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उत्तर-पूर्व केसरिया हुआ पर उत्तर प्रदेश, बिहार में झटका

उत्तर-पूर्व में जीत का जो उन्माद भाजपा में भरा था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में मिली पराजय से उतर गया। गोरखपुर की सम्मान का प्रतीक बनी सीट के हारने से भाजपा को खासा धक्का लगा है। ध्यान रहे कि गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे से खाली हुई थी। वे इस सीट से पांच बार चुने गए थे। इसके साथ फूलपुर की सीट भी उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या के पास थी। समाजवादी पार्टी ने ये दोनों सीटें मायावती के सहयोग से आसानी से जीत लीं। मौर्या ने स्वयं कहा कि बसपा ने बड़ी सफलता से अपने वोट समाजवादी पार्टी को दिलवा दिए।

इस जीत का अनुभव अगले लोकसभा चुनावों में एक बड़े गठबंधन का आधार बन सकता है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल आरजेडी ने अररिया संसदीय सीट और जहानाबाद की विधानसभा सीटों पर कब्जा कर लिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एकदम ट्वीट कर लालू प्रसाद यादव को बधाई दी। इससे भविष्य में अच्छे गठबंधन के संकेत मिलते हैं।

केसरिया झंडे का अब त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में लहराना भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) की ऐतिहासिक जीत है। इससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस पार्टी किस तरह सिमट रही है और भारतीय जनता पार्टी लगातार कितनी तेजी से विकास कर रही है। उत्तरपूर्व के तीनों राज्यों में भाजपा की जो विजयगाथा लिखी गई है वह अविस्मरणीय है। पूरे देश के 29 राज्यों में से 22 राज्यों पर पार्टी या उसके सहयोगियों का सीधा नियंत्रण है। इसका राजनीतिक संदेश बहुत साफ है कि कांग्रेस का हाथ त्रिपुरा और नगालैंड में ज़ीरो रह गया है।

जबकि 2013 में त्रिपुरा में कांग्रेस को दस सीटें मिली थीं और नगालैंड में 2013 में आठ सीटें मिली थी। भाजपा अब खुद को उत्तर भारत की पार्टी नहीं अखिल भारतीय पार्टी होने का दावा कर सकती है। अब भाजपा की निगाहें कर्नाटक, ओडिसा,बंगाल पर हैं साथ ही राजस्थान और मध्यप्रदेश में एंटी इकंबैंसी का कामयाबी से मुकाबला करने पर।

पारंपरिक तौर पर उत्तरपूर्वी राज्य केंद्र में राज कर रही पार्टी की ही ओर झुकते हैं क्योंकि उन राज्यों की ज़रूरत ‘ग्रांटÓ और ‘फंडÓ की रहती है। लेकिन भाजपा ने उत्तरपूर्वी राज्यों में अपना जो सिक्का जमाया है वह इस सोच से बिलकुल अलग इसलिए है क्योंकि इन राज्यों के मतदाताओं ने खुद केसरिया को मत देकर अपनी पसंद जताई है। यानी यह पार्टी न केवल हिंदी इलाकों में बल्कि असम, मणिपुर, नगालैंड, अरूणाचल और अब त्रिपुरा के लोगों की पसंदीदा पार्टी है। दरअसल जब से ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में माकपा को परास्त किया तब से वामपंथी बेहद अलग-थलग पड़ गए हैं। उधर उत्तरपूर्व में भाजपा का प्रदर्शन कम से कम वाम राज की त्रिपुरा से विदाई को बताता है। इसने 59 सीटों में से 43 पर जीत हासिल की है। त्रिपुरा में जीत का महत्व इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि त्रिपुरा में वामपंथी मोर्चा 25 साल से लगातार राज कर रहा था।

‘चलो पल्टाई’ ने खींचा ध्यान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई और देखरेख में पार्टी की चुनावी मशीनरी सक्रिय रही। इसे 2013 में जहां शून्य मिला था वहीं आज इसकी सरकार बनी है। वाकई ‘चलो पल्टाईÓ और विकास के वादे का मतदाताओं पर असर पड़ा और उन्होंने उखाड़ फैंकी सरकार वह भी माणिक सरकार की। आंकड़ों के अनुसार त्रिपुरा में पूरे देश की तुलना में सबसे ज़्यादा बेरोजगारी है। लेकिन माकपा आज भी वामपंथियों की पुरानी पड़ गई विचारधारा जिसमें समान अधिकारों की क्रांति का ही राग अलापती है। जबकि भाजपा विकास और बदलाव की रणनीति का वादा करती है। त्रिपुरा में 25 साल से चला आ रहा वामपंथी राज अब धसक चुका है। भाजपा को 60 सदस्यों वाली विधानसभा में दो तिहाई का बहुमत मिल गया है। इस तरह माणिक सरकार का चार बार मुख्यमंत्री बने रहने का सिलसिला भी टूट गया है।

सत्ता संभाल रही माकपा को आंकड़ों के खेल में हराया। सत्ता में रही माकपा को 42.6 फीसद वोट तो मिले लेकिन वाम मोर्चा को आंकड़ों के खेल में पराजय मिली। यह 50 से घट कर 16 सीट पर आ गई। कांग्रेस तो पूरी तौर पर हवा हो गई। इसका 2013 में 36.53 फीसद वोटों की हिस्सेदारी थी लेकिन इस बार उसका खाता ही नहीं खुला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, ‘शून्य से शिखर तक की यात्रा इसलिए ही कामयाब हो पाई क्योंकि विकास का मज़बूत एजेंडा है और हमारा संगठन मज़बूत रहा है।Ó

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा उनकी पार्टी की प्रभावशाली विजय से यह संकेत मिलता है कि अगले कुछ और चुनाव जो आगे होने हैं उनमें भी ऐसा ही होगा। पार्टी के कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह है। वे 2019 के चुनावों की तैयारी में अभी से लगे हुए हैं।

वहीं माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि भाजपा ने त्रिपुरा में धन और बाहुबल का इस्तेमाल किया।

कुछ आसार बनते दिखते हैं पर

यह साफ है कि त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा को लाभ हुआ है। कांग्रेस ने हमेशा अपने को कमज़ोर करते हुए भाजपा को बढ़ाया। गुजरात में ज़रूर कांग्रेस के जीवंत होने के आसार दिखे भी। राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की उपचुनावों में जीत हुई है। राहुल गांधी के नए अवतार से यह शोर भी मचा है कि मोदी का जादू अब खत्म हो रहा है। लेकिन अब उसमें खासा ठहराव आ गया है। यों भी राहुल गांधी की जो तस्वीर तब बनी थी वह उत्तरपूर्वी राज्यों के नतीजों के आने के बाद खत्म हो गई। यह उम्मीद बंधी कि भाजपा काफी मज़बूत है।

जब 2013 के विधानसभा चुनावों में इसकी सिर्फ 1.6 फीसद मतों की हिस्सेदारी थी और एक भी सीट नहीं मिल सकी थी लेकिन अपने दम पर आज इसका मत फीसद 43 फीसद है जो अमूल्य है। भाजपा न केवल अगरतला के शहरी इलाकों में जीती बल्कि दक्षिण, मध्य और पूर्वी त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में भी जीती।

यह सिलसिला नगालैंड में भी चला जहां इसे 12 सीटें और मत फीसद 15.3(जो 1.8 फीसद से बढ़ा) मिला। नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी से हुआ गठबंधन जिस में 16 सीटों पर जीत हासिल हुई। इससे जाहिर हुआ कि पार्टी की कितनी सधी हुई रणनीति है। मेघालय में किसी पार्टी को बहुमत 1976 से ही नहीं मिला। इसे राज्य में भी भाजपा को मत फीसद 1.3 से बढ़कर 9.6 फीसद हुआ।

उत्तरपूर्वी राज्यों की लोकसभा में 25 सीटें हैं। भाजपा ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और दूसरी जगहों पर हुए नुकसान की भरपाई इस इलाके में कर ली। पार्टी ने छोटे राज्यों को नज़रअंदाज न कर एक उदाहरण भी पेश किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के किसी भी नेता की तुलना में यहां सबसे ज़्यादा चुनाव रैलियां की। इसके पहले कोई कांग्रेसी नेता और वर्तमान में कभी यहां रैलियां करने के लिए सक्रिय नहीं दिखा बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ट्वीट करके यह चिढ़ाया भी गया कि ‘चुनाव शायद इटली में हो रहे हैं। कांग्रेस के प्रमुख लोगों का इटली में ‘नानी’ को देखने जाने पर यह चकल्लस हुई।

रोशनी में हिरण

कांग्रेस का हाल वैसा ही दिखा मानो तेज रोशनी में हिरण दिखे। मेघालय में जहां कभी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बतौर उभरी थी। वहां अब कोनराड संगमा के नेतृत्व में भाजपा की साझादारी में सरकार ने शपथ ली। मेघालय में 28 सीटें इसे मिली ज़रूर। यानी सबसे बड़ी पार्टी होने का मौका भी मिला। लेकिन सतर्क भाजपा बाजी मार ले गई। उसने ज़्यादा मत पाने वाली पार्टी को समर्थन दिया। लगभग ऐसा ही वाकया गोवा विधानसभा चुनाव में हुआ था जहां कांग्रेस को 17 सीटें,भाजपा को 13 सीटें मिली थी। लेकिन भाजपा ने इच्छुक विधायकों को अपने साथ लेते हुए वहां सरकार बना ली। भाजपा अब सरकार बनाते हुए इस कला में पटु हो गई है।

भाजपा ने जनता को रिझाने वाला एक नारा ‘कांग्रेस मुक्त भारतÓ खूब प्रचारित किया है। इससे लगता है कि किसी गैर भाजपा शासित पार्टियों के राज में यह कठिन ही होगा कि केंद्र में राज चला रही पार्टी के खिलाफ वे मुहिम चला सकें। भाजपा का इरादा ‘विपक्ष मुक्त भारतÓ का रहा है और उसे वे हासिल भी करते जा रहे हैं। धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक पार्टियों का किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम में एकजुट होना शायद ही कामयाब हो। यह बात उत्तरपूर्व में केसरिया के फैलाव से अब जगजाहिर है। यह देखना भी रोचक होगा उत्तरपूर्वी राज्यों में केसरिया पताका के फहराने के बाद विभिन्न राज्यों में राजनीति क्या रूप लेती है।

