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‘महिला आयोग से मदद नहीं, पुलिस उड़ाती है मजाक’

फोटो ः विजय पांडेय
फोटो: विजय पांडेय
फोटो: विजय पांडेय

कौन

बलात्कार की शिकार युवतियां

कब

10 मई, 2016 से

कहां

जंतर मंतर, दिल्ली

क्यों

शादी का झांसा देकर बलात्कार करने के मामले में न्याय न मिलने और पुलिस द्वारा आरोपियों को बचाने और दिल्ली महिला आयोग के उदासीन रवैये को लेकर.

अर्चना, यासमीन, साधना और प्रीति कुछ समय पहले तक एक-दूसरे से अनजान थीं. चारों न्याय की आस में लंबे समय से दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) के चक्कर काट रही थीं. एक दिन आयोग के दफ्तर में ही उनकी मुलाकात हाे गई, जिसके बाद उन्हें पता चला कि उनके दर्द की दास्तान लगभग समान है. 

इन युवतियों का दावा है कि इन सभी के मामलों में पुलिस ने जांच के नाम पर लीपापोती करके आरोपियों को बचाने की कोशिश की थी. खुद पुलिस आरोपियों के साथ समझौता करने का दबाव उन पर बना रही है. डीसीडब्ल्यू में भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है. बस तारीख पर तारीख मिलती जा रही थीं. इसके बाद चारों ने फैसला किया कि वे आगे की लड़ाई साथ मिलकर लड़ेंगी. साधना बताती हैं, ‘डीसीडब्ल्यू में सुनवाई न होते देख हमने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) का रुख किया. वहां मेरी मुलाकात पहले ही दिन आयोग की सदस्य सुषमा साहू से हुई. लेकिन यहां से भी कोई मदद नहीं मिली.’

दिल्ली पुलिस कमिश्नर, सीबीआई से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश तक को पत्र लिखने के बावजूद मदद नहीं मिली ताे इन युवतियों ने मई की चिलचिलाती गर्मी में दिल्ली के जंतर मंतर पर भूख हड़ताल शुरू कर दी. पांचवें दिन साधना की तबीयत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया जिसके बाद ये भूख हड़ताल छोड़कर अनिश्तिकालीन धरने पर बैठ गईं. उनकी मांग है कि उनके गुनहगारों को जल्द से जल्द सलाखों के पीछे भेजा जाए और जो जांच अधिकारी आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हें नौकरी से हटाया जाए. अगर उन्हें न्याय नहीं दिया जाता तो इच्छामृत्यु प्रदान की जाए. इस संबंध में वे  प्रधानमंत्री को भी पत्र लिख चुकी हैं.

इनमें से एक कानपुर की यासमीन दिल्ली में नौकरी करती थीं. उनके अनुसार, दिल्ली में उनकी मुलाकात नितिन से हुई. एक दिन नितिन ने उन्हें नशीला पदार्थ खिलाकर शारीरिक संबंध बना लिए और उनकी आपत्तिजनक तस्वीरें लेकर ब्लैकमेल करने लगा. उन्होंने पुलिस से शिकायत की धमकी दी तो उसने शादी की इच्छा जताई. यासमीन के अनुसार, दो साल तक वह उन्हें शादी का झांसा देकर  संबंध बनाता रहा और फिर शादी से मुकर गया. तब यासमीन ने उसके खिलाफ केस दर्ज करा दिया.

वहीं झारखंड के जमशेदपुर की रहने वाली अर्चना का परिचय दिल्ली के वरुण से 2013 में एक सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए हुआ. महीने भर बाद ही वरुण ने अर्चना से शादी करने की बात कही. अर्चना तब कर्नाटक में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थीं. कुछ ही महीने बाद उनकी नौकरी दिल्ली में लग गई. उनके मुताबिक, यहां शादी का झांसा देकर वरुण ने उनके साथ संबंध बनाए. इस बीच उसने अर्चना के माता-पिता से भी मुलाकात की. पर अर्चना को अपने परिवार से कभी नहीं मिलाया. पिछले साल नवंबर में उन्हें पता चला कि वरुण पहले ही शादीशुदा है. अर्चना बताती हैं, ‘वरुण ने अप्रैल 2015 में किसी और से शादी कर ली थी और यहां मुझे भी शादी का भरोसा देकर संबंध बनाता रहा. इसके बाद मैंने उसके खिलाफ केस दर्ज करा दिया.’

इनके इतर साधना का रिश्ता सेना में लेफ्टिनेंट शिवमंगल से 2012 में तय हुआ. आगरा निवासी साधना तब नोएडा में नौकरी कर रही थीं. साधना के अनुसार, एक बार छुट्टियां बिताने शिवमंगल दिल्ली आया और साथ रुकने की जिद की. इसके बाद संबंध बनाने पर जोर दिया. शादी से पहले इससे इनकार करने पर उसने उनकी मांग में सिंदूर भर दिया और संबंध बनाए. इसके दो साल बाद शिवमंगल और उसके परिवारवालों ने दहेज के लालच में साधना से रिश्ता तोड़कर कहीं और जोड़ लिया.

‘पुलिसवाले हमसे अछूत सा व्यवहार करते हैं. मजाक बनाते हैं हमारा. धरने के दौरान एसीपी साहब ने हमें मिलने बुलाया, पांडव नगर एसएचओ भी वहां मौजूद थे. वहां हमसे जिस अभद्रता से बात की गई उसे बता नहीं सकती. अब किससे करें शिकायत इसकी?’

चौथी अनशनकारी पुणे की 21 वर्षीय प्रीति हैं जो नौकरी की तलाश में मुंबई गई थीं. यहां एक सहकर्मी के जरिए उनकी मुलाकात आईआईएम अहमदाबाद के 40 वर्षीय प्रोफेसर रजनीश से हुई. प्रीति के मुताबिक, कुछ दिनों के बाद रजनीश ने उनसे शादी करने की बात कही. प्रीति ने मना कर दिया. लेकिन बाद में वे मान गईं. इस बीच उसी सहकर्मी ने प्रीति को एजाज नामक व्यक्ति से भी मिलाया. प्रीति को शादी के लिए मनाने में उसका भी योगदान रहा. कुछ दिनों बाद प्रीति दिल्ली आ गईं. तब रजनीश अक्सर दिल्ली आकर उनके फ्लैट पर रुकता था. उनके बीच संबंध भी बने. प्रीति के अनुसार, ऐसा करीब दो साल तक चला, फिर पता चला कि रजनीश शादीशुदा है और उसके बच्चे भी हैं. तब प्रीति को छह माह का गर्भ था. इसके बाद रजनीश ने प्रीति से संपर्क तोड़ लिया. यह बात प्रीति ने एजाज को बताई तो वह मुंबई से गुड़गांव आया और जादू-टोना करके सब ठीक करने का आश्वासन दिया. प्रीति के मुताबिक, इस दौरान एजाज ने उन्हें ‘मांत्रिक जल’ पिलाया था जिसे पीते ही वह बेसुध हो गईं और एजाज ने उनके साथ बलात्कार किया.

इन चार युवतियों में से तीन मामले पूर्वी दिल्ली के पांडव नगर थाने के हैं. इन तीनों मामलों से संबंधित युवतियों का आरोप है कि उनका मेडिकल टेस्ट तक नहीं कराया गया. साधना के मुताबिक, उनकी एफआईआर 7 अक्टूबर, 2015 को दर्ज की गई थी, पर अब तक पुलिस ने इसे सेना से जुड़ा मामला बताते हुए शिवमंगल पर कोई कार्रवाई नहीं की है. साधना का दावा है कि आरोपी ने जांच अधिकारी को घूस खिलाई है, जिसके उनके पास प्रमाण भी हैं. तीनों ही मामलों में एक समानता यह भी है कि जांच अधिकारी पर एफआईआर और चार्जशीट में तथ्यों को छिपाने का आरोप है. अर्चना बताती हैं, ‘मेरे एफआईआर दर्ज कराने के बाद भी वरुण को गिरफ्तार नहीं किया गया. काफी मशक्कत के बाद मैं उसे गिरफ्तार करा सकी. फोन रिकॉर्डिंग्स, फोटो, टेक्स्ट मैसेज मामले में ठोस सबूत हो सकते थे, पर उन्हें चार्जशीट में शामिल ही नहीं किया गया. जो गवाह हो सकते थे, उन्हें नहीं बनाया. चार्जशीट  देखी तो पता चला मेरे बयान बदले हुए थे. चार्जशीट में आरोपी की शादी की बात तक नहीं दर्शाई गई. इस सबका फायदा उठाकर वरुण जमानत पर रिहा हो गया. जांच अधिकारी ने मुझ पर पैसे लेकर समझौता करने का दबाव बनाया.’

यासमीन कहती हैं, ‘मुझे कानून की ज्यादा जानकारी नहीं थी. दो दिन चक्कर कटाने के बाद मेरी तीन पेज की एफआईआर को बड़ा बताकर आधे पेज में कर दिया गया. कानूनी भाषा का हवाला देकर मुझसे लिखवा दिया गया कि मैं लिव-इन रिलेशनशिप में थी. मेरी मां को अकेले में ले जाकर केस वापस लेने का दबाव बनाया और बदनामी का डर दिखाकर उनसे भी यह लिखवा लिया. इसकी शिकायत मैंने डीसीडब्ल्यू में भी की. चार्जशीट में फोन रिकॉर्डिंग्स और फोटो का कहीं जिक्र नहीं किया, पूछने पर कहा कि 376 में इनकी कोई जरूरत नहीं, धारा ही काफी है. नशे की दवाई वाली बात घुमा दी गई. मुझ पर जानलेवा हमला भी हुआ. मैंने केस दर्ज करवाया पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.’

साधना का भी आरोप है कि उनकी एफआईआर के साथ ऐसा ही खिलवाड़ किया गया था. वहीं प्रीति के मामले में आरोपी रजनीश को पुलिस ने गिरफ्तार तो कर लिया था पर खुद को नपुंसक साबित करके वह जेल से बाहर आ चुका है. वे बताती हैं, ‘मेरी शिकायत बाराखंबा रोड थाने में 29 दिसंबर, 2015 को दर्ज हुई थी. लेकिन उसके बाद से ही आरोपी से समझौता करने का दबाव जांच अधिकारी बनाने लगीं. मैंने दिल्ली के मुख्यमंत्री के जनता दरबार में न्याय की गुहार लगाई तब आरोपी को गिरफ्तार किया गया.’ प्रीति ने 3 मार्च को बच्चे को जन्म दिया. 5 मार्च को अदालत में प्रीति की गैरमौजूदगी में आरोपी जेल से रिहा हो गया. 

‘बिकॉज आई एेेम अ गर्ल, हू केयर्स?’ नाम का कैंपेन चलाने वाले नवनीत शास्त्री इन युवतियों की लड़ाई में उनके साथ खड़े हैं. वे बताते हैं, ‘हमारे यहां रेप को ही कैटेगराइज्ड कर दिया जाता है. जोर-जबरदस्ती करके बनाए गए शारीरिक संबंध को ही रेप समझा जाता है. जबकि कानून कहता है कि शादी का झूठा वादा करके बनाए गए संबंध भी रेप की श्रेणी में आते हैं. इन मामलों में एफआईआर दर्ज कराना ही चुनौती होता है, दर्ज हो भी जाए तो पुलिस आरोपी पक्ष के साथ सांठ-गांठ करके उसे बचाने में जुट जाती है. चारों के मामलों में यही हुआ. जांच अधिकारियों की आरोपियों से मिलीभगत के चलते आज इन मामलों के आरोपी जमानत लेकर सलाखों के बाहर घूम रहे हैं. वहीं डीसीडब्ल्यू बस हाथी का दांत साबित हुआ.’

यासमीन कहती हैं, ‘पुलिस ने हमें न्याय दिलाने क़ा कम आरोपियों को बचाने का ज्यादा प्रयास किया. आरोपी की ओर से मुझे लगातार धमकियां मिलती रहीं. पुलिस, महिला आयोग किसी ने न सुनी. अध्यक्ष स्वाति मालीवाल से मिलने महीनों चक्कर काटते रहे. वह हमारे सामने से गुजर जातीं पर हमें उनसे मिलने नहीं दिया जाता.’

दिल्ली महिला आयोग सवालों के घेरे में

अर्चना का आरोप है, ‘दिल्ली महिला आयोग सिर्फ नाम का महिला आयोग है. वहां बैठी महिलाएं वास्तव में पितृसत्तात्मक सोच रखती हैं. आयोग की काउंसलर कहती हैं कि हमें तो हमारी मर्जी के बिना कोई चाय तक नहीं पिला सकता और तुमसे रेप भी कर लिया.’ युवतियाें का आरोप है कि जब चारों भूख हड़ताल पर बैठीं तो महिला आयोग की गाड़ी जंतर मंतर आई और उन्हें स्वाति मालीवाल से मिलाने ले गई. स्वाति मालीवाल से उन्हें जवाब मिला कि वे अब कुछ नहीं कर सकतीं क्योंकि अब मामलों में चार्जशीट दाखिल हो चुकी है.  यासमीन का आरोप है, ‘वहां से (आयोग) हमें कोई मदद नहीं मिली, बस यह सलाह मिली कि सुनवाई में जाओ तो बेचारियों वाला पहनावा पहनकर जाना. मैं पूछती हूं कि रेप क्या बेचारियों के साथ ही होता है? पढ़ी – लिखी, कामकाजी लड़कियों के साथ नहीं हो सकता? आयोग का काम है महिलाओं के सम्मान की रक्षा करे, पर वह तो खुद हमें अबला दिखाने पर तुला हुआ है.’ 10 मई से पहले इन लोगों की सुनने वाला कोई नहीं था. लेकिन जैसे ही वे जंतर मंतर पहुंचीं, डीसीडब्ल्यू से लेकर पुलिस के आला अधिकारी और रक्षा मंत्रालय तक की गाड़ियां वहां पहुंचने लगीं. मीडिया के कैमरों ने उन्हें घेर लिया. 

यासमीन का आराेप है, ‘पुलिसवाले हमसे अछूत सा व्यवहार करते हैं. मजाक बनाते हैं हमारा. धरने के दौरान एसीपी साहब ने हमें मिलने बुलाया, पांडव नगर एसएचओ भी वहां मौजूद थे. वहां हमसे जिस अभद्रता से बात की गई उसे बता नहीं सकती. अब किससे करें शिकायत इसकी? उस आयोग से जो हमें अबला बने रहने की सीख देता है. इसलिए हम मांग कर रहे हैं कि न्याय दे दो या फिर इच्छामृत्यु का अधिकार. अब और जिल्लत हम सह नहीं सकते.’

(पहचान छिपाने के लिए नाम बदले गए हैं )

जाट आंदोलन के समय पुलिस ने उपद्रवियों को खुली छूट दे रखी थी : प्रकाश सिंह

prakashWEBहरियाणा में इस साल फरवरी में जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा, लूटपाट व आगजनी की घटनाओं के दौरान पुलिस और सिविल प्रशासन के अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भूमिका की जांच के लिए पूर्व आईपीएस प्रकाश सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन राज्य सरकार ने किया था. कमेटी ने दो मार्च से काम शुरू किया. इसमें आईपीएस केपी सिंह (मौजूदा डीजीपी, हरियाणा) और वरिष्ठ आईएएस विजय वर्द्धन (मौजूदा अतिरिक्त मुख्य सचिव, अभिलेखागार एवं सांस्कृतिक कार्य विभाग) भी शामिल थे. यह रिपोर्ट अब सार्वजनिक हो चुकी है, जिसे हरियाणा सरकार के मुख्य सचिव की वेबसाइट पर देखा जा सकता है. (देखें बॉक्स)

कमेटी ने रोहतक, झज्जर, सोनीपत, जींद, कैथल, हिसार, भिवानी और पानीपत का दौरा कर वहां के हालात का जायजा लिया. कमेटी ने 13 मई को मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. रिपोर्ट में आंदोलन के दौरान आगजनी, लूट और हिंसा के लिए प्रदेश के कुल 90 अफसरों की लापरवाही को जिम्मेदार माना गया है. इनमें आईएएस, आईपीएस, उपायुक्त, एसपी, एडीसी, एसडीएम, नायब तहसीलदार, थाना प्रभारी और एसआई इंचार्ज स्तर के अधिकारी हैं. हरियाणा के आठ जिले जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान सात से 22 फरवरी तक हिंसा और उपद्रव की आग में झुलसते रहे. कानून और व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह चौपट थी. स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए सेना को लगाना पड़ा था. कमेटी के अध्यक्ष प्रकाश सिंह असम और उत्तर प्रदेश के डीजीपी रह चुके हैं. उन्हें 1991 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है. इसके अलावा वे पुलिस सुधार के प्रयासों में भी लगे रहते हैं. जाट आंदोलन पर कमेटी की रिपोर्ट और पुलिस सुधार समेत तमाम मुद्दों पर प्रकाश सिंह से बातचीत .

