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नीतीश-लालू को झटका, पर भाजपा की बल्ले-बल्ले नहीं

niteesh_laluतमाम उठापटक के बीच बिहार में सबसे बड़ी खबर विधान परिषद का चुनाव परिणाम है. 24 सीटों पर चुनाव हुआ था. 11 सीटें सीधे भाजपा की झोली में गईं. दो सीटें भाजपा के सहयोगी दल लोजपा को और कटिहार की एक सीट भाजपा व एनडीए के सहयोग से निर्दलीय प्रत्याशी अशोक अग्रवाल को मिली. लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, कांग्रेस, एनसीपी को मिलाकर जो महागठबंधन बिहार की चुनावी राजनीति के लिए बना है, उसे नौ सीटों पर ही सिमट जाना पड़ा.

जदयू को पांच, राजद को तीन और कांग्रेस को एक सीट पर संतोष करना पड़ा है. पटना सीट, जहां सभी दलों ने जोर लगाया था, प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया था, वह निर्दलीय प्रत्याशी रीतलाल यादव के खाते में चली गई है. ये वही रीतलाल यादव हैं, जिन्हें बाहुबली माना जाता रहा है. विगत लोकसभा चुनाव के दौरान वे खूब चर्चा में आए थे जब लालू प्रसाद यादव ने रामकृपाल को रुखसत करने के बाद अचानक रातोरात रीतलाल को पार्टी का महासचिव बना दिया, फिर रीतलाल और उनके पिता से मिलने भी चले गए.

पिछले लोकसभा चुनावों में बाहुबली रीतलाल की शरण में भी जाना लालू प्रसाद की बेटी मिसा यादव की जीत सुनिश्चित नहीं करवा सका था. बाद में दोनों में कुट्टी हो गई. बहरहाल यह तो दूसरी बात है. अभी बात यह हो रही है कि विधान परिषद के चुनाव में जो समीकरण उभरकर आए हैं, क्या वे आगामी विधानसभा चुनाव के भी कुछ संकेत दे रहे हैं. परिणाम सीधे तौर पर विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल हो या फाइनल हो, विधानसभा चुनाव का सीधा कनेक्शन इससे जुड़ा हुआ है, ऐसा कुछ कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन यह तय है कि पिछले दो माह से राष्ट्रीय स्तर से लेकर बिहार तक में बैकफुट पर चल रही भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम सही समय पर संबल बढ़ाने वाले और उम्मीदें जगाने वाले संदेश और संकेत लेकर आया है.

मजेदार यह है कि इस चुनाव परिणाम के बाद नीतीश कुमार ने कहा कि यह सीधे जनता का चुनाव नहीं था, जनप्रतिनिधियों के मत से हुआ चुनाव था, इसलिए इसको उस तरह से न देखा जाए, फिर भी हम हार की समीक्षा कर अपनी तैयारी दुरुस्त करेंगे. नीतीश कुमार बात ठीक कह रहे हैं लेकिन एक सच यह भी है कि इस बार के विधान परिषद चुनाव में उन्होंने खुद और उनकी पार्टी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था. नीतीश कुमार खुद उम्मीदवारों का नामांकन तक कराने गए थे. राज्य सरकार के लगभग तमाम मंत्री और जदयू के छुटभैये से लेकर बड़े नेताओं तक ने इस चुनाव में पूरी ऊर्जा लगाकर काम किया. नीतीश कुमार के लिए हार सिर्फ इस मायने में झटका नहीं देने वाली है कि इतनी ऊर्जा लगाने के बाद भी वे भाजपा से हार गए बल्कि दूसरी ठोस वजह भी दिख रही है जो आगे के लिए चिंता का सबब है.

वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार को इसे मान लेना चाहिए कि अगले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की स्थिति का संकेत मिल गया है. जिन 24 सीटों पर विधान परिषद का चुनाव हुआ, उनमें 80 प्रतिशत के करीब सीटों पर जो जनप्रतिनिधि वोटर थे, वे उसी सामाजिक न्याय समूह से थे, जिसकी अगुवाई करने को नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव बेताब हैं और जिस पर एकाधिकार का दावा भी करते हैं.’ शिवानंद तिवारी जो सवाल उठा रहे हैं, वह सच है और नीतीश की अगली राजनीति के लिए महत्वपूर्ण भी. हालांकि लालू प्रसाद यादव, जिनकी पार्टी इस विधान परिषद चुनाव में बुरी तरह परास्त हुई, वह कहते हैं, ‘बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़ा रुपइया की तर्ज पर चला… यह चुनाव. सब पैसे पर मैनेज कर लिया भाजपा वाला लोग लेकिन विधानसभा चुनाव में धूल चटा देंगे.’ लालू प्रसाद यादव ऐसा कहकर विधानसभा चुनाव में अपनी स्थिति को खुद ही कमजोर बता रहे हैं. अगर उनकी बातों को सच मान भी लिया जाए तो फिर राजद-जदयू गठबंधन के लिए यह और भी मुश्किल भरा सवाल है, क्योंकि अगर विधान परिषद चुनाव में भाजपा पैसे के बल पर लालू-नीतीश के कोर वोटर बैंक के चुने हुए प्रतिनिधियों को मैनेज कर सकती है तो फिर विधानसभा चुनाव में भी उसके लिए ऐसा करना

आसान होगा.

विधानसभा चुनाव में धनबल और जाति से ही इस बार का भविष्य तय होना है, यह लगभग तय होता दिख रहा है. इतना ही नहीं, बिहार में यह भी सच है कि गांव, पंचायत अथवा प्रखंड स्तर पर जो जनप्रतिनिधि हैं, उन्हें आम जनता न भी माने तो भी यह माना जाता है कि वे सीधे-सीधे जनता के संपर्क में रहते हैं और आम जनता को प्रभावित करने की क्षमता किसी पार्टी के बूथ मैनेजरों या कार्यकर्ताओं से ज्यादा रखते हैं. नली-गली से लेकर इंदिरा आवास, मनरेगा जॉब कार्ड, लाल कार्ड-पीला कार्ड, शादी-ब्याह आदि कई ऐसे काम होते हैं, जिसके लिए जनता उनसे सीधे संपर्क में रहती है और वे उसके जरिये अपनी पकड़ मजबूत बनाकर उन्हें अपने पक्ष में भी रखते हैं. ऐसे में अगर जनप्रतिनिधियों का मूड पैसे पर तय होता है तो भाजपा उन्हें अपने पेड कार्यकर्ता के तरीके से इस्तेमाल कर सकती है. तब इसमें हैरत की बात नहीं होनी चाहिए हालांकि इससे विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू प्रसाद की जोड़ी को परेशानी हो सकती है. इस तरह देखें तो विधान परिषद चुनाव का विधानसभा चुनाव से सीधा रिश्ता नहीं होते हुए भी और इसे सेमीफाइनल नहीं कहते हुए भी, इसमें कई ऐसे संकेत छिपे हुए हैं, जिससे आगे की राजनीति के संकेत मिल रहे हैं. नीतीश-लालू प्रसाद की जोड़ी को परेशान करने के लिए ये संकेत काफी भी है. लेकिन यहां सवाल दूसरा है कि क्या यह परिणाम हताश-निराश-परेशान और आपस में ही जोर-आजमाइश कर रही भाजपा और उसके गठबंधन दलों के लिए इतनी बड़ी खुशी का पैगाम लेकर आया है कि वह इसी के सहारे विधानसभा चुनाव में भी करिश्मा कर लें, ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता.

अव्वल तो यह है कि बिहार के चुनाव परिणामों में पिछले 20 सालों से एक दिलचस्प उदाहरण भी रहा है. कोई चुनाव परिणाम रिपीट नहीं हुआ. अगर 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद की पार्टी को भारी जीत मिली तो अगले ही साल 2005 में विधानसभा चुनाव में वे बिहार की सत्ता से बेदखल हो गए. 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा उपचुनाव हुआ तो लालू प्रसाद की पार्टी को कई जगहों पर जीत मिली, उसे भी सेमीफाइनल कहा गया था लेकिन अगले ही साल 2010 में जब विधानसभा चुनाव हुआ तो लालू प्रसाद की पार्टी और बुरी तरह से परास्त हो गई.

इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सारे रिकार्ड तोड़कर बिहार में जीत हासिल की और यह माना गया कि यह आंधी अभी विधानसभा चुनाव तक कायम रहेगी लेकिन एकाध माह में ही विधानसभा उपचुनाव में लालू-नीतीश की जोड़ी ने कमाल कर दिखाया, भाजपा पिछड़ गई. इस तरह हर छोटे चुनाव को सेमीफाइनल कहा जाता रहा है लेकिन वह सेमीफाइनल कभी फाइनल के बारे में निर्णय देने वाला नहीं हो सका है.

biharभाजपा के सामने यही और इतनी ही मुश्किल नहीं है. उसके पास रोज-ब-रोज चुनौतियां भी तो बढ़ती जा रही हैं. पप्पू यादव और जीतन राम मांझी ने साथ संवाददाता सम्मेलन कर और मांझी को एनडीए की ओर से सीएम पद का उम्मीदवार बनाए जाने की मांग कर अलग से सियासी हलचल पैदा कर दी है. हालांकि इस बारे में यह भी कहा जा रहा है कि यह भाजपा की ही सधी हुई चाल है कि मांझी और पप्पू यादव साथ मिलकर चुनाव लड़ें और उसमें किसी तरह ओवैसी का मिलान हो ताकि बिहार में त्रिकोणीय चुनाव हो और फिर उसके लिए राह कुछ आसान हो. भाजपा के लिए दूसरी मुश्किलें भी हैं. काफी दिनों से अदृश्य और पटना के ‘फरार सांसद’ कहे जाने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न सिन्हा भी अचानक प्रकट हो गए हैं. वे भाजपा के बडे़ से बड़े आयोजनों में नहीं दिखे थे लेकिन अब अचानक दिखे हैं तो बोलना शुरू कर दिया है. बोलना शुरू किया तो मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के तमाम प्रत्याशियों को खारिज कर लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान का नाम आगे कर दिया. मुश्किल इतनी ही नहीं, भाजपा में खेमेबाजी इतनी तेज हो गई है कि सुशील मोदी की सभा में कभी बिहार का मुख्यमंत्री कैसा हो, सीपी ठाकुर जैसा हो… जैसे नारे भी आराम से लगाए जा रहे हैं. भाजपा की अपनी परेशानियां अपनी जगह बनी हुई हंै. विधान परिषद चुनाव परिणाम लालू-नीतीश के लिए झटका है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह भाजपा के लिए किसी बड़ी खुशफहमी को पालने का मौका दे दे.

इतनी ही नहीं, भाजपा में खेमेबाजी इतनी तेज हो गई है कि सुशील मोदी की सभा में कभी बिहार का मुख्यमंत्री कैसा हो, सीपी ठाकुर जैसा हो… जैसे नारे भी आराम से लगाए जा रहे हैं. भाजपा की अपनी परेशानियां अपनी जगह बनी हुई हंै. विधान परिषद चुनाव परिणाम लालू-नीतीश के लिए झटका है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह भाजपा के लिए किसी बड़ी खुशफहमी को पालने का मौका दे दे.

‘मुख्यमंत्री खुद व्यापमं घोटाले में शामिल हैं और मेरी मौत चाहते हैं’

व्यापमं से जुड़ा खौफ पिछले दिनों तब और बढ़ गया जब टीवी पत्रकार अक्षय सिंह की मृत्यु के बाद आशीष ने दावा किया कि अक्षय का इस घोटाले से जुड़े सात-आठ प्रमुख लोगों के नाम जान लेना ही उनकी मौत का कारण बना. इस पूरे कांड में मुख्यमंत्री की संदिग्ध भूमिका और एक व्हिसल-ब्लोअर होने के जोखिमों के बारे में आशीष चतुर्वेदी ने अमित भारद्वाज से बात की

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व्यापमं कांड के विरोध में उतरने की क्या वजह रही?

मेरी कैंसर पीडि़त मां के प्रति डॉक्टरों के व्यवहार और स्वास्थ्य विभाग में फैले भ्रष्टाचार ने मुझे गुस्से से भर दिया था. दिसंबर 2011 में मेरी मां का देहांत हुआ और उसके दो साल बाद ही मेरे भाई की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई और तब मैंने प्री-मेडिकल टेस्ट (पीएमटी) प्रवेशों में तेजी से बढ़ रहे भ्रष्टाचार को देखकर इसकी कलई खोलने की ठान ली. मेरा पूरा विश्वास है कि इन अनैतिक गतिविधियों के चलते ही स्वास्थ्य विभाग में इतनी अव्यवस्थाएं हैं.

कब और कहां से इन खुलासों की शुरुआत हुई?

इसके लिए मैंने 2009 बैच के पीएमटी छात्र बृजेंद्र रघुवंशी के साथ पूरा एक साल बिताया. बृजेंद्र अवैध तरीके से मेडिकल प्रवेश करवाने वाले एक रैकेट से जुड़ा हुआ था. जुलाई 2011 में मैंने पीएमटी काउंसलिंग के नाम पर हो रहे गैर-कानूनी प्रवेशों पर एक स्टिंग ऑपरेशन किया और घोटाले से जुड़े बड़े नामों जैसे डॉ. दीपक गुप्ता का नाम सामने लेकर आया. साथ ही इसमें मिलकर काम कर रहे निजी और सरकारी मेडिकल कॉलेजों के संगठित नेटवर्क का भी खुलासा किया. इस स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर पीएमटी में हो रही इस धांधली से जुड़े 15 संदिग्धों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की गई थी.

क्या इन सब खुलासों से आपकी सुरक्षा पर कोई असर पड़ा है?

जी बिलकुल, इन खुलासों के दौरान मुझ पर तकरीबन 10 बार हमला हुआ जिसमें कई बार मैं घायल भी हुआ. कई बार, कई जगहों पर, यहां तक कि मेरे घर पर भी मुझे अनजान हमलावरों ने मार देने या टुकड़े करके फेंक देने की धमकी दी. दो सालों में मेरे 70 निजी सुरक्षा अधिकारी बदले जा चुके हैं, कुछ ने मुझे मेरे कामों के भयानक परिणामों के प्रति चेताया भी है पर मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है.

इन हमलों का जिम्मेदार कौन है?

शुरुआती हमले तो उन छात्रों ने करवाए थे, जो फर्जी प्रवेशों के मामले में मेरे किए खुलासों के बाद जांच के घेरे में आ गए थे. उनके वकीलों ने भी मुझ पर हमले करवाने की कोशिश की. जब मैं व्यापमं में फैली इस धांधली को जड़ से उखाड़ने के इरादे से और आगे बढ़ा तो सरकार भी इन हमलावरों की सूची में शामिल हो गई. मुझे सरकार से सुरक्षा तो मिली हुई है पर रूलिंग पार्टी मुझे रास्ते से हटाना चाहती है.

क्या आपका इशारा मुख्यमंत्री की ओर है?

जी हां, मुख्यमंत्री खुद व्यापमं घोटाले में शामिल हैं और मेरी मौत चाहते हैं. वो अपने सहयोगियों और रिश्तेदारों को बचाना चाहते हैं.

ये कैसे कह सकते हैं कि वो दोषियों को बचा रहे हैं?

मैंने ग्वालियर बेंच के एक पूर्व सहायक महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) एमपीएस रघुवंशी के इस मामले में संलिप्त होने के खिलाफ कई बार मुख्यमंत्री के पास शिकायत दर्ज करवाई पर आज तक कोई एक्शन नहीं लिया गया, वो अब भी अपने पद पर बने हुए हैं. मेरे पास दस्तावेज हैं जो साबित करते हैं कि 2009 में हुए पीएमटी घोटाले की जांच में उन्होंने एक अभ्यर्थी को बचाया था और राजकीय फोरेंसिक साइंस लैब, सागर की एक रिपोर्ट में हेराफेरी करने के बदले दस लाख रुपये रिश्वत ली थी. शुरू में उन्होंने मुझे भी मुंह बंद रखने के लिए कीमत देने का प्रयास किया था. पर जब मैं नहीं माना तब वे बोले, ‘बहुत से लोग सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं. अगर मेरा नाम व्यापमं मामले में आया तो तुम सावधान रहना.’

आप  ‘शाखा’  के सदस्य है. पसंदीदा राजनेता कौन हैं?

मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद करता हूं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी पसंद हैं. हालांकि प्रधानमंत्री जी की कथनी और करनी में आ रहे फर्क को देखते हुए मेरा उनपर से विश्वास कम हुआ है. व्यापमं और शिवराज सिंह चौहान पर उनका मौन रहना दुखद है. मैंने 2 नवंबर 2014 को शिवराज सिंह चौहान सहित व्यापमं घोटाले से जुड़े 200-300 लोगों के नामों की सूची उन्हें भेजी थी पर वो सरकार को वापस भेज दी गई. अब वो ग्वालियर के एएसपी के पास है. आप खुद ही बताइए कैसे कोई एएसपी या इंस्पेक्टर जनरल (आईजी) भी राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ जा सकता है?