उत्तर प्रदेश, बिहार उपचुनाव में भाजपा को झटका

उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोक सभा सीटों के उपचुनाव के नतीजे भाजपा को तगड़ा झटका दे गए हैं। तीनों सीटों पर भाजपा हार गयी। सबसे बड़ी हार भाजपा को गोरखपुर में झेलनी पडी जो मुख्यमंत्री योगी का गृह क्षेत्र है। फूलपुर में भी भाजपा हार गयी जो उपमुख्यमंत्री का गृह क्षेत्र है। इस तरह बिहार के अररिया में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के सरफ़राज़ आलम जीत गए। बिहार में विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव में से एक आरजेडी जबकि एक भाजपा ने जीता।
दक्षिण पूर्व में जीत और जोड़तोड़ से सरकार बनाने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश और बिहार में लोक सभा के उपचुनाव नतीजों ने तगड़ा झटका दिया है। उपचुनावों के नतीजे जो संकेत दे रहे हैं वह यह है कि जहाँ-जहाँ भाजपा का शासन है वहां जनता उसे अस्वीकार करने लगी है। साल २०१९ के लोक सभा के चुनाव के लिए यह तथ्य भाजपा और उसकी नैया के मुख्या करणधार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों के लिए बहुत चिंता का सबब हैं। एक साल में ही उत्तर प्रदेश में मोदी और योगी दोनों का करिश्मा इस तरह उतर जाना भाजपा के लिए निश्चित ही खतरनाक राजनितिक संकेत है। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के १३ मार्च के विपक्षी दलों की डिनर डिप्लोमेसी के बीच यह नतीजे देश में विपक्षी दलों के साझे मोर्चे के गठन का रास्ता खोलेंगे।
उत्तर प्रदेश और बिहार में उपचुनाव के नतीजों के दौरान भाजपा के एक बड़े नेता ने इस संवाददाता से मजाक में कहा कि मोदी-शाह ने अपने लिए चुनौती दिख रहे योगी को इन उपचुनावों के जरिये ”निबटा” दिया। लेकिन मजाक से परे देखें तो भी यह नतीजे मोदी-शाह-योगी तीनों के लिए खतरे की बड़ी घंटी बजा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सपा-भाजपा गठजोड़ को समर्थन दे दिया होता तो वह भी इस जीत की सहभागी बन जाती। लेकिन कांग्रेस खेमे से यही खबर है की वह २०१९ में उत्तर प्रदेश में महागठबंधन से इंकार नहीं करती।
मध्य प्रदेश और राजस्थान के हाल के उपचुनाव में भी भाजपा बुरी तरह पिटी थी। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा में सत्ता का केन्द्रीयकरण उसे अब भारी पड़ने लगा है। सारी सत्ता मोदी और शाह के आसपास घूमती है और आम कार्यकर्ता अलग-थलग पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के लोक सभा की जिन दो उपचुनाव सीटों पर भाजपा हारी है उसमें से गोरखपुर मुख्यमंत्री का गढ़ है जबकि फूलपुर उपमुख्यमंत्री का घर है। इस लिहाज से भाजपा के लिए यह हार ज्यादा कष्ट देने वाली है।
बिहार की अररिया सीट पर लालू प्रसाद की पार्टी की जीत से लालू के बेटे तेज प्रताप को राजनीतिक
मजबूती मिली है जो पिता लालू के जेल में के बाद पार्टी अभियान का जिम्मा पूरी ताकत से संभाले हुए हैं। वहां जहानाबाद मही लालू की पार्टी आरजेडी जीती है हालाँकि भाजपा को मरहम भभुआ सीट पर जीत से मिली है। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के लिए काम मतदान भी इस बात का संकेत है कि लोग भाजपा की सरकार से ज्यादा खुश नहीं। एक चेहरे के नाम पर चुनाव लड़ने का नुक्सान यह भी है कि कार्यकर्ता ज्यादा सक्रिय नहीं हो पाते। ऊपर से सपा-बसपा के गठबंधन से बोटों का बटबारा नहीं हुआ और भाजपा हार गयी।
अब सबकी नजर इस पर रहेगी कि जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा से मुकाबले के लिए किस तरह का गठबंधन सामने आता है। क्या २०१९ में लोकसभा चुनाव में भी सपा, बसपा, कांग्रेस आदि क्या साथ आते है ?

नेपाल विमान हादसे में ५० की मौत

बांग्लादेश का एक निजी एयरलाइन यूएस-बांग्ला विमान सोमवार दोपहर काठमांडू एयरपोर्ट पर दुर्घटना का शिकार हो गया। मिली जानकारी के मुताबिक इस हादसे में चार दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी है।  अभी तक की ख़बरों के मुताबिक विमान के मलबे से 50 शव बरामद किए जा चुके हैं, जबकि 25 लोगों को अब तक बचाया जा चुका है। जानकारी के मुताबिक विमान में करीब 71 यात्री मौजूद थे। हादसे में जान गंवाने वाले अधिकतर यात्री बांग्लादेशी नागरिक बताए जा रहे हैं जबकि 33 यात्री नेपाली मूल के थे।
मिली जानकारी के मुताबिक हादसा उस वक्त हुआ जब काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरते वक्त विमान संतुलन खो बैठा। दुर्घटना के बाद विमान में आग लग गई। विमान को रनवे के दक्षिण की ओर से लैंडिंग की इजाजत दी गई थी, जबकि विमान उत्तर की ओर से लैंड कर गया। दुर्घटनाग्रस्त हुआ विमान बांग्लादेशी निजी एयरलाइन यूएस-बांग्ला का था, जिसकी स्थापना अमेरिका और बांग्लादेश के बीच संयुक्त रूप से हुए करार के बाद ज्वाइंट वेंचर के तहत 2013 में की गई थी।
बतायदुर्घटनाग्रस्त गया है कि विमान ढाका से नेपाल रूट पर था। बहरहाल, सभी घायलों को अस्पताल भेजा गया है। त्रिभुवन एयरपोर्ट पर आने वाले सभी विमानों को कोलकाता और लखनऊ डायवर्ट कर दिया गया है। दुर्घटनास्थल पर राहत व बटाव कार्य युद्धस्तर पर जारी है।

दबंगों के दबाव में रोती ‘रुदालियां

जहां अंधविश्वास का पाखंड सिर चढ़कर बोल रहा हो, वहां ना लागू हो पाने वाले कानून का राज हो जाता है। राजस्थान के आदिवासी जिले, बांसवाड़ा, चित्तौडग़ढ़, उदयपुर,भीलवाड़ा,डूंगरपुर, सिरेही और जालोर गणतंत्र की सत्तरवीं सालगिरह पर भी इस अभिशाप से मुक्त नहीं है। डायन, मौताणा और रुदाली सरीखी विकृतियों की कू्ररता ने जल, जंगल ओर जमीन के स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों की जिन्दगी की चूलें हिला दी है। सरकार की बेरूखी और ठिकानेदारों के पाखंड के दो पाटों में पिसते हुए आदिवासी दबंगों की ऐसी प्रताडऩा सह रहे हैं उनकी कल्पना भी सिहरा देने वाली है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों के मुताबिक कबीलाई हिंसक प्रथाओं और दबंगों की प्रताडऩों को भुगतने के मामले में राजस्थान देश में अव्वल नंबर पर है और इस निर्ममता की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हो रही है। आदिवासी इलाकों में कानून का राज ओझल रहा है तो दबंगों के तेवर जन प्रतिनिधियों को भी चुप्पी की चादर ओढऩे को विवश कर रहे हैं। आदिवासियों को पाखंड की निर्ममता से मुक्ति दिलाना इस शताब्दी का सर्वोच्च सामाजिक सुधार होना चाहिए था, लेकिन सियासी रिश्तों का कवच पहने रजवाड़ों का बाल भी बांका नहीं होता। राजनेता यह कह कर निर्मम घटनाओं से छुटकारा पा लेते हैं कि, आदिवासियों में काला जादू का अंधश्विस काफी गहरा है। ऐसा है भी तो राजस्थान हाईकोर्ट के जोधपुर खंडपीठ के न्यायाधीश गोपालकृष्ण व्यास के उन निर्देशों का क्या हुआ, जिसमें उन्होंनें राज्य सरकार को फटकार लगाई थी कि, महिलाओं को कोई डायन कैसे बता सकता है? लेकिन राज्य सरकार तो आज भी इस सवाल पर चुप्पी साधे बैठी है कि, ‘डायन प्रताडऩा के मामले रुक क्यों नहीं रहे? फिर राज्य सरकार के उस खटराग का क्या मतलब हुआ जिसमें दुहाई दी जा रही है कि,’नारी का सशक्तिकरण ही समाज का सशक्तिकरण है?ÓÓ राजस्थान के विशिष्ट सामंती ढांचे की बदोलत सामाजिक टकराव आदिवासियों ओर जनजातियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के रूप में दिखाई पड़ रहा है। जमीनी पड़ताल इस बात को पुख्ता करती है कि आदिवासियों की संपत्ति हड़पने के लिए उन्हें डायन करार देना, अप्राकृतिक मौतों पर मोताणें की कुरीति के जरिए धन वसूली करना और अपने परिजनों की मौत पर’रूदालीÓ सरीखी प्रथा की आड़ में आदिवासी औरतों को रोने के लिए विवश करना तो सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे को जकड़बंदी में रखना है। इसका सीधा संबंध वर्चस्ववादी संस्कृति को बढ़ावा देना है।

सिरोही और जालोर के आदिवासी इलाकों में पराए लोगों की मौत पर रोने को अभिशप्त रुदालियों का क्रन्दन तो झुरझुरी पैदा करता है, जिनके आंसू कभी नहीं सूखते। वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं,’अपनों के लिए तो सभी आंसू बहाते हैं लेकिन ये वो महिलाएं हैं जो गैरों की मौत पर छाती-माता कूटती हई विलाप करती है। ‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त पेशेवर रोने वालियां को गांव ढाणियों के दबंगों की मौत पर रोने के लिए जाना पड़ता है। दहाड़े मारकर रोने वालियों का विलाप बारह दिन तक चलता है और इसकी एवज में उन्हें खाने को मिलता है प्याज और बचे-खुचे रोटियों के टुकड़े! मीडिया से जुड़े लोगों ने सिराही जिले के रेवदार विधायक जगसीराम कोली से इस अमानवीय रिवाज के बारे में पूछा तो वे औपचारिक जवाब देकर खिसक लिए कि,’अच्छा! अगर ऐसा है तो हम रुकवाएंगे?ÓÓ दबंगों से जनप्रतिनिधि कितने डरे हुए हैं? इस बाबत जिले के गंवई इलाकों के सरपंचों से पूछताछ की तो उन्हांने कुछ भी कहने-सुनने से इन्कार कर दिया।

