मरते तालाब, मुश्किल में जीवन

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सभी फोटो : अमरजीत सिंह

विकासशील देशों की कतार से निकलकर विकसित देशों में शामिल होने की बेताबी के बीच तालाब, नदी और पहाड़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों के लापरवाह दोहन की दुहाई देने के कोई मायने नहीं रह गए हैं. ऐसा कहने की वजह ये है कि भारत सहित दुनियाभर में एक के बाद एक आने वाली आपदाओं ने प्रकृति के साथ हमारी लापरवाही और उसके घातक परिणामों को लगातार रेखांकित किया है. पर्यावरणविद और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘चेन्नई जैसी प्राकृतिक आपदा कहीं भी आ सकती है. इस शहर में सैकड़ों की तादाद में मौजूद तालाबों को बहुत पहले ही खत्म कर दिया गया. नदी के बहने के रास्ते पर भी कब्जा कर लिया गया है. अब इंद्र महाराज को नहीं पता कि आपने धरती के साथ कैसा सुलूक किया है, वे तो अपने नियमों के हिसाब से बरसते हैं. बीते जमाने के लोग इन नियमों को समझते थे. इसलिए उस दौर में बारिश के पानी को जमा करने के लिए बड़ी संख्या में तालाब बनाए गए. कोई दुख आन पड़ा तो तालाब बनवाए, कोई खुशी हुई तो तालाब खुदवाए गए. लेकिन पिछले 200 सालों में नई तरह की पढ़ाई पढ़ने वाले लोगों ने इन चीजों को गया बीता माना और पानी की समस्या को नए तरीके से सुलझाने का वादा भी किया, लेकिन इसका कोई बेहतर नतीजा सामने निकलकर नहीं आया. कितने ही शहरों के नलों में पानी न आना इस दावे और वादे पर सबसे मुखर टिप्पणी है.’ अनुपम मिश्र ध्यान दिलाते हैं कि 2013 के मानसून में दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल 3 पर घुटनों तक पानी भर गया था. असल में इस एयरपोर्ट को तालाबों की जमीन पर बनाया गया है. अब जब तालाब पर ही एयरपोर्ट तान दिया जाएगा तो वहां पानी भरना स्वाभाविक है.

पर्यावरण पर काम करने वाले एनजीओ ‘नेचुरल हैरिटेज फर्स्ट’ के संयोजक दीवान सिंह यह बात बिल्कुल सहज ढंग से बताते हैं कि व्यस्ततम बाजारों, सड़कों, अपार्टमेंट और अपनी चमक से मुग्ध कर देने वाले मॉल्स की दिल्ली में 90 के दशक तक तकरीबन 1,000 तालाब थे. यह बात शायद आपको चौंका सकती है, लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली सरकार की आधिकारिक सूची में वर्ष 2000 तक केवल 177 तालाब (जिनमें गांवों के जोहड़, दलदल और बावड़ियां भी शामिल हैं) दर्ज थे. दिल्ली के पर्यावरण और स्वच्छ जल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार जैन की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की गईं कई जनहित याचिकाओं के बाद मई 2001 में संयुक्त सर्वेक्षण समिति का गठन किया गया ताकि दिल्ली में तालाबों की वास्तविक संख्या की जानकारी मिल सके.

दिल्ली सरकार की ‘पार्क एंड गार्डन सोसाइटी’ के अनुसार, वर्तमान में दिल्ली में 629 तालाब हैं, लेकिन असल में इनमें से अधिकांश खराब हाल में हैं. ये सूखे हैं और इन पर अवैध कब्जे किए जा चुके हैं. खुद दिल्ली सरकार के आंकड़ों के अनुसार 180 तालाबों पर अतिक्रमण किया जा चुका है. जिनमें से 70 तालाबों पर आंशिक रूप से तो 110 तालाबों पर पूरी तरह अवैध कब्जा हो चुका है. इन आंकड़ों के अलावा कितनी ही जगहों पर सीवेज और कूड़े के निपटान की सही व्यवस्था न होने का खामियाजा भी ये तालाब ही भुगत रहे हैं.

