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हिंदी बनाम अंग्रेजी : पत्रकारिता के दो रंग

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अपने एक कमरे के छोटे-से किराये के ‘घर’ के दरवाजे पर ताला मारकर मैं दौड़ी-दौड़ी घर के सामने वाले चौराहे पर पहुंची. ‘ब्लू डार्ट’ से मेरे लिए एक लिफाफा आया था. जल्दी से दस्तखत कर कुरियर वाले को पर्ची पकड़ाई और लिफाफा लेकर वापस कमरे की तरफ दौड़ी. लिफाफे के एक सिरे को धीरे से फाड़ा और अंदर मौजूद पेमेंट इनवॉइस और 32 हजार रुपये का चेक निकाल कर देखा. यह एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मेरी पहली कमाई थी और मुझे याद है कि चेक हाथ में लेकर मैं खुशी से उछल पड़ी थी. खुश होने की वजह भी थी. अब मैं भारत भर में फैली करोड़ों खबरों में से अपनी पसंद की स्टोरी चुनकर उसे कर सकती थी, उस पर दस दिन का समय खर्च कर सकती थी, ग्राउंड पर जाकर उसे रिपोर्ट कर सकती थी और फिर कम से कम तीन हजार शब्दों में दिल खोलकर लिख सकती थी. साथ में तस्वीरें भी भेज सकती थी और कम से कम छह रुपये हर एक शब्द के हिसाब से पैसे भी ले सकती थी. मतलब मैं बिना किसी दफ्तर में काम किए अपनी पसंद की इन-डेप्थ स्टोरीज कर सकती थी और पैसे भी कमा सकती थी. ज्यादा नहीं तो कम से रिपोर्ट के फील्ड वर्क के दौरान होने वाली यात्राओं में ट्रांसपोर्ट का खर्चा तो अलग से पेमेंट में जुड़कर मिल ही रहा था.
मेरे लिए यह सेटअप एक स्वतंत्र जीवन, मनचाहे काम और जरूरत भर पैसों की चाभी था. बहुत संभव है कि अंग्रेजी में काम कर रहे स्वतंत्र पत्रकारों को सिर्फ 6 रुपये प्रति शब्द की दर कम लगे या फील्ड बजट का कम होना अखरे या हर फिर पेमेंट में से दस फीसदी की कर कटौती तकलीफ दे. अंग्रेजी में स्वतंत्र तौर पर काम कर रहे मेरे बहुत से मित्र जब मुझसे कहते थे कि फ्रीलांसिंग की कमाई से उनका खर्च चलना मुश्किल है तब मैं सिर्फ मुस्कुरा कर उनकी बात सुन लेती थी. और आज अपना पहला चेक आने पर मैं इतनी खुश थी जैसे उतने पैसो से सारी जिंदगी गुजर सकती हो.
वजह शायद हिंदी पत्रकारिता में गुजारे गए साढ़े तीन साल का अनुभव था. हिंदी में काम करते हुए मैंने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की राजधानियों में फोटो पत्रकारों को सिर्फ सौ-सौ रुपये में तस्वीरें बेचते और कॉलम लिखने वालों को सिर्फ चार या पांच सौ रुपये में खुशी से लिखते हुए देखा था. मैंने देखा था कि कैसे एक ही मीडिया संस्थान की हिंदी इकाई में एक प्रशिक्षु की भर्ती 12 हजार रुपये/महीने पर होती है और ज्यादा सुविधाओं के साथ वही काम उसी संस्था की अंग्रेजी इकाई में करने वाले प्रशिक्षु की भर्ती कम से कम 25 हजार रुपये/महीने पर होती है. मैंने देखा था कि कैसे एक हिंदी के पत्रकार को खबर के लिए जाते वक्त थर्ड एसी का किराया भी मुश्किल से जारी होता है जबकि अंग्रेजी में सभी ज्यादातर हवाई जहाज से यात्रा करते थे. अंग्रेजी की दो पेज की रिपोर्ट पर होने वाले खर्च में हम हिंदी में दस-दस पेजों की कवर स्टोरी फाइल कर दिया करते थे.
हिंदी में कभी हमारे पास अंग्रेजी के बराबर संसाधन नहीं रहे और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अच्छे काम के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था. इसलिए हमने कम बजट में काम करने के लिए खुद को ट्रेन कर लिया था. उदाहरण के लिए सिर्फ 30 हजार रुपयों में देश के सुदूर कोनों में एक हफ्ते काम करना और दस पन्ने से ज्यादा लंबी पड़ताल के साथ लौटना. इसी बजट में फोटोग्राफर को भी दफ्तर से साथ ले जाना होता था. पत्रकार अगर कोई लड़की है तो दिक्कत दोगुनी. बाहर रुकने के लिए एक सुरक्षित जगह चाहिए और फोटोग्राफर के लिए अलग कमरा भी. हिंदी पत्रिका या अखबार के दफ्तर में ज्यादा बजट की मांग भी नहीं कर सकते वर्ना स्टोरी पर जाने से ही रोक दिए जाने का खतरा रहता है और अगर पत्रकार स्टोरी नहीं करेगा तो करेगा क्या? ऐसे में हिंदी का पत्रकार जुगाड़ के जरिए सारे काम करना सीख जाता है.
कम बजट में रिपोर्ट करने के लिए वह अपना ह्यूमन रिसोर्स नेटवर्क और बड़ा करता है. यही ‘नेटवर्क’ हिंदी के हर पत्रकार की असली पूंजी होता है. हर जिले, हर शहर में उसके चार मित्र, दो परिचित तो होते ही हैं. सस्ते होटलों, धर्मशालाओं, मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्च से लेकर गांव-खेड़े में चारपाई या फिर तिरपाल बिछाकर भी सो जाता है. वह फिर भी खुश है क्योंकि उसकी कंडीशनिंग ऐसे वातावरण में की गई है जहां उसकी रिपोर्ट प्रकाशित करके संपादक उस पर एक तरह से एहसान करता है और उसे इसी पुरस्कार के लिए संस्था का शुक्रगुजार होना चाहिए. उसने जहां अंग्रेजी के बराबर तनख्वाह या काम करने की बेहतर स्थितियों की मांग की, पहले खुद लाखों रुपये पा रहे संपादक उसको ‘देश या पत्रकारिता के नाम पर शहीद होने’ की समझाइश देंगे और दोबारा कहने पर तो उसे तुरंत रिपोर्टिंग छोड़ने को कह दिया जाएगा या फिर सेमी-पोर्न खबरें वेबसाइट पर अपलोड कर रहे साथियों की टीम में शामिल हो जाने के लिए कहा जाएगा.
अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता (आउटपुट) में जमीन-आसमान का फर्क है यह तो सभी कहते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि हिंदी और अंग्रेजी में ‘विशाल सैलरी गैप’ के साथ-साथ काम करने के माहौल और काम करने के तौर-तरीके में भी बहुत फर्क है.
उदाहरण के लिए मुख्यधारा के समाचार प्रकाशनों में (अपवादों को छोड़कर) 
  •  हिंदी के ज्यादातर संस्थानों में आगे बढ़ने की सीढ़ी चमचागिरी की चाशनी में लिपटी हुई है. स्टाफ अपना मत, खास तौर पर मतभेद, एडिटोरियल मीटिंग में नहीं रख सकता. अगर रख दिया तो संपादक और वरिष्ठों के पास स्टाफ को परेशान करने के सौ तरीके हैं. अंग्रेजी में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से बहस होती है और काम से संबंधित किसी भी बात पर आपत्ति जताने पर वरिष्ठ उसे अपने ईगो पर नहीं लेते.
  • हिंदी अखबारों के ज्यादातर संपादकों और वरिष्ठों का मानसिक  स्तर और नजरिया बहुत राष्ट्रवादी है. महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर इनके संपादकीय पढ़कर ऐसा लगता है जैसे संघ की शाखा से लौटकर लिखे गए हों. किसी भी प्रोग्रेसिव स्टोरी आइडिया पास करवाने की प्रक्रिया में रिपोर्टर दीवार से सर फोड़ लेगा फिर भी दस में से नौ बार आइडिया रिजेक्ट कर दिया जाएगा. अल्टरनेटिव सेक्सुअलिटी तो दूर की बात है, सेक्सुअलिटी शब्द से ही न्यूज रूम में असहजता फैल जाती है. अपराध और रक्षा से जुड़े मामलों को हिंदी के सबसे बड़े अखबार ऐसे कवर करते हैं जैसे वे अखबार नहीं, पुलिस और आर्मी के माउथपीस हैं! अंग्रेजी में हर तरह की कहानियों के लिए जगह है. हर तरह के पत्रकारों के लिए जगह है. अंग्रेजी में आलोचनात्मक नजरिया अब भी जिंदा है इसलिए उनकी रिपोर्ट्स में भी फर्क दिखता है.
  • हिंदी अखबारों के दफ्तरों में गणेश पूजन, नवरात्रि आदि मनाए जाते हैं. आरती, टीका और प्रसाद का पूरा कार्यक्रम होता है जबकि ईद और क्रिसमस के दौरान स्टाफ के लिए अलग से प्रार्थना करने की जगह तक नहीं बनवाई जाती. अंग्रेजी दफ्तरों में किसी भी तरह की पूजा नहीं होती.
  • हिंदी में छुट्टी-बाईलाइन से लेकर प्रमोशन तक सब कुछ ‘वरिष्ठ’ की कृपा पर निर्भर करता है. अंग्रेजी के पत्रकार का करिअर ग्राफ उसके काम पर निर्भर करता है.
  •  अंग्रेजी में किसी बड़ी रिपोर्ट के समय जिस शिद्दत से डेस्क के कर्मचारी, रिपोर्टर के साथ खड़े रहते हैं (इंटरव्यू टेप सुनकर लिखने से लेकर रिसर्च और एडिटिंग में मदद करने तक) हिंदी में ऐसा कभी नहीं होता. हिंदी डेस्क के लोग ‘बाईलाइन देकर एहसान किया है’ वाले सिंड्रोम से ही बाहर नहीं निकल पाते.
  • अंग्रेजी के पत्रकार के पास किताबें खरीदने, उन्हें पढ़ने, फिल्में देखने और दुनिया में हो रही घटनाओं पर सोच पाने के लिए समय और पैसा, दोनों ही हिंदी के पत्रकारों से ज्यादा होता है. वहीं हिंदी के पत्रकार को छह दिन दफ्तर में बैलों की तरह जोता जाता है और सातवां दिन वह हफ्ते भर के जमा कपड़े धोने में निकल जाता है

मगर हिंदी और अंग्रेजी में इतने फर्क के बावजूद भी, आज तक सभी पत्रकारों के लिए ‘समान रैंक पर समान वेतन और समान सुविधाएं’ दिए जाने को लेकर कोई लंबा आंदोलन नहीं किया गया और न ही दुनियाभर में मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अंग्रेजी के साथी हिंदी के अपने साथियों लिए आवाज उठाने उनके साथ आए. एक ही अखबार की अंग्रेजी विंग में जा रहे रिपोर्टर ने कभी नहीं सोचा कि उसी के साथ हेल्थ बीट कवर करने वाले उसी की रैंक के हिंदीे रिपोर्टर को उससे आधा मेहनताना क्यों दिया जा रहा है? हिंदी में जब नौकरीपेशा पत्रकारों की ये हालत है आप अंदाजा लगा ही सकते हैं की 500 रुपये में रिपोर्ट लिखने वाले हिंदी के फ्रीलांसर का भूखों मर जाना तय है.

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

मजीठिया पर महाभारत

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इस आयोग की सिफारिशें मीडिया कर्मचारियों के लिए सिर्फ सपना बनकर रह गई हैं, जिसे हकीकत बनाने के लिए तमाम मीडिया मालिकान के खिलाफ मुट्ठी-भर पत्रकार ही संघर्ष कर रहे हैं. न्यायपालिका के सख्त आदेशों के बावजूद मीडिया संस्थान इसे लागू करने में आनाकानी कर रहे हैं. सिफारिशें न लागू करने के हर तरह के हथकंडे संस्थान अपना रहे हैं. मसलन उनके खिलाफ कोर्ट में जाने वाले पत्रकारों का शोषण, कंपनी को छोटी यूनिटों में बांटना, कम आय दिखाना, कर्मचारियों से कांट्रैक्ट साइन करवाना कि उन्हें आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए. इतने झंझावातों के बावजूद पत्रकार अपने हक के लिए लगातार लड़ रहे हैं. हालांकि इस लड़ाई में अभी भी पत्रकारों की एकजुटता काफी कम है. पत्रकारों के लिए दिवतिया आयोग, शिंदे आयोग, पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाना आयोग और उसके बाद मजीठिया वेतन आयोग आया है, जिनका उद्देश्य पत्रकारों को एक समान वेतनमान दिलाना और उनके आर्थिक पहलू को मजबूत करना है. हाल ये है कि आज भी बड़े-बड़े अखबारों में होने वाला सबसे छोटे पद ‘उपसंपादक’ का मासिक वेतनमान 12 से 15 हजार रुपये है, जबकि आयोग की सिफारिशें लागू करने पर यह तनख्वाह कम से कम 35 हजार हो जाएगी.

मजीठिया आयोग ने अखबारी और एजेंसी कर्मियों के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है. साथ में मूल वेतन का 40 प्रतिशत तक आवास भत्ता और 20 प्रतिशत तक परिवहन भत्ता देने का सुझाव दिया है, जिसे आज तक मीडिया मालिकों ने लागू नहीं किया. आयोग की सिफारिशों के अनुसार पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों के मूल वेतन और डीए में, 30 प्रतिशत अंतरिम राहत राशि और 35 प्रतिशत वैरिएबल पे को जोड़कर तय किया गया है. समाचार पत्र उद्योग के इतिहास में किसी आयोग ने इस तरह की सिफारिश पहली बार की है. महंगाई भत्ता मूल वेतन में शत प्रतिशत ‘न्यूट्रलाइजेशन’ के साथ जुड़ेगा. ऐसा अब तक केवल सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता आया है. वेतन बोर्ड ने 60 करोड़ रुपये या इससे अधिक के सकल राजस्व वाली समाचार एजेंसियों को शीर्ष श्रेणी वाले समाचार पत्रों के साथ रखा है. इस प्रकार समाचार एजेंसी पीटीआई शीर्ष श्रेणी में जबकि यूएनआई दूसरी श्रेणी में है. उदाहरण के अनुसार सिफारिशें लागू हों तो 1000 करोड़ की कंपनी में वरिष्ठ उप संपादक का वेतन 85 हजार से ऊपर हो जाएगा लेकिन इस समय उसे मात्र 17 हजार से 25 हजार के बीच ही वेतन मिल रहा है. इसके अलावा शहरों की श्रेणी के अनुसार पत्रकारों को तमाम दूसरी तरह की सहूलियतें देने की भी सिफारिश की गई हैं.

