बार बालाओं का अपना पेशा चुनने के अधिकार का ध्यान रखते हुए महाराष्ट्र में सुप्रीम कोर्ट ने डांस बारों पर लगी पाबंदी को रद्द कर दिया है और महाराष्ट्र सरकार को बार मालिकों को लाइसेंस देने का आदेश दिया है. शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार द्वारा 2014 में महाराष्ट्र पुलिस एक्ट में किए गए संशोधन को गलत माना और कहा कि 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए ये संशोधन किया गया था. हालांकि महाराष्ट्र सरकार की तरफ से दलील दी गई कि दोनों प्रस्ताव भिन्न थे और 2014 का संशोधन सही था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये दलील खारिज कर दी. अंतरिम आदेश की जरूरत को रेखांकित करते हुए बेंच ने कहा, ‘मुंबई पुलिस एक्ट की धारा 33ए (1) के प्रावधानों पर रोक सही है.
क्यों बंद किए गए थे डांस बार?
22 जुलाई 2005 को महाराष्ट्र विधानसभा ने बाॅम्बे पुलिस (संशोधन) बिल को मंजूरी दी जिसके तहत बॉम्बे पुलिस एक्ट में संशोधन करके बीयर बार और रेस्टोरेंट में नाच-गाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. 15 अगस्त 2005 को राज्य के सभी डांस बारों को बंद कर दिया गया. दलील दी गई थी कि ये डांस बार अंडरवर्ल्ड और असामाजिक तत्वों के अड्डे बन गए हैं, राज्य के नौजवान इनके चलते गलत प्रवत्तियों में पड़ रहे हैं. बैन को होटल और रेस्टोरेंट एसोसिएशन (एएचएआर), डांस बार ओनर्स एसोसिएशन और भारतीय बार गर्ल यूनियन ने बाॅम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी. हाईकोर्ट ने संशोधन को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था. राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.
फैसले का क्या होगा असर?
अप्रैल 2005 तक अकेले मुंबई में ही करीब 700 डांस बार थे. हालांकि आधिकारिक संख्या 307 थी, जबकि शेष महाराष्ट्र में 650 डांस बार थे. इन बारों में करीब डेढ़ लाख लोग काम करते थे. जिनमें से 75 हजार बार बालाएं थीं. इनमें से तमाम ने रोजगार की तलाश में दूसरे देशों में ठिकाना बना लिया था. इस फैसले के बाद उन्हें देश में फिर से काम करने का मौका मिल जाएगा. हालांकि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि राज्य सरकार फैसले के खिलाफ अपील करेगी.
आज संसार में दो प्रकार की विचारधाराएं प्रचलित हैं. एक विचारधारा जगत को शहरों में बांटना चाहती है और दूसरी उसे गांवों में बांटना चाहती है. गांवों की सभ्यता और शहरों की सभ्यता दोनों एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं. शहरों की सभ्यता यंत्रों पर और उद्योगीकरण पर निर्भर करती है और गांवों की सभ्यता हाथ-उद्योगों पर निर्भर करती है. हमने दूसरी सभ्यता को पसंद किया है.
आखिर में, तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इस उद्योगीकरण और बड़े पैमाने पर माल उत्पन्न करने की पद्धति का जन्म कुछ ही समय पहले हुआ है. हम यह तो नहीं जानते कि इन चीजों ने हमारे सुख को कहां तक बढ़ाया है लेकिन इतना हम जरूर जानते हैं कि उन्होंने इस जमाने के विश्वयुद्धों को जन्म दिया है. दूसरे विश्वयुद्ध का अभी अंत भी नहीं हुआ है; और अगर उसका अंत आ भी जाए तो हम तीसरे विश्वयुद्ध की बाते सुन रहे हैं. हमारा देश आज जितना दुखी है उतना पहले कभी नहीं था. शहर के लोगों को अच्छा मुनाफा और अच्छी तनख्वाहें मिलती होंगी लेकिन यह सब गांवों का खून चूसकर उन्हें खोखला बना देने से ही संभव हुआ है. हम लाखों और करोड़ों की संपत्ति इकट्ठी नहीं करना चाहते. हम अपने काम के लिए हमेशा पैसे पर निर्भर नहीं रहना चाहते. अगर हम अपने ध्येय के लिए प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार हों तो फिर पैसे का कोई महत्व नहीं रह जाता. हमें अपने काम में श्रद्धा रखनी चाहिए और अपने प्रति सच्चे रहना चाहिए. अगर हममें ये दो गुण हों तो हम अपनी 30 लाख रुपये की पूंजी को इस तरह गांवों में फैला सकेंगे कि उससे 300 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय संपत्ति पैदा हो जाए. यह मुख्य ध्येय सिद्ध करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने गांवों को स्वयंपूर्ण और आत्मनिर्भर बना दें लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि स्वयंपूर्णता का मेरा विचार संकुचित नहीं है. मेरी स्वयंपूर्णता में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है.
भारत के शहरों में जो धन दिखाई देता है, उससे हमें धोखे में नहीं पड़ना चाहिए. वह धन इंग्लैंड या अमेरिका से नहीं आता. वह देश के गरीब से गरीब लोगों के खून से आता है. कहा जाता है कि भारत में सात लाख गांव हैं. उनमें से कुछ गांव तो इस धरती पर से बिलकुल मिट चुके हैं. बंगाल, कर्नाटक और देश के अन्य भागों में जो हजारों आदमी भुखमरी और रोगों के कारण मृत्यु के शिकार हो गए हैं, उनका कोई लेखा किसी के पास नहीं है. सरकारी रजिस्टर इस बात की कोई कल्पना हमें नहीं करा सकते कि हमारे ग्रामवासी आज किन मुसीबतों मे से गुजर रहे हैं. लेकिन मैं खुद गांव में रहता हूं इसलिए मैं गांवों की दुर्दशा को जानता हूं. मैं गांव के अर्थशास्त्र को जानता हूं. मैं आपसे कहता हूं कि ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का बोझ नीचे के लोगों को कुचल रहा है. आज जरूरत इस बात की है कि ऊपर के लोग नीचे दबने वाले लोगों की पीठ पर से उतर जाएं.
बम्बई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गए हैं. जो स्त्रियां उनमें काम करती हैं, उनकी हालत को देखकर कोई भी कांप उठेगा. जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे स्त्रियां भूखों नहीं मरती थीं. मशीनों की यह हवा अगर ज्यादा चली तो हिन्दुुस्तान की दुर्दशा होगी. मेरी बात कुछ मुश्किल मालूम होती होगी लेकिन मुझे कहना चाहिए कि हम हिन्दुुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैन्चेस्टर को अधिक रुपये भेजकर उसका सड़ा कपड़ा इस्तेमाल करें. क्योंकि उसका कपड़ा इस्तेमाल करने से सिर्फ हमारे पैसे ही जाएंगे. हिन्दुुस्तान में अगर हम मैन्चेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिन्दुुस्तान में ही रहेगा लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा, क्योंकि वह हमारी नीति को बिलकुल खत्म कर देगा. जो लोग मिलों में काम करते हैं उनकी नीति कैसी है, यह उन्हीं से पूछा जाए. उनमें से जिन्होंने रुपये जमा किए हैं, उनकी नीति दूसरे पैसे वालों से अच्छी नहीं हो सकती. अमेरिका के रॉकफेलरों से हिंदुस्तान के रॉकफेलर कुछ कम हैं, ऐसा मानना निरा अज्ञान है. गरीब हिंदुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा लेकिन अनीति से पैसे वाला बना हुआ हिंदुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा.
मुझे तो लगता है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी राज्य को यहां टिकाये रखने वाले ये धनवान लोग ही हैं. ऐसी स्थिति में उनका स्वार्थ सधेगा. पैसा आदमी को दीन बना देता है. ऐसी दूसरी वस्तु दुनिया में विषय भोग है. ये दोनों विषय विषमय है. उनका डंक सांप के डंक से भी बुरा है. जब सांप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता है. जब पैसा या विषय काटता है तो वह देह, ज्ञान, मन सब कुछ ले लेता है, तो भी हमारा छुटकारा नहीं होता. इसलिए हमारे देश में मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है.
विदेशी नौकरशाही और देश के रहने वाले शहरी लोग गांव के गरीबों का शोषण करते हैं. गांव वाले अन्न पैदा करते हैं और खुद भूखों मरते हैं. वे दूध पैदा करते हैं और उनके बच्चों को दूध की एक बूंद भी मयस्सर नहीं होती. यह कितना शर्मनाक है. हर एक को पौष्टिक भोजन, रहने के लिए उम्दा मकान, बच्चों की शिक्षा के लिए हर तरह की सुविधा और दवा दारू की मदद मिलनी चाहिए. आज के मुट्ठीभर शहर भारत के अनावश्यक अंग हैं और केवल देहातों का जीवन रक्त चूसने के मलिन हेतु के लिए ही है… अपने उद्धततापूर्ण अन्यायों और अत्याचारों के कारण गांवों के जीवन और स्वतंत्रता के लिए हमेशा खतरा बने रहते हैं. सारी दुनिया में युद्ध के लिए शहरी लोग ही जिम्मेदार हैं, देहाती हरगिज नहीं.
मेरी निगाह में शहरों की वृद्धि एक बुरी चीज है. यह मनुष्य जाति का और दुनिया का दुर्भाग्य है, इंग्लैंड का दुर्भाग्य है और हिंदुस्तान का दुर्भाग्य तो है ही, क्योंकि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को उसके शहरों द्वारा ही चूसा है. शहरों ने गांवों को चूसा है. गांव का खून वह सीमेंट है, जिससे शहरों की बड़ी बड़ी इमारतें बनी हैं. मैं चाहता हूं कि जिस खून ने आज शहरों की नाड़ियों को फुला रखा है, वह फिर से गांवों की नाड़ियों में बहने लगे.
शहर भारत की जनसंख्या पर उठे हुए फोड़े-फुंसी हैं और अगर आप किसी डॉक्टर से पूछेंगे, तो वह आपको फोड़े का इलाज यही बतायेगा कि उसे चीरकर अथवा पलस्तर और पुल्टिस बांधकर अच्छा करना होगा. एडवर्ड कारपेंटर ने सभ्यता को एक रोग कहा है, जिसका इलाज होना चाहिए. बहुत बड़े-बड़े शहरों का होना इस रोग का एक लक्षण मात्र है; कुदरती उपचार में मानने वाले के नाते मैं तो यही कहूंगा कि प्रचलित व्यवस्था को पूरी तरह शुद्ध किया जाए और इस तरह कुदरती तौर पर उसका इलाज हो. अगर शहरवालों के दिल में गांव जमे रहे और वे गांव की दृष्टि अपना लें तो बाकी चीजें सब अपने आप ही हो जाएंगी और फोड़ा जल्दी ही बैठ जाएगा. मेरा विश्वास रहा है और मैंने इस बात को असंख्य बार दोहराया है कि भारत अपने कुछ शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसा हुआ है लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांवों का निर्माण शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए ही हुआ है. हमने कभी यह सोचने की तकलीफ ही नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न और शरीर ढकने जितना कपड़ा मिलता है या नहीं और धूप तथा वर्षा से बचने के लिए उनके सिर पर छप्पर है या नहीं.
मैंने पाया है कि शहरवासियों ने आमतौर पर ग्रामवासियों का शोषण किया है. सच तो यह है कि वे गरीब ग्रामवासियों की ही मेहनत पर जीते हैं. भारत के निवासियों की हालत पर कई ब्रिटिश अधिकारियों ने बहुत कुछ लिखा है. जहां तक मैं जानता हूं, किसी ने यह नहीं कहा है कि भारतीय ग्रामवासियों को भरपेट अन्न मिलता है. उल्टे, उन्होंने यह स्वीकार किया है कि अधिकांश आबादी लगभग भुखमरी की हालत में रहती है, दस प्रतिशत अधभूखी रहती है और लाखों लोग चुटकीभर नमक और मिर्च के साथ मशीन का पालिश किया हुआ निःसत्व चावल या रूखा सूखा अनाज खाकर अपना गुजारा चलाते हैं.
आप विश्वास कीजिए यदि वैसे भोजन पर हम लोगों में से किसी को रहने के लिए कहा जाए, तो हम एक माह से ज्यादा जीने की आशा नहीं कर सकते, या फिर हमें यह डर रहेगा कि ऐसा भोजन खाने से कहीं हमारी दिमागी शक्तियां नष्ट न हो जाएं. लेकिन हमारे ग्रामवासियों को तो इस हालत में से रोज-रोज गुजरना पड़ता है.
हमारी आबादी का पचहत्तर प्रतिशत से अधिक भाग कृषिजीवी है लेकिन यदि हम उनसे उनकी मेहतन का सारा फल खुद छीन लें या दूसरों को छीन लेने दें, तो यह नहीं कहा जा सकता है हममें स्वराज्य की भावना काफी मात्रा में है.
शहर अपनी रक्षा आप कर सकते हैं. हमें तो अपना ध्यान गांवों की ओर लगाना चाहिए. हमें गांवों को उनकी संकुचित दृष्टि, उनके पूर्वग्रहों और वहमों आदि से मुक्त करना है और यह सब करने का इसके सिवा कोई तरीका नहीं है कि हम उनके साथ, उनके बीच में रहें, उनके सुख-दुख में हिस्सा लें और उनमें शिक्षा तथा उपयोगी ज्ञान का प्रचार करें.
हमें आदर्श ग्रामवासी बनना है, ऐसे ग्रामवासी नहीं जिन्हें सफाई की या तो कोई समझ ही नहीं है और है तो बहुत विचित्र प्रकार की, और जो इस का बात का कोई विचार ही नहीं करते कि वे क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं. उनमें से ज्यादातर लोग किसी भी तरह का खाना पका लेते हैं, किसी भी तरह का खा लेते हैं और किसी भी तरह से रह बस लेते हैं. वैसे हमें नहीं करना है. हमें चाहिए कि हम उन्हें आदर्श आहार बताएं. आहार के चुनाव में हमें अपनी रुचियों और अरुचियों का विचार नहीं करना चाहिए, बल्कि खाद्य पदार्थों के पोषक तत्वों पर ही नजर रखनी चाहिए.
जिनकी पीठ पर जलता हुआ सूरज अपनी किरणों के तीर बरसाता है और उस हालत में भी जो कठिन परिश्रम करते रहते हैं, उन ग्रामवासियों से हमें एकता साधनी है. हमें सोचना है कि जिस पोखर में वे नहाते हैं और अपने कपड़े तथा बरतन धोते हैं और जिसमें उनके पशु लोटते और पानी पीते हैं, उसी में यदि उनकी तरह पीने का पानी लेना पड़े तो हमें कैसा लगेगा. तभी हम उस जनता का ठीक प्रतिनिधित्व कर सकेंगे और तब वह हमारे कहने पर जरूर ध्यान देगी. हमें ग्रामवासियों को बताना है कि वे अपने साग भाजियां अधिक पैसा खर्च किए बिना खुद उगा सकते हैं और अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं. हमें उन्हे यह भी सिखाना है कि पत्ता भाजियों को वे जिस तरह पकाते हैं, उससे अधिकांश विटामिन नष्ट हो जाते हैं.