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक आपकी रिपोर्ट में 90 अधिकारियों को जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के लिए दोषी माना गया है. इसके अलावा इस रिपोर्ट में क्या खास है?

मुझे हिंसा के दौरान अधिकारियों के कार्यकलापों की जांच करनी थी यानी कि इस दौरान उन्हें जो करना था वह किया था या फिर ऐसा कार्य किया जो नहीं करना चाहिए था. मैंने हर दिन के हिसाब से इन अधिकारियों के कार्यों का विश्लेषण किया. जिन अधिकारियों के कुछ करने से या कुछ न करने से हिंसा और भड़की तो मैंने उसका उल्लेख कर दिया. उदाहरण के लिए, एक जगह उन्होंने बलवाइयों को छह घंटे की खुली छूट दे दी थी. यह बहुत छोटा-सा प्रखंड है जहां एक डीएसपी आराम से एक घंटे के भीतर हिंसा पर रोक लगा सकता है, लेकिन कोई नहीं पहुंचा. हालांकि अधिकारी वहां छह घंटे बाद पहुंचते हैं और हिंसा कर रहे लोगों से कहते हैं कि अब जाओ. आपको काफी वक्त मिल चुका है. बलवाइयों को इस तरह की खुली छूट देने वाले अधिकारियों का उल्लेख हमने अपनी रिपोर्ट में कर दिया है.

 इस रिपोर्ट में सिर्फ अधिकारियों की भूमिका की जांच की गई है या फिर जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं?

इस रिपोर्ट में सिर्फ सिविल और पुलिस अधिकारियों की भूमिका की जांच की गई है. हमें सिर्फ इनकी भूमिका की जांच करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. हमने यही किया है. जनप्रतिनिधियों की भूमिका जानने के लिए दूसरी कमेटी जांच कर रही है.

रिपोर्ट आने के बाद से हरियाणा सरकार ने कई अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की है. क्या आपको लगता है कि सरकार सही दिशा में कदम उठा रही है?

देखिए, रिपोर्ट में इन अधिकारियों के खिलाफ ठीक ढंग से काम नहीं करने की बात कही गई है. अब इन्हें निलंबित किया गया है. यह प्रारंभिक कार्रवाई है. इसके बाद विभागीय स्तर पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाती है. मैं यह मानकर चल रहा हूं कि इसके बाद इनके खिलाफ विभागीय स्तर पर भी कार्रवाई की जाएगी. रिपोर्ट देने के अाठ दिन के भीतर ही अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है यह संतोष का विषय है. मैं यह मानकर चल रहा हूं कि सरकार सही दिशा में काम कर रही है.

 रिपोर्ट के आने के बाद हरियाणा पुलिस के लिए काम करने वाले संगठन का आरोप था कि हर बार हिंसा होने पर पुलिसवालों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है और बड़े नेताओं व उच्च अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है. इस पर आपका क्या कहना है?

देखिए, इस रिपोर्ट में बड़े अधिकारियों के खिलाफ भी टिप्पणी की गई है. अभी जो अधिकारी हटाए जा रहे हैं इसमें बड़े अधिकारी ही शामिल हैं. डीजीपी हट गए. आईजी रोहतक के खिलाफ कार्रवाई की गई है तो ऐसा इस बार नहीं है. जहां तक नेताओं की भूमिका का सवाल है तो एक न्यायिक कमेटी का गठन किया गया है जो उनकी भूमिका की जांच कर रही है. रिपोर्ट आने के बाद शायद उनके खिलाफ भी कार्रवाई हो. मुझे सिर्फ अधिकारियों की भूमिका की जांच करने का काम सौंपा गया था.

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विपक्ष का कहना है कि आपने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के कहने पर जांच की जिम्मेदारी ली और ऐसा भाजपा समर्थकों को बचाने के लिए किया गया.

मैंने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ एक नेता पर प्रतिकूल टिप्पणी की है वह भी भाजपा का ही है. अब विपक्ष ऐसे आरोप लगा रहा है तो क्या किया जाए. वैसे भी मुझसे कोई जांच करने के लिए कहे तो इसका यह मतलब थोड़े ही है कि मैं चमचागीरी करने लगूंगा. या फिर आप मेरी ईमानदारी और निष्पक्षता को खरीद लेंगे. अब हरियाणा में सत्ताधारी पार्टी भाजपा ही है तो जांच के लिए वही कहेगी. लेकिन मेरी सत्यनिष्ठा बिकाऊ नहीं है.

क्या जांच के दौरान आप पर कुछ खास अधिकारियों को बचाने के लिए किसी तरह का दबाव भी डाला गया था?

दबाव इस तरह का आया कि बड़े-बड़े लोग कुछ खास अधिकारियों की सिफारिश लेकर आए. उन्होंने बड़े सम्मान से बात कही. हमने भी बड़े सम्मान से उनकी बात सुनी. लेकिन मेरे काम करने का अपना तरीका है और मैंने वही किया. मैं किसी भी तरह के दबाव में नहीं आया और पूरी तरह से निष्पक्ष रिपोर्ट सौंपी.

कांग्रेस के एक शीर्ष नेता का आरोप है कि आप विवेकानंद फाउंडेशन से जुड़े हुए हैं. इसलिए आपने संघ और भाजपा नेताओं को बचाने का काम किया है?

जिस रणदीप सुरजेवाला ने यह बयान दिया है जब वो पैदा नहीं हुए थे तब से मैं रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद केंद्र से जुड़ा हुआ हूं. यह विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन तो अब बना है. विवेकानंद बचपन से मेरे रोल मॉडल रहे हैं. अब विवेकानंद से जुड़ने पर कोई सवाल उठाता है तो मैं कहूंगा कि भाड़ में जाओ. अब इनकी सोच इतनी विकृत हो गई है कि वे स्वामी विवेकानंद पर सवाल उठाने लगे हैं. जिस देश में विवेकानंद पैदा हुए वहीं उनके नाम पर गठित किसी संस्था में शामिल होने पर सवाल उठे तो यह अफसोसजनक है.

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फोटो : विजय पांडेय

आप लंबे समय से पुलिस सुधार की मांग कर रहे हैं. क्या केंद्र में नई सरकार आने के बाद इस दिशा में कुछ काम हुआ है?

पुलिस सुधार की दिशा में न तो पिछली सरकार ने कदम उठाया था और न ही इस सरकार ने इस दिशा में कोई उल्लेखनीय काम किया है. पुलिस सुधार की दिशा में सभी उदासीन ही हैं. न तो सत्ताधारी नेता पुलिस सुधार चाहते हैं न ब्यूरोक्रेसी. इसलिए इस दिशा में बहुत जबरदस्त रुकावटें आ रही हैं. हालांकि मैं समझत हूं कि जल्द ही ये रुकावटें कम होती जाएंगी और पुलिस सुधार एक ऐसी प्रक्रिया है जिस पर सबका ध्यान जाएगा. आप इसे धीमा कर सकते हैं पर रोक नहीं लगा सकते हैं.

क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद भी सरकारें पुलिस सुधारों को लेकर उदासीन बनी हुई हैं?

नहीं, ऐसा नहीं है कि पुलिस सुधार की दिशा में बिल्कुल भी काम नहीं किया गया है. कुछ काम हुआ है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. इस दौरान कागज पर खूब कार्रवाई हुई है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकारें कागज पर यह दिखाती हैं कि इस दिशा में काम किया जा रहा है. हालांकि यह बेहतर है कि एक वैचारिक दबाव सरकारों के ऊपर बन रहा है.

अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करके सरकार ने सही दिशा में पुलिस सुधार किया होता तो क्या जाट आरक्षण या फिर दूसरे मामलों से जुड़ी हिंसा या उपद्रव से बेहतर तरीके से निपटने में सक्षम होती?

­मैं ये नहीं कहता कि पुलिस सुधार कर दिया जाए तो ‘रामराज्य’ हो जाएगा लेकिन हिंसा से निपटने के लिए आपके पास जो मशीनरी है वह बेहतर तरीके से काम करेगी. अभी सत्ताधारी दल के नेताओं का इशारा हो जाता है तो पुलिस कमजोर पड़ जाती है. वैसे पुलिस सुधार का यह मतलब नहीं है कि पुलिस स्वतंत्र हो जाए. दरअसल पुलिस सुधार का मतलब यह है कि नीति नियंता यह तय कर दे कि पुलिस कौन-से कानून से चलेगी, किस सिद्धांत का पालन करेगी, उसकी भूमिका क्या होगी, उसके ऊपर जिम्मेदारी क्या रहेगी. उसके बाद पुलिस अपने हिसाब से काम करेगी. उसके ऊपर किसी तरह का दबाव नहीं डाला जाएगा. उसके कार्य करने की स्वतंत्रता में दखलंदाजी न की जाए. जैसे आपने पुलिस से कहा कि ये घोटाला हो गया अब आप पता करिए कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है, लेकिन जब पुलिस ने काम करना शुरू कर दिया तो फिर बीच में आकर आप यह नहीं कहेंगे कि इसे छोड़ दो या फिर इसे फंसा दो. यह नहीं होना चाहिए. जांच के दौरान किसी भी तरह का दबाव पुलिस पर न डाला जाए. 

सीवान : बिहार सरकार की सीमा समाप्त

फोटो : तहलका आर्काइव
फोटो : तहलका आर्काइव

हाल ही में सीवान जाना हुआ. मशहूर मोदियाइन की दुकान पर लिट्टी-चोखा खाया और लोगों से बतकही हुई. मिट्टी के बर्तनों के लिए मशहूर बबुनिया रोड पर भी चहलकदमी हुई. मिट्टी के बर्तन की दुकानों पर आने वाले लोगों से मुलाकात होती है. सब जगह एक ही सवाल होता है- बताइए सीवान की पहचान के बारे में. सबके पास ढेरों बातें होती हैं अपने सीवान पर, लेकिन ज्यादातर बातें इतिहास की होती हैं. लोग राजेंद्र बाबू से बात की शुरुआत करते हैं. इतिहास के पन्ने दर पन्ने पलटते हैं. इस दौरान उनके चेहरों पर गर्व का भाव नजर आता है. बताते हैं कि पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू यहीं से हुए. मजहरूल हक साहब यहीं के हैं, आजादी की लड़ाई के दौरान जिन्होंने अपनी पूरी संपत्ति कांग्रेस को दान दे दी. उन्हीं की जमीन पर पटना में सदाकत आश्रम बना है, जो कांग्रेस का राज्य मुख्यालय है. कुछ लोग बताते हैं कि खुदाबख्श साहब का नाम सुना है, जिनके नाम पर देश में चर्चित पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी है, वे भी यहीं के थे. अतीत के और भी पन्ने खुलते रहते हैं. लोग बताते हैं कि जयप्रकाश बाबू की धर्मपत्नी जयप्रभाजी यहीं की थी न! जयप्रभा जी के बाबू जी ब्रजकिशोर बाबू भी यहीं के हुए, उन्हें भला कौन नहीं जानना चाहता. महान संगीतकार चित्रगुप्त यहीं के हैं, जिनके बेटे संगीतकार जोड़ी आनंद-मिलिंद हैं. शाहजहां के बेटे दाराशिकोह के नाम पर बसे दरौली का किस्सा बताया जाता है. सीवान शहर में बुढ़िया माई के मंदिर की कहानी बताई जाती है कि कैसे उसे पहले जंगली माई कहते थे. महेंद्रा शिव मंदिर की कहानी बताई जाती है. कुछ नई कहानियां बताई जाती हैं. जैसे- टीवी पर आने वाले ‘सिया के राम’ सीरियल में हनुमान की भूमिका निभा रहे दानिश सीवान से ही हैं. जेएनयू के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर की कहानी बताई जाती है कि वह भी तो इसी सीवान जिले के हैं और आज होते तो देश के एक महत्वपूर्ण नेताओं में से एक होते. चंद्रशेखर पर बात निकलती है तो हम उसका विस्तार पाने की कोशिश करते हैं. उन्हें मार दिए जाने की बात पर बात करना चाहते हैं लेकिन बैठकी में बात पलट जाती है. राजेश नामक एक नौजवान कहते हैं, ‘आप क्या जानना चाहते हैं सीवान के बारे में? यह बिहार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में भूमिका निभाने वाला प्रमुख जिला है. आपको मालूम है न कि बिहार की अर्थव्यवस्था में रेमिटेंस मनी (विदेश में काम कर रहे कामगार द्वारा अपने देश भेजी जाने वाली रकम) का योगदान कितना महत्वपूर्ण होता है. साल 2015-16 में सीवान और पड़ोसी जिला गोपालगंज रेमिटेंस मनी में पहले पायदान पर रहा था. यही ट्रेंड पिछले साल भी था. 2014-15 में जीपीओ यानी मुख्य डाकघर के जरिए सीवान-गोपालगंज में 1800 करोड़ आए थे. उसी साल वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफर के जरिए 62 हजार रुपये का मनीआॅर्डर पहुंचा था. जानिए कि साल 2007 से 2012 के बीच 1,98,000 पासपोर्ट अकेले सीवान जिले से वेरीफाई हुए थे और उन्हीं सालों के दरम्यान गोपालगंज जिले से 1,53,000 पासपोर्ट वेरीफाई हुए. हमारे यहां से इतनी संख्या में लोग सउदी अरब, यूएई, कतर, ओमान, कुवैत आदि देशों में जाते हैं. भारत दुनिया में रेमिटेंस मनी की अर्थव्यवस्था में पहला स्थान रखता है, बिहार देश में दूसरा स्थान रखता है और जानिए कि पूरे बिहार में जितना भी रेमिटेंस मनी आता है, उसका 70 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ सीवान-गोपालगंज में आता है.’

बिहार के अलग-अलग हिस्सों में कितने ही दिग्गज हुए लेकिन सब मिट गए और अधिकांश का नामोनिशान नहीं है लेकिन शहाबुद्दीन दिन-ब-दिन इसलिए मजबूत होते गए क्योंकि पटना से उन्हें शह मिलती रही और सीवान में वे समानांतर सरकार चलाते रहे. जनता को उनके लोग दिनदहाड़े सताते रहे लेकिन पटना ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रखी

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सीवान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद बिहार में बढ़ते अपराधीकरण की चर्चा फिर से होने लगी है. अपराधीकरण की इस चर्चा के बीच शहाबुद्दीन की भी चर्चा होती है, जो पिछले कुछ दशकों में सीवान की ‘इकलौती’ पहचान बनकर उभरे हैं. सीवान की पहचान पर बात करने में कोई भी उन्हें बीच में नहीं लाना चाहता. बातचीत में कई किस्से-कहानियां आपस में टकरा जाते हैं लेकिन शहाबुद्दीन का नाम लेने से लोग कतराते ही नजर आते हैं. यह कहने पर कि इन दिनों तो सीवान पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की वजह से चर्चा में है तो राजेश कहते हैं, ‘आप असल बात पर अभी आए. पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बारे में जितना आप जानते होंगे, उतना ही हम लोग भी जानते हैं. उनकी हत्या के संबंध में दर्जन भर कहानियां हवा में तैरती रहीं. कभी बताया गया कि प्रेम प्रसंग में हत्या हुई, कभी कहा गया कि शहाबुद्दीन जेल में जो जनता दरबार लगाते थे, उसकी तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई, उसी तसवीर को अखबार में छाप देने के कारण उनकी हत्या हुई. इस बीच सीवान जेल से शहाबुद्दीन को भागलपुर भेज दिया गया. जेल में जनता दरबार में भाग लेने गए 50 के करीब लोगों को भी पुलिस ने हिरासत में लिया. यह कहानी दुनिया जानती है और हम लोग भी इतना ही जानते हैं.’

