायरेक्टर दोनों ने इस्तीफा दे दिया. हमारा संस्थान सभी के लिए सुरक्षित वर्क स्पेस की अवधारणा में पूरा विश्वास रखता है और इसे बेहद जरूरी भी समझता है. हम इन स्थितियों में सुधार लाने के लिए काम करेंगे. हम स्टाफ से सक्रिय बातचीत का सिलसिला बनाए रखेंगे.

अब जब इस मुद्दे से जुड़े हर व्यक्ति ने इस्तीफा दे दिया है, तो इसके प्रति जवाबदेह कौन होगा?

हम अपने किए हर वादे के लिए जवाबदेह हैं. ग्रीनपीस ही इसके लिए जिम्मेदार और जवाबदेह होगा.

क्या यौन उत्पीड़न की शिकार से सिर्फ माफी मांग लेना काफी है?

नहीं, पीड़िता माफी से कहीं ज्यादा की हकदार है. पीड़िता को समझना होगा कि दोषियों को सामने लाया जा चुका है. हमने पिछले कुछ दिनों में कुछ बेहद कठिन निर्णय लिए हैं जो हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं. जो हो गया उसे तो बदला नहीं जा सकता पर हम कोशिश करेंगे कि फिर ग्रीनपीस में ऐसा कभी न हो.

क्या उन आरोपियों के रिलीविंग लेटर पर उनके संस्थान छोड़ने का कारण स्पष्ट लिखा गया है?

जैसा मैंने पहले भी कई बार कहा कि बलात्कार के मामले की कोई जांच नहीं की गई थी. उत्पीड़न के मामले के दोषी को शिकायत के आधार पर ही संस्थान छोड़ने के लिए कहा गया था और ये बात उनके रिकॉर्ड में दर्ज होगी.

ग्रीनपीस ने माना है कि संस्थान के वर्क कल्चर और माहौल में खामियां हैं, अब सुधार की दिशा में क्या कदम उठाए जा रहे हैं?

नए बदलावों के लिए संस्थान में भरपूर ऊर्जा है. हम खुद से नाराज और निराश हैं और माहौल बदलना चाहते हैं. ये एक नई शुरुआत के लिए सही समय होगा. एक बार ऑडिट की रिपोर्ट आ जाने के बाद हमारे लिए व्यवस्थाएं सही करना आसान होगा.

इस केस में बातचीत के दौरान हमें ऐसे कई और मामलों का पता चला जिसमें अलग-अलग दफ्तरों में यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज कराई गईं पर ग्रीनपीस की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई. इन मामलों के बारे में आपका क्या कहना है? क्या मैनेजमेंट ने कभी ऐसी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया?

हम इन मामलों का ब्योरा गोपनीयता के चलते बता नहीं सकते. ग्रीनपीस अब बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध है और कार्यस्थल पर सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है.

‘मामला आगे बढ़ाया तो ग्रीनपीस को एक वालंटियर कम होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा’

मैंने 2014 की शुरुआत में ग्रीनपीस जॉइन किया था. ये मई का महीना था जब हमारी ट्रेनिंग बेंगलुरु ऑफिस के वेयरहाउस में चल रही थी. ट्रेनिंग का आखिरी दिन था और सबने ट्रेनिंग पूरी होने की खुशी में सेलीब्रेट करने के लिए बियर मंगाई. मेरी तबीयत उस दिन ठीक नहीं थी इसलिए मैं इसमें शामिल नहीं हुई और सोने चली गई. वालंटियर्स के सोने का इंतजाम वेयरहाउस में ही था. कुछ देर बाद एक वालंटियर आया और मुझे ठीक से याद नहीं कि उसने क्या कारण बताया और पूछा कि क्या मैं अपना बिस्तर इस तरफ शिफ्ट कर सकता हूं. मैं और मेरी एक दोस्त साथ थे तो हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई. लगभग आधी रात को अचानक मेरी आंख खुली. वो लड़का मुझे अनुचित ढंग से छू रहा था. मैं घबरा गई. तबीयत भी ठीक नहीं थी तो मैं बाथरूम चली गई. वो वहां भी मेरे पीछे-पीछे आया और मुझसे बात करने की कोशिश करता रहा. मैंने खुद को अंदर बंद कर लिया था. मैं घबराई हुई थी, असहज थी. वो लड़का काफी देर तक बाहर खड़ा रहा. जब मुझे लगा कि वो चला गया होगा मैं वापस आ कर सो गई. उसने अगले दिन मुझसे बात करने की कोशिश की, मुझे बाद में भी कॉल और मैसेज करता रहा पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया.

