खुद के ईश्वर का दूत होने का दावा करने वाले डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम की विवादास्पद फिल्म ‘एमएसजी-2’ कुछ राज्यों में प्रतिबंधित कर दी गई है. जिन तीन राज्यों (झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) में फिल्म को प्रतिबंधित करना पड़ा है, वे तीनों आदिवासी बहुल राज्य हैं. राम रहीम की यह फिल्म इसी सितंबर की 18 तारीख को रिलीज हुई थी जिसे देश के अधिकांश हिस्से के आदिवासियों के कड़े प्रतिवाद का सामना करना पड़ा. फिल्म में की गई नस्लीय टिप्पणी के खिलाफ देश के अधिकांश हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए, राम रहीम का पुतला फूंका गया, रैलियां निकाली गईं, थानों में एफआईआर दर्ज हुए और कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गईं. सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक आदिवासी समाज और उनके विभिन्न सहयोगी संगठनों ने विरोध करते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगाने, फिल्म निर्माताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगने और फिल्म के निर्माता-निर्देशक व अभिनेता संत गुरमीत राम रहीम की तुरंत गिरफ्तारी की मांग उठाई.
वैसे फिल्म का विरोध यूट्यूब पर इसका ट्रेलर जारी होते ही शुरू हो गया था. फिल्म में आदिवासियों के बारे में कहा गया है, ‘ये लोग न इंसान हैं और न ही जानवर. ये शैतान हैं शैतान.’ हालांकि डेरा सच्चा सौदा के हरियाणा के प्रवक्ता डॉ. आदित्य इंसान कहते हैं, ‘फिल्म राजस्थान के आदिवासी समाज की सच्ची घटनाओं पर आधारित है. इसमें ऐसा कुछ नहीं, जिसे विवादास्पद कहा जाए. फिल्म का उद्देश्य केवल इंसानियत को बढ़ावा देना है.’ खबर यह भी है कि लीला सैमसन ने इसी फिल्म के पहले भाग के प्रदर्शन को लेकर उठे विवाद के बाद सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था.
दिल्ली और झारखंड हाईकोर्ट की टिप्पणी है कि फिल्म में दिखाए और बताए गए आदिवासियों का अनुसूचित जनजाति से कोई संबंध नहीं है. जबकि पूर्व के कई प्रसंगों में विभिन्न राज्यों के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक अनुसूचित जनजातियों के लिए ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग करते रहे हैं.
भारत में शुरुआती काल से ही फिल्में राजनीतिक, धार्मिक और सांप्रदायिक कारणों से प्रतिबंधित होती रही हैं. ब्रिटिश भारत में प्रतिबंधित होने वाली सबसे पहली फिल्म लोग ‘भक्त विदुर’ को मानते हैं. यह फिल्म जालियांवाला बाग संहार के तुरंत बाद आई थी लेकिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कारण जिस फिल्म को भारत में पहली बार प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था, वह 1927 में आई ‘मून आॅफ इजराइल’ थी. इसके प्रदर्शन को मुस्लिमों के जबरदस्त विरोध के कारण दिल्ली और कराची में रोक दिया गया था. एमएसजी-2 इस साल की नौवीं फिल्म है, जिसे प्रतिबंधित होना पड़ा है. यह भी जान लेना जरूरी होगा कि यह देश की दूसरी फिल्म है, जिसे आदिवासी समुदाय के तीखे प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है. इससे पहले 2005 में बाॅलीवुड की फिल्म ‘टैंगो चार्ली’ को बोडो आदिवासी समुदाय की नाराजगी झेलनी पड़ी थी और फिल्म का प्रदर्शन असम में नहीं किया जा सका था. अजय देवगन, बाॅबी देओल, संजय दत्त और सुनील शेट्टी जैसे मशहूर सितारों वाली ‘टैंगो चार्ली’ में बोडो समुदाय और उनके आंदोलन का बहुत ही नकारात्मक चित्रण किया गया था, परंतु ‘एमएसजी-2’ का विरोध जिस ढंग से और व्यापक स्तर पर पूरे देश में आदिवासियों ने किया, वह भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नई परिघटना है.
भारतीय मिथकों के संत हों या आज के संत, आदिवासी हमेशा से इनके लिए दुष्ट, पापी, असुर, राक्षस और शैतान रहे हैं
इतिहास बताता है कि नगरीय, औद्योगिक और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था वाली सभ्यताओं के विकास के साथ ही दुनियाभर में आदिवासियों के साथ नस्लीय उत्पीड़न और सामूहिक संहार के अमानवीय अध्याय की शुरुआत होती है. आदिवासी विकसित सभ्यताओं के इस कुकृत्य का तीव्र विरोध करते हैं और हजारों कुर्बानियां देते हैं. विकसित सभ्यताओं के समाज के भीतर भी सृष्टि के दोहन और ‘विकास’ के नाम पर किए जा रहे आदिवासी दमन के खिलाफ उदारवादियों व प्रगतिशीलों का एक तबका विरोध में उतर आता है. तब आदिवासी दोहन, लूटपाट और हत्याओं को सभ्यता और विकास के लिए ‘जायज’ व ‘पवित्र’ ठहराने के लिए व्यवस्था द्वारा प्रचारात्मक सामग्रियों का विपुल निर्माण शुरू होता है. साहित्य और कला के सभी माध्यमों में आदिवासियों को पापी, शैतान, राक्षस, असुर के रूप में चित्रित किया जाता है और धर्म व शिक्षा के द्वारा इस नस्लीय दृष्टि के प्रचार-प्रसार की पुख्ता व्यवस्था कर दी जाती है ताकि पीढि़यों तक यह दृष्टि ‘संस्कृति व परंपरा’ बनकर लोगों की ‘कंडीशनिंग’ करती रहे. सिनेमा जैसा व्यापक दृश्यात्मक ‘टूल’ इस संदर्भ में सबसे खतरनाक हथियार साबित हुआ है.
प्रजातीय और सांस्कृतिक दृष्टि से आदिवासी लोग स्वयं को असुरों का वंशज मानते हैं. नृवैज्ञानिकों और इतिहासकारों के अनुसार भी असुर, राक्षस अथवा अनार्य लोग आदिवासी ही हैं. दुनिया की सभी गैर-आदिवासी सभ्यताओं और उनके धार्मिक, मिथकीय, नैतिक कथाएं तथा आधुनिक साहित्य भी आदिवासियों के नकारात्मक चित्रण से भरा पड़ा है. भारतीय मिथकों के संत हों या आज के संत, आदिवासी हमेशा से इनके लिए दुष्ट, पापी, असुर, राक्षस और शैतान रहे हैं. असुरों के साथ होने वाली हर लड़ाई में संतों ने देवताओं का साथ ही नहीं दिया है बल्कि दधीचि जैसे ऋषियों ने तो राक्षसों को मारने के लिए खुद का बलिदान करते हुए अपनी अस्थियां तक दान में दे दी हैं. इसलिए डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम जब अपनी नई प्रचार फिल्म ‘एमएसजी-2’ में आदिवासियों को शैतान कहते हुए उनका संहार करने के लिए अवतार लेते हैं, तो लोकतंत्र और समानता का दंभ भरने वाले देश के प्रबुद्ध नागरिक समाज को कोई परेशानी नहीं होती लेकिन आजादी के बाद देश में हम पहली बार आदिवासी समाज और उनके संगठनों को एक नस्लीय टिप्पणी के खिलाफ उग्र होते देखते हैं. परिणामस्वरूप देश के तीन आदिवासी बहुल राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में फिल्म पर प्रतिबंध लगाना पड़ जाता है. हिंदू-मुस्लिम जैसे पारंपरिक धर्मोन्माद की कड़ी में क्या यह एक नए किस्म का धार्मिक उन्माद है, जिसे अभिव्यक्ति के नए व स्वतंत्र माध्यमों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर संगठित और उग्र होने का अवसर मिला या फिर इसकी जड़ें उस एकतरफा सांस्कृतिक-दार्शनिक युद्ध में है जो अब तक आदिवासियों के खिलाफ अबाध रूप से चलाया जाता रहा है?
इस पूरे प्रकरण में संविधान के संरक्षक न्यायालय की टिप्पणी, सेंसर बोर्ड से इस फिल्म का पास होना और इस पर दक्षिण से वाम तक के बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों और समाज की चुप्पी एक तरह से इस अमानवीय और अवैज्ञानिक सोच कि ‘आदिवासी जंगली हैं, असभ्य-बर्बर व शैतान हैं’ का मौन समर्थन है. यह चुप्पी आदिवासियों को भौतिक और सांस्कृतिक- दोनों स्तरों पर उजाड़े जाने का बौद्धिक समर्थन है लेकिन फिल्म पर प्रतिबंध लगवाकर आदिवासी संगठनों ने यह जता दिया है कि नस्ल भेद को वे अब किसी भी स्तर पर और किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि इससे खतरनाक कुछ नहीं हो सकता. संविधान के संकल्पों की धज्जियां उड़ाते हुए इस फिल्म में जिस तरह से आदिवासियों के प्रति घृणा व्यक्त की गई है, उसका विरोध करने की बजाय समाज चुप है तो वह भी इस अपराध में शामिल है.
(लेखक आदिवासी भाषा एवं संस्कृति से जुड़े रंगकर्मी हैं )
इस बार मैं अभी गुजरे कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में एक कविता कहना चाहता हूं.
हफ्ता न मिलने से सांड़-सा बौराया लखनऊ का पुलिसवाला है जो बूट की ठोकरों से राजभवन को जाती सदर सड़क के फुटपाथ पर एक टाइपराइटर तोड़ रहा है, वहीं तमाशा देखने वालों से घिरा, विलाप करता बूढ़ा टाइपिस्ट कृष्ण कुमार तब से बैठा है जब एक अर्जी टाइप करने की मजूरी चवन्नी हुआ करती थी, इतना वक्त बीता कि बीस रुपये हो चुकी है. पीछे परदे की तरह पेशाब की महक वाली विधानसभा से सटी बड़े डाकखाने की दीवार है, जिस पर किसी ऐसे ने जो इन दिनों हर कहीं मौजूद खुफिया कैमरों की नाकामी से नाखुश है एक चिप्पी लगा दी है, जिस पर लिखा है- सावधान आप ईश्वर की नजर में हैं.
यह फेसबुक पहुंची फोटो एक गरीब के साथ हो रही लपड़-झपड़ को वायरल कर देती है, चारों ओर थू-थू होती है, दुनिया भर से टाइपराइटर और रुपये की मदद की इच्छाएं आ रही हैं, वह फोन पर एक ही अत्याचार बताते बताते चिड़चिड़ाने लगा है, राज्य के युवा मुख्यमंत्री को शर्म आती है, वे बूढ़े टाइपिस्ट को नया टाइपराइटर, कुछ मुआवजा और सुरक्षा का हुक्म देते हैं. यूरेका!
एंड्रॉयड फोनों की स्क्रीन से दीप्त युवा चेहरों पर ‘आओ करके सीखें विज्ञान’ छपा है. जिस काम में धरना, प्रदर्शन नाकाम हो चले थे वह अब फेसबुक करने लगा है. धरना हास्यास्पद निरीहता से एक कोने में सिमटा रहता था, जिसे सरकार उपेक्षा या लाठी से निपटा देती थी. फेसबुक तक लाठी नहीं पहुंच पाती और रायता दूर तक फैलता है. जनमत बनाने में वे भी शामिल हो गए हैं, जो सड़क जाम करने वालों को गुंडे और धरना को नौटंकी कहा करते थे लेकिन उनकी दया भी भीड़ देखकर ही सक्रिय क्यों होती है? वह चुपचाप अपना काम क्यों नहीं करती?
तभी अमेरिका में फेसबुक के मुख्यालय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, घरों में बरतन मांजकर बच्चे पालने वाली अपनी मां की स्मृति के संताप को आंसुओं में प्रवाहित कर निर्मल होने के बाद, युग की करवट से धरती पर बनी नई सलवटों का भाष्य करते सुनाई देते हैं – भविष्य के शहर नदियों के किनारे नहीं आॅप्टिकल फाइबर नेटवर्क के इर्दगिर्द बसेंगे और अब सोशल मीडिया के कारण सरकारों को पहले की तरह पांच साल में नहीं सिर्फ पांच मिनट में सुधरना पड़ता है. प्रधानमंत्री ने मेनलो पार्क में जो कहा और लखनऊ में फुटपाथ पर बैठे बूढ़े टाइपिस्ट ने सदमे से उबरने से भी पहले जो करिश्मा महसूस किया, दोनों मिलकर डिजिटल इंडिया का ऐसा खाका खींचते हैं जिसमें हताशा से भी पुरानी सारी समस्याएं उंगली की एक हरकत से छू मंतर होती दिखाई देती हैं. कमाल है!
अचानक फुटपाथ पर एक खटारा स्कूटर आकर रुकता है, जिसकी पिछली सीट पर गंदे कपड़ों का गट्ठर लादे बीस साल का धोबी बूढ़े टाइपिस्ट से अपना मकान हड़प लेने वाले सरहंग के खिलाफ एक अर्जी टाइप कराना चाहता है लेकिन उसे साहब का पदनाम नहीं मालूम हालांकि वह उन्हीं के कपड़े धोता है और उन्हीं की बीवी के कहने पर शिकायत की हिम्मत कर पाया है. बूढ़ा टाइपिस्ट झुंझलाते हुए एक ओर बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करने को कहता है क्योंकि पहले से कई लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर बैठे हैं, जिनकी न सिर्फ अर्जियां टाइप होनी हैं बल्कि उस दफ्तर का नाम और रास्ता भी समझाना है, जहां के कूड़ेदानों में इन अर्जियों को जाना है. टाइपराइटर बनने बंद हो चुके हैं फिर भी उसकी रोजी ऐसे लोगों के ही कारण चल रही है जो खुद अर्जियां लिखकर कंप्यूटर टाइपिंग करने वाले छोकरों के पास नहीं जा सकते. तकनीक चाहे जितनी तेजी दिखा ले लेकिन अनपढ़ और कुपढ़ लोगों की समस्याएं धीरज से नहीं सुन सकती, उनको दिलासा नहीं दे सकती, उनकी कराहों, लंबी सांसों और आंखों की नमी को लिख नहीं सकती और यह बूढ़े टाइपिस्ट का चुनाव नहीं मजबूरी है. खुदा न खास्ता कल को किसी सॉफ्टवेयर से ऐसा होने भी लगे तो उसकी कीमत ऐसी होगी जो ये गरीब नहीं दे पाएंगे.
ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है जो भारत में रहते हैं, पर इंडिया में जाने के सपने ही देख रहे हैं, वे डिजिटल इंडिया में कैसे दाखिल हो पाएंगे? वह अभी गरीब निरक्षर लोगों की भीड़ में एक छोटा-सा धब्बा-भर हैं. क्या खुद मोदी की मां डिजिटल इंडिया में दाखिल हो पाएंगी…ऐसी करोड़ों मांएं, उनके गैर-प्रधानमंत्री बेटे और उनकी संतानें? असली भारत के लिए इंटरनेट का महात्म्य पोर्न वीडियो देखने और गाने सुनने से आगे नहीं फैल पाया है.
यह एकालाप या कविता जो भी है, वीरेन डंगवाल की स्मृति में इसलिए है कि उसी कवि को मैने पहली बार यह कहते सुना था-
दुनिया एक गांव तो बने/लेकिन सारे गांव बाहर हों उस दुनिया के/यह कंप्यूटर करामात हो.
