पटियाला में चंडीगढ़ रोड पर बसे बनूर गांव में एसवाईएल कैनाल को पाटती जेसीबी मशीन. All Photos : Raman Gill
पंजाब विधानसभा चुनावों में साल भर से भी कम का समय रह गया है. राज्य भर में फैली सत्ता विरोधी लहर और सरकार के प्रति गुस्से के बीच से निकलने के लिए सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 को पारित करना सरकार के लिए जनता के खोए हुए विश्वास को पाने का बड़ा अवसर है. मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के इस कदम से न सिर्फ विपक्ष चिंता में आ गया है बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी परेशानी में डाल दिया है जो पहले ही 14 मार्च, 2016 को पंजाब सरकार द्वारा दिए गए डीनोटिफिकेशन के फैसले के खिलाफ खड़े हैं. सुप्रीम कोर्ट के सतलुज-यमुना लिंक (एसवाईएल) मामले पर यथास्थिति रखने के आदेश के बावजूद पंजाब से हरियाणा को पानी भेजने के लिए बनी इस नहर को पाटने का काम शुरू हो चुका है. सरकार की मौन सहमति के साथ पंजाब के किसान इस नहर के बड़े हिस्से को पाट भी चुके हैं. इस विधेयक के अनुसार दशकों पहले एसवाईएल नहर के नाम पर सरकार द्वारा अधिगृहित की गई किसानों की जमीन उन्हें बिना कोई मूल्य चुकाए वापस की जाएगी. इस विधेयक को लाने का राजनीतिक उद्देश्य राज्य में विपक्ष को कमजोर करना है. खबर यह भी आ रही है कि शायद मुख्यमंत्री समय से पहले ही चुनाव करा सकते हैं.
वर्तमान सरकार के इस विधेयक को लाने के फैसले का असर पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की छवि पर भी पड़ेगा. 2004 में पंजाब टर्मिनेशन ऑफ अग्रीमेंट्स एेक्ट लाने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब का पानी बचाने वाले के रूप में देखा जाने लगा था. इस कदम से एसवाईएल संबंधी किसी भी मुद्दे में सुप्रीम कोर्ट की कोई भूमिका नहीं रह गई थी. सूत्रों की मानें तो 3 मार्च, 2016 को हुई पंजाब कांग्रेस घोषणापत्र कमेटी की बैठक में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों द्वारा नहर पाटने के विचार को सामने रखा था. हालांकि कैप्टन इस योजना पर आगे बढ़ते इसके पहले ही मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब विधानसभा में यह विधेयक लाकर इसका श्रेय अपने नाम कर लिया. इस विधेयक के अनुसार नहर बनाने के लिए अधिगृहित की गई 3,928 एकड़ जमीन उनके असली मालिकों को बिना कोई मुआवजा लिए वापस लौटा दी जाएगी. सदन में यह विधेयक सर्वसम्मति से पारित हुआ है.
01.11.1966: पंजाब रिआॅर्गेनाइजेशन एेक्ट, 1966 के अंतर्गत पंजाब को दो हिस्सों में बांटकर हरियाणा नाम का दूसरा राज्य बना. 24.03.1976: सरकार ने सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर के निर्माण की योजना बनाई और पंजाब-हरियाणा को रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी के आवंटन की अधिसूचना जारी की. 31.12.1981: हरियाणा क्षेत्र में आने वाले एसवाईएल के हिस्से का निर्माण पूरा हुआ. 08.04.1982: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गांव में एसवाईएल नहर की नींव रखी. 05.11.1985: पंजाब विधानसभा में दिसंबर, 1981 में हुई वाटर ट्रीटी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया. 30.01.1987: नेशनल वाटर ट्रिब्यूनल ने पंजाब सरकार को उसके क्षेत्र में एसवाईएल का निर्माण जल्द से जल्द पूरा करने का आदेश दिया. उस समय लगभग 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका था. 12.07.2004: पंजाब में कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए ‘पंजाब टर्मिनेशन ऑफ अग्रीमेंट्स एेक्ट, 2004’ लागू किया. 14.03.2016: पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 पास किया गया, जिसके अनुसार सरकार एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए अधिगृहित की गई किसानों की 3,928 एकड़ जमीन बिना उनसे मुआवजा लिए उन्हें वापस करेगी. [/symple_box]
विधेयक के अनुसार सरकार इससे संबंधी नियम व शर्तें बाद में जारी करेगी साथ ही जमीन संबंधी अधिकार राजस्व विभाग द्वारा स्वत: पूरी कर दी जाएंगी. विधेयक में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा जमीन मालिकों के सभी दावों का निस्तारण करने के लिए उचित माध्यमों को भी अधिसूचित किया जाएगा. इसके अनुसार विधेयक के बारे में पंजाब सरकार या किसी व्यक्ति के बारे में कोई भी वाद, अभियोजन या कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकेगी और न ही विधेयक के संदर्भ में कोई वाद या कार्रवाई करना किसी भी सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में होगा.
इस विधेयक के अनुसार यह 3,928 एकड़ जमीन किसानों को लौटने के लिए एसवाईएल को भरने का काम शुरू हो चुका है. रिकॉर्ड के अनुसार एसवाईएल के लिए 5,376 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई थी, जिसमें 3,928 एकड़ जमीन 121 किलोमीटर लंबे एसवाईएल नहर के लिए थी और बाकी नहर से विभिन्न क्षेत्रों में पानी के वितरण के लिए उपशाखाएं यानी डिस्ट्रीब्यूट्रीज बनाने के लिए. ऐसे में रोपड़, साहिबजादा अजित सिंह नगर, फतेहगढ़ साहिब और पटियाला के वे किसान असमंजस की स्थिति में हैं जिनकी जमीन एसवाईएल की डिस्ट्रीब्यूट्रीज बनाने के लिए ली गई थी क्योंकि सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 के अनुसार सिर्फ उन्हीं जमीनों का जिक्र है जिन पर हरियाणा सरकार ने मुआवजा दिया था, बाकी 1/5 भाग जिसके लिए पंजाब सरकार ने भुगतान किया था, उसका कोई जिक्र इस विधेयक में नहीं है. गौरतलब है कि पंजाब सरकार हरियाणा सरकार द्वारा एसवाईएल नहर बनाने के लिए जारी किए गए 191 करोड़ रुपये का चेक भी लौटा चुकी है.
पहले ही दिन से एसवाईएल नहर योजना के साथ बदकिस्मती जुड़ गई थी. 31 अक्टूबर, 1984 को इसने तत्कालीन इंदिरा गांधी की जान ली, इसके बाद 20 अगस्त, 1985 को अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई. इन दोनों ही से नदी का पानी बांटने को लेकर शिकायत थी. 1982 में इंदिरा गांधी ने ही पटियाला के कपूरी में एसवाईएल नहर की नींव रखी थी. फिर 1988 में माजत गांव में 32 मजदूरों को उग्रवादियों द्वारा गोली मार दी गई थी, जिसके बाद नहर का निर्माण कार्य, जो उस समय 70 से 80 फीसदी तक पूरा हो गया था, बंद हो गया. इसके बाद 1990 में भी उग्रवादियों ने एसवाईएल नहर पर काम कर रहे एक चीफ इंजीनियर और सुप््रिटेंडेंट इंजीनियर की हत्या कर दी थी.[/symple_box]
इस बीच जब पंजाब में किसान नहर को पाट चुके हैं, हरियाणा के वो किसान जिनकी जमीन एसवाईएल के लिए अधिगृहित की गई थी, उन्होंने राज्य के किसानों से मुकदमा दायर करने की मांग की है. इसका कारण या तो पंजाब के किसानों की तरह जमीन पाने का लोभ भी हो सकता है, जहां जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं या फिर वे इस नहर से हरियाणा में पानी आने की उम्मीद ही छोड़ चुके हैं. हरियाणा में नहर के 90 किलोमीटर हिस्सा आता है, जिसका काम 1976 में ही पूरा हो चुका है. हरियाणा में एसवाईएल का क्षेत्र अंबाला से शुरू होकर करनाल जिले के मुनक तक है. जब इसका काम शुरू हुआ था तब नहर कुरुक्षेत्र से गुजरती थी. एसवाईएल के निर्मित क्षेत्र में अब बरसात का पानी ही जमा होता है.
कोई समाधान न देखते हुए हरियाणा सरकार ने विधानसभा में पंजाब सरकार के इस विधेयक के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है और सुप्रीम कोर्ट से पंजाब सरकार को इस विधेयक को लागू करने से रोकने का निवेदन किया है. अदालत ने हरियाणा की अर्जी पर पंजाब से 28 मार्च तक जवाब देने को कहा था. हरियाणा ने इस अर्जी में एक कोर्ट रिसीवर की नियुक्ति और इस विधेयक को राजपत्र अधिसूचना में शामिल न करने की भी मांग की है.
नदी-तट सिद्धांतों के अनुसार अगर कोई नदी पूरी तरह से एक ही राज्य के अंतर्गत बहती है तब उस पर केवल उस राज्य का अधिकार होगा, किसी और राज्य का नहीं. यदि नदी एक राज्य से अधिक राज्यों से होकर बहती है, तो जिस भी राज्य से वह गुजर रही है, उस राज्य में आने वाले नदी के क्षेत्र पर उस राज्य का अधिकार होगा. इन नदी तट अधिकारों का आधार इस बात को माना गया है कि किसी राज्य विशेष के लोगों को नदी के राज्य में होने से उसके बहाव आदि के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो ऐसे में नदी से होने वाले फायदे का एकमात्र लाभार्थी भी वही राज्य होगा. नदी के पानी के बंटवारे को लेकर पहला विवाद 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने से हुआ था, जब भारत के पंजाब राज्य और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में कई नदियां बहा करती थीं. 1960 में प्रधानमंत्री नेहरू और अयूब खान इंडस बेसिन रिवर्स वाटर्स ट्रीटी (संधि) लेकर आए, जिसके अनुसार यह निश्चित हुआ कि सतलुज, व्यास और रावी नदियों के पानी पर हिंदुस्तान का हक होगा. पाकिस्तान को वर्ल्ड बैंक और कई मित्र देशों ने सहायता दी. एसवाईएल नहर मुद्दे पर पंजाब का तर्क था कि पंजाब रिआॅर्गेनाइजेशन एेक्ट, 1966 के बाद हरियाणा सतलुज नदी के संबंध में पंजाब के साथ सह-तटवर्ती (समान नदी बांटने वाला) राज्य नहीं रहा, ठीक उसी तरह जैसे पंजाब यमुना के लिए नहीं रहा. तो ऐसे में अगर हरियाणा पंजाब की नदियों का पानी लेना चाहता है तो पंजाब को भी यमुना में उसका हिस्सा मिलना चाहिए.
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बीते दिनों तमिलनाडु के एक निजी कॉलेज में प्रताड़ना से तंग आकर कथित रूप से तीन छात्राओं वी. प्रियंका, टी. मोनिशा और ईसरण्या ने खुदकुशी कर ली थी.
तमिलनाडु में शिक्षा के निजीकरण की शुरुआत 80 के दशक में तब हुई जब एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) राज्य के मुख्यमंत्री थे. यह देखते हुए कि ग्रामीण नशे के अभिशाप से व्यापक तौर पर प्रभावित हो रहे हैं, एमजीआर ने ताड़ी के उत्पादन, खरीद तथा उपभोग पर पाबंदी लगा दी जबकि भारत निर्मित विदेशी शराब (आईएमएफएल) के लिए अनुमति बनाए रखी. नतीजा यह हुआ कि राज्य के शराब व्यापारी एमजीआर के नेतृत्व वाली एआईएडीएमके सरकार के खिलाफ हो गए. संयोग से ये लोग पहले सरकार के समर्थक हुआ करते थे और इन्होंने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी को चंदा भी दिया था. शराब व्यापारियों को खुश करने के लिए एमजीआर ने कर्नाटक की तर्ज पर उनके लिए स्ववित्तपोषित शैक्षणिक संस्थानों का आवंटन किया. इस तरह तमिलनाडु में भी उच्च शिक्षा में निजीकरण का दौर शुरू हुआ. सामाजिक कार्यकर्ता और मद्रास इंस्टिट्यूट आॅफ डेवलपमेंट स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर सी. लक्ष्मण कहते हैं, ‘पिछले कुछ दशकों से तमिलनाडु में अवैध शराब व्यापारी, दलाल और तस्कर आदि उच्च शिक्षा को संभाल रहे हैं. ये लोग तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों क्षेत्रों को संभाल रहे हैं. इन शैक्षणिक संस्थानों की शासकीय परिषदों में भी इन लोगों की पहुंच है. द्रविड़ पार्टियों के सत्ता में आने के बाद शिक्षा एक व्यापार बन चुकी है और इसकी गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हुई है. इसके अलावा इन लोगों द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों में उन विद्यार्थियों को राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं होने दिया जाता जिनका शोषण और दमन होता है.’
हाल ही में विल्लुपुरम जिले के कल्लाकुरिची स्थित एसवीएस योगा एेंड नेचुरोपैथी कॉलेज की तीन छात्राओं की आत्महत्या ने उच्च शिक्षा के निजीकरण के खतरों की ओर एक बार फिर ध्यान खींचा है. इन छात्राओं के सुसाइड नोट से यह स्पष्ट होता है कि कॉलेज प्रबंधन से मतभेद जाहिर करने पर उन्हें इस कॉलेज में काफी तंग और अपमानित किया गया. गौरतलब है कि वर्ष 2015-16 में डॉ. एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से इस कॉलेज को प्राप्त मान्यता खत्म हो गई थी, इसके बावजूद कॉलेज ने अपनी वेबसाइट पर ‘मान्यता प्राप्त’ के उल्लेख को नहीं हटाया था. छात्राओं ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि उन्हें कक्षाएं साफ करने के लिए कहा जाता था, खराब खाना देने के साथ अपमानित किया जाता था. जब कॉलेज प्रबंधन और मद्रास हाई कोर्ट से न्याय पाने की उनकी कोशिशें लगातार नाकाम होती गईं तो उन्होंने यह अतिवादी कदम उठाया.
