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खतरनाक दौर से गुजर रहा भारतीय लोकतंत्र

essay-1भारत आजादी के बाद के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है. या सबसे कड़े इम्तेहान से. यह कोई नाटकीय वक्तव्य नहीं है. भारत की जो कल्पना आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी के नेतृत्व में प्रस्तावित की गई थी और जिसे भारतीय संविधान ने मूर्त करने का प्रयास किया, वह पिछले एक साल में क्षत-विक्षत कर दी गई है. यह बात अब उन लोगों की समझ में भी आने लगी है जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को भारत का शासन चलाने के लिए सबसे उपयुक्त पाया था और जो हाल-फिलहाल तक उसकी और उसके प्रमुख की वकालत किए जा रहे थे. अब समझ में आने लगा है कि भारत का शासन उनके हाथ में चला गया है जो पिछले सात दशकों से भारत की इस धारणा के खिलाफ जनता को तैयार कर रहे थे. फिर भी आश्चर्य की बात है कि नयनतारा सहगल को छोड़कर कोई खुलकर कहने की जरूरत महसूस नहीं करता कि भारत का शासन अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास है. या इतना ही कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी के पास है. और यह तब भी नहीं कहा जा रहा है जब पूरा देश देख चुका है कि पूरी सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दफ्तर में हाजिर हुई, उसे अपना रिपोर्ट कार्ड दिया और उससे निर्देश लिए. इसके बाद भी धर्मनिरपेक्ष और उदार तवलीन सिंह, सुरजीत भल्ला या मेघनाद देसाई लगातार प्रधानमंत्री को सलाह दिए जा रहे हैं कि वे अपनी छवि बचा लें, जो कुछ भी हो रहा है, उससे खुद को अलग करके. या तो वे राजनीतिक मूढ़ हैं या खुद को धोखा दे रहे हैं.

आजादी के बाद हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या थी? अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेज शासित भूभाग से इस्लाम के नाम पर एक राष्ट्र बनने के बावजूद हिंदुओं को इस बात के लिए सहमत करना कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र आधुनिक समय में समाज के संगठन का सबसे सभ्य और मानवीय तरीका है! और अल्पसंख्यक मुसलमानों को भरोसा दिलाना कि उनके साथ धोखा नहीं होगा, वे बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ बराबरी और इज्जत के साथ रह सकेंगे. यह बीसवीं सदी के एक बड़े खून-खराबे के बीच मुमकिन हुआ. याद रखें, हिंदुओं को कोई इस्लामी राष्ट्र की सेना नहीं मार रही थी और न मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र की सेना मार रही थी, साधारण हिंदू और मुस्लिम जनता ने ही एक-दूसरे का कत्ल किया था.

गुस्से, नफरत और बदले की इस आग के बीच धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत के प्रस्ताव को व्यापक जन सहमति दिलाना आसान न था. न सिर्फ गांधी, नेहरू, आजाद जैसे नेता इसे लेकर ईमानदारी से प्रतिबद्ध थे बल्कि वे इसके लिए सामान्य जन से कड़ी बहस करने को और किसी भी हद तक जाने को तैयार थे. पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं ने अपनी हिचक पर काबू पा लिया था और बुनियादी मानवीयता में उनकी आस्था पर संदेह नहीं किया जा सकता था.

गांधी ने अपना जनतांत्रिक प्रशिक्षण किया था, इसलिए कट्टर शाकाहारी होते हुए भी उन्हें न सिर्फ मांसाहारियों, बल्कि गोमांसाहारियों से भी कभी नफरत नहीं हुई

धर्मनिरपेक्षता को सहकारी जीवन का सर्वोच्च सिद्धांत जीवन मूल्य मानने के लिए ये नेता कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे. ध्यान रहे, इनमें से अगर कोई भी खुद को हिंदू नेता के रूप में पेश करता तो भारत के सभी हिंदू उसे हाथो-हाथ लेने को तैयार थे. इस प्रलोभन को उन्होंने ठुकराया. इसमें सब शामिल थे, बावजूद पटेल और राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में प्रमुख भूमिका निभाने के, उनके बारे में भी यह कहा जा सकता है. गांधी से सावरकर या हेडगेवार प्रतियोगिता नहीं कर सकते थे और न नेहरू से. पटेल, राजेंद्र प्रसाद या अन्य नेताओं की बात ही जाने दें.

आखिर मुस्लिम लीग यही तो कह रही थी कि कांग्रेस हिंदुओं की जमात है. पाकिस्तान के निर्माण के बाद इसे आरोप की जगह नियति के रूप में स्वीकार करना कांग्रेस के लिए सबसे सुविधाजनक होता. शायद तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय जनमत भी इसे ही अवश्यसंभावी मान लेता. आखिर एक पिछड़े समाज से और क्या उम्मीद की जा सकती थी? गांधी के नेतृत्व में अगर कांग्रेस ने यह आसान रास्ता नहीं चुना तो इसका अर्थ क्या था और है? इस पर हमने कायदे से विचार क्यों नहीं किया है?

धार्मिक राष्ट्र एक आसान और समझ में आने वाली कल्पना थी. आधुनिक जनतंत्रों ने भी खुद को धर्मनिरपेक्ष घोषित नहीं किया था. भारत के नेता बहुत मुश्किल घड़ी में यह प्रस्ताव भारत की जनता के सामने रख रहे थे.

स्वाभाविक यह था कि मुसलमानों को पाकिस्तान जाने दिया जाता. गांधी और नेहरू को यह कबूल न था. गांधी ने तो तैयारी कर रखी थी कि वे नई खींची सीमा के इस ओर भगाए गए हिंदुओं और सिखों को वापस उस तरफ ले जाने और इस तरफ से खदेड़े या भागे मुसलामानों को इधर वापस लाने का अभियान चलाएंगे. आबादियों को उनके अपने परिवेश से जबरन उखाड़ दिए जाने का विचार उनके लिए असभ्यता था.

इस प्रतिबद्धता के लिए गांधी को सजा दी गई. लेकिन उनकी हत्या ने भारत की जनता को झटका दिया. यह कहा जा सकता है कि गांधी के खून ने भारत को जोड़ने का काम किया. राष्ट्रपिता की हत्या के अपराधबोध के कारण भारत में एक आत्म-चिंतन और मंथन शुरू हुआ.

भारत के इस विचार में दूसरी कई अपूर्णताएं थीं. मसलन, जैसा शिव विश्वनाथन ने अपने दिलचस्प काल्पनिक संवाद में दिखाया है यह आदिवासियों के नजरिये को समझ नहीं पाया था. लेकिन इस तरह की कमियों के बावजूद एक बड़ा हासिल इसका यह था कि इसने दो बड़ी आबादियों, यानी हिंदू और मुसलमानों को एक-दूसरे के पड़ोस में रहने को तैयार कर लिया था.

धर्मनिरपेक्षता एक अत्यंत परिष्कृत विचार था. क्या मुख्यतया निरक्षर जनता इसका अभ्यास कर पाएगी? क्या वह एक झटके में मिले सार्वजनिक वयस्क मताधिकार का भी विचारपूर्वक प्रयोग कर पाएगी? इसे लेकर पश्चिम में गहरा शक था और आशंका जताई जा रही थी कि शुरुआती उत्साह के ठंडा पड़ते ही भारत बिखर जाएगा, लेकिन भारत जम गया, सार्वजनीन वयस्क मताधिकार का प्रयोग भी शिक्षा, संपन्नता, जाति-धर्म, लिंग से निरपेक्ष भारत की जनता ने प्रायः सफलतापूर्वक किया. उसका दायरा बढ़ता ही गया और उसमें नई जनता शामिल होकर उसपर अपना दावा पेश करती रही. इस अधिकार के अपहरण का इतिहास है लेकिन धीरे-धीरे दलित, आदिवासी, औरतों, सबने इसका अपने फैसले के मुताबिक इस्तेमाल करने की हिम्मत दिखाई. वर्चस्वशाली वर्गों से उन्हें टकराना पड़ा लेकिन उनके साथ संविधान खड़ा था. यह कितना क्रांतिकारी विचार था और कितना साहसी, यह सिर्फ दुनिया के सभी जनतंत्रों के इतिहास पर नजर डालकर समझा जा सकता है, जहां सभी तरह की आबादियों को बिना भेदभाव के एक साथ मताधिकार नहीं मिला और इसके लिए क्रमवार संघर्ष करना पड़ा.

भारतीय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के मूल में ठीक यही बात थी. जैसा जवाहरलाल नेहरू ने उसे परिभाषित किया, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में सामाजिक न्याय आधारभूत था. कहा जा सकता है कि यह धर्मनिरपेक्षता दरअसल राजनीतिक और सामाजिक शक्ति-संतुलन को पूरी तरह समानता के सिद्धांत के सहारे बदल देना चाहती थी.

गांधी और नेहरू को इसमें कोई दुविधा न थी कि धर्मनिरपेक्षता का आशय है बहुसंख्यकवाद का विरोध, उसके दबदबे से इनकार. यह बात गांधी ने 1947 के हिंसा भरे दौर में भी बेझिझक कही थी कि भारत में मुसलमान हिंदुओं के अनुचर होकर नहीं रहेंगे. यही बात बाद में नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक पत्र में स्पष्ट की. दोनों के सामने यह भी साफ था कि मुसलमानों का चतुराई से हिंदूकरण करने के किसी भी तिकड़म को कबूल नहीं किया जा सकता. यानी भारत को प्रतीकात्मक तरीके से भी हिंदू दिखना नहीं चाहिए.

यह सबकुछ समझना आसान न था, इस पर अमल करने की बात तो और मुश्किल थी. चूंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता आधुनिकीकरण या मानव स्वभाव के जनतंत्रीकरण से अभिन्न थी, इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक आत्मसंघर्ष की आवश्यकता थी. गांधी ने अपना जनतांत्रिक प्रशिक्षण किया था, इसलिए कट्टर शाकाहारी होते हुए भी उन्हें न सिर्फ मांसाहारियों, बल्कि गोमांसाहारियों से भी कभी नफरत नहीं हुई. वे खुद शराब नहीं पीते थे लेकिन अपने सहयोगियों को अपनी असाधारण स्थिति का लाभ उठाकर शराब पीने से उन्होंने रोका हो, इसका कोई उदाहरण नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि सनातनी, शाकाहारी गांधी के सामने जब राजेंद्र प्रसाद ने हजारों-हजार हिंदुओं के गोहत्या विरोधी अनुरोध का जिक्र किया तो गांधी को वह विचारणीय भी नहीं लगा. उन्होंने पूछा कि क्या हम कबूल करेंगे कि पाकिस्तान हिंदुओं पर शरीयत लागू कर दे.

धर्मनिरपेक्षता के भारतीय रूप की जटिलता को नजरअंदाज करके इसे राजनीति से धर्म के विच्छेद की एक आधुनिकतावादी पाश्चात्य अवधारणा के रूप में समझा और प्रचारित किया गया. गांधी द्वारा धर्म के दिए व्यापक आशय को भी भुला दिया गया जिसकी आत्मा को एक संदेहवादी नेहरू ने कहीं बेहतर समझा था. धर्मनिरपेक्षता सामाजिक जीवन में साथ मिलकर रहने का नया मुहावरा गढ़ने का एक प्रयास था. इसका अभ्यास किया जाना था. सभ्य जीवन भी, जिसमें हम किसी को अपनी शक्ल में ढालने के लोभ से बचते हैं, यह दीर्घ अभ्यास का मामला था.

