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आजादी तो मिल गई है पर हमें पता नहीं कि उसका करना क्या है?

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लगभग बीस साल पहले की बात है. कलकत्ता के ‘फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ की ओर से ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म के निर्देशक बिमल रॉय और हमें यानी उनके साथियों को सम्मान दिया जा रहा था. ये एक साधारण पर रुचिकर समारोह था. बहुत अच्छे भाषण हुए, पर श्रोता बड़ी उत्सुकता के साथ बिमल रॉय को सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे. हम सब वहां फर्श पर बैठे थे, मैं बिमल दा के पास ही बैठा था और देख रहा था कि जैसे-जैसे उनके बोलने का समय आ रहा था कि उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. फिर जब उनकी बारी आई, वे उठे और हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहा, ‘जो कुछ कहना होता है मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से कह देता हूं, मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है.’

इस समय मैं भी सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं. अगर मैं इससे ज्यादा कहने का साहस कर पा रहा हूं, तो सिर्फ इसलिए कि जिस व्यक्ति के नाम पर आपकी यूनिवर्सिटी बनी है, उसके व्यक्तित्व से मुझे प्यार है. उतना ही प्यार और आदर, बल्कि उससे भी ज्यादा, आपकी यूनिवर्सिटी से जुड़े मेरे मन में पीसी जोशी के लिए है. मेरे जीवन के कुछ बेहद कीमती पल इनकी ही बदौलत हैं, कुछ ऐसे कर्ज भी हैं जिन्हें मैं कभी चुका नहीं सकता. इसलिए आपकी संस्था की ओर से मिले किसी भी निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता. अगर आप मुझे फर्श साफ करने के लिए भी बुलाते तब भी मैं उतना ही खुश और सम्मानित महसूस करता, जितना इस समय यहां खड़े होकर आपको संबोधित करने में महसूस कर रहा हूं. पर उस सेवा के लिए मैं शायद अधिक योग्य साबित होता.

कृपया मुझे गलत न समझें. मैं शिष्टता का दिखावा नहीं कर रहा हूं. जो बात मैंने कही है, वह दिल से कही है और अब आगे भी जो कहूंगा, दिल से ही कहूंगा, फिर चाहे वह आपको अच्छा लगे या न लगे, वह ऐसे मौकों के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल. शायद आप सब जानते होंगे कि शैक्षणिक वातावरण से मेरा संबंध लगभग 25 बरसों से टूटा हुआ है. मैंने कभी किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को भी संबोधित नहीं किया है.

वैसे यहां मैं ये भी जोड़ना चाहूंगा कि आपकी दुनिया से मेरा नाता टूटना ऐच्छिक नहीं था. इस दूरी के लिए कहीं न कहीं हमारे देश की फिल्म बनाने की दशा जिम्मेदार है. हमारी फिल्मी दुनिया में या तो अभिनेता को इतना कम काम मिलता है कि वह भूखों मरता है या फिर चाहे धन-दौलत की भूख हो या न हो, उसे इतना ज्यादा काम करना पड़ता है कि वह हर तरफ से कट जाता है. उसे न अपने पारिवारिक जीवन की सुध-बुध रहती है, न ही अपनी मानसिक और आत्मिक आवश्यकताओं की. पिछले 25 वर्षों में मैंने लगभग सवा-सौ फिल्मों में काम किया है. इतने समय में अमेरिका या यूरोप में एक अभिनेता 30-35 फिल्मों में काम करता है. इससे आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं मेरी जिंदगी का कितना बड़ा हिस्सा सेल्यूलॉयड की रीलों में दफन हुआ पड़ा है. इस अरसे में कितनी किताबें थीं, जो मैं नहीं पढ़ सका, कितने आयोजन थे जहां मैं जाना चाहता था पर जा नहीं सका. कभी-कभी मैं खुद को बहुत पिछड़ा हुआ महसूस करता हूं और मेरी कुंठा तब और बढ़ जाती है जब मैं सोचता हूं कि इन सवा सौ फिल्मों में कितनी फिल्में महत्वपूर्ण होंगी? कितनी ऐसी फिल्में होंगी, जिन्हें याद रखा जाएगा? शायद बहुत कम, मुश्किल से एक ही हाथ की उंगलियों पर गिनने लायक. और उन्हें भी लोग या तो भूल गए हैं या जल्दी ही भूल जाएंगे.

इसीलिए मैंने कहा था कि मैं शिष्टता नहीं दिखा रहा हूं. मैं आपको सचेत करना चाहता हूं कि अगर मेरा भाषण खास विद्वता का सबूत न दे, तो आपको निराश न होकर मुझे माफ कर देना चाहिए. बिमल दा बिलकुल सही थे. एक कलाकार का क्षेत्र उसका काम ही होता है. इसीलिए मैं यहां जो कुछ कह रहा हूं, अपने जीवन के अपने अनुभव से ही कह रहा हूं, जो मैंने देखा-परखा-महसूस किया. उससे बाहर की बात करना बेवकूफी होगी, किसी दिखावे सरीखा होगा.

इस समय मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना याद आ रही है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सका, जिसने मेरे मन पर बहुत गहरा असर डाला. मैं अपने परिवार के साथ गर्मियों की छुट्टियां मनाने रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था. पिछली रात भारी बारिश होने के कारण से रास्ते में पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर गिर गया था जिसके कारण सड़क बंद हो गई थी. दोनों तरफ मोटरों की लंबी कतारें लग गईं. न खाने-पीने का इंतजाम था, न सोने का. पीडब्ल्यूडी के कर्मचारी सड़क की मरम्मत करने में जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे. फिर भी ड्राइवर और यात्री हर समय उनके पीछे पड़े रहते, उन्हें सुस्त और निकम्मा कह-कहकर कोसते रहते. इसमें काफी समय लगा. यहां तक कि आसपास के गांवों के लोग शहर के तौर-तरीकों वाले यात्रियों से उकता गए थे.

आखिरकर एक दिन रास्ता खुलने का एेलान हुआ और ड्राइवरों को हरी झंडी दिखा दी गई. पर तब एक अजीब-सी बात हुई. कोई भी ड्राइवर पहले अपनी गाड़ी बढ़ाने को तैयार ही नहीं था. न इस तरफ से और न ही उस तरफ से. सभी खड़े एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे. इसमें शक नहीं कि रास्ता कच्चा था और खतरनाक भी. एक तरफ पहाड़ था और दूसरी तरफ खाई व हिलोरे मारता झेलम दरिया. आधा घंटा बीत गया. कोई टस से मस न हुआ. ये वही लोग थे जो कल तक पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों को आलस और अकर्मण्यता के लिए कोस रहे थे. इतने में पीछे से एक छोटी-सी हल्के रंग की स्पोर्ट्स कार आती दिखाई दी. एक अंग्रेज उसे चला रहा था. इतने सारे वाहनों और भीड़ को देखकर वह हैरान हुआ. मैं कोट-पतलून पहने जरा बन-ठनकर खड़ा था. उसने मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ है?’ मैंने उसे सारी बात बताई, तो वह जोर से हंसा और उसी क्षण हार्न बजाता हुआ, बिना किसी डर के, कार चलाते हुए आगे बढ़ गया.

उसके बाद तो नजारा और भी देखने लायक था. कहां तो कोई माई का लाल गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार नहीं था, और अब वे हाॅर्न पर हाॅर्न बजाते हुए एक साथ वह हिस्सा पार करने लगे. इतनी भगदड़ मची कि रास्ता फिर काफी देर के लिए बंद हो गया. तब मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा कि एक आजाद देश में पले-बढ़े आदमी और एक गुलाम देश में पले-बढ़े आदमी में क्या फर्क होता है.

आजाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है. गुलाम आदमी यह दिलेरी खो चुका होता है. वह हमेशा दूसरे के विचारों को अपनाता है, घिसे-पिटे रास्तों पर चलता है. इस सबक को मैंने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया था. अपने जीवन में जब भी मैं कोई कठिन निर्णय ले पाया, मैं बहुत खुश हुआ. मैं खुद को आजाद महसूस करता, मुझे जीवन सार्थक लगा और मैं जीवन का लुत्फ शायद इसीलिए उठा पाया क्योंकि मैंने समझा की जीवन का कुछ अर्थ है.

पर फिर भी साफ-साफ कहूं तो ऐसे मौके बहुत कम आए. किसी कठिन निर्णय के समय मैं हिम्मत खो देता था और दूसरे लोगों के आसरे रहता. मैंने सुरक्षित रास्ता चुना. मैंने वही फैसले लिए जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था, जो वो बुर्जुआ वर्ग चाहता था, जिससे मैं आता हूं. मेरे ऊपर मूल्यों का एक बोझ-सा डाल दिया गया था. मैं सोचता कुछ और था और कुछ और ही करता था. इस कारण मुझे बाद में काफी बुरा भी लगता. मेरे कुछ निर्णयों से मुझे कभी खुशी नहीं मिली. जब कभी भी मैं हिम्मत हार जाता, मेरी जिंदगी मुझे एक निरर्थक बोझ लगने लगती.

मैंने अपने सामने एक अंग्रेज का उदाहरण रखा है. कोई ये सोच सकता है कि किसी हद तक यह भी मेरे हीनभाव का सबूत है. मैं सरदार भगत सिंह का उदाहरण दे सकता था, जो उसी जमाने में ही फांसी चढ़े थे. मैं महात्मा गांधी का उदाहरण दे सकता था, जिन्होंने पूरा जीवन अपनी ही शर्तों पर जिया. मुझे याद है कि कैसे मेरे कॉलेज के प्रोफेसर, शहर के सम्मानीय और बुद्धिमान व्यक्ति गांधी की बातों पर हंसा करते थे कि वह बिना हथियार के सिर्फ सत्य-अहिंसा से अंग्रेज सरकार को हरा देंगे और देश को आजाद करा लेंगे. मेरे शहर के शायद एक प्रतिशत से भी कम लोग ये सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि अपने जीवनकाल में वे देश को आजाद हुआ देख सकेंगे. पर गांधीजी को खुद पर, अपने विचारों और अपने देशवासियों पर भरोसा था.  शायद आपमें से किसी ने नंदलाल बोस द्वारा चित्रित गांधीजी का चित्र देखा होगा. वह एक ऐसे व्यक्ति का चित्र है, जिसमें सोचने का साहस था और उस सोच पर अमल करने की हिम्मत थी.

मेरे कॉलेज के समय मुझ पर भगत सिंह या गांधीजी का प्रभाव नहीं था. मैं पंजाब प्रांत के लाहौर में स्थित प्रसिद्ध गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में एमए कर रहा था. इस कॉलेज में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों का चयन होता है. आजादी के बाद मेरे साथियों ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरकारों और समाज में काफी ऊंचे पद हासिल किए. पर उस समय कॉलेज में दाखिला लेते समय हमें लिखकर देना पड़ता था कि हम राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा नहीं लेंगे. उस समय राजनीतिक आंदोलन का मतलब देश में चल रहे आजादी के आंदोलन से था.

आज हमारे देश को आजाद हुए पच्चीस साल हो गए हैं. इस साल हम आजादी की रजत जयंती मना रहे हैं. पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलतः हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं या फिर हम यूं ही इस नकली स्वतंत्रता का दिखावा करते रहेंगे?

इस बारे में तो मैं आपका ध्यान हमारी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूंगा, जहां से मैं आता हूं. मैं जानता हूं कि उनमें से ज्यादा फिल्में ऐसी हैं, जिनका जिक्र सुनकर ही आप हंस पड़ेंगे. एक पढ़े-लिखे बुद्धिमान आदमी के लिए हमारी फिल्मेंं तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं हैं. उनकी कहानियां बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं. और ये बात तो आप भी मानेंगे की सबसे बड़ी खराबी है कि उनकी कहानी, तकनीक और नाच-गाने तक पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होते हैं. कई बार तो पूरी की पूरी फिल्म ही किसी विदेशी फिल्म की नकल होती है. कोई हैरानी की बात नहीं है कि आप नौजवान लोग इन फिल्मों पर हंसते हैं, पर साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो फिल्म-स्टार बनने के सपने भी देखते होंगे.

हालांकि मेरे लिए उनका मजाक उड़ाना आसान नहीं है. मैं उनसे अपनी रोजी कमाता हूं. मैंने उनसे खूब पैसा और मशहूरियत हासिल की. आज मुझे यहां जो इज्जत दी जा रही है, उसके पीछे कुछ हद तक मेरी फिल्मी मशहूरियत ही है. जब मैं आपकी तरह विद्यार्थी था, तो हमारे अंग्रेज और हिन्दुस्तानी प्रोफेसर बड़ी कोशिशों से हमारे अंदर यह एहसास पैदा करना चाहते थे कि कला का सृजन करना सिर्फ गोरी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है. अच्छी फिल्में, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव हैं. हिन्दुस्तान के लोग, भाषा, संस्कृति इन कलात्मक भावनाओं के लिहाज से अपरिष्कृत और पिछड़े हुए हैं. ये सब सुनकर हमे बुरा लगता और हम गुस्सा भी हो जाते पर अंदर से हम ये बात मानने को मजबूर थे.

पर उस जमाने और आज के जमाने में बहुत फर्क है. आजादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है. फिल्मों की बात करें तो सत्यजीत रे और बिमल रॉय ऐसे नाम हैं जो विश्व प्रसिद्ध हो चुके हैं. कई कलाकारों और टेकनीशियनों की तुलना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है. आजादी से पहले हमारे देश में मुश्किल से 10-15 फिल्में ही बनती थीं, जो मशहूर होती थीं. आज हम संसार भर में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश हैं. और इन फिल्मों को सिर्फ हमारे देश की जनता ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, ईरान, पूर्वी सोवियत यूनियन, मिस्र, अरब, अफ्रीका के अनेक देशों की जनता भी बड़े शौक से देखती है. हमने इस क्षेत्र में हॉलीवुड द्वारा लाई गई एकरसता को तोड़ा है.

और अगर सामाजिक जिम्मेदारी के नजरिये से भी देखा जाए तो हमारी फिल्में नैतिक रूप से अभी उतने निचले स्तर पर नहीं पहुंची हैं जहां कुछ पश्चिमी देश पहुंच चुके हैं. हिन्दुस्तानी निर्माताओं ने अभी लाभ कमाने के लिए सेक्स और अपराध का सहारा नहीं लिया है जैसा अमेरिकी निर्माता कई सालों से करते आ रहे हैं, बिना ये सोचे कि इससे वो देश में एक गंभीर सामाजिक समस्या को जन्म दे रहे हैं.

इस सबके बावजूद अगर कमी है तो सिर्फ एक बात की कि हम अभी भी नक्काल हैं. इसी एक गलती के कारण हम सभी बुद्धिजीवियों के मजाक का पात्र बनते हैं. हम विदेशों से उधार लिए गए, घिसे-पिटे फाॅर्मूले पर फिल्में बनाते हैं. हम में अपने देश के जीवन को अपने ढंग से पेश करने का साहस नहीं है.

यह बात मैं सिर्फ हिन्दी या तमिल फिल्मों के बारे में नहीं कह रहा हूं, ये शिकायत तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी फिल्मों से भी है, चाहे वो बंगाली में हों, हिन्दी में या मलयालम में. मैं सत्यजीत रे, मृणाल सेन, सुखदेव, बासु भट्टाचार्य या राजिंदर सिंह बेदी के काम का बड़ा प्रशंसक हूं. मैं जानता हूं कि वे बहुत ही काबिल और सम्माननीय हैं. मैं यह भी कहे बिना नहीं रह सकता कि इनकी फिल्मों पर इटली, फ्रांस, स्वीडन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया के फैशन की गहरी छाप है. वे नया कदम जरूर उठाते हैं, पर दूसरों के बाद.

मेरा थोड़ा-बहुत संबंध साहित्य की दुनिया से भी है. यही हालत मैं वहां भी देखता हूं. यूरोपीय साहित्य का फैशन भी हमारे उपन्यासकारों, कहानी-लेखकों और कवियों पर झट हावी हो जाता है. अगर सोवियत यूनियन को छोड़ दें तो शायद पूरे यूरोप में कोई हिन्दुस्तानी साहित्य के बारे जानता तक नहीं है. उदाहरण के लिए मैं अपने प्रांत पंजाब की ही बात करता हूं. मेरे पंजाब में युवा कवियों की नई पौध सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इंकलाबी जज्बे से ओत-प्रोत है. इसमें भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण को हटाने और एक नई व्यवस्था बनाने की बात की गई है. आप इसे नकार नहीं सकते क्योंकि हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है. इन कविताओं में बातें तो बहुत अच्छी कही गई हैं पर इनका स्वरूप देसी नहीं है. इस पर पश्चिम का प्रभाव है. वहीं की तरह ये मुक्त छंद में हैं, न ही कोई तुकांत है. यदि वहां के कवियों ने लय और छंद का प्रयोग नहीं किया है तो पंजाबी कवियों को भी यही करना है. इसका परिणाम ये होता है कि ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जाता है, जिसकी तारीफ बस एक छोटे-से साहित्यिक समझ वाले समूह में हो जाती है पर वो किसान और मजदूर जो इस शोषण को झेल रहे हैं, जिन्हें वे इंकलाब की प्रेरणा देना चाहते हैं, इसे समझ ही नहीं पाते हैं. ये उन पर कोई असर नहीं डालती. अगर मैं ये कहूं कि बाकी हिन्दुस्तानी भाषाएं भी इसी ‘न्यू वेव’ कविताओं के प्रभाव में हैं, तो गलत नहीं होगा.

मुझे चित्रकला के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, पर इतना जरूर जानता हूं कि वहां भी पश्चिम के फैशन का ही बोलबाला है. इस प्रभाव से बचकर अलग राह पर चलने की हिम्मत शायद ही कोई चित्रकार कर सकता है. और शैक्षणिक संसार के बारे में क्या कहूं? मैं आपको खुद इसे पढ़ने के लिए कहूंगा. अगर आप हिन्दी फिल्मों पर हंसते हैं तो शायद खुद पर भी हंसना चाहेंगे.

इस साल मेरी मातृभूमि पंजाब में मुझे गुरुनानक विश्वविद्यालय के सीनेट का सदस्य बनाने के लिए नामित किया गया. जब मुझे उसकी पहली मीटिंग में शामिल होने के लिए बुलाया गया, तो मैं पंजाब में ही प्रीत नगर के पास था. एक दिन शाम को अपने ग्रामीण दोस्तों से गपशप करते हुए मैंने अमृतसर में होने वाली सीनेट की मीटिंग में जाने का जिक्र किया, तो किसी ने कहा, ‘हमारे साथ तो आप तहमत (लुंगी) और कुर्ते में हमारे जैसे ही बने फिरते हो, वहां जाकर सूट-बूट पहनकर साहब बहादुर बन जाओगे.’ मैंने हंसते हुए कहा, क्यों! आप अगर चाहते हैं तो मैं ऐसे ही चला जाऊंगा.’ तभी दूसरा कोई बोला, ‘आप ऐसा कर ही नहीं सकते, हमारे इन सरपंच को ही लीजिए. शहर में इन्हें किसी छोटे-मोटे काम से सरकारी दफ्तर जाना हो, तो तहमत की जगह पाजामा पहनते हैं. कहते हैं कि तहमत पहनने पर इज्जत नहीं होती. और आप तो यूनिवर्सिटी में जा रहे हैं.’

एक और फौजी किसान, जो उस समय छुट्टी पर आया हुआ था, कहने लगा, ‘अजीब बात है, आजकल तो शहरों की लड़कियां भी तहमत बांधती हैं, तो फिर इनकी इज्जत क्यों नहीं होगी?’

ये सब गपशप होती रही और मुझे ये चुनौती स्वीकार करनी पड़ी. मैं अगले दिन सचमुच तहमत-कुर्ते में सीनेट की मीटिंग में पहुंच गया और मुझे उम्मीद नहीं थी कि इससे वहां क्या खलबली मची. वहां पहुंचा तो बरामदे में गाउन पहनाने के लिए एक प्रोफेसर खड़े थे. पहली नजर में तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं. फिर, जब पहचाना तो हैरानी भरी नजर से मुझे सिर से पांव तक देखने लगे. आखिर गाउन पहनाते समय वे कहे बिना रह न सके, बोले, ‘साहनी साहब, तहमत बांधी है, तो बूट की जगह खुस्सा (जूती) पहननी चाहिए थी न.’ ‘अगली बार ख्याल रखूंगा’, मैंने क्षमा मांगने वाले स्वर में कहा और मीटिंग वाले कमरे में चला गया. पर तभी मुझे खयाल आया कि किसी के लिबास के बारे में आलोचना करना सभ्यता के नियमों के उलट समझा गया है. यह बात मैंने प्रोफेसर को क्यों नहीं कही! मुझे अपनी धीमी हाजिरजवाबी पर अफसोस हुआ.