रोजे बिना इफ्तार कैसा!

2_071215102610रमजान में कुछ खास तस्वीरों से अखबार मनोरंजक हो उठते हैं और समाचार चैनल सिनेमाई भव्यता पा जाते हैं. इस बार भी वही नजारा है. इफ्तार पार्टियों में सेकुलर कहे जाने वाले लीडरान चारखानेदार काफिए, गमछे गले में डाले, गोल जालीदार टोपियां लगाए रोजेदारों के साथ हाथ उठाए दुआ कर रहे हैं, निवाला तोड़ रहे हैं, खैरियत पूछ रहे हैं, खिलखिला रहे हैं. चारा सामने है, भाई मिल रहे हैं. वे साथ फोटो खिंचाने के लिए अचूक ढंग से हर बार कोई धार्मिक रंगत वाला चेहरा वैसे ही छांट लेते हैं जैसे आसमान में उड़ती चील अपने लिए कोई चूजा चुनती है.

इस रोचकता का एक कारण तो वह परिवर्तन है जो दीन के लगभग दीवाने मुसलमान का मेकअप और अभिनय करने के कारण इन नेताओं के चेहरों पर नुमायां हो जाता है. बरबस ख्याल चला आता है, अगर ये वाकई मुसलमान होते तो क्या ऐसे ही दिखते? वे लोग झूठे साबित होते लगते हैं जो दावा करते हैं कि वे किसी मुसलमान को शक्ल से पहचान लेते हैं. अगर हुलिए में ऐसा साफ नजर आने वाला कोई अंतर होता तो पहचान के उन पक्के तरीकों की जरूरत क्यों पड़ती जो दंगों के समय किसी की जान लेने से पहले आजमाए जाते हैं. तभी दिमाग बिल्कुल दूसरे छोर पर जाता है. देश में बहुत से मुस्लिम नेता भी हैं. वे कभी नवरात्र में कलश स्थापना के समय किसी मंदिर या घर में धोती पहने पूजा करते नहीं दिखाई देते. कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह बहुमत की सीनाजोरी है! हम आपके धार्मिक अवसरों का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करेंगे लेकिन ऐसा ही आप करना चाहेंगे तो नहीं कर पाएंगे.

दस्तरख्वान के दृश्यों को दूर तक भेजने और चुनाव में भुनाने की नीयत से आयोजित की जाने वाली इस नौटंकी की उपयोगिता के बारे में सेकुलर नेताओं को पुख्ता यकीन है लेकिन वहीं कुछ और सुराग भी मिलते हैं जिससे मुसलमानों के वोट बैंक में बदलने की कीमियागिरी पर रोशनी पड़ती है. मिसाल के तौर पर यही कि कोई सेकुलर नेता अपने घर से गोल नमाजी टोपी और चारखाने का गमछा लेकर इन पार्टियों में नहीं जाता. तस्वीरों में उन्हें आराम से पहचाना जा सकता है जो उन्हें लपक कर टोपी पहनाते हैं और फोटो खिंचने तक के लिए अपनों में से एक बना लेते हैं. यह प्रजाति भाईचारे से अधिक सत्ता के करीब रहा करती है, बल्कि कहना चाहिए कि कौम और सत्ता के बीच बिचौलिए की भूमिका निभाती है. मुसलमानों के बीच उनके अपने नेताओं के उभरने के आसार दूर तक नहीं दिखाई देते अलबत्ता यही प्रजाति खूब फल-फूल रही है. इन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए हिंदी पट्टी में अब सेकुलरों की चुनावी सभाओं में अरबी की छौंक लगे भाषण देने वाले जोशीले वक्ता भी किराए पर मिलने लगे हैं जो एक ही सीजन में कई पार्टियों के नेताओं के कसीदे गाते मिलते हैं.

धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र से नाभि-नाल जुड़ा हुआ एक बड़ा और आधुनिक विचार है जिसे भारतीय नेताओं ने अवसरवाद की ट्रिक या जुगाड़ में बदल दिया है. इस विरोधाभास पर गौर किया जाना चाहिए कि जो राजनीति में धर्म के दखल के खिलाफ हैं वे मुस्लिम धार्मिक प्रतीकों से खुद को नत्थी करने के लिए करोड़ों फूंक रहे हैं. भ्रष्टाचार के पैसे से वंशानुगत आधार पर पार्टियां चलाने, चुनाव लड़ने वाले अपराधी मिजाज के नेता सत्ता में भागीदारी, सरकार गिराने, गठबंधन बनाने-तोड़ने समेत सारे काम देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करने के नाम पर करते हैं. धर्मनिरपेक्ष होना बहुत आसान है उसके लिए बस कुछ प्रतीकों की जरूरत पड़ती है जिनमें से टोपी लगाकर इफ्तार पार्टियों में जीमना भी एक है. कोई ताज्जुब नहीं है कि इन दिनों छद्म धर्मनिरपेक्षता एक ज्यादा वजनी शब्द हो गया है. मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने, उनकी हिफाजत करने का दावा करने वालों की विश्वसनीयता बुरी तरह गिरी है क्योंकि वे तिकड़मों से देश में सतत सांप्रदायिक तनाव और अगर वह मंदा पड़ने लगे तो दंगों की जरूरत को बनाए रखना चाहते हैं ताकि उनकी पूछ बनी रहे. पिछले लोकसभा चुनाव में गोधरा का कलंक माथे पर होने के बावजूद मोदी को जो धमाकेदार जीत मिली उसका कारण सिर्फ कांग्रेस का कुशासन ही नहीं सेकुलरों की तिकड़मों का बेनकाब हो जाना भी है.

गनीमत है कि मुसलमानों की नई पीढ़ी इस नौटंकी को समझने लगी है. मुसलमान नौजवान पूछ रहे हैं कि जो रोजा नहीं रखते वे इफ्तार क्यों करते हैं?

गुंडागर्दी का समाजवाद!

river miningलखनऊ के सिविल अस्पताल के बर्न वार्ड में बुरी तरह झुलसे जगेंद्र सिंह बार-बार सिर्फ एक ही सवाल पूछते हैं, ‘उन्होंने मुझे जलाया क्यों? अगर मंत्री और उनके गुंडों को मुझसे कोई दुश्मनी ही थी तो मुझ पर केरोसीन डालने कि बजाय मुझे पीट लेते!’ जगेंद्र 60 प्रतिशत तक जल चुके थे और ये अच्छी तरह समझ चुके थे कि उनका बचना मुश्किल है. उस भीषण पीड़ा को लगभग आठ दिन तक सहने के बाद जगेंद्र ने 8 जून को दम तोड़ दिया.

इसके साथ ही वे देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य की बेईमान प्रशासनिक व्यवस्था का एक और शिकार बन गए, वो राज्य जहां कई बार एक माफिया डॉन और राजनेता में फर्क कर पाना मुश्किल होता है. वह राज्य जहां प्रशासन की गल चुकी व्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाने की सजा मौत है, जैसा जगेंद्र सिंह के साथ हुआ. जगेंद्र को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में उनके परिवार वालों के सामने जिंदा जला दिया गया था. इस दुष्कृत्य का आरोप राज्य के एक मंत्री राममूर्ति वर्मा और उनके आदमियों पर है. गौरतलब है कि मंत्री ‘जी’ फरार हैं और एक हफ्ते के अंदर आजम खान की भैंसों को ढूंढ लेने वाली ‘सजग’ उत्तर प्रदेश पुलिस वर्मा को पकड़ पाने में असमर्थ है.

आईटीआई में ट्रेनिंग लेने के बाद जगेंद्र ने कुछ समय निजी फर्मों में काम किया, कुछ दिनों बाद पत्रकारिता ने उनका ध्यान आकर्षित किया और वो कलम की ताकत को जानने लगे. थोड़े समय कुछ संस्थानों के साथ काम करने के बाद उन्होंने फ्रीलांस (स्वतंत्र रूप से) काम करने की ठानी क्योंकि किसी भी संस्थान के अधीन काम करने में कई खबरों पर अनुचित रूप से कैंची चलानी पड़ती है या अपने असल विचारों को दबाकर संस्थान के अनुरूप लिखना पड़ता है.

कुछ समय बाद जगेंद्र ने ‘शाहजहांपुर समाचार’ के नाम से एक फेसबुक पेज शुरू किया. जल्द ही ये पेज स्थानीय खबरों और खुलासों का महत्वपूर्ण स्रोत बन गया. उन्हें अपराध और राजनीति से जुड़ी रिपोर्टिंग में खासी दिलचस्पी थी और इसी के चलते वो भ्रष्टाचार के एक बड़े केस तक पहुंचे जिसके सिरे लखनऊ में बैठे मंत्री राममूर्ति वर्मा से जुड़ते थे. जगेंद्र ने इस बारे में अपने फेसबुक पेज पर वर्मा पर आरोप लगाया कि उन्होंने बहुत बड़े भूखंड का गैरकानूनी रूप से अधिग्रहण कर के उस पर खनन कर के ढेर सारा पैसा कमाया है. उन्होंने वर्मा पर बलात्कार का भी आरोप लगाया था. चूंकि जगेंद्र के पेज की अच्छी पहुंच थी, इसलिए ये बातें फैलने में देर नहीं लगीं.

जगेंद्र के परिजनों के अनुसार, 1 जून को इंस्पेक्टर श्री प्रकाश राय के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों का एक दल मंत्री वर्मा के बाहुबलियों के साथ उनके घर पहुंचा. गाली-गलौज और धमकियों के बाद उन्होंने जगेंद्र को आग लगा दी. इस बीच बेबस परिजन चिल्लाते रहे, पड़ोसियों से मदद की गुहार लगाते रहे.

जगेंद्र को उसके घर पर ही अधमरी हालत में छोड़कर पुलिस ने अपने रिकॉर्ड में ये दर्ज किया कि उसे गिरफ्तार करने के लिए किए गए छापे में उसने खुद को आग लगा ली. सोशल मीडिया पर मुद्दा उठने, जगेंद्र के मरने से पहले दिए गए बयान का वीडियो वायरल होने और जगेंद्र के बेटे के बयान कि मंत्री वर्मा के कहने पर ही उसके पिता को जलाया गया, के सामने आने के बाद ही शाहजहांपुर के पुवायां पुलिस थाने में मंत्री राममूर्ति वर्मा और पुलिस वालों को मिलाकर कुल पांच लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई.

हालांकि अगर समाजवादी पार्टी के राज में हुए पिछले वाकयों को देखें तो ये शुरुआत से ही साफ हो गया था कि वर्मा को बचाने की हरसंभव कोशिश की जाएगी. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव, राममूर्ति वर्मा के बचाव में आ चुके हैं. वर्मा पर लगे आरोपों पर क्या कदम उठाया जाएगा, ये सवाल पूछने पर शिवपाल कहते हैं, ‘ऐसा कई बार पहले भी हो चुका है कि मंत्रियों पर आरोप लगे हैं पर कभी कुछ साबित नहीं हो पाया है.’ शिवपाल यादव राज्य सरकार में लोक निर्माण विभाग मंत्री हैं और इस बात से साफ इंकार करते हैं कि जब तक मामले की जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक वर्मा को मंत्री पद से नहीं हटाया जाएगा. उन्होंने ये भी कहा कि वर्मा की कुर्सी अभी सुरक्षित है. शिवपाल यादव अपनी ऊटपटांग बयानबाजी के लिए भी जाने जाते हैं. ये वही नेता हैं जिन्होंने कुख्यात ‘निठारी कांड’ को ‘छोटा और सामान्य’ बताया था. ये संवेदनहीनता पार्टी के डीएनए में घुली लगती है. एक और कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव भी वर्मा के पक्ष में हैं, ‘कुछ घटनाएं कुदरत और किस्मत के हाथ में ही होती हैं और आप किस्मत से तो नहीं लड़ सकते.’ राममूर्ति वर्मा के साथ पूरे प्रशासन के दृढ़ता से खड़े होने के कारण स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार इस मुद्दे पर बोलने से बचते रहे, ऐसे में जब तक राज्य सरकार कोई कदम नहीं उठाती, मृतक के परिजनों के पास सिर्फ अनिश्चितकालीन धरने पर बैठने का विकल्प बचा था. ये सिर्फ सोशल मीडिया था जो खुलकर जगेंद्र के परिजनों के साथ खड़ा था और इसी के चलते राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया मेंे ये मुद्दा उठाया गया.

I‘तहलका’ को मिली जानकारी के अनुसार, जब ये सब चल रहा था, राममूर्ति वर्मा की गिरफ्तारी की मांग की जा रही थी और पुलिस द्वारा उन्हें फरार घोषित कर दिया गया था, वो और उनके सहायक शाहजहांपुर के निकट ही समाजवादी पार्टी के एक और नेता के फार्महाउस पर जश्न मना रहे थे.

इस मुद्दे पर राज्य सरकार ने गहरी चुप्पी साधी हुई थी पर सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका के आधार पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों को इस मामले की सीबीआई जांच कराने के लिए नोटिस जारी किया है. इसके बाद ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मृतक के परिजनों से मिले और उन्हें अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल खत्म करने के लिए कहा. राज्य सरकार ने मुआवजे के बतौर जगेंद्र के परिवार को तीस लाख रुपये और दो परिजनों को नौकरी देने की भी बात कही है. आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसे माहौल में समाजवादी पार्टी के निचले स्तर तक के नेता और उनके साथी लगातार अपराधों से जुड़े हुए हैं क्योंकि वो जानते हैं कि उन्हें इनकी सजा नहीं मिलेगी. पार्टी के नेतृत्व पर नजर डालें तो तस्वीर और साफ होती है. पहला चेहरा विनोद सिंह उर्फ पंडित सिंह का है जो राज्य में माध्यमिक शिक्षा मंत्री हैं पर जब वो बोलना शुरू करते हैं तब किसी भी बच्चे को उनके पास से भी नहीं गुजरना चाहिए. पंडित सिंह गाली-गलौज भरी भद्दी भाषा का ऐसा मुजाहिरा करते हैं कि ‘शिक्षा मंत्री’ की ही शिक्षा पर संदेह होने लगता है. पंडित सिंह और विवादों का पुराना नाता है. उनके खिलाफ कई गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें लापरवाही से मौत, हमला करवाना और रैश ड्राइविंग प्रमुख हैं. अक्टूबर 2012 में उन्हें मंत्रालय से हटा दिया गया था क्योंकि उन्होंने गोंडा के चीफ मेडिकल ऑफिसर (सीएमओ) को अपहृत करके मारा-पीटा था. सीएमओ का अपराध यह था कि उसने कुछ नियुक्तियों के मामले में मंत्री ‘जी’ का फरमान मानने से मना कर दिया था.

इन सबसे अनजान गोंडा के ही एक युवक आकाश अग्रवाल ने अपने फेसबुक अकाउंट पर स्थानीय अखबार में आई एक खबर साझा की, जिसमें लिखा था कि कैसे पुलिस वालों ने मंत्री पंडित सिंह की गाड़ी के शीशे से काली फिल्म उतारी. उस अखबार के पास जाने से आसान उन्हें आकाश को धमकाना लगा. उन्होंने आकाश के पिता की दुकान बंद करवाने के लिए पुलिस को भेजा, आकाश को फोन कर के गाली-गलौज की और धमकाया. यहां तक कि पुलिस आकाश के पिता को मंत्री ‘जी’ के पास लेकर गई जहां उन्हें कथित रूप से धमकाया गया कि उन्हें फर्जी आरोप में जेल भेजा जा सकता है और वो ‘मर के ही वहां से वापस आ पाएंगे’.

अगर राज्य में फैली अराजकता की स्थिति अब भी साफ न हुई हो तो राज्य के खनन मंत्री गायत्री प्रजापति के मुद्दे पर नजर डालिए. हाल ही में हुई एक घटना में लखनऊ में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल की पूरी टीम (ओबी वैन के ड्राइवर और इंजीनियर सहित) के साथ बेरहमी से, उनके चैनल के दफ्तर के ही सामने मारपीट की गई. क्यों? क्योंकि चैनल ने प्रजापति के काले-कारनामों की खबर दिखाने की जुर्रत की. लखनऊ की मीडिया के लगातार दबाव के बाद लखनऊ के गौतमपल्ली थाने में मामला तो दर्ज किया गया पर अब तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है.