धर्मनिरपेक्षता में शिक्षित और संपन्न हिंदू को बहुत रुचि नहीं रही. उसने साझा सार्वजनिक स्थानों के लोप पर अफसोस नहीं किया, इसमें सक्रिय भूमिका निभाई. इस पर बहुत बात नहीं की गई है कि आर्थिक और सामाजिक बराबरी के विचार के अवमूल्यन के समानांतर धर्मनिरपेक्षता का पतन भी हुआ. धर्मनिरपेक्षता का विरोध स्वार्थपरता, लालच से उपजी क्रूरता से जुड़ा हुआ है. ताज्जुब नहीं कि गुजरात के हिंदू वहां के मुसलमानों को बात करने लायक विषय भी नहीं मानते.

इसे न भूलें कि इस अभियान के साथ सार्वजनीन मताधिकार को सीमित करने के प्रयोग गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेशों में किए जा रहे हैं. यानी धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की बुनियाद, समानता को खंडित करने का प्रयास. श्रेष्ठतर भारतीय और हीनतर भारतीय की दो श्रेणियों का निर्माण.

धर्मनिरपेक्षता सेकुलरिज्म का सही अनुवाद है या नहीं, इस बहस में न पड़कर यह समझने की आवश्यकता है कि यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के बुनियादी सिद्धांत से संगत है, यानी सामाजिक समूहों के बीच श्रेष्ठता और हीनता के रिश्ते के अस्वीकार पर.

गांधी बावजूद औद्योगिक, वैज्ञानिक तरक्की के अंग्रेजों या यूरोपियनों को यह अधिकार देने को तैयार न थे कि वे पिछड़े हुए समाजों को सभ्य बनाएं. फिर यह अधिकार वे हिंदुओं को मुसलमानों के मुकाबले कैसे दे सकते थे? उसी तरह इस्लाम से प्रभावित होने के बावजूद अन्य धार्मिक या विश्वास-प्रणालियों से बेहतर होने के उसके दावे को वे कबूल नहीं कर सकते थे.

दादरी में हुई हत्या के प्रसंग में भारतीय राज्य की प्रतिक्रिया ने लोगों को हिला दिया है. लेकिन अब विकासवादियों को भी समझ में आ रहा है कि विकास की स्वार्थी जल्दबाजी में उन्होंने देश और खुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हवाले कर दिया है. यह समझौता उन्हें आखिरकार महंगा पड़ेगा और किस कदर, इसका पूरा अंदाजा होने में उन्हें वक्त लगे शायद. लेकिन क्या तब तक बहुत देर नहीं हो चुकी होगी?

 (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

संस्थाओं को नष्ट कर रही मोदी सरकार

मुझे लगता है कि देश में अभी जो निजाम है वो संस्थाओं को पोषित या प्रोत्साहित करने की बजाय नष्ट करने में लगा है. जिस दल की अभी सरकार है आप उसका इतिहास देखिए तो उसने एक भी संस्थान नहीं बनाया. जो संस्थाएं पहले से थीं, उनको मिटाने पर लगे हैं. इस तरह की राजनीति और इस विचारधारा में ही इतना बांझपन है कि अब यही होना है. इनके पास अपने बुद्धिजीवी नहीं हैं. ऐसे ऐसे लोगों की नियुक्तियां कर रहे हैं जो योग्य नहीं हैं. इससे संस्थाओं का कद अपने आप ही कम हो जाता है.

अब लोग कहते हैं कि पहले भी ऐसी घटनाएं होती रहीं हैं. यह सही है, लेकिन तब भी हम लोग उसकी निंदा करते थे. आज हालात अलग हैं. ऐसा प्रधानमंत्री जो हर बात पर बयान देता है वह इन घटनाओं पर चुप है. देश में क्या हो रहा है, क्या उन्हें मालूम नहीं है? अगर इतने बेखबर हैं, तो उनका भगवान ही मालिक है. एक संस्कृति मंत्री जो कु-संस्कृति मंत्री हैं, उनका बयान है कि कलाम के नाम पर सड़क का नाम इसलिए रखना चाहिए क्योंकि वे राष्ट्रवादी मुसलमान थे.

इस तरह के बेहूदा बयान और भड़काऊ बातें लगातार हो रही हैं. अब देश को आगे ले जाने वाले मसलों को छोड़कर इस बात पर बहस हो रही है कि क्या खाएं, क्या न खाएं, क्या पहनें, क्या न पहनें, क्या पढ़ें, क्या न पढ़ें. यह खतरनाक स्थिति है.

इन मसलों पर हम और कुछ नहीं कर सकते थे तो अपने पुरस्कार वापस करके अपना विरोध जताया. साहित्य अकादमी ऐसी संस्था बन गई जो अपने लेखकों पर अत्याचार पर चुप है. उसने इस बारे में कोई निर्णय नहीं किया, वह सरकार को पत्र लिखकर अपना विरोध जता सकती थी. उनसे कोई विरोध प्रदर्शन करने की उम्मीद नहीं करता, लेकिन बोलना तो चाहिए था. अकादमी का अध्यक्ष सामान्य परिषद द्वारा चुना जाता है न कि सरकार नियुक्त करती है. उन पर कोई दबाव भी नहीं होता. मैं जब अकादमी का अध्यक्ष था तो मकबूल फिदा हुसैन के मामले में सरकार को पत्र लिखा था और अपना विरोध दर्ज कराया था.

यह विरोध जारी रहेगा. अभी और लेखक सामने आएंगे. हम एक नवंबर को लेखकीय स्वतंत्रता पर हो रहे प्रहार को लेकर कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों का एक अधिवेशन बुला रहे हैं. हम अपना विरोध जारी रखेंगे.

(लेखक साहित्यकार हैं)

हिंदू तालिबान बनाने की तैयारी

shnuya kaal muslims

हाल के दिनों में जिस तरह की घटनाएं लगातार देखने में आ रही हैं, उससे जाहिर है कि मुसलमानों को लोकतंत्र से बाहर किया जा रहा है. उनको यह बताया जा रहा है कि उन्हें सबके बराबर अधिकार नहीं है. उनके मन में भय पैदा किया जा रहा है कि अगर हमारी शर्त पर रहने को तैयार हो तो रहो, अन्यथा इस तरह की परेशानियां उठानी होंगी. हमारी शर्त पर नहीं रहना है तो आपकी जान खतरे में है. यह दरअसल, लोकतंत्र पर हमला है. यहां सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं है, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सभी अल्पसंख्यकों पर खतरा है और बढ़ता जा रहा है. आज नहीं तो कल सबकी बारी आएगी.

सांप्रदायिक आधार पर इस देश को बांटने जैसी हरकतें करने वाले लोग इस देश के इतिहास और इसके समाजशास्त्र के बारे में अनभिज्ञ हैं. हिंदुस्तान एक महादेश है और वे इस महादेश के बारे में नहीं जानते. वे इसे अपने हिसाब से बनाना और चलाना चाहते हैं, जैसा कि पाकिस्तान में है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदू तालिबान बनाने की तैयारी है. हिंदू तालिबान की क्या संरचना  होगी, वे उसी दिशा में काम कर रहे हैं और इसमें वे सफल हुए हैं. क्योंकि उनके पास सत्ता है, साधन है, लोग हैं और पैसा है. उन्हें राजसत्ता का सहयोग, साधन और धन सबकुछ मुहैया है. इन सबके साथ मिलकर वे मुसलमानों को अलग-थलग कर रहे हैं. उनको ये नहीं मालूम है कि मुसलमानों को अलग-थलग करके आप उन्हें गैर-संवैधानिक गतिविधियों के लिए उकसा रहे हैं. ऐसा करना देश और समाज दोनों के लिए खतरनाक है. देश के अंदर असहिष्णुता बढ़ती है तो वह भयानक रूप ले लेती है. उससे लाभ उठाने वाले भी बहुत हैं. पूरे विश्व में ऐसी शक्तियां हैं जो देशों को कमजोर करके उसका लाभ उठाना चाहती हैं. यह सांप्रदायिक उन्माद देश को कमजोर करके उन शक्तियों के आगे डाल देगा जो इस पर अपना अधिकार जमाना चाहती हैं.

इस वक्त हालत यह है कि मुसलमानों की समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें. मुसलमान कम पढ़े-लिखे हैं, उनके पास आर्थिक शक्ति नहीं है, सत्ता में हिस्सेदारी अथवा प्रतिनिधित्व नहीं है, शिक्षा-जागरूकता नहीं है, उनकी समझ में नहीं आता कि वे विरोध कैसे करें? उनके पास दो रास्ते हैं कि या तो वे चुपचाप हाशिये पर रहते रहें या फिर वे गैर-संवैधानिक रास्ते अख्तियार करें. यह दोनों बातें देशहित में नहीं है.

बात सिर्फ मुसलमानों के हित की नहीं, इस देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाने की भी है. आप 15-18 करोड़ आबादी को अलग-थलग रहने को विवश कर दें या फिर वह निराश होकर गैर-संवैधानिक रास्ता अपना ले, लोकतंत्र से उसका विश्वास खत्म हो जाए, तो क्या स्थिति होगी? ज्यादातर मुसलमानों का विश्वास लोकतंत्र से उठ रहा है. इससे वे लाभ उठा रहे हैं, जिनके लिए वे वोट करते हैं. मुसलमानों की कोई सुनने वाला नहीं है. इससे देश में भयानक स्थिति उत्पन्न हो रही है.

अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब आेडिशा में पादरी ग्राहम स्टेन्स को दो और लोगों के साथ जला दिया गया था. जो आरोपी था, उसे फांसी हुई. बाद में कोर्ट ने उसे उम्रकैद में बदल दिया. इस तरह तीन लोगों का हत्यारा बच गया, जबकि सीबीआई ने उसके लिए मौत की सजा की अपील की थी. ऐसे तमाम मसले सामने आते रहे हैं. ये सब चीजें अल्पसंख्यकों के लिए क्या संकेत करती हैं?

भारतीय लोकतंत्र में सबको बराबरी का स्तर प्राप्त नहीं है. अगर बराबरी नहीं है तो मुसलमानों-ईसाईयों से आप क्या आशा करते हैं? क्या वे अपने दोयम दर्जे को स्वीकारते हुए देश के प्रति समर्पित रहेंगे? क्या वे संविधान में यकीन करेंगे? वे अविश्वास की स्थिति में हैं. जो लोग इन चीजों को और बढ़ावा दे रहे हैं उनको खुद नहीं मालूम है कि इसके क्या नतीजे हो सकते हैं.

मुस्लिम समाज की भी अपनी कमियां हैं. उनमें अज्ञानता है, जहालत है, लीडरशिप नहीं, धर्मांधता है, तमाम बुराइयां हैं, लेकिन लोकतंत्र में कमियों के प्रति सचेत होकर उसकी पहचान कर उसके निदान की जरूरत होती है. कांग्रेस ने सच्चर कमेटी गठित की थी, उसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमानों की हालत दलित के बराबर है. उसने कुछ सिफारिशें सौंपी थीं, जिन्हें मानने की बजाय उन सिफारिशों को ताक पर रख दिया गया. सांप्रदायिक घटनाओं को रोकने के लिए कड़े कानून नहीं हैं. ये सारी बातें गलत संकेत देती हैं.

ये सारी भयानक स्थितियां अचानक नहीं आ गई हैं. इसमें सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस का भी पूरा हाथ रहा है. आजादी के बाद कांग्रेस ने छोटे पैमाने पर बार-बार वही किया है जो भाजपा कर रही है

जो लोकतंत्र के रक्षक हैं उनको सोचना चाहिए कि वे इस देश को क्या बना रहे हैं. इसमें अंतत: यह होगा कि वे हिंदू जो कट्टर नहीं हैं, उनके लिए भी संकट खड़ा होगा. ईसाई, मुसलमान, जैन, बौद्ध के अलावा उदार हिंदू भी सांप्रदायिकता का शिकार बनेगा. लोकतंत्र खत्म होगा तो लोकतांत्रिक सोच वाले हर व्यक्ति को मुसीबत होगी. इससे देश बदतर हालत में पहुंचेगा.