इसके बाद सीवान के रहने वाले संतोष से बात होती है. वे कहते हैं, ‘सीवान का यह नाम क्यों पड़ा मालूम है? कौशल राज के समय यह सीमांत इलाका था, सीमांत से यह सीवान बन गया.’ सीवान से कुछ ही दूरी पर मैरवा नाम का कस्बा है. वहां के रहने वाले एक शिक्षक संतोष पाठक ने पिछले कुछ सालों की मेहनत के बाद एक खामोश क्रांति की है. बिहार की हैंडबाॅल टीम में अधिकांश लड़कियां मैरवा की ही होती हैं. एक बार तो बिहार की टीम में नौ लड़कियां वहीं की थीं. रानी लक्ष्मीबाई क्लब बनाकर वर्षों से यह काम पाठक कर रहे हैं लेकिन सीवान में उनका नाम उतना नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था. संतोष आगे हमें दोन के बारे में बताते हैं. कहते हैं, दोन गुरु द्रोणाचार्य का इलाका है, उन्हीं के नाम पर इसका नाम दोन पड़ा.’ फिर पूछते हैं, ‘पिछले साल हसनपुर के बनियापट्टी गांव के शंभू महतो की बेटी पूजा महतो के बारे में तो सुना ही होगा. कितना साहस का काम किया उन्होंने. विद्या बालन रोज टीवी पर प्रचार करती नजर आती हैं कि ‘जहां सोच, वहां शौचालय’ और शौचालय नहीं तो शादी नहीं लेकिन पूजा ने उस प्रचार को हकीकत में साबित किया है. पूजा की शादी के बाद जब विदाई होने वाली थी उन्हें मालूम चला कि जिस घर में वह ब्याह कर जा रही हैं, वहां शौचालय ही नहीं है. ऐसे में पूजा मना कर देती है कि वह ससुराल नहीं जाएगी. इसके बाद पंचायत बैठती है कि पूजा गलत कर रही हैं लेकिन वह अपनी बात पर अड़ी रहती हैं. मजबूर होकर लड़के के पिता को कहना पड़ता है कि वे पहले जा रहे हैं, जल्द ही शौचालय बनवा देते हैं, तब बहू आएगी.’ संतोष घूमा-फिराकर शहाबुद्दीन का नाम लिए बिना सीवान की पहचान को स्थापित करने के लिए बहुतेरी कोशिश करते हैं. बात करते-करते दरौंदा की बात होती है.  दरौंदा यानी वह इलाका, जो चार साल पहले तब चर्चा में आया जब वहां की विधायक जगमातो देवी का असमय निधन हो गया. वे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से विधायक थीं. उपचुनाव होना था. जगमातो के बेटे अजय सिंह कुख्यात थे. उन पर कई आपराधिक मामले चल रहे थे, सो अजय को टिकट दिया नहीं जा सकता था. खरमास के दिन चल रहे थे. बिहार में खरमास में शादियां होती नहीं लेकिन टिकट देने के लिए नीतीश कुमार के इशारे पर फटाफट अजय ने शादी कर ली और उनकी पत्नी को टिकट मिला और वे चुनाव जीतकर विधायक बन गईं.

सीवान में पिछले दिनों पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई
सीवान में पिछले दिनों पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई

संतोष कई लोगों से मुलाकात करवाते हैं लेकिन कोई भी खुलकर शहाबुद्दीन पर बात करने को तैयार नहीं होता. सब आश्वस्त हो जाना चाहते हैं कि मेरा मोबाइल बंद है या नहीं. कहीं मैं किसी की आवाज रिकाॅर्ड तो नहीं कर रहा. कहीं मैं शहाबुद्दीन का ही आदमी तो नहीं. सीवान में पहले से ही शहाबुद्दीन के नाम से यह खौफ रहा है. लोग गलती से भी खुलकर उनके बारे में बातें करने से बचते रहे हैं लेकिन राजदेव रंजन की हत्या के बाद से पूरे इलाके में एक अजीब किस्म का खौफ पसरा हुआ दिखता है. कोई खुलकर यह नहीं बताता कि शहाबुद्दीन के कारण कैसे यह खूबसूरत-सा इलाका बदनामी का पर्याय बन गया है. पत्रकार राजदेव रंजन के गांव हक्कामगांव में भी सन्नाटा पसरा है, भय का माहौल है. कोई कुछ नहीं कहना चाहता, कुछ नहीं बताना चाहता. रंजन के पिता राधे चौधरी सिर्फ इतना कहते हैं, ‘हम छोटे लोग हैं. गरीब लोग हैं. बड़े लोगों से नहीं टकरा सकते. कोई मेरे बेटे को पत्रकार होने के कारण मारेगा, ऐसा तो कभी सोचा नहीं था. ऐसा संभव भी तो नहीं. इतने लोग तो खबर लिखते हैं.’ रंजन के बड़े भाई कालीचरण, जो पेशे से घड़ीसाज हैं, वे बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन वे भी बस इतना ही कहते हैं, ‘मीडिया क्या कर सकती है? सीबीआई जांच का दबाव और माहौल बनाने तक सहयोग कर सकती थी. सबको मालूम है कि मेरा भाई क्यों मारा गया, किसने मारा लेकिन कोई बताएगा नहीं!’ कालीचरण सही कहते हैं. सीवान में कोई कुछ बताने को तैयार नहीं होता. सीवानवालों में यह डर और भय अकारण नहीं है. सीवानवालों ने अपने शहर को कुख्यातपन के जरिए विख्यात होते देखा है. सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन भले जेल में हों, भले उन्हें भागलपुर शिफ्ट कर दिया गया हो, भले उनके जनता दरबार पर कड़ाई कर दी गई हो लेकिन सीवान में कहीं पत्ता भी हिलता है तो उसकी खबर उनको होती है. शहाबुद्दीन के बारे में हम जानने की कोशिश करते हैं लेकिन सभी जगह एक चुप्पी रहती है. सिर्फ शहाबुद्दीन ही नहीं, नए रंगरूट राजद नेता उपेंद्र सिंह के बारे में भी कोई कुछ नहीं बोलना चाहता. उपेंद्र सिंह तो फिर भी एक नेता हैं. छुटभैयों के बारे में भी कोई कुछ नहीं बोलना चाहता. पिछले तीन साल में ही तीन बड़ी घटनाओं को सीवानवालों ने करीब से देखा है. व्यवसायी चंदा बाबू के दो बेटों को जिंदा तेजाब से नहलाकर मार दिए जाने के बाद दो साल पहले मामले के चश्मदीद उनके एक और बेटे राजीव की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई. सबने देखा है कि सांसद ओमप्रकाश सिंह के मीडिया सलाहकार श्रीकांत भारती को कैसे नवंबर 2014 में मार डाला गया. और अब राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई है. यह तो फिर भी हालिया दिनों की बात हुई. सीवानवाले जानते हैं कि पटना में बैठकर कोई भी सरकार भले ही पूरे राज्य में कानून व्यवस्था बहाल करने की बात कहे लेकिन सीवान पिछले दो दशक से अधिक समय से पटना के नियंत्रण से मुक्त रहा है. चाहे वह लालू प्रसाद यादव का समय रहा हो, राबड़ी देवी का या फिर नीतीश कुमार और भाजपा का समय रहा हो या अब नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव के गठजोड़ का समय रहा हो. सीवान में बिहार सरकार की सीमा समाप्त हो जाती है. सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन से असल लड़ाई जमीनी स्तर पर अब तक सिर्फ भाकपा माले जैसे दल ही लड़ते रहे हैं. बाकी भाजपा से लेकर राजद और जदयू जैसी पार्टियों को अपने उम्मीदवारों तक को तय करने में भी मुश्किलें होती हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में सीवान में यह चर्चा आम थी कि भले ही पार्टी कोई लड़े, उनके प्रत्याशियों पर आखिरी मुहर शहाबुद्दीन ही लगा रहे हैं. यह चर्चा हवाबाजी नहीं. इसे तब और बल मिला था जब भाजपा जैसी पार्टी ने, जो पटना में बैठकर शहाबुद्दीन का विरोध करती है, रघुनाथपुर विधानसभा सीट से अपने निवर्तमान विधायक कुंवर का टिकट काटकर मनोज सिंह को दे दिया था. सीवान वाले जानते थे कि मनोज सिंह कौन थे. मनोज सिंह को शहाबुद्दीन के पूर्व शूटर के रूप में जाना जाता है. मनोज की बात सिर्फ सीवानवाले ही नहीं जानते, पूरे बिहार में उनके नाम का हंगामा मचा था. आरा के भाजपाई सांसद आरके सिंह ने खुलेआम कहा था कि पैसे से भाजपा के नेता अपराधियों को भी टिकट बेच रहे हैं. मनोज सिंह कहते हैं, ‘ये आरोप बेबुनियाद था. हमें तो खुद डर रहता है इसलिए बाॅडीगार्ड लेकर चलते रहे हैं. हम तो सिर्फ शहाबुद्दीन के गांव के हैं, साथ पढ़े हैं, इसलिए आसानी से शूटर का आरोप लगा दिया गया था.’ 2003 से शहाबुद्दीन जेल में हैं. 2009 मंे उनकी पत्नी हीना चुनाव हार चुकी हैं, इस हिसाब से देखिए तो इनका जलवा कम होना चाहिए था, रुआब उतरना चाहिए था लेकिन वह कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. ऐसा क्यों, यह कोई नहीं बताता चाहता. सब बताते हैं कि जब पूरे बिहार में लालू प्रसाद यादव का ‘माई’ समीकरण यानी मुस्लिम-यादव समीकरण बना, तब भी सीवान में उस तरह से खुलकर माई समीकरण नहीं बन सका. मुस्लिम और यादव धरातल पर एक नहीं हो सके लेकिन वोटों का गणित सेट होता रहा और उनका कब्जा बना रहा. एक-एक कर कई बातें बताई जाती हैं कि शहाबुद्दीन का गणित क्या रहा है. लोग बताते हैं कि असल में शहाबुद्दीन का उतना खौफ सीवान में कभी नहीं चलता. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में कितने ही दिग्गज हुए लेकिन सब मिट गए और अधिकांश का तो नामोनिशान नहीं है लेकिन शहाबुद्दीन दिन-ब-दिन इसलिए मजबूत होते गए क्योंकि पटना से उन्हें शह मिलती रही और सीवान में वे समानांतर सरकार चलाते रहे. उनके लोग सरेआम कभी पुलिसवाले को थप्पड़, कभी गोलियां मारते रहे. गिरफ्तार करने गई पुलिस को उनके लोग गोलियों से मारकर भगाते रहे, आम आदमियों को उनके लोग दिनदहाड़े सताते रहे, मारते रहे लेकिन पटना ने सीवान को बिहार से बाहर किसी अन्य राज्य या देश का हिस्सा मानकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रखी और शहाबुद्दीन का कद बढ़ता गया.

‘पटना ने गुहार सुननी बंद कर दी तो भला-बुरा, न्याय-अन्याय सबकी उम्मीद बस शहाबुद्दीन के दरबार से ही बच गई थी. छोटा-बड़ा हर  फरियादी उनके पास पहुंचने लगा. यह सिलसिला साल 2000 के पहले से ही शुरू हुआ, जो अब तक जारी है. 2009 से शहाबुद्दीन पर चुनाव लड़ने से रोक लगा दी गई है. हीना चुनाव हार चुकी हैं. अब उनके बेटे ओसामा नए नायक के रूप में है’

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फोटो : तहलका आर्काइव

शहाबुद्दीन के बारे में सीवान में सब परोक्ष रूप में बात करना चाहते हैं, प्रत्यक्ष तौर पर नहीं. शहाबुद्दीन के गांव प्रतापपुर के ही रहने वाले एक सज्जन नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘शहाबुद्दीन जब काॅलेज में पढ़ता था, तभी अपराध की दुनिया में कदम रख दिया था. 19 साल की उम्र में यानी 1986 में ही पहली बार अपराध की दुनिया में शहाबुद्दीन का नाम सुना गया. फिर जमशेदपुर में तिहरा हत्याकांड हुआ तो उसमें नाम आया, शहाबुद्दीन के नाम से भय होने लगा. शहाबुद्दीन ने चतुराई दिखाई. सही समय पर राजनीति में कदम रख दिया. लालू प्रसाद ने आशीर्वाद दिया. जनता दल की युवा इकाई से जुड़े. फिर 1990 में टिकट मिल गया और चुनाव जीत गया. फिर 1995 में चुनाव जीता. लालू प्रसाद मेहरबान होते गए. 1996 में संसद में भेजने के लिए सांसदी का चुनाव लड़वा दिया और शहाबुद्दीन जीत गया. 1997 में जनता दल के बाद राष्ट्रीय जनता दल बना. शहाबुद्दीन ने लालू प्रसाद का साथ दिया, कद और बढ़ा. शहाबुद्दीन ने मौन की राजनीति शुरू कर दी, लेकिन एक बड़ी फौज खड़ी की, जो हर तरह का काम करती रही. 2001 में शहाबुद्दीन ने एक काम किया कि उनके एक शागिर्द मनोज यादव को जब पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची तो एक पुलिस अधिकारी संजीव कुमार को शहाबुद्दीन ने थप्पड़ मारा. यह बात जंगल में आग की तरह फैली. बाद में पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची तो शहाबुद्दीन के लोगों के साथ पुलिस को घंटों तक गोलीबारी करनी पड़ी. दो पुलिसकर्मियों समेत कई लोग मारे गए, शहाबुद्दीन फरार हो गया. ऐसी घटनाओं का असर यह पड़ा कि सामान्य लोगों की बात कौन करे, पुलिस और प्रशासन के लोग ही खौफजदा रहने लगे. नतीजा यह हुआ कि सीवान में सारे फैसले शहाबुद्दीन के लोग ही करने लगे. निजी विवाद के निपटारे से लेकर तमाम तरह के फैसले. जब प्रशासन ने काम करना बंद कर दिया था, पटना ने गुहार सुननी बंद कर दी तो भला हो या बुरा, न्याय-अन्याय सबकी उम्मीद बस शहाबुद्दीन के दरबार से ही बच गई थी. लोग साहेब कहने लगे. छोटे से छोटे, बड़े से बड़े फरियादी पहुंचने लगे. यह सिलसिला साल 2000 के पहले से ही शुरू हुआ, जो अब तक जारी है, तभी कुछ दिनों पहले सीवान जेल में जनता दरबार में पहुंचे लोगों को गिरफ्तार किया गया और बताया गया कि कार्रवाई हुई है, जबकि सच्चाई यह है कि यह दरबार कोई आज से नहीं लग रहा. 2009 से शहाबुद्दीन पर चुनाव लड़ने से रोक लगा दी गई है. हीना चुनाव हार चुकी हैं. अब शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा का नाम नए नायक के रूप में है. ओसामा साहेब नहीं कहे जाते लेकिन बिहार मंे छोटे सरकार और छोटे साहब का चलन बहुत है, सो उनके लिए भी वही उपनाम चलाया जा रहा है.’ इसके बाद प्रतापपुर के ये सज्जन कहते हैं, ‘सब यहीं भूल जाइए कि हमने आपको कुछ बताया है. सामान्य जानकारी देने के बाद भी लोग डरते हैं.’ फिर संतोष कहते हैं, ‘चलिए, शहाबुद्दीन की कहानी तो अंतहीन है. यहां उनके लोगों का नारा ही है, हम विवाह भी कराते हैं, विवाह होने के बाद पति-पत्नी मंे अनबन हो तो उसका निपटारा करवाकर वंश को चलते रहने का मार्ग भी प्रशस्त भी करते हैं और जरूरत पड़ने पर वंशावली को आगे बढ़ने से रोक भी देते हैं.’   

यह दुनिया 100 प्रतिशत अंक पाने वालों से नहीं चल रही है…

फोटोः तरुण सहरावत
फोटोः तरुण सहरावत
फोटोः तरुण सहरावत

मध्य प्रदेश के सागर जिले के गेहुंरास गांव के 15 साल के प्रवीण रजक ने मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल के तहत 10वीं की परीक्षा दी थी. 16 मई को परीक्षा के परिणाम आए. प्रवीण गणित में पास नहीं हो पाया जबकि उसके सभी दोस्त पास हो गए थे. वह चुपचाप पास के जंगलों की तरफ चला गया. देर शाम तक जब वह वापस नहीं आया तब उसकी खोजबीन हुई. प्रवीण तो नहीं मिला, जंगल में एक पेड़ पर उसकी लाश टंगी हुई मिली. इसी तरह डिंडोरी जिले के सरसी गांव की कुंजन 12वीं की परीक्षा पास नहीं कर सकी. वह बहुत तनाव में थी. कुंजन को तनाव दूर करने का रास्ता आत्महत्या में दिखा और उसने फांसी लगा ली.