करीब दो सौ साल से चली आ रही, इस प्रथा के बारे में कहा जाता है कि, यह रजवाड़ों और ठिकानेदारों की देन है। रजवाड़ों में रोना-बिलखना ‘कायरताÓ माना जाता था, इसलिए जब भी उनके परिवार में किसी की मौत होती तो मातम करने के लिए बाहरी महिलाओं के बुलाया जाता था, जो या तो आदिवासी होती थी या दलित परिवारों से। वरिष्ठ पत्रकार रणजीत सिंह चारण सिरोही जिले के हाथल गांव की रुदाली सुखी का हवाला देते हैं जिसका कहना था अगर हम ठिकानेदारों के परिजनों की मौत पर रोने जाने से इंकार कर दे ंतो, हमें भारी खामियाजा उठाना पड़ता है यानी मारपीट से लेकर गांव बदर तक…! सुखी का कहना था,’जब जाना ही पड़ता है तो हील-हवाला करने से क्या फायदा?ÓÓ इस पाखंड पर समाजसेवी यतीन्द्र शास्त्री कहते हें, गजब है कि आज भी गांव-ढाणियों में रजवाड़ी जुल्म कायम है?ÓÓ आदिवासी महिलाएं मातम मनाती है तो, शोक मनाने के लिए दलित समुदाय के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को मुंडन करवाना पड़ता है। नागरीय अधिकारों के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एम.एम. लाठर का कहना है,’डायन प्रताडऩा निवारण की तरह इस प्रथा के खिलाफ कोई विशेष कानून नहीं है। इसलिए पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर पाती। इसके लिए तो समाज को ही पहल करनी पड़ेगी।ÓÓ

नौंवे दशक के उत्तरार्द्ध में ‘रुदालीÓ को केन्द्र में रखकर बालीवुड में एक फिल्म भी बनी थी, जिसकी नायिका डिम्पल कपाडिय़ा थी। सामाजिक बुराई पर ध्यान आकर्षित करने वाली इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था, लेकिन इस बुराई के उन्मूलन के लिए सामाजिक स्तर पर कोई पहल की हो? ऐसा कहीं भी संज्ञान में नहीं आया। फिल्म ‘रुदालीÓ में शनिचरी का पात्र निभाने वाली डिम्पल कपाडिय़ा का एक संवाद अत्यंत मार्मिक था,’ये आंसू हमारी जिन्दगी का हिस्सा है, ठीक वैसे ही जैसे हम फसल काटते है या खेत में हल चलाते हैं? हमें इन आंसुओं को संजोकर रखना होगा।Ó

आंसू बहाते हैं, पोंछते नहीं!

‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त आदिवासी महिलाओं को गांवों के बीच रहने का हक नहीं होता। इनके घर गांव की सरहदों के बाहर बने होते हैं। ये पेशेवर औरतें होती है जो विलाप के दौरान मृतक के कार्यो का बखान करते हुए संवेदना का ऐसा माहौल रच देती है कि देखने सुनने वालों की आंखे बरसे ही बरसे। इनका क्रन्दन इतना आवेग भरा होता है कि लगता है मरने वाला इनका अपना ही कोई सगा-संबंधी था। यह एक प्रचलित परम्परा है कि गांवों के ठाकुरों और जमीदारों के परिवार में जब भी किसी की मृत्यु की खबर फैलती है हर कोई मृतक की हवेली परिसर में एकत्रित हो जाते हैं। परम्पराओं के मुताबिक मृतक के परिवार की महिलाएं बाहर नहीं निकलती, गांव के लोग ही ठाकुर की निगाह में चढऩे के लिए दाह संस्कार की व्यवस्था में जुट जाते हैं। किराए पर मातम करने वाली रुदालियां काले वस्त्र पहन लेती है और करुण विलाप के साथ छाती कूटती हुई जमीन पर लोट-पोट हो जाती है। रुदालियां ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाने का प्रयास करती है लेकिन बहते हुए आंसूओं को पोंछने की कोशिश नहीं करती। रुदालियों द्वारा काले वस्त्र धारण करने के पीछे अवधारणा है कि काला रंग मृत्यु के देवता यमराज का पसंदीदा रंग है। इन महिलाओं को पारिवारिक जीवन जीने की इजाजत नहीं होती। क्योंकि खुशहाल पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाली महिलाएं भला कैसे किसी की मौत का मातम मना सकती है। उच्चकुल के ठाकुर और जमीदार परिवार की औरतों को अपने मर्तबे के मद्देनजर अपने परिजनों की मौत पर दूसरों के सामने आंसू बहाने की इजाजत नहीं होती। इस मातमपुर्सी के दौरान उन्हें हवेली के भीतर ही बना रहना होता है।

रुदालियों पर निधि दुगर कुंडालिया द्वारा लिखी गई पुस्तक में ठाकुर परिवार के एक मुखिया के हवाले से कहा गया है कि,’उच्चकुल की महिलाओं का आम लोगों के सामने आंसू बहाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है। यदि उनके पति की मृत्यु भी हो जाए तो भी उन्हें अपने दुख को दबाए रखना पड़ता है। उनकी वेदना दर्शाने का काम रुदालियां करती है।

कंगना ने तोड़े बालीवुड में महिलाओं के भ्रम

कंगना रानौट पिछले साल करण जौहर के काफी कार्यक्रम में बुलाई गई थी। उसने करण जौहर को भाई भतीजावाद का झंडाबरदार कहा। इसे सुनकर वहां मौजूद सैफ अली खान देखते ही रह गए।

यह पहली बार नहीं था जब कंगना ने जोर से ऐसा कहा। बॉलीवुड में ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जो दशकों से ऐसा कहने की महज सोचते रहे हैं। लेकिन कंगना ने खुद को आज ‘फायर ब्रांडÓ बना लिया है। वे बालीवुड में बाहरी कलाकार के तौर पर खुद अपनी तस्वीर बना रही हैं। सवाल यह नहीं है कि उसने क्या कहा बल्कि यह है कि उसने ऐसा कहा कैसे। कितनी सहजता से उसने कहा था। कहीं कोई तनाव नहीं। उसे जो कहना था उसने साफ तौर पर कह दिया। स्टूडियों के कमरे में बैठे दोनों सिने कलाकार उसे क्षण भर अवाक देखते रहे।

उनकी प्रतिक्रिया से लग रहा था कि कंगना की टिप्पणी एक बड़ी वजह को लेकर है। वे सकपका से गए थे। एक के पास तो शब्द ही नहीं थे और दूसरे ने अपनी हथेलियां मुंह पर रख ली थी। दोनों खिसियाई हंसी हंसते दिखे क्योंकि वे जानते थे कि जो उसने कहा वह सच है। एक जमाने में दोनों ही उस भाई भतीजावाद के चलते ही कमाते भी रहे जिसके बारे में उसने कहा था। एक वाक्य जो उसने कहा वह पत्थर की लकीर बन कर सामने आ गया। सभी के सामने यह जग-जाहिर हो गया कि फिल्म उद्योग में कितने तरह के अन्याय होते रहे हैं। वह भी उन बड़े कलाकारों द्वारा। उसे बालीवुड के सबसे खराब महोत्सव में बुलाया गया था। जिसकी गूंज पूरे साल रही।

जब भी कंगना को मौका मिला उसने फिल्मी उद्योग के उन तमाम लोगों के नाम लिए उसी बिदांस तरीके से। इनमें अध्ययन सुमन, आदित्य पंचोली और ऋतिक रोशन थे। उसकी तुलना में इनका काफी अच्छा जुड़ाव फिल्म उद्योग में है। उसने खुल कर साक्षात्कारों में उनसे अपने संबंधों के बारे में बताया। कंगना ने खासे जोर-शोर से, गुस्से में और नाटकीय लहजे में अपनी दास्तां सुनाई। वह अपनी बातों से उन लोगों को प्रभावित नहीं कर रही थी जो उसके आसपास थे। लेकिन इस देश में जैसा हो रहा है लोगों ने उसे एक ऐसा कैनवस मान लिया जिस पर जहां फंतासियां ही फंतासियां है।

कंगना एक ऐसी युवती है जो अच्छा बुरा जानती समझती है और उसमें खुलकर बोलने की भी हिम्मत है। उसकी पहली प्रतिक्रिया तब सामने आई जब अंग्रेजी शब्दों कें उसके देसी उच्चारण और उसके बोलने के अंदाज और वरिष्ठों के प्रति आदर न दिखाने पर हुआ। उसकी आलोचना करने में वे महिला और पुरूष थे जिन्होंने चुप्पी और दमन की नशीली ऊँचाइयों से लाभ उठाया।

मज़ेदार बात तो यह है कि अपनें लहजे पर ध्यान देने की बात उसे उनसे सुननी पड़ी जिन्होंने अपने प्रतीकों के ज़रिए अपनी जिंदगी को और आरामदेह बना लिया। इन हालातों में वे उस जीवन से दूर नहीं होना चाहती। कंगना की पीड़ा पारिवारिक फिल्मी पृष्ठभूमि की वे युवतियां नहीं समझ सकतीं जिन्हें खुद-व-खुद इस क्षेत्र में कामयाब होने का विशेषाधिकार मिल जाता हे। वे सहजता से कंगना को खारिज कर सकती हैं।

अमूमन यह माना जाता है कि वे महिलाएं जो अपने गुस्से और नाराज़गी को दबाती हैं। ऐसे में यह फैसला करना कि उनकी यह नाराज़गी वैध है या नहीं। यह अलग मुद्दा है। लेकिन यह एक काबिलियत है जिसमें नाराज़गी सामने आती है। ऊब और थकी हुई और बात-बात में नाराज़ होने वाली महिलाओं को पहले तो हाथों-हाथ लिया जाता है। फिर उन्हें एक किनारे फेंक दिया जाता है।

अब कंगना ने अपनी एक राह ज़रूर बना ली है साथ ही एक ऐसा फोरम भी बना लिया है जहां बालीवुड की युवतियां अपना गुस्सा जता सकती हैं। एक साल से भी ज़्यादा समय उसे यह जताने में निकल गया कि वह टूटने को नहीं है। उसे यह अहसास भी हुआ।

फिल्म उद्योग में उसकी एक ऐसी तस्वीर बन गई है जो उससे भी कहीं बड़ी है। बालीवुड भले ही उसकी हिम्मत और चुनौती को देखते हुए उसे खतरा मान कर अपने दरवाजे भले ही बंद कर ले। लेकिन कंगना ने यह भ्रम ज़रूर तोड़ा कि बालीवुड में यह प्रचार गलत है कि औरतों को दिखने, बोलने, चलने की आज़ादी उतनी ही मिलती है जितनी वे देना चाहते हें। आज अभिनय में भी कंगना एक बड़ा ब्रांड है जो खासा नामी है। और संघर्ष करते हुए अपनी अभिनय क्षमता नित निखार रही है।

भयमुक्त है कंगना

कंगना रानौट के पास अब खोने के लिए कुछ भी ज़्यादा नहीं है। वह अपनी कहानी के संवाद भी खुद ही लिख रही थी। उसने उन चिंदियों को स्वीकार कर लिया था जो लोग उसे महिला कार्ड के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। बालीवुड में आज वह महिलाओं की झंडाबरदार ज़रूर है।

