अशोक कुमार दिल्ली के सदर बाजार स्थित स्वदेशी मार्केट में बटन की दुकान चलाते हैं. कुछ महीनों पहले अशोक कुमार को सीईपी का नोटिस मिला है, जिसमें उनकी दुकान को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया है. नोटिस उनके पास सात-आठ महीने पहले आया था. अशोक बताते हैं, ‘आज आप मालिक हैं, कल कोई आकर कहे कि वो मालिक है, आप गश खाकर गिर जाते हैं. यही हमारे साथ हुआ. पहले सीईपी वाले पूछताछ करने आए. मेरा नाम व दुकान का नंबर लिख ले गए. बाद में नोटिस भेज दिया कि आप तो इस संपत्ति के मालिक ही नहीं हैं.’ सदर बाजार में उनकी यह दुकान 70 साल पुरानी है. 1947 में उनके पिता लाहौर से भारत आए थे. वे बताते हैं, ‘पिता जी कहा करते थे कि जब वे लाहौर में अपना जमा-जमाया काम छोड़ भारत आए थे तो यहां के हालात बहुत खराब थे. लोग सड़कों से धंधा चलाते थे. नेहरू सरकार ने पाकिस्तान छोड़कर भारत आने वालों की कोई सहायता नहीं की थी. दोनों देशों के हुक्मरानों के इस राजनीतिक फैसले से लोगों की मिट्टी खराब हो गई थी. पाकिस्तान से आकर लोग यहां अपने रिश्तेदारों के घर आसरा ले रहे थे. जिनका कोई नहीं था वे भगवान भरोसे थे. पिता जी ने भी नाना जी के यहां अंबाला में तीन महीने बिताए. उसके बाद वे दिल्ली आ गए और काफी जद्दोजहद के बाद ये दुकान किराये पर ली.’ 1989 तक दुकान में बतौर किरायेदार रहने के बाद अशोक कुमार और उनके पिता ने इसे खरीदकर उसकी रजिस्ट्री करा ली. इसके बाद से बाकायदा दुकान से संबंधित टैक्स भी भरते रहे. वे सवाल उठाते हैं, ‘जब हम मालिक ही नहीं थे तो हमसे किस बात का टैक्स लिया जा रहा था? शत्रु संपत्ति की रजिस्ट्री कैसे हो सकी? तब कस्टोडियन कहां था? क्यों उसने उन लोगों के पाकिस्तान जाते ही संपत्ति जब्त नहीं की? दुकान खरीदने से पहले हमने सारे दस्तावेज जांचे थे, 40 साल से किरायेदार थे. इसलिए मालिक पर तो संदेह करने का प्रश्न ही नहीं था.’
विस्थापन के बाद व्यक्ति एक नई शुरुआत जमीनी स्तर से करता है. सफलता सुनिश्चित नहीं होती. अब अगर वह सफल हो जाए और फिर उसे वहां से भी हटाया जाए, इसकी पीड़ा अशोक कुमार के इन शब्दों से पता चलती है, ‘लाहौर के अनारकली विहार में तब हमारी सर्राफ की दुकान प्रसिद्ध थी. हम वो सब छोड़कर भारत चले आए. खून-पसीना बहाकर यहां वर्षों में हमने साख बनाई. जिस देश पर भरोसा किया, आज सत्तर साल बाद हमसे वही रोजगार छीन रहा है. हम व्यापारी लोग हैं. धंधा करें या अदालतों के चक्कर लगाएं? जो पाकिस्तान गए, उनके जाने की सजा हमें क्यों? ये तो सरासर दादागिरी है. हम तो लुट रहे हैं एक तरह से. 40 साल तक किराया दिया, वो गया. दुकान की पगड़ी और खरीदी का पैसा गया. ऊपर से मालिक होकर भी अपनी ही दुकान में किरायेदार बनने की तलवार सिर पर लटक रही है.’ थोड़ा रुककर वे कहते हैं, ‘हमसे कहते हैं कि जवाब दो यह शत्रु संपत्ति नहीं है. अब जिससे खरीदी उसे 27 साल बाद हम कहां ढ़ूढ़ें. जिन लोगों ने संपत्ति हमें बेची वो तो शांति से बैठे होंगे, भुगत हम रहे हैं. अब तो लगता है कि कभी भी उठाकर हमें यहां से बाहर फेंक दिया जाएगा. सरकार का कुछ भरोसा नहीं. बीबी-बच्चों सहित हमें हरिद्वार भेजने की तैयारी है.’
राजा मोहम्मद आमिर अहमद खान (तत्कालीन राजा महमूदाबाद) के भारत-पाकिस्तान दोनों ही देशों में अच्छे राजनीतिक संपर्क थे. उनका दोनों ही देशों में आना-जाना लगा रहता था. वे भारतीय नागरिक थे पर भारत विभाजन के बाद से ईराक में रह रहे थे. 1957 में उन्होंने भारतीय नागरिकता छोड़कर पाकिस्तानी नागरिकता ले ली. लेकिन उनके परिवार ने भारत में ही रहना चुना. 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच शत्रुता के बीज फूटे. भारत ने देश छोड़कर पाकिस्तान जा बसे लोगों की संपत्तियां ‘भारत के रक्षा नियम (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स) 1962’ के तहत अपने संरक्षण में ले लीं. राजा महमूदाबाद की संपत्तियां भी इसमें शामिल थीं. महमूदाबाद के किले को छोड़कर किसी भी संपत्ति को सील नहीं किया गया. इनसे मिलने वाला किराया कस्टोडियन वसूलने लगा. इसके एक छोटे-से हिस्से में राजा का भी परिवार रहता रहा. 1966 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उस किले को पूरी तरह खोल दिया गया. राजा महमूदाबाद के भाई को उसकी देखरेख का जिम्मा कस्टोडियन ने सौंपा. 1968 में शत्रु संपत्ति अधिनियम आया. कानून के प्रावधानों के अनुसार कस्टोडियन किले में रहने वाले राजा की पत्नी और बेटे को संपत्ति का मेंटेनेंस अलाउंस देने लगा. 1973 में राजा महमूदाबाद की लंदन में मौत हो गई. उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान तब कैंब्रिज में पढ़ाई कर रहे थे. वे भारतीय नागरिक थे. वे भारत वापस आए. अपने पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार का दावा भारत सरकार के सामने पेश किया. तब सीईपी वाणिज्य मंत्रालय के तहत आता था. 1997 तक उन्होंने मंत्रालय के चक्कर काटे. लगभग हर प्रधानमंत्री से अपनी बात कही. पर सिवा आश्वासन के कुछ नहीं मिला. 1981 में जरूर इंदिरा गांधी सरकार ने उनकी 25 प्रतिशत संपत्ति लौटाने की बात कही. वे लखनऊ सिविल कोर्ट गए, कोर्ट ने उन्हें संपत्ति का कानूनन वारिस माना. उनके इस कदम से शायद सरकार चिढ़ गई. इसलिए 25 प्रतिशत वाले आदेश में एक शर्त जोड़ दी. अब 25 प्रतिशत संपत्ति या 25 लाख रुपये. जो भी कम हो वह दिया जाए. इस बीच वे दो बार कांग्रेस के टिकट पर उत्तर प्रदेश के सीतापुर की महमूदाबाद सीट से विधायक भी चुने गए. पर तब भी वे अपनी संपत्ति वापस नहीं पा सके.
1997 में उन्होंने मुंबई हाई कोर्ट में याचिका लगाई. 2001 में फैसला उनके पक्ष में आया. 2002 में सरकार ने इसके विरोध में अपील कर दी. 2005 में उस अपील पर भी उनके पक्ष में फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने कस्टोडियन की आलोचना की. माना कि वह संपत्ति पर अवैध कब्जा रखे हुए है. आठ हफ्ते के अंदर कब्जा वर्तमान राजा महमूदाबाद को देने के आदेश दिए. जिन संपत्तियों में किरायेदार बैठे हुए थे उन्हें छोड़कर बाकी पर उन्हें कब्जा मिल भी गया. जब उन संपत्तियों पर कब्जा लेने की बात चली तो किरायेदार सुप्रीम कोर्ट चले गए.
