Home Blog Page 1347

पत्रकारों का भविष्य और भविष्य की पत्रकारिता

Indian_Newspapers

पांच साल या हो सकता है कि दो साल में ही, पूरा सीन बदल जाएगा. और बदलेगा इतनी तेजी से और इतना ज्यादा कि शक्लोसूरत पहचान में नहीं आएगी. मेरा अनुमान है कि दो साल के बाद इस देश में कुछ करोड़ लोग पत्रकारिता कर रहे होंगे और 80 फीसदी से ज्यादा पत्रकारों के पास करने के लिए कुछ और काम होगा या कोई काम नहीं होगा. मैं पत्रकारों की नौकरियां जाने की ही बात कर रहा हूं.

अमेरिकी स्कॉलर एन. कूपर ने आज से कुछ साल पहले कहा था, ‘सवाल यह नहीं है कि पत्रकार कौन है. सवाल यह है कि पत्रकारिता कौन कर रहा है.’ क्या वह आदमी पत्रकार माना जाएगा, जिसने राडिया टेप कांड के बारे में, मेनस्ट्रीम कहे जाने वाले मीडिया में, पहली लाइन लिखे या बोले जाने से पहले टेप को यूट्यूब पर डाल दिया था और एक पत्रिका में पहली बार राडिया टेप के बारे में रिपोर्ट होने से पहले लाखों लोगों को पता था कि राडिया टेप कांड हो चुका है और वे इस बारे में कमेंट और जवाबी कमेंट पढ़कर अपना नजरिया भी बना चुके थे. वे किसी के बताने के पहले जान चुके थे कि इस देश में कॉरपोरेट पब्लिक रिलेशन का तंत्र

इतना ताकतवर हो चुका है कि वह केंद्रीय मंत्रिमडल में कौन होगा और कौन नहीं और कौन-सा मंत्री किस विभाग में होगा, आदि तय कर रहा है.

और अगर वह शख्स पत्रकारिता कर रहा था, जिसने राडिया टेप को यूट्यूब में डाला, तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि भारत भी करोड़ों पत्रकारों के युग में प्रवेश कर चुका है. पूरी दुनिया में और खासकर पश्चिमी दुनिया में मास मीडिया के क्षेत्र में जो चल रहा है, उसने अब भारत को भी अपनी चपेट में ले लिया है. जो लोग इस बदलाव को नोटिस नहीं करना चाहते, वे किसी एक दिन जगेंगे, तो उन्हें लगेगा का सब कुछ बदल चुका है.

हालांकि इंटरनेट के जरिए भी, हम तक ज्यादातर समाचार परंपरागत टीवी चैनलों और अखबारों के पोर्टल के जरिए ही पहुंच रहे हैं, फिर भी आज एक आदमी जिसके पास ढाई-तीन हजार रुपये का स्मार्टफोन है और 10 रुपये का इंटरनेट पैक है, वह अपनी किसी सूचना या समाचार को टेक्स्ट, फोटो या वीडियाे के जरिए करोड़ों लोगों तक पहुंचाने की ताकत रखता है. हालांकि यह बात सिद्धांत रूप में ही सच है और ऐसा अक्सर नहीं होता, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह संभव है. अब देश दुनिया की कई सूचनाएं हम तक इसी तरह पहुंचने लगी हैं.

परंपरागत पत्रकारों के लिए यह चुनौतीपूर्ण स्थिति है. इंटरनेट की वजह से लोग पहले से ही तमाम माध्यमों से खबर लेने में सक्षम हो चुके हैं. ऐसे में करोड़ों पत्रकारों के युग में उनके लिए विश्वसनीय होने और सबसे अलग होने की चुनौती भयंकर शक्ल ले चुकी है. एक दुर्घटना या किसी नेताजी के एक भाषण का जो वीडियो हर किसी के पास है या प्रधानमंत्री का एक ट्वीट जो सबके पास है, उसके बारे में कोई पत्रकार अलग से ऐसा क्या बताएगा, जिसे जानने देखने के लिए एक ग्राहक अखबार खरीदे या टीवी देखे? किसी रैली में सैकड़ों की भीड़ को लाखों की भीड़ बताने के दौर का भी अंत हो चुका है. ऐसा कोई पत्रकार अपनी साख खोने के जोखिम के साथ ही कर सकता है. वर्तमान समय में अगर पत्रकारिता पेशे की इज्जत निम्नतम स्तर पर पहुंच चुकी है और पिछले दस साल में जिस भी फिल्म में पत्रकार आया है, वह विलेन या मसखरे की शक्ल में आया है, तो इसकी दर्जनों वजहों में से यह भी एक है कि समाचारों के ग्राहक अब कई माध्यमों के बीच अपना सच चुनने की स्थिति में आ गए हैं.

उपभोक्ताओं के लिए न्यूज कंज्यूम करने का प्लेटफॉर्म लगातार बदल रहा है. मिसाल के तौर पर मेरे अपार्टमेंट में जो न्यूजपेपर एजेंट सारे फ्लैट्स में अखबार देता है, उसने मुझे कुछ दिलचस्प जानकारियां दीं. उसकी दी कई जानकारियों में यह सूचना इस लेख के लिए महत्वपूर्ण है कि 2200 फ्लैट वाले इस अपार्टमेंट में जिन फ्लैट्स में रहने वाले सारे लोग 25 साल से कम उम्र के हैं, वहां कोई अखबार नहीं जाता. जाहिर है, 25 साल से कम उम्र के लोग देश दुनिया की सूचनाओं और समाचारों से अनजान नहीं हैं. शायद वे पुरानी पीढ़ी से ज्यादा अवेयर है, फर्क सिर्फ यह है कि उन लोगों ने सूचनाएं लेने का तरीका बदल लिया है. इन लोगों के लिए सूचनाओं का माध्यम वेब हो चुका है. पूरी दुनिया के साथ भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है.

एक और बदलाव यह है कि सूचनाओं और समाचार का प्राथमिक स्रोत सोशल मीडिया बनता जा रहा है. फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन जैसे माध्यम अब बड़ी संख्या में लोगों के लिए वह जरिया बन चुके हैं, जहां उन्हें देश, दुनिया या पड़ोस में होने वाली हलचल की पहली जानकारी मिलती है. ऐसे लोग कई बार न्यूज वेबसाइट पर जाते होंगे और इस बारे में कोई स्टडी नहीं है कि कितने लोग सोशल मीडिया में कोई सूचना पाने के बाद ऐसा नहीं करते. लेकिन सूचना के पहले स्रोत के रूप में सोशल मीडिया का स्थापित होना स्थापित तथ्य बनता जा रहा है. इसके महत्व का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक और अब तो कंपनियां भी कई बार अपनी घोषणाएं सबसे पहले सोशल मीडिया पर डाल रही हैं.

एक समय था जब केंद्र सरकार की खबरें मीडिया को देने वाली संस्था प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो यानी पीआईबी पत्रकारों को प्रेस रिलीज जारी करता था. यह रिलीज छपे हुए कागज पर पत्रकारों को मिलती थी. प्रेस रिलीज पाना पत्रकारों का विशेषाधिकार था. इसके बाद वे इस सूचना को अगले दिन अखबारों के जरिए पाठकों को पहुंचाते थे. लेकिन अब अरसा हो चुका है जब पीआईबी पत्रकारों को प्रेस रिलीज जारी करता था. अब प्रेस रिलीज पीआईबी की वेबसाइट पर अपलोड की जाती हैं और जिस समय ये रिलीज पत्रकारों को मिलती है, उसी समय दुनिया के हर उस व्यक्ति के पास यह होती है, जिसके पास इंटरनेट है और जिसकी प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो की रिलीज में दिलचस्पी है. कई कंपनियां भी प्रेस रिलीज अपनी साइट पर अपलोड करने लगी हैं. सूचनाओं के सीमित और नियंत्रित प्रवाह के अभ्यस्त पत्रकारों के लिए यह नई और कुछ के लिए तो यह विषम परिस्थिति है.

टीवी पर समाचार अब भी देखा जा रहा है. लेकिन समाचार के परंपरागत अर्थों में देखें तो टीवी का समाचार समाचार नहीं है. वह दरअसल मनोरंजन है और टीवी सीरियल से यह सिर्फ इस मायने में अलग है कि इसमें तात्कालिक सूचनाएं हैं. टीवी समाचारों को लेकर न्यूजरूम की सोच से लेकर उसे पैकेज करने की प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि उसकी शक्ल एंटरटेनमेंट की हो, ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा समय तक टीवी से चिपके रहें. हालांकि इस शक्ल में भी टीवी का समाचार कब तक जिंदा रह पाएगा, इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. मनोरंजन के क्षेत्र में टीवी समाचारों का बाकी के मनोरंजन, खेल और फिल्म तथा कार्टून चैनलों के साथ कड़ा मुकाबला है. जिन लोगों ने समाचार के पहले स्रोत के तौर पर वेब को स्वीकार कर लिया है, उनके लिए टीवी समाचारों का समाचार के तौर पर महत्व खत्म हो चुका है. दिल बहलाने के लिए वे बेशक टीवी चैनल देखते हैं.

एक और बड़ा बदलाव जो आते-आते रह गया है और कभी भी आ सकता है, वह है वेब पर न्यूज देखने के लिए ब्रॉडबैंड का फ्री होना. यानी, अब जब आप कुछ खास वेबसाइट पर जाएंगे तो वहां सर्फिंग करने पर आपका ब्रॉडबैंड खर्च नहीं होगा. ऐसी साइट्स में न्यूज साइट्स भी हो सकती हैं. ‘नेट न्यूट्रलिटी’ के नाम पर भारत के बड़े समाचारपत्र और टीवी समूहों की सामूहिक लॉबिंग की वजह से हालांकि यह होना टल गया है लेकिन परंपरागत मीडिया कॉरपोरेशन इसे कब तक रोक पाएंगे, यह देखना होगा.

देश के ज्यादातर न्यूज चैनल लंबे समय तक फ्री टू एयर रहे और कई न्यूज चैनल अब भी फ्री टू एयर हैं. इन्हें दिखाने के लिए केबल ऑपरेटर या डीटीएच प्लेटफॉर्म कोई फीस नहीं लेते. बल्कि न्यूज चैनल इस बात के लिए बड़ी रकम खर्च करते हैं कि उन्हें दिखाया जाए. इतना खर्च करके एक न्यूज चैनल खुद को फ्री टू एयर बना देता है और दिखाए जाने के लिए केबल और डीटीएच प्लेटफॉर्म को करोड़ो रुपये की फीस भी देता है तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ये चैनल विज्ञापन से कमाई करके उसकी भरपाई करने के मॉडल पर चलते हैं. इसी तरह अखबार भी अपने प्रोडक्शन कॉस्ट के चौथाई से भी कम कीमत पर इसलिए बेचे जाते हैं क्योंकि उनके लिए कमाई का मुख्य स्रोत सर्कुलेशन रेवेन्यू नहीं, बल्कि एड रेवेन्यू है.

टीवी और प्रिंट में जिस तरह फ्री या कम कीमत पर माल बेचने का चलन है, वह वेब पर न हो, इसका कोई कारण नहीं है. ये साइट अपनी कमाई और बाकी खर्च की भरपाई विज्ञापनों से करेंगे. अब कल्पना कीजिए कि फेसबुक जैसी सोशल साइट पर सर्फिंग करने से अगर ब्रॉडबैंड का खर्च न आए और अगर फेसबुक न्यूज देना शुरू कर दे तो? यानी फेसबुक, किसी खबर का लिंक न देकर सीधे सीधे खबर दे और फेसबुक देखने का ब्रॉडबैंड खर्चा जीरो हो तो क्या पत्रकारों की दुनिया वैसी ही रह जाएगी, जैसी अभी है?

मुझे नहीं लगता इसकी वजह यह है कि अपने भारी भरकम यूजर बेस के साथ फेसबुक, न्यूज स्पेस का बड़ा हिस्सा घेर लेगा. वह समाचारों के लिए किसी एक या दो समाचार संकलनकर्ता से समझौता करेगा जिनके साथ वह विज्ञापन रेवेन्यू साझा करेगा या जिनसे वह खबरें खरीद लेगा. इस तरह किसी एक बाजार में दर्जनों चैनलों और अखबारों की जगह एक या दो न्यूज विक्रेता रह जाएंगे, जिनका माल फेसबुक बेचेगा. न्यूज कंज्यूम करने वालों के लिए इसका मतलब यह होगा कि समाचार जानने का उनका खर्च शून्य हो जाएगा बदले में वे विज्ञापन देखेंगे और माल खरीदेंगे. फ्री टू एयर न्यूज चैनलों और लगभग कौड़ियों के मोल मिल रहे अखबारों के जरिए उसके साथ यही हो रहा है. फर्क सिर्फ यह है कि ऐसा ही वेब पर भी हो जाएगा. साथ ही फेसबुक अपने यूजर के सर्फिंग बिहेवियर को ध्यान में रखते हुए उसे प्राथमिकता के आधार पर वैसी खबरें देगा, जिनमें उनकी या उनके दोस्तों की दिलचस्पी है.

पत्रकारों के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक हो सकती है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि बड़ी संख्या में चैनल और अखबार बंद होंगे. पत्रकारिता तो फिर भी होती रहेगी. करोड़ों लोग पत्रकारिता कर रहे होंगे. सूचनाओं और समाचारों का प्रवाह पहले से कई गुना बढ़ चुका

होगा. लेकिन पत्रकार के पेशे का आकार बेहद छोटा हो चुका होगा.

पत्रकार महोदय, क्या आप यह सब होता हुआ महसूस कर पा रहे हैं?

(लेखक इंडिया टुडे के मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और अब भारतीय पत्रकारिता के सामाजिक चरित्र पर जेएनयू में शोधरत हैं)

टिटिहरी पत्रकार, बरसाती चैनल

Abhishek TV Graphic-F

फरवरी-2015 की गुनगुनी धूप और निजी कंपनियों के दफ्तरों से बजबजाता नोएडा का सेक्टर-63… दिन के बारह बज रहे हैं और एक बेरोजगार पत्रकार तिपहिया ऑटो से एक पता खोज रहा है. उसने सुना है कि यहां कोई नया समाचार चैनल खुलने वाला है. किसी माध्यम से उसे यहां मालिक से मिलने के लिए भेजा गया है. कांच के इस जंगल में करीब आधे घंटे की मशक्कत के बाद उसे वह इमारत मिल जाती है. हर इमारत की तरह यहां भी एक गार्ड रूम है. रजिस्टर में एंट्री करने के बाद उसे भीतर जाने दिया जाता है. प्रवेश द्वार एक विशाल हॉल में खुलता है जहां लकड़ी रेतने और वेल्डिंग की आवाज़ें आ रही हैं. एक खूबसूरत-सी लड़की उसे लेने आती है. ‘आप थोड़ी देर बैठिए, सर अभी मीटिंग में हैं’, उसे बताया जाता है. वह ऐसे वाक्यों का अभ्यस्त हो चुका है.

करीब आधे घंटे बाद लड़की उसे एक कमरे में लेकर जाती है. सामने की कुर्सी में बिखरे बालों वाला अधेड़ उम्र का एक वजनी शख्स धंसा हुआ है. ‘आइए… वेलकम… मौर्या ने मुझे बताया था आपके बारे में.’ बातचीत कुछ यूं शुरू होती है, ‘आप तो जानते ही हैं, हम लोग उत्तरी बिहार के एक खानदानी परिवार से आते हैं. अब बिहार से दिल्ली आए हैं तो कुछ तोड़-फोड़ कर के ही जाएंगे, क्यों?’ पत्रकार लगातार गर्दन हिलाता रहता है. हर दो वाक्य के बाद बगल में रखे डस्टबिन में वह शख्स पान की पीक थूकता है. ‘हम सच्चाई की पत्रकारिता करने वाले लोग हैं. हमें खरा आदमी चाहिए, बिलकुल आपकी तरह. बस इस महीने रुक जाइए, रेनोवेशन का काम पूरा हो जाए, फिर आपकी सेवाएं लेते हैं.’ पत्रकार आश्वस्त होकर निकल लेता है. उसके भरोसे की एक वजह है. चैनल का मालिक बिहार में एक जमाने के मकबूल कवि कलक्टर सिंह केसरी का पौत्र है. केसरी हिंदी की कविता में नकेनवाद के तीन प्रवर्तकों में एक थे. उसे लगता है कि हो न हो, आदमी साहित्यिक पृष्ठभूमि का है तो गंभीर ही होगा.

छह महीने बीत चुके हैं और उसके पास कोई फोन नहीं आया. उसे वहां भेजने वाले मौर्या ने पूछने पर बताया कि ‘न्यूज सेंट्रल’ नाम का यह चैनल खुलने से पहले ही बंद हो गया क्योंकि फंडर ने हाथ खींच लिया. दो महीने बाद बिहार विधानसभा के चुनाव हैं और ‘सच्चाई की पत्रकारिता’ करने वाले केसरी जी के पोते किसी नए जुगाड़ में हैं. जब-जब इस देश में कोई चुनाव आया है, यह कहानी हर बार तमाम लोगों के साथ दुहराई गई है,  दिल्ली में बीते साल 19 फरवरी से ‘डी6 टीवी’ की शुरुआत हुई थी. करीब छब्बीस लोगों के साथ शुरू हुए इस चैनल के बारे में अफवाह थी कि चैनल में कांग्रेसी नेता कपिल सब्बल का पैसा लगा है. चैनल से जुड़ने वाले पत्रकारों से कहा गया कि यह एक वेब चैनल है, आगे चलकर इसे सैटेलाइट करने की योजना है. उस दौरान यह चैनल सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए खोला गया था. यह बात कई कर्मचारी बखूबी जानते थे. चैनल के मालिक अशोक सहगल ने कर्मचारियों से बड़े-बड़े वादे किए. चुनाव के बाद मालिक ने बिना किसी पूर्व सूचना के 14 कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया. आज चैनल बंद पड़ा है और दर्जनों कर्मचारी सड़क पर हैं.

