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‘स्वच्छ भारत’ का सच

Swach Bharatपिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की, जिसकी घोषणा उन्होंने 68वें स्वतंत्रता दिवस समारोह में लाल किले के अपने उद्बोधन में की थी. मोदी ने कहा था, ‘गरीबों को सम्मान मिलना चाहिए और मैं चाहता हूं कि इसकी शुरुआत सफाई से हो. देश के हर एक स्कूल में शौचालय का निर्माण करवाकर इसे अंजाम दिया जाएगा. छात्राओं के लिए हर स्कूल में अलग से शौचालय का निर्माण करवाया जाएगा. ऐसा करके ही बेटियों को पढ़ाई बीच में छोड़कर जाने से रोका जा सकता है.’

स्कूलों में छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय की दरकार है. प्रधानमंत्री ने सभी स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय बनाने की बात की और देश को यह भरोसा दिलाया कि वह इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पूरा भी कर लेंगे. जाहिर है कि यह उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है. पर सालभर बीत जाने के बाद भी परिस्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. हां, इस बारे में थोड़ी हलचल तो है लेकिन यह केवल बात के स्तर पर ही देखी जा सकती है. इस बारे में हकीकत में कुछ खास होता हुआ नहीं दिखता.

बीते दिनों जमशेदपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर सरायकेला जिले की 200 छात्राओं ने स्कूल छोड़ दिया. कारण शौचालयों की कमी. गौरतलब है कि सरायकेला के इस कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में लगभग 220 लड़कियां पढ़ती थीं और शौचालय हैं मात्र पांच. इसी वजह से लड़कियां खेतों में शौच के लिए जाती हैं जहां उन्हें स्थानीय लड़कों द्वारा छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता था. कई शिकायतों के बाद भी शौचालय और सुरक्षा की कोई पुख्ता व्यवस्था न होने के कारण लड़कियों ने अपनी पढ़ाई की परवाह किए बिना स्कूल जाना ही बंद कर दिया.

स्वच्छ भारत अभियान में ‘स्वच्छ भारत, स्वच्छ विद्यालय’ की बात भी प्रधानमंत्री ने की थी, जिसका लक्ष्य देश के सभी स्कूलों में पानी, साफ-सफाई और स्वास्थ्य सुविधाओं का पुख्ता इंतजाम रखा गया. यह अभियान सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों की एक बड़ी आबादी को रोकने में अहम भूमिका निभा सकता है.

शहरी विकास मंत्रालय ने शौचालयों की उपलब्धता के बारे में एक सामान्य आंकड़ा जारी किया, जिसके अनुसार देश में 3.83 लाख घरेलू और लगभग 17,411 सामुदायिक शौचालयों का निर्माण हुआ लेकिन बीते दस महीनों में कितने स्कूलों में शौचालयों का निर्माण हुआ, इसका जवाब न सरकारी विभागों के पास है और न ही किसी सामाजिक संगठन के पास.

ऐसे किसी आंकड़े की उपलब्धता से राजग के सत्ता में आने से एक दशक पूर्व का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है. राष्ट्रीय विश्वविद्यालय शैक्षिक योजना और प्रशासन (न्यूपा) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, 2005-06 में छात्राओं के लिए चार लाख (37 फीसदी) स्कूलों में अलग से शौचालय थे जबकि 2013-14 में ये बढ़कर 10 लाख (91 फीसदी) हो गए.

ये आंकड़े दस्तावेजों में भले ही सही हों लेकिन सर्वेक्षण के अनुसार, जिन स्कूलों में शौचालय हैं, उनमें से अधिकांश बंद या जाम पड़े हैं. ये शौचालय इस्तेमाल में लाने योग्य नहीं हैं और तमाम खस्ताहाल हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह दावा किया जाता है कि 96 फीसदी शौचालय इस्तेमाल योग्य हैं. अगर हालात छोड़कर इन तथ्यों पर भरोसा किया जाए तो फिर राज्य के ग्रामीण इलाकों में लड़कियां पढ़ाई बीच में ही क्यों छोड़कर चली जाती हैं?

यूनिसेफ के एक सूत्र के अनुसार, ‘न्यूपा के आंकड़ों को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. हम इस आंकड़े को इसलिए मान्य नहीं ठहरा सकते क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में शौचालयों को इस्तेमाल योग्य बताया गया है. दूसरी बात, अगर इन शौचालयों में से अधिकतर बुरे हाल में हैं तो इसका अर्थ यह है कि राज्य सरकार शौचालयों के रख-रखाव के लिए बजट मुहैया नहीं कराती. ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में शौचालयों में पानी की अनुपलब्धता बड़ी चिंता का विषय है.’

शौचालयों की संख्या के बारे में नए आंकड़े अभी तक उपलब्ध नहीं हैं, पर इनकी हालत जानने के लिए असल स्थिति जाननी बहुत जरूरी है. क्या सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों के दाखिलों में कोई इजाफा हुआ? यह सर्वविदित है कि लड़कियां अक्सर स्कूलों में शौचालय की बुरी हालत की वजह से पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं. खुले में शौच की वजह से डायरिया जैसी बीमारी होती है तो क्या डायरिया की दर में कोई कमी आई है? क्या मासिक धर्म के दौरान सामुदायिक शौचालयों में महिलाओं को पूर्ण निजता मुहैया कराई जाती है? इन सवालों का जवाब न में ही मिलता है. स्वच्छ भारत अभियान की सफलता या असफलता इन्हीं बातों पर ही निर्भर करती है.

वास्तव में स्वच्छता अभियान की पहल नए मैनहोल में पुराना कीचड़ डालने जैसी है. 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की शुरुआत की थी. 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे थोड़ी ऊंचाई देते हुए पूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम दिया. मोदी सरकार ने इसका पुनर्निर्माण करते हुए फ्लश सिस्टम वाले शौचालयों पर ध्यान केंद्रित किया और खुले में शौच बंद करने और मानव द्वारा मल उठाने पर रोक लगाने की बात की थी. इसके अलावा ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने की भी बात शुरू की गई.

हालांकि, सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों में मुश्किल से तब्दीली आती है. ठेकेदारी राज की बदौलत नए शौचालयों के निर्माण को लेकर तो उत्साह होता है पर पहले से बने शौचालयों के रख-रखाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती. मानव संसाधन व विकास मंत्रालय के एक सूत्र ने ‘तहलका’ कोे बताया, ‘सरकार वास्तव में स्कूलों के शौचालय के लिए बजट मुहैया कराने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाती. खराब शौचालयों को ठीक करने के लिए इस साल फरवरी तक सिर्फ 52 फीसदी फंड मुहैया हुआ जबकि ऐसे शौचालयों की संख्या लगभग 84,619 है.’

इस राह में फंड की कमी, कमजोर प्रबंधन और पानी की घोर दिक्कत आदि विकट चुनौतियां हैं. तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली स्थित सोसायटी फॉर कम्युनिटी ऑर्गनाइजेशन एंड पीपुल्स एजुकेशन (स्कोप) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, ‘शौचालयों की कमी और उपलब्ध शौचालयों की खराब हालत से न केवल मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को परेशानी होती है बल्कि इसका खामियाजा महिलाओं को भी उठाना पड़ता है.’

इस सर्वे में 18-45 वर्ष आयु वर्ग की 40 महिलाओं को शामिल किया गया और पाया कि मासिक धर्म के दौरान उनके द्वारा सामुदायिक नल के इस्तेमाल पर प्रतिबंध रहता है. इस दौरान महिलाएं पानी की जरूरतें पूरी करने के लिए नदियों तक जाती हैं, जहां निजता नाम की कोई चीज नहीं होती. इसके अलावा इस सर्वे में महिलाओं ने अविवाहित लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी चिंता जताई. मासिक धर्म के दौरान साफ-सफाई के लिए निजता न होने की वजह से दूसरी मुश्किलें भी पेश आती हैं. साथ ही अज्ञानतावश मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए गए कपड़े को भी शौचालय में ही बहा दिया जाता हैै. अब जब महिलाएं साधारण कपड़े की बजाए अजैविक उत्पाद (सैनिटरी नैपकिन आदि) इस्तेमाल करती हैं तो शौचालय जाम होने की स्थिति और बदतर हो जाती है. शहर के संभ्रांत इलाकों की ही तरह ग्रामीण सामुदायिक शौचालयों की सफलता उचित देखरेख के जरिए ही सुनिश्चित की जा सकती है.

भारत को स्वच्छ बनाने के लिए बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है. एक गैर-सरकारी संगठन ‘पाथ’ से जुड़ीं सुष्मिता मालवीय का कहना है, ‘हम शहरों में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की बात करते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों या शहरी झोपड़पट्टी में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में कोई स्पष्टता नहीं और न ही इस बारे में कोई दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं. इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर दिशा-निर्देश बनाए जाने की दरकार है. मासिक धर्म के अपशिष्ट के लिए बजट, सूचनाएं और उचित उपकरणों की व्यवस्था करनी होगी.’

साझा उपयोग के शौचालयों में व्यक्तिगत जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं की जा सकती, इसके लिए पूरी व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. यहां तक कि जब घरों के शौचालयों के गड्ढे सूख जाते हैं या फिर चेंबर पूरी तरह भर जाते हैं या पाइप बंद हो जाता है तो ऐसे हाल में फंड की कमी समस्याओं को और ज्यादा बढ़ा देती है. स्कूल के शौचालय भी इन्हीं दिक्कतों से जूझ रहे हैं.

प्रशासन का दावा है कि आगामी चार साल में स्वच्छता अभियान के तहत 52,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे. कंपनी अधिनियम 2013 में सुधार करके कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के जरिये स्वच्छ भारत कोष (एसबीके) तैयार किया गया है. जिसके जरिये एकत्रित किए गए धन से 2.57 लाख शौचालयों का रख-रखाव किया जाएगा. फरवरी 2015 तक राज्य की ओर से 58 फीसदी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से 41 फीसदी और निजी कंपनियों से एक फीसदी फंड आना बाकी था.

स्वच्छता जीवन से जुड़ा जरूरी मसला है और सरकार को इस बारे में सोचना होगा. शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने विश्व शौचालय सम्मेलन में कहा था, ‘भारत में 80 फीसदी बीमारियां जल प्रदूषण की वजह से होती हैं इसलिए स्वच्छता कार्यक्रम लागू करना बहुत जरूरी है.’ प्रधानमंत्री अब इस बात को महसूस कर रहे होंगे कि ये कहना तो आसान था पर पूरा करना कठिन है. ये जानने के लिए 2019 तक इंतजार करना होगा कि स्वच्छ भारत अभियान एक ठोस पहल था या कि केवल हवा का गुब्बारा!

आतंक का ऑनलाइन चेहरा

Burhan‘कितना सुंदर चेहरा है हमारे भाई का’… फेसबुक पर ‘ट्राल- द लैंड ऑफ मार्टियर्स’ (शहीदों की जमीन) नाम के पेज पर हुई एक पोस्ट में लिखा है जिसके नीचे दक्षिणी कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की धुंधली आंखों वाली एक तस्वीर लगी है जिसमें बुरहान ने अपने हाथ सिर के पीछे रखे हुए हैं. इस तस्वीर के अपलोड होने के 12 घंटों के अंदर ही इस पर 900 लाइक्स और 60 कमेंट्स आए, जिनमें अधिकतर उसकी प्रशंसा में थे. पेज पर ऐसे कई तस्वीरें अपलोड की गई हैं, जिसमें वो मिलिट्री ड्रेस पहने हथियारों से लैस नजर आ रहा है.

वानी कश्मीरी उग्रवादियों की नई पीढ़ी का ‘पोस्टर बॉय’ बनकर उभरा है, जिसे घाटी के इस हिस्से में दम तोड़ते जिहाद को फिर से जिंदा करने का श्रेय दिया जाता है. 22 साल का वानी 2010 की गर्मियों में हिजबुल में तब शामिल हुआ था जब पुलिस फायरिंग में एक किशोर तुफैल मट्टू की मौत के बाद घाटी विरोध में सुलग उठी थी. तमाम विरोध प्रदर्शन चल रहे थे. ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान उसे एक आर्मी कैंप में पीटा गया, जिसके तीन महीने बाद अपने परिजनों के उकसाने पर वह इस हिजबुल में शामिल हो गया.

उसके दादा, हाजी गुलाम मोहम्मद वानी, जो एक सरकारी कर्मचारी हैं, याद करते हुए बताते हैं, ‘वो जब उस दिन घर लौट कर आया तो बहुत गुस्से में था. उसे ये समझ नहीं आ रहा था कि जब उसने कुछ गलत नहीं किया तो उसे मार क्यों पड़ी.’ हाजी अपने पोते के हथियार उठा लेने के इस फैसले पर गर्व महसूस करते हैं. वे कहते हैं ‘वो हमेशा से एक अच्छा लड़का रहा है. वो पांचों वक्त की नमाज पढ़ता है और एक आज्ञाकारी बेटा भी है. अब जब वो एक सही कारण के लिए आतंकी बना है तो हम सब उसके साथ हैं.’

पिछले पांच सालों में, अपने शहर ट्राल के पास की ही किसी पहाड़ी से हिजबुल को ऑपरेट करते हुए वानी ने कश्मीरी आतंकियों की ऑनलाइन उपस्थिति दर्ज कराते हुए संगठन का चेहरा ही बदल दिया है. इसकी शुरुआत उस तस्वीर से हुई थी जिसमें वानी एक क्लाशिनकोव राइफल लिए खड़ा है. यही तस्वीर अब और लोगों को भर्ती करने के इस अभियान का मुख्य चेहरा बन गई है. उनका संगठन अब ऐसी ही फोटो अपलोड करता है. वो उन पहाड़ियों में कैसे रहते हैं, इसके भी वीडियो अपलोड करते हैं. और ये सब करते हुए वे अपने चेहरे किसी नकाब से नहीं छिपाते बल्कि वो पोज दे रहे होते हैं या मुस्कुराते हुए कैमरा की तरफ देख कर हाथ हिलाते हैं. ये ऑनलाइन शो-ऑफ सुरक्षा एजेंसियों को कोई मदद देने की बजाय हिजबुल के ही उद्देश्यों की पूर्ति कर रहा है.

अगर पुलिस के आंकड़ों की मानें तो वानी को अपने उद्देश्य में सफलता मिलती दिखती है. पिछले दस सालों में पहली बार, घाटी के कुल आतंकवादियों में स्थानीय लोगों की संख्या बाहरी आतंकियों से ज्यादा है. 142 सक्रिय आतंकवादियों में से 88 स्थानीय हैं जबकि बाकि पाकिस्तान या पाक अधिकृत कश्मीर से हैं. और इसमें वानी के  दक्षिण कश्मीर क्षेत्र से सर्वाधिक 60 लोग हैं. पिछले 6 महीनों में इस संगठन में शामिल 33 युवाओं में से 30 दक्षिण से ही हैं. इस साल सेना द्वारा तकरीबन 29 आतंकवादियों को सीमा रेखा और अंदरूनी भागों में हुए ऑपरेशनों में खत्म कर दिया गया. पुलिस इन नए लोगों के इस आतंकी संगठन में हो रही भर्ती में आई बढ़त को स्वीकारती है. सीआईडी के इंस्पेक्टर जनरल अब्दुल गनी लोन ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘हां, वहां नई भर्तियां हो रही हैं और हम इससे निपटने का कोई प्रभावी उपाय तलाश रहे हैं.’

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इन भर्तियों ने सेना को भी चिंता में डाल दिया है. नॉर्दन कमांड के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हूडा इसे दुखद करार देते हुए कहते हैं, ‘युवाओं की ऐसे संगठनों में भर्ती को मैं त्रासदी के रूप में देखता हूं. हालांकि इनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है पर फिर भी युवाओं को दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से बंदूक उठाते देखना त्रासद है.’ हूडा मीडिया के सामने ये स्वीकार भी कर चुके हैं कि आतंकियों के लिए सोशल मीडिया एक बड़ा हथियार बन चुका है. वे कहते हैं, ‘जिस तरह से वे (आतंकी संगठन) सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं, युवाओं को अपने साथ जोड़ रहे हैं, यह काफी गंभीर बात है.’

फेसबुक पर वानी को समर्पित करीब दर्जन भर पेज बने हुए हैं, जिनमें से कुछ के नाम हैं, ‘वी लव बुरहान वानी, बुरहान भाई सन ऑफ कश्मीर, लवर्स ऑफ मुजाहिद बुरहान ट्राली.’ ये पेज चौबीसों घंटे वानी की फोटो या जिहादी संदेशों के साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य पूर्व के देशों की तस्वीरें अपलोड करते रहते हैं, जिन पर ढेरों लाइक्स और कमेंट्स आते हैं. टिप्पणी करने वाले वानी की तारीफ करते हुए उसके संगठन की प्रगति पर खुशी जाहिर करते हैं. एक पोस्ट में लिखा है, ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, बुरहान तुम्हारा नाम रहेगा’, वहीं एक पोस्ट कहती हैं, ‘खुदा तुम्हें सलामत रखे. अल्लाह करे तुम्हें अपने मकसद में कामयाबी मिले और कश्मीर को उसकी आजादी.’ कई बार वहां हथियार उठाने की अपील भी की जाती है जो कई युवा दोहराते दिखते हैं, मगर ये फर्जी अकाउंट लगते हैं. मोईन भट नाम का एक शख्स 11 क्लाशिनकोव के साथ एक तस्वीर पर लिखता है, ‘मेरी जिंदगी में सिर्फ एक ख्वाहिश है कि मेरे हाथों में एके 47 हो. इस्लाम जिंदा रहे. मुजाहिदीन जिंदा रहें.’