नवंबर 2011 से लागू करने की बात

सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों और समाचार एजेंसियों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने का आदेश दिया और कहा कि वे अपने कर्मचारियों को संशोधित पे स्केल के हिसाब से भुगतान करें. न्यायालय के आदेश के अनुसार यह वेतन आयोग 11 नवंबर 2011 से लागू होगा जब इसे सरकार ने पेश किया था और 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 के बीच बकाया वेतन भी पत्रकारों को एक साल के अंदर चार बराबर किस्तों में दिया जाएगा. आयोग की सिफारिशों के अनुसार अप्रैल 2014 से नया वेतन लागू किया जाएगा. तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एसके सिंह की बेंच ने इस आयोग की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं. बेंच ने सिफारिशों को वैध ठहराया और कहा कि सिफारिशें उचित विचार-विमर्श पर आधारित हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इसमें हस्तक्षेप करने का कोई वैध आधार नहीं है. बहरहाल तमाम अखबारों के प्रबंधन मजीठिया आयोग के विधान, काम के तरीके, प्रक्रियाओं और सिफारिशों से नाखुश थे. इनका मानना था कि अगर इन सिफारिशों को पूरी तरह माना गया तो वेतन में एकदम से 80 से 100 फीसदी तक इजाफा करना पड़ सकता है, जो छोटे और कमजोर समूहों व कंपनियों पर तालाबंदी का अंदेशा बढ़ा सकता है. दलील यह भी थी कि अन्य उद्योगों की तुलना में प्रिंट मीडिया में गैर-पत्रकार कर्मचारियों को वैसे भी ज्यादा वेतन दिया जा रहा है. अगर सिफारिशें लागू की गईं तो वेतन में अंतर का यह दायरा और बढ़ जाएगा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इनमें से किसी दलील को तवज्जो नहीं दी. साथ ही कहा कि यह केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि वह सिफारिशों को मंजूर करें या खारिज कर दंे. कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार ने कुछ सिफारिशें मंजूर नहीं कीं तो यह पूरी रिपोर्ट को खारिज करने का आधार नहीं है. इसके बाद मीडिया घरानों की रिव्यू पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट में 10 अप्रैल 2014 को खारिज हो चुकी है.

मीडिया मालिक यहां फंसा रहे पेंच

सूत्रों की मानें तो दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर,  हिन्दुस्तान व अन्य बड़े अखबारों के प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से एक फॉर्म पर साइन ले लिए हैं, जिस पर लिखा है कि उन्हें मजीठिया आयोग नहीं चाहिए, वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं. कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है. समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इंक्रीमेंट लगता है, बच्चों (अगर हैं) की पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा, उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है.

सुप्रीम कोर्ट में दे रहे ये दलील

एक बड़े अखबार में काम करने वाले वरिष्ठ उप संपादक सुरेश राय (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि कागजों पर हस्ताक्षर को लेकर ये दलील दी जा रही है कि कर्मचारी लिखित में दे चुका है कि वह मौजूदा वेतन से संतुष्ट है. मामले को लेकर कर्मचारी और अखबार सुप्रीम कोर्ट तक चले गए हैं. सुनावाई के दौरान कुछ अखबार मालिकों ने अपने यहां कार्यरत पत्रकारों के बारे में दलील दी है कि वे प्रबंधकीय कार्य करने वाले कर्मचारी हैं और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार प्रबंधकीय कार्य करने वाले कर्मचारियों पर वेज बोर्ड लागू नहीं होता है. सवाल यह है कि ऐसे फार्मों-बांडों-कागजों-करारनामों पर साइन-दस्तखत करा लेने का कोई कानूनी-वैधानिक आधार है? कानून की किताबें तो इसे गैरकानूनी, अवैध, गलत बताती हैं. विशेष रूप से द वर्किंग जर्नलिस्ट्स एंड अदर न्यूजपेपर इंप्लाइज (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रोविजंस एक्ट 1955 के चैप्टर चार का अनुच्छेद 16, वर्किंग जर्नलिस्ट्स (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रोविजंस रूल्स 1957 के चैप्टर छह का अनुच्छेद 38 और द पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936 का अनुच्छेद 23 तो यही कहता है. इन कानूनों का निचोड़ यही है कि इनके कोऑर्डिनेशन से हुआ या किया गया कोई भी समझौता अमान्य, निष्प्रभावी, अशक्त, अकृत, शून्य हो जाता है.

सुप्रीम कोर्ट का उड़ा रहे मखौल

भारतीय लोकतंत्र की अन्योन्याश्रित चार प्रमुख शक्तियां हैं:- विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया, लेकिन आयोग की सिफारिशें लागू न करने का ताजा प्रसंग अब ये संदेश देने लगा है कि अब तक सिर्फ राजनेता, अफसर और अपराधी ही ऐसा करते रहे हैं, अब मीडिया भी डंके की चोट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का मजाक बनाने लगा है. मजीठिया वेज बोर्ड से निर्धारित वेतनमान न देने पर अड़े मीडिया मालिकों को जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुपालन का फैसला दिया तो उसे अनसुना कर दिया गया. इस समय मीडियाकर्मी अपने हक के लिए दोबारा सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं.

यूनिट बनाकर कम दिखा रहे लाभ

सूत्रों की माने तो अखबार मालिक यूनिट के लाभ को आधार बनाकर सिफारिशें लागू करने की फिराक में हैं. कुछ अखबारों ने ऐसा किया भी है. ये कंपनी को कई यूनिटों में बांटकर लाभ को कम करके दिखा रहे हैं, जबकि यह सरासर गलत है. वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार कंपनी एक है तो उसे यूनिट में विभाजित कर लाभ-हानि नहीं दिखाए जा सकते. एक कंपनी के कई अखबार और कई प्रदेशों से प्रकाशन होने पर भी मदर कंपनी का ही लाभ और हानि देखा जाएगा.

प्रताड़ना, तबादला और बर्खास्तगी

मध्यप्रदेश में राजस्थान पत्रिका समूह में काम कर रहे पत्रकार दुर्गेश दत्त (बदला हुआ नाम) ने बताया, ‘पत्रिका प्रबंधन को यकीन था कि उनके खिलाफ कोर्ट में कोई नहीं जाएगा. हालांकि हुआ इसके उलट. सुप्रीम कोर्ट के फैसला लागू नहीं होने पर कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अखबार मालिक के खिलाफ अवमानना की याचिका दायर कर दी. इससे अखबार मालिक आग बबूला हो गए. उन्होंने कर्मचारियों के जबरन तबादला और नौकरी से निकाले जाने की प्रताड़ना शुरू कर दी. भोपाल पत्रिका में दो कर्मचारियों को नौकरी से बाहर कर दिया गया जबकि पांच लोगों के तबादले 1900 किमी दूर तक कर दिया गया. बाकी बचे आठ याचिकाकर्ताओं पर भी नौकरी से बर्खास्तगी और तबादले की तलवार लटकी हुई है.’ उधर, राजस्थान में भी राजस्थान पत्रिका अपने सैकड़ों कर्मचारियों का तबादला दूर-दूर कर रहा है. ये सभी मालिक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में खड़े हैं. लगभग यही हालात दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर और तमाम बड़े-छोटे हिंदी और भाषाई अखबारों की है.

अखबारों में शोषण की परंपरा

संस्थानों में पत्रकारों का शोषण आज की देन नहीं है. यह काफी समय से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है. मजीठिया आयोग की सिफारिशों के बाद ये शोषण और बढ़ा है. यह आयोग पत्रकारों के लिए एक उम्मीद लेकर आया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पत्रकारों को यकीन का था कि मीडिया घराने कम से कम देश की न्यायपालिका को तो ठेंगा नहीं दिखाएंगे. मीडिया मालिकों ने मई 2015 में सिफारिशों के अनुसार वेतन तो नहीं दिया बल्कि उनका शोषण और बढ़ा दिया. उनसे अधिक काम लिया जाने लगा ताकि वे मजीठिया के बारे में सोच भी न पाए और उन्हें हमेशा अपनी नौकरी बचाने की ही चिंता रहे.

हायर की नई कंपनियां

राजस्थान में काम करने वाले पत्रकार अभिमन्यु सागर (बदला हुआ नाम) बताते हैं, ‘जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार प्रिंट मीडिया में पत्रकारों के लिए दिन की नौकरी छह घंटे की और रात में साढ़े पांच घंटे की निर्धारित है. लेकिन अखबार में पत्रकारों से दस से 12 घंटे तक काम लिया जाता है और उन्हें ओवरटाइम भी नहीं दिया जाता है. डीए देना बंद कर दिया गया. सैलरी स्लिप नहीं दी जाती है यहां तक कि पेड लीव भी नहीं दी जाती और न ही उनका इनकैश किया जाता है. मजीठिया वेतन आयोग आने के पहले से ही अखबार मालिकों ने एक नई कंपनी हायर कर ली है और अधिकतर कर्मचारियों को उसमें शिफ्ट कर दिया गया, ताकि वे जिंदगी में कभी भी मजीठिया वेतन की मांग नहीं कर सके. अब लोगों को कॉन्ट्रेक्ट पर ही रखा जा रहा है.’

राज्य सरकारों को दिया निर्देश

मजीठिया वेज बोर्ड में 28 अप्रैल 2015 को कंटेम्प्ट पिटीशंस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से मजीठिया वेज बोर्ड लागू होने की जानकारी वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 17 बी के तहत मांगी है. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को तीन माह का वक्त दिया था, जो वक्त पूरा हो गया है. कोर्ट ने विशेष लेबर इंस्पेक्टर नियुक्त करने को कहा ताकि देश में मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू होने की सही स्थिति की जानकारी मिल सके. अगस्त में इस मामले में सुनवाई होनी है. इस बीच दिल्ली को छोड़ शायद ही किसी राज्य ने मजीठिया बोर्ड के फैसले पर कोई सकारात्मक काम किया है. दिल्ली सरकार ने राज्य के पत्रकारों को मजीठिया आयोग की सिफारिशें दिलाने की घोषणा की है. मीडिया में ये स्थितियां कुछ वैसी ही हैं जैसी 1989 में बनी थीं. तब भी मीडिया कंपनियां बछावत आयोग की सिफारिशें लागू करने में ना-नुकुर कर रही थीं लेकिन तब राजीव गांधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए बाध्य किया लेकिन वर्तमान में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है.

(लेखक पत्रकार हैं)

सोशल मीडिया: खबरों की लूट और बंटवारा

Awinash Das2एक जमाने में खजाना लूटा जाता था. अस्मत भी लूटी जाती थी. तमाम तरह की लूटों के किस्से सदियों तक तैरते रहते थे. इतिहास को समझना आसान करते थे. लुटेरे इतिहास-कथा के रोचक सूत्रधार थे. आज लुटेरे लुटेरों जैसे नहीं लगते. न्यायप्रिय पदों, कपड़ों, लहजों में वे बिखरे हुए हैं. उनके जुमले सम्मोहन मंत्र की तरह काम कर जाते हैं. तुम हम पर विश्वास करो, हम तुम्हें लूट लेंगे. लूट की यह सनक सत्ता से समाज तक फैल गई है. समाज इन दिनों सबसे अधिक कुछ लूट रहा है, तो वह है खबरें. खबरों की लूट के बाद उनका बंटवारा होता है. आखिर में एक चीथड़ा बचता है. यह चीथड़ा दरअसल लोकतंत्र का होता है.

सरकार और सरकारी बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है, जिनका मानना है कि सोशल मीडिया इस लुटेरी सनक का शाहकार है. कई मुल्कों में सोशल मीडिया को नियंत्रित भी कर दिया गया है. हिंदुस्तान में भी धारा 66ए थी, जो अभिव्यक्ति के नागरिक अधिकारों को नियंत्रित करती थी, लेकिन इसी साल मार्च के आखिरी हफ्ते में इसे खत्म कर दिया गया. एक आजाद मुल्क में जबानें भी आजाद होती हैं. यह एक सच है कि दंड विधान की कोई भी धारा सवा सौ करोड़ जबानों को खींचने या काटने में सक्षम नहीं हो सकती.

मामला तब संगीन होता है, जब संवेदनशील खबरों को समाज का एक हिस्सा लूट लेता है और उसे अपने लोभ-लालच के खंडहर में बांटने का काम करता है. कई दंगों में हमने इस लूट की करामात देखी है. ऐसे मामलों में समाज के सामूहिक विवेक को इसका जिम्मेदार बनाने की जगह सरकारें और मुख्यधारा के मीडिया, सोशल मीडिया को निशाना बनाती हैं. जबकि इंटरनेट से पहले भी दंगे होते थे, चरित्र हनन होता था.

भारत में सोशल मीडिया की गतिविधियों पर नजर रखने की शुरुआत यूपीए सरकार के वक्त हो चुकी थी. कपिल सिब्बल पहले घोषित शत्रु के रूप में सामने आए थे, जब 2011 के आसपास न्यूयॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट जारी की थी कि सिब्बल ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के प्रतिनिधियों के साथ एक गुप्त बैठक की थी, जिसमें उन पर सरकार विरोधी कंटेंट को हटाने का दबाव डाला गया था. बाद में सिब्बल ने अपने बयान में कहा भी था कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नकेल कसने की जरूरत है. गूगल ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट 2011 के मुताबिक भारत सरकार ने अपने 68 शिकायती पत्रों के जरिए 358 आइटम्स को हटाने की गुजारिश की थी, जिनमें गूगल ने आधी शिकायतों पर ही कार्रवाई की. सरकार ने 1739 एकाउंट्स की निजी जानकारी गूगल से मांगी, जिनमें से 70 प्रतिशत की जानकारी दे दी गई. यह पूरी प्रक्रिया गैरकानूनी है और सरकार के अधिकारों का दुरुपयोग है – लेकिन सरकार ने ऐसा किया. इससे साफ है कि सरकार चाहे तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स की जबान बंद करने में सक्षम है लेकिन अपने इन अधिकारों का उपयोग करने के पीछे सरकार की मंशा कभी सकारात्मक नहीं रही. सरकार अपनी तरह से अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों पर अपनी पकड़ चाहती है. यूपीए सरकार ने अपनी आलोचना की धार कुंद करने के लिए सोशल मीडिया की निगरानी की बात की, वहीं मोदी सरकार ने अपनी छवि चमकाने के लिए और विरोधियों की लानत-मलानत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया.

रूपर्ट मर्डोक का बड़ा मशहूर बयान है, ‘वस्तु नहीं, वस्तु की छवि बेचो.’ 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की छवि को चमकाने के लिए भाजपा ने अपना आईटी सेल खोला और उसमें हजारों नवयुवकों की भर्ती की. उनका काम था सच को अपने चश्मे से देखना और उसका श्रृंगार करके वर्चुअल वर्ल्ड में उतारना. इसमें दुनिया के किसी भी हिस्से के सच को भारतीय परिस्थितियों की फोटोशॉप्ड चादर में लपेटकर भ्रम फैलाना शामिल था. यह योजना इतनी असरकारी साबित हुई कि मोदी ईश्वर का अवतार लगने लगे और अंतत: प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए. बहुसंख्यक हिंदुओं को भरमाकर सत्ता में आई सरकार को लग गया कि अफवाहों में यकीन करने वाला जनमानस उसका सबसे बड़ा सेफगार्ड है. यह सबसे खतरनाक समय है, जब एक ऐसा हथियार, जिसने जनता को लोकतांत्रिक आत्मसम्मान दिया, उसका इस्तेमाल जनता को ही बरगलाने के काम में लिया जा रहा है.