चुनावों और चैनलों का रिश्ता इस देश में उतना ही पुराना है जितनी टीवी चैनलों की उम्र है, लेकिन समय के साथ यह रिश्ता व्यावसायिक होता गया है जो आज की तारीख में विशुद्ध लेनदेन का गंदा धंधा बन चुका है. हर चुनावी चैनल के खुलने और बंद होने की पद्धति एक ही होती है. मसलन, किसी छोटे/मझोले कारोबारी को अचानक कोई छोटा/मझोला पत्रकार मिल जाता है जो उसे चैनल खोलने को प्रेरित करता है. उसे दो लोभ दिए जाते हैं. पहला, कि चुनावी मौसम में नेताओं के विज्ञापन व प्रचार से कमाई होगी. दूसरा, राजनीतिक रसूख के चलते उसके गलत धंधों पर एक परदा पड़ जाएगा. एक क्षेत्रीय चैनल खोलने के लिए दस करोड़ की राशि पर्याप्त होती है जबकि चिटफंड, रियल एस्टेट, डेयरी, खदान और ऐसे ही धंधे चलाने वाले कारोबारियों के लिए यह रकम मामूली है. शुरुआत में किराये पर एक इमारत ली जाती है और उपकरणों की खरीद की जाती है. अधिकतर मामलों में आप पाएंगे कि उपकरणों को खरीदने के लिए जिन व्यक्तिों या एजेंसियों की मदद ली जाती है, वे आपस में जुड़े होते हैं या एक होते हैं. आर्यन टीवी, मौर्या टीवी, कशिश टीवी, समाचार प्लस, बंसल न्यूज, खबर भारती, न्यूज एक्सप्रेस, महुआ न्यूजलाइन, आदि में मशीनरी के शुरुआती ठेकेदार एक ही थे. यह पैसा बनाने का पहला पड़ाव होता है. मसलन, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर इन्हीं तीन राज्यों में प्रसारण के लिए 2011 में एक चिटफंड समूह द्वारा खोले गए चैनल ‘खबर भारती’ में शुरुआत में विदेश से जो कंप्यूटर आए, वे होम पीसी थे. बाद में इन्हें लौटाया गया और इससे पैसा बनाया गया. इसी तरह विजुअल देखने के लिए पीआरएक्स नाम का जो सॉफ्टवेयर खरीदा गया, वह महीने भर बाद ट्रायल संस्करण निकला.

उपकरण खरीद के बाद संपादक मनचाहे वेतनों पर मनचाही भर्तियां करता है. फिर आती है लाइसेंस की बारी. कुछ चैनल लाइसेंस के लिए आवेदन कर देते हैं तो कुछ दूसरे चैनल या तो किराये पर लाइसेंस ले लेते हैं या खुले बाजार से कई गुना दाम पर खरीद लेते हैं. जैसे, ‘न्यूज एक्सप्रेस’ ने खुले बाजार से काफी महंगा लाइसेंस खरीदा था जबकि कुछ दूसरे छोटे चैनल ‘साधना’ से किराये पर लाइसेंस लेकर प्रसारण कर रहे थे. लाइसेंस किराये पर देने का भी एक फलता-फूलता धंधा चल निकला है. नोएडा से खुलने वाला हर नया समाचार चैनल ‘साधना’ के लाइसेंस पर चलता सुना जाता है. बहरहाल, पैसे कमाने का अगला पड़ाव चैनल का वितरण होता है. यह सबसे महंगा काम है. अधिकतर चैनल इसी के चलते मात खा जाते हैं. इन तमाम इंतजामों के बाद किसी भी नए चैनल को ऑन एयर करवाने में अधिकतम दो से तीन माह लगते हैं, जब पेड न्यूज का असली खेल शुरू होता है.

आजकल प्रायोजित खबरों यानी पेड न्यूज की कई श्रेणियां आ गई हैं- प्री-पेड न्यूज, पोस्ट-पेड न्यूज और हिसाब बराबर होने के बाद टॉप-अप. जितना पैसा, उतनी खबर. जितनी खबर, उतना पैसा. छत्तीसगढ़ में आज से तीन साल पहले सरकारी जनसंपर्क विभाग द्वारा ऐसे घालमेल का पर्दाफाश हुआ था, जिसके बाद पिछले साल जनवरी में राज्य के महालेखा परीक्षक (एजी) ने राज्य सरकार को टीवी विज्ञापनों के माध्यम से उसके प्रचार पर 90 करोड़ के ‘अनावश्यक और अतार्किक’ खर्च के लिए झाड़ लगाई थी. एक जांच रिपोर्ट में एजी ने कहा था कि समाचार चैनलों को जो भुगतान किए गए, वे कवरेज की जरूरत के आकलन के बगैर किए गए थे और कुछ मामलों में तो इनके लिए बजटीय प्रावधान ही नहीं था. केवल कल्पना की जा सकती है कि अगर एक राज्य एक वित्त वर्ष में 90 करोड़ की धनराशि चैनलों पर अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है, तो किसी भी कारोबारी को इसका एक छोटा सा अंश हासिल करने में क्या गुरेज होगा. चुनावों के बाद बेशक कमाई के न तो साधन रह जाते हैं, न ही चैनल को जारी रखने की कोई प्रेरणा. एक दिन अचानक चैनल पर ताला लगा दिया जाता है और सैकड़ों कर्मचारी सड़क पर आ जाते हैं.

जाहिर है, इसका असर खबरों पर तो पड़ता ही है क्योंकि ऐसे चैनल खबर दिखाने के लिए नहीं, बल्कि विशुद्ध कमाई के लिए खोले जाते हैं. झारखंड में पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान रांची में चुनाव आयोग ने वहां के एक समाचार चैनल ‘न्यूज 11’ के खिलाफ गलत खबर के प्रसारण पर एक मामला दायर किया था. चुनाव आयोग ने खबर को आचार संहिता के खिलाफ और बदनीयती माना था. इस चैनल ने मतदान के एक दिन पहले यह खबर चला दी थी कि सदर विधानसभा सीट पर भाजपा को टक्कर कांग्रेस नहीं, निर्दलीय प्रत्याशी दे रहा है. काफी देर तक चली इस खबर का असर मतदान पर पड़ा और नतीजतन अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस से हटकर निर्दलीय प्रत्याशी की ओर हो गया.

समाचार चैनलों को टिकाए रखना कितना घाटे का सौदा है, यह हाल में बंद हुए या संकटग्रस्त कुछ चैनलों की हालत से समझा जा सकता है. चिटफंड समूह पर्ल ग्रुप द्वारा संचालित ‘पी7’ के मामले को देखें तो कह सकते हैं कि देश के इतिहास में पहली बार हुआ जब किसी चैनल पर कर्मचारियों ने कब्जा कर लिया और परदे पर यह सूचना चला दी, ‘सैलरी विवाद के कारण पी7 न्यूज हुआ बंद.’ इसी तरह ‘टीवी-9’ के एक एंकर ने बुलेटिन के बीच में ही वेतन भुगतान का मामला उठा दिया था और चैनल की स्थिति का पर्दाफाश कर दिया था. सहारा समूह का ताजा मामला हमारे सामने है जहां हजारों कर्मचारियों की आजीविका दांव पर लगी हुई है. नोएडा के श्रम आयुक्त के सामने एक माह का वेतन देने संबंधी हुए समझौते के बावजूद उसका पालन नहीं किया गया है जबकि वेतन छह माह का बाकी है. मीडिया के बड़े-बड़े नामों को अपने साथ जोड़ने वाले न्यूज एक्सप्रेस, भास्कर न्यूज, जिया न्यूज और सीएनईबी बंद पड़े हैं. एक और चिटफंड समूह का चैनल ‘लाइव इंडिया’ बंदी के कगार पर है, उसके बावजूद उसने अपने अखबार और पत्रिका को रीलॉन्च करने के लिए लोगों को टिकाए रखा है जबकि रीलॉन्च के लिए मुकर्रर तीन तारीखें गुजर चुकी हैं. कुख्यात दलाली कांड के बाद खुला नवीन जिंदल का ‘फोकस न्यूज’ बंद होने के कगार पर है जबकि ‘इंडिया न्यूज’ के क्षेत्रीय चैनल वितरण की मार से जूझ रहे हैं और प्रसारण के क्षेत्रों में ही वे नहीं दिखते. घिसट रहे चैनलों में एक तरफ हजारों मीडियाकर्मी हैं जिनके सिर पर लगातार छंटनी और बंदी की तलवार लटकी है, तो दूसरी ओर बंद हो चुके चैनलों से खाली हुए तमाम पत्रकार हैं जो ऐसी ही किसी जुगत में फंडर या नए बरसाती मेंढकों की तलाश कर रहे हैं.

समाचार चैनलों की बदनाम हो चुकी दुनिया इसके बावजूद थकी नहीं है. उत्तर प्रदेश के चुनावों के ठीक बाद नोएडा फिल्म सिटी में ‘महुआ’ के चैनल ‘न्यूजलाइन’ में पत्रकारों की सबसे पहली सफल हड़ताल हुई थी. इस बारिश में वहां से एक नया कुकुरमुत्ता उग रहा है. तीन साल के दौरान तीन चिटफंडिया चैनलों में भ्रष्ट मालिकों के संसर्ग का तजुर्बा ले चुके एक मझोले कद के पत्रकार कहते हैं, ‘छह महीने का टारगेट रखा है मैंने… एक लाख का प्रस्ताव दे दिया है. मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो अपना क्या जाता है.’ इस चैनल की कमान एक पिटे हुए पत्रकार के हाथ में है जो सहारा से लेकर अरिंदम चौधरी के प्लानमैन मीडिया तक घाट-घाट का पानी पी चुके हैं. इस दौरान ‘न्यूज सेंट्रल’ से निकलने के बाद मौर्या नाम का शख्स एक नए ‘प्रोजेक्ट’ पर काम कर रहा है- नाम है ‘ग्रीन टीवी.’ वह कहता है, ‘क्या करें भाई साहब… कुछ तो करना ही है.’

बिहार चुनाव तो सिर पर है, लेकिन बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव में अभी काफी वक्त बाकी है. वहां भी नए ‘प्रोजेक्ट’ की तलाश में पुराने पत्रकार नए मालिकों को बेसब्री से तलाश रहे हैं. यहां चुनावी चैनलों की आहट तो फिलहाल नहीं सुनाई दे रही है, लेकिन पर्ल समूह की पत्रिका ‘शुक्रवार’ को लखनऊ में नया मालिक मिल चुका है और राज्य सरकार की छत्रछाया में ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ का प्रकाशन शुरू हो चुका है जिसके पहले अंक में मुलायम सिंह यादव को भारत का फिदेल कास्त्रो बताया गया है. हर दिन यहां मारे और जलाए जाते पत्रकारों की हृदयविदारक खबरों के बीच मीडिया और सत्ता की अश्लील लेन-देन मुसलसल जारी है. आकाश में टकटकी लगाए टिटिहरी पत्रकारों को बस चुनावी बूंदें टपकने का इंतजार है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

चिराग तले अंधेरा

Main Picपारले-जी के एक छोटे पैकेट में लगभग 316 कैलोरी होती है. औसत रूप से स्वस्थ व्यक्ति को एक दिन में लगभग 2500-3000 कैलोरी की जरूरत होती है. अमित पांडेय दिन में दो बार यानी दोपहर के खाने के समय और रात के खाने में पारले-जी के इस छोटे पैकेट से गुजारा कर रहे थे. ऐसा कई हफ्तों तक चला और आखिरकार भूख के कारण उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया और लखनऊ के एक अस्पताल में अमित ने दम तोड़ दिया.

मगर ये अमित पांडेय हैं कौन और आखिर क्यों उन्हें ऐसी मौत मिली? अमित सहारा समूह के टीवी न्यूज चैनल ‘समय’ (उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड) में असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे और खराब आर्थिक स्थिति के चलते बिस्कुट खाकर जीने को विवश थे. उन्हें तीन महीनों से वेतन नहीं मिला था और स्वाभिमानी अमित को दोस्तों से आर्थिक सहायता मांगना गवारा नहीं था. वो अपनी भूख को नजरअंदाज करते हुए इस उम्मीद में संस्था के लिए काम करते रहे कि कभी तो प्रबंधन वेतन देगा. अमित की मौत के बाद चैनल ने ये बकाया राशि उनके परिजनों को दी.

टीआरपी के शोरगुल में उठती हेडलाइंस और ब्रेकिंग न्यूज की भूलभुलैया में अमित की मौत की खबर कहीं गुम हो गई या यूं कहें कि गैर-जरूरी समझकर नजरअंदाज कर दी गई. ये मौत पूरी भारतीय मीडिया के लिए आंखें खोलने वाली हो सकती थी पर स्थानीय अखबार के पन्नों में एक छोटी खबर बनकर रह गई. मीडिया संस्थानों के संपादकों और प्रबंधन ने भी इससे नजर फेरना ही ठीक समझा- शायद पहली बार नहीं, न ही आखिरी बार. अमित की मौत से मीडिया पर कोई फर्क नहीं पड़ा. सहारा मीडिया के विभिन्न विभागों में कार्यरत हजारों कर्मचारी अब भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें कई महीनों से तनख्वाह नहीं मिली है- कुछ बताते हैं कि छह महीनों से वेतन नहीं मिला क्योंकि प्रबंधन कहता है कि उसके पास पूंजी ही नहीं है.

जुलाई, 2012 में महुआ टीवी चैनल के 150 से ज्यादा कर्मचारियों को ह्यूमन रिसोर्स (एचआर) विभाग द्वारा सूचना दी जाती है कि चैनल के मालिक पीके तिवारी ने चैनल को बंद करने का निर्णय लिया है. मगर इस बात पर एचआर ने चुप्पी साध ली कि कर्मचारियों का बकाया वेतन कब दिया जाएगा और चैनल बंद करने के हर्जाने के रूप में उन्हें क्या मिलेगा. एक दिन पहले तक वहां सब सामान्य था. इस सूचना को देने के लिए एचआर ने योजनाबद्ध तरीके से इतवार का दिन चुना, क्योंकि सप्ताहांत पर कम ही कर्मचारी काम पर आते हैं, इसलिए उनके विरोध की संभावना भी कम हो जाती है. हालांकि कुछ ही मिनटों में सभी कर्मचारी नोएडा फिल्म सिटी में इकट्ठा होकर चैनल परिसर में विरोध पर बैठ गए और तब तक विरोध प्रदर्शन करने की बात कही जब तक उनके सभी भुगतान मिल न जाए. प्रबंधन ने पुलिस को बुला लिया, पानी की सप्लाई बंद करवा दी, बाउंसरों को बुलाने की भी धमकी दी पर कर्मचारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा. विडंबना देखिए कि ये सब देश के उस मीडिया हब में हो रहा था, जहां देश के लगभग सभी बड़े हिंदी और अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं. इन चैनलों के वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों से बार-बार निवेदन किया गया कि वो भी इस विरोध का साथ दें पर अपने साथी पत्रकारों के साथ हो रहा ये अन्याय इन चैनलों की टिकर लाइन में चलने वाली खबर में भी नहीं पहुंच सका. ये प्रदर्शन तीन दिनों तक चला जिसके बाद महुआ टीवी प्रबंधन कर्मचारियों की मांगें मानने के लिए विवश हो गया.

फिर अचानक एक दिन, बिना कोई कारण बताए महुआ टीवी के 125 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और पूरा भारतीय मीडिया चुप्पी साध लेता है! आज तीन साल बाद भी कई कर्मचारी बेरोजगार हैं तो कईयों ने आजीविका चलाने के लिए पत्रकारिता छोड़कर दूसरा काम शुरू कर दिया है. इन हालातों से जाहिर होता है कि कैसे भारत के मीडियाकर्मियों का एक बड़ा वर्ग अपने काम के साथ न्याय करने के लिए अपने कार्यस्थल पर लगातार आ रही ऐसी विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है.

नवंबर 2014 में, एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पी7 पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ में ये खबर चलने लगी : ‘वेतन को लेकर हुए विवादों के चलते पी7 न्यूज चैनल हुआ बंद’. ये खबर चैनल के आउटपुट डेस्क के कर्मचारियों के द्वारा चलाई गई थी, जिन्हें पिछले तीन महीनों से तनख्वाह नहीं मिली थी. हालांकि इन कर्मचारियों को निराशा ही हाथ लगी. उन्होंने सोचा था कि उनके विरोध के इस तरीके के बाद साथी मीडियाकर्मियों का सहयोग और सहानुभूति मिलेगी, लोग उनके समर्थन में आगे आएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. जब तक ये खबर चली चैनल का प्रसारण ‘ऑफ एयर’ हो चुका था. ये खबर सिर्फ दफ्तर के परिसर तक ही सीमित रह गई. इसके बाद कर्मचारियों ने वेतन भुगतान न करने को लेकर प्रबंधन के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया और चैनल निदेशक के केबिन के आगे धरने पर बैठ गए. उनका कहना था कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होतीं वे वहां से नहीं हटेंंगे पर नोएडा पुलिस ने उन्हें वहां से खदेड़ दिया. इन कर्मचारियों ने साथी पत्रकारों और मीडिया के बड़े नामों के सहयोग के लिए ‘जस्टिस फॉर पी7 एम्प्लॉय’ नाम से एक फेसबुक पेज भी बनाया. पर जब पी7 के ये कर्मचारी अपने प्रबंधन से न्याय के लिए लड़ रहे थे, बाकी मीडिया चैनलों और अखबारों ने इस ओर से आंखें मूंद रखी थीं. वाह! अपने पेशे के लिए क्या एकजुटता दिखाई!

यहां अगर आपको ये लगता है असंवैधानिक रूप से बर्खास्त किए जाने, विरोध प्रदर्शन करने के बावजूद भी इन कर्मचारियों को अपने मीडिया के साथियों का समर्थन नहीं मिला, ये मुख्यधारा की खबरों में इसलिए जगह नहीं बना पाए क्योंकि ये किसी नामी ग्रुप के चैनल से नहीं जुड़े थे तो ये गलत है.