मुसलमानों के साथ त्रासदी यह है कि मुस्लिम समाज का सारा मध्यम वर्ग बंटवारे के समय पाकिस्तान गया. जो गरीब थे यानी मजदूर, बुनकर आदि वे यहां रह गए. उनके पास न सामर्थ्य बची न ही लीडरशिप. जो मुसलमानों के नेता बनकर उभरे, उन्होंने मुसलमानों की समस्या सुलझाने के नाम पर उनको भावनात्मक रूप से उकसाया और उनका शोषण किया. जैसे मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में हैं. उन्होंने हमेशा ही मुसलमानों का भावनात्मक शोषण किया. उर्दू, फारसी और मदरसे जैसे बेवजह के मुद्दों में मुसलमानों को फंसाए रखा गया. उन्होंने फारसी विश्वविद्यालय बनवाया तो उसका मुसलमानों के लिए क्या उपयोग है? ऐसी भाषा जिसका कोई भविष्य नहीं है, वह मुसलमानों को क्या देगी? केवल भावनात्मक स्तर पर मुसलमानों को उकसाकर वोट लेने के लिए यह सब किया जाता है. मुसलमानों के इन कथित रहनुमाओं ने मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ाया और आम मुसलमान की समस्या के प्रति संवेदनहीन रहे. ये जानते हैं कि अनपढ़-जाहिल मुसलमान, नेताओं के कहने में आ जाएंगे. उनको सिर्फ फंसाया जाता रहा है.

मुसलमानों की रहनुमाई के नाम पर एक नए नेता उभरे हैं असदुद्दीन ओवैसी. ओवैसी आधुनिक जिन्ना है क्योंकि वह भी भड़काऊ और भयानक बातें करके मुसलमानों को आकर्षित करता है. उसका भी उद्देश्य सत्ता के साथ सौदेबाजी और जोड़तोड़ ही है. वह मुस्लिम समाज के सुधार की कोई बात नहीं करता. ओवैसी जिस पार्टी का है उसका इतिहास सबको पता है. मुसलमान दिशाहीन स्थिति में हैं और इसे कोई दिशा देने वाला नहीं है. वो जिसे भी अपना लीडर मानते हैं, निराश होते हैं. अब जब लीडरशिप की यह हालत है तो मुस्लिम बुद्धिजीवी क्या कर सकते हैं, वे सिर्फ लिख सकते हैं, बात कर सकते हैं, लेकिन पार्टी या संगठन नहीं बना सकते. दूसरे, मुस्लिम समाज अंदर से बंटा हुआ है. इसलिए वो किसी एक की बात सुनने को तैयार नहीं है.

ये सारी भयानक स्थितियां अचानक नहीं आ गई हैं. इसमें सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस का भी पूरा हाथ रहा है. आजादी के बाद कांग्रेस ने छोटे पैमाने पर बार-बार वही किया है जो भाजपा कर रही है. मुसलमानों की असुरक्षा को बढ़ाकर वोट लिया गया. पिछले पचास साल में जो हुआ, अब वह अपने चरम पर है. यह बहुत दुखद और चिंताजनक है, क्योंकि इसका असर दीर्घकालिक होगा और यह देश और समाज को भारी पड़ेगा.

(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं )

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

गोडसे के वारिस : हिंदुत्व आतंक के रचयिता

shoma-illusभाजपा के गोवा से विधायक विष्णु वाघ की एक मांग पर क्या रुख तय किया जाए, यह फिलवक्त भाजपा के नेतृत्व को समझ में नहीं आ रहा है, जिन्होंने ‘सनातन संस्था’ पर पाबंदी की मांग की है. मालूम हो कि काॅमरेड गोविन्द पानसरे की हत्या में कथित संलिप्तता को लेकर सनातन संस्था इन दिनों नए सिरे से सुर्खियों में है, उसके कई कार्यकर्ता पकड़े गए हैं. इतना ही नहीं नरेंद्र दाभोलकर, पानसरे एवं एमएम कलबुर्गी की हत्या में एक ही सूत्र जुड़े रहने के संकेत भी मिल रहे हैं.

खबरों के मुताबिक पुलिस को उसके अन्य कार्यकर्ताओं रुद्र पाटिल और सारंग अकोलकर की भी तलाश है, जिन्हें अक्टूबर, 2009 के मडगांव बम विस्फोट में फरार घोषित किया गया है. इस संस्था से जुड़े दो आतंकी- मालगोंडा पािटल और योगेश नायक- बम विस्फोट में तब मारे गए थे, जब वे दोनों नरकासुर दहन नाम से समूचे गोवा में लोकप्रिय कार्यक्रम के पास विस्फोटकों से लदे स्कूटर पर जा रहे थे और रास्ते में ही विस्फोट हो जाने से न केवल उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा बल्कि उनकी समूची साजिश का भी खुलासा हुआ. ये दोनों आतंकी उसी दिन मडगांव से 20 किलोमीटर दूर वास्को बंदरगाह के पास स्थित सान्काओले में एक अन्य बम विस्फोट की कोशिश में भी शामिल थे.

दरअसल जनाब विष्णु वाघ ने अतिवादी संगठनों पर पाबंदी को लेकर अपनी ही सरकार के दोहरे रुख को उजागर किया है. उन्होंने न केवल ‘सनातन संस्था’ की तुलना प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी’ अर्थात स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया से की, बल्कि यह भी जोड़ा कि ‘सनातन’ पर अगर बाहर के कई देशों में पाबंदी लग सकती है, तो यहां पर क्यों नहीं?(http://zeenews.india.com/news/india/bjp-mla-compares-sanatan-%E2%80%8Bsanstha-with-simi-seeks-ban-for-spreading-terror_1800711.html)

विष्णु वाघ का प्रश्न है कि प्रमोद मुतालिक की अगुआई वाली श्रीराम सेना जिसने खुद गोवा के अंदर उत्पात नहीं मचाया है, उसकी गतिविधियों पर अगर गोवा में पाबंदी लगाई जा सकती है, तो फिर सनातन संस्था जिसके कार्यकर्ता कई आतंकी घटनाओं में लिप्त पाए गए हैं, उनके प्रति इतना मुलायम रवैया क्यों (http://www.ndtv.com/india-news/ban-sanatan-sanstha-demands-goa-bjp-lawmaker-vishnu-wagh-1220555 )

यह बात नोट करने लायक है कि श्रीराम सेना पर पाबंदी का फैसला उन दिनों का है, जब रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर गोवा के मुख्यमंत्री थे. न केवल श्रीराम सेना गोवा में प्रतिबंधित है बल्कि उसके नेता प्रमोद मुतालिक के प्रवेश पर भी पाबंदी है. गौरतलब है कि पिछले दिनों देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी गोवा सरकार के उपरोक्त फैसले पर अपनी मुहर लगाई थी और ‘नैतिक पहरेदारी और उसके नाम पर महिलाओं पर हमले करने’ की निंदा की थी. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के शब्द थे ‘आखिर आप नैतिक पहरेदारी क्यों करते हैं? क्या आप यही करना चाह रहे हैं? आप नैतिकता के नाम पर महिलाओं पर हमले करते हैं.’

यह सोचने का सवाल है कि श्रीराम सेना से नफरत और सनातन पर इस भाजपाई इनायत का राज क्या है, जबकि तथ्य यही बताते हैं कि दोनों संगठनों की गतिविधियों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है. क्या यह सब दिखावटी है और अंदर से सभी एक साथ है?

यह वही श्रीराम सेना है जिसके नेता प्रमोद मुतालिक कभी विश्व हिंदू परिषद एवं बजरंग दल की दक्षिण भारत इकाई के संयोजक थे और उन्हें तब पद से हटा दिया गया था, जब बाबा बुडनगिरी मामले में उन पर भड़काऊ भाषण देने के आरोप लगे थे. इसके बाद उन्होंने अपने स्वतंत्र संगठन का निर्माण किया था. कर्नाटक में जब भाजपा शासन में ईसाईयों पर हमले होने लगे तो उसकी जिम्मेदारी उन्होंने खुद ली थी. इतना ही नहीं, वह इस बात को भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार चुके हैं कि वह लोगों को हथियारों का प्रशिक्षण देते हैं (www.rediff.com,10Nov2008http://www.rediff.com/news/2008/nov/10inter-we-are-training-youth-to-fight-terror.htm)

वैसे ऐसा नहीं कहा जा सकता कि श्रीराम सेना को लेकर गोवा भाजपा का रुख उसके प्रति राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के रुख को प्रतिबिंबित करता है. जिन दिनों कर्नाटक में भाजपा एवं जनता दल सेकुलर की साझा सरकार थी और बाद में जब येदियुरप्पा की अगुआई में अपने बलबूते सरकार बनाने में भाजपा को सफलता मिली तब उन्होंने अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों- बजरंग दल आदि के साथ श्रीराम सेना पर लगे मुकदमे भी वापस लिए थे. (देखें, बीजेपी विथडू केसेस अगेन्स्ट मुतालिक, टाइम्स आॅफ इंडिया, 29 जनवरी 2009) वर्ष 2004 से 2006 के दरमियान मुतालिक एवं अन्य 150 कार्यकर्ताओं के खिलाफ दंगा फैलाने, गैरकानूनी ढंग से सभा करने, भड़काऊ भाषण देने, सांप्रदायिक दंगे भड़काने आदि को लेकर कई केस दर्ज हुए थे, जिनमें से अधिकतर में मुतालिक का नाम शामिल था, मगर उन सभी 54 मामलों को सरकार ने बाद में वापस लिया था.

अगर हम बारीकी से देखें तो इन सभी अतिवादी संगठनों की गतिविधियों में आपस में बहुत सामंजस्य दिखाई देता है. इंडियन एक्सप्रेस ने ‘द सेफ्रन फ्रिंज’ नाम से एक स्टोरी (1 फरवरी 2009 को) की थी, जिसमें पहले यह बताया गया था कि श्रीराम सेना ने किस तरह ‘कॉलेज परिसरों में घुसपैठ बना ली है, जहां उसका एजेंडा गोहत्या बंदी, अंतरधार्मिक रिश्तों को रोकना, फैशन शो का विरोध करना है.’ वहीं उसने एक दिलचस्प बात भी कही थी कि एक जैसे दिखने वाले इन अतिवादी समूहों की गतिविधियों में श्रम विभाजन भी दिखता है.

हालांकि श्रीराम सेना बजरंग दल और हिंदू जागरण वेदिके से रिश्ते से इंकार करती है, उसके कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते दिखते हैं. और वह एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में शायद ही घुसपैठ करते हैं- श्रीराम सेना अगर नैतिक पहरेदार है, बजरंग दल धर्मांतरण को निशाना बनाती है तो वेदिके अन्य मसलों से निपटती है.

चाहे श्रीराम सेना हो, सनातन संस्था, अभिनव भारत हो या अक्सर विवादों में रहने वाली भाजपा सांसद आदित्यनाथ की प्रेरणा से सक्रिय पूर्वी उत्तर प्रदेश की हिंदू युवा वाहिनी- जिसके कार्यकर्ताओं ने पिछले दिनों बिसाहड़ा, दादरी जाकर गांव के सभी हिंदुओं को हथियार बांटने की बात कही थी- या अगस्त 2008 में कानपुर के प्राइवेट हॉस्टल में बम इकट्ठा करते मारे गए हिंदूवादी संगठनों के दो कार्यकर्ता और उनके पीछे फैला व्यापक नेटवर्क हो, हम आसानी से देख सकते हैं कि पूरे देश में आतंकी घटनाओं के जरिए एक ऐसा वातावरण पैदा किया जा रहा है, जो सरगर्मियां किसी भी मायने में इस्लामिस्ट आतंकियों या जियनवादी आतंकियों या फिर खालिस्तानी आतंकियों से कमतर नहीं दिखती हैं.