कंगना का महिला शक्ति के रूप में दिखना एक महागाथा है। इस कहानी के दो सिरे हैं- एक उसका अपना और दूसरा झूठे प्रचार का गलत का। वह अपने दुख भी खुद के पल्लू में रखती है। जब शबाना आजमी ने ऑनलाइल पेटीशन दीपिका पादुकोण के पक्ष में जारी की तो कंगना ने उस पर अपने दस्तखत तो नहीं किए लेकिन कहा कि निजी तौर पर वह पादुकोण के साथ है। उसने इस आरोप को भी कबूल लिया कि वह बाहरी है। उसने फड़कती हुई उस नस को दबा दिया था जिसके चलते उन लोगों में वह धीरज भी कम हो गया जो मशहूर लोगों के बच्चों और उनकी पहली प्रस्तुति होती है। वह भी बालीवुड में बदलाव के लिए ढेर सारी मार्केटिग के ज़रिए जिससे वे दुनिया में चमक सकें।

कंगना अपने आप में बदलाव खुद नहीं ला सकती। लेकिन उसकी आवाज़ की गूंज ज़रूर रहेगी। आज हॉलीवुड हार्वे वेन्स्टेन की कारगुजारियों की कहानियां बालीवुड में भी खूब गूंज रही हैं लेकिन उस गूंज से अब उम्मीद बनी है कि यह सिलसिला आगे बढेगा। आज कंगना खुद को ताकतवर भी मानती है।

‘हम साधारण लड़कियां लड़ रही हैं अधिकारों के लिए

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राओं ने मूलभूत सुविधाओं और उनके साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। जब वे अपनी मांगों को लेकर विश्वविद्यालय के परिसर में विरोध प्रदर्शन कर रही थीं तो उन पर लाठीचार्ज किया गया। उस समय इस विरोध को दबा दिया गया। वे सभी विश्वविद्यालय के उपकुलपति को हटाने की मांग कर रही थी।  परन्तु इतना समय बीत जाने के पश्चात् भी स्थिति वैसी ही बनी हुई है। अभी तक न तो उपकुलपति को बदला गया और न उनकी दूसरी मांगों को पूरा किया गया।  विश्वविद्यालय परिसर में लाठीचार्ज क्यों हुआ इस पर अपने अनुभव मनीषा ने जो इसी विश्वविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष की छात्रा है रिद्धिमा मलहोत्रा और मुदित माथुर को दिए साक्षात्कार में बताए।

आप छुट्टियों में वाराणसी में क्यों रही। घर क्यों नहीं गई?

सभी छात्राओं को बिना किसी नोटिस के अचानक हॉस्टल खाली करने को कह दिया गया था। प्रदर्शन के दौरान मैं लाठीचार्ज से बचने के लिए वहां से भागी। मैं बेहोश को गई और मेरे दोस्त मुझे उठाकर ‘आपातकालिकÓ कमरे में ले गए। वहां से ‘डिस्चार्जÓ हो कर जब मैं अपने हॉस्टल वापिस लौटी तो मुझे हॉस्टल के भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। सिर्फ उन लड़कियों को हॉस्टल से बाहर आने दिया जा रहा था जो अपना सामान लेकर घरों को जा रही थी। मैं नंगे पैर थी क्योंकि लाठीचार्ज के दौरान मेरी चप्पल कहीं छूट गई थी। मेरे सामान की बात तो छोड़ो उन्होंने मुझे मेरी चप्पल तक लेने कमरे में नहीं जाने दिया। इसलिए मैं वहीं अपनी एक मित्र केेे घर ठहर गई।

एक लड़की से छेडख़ानी के बाद इतना बड़ा विरोध प्रदर्शन क्यों हुआ?

बीएचयू में इस तरह की छेडख़ानी आम बात है। किसी लड़की से पूछा तो यह सभी के साथ होता है। इस बार एक लड़की के साथ जब्रदस्ती करने की कोशिश की गई। यह आम छेडख़ानी नहीं थी। उसे बाइक पर सवार युवकों ने हाथों से छूआ। जब उसने इसकी शिकायत की तो उलटा उसी पर आरोप लगाया गया कि वह छह बजे केे बाद बाहर क्यों घूम रही थी। इस पर लड़कियों मेें गुस्सा था। अब तो मामला अपनी हद पार कर गया था हमें कहा जा रहा था कि हम कपड़े ठीक नहीं पहनते और हम अपने लिए निर्धारित तथाकथित सीमाओं को पार करते हैं। हम अपने लिए एक सुरक्षित परिसर चाहते हैं जो हमें नहीं दिया गया।

     क्या आपने प्रशासन के साथ बातचीत कर इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की?

प्रशासन लड़कियों के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता। यहां के अफसर नारी से नफरत करने वाले हैं। हम बहुत लंबे समय से अपने लिए कुछ मूल सुविधाओं की मांग कर रहे हंै, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। मिसाल के तौर पर परिसर की सड़कों के कुछ हिस्सों में प्रकाश की व्यवस्था नहीं हैं,इसका लाभ उठा कर कुछ लड़के स्कूटरों और बाइक्स पर आते हैं और लड़कियों को ‘छूÓ कर छेडख़ानी कर भाग जाते हैं। अंधेरा इतना होता है कि उनकी गाडिय़ों के नंबर तक भी नहीं दिखते। पिछले सालों में ऐसी कई घटनाएं हो गई पर आज भी वहां सही रोशनी का इंतज़ाम नहीं हैं। हमने अपनी शिकायतें कई बाद अधिकारियों को की हैं, पर वे समस्या हल करने की बजाए हमें नैतिकता का पाठ पढ़ा कर वापिस भेज देते हैं।

     आप क्यों कहती हैं कि बीएचयू प्रशासन नारी विरोधी है?

इसके तो कई सबूत हैं यह जो सुविधाएं लड़कों के लिए हैं वे लड़कियों के लिए नहीं हैं। हमें लड़कों की तरह मांसाहारी भोजन नहीं दिया जाता। हमारे छात्रावासों में कफ्र्यू जैसी समयबद्धता है जबकि लड़कों पर कोई रोक नहीं। कई छात्रावासों में तो लड़कियां रात 10 बजे के बाद फोन पर बात भी नहीं कर सकतीं। कालेज प्रशासन को लगता है कि ‘वाई-फाईÓ और पुस्तकालयों की ज़रूरत केवल लड़कों को है, लड़कियों को नहीं। इस कारण ये दोनों सुविधाएं लड़कों के लिए हैं, लड़कियों के लिए नहीं। यदि लड़कियां घुटनों तक की निक्कर भी पहन लें तो वार्डन उन्हें प्रताडि़त करती है। एक बार हमारे उपकुलपति गिरीश त्रिपाठी(जो कि अब नही हैं) ने एक बैठक में कहा था कि भारतीय सभ्यता लड़कों नहीं, बल्कि लड़कियों के हाथ में है और एक आदर्श भारतीय लड़की वह है जो समझती है कि उसके भाई का भविष्य उसके अपने भविष्य से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। क्या आप इस बयान पर विश्वास कर सकते हैं।

     क्या बाकी शिक्षक भी ऐसी बातें करते हैं?

सभी तो नहीं पर उनमें से बहुत से करते हैं और कई तो अश्लील बातें भी कर लेते हैं। कई हॉस्टल वार्डन लड़कियों को उनके कपड़ों के लिए बेइज्जत करती हंै। हमारे पुरूष दोस्तों को तो प्रताडि़त किया जाता है उनको नहीं जो लड़कियों को परेशान करते हैं। एक बार हमारे एक शिक्षक ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर उन्हें अपन े शरीर पर हक चाहिए तो उन्हें नगें घूमना शुरू कर देना चाहिए। यहां का वातावरण लड़कियों के लिए घुटन भरा है।

     छात्र संगठन क्या कर रहे हैं, वे इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते?

बीएचयू में छात्र संगठन बनाने की इजाज़त नहीं हैं। यहां छात्र संगठन बनाने की मांग कई बार उठी है पर वे मान नहीं रहे।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके पास ऐसी रिपोर्टस हैं कि विरोध प्रदर्शनों के पीछे गैर सामाजिक तत्व थे। यह आरोप भी हैं कि कुछ छात्राएं दूसरे शहरों से भी आई थी।

इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं है। हर वह व्यक्ति जो इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुआ वह बीएचयू से ही था। क्या यह सम्भव है कि सैकड़ों छात्र बिना किसी की नज़र में आए, बीएचयू परिसर में पहुुंच जांए और छात्रावासों में रहें। यदि उनको विश्वास है कि प्रदर्शनकारी बाहर के थे तो बीएचयू केे 1000 छात्रों के खिलाफ एफआरआई क्यों दर्ज की गई है। इन विरोध प्रदर्शन की कई विडिय़ो बनी हैं, उन्हें देख लें। बहुत से छात्रों ने विडियो फिल्में बनाई है और वे सारी ‘सोशल मीडियाÓ पर उपलब्ध हैं। उन सभी की जांच की जाए और हर छात्र जो उनमें है उसकी फोटो बीएचयू रिकार्ड में उपलब्ध फोटो के साथ मिला कर देखी जा सकती है।

     छात्र हिंसक क्यों हुए?

छात्र बिलकुल भी हिंसक नहीं हुए। हम केवल नारे लगा रहे थे ता कि उपकुलपति आकर हमसे मिल लें और हमारी शिकयतों को सुन लें। हमने वहां से जाने से इंकार किया। ‘लाठीचार्जÓ बिना किसी उत्तेजना के किया गया। असल में प्रोक्टर ओएन सिंह ने ‘लाठीचार्जÓ का आदेश दिया। हालांकि अब उन्होंने त्यागपत्र दे दिया हैं। उन्होंने पुलिस से छात्रों को पीटने के लिए कहा था। जब छात्रों पर बेदर्दी से लाठियां चल रही थी, तब भी वह वहीं थे।

     क्या एक महिला को प्रोक्टर बनाने पर आप प्रसन्न हैं?उन्होंने छात्रों के पक्ष में कुछ बयान भी दिए हैं।

हां! अब इतनी बड़ी घटना हुई है, स्वाभाविक है कि कुछ सकारात्मक बयान तो आंएगे ही। मैं व्यक्तिगत तौर पर उन्हें नहीं जानती। यह तो समय ही बताएगा कि क्या वे छात्रों के फायदे के लिए कुछ करती हैं या नहीं।

     क्या लगता है कि जिस तरह से बीएचयू के मामले का राजनैतिक करण हुआ है उसका आपको लाभ होगा।

मैं आप को स्पष्ट रूप से बता दूूं कि हमारा आंदोलन राजनैतिक नहीं है। हम साधारण लड़कियां है जो एक सामान्य जीवन जीना चाहती हैं। हम केवल अपने अधिकारों और आज़ादी के लिए उठ खड़ी हुई हैं। हमने मुद्दे का राजनैतिककरण नहीं कया है। यदि उन्होंने हमारी बात पहले ही सुन ली होती तो इतना हंगामा होता ही नहीं। इस मामले को असली मुद्दों से भटकाने के लिए जानबूझ कर इसे राजनैतिक रंग दिया जा रहा है।