16 अगस्त 2013 को नेटवर्क 18 ने अपने 300 कर्मचारियों को कॉस्ट कटिंग यानी खर्च में कटौती के नाम पर नौकरी से निकाल दिया. सीएनएन-आईबीएन में रिपोर्टर, कैमरामैन और तकनीशियन के बतौर काम कर रहे ढेरों कर्मचारियों के लिए ये सदमे की तरह था. इस तरह सामूहिक रूप से लोगों को बर्खास्त करने की खबर जंगल की आग की तरह फेसबुक और ट्विटर पर फैली पर इसके खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाने की बजाय मुख्यधारा के मीडिया ने फिर चुप रहना बेहतर समझा. निकाले गए अधिकतर कर्मचारी वे थे जो कथित रूप से एक समूह विशेष का हिस्सा नहीं थे, जिस वजह से ये ‘कॉस्ट-कटिंग’ का कारण महज बहाना लगता है. चैनल के एचआर विभाग को निकाले जाने वाले नामों की एक सूची दी गई थी और उन्होंने पूरी बेशर्मी दिखाते हुए इस पर अमल भी किया. एचआर ने इन कर्मचारियों को ‘टर्मिनेशन लैटर’ देते हुए दफ्तर से 10 मिनट के अंदर बाहर निकल जाने को कहा था. इस सामूहिक बर्खास्तगी पर उस समय सीएनएन-आईबीएन के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट कर ये प्रतिक्रिया दी, ‘चोट और दर्द अकेले ही सहने होते हैं. आपको अकेले ही शोक मनाना चाहिए. गुडनाइट…’ उस वक्त आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष थे, जिन्होंने बाद में आम आदमी पार्टी जॉइन की, मगर इस बर्खास्तगी पर उनके पास भी मौन के अलावा कोई जवाब नहीं था.

protest

इसके बाद इन निष्कासित कर्मचारियों ने विरोध करने की ठानी और इसके लिए आनन-फानन में ही ‘पत्रकार एकजुटता मंच’ बनाया गया और नोएडा फिल्म सिटी में नेटवर्क 18 के दफ्तर के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ. मीडिया के किसी चर्चित, प्रभावशाली व्यक्ति के इनके साथ न आने, यहां तक कि किसी समाचार चैनल द्वारा इस घटनाक्रम को कवर न करने, तवज्जो न देने से एक बार फिर ये साबित हो गया कि कैसे मीडिया अपने ही साथियों के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने से मुंह चुराता है! कैसे जरूरत पड़ने पर भी, मीडिया को चलाने वाले अपने ही साथी पत्रकारों और सहकर्मियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ खामोश रहे!

अलग-अलग समय पर हुईं ये चार घटनाएं, एक ही-सा कारण, मीडिया द्वारा एक समान नजरअंदाजी! क्यों मीडिया में इसके अपने कर्मचारियों-पत्रकारों आदि के साथ हुए इस अन्याय को प्रसारित करने का साहस नहीं है? वो आखिर इतनी सहनशीलता क्यों दिखा रहे हैं? जवाब वरिष्ठ पत्रकार जेपी शुक्ल देते हैं, ‘अधिकतर सभी मीडिया संस्थान, खासकर टीवी चैनलों के मालिक बड़े कॉरपोरेट घराने, रियल एस्टेट या चिट-फंड कंपनियों से जुड़े लोग हैं. मीडिया एक छोटा क्षेत्र है जहां ऊंचे पदों पर बैठे सभी लोग एक-दूसरे को जानते हैं, ऐसे में अपने ही लोगों के खिलाफ कौन रिपोर्ट करेगा?’

यहां एक और विडंबना भी है. अपने साथियों के खिलाफ हो रहे अन्याय पर मौन हो जाने वाला मीडिया किसी ‘आउटसाइडर’ के द्वारा इनकी कार्य-पद्धति पर सवाल उठाने पर बौखला के उसके खिलाफ हो जाता है. नवंबर 2011 में भारतीय प्रेस काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मीडिया पर एक ऐसी ही तीखी टिप्पणी की थी. सामान्य रूप से पूरे मीडिया के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए काटजू ने कहा था कि मीडिया में अधिकांश लोग बहुत ही निम्न स्तर का बौद्धिक कौशल रखते हैं, साथ ही उन्हें अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन या साहित्य के बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं है. इस पर और गंभीर होते हुए जस्टिस काटजू ने यहां तक कहा कि भारतीय मीडिया लोगों के हित के लिए काम नहीं करता.

काटजू के इस बयान पर मीडिया के हर धड़े में बौखलाहट देखी गई. भाषा और क्षेत्र के बैरियर को तोड़ते हुए सभी टीवी चैनल एक स्वर में काटजू की निंदा कर रहे थे. ‘काटजू ने हदें पार कीं’ और ‘सठिया गए हैं काटजू’ दो ऐसी हेडलाइंस थीं जो चैनलों पर लगातार चल रहीं थीं. ये निसंदेह एक ऐसी बात थी जहां मीडिया अपनी गलतियों की अवहेलना करते हुए उन पर गर्व का अनुभव कर रहा था.

[box]

चैनलों से मीडियाकर्मियों के निकाले जाने की खबरें सुर्खियां नहीं बटोर पातीं. मीडियाकर्मी अपने ही साथियों के साथ हो रहे अन्याय से किनारा कर लेते हैं

[/box]

वरिष्ठ पत्रकार और निजी हिंदी समाचार चैनलों की पहली द्विभाषी एंकर सुधा सदानंद बताती हैं, ‘टीवी समाचारों के संदर्भ में ‘विश्वसनीय मीडिया’ कहना ही एक विरोधाभास है, ठीक उसी तरह जैसे ‘दयालु तानाशाह’ कहना. वैसे दिलचस्प बात ये है कि चैनलों के एडिटर-इन-चीफ बिलकुल ऐसे ही व्यवहार करते हैं. कई बार खबरें इकट्ठी करके उनका प्रसारण करना एक गिरोह की कार्य-पद्धति जैसा होता है, जहां ‘मुखिया डॉन’ किसी नेता/अभिनेता/एनजीओ/फिल्म के खिलाफ सुपारी दे देता है और एंकर बिना कोई शोध किए, बिना पृष्ठभूमि जाने चिल्ला-चिल्लाकर उस बात को सनसनीखेज खबर में बदल देता है.’

काटजू की मीडिया पर टिप्पणी पर जहां टीवी मीडिया पूरे जोर-शोर से उनके खिलाफ दलीलें दे रहा था, वहीं अगर सोशल मीडिया की मानें तो लोग जस्टिस काटजू की बात से सहमत लग रहे थे. मीडिया की उस आक्रामक प्रतिक्रिया ने मीडिया के प्रति आम लोगों के दृष्टिकोण को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया था. अब दर्शक और पाठक मीडिया के लोगों की विश्वसनीयता पर प्रश्न करने लगे थे. मीडिया आलोचक सुदीप दत्ता कहते हैं, ‘जस्टिस काटजू का बयान पत्रकारिता की गंभीरता के प्रति उनकी जागरूकता का परिणाम था, मीडिया यहां इसे अपनी कमजोरियों को सुधारने के लिए प्रयोग कर सकता था पर उन्होंने नाराज होकर असल संदेश को ही कुचल दिया.’

जिन लोगों ने समाचार चैनलों, खासकर हिंदी समाचार चैनलों के लिए काम किया है वे अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी या प्रमोशन का मिलना आपकी शैक्षणिक योग्यता और पत्रकारिता कौशल के इतर कई अन्य बातों पर निर्भर करता है. एक राष्ट्रीय हिंदी समाचार चैनल के असिस्टेंट आउटपुट एडिटर बताते हैं, ‘जब संपादक किसी को नौकरी पर रखते हैं तो क्षेत्रवाद और किसी विशेष के लिए तरफदारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और फिर ऐसे पत्रकार से आप कैसे काम की उम्मीद रखेंगे जो अपनी योग्यता नहीं बल्कि किसी के प्रभाव के बलबूते चैनल में आया है?’ पर फिर अब योग्य पत्रकारों की आवश्यकता ही किसे है?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में देखें तो एक रिपोर्टर की भूमिका अब बस एक ‘साउंड-बाईट’ एकत्र करने वाले की हो गई है. संपादकों को अमूमन न्यूज रूम में रिपोर्टरों को धमकाते हुए सुना जा सकता है, ‘मैं एक कैमरामैन को ही किसी नेता की साउंड-बाईट लाने को भेज सकता हूं तो मुझे तनख्वाह देकर रिपोर्टर रखने की क्या जरूरत है?’

चैनलों में सुबह-सुबह होने वाली संपादकीय मीटिंग्स में दिनभर की खबरों के लिए जो एजेंडा बनाया जाता है वो मूलतः उस दिन के अखबार की खबरों पर आधारित होता है. रिपोर्टर्स को किसी मुद्दे विशेष पर किसी नेता की बाईट (मुख्यतः उनकी प्रतिक्रिया) लाने की जिम्मेदारी दी जाती है और ओबी वैन से कुछ लाइव फीड देने को कहा जाता है. अब खबरें फील्ड में नहीं बल्कि न्यूज रूम में बनती हैं. चैनल को गेस्ट-कोऑर्डिनेटर को कुछ ‘विशेषज्ञों’ को बुलाने को कहा जाता है. हर चैनल के पास अपने चुनिंदा विशेषज्ञ होते हैं. खबरें भले ही बदलती रहें पर ये विशेषज्ञ शायद ही कभी बदलते हैं. इन विशेषज्ञों में बेकार नेता, कुछ वरिष्ठ पत्रकार और कुछ समाजसेवी होते हैं. सुबह से ही इन बहसों के प्रोमो चैनल पर दिखते हैं और फिर घिसे-पिटे छह से आठ खिड़कीनुमा ग्राफिक में प्राइम टाइम पर इस मनोरंजक बहस को खबर के रूप में पेश किया जाता है. सुधा कहती हैं, ‘रिपोर्टर्स अब बेकार हो चुके हैं और डेस्क पर वो लोग हैं जिनमें बाहर यानी फील्ड में जाकर काम करने की कूवत ही नहीं है. महज तस्वीरों के लिए स्क्रिप्ट लिखना! क्या कोई बताएगा ये क्या मूर्खता है? खैर मुझे इस बारे में नहीं जानना कि किस खूबी के आधार पर प्राइम टाइम के लिए एंकर चुना जाता है. मुझे एक ऐसा चैनल बता दीजिये जहां पर एंकर शीर्ष पद का न हो, या ऐसा कोई खूबसूरत चेहरे का मालिक जिसे साधारण प्रश्न भी प्रोडक्शन कंट्रोल रूम से बताए जाते हों. हां अपवाद हैं पर वो बहुत ही कम हैं.’

मीडिया में ऐसी बातें इसलिए भी देखी जाती हैं क्योंकि अच्छी खोजी रिपोर्ट्स और सामाजिक रिपोर्ट्स के लिए निवेश की भारी कमी है. अधिकांश चैनल घाटे में चल रहे हैं तो ऐसे में उनका फोकस बस यही रहता है कि कैसे रिपोर्टर को बिना फील्ड में भेजे, दफ्तर में बैठे-बैठे ही ज्यादा से ज्यादा खबरें इकट्ठी कर ली जाएं- इस अभ्यास को सामान्यतया ‘आर्मचेयर जर्नलिज्म’ यानी कुर्सी पर बैठ कर की जाने वाली पत्रकारिता के रूप में जाना जाता है. और साफ सी बात है कि इस तरह बिना जमीनी विश्लेषण के की गई इस रिपोर्टिंग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना लाजिमी है. जमीनी रिपोर्टिंग की कमी की भरपाई स्टूडियो में होने वाली डिबेट या बहस से की जाती है, जो या तो निरुद्देश्य होती है या वही पुरानी बातें दोहराती हैं.

एक नामी हिंदी चैनल के संपादक बताते हैं, ‘ये सब टीआरपी का खेल है. हम वही दिखाते हैं जो ज्यादा बिकता है और हमें टीआरपी के चार्ट में ऊपर ले जा सकता है. लोग यही देखना चाहते हैं. कितने दर्शकों में किसी सामाजिक मुद्दे पर तीस मिनट लंबी डाक्यूमेंट्री देखने का धैर्य होता है?’ संयोग की बात ये है कि ये संपादक चैनल में दोहरी भूमिका निभाते हैं. पहली तो खबरों को देखना और दूसरा चैनल में रेवेन्यू जनरेशन यानी धन की आवाजाही का भी ध्यान रखना. ये संपादक आगे बताते हैं, ‘रिपोर्टर्स की महत्ता धीरे-धीरे कम होती जा रही है. मैं एजेंसीज द्वारा दी गई साउंड-बाईट के आधार पर 24 घंटे का एक समाचार चैनल चला सकता हूं. तो ऐसे में उसी नेता की वही साउंड बाईट लाने के लिए रिपोर्टर रखना सिर्फ फिजूलखर्ची होगी!’

क्या पत्रकारिता के बाहर की दुनिया न्यूजरूम, पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के प्रबंधन के बीच में होने वाली इन घटनाओं से वाकिफ है? शायद हां, क्योंकि जिस तरह की खबरों और विचारों को इकठ्ठा किया जाता है, इनका प्रसारण होता है उससे लोग प्रभावित होते हैं. न्यूज चैनलों के माध्यम से ही वो अपने आस-पास से लेकर दुनियाभर की गतिविधियों को जान पाते हैं और बेशक समाचारों का ये बदलता स्तर उनके जीवन को प्रभावित करता है.

खबरों के बनने और उन्हें प्रसारित करने में दूसरा प्रभावी पहलू किसी विशेष दृष्टिकोण की ओर झुकाव भी है. कोई भी दर्शक बहुत ही आसानी से बता सकता है कि कौन-सा चैनल किस पार्टी या विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है. ऐसे मुद्दे जहां पर घोर असहमति होती है वहां कई बार केवल एक ही पक्ष के हित की बात की जाती है और ईमानदारी से सच और असल तथ्यों को जानने की कोशिश नहीं होती. ऐसे में भ्रामक खबरों का प्रसार बढ़ता है. उदाहरण के लिए, अन्ना हजारे को या तो ‘दूसरा गांधी’ कहा जाता है या बदमाशों के दल का नेता! सामान्य रूप से गंभीर खबरों के गिरते स्तर के पीछे गैर-जरूरी समाचार चैनलों का लगातार मुख्यधारा में बने रहना भी है. उलटे-सीधे, निरर्थक नाईट ऑपरेशनों ने भी मीडिया का खासा नुकसान किया है. ऐसे कई चैनल किसी चुनाव के समय की अंधी दौड़ में शुरू होते हैं. ये किसी पार्टी विशेष का प्रचार करते हैं, विज्ञापनों से अपने हिस्से का धन बटोरते हैं और फिर काम खत्म होते ही रातोंरात चैनल बंद करके, सैकड़ों कर्मचारियों को बेरोजगार करते हुए निकल जाते हैं. ऐसा ही केस ‘जिया न्यूज चैनल’ का है जो 2014 के लोकसभा चुनावों के समय बड़े जोर-शोर से शुरू हुआ और चुनाव परिणाम आने के कुछ ही महीनों के अंदर बोरिया-बिस्तर समेटकर चलता बना.

मीडिया पर कम होते भरोसे के पीछे चिट-फंड कंपनियों का चैनल मालिक होना है. राष्ट्रीय चैनल न्यूज एक्सप्रेस का उदाहरण देखिए. इस चैनल की मालिक एक चिट-फंड कंपनी है और चैनल की संपादकीय नीतियां मालिक की जरूरतों के हिसाब से निर्धारित की जाती हैं.

ढेरों मुश्किलों और धमकियों से जूझ रहा मीडिया अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहा है, लोकतंत्र में तो मीडिया का महत्त्व और बढ़ जाता है, ऐसे में वर्तमान भारतीय मीडिया एक दोराहे पर खड़ा हुआ है. आज इनके द्वारा लिया गया कोई भी कदम भले ही सही हो या गलत, सोशल मीडिया पर उसका गहरा विश्लेषण किया जाता है. ये सारी जिम्मेदारियां उस पत्रकार की समझी जाती हैं जो किसी हलवाई की दुकान के मजदूर जितनी असुरक्षा में जी रहा है, जिसके ऊपर काम संबंधी सारे उत्तरदायित्व हैं पर उसके अधिकारों के बारे में कोई बात नहीं है. ये शायद इनकी नियति बन गई है पर क्या ये उचित है?

भुरभुरी दिल्ली में सब रामभरोसे चल रहा है

dilli

भूकंप के बारे में सोचते हुए हमें अपने कैलेंडर, इतिहास और प्रकृति का कैलेंडर और उसकी घटनाओं का इतिहास मन में दोहरा लेना चाहिए. आज दिल्ली राजधानी है लेकिन इससे पहले भी यह अलग-अलग लोगों को राजधानी की तरह अपनी सेवाएं दे चुकी हैं. हमलोगों की स्मृति में इस शहर का इतिहास तो कोई एक हजार साल का होना ही चाहिए. यह संभव है कि इतने समय के इतिहास में ऐसा कोई भूकंप नहीं आया हो जो हमें कड़वा सबक सिखा गया हो. यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यह शहर जिस जगह बसा है, वह भूकंप के लिहाज से कोई सरल जगह नहीं कही जाएगी. जिस पैमाने पर भूकंप की तीव्रता नापी जाती है, वह हमारा बनाया हुआ है. यह सही है कि पैमाना बहुत मेहनत से बनाया गया है लेकिन यह हमारा ही बनाया हुआ है. यह कोई जरूरी नहीं है कि प्रकृति ने वह पैमाना पढ़ रखा हो. प्रकृति को जिस दिन लगेगा वह उस दिन उससे कम या ज्यादा का नमूना दिखा सकती है. इसलिए दिल्ली शहर को किसी भी चीज का विस्तार करते हुए इस बात को अपने मन से कभी भी हटने नहीं देना चाहिए.