सनातन संस्था

हिप्नोथेरेपिस्ट जयंत बालाजी अठावले द्वारा 1999 में बनाई गई सनातन संस्था पर तब देश की निगाह गई जब अप्रैल 2008 में इसके कार्यकर्ताओं की ठाणे, पनवेल और वाशी जैसे स्थानों पर बम विस्फोट कराने की योजना का खुलासा हुआ. इत्तेफाक से इन बम विस्फोटों में किसी की मौत नहीं हुई थी. एंटी टेरेरिस्ट स्क्वाड के चर्चित पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे ने आध्यात्मिकता के आवरण में हिंसक गतिविधियों में लिप्त उपरोक्त संस्था को लेकर दायर अपनी प्रथम सूचना रिपोर्ट में संस्था पर ही कार्रवाई करने की बात कही थी.

जांच में पुलिस के सामने यह तथ्य भी आया था कि उपरोक्त संस्था एक तरफ ‘आध्यात्मिक मुक्ति’, ‘सदाचार/धार्मिकता की जागृति’ की बात करती है, एक ऐसी दुनिया जो ‘साधकों और जिज्ञासा रखने वालों के सामने धार्मिक रहस्यों को वैज्ञानिक भाषा में पेश करने का मकसद रखती है’ और ‘जो साप्ताहिक आध्यात्मिक बैठकों, प्रवचनों, बाल दिशानिर्देशन वर्गों, आध्यात्मिकता पर कार्यशालाओं’ आदि का संचालन करती है, मगर दूसरी तरफ वहां ‘शैतानी कृत्यों में लगे लोगों के विनाश’ को ‘आध्यात्मिक व्यवहार’ का अविभाज्य हिस्सा समझा जाता है. (देखें, ‘साइंस ऑफ स्प्रिचुअलिटी’ जयंत आठवले, वाॅल्यूम 3, एच – सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग, चैप्टर 6, पेज 108-109) और यह विनाश ‘शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर’ करना है. गौरतलब है कि इस ‘धर्मक्रान्ति’ को सुगम बनाने के लिए साधकों को हथियारों-राइफल, त्रिशूल, लाठी और अन्य हथियारों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब महाराष्ट्र के अग्रणी दैनिक लोकसत्ता में लिखे लेख में (28 सितंबर 2015) उपरोक्त संस्था द्वारा मराठी में प्रकाशित पुस्तिका ‘क्षात्राधर्म’ के अंश दिए गए हैं, जो इस संस्था के चिंतन और कार्यप्रणाली पर और रोशनी डालते हैं. (http://epaper.loksatta.com/598945/loksatta-pune/27-09-2015#page/6/2). पिछले दिनों ‘मुंबई मिरर’ नामक अखबार को दिए साक्षात्कार में संस्था के मैनेजिंग ट्रस्टी वीरेंद्र मराठे ने खुल्लमखुल्ला कहा कि हम ‘हथियारों का प्रशिक्षण देते हैं’. उपरोक्त संस्था द्वारा मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में प्रकाशित अखबार ‘सनातन प्रभात’ भी अक्सर सुर्खियों में रहता आया है क्योंकि उसमें अन्य समुदायों के खिलाफ बहुत अपमानजनक बातें लिखी गई होती हैं. एक बार ऐसे ही लेख के प्रकाशन के बाद मिरज शहर (महाराष्ट्र) में दंगे की नौबत तक आ गई थी.

किन्हीं प्रार्थनास्थलों पर बम रखने वाले, अजमेर दरगाह बम धमाका (2007), मक्का मस्जिद बम धमाका (2007), मुसाफिरों से भरी रेलगाड़ी में बम रखने वाले/समझौता एक्सप्रेस बम धमाका (2007), मुस्लिम बहुल इलाकों में दुपहिया वाहन में विस्फोटक रख कर निरपराधों को मारने की साजिश रचने वाले/मालेगांव बम धमाका (सितंबर 2008), मोडासा बम धमाका (सितंबर 2008), नरकासुर महोत्सव में एकत्रित हजारों लोगों के बीच विस्फोटक रखने के लिए तैयार/मडगांव बम धमाका (अक्टूबर 2009), सनकोले बम धमाका (अक्टूबर 2009), करने वाले आखिर किस मिट्टी के बने इंसान हैं और इन्हें तथा बसों से खींच कर निरपराधों को मारने वाले तालिबानियों या खालिस्तानियों से किस बात में अलग कहे जा सकते हैं?

निश्चित ही यह ऐसे प्रयास हैं जिन्हें किसी केंद्रीय संगठन से प्रेरणा भी मिलती दिखती है तो कुछ स्थानीय स्तर की पहलकदमी करने वाले भी दिखते हैं, जो कुछ समय तक सक्रिय रहने के बाद टूट-बिखर जाते हैं. उदाहरण के तौर पर 2002 में सहारनपुर इलाके में सक्रिय ‘आर्य सेना’ नामक  हिंदू आतंकी समूह को ही देखें (एनडीटीवी, 7 जून 2002, ndtv.com/morenews/showmorestory.asp?slug=Hindu+militant+outfit+ discovered+in+UP/) जिसने मस्जिदों एवं मदरसों पर हमले किए थे जिसके दो सदस्य पकड़े गए थे मगर इस समूह का मास्टरमाइंड अभी भी फरार था. पुलिस की सेवा में पहले रहे किसी सत्येंद्र मलिक ने सेना के लिए पैसे एवं प्रेरणा दी थी और अल्पसंख्यक निशानों पर हमले की योजना बना थी. सहारनपुर की 40 फीसदी मुस्लिम आबादी आर्य सेना की हिंसा का निशाना थी.

या आप मेवात के गुरुकुल में हुए यह बम विस्फोट की खबर देखें (फॉरेंसिक  रिपोर्ट ने उड़ाए जांच एजेंसियों के होश, जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, 16 नवंबर 2010) जिसमें पाया गया था कि यहां ग्राम भडास में महर्षि दयानंद आश्रम द्वारा संचालित गुरुकुल में हुए बम विस्फोट में पीईटीएन नामक विस्फोटक- जो आरडीएक्स एवं टीएनटी से अधिक विनाशकारी होता है- पाया गया था और वहां कार्यरत स्वामी आनंद मित्रानंद को पुलिस ने पकड़ा था, जिसने पुलिस को बताया था कि वहां पहले से कार्यरत स्वामी अमरानंद ने उसे वह बम दिए थे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाम जमात-ए-इस्लामी

दक्षिण एशिया में धर्म विशेष की राजनीति करने वाले दो संगठनों- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है और जमात-ए-इस्लामी, जो इस्लामिक राज्य बनाने की बात करता है- में गजब की समानता दिखती है. दरअसल दोनों ने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अनुषांगिक संगठनों, संस्थाओं एवं समविचारी समूहों का विशाल नेटवर्क तैयार किया है. ऐसे अनुषांगिक संगठनों में समाज के अलग-अलग तबकों के अलावा, अलग-अलग मुद्दों पर सक्रिय संगठन शामिल हैं.

सुरुचि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किताब ‘परम वैभव के पथ पर (लेखक सदानंद दामोदर सप्रे) आरएसएस की ऐसी कार्यप्रणाली पर रोशनी डालती है. संघ से संबद्ध डॉ. सप्रे 31 छोटे-छोटे अध्यायों में संघ से संबद्ध विद्यार्थी परिषद से लेकर पूर्व सैनिक परिषदों जैसे संगठनों पर तथा प्रचार माध्यम एवं सामयिक महत्व के कार्य के अंतर्गत गोरक्षा आदि मामलों में संघ तथा उससे संबंधित संगठनों की सक्रियता को रेखांकित करती है, इनमें हिंदू जागरण मंच का भी जिक्र है. गौरतलब है कि जब हिंदू जागरण मंच के कार्यकर्ता कई सूबों में ईसाईविरोधी हिंसा फैलाने में लिप्त पाए गए थे, तब उससे किनारा करने में भी संघ ने वक्त नहीं गंवाया था. (देखें, पेज 15, गोडसेज चिल्ड्रेन, हिंदुत्व टेरर इन इंडिया)

बांग्लादेश के अनुभवों को लेकर प्रोफेसर अब्दुल बरकत का अध्ययन, बांग्लादेश में मूलवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा के बहाने वहां जड़ जमा चुकी जमात-ए-इस्लामी पर निगाह डालता है. (अंग्रेजी पत्रिका, मेनस्ट्रीम, मार्च 22-28, 2013) ढाका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बरकत बताते हैं कि अपनी मूलवाद की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए अपने काडर आधारित नेटवर्क के माध्यम से जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश ने ‘वित्तीय संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों, फार्मास्युटिकल एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्थानों, धार्मिक संगठनों, यातायात से जुड़े संगठनों, रियल इस्टेट, न्यूज मीडिया और आईटी, स्थानीय प्रशासन, एनजीओ, हरकत-उल-जिहाल-अल-इस्लामी से लेकर जमाइतुल मुजाहिदीन बांग्लादेश’ जैसे संगठनों/समूहों का निर्माण किया है. ध्यान रहे कि यह वही जमाइतुल मुजाहिदीन बांग्लादेश है, जिसने अपनी आतंकी गतिविधियों के जरिए बांग्लादेश में कहर बरपा किया था, जिसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने एक साथ बांग्लादेश के तमाम जिलों में बम विस्फोट करके आतंक मचाने की कोशिश की थी.

निश्चित ही संघ द्वारा अपने अनुषांगिक संगठन के तौर पर किसी आतंकी संगठन का निर्माण किया गया हो, इसकी आधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है, मगर इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि 21वीं सदी की पहली दहाई में भारत के विभिन्न स्थानों पर हुए आतंकी हमलों में हिंदुत्ववादी विचारों से प्रेरित कार्यकर्ताओं की संलिप्तता देखी गई थी, जिनमें से कइयों के संघ से संबंधों का खुलासा हुआ है. कइयों के बारे में संघ ने इस बात की भी पुष्टि की है कि वह संघ के पूर्व कार्यकर्ता थे, तो यह उसके लिए आत्मपरीक्षण का भी वक्त है कि आखिर उसके जैसे अनुशासित कहे जाने वाले संगठन के कार्यकर्ता- जो अपने आप को ‘चरित्र निर्माण’ के लिए प्रतिबद्ध कहता हो- वह आखिर बम-गोलियों के सहारे मासूमों की हत्या क्यों कर रहे हैं?

विडंबना यही है कि संविधान को ताक पर रख कर काम करने वाले इन संगठनों पर अंकुश कायम करने की बजाय ऐसे हालात पैदा किए जा रहे हैं कि उन्हें आसानी से फलने-फूलने का रास्ता मिले. और यह प्रतीत हो रहा है कि भाजपा के केंद्र में सत्तारोहण के बाद हिंदुत्व आतंक की परिघटना एवं उससे जुड़े मामलों में शामिल लोगों को क्लीनचिट देने की तैयारी चल रही है. इस बदली हुई परिस्थिति को लेकर संकेत एक केंद्रीय काबिना मंत्री के बयान से भी मिलता है जिसमें उन्होंने हिंदू आतंक की किसी संभावना को सिरे से खारिज किया था और यह इस हकीकत के बावजूद कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी कम से कम 16 ऐसे उच्च-स्तरीय मामलों की जांच में मुब्तिला रही है, जिसमें हिंदुत्व आतंकवादियों की स्पष्ट संलिप्तता दिखती है और हिंदुत्व संगठनों के आकाओं पर से संदेह की सुई अभी भी हटी नहीं है.