अब स्कूल के परीक्षा परिणामों में असफल हो जाने का दर्द जिंदा और सजग शरीर को आग लगा लेने से ज्यादा होता है. रीवा जिले के लालगांव हरदी की 10वीं की परीक्षा देने वाली कामना पटेल ने पास न होने पर मिट्टी का तेल डालकर खुद को आग लगा ली. स्कूल की ये परीक्षाएं जिंदगी की परीक्षाओं से बहुत बड़ी और धारदार हो गई हैं. ग्वालियर जिले की कृतिका माल्या ने तो परीक्षा परिणाम आने का भी इंतजार नहीं किया. उसे महसूस हो रहा था कि वह पास नहीं हो पाएगी. उसकी शंका सच निकली, वह एक विषय में पास नहीं हुई, लेकिन परिणाम आने से पहले ही उसने खुदकुशी कर ली.

सागर की 17 साल की कंचन सूर्यवंशी को भी ऐसा ही लगा था कि वह परीक्षा में पास नहीं होगी. कंचन ने भी खुदकुशी कर ली. हालांकि दो दिन बाद परीक्षा परिणाम आने के बाद कंचन के भाई ने उसके रोल नंबर से परीक्षा परिणाम जांचा तो पता चला कि वह तो पास हो गई है. तब तक परिवारवाले कंचन की अस्थियां मां नर्मदा में प्रवाहित कर चुके थे. भोपाल के राजीव नगर का एक बच्चा रवि कुमार भी बोर्ड परीक्षा पास नहीं कर सका. उसके पिता बसंत ने उसे समझाया कोई बात नहीं; लेकिन अखबारों में मेधावी बच्चों की फोटो छापते हैं. तू भी तो कुछ ऐसा कर कि नाम अखबार में छपे. अगले दिन सुबह रवि रस्सी के फंदे पर लटका मिला और उसकी खबर अखबार में प्रकाशित हुई.

शिक्षा बेहतर समाज के निर्माण का साधन न रहकर जब क्रूर सत्ता का भागीदार बनने का रास्ता बन जाए, तब वहां भी हिंसा ही होगी. शिक्षक भी हिंसा करेगा. सरकार भी हिंसा करेगी. बाजार तो बूचड़खाना है ही. सबसे आगे रहना इसलिए जरूरी हो गया है ताकि बच्चे भी उस सत्ता में शामिल हो सकें जो संसाधन, अवसर और संभावनाओं का असमान वितरण करती है. जो पहले लोगों को कमजोर बनाती है, फिर उन पर शासन करती है. ऊंचे अंक पाना इसलिए जरूरी है

मध्य प्रदेश में मई के पहले पखवाड़े में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम जारी हुए. मध्य प्रदेश शिक्षा मंडल और स्कूल शिक्षा के केंद्रीय बोर्ड के परिणाम आए. एक दिन परीक्षा परिणामों की खबर अखबारों में पहले पन्ने पर थी. ठीक दूसरे दिन उन परीक्षा परिणामों में खुद को असफल देख आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या और कहानियां खबर बन गईं. कम अंक पाने या परीक्षा में पास न हो पाने की वजह से 30 बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी. इसके थोड़े दिन के बाद शहर की कोचिंग और निजी शिक्षण संस्थाओं के पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन छपे दिखेंगे. बच्चों की आत्महत्याओं की खबर उनकी तेरहवीं से ही पहले अपनी सामयिकता खो चुकी होगी.

अंक जितने ज्यादा बढ़ते जाते हैं, अवसर और विकल्प उतने ही कम होते जाते हैं, अपेक्षाएं उतनी ही बढ़ती जाती हैं, दबाव भी उतना ही बढ़ता है. ज्यादा अंक कुछ ज्यादा करने की मानसिक-भावनात्मक क्षमता नहीं बढ़ाते, बल्कि कुछ खास और तथाकथित उच्चवर्गीय काम करने और खास होने की भावना विकसित करते हैं.

ऊंचे अंक केवल कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, विशेष डाॅक्टर, विशेष वकालती, विशेष इंजीनियर या अब बड़ा बाजारू अधिकारी बनने का सपना गढ़ते हैं. ‘विशेष’ का मतलब होता है ऊंची फीस, या ऊंचा वेतन, ऊंची कमाई और संसाधनों पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण कर पाने की संभावनाएं. ऊंचे अंक सामान्य और समाज के समकक्ष का शिक्षक, किसान, लेखक, प्रशिक्षक, वकील बनने का सपना नहीं गढ़ते.

जरा सोचिए ऐसा वक्त और परिस्थिति क्यों आई कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को बच्चों से यह अपील करनी पड़ रही है कि परीक्षा परिणाम आने के बाद बच्चों आत्महत्या मत करना? क्या उस अपील को पढ़ाकर असफल होने का एहसास बच्चों के मन से निकाला जा सकेगा? क्या हिंसक प्रतिस्पर्धा की भावना खत्म हो जाएगी? क्या यह विश्वास पैदा हो पाएगा कि उसके लिए भी देश-दुनिया में विविधतापूर्ण और बहुत कुछ रचने के अवसर मौजूद हैं? यह देश, समाज और विश्व 99-100 प्रतिशत अंक वालों से नहीं चल रहा है. उनमें से ज्यादातर तो वास्तव में समाज के लिए नई चुनौतियां ही खड़ी कर रहे हैं. समस्याअों से जूझने का काम तो वे लोग कर रहे हैं जिन्हें ‘अंक प्रणाली’ असफल साबित करती है.

यह शिक्षा ऐसी वैज्ञानिकता सिखाती है जिससे बना विशेषज्ञ अपनी दुकान के आगे नींबू और हरी मिर्ची की माला डालता है. महल बनवाते समय राक्षस के चेहरे वाली मटकी टांगता है. वह इतना लालची हो जाता है कि आध्यात्मिकता का भी बाजार लगा लेता है और श्रद्धा को सरे बाजार बेचता है. इतना ही नहीं, यह शिक्षा ऐसे इंसान बनाती है जो अंदर से क्रूर भी होते हैं, खोखले भी और कमजोर भी. यह शिक्षा इंसानियत को कितने गहरे तक मार देती है

सर्वोच्च श्रेणी में तो 0.1 फीसदी बच्चे आते हैं, बाकी के काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं. सर्वोच्च श्रेणी वालों को मालिक माना जाने लगा है और यह भी धारणा है कि शेष 99.99 प्रतिशत उनके दास या गुलाम होंगे. सरकार भी यही मानती है. शिक्षक भी यही मानते हैं. अब पालक भी यही विश्वास करते हैं. मौजूदा संकट बच्चों की आत्महत्या तक ही सीमित नहीं है. वास्तव में कम अंक यह डर पैदा करते हैं कि अब हम यानी बच्चे स्वतंत्र नहीं रह पाएंगे. अब हमें गुलाम हो जाना होगा. वे गुलाम होने के बजाय मर जाना बेहतर विकल्प समझते हैं.

वैसे आप जानते ही होंगे की भारत की 58 प्रतिशत पूंजी एक प्रतिशत लोगों के पास है. ऐसा इसलिए है कि हम स्कूल में यही सिखा रहे हैं कि पूंजी पर कैसे कौशलपूर्ण तरीके से कब्जा किया जाए! अपनी शिक्षा व्यवस्था इस स्थिति को बदलने की मंशा नहीं रखती है. वह इसे बनाए रखने के लिए बनी है. यही कारण है कि समाज अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर उस ‘एक प्रतिशत’ के गिरोह में शामिल करने के लिए तत्पर है. उन्हें पता है कि बच्चे को कलेक्टर क्यों बनाना है, डाॅक्टर क्यों बनाना है, एमबीए क्यों बनाना है. ताकि वह पूंजी की लूट में अपना हिस्सा कमा सके.

उनका यह डर गलत नहीं है. यह मिथ्या भी नहीं है. यह एक राजनीतिक-आर्थिक सच्चाई है. शिक्षा बेहतर समाज के निर्माण का साधन न रहकर जब क्रूर सत्ता का भागीदार बनने का रास्ता बन जाए, तब वहां भी हिंसा ही होगी. शिक्षक भी हिंसा करेगा. सरकार भी हिंसा करेगी. बाजार तो बूचड़खाना है ही. सबसे आगे रहना इसलिए जरूरी हो गया है ताकि बच्चे भी उस सत्ता में शामिल हो सकें जो संसाधन, अवसर और संभावनाओं का असमान वितरण करती है. जो पहले लोगों को कमजोर बनाती है, फिर उन पर शासन करती है. ऊंचे अंक पाना इसलिए जरूरी है ताकि शासन करने वालों की श्रेणी में शामिल हुआ जा सके. यदि अंक कम आए, तो बच्चे कमजोर और शोषितों की जमात का हिस्सा बनेंगे.

24-27 Sachin Kumar Jain_Layout 1.qxdजब भारत को महाशक्ति बनाने का दावा किया जाता है तब उस भाव में एक किस्म की हिंसा ही होती है. दूसरों पर शासन करने और संसाधनों पर कब्जा करने की हिंसक भावना. महाशक्ति बनने के लिए ऐसा ही समाज चाहिए जो अपने मित्र, अपने हमउम्र और समान इंसान को यह एहसास करा सके कि तुम मुझसे पीछे हो. मैं निर्णय लूंगा. मेरी ताकत ज्यादा है. यही एहसास बच्चों को उस हिंसा के लिए तैयार करता है जो महाशक्ति बनने के लिए जरूरी है. यह एहसास मुख्यमंत्री जी की अपील से खत्म न होगा.

यह बुरा और खतरनाक एहसास खत्म करने के लिए शिक्षा व्यवस्था का बाजारीकरण रोकना होगा. समान शिक्षा प्रणाली, जहां सभी परिवारों के बच्चे एकसमान शिक्षा परिवेश में शिक्षा हासिल कर सकें, को विकसित करना होगा. शिक्षा को धार्मिक कट्टरपंथ से बचाकर मानवीय मूल्यों से जोड़ना होगा. हर बच्चे को समझने की क्षमता विकसित करनी होगी कि उसकी खासियत और क्षमताएं क्या हैं; वह एक चित्रकार हो सकता है, संगीतकार या कहानीकार, या मिट्टी का वास्तुकार, या किसान, या अच्छा यात्री, या शिक्षक, या फिर अच्छा मनोवैज्ञनिक.

आप बच्चों में बड़ी कार लेने की क्षमता विकसित करना चाहते हैं, साथ ही आप यह भी मानते हैं कि जब वह कार खराब हो जाएगी तो उसे ठीक करने वाला या उसका पंक्चर बनाने वाला व्यक्ति ‘निकृष्ट’ होता है. आपकी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जो यह नहीं सिखाती कि अगर इंजन और पंक्चर ठीक न हुआ, तो तुम्हारी बड़ी कार कबाड़े से ज्यादा कुछ नहीं है! सवा तीन लाख किसानों की आत्महत्या से समाज को कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे स्कूल, हमारे शिक्षक बच्चों को यह बताते ही नहीं हंै कि किसानी और किसान होने का मतलब क्या है. आजकल स्कूल में पढ़ाया जाता है कि खाना किसी कंपनी या डिपार्टमेंटल स्टोर या बड़े माॅल से आता है! किसानी को एक निकृष्ट काम बनाने का काम राजसत्ता और शिक्षा व्यवस्था ने मिलकर किया है. यह शिक्षा व्यवस्था नाव खरीदना, नाव चलाने वाले नाविक को नौकरी पर रखना, उस नाविक का खूब शोषण करना सिखाती है; पर यह शिक्षा तैरना और नाव की मरम्मत करना नहीं सिखाती. वह बच्चों को सिखाती है कि अच्छे अंक लाओगे तो तुम नाव और नाविक दोनों के मालिक बनोगे. तुम्हें तैरना सीखने की जरूरत नहीं है. यह शिक्षा व्यवस्था बच्चों को ऐसा बना देती है कि वे लहरों के ऊंचे उठने, नदी में भंवर के बनने और तूफान आने पर बौखला जाते हैं. उन्हें तैरना नहीं आता. नाविक तैरकर भंवर से निकल सकता है. उसे नदी और तूफान के सिद्धांत पता होते हैं.

सवा तीन लाख किसानों की आत्महत्या से समाज को कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे स्कूल, हमारे शिक्षक बच्चों को यह बताते ही नहीं हैं कि किसानी और किसान होने का मतलब क्या है. आजकल स्कूल में पढ़ाया जाता है कि खाना किसी कंपनी या डिपार्टमेंटल स्टोर या बड़े माॅल से आता है! किसानी को एक निकृष्ट काम बनाने का काम राजसत्ता और शिक्षा व्यवस्था ने मिलकर किया है

यह शिक्षा ऐसे इंसान बनाती है जो अंदर से क्रूर भी होते हैं, खोखले भी और कमजोर भी. यह शिक्षा इंसानियत को कितने गहरे तक मार देती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लग सकता है कि शिक्षित होकर व्यापारी, अधिकारी, नौकरशाह या जन प्रतिनिधि बनने के बाद वह बेहद निष्ठुर व्यवहार करता है. कई मामलों में महिला, महिला के प्रति असंवेदनशील हो जाती है, दलित, दलित के ही प्रति असंवेदनशील हो जाता है, नौकरशाह उपेक्षितों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है. कुछ बिरले ही मामले होते हैं जहां शिक्षित व्यक्ति इंसान की तरह व्यवहार करता है. बाद में हम लड़ते हैं कि आरक्षण बनाए रखो या आरक्षण खत्म कर दो. माननीयों, यह बताइए आखिर में पैदा कौन हो रहा है? यह शिक्षा ऐसी वैज्ञानिकता सिखाती है जिससे बना विशेषज्ञ अपनी दुकान के आगे नींबू और हरी मिर्ची की माला डालता है. महल बनवाते समय राक्षस के चेहरे वाली मटकी टांगता है. वह इतना लालची हो जाता है कि आध्यात्मिकता का भी बाजार लगा लेता है और श्रद्धा को सरे बाजार बेचता है.

कुछ नीतिगत सवाल; मध्य प्रदेश में निजी शिक्षण संस्थाएं हर साल शिक्षण शुल्क में खूब बढ़ोतरी कर देती हैं. लोग खूब हल्ला मचा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि फीस की वृद्धि को नियंत्रित किया जाए. इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार फीस नियंत्रण के लिए नियामक व्यवस्था बना रही है. यह व्यवस्था पांच साल से बस बन ही रही है, लागू नहीं हो रही है; क्योंकि सरकार की मंशा ही नहीं है कि स्कूली शिक्षा का बाजारीकरण रुके. पिछले 17 साल से सबको यह पता है और सामने दिखता है कि बच्चों के बस्ते का वजन उनके अपने वजन से ज्यादा होता है. उसे कम करने के लिए कमेटियां बनीं. बच्चों पर यह वजन इतना बढ़ा कि उन्हें आत्महत्या आसान लगने लगी. बस्ते का वजन इसलिए कम नहीं होगा कि स्कूलवालों का गिरोह किताब छापने वालों के गिरोह के साथ मिलकर धंधा करता है. बच्चों पर से दबाव कम करने के लिए एक नीति बनी कि आठवीं कक्षा तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाएगा और उसको किसी कक्षा में रोका नहीं जाएगा; ऐसा लगता है कि यह नीति सरकार की बुद्धि में पड़ी नहीं! उन्होंने सोचा कि जब कोई बच्चा फेल ही नहीं होना है तो शिक्षक और प्रशिक्षक की क्या जरूरत. तो शिक्षक से पढ़ाई का काम छोड़कर हर किस्म का बाबूगीरी का काम करवाया जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि बच्चा आठवीं तक पास है, लेकिन क्षमता के नाम पर उसे पंगु बना दिया गया. सरकार ने यह बहुत सुनियोजित ढंग से किया ताकि निजी शिक्षा क्षेत्र पनप सके. और जब बच्चे 9वीं, 10वीं या 12वीं में पंहुचे तो उनकी नींव बहुत कमजोर रही. हमारी सरकारों का बहुत बड़ा और अक्षम्य अपराध है शिक्षा का बाजारीकरण करने में पूरी मदद करना और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को नेस्तनाबूत करना.