लेकिन 2010 में कांग्रेस सरकार शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन का अध्यादेश ले आई, जो भूतलक्षी प्रभाव रखता था. इसके बाद उनकी सभी संपत्तियों को फिर से कस्टोडियन ने कब्जे में ले लिया. तब तक उन्होंने बैंक से इन संपत्तियों पर कर्ज भी उठा लिया था और उनकी मरम्मत में खर्च भी कर दिया था. कांग्रेस की नीयत पर सवाल उठे. वह 2 जुलाई को अध्यादेश लाई और 26 जुलाई से सत्र शुरू होना था, इतनी जल्दबाजी क्यों की? विरोध के चलते अध्यादेश तो खारिज हो गया पर राजा को उनकी संपत्ति वापस नहीं मिली. 2010 में ही उन्होंने अध्यादेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी. दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें किसी और कोर्ट में जाने को कहा क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं था. नैनीताल में उनकी संपत्ति थी. इसलिए 2011 में वे उत्तराखंड हाई कोर्ट गए. फैसला आता उससे ठीक पहले जज का ट्रांसफर हो गया. मामला लटका तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने मामले को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करा लिया. सितंबर 2015 में मामले की सुनवाई हुई. सरकारी वकील ने तर्क रखा कि उसे समय दिया जाए ताकि वह अपने मुवक्किल से साफ निर्देश ले सके कि 2005 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में संपत्ति लौटानी है या मुकदमा लड़ना है. 7 जनवरी को सुनवाई हुई और उसी दिन अध्यादेश आ गया. राजा महमूदाबाद ने इस अध्यादेश को भी शीर्ष अदालत में चुनौती दे दी है. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश के सबसे विवादित प्रावधान के तहत राजा महमूदाबाद की संपत्ति बेचे जाने पर रोक लगा दी है. इस बीच लोकसभा में इस अध्यादेश को पेश करके सरकार पास कराने में सफल रही है.
डॉ. अनीस उल हक दिल्ली के चांदनी चौक में एक छोटा-सा डेंटल क्लीनिक चलाते हैं. सौ गज का क्लीनिक है पर जिधर देखो, उधर फाइलें. खास बात यह है कि ये फाइलें डॉक्टरी के पेशे से जुड़ी हुई नहीं हैं. उनमें तो छिपी है डॉक्टर अनीस उल हक के अंतहीन संघर्ष की दास्तान. संघर्ष, जो वह शत्रु संपत्ति कानून से अपने पूर्वजों की संपत्ति बचाने के लिए कर रहे हैं. पर अब उन्हें लगता है कि उनके अंतहीन संघर्ष का दुखद अंत नजदीक है. वे कहते हैं, ‘30 सालों से अपना हक पाने के लिए लड़ रहा हूं. 20 सालों तक मेरे पिता लड़ते रहे. अब आज सरकार एक कानून ला रही है, जो मेरे उस संघर्ष का अंत करने वाला है.’ वे याद करते हुए बताते हैं, ‘मेरे पिता अपनी फूफी के साथ रहा करते थे. 1955 में फूफी गुजर गईं. उनके बच्चे पाकिस्तान चले गए थे. फूफी के नाम बहुत-सी जायदाद थी, जो किराये पर उठा रखी थी. जिसकी देख-रेख पिता जी के हाथ में थी. विवाद उसी जायदाद को लेकर है.’ 1965 में किराये के लिए डॉ. अनीस के पिता का एक किरायेदार से झगड़ा हुआ. उसने जाकर शिकायत कर दी कि यह संपत्ति पाकिस्तान जा बसे लोगों की है. मामला कोर्ट पहुंचा, डॉ. अनीस के पिता की हार हुई. डॉ. अनीस के अनुसार फिर वह हाई कोर्ट गए. 1979 में हाई कोर्ट ने फैसला उनके पक्ष में दिया. फिर उसी किरायेदार ने पिटीशन लगाकर मांग की कि फूफी के बच्चों को पाकिस्तानी नागरिक घोषित किया जाए. पर कोर्ट में यह साबित नहीं हो सका कि वे पाकिस्तानी नागरिक हैं. फैसला आया कि वे अस्थायी रूप से पाकिस्तान में रह रहे हैं, इसलिए उन पर यह कानून लागू नहीं होता. इस फैसले के बाद फूफी के बच्चों ने वह जायदाद डॉ. अनीस को भेंट कर दी. डॉ. अनीस बताते हैं, ‘इसके लिए आवश्यक भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति भी ली गई थी. हम निश्चिंत थे. जायदाद से संबंधित कर भी चुका रहे थे. पर 1985 में सीईपी ने नोटिस थमा दिया कि यह शत्रु संपत्ति है.’
तब से ही डॉ. अनीस का अंतहीन संघर्ष जारी हुआ. हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे खटखटाए. अब फिलहाल मामला सीईपी के हाथ में है. वे कहते हैं, ‘मेरे मालिकाना हक पर कस्टोडियन, सरकार और अदालत ने आज तक सवाल नहीं उठाया, बस मुझे जायदाद का मैनेजमेंट नहीं सौंपा गया. मालिकाना हक मेरे पास है, तभी तो 60 सालों तक कर चुकाता रहा हूं. दायित्व मैं निभा रहा हूं तो जायदाद उनकी कैसे? सीईपी के पास मैं दो रिमांइडर भेज चुका हूं. फिर से भेजने की सोच रहा था. लेकिन तब तक सरकार अध्यादेश ले आई. सारे अधिकार कस्टोडियन को. न उपहार चलेगा, न उत्तराधिकार.’ फाइलों की तरफ देखते हुए वे पूछते हैं, ‘पचास सालों के इस संघर्ष का क्या? दो जिंदगियां बर्बाद हो गईं. जमाने से मुकदमे लड़ रहे हैं. जितना कमाया नहीं, उतना इनमें गंवा दिया. हमेशा तनाव में रहा, ढंग से काम भी नहीं कर सका. अब एक झटके में सब पर पानी फिर जाएगा. मैंने संघर्ष किया, इसलिए नहीं कि उस जायदाद से मैं रईस बन जाऊंगा. सिर्फ इसलिए कि मेरे पूर्वजों की यादें जुड़ी हैं उससे. उनकी हड्डियां हैं वे. इस जायदाद से एक भावनात्मक लगाव है जो दिमाग खराब करता है. अंत में वे कहते हैं, ‘सरकार बस अपने ही नागरिकों को नुकसान पहुंचा रही है, किसी और को नहीं.’
बात बीते साल की है. मैं ट्रेन से रूड़की से दिल्ली जा रही थी. इस छोटी-सी यात्रा ने मुझे जीवन भर न भूलने वाली ऐसी शिक्षा दी जो आज के माहौल में सीखने योग्य है. ये ट्रेन हरिद्वार से शुरू होकर अहमदाबाद जा रही थी तो जाहिर था कि इस लंबी यात्रा के कई यात्री आस-पास थे. मेरे सामने वाली सीट पर अधेड़ उम्र की एक महिला बैठी थीं और अगल-बगल की सीटों पर कई नौजवान लड़के-लड़कियां. यह शायद किसी टूर से लौट रहा समूह था और इस उम्र के हर नौजवान समूह की तरह वे लोग भी जोर-जोर से गाने गा रहे थे, चिल्ला रहे थे. हर आने-जाने वाले पर टिप्पणियां करते ये युवा लगातार अंग्रेजी में बात कर रहे थे. उन्हें देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि वे हिंदी नहीं जानते हैं पर शायद खुद को अलग दिखाने के लिए अंग्रेजी में उनकी गिटपिट जारी थी.
इस सब शोर-शराबे के बीच वह महिला बिल्कुल चुपचाप सफर का लुत्फ उठा रही थीं. कुछ देर बाद जब खाने का समय हुआ तो मैंने खाना निकाला और उनसे खाने का आग्रह किया. उनका उपवास था तो उन्होंने खाना लेने से मना कर दिया. कुछ देर बाद जब पैंट्री कार से अटेंडेंट आया तो उन्होंने शालीनता से उससे अनुरोध किया, ‘भैया, क्या आप सफाई से मुझे एक कप चाय बनाकर ला सकते हैं, मेरा उपवास है.’ ‘ट्रेन में एक अलग ‘पवित्र’ पैंट्री कार भी होनी चाहिए!’, उस समूह में से किसी ने अंग्रेजी में यह फिकरा उछाला.
‘अपनी ही भाषा को कमतर समझकर अगर हम दुनिया जीतने का सपना देख रहे हैं तो सही मायनों में ये सपना अधूरा है’
मैं अचरज में पड़ गई. ये किस तरह की बात थी! हर एक को अपनी राय देने की इजाजत है पर न तो ये राय देने की बात थी, न जगह और लोग. बीच सफर में किसी अनजान व्यक्ति पर टिप्पणी करना क्यों किसी को अच्छा लग सकता है, ये मैं नहीं समझ सकी. वह गुजराती महिला शायद अंग्रेजी नहीं समझती थीं. उनके सादगी भरे पहनावे से मैं तो बस यही अंदाजा लगा पाई थी क्योंकि ऐसी अशालीन टिप्पणी को उन्होंने बहुत आसानी से नजरअंदाज कर दिया.
