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केजरीवाल की माफी, मान का इस्तीफा: विधायक कर रहे बैठक, टूट सकती है पंजाब में पार्टी

आ बैल मुझे मार ! दिल्ली के मुख़्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का पंजाब शिरोमणि अकाली दल के नेता और पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया पर लगाए ड्रग्स धंधे में लिप्त होने के आरोपों पर माफी माँगना न सिर्फ केजरीवाल को भारी पड़ा है इससे की पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा हो गयी है। शुक्रवार को आप के पंजाब प्रदेश अध्यक्ष भगवंत मान ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।  इस्तीफा देते हुए मान ने लिखा – ‘मैं आप पंजाब के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे रहा हूं। लेकिन ड्रग माफिया और पंजाब में सभी किस्म के भ्रष्टाचार के खिलाफ मेरी लड़ाई पंजाब के आम आदमी के रूप में जारी रहेगी।”
यही नहीं पंजाब के उपाध्यक्ष अमन अरोरा ने भी इस्तीफा दे दिया है। पंजाब के आप विधायक इस समय बैठक कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक पार्टी टूट सकती है। कुछ विधायक कांग्रेस के साथ जाना चाहते हैं।
maafinama1इस बीच आप पार्टी के बीच चल रही खींचतान के बीच पंजाब लोक इंसाफ पार्टी ने आम आदमी पार्टी से अपना गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया है।
केजरीवाल की तरफ से ड्रग्स कारोबार के आरोपी विक्रम मजीठिया से माफी मांगने के एक दिन बाद ही आम आदमी पार्टी में बगावत शुरू हो गई । पार्टी सांसद और भगवंत मान केजरीवाल के इस फैसले के खिलाफ ‘आप’ की पंजाब ईकाई के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया तो वहीं दूसरी तरफ पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने केजरीवाल के माफी के इस ऐलान पर हैरानी जताई है। इसी मसले पर लोगों ने दिल्ली के सीएम को निशाने पर लेते हुए ट्रोल किया। गुरुवार को यह माफीनामा अदालत में भी दाखिल किया गया।
उधर कुमार विश्वास ने इसी बाबत गुरुवार को एक ट्वीट किया जिसमें लिखा – “एकता बांटने में माहिर है। खुद की जड़ काटने में माहिर है। हम क्या उस शख्स पर थूकें जो खुद, थूक कर चाटने में माहिर है।”
केजरीवाल ने १५ मार्च को ही पंजाब शिरोमणि अकाली दल के नेता और पूर्व कबीना मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया पर लगाए ड्रग्स धंधे में लिप्त होने के आरोपों पर माफी मांगी थी।  सीएम ने इस बाबत चिट्ठी लिखी और कहा, “मजीठिया के खिलाफ बीते दिनों मैंने कुछ आरोप लगाए थे। वे बयान राजनीतिक मुद्दा बनाए गए। अब मुझे पता लगा है कि वे सब आरोप बेबुनियाद हैं।”
आप के विधायक और नामी पत्रकार विधायक कंवर संधू ने कहा, “केजरीवाल की मजीठिया से मानहानि के मामले में माफी लोगों को निराश करती है। खासकर पंजाब की जनता को। अगर आप सच के साथ खड़े हैं तो मानहानि के मामले झेलना जीवन का हिस्सा है। मैं भी मानहानि का मामला झेल रहा हूं। अंत तक इससे लड़ेंगे।”
पार्टी के भीतर बवाल मचता नजर आ रहा है। शिरोमणि अकाली दल के नेता बिक्रम सिंह मजीठिया के खिलाफ लगाए ड्रग रैकेट के आरोपों को वापस लेने के मसले पर भगवंत मान ने शुक्रवार (16 मार्च) सुबह पंजाब आम आदमी पार्टी (आप) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
आप नेता और पंजाब में विपक्ष के नेता सुखपाल सिंह खैरा का इस संबंध में कहना है कि केजरीवाल के इस फैसले ने उन लोगों को निराश किया है। ”दिल्ली के सीएम की ओर से मांगी गई लिखित माफी के बाद हम हैरान हैं। समझ नहीं पा रहे कि आखिर केजरीवाल ने ऐसा क्यों किया।” सुखपाल बोले, “मैं केजरीवाल के माफी मांगने की टाइमिंग को समझ नहीं पा रहा हूं। वह भी ऐसे वक्त में जब एसटीएफ और हाईकोर्ट से कह चुके हैं कि मजीठिया के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए ठोस सबूत हैं। हम उनके इस कदम से हैरान और निराश हैं।”
केजरीवाल के माफी मांगने की कई पार्टी नेताओं और पंजाब के विधायकों ने आलोचना की है । उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी। मान ने अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा ट्विटर पर की। गौरतलब है कि अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के पूर्व मंत्री मजीठिया पर ड्रग के धंधे में शामिल होने का आरोप लगाया था। अब उन्होंने गुरूवार को माफी मांग ली। केजरीवाल ने माफी मांगते हुए कहा कि उन्हें यह पता चला कि उनके लगाए आरोप बेबुनियाद हैं।

कबूतरबाजी में दलेर मेहँदी को दो साल सजा, जमानत मिली

पंजाब में पटियाला के एक न्यायालय ने मशहूर गायक दलेर मेहँदी को उनके बड़े भाई शमशेर सिंह के साथ कबूतरबाजी (मानव तस्करी) के आरोप का दोषी पाया है  दोनों को दो साल की सजा सुनाई गयी है। यह मामला २००३ का है जब पंजाब के ही एक व्यक्ति के इसे लेकर मामला दर्ज दिया था। कोर्ट के आदेश के बाद पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया है। हालाँकि कुछ ही देर में उन्हें जमानत मिल गयी। दलेर ने कई फिल्मों में गाने गाये हैं. जब यह मामला सामने आया था दलेर अपने करियर की पूरी ऊंचाई पर थे।
गौरतलब है कि दलेर और भाई शमशेर पर आरोप था कि उन्‍होंने कुछ लोगों को अपनी म्यूजिकल   टीम का हिस्‍सा बताते हुए गैरकानूनी तरीके से विदेश भेजा। आरोप था कि इस काम के लिए उन्‍होंने बड़ी रकम वसूल की थी। दलेर ने 1998 और 1999 में अमेरिका में शो किए थे। आरोप था कि अपने क्रू के 10 सदस्यों को उन्होंने अमेरिका में ही छोड़ दिया था। बताया जा रहा है कि इसके लिए उन लोगों से पैसे भी लिए गए थे। इसी दौरान एक ऐक्ट्रेस के साथ अमेरिका की यात्रा पर गए दिलेर ने क्रू मेंबर्स की तीन लड़कियों को सैन फ्रांसिस्को में छोड़ दिया था।
आरोप है कि एक अभिनेत्री के साथ अमेरिकी यात्रा पर गए दलेर ने कथित तौर पर तीन लड़कियों को सैन फ्रांसिस्को छोड़ दिया था। आरोप के मुताबिक अक्तूबर 1999 में भी दोनों भाई एक बार फिर कुछ अभिनेताओं के साथ अमेरिका गए थे और इस दौरान तीन लड़कों को न्यू जर्सी में छोड़ दिया गया था।
रिपोर्ट्स के मुताबिक दलेर और उनके भाई को अवैध रूप से लोगों को विदेश भेजने का दोषी पाया गया। ये दोनों लोगों को अपना क्रू मेंबर बताकर विदेश लेकर चले जाते थे।
विदेश में छोड़ने के लिए लोगों से पैसे लिए जाते थे। रिपोर्ट्स के मुताबिक 1998 और 1999 के दौरान इन दोनों भाइयों ने 10 लोगों को अवैध रूप से अमेरिका पहुंचाया था। बख्शीश सिंह नाम के एक याचिकाकर्ता ने २००३ में दलेर के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। इसके बाद ही पुलिस ने मामले में एफआईआर दर्ज की थी। दलेर मेहंदी और अन्य के खिलाफ 2003 में मानव तस्करी का केस दर्ज हुआ था। रिपोर्ट्स के मुताबिक इनके खिलाफ कुल 31 मामले पाए गए थे। साल २००३ में जब दलेर के भाई शमशेर मेहंदी को पुलिस ने गिरफ्तार किया था तब गिरफ्तारी करने वाली पुलिस की पूरी टीम का तबादला कर दिया गया था। इस मामले में पांच लोग नामजद थे जिनमें दो की पहले ही मौत हो चुकी है। एक बुल बुल मेहता को आज कोर्ट ने बरी कर दिया जबकि दलेर और उनके भाई को सजा मिली है।
दलेर को सजा की खबर से बॉलीवुड में सन्नाटा पसर गया है। इस बीच याचिकाकर्ता ने अदालत के फैसले पर ख़ुशी जताते हुए कहा कि उन्हें न्याय मिला है।

आध्यात्म में राजनीति के संकेत!