दुर्भाग्य से हम लोग ऐसे समय से गुजर रहे हैं जब आर्थिक नीतियों ने गांव से उजाड़कर शहर की ओर धकेला है. बांध, बिजलीघर, सड़कों का चौड़ीकरण आदि कई तरह की विकास की योजनाएं हैं. इन सबके नीचे जो भी चीजें आती हैं सबको उठाकर फेंक दिया जाता है. इस काम में न कोई संवेदना है और न ही व्यवस्था देने की कोई योजना है. लोग तो अपने-अपने पेड़ों से गिर जाते हैं और न जाने जब पेड़ की पत्तियां थोड़ी भी हिलती-डुलती हैं और थोड़ी भी हवा या आंधी चलती है तो वह सब उड़कर न जाने कहां चले जाते हैं. ऐसी सभी जगहों से उखड़े लोग अपने आसपास के शहरों की ओर ठेले जाते हैं. इन शहरों का आकर्षण कहिए या चुंबक, जो लोगों को अपनी ओर खींचते हैं. इन शहरों में कुछ लोग चाहकर और कुछ बिना चाहत के अपनी मजबूरी में आकर बसते है. ऐसे लोगों की सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं, इसे नहीं भूलना चाहिए. अपनी जगह छोड़कर जो लोग नई जगह पहुंचते हैं, उनका कोई स्वागत करने वाला नहीं मिलता है. उसे अपने रहने के लिए कहीं-न-कहीं छप्पर डालना होता है. इसी तरह से एक बस्ती बस जाती है, जिसका ठीक-ठीक नाम भी मेरी भाषा आजतक नहीं खोज पाई है. इसे हम कभी झुग्गी-झोपड़ी, मलिन बस्ती, गंदी बस्ती आदि कुछ कह देते हैं. इस तरह इन बस्तियों के कई नाम होते हैं. अंग्रेजी में तो इसे सीधे-सीधे ‘स्लम’ कहते हैं. शहर को बहुत सारी अनिवार्य सेवा देने वाली आबादी को हम तरह-तरह के अपमानजनक नामों से पहचान पाते हैं.

डीडीए के 10-20 साल पुराने मकानों की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है. कुछ इमारतों की हालत ऐसी है कि बिना भूकंप के ही कोई छू दे तो ये गिर जाए

इसमें एक वैध और अवैध शब्द भी जुटता है. प्रायः मुखर लोग जहां रहते हैं वो वैध इलाके कहलाते हैं और जहां अपनी जगह से उखड़े या उजड़े लोग रहते हैं, वो अवैध बस्तियां कहलाती हैं. चूंकि यह दौर संख्या का है इसलिए इनकी गिनती करने के लिए राजनेता या राजनीति करने वाले आगे आते है. इसके बाद राजनेता उनसे यह वादा भी करते हैं कि तुम अपना मत मुझे दे दो तो हम चुनाव जीतने के बाद आपके इलाके को वैध बना देंगे. जो राजनेता बस्ती को वैध बनाने की बात चुनाव के दौरान करते हैं, बाद में जब उनकी सरकार बन जाती है तब वे ही इन बस्तियों में बुलडोजर चलाने के लिए पहुंच जाते हैं. कभी शहर को सुंदर बनाने, कभी अवैध निर्माण, कभी सड़क, सफाई आदि के नाम पर बस्तियों पर बुलडोजर चलाए जाते हंै. कभी रात को मूसलाधार बारिश में, कभी एक-दो डिग्री की कड़क ठंड में तो कभी 47-48 डिग्री की आग बरसाती धूप में बस्तियों को निर्ममता से उजाड़कर फेंक दिया जाता था. यह शहर का एक मजबूरी वाला हिस्सा है, जिसे हम साधन-संपन्न कहते हैं जो पहले से वैध कही जानेवाली बस्तियों में रहता है. उसके सपने कुछ और बढ़कर हैं. इस आबादी के लोग दिल्ली के आसपास बसने वाली अटपटे नामों वाली कॉलोनियों में 20-30 लाख से लेकर अब तो 20-30 करोड़ वाली कॉलोनियों में अपनी जगह तलाशते हैं. जैसा हम गरीब लोगों की बस्तियों का नाम अपनी भाषा में ढूंढ़ नहीं पाए, वैसे ही हम वैध बस्तियों के नाम अपनी भाषा में तलाश नहीं कर पाए हैं. हमें ऐसी बस्तियों के नाम इतालवी और दूसरी भाषा के मिलते हैं जिसका मतलब हम नहीं जानते हैं. नोएडा, गुड़गांव और फरीदाबाद में कुछ कॉलोनियों में ऐसे नाम हमें मिल जाते हैं जिसके बारे में हम ‘ऐ…’ ही कह सकते हैं. ‘ऐ…’ कहने का मतलब यह कि भाई समझा नहीं जरा इसका मतलब बताना. इनमें रामपुर और रामनगर टाइप पते नहीं बसे हैं. जिस दौर में हिंदुत्व का सबसे अधिक शोर है उसमें से ऐसे नाम वाले पते शामिल नहीं हैं.

इन सब तरह की समस्याओं के बीच भूकंप के लिहाज से शहर को देखना भी जरूरी है. भगवान न करे कि ऐसा कोई भी दिन हमारी दिल्ली पर आए. लेकिन आए तो हमारी कोई तैयारी नहीं है यह कह देना ज्यादा सरल है. अवैध मानी जानेवाली बस्तियों में वैध तरीके से मकान खड़ा करने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती है. अपनी मेहनत-मजूरी से पैसे बचाकर एक-एक, दो-दो ईंट जोड़कर एक कमरा डाल लेते हैं, उसके ऊपर एक और कमरा ऐसा ही कुछ-कुछ करके डाल लेते हैं ताकि उसमें से कुछ किराया मिलने लगे. इस प्रयास में तीन-चार मंजिल का निर्माण तो हो ही जाता है. इन बस्तियों में ऐसे मकान भी होते हैं, केवल झुग्गियां ही नहीं होती हैं. इन मकानों में सबसे सस्ती और कमजोर सामग्री लगाई जाती है. एक तरफ तो यह है और दूसरी तरफ बड़े-बड़े बिल्डर हैं. उनके राजनीतिक संपर्क हैं. जमीनें भी उनमें से बहुतों ने अवैध तरीके से ली हैं लेकिन वो सब वैध बनती चली जाती हैं. उनके द्वारा बनाई गई बिल्डिंगों में किस स्तर की सामग्री लगी है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता. हालांकि जिस तरह से तुरंत पैसा कमाने की प्रवृत्ति दिखती है, उसके चलते उनकी बसाई बस्तियों के बारे में भी बहुत भरोसा नहीं जमता है. भगवान न करे कि ऐसा दिन आए कि वैध बस्तियों को शक्ति परीक्षण के दौर से गुजरना पड़े. संभव है कि हमारी दोनों ही बस्तियां प्रकृति के शक्ति परीक्षण में असफल हो जाएं. इन दो बसावटों के बीच दिल्ली की एक तीसरी बसावट वो है जिसे सरकारी माध्यमों से बनाकर खड़ा किया गया है. सरकारी बस्तियां हैं, सरकारी इमारतें हैं. दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के 10-20 साल पुराने मकानों की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है. इन इमारतों में से कुछ की हालत तो इतनी बुरी है कि बिना भूकंप आए ही कोई छू दे तो यह भरभरा के गिर जाएं. ये तो उन इमारतों में रहने वालों ने किसी तरह बस उसे टिकाए रखा है. इस तरह देखा जाए तो पूरी दिल्ली पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.

चाहे वह वैध बस्तियां हों या अवैध-दोनों जगहों पर नगरपालिका पानी की मांग पूरी करने लायक बची नहीं है. दोनों ही जगहों को अपने-अपने ढंग से पानी जमीन के नीचे से खींचना पड़ता है. हर जगह पंप, बोरिंग और हैंडपंप लगे हैं. ये पानी पीने लायक हैं या नहीं, यह एक अलग विषय है लेकिन इन दोनों ही इलाकों में से पानी रोज-रोज निकाला जाता है. भूजल स्तर के कम होने के साथ-साथ जो दबाव है, वह धीरे-धीरे कम होता जाता है. पानी के सोखे जाने से जमीन में एक खोखलेपन के वातावरण का भी निर्माण होता जाता है. इस साल से पहले इस बात का इतना खतरा नहीं था क्योंकि हर साल इतनी बरसात हो जाती थी कि एक तरफ जमीन से हम पानी निकालते हैं तो दूसरी ओर प्रकृति भरपूर पानी गिरा देती थी. हम कुछ बूंद जमीन से निकालते थे, प्रकृति कुछ बूंद ऊपर से गिरा देती थी. अब हमने प्रकृति के पानी डालने के रास्ते सड़कें बनाकर, मकान बनाकर, पार्क में टाइल्स लगाकर बंद कर दिए. हमने अपनी सार्थक भूमिका तो निभाई नहीं लेकिन प्रकृति के सार्थक भूमिका को भी बाधित कर दिया. अब ऐसे में खोखली होती जमीन को लेकर प्रकृति अपनी छोटी-मोटी हलचल में कितना नुकसान करेगी, इसका कोई वैज्ञानिक अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है. यहां सबकुछ रामभरोसे ही चल रहा है.

(स्वतंत्र मिश्र से बातचीत पर अाधारित)

तबाही का इंतजार करती दिल्ली

delhi_images_copy.107113609इस साल 25 अप्रैल को नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के झटके जब दिल्ली तक महसूस किए गए तो यहां अधिकारियों को आपदा प्रबंधन योजना की समीक्षा और उसे अपडेट करने के काम में लगा दिया गया. यह योजना कितनी अपडेट हुई इसका तो पता नहीं लेकिन अगर दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए) की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो भूकंप का खतरा अभी टला नहीं है. खतरा हमारे सिर पर मंडरा रहा है.

डीडीएमए की ‘हैजार्ड एंड रिस्क असेसमेंट’ रिपोर्ट बता रही है कि हम एक बड़ी तबाही का इंतजार कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में चेताया गया है कि राष्ट्रीय राजधानी को भूकंप का एक बड़ा झटका लग सकता है और इससे होने वाले नुकसान का असर एक परमाणु बम के हमले से कई गुना ज्यादा होगा. फिलहाल यह रिपोर्ट डीडीएमए के अध्यक्ष उपराज्यपाल नजीब जंग को सौंप दी गई है.

रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का भूकंपीय व्यवहार इन दिनों कुछ वैसा ही है जैसा 2001 में गुजरात का था. पृथ्वी का अध्ययन करने के लिए तिब्बत स्थित चीन के केंद्र और और दक्षिण पूर्व तिब्बत स्थित तिब्बती निगरानी केंद्र ने भी अपने अध्ययनों में कुछ ऐसे ही बदलावों का पता लगाया जो दिल्ली में भूकंप की ओर इशारा कर रहे हैं.

हैरत की बात ये है कि आपदा प्रबंधन से जुड़े हमारे जिम्मेदार जान-माल का नुकसान रोकने की योजना बनाने की बजाय किसी और ही चिंता में व्यस्त हैं. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस संबंध में जब डीडीएमए के सचिव (राजस्व/आपदा प्रबंधन) अश्विनी कुमार से पूछा गया तो उनकी चिंता कुछ और ही नजर आई. उन्होंने कहा, ‘भूकंप की घटना के बाद संचार सेवा ठप न पड़े और बचाव कार्य अबाध गति से जारी रखा जा सके, इसकी समीक्षा की जा रही है. मोबाइल टावरों को और मजबूत बनाने के लिए मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों के प्रतिनिधियों से बातचीत की जा रही है.’ अश्विनी कुमार आपदा की तैयारियों को लेकर यह बताना भी नहीं भूले कि अभी राजधानी दिल्ली में 48 घंटे के पावर बैकअप के साथ 7000 मोबाइल टावर हैं और आपदा की तैयारी के लिहाज से इनकी संख्या और क्षमता में वृद्घि के लिए मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों के साथ डीडीएमए सलाह-मशविरा कर रहा है.

आपदा से पूर्व क्षति को कम-से-कम करने के लिए डीडीएमए क्या एहतियात बरत रही है, इस बारे में विभाग की वेबसाइट पर दिए गए अलग-अलग अधिकारियों के अलग-अलग नंबरों पर लगातार कोशिश के बावजूद कोई बात करने को तैयार नहीं हुआ. सब टालमटोल करते रहे. कमोबेश यही हालत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) की भी है.

खैर, इस बारे में पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर बताते हैं, ‘दिल्ली में एक बार इस बात की कोशिश कुछ वर्ष पहले हुई थी कि यहां कितने मकान भूकंप के झटके बर्दाश्त कर सकते हैं. ताज्जुब है कि इस सर्वेक्षण को भी दस फीसदी से कम मकानों तक सीमित रखा गया और कभी दोबारा उसकी मॉनिटरिंग नहीं की गई. डीडीएमए का काम बतौर एहतियात मॉक ड्रिल आदि कराना है लेकिन यह भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित होता है.’ सच तो यह है कि एक सरकारी आंकड़े के अनुसार दिल्ली की 31 लाख इमारतें भूकंप के झटकों को सह पाने में पूरी तरह समर्थ नहीं हैं.

देश को भूकंप की संवेदनशीलता के लिहाज से चार अलग-अलग क्षेत्रों (2, 3, 4 और 5) में बांटा गया है. दिल्ली भूकंप क्षेत्र- 4 में आता है और संवेदनशीलता के लिहाज से यह बहुत ही जोखिम भरा क्षेत्र है. दिल्ली सरकार ने लगभग एक दशक पहले आपदा से निपटने की दिशा में महत्वपूर्ण इमारतों को झटके बर्दाश्त करने के लिहाज से तैयार कराने का निर्णय लिया था . डीडीएमए के एक अधिकारी ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि अभी तक महज तीन-चार इमारतों को भूकंप के झटके बर्दाश्त करने योग्य बनाया जा सका है. ऐसे आलम में डीडीएमए की वर्तमान रिपोर्ट किसी को भी कंपकंपा देने के लिए काफी हो सकती है.

रिपोर्ट के मुताबिक, ‘भूकंप का एक चक्र होता है. हम भारत के भूकंप के बड़े चक्रों पर गौर फरमाएं तो हमारी परेशानी और बढ़ सकती है. दिल्ली में इस लिहाज से 1999 के बाद से भूकंप का इस चक्र का आना बाकी है. यह आगामी 70 साल के दौरान कभी भी आ सकता है. अलग-अलग छोटे झटकों से आपदा टल रही है और अगले छह महीने तक कुछ नहीं होता है तो आगामी तीन साल तक कुछ नहीं होगा. लेकिन सभी प्रत्यक्ष घटनाओं को इकट्ठा करके देखें तो बहुत सुकून नहीं महसूस हो सकता.’

गौरतलब है कि 1999 में उत्तराखंड के चमोली में भूकंप आया था तब वहां जानमाल का भारी नुकसान हुआ था. चमोली, दिल्ली से 250 किलोमीटर दूर होने के बावजूद इसके झटकों से अछूता नहीं रह पाया था. इस भूकंप के दौरान दिल्ली की कई इमारतों में दरारें पड़ गईं थीं.

भूकंप चक्र क्या है, इस सवाल पर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘जब यह सूचना दी जाती है कि इस इलाके में 7-8 मैग्नीट्यूड क्षमता का भूकंप आना बाकी है और यदि चार मैग्नीट्यूड के भूकंप आ रहे हैं तब ऐसे बहुत सारे भूकंप और आएंगे. दरअसल भूकंप का काम धरती के अंदर पैदा हो रहे तनाव को बाहर निकालना होता है. अब इसे नेपाल में आए भूकंप के संदर्भ में समझा जा सकता है. नेपाल में 8.5 मैग्नीट्यूड का भूकंप आना था जबकि वहां इस साल के अप्रैल महीने में 7.8 मैग्नीट्यूड का भूकंप आया था. इसका मतलब यह है कि वहां धरती के नीचे बने तनाव को बाहर निकलने के लिए अभी 7.9 की तीव्रता वाले कम-से-कम 10 भूकंप आ सकते हैं. अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो छोटे-छोटे भूकंप के झटके, बड़े भूकंप के झटकों को स्थानांतरित नहीं कर सकते हैं.’

दिल्ली ही नहीं भूकंप के लिहाज से देश के अधिकांश हिस्से अति-संवेदनशील है. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर रिक्टर स्केल पर 6 मैग्नीट्यूड की क्षमता वाला भूकंप आ जाए तो देश का 70 फीसदी हिस्सा तबाही का शिकार हो सकता है जबकि दिल्ली में इस पैमाने के भूकंप से लगभग 80 लाख लोग काल के गाल में समा सकते हैं.

एनडीएमए की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 24 मेट्रो शहरों में से सात, जिनकी आबादी दो लाख से ज्यादा है, वे भूकंप क्षेत्र- 4 के अंतर्गत आते हैं. इन मेट्रो शहरों में दिल्ली, पटना, ठाणे, लुधियाना, अमृतसर, मेरठ और फरीदाबाद शामिल हैं. दिल्ली में खासकर ट्रांस-यमुना इलाके की मिट्टी जलोढ़ होने की वजह से भूकंप के झटके बर्दाश्त करने की क्षमता और भी कम हो जाती है. करेले पर नीम चढ़े की तर्ज पर यह इलाका अति सघन आबादी वाला है. इस इलाके के अधिकांश मकान भूकंप के झटके बर्दाश्त करने योग्य नहीं हैं जिसके चलते यहां जानमाल की क्षति ज्यादा होने की संभावना जताई गई है. एनडीएमए ने 1999 में चमोली में आए भूकंप के बाद एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार तब दिल्ली में सिर्फ तीन फीसदी मकान कंक्रीट के बने हुए हैं जबकि 85 फीसदी मकानों में ईंट और पत्थर का इस्तेमाल किया गया है.

old delhiइन मकानों में लोहे की छड़ या खंभों को उपयोग में नहीं लाया गया था. इस रिपोर्ट में अहमदाबाद जैसे आधुनिक शहरों के मकानों के बारे में चर्चा की गई है जिसके अनुसार ये शहर भूकंप के झटके सह सकने के लिहाज से नहीं बनाए गए हैं. उस समय देश के 8.22 लाख अभियंता और पुरातत्वविदों के बीच एक सर्वे आयोजित कराया गया था जिसमें से सिर्फ 14,700 लोगों यानी 1.79 % ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें भूकंप सुरक्षा अभियांत्रिकी का प्रशिक्षण प्राप्त है. इस भयावह परिदृश्य के बीच देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के अनुसार हिमालयी क्षेत्र की टेक्टॉनिक प्लेट 1 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से यूरेशियाई प्लेट की ओर सरक रही है जिसकी वजह से पृथ्वी में लगातार हलचल पैदा हो रही है.

सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार पांच मंजिल और उससे ज्यादा तल वाले मकान या फिर 100 से अधिक आबादी वाली हाउसिंग सोसाइटी में भूकंपरोधी प्लेट का उपयोग जरूरी हो. लेकिन इसे अमल में कितना लाया जा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है.