प्रजापति पहले ही कथित तौर पर अपने कार्यालय का दुरुपयोग करके सैकड़ों करोड़ की संपत्ति जमा करने के मामले में लोकायुक्त की जांच के घेरे में हैं. लोकायुक्त जस्टिस (रिटा.) एनके मेहरोत्रा ने पिछले साल दिसंबर में प्रजापति के खिलाफ जांच तब शुरू की, जब ओम शंकर द्विवेदी नाम के एक व्यक्ति ने प्रजापति और उनके रिश्तेदारों द्वारा गलत तरीकों से राज्य में हासिल की गई संपत्ति के बारे में 1,727 पृष्ठों की शिकायत याचिका दर्ज करवाई. उन पर अनिवार्य पर्यावरणीय मंजूरियों के बिना अपने सगे-संबंधियों को खनन लाइसेंस जारी करने का भी आरोप है. जैसे ही लोकायुक्त ने मंत्री के खिलाफ जांच और पूछताछ शुरू की, कथित रूप से उनके साथियों की खोली गई ये फर्जी कंपनियां बंद होने लगीं. शिकायत में उन पांच कंपनियों के भी नाम थे जिनमें प्रजापति की पत्नी और बेटा निदेशक थे.

दिलचस्प बात ये है कि आज लगभग 900 करोड़ की संपत्ति के मालिक प्रजापति 2002 में बीपीएल कार्ड होल्डर थे. 2012 में उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर का प्रमाण पत्र मिला है. इसी साल उन्होंने 1.13 करोड़ की पूंजी की घोषणा भी की थी. वर्तमान में वे लक्जरी गाड़ियों के एक बेड़े के मालिक हैं.

उत्तर प्रदेश के एक और मंत्री जो गलत कारणों से ही चर्चाओं में हैं, वो हैं कैलाश चौरसिया. कैलाश मिर्जापुर से विधायक और राज्य सरकार में बेसिक शिक्षा और बाल विकास मंत्री हैं. चौरसिया पर एक असिस्टेंट रोड ट्रांसपोर्ट ऑफिसर (एआरटीओ) चुन्नीलाल को पीटने का आरोप है. चुन्नीलाल ने चौरसिया की अनुचित मांग को न मानने पर ये सजा पाई.

चुन्नीलाल ने मीडिया को बताया, ‘एक दोपहर मंत्री जी ने मुझे अपने दफ्तर बुलाया और मेरे दफ्तर के एक क्लर्क को जॉइनिंग संबंधी कागज देने से मना किया. मैंने उन्हें बताया कि इस मामले में हाईकोर्ट का आदेश है और ऐसा करना बहुत जरूरी है वरना हम पर कोर्ट की अवमानना को लेकर कार्रवाई हो सकती है.’

उन्होंने आगे बताया कि इतना सुनते ही मंत्री उत्तेजित हो गए और उन्हेंे मारने- पीटने और गाली देने लगे. एआरटीओ ने कटरा पुलिस थाने में इसकी रिपोर्ट दर्ज करवानी चाही पर अब तक कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई है. पुलिस का कहना है कि उन्हें इस बारे में कोई शिकायत नहीं मिली है. चौरसिया को इस साल मार्च में, मिर्जापुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 1995 में हुए एक डाकिए को धमकाने और दुर्व्यवहार के मामले में दोषी पाया था. हालांकि मई में जिला अदालत ने उन्हें इस मामले से बरी कर दिया.

समाजवादी पार्टी की ‘प्रतिष्ठा’ को और बढ़ाने वाला नाम राज्यसभा सांसद चंद्रपाल सिंह यादव का है. पिछले दिनों उनकी एक सरकारी अधिकारी को धमकाने वाली ऑडियो क्लिपिंग सामने आई है. मामला तहसीलदार गुलाब सिंह के अवैध खनन में लिप्त एक ट्रैक्टर को जब्त करने से शुरू हुआ. चंद्रपाल ने उन्हें फोन कर के दबाव बनाया कि ट्रैक्टर छोड़ दिया जाए पर जब गुलाब सिंह ने ऐसा करने से मना कर दिया तब चंद्रपाल ने उन्हें खतरनाक नतीजों का डर दिखाकर धमकाना शुरू कर दिया. ऑडियो रिकॉर्डिंग में गुलाब सिंह कहते हैं, ‘सर, मुझे माफ कीजिए पर ये लोग सरकार की साख खराब कर रहे हैं, ये हमारे लिए शर्म की बात है कि दिन के उजाले में ये सब हो रहा है.’ जिस पर सांसद जवाब देते हैं, ‘तो क्या तुम सरकार की साख बढ़ा रहे हो?’ बात आगे बढ़ती है तो सांसद कहते हैं, ‘हां, बहुत अच्छे! तुम आला दर्जे के चोर हो. अगर अभी पैसा मिल जाता तो तुम तुरंत ट्रैक्टर छोड़ देते.’ जब इस पर भी तहसीलदार नहीं माने तब सांसद ने अपना तुरूप का पत्ता फेंका, ‘मुझे तुम्हें जिंदगी भर का सबक सिखाने में बस 24 घंटे लगेंगे. मैं कह रहा हूं, इसका नतीजा बहुत बुरा होगा.’

शायद इस अधिकारी को खुद को भाग्यशाली मानना चाहिए कि इस तकरार के बाद भी सिर्फ उनका तबादला हुआ. उन्हें झांसी से कानपुर देहात भेज दिया गया. ये देश का कड़वा सच है कि एक ईमानदार अफसर के कमजोर पड़ते ही एक भ्रष्ट नेता को इस तरह के कारनामे करने के लिए प्रोत्साहन मिल जाता है.

नरगिस का नया अवतार

हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेल से जुड़ी दूसरी खबर नरगिस फाखरी के बारे में है. अरे वही फिल्म ‘रॉकस्टार’ वाले जनार्दन जाखड़ की ‘हीर’. बॉलीवुड में चार-पांच फिल्में करने के बाद इस अमेरिकी बाला ने ऐसी पलटी मारी है कि तमाम लोग जल-भुन गए हैं. नरगिस की पहली हॉलीवुड फिल्म ‘स्पाई’ ने पिछले हफ्ते ही बॉक्स ऑफिस पर दस्तक दी है. फिल्म ने अच्छा कलेक्शन भी कर लिया है. इस फिल्म में वे जेसन स्टेथम, मेलिसा मैकार्थी और जूड लॉ जैसे हॉलीवुड के दिग्गज कलाकारों के साथ स्क्रीन शेयर कर रही हैं.

‘कैटी पेरी और मेरी शादी से ज्यादा लंबी तो हिंदी फिल्में चलती हैं. अगर मौका मिले तो दीपिका पादुकोण से प्यार फिर शादी करना चाहूंगा’

रसल ब्रांड, ब्रिटिश अभिनेता

 

इसके अलावा नरगिस ने क्रिकेटर अजहरुद्दीन पर बनने वाली फिल्म में संगीता बिजलानी के किरदार वाला रोल भी लपक लिया है. अब क्या बताएं कि कितना हंगामा मचा हुआ है. जिनको लगता था कि बॉलीवुड में उनकी गाड़ी लंबी रेस में भाग नहीं ले सकती, उन्हें जोर का झटका धीरे से लगा है. बहरहाल, नरगिस का नया अवतार काबिले-तारीफ है.

 

 

 

हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं

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पाठकों, मैं वह हरिशंकर नहीं हूं, जो व्यंग्य वगैरह लिखा करता था. मेरे नाम, काम, धाम सब बदल गए हैं. मैं राजनीति में शिफ्ट हो गया हूं. बिहार में घूम रहा हूं और मध्यावधि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा हूं.

अब मेरा नाम है- बाबू हरिशंकर नारायण प्रसाद सिंह याद रखियेगा- नहि ना भूलियेगा हंसियेगा नहीं. हम नया आदमी है न. अभी सुद्ध भासा सीख रहे हैं. जैसा बनता है न, वैसा कोहते हैं.

मैं बिहार की जनता की पुकार पर ही बिहार आया हूं. जनता की पुकार राजनीतिज्ञों को कैसे सुनाई पड़ जाती है, यह एक रहस्य है धंधे का, नहीं बताऊंगा. जनता की पुकार कभी-कभी मेमने की पुकार जैसी होती है. वह पुकारता है मां को और आ जाता है भेड़िया. मेमना चुप रहे तो भी कभी भेड़िया पहुंचकर कहता है-तूने मुझे पुकारा था. मेमना कहता है मैंने तो मुंह ही नहीं खोला, भेड़िया कहता है तो मैंने तेरे हृदय की पुकार सुनी होगी. बिहार की जनता कह सकती है हमने तुम्हें नहीं पुकारा. हमें तुम्हारे द्वारा अपना उद्धार नहीं करवाना. तुम क्यों हमारा भला करने पर उतारू हो?

मैं कहूंगा मैंने दूर मध्य प्रदेश में तुम्हारे हृदय की पुकार सुन ली थी. वहां मध्यावधि चुनाव नहीं हो रहे हैं इसलिए वहां की जनता की सेवा नहीं कर सकता और बिना सेवा किए जीवित नहीं रह सकता. तुम राजी नहीं होओगे तो बलात सेवा कर लूंगा. सेवा का बलात्कार! समझे?

अकेला मैं नहीं, भगवान श्रीकृष्ण भी बिहार की जनता का उद्धार करने आ पहुंचे हैं. बिहार की बाढ़, सूखा और महामारी सी पीडि़त जनता! अकाल से पीडि़त जनता! एक दिन मेरी कृष्ण भगवान से भेंट हो गई. मैंने पहचान लिया, वही मोर मुकुट, पीतांबर और मुरली! मैंने कहा, ‘भगवान कृष्ण हैं न.’ वे बोले, हां वहीं हूं पर मेरा नाम अब भगवान बाबू कृष्णनारायण प्रसाद सिंह हो गया है. कृष्ण बाबू भी कह सकते हैं.

मैंने कहा, भगवान क्या गोरक्षा आंदोलन का नेतृत्व करने पधारे हैं? चुनाव आ रहा है, तो गोरक्षा होगी ही. आप गोरक्षा आंदोलन के जरिए पाॅलिटिक्स में घुस जाएंगे. कृष्ण ने कहा, नहीं उस हेतु नहीं आया. गोरक्षा आंदोलन आम चुनाव के काम का है. मध्यावधि छोटे चुनाव में तो मूषक रक्षा आंदोलन से भी काम चल जाएगा. मूषक रक्षा में गणेश जी की रुचि हो सकती है, अपनी नहीं.

मैंने कहा, तो फिर आपको रामसेवक यादव ने बुलाया होगा यादवों के वोट संसोपा को दिलवाने के लिए. कृष्ण खीज पडे़. बोले मुझे भी तो बताने दो. मैं बिहार की जनता की पुकार पर आया हूं.

मैंने कहा, आपको भ्रम हो गया, भगवन. वे तो कृष्णवल्लभ सहाय के समर्थक थे, जो उन्हें टिकट देने के लिए ऐसी जोर की आवाज लगा रहे थे कि दिल्ली में कांग्रेस हाईकमान को सुनाई पड़ जाए. वे कृष्णवल्लभ बाबू का नाम ले रहे थे, आप समझे जनता आपको पुकार रही है. कृष्ण ने कहा, नहीं मैंने खुद सुना, जनता कह रही थी, हे भगवान अब तो तेरा ही सहारा है. तू ही उद्धार कर सकता है. इसी पुकार को सुनकर मैं यहां आ गया.

ऐसा हो सकता है. बात यह है कि चौथे चुनाव के बाद सिर्फ भगवान की सत्ता ही स्थिर है. बिहार के मुसीबतजदा लोग पटना में एक सरकार से अपनी कहते, तब तक दूसरी सरकार आ जाती. हो सकता है, उन्होंने ईश्वर की एक मात्र सरकार से गुहार की हो.

मैंने कहा, ठीक किया जो आप आ गए. अब इरादा क्या करने का है?

उन्होंने कहा, मेरा तो घोषित कार्यक्रम है, त्रिसूची साधुओं का परित्राण, दुष्कर्मियों का नाश और धर्म की संस्थापना.

मैंने पूछा, कोई आर्थिक कार्यक्रम वगैरह?

वे बोले, नहीं बस वही त्रिसूची कार्यक्रम है.

मैंने पूछा यहां राजनीतिज्ञों में कोई साधु मिले?

एक भी नहीं.

और असाधु?

एक भी नहीं. हर एक अपने को साधु और दूसरों को असाधु कहता है. किसका नाश कर दूं समझ में नहीं आता?

इसी वक्त मुझे ख्याल आया कि इनके हाथ में सुदर्शन चक्र तो है नहीं नाश कैसे करेंगे. मैंने पूछा तो कृष्ण ने बताया, चक्र घर में रखा है क्योंकि उसका लाइसेंस नहीं है. फिर इधर अभी से धारा 144 लगी हुई है.

मैंने उन्हें समझाया, भगवान अगर सुदर्शन चक्र का लाइसेंस मिल जाए तो भी किसी को मारने पर दफा 302 में फंस जाएंगे.

कृष्ण पसोपेश में थे. कहने लगे फिर धर्म की संस्थापना कैसे होगी?

मैंने कहा, धर्म की संस्थापना तो सांप्रदायिक दंगों से हो रही है. आप एक हड्डी का टुकड़ा उठाकर मंदिर में डाल दीजिए और हिंदू धर्म के नाम पर दंगा करवा दीजिए. धर्म का उपयोग तो अब दंगा करने के लिए ही रह गया है. आप के विचार काफी पुराने पड़ गए हैं. हम लोग तो दुष्कर्मियों का परित्राण करने के लिए यह व्यवस्था चला रहे हैं. सबसे असुरक्षित तो साधु ही हैं.

भगवान कृष्ण को मैंने समझाया, आप संसदीय लोकतंत्र में घुसे बिना जन का उद्धार नहीं कर सकते. आप चुनाव लडि़ए और इस राज्य के मुख्यमंत्री बन जाइए. रुक्मिणी जी को बुला लीजिए. जिस टूर्नामेंट का आप उद्घाटन करेंगे, उसमें वे पुरस्कार वितरण करेंगी. घर के ही एक जोड़ी से कर कमलों में दोनों का काम हो जाएंगे.

बड़ी मुश्किल से उनके सामंती संस्कारों के गले में लोकतंत्र उतरा. इससे ज्यादा आसानी से तो दरभंगा नरेश बाबू कामाख्या नारायण सिंह लोकतंत्री हो गए थे. कृष्ण को चुनाव के मैदान में उतारने में मेरा स्वार्थ था. राजनीति में नया-नया आया हूं. पहले किसी बड़ी हस्ती का चमचा बनना जरूरी है. दादा को चमचा चाहिए और चमचे को दादा. दादा मुख्यमंत्री, तो चमचा गृहमंत्री. मैंने सोचा, लोग शंकराचार्य को अपनी तरफ ले रहे हैं, मैं साक्षात भगवान कृष्ण के साथ हो जाऊं.

हम लोगों ने तय किया कि पहले अपने पक्ष में जनमत बनाएं और फिर राजनीतिक पार्टियों से तालमेल बिठाएं. हम लोगों से मिलने निकल पडे़. मैं तो चमचा था. भगवान का परिचय देकर चुप हो जाता. जिन्होंने बहस कर करके अर्जुन को अनचाहे लड़वा दिया था, वे तर्क से लोगों को ठीक कर देंगे- ऐसा मुझे विश्वास था. पर धीरे-धीरे मेरी चिंता बढ़ने लगी. कृष्ण की बात जम नही रही थी. कुछ राजनीति करने वालों से बातें हुईं. कृष्ण ने बताया कि चुनाव लड़ रहा हूं.

वे बोले हां, हां आप क्यों न लडि़येगा. आप भगवान हैं. आपका नाम है. आपका भजन होता है. आपका आरती होता है. आपका कथा होता है. आपका फोटू बिकता है. आप नहीं लडि़एगा तो कौन लडे़गा, आप यादव हैं न?

कृष्ण ने कहा, मैं ईश्वर हूं. मेरी कोई जाति नहीं है.

उन्होंने कहा देखिए न, इधर भगवान होने से तो काम नहीं न चलेगा. आपको कोई वोट नहीं देगा. जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा?

जाति के इस चक्कर से हम परेशान हो उठे भूमिहार, कायस्थ, क्षत्रिय, यादव होने के बाद ही कोई कांग्रेसी, समाजवादी या साम्यवादी हो सकता है. कृष्ण को पहले यादव होना पडे़गा, फिर चाहे वे मार्क्सवादी हो जाएं.

कृष्ण इस जातिवाद से तंग आ गए. कहने लगे, ये सब पिछडे़ लोग हैं. चलो विश्वविद्यालय चलें. हमें प्रबुद्ध लोगों का समर्थन लेकर इस जातिवाद की जडें़ काट देनी चाहिए.

विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर से हम बातें कर रहे थे. उन्होंने साफ कह दिया, मैं कायस्थ होने के नाते कायस्थों का ही समर्थन करूंगा.

कृष्ण ने कहा, आप विद्वान होकर भी इतने संकीर्ण हैं?

प्रोफसर ने समझाया, देखिए न, विद्या से मनुष्य अपने सच्चे रूप को पहचानता है. हमने विद्या प्राप्त की, तो हम पहचान गए कि हम कायस्थ हैं.