सुसाइड नोट में यह भी लिखा है कि योगा एंड नेचुरोपैथी पाठ्यक्रम के दूसरे साल में हर छात्रा से छह लाख रुपये वसूले गए और रसीद देने से मना कर दिया गया. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन तीन छात्राओं के बाद तमिलनाडु में दो और विद्यार्थियों ने आत्महत्या की लेकिन यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर किसी का ध्यान खींचने में नाकाम रही. राष्ट्रीय पार्टियों का कोई नेता इन छात्राओं के घर नहीं गया. यहां तक कि राज्य के नेता भी इस घटना को लेकर चुप्पी साधे रहे. हालांकि ये तथ्य न केवल निजी कॉलेजों के मालिकों, राज्य के शिक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों और नेताओं के बीच मिलीभगत की को उजागर करते हैं बल्कि वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा करते हैं. नाम न बताने की शर्त पर कोयंबटूर की एक डीम्ड यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर बताते हैं, ‘जहां तक तमिलनाडु का सवाल है, नेताओं और निजी संस्थाओं के बीच का गठजोड़ काफी स्पष्ट और मजबूत है. बहुत-से कॉलेज हैं जो बिना मान्यता और बुनियादी ढांचे के ही चल रहे हैं. इन संस्थानों की मान्यता खत्म किए जाने के बाद भी इन्हें बदस्तूर चलाया जा रहा है.’ जब शिक्षा व्यापार बन जाती है तो इसकी गुणवत्ता गिरने लगती है. पैसा कमाने और खर्च कम करने के लिहाज से इन शैक्षणिक संस्थानों के मालिक शिक्षकों की योग्यता और क्षमता से भी समझौता करने लगते हैं. कुछ कॉलेजों में उच्च स्तर का आधारभूत ढांचा और आधुनिक सुविधाएं तो हैं लेकिन योग्य शिक्षक नहीं हैं. कोयंबटूर के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘ऐसे भी इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जहां असिस्टेंट प्रोफेसरों को 5000-7000 रुपये मासिक की तनख्वाह दी जाती है. यह केवल शिक्षक की क्षमता और गुणवत्ता की ही बात नहीं है, बल्कि प्रबंधन के लोग यह कोशिश करते हैं कि कर्मचारियों को कम से कम खर्च पर रखा जाए.’
‘निजी स्कूलों और कॉलेजों पर सामाजिक नियंत्रण बिलकुल नामुमकिन हो गया है, बल्कि हालात ऐसे हैं कि निजी संस्थान सरकार को भी नियंत्रित कर रहे हैं. ऐसी स्थितियां किसी भी हाल में उच्च शिक्षा के लिए ठीक नहीं’
तमिलनाडु के लिए शर्मिंदा हाेने वाली बात यह भी है कि छात्रों को रोजगार दिलाने के मामले में यह राज्य सबसे आखिरी पायदान पर खड़ा है. रोजगारपरकता का मूल्यांकन करने वाली और प्रमाणपत्र देने वाली कंपनी ‘एस्पायरिंग माइंड’ द्वारा जारी की गई राष्ट्रीय रोजगारपरकता रिपाेर्ट (2015-16) से इस तथ्य की जानकारी मिलती है. यह रिपोर्ट भारत के 650 कॉलेजों के इंजीनियरिंग के 1,50,000 से ज्यादा छात्र-छात्राओं के बीच हुए सर्वे के आधार पर तैयार की गई. त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती. एक तमिल चैनल पर बहस के दौरान एक चौंकाने वाली बात सामने आई. कार्यक्रम में आए कुछ विद्यार्थियों ने बताया कि कॉलेज के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पीटने के लिए कुछ संस्थान गुंडों को काम पर रखते हैं. चेन्नई में श्री साईं राम कॉलेज आॅफ इंजीनियरिंग के पूर्व छात्र गौतम वलावन बताते हैं, ‘हाल ही में प्रबंधन के मत से राजी न होने पर श्री साईं राम कॉलेज आॅफ इंजीनियरिंग में हड़ताल कर रहे कुछ छात्रों को हत्या की धमकी दी गई थी.’ पिछले दिनों यह कॉलेज लड़कियों के लिए ड्रेस कोड लागू करने के लिए भी चर्चा में रहा है. तमिलनाडु में निजी शिक्षण संस्थान पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़े हैं. इस समय ये कुल इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेजों का 90 प्रतिशत हैं. तीन साल पहले चेन्नई के नजदीक मेलमारुवथुर में आयकर विभाग की ओेर से एक संत के घर में मारे गए छापे में प्रतिबंधित कैपिटेशन फीस की वसूली से जमा किए गए कई करोड़ रुपये जब्त किए गए. यह संत कई इंजीनियरिंग कॉलेजों का अध्यक्ष था. साथ ही राज्य के प्रशासनिक हलकों में भी अच्छा-खासा दखल रखता था. इस तरह की पृष्ठभूमि के बाद जैसी उम्मीद थी, केस को बीच में ही खत्म कर दिया गया. तमिलनाडु में 60 प्रतिशत सामान्य कला और विज्ञान कॉलेज स्ववित्तपोषित हैं. उच्च शिक्षा के शैक्षणिक संस्थानों में तीन चौथाई स्ववित्तपोषित हैं. सीपीएम के राज्य सचिव जी. रामकृष्णन बताते हैं, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपनी वेबसाइट पर 9 राज्यों के 21 फर्जी संस्थानों के नाम दिए हैं जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है और जो यूजीसी अधिनियम 1956 के विरुद्ध संचालित हैं. इनमें तमिलनाडु के संस्थान भी शामिल हैं. शिक्षा के निजीकरण से इसी तरह समाज में असमानता बढ़ेगी और वंचित तबकों को शिक्षा नहीं मिल पाएगी.’
वे आगे कहते हैं, ‘249 निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ तमिलनाडु देश का दूसरा सबसे ज्यादा इंजीनियरिंग कॉलेजों वाला राज्य है. सरकार द्वारा सहायता प्राप्त कॉलेज केवल 13 हैं जो कुल इंजीनियरिंग कॉलेजों का महज पांच प्रतिशत है. इसके बावजूद ऐसा नहीं माना जा सकता कि स्ववित्तपोषित इंजीनियरिंग कॉलेजों की अपेक्षा सरकारी कॉलेजों में बेहतर शिक्षा आैर सुविधाएं मिलती हैं.’ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता निजीकरण किस प्रकार सकारात्मक परिवर्तनों को बाधित कर रहा है, इस बारे में सीपीआई के राष्ट्रीय सचिव डी. राजा कहते हैं, ‘निजी स्कूलों और कॉलेजों पर सामाजिक नियंत्रण बिलकुल नामुमकिन हो गया है, बल्कि हालात ऐसे हैं कि निजी संस्थान सरकार को भी नियंत्रित कर रहे हैं. ऐसी स्थितियां किसी भी हाल में उच्च शिक्षा के लिए ठीक नहीं.’ अधिवक्ता और कोयंबटूर में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के कार्यकर्ता मुहम्मद शफीक कहते हैं, ‘शिक्षा लाभ कमाने का जरिया बन गई है. अब विद्यार्थी भी शिक्षा सिर्फ धन कमाने का माध्यम मानकर ही ग्रहण करते हैं. अधिकांश निजी संस्थान अध्ययन शाखाओं के रूप में बहुत कम विकल्प देते हैं. इंजीनियरिंग, औषधि विज्ञान और प्रबंधन अधिक लोकप्रिय शाखाएं हैं. लगभग 80 प्रतिशत सीटें इंजीनियरिंग और 50 प्रतिशत से ज्यादा मेडिकल के लिए रखी जाती हैं. ये पाठ्यक्रम ज्यादा रोजगारपरक होते हैं इसलिए निजी संस्थानों की प्राथमिकता में यही होते हैं.’ बहरहाल, अब केरल में भी स्ववित्तपोषित संस्थान शुरू हो रहे हैं और देखने में आ रहा है कि इस राज्य से तमिलनाडु जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में गिरावट आ रही है. इसके कारण पिछले कुछ सालों से तमिलनाडु के शैक्षणिक संस्थानों में अधिकांश इंजीनियरिंग सीटें खाली पड़ी रहती हैं और इसी कारण बहुत-से संस्थान अपनी मान्यता भी खो रहे हैं. यहां तक कि विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए इन संस्थानों के प्रोफेसर पड़ोसी राज्यों में भी जा रहे हैं. दिलचस्प है कि विद्यार्थियों को फीस में छूट, फ्री बस सर्विस और लैपटॉप जैसी अन्य मुफ्त सुविधाओं से भी आकर्षित करने की कोशिश की जाती है. आने वाले समय में तमिलनाडु में स्ववित्तपोषित संस्थानों की संख्या और बढ़ेगी, ऐसे में यहां शिक्षा की स्थिति और भी खराब होगी. राज्य में हाल ही में हुई विद्यार्थियों की आत्महत्याएं शिक्षा की बिगड़ती स्थिति की ओर साफ इशारा करती हैं. आखिर, सरकार को शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिए और कितनी मौतों का इंतजार है!
देश में आजकल एक खास किस्म का सिलसिला चल रहा है. मैं उसका शिकार बना. वो पहले से जाल बिछाए बैठे थे, मैं फंस गया. सबसे परेशान करने वाली बात कि पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, वहां पर बहुत दमन रहा है. हमारे यहां आपातकाल को छोड़ दें तो शायरों या लेखकों का दमन बहुत कम हुआ है. लोग जेल भी गए हैं. फैज़ अहमद फैज़ से लेकर हबीब जालिब तक पाकिस्तान में तर्कवादियों की हत्याएं हुई हैं, बांग्लादेश में भी तर्कवादियों को मारा गया है, लेकिन इन सारी चीजों में संलिप्तता स्टेट यानी सरकार की रही है. सरकारी तंत्र और उसकी मशीनरी शामिल रही है. जिया उल हक की सरकार ने हबीब जालिब को पकड़कर बंद किया. हमारे यहां रूढ़िवादियों ने कई लोगों को मारने की कोशिश की है, कलबुर्गी को और पानसरे को मारने में सफल भी रहे. ये सिलसिला पिछले कुछ समय में दिखाई देता रहा है.
ऐसा पहली बार हुआ है कि मीडिया चैनल ही ऐसे हमले करने का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान में मीडिया हमेशा फैज, हबीब जालिब या डीगर, लेखक और वैज्ञानिकों के साथ रहा है. बांग्लादेश में भी मीडिया साथ रहा है. उनको ढाढस दिया, भरोसा दिलाया कि अवाम आपके साथ है. यहां उल्टा हुआ है. यहां मेरे ऊपर लांछन स्टेट नहीं लगा रहा कि आपने हमारे खिलाफ नज्म कही और हम आपको सजा देंगे. यहां पर तो मीडिया प्रोएेक्टिव (अति सक्रिय) हो गया. मैं बताता हूं कि क्यों ये लोकतंत्र के लिए ज्यादा खतरनाक है. राज्य अगर दमन करे तो आप लड़ सकते हैं. आपके खिलाफ मीडिया अगर खड़ा हो जाए, चैनल्स बिक जाएं, जिस तरह यह बिका हुआ चैनल है तो परेशानी यह है कि आपका दुश्मन पहचाना नहीं जा सकता. मेरा दुश्मन कौन है, मैं नहीं जानता. मैं पान की दुकान पर हूं, मैं बाजार में हूं, मैं कहां हूं और कहां से कौन हमला कर देगा, यह मैं नहीं जानता. कोई भी आकर मुझ पर हमला कर सकता है. मेरी सुरक्षा पूरी तरह से खत्म है उस वक्त जब से मीडिया मेरे खिलाफ हो गया क्योंकि दूसरा कोई साथ खड़े होने को तैयार नहीं है. लोग डर जाते हैं.
दूसरी परेशानी इस बात की है कि किसी भी समाज के अंदर उसका जिस्म यानी समाज का बदन, समाज के दिमाग के खिलाफ खड़ा हो जाए. जो सोचने-समझने, दिशा निर्धारित करने वाले लोग हैं, पढ़ाने वाले, फिल्में बनाने वाले, उन लोगों के खिलाफ आपका समाज खड़ा हो जाए तो ये ऐसा ही है कि कोई इंसान अपने ही बालों को नोचने लगे. तीसरी बात ये है कि जब आप किसी समाज में रहते हैं और उस समाज के अंदर कुछ तत्वों को ऐसी जगह मिली है जो उन्हें नहीं मिलनी चाहिए. मीडिया में तमाम लोग ऐसे बैठे हैं जिनको वहां नहीं होना चाहिए लेकिन वे हैं और पुरस्कृत हो रहे हैं. समझौता करने में सबसे आगे होता है अपराधी. अगर मीडिया का अपराधीकरण हो जाए तो एक आम आदमी के लिए कोई रास्ता नहीं बचता. किसी आदमी पर आपराधिक हमला होगा तो उम्मीद की जाती है कि सबसे पहले मीडिया खड़ा होगा, पुलिस और राज्य बाद में. राज्य की भूमिका अच्छी है तो भी मीडिया पहले खड़ा हो जाता है. अगर वो ही अपराधी की भूमिका में है, वो ही जजमेंट देना शुरू कर देता है, उसका ही आपराधीकरण हो जाता है तो यह खतरनाक स्थिति है.