गैर सरकारी संस्था ‘फोरम फॉर ऑर्गनाइज्ड रिसोर्स कंजर्वेशन एंड एनहांसमेंट’ (फोर्स) के एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली की अधिकांश पुनर्वास कॉलोनियां तालाबों पर या उनके आसपास बनाई गई हैं. जो कॉलोनियां तालाबों के आसपास बनाई गई हैं वहां के रहवासियों ने धीरे-धीरे तालाबों पर भी कब्जा कर लिया क्योंकि महानगरीय जीवन शैली में उन्हें तालाबों की जरूरत महसूस नहीं हुई और वे उनके पर्यावरणीय महत्व से अनजान थे. दूसरी ओर द्वारका के पास स्थित अमराही गांव के निवासी महावीर बताते हैं, ‘विकास के लिए सरकार द्वारा गांवों की जमीन अधिग्रहित कर लिए जाने के कारण दिल्ली के गांवों से खेती-किसानी लगभग खत्म हो गई है. इस वजह से सिंचाई और पशुओं को पीने का पानी मुहैया कराने की जरूरत भी खत्म हो गई. ऐसे में तालाब जैसे पारंपरिक जलस्रोत की प्रासंगिकता भी गांववालों के जीवन में नहीं रही इसलिए गांवों में भी तालाबों पर अवैध कब्जे के उदाहरणों की कमी नहीं.’ अमराही में ही 11 बीघे का तालाब अब 4 से 5 बीघे में सिमट कर रह गया है. इस तालाब के अधिकांश हिस्सों पर गांववालों का कब्जा है और तालाब अब पूरी तरह से सूख गया है. आम जनता तालाबों के दूरगामी महत्व को नहीं समझ सकी, यह बात समझ में आती है लेकिन स्थिति तब और भी दुर्भाग्यपूर्ण हो गई जब नीति नियंताओं और प्रशासनिक एजेंसियों ने भी तालाबों की जमीन को पाटकर उस पर निर्माण कार्य जारी रखा. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दक्षिणी दिल्ली के शेख सराय डीडीए अपार्टमेंट तालाब की जमीन पर ही बना है. इसके अलावा फोर्स संस्था के अनुसार, दक्षिण पश्चिम दिल्ली के वसंत कुंज का सी-6 पाॅकेट भी तालाब की जमीन पर बसा है. कड़कड़डूमा झील को पार्क में तब्दील कर दिया गया है. इसी प्रकार 86 तालाबों पर पार्क बना दिया गया है.

वर्ष 2000 के बाद से लगभग हर साल हाई कोर्ट के निर्देश के बावजूद प्रशासन ने तालाबों की देखरेख और सूख गए तालाबों के पुनरुत्थान के प्रति जरूरी सजगता नहीं दिखाई. 2004 में दिल्ली हाई कोर्ट ने तीन सदस्यीय निगरानी समिति का गठन किया ताकि तालाबों के पुनरुत्थान संबंधी गतिविधियों पर नजर रखी जा सके. निगरानी समिति के सदस्य अधिवक्ता अरविंद शाह का कहना है, ‘प्रशासनिक एजेंसियां खुद ही सूखे तालाबों पर निर्माण कार्यों के लिए लगातार मंजूरी दे रही हैं. उदाहरण के लिए यमुना किनारे के चिल्ला सरोदा तालाब की जमीन पर डीडीए ने ‘बापू नेचर केयर हॉस्पिटल एंड गांधी स्मारक निधि योग आश्रम’ के निर्माण को मंजूरी दे दी है. दरअसल तालाब प्रशासनिक एजेंसियों की प्राथमिकता में ही नहीं हैं.’ पार्क एंड गार्डन सोसाइटी की ओर से जारी आंकड़ों पर नजर डालें तो पाते हैं कि 86 सूख चुके तालाबों के पुनरुत्थान की जगह उन पर पार्क बनवा दिए गए हैं. दीवान सिंह कहते हैं, ‘पार्कों का निर्माण और देखभाल काफी महंगा है, फिर भी इसका निर्माण कराया गया. दूसरी ओर तालाबों की भूमिका को पार्कों से किसी भी तरह प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता. तालाब भू-जलस्तर को कायम रखते हैं, तापमान को नियंत्रित रखते हैं और जैव विविधता को बनाए रखकर शहर को पर्यावरण के लिहाज से जीवंत बनाते हैं. यह सही है कि आज जीवनशैली बदल जाने के कारण रोजमर्रा के जीवन में तालाबों की भूमिका पहले जैसी नहीं है, लेकिन जल संग्रहण से पर्यावरणीय संतुलन के लिए तालाबों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा अब बढ़ चुकी है’

