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इस पेशे में हर शख्स बीमार सा

Cअनिश्चित दिनचर्या और खाने-पीने का कोई सही समय न हो पाने की वजह से पत्रकारों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. कुछ साल पहले मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से देश में कार्यरत मीडियाकर्मियों की कार्यस्थिति और जीवन-स्तर का अंदाजा लगाने के उद्देश्य से एक सर्वेक्षण किया गया. 13 जुलाई, 2008 से 13 जून, 2009 तक चले इस सर्वेक्षण के दौरान 150 मीडियाकर्मियों ने अपनी राय दी थी. आम तौर पर मीडियाकर्मियों के स्वास्थ्य को लेकर बहुत ही कम सर्वे किए जाते हैं. यह अपनी तरह का अनूठा सर्वे था, जो मीडियाकर्मियों की बुरी हालत की झलक दिखाता है. इसे नजीर के तौर पर देखें तो आज कई सालों बाद मीडिया में लोगों के काम करने की स्थितियां कमोबेश वैसी ही हैं जैसी सर्वे होने के समय थीं.

इस सर्वेक्षण में शामिल मीडियाकर्मियों में से 83.67 फीसदी पुरुष और 16.33 फीसदी महिलाएं हैं. इनमें से 34.48 फीसदी लोगों का आयु-वर्ग 21 से 27 वर्ष तक था. 31.72 फीसदी लोग 28 से 35 के आयु-वर्ग के थे. 36 वर्ष से अधिक आयु-वर्ग के 33.79 फीसदी मीडियाकर्मी थे. सर्वेक्षण में दस वर्ष से अधिक का मीडिया में अनुभव रखने वाले 43.15 फीसदी कर्मचारियों ने भाग लिया. 15.07 फीसदी लोग ऐसे हैं, जो पांच से दस साल तक का अनुभव रखते हैं. तीन से पांच साल तक के अनुभवी मीडियाकर्मियों का प्रतिशत भी 15.07 ही है. इसके अलावा 6.85 फीसदी मीडियाकर्मी एक से तीन साल और 19.86 फीसदी मीडियाकर्मी एक साल से भी कम समय का अनुभव रखते हैं. 54.14 फीसदी प्रिंट मीडिया से, 24.31 फीसदी टेलीविजन, 9.39 फीसदी वेब मीडिया, 6.63 फीसदी एजेंसी से और 5.52 फीसदी लोग रेडियो से संबद्ध थे. इनमें से 69.44 फीसदी मीडियाकर्मी मुख्यालय में कार्यरत थे. 24.31 फीसदी क्षेत्रीय कार्यालय और 6.25 फीसदी मीडियाकर्मी जिला कार्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे थे. इसके अलावा 54.11 फीसदी डेस्क पर और 46.89 फीसदी फील्ड में कार्यरत थे. सर्वेक्षण में भाग लेने वालों में 34.46 फीसदी वरिष्ठ मीडियाकर्मी थे, 40.56 फीसदी मध्य-स्तर के पदों पर आसीन थे और 20.98 फीसदी कनिष्ठ.

सर्वेक्षण का निष्कर्ष

  • 65.51 फीसदी मीडियाकर्मियों को प्रतिदिन आठ घंटे से अधिक काम करना पड़ता था. 23.65 फीसदी लोगों ने स्वीकार किया कि उनसे आठ घंटों तक ही काम लिया जाता था. जबकि 12.84 फीसदी ने यह भी माना कि उन्हें आठ घंटों से भी कम काम करना पड़ता था.
  • 71.53 फीसदी मीडियाकर्मियों को एक दिन का साप्ताहिक अवकाश मिलता था. 17.36 फीसदी लोगों को दो दिनों का साप्ताहिक अवकाश मिलता था. जबकि 11.11 फीसदी लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता था.
  • 13.50 फीसदी मीडियाकर्मी हृदय एवं रक्तचाप संबंधी रोगों से पीड़ित थे. 13.81 फीसदी मीडियाकर्मी मधुमेह से परेशान थे. दांत के रोग से पीड़ित मीडियाकर्मियों का प्रतिशत 11.39 था. 13.08 फीसदी लोगों ने खुद को पेट संबंधी रोगों से पीड़ित बताया. 10.97 फीसदी लोगों ने स्वीकार किया है कि वे मानसिक दबाव और अवसाद से पीडि़त हैं. 14.34 फीसदी मीडियाकर्मियों ने हड्डी एवं रीढ़ की तकलीफों से खुद को परेशान बताया. 11.81 फीसदी लोगों को आंख से संबंधी बीमारी पाई गई. बस 2.10 फीसदी लोगों ने कमजोरी, थकान और सिरदर्द से खुद को पीड़ित बताया.
  • 48.06 फीसदी मीडियाकर्मी का दुख ये था कि उन्हें इलाज के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता, लेकिन, 51.94 फीसदी मीडियाकर्मियों के लिए यह संभव नहीं हो पाता.
  • 61.27 फीसदी मीडियाकर्मियों के खाने-पीने का कोई निर्धारित समय नहीं था. जबकि 17.61 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अपने भोजन का समय निर्धारित कर रखा था. 21.13 फीसदी मीडियाकर्मी यह कहते हैं कि कभी उनके भोजन का समय निर्धारित रहता है और कभी नहीं.
  • कार्य-संस्कृति के सवाल पर 33.57 फीसदी मीडियाकर्मियों का मानना था कि उनके संगठन में बेहतर कार्य-संस्कृति है. 54.55 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अपने कार्य-स्थल की कार्य-संस्कृति को औसत ही माना. जबकि 11.89 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्हें उनके संस्थान की कार्य-संस्कृति बुरी लगती थी.
  • 45.52 फीसदी मीडियाकर्मी अपने सहकर्मियों के आपसी व्यावसायिक संबंध को बेहतर मानते थे. 49.66 फीसदी लोग सहकर्मियों के बीच व्यावसायिक संबंध को औसत मानते थे, जबकि 4.83 फीसदी लोगों का अनुभव है कि उनके सहकर्मियों से बीच अच्छे व्यावसायिक संबंध नहीं थे.
  • 54.17 फीसदी मीडियाकर्मी अपनी नौकरी के लिए असुरक्षा महसूस करते थे, लेकिन 45.82 फीसदी ने अपनी नौकरी को सुरक्षित माना.
  • 12.59 फीसदी मीडियाकर्मियों ने 6 या उससे अधिक जगहों पर अपनी सेवाएं दी थी. 66.43 फीसदी ऐसे थे जो दो से पांच नौकरियां बदल चुके थे. एक ही संस्थान/संगठन में काम करने वालों का प्रतिशत 28.98 था.
  • 56.25 फीसदी मीडियाकर्मी दस किलोमीटर या उससे अधिक दूरी तय कर अपने कार्य-स्थल तक पहुंचते थे. 21.53 फीसदी को इसके लिए 5 से 10 किलोमीटर तक की दूरी तय करनी पड़ती थी. 1 से 5 किलोमीटर तक दूरी तय करने वाले लोगों का प्रतिशत 10.06 था. 1 से भी कम किलोमीटर की दूरी से आने वाले सिर्फ 4.17 प्रतिशत हैं.
  • 52.35 फीसदी मीडियाकर्मी दिन की पाली में और 76 फीसदी लोग शाम की पाली में काम कर रहे थे. 14.71 फीसदी मीडियाकर्मियों का रात के समय काम करना निश्चित होता है. 11.18 फीसदी लोग सुबह की पाली में काम करते थे.
  • मीडिया में उनका पसंदीदा क्षेत्र के बारे में पूछने पर 61.63 फीसदी प्रिंट माध्यम में और 22.09 फीसदी मीडियाकर्मी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में काम करना चाहते थे. 4.65 फीसदी की पसंद रेडियो थी और 6.98 फीसदी वेब मीडिया से जुड़े रहना चाहते थे. 4.65 फीसदी मीडियाकर्मी समाचार एजेंसी में काम करने का इच्छुक बताया. 15. 54.55 फीसदी मीडियाकर्मी अपने काम से संतुष्ट थे, जबकि 45.45 फीसदी मीडियाकर्मी असंतुष्ट.

(संजय कुमार बलौदिया के सहयोग से)

पत्रकारिता : प्रतिनिधित्व का पाखंड

Anil Chamadia2मीडिया के भीतर जब एक साथ धर्म, जाति और लैंगिक आधार पर भेदभाव और उनके प्रतिनिधित्व के अभाव को लेकर बातचीत करनी होती है तो ये कहना पड़ता है कि 8 प्रतिशत हिंदू सवर्ण पुरुषों का मीडिया के भीतर वर्चस्व है. मीडिया स्टडीज ग्रुप के एक अध्ययन में ये साफ हुआ कि मीडिया के भीतर फैसले लेने वाले दस प्रमुख पदों के 86 प्रतिशत हिस्से पर उनका कब्जा बना हुआ है. मुख्यधारा, जिसे ‘राष्ट्रीय मीडिया’ कहा जाता है में यह स्थिति है कि समाज में हाशिये के वर्ग मसलन महिलाएं, पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व तो कहीं नाम मात्र के लिए भी नहीं नजर आ रहा है.

मीडिया में प्रतिनिधित्व की बहस

मुख्यधारा के मीडिया में वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व का सवाल 70 के दशक से पहले उठाया नहीं गया. भारत में प्रथम प्रेस आयोग की रिपोर्ट 1954 में आई थी, जिसमें कहा गया कि मीडिया संस्थानों में संपादकीय विभागों में नियुक्तियों को लेकर कोई व्यवस्थित प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती और भाई-भतीजे एवं राजनीतिक प्रभाव में होने वाली नियुक्तियों पर टिप्पणी की गई. आयोग ने नियुक्तियों के लिए जिस तरह की योग्यताओं और दस वर्षों में 300 स्नातक पत्रकारों की अनुशंसा की, उससे तो लगा कि किसी वंचित सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधित्व का किसी को कोई ख्याल ही नहीं है. जबकि मीडिया के जरिए एक धार्मिक समूह के खिलाफ दूसरे धार्मिक समूहों के हमलों की तरह जातियों के खिलाफ हमले की शिकायतें आम थी. दूसरे प्रेस आयोग (मंडल आयोग) का गठन जनता पार्टी की सरकार ने किया था लेकिन मध्यावधि चुनाव के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जब कांग्रेस वापस सत्ता में आई तो उसने नए सिरे से दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया. संभवत: ये पहला प्रयास था जब पत्रकार और जाति के संबंधों को लेकर सामान्य किस्म के अध्ययन की जरूरत महसूस की गई. इसकी एक वजह यह थी कि देश के विभिन्न हिस्सों में जातियों के खिलाफ मीडिया की आक्रामकता सतह पर दिखने लगी थी. भारत में मीडिया के विस्तार के साथ-साथ ही जातीय पूर्वाग्रह तो दिखते रहे हैं लेकिन वंचित जातियों के खिलाफ मीडिया की खुली आक्रामकता की घटनाएं समाज के वंचित वर्गों की सत्ता में हिस्सेदारी के लिए संवैधानिक प्रावधानों को खासतौर से लागू करने के फैसले लेने के दौरान हुई. प्रेस आयोग लिखता है कि जनगणना से जाति गणना को हटा दिया गया है लेकिन सामाजिक-आर्थिक की तरह राजनीतिक संबंधों में जाति एक महत्वपूर्ण पहलू बना हुआ है. आयोग ये भी लिखता है कि छुआछूत के खिलाफ अभियान में मीडिया की एक भूमिका रही है लेकिन फिर भी अवचेतन में जातीय पूर्वाग्रह के खतरे बने हुए हैं.

यह बहुत निश्चित होकर नहीं कहा जा सकता है कि मीडिया में दलितों और आदिवासियों की स्थिति का पहला अध्ययन कब किया गया. मैंने बिहार में इस तरह का एक अध्ययन 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में किया था. इसमें संवाददाताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि से लेकर शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक विचारधारात्मक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी ली गई थी. संपादकीय में 75.55 प्रतिशत सवर्ण थे. पिछड़ों की तादाद 6.66 प्रतिशत थी. अनुसूचित जाति के एक सदस्य थे जो कि बिहार से बाहर के थे और उनकी जाति को लेकर किसी के बीच स्पष्टता नहीं थी. हिन्दी के समाचार पत्रों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दैनिक जनशक्ति में एक मात्र मुस्लिम व्यक्ति थे.

पश्चिमी देशों की तर्ज पर मीडिया में हिस्सेदारी की बहस भारत में 20वीं सदी के अंतिम दशक में क्रमश: तेज हुई है. अमेरिका और ब्रिटेन में वहां के वंचित वर्गों का मीडिया में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रयास चलते है. अंग्रेजी के पत्रकार बीएन उनियाल ने 16 नवंबर 1996 को  ‘इन सर्च ऑफ ए दलित जर्नलिस्ट’ लिखा और इसकी प्रेरणा उन्हें ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के केनेथ कूपर से मिली थी. ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के लिए दिल्ली में काम करते हुए केनेथ कूपर ने बीएन उनियाल से किसी दलित पत्रकार के बारे में पूछा था. केनेथ का लेख 6 सितंबर 1996 को ‘इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून’ में छपा था. बीएन उनियाल ने ‘पायनियर’ में प्रकाशित अपने लेख में लिखा, ‘अचानक मुझे लगा कि मैं तीस वर्षों से पत्रकारिता कर रहा हूं और मुझे एक भी दलित पत्रकार नहीं मिला; एक भी नहीं. और सबसे तकलीफ की बात तो यह है कि मुझे कभी इसका एहसास तक नहीं हुआ कि हमारे पेशे में इतना बड़ा अभाव है.’

मीडिया में दलित, आदिवासी व दूसरे वंचित समूहों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर विमर्श के केंद्र में आने की पृष्ठभूमि में मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद मीडिया की आरक्षण विरोधी भूमिका और कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी और दूसरी दलित-पिछड़ी जातियों के आंदोलन रहे हैं.  संसद में 2006 में पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के फैसले के दौरान आरक्षण विरोधी मीडिया की भूमिका पहले की तरह ही दिखाई दी. मीडिया स्टडीज ग्रुप ने सीएसडीएस से संबद्ध प्रो. योगेंद्र यादव के साथ दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मीडिया के माने जाने वाले 37 नामी संस्थानों में ऊपर के दस पदों पर बैठे 315 संपादकीय विभाग के अधिकारियों के बीच एक सर्वे किया. 315 में एक भी दलित व आदिवासी नहीं है. ‘भारत की समाचार पत्र क्रांति’ के लेखक रॉबिन जेफ्री ने लिखा कि भारतीय भाषाओं के अखबारों के दस साल से ज्यादा के अध्ययन के दौरान, बीस सप्ताह के दौरों में बीस शहरों में रुककर उन्होंने 250 से ज्यादा लोगों से मुलाकात की. दर्जनों अखबारों के दफ्तरों में गए पर मुख्यधारा में दलित संपादक और मालिक की बात तो दूर, एक भी दलित पत्रकार नहीं मिला.

महिला प्रतिनिधित्व

मीडिया में समाचार पत्रों और चैनलों का जिलों के स्तर पर तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन मीडिया स्टडीज ग्रुप ने देश के 250 से ज्यादा जिलों में स्थानीय पत्रकारों में महिलाओं की तादाद की जानकारी हासिल की तो वहां महिलाओं की भागीदारी महज 2.7 प्रतिशत थी. उनमें भी ‘मुख्यधारा’ के समाचार पत्रों और चैनलों में तादाद बेहद कम थी. ये कहना कि राजधानियों के अलावा दूसरी जगहों पर जोखिम के कारण महिलाएं नहीं आती हैं, केवल एक बहाना ही हो सकता है. उचित प्रतिनिधित्व को बाधित करने के नए-नए बहाने बनाए जाते हैं. इन तथ्यों को इस पृष्ठभूमि से भी समझा जा सकता है. जुलाई 1979 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से प्रेस इंस्टीट्यूट ने एक अध्ययन में यह पाया कि मद्रास (अब चेन्नई) और हरियाणा के रोहतक में पत्रकारिता का कोर्स करने वाले कुल छात्रों में आधी से ज्यादा संख्या लड़कियों की थी. चंडीगढ़ में आधी संख्या भी उन ही की थी. कलकत्ता (अब कोलकाता) में तीस प्रतिशत लड़कियां थीं, लेकिन इतनी बड़ी तादाद में लड़कियों की उपस्थिति मीडिया संस्थानों में नहीं दिखती थी. दूसरा महिलाओं को खास तरह के ही काम दिए जाते थे, जैसे विज्ञापन, जनसंपर्क विभाग उनके हिस्से में ज्यादा आता था.

2006 के बाद मीडिया में प्रतिनिधित्व  

मीडिया के भीतर सामाजिक पृष्ठभूमि का पहलू संवेदनशीलता की मांग करता है. भारत में मीडिया के भीतर सामाजिक पृष्ठभूमि के स्तर पर घोर असंतुलन के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया जा चुका है लेकिन यहां समाज में अपने स्तर पर परिवर्तन की चेतना की गति बेहद धीमी रही है. बाहरी दबाव की भाषा को यहां का समाज और संस्थाएं ज्यादा समझते हैं.

