आपका ‘थर्ड जेंडर’ यानी किन्नरों की जिंदगी पर आधारित उपन्यास ‘नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है. किन्नरों की जिंदगी पर उपन्यास लिखने का विचार कहां से आया? इस उपन्यास में खास क्या है?
इस उपन्यास में मैंने आजाद भारत में किन्नरों की स्थिति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है. आजादी के पहले और बाद हमने अपनी तमाम रूढ़ियों जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, दलितों और अस्पृश्यों से भेदभाव आदि को तोड़ा है लेकिन किन्नरों की जिंदगी में कोई भी परिवर्तन नहीं आया. अब हाल ही में हमारे राजनेताओं ने उन्हें अलग श्रेणी देने की कवायद शुरू की है जबकि समाज में उनकी स्थिति आज भी अछूतों से बदतर है. समाज ने उनकी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान नहीं दिया. उन्हें किसी तीज-त्योहार में शामिल नहीं किया जाता है. इसके चलते आज भी हालत यह है कि अगर मेट्रो में एक किन्नर चढ़ जाए तो सब उसे अजीब निगाहों से देखते हैं. सड़क पर भीख मांगते हुए मिल जाए तो हिकारत की नजर से देखकर जल्दी से पैसा-वैसा देकर चलता करते हैं. जब मैं मुंबई के नालासोपारा में रहती थी तब मेरा साबका एक ऐसे युवक से हुआ जिसे किन्नर होने की वजह से जबरिया घर से निकाल दिया गया था. यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है. यह युवक अपने परिवार खासकर अपनी मां से सवाल करता है कि लंगड़ा, लूला, बहरा, मानसिक रूप से विकलांग बच्चे को तो आप घर से बाहर नहीं निकाल देतीं लेकिन अगर मैं लिंग से विकलांग पैदा हुआ, जिसमें मेरा कोई दोष भी नहीं है, तो मुझे घर से बाहर क्यों निकाल दिया गया.
किन्नरों की इस स्थिति के लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं? इसका क्या हल हो सकता है?
इस उपन्यास में यह किन्नर अपनी मां का पता लगाकर उनके साथ पत्र व्यवहार करता है. मां चुपके से इस बच्चे को खत भी लिखती है लेकिन वह चाहती है इसके बारे में किसी को पता नहीं चले क्योंकि इससे उनके परिवार की बदनामी होगी, बाकी बच्चों की शादियों में अड़चन आएगी. उपन्यास का नाम उसी पत्र व्यवहार के पते के ऊपर रखा गया है. बाद में वह राजनीति का भी शिकार होता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों के लिए आरक्षण दिए जाने की बात कही है लेकिन उपन्यास का यह नायक कहता है कि हमें आरक्षण की जरूरत नहीं है. मुझे लगता है इसके लिए मां-बाप को ही कटघरे में लेने की जरूरत है. उन्हें समझाया जाए कि वे अपनी ऐसी औलाद को घूरे में न फेंकें. दूसरों को न सौंप दें. उनका सही तरीके से लालन-पालन करें. सरकार को चाहिए कि वह किन्नरों के लिए आरक्षण के बजाय मां-बाप को दंडित करने का प्रावधान करे. अगर भ्रूण के लिंग परीक्षण करने पर आप सजा का प्रावधान कर सकते हैं तो ऐसे मां-बाप को क्यों नहीं दंडित किया जाना चाहिए जो अपने किन्नर बच्चों को कहीं छोड़ आते हैं या फिर किन्नरों को दे देते हैं?
पिछले दिनों सिंहस्थ में किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को महामंडलेश्वर की पदवी मिली है. इसे किस तरह देखती हैं?
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की बात अलग है. वे सभी काम चौंकाने वाले ही करती हैं. उनका सब कुछ फिल्मी होता है. सोचने वाली बात है कि जिस धर्म ने आपको कूड़े की तरह फेंक दिया आप अब उसी के जाल में फंसने चली गई हैं. आप ही सोचिए, लिंग पूजक धर्म में लिंग विहीन का क्या काम है? आज जिस तरह से ये (किन्नर) शोषित होते हैं उसके लिए धर्म ही जिम्मेदार है. धर्म ने उन्हें मंदिर जाने का अधिकार नहीं दिया, उन्हें पूजा करने का अधिकार नहीं दिया. हमारे समाज ने उनके साथ ठीक ढंग से व्यवहार नहीं किया. धर्म ने ऐसी व्यवस्था बनाई है कि किन्नर समाज से अलग होकर रहें लेकिन जब आपके यहां बच्चा हो तो वे आशीर्वाद देने आएं कि आपके यहां ऐसा न हो. अरे! जो खुद इतने बुरे हालात में जिंदा है वह दूसरों को क्या आशीर्वाद देगा.
यौनिकता का अधिकार मांगना एक तरह से पितृसत्तात्मक मानसिकता को ही बढ़ावा देने वाली बात है. समाज को यह समझना होगा कि स्त्री सिर्फ एक देह नहीं है. यौन स्वतंत्रता का विचार पश्चिम से आया है लेकिन आप देखिए क्या वहां वेश्यालय कम हैं? क्या वहां लड़कियों को सिर्फ देह समझे जाने के कारण आजादी मिल गई है? क्या उन्हें इसके चलते इज्जत मिलनी शुरू हो गई? ऐसा नहीं हुआ है
आजकल स्त्री विमर्श में यौन स्वतंत्रता की बात कही जा रही है. स्त्री की इस स्वतंत्रता से आप उसे कितना मजबूत पाती हैं?
औरत के धड़ के निचले हिस्से पर ही बात क्यों होती है? स्त्री के धड़ के ऊपर एक मस्तिष्क भी होता है. आप जब उसे बराबरी का हिस्सा देंगे, उसकी बुद्धिमत्ता को मानेंगे तब स्त्री सही रूप में स्वतंत्र होगी. यौनिकता का अधिकार मांगना एक तरह से पितृसत्तात्मक मानसिकता को ही बढ़ावा देने वाली बात है. आपको यौन स्वतंत्रता देकर पुरुष ही उसका फायदा उठा रहा है. आज अगर लड़की से कोई गलती हो जाती है तो पुरुष उसके लिए जिम्मेदार नहीं होता है. भले ही यौन स्वतंत्रता का फायदा उठाकर आप पुरुषों से बहुत सारे काम करवा लें लेकिन यह आपकी मजबूती नहीं है. समाज को यह समझना होगा कि स्त्री सिर्फ एक देह नहीं है. यौन स्वतंत्रता का विचार पश्चिम से आया है लेकिन आप देखिए क्या वहां वेश्यालय कम हैं? क्या वहां लड़कियों को सिर्फ देह समझे जाने के कारण आजादी मिल गई है? क्या उन्हें इसके चलते इज्जत मिलनी शुरू हो गई? ऐसा नहीं हुआ है.
भारत में स्त्री विमर्श पिछले कई दशकों से चल रहा है. अब 2016 में क्या ऐसे विमर्श की जरूरत है?
मुझे लगता है कि स्त्री विमर्श बहुत हो गया. खासकर, कुछ संपादकों ने इसे जिस हाल में पहुंचा दिया वह बहुत ही बुरा है. उन्होंने इसे यौन फॉर्मूला बना दिया है जबकि जरूरत है कि समाज में स्त्री की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की, उसे शिक्षित करने की, उसे कानूनी तौर पर अधिकार दिलाने की. पिछले कई दशकों का स्त्री विमर्श जिस मोड़ पर पहुंच चुका है वह हमें नहीं चाहिए था.
अगर हम कहें कि पुरुष नहीं चाहिए, लेस्बियन समाज चाहिए तो कहां तक जायज होगा? स्त्री के स्वावलंबन का मतलब पुरुष से लड़ाई थोड़े ही है. यह उनके लिए भी खतरनाक है. अब समाज में बदलाव आया है. अब पिता सिर्फ अपने बेटों को पढ़ाने के लिए लोन नहीं ले रहा बल्कि वह बेटियों के लिए भी यह कर रहा है. हालांकि अभी इसका प्रतिशत कम है. अगर पुरुष-महिला दोनों काम कर रहे हैं तो पुरुष किचन के कामों में स्त्री की मदद भी कर रहा है.
अब अंतरजातीय प्रेम विवाह को लेकर स्वीकृति बढ़ी है. आज अगर लड़की पढ़ी-लिखी है और किसी को पसंद करती है तो मां-बाप उसकी बात सुनते हैं. हमारे समय में अगर आपको ऐसा कुछ करना होता, तो कहा जाता कि घर के सामने कुआं है, बेहतर है आप उसमें कूद जाएं. पर अब बदलाव हो रहा है. नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने समाज की रूढ़ियों को तोड़ा है. यह बहुत सकारात्मक है
आपने कई जगह जिक्र किया है कि स्त्री विमर्श को गलत दिशा देने में साहित्यिक पत्रिकाओं के कुछ संपादकों का हाथ रहा है.
मुझे आंदोलनों पर बहुत भरोसा है. मुझे लगता है कि इसके जरिए बदलाव लाया जा सकता है. स्त्री विमर्श का आंदोलन भी ऐसे आया. लेकिन जब यह कुछ खास लोगों की बपौती बन जाता है, निरंकुशता का शिकार हो जाता है तो लोग इसका इस्तेमाल अपने तरीके से करने लगते हैं. राजेंद्र यादव जैसे संपादकों ने स्त्री विमर्श के साथ यही किया. स्त्री को केवल यौन स्वतंत्रता नहीं चाहिए थी और यौन स्वातंत्र्य से ही स्त्री स्वतंत्र नहीं हो सकती. स्त्री ने आज जो भी जगह हासिल की है वह अपने ज्ञान, अपनी पढ़ाई-लिखाई और बुद्धिमत्ता से हासिल की है.
आपने लगभग 40 साल पहले काफी विरोध का सामना करते हुए अंतरजातीय प्रेम विवाह किया था, तब से अब तक ऐसे विवाहों की स्थिति में कितना बदलाव देखती हैं?
मुझे लगता है कि अब अंतरजातीय प्रेम विवाह को लेकर स्वीकृति बढ़ी है. आज अगर लड़की पढ़ी-लिखी है और किसी को पसंद करती है तो मां-बाप उसकी बात सुनते हैं. लड़का उन्हें ठीक लगता है तो उनकी शादी भी आराम से हो जाती है चाहे वह किसी भी जाति का हो. हमारे समय में अगर आपको ऐसा कुछ करना होता, तो कहा जाता कि घर के सामने कुआं है, बेहतर है आप उसमें कूद जाएं. पर अब बदलाव हो रहा है. नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने समाज की रूढ़ियों को तोड़ा है. यह बहुत सकारात्मक है और यह सिर्फ शहरों में नहीं हुआ है बल्कि गांवों में भी हुआ है. आप यहां कह सकते हैं कि यह सिर्फ पचास फीसदी है, लेकिन यह कहते वक्त आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि यह सदियों पुरानी रूढ़ि है. उसको तोड़ा जा रहा है, यह जरूरी है. परिवार का स्वरूप भी बदल रहा है. अब सासें अपनी बहुओं के साथ उस तरह का व्यवहार नहीं करती हैं जैसे पिछली पीढ़ी की महिलाएं किया करती थीं.
वर्तमान सरकार आने के बाद से कहा जा रहा है कि असहिष्णुता और कट्टरता बढ़ी है. आप इस सरकार के कामकाज को कैसे देखती हैं?
आज देश में लोकतांत्रिक सरकार है. इसका मतलब यह हुआ कि हमारी चुनी हुई सरकार का शासन है. मेरा मानना है कि देश में किसी भी पार्टी की सरकार हो, अगर वह जनता के लिए काम करे तो वह बेहतर होगी. ऐसे में अगर एनडीए अपने किए हुए वादों को पूरा करती है या पूरा करने का प्रयास करती है तो ठीक है लेकिन यदि वह यह भी नहीं करती है तो वही बात हुई कि आसमान से गिरे और खजूर पर अटके. हां, वोट बैंक के लिए हिंदू-मुसलमान की जो खाई बनाई गई है वह बहुत खतरनाक है. आज हिंदू मुसलमान से डर रहा है तो मुसलमान हिंदुओं से भयभीत हैं और यह एक दिन की बात नहीं है. दरअसल पिछले कुछ समय में हमें ऐसा परिवेश दिया गया है. अब हिंदुओं और मुसलमानों को यह समझना होगा कि यह धरती किसी एक की बपौती नहीं है बल्कि दोनों को साथ रहकर मेलजोल बढ़ाना होगा. अगर भाजपा इस खाई को बढ़ा रही है तो बहुत बुरा है. जनता ने आपको देश का विकास करने के लिए चुना है. पर आप पुराने गौरव को वापस लाने की बात करते हैं. अरे! हमें हमारी बुनियादी सुविधाएं दो. हमें धर्म नहीं रोटी की जरूरत है. कोई भी मंदिर-मस्जिद हमें रोटी नहीं देगा. भगवान सिर्फ मानने वाले के लिए संबल का काम करते हैं.
पिछले साल इस सरकार के आने से बढ़ी असहिष्णुता का जिक्र करते हुए बहुत-से लेखकों ने उन्हें मिले पुरस्कार वापस किए. इस पर आपका क्या नजरिया है?
मैं अवॉर्ड वापस करने वाले लेखकों से सहमत नहीं हूं. मुझे लगता है कि उन लोगों ने कलम की ताकत को कम करके आंका है. लेखकों को सम्मान सरकार नहीं बल्कि जनता द्वारा दिया जाता है. यह सम्मान लेखकों को जनता द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे से मिलता है. यह एक गलत प्रक्रिया थी. अगर विरोध करना था तो सम्मान सरकार को वापस करने के बजाय साहित्य अकादमी के सामने खड़े होकर वापस करना था कि यह पैसा जनता का है और इसकी जरूरत हमें नहीं है, इसे गरीब इलाकों में खर्च कर दिया जाए.
अब तक देश के कई मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति नहीं थी. अब एक संगठन भूमाता ब्रिगेड के नेतृत्व में महिलाएं इन मंदिरों में प्रवेश कर रही हैं. इसे कैसे देखती हैं?
मैं इस मामले में भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई के साथ हूं. यह कई साल पहले हो जाना चाहिए था. धर्म ने जो अफीम महिलाओं को पिलाई है उसका नशा टूटना जरूरी है. हर जगह कायम पुरुषवादी वर्चस्व का टूटना जरूरी है. अगर भगवान के नाम पर बने प्रतीक लोगों को ताकत देते हैं तो उन पर सबका बराबर अधिकार होना चाहिए.
साहित्य का अर्थ व्यापक है, सा+हित यानी जिससे सभी का हित हो. मुझे नहीं लगता कि इंटरनेट पर रचा हुआ कुछ इस पैमाने पर खरा उतरता हो. लिखने का अधिकार सबको है. जो कहानियां-कविताएं लिखते हैं, तुकबंदी करते हैं, सब साहित्यकार हैं. पर मेरे अनुसार गंभीर साहित्य इससे थोड़ा अलग है पर सभी तरह का साहित्य रचा जाना चाहिए. आसान साहित्य एक बेस तैयार करता है
इधर साहित्य में एक नए तरह का प्रयोग हुआ है. लघु प्रेम कथाएं आई हैं, जिन्हें लप्रेक कहा जा रहा है.
मैंने अब तक लप्रेक तो नहीं पढ़ा है पर साहित्यिक पत्रिकाओं में उसकी समीक्षा पढ़ी है. मुझे लगता है कि जो बातें मेरे दिल को छू नहीं पातीं, दिमाग उसे लंबे समय तक याद नहीं रखता. साहित्य का अर्थ व्यापक है. सा+हित यानी जिससे सभी का हित हो. मुझे नहीं लगता कि इंटरनेट पर रचा हुआ कुछ इस पैमाने पर खरा उतरता हो. इंटरनेट पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर मेरे ख्याल से वह बेहतर साहित्य नहीं हो सकता. मुझे लगता है साहित्य शाश्वत है. लिखने का अधिकार सबको है. जो कहानियां लिखते हैं, तुकबंदी करते हैं, कविताएं लिखते हैं, सब साहित्यकार हैं. पर मेरे अनुसार गंभीर साहित्य इससे थोड़ा अलग है. यह एक प्रक्रिया है. सभी तरह का साहित्य रचा जाना चाहिए.
सबको पढ़ने का अधिकार है. जरूरी नहीं कि सभी को ‘शेखर- एक जीवनी’ या ‘नदी के द्वीप’ समझ में आए, तो ऐसे में वह आसान साहित्य पढ़कर अपनी समझ बढ़ाकर फिर उसे पढ़े. ऐसा साहित्य एक बेस तैयार करता है.
नई पीढ़ी के लेखकों में आपको कौन-कौन पसंद है. साहित्य की इस पीढ़ी से आपको कितनी उम्मीदें हैं?
अखिलेश, अल्पना मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ, राकेश कुमार सिंह, संजय कुंदन, चंदन पांडेय, मनोज पांडेय आदि बेहतर लिख रहे हैं. खासकर आजकल लड़कियां बहुत अच्छा लिख रही हैं. उनके द्वारा किया जा रहा विमर्श भी बेहतर है. नए लेखक ऐसे-ऐसे पक्षों को लेकर सामने आ रहे हैं जो अकल्पनीय हैं. नए लोगों की चीजों को देखने की दृष्टि अलग है.
आप उन्नाव को केंद्र में रखकर एक उपन्यास पर भी काम कर रही हैं. क्या होगा इस उपन्यास में?
हां, अब मैं अपने अगले उपन्यास की तैयारी कर रही हूं. यह शायद मेरा आखिरी उपन्यास होगा. इसमें मैं अपनी जन्मभूमि उन्नाव को केंद्र में रख रही हूं. यह वैश्य ठाकुरों के इतिहास पर केंद्रित होगा. ये कहां से आए, स्वतंत्रता संग्राम में इनकी क्या भूमिका रही, इनकी स्त्रियों की हालत कैसी रही. अभी हालांकि इसमें काफी वक्त लगेगा.
आपके प्रिय लेखक?
प्रेमचंद, गोर्की, हेमिंग्वे, अमृतलाल नागर, कृष्णा सोबती, कुंवर नारायण, निर्मल वर्मा…(हंसते हुए), यह सूची बहुत लंबी है.