समय की रफ्तार के साथ ट्रेन भी आगे बढ़ रही थी. कुछ देर बाद, शायद किसी दूसरे डिब्बे से तीन लोग इन महिला से मिलने आए. उन्होंने झुककर सम्मानपूर्ण तरीके से उनका अभिवादन किया. उन्हें कुछ कागजों पर महिला के दस्तखत चाहिए थे. और फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी मुझे तो उम्मीद नहीं थी. आश्चर्य! वे तीनों ही उनसे शुद्ध अंग्रेजी में बात कर रहे थे. मैं मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और लड़के-लड़कियों का वह समूह शर्मिंदगी भरी नजरों से कभी मुझे तो कभी उन्हें देख रहा था.
ये साधारण-सी दिखने वाली महिला गुजरात विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग की विभागाध्यक्ष मिसेज दवे थीं और ये लोग उनके छात्र थे. उन लोगों के जाने के बाद मैंने उनसे सवाल किया, ‘आपको देखकर लगा ही नहीं आप अंग्रेजी भाषा की इतनी बड़ी जानकार हैं?’
इस पर उन्होंने जो जवाब दिया, उससे मेरी नजर में उनकी इज्जत कई गुना बढ़ गई. ‘विदेशी भाषाएं हम अपनी जरूरत और ज्ञान बढ़ाने के लिए सीखते हैं और जब बातचीत के लिए हमारे पास अपनी इतनी सुंदर भाषा है तो हम किसी विदेशी भाषा की बैसाखी का सहारा क्यों लें? अपनी भाषा हमें जमीन से जुड़ा रखती है’, उन्होंने कहा था.
उनकी ये बात मुझे अंदर तक छू गई. मैं सोचने लगी कि हम आज भी उसी मानसिक जड़ता से जूझ रहे हैं, जहां सालों पहले थे. हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां अंग्रेजी में बात करते हुए हम श्रेष्ठता के भाव से भर जाते हैं और अपने सामने किसी को, खासकर अंग्रेजी न समझने वाले को कमतर आंकते हैं. अपनी ही भाषा को कमतर समझकर अगर हम दुनिया जीतने का सपना देख रहे हैं तो सही मायनों में ये सपना अधूरा है. वो सही कह रही थीं. हमारी भाषा हमें हमारी जमीन, हमारी वास्तविकता से जोड़े रखती है. मेरी नजर में आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचकर भी अपनी जमीन से जुड़े रहना ही असली कामयाबी है.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं और रूड़की में रहती हैं)
जूली-2 फिल्म से बॉलीवुड में डेब्यू कर रही हैं दक्षिण की अभिनेत्री राय लक्ष्मी
जूली-2 फिल्म से बॉलीवुड में डेब्यू कर रही हैं दक्षिण की अभिनेत्री राय लक्ष्मी
सवाल ये है कि क्या आपने जूली का नाम सुना है. अगर सुना है तो ठीक है, नहीं तो दो बातें होंगी. या तो ये खबर समझ में आएगी या फिर नहीं. समझ में आ गई तो ठीक है, नहीं तो आप ‘गूगल’ कर सकते हैं. अजी चलिए! कोई नहीं… गूगल करने की जरूरत नहीं हम ही आपको बता देते हैं. जूली एक फिल्म का नाम है. इसमें नेहा धूपिया कुछ ज्यादा ही बोल्ड अंदाज में पर्दे पर अवतरित हुई थीं. तो मेहरबान-साहेबान दिल थामकर बैठ जाइए क्योंकि एक ‘बोल्ड’, ‘ब्यूटीफुल’ और ‘ब्लेस्ड’ फिल्म आ रही है. यह फिल्म ‘जूली’ का दूसरा संस्करण है. इससे दक्षिण की एक सेक्सी सायरन राय लक्ष्मी बॉलीवुड में डेब्यू करने वाली हैं. पिछले दिनों इसका फर्स्ट लुक जारी हो चुका है. ‘जूली’ की रिलीज के 12 साल बाद ‘जूली-2’ रिलीज हो रही है. यह अपनी पूर्वज फिल्म से भी बोल्ड होगी और फिल्म में राय लक्ष्मी सोने पर सुहागा वाले मुहावरे को चरितार्थ करती नजर आएंगी. फर्स्ट लुक आने से पहले उन्होंने 10 किलो वजन कम कर लिया. मतलब उनकी तैयारियां जोरों पर हैं और इसका मतलब आप लोग भी उनका जलवा देखने के लिए कमर कस लें.
बॉलीवुड में इन दिनों अलगाव की खबरें जोर-शोर से आ रही हैं. अरबाज-मलाइका अलगाव के कगार पर पहुंच गए. सुशांत सिंह राजपूत अौर उनकी गर्लफ्रेंड अंकिता लोखंडे के बीच ब्रेकअप की खबरें सुर्खियां बटोर चुकी हैं. फरहान अख्तर और अधुना की राहें भी जुदा हो चुकी हैं. इन खबरों के बीच अच्छी खबर ये है कि कई ब्रेकअप्स का तनाव झेल चुकी बिपाशा बसु शादी के बंधन में बंधने जा रही हैं. दो साल से वे करण सिंह ग्रोवर के साथ रिलेशन में थीं. पता चला है कि इस महीने की 30 तारीख को यह जोड़ा शादी के बंधन में बंध जाएगा. इसके पहले बिपाशा बसु डिनो मोरिया, जॉन अब्राहम और हरमन बावेजा के साथ रिलेशनशिप में रह चुकी हैं. हालांकि बिपाशा ने इसे अफवाह बताया है. खैर कोई नहीं… शादी जब भी हो बिपाशा को हमारी तरफ से शुभकामनाएं.
जिस तरह से मौसम गर्म हो रहा है ठीक वैसे ही बोल्ड फिल्मों की घोषणाएं भी हो रही हैं. आने वाले दिनों में बॉक्स ऑफिस पर बोल्ड फिल्मों की बाढ़ आने वाली है. हाल ही में फिल्म ‘कैबरे’ का टीजर जारी हुआ. प्रोड्यूसर पूजा भट्ट की इस फिल्म में अभिनेत्री रिचा चड्ढा कैबरे डांसर के बोल्ड रोल में पर्दे पर लटके-झटके दिखाती नजर आएंगी. इसके अलावा कुछ और फिल्में भी आपके इंतजार में हैं. इनमें ‘लव गेम्स’, ‘इश्क जुनून’, ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ और ‘एमए पास’ जैसी फिल्में शामिल हैं. अब आप ही बताइए इस होड़ में सनी लियोनी कहां पीछे रहने वाली हैं. इस पूर्व पॉर्न स्टार की आने वाली फिल्म ‘वन नाइट स्टैंड’ का ट्रेलर रिलीज हो चुका है, जिसे देखने के लिए यू-ट्यूब पर होड़ मची हुई है. इतना ही नहीं, फिल्म का एक गाना ‘दो पेग मार’ भी यू-ट्यूब पर अपलोड हो चुका है, जिसने आग में घी डालने का काम किया है.
बात फरवरी महीने की है. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास एक आयोजन में मुंबई गए थे. उस आयोजन में प्रधानमंत्री मोदी भी शिरकत कर रहे थे. कार्यक्रम में उन्होंने रघुबर दास का परिचय कराया, ‘ये हैं हमारे सबसे अमीर राज्य के मुख्यमंत्री.’ इस पर रघुबर दास फूले नहीं समाए. कुछ ही देर में यह बात सोशल मीडिया से होकर मुंबई से झारखंड पहुंच गई. भाजपा के नेता भी गर्व-गौरव के साथ बताने लगे कि देखा, प्रधानमंत्री ने कैसे हमारे मुख्यमंत्री की प्रशंसा की. इस बात पर झारखंड में पार्टी-शार्टी जैसा माहौल तैयार हो गया.
झारखंड सबसे अमीर राज्य है कि नित नए संकटों में फंसता हुआ राज्य यह बहस का विषय है. वैसे प्रधानमंत्री ने जब रघुबर सरकार को सबसे अमीर राज्य का मुख्यमंत्री बताया तब शायद मोदी को यह मालूम नहीं था कि वे उस राज्य के मुख्यमंत्री की तारीफ कर रहे हैं जो 45 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में फंसा हुआ है. तमाम संपदाओं और संभावनाओं के बावजूद एक ऐसा राज्य जहां पैदा होते ही बच्चे के सिर पर बिना कर्ज लिए तकरीबन 1400 रुपये का कर्ज चढ़ जाता है. खैर, प्रधानमंत्री इस बात को जानते हैं या नहीं यह तो नहीं मालूम लेकिन रघुबर दास को शायद प्रधानमंत्री का यह अंदाज पसंद आया. सबसे अमीर राज्य का मुख्यमंत्री कहलाना पसंद आया और उन्होंने इस बात को गुरुमंत्र मान तुरंत इसे साबित करने की भी कोशिश की.