हमें उन्हें यह सिखाना है कि वे समय, स्वास्थ्य और पैसे की बचत कैसे कर सकते हैं. लिओनेल कार्टिस ने हमारे गांवों का वर्णन करते हुए उन्हें घूरे के ढेर कहा है. हमें उन्हें आदर्श गांवों में बदलना है. हमारे ग्रामवासियों को शुद्ध हवा नहीं मिलती यद्यपि वे शुद्ध हवा से घिरे हुए रहते हैं, उन्हें ताजा अन्न नहीं मिलता. यद्यपि उनके चारों ओर ताजे से ताजा अन्न होता है. इस अन्न के मामले में मैं मिशनरी की तरह इसलिए बोलता हूं कि मैं गांवों को सुंदर और दर्शनीय वस्तु बना देने की आकांक्षा रखता हूं.
क्या भारत के गांव हमेशा वैसे ही थे जैसे वे आज हैं, इस प्रश्न की छानबीन करने से कोई लाभ नहीं होगा. अगर वे कभी भी इससे अच्छे नहीं थे तो इससे हमारी पुरानी सभ्यता का, जिस पर हम इतना अभिमान करते हैं, एक बड़ा दोष प्रकट होता है, लेकिन यदि वे कभी अच्छे नहीं थे तो सदियों से चली आ रही नाश की क्रिया को, जो हम अपने आसपास आज भी देख रहे हैं, वे कैसे सह सके? हर एक देशप्रेमी के सामने आज जो काम है वह यह है कि इस नाश की क्रिया को कैसे रोका जाए या दूसरे शब्दों में भारत के गांवों का पुनर्निर्माण कैसे किया जाए, ताकि किसी के लिए भी उनमें रहना उतना ही आसान हो जाए जिनता आसान शहरों में रहना माना जाता है.
सचमुच हर एक देशभक्त के सामने आज यही काम है. संभव है कि ग्रामवासियों का पुनरुद्धार अशक्य हो और यही सच हो कि ग्राम सभ्यता के दिन अब बीत गए हैं और सात लाख गांवों की जगह अब केवल सात सौ सुव्यस्थित शहर ही रहेंगे और उनमें 30 करोड़ आदमी नहीं केवल तीन ही करोड़ आदमी रहेंगे. अगर भारत के भाग्य में यही लिखा हो तो भी यह स्थिति एक दिन में तो नहीं आएगी. आखिर गांवों और ग्रामवासियों की इतनी बड़ी संख्या के मिटने में और जो बचे रहेंगे उनका शहरों और शहरवासियों में परिवर्तन करने में समय तो लगेगा ही.
ग्राम सुधार आंदोलन में केवल ग्रामवासियों के ही शिक्षण की बात नहीं है. शहरवासियों को भी उससे उतना ही शिक्षण लेना है. इस काम को उठाने के लिए शहरों से जो कार्यकर्ता आएं, उन्हें ग्राम मानस का विकास करना है और ग्रामवासियों की तरह रहने की कला सीखनी है. इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्हें ग्रामवासियों की तरह भूखे मरना है, लेकिन इसका यह अर्थ जरूर है कि जीवन की उनकी पुरानी पद्धति में आमूल परिवर्तन होना चाहिए.
इसका एक ही उपाय है, हम जाकर उनके बीच बैठ जाएं और उनके आश्रयदाताओं की तरह नहीं बल्कि उनके सेवकों की तरह दृढ़ निष्ठा से उनकी सेवा करें. हम उनके भंगी बन जाएं और उनके स्वास्थ्य की रक्षा करने वाले परिचारक बन जाएं. हमें अपने सारे पूर्वग्रह भुला देने चाहिए.
एक क्षण के लिए हम स्वराज्य को भी भूल जाएं और अमीरों की बात तो भूल ही जाएं, यद्यपि उनका होना हमें हर कदम पर खटकता है. वे तो अपनी जगह हैं ही. दूसरे कई लोग हैं जो इन बड़े सवालों को सुलझाने में लगे हुए हैं. हमें तो गांवों के सुधार के इस छोटे काम में लग जाना चाहिए, जो आज भी जरूरी है और तब भी जरूरी होगा जब हम अपना उद्देश्य प्राप्त कर चुकेंगे. सच तो यह है कि ग्रामकार्य की यह सफलता स्वयं हमें अपने उद्देश्य के निकट ले जाएगी.
गांवों और शहरों के बीच स्वस्थ और नीतियुक्त संबंध का निर्माण तभी होगा जब शहरों को अपने इस कर्तव्य ज्ञान हो जाए कि उन्हें गांवों और अपने स्वार्थ के लिए शोषण करने के बजाय गांवों से जो शक्ति और पोषण वे प्राप्त करते हैं उसका पर्याप्त बदला गांवों को देना चाहिए. और यदि समाज के पुनर्निर्माण के इस महान और उदात्त कार्य में शहर के बालकों को अपना हिस्सा अदा करना है, तो जिस उद्योगों के द्वारा उन्हें शिक्षा दी जाती है. वे गांवों की जरूरतों से सीधे संबंधित होने चाहिए.
हमें ग्रामीण सभ्यता विरासत में मिली है. हमारे देश की विशालता, उसकी विराट जनसंख्या, उसकी भौगोलिक स्थिति तथा उसका जलवायु सबको देखते हुए लगता है कि ग्रामीण सभ्यता ही उसके भाग्य में लिखी है. उसके दोषों को सब कोई अच्छी तरह जानते हैं, परंतु एक भी दोष ऐसा नहीं है जो दूर न किया जा सके. ग्रामीण सभ्यता का नाश करके उसके स्थान पर शहरी सभ्यता को बैठाना मुझे असंभव मालूम होता है. यह तभी संभव हो सकता है कि जब हम किसी तीव्र उपाय से अपनी जनसंख्या को 30 करोड़ से घटाकर 30 लाख अथवा कम से कम 3 करोड़ तक ले जाने को तैयार हों. इसलिए मैं इस बात को स्वीकार करके ही कोई उपाय सुझा सकता हूं कि हमें वर्तमान ग्रामीण सभ्यता को जीवित रखना है और उसके माने हुए हुए दोषों को दूर करने का प्रयत्न करना है.
दुनिया के सभ्य देशों में नास्तिक, ब्लॉगर और मुक्त चिंतन करने वाले लोगों को न सिर्फ सम्मान दिया जाता है, बल्कि उनके कामों को सराहा भी जाता है. इनमें से कई जाने-माने चेहरे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के साथ अपने जैसा बनने के लिए भी प्रेरित करते हैं लेकिन यही सच दुनिया के उन हिस्सों पर लागू नहीं होता, जो अपने पूरे व्यवहार में सभ्य नहीं कहे जा सकते. इन हिस्सों नास्तिक, ब्लॉगर और मुक्त चिंतन करने वाले लोगों को ही असभ्य समझा जाता है. उनके लिए हर व्यक्ति जो मुक्त चिंतक और प्रगतिशील है, वह नास्तिक ही होता है. ये लोग यहीं नहीं रुकते बल्कि एक कदम आगे बढ़कर यह मानते हैं कि नास्तिक कुछ और नहीं बल्कि मौत के हकदार हैं.
ऐसे में इन नृशंस लोगों को सही राह दिखाने के लिए ज्ञान का कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए? आज से तीस साल पहले मैंने लोगों को मजबूत और जागरूक बनाने की आशा के साथ कलम उठाई थी लेकिन आज मैं देखती हूं कि अनपढ़ लोगों की संख्या पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है. अकेले मेरी कलम एक पूरे देश को ज्ञान नहीं दे सकती. अगर ज्यादा से ज्यादा लेखक इस बारे में लिखते, ज्यादा से ज्यादा नेता बोलते और सरकार अति सक्रिय होकर असभ्य को सभ्य बनाने के लिए जरूरी कदम उठाती तो एक स्वतंत्र सोच देश को उन्नति की राह पर ले जाने में मदद कर सकती थी. बांग्लादेश को आजाद हुए सालों बीत चुके हैं. देश को आजादी की तरफ कौन-सी परिस्थितियां ले गईं और आज ये देश कहां खड़ा है? ये कुछ सवाल हैं जो इस समय जेहन में उठ रहे हैं.
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनके बेटे सजीब वाजेद जॉय घोषणा कर चुके हैं कि नास्तिक लोगों को सार्वजनिक रूप से उनका सहयोग नहीं मिलेगा लेकिन नास्तिक देश के नागरिक बने रहेंगे. सजीब प्रधानमंत्री के सूचना और संचार तकनीक सलाहकार भी हैं. अब यहां एक सवाल पैदा होता है कि फिर देश की मदद किसे मिलेगी? इसका एक आसान-सा जवाब है, मदद उन ही लोगों को मिलेगी जो ऊपरवाले से डरते हैं.
इन बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वास्तव में ‘नास्तिक’ शब्द ने कब से घृणा फैलाना शुरू किया? अचानक से सारे लोग ये चाहने लगे कि नास्तिकों से एक खास दूरी बनाकर रखी जाए. सरकार, जिस पर अपने सभी नागरिकों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की जिम्मेदारी होती है, जिसे धर्म, जाति, लिंग, भाषा और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव से अलग रहना था, वह भी पक्षपात और पूर्वाग्रह की शिकार हो गई.
सरकार प्रताड़ित तर्कवादी अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी नहीं होगी, यहां तक कि जब उन्हें मूर्खतापूर्वक मारा जाता है, तब भी नहीं. न तो सरकार इसे अपराध मानेगी और न ही गुनहगारों को न्याय के कठघरे में खड़ा करेगी. इसके उलट शेख हसीना देश में दूसरी वजहों से हो रही हत्याओं के बारे में काफी कुछ बोलती हैं. ऐसे में वे नास्तिक होने के नाम पर हो रही हत्याओं के बारे में कैसे चुप्पी साधे रख सकती हैं? इससे एक बात साफ हो जाती है कि वे सार्वजनिक तौर पर नास्तिकों के साथ नहीं आना चाहतीं. ऐसा इसलिए क्योंकि इससे उन्हें धार्मिक लोगों की बहुत बड़ी संख्या से वोटों का नुकसान उठाना पड़ा सकता है.
बांग्लादेश में सही मायने में लोकतंत्र नहीं है. सच्चे लोकतंत्र का कोई धर्म नहीं होता, जबकि बांग्लादेश का है. देश के संविधान से जब तक ‘धर्म’ शब्द खत्म नहीं हो जाता, जब तक ‘नास्तिक’ और ‘आस्थाहीन’ शब्द, ‘आस्तिक’ और ‘आस्थावान’ शब्द की तरह जायज नहीं ठहराए जाते, तब तक बांग्लादेश सही मायनों में लोकतांत्रिक देश नहीं बन सकता.
इस देश में ‘नास्तिक’ शब्द को गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. यही हाल ‘मुक्त चिंतक’ शब्द का भी है. देश के लिए सबसे खराब बात यह है कि तर्कवादियों को नास्तिक के रूप में देखा जा रहा है, जिससे वे बहुसंख्यक लोगों में घृणा की वजह बनते जा रहे हैं.
विज्ञान और धर्म के बीच टकराव बहुत पहले से है. हालांकि इसमें विज्ञान की जीत निश्चित होती है. ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि विज्ञान ही सत्य है. सच को झूठ की जमीन में दफनाया नहीं जा सकता है. देश में प्रगतिशील, संभावनाशील और मानवतावादी युवाओं की निर्ममतापूर्ण हत्या ऐसे देश के निर्माण में बाधा है जो धर्मांधता और नृशंसता से मुक्त हो. इस उद्देश्य के लिए यहां मानवतावादियों का रहना जरूरी है. इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता.
लोग अब भी अवामी लीग को ही इकलौती धर्मनिरपेक्ष पार्टी मानते हैं और इसमें विश्वास करते हैं. लोगों का मानना यह भी है कि यही पार्टी इस्लाम समर्थक दलों की प्रतिकारक (खत्म या विरोध करने वाली) है. जबकि जमीनी सच्चाई इससे कहीं जुदा है. ऐसी अफवाह है कि अवामी लीग के नेता हिफाजत-ए-इस्लाम के अमीर शफी की कृपा पाने के लिए नियमित रूप से चिटगांव जाते हैं. यहां तक कि नए मेयर भी वहां आशीर्वाद लेने जा चुके हैं. इसलिए अवामी लीग और इस्लाम समर्थक बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) तथा जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं है.
आजकल जब कभी भी मैं अपने देश के बारे में सोचती हूं मुझे एक तरह की निराशा जकड़ लेती है. जब तक लोग चुपचाप तमाशा देखते रहेंगे, तब तक यहां की राजनीतिक पार्टियां देश को इस्लामिक चरमपंथ और आतंकवाद की राह पर ही ले जाएंगी. निश्चित रूप से सब इन स्थितियों को नाकामयाबी के तौर पर नहीं देखते. लेकिन जिस तरह से यहां धर्मांधता बढ़ रही है, उससे तो यह लगने लगा है कि बांग्लादेश ‘दार-उल-इस्लाम’ (इस्लाम की धरती) में तब्दील हो जाएगा.
विज्ञान समर्थक, धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी, जो देश में बड़े पैमाने पर फैली अराजकता के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, उन्हें चुप कराने के लिए एक अच्छी और सुनियोजित चाल चली गई है. इन नृशंस हत्याओं को अंजाम देने वालों को कभी सजा नहीं मिल पाएगी. धर्म के सौदागर नेताओं के लिए ये हमेशा अपने बने रहेंगे. ये धार्मिक नेता वही हैं, जो इस देश को उन्मादियों, असहिष्णु, कायर, मूर्ख हत्यारों और बलात्कारियों से भर देने का सपना देख रहे हैं.
एक समय था जब पूरी दुनिया में बांग्लादेश ‘सालाना बाढ़ के देश’ के रूप में जाना जाता था लेकिन अब इसे ऐसे देश के रूप में जाना जाता है, जहां तर्कशील और मुक्त चिंतकों को हर महीने मार दिया जाता है. पहली पहचान प्राकृतिक देन थी, जबकि दूसरी यहां के लोगों द्वारा बनाई गई है. यह नई पहचान पहली की अपेक्षा ज्यादा खतरनाक है. अगर देश में धार्मिक उन्माद भड़काकर वोट पाने के दुस्साहस को रोका नहीं गया तो यहां की सड़कें दूसरे होनहार युवाओं के खून से फिर से रंग जाएंगी.