समाज की वास्तविकता से रुबरु धारा के वृत्तचित्र

धारा के चिंतन का क्षेत्र समाज के विभिन्न वर्ग हैं और अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने ज़रिया चुना है – वृत्तचित्र। इन वृत्तचित्रों में उनकी कहानियां बोलती सी प्रतीत होती हैं। सन 2017 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उन्हें  अपनी उपलब्धियों के लिए सेंटर फॉर वुमनस स्टडीज एंड डेवलपमेंट की तरफ से ”वूमन अचीवर अवार्ड” मिल चुका है।

बेशक वे पिछले कई वर्षों से अपने काम में नाम कमा रही हैं लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा पहचान मिली 2016 में उनके किन्नरों पर बनाये वृत्त चित्र से। इस वृत्त चित्र की राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई। एक नए विषय को लेकर धारा सरस्वती का प्रयास सचमुच सराहनीय था। धारा शिमला में दूरदर्शन से जुड़ी हैं और किन्नरों के जीवन पर उनका वृतचित्र ‘मैं कौन हूं ‘ समाज के इस वर्ग का दर्द नई संवेदना के साथ सामने लाता है। वृतचित्र ‘मैं कौन हूं’ में किन्नर जीवन का बहुत निकट से चित्रण किया गया है। कुछ वैसे ही मानो किसी गूंगे को जुबां दे दी गई हो।

चंडीगढ़ में धारा सरस्वती के वृतचित्र का ‘कंसोरटियम फार कम्युनिकेशन ‘  के फेस्टिवल में प्रदर्शन हो चुका है। इससे उन्हें अपनी बात एक बड़े वर्ग तक पहुंचाने का अवसर मिला। जब उनसे पूछा गया कि इस तरह के बिलकुल अलग विषय पर वृतचित्र का उन्हें विचार कैसे आया तो धारा ने कहा कि जब वह स्कूल में पढ़ती थीं तब अकसर सोचती थीं कि हमारा तो परिवार है। हमें सोशल स्पोर्ट है। फिर भी इतनी दिक्कतें हमारे जीवन में आती हैं। उन (किन्नर) का तो कोई भी नहीं। ‘जब अवसर मिला तो इस पर वृतचित्र बनाने का फैसला किया ताकि लोग भी समाज के इस वर्ग की संवेदना को समझ सकें।

छोटे पर्दे पर किन्नर जीवन को लाने की उनकी मेहनत निश्चित रूप से सफल रही है। यह उनका वृतचित्र देखने से ही पता चल जाता है। चंडीगढ़ के फेस्टिवल में इसे काफी सराहना मिली। न केवल उसका फिल्मांकन बेहतर तरीके से हुआ है बल्कि उसमें किन्नर विषय वस्तु को भी बहुत गहराई से उकेरा गया है।

‘मैं कौन हूं’ में किन्नर जीवन का बहुत निकट से चित्रण किया गया है। भारी मेकअप, शादी-विवाह और जन्मदिन मना रहे परिवारों को खोज रही आंखों के पीछे क्या दर्द छिपा है, धारा सरस्वती इसे अपने वृत्तचित्र में सामने लाने में सफल रही हैं। धारा सरस्वती बताती हैं कि इस वर्ग की कहानी जानने के लिए कोई हफ्ता भर वह उनके बीच रहीं। उनका जीवन निकट से जाना। तब उन्होंने जाना कि जो किन्नर हमारे खुशी के मौकों पर हमारे मन को अपने विशेष अंदाज से पल भर में हंसी-ठिठोली से भर देते हैं, वास्तव में उनके अपने जीवन कितनी पीड़ा और अकेलापन है।

धारा बताती हैं कि हम कैसे उनकी मदद कर सकते हैं, कैसे उनकी आवाज बन सकते हैं, उनके चेहरे पर कैसे मुस्कान ला सकते हैं, यही मैं सोचा करती थी। उनका कहना है कि जीवन के संघर्ष को जानना है तो किन्नर को नजदीक से जानना जरूरी है। उन्होंने कहा कि उन्हें वृतचित्र बनाते हुए कोई मुश्किल नहीं आई। ‘समाज की आम सोच के विपरीत किन्नर बहुत मृदुभाषी और खुश तबीयत के लोग हैं। शायद अपनी पीड़ा छिपाने का इससे बेहतर और कोई तरीका भी उनके पास नहीं। धारा के मुताबिक  वृतचित्र बनाने के पीछे एक और मकसद यह है कि हम किन्नरों को समाज की मुख्यधारा में ला सकें। उन्होंने कहा कि वह इतने मजबूत हैं कि तमाम विषमताओं और अकेलेपन को बहुत हिम्मत से झेलते हैं। ‘उनका कोई परिवार नहीं। कोई मां-बाप नहीं, कोई रिश्तेदार नहीं। कोई सामाजिक ताना-बाना नहीं, लेकिन फिर भी जिंदा हैंं। उनकी इस जीवटता को सलाम करने का मन करता है। धारा का कहना है कि किन्नर बहुत बहादुर हैं और पूरे समज के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं। वे चाहती हैं कि कोशिश होनी चाहिए समाज के इस वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ा जाए। उन्होंने कहा कि जब वह उनसे मिलीं और उनसे बात करती थीं तो वे रो पड़ते थे। कई बार तो मुझे उनके आंसू पोंछने पड़े।

सरस्वती पिछले लंबे समय से सामाजिक विषयों पर काम कर रही हैं। उनका कहना है कि दूसरे विषयों के मुकाबले उन्हें किन्नर विषय पर काम करने में बहुत मजा आया। साथ ही उनके बीच रहकर जीवन का एक नया अनुभव हासिल किया। धारा सरस्वती कहती हैं कि आम लोग किन्नर की पीड़ा से परिचित नहीं और उनका मकसद इस वृत चित्र के जरिए इस अंधेरे पक्ष को ही सामने लाना है। वृत चित्र से उन्हें काफी सराहना मिली है।

इस सराहना से उत्साहित धारा सरस्वती कहती हैं कि यह अलग विषय था और वृतचित्र को मिली तारीफ उन्हें प्रेरणा देती है कि वह और लग्न से ऐसे ही विषयों को समाज के सामने लाती रहें। उन्होंने कहा कि किन्नर विषय पर बने उनके वृत चित्र को सराहना मिलने से यह भी जाहिर होता है कि समाज काफी संवेदनशील है और वह कहानी में उकेरी गई पीड़ा का एहसास करता है। उन्होंने कहा कि वृत चित्र देखने के बाद बहुत से लोगों ने उन्हें बताया कि किन्नर वर्ग के प्रति उनकी धारणा बदली है और वे अब उन्हें नए नज़रिए से देखते हैं इसी समाज के एक अंग के रूप में।

अवाडर्: वूमन अचीवर अवार्ड के आलावा धारा को प्रसार भारती का ‘आउट स्टैंडिंग कमर्शियल रेवेन्यू अचीवर अवार्ड’ और दिल्ली की ”प्रकृतिÓÓ संस्था का अवार्ड भी मिल चुका है। इसके आलावा अन्य अवार्ड भी उन्हें मिले हैं। धारा कहती हैं कि अवार्ड प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि इस से यह पता चलता है आपके काम को लोग सराह रहे हैं।

फिल्म में भी किया काम

धारा सरस्वती अजय देवगन-सुष्मिता सेन अभिनीत फिल्म ‘मैं ऐसा हफ हूंÓ में अभिनय कर चुकी हैं। इस फिल्म (2005) में उन्होंने अजय देवगन की बेटी की टीचर का रोल निभाया था, जिसमें उन्हें काफी प्रशंसा भी मिली। इस फिल्म की कहानी देवगन की बेटी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। उन्होंने कुछ विज्ञापन फिल्मों में भी काम किया है। धारा बताती हैं कि फिल्म में काम करने का उनका अनुभव अच्छा रहा। उन्हें कैंसर से पीडि़त रहीं मीनाक्षी चौधरी की जीवटता पर बनाए वृतचित्र पर भी काफी प्रशंसा मिली थी। उन्होंने 109 साल के बुजुर्ग की ओपन हार्ट सर्जरी पर बनाए वृत चित्र पर भी खूब नाम कमाया। इसके अलावा धारा हिमाचल की महिलाओं के जीवन पर वृत्तचित्र बनाकर भी खूब नाम कमा चुकी हैं। ”वूमन इन एग्रीकल्चर”, ”हाइड्रोपोनिक पॉलीहाउस”,” हौसलों की उड़ान” और ”दिले नादान तुझे हुआ क्या है” उनके अन्य चर्चित वृत्तचित्र हैं।

देवभूमि भी सुरक्षित नहीं महिलाओं के लिए

तीन साल में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की 745 घटनाएं। जी हाँ, यह आंकड़े देव भूमि माने जाने वाले हिमाचल के हैं – जनवरी 2015 से दिसंबर 2017 के बीच के। इस साल की घटनाएं अलग से हैं। आंकड़ों से समझा जा सकता है कि इस पहाड़ी सूबे में भी महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा सवाल बन रहा है। दुष्कर्म की जिस घटना ने पिछले साल पूरे देश का ध्यान खींचा था वह शिमला के कोटखाई की थी जिसमें गुडिय़ा (काल्पनिक नाम) की दुष्कर्म के बाद बेहद निर्मम तरीके से हत्या कर दी गयी थी। इस घटना को एक साल होने को है लेकिन भारत की सबसे बड़ी एजेंसी माने जाने वाली सीबीआई भी असल हत्यारों तक नहीं पहुँच पाई है। इससे समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह होती जा रही है।

”तहलका की छानबीन से जाहिर होता है कि हिमाचल में महिलाओं के प्रति अपराध अब महानगरों की ही तरह बढ़ रहे हैं। भले प्रदेश की सरकारें देश के आंकड़ों की तुलना में सूबे के आंकड़े हलके बताकर अपना पल्लू झाड़ रही हों, हकीकत यह है कि यह आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं। खासकर हिमाचल जैसे सूबे में जिसे हाल के वर्षों में महिलाओं के बेहद सुरक्षित प्रदेश माना जाता रहा है। तहकीकात से जाहिर होता है कि 2015 में प्रदेश में दुष्कर्म से जुडी 244 घटनाएं हुईं जबकि 2017 में इसका आंकड़ा 248 रहा।