मीटिंग के बाद यूनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियों से मिलने पर भी मेरा लिबास उनके मनोरंजन की चीज बना रहा. उनके लिए हंसी की बात ये भी थी कि मैंने तहमत के साथ जूते पहन रखे थे. पर उन्हें इसमें कोई अजीब बात दिखाई नहीं दी कि कई लड़कों ने पतलून के साथ चप्पल पहनी हुई थी.

आपको लग रहा होगा कि ये छोटी-सी घटना बताकर मैं आपका समय क्यों खराब कर रहा हूं! पर एक पंजाबी किसान के नजरिये से इसे देखिए. हरित क्रांति में उनके सहयोग के लिए सब उनकी प्रशंसा करते हैं. वे हमारी फौजों की रीढ़ हैं. उन्हें कैसा लगेगा जब उनके कपड़ों या रहन-सहन को विस्मय से देखा जाएगा? पंजाब में यह बात कही जाती है कि गांव का लड़का कॉलेज की शिक्षा पाने के बाद गांव का नहीं रहता. वो अपने आप को अलग और श्रेष्ठ समझने लगता है, मानो वो यहां से नहीं किसी और ही दुनिया से है. उसकी एक ही कोशिश रहती है कि कैसे वो गांव छोड़कर शहर भाग जाए. क्या इसे शिक्षा के नाम पर एक धब्बा नहीं कहना चाहिए?

मैं मानता हूं सभी जगह ऐसा नहीं है. मैं ये भी जानता हूं कि तमिलनाडु या बंगाल में अपने पारंपरिक पहनावे को पहनने को लेकर कोई हीनभावना नहीं है. एक किसान से लेकर प्रोफेसर तक कोई भी, किसी भी अवसर पर धोती पहन के जा सकता है. पर वहां भी उधार लिए गए विचार किसी-न-किसी शक्ल में सामने आते हैं. ये किसी न किसी स्वरूप में हर जगह मौजूद हैं. आजादी से पच्चीस साल बाद भी हम खुशी से वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिक गुलामों को बनाने के लिए बनाई थी. वो गुलाम जो अपने ब्रिटिश मालिकों के बारे में सोच पाने में भी असमर्थ होंगे, वो, जो अपने मालिकों से नफरत करने के बावजूद भी उनकी हमेशा तारीफ करेंगे, उनके जैसे बोलने, कपडे़ पहनने, गाने-नाचने में गर्व महसूस करेंगे. ये गुलाम जो अपने ही लोगों से नफरत करते हैं और बाकियों को भी नफरत का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार रहेंगे. क्या अब भी हमें आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों का अपनी शिक्षा-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है.

यहां मैं फिर एक और छोटी बात बताना चाहूंगा. अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता. पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ संस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है. अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया, बिलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्वीडन से नोबेल पुरस्कार मिलते ही रवींद्रनाथ टैगोर पूरे देश के ‘गुरुदेव’ बन गए थे.

क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे. योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा!

मैं एक और उदहारण देता हूं, मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं. मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं. तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं. पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आजादी के पच्चीस साल बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय, विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं. क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है. मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं. हिन्दुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी. दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है… पंजाबी. तो दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं? रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़-घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है, वहीं आॅल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है. दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है ‘अविभाज्य’ को अलग करना. इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा? अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिन्दी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिन्दी सुनिए.’ मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिन्दी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है, उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है. पर अब तक ये दीवार पर अपना सिर मारने जैसा ही है! हम फिल्म वाले लोग इसे ‘विद्वानों की जहालत’ कहते हैं. क्या हम गलत हैं?

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यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकता है कि ये गलत हो पर ये है! ये सही भी हो सकता है! कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है. सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता. और आज कोई भी इस बात से इंकार नहीं करेगा कि पिछले 25 सालों से पूंजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान. पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके. इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता. हालात ने उन्हें मजबूर कर रखा था. आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है. वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है. राजनीति मेरा विषय नहीं है. सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूंजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिन्दुस्तान के पूंजीपतियों का प्रभाव है.

मैं समझता हूं कि ये बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली. मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहां मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है. पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसलिए वो राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं जिससे जनता का ध्यान भटका रहे. पूंजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान. उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है. औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है. शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है.

आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान-सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है. पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए. आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है.

यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है. ये देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता. अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है. पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता. राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है. इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है. उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी. आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी. हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं. ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं. यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं. उनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है. शायद इसलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है. पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं.

मेरे लिए अंग्रेजी को ताकतवर बनाने की इस बात पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है. ये स्पष्ट भी है. ये बात मानी भी जा चुकी है कि अंग्रेजी विदेशी है और एक औसत आम भारतीय के लिए इसे सीखना कठिन है. पर फिर भी, आप खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है. मेरी नाचीज राय में इसका बुनियादी कारण ये है कि उद्योग के क्षेत्र में पूंजीपतियों के राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होने और वर्तमान सामाजिक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के लिए अंग्रेजी बहुत ज्यादा सहायक है.

कुछ दिन पहले की बात है, मैंने अपना यह विचार बम्बई के एक मजदूर नेता के सामने रखा और कहा कि आप अगर सचमुच पूंजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, तो मजदूरों को भी पूंजीपतियों की तरह राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होकर आत्मविश्वास पैदा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकती है. मजदूर नेता मुझसे सहमत हुए, पर कहने लगे, ‘रोग तो आपने ठीक पकड़ा है, पर इसका इलाज क्या है?’

‘इलाज ये है कि अंग्रेजी लिपि को अपनाना और अंग्रेजी भाषा को धक्का देकर बाहर निकालना.’

‘वह कैसे?’

टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी सारे देश के मजदूर बोल और समझ लेते हैं. वो इसमें अपना सारी व्याकरण मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं. इस तरह की भाषा में लड़की भी ‘जाता’ है और लड़का भी ‘जाता’ है, होता है. इस तरह के माहौल में एक ऐसी आजादी मिलती है कि कई बार बुद्धिजीवी भी इस तरह की भाषा बोलते हुए देखे जा सकते हैं. और यही तो भारत की परंपरा में है. आज की हिन्दुस्तानी में यूनिवर्सिटी ‘यूनीवरास्टी’ बन जाता है, (विश्वविद्यालय के मुकाबले में यूनीवरास्टी कितना सुंदर और जानदार शब्द है!) स्पैनर ‘पाना’ है, लैंटर्न ‘लालटेन’, कार की ‘चेसिस’ ‘चैसी’ हो जाती है यानी सब कुछ संभव है. जिस तार से फौजी अपनी बंदूक साफ करते हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलाता है पर रोमन हिन्दुस्तानी में ये ‘फुल्ट्रू’ बन जाता है. कितना सुंदर शब्द! हॉलीवुड के लाइटमैन एक तरह के कवर के लिए बार्न डोर शब्द प्रयोग करते हैं, बम्बई फिल्म कर्मचारियों में इसे नाम दिया ‘बंदर’, वाह! कितना अच्छा बदलाव है! इस तरह की हिन्दुस्तानी में तमाम संभावनाएं हैं. ये अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीक शब्दावली को कितनी आसानी से अपना लेती है. ये हर जगह से शब्द ले कर खुद को समृद्ध बना लेती है. बार-बार संस्कृत शब्दकोश देखने की जरूरत ही नहीं.’

‘पर रोमन लिपि ही क्यों?’ उन्होंने पूछा.

‘इसलिए कि किसी लिपि के बारे में किसी के कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं. फिर, इस समय यह राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे ज्यादा प्रचलित लिपि है. मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि शहरों में हर जगह दुकानों और फिल्मों के साइनबोर्ड इसी लिपि में लिखे हुए नजर आएंगे. खतों पर नाम व पता लिखने के लिए भी तो देश-भर में यही लिपि इस्तेमाल की जाती है. फौज तो इसे लगभग 30 सालों से इस्तेमाल कर रही है.’

वो दोस्त कुछ देर चुप रहे, फिर हंसकर कहने लगे, ‘काॅमरेड, यूरोप में भी एक बार एस्प्रांटों चलाने का तजुर्बा किया गया था. जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ जैसे विद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मशहूर बनाने के लिए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी तरह असफल हुआ, क्योंकि वह बनाई गई भाषा थी. भाषाएं बनाई नहीं जातीं, वे अपने-आप स्वाभाविक ढंग से बनती हैं,.’

मैं हैरानी से उनकी ओर देखता रह गया. फिर मैंने कहा, ‘काॅमरेड, एस्प्रांटों तो वह है, जिसे राष्ट्रभाषा के नाम पर हिन्दी पंडित संस्कृत के शब्दकोश से शब्द लाकर गढ़ रहे हैं. मैं उस भाषा की बात कर रहा हूं जो आस-पास लोगों द्वारा फैलाई जा रही है.’

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मैंने और भी कई दलीलें दीं, पर उन्हें राजी न कर सका. मैंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का भी हवाला दिया कि इन दोनों महान नेताओं ने भी रोमन हिन्दुस्तानी की जोरदार हिमायत की थी पर इसका भी उन पर कोई असर न हुआ. यहां सवाल ये नहीं है कि उनमें और मुझमें कौन सही था. शायद मैं गलत था. पर उनके अनुसार मेरी बात उन्हें शेखचिल्ली का सपना लग रही थी. जैसा मैंने पहले भी कहा कि अनुमान सही भी हो सकते हैं और गलत भी. पर कोई भी अनुमान या अनकही बात कर पाना आजाद सोच की निशानी है. काॅमरेड को इस बात की तारीफ करनी चाहिए थी पर वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि वो एक तयशुदा सोच से हटकर सोच ही नहीं सके.

कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वो अपने अस्तित्व से पूरी तरह वाकिफ हो. इसे अपने लिए सोचना-सीखना होगा. इसे अपनी समस्याओं के समाधान खुद तलाशना सीखना होगा. पर मैं जिस ओर भी देखता हूं मुझे लगता है कि हमारी हालत अभी भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी कैद के बाद पिंजरे में से आजाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आजादी का करना क्या है. इसके पास पंख हैं पर ये खुले आसमान में उड़ने से डरता है. ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है.

व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से हम वाॅल्टर मिटी (एक उपन्यास का काल्पनिक चरित्र जो एक काल्पनिक दुनिया में ही रहता है) जैसी जिंदगी ही जी रहे हैं. हमारे अंदर की जिंदगी बाहर की जिंदगी से बिलकुल उलट है. हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंतर है. हम बदलाव तो चाहते हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस ही नहीं जुटा पाते.

मैं समझता हूं कि हमारे देश में भी कई पुलिस-अफसर ऐसे होंगे, जो जनता के मन में डर पैदा करने की बजाय उसकी सेवा और सहायता करना चाहते हैं. उन्होंने यह भी पढ़ा-सुना होगा कि इंग्लैंड में पुलिस का जनता से व्यवहार बहुत मददगार होता है. पर वे अंग्रेजी साम्राज्य से मिली हुई व्यवस्था के शिकार हैं जो अपने देश में तो अलग है पर यहां के लिए नहीं. इस औपनिवेशिक परंपरा के अनुसार, जब भी कोई व्यक्ति उनके दफ्तर में दाखिल हो, तो डर भर दिया जाए, उससे जितना हो सके प्रतिरोधी और गैर-मददगार व्यवहार किया जाए. ये व्यवस्था हर सरकारी दफ्तर में चपरासी से लेकर मंत्री तक में देखी जा सकती है.

मुझे एक घटना याद आ रही है, जो मेरे एक फिल्म-निर्माता मित्र ने बताई थी. उसने बाॅक्स-आॅफिस की बजाय समाज की भलाई को सामने रखकर एक फिल्म बनाने की गलती कर डाली. वह चाहता था कि उस पर मनोरंजन कर माफ हो जाए. मंत्री ने उसे मिलने के लिए राजभवन में आने का समय दिया हुआ था. वे नए-नए मंत्री बने थे और उसी दिन उन्हें शपथ लेनी थी. निर्माता नियत समय पर पहुंच गया. मंत्री के सेक्रेटरी ने उसे अपने पास खड़ा कर लिया. उधर, मंत्री राज्यपाल के सामने जनता की निष्काम सेवा करने की कसम उठा रहे थे और इधर उनका सेक्रेटरी निर्माता से बीस हजार रुपये रिश्वत के तौर पर मांग रहा था.

वह निर्माता बहुत चाहता है कि इस दृश्य को अपनी किसी फिल्म में डाल दे. पर कोई फाइनेंसर इस फिल्म के लिए तैयार नहीं हैं. पर अगर फिल्म बन भी जाए तो क्या हमारा सेंसर इस बात की इजाजत देगा? सेंसर के अनुसार ये अलिखित कानून है कि सरकार का कोई भी मंत्री रिश्वत नहीं लेता. पर यहां ज्यादा हास्यास्पद बात यह है कि जो लोग हर समय मंत्रियों के रवैये के खिलाफ शिकायतें करते हैं, वही मंत्रियों को हार पहनाने के लिए सबसे आगे खड़े होते हैं. किसी भी सभा-सोसायटी का जलसा हो, वहां मंत्री जरूर आना चाहिए. या तो वहां फिल्म अभिनेता मुख्य अतिथि होगा नेता अध्यक्ष या उल्टा होगा, नेता मुख्य अतिथि और फिल्म अभिनेता अध्यक्ष. किसी बड़े नाम का वहां होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ब्रिटिश, औपनिवेशिक परंपरा है.

मैं 25 वर्षों से इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का सदस्य हूं. यह संस्था आम जनता के लिए नाटक खेलने का दावा करती है. इसके नाटकों में सरकार और शासन-व्यवस्था की कड़ी आलोचना होती रही है. इसलिए सीआईडी इस पर खास नजर रखती है. पर मैंने देखा है कि इसी इप्टा की काॅन्फ्रेंस के उद्घाटन के लिए मंत्रियों का आना जरूरी समझा जाता है.

आखिरी विश्व युद्ध के समय मैंने कुछ समय बीबीसी में बतौर उद्घोषक काम करते हुए बिताया. संकट के चार उन सालों में भी मैंने प्रधानमंत्री समेत ब्रिटिश कैबिनेट के किसी भी मंत्री को कहीं नहीं देखा. पता नहीं, वे कहां छिपे रहते थे! पर यहां, देश की आजादी के बाद से ही मुझे हर जगह मंत्री ही दिखाई दे रहे हैं.

1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था,  ‘हिन्दुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं.’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसलिए कि उन्होंने हिन्दुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था. आम लोग अंग्रेज शासकों को इज्जत की जगह नफरत से देखने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे. यह साहस महात्मा गांधी ने निहत्थे हिन्दुस्तानियों के दिलों में भरा था.

आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आजाद कराने की जरूरत है. पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है. समाज में इज्जत उसकी ही है, जिसके पास मोटरें हैं, बंगले हैं, दौलत का दरिया बहता है. क्या कभी ऐसी हालत में समाजवाद आ सकता है? समाजवाद से पहले हमें वो माहौल लाना होगा जहां सिर्फ धन-दौलत का होना ही सम्मान देने का पैमाना न बने. हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक. अपने कौशल के साथ मेहनत करता हो या प्रतिभा के साथ. अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो या किसी अाविष्कार से. इसके लिए पुरानी सोच को तोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरत होगी. क्या हम कहीं से भी खुद को उस क्रांति को लाने के करीब पाते हैं?

शायद हमें आज एक मसीहा की जरूरत है जो हमें इस गुलामी से निकाल कर एक आजाद सोच और नए मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे. जिससे हम अपने शासकों के साथ जुड़ने की बजाय आम जनता के साथ जुड़ें. ये मेरी आशा और प्रार्थना है कि आप जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट अपने जीवन में वो सफलता पाने में समर्थ होंगे जो मैं और मेरी पीढ़ी के कई लोग नहीं पा सके.

यहां मैं फिर एक और छोटी बात बताना चाहूंगा. अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता. पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ संस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है. अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया, बिलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्वीडन से नोबेल पुरस्कार मिलते ही रवींद्रनाथ टैगोर पूरे देश के ‘गुरुदेव’ बन गए थे.

क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे. योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा!

मैं एक और उदहारण देता हूं, मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं. मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं. तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं. पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आजादी के पच्चीस साल बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय, विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं. क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है. मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं. हिन्दुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी. दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है… पंजाबी. तो दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं? रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़-घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है, वहीं आॅल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है. दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है ‘अविभाज्य’ को अलग करना. इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा? अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिन्दी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिन्दी सुनिए.’ मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिन्दी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है, उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है. पर अब तक ये दीवार पर अपना सिर मारने जैसा ही है! हम फिल्म वाले लोग इसे ‘विद्वानों की जहालत’ कहते हैं. क्या हम गलत हैं?

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यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकता है कि ये गलत हो पर ये है! ये सही भी हो सकता है! कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है. सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता. और आज कोई भी इस बात से इंकार नहीं करेगा कि पिछले 25 सालों से पूंजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान. पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके. इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता. हालात ने उन्हें मजबूर कर रखा था. आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है. वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है. राजनीति मेरा विषय नहीं है. सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूंजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिन्दुस्तान के पूंजीपतियों का प्रभाव है.

मैं समझता हूं कि ये बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली. मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहां मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है. पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसलिए वो राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं जिससे जनता का ध्यान भटका रहे. पूंजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान. उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है. औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है. शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है.

आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान-सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है. पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए. आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है.

यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है. ये देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता. अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है. पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता. राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है. इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है. उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी. आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी. हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं. ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं. यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं. उनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है. शायद इसलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है. पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं.

मेरे लिए अंग्रेजी को ताकतवर बनाने की इस बात पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है. ये स्पष्ट भी है. ये बात मानी भी जा चुकी है कि अंग्रेजी विदेशी है और एक औसत आम भारतीय के लिए इसे सीखना कठिन है. पर फिर भी, आप खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है. मेरी नाचीज राय में इसका बुनियादी कारण ये है कि उद्योग के क्षेत्र में पूंजीपतियों के राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होने और वर्तमान सामाजिक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के लिए अंग्रेजी बहुत ज्यादा सहायक है.

कुछ दिन पहले की बात है, मैंने अपना यह विचार बम्बई के एक मजदूर नेता के सामने रखा और कहा कि आप अगर सचमुच पूंजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, तो मजदूरों को भी पूंजीपतियों की तरह राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होकर आत्मविश्वास पैदा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकती है. मजदूर नेता मुझसे सहमत हुए, पर कहने लगे, ‘रोग तो आपने ठीक पकड़ा है, पर इसका इलाज क्या है?’

‘इलाज ये है कि अंग्रेजी लिपि को अपनाना और अंग्रेजी भाषा को धक्का देकर बाहर निकालना.’

‘वह कैसे?’

टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी सारे देश के मजदूर बोल और समझ लेते हैं. वो इसमें अपना सारी व्याकरण मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं. इस तरह की भाषा में लड़की भी ‘जाता’ है और लड़का भी ‘जाता’ है, होता है. इस तरह के माहौल में एक ऐसी आजादी मिलती है कि कई बार बुद्धिजीवी भी इस तरह की भाषा बोलते हुए देखे जा सकते हैं. और यही तो भारत की परंपरा में है. आज की हिन्दुस्तानी में यूनिवर्सिटी ‘यूनीवरास्टी’ बन जाता है, (विश्वविद्यालय के मुकाबले में यूनीवरास्टी कितना सुंदर और जानदार शब्द है!) स्पैनर ‘पाना’ है, लैंटर्न ‘लालटेन’, कार की ‘चेसिस’ ‘चैसी’ हो जाती है यानी सब कुछ संभव है. जिस तार से फौजी अपनी बंदूक साफ करते हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलाता है पर रोमन हिन्दुस्तानी में ये ‘फुल्ट्रू’ बन जाता है. कितना सुंदर शब्द! हॉलीवुड के लाइटमैन एक तरह के कवर के लिए बार्न डोर शब्द प्रयोग करते हैं, बम्बई फिल्म कर्मचारियों में इसे नाम दिया ‘बंदर’, वाह! कितना अच्छा बदलाव है! इस तरह की हिन्दुस्तानी में तमाम संभावनाएं हैं. ये अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीक शब्दावली को कितनी आसानी से अपना लेती है. ये हर जगह से शब्द ले कर खुद को समृद्ध बना लेती है. बार-बार संस्कृत शब्दकोश देखने की जरूरत ही नहीं.’