सरकारें ही नहीं, कॉरपोरेट कंपनियां भी सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल करती हैं. दो साल पहले कोबरा पोस्ट ने खुलासा किया था कि कैसे कंपनियां अपने ग्राहकों के बीच अधिक लोकप्रिय दिखने के लिए फर्जी तौर-तरीके अपनाती हैं. बाबा नागार्जुन की एक कविता इस मौके के लिए बड़ा मौजूं है. कविता तो बड़ी है, पर यहां आखिरी चार पंक्तियां देखिए: ‘अंदर टंगे पड़े हैं गांधी तिलक जवाहरलाल, चिकना तन चिकना पहनावा चिकने चिकने गाल; चिकनी किस्मत चिकना पेशा मार रहा है माल, नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल.’

सोशल मीडिया चूंकि अब सरकार और मुनाफाखोर कंपनियों का भी खिलौना बन चुका है, इसलिए ये बहस बेमानी है कि जनसमूह इसका दुरुपयोग कर रहा है और इससे अराजकता फैल रही है. दरअसल आविष्कार या विज्ञान को फैलने से कोई रोक नहीं सकता. जो हो चुका है, वह होता रहेगा. सिनेमा जब आया था, तो गांधी ने लिखा था कि यह विज्ञान समाज के लिए ठीक नहीं है. गोविंद निहलानी ने अपने एक लेख में इसका जिक्र किया है. गांधी का एक बड़ा सामाजिक आधार था, इसके बावजूद सिनेमा ने अपनी जगह बनाई. आज अच्छा सिनेमा, बुरा सिनेमा की चर्चा जरूर होती है लेकिन सिनेमा की तकनीक को लेकर कोई बहस नहीं है. पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्रों से आत्मीय पीढ़ियों ने मोबाइल संदेशों के खिलाफ एक बड़ा माहौल बनाया. लेकिन आज पुराने संवाद माध्यम अप्रासंगिक हो चले हैं. तकनीक के प्रयोग को लेकर बहस हो सकती है लेकिन तकनीक को लेकर बहस बेमानी है.

दो उदाहरण हैं. एक पाकिस्तान का और एक अपने देश का. 2011 में पाकिस्तान में कुछ दिनों के लिए फेसबुक पर पाबंदी लगी थी. एक पेज क्रिएट किया गया था, जिस पर पैगंबर मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून बनाने की प्रतियोगिता चल रही थी. मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप के चलते पाकिस्तान के एक न्यायालय ने फेसबुक पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया. न्यायालय ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय को निर्देश भी दिया कि वह ईशनिंदा में बनाए गए कार्टून के मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उठाए. बाद में जिस फेसबुक यूजर ने ‘एवरीवन ड्रॉ मोहम्मद डे’ प्रतियोगिता आयोजित की थी, उसने वह पृष्ठ हटा लिया. इस अभियान से जुड़ा ब्लॉग भी उसने डिलीट कर दिया.

दूसरा उदाहरण गोवा का है. एक नवयुवक, जिसके दिल में देश में तेजी से फैल रहे भ्रष्टाचार के जंगल को लेकर एक वाजिब गुस्सा उबल रहा था, उसने ट्रैफिक पुलिस वालों की अवैध वसूली के खिलाफ मोर्चा लेने की ठानी. वह अपना कैमरा लेकर रोज एक चौराहे पर जाता और वाहन चालकों से अवैध वसूली की तस्वीरें उतारता और फेसबुक पर मौजूद इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पेज पर उसे पोस्ट कर देता. एक बार उसे पुलिस वालों ने देख लिया और उसे इतनी बुरी तरह पीटा कि उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा लेकिन उस हालत में भी अपने दोस्त की मदद से उसने फेसबुक के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना जारी रखा. गोवा प्रशासन के पास पूरे देश से इतने फोन गए कि घटना की सुबह होते-होते दोषी पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया.

इन दोनों ही उदाहरणों के जरिए समझना आसान है कि तकनीक के उपयोग का सबका अपना-अपना हिसाब है. ऐसे मान लें कि अंतर्जाल एक बड़ी परती जमीन है, उसके अलग-अलग हिस्सों पर एक आदमी गंदगी फैला रहा है, एक आदमी पौधे लगा रहा है, एक आदमी तालाब बना रहा है और एक आदमी पत्थर हटा रहा है. अब फिर अपने मूल सवाल पर लौटते हैं. दरअसल खबरें तटस्थ होती हैं, व्यक्ति तटस्थ नहीं होता. आधिकारिक मीडिया एजेंसी से जब खबरें व्यक्ति के पास आती हैं, तो व्यक्ति उसे अपने तरीके से हासिल करता है और अपने नजरिए के छौंक के साथ उसे आगे बढ़ाता है. यह हमेशा से होता रहा है. सोशल मीडिया ने इस होने को और आसान बना दिया है. लेकिन यह सिर्फ एक सामाजिक व्यक्ति का मामला नहीं है, यह सिस्टम और उसकी नीतियों का भी मामला है कि किसी घटना या खबर पर फैलने वाले भ्रम को किस तरह से साफ करे.

आज फेसबुक और ट्वीटर पर सबसे अधिक लोगों की आवाजाही है. पूरी दुनिया में फेसबुक के 1.44 बिलियन यूजर्स हैं और ट्वीटर के 302 मिलियन यूजर्स. अकेले भारत में 22.2 मिलियन लोग ट्वीटर पर सक्रिय हैं और फेसबुक इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 112 मिलियन है. इसमें तेजी से इजाफा हो रहा है. अभिव्यक्ति का पानी पूरे वेग से बह रहा है. अगर आप एक नदी का मुंह बंद करेंगे, तो दूसरी धारा बन जाएगी. इसलिए जरूरी है कि शिक्षा और सलाहियत जैसे मुद्दों पर समाज को विवेकवान बनाने की बात करें. अभिव्यक्ति की इन खुली हुई खिड़कियों को कनखियों से और संदेह से भरकर देखने की जरूरत नहीं है.

(लेखक ब्लॉगर और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

दूरदर्शन: एक स्वप्न भंग की दास्तां

Anand Pradhan2निजी चैनलों के सार्वजनिक हित और उससे जुड़ी प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नाम पर सस्ते-फूहड़-फिल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति भी किसी से छुपी नहीं है. वे लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने में लगे रहते हैं. यह भी कि निजी चैनल अधिक से अधिक दर्शक यानी टीआरपी जुटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं क्योंकि टीआरपी से ही उनकी विज्ञापन आय और मुनाफा जुड़े हुए हैं. निजी चैनलों की यह और ऐसी ही अनेकों आलोचनाएं हैं जो बिलकुल वाज़िब हैं. इस बात के लिए इन चैनलों की खूब लानत-मलामत भी होती है.

लेकिन सवाल यह है कि जनता के पैसे से चलने वाले दूरदर्शन, लोकसभा और राज्यसभा चैनलों का क्या हाल है? इन्हें लोक प्रसारक यानी जनता का प्रसारण माना जाता है. उनसे उम्मीद की जाती है कि सार्वजनिक धन से चलने वाले ये लोक प्रसारक खासकर दूरदर्शन और आकाशवाणी निजी चैनलों के सस्ते मनोरंजन और सतही/सनसनीखेज सूचनाओं का लोगों को विकल्प पेश करेंगे. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि प्रसार भारती (दूरदर्शन और आकाशवाणी) जिसका सालाना बजट लगभग 2800 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है, उनके कामकाज और प्रदर्शन पर बहुत कम चर्चा होती है.

यह सवाल जायज है कि जनता की गाढ़ी कमाई के 1850 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने वाले दूरदर्शन का हाल क्या है? बिजनेस अखबार ‘इकनामिक टाइम्स’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल बजट में वृद्धि के बावजूद दूरदर्शन के चैनल दर्शकों की पसंद में काफी पीछे हैं. हाल में गठित ब्रॉडकास्ट ऑडियेंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी-बार्क) की टेलीविजन रेटिंग के अनुसार, 15 मनोरंजन चैनलों की सूची में दूरदर्शन 13वें स्थान, 13 खेल चैनलों में डीडी-स्पोर्ट्स 10वें स्थान, 14 न्यूज चैनलों में डीडी-न्यूज 8वें स्थान और 11 सांस्कृतिक चैनलों में डीडी-भारती 10वें स्थान पर हैं. यहां तक कि हाल में शुरू हुआ किसान चैनल अपनी श्रेणी के 11 चैनलों में 9वें स्थान पर है. यही हाल दूरदर्शन के भाषाई-क्षेत्रीय चैनलों का भी है जो अपनी-अपनी श्रेणियों में लोकप्रियता के मामले में बहुत पीछे हैं.

यह ठीक है कि लोक प्रसारणकर्ता की गुणवत्ता को टीआरपी की ‘लोकप्रियता’ के मानदंडों पर नहीं मापा जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन एक लोक प्रसारणकर्ता के बतौर गुणवत्ता के उन मानदंडों पर खरा उतरता है जो एक लोक प्रसारक से अपेक्षा की जाती है? असल में, एक स्वायत्त प्रसार भारती के तहत दूरदर्शन और आकाशवाणी से यह अपेक्षा थी कि वे व्यावसायिक दबावों से दूर और देश के सभी वर्गों-समुदायों-समूहों की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे. वे भारत जैसे विकासशील देश और समाज की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखेंगे और एक ऐसे लोक प्रसारक के रूप में काम करेंगे जिसमें देश और भारतीय समाज की विविधता और बहुलता अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक रूप में दिखाई देगी.

उनके साथ यह उम्मीद भी जुड़ी हुई थी कि वह वास्तव में ‘लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा’ चलनेवाला ऐसा प्रसारक होगा जो सामाजिक लाभ के लिए काम करेगा. लेकिन प्रसार भारती के पिछले 19 सालों के अनुभव एक स्वप्न भंग की त्रासद दास्तां हैं. हालांकि प्रसार भारती का दावा है कि वह भारत का लोक प्रसारक है और इस कारण ‘देश की आवाज’ है. लेकिन सच यह है कि वह ‘देश की आवाज’ बनने में नाकाम रहा है. कानूनी तौर पर स्वायत्तता मिलने के बावजूद वह व्यावहारिक तौर पर अब भी एक सरकारी विभाग की ही तरह काम कर रहा है जहां नीति निर्माण से लेकर दैनिक प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही हावी है. इस कारण उसकी साख में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि दिन पर दिन उसमें गिरावट ही आई है.

हैरानी की बात नहीं है कि सरकार चाहे जिस भी पार्टी, रंग, झंडे और गठबंधन की रही हो लेकिन दूरदर्शन और आकाशवाणी की स्थिति कार्यक्रमों की गुणवत्ता, सृजनात्मकता और स्वायत्तता के मामले में स्थिति लगातार बदतर ही हुई है. हालांकि यह भी सच है कि इन डेढ़ दशकों में प्रसार भारती का संरचनागत विस्तार हुआ है. दूरदर्शन के चैनल लगभग सभी प्रमुख भाषाओं और राज्यों में उपलब्ध हैं, खेल-कला/संस्कृति और समाचार के लिए अलग से चैनल हैं और एफएम प्रसारण के जरिये आकाशवाणी ने भी श्रोताओं के बीच कुछ हद तक वापसी की है. यह भी सच है कि निजी चैनलों की अति व्यावसायिक, महानगर केंद्रित और मुंबईया सिनेमा के फॉर्मूलों पर आधारित मनोरंजन कार्यक्रमों, सनसनीखेज और समाचारों के नामपर तमाशा करने में माहिर निजी समाचार चैनलों से उब रहे बहुतेरे दर्शकों को दूरदर्शन के चैनल ज्यादा बेहतर नजर आने लगे हैं.

लेकिन प्रसार भारती के सामने खुद को एक बेहतर और आदर्श ‘लोक प्रसारक’ और वास्तविक अर्थों में ‘देश की आवाज’ बनाने की जितनी बड़ी चुनौती है, उसके मुकाबले इस क्रमिक सुधार से बहुत उम्मीद नहीं जगती है. यही नहीं, प्रसार भारती में हाल के सुधारों की दिशा उसे निजीकरण और व्यवसायीकरण की ओर ले जाती दिख रही है. प्रसार भारती पर अपने संसाधन जुटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके कारण विज्ञापन आय पर बढ़ती निर्भरता उसे निजी चैनलों के साथ अंधी प्रतियोगिता में उतरने और उनकी सस्ती अनुकृति बनने के लिए मजबूर कर रही है. हालांकि दूरदर्शन के व्यवसायीकरण की यह प्रक्रिया 80 के दशक में ही शुरू हो गई थी लेकिन नब्बे के दशक में निजी प्रसारकों के आने के बाद इसे और गति मिली.

इस कारण आज दूरदर्शन और निजी चैनलों में कोई बुनियादी फर्क कर पाना मुश्किल है. कहने की जरूरत नहीं है कि व्यावसायिकता और लोक प्रसारण साथ नहीं चल सकते हैं. दुनिया भर में लोक प्रसारण सेवाओं के अनुभवों से साफ है कि लोक प्रसारण के उच्चतर मानदंडों पर खरा उतरने के लिए उसका संकीर्ण व्यावसायिक दबावों से मुक्त होना अनिवार्य है. इसकी वजह यह है कि प्रसारण का व्यावसायिक मॉडल मुख्यतः विज्ञापनों पर निर्भर है और विज्ञापनदाता की दिलचस्पी नागरिक में नहीं, उपभोक्ता में है. उस उपभोक्ता में जिसके पास क्रय शक्ति है और जो उत्पादों/सेवाओं पर खर्च करने के लिए इच्छुक भी है. इस कारण वह ऐसे दर्शक और श्रोता खोजता है जिन्हें आसानी से उपभोक्ता में बदला जा सके. इसके लिए वह ऐसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करता है जो इसके उद्देश्यों के अनुकूल हों.

एक मायने में, कॉरपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं. इस कारण लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत विचारों की विविधता और बहुलता के लिए कॉरपोरेट जन माध्यमों में जगह दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है. दूसरी ओर, जन माध्यमों के कंटेंट में भी आम लोगों और उनके सरोकारों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए जगह कम होती जा रही है. लेकिन कॉरपोरेट जन माध्यमों के इस बुनियादी चरित्र और उद्देश्य को लेकर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और चिंता जाहिर की जाती रही है.

इसी पृष्ठभूमि में जनहित को सर्वोपरि मानने वाले और लोगों के जानने और स्वस्थ मनोरंजन के अधिकार के लिए समर्पित लोक सेवा प्रसारण को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की मांग होती रही है. इसकी वजह यह है कि इस मुद्दे पर अधिकांश मीडिया अध्येता और विश्लेषक एकमत हैं कि निजी पूंजी के स्वामित्व वाले जन माध्यमों की सीमाएं स्पष्ट हैं क्योंकि वे व्यावसायिक उपक्रम हैं, मुनाफे के लिए विज्ञापनदाताओं और निवेशकों के दबाव में कंटेंट के साथ समझौता करना उनके स्वामित्व के ढांचे में अंतर्निहित है और वे व्यापक जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा करते रहेंगे.