संगीत के साथ जैसे उन्हें जीवन वापस मिल गया था. गाना दोबारा शुरू करते हुए उन्हें यह डर था कि पता नहीं इतने समय बाद वो गा भी पाएंगी या नहीं और लोगों पर उनका जादू वैसे ही चलेगा या नहीं. लेकिन जब उन्होंने गाया तो दोबारा उसी तरह की बेपनाह मकबूलियत पाई. ख़ासतौर पर इस दौर में गाई उनकी ग़ज़लों में तो एक अलग ही तासीर मिलती है. वो सारा दर्द जो उन्होंने गायिकी से दूर रहकर बीमारी में भोगा, इन ग़ज़लों में उजाले की तरह चमकता है. ऐसी तड़प उनकी पहले दौर की गायिकी में नहीं थी. हालांकि उसमें भी वो कशिश मौजूद है जो हमेशा बेगम अख़्तर की गायिकी का हुस्न बनी रही. हैरत की बात ये है कि गायिकी की वजह से ज़्यादातर कलाकार खाने-पीने में जिस तरह का परहेज़ करते हैं वो भी उन्होंने कभी नहीं किया. वो अपनी आवाज़ को ख़ुदा की देन मानती थीं. इसी के चलते रिकॉर्डिंग के दिन भी अचार से लेकर आईसक्रीम तक सब चाव से खाती थीं और सिगरेट भी पीती थीं. उनकी शेरफहमी कमाल की थी. यही वजह है कि रागदारी की रियाज़त में भी उन्होंने शेर के हुस्न को बरकरार रखा. जब वो गा रही होतीं तो बैकग्राउण्ड में साज़िन्दों को साज़ लगभग गुम रखने की ताकीद थी ताकि शेर पूरा उभर कर आए. ग़ज़ल के अलावा उपशास्त्रीय संगीत की दूसरी विधाओं जैसे ठुमरी, दादरा और ख़याल गायिकी में भी उनका अंदाज़ एकदम मौलिक था. गायिकी में पंजाब और पूरब अंग का जैसा अद्भुत समन्वय उन्होंने किया उसने बेगम अख़्तर को एकदम निराला बना दिया. हालांकि विशुद्ध शास्त्रीय गायन में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं रही, लेकिन ग़ज़ल और दूसरी चीज़ें गाते हुए वो बिल्कुल शास्त्रीय संगीत जैसा माहौल रच देती थीं.
1945 में लखनऊ के बैरिस्टर अब्बासी को अपना हमसफ़र चुना. इसके बाद अख़्तरी बाई फैज़ाबादी बेगम अख़्तर बन गईं और गायिकी से उनका रिश्ता कुछ साल के लिए टूट गया
1951 में कोलकाता में हुए संगीत सम्मेलन में भी उन्होंने शिरकत की, जिसमें शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े पुरोधा हिस्सा ले रहे थे. यहां भी वो बेहद कामयाब रहीं. आमजन के अलावा कई पंडितों-उस्तादों ने भी उनकी जी खोलकर तारीफ़ की. भारत रत्न मरहूम बिस्मिल्ला खां ने एक दफा बेगम अख़्तर की गायिकी के बारे में बात करते हुए कहा था- ‘बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी. जिसे अकार की तान कहते हैं, उसमें अ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था और ये उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि बाई कुछ कहो. ज़रा कुछ सुनाओ. वे बोलीं-अमां क्या कहें, का सुनाएं. हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं- निराला बनरा दीवाना बना दे. एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा तो हमने कहा अहा ! यही तो सितम है तेरी आवाज़ का. वो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था. वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.’
दोबारा गाना शुरू करने के बाद जल्द ही बेगम की ज़िंदगी पटरी पर आ गई थी. उनके पास लगातार गाने के प्रस्ताव आ रहे थे. लेकिन इसी बीच 1951 में ही उनकी मां मुश्तरी की मौत के बाद वो तीन-चार महीने फिर संगीत से दूर रहीं. सदमे में थीं. उनका ज़्यादातर वक्त लखनऊ के पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र पर गुज़रा. उनकी ज़िंदगी में मां की भूमिका ही ऐसी थी, जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी. बहरहाल तबीयत कुछ संभली तो उन्होंने फिर से गाना शुरू किया. 1952 में बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो के अखिल भारतीय संगीत समारोह में शिरकत की और महफिल लूट ली. इसके बाद फिर से बेगम अख़्तर की शोहरत आसमान छूने लगी. रिकॉर्डिंग पर रिकॉर्डिंग होने लगीं. वो पूरे मुल्क में गाने के लिए बुलाई जाने लगीं. फिल्मों के ऑफर भी दोबारा आने लगे. मगर बेगम ने अभिनय पर हामी नहीं भरी. पार्श्वगायन भी नाचरंग (1953), दानापानी (1953) और एहसान (1954) जैसी कुछ ही फ़िल्मों के लिए किया. हालांकि जलसाघर (1958) में ज़रूर वो गायन के साथ-साथ स्क्रीन पर भी दिखीं, क्योंकि ये अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचाने गए फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म थी, जिनके आग्रह को बेगम ठुकरा नहीं पाईं. अब उन्हें विदेशों से भी न्यौते मिलने लगे थे. ख़ुद भारत सरकार उनसे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल का सदस्य बनने का आग्रह कर चुकी थी. 1961 में भारत सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर वो पाकिस्तान गईं. वहां उन्होंने ग़ज़लों के साथ-साथ ठुमरी और दादरा का भी जादू चलाया. इस आयोजन में पहली बार बेगम को ये अंदाज़ा हुआ कि हिंदुस्तान की सरहद पार भी लोग दीवानावार उनके संगीत को सुनते हैं. 1963 की अफ़गानिस्तान और 1967 की रूस यात्रा में भी वो इसी तरह सब पर ग़ालिब रहीं. इस बीच एक के बाद एक उन्होंने कई विदेश यात्राएं कीं.
ख़ुद एक तजुर्बेकार गायिका के रूप में स्थापित होने के बाद बेगम ने अपना तजुरबा नई पीढ़ी को देने का मन भी बनाया. लड़कियां गाना सीखें, इस बात के लिए वो हमेशा पेश रहीं. उनकी मां ने उन्हें गाना सिखाने के लिए जो जद्दोजहद की थी, वो उसे भूली नहीं थीं. मां के इंतक़ाल के बाद उन्होंने विधिवत लड़कियों को तालीम देना शुरू किया. उस वक्त तक सिखानेवाले उस्ताद पुरुष ही होते थे, जो अपने शिष्यों के गण्डा बांधकर सिखाना शुरू करते थे. संगीत के क्षेत्र में गण्डा बंधन की परम्परा का बड़ा महत्व है. 1952 में बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद बनीं, जिन्होंने अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन किया. बेगम ने सबसे पहले शांति हीरानंद और अंजलि चटर्जी को गण्डा बांधकर सिखाना शुरू किया. उसके बाद दूसरी गायिकाओं ने भी अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन शुरू कर दिया. बेगम का सिखाने का तरीका भी नए ढंग का था. अकेले कमरे में सीखनेवाले को बैठाकर रियाज़ करवाने की वो क़ायल नहीं थीं. वे शिष्याओं को अपनी महफिल में साथ ले जातीं थीं और अपने साथ-साथ गाने को कहती थीं, और इसके बाद अगर ख़ास ज़रूरत पड़ी, तो अलग से भी सिखाती थीं. अख़्तर की शिष्याओं में शांति हीरानंद, अंजलि चटर्जी, रीता गांगुली, ममतादास, शिप्रा बोस आदि हैं. महाराज हुसैन निशात और सग़ीर खां आदि के रूप में उनके कुछ शिष्य भी रहे. बेगम ख़ुद इस्लाम में यकीन रखती थीं, लेकिन मजहबी भेदभाव से कोसों दूर थीं. उनकी शिष्याओं में ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां ही अधिक रहीं.
शोहरत से इतर 1950 से 1974 का दौर उनकी गायिकी की शिनाख़्त के लिहाज से सबसे मज़बूत दौर था और काम के लिहाज से व्यस्ततम. देश-विदेश में अब वो हिंदुस्तानी उपशास्त्रीय गायन का सबसे बड़ा नाम थीं. 1968 में भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया. 1972 में उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिला. देश के दूसरे बड़े संगीत संस्थानों ने भी उन्हें सम्मानित किया. उनके शहर लखनऊ के मशहूर भातखण्डे संगीत संस्थान ने उन्हें प्रोफेसर का पद दिया. कामयाबी की इस मसरूफ़ियत के बीच उनकी तबीयत भी उन्हें अपनी अहमियत की चेतावनी देता रहा. 1967 में उन्हें दिल का पहला दौरा पड़ा. ठीक होने के तुरंत बाद वे फिर गाने लगीं. जिंदगी के आख़िरी साल 1974 में दोबारा उन्हें दौरा पड़ा. तबीयत संभली, तो फिर गायिकी शुरू. असल में गायिकी से दूर रहना उनके बस का ही न था. अक्टूबर 1974 में उन्होंने आकाशवाणी बंबई के सम्मेलन में शिरकत की और अपने इंतक़ाल के एक हफ्ते पहले आकाशवाणी के लिए अपनी आख़िरी ग़ज़ल ‘सुना करो मेरी जां…’ रिकॉर्ड की. ये उन्हीं कैफ़ी आज़मी का कलाम था, जिन्होंने बेगम अख़्तर की गायिकी से मुतासिर होकर ही दोबारा ग़ज़लें कहना शुरू किया था.
गायन के क्षेत्र में जैसा नाम बेगम ने कमाया, वैसा लता मंगेशकर के अलावा किसी गायिका के हिस्से में नहीं आया. बेगम ख़ुद लता और बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं
30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में गाते हुए एक बार फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और इसी रात उनका इंतक़ाल हो गया. 1975 में भारत सरकार ने बेगम अख़्तर को मरणोपरांत पद्मभूषण से सम्मानित किया. उनकी मौत की ख़बर सुनकर दुनियाभर में उनके प्रशंसकों की हालत बुरी थी. कहा जाता है कि लखनऊ में तो उनका एक चाहनेवाला ये ख़बर सुनकर पागल हो गया था और लखनऊ की सड़कों पर हाए अख़्तरी-हाय अख़्तरी की आवाज़ लगाता उसी तरह भटकता था जिस तरह मजनूं दश्त में. बेगम की इच्छा के मुताबिक उन्हें लखनऊ के ही पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र के पड़ोस में दफ़नाया गया. बेगम की मौत के बाद लंबे समय तक ये जगह लगभग उपेक्षित रही. आसपास के लोगों तक को इसके बारे में जानकारी नहीं थी. फिर अभी तीन साल पहले लखनऊ की जानी-पहचानी सामाजिक संस्था ‘सनतकदा’ ने बेगम की शिष्या शांति हीरानंद के सहयोग से उनकी मज़ार का जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण करवाया. साथ ही इस बात के लिए भी प्रयास किया कि इस जगह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोग जानें. फेसबुक पर भी बेगम अख़्तर की मज़ार का एक पेज बनाया गया. संस्था के ही प्रयास से हर साल बेगम के जन्मदिन पर यहां संगीत की एक नशिस्त भी आयोजित होती है, जिसमंे शुभा मुद्गल और शांति हीरानंद आदि बेगम को श्रद्धांजलि दे चुकी हैं.
तकरीबन चालीस साल की अपनी गायिकी में बेगम अख़्तर ने जिस चीज को गा दिया वो अमर हो गई. बहज़ाद लखनवी कहा करते थे कि वो हश्र तक सिर्फ इसी वजह से याद रखे जाएंगे क्योंकि बेगम अख़्तर ने उनको गा दिया. बेगम अख़्तर ने बहज़ाद की कई ग़ज़लें गाईं जिनमें ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे…’ सबसे कामयाब हुई. सिर्फ बहज़ाद ही नहीं उस दौर के तमामतर शाइरों की ख़्वाहिश ये थी कि बेगम अख़्तर उनका कलाम गा दें. 1970 में जब शकील बदायूंनी बीमार पड़े और मृत्युशैय्या पर उन्होंने अपनी आिख़री ग़ज़ल ‘मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा’ कही, तो उनकी भी आख़िरी ख्वाहिश यही थी कि बेगम अख़्तर उनकी इस ग़ज़ल के साथ इंसाफ़ कर दें. बेगम अख़्तर ने शकील की आख़िरी ख्वाहिश का एहतराम करते हुए इस ग़ज़ल को यूं गाया कि ये ग़ज़ल हमेशा के लिए बेगम अख़्तर की पहचान बन गई. बेगम ने शकील की कई ग़ज़लें गाईं, जिनमें ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, ज़िंदगी का दर्द लेकर इंक़लाब आया तो क्या…’ वगैरह बहुत कामयाब हुईं. कैफी से उनके रिश्ते की बात पहले हो चुकी है. फ़ैज़ एवं मजरूह के कलाम को भी उन्होंने गाकर मकबूलियत दी. कुछ तो दुनिया की इनायात के साथ सुदर्शन फाकिर को भी बेगम अख़्तर ने जाविदां कर दिया. अपने समकालीनों के अलावा बेगम ने पुराने शाइरों को भी शिद्दत से गाया. मीर, ग़ालिब, ज़ौक और मोमिन को पहली बार आवाम के बीच उनकी गायिकी ही ले गई. ‘वो जो हममें तुममें क़रार था’, ‘उल्टी हो गईं सब तदबीरें’ और ‘ज़िक्र उस परीवश’ की कशिश कौन भूल सकता है. ग़ज़लों के अलावा ‘कैसी धूम मचाई’, ‘कोयलिया मत कर पुकार’, ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’, ‘ज़रा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा’, ‘चला हो परदेसी नैना लगाए’ जैसे असंख्य ठुमरी-दादरे भी बेगम अख़्तर की तरन्नुम पर इतराते हैं. इसके अलावा मज़हबी कलाम भी उन्होंने बहुत गाया. अवध के मोहर्रम से उनका रूहानी रिश्ता था.
गायन के क्षेत्र में जैसा सम्मान बेगम अख़्तर ने कमाया वैसा लता मंगेशकर के अलावा मुल्क की किसी गायिका के हिस्से मे नहीं आया. बेगम अख़्तर ख़ुद लता मंगेशकर और उनके बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं हैं. दोनों से एक रूहानी रिश्ता रखनेवाले मिश्र बताते हैं- ‘बेगम अख़्तर और लता मंगेशकर के बीच जो संबंध है, उसके संयोजक मदन मोहन साहब हैं. लता मंगेशकर ने उनके लिए बहुत सी कालजयी ग़ज़लें गाईं हैं. मदन मोहन जब भी किसी नई ग़ज़ल की धुन तैयार करते थे, तो सबसे पहले उसे बेगम अख़्तर को सुनाते थे और बेगम उसमें ज़रूरी तरमीम करतीं थीं. इसके बाद लताजी इन धुनों को जैसे गाती थीं, मदन मोहन उसे भी बेगम को सुनाते थे और बेगम लता की गायिकी से जुड़े सुझाव भी मदन मोहन को देती थीं. कई दफ़ा तो उन्होंने मदन मोहन से ये तक कहा कि तुम लता की आवाज़ को ठीक तरह इस्तेमाल नहीं कर पाए. इस तरह लता मंगेशकर, मदन मोहन और बेगम अख़्तर तीनों का एक दूसरे से ग़ज़ल का रिश्ता था’. मिश्र कहते हैं कि लता मंगेशकर ने उन्हें बताया कि अपना एक गाना मुझे ख़ास पसंद नहीं है, लेकिन बेगम अख़्तर को ये बहुत पसंद था. गाना था ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) फिल्म का- ‘मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए…’. लता मंगेशकर को हैरत होती है, संजीदा गायनवाली बेगम साहिबा को ये गाना कैसे पसंद आया?
अपनी आवाज़ और शख़्सियत से अपने मुरीदों को हैरत में डालना बेगम अख़्तर का सबसे पसंदीदा शग़ल था. महान फ़िल्म संगीतकार नौशाद बेगम अख़्तर के बारे में कहते थे- ‘उनकी आवाज़ सुननेवाले को चुंबक की तरह खींचती है’. इस चुंबक की ताकत सदियों तक बरकरार रहेगी. इस ताकत को अगर दो मिसरों में बयान करना हो, तो मोमिन के इस शेर से बेहतर कुछ नहीं-
‘कुछ साल पहले जब मेरे परिवार के लोगों ने मेरी दीदी के लिए दूल्हा ढूंढना शुरू किया तो बहुत मुश्किलें आ रही थीं. मेरे वालिद किसी के घर रिश्ता लेकर जाते तो लड़के वाले यही कहते थे कि आप भले लोग हैं. लड़की पढ़ी-लिखी और सयानी भी है, लेकिन आप लोगों के मोहल्ले में हम बारात लेकर कैसे आएंगे? आप लोग तो खत्ते (स्थानीय लोग डंपिंग यार्ड को खत्ता कहते हैं) में बसे हुए हैं. खत्ते के आसपास से गुजरना भी मुश्किल है तो फिर वहां बारात सारी रात कैसे रहेगी? निकाह की रस्में कैसे पूरी होंगी? आपके मोहल्ले की आबोहबा में सड़ांध बसी हुई है.’