त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में सरकार पर काबिज होने के बाद क्या भाजपा की नजर अब सत्ता से महरूम तमिलनाडु पर है ? कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव इसी साल होने हैं और अगले फिर अगले साल तमिलनाडु की भी बारी है जहाँ फिल्म स्टार राजनीति के भी स्टार रहे हैं। तमिलनाडु में भाजपा का अपना कोइ आधार नहीं है लिहाजा राजनितिक हलकों में यही चर्चा रही है कि क्या उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह क्या वह क्षेत्रीय क्षत्रपों पर डोरे डालकर उन्हें अपने पाले में लाकर अपना आधार बनाएगी ? तमिलनाडु में दिसंबर में मेगा स्टार रजनीकांत ने राजनीति में उतरने की घोषणा की थी हालाँकि कमल हासन के अपनी पार्टी के नाम के घोषणा के बावजूद रजनीकांत ने अपनी पार्टी के नाम का ऐलान नहीं किया है। हाल ही में रजनीकांत जब अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान हिमाचल के पालमपुर आये तो भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल भी उनके साथ थे।  बस, यहीं से यह कयास लगने शुरू हो गए हैं रजनीकांत के धूमल के साथ आने के क्या कोइ राजनितिक मायने हैं।
यह बात तो गले उतरती नहीं कि धूमल और रजनीकांत संयोग से मिल गए। क्या भाजपा आलाकमान  के इशारे पर धूमल रजनीकांत से मिले, इसकी कोइ पुख्ता जानकारी नहीं। लेकिन इतना तो है कि रजनीकांत की लोकप्रियता की किस्ती पर सवार होकर भाजपा तमिलनाडु में बड़ा सपना बुन सकती है।
खुद रजनीकांत ने इसमें किसी तरह के राजनितिक मायने निकलने के इंकार किया, भाजपा के एक बहुत वरिष्ठ नेता का उनके साथ आना उच्च संकेत तो करता ही है। ”तहलका” ने धूमल से फ़ोन पर बात कर पूछा कि क्या उनकी कोइ राजनितिक चर्चा रजनीकांत से हुई तो उन्होंने इससे मना किया।  सिर्फ इतना कहा – ”रजनीकांत लोकप्रिय कलाकार हैं और उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति में भी उतरने का ऐलान किया है। लेकिन हमारी उनसे यहाँ भेंट को राजनीति से न जोड़ें।”
पत्रकारों के सवाल पर रजनीकांत ने कहा, ‘मैं यहां तीर्थ यात्रा पर हूं। यह दौरा अनोखा, आध्यात्मिक और रूटीन से अलग है। मैं यहां राजनीति पर बात नहीं करना चाहता हूं।’ आध्यात्मिक राजनीति का वादा करने वाले सुपरस्टार रजनीकांत आध्यात्मिक गुरुओं से मुलाकात करेंगे और राजनीति के लिए सलाह मांगेंगे। रजनीकांत ने कहा की वे १९९५ से ऐसी आध्यात्मिक यात्रायें करते रहे हैं। उन्होंने बैजनाथ के ऐतिहासिक शिव मंदिर में माथा टेका और इस दौरान धूमल उनके साथ थे।
तमिल राजनीति में फिल्मी सितारों का प्रवेश पुराणी रिवायत रही है। वहां जनता का फिल्मी सितारों से भावनात्मक जुड़ाव रहा है। एमजी रामचंद्रन और जे. जयललिता जैसेभी सफल राजनितिक नेता  सिल्वर स्क्रीन पर धमाल मचाने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) सुप्रीमो और पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने भी अपने करियर की शुरुआत तमिल फिल्म उद्योग में पटकथा लेखक के रूप में ही की थी।
रजनीकांत ने खुद बताया कि वे अक्सर आध्यात्मिक यात्रा पर जाते रहते हैं। रजनी ने पिछले साल 31 दिसंबर को राजनीति में कदम रखने की घोषणा करते हुए कहा था कि वह अपनी पार्टी बनाएंगे और तमिलनाडु की सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे।
कमल हासन और सुपरस्टार रजनीकांत द्वारा अपनी पार्टियों के गठन के ऐलान के बाद १५ मार्च को दिनाकरन ने भी अपनी पार्टी का ऐलान कर दिया। पार्टी का नाम अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़कम (एएमएमके)  रखा है। एएमएमके पार्टी के झंडे पर जयललिता की तस्वीर बनाई गई है। चुनाव चिन्ह कुक्कर रखा गया है हालांकि दिनाकरन का कहना है उनकी जंग दो पत्ती चुनाव चिन्ह दोबारा पाने के लिए जारी रहेगी।  अपनी पार्टी बारे में कहा कि कुछ महीने पहले तक पार्टी का झंडा और चुनाव चिन्ह न होने की वजह से काम करने में थोड़ी मुश्किलें आ रही थीं। ”पार्टी को झंडा और चुनाव चिन्ह मिलने से अब काम में तेजी आएगी।” उन्होंने उन्हें समर्थन देने वाले 18 विधायकों का धन्यवाद किया।  दिनाकरन ने दावा किया कि तमिलनाडु में उनकी पार्टी ही विधानसभा का अगला चुनाव जीतेगी।
रजनीकांत काँगड़ा जिले के पालमपुर में कंडबाड़ी में स्थित मेडिटेशन सेंटर ट्रस्ट में जिन योगीराज अमर ज्योति महाराज के आश्रम में पहुंचे वे धूमल के भी गुरु रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि धूमल की उनसे भेंट सिर्फ संयोग था।  रजनीकांत के आने की खबर के बाद आम लोग भी भारी संख्या में मंदिर पहुँच गए। उनमें रजनीकांत की एक झलक पाने की होड़ लगी रही। रजनीकांत को सम्मानित भी किया गया। वह काफी देर यहां पर रुके और इसके बाद महाकाल मंदिर में गए। रजनीकांत ने कहा कि उन्हें शिव मंदिर बैजनाथ में आकर अच्छा लगा। उन्होंने यहां पर माथा टेका।
सुपरस्टार रजनीकांत की राजनीति में एंट्री से तमिलनाडु की राजनीति ने नई करवट ले ली है। जयललिता की मौत के बाद ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (ऐआईडीएमके) दोफाड़ हो चुकी है। पार्टी में एक धड़ा मुख्यमंत्री पलनिसामी और उनसे पहले मुख्यमंत्री रहे ओ. पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व वाला है, जबकि दूसरा धड़ा शशिकला के नेतृत्व वाला है। शशिकला भले जेल में हैं, उनका समर्थक धड़ा पूरी ताकत से मैदान में डटा है।
माना जाता है कि पलनिसामी और पन्नीर धड़े को एक करने में भाजपा की बड़ी भूमिका रही थी। लेकिन इसी साल जनवरी में हुए आरकेनगर उपचुनाव में शशिकला के भतीजे और निर्दलीय उम्मीदवार टीटीवी दिनकरन की जीत ने तमिल राजनीति में नया मोड़ लाया है। भाजपा को भी इससे बड़ा झटका लगा है और वह विधानसभा चुनाव या २०१९ के लोकसभा चुनाव से पहले रणनीति में बदलाव कर अपने पांव सूबे में जमाना चाहती है।
दो महीने पहले ए. राजा और कनिमोझी को 2जी घोटाले में क्लीनचिट मिलने से करुणनिधी के डीएमके में उत्साह भर दिया है। तो क्या रजनीकांत तमिलनाडु में भाजपा का चेहरा हो सकते हैं ? रजनीकांत के राजनीति में आने से पहले ही तमिलनाडु में सत्ता की लड़ाई दिलचस्प हो चुकी है। राज्य  विधानसभा चुनाव में काफी समय है लिहाजा अभी कुछ कयास लगाना मुश्किल है। लेकिन यह तो तब है कि भाजपा अपने खुद के शुजानधार के चलते किसी बड़ी शख्शियत को अपने साथ मिलकर चुनाव में उतरेगी।
अम्मा जे. जयललिता के निधन के बाद प्रदेश की राजनीति में ‘मेगास्टार नेता’ की जगह खाली पड़ी है। रजनीकांत ने इसपर अपना दावा ठोका ज़रूर है लेकिन वहां फिलहाल राजनीति के कई तरीकों बने हुए हैं। रजनीकांत जब अपनी पार्टी के नाम का ऐलान करेंगे तभी कुछ साफ़ होगा।
अभिनेता से राजनेता की भूमिका में उतरने वाले कमल हासन की फिल्मी दुनिया में रजनीकांत से प्रतिद्वन्तता रही है। कमल हासन ने हाल में कहा था, ‘तमिलनाडु राज्य को आगे बढ़ाने के लिए मैं आपको (छात्रों को) राजनीति में देखना चाहता हूं। मक्कल निधि मय्यम (एमएनएम) आप जैसे लोगों की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है।’ हासन ने कहा, ‘हम जैसे बहुत से लोग पोलिंग बूथ तक नहीं जाते हैं। केवल इसी वजह से आज हमारी इतनी बुरी हालत है। हम तक अपने विचार पहुंचाइए। हम आपको सुनेंगे और उससे सीखने की कोशिश करेंगे।’ तमिल सियासत में छात्र आंदोलन काफी अहमियत रखता है। कॉलेज के शिक्षक से राजनेता बने सीएन अन्नादुरै के अलावा एमजी रामचंद्रन और एम करुणानिधि जैसे बड़े नेताओं ने हिंदी को थोपने जैसे मुद्दे पर लोगों की भावनाओं के अलावा छात्र आंदोलनों को सत्ता की सीढ़ी बनाया। यही नहीं 1967 में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में छात्र शक्ति का बड़ा योगदान था। रजनीकांत को लेकर छात्रों में काफी उत्साह देखने को मिलता रहा है।  पिछले हफ्ते अपने एक संबोधन के दौरान रजनी ने कहा था कि वह एमजीआर तो नहीं बन सकते लेकिन तमिलनाडु में उनके जैसा शासन दोबारा ला सकते हैं।

हालीवुड की गिनी चुनी फिल्मों को मिले पुरस्कार

लास एंजिलिस में चार मार्च को शानदार ऑस्कर फिल्म पुरस्कार समारोह हुआ। इसमें जबरदस्त फिल्म ‘द शेप ऑफ वाटरÓ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला। इस आयोजन में श्रीदेवी और शशि कपूर को श्रद्धांजलि भी दी गई।