लेकिन इसके उलट अगर लोक सेवा प्रसारण को लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना है तो उसमें कार्यक्रमों के निर्माण से लेकर उसके प्रबंधन में आम लोगों और बुद्धिजीवियों/कलाकारों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है. लेकिन पिछले कुछ दशकों में व्यावसायिक प्रसारण माध्यमों के बढ़ते वर्चस्व के बीच इस विचार को हाशिए पर ढकेल दिया गया था. यह मान लिया गया था कि व्यावसायिक प्रसारण के विस्तार और बढ़ोत्तरी में लोक सेवा की जरूरतें भी पूरी हो जाएंगी. यही कारण है कि देश में लोक प्रसारण सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है. हालत यह हो गई है कि लोक प्रसारण के नाम पर राज्य और सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलने वाले दूरदर्शन और आकाशवाणी को न तो पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, न उन्हें सृजनात्मक आजादी हासिल है और न ही वे जनहित में प्रसारण कर रहे हैं.

इस आलोचना में काफी दम है कि वे सरकार के भोंपू में बदल दिए गए हैं और दूसरी ओर, उन्हें निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में ढकेल दिया गया है. इस कारण लोगों में एक ओर उनकी साख बहुत कम है और दूसरी ओर, निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में उनका इस हद तक व्यवसायीकरण हो गया है कि उनमें लोक प्रसारण सेवा की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है. इस प्रक्रिया में वे न तो लोक प्रसारण सेवा की कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही पूरी तरह व्यावसायिक प्रसारक की तरह काम कर पा रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सत्तारूढ़ दल और नौकरशाही के साथ-साथ व्यावसायिक शिकंजे में उनका दम घुट रहा है.

सच यह है कि भारत में लोक सेवा प्रसारण के विचार के प्रति एक व्यापक सहमति, ध्वनि तरंगों (प्रसारण) को स्वतंत्र करने के बाबत सुप्रीम कोर्ट के फैसले और संसद में प्रसार भारती कानून के पास होने के बावजूद प्रसार भारती वास्तविक अर्थों में एक सक्रिय, सचेत और स्वतंत्र-स्वायत्त लोक प्रसारक की भूमिका नहीं निभा पा रहा है. हालांकि 70 और 80 के दशकों की तुलना में प्रसार भारती यानी दूरदर्शन और आकाशवाणी में बीच के दौर में सीमित सा खुलापन आया लेकिन इसके बावजूद उसकी लोक छवि एक ऐसे प्रसारक की बनी हुई है कि जो सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलता है और जहां नौकरशाही के दबदबे के कारण सृजनात्मकता के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है.

हैरानी की बात यह भी है कि सार्वजनिक धन और संसाधनों से चलने वाली प्रसार भारती की मौजूदा स्थिति और उसके कामकाज पर देश में कोई खास चर्चा और बहस नहीं दिखाई देती है. उसके कामकाज पर न तो संसद में कोई व्यापक चर्चा होती है और न ही सार्वजनिक और अकादमिक मंचों पर कोई बड़ी बहस सुनाई देती है. यहां तक कि खुद प्रसार भारती के अंदर उसके कर्मचारियों और अधिकारियों में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को लेकर कोई सक्रियता और उत्साह नहीं दिखाई पड़ता है.

इसके उलट कर्मचारी संगठनों ने प्रसार भारती को भंग करके खुद को सरकारी कर्मचारी घोषित करने की मांग की है. इसके पीछे वजह सरकारी नौकरी का स्थायित्व, पेंशन, आवास सुविधा आदि हैं. लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि प्रसार भारती के कर्मचारियों में मौजूदा ढांचे और कामकाज को लेकर कितनी निराशा, उदासी और दिशाहीनता है. यहां तक कि प्रसार भारती कानून के मुताबिक न तो उसके बोर्ड का गठन हुआ और न ही उस कानून को ईमानदारी से लागू किया गया.

आज प्रसार भारती कानून को अमल में आए कोई 19 साल हो गए. इस बीच, उसकी दशा-दिशा तय करने के लिए अलग-अलग सरकारों ने कोई पांच समितियों का गठन किया. इनमें वर्ष 1996 में बनी नीतिश सेनगुप्ता समिति, वर्ष 1999-2000 में बनी नारायण मूर्ति समिति, वर्ष 2000 में बनी बक्शी समिति के अलावा यूपीए सरकार के कार्यकाल में गठित सैम पित्रोदा समिति का गठन किया गया लेकिन कहना मुश्किल है कि इन समितियों की रिपोर्टों पर किस हद तक अमल हुआ?

नतीजा, सबके सामने हैं. कहां तो प्रसार भारती को बीबीसी की तरह स्वायत्त, स्वतंत्र और लोकप्रिय बनाने का वायदा था और कहां दूरदर्शन निजी चैनलों की बदतर अनुकृति भर बनकर रह गया है. यह वैसे ही है जैसे बानर से नर बनने की प्रक्रिया में एक हिस्सा चिम्पांजी बनकर रह गया, वैसे ही दूरदर्शन, दूरदर्शन से बीबीसी बनने की प्रक्रिया में बदतर दूरदर्शन बनकर रह गया है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं)

जो सच बोलेंगे, मारे जाएंगे…

Seema Azaad2इसी वर्ष एक जून को  के पत्रकार जगेंद्र को जिस तरह एक मंत्री के आदेश पर जिंदा जला दिया गया, वह दिल दहला देने वाला था. जगेंद्र एक स्वतंत्र पत्रकार थे और उनकी हत्या के आरोपी  की मौजूदा सरकार में राज्य मंत्री हैं. इससे भी जरूरी परिचय ये है कि वे क्षेत्र के खनन माफिया हैं, जिनके खिलाफ जगेंद्र ने लिखने की जुर्रत की थी. परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा. जगेंद्र को जलाकर मार डालने की यह घटना नेताओं, माफियाओं के खिलाफ खड़े पत्रकारों पर दमन की ताजा बर्बर मिसाल है.

2009 में जब पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में छत्रधर महतो के संगठन ने आताताई सरकार को वहां से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया था, उसी संदर्भ में तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने खुलेआम धमकी दी थी कि छत्रधर महतो और उनके पक्ष में लिखने-बोलने वालों पर भी यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून) लगाया जाएगा. यह धमकी सीधे-सीधे मानवाधिकार कर्मियों के साथ पत्रकारों को भी थी. 2010 की फरवरी में जब यूपी एसटीएफ ने मुझे गिरफ्तार किया तो उनके सवाल थे-

‘लालगढ़ की घटना के लिए मुख्य तौर पर आप किसे जिम्मेदार मानती हैं?’

‘आपने लालगढ़ पर ही क्यों लिखा, कोई दूसरा विषय नहीं था?’

मुझे तुरंत चिदंबरम की धमकी याद आई थी. इसके अलावा कुछ और सवाल थे-

‘घूरपुर के किन-किन गांवों में गई हैं?’(इलाहाबाद का यह क्षेत्र यमुना के किनारे है और खनन माफियाओं के खिलाफ पारंपरिक बालू मजदूरों और उनके आंदोलनों के लिए जाना जाता है, जिस पर मैंने लेख लिखा और इनका पक्ष भी लिया)

‘एआईकेएमएस से आपका क्या रिश्ता है?’ (ये बालू मजदूरों का संगठन है)

‘दस्तक (पत्रिका, जिसे मैं अन्य लोगों के सहयोग से निकालती हूं) का सर्कुलेशन कहां-कहां हैं?’

‘बलिया और फर्रूखाबाद (जहां मैं गंगा एक्सप्रेस वे और इसके खिलाफ होने वाले आंदोलनों के बारे में जानने और लिखने के लिए गई थी) में किस-किस को जानती हैं?’

‘महिला मुद्दे तो ठीक हैं, लेकिन आप दलितों और मुसलमानों के मुद्दों पर क्यों लिखती हैं?’

ध्यान दें, ये सारे सवाल मेरे पत्रकारिता जीवन से जुड़े सवाल हैं, न कि मेरे माओवादी होने या न होने से. गिरफ्तारी के तुरंत पहले मैंने आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ एक पुस्तिका भी निकाली थी, जिसका शीर्षक था ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट : आदिवासियों को उजाड़ने की साजिश, समस्या कौन, माओवादी या भारतीय राज्य.’ यह शीर्षक दरअसल हिमांशु कुमार के एक लेख का है. इस पुस्तिका के विमोचन कार्यक्रम के दौरान ही मैं निशाने पर आ गई थी और मुझे मेरे फोन रिकॉर्ड होने के संकेत मिलने लगे थे. गिरफ्तार करने के बाद उन्होंने मुझसे जो सवाल पूछे उससे जाहिर है कि उन्हें समस्या मेरे माओवादी होने की नहीं थी, बल्कि पत्रकार होने से थी. ऐसी पत्रकार जिसके लेख उनके लिए असुविधाजनक स्थितियां खड़ी कर रहे थे.

मेरी गिरफ्तारी के बाद एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में बरखा दत्त ने तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर से सवाल पूछा कि उत्तर प्रदेश की एक पत्रकार सीमा आजाद को यह आरोप लगाकर जेल में डाला गया है कि उसके पास से माओवादी साहित्य मिला है, न कि कोई हथियार. हम पत्रकार साक्षात्कार के लिए या लेख लिखने के लिए माओवादियों या अलगाववादियों से मिलते भी हैं और उनका साहित्य भी पढ़ते हैं. इस तरह तो हम सभी खतरे में हैं?  जवाब में मणिशंकर अय्यर ने जो कहा वह महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा, ‘गैरकानूनी साहित्य रखना हथियार रखने से भी बड़ा अपराध है. हमें ये अंतर समझना होगा कि हथियार उतना खतरनाक नहीं है, जितना कि विचार.’ मणिशंकर अय्यर का यह वक्तव्य स्पष्ट कर देता है कि सरकारें और उनके बनाए कानून लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में कैसे सोचते और काम करते हैं. इस तरह इनके निशाने पर पत्रकारों का एक समूह हमेशा ही रहेगा, जो उनसे विरोधी विचार रखता है.

वास्तव में पत्रकार जब कुछ लिख रहा होता है तो वह किसी न किसी विचार को ही फैला रहा होता है. जब यह विचार सरकारों के विचार से मेल खाता है तो उस पत्रकार को पुरस्कारों और दूसरी बहुत-सी सुविधाओं से नवाजा जाता है और जब ये विचार सरकारों के विरोध में होती हैं तो उन्हें धमकी मिलती है, धक्के खाने पड़ते हैं, जेल जाना पड़ता है, कई बार तो जान से हाथ भी धोना पड़ता है. पिछले 25-30 सालों से सरकारों की आर्थिक नीतियां जितनी आक्रामक होती जा रही हैं, पत्रकार इनका दो तरीकों से शिकार हो रहे हैं. पहला ऐसे कि वे ज्यादा से ज्यादा अपने मालिक के गुलाम बनाए जा रहे हैं, उनकी छंटनी, बेगारी कराने और तमाम सुविधाओं को छीने जाने की तलवार ज्यादा धारदार होती जा रही है. दूसरी ओर वे सरकारों का सीधा शिकार भी हो रहे है. यानी निशाने पर सिर्फ जनद्रोही नीतियों की मुखालफत करने वाले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं हैं, बल्कि सच कहने वाला पत्रकार भी हैं.

व्यापमं मामले में अन्य लोगों के अतिरिक्त इस पर खोजी रिपोर्टिंग करने गए दो पत्रकारों की रहस्यमय मौत का मामला अभी ताजा ही है. इसके पहले भी पत्रकारों के दमन का सिलसिला है. कुछ सालों का ही उदाहरण देख लें तो 2014 के सितंबर महीने में गुवाहाटी से एक टीवी पत्रकार जैकलांग ब्रह्मा को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के कुछ ही दिन पहले उन्होंने ‘डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ असम’ के एक धड़े के कमांडर का साक्षात्कार लिया था. पुलिस का आरोप है कि जैकलांग इसी संगठन से जुड़ाव रखते हैं.

2002 में कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को आईएसआई का एजेंट बताकर गिरफ्तार कर लिया गया और उनके पास से ऐसे दस्तावेज होने का हौव्वा बनाया गया, जो वास्तव में भारतीय कानून की नजर में भी गैरकानूनी नहीं थे.

2008 की जनवरी में रायपुर के एक पत्रकार प्रफुल्ल झा को गिरफ्तार कर कहा गया कि वे माओवादियों के शहरी नेटवर्क को खड़ा करने में सहयोगी थे. इस मामले में वे 7 साल सजा काटने के बाद इसी साल की शुरुआत में बाहर आए हैं. उन्हें सजा दिलाकर संतुष्ट होने के बाद पुलिस ने बयान दिया कि प्रफुल्ल माओवादी नहीं हैं, उन्हें इसलिए गिरफ्तार किया गया था ताकि इससे दूसरों को सबक मिल सके.

2008 के ही मार्च महीने में तमिलनाडु के पत्रकार जयप्रकाश सित्ताम्पलम को गिरफ्तार किया गया. वे संडे टाइम्स से जुड़े तमिलनाडु के प्रतिष्ठित पत्रकार हैं. उन पर लिट्टे से संबंध रखने का आरोप लगाकर राज्य की सरकार ने न सिर्फ गिरफ्तार किया, बल्कि 20 साल की सजा भी सुनाई. इस सजा की आलोचना तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी की.

2008 में ही देहरादून के पत्रकार प्रशांत राही को गिरफ्तार कर लिया गया. वे सालों तक ‘स्टेट्समैन’ से जुड़े रहे और जब उन्हें गिरफ्तार किया गया, उस समय वे पत्रकार से ‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका में आ चुके थे क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि पत्रकार के तौर पर वे समाज परिवर्तन का जमीनी काम नहीं कर पा रहे हैं. सरकारों के लिए यह ‘नीम चढ़े करेले’ जैसा था और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तमाम फर्जी आरोपों से नवाज दिया.

उत्तराखंड के ही पत्रकार हेम चंद्र पांडेय को तो गिरफ्तार करने की बजाय सीधे मार डाला गया. मारे जाने के समय हेम माओवादी पार्टी के नेता आजाद के साथ थे. दोनों को पकड़कर ठंडे दिमाग से मारा गया और इसे मुठभेड़ का नाम दिया गया. सरकारी निजाम इसकी जांच कराने को भी तैयार नहीं हुआ. हेम को भी पहले माओवादी ही बताया गया, जब लोगों ने उसे पहचाना तब सरकार ने माना कि वो दिल्ली का एक उभरता हुआ पत्रकार था. गौरतलब है कि हेम चंद्र के लिखे और छपे लेखों में एक लेख का शीर्षक था ‘पत्रकारिता का पेशा हुआ जोखिम भरा’. इस जोखिम को समझते हुए भी उसने माओवादी नेता आजाद से मिलने की हिम्मत की और सरकारी गोली का शिकार हुआ.

