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‘केवल कुत्तों और गायों को जीने दीजिए, शायद वही डिजिटल इंडिया के राजसी ठाठ-बाट के अधिकारी हैं’

हमारे पूर्वज वर्तमान युग को कलयुग (बुराई का युग) की संज्ञा देते समय एकदम सही थे. हिंदू पौराणिक मान्यता के अनुसार कलयुग की शुरुआत 5000 हजार वर्ष पहले पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध के साथ हुई, जिसकी अवधि 4,32,000 वर्ष है. आज चारों ओर के माहौल को देखते हुए इस समय को कलयुग ही कहा जा सकता है.

आप खुद ही देख लीजिए भारत के सबसे अमीर समुदायों में से एक, पटेलों द्वारा नियम कानून की परवाह न करते हुए आरक्षण की मांग की, आप किस तरह से इसकी व्याख्या करेंगे? इस उग्र आंदोलन के युवा नेता का कहना है कि अगर पुलिस रास्ते में आई तो पुलिस के लोग मारे जाएंगे.

राष्ट्रीय परिदृश्य तब और भी विडबंनापूर्ण होकर उभरता है जब हम पटेलों द्वारा कानून के इस प्रकार उल्लंघन की घटना को दिल्ली के सीमांत इलाके के दादरी में 50 वर्षीय मुस्लिम को भीड़ द्वारा मौत के घाट उतार देने की घटना के बरक्स रखते हैं. भीड़ के इस शख्स को मारने से पहले उसके परिवार के साथ गोमांस खाने की फैली अफवाह ने इसे धार्मिक चोला पहना दिया.

उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर में 2013 में कथित रूप से मुस्लिम विरोधी हिंसा को भड़काने वाले के रूप से मशहूर शख्स ने इस बार ‘पवित्र गाय के रक्षक’ के रूप में सुर्खियां बटोरीं. हत्या की घटना के बाद भाजपा विधायक संगीत सोम ने दादरी पहुंच कर उस आग में घी डालने का काम किया जिसे संघ परिवार इससे जुड़े संगठन अपनी सांप्रदायिक कड़ाही के नीचे बड़ी मशक्कत से जलाए हुए है.

फिर जल्दी ही मीडिया में अलीगढ़ में इस गाय प्रेमी विधायक का गोमांस का कारखाना होने की खबर गूंजने लगीं. हिंदुत्व मूल्य गाय को अपनी जीविका के लिए मारने और गोमांस खाने वालों के लिए मौत की बात कहते हैं और बमुश्किल ही इस ‘गुनाह’ को माफ करते हैं पर उनके इस गोरक्षा अभियान के नायक का गोमांस का कारखाना चलाना उन्हें नहीं अखरता. ऐसा लगता है कि हिंदुत्व की विचारधारा इस विषय पर स्पष्ट है कि लाभ किसी भी कृत्य को क्षमा कर सकता है चाहे फिर वह गोहत्या पर आधारित व्यवसाय हो या फिर ‘गाय की रक्षा’ के नाम पर गरीब मुस्लिमों (या फिर ईसाईयों के खिलाफ भी जैसा कि ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में हुआ है) के खिलाफ लामबंदी के लिए उकसाता हो.

दूसरी तरफ, केंद्र और कुछ राज्य सरकारें संघ का अभिन्न अंग हैं. वही संघ, जो दृढ़ता से अपनी ‘हिंदू राष्ट्र’ की विचारधारा के साथ खड़ा होता है. यही विचारधारा सीपीआई नेता और 17वीं शताब्दी के मराठा शासक शिवाजी की जीवनी लिखने वाले गोविंद पानसरे तथा हम्पी में कन्नड़ विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर एमएम कलबुर्गी जैसे स्वतंत्र विचारकों की हत्या का कारण भी बनती है.

एक तरफ इन हत्याओं की जांच करने और हत्यारों को पकड़ने में पुलिस की उदासीनता से निराशा होती है, दूसरी ओर साहित्य अकादमी जैसी बड़ी संस्थाओं की चुप्पी ने भारत के कुछ बड़े लेखकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हमारे संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया. उदय प्रकाश से जो शुरुआत हुई तो साहित्य अकादमी और साहित्य के लिए अन्य राज्य स्तर के पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की फेहरिस्त बढ़ती ही जा रही है. यह दृश्य ‘सामूहिक चेतना वाले प्रबुद्ध’ लेखकों के विचार के प्रति भरोसा पैदा करता है.

इस बीच पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित करने के चलते संघ विचारक सुधींद्र कुलकर्णी के खिलाफ अपना गुस्सा दिखाकर शिवसेना गैर-सांप्रदायिक भारतीयों की नजरों में थोड़ा और चुभने लगी. सुधींद्र कुलकर्णी का काला चेहरा 21वीं सदी के भारत को पीछे अंधयुग की ओर धकेले जाने का सटीक प्रतीक है.

केवल उग्र हिंदुत्व की भीड़ ही नहीं बल्कि सड़कों पर घूमते आवारा कुत्ते भी आम जनता के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. इस घटना को ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब दिल्ली में एक रिक्शा चालक के घर में खेल रहे सात वर्षीय बच्चे को कुत्तों के एक समूह ने नोच कर मार डाला था. सैंकड़ों लोग कुत्तों के काटने से मर रहे हैं. मेरे साथी एक बार जब कुत्ते के काटने पर सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वे कुत्ते के शिकार लोगों की लंबी लाइन देख कर हैरान रह गए. इस लाइन में अधिकांश झुग्गी में रहने वाले लोग थे जो रेबीज के टीके के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे.

मेरे इस साथी का अनुभव मुझे एक कैबिनेट मंत्री की याद दिलाता है जो अक्सर कुत्तों और बिल्लियों के अधिकारों के लिए जोर शोर से बोलते थे. अभिजन समाज के लोग अंधेरी रातों में सड़कों पर कुत्तों के आतंक के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं और इसलिए वे उनके अधिकारों के लिए खड़े हो सकते हैं. वे मंत्री मदर टेरेसा मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे 13 अनाथालयों के लाइसेंस रद्द करने से नहीं झिझके जबकि इन आश्रय स्थलों में लगभग 10 लाख ऐसे बच्चे थे जो पर्याप्त धन नहीं होने अथवा किसी किस्म की अशक्तता से ग्रस्त होने के कारण अपने अभिभावकों द्वारा त्याग दिए गए थे.

एक देश जिसका दुनिया को सबसे बड़ा योगदान महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और मदर टेरेसा का मानव मात्र के प्रति प्रेम है, ऐसा प्रतीत होता है कि आज वह स्वयं अपने उन मूल्यों को नकारता जा रहा हैै. लेकिन ठीक है, ऐसा होने दीजिए! केवल कुत्तों और गायों को जीने दीजिए, शायद वही डिजिटल इंडिया के राजसी ठाठ-बाट के अधिकारी हैं!

केंद्र और कुछ राज्य सरकारें संघ का अभिन्न अंग हैं. संघ, जो दृढ़ता से अपनी ‘हिंदू राष्ट्र’ की विचारधारा के साथ खड़ा होता है. यही विचारधारा स्वतंत्र विचारकों की हत्या का कारण भी बनती है

‘अब्बू कहते थे मानवता से बढ़कर कोई धर्म नहीं, ऐसे आदमी को उस रात धर्मांध भीड़ ने मार डाला’

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घर से फोन आना सरताज के लिए सामान्य बात थी. उनका 22 वर्षीय छोटा भाई दानिश, जो कि हास-परिहास और जिंदादिली से भरपूर था, अक्सर उन्हें फोन करता था. दोनों भाइयों में तमाम मसलों पर चर्चा होती थी और हर बात से पहले वे थोड़ा सा हंसी मजाक भी कर लेते थे. वायुसेना की जिंदगी ने सरताज को परिवार से दूर कर दिया था. उत्तर प्रदेश स्थित बिसाहड़ा गांव से बहुत दूर चेन्नई में रहते हुए वह परिवार से बहुत कम संपर्क कर पाता था. अक्सर देर शाम के वक्त सरताज के घर से फोन आया करता था. 28 सितंबर की रात जब उनकी बहन का नंबर मोबाइल पर साया हुआ तो उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि ये कॉल उनकी जिंदगी पूरी तरह से बदलने जा रही है.

मोबाइल पर आ रही कॉल रिसीव करने के लिए उनकी उंगलियों ने जब रिसीविंग बटन दबाया तब उन्हें नहीं पता था कि वे अब तक की सबसे बुरी खबर सुनने जा रहे हैं. खून की प्यासी भीड़ ने उनसे उनके पिता को छीन लिया था.

उनकी बहन ने रोते-चीखते हुए किसी तरह कहने की कोशिश की, ‘वे हम सबको मार डालेंगे. उन्होंने अब्बू को मार डाला. भाई प्लीज, कुछ करो.’ फोन पर पीछे से आ रहा कोलाहल सरताज को सुनाई दे रहा था. यह बताते हुए सरताज की आंखें भर आईं. सरताज ने अपनी लरजती आवाज को मुश्किल से संभाला.

सरताज ने इस दौरान खुद को संभालने और एक बहादुर की तरह पेश करने की पूरी कोशिश की, जबकि उनके पिता की पीटकर हत्या कर दी गई थी और उनका भाई दानिश जिंदगी और मौत से जूझ रहा है. दानिश का अब भी दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है.

अस्पताल के बिस्तर पर पड़े भाई के बगल में एक छोटे से स्टूल पर बैठे सरताज आपबीती सुना रहे थे. घटना के दौरान जब उसकी बहन का फोन आया, उसके बाद सरताज ने खुद को संभाला और बिसाहड़ा की स्थानीय पुलिस को मदद के लिए फोन किया. सरताज के मुताबिक, ‘पुलिस वालों ने इसे रोजमर्रा के अन्य फोन की तरह ही रिसीव किया और काट दिया. मैंने कई बार कॉल किया लेकिन सब बेकार गया. मैंने एंबुलेंस सर्विस के लिए आपातकालीन नंबर पर भी फोन किया लेकिन उन्होंने भी कुछ करने से मना कर दिया.’

जिस वक्त सरताज की बहन लगातार बदहवासी में उन्हें मदद के लिए फोन कर रही थीं, उस वक्त को याद करते हुए सरताज कहते हैं, ‘मैंने अपने जीवन में खुद को इतना असहाय कभी नहीं महसूस किया था. उस रात मैं कई बार मरा. आखिरकार, सुबह करीब चार बजे मुझे पता चला कि अब्बू नहीं रहे.’

सरताज जानते हैं कि एक बार अगर आंख से आंसू निकले तो उन्हें रोक पाना आसान नहीं होगा. वे रोना नहीं चाहते, न ही अपने भाई पर इसका असर होने देना चाहते हैं. सरताज अपने अब्बू को अपना रोल मॉडल मानते हैं. वे याद करते हैं, ‘मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे एक व्यक्ति बुरे से बुरे वक्त में भी उम्मीद नहीं छोड़ता. मुश्किल वक्त में भी कभी उन्हाेंने परिवार नहीं टूटने दिया. वे हमेशा हम लोगों से कहते थे कि मानवता से बढ़कर कोई धर्म नहीं है. ऐसे आदमी को उस रात धर्मांध भीड़ ने मार डाला.’

अखलाक ने कुछ समय पहले अपने घर के पास ही के मंदिर की चहारदीवारी और दरवाजे के निर्माण में निःशुल्क काम किया था. सरताज कहते हैं, ‘मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता कि जो लोग हमारे उत्सवों में शामिल हुआ करते थे, एक दिन मेरे पिता की हत्या कर देंगे. मानवता में मेरा विश्वास अब भी बरकरार है, लेकिन सिर्फ सामान्य तौर पर. मैं अपने पड़ोसियों और दूसरे गांव वालों पर कतई विश्वास नहीं कर सकता. इसलिए मैंने सोचा है कि अपने परिवार को चेन्नई ले जाऊंगा. गांव के जिन लोगों पर अब्बू के कत्ल का इल्जाम है, उनमें से कुछ तो मेरे बाद पैदा हुए हैं. मैंने उन्हें बड़े होते हुए देखा है. वे मेरे भाई के हमउम्र हैं.’

सरताज की बहन ने उन्हें बताया कि अस्पताल ले जाने के पहले ही उनके पिता की मौत हो चुकी थी. ‘लेकिन भीड़ ने उनकी लाश पर भी रहम नहीं किया. जब वैन अब्बू को अस्पताल ले जाने लगी तब उन लोगों ने वैन पर भी ईंट-पत्थर फेंके.’