फॉक्स सर्चलाइट की फिल्म के मैक्सिकन फिल्म निर्माता गिलेरमो डेल टोरो को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का ऑस्कर मिला। इस घोषणा से एक महिला या एक अश्वेत फिल्म निर्माता को ऑस्कर पाने की गुंजायश भी खत्म हो गई। यह फिल्म एक गूंगी सफाई करने वाली महिला की है जो नदी के ही एक विचित्र प्राणी से प्रेम कर बैठती है। उसे 13 मनोनयन मिले हैं और चार एकेडमी पुरस्कार।

ब्रिटेन के गैरी ओल्डमैन को दूसरे विश्वयुद्ध के नेताओं में प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल की भूमिका फिल्म ‘डार्केस्ट ऑवरÓ में निभाने पर मिला। फ्रांसिस मैक्डोरमांड्स की ‘फ्यूरीÓ में महिला की भूमिका निभाने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार फाक्स सर्च लाइट की डार्क कामेडी थ्री बिलबोर्ड्स आउटसाइड एबिंग, मिसूरी पर मिला।

ऑस्कर के होस्ट जिमी किमेल ने हालीवुड के सेक्सुअल मिस्कंडक्ट स्कैंडल पर काफी मज़ाक किए। साथ ही एलजीबीटी मुद्दों को भी उठाया और स्कूल में गोली चलाने की घटनाओं और रंगभेद पर भी अपनी बात रखी।

‘गे रोमांसÓ फिल्म काल मी ‘यूअर नेमÓ को स्क्रीन प्ले और रंगभेदी सेटायर गेट आउट को स्क्रीन प्ले पुरस्कार दिया गया।

ए फैंटास्टिक वुमेन, चिली की एक ट्रांस जेंडर महिला है जिसमें अभिनय भी ट्रांसजेंडर अभिनेत्री डेनिएल बेगा ने किया है। उसे विदेशी भाषा की फिल्म के तौर पर पुरस्कृत किया गया। मैक्सिको से प्रेरित होकर बनी कोको फिल्म को सर्वश्रेष्ठ एनिमेटेड फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला।

सैम रॉकवेल और एलिस जाने को पहला ऑस्कर स्पोर्टिंग भूमिकाओं के लिए फिल्म थ्री बिलबोर्ड और एक आइस-स्केटिंग फिल्म आई टोन्या पर दिया गया।

किस्सा खिसियानी बिल्ली का

खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे। मुहावरा आप सबने सुना होगा। पर यहां तो खंबे की जगह बुत ही गिरा दिए गए। नोचना-कचोटना तो आदमी का काम है। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं होता। हमारे बुत कहीं-कहीं लगते हैं। पर वह मसखरी के लिए, उन्हें कोई नहीं तोड़ता।

इंसान भी बड़े अजीब प्राणी हैं, जिस पर ज़ोर नहीं चलता उस पर चोरी-चोरी पत्थर फेंकते हैं। यदि व्यक्ति अपने ज़माने में ताकतवर हुआ तो उसका बुत बनता है फिर उसे तोड़ दिया जाता है। यह तब होता है जब पता हो कि उसे तोडऩे पर कुछ होने वाला भी नहीं। सरकार तो साथ है ही और प्रशासन भी। इन लोगों पर हमने पुलिस के डंंडे बरसते नहीं देखे। लेकिन पुलिसिया वर्दी देखते ही अंगे्रज़ों के ज़माने से इनकी बहादुरी पता नहीं कहां चपत हो जाती। कहते हैं कमज़ोर आदमी का गुस्सा ऐसे ही निकलता है।

लेकिन यह भी देखा गया है कि मानव की सारी प्रजातियां ऐसा नहीं करती। जानवरों में जैसे सारे नरभक्षी नहीं होते और सांपों में भी सभी विषधारी नहीं होते, वैसे ही इंसानों में सभी ऐसे नहीं होते। इनमें भी खास प्रजाति है जो तोडफ़ोड़, आगजनी,मारपीट और हिंसा के काम करती है।

मज़ेदार बात यह है कि बुत तोडऩे वालों को यह भी पता नहीं होता कि वह मूर्ति किसकी है जो उन्होंने तोड़ी? वे यह भी नहीं जानते कि वह भारतीय है या विदेशी? कई तो उस व्यक्ति का नाम तक उच्चारित नहीं कर पाते। इनमें कुछ तो बिचारे दिहाड़ीदार होते हैं जो फावड़ा-कुदालें लेकर आते हैं।

इस तरह की हरकतें करके भी मानव खुद को सभ्य, सहनशील और पढ़ा लिखा जागरूक इंसान बताता है, और हमें जानवर। बात उनकी सही भी है क्योंकि कौन इंसान है और कौन जानवर इसका सर्टीफिकेट भी तो वही बांटता है। वह जिसे चाहे जो मर्जी कहे। सवाल यह है कि इस तरह का सर्टीफिकेट बांटने का अधिकार उसे किसने दिया? मानव की ऐसी ही कुछ प्रजातियों को देखकर हमें अपने जानवर होनें पर गर्व होता है।

इन प्रजातियों का अपना-अपना दर्शन है। यह किसी का बुत को तोड़ें वह न्यायसंगत पर जब दूसरा इनकी आस्था के बुतों पर हमला करे तो असहिष्णु। कुछ लोग अपनी हार से व्यथित होते हैं तो कुछ अपनी जीत भी नहीं पचा पाते। हर कार्य मेें किसी रूढि़वादी का नाम जोड़ देते हैं। बुत गिराने पर उन्हें धन-दारू, कपड़े मिलते हैं। कहते हैं बुत तोड़ कर या किताबें फूंक देने से किसी विचारधारा को नहीं मारा जा सकता आप देख लीजिए नालंदा, तक्षशिला और काशी का हाल क्या रहा। विचारकों की हत्या कर दी जाती है पर विचार कभी नहीं मरते। महात्मा गांधी इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। उनकी विचारधारा आज भी पूरी दुनिया में पढ़ी जाती है। लोग उस पर अमल भी करते हैं।

खैर इस मामले में हम ‘गधेÓ बस यही दुआ करते हैं कि इंसान को सद्बुद्धि दे ताकि वह धरोहरों को मिटाने की बजाए उनकी रक्षा करे। जिससे लोग यह न कहें कि जीत भले हुई लेकिन उनकी हरकत से लगता है कि यह जीत से खुश नहीं हुए इसलिए खिसियाकर अपना गुस्सा बुतों पर उतार रहे हैं।

विधानसभा चुनावी नतीजों के आते ही त्रिपुरा में व्यापक हिंसा, माकपा चुनाव से हटी

त्रिपुरा में भाजपा की अभूतपूर्व जीत के बाद प्रदेश में भारी हिंसा, लेनिन की दो मूर्तियों को तोडऩे और माकपा के दफ्तरों और कार्यकर्ताओं के घरों-दफ्तरों में आगजनी का दौर- दौरा रहा। खुद राज्यपाल ने इन घटनाओं के निहायत सामान्य माना। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने अपनी टीम के साथ हिंसाग्रस्त इलाकोंं का दौरा किया और हालात का जायजा लेने के बाद तय हुई पार्टी बैठक में फैसला किया कि त्रिपुरा चुनावों के पहले ही चारिलाम विधानसभा क्षेत्र के विधायक रामेेंद्र नारायण देव वर्मा के निधन के बाद खाली हुई सीट पर माकपा अपने उम्मीदवार पलाश देव वर्मा को नहीं उतारेगी। भाजपा ने इस सीट पर त्रिपुरा राजपरिवार के सदस्य और नए बने राज्य मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री जिश्नू देव बर्मन को अपना प्रत्याशी घोषित किया है। माकपा के राज्यसचिव बिजॉन धर ने दस मार्च को ही अपनी पार्टी के उम्मीदवार को चुनाव मैदान में हटाने के फैसले की सूचना मुख्य चुनाव आयुक्त को भेजी थी। त्रिपुरा वाम मोर्चे की बैठक में इस बात पर चर्चा भी हुई कि पार्टी ने चुनाव आयोग से अनुरोध किया था कि राज्य में हिंसा के हालात हैं। हालात सामान्य होने पर ही चुनाव कराए जाएं। आयोग के राजी न होने पर एकमत हो कर यह फैसला लिया गया। पार्टी ने अपने पत्र में यह जानकारी भी दी कि माकपा और आरएसपी पार्टियों के ग्यारह दफ्तरों केा तोड़ा गया, लूटपाट की गई और उनमें आग लगा दी गई। वाममोर्चे के उन्नीस नेताओं के साथ मारपीट की गई और कई सौ समर्थकों और कार्यकर्ताओं पर दूरदराज के इलाकों में अत्याचार और जुल्म ढाने का सिलसिला अब भी जारी है। राज्य में कानून-व्यवस्था सामान्य अब तक न हो सकी है। इसलिए जहां वामपंथी उम्मीदवार को सुरक्षा में भी प्रचार करने नहीं दिया जा रहा है वहां शांतिपूर्ण मतदान तो संभव ही नहीं है।

त्रिपुरा में हिंसा का दौर-दौरा!