मेरे अब्बू को यह जवाब कम से कम पचास-साठ लड़के वालों से सुनने को मिला. अब्बू के पास उनकी बातों का कोई जवाब नहीं होता. अब्बू और अम्मी पिछले तमाम साल दिन-रात इसी चिंता में घुलते रहे कि कैसे बेटी का निकाह कराया जाए. वे बहुत तनाव में रहते थे. एक वक्त ऐसा भी आया जब अब्बू-अम्मी इस बात के लिए भी राजी हो गए कि बेटी का निकाह हैसियत से कमतर घर में कर दिया जाए, लेकिन अल्लाह का बहुत-बहुत शुक्र है कि कुछ साल पहले मेरी बहन की शादी हो गई. उसे पढ़ा-लिखा, नौकरी वाला, नेकदिल शौहर मिल गया. दिल्ली के ही एक साफ-सुथरे मोहल्ले में उसकी ससुराल है. अब उसकी जिंदगी बदल गई है लेकिन हम तो आज भी खत्ते की बदबू झेलने को मजबूर हैं. यह खत्ता मानो हमारी जिंदगी में नासूर की तरह शामिल हो गया है. ये कहानी दिल्ली के गाजीपुर थाने के घडौली एक्सटेंशन के निवासी मोहम्मद अकरम की है, जहां डंपिंग यार्ड होने की वजह से यहां के रहवासियों को तमाम परेशानियों से हर दिन दो-चार होना पड़ता है. यहीं की मुल्ला कॉलोनी में ई-रिक्शा का वर्कशॉप चलाने वाले रियाजुद्दीन सैफी अपने इलाके की सड़ांध के बारे में कहते हैं, ‘हमारा घर खत्ते के पास तो है ही, खत्ते और हमारे घर के बीच तीन बजबजाते नाले और एक नहर (नाले में ही तब्दील) है, जो हमारी जिंदगी को नरक बनाने के लिए काफी है.’
एक अनुमान के मुताबिक ये एक स्याह सच है कि तरक्की से लैस दिल्ली की लगभग चालीस फीसदी आबादी जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर है. इस आबादी का बड़ा हिस्सा डंपिंग यार्ड के आसपास वाले इलाकों में रहता है, जो बहुत गरीब और तरह-तरह की बीमारियों का प्रकोप झेलने को मजबूर है. गाजीपुर स्थित डंपिंग यार्ड पर सुबह के 6:30 बजे पहुंचने पर जो दिखा वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की नींद उड़ा देने के लिए काफी था. कई महिलाएं कूड़े के पहाड़ से खाना ढूंढ रही थीं, ताकि बच्चों को कुछ खिला सकें. कुछ कूड़े में से पीतल, एल्युमीनियम, प्लास्टिक, ईंट आदि के टुकड़े निकाल रही थीं ताकि सूरज डूबने तक उसे कबाड़ के भाव बेचकर 100-200 रुपये जुटा सके. काम में लगी हुई महिलाओं से कुछ ही कदम की दूरी पर प्लास्टिक के झोपड़ीनुमा घरौंदे में बिछी प्लास्टिक के ऊपर नवजात और कुछ छोटे बच्चे लेटे हुए थे. वहीं 8-10 साल के बच्चे कूड़ा बीनने में मां की मदद कर रहे थे. हाल ही में बाल श्रम कानून में हुए सुधार के बाद 14 साल से कम उम्र के बच्चों का घरेलू काम में हाथ बंटाना अब कोई अपराध नहीं रह गया है, सो पारिवारिक काम के नाम पर अब उनसे कुछ भी करवाया जा सकता है. किसी के चेहरे पर किसी किस्म का अपराधबोध नजर नहीं आ रहा था, अगर उनके चेहरे पर कुछ नजर आ रहा था तो बस बेचारगी और चार पैसे जुटा लेने की जद्दोजहद.
फोटो – विजय पांडेय
ये तो साफ ही है कि डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में भू-जल बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता है. इस वजह से इन इलाकों में संक्रामक बीमारियों के फैलने की आशंका हमेशा बनी रहती है. नई दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण से जुड़े मसलों पर शोधकार्य करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) से जुड़ीं शोधार्थी स्वाति सिंह साम्बयाल बताती हैं, ‘हम लोगों ने लगभग दस डंपिंग यार्ड के आसपास स्थित मोहल्लों में जाकर पानी और हवा के प्रदूषण पर शोध किया, पानी के 15-16 नमूनों की जांच की. इन इलाकों में पानी के प्रदूषण का स्तर बहुत भयावह स्थिति में जा पहुंचा है. पानी में खतरनाक स्तर पर सल्फेट, नाइट्रेट, कैल्शियम, मैगनीशियम पाए गए हैं. डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों का पानी कठोर जल में तब्दील हो चुका है, जिसे किसी भी सूरत में पीया नहीं जा सकता. इस पानी को नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल में लाना त्वचा संबंधी रोगों को आमंत्रित करने जैसा है. प्रदूषित पानी के उपयोग की वजह से इन इलाकों के लोगों को आंत संबंधी बीमारियों से लगातार जूझना पड़ता है. कई बार शरीर में निर्जलीकरण की समस्या से लोगों की हालत खराब हो जाती है.’
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पानी छूना भी खतरे से खाली नहीं
हम लोगों ने लगभग दस डंपिंग यार्ड के आसपास स्थित मोहल्लों में जाकर पानी के प्रदूषण और हवा के प्रदूषण पर शोध किया है. भू-जल के 15-16 नमूनों की जांच की गई. पानी में प्रदूषण का स्तर बहुत भयावह स्थिति में जा पहुंचा है. पानी में खतरनाक स्तर पर सल्फेट, नाइट्रेट, कैल्शियम, मैगनीशियम पाए गए हैं. डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में उपलब्ध पानी पूरी तरह कठोर जल में तब्दील हो चुका है, जो किसी भी सूरत में पीया नहीं जा सकता है. उसे नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल में लाने से त्वचा संबंधी रोग होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं. दुखद तो यह है कि डंपिंग यार्ड के आसपास झुग्गी-झोपड़ियां बसी हुई हैं जो इस पानी को पीने और उसे इस्तेमाल में लाने को मजबूर है. संक्रमण की वजह से दस्त, उल्टी की शिकायत बहुत आम है. इन हालात में शरीर में निर्जलीकरण की समस्या से कई बार लोगों की हालत खराब हो जाती है.
डंपिंग यार्ड में अक्सर आग लग जाने या लगाए जाने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन गैस का निर्माण होने लगता है, जो फेफड़े और संबंधी बीमारियों को या तो जन्म देते हैं या फिर उसे बढ़ाने का काम करते हैं. हालांकि अब तक डंपिंग यार्ड से वायु प्रदूषण और उनसे होने वाली बीमारियों को लेकर कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है. दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी (डीपीसीसी) डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में वायु प्रदूषण के स्तर की जांच-पड़ताल नहीं करती है. डीपीसीसी के पास न तो कोई आंकड़ा उपलब्ध है और न ही कोई रिकॉर्ड.
शहर की आबादी के स्वास्थ्य के प्रति सरकारी महकमों और निगमों की लापरवाही का आलम देखिए कि डंपिंग यार्ड की उम्र 25 साल निर्धारित की गई थी, लेकिन भलस्वा डेयरी और गाजीपुर डंपिंग यार्ड को लगभग तीस साल से ज्यादा हो चुके हैं. ओखला वाला डंपिंग यार्ड नया है. भलस्वा डेयरी स्थित डंपिंग यार्ड की उम्र ज्यादा होने की वजह से यहां पहुंचने वाला रसायनयुक्त कचरा घुलकर भूजल को प्रदूषित कर रहा है. बरसात में भलस्वा डेयरी और आसपास की कॉलोनियों में प्रदूषित पानी का खतरा और बढ़ जाता है.
स्वाति सिंह साम्बयाल, प्रोगाम ऑफिसर, सीएसई
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दिल्ली, मुंबई सहित देश के सभी बड़े शहरों में आमतौर पर डंपिंग यार्ड गरीब आबादी वाले इलाकों में बनाए जाते हैं. मिसाल के तौर पर दिल्ली के तीन भीमकाय डंपिंग यार्ड (गाजीपुर, भलस्वा और ओखला) के आसपास की आबादी को देखा जा सकता है. गाजीपुर स्थित डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में निम्न वर्गीय मुसलमान, दलित, पिछड़े, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जातियों और जनजातियों के लोग बसे हुए हैं. भलस्वा डेयरी, कलंदर कॉलोनी, जहांगीरपुरी आदि इलाकों में भी बहुसंख्यक आबादी निम्न वर्गीय मुस्लिम और दलितों की ही है. ओखला डंपिंग यार्ड का इलाका भी पूरी तरह निम्न वर्ग की मुस्लिम आबादी वाला ही है. गाजीपुर के डंपिंग यार्ड का मुंह गरीब आबादी की ओर खुला हुआ है. जरा सी हवा चलने भर से ही बस्ती में दमे और सांस संबंधी बीमारियों से पीड़ित लोगों की जान पर बन आती है. यहां तक कि सामान्य लोगों का भी दम घुटने लगता है. इन पर कहर तो तब टूटता है जब कूड़े के इन पहाड़ों में आग लगा दी जाती है. जो कई बार तीन-चार दिन तक लगी रहती है. तब धुंए में मिला मीथेन और कार्बन डाई ऑक्साइड लोगों की मुश्किलों में कई गुना इजाफा कर देता है. जहांगीरपुरी स्थित बाबू जगजीवन राम अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने बताया, ‘प्रदूषित पानी और प्रदूषित वायु के रोगियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. हृदय, फेफड़े, पेट संबंधी रोगों के अलावा कैंसर के रोगियों की संख्या भी बढ़ रही है, जो चिंता की बात है.’
गाजीपुर के पास से गुजर रहे राष्ट्रीय राजमार्ग 24 के दूसरी ओर वैशाली, वसुंधरा और इंदिरापुरम जैसी पॉश रिहायशी कॉलोनियां बसाई गई हैं. यहां रहने वाले लोगों का जीना मुहाल न हो इसका ख्याल रखते हुए राजमार्ग की तरफ के कूड़े के पहाड़ को ढंक दिया गया है. इन छोटी बस्तियों की ओर खत्ते का मुंह खुला हुआ है जबकि राजमार्ग के दूसरी ओर डंपिंग यार्ड को ढंक दिया गया है, इसके जवाब में गाजीपुर डेयरी फॉर्म के इरशाद भाई तल्ख आवाज में कहते हैं, ‘सरकार और नगर निगम अमीर लोगों के इशारों पर नाचते हैं. उन्हें तो हम गरीब लोगों से हर चुनाव में यार्ड को यहां से हटाए जाने का वायदा करके बस चुनाव जीतना होता है. फिर इस बास में नाक देने कौन आएगा?’ घडौली में बुटीक चलाने वाले सलीम नेताओं की वादाखिलाफी को याद करते हुए कहते हैं, ‘यहां अरविंद केजरीवाल ने खुद सभा की थी और कहा था कि चुनाव जीतने के बाद हम इस डंपिंग यार्ड को खत्म कर देंगे.’ उत्तरी दिल्ली के नगर निगम के एक अधिकारी ने पहले बात करने में आनाकानी की लेकिन भरोसा दिलाने पर इतना ही बोल पाए, ‘कूड़ा कहीं न कहीं तो डाला ही जाएगा. जाहिर है कि गरीब आबादी वाले इलाकों में ऐसा करना सुविधाजनक भी है.’
गाजीपुर में 1986 में डंपिंग यार्ड के बनने से पहले 20 फुट गहरा तालाब हुआ करता था, जिसे एनएच-24 बनाने के क्रम में मिट्टी से पाट दिया गया था. भलस्वा डेयरी के डंपिंग यार्ड वाली जमीन पर 1970 के दशक में गन्ने की खेती होती थी. यार्ड की वजह से भलस्वा झील भी अब बदबू और गंदगी का पर्याय बन चुकी है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बताते हैं, ‘आजादी मिलने से पहले दिल्ली में 350 से ज्यादा तालाब थे, आज तो तीन तालाब भी नहीं बचे होंगे. अगर कुछ बचे हैं तो उनकी स्थिति नालों जैसी है. नई जीवनशैली की वजह से कूड़ा बढ़ा है. राजधानी दिल्ली के कूड़े का प्रबंधन ही नहीं हो पा रहा है. ऐसे में 100-50 स्मार्ट सिटी बनाएंगे तो उनके लिए पानी का इंतजाम कहां से हो पाएगा और उन शहरों से निकलने वाला कचरा कहां ठिकाने लगाया जाएगा?’
डंपिंग यार्ड को पर्यावरणीय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित बने नियमों के अनुसार इन्हें 25 साल तक ही इस्तेमाल में लाना चाहिए. स्वाति बताती हैं, ‘भलस्वा डेयरी और गाजीपुर डंपिंग यार्ड को लगभग तीस साल हो चुके हैं. डंपिंग यार्ड के लिए निर्धारित अवधि के बाद उसे इस्तेमाल में लाने से कचरे के खतरनाक रसायन मिट्टी में रिसकर जमीन को बंजर बना देते हैं और भूजल पूरी तरह प्रदूषित कर देते हैं.’
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ई-कचरे पर इतनी लापरवाही क्यों?
हमारी जीवनशैली में रोज नए-नए इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिक उपकरण शामिल हो रहे हैं. इन उपकरणों पर हमारी निर्भरता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हर साल पूरे देश में 70 लाख से ज्यादा उपभोक्ता कंप्यूटर खरीद रहे हैं. ऐसे ही हमारे दूसरे जरूरी उपकरणों में मोबाइल, लैपटॉप, टीवी, वॉशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, एसी आदि भी शामिल हो चुके हैं. इन उपकरणों की एक तय उम्र होती है, जिसके बाद ये ठीक से काम करना बंद कर देते हैं. इन अनुपयोगी या खराब उपकरणों को ई-वेस्ट (कचरा) कहा जाता है. सामान्य कचरे की तरह ई-कचरे को भी डंप (व्यवस्थित तरीके से कचरे को ठिकाने लगाना) किया जाना चाहिए. सरकार ने ई-कचरा (मैनेजमेंट और हैंडलिंग) नियम 2011 में ही बना दिया था और 1 मई 2012 को इसे लागू कर दिया है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की कार्यकारी निदेशक (शोध) अनुमिता राय चौधरी के अनुसार, ‘सरकार सामान्य कचरा प्रबंधन के मामले तक में अभी बहुत पीछे है, जबकि ई-कचरे के प्रबंधन मामले में तो सरकार और उसकी मशीनरियां अभी जागी भी नहीं हैं.’ वे उदाहरण देकर बताती हैं, ‘सीएफएल बल्ब के पैकेट पर उसके सुरक्षित निस्तारण के बारे में लिखा होता है, लेकिन उसे अमल ला पाना इतना आसान नहीं? सरकार या उद्योग जगत ने इस दिशा में कोई खास पहल नहीं की है. आलम ये है कि भारत में सर्वाधिक सालाना 10 फीसदी की दर से बढ़ रहे कचरे के कारण प्रदूषण में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.’
फोटो- विजय पांडेय
राज्यसभा द्वारा कराए गए एक शोध में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, ‘देश में 2005 तक प्रतिदिन 1.47 लाख टन ई-कचरा पैदा होता था, जबकि उसी शोध में यह भी अनुमान लगाया गया था कि 2012 में यह बढ़कर 8 लाख टन प्रतिदिन हो जाएगा. दिक्कत तो ये है कि सरकार इस पर लगाम लगाने की बजाय विकसित देशों से मुक्त व्यापार संधि के नाम पर ई-कचरा आयात भी करती है. सीमा शुल्क विभाग की ओर से उपलब्ध कराए गए एक आंकड़े के अनुसार, ‘सरकार हर साल 50 लाख टन ई-कचरा रिसाइकिलिंग के लिए आयात करती है. सामान्यत: 14 इंच के एक मॉनीटर में इस्तेमाल होने वाली ट्यूब में 2.5-4.0 किग्रा शीशा होता है. ई-कचरे में आर्सेनिक, बेरियम, कैडमियम, क्रोम, कोबाल्ट, तांबा, सीसा, निकल, जस्ता जैसे जहरीले पदार्थ शामिल होते हैं, जो वायु में मिलकर प्रदूषण को बढ़ाते हैं.’