दलित आदिवासियों के मीडिया में प्रतिनिधित्व से जुड़े अध्ययनों के बाद दिल्ली के एक दैनिक में ऊपर के दस पदों में एक पद पर गैर-सवर्ण पुुरुष की बहाली की गई. बिहार में किए गए एक अध्ययन के नतीजों के अनुसार मीडिया में 73 प्रतिशत पद उच्च जाति के हिन्दुओं के अधीन है जबकि पिछड़े वर्ग का हिस्सा दस प्रतिशत है. दलित एक प्रतिशत हैं और आदिवासी हैं ही नहीं. झारखंड में एक मोटी जानकारी के अनुसार मुख्यधारा के प्रत्येक हिन्दी दैनिक में आदिवासी हैं लेकिन केवल एक समाचार पत्र में दो और बाकी के पत्रों में एक-एक हैं.

‘पायनियर’ के संपादक चंदन मित्रा ने मीडिया के जाति सर्वे पर आधारित सीएनबीसी-टीवी18 के कार्यक्रम में बताया कि उनके अखबार में दलित कॉलम छपता है और उनका एक सहायक संपादक दलित है लेकिन ये राजधानियों में आने वाले कुछेक परिवर्तन हैं. देशभर में जिला स्तर तक जो स्थिति बनी हुई है वह सामाजिक प्रतिनिधित्व के नाते और बदतर है.

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गांवों के देश में पत्रकारिता का शहरी मिजाज

मौजूदा स्थितियों में मांग की जानी चाहिए कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण संस्थानों से प्रशिक्षण लेने वालों को सीधे शहरों में नियुक्ति देने या लेने से पहले ग्रामीण इलाके में जाना अनिवार्य होगा. मीडिया कंपनियों के लिए भी यह अनिवार्य होगा कि वे प्रशिक्षण के बाद सीधे मुख्यालय में नियुक्ति के बजाय ग्रामीण इलाकों में पहली नियुक्ति दें. कंपनियां ग्रामीण इलाकों की खबरों के लिए जिन लोगों की अंशकालीन नियुक्ति करती हैं उनमें अधिकतर को इतनी राशि भी नहीं दी जाती है कि वे ठीक ढंग से दो वक्त का खाना खा सकें और परिवार पाल सकें. उनके बारे में आमतौर पर यह धारणा भी बनी हुई है कि उनमें से ज्यादातर पत्रकारिता की ताकत का इस्तेमाल अपने हितों में करते हैं जो आखिरकार स्थानीय संवाददाताओं के पूर्वाग्रहों के रूप में सामने आते हैं. इस बात को भी अनदेखा किया जाता है कि दूरदराज के इलाके से खबरें देने वाले लोग सचमुच वैसे खतरों से घिरे रहते है जो आखिरकार उनके लिए जानलेवा साबित होते हैं. बड़े शहरों में वैसे खतरे बहुत कम होते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए संरक्षण और संस्थाएं भी खड़ी रहती हैं.

शहरों में पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने वालों के पास दूरदराज के इलाकों में काम करने का कोई तजुर्बा नहीं होता है, न ही दूरदराज के इलाकों के जीवन और समाज के बारे में अनुभव. एक सर्वेक्षण करें तो हम यह आसानी से पा सकते हैं कि सरकार के नए कृषि चैनल ‘डीडी किसान’ में अधिकतर पत्रकारों का कृषि से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कोई रिश्ता नहीं रहा है. कृषि चैनल पर कृषि और पत्रकार के रिश्ते के कई हास्यास्पद किस्से सुनने को मिल सकते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. गांवों के इस देश में पत्रकारिता शहरी मिजाज और शहरी भाषा से ही होती रही है. पहले इस भूमिका में आने वाले लोगों में ज्यादातर की पृष्ठभूमि ग्रामीण होती थी. लिहाजा पत्रकार की समझ में ग्रामीण पृष्ठभूमि और शहरी प्रशिक्षण का एक संतुलन दिख सकता है लेकिन मौजूदा दौर में बेहद शहरी माहौल और मिजाज के साथ गांवों के इस देश में पत्रकारिता बेहद तकलीफदेह साबित हो रही है.

ग्रामीण स्तर पर शुरुआती तैनाती (पोस्टिंग) के बाद शहरों की तरफ प्रशिक्षित पत्रकारों के आने से पत्रकारिता की समझ में थोड़ा फर्क पड़ सकता है. पत्रकारिता के लिए बुनियादी काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों व संवाददाताओं के लिए एक नए तरह का अनुभव साबित होगा. इस समय पत्रकारिता में ‘पहली नियुक्ति, पहले गांव’ के नारे जैसे एक नए प्रयोग की जरूरत है.

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विदर्भ में मीडिया संस्थानों की सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर शोध छात्र दिनेश मुरार ने एक अध्ययन किया. उसमें ये तथ्य सामने आए कि विदर्भ के दैनिक अखबारों के संपादकीय प्रमुख के पदों पर 100 प्रतिशत नियंत्रण सवर्ण पुरुषों का है. विदर्भ की पत्रकारिता में 42 प्रतिशत सवर्ण, 43 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग, 14 प्रतिशत दलित और केवल 1 प्रतिशत आदिवासी पत्रकार हैं. लैंगिक आधार पर विदर्भ की पत्रकारिता में 91 प्रतिशत पुरुष और केवल 9 प्रतिशत महिलाएं हैं. विदर्भ में भी खासतौर पर हिन्दी में सवर्ण वर्चस्व दिखता है. लोकमत समूह की हिंदी इकाई ‘दैनिक लोकमत समाचार’ में 12 प्रतिशत पत्रकार दलित, 4 प्रतिशत पत्रकार आदिवासी, 24 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग और 60 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. हिन्दी अखबार दैनिक भास्कर में 3 प्रतिशत दलित, 27 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग के और 70 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. इस संस्थान में एक भी पत्रकार आदिवासी नही हैं. हिन्दी पत्र नवभारत में 17 प्रतिशत पत्रकार दलित, 28 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग से और 55 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. इस संस्थान में भी आदिवासी पत्रकार नहीं हैं.

मीडिया स्टडीज ग्रुप के देश के 620 जिलों में मीडियाकर्मियों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़े तथ्यों में एक यह भी है कि झारखंड के गोड्डा में तीन सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों में एक भी न तो दलित है और न आदिवासी है. छत्तीसगढ़ के जशपुर में चार मान्यता प्राप्त पत्रकारों में तीन ब्राह्मण और एक बनिया है. ओडिशा के मल्कानगिरी में 22 मान्यता प्राप्त पत्रकारों में 19 सवर्ण, 2 दलित और एक पिछड़ा है. पूरे देश में जिला स्तर पर एक प्रतिशत भी दलित और आदिवासी पत्रकार नहीं होंगे. भारतीय समाज को योग्यता के पैमाने को इस रूप में समझना होगा कि वह वंचितों को वंचित रखने के नजरिये के साथ विकसित हुए हैं. भारतीय लोकतांत्रिक नजरिये से भारतीय मीडिया में योग्यता का पैमाना बनाया नहीं जा सका है.

निजी क्षेत्र बनाम सरकारी क्षेत्र

सरकारी मीडिया में भी महिलाओं और सामाजिक स्तर पर पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. रेडियो, राज्यसभा टीवी, लोकसभा टीवी, दूरदर्शन के विज्ञापनों में आरक्षण शब्द तक की चर्चा नहीं होती है. दूरदर्शन और आकाशवाणी में सामाजिक वर्गों के संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक प्रतिनिधित्व नहीं है. मीडिया के दो बड़े संस्थानों आकाशवाणी और दूरदर्शन में 40 हजार से ज्यादा कर्मचारी हैं. आकाशवाणी दूरदर्शन के मुकाबले बड़ा संगठन है, लेकिन संसद की एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां ‘क’ श्रेणी के पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं जबकि दूरदर्शन में 25 प्रतिशत हैं. दूरदर्शन में कुल 4714 दलित और आदिवासी है और उनमें महिलाओं की संख्या 203 और 101 है.

(लेखक रिसर्च जर्नल जन मीडिया और मास मीडिया के संपादक हैं)

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उर्दू मीडिया की स्थिति

ये आंकड़े फरवरी 2010 तक के हैं. राज्यसभा द्वारा प्राप्त सूचनाओं के अनुसार सदन में समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को प्रवेश के लिए मान्यता देने का सिलसिला 1952 से शुरू किया गया. समाचार पत्रों से पहले 1951 में ऑल इंडिया रेडियो को ही ये मान्यता थी. दूरदर्शन को 1965 में ये मान्यता मिली. 1952 में दैनिक आज, अमृत बाजार पत्रिका, हिन्दुस्तान, असम ट्रिब्यून, फ्री प्रेस जर्नल, द हिंदू, द स्टेट्समैन, द टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, तेज, समाज, जन्मभूमि को मान्यता वाले समाचार पत्रों की सूची में शामिल किया गया लेकिन उर्दू समाचार पत्रों में 1952 और 1993 के बीच केवल एक समाचार पत्र को राज्यसभा में मान्यता दी गई. 2010 में दिल्ली के तीन, बेंगलुरु, लखनऊ, हैदराबाद और रांची के एक-एक उर्दू समाचार पत्र को मान्यता प्राप्त हुई.

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मुद्दों की लड़ाई से दूर पत्रकार यूनियन

P&C-11July2पिछले दिनों एक मीडिया समूह ने 50 पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. मीडिया समूहों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. इससे पहले भी अलग-अलग संस्थानों से कभी 150 तो कभी 350 लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अंतर्गत काम के छह घंटे जैसी बातें मीडिया हाउसेज में भुलाकर आठ घंटे से लेकर असीमित घंटों में तब्दील हो चुकी हैं. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि पत्रकारों के लिए बनी यूनियनें और प्रेस क्लब पत्रकारों के हित के लिए क्या कर रही हैं? सवाल इसलिए भी खड़े हो रहे हैं क्योंकि पत्रकार यूनियनें अपने वर्ग के हित की लड़ाई छोड़कर बस में किराया नहीं लगे, मकान के लिए प्लॉट आवंटित हों आदि मुद्दों पर जोर देने लगी हैं.

इसके बारे में बृहन मुंबई जर्नलिस्ट यूनियन के महासचिव एमजे पांडेय कहते हैं, ‘दरअसल 1980 के अंतिम वर्षों में नियमित रोजगार की जगह कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लाया जा रहा था तब टाइम्स समूह के सभी अखबारों के लोगों ने इसका बहुत जोरदार विरोध किया था लेकिन शीर्ष पर बैठे संपादकों और हमारे बीच के कुछ पत्रकारों ने कुछ प्रमोशन और इंक्रीमेंट के लालच में उनका साथ दिया और दिन-रात एक करके अखबार निकाले. मेरी समझ में एक बात आज तक नहीं आई कि टाइम्स ग्रुप ने इस दौरान एक नया अखबार क्यों शुरू किया और फिर साल-डेढ़ साल चलाकर क्यों बंद कर दिया? ‘द इंडीपेंडेंट’ नाम के इस अखबार में सिर्फ और सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों को रखा गया था. इस अखबार के संपादक विनोद मेहता थे. कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू हो जाने की वजह से यूनियन के हाथ में ज्यादा कुछ नहीं रह गया. एक बात और है कि न्याय व्यवस्था में आप किसी लड़ाई को लेकर जाते हैं तो वहां 20-22 साल फैसले के लिए इंतजार करना पड़ता है.

एक पत्रकार को देश की सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी से 1993 में नौकरी से बाहर कर दिया गया था. मामला आजतक अदालत में चल रहा है. यह सच है कि कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम के आने से पत्रकार यूनियनें कमजोर तो हुई हैं लेकिन धीरे-धीरे उसके भीतर भी खामियों का टीला सा खड़ा होता चला गया. इस बारे में दिल्ली जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल पांडेय कहते हैं, ‘पत्रकारों के लिए बनी यूनियनों में ही बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त है. उनके पदाधिकारी अपने लिए फेलोशिप जुगाड़ने में या फिर नेताओं से संपर्क साधकर पैसा कमाने में लगे हैं. आखिर क्या वजह है कि यूनियन में एक ही व्यक्ति तीन दशक से अध्यक्ष के पद पर बने हुए हैं?’

गौरतलब है कि के. विक्रम राव पिछले 31 सालों से इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्ल्यूजे) के अध्यक्ष हैं  और लगभग एक दशक से  परमानन्द पांडेय इस यूनियन के महासचिव हैं. क्या आपकी यूनियन में प्रतिनिधियों के चयन के लिए कोई चुनाव नहीं होते हैं? इस सवाल के जवाब में  परमानन्द कहते हैं, ‘हमारे यहां ढाई साल में चुनाव होता है. हमारी यूनियन में प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए हाल ही में चुनाव हुए हैं. के. विक्रम राव हर बार र्निविरोध चुने जाते हैं. उनके खिलाफ कोई चुनाव में खड़ा ही नहीं होता है.’  हालांकि इस संगठन से अलग हो चुके जयपुर के श्रमजीवी पत्रकार संघ में शीर्ष अधिकारी रह चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि असल में आइएफडब्ल्यूजे राज्यों की अपनी इकाई को सेमिनार की इजाजत देती है और उसके बदले में पैसे वसूलती है. यही वजह है कि इस संगठन के शीर्ष अधिकारी दूसरों की हाथों में यूनियन की बागडोर नहीं जाने देना चाहते हैं. वे बताते हैं, ‘यूनियन का एक शीर्ष अधिकारी मजीठिया की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए मोर्चा ले रहे पत्रकारों की कानूनी लड़ रहे हैं. वे हर पत्रकार से दस-दस हजार रुपये बतौर फीस ले रहे हैं. मुझे यह समझ नहीं आता है कि आप खुद पत्रकार रहे हैं. आप एक पत्रकार यूनियन के शीर्ष अधिकारी हैं फिर आप इतनी फीस कैसे ले सकते हैं?’

हकीकत यह है कि लड़ाई को नेतृत्व देने का खामियाजा उठाना पड़ता है, सो पत्रकार यूनियन से जुड़े लोगों को भी इसका खामियाजा उठाना पड़ा है. इंडियन एक्सप्रेस समूह की यूनियन से जुड़े रहे पत्रकार और गैर-पत्रकार यूनियन के सदस्य रहे वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा, ‘बछावत समिति की रिपोर्ट को लागू करने के लिए हम लड़ रहे थे तब उस वक्त जनसत्ता के संपादक हमारी एकता को कमजोर करने के लिए लोगों को प्रमोशन देने से लेकर नौकरी से निकालने तक की धमकी दे रहे थे.’ वहीं दूसरी ओर ब्रह्मानंद पांडेय को ‘जनसत्ता’ से इसलिए निकाला गया था क्योंकि वे बोनस की लड़ाई लड़ रहे थे. बोनस की मांग को लेकर हड़ताल दो महीने खिंच गया था. आईएफडब्ल्यूजे के महासचिव ब्रह्मानंद पांडेय उस मंजर को याद करते हुए बताते हैं, ‘1987 में मैं जनसत्ता में बोनस की लड़ाई का नेतृत्व कर रहा था. जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस के संपादक अरुण शौरी ने लड़ाई को तोड़ने की हरसंभव कोशिश की. हड़ताल तोड़ने के लिए गुंडे तक बुलाए गए थे और मैं नौकरी से निकाल दिया गया.’

नाउम्मीद नहीं हैं यूनियन

बीते दो-तीन दशकों से पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे पाने की वजह से यूनियन ने अपनी प्रासंगिकता खो सी दी है लेकिन बीते कुछ सालों में पत्रकारों ने मीडिया संस्थानों या कंपनियों के लगातार बढ़ रहे शोषण के खिलाफ लड़ने के अलावा कोई और विकल्प बचा हुआ न देख यूनियन से नजदीकियां बढ़ाई है. एमजे. पांडेय ने बताया, ‘वे यूनियन के भविष्य को लेकर नाउम्मीद नहीं हुए हैं. यह सही है कि पत्रकारिता संस्थानों से पढ़कर निकले बच्चों को जर्नलिस्ट एक्ट और प्रेस एक्ट के बारे में ज्यादा पता नहीं है लेकिन वे अपने नागरिक और कर्मचारियों के अधिकारों को लेकर सजग हो रहे हैं और लड़ने के मूड में दिख रहे हैं. यह एक अच्छा संकेत है. आप इसे वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करवाने के संदर्भ में देख सकते हैं.’ कभी पत्रकार रहे और अब वकालत कर रहे ब्रह्मानंद पांडेय ने जानकारी दी कि वे अलग-अलग मीडिया संस्थानों से केवल मजीठिया की मांग वाले लगभग एक हजार पत्रकारों की लड़ाई रहे हैं.