मैं खोवाई, त्रिपुरा की हूं। मेरे चाचा खोवाई उप्र संभाग में माकपा के सदस्य हैं। अब चंूकि हम वामपंथ और वामपंथी पार्टियों के समर्थक हैं तो हमें परेशान किया जा रहा है। मेरे चाचा तो अपने घर के कमरे से बाहर भी नहीं निकल सकते। यही हाल मेरा और मां-बाप का है।

हर कहीं हिंसा का बोलबाला है। मेरे अपने गांव में और पड़ोस में। हमारे स्थानीय पार्टी कार्यालय बंद कर दिए गए हैं। वे मजदूरों और किसानों (जो वामपंथी दलों के समर्थक हैं) को पीट रहे हैं। मैं दैनिक जरूरियात का सामान खरीदना चाहती हूं। लेकिन हमें डराया-धमकाया जा रहा है। साधारण लोग भी बिना बात के पीटे जा रहे हैं। पार्टी नेताओं की खोजबीन की जा रही है। पार्टी के कई दफ्तरों में आग लगा दी गई।

मैं उन्नीस साल की लड़की हूं। अपनी छोटी सी जिंदगी में मैंने कल रात (चार मार्च) जो कुछ भी देखा सुना उसके बाद वे सो नहीं सकीं। मैं अपनी जिंदगी के सामने आ खड़े हुए खतरों के बारे में ही सोचती रही। अपने मां-बाप की सुरक्षा, अपने गांव और पड़ोस के गांव के बारे में सोचती रही। क्या अब ऐसे ही चलेगा? कृपया हमारी रक्षा करें।

कल्याणी दत्ता

वामपंथ भारत के लिए ज़रूरी

‘हम वाम मोर्चे से लडऩे की तैयारी भी करते हैं। क्योंकि हम राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं लेकिन मेरा मानना है कि भारत से वामपंथ का खत्म होना देश के लिए नुकसानदेह होगा।

भारत में वामपंथ को मजबूत होना ही होगा। देश से वामपंथ की समाप्ति बहुत ही नुकसानदेह है। वामपंथ को जमीनी स्तर से ऊपरी स्तर तक बेहद बदलाव लाना होगा। इसे सीखना होगा कि जनता की आज क्या ज़रूरतें हैं। इच्छाएं हैं।

डॉ. जयराम रमेश

धारा-118 पर बवाल: कप में उठा तूफान या गंभीर मामला

हिमाचल में धारा118 फिर विवाद में है। तीन महीने पहले सत्ता में आने वाली भाजपा सरकार इसमें बदलाव करके इसके सरलीकरण की तैयारी कर रही है। इसी धारा में कुछ छूट के तहत भाजपा की पिछली सरकार के वक्त बाबा रामदेव को ज़मीन दी गयी थी। जिसे कांग्रेस की वीरभद्र सिंह सरकार ने सत्ता में आते ही बदल दिया था। यही नहीं धारा 118 में विशेष प्रावधान (सुरक्षा) के तहत भाजपा सरकार ने ही कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका गांधी वाड्रा को शिमला के पास छराबड़ा में ज़मीन खरीदने की मंजूरी दी थी, यहां प्रियंका का पहाड़ी शैली का मकान अब निर्माणाधीन है।

दरअसल प्रदेश में लोग धारा-118 के प्रावधानों को लेकर दो खेमों में बंटे हुए हैं। बहुतों का कहना है कि इस धारा के नियम प्रदेश के स्थाई निवासियों तक के लिए भी मुसीबत का कारण हैं क्योंकि ताकतवर लोग तो छूट के प्रावधानों का लाभ उठाकर ज़मीन हासिल कर लेते हैं, आम जन को ज़मीन खरीदने के लिए दर दर भटकना पड़ता है। मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर का कहना है कि उनकी सरकार इस धारा का सरलीकरण करना चाहती है जबकि विपक्षी कांग्रेस आरोप लगा रही है कि सरकार गैर हिमाचलियों को प्रदेश बेचने पर उतारू है और ऐसा आरएसएस के दबाव में किया जा रहा है।

इस समय जेल में सजा काट रहे डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह से लेकर आसाराम बापू और श्री श्री रविशंकर जैसे संतों और अन्य धार्मिक संगठनों के आश्रम यहां चल रहे हैं और उन्हें ज़मीन भी मिली हैं। इन बाबाओं और धार्मिक संगठनों को ज़मीनें भाजपा और कांग्रेस दोनों सरकारों के समय मिलीं। इनमें से कइयों के आश्रम कई कई जगह चल रहे हैं।

यह अलग बात है कि धारा-118 पर हिमाचल के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल जमकर राजनीति करते हैं। जांच का विषय है की आखिर बाबाओं को ज़मीनें खुले दिल से बांटने में हर राजनीतिक दल की रुचि क्यों रहती है। कुछ महीने पहले हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भूमि मुजारा कानून की धारा 118 में तीन माह में संशोधन करने के आदेश जारी किए थे। उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता सतपाल सैनी की याचिका पर सुनवाई करते हुए धारा 118 में तीन माह में संशोधन करने को कहा था। दिलचस्प यह कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया था। गौरतलब है कि 1972 के भूमि मुजारा कानून की धारा 118 के प्रावधानों के तहत कोई भी गैर कृषक अथवा गैरहिमाचली प्रदेश में ज़मीन नहीं खरीद सकता। हिमाचली स्थायी प्रमाणपत्र रखने वाले भी सरकार की अनुमति से शहरों में ही आवास बनाने अथवा कारोबार के लिए सीमित भूमि खरीद सकते हैं।

हिमाचल सरकार के रिकार्ड के मुताबिक 2018 के आखिर तक हिमाचल में धार्मिक बाबाओं और धार्मिक ट्रस्टों के नाम ज़मीन दर्ज करने के 1787 मामले थे।

हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार के समय यह कानून लाया गया था। परमार से कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसलिए हिमाचल प्रदेश टेनंसी ऐंड लैंड रिफॉर्म्स ऐक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस ऐक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंडÓ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को ज़मीन हस्तांतरित करने पर रोकÓ है।

इस बार धारा-118 पर विधानसभा के बजट सत्र में भी खूब हंगामा हुआ। विपक्षी कांग्रेस ने दो बार इस मसले पर वाकआउट किया जबकि सरकार का कहना था कि कांग्रेस इस मसले पर सिर्फ राजनीति कर रही है। बजट सत्र शुरू होने से पहले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा था कि सरकार चाहती है कि नियमों को थोड़ा सरल किया जाए ताकि हिमाचल में निवेश बढ़ सके। कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया और कहा कि धारा 118 से छेड़छाड़ प्रदेश के लिए नुकसानदेह है और इस कारण उसने सदन से वॉकआउट भी किया।

सवाल यह है कि जिन हिमाचलियों के पास कृषि ज़मीन नहीं क्या उनका कोई अधिकार ही नहीं और जो ताकतवर हैं, चाहे गैर हिमाचली ही, वो मर्जी से ज़मीनें ले सकते हैं। ऐसे लोगों को जिनमें बाबा और धार्मिक ट्रस्ट बड़ी संख्या में शामिल हैं, उन्हें धारा 118 के तहत छूट देकर ज़मीनों बतौर रेबडिय़ाँ दे देते हैं लीज के नाम पर। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें मेहरबान हैं।

छानबीन से जाहिर होता है कि बाबा या ट्रस्ट किसी हिमाचली कृषक के नाम पर हिमाचल में ही ट्रस्ट बनाते हैं। बाद में वे अपने संपर्कों का लाभ लेकर ज़मीन को ट्रस्ट के नाम करवा लेते हैं। वीरभद्र सरकार ने 2017 में एक फैसला किया जिसमें इन धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीन बेचने का अधिकार ही दे दिया। इसके लिए सरकार ने बाकायदा मंत्रिमंडल की बैठक में सीलिंग ऑन लैंड होल्डिंग अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी। सरकार धर्मशाला के चुनिंदा चाय बागान मालिकों को लैंड सीलिंग एक्ट में छूट देकर ज़मीन बेचने की इजाजत पहले ही दे चुकी है।

धार्मिक संस्थाओं को ज़मीन बेचने की इजाजत भले सशर्त है लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। संशोधन से धार्मिक संस्थाओं और डेरों को अपनी ज़मीन बेचने, गिरवी रखने या किसी को तोहफे में देने की छूट मिलती है। शर्त यह रखी गई थी जिसे ज़मीन मिले, वह धारा 118 के तहत बताई गई परिभाषा में आने वाला किसान हो। दिलचस्प यह है कि पहले यह मामला विरोध के चलते खारिज हो चुका था। मीडिया में इस तरह की रिपोर्ट आई थी कि कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में डेरा स्वामी सत्संग व्यास के लिए लैंड सीलिंग ऐक्ट बदलने की मंजूरी दी। यह भी कहा गया था कि डेरा कांगड़ा में अपनी ज़मीन कथित तौर पर फाइव स्टार रिजॉर्ट बनाने के लिए बेचना चाहता है। इससे जाहिर हो जाता है कि धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीनें देने के पीछे सरकारों की मंशा आशंका के घेरे में रही है।

इस मसले पर कांग्रेस विधायक दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री ने प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। उन्होंने धारा-118 में संशोधन को लेकर दो टूक कहा कि अगर प्रदेश सरकार ने ऐसा किया तो इसका पुरजोर विरोध होगा। इसे किसी भी सूरत में लागू नहीं होने दिया जाएगा। यहां पत्रकारों से बातचीत करते हुए सीएलपी लीडर मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि बीजेपी सत्ता में आते ही अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों में लगातार परिवर्तन करती आई है।

उन्होंने कहा कि पहले बीजेपी नेता कह रहे थे कि हिमाचल को बिकने नहीं दिया जाएगा और अब खुद ही वह धारा 118 में फेरबदल करने जा रही है, जिस से साबित होता है कि बीजेपी की कथनी और करनी में कितना फर्क है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि धारा-118 प्रदेश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसे प्रदेश निर्माता यशवंत सिंह परमार ने बहुत ही जद्दोजहद के बाद लागू कराया था, जिसकी वजह से प्रदेश की सुंदरता आज भी जि़ंदा है। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि प्रदेश सरकार को आज बने महज 60 दिन हुए। वह सत्ता में आते ही न जाने क्यों धारा-118 में संशोधन करना चाहती है।