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मानवीय संवेदनाओं का जीवन अब बहुत छोटा है. सुबह अखबार में बच्चों की आत्महत्या की खबर पढ़ते हैं, थोड़ी-बहुत बातचीत की जाती है, थोड़ा ज्ञान पेलते हैं और अपने धंधे पर चल देते हैं. क्योंकि आत्महत्या की आज की खबर उनके बच्चे के बारे में नहीं, किसी और के बच्चे के बारे में होती है. बात को आत्महत्या तक ही सीमित रखना अनुचित है. बात उससे कहीं बड़ी है.  मुझे भी पता है और आपको भी कि अब 8वीं कक्षा से बच्चों को कोचिंग संस्थान और मार्गदर्शी संस्थान नामक ‘प्रताड़ना गृहों’ में डाला जाने लगा है ताकि वे आईआईटी, एमबीए, डाॅक्टर, इंजीनियर ही बनें. अब बच्चों को तय करने का अधिकार नहीं है कि उनकी रुचि और सक्षमता किस क्षेत्र में है; यह तो बाजार के साथ मिलकर मम्मी-पापा तय करते हैं. वे गर्व से कहते हैं कि हमारी बेटी या बेटा तो इतनी तैयारी कर रहा है कि वह 3 साल से घर से बाहर ही नहीं निकला, कहीं रिश्तेदारी में नहीं जाता, शादियों में नहीं जाता. उसने तो दीवाली भी नहीं मनाई. जरा सोचिए तो सही कि क्या यह स्थिति अच्छी है? जो बच्चा समाज और रिश्तों को ही नहीं जानता-मानता वह डाॅक्टर बनकर क्या करेगा; बीमारों को देखकर उसकी लार ही तो टपकेगी! यह शिक्षा बच्चों को मानव समाज और उसके मूल्यों से काटकर अलग कर देती है. 

जब सरकारें शिक्षा व्यवस्था के इस सच को छिपाने की कोशिश करती हैं, तब अपील जारी करती हैं, कमेटी बनाती हैं. अभी मध्य प्रदेश में भी एक नई कमेटी बनी है जो बच्चों की आत्महत्या रोकने के लिए रास्ता सुझाएगी! यह तय है कि वह कमेटी भी इस षड्यंत्र पर चुप ही रहेगी. वे ऐसा व्यवहार करती हैं, मानो उन्हें सच पता न हो. उन्हें पूरा सच पता है. उन्हें यह भी पता है कि हर बच्चे को आत्महत्या के लिए उनकी असमान शिक्षा नीतियों ने मजबूर किया है. शिक्षा के बाजारीकरण और मशीनीकरण ने मजबूर किया है पर वह चुप रहेगी!

राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के सालाना प्रतिवेदनों का अध्ययन करने से जो कुछ भी पता चलता है वह डरा देने वाला है. वर्ष 2001 से 2014 के बीच भारत में परीक्षाओं में फेल हो जाने के कारण 31,877 बच्चों ने आत्महत्या कर ली. इसी अवधि में मध्य प्रदेश में 2,118 बच्चों ने खुद को खत्म कर लिया. यह सही है कि ज्यादातर बच्चे आत्महत्या के विकल्प के बारे में नहीं सोचते होंगे, लेकिन हिंसक प्रतिस्पर्धा और ताकतवर बनने-बनाने की अपेक्षाएं उन्हें किसी न किसी के प्रति हिंसा करना तो सिखाती ही हंै. जरा शिक्षा को इस नजरिये से देखिए कि क्या वह बच्चे को एक अच्छा दोस्त, एक अच्छा इंसान, एक अच्छा कलाकार, एक सहृदय इंसान, एक अच्छी संतान और एक अच्छा नागरिक बना रही है? हमारा स्कूल परीक्षा के माध्यम से यह तो जांच कर लेता है कि बच्चा कितना जान पाया, पर यह नहीं जांच पाता कि जो नहीं जान पाया उसका कारण क्या है. हमारा स्कूल यह कभी नहीं जांचता कि बच्चे की खासियत, अभिरुचि और कौशल क्या है. उसके लिए महत्वपूर्ण हैं अंक, जो अपना महत्व खो चुके हैं.   

ये कैसी दुनिया है जहां भीख मांगने वालों की जेब पर भी डाका पड़ता है…

इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव

ये पिछले साल गर्मियों की बात है. रात के अंधेरे में वीराने को चीरती शिवगंगा एक्सप्रेस पूरी रफ्तार में दौड़ती चली जा रही थी. दिल्ली से इलाहाबाद का मेरा सफर थोड़ा मुश्किल था क्योंकि रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं हुआ था. खचाखच भरी बोगी में कहीं भी बैठने की जगह नहीं थी. सीट न मिलने से मेरी मुश्किलें और बढ़ गई थीं. खैर, मीडिया का नाम लेकर मैंने टीटी से कहीं बैठाने की गुजारिश की तो उन्होंने अपने लिए आरक्षित एक बोगी की सात नंबर सीट पर मुझसे बैठने को कह दिया था.

उनका आभार व्यक्त करते हुए मैं सीट पर पहुंचा, तो वहां पहले से कोई मुसाफिर लेटा हुआ मिला. पूछने पर पता चला कि वो रेलवे में असिस्टेंट ड्राइवर हैं और मेरी तरह उनके लिए भी टीटी ने उसी सीट पर लेटने या कहें कि बैठने का इंतजाम किया था. अब हम एक सीट पर दो लोग थे. वो लेटे हुए थे लेकिन सज्जनता दिखाते हुए उस सहयात्री ने मुझे ठीक से बैठने की जगह दी. हममें कुछ बातें भी हुईं. उन्होंने मुझसे मेरी नौकरी के बारे में पूछा. पत्रकारिता के पेशे से जुड़ा होने की बात पता चलने पर उन्होंने मेरे न्यूज चैनल और वहां काम के तरीकों की जानकारी ली. इन सबके बीच रात के एक बज चुके थे. हम दोनों एक छोटी-सी बातचीत के बाद चुप थे. मैंने बैठे-बैठे आंखें बंद ही की थीं कि एक छोटी-सी बच्ची का रुदन कान तक पहुंचा. मैं चौंका, मन में ये ख्याल आया कि इतनी रात गए ट्रेन में बच्ची के इस तरह रोने की वजह क्या है. ट्रेनों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाली घटनाओं से हम समय-समय पर वाकिफ होते रहते हैं.

जेहन में ये ख्याल आते ही पूरा शरीर सिहर उठा. इन सारी जिज्ञासाओं के बीच बच्ची का रोना सुन साथ लेटे यात्री की नींद भी खुल गई. उन्होंने कहा, ‘भाई साहब! जरा देखिए तो कौन रो रहा है.’ तब तक मैं भी सीट छोड़कर उठ चुका था. आगे बढ़कर देखा तो सात-आठ साल की एक मासूम वॉश बेसिन के पास सिर पर हाथ रखे रो रही थी. मटमैली फ्रॉक पहने वो एक भीख मांगने वाली बच्ची थी. मैंने रोने की वजह पूछी. उसने बताया कि वो फर्श पर सो रही थी, इस बीच किसी ने उसका सारा पैसा चुरा लिया. हैरानी, गुस्से और अफसोस के मिले-जुले एहसास मेरे दिल में तैर गए. ये कैसी दुनिया है जहां भीख मांगने वालों की जेब पर भी डाका पड़ता है.

उस बच्ची के माता-पिता नहीं थे. चाची की मारपीट की वजह से उसने घर छोड़ दिया था और भीख मांगकर अपना पेट भरती थी

खैर, मैंने उसे चुप कराया और उसके हाथ में पचास रुपये रखे. उस क्षणिक अपनत्व को पाकर गरीब, बेबस लड़की के आंसू रुक गए. मेरे पूछने पर उसने अपना नाम ‘आकांक्षा’ बताया. और पूछने पर पता चला कि उसके मां-बाप नहीं हैं. चाचा-चाची के साथ रहती थी लेकिन चाची की मारपीट और जुल्म से तंग आकर उसने घर छोड़ दिया था. वो दोबारा घर नहीं लौटी और शायद उसे ईमानदारी से ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं हुई. आकांक्षा अब भीख मांगकर अपना पेट भरती है. नींद आने पर ट्रेन और प्लेटफॉर्म से लेकर स्टेशन के बाहर तक, जहां जगह मिले, सो जाती है. अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि वो बच्ची कभी भी किसी हैवान की वहशत का शिकार हो सकती है. इस बात की भी गारंटी नहीं कि पूर्व में उसके साथ कुछ गलत न घटा हो. लेकिन जो दुनिया के फेंके चंद सिक्कों की मोहताज हो वो अपना हाल कहे भी तो किससे? वो तो किसी भी हालत में अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम नहीं है.

पढ़ने-लिखने और भविष्य के सपने देखने का हक आकांक्षा को भी है. उसकी पेट की भूख और शिक्षा का प्रबंध करना बेशक सरकार की ही जिम्मेदारी है. लेकिन हक और इंसाफ की बातें तो किताबी हैं. व्यावहारिकता को देखें तो ना जाने कितनी ‘आकांक्षाएं’ बेबसी के आलम में जीने को मजबूर हैं. मेरे जैसे चंद लोग कभी मेहरबान हुए, तो पचास-सौ रुपये पकड़ाकर उनकी मदद कर देते हैं और बात वहीं की वहीं खत्म हो जाती है. इससे उनकी समस्या का कोई खास हल नहीं निकल पाता. उनकी समस्याओं की जड़ तक पहुंचकर उसे मिटाने का बीड़ा कौन उठाता है? ट्रेन के अंदर जो मंजर मैंने देखा वो देश के हर हिस्से में देखा और महसूस किया जा सकता है. कोई पूछने वाला नहीं है. न कोई व्यवस्था और न ही बड़ी-बड़ी बातें करने वाले गैर – सरकारी संगठन. शायद सरकारें ही नहीं, हम सभी अपने स्वार्थ के लिए जी रहे हैं. समाज की डगमगाती नैया को धारा के विपरीत खींचकर ले जाने की हिम्मत किसी में भी नहीं है. 

(लेखक टीवी पत्रकार हैं और नोएडा में रहते हैं)

कहानी राजकुमार शुक्ल की, जिन्होंने चंपारण में तैयार की गांधी के सत्याग्रह की जमीन

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जो चंपारण में गांधी के सत्याग्रह को जानते हैं, वे राजकुमार शुक्ल का नाम भी जानते हैं. गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी का साथ दिया. अपना सर्वस्व त्याग दिया. उन दर्जनों लोगों के तप, त्याग, संघर्ष, मेहनत का ही असर रहा कि कठियावाड़ी ड्रेस में पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण से ‘महात्मा’ बनकर लौटते हैं और फिर भारत की राजनीति में एक नई धारा बहाते हैं. गांधी 1917 में चंपारण आए तो सबने जाना. गांधी चंपारण आने के बाद महात्मा बने, उसकी कहानी भी दुनिया जानती है. गांधी चंपारण न आते तो उनकी राजनीति का रूप-स्वरूप क्या होता और किस मुकाम को हासिल करते, इस पर अंतहीन बातों का सिलसिला जारी है और रहेगा.

इतिहास के पन्ने में दर्ज भले न हो लेकिन चंपारण में यह भी सब जानते हैं कि गांधी के यहां आने के पहले भी एक बड़ी आबादी निलहों से अपने सामर्थ्य के अनुसार बड़ी लड़ाई लड़ रही थी. उस आबादी का नेतृत्व शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल, हरबंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनिश, संत राउत, डोमराज सिंह, राधुमल मारवाड़ी जैसे लोग कर रहे थे. यह गांधी के चंपारण आने के करीब एक दशक पहले की बात है. 1907-08 में निलहों से चंपारणवालों की भिड़ंत हुई थी. यह घटना कम ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती. शेख गुलाब जैसे जांबाज ने तो निलहों का हाल बेहाल कर दिया था. चंपारण सत्याग्रह का अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘साठी के इलाके में शेख ने तो अंग्रेज बाबुओं और उनके अर्दलियों को पटक-पटककर मारा था. इस आंदोलन में चंपारणवालों पर 50 से अधिक मुकदमे हुए और 250 से अधिक लोग जेल गए. शेख गुलाब सीधे भिड़े तो पीर मोहम्मद मुनिश जैसे कलमकार ‘प्रताप’ जैसे अखबार में इन घटनाओं की रिपोर्टिंग करके तथ्यों को उजागर कर देश-दुनिया को इससे अवगत कराते रहे. राजकुमार शुक्ल जैसे लोग रैयतों को आंदोलित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह की भाग-दौड़ करते रहे.’

ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधी को चंपारण आने को बाध्य किया और आने के बाद गांधी के बारे में मौखिक प्रचार करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके

जो तमाम नाम ऊपर वर्णित हैं, उन्होंने अपने तरीके से अपनी भूमिका निभाई और इस आंदोलन का असर हुआ. 1909 में गोरले नामक एक अधिकारी को भेजा गया. तब नील की खेती में पंचकठिया प्रथा चल रही थी यानी एक बीघा जमीन के पांच कट्ठे में नील की खेती अनिवार्य थी. भैरवलाल बताते हैं, ‘इस आंदोलन का ही असर रहा कि पंचकठिया की प्रथा तीनकठिया में बदलने लगी यानी रैयतों को पांच की जगह तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए निलहों ने कहा.’ भैरवलाल आगे बताते हैं, ‘गांधी के आने के पहले चंपारण में इन सारे नायकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही.’ इनमें कौन महत्वपूर्ण नायक था, तय करना मुश्किल है. सबकी अपनी भूमिका थी, सबका अपना महत्व था. लेकिन 1907-08 के इस आंदोलन के बाद गांधी को चंपारण लाने में और उन्हें सत्याग्रही बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही राजकुमार शुक्ल की. यह बात सिर्फ भैरवलाल नहीं बताते, चंपारण के सत्याग्रह के इतिहास पर बात करने वाले सभी राजकुमार शुक्ल की भूमिका को काफी अहम मानते हैं. सब जानते हैं कि ये राजकुमार शुक्ल ही थे जो गांधी को चंपारण लाने की कोशिश करते रहे. गांधी को चंपारण बुलाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह दौड़ लगाते रहे. चिट्ठियां लिखवाते रहे. (देखें बॉक्स- मान्यवर महात्मा, किस्सा सुनते हो रोज औरों के, आज मेरी भी दास्तां सुनो)

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चिट्ठियां गांधी को भेजते रहे. पैसे न होने पर चंदा करके, उधार लेकर गांधी के पास जाते रहे. कभी अमृत बाजार पत्रिका के दफ्तर में रात गुजारकर कलकत्ता में गांधी का इंतजार करते रहते, कई बार अखबार के कागज को जलाकर खाना बनाकर खाते तो कभी भाड़ा बचाने के लिए शवयात्रा वाली गाड़ी पर सवार होकर यात्रा करते. राजकुमार शुक्ल के ऐसे कई प्रसंग हैं. खुद गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ में राजकुमार शुक्ल पर एक पूरा अध्याय लिखा है. (देखें बॉक्स- नील के धब्बे)

गांधी ने तो राजकुमार शुक्ल पर इतना ही लिखा लेकिन उनके बारे में तमाम लोग और विस्तार से बताते हैं. सबका लब्बोलुआब होता है कि भले ही चंपारण आने के बाद गांधी के संग तमाम लोग लग जाते हैं और सत्याग्रह की लड़ाई को आगे बढ़ाते हैं लेकिन ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधी को चंपारण आने को बाध्य किया और चंपारण आने के बाद भी गांधी के बारे में मौखिक प्रचार कर-करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके. खैर, यह तो एक अध्याय है. राजकुमार शुक्ल से जुड़े हुए ऐसे कई अध्याय हैं कि गांधी के आने के बाद कैसे वे रैयतों को एकजुट कर लाते थे. सबका छोटा-बड़ा केस लड़ते थे. लेकिन शुक्ल की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय गांधी के चंपारण से चले जाने के बाद का है, जो अजाना-सा ही है, जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं होती.