बंदूकों को लेकर ये लगाव 1990 के उस वक्त की याद दिलाता है जब घाटी में आतंकी संगठनों के ढेरों उत्साही अनुयायी हुआ करते थे. हालांकि उनका ये भ्रम जल्दी ही टूट ही गया जब उनके वादे में कही हुई ‘आजादी’ लोगों को नहीं मिली और घाटी में खून-खराबा आम बात हो गई. इसके बाद भी आतंक का दौर जारी रहा पर जिहाद की ये लड़ाई अब तक पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आए लड़ाकों के कंधों पर थी. जिहाद लाने के लिए सुसाइड बम और कार विस्फोट करने वाले बाहरी आतंकियों की तुलना में स्थानीय लोगों का प्रतिशत और संगठन में उनकी सहभागिता लगातार कम होती गई. ये इराक और मध्य पूर्व में ये सब दोहराए जाने के बहुत पहले हुआ था. अब जब टेक-सेवी नई पीढ़ी आतंकी संगठनों से जुड़ी है, तस्वीरें और वीडियो अपलोड करने का नया खेल शुरू हुआ है तो लगता है कि एक समय का एक चक्र पूरा हो गया है. घाटी में हथियारबंद संघर्ष की फसल दोबारा खड़ी हो गई है और यहां समस्या सिर्फ आतंकियों में स्थानीयों का बढ़ता प्रतिशत या सोशल मीडिया पर मिली सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि मुठभेड़ में हुई किसी आतंकी की मौत के बाद वहां पसरने वाला व्यापक शोक है.

23 जून को, दक्षिण कश्मीर के कुलगाम में दो आतंकियों- जावेद अहमद भट और इदरीस अहमद के अंतिम संस्कार के समय हजारों की भीड़ जमा हुई जो कश्मीर की आजादी से जुड़े नारे लगा रही थी. जब ये मुठभेड़ चल रही थी तब प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह ने सुरक्षा दलों पर पथराव करते हुए आतंकियों को भागने में मदद की थी.

कुछ ऐसे ही तथ्यों को रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने भी अपनी किताब ‘द वाजपेयी ईयर्स’ में शामिल किया है. किताब में 1990 के कश्मीर के बारे में कई चौंकाने वाले खुलासे किए गए हैं. हाल ही में दिए गए एक साक्षात्कार में दुलत ने कहा भी कि कश्मीर फिर 1990 के पहले जैसे हालात में पहुंच गया है. दुलात कहते हैं, ‘1996 में, नेशनल कांफ्रेंस के सत्ता में आने का कारण था कि बाकी किसी ने भी इस चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया. आज कश्मीर में वैसे हालात नहीं हैं पर राजनीतिक रूप से देखें तो या तो समय कहीं रुक गया है या हम कुछ आगे निकल गए हैं. जिस तरह का आतंकवाद हम पिछले कुछ समय से देख रहे हैं वह भयावह है. आतंकी संगठनों में जाने वाले ये लड़के अच्छे मध्यम और उच्च वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं और प्रशिक्षित इंजीनियर हैं, तो इन्हें ऐसे संगठनों से जुड़ने की क्या जरूरत है? ये खौफनाक है.’

यहां वानी का मुद्दा प्रमुख है. उसके पिता मुजफ्फर अहमद वानी एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य हैं. इस संपन्न परिवार का तीन-मंजिला घर ट्राल शहर को जाने वाले मुख्य रास्ते से थोड़ी दूर पर लगभग दो कनाल की जमीन पर बना है. वानी की इस समृद्ध पृष्ठभूमि से आने की बात से आस-पास के इलाकों और घाटी में उसके दोस्तों के बीच उसका रुतबा और बढ़ा ही है.

बुरहान वानी के ‘नायकत्व’ के ऑनलाइन प्रचार के बाद अब दक्षिणी कश्मीर के कुछ हिस्सों और श्रीनगर के बाहरी इलाकों में उसके ‘ग्रैफिटी’ (दीवारों पर बने चित्र या नारे) भी दिखने लगे हैं. श्रीनगर के बाहर पम्पोर में एक दीवार पर लिखा दिखता है, ‘ट्राल, बुरहान जिंदाबाद! वी वांट हिजबुल मुजाहिदीन, तालिबान एंड लश्कर-ए-तैयबा.’

व्यापमं की राह पर…

asaram-WEBउत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में एक मंजिला घर के अंदर कीचड़ वाले लॉन में चार साल का बच्चा अंश खेल रहा था. अंश इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह अपने परिवार वालों की पीड़ा को महसूस कर सके. दरअसल उसके पिता कृपाल सिंह को हाल ही में दिन के उजाले में किसी बाइक सवार ने गोली मार दी. कृपाल को जब गोली मारी गई तब वे अपने घर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर थे. खुद को ईश्वर का दूत मानने वाले आसाराम बापू द्वारा एक लड़की के यौन उत्पीड़न मामले में कृपाल गवाह थे. उन्होंने लगभग एक साल पहले कोर्ट में आसाराम के खिलाफ बयान दर्ज कराया था. उन्हें अगली तारीख पर न्यायालय में उपस्थित होना था.

मामले में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है, जबकि हत्यारे अभी तक पकड़े नहीं गए हैं. कृपाल सिंह के परिवारवालों का आरोप है कि उनकी हत्या आसाराम के गुंडों ने की है. यौन उत्पीड़न के इस मामले में दो प्रमुख गवाहों की हत्या पहले ही हो चुकी है. कृपाल की हत्या के तीन दिन बाद भी पुलिस अभियुक्तों की शिनाख्त नहीं कर पा रही थी.

शाहजहांपुर पहुंचने पर कानून एवं व्यवस्था को लेकर परेशान एक पुलिसवाले ने पूछा, ‘आप दिल्ली से यहां क्यों आए हुए हैं? आप इस घटना की रिपोर्टिंग इंटरनेट के सहारे भी कर सकते थे.’ पुलिस स्टेशन के अंदर पहुंचने पर एक अधिकारी अंडरवियर और बनियान में मिला जो हमें अपना परिचय देने और इस मामले पर बातचीत करने से बचता रहा. शाहजहांपुर कुछ दिन पूर्व यहां हुई एक पत्रकार की हत्या की वजह से सुर्खियों में आया था. यहां के एक विधायक के गुंडों ने पुलिस की मदद से उस पत्रकार को जिंदा जला दिया था.

कृपाल सिंह की पत्नी मोनी सिंह गर्भवती हैं और उन्होंने तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया है. वे रोते हुए कहती हैं, ‘मेरे पति की मौत के लिए पुलिस और प्रशासन जिम्मेदार है. वे हत्या के तीन दिन बाद तक अभियुक्त की शिनाख्त नहीं कर पाए हैं. मैं उनसे किसी तरह की उम्मीद भी नहीं कर रही हूं.’ कृपाल के परिवार ने राज्य सरकार को धमकी दी है और कहा है कि अगर वह इस मामले में कुछ नहीं कर पाती है तो इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे. मोनी की बहन ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘हमने उन्हें खो दिया है और अब हमें न्याय चाहिए. हम कुछ दिन सरकार से न्याय के लिए पहल का इंतजार करेंगे और अगर वह कुछ नहीं करती है तो हम उन्हें बताएंगे कि हम क्या कर सकते हैं?’ आसाराम के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकार पीड़िता के पिता करमवीर सिंह द्वारा दर्ज कराए गए मामले में कृपाल का नाम बतौर गवाह शामिल है. करमवीर, शाहजहांपुर में ट्रांसपोर्टर हैं.

मीडिया की रिपोर्ट में कृपाल को आसाराम का कर्मचारी बताया जाता रहा है जबकि करमवीर की मानें तो वह एलआईसी में बतौर एजेंट कार्यरत थे और उनके कर्मचारियों को बीमा पॉलिसियां बेचने के लिए अक्सर उनके यहां आते-जाते रहते थे. करमवीर ने बताया, ‘जिस रोज कृपाल की हत्या हुई, उस दिन भी वह मेरे पास आए थे. हम दोनों दोस्त थे और आसाराम के सत्संग में साथ ही जाते थे.’ अचरज की बात तो यह है कि कृपाल के परिवार के लोगों को इस बात की कोई खबर नहीं थी कि आसाराम मामले में वह भी गवाह थे. यह बात उनके परिवार के लोगों को मीडिया के माध्यम से पता चली.

मृतक गवाह कृपाल सिंह
मृतक गवाह कृपाल सिंह

मोनी अपने आंसू पोछते हुए बताती हैं, ‘हमें यह भी पता नहीं था कि वे आसाराम के सत्संग में जाते हैं. हमने उनसे जब इस बारे में पूछा था तब उन्होंने टाल दिया था. उन्हें इस मसले में साजिश के बतौर गवाह बनाया गया है. जब आसाराम के साथ उनके संबंध नहीं थे तब उन्हें गवाह क्यों बनाया गया? इससे इतर जब सरकार को यह पता चला कि वे इस मामले में मुख्य गवाह हैं तब फिर उन्हें सुरक्षा क्यों नहीं दी गई?’ करमवीर को मोनी की यह बात अच्छी नहीं लगी.

करमवीर ने बताया, ‘मेरी उनके साथ पूरी सहानुभूति है लेकिन वे पूरी तरह डरी हुई हैं. कृपाल, आसाराम के संगठन की स्थानीय युवा इकाई के अध्यक्ष भी रहे थे. हकीकत तो यह है कि कृपाल के परिवार के लोग आसाराम का साहित्य वितरित करते थे. कृपाल और उसके परिवार के लोगों को अदालत में बयान नहीं देने के लिए धमकाया जा रहा था. परिवारवालों ने कृपाल पर बयान न देने का दबाव भी बनाने की कोशिश की थी.’

करमवीर इस घटना से पहले आसाराम के भक्त थे. उन्होंने आसाराम द्वारा 15 अगस्त 2013 को जोधपुर में अपनी बेटी के यौन उत्पीड़न के खिलाफ 19 अगस्त 2013 को दिल्ली के कमला नगर थाने में शिकायत दर्ज कराई थी. आसाराम का सत्संग दिल्ली में चल रहा था, इसलिए उन्होंने वहां शिकायत दर्ज कराई थी. करमवीर ने पहली बार 2001 में रायबरेली में हुए आसाराम के सत्संग में भाग लिया था. शाहजहांपुर से रायबरेली सिर्फ 75 किमी की दूरी पर है. इसके बाद वह आसाराम के सत्संग में नियमित रूप से आने-जाने लगेे. कुछ समय बाद उन्होंने अपनी बच्ची को आसाराम के मध्य प्रदेश के इंदौर स्थित गुरुकुल में भेज दिया. मामले का पता तब चला जब उनकी 17 वर्षीय बेटी स्कूल में अचानक बीमार हो गई.

आसाराम को कभी ईश्वर की तरह माननेवाले करमवीर उन्हें धुआंधार तरीके से गाली देते हुए बताते हैं, ‘मुझे गुरुकुल से एक दिन फोन आया कि आपकी बेटी बीमार पड़ गई है. मैं जब वहां पहुंचा तो मुझसे कहा गया कि अपनी बेटी को लेकर जोधपुर स्थित आसाराम के आश्रम चले जाओ. मैं उसे लेकर वहां गया और फिर वापस घर आ गया. बाद में मेरी बेटी का फोन आया और उसने अपने कटु अनुभव मुझसे बताए. यही वजह है कि मैंने आसाराम के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई.’ दूसरी ओर कृपाल को जब इस घटना के बारे में पता लगा तो उन्होंने भी आसाराम के आश्रम जाना छोड़ दिया और इस मामले में गवाह बन गए. मामला दर्ज कराने के बाद से ही कृपाल और करमवीर को लगातार जान से मारने की धमकियां मिलती रहीं. करमवीर ने अपनी सुरक्षा के लिए प्रशासन को आवेदन भी दिया था लेकिन कृपाल ने कभी इस बारे में आवेदन तक नहीं दिया. करमवीर कहते हैं, ‘वह बहादुर थे और बहादुर आदमी की तरह उन्होंनेे इस बात को हलके में लिया. मैंने उनसे कई बार सुरक्षा लेने को कहा लेकिन हर बार उन्होंनेे मना कर दिया. मैंने पुलिस से जान से मारने की धमकियां मिलने की शिकायत कई बार की थी.’ पुलिस ने कृपाल सिंह की मौत के बाद करमवीर की सुरक्षा बढ़ा दी है.

इस मामले में धमकियां और हमले केवल गवाहों तक ही सीमित नहीं हैं. यहां के एक पत्रकार जो राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के लिए काम करते हैं, जो इस मामले पर लिखते रहे, उन पर छुरे और ब्लेड से जानलेवा हमला हो चुका है. पत्रकार नरेंद्र यादव का कहना है, ‘मुझे जान से मारने की धमकियां दी गईं और जब मैंने तब भी इस मुद्दे पर लिखना जारी रखा तब मुझे पांच लाख रुपये की पेशकश भी की गई. इसके बावजूद मैंने इस मुद्दे पर लिखना जारी रखा तब मुझ पर दो लोगों ने छुरी और ब्लेड से जानलेवा हमला किया. संयोग से  मैं बच गया और अब मैं आसाराम के मसले पर विशेषज्ञ की तरह हूं. सच तो यह है कि मैं इस मसले पर पुलिस से ज्यादा जानकारी रखता हूं.’ नरेंद्र का दावा है कि उन्होंने आसाराम से जुड़े इस मसले पर अब तक 287 रिपोर्ट लिखी हैं. नरेंद्र अपने ऊपर हुए हमले के बाद खुद की लाइसेंस वाली बंदूक साथ में लेकर सड़क पर निकलते हैं. उन्हें पुलिस की सुरक्षा भी मिली हुई है. उन्होंने इस मामले की तहकीकात  सीबीआई से कराए जाने की मांग की है. जोधपुर कोर्ट से बाहर मीडिया के सवालों के जवाब देते हुए आसाराम ने कहा था, ‘दुनिया में सारे हमले मैं ही करवाता हूं. राष्ट्रपति से कहो जांच करवाने के लिए.’

आसाराम मामले में 50 से ज्यादा गवाह हैं और इनमें से तीन की मौत हो चुकी है जबकि अब तक नौ गवाहों पर हमले हो चुके हैं. सरकार को इस मामले के गवाहों की सुरक्षा के लिए अनिवार्य तौर पर कुछ कार्रवाई करनी चाहिए अन्यथा यह कहीं दूसरा व्यापमं न साबित हो जाए.

‘आरएसएस इस देश को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है’

Teesta-Webआप पर म्यूजियम बनाने के लिए फोर्ड फाउंडेशन से मिले धन का गबन करने का आरोप है. इसमें कितनी सच्चाई है?

गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के द्वारा हम पर लगाए गए किसी भी आरोप में कोई सच्चाई नहीं है. इनमें से कुछ आरोप अभी हाल में सत्ता द्वारा नियंत्रित सीबीआई द्वारा लगाए गए हैं. क्राइम ब्रांच ऐसे अधिकारियों के हाथों में है जिनका पेशेवर रवैया गुजरात हाईकोर्ट में चल रहे जकिया जाफरी के केस को लेकर शक के दायरे में है. हमने जांचकर्ताओं को दस्तावेजी सुबूत (जो लगभग 25 हजार पेज हैं) मुहैया कराए हैं . वैसे अब तक इस मामले में चार्जशीट भी दायर नहीं हुई है बस हमें सार्वजनिक जीवन में धमकाया, परेशान और तिरस्कृत किया जा रहा है.

गुलबर्ग सोसायटी के कुछ पीड़ितों की मुख्य शिकायत एक ड्रीम प्रोजेक्ट, गुलबर्ग मेमोरियल के लिए इकट्ठा किए गए लगभग चार लाख साठ हजार रुपये को लेकर थी, जिसे जमीन के दामों में हुए जबरदस्त उछाल के बाद रद्द करना पड़ा. वो पैसा अब भी उन खातों में पड़ा हुआ है. बदले की भावना से हो रही कार्रवाई की ये पूरी श्रृंखला क्राइम ब्रांच ने शुरू की और आक्रामक तरीके से जारी रखी.  ये वही क्राइम ब्रांच है जिसके कई अधिकारियों को 2002 में गैरकानूनी रूप से की गई हत्याओं के मामले में हाल ही में बरी किया गया है. ये सब जनवरी, 2013 में शुरू हुआ जब हमारे खातों को गैर-कानूनी तरीके से सील कर दिया गया. उसके बाद फरवरी 2015 में हमें हिरासत में लेने के प्रयास सफल नहीं हो पाए, जब हाईकोर्ट ने हमारी अग्रिम जमानत याचिका नामंजूर की और हाईकोर्ट के आदेश के चंद मिनटों के अंदर क्राइम ब्रांच हमारे घर पहुंच गई. जब ये योजना भी काम नहीं आई तब गुजरात के गृह मंत्रालय ने केंद्रीय गृह मंत्रालय की एफसीआरए डिवीजन को एक पत्र लिखा. इसके बाद तो जैसे जांचों की बाढ़-सी आ गई. ये सब उन्हीं के द्वारा किया जा रहा है, जो 2002 के बाद हमें मिली सफलता से चिढ़े हुए हैं. हमारा मुंह बंद कराने के तमाम प्रयासों के असफल होने के बाद उनका गुस्सा और बढ़ गया है.

अधिकारियों का आरोप है कि आपने विदेशी दानदाताओं से मिले पैसे का उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के लिए किया. उन्होंने आपको राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी कहा है. आपका क्या कहना है?

ये न्याय पर आधारित भारत के संविधान और गणतंत्र का घोर अपमान है, जहां शांति-व्यवस्था को मजबूत करने को राष्ट्र-विरोधी कहा जा रहा है. ये निश्चित रूप से, वर्तमान सत्तारूढ़ दल की रीढ़ यानी फासीवाद-समर्थक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है.

हमने कोई कानून नहीं तोड़ा. एफसीआरए, 2010 की धारा 3 के तहत चुनिंदा व्यक्तियों, जिसमें राजनीतिक दलों और उसके पदाधिकारी, सरकारी मुलाजिम, रजिस्टर्ड न्यूजपेपर से जुड़े लोग, खबरों के निर्माण और प्रसारण से जुड़े लोग आते हैं, को विदेशी चंदा लेने की मनाही है.