‘पर रोमन लिपि ही क्यों?’ उन्होंने पूछा.

‘इसलिए कि किसी लिपि के बारे में किसी के कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं. फिर, इस समय यह राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे ज्यादा प्रचलित लिपि है. मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि शहरों में हर जगह दुकानों और फिल्मों के साइनबोर्ड इसी लिपि में लिखे हुए नजर आएंगे. खतों पर नाम व पता लिखने के लिए भी तो देश-भर में यही लिपि इस्तेमाल की जाती है. फौज तो इसे लगभग 30 सालों से इस्तेमाल कर रही है.’

वो दोस्त कुछ देर चुप रहे, फिर हंसकर कहने लगे, ‘काॅमरेड, यूरोप में भी एक बार एस्प्रांटों चलाने का तजुर्बा किया गया था. जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ जैसे विद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मशहूर बनाने के लिए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी तरह असफल हुआ, क्योंकि वह बनाई गई भाषा थी. भाषाएं बनाई नहीं जातीं, वे अपने-आप स्वाभाविक ढंग से बनती हैं,.’

मैं हैरानी से उनकी ओर देखता रह गया. फिर मैंने कहा, ‘काॅमरेड, एस्प्रांटों तो वह है, जिसे राष्ट्रभाषा के नाम पर हिन्दी पंडित संस्कृत के शब्दकोश से शब्द लाकर गढ़ रहे हैं. मैं उस भाषा की बात कर रहा हूं जो आस-पास लोगों द्वारा फैलाई जा रही है.’

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मैंने और भी कई दलीलें दीं, पर उन्हें राजी न कर सका. मैंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का भी हवाला दिया कि इन दोनों महान नेताओं ने भी रोमन हिन्दुस्तानी की जोरदार हिमायत की थी पर इसका भी उन पर कोई असर न हुआ. यहां सवाल ये नहीं है कि उनमें और मुझमें कौन सही था. शायद मैं गलत था. पर उनके अनुसार मेरी बात उन्हें शेखचिल्ली का सपना लग रही थी. जैसा मैंने पहले भी कहा कि अनुमान सही भी हो सकते हैं और गलत भी. पर कोई भी अनुमान या अनकही बात कर पाना आजाद सोच की निशानी है. काॅमरेड को इस बात की तारीफ करनी चाहिए थी पर वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि वो एक तयशुदा सोच से हटकर सोच ही नहीं सके.

कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वो अपने अस्तित्व से पूरी तरह वाकिफ हो. इसे अपने लिए सोचना-सीखना होगा. इसे अपनी समस्याओं के समाधान खुद तलाशना सीखना होगा. पर मैं जिस ओर भी देखता हूं मुझे लगता है कि हमारी हालत अभी भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी कैद के बाद पिंजरे में से आजाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आजादी का करना क्या है. इसके पास पंख हैं पर ये खुले आसमान में उड़ने से डरता है. ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है.

व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से हम वाॅल्टर मिटी (एक उपन्यास का काल्पनिक चरित्र जो एक काल्पनिक दुनिया में ही रहता है) जैसी जिंदगी ही जी रहे हैं. हमारे अंदर की जिंदगी बाहर की जिंदगी से बिलकुल उलट है. हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंतर है. हम बदलाव तो चाहते हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस ही नहीं जुटा पाते.

मैं समझता हूं कि हमारे देश में भी कई पुलिस-अफसर ऐसे होंगे, जो जनता के मन में डर पैदा करने की बजाय उसकी सेवा और सहायता करना चाहते हैं. उन्होंने यह भी पढ़ा-सुना होगा कि इंग्लैंड में पुलिस का जनता से व्यवहार बहुत मददगार होता है. पर वे अंग्रेजी साम्राज्य से मिली हुई व्यवस्था के शिकार हैं जो अपने देश में तो अलग है पर यहां के लिए नहीं. इस औपनिवेशिक परंपरा के अनुसार, जब भी कोई व्यक्ति उनके दफ्तर में दाखिल हो, तो डर भर दिया जाए, उससे जितना हो सके प्रतिरोधी और गैर-मददगार व्यवहार किया जाए. ये व्यवस्था हर सरकारी दफ्तर में चपरासी से लेकर मंत्री तक में देखी जा सकती है.

मुझे एक घटना याद आ रही है, जो मेरे एक फिल्म-निर्माता मित्र ने बताई थी. उसने बाॅक्स-आॅफिस की बजाय समाज की भलाई को सामने रखकर एक फिल्म बनाने की गलती कर डाली. वह चाहता था कि उस पर मनोरंजन कर माफ हो जाए. मंत्री ने उसे मिलने के लिए राजभवन में आने का समय दिया हुआ था. वे नए-नए मंत्री बने थे और उसी दिन उन्हें शपथ लेनी थी. निर्माता नियत समय पर पहुंच गया. मंत्री के सेक्रेटरी ने उसे अपने पास खड़ा कर लिया. उधर, मंत्री राज्यपाल के सामने जनता की निष्काम सेवा करने की कसम उठा रहे थे और इधर उनका सेक्रेटरी निर्माता से बीस हजार रुपये रिश्वत के तौर पर मांग रहा था.

वह निर्माता बहुत चाहता है कि इस दृश्य को अपनी किसी फिल्म में डाल दे. पर कोई फाइनेंसर इस फिल्म के लिए तैयार नहीं हैं. पर अगर फिल्म बन भी जाए तो क्या हमारा सेंसर इस बात की इजाजत देगा? सेंसर के अनुसार ये अलिखित कानून है कि सरकार का कोई भी मंत्री रिश्वत नहीं लेता. पर यहां ज्यादा हास्यास्पद बात यह है कि जो लोग हर समय मंत्रियों के रवैये के खिलाफ शिकायतें करते हैं, वही मंत्रियों को हार पहनाने के लिए सबसे आगे खड़े होते हैं. किसी भी सभा-सोसायटी का जलसा हो, वहां मंत्री जरूर आना चाहिए. या तो वहां फिल्म अभिनेता मुख्य अतिथि होगा नेता अध्यक्ष या उल्टा होगा, नेता मुख्य अतिथि और फिल्म अभिनेता अध्यक्ष. किसी बड़े नाम का वहां होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ब्रिटिश, औपनिवेशिक परंपरा है.

मैं 25 वर्षों से इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का सदस्य हूं. यह संस्था आम जनता के लिए नाटक खेलने का दावा करती है. इसके नाटकों में सरकार और शासन-व्यवस्था की कड़ी आलोचना होती रही है. इसलिए सीआईडी इस पर खास नजर रखती है. पर मैंने देखा है कि इसी इप्टा की काॅन्फ्रेंस के उद्घाटन के लिए मंत्रियों का आना जरूरी समझा जाता है.

आखिरी विश्व युद्ध के समय मैंने कुछ समय बीबीसी में बतौर उद्घोषक काम करते हुए बिताया. संकट के चार उन सालों में भी मैंने प्रधानमंत्री समेत ब्रिटिश कैबिनेट के किसी भी मंत्री को कहीं नहीं देखा. पता नहीं, वे कहां छिपे रहते थे! पर यहां, देश की आजादी के बाद से ही मुझे हर जगह मंत्री ही दिखाई दे रहे हैं.

1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था,  ‘हिन्दुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं.’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसलिए कि उन्होंने हिन्दुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था. आम लोग अंग्रेज शासकों को इज्जत की जगह नफरत से देखने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे. यह साहस महात्मा गांधी ने निहत्थे हिन्दुस्तानियों के दिलों में भरा था.

आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आजाद कराने की जरूरत है. पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है. समाज में इज्जत उसकी ही है, जिसके पास मोटरें हैं, बंगले हैं, दौलत का दरिया बहता है. क्या कभी ऐसी हालत में समाजवाद आ सकता है? समाजवाद से पहले हमें वो माहौल लाना होगा जहां सिर्फ धन-दौलत का होना ही सम्मान देने का पैमाना न बने. हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक. अपने कौशल के साथ मेहनत करता हो या प्रतिभा के साथ. अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो या किसी अाविष्कार से. इसके लिए पुरानी सोच को तोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरत होगी. क्या हम कहीं से भी खुद को उस क्रांति को लाने के करीब पाते हैं?

शायद हमें आज एक मसीहा की जरूरत है जो हमें इस गुलामी से निकाल कर एक आजाद सोच और नए मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे. जिससे हम अपने शासकों के साथ जुड़ने की बजाय आम जनता के साथ जुड़ें. ये मेरी आशा और प्रार्थना है कि आप जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट अपने जीवन में वो सफलता पाने में समर्थ होंगे जो मैं और मेरी पीढ़ी के कई लोग नहीं पा सके.

चला गया समाजवादी आंदोलन का सिपाही

Krishnanath  WEB
प्रो. कृष्णनाथ शर्मा (1 मई 1934 – सितंबर 2015)

छह सितंबर की बात है. बंगलुरु के पास स्थित हरिदवनम से एक खबर चली कि समाजवादी चिंतक, विचारक, लेखक प्रो. कृष्णनाथ शर्मा नहीं रहे. उन्हें जानने वाले बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक एक-दूसरे को फोन करते रहे. कुछ ने इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर भी टकटकी लगा ली कि शायद उनसे जुड़ी खबर मिल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगले दिन उम्मीद थी कि अखबारों में खबर आएगी, मगर एकाध अखबारों ने ही उन्हें तरजीह दी. प्रो. कृष्णनाथ कौन थे और उनके जाने से कैसी रिक्तता आई, यह कोई नहीं जान सका.

कृष्णनाथ की मृत्यु के तीन दिनों बाद ही शोर-शराबे के साथ भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन शुरू हुआ. उम्मीद की गई कि कम से कम वहां उन पर कुछ बात होगी. अधिकारियों, मंत्रियों, नेताओं वाले इस सम्मेलन में उन पर तब भी कोई चर्चा नहीं हुई. हिन्दी के साहित्यकारों के वर्चस्व वाला सम्मेलन भी होता तो उनसे कृष्णनाथ जैसे लोगों की याद करने की उम्मीद बेमानी थी. कहानी-कविता की आत्ममुग्ध दुनिया में छटपटाते हिन्दी साहित्य के लोग और एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर आगे बढ़ने को आतुर हिन्दी साहित्य समाज में कृष्णनाथ जैसे लोगों को महत्व नहीं दिया जाता है, उनके साथ अनाथों जैसा व्यवहार किया जाता है.

बहरहाल हिन्दी वालों ने जो किया सो किया. आज चहुंओर समाजवादी राजनीति की होड़ मची है, उसमें कुछ लोगों को छोड़कर शायद ही किसी ने ये याद करने की कोशिश की कि समाजवादी राजनीति के लिए संभावनाओं के द्वार खोलने में प्रो. कृष्णनाथ जैसे लोगों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही थी. जबकि उन्होंने अपना व्यक्तित्व व कृतित्व समाजवादी राजनीति और हिन्दी साहित्य में खपा दिया था. अब तक प्रो. कृष्णनाथ से कुल चार मुलाकातें हुई थीं. पहली मुलाकात कोई पांच साल पहले बनारस के सारनाथ स्थित उनके आवास पर हुई थी. सारनाथ में उनका आवास तिब्बती विश्वविद्यालय के पास नवापुरा गांव में है. दिन के करीब 11 बजे झक्क सफेद लुंगी, सफेद बनियान और माथे पर सफेद साफा बांधे एक कुर्सी पर बैठकर वह किताबों की दुनिया में खोए हुए थे. तकरीबन चार घंटे तक बातचीत हुई.

इस बतकही में एक सुखद आश्चर्य ये था कि गलती से भी उनकी जुबान से ऐसा कोई वाक्य नहीं निकला, जिसमें अंग्रेजी का कोई शब्द हो. यह साधना की ही बात थी. प्रो. कृष्णनाथ अंग्रेजी समेत कई भाषाओं के प्रखर जानकार और दुनिया भर की यात्रा कर चुके थे.

साठ के दशक में अंग्रेजी में ही उन्होंने ‘द इंपैक्ट ऑफ फॉरेन एड ऑन इंडियन कल्चर’ विषय पर काम किया था. इसके जरिये उन्होंने काफी पहले भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति के खतरे को चिह्नित किया था. वे कहते थे कि भारतीय जीवन, संस्कृति और सरोकारों के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के आने से क्या होने वाला है. आज जिस विषय पर देशभर में बातें हो रही हैं, ये बातें 60 के दशक में ही प्रो. कृष्णनाथ ने की थी. 70 के दशक के आरंभिक सालों में शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज में एक सेमिनार के दौरान उन्होंने साफ-साफ कह दिया था कि भारत में शीघ्र ही राजनीति हाजीपुर के मेले का रूप लेने वाली है. गठबंधन सरकार का दौर आने वाला है. सभी अपनी-अपनी सीटों के साथ दुकान लगाएंगे और बेचेंगे. उस समय उनकी इस बात पर काफी हंगामा भी हुआ था, लेकिन बाद में भारत की राजनीति उसी रास्ते पर चली.

यह सब प्रो. कृष्णनाथ तब कह रहे थे, जब वे काशी विद्यापीठ में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हुआ करते थे और उनकी गिनती तेज-तर्रार अर्थशास्त्रियों में होती थी. वर्ष 1934 में काशी विद्यापीठ में ही उनका जन्म हुआ था. एक ऐसे परिवार में, जिस परिवार से नेहरू-गांधी से लेकर आचार्य नरेंद्र देव के पारिवारिक और घनिष्ठ संबंध थे. बाद में उनका घर लोहिया से लेकर अच्युत पटवर्धन तक का भी डेरा बना. आचार्य नरेंद्र देव के प्रभाव में आकर कृष्णनाथ मात्र 16 साल की उम्र में समाजवादी आंदोलन से जुड़े और हर दिन नई राह खोजते रहे.

अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ वे समाजवादी आंदोलन के सिपाही और प्रणेता थे. उन्हें हिमालय का चिर यात्री और घुमक्कड़ माना गया. उन्होंने ‘लद्दाख में राग-विराग’, ‘स्फीति में बारिश’, ‘किन्नर धर्मलोक’, ‘पृथ्वी परिक्रमा’, ‘हिमालय यात्रा’, ‘कुमाऊ यात्रा’, ‘किन्नौर यात्रा’ जैसी कई किताबें हिमालय के अलग-अलग हिस्से को केंद्र में रखकर लिखी. बाद में वे स्वाध्याय से बौद्ध दार्शनिक हुए. तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के करीबी जिदू उनके फाउंडेशन से जुड़े. आज बंगलुरु के हरिदवनम में, जहां प्रो. कृष्णनाथ का निधन हुआ, यहीं ‘जी कृष्णमूर्ति फाउंडेशन’ चलाया जाता है. अपने अंतिम दिनों में यहीं रहकर वे फाउंडेशन की पत्रिका ‘परिसंवाद’ का संपादन कर रहे थे. इससे पहले उन्होंने हिंदी में ‘कल्पना’, अंग्रेजी में ‘मैनकाइंड’ और समाजवादी राजनीति की ‘जन’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया. उनके लिखने-पढ़ने की उनकी दुनिया बड़ी रही और कैमरे के भी वे बड़े उस्ताद थे. उनके शौक में फोटोग्राफी भी शामिल था. रीलवाले कैमरे के जमाने में हिमालय के सुदूर इलाकों को न जाने कितनी ही बार तस्वीरों में कैद किया. यह सब उनकी पहचान का एक हिस्सा भर है.

उनकी पहचान का दूसरा मजबूत हिस्सा 1950 में समाजवादी आंदोलन से उनका जुड़ना था. इस दौरान 1950 से 1970 के बीच वे 13 बार जेल गए. हर बार अलग-अलग वजहों से. प्रो. कृष्णनाथ हिन्दी के लिए तब जेल गए, जब लोहिया ने अंग्रेजी विरोध का नारा दिया था. लोहिया के आह्वान पर बनारस में अंग्रेजी विरोध आंदोलन को परवान चढ़ाते हुए मैदागिन चौराहे पर लगी विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ने के जुर्म में प्रो. कृष्णनाथ को जेल भेजा गया था. उसके बाद वे नास्तिक हो गए और काशी विश्वनाथ मंदिर की जड़ता को तोड़ने के लिए दलितों को साथ लेकर मंदिर प्रवेश करने के अभियान के प्रणेता बने. इसके लिए भी उन्हें जेल में डाल दिया गया. फिर झारखंड के पलामू में आकर छह माह तक आदिवासियों के साथ रहे. आदिवासियों के साथ रहते हुए उन्हें आंदोलित करने और उनके साथ आंदोलन करने के जुर्म में उन्हें एक बार फिर जेल भेजा गया. इस तरह भाषा, अस्मिता, किसान, गरीब, दलित, आदिवासी और राष्ट्रीयता के सवाल पर उन्हें बार-बार कैद किया गया. यह सिर्फ जेल जाना भर ही नहीं था. उन्हें भरपूर यातनाएं भी दी गईं, कभी नशेड़ियों के वार्ड में रखकर तो कभी पागलों के वार्ड में रखकर. हालांकि हर बार वे जेल से और मजबूत होकर निकले. जेपी और लोहिया समेत न जाने कितने नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे और लोहिया के लिए तो उन्होंने लाठियां भी खाईं.

एक तरीके से खांटी राजनीतिक कर्म करते हुए प्रो. कृष्णनाथ हिंदी को जीते रहे. लोहिया ने संसद में जब ‘तीन आना बनाम तेरह आना’ का सिद्धांत उठाया तो कहा गया कि यह प्रो. कृष्णनाथ का ही फॉर्मूला है. पलामू में रहते हुए उन्होंने खरवारों को अधिकारी के घर के सामने डेरा डालने के लिए आंदोलित किया. यह पहला मौका था जब आंदोलन में ‘घेरा डालो-डेरा डालो’ का नारा चला और ये कांसेप्ट आया. उनकी पहचान यहीं खत्म नहीं होती. वह मौन मनीषी की तरह न जाने कितने क्षेत्रों में सक्रिय रहे. अपनी रचनाओं के जरिये हिन्दी साहित्य को भी उन्होंने समृद्ध किया. ‘दत्तर दिगंबर माझे गुरु’ उनका प्रसिद्ध यात्रा वृतांत है. ‘नागार्जुन कोंडाः नागार्जुन कहां है’, ‘बौद्ध निबंधावली: समाज और संस्कृति’ जैसी मशहूर किताबें उन्होंने लिखीं. वे हिन्दी में ही लिखते रहे, लेकिन हिन्दी समाज की अपनी विडंबना है, जो उनके ‘मठों’ से नहीं जुड़ता, कविता-कहानी की दुनिया से अलग होकर और आलोचना कर्म के बने-बनाए ढर्रे से अलग राह अपनाता है, हिंदी साहित्य की दुनिया उसे अपनी जमात में नहीं रखती. उनके जाने के बाद भी यह दुनिया उसे याद करना मुनासिब नहीं समझती. जीवन में ठेठपन और देसज अस्मिता के साथ जीना उनका स्वाभाविक गुण था. वे ठेठ बनारसी और साधारण हिंदुस्तानी थे. वे बंगलुरु के हरिदवनम में या फिर सारनाथ के नवापुरा गांव स्थित अपने घर में रहते थे. इन दोनों जगहों पर नहीं होते तो हिमालय में पाए जाते थे.