मुंबई से लौटे तो झारखंड में बजट पेश करने का समय आया. 19 फरवरी को बजट पेश हुआ. बजट में घोषणाओं की झड़ी लगी और तमाम घोषणाओं के बीच एक और विचित्र घोषणा हुई. विधायकों के फंड से लेकर वेतन-सुविधा आदि बढ़ाने की घोषणा. सदन में तालियां बजीं. कुछ लोगों ने कहा कि लीजिए, रघुबर दास ने इसे साबित किया कि झारखंड देश में वाकई सबसे अमीर राज्य है और वे उस अमीर राज्य के मुख्यमंत्री हैं.
झारखंड में विधायक फंड और विधायकों के वेतन आदि का एक बार फिर से बढ़ना आश्चर्यजनक था. इस पर वाद-विवाद की गुंजाइश थी. बहस होने की उम्मीद की जा रही थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. तालियां बजीं, प्रस्ताव पारित हुआ. झारखंड में विधायक फंड को तीन करोड़ से चार करोड़ रुपये कर दिया गया है. विधायक फंड में हुई इस बढ़ोतरी के बाद झारखंड विधायक फंड के मामले में दिल्ली को भी पछाड़कर देश का अव्वल राज्य बन गया है.
विधायक फंड की इस बढ़ोतरी पर परंपरागत तौर पर सभी दलों ने चुप्पी साधे रखी तो यह आश्चर्यजनक नहीं था. उससे ज्यादा आश्चर्यजनक घटना दो दिन बाद दिखी. बजट के दो दिन बाद सरकार ने जब राज्य के सभी प्रमुख दैनिक अखबारों में बजट के समर्थन में कसीदे पढ़ते हुए कवर विज्ञापन छापे तो चर्चित बुद्धिजीवी प्रगतिशील लोगों ने भी ‘पेड आर्टिकल’ लिखकर सरकार के बजट की दिल खोलकर तारीफ की.
झारखंड में सरकारों के बदलने का जो दौर चला, उसमें प्रायः सभी सरकारों ने अपने-अपने तरीके से विधायक फंड को बढ़ाया और विधायकों के वेतन भी बढ़ाए. यह इस गति से बढ़ा जो कीर्तिमान जैसा है
झारखंड में विधायक फंड की फंडेबाजी समझने से कई बातें साफ होती हैं. परत-दर-परत कई तथ्य भी सामने आते हैं, जो यह बताते हैं कि क्यों एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाले और एक-दूसरे से भिड़ने को तैयार रहने वाले दल भी विधायक फंड बढ़ा दिए जाने वाले मसले पर मौन साध लेते हैं. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री व झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन से बात होती है तो वे कहते हैं कि विधायक फंड का बढ़ना, न बढ़ना एक बात है, असली सवाल यह है कि काम सिस्टम से होगा या नहीं. हेमंत कहते हैं, ‘जहां तक विधायक फंड की बात है तो यह सब जानते हैं कि जनता के बीच सबसे करीब विधायक ही होते हैं. त्वरित राहत देने का काम वही करते हैं. वे वही काम करते हैं जो सरकार के दूसरे विभागों के जरिए होना होता है लेकिन सरकार के विभाग से जो काम होते हैं, उस प्रक्रिया में एक फाइल को हजार लोगों से होकर गुजरना होता है, तब जाकर काम होता है. एक शौचालय बनवाना हो तो उसके लिए विभाग है लेकिन उस सरकारी विभाग को शौचालय बनवाने में पांच माह लग जाते हैं जबकि विधायक पांच दिन में बनवा देते हैं. इसलिए जनता को जो फौरी सहयोग चाहिए, फौरी तौर पर राहत चाहिए, उसके लिए विधायक फंड का बढ़ना जरूरी ही होता है.’ हेमंत जो बात कहते हैं उसे और विस्तार से भाजपा विधायक डॉ. जीतू चरण राम कहते हैं. जीतू कहते हैं, ‘आज झारखंड की जो स्थिति है, जिस तरह से हर चीज की कीमत बढ़ रही है, उसमें विधायक फंड का बढ़ना जरूरी ही था. हम लोगों ने तो पांच करोड़ की मांग की थी लेकिन अभी चार करोड़ रुपये ही हो सका है. अभी झारखंड में स्थायी सरकार बनी है, लोगों की अपेक्षा बढ़ी है, वे तुरंत विकास चाहते हैं और तुरंत विकास का काम विधायक ही कर सकते हैं, इसलिए उनका फंड तो बढ़ना ही चाहिए. विधायक सरकार और जनता के बीच की कड़ी होता है. उसे दवाई की जरूरत होती है, इंजेक्शन की जरूरत होती है, उसके लिए तो विशेष इंतजाम करने ही होंगे.’ यह पूछने पर कि भाजपा शासित दूसरे प्रदेशों में तो काफी कम विधायक फंड है, जीतू कहते हैं, ‘वहां वर्षों से स्थायी सरकार है, इसलिए वहां विकास की गति वर्षों से ठीक है. झारखंड में पहली बार स्थायी सरकार बनी है तो देख लीजिए डेढ़ साल में काम की गति कितनी तेज है. अगर राज्य बनने के बाद से ही यहां स्थायी सरकार बनी रहती तो विधायक फंड कम रहने से भी काम चलता.’
विरोधी दल झामुमो के हेमंत सोरेन हों या सत्ताधारी दल भाजपा के जीतू चरण, लगभग एक जैसी ही बातें करते हैं. यही दोनों नहीं, अलग-अलग पार्टियों के कई लोगों से बात होती है तो वे भी इसी लब्बोलुआब के साथ बात करते हैं. इन सबके बीच भाजपा के ही एक विधायक शिवशंकर उरांव होते हैं जो डंके की चोट पर अपनी ही सरकार की बखिया उधेड़ते हुए सच और फंड की फंडेबाजी के गणित के बारे में बताते हैं. बकौल शिवशंकर, ‘झारखंड में विकास के नाम पर जितने किस्म के फंड एलॉट होते हैं, उनमें 59 प्रतिशत राशि तो कमीशन में ही चली जाती है. यहां के विधायक हों या सांसद, किसी को संस्थागत भ्रष्टाचार की चिंता नहीं. जूनियर इंजीनियर, बड़ा बाबू से लेकर पत्रकार और नेता सबने अपना कमीशन तय कर लिया है इसलिए अधिक फंड बढ़े या योजनाओं के लिए अधिक राशि का प्रावधान हो, विकास की योजनाएं धरातल पर नहीं उतरने वालीं.’
शिवशंकर उरांव साहस के साथ अपनी बात रखते हैं. हालांकि यह भी सच है कि ऐसा सिर्फ रघुबर दास की सरकार ने नहीं किया, बल्कि झारखंड में सरकारों के बदलने का जो दौर चला, उसमें प्रायः सभी सरकारों ने अपने-अपने तरीके से विधायक फंड को बढ़ाया और विधायकों के वेतन भी बढ़ाए. और यह इस गति से बढ़ा कि झारखंड ने देश में कीर्तिमान कायम कर लिया. राज्य बनने के बाद से झारखंड में विधायकों के वेतन नौ बार बढ़ा दिए गए हैं और विधायक फंड में आठ गुना बढ़ोतरी हो गई है. जब से इस बढ़ोतरी की परंपरा शुरू हुई है तब से इक्का-दुक्का लोगों ने ही इसका विरोध भी किया है. पहले भाकपा माले के विधायक रहे कॉमरेड महेंद्र सिंह इस बढ़ोतरी का विरोध अपने समय में करते थे और बाद में उनके बेटे विनोद सिंह जब विधायक बने तब उन्होंने भी खुलकर इस बढ़ोतरी का विरोध किया. कॉमरेड विनोद सिंह कहते हैं, ‘हम इस तरह की वित्तीय अराजकता और मनमानेपन के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे हैं और अपना विरोध जताते रहे हैं लेकिन सभी दल इस पर सहमत हो जाते हैं. इस वजह से जिन-जिन सरकारों ने विधायक फंड को बढ़ाया, वे कभी फंसे नहीं. चूंकि कभी फंसे नहीं, इसलिए इसे जब जी में आया, मनमर्जी से वेतन बढ़ाना आसान रहा.’ विनोद सिंह बात सही कहते हैं कि कभी सरकारें फंसी नहीं लेकिन सदन में विरोधियों द्वारा नहीं फंसने का मामला अलग है. महेंद्र सिंह-विनोद सिंह को छोड़ दें तो इस विधायक फंड के खेल पर कई बार एजी (अकाउंटेंट जनरल) ने आपत्ति दर्ज कराई है. एजी ने कहा है कि राज्य बनने के बाद से अब तक विधायक फंड के 600 करोड़ रुपये का कोई हिसाब-किताब ही नहीं हो सका है. खैर, झारखंड में सरकारें एजी और कोर्ट की फटकार सुनने की अभ्यस्त रही हैं, इसलिए इस आपत्ति की परवाह किए बगैर अपने तरीके से फैसले लिए जाते रहे हैं. विधायक फंड और विधायकों के वेतन बढ़ाए जाते रहे हैं.