बदल रही है प्रेस क्लब की छवि

देश में प्रेस क्लब की छवि शाम को शराब पीने के अड्डे के तौर पर बन चुकी है. एक पत्रकार ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया, ‘मुझसे प्रेस क्लब के चुनाव के तीन-चार महीने पहले किसी ने क्लब की मेंबरशिप लेने के लिए कहा तो मैंने पूछा कि क्या करूंगा मेंबरशिप लेकर. उनका जबाव था कि शहर के केंद्र में किसी के साथ मिलने-जुलने और खाने-पीने की इससे सस्ती जगह और क्या हो सकती है?’ यह हाल दिल्ली स्थित प्रेस क्लब का है. लखनऊ, चंडीगढ़ और मुंबई की छवि भी इससे अलग नहीं है. प्रेस क्लबों में बैठने वाले पत्रकार भी मानते हैं कि यहां पत्रकार के नाम पर बहुत दलाल किस्म के लोग आते-जाते हैं. दलाल से उनका आशय मंत्री, नेताओं और चैनलों के मालिकों के पीआर करने से है. भला ऐसा क्यों न हो जब मुंबई प्रेस क्लब में हर साल एक कोर्स पीआर पत्रकारिता का आयोजन होता है. हालांकि प्रेस क्लब अपनी इस बदनुमा छवि से बाहर आने की कोशिश में जुटा हुआ है. पिछले कुछ सालों से यहां समय-समय पर अलग-अलग विषयों पर सेमिनार या बहसें होने लगी हैं. मानवाधिकार के हनन के सवाल पर भी यहां आयोजित होने वाली चर्चा-बहसों में शामिल किए जाने लगे हैं लेकिन अभी भी क्लब और यूनियन को मीलों का सफर करना बाकी है

जन मीडिया नहीं अभिजन मीडिया कहें

Subhash Gatade2अपने एक लेख ‘मीडिया एंड गवर्नेंस’ की शुरुआत करते हुए पत्रकार मुकुल शर्मा आधुनिक राजनीति के बारे में दिलचस्प बातें कहते हैं. उनका कहना है कि आधुनिक राजनीति एक मध्यस्थता करने वाली राजनीति है, जो ज्यादातर नागरिकों द्वारा ब्रॉडकास्ट और प्रिंट मीडिया के जरिए अनुभव की जाती है. जाहिर सी बात है कि उनका मानना है कि समकालीन समाजों में जनतंत्र का अध्ययन दरअसल इस बात का भी अध्ययन है कि मीडिया किस तरह राजनीतिक घटनाओं और मुद्दों को प्रस्तुत करता है और किस तरह वह राजनीतिक प्रक्रियाओं और सार्वजनिक मत को प्रभावित करता है.

एक बानगी देखिए ‘आप के इलाके में भूख का ट्रेंड कैसा है?’ कालाहांडी के एक दूरस्थ गांव में भूख से मर रहे शख्स से ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में न्यूजरूम में बैठे पत्रकार द्वारा पूछा गया यह सवाल. गोया यह काफी नहीं हो, तो दूसरा सवाल देखें, ‘वहां का वातावरण कैसा है और क्या अपने भूखे परिवारों के साथ लोग खुश हैं?’  कई बार रियल लाइफ परदे पर नजर आती जिंदगी यानी रील लाइफ को मात देती दिखती है. ओडिशा में भूख से हो रही मौतों को लेकर टीवी की लाइव रिपोर्टिंग शायद इसी बात की ताकीद कर रही थी. वैसे ‘इंफोटेनमेंट’ के इस जमाने में मीडिया में भूखे-प्यासों-मजलूमों की यह अचानक मौजूदगी अंग्रेजी जुबां में कहें तो कॉमिक रिलीफ प्रदान करती है.

एक तरफ यह आलम है कि भूख से मर रहा शख्स टीवी पर ‘सजीव हाजिर’ कर दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ यह स्थिति है कि जो लोग बेहतर इंसानी जिंदगी पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके प्रति सचेत चुप्पी बरती जाती है, गोया कुछ हो नहीं रहा है.

पिछले दिनों नर्मदा आंदोलन के तीस साल पूरे होने पर सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक जुटान का आयोजन राजधानी दिल्ली में हुआ. यह आंदोलन जिसने विस्थापन एवं पुनर्वास को लेकर देश के पैमाने पर व्यापक बहस खड़ी की, उसकी इस अहम बैठक का विवरण भी शायद ही किसी अख़बार में आया. एक वेबसाइट (हस्तक्षेप डॉट कॉम) पर यह खबर देखकर कि ‘दिल्ली में आंगनबाड़ी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए छह दिन से भूख हड़ताल पर हैं’, मै थोड़ा चकित हुआ क्योंकि एकाध अपवादों को छोड़ दें तो जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है, वहां इसे लेकर विराट मौन पसरा था.

एक आम बात यह है कि जब श्रमिकों का विशाल जुटान राजधानी में होता है, जब देश के कोने-कोने से आए मजदूर अपनी मांगों को लेकर आवाज बुलंद करते हैं तो दूसरे दिन के अखबारों में उनकी मांगों को लेकर, सरोकारों को लेकर कोई बात नहीं होती. आम तौर पर उसे ब्लैकआउट कर दिया जाता है. हां, इस बात का अवश्य उल्लेख होता है कि किस तरह मजदूरों के आने से सड़कें जाम हो गईं थीं और दिल्लीवालों को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ा!

यह सोचने का सवाल है. बकौल पी.साईनाथ, ‘जन मीडिया और जनयथार्थ में बढ़ता अंतराल किस वजह से है, जहां से गरीब को ढांचागत तौर पर बाहर कर दिया गया है.’ और जब जन के सरोकारों को जगह नहीं फिर उसके आंदोलनों को कहां ठौर मिलेगा. अपनी एक अन्य तकरीर में पी. साईनाथ ने इसका विचलित करनेवाला चित्रण किया था. उनका कहना था, ‘भारत का मीडिया समाज के अभिजात तबके को ही अहमियत देता है. हर साल मुंबई में आयोजित एक फैशन शो को कवर करने के लिए मीडिया के 512 प्रतिनिधि हाजिर रहते हैं, जबकि राष्टीय मीडिया के आधा दर्जन प्रतिनिधि विदर्भ के उन गांवों में जाकर रहना नहीं चाहते ताकि वह किसानों की आत्महत्या का ठीक से अध्ययन कर सकें.’ इसके अलावा, ‘महज एक टीवी चैनल और अखबार को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संगठन को समूचे देश में तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार की यह स्वीकारोक्ति कि 1997 से 2007 के दरमियान 1.6 लाख किसानों ने आत्महत्या की, प्रसारण योग्य समाचार नहीं लगा.’ साईनाथ के अनुसार, ‘मीडिया में, महाराष्ट्र सरकार द्वारा घर-घर जाकर किसानों पर किए गए उस सर्वेक्षण का भी कोई समाचार नहीं छपा जिसमें यह विचलित करने वाला तथ्य उजागर हुआ था कि 20 लाख किसान परिवार बेहद कठिनाई की स्थिति में जी रहे हैं.’

विडंबना यही है कि यह सब ऐसे दौर में हो रहा है जबकि मीडिया का जबरदस्त विस्तार हुआ है. कई सारी बहुदेशीय कंपनियां मीडिया के व्यवसाय में घुसी हैं जिन्होंने यहां की कंपनियों से गठजोड़ बनाया है या यहां की अग्रणी कंपनियों ने खुद अपने दायरे का प्रचंड विस्तार किया है. निश्चित ही आजादी के बाद कुछ दशकों तक, भले ही उन दिनों प्रिंट मीडिया का बोलबाला था, स्थिति इससे निश्चित ही बेहतर थी. जानकारों के मुताबिक सत्तर-अस्सी के दशक तक अखबारों में अलग-अलग ‘बीट’ की तरह श्रमिक बीट भी हुआ करती थी, जिसमें उसका जिम्मा संभाले रिपोर्टरों को श्रमिक जगत की खोज-खबर लेनी पड़ती थी, उसके जुलूसों औरआंदोलनों को ‘कवर’ करना पड़ता था. अब आलम यह है कि न केवल उस बीट को समाप्त कर दिया गया है, अब वहां पर सिर्फ बिजनेस बीट ही है, जहां पर तैनात रिपोर्टर को सीआईआई, फिक्की से लेकर विभिन्न मंत्रालयों की खाक छाननी पड़ती है. देश के सबसे मानिंद अखबारों में शुमार रहे पेपर में- जिसके संपादक ने कभी यह बात कही थी कि भारत में दो लोगों की बातों को ही जनता गंभीरता से लेती है, एक प्रधानमंत्री और दूसरा प्रस्तुत अखबार का संपादक. एक दशक से कार्यरत एक मित्र ने निजी बातचीत में बताया कि हमें साफ निर्देश है कि गरीबों, मजलूमों के दुख-परेशानियों की खबरें नहीं छापनी हैं, इससे हमारे उपभोक्ताओं एवं विज्ञापनदाताओं पर विपरीत असर पड़ता है. क्या इस समूचे मंजर को किसी संपादक के व्यक्तिगत आग्रहों, रुझानों का परिणाम कहा जा सकता है? या इसकी कुछ गहरी ढांचागत वजहें हैं. निश्चित ही इसकी ठीक से विश्लेषण करने की जरूरत है.

आखिर ऐसा क्यों मुमकिन हो सका है कि जो मीडिया तानाशाही निजामों को बेदखल करने की, औपनिवेशिक हुकूमत के खिलाफ व्यापक जनमानस को गोलबंद करने की या सामाजिक सरोकार के मसलों पर जनता को चेतना से लैस एवं सक्रिय करने की ताकत रखता रहा है, वह मुख्यतः खाये-अघाये लोगों के मनोरंजनों, चिंताओं, पूर्वाग्रहों तक सिमट गया है?

मीडिया में आ रहे इन बदलावों को वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में इंटरनेशनल कम्युनिकेशंस के प्रोफेसर दया किशन थुस्सू  ‘मर्डाकीकरण’ (रूपर्ट मर्डाक, जो स्टार मीडिया समूह के मालिक हैं और उनके नेटवर्क का प्रसार दुनिया के तमाम मुल्कों में है) के तौर पर संबोधित करते हैं, जो एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत मीडिया की सत्ता का सार्वजनिक से चलकर निजी मिल्कियत, अंतर्देशीय, मल्टीमीडिया कॉर्पोरेशंस के हाथों में हस्तांतरण है, जो न केवल वितरण प्रणालियों और बल्कि वैश्विक सूचनाओं के नेटवर्क की अंतर्वस्तु को भी नियंत्रित करते हैं.

विशाल मीडिया समूहों के हाथों मीडिया की मिल्कियत का संकेंद्रीकरण, विज्ञापनों पर अत्यधिक निर्भरता, ब्रेकिंग न्यूज पर अत्यधिक फोकस, कुछ ‘विशेष’ स्टोरीज पर जोर और ‘कुछ भी चलता है’ की रणनीति, संपन्न मध्यम वर्ग (जो विज्ञापनदाताओं का सबसे लाभदायक निशाना रहता है) उसके लिए प्रिय लगने वाले मुददों पर कार्यक्रम और मार्केटिंग और संपादकीय विभागों के बीच बढ़ती दूरी और खबरों का वस्तु में रूपांतरण हो जाना’ आदि मर्डाकीकरण के ऐसे पहलू हैं जो भारत के मीडिया में विभिन्न स्तरों पर देखे जा सकते हैं. वहीं देश के एक अग्रणी मीडिया समूह की विकास यात्रा पर निगाह डाल कर हम इसे समझ सकते हैं. जानकारों के मुताबिक अस्सी के दशक में जब जनाब समीर जैन ने टाइम्स समूह का जिम्मा संभाला तबसे उसमें जबरदस्त बदलावों का आगाज हुआ. उनका बिजनेस चिंतन सरल था- वह वस्तुओं के विक्रेताओं को, ग्राहकों के इस विशाल बाजार के साथ जोड़ने का काम करेगा, बाजार के विस्तार के लिए उसे खबरी पत्रकारिता की तरफ से कोई व्यवधान नहीं चाहिए था, मगर ऐसी मार्केटिंग रणनीतियों की आवश्यकता थी जिससे खर्चे में कटौती हो और ब्रांड को भी उभारा जा सके.

चीजें किस तरह बदली हैं इसे हम अमेरिका की मशहूर मैगजीन ‘द न्यूयॉर्कर’ में प्रकाशित एक लेख के सहारे देख सकते हैं, जिसमें भारत के सबसे बड़े मीडिया घराने पर बात की गई थी. सांसद हरिवंश ने राज्यसभा में दिए अपने भाषण में इसका उल्लेख किया था. लेख के मुताबिक उस मीडिया के मालिक ने कहा था, ‘हम लोग अखबार के व्यवसाय में नहीं हैं. हम लोग विज्ञापन के व्यवसाय में हैं. अगर आप के द्वारा पढ़ी गई 90 फीसदी खबरें विज्ञापनों से आती हैं, तो आप विज्ञापन के व्यवसाय में हैं.’

वैसे इसमें कोई दोराय नहीं कि जबसे भाजपा का देश की सियासत में बोलबाला बढ़ा है तबसे उन्होंने भारतीय जनमानस के ‘सहजबोध’ को सांप्रदायिक शक्ल देने के लिये सुनियोजित, सुचिंतित योजनाएं चलाई हैं और इसके पीछे उनकी एक दूरगामी योजना भी रही है. जनमानस के सांप्रदायिककरण के प्रोजेक्ट को नवउदारवादी पूंजीवाद की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से परोक्ष-अपरोक्ष रूप में काफी मदद पहुंचती है.

अपनी एक चर्चित किताब ‘रिच मीडिया, पूअर डेमोक्रेसी’ में इलिनायस इंस्टिट्यूट के कम्युनिकेशन रिसर्च के प्रोफेसर रॉबर्ट मेकसेनी ठीक ही उल्लेख करते हैं कि किस तरह पूंजी के वैश्वीकरण की प्रक्रिया मीडिया को व्यवसायीकरण से परिपूर्ण कर देती है. उसके तहत उपभोक्तावाद, वर्गीय असमानता और व्यक्तिवाद को स्वाभाविक माना जाता है जबकि राजनीतिक गतिविधि, नागरिक हस्तक्षेप और बाजार विरोधी गतिविधियों को हाशिये पर डाला जाता है. साफ है कि ऐसी स्थितियां सांप्रदायिकता के विश्व दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने का रास्ता सुगम करती हैं जो बौद्धिकता या स्वतंत्र चिंतन की विरोधी है और जो ‘हम’ और ‘वे’ के ऐसे सरलीकरणों पर टिका है जिसे आम जनता द्वारा आसानी से ग्रहण किया जाता है. लाजिमी है कि लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद में रूपांतरित करने के इस माहौल में आमजन, उसके सरोकार और उसकी हलचलें अधिकाधिक हाशिये पर ढकेल दी जाती हैं.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)

कारतूस के साये में कलम

34-35-1-2तकरीबन तीन हफ्ते पहले कश्मीर घाटी के सोपोर में जब छह लोगों की अज्ञात बंदूकधारियों ने हत्या कर दी तो 1990 के दशक की याद आ गई जब इस तरह की घटनाएं आम थीं. उस वक्त बहुत सारे लोग मारे गए, किसी ने न तो इसकी जिम्मेदारी ली थी और न ही सरकार पर सवाल उठाए गए. मामलों की जांच बहुत ही दबे अंदाज में की गई. इन मामलों का सच अगर जाना जाता तो सिर्फ विश्वसनीय लोगों के बीच ही उसे साझा किया जाता. कश्मीर में किसी पत्रकार के लिए यह अस्पष्ट और अव्यस्थित वास्तविकता है, जो इस ‘विवादित राज्य’ को पत्रकारिता के लिहाज से चिंता या तनावपूर्ण जगह बना देती है. सोपोर में हुई हत्याएं पत्रकारिता की चुनौतियों की झलक दिखाती हैं, जिसका एक विशिष्ट विश्वासघाती पहलू यहां लगातार जारी हिंसा है.

हालिया हिंसा की शुरुआत 25 मई को हुई जब एक नए और कम चर्चित आतंकी संगठन लश्कर-ए-इस्लाम ने बीएसएनएल के एक आउटलेट पर हमला कर 26 साल के मोहम्मद रफीक की हत्या कर दी थी. इस हमले में तीन लोग घायल हुए थे. इससे पहले इस संगठन ने पोस्टर लगाकर दूरसंचार टावर अपने घरों में लगाने वालों से टावर हटाने की धमकी दी थी, जिसके तुरंत बाद ही गुलाम हसन डार की हत्या कर दी गई थी, जिनकी संपत्ति में एक ट्रांसमिटिंग टावर लगा हुआ था. हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा और दूसरे अलगाववादी संगठनों ने इन हत्याओं से खुद को अलग रखते हुए लश्कर-ए-इस्लाम को सरकारी सहायता प्राप्त संगठन बताया. साथ ही इस संगठन को रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के उस बयान से जोड़ा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘आतंकवादियों को खत्म करने के लिए आतंकवादी होने की जरूरत है.’ इससे उलट राज्य की पुलिस ने इसके लिए पहले हिजबुल और बाद में एक दूसरे अलगाववादी संगठन को इन मौतों का जिम्मेदार ठहराया. वहीं लश्कर-ए-इस्लाम ने खुद को विशुद्ध मुजाहिदीन बताने पर जोर दिया और हिजबुल और लश्कर-ए-तैयबा को उनकी साख की जांच फिर से करने की चुनौती भी दी. इस बीच संगठन के फील्ड ऑपरेशन के प्रवक्ता गाजी अबु सरीक ने आरोप लगाया कि सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत के कुछ सदस्यों ने चार शीर्ष आतंकवादियों के साथ विश्वासघात किया, जिसकी वजह से वे मारे गए. हालांकि हुर्रियत ने इन आरोपों को खारिज कर दिया. इसके बाद सोपोर में खामोशी छा गई, जो 1989 में अलगाववादी आंदोलन शुरू होने के बाद से एक आंतकवादी गढ़ रहा है. अलगाववादियों और सुरक्षा एजेंसियों के बीच की स्थिति और कठोर हो गई और दोनों एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे थे. इसके बाद मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मामले की समयबद्ध जांच के आदेश दे दिए हैं, जो अब भी शुरू होनी बाकी है. पुलिस की ओर से सोपोर में पोस्टर लगाए गए जिसमें हिजबुल से अलग हुए आतंकी संगठन के दो कमांडरों के बारे में जानकारी देने और हत्याओं की जानकारी देने वाले को 10 लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की गई है.