हालांकि उसी अधिनियम की धारा 4, यह बताती है कि किन व्यक्तियों पर धारा 3 लागू नहीं होगी. इसके अनुसार ये धारा किसी भी व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जिनका उल्लेख धारा 3 में है तथा जिनके द्वारा धारा 10 (ए) के प्रावधानों के तहत विदेशी चंदा स्वीकार किया गया है जैसे कि वेतन, मजदूरी या अन्य पारिश्रमिक जो उनको देय हो या किसी व्यक्ति, समूह को जो उसके अधीन काम कर रहा हो, किसी विदेशी स्रोत से या फिर ऐसे किसी विदेशी स्रोत के द्वारा भारत में घटित किसी सामान्य व्यवसायिक गतिविधि में किया गया भुगतान हो.

मासिक ‘कम्युनलिज्म कॉम्बेट’ का प्रकाशन करने वाली सबरंग कम्युनिकेशन प्रा. लि. कंपनी ने 2004 और 2006 में फोर्ड फाउंडेशन के साथ एक कंसल्टेंसी समझौता किया, जिसका उद्देश्य जात-पात और सांप्रदायिकता के मुद्दों को उठाना था. उसका ‘कम्युनलिज्म कॉम्बेट’, जावेद आनंद या तीस्ता सीतलवाड को संपादकीय/प्रबंध से जुड़े कार्यों के बदले मिले भत्ते से कोई लेना-देना नहीं था. नामी कानूनी परामर्शदाताओं की सलाह के बाद ही सबरंग कम्युनिकेशन ने कंसल्टेंसी समझौते पर हस्ताक्षर किए जिन्होंने बताया कि ये समझौता एफसीआरए 2010 की धारा 4 में मिली छूट के अंदर है और इस तरह जो कंसल्टेंसी फीस होगी (अनुदान या दान नहीं) उससे एफसीआरए 2010 का उल्लंघन नहीं होगा. फोर्ड फाउंडेशन ने सबरंग कम्युनिकेशन को भुगतान की गई कंसल्टेंसी फीस की सभी किस्तों पर टीडीएस भी काटा था. जो काम किए गए और उन पर जितना खर्च आया वे सब समझौते के मुताबिक थे. फोर्ड फाउंडेशन की संतुष्टि के लिए गतिविधियों और वित्तीय रिपोर्ट्स को हर साल जमा किया जाता था.

2002 दंगों को लेकर जिस तरह आपने कानूनी लड़ाई जारी रखी है, क्या लगता है कि गुजरात की पूर्व की मोदी सरकार के बाद अब केंद्र की मोदी सरकार आपको निशाना बना रही है?

यहां इसकी शुरुआत जाननी बहुत महत्वपूर्ण है. इसकी शुरुआत 4 जनवरी 2014 को, गुलबर्ग सोसायटी से जुड़े कथित गबन के आरोप में हम पांच लोगों पर तथ्यहीन एफआइआर दर्ज होने के साथ हुई. गुलबर्ग म्यूजियम के लिए कुल चार लाख साठ हजार रुपये इकट्ठा हुए थे, तो जांच भी उन्हीं पैसों के मामले में होनी चाहिए थी. पर गुजरात पुलिस ने शुरू से ही बढ़-चढ़कर काम किया. पुलिसिया कहानी के आधार पर मीडिया जिन करोड़ों रुपये की बात करता है वो सारा पैसा कानूनी सहायता और दोनों ट्रस्टों के कामकाज के लिए इकट्ठा किया गया था. इस एफआइआर का एक मकसद हमें नीचा दिखाना था ताकि हमारे समर्थकों और दंगे में बचे लोगों का हम पर से विश्वास उठ जाए. बॉम्बे हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत मिलने के बाद हम अहमदाबाद सत्र न्यायालय गए. यहां भी हमारी जमानत याचिका नामंजूर हो गई. जांच अधिकारी ने जो आरोप लगाए वे शपथ पत्र पर थे, वो भी बिना किसी दस्तावेजी प्रमाण के. मार्च 2014 से लेकर फरवरी 2015 तक जब अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी गई, हमने उन आरोपों का पांच हजार पेज के दस्तावेजों के आधार पर खंडन किया. हमने मेरे क्रेडिट कार्ड उपयोग आदि से जुड़े आरोपों को भी गलत साबित किया. मैं जैसे चाहे रह सकती हूं, शराब पी सकती हूं और इस बात से मैं बिल्कुल इंकार नहीं करती पर ये सब मेरी निजी कमाई से होता है न कि जैसा आरोप है वैसा.

सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बाद हमने 21 हजार पेज के दस्तावेज और पेश किए. यानी अब तक हमने कुल 25 हजार पेज के दस्तावेज पेश किए हैं, जिसे गुजरात पुलिस में कोई स्वीकारने वाला नहीं है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि कैसे हमारी निजता का हनन हुआ और इस जांच का दायरा कितना बड़ा बनाया गया. इस साल 10 मार्च को गुजरात के गृह विभाग ने एफसीआरए को एक पत्र लिख ा. इस मामले में शिकायतकर्ता गुजरात सरकार है. गृह मंत्रालय या एफसीआरए स्वतंत्र रूप में नहीं बल्कि गुजरात सरकार के इशारे पर ये सब कर रहे हैं.

इसमें कोई चौंकने वाली बात नहीं है कि हमें नोटिस मिले. हमने पूरा सहयोग किया क्योंकि हमें विश्वास था कि हमारी तरफ से कोई उल्लंघन नहीं किया जाएगा. इन सबका उद्देश्य सिर्फ हमें कानूनी पचड़ों में उलझाए रखकर हमारे काम को कमजोर करना है, जो संविधान के अनुरूप है और इस सरकार की विचारधारा को चुनौती देता है (जिसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की प्रतिबद्धता है) और उस भीड़ में संतुष्टि बनाए रखना है, जो इस विचारधारा का समर्थन करती है.

गृह मंत्रालय ने सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) और सबरंग के दस्तावेजों से जांच की शुरुआत की थी और अब उनके निशाने पर सबरंग कम्युनिकेशन है. हमारा केस अपने आप में अलग और अनोखा है जहां पर देश की मशीनरी का उपयोग बदले की भावना को पूरा करने के साधन के रूप में किया जा रहा है. अब जब हमारी जमानत याचिका पर सुनवाई होनी है तब हमारा ध्यान भटकाने के लिए तमाम तरकीबें अपनाई जा रही हैं. यह सरकार का स्पष्ट एजेंडा लगता है, जिसका सीधे-सीधे पालन किया जा रहा है. सीबीआई को दिल्ली से सीधे हमारे घर और दफ्तरों पर छापे मारने के लिए भेज दिया जाता है. बावजूद इसके कि हमने 30 जून 2015 को खुद ही आगे बढ़कर सीबीआई (मुंबई आर्थिक अपराध शाखा को भी) पत्र लिखकर पूरा सहयोग देने की इच्छा जाहिर की थी.

ऐसी निरंकुशता क्यों? क्या ये कोई संयोग है कि वाइसी मोदी (एनडीए-1 की सरकार में सीबीआई में रहते हुए हरेन पंड्या मर्डर की जांच को कमजोर करने के जिम्मेदार) और एके शर्मा, अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के पूर्व संयुक्त पुलिस आयुक्त (स्नूपगेट और इशरत जहां हत्याकांड में लीपापोती के जिम्मेदार) को पीएमओमें शामिल कर लिया जाता है. और फिर ये अधिकारी राजनेताओं की निजी सेना की तरह काम करने लगते हैं!

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आपके अनुसार आपके घर पर सीबीआई के हालिया छापों का एक कारण 2002 के दंगों से संबंधित सुनवाई भी हो सकती है. कृपया ये स्पष्ट कीजिए और इस मामले में हुई हालिया कानूनी प्रगति के बारे में भी बताइए.

हाईकोर्ट में जकिया जाफरी की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को गुलबर्ग केस, जिसमें एहसान जाफरी समेत 69 लोगों की हत्या हुई थी, के साथ मत जोड़िए. ये याचिका 2002 के गुजरात दंगों के समय हुई सभी घटनाएं आपराधिक या प्रशासनिक मिलीभगत से संबंधित है. इस तरीके से देखें तो ये एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई है. 8 जून 2006 को हमारे सहयोग से जकिया जाफरी द्वारा आपराधिक शिकायत दायर करने के साथ इसकी शुरुआत हुई. जब एफआइआर दर्ज नहीं हुई तो हम एफआइआर दर्ज कराने के निर्देश लेने हाईकोर्ट गए. हाईकोर्ट ने भी हमारी याचिका खारिज की, तब हम सुप्रीम कोर्ट गए.

27 अप्रैल 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने जांच उसी एसआइटी को सौंप दी जिसका गठन दूसरे मामलों के लिए किया था जिसमें हम शामिल थे लेकिन इस शर्त और चेतावनी के साथ कि गुजरात से बाहर के अधिकारी इस मामले को देखें. वो जांच 2009 में शुरू हुई. मैंने जुलाई 2009 में अपने बयान दर्ज कराए. उस वक्त दस्तावेजी सुबूत के तौर पर हमारे पास आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा (जिन्होंने 2002 के दंगों के दौरान भाजपा, विहिप के सदस्यों और पुलिस अधिकारियों के मोबाइल फोन रिकॉर्ड का अध्ययन किया था) और दूसरे अन्य अधिकारियों के शपथ पत्र थे जो उन्होंने नानावटी कमीशन के पास जमा किए थे. हमारे पास आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार के शपथ पत्रों का अनुबंध भी था जो शपथ पत्र से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि उन्होंने राज्य की खुफिया रिपोर्टों को सार्वजनिक कर दिया था. आपराधिक कानून के मुताबिक ये किसी व्यक्ति की राय नहीं बल्कि विश्वनीय दस्तावेजी सुबूत हैं.

आपको यह क्यों लगता है कि सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे पर आपके खिलाफ काम कर रही है?

मेरी राजनीतिक सक्रियता 1975 में उस समय शुरू हुई जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ती थी. पिताजी ने कहा परीक्षा छोड़ो और आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ो. मुद्दा किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के खिलाफ लड़ाई का नहीं बल्कि लोकतंत्र में तानाशाही के खिलाफ था. आपातकाल का माहौल उसके लगने के दो साल पहले से शुरू हुआ, जब तीन जजों के निर्णय के अतिक्रमण के रूप में न्यायपालिका पर पहला हमला हुआ. मैं आज फिर वही माहौल बनते देख रही हूं. मुझे लगता है कि नियंत्रण रखने के प्रति जितना झुकाव कांग्रेस और यूपीए में था, कमोबेश वही प्रवृत्ति एनडीए में भी है. अंतर केवल इतना है कि एनडीए के पीछे आरएसएस की विचारधारा है जो इस देश को संवैधानिक और गणतांत्रिक देश नहीं बल्कि एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. हम देख सकते हैं कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय में शिक्षा, संस्कृति और एफटीआईआई को लेकर क्या चल रहा है! तानाशाही वहीं होती है, जहां राजनीतिक पार्टियां जांच एजेंसियों पर भी नियंत्रण रखना चाहती हैं और राष्ट्र की विचारधारा पर कब्जा कर लेती हैं. यही आरएसएस और भाजपा कर रहे हैं. दोनों का समान रूप से विरोध करने की जरूरत है. सीबीआई पर भी यही बात लागू होती है. जब हवाला और अन्य मामले सामने आए तब सीबीआई की एक छवि थी, इसे एक स्वतंत्र एजेंसी के तौर पर देखा जाता था. ऐसा भी वक्त था जब राजनेता सीबीआई का दुरुपयोग करने की हिमाकत नहीं करते थे. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सीबीआई कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के मातहत काम करती है जो पीएमओ के अधीन है, गृह मंत्रालय के नहीं. हमारे केस को छोड़ भी दें लेकिन ये जरूरी है कि सीबीआई संसद के प्रति जवाबदेह हो न कि सरकार के प्रति.

बतौर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता आपको 2002 के दंगा पीड़ितों के साथ काम करने में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?

मुझे लगता है कि ऊपर दिए गए सभी जवाब इस बात को दर्शाते हैं कि बदले की भावना में शासन तंत्र किस हद तक जा सकता है. गुजरात सरकार ने न्यायालय और अपनी पुलिस के जरिए 2004 से ही मेरे और मेरे संगठनों के खिलाफ बदनाम करने और डराने-धमकाने का मानो अभियान छेड़ रखा है. मेरे खिलाफ आधा दर्जन प्रार्थना-पत्र तथ्यहीन आरोप लगाते हुए दायर किए गए हैं. अब ये अभियान और तेज हो गया है और मेरे परिवार तक पहुंच गया है. केंद्र में सत्ता बदलते ही केंद्रीय एजेंसियों को भी पीछे लगा दिया गया है. इसी बीच हमें (सीजेपी और तीस्ता) गवाहों को प्रभावित करने के आरोपों से बरी भी किया जाता रहा है.

  • रजिस्ट्रार जनरल बीएम गुप्ता की रिपोर्ट- अगस्त 2005
  • सरदारपुरा स्पेशल कोर्ट (ट्रायल) का फैसला- 9.11.2011
  • नरोदा पाटिया स्पेशल कोर्ट (ट्रायल) का फैसला- 29.08.2012
  • बेस्ट बेकरी स्पेशल कोर्ट का फैसला (ट्रायल) फरवरी 2006 और अपील 4.7.2012

इस सबने 2002 हिंसा से जुड़ी कानूनी लड़ाई को कैसे प्रभावित किया है?

ये सब बहुत थकाऊ, शक्तिहीन कर देने जैसा है और बहुत चुनौतीपूर्ण भी. मगर अब तक हिम्मत नहीं टूटी है, हमें जो समर्थन मिला वो अभूतपूर्व था.

मणिपुर में इनर लाइन परमिट विवाद

ILP - WEBइनर लाइन परमिट (आईएलपी) को लेकर हंगामा क्यों?

मणिपुर में इनर लाइन परमिट को लेकर पिछले दो महीने से चला आ रहा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. राज्य में बाहरी लोगों की आबादी के लगातार बढ़ने से स्थानीय आबादी असुरक्षित महसूस कर रही है. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि इनकी आबादी राज्य की बहुसंख्यक आबादी मेइतेई के आसपास पहुंच चुकी है. मणिपुर में मेइतेई की आबादी सबसे ज्यादा 7.51 लाख के करीब है जबकि बाहरी लोगों की आबादी की जनसंख्या 7.04 लाख पहुंच चुकी है. इस आबादी को नियंत्रित करने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) का प्रस्ताव 13 जुलाई 2012 को विधानसभा में लाया गया था. मुख्यमंत्री ने इस बारे में केंद्र सरकार को अगस्त 2012 में लिखा था लेकिन तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने यह कहते हुए इस मांग को ठुकरा दिया था कि आईएलपी को मणिपुर में लागू नहीं किया जा सकता.

क्या है आईएलपी?

इनर लाइन परमिट एक विशेष पास है, जो अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में प्रवेश करने के लिए भारतीय नागरिकों के लिए जरूरी होता है. आईएलपी बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर विनियम, 1873 के अंतर्गत जारी किया जाता है. ब्रिटिश शासन में ही इसे लागू किया गया था. आईएलपी एक निश्चित समय का यात्रा दस्तावेज है, जो भारत सरकार की ओर से देश के कुछ संरक्षित राज्यों में आने-जाने के लिए नागरिकाें को जारी किया जाता है. इसके जरिये सरकार अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे राज्यों में बाहरी लोगों की आवाजाही नियमित करती है. मणिपुर में भी इसे लागू किया गया था, लेकिन 1950 में इसे खत्म कर दिया गया. अब राज्य में बाहरियों की बढ़ती आबादी के चलते वहां के लोग इसे फिर से लागू करने के लिए आंदोलनरत हैं.

क्या है वर्तमान हालात?

31 अगस्त को दक्षिण मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में एक बार फिर हिंसा भड़्क उठी. इस शहर में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के अलावा पांच विधायकों के घर जला दिए गए. लोग मणिपुर विधानसभा में आईएलपी से जुड़े तीन विधेयकों के पास होने से आक्रोशित हैं. इससे पहले एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग में एक छात्र की मौत के बाद राज्य के कुछ इलाकों में हिंसा भड़क उठी थी. आईएलपी को लागू करवाने की मांग पर मणिपुर में एक गैर-सरकारी संगठन ‘फ्रैंड्स’ सहित कुछ महिला व छात्र संगठन लामबंद हो चुके हैं. राज्य में प्रदर्शन और भूख हड़ताल का दौर जारी है. हजारों की संख्या में स्कूली छात्र-छात्राएं भी इन प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं.

गीताप्रेस में महाभारत

IMG-20150531-WA0027हिंदू धर्म पर आधारित पुस्तकें प्रकाशित करने वाले विश्वप्रसिद्ध संस्थान गीताप्रेस में कर्मचारियों और प्रबंधन में चल रही खींचतान ने एक बार फिर बवाल और हंगामे का रूप ले लिया है. हालांकि इस बार बवाल की तीव्रता इतनी ज्यादा थी कि इस प्रकाशन संस्था के बंद होने की अफवाह उड़ गई, जिसने मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरीं. सोशल मीडिया में गीताप्रेस को बचाने की मुहिम चल पड़ी. इतना ही नहीं अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गोरखपुर के सांसद आदित्यनाथ और विधायक राधामोहन दास अग्रवाल से गीताप्रेस को बचाने की अपील होने लगी है.

जिओ (राजाज्ञा) के अनुसार न्यूनतम वेतनमान लागू करने, वेतन विसंगति, भत्ता और इंक्रीमेंट देने की मांग को लेकर कर्मचारियों के आंदोलन ने पिछले साल तीन दिसंबर को तूल पकड़ा था. अपनी मांगों को लेकर बीते साल कर्मचारियों ने गोरखपुर के दूसरे मजदूर संगठनों के साथ जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन किया था. उस वक्त जिलाधिकारी ने आश्वासन देकर कर्मचारियों को शांत करा दिया था. हालांकि बाद में इस प्रदर्शन के कारण कुछ कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया था, जिसे बाद में बातचीत के आधार पर वापस ले लिया गया. उपश्रमायुक्त के यहां मामले की कई बार सुनवाई भी हो चुकी है मगर फिलहाल कोई ठोस हल नहीं निकल पाया है. अब तक सिर्फ प्रबंधन आश्वासन देकर ही काम चला रहा है.

कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच का यह विवाद कई साल पुराना है. मांगों के प्रति प्रबंधन के लचर रवैये ने बीते सात अगस्त को इस विवाद को फिर से ताजा कर दिया. समझौते के तहत प्रबंधन द्वारा इस साल जुलाई से तीन स्तर के कर्मचारियों- अकुशल, अर्द्धकुशल व कुशल को क्रमश: 600, 750 व 900 रुपये की वेतन वृद्धि दी जानी थी.  कर्मचारी पिछले सभी विवाद समाप्त कर दें और पांच वर्ष तक कोई नई मांग न रखें, इस शर्त पर प्रबंधन ने वेतन वृद्धि लागू करने की सहमति जताई थी. इस शर्त के बाद कर्मचारियों ने सात अगस्त को सहायक प्रबंधक मेघ सिंह चौहान को धक्के देकर गेट से बाहर कर दिया. अगले दिन यानी आठ अगस्त को सहायक प्रबंधक से हाथापाई और मारपीट के आरोप में 17 कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया. इनमें 12 स्थायी और पांच अस्थायी कर्मचारी हैं. इसके बाद से ही कर्मचारी हड़ताल शुरू कर दी और गीताप्रेस में प्रकाशन का काम ठप पड़ा है. गीताप्रेस में कुल 525 कर्मचारी हैं, जिनमें 200 स्थायी हैं जबकि 325 ठेके पर काम करते हैं.

गीताप्रेस के कर्मचारी रवींद्र सिंह बताते हैं, ‘सहायक प्रबंधक से मारपीट नहीं की गई थी, सिर्फ धक्का-मुक्की हुई थी, क्योंकि सात अगस्त तक वेतन नहीं आया था, जबकि चार से पांच तारीख तक वेतन अकाउंट में आ जाता है. प्रबंधन की ओर से कहा जा रहा था कि कर्मचारी सारी पुरानी मांगों को रद्द कर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर दें, जिसके बाद वेतन वृद्धि लागू कर दी जाएगी. इसी बात पर कर्मचारी आक्रोशित हो गए और सहायक प्रबंधक के साथ धक्का-मुक्की हो गई, जिसके बाद कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया.’

इस विवाद के बाद से गीताप्रेस के सभी कर्मचारियों ने काम ठप कर दिया है, जिसकी वजह से धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन का काम पूरी तरह से रुक गया है. कर्मचारियों का कहना है कि जब तक निलंबन वापस नहीं लिया जाता कर्मचारी काम पर नहीं लौटेंगे.  उधर, गीताप्रेस के बंद होने की अफवाहों के बीच प्रबंधन ने एक विज्ञप्ति जारी कर इसका खंडन किया है. विज्ञप्ति में प्रबंधन ने कहा है, ‘कुछ मीडिया संस्थान गीताप्रेस के खिलाफ भ्रामक प्रचार कर रहे हैं. गीताप्रेस बंद नहीं हुआ है, केवल कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से काम बंद हुआ है. संस्थान न तो बंद होने की स्थिति में है और न ही इसे बंद होने दिया जाएगा. किसी तरह की कोई आर्थिक समस्या भी नहीं है. कर्मचारियों की अनुशासनहीनता के कारण प्रबंध तंत्र पिछले एक साल से परेशान है. पिछले दिनों हद पार करते हुए कर्मचारियों ने सहायक प्रबंधक से मारपीट की, जिसके बाद कुछ कर्मचारियों को निलंबित किया गया है.’ विज्ञप्ति में यह भी स्पष्ट किया गया है कि गीताप्रेस किसी तरह का कोई चंदा नहीं लेता है. साथ ही लोगों से अपील की है कि वे गीताप्रेस के नाम पर किसी को चंदा न दें.

सन 1923 में अपनी स्थापना के बाद से गीताप्रेस में 55 करोड़ से ज्यादा पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है. यहां से 11 भाषाओं में श्रीमद्भगवतगीता का प्रकाशन होता है. गीताप्रेस के 92 साल के इतिहास में कर्मचारी आंदोलन की यह पहली घटना है. बहरहाल ये मामला एक बार फिर उपश्रमायुक्त के दरबार में है. यहां कर्मचारियों और प्रबंध तंत्र के बीच जल्द ही बातचीत होने वाली है. इसका क्या नतीजा होगा यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इस विवाद ने उन पाठकों को सबसे ज्यादा मायूस किया है जो यहां की धार्मिक पुस्तकों के मुरीद हैं.

क्राउड फंडिंग : काम का नया फंडा

Crowd Funding‘चंदा’ या कहें ‘क्राउड फंडिंग’ अब कोई नया शब्द नहीं रह गया है. देश में इसकी परंपरा काफी पुरानी है. हिंदू धर्म में सत्संग, दुर्गा पूजा जैसे कार्यक्रमों के सफल आयोजन का आधार चंदा ही रहा है. इसके अलावा दूसरे धर्मों में भी चंदा मांगकर सार्वजनिक कार्य पूरे किए जाते हैं. गांवों में अब भी शादी से लेकर अंतिम संस्कार तक आपसी मदद से ही हो रहे हैं. गांवों में किसी आयोजन को लेकर लिए जाने वाले ‘चंदे’ का चलन शहरों में ‘क्राउड फंडिंग’ के रूप में तेजी से बढ़ रहा है. पुल बनवाना, मोहल्ले की सफाई कराना, सड़क बनवाना या फिर फिल्म बनाने का काम हो, क्राउंड फंडिंग का इस्तेमाल अब आम हो गया है. अपनी अर्थपूर्ण फिल्मों के लिए मशहूर श्याम बेनेगल से लेकर दूसरे कई फिल्मकार भी चंदे के पैसों से फिल्में बना चुके हैं और कुछ बना रहे हैं.

क्राउड फंडिंग का ताजा उदाहरण हरियाणा के सिरसा जिले के एक गांव में देखने को मिला. गांववाले क्राउड फंडिंग के जरिए 1 करोड़ रुपये इकट्ठा कर एक पुल का निर्माण करा रहे हैं. घग्गर नदी पर बन रहा यह पुल 250 फुट लंबा और 14 फुट चौड़ा है. यह पुल अकीला और पनिहारी गांवों को जोड़ेगा, जिससे सिरसा की दूरी 30 किलोमीटर तक घट जाएगी. गांव के बाशिंदे इस पुल के उद्घाटन किसी नेता से नहीं करवाना चाहते क्योंकि क्षेत्र के नेताओं ने पुल के निर्माण के नाम पर दो दशक से उन्हें सिर्फ बेवकूफ बनाया है.

क्राउड फंडिंग एक परंपरा है जिसके तहत किसी परियोजना या व्यवसाय के लिए लोग एक साथ मिलकर आर्थिक सहयोग करते हैं. आम तौर पर इसका प्रयोग वो लोग करते हैं जिनके पास पैसों की कमी होती है. आज के दौर में इंटरनेट के माध्यम से सबसे ज्यादा क्राउड फंडिंग हो रही है. 2008 में अमेरिका में आई आर्थिक मंदी के दौरान वहां के लोगों ने जोर-शोर से क्राउड फंडिंग का इस्तेमाल शुरू किया. फिल्म निर्माता, संगीतकार से लेकर निवेशकों तक ने अपनी परियोजनाओं के लिए इंटरनेट के जरिए लोगों से पैसा जमा किया. दुनिया की सबसे बड़ी क्राउड फंडिंग कंपनी ‘किकस्टार्टर’ कमोबेश हर क्षेत्र जैसे फिल्म, पत्रकारिता, संगीत, कॉमिक, वीडियो गेम से लेकर विज्ञान और तकनीक के लिए क्राउड फंडिंग करती है. किकस्टार्टर ने वर्ष 2014 तक 224 देशों के 58 लाख लोगों से तकरीबन तक दस अरब रुपये जुटाए हैं. इसका इस्तेमाल दो लाख लोगों ने विभिन्न योजनाओं के लिए किया. आज के समय में क्राउड फंडिंग एक ऐसा मंच माना जा रहा है, जिसके जरिए उन होनहार कलाकारों को अपनी कला की नुमाइश करने का भी मौका मिलता है, जो पैसों की कमी के कारण कुछ कर पाने से रह जाते हैं. भारत में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोगों ने क्राउड फंडिंग के जरिए फिल्म बनाने से लेकर कई दूसरे सार्वजनिक काम सफलतापूर्वक किए हैं.

हालांकि सरकार की ओर से इसे अभी उतनी तवज्जाे नहीं मिल रही जितनी की ये हकदार है. भाजपा सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट में पिछले साल के मुकाबले 20 फीसदी की कटौती की है. अब स्वास्थ्य का बजट 352 अरब से घटाकर 297 अरब रुपये कर दिया गया है. भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पहले से ही चिंताजनक है. निजी अस्पतालों में इलाज कराना काफी महंगा है. निचले तबकों के लिए तो यह और भी मुश्किल हैै. ऐसे में बेंगलुरु के रघुराम कोटे ने क्राउड फंडिंग के लिए ‘राइट टू लिव’ नाम की एक संस्था की शुरुआत की. यह संस्था अब तक कई लोगों की जान बचाने में सफल रही है, जो पैसों के कमी की वजह से इलाज कराने में अक्षम थे. स्वास्थ्य के क्षेत्र में ‘राइट टू लिव’ भारत का पहला क्राउड फंडिंग संस्थान है. अभी तक इस संस्था ने क्राउड फंडिंग के जरिए तकरीबन दो करोड़ रुपये जुटाए हैं. इन पैसों से 51 लोगों की गंभीर बीमारियों जैसे, कैंसर, कार्डियक सर्जरी, किडनी ट्रांसप्लांट, बोन मैरो ट्रांसप्लांट से लेकर ओपन हार्ट सर्जरी जैसे इलाज करवाए गए हैं. यह संस्था अपनी वेबसाइट पर लोगों की बीमारियों के साथ उनका नाम और आर्थिक स्थिति प्रदर्शित करता है, ताकि लोग उनकी मदद कर सकें.

राइट टू लिव के निदेशक रघुराम कोटे के मुताबिक, ‘कोई भी इंसान जिसके पास इलाज के पैसे नहीं हैं, वह हमारे संस्थान से संपर्क कर सकता है. हम पहले उसकी आर्थिक स्थिति की जांच करते हैं फिर उसकी सारी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डालते हैं. इलाज कराने में लगने वाले पैसे और समय की जानकारी भी वेबसाइट पर डाली जाती है. राइट टू लिव की खास बात यह है कि लोगों के दिए गए पैसे शत-प्रतिशत मरीजों के इलाज में खर्च किए जाते हैं. मरीजों के हाथ में पैसा नहीं दिया जाता है हम सीधे इलाज करवाते हैं.’

बकौल कोटे, ‘सरकार हमारे तमाम मसले नहीं सुलझा सकती और अगर बेंगलुरु जैसे शहर की बात करें तो यहां के मध्य और उच्च वर्ग के लोग स्वास्थ्य क्षेत्र में दान करना चाहते हैं. यहां के लोग एक-दूसरे की मदद भी करना चाहते हैं. यही वजह है कि हम गरीबों का इलाज कराने के लिए क्राउड फंडिंग कर पाने में सक्षम हैं. यहां के लाखों लोग महीने में 250 रुपये भी दान करें तो इससे ज्यादा से ज्यादा मरीजों का इलाज कराया जा सकता है.

पत्रकारिता में क्राउड फंडिंग

अमेरिकी संस्था ‘बीकन’ क्राउड फंडिंग के जरिये पत्रकारों की मदद करती है. पत्रकार वहां विषयवार स्टोरी आइडिया भेजते हैं. बीकन के सदस्य उनमें से अच्छे आइडिया का चयन कर उसे क्राउड फंडिंग के लिए वेबसाइट पर डालते हैं. लोग अपनी पसंद के अनुसार स्टोरी के लिए क्राउड फंडिंग करते हैं. इस तरह पत्रकारों को भी अपनी स्टोरी करने में इस माध्यम से मदद मिल जाती है.

ब्रिटेन में ‘जर्नलिस्ट ऑफ द ईयर’ खिताब से दो बार नवाजे गए खोजी पत्रकार जॉन पिल्गर क्राउड फंडिंग के जरिए ‘द कमिंग वॉर’ नाम की डॉक्युमेंट्री फिल्म बना रहे हैं. उन्होंने इस फिल्म के निर्माण के लिए इंडिगो गो क्राउड फंडिंग वेबसाइट का सहारा लिया. क्राउड फंडिंग से पिल्गर इससे पहले भी तीन फिल्में बना चुके हैं. अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ग्लोबल इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म’ खोजी पत्रकारों के लिए क्राउड फंडिंग करवाती है. यह पत्रकारों को प्रशिक्षण देने से लेकर खोजी पत्रकारिता से जुड़े तमाम संसाधन भी मुहैया कराती है. ये संस्था 54 देशों में 118 एनजीओ के साथ मिलकर पत्रकारों के लिए क्राउड फंडिंग करती है.

हालांकि भारत में अभी पत्रकारिता के लिए क्राउड फंडिंग की शुरुआत नहीं हुई है. हां, मगर हमारे यहां भी कुछ समाचार वेबसाइट्स हैं, जो जनता से पैसे लेकर जनहित में खबर चलाने का दावा करती हैं. इनमें से एक ‘न्यूज लॉन्ड्री’ है जो लोगों से जुटाए गए पैसों पर चलने का दावा करती है. बहरहाल ऐसी स्थिति में जब लोग खुद पत्रकारों को क्राउड फंडिंग के जरिए योगदान करेंगे तो पत्रकार निष्पक्ष होकर पत्रकारिता कर सकेंगे.

वैसे इसकी कुछ सीमाएं भी हैं. क्राउड फंडिंग को लेकर अभी कोई साफ दिशा-निर्देश नहीं हैं. भारत में मीडिया हाउस और पत्रकारों पर कॉरपोरेट हाउसों के दबाव में आकर खबर लिखने का आरोप लगता रहता है. ऐसे में क्राउड फंडिंग से कितनी निष्पक्ष पत्रकारिता हो पाएगी, यह बड़ा सवाल है. बीकन के संस्थापक डैन फ्लेचर का मानना है, ‘क्राउड फंडिंग के जरिए कोई भी मनचाहे पत्रकार की आर्थिक मदद करना चाहता है तो वह सीधे कर सकता है. हमारी वेबसाइट ऐसी सुविधा मुहैया कराती है जिससे पत्रकारों को निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करने की आजादी हो.’

फिल्मों में भी क्राउड फंडिंग

देश में वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में आई दुग्ध क्रांति पर 1975 में श्याम बेनेगल ने ‘मंथन’ नाम की फिल्म क्राउड फंडिग के माध्यम से ही बनाई थी. फिल्म बनाने के लिए उन्होंने पांच लाख लोगों से दो-दो रुपये इकट्ठा किए थे. इसके बाद 1987 में बेनेगल ने एक और फिल्म ‘सुस्मन’ क्राउड फंडिंग के माध्यम से बनाई. बुनकरों के जीवन पर आधारित इस फिल्म के निर्माण के लिए उन्होंने बनारस और कर्नाटक के कुछ शहरों में स्थित हैंडलूम केंद्रों से पैसा इकट्ठा किया. इसी तरह फिल्म निर्माता ओनीर ने 2010 में क्राउड फंडिंग के जरिए एक बहुचर्चित फिल्म ‘आई एम’ का निर्माण किया. फिल्म समीक्षकों ने इसकी काफी तारीफ की थी. ओनीर के मुताबिक उनके लिए क्राउड फंडिंग करने वाले तमाम लोग उनकी फिल्म आई एम के सह मालिक हैं. कुछ साल पहले कन्नड़ फिल्मकार पवन कुमार ने बिना स्टार कास्ट और बिना किसी फिल्मी मसाले के फिल्म बनाने की सोची तो उनके लिए निर्माता ढूंढना मुश्किल हो गया. ‘लुसिया’ नाम की इस फिल्म के लिए उन्होंने ब्लॉग के जरिये 50 लाख रुपये जमा करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि एक महीने के भीतर ही उन्होंने यह लक्ष्य पा लिया. 20 जुलाई 2013 को यह पहली कन्नड़ फिल्म बन गई जिसका प्रीमियर लंदन में हुआ.

इसी तरह से पवन कुमार श्रीवास्तव क्राउड फंडिंग से ‘नया पता’ नाम की फिल्म बना चुके हैं. इसे भी समीक्षकों की खूब सराहना मिली. क्राउड फंडिंग के जरिए अब वो एक नई फिल्म ‘हाशिये के लोग’ का निर्माण करने जा रहे हैं. उनके मुताबिक, ‘भारत में क्राउड फंडिंग को बढ़ावा देना चाहिए. सरकार को भी चाहिए कि वह क्राउड फंडिंग के लिए सुनियोजित तरीके से गाइडलाइन बनाए और बढ़ावा दे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग चंदा देकर समाज में कला को बढ़ा सकें’.

विज्ञान और तकनीक में क्राउड फंडिंग

विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है. पुणे के कुछ युवाओं ने इसके लिए ‘इग्नाइट इंटेंट’ नाम की वेबसाइट बनाई है. इसके संस्थापक रींकेश शाह ने ‘तहलका’ से बातचीत में बताया कि ‘हमारी वेबसाइट पर विज्ञान और तकनीक से जुड़ी परियोजनाओं के लिए क्राउड फंडिंग की जाती है. मेरा मानना है कि सरकार को भारत में क्राउड फंडिंग के लिए नियम बनाने चाहिए और इसे बढ़ावा देना चाहिए. पहले भारत में ऑफलाइन क्राउड फंडिंग होती थी पर अब समय बदल रहा है लोग ऑनलाइन क्राउड फंडिंग को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं.’ चंदे से हुई शुरुआत भले ही आज के समय में क्राउड फंडिंग के रूप में विकसित हो गई है, लेकिन भारत जैसे देश में बिना जागरूकता इसकी राह अभी बहुत आसान नजर नहीं आ रही है.