झारखंड में विधायक फंड बढ़ने से क्या परेशानी बढ़ेगी? तमाम संपदाओं और संभावनाओं के बावजूद कर्ज के गणित से चल रहे राज्य में किस किस्म का संकट सामने आएगा, इसे समझने के पहले झारखंड में विधायक फंड से विधायकों को होने वाली पौ बारह के बारे में जान लेना जरूरी है. झारखंड में यह धारणा है कि ईमानदार से ईमानदार विधायक भी, कुछ अपवादों को छोड़कर, अपने घर पर भी बैठा रहे तो विधायक फंड से 20-25 प्रतिशत राशि ‘कट मनी’ के रूप में उसके पास पहुंच जाती है. इस बात को लेकर कई बार अखबारों में सवाल उठते रहे, उसका कभी किसी विधायक की ओर से खंडन नहीं हुआ, इसलिए यह धारणा पुष्ट हुई कि विधायकों के पास 20-25 प्रतिशत कट मनी पहुंचने वाली बात में कोई शक नहीं. इस तरह देखें तो अब जबकि झारखंड में चार करोड़ रुपये का विधायक फंड निर्धारित हो गया है तो कम से कम लगभग एक करोड़ रुपये की कमाई हर साल विधायकों को घर बैठे होगी, बिना हाथ-पांव हिलाए. सिर्फ विधायक फंड के कागज पर हस्ताक्षर करके. विधायक फंड पहले झारखंड में तीन करोड़ रुपये का था लेकिन कई विधायक इस तीन करोड़ रुपये की राशि से संतुष्ट नहीं थे. अपने क्षेत्र में विकास का वास्ता देकर वे लगातार विधायक फंड को बढ़ाने का दबाव सदन में दे रहे थे. विधायकों की मांग इसे पांच करोड़ रुपये कर देने की थी, फिलहाल चार करोड़ रुपये पर लाकर रोका गया है. मजेदार यह है कि इसके पहले जब हेमंत सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उन पर भी यह दबाव था लेकिन हेमंत ने इस मांग को परे रखा था. यहां पर यह जान लेना दिलचस्प है कि झारखंड में विधायक फंड की ताबड़तोड़ बढ़ोतरी होती रही है. जब राज्य बना था यानी वर्ष 2000 में तो यह 50 लाख रुपये था. फिर पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में इसे एक करोड़ रुपये किया गया था. फिर अर्जुन मुंडा की सरकार बनी तो उन्होंने इसे दो करोड़ रुपये कर दिया. बहुचर्चित मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की बारी आई तो उन्होंने तीन करोड़ रुपये कर दिया था. रघुबर के पहले हेमंत सोरेन की सरकार रही. वे इस पर चुप्पी साधे रहे लेकिन राज्य में विकास के प्रति प्रतिबद्ध भाजपा सरकार ने इसे आसानी से चार करोड़ रुपये कर दिया. बिना इस बात पर विचार किए कि इस बढ़ोतरी से हर साल 82 करोड़ रुपये का जो बोझ राज्य के खजाने पर बढ़ेगा, उसकी भरपाई कहां से होगी. खैर! यह तो विधायक फंड की बात हुई. विधायकों के वेतन-भत्ते वाले पक्ष को देखें तो इसका खेल और भी मजेदार या शर्मनाक नजर आता है. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य से तुलना करें या झारखंड के ही पड़ोसी राज्य ओडिशा से तो झारखंड के विधायकों का वेतन, भत्ता, सुविधा मद में मिलने वाली राशि आदि तीन गुना ज्यादा है. अगर एक और पड़ोसी पश्चिम बंगाल से तुलना करें तो बंगाल में विधायकों को जितना वेतन-भत्ता आदि मिलता है, उतना वेतन झारखंड में विधायकों के निजी सहायकों को मिलता है.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद मोहन कहते हैं, ‘विधायक फंड या वेतन भत्ता आदि का बढ़ जाना कोई बड़ा मसला नहीं. सवाल दूसरा है. विधायक यह दलील देते रहते हैं कि योजना मद की राशि बढ़ती जा रही है इसलिए विधायक फंड का बढ़ना स्वाभाविक है लेकिन वह खर्च कैसे होता है और कहां होता है, यह जानने से लगता है कि झारखंड के विधायकों के लिए फंड बेतहाशा क्यों बढ़ाया जाए.’ आनंद कहते हैं, ‘एजी ऑफिस 600 करोड़ रुपये का हिसाब अब तक मांग रहा है, वह नहीं दिया जा रहा है. अब होता यह है कि विधायक फंड की राशि को विधायक पहले ही उप विकास आयुक्त के पास निकलवाकर रख देते हैं और फिर अपने हिसाब से उसे खर्च करवाते रहते हैं. यह तो अजीब बात है. विधायक फंड की राशि अगर खर्च होगी तो ग्राम सभा से भी योजनाओं पर सहमति ली जाएगी. लेकिन झारखंड में ऐसा नहीं होता. विधायक बस फंड की फंडेबाजी अलग-अलग विभागों से मिलकर कर लेते हैं और फंड के अधिकांश हिस्से का पता ही नहीं चलता कि वह किस-किसके विकास में गया.’ आनंद मोहन जैसी बात कई लोग करते हैं. लेकिन ऐसी बात करने वाले बाहर के लोग होते हैं. सदन के लोग नहीं. जो सदन में माननीय विधायक हैं, वे अब चार करोड़ रुपये के बाद पांच करोड़ रुपये की मांग वाले अभियान को शुरू करने का मन बना रहे हैं.
बॉम्बे हाई कोर्ट ने महिलाओं को भी पुरुषों की तरह पूजास्थल पर जाने की अनुमति देने को कहा है. कोर्ट ने शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से नहीं रोका जा सकता. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि जहां पुरुष जा सकते हैं वहां महिलाएं भी जा सकती हैं.
यह मामला 29 नवंबर को तब उछला था जब एक महिला ने अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मंदिर में चबूतरे पर चढ़कर वहां रखी शिला पर तेल चढ़ा दिया था. इसके बाद पुजारियों ने कहा कि शनि देव अपवित्र हो गए हैं और उनका दूध से अभिषेक किया गया. शिंगणापुर में शनि शिला एक चबूतरे पर है और इस चबूतरे पर महिलाओं को जाने की अनुमति नहीं है. अगर कोई व्यक्ति या मंदिर महिलाओं को पूजास्थल जाने से रोकता है, तो उसे महाराष्ट्र के कानून के अंतर्गत छह महीने की जेल की सजा हो सकती है. मुख्य न्यायाधीश डीएच वाघेला और न्यायमूर्ति एमएस सोनक की खंडपीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता नीलिमा वर्तक और सामाजिक कार्यकर्ता विद्या बल द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान ये टिप्पणियां कीं.
आईआईटी में पढ़ाई का सपना महंगा होने जा रहा है, यहां की पढ़ाई तीन गुनी महंगी होने वाली है. आईआईटी में तकरीबन 300 फीसदी फीस बढ़ाने का सुझाव संसद की स्थायी समिति ने स्वीकार कर लिया है, लेकिन आखिरी फैसला आईआईटी काउंसिल को ही करना है, जिसकी प्रमुख देश की मानव संसाधन विकास मंत्री हैं. सुझाव में आईआईटी की फीस 90,000 से 3 लाख रुपये करने की बात है. इससे पहले आईआईटी के विस्तार और सीटें बढ़ाने संबंधी सुझाव भी संसदीय समिति दे चुकी है. कमेटी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जल्द नए संस्थानों की स्थापना करने को भी कहा है. अपनी 274वीं रिपोर्ट में मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि आईआईटी और आईआईएम का विस्तार इन संस्थानों के विकास के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है. कमेटी ने उम्मीद जताई कि आईआईटी और आईआईएम सीटों की संख्या तथा समय-समय पर संकाय को बढ़ाए जाएंगे जिससे छात्रों को ज्यादा जगह मिलेगी.
टैक्सी सेवा देने वाली कंपनी उबर ने अपनी भारतीय प्रतिद्वंद्वी ओला पर केस किया है. दिल्ली हाई कोर्ट ने ओला से उबर की याचिका पर जवाब मांगा है. उबर ने आरोप लगाया कि ओला कथित रूप से राइड बुक करने के लिए फर्जी खाते बना रही है और बाद में उस बुकिंग को रद्द कर देती है. उबर ने इसके लिए ओला से 49.61 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति की मांग की है. ओला ने हालांकि उबर के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि वह इस तरह के किसी काम में शामिल नहीं है. ओला के जवाब के बाद न्यायमूर्ति विपिन सांघी ने ओला से कहा कि वह अपनी बात का पालन करे. अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख 14 सितंबर तय की है. अदालत ने उबर से ओला के जवाब पर अपना जवाब चार सप्ताह के अंदर देने को कहा है. उबर ने याचिका में आरोप लगाया है कि ओला के कर्मचारियों ने भारत भर में 93,000 फर्जी खाते बनाए हैं. इसके जरिए वे ओला के प्लेटफॉर्म पर कैब बुक कराने के बाद बुकिंग रद्द कर देते हैं. इससे उबर को बुकिंग रद्द करने का शुल्क देना पड़ता है.