वायुसेना के इस जवान के लिए अपने भाई की गंभीर हालत फिलहाल चिंता का सबब है. वे कहते हैं, ‘मेरा भाई अच्छा विद्यार्थी था. अभी कुछ  दिन पहले ही उसने उन सब प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन किए थे, जिनके लिए वह योग्य था. लेकिन वह भारतीय सेना की तरफ आकर्षित था. सेना में अफसर बनना चाहता था. वह कम्बाइंड डिफेंस सर्विस (सीडीएस) की परीक्षा भी देने वाला था.’

घटना के इतने समय बाद अब दानिश पर धीरे-धीरे इलाज का असर हो रहा है. हालांकि डॉक्टरों को यह डर है कि ठीक होने पर उसको याददाश्त से संबंधित दिक्कतें आ सकती हैं. सरताज बताते हैं, ‘उसके सिर पर जानलेवा किस्म की चोटें आई हैं. भीड़ ने मेरे पिता को तो मार ही दिया, साथ ही मेरे भाई के सपनों को भी कुचल दिया.’ दानिश के साथ गुजरे दिनों को याद करके सरताज के होठों पर मुस्कान आ जाती है. वह याद करते हैं, ‘वह जिंदादिल इंसान था. उसके साथ होने पर आपको अपनी हंसी रोकनी मुश्किल होती. वह इतना मजाकिया है कि उसके साथ कुछ देर बैठते के बाद आप हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाओगे.’

सरताज ‘तहलका’ को बताते हैं कि भीड़ का गुस्सा स्वाभाविक नहीं था. उन्हाेंने कहा, ‘मुझे नहीं याद है कि इस गांव में कभी एक भी सांप्रदायिक घटना घटी हो. जो लोग इस गांव को धर्म के आधार पर बांटना चाहते हैं, उन्हाेंने जरूर पहले से इसकी तैयारी की होगी. मैं किसी पार्टी विशेष पर इल्जाम नहीं लगाना चाहता लेकिन मैं दिल से चाहता हूं कि मेरे पिता के हत्यारों को ऐसी सजा मिले जो ऐसेे लोगों के लिए नजीर बन सके. इस बीच नेताओं को गांव का माहौल नहीं बिगाड़ना चाहिए. मैं सभी से अपील करता हूं कि सौहार्द्र बनाएं रखें. नेता आकर हमारा दुख बांट सकते हैं लेकिन उनको खून पर राजनीति नहीं करनी चाहिए.’ जाहिर है कि सरताज जिस देश की सेना में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, उस देश को लेकर उनकी निष्ठा को डिगा पाने में ऐसी कई भयावह घटनाएं भी कम पड़ जाएंगी. सरताज कहते हैं, ‘मैं अपने देश की सेवा उसी शिद्दत से करता रहूंगा जिसके साथ मेरे पिता ने मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया था’ और इसके बाद वे शाम की नमाज के लिए चले गए.’

भीड़ का इंसाफ, मानवता साफ

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शाम के आठ बजने को हैं. अक्टूबर की इस शाम की हवा में ठंडक घुल चुकी हैै. जाहिर है कि आने वाले दिन और सर्द होंगे. यहां दिल्ली से महज 70 किमी. दूर गौतमबुद्ध नगर जिले के दादरी कस्बे के पास स्थित बिसाहड़ा गांव में भी एक अजीब सी ठंडक पसरी हुई है. गांव में चुप्पी का डेरा है. इसकी वजह एक इंसान की हत्या है, जो कुछ दिन पहले यहां हुई. इस हत्या ने गांव के सामाजिक ताने-बाने को खून की लकीर खींचकर बांट दिया गया है.

मौसम की गर्माहट से इस ठंड में कोई अंतर नहीं आएगा. सालों से इस गांव के रहवासी 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक को पिछले दिनों हिंदुओं की भीड़ ने गोमांस खाने के अाशंका के चलते पीट-पीटकर मार डाला गया. इस घटना में अखलाक के 22 साल के बेटे दानिश भी गंभीर रूप से घायल हुए. दानिश अब आईसीयू से बाहर हैं पर इस घटना के बाद बिसाहड़ा गांव शायद हमेशा के लिए बदल गया.

यहां क्या हुआ है, इस बारे में गांव वालाें के कुछ बताने से पहले गांव के बाहर एक अस्थायी चाय की दुकान का माहौल सारी कहानी बयान कर देता है कि यहां सब कुछ कैसे बदल गया है. चीजें कैसे रातों-रात बदल जाती हैं! जिस गांव में दो अलग-अलग आस्थाओं के लोग सदियों से रह रहे थे. आखिरकार उसे नफरत की उपजाऊ जमीन बना देने में ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ता लगा.  28 सितंबर की उस भयानक शाम को जब अखलाक को मारा गया, तबसे ये दुकान बंद है. लेकिन इस दुकान के ग्राहक अपने तय समय पर यहां पर यह देखने आते हैं कि हालात सामान्य हुए या नहीं. 70 वर्षीय किसान रूपचंद बताते हैं, ‘पिछले 30 सालों से हमारे मिलने-जुलने की जगह यही दुकान है. कोई ऐसा दिन नहीं है जब हम यहां मिलते न हों. ज्यादा चीनी वाली चाय के साथ हम यहां पारिवारिक मसलों से लेकर राजनीति और हर चीज पर चर्चा करते हैं, लेकिन हमने कभी धर्म पर चर्चा नहीं की. दरअसल, हमने शायद ही कभी गौर किया हो कि हममें में आधे हिंदू हैं और आधे मुसलमान हैं.’ उस शाम के बाद से रूपचंद हर रोज यहां पर निश्चित समय पर आते हैं कि दोस्तों से साथ एक कप चाय पिएंगे लेकिन दुकान बंद मिलती है. वे कहते हैं, ‘इस गांव का सामाजिक तानाबाना इस तरह छिन्न-भिन्न कर दिया गया है कि अब उसे वापस संभाला नहीं जा सकता. बिसाहड़ा को फिर से बिसाहड़ा होने में लंबा समय लगेगा.’

28 सितंबर की शाम ‘मोदीमय’ हुए भारत के नागरिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘डिजिटल इंडिया’ अभियान के समर्थन में फेसबुक पर अपनी प्रोफाइल पिक्चर को तिरंगे के रंग में रंग रहे थे, जबकि मोदी फेसबुक के अमेरिका स्थित मुख्यालय में उसके सीईओ मार्क जुकरबर्ग के साथ थे और बड़े गर्व से दुनिया को बता रहे थे कि वे कितनी साधारण पारिवारिक पृष्टभूमि से हैं और देश ने उनको प्रधानमंत्री बनाकर कितना बड़ा मौका दिया है. उसी समय यहां बिसाहड़ा में कुछ ऐसा घटित हो रहा था, जो बेहद भयावह था. उसी समय अखलाक और उसके परिवार को पीटकर मार डालने के लिए भीड़ अपनी योजना को अंतिम रूप दे रही थी. अफवाह यह थी कि इस परिवार ने गाेमांंस खाया है और घर में भी रखा हुआ है. सांप्रदायिक तनाव इस गांव के लिए नया है. यहां पर 2500 परिवार हैं, जिसमें से केवल 50 परिवार मुस्लिमों के हैं.

इन डरावनी वजहाें से अचानक यह गुमनाम सा गांव बिसाहड़ा सुर्खियों में आ गया. रात भर में ही यह पुलिस छावनी और मीडिया हब में तब्दील हो गया, गांव की गलियां ओबी वैन और मीडियाकर्मियों से भर गईं. मीडिया के खुलासे के चलते कुछ संदिग्ध लोगों की गिरफ्तारी हुई. एक हफ्ते में ही बिसाहड़ा कट्टरपंथियों के अड्डे में तब्दील हो गया और सभी अपनी नफरत की राजनीति को अमल में लाने के लिए शोर करने लगे.

रूपचंद का कहना है, ‘हमारे गांव में अब स्पष्ट तौर पर सांप्रदायिक तनाव की रेखा खींची जा चुकी है. अब हिंदू, हिंदू है और मुसलमान, मुसलमान है. भाईचारे का पुराना बंधन अब नहीं रहा.’

जैसे ही आप मुख्य हाइवे से जुड़ने वाली सड़क से गांव की तरफ बढ़ेंगे, आपके लिए सामाजिक बंटवारे की वजह से फैली उस उदासी को नजरअंदाज कर पाना नामुमकिन होगा जिसने अभी अभी गांव में घुसपैठ की है और यहां अपना स्थायी बसेरा बना लेना चाहती है. समूह में खेल रहे युवाओं के माथे पर तिलक और चेहरे पर झलकती आक्रामकता वहां मौजूद तनाव के एहसास को बढ़ा देती है.  राष्ट्रीय राजधानी से 70 किमी दूर इस गांव में फिलहाल माहौल सामान्य नहीं है.

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मृतक अखलाक

गांव में इस तरह के युवाओं का दिखना नया है. भीड़ के कानून अपने हाथ में लेने के बाद यह छवि गढ़ी गई है. इसी तरह के एक युवा ने बैरभाव से भरी आवाज में इस संवाददाता का स्वागत किया, ‘मीडिया यहां बुरी तरह मारी जाएगी, टाइम रहते निकल लो.’ कुछ देर समझाने के बाद वह इस संवाददाता को बृजेश सिसौदिया के पास ले चलने को राजी हो गया. बृजेश सिसौदिया इस गांव के नए नवेले नेता और स्वयंभू मसीहा हैं.

सिसौदिया राष्ट्रवादी प्रताप सेना के अहम सदस्य हैं. राष्ट्रवादी प्रताप सेना हाल ही में सामने आया संगठन है जो हिंदुओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए लड़ने का दावा करता है. बिसाहड़ा के लिए शर्म का कारण बनी इस घटना का जिक्र करते हुए उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखी. उसने दो-टूक शब्दों में कहा, ‘गोहत्या अपराध है. हम हिंदू लोग गाय का माता के रूप में सम्मान करते हैं. हम किसी को उसे नुकसान पहुंचाने के बारे में सोचने की इजाजत भी कैसे दे सकते हैं?’

जितनी बार उनसे पूछा गया कि आपको एक मार दिए गए आदमी और उसके परिवार को लेकर कोई अफसोस है, वह अपने फोन में कुछ ढूंढने या फोन पर बात करने के बहाने बात टालता रहा. भीड़ द्वारा अखलाक को पीटकर मार डालने से संबंधित एक सवाल के जवाब में उसने कहा, ‘देखिए, हमारे संगठन का भाजपा या आरएसएस से कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि, जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के मसले पर हम आरएसएस से सहमत हैं. हमारा संगठन ज्यादातर गांववालों की रोजमर्रा की समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद करता है.’

सिसौदिया के संगठन से जुड़े यशपाल सिंह भी उन लोगों में से एक हैं जो इस घटना के संबंध में गिरफ्तार किए गए हैं. मित्रों और समर्थकों से घिरे सिसौदिया ने यशपाल सिंह के बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. इस सेना के प्रमुख जो कि ग्रामीणों के रोजमर्रा सुख-दुख में शामिल होने का दावा करते हैं, कहते हैं कि उन्हें कोई अंदाजा नहीं था कि गांव के कुछ लोग एक मुसलमान के घर पर गोमांस खाने के आरोप को लेकर हमला करने की योजना बना रहे हैं. वे मीडिया का उपहास उड़ाते हुए कहते हैं, ‘मुझे नहीं मालूम है कि वे कौन लोग थे. मैं उस पर कोई बयान नहीं देना चाहता. मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और गांव वाले उनकी मौजूदगी से चिढ़ रहे हैं. सतर्क रहें, एक गलत सवाल करने पर आप पर हमला हो सकता है.’  हाल ही में गठित सेना से जुड़े युवाओं और पुलिसकर्मियों के अलावा गांव ऐसे दिख रहा है, जैसे उसकी आत्मा ही न रह गई हो. गांव के लोग मीडिया से बात करने से कतरा रहे हैं.