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‘भारत सरकार को क्राउड फंडिंग के लिए नीति बनानी चाहिए’

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‘राइट टू लिव’ की वाइस प्रेसिडेंट शेरिल ओबल से बातचीत

भारत में राइट टू लिव के सफर के बारे में बताएं?

राइट टू लिव भारत का पहला क्राउड फंडिंग संस्थान है. 2012 में जब इसकी शुरुआत हुई तब यहां ऐसा कोई संस्थान नहीं था. हम सिर्फ उन लोगों के लिए पैसे जमा करते हैं, जो गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं. इससे मिली शत-प्रतिशत रकम को इलाज पर खर्च करते हैं. भारत जैसे देश में ऐसे संस्थानों की जरूरत है.

इलाज के लिए जरूरतमंद लोगों की आर्थिक स्थिति के बारे में कैसे जानते हैं?

हम आवेदक के घर जाकर उनकी आर्थिक स्थिति और आय प्रमाण पत्र की समीक्षा करते हैं. उनकी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी अस्पताल से लेते हैं. उसके बाद उनका इलाज शुरू करवाते हैं.

सरकार से कोई मदद मिलती है ?

हमें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिलती है मगर हम इलाज के लिए सरकारी मदद मरीजों को दिलाते हैं. जरूरतमंद लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े कागजात बनवाते हैं ताकि उन्हें सरकार से भी मदद मिल सके.

क्या सरकार से कोई योजना चाहती हैं ?

सरकार को क्राउड फंडिंग के लिए योजना बनानी चाहिए. सरकार ने जीवन बीमा व दुर्घटना बीमा योजना शुरू की पर स्वास्थ्य बीमा जैसी कोई सुविधा नहीं दी. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का 5 प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की है, लेकिन भारत में सिर्फ एक प्रतिशत ही खर्च किया जाता है.

किस तरह की मुश्किलों का सामना होता है?

क्राउड फंडिंग में मुश्किलें आती हैं. लोग जिन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते उनके लिए दान करना नहीं चाहते हैं. इस स्थिति में लोगों को दान कराने के लिए राजी करना चुनौती भरा होता है.

क्राउड फंडिंग को किस रूप में देखती हैं?

क्राउड फंडिंग भारत में काफी सफल होगा. यहां अमीर-गरीब के बीच गहरी खाई है. यह उसे पाटने में अहम भूमिका निभा सकता है. इसके जरिए अमीर मिलकर गरीबों की मदद कर सकते हैं. इससे उन लोगों की की जिंदगी में बदलाव आएगा, जो पैसों की कमी की वजह से इलाज से महरूम रह जाते हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तकनीक के मामले में भारत की दुनिया में अलग पहचान है. भारत के सुनहरे भविष्य के लिए क्राउड फंडिंग अहम भूमिका निभा सकती है.

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‘देश में क्राउड फंडिंग को सिर्फ गरीबों की मदद करना समझा जाता है…’

क्राउड फंडिंग से बनी फिल्म ‘आई एम’ के निर्माता ओनीर ने कई ऑफबीट फिल्में बनाई हैं. ‘माई ब्रदर निखिल’, ‘बस एक पल’, ‘सॉरी भाई’ जैसी फिल्में बनाने वाले ओनीर से बातचीत

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फिल्म के लिए क्राउड फंडिंग कैसे की?

जब मैं ‘आई एम’ बना रहा था तो भारत में क्राउड फंडिंग की कोई वेबसाइट नहीं थी. मैंने सोशल मीडिया साइट्स के जरिए फिल्म के लिए पैसे जुटाए. सिर्फ फेसबुक, ट्विटर और ईमेल का इस्तेमाल किया. लगभग 400 लोगों ने इस फिल्म को बनाने में आर्थिक मदद की. जिन लोगों ने इसे बनाने में सहयोग किया है वो सभी इस फिल्म के सह मालिक हैं.

क्राउड फंडिंग की राह में किस तरह की मुश्किलें आईं?

भारत में लोग दान का मतलब सिर्फ गरीबों और लाचारों की मदद करना समझते हैं. दूसरे देशों में ऐसा नहीं है वहां लोग कला और मनोरंजन के लिए भी क्राउड फंडिंग करते हैं. जब सवाल लोगों से पैसा लेकर फिल्म बनाने का हो तो भारत में इसकी राह बहुत आसान नहीं है. ‘आई एम’ के लिए क्राउड फंडिंग जरूरत बन गई थी. फिल्म में अलग-अलग कहानियां हैं, पैसों की कमी की वजह से हमें सभी कहानियों को एक फिल्म में समेटना पड़ा. भारत में आप डॉक्युमेंट्री बनाने के लिए क्राउड फंडिंग करने की सोच भी सकते हैं. अगर फिल्म के लिए क्राउड फंडिंग करेंगे तो लोग उतनी मदद नहीं करते. भारत में लोग कला फिल्मों को उतनी तवज्जो नहीं देते हैं जितना दूसरे देशों में देते हैं.

क्या क्राउड फंडिंग स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के लिए उपयोगी है ?

भारत में धीरे-धीरे बहुत से फिल्म निर्माता क्राउड फंडिंग का इस्तेमाल कर रहे हैं. क्राउड फंडिंग का इस्तेमाल तब किया जा सकता है जब आप कोई फीचर फिल्म न बना रहे हों, किसी और काम के लिए पैसे जुटाना भारत में आसान है.

क्या आगे भी क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाएंगे ?

नहीं, मेरा मकसद सिर्फ फिल्म बनाना है इसलिए ‘आई एम’ के बाद मैंने क्राउड फंडिंग से फिल्म बनानी बंद कर दी. जैसा कि मैंने पहले भी कहा भारत में क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाना मुश्किल भरा काम है.

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‘अगर लोग मदद के लिए आगे नहीं आएंगे तो सामाजिक फिल्में बननी बंद हो जाएंगी’

पवन कुमार श्रीवास्तव ने 2012 में क्राउंड फंडिंग के जरिए ‘नया पता’ नाम की फिल्म बनाई थी. अब एक बार फिर इसी विधा के इस्तेमाल से वह ‘हाशिये के लोग’ नाम की फिल्म बना रहे हैं

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क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोचा?

जब मैंने ‘नया पता’ फिल्म बनाने की सोची तब मुझे क्राउड फंडिंग की कोई जानकारी नहीं थी. मैं फिल्म को लेकर मुंबई के निर्माताओं से मिला पर सभी ने पैसे लगाने से इनकार कर दिया. तभी मैंने क्राउड फंडिंग से बनी ओनीर की फिल्म ‘आई एम’ देखी. मैंने तब सोच लिया कि अगर ओनीर क्राउड फंडिंग से फिल्म बना सकते हैं तो मैं क्यों नहीं. मैंने भाई से 50 हजार रुपये लेकर फिल्म पर शोध करना शुरू किया. एक महीने तक क्राउड फंडिंग के बारे में जानकारी इकट्ठा की. फिर मैंने फिल्म से जुड़े कुछ फोटो और सारांश ईमेल से कुछ लोगों को भेजे. सोशल मीडिया पर भी फिल्म की जानकारी साझा की. पहले मेरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने मुझे 500 से 3000 रुपये तक चंदे के रूप में देना शुरू किया. फिर दूसरे लोगों ने मदद की.

क्राउड फंडिंग क्यों आैैर इससे क्या मिलेगा?

हम जहां रहते हैं वहां एक-दूसरे की मदद के बिना समाज नहीं चल सकता. अगर लोग इस तरह की मदद के लिए आगे नहीं आएंगे तो पैसों की कमी के चलते सामाजिक फिल्में बननी कम हो जाएंगी और सिर्फ बाजार आधारित फिल्में ही बना करेंगी. क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाने पर जिम्मेदारी बढ़ जाती है. हम हर कदम उनके बारे में सोचकर उठाते हैं, जिन्होंने हमें मदद की है. वो हम पर नजर रखते हैं. अगर हम किसी निर्माता के पैसों से फिल्म बनाते हैं तो हमें लोगों की चिंता शायद ही होती.

लोगों से पैसे जुटाने में क्या मुश्किलें आईं?

भारत में क्राउड फंडिंग से कम ही लोग वाकिफ हैं. हमारे समाज में अगर फिल्म बनाने के लिए पैसे मांगो तो लोग पहले समझते है कि यह पैसा लेकर भाग जाएगा या बेवकूफ बना रहा है. वैसा ही मेरे साथ हुआ, लोगों को समझाना मुश्किल था. इसलिए मैंने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिले पैसों से फिल्म की शूटिंग शुरू की. फिल्म मैंने कई चरणों में बनाई ताकि इसका कुछ हिस्सा लोगों को दिखा कर क्राउड फंडिंग की जा सके. धीरे-धीरे लोग मदद को आगे आए और फिल्म का निर्माण पूरा हुआ.

आपने फिल्म को सिर्फ पीवीआर में रिलीज किया. ऐसे में वो तबका इससे महरूम रह गया जिसके लिए आपने यह फिल्म बनाई?

आपने मेरा इंटरव्यू क्यों लेना चाहा? इसलिए क्योंकि आपको ‘नया पता’ फिल्म की जानकारी है. अगर मेरी फिल्म रिलीज ही नहीं होती तो इसके बारे में किसी को पता भी न चलता. ऐसे तमाम स्वतंत्र फिल्म निर्माता हैं जो सरोकारी फिल्में तो बनाते हैं पर उसे रिलीज नहीं करा पाते. मेरा मानना है कि फिल्म का प्रदर्शन महत्वपूर्ण है. मेरे पास पैसे की कमी थी और ‘पीवीआर डायरेक्टर्स कट’ स्वतंत्र फिल्म निर्देशकों की फिल्म बगैर पैसे के रिलीज करता है इसलिए मैंने इसे पीवीआर में रिलीज कराया. सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लेक्स में फिल्म रिलीज कराने के लिए पैसों की जरूरत होती है. मैं अकेला इस फिल्म को उन लोगों तक नहीं पहुंचा सकता जिनके लिए इसे बनाया है. विदेशों में कई संस्थान हैं जो ऐसी फिल्मों को बिना पैसा लिए प्रदर्शित करते हैं. ऐसी व्यवस्था भारत में भी लागू होनी चाहिए.

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इस फिल्म को बनाने में किसी क्राउड फंडिंग वेबसाइट या संस्था का सहारा लिया?

2012 में भारत में क्राउड फंडिंग कराने वाली वेबसाइट नाममात्र की ही थी. मैंने तब ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. मेरी फिल्म लगभग बन चुकी थी तो ‘विशबेरी’ क्राउड फंडिंग वेबसाइट ने मदद देने की बात कही पर मैंने इनकार कर दिया. अब ‘हाशिये के लोग’ फिल्म का निर्माण क्राउड फंडिंग वेबसाइट के जरिये कर रहा हूं. लोगों ने इसके लिए क्राउड फंडिंग शुरू कर दी है. मैं किसी बड़े अभिनेता को फिल्म में नहीं रख सकता इसलिए मैं अलग-अलग शहरों में फिल्म संस्थानों की मदद से पात्रों के लिए ऑडिशन करूंगा.

भारत में क्राउड फंडिंग का भविष्य क्या है?

इन दिनों भारत में भी क्राउड फंडिंग पकड़ बना रहा है. क्राउड फंडिंग के लिए नई वेबसाइट और संस्थान खुल रहे हैं. अगले कुछ वर्षों में ऐसे फिल्म निर्देशकों को भी मौका मिलने लगेगा जिनकी सामाजिक फिल्में पैसों की कमी की वजह से खटाई में पड़ जाती है.

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चलो चलें, धनियाझोर की ओर…

108_2924-webबाल मृत्य दर के मामले पर खूब बहस चल रही है. गांव और आदिवासी संकट में बताए जाते हैं. इसी बहस के बीच हम (मौजूदा मानकों के हिसाब से अविकसित) वनग्राम धनियाझोर पहुंच गए. यहां 11 जुलाई 2009 को जगोतीन  और सुकलाल के बेटे महेंद्र की असमय मौत हो गई थी. इसके बाद ठीक छह साल गुजर रहे हैं. पांच साल से कम उम्र के किसी बच्चे की मृत्यु नहीं हुई है. साल 1941 में जन्मे प्रताप सिंह मरकाम ने बड़ी जबरदस्त बात कही, ‘बिना कुछ साथ लिए जंगल में जाकर आप कई दिन रह लो, भूख से नहीं मरोगे. शहद मिल जाएगा, जड़ें मिल जाएंगी, फल और भाजियां भी मिलती हैं. शहर में यदि आपके पास खीसे (जेब) में पैसा न हो, तो इंसान जिंदा ही नहीं रह सकता.’

गांव का आधुनिक मतलब है एक पिछड़ी और आनंद से विहीन इकाई. इस इकाई का तोड़ा जाना विकास के लिए जरूरी है. आदिवासी का मतलब माना जाने लगा है गरीब, पिछड़े, अनुत्पादक और विकास न करने देने वाले लोग, जो बहुत सारी जमीन पर कब्जा किए हुए हैं.

थोड़ा सोचा तो हमें लगा कि चलो, बिना कुछ कहे, बिना कोई मानक ज्ञान लिए गांव को देखते हैं और आदिवासियों की बात सुनते हैं. जो वह कहें, उसे सुनना. मन में कोई धारणा न बनाना और यह मानकर न जाना कि यह अपने समाज का कमजोर या पिछड़ा हिस्सा है. बहुत कुछ कह और बताकर हमने बहुत कुछ बिगाड़ लिया है. जितना बताया गया, उतना समझा, देखा और महसूस नहीं किया गया. एक अपराध बोध के चलते अब लगता है कि सुनकर समझने और फिर कुछ मानने से ही प्रायश्चित हो सकेगा. इसी भाव के चलते हमने सोचा कि बस सुनेंगे और जानेंगे. और हम बालाघाट जिले में एक गांव में पहुंच गए. धनियाझोर नाम का यह गांव राजधानी भोपाल से 515 किलोमीटर की दूरी पर है. इस गांव को सपनों के गांव की तरह मैं नहीं देखता. बस एक छोटी से सूचना वहां खींचकर ले गई. सूचना थी कि यह गांव अपनी जरूरत का अनाज पैदा करता है. खेती में रसायनों और मशीनों का उपयोग नहीं करता है.

बालाघाट जिले का धनियाझोर गांव जून 1974 में कान्हा राष्ट्रीय अभयारण्य की स्थापना के दौरान बिना किसी पुनर्वास के मुक्की क्षेत्र से विस्थापित किया गया था. तब सौधर, घुरीला, बिशनपुरा और ओरयीं गांव के 417 परिवार ऐसे हटाए गए कि वे अपने घर से रसोई के बर्तन, पहनने के कपड़े और अनाज भी उठा न पाए. सब तितर-बितर कर दिए गए थे. वन विभाग का तत्कालीन आदेश तो कहता था कि कान्हा अभयारण्य से प्रभावित होने वाले परिवारों का पुनर्वास करते हुए उन्हें उस जगह तक भेजा जाएगा, जहां उन्हें घर और जमीन मिल रही है. उन्हें नकद सहायता भी दी जाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं. तब बेघर किए गए कुछ परिवारों ने बालाघाट के बैहर विकासखंड के जंगलों में आकर जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर बसना शुरू किया. 41 साल बाद उस बसाहट ने धनियाझोर गांव का रूप ले लिया है. आज के 46 गोंड आदिवासी परिवारों के इस गांव के लोग खेती के उत्पादन और सामाजिक जीवन में कुछ उसूलों के साथ जिंदगी बिता रहे हैं.

आज के दौर में जब इस बात का जोर है कि कृषि का उत्पादन बढ़ाने और फसलों को बीमारी से बचाने के लिए रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का इस्तेमाल किया ही जाना चाहिए, तब धनियाझोर के इन 46 परिवारों में से कोई भी व्यक्ति अपनी जमीन और फसल के लिए रसायनों का इस्तेमाल नहीं करता है. गांव के मुखिया 74 वर्षीय प्रताप सिंह टेकाम कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हमें रासायनिक खाद या कीटनाशकों के बारे में पता नहीं है. गांव में सरकारी लोग भी आते हैं और कंपनी के लोग भी. वे हमें बताते रहे हैं कि इन्हें डालोगे तो उत्पादन बढ़ जाएगा. कीड़े नहीं लगेंगे. और खूब आय होगी. तब हमने आपस में बात की कि जितना धरती दे सकती है, उतना ही तो देगी. यदि हम इन रसायनों का उपयोग करेंगे तो इसका मतलब है कि हम मिट्टी की ताकत और क्षमता से ज्यादा उलीचेंगे. यह तो गलत है. आज मिट्टी की ताकत खींच लेंगे, तो कल क्या बचेगा? कल का भी तो सोचना है?’

तिहारू सिंह टेकाम कहते हैं, ‘हाट बाजार जाओ या फिर जिले में, हर जगह यह कहा जाता है कि यदि उत्पादन बढ़ाना है तो दवाइयां और फला कंपनी की खाद डालनी पड़ेगी. जब हम यह पूछते हैं कि अगर हम खाद डालेंगे तो कब तक डालना पड़ेगा! इसका जवाब आता है कि इसे तो हर बार और बार-बार डालना पड़ेगा. इसका मतलब है कि मिट्टी और धरती को कोई बीमारी तो है नहीं कि एक बार दवाई डाली और वह ठीक हो गई. यह तो जमीन को निचोड़ने का तरीका है. हमने अपने समाज के बुजुर्गों से बात की, जो अच्छी खेती करने वाले लोग हैं. तब यही पता चला कि एक बार खाद डालने के बाद न केवल इसे बार-बार डालना पड़ेगा, बल्कि हर बार एक किलो की बजाय डेढ़ किलो और फिर दो किलो रसायन डालना पड़ेगा. तब समझ में आया कि यह तो जाल जैसा है.’