एक समय था जब शेख मुजीबुर्रहमान की ओर उठाए गए कदम ने पाकिस्तानी सेना के हाथों देश को कटने से बचा लिया था लेकिन आज मुजीबुर की बेटी हसीना के संरक्षण में ही आतंकी प्रगतिशील लोगों का खून बहा रहे हैं. जहां मुजीबुर ने खून के ज्वार को रोक दिया था, वहीं उनकी बेटी इससे कोसों दूर हैं और यहां तक कि इन हत्यारों के साथ खड़ी नजर आती हैं. हसीना के बेटे सजीब जॉय भी इन हत्यारों के नए सहयोगी के तौर पर उभरे हैं. यह स्थिति शर्म को नहीं बल्कि डर को बढ़ावा देती है.
कट्टरता की भेंट चढ़े कुछ नाम
अहमद रजीब हैदर (थापा बाबा)
अविजित रॉय
अनंत बिजॉय दास
वशिकुर रहमान
जगतज्योति तालुकदार
अशरफ-उल-आलम
रियाद मोर्शिद बाबू
आरिफ रेहान दीप
नीलाद्री चट्टोपाध्याय (नीलॉय नील)
इस क्रम में अगला नाम कौन होगा? हम नहीं जानते हैं. कई ब्लॉगर देश छोड़कर जा चुके हैं और जो अब भी देश में हैं वे मरने का इंतजार कर रहे हैं. एक बार जब हत्यारे अपने मंसूबों को अंजाम दे देंगे तब बांग्लादेश धर्मनिरपेक्षता के खतरे से मुक्त हो जाएगा.
बांग्लादेश किसी भी ‘नास्तिक’ को मदद देने से मना करता है. यह भी स्पष्ट रूप से नजर आता है कि हसीना इस बात की आशंका से डरी हुई हैं कि कहीं वे इन मामलों के प्रति किसी तरह की संवेदना दिखाती हैं तो ‘नास्तिक’ के रूप में प्रचारित न हो जाएं. फिर भी, क्या वो नास्तिक नहीं हैं? हम में से सब नास्तिक बने घूमते हैं. अगर आप हिंदू धर्म में विश्वास नहीं करते हैं तो आप आस्थाहीन हैं. अगर आप ईसाई धर्म में विश्वास नहीं कर रहे हैं तो आस्थाहीन हैं. अगर आप यहूदी धर्म, मॉर्मोन (द चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर डे सैंट से जुड़ा एक धार्मिक समूह) और जेहोवा विटनेसेस (ईसाई धर्म से जुदा एक समूह) में अपना विश्वास कायम नहीं रख पाते तब भी आप नास्तिक हैं.
दुनिया बहुत सारे धर्मों को देख चुकी है. हर वह धर्म जिसके आप अनुयायी नहीं होते, उसकी नजर में आप नास्तिक हो जाते हो. आप सिर्फ एक धर्म को चुनते हैं और हजारों को नकार देते हैं, तब एक आस्थावान होने से ज्यादा आप अास्थाहीन हो जाते हैं, साथ ही आस्तिक होने से ज्यादा नास्तिक बन जाते हैं. अंधविश्वास की घातक ताकतें अविश्वासी लोगों के मानवाधिकारों पर विश्वास नहीं करती हैं. बांग्लादेश सरकार भी इसी बात में भरोसा करती है.
हाल ही में नीलॉय नील नाम से लिखने वाले एक ब्लॉगर की नृशंस हत्या कर दी गई. उनका असली नाम नीलाद्री चट्टोपाध्याय था. 27 साल के नील ने ढाका विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एमए किया था. वे एक पढ़ाकू व मेहनती छात्र थे जिसने प्रथम श्रेणी से एमए पास किया था. वे अच्छा लिखते थे, पढ़े-लिखे और जागरूक थे. हत्या से पहले उन्हें जान से मार देने की धमकी मिली थी. उन्होंने लिखा भी था कि उनका पीछा किया जाता है.
फोटो- एएफपी
दो महीने पहले पुलिस से मिलकर उन्होंने उन लोगों के खिलाफ केस दर्ज कराया था, जो कथित रूप से उनका पीछा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि उनकी सुरक्षा को खतरा है. पुलिस ने उन्हें देश छोड़ देने की सलाह दी थी लेकिन नील की ऐसी कोई योजना नहीं थी. वे अपने देश में ही जिंदा रहने के रास्ते खोज रहे थे. इन स्थितियों के बावजूद बांग्लादेश सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. सरकार एक अच्छे उदारवादी युवा को बचाने की बजाय अपने हाथ जेब में डालकर चुपचाप तमाशा देखती रही.
इससे पहले भी इस संगठन ने कई दूसरे ब्लॉगरों की हत्या करने की जिम्मेदारी भी ढिठाई से ली है. इसके बावजूद पुलिस का दावा था कि हत्यारों का कोई भी सबूत उन्हें नहीं मिला है. ऐसा लग रहा है कि पुलिस इस बात का इंतजार कर रही है कि हत्यारे खुद आगे आएं और जिम्मेदारी लें, ‘हमने सारी हत्याएं की हैं, हमें गिरफ्तार किया जाए.’ इसके बावजूद भी शायद उनकी गिरफ्तारी के लिए ये सबूत काफी नहीं होगा.
मैं डरती हूं उस दिन के बारे में सोच कर कि कहीं वे मुसीबतें हरने वाली हमारी ‘देवी’ खुद हसीना पर न ही झपट पड़ें. जो भी आवाज उठाएगा उसका हश्र नील के जैसा ही होगा. पर शायद हमें खून-खराबा देखने की आदत पड़ चुकी है, इसलिए ऐसे दृश्य अब हमें झकझोरते नहीं हैं.
नील के कमरे में अब सिर्फ किताबें अौर खून बचा है. अगर आप खूब पढ़ने-लिखने वाले एक सजग किस्म के व्यक्ति हैं, विचारों की आजादी में यकीन रखते हैं, धार्मिक अंधविश्वासों और भेदभाव पर उंगली उठाते हैं तो आपका खून भी इसी तरह बहाया जाएगा. इसलिए बांग्लादेश में जिंदा रहने के लिए आपको मूर्ख होना पड़ेगा. बहुत ज्यादा बुद्धिमत्ता दिखाने से काम नहीं चलेगा. बेहतर है आप आस्थावान होकर रहें, लेकिन आस्थाहीन कतई भी न रहें. सिर्फ इंसान होना कोई विकल्प नहीं है.
किसी समय नील कुछ युवाओं द्वारा बनाए एक मानवाधिकार मंच ‘तस्लीमा समर्थक समूह’ के सदस्य हुआ करते थे. मैंने फेसबुक पर उनकी पोस्ट की गई रचनाएं पढ़ी हैं. हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, इस्लाम- इन सभी धर्मों पर उनकी आलोचनात्मक नजर रहती थी. हिंदुओं ने उन्हें नहीं मारा, न ही बौद्धों ने, न ईसाईयों ने और न ही यहूदियों ने उन पर हमला किया, सिर्फ और सिर्फ इस्लाम के कट्टर अनुयायियों ने उन्हें मार डाला. जो यह मानते हैं कि सभी धर्म समान हैं और विभिन्न पंथों व रूढ़िवादी अनुयायियों में कोई फर्क नहीं है, वे सभी जरूर गलत हैं.
बांग्लादेश के इंस्पेक्टर जनरल और गृह मंत्री ने यह घोषणा जारी की थी कि ब्लाॅगरों को अपने लेखन से जनसाधारण की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए अन्यथा उन्हें 14 वर्ष की कड़ी कैद की सजा का सामना करना पड़ेगा. देश की गठबंधन सरकार में शामिल उलेमाओं के समूह मांग कर रहे हैं कि ब्लाॅगरों को फांसी पर लटकाया जाना चाहिए, उनके ब्लाॅगों को बंद किया जाना चाहिए और उन्हें देश निकाला दे देना चाहिए. हालांकि सरकार ने ऐसा कोई प्रारूप नहीं बनाया है जिसमें धर्म के विरुद्ध लिखने पर कोई कानूनी कदम उठाया जाएं.
मैं ये जानने के लिए उत्सुक हूं कि राज्य के गुस्से को भड़काने के लिए कौन से धर्म के खिलाफ लिखा जाना चाहिए. क्या हिंदू रवायतों की आलोचना करने पर गिरफ्तारी होगी? या शायद बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की निंदा करने पर? या फिर ईसाई धर्म की आलोचना पर? हालांकि इस मुद्दे पर राज्य की स्थिति टाल-मटोल करने वाली है. आज के समय में हम सभी जानते हैं कि किसी भी धर्म के बारे में कुछ भी कहने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन इस्लाम के खिलाफ एक शब्द कहना या लिखना मात्र ही पुलिस को आपके दरवाजे पर भेज सकता है.
राज्य के पास साहस (दुस्साहस) की कोई कमी नहीं है. यहां तक कि आधिकारिक तौर पर यह घोषणा की जा सकती है कि केवल इस्लाम की आलोचना करने भर से ही आपको परेशान, प्रताड़ित, गिरफ्तार या कैद किया जा सकता है. यहां तक कि ऐसे गुनहगारों को मौत की सजा भी दी जा सकती है. इस्लामी आतंकवादियों और बांग्लादेश की सरकार के बीच फर्क करना इन दिनों कठिन होता जा रहा है. जैसा कि मैं साफ-साफ देख पा रही हूं धार्मिक कट्टरपंथी किसी को भी मार रहे हैं और सरकार उनकी कठपुतली बनकर रह गई हैै.
बांग्लादेश में आजाद सोच वाले तार्किक लोगों को मार डालने के किए एक निश्चित तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है. हत्या के बाद हत्यारे अपनी पहचान सार्वजनिक करते हैं, साथ ही उन समूहों की भी पहचान बताते हैं, जिनसे वे जुड़े हैं. हालांकि मैं यकीनी तौर पर नहीं कह सकती लेकिन मुझे लगता है कि वे अपने फोन नंबर और पता भी सार्वजनिक करते होंगे. हालांकि इन सबके बावजूद पुलिस उन्हें छू भी नहीं पाती.
पहले हत्याएं रात के सन्नाटे में सड़कों पर हुआ करती थीं लेकिन अब उनके हौसले और बढ़ गए है. अब वे दिनदहाड़े घर में घुसकर लोगों की हत्या कर रहे हैं. अब तक तो हत्यारों को जुर्म करने के बाद घटनास्थल से भाग जाने की आदत है लेकिन वह दिन दूर नहीं जब उन्हें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं रहेगी. किसी भी किस्म के परदे की जरूरत न रहने पर वे जीत का जश्न मनाते हुए ब्लाॅगरों के घर में घुसेंगे, उन्हें मार डालेंगे और फिर निडर होकर आराम से घर से बाहर निकल जाएंगे. इसके बाद सड़क किनारे लगी चाय की किसी दुकान पर चाय पिएंगे अौर इन सब के बावजूद काेई भी उनका बाल बांका करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा. भविष्य में ऐसा ही खतरनाक समय हमारी राह देख रहा है. तब न केवल ब्लाॅगर बल्कि कोई लड़की जो बुर्का न पहने हो या कोई जोड़ा जो पार्क में हाथों में हाथ डाले बैठा हो, उन्हें पकड़कर उनके टुकड़े कर, गलियों में फैला दिया जाएगा. जो भी धार्मिक कानून व्यवस्था को नहीं मानेगा उनकी सरेआम हत्या की जाएगी. आज हमारा देश ऐसे ही घातक समय की ओर बढ़ रहा है. इतिहास में ऐसे समय को अंधयुग अथवा इस्लामी शरिया के युग के रूप में याद किया जाएगा.
हर ब्लाॅगर के पास धमकी भरा फोनकॉल आने के बाद स्थिति ये होती है कि दूसरे दर्जन भर लोग ब्लॉग लेखन बंद कर देते हैं. किसी ब्लाॅगर की हत्या के बाद सैकड़ों ब्लाॅगर अपना ब्लाॅग बंद कर देते हैं. आज के समय में बांग्लादेश का सूरत-ए-हाल यही है. इसी तरह बांग्लादेश का अल्पजीवी तर्कवादी आंदोलन और ‘तर्क का युग’ अपने अंत की ओर बढ़ रहा है. देश के कलाकारों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों अथवा तर्कवादियों में से कोई भी आगे आकर इन नास्तिक ब्लाॅगरों के समर्थन में नहीं बोल रहा है.
यह मुझे 22 वर्ष पहले की याद दिलाता है, जब मेरे समर्थन में बहुत कम लोग थे. यह एक तरह से एक औरत बनाम पूरा देश था, जिसमें असक्षम सरकार भी शामिल थी. लाखों की संख्या में कट्टरपंथी शहर में दहाड़ रहे थे और मेरे खून के प्यासे थे. उनके दबाव को रोकने की जगह मेरे ही खिलाफ केस दर्ज किया गया. उस समय आईटी अधिनियम नहीं था और दंड संहिता की धारा 295 ही किसी भी लेखक को मौत के घाट उतारने के लिए काफी थी.
केवल कुछ मुठ्ठीभर रौशनख्याल बुद्धिजीवियों ने गुप्त रूप से मुझे समर्थन दिया लेकिन इस किस्म की कायर शपथ किसी काम की नहीं थी. अगर उस समय इस्लामी कट्टरपंथियों के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन होते और सारे देश से केवल 500 लोग मेरी अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में उतर जाते तो कोई भी मेरे देश से मुझे बाहर निकालने की हिम्मत नहीं कर सकता था.
दो दशक बाद आज फिर वैसी ही स्थितियां खुद को दोहरा रही हैं. आज भी इन प्रगतिशील ब्लाॅगरों की हत्या के खिलाफ देशभर में कहीं भी प्रदर्शन होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है. सभी चूहों की तरह अपने-अपने बिलों में छिपे हुए हैं. यहां तक कि प्रबुद्ध और शिक्षितों की गिनती में आने वाले भी भूमिगत हो गए हैं. ऐसे में हैरानी नहीं कि जाहिल सरकार और भी ज्यादा जाहिल समूहों की चापलूसी में कोई कसर नहीं छोड़ रही. लोकतंत्र बांग्लादेश को छोड़ चला है, अब जो बचा है, वो है भीड़तंत्र/मूर्खतंत्र.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में सिविल लाइंस की एक दुकान के बाहर मशहूर पाकिस्तानी अदाकारा सनम सईद का एक आदमकद पोस्टर लगा है. सड़क पर रिक्शों में जातीं स्कूल-कॉलेज की लड़कियां उन्हें पहचानती हैं और अगली बार उस दुकान पर आने की बात भी कहती हैं. अमूमन बॉलीवुडिया कलाकारों के फोटोशॉप किए हुए पोस्टरों से पटी रहने वाली दुकानों में आया ये एक नया बदलाव है और हो भी क्यों न, बॉलीवुड कलाकारों की लोकप्रियता को भुनाने वाला बाजार अब पाकिस्तानी कलाकारों की लोकप्रियता को भी भुना रहा है. चाहे बात फवाद खान या इमरान अब्बास की हो या माहिरा खान और सनम बलोच की, सरहद पार के ये सितारे अब हिंदुस्तान के छोटे-छोटे शहरों में भी अपनी चमक बिखेर रहे हैं.