गौरव और सौरव नाम के दो भाई जो अखलाक के घर के बगल में ही रहते हैं, हत्या के संदिग्ध आरोपियों के तौर पर गिरफ्तार किए गए हैं. उनके घर के मुख्य दरवाजे की दरार से रोशनी बाहर झांक रही है. दरवाजे पर दस्तक देने पर दरवाजा खुलता है. यह आरोपियों की मां उर्मिला है. लगातार रोने से सूज गए चेहरे के साथ वे कहती हैं, ‘मेरे बेटों का इस हत्या से कुछ लेना देना नहीं है. मैं मीडिया को यह बताते-बताते थक गई हूं. सारा गांव जानता है कि अखलाक को किसने मारा. हत्यारे खुलेआम घूम रहे हैं और मेरे बेटों को बिना वजह फंसाया जा रहा है.’  जब इस संवाददाता ने उनसे हत्यारे का नाम पूछा तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया. दोबारा दरवाजे खटखटाने पर उन्होंने दरवाजा खोला और पूछा, ‘हम त्योहारों पर उनके घर जाते थे, अपने यहां उनको बुलाते थे. मेरे बेटे अखलाक को चाचा कहते थे. वे उनकी हत्या कैसे कर सकते हैं? आपको एक बात और बता दूं कि हत्यारे बाहर के नहीं हैं. वे इसी गांव के रहने वाले हैं.’

उर्मिला यह स्वीकार करने वाली अकेली नहीं हैं कि अखलाक को मारने वाले इसी गांव के हैं. गांव के प्रधान संजय राणा भी कहते हैं कि हत्यारे इसी गांव के हैं. संजय राणा के केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा समेत कई भाजपा नेताओं से नजदीकी रिश्ते हैं, जिसे लेकर उनकी अकड़ जगजाहिर है. अखलाक की हत्या के आराेप में जो पकड़े गए हैं, उनमें से एक संजय राणा का बेटा भी है, लेकिन इसे लेकर संजय बेहद सहज नजर आते हैं.

राणा इसलिए भी चर्चा में हैं क्योंकि पिछले दिनों में वे बार बार अपना रवैया व बयान बदलते रहे. जब अखलाक को मारे जाने की घटना सामने आई तब संजय राणा ने कहा कि 28 सितंबर की रात को वे और उनका बेटा दोनों गांव में नहीं थे. एक हफ्ते बाद उन्होंने ‘तहलका’ से कहा, ‘जब यह घटना घटी मैं अपने घर के अंदर था.’ अखलाक के घर से राणा का घर कुछ ही मीटर की दूरी पर है. लेकिन, ग्राम प्रधान होने के बावजूद, जब भीड़ अखलाक को पीट-पीटकर मार रही थी, वे अपने घर से नहीं निकले. वे याद करते हुए कहते हैं, ‘गांव के पुजारी ने मंदिर के लाउडस्पीकर से घोषणा कर गांववालों से बिजली के ट्रांसफार्मर के पास इकट्ठा होने को कहा. मुझे बताया गया कि लोग अखलाक के घर के पास इकट्ठा हो रहे हैं. मैंने 10.30 बजे रात को पुलिस को फोन किया. जब तक पुलिस न आ जाए, मैंने घर में ही रहने का फैसला किया. यह मैं ही था जो अखलाक को अपनी कार में लेकर अस्पताल गया.’

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पूरी बातचीत के दौरान राणा कहीं भी चिंतित नहीं दिखते. अपने समर्थकों से घिरे हुए, वे पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं कि उनका बेटा जल्दी ही छूट जाएगा. वे कहते हैं, ‘मेरा बेटा गुड़गांव में मेरे दामाद की फैक्ट्री में काम करता है. जब यह घटना हुई, उस समय वह दिल्ली में था.’ घटना के बाद राणा का बेटा बिसाहड़ा से सटे एक गांव से गिरफ्तार किया गया था.

‘तहलका’ ने उस पुजारी से भी मिलने की कोशिश की जिसने मंदिर के लाउडस्पीकर से घोषणा की थी, लेकिन मंदिर के पास जिस कमरे में वह रहता है, वह बंद था. वहां आसपास रहने वाले ज्यादातर लोगों ने बताया कि पूछताछ के बाद जबसे पुलिस ने उसे छोड़ा है, तबसे वह दिखाई नहीं दिया. यह कोई नहीं जानता कि असल में वह पुजारी कहां से आया था. संजय राणा कहते हैं, ‘मैं उसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता. एक साल पहले पुराने पुजारी की मौत हो गई थी, तब से मंदिर की देखरेख बिना किसी पुजारी के की जा रही थी. पूर्व प्रधान बाग सिंह द्वारा बहुत सिफारिश करने पर मैंने सुखदास को नए पुजारी के रूप में नियुक्त किया था.’ जबकि बाग सिंह ने ‘तहलका’ को बताया, ‘यह निहायत बकवास है. मैं उस पुजारी को नहीं जानता. मैं किसी ऐसे आदमी के नाम की सिफारिश क्यों करूंगा जिससे मैं पहले कभी मिला ही नहीं?’  कुछ गांव वालों ने बताया कि पुजारी बताया करता था कि वह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का रहने वाला है. एक ग्रामीण ने बताया, ‘लेकिन हर आदमी से अपने गांव का नाम उसने अलग-अलग बताया है.’ गांव में पुलिस तैनात है, लेकिन पुलिस को भी नहीं पता है कि प्रारंभिक पूछताछ के बाद वह पुजारी कहां गया? जन हस्तक्षेप नामक संगठन की ओर से गांव में एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम भेजी गई थी. इस टीम के सदस्य विकास वाजपेयी ने बताया, ‘कहा जा रहा है कि पुजारी एक अक्टूबर को डॉक्टर के पास गया था, तबसे नहीं लौटा.’

इस बीच अखलाक के घर का दरवाजा बंद है. इस गांव का एक पुश्तैनी परिवार उजाड़ा जा चुका है. वे अपने ही पड़ोसियों से धोखा खाकर आहत हैं इसलिए किसी ‘सुरक्षित’ जगह जाना चाहते हैं. फिलहाल अखलाक का परिवार वायुसेना में कार्यरत उनके दूसरे बेटे के साथ चला गया है. अखलाक की बेवा की टूटी चूड़ियों के टुकड़े खून सने दरवाजे के पास बिखरे एक निष्ठुर संदेश दे रहे हैं कि ‘बिसाहड़ा अब दोबारा वैसा नहीं हो सकेगा.’ लेकिन कुछ लोग तो यह भी पूछते हैं कि क्या भारत अब पहले जैसा रह जाएगा और क्या अखलाक के परिवार जैसे अन्य परिवार अधिक समय तक महफूज रह पाएंगे?

सार्वजनिक होंगी नेताजी से जुड़ी फाइलें

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा फैसला किया है. नेता जी से जुड़ी गोपनीय फाइलों को अगले साल उनके जन्मदिन 23 जनवरी को सार्वजनिक किया जाएगा. इसका ऐलान स्वयं प्रधानमंत्री ने नेता जी के परिवार से मुलाकात के बाद किया.

प्रधानमंत्री ने कहा, ‘कोई कारण नहीं है जिसकी वजह से इतिहास का गला घोंटा जाए. मैं न सिर्फ दूसरे देशों की सरकारों को इस बारे में पत्र लिखूंगा बल्कि अपनी मुलाकातों के दौरान भी इस मुद्दे को उठाऊंगा.’ दूसरे देशों के सामने ये मुद्दा उठाने की शुरुआत दिसंबर में रूस से होगी. 14 अक्टूबर को नेताजी के परिवार के 35 सदस्यों से मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री ने ये फैसला लिया. इससे पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नेताजी से जुड़ी 64 गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक कर चुकी हैं जो कोलकाता पुलिस के म्यूजियम में रखी हैं. बनर्जी ने फाइलें सार्वजनिक करने के दौरान मोदी सरकार को केंद्र सरकार के पास मौजूद 41 फाइलों को सार्वजनिक करने की चुनौती दी थी. अगले साल नेताजी से जुड़ी गोपनीय बातें देश के सामने आएंगी, जिनसे कई रहस्योद्घाटन होने की उम्मीद है. कहा जाता है कि नेताजी की मौत एक विमान दुर्घटना में हुई थी लेकिन इसके कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले. 1953 से साल 2000 तक तैयार की गई 41 फाइलों में से अब तक केवल 2 ही सार्वजनिक की गईं हैं. शेष 39 में 4 अति गोपनीय, 20 गोपनीय, 5 क्लासीफाइड और 10 अनक्लासीफाइड फाइलें हैं.

हिंदी साहित्य में स्वेतलाना एलेक्सीविच की जरूरत

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इस साल साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बेलारूस की खोजी पत्रकार और नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक) लेखिका स्वेतलाना एलेक्सीविच की सबसे चर्चित किताब ‘वॉयसेज फ्रॉम चर्नोबिल’ के बारे में पढ़ते हुए मेरा ध्यान सबसे पहले भोपाल गैस त्रासदी के साहित्यिक दस्तावेजीकरण की तरफ गया. यह किताब वर्ष 1986 में यूक्रेन के चर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए भयानक विस्फोट के दुष्परिणामों पर आधारित है. अपनी रिपोर्टिंग के दौरान स्वेतलाना ने दुनिया की सबसे वीभत्स औद्योगिक आपदाओं में से एक के तौर पर पहचाने जाने वाली ‘चर्नोबिल आपदा’ के पीिड़तों का कई सालों तक साक्षात्कार लिया. बारम्बार… तब तक लोगों से दोबारा-तिबारा मिलती रहीं, जब तक लोग घटना से जुड़ी अपनी सबसे ईमानदार ‘भावनात्मक याद’ उन्हें बता न दें. जाहिर है पीिड़तों की यादों के जरिये चर्नोबिल विभीषिका की कहानी का करुणामयी दस्तावेजीकरण करके उसे किताब की शक्ल देने का काम उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना और उन्हें प्रसिद्धि दिलाई. स्वेतलाना का जन्म यूक्रेन में हुआ था पर उन्होंने अपना सारा जीवन यूक्रेन से सटे बेलारूस और उसके पड़ोसी स्लाविक क्षेत्रों में रिपोर्टिंग करते हुए बिताया. स्थानीय रूसी भाषा में रिपोर्ताज और किताबें लिखीं और हाशिये पर खड़े आम लोगों की जिंदगियां इतिहास में दर्ज करती रहीं.

स्वेतलाना को अभी-अभी मिले साहित्य के नोबेल पुरस्कार और ‘वॉयसेज फ्रॉम चर्नोबिल’ के साथ-साथ ‘वॉर्स अनवूमेनली फेस’ जैसी उनकी महत्वपूर्ण नॉन-फिक्शन (सत्य घटनाओं पर आधारित/ गैर काल्पनिक) किताबों ने एक तरफ जहां एक पत्रकार के तौर पर मुझे प्रेरित किया, वहीं मेरे जेहन में भोपाल गैस त्रासदी से लेकर हिंदी पत्रकारिता और हिंदी साहित्य तक से जुड़े कई सवाल भी पैदा किए. लेकिन इन सवालों पर आने से पहले इस साल के साहित्य नोबेल पुरस्कार के वैश्विक महत्व में झांकना जरूरी है.

आठ अक्टूबर की दोपहर घोषित हुआ साहित्य का नोबेल पुरस्कार मेरे लिए प्रोत्साहन और उम्मीद से भरी एक चिट्ठी की तरह था. शायद यह मेरे साथ हर पत्रकार के लिए गर्व का क्षण था. नोबेल पुरस्कार के इतिहास में पहली बार एक सक्रिय खोजी पत्रकार को नॉन-फिक्शन लेखन के लिए ये पुरस्कार दिया गया है. यहां यह दोहराना भी जरूरी है कि उपन्यासों, कविताओं और कहानियों जैसी विधाओं से पहचाने जाने वाले वैश्विक साहित्यिक संसार में नॉन फिक्शन विधा को दोयम दर्जे का समझा जाता रहा है. इस भेदभाव के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ‘कल्पना की उड़ान’ भरकर ‘कला’ को ऊंचाइयों तक ले जाने की जो आजादी काल्पनिक उपन्यासों-कविताओं और कहानियों के पास है, वह सिर्फ सत्य घटनाओं पर आधारित नॉन-फिक्शन के पास कहां? इतना ही नहीं, हर रोज आपदाओं के बीच बदल रही दुनिया का दस्तावेजीकरण करने वाली रिपोर्ताज (लॉन्ग फॉर्म रिपोर्टिंग) की महत्वपूर्ण विधा को भी हिकारत की नजर से देखकर हमेशा खारिज ही किया गया है. ऐसे में स्वेतलाना को नोबेल मिलने की खबर आने के बाद जब कुछ लोगों से सोशल मीडिया पर नोबेल पुरस्कार समिति को ‘शेम शेम’ कहते हुए उनके गिरते हुए स्तर को कोसा तो मुझे बिलकुल भी हैरानी नहीं हुई. एक सज्जन ने तो पुरस्कार समिति से ही सवाल किया कि क्या वे यह भूल गए थे कि स्वेतलाना सिर्फ एक  ‘पत्रकार’ हैं?book

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स्वेतलाना को यह पुरस्कार मिलना कई कारणों से महत्वपूर्ण है. एक रिपोर्टर होने के नाते स्वेतलाना के काम और उनके जीवन से प्रेरणा मिलती है. इस बात का गर्व भी है कि हमारे ही बीच के एक साथी रिपोर्टर ने अपनी गहरी संवेदना, लगन और लेखन शैली पर सालों लगातार काम करने के बाद विश्व के लिए कितने महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किए. अपने एक इंटरव्यू में स्वेतलाना ने कहा, ‘अगर मैं 19वीं सदी में पैदा हुई होती तो जरूर उपन्यास लिखती, लेकिन युद्ध, महामारी, अकाल, अत्याचार जैसी अनगिनत आपदाओं से भरी 20वीं सदी के इतिहास को बताने के लिए फिक्शन कमजोर माध्यम है, इसलिए मैंने हजारों साक्षात्कारों के बाद सामने आने वाली लोगों की भावनात्मक यादों के आधार पर लिखे गए रिपोर्ताज का रास्ता चुना.’ उनकी किताबों को नोबेल पुरस्कार समिति ने ‘सोवियत रूस का भावनात्मक इतिहास’ कहकर संबोधित किया है.