अब दो हफ्तों के बाद कश्मीर के हालात फिर से सामान्य हो गए हैं. ये घटना अब समाचार की हिस्सा नहीं है और न ही इस मुद्दे पर कोई राजनीतिक बहस ही हो रही है. अब आप इस खबर की सच्चाई लोगों को कैसे बताएंगे? उन छह लोगों को किसने मारा, जिससे चार महिलाएं विधवा और 14 बच्चे अनाथ हो गए? और क्यों मारा? इस मामले में स्पष्टता बहुत ही कम है. पत्रकार की जिज्ञासा कश्मीर के अपने ‘अजनबीपन’ से आपको परिचित कराएगी, यह एक अंधेरी जगह है, जहां बहुत ही कम दिखाई देता है और जहां हर कोने पर खतरा मौजूद है. कश्मीर में ये खतरा हर समय मीडियाकर्मियों का पीछा करता है. पिछले 25 सालों के दौरान प्रेस पर तमाम हमले हुए जिसमें कुछ पत्रकारों को अपनी जान गंवानी पड़ी. अतीत की ओर निगाह दौड़ाएं तो पता चलता है कि कई सारे किस्से हमारे लिए मौजूद हैं, जिसमें उस समय के खतरों और डर की झलक हमें मिलती है. इतना ही नहीं ये किस्से इस बात की भी समझ बनाते हैं कि कश्मीरी पत्रकारों को एक खबर के लिए किस हद के खतरों से गुजरना पड़ता है. ऐसी ही एक घटना 1990 में हुई जिसने पत्रकारिता को हिलाकर रख दिया था. एक सफल स्थानीय अखबार ‘अलसफा’ के संपादक मोहम्मद शाबान वकील की हत्या कर दी गई थी. वकील के नेतृत्व में अलसफा कश्मीर में जारी उथल-पुथल की लगातार रिपोर्टिंग कर रहा था. वकील को उनके ऑफिस से खींचकर बाहर निकाल गया और हत्या कर दी गई. इसके बाद कई और हत्याएं हुईं. 1997 में ‘आंखों देखी’ के सैदीन शफी और 2003 में ‘न्यूज एंड फीचर्स अलायंस’ के परवाज सुल्तान की हत्या कर दी गई. इन हत्याओं के जिम्मेदार लोगों की कभी पहचान नहीं की जा सकी.

 इतना ही नहीं कश्मीर में व्याप्त राजनीतिक और वैचारिक विभाजन के बीच पत्रकार सुरक्षा एजेंसियों और आतंकवादियों के लिए आसान निशाना होते हैं. घाटी के खतरनाक माहौल में फंसे पत्रकार एक ऐसी जगह फंसे हुए हैं जहां उनके अपराधकर्ताओं के लिए उनकी हत्याएं करना काफी आसान है. 1995 में पत्रकार युसूफ जमील ने ऐसा ही अनुभव किया. एक बुर्कानशीं ने उनके ऑफिस में उनके लिए ‘उपहार’ के तौर पर एक पार्सल छोड़ा. जमील, जो उस वक्त बीबीसी के संवाददाता थे, के इस पार्सल को खोलने से पहले ही उनके युवा फोटोग्राफर मुश्ताक अली ने उसे खोल दिया. यह उपहार एक बम था. अली के उपहार खोलने के साथ ही यह फट गया और तुरंत ही उनकी मौत हो गई. इस खौफनाक घटना के डेढ़ दशक होने के बावजूद भी मुश्ताक इसके सदमे से उबर नहीं पाए. जमील के सहकर्मी और ‘द एशियन एज’ के फोटोग्राफर हबीब नक्श ने चार बार मौत को मात दी. वे उस वक्त मुश्ताक अली के साथ ही थे जब ऐसी घटनाएं हुईं. फिर 1999 में एक दिन नक्श कश्मीर के तब के रक्षा प्रवक्ता मेजर पी. पुरुषोत्तम के साथ सेना के एक दफ्तर में बैठे हुए थे. उसी वक्त वहां फिदायीन हमला हो गया. हमले में एक अधिकारी मारे गए. उनकी मौत से कुछ मिनट पहले ही मेजर ने नक्श और उनके साथी पत्रकारों को वॉशरूम में छिपा दिया था. एक साल बाद नक्श श्रीनगर के रेजिडेंसी रोड पर एक एंबेसड कार की तस्वीर ले रहे थे कि तभी उसमें धमाका हो गया, जिसमें नौ लोग और हिन्दुस्तान टाइम्स के एक फोटोग्राफर मारे गए.

जफर इकबाल ने जब पत्रकारिता शुरू की थी तब उन पर अज्ञात बंदूकधारियों ने हमला किया था. उस समय वह स्थानीय अंग्रेजी अखबार ‘कश्मीर इमेजेज’ के दफ्तर में बैठे थे. शुक्र की बात ये थी कि इस हमले में इकबाल बाल-बाल बच गए और अब राज्य में वह पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं, जो जम्मू से एनडीटीवी के लिए रिपोर्टिंग करते हैं. कूका परे, जो इखवान (आत्मसमर्पण कर चुके आतंकवादी जो सुरक्षा एजेंसियों के लिए आतंकवादियों के खिलाफ सशस्त्र अभियान चलाते थे) का नेतृत्व कर रहे थे, ने एक बार कुछ स्थानीय अखबारों के संपादक और कुछ संवाददाताओं का अपहरण कर सुरक्षा एजेंसियों के खिलाफ जवाबी कार्रवाईयों के पक्ष में कवरेज करने की मांग की थी. राज्य के पत्रकारों पर आतंकवादियों का भी खूब दबाव होता था. आतंकी कई बार अखबार में प्रकाशित होने वाली सामग्री तय करते थे कि क्या प्रकाशित किया जाए, उसकी रिपोर्ट कैसे की जाए. यहां तक कि खबर का पेज पर डिजाइन कैसा होना चाहिए, ये भी तय करने की कोशिश करते थे. आलोचना को बर्दाश्त न करने के क्रम में आतंकवादियों की तरह ही सुरक्षा प्रतिष्ठान भी थे, लेकिन आतंकवादियों या इखवान की तुलना में ये दबाव के अप्रकट साधन अपनाते थे. 90 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था तब वहां पत्रकारिता करना उतना ही मुश्किल काम था. पत्रकारों पर हर समय खतरा मंडराता रहता था. नए भूराजनीतिक बदलावों में घाटी फंस गई और इसकी वजह से श्रीनगर से लेकर अफगानिस्तान तक यह एक अस्थिर राज्य का सहज हिस्सा बन गया, बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच के युद्धक्षेत्र में भी तब्दील हो गया. शीर्ष कश्मीरी पत्रकार मुजामिल जलील राज्य में पत्रकारिता पर लिखते हैं, ‘कश्मीर में वास्तविकता के कई चरण और आयाम हैं. कश्मीर की अपनी एक हकीकत है, फिर भारत में उसे देखने का एक राष्ट्रीय नजरिया है और इस एक आयाम पाकिस्तान से भी जुड़ा हुआ है. ये सभी हकीकत एक-दूसरे से मुठभेड़ और विरोध भी करते हैं. कभी-कभार ये आपस में घुले-मिले से भी नजर आते हैं. दुखद ये है कि कश्मीर में किसी भी तरह की तटस्थ स्थिति नहीं हैं. पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती हिंसा से तबाह इस इलाके में इस तटस्थ स्थिति को फिर से वापस पाना है.’

 कश्मीर में पत्रकारिता की जो स्थितियां हैं कुछ वैसी ही स्थितियां हिंसा से ग्रस्त भारत के दूसरे इलाकों की भी हैं. उत्तर-पूर्व और वनों के गढ़ वाले राज्य माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं. हालांकि इन स्थितियों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर भी हैं. ब्रिटेन के ‘जेन डिफेंस वीकली’ से जुड़े रक्षा पत्रकार राहुल बेदी के अनुसार, ‘कश्मीर में विवाद के अंतरराष्ट्रीय आयाम भी हैं जो दूसरे इलाकों में नहीं हैं. कश्मीर में हिंसा शहरी और ग्रामीण इलाकों में सामान रूप से है जबकि उत्तर-पूर्व और माओवाद प्रभावित राज्यों से हिंसा मुख्य रूप से गांवों में ही है. उग्रवाद प्रभावित उत्तर-पूर्व और माओवाद प्रभावित राज्यों में जारी हिंसा की तुलना में कश्मीर में जारी हिंसा हमेशा से ही ज्यादा नुकसानदायक रही है.’ हालांकि उत्तर-पूर्व में काफी समय से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार समुद्र दास गुप्ता इन राज्यों में जारी हिंसा और पत्रकारिता की चुनौतियों में काफी समानता देखते हैं. उनके अनुसार, ‘मणिपुर में उग्रवादी गुट ये चाहते हैं कि उनके बयानों को उसी तरह से लिया जाए जैसा कि वे कहे गए हैं और कभी-कभी वे चाहते हैं कि उनके विरोधी गुटों के बयानों को न जारी किया जाए.’ वह बताते हैं, ‘इस तरह की स्थितियां कई बार उग्रवादी गुटों और पत्रकारों के बीच विवाद खड़े कर देती हैं, जो स्थितियां कई बार पत्रकारों पर जानलेवा हमले का भी रूप ले लेती हैं.’ कश्यप 1997 के उन दिनों को याद करते हैं जब वह ग्रामीण विकास कार्यकर्ता संजय घोष की ब्रह्मपुत्र नदी के मजुली द्वीप पर हुई हत्या की रिपोर्टिंग कर रहे थे. इस दौरान वे उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) की नजरों में चढ़ गए थे. उस समय एक फोन बूथ से जब वे इस खबर की जानकारी अपने दफ्तर को दे रहे थे तब उन्होंने पाया कि एक व्यक्ति काफी देर से उन पर नजर रख रहा था. बाद में उस व्यक्ति ने उनसे अपनी पहचान उल्फा के उग्रवादी के रूप में बताई. वह पीबी (उल्फा नेता परेश बरुआ) का आदमी था. कश्यप बताते हैं, ‘उस उग्रवादी ने बताया कि उसका काम उनकी (कश्यप) की सुरक्षा करना था.’

उत्तर-पूर्व में पत्रकारिता की और क्या-क्या चुनौतियां हैं इस पर ‘तहलका’ के पूर्व संवाददाता रतनदीप चौधरी कहते हैं, ‘यहां सैकड़ों जनजातियां और उप-जनजातियां हैं, जिनके बीच रिश्ता कभी भी बहुत सामान्य नहीं रहे हैं. इस क्षेत्र में तकरीबन 50 उग्रवादी संगठन हैं और विभिन्न जातियों और अलग-अलग नेतृत्व में करीब-करीब 10 अलगाववादी आंदोलन चलाए जा चुके हैं. इसलिए पत्रकारों को यहां बहुत ही सावधानी से पत्रकारिता करनी होती है. यह भी सुनिश्चित करना होता है कि आपकी खबर तथ्यात्मक रूप से सही और संतुलित हो. इसके अलावा आपकी पत्रकारिता को इस तरह से देखा जाता है कि आप किसी एक या दूसरे संगठन के इशारे या फिर सुरक्षा एजेंसियों के लिए काम कर रहे हैं.’

हालांकि उत्तर-पूर्व और उग्रवादी आंदोलनों की रिपोर्टिंग कर चुकीं ‘द टेलीग्राफ’ की संवाददाता सोनिया सरकार हिंसाग्रस्त इलाकों में पत्रकारिता करने में सिर्फ विवादों को तवज्जो देने को सही नहीं मानतीं. उनके अनुसार, ‘इन क्षेत्रों से सकारात्मक खबरें भी की जा सकती हैं और उन लोगों की कहानियां बताई जा सकती हैं जो इन क्षेत्रों में अपना अस्तित्व बचाते हुए जीवनयापन कर रहे हैं.’ अपनी एक रिपोर्ट में वह बताती हैं कि कैसे हिंसा से ग्रस्त मणिपुर के तमाम लोग पढ़ाई और रोजगार की तलाश में इस राज्य को छोड़कर चले गए थे और फिर वापस यहां लौटकर अपना कारोबार शुरू कर रहे हैं. सरकार ने एक फीचर स्टोरी मॉलीवुड (मणिपुरी सिनेमा उद्योग) पर किया, जिसमें महिला प्रधान फिल्में खुद युवा महिलाएं ही बना रही हैं. सोनिया तर्क देती हैं, ‘कई बार कुछ पत्रकार स्थितियों को बहुत ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की कोशिश करते हैं ताकि दूसरों को ये महसूस करा सकें कि उनकी रिपोर्ट से महत्वपूर्ण वे खुद हैं.’ हालांकि रक्षा पत्रकार राहुल बेदी कश्मीर के हालात को दूसरे राज्यों की तुलना में अलग मानते हैं. वह बताते हैं, ‘कश्मीर में जो विवाद है वह अपने गंभीर राजनीतिक, कूटनीतिक और रणनीतिक आयामों के साथ देश में दूसरी किसी भी जगह के विवाद की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ा है.’ दूसरी ओर घाटी में लगातार कम होती हिंसा मीडिया के लिए खतरनाक माहौल में थोड़ी-सी ढील जरूर देती है, फिर भी राज्य ने शांति के हालात बहुत ही कमजोर स्थिति में हैं. बहरहाल निर्दोष लोगों की जान की कीमत पर घाटी में हिंसा का खेल खेला जा रहा है. यहां पत्रकारिता करना बहुत जोखिम भरा है और पत्रकार एक कमजोर कड़ी है जिसे कभी-भी तोड़ा जा सकता है.

गांव का पत्रकार, चुनौतियां हजार

IMG_6891-2खबरों की दुनिया में मुख्यधारा की पत्रकारिता की अपनी अलग चुनौतियां तो हैं ही, ग्रामीण इलाकों में भी चुनौतियां कुछ काम नहीं हैं. ग्रामीण पत्रकारिता बहुत आसान नहीं है. संसाधनों की कमी से जूझते ग्रामीण पत्रकार की चुनौतियों में से सबसे बड़ी चुनौती अनियमित तनख्वाह है. कई बार तो इन पत्रकारों को दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है. इसलिए गांवों में जो भी लोग पत्रकारिता से जुड़े हैं वे कोशिश करते हैं कि उनके पास आय के दूसरे स्रोत भी हों ताकि परिवार का खर्च चलाने में मुश्किलें न आएं.

रूरल जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आरजेएआई) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरुण सिंह चंदेल बताते हैं, ‘ग्रामीण पत्रकारों में से अधिकांश 100 से 200 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर करते हैं. इसलिए वे खेती जैसे आजीविका के दूसरे साधनों पर भी निर्भर रहते हैं.’ मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त और भारत में ग्रामीण पत्रकारिता के जाने-पहचाने नाम पी. साईनाथ भी इस बात से सहमति रखते हैं. उनके अनुसार, ‘ग्रामीण पत्रकारों को बहुत ही कम वेतन पर गुजारा करना पड़ता है, जिसकी वजह से उन पर दबाव ज्यादा होता हैं. पत्रकार संगठनों की कमी और कॉन्ट्रैक्ट (ठेका) आधारित नौकरी के चलते पत्रकारों की स्वतंत्रता खत्म हो रही है.’

दैनिक अखबार ‘आज’ से जुड़े ग्रामीण पत्रकार विनोद मिश्रा कहते हैं, ‘सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो ग्रामीण पत्रकारिता की चुनौतियों को बढ़ाता हैं. पत्रकारों पर अलग-अलग तरह से स्थानीय राजनीतिक दबाव होता है, इसलिए हमारे लिए सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.’ उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के ग्रामीण पत्रकार राकेश कुमार मौर्य ‘अमेठी किसान’ नाम से अपना अखबार निकालते हैं. राजनीतिक और खबर न छापने के दबाव के बारे में वे कहते हैं, ‘2012 में मैंने जिलाधिकारी और कोतवाल की अनियमितताओं के बारे में खुलासा किया था. उसके बाद वे दोनों एक रात मेरे घर पहुंचे और तोड़-फोड़ की.’ राकेश करीब एक दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं. वे बताते हैं, ‘पैसों की कमी और डर के कारण कई बार पत्रकारों को बाहुबलियों के पक्ष में खबर लिखनी पड़ती है. ऐसे में 80 फीसदी तक दलाली होती हैं. पत्रकार ऐसा तुरंत पैसा बनाने के चक्कर में करते हैं.’