ऐसे अनुभवों को बताने में झिझक हमेशा ही रहती है, मेरे साथ भी यही हुआ. कुछ महीनों बाद मैंने एचआर मैनेजर को ईमेल के जरिये इन सब के बारे में बताया और यौन प्रताड़ना की शिकायत दर्ज करवाई. शुरुआत में मेरी शिकायत को लेकर उनका रवैया ठीक था पर दिन बीतने पर मुझे लगा वो जानबूझकर इसे बिना कोई फैसला दिए खींच रहे हैं. और फिर उनके निर्णय से ये पता चल गया कि ऐसी शिकायतों के प्रति प्रबंधन कितना लचर है! उन्होंने कहा कि वो मानता है कि वो दोषी है. वो अपने किए पर शर्मिंदा है और ऐसा सोचा गया है उसे साल भर के लिए बैन किया जाएगा और उसके बाद वो फिर जॉइन कर सकता है. साथ ही वो मुझसे लिखित में माफी मांगेगा. मैंने उनसे साफ कहा कि मैं इस फैसले से खुश नहीं हूं, उसे ग्रीनपीस से निकालना चाहिए. इस पर एचआर मैनेजर परवीन में मुझसे कहा कि हमें मानव स्वभाव को समझते हुए उसे एक मौका और देना चाहिए. अगर वो कह रहा है कि आगे कभी ऐसा नहीं करेगा तो उसे इस बात को साबित करने का मौका तो देना चाहिए. क्या ये सेक्सुअल हरासमेंट के मसलों से निपटने का तरीका है? ये बहुत दुखद है. मैं निराश हो गई थी फिर भी मैंने वालंटियर को-ऑर्डिनेटर अली से इस बारे में बात की. उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैंने इस मामले को और आगे बढ़ाया तो मुश्किल हो जाएगी. ग्रीनपीस को एक वालंटियर (मेरे रूप में) कम हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

सुमन

‘मुझसे ऐसा व्यवहार किया गया जैसे मानो मैं अपराधी हूं’

बतौर वालंटियर ग्रीनपीस से मैं लंबे समय से जुड़ी रही मगर एक कर्मचारी के रूप में मैंने 2010 में जॉइन किया. वहां के माहौल में ही ये घटियापन घुल चुका है. आते-जाते कमेंट करना, महिलाओं की वेशभूषा पर टिप्पणी करना, अश्लील और भद्दे मजाक करना वहां आम है. चूंकि मैं उम्र और पद में बड़ी थी तो इन लड़कियों ने मुझे इस बारे में बताया. मैं इस तरह के मुद्दे मैनेजमेंट तक पहुंचाती, उस पर उनसे सवाल-जवाब करती. पर कभी भी इस बारे में उनका रवैया ठीक नहीं रहा. मुझे याद है एक एचआर डायरेक्टर सरेआम मुझ पर चिल्लाने लगा. उसने मुझसे कहा, ‘क्योंकि आपकी निजी जिंदगी के अनुभव ठीक नहीं रहे इसलिए आपको हर आदमी गलत ही लगता है. आप मानसिक रूप से असंतुलित हैं, आपको मनोचिकित्सक की सलाह की जरूरत है.’