हुर्रियत: प्रासंगिकता पर प्रश्न

syed geelani(Left) with Umar Farooq at a protest. Photo by Javed Dar/Tehelkaपिछले साल नवंबर में जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के समय अलगाववादियों ने हमेशा की तरह चुनाव का बहिष्कार करने का फरमान जारी किया था. लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा और भाजपा अपने आक्रामक चुनाव प्रचार के कारण एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आई वैसे ही कुछ अलगाववादी धड़ों ने अपनी प्राथमिकता बदल दी. इतना ही नहीं इन्हें शह देने वाला पड़ोसी मुल्क भी घाटी में बदले माहौल से हैरत में है. इन धड़ों के कुछ नेताओं को पाकिस्तान की तरफ से हमेशा से ही उकसाया जाता रहा है. जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव पर हर बार पाकिस्तान की पैनी नजर बनी रहती है. बहरहाल अलगाववादी किसी भी सूरत में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को राज्य में नहीं आने देना चाहते थे. सूत्रों ने दावा किया है कि यही वजह है जिससे घाटी में अलगाववादियों के सबसे बड़े संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने चुनाव बहिष्कार करने के साथ राज्य के एक बड़े समुदाय को वोट न देने के लिए षडयंत्रपूर्ण तरीके से अभियान चलाया.

हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के एक शीर्ष नेता कहते हैं, ‘इस बात की निहित समझ बनी हुई थी कि अगर चुनाव में मतदाताओं की भागीदारी कुछ प्रतिशत बढ़ती भी है तो हमें परेशान होने की जरूरत नहीं है. माना गया था कि मतों में बढ़ोतरी भाजपा को सत्ता से दूर ले जाएगी.’ कुछ हद तक ऐसा हुआ भी. घाटी में भाजपा के एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका. इसके उलट जम्मू संभाग में भगवा परचम लहराते हुए भाजपा को 25 सीटें मिल गईं. यह राज्य में भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. इसके बाद राज्य में 28 सीटें जीतने वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) से गठबंधन कर भाजपा जम्मू कश्मीर की सत्ता में जगह पाने में कामयाब हो गई. इसके अलावा भाजपा को राज्य में पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के रूप में एक नया और महत्वपूर्ण साथी मिल गया. अलगाववादी से राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुए सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली इस पार्टी ने दो सीटों पर जीत दर्ज की है.

विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन को लेकर भाजपा और पीडीपी में कई दौर की बातचीत चली. कुछ मुद्दों पर सहमति बनती थी तो कुछ मुद्दों पर नाराजगी. आखिरकार तमाम मुद्दों पर दोनों दल एक हुए और मुफ्ती मोहम्मद सईद ने राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. तब गठबंधन को लेकर हो रही बातचीत के बीच मुफ्ती मोहम्मद सईद की दिग्गज हुर्रियत नेता अब्दुल गनी भट्ट से मुलाकात ने सबको हैरत में डाल दिया था. 1989 में अलगाववादी आंदोलन शुरू होने के बाद यह पहली बार था जब हुर्रियत का कोई नेता मुख्यधारा के किसी राजनीतिज्ञ को चुनाव में मिली सफलता पर बधाई देने के लिए उसके घर पहुंचा था.

[box]

वर्षों से राज्य के राजनीतिक धरातल पर हाशिये पर रहे अलगाववादी परेशान हैं कि पल-पल बदलते परिदृश्य में कहीं वे दर्शक मात्र न बनकर रह जाएं

[/box]

वास्तव में इस बार के विधानसभा चुनाव में लोगों की अभूतपूर्व भागीदारी और मुख्यधारा की राजनीति में विस्तार के चलते राज्य में भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई थी, जिसके चलते अलगाववादियों के हौसले पस्त हो गए. वर्षों से राज्य के राजनीतिक धरातल पर हाशिये पर रहे अलगाववादी इस बात से परेशान नजर आ रहे हैं कि पल-पल बदलते परिदृश्य में कहीं वे दर्शक मात्र न बनकर रह जाएं. इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि इन स्थितियों ने अलगाववादियों को अपनी कार्यप्रणाली को लेकर फिर से सोचने और आत्मावलोकन करने पर मजबूर कर दिया है. यह आत्मावलोकन इसलिए ताकि राज्य में न सिर्फ उनका अस्तित्व बचा रहे बल्कि वे राजनीति में अपनी खोई हुई जमीन वापस पा सकें.

अब सवाल ये है कि जम्मू कश्मीर में बढ़ती हुई अप्रासंगिकता के खिलाफ खुद को बचाने के लिए अलगाववादियों को कौन सी राह पकड़नी होगी? अभी इस सवाल का जवाब दे पाना थोड़ा मुश्किल है. हालांकि इसके इतर इस सवाल का जवाब ढूंढना उनके लिए अब कुछ ज्यादा ही जरूरी हो गया है. बीते कुछ हफ्तों में विभिन्न अलगाववादी धड़ों के नेताओं ने नई रणनीतियों पर विचार-विमर्श किया है. वहीं इनमें से कुछ समाज के दूसरे प्रतिनिधियों से सलाह लेने से भी नहीं चूक रहे हैं. सलाह के लिए इन्हें बाकायदा अपने यहां खाने पर भी बुलाया गया था. कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये दिख रहा है कि हुर्रियत को राज्य में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए मुख्यधारा की चुनावी राजनीति में उतरना चाहिए जिसका अलगाववादी लंबे समय से बहिष्कार करते रहे हैं. अलगाववादी आंदोलन की शुरुआत होने के बाद से ही हुर्रियत के सभी धड़ों ने चुनावी प्रक्रिया का बहिष्कार किया है. चुनावी प्रक्रिया को लेकर इन धड़ों की सोच में आया बदलाव भारत सरकार में विश्वास प्रकट करने के समान है.

लंबे समय से आतंकवादियों के जरिए जब तक सशस्त्र अभियान चलाए जाते रहे तब तक अलगाववादियों का राजनीतिक प्रभाव घाटी में मजबूत रहा है. हाल के समय में आतंकी गतिविधियों में आई कमी से वहां अलगाववादियों की स्थिति कमजोर हुई है. इन स्थितियों की वजह से तमाम अलगाववादी नेता यह सोचने को मजबूर हुए हैं कि आतंकी गतिविधियों की बजाय उन्हें खुद के राजनीतिक और वैचारिक ताकत के दम पर अपनी प्रासंगिकता फिर से कायम करनी होगी और खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का यह लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक हुर्रियत को वह राह न मिल जाए जिसकी बदौलत वो कश्मीरियों के हर दिन की समस्या को उठा सके.

अब चुनाव में भागीदारी के सवाल पर एक बड़ा मुद्दा ये है कि क्या अलगाववादी धड़ों को अपने उम्मीदवार उतारने चाहिए या फिर छद्म उम्मीदवारों के जरिए चुनाव में हिस्सा लेना चाहिए. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक वरिष्ठ अलगाववादी नेता की ओर से सलाह आई थी कि पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों के खिलाफ छद्म उम्मीदवार उतारे जाने चाहिए, लेकिन उनकी इस सलाह को खारिज कर दिया गया. ‘तहलका’ से बातचीत में एक नरमपंथी हुर्रियत नेता कहते हैं, ‘अगर उस प्रस्ताव को मान लिया गया होता तो मैं मुझे पूरा भरोसा है कि मुफ्ती सईद और उमर अब्दुल्ला की जमानत जब्त हो जाती. और भारत और विश्व के लिए यह हमारी तरफ से एक राजनीतिक संदेश भी होता.’

अब सवाल उठता है कि क्यों इस प्रस्ताव को नहीं माना गया? इसका कारण इस तथ्य में निहित है कि कश्मीर विवाद का समाधान एक ऐसा मुद्दा है जिसकी वजह से पिछले कई दशकों में चुनाव में हिस्सा लेना बहुत ही जटिल बना हुआ है. ऐसे में कश्मीरी लोगों को मनाने जैसे कठिन काम पर बात करने को लेकर हुर्रियत काफी चौकन्नी नजर आ रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि ये चुनाव का बहिष्कार काफी लंबे समय से करते चले आ रहे हैं. ऐसे में चुनाव में अपना या छद्म उम्मीदवार उतारने से अलगाववादियों के एजेंडे को झटका लगने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा यह एक तरह से घाटी में हुए सैन्य कब्जे को भी वैधता देने के समान होगा और चुनाव बहिष्कार की उनकी रणनीति को झटना देने वाला भी साबित होगा.  साथ ही इस मुद्दे की तरफ बढ़ाया गया कोई भी कदम नरमपंथी और चरमपंथी धड़े के बीच की असहमति को और बढ़ा देगा. आखिर में हमेशा यह सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान इस मामले के बीच आएगा?

बहरहाल, अभी इस मुद्दे पर चर्चा बंद दरवाजों के भीतर और हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के बहुत ही छोटे से हिस्से में हो रही है, जो चुनावी हस्तक्षेप के कुछ रूपों के पक्ष में हैं. यह धड़ा इस बात को लेकर आशावादी है कि ‘इस्लामाबाद’ इस मामले में उनका साथ देगा. इसी साल 23 मार्च को पाकिस्तान दिवस मनाने के आधिकारिक कार्यक्रम में पाक के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक से दो घंटे की मीटिंग की थी. वह सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल से भी मिले. साथ ही नरमपंथी धड़े के प्रमुख नेता अब्दुल गनी भट्ट से भी मुलाकात कर चुके हैं. भट्ट एक निष्ठावान नरमपंथी रहे हैं और लीक से हटकर कश्मीर समस्या का समाधान करने के समर्थक हैं. भट्ट उनमें से रहे हैं जिन्होंने चुनावी भागीदारी का हमेशा से विरोध किया है. उनका मानना है कि यह हुर्रियत के लिए ठीक रास्ता नहीं है. वह इस बात पर जोर देते हैं कि चुनाव मैदान में उतरे बिना भी राज्य में प्रासंगिक रहा जा सकता है. वह कहते हैं, ‘हम लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. मुफ्ती को उनका काम करने दीजिए, हम अपना काम करते रहेंगे.’

Jn Kबहुत से अलगाववादियों ने मुफ्ती सईद के ‘विचारों के युद्घ’ का समर्थन किया था, जिसमें उन्होंने वादा किया था कि चुनाव बाद सत्ता में आने पर वे घाटी में उनकी गतिविधियों को संचालित करने की अनुमति देंगे. राज्य में नई सरकार के कमान संभालने के ठीक बाद कट्टर अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने के फैसले से इस नीति की शुरुआत हुई. लेकिन अपनी ही रैली में पाकिस्तान के झंडे लहराने के बाद मसर्रत के फिर से गिरफ्तार हो जाने के बाद उनकी गतिविधियों पर एक तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया. तब गिलानी अधिकांश समय अपने घर तक सीमित रहा करते थे. इसके अलावा दूसरे नेताओं की गतिविधियों को भी कड़ाई से नियंत्रित किया गया था.

वहीं कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत भाजपा और पीडीपी के बीच एक महत्वपूर्ण सहमति ये बनी थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार कश्मीर मुद्दे पर बातचीत के लिए हुर्रियत से संपर्क करेगी, लेकिन उसके बाद से केंद्र सरकार की ओर से उठाए गए कदमों से अलगाववादियों को यह विश्वास होता चला गया कि वह सिर्फ एक चुनावी वादा था, जो तोड़ने के लिए किया गया था. इस संबंध में एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र से की गई बातचीत में एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘अलगाववादियों से बातचीत की किसी भी प्रक्रिया में केंद्र सरकार शामिल नहीं होगी. मुख्यमंत्री को खुद विकल्पों का मूल्यांकन करना है और अगर वे चाहते हैं तो उन्हें इसी आधार पर राज्य स्तर पर आगे बढ़ना होगा.’

इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ बातचीत भी अनिश्चित है, जिसने कश्मीर विवाद के समाधान की तरफ हो रही किसी भी प्रगति को रोका है. ऐसे में अलगाववादी धड़े निकट भविष्य में राजनीतिक तौर पर कोई भी प्रगति होते नहीं देख रहे. इन स्थितियों ने राज्य में हुर्रियत के विभिन्न धड़ों में अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है. वे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए. लगातार बदलते भू-राजनीतिक और राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में अपना अस्तित्व बचाते हुए स्थानीय राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनने में ये धड़े खुद को असमर्थ पा रहे हैं. इस दुविधा का नतीजा ये हुआ कि हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के आठ घटक चरमपंथी गिलानी के नेतृत्व में एक हो गए. भट्ट कहते हैं, ‘निश्चित रूप से इस बात की जरूरत महसूस होने लगी है कि हम अपनी रणनीतियों में फिर से संशोधन करें और ऐसा कदम उठाएंगे जो हमारे आंदोलन को मजबूत करने के लिए सबसे बेहतर साबित होगा.’

 

‘डोंगी से यात्रा में बार-बार महसूस हुआ कि आगे बढ़ना मुश्किल है’

safar ek dongi main dagmag_HBआपने दिल्ली के यमुना हेड (आगरा नहर) से अपनी यात्रा शुरू की और कोलकाता तक गए. डोंगी से पूरी की गई इस यात्रा के दौरान आप चंबल भी गए? इस अनोखी यात्रा के बारे में बताएं?

दिल्ली से आगरा नहर के जरिए मैंने अपनी यात्रा आगे बढ़ाई. धौलपुर से हम चंबल नदी में प्रवेश कर गए. चंबल में हमारी यात्रा के पांच से छह दिन गुजरे. इसके बाद हम पंचनद पहुंचे. यहां पांच नदियां (यमुना, चंबल, कुंआरी, सिंध और पहुज) मिलती हैं. यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के जगम्मनपुर का इलाका है जहां इन नदियों का संगम होता है. इसके बाद शेरगढ़, मूसानगर, फतेहपुर, बांदा, कौशांबी, इलाहाबाद पहुंचे. यहां यमुना गंगा में मिलती है. इलाहाबाद से बढ़ने पर अरैल, फिर तमसा नदी मिलती है. फिर विंध्याचल, चुनार से बनारस, गाजीपुर, जमनिया, बक्सर से आगे बलिया (बैरिया घाट). आगे चिरांध में गंगा से दो और नदियां मिलती हैं- सोन और घाघरा. फिर थोड़ा आगे जाकर गंडकी मिलती है और गंगा यहां बहुत विकराल हो जाती है. आगे चलकर गंगा में एक और बड़ी नदी मिलती है- कोसी. पटना, मोकामा, मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज, फरक्का, ब्रह्मपुर, बर्द्घमान होते हुए कोलकाता पहुंचे.

यात्रा के दौरान क्या कभी लगा कि अब आगे बढ़ना संभव नहीं होगा?

ऐसा तो यात्रा के कदम-कदम पर महसूस होता रहा. दिल्ली से शुरू किया तो यमुना में पानी ही नहीं था. चंबल नदी में घुसे तो लोगों ने कई बार चेताया कि आप कहां जाएंगे? यहां तो कदम-कदम पर खतरनाक डाकू मिलेंगे. मेरे साथ जो साथी दिल्ली से चले, उन्हें मैंने कहा कि आपको तैरना नहीं आता है, आप वापस चले जाइए. वे लखनऊ लौट गए. एक नए साथी ने वहां से मेरे साथ शुरुआत की तो वे इलाहाबाद तक मेरे साथ गए. नदी में जब यात्रा करने की दिशा के विपरीत हवा चलती तो बहुत परेशानी होती. मुंगेर, भागलपुर से आगे हवा की वजह से दस-दस फीट तक लहरें उठती थीं. मल्लाह गुनारी लगाते थे. रस्सी लगाकर चादर तान देते हैं अगर यात्रा की दिशा में यात्रा की जा रही है तो नाव तेजी से बढ़ती जाती है लेकिन हवा उल्टी दिशा में हो तो बहुत मुश्किल पेश होती है. पूरी यात्रा के दौरान हमेशा यह लगता रहा कि अब यहां से आगे कैसे बढ़ंे? लेकिन हम थोड़ा-थोड़ा बढ़ते रहे और यात्रा पूरी हो गई.

आपने अपनी डोंगी का नाम राहुल सांकृत्यायन के नाम पर राहुल रखा. राहुल जी की कौन-सी यात्रा का जिक्र आप करना चाहेंगे?

राहुल जी और मेरी यात्रा में बुनियादी अंतर यह है कि वे ज्ञान की खोज में निकलते थे. वे तिब्बत गए तो बहुत सारी बौद्घ-धर्म से जुड़ी पांडुलिपियां लेकर लौटे. मध्य एशिया गए तो उन्होंने दर्शन-दिग्दर्शन लिखा. उनका अनुवाद किया. अपनी हर यात्रा मैंने रोमांच और शौक के लिए की. राहुल जी ने भी कुछ यात्राएं अपने शौक व रोमांच के लिए की होंगी. हालांकि इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है. अबतक मैंने उनका जो भी यात्रा साहित्य पढ़ा है, उसके आधार पर यह कहा जाना ज्यादा सटीक है कि वे ज्ञान की खोज में भटकते रहे. एक ज्ञानी और घुमक्कड़ का राहुल जी दुर्लभ संयोग थे.

1975 में जब आपने यात्रा की तब फरक्का बैराज बन गया था?

हां, फरक्का बैराज उस समय बन गया था.

आपने अपनी यात्रा-वृतांत में गंगा किनारे की ठेकेदारी प्रथा का जिक्र किया है. इससे किनको दिक्कत पेश हुई?

मैंने अपनी किताब में इस बात का जिक्र किया है कि पहले नदी पार कराने के लिए डोंगियों का सहारा लिया जाता था जिसके बदले में उन्हें आसपास के गांवों के लोग साल में अनाज-पानी दे दिया करते थे. हालांकि अब भी नदी पार कराने का काम उन्हीं गरीब मल्लाहों के हाथ में है लेकिन उन्हें अब ठेकेदार के रहमोकरम पर जीना

पड़ता है. यह नुकसान कमोबेश गंगा के हर छोटे-बड़े घाट पर हुआ है.

गंगा के अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग तरह के प्रतिबंध घोषित किए गए हैं. मिसाल के तौर पर भागलपुर में  ‘डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र’  घोषित किया गया है?

