Home Blog Page 1285

सीवान, शहाबुद्दीन और एक हताश पिता का संघर्ष

फरवरी के पहले सप्ताह में एक खबर आई कि शहाबुद्दीन को बहुचर्चित तेजाब कांड में जमानत मिल गई है. शहाबुद्दीन, सीवान और तेजाब कांड, तीनों का नाम एक साथ सामने आते ही बिहारवासियों के जेहन में कई खौफनाक यादें ताजा हो उठती हैं. बिहार के सीमाई इलाके में बसे सीवान जिले को कई वजहों से जाना जा सकता था; भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जन्मस्थली होने की वजह से, रेमिटेंस मनी (विदेश में बसे भारतीय कामगारों की ओर से भेजी गई रकम) में बिहार का सबसे अव्वल जिला रहने की वजह से भी. कई और विभूतियों की वजह से भी सीवान की पहचान रही. हालांकि 90 के दशक की शुरुआत में सीवान की एक नई पहचान बनी. वजह बाहुबली नेता शहाबुद्दीन थे. जिस जीरादेई में राजेंद्र प्रसाद का जन्म हुआ था, उस इलाके से पहली बार विधायक बनकर शहाबुद्दीन ने राजनीति में कदम रखा था और कई बार सांसद-विधायक रहे. लेकिन शहाबुद्दीन इस वजह से नहीं जाने गए. वे अपराध की दुनिया से राजनीति में आए थे. 1987 में पहली बार विधायक बने और लगभग उसी समय जमशेदपुर में हुए एक तिहरे हत्याकांड से उनका नाम अपराध की दुनिया में मजबूती से उछला. उसके बाद तो एक-एक कर करीब तीन दर्जन मामलों में उनका नाम आता रहा. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या, एसपी सिंघल पर गोली चलाने से लेकर तेजाब कांड जैसे चर्चित कांडों के सूत्रधार वही माने गए. उसी चर्चित तेजाब कांड पर फैसला आया तो सीवान और बिहार के दूसरे हिस्से में रहने वाले लोगों के जेहन में 12 साल पुराने इस खौफनाक घटना की याद जिंदा हो उठी.

2004 में 16 अगस्त को अंजाम दिए गए इस दोहरे हत्याकांड में सीवान के एक व्यवसायी चंद्रकेश्वर उर्फ चंदा बाबू के दो बेटों सतीश राज (23) और गिरीश राज (18) को अपहरण के बाद तेजाब से नहला दिया गया था, जिसके बाद उनकी मौत हो गई थी. इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह चंदा बाबू के सबसे बड़े बेटे राजीव रोशन (36) थे. मामले की सुनवाई के दौरान 16 जून, 2014 को राजीव की भी हत्या कर दी गई. इसके ठीक तीन दिन बाद राजीव को इस मामले में गवाही के लिए कोर्ट में हाजिर होना था. चंदा बाबू और उनकी पत्नी कलावती देवी अब अपने एकमात्र जीवित और विकलांग बेटे नीतीश (27) के सहारे अपनी बची हुई जिंदगी काट रहे हैं. पिछले साल दिसंबर में ही सीवान की एक स्थानीय अदालत ने इस हत्याकांड में राजद के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के अलावा तीन अन्य लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

शहाबुद्दीन को इस मामले में जमानत मिलने के चार-पांच दिन बाद चंदा बाबू से इस सिलसिले में फोन पर बातचीत हुई. शाम के कोई सात बजे होंगे. उधर से एक उदास-सी आवाज थी. पूछा- चंदा बाबू बोल रहे हैं? जवाब मिला- हां..! ‘हां’ सुनकर मन में संकोच और हिचक का भाव भर गया. सोचता रहा कि पूरी तरह से बिखर चुके और लगभग खत्म हो चुके एक परिवार के टूटे हुए मुखिया से बात कहां से शुरू करूं. बात सूचना देने के अंदाज में शुरू हुई. मैंने बताया, ‘चंदा बाबू! सूचना मिली है कि आपके केस को सुप्रीम कोर्ट में देखने को प्रशांत भूषण तैयार हुए हैं.’ चंदा बाबू कहते हैं कि हम तो नहीं जानते! फिर पूछते हैं- प्रशांत भूषण जी कौन हैं? मैंने उन्हें बताया कि देश के बड़े वकील हैं.

यह बात जानकर चंदा बाबू की आवाज फिर उदासी से भर उठती है. वे कहते हैं, ‘देखीं! केहू केस लड़ सकत बा तऽ लड़े बाकि हमरा पास ना तो अब केस लड़े खातिर सामर्थ्य बा, न धैर्य, न धन, न हिम्मत.’ यह कहने के बाद एक खामोशी-सी छा जाती है. थोड़ी देर बाद बातचीत का सिलसिला शुरू होता है. बात अभी शुरू होती है कि चंदा बाबू अतीत के पन्ने पलटने लगते हैं. कहानी इतनी लंबी और इतनी दर्दनाक है कि बताते-बताते कई बार चंदा बाबू रुआंसे होते हैं. उनकी आवाज में उतार-चढ़ाव आसानी से महसूस किए जा सकते हैं. वे गुस्से में भी आते हैं और उनकी दर्दनाक दास्तान सुनते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जब चंदा बाबू अपनी व्यथा कहते हैं तो कई बार या कहें कि बार-बार ऐसा लगता है कि वे अपनी कहानी सबको बताना चाहते हैं. पूरे देश को कि कैसे वे व्यवस्था से, शासन से, खुद से हार चुके हैं. आगे चंदा बाबू के कानूनी संघर्ष और साहस की कहानी उन्हीं की जुबानी:

[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

‘देखीं! केहू केस लड़ सकत बा तऽ लड़े, बाकि हमरा पास न तो अब केस लड़े खातिर सामर्थ्य बा, न धैर्य, न धन, न हिम्मत’

IMG-20160309-WA0012
निराश चंदा बाबू और उनकी पत्नी कलावती देवी अब अपने विकलांग बेटे के सहारे बची हुई जिंदगी काट रहे हैं. 2004 में उनके दो बेटों को तेजाब से नहलाकर मार दिया गया. इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह रहे सबसे बड़े बेटे की हत्या भी 2014 में कर दी गई.

हमारी कहानी सुनना चाहते हैं तो हम सुना सकते हैं, आपमें संवेदना होगी तो आप शायद एक बार में पूरी कहानी नहीं सुन सकेंगे. आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. आप मुकदमे में शहाबुद्दीन को मिली जमानत के बारे में सवाल पूछ रहे हैं. इस बारे में जितना आपको मालूम है, उतना ही मुझे मालूम है कि शहाबुद्दीन को हाई कोर्ट से जमानत मिल गई. मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अब ऐसी बातों से दुख भी नहीं होता. जिंदगी में इतने बड़े-बड़े दुख देख लिए कि अब ऐसे दुख विचलित नहीं करते. अब मैं इसे जीत-हार के रूप में भी नहीं देखता, क्योंकि जिंदगी में सब जगह, सब कुछ तो हार चुका हूं. शहाबुद्दीन को जमानत मिलना तय था. यह 16 जून, 2014 को ही तय हो गया था कि अब आगे का रास्ता साफ हो गया. उस दिन मेरे बेटे राजीव की सरेआम हत्या हुई थी. राजीव को 19 जून को अदालत में गवाही देनी थी. वह इकलौता चश्मदीद गवाह था, गवाही के तीन दिन पहले घेरकर उसे मारा गया तभी यह बात साफ हो गई थी. और उसी दिन से मैंने इन बातों पर ध्यान देना बंद कर दिया कि अब मामले में क्या होगा. मैं अब क्यों जिज्ञासा रखता कि मेरे बेटों की हत्या के मामले में क्या हो रहा है? जब सब कुछ चला ही गया जिंदगी से और कुछ लौटकर नहीं आने वाला तो क्यों लड़ूं, किसके लिए लडू़ं. अब एक विकलांग बेटा है, बीमार पत्नी है और खुद 67 साल की उम्र में पहुंचकर जिंदगी की गाड़ी ढोता हुआ इंसान हूं तो ैसे लड़ूंगा, किसके सहारे लड़ूंगा. लड़ तो रहा ही था अपने दो बेटों की हत्या का बदला लेने के लिए. मेरा बेटा राजीव लड़ रहा था अपने भाइयों की हत्या का बदला लेने के लिए. राजीव मेरा सबसे बड़ा बेटा था, लेकिन 16 जून, 2014 को उसे भी मारकर मेरे लड़ने की सारी ताकत खत्म कर दी गई. राजीव को शादी के ठीक 18 दिन बाद मार डाला गया. शाम 7:30 बजे उसे गोली मारी गई थी. इसके पहले 2004 में मेरे दो बेटों को तेजाब से नहलाकर मारा जा चुका था. राजीव से पहले जब मेरे दो बेटों गिरीश और सतीश को मारा गया था, तब एक की उम्र 23 और दूसरे की 18 साल थी. जब राजीव भी मारा गया तो मैंने कुछ नहीं किया. राजीव के क्रिया-कर्म के समय ही गिरीश व सतीश का औपचारिक तौर पर क्रिया-कर्म किया. तय कर लिया कि अब जब तक प्रभु चाहें, जिंदगी चलेगी, जैसे चाहे चलेगी.

मैं क्या बताऊं. कहां से बताऊं. सीवान शहर में मेरी दो दुकानें थीं. एक किराने की और दूसरी परचून की. समृद्ध और संपन्न न भी कहें तो कम से कम खाने-पीने की कमाई तो होती ही थी. मैं छह संतानों का पिता था. चार बेटे, दो बेटियां. 16 अगस्त, 2004 से सारी बातें इतिहास में बदल गईं. उसके बाद मेरे नसीब में सिर्फ और सिर्फ भयावह भविष्य बाकी बचा. 16 अगस्त, 2004 की बात पूछ रहे हैं तो बताता हूं. साहस नहीं जुटा पा रहा लेकिन बताऊंगा. मैं उस दिन किसी काम से पटना गया हुआ था. अपने भाई के पास रुका हुआ था. मेरे भाई पटना में रिजर्व बैंक में अधिकारी थे. सीवान शहर में मेरी दोनों दुकानें खुली हुई थीं. एक पर सतीश बैठता था, दूसरे पर गिरीश. मेरे पटना जाने के पहले मुझसे दो लाख रुपये की रंगदारी मांगी जा चुकी थी. उस रोज किराने की दुकान पर डालडे से लदी हुई गाड़ी आई हुई थी. दुकान पर 2.5 लाख रुपये जुटाकर रखे थे. रंगदारी मांगने वाले फिर पहुंचे. दुकान पर सतीश था. सतीश ने कहा कि खर्चा-पानी के लिए 30-40 हजार देना हो तो दे देंगे, दो लाख रुपये कहां से देंगे. रंगदारी वसूलने आए लोग ज्यादा थे. उनके हाथों में हथियार थे. उन लोगों ने सतीश के साथ मारपीट शुरू की, गद्दी में रखे हुए 2.5 लाख रुपये ले लिए. राजीव यह सब देख रहा था. सतीश के पास कोई चारा नहीं था. वह घर में गया. बाथरूम साफ करने वाला तेजाब रखा हुआ था. मग में उड़ेलकर लाया, गुस्से में उसने तेजाब फेंक दिया जो रंगदारी वसूलने आए कुछ लोगों पर पड़ गया. तेजाब के छीटें मेरे बेटे राजीव पर भी आए. भगदड़ मच गई, अफरातफरी का माहौल बन गया.

‘लुंगी-गंजी में एसपी साहब आए. मैंने कहा कि सुरक्षा चाहिए. एसपी साहब ने कहा कि आप कहीं और चले जाइए, सीवान अब आपके लिए नहीं है. चाहे तो यूपी चले जाइए या कहीं और. हम एस्कॉर्ट कर सीवान के घर में जो सामान है, वह वहां भिजवा देंगे’ 

इसके बाद उन लोगों ने सतीश को पकड़ लिया. राजीव भागकर छुप गया. फिर मेरी दुकान को लूटा गया. जो बाकी बचा उसमें पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी गई. वे लोग सतीश को गाड़ी में ठूंसकर ले गए. गिरीश दूसरी दुकान पर था. उसे इन बातों की कोई जानकारी नहीं थी. कुछ देर बाद उसके पास भी कुछ लोग पहुंचे. गिरीश से ही लोगों ने पूछा कि चंदा बाबू की कौन-सी दुकान है. गिरीश को लगा कि कोई सामान लेना होगा. उसने उत्साह से आगे बढ़कर बताया कि यही दुकान है. क्या चाहिए, क्या बात है? उसे कहा गया कि चलो, जहां कह रहे हैं चलने को. गिरीश ने कहा कि बस शर्ट पहनकर चलते हैं लेकिन उसे शर्ट पहनने का मौका नहीं दिया गया. पिस्तौल के हत्थे से उसे मारा गया और मोटरसाइकिल पर बिठाकर ले जाया गया. तब तक राजीव को भी उन लोगों ने पकड़कर रखा था. मेरे तीनों बेटे उन लोगों के कब्जे में थे, जिन लोगों ने दो लाख रुपये रंगदारी न देने के कारण मेरी दुकान को आग लगाकर लूटा था. एक जगह ले जाकर राजीव को बांधकर छोड़ दिया गया और सतीश व गिरीश को सामने लाया गया. वहां कई लोग मौजूद थे. उन लोगों ने सतीश और गिरीश को तेजाब से नहलवाया. जब वे लोग मेरे बेटों को तेजाब से नहला रहे थे तो कह रहे थे कि तेजाब फेंका था हम लोगों पर, आज बताते हैं तेजाब कैसे जलाता है. बड़े बेटे राजीव की आंखों के सामने उसके छोटे भाइयों सतीश और गिरीश को तेजाब से जलाकर मार डाला गया. तेजाब से नहलाते वक्त वे लोग कहते रहे कि राजीव को अभी नहीं मारेंगे, इसे दूसरे तरीके से मारेंगे. सतीश और गिरीश को जलाने के बाद उन्हें काटा गया, फिर उनके शव पर नमक डालकर बोरे में भरकर फेंक दिया गया. मैं पटना में था तो मेरे पास खबर पहुंची कि आपको सीवान नहीं आना है, आपके दो बेटे मारे जा चुके हैं, एक बेटा कैद में है, आपको भी मार डाला जाएगा. मैं पटना में ही रह गया. राजीव वहीं कैद में फंसा रहा. दो दिनों बाद राजीव वहां से भागने में सफल रहा. गन्ने से लदे एक ट्रैक्टर से राजीव चैनपुर के पास उतर गया, फिर वहां से उत्तर प्रदेश के पड़रौना पहुंचा. पड़रौना में सांसद के घर पहुंचा. वहां के सांसद ने शरण दी और कहा कि किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं, चुपचाप यहीं रहो. राजीव वहीं रहने लगा. मेरे घर से मेरी पत्नी, मेरी दोनों बेटियां भी घर छोड़कर जा चुकी थीं और मैं पटना में था. सब इधर से उधर थे. किसी को नहीं पता कि कौन कहां है. हम लोगों ने तो सोच लिया था कि राजीव भी मार दिया गया होगा. मैंने सीवान में अपने घर के आसपास फोन किया तो वहां से भी मालूम चला कि तीनों बेटे मार दिए गए हैं. मेरे पास भी एक फोन आया कि आपका बेटा छत से गिर गया है. दरअसल उस समय मुझे भी पीएमसीएच बुलाकर मार दिए जाने की योजना बनाई गई थी.

 ‘नेता जी के यहां पटना फिर चला गया. वहां सोनपुर के लोग अपनी बात रख रहे थे. बीच में मैं बोल पड़ा कि हुजूर मैं सब कुछ गंवा चुका हूं, मुझे सुरक्षा चाहिए. नेता जी गुस्से में आ गए और कहा कि सीवान का लोग सोनपुर की मीटिंग में कैसे घुस गया’ 

बाद में मैं हिम्मत जुटाकर सीवान गया. वहां जाकर एसपी से मिलना चाहा. एसपी से नहीं मिलने दिया गया. थाने पर दारोगा से मिला. दारोगा ने कहा कि अंदर जाइए पहले. फिर कहा गया कि आप इधर का गाड़ी पकड़ लीजिए, चाहे उधर का पकड़ लीजिए, किधर भी जाइए लेकिन सीवान में मत रहिए. सीवान में रहिएगा तो आपसे ज्यादा खतरा हम लोगों पर है. मुझे सुझाव दिया गया कि पटना में एक बड़े नेता से मिलिए. छपरा के सांसद को लेकर पटना में नेता जी के पास गया. नेता जी से कहा कि जो खत्म हुए सो खत्म हो गए लेकिन जो बच गए हैं, उन्हें बचा लिया जाए. नेता जी ने कहा कि सीवान का मामला है, हम कुछ नहीं बोल सकते. नेता जी के पास मेरे साथ मेरे रिजर्व बैंक वाले भाई भी गए थे. अभी हम नेता जी के पास से निकल ही रहे थे कि मेरे भाई के पास सीवान से उन लोगों का फोन आ गया, जिन लोगों ने मेरे बेटों को मारा था. कहा गया कि नेता जी के पास गए थे शिकायत लेकर, मुक्ति के लिए. आप रिजर्व बैंक में नौकरी करते हैं न, आपका यही नंबर है न! मेरे भाई घबरा गए. उन्होंने कहा कि तुम कहीं और चले जाओ लेकिन यहां मत रहो, मैं भी नहीं रहूंगा. मेरे भाई ने तुरंत मुंबई ट्रांसफर करा लिया. वहां जाने के बाद भी उनको धमकी भरे फोन आते थे. उन्हें डर और दहशत से दिल का दौरा पड़ा, वे गुजर गए.

IMG-20160309-WA0013
दीवार पर चंदा बाबू के दिवंगत बेटों की तस्वीर

मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया था. अब तक मेरे बेटे राजीव के बारे में कुछ भी नहीं पता चला था कि वह जिंदा भी है या नहीं. है भी तो कहां है. मेरी पत्नी-बेटी और मेरा एक विकलांग बेटा कहां रह रहा है, वह भी नहीं पता था. मैं डर से पटना ही रहने लगा. साधु की तरह दाढ़ी-बाल बढ़ गए. 15 दिनों तक इधर से उधर पैदल पागलों की तरह घूमता रहा. बाद में एक विधायक जी के यहां शरण मिली. उन्होंने समझाया कि दिन में चाहे जहां रहिए, रात को यहीं आ जाया करिए. ज्यादा पैदल मत घूमा कीजिए, आपको मार देगा लोग. मैं लगातार जुगत में था कि किसी तरह फिर नेता जी के पास पहुंचूं. इसी बीच मुझे मालूम चल गया था कि मेरा बेटा राजीव जिंदा है. एक दिन मैं पटना में सोनपुर की एक राजनीतिक टीम के साथ शामिल होकर रात में नेता जी के यहां फिर चला गया. सोनपुर के लोग अपनी बात रख रहे थे. उस बीच मैं भी उठा और बोला कि हुजूर मेरी समस्या पर भी ध्यान दीजिए, मैं सब कुछ गंवा चुका हूं, मुझे सुरक्षा चाहिए. नेता जी गुस्से में आ गए और कहा कि सीवान का लोग सोनपुर की मीटिंग में कैसे घुस गया. इसके बाद थोड़ा आश्वासन मिला. तब राज्य के डीजीपी नारायण मिश्र थे. उन्हें निर्देश मिला कि मेरे मामले को देखें. डीजीपी से मिला, उन्होंने आईजी के नाम पत्र दिया. आईजी से किसी तरह मिला तो डीआईजी के नाम पत्र मिला, डीआईजी ने एसपी के नाम पत्र दिया. मैं पत्रों के फेर में इधर से उधर फेरे लगाता रहा. हताशा-निराशा लगातार घर करते रही, थक-हारकर फिर दिल्ली चला गया. सोनिया जी के दरबार में पहुंचा. तब सोनिया जी नहीं थीं, राहुल जी से मिला. राहुल जी मिले, उन्होंने कहा कि आप जाइए, बिहार में राष्ट्रपति शासन लगने वाला है, आपकी मुश्किलों का हल निकलेगा. फिर हिम्मत जुटाकर सीवान आया. एसपी साहब के पास चिट्ठी देने की बात थी. अपने कई परिचितों को कहा कि आप लोग चलिए, सुबह-सुबह चलेंगे तो कोई देखेगा नहीं लेकिन सीवान में साथ देने को कोई तैयार नहीं हुआ. हमारे लोगों ने सलाह दी कि आप सुबह जाइए या आधी रात को, हम लोगों को अपनी जान प्यारी है, साथ नहीं दे सकते. लोगों ने सलाह दी कि एसपी साहब को रजिस्ट्री से चिट्ठी भेज दीजिए. मैंने अपने विवेक से काम लिया. सुबह पांच बजे एसपी आवास पहुंचा तो सुरक्षाकर्मी ने रोका. मैंने उससे आग्रह किया कि मेरे पास पांच मिनट का ही समय है, बस एक बार एसपी साहब से मिलवा दो, पांच मिनट से ज्यादा नहीं रुक सकता यहां. सुरक्षाकर्मी ने कहा, आप चिट्ठी दे दें, मैं दे दूंगा. मैं इसके लिए तैयार नहीं हुआ. फिर वह एसपी साहब को जगाने चला गया.

 ‘शहाबुद्दीन को जमानत मिलना तय था. यह 16 जून, 2014 को ही तय हो गया था कि अब आगे का रास्ता साफ हो गया. उस दिन मेरे बेटे राजीव की सरेआम हत्या हुई थी. राजीव को 19 जून को अदालत में गवाही देनी थी. वह इकलौता चश्मदीद गवाह था’

लुंगी-गंजी (बनियान) में एसपी साहब आए. मैंने कहा कि सुरक्षा चाहिए, यह चिट्ठी है. एसपी साहब ने कहा कि आप कहीं और चले जाइए, सीवान अब आपके लिए नहीं है. चाहे तो यूपी चले जाइए या कहीं और. हम एस्कॉर्ट कर सीवान के घर में जो सामान है, वह वहां भिजवा देंगे. मैंने एसपी साहब को कहा कि पटना के कंकड़बाग में आपका जो घर है, उसमें कई दुकानंे हैं, एक दे दीजिए हुजूर, वहीं दुकान कर लेंगे, पूरा परिवार वहीं रह लेगा. एसपी साहब नकार गए, बोले ऐसा कैसे होगा. मैंने भी एसपी साहब को कह दिया- साहब आप सुरक्षा दीजिए या मत दीजिए, रहूंगा तो सीवान में ही, सीवान नहीं छोड़ूंगा. एसपी साहब डेट पर डेट बदलते रहे कि कल आइए, परसों आइए. फिर से डीआईजी साहब के पास गया कि आपकी चिट्ठी बस अब तक चिट्ठी भर ही है. डीआईजी साहब ने कहा कि मैं रास्ता निकलता हूं. तब एके बेग साहब डीआईजी थे. डीआईजी साहब ने मदद की. उन्होंने एसपी साहब से कहा कि इन्हें सुरक्षा दीजिए, अगर आपके पास जिले में बीएमपी के जवान नहीं हैं तो मैं दूंगा लेकिन इन्हें सुरक्षा दीजिए. तब जाकर सुरक्षा मिली. मैं साहस कर रहने लगा कि अब मरना ही होगा तो मर जाएंगे. बाद में बेटा राजीव आया, अपनी मां, बहन और विकलांग भाई को भी लेते आया. घर-परिवार आया तो बेटे-बेटी की शादी के बारे में सोचा. बेटे राजीव की शादी की. शादी के 18वें दिन और मामले में गवाही के ठीक तीन दिन पहले उसे मार दिया गया. मेरा बेटा राजीव चश्मदीद गवाह था. मेरा बेटा राजीव इसके पहले भी कोर्ट में अपना बयान देने गया था. जिस दिन बयान देने गया था उस दिन भी उसे कहा गया था, ‘हमनी के बियाह भी कराईल सन आउरी श्राद्ध भी.’

VIKPAT-102April05
बाहुबली: जिस जीरादेई में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का जन्म हुआ था. उस इलाके से पहली बार विधयक बनकर शहाबुद्दीन राजनीति में आए थे.

सच में ऐसा ही हुआ. जब गवाह ही मार डाला गया तो जमानत मिलनी ही थी, सो हाई कोर्ट में केस कमजोर पड़ गया. मैं तो अपने जले हुए घर में वापस नहीं आना चाहता था, वे तो एक डीएसपी सुधीर बाबू आए, उन्होंने बहुत भरोसा दिलाया कि चलिए, आपको डर लगता है तो हम रहेंगे आपके साथ. उनकी ही प्रेरणा से अपने घर को लौट सका. अब घर में मैं, मेरी बीमार पत्नी और एक विकलांग बेटा रहता है. बेटियों की शादी कर दी. लोन में दबा हुआ हूं. छह हजार रुपये की मासिक आमदनी है. तीन-तीन हजार रुपये दोनों दुकानों से किराया आता है. इस छह हजार की कमाई से ही पत्नी की बीमारी का इलाज होता है, दवाई आती है, आटा-चावल आता है और बेटियों की शादी का लोन चुकाता हूं. मेरे तीन बेटों की हत्या हुई, बेटों की हत्या का मुआवजा भी नहीं मिला. यह शिकायत है मेरी नीतीश कुमार से. खैर, अब क्या किसी से शिकायत. खुद से ही शिकायत है कि मैं कैसी किस्मत का आदमी हूं, जो शासन, व्यवस्था, कानून, खुद से… सबसे हार गया. अब ऐसे में आप पूछ रहे हैं कि क्या आप आगे सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे. मेरी स्थिति में, मेरे हालात में पहुंचा कोई आदमी आगे लड़ने लायक बचा होगा, क्या आप इसकी उम्मीद करते हैं?

[/symple_box]

‘नक्सलवाद की लड़ाई खत्म हुई तो पैसे आने बंद हो जाएंगे, फिर नेता का जेब कैसे भरेगा?’

P_20160309_183933_1_p(1)
फोटोः कृष्णकांत

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद खत्म करने की लड़ाई की पहली कीमत जनता चुका रही है. नक्सलियों के साथ पुलिस और अर्धसैनिक बलों के लंबे संघर्ष के बीच जनता का भी अपना संघर्ष है, जिसे सबसे कम महत्व मिलता है. जो लोग इसे कहने की कोशिश करते हैं, उन पर न सिर्फ सरकार नकेल कसती है, बल्कि कई बार उनको पुलिस प्रताड़ना और अदालती कार्रवाई भी झेलनी पड़ती है. राज्यसत्ता और नक्सलवाद की हिंसात्मक लड़ाई के बीच आदिवासी जनता का संघर्ष और उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती साबित होती है. पुलिस प्रताड़ना, नक्सली हिंसा और सत्ता के दमन से दो-दो हाथ करने वाली जनता की रहनुमाई भी बेहद कठिन काम है. उस जनता की आवाज उठाने के लिए प्रतिबद्ध एक आदिवासी महिला भी लगातार प्रताड़ना झेल रही है, जिसका नाम है सोनी सोरी. उनको नक्सल समर्थक होने के आरोप में जेल हुई, जहां उन्हें भयावह प्रताड़ना झेलनी पड़ी. सोनी का आरोप था कि जेल में उनके साथ बलात्कार किया गया और उनके गुप्तांग में पत्थर भर दिए गए. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत पर रिहा किया. उन पर ज्यादातर मुकदमे खारिज हो चुके हैं, एक मामला अब भी अदालत में है. हाल ही में उनपर कुछ युवकों ने हमला किया. उसके बाद उनसे हुई बातचीत:

अभी कुछ दिन पहले आपके ऊपर हमला हुआ था. यह हमला क्याें हुआ, किसने करवाया, कुछ पता चला? जरा विस्तार से इस बारे में बताएं.

मैं गीदम से ईशा खंडेलवाल और शालिनी (दोनों वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो आिदवासियों को कानूनी मदद मुहैया कराती हैं) से मिलने जगदलपुर आई थी. काफी दिन से पुलिस उन्हें परेशान कर रही थी. कई बार धमकी दी थी. उनके मकान मालिक को भी परेशान किया तो वाे कहने लगा कि घर खाली कर दो. उन्हें कोई घर देने को तैयार नहीं था, क्योंकि वहां पर माइक लगाकर ऐलान कर दिया था कि इस तरह के कोई लोग हैं तो तुरंत बताओ और उनको घर मत दो. उस स्थिति में इन लोगों ने जगदलपुर छोड़ने का निर्णय लिया. उन्होंने मुझसे कहा कि हम जा रहे हैं तो आप आकर मिल लो. मैं शाम को वहां पहुंची. अचानक शाम को मुझे एक मैसेज मिला कि उनके एक साथी को अरेस्ट करने की बात सामने आई है. हम सब और घबरा गए. थोड़ा-बहुत बातचीत करके ये लोग बस स्टैंड की ओर निकल गए. इसी बीच वहीं मुझे एक ग्रामीण भाई से मैसेज मिला कि मैडम आप कहां हो. सुरक्षित हो? मैंने पूछा कि क्यों क्या हुआ? उसने बताया कि बैठक में पुलिस वाले बात कर रहे थे कि सोनी सोरी को किस तरह से रोका जाए. उनके घर गुंडे भेजकर अटैक करवा दिया जाए या कुछ और किया जाए, ऐसी बात करते हुए मैंने सुना है. मैंने बात टाल दी और उससे अगले दिन मिलने काे बोला. मैं तभी शालिनी से बोली कि देखो दीदी हमारे लिए इस तरह की प्लानिंग हो रही है. शालिनी ने लिखा भी कि सोनी सोरी पर हमला हो सकता है. फिर भी मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वहां रोज धमकियां मिलती रहती हैं. फिर मैंने अपनी साथी रिंकी को बुला लिया कि वह मुझे छोड़ देगी. हम सबने साथ निकलकर ढाबे में चाय पी, फिर उसके साथ मोटरसाइकिल पर निकल गए.