उनका ये जवाब तब था जब मैंने उनसे एक महिला कर्मचारी द्वारा एक पुरुष सहकर्मी पर लगाए गए उत्पीड़न के आरोपों के बारे में बात करनी चाही. मेरा मानना है कि ग्रीनपीस जैसे नामी एनजीओ में इस तरह की घटनाएं होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और उससे भी ज्यादा शर्मनाक है उनके प्रबंधन का रवैया. सीनियर मैनेजमेंट में दिव्या रघुनंदन, समित एच, विनुता गोपाल और प्रिया पिल्लई सब ये जानते थे, अगर उस समय कोई कड़ा कदम उठा लिया गया होता तो बलात्कार की ये घटना नहीं होती. उनके कड़े कदम से बाकी कर्मचारियों को भी चेतावनी मिल जाती. उन्होंने लगातार इसे छिपाया. जब इन लोगों ने कोई कार्रवाई नहीं की तब मैंने ये बात ग्रीनपीस बोर्ड में बताई पर उनके प्रबंधन से पूछने पर वे साफ मुकर गए कि ऐसा कोई केस यहां हुआ है. प्रिया पिल्लई ने मुझसे कहा था कि उनके पास इससे बड़े मुद्दे हैं और इसमें मुझे नहीं पड़ना है. इसके बाद से वे लोग मुझे निकालने के बारे में सोचने लगे. बार-बार अपमानित किया गया. इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. एक दिन कहा गया कि आपकी मानसिक हालत ठीक नहीं है, या तो आप ‘कंपलसरी लीव’ पर जाइए या आपको अभी नौकरी से निकालकर बाहर कर दिया जाएगा. मैंने पूछा, ‘क्या इसके अलावा कोई विकल्प है?’ ‘इस्तीफा दे दीजिये’, जवाब मिला. मैंने ईमेल पर अपना इस्तीफा भेज दिया. आप यकीन नहीं करेंगे कि ईमेल भेजने के पांच मिनट के अंदर ही मेरा लैपटॉप छीन लिया गया, ऑफिशियल ईमेल आईडी बंद कर दी गई और एक घंटे में सामान लेकर निकल जाने को कहा गया. ऐसा व्यवहार किया गया जैसे मानो मैं अपराधी हूं… और अब अपराधियों को वे ‘गुड लीडरशिप’ सर्टिफिकेट से नवाज रहे हैं!

कीर्ति

चित्र कथा : बे-वतन बच्चे

कब तक पैदा होते रहेंगे बच्चे

बगैर किसी देश के, बगैर बचपन के

वह सपने देखेगा अगर कोई सपना देख सके

और धरती विदीर्ण है

 महमूद दरवेश, फिलस्तीनी शायर

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दिल्ली के मदनपुर खादर इलाके के शरणार्थी शिविर में एक अस्थायी घर से झांकती रोहिंग्या बच्ची. इस शिविर में म्यांमार से भागे 35 रोहिंग्या मुस्लिम परिवार रह रहे हैं. रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ लगातार बौद्ध हमलों से बचकर भागे हुए इन परिवारों ने भारत में शरण ली है.

प्रवास पर लिखी गई फिलस्तीनी शायर महमूद दरवेश की यह नज्म अक्सर उन लोगों के लिए आईना बन कर उभरती है, जो अपने मादरे वतन से बिछड़े हुए हैं और अपने वतन लौटने की तमन्ना दिल में लिए अपने लोगों से मिलना चाहते हैं, अपनी जमीं में दफन होना चाहते हैं. उनके बच्चों के पास पासपोर्ट नहीं है. उन्होंने अपने माता-पिता से सिर्फ घर की कहानियां ही सुनी हैं. शायद उन्हें ये इल्म तक नहीं कि वो अपने घर वापस कभी नहीं लौट सकेंगे. घर लौटना उनके लिए महज एक ख्वाब बन कर रह गया है.

म्यांमार के रखाइन प्रांत में बौद्ध कट्टरपंथियों के जुल्मो-सितम के बाद बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुस्लिम देश से दूर भारत में पनाह लिए हुए हैं. उधर, पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथियों के जुल्म के बाद हिंदुओं ने भी भारत में पनाह लेना ही मुनासिब समझा. पाकिस्तान और म्यांमार सहित, फिलस्तीन, अफगानिस्तान, इराक और सीरियाई लोगों ने भी ऐसी स्थितियों का सामना किया है. उन्हें भी कट्टरपंथियों के अत्याचारों के बाद अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. उन तमाम सताए हुए लोगों में सिर्फ एक बात समान है और वह यह कि ये सब शरणार्थी हैं.