ताजा समाचार यह है कि मालेगांव बम धमाके के असली कर्णधारों में शुमार किए जाने वाले कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा को राष्ट्रीय जांच एजेंसी ‘बेदाग बरी’ कर देगी. (http://economictimes.indiatimes.com/ news/politics-and-nation/ malegaon-blasts-nia-may-let-off-sadhvi-pragya-lt-colpurohit/ articleshow/ 49264576.cms)

और यह खबर पढ़ते ही देश के अंदर कुछ समय पहले सुर्खियां बनीं मुंबई की मशहूर वकील रोहिणी सालियान- जो मालेगांव बम धमाके में सरकारी वकील हैं- के उन साक्षात्कारों को याद किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह राष्ट्रीय जांच एजेंसी की तरफ से उन पर दबाव पड़ रहा है कि वह मालेगांव बम धमाके में चुस्ती न बरतें. और हम इस बात को भी याद कर सकते हैं कि जिन दिनों इस मसले पर चर्चा चल ही रही थी कि समाचार मिला कि अजमेर बम धमाके (2007) में कई गवाह अपने बयान से मुकर चुके हैं और एनआईए द्वारा मध्य प्रदेश के संघ के प्रचारक सुनील जोशी की हत्या के मामले को अचानक फिर मध्य प्रदेश पुलिस को लौटा दिया जा रहा है. समाचार यह भी मिला था कि उसी राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने ‘अधूरे सबूतों’ की बात करते हुए मोदासा बम धमाका मामले में अपनी फाइल बंद करने का निर्णय लिया है.

21वीं सदी की दूसरी दहाई के मध्य में यह सवाल नए सिरे से मौजूं हो उठा है कि नाथूराम गोडसे के असली वारिस कहे जाने वाले यह आतंकी एवं उनके सरगना कभी अपने मानवद्रोही कार्यों की सजा पा सकेंगे?

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)

‘पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश’

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कुछ लोग पुरस्कार लौटाने में राजनीति देख रहे हैं, लेकिन वैसा बिल्कुल नहीं है. पुरस्कार लौटाना राजनीति करने का मसला नहीं है, बल्कि यह उस खामोशी को तोड़ने का एक प्रयास था जो लगातार लेखकों पर हो रहे हमले के बावजूद पसरी हुई थी. अपने विचार व्यक्त करने के लिए कई लेखकों और बुद्धिजीवियों को प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ की तो हत्या भी कर दी गई. एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे को क्रूरतापूर्वक मार दिया गया. इन हत्याओं और हमलों के बाद भी जो चुप्पी छाई हुई थी, उसने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया. इन सब घटनाओं को लेकर साहित्य अकादमी की उदासीनता भी निराश करने वाली रही. मुझे ऐसा लगा कि इन सब खतरों को लेकर एक संदेश देने की जरूरत है. मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए था. मैं सिर्फ साहित्य समाज को ही नहीं, बल्कि अकादमिक संस्थानों को भी एक संदेश देना चाहता था.

मेरे पुरस्कार वापस करने के बाद आपातकाल का मुखर विरोध करने वाली साहसी लेखिका नयनतारा सहगल और वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने भी उन्हीं कारणों से अपने पुरस्कार लौटाए और अब बड़ी संख्या में लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है और आगे भी करेंगे. जाहिर है कि मेरा फैसला गलत नहीं था. इस समाज में लेखकों को अकेला छोड़ दिया गया है. लेखक ऐसी संस्था का पुरस्कार लेकर करेगा भी क्या जो अपने द्वारा पुरस्कृत लेखक की मौत पर भी चुप रहे?

इस समय देश में 1947 के पहले वाला सांप्रदायिकता का खेल खेला जा रहा है. जाति,  समुदाय, धर्म आदि के बीच फूट डाली जा रही है. लोगों को बांटकर वोट बटोरने और सत्ता तक पहुंचने का गंदा खेल देश पर सबसे बड़ा खतरा है. ऐसा नहीं है कि यह सब आज शुरू हुआ है, यह कांग्रेस के समय भी था, लेकिन जिस रूप में आज यह हमारे सामने है, वह बेहद भयावह है. पिछले दो तीन सालों से लेखकों, बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं पर हमले बढ़े हैं और अब तो अति हो गई. अब उनकी हत्याएं हो रही हैं. उन्हें शर्मसार करने या उन पर आरोप लगाने, अफवाह फैलाने जैसी हरकतें हो रही हैं. इन सबका विरोध करना जरूरी है.

जब प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या हुई, उस समय मैं अपने गांव में था. पांच दिन से बिजली नहीं थी. चार सितंबर को मैं गांव के पास एक ढाबे पर गया, वहां पर अपना मोबाइल चार्ज किया और फेसबुक खोला तो पता चला कि कलबुर्गी की हत्या कर दी गई है. यह घटना बेहद डरावनी और विचलित करने वाली थी. हत्या हुए पांच दिन हो गया था, लेकिन उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी ने भी तब तक कोई कदम नहीं उठाया था. आप लेखक को सम्मानित तो करते हैं, लेकिन वह निहायत ही अकेलेपन में जीता है. उसकी मौत पर भी उसके साथ कोई नहीं है. उस वक्त के दुख और भय की वजह से मैंने वहीं से यह घोषणा की कि मैं यह पुरस्कार लौटा रहा हूं.

भारत सरकार कहती है कि हम 2017 तक महाशक्ति हो जाएंगे और अर्थव्यवस्था एवं विकास के मामले में चीन को पीछे छोड़ देंगे. लेकिन आप गांवों में जाइए, तो हालात बदतर हैं. बाजारवाद ने गांवों में सिर्फ अपराध और भ्रष्टाचार पहुंचाया है. विकास के दावों की हवा मात्र डेढ़ साल में ही निकल गई. वहां घोर गरीबी और अशिक्षा है. इन सबने लोगों में सिर्फ अति संवेदनशीलता भर दी है. अब अफवाहें फैलाकर उसका फायदा उठाया जा रहा है.

आप देखेंगे कि साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, एफटीआईआई आदि संस्थाएं आजादी के बाद बनाई गई थीं. लंबे प्रयास के बाद इनमें एक परंपरा कायम हुई. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री के रूप में ऐसे शख्स थे, जिनके देश में और विदेश में तमाम लेखकों कलाकारों से निजी रिश्ते थे. वे कला और साहित्य के महत्व और सरोकार समझते थे. अब इन संस्थाओं में चुन-चुन कर ऐसे लोगों को बिठाया जा रहा है, जो इसे नष्ट कर दें. शिक्षा, इतिहास, कला, साहित्य के संस्थानों को मिटाने का बाकायदा अभियान चलाया जा रहा है. पिछले सालों में वेंडी डोनिगर समेत कई लेखकों की किताबें प्रतिबंधित करना और लेखकों को प्रताड़ित करना इसी अभियान का हिस्सा था. हालत यह है कि आज यदि कोई लेखक प्रचलित धारणाओं और विचारों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त करता है, तो उस पर हमले किए जाएंगे, उसकी किताबें जलाई जाएंगी और उसे देशद्रोही घोषित किया जाएगा. मशहूर लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने चुनावों से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लेकर अपनी नापसंदगी जाहिर कर दी तो उनके खिलाफ पब्लिक ट्रायल किया गया, उन्हें अपमानित किया गया. उनके साथ ऐसा व्यवहार हुआ जैसे वे गंभीर किस्म के अपराधी हैं, उन्हें पाकिस्तान भेज दिए जाने की धमकी दी गई. यह सब बेहद स्तब्ध करने वाला है.

जो चीजें अभी तक इस समाज की अच्छाइयां थी, उनका मजाक बनाया जा रहा है. बौद्धिकता को हाशिये पर किया जा रहा है. धर्मनिरपेक्ष, वामपंथ, समाजवाद, लोकतंत्र आदि शब्द गाली की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं. यानी नेहरू की विरासत पर व्यवस्थित तरीके से हमले हो रहे हैं. इस देश की लोकतांत्रिक परंपरा पर ऐसे हमले कभी नहीं हुए. राम मनोहर लोहिया नेहरू के आलोचक थे, पर वे इस तरह के हमले के बारे में सोच नहीं सकते थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नेहरू को लेकर ऐसे हमले कभी नहीं किए. उनके समय में यह भाषा भी नहीं इस्तेमाल हुई थी जो आजकल विरोधियों या आलोचकों के लिए इस्तेमाल हो रही है.

एक देश के रूप में भारत में ऐसा कभी नहीं था कि लोकतांत्रिक मूल्यों को हतोत्साहित किया जाए. भारत हमेशा से विचारों के लिए एक लोकतांत्रिक स्पेस आजादी कराने वाला देश रहा है. हमने उन लेखकों को भी प्रश्रय दिया जो अपने देशों से बाहर किए गए. तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों को यहां जगह दी गई और उनके अभिव्यक्ति के अधिकार और विचारों की रक्षा की गई.

एक समय था जब हमारे लेखकों का सम्मान होता था, उनकी एक गरिमा थी. लेकिन आज अगर आप राजनीतिक, सांस्कृतिक या सामाजिक मसलों पर तार्किक आलोचना करते हैं, तो लोग उसे बर्दाश्त नहीं करते. वे हिंसात्मक होकर आपको प्रताड़ित करते हैं. हर चीज का सांप्रदायिकरण हो रहा है, कला जगत भी इससे अछूता नहीं है. अब हालात पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे हो चुके हैं. बांग्लादेश में भी कट्टरपंथियों द्वारा लेखकों की हत्या कर दी जाती है.

इस सांस्कृतिक-सामाजिक पतन के लिए मौजूदा सरकार जिम्मेदार है. नेतृत्व की ओर से लोगों को कोई ऐसा संदेश नहीं दिया जा रहा है कि वे सहिष्णु हो सकें. हर घटना पर, हर चीज पर बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हालिया घटनाओं पर मौन हैं, चाहे वह लेखकों की हत्या का मामला हो या फिर दादरी में घटी जघन्य घटना. अपराधियों को सुरक्षा देने वाले देश में लेखकों की हालत यह  है कि कोई भी आकर उन्हें मार सकता है. लेखक अकेलेपन में जी रहा है.

रवींद्र नाथ टैगोर ने कहा था, ‘हम मानवता का महासागर हैं.’ हमारे पास एक महान विरासत है. तमाम भाषाएं, संस्कृतियां हैं, लोगों की अपनी आदतें और पसंद-नापसंद है. हम इन सब विभिन्नताओं के बावजूद एक साथ रहते हैं. इस सहिष्णुता के कारण ही हमारे पास महान विरासत है. अब उसी सहिष्णुता पर हमले किए जा रहे हैं. हालांकि, इन सबके बावजूद, मेरा अब तक यह विश्वास है कि भारत की जनता असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं करेगी. वह उन प्रवृत्तियों को नकार देगी, जो हमारी परंपरा को चोट पहुंचाती हैं.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

अकादमी पुरस्कार को जो लोग सरकारी मानते हैं, उन्होंने इसे लिया ही क्यों था?