गांवों में पत्रकार जब किसी खबर की छानबीन करता है तब जाति और आर्थिक स्थिति जैसे तमाम तत्व काम करते हैं. पी. साईनाथ कहते हैं, ‘मामलों का अतिसंवेदनशील होना भी ग्रामीण पत्रकारों के लिए बड़ा मसला है. ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता करते वक्त हम (शहरी मध्य वर्ग पेशेवर) में से अधिकांश को हमारी जाति, श्रेणी और सामाजिक पृष्टभूमि के आधार पर फायदा मिलता है. ग्रामीण पत्रकारों के लिए कई बार ये सब बड़ी चुनौतियां साबित होती हैं.’

मुख्यधारा के पत्रकारों की तुलना में अपने संस्थानों से सहयोग की कमी के कारण उनकी रिपोर्ट की गुणवत्ता में कमी आती है. पेड न्यूज की बात करें तो पी. साईनाथ ने ‘द हिंदू’ के लिए रिपोर्टिंग करते हुए पैसों के बदले में किसी व्यक्ति या संस्था के अनुकूल खबर प्रकाशित करने में मुख्यधारा के मीडिया की भूमिका का खुलासा किया था. वह कहते हैं, ‘पेड न्यूज से संबंधित कोई खबर अगर एक ग्रामीण पत्रकार करता तो उसे कई तरह के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते. इनता ही नहीं खबर को प्रकाशित करवा पाना उसके लिए और बड़ी चुनौती साबित होता. उनकी तुलना में हम लोग ज्यादा महफूज हैं, इसलिए उनके लिए स्थितियां और कठिन हैं ऐसा भी कहा जाता है की शहरी पत्रकारों की तुलना में ग्रामीण पत्रकारों के लिए इस तरह की रिपोर्टिंग कहीं ज्यादा श्रमसाध्य और खतरों से निपटना कठिन होता है.’ पत्रकरिता के क्षेत्र में इस तरह के उदहारण भी मौजूद हैं जहां ग्राउंड रिपोर्ट करने पर ग्रामीण पत्रकारों को उनका मेहनताना तक नहीं मिल पाता. पी. साईनाथ कहते हैं, ‘अक्सर देखा जाता है कि ग्रामीण पत्रकार मौके पर मौजूद होता है. ऐसे में गांवों से जब कोई खबर राष्ट्रीय स्तर की बनती है तो यह ग्रामीण पत्रकार की वजह से ही संभव हो पता है. कई बार ऐसा होता है जब गांव की कोई खबर बड़ी होकर राष्ट्रीय महत्व की हो जाती है, तब मुख्यधारा का मीडिया उस ग्रामीण पत्रकार का नाम तक नहीं देता जो उस खबर को सबसे पहले उठाता है.’

देश के ग्रामीण इलाकों में बुनियादी और दूसरी सुख-सुविधाओं की कमी का भी सामना पत्रकारों को करना पड़ता है. बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के ग्रामीण पत्रकार अनवर हक बताते हैं, ‘कहीं आने-जाने के लिए काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं आने-जाने के साधन बहुत ही सीमित होते हैं. इतना ही नहीं संस्थानों से कहीं आने-जाने का खर्च मिल पाना भी मुश्किल होता है. इसके अलावा गांवों में इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं की भी कमी होती है. इंटरनेट की स्थिति बहुत ही खराब होती है. स्पीड नहीं मिल पाती और खबर भेजने में काफी दिक्कत होती है.’ हक जैसे दूसरे ग्रामीण पत्रकार आय के पहले स्रोत के रूप में खेती पर निर्भर हैं. हक कहते हैं, ‘ये तो हम शौक के लिए करते हैं. आजीविका के लिए हम पूरी तरह से पत्रकारिता पर निर्भर नहीं रह सकते.’

भारत में ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में इन भयानक स्थितियों के बावजूद आशा की कुछ किरणें भी नजर आती हैं. उदाहरण के तौर पर ‘खबर लहरिया’ नाम का एक ग्रामीण अखबार है जो उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में अच्छी पकड़ रखता है. इसकी प्रसार संख्या भी 80 हजार से ऊपर है. यह अखबार दूसरों से इस मामलों में अलग है, क्योंकि इसे पूरी तरह से महिलाएं ही प्रकाशित करती हैं. अखबार की सारी पत्रकार भी महिलाएं हैं.

दुखद ये है कि ग्रामीण भारत में पत्रकारिता बहुत व्यवस्थित नहीं है. हालांकि 2014 में पी. साईनाथ ने एक प्रोजेक्ट ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ (पीएआरआई) नाम से शुरू किया था. इसका उद्देश्य ग्रामीण भारत पर एक पत्रिका निकालने का था. पी. साईनाथ अपनी वेबसाइट पर लिखते हैं, ‘पीएआरआई ग्रामीण इलाकों की रिपोर्टिंग करेगा जो इस वक्त प्रचलित और समकालीन है. इसके अलावा एक खबरों का डेटाबेस (बैंक) तैयार करेगा, जिसमें प्रकाशित हो चुकी रिपोर्ट, वीडियो और ऑडियो शामिल होंगे.’ इस तरह के प्रयास ग्रामीण क्षेत्रों की कठिन परिस्थितियों में आशा की किरण जैसे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर शोहरत पाने के लिए ग्रामीण पत्रकारों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है. तब तक ग्रामीण पत्रकारों को न सिर्फ अपने ऊपर के दबाव से निपटना होगा, बल्कि सामाजिक लांछन, राजनीति और गरीबी से भी लड़ना होगा.

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Web-F2ज्यादा वक्त नहीं बीता जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने सोशल मीडिया पर फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को लेकर कामुक टिप्पणी की और वीडियो अपलोड किया. इसे ‘ओह माय गॉड! दीपिका’ज़ क्लीवेज शो’ जैसे घटिया शीर्षक के साथ लगाया गया था, जिसके बाद इस हरकत की आलोचना का दौर शुरू हुआ और दीपिका पादुकोण ने अखबार को करारा जवाब दिया. सोशल मीडिया पर यह वीडियो लगातार शेयर होता रहा. बहसें होती रहीं. इस पूरी बहस का परिणाम यह हुआ कि ‘द गार्जियन’ और बीबीसी जैसे विदेशी मीडिया संस्थानों ने आगे बढ़कर इस मुहिम में दीपिका पादुकोण का समर्थन किया.

विडंबना ये रही कि इस पूरी आलोचनात्मक कार्रवाई का परिणाम उलटा पड़ गया. एक तरह से टाइम्स समूह की वेबसाइट के लिए यह असफलता ख्याति में तब्दील हो गई. यानी दीपिका पादुकोण के वीडियो पर हुए अनगिनत हिट्स की बदौलत यह मीडिया समूह लगातार चर्चा में बना रहा. आजकल सभी मीडिया समूह धीरे-धीरे उस ओर बढ़ रहे हैं जहां ‘क्लिक’ और ‘हिट्स’ की बदौलत पाठकों तक अपनी पहुंच और खबरों की गुणवत्ता को मापा जाता है.

आजकल भारतीय ऑनलाइन मीडिया में भी किसी विषय पर राय रखने के लिए क्रमवार तरीके से पॉइंट्स बना कर लिखने का चलन हो गया है. अंग्रेजी में इसे ‘लिस्टिकल’ कहते हैं. हाल ही में एक दोस्त ने किसी फिल्म पर अपनी राय रखने के लिए लिस्टिकल का प्रयोग किया. जब किसी ने प्रश्न किया तो जवाब में उसने कहा, ‘आजकल मीडिया में लिस्टिकल ही काम की चीज है’. जाहिर भी है क्योंकि आज के समय में जिस तेजी की दरकार है, उसके साथ खबरों के विस्तृत स्वरूप पीछे छूट जाते हैं. वे दिन अब बीतने लगे हैं जब लोगों की बालकनियों में हॉकर अखबार फेंक जाया करते थे और उन अखबारों के संपादकीय पन्नों को छानने में लंबा वक्त गुजरता था. अब मोबाइल और लैपटॉप पर खबरें देखकर काम पर निकल जाने का समय आ चुका है. साथ ही साथ तमाम मीडियाघरों के एप्स और वेबसाइटों ने खबर खंगालने के पुराने दिनों को चलता कर दिया है. अब यह दौर ज्यादा दिलचस्प और अतिशयोक्तिपूर्ण सनसनीखेज पत्रकारिता का है.

चलताऊ अर्थों में सनसनीखेज पत्रकारिता के नाम से जाना जाने वाला ‘क्लिकबेट जर्नलिज्म’ दरअसल पत्रकारिता का वह नुस्खा है जिसका मकसद गहरी और सही खबरों की आड़ में ऑनलाइन राजस्व पैदा करना होता है. यहां बेट का अर्थ चारे से है. मौजूदा समय में पाठक रोज-ब-रोज सोशल मीडिया पर सक्रिय होते जा रहे हैं, ऐसे में प्रकाशकों को करना सिर्फ इतना होता है कि वे अपने कंटेंट को पाठकों की न्यूजफीड में दाखिल कर दें और यह सुनिश्चित करें कि पाठक वह पढ़ लें. लेकिन इसके बाद प्रश्न उठता है कि ऐसी क्या चीज है कि ऑनलाइन खबरें पढ़ने वाला किसी खबर पर क्लिक करे? जवाब आता है ‘हेडलाइन’. पाठक वह पढ़ने में ज्यादा यकीन रखता है, जो समसामयिक हो, थोड़ा जाना-पहचाना विषय हो और सनसनीखेज हो. इसलिए खबरें बनाते समय ऐसे की-वर्ड्स यानी खास शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है ताकि पाठक का ध्यान खुद-ब-खुद उन खबरों की ओर चला जाए और वह उन पर क्लिक करे. ऑनलाइन कंटेंट लेखक नयनतारा मित्र के मुताबिक, ‘किसी खबर की हेडलाइन में यदि सनी लियोन का नाम है तो जाहिर है कि वह खबर भारी संख्या में पाठकों को रिझाएगी.’

ठीक इसी तरह राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी या योग के हेडलाइन से जुड़ी खबर देश के किसी हिस्से में खाद्यान्न की कमी से जुड़ी खबर से ज्यादा पढ़ी जाएगी. दीपिका पादुकोण के जवाब के बाद अपनी सफाई में टाइम्स समूह ने दावा किया, ‘ऑनलाइन दुनिया अखबारों की दुनिया से काफी अलग है. यह दुनिया ज्यादा अव्यवस्थित, हो-हल्ले और सनसनीखेज हेडलाइनों से भरी हुई है.’

कोई भी एक डिजिटल मीडिया संस्थान अपने पाठक समूह के रूप में 15 से 25 साल के उत्साही युवाओं को चुनती है, जो सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय रहते हैं. ऐसा माना जाता है कि इस पाठक समूह की ध्यानावधि कम होती है, जिसके दौरान वे ज्यादा मसालेदार सामग्रियां तलाशते हैं. इस संबंध में ‘स्कूपव्हूप’ नाम की वेबसाइट का जिक्र आता है, जो इस समय चर्चा में है. भारत के ‘बजफीड’ के नाम से मशहूर ‘स्कूपव्हूप’ ने अपने उद्घाटन के बाद से ही लाखों पाठकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया था. इस समय ‘स्कूपव्हूप’ के ट्विटर पर 30 हजार के आसपास फाॅलोवर हैं तो वहीं फेसबुक पेज पर 10 लाख से ज्यादा लाइक्स. इसके सह-संस्थापक और चीफ ऑपरेटिंग अफसर ऋषि प्रतिम मुखर्जी अपने यहां की खबरों की खासियत बताते हुए कहते हैं, ‘उनकी खबरें दिल से ‘सोशल’ होती हैं. किसी स्टोरी में पाठक की रुचि और पाठक द्वारा सोशल मीडिया पर उसकी शेयरिंग को देखकर उन्हें अपनी वेबसाइट के लिए सामग्री का चयन करने में मदद मिलती है.’

‘क्योरा’ जैसे माध्यमों पर बहुत सारे पाठकों ने ऐसी वेबसाइट की खबरों और भाषा को औसत दर्जे का करार दिया है. हालांकि इस पर मुखर्जी तर्क देते हैं, ‘एक बड़े, तेज और अस्थिर पाठक समूह तक अपनी बात पहुंचाने के लिए खबरें बनाने और उन्हें पेश करने के तरीके में भारी बदलाव आया है. यही कारण है कि आज की तारीख में ऐसी खबरों, स्लाइड-शो और वीडियो की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, जिनके ‘रीड एंड शेयर’ वाला हिस्सा आसमान छू रहा है.’

क्लिकबेट पत्रकारिता का यह नया स्वरूप आम बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल के साथ-साथ खबरों की प्रकृति पर भी निर्भर है. सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा शेयर होने वाली खबरें वे होती हैं जिनके शीर्षक भ्रामक और रोचक लगते हैं, जिससे पाठक में उत्सुकता जगे. मिसाल के लिए ‘क्या आपके इस्तेमाल किए गए शब्दों से आपकी उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है?’ या ‘आपको भरोसा नहीं होगा कि इस बच्ची ने अपने पालतू जानवर के साथ क्या किया’ जैसे शीर्षक और ज्यादा पाठकों का ध्यानाकर्षण करने के लिए इस्तेमाल में लाए जाते हैं.

इसके साथ अब ऐसी खबरों का भी चलन है जो पाठकों को उनके बीते वक्त में ले जाती हैं. ‘15 कारण कि क्यों एक तमिल फ्रेंड का होना जरूरी है’ या ‘20 चीजें जिन्हें सिर्फ 90 दशक के बच्चे ही जान सकते हैं’, ऐसे शीर्षक व खबरें और ज्यादा पाठकों को रिझाने का नायाब नुस्खा बनते जा रहे हैं क्योंकि तमिलनाडु से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति या किसी तमिल व्यक्ति से जुड़ा हुआ व्यक्ति या 90 के दशक का कोई भी व्यक्ति इन खबरों को जरूर पढ़ेगा और शेयर करेगा.

डिजिटल मीडिया के इन प्रकाशकों के लिए यह गर्व करने की बात क्यों न हो, लेकिन मुख्यधारा के अखबारों, मीडिया महकमों और मीडिया आलोचकों द्वारा प्रस्तुतिकरण का यह नया तरीका आलोचनाओं के घेरे में है. ऑनलाइन पत्रिका ‘बायलाइन’ को दिए गए अपने साक्षात्कार में प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी और मीडिया स्कॉलर नॉम चोम्स्की ने ‘बजफीड’ मार्का क्लिकबेट जर्नलिज्म को प्रचार का नया कलेवर कहा था. चोम्स्की ने कहा था कि ऐसे प्रयासों का लक्ष्य समाज के अभिजात्य और प्रभावशाली वर्गों के पक्ष में सहमति का निर्माण करना होता है.

आज वायरल हो रही सामग्री बाद में किसी न किसी प्रकार के विज्ञापन के रूप में खुलकर सामने आती है यहां तक कि आजकल डिजिटल मीडिया द्वारा प्रकाशित की जा रही सामग्री का बड़ा हिस्सा प्रायोजित होता है जिसे संपादकीय कलेवर में लपेटकर परोसा जाता है. ‘स्कूपव्हूप’ के मुखर्जी सफाई देते हैं, ‘स्कूपव्हूप पर हर महीने प्रकाशित होने वाली सामग्री में सिर्फ 2 प्रतिशत हिस्सा प्रायोजित होता है. सारे ऑनलाइन मीडिया में ऐसा नहीं है.’ चोम्स्की के बयान से सहमत होते हुए मुखर्जी कहते हैं, ‘खुद इंटरनेट अपने में एक लोकतांत्रिक जगह है, जहां हाशिए के समुदाय को भी सुना, समझा और सराहा जाता है. यही कारण है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया चुनाव के सिद्धांत पर आधारित हैं. इंटरनेट यूजर उसी सामग्री को चुनता है, जिसे वह चुनना चाहता है. यहां किसी किस्म का दबाव प्रयोग में नहीं लाया जाता.’

जाहिर है कि आखिर में यह पाठक को ही तय करना होता है कि वह क्या पढ़े और क्या नहीं. इसके साथ पाठक के पास यह अधिकार भी होना चाहिए कि वह वही सामग्री पढ़े, जिसकी उसे जरूरत है. लेकिन भ्रमित करने वाले शीर्षकों के अधीन विज्ञापित सामग्रियां प्रकाशित कर रही वेबसाइट पाठकों की इस जरूरत का हनन करती हैं.

