जो कुछ हो रहा है यह भाजपा का अपना राष्ट्रवाद है, इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह पिछले तीन-चार दशकों से चल रहा है. इनके राष्ट्रवाद की जो परिभाषा है, वह वीर सावरकर से शुरू होती है. 1925 में संघ के गठन के बाद इसने बाकायदा संस्थागत रूप ले लिया. इनके राष्ट्रवाद में कोई भी जोड़ने वाली बात नहीं थी. इस कारण इतने सालों तक किसी ने इसे ढंग से नहीं लिया. अब इतने सालों बाद केंद्र में इनकी सरकार आई है, तो इनको लगा है कि मौका आया है कि अपनी सारी तमन्नाएं पूरी की जाएं. अब जेएनयू पर हमले की ही बात को लीजिए. हम तो सालों से सुनते आ रहे हैं कि संघ परिवार के लोग जेएनयू को कम्युनिस्टों और देशद्राहियों को अड्डा मानते हैं. इन्हें तो अब मौका मिला है. यह टारगेट बहुत पुराना था. पिछली बार राजग की सरकार टूटी-फूटी थी, लेकिन इस बार तो इन्हें पूरा मौका मिला है. इसी के चलते यह पूरी तरह से दिखाना चाहते हैं कि उनका राष्ट्रवाद असली है. पुण्यभूमि और पितृभूमि को एक करना है. बाकी जितने भी लोग मुसलमान, ईसाई, नास्तिक इन सबका देश से क्या लेना-देना है. हम चाहेंगे तो वे लोग खुशी से रहेंगे, लेकिन यह देश हमारा है. लातूर में एक दाढ़ी वाले पुलिसकर्मी के हाथ में झंडा देकर जय शिवाजी बोलो, जय भवानी बोलो कहकर जुलूस निकाल दिया. यह सब एक योजना के तहत किया जा रहा है. दरअसल ये लोग बताना चाहते हैं कि देखिए सरकार हमारी है और हमारा जो भी मन करेगा वह हम करेंगे. अब गोरक्षा को ही देखिए. यह आज का मसला थोड़े ही है. बिनोवा भावे के समय से यह चलता रहा है. उससे कुछ लोग जुड़े हुए भी थे और गायों को बचाने का प्रयास करते रहे हैं, लेकिन आज उसका स्वरूप देखिए. इसी तरह राष्ट्रवाद भी बहुत ही पुराना मसला है, बस इसे दोबारा लागू किया जा रहा है.
जो हमारे राष्ट्रवाद की परिभाषा है उसमें सबको साथ लेकर चलने की बात हुई थी. उसमें किसी के साथ धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया था. लेकिन आज जो संघ का राष्ट्रवाद है वह धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव करता है. जो उनके इस मानदंड को पूरा करता है वह राष्ट्रवादी है और जो नहीं कर पाता है उसे यह राष्ट्रवादी मानने से इनकार कर देते हैं. जेएनयू में यह पहली बार थोड़े ही हुआ है. वहां इस तरह की बहसें होती रही हैं. आज तक तो वहां की किसी बात से देश को खतरा तो नहीं हुआ. अब आप छोटी-छोटी बातों को लेकर राष्ट्रदोह की बातें करने लगते हैं.
राष्ट्रवाद का आइडिया यूरोप का है. इटली, जर्मनी जैसे देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. हमारे यहां तो इसका आयात किया गया है. हमने इसका इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में किया था. इससे पहले 1857 की लड़ाई को ही देख लीजिए, वह भारत की लड़ाई नहीं थी. उस दौरान तो रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी यानी वह सिर्फ एक राज्य की लड़ाई थी. इसमें केरल या बंगाल शामिल नहीं था.
वैसे भी राष्ट्रवाद का जो इस्तेमाल होता था वह अंग्रेजों के खिलाफ किया जाता था. आज के संदर्भ में राष्ट्रवाद प्रासंगिक ही नहीं रह गया है. आज उसका संदर्भ बदल गया है. आज तो वैसे लोग भी नहीं हैं जो अंग्रेजों के साथ मिलकर देश के खिलाफ साजिश कर रहे हैं. आज के संदर्भ में सबसे बड़े राष्ट्रद्रोही तो हरियाणा के वे लोग हैं जो सार्वजनिक परिवहन समेत करोड़ों रुपये की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी राष्ट्रवाद का आइडिया यूरोप का है. इटली, जर्मनी जैसे देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. हमारे यहां तो इसका आयात किया गया है. हमने इसका इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में किया था. इससे पहले 1857 की लड़ाई को ही देख लीजिए, वह भारत की लड़ाई नहीं थी. उस दौरान तो रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी यानी वह सिर्फ एक राज्य की लड़ाई थी. इसमें केरल या बंगाल शामिल नहीं था.
इस दौरान संघ के लोगों ने उन पर जमकर हमला किया है जिनका विचार उनकी राष्ट्रवाद की परिभाषा से मेल नहीं खाता है. अभी अगले तीन सालों तक यह जारी भी रहेगा. कोई ऐसा शक्तिशाली व्यक्ति और संस्था भी नहीं है जो इस पर रोक लगाने की कोशिश करता दिखाई देता हो. अगर हम संघ के राष्ट्रवाद की बात करें तो जब सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में लगा हुआ था, नए भारत के निर्माण में जुटा हुआ था तो उस वक्त वे लोग गायब थे. यानी इनका राष्ट्रवाद सिर्फ राजनीतिक रूप ले सकता है. आजादी के बाद जब देश के निर्माण की जरूरत थी तो वे राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करने लगे. जहां तक देशद्रोह कानून की बात है, तो वह अंग्रेजों ने अपने बचाव के लिए बनाया था. दुर्भाग्य से देश में अब भी बहुत सारे ऐसे कानून चल रहे हैं जो अंग्रेजों के जमाने के बनाए हुए हैं. अब न तो अंग्रेज रहे और न ही उनके खिलाफ आवाज उठाने को देशद्रोह माना जाता है. तो ऐसे में देशद्रोह कानून की जरूरत नहीं है. इस कानून को बदला जाना चाहिए या फिर इसे नए नजरिए से देखे जाने की जरूरत है.
राष्ट्रवाद का जो मुद्दा है, संविधान में उसके सारे प्रावधान निहित हैं. क्योंकि भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में राष्ट्रवाद संविधान में आस्था और संवैधानिक प्रक्रियाओं से ही उभर सकता है. और कोई दूसरा तरीका शायद कामयाब नहीं हो. राष्ट्र के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कोई प्राकृतिक तथ्य है, पेड़ और पत्थर की तरह है. यह तो हमेशा से बनने की प्रक्रिया में रहता है. राष्ट्र बनता तब है जब लोग उससे जुड़ते हैं. लोगों की आकांक्षाएं उससे पूरी होती हैं. लोग अपनी आकांक्षाओं को राष्ट्र की आकांक्षाओं के साथ जोड़कर देखते हैं. यह तो एक प्रक्रिया है. रही बात किसी को देशद्रोही करार देने की तो अभी जितनी बातें चल रही हैं वे बड़ी अजीब हैं. अभी लखनऊ विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर ने अखबार का एक लेख शेयर कर दिया तो उसको देशद्रोही कह दिया. इन सारी चीजों को राष्ट्रवाद नहीं कहेंगे, इसे तो गुंडाराज कहेंगे.
इसमें कहीं न कहीं तो जो सांस्कृतिक तत्व है, वह बहुत जटिल है. यहां इतनी सांस्कृृतिक विविधता है, उसमें आप कभी हिंदी का मुद्दा बनाते हैं, कभी तिरंगा मुद्दा बनाते हैं, कभी सरस्वती तो कभी वंदे मातरम मुद्दा बनाते हैं. वहां ऐसी चीजों को मुद्दा बनाना राष्ट्रवाद तो नहीं हो सकता. हिंदी को लेकर लंबा अभियान चला लेकिन उसमें भी हमको पता चला कि वह कितना खोखला विचार था. अब राष्ट्रवाद के नाम पर तिरंगा लहरा रहे हैं. तिरंगा तो हमारे देश का प्रतीक है. इसको हमें पुन: स्थापित करने की क्या जरूरत पड़ गई? इसे इतने बड़े बड़े खंभों पर टांगने की जरूरत है? राष्ट्रवाद के नाम पर हम किस तरह के प्रतीकवाद का सहारा ले रहे हैं.
मैं तो इसके बारे में यही कहूंगा कि लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए उनका ध्यान भटकाने की बात है. जहां जो है वह राष्ट्र को अपने तरीके से देख रहा है और यह समझ रहा है कि यही वह समय है जब मैं अपनी बात को प्रभावी तरीके से मनवा सकता हूं. समस्या यह मनवाने वाली बात है.
अब राजनीति में लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. आप जब धर्म और भावनाओं को भड़काते हैं तो आप समाज को और ज्यादा बांटते हैं. उसमें आप कुछ लोगों की पहचान करते हैं. कुछ लोगों काे चिह्नित करते हैं. यही फासीवाद है. जिस तरह से हिटलर ने पहले कम्युनिस्टों को फिर यहूदियों को चिह्नित किया. और व्यवस्थित ढंग से लोगों को मारा. उसे लोग सही भी मानते थे. यहां तक कि लोग हिटलर को खून से चिट्ठियां लिखते थे. हिटलर के समय वाली स्क्रिप्ट को फिर से दोहराया जा रहा है
मेरे ख्याल है यह तो बहुत ही आपत्तिजनक ट्रेंड शुरू हो गया है. महाराष्ट्र की घटना बेहद आपत्तिजनक है, लेकिन देश भर में यही चल रहा है. कभी हम किसी दलित महिला को जाति के नाम पर झंडा नहीं फहराने देते. कभी किसी और तरीके से उन्हें प्रताड़ित करते हैं. दरअसल, हर तरफ भ्रम की स्थितियां बढ़ रही हैं और यह भ्रम राष्ट्र-राज्य की ओर से उत्पन्न किया जा रहा है. सत्ता पक्ष इस भ्रम की स्थिति में बहती गंगा में हाथ धो रहा है. उसके जो भी मकसद हैं, वह पूरा करने की कोशिश कर रहा है. क्योंकि जितना बंटा हुआ और ध्रुवीकृत समाज होगा उतना ही उनके मकसद पूरे होंगे. यह समाज को बांटने की कोशिश है और यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.
सरकार जिन चीजों को बढ़ावा दे रही है, वह बहुत खतरनाक ट्रेंड है. सरकार की ओर से कोई स्पष्ट बयान नहीं आ रहा है. जबकि आप अगर इन मामलों में कोर्ट जाना चाहें, तब भी आपको पीटा जाएगा. डराया जाएगा. आपको धमकियां दी जाएंगी. जेएनयू मामले में पुलिस ही कह रही है कि हम ऐसा नहीं कर सकते इसलिए नहीं किया, लेकिन सरकार ने स्थिति साफ नहीं की. जेटली ने जो वक्तव्य दिया उसे ध्यान से सुनिए. वे कहते हैं कि कोर्ट परिसर में हमले के खिलाफ हूं लेकिन क्या आप अभिव्यक्ति के नाम पर देशद्रोही बात करने का अधिकार रखते हैं? कोर्ट में जो हुआ और जेएनयू में जो हुआ, दोनों को एक ही सूत्र में बांध दिया. उनकी इस बात का बहुत खतरनाक मतलब निकल रहा है. ये दोनों घटनाएं कारण और प्रभाव का संबंध रख सकती हैं, लेकिन ये एक सूत्र में बंधी हुई चीजें नहीं हैं. कोर्ट में जो हुआ वह पुलिस के सामने हुआ. कोर्ट में लोग न्याय मांगने आते हैं. लेकिन जेएनयू में जो घटना हुई वह एक अलग तरह की घटना है.
इन घटनाओं को देशद्रोह या देशभक्ति की श्रेणी में बांट दिया गया. इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है कि दोनों घटनाओं के कानूनी और संवैधानिक पहलू क्या हैं. चैनलों ने बेहद बुरी भूमिका निभाई. एक-दो चैनलों को छोड़ दें तो वे न सही बात को आगे बढ़ा रहे हैं, न कोई गंभीर बहस कर रहे हैं. वे घटना आधारित रिपोर्टिंग कर रहे हैं, जिसका मकसद शायद बस टीआरपी बटोरना है.