रेबडिय़ों का सिलसिला

सरकारी रेकार्ड के मुताबिक पिछली सरकार के समय पहली जनवरी से मार्च 2017 तक आठ धार्मिक ट्रस्टों को ज़मीन दी गयी। इस के मुताबिक पदम संभाव गोंपा कमेटी, भुंतर को पहली जनवरी, 2015 को कुल्लू में, हरियाणा राधा स्वामी सत्संग एसोसिएशन को 09 मार्च, 2015 को काँगड़ा जिला के नगरोटा बगवां में, भगवान श्रीलक्ष्मी नारायण धाम ट्रस्ट को 31 मार्च, 2015 को मंडी जिले के बल्ह, चौतन्य ट्रस्ट, सोनीपत (हरियाणा) को 28 अप्रैल, 2015 को, ओशो समर्थक जीवन ट्रस्ट, जींद को 15मई, 2015, रुहानी सत्संग प्रेम समाज को 05 दिसंबर, 2016, ऊना वैष्णों भजन मंडली ट्रस्ट को 22 जनवरी, 2016 को ऊना में, धाकपो शेद्रूप मोनेस्ट्री को 14 मार्च 2017 को कुल्लू में लीज़ पर जमीन दी गयी। इससे पहले भाजपा और कांग्रेस राज में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को काँगड़ा जिले के पालमपुर के पास चचियां में, सुधांशुजी महाराज को कुल्लू, बाबा अमरदेव को सोलन, बाबा रामेदव को सोलन और चायल के बीच साधुपुल में, राधा स्वामी सत्संग डेरा ब्यास को प्रदेश हरेक जिले में, आसाराम बापू को हमीरपुर जिले के कलूर (नदौन), धार्मिक नेता और राजनीतिक सतपाल महाराज को शिमला जिले के संजौली, निरंकारी भवन और श्रीश्री रवि शंकर को प्रदेश के विभिन्न जिलों में जमीनें दी गयी हैं।

प्रदेश को बेचने की कोशिश: वीरभद्र सिंह

हिमाचल प्रदेश भूमि सुधार कानून की धारा -118 को लेकर हिमाचल में छिड़ी सियासी जंग को लेकर पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह ने जयराम सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। वीरभद्र सिंह ने दो टूक कहा कि प्रदेश में बीजेपी को आए अभी दो महीने हुए हैं और वह प्रदेश की जमीनों को बेचने पर उतारू हैं। कांग्रेस की सरकारों ने लंबे समय से प्रदेश की जमीनों को रक्षा की है और आगे भी इसका ख्याल रखा जाएगा। उनहोंने कहा कि धारा -1118 में किसी तरह का संशोधन नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार सिर्फ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचने में लगी हुई है। धारा 118 लागू नहीं होती है तो प्रदेश के लोग भूमिविहिन हो जाएंगे, उनके पास अपनी जमीनें नहीं रहेगी।श्श् वीरभद्र सिंह ने कहा कि हिमाचलियों की भूमि बाहर के लोग खरीदे यह कभी भी बर्दाश्त नहीं होगा। बहरहाल, अब बीजेपी के मंसूबों को कांग्रेस किसी भी हाल में पूरा नहीं होने देगी।

सरलीकरण का समर्थन

बीबीएन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्र गुलेरिया के नेतृत्व में संघ का एक प्रतिनिधिमंडल उपनिदेशक उद्योग विभाग तिलकराज शर्मा से मिला। इस मौके पर औद्योगिक संस्थाओं के पदाधिकारियों ने प्रदेश की नई बन रही औद्योगिक पॉलिसी को लेकर सुझाव दिए। जिससे प्रदेश में और ज़्यादा औद्योगिक निवेश हो सके। गुलेरिया और महासचिव यशवंत गुलेरिया ने सरकार से पर्याप्त मात्रा में लैंड बैंक बनाने और धारा 118 को सरलीकरण करने की बात रखी। बीबीएनआईए के संगठन सचिव अश्विनी शर्मा ने उपनिदेशक तिलकराज शर्मा से कहा कि एक विशेष एरिया में नए औद्योगिक कलस्टर बनाकर उसको विकसित किया जाए और विभिन्न प्रकार के बैरियरों को हटाकर फ्री ट्रेड पालिसी के बारे में चर्चा हुई। सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों को प्रदूषण क्लीयरेंस के दायरे से मुक्त रखने और कंसैट टू आपरेट नवीनीकरण की सीमा 90 दिन में तय करने की मांग रखी गई। बीबीएनआईए के प्रवक्ता संजय खुराना और बिजली समिति के चेयरमैन शैलेष अग्रवाल ने सिंगल विंडो प्रणाली को सशक्त करने का सुझाव दिया और धारा 118 को 45 दिन और पूरा प्रोजेक्ट 90 दिनों में क्लीयर करने की समय सीमा निर्धारित की जाने की मांग रखी। वहीं गत्ता उद्योग संघ के प्रदेशाध्यक्ष मुकेश जैन ने राज्य के भीतर ही बनने वाले गत्ता पेटी पर पांच फीसदी टैक्स को हटाने की बात कही। उपनिदेशक तिलक राज शर्मा ने संघ के पदाधिकारियों से सुझाव सरकार तक पहुंचाने का आश्वासन दिया।

हिमाचली हितों से समझौता नहीं : जयराम

धारा-118 को लेकर सीएम जयराम ने स्पष्ट किया है कि सबसे पहले हिमाचली हित देखे जाएंगे, इसे हटाने की कोई बात नहीं है। उनका कहना था कि बात इसके सरलीकरण की है और विषय अभी पूरी तरह से खुला है। उन्होंने कहा कि 118 में संशोधन सबसे ज्यादा छह बार कांग्रेस ने किए हैं। वहीं कांग्रेस के खिलाफ भाजपा की सौंपी गई चार्जशीट को लेकर पूछे गए सवाल पर सीएम ने कहा कि चार्जशीट सरकार के पास है और उस पर समय पर जांच होगी। अदानी को मिले बिजली प्रोजेक्ट से संबंधित अपफ्रंट प्रिमियम पर कानून के मुताबिक कार्रवाई होगी। कांग्रेस यह मामला केबिनेट में लाई थी और फिर वापस किया था। उन्होंने विधानसभा में भी इस मसले पर अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि एचपी टेंनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट1972 की धारा 118 के तहत एक तय भूमि की सीमा के भीतर प्रदेश सरकार द्वारा निजी भूमि क्रय करने की स्वीकृति भी प्रदान की जाएगी। राजस्व और उद्योग विबाग इस दिशा में शीघ्र आवश्यक दिशा-निर्देश तैयार करेंगे. इसी प्रकार उद्योग विभाग, राज्य औद्योगिक विकास निगम द्वार विकसित औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक इकाई स्थापित करने को भूमि आवंटन के लिए एचपी टेंनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट की धारा 118 के तहत उद्योग विभाग अधिकृत होगा। जयराम ठाकुर ने भू-राजस्व अधिनियम की धारा-118 में संशोधन को लेकर विपक्षी कांग्रेस द्वारा उठाए जा रहे मामले को ओछी राजनीति करार दिया।

तांडव गायों का, रक्षकों का उन्माद!

राजस्थान में लगातार होतीं गायों की हिंसक घटनाएं ऐसी हैं जिस पर सरकारों की गुलेलबाजी साफ नजर आ रही है, कि ‘अच्छा! ऐसा कब हो गया? गाय चिढ़ गई होगी?ÓÓ निर्लज्जता का कवच पहने मेयर की यह खुंदकी तर्जुमानी उस बर्बर घटना पर थी, जिसमें राह चलती एक महिला पर गाय ने हमला कर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया। बाद में चीख-पुकार के बीच भी काफी देर तक वह उसे रौंदती रही। असल में ये घटनाएं ऐसे समय हो रही हैं जब गोरक्षा के नए बाजीगर अपना हुनर दिखाने पर आमादा हैं।

विवाद के ये दोनों केन्द्र राजनीति और धर्म की भेडिय़ा धसान के प्रतीक हैं और दोनों के रंग गहरे और तीखे हैं! एक की छाया निरापद आवागमन को स्याह करना चाहती है तो दूसरी साम्प्रदायिक सदभाव को डसने पर आमादा है और इन सबके बीच फंसी है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आशंका कि ‘लोगों ने गोरक्षकों के नाम पर दुकानें खोल ली हैं। गोरक्षकों के वेश में गुंडागर्दी की जा रही है।Ó भाजपा को ऐसे लोगों से खास सावधान रहना होगा।ÓÓ

राजस्थान में पिछले छह महीनों में सड़कों पर मटरगश्ती करती गायों की गुर्राहट में फंसकर दो दर्जन लोग जान गंवा चुके हैं और सैकड़ों उनके खुरों की ठोकरों से जख्मी होकर अस्पताल में पड़े रहने का दर्द भोग रहे हैं। इन घटनाओं की जड़ें नाकारा नगरीय सरकार की गफलत में खोजी जा सकती हैं जिसका मुखिया कहता है, ‘लोग खुद सावधान रहें, हमारे पास इसका कोई इलाज नहीं है। उधर गोरक्षा और ‘स्वच्छ भारतÓ अभियान के सन्निपात में राजस्थान की उन्मादी भीड़ ने दो जनों की निर्मम हत्या कर दी, एक को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया और लंबा इलाज भुगतने की यंत्रणा दे दी। एक व्यक्ति को इसलिए मौत की खंदक में धकेल दिया गया कि वो फरागत के लिए खुले में शौच पर बैठा था। यह दरिन्दगी उन पालिका अधिकारियों ने दिखाई जिनका उत्तरदायित्व था कि वे शौचालय बनाकर देते? लेकिन ऐसा नहीं करके पता नहीं कौन से शौचालय में जाने का खुंदकी दबाव बनाए हुए थे? नतीजतन आहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर दोहराना पड़ा कि ‘हम कैसे लोग हैं जो आपा खो रहे है। गायों के नाम पर लोगों को मार रहे हैं? इंसान को मारना कौन सी गोरक्षा है? इन घटनाओं पर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि, ‘बड़े फलक पर तो हम सेकुलर हैं लेकिन देश के छोटे-छोटे हिस्सों में पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?ÓÓ