तमाम पीड़ितों में उन बच्चों की हालात सबसे ज्यादा खराब हैं जो पैदाइश के साथ ही अपने वतन से बेदखल कर दिए गए और वैसे मासूम जिनकी पैदाइश ही दूसरे मुल्क की सरजमीं पर हुई. देश में अगर नागरिकता ही पहचान का पैमाना तो बिना नागरिकता के अब ये मासूम कहीं के नहीं रहे. ‘तहलका’ ने कुछ देशों से आए ऐसे ही कुछ शरणार्थियों और उनके बच्चों से मुलाकात की. इन शरणार्थियों के लिए इज्जत भरी जिंदगी एक सपना ही है, जब तक वो अपने वतन न लौट जाएं या उन्हें भारत की नागरिकता न मिल जाए.

 

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हुसैन | 14 वर्ष |म्यांमार

यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज (यूएनएचसीआर) का एक शरणार्थी हुसैन, म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की का बड़ा फैन है. दूसरे रोहिंग्या मुस्लिमों की तरह हुसैन को भी ऐसा लगता है कि उनकी ये लोकतांत्रिक नेता उनके लिए खड़ी होंगी और उन पर हो रहे अत्याचारों को खत्म कर देंगी. दिलचस्प बात यह है कि हुसैन को सियासत का अच्छा खासा इल्म है. हुसैन के मुताबिक ‘आंग सान सू की हमारे लिए आवाज उठाना तो चाहती हैं पर कुछ राजनीतिक परेशानियों की वजह से उन्होंने चुप्पी साध रखी है. म्यांमार में चुनाव होने वाले हैं और चुनाव में वो मुस्लिमों को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं. मुझे पूरा यकीन है कि जब वह प्रधानमंत्री चुन ली जाएंगी तब वो हमें वापस बुलाने की व्यवस्था जरूर करेंगी. मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं.’

2012 में रोहिंग्या के खिलाफ हुई हिंसा के बाद हुसैन अपने माता-पिता के साथ भारत आ गया था पर अब भी उसे घर लौटने की उम्मीद है. हुसैन ने यूएनएचसीआर की मदद से पास ही के एक स्कूल में दाखिला ले लिया है और वह शिविर के दूसरे बच्चों को अपने इतिहास के बारे में बताता है ताकि वह इतिहास गुमनाम बन कर न रह जाए.

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इमकार, बिल्लू, दर्शन, आकाश और दशरथ | पाकिस्तान

बकरियों के इस बाड़े में खेलते ये बच्चे पाकिस्तान से हैं. पास में ही फरीदाबाद की फ्रंटियर कॉलोनी के शिविर में रहते हैं. इस शिविर में सूरज छिपने से पहले का धुंधलका मानो इनकी जिंदगी में फैली अनिश्चितता के अंधेरे को दिखा रहा है. दिनभर खेल-कूद में डूबे ये बच्चे पढ़ाई के नाम से भी बेखबर हैं.

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जसप्रीत | 7 वर्ष | पाकिस्तान

जसप्रीत की जिंदगी भी उस मक्के की हरी पत्तियों जैसी ही उलझी है, जिसे वो भुट्टे से खींच रही है. सात साल की जसप्रीत का भाग्य भी कुछ यूं ही भारत और पाकिस्तान के बीच लटका है जैसे पास के ही झूले में उसकी छोटी बहन. वह हर रोज अपनी मां से जिद करती है कि उसे भी अपने घर कराची जाना है, जहां वह अपने दोस्तों और भाई-बहनों के साथ खेल सके.

फरीदाबाद के फ्रंटियर कॉलोनी के शिविरों में पनाह लिए दूसरे बच्चों की मानिंद जसप्रीत के भाग्य का फैसला भी भारत और पाकिस्तान की सरकारों पर निर्भर है, साथ ही उन तालिबानयों पर भी, जिन्होंने हजारों हिंदुओं और सिखों को उनके वतन से बेदखल कर दिया. 2008 में उसका परिवार टूरिस्ट वीजा ले कर भारत आया था और वापस न लौटने की सोची थी. पर अब पराए मुल्क में उनके ऊपर वापस जाने का दबाव बनाया जा रहा है.