राष्ट्रवाद की अवधारणा अलग है. अगर हम यूं कहें कि राष्ट्र के प्रति प्रेम, राष्ट्र के प्रति बलिदान, राष्ट्र के प्रति समर्पित होना, उसके प्रति वफादार रहना ये कुछ चीजें जो आम जनता के समझ में आती हैं. राष्ट्रवाद एक अवधारणा है, एक सपना है. यह एक मुकाम है, जिसके लिए कोशिश की जाती है. राष्ट्रवाद एक तरह की सामूहिक आकांक्षा है, लोगों की स्वतंत्रता की आकांक्षा. उनको पूरा करने के जो तरीके बताए गए हैं कि जनतांत्रिक प्रक्रिया होगी, कानून के समक्ष समता होगी, राज्य सबके लिए समान अवसर पैदा करेगा, सबके लिए बराबर जगह होगी, समानता का भाव होगा, ये सब तरीके हैं जो राष्ट्र की अवधारणा को पूरा करते हैं. लेकिन आम आदमी को जब इस तरह बताया जाए तो यह सब शायद उसे अच्छी तरह समझ में न आए. उसे राष्ट्रवाद की पितृपक्षीय यानी मर्दाना व्याख्या ज्यादा समझ में आती है. जैसे राष्ट्र के लिए बलिदान देना, बॉर्डर पर शहीद हो जाना, सेना, युद्ध आदि. उसे लगता है कि यही राष्ट्र के स्तंभ हैं. इनको मानना ही सबसे बड़ी चीज है. ऐसा मानना बिल्कुल गलत तरीका है. राष्ट्र में और राष्ट्र के निर्माण में सबकी अपनी अलग-अलग जगह है. इसीलिए राष्ट्र निर्माण की बातें की गई हैं, क्योंकि राष्ट्र धीरे-धीरे सबके सहयोग से बनता है. और कोई भी राष्ट्र जो जनसंख्या केंद्रित होता है, जनसंख्या के खिलाफ नहीं चल सकता. जब समाज में बिखराव है, असमानता है, समानता नहीं है, तो उसमें राष्ट्र वह हो जाता है, जैसा प्रभावशाली लोग उसे व्याख्यायित करते हैं. हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान लोगों ने इस पूरी अवधारणा को बहुत अच्छी तरह से रखा है कि राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया में एक-दूसरे की सुरक्षा, एक-दूसरे का सम्मान, देश के प्रति सम्मान यह सबसे बड़ी चीज है. हम राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रवाद पर एक साथ बहस कर रहे हैं, लेकिन इस बीच यह बात छूट जा रही है कि जो लोग भ्रष्टाचार करते हैं, वे राष्ट्रद्रोह करते हैं. दूसरी तरफ, जो अपनी आकांक्षाएं जाहिर करता है, जो अपने सपनों को पूरा करने की बात करता है, जो अपनी सोच को जाहिर करता है, उसे राष्ट्रद्रोह कह दिया जाता है. यह बहुत गलत और तंगमिजाजी का नतीजा है. इसका प्रभावी खंडन होना चाहिए.
आप इतिहास उठाकर देखिए कि इतिहास में जहां भी बुरी स्थितियां पैदा हुईं हैं, वहां सबसे पहले चिंतकों को निशाने पर लिया जाता है. जो मुक्त चिंतन कर सकता है, जो अपनी बात को प्रभावी ढंग से रख सकता है, पहले उसको निशाना बनाया जाता है. बुद्धिजीवी वर्ग, उसमें भी जो मुखालफत करते हों, वे सबसे पहले निशाने पर आ जाते हैं. आपातकाल के समय हमारे यहां बहुत बड़ा तबका था जो विरोध में उतरा था. अब बहुत कम लोग बचे हैं जो असहमति की आवाज बन सकते हैं. अब लोग खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं. उनके लिए यह भी ठीक, वह भी ठीक.
अब राजनीति में लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. आप जब धर्म और भावनाओं को भड़काते हैं तो आप समाज को और ज्यादा बांटते हैं. उसमें आप कुछ लोगों की पहचान करते हैं. कुछ लोगों काे चिह्नित करते हैं. यही फासीवाद है. जिस तरह से हिटलर ने पहले कम्युनिस्टों को फिर यहूदियों को चिह्नित किया. और व्यवस्थित ढंग से लोगों को मारा. उसे लोग सही भी मानते थे. यहां तक कि लोग हिटलर को खून से चिट्ठियां लिखते थे. हिटलर के समय वाली स्क्रिप्ट को फिर से दोहराया जा रहा है. फासीवाद का सबसे उम्दा उदाहरण हिटलर था, उसे हमारे यहां पुनर्जीवित किया जा रहा है. सत्ताधारी वर्ग हिंदुस्तान की आकांक्षाओं का 25 प्रतिशत भी पूरा नहीं कर पाया है. उसको यह बहुत आसान लगता है कि लोग इसी में उलझे रहें.
जहां तक देशभक्ति की कसौटी पर लोगों को तौलने की बात है तो सबसे पहले आरएसएस खुद इस पर खरा नहीं उतरेगा. किसी पैमाने पर किसी सवाल का जवाब इन्होंने आज तक दिया ही नहीं है. जो सवाल वे दूसरों से पूछ रहे हैं, वे खुद बताएं कि राष्ट्रीय आंदोलन में उनका क्या योगदान है? वे बताएं कि उनके नायकों ने क्या भूमिका अदा की? वे इतना ही बता दें कि इस राष्ट्र को वे कितना समझ पाए?
इन्होंने दलित उत्पीड़न और उनके अधिकारों पर कभी कोई पोजीशन नहीं ली. इन्होंने औरत और मर्द की समानता पर कोई पोजीशन नहीं ली. गैर हिंदुओं के प्रति इनका बहुत ही नकारात्मक रवैया रहा है. इनकी शाखाओं में मैंने खुद सुना है कि वहां किस तरह की बातें होती हैं.
इस सब चीजों से निपटने के लिए मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत होती है, लेकिन आजकल राजनीतिक नेतृत्व है कहां? प्रतिरोध और असहमति की आवाजें खत्म हो रही हैं. यह संस्कृति थोड़ा बहुत जेएनयू में ही बची है. नई पीढ़ी अगर सवाल नहीं उठाती है, वह पहले से चली आ रही चीजों को ही पुख्ता मानती है तो यह समाज के विकास के लिए बहुत खतरनाक है. हो सकता है कि युवा पीढ़ी इन सब सवालों पर मंथन करे तो वह एक निष्कर्ष पर पहुंचे.
किसी से आप पूछेंगे कि वह किसको मानता है राष्ट्रवाद तो वह नहीं बता पाएगा. कुछ धुंधली-सी अवधारणा है लोगों के दिमाग में कि मुल्क हमेशा खतरे में रहता है, सैनिक उसकी रक्षा करते हैं, वे मारे जाते हैं, और इधर बुद्धिजीवी हैं जो तरह-तरह से सवाल उठाते रहते हैं, जबकि इत्मिनान से तनख्वाहें ले रहे हैं और जनता के पैसे पर शानदार जगहों में बैठकर पढ़ रहे हैं, जबकि हमारे सैनिक सियाचीन में बर्फ में दबकर मर जाते हैं.
अगर आप लोगों से पूछें तो कुल मिलाकर आपको जवाब यही मिलेगा जो आजकल मिल रहा है. अब आप इस अवधारणा को तोड़ेंगे कैसे? इसको तोड़ना बहुत ही मुश्किल है. लोगों को यह समझाना कि जो लोग विश्वविद्यालयों में बैठकर पढ़ रहे हैं, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, या जो सवाल कर रहे हैं, वह सवाल करना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. यह समझाना भी बहुत कठिन है कि छत्तीसगढ़ में भी जिन सैनिकों को लगा दिया जा रहा है उनको देश के ही खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है. क्योंकि उनको बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में इस्तेमाल किया जा रहा है. तो इसे कैसे समझाया जाएगा, यह एक प्रश्न है.
जिसको कहा जा रहा है कि राष्ट्रवाद क्या है, इसमें किसी को भी राष्ट्रद्रोही साबित करना बहुत आसान है. राष्ट्रवाद के घालमेल के चलते हिंदूवाद को आत्मसात करना बहुत आसान है. उसके प्रतीक चिह्न, उसके संकेत सारे ऐसे हैं जिसको आप हिंदू धर्म से जोड़कर देख सकते हैं. और एक तरह की प्रतिध्वनि है जो बहुत दिनों से लोगों के मन में चली आ रही है, अब जिसको खुलकर निकलने का मौका मिला है कि यह देश पूरी तरह से हिंदू क्यों नहीं है और क्यों नहीं इसे होने दिया जा रहा है. लंबे समय तक इसके लिए नेहरू को दोषी ठहराया गया, कि नेहरू क्योंकि आधा ईसाई थे, आधा मुसलमान थे, तो उनकी वजह से ऐसा नहीं हो पाया. वरना पटेल, राजेंद्र बाबू होते तो हिंदू राष्ट्र हो ही जाता. वह घृणा अभियान जारी है.
अब इस चीज को समझना अति आवश्यक है कि क्यों सबसे ज्यादा निशाने पर राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी सोनिया के बेटे हैं और नेहरू से जुड़े हैं. तो वह जो पुरानी घृणा है उसे इटली से जोड़कर और ताजा किया जा सकता है. तो यह बहुत ही पेचीदा घालमेल किया गया है. अफवाहों और दूसरे तमाम माध्यमों से इसे इतना ज्यादा पकाया गया है, इसकी काट के बारे में बात करने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई. हम लोग अगर बात करने लगेंगे समझदारी से तो उसकी तो जगह नहीं है. क्योंकि पूरा सामाजिक विचार-विमर्श है वह इस भाषा में ढल गया है.
दो-तीन चीजें जो बहुत ही असंगत मालूम पड़ती हैं, वो ये कि माओवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? नक्सलवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? यह प्रश्न किया जा सकता है! क्योंकि ये लोग तो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ रहे हैं. यह तो एक आंतरिक संघर्ष है. इनको राष्ट्रविरोधी बार-बार क्यों कहा जा रहा है? यह जो हो रहा है कि आप दोनों-तीनों चीजों का घालमेल कर रहे हैं, इससे कुछ बातें समझ में आती हैं. क्योंकि सशस्त्र माओवादियों का संघर्ष हमारे सैन्य बल से होता है. सैन्य बल राष्ट्र का सबसे बड़ा प्रतीक है. इसलिए आप माओवादियों को राष्ट्रविरोधी घोषित कर सकते हैं, बिना यह सोचे हुए कि ये सैन्य बल आदिवासियों के घर जला रहे हैं, उन पर हमला कर रहे हैं तो ये किनके हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं. ये बातें करेगा कौन?
विश्वविद्यालयों के खिलाफ घृणा का एक माहौल पहले से है. हमारे यहां एक एंटी इंटेलेक्चुअलिज्म है और एक हीनताबोध जो भाजपा-आरएसएस में है कि उनको कोई बौद्धिक मानता नहीं है. बौद्धिकता के विरुद्ध उनके मन में एक घृणा है. और बौद्धिकता मात्र को वामपंथी मान लिया गया है. यह बहुत मजेदार चीज है. लेकिन तब प्रताप भानु मेहता क्या ठहरेंगे? आंद्रे बेते क्या होंगे? पीएन मदान क्या होंगे? आशीष नंदी क्या होंगे? इसी बीच यह खबर आई जिसकी मैं आशीष नंदी से पुष्टि नहीं कर पाया. आशीष नंदी ने कहा है कि वे माफी मांगने को तैयार हैं. उन्होंने गुजरात को लेकर जो लेख वर्षों पहले लिखा था, उसके चलते उन पर देशद्रोह का मुकदमा है. यह मुकदमा उनके खिलाफ है और टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद के खिलाफ है, जिसने उनका लेख छापा था. यह लेख तो गुजरात सरकार की आलोचना थी. गुजरात जिस दिशा में जा रहा है, उसकी आलोचना थी. उस पर देशद्रोह का मुकदमा कैसे हो गया? वह चल रहा है और आशीष नंदी ने उस पर माफी मांगने की पेशकश की है. वे माफी मांग सकते हैं. इससे समझा जा सकता है कि दरअसल बौद्धिकता पर हमला बहुत पहले से चल रहा था. गुजरात में वह प्रोजेक्ट पूरा हो गया. इसलिए आप कह सकते हैं अब गुजरात एक तरह का बैरेन लैंड है. अब आप देखें कि कैसे व्यवस्थित ढंग से वह हमला हो रहा है. जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय में अभी कुछ ही दिन पहले एक सेमिनार हुआ ‘कश्मीर में बहुलतावाद की संस्कृति’ विषय पर. अब यह सेमिनार कैसे राष्ट्रविरोधी है? लेकिन इस सेमिनार को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आपत्ति जताता है और उस आपत्ति के आधार पर कुलपति नोटिस जारी करते हैं. तो यह सब क्या हो रहा है?