इस पुरस्कार को साहित्यिक सामंतों के दंभ को तोड़ने वाली घटना के तौर पर भी देखा जा सकता है. शायद अपनी आराम कुर्सियों पर बैठकर कल्पना की उड़ाने भरते हुए अंग्रेजी में लिखने-पढ़ने वाले एक बड़े वर्ग के लिए यह सच पचा पाना बहुत मुश्किल होगा कि एक छोटे से गांव में गरीब ग्रामीण प्राथमिक शिक्षक के घर जन्मी एक लड़की को अपनी स्थानीय भाषा में लिखने के लिए नोबेल कैसे मिल गया? और उसने लिखा भी तो क्या! छोटे ग्रामीण अखबारों से लेकर पत्रिकाओं तक में लिखा, हाशिये पर ढकेल दी गईं आम औरतों और बच्चों की जबान बनीं.

स्वेतलाना को मिला यह पुरस्कार एक ओर जहां रिपोर्ताज के महत्व को दोबारा स्थापित करता है, वहीं भारतीय पत्रकारिता के सामने कई सवालों के सिरे भी छोड़ जाता है. सवाल ये कि हिंदी पत्रकारिता और लेखन में लंबे रिपोर्ताज पर आधारित जमीनी किताबों की क्या स्थिति है? फणीश्वर नाथ रेणु की ‘ऋणजल धनजल’ और फिर अनिल यादव की ‘वह भी कोई देस है महाराज’ जैसी गिनती की कुछ किताबों के नाम ही याद आते हैं, जबकि हमारे देश में आपदाओं और महामारियों के साथ-साथ समाज की हर परत में गहरा टकराव है, जिसकी वजह से भारत विदेशी पत्रकारों और लेखकों को हमेशा आकर्षित करता रहा है. यह हमारे लिए आत्मविश्लेषण का प्रश्न है कि क्यों आंतरिक संघर्षों और अनगिनत टकरावों के बारूद पर बैठे इस देश के सबसे ज्वलंत मुद्दों पर सबसे अच्छा काम विदेशी लेखकों का है?

उदाहरण के लिए भोपाल गैस त्रासदी पर प्रकाशित हुई सबसे प्रसिद्ध किताब ‘फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल’ फ्रांसीसी लेखकों डॉमिनिक लैपियर और जेवियर मोरो ने लिखी, फिर पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित कैथरीन बू की किताब ‘बिहाइंड द ब्यूटीफुल फॉरएवर्स’ को भारतीय गरीबी पर सबसे मजबूत किताब के तौर पर देखा जाता है. भारत में जो थोड़ी बहुत रिपोर्ताज प्रकाशित होती हैं, वे सिर्फ अंग्रेजी में काम करने वाले मीडिया संस्थान ही करते हैं. स्थानीय भाषा में लिखने वाले हिंदी पत्रकारों को लंबी रिपोर्ताज लिखने के लिए प्रोत्साहित और प्रकाशित करना न सिर्फ लेखन के लोकतांत्रिकरण के लिए, बल्कि विषय के साथ न्याय करने के लिए भी जरूरी है. लेकिन हिंदी के अखबार महत्वपूर्ण विषयों पर लंबी रिपोर्ताज प्रकाशित करने के लिए आम तौर पर दो पन्ने की जगह भी नहीं देते. सामंती सोच, औपनिवेशिक असर के साथ हिंदी में संसाधनों की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है. कारण कई हो सकते हैं पर हिंदी साहित्यकारों के साथ ही हिंदी पत्रकार भी कभी अपने समय का ईमानदार दस्तावेजीकरण न करने पाने की जवाबदेही से इनकार नहीं कर पाएगी.

‘इस बार सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को पता चलेगा कि सीमांचल की जनता में कितना आक्रोश है’

बिहार के सीमांचल में आपकी पार्टी चुनाव आखिर किस मकसद से लड़ रही है?

भारत एक जनतांत्रिक देश है और यहां हर दल कहीं से भी चुनाव लड़ सकता है. जहां तक असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का चुनाव लड़ने का सवाल है तो सीमांचल के लोगों ने लगातार उनसे संपर्क किया. अपनी गरीबी, बदहाली, परेशानी को बताया. किशनगंज में बड़ी रैली करने के बाद जनता की भीड़ और भावनाओं को देखकर हमने यह फैसला किया कि हम चार जिलों किशनगंज, अररिया, कटिहार व पूर्णिया में चुनाव लड़ेंगे.

आपकी पार्टी का मुख्य मसला क्या होगा?

सीमांचल के इलाके में तो मसले ही मसले हैं. सीमांचल का मसला कभी उठा कहां? सीमांचल के जिले पटना से 500 किलोमीटर की दूरी पर है. पटना में तीन-तीन मेडिकल कॉलेज हैं. पटना से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मुजफ्फरपुर में इंजीनियरिंग कॉलेज, विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज हैं. 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया में भी ढेरों संस्थान हैं. पटना में नीतीश कुमार ने तीन नए संस्थान खोले- आर्यभट्ट तकनीकी विश्वविद्यालय, चंद्रगुप्त प्रबंधन विश्वविद्यालय व चाणक्य नेशनल लॉ विश्वविद्यालय. सीमांचल के लिए क्या हुआ? सीमांचल में प्रति व्यक्ति आय 8000-9000 रुपये है जो कि राज्य में सबसे कम है. पूरे प्रदेश में किशनगंज में सबसे ज्यादा 79 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं. दूसरे जिलों में जहां 5-10 पंचायतों पर एक प्रखंड है वहीं हमारे इलाके में 25-30 पंचायतों पर एक प्रखंड है. किशनगंज की आबादी 17 लाख है और केवल दो मान्यताप्राप्त कॉलेज हैं. किशनगंज के नेहरू कॉलेज में तो दो हजार छात्रों पर एक शिक्षक हैं. अब खुद ही बताइए कि क्या यह न्याय है?

मुस्लिमों की हालत तो पूरे बिहार में ही ऐसी है, तो फिर सिर्फ सीमांचल में चुनाव क्यों लड़े रहे हैं, पूरे बिहार में क्यों नहीं?

हम पहले अपने आधार का विस्तार करेंगे, उसके बाद पूरे बिहार में भी जाएंगे.

आपकी पार्टी और ओवैसी पर तो सीधे आरोप है कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए आप लोग चुनाव लड़ रहे हैं?

ऐसी झूठी अफवाहों की परवाह नहीं. सीमांचल की जनता जानती है कि हम क्या हैं और सांप्रदायिकता के खिलाफ हमने क्या लड़ाई लड़ी है. और जहां तक राजद-जदयू के महागठबंधन की ओर से आरोप लगाने का सवाल है तो जदयू 17 साल तक भाजपा के साथ ही रही है, उसे तो भाजपा के खिलाफ बोलने का हक तक नहीं.

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क्या सीमांचल में आप अपनी पार्टी से सिर्फ मुसलमानों को ही टिकट देंगे या दूसरे समुदाय के लोगों को भी पार्टी का उम्मीदवार बनाएंगे?

ये हिंदू-मुसलमान का देश नहीं है. जो हिंदुस्तानी हैं, हम उनके साथ होंगे, वे हमारे साथ. हमारी पार्टी ने महाराष्ट्र में दलितों को टिकट दिया. औरंगाबाद में म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में 29 में पांच दलित हैं और वे सभी हमारी पार्टी से हैं. हम संप्रदाय और जाति के आधार पर राजनीति नहीं करेंगे. हम सिर्फ जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे. हमारे लड़ने से सीमांचल में इस बार सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को पता चलेगा कि यहां की जनता में कितना आक्रोश है. सीमांचल की जनता दूध का दूध और पानी का पानी करेगी.

लेकिन एक बात तो तय है कि आपकी पार्टी चुनाव लड़ेगी तो वोटों का बंटवारा होगा और धर्मनिरपेक्ष ताकतें कमजोर होंगी. आप क्या सोचते हो?

याद रखिए, देखते रहिएगा. हम धर्मनिरपेक्ष को ही मजबूत करेंगे और तरक्की पसंद वोटों को बिखरने नहीं देंगे.

‘दो महानायकों के बीच फंसे नीतीश’

Nitish 1 webइस बार बिहार का चुनाव दिलचस्प दौर से गुजर रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में जो जनादेश आया था, उसे नीतीश कुमार ने नई कहानी की संज्ञा दी थी. बेशक वह नई कहानी थी भी. जाति की राजनीति पर विकास के एजेंडे की जीत के तौर पर उस जनादेश को देखा गया था. नायक नीतीश कुमार थे. बड़े सहयोगी के तौर पर भाजपा थी और मुख्य प्रतिद्वंद्वी के साथ पराजित योद्धा के रूप में लालू प्रसाद यादव थे.

इस बार स्थिति पूरी तरह से उलट गई है. इस बार भी नायक नीतीश कुमार ही हैं लेकिन सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी बदल गए हैं. या यूं कहें कि सीधे अदला-बदली हो गई है. एजेंडा भी बदल गया है. विकास के पैकेज और काउंटर पैकेज के बड़े-बडे दावे हैं. और उसके बीच भाजपा के आक्रमण, जंगलराज पार्ट-2 और लालू प्रसाद के प्रत्याक्रमण, मंडल राज पार्ट-2 का मसला है. इसी को केंद्र में रखकर चुनाव लड़ा जा रहा है.

इन सबके साथ इस बार के बिहार चुनाव में कुछ नया भी है. केंद्र में तो नरेंद्र मोदी यह काम कर चुके थे लेकिन बिहार के चुनावी इतिहास में संभवतः पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राजनेता ने व्यक्ति-केंद्रित ब्रांडिंग की हो और इसके लिए किसी प्रोफेशनल एजेंसी की सेवा ली हो. बेशक शुरुआती आक्रमक प्रचार अभियान ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पर सुशोभित करने में मदद की और भले ही तमाम चुनाव सर्वे उनकी व्यक्तिगत चमक की ताकीद करते हों, लेकिन बिहार के मौजूदा चुनावी राजनीतिक फिजा में ब्रांडिंग फीकी पड़ती दिखाई दे रही है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि भाजपा ने इस पद के लिए किसी नाम की ब्रांडिंग नहीं की है- जिसके बरक्स नीतीश कुमार अपनी चमक को और रौशन बना सके है. इसके अलावा, नीतीश खेमे के रणनीतिकारों ने शायद यह सोचा नहीं होगा कि उनके अपने गठबंधन में लालू यादव और एनडीए के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी के रूप में दो महानायक मौजूद हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट शैली और आभामंडल का फिलहाल भारतीय राजनीति में कोई जोड़ नहीं.