राजनीति के क्षेत्र में भी प्रो. कृष्णनाथ एक जानी-मानी शख्सियत रहे. का एक दूसरा पक्ष है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में शायद ही कोई समाजवादी नेता हो, जो सीधे उनसे संपर्क में न रहा हो लेकिन बाद में सबने उनसे कन्नी काटनी शुरू कर दी. वजह साफ थी. प्रो. कृष्णनाथ अपने समाजवादी साथियों के रवैये से ही नाराज रहते थे. उन्हें अपने ही समाजवादी साथियों की राजनीति देखकर वितृष्णा भी होने लगी थी. वे पूछने पर इतना ही कहते थे कि सभी अपने ही हैं, किसे कहे और क्या कहें. कहने का क्या फायदा! राजनीतिक चेतना वाले व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की. वे बस आंदोलन करते रहे, आंदोलन की राह दिखाते रहे, सूत्र गढ़ते रहे, सिद्धांत देते रहे. एक बार भी सत्ता ने उन्हें आकर्षित नहीं किया जबकि राज्यपाल बनने के प्रस्ताव भी उनके पास आए, लेकिन वह सभी प्रस्तावों को हंस कर टालते रहे. हंसना उनके स्वभाव का हिस्सा था.

‘अगर हिंसा करनी पड़ी तो वो भी करूंगा’

Iपाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) की शुरुआत के बारे में बताइए?

संगठन की शुरुआत 2011 में लौहपुरुष सरदार पटेल की जयंती पर हुई थी. मैं इस संगठन को अहमदाबाद के विरामगाम और मंडल इलाके से सिर्फ पाटीदार समुदाय के लिए चला रहा था. समाज के संवेदनशील तबके, जिसमें  हिंसा की शिकार महिलाएं और किसान शामिल हैं, की रक्षा करना हमारा उद्देश्य है. इसलिए हम उनके लिए काम कर रहे हैं और पिछले दो सालों में लगभग 12 हजार लोग हमारे संगठन से जुड़ चुके हैं.

उस समय तमाम पाटीदार ये शिकायत किया करते थे कि उन्हें न तो नौकरी मिल रही है और न ही शिक्षण संस्थाओं में एडमिशन. पिछले दो सालों में ऐसे मामलों को देखते हुए मैंने जाना कि इन समस्याओं के पीछे आरक्षण सबसे बड़ा और मुख्य कारण है. कोई 80 प्रतिशत अंक पाता है, फिर भी उसे एडमिशन नहीं मिल पाता, वहीं आरक्षण की वजह से उससे कम अंक वाले का एडमिशन हो जाता है और उनकी नौकरी लग जाती है. इसलिए मेहसाणा में पहली रैली कर हमने आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया. धीरे-धीरे विसनगर, गांधीनगर और गुजरात के दूसरे हिस्सों में रैली कर आंदोलन को आगे बढ़ाया. आज जारी आंदोलन की यह शुरुआत थी.

आपकी मांगों में विरोधाभास नजर आता है. अहमदाबाद में हुई रैली में तमाम लोग इसलिए शामिल हुए क्योंकि उनका मानना था कि आप देश में आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की मांग कर रहे हैं. एक तरफ तो आप आरक्षण की मांग कर रहे हैं और दूसरी तरफ यह भी कह रहे हैं कि पाटीदारों को अगर आरक्षण नहीं दिया जाएगा तो ये व्यवस्था खत्म होनी चाहिए. आप इन दोनों बातों को किस तरह से देखते हैं?

भारत से आरक्षण व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि हमारा देश इसी वजह से चल रहा है. यहां तक कि देश में राजनीति का आधार एक तरह से आरक्षण ही है. इसलिए हम आरक्षण व्यवस्था काे खत्म नहीं कर सकते. इसकी जगह हम आरक्षण का हिस्सा बनना चाहते हैं क्योंकि अगर हमें इसमें शामिल किया जाता है तो हमारे समुदाय को भी वे लाभ मिलेंगे जो दूसरों को मिलते हैं. आज अनुसूचित जाति या जनजाति के छात्र-छात्राओं को सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित सीटों पर भी एडमिशन लेने का मौका मिल जाता है. मगर हमें उनके लिए आरक्षित सीटों पर एडमिशन नहीं मिलता. मैं सिर्फ पाटीदार समुदाय की ही नहीं सामान्य श्रेणी में आने वाली दूसरी जातियों की भी बात कर रहा हूं. पहले तो वे अपनी सीट खाते हैं और बाद में हमारी.

गुजरात में दंगे जैसी स्थितियां पैदा होने के बाद इस आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया है. क्या आपने या सरकार के लोगों में से किसी ने मामले का हल निकालने के लिए बातचीत की कोई कोशिश की है?

सरकार आगे आए और हमसे बात करे. हम नहीं जाएंगे सरकार से बात करने. अगर किसी दूसरे समुदाय को हमसे कोई दिक्कत है तो उन्हें ये फैसला करने का हक नहीं कि हमें क्या करना चाहिए. सरकार को फैसला करने दीजिए कि वह क्या करना चाहती है.

क्या आप अश्विन पटेल के पाटीदार आरक्षण संघर्ष समिति से भी जुड़े थे, जिन्होंने सबसे पहले इस मुद्दे को लोगों के सामने रखा. ऐसा कहा जाता है कि आप दोनों के बीच वैचारिक मतभेद होने के बाद आपको संगठन से हटा दिया गया. आपका इस बारे में क्या कहना है?

मैं अश्विन के साथ कभी नहीं रहा. हमने अपने आंदोलन के बारे में उन्हें जानकारी दी थी, लेकिन हमें आरक्षण जैसे मुद्दे के हल को लेकर उनका दृष्टिकोण पसंद नहीं था. उनकी अपनी विचारधारा है और वे भाजपा के साथ जुड़े हुए भी थे. अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वह हमारे आंदोलन को भुनाना चाहते थे. वह दिल्ली में अपने राजनीतिक आधार की तलाश कर रहे थे, लेकिन मैं राजनीतिज्ञ नहीं बनना चाहता. अगर रिमोट कंट्रोल हमारे हाथ में होगा तो हम सरकार को झुका भी सकते हैं और उसे बदल भी सकते हैं.

आप और अश्विन के बीच किस तरह के राजनीतिक मतभेद थे, जिसकी वजह से आपको अलग राह चुननी पड़ी?

अश्विन के पास ऐसा कोई विचार नहीं था कि एक आंदोलन कैसे चलाया जाए. आंदोलन क्रांति के जैसा होता है और वह क्रांतिकारी नहीं हैं.

तो क्या इसलिए इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए आप सरदार पटेल समूह (एसपीजी) के साथ जुड़ गए?

वह समूह हमारे संगठन का हिस्सा कभी नहीं रहा और न ही हम कभी उसके साथ रहने की चाहत रखते थे. एसपीजी की तरह गुजरात में 5,000 पाटीदार समूह हैं. सिर्फ पाटीदार अनामत आंदोलन समिति ही है जो खासतौर पर पटेल समुदाय काे आरक्षण दिलाने के लिए संघर्ष कर रही है. हर छोटा समूह इस आंदोलन में हमारा साथ दे रहा है. एसपीजी ने भी हमारा साथ दिया था, लेकिन अब वे अलग हो गए हैं. इससे हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. यह तो हमारी समिति थी, जो एसपीजी को राज्य में आगे लेकर आई.

इसका मतलब आप पूरे आंदोलन को अपने कंधों पर आगे बढ़ा रहे हैं और खुद को अलग पहचान देने में लगे हुए हैं. अहमदाबाद में हुई अपनी रैली में आपने गुजरात से भाजपा सरकार को हटाने का भी जिक्र किया था. क्या इसे एक राजनीतिक उद्देश्य के तौर पर देखा जाना चाहिए?

मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, लेकिन अगर मेरे मित्र आगे आना चाहते हैं और इस संगठन को राजनीतिक दल बनाने की इच्छा रखते हैं तो मैं हमेशा उनकी मदद करूंगा. अगर हमारे पास रिमोट है तो हम सरकार को बदल सकते हैं. हम भाजपा या कांग्रेस को नहीं चाहते. हम उनके साथ हैं, जो हमारा समर्थन करते हैं. हम लोगों से अपील करेंगे कि अगर हमारी मांगों को पूरा नहीं किया जाता तो 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में वे नोटा (नन ऑफ द अबव) बटन दबाएं. मैं शिवसेना की तरह एक ऐसा संगठन बनाना चाहता हूं, जो लोगों के अधिकारों के लिए लड़े और उनकी तकलीफों का ख्याल रखे. हमारी कार्यप्रणाली में दोहरापन नहीं है. हम वही करते हैं जो कहते हैं. मैं भी वहीं करूंगा जो सही है, वह भी पूरी दबंगई के साथ.

क्या आप खुद को बालासाहब ठाकरे की तरह देखते हैं?

हां, मैं खुद को उनकी स्थिति में देखता हूं. उनके फैसले पूरी राजनीतिक कार्यप्रणाली का रुख बदले सकते थे. उन्होंने हमेशा सही किया. उनके पास जो ताकत थी, उसकी बात ही अलग है.

आपको हिरासत में लिए जाने के बाद गुजरात में दंगे जैसी स्थितियां बनने के बारे में आपका क्या कहना है? क्या हिंसा फैलने की स्थिति में भी आप आंदोलन को आगे बढ़ना चाहेंगे?

अगर सही तौर पर हिंसा करनी पड़ी तो वो भी करूंगा. गुजरात में जो कुछ भी हुआ उसके लिए सरकार और पुलिस जिम्मेदार है. जिस तरह पुलिस ने लोगों को घरों में घुसकर पीटा और महिलाओं के साथ बदसलूकी की, वह कहीं से भी न्यायोचित नहीं था. अगर मेरे पास ताकत और अधिकार होंगे तो मैं ऐसे पुलिसवालों को पीटने का कोई भी मौका नहीं गंवाऊंगा. उन्हें लगता है कि वे हिटलर या जनरल डायर हैं.

क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह का दृष्टिकोण हिंसा को और बढ़ाता है?

अगर वे हिंसक हो सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? वे सरकार का हिस्सा हैं और तब वे ऐसा कर रहे हैं. हम तो आम लोग हैं, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? अगर पुलिस ने इस तरह से काम किया तो लोग इसका विरोध जताने के लिए आगे आएंगे. आम लोगों के लिए मेरा संदेश है कि वे व्यवस्था बनाए रखें और तब तक हिंसा न करें, जब तक कि कोई उनके घरों में घुसकर उनसे मारपीट न करे.

ये पहले से तय था कि वे पुलिस से भिड़ेंगे : अश्विन पटेल

पाटीदार आरक्षण संघर्ष समिति (पीएएसएस) के राष्ट्रीय संयोजक अश्विन पटेल हैं. कथित तौर पर कहा जाता है कि हार्दिक पटेल ने इसी संगठन से अपनी पहचान बनाई है. हालांकि इस बात से हार्दिक साफ-साफ इंकार कर चुके हैं. उनका कहना है कि उनके आंदोलन को पीएएसएस से जोड़कर न देखा जाए. वहीं अश्विन पटेल की बातों पर भरोसा किया जाए तो हार्दिक उनके संगठन से बाकायदा जुड़े हुए थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी पटेल समुदाय के कल्याण से ज्यादा राजनीति में थी, इसीलिए उन्हें संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

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अश्विन कहते हैं, ‘ये 1992 की बात है, जब गुजरात के लोगों ने आरक्षण के खिलाफ आवाज उठाई थी. यह एक छोटे स्तर का विरोध प्रदर्शन था, जो मेहसाणा के नजदीक शुरू किया गया था. लोग देश में आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ खड़े हुए थे. उस समय यह विरोध प्रशासन का ज्यादा ध्यान नहीं बटोर पाया और कहीं गुम हो गया. इतने दशक बाद पटेलों के लिए आरक्षण की मांग को लेकर पाटीदार आरक्षण संघर्ष समिति तीन साल पहले उभरी.’ उन दिनों को याद करते हुए अश्विन कहते हैं, ‘शुरुआत में हमारे संगठन का उद्देश्य देश से आरक्षण खत्म करना था. करीब एक साल तक विरोध जारी रहा. उस समय संगठन में कुल पचास कार्यकर्ता थे. तब हमें ये लगा कि हमारी मांगें पूरी नहीं हो पाएंगी. अगर समाज का एक वर्ग हमारा समर्थन भी करेगा तब भी हम अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाएंगे. इसीलिए हमने पटेलों के लिए ओबीसी कोटे की मांग की. ये मांग खासतौर से किसानों के लिए थी जिनकी हालत बहुत खराब थी. इसके बाद पटेलों को ओबीसी कोटा देने की मांग को लेकर दो साल पहले सूरत में आंदोलन शुरू हुआ. हमने रैलियां करने से पहले लोगों में जागरूकता फैलाने का निर्णय लिया था. हमारी योजना अगले दो सालों में गांवों तक पहुंचकर एक शांतिपूर्ण आंदोलन चलाने की थी. हम नहीं चाहते थे कि ओबीसी में शामिल दूसरे समुदाय पटेलों के खिलाफ हिंसात्मक रुख अख्तियार कर लें और हमारे खिलाफ खड़े हो जाएं.’ अश्विन के अनुसार, ‘संगठन दिल्ली में जब आंदोलन के लिए खाका तैयार कर रहा था तब हार्दिक गुजरात की टीम देख रहे थे. वे ग्रामीण इलाकों में बहुत सक्रिय थे. उस समय सरदार पटेल समूह (एसपीजी) ने हमारा समर्थन किया था. साथ ही समूह का नजरिया इस बात को लेकर स्पष्ट था कि वे आंदोलन में सामने नहीं आएंगे.’ हार्दिक ने गुजरात में एसपीजी के साथ आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए लगातार काम किया और यह अभियान सबकी नजरों में आ गया.’

आंदोलन ने हिंसक रुख कैसे अख्तियार कर लिया, इसके जवाब में अश्विन ने कहा, ‘विसनगर की रैली हमारी दूसरी महत्वपूर्ण रैली थी जिसके इंचार्ज हार्दिक थे. हमारा उद्देश्य एकदम साफ था. हमें एक शांतिपूर्ण रैली कर पांच हजार पटेलों के हस्ताक्षर लेने थे. फिर इन हस्ताक्षरों के साथ एक ज्ञापन पुलिस कमिश्नर को देना था. लेकिन रैली के बाद झड़प हो गई. विसनगर के विधायक ऋषिकेश पटेल की गाड़ी जला दी गई और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया.’

अश्विन ने बताया, ‘इसके बाद मामला दिल्ली पहुंच गया. दिल्ली में पटेल मंत्रियों ने मुझसे पूछताछ की. जब मैंने हार्दिक से पूरे मामले की जानकारी मांगी तो उन्होंने बताया कि रैली खत्म होने के बाद हिंसा हुई थी. जबकि पूरी जानकारी लेने के बाद पता चला कि हार्दिक ने ज्ञापन के लिए सिर्फ 10 हस्ताक्षर लिए थे. हमारे संगठन ने हार्दिक के क्रियाकलापों पर सख्त रुख अपनाया. ये सामने आया कि पांच हजार पटेलों द्वारा हस्ताक्षर किए गए ज्ञापन की 15-20 प्रतियां अलग-अलग शहरों में भेजने की बजाय हार्दिक ने 42 ज्ञापन अलग-अलग मांगों के साथ भेज दिए थे. कुछ में उन्होंने लिखा कि हम पटेलों के लिए एससी/एसटी कोटा चाहते हैं. किसी में उन्होंने सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत कोटे की मांग की तो कहीं पर ओबीसी में 30 प्रतिशत का कोटा मांगा. अलग-अलग ज्ञापनों में कोटे का प्रतिशत 25 से लेकर 50 प्रतिशत तक था. हार्दिक ने पाटीदारों के लिए अलग कोटे की मांग भी की थी.’

अश्विन के अनुसार, ‘हार्दिक को किसानों और युवाओं से समर्थन मिला जो नहीं जानते थे कि उनका नेता कर क्या रहा था. इसीलिए हमें उन्हें अपने संगठन से हटाना पड़ा. हार्दिक ने हमें ऐसे हालात में पहुंचा दिया कि ओबीसी समुदाय के दूसरे लोग हमारे खिलाफ हो गए और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन को आगे ले जाने का उद्देश्य कहीं खो गया.’

32 वर्षीय अश्विन दोहराते हैं, ‘अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हार्दिक ने पाटीदार आरक्षण संघर्ष समिति के साथ धोखा किया. हमारा ज्ञापन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ले जाने की बजाय हार्दिक कलेक्ट्रेट ऑफिस ले गए. इस तरह से इस आंदोलन को आगे नहीं ले जाना चाहिए था. इन सबके बावजूद 17 अगस्त को सूरत की रैली में हमारा संगठन उनके साथ खड़ा था. उस समय हिंसा का कोई मामला नहीं था क्योंकि हम ऐसा नहीं चाहते थे.’ अश्विन कहते हैं, ‘25 अगस्त की रैली से पहले मैंने गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल से मुलाकात की थी. सरकार हमसे मिलकर पटेल आरक्षण मामले का कोई हल निकालना चाहती थी. हार्दिक हमारे साथ नहीं आए क्योंकि कोई समाधान निकले वो इसके इच्छुक नहीं थे, बल्कि वे इस मुद्दे से राजनीतिक लाभ लेना चाहते थे.’

25 अगस्त को अहमदाबाद में हुई रैली को समर्थन न देने के सवाल पर अश्विन ने आरोप लगाते हुए कहा, ‘ये पहले से तय था कि वे पुलिस से भिड़ेंगे. हार्दिक ने ये स्पष्ट कर दिया था वे ही आगे की कार्रवाई को निर्देशित करेंगे इसीलिए हम उनसे अलग हो गए.’ अश्विन कहते हैं, ‘हार्दिक के पास उस एजेंडे का ड्राफ्ट नहीं है जो हमने गुजरात सरकार को दिया था. हमारी आठ मांगे हैं- गरीबी रेखा के नीचे आने वाले भूमिहीन पाटीदार किसानों को विशेष पिछड़ा वर्ग का कोटा दिलवाना, समुदाय के विकास के लिए पटेल बोर्ड की स्थापना करवाना आदि. इसके अलावा बोर्ड के लिए 500 करोड़ रुपये का बजट दिलवाने की भी मांग थी ताकि उससे छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति और कॉलेज जाने वाली छात्राओं को दो पहिया वाहन दिए जा सकें. साथ ही दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी करने वालों के लिए सरदार पटेल भवन का निर्माण कराना था ताकि छात्र वहां रहकर आराम से परीक्षा की तैयारी कर पाएं.’ अश्विन के अनुसार, पटेलों के कल्याण के लिए मांगों की सूची काफी लंबी है जिसे अब लाखों पटेलों की आशाओं का समर्थन मिला हुआ है और उनका आंदोलन आगे भी चलता रहेगा.

‘मधेसियों पर संकट आता है तो वे एक बार भारत को और दूसरी बार भगवान को याद करते हैं’

मधेसियों का आरोप है कि सत्ता पर नियंत्रण पहाड़ी लोगों का है. नाराजगी इसलिए भी बढ़ी क्योंकि चार प्रमुख राजनीतिक दल इस बात पर सहमत हुए कि संघीय नेपाल में छह प्रदेश होंगे. मधेसी चाहते हैं कि तराई के सारे जिलों को मिलाकर एक प्रदेश या दो प्रदेश बनाए जाएं और उनको पहाड़ के जिलों से अलग रखा जाए. इस प्रस्ताव को प्रमुख दलों ने मानने से इंकार कर दिया. इसके बाद से मधेश इलाके में पिछले एक महीने से हिंसा का दौर जारी है. विवाद इसलिए भी है क्योंकि अधिकांश संसाधन मधेश इलाके में ही हैं. फिलहाल अब तक की हिंसा में तकरीबन 40 लोग मारे जा चुके हैं.

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नेपाल में इतनी अशांति है. आए दिन कहीं न कहीं विवाद, हिंसा और हत्या की खबरें मिल रही हैं. ये कब तक चलेगा?

नेपाल में प्रांतों के बंटवारे और उनकी संख्या पर विवाद है. स्वतंत्र इलाके की लड़ाई है. तराई इलाके में रहने वाले मधेसी लड़ाई लड़ रहे हैं. शांतिपूर्ण लड़ाई को दबाने के लिए भी सरकार हिंसा का सहारा ले रही है. और आप तो जानते ही हैं कि न्यूटन का तीसरा नियम है कि हर क्रिया की बराबर प्रतिक्रिया होती है.