फरवरी के पहले सप्ताह में एक खबर आई कि शहाबुद्दीन को बहुचर्चित तेजाब कांड में जमानत मिल गई है. शहाबुद्दीन, सीवान और तेजाब कांड, तीनों का नाम एक साथ सामने आते ही बिहारवासियों के जेहन में कई खौफनाक यादें ताजा हो उठती हैं. बिहार के सीमाई इलाके में बसे सीवान जिले को कई वजहों से जाना जा सकता था; भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जन्मस्थली होने की वजह से, रेमिटेंस मनी (विदेश में बसे भारतीय कामगारों की ओर से भेजी गई रकम) में बिहार का सबसे अव्वल जिला रहने की वजह से भी. कई और विभूतियों की वजह से भी सीवान की पहचान रही. हालांकि 90 के दशक की शुरुआत में सीवान की एक नई पहचान बनी. वजह बाहुबली नेता शहाबुद्दीन थे. जिस जीरादेई में राजेंद्र प्रसाद का जन्म हुआ था, उस इलाके से पहली बार विधायक बनकर शहाबुद्दीन ने राजनीति में कदम रखा था और कई बार सांसद-विधायक रहे. लेकिन शहाबुद्दीन इस वजह से नहीं जाने गए. वे अपराध की दुनिया से राजनीति में आए थे. 1987 में पहली बार विधायक बने और लगभग उसी समय जमशेदपुर में हुए एक तिहरे हत्याकांड से उनका नाम अपराध की दुनिया में मजबूती से उछला. उसके बाद तो एक-एक कर करीब तीन दर्जन मामलों में उनका नाम आता रहा. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या, एसपी सिंघल पर गोली चलाने से लेकर तेजाब कांड जैसे चर्चित कांडों के सूत्रधार वही माने गए. उसी चर्चित तेजाब कांड पर फैसला आया तो सीवान और बिहार के दूसरे हिस्से में रहने वाले लोगों के जेहन में 12 साल पुराने इस खौफनाक घटना की याद जिंदा हो उठी.
2004 में 16 अगस्त को अंजाम दिए गए इस दोहरे हत्याकांड में सीवान के एक व्यवसायी चंद्रकेश्वर उर्फ चंदा बाबू के दो बेटों सतीश राज (23) और गिरीश राज (18) को अपहरण के बाद तेजाब से नहला दिया गया था, जिसके बाद उनकी मौत हो गई थी. इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह चंदा बाबू के सबसे बड़े बेटे राजीव रोशन (36) थे. मामले की सुनवाई के दौरान 16 जून, 2014 को राजीव की भी हत्या कर दी गई. इसके ठीक तीन दिन बाद राजीव को इस मामले में गवाही के लिए कोर्ट में हाजिर होना था. चंदा बाबू और उनकी पत्नी कलावती देवी अब अपने एकमात्र जीवित और विकलांग बेटे नीतीश (27) के सहारे अपनी बची हुई जिंदगी काट रहे हैं. पिछले साल दिसंबर में ही सीवान की एक स्थानीय अदालत ने इस हत्याकांड में राजद के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के अलावा तीन अन्य लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.
शहाबुद्दीन को इस मामले में जमानत मिलने के चार-पांच दिन बाद चंदा बाबू से इस सिलसिले में फोन पर बातचीत हुई. शाम के कोई सात बजे होंगे. उधर से एक उदास-सी आवाज थी. पूछा- चंदा बाबू बोल रहे हैं? जवाब मिला- हां..! ‘हां’ सुनकर मन में संकोच और हिचक का भाव भर गया. सोचता रहा कि पूरी तरह से बिखर चुके और लगभग खत्म हो चुके एक परिवार के टूटे हुए मुखिया से बात कहां से शुरू करूं. बात सूचना देने के अंदाज में शुरू हुई. मैंने बताया, ‘चंदा बाबू! सूचना मिली है कि आपके केस को सुप्रीम कोर्ट में देखने को प्रशांत भूषण तैयार हुए हैं.’ चंदा बाबू कहते हैं कि हम तो नहीं जानते! फिर पूछते हैं- प्रशांत भूषण जी कौन हैं? मैंने उन्हें बताया कि देश के बड़े वकील हैं.
यह बात जानकर चंदा बाबू की आवाज फिर उदासी से भर उठती है. वे कहते हैं, ‘देखीं! केहू केस लड़ सकत बा तऽ लड़े बाकि हमरा पास ना तो अब केस लड़े खातिर सामर्थ्य बा, न धैर्य, न धन, न हिम्मत.’ यह कहने के बाद एक खामोशी-सी छा जाती है. थोड़ी देर बाद बातचीत का सिलसिला शुरू होता है. बात अभी शुरू होती है कि चंदा बाबू अतीत के पन्ने पलटने लगते हैं. कहानी इतनी लंबी और इतनी दर्दनाक है कि बताते-बताते कई बार चंदा बाबू रुआंसे होते हैं. उनकी आवाज में उतार-चढ़ाव आसानी से महसूस किए जा सकते हैं. वे गुस्से में भी आते हैं और उनकी दर्दनाक दास्तान सुनते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जब चंदा बाबू अपनी व्यथा कहते हैं तो कई बार या कहें कि बार-बार ऐसा लगता है कि वे अपनी कहानी सबको बताना चाहते हैं. पूरे देश को कि कैसे वे व्यवस्था से, शासन से, खुद से हार चुके हैं. आगे चंदा बाबू के कानूनी संघर्ष और साहस की कहानी उन्हीं की जुबानी:
‘देखीं! केहू केस लड़ सकत बा तऽ लड़े, बाकि हमरा पास न तो अब केस लड़े खातिर सामर्थ्य बा, न धैर्य, न धन, न हिम्मत’
निराश चंदा बाबू और उनकी पत्नी कलावती देवी अब अपने विकलांग बेटे के सहारे बची हुई जिंदगी काट रहे हैं. 2004 में उनके दो बेटों को तेजाब से नहलाकर मार दिया गया. इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह रहे सबसे बड़े बेटे की हत्या भी 2014 में कर दी गई.
हमारी कहानी सुनना चाहते हैं तो हम सुना सकते हैं, आपमें संवेदना होगी तो आप शायद एक बार में पूरी कहानी नहीं सुन सकेंगे. आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. आप मुकदमे में शहाबुद्दीन को मिली जमानत के बारे में सवाल पूछ रहे हैं. इस बारे में जितना आपको मालूम है, उतना ही मुझे मालूम है कि शहाबुद्दीन को हाई कोर्ट से जमानत मिल गई. मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अब ऐसी बातों से दुख भी नहीं होता. जिंदगी में इतने बड़े-बड़े दुख देख लिए कि अब ऐसे दुख विचलित नहीं करते. अब मैं इसे जीत-हार के रूप में भी नहीं देखता, क्योंकि जिंदगी में सब जगह, सब कुछ तो हार चुका हूं. शहाबुद्दीन को जमानत मिलना तय था. यह 16 जून, 2014 को ही तय हो गया था कि अब आगे का रास्ता साफ हो गया. उस दिन मेरे बेटे राजीव की सरेआम हत्या हुई थी. राजीव को 19 जून को अदालत में गवाही देनी थी. वह इकलौता चश्मदीद गवाह था, गवाही के तीन दिन पहले घेरकर उसे मारा गया तभी यह बात साफ हो गई थी. और उसी दिन से मैंने इन बातों पर ध्यान देना बंद कर दिया कि अब मामले में क्या होगा. मैं अब क्यों जिज्ञासा रखता कि मेरे बेटों की हत्या के मामले में क्या हो रहा है? जब सब कुछ चला ही गया जिंदगी से और कुछ लौटकर नहीं आने वाला तो क्यों लड़ूं, किसके लिए लडू़ं. अब एक विकलांग बेटा है, बीमार पत्नी है और खुद 67 साल की उम्र में पहुंचकर जिंदगी की गाड़ी ढोता हुआ इंसान हूं तो ैसे लड़ूंगा, किसके सहारे लड़ूंगा. लड़ तो रहा ही था अपने दो बेटों की हत्या का बदला लेने के लिए. मेरा बेटा राजीव लड़ रहा था अपने भाइयों की हत्या का बदला लेने के लिए. राजीव मेरा सबसे बड़ा बेटा था, लेकिन 16 जून, 2014 को उसे भी मारकर मेरे लड़ने की सारी ताकत खत्म कर दी गई. राजीव को शादी के ठीक 18 दिन बाद मार डाला गया. शाम 7:30 बजे उसे गोली मारी गई थी. इसके पहले 2004 में मेरे दो बेटों को तेजाब से नहलाकर मारा जा चुका था. राजीव से पहले जब मेरे दो बेटों गिरीश और सतीश को मारा गया था, तब एक की उम्र 23 और दूसरे की 18 साल थी. जब राजीव भी मारा गया तो मैंने कुछ नहीं किया. राजीव के क्रिया-कर्म के समय ही गिरीश व सतीश का औपचारिक तौर पर क्रिया-कर्म किया. तय कर लिया कि अब जब तक प्रभु चाहें, जिंदगी चलेगी, जैसे चाहे चलेगी.