यहां इस मामले का सबसे कम ध्यान इस पहलू पर दिया गया है कि अब क्लिकबेट जर्नलिज्म धीरे-धीरे अपनी सीमा का विस्तार करके मुख्यधारा की मीडिया तक भी पहुंच गया है. टाइम्स समूह की वेबसाइट ने अब ‘टाइम्स प्वाइंट’ नाम से एक लॉयल्टी कार्यक्रम की शुरुआत की है. इस कार्यक्रम में फ्रीक्वेंट फ्लायर (टाइम्स वेबसाइट पर रोजाना खोलने पर दिया जाने वाला प्वाइंट) और शेयर खान बैज (वेबसाइट की सामग्री को सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा शेयर करने पर मिलने वाले प्वाइंट) जैसे और भी ऐसे कई किस्म के आभासी इनाम हैं. अंग्रेजी अखबार डीएनए ने भी पाठकों को रिझाने के लिए अमिताभ बच्चन के सिनेमा पर एक गंभीर साक्षात्कार का जो शीर्षक दिया था, वह था, ‘मुझे ‘पीकू’ की सक्सेस पार्टी में नहीं बुलाया गया.’

ये दुखद है लेकिन ये तरीके कारगर साबित हो रहे हैं. इस तरह की पत्रकारिता में आई तेजी ने कहीं न कहीं मुख्यधारा की पत्रकारिता की जगह ले ली है और इससे पाठकों की रुचि और उनकी पढ़ने की आदतों को प्रभावित किया है. साथ ही ‘खबर’ की परिभाषा में भी बदलाव आया है. पाठकवर्ग और मीडिया एक-दूसरे के साथ ऐसे प्रतीकात्मक संबंध में हैं, जिसमें दोनों एक दूसरे को लाभांवित करने में व्यस्त हैं. जहां एक तरफ मीडिया एजेंसी ऐसी ‘खबरें’ प्रकाशित कर रही हैं जो पाठकों के क्लिक को रिझा रही हों, वहीं पाठक उन खबरों को क्लिक-शेयर के माध्यम से एजेंसी की रीडरशिप और प्रचार-प्रसार में मदद कर रहे हैं.

ऐसे में प्रश्न उठना लाजिम है कि क्या अब भी पाठक पारंपरिक मीडिया के प्रति प्रतिबद्ध रहेंगे या यह डिजिटल क्षेत्र के नए खिलाड़ियों द्वारा अतिक्रमित कर दिए जाने की कगार पर आ गया है और पत्रकारिता की इस रेस में हार रहा है? क्या इस डिजिटल क्लिक और शेयर की बेशर्म भेड़चाल से उस पत्रकारिता का अंत हो जाएगा, जिसे हम सब जानते हैं?

तथ्यों पर भारी तेजी

बहुत से लोगों को ये पता भी नहीं होगा कि प्रसारण पत्रकारिता के इतिहास के सबसे बड़े क्षण ने एक बड़े विवाद को जन्म दिया था. 1967 में डेविड फ्रॉस्ट अपने शो ‘फ्रॉस्ट प्रोग्राम’ में एमिल सवुंद्रा से सवाल-जवाब कर रहे थे. सवुंद्रा श्रीलंकाई काले बाजार के एक व्यापारी थे जिन पर उस वक्त एक बड़े मोटर इंश्योरेंस घोटाले का आरोप था. सवुंद्रा इस घोटाले को लेकर खबरों में थे और इस प्रोग्राम में ये सोचकर आए थे कि उन्हें अपने ऊपर लगे आरोपों के खिलाफ अपना पक्ष जनता के सामने रखने का मौका मिलेगा. पर हुआ इसके उलट. फ्रॉस्ट के आक्रामक सवालों के सामने सवुंद्रा टिक नहीं पाए. इंटरव्यू शुरू हुए दस ही मिनट हुए थे कि फ्रॉस्ट के सवालों में उलझे सवुंद्रा ये कह गए कि उनकी किसी के भी प्रति कोई कानूनी या नैतिक जिम्मेदारी नहीं है. जहां सवुंद्रा को इस बात के लिए दर्शकों का गुस्सा झेलना पड़ा वहीं फ्रॉस्ट की इस पर की गई गुस्से भरी प्रतिक्रियाओं को दर्शकों की तालियां मिलीं. जनता को न केवल ये लगा कि फ्रॉस्ट इस मामले के पारखी हैं बल्कि सवुंद्रा के जवाबों पर फ्रॉस्ट की गुस्से भरी प्रतिक्रियाओं से उन्हें लगा कि फ्रॉस्ट उनमें से ही एक हैं. इस कार्यक्रम के कुछ महीनों बाद सवुंद्रा को अपराधी घोषित कर जेल भेज दिया गया और फ्रॉस्ट अपने टीवी पत्रकारिता के कॅरिअर में सफलता की ऊंचाइयों की ओर बढ़ने लगे.

जब टीवी पत्रकारिता में हुई इस ऐतिहासिक घटना ने लोगों को प्रभावित किया, तब मीडिया और बाहरी दुनिया में टेलीविजन पर होने वाले बर्ताव और अदालती मुकदमे जैसी पूछताछ से उपजी गलतफहमियों से शो के निर्माताओं ने शो के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतनी शुरू कर दी. और इसी तरह पहली बार ‘ट्रायल बाय टेलीविजन’ शब्द चलन में आया.

उस समय फ्रॉस्ट को निजी सवाल पूछने के कारण, एक कठिन साक्षात्कारकर्ता का जो तमगा मिला था, आज दशकों बाद टीवी पर रोज होने वाली बहसों को देखते हुए हम उसकी जटिलताएं समझ सकते हैं. मीडिया के ऐसे व्यवहार पर चर्चा एक बार फिर शुरू हो गई है जब हाल ही में पत्रकार अविरूक सेन की किताब ‘आरुषि’ सामने आई. ये किताब देश की सबसे बड़ी ‘मर्डर मिस्ट्री’ कहे गए आरुषि तलवार हत्याकांड पर बात करती है.

2008 में 14 साल की आरुषि की संदिग्ध मौत ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. इसके पीछे कौन था, ये आज तक एक पहेली बना हुआ है. बहुत-सी बातें किसी जासूसी उपन्यास के रहस्य की तरह आज भी अबूझ हैं, जैसे कि क्यों बस एक दीवार के फासले पर सोए आरुषि के माता-पिता को उसकी हत्या का पता नहीं चला, घर के नौकर हेमराज की हत्या कैसे और किसने की और कैसे उसकी लाश छत पर पहुंच गई?

ये हत्याकांड सुर्खियों में ही था जब तलवार दंपति पर ही उंगलियां उठने लगीं. फिर जल्द ही नई बहसों का जन्म हुआ और विशेषज्ञों, जिनमें नामी लेखिका शोभा डे भी शामिल थीं, ने तलवार दंपति के खिलाफ स्पष्ट निर्णय दे दिया. कुछ ने आरुषि को उच्छृंखल कहा तो कुछ का ये भी कहना था कि ये ‘ऑनर किलिंग’ का मामला है. ये भी कहा गया कि तलवार दंपति दिल्ली के एक विशिष्ट ‘वाइफ स्वैपिंग क्लब’ के सदस्य थे. एक चैनल ने तो सभी हदें पार कर दीं, बाल अधिकारों का उल्लंघन करते हुए उन्होंने एक एमएमएस क्लिपिंग दिखाई जिसमें एक किशोर लड़की कैमरे के सामने अपने कपड़े उतार रही थी. चैनल का दावा था कि ये बच्ची आरुषि है.

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जहां एक तरफ ये ‘कामुक सुर्खियां’ खबर बना रही थीं, जांच एजेंसियों की बताई कहानियां भी कुछ ऐसी ही थीं. ऐसा लग रहा था कि अपने ‘अनाम सूत्रों’ से प्राप्त ‘एक्सक्लूसिव’ खबरों  को चलाने वाले चैनल इन जांच एजेंसियों के प्रवक्ता के रूप में ही ये बात कह रहे थे. इस तरह मीडिया ने घोषित किया कि आरुषि के माता-पिता ‘दोषी’ हैं और नवंबर 2013 में अदालत ने भी उन्हें दोषी करार दिया.

हालांकि तलवार दंपत्ति के दोषी या निर्दोष होने पर कोई टिप्पणी करना अनजाने में ही पूर्वाग्रहों के हिसाब से चलना होगा, पर मीडिया द्वारा जनता में फैलाई गई राय से प्रभावित होकर अदालत के फैसला सुनाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. पत्रकार और ‘आरुषि’ किताब के लेखक अविरूक सेन ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘जब तक ‘मुंबई मिरर’ ने 2012 में मुझे इस केस के ट्रायल के बारे में लिखने की जिम्मेदारी नहीं दी थी, मेरी इस मामले के बारे में कोई राय नहीं थी, सिवाय इसके कि उसके माता-पिता ने ही ये अपराध किया होगा क्योंकि पूरा मीडिया यही कह रहा था. इस बात ने जनता और मामले के प्रमुख लोगों को भी प्रभावित किया ही होगा और चाहें ये जांच एजेंसियां हों या अदालत, वे भी तो इसी जनता में ही आते हैं. ऐसे में हम इस केस में मीडिया के प्रभाव को नजरअंदाज कर ही नहीं सकते.’

मार्च 2015 में, दिसंबर 2012 में हुए निर्भया कांड पर आधारित लेस्ली उडविन की डॉक्यूमेंट्री ‘इंडिया’ज डॉटर’ ने देशभर में एक बड़ी बहस को जन्म दे दिया. इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने डॉक्यूमेंट्री के प्रसारण पर बैन लगाने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन कहने वाली एक याचिका की सुनवाई में कहा था, ‘मीडिया ट्रायल जजों को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं. इससे अप्रत्यक्ष रूप से एक दबाव बनता है जिससे आरोपी/अपराधी की सजा का निर्णय प्रभावित होता है.’

याचिकाकर्ता ने ये भी कहा कि किसी डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगाने से मीडिया द्वारा विचाराधीन मामलों में झूठी रिपोर्ट आने की संभावना बढ़ जाएगी और कोर्ट ने ये माना भी कि कैसे पहले ये अलिखित कोड था कि विचाराधीन मामलों के बारे में रिपोर्ट नहीं की जाएगी, मगर अब ऐसा कुछ नहीं माना जाता.

इसी तरह 17वें विधि आयोग में अपनी 200वीं रिपोर्ट में मीडिया ट्रायल और खबरों की अधिकता के भविष्य को देखते हुए केंद्र से ये सिफारिश की थी कि किसी भी आपराधिक मामले में आरोपी के गिरफ्तार होने से लेकर फैसला आ जाने तक किसी भी तरह की रिपोर्टिंग करने से मीडिया पर रोक होनी चाहिए, ताकि आरोपी के अधिकारों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया कि किसी भी मीडिया माध्यम को किसी आपराधिक मामले के बारे में कोई भी प्रकाशन या प्रसारण को निर्देशित करने का अधिकार हाईकोर्ट को होना चाहिए. साथ ही मीडिया द्वारा ऐसे किसी मामले के प्रयोग को नियंत्रित करने का अधिकार भी हाईकोर्ट को होना चाहिए. आयोग ने कहा, ‘आजकल टेलीविजन और केबल के बढ़ते व्यापक प्रसार में समाचार प्रकाशन का स्वरूप बदल गया है और ऐसे कई प्रकाशन संदिग्धों, आरोपियों, गवाहों यहां तक कि जजों यानी पूरे न्याय तंत्र को भी प्रतिकूल तरीके से प्रभावित कर सकते हैं.’

जहां एक ओर तलवार दंपति के मामले को भारतीय प्रेस काउंसिल ने मीडिया द्वारा लोगों पर नकारात्मक प्रभाव बनाने के रूप में देखा, वहीं एसएआर गिलानी के विवादित राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामले और खुर्शीद अनवर पर यौन उत्पीड़न के आरोप, दो ऐसी ‘ब्रेकिंग न्यूज’ रहे जिन्होंने मीडिया के प्रति विश्वास को ‘ब्रेक’ यानी तोड़कर रख दिया. 13 दिसंबर 2001 को देश की संसद पर पांच आतंकियों द्वारा किए गए हमले के दूसरे ही दिन दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने दावा किया कि उन्होंने इस हमले में शामिल कई संदिग्धों को ढूंढ लिया है. इस मामले में उन्होंने 12 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें चार कश्मीरी शामिल थे- दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एसएआर गिलानी, शौकत हुसैन गुरु और मोहम्मद अफजल गुरु व अफज़ल की पत्नी अफ्जान.

उनकी गिरफ्तारी से पहले ही मीडिया में उनके अपराध के विवरण के साथ उनके कुबूलनामे की खबरें आ चुकी थीं. ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने लिखा था कि ‘आतंकवादियों’ ने पाकिस्तान के नंबर पर फोन कॉल करने से पहले गिलानी को कॉल किया था, वहीं ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की हेडलाइन में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को आतंकी योजनाओं का सरगना कहा गया था. जहां ऐसी खबरों ने पहले ही संदिग्धों के खिलाफ एक राय कायम कर दी थी, जी न्यूज के डॉक्यू ड्रामा ‘13 दिसंबर’, जिसमें संसद हमले के पूरे घटनाक्रम का नाट्य रूपांतरण किया गया था, को सरकार की सहमति और समर्थन के बाद प्रसारित किया गया जिसने इन संदिग्धों को आतंकवादी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

जब हाईकोर्ट को गिलानी पर लगे इन आरोपों को साबित करने वाला कोई तथ्य नहीं मिला तो उन्होंने गिलानी और अफ्जान को बरी कर दिया, मगर तब तक बरी हो चुके इन लोगों के लिए अपनी सामान्य जिंदगी में लौटना नामुमकिन हो चुका था. क्या कोर्ट के इन्हें बेगुनाह मानने के बाद लोगों की इनके बारे में राय बदल सकती थी? क्या मीडिया संस्थान अपनी कहानियां वापस ले सकते थे? क्या वो तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने के लिए गिलानी से माफी मांग सकते थे? अफजल इस मामले में बदकिस्मत रहे कि अपनी बेगुनाही साबित कर बरी हो पाने के लिए उन्हें पर्याप्त सुबूत नहीं मिले, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि उन्हें ‘सामूहिक अंतःकरण की संतुष्टि’ के लिए मरना ही होगा. अफजल के खिलाफ मीडिया द्वारा हुईं चूकों ने जिस सामूहिक विवेक को जन्म दिया वो दिखाता है कि कैसे प्रेस किसी व्यक्ति के जीने-मरने को प्रभावित कर सकता है.

2013 में इसी तरह का एक और निंदा अभियान टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर तब चला जब ‘इंस्टिट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी’ नाम के एक एनजीओ के कार्यकारी निदेशक खुर्शीद अनवर पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे. जबकि इन आरोपों की सच्चाई पर ही संदेह था. सोशल मीडिया और इंडिया टीवी पर लगातार इस मुद्दे पर हो रही बहस ने खुर्शीद अनवर को अपनी जिंदगी खत्म कर देने जैसा गंभीर कदम उठाने पर मजबूर कर दिया. मीडिया ने आरोपों के आधार पर ही उन्हें बलात्कारी घोषित कर दिया. इंडिया टीवी ने तो अभियान ही शुरू कर दिया था, जिसमें बार-बार ‘औरतों पर अन्याय को बढ़ावा देने वाले आदमी को सजा मिलनी चाहिए’ जैसी बातें पूरी उत्तेजना के साथ कही जा रही थीं, इसके बाद ही खुर्शीद ने अपने घर की छत से कूदकर जान दे दी.

अनवर के शुभचिंतकों, शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों आदि ने मीडिया द्वारा एफआईआर से पहले ही अनवर को बलात्कारी घोषित कर देने की घोर निंदा की. एक फोरम ‘जस्टिस फॉर खुर्शीद अनवर’ की सदस्य अंकिता चंद्रनाथ बताती हैं, ‘रजत शर्मा द्वारा इंडिया टीवी पर अनवर द्वारा किए गए कथित बलात्कार की रिपोर्ट निर्भया कांड के ठीक एक साल बाद पेश की गई थी. मीडिया को दिसंबर तक इंतजार करने की क्या जरूरत थी जब कथित बलात्कार का मामला सितंबर की शुरुआत का था? इंडिया टीवी की रिपोर्ट पूरी तरह से एकपक्षीय थी. यहां तक कि उस लड़की का अनवर के खिलाफ बयान हद दर्जे तक संपादित था, साथ ही चैनल आक्रामक रूप से उसे ‘दूसरी निर्भया’ के नाम से प्रसारित कर रहा था.’ 2008 में हुए मुंबई हमले की बात  करें तो उस समय ऐसी खबरें भी आई थीं कि सेना की कार्रवाई का सीधा प्रसारण आतंक फैलाने वालों के आका देखकर आतंकियों को निर्देश दे रहे थे. इसी तरह पिछले दिनों गुरदासपुर में हुई आतंकी वारदात के समय खुफिया विभागों को समाचार चैनलों से सीधा प्रसारण न करने की अपील करनी पड़ी थी. ऐसे में मीडिया संस्थानों को इस बात पर भी सोचने और ध्यान देने की जरूरत है कि उनकी सीमाएं किस हद तक हैं और कहीं इससे किसी व्यक्ति विशेष या फिर राष्ट्र का हित तो नहीं प्रभावित हो रहा है.