लेखकों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने और अकादमी पर चुप रहने का आरोप लगाना गलत है. अकादमी ने जिन लेखकों को पुरस्कृत किया है, वह उनके साथ नहीं है, वह लेखकों पर हो रहे हमलों पर खामोश है, यह एक झूठ है. तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं, जबकि हमने एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद बंगलुरु में अकादमी की तरफ से शोकसभा करके इस कृत्य की निंदा की थी. बढ़ती असहिष्णुता और सांप्रदायिकता को लेकर अगर आप सरकार का विरोध कर रहे हैं तो इसके लिए अकादमी का पुरस्कार लौटाने से भ्रम फैल रहा है. ऐसा लग रहा है कि आप साहित्य अकादमी का ही विरोध कर रहे हैं. यह स्पष्ट कर दूं कि अकादमी पुरस्कार देने में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होता और जो लोग इसे सरकारी पुरस्कार मानते हैं, तो उन्होंने लिया ही क्यों था?

लेखकों को भी मालूम है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार सरकार नहीं देती. यह साहित्य अकादमी देती है. सरकार इस संबंध में कोई निर्देश भी नहीं देती. लेखकों का चुनाव भी लेखक ही करते हैं. सरकार का विरोध करने के दूसरे भी तरीके हैं, लेकिन लेखकों का इस तरह पुरस्कार लौटाना गलत है. सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने भी इस तरह का बयान दिया है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं सरकारी बयान दोहरा रहा हूं. मैं अपना बयान पहले ही दे चुका था. उनका बयान बाद में आया. मैं पहले भी यह बात कह चुका हूं और फिर से कह रहा हूं कि अकादमी का पुरस्कार लौटाना गलत है. मेरा बयान महेश शर्मा का बयान नहीं है. इस तरह के आरोप लगातार लगाए जा रहे हैं कि साहित्य अकादमी लेखकों के साथ नहीं है या उनकी हत्याओं पर मौन है. इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि मैं अपने लेखकों के साथ हूं. उनकी लेखकीय स्वतंत्रता का समर्थन करता हूं, उनपर हो रहे हमलों की निंदा करता हूं, लेकिन फिर भी कहूंगा कि इन सबके लिए पुरस्कार लौटाने को सही नहीं मानता. रही बात अकादमी की परिषद से इस्तीफा देने वालों की तो यह वे लोग ही जानें कि वे साहित्य अकादमी से क्यों इस्तीफा दे रहे हैं. उन्होंने लंबे समय तक अपनी सेवाएं दी हैं. उनके विरोध के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता. जहां तक सरकार को अकादमी की ओर से कोई संदेश देने का सवाल है तो हम सरकार को कोई संदेश नहीं दे सकते. हम गलत चीजों की निंदा कर सकते हैं, वह मैंने की.

(लेखक साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

भारत एक देश नहीं विचार है

webइन दिनों जब एक धार्मिक रंगत वाला रक्तपिपासु राष्ट्रवाद और भारतीयता सत्ता का संरक्षण पाकर बलबला रहे हैं, यह सवाल हर आदमी को खुद से जरूर पूछना चाहिए क्योंकि यह जिंदगी और मौत का मसला बनता जा रहा है. ये स्वयंभू राष्ट्रवादी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, देशविरोधी काम करने, सभ्यता और संस्कृति को मैला करने के मनमाने आरोप लगाकर, आसानी से उकसावे में आ जाने वाली हीनता, हताशा की मारी भीड़ का कुशल प्रबंधन कर जानें ले रहे हैं. वे खानपान, कपड़े, प्यार करने के तरीकों से लेकर पूरी जीवनशैली को अपने हिसाब से निर्धारित करना और पालन कराना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि उनमें पवित्रता का तेज और नैतिकता का बल है, वे खुद गले तक हर तरह के घच्चेपंजे में फंसे लोग हैं, जो भाजपा नेता दादरी में अखलाक नाम के मुसलमान की हत्या को गाय खाने का आरोप लगाकर जायज ठहराता है, वही एक बूचड़खाने  के निदेशक के रूप में बीफ का एक्सपोर्ट करके करोड़ों रुपये पीटने का सपना देखता पाया जाता है.

वे सब कुछ भारतमाता की जय की आड़ में कर रहे हैं, उनका एकमात्र तर्क है, ‘वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है.’

मैने खुद अपने भीतर झांका तो बचपन में किताबों में देखा कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच फैला एक नक्शा झिलमिलाया जिसमें एक देवी जैसी गोरी औरत और उसका रथ खींचते शेर सही अनुपात में फिट हो गए, दिल्ली के लालकिले पर अकेला तिरंगा झंडा दिखा जिसके बगल में पंद्रह अगस्त की परेड की सलामी लेने के बाद एक पका हुआ आदमी बुलेटप्रूफ केबिन से भाषण दे रहा था, लता मंगेशकर के गाए ‘जरा याद करो कुर्बानी’ की धुन पर हिलते कंटीले तार दिखे जिनसे ओस आंसुओं की तरह टपक रही थी, वहीं मुस्तैद फौजी दिखे जो किसी भी क्षण जान देने को तैयार खड़े थे, थोड़ी देर तक तो इन लुभावनी तस्वीरों का रेला चला लेकिन भीतर बियाबान फैलने लगा… ये सब तो कैलेंडर, टीवी, म्यूजिक और फोटो हैं. इन बंदूक लिए सैनिकों की क्या जरूरत थी पहले पता तो चले कि रक्षा किसकी करनी है. अगर जमीन देश होती है तो रियल इस्टेट के कारोबारियों, हर तरह के छल से जमीनें बचाए रजवाड़ों और जमींदारों को इनका मालिक होना चाहिए और इसकी रक्षा भी उन्हीं को करनी चाहिए. यानी जमीन देश नहीं है, लोग भी देश नहीं है, अगर होते तो हमें उनके ऊंच, नीच, अछूत, म्लेच्छ होने में इतना पुरातन और पक्का यकीन कैसे होता कि हम आपस में खून बहाते.

आज जो भारत है वह कभी एक देश था ही नहीं. लोक में अपने गांव से सौ कोस से आगे की जगह परदेस हो जाती है, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र और तमिलनाडु ही नहीं लगभग सभी राज्यों के पुराने नामों को याद किया जाए तो इतिहास में छिपे कई देश झिलमिलाने लगते हैं, कम से कम जितनी भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है उतनी उपराष्ट्रीयताएं तो अब भी मौजूद हैं. इनमें से कई एक-दूसरे से टकराती भी हैं. एक ढीला-ढाला राष्ट्रवाद स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए उसी रेल, डाक और तार के जरिए यानी आपसी मेलजोल के नए अवसरों से बना था जो हमें गुलाम बनाने वालों ने अपने व्यापारिक मुनाफे को संगठित और अकूत बनाने के लिए मुहैया कराए थे. राष्ट्रवाद को जीवित रहने के लिए हमेशा एक साझा दुश्मन चाहिए होता है लिहाजा चीन और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के समय इसका उभार देखा गया. जब तक साम्राज्यवाद के विरोध का हैंगओवर था हमें ‘आमार नाम तोमार नाम वियतनाम’ कहने से भी परहेज नहीं था लेकिन ग्लोबलाइजेशन और नई आर्थिक नीतियों को सहर्ष लागू करने के बाद वही साम्राज्यवादी शक्तियां फिर से हमारी नीतियां ही नहीं तय करने लगीं, हमारा मानस भी बदल डाला और हम भारतीय उनकी भाषा, पहनावे, खानपान और संस्कृति अपनाने को तरक्की कहने लगे.

अगर विडंबना कोई सड़क है तो अब हम उस मोड़ पर खड़े हैं जहां साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेक देने के पाप पर पर्दा डालने के लिए और अपनी मिथकीय सनकों को फलीभूत करने के लिए राष्ट्रवाद को मुसलमानों, ईसाईयों और अन्य धार्मिक समूहों से नफरत पर आधारित करने की कोशिश की जा रही है. यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों से नफरत यानी जाति आधारित भी हो सकता था लेकिन खुद घृणा के सौदागर ही इतनी भाषाएं बोलते हैं, एक-दूसरे के रीति रिवाजों से अनजान हैं, इतनी ऊंच-नीच है कि उनमें एका संभव नहीं है.

भारत अब तक इतने अंतर्विरोधों के बावजूद नाजुक संतुलन से इसलिए बंधा हुआ है कि वह देश नहीं एक विचार है जिसका मूल विविधता, भिन्नता, अनेकता का सम्मान करने में है. यही भारतीयता है जिसे हिंदू पादशाही स्थापित करने की सनक पाले लोग देखना नहीं चाहते.

एक गोभक्त से भेंट

एक शाम रेलवे स्टेशन पर एक स्वामीजी के दर्शन हो गए. ऊंचे, गोरे और तगड़े साधु थे. चेहरा लाल. गेरुए रेशमी कपड़े पहने थे. पांवों में खड़ाऊं. हाथ में सुनहरी मूठ की छड़ी. साथ एक छोटे साइज का किशोर संन्यासी था. उसके हाथ में ट्रांजिस्टर था और वह गुरु को रफी के गाने के सुनवा रहा था.

मैंने पूछा- स्वामी जी, कहां जाना हो रहा है?

स्वामीजी बोले – दिल्ली जा रहे हैं, बच्चा!

मैंने कहा- स्वामीजी, मेरी काफी उम्र है, आप मुझे ‘बच्चा’ क्यों कहते हैं?

स्वामीजी हंसे. बोले – बच्चा, तुम संसारी लोग होटल में साठ साल के बूढ़े बैरे को ‘छोकरा’ कहते हो न! उसी तरह हम तुम संसारियों को बच्चा कहते हैं. यह विश्व एक विशाल भोजनालय है जिसमें हम खाने वाले हैं और तुम परोसने वाले हो. इसीलिए हम तुम्हें बच्चा कहते हैं. बुरा मत मानो. संबोधन मात्र है.

स्वामीजी बात से दिलचस्प लगे. मैं उनके पास बैठ गया. वे भी बेंच पर पालथी मारकर बैठ गए. सेवक को गाना बंद करने के लिए कहा.

कहने लगे- बच्चा, धर्मयुद्ध छिड़ गया. गोरक्षा-आंदोलन तीव्र हो गया है. दिल्ली में संसद के सामने सत्याग्रह करेंगे.

मैंने कहा- स्वामीजी, यह आंदोलन किस हेतु चलाया जा रहा है?

स्वामीजी ने कहा- तुम अज्ञानी मालूम होते हो, बच्चा! अरे गौ की रक्षा करना है. गौ हमारी माता है. उसका वध हो रहा है.

मैंने पूछा- वध कौन कर रहा है?

वे बोले- विधर्मी कसाई.

मैंने कहा- उन्हें वध के लिए गौ कौन बेचते हैं? वे आपके सधर्मी गोभक्त ही हैं न?

स्वामीजी ने कहा- सो तो है. पर वे क्या करें? एक तो गाय व्यर्थ खाती है, दूसरे बेचने से पैसे मिल जाते हैं.

मैंने कहा- यानी पैसे के लिए माता का जो वध करा दे, वही सच्चा गो-पूजक हुआ!

स्वामीजी मेरी तरफ देखने लगे. बोले- तर्क तो अच्छा कर लेते हो, बच्चा! पर यह तर्क की नहीं, भावना की बात है. इस समय जो हजारों गोभक्त आंदोलन कर रहे हैं, उनमें शायद ही कोई गौ पालता हो पर आंदोलन कर रहे हैं. यह भावना की बात है.

स्वामीजी से बातचीत का रास्ता खुल चुका था. उनसे जमकर बातें हुईं, जिसमें तत्व मंथन हुआ. जो तत्व प्रेमी हैं, उनके लाभार्थ वार्तालाप नीचे दे रहा हूं.

स्वामीजी और बच्चा की बातचीत

स्वामीजी, आप तो गाय का दूध ही पीते होंगे?