प्रांत के विवाद का समाधान तो नेपाल की संविधान सभा निकाल ही रही है. प्रांतों की संख्या छह से सात तक बढ़ाने पर बात चली ही है.

आपको मालूम होगा कि पहले 18 प्रांतों का मामला था, फिर छह हुआ और फिर सात. वे खुद तो तय नहीं कर पा रहे कि कितने प्रांत होने चाहिए.

प्रांतों की संख्या को लेकर मधेसियों के इलाके में ही इस कदर अशांति और हिंसा क्यों? प्रांतों की संख्या के घटने-बढ़ने से फर्क तो सब पर पड़ेगा.

क्योंकि अस्तित्व, अस्मिता और पहचान का संकट और सवाल मधेसियों के ही सामने है, दूसरे किसी समुदाय के सामने नहीं.

मधेसियों को पहचान, अस्मिता, अस्तित्व के संकट की बात अब क्यों याद आ रही है? क्या राजतंत्र के समय मधेसियों के लिए इस तरह की चुनौतियां नहीं थीं? क्या राजतंत्र में मधेसियों को ज्यादा स्वायत्तता और स्वतंत्रता थी?

राजतंत्र में तो कुछ भी नहीं था. उसमें तो मधेसी और उत्पीड़न झेलते थे. इसीलिए तो जब पहाड़ी लोगों ने राजतंत्र का विरोध किया तो मधेसियों ने भी साथ दिया. राजतंत्र के विरोध में तो मधेसियों का इलाका ही केंद्र बना था.

अभी क्या स्थिति है?

चारों ओर तनाव है. कई मधेसी इलाके में सेना उतर गई है. थारूओं का एक बड़ा इलाका सेना के हवाले है. महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं. लाश तक का पता नहीं चलने दिया जा रहा है.

मधेसियों की यह लड़ाई एक तरीके से सरकार के बहाने पहाड़वालों के वर्चस्व के खिलाफ भी है. नेपाल का एक और बड़ा समूह  ‘एथनिक ग्रुप’  (जातीय समूह) का है, जो पहाड़वालों के खिलाफ माना जाता है. वह इस आंदोलन में मधेसियों का साथ दे रहा है या नहीं?

पहाड़ के लोगों और एथनिक ग्रुप के बीच वर्चस्व की लड़ाई अपनी जगह है लेकिन तराई में रहने वाले मधेसियों के खिलाफ दोनों एकजुट हैं. पहाड़ पर रहने वाले और तराई में रहने वाले बाशिंदों के बीच लड़ाई है. दोनों की नागरिकता में ही फर्क है. तराई वाले नेपाल में दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं. तराई वाले कुछ भी करेंगे तो आवाज उठेगी कि भारतीय हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं.

पहाड़ पर रहने वालों का वर्चस्व है तो एथनिक ग्रुप मधेसियों की बजाय उनके करीब क्यों है?

सिर्फ पहाड़ वालों का वर्चस्व है, ऐसा नहीं कह सकते. कुछ जातीय समूहों का भी वर्चस्व है. ये शुरू से ही मधेसियों के विरोधी रहे हैं. अभी तो डाॅ. हसमुख जातीय समूह से ही हैं, जो प्रमुख हैं. इस समूह वाले मांग करते रहे हैं कि मधेसी भारतीय हैं और उन्हें नेपाल की नागरिकता नहीं बल्कि यहां रहने के लिए वक्फ परमिट दिया जाए.

बड़ी अजीब बात है कि मधेसियों की इस लड़ाई में वे खुद ही अपने एजेंडे को लेकर बिखरे हुए हैं. कोई कह रहा है कि हमें अलग राज्य चाहिए, जो ज्यादा सशक्त, स्वायत्त और ज्यादा अधिकारों से लैस हो तो कोई अलग देश की ही मांग कर रहा है.

मुख्य मांगें दो किस्म की हैं. एक तो अलग प्रांतों की और दूसरा स्वतंत्र तराई देश की. यह मांगें भी नई नहीं, बल्कि 1950 में भारत-नेपाल संधि में निहित धारा पांच के आधार पर है. यह आज की नहीं, बल्कि लंबी लड़ाई है, जिसका प्रस्फुटन समय-समय पर होता रहा है. अब नया संविधान लागू होने वाला है, इस वजह से यह विरोध तेज हो गया है.

आप लोग स्वतंत्र देश के पक्षधर हैं, जिसके लिए हथियारबंद लड़ाई भी लड़ रहे हैं. इस विश्व में कितने देश बनेंगे. नेपाल तो पहले ही एक छोटा-सा देश है?

नेपाल 1,47,181 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. इसका 25 प्रतिशत हिस्सा तराई मधेश में है. करीब डेढ़ करोड़ आबादी तराई मधेसियों की है. इतने में एक अलग देश क्यों नहीं बन सकता? और रही बात कितने बड़े देश की तो भूटान, मालदीव या यूरोप के कई देश तो इससे भी छोटे हैं और उनका अपना अस्तित्व है या नहीं, बताइए. देश या स्वायत्त क्षेत्र की बात अलग, पहले नेपाल की सरकार बातचीत को तैयार तो हो. वह विचार-विमर्श का दौर शुरू करे. इसके लिए तो वह तैयार ही नजर नहीं आ रही है.

सवाल ये भी है कि मधेसी खुद इतने बिखराव के शिकार क्यों हैं और मधेसियों की इस लड़ाई में इतनी फूट क्यों हैं? आप लोग पहले आपस में ही समन्वय और एका क्यों नहीं बना पा रहे हैं?

ब्रिटिश काल में भारतीय जब अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे थे तब क्या सभी भारतीय अंग्रेजों के खिलाफ थे. बहुतेरे तो ऐसे थे जो अंग्रेजों के यहां नौकरी ही नहीं बल्कि भारतीयों पर अत्याचार करने में भी उनका सहयोग करते थे. ऐसे लोगों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया. ऐसा तो होता रहा है. आम युवा व मधेसियों की इच्छा क्या है, यह सबसे महत्वपूर्ण है. आप सर्वे करवा लीजिए. नेपाल के अधिकांश लोग स्वतंत्र तराई के पक्ष में नजर आएंगे.

मधेसियों की बातें नेपाल में सुनी नहीं जा रहीं, सरकार इस मामले काे अपने तरीके से निपटा रही है. ऐसे में आगे क्या होगा?

मधेसियों की बातें नहीं सुनी गईं तो स्थितियां दिन-ब-दिन बिगड़ेंगी और नियंत्रण हो जाएंगी.

आपने एक जगह कहा कि मधेसी शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे हैं और सरकार हिंसा पर उतारू है. लेकिन कुछ दिनों पहले एसपी समेत कई जवानों की हत्या हुई. आरोप है कि उनकी हत्या मधेसियों ने की. ऐसे में आप मधेसियों के इस आंदोलन को किस तरह से शांतिपूर्ण कह सकते हैं?

आंदोलन शांतिपूर्ण ही था. सरकार ने दमन की शुरुआत की, तो थारूओं के इलाके में उसकी प्रतिक्रिया हुई. उसके पहले भारदा में हमारे साथी राजेंद्र राउत को मार दिया गया था. बाद में गृहमंत्री ने कहा कि आंदोलनकारियों ने पहले गोली चलाई इसलिए ऐसा हुआ. इससे बड़ा झूठ क्या बोला जा सकता है. सरकार ऐसे झूठ बोलेगी तो जनता तो प्रतिरोध करेगी ही.

साभार : Conciliation Resources
साभार : Conciliation Resources

एमाले, नेपाली कांग्रेस और माओवादी, ये तीनों नेपाल सरकार में शामिल प्रमुख दल हैं. तीनों के बीच मतभिन्नता भी है. तीनों में से कौन-सी पार्टी मधेसियों के प्रति नरम रुख अपनाए हुए है?

कोई नहीं. यही तीनों तो मधेसियों के सबसे बड़े शत्रु हैं. इन तीनों पार्टियों की आपसी मतभिन्नता अलग बात ह,ै लेकिन मधेसियों के खिलाफ तीनों एक हो जाते हैं.

राष्ट्रपति तो मधेसी हैं, उनका रुख?

मधेसियों का समर्थन कोई नहीं कर रहा है.

नेपाल को धर्मनिरपेक्ष देश बनाने की बात चल रही है और कुछ लोग इसे हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं. क्या इसे लेकर भी अंदर ही अंदर विवाद है?

इसे लेकर द्वंद्व है और यह बना ही रहेगा.

नेपाल के अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमान, किस ओर हैं. क्या वे मधेसियों के पक्ष में हैं?

अल्पसंख्यक पूरी तरह से मधेसी हैं और मधेश के सवाल पर वे सिर्फ मधेसी हैं और कुछ नहीं. वे पूरी तरह से हमारे साथ हैं.

नरेंद्र मोदी तो दो बार नेपाल गए. कई सालों बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहां गया है और बहुत सालों बाद ही सीधे नेपाल के मामले को भी देख रहा है. इसका कुछ तो सकारात्मक असर होगा?

भारतीय प्रधानमंत्री आए तो जरूर लेकिन आपने देखा ही होगा कि नेपाल में इसका क्या असर हुआ और भारत के प्रति नेपाल में क्या माहौल है. भूकंप आने के बाद भारत ने सबसे पहले सहयोग किया, लेकिन उसका क्या असर हुआ. भारत की राहत सामग्री ही वापस कर दी गई, पत्रकारों को भगाया गया. इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई भारतीय प्रधानमंत्री 17 साल बाद गया है या 17 दिनों बाद. नेपाल मंे भारत का विरोध ही राष्ट्रवादिता की मूल पहचान बन गया है. देशभक्ति का एकमात्र नारा है और राष्ट्रीयता का आधार भारत और भारतीयों का विरोध ही है. भूकंप के समय चीन से राहत सामग्री दो दिनों के बाद आई. चीन को कहां कुछ लौटाया गया. नेपाल में मधेसियों के लिए ‘भारतीय विस्तारवाद मुर्दाबाद’ का नारा बोला जाता है. चीन ने तिब्बत को कब्जे में कर रखा है, लेकिन उसे कभी चीनी विस्तारवाद नहीं कहा गया. आपको और कुछ जानना हो तो आप याद कीजिए कि जब राजतंत्र का अंत हुआ तब गणतंत्र की रूपरेखा भारत में बनी, लेकिन जब  प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो पहले चीन गए. भारत और भारत सरकार के प्रति उनका क्या रवैया था, आप समझ ही सकते हैं.

भारत के अलावा वहां चीन की धमक और खनक सब जानते हैं. साथ ही यूरोपियन यूनियन और अमेरिका भी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं. उनके प्रति नेपाल में क्या रवैया है?

सब हैं वहां लेकिन यह सच है कि नेपाल के हर परिवर्तन में भारत की ही भूमिका सबसे अहम रही है. राणा शासन के अंत के बाद जब व्यवस्था बनाने की बात हुई तो भारत की भूमिका रही. पंचायती व्यवस्था की बात आई तो भारत के एमजे अकबर जैसे पत्रकार, हरकिशन सिंह सुरजीत, चंद्रशेखर जैसे नेताओं की भूमिका रही. राजतंत्र के खात्मे के बाद गणतंत्र की बात आई तो दो बिंदुओं वाला समझौता कहीं और नहीं बल्कि दिल्ली में ही हुआ. भारत हमेशा अहम भूमिका निभाता रहा है लेकिन भारतीयों के साथ वहां क्या हो रहा है. पशुपति नाथ मंदिर के पुजारी को निकाला गया. भारतीय राजदूत पर जूता फेंका गया. भूकंप के बाद भारतीय सहायता सामग्री लौटाने के बाद भारतीय पत्रकारों को भगाया गया. कोई बताए तो सही कि नेपाल में भारतीय पत्रकारों की गलती आखिर क्या थी? भारत को हटा दें तो नेपाल में कोई बदलाव नहीं हुआ.

क्या भारत सरकार मधेसियों के पक्ष में किसी तरह का सार्थक हस्तक्षेप कर रही है?

दुख तो इसी बात का है कि भारत कभी मधेसियों की पीड़ा समझता ही नहीं जबकि मधेसी भारतीय होने की सजा ही भुगत रहे हैं. तराईवासी मधेसियों को जब-जब संकट आता है, वे एक बार भारत को याद करते हैं और दूसरी बार भगवान को, लेकिन भारत कभी इनकी पीड़ा नहीं समझता. नेपाल में मधेसी दोयम दर्जे के नागरिक बन गए हैं और भारत में उससे भी घटिया दर्जे के. वहीं भारत में कुछ होता है तो उसका मधेसियों पर क्या असर पड़ता है, इसे एक उदाहरण से समझाता हूं. एक बार भारतीय फिल्म कलाकार ऋतिक रोशन ने कह दिया था कि उन्हें नेपाली पसंद नहीं. उसके बाद काठमांडू में तीन दिनों तक अत्याचार हुआ. तराई में गोलियां चलीं और मधेसियों को मारा गया.

मधेसियों को भारत से क्या अपेक्षाएं हैं?

बस भारत हमें अौर हमारी पीड़ा को समझे. जो नेपाल के नागरिक हैं, वे भारतीय सेना में भर्ती हो सकते हैं लेकिन जो मधेसी हैं, उन्हें भारतीय सेना में नहीं लिया जाता. आखिर मधेसियों ने भारत का क्या बिगाड़ा है? भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों से मधेसियों का रिश्ता बेटी-रोटी का है. हमारे यहां भारत के लोगों की शादियां होती हैं. अब जो भारत में हैं, उन्हें भी भारत में अवसर मिलता है, जो नेपाली हैं, उन्हें भी अवसर मिलता है, बीच में मधेसियों को कोई नहीं पूछता. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि आंदोलन कर रहे मधेसियों को कैसा लगता होगा.

मधेसियों के प्रति बने भारत के इस नजरिये की आप क्या वजह मानते हैं?

भारत का रवैया शुरू से ही ऐसा रहा है. भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन भारत को देखने का जो नजरिया ब्रिटिशों  का था, वह बना रहा और अब भी यह कायम है.

आपका संगठन सशस्त्र और हथियारबंद आंदोलन में भरोसा रखता है. दुनिया में सशस्त्र आंदोलन के दिन लद रहे हैं. माओवादियों से लेकर एलटीटीई का हश्र देखकर आपको क्या लगता है?

ऐसा नहीं कि हम हिंसाप्रिय हैं. हम तो बात करना चाहते हैं. नेपाल सरकार ही बताए कि मधेसी कैसे नेपाल में आए? क्या बंगाल, अवध और बिहारवालों ने अपनी जमीन देकर नेपाल के दायरे का विस्तार नहीं किया था और क्या यह सच नहीं है कि नेपाल के पास अनाज उगाने वाले उपजाऊ इलाके थे ही नहीं. ऐसे में बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आदि ने अपनी जमीन देकर नेपाल को आत्मनिर्भर और जीने योग्य बनाया. हम बाद में जाकर जबर्दस्ती तो वहां बसे नहीं हैं. कम से कम हमारे इस इतिहास पर तो बात हो. हमें अपने मधेश का इतिहास बताने की इजाजत दो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने दिया जा रहा है.

अभी हाल ही में नेपाल सरकार के बारे में ‘मूल्यांकन’ पत्रिका के पत्रकार श्यामश्रेष्ठ ने अच्छी बात कही है. उनके अनुसार, ‘नेपाल की सरकार हिंसाप्रिय है, बिना हिंसा के बात सुनती ही नहीं.’ आपके यहां शहीद भगत सिंह कहते थे न कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है. वही नेपाल में हो रहा है. अब बताइए नेपाल में सरकार सीमांकन को तैयार है. वह तैयार हो जाती तो इतनी हिंसा तो न होती.

आपको क्यों लगता है कि आप लोगों की बात एक दिन जरूर सुनी जाएगी?

भारत में जब ब्रिटिशराज था तब कहा जाता था कि ब्रिटिश सरकार का सूरज कभी नहीं डूबता. उसके पास दूसरा विश्वयुद्ध लड़ी हुई सेना थी, लेकिन भारत के लोगों ने उन्हें अपने यहां से भागने पर मजबूर कर दिया. भारत आजाद हुआ. जनता की ताकत अलग होती है. यह हमेशा नहीं जगती, लेकिन जब जगती है तो बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो जाती हैं.

‘जन’ से दूर ‘औषधि’

58-59-1राजधानी दिल्ली के शाहदरा स्थित गुरु तेग बहादुर अस्पताल में लगी भारी भीड़ के बीच फेफड़ों की बीमारी से जूझ रहे 68 वर्षीय सुरेश चंद्र एक हाथ में अपनी मेडिकल फाइल और दूसरे में डॉक्टर का पर्चा लिए यहां संचालित जन औषधि केंद्रकी तरफ बढ़ रहे हैं. केंद्र सरकार की ओर से शुरू किए गए इस केंद्र पर बाजार की तुलना में काफी सस्ती दवाएं मिलती हैं. सुरेश को उम्मीद है कि उन्हें यहां सस्ती दवाएं मिल जाएंगी. हालांकि उन्हें निराशा हाथ लगी जब पता चला कि उनके इलाज के लिए लिखी गईं दवाएं जन औषधि केंद्र के स्टॉक में उपलब्ध ही नहीं हैं. निराश सुरेश कहते हैं, ‘मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं किसी निजी मेडिकल स्टोर से महंगे दामों पर ये दवाएं खरीद सकूं.इस केंद्र के बाहर तकरीबन आधा घंटा बिताने पर पता चला कि दवा की तलाश में आए 10 से 15 लोगों को भी सुरेश की तरह खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि दवाएं स्टॉक में मौजूद ही नहीं थीं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और हेल्थ एक्शन इंटरनेशनल की ओर से 2004-2005 में किए गए एक सर्वे से जुटाए गए आंकड़ों पर नजर डालने पर पता चलता है कि सरकार की ओर से चलाए जा रहे दवा केंद्रों पर सिर्फ 30 फीसदी जरूरी दवाएं उपलब्ध होती हैं. यह स्थिति तब है जब भारत दुनिया के बड़े दवा निर्यातक देशों में से एक है. विश्व भर में कहीं भी प्रयोग होने वाली हर पांचवीं गोली, कैप्सूल या इंजेक्शन भारत में बनी होती है.

2008 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने आम जन को कम दामों पर गुणवत्तापूर्ण जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए देश भर में जन औषधि केंद्र खोलने की योजना बनाई थी. इसके बाद रसायन मंत्रालय के तहत आने वाले औषधि विभाग ने राज्य सरकारों, रेड क्रॉस सोसायटी और कुछ गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर देश भर में जन औषधि केंद्र खोले थे. शुरुआती दौर में ऐसे तकरीबन 200 केंद्र खोले गए. तब सरकार ने घोषणा की थी कि देश के 660 जिलों में जन औषधि केंद्र खोले जाएंगे. हालांकि दवाओं की अनुपलब्धता और लोगों में ब्रांडेड दवाओं की तुलना में जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता और चिकित्सीय गुणों के प्रति जागरूकता की कमी के चलते आज सिर्फ 98 केंद्र ही ठीक तरह से काम कर रहे हैं.

उदाहरण के लिए, श्रीनगर में भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी की क्षेत्रीय शाखा की इमारत में संचालित जन औषधि केंद्र के पास केवल सौ दवाओं का ही स्टॉक है. भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी (आईआरसीएस) की सचिव रोमा वानी कहती हैं, ‘जागरूकता की कमी के चलते चंद लोग ही जन औषधि केंद्र तक पहुंचते हैं.इस जमीनी हकीकत के बावजूद वर्तमान सरकार जन औषधिअभियान को और व्यापक स्तर पर शुरू करने की योजना बना रही है. सरकार की तरफ से घोषणा हुई है कि देश भर में ऐसे ही हजारों केंद्र खोले जाएंगे. हाल ही में रसायन एवं उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने एक प्रेसवार्ता में दावा किया है कि सात राज्यों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर शुरुआती चरण में जन औषधि केंद्रों की संख्या 3000 तक बढ़ाई जाएगी और एक नई व्यापक योजना के तहत बाद में देश भर के सभी जिला अस्पतालों में ऐसे केंद्र खोले जाएंगे. यह प्रस्ताव महत्वाकांक्षी जान पड़ता है. इसका वास्तविकता में तब्दील होने का मतलब होगा देश की बड़ी दवा निर्माता कंपनियों द्वारा निर्मित ब्रांडेड दवाओं पर लोगों की निर्भरता कम होना व सस्ती जेनरिक दवाओं की आसानी से उपलब्धता. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यह क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा.