तीन लड़कों ने हमारी गाड़ी के सामने अपनी गाड़ी लाकर हमें रोका. मुझे एक तरफ खींच लिया और कहने लगे कि आईजी कल्लूरी के खिलाफ बोलना बंद करो, जितने मुद्दे उठाती हो, सब बंद करो, अभी तो सिर्फ आपके चेहरे में काला पोत रहे हैं, आपकी बेटी के चेहरे पर भी ऐसा काला पोतेंगे कि कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी और मेरे चेहरे पर कोई चीज पोत दी

रास्ते में बास्तानार के पास तीन लड़के साइड में गाड़ी से आ गए और नाम लेकर बोले कि सोनी मैडम रुको, आपसे बात करनी है, लेकिन रिंकी ने गाड़ी नहीं रोकी. उन्होंने अपनी गाड़ी लाकर सामने लगा दी तो गाड़ी रोकनी पड़ी. तुरंत उन्होंने रिंकी को कुछ दूर पर खींच लिया और मुझे दूसरी तरफ खींचकर ले गए कि मैडम इधर आइए. एक लड़के ने मेरे हाथ पीछे से पकड़ लिए. फिर कहने लगे कि आईजी कल्लूरी के खिलाफ बोलना बंद करो, जितने मुद्दे उठाती हो वो सब बंद करो, अभी तो सिर्फ आपके चेहरे में काला पोत रहे हैं, आपकी बेटी के चेहरे पर भी ऐसा काला पोतेंगे कि कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी और मेरे चेहरे पर कोई चीज पोत दी. छूटते ही हम लोग तुरंत गीदम वापस हो गए. मुझे लगा कि मुझे बेइज्जत करने के लिए चेहरे पर स्याही वगैरह पोती होगी, लेकिन कुछ देर बाद चेहरे पर जलन होने लगी. मैंने कई लोगों को फोन किया. लिंगा कोडोपी को फोन किया और उसे गाड़ी लेकर आने को कहा. लिंगा मुझे गाड़ी में लेकर गीदम अस्पताल गया. फिर वहां से जगदलपुर लेकर आए. तीन दिन बाद मेरी आंखें खुलनी शुरू हुईं.

हमला करने वाले लड़के कौन थे?

नहीं, ये पता नहीं चल पाया.

जिन लड़कों ने ये हमला किया, वे आईजी कल्लूरी का नाम ले रहे थे?

हां, बोल रहे थे कि पुलिस के खिलाफ बोलना बंद करो. मार्डूम के मुद्दे उठाना बंद करो. मार्डूम में अभी एक फेक एनकाउंटर हुआ था. एक आदमी को उठाकर ले गए. कहा कि वह नक्सली है. बाद में उसे मार दिया. उसके सात बच्चे हैं. उसके पास राशन कार्ड है, आधार कार्ड है, उसको अभी इंदिरा आवास का पैसा मिला है. तो हमने ये सारे सबूत लेकर उसकी विधवा के साथ प्रेस कांफ्रेंस की. पुलिस कह रही कि हमारे पास सारे सबूत हैं कि वह नक्सली था, हमने कहा कि मैं सबूत दे रही कि वह साधारण ग्रामीण था. सरकार उसे ये सारे कागज इश्यू कर चुकी है. तुम भी सबूत दो कि वह नक्सली था. अगर वह नक्सली था तो उसे इंदिरा आवास कैसे दिया गया? हमने कई ऐसी घटनाओं का खुलासा किया है, बलात्कार, फर्जी एनकाउंटर… लेकिन ये मुद्दा हमने विशेष तौर से उठाया, इससे ये लोग घबरा गए.

आपके बहन-बहनोई को भी पुलिस ने उठाया था. क्या कारण था?

अटैक के बाद मैं चेहरे का इलाज कराने दिल्ली आई, तभी मेरी बहन के पति को उठा लिया था. मेरे परिवार ने सोचा कि मेरे ऊपर अटैक को लेकर जांच कमेटी बनी थी, पूछताछ के लिए ले गए होंगे. हमें मदद करनी चाहिए, लेकिन उन्होंने शाम तक छोड़ा ही नहीं. दूसरे दिन भी नहीं छोड़ा. मुझे लगा कि मेरे परिवार को परेशान किया जा रहा है. मैं 11 मार्च को छत्तीसगढ़ पहुंची और राजधानी में प्रेस कॉन्फ्रेंस की कि अगर मेरी बहन के पति को नहीं छोड़ा तो हम धरना देंगे. उसी दिन मेरी बहन को भी उठा लिया. उस पर भी हमने सवाल किया कि हमारे परिवार को परेशान कर रहे हैं. जो भी कोशिश हो सकती है वो किया. फिर मैं बस्तर के लिए निकल गई. मेरे बस्तर पहुंचने के पहले दोनों को छोड़ दिया.

उन्हें उठाया क्यों गया था?

उन्हें ये स्वीकार करने का दबाव बनाने के लिए उठाया था कि मुझ पर हुआ अटैक लिंगा कोडोपी, मेरी बहन के पति अजय मरकाम और उसके दोस्त ने मिलकर किया है और ये योजना लिंगा कोडोपी की थी, जिसके लिए उसने  इन दोनों को पैसे दिए थे. ये लोग बोले कि चाहे मारो या जेल भेज दो, जो हमने किया नहीं है वो कबूल नहीं करेंगे.

अापने प्रेस वार्ता में कहा कि आप पर ये हमला आईजी कल्लूरी ने करवाया है!

मुझे पूरा शक है कि ये हमला आईजी कल्लूरी की साजिश में हुआ है. मैं सिर्फ शक कर रही हूं लेकिन जिस तरह मेरे परिवार को परेशान किया जा रहा है, अब तो पूरा यकीन होता जा रहा है कि ये हमला पुलिस और आईजी कल्लूरी के नेतृत्व में हुआ है. आप बताइए, मेरे पर अटैक के अपराधी को पकड़ना है तो मेरे ही परिवार को क्यों परेशान किया जा रहा है? मेरे पिता को धमकी दी है कि तुम्हारा परिवार बर्बाद कर दूंगा. बहन को धमकी दी कि हाथ-पैर तोड़ देंगे.

बस्तर समेत आदिवासी इलाकों में लंबे समय से संघर्ष चल रहा है. वहां की असली समस्या क्या है? लड़ाई किस बात को लेकर है?

वहां की सरकार नक्सल का नाम लेकर लड़ाई छेड़े हुए है. मैं मानती हूं कि बस्तर में एक संगठन है नक्सलियों का, उसकी अपनी गतिविधियां हैं,  लेकिन उसके नाम का सहारा लेकर हम आदिवासियों पर अटैक किया जाता है. अगर आपको नक्सल से लड़ना है तो उन पर अटैक करो. उनको मारो. लेकिन ऐसा नहीं कर रहे. अब हमको भी समझ में आ रहा है कि यह नक्सल की लड़ाई नहीं है. यह आदिवासियों को वहां की जमीन और जंगल से भगाने की साजिश है ताकि वहां बड़ी-बड़ी कंपनियां लगाई जाएं. सरकार का मकसद है आदिवासियों को मारना और नाम लिया जाता है नक्सल का. जब तक आदिवासी वहां पर रहेंगे, इनको जमीन नहीं मिलेगी तो आदिवासियों को नक्सली बता रहे हैं. इतने दिन से लड़ाई चल रही है, सरकार ने कितने नक्सली लीडर को मारा? कितने को पकड़ा? ये पूरे देश के सामने दिखाया जाए. सरकार इतनी फोर्स लेकर वहां लड़ रही है. 2014 में मेरी रिहाई हुई, 2016 तक बता दें कि कितने स्टेट लेवल के नक्सल लीडर को मारा? ये बता दें तो पता चल जाए कि ये लड़ाई नक्सल से है. आदिवासी ग्रामीणों को ही नक्सली बनाकर जेल भेज रहे हैं, उन्हीं को मार रहे हैं, उन्हीं की पत्नी और बहनों के साथ बलात्कार और अत्याचार हो रहा है. कुल मिलाकर आदिवासियों को मारकर जमीन हड़पने की लड़ाई है. नक्सल को भगाने की लड़ाई नहीं है.

मतलब सरकार को जमीन पर कब्जा चाहिए और ग्रामीण जनता  इसका विरोध करती है…

वो तो करेंगे ही. एनएमडीसी माइनिंग कंपनी है. उसके लिए कितनी लड़ाई थी. आज कहां हो रही है? उसको जंगल भी दिया, जमीन भी दिया, कंपनी को सब चीजें दे दीं, उसके बाद हमारे लोगों का विकास कहां होता है? नहीं होता. हां, वहां के लोग चाहते हैं कि विकास हो. विकास चाहिए, जो मूलभूत आवश्यकता है जैसे पानी, बिजली, सड़क, आश्रम (स्कूल), आंगनबाड़ी… ऐसे छोटे-मोटे विकास चाहिए. बड़ी-बड़ी कंपनी लगाकर तो हमारे लोगों को भगा रहे हैं.

कुछ समय पहले आपने नौ महिलाओें के बलात्कार का मामला उठाया था, वहां क्या हुआ था?

पहले पेद्दापारा गांव में हुआ और फिर वेल्लम नेंद्रा गांव में भी. गश्त के दौरान पुलिस बलों द्वारा महिलाओं का बलात्कार हुआ था. महिलाओं से बच्चों को छीनकर फेंक दिया. इस दौरान महिलाओं के पति, पिता, भाई ये सब तो जंगल में भाग गए.

‘न मैं पुलिस के लिए काम करती हूं, न मैं नक्सलियों  के लिए काम करती हूं. मैं काम करती हूं जनता के लिए. हम हथियार की लड़ाई के साथ नहीं हैं’

ऐसा पहले भी हुआ है. कई बार हमने समझाया कि आप लोग भागो मत, सामना करो तो लोगों ने किया. गांव में ही रहे, लेकिन तब इन्हें या तो पकड़कर जेल भेज देते हैं या एनकाउंटर कर देते हैं. इसलिए पुरुष अपने को बचाने के लिए छुप जाते हैं.

उस इलाके में यह संघर्ष और दमन लंबे समय से चल रहा है, इसे रोकने के लिए क्या रास्ता है?

ये रुकेगा नहीं क्योंकि अगर सच में नक्सलवाद की लड़ाई है, सरकार नक्सलवाद को खत्म करना चाहती है तो जो बस्तर और छत्तीसगढ़ के जनप्रतिनिधि हैं, वे एक मंच पर क्यों नहीं आते? कई बार मैंने कहा कि छत्तीसगढ़ के जनप्रतिनिधि और पार्टी सब एक मंच पर आकर बात करें कि नक्सलवाद की लड़ाई को कैसे खत्म किया जाए. एक मंच पर आने से कोई रास्ता निकल सकता है लेकिन नेता नहीं चाहते कि ये लड़ाई खत्म हो क्योंकि इसके नाम पर कई करोड़ रुपये आते हैं, वो आने बंद हो जाएंगे. सब एक मंच पर आ जाएं तो निश्चित है कि ये लड़ाई साल भर के अंदर खत्म हो जाएगी. ये मेरा दावा है, लेकिन उसके बाद पैसे आने खत्म हो जाएंगे फिर नेता का जेब कैसे भरेगा. फिर जो इतना ऐशोआराम है, वह सब नहीं होगा.

आप लोगों पर नक्सली होने का आरोप लगता है, क्या आप नक्सल समर्थक हैं?

नक्सलियों को सपोर्ट करने की जरूरत क्या है? वे तो पहले से ही अपने को शक्तिशाली बताते हैं. उनके पास बंदूकें हैं, अपना संगठन है, उनको हमारे समर्थन की जरूरत क्यों है? कहते हैं कि सोनी सोरी नक्सलियों की मदद करती है, हम उनकी मदद क्यों करें? हमने स्पष्ट कहा है कि न मैं पुलिस के लिए काम करती हूं, न मैं नक्सलियों के लिए काम करती हूं. मैं काम करती हूं जनता के लिए. नक्सलियों के पास भी बंदूक है, वो बंदूक की लड़ाई लड़ते हैं. सरकार के पास भी बंदूक है, सेना है. तो हम हथियार की लड़ाई के साथ नहीं हैं. हथियार की लड़ाई हम देख चुके हैं. सलवा जुडूम के समय भी देखा है. उसमें क्या हुआ. कई आदिवासी भाइयों के घर जल गए. कई अनाथ हो गए. कई मारे गए. कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुए. तो मैं इस लड़ाई के साथ नहीं हूं. मैं सिर्फ जनता की लड़ाई के साथ हूं. शांति के साथ हूं. लीगल सिस्टम के तहत लड़ाई है, जो हमारा सिस्टम है, उस लड़ाई के साथ हूं. इसीलिए मैं बोलती हूं कि न मुझे नक्सल का डर है, न मुझे सरकार का डर है.

जब आप कहती हैं कि हम इनके भी साथ नहीं हैं, उनके साथ भी नहीं हैं, तो क्या पुलिस की तरह नक्सली भी आप पर दबाव डालते हैं कि आप हमारे लिए काम कीजिए?

वार्तालाप होता है तो हम हमेशा शांति के लिए वार्ता करते हैं. जैसे एक आंदोलन हुआ, सुकड़ी (आदिवासी ग्रामीण) को पुलिस घर से उठाकर ले गई. तीन दिन तक हम 12-13 हजार लोग मिलकर थाना घेराव करके शांति के साथ लड़े. अंत में प्रशासन को सुकड़ी को वापस देना पड़ा. कहीं न कहीं हमारे सामने ये बात आती है कि आप हथियार का विरोध क्यों करती हैं? तो हम साफ बोलते हैं कि हम हथियार की लड़ाई में भरोसा नहीं करते. जो भी हथियार पकड़ेगा, हम उसके साथ नहीं हैं. अब बंदूक की गोली किसी के भी सीने में लगेगी तो क्या होगा? उसकी तो हत्या हो गई! वह हिंसात्मक होगा. हम ही हथियार उठाकर लड़ेंगे और कहेंगे कि हम मानवता को बचा रहे हैं तो कैसे बचाएंगे? मैं इसमें विश्वास नहीं करती. शांति, शिक्षा और कलम ही हमारा हथियार है.

‘अगर आपको नक्सलियों से लड़ना है तो उन पर अटैक करो. उनको मारो, लेकिन ऐसा नहीं कर रहे. यह आदिवासियों को वहां से भगाने की साजिश है’

Soni-Sori-JNU-by-Vijay-Pandey
फोटोः विजय पांडेय

आप कहती हैं कि आप लाेग हथियार की लड़ाई का समर्थन नहीं करते, समाज में शांति के लिए लड़ते हैं तो सरकार या पुलिस से क्या लड़ाई है? बार-बार आप पर कार्रवाई क्याें होती हैै?

वही तो बात है. ऐसा इसलिए होता है कि सरकार जो दमन कर रही है आदिवासियों के साथ, महिलाओं के साथ. जैसे अभी हुआ, वेल्लम नेंद्रा में बलात्कार हुआ, रेवाली में बीमा नाम के व्यक्ति का एनकाउंटर हुआ. नीलाबाई में एक एनकाउंटर हुआ. फोदिया का नाहड़ी में एनकाउंटर हुआ. वो ग्रामीण आदिवासी था. तो हम इस तरह की बातों को सामने लाते हैं. बीमा मारा गया तो उसके खिलाफ सोनी सोरी क्यों लड़ रही है यह कोई नहीं देखना चाहता. बीमा एक आदिवासी किसान है, उसके लिए मैंने लड़ा. वो ये है कि बीमा को नक्सली बनाकर इन्होंने मार दिया. उसके लिए हमने लड़ा तो इनको लगता है कि ये नक्सली के साथ है. हर बार हमने सबूत दिया कि देखो ये ग्रामीण है, नक्सली नहीं है, लेकिन हमको नक्सल का समर्थक बताते हैं. अगर हूं तो मुझे भी बताएं कि मैं नक्सली कैसे हूं. ऐसे मुद्दे उठाने के लिए मुझे नक्सली करार दिया जा रहा है.

‘नक्सली संविधान पर भरोसा नहीं करते. पर सरकार किस पर भरोसा करती है? वह संविधान में भरोसा करती है तो हिंसात्मक लड़ाई क्यों कर रही है?’

कई बार मैं लोकल मीडिया में बोली कि अगर एक फोदिया का, बीमा का या बेल्लम नेंद्रा का मुद्दा उठाया, तो ये कहते थे कि सोनी सोरी झूठ बोलती है. मैं गांव में जाती थी, लोग बताते थे तो मैं प्रेस कॉन्फ्रेंस करती थी. लोकल मीडिया भी मुझसे सवाल करने लगे कि मैडम हम तो गए थे, वहां कुछ नहीं हुआ आप आकर चिल्लाते हो. फिर हमने अपना तरीका बदल दिया. अब गांववालों से कहती हूं कि सिर्फ मुझे मत बताओ कि तुम्हारे साथ बलात्कार हुआ है. यह बात तुम खुद बोलो. मीडिया को बताओ. मैं कलेक्टर के पास, अधिकारी के पास ले जाऊंगी, तुम खुद बोलो. आज महिलाएं खुद से बता रही हैं. जिस दिन पेद्दापारा की घटना हुई, महिला ने अपना स्तन निचोड़कर, दूध की धार बहाते हुए खुद मीडिया को बताया कि देखो ऐसा हुआ. तब मीडिया ने एक पल के लिए सिर झुका लिया. मैंने मीडिया भाई से बोला कि आप भी मत शर्माइए. ये भी नहीं शर्मा रही हैं. हम शर्म बोलकर कब तक चुप रहें? इस तरह की आवाज मैं उठा रही हूं तो कहते हैं कि मैं नक्सली हूं.

पुलिस या सैन्य बल ये क्यों चेक करना चाहेंगे कि महिला शादीशुदा या बच्चे वाली है या नहीं? सेना के लोगों को इससे क्या मतलब?

एक तो ये महिलाओं को कमजोर समझ रहे हैं. पुरुष तो चले जाते हैं. महिलाओं से यौन शोषण, बलात्कार आदि करते हैं. जैसे बच्चे वाली महिला बोली कि आप लोग हमारे घरों में खाना बनाकर खा रहे हो. निकलो हमारे घर से. हम अपने बच्चों को क्या खिलाएंगे? आप हमारे घर में घुसकर हमारा राशन-पानी,  मुर्गे सब खा जाते हैं. सब महिलाएं एकजुट होकर उनसे बहस करने लगीं. बेचारे दस-पंद्रह किलोमीटर दूर से बाजार जाकर राशन-पानी लेकर आते हैं, फोर्स वाले सब खा जाते हैं. दाल, चावल, मुर्गे-वुर्गे सब. तो वही ये महिलाएं कह रही थीं कि हमारे घर का सामान मत इस्तेमाल करो. गश्त पर आए हो तो अपना गश्त करो. महिला ने अपने बच्चों का वास्ता दिया कि हम अपने बच्चे को क्या खिलाएंगे. तो बोले हम कैसे मानेंगे कि आपका बच्चा है. हम चेक करेंगे कि दूध आता है कि नहीं. अगर दूध आता है तो समझेंगे तुम्हारा बच्चा है. उसके गोद से एक ने बच्चा छीन लिया और एक-दो ने मिलकर उसके स्तन को निचोड़ा. जब उसका दूध निकला तो बस हंसने लगे, मजाक उड़ाने लगे.

पहली बार कब आप पर नक्सल समर्थक होने का आरोप लगा?

2011 में. जब बहुत लंबा इश्यू चला था. बोला नक्सली है. कोई ये नहीं बोला कि टीचर है. सीधा नक्सली बनाकर जेल में डाल दिया. एक केस में अभी जमानत पर हूं तो नौकरी भी नहीं कर रही. मैं तो स्पष्ट बोल रही हूं कि आपने मुझसे मेरा जीवन छीना. मेरे पति को भी मार दिया गया. जेल में तीन साल रखा फिर पैरालाइज हुआ. फिर बहुत प्रताड़ित किया और मार दिया. मेरी अच्छी-खासी जिंदगी थी. मैं टीचर थी. बच्चे थे, पति था. आपने सब कुछ छीन लिया. मेरे बच्चों का जीवन बर्बाद किया. आज वे एक-एक चीज के लिए, दो वक्त की रोटी के लिए भी परेशान होते हैं. तो आपने हमें इस हालत में ला दिया तो हम आमने-सामने लड़ेंगे. मैदान में लाने वाले आप हैं तो लड़ेंगे. मेरी लड़ाई तो सच्चाई की है.

जो आरोप लगे थे, उस केस का क्या हुआ?

चल रहा है और चार साल हुए, पर अब तक गवाह भी पेश नहीं हुए हैं. जिसके लिए इतना प्रोपेगेंडा बनाया, दुनिया भर की बातें कीं. हम भी चाहते हैं कि सरकार रफ्तार से काम करे. एक केस में चार साल लगा दिया. सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी है जिसने जमानत दी. न दिया होता तो चार साल से हम जेल में पड़े रहते. उसी केस में बीके लाला (ठेकेदार) और वर्मा (एस्सार कंपनी के महाप्रबंधक डीएस वर्मा) को हाई कोर्ट ने जमानत दे दी लेकिन सोनी सोरी और लिंगाराम को नहीं दी. वर्मा को सरकार ने जमानत क्यों दी? क्योंकि वे एस्सार के मालिक (महाप्रबंधक) थे. दूसरा ठेकेदार था. सरकार को बहुत पैसा दिया होगा. सोनी और लिंगा पैसा कहां से लाएंगे? वो तो गरीब हैं, आदिवासी हैं. वो तो अच्छी बात है कि इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने मदद की और आज हम बाहर हैं. लेकिन मुझ पर जितना अत्याचार किया गया, मुझमें उतनी ताकत पैदा होती गई.

क्या हमले के बाद आपके बच्चों को भी धमकी मिली है?

मेरे अस्पताल में भर्ती होने के बाद घर पर एक पर्चा आया जिसमें लिखा है, ‘मैडम बहुत खुश न हो अपनी बेटी को सुरक्षा दिलवा के. आपका एक बेटा भी तो है.’ बच्चों ने अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद मुझे बताया. हालांकि, मेरे बच्चों ने कहा कि हम डरने वालों में से नहीं हैं. हम नहीं डरेंगे, आप भी मत डरिए. मेरे बच्चे तो खुद कहते हैं कि मेरी मां जनता की लड़ाई के लिए है.

इस तरह का हमला पहले भी कभी हुआ था?

हां, छोटी-मोटी तो कई चीजें होती रहती हैं. गांववालों के बीच पुलिस ने कई बार कहा कि सोनी सोरी को आज नहीं तो कल मार देंगे, जेल भेज देंगे. तुम्हारी नेता कितने दिन की है? मेरे पिता को भी आईजी ने 4-5 बार बुलाया और बोले अपनी लड़की को समझाओ. मेरे पिता भी नक्सल से पीड़ित हैं. नक्सल ने उनके पैर में गोली मार दी थी. वो भी परेशान हैं.

पिता को गोली क्यों मारी थी?

उस समय कई बार आईजी वगैरह मेरे पिता के पास जाते थे. पिता सरपंच और मुखिया होने के नाते काफी सम्मान और नाम वाले थे. वो सब बैठते थे. कुछ शिकायत रही होगी, अभी तक कुछ स्पष्ट पता नहीं चला. पिता जी की जमीन भी थी नक्सल के अंडर में. मेरे जेल जाने के बाद उस जमीन की आजादी हुई. फिर हम बोले कि जब हम सरकार से लड़ते हैं तो नक्सल से क्यों नहीं लड़ेंगे. हम नक्सल से भी लड़ेंगे. उस समय भी आईजी कल्लूरी और पुलिसवालों ने कहा कि सोनी सोरी नक्सलियों से मिली है और पिता की जमीन उनको दे दी है. उन पर मुकदमा चलाएंगे. मैंने पूछा कि ये काम सरकार का है. मेरे पिता की जमीन नक्सल ने क्यों रखी, पर आज तक सरकार ने बात नहीं की.

आपकी बातों से लगता है कि आपकी लड़ाई दोतरफा है- नक्सल से भी और सरकार से भी.

हां, नक्सल का तो स्पष्ट है कि उनका अपना संगठन है, उनकी अपनी लड़ाई है. मैं तो ये भी सवाल करती हूं कि नक्सली कहते हैं कि हम व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते, हम संविधान पर भरोसा नहीं करते, कानून-कायदे कुछ नहीं मानते, लोकतंत्र पर भरोसा नहीं करते. पर सरकार किस पर भरोसा करती है? सरकार कहती है कि वे संविधान में रहने वाले लोग हैं, वे लोकतंत्र की और सिस्टम की लड़ाई कर रहे हैं, तो ये कैसी सिस्टम की लड़ाई है? सरकार सिस्टम और संविधान में भरोसा करती है तो हिंसात्मक लड़ाई क्यों कर रही है?

उत्तराखंड में सियासी संकट

फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव

क्या है मामला?

पिछले दिनों कांग्रेस शासित राज्य उत्तराखंड में बजट पर चर्चा के बाद केंद्रीय मंत्री हरक सिंह रावत की अगुआई में नौ विधायकों ने पार्टी से बगावत कर दी. इसके बाद से मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार के सामने सियासी संकट पैदा हो गया. आरोप-प्रत्यारोप के बीच 28 मार्च को रावत सरकार को विधानसभा में विश्वास मत हासिल करना था. इसी बीच एक स्टिंग ऑपरेशन में मुख्यमंत्री द्वारा विधायकों की कथित खरीद-फरोख्त का मामला सामने आने के बाद केंद्र ने 27 मार्च को राष्ट्रपति शासन लगा दिया. उत्तराखंड विधानसभा में कुल 70 में से कांग्रेस के 36 विधायक थे जिनमें से 9 बागी हो चुके हैं. भाजपा के 28 विधायक हैं जिनमें से एक निलंबित है. इसके अलावा तीन निर्दलीय, बसपा के दो और उत्तराखंड क्रांति दल का एक विधायक है.

क्यों है विवाद?

इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और पूर्व कृषि मंत्री हरक सिंह रावत सहित कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी. इसके बाद केंद्र सरकार ने हरीश रावत सरकार को सदन में बहुमत साबित करने का मौका ही नहीं दिया और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. इसके खिलाफ रावत ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. कोर्ट की एकल पीठ ने निर्देश दिया कि रावत 31 मार्च को विधानसभा में विश्वास मत हासिल करेंगे. लेकिन बाद में हाई कोर्ट के दो जजों की पीठ ने एकल पीठ के निर्देश पर रोक लगा दी. अगली सुनवाई छह अप्रैल को है. हाई कोर्ट के न्यायाधीश वीके बिष्ट और एएम जोजफ के सामने केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने एकल पीठ के जज यूसी ध्यानी के फैसले के खिलाफ रोक लगाने की याचिका दायर की थी.

क्या है संभावना?

उत्तराखंड में आगे की राह कोर्ट के फैसले पर निर्भर करती है. यदि अदालत हरीश रावत को मौका देती है तो उनके पास अब भी सरकार को बचाए रखने की संभावना है क्योंकि उन्होंने 34 विधायकों की सूची राज्यपाल को दी है. इसके अलावा उन्हें भाजपा के एक बागी विधायक का समर्थन भी हासिल है. यदि कांग्रेस शक्ति परीक्षण में असफल होती है तो भाजपा को अंतरिम सरकार बनानी ही होगी. इसके अलावा यदि अपने निलंबन के खिलाफ अदालत पहुंचे बागी विधायकों के पक्ष में फैसला आता है तो भाजपा आसानी से सरकार बना सकती है, जिसकी संभावना ज्यादा है. जानकारों का कहना है कि व्हिप के जिस उल्लंघन के आरोप में नौ विधायकों की सदस्यता समाप्त की गई, वह उल्लंघन असल में हुआ ही नहीं था, क्योंकि वहां बजट के दौरान कोई वोट डिवीजन या वोटिंग नहीं हुई थी.

पंजाब में उम्मीदों भरी ‘आप’

All Photos : Raman Gill
PHOTO : RAMAN GILL
सभी फोटो : रमन गिल

पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गई हैं. इसमें सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा गठबंधन के साथ मुख्य विपक्षी कांग्रेस और लोकसभा चुनावों में अपने सफल प्रदर्शन से सबको आश्चर्यचकित कर देने वाली आम आदमी पार्टी (आप) भी शामिल हैं. हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों से इस बार की तस्वीर थोड़ी अलग और जटिल दिख रही है. जहां एक ओर कांग्रेस अपना लंबा वनवास काटकर दोबारा सत्ता पर काबिज होने के लिए आतुर दिख रही है, वहीं अकाली-भाजपा गठबंधन लगातार तीसरी बार राज्य में अपनी बादशाहत बरकरार रखना चाहता है. वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी भी पंजाब को अपने अगले पड़ाव के तौर पर देख रही है.

गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश भर में 400 से अधिक सीटों पर जमानत जब्त होने के बावजूद यही एकमात्र ऐसा राज्य था जहां से आप लोकसभा तक पहुंचने में सफल हुई थी. पार्टी को यहां की कुल 13 में से चार सीटों पर विजय मिली थी और वह 30 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने में सफल रही थी. यही कारण है कि 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए आम आदमी पार्टी सबसे पहले प्रचार करती नजर आ रही है. पार्टी यहां भी दिल्ली विधानसभा की तर्ज पर चुनाव प्रचार कर रही है. फर्क बस इतना है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान मफलर पहनकर पहले शीला और बाद में मोदी सरकार पर प्रहार करते नजर आए अरविंद केजरीवाल अब पंजाब में रंग-बिरंगी पगड़ी पहनकर बादल सरकार पर जमकर बरस रहे हैं. इस साल की शुरुआत में पंजाब में होने वाले माघी मेले से अरविंद केजरीवाल ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की थी. उस दौरान उन्होंने पंजाब के लोगों को मोबाइल काॅल करके पंजाबी भाषा में माघी मेले पर मुक्तसर आने का न्योता भी दिया.