जून 2014 में ‘जोड़े दिलों को’ टैगलाइन के साथ शुरू हुए जी समूह के ‘जिंदगी’ चैनल ने पाकिस्तानी धारावाहिकों को भारत में प्रसारित करते हुए जल्द ही भारतीय दर्शकों में अपनी पैठ बनाई और पाकिस्तानी कलाकार घर-घर में पहुंच गए. इतनी कम अवधि में ही मिली इतनी प्रसिद्धि का कारण साफ था, सास-बहू के कभी न खत्म होने वाले भारतीय धारावाहिकों के कारण एक बड़ा वर्ग टीवी और एंटरटेनमेंट चैनलों से कट चुका था, उनके लिए कसी स्क्रिप्ट, कम एपिसोड और सामाजिक मुद्दों पर बने ये पाकिस्तानी सीरियल एक नया विकल्प बने. पिछली सर्दियों में जब जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में गठजोड़ की कोशिशें हो रही थीं तब वर्तमान मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ‘जिंदगी’ के धारावाहिक देख कर अपना तनाव कम किया करते थे. पार्टी के सूत्रों की मानें तो मुफ्ती साहब खाली समय में जिंदगी चैनल पर अपने पसंदीदा सीरियल देखते हैं. मुफ़्ती साहब अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो चैनलों की भीड़ में ‘जिंदगी’ के धारावाहिकों को पसंद करने लगे.
दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश-2 में रहने वाली एक गृहिणी बताती हैं, ‘मैं काफी टेकसेवी हूं, इंटरनेट ही मनोरंजन का साधन है और अपडेट रहने का भी. कभी टीवी नहीं देखती, कभी हुआ तो समाचारों के लिए देखा पर चैनलों पर रोज होती बहसों के दौर में वहां समाचार देख पाना भी मुश्किल है. पिछले साल किसी दोस्त के कहने पर जिंदगी चैनल पर ‘जिंदगी गुलजार है’ नाम का शो देखा और आप यकीन नहीं मानेंगे मैं तब से इसे यूट्यूब से डाउनलोड करके कई बार देख चुकी हूं. उसके बाद मैंने इस चैनल को देखना शुरू किया और लगा कि ये बातें आज तक हमारे सीरियल निर्माता क्यों नहीं समझ पाए कि समाज से जुड़ने के लिए समाज की असली तस्वीर समझना कितना जरूरी है.’
मशहूर पाकिस्तानी अदीब उमैरा अहमद के इसी नाम के नॉवेल पर बना ‘जिंदगी गुलजार है’ आते ही हिट हुआ. इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से ही लग जाता है कि शबाना आजमी और दिव्या दत्ता जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों ने आगे आकर इसकी तारीफ की. कलाकारों की सादगी और लाजवाब अदाकारी तो इसकी लोकप्रियता की वजह बने ही, सरहद पार को सिर्फ गोली-बारूद की दुनिया समझने वालो को भी लगा कि वहां भी हम जैसे इंसान ही रहते हैं, उनकी परेशानियां, दर्द- ख़ुशी सब हमारे जैसे ही तो हैं. लोगों के पूर्वाग्रह टूटे हैं. 68 वर्षीय प्रतिभा बताती हैं, ‘बचपन से जब बंटवारे की बात सुनते थे तो लगता था कि कोई नई ही दुनिया बनी होगी वहां, पर इन धारावाहिकों को देखकर लगा कि ये तो अपने ही घर-आंगन की बातें हैं. वैसे भी हम दोनों देशों की संस्कृति, सामाजिक मूल्य, परिवेश सब एक ही जैसे तो हैं. आप एक सीमारेखा खींच के लोगों को ही बांट सकते हैं, संस्कृति को तो नहीं.’
सुल्ताना सिद्दीकी
ऐसा ही कुछ अदाकारा सनम सईद भी मानती हैं, वे भारत में अपने धारावाहिकों को मिली अपार सफलता से उत्साहित हैं. मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे ये बात समझ नहीं आती कि हमें (हिंदुस्तान और पाकिस्तान) को अलग क्यों समझा जाता है? हम एक ही तो हैं. आप हम में ढेरों समानताएं देख सकते हैं चाहे बात खाने की हो, पहनावे की, भाषा, परिवार या संस्कृति की. मुझे तो कभी नहीं लगता कि हम अलग हैं और मुझे बहुत खुशी है कि पाकिस्तानी धारावाहिकों को हिंदुस्तान में इतना सराहा गया, उन्होंने वहां (हिंदुस्तान) की जनता को भी बिलकुल उसी तरह छुआ जिस तरह यहां की अवाम को.’
पाकिस्तान में खासा लोकप्रिय एंटरटेनमेंट चैनल ‘हम टीवी’ अपने धारावाहिकों की विषय वस्तु (कंटेंट) लिए जाना जाता है. चैनल की संस्थापक और अध्यक्ष सुल्ताना सिद्दीकी लगभग 4 दशकों से टेलीविजन इंडस्ट्री से जुड़ी हुई हैं और एशिया में अपना टीवी चैनल शुरू करने वाली पहली महिला हैं. वे एक सफल निर्माता तो हैं ही, साथ ही एक सफल निर्देशक भी हैं. ‘जिंदगी’ पर प्रसारित बहुचर्चित शो ‘जिंदगी गुलजार है’ उन्हीं ने बनाया है. ‘जिंदगी’ पर दिखाए जाने वाले अधिकतर सीरियल उन्हीं के ‘हम टीवी’ से लिए गए हैं. एक इंटरव्यू में वे बताती हैं, ‘बरसों से भारत से तो फिल्में, धारावाहिक आदि पाकिस्तान पहुंचते थे पर हमारे यहां के कार्यक्रमों को भारत ले जाने की बात पर कोई न कोई बहाना ही सुनने को मिलता था.’
जब जी टीवी की टीम ने उनसे संपर्क किया तो वे फौरन तैयार हो गईं. वो चाहती थीं कि मीडिया में पेश की गई पाकिस्तान की नकारात्मक छवि से इतर लोग असली पाकिस्तान को जानें. ‘जिंदगी गुलजार है’ की सफलता पर कई हिंदुस्तानी कलाकारों ने ट्वीट किए तो वहीं अभिनेत्री शबाना आजमी ने तो सुल्ताना को फोन कर के बधाई दी और उनके साथ काम करने की इच्छा भी जाहिर की.
सुल्ताना कहती हैं, ‘उन्हें समाज में बदलाव बेहद पसंद हैं और ये उनके धारावाहिकों के कंटेंट से जाहिर होता है. कहानी एक बिंदु से शुरू होती है और एक चक्र पूरा कर के खत्म हो जाती है. ये चक्र कभी 25 एपिसोड का होता है तो कभी 30-32 पर हिंदुस्तानी धारावाहिकों की तरह बेसिर-पैर की कहानियां और ट्वीस्ट जोड़े बिना ये अपनी बात कह कर एक निश्चित पड़ाव पर खत्म हो जाता है. दर्शक किसी भी सृजनात्मक कार्य से तभी जुड़ता है जब उसे अपने जीवन से जोड़ के देख पाए, तो ऐसे में कितने दर्शक होंगे जो रोज होती प्लास्टिक सर्जरी, हर साल होते विवाह और मर के जिन्दा हो जाने से खुद को जोड़ पाते होंगे! मैं तो सोच ही नहीं सकती कि किस तरह ‘जिंदगी गुलजार.. को 26 एपिसोड्स से आगे ले जाती.’
‘जिंदगी’ पर प्रसारित ये धारावाहिक सामाजिक बदलाव के लिए कोई उपदेश नहीं देते पर दिखाते हैं कि कैसे तरह-तरह की परिस्थितियों में इंसान जूझते हुए अपना रास्ता बना ही लेता है. ये धारावाहिक न केवल एक प्रगतिवादी दृष्टिकोण लिए हुए हैं बल्कि लैंगिक भेदभाव, स्त्री शिक्षा जैसे बड़े मुद्दों को भी बहुत ही सहज रूप में दिखाते हैं. ‘जिंदगी गुलजार है’, ‘औन-जारा’, ‘मात’, ‘दिल-ए- मुज्तर’, ‘बड़ी आपा’, ‘खेल किस्मत का’ जैसे धारावाहिकों में दिखाए गए स्त्री चरित्र पाकिस्तान की महिलाओं की प्रचलित छवि के बिलकुल उलट हैं. ये औरतें न केवल अपने हकों के लिए लड़ रही हैं बल्कि बिना किसी झिझक के अपने बच्चों को अकेले पालने का माद्दा भी रखती हैं.
बहरहाल इनके मशहूर होने के पीछे बहुत सी छोटी-छोटी बातें भी जुड़ी हैं, जिनमें इनकी भाषा सबसे प्रमुख है. हिंदुस्तानी दर्शकों का इनसे जुड़ाव रहे इसलिए इनके टाइटल तो बदल दिए जाते हैं पर भाषा के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होती. हिंदुस्तान में जो खिचड़ी भाषा चलन में है, उससे किसी के प्रभावित होने की सम्भावना शून्य ही है. ऐसे में हिंदी-उर्दू की चाशनी में पगे इन सीरियलों की भाषा युवाओं को भी खासा आकर्षित कर रही है.
उत्तर प्रदेश के मुस्लिम आबादी बहुल जिले बरेली की निदा कहती हैं, ‘वैसे हम मुस्लिम आबादी में रहते हैं पर यहां भी उर्दू जबान उतनी प्रचलन में नहीं है. इन धारावाहिकों को देख के कुछ बहुत ही अच्छे शब्द सीखने को मिलते हैं, हिंदुस्तानी सीरियलों को देख कर नई भाषा सीख पाना मुमकिन नहीं है.’ ऐसा ही कुछ उनकी दोस्त दिव्या का भी मानना है, ‘मैं ये सीरियल इनकी उर्दू जबान के लिए देखती हूं. तरबियत, तवक्को, फरमाबरदार, मुतासिर कुछ ऐसे शब्द हैं जो मैंने ये चैनल देख कर जाने हैं और अब मैं इन्हें अपनी आम बोलचाल में भी प्रयोग करती हूं. आखिर उर्दू भी हमारे देश की ही भाषा है और इसे भी बचाए रखने की जरूरत है.’
ये बात बहुत हद तक सही है. धारावाहिकों का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं होता. समाज के किसी भाग को प्रभावित करने में टीवी का बहुत बड़ा हाथ है और ये सबसे प्रभावी भी है. ऐसे में अगर कोई चैनल या कार्यक्रम किसी तरह का बदलाव लाने की कोशिश करना चाहें तो वो उसमें सफल हो सकते हैं. सुल्ताना सिद्दीकी बताती हैं, ‘मेरे पास कई बार महिलाएं आती हैं जो बताती हैं कि किस तरह मेरे धारावाहिकों में औरतों के संघर्ष को देख कर उन्हें हौसला मिला और वो सब मुश्किलात से लड़ते हुए आगे बढ़ीं.’
कशफ के नाम से लोकप्रिय अदाकारा सनम सईद भी ऐसी ही बात कहती हैं, ‘मैं अपने किरदार यही देख कर चुनती हूं कि ये युवा लड़कियों के लिए रोल मॉडल बन सकें, लोगों का नजरिया बदल सकें. लोगों से मेरा अर्थ मध्यम वर्ग से है. उच्च वर्ग के पास इंटरनेट है, हॉलीवुड फिल्में हैं, किताबें हैं पर मध्यम वर्ग के पास बस टीवी है तो ऐसे में हम ऐसे ही किरदार चुनने की कोशिश करते हैं, जो उन्हें प्रेरित कर सके.’
‘जिंदगी’ के कार्यक्रमों की पसंद किसी विशेष समुदाय, लिंग या उम्र के दायरे में नहीं बंधी है. इन्हें जितना महिलाएं पसंद कर रही हैं, पुरुष दर्शकों को भी ये भा रहे हैं. इस चैनल की व्यापार प्रमुख प्रियंका दत्ता बताती हैं, ‘हमरा कंटेंट पुरुष दर्शकों को भी पसंद आ रहा है और मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के बड़े नाम सुभाष घई, कुनाल कोहली, जावेद जाफरी आदि की ओर से ‘जिंदगी’ की तारीफ में किए गए ट्वीट इसकी गवाही देते हैं. ये अच्छी बात है कि हमारे धारावाहिक किसी दायरे में नही बंधा है. सालों तक हमने सास-बहू के किस्से देखे हैं और किसी को तो ये एकरसता तोड़नी ही थी. और वैसे भी टीवी इंडस्ट्री में कंटेंट ही सब कुछ होता है और हमें गर्व है कि अब तक जिंदगी पर दिखाए गए सभी धारवाहिकों में बिना किसी उम्र और वर्ग के भेदभाव के सभी को प्रभावित किया.’
प्रियंका की कही बात बिलकुल सही है. लेख के लिए जानकारी जुटाने के दौरान उन पुरुषों के बारे में भी जाना जिनके लिए टीवी सिर्फ खबरें देखने का जरिया था, सीरियल औरतों के देखने की चीज पर जिंदगी के धरावाहिकों ने उनकी ये धारणा बदल दी. 55 वर्षीय एक सरकारी कर्मचारी बताते हैं, ‘ये धारावाहिक हमारे यहां बनने वाले सीरियलों के उलट वास्तविकता के ज्यादा करीब हैं. मैंने एक सीरियल देखा था, जिसके एक किरदार जैसे व्यक्ति को मैं असल में जानता हूं. जिस उम्र में मैं हूं वहां ये कह सकता हूं कि कहीं न कहीं ये धारावाहिक मानव स्वभाव के बारे में हमारी समझ भी विकसित कर रहे हैं.’
