यहां मैं फिर एक और छोटी बात बताना चाहूंगा. अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता. पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ संस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है. अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया, बिलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्वीडन से नोबेल पुरस्कार मिलते ही रवींद्रनाथ टैगोर पूरे देश के ‘गुरुदेव’ बन गए थे.

क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे. योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा!

मैं एक और उदहारण देता हूं, मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं. मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं. तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं. पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आजादी के पच्चीस साल बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय, विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं. क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है. मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं. हिन्दुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी. दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है… पंजाबी. तो दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं? रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़-घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है, वहीं आॅल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है. दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है ‘अविभाज्य’ को अलग करना. इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा? अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिन्दी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिन्दी सुनिए.’ मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिन्दी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है, उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है. पर अब तक ये दीवार पर अपना सिर मारने जैसा ही है! हम फिल्म वाले लोग इसे ‘विद्वानों की जहालत’ कहते हैं. क्या हम गलत हैं?

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यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकता है कि ये गलत हो पर ये है! ये सही भी हो सकता है! कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है. सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता. और आज कोई भी इस बात से इंकार नहीं करेगा कि पिछले 25 सालों से पूंजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान. पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके. इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता. हालात ने उन्हें मजबूर कर रखा था. आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है. वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है. राजनीति मेरा विषय नहीं है. सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूंजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिन्दुस्तान के पूंजीपतियों का प्रभाव है.

मैं समझता हूं कि ये बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली. मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहां मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है. पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसलिए वो राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं जिससे जनता का ध्यान भटका रहे. पूंजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान. उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है. औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है. शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है.

आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान-सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है. पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए. आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है.

यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है. ये देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता. अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है. पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता. राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है. इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है. उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी. आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी. हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं. ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं. यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं. उनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है. शायद इसलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है. पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं.

मेरे लिए अंग्रेजी को ताकतवर बनाने की इस बात पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है. ये स्पष्ट भी है. ये बात मानी भी जा चुकी है कि अंग्रेजी विदेशी है और एक औसत आम भारतीय के लिए इसे सीखना कठिन है. पर फिर भी, आप खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है. मेरी नाचीज राय में इसका बुनियादी कारण ये है कि उद्योग के क्षेत्र में पूंजीपतियों के राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होने और वर्तमान सामाजिक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के लिए अंग्रेजी बहुत ज्यादा सहायक है.

कुछ दिन पहले की बात है, मैंने अपना यह विचार बम्बई के एक मजदूर नेता के सामने रखा और कहा कि आप अगर सचमुच पूंजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, तो मजदूरों को भी पूंजीपतियों की तरह राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होकर आत्मविश्वास पैदा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकती है. मजदूर नेता मुझसे सहमत हुए, पर कहने लगे, ‘रोग तो आपने ठीक पकड़ा है, पर इसका इलाज क्या है?’

‘इलाज ये है कि अंग्रेजी लिपि को अपनाना और अंग्रेजी भाषा को धक्का देकर बाहर निकालना.’

‘वह कैसे?’

टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी सारे देश के मजदूर बोल और समझ लेते हैं. वो इसमें अपना सारी व्याकरण मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं. इस तरह की भाषा में लड़की भी ‘जाता’ है और लड़का भी ‘जाता’ है, होता है. इस तरह के माहौल में एक ऐसी आजादी मिलती है कि कई बार बुद्धिजीवी भी इस तरह की भाषा बोलते हुए देखे जा सकते हैं. और यही तो भारत की परंपरा में है. आज की हिन्दुस्तानी में यूनिवर्सिटी ‘यूनीवरास्टी’ बन जाता है, (विश्वविद्यालय के मुकाबले में यूनीवरास्टी कितना सुंदर और जानदार शब्द है!) स्पैनर ‘पाना’ है, लैंटर्न ‘लालटेन’, कार की ‘चेसिस’ ‘चैसी’ हो जाती है यानी सब कुछ संभव है. जिस तार से फौजी अपनी बंदूक साफ करते हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलाता है पर रोमन हिन्दुस्तानी में ये ‘फुल्ट्रू’ बन जाता है. कितना सुंदर शब्द! हॉलीवुड के लाइटमैन एक तरह के कवर के लिए बार्न डोर शब्द प्रयोग करते हैं, बम्बई फिल्म कर्मचारियों में इसे नाम दिया ‘बंदर’, वाह! कितना अच्छा बदलाव है! इस तरह की हिन्दुस्तानी में तमाम संभावनाएं हैं. ये अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीक शब्दावली को कितनी आसानी से अपना लेती है. ये हर जगह से शब्द ले कर खुद को समृद्ध बना लेती है. बार-बार संस्कृत शब्दकोश देखने की जरूरत ही नहीं.’