घनुडीह के इस इलाके को कभी झरिया का का हृदयस्थल भी कहा जाता था. अब वह लगभग खत्म हो चुका है, वहां बसने वाली बड़ी आबादी अपनी जड़ों से उखड़ चुकी है या कहें उन्हें उखाड़ा जा चुका है. सब लोग कहीं और बस गए या बसाए जा चुके हैं
धधकते अंगारों पर चलने की कला सदियों से दुनिया को आश्चर्यचकित और रोमांचित करती रही है. झारखंड के अनेक हिस्सों में यह कला आज भी जीवित है और लोगों की मान्यता है कि इसे वे लोग ही कर सकते हैं जिन्हें अलौकिक शक्ति प्राप्त है. झरिया कोयलांचल के लाखों लोग पिछले कई वर्षों से कोयले के धधकते अंगारों पर न सिर्फ चल रहे हैं, बल्कि रह रहे हैं. हमें नहीं मालूम उन्हें कोई अलौकिक शक्ति प्राप्त है या नहीं, पर यह जरूर पता है कि आग में जीवित लोगों को झोंकने वाली शक्तियां कौन हैं.
धनबाद से झरिया की यात्रा के दौरान एक मित्र साथ थे. वे बता रहे थे कि धनबाद की जाे रौनक आज है वह झरिया की देन है. झरिया न होता तो धनबाद कभी आबाद नहीं होता. उन्होंने दुख जताया कि आज के झरिया में धनबाद के जैसे तरह-तरह के उत्सव-आयोजन नहीं होते. यह शहर अगलगी के शताब्दी वर्ष में पहुंचकर बिना किसी आयोजन के घुटन और खामोशी के साथ मातमी महोत्सव मना रहा है.
झरिया की खदानों में 1916 में अाग लगी थी, अब साल 2016 है. इस बातचीत के दौरान हम झरिया शहर पार कर सुनसान इलाके में प्रवेश करके चुके होते हैं. रात के तकरीबन 11 बज रहे थे और चारों ओर सन्नाटा था. हम घनुडीह इलाके में थे. गाड़ी से बाहर निकलते ही सनसनाती हुई तेज हवा से सामना हुआ. कुछ ही देर में हम आग की तेज लपट के पास थे. लपटों से निकल रही आवाज हवा के साथ मिलकर उस सन्नाटे को तोड़ रही थी. वहां रुके कुछ ही देर हुई थी कि पुलिस की एक गाड़ी आकर रुकती है. तेज आवाज में पुलिसवाले पूछते हैं- कौन! हम लोग बताते हैं- कुछ नहीं बस फायर एरिया देखने आए थे. दरोगा ठेठ भाषा में कहते हैं, ‘ओहो! अगलगी देख रहे हैं! देखिए, बहुत लोग आता है देखने, रोजे-रोज चाहे हर कुछ दिन पर लेकिन जादा देर मत रुकिए, घुटन होगा.’
पास ही कुछ घर भी नजर आते हैं. किसी घर में ताला नहीं लगा होता. हम आवाज लगाते हैं लेकिन कोई आवाज नहीं आती. घरों में बल्ब की तेज रोशनी होती है और बिछौने भी रखे हुए होते हैं. मेरे मित्र टोकते हैं, ‘चलिए, कोई नहीं मिलेगा यहां. ये सिर्फ आरामखाना है. अभी सब लोग धंधे पर गए होंगे.’ आधी रात में ‘कौन-सा धंधा’ के सवाल पर वे कहते हैं, ‘इहां अउर का धंधा है. दिन-दुपहरिया हो चाहे अधरतिया, तेज जाड़ा हो चाहे गरमी, चाहे झमाझम बरसात, साल भर, चौबीसों घंटा इहां एक ही धंधा होता है कोयले का. कोयला ही यहां के लिए सब है. ओढ़ना-बिछौना, जीवन-मरण सब.’
उस फायर एरिया से आगे निकल ओपन माइंस एरिया में जाने की हमारी कोशिश सफल नहीं हो पाती. ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर तेज गति से आते-जाते बड़े-बड़े ट्रक छोटी गाड़ियों को आने-जाने के लिए जगह ही नहीं छोड़ रहे थे. दूर से ही दिखाई पड़ रहा था कि कैसे खदानों से निकाले गए सुलगते कोयले को ट्रकों पर लादा जा रहा था. यह दृश्य रोंगटे खड़ा कर देने वाला था. बताया जाता है कि आग से यहां कोई मतलब नहीं. हर हाल में बस कोयला चाहिए. खदानों में लगी आग को यहां सिर्फ अभिशाप नहीं समझा जाता. यह कइयों के लिए वरदान भी साबित हुई है. इसके बाद हम वहां से लौट आते हैं. देश की सबसे बड़ी भूमिगत आग का वह दृश्य लगातार आंखों के सामने तैरता रहता है. खासकर जलते हुए कोयले को उठाकर ट्रकों पर डालने वाला दृश्य.
2002 में झरिया आए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने आकर कहा था कि खदानों में लगी आग को अब भी फैलने से रोका जा सकता है, बस कोशिशें तेज हों
घनुडीह का यह इलाका झरिया का वह इलाका है जिसे हृदयस्थली भी कहते थे. अब वह लगभग खत्म हो चुका है, वहां बसने वाली बड़ी आबादी अपनी जड़ों से उखड़ चुकी है या कहें उन्हें उखाड़ा जा चुका है. सब कहीं और बस गए या बसाए जा चुके हैं. जो आग के पास रह रहे हैं, यह उनकी जिद ही है. यह जिद बेजा नहीं है. वे जानते हैं कि जब तक उनका घर आग में घिर न जाए, तब तक वे अपनी जगह नहीं छोड़ सकते क्योंकि अपनी जगह को पूरी तरह से छोड़ देने का मतलब है, दो वक्त की रोटी पर भी आफत.
घनुडीह जैसी 11 बस्तियां अब तक इस आग की भेंट चढ़ चुकी हैं. शहर के मानचित्र से सदा-सदा के लिए गायब. दस जगहों पर जिंदगी अभी मुश्किल के दौर में है. 4.18 लाख लोग इस आग का दंश झेल रहे हैं. बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) की ओर से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले छह साल में झरिया के आसपास के करीब 1400 परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है. आग से विस्थापित हुए लोगों को दूसरी जगह बसाने के लिए 314 करोड़ खर्च किए जा चुके हैं और झरिया कोल फील्ड की आग बुझाने पर अब तक 2,311 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि हर रोज फायर एरिया से आठ से दस हजार टन कोयले का खनन और उठाव हो रहा है. घनुडीह इलाके में अभी वीरानगी है लेकिन झरिया के ही इडली पट्टी, कुकुरतोपा, भगतडीह, एलयूजी पीट, बागडिगी, लालटेनगंज जैसे इलाके नक्शे से गायब हो चुके हैं.
अगले दिन सुबह-सुबह हम बेलगढ़िया के लिए निकल पड़ते हैं. बेलगढ़िया जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यह दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना के तहत बसाई गई पहली कॉलोनी है. झरिया से विस्थापित हुए लोगों को यहीं बसाया गया है. बेलगढ़िया, धनबाद से कोई 12-15 किलोमीटर दूर है. झरिया से भी यह दूरी लगभग बराबर है. सुबह पहली मुलाकात मोहन भुइयां से होती है. यहां बसाए गए लोग यहां मिली मूलभूत सुविधाओं से संतुष्ट नहीं नजर आते. वे यहां बसाए जाने का विरोध भी करते हैं. यहां कुल 1,360 परिवार बसाए गए हैं.
मोहन हमें अपने घर ले जाते हैं. वे कहते हैं, ‘देख लीजिए नौ बाई दस का एक कमरा रहने के लिए और 10 बाई छह का यह बरामदा. इसी में पूरी दुनिया सिमट गई है. कहां पति-पत्नी रहें, कहां अपने मां-बाप को कोई रखे और कहां अपने जवान होते बच्चे को. आप बस कमरों को देखकर ही समझ जाइएगा कि हर परिवार का परिवारशास्त्र कैसे गड़बड़ाया हुआ होगा और हर घर में कलह का माहौल रहता है.’ मोहन के घर के पास ही रहने वाले मोहम्मद जफर अली कहते हैं, ‘दावा किया जा रहा है कि यहां झरियावालों को बसाया जा रहा है. दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना चलाई जा रही है. जाकर पूछिएगा साहब लोगों से कि यहां बसा दिए गए लोगों को क्या अमरत्व मिला हुआ है. क्या वे मरेंगे नहीं और अगर मरेंगे तो चाहे हिंदू हो या मुसलमान उनका अंतिम संस्कार कहां किया जाएगा?’ जफर नाराजगी जताते हुए कहते हैं, ‘अभी कुछ दिन पहले ही यहां तनाव का माहौल था. एक मुस्लिम की मौत हो गई थी. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे अपना इलाज करा सकें. चंदे के पैसे से किसी तरह इलाज की कोशिश हुई लेकिन बचाए नहीं जा सके. तनाव इसलिए था क्योंकि यहां हिंदू मरे या मुसलमान, उसके अंतिम संस्कार के लिए कम से कम 25 किलोमीटर दूर जाना होता है. दूसरे गांववाले अपने कब्रिस्तान में या श्मशान का प्रयोग करने नहीं देते हैं. 25 किलोमीटर की यात्रा पैदल नहीं की जा सकती. शव ले जाने के लिए 1,600 रुपये किराया देना होता है. अधिकांश परिवारों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे किसी के मर जाने के बाद 1,600 रुपये किराया देकर अंतिम संस्कार कर सकें.’
जफर के साथ मिले बिजेंदर कहते हैं, ‘हमारे यहां कोई अस्पताल नहीं. बस एक पीएचसी है जो बंद ही रहता है. अगर स्कूल-अस्पताल खुल भी गए तो क्या, हम यहां रहकर करेंगे क्या, यह एक बड़ा सवाल है. हमारे यहां से झरिया जाइए या धनबाद, आने-जाने में 40 रुपये का खर्च है. रोजमर्रा की मजदूरी का काम भी उन्हीं शहरों में मिलना है. यहां से रोज लोग जाते हैं मजदूरी की तलाश में वहां जाते हैं. जिन्हें काम मिल गया, वे तो ठीक, जिन्हें नहीं मिला, उन पर क्या गुजरती होगी, सोच लीजिए. एक तो घर में एक पैसा नहीं होता, ऊपर से मजदूरी के लिए अपना पैसा लगाकर जाना और फिर वहां से भी खाली हाथ लौट आना, कितना पीड़ादायी होता होगा. हम यहां नरक की जिंदगी गुजार रहे हैं.’ मोहन भुइयां, जफर अली, बिजेंदर जैसे कई लोग मिलते हैं. सब अपनी पीड़ा और परेशानी बताते हैं. वे बताते हैं कि उनकी चौथी पीढ़ी यहां रह रही है. गांव छोड़कर बाप-दादा झरिया आकर बस गए थे. अब झरिया से हटा दिया गया. गांव में कोई पूछता नहीं. बाल-बच्चों के साथ यहीं हैं. शादी-ब्याह पर भी आफत है.
‘इहां अउर का धंधा है. दिन-दुपहरिया हो चाहे अधरतिया, साल भर, चौबीसों घंटा इहां एक ही धंधा होता है कोयले का. कोयला ही यहां के लिए सब है’
ये लोग खुद को आवंटित घर दिखाते हैं कि कैसे उन्हें जो घर मिले हैं, उनके टाॅयलेट को उन्होंने एक छोटा रूम बना दिया है ताकि परिवार का कोई एक सदस्य उसमें सो सके. टाॅयलेट के लिए तो फिर भी वैकल्पिक इंतजाम हो सकते हैं. बेलगढ़िया से लौटते समय बड़ा सवाल यही होता है कि जब इतने ही लोगों को अच्छे से नहीं बसाया जा सका तो दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना सफल कैसे होगी.
बेलगढ़िया में इस तरह आनन-फानन में लोगों को बसाए जाने की भी अपनी कहानी है. झरिया में आग का खेल सौ वर्षों से जारी है. इस पर गंभीरता से पहली बार बात 1997 में शुरू हो सकी थी. वह भी स्वेच्छा से नहीं बल्कि तत्कालीन सांसद हराधन राय की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर करने के बाद. उसी पीआईएल की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने झरिया की आग को ‘राष्ट्रीय त्रासदी’ घोषित किया और आदेश दिया गया कि लोगों को बसाने के लिए योजना बने और कोर्ट को प्रगति रिपोर्ट भी दी जाए. उस आदेश के बाद ही योजना बन सकी. नतीजा, आनन-फानन में कोरम पूरा करने के लिए बेलगढ़िया बनाया और बसाया जा सका.
1916 में पहली बार भौरा की एक कोयला खदान में आग लगी थी. झरिया में दुनिया का बेहतरीन कोयला है. पिछले सौ सालों में तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन बचा हुआ है
सरकार ने आग और भू-धंसान वाले इलाके के लोगों को बसाने के लिए 2004 में झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकार (जेआरडीए) का गठन किया. यह जरेडा के नाम से जाना जाता है. जरेडा ने पुनर्वास के लिए 7,112 करोड़ रुपये का मास्टर प्लान तैयार किया है. इसे दो फेज में 2021 तक पूरा किया जाना है. साथ ही आग बुझाने के लिए 23.11 करोड़ रुपये का प्लान अलग से है. जरेडा का सर्वे ही बताता है कि कुल 85 हजार परिवार यानी करीब 4.18 लाख लोग अाग और भू-धंसान वाले इलाके में हैं. इतने लोगों को बसाने का लक्ष्य है, उनमें से अब तक सिर्फ 1360 लोगों को बेलगढ़िया में बसाया जा सका है. बेलगढ़िया से लौटते समय लगता है कि क्या 83,640 परिवारों को भी इसी तरह और ढेर सारे बेलगढ़िया बनाकर बसा दिए जाने की योजना है सरकार की! और फिर सोचकर सिहरन होती है कि 1,360 परिवारों से बसा बेलगढ़िया इस नारकीय स्थिति में है तो फिर जब पूरे के पूरे लोग कई बेलगढ़िया में बसा दिए जाएंगे तो वह पूरा इलाका कैसा होगा. बड़ा सवाल यह भी है कि झरिया काे उजाड़कर क्या और कई बेलगढ़िया बसा पाना संभव हो पाएगा या फिर पुनर्वास की बात तब तक कही जाती रहेगी जब तक खदानों से कोयला निकाल लिए जाने का मामला है. जवाब पेंच दर पेंच फंसता है.
बीसीसीएल के एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘सब खेल है. पुनर्वास इतना आसान नहीं. अपनी जमीन पर जो बसे हैं और जो आग वाले इलाके में हैं, वैसे परिवारों की संख्या 29,444 है. बीसीसीएल की जमीन पर जो लोग बसे हैं और आग वाले इलाके में हैं, वैसे परिवारों की संख्या 23,847 है. इस तरह पुनर्वास के लिए कुल 2,730 एकड़ जमीन चाहिए, जबकि बीसीसीएल मात्र 849.68 एकड़ जमीन ही दे सकी है. जरेडा ने भी अब तक सिर्फ 120.82 एकड़ जमीन ही अधिगृहीत की है, यानी अगर बेलगढ़िया की तरह ही जिंदगी और लाखों लोगों को देनी है तो वह सपने जैसा ही है.’
पुनर्वास के बाद का दूसरा सवाल ये उठता है कि क्या आग से शहर को बचा लेना एकदम असंभव-सा था. यह सवाल इसलिए भी था कि अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि इस आग का फैलाव रोकना संभव था, अगर इच्छाशक्ति होती. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने 2002 में झरिया आकर कहा था कि अभी बात बन सकती है, बस कोशिशें तेज हों और सही दिशा में प्रयास हो. लेकिन कलाम की बात भी और पुरानी तमाम बातों की तरह बात बनकर ही रह गई.
‘यह जो उजड़ता हुआ शहर देख रहे हैं, जिसे झरिया कहते हैं, इसी के कारण धनबाद जैसा शहर बस सका. इस शहर ने देश भर के लोगों को रोजगार दिया’
झरिया लौटने पर रहनिहार नवल ओझा से मुलाकात होती है. वे बताते हैं, ‘हम और हमारे लोग पिछले 100 साल से ये आग और लोगों को अपनी जमीन से उखड़कर भटकते हुए देख रहे हैं. यह जो उजड़ता हुआ शहर देख रहे हैं, जिसे झरिया कहते हैं, इसी के कारण धनबाद जैसा शहर बस सका जिसे लघु भारत भी कहते हैं. इस शहर ने देश भर के लोगों को रोजगार दिया. यह कभी रंगीन शहर था. बिहार का पहला सिनेमा हाॅल यहां खुला. इस शहर पर कई लोकगीत रचे गए.’ नवल आगे बताते हैं, ‘1916 में पहली बार भौरा की एक कोयला खदान में आग लगी थी. इसके बाद एक-एक कर नए इलाकों में आग फैलती चली गई. अब 70 जगहों पर आग ही आग नजर आती है. भौरा के बाद 1941 में जोगता में, 1951 में ईस्ट कतरास में, 1952 में नदखुरकी मंें, 1956 में राजापुर में, 1957 में वेस्ट मोदीडीह में, 1965 में जोगीडीह एवं कोयरीडीह में आग लगी.’ वे आगे कहते हैं, ‘जिस वक्त पहली बार आग का पता चला, उस समय तक निजी कंपनियों द्वारा कोयला खनन का चलन था. निजी कंपनियां किसी तरह कोयला चाहती थीं, उन्हें इससे मतलब नहीं था कि कोयला निकाल लेने के बाद इलाका भी बचे तो उसके लिए क्या हो. 1971 में तब आस जगी जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ. तब लगा कि अब शायद सरकारी तंत्र इस पर ध्यान देगा, गंभीरता से लेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. या यूं कहिए कि उसके बाद से समस्या और बढ़ती ही चली गई.’