यह सिर्फ दुष्कर्म केे आंकड़े हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ की 2015 में 433, 2016 में 410 और 2017 में 404 घटनाएं हुई। यह आंकड़े वे हैं जो पोलिस के पास दर्ज हुए। समझा जा सकता असल घटनाएं इससे कहीं ज्यादा रही होंगी क्योंकि बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियानों के बावजूद अभी भी पहाड़ी समाज में इस तरह के अपराध की सूचना पोलिस को देने पर लोग झिझकते हैं। इसके पीछे कारण बदनामी का डर होता है हालाँकि सच् यह भी है कि इस तरह के अपराध की शिकायत पोलिस को न देने से सिर्फ अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं।  ”मैं समझती हूँ कि यह आंकड़े हिमाचल के हिसाब से बहुत चिंता पैदा करने वाले हैं। हालात खराब हो रहे हैं। इस मामले में कानून व्यवस्था में बेहद सुधार की ज़रुरत है,ÓÓ यह कहना है अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अनीता वर्मा का।

इस साल में तो महिलाओं के खिलाफ अपराध की मानों बाढ़ आई हुई है। ज्वाली पुलिस चौकी कोटला के तहत एक 20 वर्षीय युवती की फरवरी के शुरू में हत्या कर दी गई। हत्या के बाद युवती का अर्धनग्न अवस्था में शव ग्राम पंचायत जोल से करीब दो किलोमीटर दूर एक जंगल में फेंक दिया गया। युवती तीन फरवरी को अपनी बहन के ससुराल में गई थी। अपनी बहन के घर रुकने के बाद वह अपने घर के लिए चली आई, लेकिन वह घर नहीं पहुंची। पांच फरवरी को युवती के पिता ने पुलिस चौकी कोटला में जाकर गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई।

फरवरी में ही हमीरपुर के एक निजी कालेज में शिक्षक ने इसी कालेज की एक छात्रा के अस्मत लूट ली। पुलिस ने आरोपी प्राध्यापक के खिलाफ रेप का मामला दर्ज कर आरोपी को गिरफ्तार कर लिया।   छात्रा के नाबालिग होने के चलते पोस्को एक्ट भी लगाया गया है। मामला दर्ज कर पुलिस ने जांच तेज कर दी है। बता दें कि पिछले कल हमीरपुर के एक निजी कॉलेज में एक प्राध्यापक के छात्रा के साथ दुराचार करने का मामला सामने आया था। इसको लेकर छात्रा के परिजनों व अन्य लोगों ने कॉलेज में ही प्राध्यापक की पिटाई कर दी थी। जिसके बाद मामला पुलिस के पास पहुंच गया था। छात्र सड़कों पर उतर आए और दोषी के खिलाफ  कार्रवाई की मांग की। इसके बाद पुलिस ने कार्रवाई करते हुए आरोपी प्राध्यापक के खिलाफ रेप का मामला दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया। मामले की पुष्टि एसपी हमीरपुर रमन कुमार मीणा ने की है। उनके मुताबिक पुलिस ने प्राध्यापक पर रेप और पोस्को एक्ट के सेक्शन चार के तहत मामला दर्ज कर लिया गया है। आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है। मामले की जांच शुरू कर दी है। पीडि़त छात्रा के बयान लिए जाएंगे। मामले में तेजी से कार्रवाई की जाएगी। हमारी कोशिश रहेगी कि मामले में एक माह के अंदर चालान कोर्ट में दाखिल किया जाए। पीडि़त छात्रा के बयान के आधार पर जांच आगे बढ़ेगी।

12 फरवरी को शाहपुर के पुलिस चौकी कोटला के तहत एक बीस वर्षीय युवती की हत्या कर दी गई। हत्या के बाद युवती का अर्धनग्न अवस्था में शव ग्राम पंचायत जोल से करीब दो किलोमीटर दूर एक जंगल में फेंक दिया गया। युवती शाहपुर क्षेत्र के भनियार की रहने वाली थी, उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट उसके पिता ने पुलिस चौकी कोटला में की थी। पुलिस ने मौके पर पहुंच कर जांच शुरू कर दी, साथ ही फोरेेंसिक टीम भी मौके से साक्ष्य जुटाकर ले गई है। पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज कर शक के आधार पर एक आरोपी को गिरफ्तार किया है, जो रिश्ते में उसका मामा लगता है। युवती के शरीर पर गहरे घाव थे और माना जा रहा है कि युवती की हत्या गला दबाकर की गई है। मर्डर मामले में कोटला पुलिस चौकी प्रभारी एएसआई अशोक कुमार को लाइन हाजिर कर दिया गाय। यह कार्रवाई लोगों की शिकायत के बाद एसपी कांगड़ा संतोष पटियाल ने की। बता दें कि युवती मर्डर मामले में लोगों का आरोप है कि  युवती की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करने बाद पुलिस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। न ही पुलिस ने उस समय कॉल रिकॉर्ड खंगाले और न ही कोई और कार्रवाई की।

12 फरवरी को ही नेरवा में एक गांव में बिजली विभाग में कार्यरत व्यक्ति के खिलाफ  एक गूंगी-बहरी लड़की के साथ दुराचार का मामला पुलिस में दर्ज हुआ। आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया। घर में अकेली देखकर 35 वर्षीय एक गूंगी-बहरी लड़की के साथ  55 साल के इस व्यक्ति ने रेप कर डाला। गांव में एक शादी की पार्टी थी और लड़की के पिता और भाई वहां गए हुए थे। लड़की घर पर अकेली थी  तभी भगतराम उम्र 56 साल नामक व्यक्ति जोकि बिजली विभाग नेरवा में कार्यरत है, लड़की को अकेली देख कर  उसके कमरे में गया। कमरा बंद कर लिया। कुछ देर बाद जब लड़की का भाई घर पंहुचा तो उसे लड़की के कमरे से खांसने की आवाज आई और उसे लगा की कोई कमरे में है और वह दरवाजा खोलने लगा। जब दरवाजा नहीं खुला तो उसने दरवाजा तोड़ा तो देखा की वह अर्धवस्त्र अवस्था में था और उसकी बहन लहूलुहान पड़ी थी। तभी उसने गांव के लोगों को बुलाया और और साथ उस व्यक्ति की उसी अवस्था में फोटो खींच ली । उसके बाद नेरवा पुलिस को सूचना दी। नेरवा पुलिस ने मौके पर जाकर आरोपी को गिरफ्तार कर 376 के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया है।

अगले ही दिन ऊना में मामला सामने आया। वहां पर स्कूल से छुट्टी होने पर घर लौट रहीं दो छात्राओं के साथ छेड़छाड़ करने और अश्लील हरकतें करने की घटना हुई।  मामला पुलिस के पास पहुंच गया जिसने मामला दर्ज कर छानबीन शुरू कर दी। घटना थाना ऊना के तहत पड़ते एक स्कूल की जहाँ छुट्टी होने पर दो छात्राएं घर लौट रहीं थीं। रास्ते में बाइक सवार तीन युवक मिले और दोनों छात्राओं का रास्ता रोककर अश्लील बातें करने लगे। छात्राओं का कहना है कि तीनों ने शराब पी रखी थी।

16 फरवरी को जवालामुखी में बंधक बनाकर एक नाबालिग लड़की  की अस्मत लूटने का सनसनीखेज मामला सामने आया । पुलिस ने आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया । जानकारी के अनुसार 18 की रात एक नाबालिग लड़की घर से कुछ ही दूरी पर शौच करने गई थी। इस दौरान वहां पहले से घात लगाए बैठे एक युवक ने उसे पकड़ लिया और उसके हाथ -पांव बांध कर उससे दुष्कर्म किया। इसके बाद युवक ने पीडि़ता को घटना के बारे में किसी को कुछ भी बताने पर जान से मारने की धमकी भी दी। जब काफी देर तक युवती घर नहीं लौटी तो परिजनों उसकी तलाश में गए, तो उन्हें कुछ दूरी पर ही लड़की बेहोशी की हालत में मिली। होश आने पर युवती ने परिजनों को आपबीती सुनाई, जिसके बाद परिजनों ने ज्वालामुखी थाने में घटना की शिकायत दर्ज करवाई। शिकायत मिलने के बाद पुलिस ने आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया है। आरोपी गांव का ही युवक बताया जा रहा है। पुलिस ने पीडि़ता की शिकायत के आधार पर धारा 376ए 511ए 341 और 506 के तहत मामला दर्ज कर आगामी जांच शुरू कर दी।

21 फरवरी को नाहन पुलिस थाना रेणुका में एक व्यक्ति की शिकायत पर दो युवकों के खिलाफ  युवती से छेड़छाड़ और जान से मारने की धमकी देने का मामला दर्ज किया गया। शिकायत के आधार पर रेणुका पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी। जानकारी के अनुसार रेणुका थाने में युवती के पिता ने शिकायत दर्ज करवाई कि कोटीधिमान इलाके के भवाई बलीच गांव के दो भाइयों ने उसकी बेटी के साथ छेड़छाड़ की है। साथ ही यह बात किसी दूसरे को बताने पर जान से मारने की धमकी भी दी। शिकायत के बाद पुलिस ने वीरेंद्र सिंह व प्रकाश के खिलाफ  मामला दर्ज कर लिया है। मामले की पुष्टि एएसपी मोनिका ने की है।

छानबीन से जाहिर होता है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध (दुष्कर्म) की सबसे ज्यादा घटनाएं कांगड़ा जिले में हुई हैं। 2015 में इस जिले में 46, 2016 में 41 और 2017 में 37 घटनाएं हुईं। इसी तरह शिमला में इन वर्षों में क्रमश 24, 28 और 29, कुल्लू में 23, 17 और 19 चम्बा में 26, 15 और 10, मंडी में 29, 30 और 37 जबकि सिरमौर में क्रमश 31, 34 और 23 दुष्कर्म की घटनाएं हुईं।

सीएम भी चिंतित

मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी इन आंकड़ों से विचलित दिखते हैं। ”तहलका’ से बातचीत में उन्होंने कहा कि वे दूसरे प्रदेशों से आंकड़ों की तुलना करके मामले की गंभीरता कम नहीं करना चाहते। ठाकुर ने बताया कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने 26 जनवरी को ”शक्ति बटन ऐप्प” की शुरुआत की जिसमें संकट में फंसी महिला या लड़की को तुरंत मदद पहुँचाने और अपराधी को पकडऩे की सुविधा है। इसमें संकट में फंसी महिला या लड़की जैेसे ही अपने मोबाइल में इस ऐप्प पर लाल बटन दबाएगी, 20 सेकण्ड में इसकी सूचना पुलिस तक उसके फोन नंबर, नाम, लोकेशन समेत पहुँच जाएगी। पुलिस तुरंत हरकत में आकर अपराधी को दबोच सकती और महिला की मदद कर सकती है। इसके अलावा प्रदेश सरकार ने ”गुडिय़ा हेल्पलाइन” भी लांच की है। मुख्यमंत्री का कहना था कि इस मामले में उनकी सरकार बेहद संवेदनशील है और महिलाओं के खिलाफ अपराध पर सख्ती बरती जाएगी।