Pharmaceutical machine operating

वर्तमान में संचालित जन औषधि केंद्रों पर जरूरत की सिर्फ कुछ ही दवाएं मिलती हैं, जैसे- एंटीबायोटिक्स (प्रतिजैविक दवाएं), एनाल्जेसिक (दर्द निवारक दवाएं), एंटीपायरेटिक्स (बुखाररोधी दवाएं) और दर्द निवारक व एंटी इनफ्लेमेटरी (जलनरोधी) दवाओं का मिश्रण. सार्वजनिक क्षेत्र की पांच कंपनियां- इंडियन ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (आईडीपीएल), हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड (एचएएल), बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (बीसीपीएल), कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (केपीसीएल) और राजस्थान ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (आरडीपीएल) इन दवाओं का निर्माण कर रही हैं. सूत्रों के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की इन सभी इकाइयों को पुनरुद्धार की जरूरत हैं. नाम न छापने की शर्त पर मंत्रालय के एक सूत्र ने बताया, ‘तकनीक के लिहाज से इन इकाइयों में किसी भी तरह के बदलाव नहीं किए गए हैं. दवा निर्माण की ये इकाइयां या तो बंद पड़ी हैं या फिर दवा की बहुत ही काम सप्लाई कर रही हैं.जाहिर तौर पर सरकार इन कंपनियों को केवल नाम के लिए चला रही है. गरीबों को कम कीमत पर जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए स्थापित इन कंपनियों के वास्तविक उद्देश्य से वह बेपरवाह है. जन औषधि केंद्रों पर उपलब्ध दवाओं के स्टॉक में वे सभी जरूरी दवाएं होनी चाहिए जो केंद्र और राज्यों की सूची में होती हैं. हालांकि जो दवाएं इन केंद्रों से बेची जा रही हैं, वे सभी इन दवा कंपनियों में बनाने वाली दवा सूची से निर्धारित की जाती है.

इसके अलावा लोगों में भी यह धारणा बन चुकी है कि सस्ती जेनरिक दवाओं से ब्रांडेड महंगी दवाएं अच्छी होती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के वीपी चेस्ट संस्थान में औषधि विज्ञान विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर अनीता कोटवानी कहती हैं, ‘लोग अपनी ही सुविधा के लिए उपलब्ध जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं करते. दवा की दुकानों से जेनरिक दवा खरीदने को लेकर लोग अनिच्छुक नजर आते हैं क्योंकि इन दवाओं की गुणवत्ता के प्रति वे खुद सवाल उठाते हैं.कोटवानी औषधि वैज्ञानिकों की एक टीम के साथ जन औषधि केंद्र में उपलब्ध दवाओं की गुणवत्ता परखने का अध्ययन कर चुकी हैं. चार दवाओं पर किए गए अध्ययन में खुलासा हुआ था कि जेनरिक दवाओं के दाम बाजार में उपलब्ध अपने समकक्ष ब्रांडेड दवाओं के बराबर थे. साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निर्मित जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) के अनुरूप ठीक पाई गई. अध्ययन में कई महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए गए हैं, जैसे- अगर जेनरिक दवाएं उतनी ही अच्छी हैं जितनी कि ब्रांडेड दवाएं तो लोग आखिर क्यों ज्यादा महंगी दवाएं खरीदते हैं? सरकारी अस्पतालों में जब निःशुल्क दवाएं उपलब्ध नहीं होतीं तब क्या डॉक्टर मरीज को जेनरिक स्टोर से दवा खरीदने की सलाह देते हैं? इसके अलावा क्या डॉक्टर दवाओं को उनके जेनरिक नाम से लिख रहे हैं? भारतीय चिकित्सा परिषद (पेशेवर व्यवहार, शिष्टता एवं नैतिकता) अधिनियम 2002 में वर्णित है कि हर डॉक्टर को जहां तक संभव हो सके मरीजों के लिए दवाएं उनके जेनरिक नाम से लिखनी चाहिए और वह यह भी सुनिश्चित करेगा कि दवा की पर्ची और दवा का इस्तेमाल तर्कसंगत हो.

देखा जाए तो तकनीकी तौर पर हम सभी जेनरिक दवा ही खाते हैं. पेटेंट की निर्धारित अवधि बीतने के बाद दवाएं जेनरिक की श्रेणी में आ जाती हैं. कभी-कभी दवा निर्माण कंपनियां इन जेनरिक दवाओं को अपने ब्रांड नाम के साथ बाजार में उतारती हैं. इन्हें ब्रांडेड जेनरिकदवाएं कहा जाता है. निजी मेडिकल स्टोर पर ब्रांडेड जेनरिक दवाएं मिलती हैं जो वास्तव में जेनरिक दवाओं के समान ही होती हैं, सिर्फ इनकी कीमत अधिक होती है. सार्वजनिक क्षेत्र निर्माताओं से दवाएं अनब्रांडेड जेनरिक के रूप में जेनरिक नाम से खरीदता है. सरकार सार्वजनिक अस्पतालों को दवा की आपूर्ति करने वाली निर्माण कंपनियों को एक निश्चित राशि मूल्यवर्धित कर (वैट) के तौर पर चुकाती है. दवा की कीमत में कोई अतिरिक्त लागत नहीं जोड़ी जाती. दूसरी ओर समान ब्रांडेड दवाओं की कीमत में इनका विज्ञापन खर्च जोड़े जाने से इनकी बाजार कीमत बढ़ जाती है. निर्माता, थोक विक्रेता और फुटकर विक्रेताओं को दी जाने वाली विक्रय योजनाओं का खर्च भी इन दवाओं के मूल्य से जोड़ा जाता है, जिससे ये और महंगी हो जाती हैं. इन योजनाओं के तहत फुटकर विक्रेताओं को सबसे ज्यादा लाभ दिया जाता है. एक निश्चित मात्रा की दवा की खरीददारी पर उन्हें कुछ दवाएं फ्री में मिल जाती हैं. इसके बावजूद फुटकर विक्रेता ग्राहकों को किसी तरह की छूट देने की जहमत नहीं उठाते.

भारतीय औषधि उद्योग का एक रोचक पहलू ये है कि विनिर्माता ब्रांडेडऔर ब्रांडेड जेनरिकउत्पाद बाजार में अलग-अलग कीमतों पर उतारते हैं. इसलिए मरीज द्वारा वहन दवा की लागत काफी हद तक इस कारक पर निर्भर करती है कि डॉक्टर उसे कौन-सी दवा लिखता है और दवा विक्रेता कौन-सी दवा देता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, देश में 3.2 प्रतिशत भारतीय दवाओं पर होने वाले क्षमता से अधिक खर्च के कारण हर साल गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं. भारत में स्वास्थ्य खर्च का 80 प्रतिशत हिस्सा जेब पर दबाव डालकर होता है. इसमें भी मरीज के इलाज के दौरान स्वास्थ्य खर्च का 70 प्रतिशत दवाओं की खरीद में जाता है. देश में दवाओं की कीमत और उपलब्धता ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 1995 (डीपीसीओ) के तहत निर्धारित की जाती है. इसके बाद डीपीसीओ के तहत राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) 1997 में गठित किया गया था जो औषधि विभाग के तहत आता है.

हैरान करने वाली बात ये है कि सरकार डीपीसीओ के अंतर्गत दवा निर्माण में जरूरी सिर्फ 74 तत्वों से निर्मित दवाओं की कीमत ही नियंत्रित करती है. बाकी की कीमतें दवा निर्माता निर्धारित करते हैं. वे दवाएं जो इन 74 दवा सामग्रियों के मिश्रण से बनती हैं सूचीबद्ध दवाएंकही जाती हैं. इन दवाओं की कीमत जिनमें कुछ बेहद ही जरूरी दवाएं भी शामिल हैं, प्राय: कम रखी जाती हैं. बाकी गैर-सूचीबद्ध दवाओं की कीमत दवा निर्माता ही निर्धारित करते हैं. अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) और मूल्य के रूप में छपी अंतिम राशि का निर्धारण, खुदरा और थोक व्यापारियों को दिया जाने वाला लाभ आदि सभी पर निर्णय दवा निर्माताओं द्वारा ही लिया जाता है. आखिर में निर्माता दवा की कीमत एनपीपीए से पंजीकृत करा लेता है. मूल्य निर्धारण प्राधिकरण केवल यह निगरानी करता है कि गैर-सूचीबद्ध दवाओं की कीमत साल भर में दस प्रतिशत से अधिक न बढ़े. दवा निर्माताओं को एमआरपी निर्धारित करने का अधिकार देने का उद्देश्य दवाओं के एक मुक्त बाजार का निर्माण करना है जिससे कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा हो और दवाओं की कीमतें नीचे लाने में मदद मिले. हालांकि यह दवा नीति अब तक ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी.

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कोटवानी अपने एक शोधपत्र में लिखती हैं, ‘दवा विक्रेता उन दवाओं को स्टॉक कर लेते हैं जो ज्यादा बिकती हैं. इससे यह संकेत मिलता है कि डॉक्टर कुछ चुनिंदा ब्रांडेड दवाएं ही मरीजों के लिए लिखते हैं. वैध रूप से औषधि विक्रेताओं को जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं के बीच विकल्प देने की अनुमति नहीं है. डॉक्टर द्वारा लिखे गए किसी दवा के व्यापारिक नाम को किसी अन्य दवा से बदला नहीं सकता है.वहीं मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के नियमों के मुताबिक, डॉक्टरों से उम्मीद की जाती है कि वह कम कीमत वाले जेनरिक संस्करण या ब्रांडेड जेनरिक दवाएं ही मरीजों को लिखें, ताकि लोग आसानी से उसे खरीद सकें.

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आंकड़ों के आईने में

  • भारतीय दवा उद्योग वैश्विक उत्पादन के दस प्रतिशत हिस्से की आपूर्ति करता है. आपूर्ति की मात्रा के लिहाज से यह विश्व में  तीसरे स्थान और मूल्य के लिहाज से 14वें स्थान पर आता है
  • एंटी एचआईवी दवाओं की वैश्विक जरूरत का 30 प्रतिशत हिस्सा भारत में बनता है
  • वैश्विक बाजार में भारतीय दवा उद्योग की हिस्सेदारी 2.4 प्रतिशत है
  • भारतीय दवाएं अमेरिकारूसजर्मनी जैसे तकरीबन 200 देशों में निर्यात की जाती हैं. इसका लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ अमेरिका को निर्यात किया जाता है

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अपने शोध में शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि दवा निर्माता ब्रांडेड जेनरिक दवाओं को उनके समकक्ष पेटेंट दवाओं की तुलना में ऊंचे अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) पर बेच रहे हैं. इसमें इंजेक्शन भी शामिल हैं जो गंभीर रूप से बीमार मरीजों को लगाए जाते हैं. सरकारी अस्पतालों के पास बने निजी मेडिकल स्टोर इन महंगी दवाओं का स्टॉक रखते हैं और ऊंचे दामों पर मरीज के संबंधियों को बेच देते हैं. जैसा कि सरकार गरीब आबादी तक जरूरी दवाओं की पहुंच की प्रक्रिया में सुधार के लिए जन औषधि योजना को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है, ऐसे में दवा निर्माताओं, खुदरा विक्रेताओं और डॉक्टरों की भूमिका पर भी ध्यान देने की जरूरत है.

सरकार को सबसे पहले अपनी मूल्य निर्धारण पद्धति को लोगों के अनुकूल और दक्ष बनाना होगा. हाल ही में रसायन और उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने फार्मा प्राइस डाटा बैंकका शुभारंभ किया है. यह एकीकृत औषध डाटाबेस प्रबंधन प्रणाली है. इसका प्रयोग दवा निर्माण/क्रय-विक्रय/आयात/वितरण कंपनियां ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013 के तहत बताई गईं जरूरी जानकारियां ऑनलाइन सबमिट करने के लिए इस्तेमाल कर सकेंगी. इसका प्रबंधन एवं संचालन राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा. हालांकि, इससे मरीजों को राहत तब तक नहीं मिलेगी जब तक सरकार मूल्य निर्धारण प्रणाली में कोई बदलाव नहीं लाती. इसके लिए सरकार को किसी दवा का अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) तय करने में निर्माताओं की तुलना में ज्यादा भागीदारी रखनी चाहिए. दूसरा, सरकारी फार्मेसी और जन औषधि केंद्र पर आपूर्ति प्रबंधन को मजबूत करना होगा.

रियाज़ वानी के सहयोग से

‘आदिवासी समाज से कोई आगे आएगा तो हिंदी लेखकों की चिंता बढ़ जाएगी’

आपने गांव के स्कूल में पढ़ाई पूरी की. आप कॉलेज नहीं गए. क्या कविता लेखन में रुचि स्कूली जीवन से ही थी?

नहीं, स्कूली जीवन में क्या लिखने की रुचि रही होगी. बस किसी तरह पढ़ाई कर लिया करते थे. छठी क्लास में पहुंचने के बाद लगा कि कोई कक्षा में अव्वल आता है तो उसकी वैल्यू क्लास में बढ़ जाती है. ऐसा सोचकर मुझे लगा कि मुझे भी कक्षा में अव्वल आना चाहिए. फिर मेरी दिलचस्पी पढ़ाई में जगने लग गई लेकिन उसी समय मेरे ऊपर विपत्तियों का पहाड़ भी आ टूटा. मेरे मजदूर पिता ने अपनी कमाई से गांव में ही जमीन का एक टुकड़ा खरीदा तो गांव और आस-पड़ोस के लोगों को यह अखर गया. उन्होंने पिता की इस तरक्की से जल-भुनकर बदला लेना शुरू कर दिया. मेरे पिता को ओझा-गुनी करार दिया गया. समाज ने कई स्तर पर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. बिना वजह अपमान सहने का बोझ पिता बर्दाश्त नहीं कर सके. वे अंदर ही अंदर टूट गए. इतने उद्वेलित और दुखी हुए कि एक रात हमसब को छोड़कर कहीं निकल गए और आज तक उनका पता नहीं चल सका. उनके पीछे हमारे घर में हम दो भाई और मां रह गए. मेरे बड़े भाई को जमीन को लेकर झगड़ा और प्रताड़ना करने वाले ताऊ ने अपनी ओर पहले ही मिला लिया था और पिता से अलग करवा दिया था, जिन्होंने पिता को डायन करार देने में अहम भूमिका निभाई थी. इस तरह से अब मैं और मेरी मां ही इस विपत्ति में एक-दूसरे का सहारा रह गए थे. मां ने ही मां और पिता- दोनों की भूमिका निभाई और मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया. 2006 में मां भी गुजर गईं.

न पढ़ाई-लिखाई की पृष्ठभूमि, न कोई गुरु, तब आखिर आपने पहली बार लिखने की शुरुआत कब की और कविता की विधा को ही लेखन में क्यों चुना?

कविता लिखने का चयन मैंने विधा जैसा कुछ सोच-समझकर शुरू नहीं किया था. न ही यह सोचकर लिखना शुरू किया कि मुझे यह लिखना है, वह लिखना है. सीआईएसएफ की नौकरी में आया तो देश के अलग-अलग हिस्से में नौकरी के लिए जाता रहा. मुझे अपनी भाषा संथाली की ही समझ थी. हिंदी बस काम चलाने लायक बोल लेता था. नौकरी तो करता रहा लेकिन जो पिता के साथ हुआ था, वह कसक हमेशा मन में रहती थी. उसी पीड़ा को मैंने कागज पर उतारना शुरू कर दिया. कविता सोचकर नहीं लिखी लेकिन वह कविता की तरह होता गया. लिखकर पहली बार एक संथाली पत्रिका में भेजी और वह छप भी गई. मैं बहुत उत्साहित हुआ. फिर तो जब भी समय मिले, लिखता ही गया. आॅल इंडिया संथाली राइटर्स एसोसिएशन ने मुझसे संपर्क किया और लिखने के लिए प्रोत्साहित किया. 2001 में जब मैं 27 साल का था तब ऑल इंडिया संथाली राइटर्स एसोसिएशन ने कविता लेखन के लिए मुझे सम्मानित और पुरस्कृत किया. उसके बाद कई संथाली पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया. मुझे सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा और फिर 2011 में मुझे अपनी रचना संग्रह ‘बांचाव लड़हाई’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार/सम्मान मिला.

इस कविता संग्रह में क्या है?

संथाली में जो ‘बांचाव लड़हाई’ है, उसका हिंदी में अर्थ है जीने का संघर्ष. रोजमर्रा के जीवन में इंसानी समुदाय के सामने जो जीवन के संघर्ष हैं, उसी को केंद्र में रखकर मैंने हमेशा लिखा. मैंने इस संघर्ष को बहुत करीब से देखा है. जब मेरी पहली पोस्टिंग केरल में हुई और वहां गया तो मैं खुद को संथाली बताता था तो मुझसे यह सवाल किया जाता था कि हू आर यू? यह मेरे लिए अप्रत्याशित था. अपने देश में मुझे अपनी पहचान बतानी पड़ेगी कि मैं कौन हूं? मैं किस समुदाय से हूं? यह संकट सिर्फ मेरे समुदाय के साथ नहीं, कई समुदाय और अनंत लोग ऐसे हैं, जिन्हें इन सवालों से टकराना पड़ता है. बस, इन्हीं अनुभवों को लिखता गया और संकलन तैयार हो गया.

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आप सीआइएसएफ में कांस्टेबल हैं. समय नहीं मिलता होगा, फिर लेखन कब करते हैं?

लेखन के लिए माहौल की जरूरत होती है, यह मुझे कभी नहीं मिला क्योंकि आप जानते हैं कि अर्द्धसैनिक बलों में काम करने का अपना एक अनुशासन होता है. सबकुछ तय समय से होता है. समय तो अभी भी नहीं मिलता है. लेकिन मुझे जब भी समय मिला, मैं लिखता गया. घर में पत्नी पूरा दिन मेरा इंतजार करती हैं इसलिए ड्यूटी से घर पहुंचते ही तुरंत नहीं लिख सकता हूं. ऐसे आलम में मेरे पास एक ही बहाना बचता है. मॉर्निंग वॉक पर जाने और पार्क या कहीं थोड़ी जगह देखकर लिखने बैठ जाता हूं.

जब आपको साहित्य अकादमी मिला होगा तब तो आप सीआइएसएफ में हीरो की तरह हो गए होंगे. बहुत छोटी उम्र में, मामूली कांस्टेबल के पद पर रहते हुए इतना बड़ा राष्ट्रीय सम्मान आपने पा लिया?

ऐसा कुछ नहीं है. साहित्य अकादमी सम्मान को पानेवाला सैनिक और अर्द्धसैनिक बलों की तमाम कंपनियों से में पहला आदमी था. और साहित्य अकादमी के इतिहास में भी सबसे कम उम्र का कवि-लेखक. लेकिन फौज या अर्द्धसैनिक बलों की अपनी कार्यप्रणाली होती है. वहां खेलकूद आदि की उपलब्धियों को ज्यादा तवज्जो मिलती है, साहित्य से किसी को बहुत ज्यादा सरोकार नहीं है वहां.

आपको जिस साल साहित्य अकादमी मिलाउसी साल हिंदी में काशीनाथ सिंह को भी मिला था. अकादमी का सम्मान मिलने के बाद हिंदी के साहित्यकारों-कवियों ने आपको बधाई दी होगी. आपसे संपर्क किया होगा और आपको प्रोत्साहित करने की कोशिश की होगी?

नहीं. किसी ने नहीं. कोई ऐसा नहीं आया, जो कम से उस सम्मान समारोह में ही कहता कि तुमने बहुत अच्छा काम किया. या कम से कम पूछ लेता कि क्या लिखे हो संथाली में, जरा हिंदी में समझा दो. अब तक किसी ने बधाई नहीं दी. सिर्फ संथाली राइटर्स एसोसिएशन के लोगों ने बधाई दी और रांची में अखड़ा, जोहार दिसुम खबर, सहिया जैसी पत्रिका निकालनेवाले अश्विनी दा, वंदना दीदी जैसे लोगों ने बधाई दी और आगे लिखने को प्रोत्साहित किया. हिंदी वालों को लोकभाषाओं के रचनाकारों से अलग-अलग किस्म का खतरा सताता रहता है इसलिए वे कभी पूछेंगे भी नहीं. आदिवासियों की अलग-अलग भाषाओं के रचनाकारों से तो और ज्यादा. और ऊपर से तो यह भी अखरने वाली बात रही होगी कि मामूली कांस्टेबल, जो न एमए. पीएचडी किया, न बड़े गुरुओं के संपर्क में रहा, यह कैसे साहित्य अकादमी तक पहुंच गया.