मैं क्या बताऊं. कहां से बताऊं. सीवान शहर में मेरी दो दुकानें थीं. एक किराने की और दूसरी परचून की. समृद्ध और संपन्न न भी कहें तो कम से कम खाने-पीने की कमाई तो होती ही थी. मैं छह संतानों का पिता था. चार बेटे, दो बेटियां. 16 अगस्त, 2004 से सारी बातें इतिहास में बदल गईं. उसके बाद मेरे नसीब में सिर्फ और सिर्फ भयावह भविष्य बाकी बचा. 16 अगस्त, 2004 की बात पूछ रहे हैं तो बताता हूं. साहस नहीं जुटा पा रहा लेकिन बताऊंगा. मैं उस दिन किसी काम से पटना गया हुआ था. अपने भाई के पास रुका हुआ था. मेरे भाई पटना में रिजर्व बैंक में अधिकारी थे. सीवान शहर में मेरी दोनों दुकानें खुली हुई थीं. एक पर सतीश बैठता था, दूसरे पर गिरीश. मेरे पटना जाने के पहले मुझसे दो लाख रुपये की रंगदारी मांगी जा चुकी थी. उस रोज किराने की दुकान पर डालडे से लदी हुई गाड़ी आई हुई थी. दुकान पर 2.5 लाख रुपये जुटाकर रखे थे. रंगदारी मांगने वाले फिर पहुंचे. दुकान पर सतीश था. सतीश ने कहा कि खर्चा-पानी के लिए 30-40 हजार देना हो तो दे देंगे, दो लाख रुपये कहां से देंगे. रंगदारी वसूलने आए लोग ज्यादा थे. उनके हाथों में हथियार थे. उन लोगों ने सतीश के साथ मारपीट शुरू की, गद्दी में रखे हुए 2.5 लाख रुपये ले लिए. राजीव यह सब देख रहा था. सतीश के पास कोई चारा नहीं था. वह घर में गया. बाथरूम साफ करने वाला तेजाब रखा हुआ था. मग में उड़ेलकर लाया, गुस्से में उसने तेजाब फेंक दिया जो रंगदारी वसूलने आए कुछ लोगों पर पड़ गया. तेजाब के छीटें मेरे बेटे राजीव पर भी आए. भगदड़ मच गई, अफरातफरी का माहौल बन गया.
‘लुंगी-गंजी में एसपी साहब आए. मैंने कहा कि सुरक्षा चाहिए. एसपी साहब ने कहा कि आप कहीं और चले जाइए, सीवान अब आपके लिए नहीं है. चाहे तो यूपी चले जाइए या कहीं और. हम एस्कॉर्ट कर सीवान के घर में जो सामान है, वह वहां भिजवा देंगे’
इसके बाद उन लोगों ने सतीश को पकड़ लिया. राजीव भागकर छुप गया. फिर मेरी दुकान को लूटा गया. जो बाकी बचा उसमें पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी गई. वे लोग सतीश को गाड़ी में ठूंसकर ले गए. गिरीश दूसरी दुकान पर था. उसे इन बातों की कोई जानकारी नहीं थी. कुछ देर बाद उसके पास भी कुछ लोग पहुंचे. गिरीश से ही लोगों ने पूछा कि चंदा बाबू की कौन-सी दुकान है. गिरीश को लगा कि कोई सामान लेना होगा. उसने उत्साह से आगे बढ़कर बताया कि यही दुकान है. क्या चाहिए, क्या बात है? उसे कहा गया कि चलो, जहां कह रहे हैं चलने को. गिरीश ने कहा कि बस शर्ट पहनकर चलते हैं लेकिन उसे शर्ट पहनने का मौका नहीं दिया गया. पिस्तौल के हत्थे से उसे मारा गया और मोटरसाइकिल पर बिठाकर ले जाया गया. तब तक राजीव को भी उन लोगों ने पकड़कर रखा था. मेरे तीनों बेटे उन लोगों के कब्जे में थे, जिन लोगों ने दो लाख रुपये रंगदारी न देने के कारण मेरी दुकान को आग लगाकर लूटा था. एक जगह ले जाकर राजीव को बांधकर छोड़ दिया गया और सतीश व गिरीश को सामने लाया गया. वहां कई लोग मौजूद थे. उन लोगों ने सतीश और गिरीश को तेजाब से नहलवाया. जब वे लोग मेरे बेटों को तेजाब से नहला रहे थे तो कह रहे थे कि तेजाब फेंका था हम लोगों पर, आज बताते हैं तेजाब कैसे जलाता है. बड़े बेटे राजीव की आंखों के सामने उसके छोटे भाइयों सतीश और गिरीश को तेजाब से जलाकर मार डाला गया. तेजाब से नहलाते वक्त वे लोग कहते रहे कि राजीव को अभी नहीं मारेंगे, इसे दूसरे तरीके से मारेंगे. सतीश और गिरीश को जलाने के बाद उन्हें काटा गया, फिर उनके शव पर नमक डालकर बोरे में भरकर फेंक दिया गया. मैं पटना में था तो मेरे पास खबर पहुंची कि आपको सीवान नहीं आना है, आपके दो बेटे मारे जा चुके हैं, एक बेटा कैद में है, आपको भी मार डाला जाएगा. मैं पटना में ही रह गया. राजीव वहीं कैद में फंसा रहा. दो दिनों बाद राजीव वहां से भागने में सफल रहा. गन्ने से लदे एक ट्रैक्टर से राजीव चैनपुर के पास उतर गया, फिर वहां से उत्तर प्रदेश के पड़रौना पहुंचा. पड़रौना में सांसद के घर पहुंचा. वहां के सांसद ने शरण दी और कहा कि किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं, चुपचाप यहीं रहो. राजीव वहीं रहने लगा. मेरे घर से मेरी पत्नी, मेरी दोनों बेटियां भी घर छोड़कर जा चुकी थीं और मैं पटना में था. सब इधर से उधर थे. किसी को नहीं पता कि कौन कहां है. हम लोगों ने तो सोच लिया था कि राजीव भी मार दिया गया होगा. मैंने सीवान में अपने घर के आसपास फोन किया तो वहां से भी मालूम चला कि तीनों बेटे मार दिए गए हैं. मेरे पास भी एक फोन आया कि आपका बेटा छत से गिर गया है. दरअसल उस समय मुझे भी पीएमसीएच बुलाकर मार दिए जाने की योजना बनाई गई थी.
‘नेता जी के यहां पटना फिर चला गया. वहां सोनपुर के लोग अपनी बात रख रहे थे. बीच में मैं बोल पड़ा कि हुजूर मैं सब कुछ गंवा चुका हूं, मुझे सुरक्षा चाहिए. नेता जी गुस्से में आ गए और कहा कि सीवान का लोग सोनपुर की मीटिंग में कैसे घुस गया’
बाद में मैं हिम्मत जुटाकर सीवान गया. वहां जाकर एसपी से मिलना चाहा. एसपी से नहीं मिलने दिया गया. थाने पर दारोगा से मिला. दारोगा ने कहा कि अंदर जाइए पहले. फिर कहा गया कि आप इधर का गाड़ी पकड़ लीजिए, चाहे उधर का पकड़ लीजिए, किधर भी जाइए लेकिन सीवान में मत रहिए. सीवान में रहिएगा तो आपसे ज्यादा खतरा हम लोगों पर है. मुझे सुझाव दिया गया कि पटना में एक बड़े नेता से मिलिए. छपरा के सांसद को लेकर पटना में नेता जी के पास गया. नेता जी से कहा कि जो खत्म हुए सो खत्म हो गए लेकिन जो बच गए हैं, उन्हें बचा लिया जाए. नेता जी ने कहा कि सीवान का मामला है, हम कुछ नहीं बोल सकते. नेता जी के पास मेरे साथ मेरे रिजर्व बैंक वाले भाई भी गए थे. अभी हम नेता जी के पास से निकल ही रहे थे कि मेरे भाई के पास सीवान से उन लोगों का फोन आ गया, जिन लोगों ने मेरे बेटों को मारा था. कहा गया कि नेता जी के पास गए थे शिकायत लेकर, मुक्ति के लिए. आप रिजर्व बैंक में नौकरी करते हैं न, आपका यही नंबर है न! मेरे भाई घबरा गए. उन्होंने कहा कि तुम कहीं और चले जाओ लेकिन यहां मत रहो, मैं भी नहीं रहूंगा. मेरे भाई ने तुरंत मुंबई ट्रांसफर करा लिया. वहां जाने के बाद भी उनको धमकी भरे फोन आते थे. उन्हें डर और दहशत से दिल का दौरा पड़ा, वे गुजर गए.