विश्वस्त सूत्रों के हवाले से

दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘अकेले रिपोर्टर को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता. सूत्रों पर आधारित पत्रकारिता इसके खतरों के बावजूद खबरें इकठ्ठा करने का एक महत्वपूर्ण साधन है. और जहां संवाददाताओं की अपराध की वास्तविक स्थिति तक सीधी पहुंच नहीं है, तथ्यों की कोई जानकारी नहीं है, वहां उन्हें अधिकारियों द्वारा उनके हितों के अनुरूप चुने गए तथ्यों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. तथ्यों की इस चयनात्मक प्रस्तुति से कई बार बड़े नाटकीय निष्कर्ष निकलते हैं. एक टीवी न्यूजरूम के अंदर जो कहानियां हेडलाइन बनती हैं वो सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती हैं. अगर एक चैनल किसी घटना पर संतुलित रिपोर्ट दिखाता है और दूसरा चैनल उसी खबर को सनसनीखेज तरीके से दिखाता है तो दर्शकों का ध्यान उस सनसनीखेज रिपोर्ट पर ही जाएगा, जिससे टीआरपी भी बढ़ती है और साथ ही विज्ञापनों से आने वाला धन भी. कॉरपोरेट घरानों द्वारा चलाए जा रहे इस क्षेत्र में कई बार रिपोर्टरों को अनाम स्रोतों के नाम पर ऐसी कहानियां गढ़ने को कहा जाता है, जिससे चैनल की टीआरपी बढ़ाई जा सके. यहां पर इन अनाम सूत्रों पर भी सवाल उठता है, जिन्हें अमूमन ‘उच्च पदस्थ’ बताया जाता है. सरकारी महकमों के सूत्र सामान्यतया अपना नाम बताने से बचते हैं, ऐसे में कहानियां गढ़ने में और आसानी हो जाती है.

वर्तमान में मीडिया के किसी हत्या, बलात्कार की रिपोर्टिंग में लांघी गई नैतिकता की सीमाओं के एवज में चैनल सिर्फ चुप्पी साध लेता है.

 

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जहां निभाई महत्वपूर्ण भूमिका

भारतीय मीडिया संस्थान केवल सनसनीखेज खबरें देते हैं ये कहना भी सही नहीं होगा. चार ऐसे मामले जहां न्याय की लड़ाई में पत्रकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है

 

  • जेसिकालाल हत्याकांड के मुख्य आरोपी को बरी करने के विरोध में एक अनाम एसएमएस विभिन्न मीडिया संस्थानों में पहुंचा और मीडिया के ढेरों लोग इंडिया गेट पर कैंडल लाइट मार्च के रूप अपना विरोध दर्ज कराने पहुंच गए. 1999 में दिल्ली के एक रेस्तरां-बार में हरियाणा के एक सांसद के बेटे मनु शर्मा ने 200 लोगों के सामने जेसिकालाल की गोली मारकर हत्या कर दी थी क्योंकि उन्होंने देर रात शराब परोसने से मना कर दिया था. इस हाई प्रोफाइल मामले में मीडिया द्वारा बनाए गए दबाव के फलस्वरूप अदालत ने उसके सांसद पिता के प्रभाव को नजरअंदाज करके सजा सुनाई थी.
  • नीतीश कटारा की उस समय हत्या कर दी गई जब उनके भारती यादव से प्रेम संबंध के बारे में भारती के घरवालों को पता चला. 2002 में हुआ यह मामला ऑनर किलिंग का था. उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता डीपी यादव के बेटों विशाल और विकास यादव ने नीतीश की हत्या की क्योंकि वे अलग जाति के थे. विकास यादव इस मामले में अपने पिता के प्रभाव के कारण साफ बचकर निकल गए होते अगर एनडीटीवी चैनल उसके इकबाल-ए-जुर्म की ऑडियो रिकॉर्डिंग सामने नहीं लाया होता.
  • एस. मंजूनाथ इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन में ग्रेड ‘ए’ के अधिकारी थे . 2005 में, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में मंजूनाथ ने दो पेट्रोल पंपों को मिलावटी पेट्रोल बेचने के संदेह के चलते सील कर दिया था. मंजूनाथ की हत्या इसलिए हुई क्योंकि वे महीने भर पहले ही खुले एक पेट्रोल पंप का औचक निरीक्षण करने से पहुंच गए थे. इस केस में पेट्रोल पंप के मालिक पवन कुमार मित्तल सहित छह लोगों को दोषी घोषित किया गया. मंजूनाथ को मिले इसे न्याय का श्रेय उन कार्यकर्ताओं और मंजूनाथ षणमुगम ट्रस्ट को जाता है जिन्होंने इतने लंबे समय तक इस केस को जिंदा रखा.
  • संजीव नंदा को 1999 के हिट एंड रन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 5 साल की सजा सुनाई पर 2 साल बाद ही उन्हें छोड़ दिया गया. नशे में धुत संजीव ने तीन पुलिसकर्मियों सहित छह लोगों को बीएमडब्ल्यू कार से कुचल दिया था, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई थी. यदि मीडिया का दबाव न होता तो अपने दादा एसएम नंदा (पूर्व नेवी प्रमुख) के रसूख के चलते संजीव को बरी कर दिया गया होता.

निकिता लांबा

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लोग गाते-गाते गरियाने लगे हैं!

Shambhu Nath2एक मशहूर टीवी न्यूज चैनल के एंकर ने एक बार मुझे बताया कि अब काम करना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. उनकी हर स्टोरी पर लोग-बाग इस तरह रिएक्ट करते हैं कि लगता है अगर उन्हें वे अकेले पा जाएं तो मार ही दें. यह कहने वाले कोई आम या सड़कछाप लोग नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो प्रभावशाली पदों पर बैठे हैं और सरकार के चहेते हैं. मुझे यह तो अंदेशा था कि उन्हें धमकियां मिलती होंगी पर कोई सरकार का असरदार व्यक्ति ऐसी धमकी देगा मुझे भरोसा नहीं हो रहा था. लेकिन पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की मृत्यु हो जाने पर जिस तरह से उन एंकर ने उसी असरदार नेता की प्रतिक्रिया लेते हुए उसे सर कह कर संबोधित किया तो मेरा माथा ठनका. मैंने गौर किया कि उस नेता की प्रतिक्रिया लेते वक्त उस नामी एंकर ने एक बार भी टीवी पर सामने की तरफ अपना चेहरा नहीं किया. यह दुखद है. असरदार लोग अब सीधे ही पत्रकारों को नहीं धमकाते बल्कि उनके मालिकों पर भी दबाव डालते हैं कि अपने उस पत्रकार को या तो काबू करो अथवा उसे चलता करो. यह पीड़ा अकेले उन्हीं एंकर की नहीं है बल्कि वे सभी पत्रकार आजकल ऐसे हमलावर तेवरों वाले नेता और उनके फालोअरों से तंग हैं. एक महिला टीवी पत्रकार ने तो अपने साथियों से कहा था कि उसे अक्सर फोन आते हैं कि तुमने अगर अपने को न सुधारा तो तुम्हारा रेप कर दिया जाएगा. वह बेचारी बस सरकार की नाकामियों को कुछ ज्यादा ही तीखे अंदाज में उजागर कर रही थी. इसी तरह एक अखबार के संपादक को भी ऐसी ही धमकी अक्सर दी जाती हैं.

यह गंभीर चिंता का विषय है कि आखिर लोग इतने असहिष्णु और अमर्यादित क्यों होते जा रहे हैं. क्यों जरा-सी भी वह बात उन्हें सहन नहीं होती जो परंपरागत लीक से हटकर हो. याकूब मेनन की फांसी पर कुछ लोगों ने राष्ट्रपति से अपील क्या कर दी कि तत्काल कुछ लोगों ने उन्हें राष्ट्रद्रोही साबित कर दिया. सवाल इस बात का है कि अब क्या समानांतर रेखा पनपने नहीं दी जाएगी. अब तक हम यही तुलना सदैव अपने समानांतर रेखा से करनी चाहिए पर जब समानांतर रेखा ही समाप्त कर देंगे तो तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता. लोगों में कितना गुस्सा और नफरत भरी हुई है यह जानना हो तो आज सोशल मीडिया को देखिए. कुछ भी ऐसा लिख दिया जाए जो सरकार की अंध लाइन के विरोध में हो तत्काल लोग ऐसे टूट पड़ते हैं मानो पता नहीं कौन-सा कहर आन पड़ा. किसी ने मोदी सरकार की किसी नीति की निंदा कर दी तो तत्काल उसे देशद्रोही होने का फतवा जारी कर दिया जाएगा. किसी ने भी कथित भारतीय सभ्यता के छिद्रों पर हमला किया तो उसे धर्मद्रोही करार दे दिया जाएगा. मानों राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और समूचे हिंदू धर्म का ठेका इन्हीं असहिष्णु लोगों ने ले रखा हो. अभी कुछ वर्ष पूर्व तक हालात यह नहीं थे. लोग अलग राय रखते और उस पर दृढ़तापूर्वक खड़े भी रहते थे लेकिन क्या मजाल कि कोई उन पर हमला करे फौरन उनके पक्ष के लोग अपने-अपने तर्कों के साथ आ जाते थे. पर अब उलटा है अगर आप पर हमला हो रहा है तो भी आप की बात पर समान राय रखने वाले लोग या तो डर से चुप रहेंगे अथवा आग में घी डालने का काम करेंगे.

यह एक तरह की गुंडागर्दी है, अराजकता है कि अलग राय रखने वाले को अकेला कर देना और उसे उसकी राय को लेकर अपराधी करार दे देना. जो लोग इस अभियान को चला रहे हैं वे सफल हो रहे हैं क्योंकि वे भारी पड़ते जा रहे हैं. फेसबुक पर, ट्विटर पर या टीवी चैनलों पर अलग राय रखने वाले पहचान में आ जाते हैं इसलिए उन पर हमले शुरू हो जाते हैं. सवाल यह उठता है कि क्या सरकार समर्थक राय रखना ही देशभक्ति की निशानी है. सरकार के विरोध में खिसकने का मतलब राष्ट्रद्रोह कब से हो गया? लोकतंत्र में मीडिया की आजादी ही उसके मजबूत पायों की निशानी है. अगर किसी लोकतंत्र में मीडिया को खुलकर बात रखने की आजादी नहीं है तो वह लोकतंत्र भले हो मगर बीमार कहा जाएगा. आज देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है. अभिव्यक्ति की बात करते समय अराजकता अथवा गुंडागर्दी का समर्थन नहीं कर रहा बल्कि मेरा आशय यह है कि सरकार को अगर अपनी निंदा सुनने का साहस नहीं है तो वह लोकतंत्र एक तरह का भीड़तंत्र है जिसमें भेड़ें हांकी जाती हैं और ये भेड़ें अपना दिमाग तो रखती नहीं. वे बस वही रास्ता पकड़ती हैं जो लीक उन्हें समझा दी जाती है. इस तरह हमारे देश का डिजिटल संसार यदि रोबोट पैदा कर रहा है तो क्या फायदा होगा. जहां मशीनें तो होंगी लेकिन संजीदा लोग नहीं होंगे. यह एक पूरी पीढ़ी को बरबाद कर देने की तैयारी है जो उनके स्वतंत्र विचार को कुंद कर रही है और इसका खामियाजा आगे आने वाली पीढि़यों को भुगतना पड़ेगा.

बनारस में एक मोहल्ला है अस्सी और इस अस्सी में सामाजिक अड्डेबाजी का ठिकाना है पप्पू चाय की दुकान. पप्पू चाय की दुकान में बैठकर आप दुनिया-जहान की बातें कर सकते हैं और मोदी से लेकर बराक ओबामा तक खुलकर अपनी राय रख सकते हैं. आपको काउंटर करने वाले भी मिलेंगे और आपसे इत्तेफाक रखने वाले भी लेकिन ऐसी अड्डेबाजी फेसबुक पर क्यों नहीं है? यहां तो आपने जरा-सी भी नाइत्तेफाकी दिखाई कि लोग-बाग टूट पड़ेंगे और आप पर गालियों की इस तरह बौछार शुरू कर देंगे कि आपको वहां से निकल जाना ही बेहतर लगेगा. फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप ने आदमी को एक ऐसा हथियार मुहैया करा दिया है कि वह अपनी सारी भड़ास इसी माध्यम से व्यक्त करने लगा है. इस भड़ास में जहां ईर्ष्या है, द्वेष और जलन है तथा ये सारे के सारे कलुषों को बाहर कर देने का एक जरिया है. लेकिन बोला हुआ शब्द चाहे कम मार करे पर लिखा हुआ शब्द ज्यादा तीखी मार ही नहीं बल्कि ऐसी मार करता है जिसका असर तात्कालिक ही नहीं सालों तक दिखता है. आप कुछ भी ऐसा लिखिए जो लीक से हटकर हो तो पता चलता है कि तत्काल सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है. कोई आपको देशद्रोही, धर्मद्रोही और जातिद्रोही बताने में लग जाता है तो कोई आपको प्रतिक्रियावादी, रूढि़वादी और लकीर का फकीर बताने में पूरा जोर लगा देता है. मजे की बात कि लिखा हुआ मैटर एक ही है लेकिन प्रतिक्रिया भिन्न स्रोतों से अलग-अलग. यानी कोई भी विवेकपूर्ण बात सुनने की या पढ़ने की क्षमता धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है. हमारे कान बस वही सुनना चाहते हैं जो हमें पसंद हो अथवा जो हमारी रुचि के अनुसार लिखा गया हो. मगर कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसा नहीं था. तब काफी कुछ ऐसा लिखा जाता था जो हमारी धारणा के प्रतिकूल होता था मगर उसे पढ़ा जाता था और सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती थी.

हमारे समाज का इस तरह एकरस हो जाना और उसकी विविधता खत्म हो जाने का एक कारण तो समाज में उत्पादक और अनुत्पादक शक्तियों में आया बदलाव है. हर समाज की संस्कृति उसके उत्पादन के साधन और उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होती है. अब भौगोलिक स्थिति तो अचानक बदलती नहीं पर उत्पादन के साधन जरूर तेजी से बदल जाते हैं. आज जिस तरह मध्यवर्ग को अपनी लाइफ स्टाइल और मूल्यों को बनाए रखने के लिए दिन-रात जूझना पड़ता है और परिवार के हर सदस्य को आय का जरिया तलाशने पर जोर देना पड़ता है, उस वजह से उसकी आंतरिक खुशी में कमी आई है. अब प्रसन्नता का स्रोत उसे परिवार से नहीं बल्कि मनोरंजन के अन्य साधन तलाशने से मिलता है. भले वह बाहर जाकर खाना खाना हो अथवा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना, वह सब जगह एक भीड़ और भागमभाग देखता है जिस वजह से जीवन में एकरसता आने लगती है. सुबह उठकर ऑफिस के लिए घर से निकलने से लेकर शाम जल्दी घर पहुंचने तक वह बस एक ही चीज देखता है भीड़ और भागते हुए लोग. यह भीड़ और भागमभाग उसके जीवन से विवेक छीन लेता है और आदमी बस एक ही तरीके से सोचना शुरू करता है. इसमें उसके अपनी वैल्यूज होती हैं और अपनी तरह के तमाम ईगो और टैबू. वह कुछ भी अलग हटकर सोचना बंद कर देता है तथा ऐसी हर बात को खारिज कर देता है जो उसके वैल्यूज और भ्रमों को तोड़ता हो. इससे एक तरह की जड़ता आती है और एक ही समझ विकसित होती है. यह जड़ता और एकरस समझ उसे कुछ भी भिन्न देखते ही प्रतिक्रिया करने पर प्रेरित करता है और नतीजा होता है भड़ास.

असली चिंता उन लोगों की है जो अपनी एकांतिक सोच के कारण विवेक खोते जा रहे हैं. मनुष्य की एकांतिक सोच उसे समाज से काटती है. वह अपने मन की दुनिया में रहने लगता है जहां विरोध नहीं है, जहां उसके प्रतिकूल न तो कोई बात कही जाती है न कोई चरित्र उसकी मर्जी के बिना विचरण करता है. यह उसकी अपनी दुनिया तो है लेकिन यह दुनिया हकीकत नहीं बन सकती यह सिर्फ आभासी दुनिया रह सकती है जो वर्चुअल है और जिसमें सब कुछ सिर्फ ब्लिंक करता है. वास्तविक दुनिया में दुख है, शोक है, पीड़ा है और अकेलापन है मगर सुख भी अपार है और वह सुख जो वास्तविक है. मगर भागमभाग वाली जिंदगी आदमी को वास्तविक दुनिया से नहीं उस वर्चुअल दुनिया की तरफ धकेलती है जो झूठ और छद्म पर टिकी है. पर जो लोग इस आभासी दुनिया में पीड़ाएं और हकीकत को व्यक्त करते हैं उस पर ये सारे लोग हमले शुरू कर देते हैं जो झूठ और फरेब की अपनी दुनिया में अपने तरीके से ही मगन हैं.