दिल्ली के मायापुरी औद्योगिक इलाके में 2010 में ‘कोबाल्ट 60’ के रेडिएशन की वजह से एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और छह लोगों की तबियत खराब हो गई थी. पिछले 10 साल के दौरान देश में वायु प्रदूषण का स्तर तीन गुना बढ़ चुका है. बेसल समझौते के बाद यूरोपीय संसद ने एक कानून बनाया, जिसके तहत ई-कचरे को इनकी उत्पादक कंपनियों को हर हाल में वापस लेना होगा. भारत में भी इसके लिए कानून है, लेकिन कई कंपनियों के कस्टमर केयर पर पूछे जाने पर निशानाजनक या कानून के बारे में जानकारी न होने की बात कही जाती है. ई-कचरा वापस लेने के नाम पर बैट्री, मोबाइल, कंप्यूटर आदि वापस लिए जाने लगे हैं, लेकिन ये प्रयास नाकाफी हैं.
उत्पादकों द्वारा ई-कचरा वापस नहीं लिए जाने की वजह से आम लोग कबाड़ी को ही ये कूड़ा बेच देते हैं. कबाड़ी कचरे में लाए गए उपकरण को तोड़कर तांबे जैसी कीमती धातु निकाल लेते हैं और दूसरे जहरीले तत्वों को खुले में छोड़ देते हैं. नतीजा ये होता है कि ये जहरीले तत्व सांस के जरिए शरीर में पहुंचकर बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाते हैं. शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. विनय कुमार मिश्रा का कहना है, ‘ई-कचरे के उचित प्रबंधन की व्यवस्था नहीं हो पाने की वजह से किडनी, लीवर, रक्तसंचार में बाधा, मानसिक आघात, दमा, डीएनए का क्षतिग्रस्त होना, हार्मोन में गड़बड़ी, कमजोरी, बच्चों के मानसिक विकलांग होने जैसी समस्याएं पैदा हो रही है.’
ई-कचरा कानून में यह साफ शब्दों में कहा गया है कि खराब उपकरणों को वापस लेने की जिम्मेदारी उत्पादक कंपनी की होगी और उसे 180 दिन के भीतर कचरे का पुनर्चक्रण करना होगा. शहरों में जगह-जगह कलेक्शन सेंटर होंगे, जहां के हेल्पलाइन नंबर लोगों को देने होंगे. इसी कानून में यह भी जिक्र किया गया है कि नए बन रहे उपकरणों में सीसा, पारा, कैडमियम, हेक्सावैलेट, क्रोमियम जैसे तत्वों का प्रयोग नहीं किया जाएगा. कानून की जमीनी हकीकत के बारे में अनुमिता राय चौधरी कहती हैं, ‘खाली कानून बनाए जाने से बात नहीं बनने वाली है. सरकार ई-कचरा कलेक्शन सेंटर खोलने पर जोर दे और साथ ही उत्पादक कंपनियों को इस बात के लिए जवाबदेह बनाए कि वे उपभोक्ताओं के पास से खराब या बेकार पड़े उपकरणों को वापस लें और उनका पुनर्चक्रण जल्द करे. इससे इतर एक तथ्य यह भी है कि भारत में 75 फीसदी ई-कचरा उपभोक्ताओं के स्टोर या घर के किसी कोने में पड़ा रहता है.’
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सरकार के पास कचरे का आंकड़ा तक नहीं
दिल्ली में भवन निर्माण और तोड़फोड़ की प्रक्रिया में हर रोज करीब 4000-5000 मीट्रिक टन कचरा इकट्ठा होता है. यह दिल्ली नगर निगम का आंकड़ा है. हालांकि सही-सही आंकड़ा नगर निगम के पास भी नहीं है. यह बस एक अनुमान है. इस मलबे के पुनर्चक्रण के लिए दिल्ली में सिर्फ एक संयंत्र बुराड़ी में स्थित है, जहां सिर्फ उत्तरी दिल्ली के मलबे का पुनर्चक्रण किया जाता है. इसकी कचरा पुनर्चक्रण क्षमता 500 टन प्रतिदिन है. मतलब दिल्ली में जितना मलबा भवन-निर्माण और तोड़फोड़ के दौरान इकट्ठा होता है उसके सिर्फ 10 फीसदी हिस्से का ही पुनर्चक्रण हो पाता है. पूर्वी दिल्ली में एक पुनर्चक्रण संयंत्र स्थापित किया गया है, लेकिन इसे शुरू नहीं किया जा सका है. कचरा प्रबंधन के दौरान एक समस्या तो बहुत आम है कि जैविक और अजैविक कूड़े को अलग नहीं किया जाता. निर्माण के दौरान निकले हुए मलबे को, खासतौर पर छोटे बिल्डरों द्वारा डंपिंग यार्ड पर पहुंचाने, इसका पुनर्चक्रण करने की बजाय उसे शहर के किसी नाले, नहर या तालाबों में डाल दिया जाता है.
इस मामले में दिल्ली की स्थिति सबसे अच्छी है. ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दिल्ली में इनकी स्थिति को लेकर थोड़े-बहुत आंकड़े तो मौजूद हैं. देश के दूसरे शहरों में भवन-निर्माण और तोड़फोड़ का सिलसिला तेज हुआ है लेकिन उन शहरों से कोई खास आंकड़ा नहीं मिलता. पूर्व शहरी विकास मंत्री ने पिछले साल राज्यसभा में बताया था कि इस बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. शहरी विकास मंत्रालय के ठोस कचरा प्रबंधन की नियमावली (मैनुअल) में वर्ष 2000 में 10-12 मिलियन टन सालाना कचरा इकट्ठा होने की बात कही गई थी और 2015 में भी 10-12 मिलियन टन कचरा जमा होने की बात है. इन पंद्रह सालों में देश में निर्माण और विध्वंस दोनों ही प्रक्रियाओं में तेजी आई ऐसे में मंत्रालय के इस आंकड़े पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने 2013 में इस बारे में एक अनुमान लगाया था कि 530 मिलियन टन निर्माण व विध्वंस का कचरा जमा हुआ होगा. अब सवाल है कि जब आंकड़े इकट्ठे करने में इतनी लापरवाही बरती जा रही है तब इसके समाधान को लेकर सरकार की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
कवि, शिक्षक व पत्रकार वीरेन डंगवाल नहीं रहे. मेरी समझ से उन्हें एक अपराजेय कवि के रूप में याद किया जाना चाहिए, जिनकी कविताएं 90 के दशक के बाद कड़े प्रतिरोध के साथ मनुष्यता के हक में खड़ी हुईं और जनआंदोलनों में गाई गईं. अभी पांच सितंबर की ही बात है. गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में जन संस्कृति मंच की ओर से वीरेन डंगवाल की कविताओं का पाठ रखा गया था. लंबे समय से कैंसर से जूझ रहे वीरेन दा वहां कैसे पहुंचेंगे इसमें संशय था लेकिन वे पहुंचे. अपनी कविताएं सुनाईं हालांकि पूरी न सुना सके. बीच में आवाज बैठने लगी तो किसी और ने उस कविता को पूरा किया. यह उनका आखिरी कार्यक्रम होगा किसी को नहीं मालूम था.
उस वक्त वीरेन दा किसी तरह बरेली जाना चाहते थे. उनकी जिद थी. अपने शहर पहुंचने की. वे दिल्ली में मरना नहीं चाहते थे. हुआ भी यही. बरेली आए तो उसके दूसरे दिन फिर से बीमार पड़े. मेडिकल काॅलेज में भर्ती कराया गया तो सुधार भी हुअा, लेकिन वहीं सोते वक्त उनकी सांसें थम गईं. वो चेहरा चला गया जो चश्मे को थामे था, अपनी कमानियों से, अलविदा… अभी संयत होने में थोड़ा वक्त लगेगा. इससे पहले इसी साल फरवरी माह में इसी हालत में वीरेन दा दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में जाकर अपनी कविताएं सुना आए थे. यह उनके अंदर के बैठे कवि का संघर्ष था, जो लगातार फासिज्म के खिलाफ लड़ता रहा. यही उनके कवि होने की ताकत थी. वीरेन डंगवाल ऐसे वक्त के कवि थे, जब कविता की मौत पर मसौदे पास किए जा रहे थे. सब कुछ गड्ड-मड्ड होकर एक अंधेरी सुरंग की तरफ बढ़ रहा हो और आगे रोशनी का एक कतरा भी दिखाई न दे. ऐसे वक्त में जब मनुष्यता पर संकट खड़ा हो, हमारे असभ्य और बर्बर होते जाने की खबरें रोजाना तैर रही हों, तब उनकी कविता हमें किसी लालटेन की तरह उम्मीदों के उजास से भर देती है.
2001 में शाहजहांपुर में मैंने उन्हें ‘कविता और हमारा समय’ नाम की एक गोष्ठी में हिस्सा लेने के लिए बुलाया था. सवाल कविता के भविष्य का उठा तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘हमारे समय में कविता को आस्वादों की कमी के संकट से गुजरना पड़ रहा है. यह संकट सभी कलाओं के सामने है लेकिन हिंदी कविता से तो पाठक बहुत दूर चले गए.’ उन्होंने उस वक्त निराला को याद किया था और कहा था, ‘पिछले साठ सालों में कविता ने भी पाठक से अपना दामन छुड़ाने का काम किया है.’ हालांकि वे यह मानते थे कि वैचारिक रूप से कविता मजबूती से सांप्रदायिकता और बाजार के खिलाफ खड़ी है. वे कहते भी थे, ‘वैश्वीकरण भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है. उसका स्वप्न एक ऐसी मनुष्यता है, जो उसी के गांव में बसती है, उसी की तरह रहती, सोचती, पहनती है. एक रासायनिक संस्कृति बोध से लैस इस वैश्विक मनुष्यता का आदर्श भी अंतर्राष्ट्रीयवाद है. जीवन की अनुकृति बनाने वाली कविता उसे रास नहीं आती है.’ ऐसे वक्त में उन्होंने उम्मीद की कविता रची.
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार/संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती/होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार/तब कहीं मेघ ये छिन्न भिन्न हो पाएंगे/आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे!
युवा कवि अमृत सागर के अनुुुसार, ‘प्रतिरोध के कवि वीरेन डंगवाल ने 1970-75 के दौर में ही खौफनाक बिम्बों को बेखौफ तरीके से पकड़ते हुए अपनी कविता ‘राम सिंह’ में जो कुछ कहा, वह नसों को पिघलाने के लिए काफी है.’ वीरेन दा की कविताओं में यह समय दर्ज है. बेहद आम भाषा में नए बिंबों में गढ़ी गई उनकी कविताई उन्हीं की तरह सहज है. एक बात और उनके जैसा इंसान होना मुश्किल काम है इसीलिए उनके जैसी कविताएं भी अब शायद लिखी जा सकें. उनके सबसे करीबी मित्र मंगलेश डबराल के शब्दों में, ‘वीरेन के जीवन पर यह बात पूरी तरह से लागू होती थी कि एक अच्छा कवि पहले एक अच्छा मनुष्य होता है.’ तमाम जिंदगियों को वह पटरी पर ले आए. हमेशा आगाह करते रहे आसन्न खतरों से. खबर संपादित कर रहे होते तो बेटियों को समाज में बैठे भेड़ियों से आगाह करते थे. हमारे जैसे नौसिखियों को आगाह करते थे. हम उन्हें जीने की उम्मीद से लबालब कविताओं के लिए याद करेंगे. उन्हें ‘कटरी की रुकमिनी’ जैसी कविता के लिए याद करेंगे, जो न लिखी जाती तो हम समझ नहीं पाते कि रामगंगा किनारे लोकतंत्र सड़ांध मार रहा है और सामाजिक न्याय किस चिड़िया का नाम है.
2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान एक फायर ब्रांड युवा नेता को ‘अमर उजाला’ में हद से ज्यादा तवज्जो दे दी गई थी. यह तवज्जो उसकी सीधी जय-जयकार थी. अखबार पहले पन्ने से अंदर तक रंगा हुआ था. वर्चस्ववादी राजनीति ने हिन्दी पत्रकारिता का दरवाजा खटका दिया था और यह किसी नए खतरे का संकेत था. शायद वे समझते थे इस बात को. उस दिन उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान कुछ अखबारों का चेहरा याद हो आया था जब सब कुछ हिन्दुुुत्व में बह गया, वे फिर भी ‘अमर उजाला’ को बचा ले गए थे, लेकिन उस दिन ‘अमर उजाला’ के संपादक के तौर पर वे आखिरी बार न्यूज रूम में आए. पहली बार उन्हें गुस्से में देखा था. वे चले गए तो फिर कभी नहीं लौटे.
बरेली काॅलेज से नौकरी पूरी करने बाद ‘डाॅ. डैंग’ (उनके कुछ दोस्तों का दिया नाम), जब विदा ले रहे थे तो उनको काॅलेज प्रबंधन की ओर से शाॅल और गीता भेंट की गई. गीता लेने से उन्होंने बड़ी सहजता से मना कर दिया. बोले, ‘गीता रहने दीजिए. अभी मैं मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहता हूं. अभी भरपूर जीवन जीना है.’
मुझे लगता है कि उन्होंने अपने लिए कविता का मोर्चा चुना था. इसी मोर्चे पर वे जूझे. फिर भी उन्होंने हमारे जैसे नए पत्रकारों के लिए जमीन तैयार की. पता नहीं क्यों उन्हें भी लगने लगा था कि इन विचारों की जगह अब अखबारों में नहीं बची है. कई बार खबरों पर की गई बातचीत के बाद वे असहज हो जाते थे. यह वह दौर था जब खबरें बिकने लगी थीं और पैकेज तय होने लगे थे. बाजार के इस चेहरे से अनजान जो नए लोग पत्रकारिता में आते थे, वह कहीं बिला जाते थे. इसी तरह आम आदमी का चेहरा कहीं लोप हो रहा था, क्योंकि उसके बचाने की जिद पत्रकारिता में नहीं बची थी. मैंने उन्हें ऐसे खतरों से हमेशा नए पत्रकारों को आगाह करते देखा है. मेरे एक वरिष्ठ साथी राजशेखर ने उस दिन उनके न रहने की खबर सुनी तो बोले, ‘वीरेन दा के बाद हिंदी में संपादक नहीं रहे.’
‘अमर उजाला’ के दिनों में मैं बरेली काॅलेज की बीट कवर करता था और वे हिन्दी विभाग में व्याख्याता थे. शाम को वे मेरे संपादक होते थे. बरेली काॅलेज की खबरों को लेकर उनका ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं होता था, बल्कि उनकी ओर से पूरी आजादी थी. वे कहते थे, ‘खबर तुम्हारी है यार… रिपोर्टर तुम हो. जो लिखो सही-सही लिखना.’ मैं भी महसूस करता हूं कि उनके बाद हिंदी में ऐसा कोई संपादक नहीं बचा. एक ऐसा खालीपन है, जो कभी नहीं भरेगा. एक बार उन्होंने कहा था, ‘ये कविता-शविता के चक्कर में पड़ गए तो पत्रकार नहीं बन पाओगे बेट्टा… या फिर किस गधे ने तुमसे कह दिया पत्रकार बनने को.’ अपनी एक कविता में वे नए पत्रकारों के छद्म दंभ को ठेंगा दिखाते हुए जीवन का अर्थ समझाते भी हैं…
60 प्वाइंट, काली चीख
‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, सबसे खास खबर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खून सोखता था
उतना ही भारी होता था अखबार
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख के बाहर था जीवन
वेगवान नदी हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको, तो महोदय पत्रकार
पांच अगस्त 1947 को टिहरी गढ़वाल के कीर्तिनगर में पैदा हुए वीरेन डंगवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में डीफिल किया. 1971 में बरेली काॅलेज के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता बन गए. बाद में विभागाध्यक्ष भी रहे. वीरेन दा का पहला कविता संग्रह 43 की उम्र में ‘इसी दुनिया में’ नाम से आया. दूसरा संकलन ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ नाम से 2002 में आया, जिसके लिए 2004 में उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला. कुछ दुर्लभ अनुवाद भी उनके खाते में दर्ज हैं, जिनमें पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, नाजिम हिकमत के अनुवाद काफी चर्चित हुए. अमर उजाला, बरेली और कानपुर संस्करण के संपादक रहे. 2010 में बरेली काॅलेज से नौकरी पूरी करने बाद ‘डाॅ. डैंग’ (उनके कुछ दोस्तों का दिया नाम), जब विदा ले रहे थे तो उनको काॅलेज प्रबंधन की ओर से शाॅल और गीता भेंट की गई. गीता लेने से उन्होंने बड़ी सहजता से मना कर दिया. बोले, ‘गीता रहने दीजिए. अभी मैं मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहता हूं. अभी भरपूर जीवन जीना है.’ लेखक सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘यह उनकी जिजीविषा ही थी कि बीमारी के दौरान उन्होंने अपनी सबसे सुंदर कविताएं लिखीं.’