भैरवलाल दास द्वारा संपादित राजकुमार शुक्ल की डायरी में एक बेहद मार्मिक प्रसंग है. गांधी के चंपारण से जाने के बाद भितिहरवा से शुक्ल के संगठन का काम जारी रहता है. रोलट एक्ट के विरुद्ध वे ग्रामीणों व रैयतों में जन जागरण फैलाते रहते हैं. ग्रामीणों के बीच उनकी सक्रियता 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में भी रहती है. वे चंपारण में किसान सभा का काम करते रहते हैं. 1919 में लहेरियासराय में बिहार प्रोविंशियल एसोसिएशन का 11वां सत्र आयोजित होता है जिसमें वे भाग लेते हैं. वहां जासूसी करने गया एक अंग्रेज अधिकारी तो यह लिखता है कि राजकुमार शुक्ल ही इसके नेता हैं. शुक्ल को गांधी की खबर अखबारों से मिलती रहती है. वे गांधी को फिर से चंपारण आने के लिए कई पत्र लिखते हैं. गांधी का कोई आश्वासन नहीं मिलता है. अपनी जीर्ण-शीर्ण काया लेकर 1929 की शुरुआत में वे साबरमती आश्रम पहुंच जाते हैं. कस्तूरबा उन्हें देखने ही रोने लगती हैं. 15-16 दिनों तक शुक्ल वहां रुकते हैं, तब गांधी से उनकी मुलाकात हो पाती है. उस समय गांधी कहीं बाहर गए हुए होते हैं. गांधी को देखते ही राजकुमार शुक्ल की आंखें भर आती हैं. गांधी कहते हैं कि आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी. राजकुमार पूछते हैं- क्या मैं वह दिन देख पाऊंगा? गांधी निरुत्तर हो जाते हैं.

साबरमती से लौटकर शुक्ल अपने गांव सतबरिया नहीं जाते हैं. वे उसी साहू के मकान में चले जाते हैं जहां गांधी रहा करते थे. उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था. 54 वर्ष की उम्र में 1929 में उनकी मृत्यु मोतिहारी में हो जाती है. मृत्यु के समय उनकी बेटी देवपति वहीं रहती हैं. मृत्यु के पूर्व शुक्ल अपनी बेटी से ही मुखाग्नि दिलवाने की इच्छा जाहिर करते हैं. मोतिहारीवाले चंदा करते हैं. मोतिहारी में रामबाबू के बागीचे में शुक्ल का अंतिम संस्कार होता है.

ऐमन वही अंग्रेज अधिकारी है जो राजकुमार शुक्ल को हर तरीके से बर्बाद करता है. धन-संपदा से विहीन तो कर ही देता है, मौके तलाश-तलाश कर उनको प्रताड़ित करता है और मछली मारने के जुर्म में जेल भिजवा देता है

उनकी मृत्यु की सूचना ऐमन को मिलती है. ऐमन बेलवा कोठी का अंग्रेज अधिकारी है. ऐमन वही अधिकारी है जो शुक्ल को हर तरीके से बर्बाद करता है. धन-संपदा से विहीन तो कर ही देता है, मौके तलाश-तलाश कर उनको प्रताड़ित करता है. कहा जाता है कि शुक्ल जब किसानी का पेशा कर रहे होते हैं तो वे अपने घर के आगे आलू लगाते हैं. ऐमन का एक कारिंदा आलू की मांग करता है या मालगुजारी देने को कहता है. वह दोनों ही देने से मना कर देते हैं. वे जानते थे कि नियमतः घर के अहाते की खेती में से हिस्सा देना जरूरी नहीं. ऐमन तक सूचना पहुंचती है तो वह बौखला जाता है. उसे लगता है कि राजकुमार नहीं देंगे तो देखा-देखी दूसरे किसान भी यही करने लगेंगे. इसके बाद शुक्ल को मछली मारने के जुर्म में फंसाया जाता है. तीन हफ्ते की जेल होती है. शुक्ल का घर ढहा दिया जाता है. फसल को रौंद दिया जाता है. ऐमन के लोग और भी कई तरीकों से उन्हें प्रताड़ित करते हैं.

शुक्ल की मृत्यु की सूचना जब ऐमन को मिलती है तो वह स्तब्ध रह जाता है. उसके मुंह से बस इतना ही निकलता है कि चंपारण का अकेला मर्द चला गया. वह तुरंत अपने चपरासी को बुलाता है. उसे 300 रुपये देता है. कहता है, ‘शुक्ल के घर पर जाओ और श्राद्ध के लिए पैसा देकर आओ. इस मर्द ने तो सारा काम छोड़कर देश सेवा और गरीबों की सहायता में ही अपने 25 वर्ष लगा दिए. रहा-सहा सब मैंने उससे छीन लिया. अभी उनके पास होगा ही क्या?’ चपरासी हाथ में रुपये लेकर हक्का-बक्का ऐमन का मुंह देखता रह जाता है. कुछ क्षण बाद वह बोलता है कि साहब वह तो आपका दुश्मन था. उसकी बात काटते हुए ऐमन बोलता है,’ तुम उसकी कीमत नहीं समझोगे. चंपारण का वह अकेला मर्द था जो 25 वर्षों तक मुझसे लड़ता रहा.’

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शुक्ल के श्राद्ध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, ब्रजकिशोर प्रसाद आदि दर्जनों नेता सतवरिया में मौजूद रहते हैं. ऐमन भी वहां मौजूद रहता है. राजेंद्र बाबू कहते हैं, ‘अब तो आप खुश होइए ऐमन, आपका दुश्मन चला गया.’ ऐमन अपनी बात दुहराता है, ‘चंपारण का अकेला मर्द चला गया. अब मैं भी ज्यादा दिन नहीं बचूंगा.’ चलते-चलते ऐमन शुक्ल के बड़े दामाद को अपनी कोठी पर बुलाता है. वह मोतिहारी के पुलिस कप्तान को एक पत्र देता है जिसके आधार पर शुक्ल के दामाद सरयू राय को पुलिस जमादार की नौकरी मिलती है. ऐमन को राजकुमार शुक्ल की मृत्यु का सदमा लगता है. वह भी कुछ महीने बाद दुनिया से विदा हो जाता है.      

कुनन-पोशपोरा सामूहिक बलात्कार कांड : किताब में दर्ज हुआ दर्द

डू यू रिमेंबर कुनन-पोशपोरा किताब की लेखिकाएं नताशा राथर, इफराह बट, मुनाज़ा राशिद, समरीना मुश्ताक और इस्सर बतूल (बाएं से दाएं)
डू यू रिमेंबर कुनन-पोशपोरा किताब की लेखिकाएं नताशा राथर, इफराह बट, मुनाज़ा राशिद, समरीना मुश्ताक और इस्सर बतूल (बाएं से दाएं)
डू यू रिमेंबर कुनन-पोशपोरा किताब की लेखिकाएं नताशा राथर, इफराह बट, मुनाज़ा राशिद, समरीना मुश्ताक और इस्सर बतूल (बाएं से दाएं)

16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. जाहिर है कश्मीर भी इस घटना से अछूता नहीं था जहां बलात्कार की शिकार तमाम महिलाओं को कब का भुला दिया गया है. इस घटना ने उनके जख्मों को फिर से हरा कर दिया था. वर्ष 1991 में 23 फरवरी कश्मीर के इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज है. उस रोज उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के कुनन और पोशपोरा गांवों में तकरीबन 30 महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, जिसका आरोप सेना पर है. इस घटना के तकरीबन 22 साल बाद जनवरी 2013 में घाटी की 50 महिलाओं ने बलात्कार की शिकार इन महिलाओं की मदद के लिए एक समूह का गठन किया. इस समूह में विद्यार्थी, सामाजिक कार्यकर्ता, घरेलू महिलाएं, डॉक्टर और सरकारी कर्मचारी थे.

समूह ने इन महिलाओं को उस मानसिक सदमे से उबारने का संकल्प लिया तो वहीं मीडिया ने बलात्कार के इन मामलों की फिर से जांच करवाने की अपील की. जांच के लिए एसएसपी रैंक के अधिकारी के नेतृत्व में एसआईटी का गठन किए जाने की मांग को लेकर एक याचिका पर जागरूक नागरिकों के हस्ताक्षर लिए गए. जून 2013 में इस समूह की सक्रियता से प्रभावित होकर एक स्थानीय अदालत ने मामले में आगे की जांच करने और दोषियों की पहचान किए जाने के निर्देश सरकार को दिए. हालांकि मामले में नया मोड़ पिछले साल मार्च में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले की दोबारा जांच शुरू करने पर सेना की आपत्ति के बाद इस पर रोक लगा दी.

बहरहाल पांच कश्मीरी महिलाओं- इस्सर बतूल, इफराह बट, समरीना मुश्ताक, मुनाज़ा राशिद और नताशा राथर ने उन बर्बर घटनाओं को कलमबद्ध करने की ठानी. उनकी किताब ‘डू यू रिमेंबर कुनन पोशपोरा?’ का लोकार्पण बीते जनवरी में जयपुर साहित्य महोत्सव में हुआ वहीं श्रीनगर में किताब का लोकार्पण 23 फरवरी को हुआ.

भारत के इस सबसे बड़े सामूहिक बलात्कार कांड में  न्याय तो दूर की बात है सरकार इन अत्याचारों को सामने लाने के प्रयासों के प्रति भी निष्ठुर बनी रही

इस्सर बताती हैं, ‘किताब उन महिलाओं के अनुभवों के माध्यम से न्याय प्रक्रिया, सरकार की जिम्मेदारी, लांछन और इस सदमे के लंबे असर की पड़ताल करती है. भारतीय सेना द्वारा कुनन और पोशपोरा में किए गए सामूहिक बलात्कारों पर दोबारा चर्चा कुछ हद तक दिसंबर 2012 में हुए निर्भया कांड के कारण हुई. उस लड़की के साथ हुई बलात्कार की घटना ने कश्मीरियों पर गहरा असर डाला. दिल्ली की इस पीड़िता के लिए सभी ने व्यापक तौर पर एकजुटता महसूस की. ऐसे में हमारा ध्यान इस ओर गया कि दिल्ली में हुई एक घटना ने पूरे देश में सनसनी फैला दी लेकिन कश्मीर के दो गांवों में महिलाओं के पूरे समूह के साथ हुए बलात्कार ने बीते वर्षों में शायद ही किसी का ध्यान खींचा होगा.’ इस फर्क को लेकर लेखिका इस्सर व्यथित हैं. वे कहती हैं, ‘एक ऐसे देश में जो सारी दुनिया में खुद के ‘सबसे बड़ा लोकतंत्र’ होने का दम भरता है, वहां सेना द्वारा किए गए बलात्कारों को माफ कैसे किया जा सकता है?’

किताब लिखने वाली नताशा, इस्सर और समरीना सामाजिक कार्यकर्ता हैं. मुनाज़ा वकील हैं, वहीं इफराह ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों’ की पढ़ाई कर रही हैं. ऐसा नहीं था कि इन्होंने शुरू से ही किताब लिखने का फैसला कर लिया था. बलात्कार पीड़िताओं से बात करने के दौरान यह विचार उनके दिमाग में आया. समरीना बताती हैं, ‘दोबारा जांच शुरू किए जाने के लिए याचिका दायर करने के दौरान ही हम लगातार

इन गांवों में जा रहे थे. ये महिलाएं भी कुनन और पोशपोरा मामले से संबंधित कार्यक्रमों के सिलसिले में श्रीनगर आती रहती थीं. ऐसे ही कार्यक्रमों के दौरान और कभी-कभार कोर्ट में हम इन पीड़िताओं से मिलते थे. हमें उनका पूरा सहयोग मिला. अगर उन्होंने हम पर यकीन न किया होता तो हम यहां तक नहीं पहुंच पाते.’

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2013 में एक कार्यक्रम के दौरान इन लेखिकाओं की मुलाकात बलात्कार की शिकार हमीदा (बदला हुआ नाम) से हुई. हमीदा ने अपनी कहानी यूं बताई, ‘उस रात जब सेना मेरे पति को उठा ले गई तब घर में मैं अपने दो छोटे बच्चों के साथ अकेली थी. सैनिकों ने मेरी गोद से मेरे छोटे बेटे को छीन लिया और मेरे कपड़े फाड़कर मुझे जमीन पर धकेल दिया… मेरा बेटा ये सब देख लगातार रो रहा था, वहीं मुझे कुछ पता नहीं था कि उन्होंने मेरे दूसरे बेटे को कहां रखा था. मेरे गिड़गिड़ाने के बावजूद उन्होंने मुझे पूरी रात नहीं जाने दिया.’ 1991 की उस भयावह रात को बयान करते हुए हमीदा रो पड़ती हैं. उस वक्त वे केवल 24 वर्ष की थीं.

भारत के इस सबसे बड़े सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार हमीदा को न्याय की उम्मीद तब तक नहीं थी जब तक कार्यकर्ताओं के समूह ने 2013 में दोबारा न्याय की लड़ाई शुरू नहीं कर दी. न्याय तो दूर की बात है सरकार इन अत्याचारों को सामने लाने के प्रयासों के प्रति भी निष्ठुर रही.

2012 में पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट (पीएसबीटी) के बैनर तले और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से सहायता प्राप्त इस घटना पर आधारित डाॅक्यूमेंट्री ‘ओशन आॅफ टियर्स’ को प्रदर्शित करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा.  कश्मीर विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में फिल्म की स्क्रीनिंग को दो बार रोका गया. पीएसबीटी द्वारा यू-ट्यूब पर अपलोड किए गए इस डाॅक्यूमेंट्री के सात मिनट के ट्रेलर को अपलोड करने के दो महीने बाद हटा दिया गया. इस दौरान इसे 1,49,000 लोगों ने देखा था. हालांकि इन लेखिकाओं के जुनून पर इसका कोई असर नहीं पड़ा बल्कि इनका अब तक का अनुभव इसके बिल्कुल उलट रहा है. उन्हें न केवल जयपुर साहित्य महोत्सव में आमंत्रित किया गया बल्कि श्रीनगर में भी बेरोकटोक किताब का लोकार्पण संपन्न हुआ. लोकार्पण के समय प्रकाशक उर्वशी बुटालिया भी मौजूद थीं. हालांकि किताब की लेखिकाएं इस भुलाए जा चुके सामूहिक बलात्कार कांड के मामले को किताब के जरिए फिर से चर्चा में लाए जाने का श्रेय नहीं लेना चाहतीं. उनका कहना है कि कुनन और पोशपोरा के लोग खामोश नहीं रहे हैं.

‘यह याचिका नए संघर्ष की शुरुआत थी; संघर्ष अपराध की अनदेखी और सरकार के झूठ के खिलाफ. यह संघर्ष अपराधियों को लोगों की नजर में लाने का भी है’

समरीना बताती हैं, ‘न्याय के लिए इन महिलाओं की लड़ाई कोई आज की नहीं है. इन महिलाओं ने न सिर्फ एफआईआर दर्ज करवाई बल्कि मामले की जांच ही इसलिए शुरू हो सकी कि इन्होंने चुप रहना स्वीकार नहीं किया.’ इन पीड़िताओं में से एक ने समरीना को यह भी बताया कि एफआईआर इसलिए दर्ज करवाई कि ये महिलाएं नहीं चाहती थीं कि सेना द्वारा उनके या फिर किसी और गांव में इस तरह की कोई ज्यादती दोबारा हो. 2013 में जब इन लेखिकाओं ने दोबारा जांच के लिए याचिका दायर की तो वे एक कहीं बड़े उद्देश्य से प्रेरित थीं. इस किताब के एक अंश के मुताबिक, ‘यह याचिका एक नए संघर्ष की शुरुआत थी; एक कानूनी संघर्ष, संघर्ष लगातार मिलती सजाओं की माफी और सरकार के झूठ के खिलाफ. संघर्ष अपराधियों को भूलने और उनके अपराध की अनदेखी के खिलाफ, संघर्ष इन अपराधियों को लोगों की नजर में वापस लाने का और कुनन-पोशपोरा की पीड़ित महिलाओं के समर्थन का.’

कुनन-पोशपोरा की घटना को लेकर लोगों में आज भी गुस्सा है. लोग समय-समय पर इसके विरोध में प्रदर्शन करते रहते हैं
कुनन-पोशपोरा की घटना को लेकर लोगों में आज भी गुस्सा है. लोग समय-समय पर इसके विरोध में प्रदर्शन करते रहते हैं

कुनन और पोशपोरा में 23 फरवरी, 1991 की उस भयावह रात को कश्मीर में भुलाया नहीं जा सकता. नई पीढ़ी अपने परिवार की महिलाओं के साथ हुई ज्यादती के सदमे के साथ बड़ी हो रही है. यहां के लोग बताते हैं कि  पड़ोसी गांवों के लोग इन दो गांवों की बेटियों को अच्छी निगाह से नहीं देखते और उनके बेटे अपने साथियों और शिक्षकों के कटाक्ष सुनकर लगातार स्कूल छोड़ रहे हैं. उन यादों के घाव अब तक हरे हैं और दुखते हैं. इस्सर बताती हैं, ‘23 फरवरी को हर साल सारा गांव मातम में डूब जाता है. उस रोज शायद ही गांव में कोई चूल्हा जलाता है.’