दिल्ली विधानसभा और लोकसभा में सफलतापूर्वक अाजमाए गए फॉर्मूले के तहत इस अभियान को सोशल मीडिया पर ट्रेंड भी कराया. रैली में बुलाने के लिए केजरीवाल की आवाज में रिकॉर्ड किया गया संदेश लोगों के मोबाइल फोन पर लगातार गूंजता रहा, ‘हैलो, मैं अरविंद केजरीवाल बोल रियां, मैं 14 जनवरी नूं पंजाब आ रियां त्वानूं  मिलन, 11 बजे श्री मुक्तसर साहिब माघी मेले ते तुसी जरूर आना, त्वाडे नाल बहुत सारियां गल्लां करनियां हन, अच्छा इक गल्ल होर है मैनूं रेवड़ी बहुत पसंद है. तुसी जरूर लैके आना इकट्ठे बैठ के खावांगे.’

दिल्ली की तरह पंजाब में भी जनता की मूलभूत जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ‘आप’ ने राज्य में नशा माफिया, केबल माफिया, बेरोजगारी, गुंडई, किसानों की आत्महत्या, आतंकवाद, दलितों के साथ हो रहे अत्याचार जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है

माघी मेले में अरविंद केजरीवाल की रैली में भारी भीड़ उमड़ी. खबरों के मुताबिक यह संख्या एक लाख के करीब थी. इस दौरान राज्य सरकार पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं बादलों से कहना चाहता हूं कि जब मैं तुम्हारे ताऊ जी मोदी से नहीं डरा तो तुमसे क्या डरूंगा.’ केजरीवाल ने केंद्र सरकार को भी नहीं बख्शा और कहा, ‘मोदी जी, सीबीआई से बादल, कांग्रेसी डरते होंगे, मैं नहीं डरता.’ माघी मेले में सभी राजनीतिक दलों ने जोरदार शक्ति प्रदर्शन किया. अपने-अपने पंडाल में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने के लिए सत्ताधारी अकाली-भाजपा और कांग्रेस ने सारी ताकत झोंक दी थी. मगर बाजी मारने में केजरीवाल ही सफल रहे.

माघी मेला रैली को फंड करने के लिए आप ने वही पुराना डिनर फाॅर्मूला भी अाजमाया. रैली से पहले बठिंडा में एक डिनर का आयोजन करवाया गया और प्रति व्यक्ति पांच हजार रुपये लिए गए. हालांकि केजरीवाल इस डिनर में नहीं पहुंचे, लेकिन इस डिनर में 100 लोग जुटे और आप के सांसद भगवंत मान के साथ खाना खाया. इस मौके पर पंजाब मामलों में पार्टी के प्रभारी संजय सिंह भी शामिल थे.

दिल्ली की तरह पंजाब में भी जनता की मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आम आदमी पार्टी ने राज्य में नशा माफिया, केबल माफिया, बेरोजगारी, गुंडई, किसानों की आत्महत्या, आतंकवाद, दलितों के साथ हो रहे अत्याचार, भ्रष्टाचार, रेता-बजरी, तस्करी जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है. इसकी एक झलक केजरीवाल ने फरवरी के आखिरी हफ्ते में पंजाब के पांच दिवसीय दौरे के दौरान दिखाई. इस दौरान उन्होंने आत्महत्या कर चुके किसानों के परिजनों, व्यापारियों, युवाओं व अप्रवासी भारतीयों से मुलाकात की और उनसे सिर्फ एक साल धैर्य बनाए रखने की अपील की. केजरीवाल ने कहा कि आम आदमी पार्टी की सरकार आने पर उनकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी. हालांकि यह अलग बात थी कि इसी दौरान जालंधर में उनके खिलाफ पोस्टर भी लगाए गए जिस पर लिखा था ‘इक साल, दिल्ली बेहाल. की वादे कित्ते, की निभाये.’ (क्या वादे किए, क्या निभाए ) 

पंजाब में पिछली दो बार से अकाली-भाजपा सरकार सत्ता पर कायम है. इस दौरान राज्य में बेरोजगारी, ड्रग्स, किसान आत्महत्या, दलित उत्पीड़न, तस्करी, सांप्रदायिक विद्वेष आदि प्रमुख समस्या बनकर उभरे है. राज्य के पत्रकारों और राजनीतिक जानकारों की मानें तो बादल सरकार के खिलाफ जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर है. आम आदमी पार्टी को इसका फायदा मिल सकता है. पंजाब में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस में चल रही आपसी फूट का लाभ भी इन्हें मिल सकता है.

D
पंजाब में हो रही आम आदमी पार्टी की सभाओं में भरी भीड़ जुट रही है

पंजाब कांग्रेस में अमरिंदर सिंह, राजिंदर कौर भट्टल, प्रताप बाजवा, सुनील जाखड़ जैसे कई धड़े हैं. इन्हें साथ में लाना कांग्रेस के लिए कठिन होगा. इसके अलावा दिल्ली में के प्रदर्शन का पंजाब में असर बताया जा रहा है. केजरीवाल सरकार दिल्ली में जो भी अच्छे काम कर रही है, पार्टी कार्यकर्ता पंजाब में उसका प्रचार-प्रसार करके अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. पंजाब का दिल्ली से नजदीक होना और दिल्ली में बड़ी संख्या में पंजाबियों का रहना भी पार्टी के लिए सकारात्मक साबित हो सकता है. इसके अलावा कनाडा समेत दूसरे देशों में रहने वाले पंजाबियों को भी आम आदमी पार्टी अपनी तरफ खींचने में सफल होने का दावा कर रही है. ये लोग न सिर्फ राजनीतिक दलों को चंदा देते हैं बल्कि जमीनी स्तर पर उनके पक्ष में माहौल तैयार करने में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं.

पंजाब में आम आदमी पार्टी जिस तरह से दलित वोट बैंक को अपनी तरफ करने में जुटी है वह बसपा के लिए चिंताजनक बात है. इसके नेता अरविंद केजरीवाल ने इसी रणनीति के चलते पंजाब रैली की शुरुआत के पहले बनारस में रविदास जयंती मनाई.

 पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘पंजाब विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को जबर्दस्त फायदा मिलने की उम्मीद है. राज्य में कांग्रेस की बहुत अच्छी छवि न होने का भी फायदा आम आदमी पार्टी को मिलेगा. अमरिंदर सिंह के बहुत अच्छे शासन की याद लोगों के जेहन में नहीं है. पंजाब में ड्रग्स की समस्या लंबे समय से है. इसमें अकाली और कांग्रेस दोनों के लोग शामिल हैं. यह आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद है. राज्य में सत्ता विरोधी लहर का बहुत ज्यादा असर है. इसका सीधा लाभ आम आदमी पार्टी को मिलने वाला है. इसका कारण यह है कि राज्य में कभी आम आदमी पार्टी की सरकार नहीं बनी है, इसलिए लोगों को उससे कुछ बेहतर की उम्मीद है. लोग भाजपा-अकाली व कांग्रेस दोनों के शासन को समझ चुके हैं. दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी की छवि एक साल में बहुत खराब नहीं हुई है. इसके अलावा आम आदमी पार्टी अकाली दल के कोर वोट बैंक में भी निशाना साध रही है. वह तरनतारन समेत दूसरे अकाली गढ़ों में सेंध लगा रही है. यह हमें माघी मेले के दौरान आम आदमी पार्टी की रैली में देखने को भी मिला. पंजाब में लोग आम आदमी पार्टी के नाम पर वोट करेंगे. मेरे ख्याल से पंजाब के लिए अलग से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की भी जरूरत नहीं है. पार्टी को बस अपनी ईमानदार छवि बनाए रखने की जरूरत है.’

इसके अलावा पार्टी के चुनाव प्रचार का तरीका उसे फायदा पहुंचाने वाला साबित हो सकता है. पंजाब की जनसंख्या 2.5 करोड़ से ऊपर है. लेकिन डेढ़ करोड़ लोग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं. यहां आम आदमी पार्टी तेजी से अपना पैर पसार रही है. इसके लिए पार्टी डोर-टू-डोर चुनाव प्रचार और सोशल मीडिया को जरिया बना रही है. पार्टी ने साफ कर दिया है कि राज्य में 23,000 बूथों का निर्माण किया जाएगा, जहां हर बूथ पर 10-15 सदस्यों की टीम पानी, दवाओं, किसानों की आत्महत्या और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को सुनेगी और समाधान की दिशा में काम करेगी. गौरतलब है कि पार्टी ने ऐसी ही रणनीति बनाकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी.

‘पंजाब में दिल्ली की तर्ज पर ही चुनावी अभियान चल रहा है. हालांकि हम गांवों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. राज्य में आम आदमी पार्टी के 14-15 विंग हैं. इसमें युवा, महिला, किसान, व्यापारी आदि विंग शामिल हैं. हमारा लक्ष्य है कि हर बूथ पर पार्टी के कम से कम 15 कार्यकर्ता काम करें’

आम आदमी पार्टी की पटियाला की कार्यकारिणी में शामिल जरनैल सिंह कहते हैं, ‘पार्टी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जोर-शोर से जुटी हुई है. इसके लिए परिवार जोड़ो अभियान शुरू किया गया था. अब यह अंतिम चरण में है. यहां दिल्ली की तर्ज पर ही चुनावी अभियान चल रहा है. हालांकि हम यहां गांवों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. राज्य में आम आदमी पार्टी के 14-15 विंग हैं. इसमें युवा, महिला, किसान, व्यापारी आदि विंग शामिल हैं. हमारा लक्ष्य है कि हर बूथ पर पार्टी के कम से कम 15 कार्यकर्ता काम करें.’

वहीं मोगा जिले में सक्रिय आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता हरविंदर सिंह कहते हैं, ‘पंजाब में मुख्य समस्या नशाखोरी की है. यहां जो जितना अमीर वह उतना बड़ा नशाखोर है. हमारी पार्टी ने इसी को निशाना बनाया है. कांग्रेस और अकाली-भाजपा का शासन जनता ने देख लिया है. वे इस पर रोक लगाने में विफल रहे हैं. दूसरी बड़ी समस्या किसानों को मिलने वाले मुआवजे को लेकर है. दिल्ली में हमारी सरकार ने किसानों को बढ़िया मुआवजा दिया है. हम इस बात को लेकर लोगों के बीच जा रहे हैं. पंजाब खेती-किसानी करने वाला राज्य है. हमारा मानना है कि हमें इसका फायदा जरूर मिलेगा.’ 

 राजनीतिक जानकारों की मानें तो पंजाब में आम आदमी पार्टी के सामने सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस हो सकती है. बिहार में बेहतर प्रदर्शन के बाद से कांग्रेसियों के हौसले बुलंद हैं. पंजाब में मनप्रीत बादल की पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब (पीपीपी) के कांग्रेस में विलय के बाद वह ज्यादा मजबूत बनकर उभर रही है. इसके अलावा आप में फैला असंतोष भी उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है. पार्टी ने अपने कुल चार में से दो सांसदों को निलंबित कर दिया है. इससे पहले प्रदेश अनुशासन समिति के अध्यक्ष डॉ. दलजीत सिंह को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. उन्होंने शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए थे. इसके अलावा पूर्व आप नेता योगेंद्र यादव भी पार्टी के खिलाफ अभियान चलाकर मुश्किलें पैदा कर सकते हैं. पंजाब में आम आदमी पार्टी के पास संगठनात्मक ढांचे के नाम पर कुछ भी नहीं है. इसे जल्द से जल्द मजबूत किए जाने की जरूरत है. पंजाब में पार्टी के पास अभी तक मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में कोई नाम सामने नहीं आया है. इसका भी नुकसान उठाना पड़ सकता है. हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार बनाम बाहरी के चलते भाजपा को जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ा था.

आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘चुनावों में बड़ी सफलता हासिल करने के लिए आम आदमी पार्टी को संगठन बनाना पड़ेगा. इस लिहाज से अभी पार्टी दूसरे दलों से कमजोर है. साथ ही उम्मीदवारों के चयन में सावधानी बरतने की जरूरत है. खासकर दलबदलुओं को लेकर. इसमें से वे कुछ को टिकट दे सकते हैं, लेकिन वे अगर सभी को टिकट देने लगेंगे तो इससे पार्टी की छवि खराब हो जाएगी. इसके अलावा अगर वे एनआरआई प्रत्याशियों को मौका देते हैं तो भी उनकी साफ-सुथरी छवि का ध्यान रखना होगा. साथ ही उन्हें पेशेवर राजनेताओं के बजाय मिडिल क्लास, पढ़े-लिखे लोगों को मौका देना चाहिए.’ वहीं दूसरी ओर गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर के इतिहास विभाग के प्रोफेसर सुखवंत सिंह कहते हैं, ‘पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी फायदे में रहेगी, लेकिन वह बड़ी ताकत बनकर उभरेगी यह कहना जल्दबाजी होगा. मेरे ख्याल से अभी तक मुख्य मुकाबला अकाली-भाजपा और कांग्रेस में ही है. आम आदमी पार्टी को संगठन, टिकट बंटवारे समेत दूसरी बातों पर भी काम करने की जरूरत है.’

कुछ ऐसी ही बात अमृतसर के रहने वाले और अन्ना आंदोलन से जुड़े रहे सामाजिक कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह मत्तेवाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘जमीनी स्तर पर अभी आम आदमी पार्टी कुछ बेहतर करते हुए नहीं दिख रही है. हालांकि अकाली-भाजपा की सरकार और कांग्रेस को लेकर लोगों में जबर्दस्त नाराजगी है. इसका फायदा आप को मिल सकता है. दूसरे शब्दों में कहें तो पंजाब में नाराज वोटरों को आम आदमी पार्टी के रूप में एक ठिकाना मिल सकता है. पर यह कहना मुश्किल है कि वह राज्य में सरकार बनाएगी क्योंकि अभी पूरे राज्य में बड़ी संख्या में उसका कैडर मौजूद नहीं है. इसके अलावा पंजाब चुनावों में डेरे भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं. अकाली-भाजपा और कांग्रेस से अलग आम आदमी पार्टी उन्हें कैसे लुभाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी. फिलहाल तो उनके कार्यकर्ता उत्साहित नजर आ रहे हैं.’

हालांकि पंजाब में कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के नेता मानते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा खतरा आप से है. बहुजन समाज पार्टी के कमजोर होने और मनप्रीत बादल की पार्टी के कांग्रेस में विलय होने के बाद से यह खतरा बढ़ गया है. राज्य में आम आदमी पार्टी जिस तरह से तैयारियों में जुटी है और उसके नेता केजरीवाल जिस तरह की आक्रामकता दिखा रहे हैं उससे आप को फायदा मिलता नजर आ रहा है. पार्टी राज्य में अकाली-भाजपा और कांग्रेस से असंतुष्टों की एकमात्र जगह बनती जा रही है.     

सौ सुनार की, एक सरकार की !

GJF_Strike_MumbaiGEMKONNECTDOTCOMweb
Photo: gemkonnect.com

बीते 29 फरवरी को आए आम बजट में सोने और हीरे के आभूषणों पर केंद्र सरकार की ओर से लगाए गए एक प्रतिशत के उत्पाद शुल्क के विरोध में देश भर के सराफा कारोबारी बीते दो मार्च से आंदोलन कर रहे हैं. उत्पाद शुल्क में सिर्फ सोने और हीरे के आभूषणों को शामिल किया गया है. चांदी के आभूषण इसके दायरे में नहीं आएंगे.
कारोबारियों का आरोप है कि सोने के व्यवसाय से जुड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए यह कदम उठाया जा रहा है. इससे सबसे ज्यादा नुकसान आभूषण बनाने वाले कारीगरों को होने वाला है. कारोबारियों के अनुसार, आभूषण निर्माण कुटीर उद्योग है. इस पर उत्पाद शुल्क लागू करना कहीं से भी उचित नहीं. उत्पाद शुल्क मशीनों से होने वाले उत्पादन पर लगता है, जबकि आभूषण बनाने का पूरा कारोबार कारीगरी पर आधारित है.
दरअसल, आभूषण बनाने की प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है. बताया जा रहा है कि इन सभी चरणों पर उत्पाद शुल्क देना होगा और जिससे आभूषणों पर खर्च बढ़ेगा और ग्राहकों के लिए मुश्किलें भी खड़ी होंगी. सोना खरीदने के बाद सबसे पहले उसे पिघलाया जाता है. इसके बाद फिर मशीन से उनकी तारपट्टी खींची जाती है. इसके बाद आभूषणों के डिजाइन में इस्तेमाल होने वाले अलग-अलग हिस्सों के लिए डाई काटी जाती है. फिर कारीगर इन हिस्सों को जोड़कर आभूषण तैयार करता है, जिसके बाद उसकी धुलाई करवाई जाती है और फिर आभूषणों पर चमक लाने के लिए छिलाई की जाती है. इसके बाद मीनाकारी (आभूषणों को रंगना) का काम होता है. फिर उन्हें पॉलिश किया जाता है.
लखनऊ के कारोबारी और उत्तर प्रदेश सराफा एसोसिएशन के उपाध्यक्ष लोकेश अग्रवाल बताते हैं, ‘जैसे आपको 50 ग्राम के आभूषण बनवाने हैं तो वर्तमान भाव (तकरीबन 30 हजार रुपये प्रति 10 ग्राम) से इसकी कीमत तकरीबन 1,50,000 रुपये होगी. गलाई कराए जाने पर इस पर एक प्रतिशत उत्पाद शुल्क के हिसाब से 1500 रुपये अलग से देने होंगे. फिर तारपट्टी पर 1500, डाई कटिंग पर 1500, आभूषण बनाने पर 1500, छिलाई पर 1500, मीनाकारी पर 1500 और फिर पॉलिश पर 1500 रुपये का उत्पाद शुल्क देना होगा. इस तरह सात बार हमें उत्पाद शुल्क देना होगा, जो 10,500 रुपये हो जाता है. इसके अलावा सोना खरीदते समय ही हम पहले ही दस प्रतिशत कस्टम ड्यूटी देते हैं. यानी 50 ग्राम पर पांच ग्राम की कस्टम ड्यूटी पहले ही दे रखी है. ये 15,000 रुपये होते हैं. अब इस पर एक प्रतिशत वैट देना होगा. ये भी 1500 से 2000 हजार रुपये होता है. अब देखा जाए तो 50 ग्राम सोने पर हम तकरीबन 27 से 28 हजार रुपये तक शुल्क चुकाएंगे, आखिर में जिसकी मार ग्राहकों की जेब पर पड़ेगी.’

आभूषण बनाने की प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है. जैसे- गलाई, तार-पट्टी, डाई, कारीगरी, धुलाई, छिलाई, मीनाकारी और फिर पॉलिश. अब हर चरण पर उत्पाद शुल्क देना होगा जिसका बोझ ग्राहकों पर पड़ेगा

मामले को लेकर देश भर के सराफा कारोबारी लगभग एक महीने से हड़ताल पर हैं, वहीं उत्पाद शुल्क को लेकर भ्रम की स्थितियां भी बनी हुई हैं. सराफा कारोबारी इस व्यवसाय से जुड़े छोटे कारोबारियों के लिए मुश्किलें खड़ी होने का दावा कर रहे हैं तो केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क से छोटे कारोबारियों को बाहर रखने की बात कर रही है. दरअसल आभूषण बनाने में सहयोग देने वाले कारीगरों (गलाई, छिलाई और पॉलिश करने वाले) की मजदूरी ही इतनी नहीं होती कि वे उत्पाद शुल्क चुका सकें. व्यापारियों का कहना है कि सोना खरीदने से उसका आभूषण बनने और फिर उनकी बिक्री तक की प्रक्रिया काफी लंबी है और उत्पाद शुल्क लागू होने के बाद हर प्रक्रिया का दस्तावेज तैयार करना होगा. यानी हर चरण का दस्तावेज उपलब्ध होना चाहिए. उनके अनुसार, आभूषणों को हस्तकला से बाहर प्रमुख उत्पाद वर्ग में रखना ही गलत है क्योंकि इस कवायद में कारीगर भी शामिल होंगे, जिनके लिए नियम-कायदे से हिसाब-किताब रख पाना संभव नहीं होगा. ऐसा इसलिए कि इस कारोबार से जुड़े अधिकांश कारीगर अनपढ़ हैं, उनमें इतनी लिखा-पढ़ी करने की दक्षता नहीं होती. छोटा-सा हिसाब लिखने के लिए भी उन्हें दूसरे पर निर्भर रहना होता है. ऐसी स्थिति में जब कारीगर प्रभावित होंगे तो कारोबार से जुड़े दूसरे लोगों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा, जो देश भर के विभिन्न शहरों के सराफा कारोबार पर चोट होगी. व्यापारियों का आरोप है कि उत्पाद शुल्क लगाने का सीधा फायदा इस कारोबार से जुड़े बड़े कॉरपोरेट घरानों को होगा जिनका सारा काम एक ही फर्म के अंदर हो जाता है, जबकि छोटे कारोबारियों के पास इतनी पूंजी नहीं होती कि वे गलाई से लेकर पॉलिश तक का काम एक साथ एक जगह करा सकें. बड़े शहरों में बसे सराफा बाजारों में यह तंत्र है, जिसके तहत स्थानीय स्तर पर आभूषण तैयार होते हैं. छोटे शहरों में ऐसी कोई सुविधा भी उपलब्ध नहीं है जहां सारा काम एक ही जगह हो जाए.
इस बीच सराफा कारोबारियों के संगठन और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच यह गतिरोध दूर करने केे लिए बातचीत लगातार जारी है. देश भर में चल रहे प्रदर्शन के कारण बढ़ते दबाव से वित्त मंत्री इस फैसले की समीक्षा करने वाले हैं. वहीं कारोबारी इस बात को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे हैं कि देर-सवेेर सरकार को झुकना ही पड़ेगा और तब तक उनका विभिन्न तरीकों से विरोध-प्रदर्शन जारी रहेगा. कारोबारियों ने सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर भी सवाल उठाए हैं. मुंबई के सोना-चांदी महामंडल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष अशोक वारेगांवकर कहते हैं, ‘ये सरकार मेक इन इंडिया की बात करती है, जबकि इस कदम से लगता है कि सरकार की मंशा हस्तकला से जुड़े इस कारोबार को खत्म करने की है. ये कैसा मेक इन इंडिया है? ये कदम बहुत ही घातक है. आभूषण निर्माण काे हस्तकला की श्रेणी से हटाकर प्रमुख उत्पाद श्रेणी में रखने से ये कारोबार और कारोबारी टूट जाएंगे. सरकार छोटे कारोबारियों को राहत का झांसा देकर बाजार में इंस्पेक्टर राज लागू करने की कोशिश कर रही है. उत्पाद शुल्क काे वापस लेने तक हम हड़ताल वापस नहीं ले सकते.’

[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

उत्पाद शुल्क लागू करने का व्यापक असर सीधे तौर पर विकास दर पर पड़ेगा. एक तरफ सरकार व्यापार को आसान बनाने की बात कहती है और दूसरी ओर शुल्क लगा देती है. सरकार ने कहा था कि वह टैक्स को कम करेगी लेकिन इस बजट में इसके उलट कदम उठाया गया. खासकर यह सराफा कारोबार पर लागू किया गया जो सरकार के राजस्व में इजाफा करता है. आगे चलकर यह घट जाएगा. सरकार को निश्चित तौर पर इस फैसले पर विचार करने की गुंजाइश बननी चाहिए. इसका बुरा असर हमारे विदेशी निवेशकों पर पड़ सकता है. इस शुल्क से व्यापार की दर घट जाएगी. इस कारोबार से जुड़े कारोबारियों को चाहिए कि वे एकजुट होकर अपना पक्ष मजबूती से रखते हुए वित्त मंत्रालय को मेमोरेंडम दें. टैक्स निश्चित तौर पर रखना चाहिए लेकिन उतना ही रखना चाहिए जिससे कारोबार और राजस्व प्रभावित न हो.’

डॉ. आसमी रजा, प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

[/symple_box]

सराफा कारोबारियों के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा है. पत्र में उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखने का आग्रह किया है. पत्र में उन्होंने मुख्यमंत्रियों से अपील करते हुए कहा है, ‘मैं आप सभी से अनुरोध करना चाहता हूं कि आभूषणों पर बढ़ाई गई एक प्रतिशत की एक्साइज ड्यूटी पर विरोध दर्ज कराते हुए केंद्र सरकार को पत्र लिखें. मुझे विश्वास है कि सभी सराफा कारोबारी इसके लिए आप सभी मुख्यमंत्रियों के आभारी रहेंगे.’ उन्होंने कहा, ‘दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ कड़ाई से विरोध दर्ज कराया है और प्रधानमंत्री से आग्रह किया है कि वे एक्साइज ड्यूटी में बढ़ोतरी को वापस लें.’ इससे पहले 17 मार्च को केजरीवाल इस संबंध में प्रधानमंत्री को भी पत्र लिख चुके हैं. सूत्रों के मुताबिक सराफा कारोबारियों की समस्याओं के हल के लिए अलग से एक बोर्ड के गठन की भी मांग की जा रही है. बीते 29 मार्च को केजरीवाल के नेतृत्व में सराफा कारोबारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात करके उन्हें पूरे मामले की जानकारी दी और उनसे हस्तक्षेप करने का आग्रह किया. सूत्रों ने बताया कि केजरीवाल ने उन्हें इस बात का भी ध्यान दिलाया कि 2012 में तत्कालीन संप्रग सरकार के समय भी उत्पाद शुल्क लागू करने की कोशिश की गई थी जिसे तब कारोबारियों के विरोध के बाद वापस ले लिया गया था और उस वक्त राष्ट्रपति ही वित्त मंत्री थे. तब भी सराफा कारोबारियों ने तकरीबन 25 दिन तक विरोध-प्रदर्शन किया था. इतना ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, ने संप्रग सरकार के फैसले का विरोध किया था. यह पहली बार है जब सराफा कारोबारियों को विरोध-प्रदर्शन करते हुए एक महीना हो चुका है.

Sarafa 6web

वैसे सराफा कारोबारी इससे पहले भी लिए गए सरकार के फैसलों से नाखुश नजर आ रहे हैं. इस साल जनवरी में सरकार ने दो लाख और इससे अधिक के लेन-देन पर पैन कार्ड दिखाना अनिवार्य कर दिया. लोकेश बताते हैं, ‘हमारे देश में सोना स्त्री-धन के रूप में बिकता है. आभूषणों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल महिलाएं करती हैं. महिलाएं छोटी-छोटी बचत करके जेवर खरीदती हैं और कई बार तो अपने पतियों को भी नहीं बताती हैं. किसान छोटी-छोटी बचत कर जेवर खरीदते हैं. उनके लिए इतना महंगा सामान ले पाना मुश्किल हो जाएगा. अब दो लाख के लेन-देन पर पैन कार्ड अनिवार्य कर देने से आभूषणों की कीमत बढ़ जाएगी. इस तरह से किसान और महिलाओें के लिए इन्हें खरीदना आसान नहीं रह जाएगा.’

‘मोदी हम व्यापारियों के वोट से जीतने वाले व्यक्ति हैं. अब वे हम लोगों को ही कुछ नहीं समझ रहे हैं. इसका खामियाजा इन्हें भुगतना पड़ेगा. अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में इनकी बोहनी तक नहीं होगी’

इस मामले को लेकर देश भर में तकरीबन 40 से 50 संगठन सक्रिय रूप से विरोध कर रहे हैं. इस बीच 20 मार्च को कुछ संगठनों ने वित्त मंत्री से मुलाकात के बाद अपना विरोध वापस भी ले लिया है. इन संगठनों में ऑल इंडिया जेम्स ऐंड ज्वेलरी ट्रेड फेडरेशन (जीजेएफ), इंडिया बुलियन एंड ज्वेलर्स एसोसिएशन (आईबीजेए) और जेम्स ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल आदि हैं. इनके अलावा बाकी संगठनों का विरोध- प्रदर्शन जारी है. इस बारे में ऑल इंडिया बुलियन ज्वेलर ऐंड स्वर्णकार फेडरेशन के महासचिव योगेश सिंघल बताते हैं, ‘19 मार्च को हमारी सरकार के प्रतिनिधियों से मीटिंग हुई थी जिसमें हमसे कहा गया था कि आप अगर उत्पाद शुल्क हटाने की बात कर रहे हैं तो वो नहीं हो पाएगा लेकिन जो भी आपत्तियां हैं उन्हें वापस ले लिया जाएगा तो हमने कहा चलिए हम दूसरे कारोबारियों से बात करके अपना पक्ष रखेंगे. हालांकि सरकार के प्रस्ताव पर सभी संगठन और कारोबारी एकमत नहीं हुए. इसी मीटिंग के बाद कुछ संगठनों ने अपना विरोध वापस ले लिया. तो जिन संगठनों में रोष था उन्होंने अपना विरोध जारी रखा और सारे संगठन हमारे संगठन के बैनर तले आ गए.’ उधर, सरकार छोटे व्यापारियों के प्रभावित न होने की बात कर रही है. एक मीडिया रिपोर्ट में कारोबारियों की आशंका को दूर करते हुए केंद्रीय उत्पाद शुल्क के मुख्य आयुक्त जेएम केनेडी ने कहा, ‘सरकार का यह कदम बेहद सामान्य प्रक्रिया है. उत्पाद शुल्क सिर्फ उन कारोबारियों को चुकाना होगा जिनका पिछले साल में कुल कारोबार 12 करोड़ रुपये का रहा है. इसके अलावा अगले वित्त वर्ष में 12 करोड़ रुपये से कम का कारोबार करने वाला व्यापारी छह करोड़ रुपये तक की छूट का हकदार होगा. ऐसे छोटे व्यापारी मार्च 2016 तक 50 लाख रुपये की छूट पाने के हकदार होंगे.’ लोकेश कहते हैं, ‘हम सरकार से अपील कर रहे हैं कि वो हमसे राजस्व शुल्क वसूल ले, लेकिन उत्पाद शुल्क न लगाए. इससे इंस्पेक्टर राज की वापसी होगी और एक्साइज और कस्टम विभाग कारोबारियों के ऊपर हावी हो जाएगा. हमारा कारोबार लघु उद्योग और हस्तकला की श्रेणी में आता है. उत्पाद शुल्क कानूनन उन वस्तुओं पर लागू होता है जिनका निर्माण मशीन से होता है. उत्पाद शुल्क लागू होने से छोटे कारोबारियों काे परेशान किया जाएगा. नियमों के मुताबिक कई तरह के फॉर्म भरने पड़ेंगे. पेपर वर्क बहुत बढ़ जाएगा. हर प्रक्रिया के लिए रजिस्टर मेनटेन करना होगा. एक्साइज विभाग का अधिकारी कभी भी छापा मार सकता है. दस्तावेज पूरे न होने पर जुर्माना और सजा का भी प्रावधान होगा.’ वे कहते हैं, ‘वित्त मंत्री छोटे कारोबारियों को इससे बाहर रखने की बात कर रहे हैं. ये सरासर धोखा देने वाली बात है. जब ऐक्ट लागू हो गया तो चाहे छोटा व्यापारी हो या बड़ा, वह किसी न किसी तरह से इससे प्रभावित ही होगा. मान लिया कि एक विशेष दायरे में आने वाले कारोबारियों पर ही उत्पाद शुल्क लगेगा, लेकिन लिखा-पढ़ी का अतिरिक्त काम और नियमों का पालन तो सबको करना होगा. वित्तमंत्री जी हमें बेवकूफ बना रहे हैं. वे कह रहे हैं कि छह करोड़ रुपये सालाना के टर्नओवर पर ही उप्ताद शुल्क लगाया जा रहा है. ऐसे में तो देश के 90 प्रतिशत कारोबारी इसके दायरे से ही बाहर हो जाएंगे तो फिर 10 प्रतिशत कारोबारियों पर ये शुल्क क्यों लगा रहे हो? हम तो पहले ही राजस्व शुल्क देने काे राजी हैं फिर उत्पाद शुल्क की क्या जरूरत है? मोदी कहते हैं कि इंस्पेक्टर राज को खत्म करेंगे. इससे तो ये और बढ़ेगा और कारोबार में भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलेगा. सरकार की मंशा स्थानीय सराफा कारोबार को खत्म कर देने की है.’