इनके अलावा भी ऐसे न जाने कितने पत्रकार होंगे जिन्हें अनाम रहते हुए ही कुचल दिया गया. जरूरी नहीं कि उन्हें जेलों में ठूंसकर या उनकी हत्या कर ही कुचला गया हो, बल्कि इस बात का खौफ दिखाकर भी न जाने कितने साहसी और समाजोपयोगी पत्रकारों को आकार लेने के पहले ही खत्म कर दिया गया होगा. इनकी जगह जिन पत्रकारों का जन्म हुआ, उनसे कौन-से समाज को लाभ मिल रहा है, ये आसानी से समझा जा सकता है. यह पूरी एक व्यवस्था है जो ऐसे पत्रकारों को जन्म देती है, जिनका मकसद पत्रकारिता से सिर्फ कमाई करना ही नहीं, बल्कि ‘पैसे बनाना’ है. पत्रकारिता के पेशे में आए ज्यादातर नौजवान आदर्शवादी ही होते हैं. सच लिखना, सच लिखकर नेताओं की पोल खोलना, समाज में परिवर्तन लाना आदि ज्यादातर नवागंतुक पत्रकारों का सपना होता है लेकिन इनमें से ज्यादातर के आदर्शों का हरण हो जाता है और उनकी पत्रकारिता का क्षरण. इनमें से कई तो पत्रकार से दलाल की भूमिका में आ जाते हैं, खबरों की दलाली शुरू कर देते हैं. मैंने अपने इर्द-गिर्द भी ऐसे पत्रकारों को बनते देखा है.

अपनी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने देहरादून से की थी. जिस समय मैं वहां के एक अखबार से जुड़ी, तीन लोग और जुड़े. हम सब एक जैसी स्थिति वाले लोग ही थे. हमारे पास अपनी गाड़ी नहीं थी, रिपोर्टिंग के लिए टेम्पो से ही जाया करते थे. मेरे साथ दो लड़के जो क्राइम रिपोर्टर थे. उनमें से एक ने एक-दो महीने के भीतर ही अपने पैसे से बाइक खरीद ली, जबकि हमारी तनख्वाह इतनी थी ही नहीं. कुछ दिन बाद जब हम सबमें अच्छी दोस्ती हो गई तो उसने मुझे इसका राज बताया कि ये गाड़ी उसने पुलिस वालों की मदद से खरीदी है जिनकी खबरें वह उनके अनुसार ही लिखा करता है. जब मैंने आश्चर्य जताया और इसे गलत बताया तो उसने कहा कि तुम ऐसे ही रह जाओगी. कुछ दिन बाद मेरी साइकिल चोरी हो गई,  मैंने उसे ये बात बताई तो उसने कहा कि तुमने मुझे पहले ही क्यों नहीं बताया. मैंने कहा कि अरे इतने दिन बीत गए अब उसे पुलिस भी नहीं खोज सकेगी. उसने हंसते हुए कहा, ‘अरे तुम्हारी वाली नहीं मिलेगी तो, दूसरी दिला दूंगा पुलिस वालों से.’ मैंने मना कर दिया पर उसकी ऐसी बातें सुनकर मैं उस वक्त आश्चर्य में पड़ जाती थी. उस वक्त मैं इतनी समझदार भी नहीं थी कि इन बातों का सही विश्लेषण कर पाती, पर इस रास्ते की ओर मेरा आकर्षण कभी नहीं बना. मुझे मेरी मेहनत से लिखे लेखों को छपा हुआ देखना ही अच्छा लगता था. प्रशांत राही उस वक्त देहरादून में स्टेट्समैन में पत्रकार थे. उनसे भी मेरी जान-पहचान थी. वे भी मुझे लेखों के विषय पढ़ने और लिखने के लिए सुझाया करते थे. उस वक्त देहरादून का मुख्य डाकघर ही उनका ऑफिस हुआ करता था, जहां से वे अपनी खबरें लिखकर अखबार को भेजा करते थे. वे पत्रकारों के घुमंतू और ‘जगलर’ घेरे से दूर रहते थे, प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी कम ही जाते थे. जब मेरी उनसे दोस्ती हो गई तो वे मुझे भी इनसे दूर रहने को कहते थे. इस कारण ज्यादातर पत्रकार प्रशांत को पसंद नहीं करते थे, उन्हें घमंडी कहते थे. मैं क्योंकि इस क्षेत्र में नई थी, इसलिए मुझे तो इनका घेरा आकर्षित करता था लेकिन जब उनकी चर्चा का स्तर देखती थी, तो प्रशांत राही की हिदायत सही भी लगती थी. मैं इन दोनों के बीच झूलती रही. अब जबकि मैं दूर खड़ी होकर अपने पत्रकारी जीवन की इस शुरुआत को देखती हूं तो लगता है कि प्रशांत की बात सही थी, लेकिन उनके बीच रहकर मुझे जो अनुभव मिला वो भी उतना ही महत्वपूर्ण है. शायद हर नया पत्रकार इसी उधेड़बुन से गुजरता होगा और अपना रास्ता चुनता होगा कि उसे कैसा पत्रकार बनना है. सच को सामने लाने के खतरे उठाने वाला, सुरक्षित रहते हुए सिर्फ नौकरी करने वाला या पत्रकारिता से पैसे बनाने वाला.

किताबों में पत्रकारों को तटस्थ रहना सिखाया जाता है. वास्तव में उन्हें तटस्थता के नाम पर समाज से कटे रहना सिखाया जाता है लेकिन जमीन पर ‘तटस्थता’ जैसी कोई स्थिति होती नहीं है. जब पूरा समाज पक्षों में बंटा हो तो पत्रकार कैसे तटस्थ हो सकता है. उसे सही या गलत कोई पक्ष चुनना ही होता है, तभी न केवल वह अच्छा और बौद्घिक पत्रकार बन सकता है बल्कि सिर्फ तभी वह सही रिपोर्टिंग भी कर सकता है. वास्तव में ‘तटस्थता’ भी अपने आप में एक पक्ष है, जो इस संदर्भ में ज्यादातर नकारात्मक होती है. पत्रकारिता में प्रगतिशीलता तटस्थता का दूसरा पक्ष है.

इससे ही जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि सच लिखने वाले नेताओं, माफियाओं, नौकरशाहों की पोल खोलने वाले पत्रकारों का दायरा इतने दमन के बीच भी अपने काम में मुस्तैदी से लगा है. ऐसे पत्रकारों की एक खेप हर साल आती है. वास्तव में यह देखना महत्वपूर्ण है कि हमारे संवैधानिक अधिकारों के चलते सच लिखना उतना मुश्किल भी नहीं है और सच लिखने वाले बहुत से पत्रकार आज बेहद सफल भी है. उन्होंने अपना एक मुकाम बनाया है. सरकारों को उनसे कोई खास शिकायत भी नहीं होती है. थोड़ी असुविधा भले ही हो सकती है. उसे समस्या तभी लगती है, जब पत्रकार सच लिखने के साथ-साथ सरकार विरोधी आंदोलनों की आवाज बनने लगता है. जब उसके लिखे द्वारा आंदोलन की खबरें फैलने लगती हैं,  तब उसका काम सरकार विरोधी मान लिया जाता है और उसकी सजा दी जाती है, जो जेल से लेकर मौत तक हो सकती है. ऊपर जितने पत्रकारों का जिक्र है उनसे सरकारों को यही खतरा था. यह खतरा सिर्फ भारत की सरकार को ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की सरकारों को है.

‘कमेटी फॉर प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ के मुताबिक सन 2014 में पूरी दुनिया में कुल 221 पत्रकारों को जेल भेजा गया. 2013 में 211 और 2012 में 232 पत्रकारों को. इनमें से ज्यादातर सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों के खिलाफ और आंदोलनों के पक्ष में लिखने वाले पत्रकार हैं. यानी खतरा ऐसे पत्रकारों से ही है जो आंदोलन का बीज बोते हैं या उसका परागण करते हैं. देश में आजादी की लड़ाई के समय में भी इस तरह के पत्रकार मौजूद थे जिन्होंने इसका दंश झेला. आज भी इस खतरे को उठाते हुए बहुत से पत्रकार इस जमात में शामिल हो रहे है और इसे मजबूत कर रहे हैं. वर्ना पत्रकारिता की जो स्थिति है उसे देखते हुए उसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने पर ही कई सवाल खड़े होते हैं. जैसे- वो कैसा लोकतंत्र है जिसके लिए मीडिया जगत खंभा बना हुआ है? वास्तव में वो कौन हैं जो इस खंभे की नींव हैं- मीडिया के कॉरपोरेट घराने या पत्रकार? पत्रकारों को इस लोकतंत्र के लिए खंभा बने रहना आवश्यक है या इसे कंधा देना? आखिर में- इस खंभे का बने रहना जरूरी है या इसका ढह जाना, ताकि नए सिरे से इसकी बुनियाद रखी जा सके? पत्रकारों को इन सभी सवालों पर सोच कर अपनी पत्रकारिता की दिशा और अपना भविष्य चुनना है.

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

हाथ में कलम, सिर पर कफन

Priyanka Kaushal2राज्य के पत्रकार नक्सल प्रभावित इलाकों से न सिर्फ समाचार भेजता है बल्कि कई बार तो उन्हें जवानों के क्षत-विक्षत शवों को भी गंतव्य तक पहुंचाना पड़ता है. 17 अप्रैल 2015 की एक घटना है. दक्षिण बस्तर के पामेड़ पुलिस थाने के तहत आने वाले नक्सल क्षेत्र कंवरगट्टा में पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ हुई थी. इसमें आंध्र प्रदेश के ग्रे हाउंड्स फोर्स (नक्सल ऑपरेशन के लिए आंध्र प्रदेश में खासतौर पर तैयार फोर्स) के सर्किल इंस्पेक्टर शिवप्रसाद बाबू शहीद हो गए थे. लेकिन आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ पुलिस चार दिन तक शहीद अधिकारी के शव को बाहर नहीं निकाल सकी. फिर नवभारत अखबार के बीजापुर संवाददाता गणेश मिश्रा को पुलिस टीम के साथ भेजा गया. उन्होंने मध्यस्तता कर ग्रामीणों से शव सौंपने का अनुरोध किया. तब कहीं जाकर पुलिस अधिकारी का शव पामेड़ लाया गया. उस समय बस्तर आईजी हिमांशु गुप्ता ने पत्रकार का आभार माना था. इस पूरे मामले में गणेश मिश्रा ही वह पहले पत्रकार थे, जो घटनास्थल पर पहुंचे थे. उन्होंने ही वहां से लौटकर इस बात की तस्दीक की थी कि शिवप्रसाद बाबू नक्सलियों की गोलियों का शिकार हो गए हैं. इसके पहले तक तो पुलिस अपने अधिकारी को लापता ही मान रही थी. जवान का शव आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ की सीमा से लगभग 20 किलोमीटर दूर कंवरगट्टा गांव में तालाब की मेड़ पर लावारिस हालत में पड़ा हुआ था. जिला मुख्यालय बीजापुर से घटनास्थल की दूरी 85 किलोमीटर थी. घटना के बाद पुलिस तीन दिनों तक कंवरगट्टा नहीं पहुंच पाई थी. तब गणेश मिश्रा ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, अपनी जान की परवाह न करते हुए उस इलाके में पहुंचे, जहां नक्सलियों ने पुलिस को पीछे खदेड़ दिया था और एंबुश के डर से पुलिस दोबारा उस इलाके में नहीं घुस पा रही थी.

छत्तीसगढ़ में ऐसे असंख्य मामले हैं, जिनमें पत्रकारों ने कभी स्वेच्छा से तो कभी पुलिस के अनुरोध पर न केवल मृतकों की संख्या की तस्दीक की, बल्कि उनके शवों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम भी किया. छत्तीसगढ़ में अब यह भ्रांति भी टूटने लगी है कि नक्सली पत्रकारों पर हमला नहीं करते. नक्सलियों द्वारा गरियाबंद के नेमीचंद जैन और बस्तर के साईं रेड्डी की हत्या करने के बाद अब पत्रकारों की जान पर खतरा और बढ़ गया है

यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है, जब बस्तर के किसी पत्रकार ने अपनी जान जोखिम में डालकर पुलिस अधिकारी का शव लाने में मदद की है. छत्तीसगढ़ में ऐसे असंख्य मामले हैं, जिनमें पत्रकारों ने कभी स्वेच्छा से तो कभी पुलिस के अनुरोध पर न केवल मृतकों की संख्या की तस्दीक की, बल्कि उनके शवों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम भी किया. छत्तीसगढ़ में अब यह भ्रांति भी टूटने लगी है कि नक्सली पत्रकारों पर हमला नहीं करते. नक्सलियों द्वारा गरियाबंद के नेमीचंद जैन और बस्तर के साईं रेड्डी की हत्या करने के बाद अब पत्रकारों की जान पर खतरा और बढ़ गया है. हालांकि दोनों की हत्या करने के बाद नक्सलियों की दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने बयान जारीकर माफी मांगी और भविष्य में ऐसा न करने की बात भी कही. लेकिन पत्रकारों पर मंडराता खतरा यहीं खत्म नहीं हो जाता. उन्हें लगातार प्रेशर बम, लैंड माइन बिछे हुए इलाकों में काम करना होता है. कई बार वे पुलिस व नक्सली मुठभेड़ की क्रॉस फायरिंग में भी फंस जाते हैं. पत्रकारों पर पुलिस की तरफ से पड़ने वाले दबाव भी हैं. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में घुसने के लिए रास्तेभर पड़ने वाले पुलिस चेक पोस्ट पर रुककर आगे जाने की अनुमति लेना. कई बार पुलिस द्वारा पत्रकारों को वापस कर दिया जाना और फिर नए व खतरनाक रास्तों से पुलिस को बगैर बताए उन इलाकों में पहुंचकर सच्चाई की पड़ताल करना बस्तर के पत्रकारों के काम का हिस्सा है. हालांकि इतने खतरों के बावजूद एक अनुमान के मुताबिक बस्तर में करीब 270 पत्रकार काम कर रहे हैं. राजधानी रायपुर से नियमित बस्तर जाकर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की संख्या अलग है.

55 वर्षीय सुधीर जैन पिछले 35 सालों से बस्तर में ही रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं. जगदलपुर में रहने वाले सुधीर दैनिक भास्कर, नवभारत जैसे हिंदी दैनिकों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. फिलहाल वे तीन समाचार एजेंसियों के लिए काम कर रहे हैं. सुधीर बताते हैं, ‘बस्तर में रिपोर्टिंग करते वक्त कोई भी दिन आपकी जिंदगी का आखिरी दिन साबित हो सकता है. आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि यह दो धारी तलवार पर चलने जैसा है, एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी तरफ पुलिस. खबर कवर करने से लेकर लिखने तक की प्रक्रिया इतनी चुनौतीपूर्ण होती है कि एक आम पत्रकार से हमारा तनाव सौ गुना ज्यादा बढ़ा हुआ होता है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई खबर निर्भीक होकर नहीं लिख पाया हूं.’