मैं जब 1976 में इस इलाके से गुजरा था तब इस तरह के प्रतिबंध जैसी कोई बात नहीं थी. डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र आदि की घटना बहुत बाद की है. हां, यह जरूर है कि उस समय चंबल नदी में मगरमच्छ संरक्षित क्षेत्र विकसित करने के प्रयास शुरू हो गए थे.

फरक्का बैराज गंगा नदी पर बना और उससे बिजली भी मिलने लगी. लेकिन गंगा नदी पर उसका कितना असर पड़ा?

मैं नदी के बारे में ज्यादा नहीं बता पाऊंगा. मैं उस विषय का विशेषज्ञ तो हूं नहीं. मैंने यात्रा अपने शौक से की और जितना देखा और जो महसूस किया उसे अपनी किताब में दर्ज कर दिया है.

फिर आप कभी दोबारा फरक्का वाले इलाके में नहीं गए?

नहीं, मैं कभी दोबारा नहीं जा पाया.

लोग बताते हैं और मुझे भी याद है कि मुंगेर, भागलपुर और साहेबगंज वाले इलाके में गंगा का पाट बहुत चौड़ा होता था?

हां, राजमहल वाले इलाके में गंगा अपने व्यापक रूप में थी और एक किनारे से दूसरा किनारा नहीं दिखाई देता था. मुझे लगभग चार दशक बीत गए तो इस बीच गंगा में कितना पानी बह गया कैसे बताऊं? जाहिर है बहुत से बदलाव आए होंगे.

आपने इसके अलावा और कौन-कौन सी यात्राएं की हैं?

इस यात्रा से पहले मैं साइकिल से लखनऊ से काठमांडू गया और काठमांडू से लखनऊ वापस भी आया था. उस यात्रा के अनुभव मैंने ‘पहियों के इर्द-गिर्द’ किताब में दर्ज किए. वह किताब 1976 में ही प्रकाशित हो गई थी. मैंने नेवी वालों के साथ बनारस से बलिया तक नाव से यात्रा की. डोंगी से दिल्ली से कोलकाता तक की यात्रा करने से पूर्व दो अन्य यात्राएं मैंने की.

आप किताब में जिस इलाके के बारे में लिख रहे होते हैं, वहां की भाषा का छौंका भी डालने की कोशिश करते हैं?

जहां तक अलग-अलग इलाकों की भाषा एवं बोलियों के जिक्र का सवाल है तो मैं स्कूल के दिनों से डायरी लिखने का आदी रहा हूं. जिस इलाके से गुजरता था अपने काम की बातें वहां की भाषा में लिख लेता था. मेरे मां-पिता दोनों ही पढ़े-लिखे थे. घर में किताबें बहुत थीं. मेरी भी पढ़ने में दिलचस्पी शुरू से रही. मेरे पिताजी कहते थे कि खूब घूमो. घुमक्कड़ी से ज्ञान बढ़ता है. घूमने के साथ-साथ मैं डायरी भी लिखता था, अगर डायरी नहीं लिखता होता तो शायद यह किताब भी आज नहीं होती. डायरी में नोट लेने के बाद जब लिखने बैठा तो जिस इलाके के बारे में लिख रहा होता तो उसके बारे में उस इलाके के लोगों से पूछ लेता. मैंने अगर आगरा के आसपास की भाषा में कुछ लिखा तो अमृतलाल नागर से पूछ लिया या उन्हें दिखा दिया. उनका संबंध आगरा से बहुत गहरा रहा है. मैं इस तरह की मदद उनसे तो लेता ही था और दूसरों से भी लेने में कभी संकोच नहीं करता था. अब चंबल गए तो वहां के मेरे मित्र चंदू यादव मेरे साथ हो लिए. वे उसी इलाके इटावा के थे. उनकी भाषा तो आज भी मैं अच्छे से बोल-समझ और लिख सकता हूं. अवधी मुझे आती है. बनारस में कई साल रह चुका था तो भोजपुरी मेरे लिए अंजानी नहीं थी. लेकिन जब मुंगेर और भागलपुर की तरफ बढ़ा तो अंगिका के कुछ शब्द और वाक्य मैंने नोट कर लिए जिसका उपयोग मैंने किताब में किया है. बंगाल के इलाके से गुजरा तो मैंने वहां के जरूरतभर संवाद डायरी में नोट कर लिए.

हिंदी या उससे जुड़ी भाषाओं को थोड़ा सतर्क होकर समझने की कोशिश की जाए तो एक हिंदीभाषी परिवार को दूसरे हिंदीभाषी परिवार की भाषा समझने में शायद ही बहुत मुश्किल पेश आए?

हां, लेकिन किसी भी भाषा को बोलने के तरीके को आप नहीं पकड़ पाए तो फिर आपको मुश्किल होगी और उसमें से मजा जाता रहेगा. बोलियों की जान उसकी टोन ही है. टोन ही उसकी गमक है. टोन बरकरार रखने से उन भाषाओं के बोलने वाले आपकी फीलिंग तक पहुंच पाते हैं और आपकी कही या लिखी हुई चीजों से जुड़ते हैं. हालांकि मैंने यह यात्रा-वृत्तांत पेशेवर लेखक की तरह नहीं लिखा इसलिए पाठकों के जुड़ने के बारे में कभी सोचा नहीं था. मैंने चौमासा लिखे और उसमें 50 के करीब दोहे लिखे. बुंदेलखंड के इलाके के दोहे बुंदेलखंडी में लिखे तो वहां के लोगों ने समझा मैं उसी इलाके का हूं. जब उत्तराखंड पर लिखा तो वहां के लोगों को लगा कि मैं उत्तराखंडी हूं.

आप लिखते हैं कि यात्रा करने वालों की मुश्किल यह होती है कि अपने यात्रा के साथ छूट गए बहुत सारे लोग बाद में याद आते हैं लेकिन उनसे दोबारा मिलना शायद ही संभव हो पाता है. कोई ऐसा व्यक्ति या कोई पात्र है जिनकी याद जब-तब आती है या फिर उनमें से कोई ऐसा है जिन्होंने आपको कभी याद किया हो?

मैंने यह यात्रा 1976 में की थी और 1995 में मैं मूसानगर, पुरातत्व विभाग की ओर से गया तो वहां यमुना के घाट पर पहुंचते ही ठेकेदार ने मुझे तुरंत पहचान लिया. आप देखिए कि 20 साल तक उस व्यक्ति ने एक यात्री को इस तरह याद रखा था. मैं बतौर यात्री 23 की उम्र में गया था और विभाग के काम से जब दोबारा पहुंचा तब 42-43 का हो चुका था. इस बीच शारीरिक रूप से मुझमें बहुत परिवर्तन आ गए थे. मुझे यात्रा के दौरान ऐसे बहुत सारे लोग मिले जिनके नाम आज तो याद नहीं हैं लेकिन उन्होंने मेरी जो आवभगत की और जिस गर्माहट के साथ मिले, वो आज भी मेरे भीतर एकदम ताजा है.

हम दो व्यक्ति के कुछ खास गुणों के बारे में जिस तरह बात करते हैं तो अगर आपसे कहूं कि गंगा और यमुना के बारे में बताएं तो क्या कहेंगे?

यमुना एक स्थाई नदी है. उसने जमीन को काटकर अपना बहाव सुनिश्चित कर लिया है. यमुना गहरी नदी है. गंगा अभी भी अपने को स्थिर करने में लगी हुई है इसलिए उसका पाट चौड़ा है. उसका बहाव तेज है. यमुना में अधिकांश पानी विंध्य का है. यमुना में चंबल, बेतवा, केन आदि का पानी है. गंगा में अधिकांश पानी हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से आता है.

ऐसा कोई अनुभव जो पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे?

आप जब इस तरह की यात्रा करते हैं तब आप प्रकृति के बहुत करीब जाते हैं और उससे जो अनुभव मिलते हैं, वह अद्वितीय होते हैं. सामान्य तौर पर आदमी बहुत आत्मकेंद्रित होता है लेकिन जब वह प्रकृति के करीब जाता है तब उसे इस बात का एहसास होता है कि वह बहुत तुच्छ है. प्रकृति बार-बार आपको यह संदेश देती है कि आप उसके बहुत छोटे से हिस्से हैं.

‘मुझे माओवादी आंदोलन के शहरी चेहरे के रूप में पेश करना एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है’

Photo: Vijay Pandey
Photo: Vijay Pandey

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और मानवाधिकार कार्यकर्ता जीएन साईबाबा  को पिछले दिनों महाराष्ट्र की नागपुर सेंट्रल जेल से 14 महीने के एकांत कारावास के बाद ‘अस्थायी’ जमानत पर रिहा किया गया. ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट’, जिसे सरकार द्वारा गैर-कानूनी घोषित सीपीआई (माओवादी) का मुख्य संगठन माना गया है, के संयुक्त सचिव के बतौर शारीरिक रूप से अक्षम साईबाबा ने मध्य भारत के घने जंगलों और आदिवासियों की बसावट वाले क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के अत्याचारों के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान के लिए समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. 9 मई 2014 को विश्वविद्यालय से घर जाते समय पुलिस ने उन्हें उठा लिया था. उन्हें नागपुर ले जाकर माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. लगभग 90 प्रतिशत विकलांग साईबाबा को नागपुर जेल के बदनाम ‘अंडा सेल’ में रखा गया. इस दौरान उचित देखभाल और स्वास्थ्य सेवाओं के बिना साईबाबा की तबीयत कई बार बिगड़ी. साईबाबा ने अपनी गिरफ्तारी और पुलिस प्रताड़ना के बारे में दीप्ति श्रीराम  से बात की. इस बातचीत में उन्होंने सरकार द्वारा आदिवासियों के किसी भी असंतोष को माओवादी गतिविधि के नाम पर दबाने के तरीके पर भी सवाल खड़े किए.

14 महीनों की कैद में 4 बार आपकी जमानत याचिका खारिज की गई, अब जब  ‘अस्थायी’  जमानत मिली है, तो आपकी क्या प्राथमिकताएं होंगी?

इस समय तो मेरा स्वास्थ्य ही मेरी पहली प्राथमिकता है. मैं शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका हूं. दिल की बीमारी के अलावा कैद की इस अवधि के दौरान मेरी शारीरिक व्याधियां कुछ और बढ़ गई हैं. कुछ अंग काम करना बंद कर रहे हैं और अगर उचित इलाज नहीं करवाया तो मेरा बचना मुश्किल होगा. ये सब मेरे साथ पहली बार हो रहा है और मैं इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं.

परिजन और दोस्तों ने आपकी इस अनुपस्थिति का सामना कैसे किया?

मैं, मेरे दिल्ली के दोस्तों का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि उनकी बदौलत मेरी गिरफ्तारी के बाद मेरी मां, पत्नी और बेटी को अपार सहयोग मिला, सबने उनका बहुत ख्याल भी रखा. जिस कॉलेज में मैं पढ़ाता हूं, उन्होंने भी मेरे परिवार की आर्थिक जरूरतों का ध्यान रखा. मेरी रिहाई के लिए कई मंचों पर अभियान भी चलाए गए, इन सभी को मैं एक बहुत ही सकारात्मक संदेश के रूप में देखता हूं और ये कह सकता हूं कि जब मैं अपने सेल में बैठा, अपने परिवार के बारे में सोचता था तब मुझे ज्यादा चिंता नहीं होती थी.

आपकी गिरफ्तारी पर दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन का क्या रवैया था?

केंद्रीय विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार अगर कोई प्रोफेसर निलंबित होता है तो वो पहले तीन महीनों तक अपने वेतन के 50 प्रतिशत का हकदार होता है, जिसके बाद इसे 75 प्रतिशत कर दिया जाता है. पर दिल्ली विश्वविद्यालय ने इन नियमों को दरकिनार करते हुए इन 14 महीनों में मुझे मेरे वेतन का पचास प्रतिशत ही दिया. ये बात किसी को भी बुरी लगेगी वो भी तब, जब आपको कई लोन चुकाने हों. यदि हमारे पास कोर्ट का आदेश न होता तब तो शायद वो मेरे परिवार को स्टाफ क्वार्टर से भी निकाल देते.

आपके कारावास के दौरान क्या आपकी पत्नी को किसी प्रकार की प्रताड़ना झेलनी पड़ी?

आप उनसे ये प्रश्न पूछ सकती हैं पर क्योंकि ये कठिन समय उन्हें मेरी वजह से देखना पड़ा तो मैं आपको बता सकता हूं कि उन्होंने क्या भोगा. 12 सितंबर 2013 को मेरे घर पर पहली बार छापा पड़ा था. पूरे घर में पुलिस के लोग काफी थे. ऐसे में मेरी मां, पत्नी और बेटी के लिए कहीं भी आना-जाना मुश्किल हो गया, क्योंकि वे लोग हर जगह उनके पीछे जाया करते थे चाहे दिन हो या रात. उनकी ऐसी डराने वाली रणनीति को देख राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर से कहा भी था कि घर के सामने कोई भी निगरानी नहीं करेगा. पर मेरे गिरफ्तार होने के कुछ समय बाद ही कई अपरिचित लोग मेरे घर के आस-पास दिखने लगे. मेरी पत्नी का पीछा किया जाता था, उन्हें धमकी भरे फोन कॉल्स भी आते थे. वो अगर कभी जेल में मेरे लिए किताबें आदि लेकर आतीं तो जेल प्रशासन उन्हें मुझे वो देने की अनुमति ही नहीं देता था. अगर वो मुझसे बात करने आतीं तो वो उन्हें जितना हो सके उतना टालते थे. और सबसे खराब ये था कि मुझे कभी वो दवाइयां नहीं दी गईं जो मेरी पत्नी मेरे लिए लाई थीं. और अगली बार मिलने तक हम दोनों ही इस बात से अनजान रहते. मेरी पत्नी इन्हीं वजहों से परेशान रहती थीं. मैं कह सकता हूं कि एक तरह से जो पीड़ा और यंत्रणा मैंने जेल के अंदर भोगी वो उन्होंने जेल के बाहर रहते हुए झेली.

ऐसी खबरें थीं कि आपने जेल में भूख हड़ताल की थी. ये कदम क्यों उठाना पड़ा?

मैं जब जेल में था तब मुझे छोटी-छोटी जरूरतों जैसे टॉयलेट, मेज, फल, चारपाई आदि को पूरा करने के लिए ट्रायल कोर्ट को चिट्ठी लिखनी होती थी. मेरी जैसी शारीरिक स्थिति में आप जमीन पर नहीं सो पाते हैं. हर बार जब मैं कोर्ट को लिखता वो मेरे ही पक्ष में फैसला देती पर कोर्ट के किसी भी फैसले पर कभी भी अमल नहीं किया गया. सामान्यतया कैदी अपने सेल के दरवाजे की छोटी-सी जगह में से अपने मिलने वालों से बातें कर लिया करते हैं पर ह्वीलचेयर पर होने के कारण मैं ऐसा भी नहीं कर सकता था, तो कोर्ट ने एक आदेश पारित करते हुए मुझे सेल से बाहर पर जेल परिसर के अंदर ही अपने मिलने वालों से बात करने की अनुमति दी पर जेल अधिकारियों ने इस बात की भी मंजूरी नहीं दी. केवल एक समय वो मेरे पक्ष में कुछ करते थे वो तब जब मेरी जमानत याचिका पर सुनवाई होती. तब वो मुझे हर सुविधा देते थे जो वो दे सकते थे पर जमानत याचिका खारिज होते ही सब चीजें वापस ले ली जाती थीं. ऐसा मेरे साथ लगातार चार बार हुआ. तब मैंने भूख हड़ताल की. हफ्ते भर के अंदर ही मैं अचेत हो गया क्योंकि मैं न खाना खा रहा था न दवाइयां. मुझे एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. बाद में कोर्ट ने मुझे निजी अस्पताल में भर्ती करवाने का आदेश भी पारित किया पर उसका भी पालन नहीं किया गया. मई के महीने तक मेरी हालत और बिगड़ चुकी थी. तब जो डॉक्टर मेरा इलाज कर रहे थे उन्होंने अंडा सेल के ही एक आदिवासी कैदी लड़के को मेरी देखभाल करने को कहा. छत्तीसगढ़ और गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) से आने वाले इन किशोरों को फर्स्ट-एड की तकनीकें सिखाई जाती हैं, तो जब भी मैं बेहोश हो जाता तो वो मुझे होश में ले आते. इस समय कोर्ट ने जेल अधिकारियों को मुझे पांच सहायक और एसी या कूलर की सुविधा देने का आदेश दिया पर ये भी नहीं हुआ. अब तक मेरी हालत बहुत बिगड़ चुकी थी. इसी समय राष्ट्रीय अखबार ‘द हिंदू’ में मेरी सेहत की बिगड़ती हालत पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई और एक कार्यकर्ता पूनम उपाध्याय, जिनसे मैं आजतक कभी नहीं मिला, ने ये रिपोर्ट चीफ जस्टिस को ईमेल कर दी. Hem Mishra

वैसे तो यहां कोई तुलना नहीं की जा सकती पर आपको हिरासत में लेने से पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(जेएनयू) के शारीरिक रूप से एक अक्षम छात्र हेम मिश्रा को भी माओवादी संपर्क रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. जहां एक तरफ आपको सहयोग मिला, यहां तक कि आपका मुद्दा एक पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भी आया, वहीं हेम को कहीं भुला-सा दिया गया. क्या कह सकते हैं कि ऐसे कई और हेम मिश्रा अभी तक जेलों में हैं?

हेम बहुत साहसी हैं. उन्होंने जेल में लगभग 28 दिनों तक थर्ड डिग्री टॉर्चर झेला क्योंकि उनसे एक ‘स्क्रिप्ट’ (लिखी-लिखाई कहानी) मानने के लिए कहा जा रहा था. उन्होंने हेम को ये स्वीकारने के लिए कहा कि ‘साईबाबा माओवादियों के संपर्क में हैं और माओवादियों को कुछ सूचनाएं पहुंचाते हैं.’ मैं कभी नहीं सोच सकता कि इस हद तक प्रताड़ित होने के बाद भी कोई उतना साहस दिखा सकता है जितना हेम ने दिखाया. मैं आपकी बात से पूरा इत्तेफाक रखता हूं. मैं 14 महीनों तक सेल में था और अब मुझे अस्थायी जमानत दी गई है. हेम 60 प्रतिशत विकलांग हैं, पिछले दो सालों से जेल में हैं और आज तक उन्हें जमानत नहीं मिली है. यहां सोचने वाली एक और बात है कि जब हेम जैसे कार्यकर्ता को 28 दिनों तक लंबा टॉर्चर झेलना पड़ा तो उन आदिवासी लड़कों के बारे में सोचिए जिन्होंने लगातार 400 दिनों तक इस अत्याचार को झेला था! कौन-सी अदालत पुलिस को इतने लंबे समय तक आरोपी को हिरासत में रखने की अनुमति देती है? कोई भी इन बातों की परवाह नहीं करता.