अभी जो ट्रेंड दिखाई दे रहा है, उसमें ये तो साफ है कि मीडिया अपने दायित्व से हटकर एक अपराधिक भूमिका में है. आप सारे नियम-कानून और नैतिकता छोड़कर अपने ही बुद्धिजीवियों के खिलाफ खड़े हो गए. ऐसे में स्टेट अगर फासीवादी है तो आप क्या ही उम्मीद करेंगे, लेकिन अगर लोकतांत्रिक स्टेट है तो जाहिर है कि उसको खड़ा होना चाहिए. उसको जरूर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. गलत हमलों से लेकर मीडिया ट्रायल तक, उसके खिलाफ खड़ा होना राज्य का दायित्व है. एक फुटेज को देखकर सरकार लोगों को गिरफ्तार करने दौड़ पड़ी, (जेएनयू मामले में) इसकी जगह यह देखना चाहिए कि क्या हमें उन लोगों को गिरफ्तार करने की जरूरत है या उनको जो यह आरोप लगा रहे हैं. मैं समझता हूं कि सरकार का दायित्व था कि सबसे पहले पुलिस जांच करती कि क्या ये टेप सही हैं या डॉक्टर्ड और अगर हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है.
ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में मीडिया चैनल हमले का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान और बांग्लादेश में मीडिया हमेशा लेखक और वैज्ञानिक के साथ रहा है
एक चीज और बहुत खतरनाक है जो मैं कहना चाहता हूं. हमारे उपमहाद्वीप में एक लंबी परंपरा है मुशायरों की. यह अद्भुत परंपरा है जो सदियों पहले अरब से आई. यह वहां तो तकरीबन खत्म हो गई लेकिन हमने इसे जिंदा रखा. यहां अहम बात है कि यह अकेला ऐसा स्पेस है जहां नागरिक और बुद्धिजीवी, वो एक क्षेत्र के ही सही, कविता के ही सही, एक-दूसरे के सामने होते हैं. ये इसलिए अद्भुत परंपरा है. हर रोज हमारे देश में, पाकिस्तान-बांग्लादेश में हजारों ऐसे मुशायरे और कवि-गोष्ठियां होती हैं. आप जब हमला कर रहे हैं तो दो तरह से हमला कर रहे हैं. एक तो इस परंपरा पर हमला कर रहे हैं. दूसरा, आप हमला कर रहे हैं आयोजकों और शायरों-लेखकों पर. इसका अंजाम होगा कि लोग आयोजन करने से बचेंगे. पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि वे करेंगे नहीं, करेंगे भी तो सुनिश्चित करेंगे कि ऐसे शायरों को बुलाएं जो उन्हें परेशानी में न डालें. आपने चैनल की वो टैगलाइन देखी होगी. उसमें मुशायरे पर सीधा हमला है. चैनल ने ‘अफजल प्रेमी गैंग का मुशायरा’ लिखा. यह मुशायरे की परंपरा पर हमला है. अगर मान लिया मुशायरा हो भी जाता है तो शायर घबराएंगे कि कल को कहीं मेरे ऊपर उंगली न उठ जाए.
बहुत दिन से एक तरह की प्रोफाइलिंग चल रही है और यह कोई नया नहीं है कि मुसलमान है तो आतंकी है या देशद्रोही है. इससे तो आपको राजनीतिक रूप से लड़ना होगा. यह राजनीतिक दलों का काम है. यह इतनी आसानी से खत्म होने वाला नहीं है. मेरे ख्याल से यह लंबी लड़ाई है. जो तात्कालिक लड़ाई है वो ये है कि क्या हम ऐसे स्पेस को बचा पाएंगे. क्या हम मुशायरों-सम्मेलनों को उतना ही मुक्त रख सकेंगे जितना उन्हें होना चाहिए? कितनी भी प्रोफाइलिंग की जाए पर हमारे यहां परंपरा है कि आखिर में बैठा हुआ एक बच्चा उंगली उठा ही देता है, आप कितना भी अच्छा लेक्चर दें वो सवाल पूछेगा. तो यह प्रोफाइलिंग हमारे ख्याल से एक हद तक ही सफल हो सकती है. लेकिन ये स्पेस बचाए रखना कि हमारा कवि मुक्त होकर खुद को व्यक्त कर सके, डरे नहीं. हमारा शिक्षक जब क्लास में जाए तो मुक्त महसूस करे. हमारा लेखक जब किताब लिख रहा है तो उससे यह न लिखवाया जाए कि तुम कुछ भी सरकार के खिलाफ नहीं लिख सकते. सिर्फ सरकार के ही खिलाफ नहीं, किसी के खिलाफ हो, आप यह न कहें कि हम आपका हाथ पकड़कर कलम चलवाएंगे. इसी को मैं कह रहा हूं कि जिस्म अगर दिमाग के खिलाफ हो जाए तो यह खतरनाक होगा. अभी सरकार की ओर से एक फाॅर्म जारी हुआ है कि उर्दू लेखक हलफनामा दें कि वे सरकार के खिलाफ नहीं लिख रहे. मेरे ख्याल से आगे यह सबके साथ होगा. हिंदी के साथ, अंग्रेजी के साथ भी.
एक चीज और समझने की जरूरत है, अगर हम पाकिस्तान को देखें तो वहां जो सबसे कट्टरपंथी ताकतें थीं, उनको शुरुआत में जो दुश्मन की तलाश थी, उसमें हिंदू फिट हुए. फिर उन्होंने कहा कि इनसे काम नहीं चल रहा, तब उन्होंने मुहाजिर (शरणार्थी) की तलाश शुरू की. उनसे भी काम नहीं चला तो कादियानों को दुश्मन बनाया. उनसे भी काम नहीं चला तो शियाओं को चुना. अब उनसे भी काम नहीं चल रहा तो उसमें बरेलवी जोड़ लिए गए.
हमारे यहां अगर आप देखें तो सन 1947 के बाद मुसलमान उनके दुश्मन हैं. उसके बाद जोड़े जाते हैं ईसाई. एक छोटे से काल में सिख, उसके बाद सेक्युलर और अब एंटीनेशनल. ये घेरा बढ़ता जा रहा है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. प्रोफाइलिंग तो ईसाइयों की भी करने की कोशिश की गई. धर्म परिवर्तन का जो पूरा मामला था, वह यही था. युवाओं की प्रोफाइलिंग किस तरह से की जा रही है. मेरा मानना है कि जब किसी मुल्क में फासीवादी ताकतें होती हैं तो किसी एक दुश्मन पर रुकती नहीं हैं. दुश्मनों की बास्केट भरती नहीं है, बढ़ती रहती है. आज हिंदुस्तान में एक बड़ी बास्केट है दुश्मनों की, जिनमें अब हर वो आदमी जो आपको लगता है कि वो भारत माता की जय नहीं कहेगा, वह दुश्मन है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. बहुत सारे लोग जय हिंद कहेंगे. आंकड़ा है कि 94 फीसदी युवा भगत सिंह को अपना हीरो मानता है, वह इंकलाब जिंदाबाद कहना चाहेगा. अगर कोई भारत माता की जय नहीं कहेगा, तो वह देशद्रोही ठहरा दिया जाएगा. यह बास्केट बढ़ाने का सिलसिला तेजी से चल रहा है. इसका अंजाम होगा कि हम पाकिस्तान हो जाएंगे. जर्मनी को दोहराना मुश्किल है. लेकिन अगर जर्मनी न भी हुआ तो हम पाकिस्तान जरूर बन जाएंगे. खतरा ये है कि पाकिस्तान छोटा मुल्क है. उसे संभालना आसान है. हिंदुस्तान बहुत बड़ा मुल्क है. इस धरती पर रहने वाला हर सातवां आदमी हिंदुस्तानी है. यहां कुछ ऐसा होता है तो फिर ये मानवता के लिए सबसे बड़ा संकट होगा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इतनी बड़ी ट्रेजडी दूसरी नहीं होगी.
मेरे ख्याल से जो लोग जोर-शोर से कह रहे हैं कि ऐसा करने वाले फ्रिंज एलीमेंट (हाशिये के लोग) हैं, वे खुद फ्रिंज एलीमेंट हैं. ये तो सेंटर स्टेज (अहम लोग) हैं, जो चीख-चीखकर कह रहे हैं कि ये फ्रिंज एलीमेंट हैं, वे सिर्फ चैनल पर हैं. जिन्हें फ्रिंज एलीमेंट कहा जा रहा है वे तो गलियों-चौराहों में घुस-घुसकर मार रहे हैं. वे फ्रिंज एलीमेंट कैसे हुए? वे सेंटर स्टेज हैं. देश में फासीवाद अभी स्पष्ट रूप से हो न हो, लेकिन फासीवादी ताकतें जरूर हैं. उनकी चेतना भी फासीवादी है. वो किसी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहतीं. वो लगातार एक नया दुश्मन तलाश करती हैं. उनका सत्ता और अपराधियों के साथ जो रिश्ता है, वह साफ दिख रहा है. इसलिए मैं कह रहा हूं कि वे फ्रिंज एलीमेंट से सेंटर स्टेज की ओर चले गए हैं. मुझे फासीवाद का खतरा बिल्कुल साफ दिखाई देता है. यही बात मैंने उस कविता में कही है, ‘यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा सहमा रहता है, खतरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी.’
पश्चिमी यूपी में देखिए, जहां तक तनाव का सवाल है तो 1947 के बाद कुछ जगहों पर तनाव रहे हैं, कुछ जगहों पर नहीं. कुछ जगहों पर ज्यादा रहे कुछ जगह कम. मेरठ, मुजफ्फरनगर और मलियाना में ऐसा हुआ. लेकिन 1970 के बाद मैंने यूपी में बड़े स्तर पर कोई उन्माद नहीं देखा. उसके बाद अभी मुजफ्फरनगर में जो हुआ, वहां पर बड़े स्तर पर धार्मिक उन्माद दिखाई देता है. जाहिर है कि 1970 के बाद भाईचारे, शांति और विकास चाहने वाली जो ताकतें थीं वे एक साथ हो गईं. तब सोच यह थी कि अगर अमन नहीं होगा तब तक निवेश नहीं होगा, हम सिर्फ नुकसान उठाएंगे. यह सबको समझ में आ रहा था. अब जो नया ट्रेंड शुरू हुआ है, उसमें बड़े धीरज के साथ बंटवारा कराने का काम किया गया है. दिमागों का बंटवारा करने की कोशिश की गई. ऐसे में अगर स्टेट मशीनरी साथ हो जाए तो बहुत थोड़े से ही लोग उन्माद फैला सकते हैं. ऐसा बिहार में भी नहीं हुआ. मतलब आपको ज्यादा बड़ी भीड़ नहीं चाहिए. ये ट्रेंड मुझे यूपी में दिखाई दे रहा है कि स्टेट मशीनरी ने पूरी तरह से हाथ खींच लिए हैं. जो लोग ऐसी चीजों को अंजाम दे रहे हैं, उनको बजाय सजा देने और रोकने के एक तरह से वे खुद उनका फायदा उठाना चाहते हैं. मैं समझता हूं तात्कालिक तौर पर शायद किसी को इस बंटवारे का फायदा हो जाए, लेकिन लंबे समय में हम सब सिर्फ गंवाते हैं. चाहे वह निचला तबका हो या ऊपर का, अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक, इसमें सबका नुकसान है.
यूरोपियन यूनियन (ईयू) के जो सदस्य देश हैं उनके बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान खूनी संघर्ष हुआ था. इन देशों के बीच की कटुता भी तब भारत-पाकिस्तान के बीच की कटुता से कम नहीं थी पर आपसी कटुता मिटाकर उन्होंने नई शुरुआत की. आज आप उनका लेवल ऑफ इकोनॉमिक काेआॅपरेशन देखिए. सबके यहां यूरो चल रहा है. इंग्लैंड को छोड़कर पूरे यूरोप में कॉमन वीजा है. कॉमन बॉर्डर हैं. इसी तरह जो पूर्व-पश्चिम जर्मनी का विवाद था, वो एक ही देश हो गया है. देखा ये जाता है कि लोग पिछला भुलाकर आगे बढ़ते हैं पर हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसा नहीं है. हमारे यहां विभाजन के जख्म को बार-बार कुरेदकर और भी नई पेचीदगियां पेश की जाती हैं. ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ का हालिया विवाद भी यही है. यह उन समस्याओं में से है जो बड़ी ही गंभीर और जटिल होती हैं. इनमें दो चीजें होती हैं. पहला राष्ट्रीय हित और दूसरा व्यक्तिगत आजादी व भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकार, दोनों में एक टकराव होता है. टकराव कुछ यूं होता है कि हमें राष्ट्रीय हित के लिए चाहते और न चाहते हुए भी अपनी व्यक्तिगत आजादी और संविधान प्रदत्त अधिकारों की कुर्बानी देनी पड़ती है.
जिस व्यक्ति का पाकिस्तान से दूर-दूर तक कोई नाता न हो. बस उसके परिवार का कोई सदस्य वहां जाकर बस गया हो, उसकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति कहा जाए तो प्रश्न तो उठता ही है. लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. पाकिस्तान में अपनी जमीन-जायदादें छोड़कर भारत आ बसे लोगों को वहां कुछ नहीं मिला. उनकी भी लाखों-करोड़ों की संपत्ति वहीं छूट गई. उन्हें कुछ नहीं मिल पाया. इसलिए राष्ट्रीय दृष्टिकोण से तर्क तो बनता है कि जो लोग अपनी संपत्ति यहां छोड़कर पाकिस्तान गए, उनको या उनके वारिसों को भी क्यों उससे कोई लाभ मिले. अब बात ये है कि जो वारिस हैं वो कहते हैं कि हम तो जन्म से भारतीय नागरिक हैं, देश कभी नहीं छोड़ा. पाकिस्तान की जमीन पर कदम तक नहीं रखा. इससे बात खड़ी होती है कि एक सभ्य समाज में एक व्यक्ति के जो व्यापक संवैधानिक अधिकार होते हैं, वो उसे मिलें.
शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती.
सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि अगर परिवार के दस लोगों में से कोई एक देश के बाहर चला गया तो उस एक की सजा सबको क्यों दी जाए. लेकिन विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय कानून इस आधार पर होते हैं कि आप हमारे नागरिक, व्यापारी या कैदी के साथ जो सुलूक करेंगे हम भी आपके लोगों के साथ वही करेंगे. पहली बारगी तो देखने में यह जुल्म लगता है पर अगर गौर करें तो जो भारत आए उनकी संपत्ति तो पाकिस्तान ने ले ली. इसलिए यहां से जाकर वहां बसे लोगों की संपत्ति पर भारत का हक क्यों नहीं बनता है? यहां बात फंस जाती है. ये ऐसे गूढ़ प्रश्न हैं जिनका जवाब तलाशना आसान नहीं है. हम पश्चिम को लेकर हर मामले में नकल करते हैं पर उन लोगों का मानवीय दृष्टिकोण, समस्याओं को निपटाने का तरीका और लिबरल एटीट्यूड है, उस तरफ हम सोचना भी नहीं चाहते. जैसा ईयू का उदाहरण दिया कि वो पुराने मुद्दों को ही पकड़कर लकीर के फकीर नहीं बने रहे. इससे उसके सभी सदस्य देशों को ही फायदा मिला. उसका हम अनुसरण नहीं करना चाहते हैं. हम चीजों को जटिल बनाते हैं. जहां तक अध्यादेश के रास्ते विधेयक लाने की बात है तो पिछली बार कांग्रेस की सरकार भी ऐसा ही एक अध्यादेश लेकर आई थी. उस समय कैबिनेट में मतभेद पैदा हो गए थे. इसलिए तब आम राय नहीं बन पाई थी. अब वर्तमान सरकार इस पर जोर दे रही है. इसलिए विपक्ष के लिए विरोध करना बहुत मुश्किल होगा. संसद से तो कानून बनने की पूरी संभावना है. बस विरोध न्यायपालिका की तरफ से होगा क्योंकि न्यायपालिका पर कोई दबाव नहीं होता. वो तो बस कानूनी दृष्टिकोण से देखती है. राजा महमूदाबाद का भी केस देखें तो उन्हें भी न्यायपालिका से ही लाभ मिला.
वहीं विधेयक में यह प्रावधान भले ही हो कि शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती. आपातकाल के दौरान भी बहुत सारे ऐसे कानून पास किए गए थे जिनमें कहा गया था कि इनमें जूडिशियल रिव्यू नहीं होगा पर वे चले नहीं, अदालतों ने उसकी व्याख्या की. आम तौर पर जो सरकारी कानून होते हैं उनकी न्यायालयों में विवेचना होती है. इस पूरे विधेयक या इसके इस बिंदु पर भी कोई भी अदालत जा सकता है. जो प्रावधान हैं इस कानून में वो डिफेंस ऑफ इंडिया एेक्ट 1962 के तहत हैं. उनमें शत्रु की परिभाषा दी गई है. इन तमाम चीजों का अदालत संज्ञान तो लेती ही है. अब अगर कोई कह दे कि इसमें आप अदालत में नहीं जा सकते तो वो पर्याप्त नहीं होता.
विवाद यह है कि इससे एक बड़ी आबादी प्रभावित हो रही है. सरकार अब इसे कैसे लागू कर पाएगी, उसके सामने यह एक चुनौती होगी क्योंकि काम करने का न्यायालय का एक अपना ढंग होता है. कई बार सरकार के चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता. प्रभावित लोगों को न्यायालय से उम्मीदें हैं कि सरकार भले ही नागरिकों के संवैधानिक हितों को गौण मानकर चले पर न्यायालय न्यायसंगत फैसला करेगा. कानून बनाना आसान काम होता है. अध्यादेश लाना और भी आसान होता है. लेकिन अदालत में इसे साबित करना बड़ा मुश्किल भरा होता है. जहां तक प्रभावित लोगों की बात है तो अदालत अगर यह भी मान लेती है कि वो लोग जिस संपत्ति पर काबिज हैं वो शत्रु संपत्ति है तब भी सरकार को लचीला रुख अपनाना होगा. वह वर्षों से उस संपत्ति पर कानूनन बसे लाखों लोगों को एकदम से बेदखल नहीं कर सकती क्योंकि जो लोग आज इन संपत्ति यों पर काबिज हैं उनका इस सबसे कोई लेना-देना नहीं था. ये सारी चीजें सरकार को देखनी पड़ेंगी. निपटारे सरकार औने-पौने दाम पर कब्जेधारियों को ही वो संपत्ति बेचकर या उनसे कोई सुपुर्दगी लेकर कर सकती है. पर यह सब आसान नहीं होगा. मामला लंबा खिंच सकता है. अदालत में कोई चीज आती है तो अदालतें उसकी हर स्तर पर जांच करती हैं. मामले की जड़ तक जाती हैं और जब जड़ में गईं तो कई चीजें सामने आएंगी. सरकार को लगता है कि इन संपत्तियों से उसे एक लाख करोड़ मिल जाएंगे तो वो इतना आसान नहीं है. नौकरशाह और राजनेताओं के काम करने का तरीका कई बार जनहित में नहीं होता पर अदालत के पास संविधान है, उसकी व्याख्या करना उसका काम है.
‘हमने जिन्ना को छोड़ा, मुस्लिम लीग को छोड़ा, महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष आवाज पर भारत को अपनाया कि ये हमारी साझी विरासत है. क्या पाकिस्तान पर भारत को तरजीह देना हमारा गुनाह था, जो आज विभाजन के 65 साल बाद हमें उसकी सजा दी जा रही है?’ सरकार द्वारा जनवरी में शत्रु संपत्ति संशोधन अध्यादेश लाने पर ‘तहलका’ से बातचीत में राज्यसभा के पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब ने ये बात कही थी.
शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. इस कानून के तहत वे लोग जिन्होंने भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता ले ली थी, उन्हें ‘शत्रु नागरिक’ और उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ की श्रेणी में रखा गया. सरकार को यह अधिकार मिला कि वह ऐसी संपत्तियों के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे.
महमूदाबाद के तत्कालीन राजा मोहम्मद आमिर अहमद खान भी 1957 में पाकिस्तान पलायन कर गए थे. लेकिन उनके परिवार के अन्य सदस्य भारत में ही बने रहे. शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत इस प्रकार उनकी संपत्ति भी भारत सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी. पिता की इसी संपत्ति पर उत्तराधिकार पाने के लिए उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान ने 32 वर्ष कानूनी लड़ाई लड़ी. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैसला सुनाते हुए उनके पिता की हजारों करोड़ की संपत्ति उन्हें वापस लौटाने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.
शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. यह कानून सरकार को शक्ति प्रदान करता है कि वह भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता लेने वाले लोगों की संपत्ति जब्त कर ले और ऐसी संपत्ति के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे. ऐसी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ कहलाती है और ऐसे नागरिक ‘शत्रु नागरिक’.
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इसके बाद मुंबई स्थित भारत के शत्रु संपत्ति संरक्षक (सीईपी) के कब्जे में संरक्षित कई अन्य और संपत्तियों पर उनके वारिसों ने दावे किए. पाकिस्तान जाकर बस गए लोगों के परिजन जिन्होंने भारत में ही रहना चुना, सरकार के अधीन अपने पूर्वजों की संपत्ति सरकार से वापस पाने के लिए अदालतों का रुख करने लगे.
अब उस फैसले के दस साल बाद केंद्र सरकार 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन करना चाहती है, जो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को निष्क्रिय कर देगा, जिसके बाद ऐसी संपत्तियों पर किसी भी प्रकार के दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी और सीईपी के पास जब्त सारी शत्रु संपत्ति सरकार के अधीन हो जाएगी. विधेयक में प्रावधान है कि जिस संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है उस पर मालिकाना हक संरक्षक का मान लिया जाएगा. पाकिस्तान में बसे लोग या उनके उत्तराधिकारी इन संपत्तियों का हस्तांतरण नहीं कर सकेंगे. सीईपी सभी जिलों में सहायक संरक्षक (जिलाधिकारी) के सहयोग से इन संपत्तियों का संरक्षण करता है.
‘यह कानून लाकर केंद्र सरकार मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना चाहती है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है’
मोहम्मद अदीब कहते हैं, ‘एक परिवार है. उसके एक आदमी ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन बाकियों ने नेहरू और गांधी की आवाज पर कहा कि हम नहीं जाएंगे. अब आप दशकों बाद उनसे उनकी संपत्ति छीन रहे हैं. क्या यह भारत न छोड़ने की सजा है? आप तो यह संदेश दे रहे हैं कि मुस्लिमों को भारत छोड़ देना चाहिए था. उस समय कोई और समुदाय होता तो उस देश का चुनाव करता जो उनके धर्म और संस्कृति के नाम पर बना था. हमने अपने मजहब के मुल्क को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष मुल्क का चुनाव किया. क्या यही उसका इनाम है?’
अखिल भारतीय मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत (एआईएमएमएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नावेद हमीद इस विधेयक को सांप्रदायिक करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने शत्रु संपत्ति को लेकर स्थिति पहले ही स्पष्ट कर दी है. उसके बाद भी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अपमान कर अध्यादेश के रास्ते ऐसा विधेयक क्यों लाई? क्योंकि उसका मकसद मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. राम मंदिर की बात करो या जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को खत्म करने की, उसकी नीति सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली ही रही है. यह विधेयक भी सांप्रदायिक है. सरकार की विचारधारा इसमें साफ दिख रही है. आप समाज के एक तबके को देश के दुश्मन के रूप में घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं.’
हालांकि शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की भाजता नीत राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है. जिस तरह वर्तमान सरकार पहले अध्यादेश लाई, फिर विधेयक के रूप में उसे लोकसभा से पास करा लिया. उसी तरह वह भी लगभग समान प्रावधान वाला एक अध्यादेश 2010 में लेकर आई थी. डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार अध्यादेश को कानून में पारित कराने का मन भी बना चुकी थी. लेकिन पार्टी ही इसे लेकर दो फाड़ हो गई. सभी मुस्लिम सांसद इसके विरोध में लामबंद हो गए. उनका तर्क था कि इससे सिर्फ मुसलमान प्रभावित होंगे, क्योंकि शत्रु संपत्ति पर उनका ही हक है. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने भी इसे मुस्लिम विरोधी करार दिया. चौतरफा दबाव के आगे सरकार झुक गई और अपने कदम वापस खींच लिए. इसके बाद मुस्लिम सांसदों के दबाव में अध्यादेश में कुछ और संशोधन करके इसे संसद की स्थायी समिति के सामने विधेयक के रूप में पेश किया गया. जो संशोधन किए गए, वे शत्रु संपत्ति के वारिसों के लिए उनकी संपत्ति पाने के द्वार खोलने वाले थे. हालांकि स्थायी समिति ने इसे भी खारिज कर दिया.
हमीदुल्ला खान भोपाल के आखिरी नवाब थे. उनकी दो बेटियां थीं, आबिदा सुल्तान और साजिदा सुल्तान. नवाब का कोई बेटा नहीं था. रियासतों की उत्तराधिकारी चुनने की नीति के अनुसार बड़ी संतान को पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार मिलता था. इस लिहाज से आबिदा सुल्तान नवाब की उत्तराधिकारी थीं. आबिदा 1950 में पाकिस्तान जाकर बस गईं. लेकिन नवाब और उनका बाकी परिवार भारत में ही रहा. 1960 में नवाब का निधन हो गया. चूंकि बड़ी बेटी आबिदा पाकिस्तान जा चुकी थीं, इसलिए छोटी बेटी साजिदा नवाब की वारिस बन गईं. वर्ष 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने साजिदा को भोपाल का राज्याधिकारी नियुक्त कर दिया, जिससे नवाब की जायदाद की वारिस साजिदा बन गईं. साजिदा सुल्तान मंसूर अली खान पटौदी की मां, शर्मिला टैगोर की सास और सैफ अली खान, सोहा अली खान और सबा अली खान की दादी थीं. 1968 में सरकार द्वारा शत्रु संपत्ति अधिनियम लाया गया, जो भूतलक्षी प्रभावों के साथ लागू हुआ. कानून के 47 साल बाद पिछले वर्ष सीईपी ने नवाब की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया था. जिसके बाद भोपाल के नवाब की संपत्ति को लेकर बवाल खड़ा हुआ था. वर्तमान में इस मामले पर मध्य प्रदेश के जबलपुर हाई कोर्ट में सुनवाई चल रही है. भोपाल के नवाब द्वारा और साजिदा सुल्तान के द्वारा उनकी संपत्ति कई लोगों को बेची गई थी. उन लोगों द्वारा वह दूसरे लोगों को बेची गई, जिसके कारण आज नवाब की संपत्ति का मालिकाना हक कई बार बदल चुका है. वर्तमान में जिनका उन पर मालिकाना हक है वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. अगर हालिया विधेयक के बाद उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति मानकर सीईपी अपने अधिकार में लेती है तो भोपाल में लाखों की संख्या में ऐसी आबादी के प्रभावित होने की संभावना है जो नवाब से खरीदी संपत्ति पर दशकों से रह रही है. इसमें कई आवासीय परिसर, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, होटल और नगर निगम की जमीन भी शामिल है.