Sarafa 9web

 

[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

मोटी बात ये है कि टैक्स तो देना ही पड़ेगा. हर कोई चाहता है कि टैक्स न देना पड़े. सरकार को टैक्स चाहिए होता है और उसे वह कहीं न कहीं तो लगाना ही पड़ेगा. सराफा पर जो टैक्स लगाया है वह मूल रूप से सही है और इसका मैं स्वागत करता हूं. जहां तक मेरी समझ है इन्होंने छह करोड़ रुपये सालाना कारोबार करने वाले व्यापारियों को इससे मुक्त रखा है, मैं जिसे समझता हूं ठीक ही है और विरोध तो होता ही रहता है. देखिए सराफा में नंबर दो का धंधा बहुत ज्यादा होता है तो शायद यह कदम इस पर रोक लगाने के लिए उठाया गया होगा. जीविका का सवाल है तो विरोध-प्रदर्शन चल रहा है. विरोध करने से कोई चीज सही और गलत नहीं होती.’

भरत झुनझुनवाला, अर्थशास्त्री

[/symple_box]
गोरखपुर के कारोबारी श्याम बरनवाल कहते हैं, ‘हमें टैक्स देने से इनकार नहीं है. हमारा विरोध उत्पाद शुल्क लगाने से है. सरकार इसके बजाय वैट या कस्टम ड्यूटी बढ़ा दे हमें कोई दिक्कत नहीं.’ बहरहाल, पिछले एक महीने से जारी हड़ताल से छोटे कारोबारियों की कमर टूट गई है क्योंकि सराफा कारोबार ठप होने से सबसे ज्यादा मार उन पर ही पड़ी है. अलग-अलग शहरों के बड़े व्यापारियों द्वारा अपने स्तर पर फंड बनाकर या चंदा जमा करके उनकी मदद की कोशिश की जा रही है. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में सराफा मंडल अध्यक्ष शरद चंद्र अग्रहरि ‘बबलू’ बताते हैं, ‘हमारे आंदोलन को एक महीना हो गया है, लेकिन सरकार की ओर से कोई माकूल जवाब नहीं आया है. भाई साहब! हमारे शहर के कारोबारियों की स्थिति गड़बड़ हो चुकी है. छोटे कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच चुके हैं. हम बड़े कारोबारियों से चंदा इकट्ठा करके छोटे कारोबारियों के लिए राशन-पानी की व्यवस्था कर रहे हैं. मोदी हम व्यापारियों के वोट से जीतने वाले व्यक्ति हैं. अब वे हम लोगों को ही कुछ नहीं समझ रहे हैं. इसका खामियाजा इन्हें भुगतना पड़ेगा. अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इनकी बोहनी तक नहीं होगी. ये सब इस व्यवसाय से जुड़े 10 फीसदी मल्टीनेशनल कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है. ये रिलायंस, टाटा जैसी कंपनियों का कुचक्र है जिसमें छोटे कारोबारियों को फंसाया जा रहा है. सरकार चाह रही है कि यही लोग व्यापार करें. हम लोग कोई ऐसा काम नहीं कर रहे हैं जो लोकतंत्र के खिलाफ हो. अगर सरकार नहीं मानती है तो विरोध-प्रदर्शन और तेज किया जाएगा.’

मणिपुरः नाै लाशें, सात महीने अाैर एक अांदाेलन

_MG_9762-Fweb
फोटो : अमरजीत सिंह

ह्वाट अ फ्रेंड वी हैव इन जीसस,

आॅल आवर सिंस एंड ग्रीफ टू बीयर!

यानी ईश्वर के रूप में हमारे पास एक ऐसा दोस्त है जो हमारे सारे दुखों और पापों को सहन कर लेता है… दिल्ली के जंतर मंतर पर बने एक अस्थायी टेंट के पास मणिपुर की रहने वाली जेनेट बाल्टे इस कविता का गान कर रही हैं. इसमें कुछ और लोग भी उनका साथ दे रहे हैं. सभी के चेहरे पर उदासी और हताशा का भाव साफ देखा जा सकता है. दरअसल ये लोग तकरीबन सात महीने से यहां शांतिपूर्ण ढंग से मणिपुर के चूराचांदपुर जिले में एक और दो सितंबर को प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलियों का शिकार हुए नौ लोगों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं. इन नौ लोगों में एक नाबालिग भी शामिल है.

ये लोग 31 अगस्त, 2015 को मणिपुर विधानसभा द्वारा पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे, जहां  पुलिस ने इन्हें गोली मार दी थी. घटना के विरोध में मृतकों के परिवारवालों ने शव लेने और दफनाने से मना कर दिया है. मणिपुर की राजधानी इंफाल से करीब 70 किमी. दूर चूराचांदपुर जिला अस्पताल के मुर्दाघर में इन लोगों के शव अब भी रखे हुए हैं. इधर, जंतर मंतर पर इस प्रदर्शन की अगुआई कर रहे मणिपुर आदिवासी फोरम, दिल्ली (एमटीएफडी) ने भी टेंट के अंदर नौ प्रतीकात्मक ताबूत रखे हैं. विधेयकों को आदिवासी विरोधी बताया जा रहा है.

कविता पूरी हो जाने के बाद जेनेट जोर-जोर से नारा लगाते हुए आदिवासियों के लिए न्याय की मांग करती हैं. वहां मौजूद सारे लोग उनका साथ देते हैं. जेनेट दिल्ली के तीस हजारी स्थित सेंट स्टीफन हॉस्पिटल में नर्स हैं. वे पिछले चार सालों से दिल्ली में रह रही हैं और पिछले कई महीनों से काम खत्म करके अस्पताल से सीधे जंतर मंतर आकर इस प्रदर्शन में शामिल होती हैं.

बीते साल पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे. इस बीच पुलिस फायरिंग में नौ लोगों की मौत हो गई थी. मृतकों के परिवारवालों ने शव दफनाने से मना कर दिया है. तब से ही जंतर मंतर में भी विरोध प्रदर्शन हो रहा है

जेनेट कहती हैं, ‘मणिपुर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. हमारे हक की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को मार दिया जाता है और जब हम पुलिसकर्मियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किए जाने की मांग करते हैं, तो किसी भी कार्रवाई से इनकार कर दिया जाता है. यहां दिल्ली से लेकर मणिपुर तक फैली यह लड़ाई हमारी पहचान और अस्तित्व की है. जब तक इन नौ लोगों को न्याय नहीं मिल जाता है, तब तक मैं यहां आती रहूंगी.’

कुछ ऐसी ही बात आरबीआई में काम करने वाले पीएस ख्वाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. हिल एरिया (पहाड़ी) और वैली (घाटी). घाटी में जब प्रदर्शन होता है, तो पुलिसकर्मी रबर की गोलियां चलाते हैं, वहीं जब पहाड़ी क्षेत्र में प्रदर्शन होता है तो वे भीड़ को रोकने के लिए असल गोलियों का इस्तेमाल करते हैं. आप हमारे साथ होने वाले अन्याय का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं. सबसे दुखद बात यह है कि हमारी मांग को सुनने वाला कोई नहीं है. हम इतने दिनों से जंतर मंतर में प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन पुलिसकर्मियों से लेकर राज्य और केंद्र सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.’

अपनी बात कहकर जेनेट और ख्वाल समेत दूसरे प्रदर्शनकारी खामोशी से कैंडल जलाने में जुट जाते हैं और फिर कैंडल लेकर प्रतीकात्मक ताबूतों के सामने प्रार्थना करने लगते हैं. दरअसल मणिपुर में पिछले कुछ महीनों से तनाव की स्थिति बनी हुई है. यहां पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोग राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए उन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं जो जमीन खरीदने और दुकानों में काम करने वाले बाहरी लोगों की पहचान से संबंधित हैं. इन आदिवासियों को डर है कि नया कानून आने के बाद पहाड़ी क्षेत्र में गैर-आदिवासी बसने लगेंगे. जबकि वहां जमीन खरीदने पर अब तक पाबंदी है.

31 अगस्त को मणिपुर विधानसभा द्वारा तीन विधेयक- मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किए जाने के बाद राज्य के आदिवासी छात्र संगठनों द्वारा बंद का आह्वान किया गया था. इस दौरान भड़की हिंसा में पुलिस फायरिंग के दौरान नौ लोगों की मौत हो गई जबकि 35 से अधिक लोग घायल हो गए थे.

48-7WEB

पुलिस के अनुसार, प्रदर्शनकारियों ने बाहरी मणिपुर लोकसभा सीट के सांसद थांगसो बाइते, राज्य के परिवार कल्याण मंत्री फुंगजथंग तोनसिंग, हेंगलेप विधानसभा क्षेत्र के विधायक मंगा वेईफेई और थानलोम के वुनगजागीन सहित पांच विधायकों के मकान को आग के हवाले कर दिया. पुलिस का कहना है कि हिंसक हो चुके प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मजबूरन फायरिंग करनी पड़ी, जिसमें कुछ लोगों की मौत हो गई.

देखा जाए तो मणिपुर का यह पूरा मामला भावनात्मक और संवेदनशील होने के साथ जटिल भी है. घाटी में रह रहे मेइतेई समुदाय का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव उनकी जमीन पर है. उनके अनुसार, घाटी में संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने पर मनाही है. वहीं पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समुदाय के नुमाइंदे आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कभी आदिवासियों से इस बारे में बात करके उनका भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की और विधेयक पास कर दिया.

जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने आए एमटीएफडी के सदस्य और दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए कर रहे सैम कहते हैं, ‘हमें इस वक्त इन विधेयकों का विरोध करना ही होगा क्योंकि ये कानून बनते ही मेइतेई समुदाय को अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि आदिवासियों से उनका संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश है. हम अपनों का अंतिम संस्कार तब तक नहीं करेंगे जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जातीं, हालांकि यह इंतजार कितना लंबा होगा अभी इसका पता नहीं है.’

अगर हम हालिया विवाद पर नजर डालें तो इसकी शुरुआत गैर-आदिवासी बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय द्वारा जॉइंट कमेटी आॅन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) स्थापित करने के बाद हुई. यह संगठन 30 सामाजिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है. गौरतलब है कि इनर लाइन परमिट का मकसद बाहरी लोगों के मणिपुर राज्य में प्रवेश को नियंत्रित करना था. जेसीआईएलपीएस आंदोलन के जवाब में राज्य सरकार तीन विधेयक ले आई. विधेयकों का विरोध करने वालों का कहना है कि इससे जमीन के हस्तांतरण में तेजी आएगी और आदिवासियों के वजूद पर ही संकट मंडरा सकता है.  दरअसल मणिपुर के चूराचांदपुर, चंदेल, उखरुल, सेनापति, और तमेंगलाॅन्ग जिले पहाड़ी क्षेत्र में आते हैं. वहीं थॉबल, बिष्णुपुर, इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिले घाटी में आते हैं. यहां मेइतेई समुदाय का दबदबा है. लैंड बिल में कहा गया है कि क्षेत्रफल के हिसाब से मणिपुर का 10 फीसदी हिस्सा घाटी का है. हालांकि राज्य की 60 प्रतिशत जनता घाटी में रहती है. इस कारण मेइतेई समुदाय पहाड़ी क्षेत्र में जमीन दिए जाने की मांग करता रहता है. मार्च, 2015 में मणिपुर सरकार ने रेगुलेशन आॅफ विजिटर, टीनेंट्स एेंड माइग्रेंट वर्कर्स बिल पारित कर दिया था. इसका मकसद राज्य में बाहरी लोगों के प्रवेश की निगरानी करना था. हालांकि बाद में सरकार ने इसे वापस ले लिया.

Photo : tribal.unity.in
Photo : tribal.unity.in

सरकार द्वारा लाए गए तीनों विधेयकों के विरोध में चल रहे आंदोलन की अगुवाई कर रही जॉइंट एक्शन कमेटी (जेएसी) के संयोजक एच. मांगचिनखुप गाइते कहते हैं, ‘पहले विधेयक से हमारी आदिवासी पहचान का उल्लंघन होता है, दूसरा विधेयक भूमि संबंधी हमारे अधिकारों की अवहेलना करता है जबकि तीसरा हमारे जीवनयापन को नुकसान पहुंचाता है.’

वहीं एमटीएफडी के संयोजक रोमियो हमर कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्र को सरकार ने कभी मणिपुर का हिस्सा नहीं माना. हमारा विकास नहीं किया गया. हमेशा से पहाड़ के लोगों के साथ भेदभाव किया गया. अब भी यह जारी है. इन विधेयकों को देखने-समझने के बाद यह बात साफ हो जाती है. अब घाटी में जमीन को लेकर बढ़ता दबाव संशोधन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा है. इसके लिए पहाड़ी क्षेत्र तो जिम्मेदार नहीं है. इसके अलावा संशोधित बिल में भ्रमित करने वाली कई चीजें हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के खिलाफ आसानी से किया जा सकता है. बिल में मणिपुर के मूल निवासी को सही तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है. हम अगर आज इसका विरोध नहीं करेंगे तो प्रशासन बाद में इसका हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल करेगा. दरअसल सरकार की मंशा जमीन हड़पने की लगती है.’

हालांकि इस पूरे मसले को दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के सेंटर फॉर नाॅर्थ ईस्ट स्टडीज एेंड पॉलिसीज रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. एम. अमरजीत सिंह दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर के लोग बहुत भावुक हैं. उन्हें अपनी जमीन से बहुत प्यार है. वे दूसरों की तर्कपूर्ण बात भी नहीं सुनना चाहते हैं. अब मणिपुर के साथ समस्या यह है कि करीब 90 प्रतिशत जमीन पहाड़ी क्षेत्र में है और 60 प्रतिशत आबादी घाटी में रहती है. अब आप देखिए कि घाटी में रहने वाले मेइतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है जबकि घाटी में किसी को भी जमीन खरीदने की अनुमति है. इस कारण मेइतेई समुदाय को लगता है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. इसी तरह पहाड़ी क्षेत्र की आबादी जो राज्य की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है, चाहती है कि बाहरी लोगों को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति न दी जाए. इससे उनकी आबादी में बदलाव आ जाएगा और उनकी निजता का हनन होगा.’

इस मामले में सभी पक्षों के बीच बातचीत न होने पर भी अमरजीत सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पहाड़ी और घाटी दोनों जगहों पर रहने वाले समुदाय खुद को बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं. चाहे बात मेइतेई, नगा, कुकी या किसी और समुदाय की हो. अब ये जो विधेयक पास हुए हैं, मेइतेई समुदाय उसका समर्थन कर रहा है. कुकी और नगा उसका विरोध कर रहे हैं. हालत यह है कि पहाड़ी क्षेत्र के लोग कुछ कहते हैं तो घाटी के लोग उसका विरोध करते हैं और अगर घाटी के लोग कुछ कहते हैं तो पहाड़ी क्षेत्र के लोग उसका विरोध करते हैं. अगर आप इन तीनों विधेयकों को देखेंगे तो जो इसका विरोध कर रहे हैं वे गलत नहीं हैं. जो इसके पक्ष में हैं वे भी बहुत हद तक गलत नहीं हैं. मेरे ख्याल से अब वह वक्त आ गया है कि मणिपुर की समस्या को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र और घाटी के लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे इस मामले को अपने स्तर पर सुलझा सकें. केंद्र को मामले में हस्तक्षेप करके एक कमेटी का गठन करना चाहिए जो यह निश्चित करे कि मणिपुर के लिए बेहतर क्या है. वैसे भी इन तीन विधेयकों को लागू होने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत होगी. अगर एक्सपर्ट कमेटी यह सलाह देती है कि ये विधेयक मणिपुर के लिए फायदेमंद हैं तो इनको पास कर देना चाहिए और अगर उन्हें लगता है कि ठीक नहीं हैं तो इन्हें मणिपुर विधानसभा को वापस भेज देना चाहिए. इतने दिनों बाद भी बिल का विरोध करने वाले लोगों और राज्य सरकार के बीच किसी भी तरह की बातचीत अंतिम रूप नहीं ले पाई है. ऐसे में राज्य की कानून व्यवस्था बहुत ही खराब हो जाएगी.’ 

48-8copy

 

इतने दिनों तक इस मसले का हल न निकाल पाने में सरकार की नाकामी पर दूसरे विशेषज्ञ भी सहमत हैं. विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित और पूर्वोत्तर में लंबे समय तक तैनात रहे ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) आरपी सिंह कहते हैं, ‘यह बहुत दुखद बात है कि कोई भी मणिपुर में हुई इस घटना में रुचि नहीं ले रहा है. दरअसल यह राजनीतिक पार्टियों के लिए मुद्दा इसलिए नहीं है क्योंकि वहां वोटबैंक नहीं है. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. मणिपुर में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन दिल्ली समेत दूसरी जगहों पर बैठे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है. मुझे लगता है कि सरकार को सभी के साथ बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इसके बगैर हल निकलना संभव नहीं है. अब आप देखिए मणिपुर में ही एक महिला इरोम शर्मिला इतने सालों से प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन अब तक कोई हल नहीं निकला है. यह हमारी नाकामी है.’

हालांकि बाहरी मणिपुर लोकसभा सीट के सांसद थांगसो बाइते कहते हैं, ‘राज्य सरकार बातचीत के लिए तैयार है लेकिन प्रदर्शनकारी बातचीत नहीं करना चाहते हैं. दरअसल पहाड़ी क्षेत्र के कुछ समुदाय ऐसे हैं जो चाहते हैं कि मामले में केंद्र सरकार हस्तक्षेप करे. इसलिए वे राज्य सरकार से बातचीत नहीं कर रहे हैं.’

फिलहाल मणिपुर में छह महीने बाद भी चूराचांदपुर जिला अस्पताल के सामने लोगों का आना कम नहीं हुआ है. लोग शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करते हैं और कैंडल मार्च निकालते हैं. ऐसे ही एक प्रदर्शनकारी सियाम बाइक कहते हैं, ‘हमारे लिए यह बहुत ही कठिन है. हमारी आदिवासी संस्कृति में हम उनको बहुत आदर देते हैं जो मर चुके हैं. लेकिन हमने अभी अपने भाइयों के शव को दफनाया भी नहीं है. हम उन शवों को तब तक नहीं दफनाएंगे जब तक हमें न्याय नहीं मिल जाता. हमें उम्मीद है कि एक दिन केंद्र सरकार इस मामले में हस्तक्षेप करेगी और हमें न्याय मिलेगा.’ मारे गए नौ लोगों में सियाम बाइक के भाई भी शामिल हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य सरकार कितनी संवेदनहीन है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि काफी समय तक शवों को रखने के लिए फ्रीजर तक का प्रबंध नहीं किया गया था. शवों को सुरक्षित रखने के लिए बर्फ का इंतजाम खुद करना पड़ता था. इसके अलावा सरकार ने नवंबर में ही ‘हियाम खम’ (आदिवासी प्रथागत कानून में हियाम खम का मतलब आरोपी द्वारा गलती को स्वीकार कर लेना होता है) किया था. लेकिन अब मार्च आ गया है पर अब तक राज्य सरकार ने उन पुलिस कमांडो को तलाशकर उनके खिलाफ कार्रवाई भी शुरू नहीं की है जिन्होंने हमारे लोगों को मारा है. इसका मतलब सरकार द्वारा किया गया हियाम खम भी सच्चा नहीं था.’

‘घाटी में रहने वाले मेइतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है जबकि घाटी में किसी को भी जमीन खरीदने की अनुमति है. इस कारण मेइतेई समुदाय को हमेशा से लगता रहा है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है’

मांगचिनखुप गाइते कहते हैं, ‘दरअसल जो उग्र प्रदर्शन हुआ वह सिर्फ तात्कालिक नहीं था. इसके पीछे कई दशकों से पहाड़ी क्षेत्र के साथ किया जा रहा भेदभाव है. पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के मन में विकास, शिक्षा और सुरक्षा की भावना ही नहीं विकसित की गई है. पहाड़ी क्षेत्र और घाटी में सरकार के खर्च में स्पष्ट अंतर है. महत्वपूर्ण सामाजिक ढांचे जैसे कृषि विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय, दो मेडिकल इंस्टीट्यूट, आईआईटी, नेशनल गेम्स काॅम्प्लेक्स और राज्य स्तरीय प्रशासनिक भवन सभी घाटी में स्थित हैं. पहाड़ी क्षेत्र को हमेशा से अविकसित ही रखा गया.’ गाइते इसके पीछे राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व को जिम्मेदार ठहराते हैं.

दरअसल पहाड़ी क्षेत्र के लोग मणिपुर की विधानसभा में प्रतिनिधित्व का मामला भी उठाते हैं. वर्तमान में राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से सिर्फ 20 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं जबकि राज्य की जनसंख्या में आदिवासी 40 से 45 प्रतिशत हैं. औसतन हर आदिवासी विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या 37 हजार है लेकिन मेइतेई बहुल घाटी में यह 27 हजार है. परिसीमन आयोग ने आदिवासी क्षेत्रों में विधानसभा सीटें बढ़ाने का सुझाव दिया था लेकिन निहित स्वार्थों के चलते उस पर अमल नहीं हुआ. वहीं रोमियो हमर कहते हैं, ‘हम पहाड़ी क्षेत्र के लिए अलग राज्य की मांग नहीं करते हैं. हम सिर्फ अलग प्रशासन और संविधान की छठी अनुसूची का विस्तार चाहते हैं.’

गौरतलब है कि छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्रों को ऐसे मामलों का निपटारा करने के लिए ज्यादा स्वतंत्रता मिलती है. हालांकि मणिपुर में पहले से ही छह आॅटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल कार्यरत हैं. इसके अलावा एक पहाड़ी क्षेत्र कमेटी का भी गठन किया गया है. लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है. वे कहते हैं कि जब विधेयक पारित हो रहा था तब पहाड़ी क्षेत्र के ज्यादातर विधायक चुप रहे. उन्हें घाटी के लोग खरीद लेते हैं. वे आदिवासियों की आवाज उठाने में नाकाम रहे हैं.

फोटो : अमरजीत सिंह
फोटो : अमरजीत सिंह

हालांकि इस पर डॉ. अमरजीत कहते हैं, ‘मणिपुर छोटा-सा राज्य है. यहां अलग प्रशासन की मांग उठाना बिल्कुल भी जायज नहीं है. उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य बहुत छोटे हैं. अगर उन्हें केंद्र सरकार से मदद न मिले तो राज्य सरकार को कार्य करने में दिक्कत आने लगती है. ऐसे में अलग प्रशासन के लिए खर्च कहां से आएगा? मेरे ख्याल से यह समस्या का सही हल नहीं है. जहां तक राज्य में पहाड़ी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व की बात है तो हमारे यहां सीटों का बंटवारा जनसंख्या के हिसाब से हुआ है. पहाड़ी क्षेत्र में कम लोग रहते हैं, इसलिए उनके पास कम प्रतिनिधित्व (करीब 20 विधानसभा सीटें) है.’

वहीं ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) आरपी सिंह इस मांग के पीछे के एेतिहासिक कारणों का उल्लेख करते हुए इसे जायज बताते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर एक हिंदू राज्य था जिस पर 17वीं शताब्दी में बर्मा ने कब्जा कर लिया. 1826 में पहले एंग्लो-बर्मा युद्ध के बाद एक संधि के तहत मणिपुर को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया था, जबकि असम और चटगांव को भारत में शामिल कर लिया गया था. 1949 में यह भारत में शामिल हुआ, लेकिन वहां के लोग इससे खुश नहीं हुए. अब अगर वे आॅटोनॉमस दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं तो इसे देने में कोई बुराई नहीं है. हम भारत के लोग पता नहीं क्यों बहुत भावुक हो जाते हैं, जबकि चीन, कनाडा में कई आॅटोनॉमस राज्य हैं.’

 इसके अलावा इन विधेयकों के कानून बन जाने पर 1951 के बाद मणिपुर में बाहर से आकर बसने वाले लोग मणिपुरी नहीं कहलाएंगे. इस प्रकार उनके मणिपुर में भ्रमण और जमीन आदि खरीदने के अधिकार भी सीमित हो जाएंगे. बाहरी लोगों के जमीन खरीदने पर पाबंदी लग जाएगी. डाॅ. अमरजीत कहते हैं, ‘मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्र में बड़ी संख्या में म्यांमार से अवैध प्रवासी आकर बस गए हैं. इसके चलते वहां के कुछ समूह चिंतित भी हैं. अगर ये तीन विधेयक पास हो जाते हैं तो म्यांमार से आए लोगों को अवैध प्रवासी का दर्जा मिल जाएगा. इस कारण भी इस बिल का जोरदार विरोध हो रहा है. इसके अलावा इस इलाके में धर्म परिवर्तन बहुत तेजी से हुआ है. आदिवासी समुदाय के ज्यादातर लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है. ऐसे में वे नहीं चाहते हैं कि हिंदू मेइतेई समुदाय के लोग उनके इलाके में रहें.’ आरपी सिंह कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्र इलाके में धर्मांतरण बड़ी समस्या है. ज्यादातर लोग धर्म बदलकर ईसाई बन गए हैं. मिशनरीज यहां बहुत ही आक्रामक तरीके से काम कर रहे हैं. यहां तेजी से बढ़ रही हिंसा में इनका भी हाथ होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता.’

[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

क्या है तीन विधेयकों में और क्यों है विवाद ?

बीते साल 31 अगस्त को मणिपुर विधानसभा में मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किए गए हैं. लेकिन इन विधेयकों के पास होने के बाद मणिपुर के आदिवासी समूह असंतुष्ट हो गए. जनजातीय छात्र संगठनों का दावा है कि मणिपुरी निवासी सुरक्षा विधेयक-2015 (प्रोटेक्शन ऑफ मणिपुर पीपुल्स बिल-2015) और अन्य दो संशोधन विधेयक राज्य के उन पहाड़ी जिलों में जमीन की खरीद और बिक्री की इजाजत देते हैं जहां नगा और कुकी रहते हैं. उनका कहना है कि इन विधेयकों के कुछ प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 371 (सी) और मणिपुर हिल पीपुल एडमिनिस्ट्रेशन रेगुलेशन एक्ट-1947 का हनन करते हैं, जिन्हें मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने वाले जनजातीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था. इनके तहत राज्य के पहाड़ी जिलों को विशेष क्षेत्र का दर्जा मिला है यानी गैर-अनुसूचित जातियां यहां जमीन नहीं खरीद सकतीं. बाहरी लोगों के आने के कारण कुल आबादी में मूल निवासियों की तेजी से घटती संख्या की वजह से इन्हें अपनी पुश्तैनी जगह से बेदखल होने का डर पैदा हो गया है. इन तीनों विधेयकों में साल 1951 की समय सीमा ने जनजातियों में डर का एक माहौल पैदा कर दिया कि इस तारीख के बाद राज्य में आने वाले नगा और कुकी जनजातियों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी. नए कानून के मुताबिक मणिपुर में जो लोग 1951 से पहले बसे हैं उन्हें ही संपत्ति का अधिकार होगा. इसके बाद बसे लोगों का संपत्तियों पर कोई हक नहीं होगा. ऐसे लोगों को राज्य से जाने के लिए भी कहा जा सकता है. नया कानून बनाने की मांग मणिपुर के बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय ने की थी. आदिवासी समूह इसका विरोध कर रहे हैं. आदिवासियों को आशंका थी कि उन्हें नए कानून का खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. यह अलग बात है कि नया कानून बनने के बाद बाहरी राज्यों से मणिपुर आने वाले लोगों के लिए परमिट लेना जरूरी होगा.