जहां ये प्रचलित हो कि सीरियल सिर्फ गृहिणियां देखती हैं वहां कामकाजी वर्ग का टीवी सीरियलों के प्रति ये झुकाव देखना सुखद है. बैंकर अर्पणा बताती हैं, ‘भारतीय टेलीविजन इंडस्ट्री का इतिहास देखिए तो ‘बुनियाद’, ‘ये जो है जिंदगी’, ‘फर्ज’ जैसे धारावाहिक मिलते हैं जिनसे दर्शक जुड़ाव महसूस करता था पर आज भारतीय टीवी इंडस्ट्री खासकर धारावाहिकों की हालत बहुत खराब है. एक भी ऐसा सीरियल नहीं है जिससे कोई आम दर्शक जुड़ाव महसूस कर सके. वहीं इन पाकिस्तानी सीरियलों में एक गहराई है जो दिल को छू जाती है. भारतीय सीरियल विश्वसनीयता खो चुके हैं पर पाकिस्तानी सीरियलों में अभी ये बाकी है. भारतीय टीवी निर्माताओं को इनसे कुछ सीखना चाहिए. ‘हमसफर’, ‘जिंदगी गुलजार है’, ‘औन-जारा’ कुछ ऐसे सीरियल हैं जो मैं कितनी भी बार देख सकती हूं.’
‘जिंदगी गुलजार है’ भारत में आए इन पाकिस्तानी धारावाहिकों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ और इसके लिए किसी टीआरपी आंकड़े की जरूरत नहीं है बस ये जानना काफी है कि मात्र 26 एपिसोड के इस धारावाहिक को पिछले साल जून में शुरू होने के बाद से चैनल पर चार बार दिखाया जा चुका है. यहां महत्वपूर्ण बात ये भी है कि भारत में धार्मिक कट्टरता के बढ़ने के बावजूद ‘जिंदगी’ चैनल के इस्लाम केंद्रित धारावाहिकों को पसंद किया जा रहा है. लोग मुस्लिम संस्कृति को जानना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि भारत में मुस्लिम बैकग्राउंड पर सीरियल नहीं बने हैं पर हर दूसरे सीरियल की ही तरह सगे-सौतेले के झगड़ों और सास-बहू के अति नाटकीय घटनाक्रमों ने मुस्लिम संस्कृति को न दिखाते हुए बस ऊब ही पैदा की है.
वैसे दर्शक सिर्फ कंटेंट से ही नहीं इन सीरियलों में प्रयोग किए जा रहे संगीत से भी काफी प्रभावित हैं. पेशे से वकील 45 वर्षीय पूजा कहती है, ‘हमारे यहां टीवी सीरियलों में जबरदस्ती साउंड इफेक्ट ठूंसे जाते हैं, गर्दन मुड़ने पर उसी सीन को बिजली कड़कने की आवाज के साथ तीन बार दिखाना हास्यास्पद है. पाकिस्तानी ड्रामा में बहुत हल्का बैकग्राउंड संगीत प्रयोग होता है जो स्थिति और कहानी की गंभीरता को बनाए रखता है.’ भारतीय सीरियलों में टाइटल गीत का चलन लगभग बंद ही हो चुका है और सीरियल के बीच में भी फिल्मी गानों के मुखड़े-अंतरे ही सुनने को मिलते हैं. ऐसे में दर्शकों को सीरियल में प्रयोग होने वाले गीत भी खूब लुभा रहे हैं. कुर्तुलीन बलोच की खूबसूरत आवाज में गाए धारावाहिक ‘हमसफर’ के गीत ने बलोच के फैन क्लब में भारतीयों की संख्या में खासा इजाफा किया है, तो वहीं ‘जिंदगी गुलजार है’, ‘ये गलियां ये चौबारा’, ‘दिल-ए-मुज्तर’ जैसे सीरियलों के गीत भी खासे पसंद किए गए. धारावाहिक ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम’ में फवाद खान की आवाज में कही गई अहमद फ़राज़ की नज़्म ने नई पीढ़ी को इस शायर से रूबरू करवाया.
वैसे ये पहली बार नहीं है जब पाकिस्तानी धारावाहिक हिंदुस्तानी अवाम में लोकप्रिय हुए हैं. 80 के दशक में ‘तनहाइयां’, ‘अनकही’ और ‘धूप किनारे’ जैसे सीरियल भारत में आए थे पर तब टीवी और केबल का इतना चलन नहीं था जितना आज है. पाकिस्तानी सीरियलों की लोकप्रियता सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि इन्हें डब करके सऊदी अरब और मलेशिया में भी प्रसारित किया जाता है. पाकिस्तानी धारावाहिकों को भारतीयों तक लाना शैलजा केजरीवाल का आइडिया था जिसे जी समूह ने असल रूप दिया. इस समय कंपनी में चीफ क्रिएटिव ऑफिसर (स्पेशल प्रोजेक्ट्स) पद संभाल रहीं शैलजा चैनल को एक साल के कम वक्त में मिली सफलता से खुश हैं और चैनल के अगले उपक्रम को संभाल रही हैं, जिसके बारे में वे अभी घोषणा नहीं करना चाहतीं.
जिंदगी गुलजार हैः उमैरा अहमद के उपन्यास पर बने इस धारावाहिक ने पूरे हिंदुस्तान का दिल जीता. ये निम्न मध्यम वर्गीय कशफ की दुनिया की मुश्किलों से जूझते हुए जिंदगी में कामयाब होने की कहानी है. दूसरी तरफ एक अमीर घर के लड़के जारून का किरदार है, जो जिंदगी और प्यार को एक अलग ही नजर से देखता है. प्रभावी अभिनय और सादगी ने मुख्य अभिनेताओं सनम सईद और फवाद खान को भारतीय जनता का चहेता बना दिया. केवल 26 कड़ियों के इस सीरियल को अब तक ‘जिंदगी’ चैनल पर चार बार प्रसारित किया जा चुका है.
औन जाराः ‘जिंदगी’ पर प्रसारित हुए शुरुआती धारावाहिकों में से एक ‘औन जारा’ एक जिद्दी लड़की जारा (माया अली) और परिवार के लाड़-प्यार में पले इकलौते बेटे औन (उस्मान खालिद बट) की कहानी थी, जो एक-दूसरे को पसंद न करने के बावजूद शादी करते हैं. ये धारावाहिक फैजा इफ्तिखार के उपन्यास ‘हिसार-ए-मोहब्बत पर आधारित था.
हमसफरः ‘जिंदगी’ के सबसे ज्यादा चर्चित कार्यक्रमों में से एक ‘हमसफर’ ने इसकी मुख्य अदाकारा माहिरा खान की बॉलीवुड में आने की राह बनाई. पति-पत्नी के रिश्तों के उतार-चढ़ाव पर आधारित ये सीरियल फरहत इश्तियाक के इसी नाम के उपन्यास पर बना था.
वक्त ने किया क्या हसीं सितमः बंटवारे की पृष्ठभूमि में रची इस मासूम प्रेम कहानी ने लोगों के दिलों को छू लिया. खूबसूरत सनम बलोच ने बानो के किरदार में काफी चर्चा बटोरी. रजिया बट के उपन्यास ‘बानो’ पर बने इस सीरियल पर बंटवारे के समय भारत की गलत छवि पेश करने के आरोप भी लगे. सनम के अलावा फवाद खान, सबा कमर, मेहरीन राहिल और एहसान खान के अभिनय की भी खासी प्रशंसा बटोरी.
बड़ी आपाः यह एक अति-स्वाभिमानी जुबैदा की कहानी है, जो अपनी और अपने आसपास के सभी लोगों की जिंदगियों पर नियंत्रण रखना चाहती हैं, पर विभिन्न उतार-चढ़ावों के बाद आखिरकार अकेली ही रह जाती है. दर्शकों को इस धारावाहिक को पसंद करने का सबसे बड़ा कारण ‘बड़ी आपा’ जैसा मजबूत महिला चरित्र था, जो अमूमन भारतीय धारावाहिकों में देखने को नहीं मिलता. लोकप्रियता के चलते चैनल द्वारा इसका भी पुनः प्रसारण किया जा चुका है.
कितनी गिरहें बाकी हैंः भारत में टेलीफिल्मों का दौर खत्म हो चुका है पर ‘जिंदगी’ के इस सीरियल ने उन्हें फिर चलन में ला दिया. समाज में औरतों से जुड़े विभिन्न मुद्दों जैसे घरेलू हिंसा, शिक्षा, करिअर आदि पर आधारित एक एपिसोड की कहानी बुनी जाती है. किरण खेर द्वारा होस्ट किए गए इस कार्यक्रम को भी भारतीय दर्शकों ने हाथोहाथ लिया.
बहुत संकोच से आपको यह पत्र लिख रहे हैं. बहुते सोचे-विचारे हमलोग कि का इतनी छोटी-छोटी बातों में प्रधानमंत्री से बात करनी चाहिए! बहस हुई हमारे बीच इस बात पर. कुछ ने कहा कि अपने देश के प्रधानमंत्री का काम क्या यही है कि वे टोले-मोहल्ले की लड़ाई को सुनते रहे, उसमें हस्तक्षेप करे, उसे सुलझाते रहें. एकमत से राय बनी कि नहीं, कतई नहीं. प्रधानमंत्री का काम टोले-मोहल्ले की लड़ाई में फंसना नहीं है. उन्हें देश देखना है, दुनिया को देश से जोड़ना है लेकिन हम मजबूर होकर आखिरी उम्मीद की तरह बिहार के एक सुदूरवर्ती इलाके में बसे एक गांव की छोटी-सी बात आप जैसे बड़े लोगों तक पहुंचा रहे हैं. यह उम्मीद भी कई वजहों से जगी. एक तो आप रेडियो के जरिये ‘मन की बात’ करते हैं तो लगता है कि जब आप जनता से अपने मन की बात कर रहे हैं तो जनता भी तो आपसे अपने मन की बात कर सकती है! और दूसरा, 15 अगस्त वाला दिन याद आता है. उस दिन हम लोगों ने देखा-सुना था कि आप दिल्ली के लालकिला वाले प्राचीर से क्या बोल रहे थे. आप बोले थे न कि हम शौचालय की बात कर रहे हैं, लोग कहते हैं कि देश का प्रधानमंत्री शौचालय-सफाई वगैरह जैसी छोटी-छोटी बातों में दिमाग खपा रहा है. आपने ताल ठोंकते हुए कहा था कि हम लगाएंगे छोटी-छोटी बातों में दिमाग. जिसे जाे कहना है कहे लेकिन आपके इन वाक्यों पर मर मिटे थे हम लोग कि सही कह रहे हैं और उसी दिन उम्मीद भी जग गई थी कि छोटी बातें भी आपसे कह सकते हैं.
इसकी कुछ और वजहें भी हैं. एक तो यह बात हमें बिहार के मुखिया तक पहुंचानी चाहिए थी लेकिन बिहार के मुखिया के लिए हमारे सुदूर इलाके में बसे गांव की छोटी-सी लड़ाई कोई मसला ही नहीं बन सका. ऐसा नहीं कि हम लोगों ने कोशिश नहीं की. बहुत कोशिश की उन तक अपनी बात पहुंचाने की. बात उन तक पहुंच भी गई लेकिन उन्होंने हमारी पीड़ा पर ध्यान नहीं दिया. तब हम सबने तय किया आप तो इतनी व्यस्तता के बावजूद अपने मन की बात लोगों से कहते हैं तो क्यों नहीं हम लोग भी अपने मन की बात आप तक पहुंचाएं. आप तो देश के अलग-अलग हिस्सों में घूमने वाले पीएम भी हैं, इन दिनों लगातार बिहार आ रहे हैं और बिहार को रसातल के आखिरी तल से निकालने की बात कर रहे हैं, उस बात से भी उम्मीद जगी थी कि आप हम लोगों की बात जरूर सुनेंगे, उस उम्मीद से भी यह पत्र आपको प्रेषित कर रहे हैं. आप जब पिछले माह उत्तर बिहार के सहरसा इलाके में आये थे, तब ही हम लोगों ने तय किया था कि अपने समुदाय की पीड़ा की पाती आपको सौंप देंगे लेकिन तब आप तेज बारिश में आए और जाने की भी उतनी ही जल्दबाजी थी, सो हम यह खत नहीं सौंप सके.
प्रधानमंत्री जी, बस थोड़ी देर तक हमारी बातों को सुनिएगा. बहुत संक्षिप्त में हम अपनी बात रख रहे हैं. हम बिहार के खगड़िया जिले के परबत्ता इलाके के नयागांव के शिरोमणि टोला के वासी हैं. तांती जाति से आते हैं हम. आप ही के जाति समूह से. आप भी खुद को पिछड़ा कहते हैं, हम लोग भी पिछड़े समूह से ही हैं. राजनीति के फेरे ने फिर अतिपिछड़ा समुदाय में पहुंचाया था और अभी दो माह पहले ही हम लोग दलित-महादलित वाले श्रेणी में आ गए हैं. सबसे ताजातरीन दलित बने जातियों में आते हैं हम.
हुआ यह कि हमारे गांव के, हमारी ही जाति के एक लड़के ने अपने घर के सामने रहने वाली एक सवर्ण लड़की से प्रेम किया. दोनों स्कूल में साथ ही पढ़ते थे. उन दोनों के प्रेम का पता हमें तब चला जब एक रोज यह बात गांव में फैली कि दोनों भाग गए. हो-हल्ला मचा. दो दिनों बाद लड़का-लड़की वापस आ गए. पंचायत बैठी, तय हुआ कि लड़का और लड़की की शादी अपने-अपने समुदाय और समाज के लोगों में जल्द से जल्द करवा दी जाए. ऐसा ही हुआ. पहले हमने लड़के के पिता पर दबाव बनाया कि वह शादी करवा दें. लड़की वालों की ओर से भी यही दबाव था कि लड़के की शादी कहीं और होने के बाद लड़की की शादी कराई जाएगी. ऐसा हुआ भी. लड़के की शादी करवा दी गई लेकिन वह उसे पत्नी के रूप में अपना नहीं सका. उसने अपनी पत्नी को समझा दिया कि समय रहते ही वह अपने पिता से कहकर दूसरी शादी कर ले, क्योंकि वह किसी और से प्यार करता है. नई नवेली दुल्हन ने बात मान ली. दूसरी ओर सवर्ण समुदाय की लड़की की भी शादी इसी साल के शुरू में बेगूसराय में करा दी गई. वह विदा होकर ससुराल गई लेकिन कुछ ही दिनों में वह ससुराल से भी फरार हो गई. पता चला कि वह हमारे जाति के लड़के के साथ फिर कहीं चली गई. गांव में फिर से बवाल मचा. लड़के के मां-बाप भी रातोंरात कहीं चले गए. वे जान गए थे कि अब उनके अच्छे दिन नहीं रहने वाले हैं. इसके बाद सवर्ण टोलेवालों ने हम सब पर दबाव बनाना शुरू किया कि तुम लोग लड़का और लड़की को किसी भी तरह से बुलाओ, नहीं तो खैर नहीं. इसके लिए हमारी जाति के लड़कों पर केस भी हुआ.