प्रताप सिंह टेकाम कहते हैं, ‘जमीन की ताकत पत्तियों, गोबर और पानी से है. कोई भी खाद मिट्टी को खराब करेगी. उसकी स्वाभाविक गुणवत्ता को बचाकर रखना सबसे जरूरी है. अगर वह खत्म हो गई तो वह कई सौ सालों तक ठीक नहीं होगी. वह बीमार हो जाएगी. अभी एक एकड़ में 10 कुंतल धान होता है. इसे बढ़ाना क्यों? जितना होता है, उससे कुछ अपनी जरूरत पूरी हो जाती है और कुछ बाजार में बेच आते है. गांव में अगर किसी को दुख होता है या कमी होती है, तो जरूरत के हिसाब से उसे अनाज दे दिया जाता है. जब किसी को ज्यादा अनाज की जरूरत होती है, जैसे शादी के लिए, तो जितना अनाज लोग सहयोग में देते हैं, उससे थोड़ा ज्यादा वह वापस कर देता है.’

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धन्नो सिंह मरकाम के मुताबिक, ‘नए बीज के साथ रसायनों का उपयोग जरूरी होता जा रहा है. अब तक हम केवल वही बीज उपयोग में लाते हैं, जिनसे नया बीज बन सके और जो बिना रसायन के पैदा हो जाए. अब तो अपना बीज बचाना भी कठिन होता जा रहा है क्योंकि इस तरह की खेती के लिए सरकारी मदद नहीं मिलती है.’

बहरहाल, अब भी इस गांव के लोग छह तरह के धान, कोदो, कुटकी, सरसों, मक्का सरीखे अनाज, उरद, मसूर, चना, जैसी दालें उगाते हैं. उनका उत्पादन उनकी जरूरत को पूरा कर देता है. बिना रसायनों के वे भिंडी, लौकी जैसी 10 सब्जियां भी पैदा करते हैं. आठ तरह की भाजी जंगल से ही मिल जाती है. लगभग एक किलोमीटर की दायरे में फैले धनियाझोर गांव में और इसके आस-पास आम के 90 पेड़, पपीते के 70 पेड़, कटहल और इमली के 20 पेड़. लगे हुए हैं. सरसों का तेल उनके उपयोग में अहम है.

इस आदिवासी समाज में जिस तरह लोगों के रहने के लिए घर बने हैं, उसी तरह के घर पशुधन के लिए भी हैं. कोई भेदभाव नहीं. वे अच्छे से जानते हैं कि बिना पशुधन के इस तरह की खेती असंभव है. यही कारण है कि इस गांव के सभी घरों में 5 से लेकर 20 जानवर हैं. जो इन परिवारों को केवल दूध नहीं देते, बल्कि मक्खन भी देते हैं. वे मानते हैं कि जानवर के दूध पर सबसे पहला हक उसके बच्चे का होता है. जब तक पूरा दूध न पी ले, तब तक जानवर का दूध नहीं निकला जाता है. समाज स्वच्छता के अपने मानक बनाता है. हर घर साफ और मिट्टी-गोबर से लिपा हुआ है. अगर स्वच्छता का मतलब केवल शौचालय बनाना नहीं हो तो, इस गांव के घरों और लोगों से ज्यादा कुछ स्वच्छ नहीं है. महुआ से बना मादक पेय आदिवासी समुदाय की पहचान और चरित्र माना जाता रहा है. वे कहते हैं कि महुआ केवल पेय बनाने के काम नहीं आता है. यह भोजन भी रहा है और इसकी गुल्ली से तेल भी बनता है.

जंगल उनके जीवन का केंद्र रहा है, परंतु अब यह उनसे छीना जा रहा है. उन्हें पास के जंगल में प्रवेश की अनुमति नहीं है. प्रताप सिंह कहते हैं, ‘यदि कोई जानवर गांव के किसी व्यक्ति को मार देता है, तो कोई पूछने नहीं आता. साही और जंगली सूअर पूरी फसल उजाड़ देते हैं, तब भी कोई पूछने नहीं आता लेकिन अगर कोई हिरन अपनी मौत भी मर जाए, तो चार गाड़ियां आकार खड़ी हो जाती है. उन्हें लगता है कि हमने जानवर को मारा है.’ जंगल की तरफ देखते हुए वे कहते हैं, ‘इससे हमें अचार (चिरौंजी), मशरूम, कांदे, भाजी, आंवला, इमली और कई बीमारियों की दवाइयां मिलती थीं. अब हम खाली हाथ हैं. बारिश में कड़वा कांदा, गिर्ची कांदा और कनिहा कांदे मिलते हैं. अब मुश्किल होती है क्योंकि जंगल में जा नहीं सकते.  बहुत कुछ बचा होने के बाद भी कुछ चुनौतियां सामने बनी रहती हैं. अब केवल अनाज पैदा कर लेने से जिंदगी नहीं चलती है. अब तो नकद चाहिए क्योंकि इलाज गांव में संभव नहीं. बाहर जाना पड़ता है और फीस देनी पड़ती है, दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं. पिछले पांच-छह सालों में जब नकद की जरूरत बढ़ी, तो गांव से बाहर जाना ही पड़ा. अब कुछ लोग पैसा कमाने शहर जाते हैं और वापस भी आ जाते हैं. किसी ने गांव अब तक तो नहीं छोड़ा है. कब तक नहीं छोड़ेंगे, यह कह नहीं सकते.’

गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रभा धुर्वे कहती हैं, ‘अब गांव के लोग अपने उत्पादों को बाजार में बेचना चाहते हैं. खूब आम-पपीते होते हैं, खुद नहीं खाते हैं और बाजार में बेचते हैं. गांव की जड़ें बहुत मजबूत हैं, इसीलिए इस गांव में वर्ष 2004-05 के बाद पांच साल से कम उम्र के एक भी बच्चे की मृत्यु नहीं हुई है. गांव की आंगनबाड़ी में दर्ज 33 बच्चों में से दो बच्चियों का वजन कम था. इनमें से राजकुमारी को वर्ष 2012 में पोषण पुनर्वास केंद्र भेजा गया था. वहां उसका इलाज हुआ, जबकि रेखा को गांव में ही अंडा, आलू और घर का खाना सही तरीके से खिलाकर कुपोषण से मुक्त करवा लिया. बहरहाल जन्म लेते ही दो बच्चों की मृत्यु जरूर हुई है. वे कहती हैं कि अब महिलाओं को मूसली खाने को नहीं मिलती है, यह महिलाओं को स्वस्थ बनाती थी.’ वह कहती हैं, ‘धनियाझोर में बच्चों का टीकाकरण होता है. लोग कभी विरोध नहीं करते. बीमारी होने पर अब सबसे पहले इलाज अस्पताल या डाक्टर से करवाते हैं. यह व्यवहार तो ठीक ही बदला है, लेकिन गांव में और जंगल से मिलने वाले खाने को बचाना भी जरूरी है.’

मौसम पर भी गांव के लोगों की नजर बनी हुई है. जिस तरह से मौसम का चक्र और व्यवहार बदला है, वह संकट का संकेत है. प्रताप सिंह बताते हैं कि पहले जब बारिश शुरू होती थी, तब शुरुआती दिनों में खूब पानी गिर जाता था. वह बारिश अच्छे मौसम की बारिश होती थी. फिर थोड़े दिन रुककर बारिश होती थी. अब शुरुआत या तो बहुत तेज बारिश से होती है या बहुत कम बारिश से. दो दिन में ही इतना पानी गिर जाता है कि जमीन तो बहुत गीली हो जाती है, पर धार तेज होने के कारण पानी बह जाता है. इस तरह की बारिश कांदे और पुत्ती (मशरूम) के लिए अच्छी नहीं होती है. हमारी खेती भी ढलान की जमीनों पर है, जिससे थोड़ा पानी ज्यादा दिनों के लिए चाहिए होता है.

आजीविका की कमी से बढ़ रहा तनाव

पिछले 15 सालों में हिरमा बाई की ही मातृ मृत्यु हुई है, लेकिन अब यहां स्थिति बदल रही है. जंगल न जा पाने, आजीविका के अवसरों की कमी और बाजार के लिए नकद धन की बढ़ती जरूरत महिलाओं समेत सबको तनाव और डर दे रही है. अपनी जरूरत को सीमित रखकर गांव वाले जीना चाहते हैं, मगर वक्त उन्हें ऐसा करने नहीं दे रहा है. इस जंगल में 118 वन कम्पार्टमेंट हैं. धनियाझोर के लोगों ने इसमें हिस्सेदारी मांगी है क्योंकि उनका मानना है कि वे जंगल का केवल उपयोग नहीं करते हैं, बल्कि हमेशा से इसे बचाते भी आए हैं. वे सरकार से कहते भी हैं, ‘जब जंगल में आग लगी है तो उसे कौन बुझाता है- हम बुझाते हैं, हमारे गांव का हर बच्चा आग बुझाने जाता है. लेकिन वन अधिकार कानून तो केवल शमशान, गोठान, नाले, सड़क के ही हक देता है. पिछले 20-30 सालों में थोड़ी-बहुत भुखमरी आने का केवल यही कारण है.’ भोपाल और दिल्ली जा कर आ चुके प्रताप सिंह दो वाक्यों में इनसे अपने गांव की तुलना करते हैं, ‘इन शहरों में हमने केवल दो गोड़ (पैर) वाले जानवर देखे, हमारे यहां तो असंख्य हैं. शहर कभी साफ हवा और साफ पानी पैदा नहीं कर सकता, हमारा गांव करता है. मैंने कभी जूते नहीं पहने, शहर जाकर पहने क्योंकि वो लोग मुझ पर हंसते थे, पर हम उन पर नहीं हंसते. गांव हमें अनाज दे सकता है, सब्जी दे सकता है, जंगल हवा देता है, पानी देता है, हरियाली देता है, जानवरों को घर देता है. शहर क्या देता है? बहुत कुछ देता है, पर जो शहर देता है, क्या उसके बिना जीवन संभव नहीं है? शायद है… मगर जो गांव और जंगल देते हैं, क्या उसके बिना जीवन संभव है, यह सोचने वाली बात है.’

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विवाह की लमसना परंपरा

समाज एक संरक्षक की भूमिका में भी रहता ही है. ‘लमसना’ परंपरा के तहत जिया लाल की बेटी फगनी बाई का बैजलपुर के नैन सिंह के साथ विवाह हुआ. धनियाझोर के गोंड समुदाय के जिस आदिवासी परिवार में केवल लड़की होती है, वहां दूसरे परिवार या दूसरे गांव के परिवार के लड़के को सदस्य के रूप में स्थान दिया जाता है. वह लड़का कुछ महीने तक उसी परिवार में रहता है. और यदि परिवार के सदस्य और लड़की उसे ‘लायक’ पाते हैं, तो सहमति होने पर उसका विवाह लड़की से किया जाता है. यदि लड़के को लायक नहीं पाया जाता है, तो वह अपने घर वापस चला जाता है. विवाह के बाद लड़का लड़की के घर पर ही रहता है. इस परंपरा से कहीं कोई टकराव या वैमनस्यता नहीं होता है. फगनी बाई के लिए विवाह का मतलब जबरिया का बंधन नहीं था. फगनी को अगर कभी ये लगे कि उसके जीवन साथी का व्यवहार और शैली मानकों के मुताबिक नहीं है, तो वह सम्मान के साथ अलग भी हो सकती हैं. इसमें उस पर कोई दोषारोपण नहीं होगा. इस तरह की स्त्री के अस्तित्व को सम्मान और समानता का दर्जा देने वाली खुली और जिम्मेदार व्यवस्था क्या आधुनिक समाजों में है? बहरहाल सरकारी पंचायती राज व्यवस्था धनियाझोर गांव को कभी नहीं सुहाई. वे मानते हैं कि इससे हमारे रिश्ते टूटे हैं और अपने की लोगों पर अविश्वास बढ़ा है.

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कभी रवीश कुमार मत बनना

Ravish Kumar-webअपने आप को नौजवानों की आंखों में चमकते देखना किसे नहीं अच्छा लगता होगा. कोई आप से मिलकर इतना हैरान हो जाए कि उसे सबकुछ सपने जैसा लगने लगे तो आप भी मान लेंगे कि मुझे भी अच्छा लगता होगा. कोई सेल्फी खींचा रहा है कोई ऑटोग्राफ ले रहा है. लेकिन जैसे-जैसे मैं इन हैरत भरी निगाहों की हकीकत से वाकिफ होता जा रहा हूं, वैसे-वैसे मेरी खुशी कम होती जा रही है. मैं सुन्न हो जाता हूं. चुपचाप आपके बीच खड़ा रहता हूं और दुल्हन की तरह हर निगाह से देखे जाने की बेबसी को झेलता रहता हूं. एक डर-सा लगता है. चूंकि आप इसे अतिविनम्रता न समझ लें इसलिए एक मिनट के लिए मान लेता हूं कि मुझे बहुत अच्छा लगता है. मेरे लिए यह भी मानना आसान नहीं है लेकिन यह इसलिए जरूरी हो जाता है कि आप फिर मानने लगते हैं कि हर कोई इसी दिन के लिए तो जीता है. उसका नाम हो जाए. अगर सामान्य लोग ऐसा बर्ताव करें तो मुझे खास फर्क नहीं पड़ता. मैं उनकी इनायत समझ कर स्वीकार कर लेता हूं लेकिन पत्रकारिता का कोई छात्र इस हैरत से लबालब होकर मुझसे मिलने आए तो मुझे लगता है कि उनसे साफ-साफ बात करनी चाहिए.

मुझे यह तो अच्छा लगता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ने वाले तेईस-चौबीस साल के नौजवानों के चेहरे पर अब भी वही आदर्श और जुनून दिखता है. मुझसे मिलने वाले छात्रों में यह ललक देखकर दिल भर जाता है. सचमुच प्यार आता है. अच्छा लगता है कि तमाम निराशाओं के बाद भी आने वाले के पास उम्मीदों की कोई कमी नहीं है. उनके सवालों में यह सवाल जरूर होता है कि आप कितने दबाव में काम करते हैं. सवाल पूछने के लिए दबाव होता है या नहीं. रिपोर्टिंग कैसे बेहतर करें. आपका सारा शो देखते हैं. मेरे घर में सब प्राइम टाइम देखते हैं. मेरी मां तो आपकी फैन है. दीदी के ससुराल में भी सारे लोग देखते हैं. आप फिर कब रवीश की रिपोर्ट करेंगे. सर, क्या हम चुनाव की रिपोर्टिंग में आपके साथ चल सकते हैं. हमने आपकी रिपोर्ट पर प्रोजेक्ट किया है.

दोस्तों, ईमानदारी से कह रहा हूं, आपकी बातें लिखते हुए आंखें भर आईं हैं. पर आपकी बातों से मुझे जो अपने बारे में पता चलता है वो बहुत कम होता है. इस कारण मैं भी आपके बारे में कम जान पाता हूं लेकिन जो पता चलता है उसके कारण लौटकर दुखी हो जाता हूं. मुझे नहीं मालूम कि पत्रकारिता की दुकानों में क्या पढ़ाया जाता है और क्या सपने बेचे जाते हैं क्योंकि मुझे पत्रकारिता के किसी स्कूल में जाने का मन नहीं करता. जब विपरीत स्थिति आएगी तो चला जाऊंगा क्योंकि मेहनताना तो सबको चाहिए लेकिन जब तक अनुकूल परिस्थिति है मेरा जी नहीं करता कि वहां जाकर मैं खुद भी आप जैसे नौजवानों के सपनों का कारण बन जाऊं. इसलिए दोस्तों साफ-साफ कहने की अनुमति दीजिए. आपमें से ज्यादातर को पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर उल्लू बनाया जा रहा है. मुझे नहीं लगता कि दस-बीस शिक्षकों को छोड़कर हमारे देश में पत्रकारिता पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक हैं. हमें समझना चाहिए कि पत्रकारिता की पढ़ाई और शाम को डेस्क पर बैठकर दस पंक्ति की खबर लिख देना एक नहीं है. पत्रकारिता की पढ़ाई का अस्सी फीसदी हिस्सा अकादमिक होना चाहिए. कुछ शिक्षकों ने व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर इस क्षेत्र में अपने आपको बेहतर जरूर किया है लेकिन उन तक कितने छात्रों की पहुंच हैं. इन दो-चार शिक्षकों में से आधे से ज्यादा के पास अच्छी और पक्की नौकरी नहीं है.

जिन लोगों को पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए नौकरी मिली है वो हमारे ही पेशे से गए हुए लोग हैं. जो नौकरी करते हुए डिग्री ले लेते हैं और नेट करने के बाद कहीं लग जाते हैं. इनमें से ज्यादतर वे लोग होते हैं जो पेशे में खराब होते हैं, किसी वजह से चटकर अपने राजनीतिक और जातिगत टाइप के संपर्कों का इस्तेमाल कर लेक्चरर बन जाते हैं. कुछ इस संयोग से भी बन जाते हैं कि संस्थान को कोई दूसरा नहीं मिला. कुछ उम्र के कारण पत्रकारिता में बेजरूरी कर दिए जाते हैं तो अपनी इस डिग्री को झाड़पोंछ कर क्लास में आ जाते हैं. इनमें से कुछ लगन से पढ़ाते हुए अच्छे शिक्षक भी बन जाते हैं लेकिन इस कुछ का प्रतिशत इतना कम है कि उनके आधार पर आपके भविष्य की बात नहीं की जा सकती.

मैं यह जानते हुए कि हमारे पेशे में अनेक खराबियां हैं, कहना चाहता हूं कि ऐसे संस्थानों और शिक्षकों से पढ़कर आप कभी पत्रकार नहीं बन सकते हैं. भारत में पत्रकारिता को ढंग से पढ़ाने और प्रशिक्षण देने के लिए कुछ सेंटर जरूर विकसित हुए हैं लेकिन ज्यादातर इसके नाम पर दुकान ही हैं. जहां किसी कैमरामैन या किसी एंकर को लेक्चर के लिए बुला लिया जाता है और वो अपना निजी अनुभव सुनाकर चला जाता है. मैं कई अच्छे शिक्षकों को जानता हूं जिनके पास नौकरी नहीं है. वे बहुत मन से पढ़ाते हैं और पढ़ाने के लिए खूब पढ़ते हैं. जो शिक्षक अपने जीवन का बंदोबस्त करने के तनावों से गुजर रहा है वो  आपकी उम्मीदों को खाद-पानी कैसे देगा. सोचिए उनकी ये हालत है तो आपकी क्या होगी. इसलिए बहुत सोच-समझकर पत्रकारिता पढ़ने का फैसला कीजिएगा. इंटर्नशिप के नाम पर जो गोरखधंधा चल रहा है वो आप जानते ही होंगे. मुझे ज््यादा नहीं कहना है. सारी बगावत मैं ही क्यों करूं. कुछ समझौते मुझे भी करने दीजिए.