आग को फैलने से रोकने के लिए सबसे पहले 1954 में मेहता कमेटी बनी. उसकी बातों को दफन कर दिया गया. फिर और बातें होती रहीं लेकिन पहली बार उम्मीद तब जगी जब 1978 में झरिया के पुनरुत्थान की एक बड़ी योजना बनी. इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए पोलैंड से विशेषज्ञों की टीम आई थी. पुनर्वास के लिए बनी टीम में बीसीसीएल के भी 40 अधिकारी शामिल थे. कोयले के उत्पादन और नए शहर के निर्माण के लिए 20 अरब 85 करोड़ रुपये की लागत वाली इस योजना में सात अरब रुपये सिर्फ सात छोटे शहरों के निर्माण पर खर्च होने वाले थे. योजना के अनुसार उजड़ने वाले लोगों को न्यू झरिया सिटी के तहत झरिया के उत्तरी किनारे, धनबाद के कोयला नगर, भूली नगर, मुनीडीह, बस्ताकोला, राजगंज तथा कुमार मंगलम सिटी के तहत दामोदर नदी के दक्षिण किनारे पर बसाया जाना था. जाहिर-सी बात है कि इस योजना की बातें जब सार्वजनिक तौर पर प्रचारित होनी शुरू हुई थीं तो यह माहौल बना था कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका. पोलैंड से आया विशेषज्ञों का दल उसी वर्ष लौट गया. सब ठंडे बस्ते में चला गया. 1983 में इस योजना की लागत बढ़कर 50 अरब 80 करोड़ रुपये हो गई. केंद्र सरकार, राज्य सरकार और बीसीसीएल के बीच इस योजना के कार्यान्वयन को लेकर फिर बातचीत हुई. उस दौरान राज्य सरकार से 25 प्रतिशत और केंद्र सरकार से 50 प्रतिशत धनराशि देने को कहा गया लेकिन दोनों सरकारों ने वित्तीय संकट का सवाल उठा दिया. इसी ऊहापोह में 1985 में योजना की लागत बढ़कर 90 अरब 73 करोड़ रुपये हो गई, जिसमें से सिर्फ पुनर्वास पर 30 अरब रुपये खर्च होते. हालांकि पुनरुत्थान का यह मामला उलझता गया और एक जीवंत शहर किस्तों में मरता रहा.
सच यही है कि इस इलाके में आग फैली थी, अपने स्वाभाविक गुण के कारण. हवा के संपर्क में आने के बाद कोयले का जल उठना स्वाभाविक गुण है लेकिन जमीन के अंदर उसे हवा मिले, वह और जले और फैले, यह सब खुद-ब-खुद नहीं हुआ, ऐसा किया गया. ओझा सवाल उठाते हैं, ‘जाकर पूछिए बीसीसीएल प्रबंधन से कि क्या सच में आग से शहर को नहीं बचाया सकता था. जाकर पूछिए झरिया के नाम पर राजनीति करने वालों से कि क्या सच में वे झरिया को बचाने और लोगों को सही जगह पर बसाने की राजनीति कर रहे हैं.’
ओझा जिन सवालों को छोड़ते हैं, उन्हीं सवालों को लेकर हम धनबाद आते हैं. ऐसा कहा जाता है कि ‘झरिया बचाओ’ की राजनीति करने वाले बड़ी हस्ती बन गए हैं. उनकी राजनीति क्या होती है? जवाब सबके मिलते हैं. कुछ बताते हैं कि सबसे दिलचस्प यह है कि जो झरिया बचाने की राजनीति करते हैं, उनमें से अधिकांश झरिया जाते भी नहीं. रहते भी नहीं. धनबाद रहते हैं. और उसमें भी अधिकांश वैसे हैं, जो जल्दी से जल्दी झरिया को वीरान होते देखना चाहते हैं ताकि कोयला अधिक से अधिक निकल सके. झरिया को उजाड़ने से और आग को फैलाने से ही अरबों का कारोबार होगा, सारा खेला बस यही है.
झरिया वाले जान चुके हैं कि उन्हें अपनी जमीन से उखड़ना होगा. शहर में रहते धुएं और धूल से तमाम किस्म की बीमारियों से गुजरकर मरना होगा
बीसीसीएल खनन का अधिकांश काम अब आउटसोर्सिंग के जरिए कर रही है. आउटसोर्सिंग कंपनियों का अपना गणित है. उन्हें किसी भी कीमत पर कोयला चाहिए, वे सुलगती खदानों से भी कोयला निकाल लेते हैं
तस्दीक करने पर मालूम होता है कि झरिया के नाम पर ऐसे कई लोग हैं, जो दिन में तो नारे लगाते हैं कि झरिया को बचाना है, दिखावे के लिए यह भी बोलते हैं कि झरिया के लोगों को जहां-तहां नहीं बसाने देंगे लेकिन शाम ढलते ही वे झरिया के वीरानगी में डूबते जाने का जश्न भी मनाते हैं. लोग बताते हैं कि यहां राजनीति के अपने मकसद हैं. कोल माफिया इसलिए पुनर्वास का विरोध कर रहा है कि जब खदानों में बेगारी करने वाले लोगों का पुनर्वास यहां से कहीं और हो जाएगा तो फिर उनके लिए दिन-रात एक कर कोयले की चोरी कौन करेगा. कौन मजदूरी करेगा? जो चुनावी राजनीति में हैं, उनकी चिंता यह है कि झरिया से पूरी आबादी ही चली जाएगी तो फिर वे चुनाव में कैसे जीतेंगे, क्योंकि ये वही मजदूर हैं जो वर्षों पहले बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि जगहों से लाकर यहां बसाए गए थे ताकि कोयले से कमाई के साथ अपनी राजनीतिक जमीन भी तैयार की जा सके.
अमेरिका की पिट्सबर्ग कंपनी की एक रिपोर्ट के अनुसार, झरिया का इलाका इस कदर खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुका है कि अगर दस वर्षों के अंदर इसे खाली नहीं कराया गया तो कभी भी दुनिया की सबसे बड़ी भू-धंसान की घटना घट सकती है. झरिया में रह रहे तमाम लोग इस बात को जानते हैं. उनके अनुसार, यहां धरती का सबसे बेहतर कोयला है और उस कोयले को निकालने के लिए लोगों को यहां से हटाना जरूरी है. लोग सीधे हटेंगे नहीं, इसलिए आग का फैलना जरूरी है. आंकड़े भी बताते हैं कि झरिया की जमीन में दुनिया का बेहतरीन कोयला दबा हुआ है. पिछले सौ सालों में तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन बचा हुआ है.
सवाल अपनी जगह बना रहता है कि क्या वाकई यह आग बुझाई नहीं जा सकती थी या कोई रास्ता नहीं निकल सकता था. इसे विषय पर साउथ ईस्टर्न कोल लिमिटेड के पूर्व कार्यकारी निदेशक एनके सिंह से वर्षों पहले बात हुई थी. इसे लेकर उनका गहरा अध्ययन रहा है. उन्होंने कहा था कि ट्रेंच कटिंग कर आग से निपटने का रास्ता निकाला जाता रहा है. हालांकि यह कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि एक ओर ट्रेंच कटिंग होगी तो दूसरी ओर आग बढ़ेगी. यह सही भी है. ट्रेंच कटिंग के अलावा नाइट्रोजन छिड़काव से लेकर दूसरे और कई किस्म के प्रयोग किए जाते रहे हैं. कोई उपाय कारगर नहीं हो सका है. और सवाल यह है कि अब यह आग बुझा पाना क्या संभव या इतना आसान रह गया है. जवाब है नहीं, क्योंकि अब मामला एक जगह आगलगी का नहीं है. देश भर की नौ कोयला कंपनियों के भूमिगत आग वाले 158 क्षेत्रों में से 70 सिर्फ बीसीसीएल के झरिया कोयला क्षेत्र में हैं.
आग के खेल को समझने के लिए जितने लोगों से बात होती है, सब अलग तरीके की बात करते हैं. बीसीसीएल के लोग कहते हैं कि कोयला निकाल लेने से सारा झंझट ही खत्म हो जाएगा लेकिन असल खेल कोयला निकालने का ही है और झरिया के पास जो कोयला है, उस पर बड़ी निगाहें टिकी हुई हैं. जानकार बताते हैं कि देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 बिलियन टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकि थर्मल कोल है. इसमें से 28 फीसदी प्राइम कोकिंग कोल और शेष मीडियम कोकिंग कोल है. भारतीय इस्पात उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा प्राइम कोकिंग कोल की अनुपलब्धता है. फिलहाल इसका उत्पादन आठ मिलियन टन है जिसे 2024-25 तक 18 मिलियन टन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जबकि इस्पात उद्योग की मांग 97 मिलियन टन हो जाएगी.
खुद बीसीसीएल के ही एक अधिकारी बताते हैं कि बीसीसीएल की यह योजना आगे को देखकर ही है. अगर इतने कोयले की मांग पूरी करनी है तो झरिया वालों को अपनी जमीन से उजड़ना ही होगा. लोग हटेंगे तभी खनन होगा. लोग सीधे निकलेंगे नहीं इसलिए आग का फैलता रहना जरूरी है. झरिया के लोग बताते हैं, ‘देखते रहिए कि कैसे लोगों को झरिया छोड़ने पर मजबूर किया जाता है. एक-एक कर सारी सुविधाएं शहर से छीन ली जाएंगी तो तब आज जिद पर अड़े झरिया वाले मजबूरी में यहां से विदा हो जाएंगे.’
झरिया में आग नाम की किताब लिख चुके अमित राजा कहते हैं, ‘पहले रेल को खतरे में बताकर झरिया में रेल परिचालन बंद किया गया लेकिन जैसे ही रेल बंद हुआ दनादन उससे कोयला निकाल लिया गया. बीच-बीच में राष्ट्रीय राजमार्ग पर खतरे की बात कही जा रही है. वहां भी ऐसे ही होगा. सारा खेल कोयले के लिए है. पुनर्वासित करना प्राथमिकता में नहीं, कोयला निकले, बस यही प्राथमिकता है. ये बातें सच लगती हैं. झरिया में घूमते हुए और वहां से बेलगढ़िया में बसा दिए गए लोगों से बात करते हुए साफ होता है कि पुनर्वास करना बीसीसीएल की प्राथमिकता नहीं बल्कि कोयला प्राथमिकता में है.’
बीसीसीएल खनन का अधिकांश काम अब आउटसोर्सिंग के जरिए कर रही है. आउटसोर्सिंग कंपनियों का अपना गणित है. उन्हें किसी भी कीमत पर कोयला चाहिए, अधिक से अधिक कोयला. वे सुलगते कोयले को भी खदान से निकाल लेते हैं. उन्हें कोयले खनन में कोई बाधा नहीं चाहिए इसलिए वे आग के बढ़ते रहने की भी कामना करते हैं ताकि आग का भय हो तो लोग जल्दी भागें अौर अधिक से अधिक खनन हो. झरिया के लोग बताते हैं कि आउटसोर्सिंग कंपनियों में कई कंपनियां ऐसी रही हैं जिसमें प्रमुख के तौर पर बीसीसीएल के वरिष्ठ अधिकारी ही रहे हैं. वे बीसीसीएल से रिटायर होते ही आउटसोर्सिंग कंपनियों के प्रमुख बन जाते रहे हैं. यानी साफ है कि वे अपने पद पर रहते हुए आउटसोर्सिंग कंपनियों को ठेका दिलवाने या दोहन करने की छूट देने में मदद करते रहे हैं या कि खुद ही आउटसोर्सिंग कंपनी में साझेदार बनते रहे हैं, इसलिए रिटायरमेंट के बाद कई अधिकारी कंपनियों में प्रमुख पद पाते रहे हैं. खेल इतना ही नहीं है, आउटसोर्सिंग कंपनियों का चेन फिक्स होता है. बीसीसीएल से लेकर पुलिस और अपराधियों तक से. कोयले में अपराध की मिलावट के बिना काम नहीं होता. और चूंकि पूरा चेन बना होता है इसलिए आउटसोर्सिंग कंपनियां वैज्ञानिक तरीके से खनन नहीं करतीं. वे अपने हिसाब से खदानों में विस्फोट करती हैं और कोयला निकालती हैं. आग न फैले, यह उनके एजेंडे में नहीं होता. हां, यह जरूर एजेंडे में होता है कि आग की वजह से जल्दी से जल्दी ज्यादातर इलाके खाली हों ताकि आगे खाली इलाके में खनन का अधिक से अधिक खेल हो सके.
कोयला खनन और लोगों के पुनर्वास की स्थितियों के संबंध में बात करने पर बीसीसीएल के सीएमडी कार्यालय से संपर्क करने पर जरेडा में बात करने को कहा जाता है. कुल मिलाकर अलग-अलग महकमों पर जिम्मेदारी टाली जाती है. इतनी बड़ी पुनर्वास योजना के लिए पैसे कहां से आएंगे, इसके जवाब में बीसीसीएल का एक पुराना डाटा पकड़ा दिया जाता है, जिसका सार कुछ इस तरह है- बीसीसीएल की होल्डिंग कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड गत तीन वर्षों से अपनी लाभजनक इकाइयों से प्रति टन छह रुपये वसूलती है, जिस मद से कार्य को पूरा किया जाएगा. इससे हर साल बीसीसीएल को 400 करोड़ रुपये का कलेक्शन होता है. हर तरह के कोयले (कोकिंग और नाॅन-कोकिंग कोल) पर उत्पाद शुल्क 10 रुपये किया गया है, जो पहले 3.5 रुपये प्रति टन नॉन-कोकिंग और 4.25 रुपये कोकिंग कोल पर था. इससे प्रति वर्ष और 240 करोड़ रुपये जमा होने का अनुमान है. इसी तरह पैसा जमा करके नया झरिया बसा दिया जाएगा.
यह सारा खेल झरिया वाले और बेलगढ़िया वाले जानते हैं. पुनर्वास क्यों और किसलिए यह भी. वे जान चुके हैं कि उन्हें अपनी जमीन से उखड़ना होगा. शहर में रहते धुएं, धूल और गैस की वजह से तमाम किस्म की बीमारियों से गुजरकर मरना होगा या फिर शहर छोड़ देने पर बेलगढ़िया जैसे इलाके में बसकर अवसाद से.
इस महीने की शुरुआत में एक दोस्त की सगाई में जाने का मौका हाथ लग गया. वो दोस्त भी मेरी तरह काफी साल से घर से दूर रहकर नौकरी करता है. मेरे घर जाने का मामला पहले से ही तय था. ऐसे में सगाई के बहाने पुराने दोस्तों से मुलाकात का मौका मैं छोड़ना नहीं चाहता था. एक पंथ दो काज निपटाने वाला ये मौका बहुत दिन बाद मेरे हाथ लग गया था और ट्रेन पर लदकर घर की ओर कूच कर गया था. हालांकि घर पहुंचने पर जब उस दोस्त को बधाई देने उसके घर पहुंचा तो सगाई और शादी के बारे में उसने जो कहानी बताई वह किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं थी.
दरअसल, सगाई होने के कुछ दिन पहले लड़कीवालों ने उसके परिवारवालों को बताया कि लड़की का कोई ऑपरेशन हुआ है और वे सगाई की तारीख आगे खिसकाना चाहते हैं तो लड़केवालों ने कह दिया कि ठीक है कोई बात नहीं. अपनी सुविधा के हिसाब से देख लो. इसके अलावा ‘डिमांड’ को लेकर भी लड़कीवालों की कुछ आपत्तियां थीं जिसे दोनों परिवारों ने मिलकर सुलझा लिया था. सगाई के पहले की प्रक्रिया जैसे- लड़कीवालों का लड़के के घर आना, फिर लड़का जहां नौकरी करता है वहां जाकर लड़की के पिता का उससे मिलना, इसके बाद लड़की को लड़के के परिवार और रिश्तेदारों द्वारा देखना, ‘ग्रुप डिस्कशन’ और ‘रैपिड फायर क्वेश्चन राउंड’, ‘लेन-देन’ वगैरह-वगैरह पूरी कर ली गई थी. दोस्त ने बताया कि लड़की के ऑपरेशन और सगाई रद्द करने तक की तो बात समझ में आ गई थी. सभी लोग तैयार थे कि सगाई की तारीख फिर से तय कर दी जाएगी.
जब दोस्त को सगाई की बधाई देने उसके घर पहुंचा तो उसने जो कुछ भी बताया वह किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं थी
ऑपरेशन की बात सामने आने के बाद मेरे दोस्त को झटका तब लगा जब लड़की की बुआ के लड़के का फोन उसके पास आया कि जहां वह नौकरी करता है और जहां किराये का मकान लेकर रहता है, वह देखना चाहता है. ये बात मेरे दोस्त को खटक गई कि सगाई की तारीख रद्द करने के बाद अब लड़के की जांच-पड़ताल करने का क्या मतलब. ये तो पहले चेक करना चाहिए था उसके बाद सगाई तय करनी चाहिए थी. इस फोन के बाद मेरे दोस्त के बैकग्राउंड चेक करने के मसले ने कुछ ऐसा तूल पकड़ा कि दोनों परिवारों का रिश्ता जुड़ने से पहले ही टूट गया. मेरे दोस्त के हिसाब से ये पूरा मामला इसलिए बिगड़ा कि सगाई होने से पहले जितनी भी बातें हुईं उसमें उसके पिता और लड़की के पिता के बीच बातचीत न के बराबर हुई. लड़के के पिता को नहीं पता था कि लड़की के पिता क्या चाहते हैं और यही हाल लड़की के पिता का था. बातचीत न होने की वजह से दोनों परिवारों के बीच जुड़ने वाले रिश्ते को संदेह के कोहरे ने घेर लिया. इस रिश्ते पर बर्फ जम गई जो पिघली तो रिश्तों में नरमी नहीं बल्कि तल्खी लेकर आई.
दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला और इसकी आंच मेरे दोस्त तक उस दिन पहुंची जिस दिन लड़की की बुआ का लड़का उसके पास आया. मेरे दोस्त ने अपना किराये का कमरा दिखाने से मना कर दिया था. तब उस पर ऐसे-ऐसे आरोप लगे कि उसकी हालत खस्ता हो गई. ऐसा इसलिए कि लड़की के बुआ के लड़के ने मेरे दोस्त से कहा, ‘भाई! हम लड़कीवाले हैं और सगाई तय होने के बाद भी हम कभी भी ये चेक कर सकते हैं कि लड़का कहां और किसके साथ रह रहा है. ऐसा इसलिए कि ‘क्राइम पेट्रोल सतर्क’ सीरियल में भी दिखाता रहता है कि लड़का घर से दूर नौकरी करता है वहां ‘किसी और’ के साथ रहता है और फिर घरवालों की मर्जी से शादी भी कर लेता है और फिर जुर्म दस्तक देता है.’ दोस्त पर इसके अलावा और भी तमाम आरोप लगे जिसके बाद उसे कहना पड़ा, ‘बात जब यहां तक आ पहुंची है तो एक बार और सोच लो उसके बाद आगे बढ़ो. इतने संदेह की स्थिति में मामले को आगे बढ़ाना ठीक नहीं है.’