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मोहम्मद अदीब भी तब विरोध करने वाले सांसदों में शामिल थे. वे बताते हैं, ‘यह पूरा विवाद राजा महमूदाबाद की संपत्ति के इर्द-गिर्द घूमता है. लखनऊ में कपूर होटल, बटलर पैलेस, आधा हजरतगंज उनका ही है. सीतापुर, लखनऊ, लखीमपुर खीरी में सरकारी अधिकारियों की जितनी कोठियां हैं, वे सब इनकी ही रियासत की हैं. हलवासिया मार्केट और कपूर होटल पर किरायेदारों का कब्जा है. कस्टोडियन ने उनको ये जगहें सामान्य से किराये पर दे रखी हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इनके ऊपर बेदखली की तलवार लटक रही थी. इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी और इनके वकील थे पी. चिदंबरम. इसलिए जब चिदंबरम कांग्रेस के कार्यकाल में केंद्रीय गृह मंत्री बने तो अपने पुराने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने वाला अध्यादेश ले आए. हमने तब इसका विरोध किया था. अब आज भी वही हो रहा है. चिदंबरम के बाद वह केस अरुण जेटली और राम जेठमलानी लड़ने लगे. अब अरुण जेटली की पार्टी की सरकार आई तो उन्होंने भी वही कहानी वापस दोहरा दी.’ विधेयक के कानून में तब्दील होने के बाद सिर्फ राजा महमूदाबाद की ही नहीं, देश भर में चिहि्नत ऐसी 16,000 संपत्तियों का मालिकाना हक सरकार के पास होगा, जिनमें मुंबई स्थित मोहम्मद अली जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्ति भी शामिल हैं. ये दोनों मामले भी अदालत में विचाराधीन हैं.
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/dispute-on-the-property-of-mahmudabad-royal-family/” style=”tick”]जानें, क्या है राजा महमूदाबाद की संपत्ति का विवाद[/ilink]
केंद्र सरकार ने 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन किया है, जिसके बाद शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली संपत्तियों पर दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी
पी. चिदंबरम और अरुण जेटली के जिन हितों के टकराव का जिक्र ऊपर मो. अदीब ने किया, उसमें एक नाम और जुड़ता है. उस समय अध्यादेश कानून का रूप इसलिए भी नहीं ले सका कि मुस्लिम सांसदों के विरोध की अगुवाई तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद कर रहे थे. खुर्शीद ही राजा महमूदाबाद की संपत्ति के विवाद में उनके वकील रह चुके थे. वहीं कांग्रेस को खुद की मुस्लिम विरोधी छवि बनने का भी डर था. वह मुस्लिम वोट बैंक को खफा करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने भी तब सलमान खुर्शीद पर हितों का टकराव होने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा था कि सलमान खुर्शीद अपने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार में अपने ऊंचे ओहदे का लाभ ले रहे हैं. वहीं सरकार पर भी ऐसे आरोप लगे थे कि चूंकि सलमान खुर्शीद मामले में राजा महमूदाबाद के वकील थे, इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी अपना पक्ष पुरजोर तरीके से नहीं रखा.
बहरहाल केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद आई राजग सरकार ने भी पांच साल पुरानी इस कवायद को जारी रखा है. जो अध्यादेश तब कानून का रूप नहीं ले सका, उसे अब अमली जामा पहनाने की तैयारी है. लेकिन इस पूरी कवायद से केवल राजा महमूदाबाद, भोपाल के नवाब की संपत्ति के वारिस सैफ अली खान या जिन्ना का बंगला और अन्य शत्रु संपत्तियों के दावेदार ही प्रभावित होंगे, ऐसा भी नहीं है. जिन संपत्तियों को लेकर आज यह विवाद है, उनका मालिकाना हक बदल चुका है. भोपाल की ही बात करें तो नवाब हमीदुल्ला खां के निधन के बाद वारिस बनी उनकी बेटी साजिया सुल्तान ने अपनी रियासत की जमीन का एक बड़ा हिस्सा बेच दिया था. आज उस जमीन पर भोपाल की कई कॉलोनियां बसी हुई हैं. नवाब की संपूर्ण रियासत को सीईपी शत्रु संपत्ति घोषित कर चुका है, जिससे संबंधित मामला जबलपुर हाई कोर्ट में विचाराधीन है. इस कानून के प्रभाव में आने से साजिया सुल्तान द्वारा बेची गई जमीन पर सीईपी का मालिकाना हक होगा. इस स्थिति में इस जमीन पर दशकों से बसे लोग भी प्रभावित होंगे.
दिल्ली के सदर बाजार स्थित बेलीराम मार्केट में लगभग 200 दुकानें हैं. इन सभी को लेकर शत्रु संपति का विवाद है
भूषण नागपाल की दिल्ली के सदर बाजार में बैग की दुकान है. 1947 से वे इस दुकान को चला रहे हैं. वे इसमें किरायेदार के तौर पर काबिज हैं. 1947 में उनके पिता ने दुकान की कीमत की दो तिहाई पगड़ी देकर इसे किराये पर लिया था. इसी कारण वे इसका मामूली किराया चुकाते हैं. लेकिन अब उन्हें डर है कि अगर उनकी दुकान सीईपी के कब्जे में आई तो उन्हें वर्तमान दर के हिसाब से किराया चुकाना पड़ेगा जो हजारों में होगा. उन्हें डर इस बात का भी है कि कहीं यह किराया उन्हें वर्ष 1947 से न चुकाना पड़े क्योंकि सीईपी कहेगा कि अब तक आप जिसे किराया दे रहे थे वह तो इसका मालिक ही नहीं था मालिक तो हम थे. और क्या पता कहीं बेदखल ही न कर दिए जाएं. अकेले भोपाल में ही लगभग पांच लाख की ऐसी आबादी मानी जाती है, जो भूषण नागपाल की तरह ही प्रभावित हो सकती है. इस आबादी की कानूनी लड़ाई लड़ रहे ‘घर बचाओ संघर्ष समिति’ के उपसंयोजक एडवोकेट जगदीश छवानी कहते हैं, ‘बहुत सारी संपत्ति लोगों ने खरीदी है. कई तरीकों से ऐसी संपत्तियां लोगों को मिली हैं. उस संपत्ति का लोगों ने आगे भी हस्तांतरण किया. उस पर निर्माण कार्य हुए. उन्हें गिरवी रखा गया. बैंक से लोन लिए गए. इस तरह तो वो सारी संपत्ति जो भोपाल के नवाबों से खरीदी गई, सरकारी अधिकार में आ गई. सभी प्रभावित हुए.’ वे आगे बताते हैं, ‘कानून में संशोधन के बाद कई कानूनी अड़चनें पैदा होंगी. महमूदाबाद रियासत को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने नवाब के बेटे के हक में फैसला दिया था. अब अड़चन ये है कि जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही निर्णय कर चुका है तब भी कानून को भूतलक्षी प्रभाव के साथ लाया जा रहा है. यह मामला अभी और जोर पकड़ेगा.’
शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है
इस विधेयक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह सीधे तौर पर मुस्लिमों के हित प्रभावित करता है. 2010 में भी केंद्र की संप्रग सरकार की यह कवायद मुस्लिमों पर जाकर रुक गई थी और इस बार भी स्थिति अलग नहीं है. अब भी इसे राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. जगदीश छवानी इस विधेयक को ‘असहिष्णुता’ की ही अगली कड़ी करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘यह राजनीति से प्रेरित मामला है. बस एक समुदाय को टारगेट करने के लिए लाखों लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जा रहा है. सरकार सिर्फ अपना हित देख रही है. जिस शत्रु संपत्ति का निपटारा पाकिस्तान 1971 में ही कर चुका हैै, साठ के दशक के बाद उस पर हम अब जागे हैं.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान में नवाज शरीफ से आकस्मिक मुलाकात और फिर पठानकोट में आतंकी हमले की घटना को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि इन दोनों घटनाओं के बाद मोदी सरकार आलोचकों के निशाने पर थी. अध्यादेश को लाकर वह अपने हिंदू वोटबैंक को पुख्ता करना चाहती थी कि उसका रुख पाकिस्तान के प्रति नरम नहीं हुआ है. वह पाकिस्तानियों की संपत्ति को उसी तरह राजसात कर रही है जैसे पाकिस्तान ने अपने यहां भारतीयों की संपत्तियों को किया था.
वैसे अधिनियम के 47 साल बाद इसमें संशोधन का सरकारी कारण यह है कि सीईपी के अनुसार देश भर में शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली अनुमानित 16,000 संपत्तियां हैं, जिनमें से 9411 को अब तक शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है. इनकी अनुमानित कीमत लगभग एक लाख करोड़ रुपये है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजा महमूदाबाद के पक्ष में आने के बाद से इन संपत्तियों पर अिधकार के िलए लगातार दावे ठोके जा रहे हैं. लोकसभा में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं, ‘अदालतों के शत्रु संपत्तियों के संबंध में आए फैसले भारत सरकार और कस्टोडियन को शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 के तहत मिली शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते थे. जिसके कारण कस्टोडियन को काम करने में समस्याएं आती थीं. इसीलिए संशोधन की जरूरत महसूस हुई.’ पर सरकार ने जिस तरह अध्यादेश का रास्ता अपनाकर इस विधेयक को लोकसभा में पास कराया है, सवाल उस पर भी उठता है. सरकार 7 जनवरी को इस संबंध में अध्यादेश लेकर आई थी, जबकि संसद सत्र शुरू होने में महज डेढ़ महीने का ही समय बचा था. लोकसभा में कांग्रेसी सांसद सुष्मिता देव पूछती हैं, ‘ऐसी क्या आपात स्थितियां आ गई थीं जो सरकार इतना भी इंतजार नहीं कर सकी, क्यों उसे अध्यादेश का सहारा लेना पड़ा?’
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ है
बल्लीमारान का मुस्लिम मुसाफिरखाना जिसके लिए डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारुक वस्फी लंबी लड़ाई लड़ चुके हैं
दिल्ली के बल्लीमारान में स्थित मुस्लिम मुसाफिरखाना. 26 साल की कानूनी लड़ाई के बाद इसके मुतवल्ली (ट्रस्टी) डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारूक वस्फी यह साबित करने में सफल हुए कि यह शत्रु संपत्ति नहीं है. जमीर अहमद जुमलाना ने भी 13 साल संघर्ष किया. इस कानून के खिलाफ लड़े और जीते. ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति शत्रु संपत्ति है. पर जब नोटिस को अदालत में चुनौती दी गई तो कस्टोडियन को मुंह की खानी पड़ी. शत्रु संपत्ति मामलों के विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट के वकील नीरज गुप्ता बताते हैं, ‘अनेक मामलों में लोग अपनी संपत्ति कस्टोडियन के फंदे से छुड़ाने में सफल रहे हैं. शत्रु संपत्ति के मामलों में अदालतों ने हमेशा कस्टोडियन की आलोचना ही की है. उसकी कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं.’ जमीर अहमद जुमलाना बताते हैं, ‘1995 में मेरी बहन की संपत्ति पर कस्टोडियन ने नजर गड़ाई थी. हमने वो संपत्ति आसिफा खातून नाम की महिला से 1990 में खरीदी थी. 1995 में नोटिस आया कि आसिफा खातून पाकिस्तानी नागरिक हैं. लेकिन आसिफा कभी पाकिस्तान गई ही नहीं थीं, वे भारतीय नागरिक थीं. उनके पास भारतीय वोटर कार्ड, राशन कार्ड और पासपोर्ट तक मौजूद थे. हमने सारे सबूत पेश किए लेकिन कस्टोडियन तब भी मानने को तैयार नहीं था. 13 साल हमारा संघर्ष चला और हम साबित करने में सफल हुए कि कस्टोडियन गलत है.’ इसके अलावा कस्टोडियन पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं. मुंबई के एक मामले का जिक्र करें तो वहां कस्टोडियन ने करोड़ों की शत्रु संपत्ति का सौदा नियमों को ताक पर रखकर कुछ लाख में कर दिया. जुमलाना कहते हैं, ‘शत्रु संपत्ति की लिस्ट में संपत्तियों के नाम जोड़ने-घटाने का भी खेल चलता है. जो समृद्ध हैं वे अपनी संपत्ति का नाम हटवाने में सफल हो जाते हैं. वहीं किरायेदार-मालिक के विवाद में किरायेदार कस्टोडियन से साठ-गांठ कर मालिक की संपत्ति को शत्रु संपत्ति का नोटिस भिजवा देता है. ताकि मालिक का कस्टोडियन से विवाद चलता रहे और वह बिना किराया दिए संपत्ति पर कब्जा जमाए रखे.’
डॉक्टर वस्फी बताते हैं, ‘मेरा किरायेदार से विवाद था. वह न तो किराया बढ़ाना चाहता था और न खाली करना. जब हमने दबाव बनाया तो उसने कस्टोडियन से शिकायत कर दी कि मुस्लिम मुसाफिरखाना शत्रु संपत्ति है. कस्टोडियन ने हमें नोटिस थमा दिया. हम 26 साल तक यह साबित करते रहे कि इसके पुराने मालिक भारतीय नागरिक थे और वह किरायेदार अपना कब्जा जमाए रखा. टोकने पर कहता कि आप तो इसके मालिक ही नहीं हो, कस्टोडियन मालिक है, आप नहीं निकाल सकते.’
दिल्ली के सदर बाजार, बल्लीमारान, दरियागंज जैसे इलाकों में कुछ माह पहले कई लोगों को कस्टोडियन ने शत्रु संपत्ति का नोटिस दिया है. अकेले सदर बाजार में ही 200-300 दुकानों को नोटिस थमाए गए हैं. जब ‘तहलका’ ने इन लोगों से बात की तो कोई भी मीडिया के सामने आने को तैयार नहीं था. अपना नाम या फोटो छपवाने से लोग कतरा रहे थे. लोगों को डर था कि अगर एक बार मीडिया में नाम आ गया तो वे कस्टोडियन की निगाह में चढ़ जाएंगे और मामले में उसके साथ किसी भी प्रकार के समझौते की संभावना नहीं रह जाएगी. इससे जुमलाना के इस कथन की पुष्टि हो जाती है कि कस्टोडियन में शत्रु संपत्ति के नाम जोड़ने व घटाने का खेल चलता है. जुमलाना कहते हैं, ‘कोई आदमी इतनी बड़ी प्रॉपर्टी पर क्यों नुकसान का जोखिम लेगा! अपने लिए क्यों टेबल के नीचे से मामला निपटाने की संभावनाएं खत्म करेगा!’