आप छात्रों से बातचीत करते हुए लगता है कि आपको भयंकर किस्म के सुनहरे सपने बेचे गए हैं. यही कि आप पत्रकार बनकर दुनिया बदल देंगे और मोटी फीस इसलिए दीजिए कि मोटे वेतन पर खूब नौकरियां छितराई हुई हैं. नौकरियां तो हैं पर खूब नहीं हैं. वेतन भी अच्छे हैं पर कुछ लोगों के अच्छे होते हैं. आप पता करेंगे कि तमाम संस्थानों से निकले छात्रों में से बहुतों को नौकरी नहीं मिलती है. कुछ एक-दो साल मुफ्त में काम करते हैं और कुछ महीने के पांच दस हजार रुपये पर. दो-चार अच्छे अखबार और चैनल अपवाद हैं. जहां अच्छी सैलरी होती हैं लेकिन वहां भी आप औसत देखेंगे तो पंद्रह-बीस साल लगाकर बहुत नहीं मिलता है. ज्यादातर संस्थानों में पत्रकारों की तनख्वाह धीमी गति के समाचार की तरह बढ़ती है. हो सकता है कि उनकी योग्यता या काम का भी योगदान हो लेकिन ये एक सच्चाई तो है ही. अभी देख लीजिए कुछ दिन पहले खबर आई थी कि सहारा में कई पत्रकारों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है. पत्रकारों की नौकरियां चली गईं या जा रही हैं या ऐसी हालत है कि करना मुश्किल है. जो भी परिस्थिति हो लेकिन पत्रकार को कौन पूछ रहा है. उन्हें न तो नई नौकरी मिल रही है न नया रास्ता बन पा रहा है. ठीक है कि ऐसी परिस्थिति किसी भी फील्ड में आती है लेकिन दुखद तो है ही. सहारा छोड़ दीजिए तो आप जिलों में तैनात पत्रकारों की सैलरी का पता कर लीजिए. पता होना चाहिए. एक स्टार एंकर की सच्चाई पत्रकारिता की सच्चाई नहीं हो सकती.

आपने उन सपनों को काफी पैसे देकर और जिंदगी के कीमती साल देकर खरीदे हैं. इन सपनों को बेचने के लिए हम जैसे दो-चार एंकर पेश किए जाते हैं. आपकी बातचीत से यह भी लगता है कि आपको हमारे जैसे दो-चार एंकरों के नाम तो मालूम हैं लेकिन अच्छी किताबों के कम. ये आपकी नहीं, आपके टीचर की गलती है. आपमें से ज्यादातर साधारण या ठीकठाक परिवेश से आए हुए होते हैं इसलिए समझ सकता हूं कि पांच सौ, हजार रुपये की किताब खरीदकर पढ़ना आसान नहीं है. यह भी पता चलता है कि आपके संस्थान की लाइब्रेरी अखबारों-चैनलों में काम कर रहे दो-चार उत्साही लोगों की औसत किताबों से भरी पड़ी है जिनके शीर्षक निहायत ही चिरकुट टाइप के होते हैं. मसलन रिपोर्टिंग कैसे करें, एंकरिंग कैसे करें या राजनीतिक रिपोर्टिंग करते समय क्या-क्या करना, मीडिया और समाज, अपराध रिपोर्टिंग के जोखिम. एक बात का ध्यान रखिएगा कि हमारे नाम का इस्तेमाल कर लिखी गईं किताबों से आपको पेशे के किस्से तो मिल जाएंगे मगर ज्ञान नहीं मिलेगा. प्रैक्टिकल इतना ही महत्वपूर्ण होता तो मेडिकल के छात्रों को पहले ही दिन आॅपरेशन थियेटर में भेज दिया जाता. देख-पूछकर वो भी तीन महीने के बाद आॅपरेशन कर ही लेते.

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पढ़ाई को पढ़ाई की तरह किया जाना चाहिए. हो सकता है कि अब मैं बूढ़ा होने लगा हूं इसलिए ऐसी बातें कर रहा हूं लेकिन मैं भी तो आपके ही दौर में जी रहा हूं. पढ़ाई ठीक नहीं होगी तो चांस है कि आपमें से ज्यादातर लोग अच्छे पत्रकार नहीं बन पाएंगे. हिंदी के कई पत्रकार साहित्य को ही पढ़ाई मान लेते हैं. उन्हें यह समझना चाहिए कि साहित्य की पत्रकारिता हो सकती है मगर साहित्य पत्रकारिता नहीं है. साहित्य एक अलग साधना है. इसमें कोई प्राणायाम नहीं है कि आप इसका पैकेज बनाकर पत्रकारिता में बेचने चले आएंगे. इसलिए आप अलग से किसी एक विषय में दिलचस्पी रखें और उससे जुड़ी किताबें पढ़ें. जैसे मुझे इन दिनों चिकित्सा के क्षेत्र में काफी दिलचस्पी हो रही है. इरादा है कि दो तीन साल बाद इस क्षेत्र में रिपोर्टिंग करूंगा या लिखूंगा या कम से कम देखने-समझने का नजरिया तो बनेगा. इसके लिए मैंने मेडिकल से जुड़ी तीन-चार किताबें खरीदी हैं और एक दो किसी ने भेज दी हैं.

तो मैं कह ये रहा था कि पढ़ना पड़ेगा. आज भी चैनलों में कई लोग जो अपने हिसाब से अच्छा कार्यक्रम बनाते हैं (वैसे होता वो भी औसत और कई बार घटिया ही है) उनमें भी पढ़ने की आदत होती है या ये कला होती है कि कहां से क्या पढ़ लिया जाए कि कुछ बना दिया जाए. मगर ‘कट’ और ‘पेस्ट’ वाली से बात बनती नहीं है. ये आपको बहुत दूर लेकर नहीं जाएगा. मैं यह नहीं कह रहा कि आप पढ़ते नहीं होंगे लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि जो आपको पढ़ाया जा रहा है उसका स्तर बहुत अच्छा नहीं है. आप इसे लेकर बेहद सतर्क रहें. अगर पढ़ाया जाता तो पत्रकारिता संस्थानों से आए छात्रों की बातचीत में किताबों या संचार की दुनिया में आ रहे बदलाव या शोध का जिक्र तो आता ही.

मैंने बिल्कुल भी यह नहीं कहा कि पत्रकारिता की समस्या ये है कि आने वाले छात्रों में जज्बा नहीं है या वे पढ़े-लिखे नहीं हैं. इस तरह के दादा टाइप उपदेश देने की आदत नहीं है. आप लोग हमारे दौर से काफी बेहतर हैं. मैं बता रहा हूं कि सिस्टम आपको खराब कर रहा है. वो आपके जज्बेे का सही इस्तेमाल ही नहीं करना चाहता. किसी को इंतजार नहीं है कि कोई काबिल आ जाए और धमाल कर दे. वैसे इस लाइन में किसी को काबिल बनने में कई साल लग जाते हैं. मेरी राय में लगने भी चाहिए तभी आप इस यात्रा का आनंद लेना सीख सकेंगे. कई जगहों पर जाएंगे, कई बार खराब रिपोर्ट करेंगे, उनकी आलोचनाओं से सीखेंगे. यह सब होगा तभी तो आप पांच खराब रिपोर्ट करेंगे तो पांच अच्छी और बहुत अच्छी रिपोर्ट भी करेंगे.

अब आता हूं आपकी आंखों में जो एंकर होते हैं उन पर. मित्रों आप खुद को धोखा दे रहे हैं. हम जैसे लोग उस मैनिक्विन (पुतला) की तरह है जो दुकान खुलते ही बाहर रख दिए जाते हैं. मैनिक्विन की खूबसूरती पर आप फिदा होते हैं तो ये आपकी गलती है. पत्रकारिता में आप पत्रकार बनने आइए. किसी के जैसा बनने मत आइए. फोटोकाॅपी चलती नहीं है. कुछ समय के बाद घिस जाती है. राहू-केतु के संयोग पर यकीन रखते हैं तो मैं अपनी सारी बातें वापस लेता हूं. इस लाॅजिक से तो आप कुछ कीजिए भी नहीं, एक दिन क्या पता प्रधानमंत्री ही बन जाएं या फिर बीसीसीआई के चेयरमैन या क्या पता आपकी बनाई किसी कंपनी में मैं ही नौकरी के लिए खड़ा हूं. मुझे लगता है कि आप लोग खुद को धोखा दे रहे हैं और आपको धोखा दिया जा रहा है. एक दिन आप रोएंगे. धकिया दिए जाएंगे. इसलिए अपना फैसला कीजिए. आपका दिल टूटेगा तब आपको रवीश कुमार बनने का वो सपना बहुत सताएगा.

मैं क्यों कह रहा हूं कि आपको रवीश कुमार नहीं बनना चाहिए. इसलिए कि आपकी आंखों में खुद को देख मैं डर जाता हूं. मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे आप प्रभावित हों. आप पत्रकार बनने वाले हैं, कम-से-कम प्रभावित होने की प्रवृत्ति होनी चाहिए. यह भी ठीक नहीं होगा कि देखते ही मुझे गरिया दें लेकिन प्लीज खुदा न कहें और मेरी तुलना किसी फिल्म स्टार से न करें. मैं ऐसा कुछ भी नहीं हूं जो आपको बनना चाहिए. हम न अपने आप में संस्थान हैं न सिस्टम. हम न बागी हैं, न क्रांतिकारी. यही सीखा है कि अपना काम करते चले जाओ. अगर आप ने मुझे मंजिल बना लिया तो निराशा होगी.

मुझे पता है कि आपसे इंटरव्यू में पूछा जाता है कि किसी अच्छे पत्रकार का नाम बताओ या किसके जैसा बनना चाहते हो. इंटरव्यू लेने वाले फिर मुझे बताते हैं कि ज्यादातर छात्र आप ही का नाम लेते हैं. आपको क्या लगता है कि मैं खुश हो जाता हूं. सुन लेता हूं लेकिन मेरा दिल बैठ जाता है. यह सोचकर कि क्या उन्हें पता है कि रवीश कुमार होना कुछ नहीं होना होता है. किसी के जैसा बनने का यह सवाल भी गिनीज बुक के लिए रिकॉर्ड बनाने जैसा वाहियात है कि किसके जैसा बनना है. आपको मैं बता रहा हूं कि मैं कुछ नहीं हूं. मेरे पास न तो कोई जमीन है और न आसमान. आप मुझे देखते हुए किसी शक्ति की कल्पना तो बिल्कुल ही न करें. जरूर हम लोग व्यक्तिगत साहस और ईमानदारी के दम पर सवाल पूछते हैं लेकिन हम किसी सिस्टम या पेशे की सच्चाई नहीं हो सकते. हम अपवाद भी तो हो सकते हैं.

मोटा-मोटी मैं यह कह रहा हूं कि हम लोग सामान्य लोग होते हैं. हमारे जैसे लोग चुटकी में चलता कर दिए जाते हैं और सिस्टम डस्टबिन में फेंक देता है. समाज भूल जाता है. अनेक उदाहरण हैं. कुछ उदाहरण हैं कि समाज बहुत इज्जत भी करता है और याद भी रखता है. प्यार भी करता है. कई लोग लस्सी और दूध लेकर आ जाते हैं. मेरे दर्शकों ने मुझे घी और गुड़ भी दिया है. कैडबरी के चाॅकलेट भी दिए हैं. लेकिन मैं आपके सपनों की सच्चाई नहीं हो सकता. हम सबको पेशे में आने वाले उतार-चढ़ावों से गुजरना पड़ेगा. कुछ गुजरे भी हैं और जो नहीं गुजरे हैं वे दावे से नहीं कह सकते कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा. इसलिए अगर आप पत्रकारिता के छात्र हैं जो दो-चार एंकरों का चक्कर छोड़िए. उनके शो देखकर इस भ्रम में मत रहिएगा कि आप पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ रहे हैं. अगर भ्रम में नहीं रहते हैं तो बहुत अच्छी बात है. आप तमाम माध्यमों को देखिए, जहां हिंदी-अंग्रेजी के कई पत्रकार अच्छी और गहरी समझ से रिपोर्ट लिख रहे हैं. उनकी रिपोर्ट का विश्लेषण कीजिए. उनसे बात कीजिए कि खबर तक पहुंचने के क्या कौशल होना चाहिए. आपके टीचर ने गलत बताया है कि टीवी का पत्रकार बनना है तो चैनल देखो या रवीश कुमार को देखो. उनसे कहियेगा कि खुद रवीश कुमार महीने में कुल जमा चार घंटे भी चैनल नहीं देखता है.

आप सबकी मासूमियत और ईमानदारी देखकर जी मचलता है. लगता है कि क्या किया जाए कि आपको खरोंच तक न लगे. जज्बा बचा रहे. पर मैं एक व्यक्ति हूं. मैं सोच सकता हूं, लिख सकता हूं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता. सही बात है कि अब कुछ करना भी नहीं चाहता. शायद इसी बेचैनी के कारण यह सब लिखने की मूर्खता कर रहा हूं. आपके रवीश कुमार कुछ नहीं हैं. आप उनकी वक्ती लोकप्रियता पर मोहित मत होइए. हमने जरूर अपने अनुशासन से साख बनाई है और यह जरूरी हिस्सा है लेकिन यह भी समझिए कि मुझे बहुत अच्छे मौके मिले हैं. सबकी कहानी में दुखभरी दास्तान होती हैं. मेरी भी है लेकिन इसके बावजूद मुझे अच्छे मौके मिले हैं. पूरी प्रक्रिया को समझिए और फिर उसमें हम जैसे तथाकथित स्टार एंकरों को रखकर देखिए.

पूरी पत्रकारिता को स्टार एंकर की अवधारणा में नहीं समेटा जा सकता. एंकर हर खबर या हर रिपोर्टर का विकल्प नहीं हो सकता. कम से कम मैं नहीं हो सकता. लेकिन अब का दौर ऐसा ही है. आपके पास टीवी में इसका विकल्प नहीं है. कई जगहों पर प्रयास हो रहा है लेकिन जैसे ही कोई मसला आता है वे मसाला बनाने में लग जाते हैं. दर्शक भी वैसे ही हो गए हैं. किसी रिपोर्टर की स्टोरी को ध्यान से नहीं देखते. यही गिनती करते रहते हैं कि किस एंकर ने कौन सी स्टोरी पर बहस की और किस पर नहीं की ताकि वे खुद को संतुष्ट कर सकें कि ऐसा उसने किसी पार्टी के प्रति पसंद-नापसंद के आधार पर किया होगा.

इसलिए आप इन एंकरों को महाबलि न समझें कि वह देश के तमाम मुद्दों पर इंसाफ कर देगा. हर मुद्दे पर प्रतिबद्धता साबित कर देगा या सही तरीके से कार्यक्रम कर देगा. सबको सबक सीखा देगा. बैकग्राउंड में तूफान फिल्म का गाना बजेगा, आया-आया तूफान… भागा-भागा शैतान… ऐसा होता नहीं है दोस्तों. आप देख ही रहे हैं कि हम एंकरों की तमाम चौकसी के बाद भी जवाब कितने रूटीन हो गए हैं. दरअसल ये जवाब बताते हैं कि तुम सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ सकते. ज्यादा करोगे तो सोशल मीडिया के जरिए दर्शकों को बता देंगे कि हमारी पार्टी के खिलाफ हो. दर्शक भी जल्दी ही अपनी पार्टी की निष्ठा की नजर से देखने लगेंगे और आपका साथ छोड़ देंगे. मैं रोज इस अकेलेपन को जीता हूं. यह भयावह है. आप व्यापमं करो तो लोग कहते हैं कि यूपी में भी तो व्यापमं है. इन उदाहरणों में फंसाकर आपसे कहा जाता है कि तराजू के पलड़े पर बेंग (मेंढक) तौलकर दिखाओ. एक बेंग इधर रखेंगे तो दूसरा उधर से कूद जाएगा.

इसलिए नौजवान दोस्तों कभी रवीश कुमार मत बनना. अपना रास्ता खुद बनाओ. मुझे जो बनना था कथित रूप से बन चुका हूं. तुम्हें दिनेश बनना होगा, असलम बनना होगा, जाटव बनना होगा, संगीता या सुनीता बनना होगा. ये तभी बनोगे जब तुम्हें कोई मौका देगा. जब तुम उस मौके के लिए अपने आप को तैयार रखोगे और अपने हिसाब से सीमाओं का विस्तार करते चलोगे. हाॅस्टल में बैठ कल मेरा फैन बनकर अपना वक्त मत बर्बाद करना. बहुत ही महत्वपूर्ण दौर है तुम्हारा. इसका सदुपयोग करो. लोकप्रियता किसी काम की नहीं होती है. कोई तुम्हें हम लोगों का नाम लेकर ठग रहा है. बचना इससे. इसके लिए पत्रकार मत बनना. पत्रकार बनना पत्रकारिता के लिए, बशर्ते कोई तुम्हारे इस जज्बेे का इंतजार कर रहा हो. मुझे भी बताना कौन तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहा है.