(लेखक अमर उजाला के संपादक रह चुके हैं)

फिल्म पत्रकारिता : पैसा दो, प्रशंसा लो

phdeath2भारतीय सिनेमा बाजार पर अमेरिकी फिल्मों के बढ़ते वर्चस्व की समस्या का निदान निकालने हेतु अंग्रेजों ने 1927-28 में टी. रंगाचारियार की अध्यक्षता में एक सिनेमेटोग्राफ इंक्वायरी कमेटी गठित की. कमेटी का उद्देश्य अमेरिकी फिल्मों के बरक्स ब्रिटिश फिल्मों को बढ़ावा देने पर विचार करना था. इस कमेटी का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि लगभग 90 साल बीतने के बाद भी कमेटी की बातें आज भी उतनी ही सच लगती हैं, जितनी 1927-28 में रही होंगी. ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि फिर एकबार भारतीय सिनेमा के सामने हॉलीवुड एक बड़ी चुनौती बन कर उभर रहा है, बल्कि इसलिए कि सिनेमा पत्रकारिता की भी जो स्थिति उस समय थी, वही कमोबेश आज भी है.

कमेटी ने उस समय भारतीय सिनेमा के प्रतिनिधि के रूप में दादा साहब फाल्के और हिमांशु राय से भी विचार विनिमय किए. भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में अमेरिकी फिल्मों को तरजीह दिए जाने के सवाल पर हिमांशु राय ने स्पष्ट कहा था, ‘प्रत्येक समाचार पत्र को सीधे फिल्म की टंकित समीक्षा विदेशी निर्माताओं के माध्यम से उपलब्ध करा दी जाती है. समाचार पत्र उसे प्रकाशित करने को इसलिए बाध्य रहते हैं कि इससे उनके व्यवसायिक हित जुडे होते हैं.’ इसी कमेटी की एक गवाही में स्पष्ट कहा गया कि उस समय सिर्फ स्टेट्समैन एकमात्र अखबार था, जो समीक्षाओं में अपने विवेक से छेड़छाड़ करता था, बाकी अखबार ज्यों का त्यों छापते थे. स्टेट्समैन को सिनेमा के बड़े विज्ञापनों से हाथ धोकर इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता था.

आज स्थितियां इस रूप में बदल गई हैं कि अब अखबारों पर फिल्म कंपनियों को दबाव बनाने की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि अखबारों ने अपने इंटरटेनमेंट पेज की परिकल्पना ही फिल्म कंपनियों को समर्पित कर दी है. कुछ अखबार तो घोषित रूप से अपने सिनेमा के पृष्ठ को ‘एडवर्टोरियल’ कहकर निकाल रहे हैं, तो कुछ लुके-छिपे विज्ञापनों के माध्यम से स्पेस के सौदे तय कर रहे हैं. वहां विज्ञापन नहीं, खबरों से लेकर सितारों के इंटरव्यू तक की कीमत तय है. तेल माफिया द्वारा मार दिए गए मंजूनाथ पर केंद्रित फिल्म बनाने वाले संदीप वर्मा ने एक बातचीत में काफी दर्द के साथ बताया कि किस तरह फिल्म के संवेदनशील विषय के प्रति भी वे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को ‘मंजूनाथ’ के लिए जगह देने को राजी नहीं कर सके थे, जबकि इस फिल्म के लिए उन्होंने अपनी सारी पूंजी लगा दी थी और बाद में आईआईएम, लखनऊ के मंजूनाथ के साथियों के सहयोग से वे फिल्म पूरी कर सके. उन्होंने स्पष्ट कहा था, ‘मंजूनाथ पर बनी फिल्म के लिए जगह खरीदना मंजूनाथ की स्मृति का अपमान होता, मैंने इंकार कर दिया.’

वास्तव में मुंबई की मुख्यधारा की फिल्म पत्रकारिता सीधे-सीधे खरीद-फरोख्त पर चल रही है. नई फिल्म की रिलीज के पहले निर्माता की सफलता इसी से मानी जाती है कि वह कितने पत्रकारों को खरीद सका, कितने अखबारों को उपकृत कर सका. उपकृत होने में विज्ञापनों के साथ अब एक नया तुर्रा जुड़ गया है प्रमोशनल इवेंट का. फिल्म स्टार से अब उम्मीद की जाती है कि वे जिस भी शहर में जाएं, वहां के अखबार के दफ्तर में भी पहुंचें, फोटो खिंचाएं और अखबार का महत्व स्पष्ट करें. यह वैसा ही है जैसे सितारे फीस लेकर शादियों में उपस्थित होकर परिवार वालों से निकटता का अभिनय करते हैं. अब अखबार उपकृत हो गए तो चाहे अनचाहे इन पत्रकारों को वही लिखना होता है, जो कलाकार या फिल्मकार लिखवाना चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि आज पीआरओ और मुंबई के फिल्म पत्रकारों में फर्क करना मुश्किल हो गया है. फिल्म की रिलीज के पहले ही अखबारों में आधे-आधे पृष्ठ और पत्रिकाओं में कवर स्टोरी आने लगती है तो स्पष्ट लगता है कि प्रायोजन की हद कहां तक पहुंची है. याद कर सकते हैं किस तरह देश के एक बड़े साप्ताहिक में ऋतिक रोशन पर कवर स्टोरी उनकी पहली फिल्म रिलीज होने के पहले ही छप गई थी. कुछ ही समय पहले जब उसी पत्रिका में भोजपुरी फिल्म स्टार निरहुआ पर तीन पृष्ठों का आलेख छपा तो साफ लग रहा था कि न तो लेखक ने और न ही संपादक ने कभी निरहुआ की कोई फिल्म देखी है. वास्तव में अखबारों में किस फिल्म को कितनी जगह दी जानी है, यह फिल्म से तय नहीं होता, बल्कि दिए गए विज्ञापन के आकार या प्रायोजन की रकम से तय होता है. यहां तक कि सितारों और निर्देशकों के साक्षात्कार के आकार भी कहीं न कहीं आज ऐसे ही तय हो रहे हैं. क्या आप याद कर सकते हैं कि बीते वर्षों में किसी भी सितारे के अभिनय पर कोई समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ी हो? अमिताभ बच्चन से लेकर रणवीर सिंह तक आप सिर्फ और सिर्फ जयकारे ही देख सकते हैं.

हिंदी की सिनेमा पत्रकारिता का यह एक आश्चर्यजनक पहलू है कि इस गति को प्राप्त पत्रकारिता की शुरुआत काफी गरिमापूर्ण तरीके से हुई थी. महादेवी वर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, प्रेमचंद, सेठ गोविंद दास, ऋषभ चरण जैन, सत्यकाम विद्यालंकार, जैनेंद्र कुमार, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, डॉ.नगेंद्र जैसे श्रेष्ठतम विद्वानों, साहित्यकारों ने सिनेमा पत्रकारिता को अपने सार्थक हस्तक्षेप से समृद्ध करने की कोशिश की. ऋषभ चरण जैन ने तो 1933 में ही ‘चित्रपट’ नाम से पत्रिका निकाली थी, जिसके संपादन में गोपाल सिंह नेपाली, नरोत्तम नागर, संपत लाल पुरोहित जैसे साहित्य और कला जगत की प्रतिष्ठित हस्तियों का सहयोग रहा. बावजूद इसके यह कहने में संकोच नहीं किया जा सकता कि अपेक्षाकृत इस नई कलाविधा के प्रति साहित्यकारों का रुख सद्भावपूर्ण कम, दुराग्रह भरा अधिक था. उन्होंने इस नई कलाविधा को समझने की जरूरत ही नहीं समझी. सिनेमा के प्रति साहित्यकारों के दुराग्रहपूर्ण रवैये ने विचार जगत और सिनेमा के मध्य वांछित पुल को सिरे ही नहीं चढ़ने दिया. सिनेमा पर बात करने के लिए एक नई कसौटी गढ़ने के बजाय परंपरागत कसौटी पर कसकर सिनेमा को वे लगातार खारिज करते रहे और सिनेमा पर बात करने के लिए नासमझों के लिए गुंजाइश बनती गई. ऐसे में बीच-बीच में अरविंद कुमार के संपादन में निकलने वाली ‘माधुरी’, अज्ञेय और फिर रघुवीर सहाय के संपादन में निकलने वाली ‘दिनमान’ ने अवश्य बर्फ पिघलाने की कोशिश की और सिनेमा पर लिखने के लिए कुंवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, विजय मोहन सिंह, मंगलेश डबराल, विष्णु खरे, त्रिपुरारी शरण जैसे सक्षम लेखकों का समूह तैयार किया. बाद के दिनों में मध्य प्रदेश फिल्म विकास निगम की सिनेमा पर केंद्रित पत्रिका ‘पटकथा’ भी आई, लेकिन वह इतनी दुरूह थी कि अप्रासंगिक होकर कुल जमा 14 अंकों के बाद ही बंद हो गई.

पश्चिम में सिनेमा के साथ ही सिनेमा पर गंभीर विमर्श की शुरुआत हो गई थी. यह शुरुआत बाहर से नहीं, सिनेमा से जुडे लोगों की पहल से ही हुई थी. सत्यजीत रे कहते थे,‘फिल्म पर लिखने वाले, फिल्मकार और दर्शकों के बीच सेतु का निर्माण करते हैं और यही उनका अहम दायित्व भी है.’ हिंदी साहित्य में जितनी ही शिद्दत से इस ‘सेतु’ की अनिवार्यता आज भी समझी जाती है, हिंदी सिनेमा के लिए यह उतनी ही त्याज्य रही है. जैसे-जैसे सिनेमा को लोकप्रियता मिलती गई, अपने संप्रेषणीयता के अहम में मगन सिनेमा को अपने और दर्शकों के बीच किसी भी सेतु की जरूरत का एहसास खत्म होता चला गया. भारत में भी आरंभिक दौर में दादा साहब फाल्के ने ‘नवयुग’ में कुछेक टिप्पणियां लिखीं, लेकिन बाद में उनके लिए भी कैमरे महत्वपूर्ण हो गए. बांग्ला में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों ने लगातार सिनेमा पर लिखकर एक वृहत्तर समुदाय बनाने की सफल कोशिश की लेकिन हिंदी में किसी भी फिल्मकार ने अपने लेखन से विचार जगत को करीब लाने की कोशिश नहीं की. इसके विपरीत अधिकांश फिल्मकार अपनी बौद्धिक छवि बनाने में संकोच करते दिखे. यहां करण जौहर और डेविड धवन की तो बात ही अलग है, यह श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, महेश भट्ट सरीखे नया सिनेमा, समांतर सिनेमा और कला सिनेमा के एक-एक कर ढहते स्तंभों में भी देखा जा सकता है.

प्रकाश झा ने ‘राजनीति’ की सफलता के बाद कहा था, ‘दामुल के बारे में आज मैं सोच भी नहीं सकता, ऐसी फिल्में क्यों बनाऊंगा जिसे दर्शक देखना ही नहीं चाहे.’ प्रकाश झा के बयानों को देखकर यही लगता है कि ‘दामुल’ बनाकर उन्होंने एक ‘गलती’ की थी. यह कुछ ऐसा ही है कि निर्मल वर्मा कहने लगते मैं ‘चीड़ों पर चांदनी’ नहीं लिखूंगा क्योंकि अब पाठक पढ़ना ही नहीं चाहते, मैं भी गुलशन नंदा और प्रेम वाजपेयी की तरह ‘पिघलता आसमान’ और ‘बरसते नैन’ ही लिखूंगा क्योंकि पाठक यही पढ़ना चाहते हैं.

हिंदी फिल्मकारों ने बेहतर सिनेमा को लोकप्रिय बनाने की दिशा में या फिर सिनेमा को कला परिदृश्य के केंद्र में लाने के लिए स्वयं तो कोई कोशिश नहीं ही की, हिंदी में सिनेमा पर गंभीर पत्रकारिता की परंपरा को हतोत्साहित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. आमतौर पर किसी भी कला विधा के समालोचक और पत्रकार अलग होते हैं. दोनों के कार्य भी, दोनों के महत्व भी. एक का महत्व अभिष्ट कला विधा में घट रही दैनंदिनी घटनाओं की सूचना पाठकों तक पहुंचाना है तो दूसरे का उस कला विधा का विश्लेषण कर पाठकों को उसके अधिकाधिक रसास्वादन के लिए तैयार करने का, लेकिन भारतीय सिनेमा शायद ऐसी एकमात्र कला विधा होगी जहां फिल्म समीक्षक और फिल्म पत्रकार में फर्क नहीं किया जाता. जो भी फिल्मों पर लिख रहे हैं सभी फिल्म क्रिटिक मान लिए गए, चाहे वे शूटिंग रिपोर्ट या फिल्म के जनसंपर्क अधिकारियों के द्वारा उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर आने वाली फिल्मों की कथा ही क्यों ना प्रस्तुत कर रहे हों. आश्चर्य नहीं कि ‘बजरंगी भाईजान’ की समीक्षा में फिल्म पर बातें कम होती हैं, कबीर खान पर बात कम होती हैं, सलमान के व्यक्तित्व और उनके ‘बीइंग ह्यूमन’ होने की चर्चा अधिक होती है. ये बिरादरी चूंकि फिल्म को प्रमोट करने में सक्षम थी इसलिए फिल्मकारों ने इन्हें ही हाथोंहाथ लिया. कई पत्रकारों को बड़े-बड़े सितारे सार्वजनिक रूप से अपना घनिष्ठ मित्र जाहिर कर गौरवांवित होते थे और गौरवांवित करते थे. यह गंभीर पत्रकारों की पांत कमजोर करने का यह दोहरा षडयंत्र था. आम जनता की नजर में पत्रकारों का रुतबा बढ़ाने का और खास पत्रकार की नजर में अपना रुतबा बनाने का. इसका प्रतिदान देने में पत्रकार भी संकोच नहीं करते. यह कभी उनके लिए लंबा विचारोत्तेजक इंटरव्यू बनाकर दिया जाता तो कभी उन्हें ‘न भूतो न भविष्यति’ अभिनेता के रूप में स्थापित करते हुए प्रोफाइल लिखकर. क्या आश्चर्य नहीं कि हरेक साल आपस में हजारों प्रायोजित अवार्ड बांट लेने वाले हिंदी सिनेमा को सम्मानित करने के लिए कभी पत्रकारों की याद नहीं आती. कमाल है कि क्रिटिक्स अवार्ड की श्रेणी तो बनाई जाती है, क्रिटिक्स के लिए कोई श्रेणी नहीं होती. वास्तव में जिस भाषा में सिनेमा का विस्तार एक कलाविधा के रूप में नहीं, बल्कि व्यवसाय के रूप में किए जाने की संभावना तलाशी जा रही हो, उसके लिए बौद्धिक जगत से दूरी शायद अनिवार्यता भी है.

आज इस स्थिति को लेकर संतोष व्यक्त किया जा सकता है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं का सिनेमा को लेकर पूर्वाग्रह थोड़ा ढीला पड़ा है. ‘पहल’, ‘बहुवचन’, ‘पाखी’ से लेकर ‘वागर्थ’ तक में भी सिनेमा पर सामग्रियां दी जा रही हैं लेकिन निश्चित रूप से व्यवसाय के दबाव में गले तक डूबी हिंदी की सिनेमा पत्रकारिता के लिए यह नाकाफी है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि हिंदी में सिनेमा पत्रकारिता की जो एक मुकम्मल तस्वीर उभरती है, वह निहायत ही अबौद्धिक और गैर जिम्मेदार है. वास्तव में हिंदी की फिल्म पत्रकारिता अब कलम नहीं, कैमरे के सहारे चल रही है. फिल्म के पन्नों से छपे हुए शब्द धीरे-धीरे बेदखल हो रहे हैं. उनका स्थान बड़ी-बड़ी तस्वीरें ले रही हैं. फिल्म समीक्षा से अधिक स्थान शूटिंग रिपोर्ट को दियाजा जा रहा है. एक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार ने बताया, ‘हम जैसे गंभीर बात करने की कोशिश करने वाले लोग अप्रसांगिक होते जा रहे हैं. आज के लड़के एसएमएस से इंटरव्यू कर लेते हैं. कलाकार भी खुश कि पत्रकार से मिलकर समय जाया नहीं करना पड़ा, पत्रकार भी खुश कि घर बैठे नौकरी हो गई.’ वे बताते हैं कि अपने अखबार के आठ इंटरटेनमेंट पृष्ठों में अपने 800 शब्द के कॉलम को बचाने के लिए किस तरह संघर्ष करना पड़ता है.

तय है कि आज भले ही दर्शकों और सिनेमा दोनों को पत्रकारिता की इस स्थिति से फीलगुड हो रहा हो, अंतिम खामियाजा भुगतना सिनेमा को ही पड़ेगा. प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ का कमजोर पड़ना हमारे समाज के लिए घातक है, उसी तरह फिल्म पत्रकारिता भी कमजोर पड़ती गई तो हिंदी फिल्मों के लिए रास्ते और भी कठिन होते जाएंगे. क्या हॉलीवुड फिल्मों की नई धमक में हिंदी सिनेमा यह आहट नहीं सुन पा रहा है?

(लेखक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार हैं)