दीवार पर चंदा बाबू के दिवंगत बेटों की तस्वीर
मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया था. अब तक मेरे बेटे राजीव के बारे में कुछ भी नहीं पता चला था कि वह जिंदा भी है या नहीं. है भी तो कहां है. मेरी पत्नी-बेटी और मेरा एक विकलांग बेटा कहां रह रहा है, वह भी नहीं पता था. मैं डर से पटना ही रहने लगा. साधु की तरह दाढ़ी-बाल बढ़ गए. 15 दिनों तक इधर से उधर पैदल पागलों की तरह घूमता रहा. बाद में एक विधायक जी के यहां शरण मिली. उन्होंने समझाया कि दिन में चाहे जहां रहिए, रात को यहीं आ जाया करिए. ज्यादा पैदल मत घूमा कीजिए, आपको मार देगा लोग. मैं लगातार जुगत में था कि किसी तरह फिर नेता जी के पास पहुंचूं. इसी बीच मुझे मालूम चल गया था कि मेरा बेटा राजीव जिंदा है. एक दिन मैं पटना में सोनपुर की एक राजनीतिक टीम के साथ शामिल होकर रात में नेता जी के यहां फिर चला गया. सोनपुर के लोग अपनी बात रख रहे थे. उस बीच मैं भी उठा और बोला कि हुजूर मेरी समस्या पर भी ध्यान दीजिए, मैं सब कुछ गंवा चुका हूं, मुझे सुरक्षा चाहिए. नेता जी गुस्से में आ गए और कहा कि सीवान का लोग सोनपुर की मीटिंग में कैसे घुस गया. इसके बाद थोड़ा आश्वासन मिला. तब राज्य के डीजीपी नारायण मिश्र थे. उन्हें निर्देश मिला कि मेरे मामले को देखें. डीजीपी से मिला, उन्होंने आईजी के नाम पत्र दिया. आईजी से किसी तरह मिला तो डीआईजी के नाम पत्र मिला, डीआईजी ने एसपी के नाम पत्र दिया. मैं पत्रों के फेर में इधर से उधर फेरे लगाता रहा. हताशा-निराशा लगातार घर करते रही, थक-हारकर फिर दिल्ली चला गया. सोनिया जी के दरबार में पहुंचा. तब सोनिया जी नहीं थीं, राहुल जी से मिला. राहुल जी मिले, उन्होंने कहा कि आप जाइए, बिहार में राष्ट्रपति शासन लगने वाला है, आपकी मुश्किलों का हल निकलेगा. फिर हिम्मत जुटाकर सीवान आया. एसपी साहब के पास चिट्ठी देने की बात थी. अपने कई परिचितों को कहा कि आप लोग चलिए, सुबह-सुबह चलेंगे तो कोई देखेगा नहीं लेकिन सीवान में साथ देने को कोई तैयार नहीं हुआ. हमारे लोगों ने सलाह दी कि आप सुबह जाइए या आधी रात को, हम लोगों को अपनी जान प्यारी है, साथ नहीं दे सकते. लोगों ने सलाह दी कि एसपी साहब को रजिस्ट्री से चिट्ठी भेज दीजिए. मैंने अपने विवेक से काम लिया. सुबह पांच बजे एसपी आवास पहुंचा तो सुरक्षाकर्मी ने रोका. मैंने उससे आग्रह किया कि मेरे पास पांच मिनट का ही समय है, बस एक बार एसपी साहब से मिलवा दो, पांच मिनट से ज्यादा नहीं रुक सकता यहां. सुरक्षाकर्मी ने कहा, आप चिट्ठी दे दें, मैं दे दूंगा. मैं इसके लिए तैयार नहीं हुआ. फिर वह एसपी साहब को जगाने चला गया.
‘शहाबुद्दीन को जमानत मिलना तय था. यह 16 जून, 2014 को ही तय हो गया था कि अब आगे का रास्ता साफ हो गया. उस दिन मेरे बेटे राजीव की सरेआम हत्या हुई थी. राजीव को 19 जून को अदालत में गवाही देनी थी. वह इकलौता चश्मदीद गवाह था’
लुंगी-गंजी (बनियान) में एसपी साहब आए. मैंने कहा कि सुरक्षा चाहिए, यह चिट्ठी है. एसपी साहब ने कहा कि आप कहीं और चले जाइए, सीवान अब आपके लिए नहीं है. चाहे तो यूपी चले जाइए या कहीं और. हम एस्कॉर्ट कर सीवान के घर में जो सामान है, वह वहां भिजवा देंगे. मैंने एसपी साहब को कहा कि पटना के कंकड़बाग में आपका जो घर है, उसमें कई दुकानंे हैं, एक दे दीजिए हुजूर, वहीं दुकान कर लेंगे, पूरा परिवार वहीं रह लेगा. एसपी साहब नकार गए, बोले ऐसा कैसे होगा. मैंने भी एसपी साहब को कह दिया- साहब आप सुरक्षा दीजिए या मत दीजिए, रहूंगा तो सीवान में ही, सीवान नहीं छोड़ूंगा. एसपी साहब डेट पर डेट बदलते रहे कि कल आइए, परसों आइए. फिर से डीआईजी साहब के पास गया कि आपकी चिट्ठी बस अब तक चिट्ठी भर ही है. डीआईजी साहब ने कहा कि मैं रास्ता निकलता हूं. तब एके बेग साहब डीआईजी थे. डीआईजी साहब ने मदद की. उन्होंने एसपी साहब से कहा कि इन्हें सुरक्षा दीजिए, अगर आपके पास जिले में बीएमपी के जवान नहीं हैं तो मैं दूंगा लेकिन इन्हें सुरक्षा दीजिए. तब जाकर सुरक्षा मिली. मैं साहस कर रहने लगा कि अब मरना ही होगा तो मर जाएंगे. बाद में बेटा राजीव आया, अपनी मां, बहन और विकलांग भाई को भी लेते आया. घर-परिवार आया तो बेटे-बेटी की शादी के बारे में सोचा. बेटे राजीव की शादी की. शादी के 18वें दिन और मामले में गवाही के ठीक तीन दिन पहले उसे मार दिया गया. मेरा बेटा राजीव चश्मदीद गवाह था. मेरा बेटा राजीव इसके पहले भी कोर्ट में अपना बयान देने गया था. जिस दिन बयान देने गया था उस दिन भी उसे कहा गया था, ‘हमनी के बियाह भी कराईल सन आउरी श्राद्ध भी.’
बाहुबली: जिस जीरादेई में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का जन्म हुआ था. उस इलाके से पहली बार विधयक बनकर शहाबुद्दीन राजनीति में आए थे.
सच में ऐसा ही हुआ. जब गवाह ही मार डाला गया तो जमानत मिलनी ही थी, सो हाई कोर्ट में केस कमजोर पड़ गया. मैं तो अपने जले हुए घर में वापस नहीं आना चाहता था, वे तो एक डीएसपी सुधीर बाबू आए, उन्होंने बहुत भरोसा दिलाया कि चलिए, आपको डर लगता है तो हम रहेंगे आपके साथ. उनकी ही प्रेरणा से अपने घर को लौट सका. अब घर में मैं, मेरी बीमार पत्नी और एक विकलांग बेटा रहता है. बेटियों की शादी कर दी. लोन में दबा हुआ हूं. छह हजार रुपये की मासिक आमदनी है. तीन-तीन हजार रुपये दोनों दुकानों से किराया आता है. इस छह हजार की कमाई से ही पत्नी की बीमारी का इलाज होता है, दवाई आती है, आटा-चावल आता है और बेटियों की शादी का लोन चुकाता हूं. मेरे तीन बेटों की हत्या हुई, बेटों की हत्या का मुआवजा भी नहीं मिला. यह शिकायत है मेरी नीतीश कुमार से. खैर, अब क्या किसी से शिकायत. खुद से ही शिकायत है कि मैं कैसी किस्मत का आदमी हूं, जो शासन, व्यवस्था, कानून, खुद से… सबसे हार गया. अब ऐसे में आप पूछ रहे हैं कि क्या आप आगे सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे. मेरी स्थिति में, मेरे हालात में पहुंचा कोई आदमी आगे लड़ने लायक बचा होगा, क्या आप इसकी उम्मीद करते हैं?