इस मामले में कौन सही है और कौन गलत, कहां, किससे, क्या गलती हुई, ये कहा नहीं जा सकता है. लेकिन मुझे लगता है कि ये पूरा मामला बात करके सुलझाया जा सकता था. इस मामले से एक बात और समझ में आई कि घर से दूर शहरों में रह रहे लड़कों को शक की निगाह से देखा जा रहा है. खासकर तब जब वे थोड़ी देर से शादी को तैयार होते हैं. ये बड़ी ही अजीब और हास्यास्पद-सी स्थिति थी. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि दोस्त से क्या कहूं. खैर, विदा लेते हुए मैंने सिर्फ इतना ही कहा, ‘जो होना था, सो हो गया लेकिन अब आगे के लिए सावधान रहना और सतर्क रहना.’
आर्थिक मसलों में कुछ खास तो हुआ नहीं है. इन्होंने निवेश वगैरह का जो रास्ता साफ किया, उससे निवेश तो कुछ खास आया ही नहीं है. सरकार के दावे तो अच्छे-अच्छे हैं, लेकिन आप देखिए कि जमीन पर काम कितना हुआ है. निवेश तो आया नहीं. भारत में बाहर से कंपनियां भी नहीं आईं. कारखाने लगाए जाते, नए उद्योग शुरू होते, ऐसा नहीं हुआ है. मेक इन इंडिया में इन्होंने कहा कि लोग आएंगे, यहां उद्योग लगाएंगे, लेकिन अब तक कोई आया नहीं. एक तो वैश्विक मंदी इसका कारण है. उद्योगपति यहां आने के बदले कहीं और जा रहे हैं. चीन तक में उद्योगपति नहीं जा रहे हैं. चीन का आकर्षण कहीं अधिक है, लेकिन वहीं नहीं जा रहे हैं, तो यहां क्या आएंगे. अब अगर विश्व अर्थव्यवस्था सुधरेगी, अगर लोग निवेश करना चाहें, इसके साथ बाकी चीजें भी सुधरें. जैसे जमीन की उपलब्धता हो, मजदूरों की हालत ठीक हो, सरकार की नीतियां ठीक हों, तब लोग आएंगे. भारत की पहली प्रतियोगिता तो चीन के साथ है. वहां जो सरकार है उसका अर्थव्यवस्था पर अपना कंट्रोल है, जबकि इनका कोई खास कंट्रोल नहीं है. कुछ राज्यों के हाथ में है, कुछ केंद्र के हाथ में है. इसलिए क्या होने जा रहा है, कुछ कह नहीं सकते.
विजय माल्या जैसी घटनाएं तो ये नहीं रोक सकते. सरकार और पब्लिक सेक्टर से ही लोग पैसा लेकर निवेश करते हैं और खाते-पीते हैं. सुब्रत राय सहारा, शारदा चिटफंड और ऐसे बहुत से हैं जो सरकार के या जनता के पैसे खा गए. भारतीय अर्थव्यवस्था में माल्या जैसे लोग कैसे काम कर पाते हैं, वह तो इस व्यवस्था का बड़ा लंबा-चौड़ा चक्कर है. अर्थव्यवस्था में एक होती है पोंजी स्कीम. एक थे चार्ल्स पोंजी. वे इटैलियन थे जो अमेरिका आए थे. बोस्टन शहर में उनका काफी दबदबा था. उन्होंने लोगों के पैसे-वैसे बहुत लूटे. उसने बताया कि वह यह करेगा, वह करेगा और लोग उसके झांसे में आ गए. वहीं पोंजी स्कीम का यह एक प्रकार है जो शारदा, सहारा या विजय माल्या आदि के रूप में सामने है. ये अखबारों में छपवाएंगे कि बहुत फायदा होने वाला है, बहुत लाभ मिलेगा. लोग इसमें फंस जाते हैं और पैसा लगा देते हैं. ये सब पोंजी योजनाओं के ही प्रकार हैं.
यह बात हिंदुस्तान में बहुत जमाने से कही जा रही है कि कृषि का उत्पादन बढ़ेगा. कृषि में डिमांड बढ़ेगी तो उद्योग में उत्पादन बढ़ेगा. गांवों में लोग सामान बेचेंगे. यह कोई नई बात नहीं है. लेकिन इनका फोकस कॉरपोरेट की ओर है, जो पैसा ले जाकर बाहर निवेश करते हैं. राज्यों में सूखा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उस पर कोई खास ध्यान नहीं है.
कृषि को लेकर सरकार की जो नीतियां हैं, उससे कोई खास उम्मीद नहीं बनती. अब भी कृषि में लगभग 60 प्रतिशत लोग लगे हुए हैं. कृषि से बहुत ज्यादा आउटपुट आता है. अगर कृषि की हालत नहीं सुधरेगी तो कुछ नहीं हो सकता. कृषि में लोग संगठित नहीं हैं. कहीं कुछ है, कहीं कुछ है. जहां तक कृषि क्षेत्र में सुधार की बात है तो एक जमाने में भूमि सुधार वगैरह की बात की जाती थी, जिस पर अब कोई बात ही नहीं करता. छोटे-मोटे किसान बंटाई पर खेती करते हैं. सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे वे आगे बढ़ सकें. अगर ऐसा नहीं होता है तो यही किसान खेती छोड़कर शहर की ओर भागते हैं. वे शहर जाएंगे और मजदूरी करेंगे. लोग गांव से शहर की ओर भाग रहे हैं. वे चाय बेचने जैसे छोटे-मोटे धंधे में लग जाते हैं. लेकिन कृषि में इतना खतरा है कि किसान खेती से भाग रहे हैं.
काले धन पर नियंत्रण कर पाने के मामले में मुझे नहीं लगता है कि कुछ हो सकता है. इन्होंने यहां से आर्थिक सीमा खोल दी है कि यहां से पैसा ले जाइए और बाहर लगाइए. इसमें दो धंधे हैं. एक तो निवेश जाता है, दूसरा काला धन यहां से बाहर जाता है और मॉरिशस रूट से धो-पोंछकर, ह्वाइट होकर वापस आ जाता है. फिर वह लीगल हो चुका होता है. कुछ छोटे-मोटे देश ऐसे हैं जहां ले जाकर निवेशक पैसा लगाते हैं. वहां पता चलता है कि एक ही बिल्डिंग पर पचासों बोर्ड लगे हुए हैं. वहां जाकर निवेश कर दीजिए. फिर वह घुमा-फिराकर यहां आ जाएगा. लेकिन जो गैरकानूनी पैसा होता है वह तो लाना मुश्किल है. यह बहुत ही जटिल है. दूसरे, उत्पादन सब का सब यहां नहीं होता. कुछ यहां होता है, कुछ बाहर होता है. तो इसे रोक पाना संभव नहीं है. यह काला धन वापस लाने का दावा तो ऐसे ही किया गया था. अब देखिए, उस पर अब कोई बात नहीं करता. वे सब चुनावी वादे थे जिस पर अब बात नहीं होती.
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही अद्भुत कार्य किया था. सारे पड़ोसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को निमंत्रण दिया था कि उनके शपथ लेने के समय भारत आएं. ऐसा संकेत उनके पहले भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं दिया था. उस अवसर की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ यहां आए थे. जिन दो देशों के बीच संबंध बहुत ही विषम हैं, वहां से कोई प्रधानमंत्री यहां आ जाए तो इसका मतलब शुरुआत बड़ी अच्छी है. उसके पश्चात नरेंद्र मोदी का दूसरा अनन्य योगदान यह है कि जिस देश में भी गए उन्होंने कोशिश की कि वहां रहने वाले हमारे भारतीय लोग इकट्ठा हों, सभा में उपस्थित हों, भाषण सुनें, मिलें-जुलें.
ऐसा आज तक किसी प्रधानमंत्री ने व्यवस्थित तौर पर कभी नहीं किया. हुआ तो है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी भी जाते थे तो लोगों से मिलते थे. लेकिन सभाएं हों, जिसमें पांच-दस, बीस हजार लोग इकट्ठा हों, ये सब पहली बार हुआ. इसका विदेश नीति पर गजब का असर पड़ता है. विदेशों में हमारे लोग रहते हैं. उन देशों के शासक भी जानते हैं कि वे इतनी बड़ी सभा अपने देशवासियों को लेकर बुलाना चाहें तो नहीं बुला सकते, जैसी हमारे प्रधानमंत्री ने बुलाई. तो उन पर भी बड़ा रौब रहता है और अपने लोगों को भी प्रेरणा मिलती है. उससे भी विदेश नीति के लक्ष्य सिद्ध होते हैं. मोदी ने इतने कम समय में इतने देशों की यात्राएं कीं, एक-एक यात्रा में वे तीन-तीन, चार-चार देश निपटाते रहे. ऐसे-ऐसे देशों में गए जहां भारत के प्रधानमंत्री अब तक नहीं गए थे. इस मामले में मोदी का हमारी विदेश नीति पर अनन्य योगदान रहा और उसका प्रचार भी खूब जमकर हुआ. चैनल लगातार दिखाते रहे, देश और विदेश के अखबारों में भी खूब छपा. इन्हीं सब बातों को देखते हुए लग रहा था कि विदेश नीति में कुछ चमत्कार-सा होने जा रहा है. लेकिन ये सब कुछ मोर का नाच साबित हुआ.
ये सब ऐसा लगा कि सब बाहरी तौर पर किया जा रहा है और अंदर उसके कोई खास तत्व है नहीं. मुझे तो उस वक्त भी खुशी भी हो रही थी लेकिन मैं इस कमी को सूंघ भी रहा था और मैं लिख भी रहा था. अब दुर्भाग्य यह है कि वही सब हो रहा है. नेपाल जो हमारे सबसे करीब होता था, जिसकी हम लोगों ने इतनी जबरदस्त मदद भूकंप के समय की थी, उस नेपाल ने आज अपने राजदूत को वापस बुला लिया. वहां का प्रधानमंत्री हमारे खिलाफ बोल रहा है. वहां की रूलिंग पार्टी के प्रचंड हमारे खिलाफ बोल रहे हैं. वहां की नेपाली कांग्रेस से भी हमारा संबंध ऐसा नहीं है कि हम मधेशियों के मामले में उनसे अपनी बात मनवा सकें. नेपाल में हमारा कोई नहीं. जो सबसे नजदीक का दोस्त है, वही सबसे दूर जा रहा है.
यही हाल आप देखिए कि श्रीलंका में है, यही हाल मालदीव के साथ है. यही हाल हमारा और पड़ोसी देशों के साथ है. छोटे-मोटे सभी देशों का जिक्र मैं नहीं कर रहा. कोई बहुत ही अद्भुत बात किसी भी देश के साथ हुई हो और चल रही हो, ऐसा तो लगता नहीं. पाकिस्तान के साथ तो हमारी नीति बिल्कुल विफल है. वह पल में माशा पल में तोला है. वह कब बदल जाएगी, कब पटकनी खा जाएगी, सिर के बल चलते-चलते पांव के बल चलने लगेगी, पांव के बल चलते-चलते कब सिर के बल चलने लगेगी, कुछ मालूम ही नहीं. एक मामूली बहाने के आधार पर हम वार्ताएं स्थगित कर देते हैं और एक मामूली निमंत्रण पर कहीं से कहीं चले जा रहे हैं. कब काबुल से दौड़े चले गए लाहौर. इससे यह प्रकट हो रहा है कि विदेश नीति में तात्कालिकता है, कोई दूरदृष्टि नहीं है. इसके अलावा आप यह भी देखिए कि महाशक्तियों से संबंध बनाने में मोदी ने बाह्य आडंबर बहुत फैलाया. ओबामा को ‘बराक-बराक’ कहकर बुला रहे थे, चीनी राष्ट्रपति के साथ पलना झूल रहे हैं. जापान जा रहे हैं तो 30 बिलियन डाॅलर, 40 बिलियन डालर यहां से आएंगे, वहां से आएंगे. कहां आ रहे हैं, कुछ पता ही नहीं.
नेपाल जो हमारे सबसे करीब होता था, वहां सब हमारे खिलाफ हैं. अब वहां हमारा कोई नहीं. जो सबसे नजदीक का दोस्त है, वही सबसे दूर जा रहा है
यही बात अमेरिका के साथ हो रही है. अमेरिका के साथ इतने समझौते हो रहे हैं, लेकिन कोई ठोस रूप हम देख ही नहीं पा रहे. सब चीजें निर्गुण-निराकार. इन्हीं देशों के साथ जो संबंध हमारे होने चाहिए थे, वे नहीं हैं. अफगानिस्तान के साथ हमारी कोई नीति नहीं. हम दो बिलियन डाॅलर वहां खर्च कर चुके हैं. अपने कई लोग वहां जान दे चुके हैं. लेकिन न वहां की सरकार पर गहरा प्रभाव है, न वहां के विपक्ष पर. न ही तालिबान में हमने कोई सेंध लगाई. हम अपने आपको क्षेत्रीय महाशक्ति कहते हैं. लेकिन हममें कोई दमखम ही नहीं. इसका मतलब कोई विदेश नीति है ही नहीं. यह मामला सिर्फ इन्हीं देशों तक सीमित नहीं है. जैसे हमारे प्रधानमंत्री यूएई गए. क्या मिला वहां? अब तक कुछ पता ही नहीं. बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं कि लाख करोड़ रुपये वे हमको दे देंगे. अरे हम रुपये का क्या करेंगे? कुछ काम करके तो दिखाएं जमीन पर. यह मेक इन इंडिया हो गया, स्वच्छता अभियान हो गया, ये सब कागज पर हैं. कुछ जमीन पर भी तो उतरना चाहिए न! सारा मामला हमें तो ठीक रास्ते पर चलता दिखाई नहीं दे रहा है.
हालांकि, सुषमा स्वराज काफी अच्छी विदेश मंत्री हैं. वे भाषण अच्छा देती हैं. अपनी बात बहुत ढंग से रखती हैं. लेकिन मुझे लगता है कि उनको फ्री हैंड नहीं रखा है. वे अपनी बात स्वयं नहीं रख सकतीं. उनको मोदी के इशारे पर नाचना पड़ता है और मोदी अफसरों के इशारों पर नाचते हैं. मोदी को विदेश नीति की कोई समझ है, इसकी जानकारी हमें आज तक तो हुई नहीं. अब तो भगवान भरोसे है विदेश नीति. हमारे विदेश सचिव जयशंकर बहुत पढ़े-लिखे हैं, मैं बचपन से जानता हूं, लेकिन पता नहीं दोनों में से किसकी चलती है. पूरी विदेश नीति में जो पारंपरिक आंतरिक तत्व होते हैं, ऐसा लगता है कि सारे निष्कर्षों में, सारे निर्णयों में, उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो रही है. जैसी मर्जी होती है वैसी नीति हम चला रहे हैं.
मुझे लगता है कि आंतरिक मामलों में भी जो वादे किए गए थे, उनको निभाने की दिशा में बहुत कम ठोस कदम उठे हैं. हालांकि, सरकार ने कई अच्छे काम किए हैं, करने का दावा भी कर रही है. जैसे नितिन गडकरी धुआंधार सड़कें बना रहे हैं. बढ़िया काम है. इसी तरह से और भी कई काम इस सरकार ने शुरू किए हैं. जैसे मुझे यह काम बहुत अच्छा लगा कि एलपीजी सिलेंडर गरीब लोगों को कम दाम पर दिए जा रहे हैं और प्रधानमंत्री की प्रेरणा से लाखों लोगों ने एलपीजी सब्सिडी छोड़ दी. इस तरह के काम काफी अच्छे हुए हैं. ऐसे कामों को बढ़ाना चाहिए. हर क्षेत्र में लोगों से संकल्प करवाना चाहिए कि न रिश्वत देंगे, न रिश्वत लेंगे. स्वभाषा का प्रयोग करेंगे.
मोदी के आने से शिक्षा में कोई फर्क नहीं आया. स्वास्थ्य में कोई फर्क नहीं आया. आज भी गरीब आदमी अस्पतालों में जा नहीं सकता. 80 प्रतिशत लोग आज भी बिना दवाई के जीवन बिता रहे हैं. यही हाल शिक्षा का है. अंग्रेजी का बोलबाला है. मोदी स्वयं अंग्रेजी नहीं बोल सकते, लेकिन अंग्रेजी का मोह उनको पैदा हो गया है. क्योंकि अंग्रेजीदां नौकरशाहों ने उनको घेर रखा है और वही उनको नाच नचाते हैं. तो जो नाच नचाता है उसकी बात तो सुननी पड़ेगी. उसके प्रभामंडल में आप आ ही जाएंगे. मोदी की अपनी छाप हमारी आंतरिक नीतियों पर पड़ नहीं रही. इसका मुझे बड़ा दुख है.
रिश्वतखोरी जस की तस चल रही है, शराबखोरी जस की तस चल रही है, पशुओं का वध जस का तस चल रहा है. अभी कोई बड़ा परिवर्तन, जिसके बारे में हम खुलकर बोल सकें, वे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं. दो-तीन, छोटे-मोटे अच्छे काम हुए हैं, उनका जिक्र हमने कर दिया. मैं यह समझता हूं अब सरकार के पास तीन साल बचे हैं. आखिरी के साल में छह महीने तो चुनाव में चले जाते हैं. नीतियां बनाने और उनको लागू करने का समय ही नहीं मिल पाता. अब जो भी दो-ढाई साल का समय बचा है, उसमें नरेंद्र मोदी अपने को ठीक रास्ते पर चलाएंगे, यह इंप्रेशन हटाएंगे जनता के मन से कि ये एक आदमी की सरकार है, बाकी सब अनुवर्ती हैं. एक इंजन है, बाकी सब डिब्बे हैं. यह बात जब तक खत्म नहीं होगी, सब लोगों को सम्मान और स्वत्व नहीं मिलेगा, तो मुझे लगता है दो-ढाई साल बाद बहुत ही दुर्गति होगी. इससे एक राजनीतिक शून्य भारत में पैदा होगा. क्योंकि कोई वैकल्पिक नेतृत्व देश में दिखाई नहीं दे रहा है. मोदी का नेतृत्व अगर जल गया, जो कि साल भर में होता हुआ लग रहा है मुझे, तो इस देश में कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन चलेगा तो शायद देश में कोई परिवर्तन हो. वरना मुझे तो भविष्य बहुत ही अंधकारपूर्ण और कांटों से भरा लग रहा है.