आवारा गायों की हिंसा से बुरी तरह हिला हुआ राजस्थान का नाद नगरीय सरकारों की संवेदनशीलता को क्यों नहीं जगा पाता? तो इसलिए कि हंगामी हालात के बावजूद वे अनभिज्ञता के रोग से जकड़े हुए हैं। क्या नगरीय सरकार के मुखिया की कुर्सी पर ऐसे शख्स को बैठना चाहिए जो ‘मुझे पता नहीं, की बीमारी में जकड़ा हुआ हो?ÓÓ उनका यह नज़रिया उस बर्बर घटना पर था जिसमें पगलाई गायों ने सड़क पर जाने वाली एक महिला मधु कंवर को उठाकर फेंका और दस मिनिट तक अपने नुकीले खुरों से उसे रौंदती रही। वरिष्ठ पत्रकार बिजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना है, ‘कोटा में चलना मौत के कुएं में बाइक चलाने से ज्यादा खतरनाक हो गया है।Ó शेखावत तंज कसते हैं कि, ‘क्या सड़कें सांडों और मटरगश्ती करने वाले आवारा पशुओं के लिए बनाई गई है? शहर के जागरूक लोगों का कहना है कि, ‘एक तरफ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की बात की जा रही है। दूसरी तरफ सड़कों पर साक्षात यमराज बेरोक-टोक विचरण कर रहे हैं। महिला पर गायों के हमले के प्रत्यक्षदर्शी निखिल गैरा का आंखों देखा हाल जिस्म में झुरझुरी पैदा करता है कि, ‘जिस तरह शादियों में घोड़ी डांस करती है, उसी तरह गुर्राती गाय महिला पर खुरों के बल पर नाच रही थी।ÓÓ आपराधिक घटनाओं के विश्लेषक कहते हैं, ‘यह साक्षात मौत का नाच था।ÓÓइन विध्वंसक घटनाओं का सबसे दुखद पहलू रहा कि नगरीय सरकारों के मेयर से लेकर अफसर तक ‘गायÓ को ‘गायÓ कहने से कतराते रहे। इसके पीछे राजनीतिक विवशता साफ नजर आ रही थी। झिंझोड़कर जगाने के बाद भी चलते-फिरते ‘आतंकÓका तात्कालिक हल तलाशने की बजाय कोटा के मेयर महेश विजय कह रहे हैं कि, ‘सर्वे कराकर करेंगे काम…..ÓÓ जिस दिन मेयर यह अपाहिज प्रतिक्रिया दे रहे थे, ठीक उसी दिन उनके अपने वार्ड में बेकाबू सांड ने एक व्यक्ति को चलती बाइक से धकेलकर बुरी तरह घायल कर दिया। इन मामलों में मेयर ही खतावार नहीं है बल्कि अफसर भी जुमलेबाजी के जाल में फंसे हुए हैं। कोटा नगर निगम के आयुक्त की बेबसी फिल्मी गीत,’मुहब्बत कर तो लें लेकिन मुहब्बत रास आए तो…..Ó के अंदाज में बिसूरती हुई बयां होती है कि आवारा पशुओं को पकड़ तो लें, लेकिन रखें कहां?ÓÓ निगम के समानान्तर संकाय ‘न्यासÓ ने गोशाला बनाकर देने की अर्जी यह कहते हुए दफ्तर दाखिल कर दी कि, ‘जमीन दे सकते हैं, गौशाला बनाकर क्यों दें? अब इन मामलों में जो ताजा तरक्की समझे तो,’सड़कों पर स्वच्छंद विचरते गाय- सांड बेधड़क घरों में घुसने लगे हैं। एक मकान के बाथरूम में घुसे पगलाए सांड को निकालना कितना भारी पड़ा ‘कहने की जरूरत नहीं?

उधर राजस्थान के अलवर जिले के निकटवर्ती कस्बे बहरोड़ मे ंपहलू खां की मौत की घटना तो आज भी सवालों के अंगारों में दहक रही है। हरियाणा से सटे मेवात का पहलू खां अपने साथियों के साथ जयपुर से गायें खरीद कर एक ट्रक से उन्हें मेवात ले जा रहा था। लेकिन कथित ‘गौरक्षकोंÓ ने उन्हें थाम लिया और तस्करी का आरोप लगाते हुए इस कदर पीटा कि उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहलू खां की मौत गंभीर चोटों के कारण हुई जबकि हिंसक’गोरक्षकोंÓ का कहना है कि ‘पहलू खां की मौत दहशत के कारण हुई।Ó प्रदेश के विहिप और बजरंगदल के बड़े पदाधिकारियें का कहना है, ‘हम कभी हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करते….।ÓÓ वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक का कहना है कि, ‘…..तो फिर ड्राइवर को क्यों छोड़ा? क्या हिन्दू ड्राइवर को पता नहीं था कि ट्रक में गायें भरी हुई है। अगर उसे शक होता कि गायें बूचडख़ाने ले जाई जा रही है तो उसने ट्रक को थाने पर ले जाकर क्यों नहीं खड़ा किया? अभी इस घटना का कफन-दफन नहीं हुआ था कि एक और घटना घटित हो गई। राजस्थान के गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया कह कर रह गए कि, ‘दोनों पक्ष दोषी हैं। संसद में केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास ने जो कहा, हैरान करता है कि, ‘इस तरह की घटना जमीन पर हुई ही नहीं।ÓÓ अलबत्ता केन्द्रीय गृहमंत्री राजस्थान सिंह का कथन संतोषजनक था कि, ‘राजस्थान सरकार भी इस मामले की जांच कर रही है और केन्द्र सरकार भी न्याय संगत कार्रवाई करेगी।ÓÓ इस मामले में न्याय संगत कार्रवाई आज तक भी क्यों नहीं हुई?

सघन हो रहे हैं अंधेरे

गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा और उत्पात को लेकर वरिष्ठ पत्रकार वेदव्यास का सुलगता सवाल चौंकाता है कि, ‘आखिर हम 1947 की आजादी को 2022 में 75 साल पूरे होने पर कहां, किस ओर ले जाना चाहते हैं? एक देश और एक कर से बाजार तो एक हो सकता है लेकिन जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय विविधताओं को केवल गाय, गंगा और गीता के नाम पर हिंसा फैलाकर लोकतंत्र नहीं बचाया जा सकता। वरिष्ठ पत्रकार मनोज मोहन एक अलग विषय पर सामयिक संदर्भ पर सटीक टिप्पणी करते नजर आते हैं,’कई बार लगता है कि सारी चकाचौंध के बावजूद हमारे समय और समाज में दरअसल अंधेरा, एक नहीं बल्कि कई तरह के अंधेरे बढ़ रहे हैं। वे इतने और इस कदर सघन और एक-दूसरे से इतने अटूट हैं कि इन्हें अलग कर देना मुश्किल है। वरिष्ठ पत्रकार दीनबंधु चौधरी कहते हैं,’सवाल उठता है कि क्या ये नृशंस उत्पात चुनाव की सन्निकटता के मद्देनजर एक खास समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने और किसी अन्य समुदाय में ध्रुवीकरण करने की कोशिश का हिस्सा है? इस साल कर्नाटक में चुनाव है तो संयोगवश राजस्थान में भी इस साल चुनाव है। यह एक संयोग है कि ऐसी घटनाएं चुनावों के आस-पास ही घटित होती हैं। दादरी में अखलाक अहमद की हत्या बिहार चुनाव के पूर्व ही हुई थी। हकीकत का तो पता नहीं लेकिन उत्पात मचाने वाले तत्वों को राजनीतिक संरक्षण मिलने वाले बयानों से संदेह को मजबूती मिलती है।

कुटिल होती संवेदना

नगरीय सरकारों के मुखिया को ‘क्रिएटिवÓ ओर ‘फोकस्डÓ होना चाहिए। लेकिन उनके पास तो वह ‘आंखÓ ही नहीं है जो सियासत के पार जाकर यथार्थ देख सके? अन्यथा उनकी सूखी हुई संवेदना इतनी कुटिल नहीं हेती कि, ‘हमारे पास समय ही नहीं है कि आवारा पशुओं को पकडऩे के लिए अभियान चला सकें।ÓÓ गायों की हिंसक घटनाओं को लेकर जो आवेग और बेचैनी आम होनी चाहिए थी, वो अंश मात्र भी उनमें नहीं है। शहरों में गुर्राती गायों और बर्बर सांडों की चहलकदमी, उन आदेशों की संकर पैदाइश है, जिनके मुताबिक ‘नाकामÓ होते इन पशुओं को ‘खरीद बिक्रीÓ से दरकिनार कर ‘छुट्टाÓ छोड़ देने को कहा गया है। नतीजतन छुटटा छूटा ‘अपराधीÓ या ‘सांडÓ क्या गुल खिला सकते है। इसका मकान शहरी सरकारों को रहा होता तो कुछ करते? इस अहम मुद्दे को लेकर पिछले दिनों जागरूक नागरिको ंको मुख्यमंत्री का आश्वासन भी फूंक में उड़ता नजर आता है कि, ‘अगले आठ दिनों में उन्हें इस ‘आफतÓ से निजात मिल जाएगी?Ó लेकिन निजात तो मिलती जब मेयर के फुरसत होती? गैर की छोड़ें तो कोटा मेयर को तो अपने वार्ड में टहलते ‘आतंकÓ की ही परवाह नहीं है तो उन्हें क्या कहा जाए? बहरहाल शहरों का फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा है कि उसकी बात शहर का खलीफा ही नहीं सुन रहा है? लोगों में किस कदर दहशत है कि, मुहल्लों में खेलते बच्चे अब कहीं नजर नहीं आते, लोग सुबह की सेहतमंद सैर और शाम को टहलने का कार्यक्रम टाल चुके हैं, लेकिन कब तक? लोगों का तंज बहुत कुछ कह जाता है कि ‘किसी की मौत से नगरीय सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता?