आप जैसे लोगों से हिंदी वालों को क्यों डर लगेगा, वे तो दुनिया में छाए हुए हैं?

मुझसे डर नहीं लगेगा. लेकिन जब आदिवासी या किसी पिछड़े समुदाय के लोग लिखने लगेंगे तो उनके सामने नई चुनौती आ खड़ी होगी और जाहिर है कि उन्हें चिंता सताने लग जाएगी. वे ज्ञान के क्षेत्र पर एकाधिकार रखकर अब तक अपने तरीके से चीजों की व्याख्या करते रहते हैं. लेकिन उनका ज्ञान तो बहुत बाद का ज्ञान है न. इतिहास ज्ञान भी उनका बहुत बाद का है. वे पवित्रता और ज्ञान की दुनिया में आदिवासियों या देसज चेतना वालों के सामने टिक नहीं पाएंगे. उनका भेद खुल जाएगा. एकाधिकार टूट जाएगा. इसलिए वे डरते हैं कि सृष्टि को सबसे करीब से समझने वाले, देखने वाले, महसूसने वाले और सबसे लंबे समय से दुनिया को बदलते हुए देखते रहनेवाले अगर लिखेंगे तो उनके लिखे हुए पर सवालों के घेरे बनते जाएंगे. पवित्रता में कहीं टिक नहीं पाएंगे, इसलिए वे डरते हैं. हमारे समुदाय की दुनिया छल-प्रपंच की दुनिया नहीं है.

दलित-पिछड़े साहित्य वाले भी अपना बड़ा-बड़ा संगठन चलाते हैं और वे अपनी ही छतरी तले आदिवासियों को भी रखते हैं और जब भी बात करते हैं तो दलित-आदिवासी साहित्य के विकास की बात एक साथ करते हैं. क्या ऐसे किसी किसी संगठन या दलित साहित्य लेखक-आलोचक ने आपसे संपर्क किया और बधाई दी?

नहीं. अब तक तो नहीं. चार साल तो हो गए. मैं किसी को जानता भी नहीं. वे भी मुझे क्यों जानेंगे या पूछेंगे. अब तक किसी संगठन ने कभी गलती से मुझसे कुछ नहीं कहा-पूछा. मैं तो जानता भी नहीं किसी ऐसे संगठन-लेखक आदि को.

हिंदी में लिखना शुरू किया है तो किन समकालीन कवियों को पढ़ते हैं आप? आप किस-किस को जानते हैं?

ईमानदारी से कहूं तो किसी कवि का नाम नहीं जानता. आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे हैं न! मैं किसी को नहीं जानता. ज्ञानोदय, वागर्थ समकालीन भारतीय साहित्य जैसी पत्रिकाएं पढ़ता हूं. एक बार समकालीन भारतीय साहित्य में मेरी रचना छपी थी. दोबारा भेजा तो कहा गया कि यह नहीं छप सकती, तब से उधर ज्यादा ध्यान भी नहीं देता लेकिन पत्रिकाएं पढ़ता हूं. उन पत्रिकाओं में छपी रचनाएं पढ़ता हूं. रचनाकारों के बारे में कभी नहीं जाना और न ही उसकी कोई जरूरत महसूस हुई. केदारनाथ सिंह का नाम सुना है और किसी का नहीं. पहले के कवियों में रवींद्रनाथ टैगोर, निराला, दिनकर को पढ़ा है. बाकि आज हिंदी में कौन-कौन से कवि हैं, नहीं जानता.

संथाली के बाद अब आप हिंदी में अपनी कविता संग्रह  पहाड़ पर हूल फूल’  लाने की तैयारी में हैं. इसके बारे में जानकारी दें. क्या इसमें संकलित कविताएं भी आदिवासी समुदाय के संकट के बारे में है?

इस संकलन में संकलित रचनाएं मैंने असम में पोस्टिंग के दौरान लिखी हैं. इसमें दुनिया के सामने, सृष्टि के सामने जो संकट है, उसके बारे में लिखा है. दुनिया को बचाना जरूरी है, मनुष्यता ही संकट में है. कोई समुदाय तो पूरी सृष्टि का एक छोटा-सा हिस्सा होता है. समुदाय का संकट अकेले और अपने में कोई स्वतंत्र संकट नहीं है. दुनिया जिस राह पर है, उससे जो संकट के रास्ते तैयार हो रहे हैं, उसी से समुदायों का अस्तित्व दांव पर लगता जा रहा है. बस, उसी को केंद्र में रखकर कुछ लिखने की कोशिश की है मैंने.

संथाली में लिख रहे थे आप. आपने हिंदी में लिखना क्यों शुरू कर दिया. और अचानक पूरी दुनिया के बारे में सोचना शुरू कर दिया.

यह जरूरी है. हम कैसे सोचते हैं दुनिया के बारे में, हम दुनिया के संकट को किस नजरिए से देखते हैं और हमारे अनुसार क्या मूल कारण है यह बताना जरूरी है. हिंदी इसलिए अपनाया क्योंकि अब यह वैश्विक भाषा है. पूरी दुनिया को हम अपना नजरिया बताना चाहते हैं. हम उस समुदाय से आते हैं, उस मिट्टी से आते हैं, जो हवा-आकाश-पानी-जंगल-पेड़-पौधे से अनंत काल से बतियाने की कला जानता है. हमारी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे. अपने समय में जो घटित हो रहा है, उसे लिखते रहना चाहिए ताकि कल की भावी पीढ़ी को किसी चीज को एकांगी व्याख्या के जरिए समझाने की जरूरत न आ पड़े.

‘सरकारें चाहती हैं कि संसाधनों पर जनता का कोई नियंत्रण न रहे’

Medha for WEB

सरदार सरोवर बांध का डूब क्षेत्र 214 किलोमीटर का है. इस परियोजना से लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं. इससे विस्थापित होने वालों में 50 प्रतिशत आदिवासी और 20 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीब और वंचित समुदायों के हैं. नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत जनशक्ति के आधार पर हुई है. अब तक जो हासिल हुआ वह लंबे मैदानी संघर्ष और कानूनी लड़ाइयों की वजह से संभव हुआ है. इस आंदोलन ने व्यापक रूप से यह सवाल उठाया कि कैसे लोगों के नजरिये से विकास का नियोजन होना चाहिए. गुजरात और मध्य प्रदेश में अब तक लगभग 11 हजार प्रभावित परिवारों को जमीन के बदले जमीन मिली है. मध्य प्रदेश में जो 88 बसाहटें निकाली गई हैं, वह आंदोलन की वजह से ही संभव हो सका है. सरकार को वयस्क बेटों को भी जमीन देनी पड़ी. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने 5 एकड़ जमीन अलग से मंजूर की है. परियोजना की खामियों की वजह से विश्व बैंक ने भी इसे जारी किया गया ऋण वापस ले लिया.

तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र) को अपनी पुनर्वास नीतियों में नए प्रावधान लाने पड़े. महाराष्ट्र में कोर्ट ने यह तक कहा कि विकासशील पुनर्वास होना चाहिए और विस्थापितों को भी विकास में हिस्सा मिलना चाहिए. मुझे याद है कि जब प्रशासन के साथ पहली मीटिंग हुई थी तब तीनों राज्यों के अधिकारी और हमारे 300 लोग थे. अधिकारियों का कहना था कि परियोजना से क्या लाभ-हानि और पर्यावरण को कैसा नुकसान हो रहा है, इससे आपको क्या लेना-देना? आप तो विस्थापित लोगों को अपनी बात करने दीजिए. वर्ष 2000 में नर्मदा के मामले में कोर्ट का फैसला आया कि पुनर्वास नीति छोटी रकम आधारित नहीं हो सकती. इसे देश में सबसे ज्यादा उपयोग किए जाने के फैसले के रूप में माना जाता है. इस दौरान नर्मदा बचाओ आंदोलन के जो अनुभव रहे हैं उससे दूसरे आंदोलनों और संगठनों को भी सीख मिली है.

पुनर्वास कार्यों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार

पुनर्वास और निर्माण कार्यों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार देखने को मिल रहा है. हमारी नजर में ऐसे अनगिनत मामले हैं जिसमें अपात्रों को पैसा लेकर सुपात्र बना दिया गया है. घर-प्लॉट वितरण में बहुत धांधली हो रही है. यहां तक कि कई अधिकारियों के परिवारवालों व रिश्तेदारों को भी प्लॉट मिला है. ऐसे अधिकारी भी हैं जो तीस सालों से वहीं पोस्टेड हैं.

2002 से ही हम इन सब मामलों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है. योजना ही ऐसी बनाई गई है कि दलालों के बिना काम नहीं होता. निर्माण कार्यों में हुए भ्रष्टाचार की जांच आईआईटी मुंबई और मैनिट भोपाल ने की है, जिसकी रिपोर्ट अभी सावर्जनिक नहीं की गई, हालांकि इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है.

जो व्यापमं में है वही इस परियोजना में भी

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तो बातचीत के ही पक्ष में ही नहीं हैं. दिल्ली में 26 दिन के उपवास के बाद जब हम मुख्यमंत्री के सामने भ्रष्टाचार के मुद्दे रखने के लिए भोपाल में रुके तो वे हमसे नहीं मिले. मध्य प्रदेश में इस परियोजना से 193 गांव प्रभावित हैं. हर गांव में 800 से 1000 परिवार हैं. पीड़ितों के पक्ष में कई सारे कानून और फैसले होने के बावजूद उन्हें अमल में नहीं लाया गया. उल्टा मध्य प्रदेश सरकार ने यह भूमिका अपना ली कि लोग गुजरात चले जाएं क्योंकि ट्रिब्यूनल ने यह फैसला दिया था कि अगर लोग गुजरात जाएंगे तो उन्हें जमीन दी जाएगी. बाद में ट्रिब्यूनल ने कहा कि पीड़ितों को जमीन उनके ही राज्य में देनी है. इसके बाद जहां महाराष्ट्र ने 11 बसाहटें बसाई और 3.5 हजार परिवारों को जमीन दी गई, वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने मात्र 30 परिवारों को ही जमीन दी.

ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश सरकार भ्रष्टाचारियों को समर्थन दे रही है, क्योंकि जो एफआईआर दाखिल है उस पर भी कार्रवाई नहीं की जा रही है, जो व्यापमं घोटाले में हुआ कुछ ऐसा ही वही नर्मदा पुनर्वास योजना में भी हो रहा है. सरदार सरोवर बांध के लिए भू-अर्जित जमीनों पर नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा गुजरात की हकदारी है. इसके बावजूद भी मध्य प्रदेश के खनिज विभाग की ओर से उन जमीनों को रेत खनन के लिए लीज पर दे दिया गया था. हम मामले को उच्च न्यायालय ले गए, कोर्ट ने इसे अधिकारों का दुरुपयोग माना. खनन पर स्टे भी मिल गया लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ. फिर जब हमने अवमानना का केस दर्ज किया तब जाकर खनन रुका है. इस मामले में न्यायालय ने शासन से साफ शब्दों कहा है, ‘सरदार सरोवर के लिए इतने सारे लोगों को विस्थापित करने के बाद, बांध को भी खत्म करेंगे क्या?’ और स्पष्ट कहा, ‘शासन या तो बांध बनाए या रेत खनन करे, दोनों संभव नहीं’.

जनशक्ति पर हावी राज्य

सरकारें चाहती हैं कि संसाधनों पर स्थानीय निकायों और जनता का कोई नियंत्रण न रहे. यह जनतंत्र और संविधान के खिलाफ है. तभी तो कई कानूनी नीतियां और ट्रिब्यूनल के फैसले हैं, जो कहते हैं कि जब तक पुनर्वास न हो जाए किसी भी स्थिति में लोगों की संपत्ति डुबोई नहीं जा सकती है. इसके बावजूद इन पर अमल नहीं किया जा रहा. उल्टा इसमें अड़ंगा डाला जाता है. नर्मदा के मामले में विभिन्न आयोगों और अधिकारियों ने जांच में कभी भी पूरा सहयोग नहीं दिया. मोदी सरकार ने आते ही पहला निर्णय बांध की ऊंचाई बढ़ाने को लेकर दिया है. अभी भूमि अधिग्रहण कानून आ गया है. इन सब को देखकर लग रहा है कि जनशक्ति पर राज्य हावी हो गया है. इधर जो सबसे बड़ी चुनौती आई है वह यह है कि सरकार का ही कॉरपोरेटीकरण हो गया है.

जन आंदोलनों की अलग राजनीति

हम दलीय राजनीति को अछूत नहीं मानते हैं. जन आंदोलनों की राजनीति के आयाम ही अलग होते हैं. इनके मार्ग साधन और पद्धति दूसरे होते हैं. अब तो चुनावी प्रक्रिया का भी कॉरपोरेटीकरण हो गया है, फिर भी चुनावी राजनीति में अगर सुधार होते हैं तो दलीय राजनीति में आया जा सकता है, लेकिन अभी ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है. इतने सालों से जो देखा है और अभी के जो अनुभव रहे हैं उससे हमारी समझ बनी है कि दलीय राजनीति से अलग रहना चाहिए. हमारा काम विकेंद्रीकृत है. कोई भी कार्यकर्ता समूह अपने हिसाब से निर्णय ले सकता है. हमने सरदार सरोवर के क्षेत्र में यही तय किया है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन किसी पार्टी का हिस्सा नहीं है.

‘आप’ से जुड़ने का कोई पछतावा नहीं 

आम आदमी पार्टी से जुड़ने का एक विशेष अनुभव रहा है, लेकिन इसे लेकर हमें कोई पछतावा नहीं है. हमने अपनी नैतिकता बचाकर रखी है. इस दौरान हमारे चुनाव राजनीति की व्यवस्था और प्रचार को लेकर जो भी अनुभव रहे हैं वे चुनाव पद्धति को लेकर आज तक के हमारे विश्लेषण के अनुसार ही थे. इससे यह बात पुख्ता हो गई कि चुनावी राजनीति की रणनीति बहुत अलग होती है जिसमें जन आंदोलनों के साथियों का सामंजस्य बैठा पाना मुश्किल होता है. जिस तरह से चुनाव में प्रचार और खर्चे करने पड़ते हैं, वह सब हमें नहीं आता है. हमारी पद्धति और चुनावी राजनीति की प्रक्रिया और जरूरतें अलग है. बहुत सी विसंगतियां हैं. पार्टियों के साथ जो जनशक्ति व जनसैलाब खड़े होते हैं वे टिकाऊ नहीं होते. इसे टिकाऊ बनाने के लिए राजनीतिक दलों के अंदर जो प्रकिया होनी चाहिए वह हो नहीं पाती है, क्योंकि एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव पर ध्यान देना होता है. पार्टी के नेतृत्व का ध्यान भी उन रणनीतियों की तरफ होता है जो सत्ता हासिल करने और उसे टिकाये रखने के काम आती है. मैं इसे पूरी तरह गलत भी नहीं मानती हूं, लेकिन कुछ बुनियादी सिद्धांत भी होने चाहिए, बस यही सब अनुभव रहे हैं. लोहिया जी कहा करते थे कि राजनीति में जेल, फावड़ा और मतदान पेटी तीनों होने चाहिए. पहले की राजनीति में यह संभव था. समाजवादी विचारधारा के कई ऐसे लोग हुए है जिन्होंने सामाजिक कार्य, संघर्ष और निर्माण को आगे बढ़ाते हुए चुनावी राजनीति में हिस्सा लिया, लेकिन वर्तमान में यह संभव नहीं है. अब राजनीति के मानक अलग हो गए हैं जो इस दौरान स्पष्ट रूप से दिखाई दिए. अगर जनशक्ति का आधार लेकर सत्ता में आए हैं तो सत्ता में आने के बाद भी उसका आधार खत्म नहीं होना चाहिए.

अभी खत्म नहीं हुआ आंदोलन

अब तक जो कुछ भी मिला है आंदोलन की वजह से मिला है, लेकिन अभी आंदोलन खत्म नहीं हो सकता, लोग लड़ रहे हैं. अभी बांध के पानी का स्तर बड़ा मुद्दा है. ‘न्यू बैक वाटर लेवल’ की वजह से पानी का स्तर कम बताया जा रहा है, जो कि एक धोखा है. अचानक तीस साल बाद एक सब-कमेटी बनाई गई. उसने फील्ड पर न जाकर सारी जानकारी दस्तावेजों से ली है और ‘माडल’ बदल कर ‘बैक वाटर लेवल’ कम किया है. इसी के आधार पर सरकार कह रही है कि ऊंचाई बढ़ाने से एक भी इंच ज्यादा जमीन नहीं डूबेगी. लेकिन अभी सरकार ने ही जो ‘न्यू बैक वाटर लेवल’ बताया था उससे भी पानी पार हो गया है. सरकार ने खुद सुप्रीम कोर्ट में जानकारी दी है कि इससे लगभग 16 हजार परिवारों को वहां से हटाया गया है.  सुप्रीम कोर्ट में हमारी याचिका पर बीते एक अगस्त (शनिवार) को विशेष सुनवाई हुई है. ऐसा शायद पहली बार हुआ कि शनिवार के दिन कोर्ट खुला रखा गया. आधे दिन सुनवाई हुई मगर यह बांध की ऊंचाई पर केंद्रित नहीं रही. हमें उम्मीद थी कोर्ट से हमें राहत मिलेगी और पानी का स्तर कम किया जा सकेगा, लेकिन कानूनी प्रक्रिया में भी विरोधाभास है. केवल कोर्ट के जरिये हम लोगों को पूरा न्याय मिलेगा यह मानकर नहीं चल सकते हैं. यहां तो जीने-मरने का सवाल है. बड़वानी में सत्याग्रह शुरू हो गया है और यह संघर्ष आगे भी जारी रहेगा.

(जावेद अनीस से हुई बातचीत पर आधारित)

Web narmada

सरकारों का रुख

अरुंधती राय नर्मदा बांध पर अपने चर्चित लेख ‘द ग्रेटर कॉमन गुड’ की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू द्वारा  हीराकुंड बांध के शिलान्यास के मौके पर दिए गए भाषण की उन लाइनों से करती हैं जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अगर आपको कष्ट उठाना पड़ता है तो आपको देशहित में ऐसा करना चाहिए.’ बड़ी परियोजनाओं के संदर्भ में इसी ‘व्यापक जनहित’ की छाप अब भी सरकारों की सोच पर हावी है. अब तो एक कदम आगे बढ़कर सरकारें नर्मदा बचाओ जैसे आंदोलनों पर यह आरोप लगाती हैं कि ये विकास के रास्ते में रोड़े अटका रही हैं. इसकी ताजा मिसाल इस साल गर्मियों में ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाने  के विरोध में जल सत्याग्रह कर रहे किसानों को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का दिया वह बयान है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘यह आंदोलन विकास और जनविरोधी है, इससे मध्य प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश का नुकसान हो रहा है और इसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है.’ नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पिछले तीस सालों में इसी सोच को चुनौती दी है. रहमत कहते हैं, ‘सरकारों का रवैया सिर्फ नर्मदा बचाओ आंदोलन के मामले में ही निरंकुश नहीं हुआ है बल्कि पिछले कुछ सालों से हमारे लोकतंत्र के सामने चुनौतियां गंभीर हुई हैं. भूमि अधिग्रहण का ही मसला ले लें, जिस तरह से किसानों के हितों के खिलाफ और व्यापक विरोध के बावजूद सरकार इसे किसी भी कीमत पर पास करना चाहती था, वह चिंता का विषय था. इस मामले में सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए ये अलग बात है. एक तरफ तो सरकारें ‘इनवेस्टर मीट’ का आयोजन करके उद्योगपतियों को मुफ्त जमीन और सारी सुविधाएं देने की घोषणा कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर बांध प्रभावित और जल सत्याग्रह कर रहे लोगों की बात तक कोई सुनने को तैयार नहीं है.’