कृष्ण घबड़ाकर एक पेड़ की छांह में लेट गए. कहने लगे, सोचते हैं लौट जाएं. जहां भगवान को भगवान होने के कारण एक भी वोट न मिले, वहां अपने राजनीति नहीं बनेगी.

उधर, कृष्ण के राजनीति में उतरने की बात खूब फैल गई थी और राजनीतिक दल सतर्क हो गए थे. जनसंघ का ख्याल था कि गोपाल होने के कारण बहुत करके कृष्ण अपना साथ देंगे पर अगर विरोध हुआ तो उसकी तैयारी कर लेनी चाहिए, उन्होंने कथावाचकों को बैठा दिया था कि पोथियां देखकर कृष्ण की पोल खोजो. गड़बड़ करेंगे तो चरित्र हनन कर देंगे.

चरित्र हनन शुरू हो गया था. कानाफूसी चलने लगी थी. कृष्ण शीतल छांह में सो गए थे. मैं बैठा था. तभी एक आदमी आया. मेरे कान में बोला- यह भगवान श्रीकृष्ण हैं न? मैंने कहां, हां. देखो क्या रूप है.

उसने कहा एक बात बताऊं. किसी से कहिएगा नहीं. इनकी डब्ल्यू का मामला बड़ा गड़बड़ है. भगाई हुई है. रुक्मिणी नाम है. बड़ा दंगा हुआ था, जब उन्होंने रुक्मिणी को भगाया था. सबूत मिल गए हैं. पोथी में सब लिखा हुआ है. जो किसी की लड़की को भगा लाया, वह अगर शासन में आ गया तो हमारी बहू-बेटियों की इज्जत का क्या होगा?

कृष्ण उठे, तो मैंने कहां, प्रभु आपका करेक्टर एसेसिनेशन शुरू हो गया. अब या तो आप चुनाव में हिम्मत से कूदिए ये मुझे छोडि़ये. मैं कहीं अपना तालमेल बिठा लूंगा. आपके साथ रहने से मेरा भी राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ जाएगा.

कृष्ण का दिमाग सो लेने के लिए खुल गया था. वे बडे़ विश्वास से बोले, एक बात अभी सूझी है. यहां मेरे कई हजार पक्के समर्थक हैं जिन्हें मैं भूल ही गया था. मेरे हजारों मंदिर हैं. उनके पुजारी तो मेरे पक्के समर्थक हैं ही. मैं उन हजारों पुजारियों के दम पर सारी सीटें जीत सकता हूं. चलो, पुजारियों से बात कर लें.

हम एक मंदिर में पहुंचे. पुजारी ने कृष्ण को देखा तो खुशी से पागल हो गया. नाचने लगा, बोला धन्यभाग! जीवन भर की पूजा हो गई. भगवान को साक्षात देख रहा हूं. कृष्ण ने पुजारी को बताया कि वे चुनाव लड़ने वाले हैं. वोट दिलाने की जिम्मेदारी पुजारी की होगी. पुजारी ने कहा, आप प्रभु हैं, वोट की आपको कौनो कमी है. कृष्ण ने कहा, फिर भी पक्की तो करनी पडे़गी, तुम तो वोट मुझे ही दोगे न?

पुजारी ने हाथ मलते हुए कहा आप मेरे आराध्य हैं प्रभु, पर वोट का ऐसा है कि वह जात वाले का ही जाएगा. जात से कोई खड़ा न होता तो हम जरूर आपको ही वोट देते. कृष्ण की इतनी दीन हालत तब भी नहीं हुई होगी जब शिकारी का तीर उन्हें लगा था. कहने लगे, अब सिवा भूदान आंदोलन में शामिल होने के कोई रास्ता नहीं है. जिसका अपना पुजारी धोखा दे जाए, ऐसे पिटे हुए राजनीतिज्ञ के लिए या तो भारत सेवक समाज है या सर्वोदय. चलो बाबा के पास.

मैंने कहा, अभी वह स्टेज नहीं आई. अभी तो हम एक भी चुनाव नहीं हारे. पांच-पांच बार चुनाव हारकर भी लोग सर्वोदय में नहीं गए. चलिए, राजनीतिक दलों से बातचीत करें.

पहले हम कांग्रेस के दफ्तर गए. वहां बताया गया कि यहां कांग्रेस है ही नहीं. मंत्री ने कहा, इधर तो कृष्णवल्लभ बाबू हैं, महेश बाबू हैं, रामखिलावन बाबू हैं, मिसरा बाबू हैं, कांग्रेस तो कोई नहीं है और फिर कांग्रेस से मिलकर क्या करियेगा. जो गुट सरकार में चला जाता है, वह कांग्रेस रह जाता है. जो सत्ता में नहीं रहता वह कांग्रेस का भी नहीं रहता. कांग्रेस कौन है, यह चुनाव के बाद ही मालूम होगा. कांग्रेस अब सरकार नहीं बनाती, सरकार गिराती है. आप चुनाव लडि़ए. अगर आपके साथ चार-पांच विधायक भी हों तो हमारे पास आइए. आपकी मेजोरिटी बनाकर आपकी सरकार बनवा देंगे. हमने मंडल की सरकार बनवाई थी न.

हम संसोपा के पास गए. उन लोगों ने पहले परीक्षा ली. जब हमने कहा कि जवाहरलाल जो गुलाब का फूल शेरवानी में लगाते थे, वह कागज का होता था, तो वे लोग बहुत खुश हुए. कहने लगे,  बड़े क्रांतिकारी विचार हैं आपके. देखो यह नेहरू देश को कितना बड़ा धोखा देता रहा. मैंने कहा, हम लोग समाजवादी होना चाहते हैं.

वे बोले, समाजवादी होना उतना भी जरूरी नहीं है जितना गैर कांग्रेसी होना. डाकू भी अगर कांग्रेस विरोधी हैं तो बडे़ से बडे़ समाजवादी से श्रेष्ठ हैं. कृष्ण ने कहा लेकिन कोई आइडियोलॉजी तो है ही.

संसोपाई बोले, गैर कांग्रेसवाद एक आइडियोलॉजी तो है ही. इस आइडियोलॉजी के कारण सबसे तालमेल बैठ जाता है, गोरक्षा में जनसंघ के साथ पूंजी की रक्षा में स्वतंत्र पार्टी के साथ, जनतांत्रिक समाजवाद में प्रसोपा के साथ, जनक्रांति में कम्युनिस्टों के साथ.

मैंने पूछा, डॉक्टर लोहिया ने कहा था कि जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए गैर कांग्रेसी सरकार छह महीने के भीतर कोई चमत्कारी काम करके बताएं. ऐसा हुआ था क्या? उन्होंने कहा, हां एक नहीं कितने चमत्कारी काम हो गए. हमारे मंडल बाबू ने ही कितना बड़ा चमत्कारी काम किया.

हम दोनों साम्यवादी दलों के पास गए. दक्षिणपंथी साम्यवादी दल ने कहा, तो कॉमरेड कृष्ण आपका हिस्ट्री हमने पढ़ा है. आप में वामपंथी दुस्साहसिकता और वामपंथी भटकाव दोनों हैं. आपने इस तरह के काम किए थे. आप मार्क्सवादियों के पास जाइए. मार्क्सवादियों ने कह दिया, तुम तो संशोधनवादी हो तुम्हारा सारा वर्गचरित्र प्रतिक्रियावादी है.

जनसंघ ने खुले दिल से स्वागत किया. कहा आप तो द्वापर से हमारी पार्टी के सदस्य थे. आइए आपका बौद्धिक हो जाए. उन्होंने कागज की एक पर्ची पर लिखा हिंदू राष्ट्र, गोरक्षा, भारतीय संस्कृति. पर्ची को एक छपे हुए कागज में रखा. फिर अलमारी से ताला चाबी निकाले. वे एक औजार से कृष्ण का सिर खोलने लगे. कृष्ण चौंककर हट गए. बोले यह क्या कर रहे हो?

उन्होंने समझाया, आपका बौद्धिक संस्कार कर रहे हैं. सिर खोलकर ये विचार आपके दिमाग में रखकर ताला लगा देंगे और चाबी नागपुर गुरुजी के पास भेज देंगे. न चाबी आएगी, न दिमाग खुलेगा, न परकीय और अराष्ट्रीय विचार आपके दिमाग में घुसेंगे.

कृष्ण आतंकित हो गए. वे एक झटके से उठे और बाहर भागे. पीछे से वह आदमी चिल्लाया, रुकिए रुकिए, हमारे स्वयंसेवकों को एक-एक सुदर्शन चक्र तो देते जाइए. हम भागे तो सीधे शोषित दल वालों के पास पहुंचे. उन्होंने कहा, अभी से आप शोषित कैसे हो सकते हैं? शोषित तब होता है जब विधायक हो जाए, पर आप मंत्री न हो. आप मंत्री नहीं बन सके तभी तो शोषित होंगे. तब हमारे साथ हो जाइए.

क्रांतिदल के महामाया बाबू से मिलने का भी इरादा था, पर सुना कि जब से उन्होंने कामाख्या बाबू के खिलाफ दायर 218 मुकदमे उठाए, तब से उनकी खदान में ही गुप्त वास कर रहे हैं.

खदान के बाहर ही राजा कामाख्या नारायण सिंह मिल गए. उन्होंने कहा, मेरे साथ होने से आप लोगों को राजनीति की दुनिया की पूरी सैर करनी पड़ेगी. आप थक जाएंगे. हर आदमी में मेरे जैसी फुर्ती नहीं है. देखिए न मैंने जनता पार्टी बनाई. फिर स्वतंत्र पार्टी में चला गया. फिर कांग्रेस में लौट आया. फिर भारतीय क्रांतिदल में चला गया. फिर भारतीय क्रांतिदल से निकलकर जनता पार्टी बना ली. मेरे लिए राजनीतिक दल अंडरवियर है, ज्यादा दिन एक ही को नहीं पहनता क्योंकि बदबू आने लगती है. अपने पास कुल सत्रह विधायक होते हैं, पर कोई भी सरकार मेरे बिना चल नहीं सकती. आप लोग तो अपनी अलग पार्टी बनाइए, अपने कुछ लोगों को विधानसभा में ले आइए और फिर सिंहासन पर बैठकर कांग्रेसवाद, संघवाद, क्रांतिवाद, समाजवाद, साम्यवाद सबसे चरण दबवाइए. सिद्धांत पर अड़ेंगे तो मिटेंगे. सबसे बड़ा सिद्धांत सौदा है.

हमें भी बोध हुआ कि किसी दल से अपनी पटरी पूरी तरह बैठेगी नहीं. अपना अलग दल होना चाहिए. अगर अपने चार पांच विधायक भी रहे, तो जोड़ तोड़ उठापटक और उखाड़ पछाड़ के द्वारा प्रदेश की सरकार हमेशा अपने कब्जे में रहेगी.

हमने एक नई पार्टी बना ली है, अभी यह पार्टी सिर्फ बिहार में कार्य करेगी. यदि मध्यावधि चुनाव में इसे जनता का समर्थन अच्छा मिला, तो अखिल भारतीय पार्टी बना देंगे. इस पार्टी का संक्षिप्त मेनिफेस्टो यहां दे रहे हैं

भारतीय राजनीति में व्याप्त अवसरवाद, मूल्यहीनता और अस्थिरता को देखकर हर सच्चे जनसेवक का हृदय फटने लगता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण आज देश के करोड़ाें मानव भूखे हैं, नंगे हैं बेकार हैं. वे अकाल, बाढ़, सूखा और महामारी के शिकार हो रहे हैं. असंख्य कंठों से पुकार उठ रही है. हे भगवान आओ और नई राजनीतिक पार्टी बनाकर सत्ता पर कब्जा करो और हमारी रक्षा करो. जनता के आर्त्तनाद को सुनकर भगवान कृष्ण बिहार में अवतरित हो गए हैं और उन्होंने हरिशंकर नारायण प्रसाद सिंह नाम के विश्वविख्यात जनसेवक के साथ मिलकर एक पार्टी की स्थापना कर ली है. पार्टी का नाम भारतीय जनमंगल कांग्रेस होगा.

नाम में जन या जनता या लोक रखने का आधुनिक राजनीति में फैशन पड़ गया है. इसलिए हमनें भी जन शब्द रख दिया है. जनता से प्रार्थना है कि जन को गंभीरता से न लें, इसे वर्तमान राजनीति का एक मजाक समझें. पार्टी के नाम पर भारतीय इसलिए रखा है कि आगे जरूरत हो तो भारतीय जनसंघ के सथ मिलकर सत्ता में हिस्सा बंटा सकें. कांग्रेस इसलिए रखा है कि अगर इंदिरा जी वाली कांग्रेस को अल्पमत सरकार बनाने की जरूरत पडे़ तो पहले हमें मौका दे.

जनता शब्द की व्याख्या किसी दल ने नहीं की है. हम पहला बार ऐसा कर रहे हैं. जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी है कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना सरकार बन सकती है, तो जनता की कोई जरूरत नहीं है. जनता कच्चा माल है. इससे पक्का माल विधायक, मंत्री आदि बनते हैं. पक्का माल बनने के लिए कच्चे माल को मिटना ही पड़ता है.

हम जनता को विश्वास दिलाते हैं कि उसे मिटाकर हम ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाएंगे. हमारा न्यूनतम कार्यक्रम सरकार में रहना है. हम इस नीति को मानते हैं यथा राजा, तथा प्रजा. राजा अगर ठाठ से ऐशो आराम में रहेगा तो प्रजा भी वैसी ही रहेगी. राजा अगर सुखी होगा तो प्रजा भी सुखी होगी. इसलिए हमारी पार्टी के मंत्री ऐशो आराम से रहेंगे. जनता को समझना चाहिए कि हमें मजबूर होकर सुखी जीवन बिताना होगा, जिससे जनता भी सुखी हो सके. यथा राजा तथा प्रजा.

हमारे उम्मीदवार विधायक होने के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे वे मंत्री बनने के लिए वोट मांगेंगे. हमारी पार्टी के उम्मीदवार को जब जनता वोट देगी, तो मंत्री को वोट देगी. हम अपनी पार्टी के हर विधायक को मंत्रिमंडल में लेंगे, जिससे कोई दल न छोड़े.

यदि हमारे किसी मंत्री को दल छोड़ना है तो उसे पहले हमसे पूछना होगा. वह तभी दल छोड़ सकेगा, जब हम उसकी मांग पूरी न कर सकेंगे. सरकार का काम राज करना है, रोजी रोटी की समस्या का हल करना नहीं है. सरकार का काम राज करना है, इसलिए वह अन्न उत्पादन नहीं करेगी. जिस कंपनी को अन्न उत्पादन करना हो, उसे बिहार की जमीन दे दी जाएगी.

हम जाति के हिसाब से अलग-अलग जिला बना देंगे. ब्राह्मणों के जिले में क्षत्रिय नहीं रहेगा. जिलाधीश की नियुक्ति जाति पंचायत करेगी.

बिहार में भूख और महामारी से बहुत लोग मरते हैं. पर काशी बिहार में नहीं है. गया यहां श्राद्ध के लिए है. हम आंदोलन करके काशी को बिहार में शामिल करेंगे, जिससे बिहार का आदमी यहीं काशी में मरकर गया में पिंडदान करवा ले.

हम जनता को वचन देते हैं कि जिस सरकार में हम नहीं होंगे, उस सरकार को गिरा देंगे. अगर हमारा बहुमत नहीं हुआ, तो हम हर महीने जनता को नई सरकार का मजा देंगे. घोषणा पत्र की यह रूपरेखा है. विस्तार से आगे बताएंगे. जनता हमारी पार्टी की विजय के लिए प्रार्थना करे. ठेकेदार, उद्योगपति, दंगा करने वाले शर्तें तय करने के लिए अभी संपर्क करें.

हमारे भाई, भतीजे, मामा, मौसा, फूफा, साले बहनोई जो जहां भी हों, बिहार में आकर बस जाएं और रिश्तेदारी के सबूत समेत जीवन सुधारने की दरख्वास्त अभी से दे दें. देर करने से नक्काल फायदा उठा लेंगे.

‘फैसले की तारीख करीब थी और सब एक-दूसरे के प्रति आशंकित होने लगे थे’

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बात उन दिनों की है जब मै रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई कर था, दोस्तों के साथ विभाग के बाहर सामने बरगद पेड़ के पास बने चबूतरे पर रोज ‘छात्र संसद’ लगती थी. यहां हम मित्रों के बीच अंतरंग बातों के अलावा देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हालात को लेकर जमकर चर्चा होती थी. इन्हीं बहसों में सांप्रदायिकता और जातिवाद पर भी अक्सर चर्चा होती थी लेकिन इसे संवेदनशील मुद्दा समझकर छोड़ दिया जाता था. मै इस मुद्दे पर हमेशा चर्चा जारी रखना चाहता था क्योंकि हम सब पत्रकारिता की दुनिया का हिस्सा होने जा रहे थे. हमारे लिए इसे समझना जरूरी था. हमारे मधुकर सर अक्सर इन सब मुद्दों पर क्लास में चर्चा करते थे लेकिन सारे लोगों की इस विषय पर उदासीनता को देखकर वे भी खामोश हो जाते थे. लेकिन कुछ दिन गुजरने के बाद ही हमें इस बात को समझने और इस विषय से रूबरू होने का आखिकार एक मौका मिल गया.

बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि विवाद को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट का बहुप्रतीक्षित फैसला 30 सितंबर 2010 को आने वाला था. फैसले की तारीख जैसे-जैसे करीब आ रही थी गली, मोहल्लों और चौक-चौराहों पर इस बात की चर्चा थी कि फैसला किसके पक्ष में आएगा. हर तरफ माहौल में एक अजीब सी उत्सुकता और बेचैनी पसर गई थी.

सुबह-सुबह राजू अखबार फेंककर चिल्लाया, ‘भैया, आज का अखबार पढ़कर ही बाहर निकलना बाहर पूरा टेंशन है, सब कह रहे हैं कि दंगा भड़क जाएगा.’ मैं उसकी आवाज पर अचकचाया और अखबार उठाकर देखना शुरू कर दिया. अखबार की सुर्खियां और रिपोर्टिंग देखकर राजू की कही हुईं बातें दिमाग में गूंजने लगीं. हिंदी अखबार ने ऐसी भड़काऊ सुर्खियां लगा रखी थीं कि मानो कोई भारत-पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्टिंग हो.उस रोज दोपहर 3 बजे फैसला आना था. बाहर हर तरफ सन्नाटा पसरा था. सड़कें सूनी थीं. स्कूल, कॉलेज, दुकानें सब बंद थे. शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में भी इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे. हर अजनबी चेहरे को देखकर लोग आशंकित हुए जा रहे थे. हर कोई यह सोचकर डर रहा था कि फैसला किसके पक्ष में आएगा और दूसरा पक्ष अदालत के फैसले को मानेगा या नहीं? इस तरह के कई खयालात मन में आ रहे थे, और कई तरह की आशंकाओं से दिल बैठा जा रहा था. अखबार, टीवी चैनलों, चाय की दुकानों, हर तरफ इसी बात की चर्चा थी.

‘भैया, आज का अखबार पढ़कर ही बाहर निकलना बाहर पूरा टेंशन है, सब कह रहे हैं कि दंगा भड़क जाएगा’

मैं वापस अपने कमरे में आकर लेट गया. थोड़ी देर में आशीष का कॉल आया, ‘यार बाहर तो पूरा माहौल खराब है, क्या कर रहा है तू? ठीक है ना?’ मेरा जवाब सुने बगैर एक ही सांस में वह कई सवाल पूछ बैठा. ‘मै आता हूं तेरे पास’ बोलकर उसने कॉल काट दी और थोड़ी देर में वो मेरे रूम में पहुंच गया. मेरा कमरा मस्जिद से लगा हुआ था, जहां अजान और नमाज की आवाजें साफ सुनाई देती थीं, आशीष कई बार आ चुका था और वो यहां के माहौल से अच्छी तरह से परिचित था. हमारे बीच मजहब कभी भी दीवार नहीं बनी, बात की शुरुआत करते ही बोला कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे डर और भय का माहौल खत्म हो.

हमलोग बाइक पर सवार हो कर शहर की ओर निकल पड़े, वो माथे पर टीका लगाए था और मैंने कुरता-टोपी पहन लिया था. हमलोग हर गली-मोहल्लों में जाकर लोगों से मिलते, बातें करते, महिला-पुरुष, बच्चे सब लोग हमें ऐसे ताज्जुब से देखते मानो कोई अजूबा काम कर रहे हों.

शहर के बीचोबीच ओबी वैन के साथ  रिपोर्टर सन्नाटे और दहशत के माहौल को रेखांकित करने में मशगूल थे, तो फोटोग्राफर इसे कैमरे में कैद कर रहे थे. हमें देखकर वो लोग मुस्कुराये और ‘लगे रहो’ कहकर ‘जीत की दो उंगलियां’ लहराई. सांप्रदायिक सौहार्द का पैगाम देते हुए हम दोनों आगे बढ़ते गए. इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला किसी के पक्ष में नहीं था बल्कि विवादस्पद जमीन को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला किया गया था, जिस पर लोग अपनी-अपनी समझ से तर्क पेश कर रहे थे, पर आम व खास सब लोग चैन की सांस ले रहे थे.

मजबूत भी मजबूर भी

लालू से मिलन :  मजबूरी में मजबूती का वास्ता!

मांझी प्रकरण की तपिश अब कम होती जा रही है. हालांकि चुनाव तक मांझी इसे बनाए रखना चाहेंगे और भाजपा इसमें हवा-पानी-घी आदि देकर उसे ज्वलंत भी बनाए रखना चाहेगी. अब नीतीश की राजनीतिक यात्रा में उनका और उनकी पार्टी का लालू यादव से मिलन सबसे गर्म मुद्दा बन चुका है. लालू और नीतीश के मिलन को अलग-अलग नजरिये से देखा जा रहा है. सबके अपने-अपने तर्क हैं, सबके तर्क में दम भी हैं. एक वर्ग मानता है कि नीतीश ने लालू यादव के खिलाफ ही सियासत कर बिहार में अपनी पहचान बनाने के साथ उम्मीद जगाई. वह लालू के खिलाफ मिले वोट की बदौलत ही है तो ऐसे में सिर्फ सत्ता के लिए लालू से मिलकर उन्होंने भारी भूल की.

दूसरा वर्ग मानता है कि यह वक्त की जरूरत थी. सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए, भाजपा जैसी सांप्रदायिक शक्तियों के विकास के लिए बेहद जरूरी था. नीतीश-लालू के मिलन में भाजपा समेत जो दूसरी पार्टियां हंगामा कर रही हैं, उन्हें यह अधिकार नहीं. भाजपा से लेकर तमाम दूसरी पार्टियां ऐसे गठजोड़ करती रही है. आज रामविलास पासवान और भाजपा का गठजोड़ कोई राजद-जदयू से कम आश्चर्यजनक नहीं. या मांझी का एनडीए का हिस्सा बन जाना कोई कम आश्चर्यजनक नहीं. भाजपा द्वारा जम्मू-कश्मीर में सत्ता पाने के लिए अपने विरोधी मुफ्ती मोहम्मद सईद से समझौता करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. इस नजरिये से देखें तो लालू और नीतीश का मिलन भी हैरान करने वाला नहीं. लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के पास आगे की राह को  संभावनाशील बनाने के लिए बहुत कम विकल्प थे. जितने विकल्प उपलब्ध थे, उसमें यह एक विकल्प था. लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें यह एहसास हो गया कि वे अकेले कमजोर हैं.

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फिलहाल जातीय समीकरण साधकर ही वे दोबारा सत्ता पा सकते हैं. नीतीश को यह एहसास हो गया है कि एक बार सत्ता हाथ से गई तो फिर बिहार की राजनीति में वे अप्रासंगिक हो जाएंगे, क्योंकि उम्र भी एक चीज होती है. सारे दांव खेलकर नीतीश ने लालू से गठजोड़ किया है. लोकसभा चुनाव के पहले से लेकर बाद तक न जाने कितने किस्म का मोर्चा बनाने में उन्होंने ऊर्जा लगाए रखी. महाविलय जैसे शब्द बहुत दिन तक चलते रहे. संभव है कि इस मिलन से नीतीश को फायदा हो लेकिन बिहार में होने वाले इस गठजोड़ से उन्होंने अपने लिए नुकसान का भी रास्ता चुना. अपनी ही बनाई छवि को उन्होंने ध्वस्त किया. लालू ने मुलायम के जरिये ना सिर्फ महाविलय के प्रस्ताव को रसातल में डाला बल्कि इस गठजोड़ से भी वे आखिरी समय तक भागते रहे, नीतीश कुमार उनका पीछा करते रहे, इसका लोगों में गलत संदेश गया. यह सत्ता के लिए तड़पते और बेचैन नेता की तरह उन्हें स्थापित करता रहा.

मांझी लगातार आक्रामक होते रहे और नीतीश लगातार अपने लोगों से उन पर वाक प्रहार करवाते रहे. कभी अनंत कुमार ने मांझी को पागल करार दिया तो कभी किसी दूसरे ने भस्मासुर की उपाधि दे दी

लालू से गठजोड़ के बाद नीतीश के पास भाषण के विकल्प कम होंगे. न तो वे सुशासन पर जोर से बोल पाएंगे, न भ्रष्टाचार पर और न ही सामाजिक न्याय पर. लालू के कुशासन का ही वास्ता देकर नीतीश कुमार बिहार की सत्ता मे आए और दूसरी बार भी मुख्यमंत्री बने. लालू तो सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोल सकते हैं लेकिन सीधे नीतीश खुद इस पर बोल सकने की स्थिति में भी नहीं होंगे, क्योंकि तब भाजपा कहेगी कि हम सांप्रदायिक थे तो इतने सालों से क्या कर रहे थे साथ में. विकास की बात करेंगे तो भाजपा कहेगी कि हम भी साथ में थे. लालू के साथ आने से दूसरी परेशानियां बढ़ गई हैं. लालू ज्यादा बोलेंगे तो नीतीश को नुकसान होगा, कम बोलेंगे, तो भी नीतीश को नुकसान होगा. लालू कम बोलेंगे तो यादव मतदाताओं में संदेश जाएगा कि मिलान के बाद उनके नेता को नीतीश ने हाइजैक कर लिया हैं, बोलने तक नहीं दे रहे, इसलिए वे बहक सकते हैं.

बात इतनी ही नहीं, नीतीश ने लालू से मिलन के पहले सामाजिक समीकरणों पर भी ठीक से काम नहीं किया. इस गठजोड़ से सामाजिक न्याय की धारा को ध्यान में नहीं रखा गया. लालू और नीतीश के रूप में दो ऐसी जातियों के नेता शीर्ष पर हैं, जो पिछले 25 सालों से सत्ता में हैं. इनके नेतृत्व के जरिये दूसरी जातियों की गोलबंदी आसान नहीं होगी, क्योंकि नीतीश को मालूम होगा कि 2005 में जब वे मुख्यमंत्री बने तो तमाम समीकरणों के बीच एक अहम समीकरण गैर यादव पिछड़ों का यादवी नेतृत्व के खिलाफ गोलबंदी भी था. दूसरी बात यह भी है कि नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा या महादलितों की राजनीति की जरूर लेकिन किसी एक बड़े नेता को उन समूहों से अपने इस गठजोड़ में दिखावे के लिए भी साथ नहीं रखा.

श्याम रजक, उदयनारायण चौधरी जैसे नेता साथ में जरूर हैं, लेकिन वे कम बोलते हैं या जब बोलते हैं तो उनके पास तथ्य और तर्क नहीं होते. नीतीश-लालू के इस मिलन में सामाजिक न्याय की और भी कई विडंबनाएं सामने आईं, जिस पर पहले से काम नहीं हो सका, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. किसी अल्पसंख्यक नेता को भी समानांतर रूप से सामने नहीं रखना, गलत संदेश दे रहा है. इस गठजोड़ को लेकर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक दौड़ लगाने में ही इतनी ऊर्जा खपाते रहे कि इन चीजों पर सोचने का उन्हें मौका तक नहीं मिला और अब उनके पास जो टीम है और जिसके सहारे वे चुनावी जंग में उतरने जा रहे हैं, उनमें से कोई पुराना संगी-साथी नहीं बचा, जो नीतीश की बातों को काट भी सके. मिलने के पहले दोनों नेता इन बातों पर भी अभ्यास करते तो शायद यह गठजोड़ और कारगर होता. मांझी को बाय करने के पहले उदय नारायण चौधरी को सामने उन्हें पार्टी का चेहरा बनाकर यह गठजोड़ करते तो शायद वह ज्यादा फायदेमंद साबित होता.

मौनी बाबा: एकरागी गान, जिद्दी धुन

नीतीश कुमार की राजनीति को जो लोग करीब से जानते हैं या दूर से भी देखते हैं, वे यह जानते हैं कि नीतीश सार्वजनिक जीवन के सवालों को और राजनीति के सार्वजनिक पक्षों को भी व्यक्गित मसला बनाकर उसका बदला लेने वाले नेता रहे हैं. वे राजनीति को व्यक्तिवादी बनाने के पक्षधर हैं और उनके लिए खुद की राजनीति को, खुद के व्यक्तित्व को बनाए-बचाए रखना एक अहम मसला होता है. इसके लिए वे तमाम तरीके के हथियारों का इस्तेमाल करते रहे हैं, जिसमें एक अहम हथियार जिद्दी बन जाना, दूसरा मौन साधना और तीसरा एकरागी गान करना. इनमें से दो बातें बार-बार देखी जा चुकी हैं. जब भी वे दुविधा और द्वंद्व के दोराहे पर खड़े होते हैं, मौन साध लेते हैं. नीतीश के दस सालों के शासन में कई बार ऐसे मौके आए, जब उनसे अपेक्षा की जाती थी वे खुलकर बोले और बतौर मुखिया अपनी बात रखे लेकिन उन्होंने मौन साधकर बहुत कुछ साधना चाहा, जिससे उनकी किरकिरी हुई.

लालू ने मुलायम के जरिये ना सिर्फ महाविलय के प्रस्ताव को रसातल में डाला बल्कि इस गठजोड़ से भी वे आखिरी समय तक भागते रहे, नीतीश कुमार उनका पीछा करते रहे, इसका लोगों में गलत संदेश गया

ऐसा कई मौके पर देखा गया, जिनमें दो तो बहुत ही चर्चित रहे. एक मौका तब आया जब फारबिसगंज के भजनपुरा में अल्पसंख्यकों पर पुलिस ने अत्याचार किया। बूट और गोलियों से बच्चों, गर्भवती महिलाओं समेत सात लोगों को मारा. देशभर में इसकी चर्चा हुई, नीतीश की थू-थू हुई. तब यह बात सामने आई  थी कि जिस व्यक्ति की फैक्ट्री को लेकर पुलिस ने गोलीबारी की, वह भाजपा नेता है और सुशील मोदी के करीबी भी, इसलिए नीतीश कुछ बोल नहीं रहे थे. नीतीश भाजपा के दबाव में चुप रहे हों या स्वविवेक से, यह आज तक कोई हीं जान सका, लेकिन एक अच्छे नेतृत्वकर्ता के तौर पर इससे उनकी छवि जरूर  प्रभावित हुई.

एक दूसरा मौका भी आया, जब रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या आरा में हुई. आरा में हत्या के बाद ब्रहमेश्वर मुखिया की लाश को पटना जलाने के लिए लाया गया. शव के पटना पहुंचने के बाद राजधानी की सड़कों पर खूब बवाल हुआ. मुखिया के समर्थकों ने गोली चलाई, तोड़फोड़ की, सरकारी गाड़ियां  जला दीं, महिलाओं से अभद्रता की, मुख्यमंत्री आवास की ओर भी बढ़ने की कोशिश की. तब भी नीतीश कुछ नही बोले. ऐसे मौन वे कई बार साधते रहे, जिससे उनकी छवि का नुकसान होता रहा. नीतीश के राजनीतिक जीवन में भजनपुरा कांड एक ऐसा मसला है, जो उन्हें खुलकर कभी सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोलने नहीं देगा.यह इकलौता सवाल वर्षों बाद भी उन्हें कटघरे में खड़ा रखेगा. मामला चाहे पुलिस एक्शन हो या पुलिस के द्वारा वक्त के अनुसार की गई जरूरी कार्रवाई, लेकिन यह उम्मीद किसी भी मुख्यमंत्री से की जा सकती है कि वह इतनी ब़ड़ी घटना पर मौका-ए-हालात को जाकर देखे. खुलकर बोले. फारबिसगंज में राहुल, लालू, रामविलास समेत तमाम नेता पहुंचे लेकिन नीतीश नहीं गए. एक न्यायिक जांच आयोग गठित भी किया तो वह चार माह तक टालू रवैया अपनाए रहा.