इसी तरह अभी एक घटना लखनऊ में घटी जो बहुत ही हास्यास्पद थी. हालांकि वह घटना थोड़ी-बहुत मुझसे जुड़ी हुई है, लेकिन हास्यास्पद है. राजेश मिश्रा जो समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं, उन्होंने फेसबुक पर मेरा लेख शेयर किया जो इंडियन एक्सप्रेस में छपा था. उसके चलते उनका पुतला जलाया गया, विरोध-प्रदर्शन किया गया, क्लास नहीं चलने दी गई और कुलपति ने उनको कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. अब देखिए कि मूर्खता किस हद तक जा रही है. वह लेख उन्होंने लिखा भी नहीं है. वह लेख उन्होंने सिर्फ शेयर किया है. उस लेख में कोई हिंसा का आह्वान नहीं है. उन्होंने कोई हिंसा का आह्वान नहीं किया है. लेकिन उनके खिलाफ हिंसा होती है और उन्हीं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाता है. तो हम लोग धीरे-धीरे कहां जा रहे हैं, यह तो समझ में आता है.
राष्ट्रवाद चूंकि इतनी धुंधली अवधारणा है कि कई चीजें घुल-मिल जाती हैं जैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद. अवधारणा में तो दोनों दो हैं, लेकिन यहां दोनों एक हो गए हैं
राष्ट्रवाद चूंकि इतनी धुंधली अवधारणा है कि कई चीजें घुल-मिल जाती हैं जैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद. अवधारणा में तो दोनों दो हैं, लेकिन यहां दोनों एक हो गए. राष्ट्र और राज्य दोनों एक हो गए, जबकि दोनों दो हैं. आप विरोध कर रहे हैं राज्य का लेकिन उसको कहा जा रहा है कि आप राष्ट्र का विरोध कर रहे हैं. देश की अवधारणा तो अलग है न! अपनी भाषाओं में देखें तो हम देश जाते हैं, परदेस जाते हैं. बिहार वालों का चटकल मजदूरों का परदेस कोलकाता हो गया. देश उनका अपना छपरा है, सीवान है. अगर आप पारंपरिक रूप से देखें तो उनका देश और परदेस तो इसी देश में हो जाता है. लोग अपनी मिट्टी में मरने की बात करते हैं. वे यह थोड़े कहते हैं कि मैं भारत में मरूंगा. कोई व्यक्ति जो रह रहा है दिल्ली में उसकी इच्छा होती है कि वह जाकर दफन हो वहीं पर, जहां से वह आया है. उसको आग वहीं दी जाए. तो यह एक दूसरी चीज है जिसे आप अपनी मिट्टी से प्रेम कह सकते हैं. वह राष्ट्रवाद नहीं है. क्योंकि वह तो राष्ट्र है नहीं. अगर मान लिया वह राष्ट्रवादी है तो वह क्यों दिल्ली में ही नहीं मर जाना चाहता है? क्यों वह अपने गांव जाकर ही मरना चाहता है या वहीं की मिट्टी में मिल जाना चाहता है? इसको काफी प्रगतिशील कदम माना जाता है कि अगर मैं लिखकर मर जाऊं कि मेरा शव मेरे गांव न ले जाया जाए. अगर पूरे राष्ट्र की भूमि एक ही है तो यह लगाव, यह खिंचाव क्यों होता है? यह अंतर है, इसको लोगों को समझना चाहिए. लेकिन यहां तो सब घालमेल कर दिया गया.
इसके उलट, राष्ट्रवाद तो एकदम नई अवधारणा है. जो आपका देश है, वही आपका राष्ट्र नहीं है, छपरा के व्यक्ति का देश तो छपरा या वहां का एक गांव मढ़ौरा है, जहां से वह आया है, लेकिन राष्ट्र तो भारत है. उसको यह समझाया है कि मढ़ौरा के मुकाबले भारत का इकबाल बहुत-बहुत ज्यादा है और मढ़ौरा के हितों को भारत के हित पर कुर्बान किया जा सकता है. यह जो भारत है, उसकी देश की जो समझ थी, जो पारंपरिक समझ है, उसके मुकाबले तो यह नई समझ है. इसमें भौगोलिक समझ शामिल है. यह एक भौगोलिक देश है, जिसकी एक चौहद्दी है, जिसके दक्षिण में यह है, उत्तर में यह है, पश्चिम में यह है, यह सब तो उसको बताया गया है कि यह ऐसा है. वह खुद इसका अनुभव नहीं करता है. अगर आप कहें कि मेरे अनुभव की सीमा से बाहर की चीज है. मैं इसकी कल्पना करता हूं, मुझे हर रोज यह बताया जाता है. स्कूल में हम लोगों को जो चीज सबसे पहले याद कराई जाती थी वह भारत की चौहद्दी है. यह क्यों बताया जाता था? क्योंकि यह हमारे दिमाग में बैठ जाए. वह भारत कोई अपने आप अनुभव होने वाली चीज नहीं थी. मेरी जो मानवीय अनुभव की सीमा है, उस मानवीय की सीमा में तो भारत ही है. भारत अंतत: एक कल्पना है जिसके बारे में मुझे रोज-रोज बताकर उस कल्पना को मेरे दिमाग में बिठाकर उसको यथार्थ बना दिया जाता है, जिसका एक तिरंगा है, एक राष्ट्रगान है वगैरह-वगैरह. भारत इन्हीं के माध्यम से मेरे मन में मूर्त भी होता है और जीवित भी होता है. यह सब जो हो रहा है, वह बहुत स्पष्ट है. बीएचयू से संदीप पांडेय को तो नक्सली कहकर ही निकाला गया. नक्सली होना ही राष्ट्रविरोधी हो गया. वामपंथी होना ही राष्ट्रविरोधी होना हो गया. यह तो तय हो गया है. अब इसके बारे में बहस नहीं हो सकती. कुछ चीजें स्थापित कर दी गई हैं जिनके बारे में अब बहस की गुंजाइश नहीं है. जैसे आप यह नारा भारत में लगा सकते हैं कि नक्सलवादियों भारत छोड़ो. कैसे लगा सकते हैं यह नारा? आरएसएस वालों भारत छोड़ो यह नारा नहीं लग सकता लेकिन नक्सलवादियों भारत छोड़ो यह नारा लग सकता है. नक्सलवाद की विचारधारा से हमें आपत्ति हो सकती है, उनके तरीके से हमें असहमति हो सकती है, लेकिन नक्सलवादी जो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ते हैं, उनको आप कहते हैं कि भारत छोड़ो. यह बहुत विचित्र है लेकिन यह स्थापित हो चुका है. अब रहा दलितों का प्रश्न, तो आरएसएस का कहना यह है कि एकमात्र मैं हूं, और कोई नहीं है. गांधी का भी व्याख्याता मैं हूं. आंबेडकर का भी व्याख्याता मैं हूं. मैं किसी और को व्याख्याता होने की इजाजत नहीं देता. हैदराबाद के आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन को लेकर, रोहित वेमुला जिससे जुड़ा था, उसके बारे में वेंकैया नायडू का बयान क्या है? उन्होंने कहा कि वह सिर्फ नाम का आंबेडकरवादी है. वह दरअसल, वाम का मुखौटा है. यह बात वे पहले दिन से कह रहे हैं कि आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन का दलितों से कोई लेना-देना नहीं है, वह दरअसल रेडिकल लेफ्ट का मुखौटा है जो राष्ट्र-विरोधी है, क्योंकि उसने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया. वे यह साबित कर रहे हैं कि इसकी इजाजत दलितों को नहीं है कि वे कौन-सी राजनीति करें और कौन-सी भाषा बोलें, क्योंकि वह हम उनको बताएंगे.
संबित पात्रा ने एक बहस में कहा कि आप दुर्गा के बारे में ऐसा नहीं बोल सकते. हमने कहा कि आप स्क्रिप्ट ताे नहीं देंगे न लिखकर कि हम क्या बोलें और क्या नहीं बोलें! आपकी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी होगी. लेकिन जो महिषासुर का शहादत दिवस मनाएंगे, वह दुर्गा के लिए क्या बोलेंगे यह तो वे ही तय करेंगे. आप तो दुर्गा को महिषासुर मर्दिनी बोले चले जा रहे हैं. आप तो यह ख्याल नहीं कर रहे हैं कि महिषासुर को देवता मानने वालों की भावना का क्या हो रहा है. उलटकर यह प्रश्न किया जाए कि उनकी भावनाओं का क्या हो रहा है. आप उनके शहादत दिवस में मत जाइए. आप अपना महिषासुर मर्दिनी दिवस मनाते रहिए. यह सब जो चल रहा है, इससे निपटना बहुत ही कठिन है. दो स्तर की लड़ाई हो गई है. एक लड़ाई है सांस्कृतिक और एक लड़ाई है राजनीतिक. अब यह पूरी लड़ाई सांस्कृतिक राजनीति में बदल गई है तो और भी कठिन हो गई है. अब देखिए कि यह कितना दिलचस्प है कि एक बहुत बड़ा तबका बिल्कुल खामोश बैठा है. वह है मुसलमानों का तबका. इस पूरी बहस में एक आवाज नहीं है. क्योंकि मान लिया गया है कि वे प्रासंगिक नहीं हैं. अब वे कैसे दावेदारी पेश करें इस भारतीय राष्ट्र पर? वे अपने को इस घोल में मिलाकर ही शामिल हो सकते हैं.
यह जो सांस्कृतिक राजनीति की लड़ाई है यह अभी और तीखी होने वाली है. इसकी तार्किक परिणति कुछ और भी हो सकती है इसके लिए लोगों को, पूरे भारत को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जिस दिशा में धकेल दिया गया है, उस दिशा में आप समाज के दूसरे तबकों को रोक नहीं सकते. तब वे अपनी भाषा में बात करेंगे. आज ऐसा लग रहा है कि वे चुप हैं, लेकिन वे क्यों चुप रहें और कब तक चुप रहें, कब तक अपमानित होते रहें? तो एक तो यह सांस्कृतिक स्तर की लड़ाई है. दूसरे, यह राजनीतिक स्तर की लड़ाई है, जिसमें भाजपा को काफी नुकसान होने वाला है दलितों और आदिवासियों की ओर से. यह तो बहुत स्पष्ट दिख रहा है. उन्होंने रोहित वेमुला और आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को राष्ट्रविरोधी घोषित करने का जो दांव खेला है, वह उन्हें महंगा पड़ेगा. दलित और आदिवासी अब बेचारे नहीं हैं.
इस सबका रास्ता तो राजनीतिक संघर्ष है. लेकिन अभी जो दिख रहा है वह निराशाजनक है. अगर आज की बात करें तो. मेरी जो समझ है वह यह है कि जो कुछ चल रहा है वह बेहद अप्रसांगिक है. क्योंकि मसला क्या था? मसला राष्ट्रवाद तो है नहीं. मसला तो यह है कि राज्य ने अपनी हिंसा का प्रयोग गैर-आनुपातिक ढंग से किया. उसने आगे बढ़कर हैदराबाद और दिल्ली में छात्रों पर हिंसा का प्रयोग किया. प्रश्न है राज्य की राजनीतिक हिंसा का, जो एक खास तरह की राजनीति की भाषा में व्यक्त हो रही है. प्रश्न राष्ट्रवाद तो नहीं है, लेकिन पूरी संसद बैठ गई राष्ट्रवाद पर बहस करने, जैसे कि राष्ट्रवाद पर कोई सेमिनार हो रहा हो. बाहर हमले हो रहे हैं, लोगों को पीटा जा रहा है, लोगों को गलत ढंग से गिरफ्तार किया जा रहा है, बहस इस पर होनी चाहिए, न कि राष्ट्रवाद पर, लेकिन सब लोग वहां अकादमिक सेमिनार करने लगे. हर कोई राष्ट्रवाद की परिभाषा दे रहा है. जैसे कि इस बहस के खत्म होते ही यह मसला निपट जाएगा. आप जब संसद में बहस कर रहे हैं, उसी समय जम्मू में यह घटना हो गई, उसी समय लखनऊ में यह घटना हुई, उसी समय इलाहाबाद में प्रदर्शनकारियों पर हमला हो गया. मसला है कि लोगों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला हो रहा है. इस पर बहस होनी चाहिए थी. राजनाथ सिंह ने साफ झूठ बोला. वे झूठ बोलकर निकल कैसे गए और विपक्ष ने निकलने कैसे दिया? स्मृति ईरानी झूठ पर झूठ बोले जा रही हैं और निकलती जा रही हैं. अगर जवाबदेही तय करनी है तो विपक्ष इन मामलों में जवाबदेही तय करेगा, न कि राष्ट्रवाद पर बहस करने लगेगा.