27 वर्षीय पवन दहट बताते हैं, ‘बस्तर में काम करते वक्त कई बार ऐसी परिस्थिति आई है कि हमने कई टुकड़ों में बंटी हुई लाश को समेटने का काम भी किया है. ऐसा किसी दबाव में नहीं, बल्कि मानवता के नाते किया है. यह भी हमारी नौकरी का एक अघोषित हिस्सा हो गया है. 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान 10 अप्रैल को बस्तर में मतदान था. मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए पहुंचा था. कनकापाल नाम के एक धुर नक्सल प्रभावित इलाके में रिपोर्टिंग करते वक्त मेरा पैर एक प्रेशर बम पर पड़ गया. गनीमत तो यह थी कि वह प्रेशर बम फटा नहीं, नहीं तो मैं आज आपसे बात नहीं कर रहा होता.’ पवन पिछले तीन सालों से छत्तीसगढ़ में ‘द हिंदू’  के राज्य संवाददाता हैं. पवन बस्तर में अपनी धुआंधार रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. पिछले तीन सालों में उन्होंने बस्तर के अनगिनत दौरे किए हैं और कई मामलों को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है. वह कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से याद है कि कनकापाल को उस दिन एक तरफ से नक्सलियों ने तो दूसरी तरफ से पुलिस ने घेर रखा था. बस्तर जैसे इलाकों में जहां नक्सलवाद अपने चरम पर है, रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल भरा और खतरनाक होता है. नक्सलियों और पुलिस दोनों तरफ से अपने-अपने किस्म के दबाव होते हैं.’ पवन के अनुसार, ‘अगर आपको दोरनापाल से जगरगुंडा तक जाना हो तो हर चेकपोस्ट पर हाजिरी देनी होती है, बार-बार लिखवाना होता है कि आगे जाने का आपका मकसद क्या है. मुझे तो अपनी खबर रोकने के लिए कई बार पुलिस के आला अफसरों की तरफ से धमकियां भी मिली हैं, कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए हैं. सरकेगुड़ा जैसी जगहों पर पुलिस ने हम पत्रकारों को जाने से रोका हैं, जहां ग्रामीणों के घर जला दिए गए थे. जहां तक बात नक्सलियों की है तो वे भी हमारा काम प्रभावित करने की कोशिश तो करते ही हैं. जिस इलाके में नक्सली नहीं चाहते कि पत्रकार आएं, वहां आप घुस भी नहीं सकते. अगर किसी गांव में उन्होंने लोगों को प्रेस से बात करने की मनाही कर दी है, तो आप लाख कोशिश कर लो, गांववाले सहयोग ही नहीं करते, बात ही नहीं करते. कई बार हमें सलाह दी जाती है कि हम बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर एंटी लैंड माइन व्हीकल में ही रिपोर्टिंग करने पहुंचे लेकिन यह संभव ही नहीं है. सीधी-सी बात है कि इतना सारा जोखिम होते हुए भी अगर सावधानियों पर ध्यान देने लगे तो बस्तर में रिपोर्टिंग कभी संभव ही नहीं हो पाएगी. यहां तो जान हथेली पर रखकर चलना ही पड़ता है.’

पत्रकार तामेश्वर सिन्हा कहते हैं, ‘अंतागढ़ से कोयलीबेड़ा जाते वक्त अर्धसैनिक बलों के चार कैंप पड़ते हैं. हर कैंप में हाजिरी लगानी पड़ती है. कई बार घंटों बैठा दिया जाता है. पत्रकार हूं, यह बोलना ही मूर्खतापूर्ण लगने लगता है. कौन हो, क्या हो, क्यों जा रहे हो, कई तरह के सवाल किए जाते हैं, हमें शंका की नजर से देखा जाता है. पुलिसवाले वापस जाने की नसीहत तक दे डालते हैं. ऐसे ही एक बार पुलिस के सवालों से जूझते हुए किसी घटना स्थल पर मैं पहुंचा और वहां नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर समझकर पकड़ लिया. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाया और जान छूटी.’ अबूझमाड़ में लंबे समय से काम कर रहे तामेश्वर नक्सल मामलों में दिलचस्पी रखते हैं. इन दिनों वह भूमकाल समाचार नाम के अखबार में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. तामेश्वर बताते हैं, ‘बस्तर में तथ्यपूर्ण खबर लिखना पुलिस या नक्सलियों के निशाने पर आने जैसा है. यहां पत्रकारिता करना जोखिम का काम है. पुलिस पत्रकारों पर नक्सलियों के सहयोगी होने का आरोप लगा देती है, वहीं नक्सली पत्रकारों पर पुलिस के मुखबिर होने का आरोप लगाते हैं. हमें तो दोनों तरफ से शिकार होना पड़ता है.  हमारे कई वरिष्ठ साथी पत्रकारों को पुलिस ने नक्सलियों के सहयोगी होने के आरोप में जेल में ठूंस दिया है. जब नक्सली किसी पुलिस वाले का अपहरण करके ले जाते हैं तो उस समय पुलिस को पत्रकारों की याद आती है, बाकी समय हमें संदेह की नजरों से देखा जाता है. ठीक ऐसे ही जब नक्सलियों को अपनी बात रखनी होती है तो वे पत्रकारों को याद करते हैं, बाकी वक्त उन पर पुलिस के लिए मुखबिरी का आरोप लगाते रहते हैं.’ वह बताते हैं, ‘वैसे भी हम अंदरूनी इलाकों में काम कर रहे लोगों को प्रशासन व पुलिस पत्रकार ही नहीं मानती है. सबसे दुखद पहलू यह भी है कि हम जिस संस्थान के लिए काम कर रहे होते हैं, वह भी हमारी सुरक्षा की कोई जबावदेही नहीं लेता है.’

ऐसे ही चाहे पंखाजूर के 34 वर्षीय पत्रकार शंकर हों या 16 सालों से बस्तर में पत्रकारिता कर रहे 33 वर्षीय रजत बाजपेयी, प्रभात सिंह या बप्पी राय. सभी ने कभी न कभी किसी अपहृत पुलिसकर्मी की कुशलता का समाचार लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली है. 25 मई 2013 को हुए झीरम घाटी नक्सल हमले में पत्रकार नरेश मिश्र ने ही सबसे पहले पहुंचकर दिंवगत कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल को अस्पताल पहुंचाने में मदद की थी. नरेश की ही मोटरसाइकिल से भागकर कांग्रेस विधायक कवासी लखमा ने अपनी जान बचाई थी. छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में काम कर रहे इन पत्रकारों की जान की सुरक्षा का जोखिम उनका खुद का है. न तो सरकार और न ही उनका अपना संस्थान उनके प्रति किसी भी तरह की जबावदेही लेने को तैयार है. वर्षों से इन्हीं परिस्थितियों में काम कर रहे पत्रकार शायद अब मौत की इस मांद में काम करने के आदी हो गए हैं. हों भी क्यों न, पत्रकार लोकतंत्र का वह हिस्सा है, जिसने अपना काम निडरता, सहजता और जुनून की हद तक करने की कसम जो खाई है.

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

आत्म नियमन फेल नियमन की जरूरत

Press regulation2अब ये लगभग सिद्ध हो गया है कि मीडिया उद्योग द्वारा आत्म नियमन के जरिए खुद को दुरूस्त करने के तमाम दावे नाकाम हो चुके हैं. वैसे तो आत्मनियमन हकीकत से ज्यादा रूमानियत भरी कल्पना थी, एक भ्रम था और उसके लिए कोई जरूरी ढांचा तो था ही नहीं इसलिए ऐसा होना ही था. एक सदिच्छा जरूर थी लेकिन वह केवल पत्रकारों या मीडियाकर्मियों में थी, जो सरकारी दखलअंदाजी रोकने के लिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए कुछ कोशिशें करते रहते थे. जब तक बाजार का जोर नहीं था तो मीडिया घरानों के मालिकान भी इसका समर्थन करते थे, इसलिए नहीं कि उनकी इनमें श्रद्धा थी, बल्कि इससे उन्हें लाभ होता था. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए करते थे. इसीलिए जब न्यूज चैनलों के संपादकों ने आत्म नियमन का शोर मचाया तो उन पर आरोप लगा कि वे मालिकों के कहने पर ऐसा कर रहे हैं.

बहरहाल, सच्चाई चाहे जो हो लेकिन ये तो स्पष्ट हो चुका है कि मौजूदा परिस्थितियों में आत्म नियमन से मीडिया को सुधारना संभव नहीं है. ऐसा इसलिए भी कि मीडिया पर पत्रकारों का जो थोड़ा-बहुत प्रभाव होता था, वह भी खत्म हो चुका है और स्वामित्व सर्वशक्तिमान बन चुका है. स्वामित्व पर तरह-तरह से लाभ कमाने का लोभ सवार हो चुका है और उसने आत्मनियमन की न्यूनतम मांग से भी खुद को मुक्त कर लिया है. उसने उन पत्रकारों-संपादकों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है जो नैतिकता, दायित्व और सरोकारों आदि की बातें करते हैं. उन्हें ऐसे दलाल चाहिए जो थाना स्तर से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक उनके स्वार्थ साधने में मददगार साबित हों और उनके मीडिया प्रतिष्ठानों को लाभप्रद बनाने के लिए काम करें.

यदि आज मीडिया उद्योग एक तरह की अराजकता और दायित्वहीनता से गुजर रहा है तो उसकी यही सबसे बड़ी वजह है. वह लोकतंत्र के चौथे खंभे के बजाय मीडिया स्वामियों और बाजार का उपकरण बन चुका है और उसी के हितों के लिए काम करने पर तैनात हो गया है. उसके उद्देश्य बदल चुके हैं. जन सरोकारों से उसका रिश्ता बहुत पहले ही कमजोर था, अब वह पूरी तरह टूट चुका है. जो थोड़ा-बहुत बचा है वह दिखावे के लिए. इसलिए ये जरूरी हो गया है कि आत्मनियमन के भ्रमजाल से निकला जाए और नियमन की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं.

नियमन की वकालत करने का मतलब अकसर ये निकाला जाता है या इसे इस तरह से प्रचारित भी किया गया है मानो ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित-बाधित करने का प्रयास हो. वास्तव में उल्टा है. मीडिया स्वछंदता में धारा 19-1-ए के तहत भारतीय नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार का तरह-तरह से दुरुपयोग कर रहा है. यही नहीं, इसके साथ जो दायित्व जुड़े हुए हैं, उनकी अवहेलना भी वह किए जा रहा है. उसकी इस प्रवृत्ति ने मीडिया की साख को बेहद कमजोर किया है और जाहिर है कि अभूतपूर्व विस्तार के जरिए शक्ति हासिल करने के बावजूद वह घृणा का पात्र बन चुका है. ये स्थिति न तो मीडिया के लिए अच्छी है और न ही लोकतंत्र के लिए.

हालांकि ये एक विश्वव्यापी परिघटना है और मीडिया के इस ढहते चरित्र से हर जगह हाहाकार मचा हुआ है. ब्रिटेन स्वतंत्र मीडिया का झंडाबरदार माना जाता है, लेकिन रूपर्ट मर्डोक की पत्रिका न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के फोन हैकिंग कांड के बाद वहां इस मसले पर लंबा वाद-विवाद चला और वह आज भी जारी है. लॉर्ड जस्टिस लेवसन ने इस मामले की जांच के बाद मीडिया के चरित्र की पोल खोलते हुए कड़े नियमन की सिफारिश की. इन सिफारिशों के आधार पर ब्रितानी संसद ने रॉयल चार्टर तैयार किया जिसे लागू करने की कोशिश की जा रही है. ध्यान रहे ऑफकॉम पहले ही वहां एक नियामक की भूमिका अदा कर रहा था, इसके बावज़ूद स्थितियां इस क़दर बिगड़ीं की सरकारी हस्तक्षेप की वजह बन गईं. भारत में तो ऐसा कोई नियमन ढांचा या संस्था है ही नहीं और अगर कल को सरकार अपनी ओर से कुछ करने पर आमादा हो जाए तो क्या होगा? बल्कि पिछली सरकार तो कंटेंट कोड लागू करने पर आमादा हो गई थी और इसके लिए उसने इंस्पेक्टर राज व्यवस्था कायम करने का फैसला भी कर लिया था. अगर मीडिया इस तरह के हमलों से बचना चाहता है तो उसे आत्मनियमन की बहानेबाजी से बाहर आकर स्वतंत्र नियमन के पक्ष में काम करना चाहिए.

दुर्भाग्य ये है कि हमारे देश में अधिकांश उद्योग-धंधों के लिए एक तो नियमन की कोई व्यवस्था है नहीं और अगर नियामक बनाए भी गए हैं तो उन्हें काम नहीं करने दिया जाता. उद्योगों और सरकार के दबाव में वे नाकारा हो जाते हैं. मसलन, भारतीय प्रेस परिषद को ले लीजिए. एक तो उसका दायरा केवल प्रिंट मीडिया तक ही सीमित है. दूसरे, वह एक नख-दंत विहीन संस्था है. उसके पास इस तरह के अधिकार ही नहीं हैं कि वह उन पत्र-पत्रिकाओं के ख़िलाफ काम कर सके जो पत्रकारीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं या उनके विरूद्ध काम कर रहे हैं. पेड न्यूज का उदाहरण हमारे सामने है. प्रेस परिषद ने इसके लिए एक कमेटी बैठाई, जिसने अपनी रिपोर्ट भी दे दी. लेकिन प्रेस परिषद में मालिकों का वर्चस्व है और उसमें सांसदों का भी प्रतिनिधित्व है. बस उन्होंने मिलकर रिपोर्ट को जारी ही नहीं होने दिया. जद्दोजहद के बाद उसे काट-छांटकर जारी किया गया. हालांकि पूर्ण रिपोर्ट अनाधिकारिक तौर पर भी जारी कर दी गई लेकिन इससे परिषद की हैसियत का पता तो चलता ही है.

टेलीविजन चैनलों के मीडिया कंटेंट को नियमित करने के लिए नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) भी काम कर रही है. लेकिन उसका कोई खास असर नहीं देखा गया. अव्वल तो ज्यादातर न्यूज चैनल इसके सदस्य ही नहीं हैं. फिर यदि किसी चैनल को उसकी कोई बात पसंद नहीं होती तो वह उससे बाहर हो जाता है. एनबीए के पास कोई विशेष अधिकार भी नहीं है. वह एक तरह की एडवायजरी भूमिका निभा रही है. वह कभी-कभार चैनलों को हल्के दंड दे देती है जिसे चैनल आंख बंद करके स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके चाल-चलन में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसी तरह न्यूज चैनलों के संपादकों ने ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएसन (बीईए) का गठन किया था, मगर वह भी पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुकी है.

पिछले दो-तीन सालों में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने मीडिया के नियमन के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाने की कोशिशें की हैं लेकिन वह पूरी तरह से नाकाम रहा. मसलन, उसने सन् 1995 के केबल अधिनियम के प्रावधानों का हवाला देकर चैनलों को एक घंटे में बारह मिनट से अधिक विज्ञापन न दिखाने का निर्देश दिया. लेकिन ये आज तक लागू नहीं किया जा सका है क्योंकि उसे चुनौती दे दी गई और सरकार ने भी उसे इस पर अमल न करने के लिए दबाव डाला. इसी तरह उसने उद्योग से जुड़े सभी पक्षों से विचार-विमर्श करने के बाद संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता और क्रॉस मीडिया ओनरशिप जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी सिफारिशें सरकार को भेजीं, लेकिन आज भी वे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में धूल खा रही हैं.