भारत में गोमांस खाने की परंपरा बहुत पुरानी है. वैदिक संहिताओं में जहां यज्ञ की चर्चा की गई है, वहां गाय के बलिदान की चर्चा भी की गई है. बलि देने के साथ गोमांस खाने की चर्चा वैदिक संहिताओं में है. यह परंपरा बहुत समय तक चली. लेकिन उत्तर वैदिक काल में रचे गए धर्म सूत्रों या स्मृतियों में भी गोमांस और गोवध की चर्चा है. इन ग्रंथों में जिक्र किया गया है कि किसी राजा या किसी आदरणीय व्यक्ति के आगमन पर बलि दी जाती थी और उन्हें गोमांस परोसा जाता था. गाय की बलि देने की प्रथा को ‘मधुपर्क’ कहा जाता था. मधुपर्क का जिक्र याज्ञवलक्य स्मृति, नारद स्मृति, व्यास आदि स्मृतियों में है. गोमांस खाने की चर्चा स्मृति ग्रंथों के अलावा कई धर्मनिरपेक्ष साहित्य में भी है.
गोमांस खाने की परंपरा तो इस देश में रही है लेकिन यह भी सही है कि कई संप्रदाय (बौद्घ, जैन, वैष्णव आदि) ऐसे रहे जिन्होंने पशु बलि का विरोध किया. बलि प्रथा का इनका विरोध किसी खास पशु के लिए न होकर सभी जानवरों के लिए था.
भारतीय समाज में गाय या गोवंश के दूसरे प्राणियों के लिए विशेष आदर का भाव कृषि के विकास के साथ बढ़ता चला गया. कृषि के प्रसार में गाय, बैल, भैंस आदि का योगदान रहा है. जाहिर है उनके प्रति आदर और सहानुभूति तो हो ही जाएगी। दूध देनेवाले पशु का महत्व दूसरे घरेलू महत्व के जानवरों की तुलना में ज्यादा बढ़ पाया है लेकिन इनका राजनीतिकरण पहले कभी भी आज की तरह नहीं हुआ. सच तो यह है कि इनका राजनीतिकरण 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ.
दयानंद सरस्वती ने ‘गोरक्षण समिति’ बनाई और गाय बचाने के नाम पर आंदोलन भी चलाया था। इस आंदोलन के चलते मुसलमानों की पहचान गाय की हत्या करने और गोमांस खानेवाले के तौर पर स्थापित हो गई। यह भी प्रचारित किया गया कि मुगलों के भारत आगमन के बाद से ही गोमांस खाने की परंपरा शुरू हुई है. यह एक भ्रामक तथ्य है. अतः यह प्रतिबंध मुस्लिम विरोधी है.
दयानंद सरस्वती के इस आंदोलन के बाद पश्चिमी, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुत दंगे हुए. यहां से राजनीति का सांप्रदायीकरण शुरू हुआ. बाद में भाजपा और हिंदूवादी पार्टियों ने इस एजेंडे को आगे बढ़ाया. हिंदूवादी ताकतों ने गाय को पवित्रता का प्रतीक बताकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम किया. ये लोग हिंदू होने को लेकर गौरवांवित होते हैं और नारे लगाते हैं, ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’. कोई भी जब गौरवांवित होकर अपने को हिंदू बताएगा तो जाहिर है कि वह अन्य धर्म को हिकारत से या कम करके देखेगा. हिंदू धर्म के मुकाबले इस्लाम और ईसाईयत को हीन बताएगा.
गोमांस नहीं खाना है, यह तो सवर्णवादी (ब्राह्मणवादी) मानसिकता है. सूअर (वराह) को भी हिंदू धर्म में भगवान का एक अवतार बताया गया है लेकिन सवर्ण सूअर खाते हैं. इनके मन में सूअर बचाने को लेकर कोई दर्द नहीं है? अगर धर्म को बचाना ही है तो फिर सूअर को क्यों नहीं? सूअर खाने के पीछे या सूअर खाने को लेकर प्रतिबंध जैसी बातें इसलिए कभी नहीं उठती हैं क्योंकि मुसलमान सूअर नहीं खाते हैं. जाहिर है कि गोवध के प्रतिबंध के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है. इस प्रतिबंध के पीछे समाज और राजनीति का सांप्रदायीकरण करने की मंशा है.
धर्म शास्त्रों में दो तरह के पाप गिनाए गए हैं, महापातक और उप-पातक. ‘अत्रे’ और ‘व्यास’ स्मृति, जो वैदिक ग्रंथों के बहुत बाद के ग्रंथ हैं उसमें गोवध करनेवाले और गोमांस खानेवाले को अस्पृश्यता से जोड़ दिया गया और गोवध को महापातक (महापाप) नहीं माना गया है.
गोवध पर प्रतिबंध का दलित आबादी के स्वास्थ्य पर बहुत नकारात्मक असर पड़ेगा. दलितों में गोमांस बहुत सामान्य है. उनके लिए यह प्रोटीन का बहुत बड़ा स्रोत है इसलिए यह दलित विरोधी है. केरल और पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में गोमांस प्रचुरता से खाया जाता है तो यह केरल और पूर्वोत्तर विरोधी है. केरल में लगभग 80 फीसदी लोग गोमांस खाते हैं. कौन क्या खाएगा, यह कोई दूसरा नहीं बल्कि खानेवाला मनुष्य ही तय करेगा, तो यह संविधान में शामिल मूल अधिकारों के भी खिलाफ है. प्रतिबंध लगानेवाली पार्टी खुद को राष्ट्रवादी कहती है और राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण किताब संविधान में दर्ज व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन करती है. विविधता से भरे इस देश में ऐसे प्रतिबंध लगाकर दूसरे धर्म, जातियों और संप्रदायों को अपमानित करने की कोशिश की जा रही है.
पिछले कुछ सालों में डेंगू के मामले तो बढ़े पर इससे होने वाली मृत्यु दर में गिरावट देखी गई. ऐसा कैसे संभव हो पाया?
जी बिल्कुल, ऐसा ही हुआ है. उन देशों में जहां इस रोग की घातक अवस्था के दौरान प्रभावी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, वहां डेंगू से होने वाली मृत्यु दर घटी है.
ये जानते हुए कि मृत्यु दर में गिरावट आ रही है, इसका टीका विकसित करना क्या वास्तव में महत्वपूर्ण है?
देखिए, मृत्यु दर में कमी लाने के लिए बेहतरीन चिकित्सकीय सुविधाओं की जरूरत होती है, जो तमाम विकासशील देशों में उपलब्ध नहीं है. इसलिए डेंगू पर प्रभावी तरीके से काबू पाने के लिए सस्ता, सुरक्षित और प्रभावी टीका विकसित करने की जरूरत और बढ़ जाती है. इस समय इसे बनाने को लेकर मेरा उत्साह चरम पर है.
ये रोग बहुत तेजी से फैलता है, ऐसे में ये टीका कितना असरकारक होगा?
जैसा मैंने पहले भी कहा कि एक सस्ते, सुरक्षित और प्रभावी टीके का विकास स्थितियों में बदलाव ला सकता है. डेंगू मच्छरों से फैलने वाला रोग है, जो पूरे विश्व में तेजी से फैल रहा है. पिछले 50 सालों में डेंगू के मामलों में 30 गुना से ज्यादा वृद्धि आई है. वर्तमान में दुनिया की आधी आबादी डेंगू के खतरे में जी रही है. एक अनुमान के अनुसार हर साल पूरे विश्व में डेंगू के लगभग 39 करोड़ संक्रमण देखे जाते हैं. इनमें से लगभग 10 करोड़ मामले बीमारी में तब्दील हो जाते हैं और तकरीबन 25 हजार इसकी वजह से दम तोड़ देते हैं. डेंगू के चार तरह के विषाणु अब भारत में भी पाए जाने लगे हैं. एक हालिया शोध के अनुसार भारत डेंगू का केंद्र बनता जा रहा है. यहां हर साल 2-4 करोड़ लोग डेंगू से संक्रमित होते हैं. यह वो संख्या है जो डेंगू संक्रमण के मामले में भारत को विश्व में शीर्ष पर पहुंचा देती है. हालांकि देश में रिपोर्ट हो रहे डेंगू मामलों की संख्या कम करके बताई जाती है. मच्छरों को नियंत्रित करने के सभी प्रयास विषाणु को फैलने से रोकने में विफल साबित हो रहे हैं. बरसात के मौसम के बाद दिल्ली सहित देश के सभी बड़े शहरों में डेंगू के मामले बड़ी संख्या में दर्ज किए गए हैं.
डेंगू के संक्रमण से होने वाला बुखार बढ़कर ‘हैमरेज बुखार’ (एक ऐसा बुखार जिसमें शरीर के कई अंग एक साथ प्रभावित होते हैं. साथ ही खून का प्रवाह करने वाली धमनियों को नुकसान पहुंचता है) और इसके बाद यह संक्रमण और भयानक रूप ले लेता है, जिसमें जान का खतरा बन जाता है. वर्तमान में इसके लिए कोई भी एंटी वायरल या टीका उपलब्ध नहीं है, जो भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बड़ी चुनौती है. सहयोगात्मक चिकित्सकीय देखभाल के अलावा इसका कोई विशिष्ट इलाज मौजूद नहीं है. ऐसे देश जो विकासशील हैं और जहां कमतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, वहां स्थितियां और खतरनाक हो जाती हैं. यही कारण है कि डेंगू के टीके की जरूरत और बढ़ जाती है.
इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी में डेंगू के टीके पर हो रहे शोध के बारे में बताइए?
इस टीके को विकसित करने में कई चुनौतियां हैं. मनुष्यों में डेंगू के चारों वायरस के प्रति होने वाली प्रमुख प्रतिरक्षा क्रॉस रिएक्टिव (प्रतिक्रियाशील) है जबकि इसे क्रॉस प्रोटेक्टिव (सुरक्षात्मक) होना चाहिए. डेंगू के ज्यादातर टीके उसके एक प्रकार के वायरस को निशाना बनाने के लिए बनाए जाते हैं. अब चूंकि डेंगू के चार प्रकार के वायरस हैं इस लिहाज से चार टीके तैयार कर इन्हें आपस में मिलाकर एक डेंगू रोधी टीके में बदल दिया जाता है. डेंगू के तमाम टीके विकास के क्रम है और जल्द ही डेंगू के खिलाफ पहली पीढ़ी का टीका हकीकत में बदल जाएगा. आईसीजीबीई की ओर से विकसित किया जा रहा टीका- सस्ता, सुरक्षित और प्रभावोत्पादक जैसे पैमाने पर खरा उतरते हुए इसे एक आदर्श टीका बनाता है.
डेंगू का टीका विकसित करने में भारतीय वैज्ञानिक किन-किन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं?
भारत में डेंगू का टीका विकसित करने के लिए सबसे पहले चिकित्सकीय परीक्षण के लिए जगह तलाशनी होती है. इसके बाद डेंगू से संबंधित आंकड़े विस्तारपूर्वक जमा करने होते हैं. ‘इंडो-यूएस वैक्सीन एक्शन प्रोग्राम’ और वेलकम ट्रस्ट ‘अफोर्डेबल हेल्थकेयर स्कीम’ डेंगू का टीका विकसित करने में मदद कर रहे हैं. बायोटेक्नोलॉजी विभाग की कोशिशों के जरिये भारतीय वैज्ञानिक विश्व के बड़े डेंगू जानकारों से लगातार मदद ले रहे हैं.
वर्तमान में भारत में चिकित्सकीय परीक्षणों की स्थिति आप जानते हैं, ऐसे में इस टीके को जनता तक पहुंचाने में किस तरह की कठिनाइयां आ सकती हैं?
देखिए, इस तरह के परीक्षणों के लिए एक तेज, फुर्तीला और ऊर्जा से भरा चिकित्सकीय तंत्र होना चाहिए. एक प्रभावी व्यवस्था बनाने के लिए इस क्षेत्र को मिलने वाला अनुदान भी कई गुना बढ़ाना होगा, ताकि प्रभावशाली बुनियादी संरचना विकसित की जा सके. भारत के कई बड़े संस्थान जैसे नई दिल्ली का एम्स, वेल्लोर का क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, पुणे का नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वायरलॉजी और नई दिल्ली को इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी हैं, जो डेंगू के विषाणु के संक्रमण का अध्ययन करने के लिए अमेरिका के एमोरी वैक्सीन सेंटर से जुड़े हैं. इस तरह के वैश्विक प्रयासों को अमेरिका के ही नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ से भी सहयोग मिल रहा है.
ये टीका कब तक बाजार में आ जाएगा?
डेंगू के खिलाफ विकसित हो रहे टीके की पहली पीढ़ी 1-2 साल में बाजार में आ जाएगी. अगर सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ तो अगले 5 सालों में इस टीके की अगली पीढ़ी भी बाजार में उपलब्ध हो सकती है.
एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी सनोफी पैस्टर अपना डेंगू रोधी टीका भारतीय बाजार में उतारने की योजना बना रही है. आपका इस पर क्या कहना है?
एक कठिन काम होने के बावजूद डेंगू के लिए सुरक्षित और सस्ता टीका विकसित करने के क्रम में समर्पित शोध प्रयासों के लिए हम सनोफी पैस्टर के शु्क्रगुजार हैं. यह डेंगू के टीके के विकासक्रम में सबसे आगे है और निकट भविष्य में इसकी पहली पीढ़ी उपलब्ध हो सकती है.
हालांकि इसके साथ ही इस टीके के संबंध में कुछ चिंता करने योग्य बातें भी हैं. जैसे- व्यक्तियों में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्या तीन खुराक, साल भर तक प्रतिरक्षा प्रदान करेगी, टाइप 2 के वायरस पर इसका कम प्रभाव, टीका लेने के 1-2 साल बाद पांच साल से कम उम्र के बच्चों की अस्पतालों में बढ़ती संख्या आदि. इसीलिए डब्लूएचओ और डेंगू के विशेषज्ञों का कहना है कि इसके साथ डेंगू वैक्सीन की अगली पीढ़ी विकसित करने का काम भी शुरू कर देना चाहिए.
आपके अनुसार आने वाले 5 सालों में विश्व और देश में डेंगू की क्या स्थिति होगी?
रोग नियंत्रित करने में मिली असफलता, अनियोजित शहरीकरण, ग्लोबल वार्मिंग, बेहिसाब बढ़ती आबादी, अंतर्राष्ट्रीय यात्राएं आदि डेंगू के फैलने के बड़े और वैश्विक कारण हैं. ये खुशी की बात है कि डेंगू नियंत्रण को लेकर जागरूकता बढ़ी है और कई सरकारी व निजी संस्थान शोध में पर्याप्त सहयोग दे रहे हैं. कई संस्थानों की ओर से तेज हो रहीं शोध की कोशिशें और टीके का विकास करने में प्रयासरत लोगों की संख्या में बढ़ोतरी से एक प्रभावशाली टीका जल्द ही उपलब्ध हो जाएगा. इसके लिए उन लोगों का शुक्रिया जो इन शोध प्रयासों से जुड़े हैं. बहरहाल, बायोटेक्नोलॉजी विभाग, ‘अफोर्डेबल हेल्थकेयर इंडिया स्कीम’ और दूसरे सहयोगियों की मदद से भारत भी जल्द ही अपना सस्ता, सुरक्षित और प्रभावशाली टीका बनाने में कामयाब हो सकता है.