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बावड़ियों का मिटता नामोनिशान

दिल्ली में 13वीं से 18वीं शताब्दी के बीच विभिन्न शासकों द्वारा बनवाई गईं बावड़ियां उस समय के महत्वपूर्ण जलस्रोत होने के साथ-साथ वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरण भी हैं. आदित्य अवस्थी की किताब ‘नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली’ में लगभग दो दर्जन बावड़ियों के बारे में बताया गया है. हजार वर्ष से भी पुराने इतिहास वाले दिल्ली शहर में हो सकता है बावड़ियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा रही हो. पुरानी दिल्ली में खारी बावड़ी नामक थोक बाजार का नाम बावड़ी के नाम पर ही है लेकिन आज इस बावड़ी का कोई निशान हमें नहीं मिलता.

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हिंदी फिल्मों में शूटिंग स्पॉट के तौर पर कनॉट प्लेस के हेली रोड स्थित अग्रसेन की बावड़ी काफी लोकप्रिय हो गई है लेकिन चारों और ऊंची इमारतों की गहरी नींव ने इस बावड़ी के आंतरिक चैनलों को बंद कर दिया है. वर्तमान में ज्यादातर बावड़ियों का पानी सूख चुका है क्योंकि बावड़ियों को भरने वाले पानी के आतंरिक चैनल शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं. मेहरौली स्थित गंधक की बावड़ी दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ी है. लालकिला, पुराना किला, फिरोजशाह कोटला, तुगलकाबाद जैसे सभी प्रमुख किलों में बावड़ियां हैं. महरौली सहित दक्षिणी दिल्ली में दर्जनभर बावड़ियां स्थित हैं. लेखक, फिल्मकार और सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक सोहेल हाशमी बताते हैं, ‘दिल्ली की कुछ बावड़ियां यमुना नदी के पानी पर निर्भर थीं लेकिन अधिकांश बावड़ियां प्राकृतिक झीलों, तालाबों और पोखरों पर निर्भर थीं.’ अनुपम मिश्र का कहना है कि दिल्ली के तालाबों को जीवित करने से ही उन बावड़ियों के जीवित होने की भी संभावना है जिनके आंतरिक चैनल अभी सीमेंटीकरण से बचे हुए हैं.  

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सरकारी एजेंसियां तालाबों को संरक्षित करने के लिए आमतौर पर तालाब के किनारों को सीमेंटीकृत कर रही हैं. पर्यावरणविद इस तरीके पर भी सवाल उठा रहे हैं. दरअसल तालाब के जीवित रहने की जरूरी शर्त उसके आसपास कैचमेंट एरिया का होना है. कैचमेंट एरिया तालाब के पास 40-50 मीटर तक का खाली स्थान होता है जहां से बहकर पानी तालाब तक पहुंचता है. विनोद जैन कहते हैं, ‘डीडीए जैसी संस्थाएं तालाबों को बचाने के लिए जिस नीति पर काम कर रही हैं वह खतरनाक है. तालाबों और झीलों के किनारे पार्क बनाने से वे सूख रहे हैं. वसंत कुंज के पास मसूदपुर गांव का तालाब इसका उदाहरण है जिसके किनारे पार्क बनाने के बाद वह सूख गया. तालाब के किनारे पर पक्का निर्माण करने से भी तालाब सूख रहे हैं.’