मजऱ् बढ़ता गया ज्यों – ज्यों दवा की

राष्ट्रीय क्राइम ब्यूरो के अनुसार 2011 से 2016  तक के छह सालों में देश भर में बलात्कार के 1,93,169 मामले दर्ज किए गए। ज़ाहिर है ये आंकडे पूरा सच बयान नहीं कर रहे क्योंकि ज़्यादातर मामलों में लोग पुलिस के पास नहीं जाते। बलात्कार के सर्वाधिक मामले 2016 के हैं। 2016 में 38,947 केस दर्ज किए गए।  ध्यान रहे कि 2017 के आकड़े अभी उपलब्ध नहीं है। बलात्कार के अपराध में मौत की सज़ा का प्रावधान हो जाने के बावजुद इनमें किसी प्रकार  की कोई कमी नहीं देखी गई है।2011 के 24,206 मामलों की बढ़ती यह गिनती 2016 में 38,947 तक पहुंच गई।

इसके अलावा 2012 में 24,923, 2013 में 33,707, 2014 में 36,735 और 2015 में 34,651मामले दर्ज किए गए।

2016 के आंकड़ों का अगर राज्यवार ब्यौरा देखा जाए तो बलात्कार के सर्वाधिक मामले मध्यप्रदेश (4,882) उत्तरप्रदेश (4816) और महाराष्ट्र (4,189) के हैं। 2015 में भी इस मामले में मध्यप्रदेश (4,391) नंबर एक पर था। इनके अलावा राजस्थान (3616) और दिल्ली (2155) भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं माने जा सकते। हिमाचल प्रदेश में 2016 में 252 महिलाओं से बलात्कार होना इस राज्य की संस्कृति को देखते हुए चिंता का विषय है।

पूरे आसमां की तलाश करती नारी

‘अबला तेरी यही कहानी आंचल

में दूध और आंखां में पानी

मैथिलीशरण गुप्त ने ये पंक्तियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान लिखी थी। सोच यह थी कि आज़ादी के बाद महिलाओं का जीवन बदलेगा। इसमें कुछ बदलाव तो आया हैमहिलाओं ने बहुत कुछ कर दिखाया है। पर क्या उनके प्रति पूरी दुनिया की सामाजिक सोच बदली है- इसका जायला ले रही हैं- अलका आर्य

आधी दुनिया यानी स्त्रियों की दुनिया। आधी जमीं हमारी,आधा आसमां हमारा। क्या यह हकीकत है? नहीं। कड़वी हकीकत यह है कि लैंगिक भेदभाव की वैश्विक खाई इतनी गहरी है कि बदलाव की मौजूदा दर से इसे भरने में एक सदी से भी अधिक समय लग जाएगा। विश्व आर्थिक मंच की हाल में ही जारी स्त्री-पुरुष असमानता सूचकांक रिपोर्ट-2017 आगाह करती है कि भेदभाव का यह फासला लैंगिक न्याय वाली दुनिया बनाने वाले संघर्ष को और अधिक कड़ा बना देता है।

विश्व आर्थिक मंच में शिक्षा और जेंडर विभाग की प्रमुख सादिया जाहिदी का कहना है कि बड़े देशों में असमानता कम करने की रफ्तार घटी है। स्त्री-पुरुष में असमानता विश्व स्तर पर बढ़ी है। स्त्री-पुरुष असमानता सूचकांक के 11 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ। 2016 की रिपोर्ट में कहा गया था कि इस अंतर को पाटने में 83 साल लगेंगे। लेकिन नई रिपोर्ट के मुताबिक अब इसमें 100 साल यानी एक सदी लग जाएगी। यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि मौजूदा परिदृश्य के मद्देनजर महिलाओं को आर्थिक बराबरी के लिए अभी 217 साल और इंतजार करना पड़ेगा जबकि पिछले साल की रिपोर्ट में यह 170 साल आंका गया था। राजनीतिक भेदभाव दूर करने में 99 साल लगेंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार आइसलैंड,नार्वे,फिनलैंड,रवांडा व स्वीडन की महिलाएं शीर्ष मुल्कों में हैं। जबकि यमन,पाकिस्तान,सीरिया,ईरान आखिरी पायदान पर हैं। बहरहाल भारत का जहां तक का सवाल है,वह लैंगिक असमानता में 21 पायदान नीचे आ गया है।

विश्व आर्थिक मंच ने 144 देशों में भारत को 108वें नंबर पर रखा है, पिछले साल 87वें नंबर पर था। इसकी वजह स्त्री व पुरुष के बीच आर्थिक व सियासी अंतर का बढऩा है। आर्थिक सहभागिता में 2016 में भारत का 136वां नंबर था पर 2017 में 139वा नंबर मिला है। इस रिपोर्ट के अनुसार 66 फीसदी महिलाओं के मुकाबले भारत में 12 फीसद पुरुष ही बिना वेतन के काम करते हैं। घरेलू कामकाज,पारिवारिक सदस्यों की देखभाल में उनका योगदान न के बराबर होता है। रिपोर्ट के मुताबिक बिना पगार के काम में घर की साफ-सफाई,परिवार और बाहरी सदस्यों की देखभाल-आवभगत,बीमारों की देखभाल,यात्रा से जुड़ी गतिविधियां शमिल हैं। दूसरे मुल्कों में बिना पगार के काम करने वाली महिलाओं की संख्या भारत की तुलना में कम है। उदाहरण के तौर पर चीन में 44 प्रतिशत महिलाएं बिना वेतन काम करती हैं और पुरुषों के मामले में यह अनुपात 19 प्रतिशत है। ब्रिटेन में भी 56.7 प्रतिशत महिलाएं बिना वेतन काम करती हैं व दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क माने जाने वाले अमेरिका में भी ऐसी महिलाओं की तादाद 50 प्रतिशत है। वहां 31.5 प्रतिशत पुरुष बिना वेतन काम करते हैं।

रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि महिला असमानता को खत्म करने से ब्रिटेन की जीडीपी 250 अरब डालर,अमेरिका की 1750 अरब डालर और चीन की अर्थव्यवस्था में 2.5 लाख करोड़ डालर का इजाफा हो सकता है। भारत में कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 27 प्रतिशत है। यही नहीं अधिकांश क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों के समान काम करने पर समान वेतन नहीं मिलता। पुरुष को जितना वेतन मिलता है, उन्हें उसका 60 प्रतिशत ही मिलता है। भारत में महिला कृषि मजदूरों की संख्या तो पुरुष मजदूरों से ज्यादा है मगर उनकी दिहाड़ी कम है। चाय बगानों में भी यही हालात है। गारमेंट्स कारखानों में भी हजारों की संख्या में महिलाएं काम करती दिखाई देती हैं मगर वेतन में मामले में पुरुषों से कमतर ही आंका जाता है।

औद्योगिक इतिहास बताता है कि जिन उद्योगों में कार्यबल की दृष्टि से महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक होती है,वहां उनका वेतन पुरुष प्रधान वाले उद्योगों की तुलना में कम होता है। लेकिन अगर महिलाएं उच्च पदों/नेतृत्व वाले पद पर हैं तो महिलाओं के वेतन में अंतर कम होने की संभावना बनी रहती है। वर्तमान परिदृश्य को खंगाले तो रिपोर्ट के जरिए पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर किसी भी उद्योग में नेतृत्व की पोजिशन में 50 प्रतिशत महिलाएं भी नहीं हैं। ऊर्जा,खनन,निर्माण में तो यह 20 प्रतिशत से भी कम है। सिर्फ स्वास्थ्य-देखभाल,शिक्षा व गैर सरकारी संगठन में 40 प्रतिशत से ज्य़ादा महिलाएं काम कर रही हैं। ये उद्योग कई पीढिय़ों से महिलाओं पर भरोसा करते आए हैं और महिलाओं को काम के मौके भी प्रदान कर रहे हैं। भारत में कामकाजी महिलाओं की दर 27 प्रतिशत है, यह चिंताजनक है। 1991 से आर्थिक सुधार नीतियों के मॉडल को अपनाने की शुरूआत हुई मगर कार्यस्थल पर महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। समान काम-समान वेतन के सिं़द्धात का जमीनी स्तर पर पालन नहीं होता। नोटबंदी के बाद घरेलू बचत, खासकर महिलाओं द्वारा जमा राशि बैंको में चली गई। अब तक यह बचत फिर पटरी पर नहीं आ पाई है। आरबीआई के आंकड़ें बताते हैं कि जहां 2015-16 में सकल घरेलू आय का 1.4 प्रतिशत हिस्सा घरों में बचत के रूप में होता था, 2016-17 में बचत मायनस 2.1 पर जा पहुंची।

पाकिस्तान के मशहूर अखबार डॉन ने लिखा है कि वास्तविकता है कि पाकिस्तान जैसे मुल्कों में महिलाएं आज भी कॅरियर की शुरुआत से ही उपेक्षा झेलती हैं,वेतन तो कम मिलता ही है,शीर्ष पदों पर उनकी भागीदारी पुरुषों के अनुपात में बहुत कम है। पाकिस्तान का बीते दो सालों से 144 मुल्कों की इस सूची में 143वें पायदान पर जमे रहना बताता है कि यहां महिलाओं के प्रति भेदभाव बढ़ा है। राजनीतिक अधिकार में भारत की रैंकिंग 2017 में 15 है जबकि 2016 में 9 थी। संसद में महिला प्रतिनिधित्व 12 फीसद हैं जबकि पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में 20 प्रतिशत महिलाएं संसद में हैं। आइसलैंड में 1982 तक 5 प्रतिशत महिलाए ही ंसांसद थीं लेकिन 2016 में यह संख्या 48 प्रतिशत हो गई। भारत के पंचायती राज व नगर निकायों में महिला आरक्षण के जरिए बदलाव का अहसास हो रहा है मगर जहां तक संसद व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण का सवाल है,उस की असलियत यह है कि ऐसा विधेयक काफी सालों से लटका हुआ है। आज की तारीख में केंद्र में एनडीए की सरकार है, भाजपा चाहे तो महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दे सकती है पर इस मुद्दे पर फिलहाल कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई देती। पुरुष प्रधान संसदीय व्यवस्था में लैंगिक न्याय वाले बदलाव की पहल राजनीतिक वर्ग को ही करनी चाहिए। स्वास्थ्य के मामले में भारत 141वें व शिक्षा के मामले में 112वें नंबर पर है। स्वास्थ्य और सरवाइवल में मुल्क का 141वां नंबर बताता है कि महिलाओं के स्वास्थ्य का मुद्दा गंभीर है। न्यू ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट-2017 के अनुसार प्रजनन आयु वर्ग में एनमिक महिलाओं की सबसे ज्य़ादा संख्या भारत है। यह संख्या 51 फीसद है। दरअसल नीति निर्माताओं को महिला स्वास्थ्य,पोषण संबंध नीतियों का पुर्नाकलन करना होगा। स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी होगी। ढांचागत सुधार के साथ-साथ इन सुधारों से महिलाएं लाभान्वित भी हों, इस पर भी फोकस करना होगा। स्त्री-पुरुष असमानता सूचकांक-2017 रिपोर्ट हमारे सामने अहम सवाल यह उठाती है कि आर्थिक प्रगति के दो दशकों ने औरतों की जिंदगी में बदलाव को तेज रफ्तार क्यों नही ंदी?