नीतीश की मंशा चाहे जो रही हो, मगर लोग कहते हैं कि भाजपा के दबाव में नीतीश इतने जिद्दी बन गए. ऐसा नहीं कि यह पहली बार हुआ था जब सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश ने मौन साधने या जिद्दी बन जाने की राजनीति की हो. यह सब जानते हैं कि नीतीश नरेंद्र मोदी से रोमांटिक दुश्मनी निभाते रहे हैं. उनके नाम से भड़कते रहे हैं लेकिन जब गुजरात में गोधरा कांड हुआ था, तब नीतीश केंद्रीय रेल मंत्री थे. तब भी वह मौन साध गए थे, गोधरा नहीं गये थे. बाद में नीतीश ने कहा था कि गोधरा नहीं जाना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. गोधरा की भूल को वे फारबिसगंज में भी नहीं सुधार सके. ऐसा नहीं कि नीतीश ने सिर्फ अल्पसंख्यकों के ऐसे सवाल पर ही मौन साधे. कुछ साल पहले बिहार के सिमरिया में अर्द्धकुंभ हुआ था. तब भाजपा उनके साथ थी. नीतीश मुख्यमंत्री थे. बवाल मचा था. नीतीश इस पर भी मौन साधे रहे. उनकी ओर से बिहार धार्मिक न्यास परिषद के किशोर कुणाल मोर्चा  संभालने आए थे. उस आयोजन में भाजपा के नेताओं के साथ विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया भी सिमरिया में पहुंचे थे. तोगड़िया हिंदुत्व का पाठ पढ़ाकर, हुंकार भरकर लौट गए थे. त्रिशूल बांटने से लेकर और भी कई बातें हुई थीं तब.

हालांकि उस बीच नीतीश यह कहते रहे कि वे गठबंधन की राजनीति चलाने के लिए मनमोहन सिंह की तरह मजबूर नहीं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर जब-जब मौका आया उनसे कम मजबूर नहीं दिखे. लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है. नीतीश कुमार बोलते भी खूब हैं. मसलन बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के  अभियान की ही बात करें. नीतीश उस एक मसले को पिछले दस सालों से ऐसे खींचते रहे कि वह खुद एक डेड इश्यू बन गया. उसकी अपील खत्म हो गई. वह सभी मर्जों की एक ही दवा बताते रहे. एक ऐसी दवा, जिसे पूरा किया जाना न तो मनमोहन सिंह के बस में था, ना नरेंद्र मोदी के बस में नजर आ रहा है.  बिहार से ज्यादा बड़े दावेदार दूसरे राज्य हैं और अगर केंद्र की सरकार ने सबको विशेष राज्य का दर्जा देना शुरू किया तो फिर विशेष राज्य का हश्र भी वही होगा, जो बिहार के महादलित माॅडल का हुआ. जिसमें एक जाति को छोड़कर सभी महादलित हो गए और बाद में वह भी महादलित हो गया और दलित जैसी राजनीतिक जाति खत्म हो गई!

जाति की राजनीति :  लगाव भी, अलगाव भी

बिहार की राजनीति की जो भी थोड़ी बहुत समझ रखते हैं, वे जानते हैं कि नीतीश कुमार के निर्माण में कुर्मी चेतना रैली की बड़ी भूमिका रही है. पटना के गांधी मैदान में उसी रैली के मंच से नीतीश की भव्य लॉन्चिंग हुई थी. नीतीश कुमार इस पर कुछ नहीं बोलते लेकिन यह सब जानते भी हैं. इसमें कुछ बुरा भी नहीं. बिहार की राजनीति जाति के खोले में समाने के लिए जानी जाती है. हर नेता अपने-अपने तरीके से जाति का इस्तेमाल करता रहा है. नीतीश ने भी एक बड़ा इस्तेमाल किया. यह हर कोई मानता है कि नीतीश का 2005 में जब उभार हुआ तो उसमें जातीय गोलबंदी की बड़ी भूमिका थी. नीतीश के पक्ष में गैर यादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हुई. साथ में दूसरों ने समूह का निर्माण किया तो लालू यादव का वोट बैंक बिखर गया. उसके बाद नीतीश ने पीछे पलटकर नहीं देखा.

नीतीश ने भविष्य की राजनीति को और सुविधाजनक बनाने के लिए पिछड़ों में अतिपिछड़ों का अलग से एक समूह निकाला और दलितों में महादलितों का अलग समूह तैयार किया. तब नीतीश ने कहा था कि जो पिछड़ों में अतिपिछड़े हैं, उनको पंचायत चुनाव आदि में अलग से आरक्षण दिया जाना जरूरी है. उन्हें मजबूत की जरूरत है, इसलिए वे ऐसा कदम उठा रहे हैं. नीतीश के इस कदम की सराहना हुई. इससे बिहार की राजनीति में बड़ा फर्क भी आया. लालू यादव लगातार कमजोर होते गए. नीतीश कुमार मजबूत होते गए. नीतीश की मजबूती के समानांतर ही अब तक हाशिये पर पड़ी रहने वाली जातियों में राजनीतिक चेतना का विकास भी होता रहा. उनमें राजनीतिक आकांक्षा भी जगती रही. हालांकि तब भी महादलितों के गठन में नीतीश की नीति की आलोचना हुई. उन्होंने कुल मिलाकर अंत तक सभी दलित जातियों को महादलित में शामिल कर लिया लेकिन पासवानों को छोड़ दिया. तब बिहार का राह चलता आदमी भी यह कहने लगा कि नीतीश ने पासवानों को सिर्फ इसलिए अलग रखा है ताकि रामविलास पासवान अलग-थलग पड़ जाए. ऐसा कर नीतीश ने जगहंसाई ही की थी. बाद में जीतनराम मांझी जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पासवानों को भी महादलित में शामिल कर और सभी दलितों को महादलित बनाकर नीतीश के इस अविवेकी फैसले पर करारा प्रहार ही किया.

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बहरहाल, 2010 में जब नीतीश कुमार ने अपार बहुमत से जीत हासिल की तो एक वर्ग में एक बात तेजी से फैली कि बिहार जाति की खोली से बाहर निकला है. जीत में इसे अहम भी माना गया. नीतीश ने बिहार में विकास और गवर्नेंस को मुद्दा बनाकर इस आकलन को बल भी प्रदान किया था. बहुत हद तक यह सच भी था कि विकास और गवर्नेंस को ऊपरी तौर पर ही सही, चुनावी राजनीति का मुद्दा बनाने का श्रेय नीतीश को जाता है. लेकिन दूसरी ओर जो बिहार की राजनीति की बारीकियों को जानते हैं, वे यह भी साफ-साफ जानते हैं कि नीतीश ने जातीय राजनीति की सधी हुई चाल चली थी. अब भी चलते रहते हैं.

खैर, नीतीश भी राजनीति ही करते हैं इसलिए यदि वह ऐसे आयोजनों के जरिये राजनीतिक आधार की तलाश करते हैं तो इस लिहाज से उनमें अतिशुद्धतावादी आदर्श की तलाश भी करना एक तरीके से अतिवाद होगा.

दूसरे पहलू की बात करें तो पिछली बार महादलित और अतिपिछड़ा का प्रयोग कर उन्होंने लालू यादव और रामविलास पासवान को एक साथ साधा था. लेकिन उस चुनाव के बाद नीतीश ने जिस तरह से अपने ही फाॅर्मूले को किनारे करना शुरू किया, उससे दूसरे संकेत और संदेश तेजी से फैलने लगे. नीतीश कुमार की दूसरी पारी में महादलित आयोग का पुनर्गठन ही पेंच में फंस गया. नीतीश ने कोई खबर नहीं ली. अतिपिछड़ा आयोग भी बना था लेकिन उसकी ओर से भी कोई रिपोर्ट नहीं आई. वह क्या कर रहा है, क्या नहीं, इसकी खबर किसी ने लेने की कोशिश नहीं की. चुनाव जीतने के बाद नीतीश ने बड़े जोर-शोर से सवर्ण आयोग का गठन किया. सवर्ण आयोग कार्यालय के लिए तरसता रहा. उसके अध्यक्ष कहां रहते हैं, इसकी जानकारी लेना भी पटना से दिल्ली पैदल जाने के बराबर साबित होता रहा. हालांकि अब सवर्ण आयोग की भी एक रपट आ गई है लेकिन संदेशा यह गया है कि नीतीश कुमार ने चुनाव आने पर खानापूर्ति के लिए यह करवाया.

महादलितों के बीच रेडियो बंटवारे की शुरुआत हुई. रेडियो आउटडेटेड हो चुका तब नीतीश कुमार ने रेडियो को बंटवाना शुरू किया. यह भी हंसी का विषय बना. नीतीश महादलित और अतिपिछड़ों का बंटवारा कर उनकी राजनीतिक आकांक्षा को तो जगा दिया लेकिन उनसे सरकार वह हमदर्दी नहीं दिखा सकी, जिसकी अपेक्षा थी. बिहार में एक भयानक बीमारी इंसेफलाइटिस का प्रकोप हर साल जारी रहता है. इस बीमारी से मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी व गया जिले में हर साल दर्जनों मौतें होती हैं. मरनेवाले अधिकांश बच्चे अतिपिछड़े और महादलित समुदाय से ही ज्यादा रहते हैं. पूरे देश में इंसेफलाइटिस से बिहार में होने वाली मौत एक मसला बना रहा लेकिन नीतीश उन इलाकों में एक बार भी नहीं गए. एक बार भी इस बात को लेकर सख्त निर्देश देते नजर नहीं आए. बात इतनी ही नहीं हुई. नीतीश कुमार महादलित और अतिपिछड़ों को एक ठोस समूह के तौर पर विकसित करने में और उन्हें अपने पक्ष में रखने में लगातार कई भूलों से चुकते गए. दोनों समुदायों ने से उन्होंनेे कोई ऐसा नेता खड़ा नहीं किया जो नीतीश के दायें-बायें दिखे. बल्कि उनके आजू-बाजू अधिकांश सवर्ण नेता ही दिखते रहे और महादलितों या अतिपिछड़ों से कोई स्वतंत्र फेस वैल्यू रखने वाला नेता नहीं पनप सका.

भीम सिंह एक अतिपिछड़े समूह से थे जो नीतीश के मंत्रिमंडल के सदस्य थे लेकिन वे भी मांझी की बगावत में उनके साथ चले गए. बात इतनी ही नहीं रही, ऐन मौके पर अमीरदास आयोग को भंग करना, उसकी रिपेार्ट को दबा देने की तोहमत नीतीश के मत्थे हमेशा के लिए लगा रहेगा. अमीरदास आयोग की रिपोर्ट से रणवीर सेना की भूमिका का पता चलना था और उसमें कई भाजपाइयों के नाम सामने आने वाले थे, जिसकी वजह से नीतीश ने दबाव में उसे भंग कर दिया. और अंत में तो मांझी के मुख्यमंत्रितत्व काल में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे बच पाना नीतीश कुमार के लिए हमेशा मुश्किल होगा. भोजपुर से लेकर गया तक दलितों-महादलितों पर जुल्म की घटनाएं अचानक से बढ़ीं. नीतीश कुमार मौन साधे रहे. वे ताकतवर स्थिति में थे, राज्य की जनता उन्हें सुपर सीएम मान रही थी लेकिन कोई ठोस कार्रवाई करवाने की बजाय मांझी को कुशासन का प्रतीक कहते रहने में उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगाये रखी. इसका संदेश भी गलत गया.

सोच अलग-क्रिया अलग

बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दस सालों के सफर को देखें तो कई ऐसे पड़ाव दिखेंगे, जब लगेगा कि जो वे करना चाहते हैं, वे नहीं कर पाते और जो नहीं करना चाहते वह होता जाता है. कथनी और करनी में फर्क उन्हें द्वंद्व और दुविधा से भरे नेता के रूप में स्थापित करता रहा. सबको याद होगा कि पहली पारी में नीतीश ने बिहार में भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाते समय कहा था कि भूमि-सुधार ही यहां की सबसे बड़ी समस्या और चुनौती है. इसके बगैर बिहार का भला और समग्र विकास नहीं होगा. बंदोपाध्याय कमेटी बनने से हलचल मची. आलोचक भी उनके इस साहस भरे कदम के लिए प्रशंसक हो गए और प्रशंसक रातो-रात आलोचकों की फौज में शामिल हो गए. नीतीश ने परवाह नहीं की. कमेटी ने रिपोर्ट तैयार की. रिपोर्ट के कई हिस्से सार्वजनिक हुए लेकिन जब उसे लागू करने की बारी आई तो नीतीश ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.

नीतीश के राजनीतिक जीवन में भजनपुरा कांड एक ऐसा मसला है, जो उन्हें खुलकर कभी सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोलने नहीं देगा. यह इकलौता सवाल वर्षों बाद भी उन्हें कटघरे में खड़ा रखेगा

इसी तरह मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में समान स्कूल शिक्षा प्रणाली में भी नीतीश कुमार ने एक आयोग का गठन किया. आयोग ने रिपोर्ट दी, वह भी ठंडे बस्ते में चली गई. किसान आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन कर भी उन्होंने बेहतर पहल की थी लेकिन वहां भी पेंच में फंसता रहा. हो सकता है कि ऐसे आयोगों को गठन करते वक्त नीतीश के जेहन में यह इच्छा रहती हो कि इसके दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे और जब लागू करने की बात आती हो तो सत्ता पर असर पड़ता हुआ दिखता हो, लेकिन स्टेट्समैन और पोलिटिशियन का फर्क भी तो यही होता है. पॉलीटिशियन सत्ता के इर्द-गिर्द बातें सोचता है, स्टेट्समैन उसके बाद की भी बातों पर गौर करता है. जिस बिहार में मुचकुंद दुबे की कमेंटी शिक्षा की स्थिति सुधारने व शिक्षा में समानता लाने के लिए बनी थी, उस बिहार में शिक्षा आज सबसे बुरे दौर में है और शिक्षक सबसे नियंत्रणहीन. नीतीश कुमार न तो शिक्षकों के विरोध को ठीक से डील कर सके और न ही शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के लिए कोई ठोस कदम उठा सके. नतीजा यह है कि नीतीश कुमार आज जब भी विकास की बात करते हैं या चुनावी सभाओं में करेंगे तो शिक्षा जैसे अहम मसले पर उन्हें चुप्पी साध लेनी पड़ेगी.

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मजबूत भी मजबूर भी

व्यक्तिवाद-परिवारवाद

नीतीश कुमार के बारे में एक बात कही जाती है कि वे औरों से बहुत अलग हैं. ऐसा है भी. लालू प्रसाद, रामविलास पासवान या उनके पहले के भी बहुतेरे नेताओं की तुलना में नीतीश एक मामले में अलग छवि रखते हैं. इनके सत्ता में आने के बाद भी इनके निकटवर्ती या दूरदराज के रिश्तेदारों की फौज राजनीति में खड़ी नहीं हुई. नीतीश के बड़े भाई सतीश बाबू आज भी नीतीश के प्रभाव का कभी कोई इस्तेमाल नहीं करते. नीतीश के बेटे भी प्रभाव का फायदा उठाने से बहुत दूर रहते हैं. अन्य रिश्तेदारों की तो बात ही दूर. इस आधार पर नीतीश के जरिये एक संभावना जगी थी कि परिवारवाद का खात्मा करने में नीतीश ही सक्षम होंगे. हालांकि शुरू में इस मुद्दे पर कुछ देर ही टिके रहने के बाद नीतीश लगातार समर्पण की मुद्रा में नजर आए.

समान स्कूल शिक्षा प्रणाली में नीतीश ने एक आयोग गठित की. आयोग ने रिपोर्ट दी, वह ठंडे बस्ते में चली गई. किसान आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन कर बेहतर पहल की लेकिन वहां भी पेंच फंसता रहा 

व्यक्तिगत तौर पर यदि अपनी छवि बचाए रखने की बात हो तो सिर्फ नीतीश ही क्या, इसी बिहार में कई नेता पहले भी हुए, जिन्होंने अपने परिजनों को अपने जीते-जी राजनीति से दूर रखा. लेकिन नीतीश कुमार अपने ही दल में परिवारवाद और वंशवाद को नहीं रोक सके. महेंद्र सहानी के बेटे अनिल सहानी को राज्यसभा भेजकर, जगदीश शर्मा की पत्नी का टिकट काटने के बाद उनके बेटे राहुल शर्मा को देकर, मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट देकर, अश्वमेघ देवी, मीना सिंह, कौशल्या देवी आदि को चुनावी राजनीति में मुकाम दिलाकर नीतीश ने खुद को भी ‘औरों’ की श्रेणी में शामिल कर लिया.

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बात सिर्फ परिवारवाद पर ही खत्म होती तो और बात होती, राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ बयान और फास्ट ट्रैक ट्रायल के जरिये अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने की प्रक्रिया नीतीश को बहुत हद तक वाहवाही तो दिलवाती है लेकिन अनंत सिंह, तसलीमुद्दीन, उनके बेटे सरफराज, सुनील पांडेय, उनके भाई हुलास पांडेय आदि के साथ कई नामचीन बाहुबलियों की पत्नियों को राजनीतिक संरक्षण देना उनकी मजबूरी को दर्शाता रहा. खगड़िया में शिक्षकों की सभा में, नीतीश के अंगरक्षकों के रहते जदयू नेता रणधीर यादव द्वारा सरेआम फायरिंग करना तो एक उदाहरण बन गया. दरौंदा विधानसभा की घटना भी  नजीर बनी तो उसमें नीतीश की ही भूमिका थी, जिसे आज भी लोग चटखारे लेकर सुनाते हैं. दरौंदा में एक सीट को बचाने के लिए नीतीश ने बाहुबली अजय सिंह की शादी आननफानन में शादी करवा दी और उनकी पत्नी कविता सिंह को टिकट देने का फैसला कर विधायक बनवा दिया.नीतीश उस वक्त इस एक सीट को हार भी जाते तो यह हार कई जीतों से बड़ी होती. लेकिन नीतीश ने ऐसा नहीं किया.