2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर किए एक हलफनामे में कहा था,  ‘सीपीआई (माओेइस्ट) के विचारकों और शहरी समर्थकों ने केंद्र सरकार को गलत बताने के लिए सम्मिलित रूप से एक व्यवस्थित प्रचार अभियान शुरू किया है. इन्हीं विचारकों ने ये माओवादी अभियान अबतक जिंदा रखा हुआ है और ये पीपुल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के लोगों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं.’  यानी सरकार आपको उन व्यक्तियों के रूप में पहचानती है जो शहरों में माओवादी अभियान का राजनीतिक समीकरण आगे बढ़ा रहे हैं?

मेरे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के विरोध का माओवादी आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है. मेरी लड़ाई जनसंहार के खिलाफ है. मुझे माओवादी आंदोलन का शहरी चेहरा कहना मूर्खता होगी. मुझे लगता है मुझे या अरुंधती राॅय को माओवादी आंदोलन के शहरी चेहरे के रूप में पेश करना एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है. हम सभी समाज में बुद्धिजीवी या लेखक के रूप में अपना एक स्वतंत्र स्थान रखते हैं. इन स्थानों पर हम हर उस चीज से जुड़ते हैं जिससे हमारा सामना होता है. एक शोधार्थी और अध्यापक के बतौर मैंने सीखा है कि साहित्य से जुड़ें और विभिन्न तरह के संघर्षों के बारे में पढ़ें. मैं सोचता हूं कि एक बुद्धिजीवी होने के नाते हम सभी को लोगों से जुड़े आंदोलनों का हिस्सा बनना चाहिए, इनका अध्ययन करना चाहिए. तो अगर सरकार ये कहती है कि हम किसी आंदोलन का ‘शहरी चेहरा’ भर हैं तो वो बस हमें नीचे गिराने की कोशिश कर रही है.

तो फिर ओडिशा और आंध्र प्रदेश ने  ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट’  (आरडीएफ) को बैन क्यों कर दिया?

आरडीएफ इन दो राज्यों में सशस्त्र संघर्ष की बात नहीं कर रहा था. ओडिशा में लोगों का हाल दिन-ब-दिन बद से बदतर होता जा रहा था. ऐसे में आरडीएफ ने विकास के वैकल्पिक मॉडल का प्रस्ताव रखा. जैसे कि हमने सरकार को बड़े बदलावों की बजाय छोटे बदलाव करने के लिए कहा. उदाहरण के लिए, हमने बड़े बांधों के निर्माण की बजाय छोटे बांधों के निर्माण का प्रस्ताव रखा जिससे कि उन्हें ज्यादा लोगों को विस्थापित न करना पड़े और न ही किसी प्राकृतिक आपदा का खतरा रहे. जल्द ही लोगों ने हमें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. इससे नाराज ओडिशा सरकार ने हम पर प्रतिबंध लगा दिया. आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. वैसे प्रतिबंध के बावजूद भी इन दोनों राज्यों में कभी भी, किसी भी गतिविधि के लिए आरडीएफ का कोई सदस्य गिरफ्तार नहीं किया गया. पर दिल्ली में, जहां आरडीएफ पर कोई प्रतिबंध नहीं है, वहां मुझे यानी आरडीएफ के एक सदस्य को माओवादी गतिविधियों के आरोप में हिरासत में ले लिया गया. इसके बाद मुझे नागपुर की सेंट्रल जेल में भेजा गया यानी महाराष्ट्र में जहां पर भी आरडीएफ पर कोई प्रतिबंध नहीं है. तो स्पष्ट रूप से इस मामले में मेरी गिरफ्तारी के कारण कुछ और ही थे.

आप पिछली सरकार यानी यूपीए के कार्यकाल के दौरान संदेह के घेरे में थे. मोदी सरकार के आने से हफ्तेभर पहले आपको हिरासत में ले लिया गया. आपको दोनों सरकारों के कार्यकाल में क्या अंतर नजर आता है?

(हंसते हुए) मुझे लगता है इस बारे में मुझसे बेहतर आप बता सकती हैं क्योंकि आपने बाहर रहकर सब देखा है. मैं सरकार के अबतक के कार्यकाल के दौरान जेल में था तो मैं नहीं समझता कि मैं इस सरकार का कोई विश्लेषण कर सकता हूं. मुझे तो जेल में अखबार तक नहीं दिया जाता था.

अलविदा कॉमरेड

11707656_10152839702726012_3494383671858891480_nAप्रद्योत लाल

6 नवंबर 1957 – 12 जुलाई 2015 

कॉमरेड क्या आप सुन रहे हैं? मैंने आपसे कुछ महीने पहले जो वादा किया था, उसे निभा रहा हूं. वह सांझ, दूसरी सांझों की ही तरह ही थी जब मैं आपके साथ बैठा था और मैंने आपसे एक वादा किया था. हालांकि मैं इसमें एक और बात जोड़ना चाहता हूं कि हम दोनों ने तब उस वादे को गंभीरता से नहीं लिया था. हमारे बीच कई ऐसी बातें थीं जो हम निर्लिप्त भाव से किया करते थे.

मैं आपसे ‘जिंदादिली’ सीख रहा था और आपके शब्दों में कहूं तो मैं इस कला में तेजी से माहिर हो रहा था. उस शाम को थोड़ी-सी शराब पीने के बाद आप अपने पसंदीदा पुराना गाना गाने लगे और फिर अचानक गंभीर हो गए. यह आपके मिजाज से बिल्कुल जुदा बात थी. जो लोग आपको जानते हैं क्या वे आपके ‘गंभीर’ होने की गवाही दे पाएंगे और शायद वे आपके शब्दकोश में इस शब्द को ढूंढते हुए निराश हो जाएंगे. आपने कहा था, ‘मुझे लगता है कि मैं चार-पांच साल से ज्यादा नहीं जी पाऊंगा.’ मैं थोड़ी देर के लिए अचरज में पड़ गया था लेकिन तब मैंने आपकी आंखों में एक शरारतभरी चमक देखी. हम दोनों ने जोरदार ठहाका लगाया था. क्या मैंने आपकी इस शरारत का यह जवाब दिया था कि अगर ऐसा हुआ तो मैं आपकी श्रद्घांजलि लिखूंगा?

चीफ, आपने मुझे कुछ और साल दिए होते ताकि मैं अपना वादा पूरा कर पाता. इस बात की कल्पना कैसे की जाए कि अब हम कभी बात नहीं कर पाएंगे. इस बात कि कल्पना कैसे करुं कि जो मेरे साथ के लोग हैं और जो मुझे बहुत प्रिय हैं, जो मुझे प्रेरणा देते रहे, वे मुझे श्रद्घांजलि लिखना सिखाएंगे? आपकी श्रद्घांजलि का मतलब हमसब- आपके मित्र, आपका परिवार, आपके आलोचक (शायद ही कोई हो) अगर कुल जमा कहना चाहें तो क्या कहेंगे? हम सभी के लिए कुछ भी कह पाना असंभव होगा.

कॉमरेड, क्या आपने कभी भी यह महसूस किया कि आप खुद में एक संस्थान हैं? हम यह आपके लिए आदर से कहना चाहेंगे कि आपने 35 साल का लंबा कैरियर पत्रकारिता में गुजार दिया, सच तो यह है कि तहलका के 80 फीसदी पत्रकार अभी 35 के भी नहीं हुए हैं. मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं जब सात महीने पहले ‘तहलका’ में दूसरी पारी के लिए आया था तब आप ही पहले व्यक्ति थे जो सबसे पहले स्वागत के लिए मेरी ओर बढ़कर आए थे. आपने उसी एक पहल से मेरा हृदय जीत लिया था और अपने लिए मेरे मन में आजीवन आदर का बीज बो गए. यही वो अलहदा प्रद्योत लाल थे. अंदर से खालिश भद्र पुरुष. एक ऐसे पत्रकार जो हर तरह के अहंकार से मुक्त थे. एक ऐसे लेखक जो सिर्फ अच्छा ही जानते थे और जो संकीर्णता से कोसों दूर थे. उनके इस दुर्लभ गुण के बारे में वह भी जानते हैं जिन्होंने पत्रकारिता में कुछ वर्ष बिताए हों या जिन्होंने कुछ बायलाइन रिपोर्ट लिखी हो.

आप हमेशा अपनी तारीफ से बचना चाहते थे बल्कि उससे दो-चार होते और अक्सर ऐसे समय में आप बातचीत को दूसरी दिशा में बहा ले जाते थे. इस बारे में मैं आपको बताऊं, आप तहलका के किसी भी युवा पत्रकार से पूछ सकते हैं. आपको सभी प्रिय थे और उनसे कुछ देर की बातचीत में ही आप उनपर अपनी जबरदस्त छाप छोड़ जाते थे. इन युवाओं के लिए आपके गुण पर भरोसा करना थोड़ा अविश्वसनीय होता था. वे आपको गूगल के समान मानते थे. आप कुर्सी पर बैठकर पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के लिए मुक्तिदाता की तरह थे. आप उनके लिए न्यूजरूम में सहज उपलब्ध थे. उनके बीच सांस ले रहे थे. चहल-पहल कर रहे होते थे औरहमेशा  नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने की कोशिश कर रहे होते थे. आपकी पत्नी मंजुला भी आपकी बेचैनी के बारे में कुछ-कुछ ऐसा ही वर्णन करती हैं.

बीते एक साल के दौरान ‘तहलका’ ने कई उतार-चढ़ाव देखे. हमने न्यूनतम संसाधनों के साथ काम किया और खुद को हर बार साबित किया. आप संगठन और हमलोगों के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे. आपकी बालसुलभ उत्सुकता और चुनौतियों से पार पाने के लिए अगली पंक्ति में झट से खड़े हो जाना, हमलोगों के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहा.

और हां, आपकी रंगीन जिंदगी जिसको आपने नेतृत्व दिया, उसका जिक्र करना कैसे भला कोई भूल सकता है. हमारे दोस्त और ‘तहलका’ के हमारे पूर्व साथी हरीश नांबियार ने आपके चरित्र को क्या खूब पहचाना है. उनके शब्दों में, ‘प्रद्योत लाल की व्यवस्थता उल्लेखनीय थी. वे शिक्षित सर्वहारा और विद्वान पत्रकार थे. मितव्ययी थे. क्रिकेट और दिलीप कुमार को लेकर वे जुनूनी थे. मैं उनकी बात से पूरी तरह से सहमत हूं. आप संगीत, क्रिकेट, देव आनंद, दिलीप कुमार, टाइगर पटौदी (कभी खत्म न होने वाली सूची) के दीवाने हो सकते हैं.’

अक्सर ऐसा होता था कि काम का दबाव होता और प्रेस की डेडलाइन होती और इस बीच आप अपनी पसंदीदा पुरानी फिल्मों के बारे में बातचीत करने लग जाते. आप फिल्मों से जुड़ी चीजों को कैसे याद रखते थे, इसकी बारीकियों के बारे में आप हमें बताते रहते थे. ऐसा आप ही कर सकते थे और हम मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे.

कॉमरेड और एक बात यह कि आपके उत्साही पाठक आपसे बहुत जुड़ाव महसूस करते थे. आपके द्वारा प्रयोग किए जानेवाले शब्द आनंदित करते थे और आपके द्वारा इस्तेमाल में लाए जानेवाले मुहावरों की वजह से पंक्तियां गाने लग जाती थीं. लेकिन आपके अधिकांश प्रशंसक इस बात को नहीं जानते होंगे क्योंकि वे आपके साथ न्यूजरूम में नहीं होते थे, इसलिए मैं उसका जिक्र करने की स्वतंत्रता यहां ले सकता हूं. कभी ऐसे समय में जब कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती और शब्द नहीं सूझ रहे होते और शोध का समय नहीं होता तब आप आगे आकर मोर्चा लेते.

मेरी आपसे एक मात्र शिकायत यह है कि आपने अपनी उदासी को अपने दिल में ही दबाए रखा. आपके लिए कुछ अधूरा रह गया था जिसे न हासिल करना आपको सालता रहा. कई बार आपसे जीवंत बातचीत के दौरान भी उस दर्द की झलक मिल जाती थी, जिसे आपने दिल में दबा रखा था. आपने जितना किया, आप उससे कहीं ज्यादा करना चाहते थे. हम जब आखिरी बार मिले थे तब मैंने आपसे कहा था कि आप अपनी जीवनी क्यों नहीं लिखते हैं? आपने जवाब में कहा था, ‘अगर मैं ऐसा करना चाहूं तो मुझे कुछ समय के लिए मीडिया की मुख्यधारा से दूर रहना पड़ेगा. मैं नहीं चाहता कि लोग मुझे भूल जाएं.’

कॉमरेड, क्या आप तब सचमुच गंभीर थे जब आप यह कह रहे थे कि लोग शायद आपको भूल जाएंगे? मुझे यकीन है कि यह आपकी तरफ से अंतिम चुटकुला था.

मध्ययुगीनप्रदेश

26 जून की रात नरसिंहपुर जिले के गांव मड़गुला के अहिरवार (अनुसूचित जाति) समुदाय के लोगों के लिए जानलेवा साबित हुई, जब उनके ही गांव के दबंग राजपूतों ने लाठी, बल्लम, तलवार और हॉकी से उन पर हमला कर दिया. इस दौरान अहिरवार मोहल्ले के बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया. इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है और करीब 17 लोग घायल हैं जिसमें से सात लोगों की हालत गंभीर है. पूरा मामला खेतों में कम मजदूरी पर काम करने से इनकार कर देने का है, जिसके बाद सबक सिखाने के लिए इस हमले को अंजाम दिया गया. गौरतलब है कि इस गांव में अहिरवार समुदाय का उत्पीड़न नया नहीं है. इससे पहले भी वहां इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. 2009 में यहां इस तरह की बड़ी वारदात तब हुई थी जब मड़गुला और आसपास के गांवों के अहिरवार समुदाय ने मृत मवेशियों को न उठाने का निर्णय लिया था. इसके बाद गांव की दबंग जातियों द्वारा उनपर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध थोप दिया गया.

raju ahirvaar 226 जून की घटना के बाद से सभी अहिरवार परिवारों ने गांव छोड़ दिया है और वर्तमान में गाडरवारा नगरपालिका के मंगल भवन परिसर में रह रहे हैं, पीड़ितों का कहना है कि उनका ठीक से इलाज नहीं किया जा रहा है. कई लोगों को समय से पहले ही अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया और उन्हें दवाइयां भी बाहर से पैसे देकर खरीदनी पड़ रही हैं. सभी लोग दहशत में हैं और किसी भी कीमत पर गांव वापस नहीं जाना चाहते.

पीड़ितों के अनुसार पूरा घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है. घटना से दो दिन पहले सुबह महादेव राजपूत और भगवान अहिरवार के बीच दो एकड़ खेत में तुअर के फर्रे बीनने की बात 1000 रुपये में तय हुई, जब भगवान अहिरवार महादेव के खेत में गया तो पाया कि खेत दो एकड़ का नहीं बल्कि साढ़े तीन एकड़ का था. इसके बाद वह काम करने नहीं गया, बाद में मिलने पर जब महादेव राजपूत ने भगवान से पूछा कि तुम काम पर क्यों नहीं आए तो भगवान ने उसे यह कहते हुए काम करने से मना कर दिया कि जमीन साढ़े तीन एकड़ की है जबकि सौदा दो ही एकड़ का हुआ है. इसी बात को लेकर दोनों के बीच कहासुनी हो गई और महादेव राजपूत ने भगवान अहिरवार की जूते से पिटाई कर दी और उसे जातिगत गाली देते हुए कहा कि ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई काम से मना करने की… यह हमारा खेत है तो हम जानेंगे कि कितना बड़ा है कि तुम जानोगे.’ उस समय भगवान अहिरवार वापस आ गया लेकिन बाद में मौका पाकर उसने साइकिल की चेन से महादेव राजपूत पर तीन वार किए. इसके बाद रात में आठ-साढ़े आठ बजे के बीच बड़ी संख्या में राजपूत समुदाय के लोगों ने अहिरवार मोहल्ले पर हमला कर दिया. उस समय कुछ लोग खाना खा रहे थे तो कुछ सो रहे थे. हमला करने से पहले बिजली भी काट दी गई थी. पीड़ितों का कहना है कि करीब पंैतीस से चालीस हमलावर थे, सभी के हाथों में लाठी, बल्लम, तलवार और हॉकी जैसे हथियार थे. इस दौरान घरों में तोड़-फोड़ भी की गई. कई लोगों की गाड़ियां भी जला दी गईं.

धर्मेंद्र अहिरवार, जिनके ताऊ की इस हमले में मौत हो गई, बताते हैं कि हमले के समय वे घर पर ही थे और तखत के नीचे छुपकर उन्होंने अपनी जान बचाई. हमलावरों के वापस जाने के बाद धर्मेंद्र ने सबसे पहले 108 नंबर पर एंबुलेंस के लिए फोन किया लेकिन वहां बात करने वाले ने यह कहते हुए फोन काट दिया कि उन्हें नींद आ रही है और वे नहीं आ सकते. धर्मेंद्र ने दोबारा फोन लगाया तो वहां से एक नंबर देते हुए कहा गया कि एंबुलेंस के लिए ऑनलाइन नरसिंहपुर पर बात करो. धर्मेंद्र ने जब दिए गए नंबर पर बात की तो वहां से एक और फोन नंबर दिया गया जो कि साईखेड़ा थाने का था. इसके बाद धर्मेंद्र ने साईखेड़ा थाने में फोन किया, जहां उनकी थानेदार से बात हुई, जिसके करीब 45 मिनट बाद पुलिस गांव पहुंची.