गंगा किनारे जाने के लिए टूटेंगी बनारस की गलियां

राज्य सरकार तकरीबन 500 करोड़ रुपए खर्च करके 400 मीटर लंबा एक गलियारा बनाना चाहती है। इससे स्नानार्थियों और तीर्थयात्रियों को गंगा में डुबकी लगाने के बाद फौरन बाबा विश्वनाथ के दर्शन हो सकेंगे।

क ाशी विश्वनाथ मंदिर से गंगा किनारे तक आने के रास्ते को चौड़ा करने का उत्तरप्रदेश सरकार का इरादा जल्द अमल में आएगा। हांलाकि राज्य सरकार की इस योजना से न केवल निवासी बल्कि बुद्धिजीवी तक निराश हैं और वे विरोध जता रहे हैं।

राज्य सरकार तकरीबन 500 करोड़ रुपए खर्च करके 400 मीटर लंबा एक गलियारा बनाना चाहती है। इससे स्नानार्थियों और तीर्थयात्रियों को गंगा में डुबकी लगाने के बाद फौरन बाबा विश्वनाथ के दर्शन हो सकेंगे। गंगा किनारे बस्तियों के रहने वालों का कहना है कि अति महत्वपूर्ण लोगों के लिए गंगा किनारे पहुंंचने और बाबा विश्वनाथ मंदिर में पहुंचने को और आसान बनाने के लिए यह व्यवस्था प्रदेश सरकार कर रही है।

राज्य सरकार के मुख्यमंत्रियों में बाबू संपूर्णा नंद, कमलापति त्रिपाठी जैसे संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी के अच्छे जानकार लोगों ने भी सत्ता संभाली लेकिन कभी उन्होंने यह नहीं सोचा कि तंग गलियों से गंगा तक पहुंचना और उन्ही गलियों से बाबा विश्वनाथ के दरबार और दूसरे मंदिरों तक पहुंचने का जो तौर-तरीका सदियों से चला आ रहा है उसे तोड़ दिया जाए। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वाराणसी को जापान के क्योटो नगर की तरह खूबसूरत और आकर्षक बनाने पर तो ज़ोर दिया लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि स्मार्ट शहर बनाने के नाम पर गंगा और विश्वनाथ मंदिर तक ऐसा गलियारा बने जिससे वीवीआईपी अपनी सुरक्षा और फौज-फांटे के साथ तत्काल स्नान और दर्शन की प्रक्रिया पूरी कर सकें।

देश में भाजपा नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के गठन के बाद धार्मिक तौर पर मशहूर शहरों को जाने के इच्छुक अतिविशिष्ट लोगों का आना-जाना बढ़ा है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे की दिसंबर 2015 में वाराणसी की यात्रा हुई थी। उन्हें गंगा आरती दिखाने का कार्यक्रम बनाया गया था। इस कार्यक्रम के दौरान उनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे।

प्रदेश में तीन चौथाई बहुमत पाने के बाद सत्ता में आई भाजपा सरकार ने यह फैसला लिया है कि उन 160 मकानों को धराशायी कर दिया जाए जिससे न केवल एक गलियारा फिलहाल बने बल्कि आने वाले दशकों में उसे और विस्तार भी दिया जा सके। जब तोड़-फोड़ की कार्रवाई शुरू होगी तो इसमें कई छोटे-बड़े मंदिर,ऐतिहासिक – सांस्कृतिक महत्व का केंद्र रही इमारतें भी ज़मीदोज़ हो जाएंगी। हांलाकि नगर प्रशासन का कहना है कि सिर्फ एन्क्रोचमेंट को ही हटाया जाएगा।

वाराणसी की धार्मिक-ऐतिहासिक विरासत को कभी मुगलिया सल्तनत भी नेस्तनाबूत नहीं कर सकी। बड़े पैमाने पर दूसरे धर्मों के लागे भी वाराणसी आए और काशी में बसे। अंग्रेजों ने भी सिर्फ  इलाके की सीवरेज व्यवस्था को ही विकसित किया। कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी हमेशा नगर की पुलिस पर ही रही। स्वतंत्रता आंदोलन को तेज रखने में इन्ही गलियों का योगदान हमेशा रहा। पुुलिस और स्वतंत्रता सेनानियों की आंख-मिचौली बरसों काशी की गलियों में चलती रही लेकिन राज्य में सत्ता संभाल रही उत्तरप्रदेश सरकार ने विधानसभा में हासिल बहुमत का पूरा लाभ उठाते हुए इस परियोजना को हरी झंडी दिखाई और उस पर कार्रवाई भी शुरू कर दी है। अपने पांच साल के शासन में इस परियोजना पर अमली जामा पहना लेने का सोचा गया है।

काशी के ही एक वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति शर्मा विश्वनाथ मंदिर के पास की ही गली में रहते हैं। उन्होंने अपने एक लेख में बताया कि उनका मकान 175 साल से भी पुराना है और वाराणसी विकास प्राधिकरण के अधिकारियों ने गलियारा बनाने की योजना के लिए 29 जनवरी को उनके मकान को भी धराशायी करने का मन बना लिया है। शर्मा ने अधिकारियों के न मानने पर आत्मदाह कर लेेने की धमकी दी है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा है, ‘बहुत हो गई भिखमंगी, अब होगी लड़ाईÓ।

शर्मा और इलाके के दूसरे निवासियों ने काशी की धरोहर बचाओ संघर्ष समिति नाम से एक संगठन भी बना लिया है। इस संगठन के लोग इसके जरिए काशी की सांस्कृतिक विरासत बचाए रखने के लिए संघर्ष करेंगे। इसमें समस्त धर्म परायण नागरिक गण शामिल हैं

तकरीबन एक दशक पहले काशी विश्वनाथ परियोजना की रूपरेखा बनी थी। जिसे बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की सरकारों ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था। जब भाजपा सरकार सत्ता में आई तो सेवा निवृत नौकरशाहों ने इस योजना को बाहर निकलवाया और उस पर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से मंजूरी भी ले ली।

मुख्यमंत्री ने 31 जनवरी को वाराणसी पहुंच कर पूरी योजना की जानकारी अधिकारियों से ली। वाराणसी विकास प्रधिकरण के सचिव विशाल सिंह इस परियोजना के नोडल अधिकारी हैं। उनका कहना है कि यह गलत सूचना है कि हज़ारों लोग और कई सौ परिवार विस्थापित होंगे। यह भी गलत सूचना है कि कई ऐतिहासिक -धार्मिक स्थल टूटेंगे। उन्होंने कहा कि निहित स्वार्थों के चलते लोग इस तरह का मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। दरअसल ऐसे लोगों के अपने मकान दुकान स्टोर रूम इन धार्मिक-ऐतिहासिक धरोहरों में बने हुए हैं। बड़ी संख्या में लोग मंदिरों में भी रहते हैं। ऐसे लोगों से ऐतिहासिक – धार्मिक महत्व के स्थलों को मुक्त कराया जाएगा।

गंगा किनारे गलियों का घना घेरा

काशी की गलियां ऐसी हैं जहंा दिन-दोपहरी में भी उजास नहीं पहुंचती । कुछ गलियां इतनी पतली हैं कि दो आदमी एक साथ नहीं गुजऱ सकते। जो बंबई-कलकत्ता की सड़कों पर खो जाने से डरते हैं वे यदि काशी की गलियों में चक्कर काटें तो दिन भर वे  चक्कर काटेंगे पर भूल जाएंगे कि उन्होंने कहां से गली की शुरूआत की थी। कई गलियोंं में तो काफी दूर आगे जाने पर रास्त भी बंद मिल सकता है। नतीजा यह होगा कि आपको फिर गली की उस छोर तक वापस आना पड़े जहां से गड़बड़ा कर आप मुड़ गए थे। कुछ गलियां ऐसी हैं कि आगे बढऩे पर मालूम होगा कि आगे रास्ता बंद है। लेकिन गली के छोर पर पहुंचने पर देखेंगे कि बगल में एक पतली गली सड़क से जा मिली है। गलियों का तिलिस्म इतना रहस्यमय है कि बाहरी की कौन कहे इसी शहर के वशिंदे भी जाने में हिचकते हैं। कुछ तो गलियां ऐसी है जिनमें बाहर निकलने के लिए किसी दरवाजे या मेहराबदार फाटक के भीतर से गुजरना पड़ता है।

कहते हैं कि यहां कई ऐसी भी गलियां हैं जिनसे बाहर निकलने के लिए चार से चौहद रास्ते हैं। जिस गली से आप घर पहुंच सकते हैं उसी से आप श्मशान या नदी के किनारे भी जा सकते हैं।

सोचिए यदि इन गलियों में कभी शंकर भगवान के किसी वाहन से मुलाकात हो जाए और अचानक किसी बात से नाराज़ हो कर वह आपको हुरपेट ले तो जान बचाकर भागना भी मुश्किल हो जाए । और फिर उन गलियों में जो आगे रास्ता बंद हो। आप पीछे भाग नहीं सकते आगे रास्ता बंद है।  अगल-बगल के सभी मकानों के भीतर लोहे की भारी सांकल लगी हैं उधर सांड महराज हुरेपेट आ रहे है। अगर बीमा कंपनियां उचित समझे तो बीमा एजेंट इन गलियों में ज़रूर भेजे। फिर गंदगी की बात तो कहां नहीं है। हर शहर गंदा है वहीं बनारस की कुछ ही गलियां चकाचक हैं।

जिन गलियों में सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती, बरसात के मौसम का भी पता नहीं चलता वहां भी लोग यदि छता लगा कर चलते हैं तो कारण है गंदगी। बनारसी गली में तीन मंजिलें, चार मंजिलें से बिना नीचे देखे पान की पीक थूक सकता है, पोंछे का पानी फैंक सकता है, कूड़े का अंबर गिरा  सकता है। इस सत्कार्य में लिसड़ा व्यक्ति जब गालियां देता है तो सुनकर भाई लोग प्रसन्न होते हैं।

बंदरों के लिए गलियां प्रिय क्रीड़ा स्थल है। ऐसी घटनाएं सुनने में आती हैं कि अचानक छत से एक बड़ा रोड़ा सिर पर आ गिरा और बड़ी आसानी से स्वर्ग में सीट रिजर्व हो गई।