‘पर रोमन लिपि ही क्यों?’ उन्होंने पूछा.

‘इसलिए कि किसी लिपि के बारे में किसी के कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं. फिर, इस समय यह राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे ज्यादा प्रचलित लिपि है. मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि शहरों में हर जगह दुकानों और फिल्मों के साइनबोर्ड इसी लिपि में लिखे हुए नजर आएंगे. खतों पर नाम व पता लिखने के लिए भी तो देश-भर में यही लिपि इस्तेमाल की जाती है. फौज तो इसे लगभग 30 सालों से इस्तेमाल कर रही है.’

वो दोस्त कुछ देर चुप रहे, फिर हंसकर कहने लगे, ‘काॅमरेड, यूरोप में भी एक बार एस्प्रांटों चलाने का तजुर्बा किया गया था. जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ जैसे विद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मशहूर बनाने के लिए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी तरह असफल हुआ, क्योंकि वह बनाई गई भाषा थी. भाषाएं बनाई नहीं जातीं, वे अपने-आप स्वाभाविक ढंग से बनती हैं,.’

मैं हैरानी से उनकी ओर देखता रह गया. फिर मैंने कहा, ‘काॅमरेड, एस्प्रांटों तो वह है, जिसे राष्ट्रभाषा के नाम पर हिन्दी पंडित संस्कृत के शब्दकोश से शब्द लाकर गढ़ रहे हैं. मैं उस भाषा की बात कर रहा हूं जो आस-पास लोगों द्वारा फैलाई जा रही है.’

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मैंने और भी कई दलीलें दीं, पर उन्हें राजी न कर सका. मैंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का भी हवाला दिया कि इन दोनों महान नेताओं ने भी रोमन हिन्दुस्तानी की जोरदार हिमायत की थी पर इसका भी उन पर कोई असर न हुआ. यहां सवाल ये नहीं है कि उनमें और मुझमें कौन सही था. शायद मैं गलत था. पर उनके अनुसार मेरी बात उन्हें शेखचिल्ली का सपना लग रही थी. जैसा मैंने पहले भी कहा कि अनुमान सही भी हो सकते हैं और गलत भी. पर कोई भी अनुमान या अनकही बात कर पाना आजाद सोच की निशानी है. काॅमरेड को इस बात की तारीफ करनी चाहिए थी पर वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि वो एक तयशुदा सोच से हटकर सोच ही नहीं सके.

कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वो अपने अस्तित्व से पूरी तरह वाकिफ हो. इसे अपने लिए सोचना-सीखना होगा. इसे अपनी समस्याओं के समाधान खुद तलाशना सीखना होगा. पर मैं जिस ओर भी देखता हूं मुझे लगता है कि हमारी हालत अभी भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी कैद के बाद पिंजरे में से आजाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आजादी का करना क्या है. इसके पास पंख हैं पर ये खुले आसमान में उड़ने से डरता है. ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है.

व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से हम वाॅल्टर मिटी (एक उपन्यास का काल्पनिक चरित्र जो एक काल्पनिक दुनिया में ही रहता है) जैसी जिंदगी ही जी रहे हैं. हमारे अंदर की जिंदगी बाहर की जिंदगी से बिलकुल उलट है. हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंतर है. हम बदलाव तो चाहते हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस ही नहीं जुटा पाते.

मैं समझता हूं कि हमारे देश में भी कई पुलिस-अफसर ऐसे होंगे, जो जनता के मन में डर पैदा करने की बजाय उसकी सेवा और सहायता करना चाहते हैं. उन्होंने यह भी पढ़ा-सुना होगा कि इंग्लैंड में पुलिस का जनता से व्यवहार बहुत मददगार होता है. पर वे अंग्रेजी साम्राज्य से मिली हुई व्यवस्था के शिकार हैं जो अपने देश में तो अलग है पर यहां के लिए नहीं. इस औपनिवेशिक परंपरा के अनुसार, जब भी कोई व्यक्ति उनके दफ्तर में दाखिल हो, तो डर भर दिया जाए, उससे जितना हो सके प्रतिरोधी और गैर-मददगार व्यवहार किया जाए. ये व्यवस्था हर सरकारी दफ्तर में चपरासी से लेकर मंत्री तक में देखी जा सकती है.