इन दस सालों में कई मौके ऐसे भी आए, जब नीतीश कुमार घोर व्यक्तिवादी राजनीति करते नजर आए और खुद को उभारने के लिए, खुद को स्थापित करने के लिए अपने लोगों को लगातार दरकिनार करते रहे. इसका एक बड़ा उदाहरण तब नजर आया जब राजगीर शिविर में उनके दल के सांसद शिवानंद तिवारी ने नीतीश कुमार को नसीहत देने की कोशिश की. नीतीश उस समय मौन साधे रहे बाद में शरद यादव से शिवानंद तिवारी, एनके सिंह और साबिर अली को बाहर का रास्ता दिखा दिया. तब पहले यह बताया गया कि नीतीश एक बार ही किसी को राज्यसभा भेजते हैं, इसलिए ऐसा किया लेकिन अली अनवर जैसे चुप रहनेवाले नेताओं को उन्होंने दोबारा राज्यसभा भेजा तो यह भ्रम टूट गया.

प्रेम कुमार मणि, शंभू शरण प्रसाद जैसे नेता जो नीतीश के काफी करीबी रहे लेकिन एक-एक करके या तो निकाले जाते रहे या निकलने को मजबूर किए जाते रहे. इसका असर नीतीश की छवि पर पड़ता रहा 

दरअसल नीतीश कुमार के लिए यह कोई पहला मौका नहीं था  कि उन्होंने अपने खिलाफ बोलने वाले अपने लोगों को दरकिनार किया बल्कि उनकी राजनीतिक शैली में यह उनकी खास अदा भी मानी जाती है कि जो भी उनकी थोड़ी आलोचना करता है, उसे वे मौन साधकर किसी दूसरे नेता से किनारे करवाते हैं. सबसे बड़ा आरोप तो जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को दरकिनार कर देने का है, जिस पर न तो नीतीश और न ही उनके करीबी आज तक जवाब दे पाते हैं. प्रेम कुमार मणि, शंभू शरण प्रसाद जैसे नेताओं की तो फौज ही है, जो नीतीश के काफी करीबी रहे लेकिन एक-एक करके या तो नीतीश द्वारा निकाले जाते रहे या निकलने को मजबूर किए जाते रहे. इसका सीधा असर भले न हुआ हो लेकिन इससे नीतीश की छवि पर लगातार असर पड़ता रहा.

बात अगर प्रशासनिक कार्यकलाप की करें तो कई और चीजें दिखाई पड़ेंगी, जिससे साफ हो जाता है कि नीतीश खुद को केंद्र में रखकर ही काम करने में भरोसा करते हैं. वे समानांतर रूप से किसी को भी सत्ता शासन का श्रेय नहीं लेने देना चाहते. इसका एक बड़ा उदाहरण उनके आवास में लगने वाला जनता दरबार है. जनता दरबार नीतीश कुमार जब घंटों लोगों की फरियाद सुनते हैं तब कुछ देर के लिए लगता है कि चाहे इसका नतीजा जो होता हो, नीतीश इतनी देर बैठते तो हैं. लोगों की बात तो सुनते हैं. एक आम आदमी उनसे मिलकर अपनी बात तो रख सकता है. लेकिन यह सब एक हद के बाद गिरावट की स्थिति में आने लगता है. जब एक फरियादी के चार-चार बार पहुंचने के बाद भी समस्याओं का समाधान नहीं पाता या फरियाद सुनाने के एवज में अधिकारियों की धौंस का सामना करता है तो वह टूट जाता है. नीतीश अपनी धुन में नियमित तौर पर तो दरबार में आते हैं, समस्याएं सुनते हैं लेकिन शायद बाद में यह जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके पास दूरदराज से किसी तरह पहुंचने वाले लोगों के आवेदन पर अधिकारी गंभीरता से कार्रवाई कर भी रहे हैं या नहीं. अगर नीतीश बीच-बीच में इसकी खबर भी लेते तो शायद आरटीआई से सूचना मांगने पर लंबित मामलों की इतनी सूची इस तरह की नहीं होती.

इसी तरह नीतीश यात्राओं पर भी जमकर निकलते हैं. सेवा यात्रा, विकास यात्रा, न्याय यात्रा वगैरह-वगैरह. यात्राओं के दौरान जो भी आवेदन उन्हें मिलते हैं, उसे भी अधिकारी ठंडे बस्ते में रखते हैं. इसके बजाय नीतीश कुमार के पास शासन का दूसरा मॉडल भी था. वे अधिकारियों को ज्यादा जवाबदेह बना सकते थे. सिस्टम को ठीक कर सकते थे. दस सालों के शासन में सिस्टम को ही इतना चुस्त-दुरुस्त कर सकते थे कि लोगों को छोटी-छोटी फरियाद लेकर उनके पास नहीं आना पड़ता. लेकिन वह खुद को ही केंद्र में रखकर शासन करने की उनकी प्रक्रिया में लगे रहे, जिससे उनका नुकसान ही हुआ.

पॉपुलर पॉलीटिक्स बनाम कार्यकर्ताओं की उपेक्षा

नीतीश कुमार पॉपुलर पॉलीटिक्स करने के माहिर खिलाड़ी बनते रहे. कुछ साल पहले जब विधायक फंड खत्म करने की घोषणा की तो इसकी चौतरफा प्रशंसा हुई. जब आरटीएस को लागू करवाया तो प्रशंसा हुई. जब देश में अन्ना आंदोलन उफान मार रहा था, तो उन्होंने खुलकर समर्थन किया, राइट टू रिकाॅल पर अन्ना के पक्ष में बयान दिया. यह सब नीतीश को लोकप्रिय बनाते हैं. नीतीश वक्त की नजाकत समझने में माहिर हैं, इसलिए अन्ना आंदोलन के दिनों में उन्होंने एक भ्रष्ट अधिकारी का घर जब्त कर उसमें स्कूल खोल वाहवाही भी लूटी. किसी समाचार चैनल द्वारा सामान्य सम्मान मिलने पर भी सरकारी फंड से बड़े-बड़े होर्डिंग लगते रहे. अखबारों में विज्ञापन का बजट बढ़ाकर भी वह लोकप्रियता के सूत्र तलाशते रहे. यह सब अच्छा रहा लेकिन इस बीच नीतीश यह भूलते रहे कि वे सत्ताधारी पार्टी के नेता हैं और आगे की लड़ाई के लिए सिर्फ उनकी इकलौती लोकप्रियता काफी नहीं होगी बल्कि उन्हें एक टीम भी चाहिए. सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं संभाले रखना बहुत मुश्किल काम होता है.

‘नीतीश सब काम सरकारी तंत्र से करवाते रहे. सरकारी तंत्र तो किसी का होता नहीं. वह आज आपके साथ है, कल देखेगा कि दूसरा मजबूत है, अपना चरित्र बदल लेगा. नीतीश की यह सबसे बड़ी भूल रही’

उन्होंने अपनी छवि बनाने के लिए जिला प्रशासन और थानों तक परोक्ष तौर पर यह आदेश दिया कि किसी की बात न सुनी जाए. इसका असर यह हुआ कि प्रभावशाली लोगों की बात तो प्रशासन सुनती रही, पुलिस भी मानती रही लेकिन जदयू कार्यकर्ताओं को सत्ताधारी से जुड़ाव के बावजूद अपनी औकात में रहना पड़ा. वे अपने इलाके में छोटी पैरवी करने में भी असमर्थ हो गए. विधायक फंड खत्म होने से छोटे-छोटे ठेके-पट्टे के काम भी मिलने बंद हो गए. नीतीश कुमार सरकार को प्रशासन के जरिये चलाने में पूरी ऊर्जा लगाए रखे, उनकी तमाम योजनाएं सरकारी तंत्रों से संचालित होती रही और जदयू कार्यकर्ता हाशिये पर जाते रहे. नतीजा यह हुआ कि जिला स्तर पर भी कई जगहों पर जदयू का संगठन खड़ा नहीं हो सका. इतने सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद पार्टी का एक स्वरूप नीतीश कुमार खड़ा नहीं कर सके, इसका असर अब उनकी पार्टी पर दिख रहा है. कार्यकर्ताओं को उन्होंने पेड़ लगाकर सदस्यता अभियान चलाने के उपक्रम में लगाया. जाहिर सी बात है कि ऐसे अभियान की हवा निकलनी थी. लोगों की बात कौन करे, जदयू कार्यकर्ताओं ने नीतीश के इस अभियान में साथ नहीं दिया. शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘इसका गहरा असर होगा. जो भी क्षेत्र में कार्यकर्ता होता है, नेता होता है, वह दिन-रात मेहनत कर अपनी साख बनाता है. उसकी इतनी अपेक्षा रहती है कि वह भी जनता के बीच नेता की तरह माना जाए. वह भी किसी की मदद कर सके. उसकी बात भी कहीं न कहीं शासन में सुनी जाए, लेकिन नीतीश कुमार ने ऊपर से आदेश देकर किसी को भी मदद नहीं करने की बात कह दी तो कार्यकर्ता इनके पास रहेंगे कैसे?’ उनके अनुसार, ‘नीतीश ने अपनी योजनाएं चलाने के लिए भी कार्यकर्ताओं को पर्याप्त छूट नहीं दी. सब सरकारी तंत्र से करवाते रहे और सरकारी तंत्र तो किसी का होता नहीं. वह आज आपके साथ है, कल देखेगा कि दूसरा मजबूत है, अपना चरित्र बदल लेगा. नीतीश की यह सबसे बड़ी भूल रही.’

मजबूत भी मजबूर भी

nitish kumar

बिहार में विधानसभा चुनाव सामने है. हालांकि इसमें अभी तकरीबन तीन महीने का समय है लेकिन चुनाव की खुमारी अभी से परवान चढ़ने लगी है. पोस्टर वार और बयानों की जंग से राज्य का माहौल गरमा रहा है. चुनाव आयोग ने बिहार के चुनाव को ‘मदर आॅफ इलेक्शन’ कहा है. इस बार होने वाला बिहार का चुनाव अब तक हुए सभी चुनावों में दिलगोचस्प होने जा रहा है. दो ध्रुव में बंटकर जिगरी दोस्त रहे कई दल, कई नेता आपस में भिड़ने को तैयार हैं, या यूं कहें कि भिड़ना शुरू कर चुके हैं. केंद्र में नीतीश कुमार हैं. सब से ज्यादा निगाहें उन पर ही हैं कि उनका क्या होगा? यह सवाल सहज और स्वाभाविक भी है. नीतीश कुमार हालिया दिनों में बिहार में सिर्फ एक नेता, एक मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं उभरे, बल्कि अंधेरे में उम्मीदों की तरह भी नजर आए. उनका राजनीतिक कद इस कदर बढ़ गया था कि वे देश के प्रधानमंत्री पद तक के दावेदार माने जाने लगे थे. परोक्ष तौर पर उस रेस में उनके चहेतों ने, उनके लोगों ने शामिल भी करवा दिया. हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से हुए उनके विवाद से उनकी छवि भी काफी प्रभावित हुई.

बहरहाल इन दिनों नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक पारी की सबसे मुश्किल लड़ाई में फंस गए हैं. बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर उन्हें मिल सकेगी या नहीं, यही उनकी लड़ाई और  उनकी राजनीतिक कमाई का सबसे प्रमुख एजेंडा हो गया है. उन्हें भी मालूम है कि इस बार के बिहार चुनाव में अगर वे परास्त हुए तो फिर परिस्थितियां ऐसी हैं या होने वाली हैं कि उन्हें दोबारा इस तरह दम लगाने और खम ठोंकने का मौका आसानी से नहीं मिलने वाला. नीतीश की जो तैयारियां हैं, संभव है वे चुनाव जीत भी जाएं, लेकिन क्या वे इस बार का चुनाव जीतकर भी जीतने जैसा अनुभव करेंगे? संभव है कि वे मुख्यमंत्री फिर से बन जाएं, लेकिन क्या वे दुबारा वही नीतीश कुमार बन पाएंगे, जिनकी राजनीति, सोच और कार्यप्रणाली की वजह से बदनाम बिहार ने देश को उम्मीद की एक किरण दिखाई थी और यह संभावना बनी थी कि इस जमाने में भी नेताओं के बीच से स्टेटसमैन पैदा होने की गुंजाइश शेष बची हुई है. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के तौर पर दसवें साल में प्रवेश कर चुके हैं. बीच में कुछ माह को छोड़कर, जब उन्होंने लोकसभा चुनाव के बाद जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री का पद सौंपा. नीतीश कुमार ने जब मांझी को पद सौंपा तब भी और जब मांझी से पद ले लिया तब पहले प्रशंसा हुई, बाद में उन्हें चौतरफा आलोचना भी झेलनी पड़ी. प्रशंसा की भी वजह थी. यह राजनीति की एक जरूरत थी. दोनो ही कदम नीतीश कुमार ने मजबूरी में और खुद को मजबूत बनाने के लिए भी उठाए. फिलहाल राज्य में एक अदद नेता की तलाश में भटकती भाजपा और दूसरे दलों में विकल्पहीनता वाले इस दौर में विकल्पहीन नेता बनकर नीतीश कुमार पूरे दम-खम के साथ मैदान में हैं और विकल्पहीनता की स्थिति ही उनके लिए जीत की सबसे बड़ी उम्मीद भी दे रही है. लेकिन सवाल यही है कि क्या वे जीतकर भी नायक बन पाएंगे?

सत्ता में एकाध पारी और खेलकर भी क्या नीतीश कुमार अपनी उसी प्रतिष्ठा को वापस अर्जित कर सकेंगे, जिसकी उम्मीद उनसे की जाती थी या एक सामान्य मुख्यमंत्री भर बनकर रह जाएंगे, जैसा कि देश के दूसरे राज्यों में हैं और पारी दर पारी सत्ता संभाल रहे हैं. यह सवाल बिहार में और बिहार के संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि पिछले एक साल में ही नीतीश कुमार की साख तेजी से गिरी है. सत्ता के समीकरण साधने और भविष्य में संभावनाओं को बनाने के लिए वे पल-पल इतने पाले बदलते नजर आए कि वैसा खेल राजनीति में बहुत ही सामान्य माना जाता है. बिहार में नीतीश के लिए यह चुनाव सिर्फ जीत-हार के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इस बार उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का आकलन खुद उनके मुकाबले ही होना है. अब तक उनका आकलन लालू और लालू-राबड़ी शासनकाल के मुकाबले किया जाता था. तब नीतीश अतुलनीय लगते थे, लेकिन अब वह लालू यादव के साथ हैं. लोकसभा चुनाव में तो नरेंद्र मोदी की आंधी की वजह से नीतीश दूसरे राज्यों की तरह भहराकर गिर गए.

अब विधानसभा चुनाव में असली परीक्षा होनी है कि क्या वे बिन भाजपा के भी उतने ही मजबूत हैं, जितने पिछले एक दशक से रहे हैं! जीत-हार के साथ ही कई और चीजों का आकलन भी होगा, मसलन क्या विनम्र नीतीश में जब-तब जो अहंकार हावी होता है, वह अब नहीं दिखेगा! क्या अब तक कई बार कथनी और करनी का जो फर्क दिखता रहा है, वह नहीं दिखेगा! क्या सिर्फ खुद की छवि साफ रखते हुए भी गलत किस्म के लोगों से छुटकारा नहीं पा सकने की विडंबना से वे मुक्ति पाने की कोशिश करेंगे! क्या अब तक नीतीश कुमार के जो संगी-साथी एक-एक कर उन्हें छोड़कर जाते रहे हैं या छोड़ने को मजबूर होते रहे हैं, वह सिलसिला रुक जाएगा!

ऐसे ही कई और सवाल हैं, जो नीतीश कुमार के लिए अब उठ रहे हैं और आगे भी उठते रहेंगे. इस चुनाव में पाॅपुलर पॉलिटिक्स करने के बावजूद ये सवाल उनके सामने बने रहेंगे और वही चुनौती भी होगी, जिससे उन्हें पार पाना होगा. संभव है नीतीश जीत हासिल कर लें, यह भी संभव है कि पहले से भी बड़ी जीत हासिल कर लें, लेकिन पिछले दस साल में जो सवाल उनसे जुड़े हुए हैं, जो चूक उनसे हुई है या वे करते रहे हैं, वे सारे के सारे इस चुनाव में भी उनके सामने आ सकते हैं.