चंपारण सत्याग्रह के 100 साल

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न जाने कितनी बार चंपारण जाना हुआ है. दोनों चंपारण. यानी पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण. हमेशा से आकर्षित करता रहा है चंपारण. संघर्ष और सृजन, दोनों एक साथ करने की जो अद्भुत क्षमता है चंपारण में, वही आकर्षण का कारण है. पहली बार फूलकली देवी का काम सुनकर यहां गया था. फूलकली, एक अनपढ़ महिला. मुसहर समाज से आने वाली. तिरंगे के जरिए जमींदारों के कब्जे से गरीबों और वंचितों की जमीन वापस लेने का अद्भुत अभियान चलाया था उन्होंने. ओह, कैसा होता था दृश्य, तिरंगे के साथ चंपारण के उन अपढ़ मजदूरों का सत्याग्रह कैसा होता था कि जमींदार हथियार-असलहा रहने के बावजूद कुछ नहीं कर पाते थे.

2010 के विधानसभा चुनाव के वक्त एक दूसरे किस्म का आंदोलन देखने गया था. एक इलाके में लोगों ने अपनी ओर से फॉर्म बनवा लिया था. अब जो भी प्रत्याशी वोट मांगने आता, उसे लोग वही पकड़वा देते कि इसे पढ़िए और इस पर अपनी सहमति जताते हुए हस्ताक्षर कीजिए. उस फॉर्म में इलाके की कुछ बड़ी समस्याओं का सिलसिलेवार जिक्र था. जो प्रत्याशी थे, उनसे वादा लिया जाता था कि वे अगर विधायक बन जाते हैं और इन मसलों को नहीं उठा पाते हैं तो फिर बीच कार्यकाल में ही विधायकी से इस्तीफा दे देंगे. प्रत्याशियों ने इसे सहज स्वीकार लिया था. भोजपुरी के मशहूर गीतकार विनय बिहारी भी चुनाव मैदान में थे. संयोग ऐसा बना कि निर्दलीय होने के बावजूद वे विधायक चुन लिए गए. विधायक चुने जाने के बाद पटना रहने लगे. इधर वक्त गुजरता गया. उन्होंने जिन बिंदुओं को विधानसभा में उठाने का वादा किया था, जिनके लिए फॉर्म भरा था, उनमें से किसी मसले को विधानसभा में नहीं उठाया. जब वे वापस अपने इलाके में जाने लगे तो लोगों ने उनके ‘स्वागत’ के लिए सैकड़ों तख्तियां बना रखी थीं. लोग कुछ नहीं करते थे, बस विनय बिहारी के पहुंचते तख्ती दिखा देते थे. उस पर लिखा होता था, ‘आपने जो वादे किए थे, उस पर अमल नहीं किया. अब तो नैतिक तौर पर इस्तीफा दे ही दीजिए.’ विनय बिहारी ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ में आ गया कि वे अपने ही इलाके के साधारण से दिखने वाले लोगों को समझ नहीं पाए और उनका अपने ही इलाके में जाना लोगों ने मुहाल कर दिया.

लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन को देखने के पहले थारूओं के इलाके में जाना हुआ था. थारू आदिवासियों की बसाहट वाले इस इलाके को थरूहट कहा जाता है. बिहार के हिस्से में जो थरूहट है उसमें लगभग ढाई लाख थारू आदिवासी रहते हैं. वे गन्ने की खेती करते हैं. गन्ने को चीनी मिलों तक पहुंचाना होता था. चीनी मिल वालों को सिर्फ गन्ना चाहिए होता था, वे गन्ना कैसे पहुंचाएंगे इससे कोई मतलब नहीं था. थारूओं ने कई बार सरकारी अधिकारियों के चक्कर काटे कि उनके इलाके में सड़क बना दी जाए लेकिन उनकी फरियाद किसी ने नहीं सुनी. एक रात थारूओं ने फैसला किया और सुबह-सुबह काम पर लग गए और 24 घंटे में 12 किलोमीटर लंबी सड़क बन गई. थारूओं के इस काम को देखना चकित करने वाला था.

‘अंग्रेजों ने 42 प्रकार के अलग से कर लगाए. ‘बपहा-पुतहा’ जैसे कर लगे. यानी किसी के पिता की माैत हो जाती है और उसकी जगह बेटा घर का मालिक बनता है तो उसके लिए भी अलग से अंग्रेजों को कर देना पड़ता था’

चंपारण की और भी खासियतें हैं. अभी बिहार में शराबबंदी के ऐलान के पहले ही चंपारण के ही कई हिस्सों में महिलाओं ने खुद से आंदोलन चलाकर शराबबंदी करवा दी थी. ऐसे कई उदाहरण चंपारण में देखने को मिलते हैं. बार-बार लगता है कि सत्याग्रह, आंदोलन का यह तरीका कहीं 100 साल पहले गांधी के नेतृत्व में हुए चंपारण सत्याग्रह का असर तो नहीं. संघर्ष और सृजन की धार को एक साथ, एकसमान मजबूत बनाए रखना कहीं गांधी की कर्मभूमि होने का असर तो नहीं, क्योंकि गांधी भी तो 100 साल पहले चंपारण में वही कर रहे थे. आए थे निलहों की लड़ाई लड़ने, अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति दिलाने और बिना हिंसा का सहारा लिए अंग्रेजों से भी लड़ने लगे. स्कूल खुलवाने लगे थे, लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने लगे थे, साफ-सफाई की ट्रेनिंग देने लगे थे. सत्याग्रह पर अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘बिहार को लोग लाख बुरा कहें फिर भी गांधी का असर पूरे बिहार पर है.’ 

गांधी द्वारा चंपारण के जरिए बिहार की राजनीति की बुनियाद तैयार करने की बात आती है तो कई किस्से याद आने लगते हैं. पेशे से प्राध्यापक और चनपटिया के रहने वाले प्रो. प्रकाश बताते हैं, ‘भितिहरवा, बड़हरवा लखनसेन और मधुबन में गांधी ने खुद स्कूल खोले. कस्तूरबा ने खुद यहां पढ़ाया. गांधी ने एक बड़ी टीम बाहर से बुलाई. स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में एक अभियान चलाया. चंपारण में वृंदावन नाम का एक इलाका है, वहां आप गए हैं. गांधी की प्रेरणा से वहां ढाई दर्जन बुनियादी विद्यालय खोले गए थे. क्या मॉडल था उन स्कूलों का. पढ़ाई भी और रोजगार के लिए हुनर भी. प्रजापति मिश्र जैसे कांग्रेसी नेताओं ने तब बुनियादी विद्यालय के लिए 100 बीघा से ज्यादा जमीन उपलब्ध कराई थी. सबने जमीन दी थी. आज जिस तरह से स्किल डेवलपमेंट आदि पर सरकार जोर दे रही है वह तो चंपारण में बुनियादी स्कूल के जरिए आजादी के पहले ही शुरू हो गया था. काश, वह चल रहा होता लेकिन वे सब तो अब सामान्य स्कूल बन गए.’

आगे की बात प्रो. प्रकाश के साथी समाजसेवी पंकज बताते हैं. पंकज चंपारण के अतीत और फिर वर्तमान को बिल्कुल दूसरे तरीके से बताते हैं. वे कहते हैं, ‘बुनियादी विद्यालय पर बात कर रहे हैं तो जानिए कि वृंदावन में 29 बुनियादी विद्यालय खुले. उस जमाने में एक इलाके में इतने सारे स्कूल भारत में कहीं-कहीं ही होंगे. सिर्फ वहीं स्कूल नहीं खुले. पश्चिमी चंपारण में कुल 43 बुनियादी स्कूल खुले, पूर्वी चंपारण में 10 स्कूल खुले. सारे बुनियादी स्कूल लोगों के सहयोग से खुले. सबके लिए लोगों ने अपनी जमीन दान दी. एक-एक विद्यालय के पास एक एकड़ से लेकर 12 एकड़ तक जमीन है. इतनी जमीन स्कूलों के पास नहीं होती लेकिन अब सारे जमीन पर कब्जा है माफियाओं का और सरकार ने सारे बुनियादी विद्यालयों को सामान्य विद्यालय बना दिया है.’

सत्याग्रह की छाप : चंपारण के भितिहरवा इलाके में बने इस कुएं का इस्तेमाल सत्याग्रह के समय कस्तूरबा गांधी करती थीं
सत्याग्रह की छाप : चंपारण के भितिहरवा इलाके में बने इस कुएं का इस्तेमाल सत्याग्रह के समय कस्तूरबा गांधी करती थीं

पंकज आगे बताते हैं, ‘यहां एक जगह कुमारबाग भी है. गांधी सत्याग्रह समाप्त करने के बाद जब चंपारण से चले गए और वर्षों बाद चंपारण आने वाले थे तो उनके आगमन के पूर्व चंपारण में कई स्कूल खोले गए थे. यह दिखाने के लिए कि गांधी शिक्षा की बुनियाद चंपारण में रख गए थे तो चंपारण अपना फर्ज निभा रहा है. उनके बताए मार्ग पर बढ़ रहा है. कुमारबाग एक ऐसा स्कूल है जिसे देखकर अब भी समझा जा सकता है कि वहां क्या माॅडल था. पढ़ाई के साथ रोजगार के लिए प्रशिक्षण तो था ही, साथ ही राजनीति की पाठशाला भी चलती थी वहां.’

सत्याग्रह के समय को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘सिर्फ तीन घंटे का खेला था गांधी का चंपारण सत्याग्रह, बाकि समय तो वे चंपारण में आत्मबल भर रहे थे. वे तीन घंटे वही थे, जिस दिन गांधी मोतिहारी आए, उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनी और फिर अंग्रेज चाहकर भी न तो उन्हें गिरफ्तार कर सके, ना जिलाबदर कर सके. गांधी के समर्थन में ऐसा जनसैलाब उमड़ा कि अंग्रेज कुछ भी न कर सके.’

वे कहते हैं, ‘यह बेतियाराज का इलाका है. बेतिया के राजा दिवालिया होने के कगार पर थे. अंग्रेजों को लगान देने का भी पैसा उनके पास नहीं था. मालगुजारी के रूप में 35 हजार पाउंड कर्ज हो गया था बेतियाराज पर. अंग्रेजी सरकार ने कार्रवाई शुरू की. गिब्सन मैनेजर बनकर आया बेतियाराज के मामले को समझने. उसने बेतियाराज को कर्ज दिलवा दिया और कहा कि कर्ज से आप अंग्रेजी सरकार की मालगुजारी भी दे दीजिए और अपना जीवन भी मजे से चलाइए लेकिन कर्ज के बदले आप अपनी जमीन पट्टे पर दे दीजिए, हम लोग नील की खेती करवाएंगेे. बेतियाराज ने वैसा ही किया. कर्ज लिया, चार लाख एकड़ जमीन पट्टे पर दे दी.’

सत्याग्रह के निशां : भितिहरवा के गांधी आश्रम में बने बुनियादी स्कूल में इस घंटे का इस्तेमाल किया जाता था
सत्याग्रह के निशां : भितिहरवा के गांधी आश्रम में बने बुनियादी स्कूल में इस घंटे का इस्तेमाल किया जाता था

पंकज के अनुसार, इसके बाद उस जमीन पर नील की खेती शुरू हुई. दोनों चंपारण, जो तब एक ही हुआ करते थे, में 68 कोठियां बनीं, जिन्हें निलहा कोठी कहा जाने लगा. सभी कोठियों के हिस्से में अथाह जमीनें आईं. पंचकठिया प्रथा शुरू हुई. किसानों को एक बीघे में पांच कट्ठे पर नील की खेती के लिए बाध्य किया जाने लगा. अंग्रेजों ने 42 प्रकार के अलग से कर लगाए. ‘घोड़हवा’ से ‘घवहवा’ जैसे कर. यानी किसी अंग्रेज को घोड़ा खरीदना हो तो उसके लिए जनता कर दे, किसी अंग्रेज को घाव हो गया हो, इलाज कराना हो तो उसके लिए भी जनता से कर लिया जाता. ‘बपहा-पुतहा’ जैसे कर लगे. यानी किसी के पिता की माैत हो जाती है और उसकी जगह बेटा घर का मालिक बनता है तो उसके लिए भी अलग से अंग्रेजों को कर देना पड़ता था. ऐसे ही कई कर तब जनता को अंग्रेजों को देने पड़ते थे.

पंकज कहते हैं, ‘सब जानते ही हैं कि पंचकठिया बाद में तीनकठिया में बदला और फिर एक समय ऐसा आया जब नील की खेती बंद करनी पड़ी. विश्वयुद्ध के बाद नील की मांग भी कम होने लगी थी, कृत्रिम नील का उत्पादन भी शुरू हो गया था और फिर चंपारण के सत्याग्रह का भी असर था कि अंग्रेजों को समझ में आ गया था कि अब नील की खेती करना चंपारण में आसान नहीं होगा, सो अंग्रेजों ने 1924 आते-आते अपनी रणनीति बदल दी थी. 1924 से 1929 के बीच अंग्रेजों ने चंपारण में नौ चीनी मिलें खोलीं. निलहे कोठियों ने चीनी मिलों को जमीन देनी शुरू की. 40 हजार एकड़ जमीन दी गई. फिर चीनी कारखाने के लिए कड़े कानून बने. जैसे यह कि जिस इलाके में चीनी का जो कारखाना होगा उस इलाके में किसानों को वहीं अपना गन्ना देना होगा. किसान सिर्फ गन्ना उत्पादन करेगा, वह अपने गन्ने से कुछ बना भी न पाएगा.’

पंकज इसे चंपारण में शोषण के दूसरे अध्याय की शुरुआत बताते हुए कहते हैं, ‘यह नील की खेती की तरह ही खतरनाक थी और आजादी के बाद शोषण के इस कारोबार का अपार विस्तार हुआ. निलहों की जो जमीन थी, उसमें से चीनी मिलों को देने के बाद सारी जमीनें कारिंदों और गुमाश्ता यानी नील कोठी में काम करने वालों को औने-पौने दामों में बेच दी गईं या फिर उन्हें दे दिया गया. असल अंग्रेज जाने लगे, दूसरे किस्म के अंग्रेजों की उत्पति शुरू हुई. गन्ने के उत्पादक किसान पुर्जी (रसीद) और सूद के फेरे में फंसने लगे. वे गन्ना तो उपजाते हैं लेकिन गन्ना बेचने जाते हैं तो उन्हें तुरंत पैसा नहीं मिलता.  पुर्जी पकड़ा दी जाती है. यह  पुर्जी जमींदार किस्म के लोग देते हैं. कलेक्शन सेंटर बना हुआ है. अब पुर्जी लेकर किसान इधर से उधर भटकते रहते हैं. उन्हें दौड़ाया जाता है.  पुर्जी के आधार पर सूदखोरों से पैसा लेते हैं.  पुर्जी गिरवी रखकर पैसे लेते हैं, बाद में पुर्जी से सूदखोर सीधे जमींदार से पैसा ले लेता है और किसानों से सूद अलग लेता है. यह शोषण का अंतहीन सिलसिला है.’