जाहिर है कि शक्तिशाली मीडिया घरानों ने उस पर दबाव बना रखा है इसलिए वह उन सिफारिशों को लागू करना नहीं चाहती. वैसे ट्राई के साथ एक तो मुश्किल ये है कि उसके अधिकार क्षेत्र को लेकर ही भ्रम बने हुए हैं इसलिए उसके हर निर्णय या सिफारिश पर तुरंत सवाल खड़े कर दिए जाते हैं जिससे मामले लटक जाते हैं.

अब चाहे प्रेस परिषद को मीडिया परिषद में तब्दील करने का सुझाव हो या फिर ट्राई को अधिक अधिकार देने का मसला, निर्णय लेने का समय आ गया है. सच्चाई तो ये है कि इसमें पहले ही काफी देर हो चुकी है और अब और अधिक देरी आत्मघाती होगी. नियमन की शुरुआत के लिए ब्रिटेन के जस्टिस लेवसन ने मीडिया नियमन के लिए जो सिफारिशें की हैं, उन्हें आधार बनाया जा सकता है. कोई जरूरी नहीं कि हम ब्रितानी संसद द्वारा बनाए गए रॉयल चार्टर की हू-ब-हू नकल करें, लेकिन भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उससे उपयोगी चीजों को स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है. एक बात तो ये समझ ली जानी चाहिए कि मीडिया का विस्तार इस पैमाने पर हो गया है कि कोई एक नियामक संस्था हर तरह के मीडिया का नियमन नहीं कर सकती. प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक एवं इंटरनेट, तीनों माध्यमों के अपने विशिष्ट गुण एवं आवश्यकताएं हैं इसलिए उन सबको एक बंडल में बांधने के बजाय अगर उनका अलग-अलग नियमन किया जाए तो वह ज्यादा कारगर होगा.

नियमन के बारे में सबसे ज्यादा वाद-विवाद इस मुद्दे को लेकर है कि उसे कैसे किया जाए और कौन करे. लेकिन ये बहस बेमानी है. इसमें तो किसी तरह का संदेह होना ही नहीं चाहिए कि नियमन  सरकारी प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए और स्वतंत्र व्यक्तियों द्वारा ही किया जाना चाहिए. इसमें उन पत्रकारों और संपादकों को भी शामिल नहीं किया जा सकता जो सरकार या मीडिया मालिकों के हितों के रक्षक बन सकते हैं और न किसी भी रूप में सरकार या नौकरशाही के नुमांइदे नहीं होने चाहिए. विभिन्न क्षेत्रों के जाने-माने विद्वानों को अगर ये जिम्मेदारी सौंपी जाएगी तो वे सामाजिक हितों को ध्यान में रखकर बेहतर परिणाम देने में सक्षम होंगे.

अच्छी बात ये है कि विधि आयोग विभिन्न पक्षों से नियमन पर विचार-विमर्श कर रहा है और उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्द ही एक ठोस प्रारूप तैयार कर लेगा. ये भी उम्मीद की जानी चाहिए कि उसमें इस तरह के कानूनी प्रावधान होंगे कि नियमन सबके लिए बाध्यकारी हों और नियामक के पास ऐसे अधिकार भी हों कि जरूरत पड़ने पर वह चैनलों के लाइसेंस निलंबित या रद्द कर सके. मीडिया जगत से भी यही उम्मीद की जाएगी कि वह किंतु-परंतु छोड़कर नियमन को लागू करने में मदद करे, न कि उसकी राह में नई अड़चनों की चालबाजियों में उलझे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

हर शाख पे उल्लू बैठा है

Anil Yadavपत्रकारिता के अव्वल, दोयम और फर्जी संस्थानों से हर साल सपनीली आंखों वाले लड़के-लड़कियों के झुंड बाहर निकल रहे हैं. इनमें से बहुतेरे किसी दोस्त, परिचित के हवाले से मुझसे मिलते हैं. कॅरिअर के बारे में सलाह मांगने के बीच में अचानक उतावले होकर बोल पड़ते हैं, सर! कोई नौकरी हो तो बताइए, मैं अपनी जान लगा दूंगा या दूंगी. तब किसी आदिम प्रवृत्ति के तहत मेरा ध्यान उनके मांसल पुट्ठों और नितंबों की ओर चला जाता है जैसे वे किसी कसाईबाड़े में जाने को आतुर पगहा तुड़ाते जवान जानवर हों और मैं उनका गोश्त तौल रहा हूं.

उन्हें मेरी सोच क्रूर और हिंसक लग सकती है लेकिन सच यही है कि दस-बारह साल के भीतर उनका शरीर भले फैल जाएगा लेकिन उनके बौद्धिक और मानसिक सारतत्व का जरा-सा हिस्सा बहुत सस्ते दामों में खरीदकर घटिया कामों में इस्तेमाल कर लिया जाएगा बाकी हताशा में बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया जाएगा. मैं उनसे कहता हूं कुछ भी कर लो मीडिया में मत जाओ, वे मुझे संदेह से देखते हैं जैसे मैं उनका पत्ता साफ कर देने के लिए कोई षडयंत्र बुन रहा हूं, फिर उलझ पड़ते हैं तो सर आप क्यों पत्रकार हो गए और अब तक बने हुए हैं?

मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि पत्रकारिता की आत्मा कब की सस्ते में नीलाम हो चुकी है और अब पत्रकार होना जिंदगी भर के लिए गरीब, संदिग्ध, असुरक्षित और सारे धतकर्मों का मूकदर्शक होना है. तिस पर तुर्रा यह है कि इन दिनों पत्रकारों को दल्ले-भंड़ुवे जैसे संबोधनों से नवाजने का फैशन जोर पकड़ चुका है. ऐसा करने वाले अधिकतर वे हैं जो किसी न किसी अवैध धंधे में शामिल हैं. उन्हें दिल से लगता है कि उन्हें अपनी तिकड़मों से माल काटने की अबाध आजादी मिलनी ही चाहिए.

मैंने पिछले पच्चीस सालों में हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता के कई घाटों का पानी पीया है और अब भी प्यासा भटक रहा हूं. एक घाट यानी दुनिया के सबसे बड़े हिंदी अखबार दैनिक जागरण में मेरे एक संपादक थे, जो लखनऊ के हजरतगंज में दफ्तर की छत पर अखबार के सर्कुलेशन और विज्ञापन के मैनेजरों को मुर्गा बनाया करते थे, रिपोर्टरों को लप्पड़ रसीद कर दिया करते थे, महिला पत्रकारों को छिनाल और रंडी कहकर बात किया करते थे. वे खुद भी अक्सर लात खाते थे लेकिन उन्हें इसकी कुछ खास परवाह नहीं थी. पत्रकारों के साथ दासों जैसा व्यवहार करने वाले अखबार के कॉरपोरेटी हो रहे मालिक उन्हें हार्ड टास्क मास्टर कहा करते थे और चाहते थे बाकी संस्करणों के संपादक भी उन्हीं जैसे हो जाएं. उनकी नकल बहुतों ने की (अब भी करते हैं) लेकिन बराबरी कोई नहीं कर पाया.
उनका तरीका यह था कि वे अखबार के मालिकों के सारे सही गलत काम (राज्यसभा के टिकट से लेकर सस्ती दरों पर प्लॉट और महंगी दरों पर विज्ञापन हथियाने तक के काम) नेताओं और अफसरों के संपर्क में रहने वाले ब्यूरो के रिपोर्टरों को धमकाकर बड़ी तत्परता से कराते थे. चार काम मालिकों के होते थे तो दो अपने भी करा लेते थे. वे इतने दहपट थे कि पशुपालन और बागवानी जैसी बीट देखने वाले गरीब रिपोर्टरों से भी दवाएं और गमले निचोड़ लेते थे. अगर कोई होशियार रिपोर्टर उनके वाले दो काम कराते हुए एक अपना भी करा ले तो उसकी शामत आ जाती थी, तब वह दल्ला हो जाता था. उसकी नौकरी पर बन आती थी. उनसे गाली और लप्पड़ खाए कई पत्रकार इस वक्त कई बड़े अखबारों के संपादक हैं, उन्हीं की फोटोकॉपी बनना चाहते हैं. उनका जिक्र वे अपने गुरु, निर्माता और गाइड की तरह कानों को हाथ लगाकर करते हैं.

जागरण घाट के पानी का स्वाद बताने से गरज यह है कि लात-जूता और गालियों को निकाल दें तो सारे अखबार और चैनल उसी ढर्रे पर कॉरपोरेटी शालीनता का स्वांग करते हुए चल रहे हैं यानी अपने उपभोक्ताओं (पाठकों) को ठगते हुए धंधा कर रहे हैं. अगर पत्रकारिता के पतन पर बात करनी है तो निरीह पत्रकारों को नहीं कोसा जाना चाहिए जो वेतन आयोगों की निर्धारित तनख्वाह भी नहीं मांग पाते हैं, बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए हर दिन नौकरी बचाते अपने परिवार पाल रहे हैं. बात मीडिया के मालिकों से शुरू होनी चाहिए जिन्होंने करोड़ों की पूंजी से अरबों का मुनाफा बनाने की हवस में पत्रकारिता को भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और जो भी उनके हित साध सकता है उनके हाथों बेच दिया है. इन मालिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का उच्चारण करने से भी रोक दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने उसे भ्रष्टाचार की आजादी में बदल दिया है.

संपादक या तानाशाह

Cover  15 December  2011, National_Layout 1.qxdकुछ बरस पहले एक दिन सुबह-सुबह बिंदु (बदला हुआ नाम) का फोन आया. वो बहुत ही घबराई हुई लग रही थी. मुझे थोड़ा-बहुत अंदाजा तो लग गया लेकिन बिंदु ने जो बताया, वह मेरी कल्पना से परे था. बिंदु अपनी पीड़ा साझा करते हुए कभी सिसकती और कभी रोने लग जाती. वह अपने संपादक के किस्से सुना रही थी. जिस न्यूज एजेंसी में वह काम करती थी उसके संपादक अपने कर्मचारियों से बहुत ही बदतमीजी से पेश आते थे. दफ्तर में एक-दो लोग ही थे जिन पर उनके नेह की बारिश होती थी, वरना सभी उनके आगे खुद को करमजला ही मानते थे. मानें भी तो क्यों नहीं? नई दिल्ली के आरके पुरम स्थित ऑफिस से आखिरी दिन जब बिंदु उनसे बेइज्जत होकर  अपने घर के लिए बस में सवार हुई तो उसे अपने स्टॉप पर उतरने का होश ही नहीं रहा. बदरपुर में जब बस आखिरी स्टॉप पर रुकी और सभी के उतरने के बाद भी वह बस में ही बैठी रही तो कंडक्टर ने आकर कहा, ‘बहन जी उतर जाओ. बस आगे नहीं जाएगी. कहां जाना है, आपको?’ बिंदु मानो किसी दुःस्वप्न से अचानक बाहर निकल आई हो. उसने कंडक्टर से पूछा, ‘आप मुझे कहां ले आए? मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है.’ बस कंडक्टर संवेदनशील व्यक्ति था, उसे समझ में आ गया कि वह किसी परेशानी में है. उसने बिंदु से मोबाइल लिया और उसमें फीड नंबर में से मां का नंबर निकालकर उन्हें फोन किया. कंडक्टर ने मां को बात समझाई, घर का पता लिया और ऑटो वाले को पता देकर बिंदु को घर के लिए रवाना किया. इस घटना के लगभग पंदह-बीस दिन बाद बिंदु ने मुझे फोन किया था.

बिंदु कई महीनों से परेशान थी. मुझे 15-20 दिन में उसका फोन जरूर आ जाता था. बातचीत का 95 फीसदी हिस्सा किसी दूसरे संस्थान में नौकरी मिलने की संभावना को लेकर ही केंद्रित होता था. मैं भी बिंदु के साथ उसी न्यूज एजेंसी में काम करता था. नौकरी की खोज में दो महीने की अथक मेहनत के बाद उस न्यूज एजेंसी की नौकरी को मैंने तीन महीने में ही अलविदा कह दिया था.

बिंदु हमारे संपादक की प्रताड़ना का अक्सर शिकार होती थी. बिंदु कौन थी? वह दिल्ली की एक पॉश इलाके के बीच बसी एक कच्ची कॉलोनी में रहती थी. अपने घर की महिला सदस्यों के बीच पढ़-लिखकर नौकरी करने वाली संभवतः पहली महिला थी. वह हमेशा साधारण कपड़ों में होती और उसकी बातचीत के लहजे से किसी को भी उसकी सादगी का पता सहजता से लग सकता था. वह सीधी होने के साथ थोड़ी दब्बू भी थी या हो गई थी. नौकरी संभवतः उसकी मजबूरी रही होगी. शायद इसलिए दबना उसने अपने लिए तय कर रखा था क्योंकि हम जब उससे कहते कि तुम संपादक से बात करो तो वह टाल देती. कभी जवाब न देना भी उसकी प्रताड़ित होने की एक बड़ी वजह रही हो. हमारे संपादक को अपने मातहतों को प्रताड़ित करने में मजा आता था. उन्होंने अलग-अलग मातहतों को प्रताड़ित करने के अलग-अलग दिन तय कर रखे थे. मेरे लिए गुरुवार का दिन तय था. वह अक्सर मेरी कॉपियों में मात्रा की गलतियां लगाकर मुझे बुलाते और कहते कि इस तरह की दिक्कतें रहेंगी तो फिर मेरे साथ चलना मुश्किल होगा. किसी को नौकरी पर रखने से पहले वह पूरे तीन दिन तक उससे काम करवाते. यह उनके परीक्षा लेने का एक अनोखा ढंग था. मेरी समझ में यह कभी नहीं आया कि इतना ठोंक-बजाकर नौकरी देने के बाद भी उनका हर मातहत चंद दिन बाद ही खोटा सिक्का क्यों साबित होने लग जाता था? वे अक्सर भाषण देते हुए कहते, ‘जर्नलिज्म शुड फ्लो इन योर ब्लड.’ अब ये संपादक एक बड़े एनजीओ में पीआर का काम देख रहे हैं.

जब वे अपने बॉस के सामने होते तो उनके दोनों हाथ सामने की ओर बंधे हुए होते और हर बात पर हामी भरने के जोश से भरे होते. उनके मुंह से सेना की जवान की तरह दो शब्द ही निकलते ‘यस सर… यस सर…’ हिंदी पत्रकारिता में यह गुण-दोष उनके जैसे तमाम कड़क और पीड़ित करने को आतुर दिखने वाले लोगों में समान रूप से पाया जाता है. मीडिया के तहखाने में प्रताड़ना के ऐसे हजारों किस्से दबे हुए जो कभी तनु और कभी बिंदु के माध्यम से मजबूरी में ही बाहर आ पाते हैं. टीवी पत्रकारिता को नया आयाम देनेवाले एसपी सिंह ने शायद इन संपादकों के आचरण के अनुभव के बाद ही अपने मित्रों से कहा था, ‘संपादक अपने कमरे में तानाशाह होता है.’