इसके बाद यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि मनमर्जी से भारतीयों की संपत्ति को भी शत्रु संपत्ति बताने वाले कस्टोडियन को कानून के माध्यम से ऐसे अधिकार देना, जिससे उसका उन संपत्तियों पर मालिकाना हक स्थापित हो जाए और वह उन्हें बेचने का हकदार हो, साथ ही उसके फैसले के खिलाफ सिविल अदालत में जाने का भी विकल्प न हो, क्या उसे निरंकुश नहीं बना देगा! ऐसे में जुमलाना और डॉ. वस्फी जैसे न जाने कितने लोग अपनी संपत्तियों से हाथ धो बैठेंगे.
डॉ. वस्फी की अभी और भी कई संपत्तियों पर विवाद है. लेकिन एक संपत्ति के लिए इतनी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद न तो उनमें हिम्मत बची है और न ही इतना पैसा कि अब आगे और लड़ सकें. उम्र भी जवाब दे गई है. नीरज गुप्ता कहते हैं, ‘नए कानून के बाद बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी प्रभावित होंगे जिनकी संपत्ति को बिना किसी ठोस आधार के कस्टोडियन शत्रु संपत्ति घोषित कर देता है.’[/symple_box]
वैसे इसके पीछे कारण यह माना जा रहा है कि राजा महमूदाबाद की अरबों की संपत्ति पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमों पर जल्द ही फैसला आने वाला था, जिसके सरकार के खिलाफ जाने की संभावना थी. सरकार इतनी बड़ी राशि की संपत्ति अपने कब्जे से जाने देना नहीं चाहती थी इसलिए वह अदालत के फैसले को खारिज करने वाला अध्यादेश पहले ही ले आई. वहीं इंडियन नेशनल लीग के सचिव जमीर अहमद जुमलाना कहते हैं, ‘विधेयक को लाने के पीछे सरकार एक कारण यह भी दे रही है कि भारत और पाकिस्तान के बीच 1966 में शत्रु संपत्ति को लेकर ताशकंद में एक समझौता हुआ था, जिसे तोड़कर पाकिस्तान ने 1971 में अपने यहां मौजूद भारतीय नागरिकों की संपत्तियों को बेच दिया था. यह विधेयक उसी की प्रतिक्रिया है.’ इस पर वह पूछते हैं, ‘जापान पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कोरियन महिलाओं के साथ अत्याचार और उनसे जबरन देह व्यापार करवाने के आरोप लगते हैं, तो क्या अब कोरिया को भी जापानी महिलाओं को चुन-चुनकर उनके साथ यही करना चाहिए? सरकार को करना यह चाहिए था कि वह पाकिस्तान के सामने यह मुद्दा उठाती और उनसे कहती कि उसने तब जिन भारतीयों की संपत्तियों को बेचा, उन्हें वापस अपने अधिकार में ले और भारतीयों को लौटाए या मुआवजा दे. बजाय इसके वह अपने ही नागरिकों को प्रताड़ित कर रही है.’
कानून बनने पर राजा महमूदाबाद के साथ ऐसी 16,000 संपत्तियां सरकार की हो जाएंगी, जिनमें जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्तियां भी हैं
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-renowned-journalist-rasheed-kidwai-on-enemy-property-act/” style=”tick”]जानें, शत्रु संपत्ति अधिनियम पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई की राय[/ilink]
जब विधेयक लोकसभा में पेश हुआ तो लगभग सभी विपक्षी दल इसके विरोध में खड़े नजर आए. विधेयक के मुस्लिम विरोधी प्रवृत्ति के होने के कारण इसकी पहले से ही उम्मीद थी. विपक्षी दलों की मांग थी कि पहले इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाए. संघ की विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले पत्रकार लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘सरकार जब अध्यादेश लेकर आई थी तभी यह तय था कि जब ये संसद में पेश होगा तो इस पर ध्रुवीकरण होगा. हुआ भी वही.’ लोकसभा में तो सरकार बहुमत में थी तो वहां से तो हरी झंडी मिलना तय था लेकिन सरकार के सामने असली चुनौती तो राज्यसभा से इस विधेयक पर मुहर लगवानी होगी. ऐसा वह कर पाएगी, इस पर संशय है क्योंकि वहां वह अल्पमत में है. लोकेंद्र आगे कहते हैं, ‘राज्यसभा में सरकार इसे पारित करने पर जोर देगी और दूसरे दल आनाकानी करेंगे. तब सरकार दिखाना चाहेगी कि विपक्षी दल किस तरह हिंदू-मुस्लिम के मसले को हवा देते हैं. वहीं विपक्ष एकजुट होकर बताने की कोशिश करेगा कि मुसलमानों की संपत्ति पर सरकार नजर गड़ा रही है.’ उनके मुताबिक, ‘राज्यसभा में अगर सरकार बहुमत नहीं जुटा पाती तो उसके पास दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर इस संशोधन विधेयक पर मुहर लगवाने का भी विकल्प होगा. लेकिन संयुक्त सत्र कम मौकों पर बहुत ही विशेष परिस्थितियों में बुलाए जाते हैं.’ बीजू जनता दल के लोकसभा सांसद पिनाकी मिश्रा विधेयक के भविष्य के बारे में कहते हैं, ‘यह विधेयक शत्रु संपत्ति के मामलों में सिविल कोर्ट से सुनवाई का अधिकार छीनता है, पास होने पर यह एक अतर्कसंगत कानून होगा जिसको जनहित याचिकाओं के माध्यम से अदालत में चुनौती दी जाएगी.
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम का ही उदाहरण ले लीजिए. सरकार ले तो आई पर देश के उच्चतम न्यायालय ने उसे गिरा दिया.’ वहीं जगदीश छवानी एक अन्य संभावना व्यक्त करते हैं. वह बताते हैं, ‘सरकार संसद से इसे कानून बनवाने में सफल हो भी जाती है तो भी अदालती तलवार इस पर लटकती रहगी. सुप्रीम कोर्ट में तो इसे चुनौती दी ही जाएगी, लेकिन इससे संबंधित जो अध्यादेश लाया गया था, उसे पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है. अगर कोर्ट का फैसला उस अध्यादेश के खिलाफ आता है तो यह कानून उधर ही खत्म हो जाएगा.’
जब इस विधेयक के पास होने की कम संभावनाएं हैं, इसके बावजूद सरकार इससे संबंधित अध्यादेश क्यों लाई थी? इस पर लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘अध्यादेश का मकसद कई बार सांकेतिक भी होता है. सरकार संकेत देना चाहती है कि वह क्या करने की इच्छा रखती है. भले ही यह कानून न बने पर सरकार यह संदेश देने में तो सफल हो ही जाएगी कि वह पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को अपने अधीन रखना चाहती है. चुनावों में इसका फायदा हो सकता है.’ पर मो. अदीब मानते हैं कि सरकार का इसके पीछे छिपा मंसूबा है.
वे बताते हैं, ‘सरकार को पता था कि राज्यसभा में अड़चनें आएंगी. इसलिए इन्होंने सीईपी को हिदायत दे दी थी कि अध्यादेश पारित होने के साथ ही जितनी भी शत्रु संपत्ति है उसे संरक्षण में ले लो. इसके परिणामस्वरूप कस्टोडियन ने तब से ही ऐसी संपत्ति को देश भर में चिहि्नत करना और कब्जे में लेना शुरू कर दिया है. अगर विधेयक कानून नहीं बनता तो भी सारी संपत्ति सीईपी के पास आ जाएगी और अध्यादेश के प्रभावी रहने तक उसे कौड़ियों के भाव नीलाम कर दिया जाएगा. जिस वक्त पहला अध्यादेश आया था, तब भी यही किया गया था. जामा मस्जिद के मेरे पास नौ मामले आए थे. अध्यादेश के आने के तुरंत बाद ही सीईपी के लोग पहुंचे और संपत्ति की मार्किंग शुरू कर दी थी. एक-एक घर की तलाशी ली गई. जांच की गई कि कहीं कोई पाकिस्तान तो नहीं गया था. मैंने उन सबको सोनिया गांधी से मिलवाया था.’ वे आगे बताते हैं, ‘दोनों ही दलों के कुछ नेताओं के इसमें निजी हित तो रहे ही हैं. साथ ही मुस्लिम समुदाय को दलितों से भी नीचे ले जाकर पटकने की साजिश है. आरक्षण की बदौलत आज दलित जागरूक हो गया. वह अब इनकी गुलामी नहीं सहता. अब उसकी जगह इनको कोई तो चाहिए. इसलिए मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. क्योंकि अब यही एक दबा-कुचला समुदाय देश में बचा है. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीनकर अस्तित्वहीन बना दो. वर्तमान सरकार इससे भी आगे निकल गई है. उसकी नजर मुस्लिमों की संपत्ति पर तो है ही, साथ में उनके शिक्षण संस्थानों पर प्रहार कर उन्हें शिक्षित होने से भी रोकना चाहती है. कानून की आड़ में वह आरएसएस का एजेंडा भी साध रही है. आरएसएस तो मानती ही नहीं है कि एक इंच जमीन भी देश में हमारी है. उसका मानना है कि जो जमीन है वो सब हिंदुओं की है. मुसलमानों ने इस पर कब्जा कर लिया था. हम 1200 साल के बाद भी अपने ही मुल्क में पराये हैं. विभाजन के समय हमने धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में भारत का चुनाव किया. अब अगर इनका एजेंडा हिंदू राष्ट्र बनाने का है तो हम तो ठगे गए हैं.’
‘वे मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीन अस्तित्वहीन बना दो’
वैसे इस कानून में शामिल ‘शत्रु’ की परिभाषा पर भी विवाद है. पूर्व राज्यसभा सांसद अजीज पाशा कहते हैं, ‘जो संपत्ति का वारिस है, वो कानूनन है. वो देश का नागरिक है. जब वो भारत का नागरिक है तो उसे इस आधार पर शत्रु कहना कि उसके बाप-दादा पाकिस्तान चले गए थे, अन्याय है. अगर पूरा खानदान ही पाकिस्तान चला गया होता और फिर वापस आकर संपत्ति पर दावा करता तो उसे शत्रु कह सकते थे, लेकिन जो भारत का नागरिक है, यहीं रह रहा है. उसे शत्रु की संज्ञा देकर उसकी संपत्ति पर नजर गड़ाना तो गलत है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘सीतापुर के डॉ. ताज फारूकी उन स्वर्गीय एमएम किदवई साहब के दामाद हैं, जो कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता थे. डॉक्टर साहब के चाचा पाकिस्तान चले गए थे पर उनके बाप नहीं गए थे और वो भी नहीं गए थे. उनकी संपत्ति सरकार ने जब्त कर ली. संपत्ति कस्टोडियन के पास है पर लगान वही जमा करते हैं. लगान की जो रसीद मिलती है उस पर इनके नाम के आगे शत्रु लिखा होता है. हम शत्रु हैं. अपने देश का दामन थामना शत्रुता की श्रेणी में आता है. अपने ही घर में परायों जैसा सलूक क्यों? दिल दुखता है. लेकिन कर भी क्या सकते हैं. जहां गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाकर उसे पूजने की बात हो, वहां हमारी कौन सुनेगा.’ पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद शशि थरूर को भी ‘शत्रु नागरिक’ की परिभाषा से आपत्ति है. वे कहते हैं, ‘हम एक ऐसे विधेयक को पास करने पर विचार कर रहे हैं जो अपने ही देश के कुछ लोगों को शत्रु बताता है. इससे लाखों लोगों के हित प्रभावित होंगे. यह भारतीय नागरिकता को दो भागों में विभाजित करता है, हम भारतीय नागरिकता के विचार को ही विभाजित कर रहे हैं.’
जगदीश छवानी एक अहम सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘एक ओर हम पाकिस्तान से मित्रता बढ़ाने की बात करते हैं, अखंड भारत की स्मृतियां संजोते हैं तो दूसरी ओर पाकिस्तान बस गए लोगों को शत्रु की श्रेणी में रखते हैं. यह कैसी नीतिगत असमानता है? अपने ही देश के उन मुसलमानों को जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए, शत्रु कहा जाता है. जबकि वो भारत के नागरिक हैं.’ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी मानते हैं, ‘जो भी भारत में है और उसका नागरिक है, उसे शत्रु नहीं कहा जा सकता.’
‘सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया गया विधेयक वहीं खत्म हो जाएगा’
‘घर बचाओ संघर्ष समिति’ के बैनर तले भोपाल में शत्रु संपत्ति के कई मामले देख रहे जबलपुर हाई कोर्ट के वकील जगदीश छवानी से बातचीत
विधेयक के कानून बनने के बाद क्या भोपाल के नवाब सहित दूसरे लोगों की संपत्तियां जिनसे संबंधित मामले अदालत में चल रहे हैं, वे अपने आप कस्टोडियन की हो जाएंगी और मुकदमे बंद हो जाएंगे?
हां, ऐसा प्रावधान संशोधित विधेयक में है. अभी यह विधेयक लोकसभा से पास हो चुका है. अब राज्यसभा से पास होगा फिर राष्ट्रपति से अनुमोदन होगा. उसके बाद कस्टोडियन उन अदालतों में याचिका लगाकर, जिनमें शत्रु संपत्ति से संबंधित मामले चल रहे हैं, मांग करेगा कि नया कानून बन चुका है, लिहाजा अब ये मामले बंद किए जाएं. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का भी साफ कहना है कि जो भी मुकदमे अदालत में हैं, उन्हें ही खत्म करने के लिए इसे लाया जा रहा है.