हम डर के साये में जीने लगे. हमने पहला संपर्क अपने ही गांव के रहनिहार विधायक से किया, जो बिहार के सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं, राज्य में मंत्री भी रहे हैं. विधायकजी सवर्ण टोले के हैं लेकिन उम्मीद थी कि वे जनप्रतिनिधि हैं तो उनकी क्या जाति, वे हमारी बात सुनेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हमारे समाज के लोगों पर दबाव बढ़ता गया. बहुत कोशिश के बाद लड़का-लड़की से संपर्क हो सका, जो भागकर हरियाणा-पंजाब के अलग-अलग इलाकों में रह रहे थे. लड़के को हमने बताया कि प्रेम तुमने किया है, गुनाह तुम्हारा है और सजा हम भुगत रहे हैं. लड़का आने को तैयार हुआ. बेगूसराय कोर्ट में आईपीसी की धारा 164 के तहत बयान दर्ज कराने की बात हुई. लड़का-लड़की के कोर्ट में आने की तारीख भी मुकर्रर हो गई. इस बीच गांव के सवर्ण टोलेवालों ने फिर से हम पर दबाव बनाया कि कोर्ट में बयान देने से पहले लड़के को समझाओ कि वह ऐसा बयान दे कि वह अपहरणकर्ता है और लड़की की कोई गलती नहीं. हम तारीख के दिन बेगूसराय कोर्ट गए लेकिन वहां लड़का क्या बयान देता, उसकी प्रेमिका यानी सवर्ण टोलेवाली लड़की ने ही पहले ही डंके की चोट पर बयान दे दिया कि उसका अपहरण नहीं हुआ है. वह बालिग है, अपनी मरजी से गई थी और लड़के के साथ ही रहेगी. कोर्ट की बात वहीं खत्म हुई. हम समझ गए कि आफत के दिन अब शुरू होने वाले हैं लेकिन यह नहीं सोच सके कि इतनी जल्द. यह बात 26 जुलाई की है और इसके अगले ही दिन हमारे टोले पर सवर्ण टोलेवालों ने हथियार आैर लाठी-डंडों के साथ धावा बोल दिया. हम रोते-बिलखते रहे लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं. हमारे लोगों को घरों से निकालकर मारा-पीटा जा रहा था. लड़कियों और महिलाओं के साथ बदतमीजी की जा रही थी. घरों के सामान तोड़े जा रहे थे. देखते ही देखते हमारा सब कुछ लुट गया. सारी उम्मीदें, सारे सपने पल भर में भरभरा गए. फिर जिसे जैसे मौका मिला, गांव छोड़कर भागा. गांव से कुछ दूर पनाह ली ली गई. एक रात स्कूल में गुजारी. फिर वहां से भागकर दूसरी जगह अपनी ही जाति के एक टोले के सामुदायिक भवन में रहने लगे. सभी जवान लड़कियों को उनके ननिहाल, मौसीहार में भेज दिया ताकि कम से कम वे सुरक्षित रहें. प्रशासन के लोग आए लेकिन हमारा सहयोग करने नहीं. हमें समझाने कि गांव चलो, सरकार की बदनामी होगी कि तुम लोगों ने गांव छोड़ दिया है. हमारा सवाल था कि जब हमारे घर तोड़े जाते रहे, हमें मारा जा रहा था, तब प्रशासन कुछ नहीं कर सका तो आगे की जिंदगी आखिर किस विश्वास पर प्रशासन के हवाले छोड़ दें.
जिस टोले को हमने अपना बसेरा बनाया था, वहां के लोग चंदा जमाकर खाने का इंतजाम करते रहे. पूर्णिया के सांसद पप्पू यादव को इसकी भनक लगी. वे पहुंचे. उन्होंने हम 80 परिवारों को पहले पांच-पांच हजार रुपये दिए ताकि हम कपड़े-लत्ते और जरूरी सामान खरीद सकें. पप्पू यादव ने आश्वासन दिया कि वे हमारी लड़ाई लड़ेंगे. संसद से सड़क तक लड़ेंगे. उसकी कोशिश उन्होंने की, कर भी रहे हैं. उन्होंने बाजार बंद कराए और प्रदर्शन भी कराया. हमें पटना ले जाकर हमारी पीड़ा को आवाज देने की कोशिश की. संसद में हमारी बातों को रखा. हाई कोर्ट में खुद हमारे पक्ष में बहस की लेकिन पप्पू यादव राज्य के सरकार नहीं. देश के सरकार नहीं. वे जितना कर सकते थे, उन्होंने किया और वे लगातार कर भी रहे हैं. उनसे कोई शिकायत नहीं.
नीतीश कुमार से उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने हमें सशक्त बनाने के लिए दलित बनाया था लेकिन समझ में आ गया कि उन्होंने वोट के लिए ऐसा किया. हमें उम्मीद अपने गांव के विधायक से थी लेकिन उनके जो बयान अखबारों में आए, उससे हम हैरान हैं. उन्होंने बयान दिया था कि हम गांव में पीड़ित परिवारों के घर बिजली लगवा रहे हैं, शौचालय बनवा रहे हैं, चापाकल लगवा रहे हैं, अब सब ठीक हो जाएगा. आप इससे तो समझ ही गए होंगे कि इस प्रताड़ना का दंश झेलने के पहले हमारे इतने बड़े तांती टोले में न तो शौचालय था, न चापाकल और न ही बिजली पहुंची थी. हम गांव में छोड़कर भाग गए हैं तो हमारे घरों के बाहर शौचालय बनाया जा रहा है, बिजली का तार झुलाया जाता रहा. बिहार को यह नया रोग लगा है सर. यहां जहां भी बलात्कार होता है, सबसे पहले शौचालय और बिजली से उसका निदान किया जाता है. बलात्कार, प्रताड़ना और बिजली का क्या रिश्ता है, खुदा जाने.
हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा. आखिर कब तक शरणार्थी की तरह दूसरे गांव के सामुदायिक भवन में रहते. कब तक अपनी बेटियों को रिश्तेदारी में भेजकर रखते. कब तक चंदे के अनाज से अपना पेट भरते. हम अपने गांव लौटने लगे हैं. सब लौट ही जाएंगे. और कहां ठौर मिलेगा. लेकिन आप ही बताइए उसी गांव में कैसे रहेंगे. उस गांव में हमारा सिर्फ घर है. घर बाहर निकला रास्ता जिस पर हम चलते हैं, वह सवर्णों का है. जिस खेत में बकरी चराते हैं, जिस जमीन पर पेशाब-पैखाना करते हैं, वह भी उन्हीं का है. हम चारों ओर से थक-हारकर अपने गांव लौट रहे हैं लेकिन हम जानते हैं कि हमें इसकी कीमत पूरी जिंदगी चुकानी होगी. हम गांव में रहेंगे तो हमारी मजबूरी होगी कि उनके ही घरों, उनके खेतों में मजूरी करें. कैसे करेंगे काम उनके यहां, जिन्होंने बिना गलती के हमारे साथ दुर्व्यवहार किया था. मांस खाने के लिए हमारी बकरियों को घरों से खोलकर ले गए थे. वहां के कण-कण से हमें लगाव है लेकिन वहां अब कैसे रह सकते हैं. पूरी जिंदगी गिरवी रखनी होगी हमें वहां रहने के लिए.
प्रधानमंत्री जी आप ही बताइए कोई रास्ता. पुलिस प्रशासन का हवाला न दीजिएगा कि वे संभाल लेंगे सब. जिस दिन हम पीटे जा रहे थे, उस दिन भी पुलिस आई थी. तब पुलिसवाले भी पीटे गए थे और पत्रकार भी. हम तो बस यह कह रहे हैं कि कहीं कुछ गज जमीन दे दीजिए, गांव के हमारे घर के बदले, हम कहीं मजूरी कर जीवन गुजार लेंगे. कम से कम अनजान जगह पर बसेंगे तो अपनी मर्जी से सांस तो लेंगे. हम अपनी जड़ों से उखड़ना चाहते हैं सर, उखड़वा दीजिए.
जब इस लेख को लिखा जा रहा है, तब हाल और हालात ऐसे हैं कि झारखंड की राजधानी भय और आतंक के माहौल में है. अनहोनी की आशंका से उपजा एक अनजाना सा डर राजधानीवासियों को अपने आगोश में लिए हुए है. राजधानी पुलिस छावनी में बदल चुकी है. राजधानी के एक-दो इलाके पुलिस के किसी बड़े कैंप में तब्दील हो चुके हैं. हर गली में पुलिस फोर्स है. कुछ मोहल्लों में तलाशी अभियान जारी है. घर-घर की तलाशी ली जा रही है. कुछ मोहल्लों के लोग अपने घर छोड़ दूसरे के घरों में, रिश्तेदारों के यहां या रांची से बाहर शरण ले चुके हैं. इन सब के पीछे कारण ये है कि एक मंदिर में मांस का टुकड़ा पाया गया था, जिसने वहां की फिजा में उपद्रव का जहर घोल दिया.
रांची में पहले से एक एसएसपी, एक ग्रामीण एसपी, एक सिटी एसपी के रूप में तेज-तर्रार और चुस्त आईपीएस अफसरों की तैनाती है. उसके अतिरिक्त अभी दो एएसपी और छह डीएसपी तैनात कर दिए गए हैं. आरएएफ की भी दो टुकड़ियां बिहार के नवादा से रांची में आकर कमान संभाले हुए है. सीआरपीएफ की तीन कंपनियां, एसएसबी की एक कंपनी, एसटीएफ की दो कंपनी, रांची के अलावा दूसरे जिलों के करीब 200 से अधिक पुलिसवाले चप्पे-चप्पे पर तैनात हैं. कई इलाके ऐसे हैं, जहां अतिरिक्त पुलिस बल लगाए गए हैं लेकिन पुलिस की तैनाती भय को कम करने के बावजूद बढ़ा ही रही है. यह भी संभव है कि जब आप इन पंक्तियों से गुजर रहे होंगे, तब तक रांची में सब कुछ सामान्य हो चुका होगा लेकिन ये अनजाना भय तब भी बना रहेगा. क्योंकि यह बात बकरीद से शुरू हुई, जिसकी आग रांची के आसपास व सुदूरवर्ती जिलों तक पहुंच गई.
अभी सामने दुर्गा पूजा और मुहर्रम जैसे त्योहार हैं. रांची में दोनों ही बड़े स्तर पर मनाए जाने की परंपरा रही है. दुर्गा पूजा में करोड़ों खर्च कर विशाल पंडाल बनते हैं, लाखों लोग शहर में आते हैं और मुहर्रम का भी विशाल जुलूस निकलता है. यही बात रांची वालों को चिंतित किए हुए है कि उन बड़े त्योहारों पर इस घटना की परछाईं तक न पड़े. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि आखिर क्यों एक छोटी सी घटना से शुरू हुई बात वहीं रुक जाने के बजाय तेजी से बढ़ती गई.
इस घटना की शुरुआत बकरीद की रात से हुई. उस रात राजधानी के डोरंडा इलाके में एक मंदिर में मांस फेंके जाने की बात सामने आई. यह बात तेजी से फैली. बवाल शुरू हुआ. सोशल मीडिया का साथ मिला. बात रांची से निकलकर तेजी से आसपास के इलाकों में फैल गई. अगले दिन पूरा रांची फसाद के मुहाने पर पहुंच गया. विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल जैसी संस्थाओं ने बंद का आह्वान कर दिया. मुख्यमंत्री रघुबर दास जमशेदपुर में थे, वहां से रांची आ गए. लोगों को समझाने की कोशिश की.
हालांकि मुख्यमंत्री के जमशेदपुर से आने से पहले ही रांची में उपद्रव हो चुका था. दिन के एक पहर तक प्रशासन तमाशबीन ही बना रहा. सवाल यह उठा कि प्रशासन मुख्यमंत्री की तरह अलर्ट क्यों नहीं हो सका, वह मुस्तैदी क्यों नहीं दिखाई गई, जबकि प्रशासन को पता था कि रात से ही मामला गरमा गया है. अगले दिन विहिप और बजरंग दल जैसे संगठन ने बंद का आह्वान किया. इन सबके बीच एक सवाल यह भी है कि अचानक विहिप जैसी संस्थाएं झारखंड में इतनी ताकतवर कैसे हो गईं, जिन्होंने बंद का आह्वान कर लिया. झारखंड में विहिप हमेशा बुरे दौर में रही है. ज्यादा नहीं कुछ वर्षों पहले तक राज्य में भाजपा की सरकार रहने के बावजूद संघ के दूसरे आनुषांगिक संगठनों का तो विकास होता रहा लेकिन विहिप बुरे हाल में ही रहा. संगठन की हालत ऐसी रही कि उसे एक अदद संगठन मंत्री तक नहीं मिल पा रहा था. ऐसा संगठन अचानक ही इतनी ऊर्जा से कैसे भर गया है?
रांची में बंद के दिन सुबह सिर्फ राजधानी के प्रभावित डोरंडा इलाके में ही पुलिसवाले ड्यूटी पर लगाए गए, जबकि अशांति पूरे शहर में फैली थी. कई इलाके तो ऐसे रहें, जहां जमकर उपद्रव होता रहा और पूरी व्यवस्था सिर्फ ट्रैफिक पुलिसवालों के जिम्मे छोड़ दी गई. ऐसा भी नहीं कि राजधानी में पुलिस बल की कमी थी. राजधानी के आसपास ही आर्म्ड पुलिस व जगुआर पुलिस की चार बटालियन हैं. एक बटालियन में 200-300 जवान होते हैं. अगर इन्हें लगाया गया होता तो विहिप जैसी संस्थाओं के पास लोगों की इतनी संख्या नहीं थी कि वे रांची को अशांत कर देते लेकिन प्रशासन सही समय पर कदम नहीं उठा सका, नतीजा रांची शहर ने भुगता.
बड़ा सवाल यह कि एक ही तरह की घटनाएं एक साथ चार जगहों पर कैसे हुईं? और इसके बाद भी एक बार मामला शांत हो जाते ही पुलिस प्रशासन इतना भी मुस्तैद क्यों नहीं रह सका कि दो दिन बाद फिर से आधी रात को अशांति की कोशिशें तेज हो गईं? बकरीद वाली घटना के ठीक तीन दिनों बाद रात करीब बारह बजे डोरंडा के उसी इलाके में, जहां पहले घटना घटी थी, फिर उत्पात हुआ. रात बारह बजे के करीब आठ-दस लोग मोटरसाइकिल से वहां पहुंचे और कई राउंड गोलियां चलीं, घरों को जलाया गया. आधी रात को एक जमात के लोगों ने घर छोड़कर दूसरे के घरों में शरण ली, पास में पुलिस बल मौजूद थे लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया गया.