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में हर साल एडीज मच्छरों से फैलने वाला डेंगू सैकड़ों जिंदगियां तबाह कर देता है. राजधानी दिल्ली के साथ भी हर साल ऐसा ही होता है. बीते सितंबर महीने में एक मासूम की डेंगू से मौत सिर्फ इस वजह से हो गई क्योंकि उसे समय रहते अस्पताल में भर्ती कराया न जा सका. यहां ध्यान देने लायक बात ये हैं कि अविनाश नाम के इस मासूम को भर्ती करने से पॉश इलाके दक्षिण दिल्ली के कई अस्पताल मना कर चुके थे. कुछ डॉक्टरों का दावा है कि अगर उसे समय से अस्पताल में भर्ती कर लिया जाता तो उसे बचाया जा सकता था. बहरहाल, यह अमानवीय घटना यही नहीं थमी. अविनाश की मौत के बाद उसके माता-पिता ने आत्महत्या कर ली. डेंगू की भेंट चढ़े इन लोगों ने राजधानी में हड़कंप मचा दिया और तब केंद्र और दिल्ली सरकार का ध्यान डेंगू से बचाव की तरफ गया. विभिन्न मोहल्लों में फॉगिंग का सिलसिला शुरू हुआ और शहर के तमाम बस स्टॉप, सार्वजनिक स्थान, रेलवे स्टेशन, मेट्रो स्टेशन और मेट्रो ट्रेनों को डेंगू के खिलाफ जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापनों से पाट दिया गया. हालांकि इस पूरी कवायद का कुछ खास असर होता नहीं दिख रहा, क्योंकि हर दिन डेंगू से मरने वाले लोगों की खबरें आने का सिलसिला अब तक थमा नहीं है. आखिर ऐसा क्यों है कि डेंगू से निपटने के 10 बड़े संस्थान होने के बावजूद भारत को डेंगू का केंद्र कहा जाने लगा हैै? अगर बीमारियों से जुड़ी कहावत ‘इलाज से बढ़कर है बचाव’ पर वाकई में गौर किया गया होता तो क्या अब तक इस महामारी से बचने के सार्थक तरीके इजाद नहीं होने चाहिए थे? ये कुछ सवाल हैं जिनका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं. हालांकि यहां सरकार को जवाब देना चाहिए कि उनके पास डेंगू से निपटने के उपायों का क्या ढांचा है? क्या सिर्फ चिकित्सकीय दिशा निर्देश इस रोग से लड़ने के लिए काफी हैं? क्यों देश के पास मलेरिया उन्मूलन अभियान की तरह डेंगू से लड़ने का कोई स्थायी इलाज या टीका नहीं है? देश में केंद्र सरकार की ओर से संचालित 10 ऐसे संस्थान हैं, जो महामारी-विज्ञान, चिकित्सकीय अध्ययन, रोग निदान, रोग नियंत्रण और टीका विकास शोध के कामों में लगे हैं. हर साल हजारों जिंदगियां बचाने के लिए इन संस्थानों को शोध के लिए करोड़ों रुपये जारी किए जाते हैं लेकिन अब तक डेंगू के इलाज के लिए कोई सार्थक उपाय नहीं खोजा जा सका है. जानकारी के लिए ‘तहलका’ ने जब स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के निदेशक डॉ. एसी धारीवाल से संपर्क किया तब उनका कहना था, ‘हमारा काम रोकथाम के तरीके खोजने व चिकित्सकीय प्रबंधन का है. क्या हम किसी चीज की उत्पत्ति रोक सकते हैं? मच्छरों के बारे में तो ऐसा संभव ही नहीं है. हमारा काम तो बस रोकथाम और रोग निदान करना है.’ जब ये पूछा गया कि क्या देश में डेंगू के टीके से संबंधित कोई शोध हो रहा है तो उन्होंने पलटकर सवाल करते हुए कहा, ‘क्या हम किसी ऐसे टीके के बारे में जानते हैं? कृपया आप ये सवाल इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च एंड बायोटेक्नोलॉजी विभाग से करें, ये हमारे विभाग के तहत नहीं आता.’ इसके बाद ‘तहलका’ ने एम्स के मेडिसिन विभाग में कार्यरत डॉ. आशुतोष बिस्वास से बात की. वह डेंगू के लिए चिकित्सकीय दिशा निर्देश तैयार करने वाले विशेषज्ञों में से एक हैं. उनका कहना था, ‘जहां तक मेरी जानकारी है, इस वक्त देश में डेंगू को लेकर ऐसा कोई विशेष शोध नहीं हो रहा है. इस समय जब डेंगू की मृत्यु दर घट रही है तो हमारा पूरा ध्यान रोग की पहचान करने और इलाज पर ही है. साथ ही मच्छरों की संख्या नियंत्रित करना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इनके प्रकोप को रोकने के लिए एक सख्त प्रक्रिया का होना बेहद जरूरी है.’ अपनी बात को पुख्ता करते हुए वो बीते सालों में डेंगू की वजह से घटे मृत्यु दर के आंकड़े बताते हैं. उनके अनुसार, 1996 में मृत्युदर 3.3 फीसदी थी जो 2010 में घटकर 0.4 प्रतिशत हुईं और 2013 में इसका प्रतिशत और घटकर 0.3 ही रह गया. हालांकि 2014 में डेंगू से 137 मौतें हुई थीं. इसके अलावा सरकार की ओर से पिछले महीने जारी आंकड़ों का सच माना जाए तो पता चलता है कि डेंगू के मामले में सिंतबर अब तक का सबसे खराब महीना साबित हुआ है. पिछले छह सालों में डेंगू के मामले किसी एक महीने में इतने नहीं आए जितने की एक से 26 सितंबर के बीच दर्ज किए गए हैं. इस छोटे से समय में डेंगू के 5,151 मामले दर्ज किए गए. वैश्विक स्तर पर बात करें, तो डेंगू के लिए कोई लाइसेंसशुदा दवाई या टीका उपलब्ध नहीं है. हालांकि सनोफी पैस्टर डेंगूरोधी टीका (सीवाईडी-टीडीवी/टेट्रावैलेंट डेंगू वैक्सीन) विकसित करने वाली बड़ी संस्थाओं में से एक है लेकिन इसे भारत में ‘फेज 3’ के दवा परीक्षण की अनुमति नहीं मिली है. ‘फेज 3’ के परीक्षण एक बड़ी आबादी पर किए जाते हैं. 2011-12 में पेंटावैलेंट टीके (बच्चों में पांच घातक रोगों- डिप्थीरिया, काली खांसी, टिटनेस, हेपेटाइटिस बी और हीमोफिलस एनफ्लूएंजा टाइप-बी के लिए दिया जाने वाला टीका) के परीक्षण के दौरान हुई मौतों के कारण सरकार को चिकित्सकीय परीक्षणों के लिए कठोर नियम बनाने पड़े थे. अब तक इस कंपनी ने लातिन अमेरिकी देशों जैसे ब्राजील, कोलंबिया, होंडुरास, मैक्सिको, प्यूूर्टो रिको में परीक्षण किए हैं. साथ ही थाईलैंड में इनका सर्वे भी किया गया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार इन लातिन अमेरिकी देशों और कुछ एशियाई देशों में किए गए परीक्षणों में घातक डेंगू के खिलाफ 95 प्रतिशत सफलता देखी गई है. हालांकि ये परिणाम डेंगू के कुछ गंभीर मामलों पर ही आधारित हैं. साथ ही अब तक ये भी पता नहीं चल सका है कि ये टीका देने के कितने समय तक व्यक्ति इस रोग से बचा रह सकता है? अब तक इस टीके के लंबे समय तक सुरक्षित असर के विषय में भी ज्यादा जानकारी नहीं है. ‘तहलका’ से बात करते हुए सनोफी की वरिष्ठ निदेशक संचार (दक्षिणी एशिया) और सार्वजनिक प्रशासन (सनोफी इंडिया) अपर्णा थॉमस बताती हैं, ‘भारत में डेंगू देशज यानी स्थानीय हो चुका है. देश के कई हिस्सों, जैसे दिल्ली को ही ले लीजिए, में एक निश्चित समय पर डेंगू के चारों प्रकार (डेन-1, डेन-2, डेन-3, डेन-4) पाए गए. हमने यहां के पांच शहरों, नई दिल्ली, लुधियाना, कोलकाता पुणे और बंगलुरु, में किए गए अपने परीक्षणों में काफी बड़े भौगोलिक क्षेत्र के लोगों को जांचा. परिणाम दिखाते हैं कि ये टीका सुरक्षित है और मानव शरीर भी इसे सकारात्मक रूप से स्वीकार कर रहे हैं, साथ ही ये हमारे वैश्विक डेंगू टीका विकास कार्यक्रम के अनुरूप भी है.’ भारत में परीक्षण के लिए कंपनी ने इन पांच केंद्रों से 18-45 की उम्र के 189 लोगों को चुना. परीक्षण के लिए दी गई खुराक उतनी ही थी, जितनी वैश्विक प्रभावोत्पादकता कार्यक्रम के ‘फेज 3’ में दी गई थी. भारत में ये परीक्षण 2012 से 2014 के बीच कराए गए. थॉमस बताती हैं, ‘भारत में हुए परीक्षणों के नतीजे दिखाते हैं कि टीके की तीन खुराक को शरीर अच्छी तरह सहन कर ले रहा है, ये सुरक्षित है और शरीर में डेंगू के चारों प्रकारों के खिलाफ एंटीबाॅडी (प्रतिरक्षी) भी बना रही है. इस परीक्षण में घातक डेंगू का कोई मामला नहीं देखा गया, न कोई मृत्यु या न ही इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव. जैसा मैंने पहले भी कहा कि ये नतीजे हमारे वैश्विक डेंगू टीका विकास कार्यक्रम जैसे ही हैं.’ टीका बनाने में आने वाली चुनौतियों के बारे में वे बताती हैं, ‘ये टीका अपने विकासक्रम में आज जहां पहुंचा है, इसे वहां तक पहुंचाने में टीम ने कई मुश्किलें पार की हैं. सबसे पहले तो परीक्षण करने के लिए कोई भी जानवर उपलब्ध नहीं है, जिसमें डेंगू के लक्षण पाए जाते हों. यह मनुष्यों को होने वाली बीमारी है. दूसरा, सनोफी पैस्टर को इसके प्रभाव जानने के लिए बहुत बड़े स्तर पर अध्ययन करना पड़ा क्योंकि दूसरी बीमारियों के बिलकुल उलट डेंगू से सुरक्षा के लिए बहुत ज्यादा अध्ययन सामग्री मौजूद ही नहीं हैं. इसके अलावा बढ़ते हुए बाजारों में चिकित्सकीय जांच करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है. जैसे हमें ये ध्यान रखना होता ही कि जिस क्षेत्र में हम इसका अध्ययन कर रहे हैं वहां इस तरह के काफी मामले हों, ताकि परीक्षण के लिए पर्याप्त और निश्चित मात्रा में नमूने जमा किए जा सकें. परीक्षण करने वाले जांचकर्ता अनुभवी हों और जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप निर्धारित नियमों के तहत काम करने में सक्षम हो. साथ ही ये भी ध्यान रखें कि इस जांच में भाग लेने वालों का लगातार अध्ययन भी किया जाए जिससे यदि उनमें किसी भी तरह का बुखार या बीमारी देखी जाए तो समय पर उसका पता लगाया जा सके.’ न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार, सनोफी द्वारा थाईलैंड में किया गया अध्ययन दिखाता है कि नौ साल और उससे ऊपर की उम्र तक की एक निश्चित आबादी का टीकाकरण करने से डेंगू से पीड़ित होकर अस्पताल में भर्ती होने वालों की संख्या में गिरावट आई है. फिर भी नौ साल से कम उम्र के बच्चों पर इस टीके के प्रभाव को समझने के लिए अब भी काफी कुछ जानना बाकी है. इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिक नवीन खन्ना का कहना है, ‘देश को डेंगू रोधी टीका विकसित करने में अभी पांच साल और लगेंगे, क्योंकि इसके लिए काफी खर्च की जरूरत है.’ [ilink url=”https://tehelkahindi.com/dengue-vaccine-might-be-ready-in-five-years-says-scientist-naveen-khanna/” style=”tick”]पढ़ें नवीन खन्ना का पूरा साक्षात्कार [/ilink]
फोटो : विजय पांडेय
वहीं, दूसरी तरफ भारत-यूनाइटेड किंगडम के आपसी सहयोग पर आधारित औद्योगिक अनुसंधान और विकास कार्यक्रम के तहत ऑक्सीटेक लिमिटेड नाम की ब्रिटिश कंपनी ‘सस्टेनेबल डेंगू प्रिवेंशन प्रोजेक्ट’ के तहत स्थायी रूप से डेंगू का निराकरण करने के लिए काम कर रही है. इस अध्ययन के तहत यह देखा जा रहा है कि मच्छरों में आनुवांशिक बदलाव करके किस प्रकार से डेंगू को रोका जा सकता है. कंपनी ने तकरीबन नौ करोड़ मच्छरों में आनुवांशिक बदलाव करके बाहर छोड़ा है, ताकि पर्यावरण और मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जा सके. कंपनी अब तक अपनी प्रयोगशाला में मच्छरों की लगभग 150 पीढ़ियों का अध्ययन कर चुकी है. दिलचस्प बात ये है कि इस प्रयोग में 90 प्रतिशत सफलता मिली है. इस शोध के मायने इसलिए और बढ़ जाते हैं क्योंकि मच्छरों ने आनुवांशिक उत्परिवर्तन (म्युटेशन) के चलते कीटनाशकों के हिसाब से खुद को ढाल लिया है यानी कीटनाशकों का इन पर असर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. बहरहाल अंतर्राष्ट्रीय टीकों के प्रति सरकार का रवैया उदासीन है. उचित आंकड़ों की कमी भी चिंता का एक विषय है. अमेरिका की ब्रांडेस यूनिवर्सिटी के डोनाल्ड शेपर्ड के अक्टूबर 2014 में जारी शोध पत्र के अनुसार, पूरे विश्व में सिर्फ भारत में ही डेंगू का प्रकोप सबसे अधिक है. यहां हर साल 55 लाख भारतीयों को डेंगू होता है, जो कि सरकारी आंकड़ों से 282 गुना ज्यादा है. डोनाल्ड ने तीन साल तमिलनाडु में डेंगू के मामलों का अध्ययन किया और 18 राज्यों से आंकड़े इकट्ठा किए हैं. आंकड़ों में आया हुआ ये फर्क डेंगू की पहचान के लिए होने वाले दो तरह के परीक्षणों के कारण है. एनएस-1 टेस्ट, जिसे डाॅक्टरों और मरीजों की ओर से बहुतायत में प्रयोग किया जाता है, को इन आंकड़ों में नहीं गिना गया है. आधिकारिक उद्देश्य से सिर्फ प्रयोगशाला में हुए परीक्षणों का ही आंकड़ा दर्ज किया जाता है. इस पर राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के निदेशक डॉ. एसी धारीवाल कहते हैं, ‘आंकड़ों में थोड़ा-बहुत फर्क हो सकता है पर ज्यादा नहीं.’ वर्तमान में डब्लूएचओ का उद्देश्य डेंगू की मृत्यु दर को 50 फीसदी और अस्वस्थता दर को 25 फीसदी तक घटाना है और कहने की जरूरत नहीं है कि इन आंकड़ों में भारत का एक महत्वपूर्ण स्थान है. 2012 में दक्षिण एशिया क्षेत्र में डेंगू के लगभग दो लाख नब्बे हजार मामले दर्ज हुए थे, जिसमें करीब 20 प्रतिशत भागीदारी भारत की थी. आज की तारीख में, जब हर साल डेंगू के मामले बढ़ रहे हों, तब ये चिंता का विषय है. 2010 में डेंगू के 20 हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए, जो बढ़कर 2012 में 50 हजार और 2013 में 75 हजार हो गए. राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2014 मेंे 40 हजार केस दर्ज हुए हैं. देश की खराब स्वास्थ्य सेवाओं और उस से भी खराब डॉक्टर-मरीज अनुपात को देखते हुए इस संख्या को नीचे ले आना भी एक बड़ा काम है. देश में प्रति 1800 मरीजों पर एक डॉक्टर है. भारत में डब्लूएचओ की प्रतिनिधि डॉ. नता मेनाब्दे ने ‘नेशनल गाइडलाइन्स फॉर क्लीनिकल मैनेजमेंट ऑफ डेंगू फीवर 2014’ में साफ बताया है कि कैसे हम सार्वजानिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में डेंगू से निपटने में असफल होते जा रहे हैं. वो कहती हैं, ‘1 से 10 मार्च तक नई दिल्ली में वेक्टर जनित रोगों (मलेरिया, डेंगू, लसीका फाइलेरिया, कालाजार, जापानी इंसेफलाइटिस और चिकनगुनिया) पर एक जॉइंट मॉनिटरिंग मिशन संचालित किया गया था, जिसमें रोग को पहचान पाने और प्रबंधन में डॉक्टर की अक्षमता साफ दिखाई देती है. इस गाइडलाइन में यह अनुशंसा भी की गई कि स्वास्थ्य कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जाए विशेषकर वहां जहां रोग की स्थिति घातक हो चुकी हो. इस मिशन में ये भी कहा गया कि पहले और दूसरे चरण पर प्रबंधन और गंभीर रोगियों पर वरीयता के आधार पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही नाजुक हालत में परामर्श की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए. कोई संदेह की बात नहीं है कि यहां जोर जन स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार पर है पर स्वास्थ्य बजट के कम हो जाने के कारण ये बहुत दुष्कर हो गया है. अब तक सरकार अपने चिकित्सकीय दिशा निर्देशों पर ही काम कर रही है. डेंगू का सबसे भयंकर प्रकोप 1996 में हुआ था, सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरे देश में डेंगू के 16,517 मामले दर्ज हुए थे, जिसमें दिल्ली से अधिकतम 10,252 मामले थे. मरने वालों की संख्या 545 थी. इनमें से 423 मौतें अकेले दिल्ली में हुई थीं. ऐसी स्थिति 2006 में भी आई थी, जहां 12 हजार रोगी थे और 184 लोगों की मृत्यु हुई. उस समय जो बात सरकार के लिए मददगार साबित हुई, वो थी रोग का चिकित्सकीय प्रबंधन. डेंगू पहले बुखार, फिर हैमरेज और आघात के रूप में शुरू होता है और इनकी तीव्रता के हिसाब से ही स्थिति विशेष में चिकित्सकीय मदद दी जाती है.