देश में इन दिनों राष्ट्रवाद का हो-हल्ला कुछ ज्यादा ही मचा हुआ है. आपने इस बारे में सुना और पढ़ा ही होगा लेकिन इस विषय पर कुछ कहा नहीं. क्या सोचते हैं आप?
इस विषय को अगर प्रचलित तौर-तरीकों से समझने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि यह शब्द ‘फलां’ के आ जाने से उछला और बढ़ा है. हालांकि मैं इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखता हूं. यह कोई नई बात नहीं है. 18वीं सदी में इंग्लैंड में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई, तब यह शब्द उछला था. यूरोप में पांचवीं-छठी सदी में फॉल्करवॉन्डरुंग (लोगों का पलायन) नाम का आदिवासी आंदोलन हुआ था, जिसके बाद सभी आदिवासी बिखर गए थे. राज्यों की तरह अलग-अलग रहने लगे थे. इसका असर यूरोप में था. यही कारण था कि यूरोप में पहले कोई भी राजा, कहीं का राजा बन सकता था. फ्रांस का राजा किसी दूसरे देश का भी राजा बन सकता था. लेकिन 18वीं सदी में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई तो राष्ट्रवाद जैसी अवधारणा सामने आई. इसका मकसद कर आदि से बचाना था. नतीजा यह हुआ था कि स्कॉटलैंड, उरुग्वे, इंग्लैंड जैसे कई देश आपस में मिलकर ग्रेट ब्रिटेन बन गए थे. लेकिन जिस ब्रिटेन से इस राष्ट्रवाद की बात चली थी वहां हाल और हालात बदल चुके हैं. अब तो स्कॉटलैंड में एक स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी है, जो इसी आधार पर चुनाव लड़ती है कि वह चुनाव जीती और उसकी सरकार आई तो वह स्कॉटलैंड को एक अलग देश बनाएगी और लोग उसका समर्थन भी करते हैं.
ये बातें तो आपने वैश्विक परिवेश में कहीं लेकिन भारत में अचानक यह शब्द उफान मारने लगा है और इसका रूप-स्वरूप अलग है. इस पर क्या कहेंगे?
सतही तौर पर देखेंगे तो इसके केंद्र में मोदी दिखेंगे, भाजपा दिखेगी, राजनीति दिखेगी लेकिन ये परिधि भर हैं. केंद्र कुछ और है. ये सब तो हथियार और औजार भर हैं. राष्ट्रवाद की जरूरत हमेशा से पूंजीवादियों को रही है. उन्हें एक राष्ट्र ज्यादा सूट करता है. इसकी वजह भी है. अब एक इंडस्ट्री लगाने के लिए कोयला एक राज्य से चाहिए, बिजली का कारखाना किसी दूसरे राज्य में लगता है, लौह अयस्क कहीं और से चाहिए और कुछ दूसरी चीजें किसी अन्य राज्य से. इसके लिए जंगल उजाड़ने होते हैं, नदियों को खत्म करना होता है, आदिवासियों के गांव उजाड़ने होते हैं. यह सब अलग-अलग खंड में बंटे इलाके में इतनी आसानी से तो होगा नहीं, इसलिए एक राष्ट्र और उसमें व्याप्त राष्ट्रवादी धारणा उनके लिए फायदेमंद होती है. छत्तीसगढ़ का उदाहरण लीजिए. अब वहां बार-बार कहा जाता है कि माओवादी हैं, इसलिए आसानी से सेना को उतार दिया जाता है. छत्तीसगढ़ का राष्ट्र का हिस्सा होने का यह फायदा है कि वहां प्राकृतिक संसाधनों को लेना है तो राष्ट्र की धारणा का इस्तेमाल कर सेना उतारिए, अपना काम कीजिए. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राजनीति वगैरह सिर्फ औजार भर होते हैं. पूंजीवाद को अनंत विस्तार चाहिए और जल्दी भी चाहिए, इसलिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.
आप प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का हमेशा विरोध करते हैं. एक बड़ा वर्ग सवाल उठाता है कि प्राकृतिक संसाधन का इस्तेमाल नहीं होगा तो तरक्की कैसे होगी, जीवन कैसे चलेगा?
पहली बात तो ये है कि मैं प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का विरोधी नहीं, मैं उसके दोहन का विरोध करता हूं. रही बात तरक्की की तो कैसी तरक्की? क्या ऐसी तरक्की कि कुछ सालों बाद दुनिया ही न बचे? आप खुद सोचिए. ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. जब दुनिया में आबादी लगातार बढ़ रही है और धरती के अंदर जो प्राकृतिक संसाधन हैं या कि धरती की सतह पर जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधन हैं, वे बढ़ नहीं रहे तो कोई भी क्या कहेगा? यही न कि इनका इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए ताकि यह दुनिया लंबे समय तक चले. लेकिन हो तो उलटा रहा है. आबादी बढ़ने के साथ साधनों की भूख बढ़ती जा रही है और इसलिए संसाधनों का दोहन भी बढ़ता जा रहा है. सीधी-सी तो बात है. अब अगर एक आदमी को अथाह संपदा चाहिए, कई मकान चाहिए, कई गाड़ियां चाहिए तो उसके लिए यह संसाधन तो बस सीमित समय के लिए ही है. बाकी अगर मैं गलत कहता हूं तो मान लीजिए, गलत कहता हूं.
जब आबादी लगातार बढ़ रही है और प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं तो सीधा फॉर्मूला होना चाहिए कि संसाधनों का इस्तेमाल कम हो ताकि लंबे समय तक दुनिया चले लेकिन हो उलटा रहा है और यही देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है
आपने राष्ट्रवाद पर बातें कहीं. उभार तो क्षेत्रवाद का भी इन दिनों तेजी से हुआ है और कहा जा रहा है कि इस देश में ही कई देश बनते जा रहे हैं.
क्षेत्रवाद तो स्वाभाविक है. राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की बात आरोपित है.
लेकिन एक समय तो ऐसा था जब गांधी जैसे लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान चला रहे थे तो उसके केंद्र में भी यही था कि इससे भारत एक देश जैसा बनेगा. या कि एक समय में विवेकानंद जब धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे तो कहते थे कि धर्म लोगों को जोड़ता है, भारत एक राष्ट्र बनता है इससे.
देखिए, चीजें समय-संदर्भ के हिसाब से देखी जाती हैं. जब अंग्रेज आए थे तो हमारी लड़ाई उनसे थी. उस समय कई तंत्र ऐसे विकसित किए जा रहे थे, जिसके जरिए अंग्रेजों से लड़ा जा सके. अच्छा आप एक उदाहरण देखिए, चीजें शायद स्पष्ट होंगी. भारत में मुगलों की सत्ता खत्म हो चुकी थी. मुगलिया साम्राज्य सिर्फ दिल्ली तक सिमटकर रह गया था. उस समय मुगलों से सारे लोग लड़ रहे थे लेकिन जब 1857 की लड़ाई हुई तो मुगलों से लड़ने वाले राजाओं, जमींदारों आदि ने भी सर्वसम्मति से मिलकर उसी मुगल साम्राज्य के बहादुरशाह जफर को भारत का शासक बना दिया. ऐसा इसलिए कि उस समय स्थिति अलग थी. अंग्रेजों से लड़ने के लिए भारत को एक सूत्र में बांधना जरूरी था.
आपने राष्ट्रवाद को पूंजीवाद से जोड़ा लेकिन इन दिनों तो ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ कहने पर भी जोर दिया जा रहा है और जो नहीं कह रहा उसे देशद्रोही बताया जा रहा है.
कुछ मूर्ख भाजपाई और कुछ संघी हैं, यह सब उनकी बात है. नासमझ हैं तो क्या कीजिएगा. मुसलमान ‘भारत माता की जय’ कह देंगे या ‘वंदे मातरम’ कहने लगेंगे तो इससे भाजपा को क्या फायदा होगा, यह समझ से परे की बात है. ऐसी बातें जो कहते हैं उन्हें मुसलमानों की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए. उस धर्म में बुतपरस्ती की पाबंदी है तो इस भावना का ख्याल करना चाहिए. लेकिन क्या कीजिएगा. आरएसएस जैसे संगठन का तो उदभव ही धर्म विशेष के विरोध में हुआ था इसलिए उनके लोग दूसरे धर्म वाले को उकसाने के लिए ऐसा कहते रहते हैं. हम तो 88 की उम्र में पहुंच गए हैं, इसलिए थोड़ा अनुभव है. हमने आजादी की लड़ाई देखी है. अब आज राष्ट्र की चिंता आरएसएस के लोग इतना करते हैं तो उन्हें बताना चाहिए कि जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उसमें उसने क्या भूमिका निभाई थी. मैंने तो कहीं नहीं देखा था. दरअसल आरएसएस तो मुस्लिम लीग के पूरक संगठन की तरह रहा. मुस्लिम लीग वाले कहते थे कि हिंदू के साथ हम कैसे रहेंगे, अलग देश दे दीजिए तो वही आरएसएस वाले कहने लगे कि मुस्लिम इस देश में कैसे रहेंगे, यह तो हिंदुओं का देश है.
मनमोहन सिंह और मोदी में नीतियों के स्तर पर कोई फर्क नहीं. अंतर यह है कि मनमोहन कुछ बोलते नहीं थे और मोदी चूंकि प्रचारक रहे हैं तो आक्रामक तरीके से अपनी चीजों का प्रचार करते हैं
हाल ही में आरएसएस के एक बड़े पदाधिकारी का बयान आया कि राष्ट्रीय झंडा तो तिरंगा है ही लेकिन भगवा झंडे को भी राष्ट्रीय झंडे की तरह मान सकते हैं.
चलिए, अब यह तो कम से कम कहने लगे कि तिरंगा राष्ट्रीय झंडा है. यह कहने में या मानने में भी तो उन्हें इतने साल लग गए.
देश में एक शोर यह भी चल रहा है कि मोदी के आने के बाद खतरे बढ़ गए हैं. असहिष्णुता बढ़ गई है. धर्मांधता बढ़ गई है. आप क्या मानते हैं? क्या वाकई में मोदी के आ जाने के बाद देश अचानक इस कदर असुरक्षित हो गया है?
अभी हाल में असहिष्णुता वाला जो मसला उठा था, उसका संदर्भ दूसरा था. देश में कई लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की हत्या होने लगी थी. ऐसे लोगों की हत्या हो रही थी जो धर्म की संकीर्णता के खिलाफ आवाज उठा रहे थे लेकिन वे किसी एक धर्म का विरोध तो कर नहीं रहे थे. मैं एक बात कहूं. असल में मोदी के साथ जो कुनबा है और उनका जो अतीत रहा है, उससे लोगों को डर लगता है. अब देखिए, मोहन भागवत आए तो कहने लगे कि आरक्षण पर ही पुनर्विचार होना चाहिए. उनके कुनबे में और भी कई लोग हैं, जिनसे लोग डरते हैं. लेकिन असहिष्णुता या अराजकता वाली जो स्थिति है, वह एकबारगी से मोदी के आ जाने से ही देश में आ गई है, ऐसी बात नहीं. यह तो वर्षों से दुनिया में फैली है. अब बताइए जर्मनी दार्शनिकों का ही देश रहा और उससे ज्यादा असहिष्णु देश कौन हो सकता है, जहां हिटलर के समय में हजारों कत्ल हुए. दुनिया के और भी देशों में असहिष्णुता इसी तरह देखी जाती रही है.
आरक्षण पर आप क्या सोचते हैं? इसमें किसी बदलाव की जरूरत है?
आरक्षण तो अस्थायी व्यवस्था है. इसमें अभी बदलाव क्यों चाहिए? लोहिया कहते थे कि तीन चीजें चाहिए ताकि जो वंचित हैं उनका आत्मबल बढ़ सके. एक- सहभोज, दूसरा आरक्षण और तीसरा अंतरजातीय विवाह. आरक्षण न होता तो जो आज थोड़े-बहुत दलित या वंचित जाति के लोग कुछ अच्छी जगहों पर दिख रहे हैं, वे दिखते क्या? या किसी दलित या वंचित का बेटा बड़े संस्थानों में पढ़ने जाता क्या? नहीं. पीढ़ियों से जिस समाज का आत्मबल ही मरा रहा है, आकांक्षाओं को मारा जाता रहा है, उसे विशेष अवसर तो चाहिए ही ताकि उसमें आकांक्षा तो जगे, आत्मबल तो जगे. किसी एक जाति अथवा समूह का कोई एक आदमी जब किसी अच्छे पद पर जाता है तो उस जाति अथवा समाज के लोगों का आत्मबल बढ़ता है. उसमें भी आगे बढ़ने की आकांक्षा जगती है. इसलिए आरक्षण अभी तो चाहिए ही.
मोदी शासन के तकरीबन दो साल हो गए. मनमोहन सिंह भी दस साल रहे थे. आप आर्थिक-सामाजिक स्तर पर होने वाले बदलाव पर बारीक नजर रखते हैं. दोनों में क्या फर्क है?
दोनों की तमाम नीतियां एक हैं. बस एक ही फर्क है कि मनमोहन सिंह बोलते नहीं थे लेकिन काम वही करते थे जो आज मोदी कर रहे हैं. मोदी चूंकि प्रचारक रहे हैं इसलिए अपने कामों का आक्रामक तरीके से प्रचार करते हैं. मेक इन इंडिया का मोदी इतना शोर मचा रहे हैं. यही काम तो मनमोहन सिंह भी कर रहे थे. दुनिया भर से उद्योगपतियों को भारत बुलाकर निवेश करने को कह रहे थे लेकिन वे बता नहीं रहे थे. मोदी उसे बता रहे हैं. स्टाइल का फर्क है, बाकी कुछ नहीं. वैसे गहराई से देखें तो कांग्रेस और भाजपा में ही कोई फर्क नहीं है. बस दोनों के स्टाइल में ही फर्क है. कांग्रेस भाजपा के कम्युनल कार्ड का विरोध करती है तो भाजपा वाले भी कांग्रेस के शासन में हुए कार्यों का विरोध करते हैं. अब भाजपाई तो कम्युनल आधार पर भी कांग्रेस को घेर रहे हैं. सिख दंगों की फाइल उसी लिए तो खुली है. दोनों एक से ही हैं.
मार्क्स यूरोप से बाहर नहीं गए, सिर्फ फैक्ट्री की लड़ाई देखी, उसी पर अवधारणा दी, कम्युनिस्टों ने उसे इकलौता सूत्र मान लिया, इसलिए वे सिर्फ मजदूर संगठनों तक सिमट गए और राजनीति में मिट रहे हैं
कांग्रेस-भाजपा एक जैसे ही हैं. समाजवादियों को देखा ही जा रहा है. वामपंथियों से एक उम्मीद बचती है कि वे शायद आधारभूत सवालों को सुलझाएं. आप क्या सोचते हैं?
आप वामपंथियों से किसी बदलाव की उम्मीद करते हैं और ऐसा सवाल पूछ रहे हैं तो यह सवाल ही निरर्थक है. इस उम्मीद के साथ रहना ही बेमानी है. दुनिया में वामपंथियों के दो मॉडल रूस और चीन में हैं, दोनों का हाल देख लीजिए. रूस घोर तानाशाही का शिकार हुआ. चीन घनघोर पूंजीवादी राष्ट्र बन गया. कम्युनिस्ट तो राजनीतिक तौर पर दुनिया में खत्म हो रहे हैं, फिर उनसे क्यों उम्मीद कर रहे हैं. वे दुनिया में राजनीतिक तौर पर खत्म होंगे भी. उन्होंने मार्क्स के सिद्धांत को ही इकलौते सूत्र के रूप में आत्मसात कर लिया है और उसी से दुनिया में बदलाव चाहते हैं. ऐसा होगा क्या? मार्क्स तो यूरोप में रहते थे. यूरोप से बाहर गए नहीं. उन्होंने यूरोप में औद्योगिक क्रांति के समय फैक्टरियों की लड़ाई देखी. कहा कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, पूंजीपति हार जाएंगे. अब पूंजीपति सिर्फ मजदूरों पर जुल्म तो करते नहीं. वे गांव उजाड़ते हैं, नदी खत्म करते हैं, जंगल खत्म करते हैं, किसानों को खत्म करते हैं, आदिवासियों को उजाड़ते हैं. अब तो सिर्फ फैक्टरी के संघर्ष की बात रही नहीं. लेकिन कम्युनिस्ट अब भी वर्ग संघर्ष के नाम पर सिर्फ मजदूरों के एकीकरण से क्रांति की उम्मीद करते हैं तो उनका फैलाव या उनके जरिए बदलाव होने से रहा. इसलिए आप गौर कीजिए कि वामपंथी दलों के जो ट्रेड यूनियन हैं या मजदूर संगठन हैं, वे अभी भी बहुत मजबूत स्थिति में हैं लेकिन उनका राजनीतिक आधार सिमटता गया.
कास्ट बनाम क्लास में किसे महत्वपूर्ण मानते हैं?
अभी हाल ही में एक आयोजन में गया था. वहां वक्ता के तौर पर बुलाया गया था. विषय था- हिंदी इलाके में वामपंथियों की हालत ऐसी क्यों हुई? उसमें मैंने कास्ट बनाम क्लास पर ही बात कही थी. मैं यह मानता हूं कि जो क्लास है उसे ही इकलौता और मूल आधार नहीं माना जा सकता. क्लास में तो आज जो मजदूर है वह कल पैसा आने से भूमिहीन न होकर भूपति हो सकता है, फैक्टरी का मालिक बन सकता है. क्लास तो बदलता रहता है लेकिन कास्ट एक स्थायी तत्व है. इसकी शिफ्टिंग नहीं होती. जो हरिजन है, वह हरिजन ही रहेगा. जो भूमिहार है, वह भूमिहार ही रहेगा और उस आधार पर जो सामाजिक भेदभाव होते हैं, वह होते रहेंगे. वामपंथियों ने सिर्फ क्लास फैक्टर को पकड़ा, जो रूप-स्वरूप बदलता रहता है. कास्ट को पकड़ा ही नहीं, इसलिए वे हिंदी इलाके में राजनीतिक तौर पर कमजोर हुए और लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे नेताओं का उदय हुआ, वे बड़े नेता बन भी गए.