स्ट्रिंगर : नींव के निर्माता

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साल 2011 की गर्मियों में दमोह से छतरपुर को जोड़ने वाले उबड़-खाबड़ सड़कों पर लगभग हर दस मीटर में बड़े-बड़े गड्ढे मौजूद थे. नर्मदा घाटी के जंगलों में खड़े विशाल टीक के पेड़ों के धूलधूसरित पत्तों से छनकर अप्रैल की कड़ी धूप उनके चेहरे पर गिर रही थी. एक सफेद रंग की इंडिगो कार में वह मेरे साथ पीछे की सीट पर बैठे थे. हम बुंदेलखंड में ‘बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जला दी जा रही लड़कियों’ के परिवारों, पुलिस अफसरों और वकीलों से मिलने के लिए छतरपुर से लेकर दमोह तक की खाक छान रहे थे. उस दिन उन्होंने पूरी बांह वाली बैगनी रंग की कमीज, नीली जींस और सफेद रंग स्पोर्ट्स जूते पहने थे. हाथों में जलाई जा चुकी लड़कियों की लिस्ट लिए वह मुझे बुंदेलखंड और पत्रकारिता की अपनी अनगिनत यात्राओं से जुड़ी छोटी-बड़ी कहानियां सुनाते जा रहे थे. मैं आंखें चौड़ी करके चुपचाप उनकी बातें सुन रही थी. मैंने उनके जैसा साहसी और उत्साह से लबरेज पत्रकार अब तक नहीं देखा था. ‘प्रियंका जी, इसके बाद आपको यह स्टोरी जरूर करनी चाहिए’, हर दस मिनट में एक नए स्टोरी आइडिया के साथ यह कहते हुए ओपी भाई का खिला हुआ चेहरा आज भी नहीं भूल पाती हूं.

ओमप्रकाश तिवारी छतरपुर जिले के रहने वाले पत्रकार थे. वह छतरपुर जिले से एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्ट्रिंगर थे और साथ ही कई स्थानीय अखबारों में भी लिखा करते थे. सभी साथी पत्रकार प्यार से उन्हें ओपी कहकर बुलाते थे. 2013 में कैंसर का ठीक से इलाज न करवा पाने की वजह से उनका निधन हो गया. आमतौर पर कैंसर जैसी कमरतोड़, लंबी और महंगे इलाज की दरकार रखने वाली जानलेवा बीमारी का इलाज करवाने की हैसियत बड़े शहरों के बड़े अखबारों और टीवी चैनलों में काम करनेवाले ज्यादातर पत्रकारों की भी नहीं है. ओपी भाई तो फिर भी मध्य प्रदेश के एक छोटे से जिले में स्ट्रिंगर थे. छह फुट लंबे, जिंदादिल, हंसमुख और ऊर्जा से भरपूर ओपी भाई ने अपने काम की बदौलत मध्य प्रदेश की पत्रकारिता में अपना अलग स्थान बनाया था. बुंदेलखंड की जानलेवा गर्मियों में भी वह अपने सिर पर सिर्फ एक गमछा बांधकर अपनी मोटरबाइक पर लगभग हर रोज सैकड़ों मील की यात्रा किया करते थे. छतरपुर, दमोह से लेकर पन्ना, दतिया और झांसी तक पूरा बुंदेलखंड उनकी उंगलियों पर हुआ करता था. हर गांव में उनका नेटवर्क था. एक ऐसा विश्वसनीय नेटवर्क जो सिर्फ सालों की मेहनत और स्थानीय लोगों के साथ के भरोसे का एक रिश्ता बनाने के बाद ही विकसित हो पाता है. बुदेलखंड के मुद्दों और विकास को लेकर भी ओपी भाई में गजब का पैशन था. ओपी भाई उन चुनिंदा पत्रकारों में से थे जिन्होंने 2010-11 में पहली बार पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के सफाये को उजागर किया था. उस दोपहर उन्होंने मुझे बताया, ‘दरअसल जब मुझे पता चला कि सरकार पार्क में 40 बाघ बताकर बजट ले रही है तो मैंने रोज सुबह पार्क के चक्कर लगाने शुरू कर दिए. हफ्तों तक रोज सुबह पैदल ही पूरा पार्क घूम जाता था लेकिन बाघ दिखते ही नहीं थे. मुझे शक हुआ कि पार्क में बाघ लगभग खत्म हो गए हैं. फिर कुछ दिन और खोजबीन की और फिर खबर ब्रेक कर दी.’ खबरों के लिए ओपी भाई के जुनून से मैं आज तक प्रेरित महसूस करती हूं.

बुदेलखंड में जलाई गईं लड़कियों की कहानी पर रिपोर्ट करते वक्त मैं सिर्फ 23 साल की थी और यह ड्रग ट्रायल के बाद मेरी दूसरी बड़ी रिपोर्ट थी. जाहिर है अनुभव और उम्र दोनों ही में मैं ओपी भाई से दशकों छोटी थी. फील्ड पर उन्होंने न सिर्फ मेरा उत्साह बढ़ाया बल्कि काम करते वक्त बहुत कुछ सिखाया भी. तब एक पत्रकार के जीवन में डिफॉल्ट मोड की तरह मौजूद रहने वाली वाली ‘हर रोज की हिंसा’ से मेरा नया-नया परिचय हुआ था और अभी मेरी कच्ची संवेदना बहुत कमजोर थीं. नोट्स लेते वक्त अक्सर मेरा चेहरा आंसुओं से भीग जाता और कई बार तो लड़कियों की मांओं से बात करते हुए मैं उनके साथ सिसकियां लेते हुए रोने लगती. यह ओपी भाई का बड़प्पन ही था कि उन्होंने मुझे डांटकर वापस नहीं भगाया बल्कि करुणा और समझदारी के साथ बिना रोए अपना काम करने की समझाइश दी. वकीलों और बड़े पुलिस अधिकारियों से गुस्से में उलझते हुए भी उन्होंने मुझे कई बार बचाया. उन्होंने मुझे अपनी पीड़ा और गुस्से को दिशा देकर अपने लेखन में उतारने के लिए प्रेरित किया. फील्ड पर अपने गुस्से पर काबू रखना उन्होंने मुझे सिखाया. बाद में बुंदेलखंड की लड़कियों की कहानी ‘तहलका’ में कवर स्टोरी बनी और राज्य महिला आयोग ने तुरंत मामले को संज्ञान में लिया. राज्य स्तरीय मीटिंग में दमोह और छतरपुर के पुलिस अधीक्षकों और कलेक्टरों को फटकार लगाई गई और लड़कियों के मारे जाने के मामलों की तहकीकात करने के आदेश जारी किए गए. बाद में इस कहानी को रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी मिला पर उससे ज्यादा बड़ा पुरस्कार स्टोरी पढ़ने के बाद ओपी भाई के चेहरे पर आई मुस्कराहट थी.

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आखिर इस पेशे में इतना कम पैसा क्यों मिलता है कि आदमी अपना इलाज भी ठीक से नहीं करा पाते? और कम पैसे देने ही हैं तो कम से कम रिपोर्टरों के एक मजबूत मेडिकल कवर का नियम क्यों नहीं है? अगर बड़े शहरों में काम करने वाले कुछ ‘बड़े पत्रकारों’ के लिए ये मेडिकल कवर है तो स्ट्रिंगर्स के लिए क्यों नहीं है?

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सन 2012 में उनकी पैर में एक छोटा सा घाव हुआ था. कुछ दिन गुजर गए और ठीक होने की बजाय वह बढ़ता गया. बाद में पता चला कि कैंसर है. जब इलाज के लिए वह मुंबई के एक बड़े अस्पताल में भर्ती थे तब मेरी कई बार उनसे फोन पर बात हुई. मैं सेहत के बारे में ज्यादा पूछती तो कहते, ‘यह सब छोड़िए और बताइए क्या खबर है? काम कैसे चल रहा है?’. मैं हर बार उनसे कहती कि उन्हें ठीक होकर जल्दी वापस आना है और हमें मिलकर बहुत काम करना है. लेकिन एक साल तक चले इलाज ने ओपी भाई और उनके परिवार को पूरी तरह से तोड़कर रख दिया. मुंबई जैसे शहर में रहने का खर्चा और महंगे इलाज का खर्च अलग. आखिरी बार जब उनसे फोन पर बात हुई तो बड़ी धीमी आवाज में बोले, ‘प्रियंका जी, अब नहीं बच पाऊंगा मैं. दो छोटे-छोटे बच्चे, पत्नी और छोटा भाई हैं. सब परेशान हैं मेरी वजह से और बीमारी है कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही. पैसे भी पूरे खत्म हो चुके हैं.’ इतना सुनकर ही मैंने रोते हुए उनकी हिम्मत बंधाई थी. फिर साथी पत्रकारों को फोन करके मदद के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि स्थानीय पत्रकार अपनी छोटी-छोटी तनख्वाहों में से ही पैसे निकलाकर जितना हो सकता था, ओपी भाई की मदद कर रहे थे. मगर 10 लाख रुपये का इलाज करवा पाना उनमें से किसी के बस में नहीं था.

जनवरी 2013 की एक शाम खबर मिली कि ओपी भाई नहीं रहे. पैसे की कमी की वजह से हमारे बीच के एक व्यक्ति का ठीक समय पर इलाज नहीं हो पाया और सिर्फ चालीस साल की उम्र में वह चल बसा. दुनिया को न्याय दिलवाने के लिए लड़ने वाले हम पत्रकार अपने ही बीच के आदमी की जान नहीं बचा पाए थे. और हम ये भी जानते हैं कि कोई भी बड़ी बीमारी हो जाए तो शायद अपनी जान भी नहीं बचा पाएंगे. असहाय महसूस करते हुए मैंने अपनी छोटी सी सैलरी स्लिप देखी और खुद से पूछा कि आखिर मैं क्यों कर रही हूं ये सब? आखिर इस पेशे में इतना कम पैसा क्यों मिलता है कि आदमी अपना इलाज भी ठीक से नहीं करा पाते? और कम पैसे देने ही हैं तो कम से कम रिपोर्टरों के एक मजबूत मेडिकल कवर का नियम क्यों नहीं है? अगर बड़े शहरों में काम करने वाले कुछ ‘बड़े पत्रकारों’ के लिए ये मेडिकल कवर है तो स्ट्रिंगर्स के लिए क्यों नहीं है?

हकीकत ये हैं कि स्ट्रिंगर्स की फौज न हो तो बड़े शहर का बड़ा पत्रकार दूरदराज के क्षेत्रों में खबरों के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. जो स्ट्रिंगर्स पूरे देश में जमीनी पत्रकारिता की नींव हैं और अपने आपको सबसे ज्यादा खतरे में डालकर काम करते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए हमारे बीच से कभी आवाज क्यों नहीं उठती?

अब जिक्र इस पेशे और स्ट्रिंगरों की जिंदगी से जुड़े खतरे का हुआ है तो एक और बात बतानी जरूरी है. ‘तहलका’ में नवंबर 2011 में प्रकाशित कवर स्टोरी ‘मध्युगीन प्रदेश’ का एक हिस्सा मैंने मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले से रिपोर्ट किया था. तब भोपाल से मंदसौर सिर्फ एक ही ट्रेन जाती थी और वह जिला स्टेशन पर आधी रात के बाद पहुंचती थी. उस रात जब नवंबर की हाड़ कंपा देने वाली ठंड में मैं मंदसौर स्टेशन पर उतरी तो वहां के एक स्थानीय पत्रकार मित्र मुझे लेने स्टेशन पहुंचे हुए थे. मंदसौर जैसे छोटे से शहर में उनके बिना किसी अंजान होटल के दरवाजे पर दस्तक देने की हिम्मत भी शायद नहीं होती मेरी. पर मुझसे मिलते ही उन्होंने शहर के सबसे सुरक्षित होटल में मेरा सामान रखवाया और रात के लगभग 2 बजे हम स्टोरी के लिए निकल पड़े. स्टोरी नीमच-मंदसौर-रतलाम हाईवे के किनारे सालों से चल रहे बाछड़ों के डेरों पर तस्करी कर लाई गईं छोटी बच्चियों को जबरदस्ती वेश्यावृति में धकेलने पर थी. और यही इन ‘ हाईवे-ब्रोथल्स’ का सही ‘बिजनेस टाइम’ था. मैंने ओवरकोट और एक लंबी शाल में अपने आप को छुपाया और हम दोनों ने एक ग्राहक की तरह अंडरकवर डेरों पर जाने के के इरादे से हाईवे पर उतर आए. इंवेस्टिगेशन तो पूरी हुई पर स्टोरी करने के लिए मेरे स्थानीय पत्रकार मित्र ने अपनी जान को मुझसे ज्यादा जोखिम में डाला.

दरअसल रात के वक्त जब सारी टैक्सी एजेंसियों ने हमें वहां ले जाने से इनकार कर दिया तो मेरे मित्र अपनी गाड़ी से ही मुझे स्पॉट तक ले गए. काम करते वक्त डेरों पर मौजूद कट्टे से लैस खतरनाक दलालों ने उनकी गाड़ी का नंबर देख लिया था और बाद में उन्हें फोन पर धमकियां भी मिली थीं. मैं तो अगली ही शाम मंदसौर से लौट आई पर उन्हें वहीं रहना था और हमारी स्टोरी के बाद उनके लिए खतरा और बढ़ गया था. हालांकि ‘जब आप नहीं डर रहीं तो मैं क्यों डरूं?’ कहते हुए उन्होंने स्टोरी करने के लिए मेरा हौसला बढ़ाया था. मगर मैं जानती थी कि नवंबर की उस कोहरे भरी रात में दो बजे अपनी गाड़ी में मेरे साथ हाईवे चलकर छोटी बच्चियों की तस्करी के सबूत जुटाने जाने के लिए राजी होने के पीछे उनके पास ‘स्वप्रेरणा’ और ‘मिशन की भावना’ के सिवाय कोई कारण नहीं था. मध्य प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से रिपोर्ट की गई इस कवर स्टोरी को बाद में एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, पर मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार उन बच्चियों का रेसक्यू ऑपरेशन में बचाया जाना था और शायद मेरे साथी मित्र के लिए भी.

ये बहादुर स्ट्रिंगर और स्थानीय पत्रकार मुट्ठीभर पैसों के लिए हर रोज अपनी जिंदगी दांव पर नहीं लगाते हैं, ज्यादातर खबरें सिर्फ स्व-प्रेरणा और बदलाव के लिए पैशन की वजह से की जाती हैं. तो फिर तमाम खतरों और कम तनख्वाह के बावजूद पत्रकारिता का बोझ हर रोज अपने कंधों पर उठाने वाले स्ट्रिंगर को स्वास्थ और सुरक्षा जैसी सुविधाएं दिए जाने के लिए लड़ाई आखिर कब शुरू होगी?

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)