एक बड़ी समस्या यह है कि दिल्ली के इन तालाबों का भूस्वामित्व डीडीए, एमसीडी और राजस्व विभाग जैसी विभिन्न प्रशासनिक एजेंसियों के अधीन है. इसलिए इन पर निगरानी का काम कठिन होता है. 2011 में दिल्ली सरकार द्वारा बंगलुरु वाटर बॉडी अथॉरिटी की तर्ज पर दिल्ली वाटर बॉडी अथॉरिटी के गठन का फैसला लिया गया था. हालांकि चार साल बीतने के बावजूद इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है. जहां सरकारी एजेंसियां अपनी नाकामी का ठीकरा स्थानीय लोगों की उदासीनता पर भी फोड़ती रही हैं, वहीं द्वारका इलाके के नागरिकों की सक्रियता का उदाहरण दूसरी ही तस्वीर पेश करता है. 2012 में द्वारका सेक्टर 23 के नजदीक स्थित गांव पोचनपुर के कुछ जागरूक नागरिकों ने पहल करके डीडीए के स्वामित्व वाले 200 साल पुराने तालाब के पुनरुत्थान के लिए प्रयास किया. इसमें डीडीए ने भी सहयोग किया, लेकिन अगले वर्ष डीडीए के एक दूसरे अधिकारी की नियुक्ति के साथ ही तालाब की इस जमीन को पाटने का काम शुरू हो गया. अपनी मेहनत पर यूं मिट्टी पड़ती देख स्थानीय नागरिकों ने तत्कालीन उपराज्यपाल से शिकायत की. 2013 में उपराज्यपाल ने स्थानीय नागरिकों के नेतृत्व में तालाब समिति का गठन किया. समिति की सक्रियता के फलस्वरूप इलाके के दो गांवों पोचनपुर और अमराही के कुल तीन तालाबों को पुनर्जीवित किया गया. दिल्ली विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग के डॉ. शशांक शेखर के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में इस इलाके में भू-जलस्तर में पहले की अपेक्षा उल्लेखनीय सुधार आया है.

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दक्षिण पश्चिमी दिल्ली के गांव अमराही में कैचमेंट एरिया पर अवैध कब्जे के चलते सूख चुका तालाब

दीवान सिंह का कहना है कि द्वारका इलाके के कुल 30 तालाबों को पुनर्जीवित करने का काम महीने भर में हो सकता है. तालाबों की देखभाल, खुदाई और उनमें से गाद निकालने का काम हर साल नियमित मानसून से पहले किए जाने की जरूरत होती है, लेकिन स्थानीय निवासियों के पास तालाबों का स्वामित्व नहीं है, न ही किसी प्रकार के अधिकार. इतना ही नहीं अपनी सक्रियता के कारण उन्हें सरकारी एजेंसियों की बदसलूकी का शिकार भी होना पड़ता है. दीवान सिंह बताते हैं, ‘जब शिकायती आवेदनों से बात नहीं बनी तो तालाब पर काम करने की अनुमति के लिए वे तत्कालीन डीडीए इंजीनियर अभय कुमार के दफ्तर गए जहां से उन्हें धक्के देकर निकलवा दिया गया.’ यह उदाहरण तालाबों को लेकर स्थानीय निवासियों की उदासीनता नहीं बल्कि सरकारी एजेंसियों की समझ और मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है, लेकिन सरकारी मशीनरी जवाबदेही के लिए तैयार नहीं. ‘तहलका’ ने हाईकोर्ट द्वारा गठित निगरानी समिति के प्रमुख दिल्ली के मुख्य सचिव से लगातार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.

हाल ही में हाईकोर्ट ने दिल्ली की आबोहवा पर चिंता जाहिर करते हुए शहर को ‘गैस चेंबर’ कहा है. दिल्ली की यूं ही गैस चेंबर बन जाना अचानक नहीं हुआ. प्राकृतिक संसाधनों की अनदेखी करते हुए विकास के सीमेंटीकृत और मोटरीकृत मॉडल को आंख मूंदकर अपनाने के नतीजे महानगरों में घातक रूप से सामने आ रहे हैं. इस सबके बावजूद नागरिक और सरकारी अमले सामूहिक रूप से नहीं चेते तो निश्चित ही हम किसी बड़ी आपदा का इंतजार कर रहे हैं. अनुपम मिश्र के शब्दों में कहा जाए तो ‘हमें प्रकृति की चिंता करने की जरूरत नहीं, वह अपनी चिंता आप कर लेगी. आप प्रकृति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते लेकिन आप खुद की चिंता कीजिए, आप खुद को बिगड़ने से बचाइए.’