वैसे तो बिहार का चुनाव घोषित तौर पर विकास के एजेंडे पर लड़ा जा रहा हैं, लेकिन सामाजिक न्याय यहां की राजनीति की अंतःचालक शक्ति है. इन एजेंडों की युगलबंदी दोनों प्रतिद्वंद्वी खेमे कर रहे हैं. सामाजिक न्याय पर नया जोर जहां लालू यादव को बड़ा स्पेस देता है, वहीं विकास पर जोर भाजपा को. भाजपा को यह स्पेस सन 2005 में ही मिल गया था जब विकास बिहार के एक बड़े एजेंडे के रूप में उभरा था. भाजपा ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत जंगल राज पार्ट-2 के नाम पर लालू पर हमला शुरू किया, तो लालू यादव को प्रमुखता से सीन में आना ही था.

उल्लेखनीय है कि नीतीश के उभार में उनके द्वारा तथाकथित जंगल राज की मुखालफत और ‘कानून के राज’ की स्थापना की प्रमुख भूमिका रही है. भाजपा इसके जरिए लालू विरोधी उन सामाजिक आधारों को गोलबंद करना चाह रही है, जो नीतीश के समर्थक रहे हैं. जंगलराज के मुद्दे पर नीतीश की रक्षात्मक मुद्रा का कारण यही है. पिछले दस वर्षों में पहली बार होगा कि नीतीश कुमार चुनाव प्रचार के दौरान अपने प्रिय चुनावी पाठ ‘लाठी में तेल पिलावन बनाम कलम में स्याही’ को दोहरा नहीं पाएंगे.

वहीं लालू-नीतीश जुगलबंदी की रणनीति रही है. जब लालू मंडल पार्ट-2 की बात कर रहे हो तो नीतीश चुप रहकर उसे बढ़ावा दें और नीतीश के विकास मॉडल व पैकेज को लालू चलते-चलते हां कर दें. लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान परवान चढ़ रहा है और मुद्दे जुड़ रहे हैं, इस जुगलबंदी में लालू की तान ऊंची हो रही है. जाति जनगणना और अभी हाल में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान पर लालू की आक्रामक पहल को लें तो नीतीश का पीछे छूट जाना तय था. दूसरे शब्दों में इस राजनीतिक पाठ में नीतीश अनुपूरक या परिशिष्ट की भूमिका में नजर आते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि लालू की बढ़ी हुई तान इस युगलबंदी को सुरीली बनाती है या फिर बेसुरी? इसी प्रकार नरेंद्र मोदी के ताबड़तोड़ राजनीतिक हमलों और पैकेज घोषणा के जवाब में नीतीश उतने आत्मविश्वास में नहीं दिखें. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यहां नीतीश भाजपा की नकल कर रहे हैं या उसके जाल में फंस रहे हैं. प्रोफेशनल टीम, ब्रांडिंग, बिहारी अस्मिता आदि इसी के संकेत हैं. बहरहाल, नीतीश महागठबंधन के सभी उम्मीदवारों की घोषणा कर रहे हैं. उनका ब्रांड ऊपर से ज्यादा सुसज्जित नजर आ रहा है, लेकिन क्या यह सच नही कि नीतीश दो महानायकों (मोदी और लालू) के बीच दब सा गया है?

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यादवों को साध रहे लालू, साला, समधी, दामाद नहीं साध पाए

अपने-अपने परिजनों, परिवारवालों से सब परेशान हैं. रामविलास पासवान अपने दामाद अनिल साधु से परेशान रहे. साधु को टिकट नहीं दिये तो वे जमकर रोए. बर्बाद करने की धमकी देकर टिकट के लिए पप्पू यादव के खेमे में चले गए. जीतन राम मांझी के दामाद देवेंद्र मांझी ने बोधगया से टिकट के लिए बालहठ किया, वह अलग परेशानी रही. मांझी की समधियाइन ज्योति मांझी के लिए एक टिकट का जुगाड़ करना भी उनके लिए परेशानी का सबब बना. रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को अपने समधी का टिकट साधने के लिए नरकटियागंज के एक संभावित उम्मीदवार संत सिंह का टिकट काटना पड़ा. संत सिंह ने भरी सभा में रोकर जो गदर मचाया, सबने देखा.

सब ससुराल, समधियाना और साला से परेशान रहें, लेकिन लालू प्रसाद की परेशानी कुछ अजीब सी ही हो गई है. लालू प्रसाद अपने ससुराल के कारण राजनीति में बदनाम रहे. राबड़ी के प्रयोग के लिए उन्हें खलनायक माना गया था. यह अलग बात रही कि लालू के इस प्रयोग के बाद तमाम दलों के नेताओं ने अपनी-अपनी ‘राबड़ियों’ को मैदान में उतारा था और अब भी उतार रहे हैं. वाया राबड़ी, लालू प्रसाद अपने दोनों चर्चित साले साधु यादव और सुभाष यादव के लिए भी कम बदनामी नहीं झेले, लेकिन इस बार जब लालू प्रसाद पूरे बिहार के यादवों को साधने में ऊर्जा लगाए हुए हैं, तब उनके दोनों साले अलग-अलग खेमे में हैं. सुभाष पप्पू यादव का दामन थाम चुके हैं, साधु यादव गरीब जनता दल बनाकर लालू के खिलाफ ही ताल ठोंक रहे हैं. इसके पहले साधु अपनी बहन राबड़ी के खिलाफ भी राजनीतिक मोर्चा खोलने के लिए जाने गए थे.

इसके बाद रही-सही कसर लालू प्रसाद के नए नवेले समधी बने मुलायम सिंह यादव निकाल रहे हैं. मुलायम सिंह नीतीश और लालू प्रसाद से नाता तोड़कर लालू के घोर राजनीतिक दुश्मन पप्पू यादव से जा मिले, वह तो पीड़ादायी रहा ही, अब लालू प्रसाद के नए दामाद यानी अपने भतीजे को बिहार भेजकर लालू प्रसाद की राजनीति और उनके दोनों बेटों को हराने के अभियान में लग गए हैं. लालू के दामाद अपने ही ससुर और साले के खिलाफ जंग लड़ने बिहार आ रहे हैं. दामाद हैं तेजप्रताप यादव, जो उत्तर प्रदेश के मैनपुरी से सांसद हैं. वे सपा के हैं, इसलिए लालू प्रसाद की पार्टी के खिलाफ प्रचार करने आने वाले हैं. राहत की बात ये है कि उनके दूसरे दामाद चिरंजीवी, जो हरियाणा के हैं, वे लालू प्रसाद के पक्ष से अपने साढ़ू का मुकाबला करेंगे और सालों का साथ देंगे.

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भाजपा-2 में मंडल और कमंडल दोनों समाहित हैं

एक पखवाड़े पहले तक भाजपा और उसके साथियों का समूह यानी राजग जिस तरह की बढ़त लिए हुए दिख रहा था, अब वैसी स्थिति नहीं है. लालू प्रसाद-नीतीश कुमार और कांग्रेस के योग से बने महागठबंधन की स्थिति बेहतर होती हुई दिखी है. इसके पीछे का आधार रणनीतिक तौर पर दिखी एकता है. अंदर चाहे जितनी कचकच हो महागठबंधन में लेकिन बाहर से इन लोगों ने एका दिखाई है, दिखाने की हरसंभव कोशिश की है. सीट बंटवारे से लेकर टिकट बंटवारे तक की घोषणा में. एका दिखाने का संदेश भी अच्छा गया है. इससे एकजुटता भी बढ़ी है. इसका एक स्पष्ट फायदा यह हुआ कि इसके पहले यह लग रहा था कि लालू अपने कोर वोट को नीतीश के लिए ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे और नीतीश अपने कोर वोट को लालू के लिए ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे, उससे धुंध छंटा. अब दोनों अपने कोर वोट एक-दूसरे के उम्मीदवारों के लिए ट्रांसफर कराने की स्थिति में बहुत हद तक आ गए हैं. लेकिन इसी एक ताकत या कवायद के भरोसे महागठबंधन को बढ़त मिल जाए, संभव नहीं दिखता. भाजपा  और राजग के पास अपनी कमजोरियां हैं. उनके सहयोगी दलों में बिखराव ज्यादा है. उसका नुकसान उन्हें चुनाव में उठाना पड़ेगा, लेकिन स्थितियां उसे मजबूत भी बनाती हैं. लालूजी ने फिर से मंडल टू का मसला उठाया है. उसे ही वे प्रचारित कर रहे हैं. वे जब अपनी पहली चुनावी सभा में गए तो खुलकर बोले कि यह बैकवर्ड और फॉरवर्ड की लड़ाई है. लालूजी जिस तरह से मंडल के उभार के लिए बेचैन हैं और जिस तरह के बयान दे रहे हैं, वैसे बोल तो वे मंडल के शुरुआती दिनों में भी नहीं बोलते थे. 90 के दशक के आरंभिक सालों में भी लालू खुलकर इस तरह नहीं बोलते थे. यह उनकी बेचैनी को दिखा रहा है. उन्हें अहसास है कि मंडल कार्ड ही खतरे में है. इसलिए वे बार-बार मंडल टू और फिर उससे सरककर यदुवंशियों पर आ रहे हैं. लेकिन इस मंडल में मुख्य करिश्मा अतिपिछड़े दिखाते थे, दलित दिखाते थे. लालूजी इसे ही जिन्न कहते थे, और इस बार उनके साथ जिन्न दिख नहीं रहे. बिना जिन्न के मंडल टू कैसे होगा, यह एक सवाल है. नीतीश कुमार ने जो टिकट बंटवारा किया है, वह तो फिर भी ठीक-ठाक है लेकिन लालू के टिकट बंटवारे को देखिए. 18 सीटें उन्होंने दलितों को दिया है. यह उनकी मजबूरी थी, क्योंकि वे रिजर्व सीट थे. बाकि बचे सीटों में से 16 सीट मुसलमानों को दिए लेकिन उसके बाद की 66 सीटो में से 53 सीट उन्होंने यादवों को दी. मंडल के नाम पर यादवों का पुनः उभार या उनको उभारने की कोशिश ही इस राह में रोड़ा बनेगा. एक समय होता है, सामर्थ्य की एक सीमा होती है, उसके बाद सब चुकता है. यादवों की वोट कैचिंग कैपिसिटी पहले जैसी नहीं रह गई है. लालू, यादव और मुसलमानों को तो संभाल भी लें लेकिन दूसरे छिटकते जा रहे हैं. इसलिए मंडल टू की बात बार-बार कहने पर भी वह जोश दूसरी जातियों में नहीं आ पा रहा. इसकी दो वजहें हैं. एक तो महागठबंधन इस बार जिस भाजपा से लड़ने को तैयार है, वह भाजपा वन नहीं भाजपा टू है. वह मंडल और कमंडल, दोनों को अपने में समाहित किए हुए है. कमंडल के सबसे बड़े प्रतीक आडवाणी थे, उन्हें भाजपा दरकिनार कर चुकी है. अब जो भाजपा टू है, उनसे कमंडल में मंडल और मंडल में कमंडल को समाहित करने की कोशिश कर, घालमेल कर दिया है. सारी बीच नारी कि नारी बीच सारी जैसी स्थिति बना दी है. मंडल टू का नारा चलता, अगर पिछले 25 सालों में कोई ठोस काम हुआ होता. बिहार में शहरीकरण हुआ होता, पिछड़ों के लिए अलग से ठोस आर्थिक नीति बनी होती, उनके शिक्षा या रोजगार के लिए कुछ हुआ होता, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं. तो जब 25 सालों में नहीं कर सके तो फिर काठ की हांडी दोबारा वे चढ़ायेंगे नहीं, जिनके बूते मंडल चलता रहा. 25 साल का समय कोई कम भी नहीं होता. इतने सालों में जो ठोस नहीं कर सका, अब वह जितने भी लंबे समय तक रहे, ठोस नहीं कर सकता. माओ ने 1949 में चीन में सरकार बनाई थी और 1972 आते-आते जो करना था कर दिया. ऐसे उदाहरण दुनिया भर में मिलेंगे. किसी एक बदलाव के लिए एक नेतृत्व या नीति पर जनता लंबे समय तक भरोसा नहीं करती. मंडल टू की बात करेंगे, आरक्षण पर बात करेंगे, उसे एजेंडा बनाएंगे लेकिन कांग्रेस साथ में रहेगी, हार्दिक पटेल प्रचार करने आएंगे, अरविंद केजरीवाल को साथ में घुमाया जाएगा तो फिर उसका असर कैसा होगा, यह भी समझने वाली बात है. कांग्रेस के नेता जतिन प्रसाद साफ कह रहे हैं कि पिछड़ों में जो ऊंची जातियां हैं, उन्हें आरक्षण से बाहर किया जाना चाहिए. मनीष तिवारी कह रहे हैं कि आरक्षण की समीक्षा हो. हार्दिक पटेल का पूरा अभियान ही मंडल विरोधी है. अरविंद केजरीवाल के बारे में सब जानते हैं कि वे आरक्षण पर क्या विचार रखते हैं. ऐसे लोग साथ रहेंगे और आरक्षण-मंडल की बात भी होगी, यह कैसे संभव होगा. और बात इतनी ही नहीं. सामाजिक न्याय सिर्फ जातियों पर तो चलता नहीं. इस पर तो पिछले 25 सालों में काम हुआ नहीं. जब नीतीश कुमार सत्ता संभाली थी तब राज्य में 29 प्रतिशत लोग बीपीएल में आते थे, 2010 में उनके ही मंत्री ने आंकड़ा पेश किया था कि यह प्रतिशतता बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई है. गरीब बढ़ते गए, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले बढ़ते गए तो उसका कोई असर तो राजनीतिक दृष्टि से भी पड़ा होगा. इस बार दलितों का एक हिस्सा मांझी के कारण लालू नीतीश से दूर है. पासवान, मुसहर, दलित नीतीश से दूर हैं. अतिपिछड़ों में कहार, मल्लाह, कुम्हार, केवट आदि नीतीश से दूर हैं. एक-एक कर कई ब्लॉक दूसरी ओर शिफ्ट कर चुके हैं. इसका असर तो होगा ही. और इतने के बाद लालू प्रसाद अगर कहेंगे कि वे गरीब के बेटे हैं तो उधर से नरेंद्र मोदी उनसे भी ज्यादा तेज आवाज में बताने वाले हैं कि उनकी मां पोछा करती थी, वे चाय बेचते थे. और रही-सही कसर तीसरे मोर्चे के रूप में पनपा फ्रंट करेगा, वह एनडीए को कम और महागठबंधन को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा.