मुझे दिख रहा है कि विपक्ष में फ्लोर मैनेजमेंट नहीं है, आपस में समन्वय भी नहीं है, और शायद स्पष्टता भी नहीं है. मसलन राहुल गांधी ने पहले दिन जेएनयू जाकर जो स्पष्टता दिखाई, या रोहित वेमुला मामले में, बाद में क्या कांग्रेस घबरा गई कि भाजपा उसे राष्ट्रवाद के मसले पर पीछे ले जाएगी? क्या कांग्रेस के जो ओल्ड गार्ड्स हैं, वे घबराए हुए हैं? जिन लोगों ने राजीव गांधी को सलाह दी होगी कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया जाए, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिरने दी, क्या उसी तरह के लोग राहुल को पीछे खींचकर ले गए होंगे कि संसद में मत बोलिए. क्योंकि इससे तो कुछ भी पता नहीं चला कि दरअसल आप करना क्या चाहते हैं. मुझे लगता है कि विपक्ष की तैयारी नहीं है. विपक्ष से ज्यादा स्पष्टता और तैयारी छात्रों में थी, चाहे हैदराबाद के छात्र हों या जेएनयू के. यह सब काफी दुर्भाग्यपूर्ण है. हम सब काफी लंबा खतरनाक समय झेलने को अभिशप्त हैं. यह सब पता नहीं कहां तक जाएगा.
माहौल यह है कि हम लोग आसानी से बात नहीं कर सकते. कक्षाओं में सहजता नहीं रह गई है. कोई भी चीज अब सहज नहीं रह गई है. माहौल पूरी तरह से तनावपूर्ण है और लोग कन्फ्यूज्ड हैं. मुझे लगता है कि भाजपा की रणनीति संभवत: यह थी कि लोगों के मन में बड़ा कन्फ्यूजन पैदा कर दो और टेम्प्रेचर लगातार ऊपर रखो. जितना टेम्प्रेचर ऊपर होगा, लोग सन्निपात की हालत में होंगे. समाज सन्निपात की अवस्था में होगा तो उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो जाएगी. उस समय आप कुछ भी कर सकते हैं. क्योंकि तब समाज की आत्म रक्षात्मक स्थिति भी समाप्त हो जाएगी. आप उस पर कब्जा कर लेंगे. स्थितियां बहुत खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी हैं.
बिहार में अपराध को लेकर रोजाना बयानों की टकराहट हो रही है. अपराध घटा है, बढ़ा है, ऐसी बयानबाजी, बहस का एक मसला हो सकता है लेकिन ये सच है कि राज्य में अपराधियों का हौसला बढ़ा है. पुलिस दबाव में दिख रही है और इसका कारण राजनीतिक है. यह कहा जाता रहा है और सच भी है कि 2005 से लेकर 2015 तक कभी भी जिले के एसपी वगैरह को आॅपरेट करने के लिए सीएम हाउस या पटना में सत्ता के किसी केंद्र से फोन नहीं गया लेकिन अब सूचना मिल रही है कि ऐसा हो रहा है. अब भी सीएम के लेवल पर या सीएम हाउस से ऐसा नहीं हो रहा लेकिन पटना में सत्ता के जो दूसरे केंद्र हैं वे ऐसा कर रहे हैं. ये एसपी को डिक्टेट करने की कोशिश कर रहे हैं. इससे ऊहापोह और ‘हाॅच-पाॅच’ की स्थिति बनी है. अव्यवस्था पैदा हुई है. यह तो एक बात हुई. इसके अलावा भी कई बातें हैं. अपराध पर बयानबाजी से बेहतर है कि कुछ ठोस उपाय हों. कुछ छोटी-छोटी बातों को समझने की जरूरत है. यह सामान्य तौर पर माना जाता है कि 50-55 की उम्र पार कर चुके पुलिस अधिकारियों को जिले में नहीं भेजना चाहिए. इस उम्र में आकर वे अपना रिटायरमेंट प्लान करने लगते हैं. पेंशन-पीएफ आदि पर ध्यान देने लगते है.
बिहार में दर्जनभर से अधिक जिले हैं, जहां पर इसी उम्र के लोग कमान संभाल रहे हैं या निर्णायक भूमिका में है. बात इतनी ही नहीं है. बिहार पुलिस में कोआॅर्डिनेशन का घोर अभाव है. यहां कानून व्यवस्था में सुधार के लिए एसटीएफ का गठन हुआ था. उसका असर भी राज्य में पड़ा था. छुटभैये गुंडे-मवाली से लेकर बड़े अपराधी तक उनसे भय खाने लगे थे लेकिन आज एसटीएफ के जवान या तो बाॅडीगार्ड बने घूम रहे हैं या फिर बड़े लोगों के बच्चों को स्कूल पहुंचा रहे हैं, सब्जी-दूध ढो रहे हैं. अब बिहार में बात-बात पर एसआईटी गठित करने का फैशन चल पड़ा है. हर अपराध के बाद तुरंत एसआईटी गठित कर दी जाती है. एसआईटी में कौन लोग होते हैं? वही थाने के थानेदार, डीएसपी वगैरह. सवाल यह उठता है कि क्या जिन थानेदारों को, डीएसपी को एसआईटी में शामिल किया जाता है, वे अपने नियमित काम से मुक्त होकर किसी केस में लगते हैं? इसका जवाब है, नहीं. वे नियमित काम भी कर रहे होते हैं और एसआईटी टीम में भी रहते हैं. ऐसे में किसी वारदात की जांच का क्या असर होगा, क्या कार्रवाई होगी, यह खुद ही सोच लेने वाली बात है. विशेश्वर ओझा हत्याकांड हो या बृजनाथी सिंह हत्याकांड, इन राजनीतिक हत्याओं को थानेदारों के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता.
इन दिनों तो एक गजब का प्रसंग सामने आया. नवादा विधायक राजवल्लभ यादव को गिरफ्तार करने गई पुलिस का कारनामा अजीब रहा. कुछ दिन पहले एक घटना घटती है. पुलिस सर्च वारंट का इंतजार करती है. ठीक है कि कानून के हिसाब से पहले सर्च वारंट जरूरी होता है लेकिन जब प्रथमदृष्टया अपराध की पुष्टि हो तो यह नियम कई बार टूटा भी है. लेकिन राजवल्लभ यादव के बलात्कार करने के एक सप्ताह बाद सर्च वारंट मिलता है. उसके बाद सर्च वारंट की खबर टीवी पर चलती है और फिर पुलिस सर्च करने जाती है, छापेमारी करती है. क्या कुछ हासिल होगा, यह तो सामान्य तरीके से सोचने वाली बात है. बिहार में कभी कुख्यात रहे शहाबुद्दीन को भी पुलिस ऐसे ही गिरफ्तार करने जाती थी. पुलिस के जाने के पहले खबरें चलती थीं- ‘शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस रवाना.’ फिर काहे को गिरफ्त में आते शहाबुद्दीन. इस तरीके से वह कभी गिरफ्त में नहीं आए. आखिर में सीबीआई से आए एक आईपीएस अधिकारी आरएस भट्टी को जिम्मा दिया गया. उन्हें एक रैंक बढ़ाकर डीआईजी बनाकर भेजा गया तब शहाबुद्दीन गिरफ्तार हुए.
बिहार में संगठित अपराध और फुटकर अपराध के अंतर को समझना होगा. दोनों से निपटने के तरीकों में बदलाव करना होगा. आज बिहार के जेल संगठित अपराध के सबसे सुरक्षित ठिकाने बन गए हैं. दरभंगा इंजीनियर हत्याकांड में संतोष झा गिरोह का हाथ सामने आया. संतोष झा जेल में ही हैं. विशेश्वर ओझा हत्याकांड में विश्वजीत मिश्र का नाम आ रहा है तो विश्वजीत मिश्र जेल में ही है. जेलों की क्या व्यवस्था है, इसे आंकना चाहिए. पूरे बिहार की जेलाें की बात छोड़िए पटना के बेउर केंद्रीय जेल को ही देख लेना चाहिए. वहां कभी जैमर लगा था. अब उसके ढांचे भी बचे हैं या नहीं, पता नहीं. ऐसी कई बातें हैं. अपराध पर सिर्फ तर्कबाजी, बहसबाजी करने और एक-दूसरे से सवाल-जवाब करने से कम नहीं होगा. अपराध कम है, ज्यादा है, घटा है या बढ़ा है, इससे राजनीतिक नफा-नुकसान हो सकता है, बिहार का भला नहीं होगा.
पर्यावरणविद नदी के क्षेत्र में कोई भी निर्माण कार्य नहीं करने की बात करते हैं. इसके दो-तीन कारण हैं. नदी का क्षेत्र, जिसे खादर (फ्लड लेन) कहते हैं, नदी का एक अभिन्न हिस्सा होता है. दरअसल, नदी अपने आप में एक तंत्र है. नदी सिर्फ बहता पानी नहीं है. अगर नदी सिर्फ बहता पानी ही होती तो फिर नहर और नदी में क्या अंतर रह जाता? नदी की अपनी बायो-डायवर्सिटी होती है, नदी का अपना एक क्षेत्र होता है.
होता क्या है कि हिंदुस्तान में जो नदियां हैं, मानसून के समय में उनका स्वरूप कुछ और होता है, मानसून के अलावा दूसरे समय में उनका स्वरूप कुछ और होता है. मानसून के समय में नदियां फैलती हैं, अपनी जगह घेरती हैं और उस जगह का जो प्राकृतिक तंत्र है उसको जल प्रदान करती हैं और भूजल बनाती हैं. जितने चोए होते हैं, उनको पानी पिलाती हैं. आपके जितने भी कुएं हैं, बावड़ियां हैं पुरानी, सब के सब उससे रिचार्ज होते हैं. पर अगर आप नदी के क्षेत्र में अतिक्रमण कर लेंगे, उसके क्षेत्र का जो अपना नैसर्गिक स्वरूप है उसको खत्म करके कुछ और कर देंगे तो नदी का तंत्र खराब हो जाएगा. तब न वह ग्राउंड वाटर ढंग से रिचार्ज कर सकती है, न ही वह नदी के खादर में जो जीव-जंतु हैं, उनका सही तरीके से पालन-पोषण कर सकती है. ये जीव-जंतु नदी को स्वच्छ रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं. आर्ट ऑफ लिविंग जैसा कोई भी कार्यक्रम किसी भी नदी तट पर होने से उसका तंत्र गड़बड़ा जाता है.
देखिए अभी क्या हुआ है? इन्होंने पूरा का पूरा इलाका समतल कर दिया. वहां जो भी वनस्पतियां थीं उनको हटा दिया. ऊबड़-खाबड़ इलाकों के ऊपर डंपिंग कर दी गई. ऐसा करके नदी का अपना स्वाभाविक नैसर्गिक स्वरूप बिगाड़ दिया गया. इसके बाद नदी को अपने प्राकृतिक रूप में आने में बहुत समय लगता है. अब आपने अगर वहां कोई स्थायी निर्माण कर दिया, जैसे- वहां अक्षरधाम मंदिर बना दिया या खेल गांव तैयार कर दिया, तो ऐसा करके आपने नदी के बाढ़ क्षेत्र को कम करके उसे अवरुद्ध कर दिया. इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि जो पानी उस क्षेत्र में फैलकर ग्राउंड वाटर बनता वह अब नहीं फैल पाएगा. अब पानी सिर्फ दो जगह जा सकता है. या तो आपके-मेरे घर में घुसेगा, या फिर नदी की धारा में बह जाएगा. तो जो पानी आपके चोए को मिलता, जो जमीन में जाकर भूजल बनता, अब आपके पास नहीं रहेगा. वह कहीं और चला जाएगा. अगर कभी बाढ़ आएगी तो पानी सीधे हमारे-आपके घर में घुसेगा. जिस प्रकार से चेन्नई में हुआ, जिस प्रकार से मुंबई में हुआ, जिस प्रकार से केदारनाथ में हुआ, जिस प्रकार से श्रीनगर में हुआ, पूर्वोत्तर में हुआ, हर साल कुछ न कुछ हो रहा है. इसलिए नदी के साथ छेड़छाड़ करना अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना है.
हम पिछले 20 साल से यमुना और 30 साल से गंगा को साफ करने में लगे हैं और हुआ कुछ नहीं क्योंकि नदियों को लेकर हमारी समझ ही गलत है
दिल्ली में यमुना नदी का पानी नहीं है. यमुना नदी तो दिल्ली से 200 किलोमीटर पहले ही मर जाती है. यह जो पानी दिल्ली में आप देख रहे हो, यह तो पूरा का पूरा मल-मूत्र है. यह पूरा औद्योगिक अपशिष्ट है. पानी तो है ही नहीं. यहां यह नदी मर चुकी है और अब उसको आप मृत घोषित कर दो. इसके खादर पर भी अतिक्रमण कर दो. अगर यमुना के पुनर्स्थापन की, रेस्टोरेशन की कोई संभावना बनती भी है, तो आप इस तरह के कार्यक्रम करके उसको और खराब कर दो.