नहीं बच्चा, हम भैंस के दूध का सेवन करते हैं. गाय कम दूध देती है और वह पतला होता है. भैंस के दूध की बढ़िया गाढ़ी मलाई और रबड़ी बनती है.

तो क्या सभी गोभक्त भैंस का दूध पीते हैं?

हां, बच्चा, लगभग सभी.

तब तो भैंस की रक्षा हेतु आंदोलन करना चाहिए. भैंस का दूध पीते हैं, मगर माता गौ को कहते हैं. जिसका दूध पिया जाता है, वही तो माता कहलाएगी.

यानी भैंस को हम माता…नहीं बच्चा, तर्क ठीक है, पर भावना दूसरी है.

स्वामीजी, हर चुनाव के पहले गोभक्ति क्यों जोर पकड़ती है? इस मौसम में कोई खास बात है क्या?

बच्चा, जब चुनाव आता है, तब हमारे नेताओं को गोमाता सपने में दर्शन देती है. कहती है बेटा चुनाव आ रहा है. अब मेरी रक्षा का आंदोलन करो. देश की जनता अभी मूर्ख है. मेरी रक्षा का आंदोलन करके वोट ले लो. बच्चा, कुछ राजनीतिक दलों को गोमाता वोट दिलाती है, जैसे एक दल को बैल वोट दिलाते हैं. तो ये नेता एकदम आंदोलन छेड़ देते हैं और हम साधुओं को उसमें शामिल कर लेते हैं. हमें भी राजनीति में मजा आता है. बच्चा, तुम हमसे ही पूछ रहे हो. तुम तो कुछ बताओ, तुम कहां जा रहे हो?

स्वामीजी मैं ‘मनुष्य-रक्षा आंदोलन’ में जा रहा हूं.

यह क्या होता है, बच्चा?

स्वामीजी, जैसे गाय के बारे में मैं अज्ञानी हूं, वैसे ही मनुष्य के बारे में आप हैं.

पर मनुष्य को कौन मार रहा है?

इस देश के मनुष्य को सूखा मार रहा है, अकाल मार रहा है, महंगाई मार रही है. मनुष्य को मुनाफाखोर मार रहा है, काला-बाजारी मार रहा है. भ्रष्ट शासन-तंत्र मार रहा है. सरकार भी पुलिस की गोली से चाहे जहां मनुष्य को मार रही है. बिहार के लोग भूखे मर रहे हैं.

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बिहार? बिहार शहर कहा है बच्चा?

बिहार एक प्रदेश है, राज्य है.

अपने जम्बूद्वीप में है न?

स्वामीजी, इसी देश में है, भारत में.

यानी आर्यावर्त में?

जी हां, ऐसा ही समझ लीजिए. स्वामीजी, आप भी मनुष्य-रक्षा आंदोलन में शामिल हो जाइए न!

नहीं बच्चा, हम धर्मात्मा आदमी हैं. हमसे यह नहीं होगा. एक तो मनुष्य हमारी दृष्टि में बहुत तुच्छ है. वे लोग ही तो हैं, जो कहते हैं, मंदिरों और मठों में लगी जायदाद को सरकार ले ले. बच्चा, तुम मनुष्य को मरने दो. गौ की रक्षा करो. कोई भी जीवधारी मनुष्य से श्रेष्ठ है. तुम देख नहीं रहे हो, गोरक्षा के जुलूस में जब झगड़ा होता है, तब मनुष्य ही मारे जाते हैं. एक बात और है, बच्चा! तुम्हारी बात से प्रतीत होता है कि मनुष्य-रक्षा के लिए मुनाफाखोर और काला-बाजारी से बुराई लेनी पड़ेगी. यह हमसे नहीं होगा. यही लोग तो गोरक्षा-आंदोलन के लिए धन देते हैं. हमारा मुंह धर्म ने बंद कर दिया है.

खैर, छोड़िए मनुष्य को. गोरक्षा के बारे में मेरी ज्ञान-वृद्धि कीजिए. एक बात बताइए, मान लीजिए आपके बरामदे में गेहूं सूख रहे हैं. तभी एक गोमाता आकर गेहूं खाने लगती है. आप क्या करेंगे?

बच्चा? हम उसे डंडा मारकर भगा देंगे.

पर स्वामीजी, वह गोमाता है न. पूज्य है. बेटे के गेहूं खाने आई है. आप हाथ जोड़कर स्वागत क्यों नहीं करते कि आ माता, मैं कृतार्थ हो गया. सब गेहूं खा जा.

बच्चा, तुम हमें मूर्ख समझते हो?

नहीं, मैं आपको गोभक्त समझता था.

सो तो हम हैं, पर इतने मूर्ख भी नहीं हैं कि गाय को गेहूं खा जाने दें.

पर स्वामीजी, यह कैसी पूजा है कि गाय हड्डी का ढांचा लिए हुए मुहल्ले में कागज और कपड़े खाती फिरती है और जगह जगह पिटती है!

बच्चा, यह कोई अचरज की बात नहीं है. हमारे यहां जिसकी पूजा की जाती है उसकी दुर्दशा कर डालते हैं. यही सच्ची पूजा है. नारी को भी हमने पूज्य माना और उसकी जैसी दुर्दशा की सो तुम जानते ही हो.

स्वामीजी, दूसरे देशों में लोग गाय की पूजा नहीं करते, पर उसे अच्छी तरह रखते हैं और अब वह खूब दूध देती है.

बच्चा, दूसरे देशों की बात छोड़ो. हम उनसे बहुत ऊंचे हैं. देवता इसीलिए सिर्फ हमारे यहां अवतार लेते हैं. दूसरे देशों में गाय दूध के उपयोग के लिए होती है, हमारे यहां वह दंगा करने, आंदोलन करने के लिए होती है. हमारी गाय और गायों से भिन्न है.

स्वामीजी, और सब समस्याएं छोड़कर आप लोग इसी एक काम में क्यों लग गए हैं?

इसी से सब हो जाएगा, बच्चा! अगर गोरक्षा का कानून बन जाए, तो यह देश अपने-आप समृद्ध हो जाएगा. फिर बादल समय पर पानी बरसाएंगे, भूमि खूब अन्न देगी और कारखाने बिना चले भी उत्पादन करेंगे. धर्म का प्रताप तुम नहीं जानते. अभी जो देश की दुर्दशा है, वह गौ के अनादर का परिणाम है.

स्वामीजी, पश्चिम के देश गौ की पूजा नहीं करते, फिर भी समृद्ध हैं?

उनका भगवान दूसरा है बच्चा. उनका भगवान इस बात का ख्याल नहीं करता.

और रूस जैसे समाजवादी देश भी गाय को नहीं पूजते, पर समृद्ध हैं?

उनका तो भगवान ही नहीं बच्चा. उन्हें दोष नहीं लगता.

यानी भगवान रखना भी एक झंझट ही है. वह हर बात का दंड देने लगता है.

तर्क ठीक है, बच्चा, पर भावना गलत है.

स्वामीजी, जहां तक मैं जानता हूं, जनता के मन में इस समय गोरक्षा नहीं है, महंगाई और आर्थिक शोषण है. जनता महंगाई के खिलाफ आंदोलन करती है. वह वेतन और महंगाई-भत्ता बढ़वाने के लिए हड़ताल करती है. जनता आर्थिक न्याय के लिए लड़ रही है और इधर आप गोरक्षा-आंदोलन लेकर बैठ गए हैं. इसमें तुक क्या है?

बच्चा, इसमें तुक है. देखो, जनता जब आर्थिक न्याय की मांग करती है, तब उसे किसी दूसरी चीज में उलझा देना चाहिए, नहीं तो वह खतरनाक हो जाती है. जनता कहती है हमारी मांग है महंगाई बंद हो, मुनाफाखोरी बंद हो, वेतन बढ़े, शोषण बंद हो, तब हम उससे कहते हैं कि नहीं, तुम्हारी बुनियादी मांग गोरक्षा है. बच्चा, आर्थिक क्रांति की तरफ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूंटे से बांध देते हैं. यह आंदोलन जनता को उलझाए रखने के लिए है.

स्वामीजी, किसकी तरफ से आप जनता को इस तरह उलझाए रखते हैं?

जनता की मांग का जिन पर असर पड़ेगा, उसकी तरफ से. यही धर्म है. एक दृष्टांत देते हैं. एक दिन हजारों भूखे लोग व्यवसायी के

गोदाम में भरे अन्न को लूटने के लिए निकल पड़े. व्यवसायी हमारे पास आया. कहने लगा स्वामीजी, कुछ करिए. ये लोग तो मेरी सारी जमा-पूंजी लूट लेंगे. आप ही बचा सकते हैं. आप जो कहेंगे, सेवा करेंगे. बस बच्चा, हम उठे, हाथ में एक हड्डी ली और मंदिर के चबूतरे पर खड़े हो गए. जब वे हजारों भूखे गोदाम लूटने का नारा लगाते आए, तो मैंने उन्हें हड्डी दिखाई और जोर से कहा किसी ने भगवान के मंदिर को भ्रष्ट कर दिया. वह हड्डी किसी पापी ने मंदिर में डाल दी. विधर्मी हमारे मंदिर को अपवित्र करते हैं., हमारे धर्म को नष्ट करते हैं. हमें शर्म आनी चाहिए. मैं इसी क्षण से यहां उपवास करता हूं. मेरा उपवास तभी टूटेगा, जब मंदिर की फिर से पुताई होगी और हवन करके उसे पुनः पवित्र किया जाएगा. बस बच्चा, वह जनता आपस में ही लड़ने लगी. मैंने उनका नारा बदल दिया. जब वे लड़ चुके, तब मैंने कहा- धन्य है इस देश की धर्मपरायण जनता! धन्य है अनाज के व्यापारी सेठ अमुकजी! उन्होंने मंदिर की शुद्धि का सारा खर्च देने को कहा है. बच्चा जिसका गोदाम लूटने वे भूखे जा रहे थे, उसकी जय बोलने लगे. बच्चा, यह है धर्म का प्रताप. अगर इस जनता को गोरक्षा-आंदोलन में न लगाएंगे तो यह बैंकों के राष्ट्रीयकरण का आंदोलन करेगी, तनख्वाह बढ़वाने का आंदोलन करेगी, मुनाफाखोरी के खिलाफ आंदोलन करेगी. उसे बीच में उलझाए रखना धर्म है, बच्चा.

स्वामीजी, आपने मेरी बहुत ज्ञान-वृद्धि की. एक बात और बताइए. कई राज्यों में गोरक्षा के लिए कानून है. बाकी में लागू हो जाएगा. तब यह आंदोलन भी समाप्त हो जाएगा. आगे आप किस बात पर आंदोलन करेंगे.

अरे बच्चा, आंदोलन के लिए बहुत विषय हैं. सिंह दुर्गा का वाहन है. उसे सरकसवाले पिंजरे में बंद करके रखते हैं और उससे खेल कराते हैं. यह अधर्म है. सब सरकसवालों के खिलाफ आंदोलन करके, देश के सारे सरकस बंद करवा देंगे. फिर भगवान का एक अवतार मत्स्यावतार भी है. मछली भगवान का प्रतीक है. हम मछुओं के खिलाफ आंदोलन छेड़ देंगे. सरकार का मत्स्यपालन विभाग (फिशरीज महकमा) बंद करवाएंगे.

स्वामीजी, उल्लू लक्ष्मी का वाहन है. उसके लिए भी तो कुछ करना चाहिए.

यह सब उसी के लिए तो कर रहे हैं, बच्चा! इस देश में उल्लू को कोई कष्ट नहीं है. वह मजे में है.

इतने में गाड़ी आ गई. स्वामीजी उसमें बैठकर चले गए. बच्चा वहीं रह गया.