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अब्दुल अज़ीज़ जान | 8 वर्ष | अफगानिस्तान

अब्दुल अज़ीज़ अफगानिस्तान के एक उदारवादी परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जिसे अफगानिस्तान में बढ़ते हुए कट्टरपंथ ने परेशान कर रखा था. कट्टरपंथियों के अत्याचार से बचकर भागने की कोशिश में अब्दुल अज़ीज़ भूल ही गए हैं कि वो कहां से हैं. उन्होंने इस संवाददाता का अभिवादन तो किया पर फिर सकपका गए क्योंकि वो हमारी भाषा ही नहीं समझते. फिलहाल अब्दुल अज़ीज़ का परिवार पराए मुल्क में अमनो-चैन की तलाश कर रहा है.

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‘उसने कहा, मैं इतनी खूबसूरत हूं कि उसे खुद को याद दिलाना पड़ता है कि वो शादीशुदा है’

ये साल 2011 की बात है. दिल्ली में एक सहयोगी के जन्मदिन पर ग्रीनपीस के गेस्टहाउस में पार्टी थी. स्टाफ के लोगों को बुलाया गया था. मैं भी वहां पहुंची. उदय कुमार वहां पहले से मौजूद था. वह शराब के नशे में था. पूरा स्टाफ साथ में ही बैठा था, दिव्या रघुनंदन और समित एच भी थे. अचानक उदय कुमार उठा और उसने ने मुझ पर भद्दी टिप्पणी करनी शुरू कर दी. वो सब के सामने ये कह रहा था कि मैं कितनी खूबसूरत हूं कि जब उसने मुझे पहली बार देखा तब वो खुद पर काबू ही नहीं कर पाया, उसे खुद को बार-बार ये याद दिलाना पड़ा कि वो शादीशुदा है!

मेरे लिए ये सब सहना बहुत असहज था. इतना सब हुआ पर लोग उसकी ऐसी बात पर हंस रहे थे. मेरे पक्ष में किसी ने भी उठकर एक शब्द भी नहीं कहा. तब मैंने अपने एक सहकर्मी से मुझे घर छोड़ देने के लिए कहा. इस पर उदय कुमार मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला कि ऐसे भाग क्यों रही है, चलो बाहर घूमने चलते हैं! इसके बाद मैं वहां नहीं रुकी. अगले दिन मैंने दिव्या से इस बारे में बात की तब उसने सलाह दी कि मुझे उदय कुमार को चेतावनी देनी चाहिए. मैंने ऐसा ही किया पर उदय कुमार ने ऐसे व्यवहार के लिए कभी माफी नहीं मांगी. इस घटना के बाद मैंने ग्रीनपीस की किसी भी पार्टी में जाना बंद कर दिया क्योंकि मुझे डर था कि अगर कभी फिर ऐसा या इससे अधिक कुछ भी हुआ तब भी कोई मेरा साथ नहीं देगा, पर ये ऐसी किसी समस्या का हल नहीं है.

इस घटना के अलावा भी मैंने कई बार ऑफिस में भद्दे, अश्लील मजाक सुने हैं, जिन्हें साफ तौर पर स्त्री विरोधी कह सकते हैं. ग्रीनपीस में ‘मिसोजिनी’ (स्त्री जाति से द्वेष) का कल्चर है. वो घटिया लोग हैं. मैं दुनिया भर में ग्रीनपीस के कई दफ्तरों में गई हूं, वहां काम किया है पर ऐसा घटिया माहौल कहीं भी नहीं है. उनके घटियापन का पता आपको इस बात से चल सकता है कि जब मेरी एक सहयोगी मेघना ने एक पुरुष सहकर्मी पर बलात्कार का आरोप लगाया तो कुछ लोगों का कहना था कि उस लड़की का तो बलात्कार होना ही चाहिए था (शी डिजर्व्ड टू बी रेप्ड)!

सीमा