जब यमुना की हालत खराब होनी शुरू हुई उससे काफी समय पहले से ही बार-बार चेतावनी दी गई. इसलिए तो यमुना एक्शन प्लान, यमुना एक्शन प्लान-2, यमुना एक्शन प्लान-3… क्या-क्या नहीं हुआ. लेकिन कभी कोई प्रभावशाली कदम नहीं उठाया जा सका क्योंकि हमारी समझ ही नदियों के प्रति कमजोर है. हमने नदी को बहता पानी के अलावा कुछ नहीं माना. हमने हमेशा नदी को साफ करने को देखा. अरे भाई! नदी को साफ नहीं करना है, नदी को पुनर्जीवित करना है. अगर नदी को आपने पुनर्जीवित कर दिया तो साफ तो वह अपने आप हो जाएगी. इसे साफ करने के लिए आपको एक पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है. पर हम यहां पिछले 20 साल से यमुना और 30 साल से गंगा को साफ करने में लगे हैं और हुआ कुछ नहीं, क्योंकि नदियों को लेकर हमारी समझ ही गलत है.
यमुना पर इतने खतरे के बावजूद इस तरह के कार्यक्रम की अनुमति दी गई तो इसमें पूरी गलती डीडीए की है. गलती डीडीए और साथ-साथ ‘आर्ट आॅफ लिविंग’ की भी है. डीडीए ने दो बार इनको मना किया कि हम अनुमति नहीं दे सकते, क्योंकि एक्टिव फ्लड एरिया में किसी भी प्रकार के कार्यक्रम के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने मना किया हुआ है, लेकिन फिर तो आप जानते हो कहां से दबाव डाला जाता है. बड़े-बड़े लोग हैं, जो दबाव डाल सकते हैं. उन्होंने दबाव डाला और डीडीए ने अनुमति दे दी.
हम इतने लंबे समय से ‘यमुना जिए अभियान’ चला रहे हैं. हमारे अभियान का सबसे बड़ा प्रतिफल यह मिला है कि अब लोग हमारे साथ आ रहे हैं. पूरा शहर इस मुद्दे पर साथ खड़ा हो रहा है, इस बारे में बात कर रहा है. वह इसलिए कि पिछले दस सालों से मेहनत हो रही है. कॉमनवेल्थ गेम के समय जब हम बस डिपो और मेट्रो के डिपो के निर्माण रोकने के लिए लगे थे तब हमारे साथ 10-15 से ज्यादा लोग नहीं थे. हम लोगों को समझाते हुए हार गए.
पर्यावरण जैसी चीज पर जब तक लोगों को यह नहीं लगता कि हम पर या हमारे जीवन पर कोई खतरा है तब तक कोई ध्यान नहीं देता. अगर दिल्ली में यमुना को खत्म कर देंगे तो 9वीं बार दिल्ली बसानी पड़ेगी. दिल्ली खत्म हो-होकर आठ बार बसाई गई है न, एक दिन यह शहर ही खत्म हो जाएगा. अगर यमुना वापस नहीं आई तो यह शहर खत्म हो जाएगा.
कोई भी मानवीय बसाहट बिना जलीय सुरक्षा के पनप नहीं सकती. पुराने जमाने में जितनी सभ्यताएं खत्म हुई हैं, वे तब खत्म हुई हैं, जब उनके पानी के साथ छेड़छाड़ हुई, खिलवाड़ किया गया. पानी ने दो काम किए- या तो आपको सूखा कर दिया या इतना भयानक जलजला आया कि सब नष्ट हो गया. दिल्ली में दोनों स्थितियां आने की संभावना है. या तो आप पानी के लिए तरस जाएंगे, एक-दूसरे को मार-मारकर खा जाएंगे, भगा देंगे, या इस शहर को छोड़कर चले जाएंगे, या फिर ऐसा जलजला आएगा कि आप उस पर विश्वास नहीं कर पाएंगे. पानी जीवन भी है और पानी से ही प्रलय भी आती है. इसे नहीं भूलना चाहिए.
यमुना को पुनर्जीवित करने के जितने प्रयास हुए, जितनी योजनाएं लाई गईं, उनका कोई असर नहीं पड़ा. सबसे बड़ा दुख तो यही है. 2015 में एनजीटी का फैसला आया, जिसका आर्ट आॅफ लिविंग के इस कार्यक्रम से उल्लंघन हुआ है. पहली बार ऐसा फैसला आया था जिसने सही रूप में सब कुछ सबके सामने रख दिया. लेकिन किसी ने उसको समझा ही नहीं. अब सब कह रहे हैं कि भाई जजमेंट की कॉपी भेज दो. अरे भई, जब जजमेंट आया था, तभी पढ़ लेते तो यह स्थिति ही न बनती. चलिए यह स्थिति बनी तो लोगों को एक सीख तो मिली. पूरा शहर पहली बार ऐसे कार्यक्रम के खिलाफ खड़ा हुआ है जिससे उसे कोई सीधा फर्क नहीं पड़ रहा है. पर फिर भी लोग इसके खिलाफ है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि यह जो कुछ भी हो रहा है वह पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है. फिर पूरे मीडिया का रवैया भी बदल गया क्योंकि मीडिया ने भी देखा कि यह गलत हो रहा है.
अब तक यमुना को बचाने या पुनर्जीवित करने पर तमाम पैसा खर्च हो चुका है. कोई कहता है कि 4,000 करोड़, कोई कहता है 1,500 करोड़ रुपये, कोई फिक्सड राशि कभी मिलती नहीं. लास्ट एस्टीमेट है 4,000 करोड़ रुपये. अब दिक्कत यह है कि इस तरह के कार्यों में अकेले कोई एनजीओ, दो एनजीओ, दस, पचास या हजार आदमी कुछ नहीं कर सकते. हम-आप अपना समय निकालकर थोड़ी देर के लिए नदी संवारने में कुछ योगदान कर देंगे. लेकिन ठोस तरीके से सिर्फ सरकारें ही कर सकती हैं. यह सरकारों का काम है, उनका धर्म है. इस तरह के काम के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को तनख्वाह मिलती है. आखिर किसलिए उनको तनख्वाह मिलती है, इसलिए कि एनजीओ आकर काम करें? और अगर एनजीओ को ही करना है तो सरकार है क्यों? आप और हम दबाव डाल सकते हैं, समझा सकते हैं, आप और याचिका दे सकते हैं, लेकिन स्थायी तरीके से सरकार के अलावा कोई प्रभावी तरीके से कुछ नहीं कर सकता. जाहिर है कि सरकारों का रवैया बहुत लापरवाही भरा है. यह बात एनजीटी ने ही बोल दी है. हमको-आपको क्या बोलना है!
इन कारणों से आने वाली तबाही ऐसी चीज है जिसकी कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता. चेन्नई, मुंबई या केदारनाथ में जो हुआ, कोई भविष्यवाणी कर सकता था क्या? सिर्फ एक बार 24 घंटे बढ़िया बारिश होने दीजिए फिर देखिए क्या होता है. हम तबाही को आमंत्रण जरूर दे रहे हैं, लेकिन तबाही कब आएगी, यह काेई नहीं जानता.
इस समस्या के हल के लिए साधारण-सा सुझाव है कि कृपया 13 जनवरी, 2015 का एनजीटी का फैसला पढ़ लें और अपना भरसक प्रयास करें कि उस फैसले को जितनी जल्दी हो सके, लागू कर दें. उससे अच्छा रोडमैप इस नदी को दोबारा नहीं मिलेगा.
(लेखक ‘यमुना जिए अभियान’ के संयोजक हैं) (कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)
‘एैसेई मरता-मारता फिरता रै कर पूरा दिन. तुझै सरम तो बिल्कुल रई नाय. जब देखो तब कोई न कोई तेरी शिकायत ई लिए खड़ी रैवै है. मैं तो छक गई तुझसै. इससै तो अच्छा था पैदा होते ई तेरा टैंटवा दबा देती’ मां मुझे देखते ही ऐसे ही अक्सर चिल्लाया करती थीं. ‘चाची तुमारे चींटे ने मेरे लौंडे के सिर में ईंट मार दई, इननै हमारे बिटोरे की हंडिया फोड़ दई, मेरे खेत मैं सै चने उखाड़ लाया’ बचपन के दिनों में ऐसी न जाने कितनी ही शिकायतें मेरी रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा थे. सारी शिकायतें मां के पास जातीं. मां झल्ला कर मुझे गालियां देतीं. झाड़ू, बेलन, फुंकनी, चिमटा- जैसे खाना बनाने में सहयोग देने वाला जो भी सामान उनके हाथ लगता उसी से वह मेरी ‘खातिरदारी’ शुरू कर देतीं. साथ में ऐलान भी करतीं- ‘न तुझे कुछ खाने-पीने को दूंगी, न अपने पास सुलाऊंगी. वो भीख मांगने वाली आएगी तो अबकै तुझै ई दे दूंगी. मेरा पिंड तो छूटेगा. मै कहां तक रोज-रोज सबकी औगार (शिकायत) सुनूं.’ मां के इतने प्रयासों का यह असर होता कि मैं एक-दो दिन बिल्कुल शरीफ सधे हुए बच्चे की तरह रहता. एकदम अनुशासित. ऐसे में मां सुबह-सुबह बड़े प्यार से उठातीं. छुलुए में पानी लाकर मेरा मुंह धोतीं. अपनी साड़ी के पल्लू से मुंह पोंछतीं और भीमसैनी काजल आंखों में आंजकर माथे पर टीका भी लगातीं. फिर बालों में सरसों का तेल लगाकर बारीक दांतों की कंघी से बाल काढ़ती. कंघी का टूटा दांता खोपड़ी में चुभता तो मैं उचक जाता. मां कहतीं, ‘मेरा बेटा तो राजा है. कित्ता सोयना मलूक लग रिया है. बस लोगों की औगार लाना और बंद कर दे तो कित्ता अच्छा हो जाए.’ मां आगे कहतीं, ‘देख बेटा शैतानी मैं कुछ नाय रखा. पढ़ने-लिखने मैं ध्यान लगा. बे-पढ़े की इस दुनिया मैं कोई कदर नाय है.’
समय बीता उम्र के साथ-साथ समझदारी बढ़ी और शैतानियां कम हुईं. पढ़ने-लिखने में रुचि बढ़नी शुरू हुई. मां छोटी-छोटी सफलताओं पर भी खूब प्रोत्साहित करतीं. कहतीं, ‘आज मेरे बेटे ने कित्ता अच्छा इमला लिखा है. स्कूल मैं किसी कू इत्ते पहाड़े याद नाय जित्ते मेरे बबलू कू.’ मां के इन प्रोत्साहनों ने जैसे जीवन की धारा ही बदल दी. मां साक्षरता के नाम पर सिर्फ अपना नाम लिखना जानती थीं. इसलिए निरक्षरता के दर्द से भी भली-भांति वाकिफ थीं. अपने बच्चों को खूब पढ़ा-लिखा देखना उनका एकमात्र सपना था. बड़े भाई और बहन पढ़ने में अच्छे थे. इसीलिए अगर उन्हें जरा-सा भी यह आभास होता कि मैं शरारतें ही करता रहूंगा, पढ़ूंगा नहीं तो वे विचलित हो जातीं.
मां झाड़ू, बेलन, खाना बनाने में सहयोग देने वाला जो भी सामान उनके हाथ लगता, उसी से वह मेरी ‘खातिरदारी’ शुरू कर देतीं
छठी-सातवीं कक्षा तक आते-आते मैं पढ़ने में ठीक होने लगा था. मां-पिताजी के अलावा भाई-बहन सभी की कोशिशों ने मुझे सकारात्मक दिशा की ओर मोड़ दिया था. पढ़ाई पूरी करने के बाद जब नौकरी मिली तो मां ने छलछलाती आंखों के साथ कहा, ‘देख ले, नाय पढ़ा होता तो आज कहीं सड़ रिया होता पड़ा जेल मैं.’ मैं नौकरी जॉइन करने चला गया. बहन ने बताया कि मां कई रोज तक देवस्थानों पर प्रसाद चढ़ाती घूमीं. संभवतः मेरा सुधार उनके जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी, जिसमें वह जीत गई थीं.