(निराला से बातचीत पर आधारित)

‘बिहार के लोग लालू और नीतीश से ऊब गए हैं, अब वे बदलाव चाहते हैं’

RAM VILAS PASWAN by Trilochan S kalra/ Tehelka

बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

विधानसभा चुनाव पर मेरे पास कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. जनता परिवार से जुड़ी खबरें रोजाना मीडिया में आ रही हैं, इसलिए आप वह सब कुछ जान ही रहे होंगे जो इस राज्य की राजनीति में घट रहा है. मैं बस इतना कह सकता हूं कि हम दो तिहाई बहुमत से चुनाव जीत रहे हैं.

भाजपा ने अब तक मुख्यमंत्री पद के दावेदार का नाम क्यों नहीं उजागर किया है?

मुझे लगता है कि इस मामले को भाजपा पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा कर रही है या नहीं. हालांकि ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह भाजपा की नई रणनीति है. यहां तक कि राजग का हिस्सा होने के बावजूद मैंने भी उनसे कह रखा है कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद के दावेदार का खुलासा न किया जाए. आप खुद देख सकते हैं कि अब तक जिन राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हुए वे सभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े गए. चाहे यह महाराष्ट्र हो, झारखंड हो या फिर हरियाणा, इस सभी राज्यों में भाजपा इसी तरह से जीतने में सफल रही.

बिहार में भाजपा नरेंद्र मोदी को आगे कर चुनाव लड़ रही है. क्या सिर्फ इसी की वजह से भाजपा के पक्ष में लहर या माहौल बन जाएगा?

हां, बिल्कुल. चुनाव में प्रधानमंत्री के चेहरे को सामने रखने से विपक्षी दलों के सामने बड़ी चुनौती है. मुझे पूरा भरोसा है कि यह लहर भाजपा के पक्ष में होगी.  कुछ दिन पहले ही बिहार में प्रधानमंत्री की दो रैलियां हुईं, जिसका लोगों में जबरदस्त प्रभाव देखने में आया. हम जल्द ही एक और सभा करने वाले हैं.

 लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस के बीच हुए महागठबंधन के बारे में आप क्या सोचते हैं?

अगर हम बिहार के इतिहास को देखें, तो नीतीश ने यहां दस वर्ष तक शासन किया और उनसे पहले लालू प्रसाद यादव की सरकार 15 तक सत्ता में रही. दोनों की 25 साल की सत्ता में राजनीति मजाक बनकर रह गई. एक बात और जानने लायक है कि बिहार के लोगों ने नीतीश को कभी पसंद नहीं किया. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने लोगों में दरार पैदा की और अपने दल से जीतनराम मांझी जैसे नए चेहरे को ये बताते हुए सामने कर दिया कि वह उनके शासन को संभाल लेंगे. नीतीश ने बिहार के लोगों की सिर्फ बेइज्जती की. उन्होंने सरकारी स्कूलों के तमाम शिक्षकों को नाराज किया हुआ है.

विभिन्न प्रदर्शनों के दौरान आए दिन उन पर पुलिस लाठीचार्ज कर देती है. उन्होंने बिहार के ग्रामीण अंचलों में शराब के ठेके खुलवा दिए, जिसकी वजह से धीरे-धीरे वहां के लोग शराब की गिरफ्त में आ चुके हैं. जाति और समुदाय के नाम पर नीतीश ने हमेशा राजनीति की है और लोगों को बांटने का काम किया है.

दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का वोट बैंक पूरी तरह से समर्पित है. मैं दलितों का नेता हूं और मतदाताओं को मुझ पर पूरा भरोसा है. ऐसे समय में जब हर दल का वोटबैंक बिखरता नजर आता है, तब भी मेरे दलित मतदाता मेरे साथ खड़े रहते हैं. संपत्ति और दूसरे सामान देने का वादा कर नीतीश ने हमेशा मेरे वोटबैंक को अपने पक्ष में करने कोशिश की है. मगर जिस तरह से भाजपा के साथ आरएसएस है, ठीक वैसे ही मेरी ‘दलित सेना’ लोजपा के साथ खड़ी रहती है. नीतीश को उनके ही मतदाताओं ने अपमानित करने के साथ हमेशा उनका बहिष्कार किया है. लालू, नीतीश अपनी हार स्वीकार कर चुके हैं. वे मोदी से भयभीत हैं, इसीलिए तीनों ने आपस में गठबंधन किया. बिहार के मतदाता बहुत बुद्िधमान हैं. यहां यादव समुदाय के लोगों को लालू और मुलायम में भविष्य नहीं दिखता. इसका उदाहरण यादव बहुल दो सीटों से राबड़ी देवी का चुनाव हारना है. लालू की बेटी मीसा यादव के साथ भी ऐसा ही हुआ. उधर, नीतीश के पास अब कोई वोटबैंक नहीं बचा है.

क्या आप कहना चाहते हैं कि आप दलित और महादलित मतदाताओं का बड़ा चेहरा हैं? अगर ऐसा है तो राजग ने आपको मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर क्यों नहीं पेश किया?

मैं एक राष्ट्रीय स्तर का नेता हूं और मैंने कभी राज्य स्तर का नेता बनने की कोशिश नहीं की. मैं कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहता. अगर मैं ऐसा चाहता तो आज से 25 साल पहले 1990 में जब वीपी सिंह ने कहा था तब ही बन सकता था. वह तो मुझे प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन मैंने ही मना कर दिया. उस साल लालू भी जीते थे, बिहार से केंद्र सरकार में मैं अकेला मंत्री था. यहां तक कि नीतीश कुमार भी मेरे पास मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव लेकर दो बार आ चुके हैं, लेकिन मैंने मना कर दिया. यह वह समय था जब सरकार की चाभी मेरे हाथों में होती थी. वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘अगर बिहार में कोई सरकार बनानी और चलानी है तो ऐसा पासवान ही कर सकते हैं.’ तब मैंने उनसे निवेदन किया था कि  मुझे दिल्ली में ही रहने दें.

क्या लोजपा चुनाव में बड़ी भूमिका निभाएगी करेगी?

बिल्कुल… लोजपा चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है.

क्या भविष्य में आपके बेटे चिराग पासवान बिहार के मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं?

यह उनके ऊपर है. मैं कभी भी उनके किसी काम में दखल नहीं देता. उन्हें पहले सीखने दीजिए, क्योंकि वे राजनीति में अभी नए हैं. उन्हें अभी लंबा सफर तय करना है, लेकिन अगर आप मुझसे पूछते ही हैं तो मैं नहीं चाहूंगा चिराग खुद को राज्य की राजनीति तक सीमित रखें.

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फोटो- विजय पांडेय

हां, इसलिए क्योंकि मांझी जब जदयू के साथ थे तो उनके दो सहयोगी चिराग के निर्वाचन क्षेत्र से विधायक थे. उन दोनों विधायकों ने लोकसभा चुनाव के समय उनकी कोई भी मदद नहीं की थी. इसलिए चिराग उनके खिलाफ थे.

क्या आपको लगता है कि मांझी को भाजपा में इसलिए लाया गया ताकि आपका विरोध किया जा सके? क्या मांझी आपका राजनीतिक करिअर प्रभावित कर सकते हैं?

नहीं, मुझे नहीं लगता कि राजग मेरे लिए ऐसा कुछ करेगी. पार्टी में उनकी (मांझी) मौजूदगी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाएगी. वास्तव में मांझी के पार्टी में साथ आने से मैं खुश हूं.

अरविंद केजरीवाल जदयू को समर्थन दे रहे हैं? आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?

केजरीवाल खुद बहुत सारे विवादों में फंसे हुए हैं, जदयू को प्रमाण पत्र देने वाले वे कौन होते हैं?

आपको क्या लगता है राम विलास पासवान, लालू या नीतीश में से कौन बिहार का बेहतर मुख्यमंत्री साबित हो सकता है?

आप ये सब एक बार में ही जान जाएंगे, बस मतदान हो जाने का इंतजार कीजिए.

जहां तक हम देख रहे हैं, मतदाताओं तक पहुंच बनाने के लिए सभी दल नई-नई तकनीकों का सहारा ले रहे हैं. मतदान में तकनीक किस तरह की भूमिका अदा करती है?

बहरहाल, तकनीक का इस्तेमाल एक सहायोगी के तौर पर किया जा सकता है, लेकिन यह मतदाताओं की सोच नहीं बदल सकता. इसका नमूना हम दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में देख सकते हैं. भाजपा ने नई तकनीक के सारे हथकंडे अपनाए, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा.

बिहार चुनाव में राजग किन मुद्दों के साथ मैदान में उतर रही है?

राजग के लिए बुनियादी विकास का मुद्दा अहम है. बिहार में चार हजार से ज्यादा गांव ऐसे हैं, नियमित रूप से बिजली नहीं पहुंच पाती. प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है और औद्योगिक विकास दर शून्य है. जैसा कि स्वतंत्रता दिवस समारोह में दिए गए भाषण में प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि हमारा मुख्य एजेंडा बिहार का विकास है. वर्तमान में यहां के हालत मुझे हैरान कर देते हैं. लोगों के पास खाने को खाना नहीं है, लेकिन सरकार संग्रहालय बनवाने के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च कर रही है.

क्या बिहार चुनाव से पंजाब और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में राजग का प्रदर्शन प्रभावित होगा?  

हां बिल्कुल, बिहार में होने वाला विधानसभा चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है. अंततः मुझे विश्वास है कि बिहार के लोग लालू और नीतीश कुमार से ऊब गए हैं और वे बदलाव चाहते हैं

अब की बार, किसका बिहार ?

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फोटो- विजय पांडेय

इंजीनियर संतोष यादव बिहार के एक युवा राजनेता हैं. राजनीति में बेहद सक्रिय. उनके लिए राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना जैसा है. वह जदयू से ताल्लुक रखते हैं. सामाजिक न्याय की राजनीति के पक्षधर हैं और उसकी समझ भी रखते हैं. वैचारिक नजरिये और व्यावहारिक रूप से भी. मधुबनी जिले के युवा हैं रामकुमार मंडल. वह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से ताल्लुक रखते हैं. इनके लिए भी राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना है. वे अतिपिछड़ा समूह से आते हैं. टिकट पाने की लाइन में थे, लेकिन संयोग न बन सका. पेशे से वकील मनीष रंजन भी राजनीति की गहरी समझ रखते हैं. दलितों-वंचितों के हक की आवाज को बुलंद करने में ऊर्जा लगाते हैं. वैचारिक राजनीति की ये भी समझ रखते हैं और बामसेफ से भी इनका ताल्लुक है. पटना में एक मशहूर राजनीतिक बैठकी वाले चौपाल में कई और लोगों के साथ ये तीनों युवा नेता मौजूद होते हैं. बातचीत की शुरू होती है, जो जल्द ही बहस का रूप ले लेती है.