(लेखक एनडीटीवी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं)

पत्रकारिता या पीआर

क्या नेटवर्क 18, दैनिक भास्कर समूह, जी नेटवर्क, टाइम्स ग्रुप या ऐसे तमाम मीडिया समूह जनतंत्र की मूल आत्मा और उसके ढांचे के लिए खतरनाक हैं जो एक ही साथ दर्जनभर से ज्यादा ब्रांड को चमकाने और उनसे अपने मीडिया बिजनेस का प्रसार करने में लगे हैं? देश के इन प्रमुख मीडिया घरानों के संबंध में अगर ये बात सवाल की शक्ल में न करके बयान देने के तौर पर की जाए तो बहुत संभव है कि इनकी ओर से संबंधित व्यक्ति पर मानहानि का मुकदमा या कम से कम कानूनी नोटिस तो भेजा ही जाएगा. लेकिन भारत सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय, उसकी सहयोगी संस्था टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) और मीडिया के मालिकाना हक को लेकर समय-समय पर गठित कमेटी पिछले कुछ सालों से लगातार इस बात को दोहराती आई हैं कि जो मीडिया संस्थान एक ही साथ प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो, ऑनलाइन और मीडिया के कई दूसरे व्यवसाय से जुड़े हैं, वे दरअसल देश के लोकतांत्रिक ढांचे और उसकी बुनियाद कमजोर करने का काम कर रहे हैं.

15 फरवरी 2013 को ट्राई ने मीडिया के मालिकाना हक को लेकर करीब सौ पेज से भी ज्यादा का जो परामर्श पत्र तैयार किया, उसमें क्रॉस मीडिया ओनरशिप को परिभाषित किए जाने से लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय एवं उसके आदेश से तैयार की गई उन तमाम रिपोर्टों की चर्चा है जो कि क्रॉस मीडिया ओनरशिप को जनतंत्र के लिए खतरा मानती है. इस पत्र में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और ऑनलाइन जैसे दूसरे माध्यमों पर कुछ ही मीडिया संस्थानों का कब्जा होने से समाचार एवं मनोरंजन सामग्री की बहुलता नष्ट होती है. माध्यम के अलग होने के बावजूद भी कंटेंट के स्तर पर बहुत अधिक भिन्नता नहीं होती. ऐसे में माध्यमों के रूप बदलने और संख्या में इजाफा होते जाते जाने पर भी विविधता जो कि जनतंत्र के लिए अनिवार्य है, आ नहीं पाती, उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता. लिहाजा इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूत है.

एक ही मीडिया घराने के समाचारपत्र, न्यूज चैनल, एफएम रेडियो और वेबसाइट से गुजरने वाले पाठक-दर्शक ये बात बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि माध्यम के बदले जाने के बावजूद कंटेंट और प्रभाव के स्तर पर हमारे बीच सूचना एवं मनोरंजन के दायरे का विस्तार क्यों नहीं हो पाता? ये भी संभव है कि सामान्य दर्शक-पाठक को इस बात की जानकारी तक न हो कि वो जो अखबार पढ़ रहे हैं, न्यूज चैनल देख रहे हैं, एफएम रेडियो सुन रहे हैं या विज्ञापन से गुजर रहे हैं, वो सबके सब एक ही मीडिया संस्थान की उपज है. इन सबों पर एक ही संस्थान का मालिकाना हक है.

मीडिया इंडस्ट्री पर आधारित वेबसाइट ‘न्यूज लॉन्ड्री’ ने ये बताने के लिए कि दर्शक-पाठक जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानकर जुड़ते हैं, उन पर किन-किन व्यावसायिक घरानों का कब्जा है और किस घराने में किन राजनीतिक, कॉर्पोरेट और मीडियाकर्मियों का पैसा लगा है, अलग से एक विंडो ही बनाई हुई है. वेबसाइट पर ‘हू ओन्स योर मीडिया’ (आपका मीडिया कौन चला रहा है) नाम से एक साइड बार है जिससे गुजरने पर क्रॉस मीडिया ओनरशिप की पूरी वंशावली स्पष्ट हो जाती है.

सूचना और प्रसारण मंत्रालय एवं ट्राई अभी तक क्रॉस मीडिया ओनरशिप के तहत सिर्फ माध्यमों के मालिकाना हक पर रिपोर्ट तैयार करती आई है. इस वेबसाइट के जरिए मालिकाना हक की वंशावली से जब गुजरते हैं तब अंदाजा लगता है कि जिस क्रॉस मीडिया ओनरशिप को ये जनतंत्र के लिए खतरा बता रहे हैं, वो सिर्फ प्रारंभिक चरण है. इस खतरे को समझने के लिए ऊपर की परतें हैं जबकि मीडिया की जो व्यावसायिक शक्ल है वो इससे कहीं अधिक चिप्पीदार हैं जिनमें एक ही मीडिया संस्थान पर इतने सारे व्यवसाय के पैबंद लगे हैं कि इस निष्कर्ष तक पहुंचने में बहुत मुश्किल नहीं होती कि मौजूदा दौर में मीडिया दरअसल वो वॉल मार्ट है जो अपनी दखल उन तमाम व्यवसायों में रखना चाहता है जिसका संबंध या तो प्रत्यक्ष मुनाफे या फिर अप्रत्यक्ष व्यावसायिक लाभ (सरोगेट बिजनेस प्रॉफिट) से है. मिसाल के तौर पर डीएमके प्रमुख करुणानिधि के पड़पोते और कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन के भाई कलानिधि मारन जो कि देश में सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाले सीईओ हैं, एक ही साथ 45 रेडियो स्टेशन, दर्जनभर से भी ज्यादा टीवी चैनल, समाचारपत्र और पत्रिकाओं पर मालिकाना हक रखने के साथ-साथ स्पाइसजेट एयरलाइंस, फिल्म प्रोडक्शन और डीटीएच सेवा के व्यवसाय से जुड़े हैं यानी उनकी कंपनी ‘कल मीडिया सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ का एक तरफ तो मीडिया के तमाम रूपों पर व्यावसायिक कब्जा है, इससे बिल्कुल अलग एयरलाइंस जैसे व्यवसाय में भी दखल है.

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ये कहानी सिर्फ सन ग्रुप की नहीं है. यही स्थिति भास्कर ग्रुप, दैनिक जागरण समूह, जी नेटवर्क या ऐसे दूसरे दर्जनों मीडिया घरानों की है जो एक ही साथ न्यूज चैनल, रेडियो स्टेशन, समाचारपत्र के कारोबार में लगी है तो दूसरी तरफ चिटफंड, ठेकेदारी, कोयला एवं खनन, मॉल एवं रियल एस्टेट से लेकर स्कूल चलाने तक धंधे का विस्तार करने में लगी है. पर्ल ग्रुप, लाइव इंडिया समूह जैसे मीडिया के दर्जनों संस्थान ऐसे हैं जिनका मुख्य व्यवसाय चिटफंड या रियल एस्टेट रहा है, जिनकी मदर कंपनी मीडिया नहीं है. अपने कई दूसरे व्यवसायों के साथ-साथ वो मीडिया के भी कारोबार में भी हाथ आजमाने उतरे हैं.

ऊपरी तौर पर जो स्थिति बनती है इसमें तीन तरह के कारोबार प्रमुखता से जुड़े हैं. एक तो कॉर्पोरेट जिसमें कि चिटफंड से लेकर रियल एस्टेट तक के बिजनेस शामिल हैं, दूसरा राजनीति और तीसरा डिस्ट्रीब्यूशन एवं पीआर प्रैक्टिस. मीडिया का पूरा कारोबार किसी न किसी रूप में इन्हीं व्यवसायों से जुड़े लोगों के बीच चल रहा है. अब अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि खबरों या मनोरंजन का कारोबार करते हुए मीडिया संस्थान एक ही साथ कई दूसरे कारोबार के लिए अपनी पृष्ठभूमि बनाने या संतुलन बनाने का काम करते हैं.

मीडिया के इस ओनरशिप पैटर्न को हम कंटेंट के हिसाब से समझने की कोशिश करें तो स्वाभाविक है कि माध्यमों की बहुलता के बावजूद सामग्री के स्तर पर एकरूपता होगी. लेकिन इसका दूसरा पक्ष जो कि आमतौर पर चर्चा में नहीं आ पाता वो ये है कि क्या एक मीडियाकर्मी प्रेस कार्ड का पट्टा लगाकर सिर्फ अपने पत्रकारीय धर्म का निबाह कर रहा होता है या फिर उसका काम सिर्फ पत्रकारिता का रह गया है? दूसरा कि क्या उस पर सिर्फ अपने संबंधित न्यूज चैनल या अखबार के प्रसार की चिंता है? ये सवाल तब और भी जरूरी हो जाता है जब एस्सेल ग्रुप (जिसके दूसरे कई कॉर्पोरेट उपक्रम के अलावा मीडिया में जी न्यूज से लेकर जी सलाम जैसे दर्जनभर से भी ज्यादा चैनल हैं और डिश टीवी नेटवर्क का कारोबार है) के चेयरमैन डॉ. सुभाष चंद्रा लोकसभा चुनाव 2014 में एक राजनीतिक दल के लिए कुरुक्षेत्र में रैली के दौरान वोट देने की अपील करते हैं. इस रैली को जी न्यूज पर लाइव प्रसारित किया जाता है और फिर प्राइम टाइम की खबर बनती है. इस चैनल का संपादक जब खबर के बदले विज्ञापन में बिचौलिए की भूमिका में सौदेबाजी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है तो इंडिया गेट पर इस चैनल के मीडियाकर्मियों को मोमबत्ती जलाकर विरोध प्रदर्शन करने के लिए दवाब बनाया जाता है. देर रात सामान्य दर्शक स्टूडियो में रुक नहीं सकते तो इंडिया टीवी अपने ही कर्मचारियों को मेल जारी करते हुए अपने रिश्तेदारों को बतौर दर्शक मौजूद रहने के आदेश देता है. ऐसे में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि मीडिया की इस ओनरशिप पैटर्न में मीडियाकर्मी का काम सिर्फ पत्रकारिता के दायरे के तहत काम करना रह गया है. स्वाभाविक है कि जैसे-जैसे मीडिया संस्थानों ने पत्रकारिता के नाम पर अपने व्यवसायिक दायरे का विस्तार किया है, मीडियाकर्मियों की जिम्मेदारी पत्रकारिता से आगे जाकर पीआर, लॉबिंग, लाइजनिंग, रिसेप्शनिस्ट जैसे उन कामों की भी हो गई है जिसका सैद्धांतिक तौर पर मीडिया से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है.

दूसरा कि खासकर टेलीविजन इंडस्ट्री के संदर्भ में सब टीआरपी के लिए किया जाता है, मुहावरा ही बन गया है और अब तो ये मुहावरा इतना घिस गया है कि गली-मोहल्ले के सामान्य दर्शक तो बात-बेबात इसका इस्तेमाल करते हैं. पैनल डिस्कशन में अक्सर राजनीतिक दलों के प्रवक्ता तक बोलते नजर आते हैं. एक तरह से मीडिया के इस बदलते चरित्र पर पर्दा ही डालने का काम करते हैं. पत्रकारीय जिम्मेदारी से छिटककर मीडियाकर्मी जिन सारी गतिविधियों में शामिल हैं उनसे टीआरपी का सवाल दूर-दूर से जुड़ा नहीं है बल्कि ये वो गतिविधियां हैं जिसका संबंध मीडिया संस्थान के उस प्रमुख व्यवसाय से है जिसके बूते चैनल के बने रहने की संभावना मजबूत होती है. जिस दिन मीडिया संस्थान का मूल व्यवसाय गड़बड़ाया नहीं कि मीडिया के कारोबार पर भी ताला लगते देर नहीं लगेगी. हमारे सामने एक के बाद एक चैनलों के बंद होने के उदाहरण हैं जो ये स्पष्ट करते हैं कि ये इसलिए बंद नहीं हुए क्योंकि टीआरपी की दौड़ में पिछड़ गए या इन्हें विज्ञापन नहीं मिले. ये इसलिए बंद होते चले गए क्योंकि अपने रियल एस्टेट, चिटफंड, राजनीति या ठेकेदारी के जिस मूल व्यवसाय की दम-खम पर टिके थे, उसमें कंपनी को भारी नुकसान हुआ और जिसका सीधा असर पहले कटौती, फिर वेतन रोक दिए जाने और अंत में इसके बंद ही कर दिए जाने पर हुआ. ऐसे में इस ओनरशिप पैटर्न के तहत मीडियाकर्मी लगातार इस बात की सलामती चाहते हैं कि कंपनी का जो मूल व्यवसाय है वो हर हाल में सुरक्षित रहे. एक ही मीडिया घराने का मीडियाकर्मी अंग्रेजी से हिंदी, टीवी स्क्रीन से ऑनलाइन तक पर जब दिखते हैं तो बात फिर भी समझ आ जाती है कि उनके ऊपर एक संस्थान के लिए काम करने का मतलब एक चैनल या वेबसाइट के लिए काम करना नहीं है, उन तमाम ब्रांड के लिए काम करना है जिसे उसकी कंपनी चलाती है.

नेटवर्क 18 में साल 2012-13 में रातोंरात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों की छंटनी हुई, उसका आधार भी यही था. लेकिन एक मीडियाकर्मी पत्रकारिता के अलावा भी दूसरे कई काम कर रहा है वो कभी-कभार मीडिया संस्थान की ओर से आयोजित कॉन्क्लेव या फेस्टिवल में भले दिख जाते हों लेकिन खुले तौर पर सामने नहीं आ पाता.

ये स्थिति तो उस कॉर्पोरेट मीडिया का है जिसकी ओनरशिप माध्यमों के दायरे से लांघकर उस पैटर्न पर आकर टिकी है कि जहां-जहां मुनाफे की संभावना है, मीडिया संस्थान अपने पैर वहां-वहां बढ़ाएंगे. लेकिन पिछले कुछ सालों से खासकर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद से चुनावी राजनीति की जो शक्ल बदली है उसमें एक नए किस्म की मीडिया ओनरशिप का दौर शुरू हुआ है.

ये कोई नई परिघटना नहीं है कि जो भी सरकार सत्ता में आती है, पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग से लेकर सरकारी विज्ञापनों पर निर्धारित खर्च को अपने पक्ष में इस्तेमाल करती है. ऑल इंडिया रेडियो से लेकर सरकारी भोंपू दूरदर्शन जैसे कई मुहावरे इतने प्रचलित रहे हैं कि इनकी व्याख्या किए बिना समझ आ जाता है कि माध्यमों पर कब्जा उसी का होगा, जिसका चुनाव के जरिए जनतंत्र पर है और तब वो अपनी सुविधानुसार छवि का जनतंत्र गढ़ने का काम करेंगे.

लोकसभा चुनाव 2009 के बाद फिक्की-केपीएमजी की मीडिया और मनोरंजन से संबंधित जो रिपोर्ट आती है, उसके बाद से मीडिया ओनरशिप का एक नया पैटर्न उभरकर आता है. रिपोर्ट का दिलचस्प पहलू है कि जब दुनियाभर में आर्थिक मंदी का दौर था और जिसका सीधा असर इस देश के कारोबार पर भी पड़ा, उस वक्त भी मीडिया इंडस्ट्री न केवल मुनाफे में रही बल्कि उसका विकास दर पहले से कहीं ज्यादा रहा. इसकी बड़ी वजह चुनाव से हासिल राजस्व रहा. मीडिया के लिए ये बात समझना कोई मुश्किल नहीं रहा कि एफएमसीजी, ऑटोमोबाइल और टेलीकॉम के विज्ञापनों की तरह राजनीति दल भी बेहतरीन क्लाइंट हो सकते हैं और न ही राजनीतिक दलों को इंडिया शाइनिंग के जबरदस्त पिट जाने के वाबजूद अंतिम सत्य मान लेने में देरी लगी कि भारी लागत के विज्ञापनों के बिना वे चुनाव में टिके रह सकते हैं. नतीजा माध्यमों पर निर्भरता का एक ऐसा दौर शुरू हुआ कि जिसमें विज्ञापन से कहीं ज्यादा इवेंट, पीआर प्रैक्टिस, स्ट्रैटजी और प्रोपेगेंडा प्रभावी होते चले गए.

आज देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दल बाकायदा पट्टाधारी मीडियाकर्मियों को अपने वॉररूम के लिए नियुक्त कर रहे है. उन्हें उसी तरह बायमेट्रिक कार्ड पंच करके शिफ्ट वाइज काम करना होता है जैसा कि मीडिया दफ्तरों में किया जाता है. उनका काम सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया की एक-एक सामग्री पर नजर रखनी होती है जो कि उनके पक्ष-विपक्ष में अपनी बात कर रहे होते हैं. उनका काम वेतन देने वाली अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए लगातार पक्ष में माहौल बनाना होता है जिसे सोशल मीडिया की भाषा में ‘बज़’ क्रिएट करना कहते हैं. इसे चाहें तो कार्यकाल मीडिया ओनरशिप कह सकते हैं जिसकी स्ट्रैटजी में हर अगला पांच साल शामिल है. ऊपरी तौर पर जो राजनीतिक पार्टियां सरकार चलाती हुई दिख रही हैं, विपक्ष में बैठी नजर आ रही है वो एक ऐसे वॉररूम की ओनरशिप लिए बैठी हैं जो बिल्कुल न्यूजरूम की शक्ल में काम करता है.

इस वॉररूम के एजेंडे जितने स्पष्ट हैं, उसकी राजस्व संरचना उतनी ही धुंधली. मसलन जब इन राजनीतिक दलों की गतिविधियां ही सीधे-सीधे न आकर वाया मेनस्ट्रीम मीडिया या सोशल मीडिया आ रही हैं तो बैलेंस शीट आने में तो सालों लग जाएंगे, लेकिन ओनरशिप के इस नए पैटर्न से इतना तो स्पष्ट है कि ट्राई अपनी रिपोर्ट में जनतंत्र के भीतर जिस बहुलता की चिंता करती है, वो यहां तक आते-आते बादशाहत कायम करने के सवाल पर टिक जाता है. कंटेंट का सवाल बहुत मामूली और पीछे रह जाता है. और इन सबके बीच सबसे बड़ी बात कि अब इस पर आखिर चिंता कौन जाहिर करे, जिसे चिंता करनी चाहिए वो तो खुद वॉररूम को और भी आक्रामक बनाने की कवायद में जुटे हैं.

(लेखक मीडिया अध्ययन से जुड़े हैं)