चुनाव प्रचार में ‘स्पेशल पैकेज’ पर उठा सवाल

बिहार में आंध्रप्रदेश की ही तरह उस ‘स्पेशल पैकेज’ की मांग पर जोर देने के लिए ‘सुशासन बाबूÓ यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर खासा दबाव है। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री जब बिहार आए थे तो उन्होंने एक लाख पच्चीस हज़ार करोड़ का स्पेशल पैकेज बिहार को देने की घोषणा की थी। इस मुद्दे को विपक्ष ने खूब बढ़ाया है। साथ ही आंध्र से सीख लेने की नसीहत भी दी है। उधर पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मोझी एनडीए से अलग होकर आरजेडी में आ गए हैं। सुखदेव पासवान भी भाजपा छोड़ कर आरजेडी में आ गए हैं। इस उप चुनाव मेें मुकाबला दिलचस्प है।

लोकसभा के लिए 11 मार्च को बिहार के आररिया और जहांनाबाद और भभुआ विधानसभा सीटों पर मतदान हुए। विपक्ष इस उपचुनाव को त्रिपुरा और उत्तरपूर्वी प्रदेशों में भाजपा की विजय पताका को लहराते देख कर भी अपनी जीत को जुदा दिखा। उधर भाजपा को पूरी उम्मीद है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यू) के साथ हुए गठबंधन में उसकी जीत तो पक्की ही है।

बिहार की आररिया लोकसभा सीट से आरजेडी के सांसद रहे मोहम्मद तस्लीमुद्दीन, जहाआबाद विधानसभा से आरजेडी विधायक मुंद्रिका सिंह यादव और विधानसभा के बाद ये चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में इस बार फिर प्रदीपकुमार सिंह मैदान में हैं। वे 2014 में मोदी की हवा के बावजूद आरजेडी के तस्लयुद्दीन के बेटे हैं। पहले आलम जेडीयू से विधायक थे। अब वे सुशासन बाबू का साथ छोड़ चुके हैं।

हालांकि नीतीश के पिछले एनडीए राज मेें आररिया सीट पर 2004 और 2009 की सीटों पर भाजपा ही जीती थी। लेकिन जब 2014 में भाजपा से अलग हुए तो तस्लीमुद्दीन भारी मतों से जीते थे। आरजेडी उम्मीदवार सरफराज आलस ओबीसी, दलित-मुसलिम-यादव समीकरण से अपनी जीत के प्रति आश्वस्त है। जबकि भाजपा के प्रत्याशी प्रदीपकुमार सिंह को पिछले चुनावों में भाजपा और जेडीयू के मिले वोटों के औसत से अपनी जीत का तस मान रहे हैं।

बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू यादव फिलहाल जेल में है और राज्य में पूर्व मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। यह उप चुनाव जहां मुख्यमंत्री सुशासन बाबू के लिए चुनौती है वहीं तेजस्वी के लिए राजनीति मे अपनी कामयाबी को मजबूती देने के लिहाज एक सुनहरा मौका है। उधर एनडीए के केंद्रीय मंत्रिमंडल से तेलुगु देशम का स्पेशल पैकेज न मिलने से अलग होने के मुद्दे ने भी बिहार में स्पेशल पैकेज की पुरानी मांग को फिदर ताजा कर दिया है।

वोट फीसद में थोड़ा भी बदलाव बदल देता है नक्शा

त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में माकपा को 46 फीसद वोट मिले हैं। यानी 2013 की तुलना में सात फीसद कम। जबकि भाजपा को 2013 में दो फीसद से कम वोट मिले थे। लेकिन आज त्रिपुरा में भाजपा सत्ता में है क्योंकि इसने एक मोर्चा बनाया जिसे कुल 51 फीसद वोट मिले। वोट हिस्सेदारी में पांच फीसद का अंतर सीटों के अनुपात में जबरदस्त उछाल दिखाता है जिसमें भाजपा को 43 और माकपा सिर्फ 16 सीटों पर सिमट जाती है।

भारतीय चुनावी व्यवस्था में मतदान में थोड़ी भी उछाल से एक पार्टी तो जीत जाती है और दूसरी बर्बाद हो जाती है। पश्चिम बंगाल में करीब 32 साल राज करने वाला वाम मोर्चा हमेशा पचास फीसद वोट पाता रहा। बकाया पचास फीसदी मतों का विभाजन दूसरी पार्टियों में होता रहा। लेकिन 2011 मेें इसकी वोट हिस्सेदारी 42 फीसद रही और तृणमूल और सहयोगी पार्टियों पचास फीसद वोट भी हासिल किए तो भी वाम मोर्चा को 294 में 60 सीटें मिलीं। मोर्चा तब भी ज्य़ादा वोट पाने का गान गाता रहा। लेकिन हुआ यह था कि मतों की भागीदारी और सीटों की हिस्सेदारी काफी कम हो गई। त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल की ही तरह माकपा का सफाया हुआ।

भाजपा ने त्रिपुरा मेें कांग्रेस का एकदम सफाया कर दिया हालांकि मतप्रतिशतता में यह माकपा से एक प्वांइट कम है। भाजपा ने नौकरशाही, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक यानी हर तरह के हथकंडे अपनाते हुए त्रिपुरा के लाल दुर्ग में अंदर तक घुस कर माकपा को नष्ट कर दिया है। माकपा नेता और कार्यकर्ता अभी भी अपने घावों को सहला ही रहे हैं।

अभी भी माकपा राजनीतिक तौर पर मुकाबले में तैयार होती नजर नहीं आती। कांग्रेस के तमाम मतदाताओं का भाजपा की ओर जाना बताता है कि दोनों ही पार्टियों का चाल, चेहरा और चरित्र एक सा ही हैं। जब 1977 में चुनाव हुए तो वोटों की कांगे्रसी हिस्सेदारी 18 फीसद के नीचे चली गई। कांग्रेस ने 30 फीसद का अपना वोट बैंक बरकरार रखा (2013 में यह 37 फीसद हो गया)। लेकिन कांग्रेस का अब 1.5 फीसद पर पहुंच जाना कांग्रेस की कमजोरी और माकपा की राजनीति को साफ करता है।

त्रिपुरा में कानून-व्यवस्था हमेशा दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर रही। यहां की वामपंथी सरकार ने आदिवासी और गैर आदिवासी मसलों को कल्याणकारी कदम उठा कर हल किया मसलन भूमि देना, पुनर्वास और सामाजिक नीतियों मसलन आहार सुरक्षा, रोजगार गारंटी, और सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य को जन-जन तक पहुंचाया। इसके कारण यहां सामाजिक आर्थिक विकास हुआ लेकिन आदिवासी आकांक्षाएं और चाहत वामपंथी सरकार के पतन का कारण भी बना। त्रिपुरा में शिक्षा की उपलब्धि केरल के काफी करीब थीं। शिक्षा के फैलाव के साथ बेहतर रोजगार की आकांक्षा भी बढ़ी हालांकि वामपंथी राज में यह मुमकिन नहीं था इसलिए सरकार व पार्टी ने उस ओर सोचा भी नहीं।

नगालैंड

नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ-एनपीपी गठबंधन को मिलीं 29 सीटें। जबकि एनडीपीपी-भाजपा की हैं 27 सीटेें। लेकिन कांगे्रस को इस बार कोई सीट नहीं मिली जबकि 2013 में इसे यहीं आठ सीटें हासिल हुई थीं।

नगा पीपुल्स फं्रट और नए बने नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और भाजपा गठबंधन को 27 सीटें और इसकी सहयोगी नेशनल पीपुल्स पार्टी को दो सीटें मिली हैं।

भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा को 11 सीटें और दो सीटें मिली हैं। शनिवार तीन मार्च को आए नतीजों के अनुसार चुनाव आयोग ने जनता दल (युनाइटेड) के एक विधायक और एक निर्दलीय को जिसे भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा का समर्थन हासिल था उसे जीत का प्रमाणपत्र दिया। इससे कुल संख्या 29 तो हो जाती है लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए ज़रूरत 31 सीटों की है।

फिलहाल नगा पीपुल्स फ्रंट सबसे बड़ी पार्टी है। एनडीपीपी पंद्रह निर्वाचन क्षेत्रों में जीती जबकि इसकी सहयोगी भाजपा 11 पर। चुनावों के पहले भाजपा ने अपना पंद्रह साल पहले का नगा पीपुल्स फं्रंट के साथ चला आ रहा समझौता तोड़ दिया था और एनडीपीपी का साथ ले लिया था। जिसका नेतृत्व नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री कर रहे थे। इस मोर्चे से उन्हें अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी घोषित किया था।