क्या नए कानून के बाद पीड़ितों के लिए अदालत जाने के दरवाजे बंद हो जाते हैं?
सिविल कोर्ट न जाने का प्रावधान विधेयक में रखा गया है पर अपने संविधान प्रदत्त अधिकार अनुच्छेद 19 और 21 के तहत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं. वैसे भी सिविल कोर्ट को यह निश्चित करने का अधिकार है िक कोई संपत्ति िकसी व्यक्ति की है या नहीं! पर यह निश्चित करने का अधिकार नहीं है कि कौन-सी संपत्ति शत्रु संपत्ति है, क्योंकि यह मुद्दा केंद्र सरकार से संबंधित है. सिविल कोर्ट घरेलू मुद्दों पर फैसला कर सकता है पर यह दो मुल्कों का मसला है.
क्या विधेयक को अदालत में चुनौती दी जा सकती है?
हां, अध्यादेश जो आया था उसे राजा महमूदाबाद ने पहले से ही चुनौती दे रखी है. वही अध्यादेश तो विधेयक में बदला है, तो चुनौती तो पहले से ही दी जा चुकी है.
अगर यह विधेयक संसदीय प्रक्रिया से गुजरकर कानून बन जाता है तो भी क्या उसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं?
हां, अगर कोई कानून तर्कसंगत नहीं है तो उसकी समीक्षा के लिए अदालत से गुहार लगाई जा सकती है. ऐसे बहुत उदाहरण हैं. हालिया उदाहरण राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का है, जहां सरकार के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया.
राजा महमूदाबाद ने इस विधेयक से संबंधित अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है. वह मामला विचाराधीन है. उस पर फैसला नहीं आया है, तब तक यह विधेयक पास हो गया. क्या विधेयक पर इसका कोई असर पड़ेगा? नए हालात में उस मामले का क्या होगा?
यह एक ऐसी स्थिति है कि एक तरफ सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग कर कानून ला रही है तो दूसरी तरफ न्यायालय भी उस कानून पर विचार कर रहा है. टकराव वाली स्थिति है. मान लीजिए कि अगर सरकार यह कानून संसद से बनवाने में सफल हो जाती है और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया कानून वहीं खत्म हो जाएगा. संविधान में तीन स्तंभ हैं; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. एक कानून बनाता है, एक की जिम्मेदारी उसे लागू करने की है और एक उसकी समीक्षा करता है. वो न्यायपालिका देखेगी कि इस कानून का क्या भविष्य होगा.
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नए संशोधनों के समर्थन में यह तर्क दिया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट का राजा महमूदाबाद के पक्ष में फैसला आने के बाद से शत्रु संपत्तियों को पाने के कई फर्जी दावे सामने आए, जो आज भी अदालतों में लंबित हैं. अब इस कानून के बाद शत्रु संपत्ति पर नजर गड़ाए बैठे कई फर्जी लोगों के मंसूबों पर पानी फिर जाएगा.
इस पर नावेद हमीद कहते हैं, ‘क्या सरकार फर्जी दस्तावेज पहचानने में अक्षम है? सरकार के पास सारे दस्तावेज मौजूद हैं. अगर एक-दो प्रतिशत ऐसे फर्जी दावे भी हैं तो सरकार उनकी सत्यता की पुष्टि करे. इन फर्जी मामलों के कारण दूसरों को उनके हक से वंचित करना कहां तक जायज है?’ शमीम फैजी कहते हैं, ‘हमारा मानना है कि जो कानूनन वारिस हैं उनका संपत्ति पर हक है. अगर आप फर्जी दस्तावेज वालों का पता नहीं लगा सकते तो आपकी सरकार किस बात की? इनके निहित स्वार्थ हैं. वे विभाजन के बाद बहुत संपत्ति जब्त कर चुके हैं. ये लोग बड़ी संख्या में लोगों की संपत्तियां शत्रु संपत्ति के नाम पर जब्त कर चुके हैं, जो उनके वारिसों को मिलनी चाहिए. वह ये नहीं लौटाना चाहते.’
जुमलाना के अनुसार, इस कानून की मूल भावना थी पाकिस्तान जा बसे लोगों की संपत्तियों का अस्थायी संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण. वे कहते हैं, ‘मान लीजिए एक व्यक्ति उस देश जा बसा जिससे हमारा युद्ध चल रहा हो. वह यहां अपनी जायदाद छोड़ गया. उस जायदाद से उसे आय हो रही है और वह आय शत्रु देश पहुंच रही है और उसका प्रयोग हमारे ही खिलाफ युद्ध में हो रहा है. इसलिए ऐसे लोगों की संपत्तियों को अस्थायी रूप से संरक्षण में रखने के लिए यह कानून लाया गया था. युद्ध के समय इस प्रकार का कानून हर देश लेकर आया है और यह सही भी है. युद्ध खत्म, कानून खत्म. पर हमारे यहां उल्टा हो रहा है, इसे स्थायी रूप दिया जा रहा है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘शाहबानो केस में जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद में कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया गया तो मुसलमानों को कहा गया कि आप देश का कानून नहीं मानते, चारों ओर बदनाम किया गया. और अब आप भी तो वही कर रहे हैं. संसद से कानून बनाकर हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहे हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.’
नावेद हमीद कुछ सवाल उठाते हैं, ‘जिन्होंने पाकिस्तान को नहीं, भारत को अपना मुल्क माना, भारत में रुके, मातृभूमि को नहीं छोड़ा. जबकि उनके ऊपर दबाव था. उन लोगों का क्या कुसूर है? नौ में से अगर एक चला गया है और आठ रह गए हैं तो आप कहोगे कि आप क्यों रह गए? अगर खानदान का एक व्यक्ति कहीं चला गया है, जाने को तो बहुत लोग अलग-अलग देशों में चले गए हैं. लेकिन अगर पाकिस्तान चला गया है तो वह शत्रु है और जिन्होंने भारत में रहने का विकल्प चुना, उन्हें देशभक्त क्यों नहीं कहा जाता?’
[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”] व्यथा कथा 1
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[ilink url=”https://tehelkahindi.com/vyatha-katha-two-enemy-property-act/” style=”tick”]‘स्वदेशी मार्केट की अपनी ही दुकान में किरायेदार बन जाने का है डर’[/ilink]
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[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”] व्यथा कथा 3
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/vyatha-katha-three-enemy-property-act/” style=”tick”]‘डीएम ने लगान मांगा था, मैंने कह दिया मकान नीलाम कर दो’[/ilink] [/symple_box]
[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”] व्यथा कथा 4
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/vyatha-katha-four-enemy-property-act/” style=”tick”]‘साजिदा को नवाब का उत्तराधिकारी माना गया फिर उनकी संपत्ति, शत्रु संपत्ति कहां से हो गई’[/ilink] [/symple_box]
[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”] व्यथा कथा 5
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/vyatha-katha-fifth-enemy-property-act/” style=”tick”]‘क्या भाइयों से कहूं कि धोखा दिया’[/ilink] [/symple_box]
सतीशचंद्र सदर बाजार में जिस दुकान से व्यापार करते हैं उसकी रजिस्ट्री 1965 में उनके पिता के नाम हुई थी. उनके पिता के पांच बेटे थे. 29 साल बाद 1994 में पांचों भाइयों में संपत्ति का बंटवारा हुआ. सतीश को अपने पिता से कुछ अधिक ही लगाव था जिसके कारण उन्होंने अपने भाइयों को दुकान की कीमत चुकता कर वह खरीद ली. लेकिन अपने इस फैसले पर बीस साल बाद सतीश अब पछता रहे हैं. सीईपी ने उन्हें नोटिस दिया है कि उनकी दुकान शत्रु संपत्ति के दायरे में आती है. सतीश कहते हैं, ‘जब मैंने दुकान ली तो सोचा कि मेरे बाप की दुकान है, कैसे छोड़ दूं. बाप का नाम जुड़ा है इससे. लेकिन अब लगता है कि मैं तो सड़क पर आ जाऊंगा. ये मैंने क्या बवाल पाल लिया. अकेले बैठकर सोचूं तो लगता है मैं तो फंस गया. अब क्या करूं अपने भाइयों पर मुकदमा करूं? क्योंकि मैंने तो उनसे ही खरीदी थी. सबसे पीछे वाले को कैसे खोजूं जो कि पाकिस्तान गया! क्या भाइयों से कहूं कि आपने मेरे साथ धोखा किया?’ वे आगे बताते हैं, ‘सब भ्रष्टाचार है. जब वो यहां सर्वे करने आए थे तो मांग कर रहे थे पैसों की. कह रहे थे कि हमारा कुछ कराओ फिर देखते हैं. मैंने कहा कि हमारे मार्केट के अध्यक्ष अभी मौजूद नहीं हैं, उनसे बात करके बताऊंगा. उस समय मैंने उन्हें टाल दिया था लेकिन दस दिन बाद मेरे पास नोटिस आ गया.’
अपनी आपबीती सुनाते वक्त सतीशचंद्र के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थीं. नोटिस का जवाब वे अपने वकील से सीईपी को भिजवा चुके हैं लेकिन आज महीनों बाद भी सीईपी ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. अब सरकार शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन करना चाहती है. इसने सतीशचंद्र की चिंता में कई गुना इजाफा कर दिया है. उन्हें लगता है कि अब तो सारे अधिकार सीईपी के पास होंगे, एक बार जिस संपत्ति को उसने शत्रु घोषित कर दिया तो वह उसकी हो जाएगी. उनकी दुकान तो उनके हाथों से कभी भी जा सकती है.
इबाद खान और एसएम सफवान भोपाल के कोह-ए-फिजा में जन्म से रह रहे हैं. इबाद खान के पिता ने यह जगह जहां भोपाल के नवाब से ली थी, वहीं सफवान के दादा को यह नवाब से 1952 में तोहफे में मिली थी. बीते वर्ष सीईपी ने नवाब की इस संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया है. सफवान बताते हैं, ‘कोह-ए-फिजा में रहने वाले लगभग हजार परिवार इस फैसले से प्रभावित हो रहे हैं. भोपाल घूमेंगे तो पाएंगे कि प्रभावित होने वालों की संख्या कितनी बड़ी है. रिहाइशी इलाके, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, कृषि भूमि सब दायरे में आ रहे हैं.’ इबाद खान कहते हैं, ‘पहले मर्जर एग्रीमेंट के बारे में बात होती थी. नवाब ने भारत सरकार के साथ मर्जर एग्रीमेंट किया था, आजाद भारत में जब रियासतें मर्ज हुई थीं. तब इसे निजी संपत्ति घोषित किया गया था. कहा गया था कि ये आखिर तक नवाब की रहेंगी और अगर वो किसी को देते हैं तो उनका अधिकार हो जाएगा. बाद में मध्य प्रदेश सरकार ने कहा कि यहां अतिक्रमण हुआ है. यह सरकारी संपत्ति है. उनके पास एग्रीमेंट का रिकॉर्ड नहीं था. हमने सबूत पेश किए तो मामला निपट गया. अब नया विवाद शत्रु संपत्ति का खड़ा हो गया है.’ सफवान कहते हैं, ‘आबिदा पाकिस्तान चली गई थीं पर नवाब तो यहीं थे, उनकी अगली वारिस साजिदा तो भारतीय थीं. स्वयं तत्कालीन सरकार ने उन्हें नवाब का उत्तराधिकारी माना था. फिर कहां से यह शत्रु संपत्ति हुई? हम तो ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. जब संपत्ति सरकार की थी तो क्यों साजिदा सुल्तान को उस पर उत्तराधिकार दिया? क्यों साजिदा को महारानी का टाइटल दिया?’ हालांकि इबाद खान को यकीन है कि मर्जर एग्रीमेंट के विवाद की तरह ही यह मामला भी निपट जाएगा. वे कहते हैं, ‘नवाब के वारिस सीईपी के फैसले के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. फैसला उनके पक्ष में आता भी दिख रहा है. इससे हमें भी राहत मिलेगी.’ पर साथ ही वे, सफवान और प्रभावित अन्य लोग कानूनी लड़ाई की भी तैयारी कर रहे हैं. इसका कारण यह है कि कानून के प्रावधान उनसे उनका मालिकाना हक छीनने वाले हैं. सफवान कहते हैं, ‘नवाब के मामले में अदालती फैसला जो भी आए पर हमें तो अपना सुरक्षित पक्ष लेकर चलना पड़ेगा न. जो संपत्ति कस्टोडियन की है ही नहीं, उस पर वह कैसे फैसला सुना सकता है? मनमर्जी कानून बनाकर आप किसी को उसके घर से नहीं निकाल सकते. हमारी संपत्ति , शत्रु संपत्ति साबित होती भी है तो सरकार को लीज देनी पड़ेगी. वैसे तो यह बाद की बात है. हम तो मालिक हैं.’