मणिपुर के बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया गया है. लेकिन मेइतेई भी राज्य में बाहरी लोगों को आने से रोकने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) लागू करवाना चाहते हैं. जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 और 2011 के बीच यहां बाहरी लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है. पड़ोसी राज्यों और पड़ोसी देशों से आने वाले प्रवासियों की बढ़ती संख्या से मेइतेई लोगों का गुस्सा इन विधेयकों के पारित होने से कुछ हद तक शांत हुआ. लेकिन इससे नगा और कुकी जनजातियां नाराज हो गईं और इन जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्र संगठनों ने पूरे राज्य में आम हड़ताल का आह्वान कर दिया. इस बीच कुकी बहुल दक्षिणी जिले चूराचांदपुर में हिंसा के दौरान हुई पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए. विधेयकों के पास होने के बाद ऑल नगा स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ मणिपुर (एएनएसएएम), कुकी स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (केएसओ) और ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) ने राज्यपाल पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल की, ताकि वे इन विधेयकों को अपनी मंजूरी न दें.

मणिपुर की 60 प्रतिशत आबादी राज्य के 10 प्रतिशत जमीन पर मैदानी भाग में रहती है. इसलिए यहां जमीन एक संवेदनशील मुद्दा है. इसलिए मणिपुर के छात्र संगठन राज्य में आईएलपी लागू करने की मांग कर रहे हैं. उनका आरोप है कि सरकार ने राज्य के मूल लोगों के हितों के लिए कुछ खास नहीं किया. आईएलपी भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला एक विशेष पास है. यह अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में प्रवेश के लिए जरूरी है. इसे ब्रिटिश काल में लागू किया गया था. 1950 में मणिपुर में इसे निरस्त कर दिया गया. 1972 में राज्य बनने से पहले मणिपुर असम में शामिल था. मणिपुर में आईएलपी लागू करने की मांग 1980 में उठी. 2006 में ‘फ्रेंड्स’ नाम का संगठन बना और 2012 में आंदोलन शुरू हुआ. करीब 30 संगठन जॉइंट कमेटी ऑन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) बनाकर आंदोलन कर रहे हैं. इनका कहना है कि राज्य में बाहरी लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है. वे मूल निवासियों की जमीन और नौकरी हड़प रहे हैं. मणिपुर के पड़ोसी राज्य नगालैंड में बाहरी लोगों के प्रवेश को सख्ती के साथ रोका जाता है. आईएलपी की व्यवस्था अंग्रेजों ने इसलिए बनाई थी ताकि बाहरी लोगों को इन इलाकों में जमीन खरीदने या यहां बसने से रोककर आदिवासियों को सुरक्षा दी जाए. यह व्यवस्था पूर्वोत्तर के तीन राज्यों अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड में अब भी मौजूद है लेकिन मणिपुर में नहीं है.

इन विधेयकों के कुछ प्रावधान उन कानूनों का हनन करते हैं जिन्हें मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने वाले आदिवासी लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था जिनके तहत पहाड़ी जिलों को विशेष क्षेत्र का दर्जा मिला है यानी गैर- अनुसूचित जातियां यहां जमीन नहीं खरीद सकतीं

मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 में सरकार ने कहा है कि गैर-मणिपुरी लोगों द्वारा राज्य में जमीन खरीदे जाने को रेगुलेट करने की आवश्यकता है ताकि आम जनता के हित में पहाड़ी क्षेत्र की जमीन राज्य के सभी मूल निवासियों के लिए उपलब्ध हो. लेकिन पहाड़ में रहने वाले लोगों का कहना है कि मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार की धारा 158 में साफ तौर पर कहा गया है कि गैर-अादिवासी को आदिवासी की जमीन खरीदने-बेचने के संबंध में उस क्षेत्र की ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल से अनुमति लेनी आवश्यक है जिसके अधिकार क्षेत्र में वह जमीन आती है. यदि नए विधेयक की धारा 14 (ए) लागू होती है तो वर्तमान में लागू धारा 158 की पूरी तरह से अनदेखी हो जाएगी. फिलहाल अभी लोगों के हित के लिए किए जाने वाले कार्यों के लिए हिल एरिया कमेटी की सहमति ली जाती है लेकिन अब गैर-मणिपुरी लोगों अथवा संस्थाओं को राज्य में जमीन खरीदने के लिए सरकार से अनुमति लेनी आवश्यक होगी. यह अनुमति राज्य सरकार की कैबिनेट देगी. 1972 में जब मणिपुर का गठन हुआ था तब इसके पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वालों के हितों को ध्यान में रखकर मणिपुर (पहाड़ी क्षेत्र) डिस्ट्रिक्ट काउंसिल एेक्ट संसद द्वारा लागू किया गया. मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों का विकास पहाड़ी क्षेत्र कमेटी द्वारा संचालित संविधान की धारा 371 (सी) द्वारा होता है. लेकिन नए कानूनों के तहत कमेटी के पास कोई न्यायिक और विधायी शक्तियां नहीं हैं. ऐसे में यह पहाड़ों में रहने वाले लोगों के हित के काम नहीं कर सकेगी. 
[/symple_box]

फिलहाल राज्य के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह लगातार यह बात कहते रहे हैं कि इन विधेयकों में आदिवासी विरोधी कुछ भी नहीं है. उन्होंने पहाड़ी क्षेत्र के लोगों से अपील की है कि वे अपने प्रदर्शन को वापस ले लें. हालांकि प्रदर्शनकारियों पर उनकी इस अपील का कोई खास असर नहीं पड़ा है. वहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने इस हिंसा पर अफसोस जताया है. उनका कहना है, ‘लोगों ने पारित हुए विधेयकों को ठीक से समझा नहीं और हिंसा भड़क उठी. कुछ लोग इस तरह की हिंसा को बढ़ावा देकर अपना राजनीतिक हित साध रहे हैं जो ठीक नहीं है. लोगों को विधेयकों को अच्छी तरह समझना चाहिए. केंद्र सरकार लगातार स्थिति पर नजर बनाए हुए है.’

वहीं भाजपा सांसद तरुण विजय इस मामले को राज्यसभा में उठा चुके हैं. राज्यसभा में उन्होंने कहा था, ‘मणिपुर में विरोध-प्रदर्शन करते हुए नौ युवक मारे गए. इस बात को लेकर इतना असंतोष और नाराजगी है कि इन नौ युवकों के शवों का अंतिम संस्कार तक नहीं किया गया. इस मामले में केवल मणिपुर ही नहीं, केंद्र सरकार को भी गौर कर उनकी मदद करनी चाहिए.’ उन्होंने सरकार से मांग की कि वह यह सुनिश्चित करे कि राष्ट्रपति इन विधेयकों का अनुमोदन न करें. साथ ही मारे गए लोगों के मामले की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन करने के साथ दोषियों को दंडित किया जाए.

‘पहाड़ी क्षेत्र और घाटी में सरकार के खर्च में स्पष्ट अंतर है. महत्वपूर्ण सामाजिक ढांचे जैसे कृषि विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय, आईआईटी, नेशनल गेम्स काॅम्प्लेक्स आदि घाटी में स्थित हैं. पहाड़ी क्षेत्र को हमेशा से अविकसित ही रखा गया’

वैसे मणिपुर में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके बावजूद राज्य सरकार व विपक्षी दल गतिरोध को दूर करने के लिए चिंतित नहीं दिखाई पड़ रहे हैं. फिलहाल चूराचांदपुर जिला अस्पताल में रखे गए नौ लोगों के शव हमारी संवेदनहीनता का एक नमूना हैं. ये शव यह याद दिला रहे हैं कि दिल्ली में बैठी सरकार, राष्ट्रीय मीडिया, मणिपुर सरकार समेत प्रशासनिक इकाइयों को आदिवासियों और दूर-दराज के लोगों की आवाज सुनाई नहीं देती है या फिर उन्हें जान-बूझकर अनसुना किया जाता है. शायद ये आवाजें वोटबैंक के लिहाज से कमजोर हैं. हमें इस मामले को आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी, पहाड़ी क्षेत्र बनाम घाटी, हिंदू बनाम ईसाई या फिर फायदे-नुकसान से ऊपर उठकर देखना होगा. एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकार इस बात का इंतजार कर रही है कि मुर्दाघर में सड़ रहे इन शवों को दफनाने के लिए एक बार फिर हिंसक प्रदर्शन हो और इस आंदोलन को लेकर कुछ और लोगों की बलि चढ़ जाए.

असंतुलन बढ़ाएगी स्मार्ट सिटी

l2015062566970

जिस देश की 26 प्रतिशत यानी 31 करोड़ से ज्यादा की आबादी अनपढ़ हो, जिस देश में सात करोड़ से ज्यादा लोग बेघर हों, जिस देश के शहरों में नौ करोड़ से ज्यादा झुग्गी-झोपड़ी में रहते हों, जिस देश में सबसे ज्यादा भुखमरी हो और 20 करोड़ लोग रोज भूखे सोते हों, उस देश के स्मार्ट शहर कैसे होंगे? जिस देश में 20 साल में 3 लाख से ज्यादा किसान कर्ज और भुखमरी के चलते आत्महत्या कर चुके हों, उसके शहर शंघाई, लंदन और क्योटो से बराबरी कैसे करेंगे? ये वे सरकारी आंकड़े हैं जिसके बारे में हम सभी सोचते हैं कि वह अनिवार्यत: झूठे हैं. गरीबी रेखा की सरकारी परिभाषा हममें से किसी के भी जीवन में सुना गया सबसे भद्दा चुटकुला है. यह सरकारी आंकड़ा ही कहता है कि 2011 की जनगणना के मुताबिक देश के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं. ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा 69.3 प्रतिशत है. देश में करीब 60 करोड़ लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं. जिन शहरों को सरकार स्मार्ट बनाना चाहती है, झुग्गियां उन्हीं शहरों का विद्रूप सच हैं, जिनमें लाखों लोग रहने को मजबूर हैं. आंकड़े कहते हैं कि भारत के गांवों में बिना शौचालय वाले घरों की संख्या करीब 11 करोड़ 50 लाख है. अगर इन घरों में सिर्फ शौचालय की सुविधा मुहैया कराई जाए तो इसका अनुमानित खर्च 22 खरब से 26 खरब रुपये आएगा. जबकि केंद्र सरकार 48 हजार करोड़ रुपये में सौ शहरों को स्मार्ट बनाने जा रही है.

सवाल उठता है कि जिस देश में बुनियादी तौर पर हालत इतनी खराब हो, वहां पर स्मार्ट शहरों की कितनी जरूरत है? सरकार को कुछ शहरों को चुनकर पहले स्मार्ट बनाना चाहिए या पूरे देश में जीवन जीने के लिए जरूरी न्यूनतम ढांचा खड़ा करना चाहिए? हालांकि, स्मार्ट शहर बनाने जा रही सरकार के भी पास स्मार्ट शहर का कोई पैमाना नहीं है. स्मार्ट सिटी मिशन के लिए शहरी विकास मंत्रालय ने जो निर्देशिका जारी की है, वह कहती है, ‘स्मार्ट सिटी की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है. अत: स्मार्ट सिटी की अवधारणा विकास के स्तर, परिवर्तन और सुधार के लिए इच्छुक होने और संसाधनों और शहर के निवासियों की आकांक्षाओं के आधार पर शहर-दर-शहर और एक देश से दूसरे देश के मामले में भिन्न है. स्मार्ट सिटी के लिए यूरोप की अपेक्षा भारत में इसका अर्थ अलग होगा. भारत में भी स्मार्ट सिटी को परिभाषित करने का कोई एक तरीका नहीं है.’ विशेषज्ञों का मानना है कि एक शहर के स्मार्ट बनने के लिए ज्यादा से ज्यादा निवेश, बुनियादी ढांचे पर अधिकाधिक खर्च और योजना बनाने के लिए एक कुशल समिति की अनिवार्य जरूरत पड़ती है. स्मार्ट सिटी मिशन के तहत सरकार ऐसा कुछ नहीं करने जा रही है.

स्मार्ट सिटी परियोजना मौजूदा संरचना और संसाधनों के तहत ही सिर्फ ‘स्मार्ट सॉल्यूशन’ मुहैया कराएगी. सरकार अपनी घोषणा में कहती है, ‘भारत में शहर में रहने वाले किसी व्यक्ति की कल्पना में स्मार्ट सिटी की छवि में अवसंरचना और सेवाओं की एक इच्छा सूची निहित होती है, जो उसके आकांक्षा स्तर को व्यक्त करती है… स्मार्ट सिटी मिशन के दृष्टिकोण में इसका उद्देश्य उन प्रमुख शहरों को प्रोत्साहित करना है जो मुख्य अवसंरचना मुहैया कराते हैं और अपने नागरिकों को बेहतर जीवन स्तर प्रदान करते हैं, एक स्वच्छ और सुस्थिर वातावरण प्रदान करते हैं और ‘स्मार्ट’ समाधान लागू करते हैं.’ यानी स्मार्ट सिटी का स्वरूप नागरिकों के ‘आकांक्षा स्तर’ से तय होगा. दूसरे, जो शहर अपने नागरिकों को मुख्य अवसंरचना मुहैया नहीं कराते या उनके जीवन स्तर को बेहतर नहीं बनाते, उनके लिए सरकार फिलहाल कुछ नहीं कर रही है. यह बेहतर शहरों को बेहतरीन बनाने की योजना है.

2012 के दिल्ली शहरी विकास प्राधिकरण के आंकड़े के अनुसार दिल्ली की 685 झुग्गी बस्तियों में 20,29,755 लोग रहते थे. 2014 में झुग्गी बस्तियों की संख्या 675 हो गई, जिसमें 16,17,239 लोग रहते हैं. दिल्ली सरकार के आंकड़े के अनुसार दिल्ली की आधा प्रतिशत जमीन में 16,17,239 लोग रह रहे हैं. 2011 की जनगणना के ही अनुसार, राजधानी में 47,076 लोग बेघर हैं

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

कहां से निकला स्मार्ट सिटी का आइडिया

स्मार्ट सिटी की अवधारणा तब विकसित हुई जब पूरी दुनिया आर्थिक संकट के बुरे दौर से गुजर रही थी. फरवरी 2012 में टाइलर फाल्क ने एक लेख में लिखा, ‘स्मार्ट सिटी टेक्नोलॉजी की शुरुआत के लिए पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कुछ हद तक क्रेडिट ले सकते हैं. 2005 में क्लिंटन ने क्लिंटन फाउंडेशन के जरिये इक्यूपमेंट निर्माता कंपनी सिस्को को सलाह दी कि तकनीक के प्रयोग के जरिये शहरों को और टिकाऊ कैसे बनाया जाए, इस पर काम करें. सिस्को ने 25 बिलियन डॉलर खर्च करके पांच साल तक शोध कराया, नतीजतन शहरी विकास कार्यक्रम की अवधारणा सामने आई. इस कंपनी ने सैन फ्रांसिस्को, एम्सटर्डम और सियोल के साथ तकनीक की क्षमता को साबित करने के लिए पायलट प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया.

2008 में आईबीएम (इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) ने भी ‘स्मार्टर सिटी’ की अवधारणा पर काम करना शुरू किया. सिस्को के अलावा आईबीएम भी शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए सूचना तकनीक का इस्तेमाल करने की अवधारणा पर काम कर रही थी. ये दोनों कंपनियां स्मार्ट सिटी पर फोकस कर रही हैं लेकिन दोनों अपने-अपने तरीके से अलग रणनीतियों के तहत काम कर रही हैं. 2009 की शुरुआत तक दुनिया भर के कई देशों में इस अवधारणा पर काम शुरू हुआ. 2010 में सिस्को ने उत्पादों और सेवाओं का व्यावसायीकरण करने के लिए स्मार्ट एंड कनेक्टेड कम्युनिटीज डिवीजन लॉन्च किया. यूरोप के कई शहरों ने स्मार्ट सिटी की दिशा में शानदार काम किया तो चीन, दक्षिण कोरिया, यूएई जैसे देशों ने इसके लिए भारी निवेश किया है. 2014 के पहले ही भारत में कोच्चि, अहमदाबाद, औरंगाबाद, मानेसर, सूरत आदि शहरों में स्मार्ट सिटी की तर्ज पर काम शुरू हो चुका था. हालांकि, अभी इसका कोई उल्लेखनीय परिणाम सामने नहीं आया है.

[/symple_box]

दिल्ली स्थित हेजार्ड सेंटर के निदेशक दुनू राय कहते हैं, ‘इससे तो मुझे लग रहा है कि जो स्मार्ट सिटी की आर्थिक बुनियाद है, उसमें अमीर और ज्यादा अमीर होगा, गरीब यो तो जहां का तहां रहेगा या और ज्यादा गरीब होता चला जाएगा. इस व्यवस्था की सारी कवायद निश्चित तौर पर गरीबों के लिए है ही नहीं. यह सारा इंतजाम अमीरों के लिए और कुछ हद तक मध्यम वर्ग के लिए है. जैसे कि ये क्लीन सिटी कह रहे हैं, तो क्लीन सिटी का एक मतलब यह होता है कि उसमें कूड़ा न हो, दूसरा यह कि उसमें कूड़ा बीनने वाले ही न हों. एक प्रकार से जो गरीब तबका है, जो मेहनत करने वाले हैं, उनको भी धीरे-धीरे शहर से बाहर किया जाएगा. दूसरी बात, इन सब योजनाओं में शब्दों का मायाजाल भी जुड़ा हुआ है. वो जब कह रहे हैं कि शहरों का नया रूप होगा, तब वे असल में पूरे शहर की कहीं भी बात नहीं कर रहे हैं. भुवनेश्वर स्मार्ट सिटी में आ गया है तो पूरे शहर की बात नहीं है. भुवनेश्वर के अंदर एक छोटा-सा इलाका है जो कि करीब 200 एकड़ का है. उसी इलाके को ये स्मार्ट सिटी के तहत चमकाने वाले हैं. बाकी शहर से इनको कोई मतलब नहीं है. हम जिसे ‘गेटेड कम्युनिटी’ कहते हैं, जैसा आजकल इश्तिहार लगा देखते हैं कि जहां आप रह रहे हैं, वहां पर हर सुविधा है और उसके बाहर आपको देखने की जरूरत भी नहीं है. उसी प्रकार यह स्मार्ट सिटी भी एक प्रकार की ‘गेटेड कॉलोनी’ की जगह ‘गेटेड सिटी’ हो जाएगी.’

आर्थिक विषयों के जानकार पत्रकार राजू सेजवान का कहना है, ‘यह तो साफ है कि स्मार्ट सिटी जैसी योजना आम जनता के लिए नहीं है. यह असंतुलन पैदा करेगा कि एक जगह लोगों को आप अच्छी सुविधाएं दे रहे हैं और दूसरे इलाके में लोग जैसे तैसे रह रहे हैं. अभी तक जो मुझे समझ में आ रहा है वो ये है कि ये कुछ निवेशकों को लुभाने के लिए एक जोन विकसित किया जा रहा है कि आप इस जोन में जाकर पैसा लगाइए और पैसा कमाइए.’

यह जानना दिलचस्प होगा कि स्मार्ट सिटी मिशन लॉन्च करने वाली भारत सरकार की निर्देशिका और ‘विकीपीडिया’ पेज, दोनों यह बात मानते हैं कि स्मार्ट सिटी की कोई निश्चित व्याख्या नहीं हो सकती. हालांकि, मोटे तौर पर स्मार्ट सिटी एक ऐसी अवधारणा है जिसके तहत डिजिटल सूचना तकनीक के जरिये जीवनशैली को आसान बनाने की बात कही जाती है. अब सवाल उठता है कि जब सरकार योजना की अपनी प्रस्तावना में ही कह रही है कि स्मार्ट सिटी की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है तो यह योजना किस बुनियाद पर तैयार की गई है?

[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

अमीर लोगों के लिए हैं ये सारे तमाशे 

विकास की ये सारी अवधारणाएं अमेरिका की हैं. भारत की समस्या है कि यहां कितने गरीब लोगों को रहने की जगह नहीं है, बड़ी संख्या में लोगों के पास मकान नहीं है, पीने के लिए पानी नहीं है, सड़क, परिवहन, स्कूल, अस्पताल कुछ भी ठीक नहीं है, सीवेज के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं है, आप चाहे किसी भी शहर में जाकर देख लो. ये स्मार्ट का बोर्ड लगा देंगे, लोगों पर सेंसर लगा देंगे, ई-गवर्नेंस कर देंगे. ये सब किसके लिए है? 25 फीसदी अमीर लोगों के लिए ये सारे तमाशे चल रहे हैं. ये स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया ये सारी ड्रामेबाजी है. इससे कुछ नहीं होने वाला है. क्या हिंदुस्तान में पहले डिजिटल तकनीक नहीं आई थी? आईटी को यहां आए करीब 25 साल हो गया है. चेन्नई, बंगलुरु फिर हैदराबाद. डिजिटल इंडिया तो कब का यहां स्टार्ट हो चुका है. अब मोदी कह रहे हैं कि स्टार्ट अप इंडिया, जैसे अभी तक कुछ शुरू ही नहीं हुआ था! सरकार के ये सारे स्लोगन मुझे तो समझ में नहीं आ रहे हैं. ये बस लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं. सरकार को हर कहीं फ्रॉड करने से बचना चाहिए. मेक इन इंडिया की अवधारणा यही है कि सब कहीं से आकर पैसा लगाओ और पैसा बनाओ. आप कह सकते हैं मेक इन इंडिया, लूट इन इंडिया. वरना मेक इन इंडिया कोई और आकर क्यों करेगा? हम खुद क्यों नहीं कर सकते? बीस साल से यहां कोई रोजगार पैदा नहीं हुआ. विदेशी निवेश के तमाम सेक्टर खोले गए तो किसी ने विश्लेषण नहीं किया कि उससे कितना रोजगार पैदा हुआ. यूपी में चपरासी की वैकेंसी निकली तो 20 लाख छात्रों ने आवेदन किया. इसमें पीएचडी, एमए और इंजीनियरिंग किए हुए बच्चे भी थे. सरकार को तमाशा करने की जगह इन चीजों पर ध्यान देना चाहिए.

एमजी देवसहायम, पूर्व आईएएस 
[/symple_box]

 2008-09 में कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पेश किया गया ‘स्मार्ट सिटी’ का बाजारवादी फाॅर्मूला अचानक चर्चा में आया और पूरी दुनिया में आकर्षक मुहावरा बन गया. एशियाई देशों में यह शब्द सुनामी की तरह फैला, क्योंकि यहां पर विकास एक आकर्षक नारा है. इसी कड़ी में स्मार्ट सिटी एक बेहद आकर्षक चुनावी मुहावरा बनकर उभरा है. 100 स्मार्ट शहर बनाने की मोदी सरकार की घोषणा के बाद मशहूर शहरी योजनाकार क्रिस्टोफर सी. बेनिंजर ने अपने एक लेख में लिखा, ‘शहरी नीति में इस शब्द के हाल ही में उभरने और इसके अबूझपने ने इसे आकर्षक मुहावरा बना दिया है, क्योंकि कोई भी नहीं जान सकता कि जो कुछ प्रस्तावित है, वह दरअसल है क्या. किसी हिंदी फिल्म की तरह, जिसमें नायक को इस तरह दिखाया जाता है जैसे उसकी जिंदगी पर उसी की पकड़ है या फिर उसके हाथों में कोई काला जादू है. स्मार्ट शहरों की अवधारणा हमेशा लालायित रहने वाले ऐसे सलाहकार दलों की जरूरत पर निर्भर है, जिन्हें हल करने के लिए एक संकट का इंतजार होता है और अपने सामान बेचने के लिए विशेष तरीकों की जरूरत होती है. स्मार्ट शहर दूरदर्शी राजनेताओं की जरूरत पर निर्भर होता है, जो नए विचारों के लिए अपने सचिवों, शहरी योजनाकारों और सलाहकारों से पूछते रहते हैं, जो कि उनके पास होता ही नहीं. ये दोनों कारक ‘स्मार्ट सिटी बीमारी’ में जा मिलते हैं, जहां टेक्नोलॉजी तुरंत समाधान का वादा करती है. यह नई सजावटी स्कीमों की विशाल रेंज बताने, पुरानी स्कीमों को ही नाम बदलकर लाने और स्मार्ट लगने वाली हाइटेक खबरों की सुर्खियों का रास्ता खोल देगी.’

पूर्व आईएएस और चंडीगढ़ के डीसी रहे एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘जनतंत्र का जो उसूल है, उसे खत्म किया जा रहा है. जनतंत्र लाने के लिए तमाम सुधार प्रस्तावित थे, वो तो कुछ हुआ नहीं, जो कुछ था, उसे भी नई सरकार ने ई-गवर्नेंस के जरिये उठाकर फेंक दिया. अब ये ट्विटर और ह्वाट्सअप से सरकार चलाएंगे. देश में यही चल रहा है. मतलब इंसान कहीं नहीं हैं. मुझे समझ में नहीं आ रहा है ये सब चल क्या रहा है. हर तरफ सिर्फ तमाशा है. शहरों समेत पूरे देश की जो हालत है, 60-70 फीसदी आबादी स्लम में रह रही है. इसीलिए मैं कह रहा हूं कि यह बोगस स्कीम है. यह आम आदमी के लिए नहीं है. ये सिर्फ अपना माल बेचने के लिए कंपनियों की स्कीम है. किसी शहर की स्मार्टनेस इससे तय हो सकती है कि वह शहर इंसानों के रहने के काबिल हो. हर शहर में तरह-तरह के इंसान रहते हैं. अमीर से अमीर और गरीब से गरीब. ऐसे भी लोग रहते हैं जो सड़क पर और पाइप के अंदर सोते हैं. स्लम की गंदगी में भी लोग रहते हैं. एक तरफ वे लोग हैं, दूसरी तरफ हमारे अंबानी साब हैं जो मुंबई में छह हजार करोड़ की बिल्डिंग बनाकर बैठे हैं. उनकी बिल्डिंग के सामने ही लोग पाइप के अंदर रहते हैं. अब असली सवाल यही है कि इनमें से आप स्मार्ट किसको बनाएंगे?’

C

9 मार्च, 2015 में फोर्ब्स पत्रिका में छपे एक लेख की पहली लाइन है, ‘जबसे औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई है, शहर आर्थिक विकास के इंजन हैं.’ इसके तुरंत बाद जून 2015 में भारत सरकार स्मार्ट सिटी मिशन की निर्देशिका जारी करती है जिसकी पहली पंक्ति है, ‘शहर, भारत समेत प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के विकास के इंजन हैं.’ ये पंक्तियां पढ़कर शंका होती है कि सरकार कहीं नकल के चक्कर में तो नहीं उलझ गई है! विशेषज्ञों की नीतिगत आलोचना भी इससे इनकार नहीं करती. वास्तुकला पर जाने-माने लेखक गौतम भाटिया कहते हैं, ‘हमारे यहां स्मार्ट सिटीज की जरूरत तो है लेकिन स्मार्ट सिटी की जो परिभाषा है वो हमारे लिए अलग से होनी चाहिए. जो स्मार्ट सिटी मोदी जी ला रहे हैं ये वही आइडिया है जो बैंकूवर, कैनबरा और दूसरे देशों के शहरों में प्रस्तावित हो रहे हैं. हमारे हालात बिल्कुल अलग हैं, मेरे ख्याल से जो प्रस्ताव सरकार ने रखा है वो हमारे लिए बिल्कुल मुफीद नहीं है. स्मार्ट सिटीज का आइडिया ऐसा होना चाहिए जो भारत की समस्या का समाधान करे, बजाय इसके कि हम पश्चिमी देशों की नकल करें.’

पत्रकार राजू सेजवान कहते हैं, ‘अभी यह पूरा प्रोजेक्ट जिस स्तर पर है, वहां कोई स्पष्टता नहीं है. दूसरे, सरकार स्मार्ट सिटी में एक जोन विकसित कर रही है जो शहर के लिए एक मॉडल हो सकता है, लेकिन वहां पर रहने के लिए सब चीजें महंगी होंगी. मेरी समझ से इसकी कोई जरूरत तो नहीं है, बजाय एक पॉश इलाका विकसित करने के, पूरे शहर को रहने लायक बनाने की जरूरत है. ये लोग एक ऐसा पॉश इलाका विकसित करने पर काम कर रहे हैं जहां पर हर चीज आपको पैसे से मिलेगी और महंगी मिलेगी. हालांकि, ये जिस चरण में हैं वहां पर कुछ कह पाना संभव नहीं है. लेकिन अब तक जो चीजें सामने आई हैं, उससे ये लगता है कि हर आदमी को समान अवसर जैसी कोई बात नहीं है.’

संयुक्त राष्ट्र मानव विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट-2009 के मुताबिक, मुंबई में 54.1 प्रतिशत लोग छह प्रतिशत जमीन पर रहते हैं. रिपोर्ट कहती है कि मुंबई देश में ही नहीं, पूरे विश्व का इकलौता शहर है जहां झुग्गियों में रहने वालों की संख्या बाकी लोगों की तुलना में अधिक है. दिल्ली में 18.9 प्रतिशत यानी करीब 30 लाख, कोलकाता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं

अब तक कृषि प्रधान देश के रूप में पहचान पाने वाले भारत की नीतियां यह मानकर बनाई जा रही हैं कि शहर विकास के इंजन हैं, हालांकि, जिस सीजन में फसलें कमजोर हो जाती हैं, सेंसेक्स पर सवार अर्थव्यवस्था की सांस फूल जाती है. अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘शहरों की समस्या का समाधान, स्लम की समस्या का समाधान गांवों की तरक्की है. गांव केंद्रित विकास कीजिए आप. शहरों में अनावश्यक लोग आ गए हैं. आपने दसों विश्वविद्यालय खोल दिए हैं. कृषि शोध संस्थान जैसी चीज यहां खोल दी है. सब कंपनियों के आफिस यहां बना दिए हैं. यहां तो भीड़ बढ़ेगी ही. हजारों करोड़ खर्च करके मेट्रो जैसी चीजें बना रहे हैं. यहां लोगों को फौरी लाभ मिलता है लेकिन इन अवसरों की कीमत कौन चुका रहा है?’