[box]

‘कुछ लोग अस्पताल आकर दबाव डालने और डराने की कोशिश कर रहे हैं’

इस पूरे घटनाक्रम में जिस एक व्यक्ति की मौत हुई है वह राजू अहिरवार के पिता अजुद्दा अहिरवार थे. 25 साल के राजू अहिरवार भी बुरी तरह से घायल हैं और इस समय उनका गाडरवारा के सरकारी अस्पताल में इलाज चल रहा है. राजू के दोनों पैर और एक हाथ पर गंभीर चोटें आई हैं. घटना के बाद उन्हें जबलपुर शासकीय विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्हें केवल तीन दिन तक रखा गया. उसके बाद उन्हें अस्पताल से जबरदस्ती डिस्चार्ज कर दिया गया. राजू का कहना है कि मेरे पिता जी नहीं रहेे, इस वजह से मैं सदमे में था. उसी दौरान मुझसे डिस्चार्ज पेपर पर दस्तखत करा लिए गए. राजू बताते हैं कि जब वे जबलपुर अस्पताल में भर्ती थे तब उनके तीन हजार रुपये तक खर्च हो गए थे क्योंकि उन्हें बाहर से दवा लाने को कहा जाता था. गाडरवारा अस्पताल में भी यही हो रहा है. यहां भी बाहर से दवा लेने में उनके करीब चार हजार रुपये खर्च हो चुके हैं. वे कहते हैं कि यहां पर मेरा सही इलाज नहीं हो रहा है, डॉक्टर ध्यान नहीं देते और दूर से ही देखकर चले जाते हैं, अगर इसी तरह से मेरा इलाज चला तो मुझे ठीक होने में एक साल भी लग सकता है.

पिता की मृत्यु के बाद राजू के घर में अब कोई कमाने वाला नहीं है. घर में राजू के अलावा उसके बूढ़े दादा-दादी हैं, वे भी हमले मेंे घायल हुए हैं. इसके अलावा परिवार में उनकी मां और पंद्रह साल का भाई है. ये सभी लोग गाडरवारा के मंगल भवन में रह रहे हैं. अभी मुआवजे के रूप में उन्हें पिताजी की अंत्येष्टि के लिए 4000 रुपये मिले थे जो उसी में खर्च हो चुके हैं. राजू अहिरवार का कहना है कि उन पर राजीनामे के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा है. कुछ लोग अस्पताल आकर उन पर दबाव डालने और डराने की कोशिश कर रहे हैं.

[/box]

मड़गुला पहुंचकर पुलिस वालों ने लोगों की गंभीर स्थिति देखते हुए सबसे पहले एंबुलेंस के लिए फोन किया तब जाकर वहां छह एंबुलेंस पहुंच सकीं, जिनमें 17 बुरी तरह से घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाया गया. इन 17 लोगों में से 6 की हालत बहुत गंभीर थी. सभी को पहले नरसिंहपुर ले जाया गया फिर वहां से गंभीर रूप से घायल लोगों को जबलपुर रेफर कर दिया गया. घटना के अगले ही दिन सुबह एक व्यक्ति अजुद्दा अहिरवार की मृत्यु हो गई जो कि हमले के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे.

कालिया बाईइस घटना के बाद मड़गुला गांव के करीब साठ अहिरवार परिवारों के एक सौ अस्सी लोग गाडरवारा पलायन कर गए, जहां स्थानीय नेता सुनीता पटेल ने उनके रहने-खाने का इंतजाम करवाया. करीब एक सप्ताह बाद नरसिंहपुर के कलेक्टर ने नगरपालिका को निर्देश दिया कि पीड़ितों के लिए नगरपालिका के मंगल भवन परिसर में रहने-खाने की व्यवस्था की जाए. इसके बाद पीड़ित वहां  दो दिन ही रह पाए थे कि नगरपालिका के लोगों ने उन्हें गांव वापस जाने को कह दिया और कहा कि अगर वे वापस नहीं जाते हैं तो उन्हें यहां भी नहीं रहने दिया जाएगा. मजबूरन ये लोग फिर सुनीता पटेल के यहां वापस आ गए. वहां एक रात ही रहे थे कि इसी दौरान भोपाल से अहिरवार समाज संघ के कुछ पदाधिकारी आ गए, जिन्होंने इस संबंध में एसडीएम और तहसीलदार से बात की, जिसके बाद पीड़ितों को दोबारा मंगल भवन में रहने की जगह मिल पाई, जहां वे अभी तक रह रहे हैं. पीड़ितों की शिकायत भी है कि मात्र 2000 रुपये के अलावा अभी तक किसी को भी मुआवजा नहीं मिला है जबकि कलेक्टर ने पीड़ितों से घायलों को एक लाख अस्सी हजार और मृतकों के परिवार को सात लाख रुपये देने की बात कही थी.

धर्मेंद्र अहिरवार बताते हैं कि चूंकि घटना के अगले ही दिन एक व्यक्ति की मौत हो गई थी तो वे एफआईआर तो दर्ज नहीं करा पाए लेकिन इस मामले में शामिल 37 लोगों के नाम पुलिस को दे दिए थे, जिसमें से 21 लोगों को ही नामजद किया गया है. इन 21 लोगों में से भी दो ऐसे नाम हैं जिस नाम का कोई व्यक्ति गांव में रहता ही नहीं है. अभी तक इस मामले में कुल पंद्रह लोगों की गिरफ्तारी हुई है, बाकी लोग फरार हैं. पीड़ितों का कहना है कि उन्हें एफआईआर की कॉपी एक सप्ताह बाद प्राप्त हुई पर अबतक किसी पीड़ित का बयान तक ठीक से दर्ज नहीं किया गया है.

इसको लेकर अहिरवार समाज संघ, मप्र के प्रांतीय अध्यक्ष डॉ. जगदीश सूर्यवंशी जो पीड़ितों से मिल भी चुके हैं, का कहना है, ‘इस केस को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. प्रशासन इस मामले में लीपापोती कर रहा है. आरोपियों पर हत्या की धारा 302 नहीं लगाई गई है जबकि एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है.’

पीड़ितों द्वारा प्रशासन पर इलाज में लापरवाही बरतने का भी आरोप लगाया जा रहा है. पीड़ितों का कहना है कि उनका ठीक से इलाज नहीं किया गया. गंभीर रूप से घायलों को भी जबलपुर से समय से पहले डिस्चार्ज करके गाडरवारा में भर्ती कर दिया गया, जहां सुविधाओं का अभाव है. उन्हें बाजार की दवाइयां लिखी जा रही हैं और लोग अपने पैसों से दवाइयां खरीदने को मजबूर हैं. डॉ. सूर्यवंशी कहते हैं कि लोगों का इलाज सही तरीके से नहीं हो रहा है. राज्य सरकार के नियमों के अनुसार किसी भी मरीज को बाहर की दवाई नहीं लिखी जा सकती है. इस तरह के प्रकरण में तो मानवता के आधार पर भी ध्यान रखा जाना चाहिए, इसके बावजूद पीड़ितों को बाहर से दवाई खरीदनी पड़ रही है.

अब ये लोग किसी भी कीमत पर मड़गुला गांव वापस नहीं जाना चाहते. उन्हें प्रशासन पर भी कोई भरोसा नहीं है जो दोनों पक्षों के बीच समझौता करवाने और गांव में ही एक पुलिस चौकी स्थापित करने का भरोसा दिला रहे हैं. पीड़ितों की मांग है कि उन्हें किसी दूसरी जगह बसने के लिए जमीन उपलब्ध कराई जाए. कलेक्टर की तरफ से घायलों को एक लाख अस्सी हजार रुपये देने का जो वादा किया गया है, वह भी अपर्याप्त है क्योंकि पीड़ितों के अनुसार सब को नई जगह पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करनी होगी, जमीन मिलने पर सबसे पहले घर बनाना होगा इसलिए घर बनाने और जिंदगी पटरी पर लाने के लिए उन्हें सरकार से और ज्यादा मदद चाहिए. कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा भी गाडरवारा का दौरा कर चुके हैं. उनका कहना है, ‘हमारी लोगों से बात हुई है, लोग काफी डरे हुए हैं, इलाज भी ठीक ढंग से नहीं हुआ है. इस पूरे मामले में प्रशासन की तरफ से गंभीरता नहीं दिखाई गई है. अब लोग अपने गांव वापस नहीं जाना चाहते हैं लेकिन उन पर वापस जाने का दबाव डाला जा रहा है. हमने प्रशासन से मांग की है कि इन्हें कहीं और बसाया जाए ताकि ये भयमुक्त रहें. साथ ही साथ पीड़ितों को उचित मुआवजा भी दिया जाए.’

2009 में भी मड़गुला और आसपास के गांवों में जातिगत उत्पीड़न की बड़ी वारदात देखने को मिली थी. इसको लेकर सामाजिक संगठनों द्वारा एक फैक्ट फाइंडिंग टीम भी गठित की गई थी, जिसमें पता चला कि इसकी शुरुआत अहिरवार समुदाय के लोगों के सामूहिक रूप से लिए गए उस निर्णय से हुई जिसमें उन्होंने कहा कि अब वे मरे हुए मवेशी नहीं उठाएंगे. उनका कहना था कि चूंकि वे सदियों से मरे हुए मवेशी उठाते आ रहे हैं इसीलिए उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है. इसके जवाब में मड़गुला गांव के दबंगों ने पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया. कोटवार के माध्यम से यह ऐलान करवाया कि अहिरवार समुदाय के जो लोग सवर्णों के यहां बटाईदारी करते हैं उन्हें उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना वे तय करेंगे. इसी तरह से मजदूरी भी आधी कर दी गई. इसके अलावा उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराने की दुकान से सामान खरीदने, चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर जबर्दस्ती रोक लगा दी गई. उस समय भी कई सारे परिवार गांव से पलायन कर गए थे और प्रशासन द्वारा बहुत बाद में इनकी सुध ली गई थी.

लेकिन यह घटना चिंगारी के रूप में बनी रही और साल 2012 में गाडरवारा तहसील के मारेगांव में दोबारा उभर कर सामने आई, जहां एक बार फिर मामला मृत मवेशी को उठाने का था. इस उत्पीड़न को लेकर वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी का गठन किया गया और इसकी रिपोर्ट के अनुसार मारेगांव के अहिरवार समुदाय पर गांव के सवर्णों द्वारा मृत मवेशी उठाने के लिए दबाव डाला जा रहा था लेकिन वे लोग मना कर रहे थे. जिसके बाद गांव में ढिंढोरा पिटवाकर यह ऐलान करा दिया गया कि अहिरवार समाज से कोई भी किसी तरह का संबंध नहीं रखेगा. उनके गांव के अंदर आने पर रोक लगाई गई. गांव के सभी दुकानदारों को अहिरवार समाज के लोगों को राशन, किराने का सामान देने से मना कर दिया. आटा चक्की वालों से भी कहा गया कि वे अहिरवार समाज के किसी भी परिवार का अनाज नहीं पीसेंगे. गांव के हैंडपंप और कुओं से उनके पानी लेने पर रोक लगा दी गई. यहां तक कि गांव के तालाब पर तारों की बाड़ लगा दी गई ताकि अहिरवार समाज का व्यक्ति नित्यकर्म के लिए भी तालाब के पानी का उपयोग न कर सके. मंदिर के दरवाजे भी उनके लिए बंद कर दिए गए. अहिरवार समुदाय के लोगों के गांव में मजदूरी करने पर रोक लगा दी गई. यह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बहिष्कार लंबे समय तक चला. इस मामले में लगातार प्रयास कर रहे लज्जाशंकर हरदेनिया का कहना है कि हम 2012 से लगातार मारेगांव में हुई घटना को लेकर प्रयास कर रहे हैं लेकिन स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है.

1

दरअसल यह केवल गाडरवारा तहसील का मसला नहीं है. मध्य प्रदेश में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी है इसका अंदाजा 2010 में मुरैना जिले के मलीकपुर गांव में हुई एक घटना से लगाया जा सकता है. वहां एक दलित महिला ने सवर्ण जाति के व्यक्ति के कुत्ते को रोटी खिला दी, जिस पर कुत्ते के मालिक ने पंचायत में कहा कि एक दलित द्वारा रोटी खिलाए जाने के कारण उसका कुत्ता अपवित्र हो गया है और गांव की पंचायत ने दलित महिला कोे इस ‘जुर्म’ के लिए 15000 रुपये के दंड का फरमान सुनाया. इन उत्पीड़नों के कई रूप हैं, जैसे नाई द्वारा बाल काटने से मना कर देना, चाय के दुकानदार द्वारा चाय देने से पहले जाति पूछना और दलित बताने पर चाय देने से मना कर देना या अलग गिलास में चाय देना, दलित पंच/सरपंच को मारने-पीटने, शादी में दलित दूल्हे के घोड़े पर बैठने पर रास्ता रोकना और मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को जबरदस्ती उठाने को मजबूर करना, मना करने पर सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार कर देना, सावर्जनिक नल से पानी भरने पर रोक लगा देना जैसी घटनाएं उदाहरण मात्र ही हैं जो अब भी यहां के अनुसूचित जाति के लोगों की आम दिनचर्या का हिस्सा हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.6 प्रतिशत है. पिछले पांच साल के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2009 से 2012 के बीच दलित उत्पीड़न के दर्ज किए गए मामलों में मध्य प्रदेश का स्थान पांचवां बना रहा है. 2013 में यह एक पायदान ऊपर चढ़कर चौथे स्थान पर पहुंच गया.

डॉ. सूर्यवंशी कहते हैं कि पूरे मध्य प्रदेश में इस तरह की घटनाएं कम होने की बजाय बढ़ रही हैं और स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है. वे दावा करते हैं कि राज्य के 99 प्रतिशत गांवों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है, 75 प्रतिशत से अधिक गांवों में दलित सावर्जनिक शमशान घाट में क्रियाकर्म नहीं कर सकते हैं और मजबूरन उन्होंने अलग शमशान घाट बना रखे हैं. 25 प्रतिशत से अधिक गांवों में सावर्जनिक नल या हैंडपंप से दलित समुदाय के लोगों को पानी पीने नहीं दिया जाता, 50 प्रतिशत से अधिक मामलों में मध्याह्न भोजन के समय दलित बच्चों को अलग बैठाकर भोजन कराया जाता है.

[box]

छुआछूत में सबसे आगे

• नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड की तरफ से इसी साल आई एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 27 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत को मानते हैं और इस मामले में मध्य प्रदेश 53 प्रतिशत के साथ देश में पहले नंबर पर है.

• स्थानीय संगठन दलित अधिकार अभियान द्वारा 2014 में जारी रिपोर्ट ‘जीने के अधिकार पर काबिज छुआछूत’ के अनुसार मध्य प्रदेश के 10 जिलों के 30 गांवों में किए गए सर्वेक्षण के दौरान निकल कर आया है कि इन सभी गांवों में लगभग सत्तर प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है. इसी तरह केे भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं.

[/box]

आखिर क्या वजह है कि प्रदेश में लगातार इतने बड़े पैमाने पर दलितों के साथ अत्याचार के मामले सामने आ रहे हैं. इसके बावजूद मध्य प्रदेश की राजनीति में दलित उत्पीड़न कोई मुद्दा नहीं बन पा रहा है? इसका जवाब यह है कि प्रदेश के ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक दलों के एजेंडे में दलितों के सवाल सिरे से ही गायब हैं. तभी तो मड़गुला की घटना पर बयान देते हुए गाडरवारा से भाजपा विधायक गोविंद पटेल कहते हैं, ‘ऐसे झगड़े तो होते रहते हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. पाकिस्तान का भी भारत से झगड़ा चल रहा है. जो घटना हुई है वह किसी भी तरह से जातिवाद की लड़ाई नहीं है.’ अब यह केवल इत्तेफाक तो नहीं हो सकता कि मध्य प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा भी कहते हैं, ‘यह जातीय संघर्ष नहीं है इसे कुछ लोग जबरदस्ती जातीय संघर्ष बना रहे हैं. नरसिंहपुर तो बड़ा समरसता वाला जिला रहा है. वहां तो पहली बार इस तरह की कोई घटना घटी है.’ इन सब पर वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं, ‘हमारा अनुभव यह है कि मध्य प्रदेश में दलितों को लेकर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर संवेदनहीनता व्याप्त है और ये लोग दलितों की समस्या को समस्या ही नहीं मानते हैं.’

[box]

इस साल की प्रमुख घटनाएं

• जनवरी में दमोह जिले के अचलपुरा गांव में दबंगों द्वारा दलित समुदाय के लोगों को पीटा गया. इसके बाद प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों की मौजूदगी में 12 दलित परिवार गांव छोड़कर चले गए क्योंकि उन्हें पुलिस और प्रशासन पर अपनी सुरक्षा का भरोसा नहीं था.

• मई में अलीराजपुर जिले के घटवानी गांव के 200 दलितों ने खुलासा किया कि वे एक कुएं से गंदा पानी पीने को मजबूर हैं क्योंकि छुआछूत की वजह से उन्हें गांव के इकलौते सार्वजनिक हैंडपंप से पानी नहीं लेने दिया जाता है, जबकि जानवर वहां से पानी पी सकते हैं.

• 10 मई को रतलाम जिले के नेगरुन गांव में दबंगों ने दलितों की एक बारात पर इसलिए पथराव किया क्योंकि दूल्हा घोड़ी पर सवार था.

इसके बाद बारात को पुलिस सुरक्षा में, दूल्हे को हेलमेट पहनाकर निकलना पड़ा.

• शिवपुरी जिले के कुंअरपुर गांव में इस साल हुए पंचायत चुनाव में एक दलित महिला गांव की उपसरपंच चुनी गई थीं, जिनसे गांव के सरपंच और कुछ दबंगों ने मिलकर मारपीट की और उनके मुंह में गोबर भर दिया.

•13 जून को छतरपुर जिले के गणेशपुरा में दलित समुदाय की एक 11 वर्षीय लड़की हैंडपंप से पानी भरने जा रही थी. इसी दौरान एक दबंग व्यक्ति ने लड़की की पिटाई कर दी क्योंकि उसके खाने पर लड़की की परछाई पड़ गई थी.

[/box]