डॉक्टर ताज फारूकी की उत्तर प्रदेश के सीतापुर में बहुत बड़ी संपत्ति थी. उनके चाचाओं के पाकिस्तान चले जाने के कारण वह उनसे छिन गई. यहां तक कि उनके एक चाचा इंग्लैंड बस गए थे, उन्हें भी पाकिस्तानी मान लिया गया. वे बताते हैं, ‘मेरे दादा-दादी की मौत के बाद उनकी संपत्ति मेरे पिता और उनके तीन भाइयों के बीच बराबर बंट गई थी. एक मकान था जिसमें चार हिस्से थे और एक बगीचा जिसके दो हिस्से हुए थे. इनमें एक हिस्सा मेरे पिता का भी था. बाद में मेरे दो चाचा पाकिस्तान चले गए और एक इंग्लैंड.’ कुछ समय बाद डॉक्टर फारूकी के पास एक सरकारी नोटिस आया. पूरी संपत्ति को सरकार ने शत्रु संपत्ति मान लिया था. उनके इंग्लैंड जा बसे चाचा को भी पाकिस्तानी करार दे दिया गया. वे कहते हैं, ‘देश उन्होंने छोड़ा, सजा हमें मिली. बहुत बड़ी संपत्ति हमने खो दी. मकान का चौथाई शेयर था हमारे पास, जिसकी कीमत तब पचास लाख रुपये थी. मकान की बनावट के कारण उसमें हिस्से की गुंजाइश नहीं थी. इसलिए बाकी तीन हिस्से खरीदने की इच्छा जताई. पर सरकार ने बेचने से इनकार कर दिया. कहा गया कि पाकिस्तान के साथ शत्रु संपत्तियों का मामला सुलझाया जाएगा. चूंकि मामला अल्पसंख्यकों से जुड़ा था और पीडि़तों की संख्या भी कम थी, इसलिए सरकारों ने इसे सुलझाने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई. सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी या मोदी की, कभी किसी ने अल्पसंख्यकों के हितों की परवाह नहीं की.’
डॉक्टर फारूकी के पास अदालत जाने का विकल्प था पर उनके पिता का देहांत हो गया. वे इकलौती संतान हैं. उस समय वे डॉक्टरी की प्रैक्टिस भी कर रहे थे. वे कहते हैं, ‘मैं अकेला था. चार बेटियां थीं. इन चक्करों में पड़ता तो उम्र भी कम पड़ जाती, करिअर खत्म हो जाता. हमारी व्यवस्था कैसे काम करती है ये तो आप जानते ही हैं. मेरे इंग्लैंड वाले चाचा ने तो बोला था कि संपत्ति के लिए मैं अदालत में केस लड़ूं. फिर मैंने कोशिश की. सीईपी के दफ्तर मुंबई भी गया. उनसे गुजारिश की. जमीनें तो हम बहुत खरीद सकते हैं, पर इससे भावनात्मक जुड़ाव है. उन्होंने आवेदन देने को कहा. बोले, पहले गृह मंत्रालय जाएगा, फिर विदेश मंत्रालय, फिर पाकिस्तान से बात होगी. बस मैं समझ गया कि लड़ने से कोई फायदा नहीं. ये सरकारी विभाग हैं, दोनों मुल्कों के प्रधानमंत्रियों की भी बैठक करा सकते हैं. लालफीताशाही इनकी रगों में है. गलती खुद करें, भाेगे जनता.’
डॉक्टर फारूकी से जायदाद छीन ली गई थी. पर लगान उनसे वसूला जाता रहा. वह भी 30 साल तक देते रहे. इस आस में कि उन्हें उनका हिस्सा वापस मिलेगा. 1995 में वे बगीचे का अपना आधा हिस्सा वापस पाने में सफल भी रहे. इसके लिए उन्हें आखिरकार एक मुकदमा करना ही पड़ा. पर मकान में से हिस्सा उन्हें नहीं मिल सका. वे कहते हैं, ‘हम उस पशु को पाल रहे थे जो दूध नहीं देता. जिस संपत्ति पर से हमारा मालिकाना हक छीन लिया गया, उसका लगान हम भर रहे थे. लगान की राशि भले ही मामूली थी पर सही मायने में यह गलत था न. और लड़ने पर गलत को गलत साबित करना इस व्यवस्था में बहुत चुनौतीपूर्ण है. आज भी वो हमसे लगान मांगते हैं. डीएम तक ने पत्र भेजा था. मैंने कह दिया, मैं नहीं दूंगा, नीलाम कर दो मकान.’ डॉ. फारुकी की कहानी एक सवाल छोड़ती है कि क्या नया कानून सीईपी को इसी तरह की मनमानी करने की छूट ताे नहीं दे देगा?
अशोक कुमार दिल्ली के सदर बाजार स्थित स्वदेशी मार्केट में बटन की दुकान चलाते हैं. कुछ महीनों पहले अशोक कुमार को सीईपी का नोटिस मिला है, जिसमें उनकी दुकान को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया है. नोटिस उनके पास सात-आठ महीने पहले आया था. अशोक बताते हैं, ‘आज आप मालिक हैं, कल कोई आकर कहे कि वो मालिक है, आप गश खाकर गिर जाते हैं. यही हमारे साथ हुआ. पहले सीईपी वाले पूछताछ करने आए. मेरा नाम व दुकान का नंबर लिख ले गए. बाद में नोटिस भेज दिया कि आप तो इस संपत्ति के मालिक ही नहीं हैं.’ सदर बाजार में उनकी यह दुकान 70 साल पुरानी है. 1947 में उनके पिता लाहौर से भारत आए थे. वे बताते हैं, ‘पिता जी कहा करते थे कि जब वे लाहौर में अपना जमा-जमाया काम छोड़ भारत आए थे तो यहां के हालात बहुत खराब थे. लोग सड़कों से धंधा चलाते थे. नेहरू सरकार ने पाकिस्तान छोड़कर भारत आने वालों की कोई सहायता नहीं की थी. दोनों देशों के हुक्मरानों के इस राजनीतिक फैसले से लोगों की मिट्टी खराब हो गई थी. पाकिस्तान से आकर लोग यहां अपने रिश्तेदारों के घर आसरा ले रहे थे. जिनका कोई नहीं था वे भगवान भरोसे थे. पिता जी ने भी नाना जी के यहां अंबाला में तीन महीने बिताए. उसके बाद वे दिल्ली आ गए और काफी जद्दोजहद के बाद ये दुकान किराये पर ली.’ 1989 तक दुकान में बतौर किरायेदार रहने के बाद अशोक कुमार और उनके पिता ने इसे खरीदकर उसकी रजिस्ट्री करा ली. इसके बाद से बाकायदा दुकान से संबंधित टैक्स भी भरते रहे. वे सवाल उठाते हैं, ‘जब हम मालिक ही नहीं थे तो हमसे किस बात का टैक्स लिया जा रहा था? शत्रु संपत्ति की रजिस्ट्री कैसे हो सकी? तब कस्टोडियन कहां था? क्यों उसने उन लोगों के पाकिस्तान जाते ही संपत्ति जब्त नहीं की? दुकान खरीदने से पहले हमने सारे दस्तावेज जांचे थे, 40 साल से किरायेदार थे. इसलिए मालिक पर तो संदेह करने का प्रश्न ही नहीं था.’
विस्थापन के बाद व्यक्ति एक नई शुरुआत जमीनी स्तर से करता है. सफलता सुनिश्चित नहीं होती. अब अगर वह सफल हो जाए और फिर उसे वहां से भी हटाया जाए, इसकी पीड़ा अशोक कुमार के इन शब्दों से पता चलती है, ‘लाहौर के अनारकली विहार में तब हमारी सर्राफ की दुकान प्रसिद्ध थी. हम वो सब छोड़कर भारत चले आए. खून-पसीना बहाकर यहां वर्षों में हमने साख बनाई. जिस देश पर भरोसा किया, आज सत्तर साल बाद हमसे वही रोजगार छीन रहा है. हम व्यापारी लोग हैं. धंधा करें या अदालतों के चक्कर लगाएं? जो पाकिस्तान गए, उनके जाने की सजा हमें क्यों? ये तो सरासर दादागिरी है. हम तो लुट रहे हैं एक तरह से. 40 साल तक किराया दिया, वो गया. दुकान की पगड़ी और खरीदी का पैसा गया. ऊपर से मालिक होकर भी अपनी ही दुकान में किरायेदार बनने की तलवार सिर पर लटक रही है.’ थोड़ा रुककर वे कहते हैं, ‘हमसे कहते हैं कि जवाब दो यह शत्रु संपत्ति नहीं है. अब जिससे खरीदी उसे 27 साल बाद हम कहां ढ़ूढ़ें. जिन लोगों ने संपत्ति हमें बेची वो तो शांति से बैठे होंगे, भुगत हम रहे हैं. अब तो लगता है कि कभी भी उठाकर हमें यहां से बाहर फेंक दिया जाएगा. सरकार का कुछ भरोसा नहीं. बीबी-बच्चों सहित हमें हरिद्वार भेजने की तैयारी है.’
राजा मोहम्मद आमिर अहमद खान (तत्कालीन राजा महमूदाबाद) के भारत-पाकिस्तान दोनों ही देशों में अच्छे राजनीतिक संपर्क थे. उनका दोनों ही देशों में आना-जाना लगा रहता था. वे भारतीय नागरिक थे पर भारत विभाजन के बाद से ईराक में रह रहे थे. 1957 में उन्होंने भारतीय नागरिकता छोड़कर पाकिस्तानी नागरिकता ले ली. लेकिन उनके परिवार ने भारत में ही रहना चुना. 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच शत्रुता के बीज फूटे. भारत ने देश छोड़कर पाकिस्तान जा बसे लोगों की संपत्तियां ‘भारत के रक्षा नियम (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स) 1962’ के तहत अपने संरक्षण में ले लीं. राजा महमूदाबाद की संपत्तियां भी इसमें शामिल थीं. महमूदाबाद के किले को छोड़कर किसी भी संपत्ति को सील नहीं किया गया. इनसे मिलने वाला किराया कस्टोडियन वसूलने लगा. इसके एक छोटे-से हिस्से में राजा का भी परिवार रहता रहा. 1966 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उस किले को पूरी तरह खोल दिया गया. राजा महमूदाबाद के भाई को उसकी देखरेख का जिम्मा कस्टोडियन ने सौंपा. 1968 में शत्रु संपत्ति अधिनियम आया. कानून के प्रावधानों के अनुसार कस्टोडियन किले में रहने वाले राजा की पत्नी और बेटे को संपत्ति का मेंटेनेंस अलाउंस देने लगा. 1973 में राजा महमूदाबाद की लंदन में मौत हो गई. उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान तब कैंब्रिज में पढ़ाई कर रहे थे. वे भारतीय नागरिक थे. वे भारत वापस आए. अपने पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार का दावा भारत सरकार के सामने पेश किया. तब सीईपी वाणिज्य मंत्रालय के तहत आता था. 1997 तक उन्होंने मंत्रालय के चक्कर काटे. लगभग हर प्रधानमंत्री से अपनी बात कही. पर सिवा आश्वासन के कुछ नहीं मिला. 1981 में जरूर इंदिरा गांधी सरकार ने उनकी 25 प्रतिशत संपत्ति लौटाने की बात कही. वे लखनऊ सिविल कोर्ट गए, कोर्ट ने उन्हें संपत्ति का कानूनन वारिस माना. उनके इस कदम से शायद सरकार चिढ़ गई. इसलिए 25 प्रतिशत वाले आदेश में एक शर्त जोड़ दी. अब 25 प्रतिशत संपत्ति या 25 लाख रुपये. जो भी कम हो वह दिया जाए. इस बीच वे दो बार कांग्रेस के टिकट पर उत्तर प्रदेश के सीतापुर की महमूदाबाद सीट से विधायक भी चुने गए. पर तब भी वे अपनी संपत्ति वापस नहीं पा सके.
1997 में उन्होंने मुंबई हाई कोर्ट में याचिका लगाई. 2001 में फैसला उनके पक्ष में आया. 2002 में सरकार ने इसके विरोध में अपील कर दी. 2005 में उस अपील पर भी उनके पक्ष में फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने कस्टोडियन की आलोचना की. माना कि वह संपत्ति पर अवैध कब्जा रखे हुए है. आठ हफ्ते के अंदर कब्जा वर्तमान राजा महमूदाबाद को देने के आदेश दिए. जिन संपत्तियों में किरायेदार बैठे हुए थे उन्हें छोड़कर बाकी पर उन्हें कब्जा मिल भी गया. जब उन संपत्तियों पर कब्जा लेने की बात चली तो किरायेदार सुप्रीम कोर्ट चले गए.
लेकिन 2010 में कांग्रेस सरकार शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन का अध्यादेश ले आई, जो भूतलक्षी प्रभाव रखता था. इसके बाद उनकी सभी संपत्तियों को फिर से कस्टोडियन ने कब्जे में ले लिया. तब तक उन्होंने बैंक से इन संपत्तियों पर कर्ज भी उठा लिया था और उनकी मरम्मत में खर्च भी कर दिया था. कांग्रेस की नीयत पर सवाल उठे. वह 2 जुलाई को अध्यादेश लाई और 26 जुलाई से सत्र शुरू होना था, इतनी जल्दबाजी क्यों की? विरोध के चलते अध्यादेश तो खारिज हो गया पर राजा को उनकी संपत्ति वापस नहीं मिली. 2010 में ही उन्होंने अध्यादेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी. दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें किसी और कोर्ट में जाने को कहा क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं था. नैनीताल में उनकी संपत्ति थी. इसलिए 2011 में वे उत्तराखंड हाई कोर्ट गए. फैसला आता उससे ठीक पहले जज का ट्रांसफर हो गया. मामला लटका तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने मामले को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करा लिया. सितंबर 2015 में मामले की सुनवाई हुई. सरकारी वकील ने तर्क रखा कि उसे समय दिया जाए ताकि वह अपने मुवक्किल से साफ निर्देश ले सके कि 2005 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में संपत्ति लौटानी है या मुकदमा लड़ना है. 7 जनवरी को सुनवाई हुई और उसी दिन अध्यादेश आ गया. राजा महमूदाबाद ने इस अध्यादेश को भी शीर्ष अदालत में चुनौती दे दी है. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश के सबसे विवादित प्रावधान के तहत राजा महमूदाबाद की संपत्ति बेचे जाने पर रोक लगा दी है. इस बीच लोकसभा में इस अध्यादेश को पेश करके सरकार पास कराने में सफल रही है.