मुझे एक घटना याद आ रही है, जो मेरे एक फिल्म-निर्माता मित्र ने बताई थी. उसने बाॅक्स-आॅफिस की बजाय समाज की भलाई को सामने रखकर एक फिल्म बनाने की गलती कर डाली. वह चाहता था कि उस पर मनोरंजन कर माफ हो जाए. मंत्री ने उसे मिलने के लिए राजभवन में आने का समय दिया हुआ था. वे नए-नए मंत्री बने थे और उसी दिन उन्हें शपथ लेनी थी. निर्माता नियत समय पर पहुंच गया. मंत्री के सेक्रेटरी ने उसे अपने पास खड़ा कर लिया. उधर, मंत्री राज्यपाल के सामने जनता की निष्काम सेवा करने की कसम उठा रहे थे और इधर उनका सेक्रेटरी निर्माता से बीस हजार रुपये रिश्वत के तौर पर मांग रहा था.

वह निर्माता बहुत चाहता है कि इस दृश्य को अपनी किसी फिल्म में डाल दे. पर कोई फाइनेंसर इस फिल्म के लिए तैयार नहीं हैं. पर अगर फिल्म बन भी जाए तो क्या हमारा सेंसर इस बात की इजाजत देगा? सेंसर के अनुसार ये अलिखित कानून है कि सरकार का कोई भी मंत्री रिश्वत नहीं लेता. पर यहां ज्यादा हास्यास्पद बात यह है कि जो लोग हर समय मंत्रियों के रवैये के खिलाफ शिकायतें करते हैं, वही मंत्रियों को हार पहनाने के लिए सबसे आगे खड़े होते हैं. किसी भी सभा-सोसायटी का जलसा हो, वहां मंत्री जरूर आना चाहिए. या तो वहां फिल्म अभिनेता मुख्य अतिथि होगा नेता अध्यक्ष या उल्टा होगा, नेता मुख्य अतिथि और फिल्म अभिनेता अध्यक्ष. किसी बड़े नाम का वहां होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ब्रिटिश, औपनिवेशिक परंपरा है.

मैं 25 वर्षों से इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का सदस्य हूं. यह संस्था आम जनता के लिए नाटक खेलने का दावा करती है. इसके नाटकों में सरकार और शासन-व्यवस्था की कड़ी आलोचना होती रही है. इसलिए सीआईडी इस पर खास नजर रखती है. पर मैंने देखा है कि इसी इप्टा की काॅन्फ्रेंस के उद्घाटन के लिए मंत्रियों का आना जरूरी समझा जाता है.

आखिरी विश्व युद्ध के समय मैंने कुछ समय बीबीसी में बतौर उद्घोषक काम करते हुए बिताया. संकट के चार उन सालों में भी मैंने प्रधानमंत्री समेत ब्रिटिश कैबिनेट के किसी भी मंत्री को कहीं नहीं देखा. पता नहीं, वे कहां छिपे रहते थे! पर यहां, देश की आजादी के बाद से ही मुझे हर जगह मंत्री ही दिखाई दे रहे हैं.

1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था,  ‘हिन्दुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं.’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसलिए कि उन्होंने हिन्दुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था. आम लोग अंग्रेज शासकों को इज्जत की जगह नफरत से देखने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे. यह साहस महात्मा गांधी ने निहत्थे हिन्दुस्तानियों के दिलों में भरा था.

आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आजाद कराने की जरूरत है. पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है. समाज में इज्जत उसकी ही है, जिसके पास मोटरें हैं, बंगले हैं, दौलत का दरिया बहता है. क्या कभी ऐसी हालत में समाजवाद आ सकता है? समाजवाद से पहले हमें वो माहौल लाना होगा जहां सिर्फ धन-दौलत का होना ही सम्मान देने का पैमाना न बने. हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक. अपने कौशल के साथ मेहनत करता हो या प्रतिभा के साथ. अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो या किसी अाविष्कार से. इसके लिए पुरानी सोच को तोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरत होगी. क्या हम कहीं से भी खुद को उस क्रांति को लाने के करीब पाते हैं?

शायद हमें आज एक मसीहा की जरूरत है जो हमें इस गुलामी से निकाल कर एक आजाद सोच और नए मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे. जिससे हम अपने शासकों के साथ जुड़ने की बजाय आम जनता के साथ जुड़ें. ये मेरी आशा और प्रार्थना है कि आप जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट अपने जीवन में वो सफलता पाने में समर्थ होंगे जो मैं और मेरी पीढ़ी के कई लोग नहीं पा सके.