भाजपा :  तब क्यों जुटे-अब क्यों हटे!

नीतीश कुमार इस चुनाव में सीधे-सीधे भाजपा से लड़ रहे हैं. लोकसभा चुनाव में भी वे भाजपा से लड़े थे लेकिन साथ ही लालू प्रसाद यादव से भी लड़ाई जारी रखे हुए थे. कायदे से यह पहला मौका ही होगा, जब उनकी पूरी ऊर्जा अपने उस जिगरी दोस्त से लड़ने में लगेगी, जिससे करीब डेढ़ दशक का साथ रहा और करीब आठ साल तक उन्होंने सत्ता का सुख भी भोगा. अब उसी भाजपा की वजह से अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ने को मजबूर हुए नीतीश कुमार के सामने एक बड़ा सवाल यह है कि आज अगर राज्य में भाजपा उन्हें चुनौती देने की स्थिति में है तो इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार तो नहीं? ऐसा इसलिए क्योंकि नीतीश से जुड़ने से पहले तक भाजपा का दायरा दक्षिण बिहार, जो अब झारखंड है, में सिमटा रहता था. नीतीश से मिलने के बाद ही भाजपा का बिहार में दायरे का विस्तार शुरू हुआ. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो भाजपा से गठजोड़ के बाद ही नीतीश कुमार बिहार में सत्ता पाने लायक नेता बनने की ओर अग्रसर होना शुरू हुए.

‘नीतीश कुमार को भोज रद्द नहीं करना चाहिए था. यह तो ऐसे भी बहुत भद्दी बात थी कि किसी को अपने घर खाने पर बुलाकर उसे अपमानित कर भोज रद्द कर देना. और फिर जब एक बार इतनी तल्खी बढ़ा ही दी थी तो फिर भाजपा के साथ बने रहने का कोई औचित्य नहीं था, उसे छोड़ देना चाहिए था’

शिवानंद तिवारी, पूर्व जदयू नेता

अब जब वह भाजपा को देश तोड़ने वाली पार्टी से लेकर सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाली पार्टी तक बोल रहे हैं, और बार-बार यह भी बता रहे हैं कि कैसे जनता पार्टी से लेकर बीपी सिंह सरकार तक को गिराने का खेल भाजपा करती रही है, तब यह सवाल उठता है कि क्या नीतीश यह सब पहले से नहीं जानते थे. क्या भाजपा एकबारगी से ऐसा हो गई. भाजपा के साथ नीतीश का जुड़ाव तब हुआ था जब भाजपा एक तरीके से अछूत सी थी. बाबरी विध्वंस के बाद तक भाजपा अछूत ही मानी जाती थी. लेकिन उसके पक्ष में हिंदुत्व की लहर का उभार हुआ था. तो क्या यह माना जाना चाहिए कि नीतीश भी उसी हिंदुत्व की लहर पर सवार होने के लिए भाकपा माले जैसे वामपंथी सहयोगी का एक झटके में साथ छोड़कर सीधे नब्बे डिग्री पर पाला बदलते हुए दक्षिणपंथी भाजपा के साथ हो गए थे. बात सिर्फ तब जुड़ने की भी होती तो एक बात होती. उसके पक्ष में नीतीश के पास तर्क रहता है कि भाजपा से उन्होंने एजेंडे पर सहमति बना ली थी तब भाजपा को सांप्रदायिकता से दूर कर दिया था. लेकिन गोधरा कांड के बाद इसे लेकर खूब आलोचना हुई.

भाजपा का सांप्रदायिक चेहरा फिर से उजागर हुआ लेकिन नीतीश तब भी साथ बने रहे. इसका जवाब नीतीश के पास अब तक नहीं होता. भाजपा से राहें अलग करने की बात इतनी ही नहीं रही. उनका अलगाव भाजपा के नाम पर नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के नाम पर शुरू हुआ. इसके लिए वे आडवाणी को ऐसे नेता के तौर पर स्थापित करने में ऊर्जा लगाने लगे, जैसे आडवाणी भाजपा के विचारों से अलग कोई दूसरे नेता हो. बाबरी विध्वंस के लिए रथ यात्रा के जरिए माहौल बनाने वाले आडवाणी, नीतीश कुमार के लिए बेहतर नेता बनते गए, मोदी से उनकी दूरी बनती गई और एक समय ऐसा आया जब मोदी के नाम पर उन्होंने पटना में भाजपा नेताओं को दिए भोज तक रद्द कर दिया. हालांकि उसके बाद भी नीतीश के लोग यह बताने की कोशिश करते रहे कि भाजपा के साथ वे इसलिए जुड़े हैं, क्योंकि उन्हें देश बनाना है, बिहार बनाना है और लालू-राबड़ी के आतंक राज से बिहार को मुक्त रखना है. धीरे-धीरे वह भाजपा को छोड़ नरेंद्र मोदी से दुश्मनी जैसा रिश्ता निभाने लगे. भाजपा से रिश्ते का यह एक टर्निंग पॉइंट था. नीतीश कुमार के साथ रहे नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि भोज रद्द ही नहीं करना चाहिए था.

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अपने से दूरी नीतीश कुमार के कभी बहुत करीबी रहे जीतन राम मांझी ही अब उनके सबसे बड़े दुश्मन हो गए

इससे पूरे बिहार में संदेश गया कि नीतीश व्यक्तिगत तौर पर अहंकारी नेता हैं और दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तरक्की से उन्हें सौतिया डाह हो गया है, इसलिए उन्होंने बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ आए पैसे भी लौटाए और भोज भी रद्द कर दिया. तिवारी कहते हैं, ‘यह तो ऐसे भी बहुत भद्दी बात थी कि किसी को अपने घर खाने पर बुलाकर उसे अपमानित कर भोज रद्द कर देना. और फिर जब एक बार इतनी तल्खी बढ़ा ही दिया था तो फिर भाजपा के साथ बने रहने का कोई औचित्य नहीं था, उसे छोड़ देना चाहिए था.’

यह बात सही है कि नीतीश कुमार को इतनी तल्खी के बाद भाजपा का साथ छोड़ देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने दूसरे रास्ते निकाले. वे नरेंद्र मोदी को अछूत साबित करने में लगे रहे. वे मोदी से हाथ मिलाने और उनके साथ फोटो खिंचवाने से भी बचते रहे. यह नीतीश कुमार की बड़ी भूल थी. ऐसा व्यावहारिक तौर पर होता नहीं कि आप एक पूरे परिवार से मेल रखने की कोशिश करें और उसके सबसे प्रिय सदस्य को ही गालियां देते रहे. भाजपा नीतीश को तब ही समझ चुकी थी, जब वह उनके साथ जुड़ी थी. इसलिए वह शुरू से ही अपने दायरे के विस्तार के अभियान में लगी रही जबकि नीतीश भाजपा से जुड़कर इतने निश्चिंत हुए कि अपनी पार्टी के विस्तार तक की चिंता छोड़ पूरी तरह भाजपा पर आश्रित होते चले गए. नतीजा यह हुआ कि नीतीश द्वारा भोज वगैरह रद्द होने और मोदी से दुश्मनी का रिश्ता शुरू करने के बाद 2010 में जब बिहार विधानसभा चुनाव हुआ तो 141 सीटों पर चुनाव लड़कर नीतीश की पार्टी ने 115 पर जीत हासिल की जबकि भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 को अपने खाते में कर लिया था. उसके एक साल पहले जब लोकसभा चुनाव हुआ था तो भी भाजपा ने नीतीश के साथ रहते ही 40 में से 12 सीटों पर कब्जा जमा लिया था. यह नीतीश के लिए खतरे की घंटी थी.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी को अछूत साबित करने में लगे रहे. वे मोदी से हाथ मिलाने और उनके साथ फोटो खिंचवाने से भी बचते रहे. यह नीतीश कुमार की बड़ी भूल थी 

नीतीश के साथ रहते ही भाजपा ने अपनी यह ताकत दिखा दी थी. बाद में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद वह भाजपा से अलग ही हो गए. तब बिहार में 2014 के लोकसभा चुनाव में क्या परिणाम आया, यह सबने देखा-जाना. भाजपा ने लोकसभा चुनाव में नीतीश को वहां पहुंचा दिया, जहां पहुंचने के बाद लालू यादव तक ने भी उनसे बढ़त ले ली और उनकी राह में सिर्फ और सिर्फ रोड़े ही रोड़े बच गए. उनके पास सिर्फ एक विकल्प बचा कि वे राजनीतिक जिंदगी में एक बार फिर से यू टर्न लें और उन्हीं लालू यादव से जा मिले, जिनका विरोध कर और जिन्हें एक जिंदा खलनायक के तौर पर मजबूत कर वे वर्षों खुद को मजबूत करने की सियासत करते रहे थे. इस स्थिति तक पहुंचने में भाजपा के समानांतर ही नीतीश की भी भूमिका रही.

मांझी प्रयोग : क्यों बनाया, क्यों हटाया

2014 में लोकसभा चुनाव के पहले अपने सबसे बड़े दुश्मन नरेंद्र मोदी की वजह से वर्षों के प्यार के बाद यार से दुश्मन बनी भाजपा से जब नीतीश का अलगाव हुआ तो उन्हें भरोसा था कि वे खुद के दम पर लोकसभा चुनाव की नैया पार कर लेंगे. इतना ही भरोसा नहीं, उन्हें यह भी विश्वास था कि वे भाजपा और लालू  दोनों को एक साथ परास्त कर देंगे. लेकिन भाजपा भारी जीत हासिल करने में कामयाब रही और हाशिये की ओर जाते लालू भी नीतीश की पार्टी से ज्यादा बढ़त हासिल करने में सफल हो गए. यह नीतीश के लिए दोहरा झटका था. नए दुश्मन से भी हार और पुराने दुश्मन से भी हार. तब उन्होंने नैतिकता की दुहाई दी, एक बड़ा प्रयोग किया. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और बहुत सोच-विचारकर, कई उपलब्ध विकल्पों में से सबसे भरोसेमंद और आसानी से हैंडल किए जाने लायक नेता जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया.

नीतीश तब भी गलती कर रहे थे. पार्टी के अंदर खूब हो-हल्ला मचा. इसके बावजूद नीतीश लोकसभा चुनाव हारकर भी बड़ी जीत हासिल करते दिखे. अपने इस साहसिक और ऐतिहासिक फैसले से वे बडे़ नायक बने. नीतीश ने लगे हाथ उत्साह में ऐलान किया कि वे अब संगठन का काम देखेंगे और सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. तब दुनिया में नीतीश की तारीफ हो रही थी. तारीफ सुनने के आदि और अभ्यस्त हो चुके नीतीश तब फूले नहीं समा रहे थे. बेशक यह एक बड़ा प्रयोग था. बड़े साहस का काम भी लेकिन नीतीश तब कुछ बातों को भूलकर यह प्रयोग कर रहे थे. जीतनराम मांझी के बारे में उन्हें जानकारी थी कि वे अच्छे दिनों का साथ देने वाले नेता रहे हैं. जब कांग्रेस के बेहतर दिन थे, मांझी कांग्रेस के साथ थे. राजद के अच्छे दिन आए थे तो मांझी राजद वाले थे और जब नीतीश कुमार के अच्छे दिन आने वाले थे तब मांझी उनके पाले में आ गए थे. यानी मांझी अच्छे दिनों में साथ रहने के अभ्यस्त नेता थे. नीतीश यह भूल गए थे कि वे मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश की बजाय बेहतर संभावनाओं को ज्यादा तरजीह देंगे. इसमें कोई बुराई भी नहीं थी, क्योंकि यही काम नीतीश भी करते रहे थे. जब उन्हें जरूरत थी तब वाम दलों के साथ राजनीति करते और जब जरूरत पड़ी थी भाजपा के साथ आ गए थे. मांझी ने वही किया, जो होना तय था. इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी कि मांझी एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे लेकिन नीतीश कुमार लगातार मांझी मामले को डील करने में चुकते गए.

मांझी उस समुदाय के नेता थे या हैं, जिस समुदाय को राजनीतिक स्वर देने का काम लालू यादव के बाद नीतीश ने ही किया. नीतीश ने ही दलितों में से भी ‘महादलितों’ को अलग कर एक नई धारा बहाई. मांझी उसी धारा के एक प्रमुख नेता थे. नीतीश ने जब उन्हें राजपाट सौंपा था तो हटाने की प्रक्रिया अलग होनी चाहिए थी लेकिन नीतीश ने दूसरा रास्ता अख्तियार कर लिया. और खुद मौन साधकर अपने लोगों से लगातार मांझी पर बयानों के हमले करवाते रहे. मांझी को एक अराजक राज कायम करने वाला नेता और कुशासन का प्रतीक बताते रहे. यह एक बड़ी भूल की तरह रही. एक तरीके से नीतीश खुद को ही कटघरे में खड़े करते रहे. बिहार को फिर से कुशासन की ओर जाने की बात करते रहे और जनता के बीच यह संदेश जाता रहा कि यह उन्हीं की वजह से हो रहा है. ना वे  मांझी का प्रयोग करते और ना ऐसा होता.

बीते लोकसभा में नीतीश कुमार को दोहरा झटका लगा. भाजपा की भारी जीत हुई. हाशिये की ओर बढ़ चले लालू भी नीतीश की पार्टी से ज्यादा बढ़त बनाने में सफल हुए. वे नए दुश्मन से भी हारे और पुराने दुश्मन से भी

दूसरी ओर मांझी इस बात का प्रचार करते रहे, जो बहुत स्वाभाविक भी था कि एक दलित को कुर्सी पर बैठाकर नीतीश फिर से सत्तासीन होने के लिए ऐसे आरोप लगा रहे हैं. दलित का अपमान कर रहे हैं. वे उन्हें कठपुतली बनाकर रखना चाहते थे. मांझी लगातार आक्रामक होते रहे और नीतीश लगातार अपने लोगों से उन पर वाक प्रहार करवाते रहे. कभी नीतीश के दल के अनंत कुमार ने मांझी को पागल करार दिया तो कभी किसी दूसरे ने भस्मासुर की उपाधि दे दी. ऐसा करके नीतीश एक ऐसी भूल करती रहे, जिसका हिसाब-किताब शायद बहुत जल्दी चुकता नहीं होने वाला, इस विधानसभा में जीत हासिल करने के बाद भी. मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने, फिर हटाने और उसके पहले जदयू नेताओं ने जिस तरह से मांझी की फजीहत की, उसमें भाजपा की भूमिका होते हुए भी नीतीश की गरिमा कम हुई. यह माना गया कि दरअसल नीतीश ने तब जिस कुर्सी का त्याग किया था वह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बल्कि मोदी की हार से व्यक्तिगत अहंकार और भ्रम के टूटने का फौरी असर था. साथ ही मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर वे किसी दलित को सत्ता के शीर्ष पर उभरने का मौका नहीं दे रहे थे बल्कि एक बेहतर कठपुतली चाहते थे.

बेशक तब नीतीश की मजबूरी थी, क्योंकि अगर वे मांझी को सत्ता से नहीं हटाते तो भाजपा राज्य में राष्ट्रपति शासन की स्थिति पैदा करवाती और फिर विधानसभा चुनाव में अपने अनुकूल माहौल तैयार करती. फिलहाल मांझी भाजपा के साथ गठजोड़ कर चुके हैं. कल को उनका कितना असर होगा, अभी कहना मुश्किल है. लेकिन यह तय है कि नीतीश कुमार की गिनती अब सदा-सदा कांग्रेसी परंपरा वाले उन नेतृत्वकर्ताओं की श्रृंखला में होगी, जिन्होंने समय-समय पर दलित नेतृत्व को कठपुतली की तरह शीर्ष पर बैठाकर इस्तेमाल करने की कोशिश की. मांझी कल को क्या कर पाएंगे, कहना कठिन है. वे चुनाव में दलितों का कितना वोट अपने, भाजपा या गंठबंधन की ओर पक्ष में करवा पाएंगे, यह अनुमान लगाना मुश्किल है. लेकिन मांझी प्रकरण से संभावनाओं के एक नए द्वार बिहार की राजनीति मे भी खुले हैं.

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘बिहार की सियासत अब उत्तर प्रदेश की राह पर आ चुकी है. दलित और पिछड़ों की राजनीति अलग होगी. आज दस्तक पड़ी है, कल इसका असर दिखेगा. जब ऐसा होगा तो नीतीश कुमार को इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति तो की लेकिन जाने-अनजाने पिछड़ों तक ही राजनीतिक नेतृत्व को समेटे रखने में ऊर्जा लगाए रहे. नीतीश कुमार कहते हैं, मांझी विभीषण साबित हुए, पीठ में खंझर भोका. उधर, मांझी कह रहे हैं, लालू को हटाने के लिए नीतीश टीम बनाकर भाजपा की गोदी में बैठ गए थे और वर्षों सत्ता सुख भोगा तो वह सही और मैं गलत!’

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