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने तो मिलकर बिहार में सरकार भी बना ली.
हां, वोट के लिए ऐसा मेल-मिलाप होता रहता है. नारे बदलते रहते हैं. कभी सामाजिक न्याय का नारा तो कभी कुछ. लेकिन नीतियां बदलंे तब तो. वैसे मैं नीतीश कुमार के एक काम का असर तो देख रहा हूं. उन्होंने लड़कियों को साइकिल देने का जो फैसला लिया था, उसका असर अब दिख रहा है. नीतीश को उसका फायदा भी मिला. महिलाएं उनके साथ हुईं. लेकिन अभी जो शराबबंदी का फैसला उन्होंने लिया है, वह बहुत हड़बड़ी में लिया. शायद बाद में बुद्धि आए. अब ताड़ी पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. एक बड़े समूह के जीविकोपार्जन पर ही रोक लगा दी. किसानों के पास भी बड़ी संख्या में ताड़ आदि के पेड़ हैं, वे उनका क्या करेंगे? ताड़ का कई तरीके से उपयोग किया जा सकता है. इस ओर उन्हें विचार करना चाहिए.
देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
बताया तो पहले ही. प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दुरुपयोग और दोहन देश के भविष्य को दांव पर लगा रहा है. कुछ लोग बहुत ताकतवर हो जाएंगे लेकिन यह देश और दुनिया रहने लायक ही नहीं बचेगी, तब क्या होगा? बाकी सारे मसले तो आते-जाते रहते हैं. यह बेसिक सवाल है, इस पर सोचना चाहिए. अब हम लोग गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. बस रुककर सोचना चाहिए. गांधी की प्रतिमाएं बनाकर और गांधी के विचारों को मारकर गांधी को याद करने का मतलब नहीं. गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चलाकर गांधी युग लाने का शोर करने का मतलब नहीं. गांधी को पहले ही डर था कि यह जो पूंजीवादी सभ्यता आएगी, वह शैतानी सभ्यता होगी. इसी शैतानी सभ्यता से बचना और लोगों को बचाना होगा.
कहावत है कि राजनीति में कुछ भी पुराना नहीं होता है. भारतीय राजनीति में तो नारे, जुमले, भाषण आदि में से कुछ भी पुराना नहीं हो रहा है. गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसी बातों पर साठ-सत्तर के दशक में जैसे नारे और भाषण दिए जाते थे वैसे आज भी दिए जा रहे हैं. अब कांग्रेस पार्टी का उदाहरण लीजिए. लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली हार के तुरंत बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, ‘इस चुनाव के माध्यम से जनता ने हमें एक मैसेज दिया है. इस मैसेज को मैंने और पार्टी ने सिर्फ दिमाग से नहीं, दिल से लिया है. कांग्रेस पार्टी में खुद को बदलने की क्षमता है. कांग्रेस के पास यह क्षमता है कि वह लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरे और कांग्रेस पार्टी यह करने जा रही है. हम और हमारे नेता कांग्रेस के संगठन में बदलाव करके एक ऐसी पार्टी आपके सामने लाएंगे जिस पर आपको गर्व होगा. मुझे लगता है आम आदमी पार्टी अपने साथ लोगों को जोड़ने में सफल रही है, जो हम लोग नहीं कर पाए हैं. हम उनसे सीख लेते हुए अपने आप में बेहतर बदलाव करेंगे.’
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह भाषण दिए हुए करीब तीन साल का वक्त बीत चुका है. इसके बाद से उनकी सरकार को लोकसभा चुनावों समेत कई राज्यों में पराजय का सामना करना पड़ा है. उस समय देश की अगुआई कर रही पार्टी आज लोकसभा में दहाई के आंकड़ों में सिमट गई है. कहा जाए तो कांग्रेस इतिहास के सबसे खराब दौर में है. दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. लोकसभा में हार के बाद से कई नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया है. उसके एक के बाद एक गढ़ ढह रहे हैं. जिन राज्यों में उनकी सरकार हैं, वहां असंतोष की खबरें आ रही हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता के आरोप लग रहे हैं. नेतृत्व के स्तर पर भी असमंजस की स्थिति है. बूढ़े हो चुके नेताओं और नए चेहरों के बीच गुटबाजी चल रही है. विपक्ष के रूप में उसकी भूमिका भी बेहतरीन नहीं रही है. भ्रष्टाचार का आरोप अब भी पार्टी को परेशान कर रहा है.
भाजपा सरकार के दो साल पूरे होने के साथ यह कांग्रेस की हार के दो साल पूरे होने का वक्त है. अब हमें यह भी देखना होगा कि पार्टी ने इन दो सालों में अपने आप में कितना बदलाव किया? बेहद खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने अपने पुनरोदय के लिए क्या किया? क्या इस दौरान कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया या फिर वह और बुरे दौर में पहुंच गई है. जिन वजहों से उसे हार का सामना करना पड़ा था उन पर कितना काम किया गया?
2014 के मई महीने में ही लोकसभा चुनावों का परिणाम आया था. यानी भाजपा सरकार के दो साल पूरे होने के साथ यह कांग्रेस की हार के दो साल पूरे होने का वक्त है. अब हमें यह भी देखना होगा कि पार्टी ने इन दो सालों में अपने आप में कितना बदलाव किया. बेहद खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने अपने पुनरोदय के लिए क्या किया? क्या इस दौरान कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया या फिर वह और बुरे दौर में पहुंच गई है? जिन वजहों से उसे हार का सामना करना पड़ा था, उन पर कितना काम किया गया? राहुल गांधी ने अपने द्वारा कही गई बातों पर कितना अमल किया और जनता के साथ उनका संवाद कितना बेहतर हुआ है या अगले तीन साल में कांग्रेस ऐसा क्या करेगी जिससे वह दोबारा सत्ता के करीब होती नजर आए?
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से कांग्रेस और कमजोर हुई है. इन दो सालों के दौरान राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा है. इन दौरान महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली जैसे कई राज्य उसके हाथ से फिसल गए हैं. कांग्रेस के लिए सिर्फ बिहार से कुछ अच्छी खबर आई, लेकिन इसका भी श्रेय उसके सहयोगी पार्टियों जेडीयू और राजद को जाता है. फिलहाल अभी कांग्रेस के लिए संतोष करने लायक कुछ भी नहीं है. हालांकि अगले कुछ सालों में कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में जाने से पहले कांग्रेस को इन राज्यों में जीत हासिल करनी पड़ेगी. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन से लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर असर पड़ेगा. कांग्रेस के पास भाजपा से बड़ा संगठन है लेकिन राज्य उसके हाथों से फिसल रहे हैं तो इसका असर पार्टी और संगठन दोनों पर पड़ेगा. कांग्रेस के साथ यह दिक्कत है कि उसके पास कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा नेता नहीं है. उत्तर प्रदेश और बिहार में उनके पास कोई बड़ा नाम नहीं है. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट जैसे नाम हैं, लेकिन उन्हें आगे बढ़ाने का काम पार्टी को करना पड़ेगा. लेकिन राहुल गांधी के सामने उन्हें कितनी तवज्जो पार्टी में दी जाएगी यह देखने वाली बात होगी. कुछ मिलाकर कांग्रेस पार्टी अभी कई विसंगतियों का शिकार है. उसे इसका तोड़ ढूंढ़ना होगा. इसका एक विकल्प परिवार के बाहर के कुछ नेताओं को तवज्जो देकर आगे बढ़ाने का भी हो सकता है.’
फोटो : विजय पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इन दो सालों को अलग तरीके से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘एक कहावत है रस्सी जल गई लेकिन बल नहीं गए. कांग्रेस में किसी ने भी हार की स्पष्ट जिम्मेदारी नहीं ली है. जो भी लोग 2014 की हार के लिए जिम्मेदार थे, वे आज भी अहम पदों पर बने हुए हैं. इसके चलते बहुत सारे कार्यकर्ताओं और विधायकों में असंतोष है, जो विभिन्न राज्यों में टूट के रूप में सामने आ रहा है. लोकसभा चुनावों में हार के लिए जिम्मेदार नेता वास्तव में नहीं चाहते हैं कि शीर्ष नेतृत्व कभी उन पर कोई कार्रवाई करे. कुल मिलाकर चाटुकारों का यह धड़ा शीर्ष नेतृत्व को नीचे स्तर पर संवाद करने ही नहीं दे रहा है. शीर्ष नेतृत्व के साथ यह दिक्कत है कि उसे लगता है कि ये लोग हटें तो उसे दिक्कत हो जाएगी. क्योंकि एक युवा टीम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं है.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक कहते हैं, ‘अगर पुराने राजवंशों की कमियों की झलक आज देखनी हो तो आप कांग्रेस को देख सकते हैं. यह पार्टी उन सारी बुराइयों का शिकार हो गई है. परिवारवाद, गुटबाजी, चुगलखोरी, भितरघात, आपसी कलह से सब इस पार्टी में दिख रहे हैं. सबसे खराब बात यह है कि पार्टी इन सबमें सुधार के लिए कुछ नहीं कर रही है. वह पिछले दो साल से इस इंतजार में बैठी है कि भाजपा सरकार बुरा करेगी तो हमारा भला होगा.’
‘कांग्रेस नेता एके एंटनी ने एक बात कही थी कि पार्टी की हिंदूविरोधी छवि बन रही है तो इसके बाद यह हुआ कि राहुल गांधी कुछ मंदिरों में घूम आए. मतलब आप जनता से संवाद करने के बजाय छवि बनाने के लिए मंदिर और मस्जिद की शरण ले रहे हैं. यह भी राजनीति को निचले स्तर पर ले जाने वाली बात हुई. फिलहाल कांग्रेस अभी वह सूत्र नहीं पकड़ पा रही है जो उसे मजबूती दे’
हालांकि विश्लेषकों के इस नजरिये से कांग्रेस के नेता इनकार करते हैं. कांग्रेस सचिव नसीब सिंह कहते हैं, ‘हम सब लोग मिलकर बेहतर काम कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर और उन राज्यों में जहां हम सत्ता में नहीं हैं पार्टी एक अच्छे विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है. इन जगहों पर हम सरकार की कमियों को जोर-शोर से उजागर कर रहे हैं. हमने हार से सबक लिया है और पार्टी में बदलाव की प्रक्रिया जारी है. जहां भी लोग निष्क्रिय थे उन्हें हटाकर सक्रिय लोगों को लाने का काम पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा किया गया है. यह काम लगातार चल रहा है. हमें बहुत सारा बदलाव देखने को भी मिल रहा है. हाल के चुनावों में जिन राज्यों में हमें हार का सामना करना पड़ा है वहां दो-दो, तीन-तीन बार हमारी सरकारें रही हैं. ऐसे में वे राज्य हमारी बपौती नहीं थे. लोकतंत्र में सरकारें बदलती हैं. इसमें किसी एक पार्टी के पास ठेका थोड़े ही रहता है. यह सिर्फ एंटी इनकंबेंसी का मामला है.’
वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरे देश में अपना जनाधार बढ़ा रही है. बिहार को देख लीजिए, गुजरात में हुए स्थानीय चुनावों में हमारा प्रदर्शन बेहतर रहा है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुए विधानसभा उपचुनावों में हमने बढ़िया प्रदर्शन किया है. तो कुल मिलाकर पिछले दो साल में मामला संतोषजनक है.’
कांग्रेस से जुड़े नेताओं का कहना है कि इन दो सालों के दौरान कांग्रेस पार्टी जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं से मेलजोल भी बढ़ा रही है. इंडियन यूथ कांग्रेस के पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड के सचिव श्रीनिवास बीवी कहते हैं, ‘इन दो सालों के दौरान कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर बहुत सारा काम किया है. यह काम पिछले कुछ सालों में बंद था. अब आप उत्तर प्रदेश को ही लें. इन दो सालों में हमने सारी विधानसभाओं का दौरा किया है. हमारा प्रयास है कि हर बूथ पर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता तैनात रहें. इस दौरान हमें अपार जनसमर्थन भी मिल रहा है. बड़ी संख्या में युवा हमारे साथ जुड़ रहे हैं. लोगों ने हमारे ऊपर भरोसा किया है और अब भी उनकी उम्मीदें हमसे जुड़ी हुई हैं. देश की जनता को पता है कि हम उनके एकमात्र विकल्प हैं.’
कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत नेतृत्व को लेकर है. राहुल गांधी अब भी पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद और उसके पहले भी हर दो-तीन महीने पर ऐसी खबरें आती रही हैं कि वे अध्यक्ष बनने वाले हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बीमार होने के बावजूद अभी कमान सोनिया गांधी के हाथ में है. पार्टी के वरिष्ठ नेता अभी राहुल के साथ कम ही दिखाई देते हैं.
कांग्रेस पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक इस पर कहते हैं कि कांग्रेस में लीडरशिप को लेकर भ्रम की स्थिति है. राहुल गांधी ने अभी पूरे तरीके से कमान संभाली नहीं है और सोनिया गांधी इस इंतजार में अब भी बैठी हैं कि वे सत्ता कब राहुल को सौप दें. इसके अलावा शीर्ष स्तर पर जो नेता हैं जैसे जर्नादन द्विवेदी, अहमद पटेल, मनमोहन सिंह, एके एंटनी आदि उनका संवाद सोनिया के साथ तो बेहतर है लेकिन वे राहुल गांधी के साथ सामंजस्य बिठा पाने में असफल रहे हैं. यानी अभी कांग्रेस को पुरानी लीडरशिप ही चला रही है. नई लीडरशिप जिसका आना बहुत जरूरी है, वह कमजोर ही रह गई है. राहुल गांधी की एक खराबी यह भी है कि वे लोकसभा में नियमित रूप से बोलते भी नहीं हैं. वहां कांग्रेस की तरफ से मोर्चा सिर्फ मल्लिकार्जुन खड़गे संभालते हुए दिखते हैं. इसके मुकाबले राज्यसभा में आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद और अंबिका सोनी ज्यादा बढ़िया ढंग से सरकार को चुनौती देते नजर आते हैं. यानी पार्टी के नेता के रूप में जो आभामंडल उनको बनाना चाहिए वह बनाने में वे बुरी तरह से असफल रहे हैं. राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस और देश को निराशा ही हो रही है. सोनिया गांधी अनंत काल तक कांग्रेस का नेतृत्व नहीं कर सकती हैं.
इस पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘हार-जीत तो राजनीति का एक हिस्सा है, लेकिन अभी कांग्रेस की स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है. जैसे वह खतरा देखते ही मिट्टी में अपना सिर छिपा लेता है वैसे ही कांग्रेस खतरे को देखकर झोल-मोल वाली स्थिति में आ जाती है. कांग्रेस इससे पहले भी इंदिरा और राजीव के जमाने में हारी थी, लेकिन इस बार की हार से कांग्रेस का आत्मविश्वास डगमगा गया है. इसमें सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व को लेकर है. इसे सुलझाने का प्रयास कभी नहीं किया गया. 2004 में ही सोनिया गांधी ने कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री पद की दावेदार नहीं हैं. अभी हमारे यहां जो प्रणाली चल रही है उसके हिसाब से पार्टी नहीं प्रधानमंत्री पद के दावेदार को भी ध्यान में रखकर जनता वोट देती है. अब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि 2019 में कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री का दावेदार कौन होगा. अभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं. राहुल गांधी नेता के रूप में सबके सामने हैं लेकिन उनके नाम की विधिवत घोषणा नहीं की गई है. इसको लेकर क्या कारण हैं इसका खुलासा नहीं हुआ है.’
‘प्रशांत किशोर जी का अलग रोल है. अब जमाना बदला है. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य माध्यम ज्यादा प्रभावी रोल अदा कर रहे हैं. इन्हें मैनेज करने में पार्टी की मदद करने के लिए उन्हें लाया गया है. ऐसा नहीं है कि पार्टी में उनको जगह दी जा रही है. वे सिर्फ सहायक की भूमिका में हैं. उत्तर प्रदेश में हमारी स्थिति थोड़ी खराब थी ऐसे में उनकी सेवाएं लेकर हम खुद को बेहतर बनाएंगे’
इसके अलावा कांग्रेस की एक समस्या परिवारवाद भी है. कुछ विश्लेषक कांग्रेस के पतन का कारण परिवारवाद बताते हैं. उनका मानना है कि कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि पार्टी परिवार के बाहर के लोगों को आगे बढ़ाना नहीं चाहती है. उसे लगता है कि इससे पार्टी में टूट हो सकती है. राशिद किदवई कहते हैं, ‘परिवारवाद कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी और मजबूरी है. गांधी परिवार के बगैर वह एकजुट नहीं रहेगी तो परिवार घोटालों में फंस रहा है. कार्यकर्ता उम्मीद लगाए बैठा है कि शीर्ष नेतृत्व से उसे कुछ बेहतर बदलाव के संकेत मिले तो गांधी परिवार चाह रहा है कि पार्टी भ्रष्टाचार के मामलों पर उसका बचाव करे. इस चक्कर में लीडरशिप गायब है. राहुल को अभी पूरी तरह से कमान सौंपी नहीं गई है. यह भी उलझन पैदा करता है. अभी कांग्रेस में शीर्ष 150 लोगों में वही लोग शामिल हैं जिन्हें सोनिया गांधी लाई थी. राहुल जब कमान संभालेंगे तो इनमें इनके लोग शामिल होंगे. वे जीत और हार की जिम्मेदारी लेंगे लेकिन यह हो नहीं रहा है. ऐसा नहीं है कि इन लोगों से राहुल का कोई मतभेद है. पर हमें ऐसा देखने को मिलता है. जब इंदिरा ने कमान संभाली तो जवाहरलाल नेहरू के करीबी संगठन से दूर हुए. इसके अलावा जब राजीव नेता बने तो संजय गांधी द्वारा लाए गए लोग दूर हुए. सोनिया के आने पर भी ऐसा हुआ. अब राहुल गांधी के आने के बाद भी यह होगा लेकिन इसमें जितना वक्त लगेगा कार्यकर्ताओं में उतनी ही निराशा फैलेगी. वैसे भी टीम राहुल और टीम सोनिया में एक तरह की अंतर्कलह चल रही है. एक समूह कोई नया आइडिया लेकर आता है तो दूसरा उसे खारिज कर देता है.’