दुनू राय कहते हैं, ‘स्मार्ट सिटी जैसी चीजों की फिलहाल जरूरत नहीं है, लेकिन उसके पीछे एक छोटी सी भूमिका है. जबसे इस देश में इंसानी तरक्की की जगह जीडीपी तरक्की पर सारा ध्यान केंद्रित हो गया है, तबसे ही यह स्मार्ट सिटी वगैरह होना तय हो गया था. स्मार्ट सिटी मौजूदा आर्थिक प्रणाली की उपज और इसका विशेष अंग है. इसके चलते जो अंतर आ रहा है वह हम पहले से ही देख रहे हैं. इस प्रणाली की बुनियाद है पूंजी की आवश्यकता. पूंजी आएगी तभी आर्थिक विकास होगा और जब आर्थिक विकास होगा तब धीरे-धीरे गरीब तबके को इसका फल मिलेगा. यह उसकी समझ है. इसका मतलब है कि हर विकास की योजना में पहली बात जो आती है वो ये है कि इसको पूंजी के प्रति अच्छा रुख अपनाना होगा. क्योंकि अगर पूंजी नहीं आएगी तो विकास ही नहीं हो सकता. जब तक यह सोच रहेगी, उसका फल यही होगा कि इस देश में जो अमीर है, वह और अमीर होता जाएगा और जिस गरीब के नाम पर यह हो रहा है वह इंतजार करता रहेगा कि यह मेरे पास कब धीरे धीरे रिसकर आएगा. स्मार्ट सिटी की भी व्यवस्था बिल्कुल वही है. पूंजी के नाम पर विकास की बात की जा रही है.’

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

वंचित तबके के लोग होंगे भुक्तभोगी

स्मार्ट सिटी का आइडिया आइलैंड बनाने का आइडिया है. इससे असमानता को और ज्यादा बढ़ावा मिलेगा. यह विकसित इलाके के धनी लोगों का एक खास इलाका बनेगा. दूसरा, हमारा जो संवैधानिक तानाबाना है स्मार्ट सिटी उसके खिलाफ है. जहां स्मार्ट सिटी बनेगी, वहां पर एसपीवी नाम से कंपनी बनेगी. एसपीवी हमारे संविधान के 74वें संशोधन के खिलाफ है, जिसमें शक्तियों के विकेंद्रीकरण का प्रावधान है. क्योंकि इंदौर महापालिका, भोपाल महापालिका या नई दिल्ली महापालिका की शक्तियां उसके पास से हटकर स्पेशल परपज वेहिकल (एसपीवी) कंपनी के पास चली जाएंगी. हम पार्षद या मेयर चुनते हैं, उनके पास पावर नहीं होकर एसपीवी को सारे अधिकार होंगे. जहां-जहां स्मार्ट सिटी बनेगी, वहां-वहां पर एक किस्म का राजनीतिक संकट खड़ा होगा. इसके सबसे ज्यादा भुक्तभोगी वंचित तबके के लोग होंगे. क्योंकि लोकतंत्र गरीब आदमी की जरूरत है. अमीर जब चाहे वह अपनी गाड़ी उठाकर मुख्यमंत्री से मिल लेता है. लेकिन गरीब को अपने वोट देकर विरोध प्रदर्शन करने का जो संवैधानिक अधिकार है, वो इससे खत्म हो जाएगा.

मूल बात यह है कि स्मार्ट सिटी में मजदूरी क्या होगी, जीविका का क्या होगा, गेटेड सोसायटी होगी, यह सब तो इसके बाइप्रोडक्ट है. इसके प्रावधान वैसे होंगे जैसे एसईजेड के थे. वहां का अपना कानून होगा, कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होगा. इसे लेकर पुणे के नगर निगम ने भी विरोध दर्ज कराया है क्योंकि भाजपा और शिवसेना का शक्ति संघर्ष का मसला है. उसने यही कहा है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि हैं. हमारे अधिकार किसी और को कैसे दिए जाएंगे?

स्मार्ट सिटी में एसपीवी पैसा लगाएगी, उससे मुनाफा कमाएगी. वह मुनाफे के लिए टैक्स लगाएगी. जो टैक्स नहीं देंगे उनको बाहर कर देंगे. जबकि लोकतंत्र में यह होता है कि जो वंचित तबका है, उसके लिए हम वेलफेयर स्टेट की तरह काम करते हैं, जनता को अनाज, बिजली, पानी, परिवहन और जरूरी चीजों में सब्सिडी देते हैं. वह सब खत्म हो जाएगा. दूसरे जो कंपनियां यह स्मार्ट सिटी चलाएंगी, वे ऐसी कंपनियां हैं जिनको शहर बसाने या चलाने का कोई अनुभव नहीं है.

दरअसल, पश्चिम में अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है. उनकी कंपनियों को वहां काम नहीं मिल रहा है. वो सब कंपनियां अपने राजनीतिक प्रतिनिधि मंडल के साथ आती हैं और यहां उनको काम देने के लिए राजनीतिक फैसले होते हैं. हमारा राजनीतिक तंत्र इतना ज्यादा भ्रष्ट हो गया है कि सबको इसके लिए पैसे मिलते हैं. हमारे राजनीति परिवार अब बिजनेस परिवार में बदल गए हैं. बंगलुरु में शहर से साठ किमी दूर एयरपोर्ट बनाया गया और उसके आसपास की सारी जमीनें नेताओं ने खरीद लीं. हैदराबाद में भी शहर से दूर एयरपोर्ट बना और आसपास की जमीनें नेताओं ने खरीद लीं. बिजनेसमैन सीधे फायदा नहीं देता तो चैनल बना देता है. 

राजेंद्र रवि, सामाजिक कार्यकर्ता, इंदौर
[/symple_box]

सरकार भले स्मार्ट सिटी मिशन को देश की समृद्धि से जोड़ रही है, लेकिन विशेषज्ञ इस बात को पूरी तरह खारिज कर रहे हैं. चंडीगढ़ बसाने में उल्लेखनीय भूमिका अदा कर चुके पूर्व आईएएस एमजी देवसहायम स्मार्ट सिटी मिशन का नाम आते ही भड़क उठते हैं, ‘मोदी सरकार सिर्फ कॉरपोरेट के लिए काम कर रही है. सरकार को क्या-क्या काम करना है, इसकी योजना कॉरपोरेट बनाता है. कॉरपोरेट लोग इनको प्लान देते हैं. ये स्मार्ट सिटी योजना सरकार की बनाई हुई नहीं है, ये नेताओं की बनाई हुई नहीं है, चुने हुए लोग, ब्यूरोक्रेट या जनता का इसमें कोई योगदान नहीं है. ये कॉरपोरेट की योजना है. कॉरपोरेट कंपनी सिस्को का प्लान है, इससे उसका व्यापार बढ़ेगा.’

देवसहायम कहते हैं, ‘सिस्को ने स्मार्ट सिटी का आइडिया पहले से बना रखा था. मोदी सरकार के सत्ता में आते ही उन्होंने यह प्लान दे दिया. आम तौर पर ऐसी योजनाएं बनाने के लिए जनता से रायशुमारी की जाती है, बहस होती है, नौकरशाह उसे जांचते हैं, फिर ऊपर भेजते हैं, तब जाकर प्रोजेक्ट तैयार होते हैं. यहां तो कंपनी ने जो योजना दे दी, सरकार ने उसे ही अपना लिया. इसके बाद इसमें शामिल हुई माइक्रोसॉफ्ट. माइक्रोसॉफ्ट ने गुजरात में सूरत म्युनिसिपैलिटी के साथ एक एमओयू साइन किया कि सूरत को स्मार्ट सिटी बना देंगे. उसके बाद इसमें सीमन शामिल हुई. ये सारी कंपनियां इकट्ठा हुईं और इन्होंने ये प्रोजेक्ट सीआईआई (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री)को दे दिया. ये बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंडे हैं. सरकार जिन लोगों से राय ले रही है, जो लोग प्रोजेक्ट तैयार कर रहे हैं, वे सब कॉरपोरेट और सीआईआई के लोग हैं.’ देवसहायम अपनी बात को पुख्ता करते हुए कहते हैं, ‘चंडीगढ़ में एसोसिएशन आॅफ म्युनिसिपैलिटी ने अपना प्लान दिया था, वो सरकार के एजेंडे के मुताबिक नहीं था तो उसे भी रद्द करके सीआईआई को दे दिया.’

box-8

भारत समेत पूरी दुनिया में गांव से शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है. अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करेगी. भारत इसका अपवाद नहीं है. सरकार के अनुमान के मुताबिक, फिलहाल भारत में 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रहती है और 2011 की जनगणना के मुताबिक, यह कुल सकल घरेलू उत्पाद में 63 प्रतिशत योगदान दे रही है. 2030 तक यह 75 प्रतिशत होने की संभावना है. 2050 तक हमें 500 नए शहरों की आवश्यकता होगी. जबकि आजादी के बाद हमने कायदे से सिर्फ एक शहर बसाया है, वह है चंडीगढ़. देशभर के शहरों में बढ़ते पलायन और भीड़ से हांफते शहरों को देखते हुए नए शहरों की सख्त जरूरत भी महसूस की जा रही है, लेकिन फिलहाल रोजगार, शिक्षा व नए अवसर के तौर पर नए शहरों की ठोस योजना सामने नहीं आ रही है. सरकार पहले से मौजूद अग्रणी शहरों को ही विकसित करने पर जोर दे रही है. उन्हीं शहरों को स्मार्ट बनाने की योजना भी सफल होगी, इसमें संदेह है. गौतम भाटिया कहते हैं, ‘पहले जरूरी यह है कि भारतीय शहरों का अध्ययन हो और देखा जाए कि उनकी जरूरतें क्या-क्या हैं. स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, घर ये बहुत जरूरी चीजें हैं. अब अगर आप डेनमार्क की नकल कर रहे हैं तो उसका भारत से कुछ संबंध है ही नहीं. वहां की जीवनशैली अगल है. दूसरी जगह इतने प्रतिबंध हैं कि सिंगापुर में लोग बिना नौकरी के नहीं आ सकते. वे कार नहीं खरीद सकते, जब तक पार्किंग नहीं हैं. भारत में कोई प्रतिबंध है ही नहीं. सब जगह गाड़ियां भी भरती जा रही हैं. एक-एक परिवार में पांच-पांच गाड़ियां हैं. पूरी तरह परिभाषित होना चाहिए कि सेवाओं की जरूरत क्या है. बिजली-पानी की जरूरतें क्या हैं. सार्वजनिक परिवहन होना चाहिए तो कैसा होना चाहिए. जब तक कोई प्रतिबंध न लगाया जाए समस्या बढ़ती जाएगी. कई यूरोपीय शहरों में व्यवस्था है कि रविवार को कार चलाने की इजाजत नहीं है. इधर, भारत में एक छोटे से काम के लिए इतनी बहस हो जाती है कि दुनिया चौंक पड़ती है. ऐसी चीजें पहले भारतीय संदर्भ में पूरी तरह परिभाषित होनी चाहिए. एक मानक निर्धारित होने के बाद फिर प्रस्ताव लाया जा सकता है कि अगले पांच साल या दो साल में कितना करना है.’

सरकार की घोषणा के मुताबिक केंद्र की ओर से हर शहर को 500  करोड़ रुपये देने का फैसला हुआ है. ये पैसे केंद्र सरकार पांच साल में देगी. यानी स्मार्ट बनने के लिए शहर को केंद्र से हर साल 100 करोड़ मिलेंगे. 100 करोड़ रुपये एक शहर को स्मार्ट बनाने के लिए काफी होंगे या नहीं, इसके जवाब में दुनू राय कहते हैं, ‘किसी भी शहर के लिए सौ करोड़ कोई मायने नहीं रखता. एक फ्लाइओवर बनाने में भी 30-40 करोड़ रुपये लग जाते हैं. इस योजना का असली राज ये है कि 500 करोड़ केंद्र सरकार देगी और 500 करोड़ रुपये राज्य सरकार देगी. इन 1000 करोड़ रुपये को जमा करने के बाद इसी के आधार पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को आमंत्रित किया जाएगा कि अब आप विकास कीजिए. अब विकास की बागडोर कंपनियों के हाथ होगी. जब ये कंपनियां अपनी विशेष परियोजनाओं को लेकर उसके लिए पूंजी लेकर आएंगी तो इस सबको संभालने के लिए नगर पालिका या नगर निगम, जो शहर की देखभाल करते थे, वे अब समाप्त हो जाएंगे. क्योंकि नगर निगम की जगह अब ये कंपनी बैठाने जा रहे हैं. उस कंपनी में ही सारा पैसा आएगा और वही हर चीज को नियोजित करेगी. इस व्यवस्था में एक खतरा तो पहले से ही है कि यह विकास और बाजार केंद्रित है. गरीबों के लिए इसमें बहुत ज्यादा जगह नहीं होती. लेकिन मुझे अगला सबसे बड़ा खतरा यही लग रहा है कि देश का जो एक प्रजातांत्रिक ढांचा है, जिसके तहत हम प्रतिनिधि चुनते हैं, उसका कोई अर्थ नहीं होगा. नगर को अब नगरपालिका नहीं, कंपनी देखने वाली है.’

[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

तेजी से बढ़ी है गांवों की उपेक्षा

मेरी समझ ये है कि हिंदुस्तान में आजादी के बाद से 1990 से लगातार आम आदमी और गांवों की उपेक्षा तेजी से बढ़ी है. इस योजना के जरिये उसी घाव पर नश्तर लगाया जा रहा है. हुआ ये कि हमारे यहां जितने भी ढांचे खड़े किए गए हैं, वह आम आदमी की कीमत पर बने हैं. उनकी जमीनें ली गई हैं. आदिवासियों और किसानों की जमीनें ली गई हैं. ये जमीनें पुराने कानून के तहत जबरदस्ती ली गई हैं. ग्राम सभा की मीटिंग एक तमाशा था. डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा जैसे लोगों ने जो बात कही थी, उसकी घोर उपेक्षा हुई है. सबसे बड़ी बात ये हुई है कि संगठित राजनीतिक दलों में हो-हल्ला करने के अलावा किसी ने प्रभावकारी कदम नहीं उठाया. आप गांव और गरीब को वंचित करके कोई विकास नहीं कर सकते हैं. आम आदमी के सशक्तिकरण का मूर्खतापूर्ण नारा मूर्खतापूर्ण तरीके से लागू किया गया है. किसी को हजार रुपये दे दिया, किसी का बैंक में खाता खुलवा दिया कि पासबुक ले लो और चाटो. खेती, खासकर छोटे किसानों की हालत सुधारने के लिए भूमि सुधार और जल सुधार जैसी चीजों की जरूरत है. जमीनी स्तर पर फंडिंग की जरूरत है. सरकार गांवों से कह रही है कि आप योजनाएं अपने आप बनाओ. उन्हें मालूम होता तो अपने आप नहीं कर लेते! तब आपकी क्या जरूरत थी!

विकास का ये पूरा मॉडल लगातार एक ढर्रे पर चला आ रहा है. चाहे वह 90 के पहले का हो या बाद का. सब पार्टियों की सरकारें रही हैं. सबने एक जैसा ही काम किया है. वामपंथी बेचारे भी अब हाशिये पर बैठे हैं.

कमल नयन काबरा, अर्थशास्त्री 
[/symple_box]

एमजी देवसहायम भी इसे खतरनाक बताते हुए कहते हैं, ‘स्मार्ट सिटी योजना लागू करने वाले लोग नगर निगम के लोग नहीं हैं. इसे लागू करने के लिए स्पेशल परपज वेहिकल (एसपीवी) कंपनी बनाई जाएगी. कंपनी बनाकर उसमें कॉरपोरेट, नगर निगम और प्रशासन के लोग रहेंगे, जो इस प्रोजेक्ट को अमल में लाएंगे. चुने हुए नुमाइंदों की इसमें सीमित भूमिका होगी. एसपीवी को सरकार और नगर निगम की शक्तियां दे दी जाएंगी. यानी राज्य सरकार, स्थानीय प्रशासन या नगर निगम की शक्तियां एसपीवी के पास होंगी. टैक्स लगाने की भी शक्तियां एसपीवी के पास होंगी. अभी इसमें शेयर होल्डिंग सरकार और निगम के पास होगी, बाद में जाकर इसे कॉरपोरेट अपने हाथ में ले लेंगे.’ राजू सेजवान कहते हैं, ‘असल दिक्कत है कि सरकार सारा का सारा काम प्राइवेट कंपनियों या उद्यमियों से करवाना चाहती है. स्मार्ट सिटी का संचालन स्थानीय निकायों और प्रतिनिधियों की जगह एसपीवी को देना बहुत बड़ा खतरा है. एसपीवी के लोग पीपीपी के तहत निजी उद्यमियों और कंपनियों को फायदा पहुंचाना चाहेंगे. मनमाने ढंग से जनता पर चार्ज किया जाएगा. यह सबसे बड़ा खतरा है. एक तरह से आप  लोकतंत्र के पहले पायदान पर चोट करने जा रहे हैं.’

इलाहाबाद स्थित जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के शोधछात्र रमाशंकर सिंह कहते हैं, ‘स्मार्ट सिटी की धारणा के द्वारा वर्तमान सरकार कॉस्मेटिक शहरी नागरिकता को बढ़ावा देना चाहती है. ऐसे शहर के नागरिक विकास की नव उदारवादी परियोजना को काॅरपोरेट के साथ नत्थी कर देंगे. यहां सभी लोग एक निश्चित कमांड लेने के आदी बना दिए जाएंगे. यह परियोजना प्रजातंत्र के विस्तार और राज्य से प्रतिरोध करने वाली आवाजों के बजाय अमीर वर्ग को जगह देगी. भारत का ‘कैलिफोर्नियाई’ नागरिक शायद यही चाहता भी है. दूसरी ओर गरीब मजदूर, छोटे दुकानदार और फेरीवाले भी हैं जिन्हें अवांछित समझा जा रहा है.’

AR-150329904web

आम तौर पर एक शहर बसाने के लिए 30 से 50 साल का वक्त चाहिए होता है. एमजी देवसहायम बताते हैं, ‘मैंने चंडीगढ़ से शुरुआत की थी. मैं दूसरे चरण में डीसी बना था. पहले चरण का काम पूरा हो चुका था. मेरा और आर्किटेक्ट लोगों का रोज झगड़ा होता था कि अमीरों का शहर बना रखा है. ये हिंदुस्तानियों का नहीं है. चंडीगढ़ का काम शुरू हुआ 1952 में और मैं डीसी बना 74 में. तब तक 15-20 सेक्टर विकसित हो पाए थे. पूरा चंडीगढ़ बसने में चालीस से पचास साल लगे.’ अगर सरकार अपने विशेषज्ञों से सलाह लेती तो शायद इस परियोजना का स्वरूप कुछ और होता. लेकिन सरकार ने जल्दबाजी दिखाई और तुरत-फुरत में योजना की घोषणा कर डाली.

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

अच्छी चीज को गलत हाथ में दे देंगे तो उसका परिणाम गलत होगा

स्मार्ट सिटी में समस्या इसमें दो स्तर पर है: एक तो यह कि इससे गरीबों की स्थिति पर कितना असर पड़ेगा? यह इस बात पर आधारित नहीं है कि डिजिटल इंडिया या स्मार्ट सिटी है कि नहीं है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि उन सारी तकनीकों से आप किस विषय को उठा रहे हैं. डिजिटल इंडिया या स्मार्ट तकनीक एक चाकू है. आप उस चाकू से लौकी काट कर गरीब को भी दे सकते हैं और अमीर को भी दे सकते हैं. सवाल चाकू के उपयोग का है. दूसरा, यदि स्मार्ट सिटी परियोजना का रुझान गरीबों के प्रति हो तो यह बहुत अच्छी योजना हो सकती है. लेकिन अगर सिर्फ अमीरों के लिए या बड़े शहरों के लिए हो तो ये बिल्कुल निरर्थक है. यह गरीबों के विपरीत हो यह जरूरी नहीं है. वास्तव में डिजिटल इंडिया से सुविधाओं के दाम में कटौती भी हो सकती है. जैसे, कहीं बसें खाली चलती हैं, कहीं बहुत भरी हुई. डिजिटल इंडिया से आप उसे मॉनिटर करके रिडायरेक्ट कर सकते हैं. इससे आप किराया भी घटा सकते हैं.

जहां तक शहरी अमीर और गरीब को साथ लेकर चलने का प्रश्न है कि यदि शहर में पचास प्रतिशत स्लम इलाके हैं तो आप शहर को स्मार्ट कैसे घोषित करेंगे, मैं इसकी मूल भावना से सहमत हूं, लेकिन ऐसा कहना मेरे हिसाब से उपयुक्त नहीं है.

जिस तरह हम बिजली वितरण का काम कंपनियों को देेते हैं, लेकिन नियंत्रण सरकार का होता है. इसमें कोई बुराई नहीं है कि स्मार्ट सिटी का कार्यान्वयन प्राइवेट कंपनी के पास हो. लेकिन अगर प्राइवेट कंपनी को टैक्स लगाने का अधिकार दिया जा रहा है तो वह गलत है. अब यह भी देखना होगा कि एसपीवी में कौन लोग होते हैं. अगर उनका चुनाव कराकर उन्हें अधिकार दिया जाए तो कोई मसला नहीं. मैं इस बात से सहमत हूं कि स्मार्ट सिटी पूरी तरह कॉरपोरेट की योजना है. स्मार्ट सिटी में तकनीक का इस्तेमाल एक बात है और उसे किस तरह से उपयोग किया जाए, यह दूसरी बात है. यदि आप अच्छी चीज को गलत हाथ में दे देंगे तो उसका परिणाम गलत होगा. लेकिन यह स्मार्ट सिटी के कार्यान्वयन का मसला है, उसके काॅन्सेप्ट का मसला नहीं है. मुझे कंपनियों के कार्यान्वयन पर दिक्कत नहीं है, सवाल यह है कि उसकी दिशा और उस पर नियंत्रण किसके पास है. बाहर से चीजों को लेना बुरा नहीं है, उसका नियंत्रण सही दिशा में सही हाथ में होना चाहिए.

भरत झुनझुनवाला, अर्थशास्त्री
[/symple_box]

देवसहायम ने बताया, ‘मोदी जी ने इस पूरे काम के लिए वेंकैया नायडू को लगा दिया. वैसे भी, आजकल तो सारे निर्णय दावोस में लिए जाते हैं. ये सारे दावोस गए हुए थे. पिछले साल वहीं यह फैसला हुआ है. उसी के बाद से यह सारी कवायद चल रही है. सारे फैसले तो दावोस वाले करते हैं. ये लोग यहां आकर ड्रामेबाजी करते हैं. अखबार वाले भी कहते हैं कि अब स्मार्ट सिटी आ गया है, सारी समस्या खत्म हो गई. हमें पता है कि शहरों की क्या हालत है. पैदल जाने और साइकिल जाने की जगह नहीं है. वेंकैया नायडू ने इस योजना के लिए किसी से भी सलाह नहीं ली. भारत के आर्किटेक्ट एसोसिशन ने नायडू से मिलने का समय मांगा तो उन्होंने कहा, मेरे पास समय नहीं है. मेरा टाइम बर्बाद मत करो. निर्णय लिया चुका है. अपने आर्किटेक्ट को आपने नजरअंदाज किया. जबकि भारत में आर्किटेक्ट की कमी नहीं है. चंडीगढ़ बसाने के समय भारत में आर्किटेक्ट नहीं थे तो आप फ्रांस से आर्किटेक्ट ले आए. अब 80 साल बाद हमारे पास टॉप के आर्किटेक्ट हैं. लेकिन सरकार ने किसी से सलाह नहीं ली. सीआईआई वाले लोगों को ले लिया, लेकिन अपने आर्किटेक्ट से बात तक नहीं की.’  दुनू राय भी इससे इत्तेफाक रखते हैं, ‘इन्होंने किसी अविकसित शहर को नहीं पकड़ा है. अगर आप स्मार्ट सिटी के लिए चयनित शहरों को स्मार्ट सिटी के नक्शे में देखें तो इन्होंने चार हाईवे बनाने की बात की है, यानी इंडस्ट्रियल कॉरिडोर. स्मार्ट सिटी के चयनित शहर उस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर में स्थित हैं. एक तरफ कहते हैं कि इंडस्ट्रियल कॉरिडोर में इंडस्ट्रीज बनेंगी. हर कॉरिडोर पर नए शहर बनेंगे. साथ-साथ इस कॉरीडोर को ये आईटी कॉरिडोर भी कह रहे हैं कि इसी में इन्फॉर्मेशन वाली सारी केबल वगैरह बिछेंगी. तो ये स्मार्ट सिटीज एक-दूसरे से जोड़ने की प्रणाली है. जिस प्रकार एक छोटा-सा शहर बाकी पूरे शहर को नजरअंदाज करके विकसित होगा, उसी प्रकार इन छोटे-छोटे शहरों को एक कड़ी में बांधकर बाकी देश को नजरअंदाज करने के चक्कर में हैं. ये नक्शे से बहुत साफ हो जाता है कि इन्होंने किसको चुना है और किसको नहीं चुना है.’

यह सवाल स्वाभाविक है कि सरकार ने शहरों को किस आधार पर चुना कि इन्हें ही स्मार्ट सिटी बनाया जाएगा? उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्य में क्या स्मार्ट सिटी नहीं होनी चाहिए, जबकि उन राज्याें की जनसंख्या भी अधिक है? दुनू राय कहते हैं, ‘सरकार जो कह रही है कि स्मार्ट सिटी का कोई पैमाना नहीं है, वह वही है कि जो जैसा समझना चाहता है, समझ ले. यह एक प्रकार का आडंबर है. इसकी बुनियाद यही है कि जहां पर पूंजी निवेश हो सकता है, जहां पर पूंजीपति को लगता है कि यहां पर पूंजी डालने पर उसे फायदा मिलेगा, उसको स्मार्ट सिटी कहते हैं. उस स्मार्ट में चाहे वो बिल्डर हो जो कि मकान बनाएगा, चाहे वो डेवलपर हो जो कि पूरी की पूरी कॉलोनी बनाएगा, या चाहे जितनी भी आईटी कंपनियां हों जो उसमें सीसीटीवी लगाएंगी, वहां पर हाईबैंड का वायरलेस चलेगा, उनके जरिये कम से कम लोगों पर नजर रखी जाए. गेटेड कॉलोनी में भी आप देखते हैं कि फाटक पर चौकीदार खड़ा रहता है और अंदर हर जगह निगरानी रखते हैं कि किसने बिल दिया कि नहीं दिया, किसने कितना पानी इस्तेमाल किया. स्मार्ट सिटी भी उसी तरह का होने वाला है. वर्ग विभाजन बढ़ेगा तो असंतोष बढ़ेगा, परिणामस्वरूप राजकीय हिंसा बढ़ेगी. इसीलिए सरकार इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी को फैला रही है ताकि हर व्यक्ति की खबर ले सके कि उसने कब, किससे बात की, कहां से आया और कहां गया. इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी इसे आसान बनाती है. अब मुखबिर की आवश्यकता नहीं है. खुुफिया तंत्र की जरूरत नहीं है. अब हर सुविधा इंटरनेट के माध्यम से मिलने वाली है, उसके जरिये आप पर निगाह भी रखी जा सकती है, इसीलिए सरकार चाहती है कि हर व्यक्ति के पास मोबाइल हो.’

box-6

वे आगे कहते हैं, ‘अब देखें कि इसका पैमाना क्या है. अगर उनकी गाइडलाइन पढ़ें तो साफ होता है कि यह स्पर्धा पर आधारित है. स्पर्धा किस बात की है कि हर शहर को कहा गया है कि किसी कंसल्टेंट से राय लें. और ये कंसल्टेंट भी पहले से मनोनीत हैं कि कौन से कंसल्टेंट को आप ले सकते हैं. इन कंसल्टेंट की लिस्ट देखें तो अधिकांश का शहरी विकास या प्रबंधन से कुछ लेना देना नहीं है. उनका मुख्य काम है फाइनेंस. ये ज्यादातर फाइनेंस कंपनियां हैं. इनको जो नक्शा बनाना है स्मार्ट शहर का, उसमें उनको ये दिखाना है कि इस स्मार्ट शहर में अगर इतनी पूंजी निवेश हुई तो इस शहर की क्या क्षमता है कि जल्द से जल्द वो उस पैसे को लौटा सके और उससे मुनाफा कमाया जा सके. स्पर्धा इस बात की है. जितने भी शहर चुने जाएंगे वे इसी आधार पर चुने जाएंगे कि इस शहर में वो क्षमता है कि नहीं. जिसको भी व्यापार करना है वो ग्राहक को इसी आधार पर नापता है कि इसमें सौदा करने की क्षमता है कि नहीं. व्यापारी देखता है कि सौदे में मुझे फायदा होगा कि नहीं. स्मार्ट सिटी का भी यही चक्कर है.’

गौतम भाटिया कहते हैं, ‘दूसरे देशों में स्मार्ट सिटी का जोर पूरी तरह सेवा आधारित है. जैसे, जर्मनी में पानी और बिजली का सिस्टम ऐसा है कि अगर आपने बिजली उपयोग नहीं की तो वह ग्रिड में चली जाती है और दूसरों के काम आती है. उनकी स्मार्ट सिटी वही बनती है जो वैकल्पिक सुविधाओं जैसे सोलर सिस्टम या पवन उर्जा अादि का ज्यादा लाभ उठाती है. उनकी 40 प्रतिशत बिजली सोलर सिस्टम से आती है, उसमें बढ़ोतरी भी हो रही है. उन्होंने तो अपने मानक तय किए हैं. जर्मनी में यह बहुत सफल रहा है. लेकिन भारत में यहां के हिसाब से मानक तय होने चाहिए. कई नए शहर या सेटेलाइट टाउन का प्लान प्रस्तावित है लेकिन सरकार अभी उस पर जोर नहीं दे रही है. उन्हें नए ढंग से प्लान करना चाहिए. उनकी सोच बिल्कुल अलग होनी चाहिए, लेकिन अभी ऐसा हो नहीं रहा. सबसे पहले शहर के अनियमित इलाकों को रेगुलेट (नियंत्रित) करने से पहले उनकी मैपिंग करनी चाहिए. पहले मैप करके देखें कि जरूरतें क्या हैं, कितने लोग रहते हैं, इलाके की क्षमता क्या है. क्या वह अपनी क्षमता से ज्यादा बोझ पहले से ही ढो रहा है? जब तक सही आंकड़े पता न लगें, सरकार कुछ नहीं कर पाएगी.’