फोटो : एएफपी
विडंबना यह है कि 2008 तक देश में इस बीमारी के प्रबंधन की राह इतनी आसान नहीं थी. भारत में उस समय डेंगू बुखार और डेंगू हैमरेज बुखार के लिए डब्लूएचओ के दक्षिण एशियाई क्षेत्र के निर्धारित दिशा निर्देशों का अनुपालन हो रहा था, जिसमें 2011 में संशोधन किए गए. इसी तरह 2009 में डब्लूएचओ ने रोगों के अनुसंधान और प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए जारी किए गए दिशानिर्देशों के साथ डेंगू और घातक डेंगू की पहचान, प्रकार और प्रबंधन के लिए भी नए निर्देश जारी किए थे. हालांकि इन दोनों दिशा निर्देशों में साम्य न होने के कारण इनका कोई फायदा नहीं हुआ. किसी भी रोग का सही वर्गीकरण (प्रकार) मालूम करना बहुत ही जरूरी है क्योंकि किसी भी रोग से से होने वाली मृत्यु का कारण उसकी विकट अवस्था की पहचान न हो पाना है. अगर एक बार डेंगू की तीव्रता का पता चल जाता है तो सरकारी और निजी अस्पताल दोनों द्वारा दी गई स्वास्थ्य सेवाएं लाभदायक साबित होती हैं. हालांकि स्वास्थ्य विशेषज्ञों की एक टीम ने डब्लूएचओ की 2011 और 2009 के दिशा निर्देशों को जोड़ते हुए डेंगू बुखार के चिकित्सकीय प्रबंधन के लिए नए राष्ट्रीय दिशा निर्देश बनाए हैं. पर ऐसा लगता है कि रोकथाम के तरीके और डॉक्टरी मदद सिर्फ कागजों तक ही सीमित है.
‘कॉल मी कैटलिन’ (मुझे कैटलिन बुलाएं), उसने कहा और पूरी दुनिया भड़क उठी. यह प्रसिद्ध पत्रिका ‘वैनिटी फेयर’ के जुलाई 2015 के कवर पर लिखा वाक्य था, जो हाल ही में ऑपरेशन के जरिये पुरुष से महिला में तब्दील हुए प्रसिद्द अमेरिकी एथलीट और अभिनेता ब्रूस जेनर (अब कैटलिन जेनर) के बारे में था. गौरतलब है कि ब्रूस अमेरिका के प्रसिद्ध करदशियां परिवार से भी ताल्लुक रखते हैं. ब्रूस ने तीन शादियां की थीं. तीसरी शादी उन्होंने अभिनेत्री क्रिस करदशियां से की, जिससे उनकी दो बेटियां मॉडल- कैंडल और कायली जेनर हैं. क्रिस करदशियांं की पहली शादी से तीन बेटियां- कर्टनी, किम और कोह्ल करदशियां हैं. इस तरह से ब्रूस उनके सौतेले पिता हैं. बहरहाल पत्रिका के इस कवर ने ट्रांसजेंडरों के मुद्दे को मीडिया विमर्श के केंद्र में ला दिया है.
ट्रांसजेंडर हमारे समाज का एक बहिष्कृत अंग समझे जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उनको बेइज्जती और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. अगर आपको लगता है कि ऐसे माहौल में जीना मुश्किल है, जहां महिलाओं को शर्मिंदा किया जाता है, रोने वाले पुरुषों का मजाक बनाया जाता है, तो हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है जहां से इसकी शुरुआत होती है, जहां हम पैदा होते ही लड़के और लड़कियों को क्रमशः नीले और गुलाबी रंग के कोड में बांट देते हैं. सोचिए ऐसे वर्गीकृत समाज में उनकी क्या दशा होती होगी जो समाज के बनाए पैमाने पर फिट ही नहीं बैठते.
इस बारे में देश की पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’
सीबीएसई की 12वीं की जीव विज्ञान की किताब के तीसरे पाठ का शीर्षक ‘मानव प्रजनन’ है, जिसमें बताया गया है कि मानव जाति किस तरह प्रजनन करती है और कैसे पुरुष और नारी के जननांग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. इसी शारीरिक अंतर के कारण लिंग दो भागों यानी स्त्री और पुरुष में बांटे गए हैं.
हालांकि हर व्यक्ति का लिंग उसके जन्म के समय निर्धारित हो चुका होता है पर ये जरूरी नहीं कि वही लिंग ही उसकी पहचान हो. बस इन दोनों बातों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाना ही हमारे देश में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को हाशिये पर धकेल देता है. इस साल 15 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए इस सोच के दायरे से आगे निकलने की कोशिश की. तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद थिरु तिरुची सिवा की राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल (2014) की प्रस्तावनाओं को संज्ञान में लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को सभी ट्रांस-पीपुल को कानूनी पहचान देने का आदेश दिया. जहां एक तरफ इस निर्णय को एक उपेक्षित तबके को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास के रूप में सराहना मिली, वहीं इस फैसले को पूरे देश के ट्रांस पुरुषों और ट्रांस महिलाओं की आलोचना भी झेलनी पड़ी.
पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’
इस फैसले की भाषा पर सवाल उठाते हुए ट्रांस-मेन और सामाजिक कार्यकर्ता जी. इमान सेम्मलर कहते हैं, ‘कोर्ट ने सभी किन्नरों को ‘थर्ड जेंडर’ कहा है. कोर्ट ने कहा है कि वे महिला नहीं हैं क्योंकि उनके पास प्रजनन अंग नहीं हैं, उन्हें मासिक स्राव नहीं होता और वे ‘बधिया पुरुष’ हैं.’
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय में ट्रांसजेंडर समुदाय के उत्थान के लिए बनाई गई कई नीतियां दोधारी तलवार के जैसी हैं. जी. सेम्मलर आगे बताते हैं, ‘2010 में कर्नाटक सरकार ने इस समुदाय को लाभावित करने के लिए आदेश जारी किए थे जिन्हें अब अन्य पिछड़ा वर्ग की 2ए श्रेणी में जोड़ दिया गया है. हम अब तक इसके लागू होने की राह देख रहे हैं जबकि ऐसी अफवाहें रही हैं कि समुदाय के लिए जो काम कराए जाएंगे, उसके अधिकार एनजीओ को देकर उन्हें फायदा पहुंचाया जाएगा. अप्रैल 2011 में, कर्नाटक सरकार ने, पूर्व कानून सचिव और कर्नाटक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के पूर्व उपाध्यक्ष केआर चमय्या के आदेश के अनुसार स्टेट पुलिस एक्ट में सेक्शन 36 लाकर कुछ संशोधन किए गए थे. इस सेक्शन का उद्देश्य किन्नरों द्वारा की जाने वाली आपत्तिजनक गतिविधियों की रोकथाम था. इसके अनुसार पुलिस को उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले ऐसे सभी किन्नरों का रिकॉर्ड रखना था जिन पर छोटे लड़कों को अपहृत करने या अप्राकृतिक अपराध करने का शक हो. ये क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट का हिस्सा है जिसका देश में अब भी पालन हो रहा है जबकि हम सुप्रीम कोर्ट के ट्रांस-पीपुल को पहचान देने के अधिकार की खुशी मना रहे हैं.’
दशकों तक समाज से बहिष्कृत रहे इस समुदाय को पहली बार हैदराबाद यूनक एक्ट में ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित किया गया था. ये एक्ट 1871 के एक पुराने और क्रूर क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट पर आधारित है, जिसमें कुछ विशेष जाति और जनजातियों को शामिल किया गया है, जिन्हें जन्म से ही अपराधी माना जाता है. इसके तहत सभी हिजड़ों, जो बच्चों के अपहरण या उन्हें बधिया बनाने या फिर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के तहत किए गए किसी अपराध के लिए शक के दायरे में हों, के नाम और पते दर्ज करने के बारे में कहा गया है. इसी के अनुसार देश के ट्रांसजेंडर लोगों को अपराधी मान लिया गया और एक नागरिक के बतौर उन्हें मिलने वाले मूल अधिकारों को भी छीन लिया गया. किसी भी पहचान पत्र या कानूनी कागज के न होने की स्थिति में देश में इस समुदाय के लोग स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार के अवसरों से वंचित और मुख्यधारा से कटे हुए हैं. ऐसे में इतने लंबे समय की पीड़ा के बाद ट्रांसजेंडरों को कानूनी पहचान देने की बात मरहम की तरह लगती है.
विजयंती वसंत मोगली
एक व्यक्ति ‘एस’ दक्षिणी दिल्ली के एक सुनसान इलाके में अपना छोटा सा व्यापार करते हैं. अपने ग्राहकों से वे बहुत ही अच्छी तरह से पेश आते हैं. उनके इस रवैये के बावजूद उनकी दुकान में आने वाले पुरुषों का उनके स्त्रैण व्यवहार पर ताने मारना बंद नहीं होता. वह कहते हैं, ‘बचपन से ही मेरी सारी दोस्त लड़कियां ही थीं, मुझे उनकी तरह तैयार होना भी बहुत अच्छा लगता था. पर अब ऐसा संभव नहीं है. ऐसा करूंगा तो लोग मुझसे पूछेंगे कि क्या मैं छक्का हूं.’ वे खुद को पुरुष ही कहते हैं और विवाहित भी हैं.
बॉलीवुड की फिल्मों में प्रचलित ‘छक्का’, ‘पोट्टई’ (तमिल भाषा का एक अपमानजनक शब्द, जिसका अर्थ न स्त्री न पुरुष होता है), ‘अली’ (ट्रांसजेंडर से संबंधित एक तमिल शब्द) जैसे शब्दों ने भी ट्रांस लोगों के प्रति भेदभाव को और बढ़ाया है. ये सिर्फ आम लोगों की बात नहीं है बल्कि मीडिया कर्मचारी और सुप्रीम कोर्ट भी इनके लिए इस तरह की भाषा और शब्द प्रयोग करने के प्रति संवेदनहीन ही रहे हैं. इस तरह के भेदभावों के चलते ही कई ट्रांसजेंडर अपनी असली पहचान नहीं बताते. तेलंगाना हिजड़ा ट्रांसजेंडर समिति की सदस्य विजयंती वसंत मोगली अपने अनुभव बताती हैं, ‘मुझे ये काफी पहले पता लग गया था कि मेरा झुकाव हेट्रोसेक्सुअल (विपरीत लिंगी) नहीं है. मैंने अपने माता-पिता से कह दिया था कि मैं किसी लड़की से शादी नहीं कर पाऊंगी. उस समय मुझे लगा था कि मैं एक समलैंगिक पुरुष हूं जिसका व्यवहार, चाल-ढाल औरतों की तरह है. पर जब मैंने समलैंगिक पुरुषों के साथ रहना, उठना-बैठना शुरू किया तब भी मैं असहज ही थी. ये पूरी तरह आदमियों की दुनिया थी और मैं उनकी तरफ आकर्षित भी थी, पर तब भी मुझे महिलाओं के साथ ज्यादा अच्छा लगता था, तो क्या मैं एक हिजड़ा थी? क्या मेरे घरवाले और दोस्त इस बात को समझेंगे? मैं खुद से ही सवाल करती कि मैं हिजड़ा हूं! नहीं… नहीं… ऐसा तो नहीं हो सकता! इसी पसोपेश में मैंने हिजड़ों के साथ में काफी वक्त बिताया और तब मुझे पता चला कि मैं हिजड़ा नहीं बल्कि ट्रांस-वुमन हूं. इतनी उलझनों के बाद ये समझ पाना सूखे रेगिस्तान में ठंडी हवा के मिलने जैसा था.’
विजयंती वसंत मोगली सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं. उनका नाम ‘विजय’ था. स्कूल के दिनों में ही अलग तरह का व्यक्तित्व हाेने के नाते उनके साथ पढ़ने वाले उन्हें परेशान किया करते थे. उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता था. उनके अनुसार, ‘उस समय मुझे लगा था कि मैं एक समलैंगिक पुरुष हूं जिसका व्यवहार, चाल-ढाल औरतों की तरह है. पर जब मैंने समलैंगिक पुरुषों के साथ उठना-बैठना शुरू किया तब भी मैं असहज ही थी. ये पूरी तरह आदमियों की दुनिया थी और मैं उनकी तरफ आकर्षित भी थी, पर तब भी मुझे महिलाओं के साथ ज्यादा अच्छा लगता था.’
भारत में ट्रांस महिलाओं के लिए कई समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में हिजड़ा, कोठी, किन्नर, अरवानी आदि पुकारा जाता है. जहां कई ट्रांस महिलाओं को विजयंती की तरह परिवार और दोस्तों का साथ मिलता है वहीं तमाम दूसरे लोगों के लिए ये इतना आसान नहीं होता. ऐसी ट्रांस महिलाओं को ये ट्रांसजेंडर समुदाय अपना लेते हैं. डांसर और कोरियोग्राफर सौंदर्या बताती हैं, ‘मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैंने उन्हें शर्मिंदा किया है और अगर मैं घर पर रही तो वे मर जाएंगे. 12 साल की उम्र में मुझे घर से निकाल दिया गया. मैं 12 दिन तक सड़कों पर रही, खुद को बारिश से बचाने के लिए रिक्शा स्टैंड पर सोती. जब मैं उम्मीद के साथ फिर घर पहुंची, किसी ने मुझसे नहीं पूछा कि मैं कहां, किस हाल में रही. मेरे पिता ने मुझे मारा और घर से निकल जाने को कहा.’
सौंदर्या के पास कोई जगह नहीं थी जहां वो जा सकती थीं. वे एक भीख मांगने वाले रैकेट में फंसीं. वहां से किसी तरह भागने में सफल रहीं. हालांकि बाद में रैकेट चलाने वालों ने उन्हें पकड़ लिया और खूब मारा. खून से लथपथ सौंदर्या को वे सड़क पर छोड़कर चले गए. 2009 में वे ट्रांसजेंडर अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक्टिविस्ट, अभिनेत्री और व्यवसायी कल्कि सुब्रहमण्यम से मिलीं, और जीवन में पहली बार अपनी पहचान के बारे में कुछ सकारात्मक सुना. कल्कि ने उन्हें समझाया, ‘तुम्हे जीने के लिए भीख मांगने या सेक्स वर्कर बनने की जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे लिए कुछ और ढूंढ लेंगे.’