हालांकि बेनी प्रसाद वर्मा इन आरोपों को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक नेतृत्व पर सवाल उठाया जा रहा है तो हम जहां तक महसूस किए हैं सोनिया और राहुल गांधी दोनों का कांसेप्ट क्लियर है. उन्हें पता है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है. दरअसल कांग्रेस का उत्थान तो होना ही है. वह आज होगा या कल होगा इसकी परवाह शीर्ष नेतृत्व को नहीं है. अब क्षेत्रीय पार्टियां तो हर चीज के लिए जल्दबाजी में रहती हैं लेकिन कांग्रेस कभी जल्दबाजी में नहीं रहती है.’
दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार के बाद दिए गए अपने भाषण में राहुल गांधी ने संगठन में सुधार करने की बात की थी. हालांकि पिछले काफी समय में कांग्रेस संगठन की कोई बैठक नहीं हुई है. न ही पार्टी पदाधिकारियों की स्थिति में बड़े पैमाने पर बदलाव किया गया है. राहुल गांधी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि 2014 में पार्टी की करारी हार के बावजूद वे कार्यशैली में बदलाव लाने में असफल रहे हैं. जानकार बताते हैं कि कांग्रेस में चितंन शिविर करने की परंपरा रही है. इस दौरान संगठन की बैठक होती है, लेकिन आखिरी शिविर बुराड़ी में 2010 में लगा था. इसके बाद ढंग से एक बैठक जयपुर में लोकसभा चुनावों से पहले हुई थी. चुनाव में हार के दो साल बीत चुके हैं. कांग्रेस संगठन की कोई बैठक ही नहीं हो रही है.
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‘कांग्रेस निश्चित तौर पर इस समय बेहाल स्थिति में है. भ्रष्टाचार के आरोप उसके ऊपर साबित हो या न हो लेकिन इसका संदेह ही उसे राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है. भाजपा इस समय सरकार में है. संघ जैसा राष्ट्रव्यापी संगठन उसके पास है. वह संगठित और सुव्यवस्थित तरीके से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का काम करेगी. भाजपा यह चाहेगी कि अगस्ता वेस्टलैंड मामले में जल्दी कुछ परिणाम न आए’
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने प्राइमरी की बात की थी यानी कि कार्यकर्ताओं से पूछा जाएगा कि चुनाव में प्रत्याशी कौन बनेगा. यह एक अच्छा प्रयास था लेकिन यह विफल रहा. फिर कुछ दिनों बाद से ही हाईकमान ने खुद ही फैसले लेना शुरू कर दिया. संगठन का दूसरा चुनाव 2015 मार्च-अप्रैल तक होना था, वह चुनाव हुआ. राहुल गांधी को अध्यक्ष बनना था पर वे बने नहीं मतलब राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयास भी विफल रहा. अब अगर राष्ट्रीय स्तर पर ही चीजें सुव्यवस्थित नहीं रहें तो नीचे के स्तर पर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ता है. कार्यकर्ताओं यहां तक कि विधायकों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता उनसे मिलते ही नहीं हैं. मणिपुर कांग्रेस में जो विवाद हुआ वह यही था. उस दौरान विधायकों ने आरोप लगाया कि हम तीन हफ्ते तक राहुल गांधी से मिलने का इंतजार करते रहे लेकिन उन्होंने मिलने का वक्त ही नहीं दिया. यही हिमाचल प्रदेश में हो रहा है. कुछ ऐसा ही उत्तराखंड में देखने को मिला जहां बागी विधायकों ने आरोप लगाया कि नेतृत्व उनकी बात सुनने को तैयार नहीं हो रहा है. अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधायकों की यही शिकायत रही है.
अब शीर्ष स्तर पर ही नेतृत्व को मजबूत नहीं बनाएंगे तो संगठन में निचले स्तर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और कार्यकर्ता ही आपकी बात जनता तक पहुंचाता है. इसके अलावा कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा था कि वे हार के कारणों पर मंथन करेंगे पर ऐसा कोई मंथन हुआ या नहीं हुआ पता नहीं चल पाया है. दरअसल ऐसा मंथन अंदरूनी होता भी है. निस्संदेह इसमें कांग्रेस की कमजोरियां सामने आएंगी और पार्टी चाहेगी कि यह सार्वजनिक न हो. लेकिन एक बार एके एंटनी ने एक बात जरूर कही थी कि पार्टी की हिंदूविरोधी छवि बन रही है तो इसके बाद यह हुआ कि राहुल गांधी कुछ मंदिरों में घूम आए. मतलब आप जनता से संवाद करने के बजाय छवि बनाने के लिए मंदिर और मस्जिद की शरण ले रहे हैं. यह भी राजनीति को निचले स्तर पर ले जाने वाली बात हुई. फिलहाल कांग्रेस अभी वह सूत्र नहीं पकड़ पा रही है जो उसे मजबूती दे.’
हालांकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता और कांग्रेस से जुड़े रमेश यादव इससे इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने शीर्ष स्तर के नेताओं से नहीं मिल पाते हैं. हर पार्टी में कार्यकर्ताओं के साथ संवाद की एक प्रक्रिया होती है और यह प्रक्रिया एक दिन में नहीं निर्मित होती है. आप दिल्ली में रहने वाले किसी भी शीर्ष नेता से वक्त लेकर मुलाकात कर सकते हैं और यह बेहद आसान है. मैं इलाहाबाद में रहता हूं और कांग्रेस के किसी भी नेता से दिल्ली में वक्त लेकर मिल सकता हूं और मिलता रहा हूं. कांग्रेस का संगठन बहुत बड़ा है. इतना बड़ा संगठन होने पर तमाम कमियां होती रहती हैं लेकिन संवादहीनता का जो आरोप लगाया जा रहा है वह गलत है. दरअसल ऐसे विधायक जो दूसरी पार्टियों से डील कर चुके होते हैं वो ऐसे बेबुनियाद आरोप लगाकर पार्टी को बदनाम करने की कोशिश करते हैं.’
इसके अलावा कांग्रेस और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले किसी से छिपे नहीं हैं. यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के मामलों की कतार लग गई थी. कांग्रेस सत्ता से दो साल से दूर है लेकिन आज भी भ्रष्टाचार का मसला उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है. अगस्ता वेस्टलैंड के मामले पर एक बार वह फिर बैकफुट पर है.
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘कांग्रेस निश्चित तौर पर इस समय बेहाल स्थिति में है. भ्रष्टाचार के आरोप उसके ऊपर साबित हो या न हो लेकिन इसका संदेह ही उसे राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है. भाजपा इस समय सरकार में है. उसके पास मशीनरी है. संघ जैसा राष्ट्रव्यापी संगठन उसके पास है. वह संगठित और सुव्यवस्थित तरीके से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का काम करेगी. भाजपा यह चाहेगी कि अगस्ता वेस्टलैंड मामले में जल्दी कुछ परिणाम न आए ताकि वह कांग्रेस को लंबे समय तक नुकसान पहुंचाती रहे. सोनिया गांधी का इटली से कनेक्शन भी कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है. मजेदार यह है कि इटली का जो कनेक्शन भाजपा के लिए हानिकारक होना चाहिए वह उल्टा हो रहा है. मतलब मुसोलिनी के फासीवाद से भाजपा और संघ के जुड़ाव की कोई चर्चा नहीं है. भाजपा की भी समझ में आ रहा है कि उन्हें भ्रष्टाचार का मामला धर्म और राष्ट्र के मसले से ज्यादा फायदा दे रहा है, इसलिए वह इस आरोप को बरकरार रखना चाह रही है.’
वैसे भी जहां तक बात भ्रष्टाचार की है तो कांग्रेस हमेशा नुकसान की स्थिति में रहती है. अब अगस्ता का मामला ले लीजिए. कानूनी तौर पर इसमें सोनिया गांधी का नाम कहीं नहीं है लेकिनराजनीतिक तौर पर इसका फायदा भाजपा उठा रही है. अब कांग्रेस भले ही कहे कि इसमें सोनिया शामिल नहीं हैं पर भाजपा यह समझा रही है कि इटली की अदालत ने सोनिया गांधी का नाम लिया है. इससे पहले बोफोर्स जैसा मामला हो गया है तो जनता आसानी से यह बात मान लेती है.
जानकार कहते हैं कि अगस्ता वेस्टलैंड का मामला भाजपा अब तीन साल तक चलाएगी. 2010 में कॉमनवेल्थ घोटाले का खुलासा हुआ था और उस समय कहा जा रहा था कि भाजपा 2014 तक इसे कैसे चलाएगी. लेकिन बाद में टूजी, कोल, रेलवे भर्ती, जमीन के घोटाले आते रहे और मामला लोकसभा चुनाव तक पहुंच गया. मजेदार यह है कि आज जब कांग्रेस विपक्ष में है तब भी घोटाला करने का आरोप उसी पर लग रहा है. जाने-अनजाने कांग्रेस की छवि भ्रष्टाचार करने वाली पार्टी की बन गई है. अब जैसे रॉबर्ट वाड्रा का मामला है. उनके खिलाफ कोई केस अभी तक फाइल नहीं हुआ है लेकिन आरोप लगता रहता है कि उन्हें कम दामों पर जमीन दी गई. हालांकि भ्रष्टाचार के मसले पर पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है. वह इसे सिर्फ कांग्रेस को बदनाम करने वाली साजिश के रूप में देखते हैं.
अमेठी के रहने वाले रिटायर्ड शिक्षक और कांग्रेस के कार्यकर्ता राम पियारे कहते हैं, ‘राजनीतिक रूप से भ्रष्टाचार जनता के लिए इतना बड़ा मुद्दा नहीं है. सभी को पता है कि ऐसे आरोप सिर्फ वोट लेने-देने के लिए लगाए जाते हैं. जनता अब समझ चुकी है कि भ्रष्टाचार का पाखंड करके भाजपा ने सत्ता तो हथिया ली लेकिन उसे सिर्फ बेवकूफ बनाया गया है. पिछले दो सालों में किसी भी कांग्रेसी नेता के ऊपर मुकदमा नहीं दायर किया गया है. जितने भी मामले चल रहे हैं वे पूर्व की कांग्रेस सरकार द्वारा ही दायर किए गए थे. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ भाजपा का पाखंड तोड़ पाने में असफल रही है. भले ही आज कांग्रेस को भ्रष्टाचार करने वाली पार्टी कहा जा रहा है लेकिन यह सच नहीं है. देश भर में हम जैसे गांधीवादी कार्यकर्ता और नेता भी इसी पार्टी से जुड़े हुए हैं. जो लोग कांग्रेस के कुछ भ्रष्ट लोगों के चलते पूरी पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं वे लोग इतिहास नहीं जानते. कांग्रेस एक संगठन नहीं, बल्कि सोच है जो हमारे दिल में है. दिमाग में है. यह भाईचारे, प्रेम, धर्मनिरपेक्षता, विकास और सबको साथ लेकर चलने की सोच है.’
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कांग्रेस पार्टी भाजपा का पाखंड तोड़ पाने में असफल रही है. शायद इसी सोच के चलते हाल में उसने चुनावों का मैनेजमेंट करने वाले प्रशांत किशोर की सेवाएं ली हैं. हालांकि कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जिसके पास पूरे देश भर में संगठन है. भले ही वह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हो. आपको देश के हर हिस्से में कांग्रेस के लोग मिल जाएंगे. कई दशकों तक कांग्रेस ने देश पर राज किया है. ऐसी पार्टी द्वारा प्रशांत किशोर की सेवाएं लिए जाने को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं. उनका कहना है कि प्रशांत किशोर आइडियोलॉजिकल व्यक्ति नहीं बल्कि मैनेजर हैं. वे मोदी, नीतीश के लिए काम कर चुके हैं अब वे कांग्रेस के लिए काम करेंगे. कल हो सकता है वे फिर मोदी के लिए काम करें. दूसरी बात हमें यह देखनी है कि प्रशांत किशोर करते क्या हैं. वह जो काम कर रहे हैं वह तो कायदे से पार्टी कार्यकर्ता का है. अब अगर पेड वर्कर लेकर आप काम करेंगे तो ऐसे कार्यकर्ताओं पर बुरा असर भी पड़ेगा जो आपके लिए मुफ्त में काम करते रहे हैं. इसके अलावा वे नारे दे सकते हैं, बैनर बना सकते हैं, सोशल मीडिया कैंपेन चला सकते हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से लोगों को जोड़ने का काम तो पार्टी को ही करना होगा. अगर प्रशांत किशोर यह भी करेंगे तो यह लोकतंत्र के लिए तो खतरनाक है ही कांग्रेस के लिए बहुत बुरा है.
‘कांग्रेसी नेता आपस में मजाक करते हैं कि बीजेपी के मंत्री हमें सत्ता में लाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं. भाजपा इसलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठी थी कि कांग्रेस उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. कांग्रेस इसलिए हाथ पर हाथ रखे बैठी है कि भाजपा उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. तो हमारे यहां ये विपक्ष की भूमिका हैे. कम्युनिस्ट पार्टियों की हालत खस्ता है. जो क्षेत्रीय शक्तियां हैं, उनकी केंद्र में कोई दावेदारी नहीं है’
पत्रकार अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने में बुराई नहीं है लेकिन कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम हमेशा पार्टी का नेतृत्व करता है. अभी भारत में जनता पार्टियों को वोट करती है. आप जुमले गढ़कर, बैनर-पोस्टर लगाकर कितने लोगों को अपने साथ जोड़ पाएंगे यह देखने वाली बात होगी. उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के इस प्रयोग का भी खुलासा हो जाएगा.’
वैसे भी राजनीति में सफलता बहुत मायने रखती है. राहुल गांधी अपनी छवि को बदलने के लिए तमाम प्रयोग पहले भी कर चुके हैं. ऐसे में उनकी टीम द्वारा उन्हें यह सुझाव दिया गया है कि एक बार जो प्रयोग सफल रहा है उसको आजमाकर देखा जाए तो वे प्रशांत किशोर की शरण में आ गए हैं. उन्हें लगता है कि अगर वे एक बार सफल हो गए तो तमाम आरोप जो उन पर लग रहे हैं उनसे उन्हें निजात मिल जाएगी. पार्टी में भी उनके कद को लेकर सवाल उठना बंद हो जाएगा. हालांकि प्रशांत किशोर जो काम अब पैसा लेकर करेंगे ऐसे कैंपेन की अगुआई कांग्रेस के कई नेता जैसे दिपेंदर हुड्डा, संदीप दीक्षित आदि और कार्यकर्ता बिना पैसे लेकर कर रहे थे. इस बात से पार्टी के नेताओं में असंतोष भी फैलेगा और उनमें अपने कद को लेकर असुरक्षा की भावना भी विकसित होगी.
हालांकि कांग्रेस के नेता इसे मानने से इनकार करते हैं. नसीब सिंह कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर जी का अलग रोल है. अब जमाना बदला है. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और दूसरे अन्य माध्यम ज्यादा प्रभावी रोल अदा कर रहे हैं. इन्हें मैनेज करने में पार्टी की मदद करने के लिए उन्हें लाया गया है. ऐसा नहीं है कि पार्टी में उनको जगह दी जा रही है. वे सिर्फ सहायक की भूमिका में हैं. उत्तर प्रदेश में हमारी स्थिति थोड़ी खराब थी ऐसे में उनकी सेवाएं लेकर हम खुद को बेहतर बनाएंगे.’ तो बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर से अभी हमारी मुलाकात नहीं हुई है. सुना है कि उसने नीतीश और मोदी की बढ़िया पब्लिसिटी की है. अब उसके आने के बाद से उत्तर प्रदेश में हर दिन हमारी कोई न कोई खबर होती है. यह बढ़िया बात है.’
कांग्रेस पार्टी पिछले दो साल से विपक्ष में है. विश्लेषक इस दौरान भी उसकी भूमिका को लेकर सवाल उठाते हैं. पिछले साल सोनिया गांधी पार्टी के सवालों को लेकर दो बार सड़कों पर भी उतरीं. इससे पार्टी कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ा, पर इतना पर्याप्त नहीं था. हाल ही में वे अगस्ता वेस्टलैंड के मुद्दे पर जंतर-मंतर पर थीं लेकिन यह अटैक से ज्यादा बचाव का मामला था. लोकसभा चुनावों में हार के बाद लंबे अज्ञातवास से वापस आए राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की आक्रामकता पिछले साल संसद के मानसून और शीत सत्र में दिखाई पड़ी. पार्टी ने छापामार रणनीति का भी सहारा लिया पर यह भी सड़कों पर नजर नहीं आया. कांग्रेस की विपक्ष की भूमिका और विपक्ष की पूरी राजनीति पर राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कुछ सवाल खड़े करते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि विपक्ष की भूमिका कैसे निभाई जाए, ये लोग बिल्कुल भूल गए हैं. भाजपा दस साल तक विपक्ष में थी. विपक्ष के तौर पर उसकी भूमिका ठीक नहीं थी. उसके नेताओं पर आरोप लगते थे कि वे सोनिया गांधी की पे-रोल पर हैं. जो लोग दस साल तक विपक्ष के नेता की भूमिका में रहे, उनमें से कोई ऐसा नहीं निकला जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन सके. जो केंद्र में विपक्ष की भूमिका में नहीं था, जो गुजरात में सत्ता में था, उसको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. उस समय विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली थे. प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तो इनके बीच से आना चाहिए था. यही एक अपने आप में सबसे बड़ी आलोचना है कि भाजपा ने विपक्ष की भूमिका कितने खराब तरीके से निभाई. कांग्रेस की विफलताओं की वजह से भाजपा को बहुमत प्राप्त हो गया. दूसरे, क्षेत्रीय शक्तियों की कमजोरी से. भाजपा ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया. चुनाव अच्छी तरह लड़ा, यह सही बात है, लेकिन दस साल तक कोई ऐसा उल्लेखनीय काम नहीं किया जो विपक्ष में रहकर करना चाहिए था. अब यही कांग्रेस कर रही है. कांग्रेसी नेता आपस में मजाक करते हैं कि बीजेपी के मंत्री हमें सत्ता में लाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं. भाजपा इसलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठी थी कि कांग्रेस उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. कांग्रेस इसलिए हाथ पर हाथ रखे बैठी है कि भाजपा उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. तो हमारे यहां ये विपक्ष की भूमिका है. कम्युनिस्ट पार्टियों की हालत खस्ता है. जो क्षेत्रीय शक्तियां हैं उनकी केंद्र में कोई दावेदारी नहीं है. विपक्ष की भूमिका निभाने वाली जो आम आदमी पार्टी है, वह भी छोटी पार्टी है, छोटे स्टेट में आधी-अधूरी सरकार है. वह कुछ आवाज उठाती रहती है. दरअसल विपक्ष की राजनीति हो नहीं रही है.’