गाय और गोमांस की राजनीति

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फोटो- विजय पांडेय

‘शाकाहार विचार और कार्य की पवित्रता के लिए अपरिहार्य है. यह साधन की पवित्रता का एक प्रकार है. आप जो बोते हैं, वही काटते हैं. बूचड़खानों में ले जाए जाने वाले बेजुबान जानवरों का दर्द हमें सुनना और समझना है.’

नरेंद्र मोदी, तत्कालीन मुख्यमंत्री, गुजरात, 2 अक्टूबर 2003 को

महात्मा गांधी की 135वीं जयंती पर पोरबंदर में आयोजित कार्यक्रम में.

‘हम हिंदू गाय को अपनी माता मानते हैं. हम उसे पवित्र मानते हैं. मुसलमानों ने गाय को मारा है. यह जागने और बदला लेने का समय है. उनके इस क्रूर कृत्य के लिए उन्हें पीट-पीटकर मार डालना चाहिए. मुस्लिमों के वेष में शैतान, जिन्होंने गाय काटने जैसा यह क्रूरतापूर्ण कृत्य किया है, उन्हें मार देना हमारा असली धर्म और पवित्र कर्तव्य है.’

हिंदूवादी संगठन हिंदू युवक मंडल द्वारा प्रकाशित पम्फलेट 

भ्रमित न हों, यह पम्फलेट उत्तर प्रदेश के दादरी का नहीं है, जहां 28 सितंबर को एक 50 वर्षीय अखलाक को गाय चुराकर मारने और गोमांस खाने के आरोप में हिंदू कट्टरपंथियों की भीड़ ने पीटकर मार डाला. गुजराती भाषा में छपा यह पर्चा 1985 का है जब अहमदाबाद सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में था. उन दिनों दंगों की अगुवाई करते हुए संघ परिवार के कार्यकर्ताओं द्वारा इसे बड़े पैमाने पर बांटा गया था.

इस पम्फलेट ने यह अफवाह फैलाने में मदद की कि मुसलमानों ने सरयूदासजी मंदिर की एक गाय ‘जसोला’ का सिर काटकर उसे मंदिर के दरवाजे पर छोड़ दिया और उसके खून से लिखा, ‘हिंदू काफिर और सूअर हैं.’ इतिहासकार ओरनीत शानी का कहना है, ‘इस अफवाह ने 1985 के दंगों को फैलाने में अहम किरदार निभाया, जो कि सवर्ण जातियों ने मिलकर शुरू किया था. यह आरक्षण का लाभ पाने वाले दलितों के प्रति गुस्सा था, इसलिए उन्हें निशाना बनाया गया. जसोला को लेकर अफवाह हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने फैलाई थी. ऐसा राजनीतिक रूप से मुखर दलितों (जो वास्तव में खानपान की आदतों और वर्गीय अवस्थिति के मामले में मुस्लिमों के ही समान थे) को मुस्लिमों के खिलाफ संगठित करने के लिए किया गया.’

क्या इससे यह समझने में मदद मिलती है कि दादरी की घटना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों मौन हैं? इतिहासकार केएन पनिक्कर कहते हैं, ‘अफवाहें, खासकर गोहत्या से जुड़ी अफवाहें, हमेशा से ही मुसलमानों के खिलाफ आरएसएस का प्रमुख हथियार रही हैं, जिसे उसने मुसलमानों की झूठी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल किया है कि वे ‘भारत माता’ के हत्यारे या लुटेरे हैं.’ मोदी ने अपनी ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की छवि बनाने के लिए ‘गाय और गोमांस की राजनीति’ का सुविधाजनक ढंग से प्रयोग किया है. मोदी के पोरबंदर के भाषण को देखा जा सकता है. सामाजिक मानवविज्ञानी पारविस घासेम फाचंदी का एक शोध आलेख है. यह ‘पोग्रोम इन गुजरात शीर्षक’ से है. इसमें उन्होंने मोदी (जिन पर उस समय न्यूटन के गति के नियम पर आधारित ‘क्रिया की प्रतिक्रिया होती है’ के जरिये तबाही को उकसाने के लिए चौतरफा हमले हो रहे थे.) के भाषण के अंशों पर ध्यान दिलाया है जिसमें वे बड़े शातिराना तरीके से शाकाहार और मांसाहार में अंतर करते हैं.

मोदी ने कहा था, ‘भारत के वेदों के मुताबिक, पेट रूपी कुंड में अग्नि है. इस अग्नि में अगर सब्जी, फल या अनाज डाला जाता है तो इस अग्नि कुंड को यज्ञ (बलिदान) कुंड कहते हैं, लेकिन अगर इस अग्नि में मांस डाला जाता है तो यह ‘श्मशान भूमि’ की अग्नि बन जाती है, यानी चिता की आग बन जाती है. यज्ञ की अग्नि जीवन, ऊर्जा, शक्ति आैैर धर्मनिष्ठा प्रदान करती है, जबकि ‘श्मशान’ की अग्नि गंदगी को गंदगी में और राख को राख में बदल देती है.’

घासेम फाचंदी का तर्क है कि ‘मोदी ने ‘यज्ञ और श्मशान’ में जो फर्क किया कि बलिदान जीवन देता है और मांस खाना मौत का प्रतीक है, वह शाकाहारी और मांसाहारी के बीच का अंतर है, जो कि हिंदू और मुसलमान में है. जो लोग शाकाहार लेते हैं वे मांस का त्याग करके बलिदान देते हैं और जीवन प्राप्त करते हैं. जो लोग मांसाहार लेते हैं, वे खुद को चिता में बदल लेते हैं. वे मांसाहार के रूप में जो भी खाते हैं, उससे मृत्यु प्राप्त करते हैं.’ यह विचार परियोजना ऐसी धारणा पेश करती है कि जो लोग मांसाहार लेते हैं वे हिंदुओं और भारतीय संस्कृति के लिए किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हैं.

गुजरात में 2001 में मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने के बाद मोदी ने मुस्लिमों द्वारा कथित तौर पर गैरकानूनी बूचड़खाने चलाने और ‘गाय माता को चुराकर मारने’ जैसे विवादास्पद भाषण देकर सांप्रदायिक आधार पर विभाजक रेखा खींची. गुजरात के मानवाधिकार कार्यकर्ता सागर रबाड़ी याद करते हैं कि मोदी सरकार ने गोरक्षा अधिकार संगठनों (ज्यादातर गैर सरकारी संगठन-एनजीओ) और दूसरे गोरक्षा कार्यकर्ता समूहों के साथ काम किया, जो संघ परिवार से जुड़े थे. मोदी ने मुस्लिमों द्वारा चलाए जाने वाले बूचड़खानों पर पुलिस कार्रवाई की शुरुआत की, जहां कथित तौर पर गोहत्याएं होती थीं और स्थानीय मीडिया ने आधे सच आधे झूठ के साथ इस मामले को सनसनीखेज सुर्खियों के साथ उछाला.

इन संगठनों द्वारा प्रसारित प्रचार साहित्य पर निगाह डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी दिलचस्पी गाय की रक्षा करने के बजाय ‘गोमांस खाने वाले मुसलमानों’ को मारने में ज्यादा है. उनका अभियान हमेशा गुजरात की अहिंसा की समृद्ध परंपरा का आह्वान करता रहा लेकिन गाय को मारने और गोमांस खाने वाले मुस्लिमों के प्रति हिंसक ही रहा. अभियान में चालाकी से यह संकेत किया गया कि मुसलमानों की खानपान संबंधी हिंसक प्रवृत्तियां उनकी दैहिक इच्छाओं और क्रियाओं पर भी प्रतिबिंबित होती हैं. उन्हाेंने मुसलमान पुरुषों की कामेच्छा को भी खतरनाक ढंग से उत्तेजक और तामसिक बताया. इस अभियान में डर का पुट जोड़कर, ऐसे पुरुषों को शाकाहारी (सात्विक) उच्च जातीय हिंदू और जैन महिलाओं के लिए खतरा बताकर पेश किया गया. इस अभियान ने एक बड़े सजातीय वर्ग की सामान्य समझ को प्रभावित किया जो हिंदुओं के ध्रुवीकरण में सहायक हुआ.

2002 की हिंसा से जुड़े कई अध्ययनों में कहा गया है कि ‘मांसाहारी मुसलमानों की लैंगिकता’ के उस डर ने बहुत से हिंदू पुरुषों को मुस्लिम महिलाओं के प्रति क्रूर यौन हिंसा के लिए उकसाया. इन सब के बावजूद, इस हिंसा को गोधरा कांड की प्रतिक्रिया बताते हुए मोदी को गुजरात पर्यटन की ‘अहिंसा टूरिज्म’ की योजना की घोषणा करने में कोई हिचक महसूस नहीं हुई.

‘अहिंसा’ और पवित्र गाय का मिथक मोदी के लिए गुजरात में खुद की राजनीतिक स्थिति मजबूत करने में कारगर साबित हुआ और यहां तक कि उनके दिल्ली तक पहुंचने में भी यह तरीका काफी उपयोगी साबित हुआ. 2012 में मोदी ने जैन समुदाय के अंतराष्ट्रीय व्यापार संगठन के साथ बैठक में गोरक्षा का आह्वान किया और इसी साल महाराणा प्रताप की जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम में यही बात दोहराई. दो साल बाद, दिल्ली में बाबा रामदेव द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भी उन्होंने हूबहू वही बातें कहीं. मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार सभाओं के दौरान बिहार के नवादा और उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में यही राग दोहराया गया.

‘पिंक रिवोल्यूशन’ (मांस व्यापार) को बढ़ावा देने वाली यूपीए सरकार से नजदीकी के लिए मुलायम सिंह यादव आैैर लालू यादव पर हमला करने के लिए मोदी ने बड़ी होशियारी से भगवान कृष्ण के गाय के प्रति अनुराग की छवि का इस्तेमाल किया. मुस्लिम कसाइयों की गायों को चुराती हुई तस्वीरों को भी व्यापक रूप से फैलाया गया.

गोरक्षा के लिए किए गए इतने प्रचार के बावजूद, मोदी जब सत्ता में आए तब उन्हाेंने भारत में बढ़ रहे बीफ निर्यात को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. वास्तविक स्थिति यह है कि मोदी सरकार के पहले साल में बीफ निर्यात में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, उनकी पार्टी के लोग उनकी शाकाहारी छवि पेश करने के लिए अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं. दूसरी ओर बड़ी सावधानी से ‘दूसरे मांसाहारी’ लोगों की छवि हिंदू भारत में ‘म्लेच्छ’ के रूप में पेश की जा रही है.

वैज्ञानिक इतिहास लेखन ने यह सिद्ध किया है कि गाय कोई पवित्र जानवर नहीं है जैसा कि हिंदुत्व के स्वयंभू रक्षकों द्वारा दावा किया जाता है. मशहूर इतिहासकार डीएन झा के लीक से हटकर किए गए शोध में यह बताया गया है कि संघ परिवार जिस ऐतिहासिक काल की गाथा गाता है, उस वैदिक और उत्तर वैदिक युग में उच्च जातीय हिंदुओं द्वारा धड़ल्ले से गोहत्या की जाती थी और उसका मांस खाया जाता था. मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों और अन्य बीफ खाने वालों के बारे में रूढ़िबद्धता है, वह सीधे तौर पर हिंदुत्व से संबंधित है और हिंदू राष्ट्र के ड्रीम प्रोजेक्ट का अभिन्न हिस्सा है. इसलिए हिंदुत्व की राजनीति के माहिर हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी के लिए मोहम्मद अखलाक के परिवार के प्रति सच्ची संवेदनाएं जाहिर करना असंभव लगता है.