क्या दुनिया में कोई ऐसा उदाहरण है कि जिस देश की बहुसंख्यक जनता बहुत गरीब हो, भुखमरी से जूझ रही हो, वह अपने आप को स्मार्ट और विकसित घोषित कर दे. इसके जवाब में दुनू राय कहते हैं, ‘हां, एक जमाने में दक्षिण अफ्रीका में यही हुआ. हम उसका हिंदुस्तानी मॉडल लॉन्च करने वाले हैं. आप आज भी देखें कि पहले प्रचार तंत्र में जो सहानुभूति गरीबों, किसानों के प्रति थी, वह समाप्त हो चुकी है. जो कहानियां हमें पढ़ने को मिलती हैं, वो कहानियां एक प्रकार से सफलता की कहानियां हैं. जैसे कि फलां आदमी चाय बेचता था, अब देखिए आज ये हमारे देश का नेता बन गया है. इस तरह की कहानियों से एक आडंबर गढ़ा जा रहा है ताकि देश की असलियत न पहचानी जाए.’

[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

वर्ग विभाजन और उसके कारण टकराव पहले से है, उसको और गति मिलेगी

मुझे लगता है कि ये सरकार बहुत होशियार हो गई कि किस प्रकार लोगों को गुमराह किया जाए. यह बहुत पुरानी परंपरा है इस देश की, जो कि मनुस्मृति और चाणक्य के समय से चली आ रही है. उनका भी यही कहना था कि जनता को हमेशा गुमराह करके रखो. उसे कभी यह न समझने दो कि असली मकसद क्या है. मुझे लगता है कि स्मार्ट सिटी जैसी परियोजनाओं का परिणाम यह होगा कि इस देश का एक प्रकार से सामाजिक विभाजन होने वाला है. यानी कि समाज में स्पष्ट रूप से दो गुट अथवा समुदाय बनने वाले हैं. अगर बीच के समुदाय होंगे भी तो उनको चुनना पड़ेगा कि वो किस तरफ हैं. उस चयन में मध्यम वर्ग परेशान होगा. मध्यम वर्ग के लिए भी उच्च वर्ग की ओर जाना संकट से खाली नहीं है क्योंकि उच्च वर्ग जैसी जिंदगी जीनी पड़ती है, उसके लिए पैसा चाहिए. अगर पैसा नहीं है तो वो एक नकली जिंदगी बनती है जिसकी वजह से उनकी अपनी जिंदगी बहुत खोखली होने लगती है. तो समाज में ये बंटवारा स्पष्ट रूप से होने वाला है.

इस बंटवारे को प्रोत्साहित करने के लिए हमारे यहां बहुत पुराने रूप में एक वर्ण व्यवस्था भी है. ब्राह्मणवाद के आधार पर इस विभाजन को एक प्रकार से स्थापित किया जाएगा कि यही हमारा पुराना समाज है और इसी तरह से रहना चाहिए. रोहित वेमुला को हमारे उच्चस्तरीय नेताओं की ओर से क्या सलाह दी गई थी? उन्हाेंने कहा था कि बाबा साहेब आंबेडकर को देखो. शांतिपूर्ण ढंग से उन्होंने सारे अन्यायों को सह लिया. इसका मतलब क्या होता है? यही कि यह हमारा भाग्य है, हमारी नियति है. यदि इस जीवन में आपने दुख झेल लिया तो अगला जन्म आपका सफल होगा.

हमारे समाज में वर्ग विभाजन और उसके कारण टकराव पहले से है. उसको और गति मिलेगी. उसको संभालने के लिए जो व्यवस्था है उसके लिए करीब 1985 में सरकारी दस्तावेजों में एक वाक्य आने लगा था कि अब सरकार अथवा सत्ता पूंजी की एजेंट बन गई है. वह पूंजी को प्रस्थापित करने का काम करेगी. यही उसका काम है. पहले जिन निकायों को सरकार चलाती थी अब उन्हें कॉरपोरेट को देकर सरकार केवल रेगुलेटर (नियंत्रक) की भूमिका में है. ये रेगुलेटर का मतलब यही है कि इस विभाजित समाज में किस प्रकार एक व्यवस्था कायम रखे. चाहे वो बल के माध्यम से ही हो, जो चाणक्य बहुत पहले कह गए थे कि साम, दाम, दंड, भेद के जरिये व्यवस्था को कायम रखा जाए. यही सरकार का काम है. मुझे नहीं लगता कि यह बहुत सफल होने वाला है.

दुनू राय, निदेशक, हेजार्ड सेंटर 
[/symple_box]

हालांकि, ऐसे भी आर्थिक जानकार हैं जो स्मार्ट सिटी जैसी परियोजना को सकारात्मक तौर पर देखते हैं. अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘मूल रूप से इस योजना का मैं समर्थन करता हूं. यह अच्छी परियोजना है. जैसे आज शहर में आप कूड़ा उठाते हैं तो जो कूड़ा उठाने वाला ट्रक है उसे मालूम नहीं है कि कहां पर कूड़ा ज्यादा है, कहां पर कम है. वो ऐसी जगह पहले पहुंचता है जहां कूड़ा नहीं है और ऐसी जगह बाद में पहुंचता है जहां कूड़ा ज्यादा पड़ा है. डिजिटल इंडिया या स्मार्ट सिटी में अगर ये सारे विषय कंम्प्युटराइज्ड हो जाएं तो कूड़ा उठाना आसान हो जाएगा. यानी वर्तमान संसाधनों में ही कूड़ा आराम से उठना चालू हो जाएगा. सवाल यह नहीं है कि स्लम का क्या होगा या गरीबों का क्या होगा? जो सुविधाएं सरकार दे रही है और जिनका सुनियोजन नहीं हो रहा है, उनको सुनियोजित करने के लिए अगर स्मार्ट तकनीक का प्रयोग किया जाए तो बहुत अच्छी बात है. आज आप स्लम बस्ती की बात करें न करें, सरकार वहां पानी, सड़क, सफाई आदि का इंतजाम करती है, तमाम तरह की सरकारी सेवाएं मुहैया कराई जाती है. तो मूल रूप से यह परियोजना सही दिशा में है.’

भारत में 55 प्रतिशत से अधिक युवा आबादी पर इन सब योजनाओं से क्या असर पड़ेगा? क्या रोजगार के नये अवसर पैदा होंगे? इस बारे में देवसहायम कहते हैं, ‘स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया ये सारी ड्रामेबाजी है. इससे कुछ नहीं होने वाला है. क्या हिंदुस्तान में पहले डिजिटल तकनीक नहीं आई थी? आईटी को यहां आए करीब 25 साल हो गया है. चेन्नई, बंगलुरु फिर हैदराबाद. डिजिटल इंडिया तो कब का यहां शुरू हो चुका है. अब मोदी कह रहे हैं कि स्टार्ट अप इंडिया, जैसे अभी तक कुछ शुरू ही नहीं हुआ था! सरकार के ये सारे स्लोगन मुझे तो समझ में नहीं आ रहे हैं. ये बस लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं. सरकार को हर कही फ्रॉड करने से बचना चाहिए. मेक इन इंडिया की अवधारणा यही है कि सब कहीं से आकर पैसा लगाओ और पैसा बनाओ. आप कह सकते हैं मेक इन इंडिया, लूट इन इंडिया. वरना मेक इन इंडिया कोई और आकर क्यों करेगा? हम खुद क्यों नहीं कर सकते? बीस साल से यहां कोई रोजगार पैदा नहीं हुआ. विदेशी निवेश के तमाम सेक्टर खोले गए तो किसी ने विश्लेषण नहीं किया कि उससे कितना रोजगार पैदा हुआ. उत्तर प्रदेश में चपरासी की वैकेंसी निकली तो 20 लाख छात्रों ने आवेदन किया. इसमें पीएचडी, एमए और इंजीनियरिंग किए हुए बच्चे भी थे. सरकार को तमाशा करने की जगह इन चीजों पर ध्यान देना चाहिए.’

2015 में फोर्ब्स की टॉप फाइव स्मार्ट की सूची में बार्सिलोना, न्यूयॉर्क सिटी, लंदन, नीसे और सिंगापुर हैं. इस सूची में इन शहरों की कुछ खूबियां भी गिनाई हैं, जैसे बार्सिलोना पर्यावरण और स्मार्ट पार्किंग के लिए, न्यूयॉर्क सिटी स्मार्ट स्ट्रीट लाइटिंग और स्मार्ट ट्रैफिक मैनेजमेंट के लिए, लंदन टेक्नोलॉजी और ओपेन डाटा के लिए, नीसे पर्यावरण के लिए और सिंगापुर स्मार्ट ट्रैफिक मैनेजमेंट और तकनीक के अभिनव प्रयोग के लिए स्मार्टनेस में सबसे आगे पाए गए

दुनू राय कहते हैं, ‘रोजगार के बारे में भी सरकार एक तरह से सपना दिखा रही है कि रोजगार बहुत बढ़ेगा. पिछले 15 सालों का अगर हम रिकॉर्ड देखें तो धीरे-धीरे हम जॉबलेस ग्रोथ की तरफ बढ़े हैं. पहले स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना थी, अब इन्होंने शुरू कर दिया है स्किल इंडिया. यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ रही है कि अब सुरक्षित रोजगार नहीं बढ़ने वाला. लोग मानते थे कि एक बार सरकारी नौकरी मिल गई तो उनकी जिंदगी अच्छी तरह से गुजर जाएगी. वह बड़ा सुरक्षित था जब हम ये मानते थे कि अब मेरी नौकरी लग गई तो मेरी जिंदगी अब आराम से कट जाएगी और साथ-साथ पेंशन भी मिलेगी. अब जिस रोजगार की बात की जा रही है, उसमें स्पर्धा होगी. इसमें यह है कि हम आपको एक हुनर दे देंगे. या ये हुनर आप कहीं और से प्राप्त कर लेंगे. आपको हुनर आ जाए तो सरकार आपको बैंकों द्वारा कर्ज दिलाने को तैयार हैं. आप मोटे तौर पर स्वावलंबी बनिए. इसीलिए ये उद्यमी बनाने की बात कर रहे हैं कि हमारे यहां कौन ‘मेक इन इंडिया’ कर सकता है. हमारे यहां कौन से ऐसे नौजवान हैं जो किसी के भरोसे नहीं रहेंगे. जो अपने भरोसे ही सारा काम करेंगे. इससे रोजगार नहीं पैदा होगा.’

वे स्पर्धा आधारित बाजार को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘ये जो स्पर्धा का मामला है इसमें यही होगा कि नौकरी पर उसी आदमी को रखा जाएगा जो ज्यादा से ज्यादा सेवा दे सके. जो हम मांगते हैं वो हमको नहीं दे सकता है तो उसको निकाल देंगे. ये आप देखिए कि पहले जो सुरक्षित नौकरियां मिलती थीं वह एक-एक करके खत्म हो रही हैं. सरकारी नौकरियों में पेंशन मिलती थी, अब जितनी भी नई भर्तियां हो रही हैं सब में पेंशन खत्म की जा रही है. इसी से आप समझ सकते हैं कि हवा किस दिशा में बह रही है. रोजगार नहीं पैदा होगा, क्या पैदा होगा वो ये हैं कि बाजार में आप अपनी ताकत के आधार पर कहां तक सफल हो सकते हैं. इन्हीं कहानियों को ये बढ़ा चढ़ा कर बताएंगे कि देखिए यह आदमी कितना सफल हो गया.’

स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया आदि तकनीकी योजनाओं का परिणाम क्या होगा? इस सवाल पर एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘वैश्विक कंपनियां अपना माल बेचेंगी. शहर स्मार्ट बनेगा, नहीं बनेगा, कौन पूछता है! अब ये कहते हैं कि हम तीन साल में सिंगापुर बना देंगे. पता नहीं यह कैसे संभव है! सरकार स्मार्ट की बात करती है, लेकिन कहती है कि स्मार्ट सिटी की कोई परिभाषा नहीं है. सड़कों के लिए आॅटोमेटिक सिग्नल पश्चिमी देशों में काफी पहले आ गया था, वह स्मार्ट है. आॅटोमेशन ही स्मार्ट तकनीक है. वह अमेरिका में 1890 में ही आ गया था. स्मार्टनेस के लिए सही शब्द है आॅटोमेशन. इसके तहत स्वचालित तकनीक भी है और सेंसर तकनीक भी. आपकी कार में, आपके घर में सेंसर लगा देंगे तो वह भी स्मार्ट सॉल्यूशन होगा. एक आॅफिस में बैठकर आपकी निगरानी हो जाएगी. यह आॅटोमेशन 80-90 साल से चल रहा है. इन सब कवायदों के चलते, मेरी जो समझ है कि जितना हमारा जनतंत्र बचा है वह बर्बाद हो जाएगा. कॉरपोरेट वाले आ जाएंगे, वे हुक्म देंगे, आप उनके पीछे स्मार्ट बनकर फिरते रहो.’

जनगणना 2011 के मुताबिक देश की कुल जनसंख्या में से 1,772,889 लोग बेघर हैं जो सड़क किनारे, फुटपाथ, पुलों के नीचे, मंदिरों या पूजास्थलों के सामने व खुले आसमान के नीचे रहते हैं. हालांकि, एक अन्य आंकड़े के अनुसार भारत में 2011 तक झुग्गियों में रहने वाली आबादी 9.3 करोड़ है. ये जनसंख्या वियतनाम की कुल आबादी के बराबर और कई देशों की आबादी से दोगुना है. भारत दुनिया के सबसे ज्यादा शहरी गरीबों वाला देश है, जिन्हें बुनियादी नागरिक सुविधाएं भी नहीं मिलतीं

राजू सेजवान कहते हैं, ‘इसमें जाे पैन सिटी मॉडल है, वह इसकी सकारात्मक बात हो सकती है. पैन सिटी में ये है कि आपको पूरे शहर के लिए एक सर्विस को स्मार्ट बनाना है. उसमें ये हो सकता है कि अगर किसी शहर ने स्ट्रीट लाइट पर फोकस किया है तो पूरे शहर को स्मार्ट स्ट्रीट लाइट मिलेगी. होना तो ये चाहिए कि आप पूरे शहर को एक स्मार्ट एंगल से देखें लेकिन आपने सबके लिए सिर्फ एक सेवा पर फोकस किया है. इसमें एक और अच्छी चीज हो सकती है कि मान लिया कुछ लोगों ने पुनर्विकास पर फोकस किया है. पुनर्विकास का मतलब है कि जैसे एक स्लम इलाके को विकसित करेंगे. हालांकि वो मॉडल दिल्ली में फेल हो चुका है. दिल्ली में कठपुतली कॉलोनी में कोशिश की गई, लेकिन यह मॉडल सफल नहीं हुआ. कठपुतली कॉलोनी में ऐसा प्लान  था कि उस इलाके में झुग्गियों की जगह फ्लैट बनेंगे. जो बिल्डर फ्लैट बनाएगा, 40 प्रतिशत उसका होगा और 60 प्रतिशत लोगों को दे देगा. लेकिन लोगों ने कहा कि हमें फ्लैट नहीं, यहीं पर पक्के मकान चाहिए और जमीनें खाली नहीं कीं. यह मामला अब तक फंसा हुआ है. ये अगर उसी मॉडल पर चलेंगे तो आसान नहीं होगा. वैसे भी, सरकार के कार्यकाल के जो तीन साल बचे हैं, उसमें यह सब कर पाना संभव नहीं है. इस प्रोजेक्ट को शुरू तो किया जा रहा है लेकिन कब कितना हो पाएगा, यह तो ये लोग भी नहीं जानते हैं. बस ये है कि टैग लगा दिया जाएगा कि अब यह शहर स्मार्ट हो गया है. आप यहां आकर रह सकते हैं. यह एक रिचार्ज कूपन टाइप व्यवस्था होगी. आप जहां जाएंगे, जो सुविधा इस्तेमाल करेंगे, आपका पैसा कटता रहेगा. जब आप रिचार्ज नहीं करेंगे तो एसपीवी के लोग आपको उठाकर फेंक देंगे. सबसे बड़ी बात यह है कि उस इलाके का प्रतिनिधि कौन होगा? कहने को तो प्रतिनिधि होगा लेकिन उसको कोई अधिकार नहीं होगा.’

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

स्मार्ट सिटी का स्वागत करना चाहिए

मुझे याद है कि 1984 के आसपास मैं बीकॉम का विद्यार्थी हुआ करता था. तब राजीव गांधी कंप्यूटराइजेशन की बात करते थे. सारी पार्टियां उनका विरोध करती थीं. उनका तर्क था कि अभी हमारा बुनियादी ढांचा ठीक नहीं है इसलिए ये हमारी जरूरत नहीं है. लेकिन अब हम सब उस तकनीक का लाभ उठा रहे हैं और सब पार्टियां उसका श्रेय लेती हैं. मेरा मानना है कि हर घर में बिजली का इंतजाम नहीं है तो बिजली लगनी नहीं चाहिए, ऐसा सोचना ठीक नहीं. इस तरह तकनीक को राका नहीं जा सकता. 

अभी डिजिटल इंडिया पर स्टेट बैंक आॅफ इंडिया की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य ने एक अद्भुत बात की. डिजिटल बैंकिंग पर सेमिनार था. उन्होंने कहा कि मुंबई में ही मरीन ड्राइव पर कॉल ड्रॉप हो जाती है. अब सवाल यह है कि मुंबई में ही डिजिटल बैंकिंग की शुरुआत के दौरान बैंक की चेयरमैन ऐसा कह रही हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बैंक अपना मोबाइल एप्लीकेशन लॉन्च नहीं करेगा. मेरा मानना है कि सब चीजें साथ चलेंगी. हम चीजों को रोक कर नहीं रख सकते. रोक के रखेंगे तो आप पीछे जाएंगे.

मेरी समझ है कि स्मार्ट तकनीक सब सेवाओं को आपस में ‘कनेक्ट’ करेगी. अब बनारस में गंदी नाली तो है पर 50 अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर भी होंगे. भारत में 40 प्रतिशत रेलवे टिकट आॅनलाइन बुक हो रहे हैं. यह सिर्फ दिल्ली में ही नहीं हो रहा. वहां भी हो रहा है, जहां पर तमाम सुविधाएं नहीं हैं.

इस देश में हर शहर में तीन भारत रहते हैं. एक है पांच करोड़ लोगों का भारत. ये हर शहर की पॉश कॉलोनी में रहने वाला भारत है. ये जनसंख्या भारत का अमेरिका है. करीब चालीस करोड़ मिडिल क्लास है, जो भारत का मलेशिया है. बाकी करीब 80 करोड़ जनसंख्या है जो भारत का बांग्लादेश या युगांडा है, जहां आपको टाटा स्काइ मिल जाएगी, स्मार्ट फोन मिल जाएगा, उसी में मां बाप के पास इलाज के पैसे नहीं हो सकते हैं, लेकिन बच्चे के पास हीरो होन्डा की बाइक हो सकती है. इस देश में करीब 62 करोड़ लोगों के पास शौचालय हैं लेकिन मोबाइल करीब सौ करोड़ लोगों के पास है. यानी इंडिया डिजिटल ज्यादा हो गया लेकिन स्मार्ट नहीं हुआ. मुझे लगता है कि ये सारी चीजें एक साथ चलती हैं. स्मार्ट सिटी का स्वागत करना चाहिए.

आलोक पुराणिक, अर्थशास्त्री
[/symple_box]

अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘प्रश्न यह है कि स्मार्ट सिटी में आप पहले स्लम को देखेंगे, या लुटियन जोन को देखेंगे. चाकू का इस्तेमाल आप कैसे करेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है. अगर बाहरी इलाके को शामिल किया जाता तो यह ज्यादा अच्छा होता. लेकिन अगर दिल्ली में एनडीएमसी को स्मार्ट सिटी घोषित किया है तो उसमें भी झुग्गियों पर पहले फोकस करना चाहिए. उसको स्मार्ट बनाइए. ये जरूरी नहीं है कि आप लुटियन दिल्ली को ही स्मार्ट बनाइए.’

नई सरकार की तमाम योजनाओं में अभी एक भी योजना ऐसी नहीं है जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर जोर दिया गया हो. स्मार्ट सिटी मिशन को भी जिन दस बिंदुओं पर केंद्रित किया गया है उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य अंतिम बिंदु हैं. दुनू राय कहते हैं, ‘हर चीज को कॉरपोरेट को सौंपने का खेल सबसे पहले शिक्षा और मेडिकल में ही शुरू हुआ था. इसलिए स्मार्ट सिटी में इन दोनों पर खास जोर नहीं दिख रहा है. आज से लगभग 12 साल पहले सरकार ने व्यापारियों की एक मीटिंग बुलाकर कहा था कि हम कुछ क्षेत्रों को खोलना चाहते हैं. आप कौन सा क्षेत्र पसंद करेंगे जो हम प्राइवेट सेक्टर को दे दें? व्यापारियों ने जो दो क्षेत्र चुने थे, वे थे शिक्षा और स्वास्थ्य. उसी की बदौलत आज आप देखिए कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और प्राइवेट इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट, शैक्षणिक संस्थान आदि खूब बढ़ गए हैं और इस क्षेत्र के सभी सरकारी निकायों का बुरा हाल हो गया है.’

अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘इस देश में विकास के नाम पर तमाशा चल रहा है. ये स्मार्ट सिटी भी उसी तरह का तमाशा है. मध्यवर्ग को बरगलाया जा रहा है. इसका पैसा जाएगा उद्योगों के पास, विदेशी कंपनियों के पास. ये उनके लिए सिर्फ बाजार बढ़ा रहे हैं. दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं नहीं हुआ है कि विदेशी पूंजी के आधार पर, बिना शत प्रतिशत साक्षरता के कोई देश विकास कर ले. सरकार कौशल विकास की बात करती है. आप क्या कौशल विकास करेंगे. किसान तो कुशल है ही, आप खेती कर सकते हैं क्या? वह तो कर रहा है. उसे कैसे और सुधारें इस पर सोचना चाहिए. ये किताबी ज्ञान और पश्चिम का विकास मॉडल, जो औद्योगिकीकरण पर आधारित है, भारत में संभव ही नहीं है. जो आगे निकल गए वो गरीब को अपनी बराबरी में कभी पहुंचने ही नहीं देंगे.’

विरोधियों को राष्ट्रविरोधी घोषित करने की मुहिम

Irfan-habib

इस पूरी बहस के सहारे कोशिश की जा रही है कि भाजपा और आरएसएस के खिलाफ जो भी लोग हैं उन्हें राष्ट्रविरोधी घोषित किया जाए. ये मुहिम चला रहे हैं. हर जगह जनता में बंटवारे की कोशिश की जा रही है. अगर यह तर्क है कि देश को बचाने के लिए यह राष्ट्रवादी अभियान चलाया जा रहा है तो देश पर कौन सा ऐसा खतरा आ गया है जिससे वे बचा रहे हैं? राष्ट्र काफी पुराना शब्द है, उसका मतलब एक देश से होता है. अंग्रेजी शब्द जो नेशन है उसके मायने भी बदलते रहे हैं, लेकिन आखिर में उसे समझा जाता है कि वह एक ऐसा मुल्क है जिसके लोग चेतना संपन्न हों, उन्हें यह एहसास हो कि हम इस मुल्क के हैं और हमारी हुकूमत होनी चाहिए. वह राष्ट्र बनता है. राष्ट्र कोई ऐसी चीज नहीं है कि वह कोई जमीन का टुकड़ा हो, या कोई भौगोलिक देश हो, लोग होते हैं जो राष्ट्र निर्मित करते हैं.

यहां तो यह समझा जाता है कि हदबंदी कर रखी है. किसी ने कह दिया कि उस देश से आप सुलह कर लो, कुछ उन्हें दे दो, कुछ उनसे ले लो, जो उनके पास है उसे रहने दो, जो हमारे पास है वो हमारे पास रहे तो यह कोई गैर-राष्ट्रीयतावाद है. असली चीज तो यह है कि आप देश के लोगों से प्रेम करते हैं कि नहीं करते हैं. 1947 से पहले तो वही लोग देशभक्त कहे जा सकते थे जो अंग्रेजों के विरोधी हों. उसमें तो आरएसएस और हिंदू महासभा ने कोई खास काम नहीं किया. आरएसएस ने तो बिल्कुल नहीं. 1947 तक इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलाई. मुसलमानों का विरोध करते रहे और कांग्रेस का विरोध करते रहे. यह समझ में नहीं आता कि ये कैसी देशभक्ति है! जब देश को देशभक्ति की जरूरत थी तब तो आप मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए.

आजादी के आंदोलन में आरएसएस की कोई भूमिका नहीं रही. इन्होंने उसे बार-बार तोड़ने की कोशिश की. टू नेशन थ्योरी की बात करते थे. गोलवलकर ने अपनी किताब में ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ में यही लिखा है कि सिर्फ हिंदू यहां के नागरिक होंगे, बाकी नहीं होंगे. यह 1937 में लिखी हुई किताब है, जिसे ये अपना बाइबिल मानते हैं. इस तरह की बात से तो अंग्रेजों को लाभ ही होगा. पूरे राष्ट्रीय आंदोलन को तो इन्होंने नुकसान ही पहुंचाया है.

आजादी के बाद अगर आप सरकार के साथ आरएसएस का पत्र व्यवहार देखें तो ये तिरंगा झंडा मानने को तैयार नहीं थे. तब भारत सरकार ने कहा, तभी आप जेल से छोड़े जाएंगे जब झंडा स्वीकार करेंगे. उस वक्त तक ये संविधान नहीं बना था. उस समय जो सरकार थी, जिसने कानून बनाया था. उसके बाद 1950 में हमारा संविधान बना, उसको भी मानने को तैयार नहीं थे. उसी तरह झंडे को मानने को तैयार नहीं थे. इस बात के कागजात मौजूद हैं कि इन्होंने देश के प्रतीकों को मानने से इनकार किया था. लेकिन जब बताया गया कि अगर आप नहीं मानेंगे तो रिहा भी नहीं होंगे. तब इन्होंने उस पर सहमति जताई.

अब बुद्धिजीवियों पर हमले करके यह कोशिश की जा रही है कि वे और लोगों की आवाज बंद कर दें. जिन नारों के बहाने सरकार जेएनयू पर कार्रवाई कर रही है, वह फिजूल है. इससे मालूम पड़ता है कि आप घबरा गए हैं. कश्मीर में तो इस तरह रोज आजादी के नारे लगते हैं. इतना बड़ा देश है, ऐसे कुछ नारों से क्या फर्क पड़ता है. सरकार जो कर रही है, वह सब राष्ट्रवाद के लिए तो बिल्कुल नहीं है. क्योंकि इससे राष्ट्र को फायदा हो रहा है या और बदनाम हो रहा है? इससे हमें क्या फायदा होगा? जितना नुकसान वे कर सकते थे, वह कर चुके हैं. राष्ट्रवाद का अर्थ गुंडागर्दी तो बिल्कुल नहीं होता है.

इसका असर क्या होगा, यह किस हद तक जाएगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है. भारत बड़ा देश है. सिर्फ आरएसएस ही भारत नहीं है. देश की सारी जनता वैसी ही नहीं है जैसी भाजपा समझती है. उन्हें मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं. लेकिन जो मौका मिला है, वे समझते हैं कि इसका फायदा उठाकर मनमानी कर लें. हालांकि, मुझे शक है कि यह ज्यादा वक्त तक चल पाएगा.

(लेखक इतिहासकार हैं)

अगर मैं दुष्यंत कुमार की गजलों को कंपोज करना चाहूं तो शायद ही कोई प्रोड्यूसर तैयार होगा : वरुण ग्राेवर

Photo by- Avinash Arun
Photo by- Avinash Arun
Photo by- Avinash Arun

अगर फूट के न निकले, बिना किसी वजह के, मत लिखो. अगर बिना पूछे-बताए न बरस पड़े, तुम्हारे दिल और दिमाग और जुबां और पेट से, मत लिखो… क्योंकि जब वक्त आएगा, और तुम्हें मिला होगा वो वरदान, तुम लिखोगे और लिखते रहोगे, जब तक भस्म नहीं हो जाते…

ये पंक्तियां मशहूर अमेरिकी लेखक चार्ल्स बुकोव्स्की की कविता ‘सो यू वाॅन्ट टू बी अ राइटर’ से हैं, जिसका वरुण ग्रोवर ने अनुवाद किया है और ये चंद लाइनें वरुण के लेखन के प्रति प्रेम को साफ दिखाती हैं. फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के गीत लिखकर चर्चा में आए वरुण ग्रोवर न सिर्फ गीतकार हैं बल्कि पटकथा लेखक भी हैं, साथ ही वे स्टैंडअप कॉमेडी भी करते हैं. ये तीनों विधाएं बिल्कुल अलग-अलग हैं पर उनके ही शब्दों में कहें तो जो बात उन्हें इन तीनों से जोड़ती है, वह है लिखना. उनसे मीनाक्षी तिवारी की बातचीत. 

बॉलीवुड गीतों में जिस तरह मौलिकता खत्म हो रही है, पुराने गीतों को रीमिक्स करके पेश किया जा रहा है, ऐसे में आप दुष्यंत कुमार की कविता से गीत लिखने की प्रेरणा कैसे पाते हैं?

ये मुझे बहुत बाद में समझ आया कि दुष्यंत कुमार को किसी हिंदी फिल्म में लाना बहुत विलक्षण चीज है. जब हम ये कर रहे थे तब तक हमारे दिमाग में नहीं था कि ऐसा कुछ करना है. जब मैंने नीरज (मसान के निर्देशक) से कहा कि मैं इस कविता से कुछ करना चाहता हूं तो उसने भी इसे बहुत सहज रूप में लिया. हमारे दिमाग में ये नहीं था कि आजकल जो सिनेमा में हो रहा है, ये उसमें कैसे फिट बैठेगा. है तो ये भी पुरानी ही चीज का इस्तेमाल पर ये एकदम दूसरी दुनिया की चीज है.