दोबारा घटी इस घटना से रांची में फिर से डर का माहौल है. रांची के सामाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्छी कहते हैं, ‘यह बाहरी तत्वों की खुराफात है, जो माहौल को बिगाड़ना चाहते हैं.’ इसी तरह की बात रांची के संस्कृतिकर्मी दिनेश सिंह भी कहते हैं. बकौल दिनेश, ‘यह साफ लग रहा है कि कुछ लोग हैं, जो रांची और झारखंड को अशांत करना चाहते हैं. लेकिन सवाल यह है कि वे क्यों ऐसा करना चाहते हैं. उनका मकसद क्या है?’
उपद्रव की शुरुआत राजधानी रांची के डोरंडा से होते हुए दूसरे शहरों में पहुंचती रही और वहां भी उपद्रव होता रहा. रांची से सटे लोहरदगा जिले के कुड़ू के एक गांव लावागाई में शनिवार को ऐसी ही घटना घटी, वहां भी बवाल हुआ और फिर अगले दिन रविवार को लोहरदगा बंद का आह्वान किया गया. पलामू के सतबरवा इलाके में एक ठाकुरबाड़ी और फिर चतरा के प्रतापपुर जैसे कुख्यात व चर्चित नक्सली इलाके के एक गांव हुमागंज के देवी मंदिर से भी ऐसी ही खबर आई. इन इलाके में भी बंद हुए. बंद शांतिपूर्ण ही रहे लेकिन उपद्रव की ये घटना जंगल की आग की तरह राज्यभर में फैलती रही.
पुलिस प्रवक्ता एडीजी एसएन प्रधान कहते हैं, ‘हम अभी इस विषय पर कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं. जांच चल रही है. कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है. जब तक कुछ ठोस सामने नहीं आता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’ मुख्यमंत्री रघुबर दास का भी बयान आया, ‘यह कुछ मनचलों और शरारती तत्वों का काम है.’ इस पूरे मामले में असल सवाल पीछे छूट रहे हैं कि आखिर यह घटना क्यों घटी? और इतनी सख्ती और मुस्तैदी के बावजूद इसका दायरा बढ़ता क्यों रहा? रांची में तो धारा 144 लगाकर ही काम चल गया लेकिन जमशेदपुर में कर्फ्यू लगाना पड़ा.
घटना को किसने अंजाम दिया, यह पता नहीं चल पा रहा. कुछेक लोग दबी जबान में कह रहे हैं कि रघुबर दास को बदनाम करने और उन्हें पदच्युत करने के लिए उनके लोग भी ऐसा खेल कर सकते हैं. वहीं कुछ लोगों का कहना है कि रांची की इस घटना का असर बिहार चुनाव पर पड़ेगा, हिंदुओं की गोलबंदी होगी, इसलिए यह सोची समझी साजिश भी हो सकती है. हालांकि ऐसा कहने के पीछे कोई आधार अभी तक सामने नहीं आ सका है. पटना और रांची के बीच गहरा रिश्ता है. रोजाना हजारों लोगों का आना-जाना होता है. सिर्फ रांची ही नहीं, झारखंड के चार प्रमुख शहर रांची, जमशेदपुर, धनबाद और बोकारो से बिहार का गहरा रिश्ता है. रांची में घटना घटने के बाद चतरा और पलामू में भी इसकी लपटें पहुंची थीं.
पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान कहते हैं, ‘अब तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं, जिस आधार पर इसे राजनीतिक घटना कहा जा सके.’ प्रधान की बात सही है. संभव है इसका कोई सीधा कनेक्शन बिहार चुनाव से न हो लेकिन ये सच है कि इस घटना की आग न सही, आंच तो पटना तक पहुंचेगी.
वह क्या था, जिसने आपको किसानों की मदद के लिए आगे आने को प्रेरित किया?
मैं भी एक किसान हूं. मैं खेती की हकीकत और उस पीड़ा से परिचित हूं, जिनसे किसान गुजरते हैं. हम लोग यह सब उनके लिए ही नहीं बल्कि खुद के लिए भी कर रहे हैं. हम लोग मानवता को बचाए रखना चाहते हैं. जो लोग मर रहे हैं, वे मेरे परिवार की तरह हैं. एक देश के रूप में हमें अपने भीतर मानवता को जीवित रखना होगा, इससे पहले कि ये बिलकुल ही खत्म हो जाए. अगर हम ही सहयोग के लिए आगे नहीं आएंगे, तो और कौन मदद करेगा? सच्चाई ये है कि किसानों की हालत बहुत खराब है और इसी वजह से ही वे खुदकुशी कर रहे हैं. हम जो भी कर सकते हैं वो करेंगे और सरकार जो करना चाहती है, वह करने के लिए स्वतंत्र है.
अक्षय कुमार को छोड़कर क्या हिंदी फिल्मों की कोई दूसरी शख्सियत मदद के लिए आगे आई है?
मदद करने का सबका अपना-अपना तरीका होता है. ऐसा नहीं है कि कुछ लोग असंवेदनशील हैं. बस इतना है कि एक दुनिया में हर तरह के लोग हैं. कुछ लोग अपने कामों में बहुत ज्यादा व्यस्त हैं, उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए मुश्किल से समय मिल पाता है लेकिन जब भी उन्हें कहीं, किसी दुखद घटना की जानकारी मिलती है, वे नकद या किसी अन्य तरीकों से मदद करते हैं. किसानों की मदद के लिए उनसे जाकर मिलना जरूरी नहीं है. हम किसानों की समस्या स्थायी तौर पर दूर नहीं कर सकते हैं. हम उन्हें बिजली नहीं दे सकते हैं लेकिन हम उन्हें पानी दे सकते हैं, जिसके लिए हमारी कोशिश जारी है.
आपका प्रयास सराहनीय है लेकिन भारत में किसानों की खुदकुशी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. आपके अनुसार किसानों को सशक्त बनाने की दिशा में एक राष्ट्र के रूप में हम कहां पर चूक रहे हैं?
किसानों को समझना बहुत आसान है. उन्हें बिजली व पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है. यदि वहां पर एक या दो साल सूखा पड़ जाता है, तो हमें यह तय करना होगा कि उन्हें पानी मिल सके. यदि फसल नहीं होगी, तो वे पूरे साल क्या खाएंगे? जलापूर्ति के लिए यह पहेली सुलझानी होगी कि उनके खेत तक कैसे पानी पहुंचाया जाए. हमारे अभियान के जरिये तकनीकी पृष्ठभूमि वाले स्वयंसेवी आगे आ रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि हम पानी से जुड़ी इन समस्याओं को दूर करने में सफल होंगे. सरकार इन मामलों में पूरी तरह विफल रही है. हम इस समय जमीनी काम कर रहे हैं. हम अपनी कामकाजी दिनचर्या में से किसानों से मिलने और उनकी समस्याओं को समझने के लिए समय निकाल रहे हैं. नियमित मुलाकात के बगैर हम न तो उनकी समस्याएं दूर कर सकते हैं और न ही कोई मदद कर सकते हैं.
किसानों की विधवाओं की सहायता अच्छी पहल है लेकिन जब आप खुदकुशी की बढ़ती दर को देखते हैं, तो आपको सबसे ज्यादा क्या परेशान करता है?
हम लोगों ने खुदकुशी करने वाले सभी किसानों के परिवारों को 15,000 रुपये देने का फैसला किया है, ताकि वे बुआई के लिए बीज खरीद सकें. मैं महसूस करता हूं कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या सरकारी बैंक से कर्ज लेना है, हाल ये है कि बारिश न होने की स्थिति में उनके पास अपनी फसल व जमीन के दस्तावेजों को गिरवी रखकर सूदखोरों से कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है. मनरेगा किसी परिवार के एक सदस्य को एक दिन में केवल 180 रुपये देती है, जबकि उसके परिवार में पत्नी, बच्चे, माता और पिता भी होते हैं. इतनी आमदनी में कोई भी अपना घर नहीं चला सकता है, क्योंकि स्कूल फीस, दवाओं जैसे अन्य खर्चे भी होते हैं. कई बार किसान अपनी दूसरी इच्छाएं और पारिवारिक जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते हैं जैसे बच्चों की मात्र 10 रुपये की कीमत वाले खिलौने की चाहत अधूरी रह जाती है. यही असहनीय पीड़ा उन्हें खुदकुशी के लिए उकसाती है. उन्हें एक या दो साल तक मदद देना समाधान नहीं है. उनकी दुर्दशा का स्थायी समाधान खोजना होगा.
पुराने समय में गांवों में तालाब व कुंए होते थे. हम इस पर शोध कर रहे हैं और उम्मीद है कि ऐसी सुविधाओं को लाने में सफल होंगे. ऐसे कुओं व तालाबों को चिह्नित करने के लिए हमारी टीम बड़े पैमाने पर काम कर रही है. मैं इस काम में अकेला नहीं हूं, बहुत से स्वयंसेवी धीरे-धीरे आगे आ रहे हैं.
फोटो साभार- प्रोकेरला डॉट कॉम
हाल ही में महाराष्ट्र के राजस्व मंत्री एकनाथ खड़से ने कहा है कि आपदा प्रभावित जिलों में किसानों के बच्चों की 12वीं तक की स्कूल फीस माफ होगी. क्या यह पर्याप्त है?
मैं समझता हूं कि यदि पूरे देश को निःशुल्क शिक्षा दी जाए तो किसी भी मानवीय हस्तक्षेप के बगैर विकास हो जाएगा. किसानों के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा एक अच्छा कार्यक्रम है लेकिन सवाल भोजन का भी है. खाली पेट पढ़ाई नहीं हो सकती. भोजन बुनियादी जरूरत है.
इस मामले में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए आप किस तरह के प्रयास कर रहे हैं? क्या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने आपसे बात की है?
सरकार को उनका काम करने दें. मैं सरकार के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. मैं अपने हिस्से का सहयोग कर रहा हूं. मैंने फड़णवीस से बात की है और उन्हें बताया है कि आप जो कुछ भी दे रहे हैं, वह किसानों के लिए पर्याप्त नहीं है. भविष्य में, उनकी समस्याएं घटने के बजाए कई गुना बढ़ेंगी. एक किसान, जो खुद को फंदे पर लटकाने से नहीं डर रहा है, भविष्य में किसी दूसरे को मारने में भी नहीं झिझकेगा. किसानों में मायूसी नहीं फैलनी चाहिए.
एक तरफ सरकार ने स्मार्ट सिटी की योजना पेश की है, किसान फसलों की कम कीमत और खेती से हो रही न्यूनतम आय की वजह से जान दे रहे हैं. आपका क्या कहना है?
मैं खुद गांव से आता हूं, मेरे पास स्मार्ट सिटी को लेकर कोई राय नहीं है. बुनियादी सच्चाई यह है कि किसान, जो देश को भोजन देता है, देश का अन्नदाता है, मर रहा है. उनकी समस्याओं के हल ढूंढने की वजह ने मुझे जीने का मकसद दिया है. उनकी आमदनी अनिश्चित है. वे बिना ये सोचे कि इसके बदले उन्हें क्या मिलेगा फसल में पैसा लगाते हैं.
किसानों की सबसे बड़ी समस्या सरकारी बैंक से कर्ज लेना है, हाल ये है कि बारिश न होने की स्थिति में उनके पास अपनी फसल व जमीन के दस्तावेजों को गिरवी रखकर सूदखोरों से कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता
कोई किसान आपसे मदद चाहता है, तो कैसे संपर्क करे?
जैसे-जैसे हमारे पास फंड आ रहा है, हम गांवों को गोद लेने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि सभी घरों तक मदद पहुंच सके. हम नहीं चाहते कि किसानों को पानी के लिए मीलों तक दौड़ना पड़े, इसलिए पानी की समस्या के समाधान के लिए हमने कई इंजीनियरों को अपने साथ जोड़ा है.
इस अभियान में मदद के लिए क्या आप किसी अन्य कलाकार से आगे आने के लिए संपर्क करना चाहेंगे?
नहीं, मैं कौन होता हूं किसी से संपर्क करने वाला? यह अच्छा है कि लोग स्वेच्छा से आगे आ रहे हैं.
सूखाग्रस्त क्षेत्रों में किसानों की मौत के मुद्दे पर आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से क्या कहना चाहेंगे?
जैसे मैं इस विषय को लेकर गंभीर हूं, सरकार को भी इस मुद्दे पर गंभीरता दिखानी चाहिए. जब तक सरकार ऐसा नहीं करे, जनता को सरकार पर पूरी तरह से निर्भर नहीं होना चाहिए. हमें खुद-ब-खुद आगे आना होगा.
आम जनता के लिए कोई संदेश?
कुछ नहीं बस केवल धन्यवाद. सिर्फ दो दिनों में लोगों ने दो करोड़ रुपये दान किए हैं. 10-20 रुपये जैसी छोटी ही सही लेकिन व्यक्तिगत मदद आ रही है. मुझे यह देखकर प्रसन्नता हो रही है कि युवा आगे आ रहे हैं और मुझसे कह रहे हैं कि वे किसानों के लिए अपना एक महीने का वेतन दान करना चाहते हैं. इसके अलावा वे लोग भी हैं, जिनके बारे में आप सोचते हैं कि उनके पास देने को कुछ नहीं है, वे मदद के लिए आगे आ रहे हैं. चाय बेचने वालों ने मिलकर 2,000 रुपये दान किए हैं. यह सब देखकर मैं खुश हूं. ये खुशी पैसे के लिए नहीं है बल्कि मुझे यह देख खुशी हो रही है कि किसानों की मदद करने की जरूरत को लेकर जागरूकता बढ़ रही है.
वे छात्र जो मतदान करके सरकार चुन सकते हैं, उच्च स्तरीय शोध पत्र लिख सकते हैं, वे शैक्षिक टूर पर जाने जैसे निर्णय खुद नहीं ले सकते. इसके लिए उन्हें अभिभावक के अनुमति लेना अनिवार्य है. इसके अलावा उन्हें खुफिया निगरानी में रखा जाना चाहिए ताकि उनके लिए ‘सुधारात्मक कदम’ उठाए जा सकें. ये हम नहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ‘उच्च शिक्षा संस्थानों के परिसर में और बाहर छात्रों की सुरक्षा’ के लिए जारी दिशानिर्देश कह रहे हैं.
यह दिशानिर्देश इस साल अप्रैल में जारी हुए, लेकिन हाल ही में इसे लेकर विवाद शुरू हो गया है. छात्रावासों में लैंगिक भेदभाव वाले नियमों के खिलाफ कुछ दिनों से ‘पिंजरा तोड़’ जैसे विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. यह प्रदर्शन ऐसे विवादित नियमों के लिए जारी दिशानिर्देश और लैंगिक समानता के पक्षधर, उदार सोच वाले लोगों के बीच छिड़ने जा रही जंग की आहट है.
दिशानिर्देश के अनुसार विश्वविद्यालय परिसरों को सुरक्षित रखने का एकमात्र तरीका है कि वहां सर्विलांस सिस्टम लगाए जाएं. ऐसा लगता है कि सरकार सार्वजनिक तौर पर होने वाली लोगों की उस खुफिया निगरानी से संतुष्ट नहीं है, जो किसी की भी निजता में दखल देती है. अब वे कॉलेजों कैंपस की निजता में भी अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं.