कल्कि सुब्रह्मण्यम
जहां एक तरफ समाज में ट्रांस-महिलाएं आसानी से देखी जा सकती हैं, वहीं ट्रांस-पुरुष उतनी आसानी से नहीं दिखते. चूंकि ट्रांस-महिलाओं की तरह उनका कोई सामजिक या राजनीतिक संगठन नहीं बन पाता इसलिए समाज में बिखरे हुए इन लोगों को कई बार ट्रांसजेंडर की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता. फरवरी 2015 में दक्षिणी दिल्ली के एक नामी कॉलेज कैंपस में एक डीजे पार्टी चल रही थी. लोग संगीत की धुन पर थिरक ही रहे थे कि अचानक नशे में दो लड़के महिला हॉस्टल की एक रहवासी से झगड़ा और मारपीट करने लगे. पार्टी अचानक ही खत्म हो गई और हॉस्टल के रहवासियों ने एक मीटिंग बुलवाई. खुद को ट्रांस-पुरुष कहने वाले ‘एसके’, जो इस मीटिंग को संबोधित कर रहे थे, बताते हैं, ‘मैं और मेरी एक दोस्त साथ में डांस कर रहे थे जब दो लड़कों ने मेरी दोस्त को परेशान करना शुरू कर दिया, मैंने बीच-बचाव किया तो उन्होंने मुझ पर ही हमला कर दिया. मैं शारीरिक रूप से मजबूत हूं इसलिए मैंने भी पलटवार किया. आप सोच भी नहीं सकते कि अगर मेरी जगह कोई लड़की होती तो क्या हुआ होता.’ जब उन लड़कों को सफाई देने के लिए बुलाया गया तो वे माफी मांगते हुए बोले, ‘हमें लगा तुम पुरुष ही हो.’
कल्कि सुब्रहमण्यम सामाजिक कार्यकर्ता और अभिनेत्री हैं. कल्कि के परिवारवालों को उनका अलग तरह का व्यक्तित्व स्वीकार नहीं था. उनके अभिभावक उन्हें पुरुष हार्मोन बढ़ाने की गोलियां खिलाया करते थे.
दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए कर रहे ‘एन’ उदासी से अपने दोस्तों को मस्ती करते देखते हैं. वह कहते हैं, ‘मैंने अब तक अपने परिवार को नहीं बताया है कि मैं ट्रांस-मैन हूं, मुझे नहीं पता कि कब मैं उन्हें ये कहने की हिम्मत जुटा पाऊंगा. वो सिर्फ इतना चाहते हैं कि मुझे अच्छी नौकरी मिल जाए. मैं इसके लिए मेहनत करने को तैयार हूं. एक बार मैं उनकी इच्छाएं पूरी कर लूं फिर मैं उतना पैसा कमाना चाहता हूं, जिससे मैं अपनी सर्जरी करवा सकूं.’
ऐसी सर्जरी, जो किसी ट्रांसजेंडर को उसके मनचाहे जेंडर के शरीर में बदल दे, इसे सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) के नाम से जाना जाता है. यह विवाद का भी विषय है. विवाद ये है कि सरकार ये समझ ही नहीं पाती कि जेंडर व्यक्ति की शारीरिक संरचना नहीं बल्कि रुचि पर निर्भर करता है. विजयंती बताती हैं, ‘हाल ही में पश्चिम बंगाल के गजेट ऑफिस में किसी भी व्यक्ति को ट्रांसजेंडर घोषित करने से पहले उसका एसआरएस प्रमाण पत्र अनिवार्य कर दिया. पर ऐसे लोग भी हैं जो किसी भी जेंडर के होने के बावजूद अपने शरीर/शारीरिक पहचान से संतुष्ट हैं, उन्हें सर्जरी की जरूरत नहीं लगती.’
राइट्स फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल ट्रांस-लोगों के लिए एक कानूनी संगठन ‘नेशनल कमीशन फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स’ बनाने की बात कहता है, लेकिन राष्ट्रीय महिला आयोग, जहां सिर्फ महिला सदस्य हैं, के बिलकुल उलट नेशनल कमीशन फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स के सात सदस्यों में से सिर्फ तीन ट्रांसजेंडर सदस्य रखने का प्रावधान किया गया हैं. अध्यक्ष को मिलाकर बाकी चार सदस्य ट्रांसजेंडर नहीं हैं. इस स्पष्ट भेदभाव को जानते हुए भी अब तक किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई है कि ट्रांसजेंडरों को भी महिलाओं के समान अधिकार मिलने चाहिए.
इसके उलट देश के समलैंगिकों का ट्रांसजेंडरों के अधिकारों के प्रति दूसरा ही नजरिया है. समलैंगिक अधिकारों पर लिखने वाली पत्रकार शाम्भवी सक्सेना समलैंगिक के रूप में अपने अनुभवों के बारे में भी लिख चुकी हैं, वे बताती हैं, ‘एक आम आदमी ‘क्वीर (समलैंगिक) प्राइड परेड’ को गे परेड ही समझता है, उसे बाकी ट्रांसजेंडर के बारे में कुछ पता ही नहीं है. ये साफ बताता है कि कौन अपनी इस पहचान का फायदा उठा रहा है. पूरे विश्व में ‘गे’, ‘लेस्बियन’ की तुलना में कहीं ज्यादा संगठित हैं, तो ऐसे में इन दोनों के मुकाबले में ट्रांसजेंडर कहीं हाशिये पर ही चले गए हैं. भारत के समलैंगिक आंदोलनों में तो जाति और वर्ग की दीवार भी है. ऐसे ट्रांस लोग जो प्रभावहीन या साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं, उनका इस आंदोलन में नामोनिशान तक नहीं है. ये सिर्फ अमीरों का अभियान बन कर रह गया है. इन प्राइड परेडों में आने वाले लोगों पर नजर डालिए, साफ लगता है कि ये वो लोग हैं, जो गे होने में समर्थ हैं यानी गे होना अफोर्ड कर सकते हैं. मेरे ख्याल से गे और लेस्बियन दोनों ही समान रूप से ट्रांस और इंटरसेक्स (जिनमें महिला-पुरुष दोनों के जननांग और प्रजनन अंग होते हैं) लोगों की ‘जैविक रूप से असाधारण व्यक्ति’ वाली पहचान बनाने के जिम्मेदार हैं.’
नाटक कलर ऑफ ट्रांस 2.0
ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल में ट्रांस-पीपुल को निजी क्षेत्र में दो प्रतिशत रोजगार देने का प्रावधान रखा गया है. कई मल्टीनेशनल कंपनियां जैसे गूगल, आईबीएम और फेसबुक ‘एलजीबीटी’ फ्रेंडली होने की बात कहती हैं पर वो सिर्फ गे और लेस्बियन के बारे में ही परवाह करती हैं. विजयंती सवाल उठाती हैं, ‘एलजीबीटी फ्रेंडली से उनका क्या अर्थ है? ज्यादातर कंपनियां एलजीबीटी में से सिर्फ गे और लेस्बियन लोगों को ही नौकरी देती हैं. यहां ट्रांसजेंडरों के अधिकार सुरक्षित करने की जरूरत है क्योंकि उनकी पहचान गे और लेस्बियन के विपरीत साफ दिखाई देती है. गे या लेस्बियन का देखकर पता नहीं लगता, वे किसी भी आम इंसान की तरह ही दिखते हैं जब तक कि वे खुद इस बारे में न बताएं. ट्रांसजेंडरों के साथ ऐसा नहीं होता.’ लेस्बियन-गे-बाईसेक्सुअल की लड़ाई उनकी यौन रुचि और झुकाव की बात करती है, जबकि ट्रांसजेंडरों का अभियान उनकी पहचान के लिए है. परिणामस्वरूप, बाहर निकल कर अपनी असली पहचान बताने का ये अभियान इस तरह के भेदभाव के चलते ट्रांसजेंडरों के लिए महत्वहीन हो जाता है. जी. इमान सेम्मलर का कहना है, ‘एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल-ट्रांसजेंडर को जब संक्षिप्त रूप में लिखते हैं तो जो क्रम आता है उसे ही देख लीजिए. ट्रांसजेंडर सबसे पीछे हैं और इंटरसेक्स तो इसमें जगह तक नहीं बना सके.
पिछले दिनों अमेरिका के बोस्टन में भारत के पन्मई थियेटर ग्रुप के प्ले ‘कलर ऑफ ट्रांस 2.0’ को दर्शकों की ओर से काफी प्रशंसा मिली. ट्रांस-वुमन अभिनेत्री स्माइली विद्या, एंजेल ग्लेडिस और ट्रांस-मेन जी सेम्मलर द्वारा अभिनीत ये नाटक भारत में ट्रांसजेंडरों के संघर्ष को दिखाता है. इस संघर्ष में स्वयं के अलावा उनका साथ देने वाला कोई नहीं है. शायद इसीलिए ये लोग खुद को ट्रांसजेंडर नहीं बल्कि ट्रांस-वॉरियर (योद्धा) कहते हैं.
सरकार, कानून और प्रतिद्वंद्वियों (महिलाएं और समलैंगिक अधिकारों के कार्यकर्ता) के बार-बार अड़चन डालने के बावजूद देश में ये ट्रांस आंदोलन चल रहा है. सेम्मलर कहते हैं, ‘मैं एक ट्रांस-मैन हूं. मैं अपने समुदाय के साथ रहता हूं, उनके साथ काम करता हूं, उन्हें प्यार करता हूं. मुझे लगता है कि हमारे समुदाय के बारे में परवाह करने वाले स्वयं हम ही हैं और हमें अपनी आजादी के लिए लगातार प्रयास करते रहना होगा क्योंकि जब हम संघर्षों की बात करते हैं तब एकजुट होने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. मेरा मानना है जिस दिन सड़क किनारे रहने वाले ट्रांसजेंडर वर्ग के लोग, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बिलकुल हाशिये पर हैं, अपनी पहचान, अपनी आजादी पा लेंगे, उसी दिन बदलाव आ जाएगा.
किन्नर समाज की स्थिति में पहले की अपेक्षा थोड़ा सुधार हुआ है. किन्नर समाज की अब तक की यात्रा काफी संघर्षपूर्ण रही है. पहले तो सरकारों ने उनके अस्तित्व को ही नकार दिया था. अब जाकर उन्हें देश का नागरिक मानते हुए वोट डालने का अधिकार दिया गया है. पिछले कुछ सालों में इस समाज की स्थिति में काफी सकारात्मक परिवर्तन हुआ है, लेकिन अब भी दिल्ली बहुत दूर है.
आज किन्नर समाज किन चुनौतियों से जूझ रहा है?
देखिए, सबसे बड़ी समस्या ये है कि लोग किन्नरों को इंसान के तौर पर स्वीकार नहीं करते हैं. शासन से लेकर प्रशासन तक इस बात को आज तक स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि किन्नर इसी समाज के अंग हैं. समाज को सबसे पहले किन्नरों के अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ेगा. उन्हें ये समझना पड़ेगा कि किन्नरों की उत्पत्ति भी पुरुष-स्त्री के योग से हुई है, वो कहीं आकाश से नहीं टपके हैं. उसके बाद फिर उनकी स्थिति को लेकर बात होगी. सोचिए, यह अमानवीयता की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है कि सरकार के पास पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक, विकलांग आदि हर वर्ग, जाति और धर्म के लोगों के विकास हेतु कार्यक्रम हैं, लेकिन भारतीय समाज में हाशिये पर रहने वाले वर्ग के लिए न तो कोई योजना है और न ही ऐसा कुछ करने की उनके मन में कोई इच्छा. किसी को किन्नरों से मतलब नहीं है. वो कैसे जीते हैं और कैसे अपना गुजारा करते हैं. इस देश में चोर-लुटेरों को लोन मिल जाएगा लेकिन किन्नर को नहीं मिलता. भले ही वह किन्नर लोन तय समय पर जमा करने की क्षमता रखता हो, लेकिन बैंक अधिकारी उन्हें भगा देते हैं. इसे क्या कहेंगे आप. सर्वप्रथम मानसिकता में बदलाव होना जरूरी है.
आप राजनीति में कैसे और क्यों आईं?
देखिए, बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के स्थिति में बदलाव होना संभव नहीं है. मैंने अपने समाज को करीब से देखा है. अपने वर्ग की पीड़ा ने मुझे राजनीति में कूदने पर मजबूर किया. इसके अलावा लोगों का धीरे-धीरे राजनेताओं पर से विश्वास उठता जा रहा है. मैंने यह महसूस किया कि अगर मैं चुनाव में खड़ी हुई तो लोगों का समर्थन मुझे मिलेगा. मेरा अनुमान सच हुआ और लोगों ने मुझे विधायक बना दिया. लोग आज के नेताओं से त्रस्त हो चुके हैं. पूरी राजनीति परिवारवाद और स्वार्थ केंद्रित हो गई है. ऐसे में जब कोई किन्नर सामने आता है, जिसके बारे में लोगों को अच्छी तरह पता है कि न तो उसका कोई परिवार है और न ही कोई और स्वार्थ इसीलिए उसके भ्रष्ट होने की संभावना न्यूनतम है.
विधायकी का अनुभव कैसा रहा?
ठीक.
मतलब क्या कुछ खास अच्छा नहीं रहा?
कई चीजें हैं. सबसे पहली बात तो ये कि मुझे जनता का अपार स्नेह मिला. लेकिन पार्टियों से मेरी नाराजगी है. उन्होंने कभी सहयोग नहीं किया. करेंगे भी कैसे कांग्रेस का काम किन्नरों का इस्तेमाल करना है और भाजपा का उनका अपमान करना.
साथी विधायकों का व्यवहार कैसा रहा?
एक किन्नर की जीत को पचा पाने की मर्दानगी बहुत कम लोगों में होती है. बड़ी संख्या में सदन और उसके बाहर ऐसे लोग थे जो एक अलग भावना से मुझे देखते थे. साथी विधायकों का जो सर्मथन मुझे मिलना चहिए था वो मुझे नहीं मिला. वो इस बात को समझ नहीं पाए कि जनता ने जिस तरह उन्हें सदन में भेजा है वैसे ही मुझे भी चुनकर वहां पहुंचाया है और शासन करने की क्षमता का लिंग से क्या संबंध है. अगर हमारा दिमाग तुमसे बेहतर सोच सकता है तो फिर हम क्यों राजनीति न करें? कुछ लोग मेरे विधायक बनने से कितना नाराज थे, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने मुझ पर दो बार जानलेवा हमला तक कराया.
मेरी बात अभी आपको भले ही अतिश्योक्ति लगे लेकिन देखिएगा अगर नेताओं ने अपना चाल चलन ऐसा ही रखा तो एक दिन इस देश में किन्नर राज करेगा
आज किन्नरों के बीच से एक ऐसा समुदाय उभर रहा है जो पारंपरिक काम छोड़कर मुख्यधारा के काम कर रहा है. इस बदलाव को किस रूप में देखती हैं?
आज किन्नर समाज अपनी पहचान को दोबारा परिभाषित करने की कोशिश कर रहा है. वो अपनी पुरानी छवि से बाहर आना चाहता है. कुछ करना चाहता है. मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है. यह एक सकारात्मक परिवर्तन है. हालांकि यह धीरे-धीरे ही होगा लेकिन एक सुखद और ऐतिहासिक शुरुआत हो चुकी है. सबसे बड़ी बात इसमें ये है कि समाज भी धीमी गति से ही सही लेकिन इस बदलाव में किन्नरों का सहयोग कर रहा है.
आप देश की पहली किन्नर विधायक रही हैं. कैसा लगता है?
अच्छा लगता है कि मैंने बदलाव की दिशा में जो कदम रखा उस तरफ बड़ी संख्या में किन्नर जा रहे हैं. मध्य प्रदेश तो किन्नर सशक्तिकरण के गढ़ के रूप में उभर रहा है.
किन्नरों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने और उनकी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए?
देखिए, सरकार से मुझे कोई बड़ी उम्मीद नहीं है. सरकार ने आज तक किया क्या है. जब मैं विधायक थी उस दौरान केंद्र सरकार को हमने एक ज्ञापन दिया था, जिसमें हमने समाज से जुड़ी हुई विभिन्न मांगों को तत्कालीन सरकार के सामने रखा था लेकिन आज तक उन लोगों का जवाब नहीं आया. सरकार किन्नर समाज को लेकर जरा भी संवेदनशील नहीं है. सरकार के पास क्या पैसे की कमी है. किन्नर समाज को छोड़िए आम जनता इन सरकारों से नाराज बैठी है. चुनाव में जनता के सामने गिड़गिड़ा कर वोट मांगते हैं और जब जनता वोट देकर जिता देती है तो शेर बन जाते हैं. हम लोगों पर ताना कसते हुए कहते हैं कि अब किन्नर शासन चलाएंगे. हम उन से पूछते हैं कि तुम कौन-सा शासन चला रहे हो. लोगों को मूर्ख बनाने के सिवा और क्या कर रहे हैं ये आजकल के नेता. मेरी बात अभी आपको भले ही अतिश्योक्ति लगे लेकिन देखिएगा अगर नेताओं ने अपना चाल चलन ऐसा ही रखा तो एक दिन इस देश में किन्नर राज करेगा.