लोगों को लग सकता है कि आज ये लिखना बड़ी बात है पर मेरे दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था. ये बहुत मौलिक तौर पर आ गया. हमारे बड़े होने के सालों में ये साहित्यकार चाहे वो दुष्यंत कुमार हों, बशीर बद्र, मनोहर श्याम जोशी या विनोद कुमार शुक्ल उतना ही हिस्सा हैं, जितना रमेश सिप्पी या अमिताभ बच्चन या गुलजार. हां, इससे लोग एक बात समझ सकते हैं कि अभी बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें देखना बाकी है. बहुत सारी बातें हैं जो हम अभी नहीं जानते, जिन्हें हमने हिंदी सिनेमा में लाने की कोशिश ही नहीं की है. हिंदी साहित्य की ही बात करूं तो अनगिनत कहानियां हैं जिन्हें छोड़कर हम बाहर की फिल्मों या पुरानी फिल्मों के रीमेक के चक्कर में पड़े हुए हैं, यहां सभी को कहानियों की किल्लत लगती है पर मुझे तो हर तरफ कहानियां बिखरी हुई लगती हैं.

आपने गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखे, जिनमें नयापन था, देसी परिवेश की मिठास थी, पर फिर प्रयोगधर्मिता के नाम पर अनोखे ही गीत लिखे जाने लगे, मसलन  ‘मोहतरमा, तू किस खेत की मूली’ ,  ‘लोचा-ए-उल्फत हो गया’ ,  ‘ओ हुजूर तेरा-तेरा तेरा सुरूर’ . आप लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं, तो बखूबी समझते होंगे कि  ‘मोहतरमा’  के साथ  ‘तू’ ,  ‘हुजूर’  के साथ  ‘तेरा’  सही नहीं है. क्या ये किसी भाषा की संस्कृति के साथ अन्याय करने जैसा नहीं है?

हम ऐसा सोच सकते हैं, बोल भी सकते हैं पर इस बारे में कुछ कर नहीं सकते. मुझे नहीं लगता ये रुकेगा या बदलेगा क्योंकि जिन लोगों के हाथ में ताकत है वो हमसे बहुत ज्यादा हैं. वो इस बात से भी खुश हैं कि उन्हें भाषा के बारे में इतना नहीं पता है या ज्यादातर सुनने वालों को इस बारे में नहीं पता है या पता भी है तो उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है. और उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता ये इस बात से साफ हो जाता है कि ये गाने कितने हिट हैं. तो जिन्होंने ये गाने बनाए हैं वो खुश भी हैं, जो सुन रहे हैं वो खुश हैं. सब अपनी अज्ञानता में खुश हैं और हम लोग जो इस बारे में जानते हैं वो अपने जानने की कीमत दे रहे हैं.

भाषा के साथ ये हमेशा से होता रहा है पर अब शायद वो स्थिति आ चुकी है जहां से भाषा का पतन साफ-साफ दिखना शुरू हो गया है. भाषा हर दौर में बदलती रही है. ‘हुजूर’ और ‘मोहतरमा’ इसलिए नहीं आए कि इनकी गानों में जरूरत थी, बस उनके अनूठेपन की वजह से उन्हें जोड़ा गया. अब बस वो शब्द चाहिए, जिसे सुनने में अच्छा लगे; उसका अर्थ किसी को नहीं चाहिए. हमें ‘हुक्का बार’ और ‘चिट्टियां कलाइयां’ चाहिए क्योंकि उन्हें सुनना अच्छा लगता है. ये सब मार्केटिंग फॉर्मूले हैं जिन पर सब चल रहा है.

शायद इसीलिए पहले आ चुके पंजाबी गीतों या पुराने गानों का ज्यादा प्रयोग होने लगा है.

पुराने गाने आने के पीछे दूसरा कारण है. आजकल फिल्मों में एमबीए वाले बहुत आ गए हैं. देश इतने बना रहा है तो वो कहां जाएंगे! उनका काम सर्वे करना है, बनाना नहीं बेचना है तो उन्हें जांचा-परखा प्रोडक्ट चाहिए होता है, जो बाजार में चल चुका हो, इसीलिए फिल्मों का, गानों का रीमेक हो रहा है. नई चीज बनाने का रचनात्मक आत्मविश्वास नहीं है इनमें, तो पंजाबी गाना हो या कोई और उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. उन्हें पता है फलां गाने पर 70-80 लाख हिट्स पहले से हैं तो इनका ऑडियंस बेस है जो सुनेगा ही इसे.

webvarunfilms

बाजार है तो खरीददार भी हैं. ऐसे में सुनने वालों की विविधता पर बात करें तो एक तरफ  ‘ब्लू है पानी पानी’ भी हिट है और ‘मोह मोह के धागे’ भी चार्टबस्टर्स में जगह बनाता है. इस पर आपका क्या कहना है?

देश की खास बात ही ये है कि यहां सवा सौ करोड़ लोग हैं तो विविधता तो मिलेगी ही. पर इस विविधता का कोई फायदा नहीं है. कोई पूछे क्या बनाना आसान है तो जवाब होगा वही जो चल रहा है. दिल्ली में एक शख्स हैं हरप्रीत, जो प्रसिद्ध हिंदी और पंजाबी कवियों की रचनाओं को कंपोज करते हैं और ये काम बहुत कठिनाई से पैसा बचाकर कर पाते हैं. उन्हें पसंद करने वाले भी हैं. पर ऐसे गाने बनाने के लिए मार्केट में सपोर्ट नहीं है. मैं अगर कहूं कि मैं दुष्यंत कुमार की कविता या गजलों को कंपोज करना चाहता हूं, तब भी शायद इंडस्ट्री में कोई प्रोड्यूसर तैयार नहीं होगा.

शुरू से ही कटाक्ष करने की आदत थी या किसी बात ने आपको सटायर करने के लिए प्रभावित किया?

जब मैं किसी बात से गुस्सा या नाराज होता हूं तो उस पर सटायर करता हूं. हां, बचपन की एक घटना है जिसने मुझे प्रभावित किया है. बचपन में बहुत मोटा था तो दोस्त चिढ़ाया करते थे और फिर उसी दौरान मैंने फिल्म मेरा नाम जोकर देखी, जहां ऋषि कपूर का किरदार जोकर बन जाता है तो लोग उस पर हंसना बंद कर देते हैं. तो जब कोई मुझ पर जोक मारता तो मैं भी खुद पर दो जोक मारकर हंस देता. तो वहां से ये समझ विकसित हुई कि हंसने से दर्द कम हो जाता है या हंसाने से. फिर बचपन में, लखनऊ में पापा के साथ कवि सम्मेलनों, खासकर हास्य कवि सम्मेलनों में जाया करते थे. वहां शरद जोशी, केपी सक्सेना, हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी, अरुण जैमिनी, अशोक चक्रधर जैसे लोगों को देखा तो वहां से सटायर की एक समझ आई और रुचि बनी और फिर मुंबई आकर जब मौका मिला तो मैंने पहला ही काम (टीवी के लिए कॉमेडी शो की स्क्रिप्ट लिखना) ये किया.

मजाक या कटाक्ष करना जोखिम भरा हो गया है. क्या एआईबी विवाद के बाद स्टैंडअप कॉमेडी करना मुश्किल हुआ है?

नहीं, मुझे नहीं लगता कि किसी के लिए भी मुश्किल हुआ है बल्कि शायद इससे कुछ लोगों को फायदा ही हुआ है क्योंकि पहले लोगों को पता नहीं था कि स्टैंडअप कॉमेडी क्या है, अब वो जानते हैं. उन्हें पता है इसकी हद क्या है. हां, इससे कुछ कॉमेडी करने वालों को भी अपने आप को समझने में फायदा हुआ है कि क्या वो इस तरह के कॉमेडियन हैं, क्या वे भी ऐसा करना चाहते हैं. तो कॉमेडियन को तो कोई फर्क नहीं पड़ा है, लोगों के इसके प्रति नजरिये में पड़ा है. हो सकता है जो लोग शायद कॉमेडी देखने आते थे, वो कभी नहीं आएंगे या जो कभी नहीं देखते थे वो अब आएंगे या जो आने की सोचते हैं उन्हें पता है कि यहां कुछ तो शॉकिंग होगा. वैसे इस विवाद से जो असर पड़ा वो कॉमेडी के लिए और ऐसे विषयों (जिन पर विवाद हुआ) पर डिबेट के लिए अच्छा है.

पिछले कुछ समय में सटायर के केंद्र में देश में लगे बैन रहे. सरकार जनता को निर्देशित करती है कि क्या खाना है, क्या पढ़ना है. क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा होना विरोधाभास की तरह नहीं है?

विरोधाभास तो डेमोक्रेसी में होते ही हैं, मेरे लिए इसमें चौंकने जैसा कुछ नहीं है. ऐसा होगा ही. देश में इतना कुछ है कि आप चाहें तो किसी न किसी बात पर हमेशा गुस्से में रह सकते हैं. उसमें भी अभी हम सिर्फ वही बातें पकड़ रहे हैं जो हमारे दायरे में हैं यानी दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु में हो रही हैं. इसके बाहर देश में कितना बुरा हो रहा है वो सोच ही नहीं पाते क्योंकि सोचकर आपको खुद से ही नफरत हो जाएगी कि आप चुप क्यों बैठे हैं जब इन शहरों से दूर किसी गांव में दलित के मंदिर में चले जाने या कुएं से पानी पी लेने पर कुएं में जहर मिला दिया गया. इन सबके बीच ये शहरी या कहें हिंदुस्तान की ‘फर्स्ट वर्ल्ड प्रॉब्लम्स’ बेमानी हो जाती हैं.

निर्देश देने में वैसे सेंसर बोर्ड भी पीछे नहीं रहा है. पहले गाली-गलौज, हिंसा आदि पर सेंसर की कैंची चलती थी पर अब देश में बन रही सेमी पॉर्न फिल्म एडल्ट कॉमेडी के नाम से रिलीज होती है और बोर्ड को हॉलीवुड में बनी फिल्म के किसिंग सीन की अवधि पर आपत्ति होती है. किसिंग सीन की सही अवधि का क्या मानक है? इस पर क्या कहेंगे?

दो बातें हैं, एक है सिस्टम यानी व्यवस्था और दूसरा उस व्यवस्था को चलाने वाले, तो ये व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. ये कहूं कि पहलाज निहलानी से पहले सेंसर बोर्ड अच्छा था तो मैं झूठ बोल रहा हूं. ये सिस्टम बना ही एक्सप्लॉइट करने के लिए है. ये नहीं हो सकता न कि एक जमींदार अच्छा आ गया तो इसका अर्थ ये है कि फ्यूडल सिस्टम (सामंती व्यवस्था) खराब नहीं है. बस अब ये हो गया है कि अब जो जमींदार आया है वो सिर्फ गांव के बड़े लोगों की ही हत्या नहीं करता बल्कि बच्चों का भी खून पीता है तो अचानक से पिछला अनुभव अच्छा लगने लग गया. सिस्टम खराब है इसीलिए जमींदार आते हैं, जमींदार बदलते रहते हैं, व्यवस्था तो वही है. पहलाज निहलानी के साथ सिर्फ ये हुआ है कि उन्होंने वो हद भी पार कर दी है जिसके हम आदी हो चुके थे. सेंसर बोर्ड हमेशा से ही ऐसा था. पहले भी कई फिल्मों के साथ बुरा हुआ है. लीला सैमसन इनसे बेहतर थीं. पहलाज ने सेंसर बोर्ड से इतर जो काम किए हैं, मोदी जी के वीडियो बनाए हैं, उससे उन्हें समझना आसान हो गया है, तो ये व्यक्ति और विचारधारा विशेष को आधार बनाकर फिल्में सेंसर कर रहे हैं. और जहां तक किसिंग सीन की सही अवधि की बात है तो ये कुंठाएं हैं, जिसको उन्हें अब देश पर डालने का मौका मिला है तो वो कर रहे हैं. इसके पीछे कोई लॉजिक नहीं है. ये इसी से समझ आता है कि वे कहते हैं कि दस नहीं सात सेकंड्स ओके है यानी उनके दिमाग में पैरामीटर है कि इसके बाद आठवें सेकंड में देश की मर्यादा भंग हो जाएगी! आप दस लोगों को ये सीन दिखाइए, किसी को छह सेकंड पर परेशानी होगी तो किसी को पहले पर ही, किसी को होगी ही नहीं. ये बिल्कुल निजी राय है और वो अपनी निजी राय को देश पर थोप रहे हैं.

National Issue Vol-8, Issue-6 for web 62-page-001WEB

आप सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं. यहां रोज हर बात पर बहस-बवाल होता है. अफवाहें फैलाने में सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा प्रयोग हो रहा है. क्या ये बंदर के हाथ उस्तरा देने जैसी स्थिति नहीं है?

मेरा मानना है बंदर के हाथ उस्तरा लगने वाली बात आधी सही है क्योंकि ये बंदर सीख सकता है. पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में जो क्रांतियां या विरोध हुए हैं, उनमें इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है. इंटरनेट से सबकी आवाज बराबर हो गई है. ये अच्छा है. एक तरह से डेमोक्रेटिक स्पेस है पर इसके साथ कॉमन सेंस की कमी भी है. आपको नहीं पता कि आप क्या आग लगा रहे हैं और वो कहां तक पहुंचेगी. ये उसी तरह है कि आप जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं. अनजाने में बहुत-से लोग ऐसा कर रहे है.

आपने  ‘ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’  के लिए काम किया है, जो अलग तरह का कॉमेडी शो था और काफी सराहा भी गया. खुद भी स्टैंडअप कॉमेडी से जुड़े हुए हैं. आजकल टीवी पर जो कॉमेडी शो दिखाए जा रहे हैं, क्या आप उनसे खुश हैं?

बिल्कुल नहीं. आजकल जो कॉमेडी शो टीवी पर आ रहे हैं मुझे उनसे बेहद चिढ़ है. मैंने उन्हें सिर्फ देखने के लिए देखा है कि ये लोग किस हद तक गिरे हैं. ये जो हो रहा है उसमें जनता की गलती है पर बनाने वाले की ज्यादा है क्योंकि ताकत उनके हाथ में है और फिर वे यह कहकर बचने की कोशिश करते हैं कि लोग यही देखते हैं. वे लोगों के बेसिक इंस्टिंक्ट यानी मूल प्रवृत्ति को संतुष्ट करके खुश हैं. पूरी दुनिया में मूल प्रवृत्ति यही है कि जो अपने से कमजोर है उसका मजाक बनाओ, वो कुछ नहीं कह सकता. वे अच्छे शो बना सकते हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते, दिमाग नहीं लगाना चाहते.

आप फिल्म भी बनाना चाहते हैं, किस तरह की होगी ये फिल्म?

इस सवाल का जवाब देना अभी बहुत मुश्किल है. मैंने जब ऐसा कहा था तब मेरे पास एक स्क्रिप्ट थी पर अब तीन हैं. तो इतना कह सकता हूं कि इनमें से जो भी बनेगी, जब भी बनेगी बहुत वास्तविक होगी और हिंदुस्तान के मध्य वर्ग के बारे में होगी क्योंकि वही एक दुनिया है जिसे मैं अच्छी तरह से जानता हूं.

अब तक लिखे गीतों में कौन-सा दिल के करीब है? किसी गीत को लिखते समय कोई ऐसा अनुभव जो यादगार बन गया हो.

दिल के सबसे करीब है ‘मसान’ का ‘मन कस्तूरी रे’ है क्योंकि इसे लिखने के पहले कुछ अंदाजा नहीं था कि क्या चाहिए और लिखने के तुरंत बाद लगा कि यही चाहिए था बिल्कुल. इस गीत के साथ ऐसा लगा जैसे वरदान की तरह मिला हो कबीर से. बस हाथ फैलाए, आंख बंद करके सोचा और यह उपमा आ गिरी. सबसे यादगार मौका रहा जब ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के गीत ‘जियऽ हो बिहार के लाला’ की रिकॉर्डिंग हो रही थी मनोज तिवारी के साथ. स्टूडियो में अनुराग कश्यप और स्नेहा खानवलकर भी थे और एक मौका आया जब मनोज तिवारी आंख बंद करके बस आलाप लेने लगे और स्नेहा ने संगीत को बस चलने दिया और तब मनोज बस मुग्ध होकर गीत को दोहराते रहे. हम सब सुनने वाले भी एक तरह के ट्रांस में चले गए और गाना पार लग गया.

आने वाली फिल्में?

फिलहाल तो अनुराग कश्यप की अगली फिल्म ‘रमन राघव’ के लिए गाने लिख रहा हूं.

साइमन उरांव : जल, जंगल और जमीन का सर्जक

Simon-Oraon

गणतंत्र दिवस के ठीक पहले की बात है. हर बार की तरह इस बार भी रस्मअदायगी अंदाज में पद्म सम्मानों को लेकर घमासानी वाकयुद्ध छिड़ा हुआ था. फलाना को क्यों मिला, फलाना पर नजर क्यों नहीं गई, फलाना तो सेटिंग-गेटिंग कर पद्म सम्मान लेने में सफल रहे. ऐसी ही बातें एक-दूसरे से राष्ट्रीय स्तर पर टकरा रही थी. उस वक्त झारखंड में सिर्फ एक नाम पर बार-बार चर्चा हो रही थी. संभावनाओं के आधार पर तीरंदाज दीपिका कुमारी का नाम उछाला गया था. इस बीच एक नाम सामने आया कि झारखंड से तीरंदाज दीपिका को तो पद्मश्री सम्मान मिलेगा ही साथ ही साइमन उरांव को भी इससे नवाजा जाएगा.

साइमन उरांव का जब नाम आया तो देश के बड़े हिस्से ने ध्यान ही नहीं दिया. देश को छोड़ दें तो झारखंड के ही एक बड़े हिस्से के लिए यह नाम लोगों के लिए चौंकाने वाला था. इस अजनबी नाम के बारे में राजधानी रांची में भी लोग एक-दूसरे से पूछ रहे थे. हालांकि रांची से महज 30 किलोमीटर की दूरी पर बसे बेड़ो बाजार में जब यह खबर पहुंची कि साइमन उरांव को पद्म सम्मान मिलने वाला है तो बेड़ो के आसपास गांवों में खुशी की लहर दौड़ गई. यह खबर जंगल की आग की तरह फैली. आधे से अधिक लोग यह भी नहीं जानते कि यह पद्म सम्मान होता क्या है? उनके लिए बस ये जानना ही काफी था कि उनके साइमन बाबा को कोई सम्मान मिल रहा है.

बेड़ो इलाके में खुशी की ये लहर यूं ही नहीं दौड़ी थी. साइमन उरांव को इस नाम से उनके बेड़ो इलाके में नहीं बुलाया जाता. इलाके वाले या तो उन्हें ‘साइमन बाबा’ कहते हैं या ‘राजा बाबा.’ राजा बाबा इसलिए, क्योंकि वे पारंपरिक तौर पर आदिवासियों में कायम शासन व्यवस्था के तहत 1967 से ‘पहड़ा राजा’ हैं. और नई पीढ़ी राजा बाबा इसलिए कहती है क्योंकि पिछले कई दशकों से उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों के लिए समर्पित कर दिया है.

साइमन बेड़ो के हरिहरपुर गांव के रहने वाले हैं. उन्हें यह सम्मान 81 साल की उम्र में मिला है. जिस काम के लिए उन्हें यह सम्मान मिला है, उस काम को वे देश को आजादी मिलने के बाद से ही अपने इलाके में कर रहे हैं. फिलहाल वह अपने इलाके के 51 गांवों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. वह अब तक छह बांध बना या बनवा चुके हैं. पांच तालाबों के सृजनकर्ता हैं और इलाके में छोटी नहरों और कुंओं का भी भरपूर निर्माण कराया है. अगर उनके इलाके के जंगल को देखें तो पुराने जंगल तो बचे हुए है ही, नए जंगलों के सर्जक भी वे हैं और उनकी प्रेरणा से हजारों पेड़ लहलहा रहे हैं. ये सब जानकर किसी को भी लग सकता है कि ऐसे काम तो कई लोग देश में कर रहे हैं. लेकिन यह कहना आसान है, पर उनकी यात्रा को जानने के बाद लगेगा कि उनका काम आंकड़ों में समेट कर आंकने वाला मामला नहीं है.

साइमन उरांव अब तक छह बांध बना या बनवा चुके हैं. वह पांच तालाबों के सृजनकर्ता हैं और इलाके में छोटी नहरों और कुंओं का भी भरपूर निर्माण कराया है

साइमन अपनी बात को बहुत सहजता से बताते हैं. कहते हैं, ‘बहुत मुश्किलों से गुजरना पड़ा. अभी नहीं, जिस दिन सोचा कि जंगल को कटने नहीं देंगे, खेती को बचाएंगे और लोगों को बताएंगे कि जो बरखा है, पानी है, जंगल है, हरियाली है, पहाड़ है, वह कुदरत की देन है, उस पर सिर्फ भगवान का अधिकार है, किसी और का नहीं, उसी दिन से परेशानी शुरू हुई.’ वह कहते हैं कि 1952 के करीब उन्होंने पहली बार गांव के लोगों को प्रेरित कर यह तय किया कि जंगल कटने शुरू हुए हैं, इसे रोकना है. जब वे इस अभियान में लगे तो उन्हें जेल भेज दिया गया. साइमन हंसते हुए बताते हैं, ‘जब काम शुरू किए तब दु-दु बार जेल भी भेज दिए गए थे, बाद में कोर्ट ने छोड़ दिया, यह कहके कि हम सामाजिक आदमी हैं.’ साइमन जेल गए तो उन्हें लग गया कि जंगल को बचाना इतना आसान नहीं और अगर अभी ही नहीं बचाया गया तो उनका इलाका वीरान हो जाएगा. साइमन ने अपने गांव के ही दूसरे टोले खकसीटोली, जामटोली, बैरटोली आदि के लोगों को जुटाया. उन सबकी मदद से एक टीम बनाई. सभी गांवों से दस-दस लोगों की टीम थी और जो इसमें शामिल हुए उनके पारिश्रमिक के लिए 20-20 पइला (अनाज मापने वाला पात्र) चावल देने का निर्णय लिया गया. चावल भी गांव से ही चंदे में लिया जाने लगा. इस तरह जंगल बचाने का अभियान शुरू हुआ. नतीजा यह हुआ कि बाहर वाले जंगल की ओर नजर डालने से तो रहे, जो स्थानीय जंगल में लकड़ी काटने जाते थे उनकी जरूरत के हिसाब से उनके लिए भी शुल्क निर्धारित कर दिया गया. जलावन, घर आदि बनाने के लिए लकड़ी लाने पर 50 पैसे का शुल्क निर्धारित हुआ जो बाद में बढ़कर दो रुपये हो गया. जंगल बचाने की सिर्फ यही तरकीब साइमन ने नहीं निकाली, बल्कि जो पेड़ काटते थे उन्हें भी इसके लिए प्रेरित करते रहे कि एक पेड़ काटने से पहले पांच से दस पेड़ लगाओ. साइमन काम कर साबित कर रहे थे इसलिए उनकी बातों का असर भी होता रहा. लोग उनकी बात मानते भी रहे और आज नतीजा यह दिखता है कि बेड़ो के जिस इलाके में साइमन का गांव है, उसके आसपास हरियाली ही हरियाली नजर आती है.

जंगल बचाने और जंगल बढ़ाने का काम तो साइमन का रहा ही लेकिन उन्होंने जो दूसरा काम पानी के लिए किया, वह तो देशभर के लिए एक नजीर है. जैसे पूरा बिहार हर साल सूखे की चपेट में आता था वैसे ही साइमन का इलाका भी आता था. साइमन ने सबसे पहले अपनी जमीन पर अपने श्रम से कुंए खोदे. कुंआ खोदने के बाद लोगों को तालाब खोदने के लिए प्रेरित किया. साइमन ने जब ये काम शुरू किया और बिना किसी सरकारी सहयोग के लोगों से इससे जुड़ने को कहा तो लोग उनकी बातों को समझ नहीं पाते थे, लेकिन धीरे-धीरे 500 लोग साइमन के इस अभियान से जुड़ गए. साइमन कहते हैं, ‘हम सरकार को बताना ही नहीं चाहते थे कि हम ऐसा कर रहे हैं. सरकार को बताते तो फिर कभी वन विभाग की जमीन बताकर कुंआ-तालाब खोदने से मना किया जाता तो कभी कुछ और पेंच फंसाया जाता.’ साइमन अपने इलाके में लोगों को जोड़कर काम में लगे रहे, देखते ही देखते तकरीबन 5500 लोग एक समुदाय की तरह जुड़ गए. साइमन ने कुंआ-तालाब के बाद छोटी-छोटी नहरों और बांधों का निर्माण शुरू किया. साइमन पढ़े-लिखे नहीं थे, बस नाम मात्र की स्कूली शिक्षा ली है, इतनी शिक्षा कि अब भी कुछ पढ़ नहीं पाते, लिख नहीं पाते सो वे बांध आदि के विज्ञान और गणित को समझ नहीं पा रहे थे. बांध का प्रयोग असफल होता जा रहा था लेकिन उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर आखिरकार तय किया कि अगर बांध 45 फीट ऊंचा रहेगा और उसकी गहराई दस फीट रहेगी तो फिर बरसात का पानी भी इसका कुछ नहीं कर पाएगा. अनुभव से उपजा यह प्रयोग सफल रहा. पहला बांध उन्होंने नरपतरा नाम के गांव में बनाया, दूसरा अंतबलु और तीसरा खरवागढ़ा में. फिर तो साइमन की बताई राह पर चल लोग खुद ही इस दिशा में पहल करने लगे. साइमन कहते हैं, ‘हमारे यहां इन चीजों का असर यह हुआ कि जो जमीनें हर साल पानी के बिना खाली रहती थीं, अब उन पर साल भर फसलें लगी रहती हैं, तीन-तीन फसल किसान काटते हैं और 1967 में भी जब भीषण सूखा पड़ा तो भी हमारा इलाका बचा रह गया था.

साइमन बुजुर्ग हो चले हैं, लेकिन जब वे बात करते हैं तो ऊर्जा से भरे रहते हैं. राज-समाज-देश को बचाने के लिए, बढ़ाने के लिए जब योजनाओं पर बात करते हैं तो इतने आशावादी नजरिये से बात करते हैं, जैसे वे अभी भी युवा हों. साइमन कहते हैं, ‘हम पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन कुछ चीजों को ही जीवन का मूल मंत्र मानते हैं और जानते हैं कि अगर इन मंत्रों को समाज अपना ले तो हर काम के लिए सरकार की ओर नहीं देखना होगा. ये मंत्र है- देखो, सीखो, करो, खाओ और दूसरों को भी खाने दो.’ यह पूछने पर कि सरकार से अगर सहायता चाहिए तो क्या कहेंगे आप? साइमन का जवाब एक लाइन में होता है, ‘तरह-तरह की फैक्ट्रियां रोज खुल रही हैं, रोज बताया जा रहा है कि फलाना फैक्ट्री खुलने से फलाना विकास होगा, भविष्य सुरक्षित रहेगा लेकिन यह हर कोई याद रखे कि चाहे हम कितने भी विकसित हो जाएं, कितनी भी फैक्ट्रियां खोल लें, कितना भी धन अर्जित कर लें लेकिन खाना तो अन्न ही होगा, इसलिए इस देश में अधिक से अधिक अन्न का कारखाना तैयार करना होगा.’ अन्न के कारखाने का मतलब भी वह समझाते हैं. कहते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि खेतों में जो क्षमता है, उसका उपयोग हो, किसान उसका लाभ ले सकें और समाज को दे सकें, इसके बारे में सोचना होगा.

साइमन अपने बारे में ज्यादा बात नहीं करते. उनके पास हर पल कुछ नया काम होता है. वे उसी धुन में लगे रहते हैं. वे हर सप्ताह पूरे इलाके के लोगों के साथ बैठते हैं. उस बैठक में जल-जंगल-जमीन पर बात होती है, बड़ी-बड़ी बातें नहीं, लच्छेदार भाषण भी नहीं. साइमन के पास साधारण लोग पहुंचते हैं, साधारण बातें करते हैं. साइमन उन साधारण बातों के छोर को पकड़कर ही काम करते हैं. जो करते हैं, वह बड़ा हो जाता है. हम उनसे यह भी पूछते हैं कि आप तो खुद पढ़े नहीं लेकिन आप पर तो कैंब्रिज और नॉटिंघम जैसे दुनिया के ख्यात विश्वविद्यालय में हुए शोध कार्यों पर बात होती है. वे कहते हैं, ‘वह सब तो चलता रहता है. हर कोई अपने काम में लगा हुआ है. हम भी अपने काम में लगे हुए हैं.’ आखिरी में यह पूछने पर किसी बात का दुख, कोई ख्वाहिश? तो साइमन कहते हैं, ‘अभी कुछ दिनों पहले जब पद्म सम्मान मिलने की बात हुई तो पता नहीं किसने अफवाह उड़ा दी कि मैं पद्म सम्मान लेना ही नहीं चाहता. यह तो अपने मन में से उड़ा दी गई बात हुई. यह सम्मान मुझे नहीं मिल रहा है, यह हमारे गांव-जवार के लोगों के प्रयास को मिला सम्मान है. इसमें गांव-जवार की खुशी है तो कैसे ठुकराया जा सकता है. इस तरह की अफवाह नहीं फैलानी चाहिए.’ ख्वाहिश पूछने पर कहते हैं, ‘ख्वाहिश जैसा तो नहीं लेकिन इच्छा है कि जल्द ही एक बार प्रधानमंत्री से मिलूं और मेरे जेहन में जो बातें हैं- खेती-बारी, जल-जंगल-जमीन को लेकर उनसे साझा कर दूं. जो भी थोड़ा बहुत अनुभव है, उसे उन्हें जाहिर कर दूं ताकि देश का भला हो.’