पिछली गर्मियों में मैं अपने बेटे को किसी बात पर डांट रहा था. मां बोलीं- ‘इसै काय कू डांट रिया है. यो बी तो तेरा ई खून है. अपने दिन याद कर ले. जब तू इसकी उमर का था तो तू बी तो ऐसा ई था.’ मां की बात सौ फीसदी सही थी. पर मां को मैं कैसे बताता कि मैं जरूर ऐसा था, पर मेरी मां तुम थीं. तुम्हारी गालियां वे मंत्र थे जिन्होने मेरे जीवन को रस-रंग से अभिसिंचित कर दिया. अनायास ही ये लाइनें याद आती हैं…
जयपुर के प्रकाश भाट विपरीत परिस्थितियों में भी कठपुतली की कला जिन्दा रखने की जुगत में लगे हैं. सभी फोटो- सुनील यादव
ओ लड़ी लूमा रे लूमा, ओ लड़ी लूमा रे लूमा, लूमा झूमा लूमा झूमा, म्हारो गोरबंद नखरालो.
किसी सांस्कृतिक मेले में इस तरह के राजस्थानी लोकगीत पर नाचती कठपुतलियां बरबस ही ध्यान खींच लेती हैं, पर मनोरंजन के साथ शिक्षा का माध्यम रहा कठपुतली का खेल आज अपनी पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहा है. कठपुतली बनाने वाले कलाकार बमुश्किल ही अपनी रोजी कमा पा रहे हैं. जयपुर विधानसभा से मुश्किल से 500 मीटर दूर कठपुतली कॉलोनी की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में ऐसी ही कई जिंदगियां अपने और इस खेल के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं.
मूलतः राजस्थान के नागौर जिले से आने वाले भाट समुदाय को परंपरागत भारतीय कठपुतली का जनक माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि यही लोग कठपुतलियों को पश्चिम बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों तक लेकर गए थे. छह महीनों तक शहरों और गांवों में घूम-घूमकर ये लोग राधा-कृष्ण की प्रेम गाथा या शाहजहां के समय के राजा अमर सिंह राठौड़ की कहानियां आमजन तक पहुंचाते थे. पर आज इस कला की स्थिति का पता जयपुर के रहने वाले एक ऑटोरिक्शा चालक से बात करने पर चलता है, जब वो बताते हैं, ‘मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी जयपुर में कठपुतली का कोई खेल देखा हो. पिछले दस सालों में तो नहीं! मैंने बचपन में ही इसे देखा था. हां, अगर आप किस्मत वाले हुए तो हो सकता है कि किसी गांव के मेले में ये आपको दिख जाएं.’
लगभग दो हजार सालों से भाट समुदाय को ही कठपुतलियों की इस कला का संरक्षक माना जाता है, पर अब स्थितियां बदल रही हैं. कठपुतलियां आसानी से बात करती, नाचती-गाती नहीं दिखेंगी. वह ऑटो ड्राइवर बताते हैं कि कठपुतली का खेल देखना है तो हवामहल जाइए या किसी महंगे होटल में. वे लोग ही विदेशी पर्यटकों के मनोरंजन के लिए ऐसी व्यवस्था रखते हैं.
मनोरंजन के साथ शिक्षा का माध्यम रहा कठपुतली का खेल आज अपनी पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहा है. कठपुतली बनाने वाले कलाकार इन दिनों बमुश्किल ही अपनी रोजी कमा पा रहे हैं
कठपुतली कॉलोनी की इन गलियों के जीर्ण होते मकानों में भाट समुदाय के कई अंतर्राष्ट्रीय कलाकार रहते हैं, जिनके पास अब अपने अतीत की सुनहरी यादों के अलावा कुछ बाकी नहीं है. अपने दोमंजिला मकान में 35 वर्षीय प्रकाश भाट अपने सर्टिफिकेट, तस्वीरों और कठपुतलियों का संग्रह दिखाते हुए गर्व से बताते हैं, ‘ये सब अवाॅर्ड मुझे विदेशों में मिले थे, जब मैं वहां प्रदर्शन करने गया था. मैं अब तक 20-25 देशों में जा चुका हूं.’ फिर वे अपना बिजनेस कार्ड दिखाते हैं, जिस पर फ्रेंच भाषा में ‘अनारकली कंपनी’ लिखा हुआ है. ये प्रकाश की कंपनी का नाम है. प्रकाश 2008 से विदेशी ग्राहकों के लिए लगातार फ्रांस जाते रहे हैं. इसी कारण उन्होंने अपनी कंपनी का नाम फ्रेंच में रखा. ‘मैं कभी-कभार ही जा पाता था, पर एक बार जाने के लिए ही मुझे एक लाख रुपये मिल जाते थे,’ प्रकाश बताते हैं. ऐसी विदेश यात्राओं के बावजूद, उनके लिए अपने घर के एक कमरे में कठपुतली कला पर वर्कशॉप चलाना मुश्किल भरा है. उनके घर में न तो पानी की अच्छी व्यवस्था है और न ही शौचालय है.
कभी आम जनता के बीच सड़कों पर होने वाला ये खेल अब जयपुर के आलीशान होटलों तक ही सीमित हो गया है. हालांकि, कलाकारों का मानना है कि अब भी अवसरों की कमी नहीं है, पर कुछ वजहों से इनकी कमाई मुश्किल भरी हो गई है. 70 साल के छोटमल बताते हैं, ‘हमारे प्रदर्शनों के लिए आने वाले फंड को वसूलने के लिए एनजीओ और सरकार साथ में आ जाते हैं.’ अपने जमाने में छोटमल कुवैत में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. अपनी प्रसिद्धि के दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘मैं उस समय एक दिन में 1500 रुपये तक कमाता था. तब लोग हमें इज्जत से देखा करते थे पर आज ऐसा नहीं है. ये बच्चे, जो आज ये काम कर रहे हैं, उन्हें उस समय का अंदाजा तक नहीं है, जब हम ये काम किया करते थे.’ एक अंतर्राष्ट्रीय कलाकार होने के बावजूद छोटमल रिटायर हो जाने के बाद भी काम कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पेट पालने के लिए कुछ तो करना होता है.’ छोटमल के घर में उनके साथ भतीजे सुनील भाट भी रहते हैं. अपने चाचा की तरह सुनील भी इस कला के प्रदर्शन के लिए 20 से ज्यादा देशों में जा चुके हैं.
इनसे एक घर दूर दो कमरे के एक मकान में 45 साल के बबलू भाट, अपनी पत्नी, पांच बेटियों, दो बेटों और अपने भाई के परिवार के साथ रहते हैं. राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ अपनी तस्वीरें दिखाते हुए बबलू बताते हैं, ‘परिवार नियोजन या पोलियो उन्मूलन अभियान जैसी कई सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए राजस्थान सरकार कठपुतलियों की ही मदद लेती है, इसीलिए कठपुतली बच्चे-बड़ों सभी में लोकप्रिय है. हालांकि, इन योजनाओं के लिए मिला धन वही एनजीओ रख लेते हैं, जिन्हें इसका कॉन्ट्रैक्ट मिलता है. कठपुतली के खेल के लिए कलाकारों को बुलाने की बजाय ये एनजीओ बस कठपुतलियां खरीदकर खानापूर्ति करते हैं.’
पैसे कमाने की ऐसी जद्दोजहद के इतर कर्ज भी इस कॉलोनी के रहवासियों की एक समस्या है. इस कर्ज की राशि दस हजार से लाख रुपये तक है. प्रकाश एक घर की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, ‘ये घर एक कठपुतली कलाकार का था, जो कर्ज न चुका पाने की वजह से घर छोड़कर भाग गया. अब जिससे उसने उधार लिया था, उस आदमी ने इस मकान पर कब्जा कर लिया और अब इसका मालिक कोई और ही है.’ अब इस घर में तीसेक साल की एक महिला रहती हैं. वह कठपुतली के लकड़ी के सिर से जुड़ने वाले कपड़े सिलती हैं. वह बताती हैं, ‘मुझे भी कर्ज चुकाना है. दिन भर में हम 10-12 कठपुतलियां बनाते हैं. इससे जो भी पैसा मिलता है वो कर्ज की किस्तें भरने में चला जाता है.’
गली के बच्चों को गुस्से से झिड़कते हुए बुजुर्ग रामपाल की उम्र लगभग 72 साल है. उनकी कहानी भी कर्ज के दलदल से जुड़ी है. कभी एक प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार रहे रामपाल आज सड़क पर आ चुके हैं. वे अब फुटपाथ पर ‘काछी घोड़ी’ (घोड़े की कठपुतली) बनाते हैं. वे बताते हैं, ‘कुछ साल पहले बीबीसी लंदन ने मेरा इंटरव्यू किया था, तब कई अखबारों में मेरे बारे में छाप था. अब हाल ये है कि मैंने पिछले लगभग दस सालों से 15-20 हजार रुपये साथ में नहीं देखे हैं!’ रामपाल के ऊपर एक लाख रुपये से ज्यादा का कर्ज है, जिसे वो पिछले दो-ढाई साल से हर महीने करीब 4-5 हजार रुपये बचाकर चुकाते हैं. शारीरिक रूप से बेहद कमजोर रामपाल एक कमरे के इस मकान में अकेले रहते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि भविष्य में मुझे अपने बेटों पर निर्भर रहना होगा या इन्हीं हालातों में काम करते रहना होगा!’
कभी प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार रहे 72 साल के रामपाल अब ‘काछी घोड़ी’ (घोड़े की कठपुतली) बेचते हैं. उन पर अच्छा खासा कर्ज चढ़ा है
कुछ गली आगे मंजू और उनकी सास के पास भी दुखों की ऐसी ही कहानियां हैं. लंबे समय से मंजू के ससुर बीमार हैं, जिनका खर्च कठपुतली बनाकर मुश्किल से घर चला रहे मंजू और उनके पति ही उठाते हैं.
शुरुआत में जब ये कॉलोनी बसाई गई थी, तब तकरीबन डेढ़ हजार परिवार थे, पर धीरे-धीरे कई परिवार ये जगह छोड़ने को मजबूर हो गए. आज ये बस्ती सचिवालय और विधानसभा के बीच में आती है, जो बिल्डरों और व्यापारियों के लिए एक ‘प्राइम प्रॉपर्टी’ है. भाट समुदाय के एक व्यक्ति बताते हैं, ‘पिछली बार सरकार द्वारा प्रायोजित निर्माण योजना के नाम पर 250 परिवारों को कॉलोनी से निकाल दिया गया था. हालांकि, उन्हें क्वार्टर देने की बात कही गई थी, पर ऐसा नहीं हुआ. अब बिल्डरों ने कहा है कि या तो बाकी परिवार यहां से चले जाएं या निर्माण के लिए पैसे दें. ये जमीन राजा भवानी सिंह की थी, जो बाद में कूड़ाघर बना दी गई. हम लोगों ने ही इसे इस रूप में बदला, अब ये हमें ही यहां से निकल देना चाहते हैं.’
ये समुदाय कहीं और जा भी नहीं सकता क्योंकि किसी अनजान, नई जगह पर उनके हुनर को महत्व ही नहीं मिलेगा. भाट समुदाय के कुछ बच्चे बस्ती के बाहर ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं पर ज्यादातर लोग बच्चों को मिशनरी के सहायता केंद्र और पास ही खुले एक एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे नए स्कूल में भेजते हैं क्योंकि वहां कपड़े, दवाई जैसी अन्य जरूरी व्यवस्थाएं भी हैं.
गरीबी के जाल में फंसा भाट समुदाय धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति से भी बच नहीं सका है, कठपुतली की कला सिखाने की वर्कशॉप करवाने के एवज में उनसे ईसाई धर्म का प्रचार करने को कहा जाता है
गरीबी के जाल में फंसा ये समुदाय धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति से भी बच नहीं सका है. प्रकाश बताते हैं, ‘शुरुआत में हमें अपने बच्चों को मिशनरी में भेजने से कोई परेशानी नहीं थी पर बच्चों और महिलाओं को कठपुतली की कला सिखाने की वर्कशॉप करवाने के एवज में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए मुझसे कहा गया. आप ही बताइए, हम काली मां की पूजा करते हैं. रोटी के लिए हम अपना धर्म और संस्कृति कैसे छोड़ दें?’
रविवार होने के बावजूद प्रकाश के घर पर ये कला सीखने के लिए बच्चे इकट्ठा होना शुरू हो गए हैं. कई बैचों में बंटे 80 के करीब बच्चे यहां संगीत और कठपुतली के खेल की कला सीखने आते हैं. प्रकाश बताते हैं, ‘मैं इन बच्चों से कोई फीस नहीं लेता मैं बस चाहता हूं कि बच्चे ये हुनर सीखें. और ये बच्चे कैसे फीस देंगे जब मैं जानता हूं कि इनके पास कमाई का कोई जरिया ही नहीं है?’
प्रकाश की बातें सुनकर आप यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि राजस्थान से निकलकर पूरे विश्व में मशहूर हुई यह अनूठी कला इस हाल में कैसे पहुंच गई.