शंकर तड़वले कहते हैं, ‘मामला एकतरफा हो गया है. अब तो सरकारें जन आंदोलनों की बात भी सुनने को राजी नहीं हैं और आंदोलन करने वालों को एक तरह से विकास विरोधी, शत्रु और यहां तक कि नक्सली के तौर पर देखने लगी है.’ इसकी वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘देश में एक वर्ग है जो संगठित होकर संसाधनों को पूरी तरह से अपने कब्जे में लेना चाहता है, ताकि अपने फायदे के लिए वे इनका दोहन कर सकें.’

शरदचंद्र बेहार का मानना है कि सरकार और प्रशासन में यह सोच हावी है कि पूरे देश के विकास के लिए कुछ लोगों का बलिदान करना पड़े तो यह जायज है. राजनेताओं में जन आंदोलनों को लेकर एक सोच यह भी रहती है कि इस तरह के आंदोलनों की कोई वैधता नहीं होती है, जनता के असली प्रतिनिधि तो हम हैं. अपने अनुभवों को साझा करते हुए वह बताते हैं, ‘जब मैं प्रशासन में था तो कुछ राजनेताओं द्वारा मुझसे कहा जाता था कि जनता क्या चाहती है इसके बारे में ठीक तरह से सामाजिक आंदोलन के लोग जानेंगे या हम?’

राजनीति बनाम गैर-राजनीति की बहस

जन आंदोलनों के राजनीतिक या गैर-राजनीतिक होने के सवाल पर बहस पुरानी है. इसे लेकर कई तरह की राय रही है. कुछ लोगों का मानना है कि वे सामाजिक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं और उनका राजनीति से कोई जुड़ाव नहीं है, वहीं एक खेमा यह मानता है कि भले ही वे चुनावी राजनीति में शामिल न हों लेकिन उनके मुद्दे राजनीतिक हैं. एक तीसरा पक्ष भी है जो चुनावी राजनीति में शामिल होने की वकालत करता है. आम आदमी पार्टी के परिदृश्य पर उभरने के बाद यह सवाल फिर सामने आया था. नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित देश के कई आंदोलनों से जुड़े लोग ‘आप’ में शामिल हुए और चुनाव भी लड़ा, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी. आंदोलन से जुड़े रहे आलोक अग्रवाल इस समय ‘आप’ की मध्य प्रदेश इकाई में संयोजक की भूमिका में हैं.

रहमत कहते हैं, ‘राजनीति व चुनावी राजनीति को लेकर हमारे समाज में हमेशा से ही भ्रम रहा है. शुरू में मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े लोग यह आरोप लगाते थे कि हम आंदोलन के नाम पर राजनीति कर रहे हैं. उन्हें सफाई देनी पड़ती थी कि हम उन लोगों की तरह पार्टीगत राजनीति नहीं करते हैं, इससे भ्रम फैला. 1995-96 से सामाजिक आंदोलनों में यह चर्चा होनी शुरू हुई कि अगर हमें अपने मुद्दों को सही अंजाम तक पहुंचाना है तो चुनावी राजनीति में शामिल होना पड़ेगा लेकिन साथ में इस पर भी चर्चा होती थी कि चुनावी राजनीति के अपने नियम हैं, जहां मुद्दों की जगह जाति, समुदाय, पैसा और माफिया हावी हैं. इस दिशा में ये सब व्यवहारिक रुकावटें हैं. बाद में अन्ना आंदोलन और ‘आप’ के गठन को देखकर लगा था कि साफ-सुथरे तरीके से चुनावी राजनीति में सफल हुआ जा सकता है, इसीलिए पिछले लोकसभा चुनाव में आंदोलन से जुड़े लोगों ने चुनाव लड़ा था.’

शरदचंद्र बेहार कहते हैं, ‘राज्य समाज का एक हिस्सा है और राजनीति उसका एक पहलू मात्र है. हालांकि समकालीन बातचीत और विमर्श में राजनीति को समाज से अलग करके देखा जाता है. ‘सामाजिक’ शब्द का इस्तेमाल कर एक तरह से यह भ्रम पैदा किया जाता है मानो जन आंदोलन जिन मुद्दों को उठाते हैं वे गैर-राजनीतिक हों, दूसरी तरफ आंदोलन के लोगों के ‘आप’ से जुड़ने के बाद सरकारों को लगा अगर वे आंदोलन की मांगों को मान लेंगे तो इसका फायदा ‘आप’ को मिल सकता है. इसलिए उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि चुनावी राजनीति से जुड़ने के बाद आंदोलन की नैतिक ताकत कमजोर हो गई है. हमें यह समझना होगा कि एनबीए. सामाजिक आंदोलन नहीं बल्कि नॉन-इलेक्ट्रोरल (गैर निर्वाचित) राजनीति है. इस फर्क को समझना जरूरी है.’ अब्दुल जब्बार कहते हैं, ‘जन आंदोलनों के चुनावी राजनीति में अपना प्रतिनिधि खड़ा करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमारी आदत मैगी खाने की हो गई है जबकि ऐसे आंदोलनों के लिए तैयारी और धैर्य की जरूरत है.’

आप से जुड़ाव और उसके बाद  

13 जनवरी 2014 को मेधा पाटकर आम आदमी पार्टी में शामिल हुई थीं. इसे इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है. उस समय उन्होंने कहा था कि उनके लिए चुनावी राजनीति में आने का फैसला काफी मुश्किल भरा था. पिछले लोकसभा चुनाव में मेधा पाटकर और आंदोलन के दूसरे प्रमुख नेता आलोक अग्रवाल ने  चुनाव भी लड़ा था. हालांकि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव प्रकरण के बाद मेधा पाटकर ने यह कहते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया कि पार्टी तमाशा बनकर रह गई है. उस समय अरविंद केजरीवाल को भेजे गए अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा था, ‘वैकल्पिक राजनीति की अपेक्षाओं की तुलना में प्राप्त हुई थोड़ी उपलब्धियां हमारे कुछ सीमित उद्देश्यों को ही पूरा करने वाली हैं.’

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इन सबके बीच यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ‘आप’ से जुड़ने का फैसला सही था या गलत? जवाब इस घटना में ढूंढा जा सकता है. इस साल अप्रैल और मई में मध्य प्रदेश के घोघलगांव में जल सत्याग्रह को लेकर प्रदेश सरकार की प्रतिक्रिया बदली हुई नजर आई, जबकि 2012 में इसी घोघलगांव के जल सत्याग्रह के बाद राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार भी हरकत में आ गई थी. तब जलस्तर कम करने और जमीन के बदले जमीन देने जैसी मांगों को मान लिया गया था. वहीं इस बार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी नर्मदा बचाओ आंदोलन को विकास विरोधी बताया. भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी इसे कुछ लोगों की नौटंकी करार दिया था. वहीं केंद्र सरकार ऐसा जता रही थी जैसे कुछ हुआ ही न हो. आंदोलन से जुड़े रहे कई लोग इसे चुनावी राजनीति से जुड़ जाने के बाद आंदोलन की नैतिक ताकत का कम होना मानते हैं. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान कहते हैं, ‘आप’ में कार्यकर्ताओं के शामिल होने से आंदोलन को धक्का लगा क्योंकि वहां लोग वैकल्पिक राजनीति के नाम पर चले तो गए थे लेकिन असलियत में वहां कोई वैकल्पिक ढांचा था ही नहीं और न ही ऐसा माहौल था कि इस बारे में बात भी की जा सके.’

डूब प्रभावित गांव भीलखेड़ा (बड़वानी) से नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता कैलाश अवास्या खरगोन-बड़वानी सीट से ‘आप’ के टिकट पर पिछला लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं. वे कहते हैं, ‘हम लोग ‘आप’ से इसी मंशा के साथ जुड़े थे कि साफ-सुथरी राजनीति होगी और इससे बदलाव आ सकता है, लेकिन बाद में वहां जाकर अनुभव हुआ कि हमें अभी जन आंदोलन और दबाव समूह के रूप में ही काम करना चाहिए.’ वे बताते हैं, ‘उन्होंने अभी पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया है लेकिन अभी जो कुछ वहां चल रहा है उससे वे असहमत हैं.’ देवराम कनेरा कहते हैं, ‘हम ‘आप’ के साथ काफी मंथन के बाद जुड़े थे, लेकिन पार्टी से जो उम्मीद थी वह सही साबित नहीं हुई. नर्मदा घाटी में आंदोलन पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा.’ उनका कहना है, ‘अगर हम राजनीति के साथ जुड़कर आंदोलन करेंगे तो हमारी बात पहले की तरह नहीं सुनी जाएगी और इसे वोट की राजनीति के नजरिये से देखा जाएगा.’ महादेव भगवान दास का कहना है, ‘आप’ से जुड़ने का कोई नुकसान हुआ हो ऐसा डूब क्षेत्र में तो नहीं दिखाई देता है, अब भी सब संगठन के साथ जुड़े हैं.’

Medha Patkar, founder of the Narmada Bachao Andolan. Photo by K Sateesh/Tehelka

आंदोलन का भविष्य

बीते 28 जुलाई को दिल्ली के कॉन्सटीट्यूशन क्लब में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें आंदोलन के तीस साल पूरे होने पर इसके संघर्ष, चुनौतियों और भविष्य पर चर्चा की गई. सम्मेलन में तय किया गया कि बांध में पानी का स्तर कम करने के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा पूरी नर्मदा घाटी में पदयात्रा की जाएगी. 6 अगस्त को खालघाट (धार) से यह पदयात्रा शुरू होकर 12 अगस्त को मध्य प्रदेश के बड़वानी स्थित राजघाट पहुंची. आंदोलन से जुड़े लोगों ने यहां अनिश्चितकालीन सत्याग्रह शुरू कर दिया है. इस बीच एक छह सदस्यीय स्वतंत्र टीम द्वारा परियोजना से प्रभावित गांवों के मई में किए गए दौरे की रिपोर्ट भी आ गई है. ‘डिस्ट्रॉयिंग अ सिविलाइजेशन’ नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार अब भी हजारों परिवार सही मुआवजा और पुनर्वास से वंचित हैं, कई प्रभावितों को तो डूब क्षेत्र में शामिल ही नहीं किया गया है और अगर भविष्य में बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाई जाती है तो इससे और ज्यादा परिवार डूब क्षेत्र में आ जाएंगे.

तीस साल के लंबे संघर्ष के बाद हम देखें तो ‘कोई नहीं हटेगा बांध नहीं बनेगा’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू हुआ था लेकिन तमाम संघर्ष और कुर्बानियों के बीच बांध के निर्माण को रोका नहीं जा सका और इस बीच लड़ाई की मांगों का दायरा भी धीरे-धीरे कम होता गया. बड़े बांध के खिलाफ शुरू हुआ यह संघर्ष बाद में बांधों की ऊंचाई के खिलाफ, फिर बेहतर पुनर्वास के लिए और अब पुनर्वास में हो रहे भ्रष्टाचार को लेकर सिमटता जा रहा है. इन सब को लेकर शरदचंद्र बेहार कहते हैं, ‘या तो हम गलत मांग कर रहे हैं या फिर सरकार जनता के लिए है ही नहीं. ऐसे में अब आंदोलनों के सामने बड़ा सवाल ये होना चाहिए कि कैसे सरकारों को जनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाया जाए.’ वे दार्शनिक प्लेटो को कोट करते हुए कहते हैं, ‘लोकतंत्र के नाम पर जब तक थोड़े लोगों का राज होगा तब तक असली लोकतंत्र नहीं आ पाएगा. इसलिए सारे आंदोलनों को मिलकर अपनी पहचान और मुद्दों को कायम रखते हुए सच्चे लोकतांत्रिकरण के लिए संघर्ष शुरू करना चाहिए, क्योंकि इस तरह की सरकारें जब तक चलती रहेंगी तब तक नर्मदा बचाओ आंदोलन और इस तरह के दूसरे संघर्षों की बातें अनसुनी की जाती रहेंगी और उनके पास अपने संघर्ष की मांगों को सीमित करने का विकल्प ही बचेगा.’

तीस साल आंदोलन की पगडंडी पर चलते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन बड़े बांधों और उससे जुड़े विकास के मॉडल पर सवाल और बहस खड़ा करने में कामयाब रहा है. इसने विस्थापितों के सवाल को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला दिया और अंत में इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि किस तरह से तमाम रुकावटों के बीच नर्मदा घाटी के लोग हिम्मत और प्रतिबद्धता के साथ अहिंसात्मक तरीके से न केवल संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि उन्होंने दूसरों के लिए प्रेरणा बनने का काम भी किया है.

आंदोलन के महत्वपूर्ण पड़ाव

 1985 : महाराष्ट्र में ‘नर्मदा धारणग्रस्थ समिति’, मध्य प्रदेश में ‘नर्मदा घाटी नव निर्माण समिति’ और गुजरात में  ‘नर्मदा असरग्रस्त संघर्ष समिति’ की ओर से सरदार सरोवर बांध परियोजना का विरोध शुरू हुआ. इन तीनों संगठनों ने मिलकर काम करने का निर्णय लिया. इस तरह से ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का गठन हुआ.

28 अगस्त 1989 : मध्य प्रदेश पुनर्वास नीति बनी जिसमें यह कहा गया कि विस्थापितों को कम से कम 5 एकड़ संचित और उपजाऊ जमीन और पुनर्वास स्थल पर आवश्यक संसाधनों सहित आवास के लिए जमीन प्रदान की जाएगी.

28 सितंबर 1989 : हरसूद में आयोजित संकल्प मेले में पूरे देश से लगभग 50,000 लोगों ने एकजुट होकर इस बांध का विरोध किया.

09 अगस्त 1991 : सुप्रीम कोर्ट ने बीडी शर्मा बनाम भारत सरकार मामले में आदेश दिया कि सरकार द्वारा छह महीने के अंदर विस्थापित लोगों का अनिवार्य रूप से पुनर्वास किया जाए.

18 जून 1992 : विश्व बैंक के एक स्वतंत्र समीक्षा संस्था ‘मॉरिस कमेटी’ की रिपोर्ट जारी. रिपोर्ट में बैंक को सरदार सरोवर परियोजना से अलग होने की अनुशंसा की गई.

26 जून 1992 : 16 देशों की 42 संस्थाओं द्वारा समर्थित नर्मदा इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स पैनल ने अपनी रिपार्ट जारी की.

20 जुलाई 1994 : पांच सदस्यों वाली एक स्वतंत्र समिति ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को दी. इसी साल कानूनी विवादों के चलते बांध बनाने का काम रोक दिया गया.

1999 : सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बांध का काम फिर से शुरू हुआ.

07 जनवरी 2002 : मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पुनर्वास और पुनर्सुधार के लिए पीड़ितों को नकद राशि देने की योजना की शुरुआत हुई.

14 अप्रैल 2003 : सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई 95 मीटर से 100 मीटर बढ़ाने का आदेश दिया.

16 जून 2005 : मध्य प्रदेश सरकार ने विशेष पुनर्वास अनुदान में बदलाव कर उसे विशेष पुनर्वास पैकेज में बदल दिया, जिसमें रकम के बदले जमीन देने की बात की गई. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पुनर्वास और विस्थापन की व्यवस्थाएं पर्याप्त नहीं थीं.

2006 : बांध के काम को और बढ़ाने के लिए आवेदन दिया गया, जिस पर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भूख हड़ताल की पर काम जारी रहा. साथ ही पुनर्वास और विस्थापन परियोजना असफल हो गई.

23 फरवरी 2009 : मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने जस्टिस झा कमीशन को निर्देश दिया कि सरदार सरोवर बांध परियोजना पुनर्वास और पुनर्सुधार में हो रहे घपले की जांच करे.

24 जून 2010 : सरदार सरोवर बांध की समीक्षा करने वाले जस्टिस शाह आयोग की रिपोर्ट भोपाल में जारी. इसमें पूर्ण पुनर्वास और पर्यावरण सुरक्षा की सिफारिश की गई.

12 दिसंबर 2014 : नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में अपील.

(स्रोत : नर्मदा: 30 ईयर्स ऑफ रेजिलेंस)

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जीवनशाला : संघर्ष और निर्माण साथ-साथ

नर्मदा बचाओ आंदोलन और इससे जुड़े लोगों ने परियोजना के विरोध के साथ कई रचनात्मक काम भी किए हैं, जिसमें बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल की स्थिति में सुधार जैसे काम शामिल हैं. आंदोलन द्वारा संचालित ‘नर्मदा नवनिर्माण अभियान’ ट्रस्ट दूरदराज के डूब क्षेत्रों में जीवनशाला चलाता है. आंदोलन के दौरान पता चला कि इन इलाकों में स्कूल नहीं हैं और अगर हैं भी तो ठीक से चलते नहीं. आंदोलन से जुड़ीं परवीन जहांगीर बताती हैं, ‘शुरू में सरकार पर इन इलाकों में स्कूल खोलने के लिए दबाव बनाया गया. लगातार आवेदन दिए गए लेकिन स्थिति जस की तस बनी रही. तब आंदोलनकारियों और समुदाय ने खुद पहल करते हुए जीवनशाला स्कूल खोला. 1991 में पहली जीवनशाला शुरू हुई जो कि महाराष्ट्र के चिमलखेड़ी और नीमगांव में थी. यहां वर्तमान में नौ जीवनशालाएं चल रही हैं, जिसमें 7 महाराष्ट्र और 2 मध्य प्रदेश में हैं. यहां कुल 910 बच्चे पढ़ते हैं. महाराष्ट्र की जीवनशालाओं में 780 और मध्य प्रदेश में 130 बच्चे हैं. वर्तमान में कुल 40 शिक्षक हैं. इसके अलावा हर जीवनशाला में एक मौसी (खाना बनाने के लिए) और एक कमाथी (सहायक) होते हैं. ये शालाएं आवासीय होती हैं. यहां 6 वर्ष से ऊपर के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. मध्य प्रदेश की जीवनशालाओं में पहली से 5वीं तक शिक्षा दी जाती है, वहीं महाराष्ट्र में पहले यह चौथी तक था, अब उसे 5वीं कक्षा तक किया गया है. 2012-13 से महाराष्ट्र की जीवनशालाओं को राज्य सरकार से मान्यता भी मिल गई है.’ परवीन बताती हैं, ‘सभी जीवनशालाओं को सर्व शिक्षा अभियान के तहत किताबों के अलावा कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती है और इसके लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ता है.’

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जीवनशालाएं महात्मा गांधी की बुनियादी तालीम की सोच पर आधारित हैं, जिसमें जीवन कौशल और पढ़ाई साथ-साथ होती है. यहां सामुदायिक जीवन निर्वाह, आत्मनिर्भरता, सहयोग, आदिवासी संस्कृति, पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण जैसे नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती है. पढ़ाई की शुरुआत मातृभाषा में होती है फिर दूसरी भाषाएं सिखाई जाती हैं. किताबों का अनुवाद भी स्थानीय बोलियों में किया गया है. इन किताबों में अन्य बातों के अलावा स्थानीय समाज-संस्कृति के बारे में भी जानकारी दी गई है. परवीन बताती हैं, ‘यहां से दो लड़के एथलीट भी बने हैं जिन्होंने राज्य और राष्ट्रीय स्तर कई पदक जीते हैं. इसी तरह से महाराष्ट्र में खेलों को बढ़ावा देने वाली क्रिया प्रबोधनी परीक्षा में जीवनशाला के बच्चे भी बैठे थे. नंदूरबार जिले से इस परीक्षा में केवल दो बच्चों का चयन हुआ, ये दोनों ही बच्चे जीवनशाला से हैं.’

जीवनशालाएं लोगों द्वारा दिए गए व्यक्तिगत चंदे और समुदाय के सहयोग से चलती हैं. समुदाय जो भी उगाता है, उसमें से थोड़ा हिस्सा बच्चों को देता है. समुदाय को जीवनशाला से जोड़ा भी गया है. समुदाय से लोगों को देख-रेख कमेटी में चुना जाता है जो कि निगरानी का काम करते हैं. जीवनशालाओं के अलावा महाराष्ट्र के धड़गांव में एक छात्रवास भी चलाया जा रहा है, जहां वर्तमान में 23 बच्चे रहकर 5वीं के बाद दूसरे स्कूलों में आगे की पढ़ाई कर रहे हैं. परवीन जहांगीर बताती हैं, ‘जीवनशाला से हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि दूरदराज के आदिवासी बच्चों को भी शिक्षा का अधिकार मिले.’

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