यूजीसी की ओर से पहली सलाह है कि विश्वविद्यालय परिसरों की कंटीले तारों से किलेबंदी की जाए और सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं, जबकि छात्र संगठन इस निगरानी के विरोध में हैं. वहीं कुछ काॅलेजों की ओर से इस सिफारिश का समर्थन किया जा रहा है कि तरह के निगरानी तंत्र से परिसरों में अपराध रोकने में मदद मिलेगी. दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी काॅलेज के प्रिंसिपल एमएम गोयल का कहना है, ‘हमने अपने परिसर में पहले से ही सीसीटीवी कैमरा लगवा रखे हैं, जिनकी संख्या आने वाले कुछ महीनों में 121 हो जाएगी. कैमरे न सिर्फ छोटे-मोटे अपराधों को रोकने में मददगार साबित होते हैं, बल्कि उन लोगों को भी पहचानने में भी मदद करते हैं, जो कॉलेज परिसर में उत्पात मचाते हैं.’
हालांकि, गोयल परिसर के अंदर नियमित गश्त के लिए पुलिस चौकी स्थापित करने के विचार के खिलाफ हैं, ठीक उसी तरह जैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय और इंग्लिश एंड फाॅरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी के उनके समकक्ष अध्यापक भी परिसर में पुलिस चौकी के खिलाफ हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय और इंग्लिश एंड फाॅरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी के अध्यापक और छात्रों का मानना है कि अधिकारी कैंपस कल्चर को समझ सकने में नाकाम हैं इसलिए वे छात्रों को प्रताडि़त करते हैं.
इसके उलट यूजीसी का मानना है कि परिसरों में पुलिस चौकी स्थापित करने से छात्रों के मन में सुरक्षा का भाव रहेगा और हुड़दंगियों या छोटे-मोटे अपराध करने वाले पर निगाह रखी जा सकेगी. पर यहां बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसे उदाहरण भी हैं, जहां पर न सिर्फ पुलिस बल्कि पीएसी भी परिसर के अंदर लगातार होने वाली हिंसक घटनाओं को रोकने में नाकाम रहती है.
जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है जहां कैंपस में प्रायः पीएसी आ जाती है. वहां शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब परिसर में हिंसक घटना न होती हो. पुलिस अव्यवस्था फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर पाने में नाकाम रहती है, क्योंकि वे किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं.’
यूजीसी के प्रस्ताव में ‘स्टूडेंट काउंसिलिंग सिस्टम’ को अनिवार्य करने का सुझाव भी विवादित है. इस काउंसिलिंग सिस्टम में एक शिक्षक को 25 छात्रों की जिम्मेदारी दी जाएगी और उससे ‘बतौर अभिभावक’ व्यवहार करने की उम्मीद की जाएगी. इसमें आगे कहा गया है कि काउंसलर की भूमिका में शिक्षक छात्रों के अभिभावकों को उनकी प्रगति रिपोर्ट भेजेंगे, साथ ही हाॅस्टल वॉर्डेन के सहयोग सेे छात्रों की निजी सूचना, अकादमिक रिकाॅर्ड और उनके बर्ताव संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान करेंगे. ये सब छात्रों के लिए ‘सुधारात्मक कदम’ होंगे.
आॅल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेन एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, ‘खुफिया निगरानी तंत्र वाली एक ऐसी जगह जहां शिक्षकों से कहा जाएगा कि वे छात्रों की जासूसी करें और उनकी निजी सूचनाएं अभिभावकों से साझा करें, यह बेहद खतरनाक होगा. इससे छात्रों में असुरक्षा की भावना पैदा होगी, खासकर छात्राओं में. यह उनकी पढ़ाई के साथ-साथ उनके जीवन के लिए भी खतरनाक हो सकता है.’ कविता जैसे कुछ दूसरे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह का निगरानी तंत्र भविष्य में कैंपस के अंदर महिलाओं की गतिविधियों को बाधित करेगा. कविता कहती हैं, ‘महिलाओं के निजी संबंधों और राजनीतिक सक्रियता के मामले में इस तरह की निगरानी उनके करिअर में बाधा खड़ी करेगी.’
यही नहीं, यूजीसी के दिशानिर्देश इस बात पर भी जोर देता है कि बालिग हो चुके छात्रों को टूर पर जाने के लिए अपने माता-पिता से अनुमति लेनी होगी. यूजीसी के इन नियमों में एक छुपा पहलू ये भी है कि अगर छात्रों, विशेषकर छात्राओं की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाए तो ऐसे अनिवार्य प्रावधान विद्यार्थियों के समग्र विकास में बाधक हो सकते हैं.
शिक्षक समुदाय भी इस निगरानी तंत्र के पक्ष में नहीं दिख रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक्जिक्यूटिव काउंसिल की सदस्य आभा देव हबीब ने कहा, ‘इस तरह के दिशानिर्देश के जरिये सरकार छात्रों-शिक्षकों के सवाल पूछने और असहमत होने के अधिकार को छीनना चाहती है.’ आभा दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा रह चुकी हैं और करीब एक दशक से बतौर प्रोफेसर कार्यरत हैं. वे कहती हैं, ‘इस तरह के प्रयास विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र सोच की हत्या कर देंगे. हम वोट कर सकने वाले 18 साल के व्यक्ति को बालिग मान रहे हैं या बच्चा, जो उसकी गतिविधियों पर नजर रखने की जरूरत हैै?’
परिसरों में बाॅयोमेट्रिक सिस्टम लगाने, पहचान पत्र दिखाने और हर तिमाही पर अध्यापकों के साथ अभिभावकों की मीटिंग पर भी सवाल उठ रहे हैं. एक छात्र इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, ‘ऐसा लगता है यूजीसी विश्वविद्यालय कैंपस को प्राथमिक स्कूल में बदलकर बालिग युवाओं के साथ केजी के बच्चों जैसा व्यवहार करना चाहता है.’ नए दिशानिर्देश से यह अंदाजा लगता है कि यूजीसी की नीतियां अब अधिक कठोर और तानाशाह किस्म की हो गई हैं. यूजीसी की ओर से इस साल अप्रैल में जारी सुरक्षा संबंधी दिशानिर्देश और 26 अगस्त को उच्च शिक्षण संस्थाओं में ‘सक्षम’ की सिफारिशें लागू करने के संबंध में भेजे गए दिशानिर्देशों में विरोधाभास नजर आता है.
‘सक्षम’ रिपोर्ट दिसंबर, 2013 में प्रकाशित हुई थी, जिसे यूजीसी द्वारा गठित एक कमेटी ने ही तैयार किया है. इस रिपोर्ट में कैंपस के भीतर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और लैंगिक जागरूकता को बढ़ावा देने की सिफारिश की गई थी. यह रिपोर्ट न सिर्फ कैंपस में सीसीटीवी कैमरा के जरिये खुफिया निगरानी जैसे विचार को नकारती है, बल्कि शोध कार्यों के दौरान छात्राओं को किसी अन्य छात्र या शिक्षक (गाइड) पर निर्भर न रहना पड़े, ऐसे रास्ते तलाशने की भी कोशिश करती है. यह रिपोर्ट विश्वविद्यालयों और छात्रों के साथ मिलकर सर्वेक्षणों और खुली बहसों के जरिये तैयार की गई थी. यह रिपोर्ट महिला छात्रावासों में लैंगिक भेदभाव वाले नियमों- जैसे निश्चित समय पर आने की पाबंदी और दूसरी पाबंदियों पर भी चिंता व्यक्त करती है.
अब जब छात्रों के कुछ समूह इस तरह के नियमों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं तो यूजीसी ने चुप्पी साध ली है. दिल्ली महिला आयोग ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली को करीब एक महीने पहले लैंगिक भेदभाव वाले कपटपूर्ण हाॅस्टल नियमों के लिए तलब किया था. यहां छात्राओं को देर रात बाहर जाने पर पाबंदी है, अगर शाम को वे बाहर हैं तो आठ बजे से पहले उन्हें कॉलेज परिसर में वापस आ जाना होगा लेकिन लड़कों के हाॅस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं है. हालांकि जामिया विश्वविद्यालय के प्रशासन ने आयोग को आश्वासन दिया है कि वह हाॅस्टलों में लैंगिक समानता वाले नियम लागू करेगा.
फिलहाल इस समय छात्रों-छात्राओं द्वारा ‘पिंजरा तोड़’ नाम से एक अभियान चलाया जा रहा है. लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध सोशल मीडिया पर शुरू हुए इस अभियान को दो-चार दिनों में ही मुंबई और दक्षिण की कई कॉलेजों से भी समर्थन मिला. इस अभियान की शुरुआत करने वालों में से एक शाम्भवी विक्रम का कहना है, ‘जामिया की घटना ने हमें कमरों में बंद बहसों को बाहर लाकर ‘पिंजरा तोड़’ कैंपेन शुरू करने के लिए मजबूर किया. हमें और हमारे साथियों को एबीवीपी के सदस्यों ने दिल्ली विश्वविद्यालय की ‘वाॅल आॅफ डेमोक्रेसी’ पर हमारी ‘जन सुनवाई’ के पोस्टर लगाने पर धमकी दी.’ इस बारे में ‘पिंजरा तोड़’ के सदस्यों ने एफआईआर भी दर्ज करवाई है.
विडंबना ये है कि यूजीसी विश्वविद्यालय परिसरों में ऐसे नियमों को हटाने की बजाय सर्विलांस और जासूसी को बढ़ावा दे रहा है. आयोग की इस नई सिफारिश की लेखन शैली पर भी सवाल हैं, ये आयोग की अपनी ही कमेटी की रिपोर्ट ‘सक्षम’ की मूल भावना के खिलाफ है. कविता कृष्णन कहती हैं, ‘पिछले दो दशक से मैं यूजीसी के दस्तावेज देखती रही हूं लेकिन ये पहली बार है जब दस्तावेज तैयार करने वाली कमेटी या लेखक के बारे में कोई सूचना नहीं है. किसी को भी संदेह होगा कि इसे यूजीसी ने खुद तैयार किया है या फिर झंडेवालान (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली मुख्यालय) में बैठे लोगों ने!’
ये बात सही है कि सरकार ने आयोग का गठन दो महीने के लिए किया था. लेकिन ये कहना गलत होगा कि आयोग को जांच करने में अधिक समय लगा. मुझे नहीं याद आता कि इतने कम समय में किसी दूसरे आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी हो. नाम लेना गलत होगा लेकिन कई कमीशन तो सालों से चल रहे हैं. आयोग के गठन के बाद कुछ समय काम जरूर सुस्त था क्योंकि आयोग को कार्यालय मिलने में थोड़ी देर जरूर हुई थी.
दंगों के बाद सरकार ने जो आयोग बनाया था उसकी जांच का आधार क्या था. किन चीजों को जांच के दौरान शामिल किया गया है?
नौ सितंबर को सरकार ने आयोग बनाने का निर्णय लिया और 11 सितंबर को मैंने आयोग के अध्यक्ष का जिम्मा संभाला. गवर्नर ने आयोग से चार बिंदुओं पर जानकारी मांगी थी. पहला वारदात क्या थी और उनका कारण क्या था. दूसरा वहां तैनात अधिकारियों का दंगों के दौरान रिस्पॉन्स कैसा था. तीसरा, जो दंगे हुए उसके लिए कौन- कौन लोग जिम्मेदार थे और अंतिम बिंदु था कि भविष्य में ऐसे दंगे न हों इस पर आयोग से सुझाव भी राज्यपाल की ओर से मांगे गए थे.
आखिर घटना हुई क्यों? जांच के दौरान गवाहों ने जो बयान और साक्ष्य दिए वो किस ओर इशारा करते हैं?
मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में जो हत्या हुई उसकी वजह से माहौल खराब हुआ. जबकि इसकी भूमिका वहां चार-पांच महीने पहले से ही बनने लगी थी. हिंदुओं का मानना था कि छेड़छाड़ को लेकर घटना हुई है जबकि दूसरे पक्ष का मानना था कि शाहनवाज की बाइक हिंदू पार्टी से टकरा गई थी जिसकी वजह से कवाल में हत्या हुई.
आयोग ने जांच के दौरान किन-किन बातों पर विशेष ध्यान दिया?
जांच के दौरान गवाहों के बयान और साक्ष्यों को आयोग ने अपना आधार बनाया है. पूरी जांच में 377 लोग और 101 सरकारी गवाह आयोग के सामने पेश हुए. सरकारी गवाहों में तत्कालीन डीजीपी, प्रमुख सचिव गृह, आईजी, डीआईजी, एसएसपी सहित तमाम सरकारी अधिकारी शामिल हैं. इन सबके बयानों के आधार पर 775 पेज की रिपोर्ट तैयार हुई है. रिपोर्ट छह भागों में है, जिसमें से अंतिम 45 पन्नों में जांच का सारांश लिखा गया हैै.
क्या आप समझते हैं कि आप की रिपोर्ट निष्पक्ष है, क्योंकि रिपोर्ट को लेकर बीजेपी कई तरह के सवाल उठा रही है?
मेरे विवेक से रिपोर्ट पूरी तरह निष्पक्ष है. रिपोर्ट का आधार गवाहों का बयान और साक्ष्य है. ये काफी संवेदनशील कमीशन था, क्योंकि मामला दो संप्रदायों के बीच का था. लिहाजा आयोग को भी बहुत सतर्कता के साथ अपना काम करना पड़ा. आयोग बिना आधार के जरा सा भी काम करता तो आरोप लगना स्वाभाविक था. जिस तरह कोर्ट में फैसला लिखा जाता है उसी तरह मैंने आयोग की रिपोर्ट को तैयार किया है. ये मेरे जीवन का सबसे बडा फैसला है.
जांच के दौरान कभी किसी राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा या नहीं?
कभी नहीं, जांच के दौरान किसी तरह के राजनीतिक दबाव का सामना मुझे नहीं करना पड़ा.
उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर बदलने वाले इस दंगे की रिपोर्ट बनाने में आप को कितनी मशक्कत करनी पड़ी?
रिपोर्ट तैयार करने में काफी विचार करना पड़ा. बयान हजारों पेज के थे. निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए काफी मनन, चिंतन और विश्लेषण करना पड़ा. कई बार ऐसी स्थितियां भी आईं कि रात को नींद से उठकर अपने कार्यालय जाना पड़ा, क्योंकि सोते समय जो विचार आते थे उन्हें उसी समय नोट कर लेता था, ताकि अगले दिन उसे अपने पीएस को दे सकूं और उस विचार पर काम हो सके.