कांग्रेस को 2013 की विधानसभा में आठ सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार उसे एक भी सीट नहीं मिली। किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है फिर भी भाजपा-एनडीपीपी मोर्चाे ने दो उम्मीदवारों जनता दल (युनाइटेड) के एक जीते उम्मीदवार और निर्दलीय उम्मीदवार तोंग्पोंड ओजुकुम को अपनी सूची में गिन लिया है।

नगालैंड की 39.1 फीसद मतदाताओं ने नगा पीपुल्स फं्रट के पक्ष में मतदान किया। एनडीपीपी का वोट हिस्सेदारी 25.5 फीसद जबकि भाजपा को मात्र 14.4 फीसद वोट हासिल हुए। कांग्रेस का मत फीसद सिर्फ 2.1 फीसद रहा।

मेघालय

मेघालय में कांग्रेस की ज्य़ादा सीटें हैं। लेकिन चुनाव बाद की रणनीतिक चालें खासी चलीं। कांग्रेस के बड़े नेता अहमद पटेल, कमल नाथ, मुकुल वासनिक और उत्तरपूर्व के ईंचार्ज व कांग्रेस के महासचिव सीपी जोशी शिलांग में शनिवार दोपहर से ही जमा रहे। उधर भाजपा ने भी अपने उत्तरपूर्व विशेषज्ञ हेमंत विश्वशर्मा को शिलांग भेजा है जिससे कांग्रेस की सरकार न बन सके। इस काम में सफलता भाजपा को ही मिली हालांकि कांग्रेस को इस बार 21 सीटें मिली हैं यानी बहुमत से दस कम हैं। कोनराड संगम की नेशनल पीपुल्स पार्टी 19 सीटों के इंतजाम में जुटी है। उन्होंने कांग्रेस और एनपीपी जैसी छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को जोड़ लिया।

एनपीपी नेता संगमा को उम्मीद है कि वे अगली सरकार बना ले जाएंगे। मेघालय जनता कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार से ऊब चुकी थी इसलिए बदलाव की राह ली। भाजपा ने यहां 47 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ दो सीटें ही जीत सकी। मणिपुर और गोवा में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर विजयी हुई थी लेकिन वहां भी सरकारें भाजपा की ही बनीं।

एनपीपी और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा हालांकि एनपीपी केंद्र में और मणिपुर में भाजपा के साथ है। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी को छह सीटें मिली है यह भी भाजपा की उत्तर पूर्व नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलाएंस में है। एनपीपी की ही तरह यूडीपी ने चुनाव अपने दम पर लड़ा और हिलस्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से सहयोग रखा जिसे दो सीटों पर जीत मिलीं। यदि ये एनपीपी के साथ हो तीं तो विधायकों की कुल संख्या 29 हो जाती है।

एक और पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फं्रट है जिसे चार सीटें मिली है। यह पार्टी पिछले साल ही बनी थी जिसे कांग्रेस के पूर्व विधायक पिन्शेन्गेन एन सिएम ने बनाया था। मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे सीएम बहुत कम अंतर से मासिनराम सीट पर हारे। कांगे्रस छोडऩे के बाद वे मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के तगड़े आलोचक हो गए थे। उनकी पार्टी शायद ही संगमा को समर्थन दे। कांग्रेस का किसी भी पार्टी से चुनाव से पहले कोई तालमेल नहीं था।

मुख्यमंत्री संगमा ने आरपति और सांगसांक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था। हालांकि नतीजे उनकी आशा के अनुरूप नहीं थे। उनकी पत्नी डिकोची डी शिरा महेंद्रगंज सीट से जीतीं। मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष और कांग्रेस उम्मीदवार अब बाहर मंडल हार गए। इसी तरह गृहमंत्री एचडीकुपट आर लिंग्दोह और शहरी मामलों के मंत्री रोमी वी लिंग्दोह भी पराजित हुए।

कोनराड संगमा के भाई और एनपीपी प्रवक्ता जेम्स के संगमा दादे नग्रे सीट पर जीते। एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष सप्लेंगए संगमा भी गाम्बेगे्र सीट से जीते जबकि एडेलबर्ट नानग्रम जो खुन हैनीट्रैप नेशनल अवेकनिंग मूवमेंट (केएचएनएएम) के हैं वे उत्तरी शिलांग से विजयी रहे। भाजपा को जीत दिलाने वाला प्रचारक मराठी सुनील देवधर पूर्वोन्तर में भाजपा था वह चेहरा है जिससे न कभी खबरों में खुद को रखा और न चुनाव ही लड़ा। लेकिन संगठन की रणनीति, चुनाव-प्रचार,कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता को बनाए रखने में उन्होंने खासी कूटनीति अपनाई।

विधानसभा 2013 में माकपा की 49 सीटें आई थीं। दस सीटों के साथ कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल थी। माकपा को एक सीट मिली थी। देवधर न सिर्फ मेघालय और त्रिपुरा बल्कि सभी राज्यों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे। वे मेघालय में खासी और गारों जनजाति के लोगों से उन्हीं की भाषा में और बंगालियों से बांग्ला में बात करते हैं।

देवधर ने पिछले पांच साल में वाम दलों, तृणमूल कांगे्रस और कांग्रेस से पहले भाजपा कई नेताओं और विधायकों को चुनाव के पहले भाजपा में शामिल कराया। इनके साथ ही निचले स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं को जोड़ा और बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत किया। देवधर ने वामदलों की ही तरह अपने कैडर बनाए।

कांगे्रस के ऐसे अच्छे नेताओं को उन्होंने भाजपा से जोड़ा जो वाममोर्चे के चुनौती देते रहे। फिर माक्र्सवादी और असंतुष्ट लेकिन मंजे हुए नेताओं को भी संगठन से जोड़ा। उन्होंने कार्यकर्ताओं को उचित प्रशिक्षण दिया और उन्हेें संतुष्ट रखा।

क्या है तिपरालैंड विवाद?

 

देश 1947 में आजाद हुआ। त्रिपुरा का संघ गणराज्य में नौ सितंबर 1949 मेे विलय हुआ। इससे पहल यह एक रियासत थी। इसे यूनियन टेरिटरी का दर्जा 1963 में दिया गया फिर 21 जनवरी 1972 मेें त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।

त्रिपुरा के पड़ोस में पूर्व पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) था। वहां से बंगाली हिंंदू त्रिपुरा आ रहे थे। यह बात त्रिपुरा के लोगों को नहीं भा रही थी। वहां भी छिटपुट संघर्ष होता रहा। वामपंथियों के राज में हिंसा पर रोक लगी।

जनगणना के अनुसार 2001 में पाया गया कि त्रिपुरा में 70 फीसद बंगाली हैं यानी आदिवासी सिर्फ तीस फीसद। एक लंबे आंदोलन के बाद देश का 29वां राज्य तेलंगाना दो जून 2014 में बना। तबसे यहां तिपरालैंड की आवाज ने फिर जोर पकड़ा। भाजपा ने यहां के आदिवासियों में लोकप्रिय संगठन इंडीजीनिय पीपुल्स फं्रट ऑफ त्रिपुरा के साथ तालमेल किया। इस फ्रंट ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें आठ पर विजय पाई। अब उनका कहना है कि 35 सीटों को पाने वाला भाजपा पहले उनकी मांग स्वीकार करे या तो राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाए या फिर अलग तिपरालैंड की घोषणा करें। हालांकि अब राज्य में भाजपा सरकार है पर विवाद पर बहस जारी है। एनसी देव वर्मा ने कहा कि भाजपा को आदिवासियों के वोटों की बदौलत जीत हासिल हुई। वे सभी एसटी सीटों पर जीते हैं। ऐसे में एसटी सीट से जीते प्रत्याशी को ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए।

कांग्रेस

देश में वामपंथ को बचाए रखने के लिए कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बहुत ज़रूरी नहीं है।

केरल में वाम मोर्चा के साथ दूसरे दल भी गठबंधन में हैं। इसे लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट कहत हैं। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में एक मोर्चा है जिसे युनाइटेठ डेमोक्रेटिक फ्रंट कहते हैं। यहां बड़े मोर्च की संभावना ही नहीं है।

बंगाल में वाम मोर्चा हाल ही में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ चुका है। उसमें उसे बड़ा नुकसान हुआ और कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। वहां तृणमूल से गठबंधन की संभावना नहीं है।

त्रिपुरा में कांग्रेस और तृणमूल का पूरा संगटन और नेतृत्व भाजपा में जा चुका था। वहां कोई भी गुंजायश नहीं थी।

आंध्र में राजशेखर रेड्डी के समय में कांग्रेस के साथ रणनीतिक समझदारी बनी थी। वाम मोर्चे ने वहां कांग्रेस के साथ तत्कालीन सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया। इसका चुनावी लाभ भी हुआ। जीत के बाद कांग्रेस की सरकार अपने एजेंडे पर चलने लगी। घाटा वाम मोर्चे को हुआ। इसका ज़मीनी संघर्ष कमज़ोर हो गया।

बिहार में वामपंथी दलों को लालू प्रसाद ने खत्म कर दिया। पहले उन्होंने माले फिर माकपा के विधायकों को साथ लिया फिर माकपा पर डोरे डाले और उसकी धार कुंद कर दी। वाम मोर्चे ने सामाजिक न्याय की सियासत के आगे अपने एजंडे को भुला दिया। वहां अब माले और माकपा के थोड़े बहुत अवशेष बचे हैं।

उत्तरप्रदेश में अब छिटपुट वामपंथी हैं। जहां समर्थन विरोध का कोई मतलब नहीं। सामाजिक न्याय के एजंडे पर सक्रिय दलों से वामपंथी न्यूनतम कार्यक्रम आधारित साझेदारी रख सकते हैं।