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बाहर और भीतर पिछले दिनों जो कुछ हुआ वह एक राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बना और चैनलों से लेकर अखबारों और सोशल मीडिया के साथ-साथ इंटरनेट पर उपलब्ध ई-पत्रिकाओं में भी उसकी भरपूर धमक रही. अंतरिम जमानत पर रिहाई के बाद जेएनयू के छात्रों के बीच दिया कन्हैया का भाषण अनेक चैनलों ने लाइव चलाया और बताते हैं कि इंटरनेट पर इसे 30 लाख से अधिक लोग देख चुके हैं. इसके बाद जो प्रतिक्रियाएं आईं उनमें उसे चे ग्वेरा से लेकर लेनिन तक कहा गया, प्रशंसा के पुल बांध दिए गए और एक आम मत था कि भारत को अपना नया नेता मिल गया है. इसी के बरअक्स उसे विलेन बनाने वालों की भी कोई कमी नहीं है. ऐसा लगता है कि कन्हैया को लेकर देश का जनमत दो हिस्सों में बंट गया है.
अगर देखें तो उसका भाषण महान नहीं था. बौद्धिक सेमिनारों और आयोजनों में जाने वाले जानते हैं कि उसमें कोई नई और मौलिक बात नहीं थी. कुछ तथ्यात्मक भूलें भी थीं. वैसे भी संघर्षों में तपे वामपंथी छात्र नेता पूरे कमिटमेंट के साथ बोलते हुए अच्छा भाषण देते ही हैं. लेकिन वह भाषण निश्चित तौर पर ऐतिहासिक था. सोचिए जरा जेल और इतने दमन के बाद अगर उसके भाषण में डर का कोई कतरा होता? प्रतिहिंसा का कोई कतरा होता? कोई अभद्र टिप्पणी होती? कोई हल्की बात होती? तो यह पूरा छात्र आंदोलन कमजोर पड़ जाता. वह किसी डिबेट में नहीं था, जेल से आने के कुछ घंटों के भीतर उस छात्र समूह के सामने था जो उसके साथ रहा तो उस मीडिया और जनता के सामने भी जिसका एक बड़ा हिस्सा उसको खत्म कर देने के लिए मुतमइन था. इसलिए वह देस-काल महत्वपूर्ण बन गया. उसे इतिहास ने एक मौका, एक जिम्मेदारी दी, जिसे उसने बखूबी निभाया. इस अवसर पर जिस कमिटमेंट और विट के साथ उसने दक्षिणपंथी राजनीति पर हमला किया और आंबेडकरवादी तथा वामपंथी छात्र राजनीति को एक मंच पर आने का आह्वान किया वह संघर्ष की उस लंबी परियोजना की ओर इंगित करने वाला था, जिसके बिना फासीवाद के खिलाफ कोई लंबी लड़ाई भारत में नहीं लड़ी जा सकती.
देश भर के तमाम इंसाफपसंद लोग जो सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं… ये सब हीरो हैं. सब इसमें बराबरी के हिस्सेदार हैं
और यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है. देश में एक के बाद एक छात्र आंदोलनों की कड़ियां जुड़ती जा रही हैं. शुरुआत एफटीआईआई के आंदोलन से हुई जब एक औसत से भी निचले स्तर के कलाकार गजेंद्र चौहान को सिर्फ इस आधार पर इस प्रतिष्ठित संस्था की कमान सौंप दी गई कि वे सत्ताधारी पार्टी से जुड़े हुए हैं. वह आंदोलन कैंपस से बाहर निकला और जेएनयू ही नहीं अनेक विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थानों के छात्रों, फिल्म से जुड़े गंभीर लोगों और बुद्धिजीवी समाज ने उसे पूरा समर्थन दिया. उसके बाद केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों की शोध फेलोशिप बंद किए जाने के खिलाफ एक ऐतिहासिक आंदोलन हुआ जिसमें छात्रों ने यूजीसी कार्यालय के सामने 88 दिनों तक लगातार धरना दिया. इसमें जेएनयू ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय सहित तमाम जगहों के छात्र शामिल थे और उनके समर्थन में देश भर में धरना प्रदर्शन हुए. अंततः सरकार को फेलोशिप तो देनी पड़ी लेकिन इसे बढ़ाने की उनकी मांग ठुकरा दी गई. हैदराबाद के आंबेडकरवादी छात्र संगठन के कार्यकर्ता रोहित वेमुला के केंद्रीय मंत्रियों के दबाव में छात्रावास से निष्कासन के बाद आत्महत्या जैसा कदम उठाने के बाद तो आत्महत्या के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने की मांग के साथ देश के भीतर ही नहीं बाहर भी आंबेडकरवादी, वामपंथी और प्रगतिशील विचारधारा के लोगों ने जबरदस्त प्रतिरोध दर्ज कराया. हर बार की तरह इस बार भी जेएनयू इस प्रतिरोध में अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा था.
इलाहाबाद में छात्रों ने अपनी अध्यक्ष ऋचा सिंह के नेतृत्व में विषैले बयानों के लिए चर्चित सांसद आदित्यनाथ को प्रवेश करने से रोका तो उनके खिलाफ जो कुचक्र रचे जा रहे हैं वे आज तक जारी हैं. केंद्र में नई सरकार आने के बाद जिस तरह कैंपसों में हिंदुत्व का वैचारिक एजेंडा लागू करने के लिए कोशिशें हुईं उसमें यह स्वाभाविक था कि इसका दुष्परिणाम झेलने वाले तबके एक साथ आते और प्रतिरोध दर्ज कराते. जेएनयू में हुई एक घटना के बाद जिस तरह तीन छात्रों को राजद्रोह (भाषा की अपनी राजनीति होती है जिसके तहत ब्रिटिशकालीन राजद्रोह कानून को मुख्यधारा के चैनल देशद्रोह में बदल देते हैं) के आरोप में गिरफ्तार किया गया, वह तमाम तार्किक लोगों को गैरजरूरी और अतिरेकी कदम लगा और इसीलिए देश-विदेश से तमाम प्रगतिशील लोगों, विश्वविद्यालयों, शिक्षक संघों, बुद्धिजीवियों और आम जनता ने इसका कड़ा प्रतिवाद दर्ज कराया. छात्रसंघ अध्यक्ष के रूप में कन्हैया के भाषण को इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में देखा जाना चाहिए लेकिन मसीहा की तलाश में पागल हमारा समाज केजरीवाल से कन्हैया तक के कंधों पर अपनी अकूत उम्मीदों का बोझ डालने के लिए बेकरार है. उसे उद्धारक चाहिए जो पांच साल में दुनिया बदल दे और खुद बस एक बार जाकर वोट डालना हो. जाहिर है उसे हर बार धोखा खाना ही होगा. एक कमजोर और आत्मविश्वास से हीन समाज ही मसीहा तलाशता है लेकिन इतिहास का अनुभव बताता है कि समाज जनता बदलती है नेता नहीं. आंदोलन नेता पैदा करते हैं, नेता आंदोलन नहीं पैदा करते. व्यक्ति को आंदोलन से ऊपर खड़ा कर देने की प्रवृत्ति सत्ता और उसके समर्थकों के लिए तो लाभकारी होती है जो आज उसे कुछ साल पहले मिली सजा से लेकर एक मित्र के साथ सामान्य-सी तस्वीर को अपने कुत्सा प्रचार का हिस्सा बनाकर निजी हमलों की आड़ में व्यापक सवालों को छिपा रहा है लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण और भगवाकरण के खिलाफ जो एक देशव्यापी आंदोलन सुगबुगा रहा है, उसके समर्थकों का इसे स्वीकार करना घातक होगा.
सालों से हम इस बहस में उलझे थे कि क्या जेएनयू की दुनिया नॉर्थ गेट पर जाकर वाकई खत्म हो जाती है? इसका जवाब ‘हां’ भी था और ‘ना’ भी. तमाम बहस-मुबाहिसे जेएनयू की चौहद्दी पर पहुंचते ही दम तोड़ देते थे. हालांकि ‘राष्ट्रवाद’ और ‘राष्ट्रद्रोह’ के मुद्दे पर जेएनयू और सारा भारत एक साथ बहस में उलझ जाएगा. आज जेएनयू और सारा देश एक साथ सोच रहा है और उम्मीद हैं कुछ समय बाद एक जैसा सोचने लगेगा.
किसने सोचा था कि जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का भाषण यू-ट्यूब पर लाखों लोग सुनेंगे. 30 लाख से ज्यादा लोग सोशल मीडिया पर शेयर करेंगे. वो ट्विटर से लेकर फेसबुक तक वर्ल्डवाइड ट्रेंड कर जाएगा. इतनी लोकप्रियता कि कन्हैया अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीद्वार डोनॉल्ड ट्रम्प को पीछे छोड़कर नंबर एक ट्रेंड हो जाएगा. यह तो विश्वास से परे था कि जब कन्हैया जेल से बाहर आकर जेएनयू में छात्रों को संबोधित करेगा तो तकरीबन दर्जन भर न्यूज चैनल उसके पूरे भाषण का एक घंटे तक सीधा प्रसारण करेंगे. शुरुआती दिनों में संघ के दुष्प्रचार से पैदा हुआ जेएनयू-विरोधी उन्माद शांत होने के बाद लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि भाई ऐसी ‘आजादी’ मांगने में देशद्रोह क्या है? हम सबने चैन की सांस ली कि चलो कन्हैया का ये वाक्य लोगों के जेहन में उतर गया कि ‘देश से नहीं मेरे भाई देश में आजादी चाहिए.’
गंगा ढाबा से लेकर साबरमती ढाबे तक चाय की चुस्कियों में समूचे ब्रह्मांड को मथ देने का बहसबाज हौसला आज औचक खड़ा है. उसे पता नहीं था कि उसकी दुनिया का इतना तीव्र विस्तार होने वाला है. जिन लोगों ने जेएनयू को सबक सिखाने की योजना बनाई थी, जेएनयू उनके अनुमान से कहीं ज्यादा बिगड़ा निकला. छद्म राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार संघ परिवार अभी फिलहाल उन्माद में चल रहा है. लेकिन उसे पता होना चाहिए कि उन्माद जितनी तेजी से चढ़ता है, उतर भी जाता है. जेएनयू ने जितने सवाल मोदी सरकार और संघ परिवार के खिलाफ हवा में उछाल दिए हैं, कुछ समय बाद यही सवाल जब जनता पूछने लगेगी तो सारा भारत जेएनयू हो जाएगा.
जेएनयू में एक जुमला बहुत लोकप्रिय है- ‘जो जेएनयू आज सोचता है, देश कल सोचता है.’ जेएनयू में अपनी बौद्धिकता को लेकर यह गुमान बहुत पुराना है. आखिरकार बौद्धिक होना जोखिम का काम है. आप उस चश्मे से दुनिया नहीं देख सकते जिससे आम इंसान देखता है. आपको लोगों के लिए न सिर्फ समस्याओं को बारीकी से समझना है बल्कि उनका समाधान भी सुझाना है. इस मामले में जेएनयू के छात्र-छात्राएं अपनी दुनिया-जहान को और बेहतर बनाने की राह तलाशते रहते हैं. इस लिहाज से वो बौद्धिक राजनीतिज्ञ हैं.
ऐसा नहीं है कि इससे पहले जेएनयू ने देश को राजनेता नहीं दिए, लेकिन राजनीति हरगिज नहीं दी. जेएनयू हर कहीं-हर किसी के संघर्ष में बिन बुलाए साथ खड़ा रहा. जब निर्भया बलात्कार कांड हुआ, ये जेएनयू के छात्र-छात्राएं थे जिन्होंने सबसे पहले जाकर वसंत कुंज थाने का घेराव किया. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या की खबर आते ही जेएनयू अपने आप उद्वेलित हो गया. सोनी सोरी से लेकर इरोम शर्मिला तक जेएनयू के लिए रोज-रोज लड़े जाने वाले संघर्ष हैं.
यहां तो हर विश्वविद्यालय जेएनयू जैसा होना चाहिए. उसकी बौद्धिकता की धाक पूरी दुनिया में मानी जाती रही. जेएनयू ने अंतरराष्ट्रीय विमर्शों में खालिस भारतीय दृष्टिकोण से अपना पक्ष रखा. जेएनयू विभिन्न मत रखने वालों और कभी-कभी धुर विरोधी सोच रखने वाले तमाम लोगों का समुच्चय है. यहां तर्क दिए जाते हैं और उन तर्कों के खिलाफ भी तर्क रखे जाते हैं. हम जेएनयू वाले शायद तर्क और संशय की प्राचीन भारतीय परंपरा के सबसे बड़े वारिस हैं. जेएनयू में कथित तौर पर देशविरोधी नारे लगाने वाले कौन हैं? शायद इस बात का जवाब सिर्फ भारत का गृह मंत्रालय ही दे सकता है; अगर देना चाहे तो. एक बात तय है कि वे लोग जेएनयू के नहीं थे. तो फिर कौन थे? यह पता लगाना सिर्फ पुलिस के बूते की बात है. हम लोग बल्कि कहें जेएनयू में ज्यादातर लोग चाहते हैं कि सरकार उनको गिरफ्तार करे.
इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि जेएनयू में मुट्ठी भर ऐसे लोग भी हैं जो कि तमाम मसलों पर काफी अलग सोच रखते हैं. मसलन एक-डेढ़ दर्जन लोगों के एक समूह का मानना है कि कश्मीर को आजाद हो जाना चाहिए. यही लोग अफजल गुरु की फांसी पर सवाल खड़े करते हुए उसे शहीद का दर्जा भी देते हैं. सवाल उठता है कि ऐसे लोगों के साथ क्या सलूक होना चाहिए? खालिस भारतीय राष्ट्र की परंपरा की बात करें तो आजादी की लड़ाई से निकला राष्ट्रवाद बड़े दिल का राष्ट्रवाद है. आजादी के कुछ ही सालों के भीतर तमिलनाडु ने अलग राष्ट्र की मांग कर दी थी. जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री सरीखे प्रधानमंत्रियों ने अलगाव की मांग करने वाले नेताओं पर कोई राजद्रोह नहीं लगाया बल्कि उनके साथ हरसंभव तरीके से बातचीत की कोशिश की. कुछ ही सालों में उनके सबसे बड़े नेता सीएन अन्नादुरई ने 1967 में भारतीय संविधान के तहत तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. आज कोई कह सकता है कि ये वो ही तमिलनाडु है जो कभी अलग होने के नारे लगा रहा था.
अफजल गुरु और कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाने वाले भले ही भटके हुए लोग हैं, लेकिन वो हमारे लोग हैं यानी उस भारतीय राष्ट्र का हिस्सा हैं जिस पर हमें नाज है. अगर हम उन राज्यों के लोगों के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव करने लगे तो इसका मतलब कि हमें अपने राष्ट्र की ताकत पर खुद ही यकीन नहीं है. दरअसल जेएनयू पर हमला इसलिए नहीं है कि यहां के कुछ छात्र और शिक्षक ‘देशभक्त’ नहीं हैं बल्कि इसलिए है कि जेएनयू के अधिकांश छात्र और शिक्षक देश के सामने सांप्रदायिकता और फासीवाद के खतरे को बखूबी पहचानते हैं और इसीलिए बड़े देशभक्त हैं.
लखनऊ की होली के क्या कहने साहब ! होली क्या है हिंदुस्तान की कौमी यकजहती की आबरू है. जो ये मानते हैं कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्योहार है वह होली के दिन पुराने लखनऊ के किसी भी मोहल्ले में जाकर देख लें. पहचानना मुश्किल हो जाएगा रंग में डूबा कौन-सा चेहरा हिंदू है कौन-सा मुसलमान. शहर के दिल चौक की मशहूर होली की बारात आजादी के जमाने से हिंदू-मुस्लिम मिलकर निकालते हैं. लखनऊ की साझी होली की पहचान बन चुकी ये बारात चौक, विक्टोरिया स्ट्रीट, अकबरी गेट और राजा बाजार जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों से होकर ही निकलती है. इसमें मुसलमान न सिर्फ रंग खेलते, नाचते गाते आगे बढ़ते हैं बल्कि मुस्लिम घरों की छतों से रंग-गुलाल और फूलों की बरसात भी होती है. और ये सिर्फ एक-दो साल की खुशफहमी नहीं है. इस तरह की मिली जुली होली लखनऊ पिछले सैकड़ों सालों से मनाता आ रहा है.
लखनऊ का ये सद्भाव असल में यहां के नवाबों की देन है. नवाबों के खानदान से ताल्लुक रखने वाले जाफर मीर अब्दुल्ला कहते हैं, ‘लखनऊ में मुसलमान होली तो मनाते ही हैं साथ ही होली का प्रभाव उनके अपने त्योहारों पर भी साफ दिखता है. ईरानी नव वर्ष ‘नौरोज’ जो कि होली के ही आस-पास हर साल 21 मार्च को पड़ता है यूं तो पूरे देश में और देश के बाहर भी मनाया जाता है लेकिन सिर्फ लखनऊ में नौरोज के दिन होली की तर्ज पर रंग खेला जाता है. नवाबीन-ए-अवध खुद ज़ोरदार होली खेलते थे. दरअसल वे चाहते थे कि लखनऊ में कोई भी बड़ा त्योहार किसी एक फिरके का त्योहार बन कर न रह जाए.’ नवाबों के वक्त में इस शहर में मोहर्रम और होली के त्योहार हिंदू-मुस्लिम मिलकर मनाते थे. इस बात की गवाही लखनऊ की उर्दू शायरी भी देती है. जहां प्यारे साहब रशीद, नानक चंद नानक, छन्नू लाल दिलगीर, कृष्ण बिहारी नूर जैसे हिंदू शायरों के लिखे मर्सिये आज भी मोहर्रम की मजलिसों की जान हैं वहीं लखनऊ के मुस्लिम शायरों ने भी लखनऊ की होली का बयान अपनी शायरी में खूब किया है.
खुदा-ए-सुखन मीर तकी मीर की लखनऊ से बेजारी के चर्चे सबने सुन रखे हैं, लेकिन इस शहर की होली के वे भी दीवाने थे. मीर जब दिल्ली से लखनऊ आए और उन्होंने तब के नवाब आसफुद्दौला को रंगों में सराबोर होली खेलते देखा तो उनकी तबीयत भी रंगीन हो गई, और उन्होंने पूरी मिस्नवी नवाब आसफुद्दौला की होली पर लिख डाली.
‘होली खेले आसफुद्दौला वजीर, रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल’
बाद के सालों में तो मीर को लखनऊ की होली ने इस कदर मस्त किया कि इसका रंग जब तब उनके अशआर में झमकता रहा.
आओ साथी बहार फिर आई होली में कितनी शादियां लाई जिस तरफ देखो मार्का सा है शहर है या कोई तमाशा है फिर लबालब है आब-ए-रंग और उड़े है गुलाल किस किस ढंग थाल भर भर अबीर लाते हैं गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं
सिर्फ मीर ही नहीं, दिल्ली छोड़कर लखनऊ तशरीफ लाने वाले एक और शायर सआदत यार खां ‘रंगीन’ भी लखनऊ की होली में सरापा रंगे हुए थे. रंगीन की चंचल शोख रेख्ती (खड़ी बोली) ने लखनऊ को बहुत बदनामी भी दिलाई लेकिन इस शहर की होली उनके मिजाज से बहुत मिलती थी. नमूना मुलाहिजा हो-
भरके पिचकारियों में रंगीन रंग नाजनीं को खिलायी होली संग बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल कुछ किसी का नहीं किसी को ख्याल चलती है दो तरफ से पिचकारी मह बरसता है रंग का भारी हर खड़ी है कोई भर के पिचकारी और किसी ने किसी को जा मारी भर के पिचकारी वो जो है चालाक मारती है किसी को दूर से ताक किसने भर के रंग का तसला हाथ से है किसी का मुंह मसला और मुट्ठी में अपने भरके गुलाल डालकर रंग मुंह किया है लाल जिसके बालों में पड़ गया है अबीर बड़बड़ाती है वो हो दिलगीर जिसने डाला है हौज में जिसको वो यह कहती है कोस कर उसको ये हंसी तेरी भाड़ में जाए तुझको होली न दूसरी आए’
लखनऊ स्कूल के सबसे बड़े उस्तादों में एक ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ भी अपने शहर की होली से मुतासिर हुए बगैर नहीं रह सके.
होली शहीद-ए-नाज के खूं से भी खेलिए रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की
लखनऊ की तारीख में जो शख्स होली के सबसे बड़े दीवाने के तौर पर मशहूर है उसका नाम है वाजिद अली शाह ‘अख्तर’ जिसे आज तक उसका शहर जान-ए-आलम कहकर याद करता है. कौमी यकजहती की निशानी के तौर पर अमर हो चुके लखनऊ के इस बांके नवाब ने बेशुमार लोक-गीत होली पर रचे.
मोरे कान्हा जो आए पलट के अबके होली मैं खेलूंगी डट के उनके पीछे मैं चुपके से जाके ये गुलाल अपने तन से लगाके रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के अबके होली मैं खेलूंगी डट के
वाजिद अली शाह की होली को लेकर लखनऊ में मशहूर किस्सों में एक किस्सा यह भी सुनाई देता है कि एक दफा मोहर्रम और होली एक ही दिन पड़ गए. पहले आप की तहजीब वाले लखनऊ में हिंदुओं ने फैसला किया कि इस बार वे होली नहीं मनाएंगे. जबकि मुसलमानों का मानना था कि जैसे मोहर्रम को हिंदू अपना ही त्योहार मानते हैं वैसे ही होली हम भी मनाते हैं इसलिए मोहर्रम की वजह से होली न टाली जाए, लिहाजा कोई और रास्ता निकलना चाहिए. वाजिद अली शाह ने एक ही दिन में होली खेले जाने का और मोहर्रम के मातम का अलग अलग वक्त तय किया. इस तरह पूरा लखनऊ होली और मोहर्रम दोनों में शरीक हुआ. ऐतिहासिक रूप से पता नहीं यह घटना कितनी सच्ची है, लेकिन अपनी मिली-जुली तहज़ीब में यकीन रखने वाला हर लखनवी इसे पूरे ईमान से तस्लीम (स्वीकार) करता है.
उर्दू के एक और बड़े शायर इंशा अल्लाह खां इंशा ने भी नवाब सादत अली खां के होली खेलने की तारीफ गद्य और शायरी दोनों में की है. इंशा लिखते हैं- ‘जो शख्स भी इस बात से गुमान करता है कि मैं उनकी खुशामद कर रहा हूं तो उसके लिए होली के जमाने में बिल-खुसूस हुजूर की खिदमत में हाजिर होना शर्त है कि वो खुद देख ले कि राजा इंद्र परियों के दरम्यान ज्यादा खुश मालूम होते हैं या वली अहद हूरों के दरम्यान.’ शायरी में होली का बयान इंशा इस तरह करते हैं-
संग होली में हुजूर अपने जो लावें हर रात कन्हैया बनें और सर पे धर लेवें मुकट गोपियां दौड़ पड़े ढ़ूंढें कदम की छैयां बांसुरी धुन में दिखा देवें वही जमना तट गागरे लेवें उठा और ये कहती जावें देख तो होली जो बज्म होती है पनघट
लखनऊ में नवाबी उजड़ने के बाद भी मुसलमानों का होली खेलना और होली पर शायरी करना पहले की तरह ही जारी रहा. स्वतंत्रता सेनानी और अज़ीम शायर हसरत मोहानी जिनका रकाबगंज स्थित मज़ार आज पूरी तरह गुमनाम है, उन्होंने भी होली पर खूब शायरी की.
मोसे छेड़ करत नंदलाल लिए ठाड़े अबीर गुलाल ढीठ भई जिनकी बरजोरी औरन पर रंग डाल डाल
शायरे इंकलाब जोश मलीहाबादी की शायरी भी होली के रंगों से सराबोर है, आम तौर पर अपनी नज़्मों और गजलों के लिए मशहूर जोश ने कई गीत भी लिखे हैं जिनमे होली का जिक्र मिलता है-
गोकुल बन में बरसा रंग बाजा हर घर में मिरदंग खुद से खुला हर इक जूड़ा हर इक गोपी मुस्काई हिरदै में बदरी छाई
अपने तंजो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) के लिए मशहूर सागर खय्यामी और उनके भाई नाजिर खय्यामी भी होली की मस्ती के मतवाले थे. दोनों होली पर दोस्ताना महफिलें भी सजाते थे. सागर साहब की होली-ठिठोली मुलाहिजा हो-
छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें इक दिल से भला आरती किस किस की उतारें चंदन से बदन आबे गुले शोख से नम हैं सौ दिल हों अगर पास तो इस बज्म से कम हैं
यहां तो लखनऊ के सिर्फ चंद मुसलमान शाइरों के होली के रंग में डूबे कलाम दिए गए हैं. वास्तव में इस शहर के अनगिनत मुस्लिम शायरों ने होली पर अपनी शायरी के जरिए न सिर्फ लखनऊ की होली की महानता बयान की है बल्कि पूरी दुनिया को धार्मिक सद्भाव का संदेश भी दिया है. नाजिर खय्यामी का यह पैगाम ही देखिए.
ईमां को ईमां से मिलाओ इरफां को इरफां से मिलाओ इंसां को इंसां से मिलाओ गीता को कुरआं से मिलाओ दैर-ओ-हरम में हो न जंग होली खेलो हमरे संग!