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वहीं विपक्षी दलों को एकजुट करके नेतृत्व करने में भी कांग्रेस कई बार असफल दिखाई देती है. जदयू, राजद से गठजोड़, उत्तर प्रदेश में साथी दल की तलाश, बंगाल में वाम दलों का सहारा या फिर संसद में विभिन्न दलों को साथ लेकर चलने की कवायद इसी का परिणाम है. कांग्रेस को यह लग रहा है कि वह अभी भाजपा का सीधा मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. कांग्रेस के लिए फायदेमंद बात यह है कि अभी तमाम क्षेत्रीय दलों की सहानुभूति उसके साथ है. डीएमके, राजद, जदयू, रालोद, बसपा, वाम दल अभी उसके साथ खड़े नजर आ जाते हैं. जानकारों का मानना है कि कांग्रेस को उत्थान के लिए क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पड़ेगा. कांग्रेस को एकला चलने का सिद्धांत छोड़ना पड़ेगा. उसके लिए नुकसानदेह बात यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी अभी कांग्रेस का नेता नहीं बन पा रहे हैं. अभी सारा दारोमदार सोनिया गांधी पर है. वही पार्टी को अपने तरीके से आगे बढ़ा रही हैं.
हालांकि राशिद किदवई इसे दूसरे तरीके से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास विभिन्न मुद्दों को लेकर स्पष्टता का अभाव है. अभी वह यह नहीं समझ पा रही है कि उसे धर्मनिरपेक्ष पार्टी रहना है कि उसका झुकाव हिंदुओं या मुसलमानों की तरफ रहे. भाजपा और संघ इस मामले में बाजी मार जाते हैं. उनका एजेंडा स्पष्ट है. भले ही वह सही या गलत हो. ऐसा आप राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ को लेकर भी देख सकते हैं. कांग्रेस बंगाल में वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है, तो केरल में उन्हीं के खिलाफ मैदान में है. अब यह गठजोड़ किस बुनियाद पर किया गया है. यह समझ में नहीं आता है. यह कार्यकर्ताओं के लिए भ्रम की स्थिति पैदा करता है.’
‘अभी इस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अगर यहां कुछ गलत भी हो रहा है तो हमारे सामने ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके सामने अपनी बात कह सकें और सुधार की उम्मीद कर सकें. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक आत्मकेंद्रित और चाटुकार तंत्र के नियंत्रण में है. कोई भी अगर इस तंत्र को चुनौती देने की कोशिश करता है तो सब मिलकर उसको निपटा देते हैं’
हालांकि कांग्रेस के साथ परेशानियां और भी हैं. दिल्ली के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का कहना है, ‘अभी इस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अगर यहां कुछ गलत भी हो रहा है तो हमारे सामने ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके सामने अपनी बात कह सकें और सुधार की उम्मीद कर सकें. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक आत्मकेंद्रित और चाटुकार तंत्र के नियंत्रण में हैं. कोई भी अगर इस तंत्र को चुनौती देने की कोशिश करता है तो सब मिलकर उसको निपटा देते हैं. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. इस कारण कोई सही बात करने की हिम्मत ही नहीं कर पाता है. इस सबका परिणाम यह हुआ है कि आत्मकेंद्रित, आत्मसंतुष्ट, दंभी और चाटुकार नेताओं का अखाड़ा बन गई है. यही कारण है कि पार्टी अपने पतन के शीर्ष पर है.’
हालांकि वक्त बुरा हो तो कई चुनौतियां सामने खड़ी हो जाती है. कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा है. हालांकि पार्टी के भीतर बदलाव के लिए अब भी वक्त है. कई राज्यों में चुनाव होने हैं जहां बेहतर करके कांग्रेस भाजपा का खेल बिगाड़ सकती है. देश में अगले साल हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे. कांग्रेस को पंजाब में कुछ उम्मीद हो सकती है. पर सफलता तभी मानी जाएगी जब वहां उसकी सरकार बने. राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे. कांग्रेस ने यहां के लिए तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. परिणाम अगर उसके पक्ष में रहे तो निस्संदेह 2019 के लोकसभा चुनावों की तस्वीर दूसरी होगी. इसके अलावा 2017 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे. इन चुनावों से कांग्रेस के रसूख का पता लगेगा. राज्यसभा में कांग्रेस की बढ़त धीरे-धीरे कम होती जाएगी. अभी तक कांग्रेसी राजनीति का बड़ा सहारा यह सदन है. अगले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले 2018 में जिन राज्यों के चुनाव होंगे वे माहौल बनाएंगे. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर है. यहां कांग्रेस की असली परीक्षा होगी. कर्नाटक में प्रतिष्ठा की लड़ाई होगी, क्योंकि यही एक बड़ा राज्य अभी कांग्रेस शासित है. दरअसल कांग्रेस को अगर सफल होना है तो इन राज्यों पर अभी से ध्यान देना होगा. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘कांग्रेस को पुनरोदय के लिए कोई बहुत बड़ा काम नहीं करना है. उसे बस आगामी तीन सालों में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों पर ध्यान देना है. इन राज्यों में यदि वह बेहतर प्रदर्शन करती है तो यह प्रदर्शन उसके लिए ताकत के टैबलेट का काम करेगा. अगर ऐसे ढेर सारे टैबलेट कांग्रेस ने जुटा लिए तो 2019 की तस्वीर दूसरी होगी.’
अब भारतीय मानचित्र का गलत चित्रण करना भारी पड़ सकता है. केंद्र सरकार इस संबंध में एक विधेयक तैयार कर रही है. इसके पारित हो जाने के बाद कंपनियां और एजेंसियां सरकार की तरफ से बिना लाइसेंस के कोई मैप ऑनलाइन नहीं दिखा सकेंगी. इस विधेयक के अनुसार भारत का गलत नक्शा दिखाने वालों को अधिकतम सात वर्ष की जेल हो सकती है और उन पर 100 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. भू-स्थानिक सूचना नियमन विधेयक, 2016 के मसौदे के अनुसार भारत से जुड़ी किसी भू-स्थानिक सूचना को प्राप्त करने, उसका प्रचार-प्रसार करने, उसको प्रकाशित करने या उसमें संशोधन करने से पहले शासकीय प्राधिकार से अनुमति लेना आवश्यक होगा. कुछ सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों द्वारा हाल ही में जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान और अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा बताए जाने की पृष्ठभूमि में सरकार ने यह कदम उठाया है. हाल ही में ट्विटर ने कश्मीर की भौगोलिक स्थिति को चीन में और जम्मू को पाकिस्तान में दिखाया था, जिसका भारत सरकार ने विरोध किया था, जिसके बाद इसमें सुधार किया गया था.
चीन ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की संपूर्ण रचनावली का 33 खंडों में अनुवाद प्रकाशित किया है. इन 33 खंडों में कुल 1.6 करोड़ शब्द हैं. टैगोर की 155वीं जयंती से पहले जारी हुए इस अनुवाद को पांच साल से ज्यादा का वक्त लगाकर चीन के इंटरनेशनल रेडियो, वहां की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ, कम्युनिस्ट पार्टी के नेशनल पार्टी स्कूल और यहां तक कि चीनी फौज से जुड़े 18 अनुवादकों ने संपन्न किया है. अनुवादकों ने इस काम में भारत सरकार या किसी भी भारतीय संस्था का कोई सहयोग नहीं लिया. अलबत्ता बांग्लादेश के बौद्धिकों ने इस परियोजना में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और चीनी अनुवादकों को जहां भी भाषा की कोई समस्या हुई, वहां अपनी क्षमता भर उनकी सहायता की. अनुवादकों का कहना है कि उन्हें उन शब्दों का भाव समझने में सबसे ज्यादा मुश्किल आई जो संस्कृत के ज्यादा करीब हैं, क्योंकि बांग्लादेशी विद्वान इस काम में उनकी कुछ खास मदद नहीं कर पाते थे.
एक राजनीतिक परिवार से होने के बावजूद अभिनय का ख्याल कब आया?
मैं बिहार के मुजफ्फरपुर शहर से हूं. मैं ऐसे परिवार से हूं जिसने एक ही काम सीखा है और वो है पढ़ाई-लिखाई. मैंने दिल्ली में रहकर पढ़ाई की है. मैं एक अच्छी स्टूडेंट रही हूं और एमबीए किया है. कॉलेज के समय में थियेटर करने के दौरान ही मुझे लगा कि अभिनय ही करना है. मेरे परिवार का कला और संगीत से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा है. हमारे यहां ये परंपरा रही है कि हमने आपको पढ़ा दिया है. इसके आगे की जिम्मेदारी आपकी है कि आप जो करना चाहें, जैसे चाहें, कर सकते हैं. परिवार की ओर से ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम ये नहीं कर सकती, वो नहीं कर सकती. इसलिए पढ़ाई-लिखाई के बाद मैंने अभिनय को बतौर करियर चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये एक ऐसा पेशा है जो आपको कई जिंदगियां जीने का मौका देता है. बाकी आप अगर डॉक्टर या इंजीनियर बनते हो तो ताउम्र उसी भूमिका में होते हो.
राजनीतिक घरानों से तमाम लोग फिल्मों में अभिनय की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन ऐसे घरानों से आए लोगों में से कुछ को ही इस डगर पर सफलता मिल पाती है. आपका क्या ख्याल है?
मेरे परिवार से तमाम लोग राजनीति में हैं फिर भी बॉलीवुड में कदम रखने के लिए परिवार से मुझे कोई खास मदद नहीं मिली. यहां तक पहुंचने का मेरा संघर्ष खुद का है जो आज भी जारी है. हालांकि मैं ये भी कहूंगी कि ये संघर्ष ऐसा भी नहीं रहा कि मुंबई में मुझे कभी खाने या फिर रहने की दिक्कत हुई हो. जहां तक राजनीतिक परिवारों से आने वाले कलाकारों के इंडस्ट्री में स्थापित न हो पाने की बात है तो मुझे लगता है कि ये राजनीतिक परिवार से आने का मसला नहीं है. जो भी कलाकार यहां (इंडस्ट्री से) के नहीं हैं उन्हें इस तरह की दिक्कत पेश आती ही है. बॉलीवुड में एक फिल्म बनती है तो या तो स्थापित कलाकारों को लिया जाता है या फिर उन लोगों को जो फिल्म में पैसा लगाते हैं. मतलब ये पूरी दुनिया लेन-देन पर चल रही है.’
रेखा की फिल्म ‘सुपर नानी’ के तकरीबन दो साल बाद आपकी फिल्म ‘लाल रंग’ रिलीज हुई है. कोई खास वजह?
जो भी आप काम करते हो उसके पीछे एक प्रेरणा होती है. बीच में मां का निधन हो जाने के बाद लगा था कि अब ये काम किसके लिए करूंगी. ऐसा लग रहा था कि अब फिल्मों से वैसा जुड़ाव नहीं रख पाऊंगी. इसलिए कुछ दिनों तक इंडस्ट्री से दूर रही लेकिन ऐसा भी नहीं था कि पूरी तरह से गायब थी. बीच में रेखा जी के साथ फिल्म ‘सुपर नानी’ करने के बाद टीवी के लिए काम किया. पिछले साल ही रबींद्रनाथ टैगोर की कहानियों पर आधारित और अनुराग कश्यप के निर्देशन में बने टीवी सीरियल ‘दुई बोन’ (दो बहन) में काम किया. यशराज फिल्म्स की टीवी सीरीज ‘पावडर’ में भी अभिनय किया. इसके अलावा तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘यारा’ इसी साल रिलीज होने वाली है. ये विद्युत जामवाल, श्रुति हसन और अमित साध की फिल्म है. इसमें मैं अमित के अपोजिट कास्ट की गई हूं. हालांकि इस फिल्म में लड़कियों का कोई खास रोल नहीं था, लेकिन तिग्मांशु सर ने बोला कि मुझे इसमें काम करना चाहिए इसलिए मैंने काम किया और फिर मुझे फिल्म ‘लाल रंग’ मिल गई. ‘लाल रंग’ में मेरा किरदार रणदीप हुडा और अमित ओबरॉय की मदद खून की तस्करी करने में करता है.
2009 में फिल्म ‘एक दस्तक’ से बॉलीवुड में दस्तक देने के बाद अभी भी फिल्मों में आप छोटे किरदारों में ही नजर आती हैं?
फिल्म ‘एक दस्तक’ में मेरा लीड किरदार था. इसके अलावा जो भी रोल मुझे मिला मैंने उसे पूरी ईमानदारी से निभाया है, इस बात की परवाह किए बगैर कि वे छोटे किरदार हैं या फिर बड़े. मुझे लगता है कि हम जैसे लोग जो ऑडिशन से आते हैं उन्हें भी बड़े और अच्छे रोल मिलने चाहिए. मैंने अलग-अलग तरह का अभिनय किया है. ‘लाल रंग’ में भी मेरा किरदार काफी मजेदार और प्रभाव छोड़ने वाला है, पर अभी उस तरह का मामला नहीं बन पाया है कि मुझे और अच्छे किरदार मिल सकें. अभी अभिनय में बहुत विकल्प नहीं मिल रहे हैं तो अभी असली लड़ाई इसी बात को लेकर है कि मुझे अच्छे किरदार मिलें और मैं अच्छा परफॉर्म कर सकूं.
बीते दिनों आपने बॉलीवुड के बिजनेस मॉडल पर एक रिपोर्ट भी लिखी है? क्या सौ करोड़ क्लब का मॉडल बॉलीवुड और इसके दर्शकों के लिए ठीक है?
देश में शिक्षा का मॉडल आपको पता है. इसके हिसाब से आप परीक्षा देते हो और पास होकर अगली कक्षा में चले जाते हो, लेकिन बॉलीवुड में ऐसा नहीं है. इंडस्ट्री में पढ़ाई, प्रतिभा या अच्छी फिल्में महत्व नहीं रखती हैं. महाराष्ट्र में सरकार ने 45 प्रतिशत का मनोरंजन कर लगा रखा है. जैसे सौ रुपये किसी फिल्म का टिकट है तो सरकार पहले ही कर के रूप में 45 रुपये ले लेती है. कुछ पैसे डिस्ट्रीब्यूटर और मल्टीप्लेक्स वालों में बंट जाते हैं. कुल मिलाकर 100 रुपये में से तकरीबन 27 रुपये ही प्रोड्यूसर तक पहुंच पाते हैं. ऐसे में जब सौ करोड़ की फिल्म वो बनाएगा तभी वह मुनाफे के बारे में सोच सकता है. छोटी फिल्मों के साथ कमाई की बात आप सोच भी नहीं सकते. ये सारा खेल पैसों का हो चला है.
‘आजकल ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे’
आपने माधुरी दीक्षित और जूही चावला अभिनीत ‘गुलाब गैंग’ का गाना ‘लाज शरम’ भी लिखा है. इसकी क्या कहानी है?
फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के निर्देशक सौमिक सेन मेरे अच्छे मित्र हैं. उन्होंने मुझसे बोला था कि वे एक महिला केंद्रित फिल्म बना रहे हैं और इसके लिए एक गाना चाहते हैं जिसमें महिलाएं अपने कर्तव्य और जिंदगी को सेलिब्रेट करती नजर आएं. बोल आसान हों ताकि आम लोगों को भी समझ में आ जाएं. उस समय मुझे फिल्म का नाम तक नहीं मालूम था. मैं लिखती-पढ़ती भी रहती हूं. मैंने कविताएं भी लिखी हैं इसलिए उन्होंने ऐसा कहा था. तब मैंने उनसे कहा कि गाने का तो पता नहीं क्योंकि मैंने गाना नहीं लिखा लेकिन मैं एक कविता लिख सकती हूं. ये कविता ही ‘लाज शरम’ थी जिसे फिल्म में गाने के रूप में शामिल किया गया. मुझे इस बात की भी खुशी है कि ये गाना माधुरी दीक्षित पर फिल्माया गया है.
आप सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेती हैं. कई विज्ञापनों में नजर आ चुकी हैं और फिल्मों से जुड़ी रिपोर्टिंग भी करती रहती हैं. इतने अलग-अलग माध्यमों के काम में कैसे तालमेल बिठा पाती हैं? क्या आपको नहीं लगता कि किसी एक माध्यम पर आपको अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए?
मुझे ये देखकर दुख होता है कि इतनी इंटेलीजेंट अभिनेत्रियों का इस्तेमाल डिजाइनर कपड़े बेचने और फैशन के टूल के तौर पर किया जा रहा है जबकि वे और भी बहुत कुछ कर सकती हैं. ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे. डिजाइनर कपड़े पहनकर फोटो शूट कराने में मेरी कभी भी रुचि नहीं रही. अगर मैं इन चीजों पर ध्यान दूं तो मैं विकसित नहीं हो पाऊंगी और मेरा सारा समय इन्हीं सब कामों में निकल जाएगा, इसलिए मैं समय निकालती हूं ताकि कुछ लिख सकूं, कुछ पढ़ सकूं, सामाजिक कार्यों में शामिल हो सकूं और समाज को कुछ देकर जा सकूं. जहां तक ध्यान केंद्रित करने की बात है तो अब भी अभिनय मेरी प्राथमिकता है, लेकिन बतौर इंसान हमारी दूसरी भी जिम्मेदारियां होती हैं.