संतोष के अपने तर्क होते हैं कि चूंकि लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ा कार्ड सही समय पर, सही तरीके से खेल दिया है इसलिए अब बाजी उसके पाले में है. संतोष अपने तर्क और तथ्य गिनाते हैं, रामकुमार पिछड़ों के साथ अतिपिछड़ों का समूह बनाने को तैयार नहीं होते. संतोष बहुत कोशिश करते हैं कि रामकुमार को अपनी बातों से समझा दें, लेकिन नहीं कर पाते और इन दोनों के बीच में मनीष रंजन जैसे कार्यकर्ता साफ कहते हैं कि अभी दलितों का वोट किधर जा रहा है, यह आसानी से नहीं कहा जा सकता. तीन घंटे तक बहस चलती है, कोई नतीजा नहीं निकल पाता. तीनों तीन छोर पर अपनी बात रखते हैं. ऐसा नहीं कि संतोष, मनीष या रामकुमार की ही बातों और बहसों का परिणाम यह निकला कि तय नहीं हो सका कि कौन किधर जाएगा.

अतिपिछड़ों और दलितों और पिछड़ों के भी एक बड़े हिस्से के वोट को लेकर इस बार के बिहार के चुनाव में स्थिति ही ऐसी बनी है कि बड़े से बड़े राजनीतिक दिग्गज सफल विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं. संयोग से विकास के छोटे हिस्से को मिलाकर जाति के बड़े हिस्से के साथ बने कॉकटेल के कारण बिहार का चुनाव इस बार इन्हीं तीन जातीय समूहों के वोटिंग पैटर्न पर जाकर टिक गया है. बात सिर्फ इतनी भी नहीं. यह आकलन करना इस बार इसलिए भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे अपने दुश्मनों से भी लड़ रहे हैं और दोस्तों से भी. यह दुविधा यूं ही नहीं बनी है. मसले और एजेंडे रोज बदल रहे हैं. विकास से बात की शुरुआत हुई थी. पैकेज वार चला था लेकिन अचानक ही बात जाति और मंडल पर आ गई. बात इतनी ही नहीं हुई, रातोंरात इतने लोग पाले बदलते रहे कि उससे भी बने-बनाए कई समीकरण ध्वस्त होते दिख रहे हैं.

हालांकि बिहार में राह चलते विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे फटाफट यह बता देंगे कि देखिए यादवों का 14 प्रतिशत, मुस्लिमों का 16 प्रतिशत और कुर्मियों का तीन प्रतिशत तीन मिलाकर 33 प्रतिशत वोट तो सीधे-सीधे लालू प्रसाद नीतीश कुमार के कोर वोट में हैं, फिर मुश्किल कहां है. दूसरी ओर भाजपा समर्थक विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे सीधे समझा देंगे कि कुशवाहा का पांच प्रतिशत, अगड़ों का करीब 14 प्रतिशत, वैश्यों का सात प्रतिशत, पासवानों का तीन प्रतिशत और मांझियों का तीन प्रतिशत इधर भी बराबर कोर वोट बैंक बनाते हैं. फिर सारी बात दलितों और अतिपिछड़ों पर ही जाकर टिक जाती है. हालांकि यह समीकरण भी कोई एक लकीर जैसी नहीं क्योंकि लालू प्रसाद नीतीश कुमार के समूह को भी इस बार पता है कि यादव वोटों पर शत-प्रतिशत की दावेदारी उनके समूह की नहीं रह गई और मुस्लिम भी ओवैसी के प्रवाह में आकर सीमांचल में हिंदुओं को ध्रुवीकृत करके मंडल की राजनीति की धार को 24 सीटों पर कुंद कर सकते हैं.

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फोटो- विजय पांडेय

यादव और मुस्लिम राजनीति इस बार दूसरे किस्म के मुहाने पर खड़ी है. मुस्लिम वोटों का बिखराव ओवैसी और तीसरा मोर्चा के जरिये होने की गुंजाइश है तो इन वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा को फायदा पहुंचाने की स्थिति बनाएगा. यादव राजनीति की कहानी बिल्कुल ही अलग दिशा में है. मंडल टू के बहाने पिछड़ी जातियों और दलितों की बजाय लालू अपने बिखरते कोर समूह यादव वोटरों को समेटने में ऊर्जा लगाए हुए हैं. उनकी पार्टी राजद 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें उन्होंने 48 सीटों पर यादवों को टिकट देकर संकेत साफ दे दिए गए हैं. यह बताता है कि वे मंडल टू के बहाने अपने कोर समूह को बचाने की जुगत में लगे हैं. हालांकि लालू ने दूसरी ओर सवर्णों की सबसे आक्रामक राजनीतिक जाति भूमिहारों को एक भी टिकट न देकर यह संकेत देने की भी कोशिश की है कि वे दलितों और अतिपिछड़ों के हितैषी हैं. हालांकि सैद्धांतिक तौर पर लालू प्रसाद की यह कोशिश ठीक है, लेकिन बिहार को जानने वाले जानते हैं कि 15 सालों तक सत्ता में रहने के कारण यादव पिछड़ों से एक अलग समूह के रूप में विकसित हो चुके हैं. यादवों के खिलाफ गोलबंदी होने के कारण ही सभी दूसरे पिछड़ों और अतिपिछड़ों को गोलबंद कर नीतीश कुमार सत्ता तक पहुंचने के सफर को आसानी से पार कर सके थे. यादव राजनीति को संतुलित करने के लिए 101 सीटों पर लड़ रहे नीतीश कुमार ने भी अपनी पार्टी से 12 टिकट दिए हैं और कांग्रेस ने भी 41 सीटों में चार टिकट यादवों को दिए हैं. दूसरी ओर भाजपा और एनडीए ने भी यादव राजनीति को साधने की कोशिश की है. एनडीए ने कुल 26 यादव प्रत्याशियों को उतारा है, जिनमें 22 भाजपा, दो लोजपा और दो मांझी की पार्टी ‘हम’ की ओर से हैं. भाजपा यादवों को संतुलित करके दूसरे पिछड़ों को अपने समूह में लाना चाहती है. लालू प्रसाद ने महागठबंधन की ओर से समग्रता में पिछड़ों को अधिक टिकट दिए जाने का ऐलान कर कुछ और बताने की कोशिश की है लेकिन जानकार बताते हैं कि भाजपा और राजग ने ये फैसला यूं ही नहीं लिया है. पहली बात कि यह कोशिश यादवों के एक हिस्से को बिना यादववादी राजनीति किए अपने पाले में लाने में सफल रही थी, दूसरी बात यह कि बिहार विधानसभा में हालिया वर्षों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से घटी है. 2000 यादव विधायकों की संख्या बिहार में 64 थी जो 2005 में 54 हो गई और फिर 2010 में 39. महागठबंधन को यादव मतों के ध्रुवीकरण से मंडल टू आने की उम्मीद है. भाजपा और एनडीए को यादवों के एक हिस्से और गैर यादव पिछड़ों को अपने साथ करके सियासत का गणित साध लेने की उम्मीद है.

बिहार की सियासत में यादवों पर इतनी बात इसलिए हो रही है क्योंकि भाजपा और एनडीए को भी पता है कि यदि मुस्लिम और यादव समूह में सेंधमारी हो गई या वह बिखर गया तो फिर राजग के लिए जीत की राह आसान हो जाएगी. दूसरी ओर लालू प्रसाद को भी पता है कि अगर वे यादव मतदाताओं को नहीं संभाल सके तो फिर उनकी भावी पीढ़ी की सियासत कहीं की नहीं बचेगी. नीतीश भी लालू के इसी कोर जनाधार को अपने पाले में लाकर फिर से सत्ता पाने के लिए अपने मूल स्वरूप में बदलाव लाकर लालू से समझौता किया है.

भाजपा ने यादव राजनीति को साधने के लिए इस बार सवर्णों का कार्ड खुले तौर पर खेला है. राजग ने इस बार 18 ब्राह्मणों को मैदान में उतारा है, जबकि महागठबंधन ने नौ ब्राह्मणों को टिकट दिए हैं. इसी तरह राजग ने 29 भूमिहारों और महागठबंधन ने 13 को टिकट दिया है. कायस्थों को टिकट देने में महागठबंधन राजग से आगे रहा है. इस जाति को महागठबंधन ने चार टिकट दिया हैं, जबकि राजग ने तीन ही उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. कायस्थों को लेकर महागठबंधन की यह सोच इसलिए भी है, क्योंकि उसके एक बड़े नेता शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से नाराज चल रहे हैं. उधर, लालू कायस्थों को दलित बनाने का लॉलीपॉप भी दिखा चुके हैं. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण जाति राजपूत है, जिसे राजग की ओर से 35 टिकट और तो महागठबंधन की ओर से 12 टिकट मिले हैं. राजपूत एक ऐसी जाति रही है, जिसका एक हिस्सा पिछले दो चुनाव से लालू प्रसाद के साथ रहा है. राजपूतों के कई बड़े नेता जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह वगैरह भी लालू के साथ रहे हैं. लेकिन इस बार राजपूतों का टिकट कम करने की पीछे की वजह यह बताई जा रही है कि लाल जान चुके हैं कि राजपूत उम्मीदवार उतारने पर वे उनके मतदाताओं का वोट पाकर विधायक तो बन जाएंगे लेकिन दूसरे इलाके में राजपूतों का वोट महागठबंधन की ओर ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे.

भाजपा सवर्णों को साधकर महागठबंधन के पिछड़े कार्ड को काटना चाहती है. लेकिन यह भी एक किस्म का भ्रम जैसा ही है. भाजपा और उसके सहयोगियों को भी पता है कि वे जिन सवर्णों को शत-प्रतिशत अपने साथ मानकर चल रहे हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा बिहार में रहता ही नहीं, वे पलायन कर चुके हैं. कोई रहता भी है तो वोट डालने नहीं जाता. भाजपा को यह भी पता है कि जिस मांझी और पासवान को साथ रखकर वह दलित वोटों के अपने पाले में आने को लेकर आश्वस्त हैं, उसमें रविदासों का समूह सबसे बड़ा है और वह अभी भी नीतीश कुमार के साथ है. हां, सुकून की बात यह है कि मायावती की पार्टी के सभी सीटों पर लड़ने से रविदासों के वोट का एक हिस्सा उधर जाकर थोड़ा राहत देगा. इन सबके बीच तीसरे मोर्चे और पहली बार छह वाम दलों के एक होकर लड़ने की अपनी कहानी है. उनके साथ लड़ने से खुशी की लहर भाजपा में है, क्योंकि वे भाजपा का कम और महागठबंधन का नुकसान ज्यादा करेंगे. ऐसी स्थिति में गुणा-गणित वाले समीकरण में कौन किस पर भारी पड़ रहा है, इसे कहना मुश्किल है. चुनाव किस दिशा में जा रहा है और हालात कैसे बन रहे हैं, इसे समझने के लिए अलग-अलग बिंदुओं पर बात कर सकते हैं.

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बिहार के इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने सीधे-सीधे तौर पर मंडल-2 का ऐलान कर दिया है. लालू प्रसाद को यह मौका तब मिला जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही. लालू प्रसाद पहले से ही चुनाव को मंडलवाद की दिशा में ले जाना चाहते थे, भागवत के बयान के बाद लालू ने कहना शुरू किया तो नीतीश ने भी सहम-सहमकर, डरे हुए भाव से थोड़ा-थोड़ा इस विषय पर बोलना शुरू कर दिया है. बेशक लालू प्रसाद बिहार की राजनीति में मंडलवादी राजनीति के और सामाजिक न्याय की राजनीति को उफान और परवान चढ़ाने वाले नायक रहे हैं. अभी भी बिहार में एक ठोस वर्ग है, जिसके नायक लालू हैं. लालू के साथ नीतीश के आ जाने से सामाजिक न्याय का स्वरूप और बनता हुआ दिखा. नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार भी कोई कम नहीं किया. उन्होंने पिछड़ों से अतिपिछड़ों और दलितों से महादलितों को अलग कर एक अलग किस्म की सामाजिक न्याय की शुरुआत करवाई लेकिन अब वही सामाजिक न्याय की राजनीति लालू नीतीश के लिए जितनी बड़ी ताकत के रूप में है, उतनी ही बड़ी कमजोरी भी बनकर सामने खड़ा हो गया है. लालू प्रसाद के पास मंडल का एजेंडा है, वे उसे उभार रहे हैं लेकिन उसके खानसामे दूसरी ओर यानी राजग के खेमे में हैं.

रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे तीन प्रमुख नेता राजग के खेमे में हैं. मंडल टू में फिर से नई जातियों का उभार की कोशिश होगी, क्योंकि पिछले 25 सालों में समूह के नाम पर उभार की कोशिश में सत्ता और शासन दो जातियों के पास ही सिमटा रहा. अगर बीच में जीतन राम मांझी वाले फैक्टर को छोड़ दे तो. भाजपा ने इन तीन पिछड़े और दलित नेताओं को अपने पाले में करके मंडल टू के समूहों को बांट दिया है.

राजनीतिक विश्लेषक प्रेमकुमार मणि कहते हैं, ‘भाजपा को इसलिए ही बढ़त लेने का मौका दिख रहा है क्यों उसके पाले में दलितों का एक बड़ा हिस्सा जाएगा और वे निर्णायक साबित होंगे. गांव-गांव में मांझी की धमक बढ़ी है. लालू प्रसाद के पास मंडल का नारा है लेकिन नारा लगाने वाले दूसरी जमात में हैं.’ मणि की बात सही है लेकिन यह सच है कि जाति की राजनीति में अगर अतिपिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा और दलितों का आधा हिस्सा भी महागठबंधन की ओर पलटी मार देता है तो फिर नीतीश और लालू के लिए जीत आसान होगी. दूसरी ओर भाजपा ने इस काट के लिए अपने तरीके से जाल बिछाया है. भाजपा ने मंडल और कमंडल का एक साथ इस्तेमाल किया है. वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘2010 में जब भाजपा नेताओं का नीतीश कुमार ने भोज रद्द कर दिया था, उसी वक्त तय हो गया था कि इनके बीच अलगाव होगा. उस हिसाब से भाजपा ने अपनी तैयारी उसी समय से शुरू कर दी थी लेकिन नीतीश कुमार अपने को तैयार नहीं कर सके. भाजपा अपमानित होकर भी अगले विधानसभा चुनाव यानी 2010 के चुनाव में इसलिए बनी रही ताकि वह उसका लाभ उठा सके और ऐसा उसने किया भी.’

तिवारी के बातों का विस्तार कर देखें तो यह साफ दिखता है. 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने न सिर्फ अपनी अपार सीटें बढ़ाईं बल्कि चुनाव जीतने के बाद से ही संगठनात्मक गतिविधियां भी बढ़ा दीं. नीतीश की दूसरी पारी में ही संघ परिवार ने बिहार में बड़े-बड़े आयोजन किए, जिसमें पटना में सुब्रमण्यम स्वामी, उमा भारती, अशोक सिंघल जैसे नेताओं की उपस्थिति में संस्कृति के नाम पर हुए जहरीले आयोजन से लेकर बेगूसराय में सामाजिक कुंभ और प्रवीण तोगड़िया का त्रिशूल वितरण कार्यक्रम तक रहा. साथ ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठन ने, जो इस चुनाव में भाजपा के लिए ग्राउंड लेवल पर काम कर रही है, उसने भी अपना राष्ट्रीय सम्मेलन पटना में करवाकर अपने आधार का विस्तार किया. संघ की कार्यकारिणी की बैठक भी बिहार के ही राजगीर में हुई. इसके अलावा और भी कई आयोजन बिहार में हुए. यह सब तो कमंडल की राजनीति को साधने के लिए भाजपा करती रही लेकिन उसने समानांतर रूप से मंडलवादी राजनीति के बिखराव में भी उतनी ही ऊर्जा लगाई. लोकसभा चुनाव में ही उपेंद्र कुशवाहा को अलग से चुनाव लड़वाकर नीतीश के कोर समीकरण ‘लवकुश’ में से कुशवाहा वोट यानी ‘कुश’ को अलग कर दिया. रामविलास पासवान और बाद में जीतन राम मांझी को साथ रखकर भाजपा ने अपने सामाजिक आधार का ही विस्तार किया. सामाजिक न्याय की राजनीति को साधने के लिए बड़े नेताओं को अपने पाले में करने के साथ ही सुक्ष्मता से दूसरे काम भी होते रहे, जिसमें यह माना जाता है कि मल्लाह जैसी जाति को, जिसकी आबादी ठीक-ठाक है, मुजफ्फरपुर और जहानाबाद में मुस्लिमों से टकराकर अलग से हिंदुत्व के खोल में समा चुकी है. अतिपिछड़ी जातियों में ही एक सशक्त जाति कहार है, जिसका झुकाव भाजपा की ओर माना जा रहा है. व्यावहारिक तौर पर अतिपिछड़ों का झुकाव किधर होगा अभी कहना मुश्किल है लेकिन मल्लाहों को, धानुकों के एक बड़े हिस्से को और कहारो को अपनी ओर खींचकर भाजपा ने उस बड़े लेकिन राजनीतिक तौर पर अपरिपक्व समूह में सेंधमारी की है. अतिपिछड़ों का एक कोई सर्वमान्य नेता अभी भी बिहार में नहीं माना जाता लेकिन हालिया वर्षों में राज्य के दो पूर्व मंत्री भीम सिंह और प्रेम कुमार का उभार हुआ और दोनों एनडीए की ओर है. साथ ही बिहार के चुनाव में इस बार एक नाम मुकेश सहनी का भी बार-बार उभरता रहा. मुकेश मुजफ्फरपुर इलाके के हैं. अच्छे खासे पैसे वाले हैं और मुजफ्फरपुर इलाके में, जिधर सहनी आबादी बहुतायत में हैं, उनके बीच रॉबिनहुड की छवि भी रखते हैं. फिल्म इंडस्ट्री में करोड़ों का कारोबार करने वाले सहनी इस बार अपने समुदाय के नेता बनकर उभरे हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर वाली सभा स्थल के पास ही उसी दिन अपनी अलग सभा कर अपनी ताकत भी दिखाई थी. इसके अलावा पटना में भी प्रदर्शन किया. पटना में सहनियों की सभा में पुलिस का लाठीचार्ज भी हुआ था. मुकेश सहनी आखिरी समय तक टिकट के लिए एक दल से दूसरे दल का चक्कर काटते रहे, नीतीश लालू के पास भी गए लेकिन बात नहीं बनी और आखिरकार अब वे भाजपा और राजग के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. मुकेश सहनी का असर पूरे बिहार में भले ही न हो लेकिन अपने इलाके में पैसे और अपने समुदाय पर पैसे खर्च करने के कारण उनकी छवि नायक की है और कुछ जगहों पर वे असर जरूर डालेंगे. सहनी की चर्चा यहां इसलिए, क्योंकि अतिपिछड़े समूह के वोटों का हिसाब इस बार अलग-अलग इलाके में ऐसे ही छोटे-छोटे फैक्टर पर निर्भर करेंगे. हालांकि सहनी और तांती जैसी जातियों को साधने में नीतीश कुमार ने भी कोई कम ऊर्जा नहीं लगाई है. उन्होंने आचार संहिता लगने के पहले सहनी को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया और तांती जैसी जाति को अतिपिछड़ा से दलितों की सूची में लाकर उसे साधने की कोशिश की है. हालांकि तांती जाति पर हाल में खगड़िया जिले के परबत्ता इलाके में एक जदयू नेता के गांव में सवर्णों के हमले के कारण उनका नीतीश से मोहभंग हुआ है और वे भी बिखरते हुए नजर आये हैं. इसी तरह छोटे-छोटे समीकरण राज्य भर में खेल बिगाड़ रहे हैं. कोई समीकरण भाजपा का खेल बिगाड़ रहा है तो कुछ समीकरण राजद-जदयू का. बिहार के राजनीति के जानकार विश्लेषक प्रो नवल किशोर चैधरी कहते हैं लड़ाई आरपार की है, बहुत कांटे का टक्कर है लेकिन मुझे एनडीए को एज मिलता हुआ दिखता है. इसका आधार पूछने पर प्रो चैधरी कहते हैं कि जाति का समीकरण तो एक फैक्टर है ही लेकिन पिछले 25 वर्षों से जो सत्ता में है, वही फिर नेतृत्वकर्ता के तौर पर सामने आकर चुनावी मैदान में हैं तो उसका असर होने के साथ सत्ता विरोधी लहर भी काम करेगी.

इस तरह देखें तो कई मामलों में भाजपा की बढ़त दिखती है. लेकिन जब आंकड़ों की पड़ताल होती है तो बाजी सीधे पलटते हुए दिखती है. बिहार के चुनाव में अतीत के आंकड़े भाजपा के लिए भयावह भविष्य के संकेत दे रहे हैं. बात की शुरुआत 2004 के लोकसभा चुनाव से करते हैं. 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद को कुल 22 सीटें मिलीं और कुल वोट प्रतिशत का 30.67 प्रतिशत वोट मिला था. जदयू को छह सीटें मिलीं और कुल वोट का 22.36 प्रतिशत वोट मिला था. भाजपा को पांच सीटें मिलीं और 14.37 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था. कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं और 4.49 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था. उस वक्त जदयू और भाजपा जिगरी यार हुए थे. गहरी यारी के दिनों में साथ मिलकर लड़ने की मजबूत कोशिश की गई थी. हालांकि दोनों को मिलाकर 36.73 प्रतिशत वोट पा सके थे. अगर उसी साल जदयू, राजद और कांग्रेस साथ लड़े होते तो 57.52 प्रतिशत वोट का गणित उनके पक्ष में बन सकता था. 2005 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो जदयू को 88 सीटें मिली थीं और कुल मतों का 20.46 प्रतिशत मिला. भाजपा को 55 सीटें मिलीं और कुल मतों का 15.65 प्रतिशत वोट मिला. राजद को 54 सीटें मिलीं और कुल मतों का 23.45 प्रतिशत मत मिला. कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं और कुल मतों का 6.09 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था. भाजपा और जदयू साथ लड़े थे तो 36.11 प्रतिशत मत मिले थे. अगर उसी साल अगर जदयू, राजद और कांग्रेस को मिले वोट साथ मिलाकर वोट देख लें तो यह 50 प्रतिशत होता है. 2005 के बाद 2009 का लोकसभा चुनाव हुआ. जदयू को 20 सीटें और 24.04 प्रतिशत वोट मिला. भाजपा को 12 सीटें और 13.93 प्रतिशत वोट मिला. राजद को चार सीटें और 19.31 प्रतिशत वोट मिला. कांग्रेस को दो सीटें मिलीं, 10.26 प्रतिशत वोट मिला. जदयू-भाजपा साथ लड़े थे, उन्हें 37.97 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद और कांग्रेस का साथ मिलाकर वोट प्रतिशत 53.61 था. एक साल बाद ही 2010 में बिहार में फिर विधानसभा चुनाव की बारी आई. उस साल के विधानसभा चुनाव को देखें तो उसमें भी इसी तरहके संकेत मिले थे. 2010 के चुनाव में, जदयू को 115 सीटें और 22.5 प्रतिशत वोट मिला थे. भाजपा को 91 सीटें और 16.49 प्रतिशत वोट मिला. राजद को 22 सीटें और 18.84 प्रतिशत वोट मिला. कांग्रेस को 4 सीटें और 8.37 प्रतिशत वोट मिला. भाजपा और जदयू साथ मिलकर लड़े, उन्हें 38.99 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद और कांग्रेस को मिलाकर वोट प्रतिशत 49.71 होता है. इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू की जिगरी यारी जानी दुश्मनी में बदल चुकी थी. लोजपा और भाजपा की जानी दुश्मनी, जिगरी यारी में बदल चुकी थी.

उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता नीतीश की परछाईं से निकलकर संभावना तलाशने में लगे हुए थे. नीतीश कुमार एक साथ भाजपा और लालू, दोनों से लड़ने में ऊर्जा लगाए हुए थे. 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो भाजपा, लोजपा और रालोसपा तीनों साथ मिलकर लड़े तो 38.82 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद, कांग्रेस का वोट प्रतिशत मिलाकर देखें तो यह 44.30 होता है. अतीत के चुनाव के आंकड़े को वोटों की प्रतिशतता में बदलकर देखें तो भाजपा के लिए भयावह भविष्य के संकेत मिल रहे हैं. इस मुश्किल घड़ी में भाजपा के लिए उम्मीदों की आखिरी किरण नरेंद्र मोदी हैं. और उससे भी बड़ी उम्मीद ओवैसी के खेल और पप्पू यादव के पेंच फंसाने की कला पर है.