‘बिहार में गांधी की प्रेरणा से जो 494 बुनियादी विद्यालय खुले थे, उन्हें लोगों ने अपनी जमीन देकर खुलवाया था. अगर इन्हें सामान्य विद्यालय की परिधि से हटा दें तो ये स्कूल ही बिहार का कायाकल्प कर देंगे’

भितिहरवा आश्रम में रखे इस टेबल का इस्तेमाल गांधी लिखने-पढ़ने के लिए किया करते थे
भितिहरवा आश्रम में रखे इस टेबल का इस्तेमाल गांधी लिखने-पढ़ने के लिए किया करते थे

वे कहते हैं, ‘चंपारण की कहानी इतनी ही नहीं है.’ चंपारण में जमीन के इस खेल को 1950 के एक और किस्से से समझाते हुए पंकज कहते हैं, ‘1950 में लोहिया जी, खुर्शीद बेन और रामनंदन मिश्र जैसे तीन प्रमुख लोग एक जांच कमेटी बनाकर चंपारण में जमीन का अध्ययन करने आए. कमेटी ने नौ चीनी मिलों के जमीन का विवरण लिखा. जांच में पाया गया कि हरिनगर के चीनी मिल के पास छह हजार एकड़ जमीन है. इसी तरह से हजारों एकड़ जमीन को मिलों के चंगुल से निकाला गया, जिसकी कोई उपयोगिता नहीं. इन जमीनों को गरीबों को देने का फैसला हुआ. चंपारण में भूपतियों की अच्छी संख्या है तो रिकाॅर्ड स्तर पर भूमिहीन भी वहीं रहते हैं.’ पंकज के अनुसार, 22 दिसंबर, 2015 तक सरकारी रिकाॅर्ड के अनुसार पश्चिमी चंपारण में 8,514 और पूर्वी चंपारण में 2,419 परिवार ऐसे मिले जिनके पास रहने का घर तक नहीं है. और ऐसे परिवारों की संख्या तो अथाह है जिनके पास किसी तरह रहने की जमीन भर है.’ पंकज बताते हैं, ‘जमीन के लिए केस हुआ. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट से भूपति हारे लेकिन बिहार में एक कानून है कि भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट से हार जाने के बाद भी जाया जा सकता है. वही रास्ता भूपतियों ने अपनाया. सब एक-एक कर भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के यहां दस्तक देने लगे. मंत्री जी के यहां केस पेंडिंग में पड़ता गया. भूपति अब भी जमीन पर कब्जा किए हुए हैं. दिसंबर 2015 में यह मामला बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक पहुंचा. उन्हें बताया गया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट का आदेश भूपतियों के खिलाफ गया है फिर भी भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के यहां 2008 से दर्जनों केस पड़े हुए हैं, करीब 25 हजार एकड़ जमीन का मामला है जो भूमिहीनों व गरीबों के बीच बांटा जा सकता है. नीतीश कुमार ने गंभीरता दिखाई. कहा कि हां, मार्च के बजट सत्र में ऐसा होगा.’

आश्रम में आज भी रखी अनाज पीसने की इस चक्की का इस्तेमाल कस्तूरबा गांधी करती थीं
आश्रम में आज भी रखी अनाज पीसने की इस चक्की का इस्तेमाल कस्तूरबा गांधी करती थीं

पंकज कहते हैं कि मार्च का बजट सत्र तो बीत गया लेकिन उस मसले पर एक बार भी बात नहीं हुई. पंकज ऐसी कई बातें बताते हैं और कहते हैं कि चंपारण में किस्से अनेक हैं. गांधी जहां चंपारण को छोड़कर गए थे, वह वहीं रुका हुआ है. शोषण का सिलसिला अब भी जारी है लेकिन सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष पर यह सब मसला नहीं है.

पंकज जो बातें कहते हैं वे सही हैं. 2017 का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, चंपारण छत्तर के मेले जैसा बनता जा रहा है. चंपारण को देखने दूर-दूर से लोगों का आना शुरू हो गया है. वजह है कि 15 अप्रैल, 2016 से गांधी के सत्याग्रह का 100वां साल शुरू हो गया है. लोग आ रहे हैं, मोतिहारी जा रहे हैं, बेतिया जा रहे हैं. थोड़ा भितिहरवा, बड़हरवा लखनसेन का चक्कर भी मार ले रहे हैं. भितिहरवा में गांधी का आश्रम था, स्कूल भी. बड़हरवा लखनसेन में गांधी और उनके लोगों द्वारा शुरू किया गया पहला स्कूल है. भितिहरवा-बड़हरवा के अलावा और भी दूसरी जगहों का चक्कर लगाया जा रहा है. तरह-तरह के आयोजन का रूप-स्वरूप-प्रारूप तैयार हो रहा है चंपारण में. पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गांधी के सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मनाने के लिए एक विशेष कमेटी बना दी है. कहा गया है कि पटना में कुछ भवनों का नाम सत्याग्रह और गांधी के नाम पर होगा. वगैरह-वगैरह.

मुजफ्फरपुर के मणिका गांव में रहने वाले समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘गांधी जिन चीजों से परहेज करते थे, वही सब क्यों किया जा रहा है. गांधी बुत बनाने की चीज नहीं. उनके नाम पर प्रतिमाएं और भवन खड़ा करने की जरूरत नहीं. गांधी को विचारों में जिंदा रखने की जरूरत है.’

इसके बाद पटना में प्रसिद्ध गांधीवादी नेता डाॅ. रामजी सिंह से बात होती है. वे कहते हैं, ‘नीतीश ने अभी शराबबंदी की है, यह स्वागतयोग्य कदम है. यह गांधी के ही काम को आगे बढ़ाने का काम है. नीतीश कुमार अगर कुछ करना चाहते हैं तो यही कर दें कि बिहार में गांधी की प्रेरणा से जो 494 बुनियादी विद्यालय खुले थे, लोगों ने अपनी जमीन देकर इन विद्यालयों को खुलवाया था, उन्हें सरकारी साजिश और छत्रछाया से अलग कर बुनियादी विद्यालय के रूप में रहने दें. सामान्य विद्यालय की परिधि से हटा दें. वे 494 स्कूल ही बिहार का कायाकल्प कर देंगे.’

रामजी कहते हैं कि उन्होंने देश में घूम-घूमकर पाठ्यक्रमों का अध्ययन करके बुनियादी विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया था लेकिन कुछ न हो सका. सरकारी अधिकारी कहते हैं कि व्यावहारिक रूप में यह अब नहीं हो सकता है.

बुनियादी स्कूल चंपारण के वृंदावन का यह स्कूल अब अपनी पहचान खो चुका है
बुनियादी स्कूल : चंपारण के वृंदावन का यह स्कूल अब अपनी पहचान खो चुका है

रामजी बाबू कहते हैं, ‘जब देश का पहला गांधी विचार विभाग भागलपुर में खोलने का निर्णय लिया गया और उसकी जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई तब भी यही कहा गया था कि भला गांधी विचार भी कोई पढ़ाने की चीज है. लेकिन आज तो देश के कई विश्वविद्यालयों में उसकी पढ़ाई हो रही है. मैंने बुनियादी विद्यालयों के संबंध में बात करने के लिए नीतीश कुमार से कई बार समय मांगा है, वे तो मिलने का समय ही नहीं दे रहे तो क्या उम्मीद करूं. मुख्यमंत्री को कुछ करना ही है तो गांधी के सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष पर तो समान शिक्षा प्रणाली लागू कर दें. इसके लिए उन्होंने खुद ही कमीशन का गठन किया था. कमीशन की सिफारिशें लागू कर दें, वही एक बड़ा काम होगा.’                                  

कश्मीर में एनएचपीसी के मुनाफे पर रार

फोटो : फैज़ल खान
फोटो : फैज़ल खान
फोटो : फैज़ल खान

बीते 21 अप्रैल को जे ऐंंड के आरटीआई मूवमेंट नाम के एनजीओ ने पिछले 15 साल में जम्मू कश्मीर में एनएचपीसी के पावर प्रोजेक्टों द्वारा हुई कमाई का ब्यौरा जारी किया. एनएचपीसी की कमाई का यह आंकड़ा लगभग 194 अरब रुपये का है, जिसके सामने आने के बाद से ही राज्य में एनएचपीसी को लेकर बहस फिर शुरू हो गई. कई नागरिक और राजनीतिक संगठनों ने इस कमाई को एनएचपीसी द्वारा राज्य के संसाधनों की कथित लूट की पुष्टि मानते हुए एनएचपीसी से राज्य में उसके स्वामित्व के सभी पावर प्रोजेक्ट वापस लेने की बात का समर्थन किया है.

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सभी स्टेकहोल्डर पहले कही हुई बातें ही दोहराते हैं. कश्मीर सेंटर फॉर सोशल एंड डेवलपमेंट स्टडीज की संयोजक हमीदा नईम कहती हैं, ‘एनएचपीसी खुद को समृद्ध बनाने के लिए राज्य के जल संसाधनों का अनुचित दोहन कर रही है और हमें (राज्य को) कुछ नहीं मिल रहा. इसीलिए जम्मू कश्मीर एक गरीब राज्य बना हुआ है जो दिल्ली की खैरात पर जी रहा है.’

बिजली को लेकर राज्य में छिड़ी यह बहस तथ्यों, भ्रांतियों और राजनीति का कॉकटेल बनकर रह गया है. यह मुद्दा रह-रहकर एनएचपीसी और केंद्र सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर लोगों में नाराजगी का कारण बनता है. फिर आरटीआई के बाद सामने आए कमाई के आंकड़े ने एनएचपीसी के खिलाफ शिकायतों में इजाफा ही किया है.

यहां के नामी बिजनेसमैन शकील कलंदर कहते हैं, ‘ये सब राज्य के साथ हो रहे अन्याय को दिखाता है. यहां सवाल एनएचपीसी से पावर प्रोजेक्ट वापस लेने का नहीं बल्कि हमारे जल संसाधनों पर अवैध कब्जे का है.’

‘ये सब राज्य के साथ हो रहे अन्याय को दिखाता है. यहां सवाल एनएचपीसी से पावर प्रोजेक्ट वापस लेने का नहीं बल्कि हमारे जल संसाधनों पर अवैध कब्जे का है’

राज्य में बिजली से जुड़ी इन शिकायतों का अपना इतिहास है जो 1960 में हुई इंडस वाटर ट्रीटी (सिंधु जल समझौता) से जुड़ा है. इस समझौते में पंजाब और कश्मीर, दोनों राज्यों की तीन-तीन नदियों को भारत और पाकिस्तान के बीच बांटा गया था. पाकिस्तान को कश्मीर की सिंधु, चेनाब और झेलम का अधिकार मिला और भारत के हिस्से में पंजाब की ब्यास, रावी और सतलुज नदियां आईं. इस हिसाब से जम्मू कश्मीर केवल रन ऑन रिवर पावर प्रोजेक्ट ही चला सकता है यानी राज्य बिना किसी बांध, जलाशय आदि के निर्माण के सिर्फ बहते पानी के सहारे छोटे स्तर पर ही बिजली उत्पादन कर सकता है. इस संधि ने राज्य के कृषि विकल्पों को भी प्रभावित किया. राज्य में सिंचाई के लिए निर्धारित सीमा से ज्यादा पानी प्रयोग नहीं किया जा सकता. सार यह है कि इस समझौते ने राज्य के अपने बलबूते पर 20 हजार मेगावाॅट बिजली उत्पादन क्षमता के विकल्पों को सीमित किया है. और जहां तक राज्य के हाइड्रो प्रोजेक्ट निर्माण की बात थी, वह फंड की भारी कमी के चलते नहीं बनाए जा सके. फिर केंद्र सरकार ने इन परियोजनाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषण पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया और यहीं से एनएचपीसी राज्य में पहुंचा.

जम्मू कश्मीर ने एनएचपीसी के साथ राज्य में इन योजनाओं के निर्माण का अनुबंध किया. अब तक राज्य में एनएचपीसी ने सात प्रोजेक्ट लगाए हैं- सलाल, ऊरी-1, दुल हस्ती, सेवा-2, ऊरी-2, चतक और निम्मो बाजगो, जिनके बदले जम्मू कश्मीर को रॉयल्टी के रूप में 12 प्रतिशत फ्री बिजली मिलती है (पीक समय में जो महज कुछ सौ मेगावाॅट होती है). बाकी बिजली राज्य बाजार दरों पर एनएचपीसी, उत्तरी ग्रिड और बाकी जगहों से खरीदता है.

इस वित्त वर्ष में अब तक जम्मू कश्मीर सरकार बिजली खरीदने पर 4,600 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है. 2014-15 में राज्य ने बिजली खरीद पर 4,701 करोड़ रुपये खर्च किए थे. आधिकारिक आंकड़े के अनुसार पिछले 12 साल में राज्य ने बिजली खरीदने में लगभग 32 हजार करोड़ रुपये खर्च किए हैं. 16वें ऑल इंडिया पावर सर्वे के अनुसार 2020-21 तक जम्मू कश्मीर की बिजली की जरूरत 1,9500 करोड़ यूनिट तक पहुंचने की उम्मीद है. इस पर कश्मीर चेंबर ऑफ कॉमर्स एेंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष मुश्ताक अहमद वानी कहते हैं, ‘इसका मतलब है कि हमारे बजट का एक बड़ा हिस्सा हमारे ही जल संसाधनों से बनी बिजली खरीदने में जाएगा.’

इकोनॉमिक सर्वे रिपोर्ट 2015-16 के अनुसार वर्तमान में राज्य की बिजली मांग 1,772.30 करोड़ यूनिट है जबकि राज्य के स्वामित्व वाले बिजली घरों द्वारा केवल 256.20 करोड़ यूनिट बिजली पैदा होती है. यही कारण है कि बिजली और एनएचपीसी राज्य की राजनीति की दुखती रग बन गए हैं. रैम्बोल कंपनी के पूर्व सीनियर डायरेक्टर और गुड़गांव स्थित कंपनी के ग्लोबल इंजीनियरिंग सेंटर के पूर्व प्रमुख इफ्तिखार द्राबू कहते हैं, ‘राज्य में स्वायत्त शासन आने के बाद से पावर प्रोजेक्ट को वापस लाने के मुद्दे पर सबसे ज्यादा बहस हुई है. भले ही आप किसी भी राजनीतिक विचारधारा के हों, ये मुद्दा सभी के लिए जरूरी रहा है.’

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वैसे महबूबा मुफ्ती ने भाजपा के साथ सरकार बनाने के गठबंधन के लिए रखी गई शर्तों में सबसे पहले पावर प्रोजेक्ट की वापसी की मांग रखी थी, जिसे केंद्र द्वारा ठुकरा दिया गया. उन्हें कहा गया कि यह मांग वे मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के बाद आगे बढ़ा सकती हैं. जम्मू कश्मीर 390 मेगावाॅट वाले दुल हस्ती और 480 मेगावाॅट क्षमता वाले ऊरी-1 प्रोजेक्ट को अपने नियंत्रण में लेने की मांग लंबे समय से कर रहा है. इसकी अनुशंसा रंगराजन कमेटी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में कश्मीर पर हुए गोलमेज सम्मेलन द्वारा भी की गई थी. यहां तक कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन के एजेंडे में दोनों ‘दुल हस्ती और उरी हाइड्रो पावर प्लांट के हस्तांतरण के साधन ढूंढ़ने’ की बात पर सहमत भी हैं.

हालांकि पिछले साल मार्च में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने बताया कि विभिन्न पैनलों द्वारा प्रस्तावित सिफारिशें भारत सरकार द्वारा स्वीकार नहीं की गईं क्योंकि इन प्रोजेक्टों द्वारा उत्पन्न की जा रही बिजली जम्मू कश्मीर सहित कई राज्यों को आवंटित है. ‘इसके अलावा परियोजनाओं के हस्तांतरण में काफी  वित्तीय, गैर-वित्तीय और कानूनी समस्याओं के आने की भी संभावना है.’ पीडीपी सांसद तारिक हमीद कारा के एक सवाल के जवाब में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने यह कहा था.

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पर इसके साथ राज्य में एक राय यह भी है कि इन ऊर्जा परियोजनाओं के वापस आने से न कोई आर्थिक लाभ होगा न ही कोई खास फर्क पड़ेगा. इफ्तिखार द्राबू जैसे विशेषज्ञ जो जम्मू कश्मीर के वित्त मंत्री हसीद द्राबू के भाई भी हैं, नहीं मानते कि इन परियोजनाओं की वापसी से राज्य को कोई लाभ होगा. एक अखबार में लिखे लेख में द्राबू कहते हैं, ‘इतने बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट को वापस लेने के अपने रिस्क हैं. ये लगभग दो दशक पुराने हैं, लिहाजा इसके काफी रखरखाव की जरूरत पड़ेगी.’  द्राबू ने सरकार को ऊर्जा के लिए थर्मल और हाइड्रो पावर के मेल का उचित प्रयोग न करने और हाइड्रो पावर पर ज्यादा भरोसा करने के बारे में चेताया भी है. वे लिखते हैं, ‘इन परियोजनाओं को वापस लाने के लिए लड़ने का कोई फायदा नहीं है. हो सकता है इन्हें वापस लाने के बाद एहसास हो कि हमने अपने लिए कई दूसरी परेशानियां खड़ी कर ली हैं और फिर हमें ताउम्र इस फैसले पर पछताना पड़े.’    

‘किसानों की तीन लाख आत्महत्याओं पर कभी कोई बात ही नहीं होती’

फोटोः विजय पांडेय
फोटोः विजय पांडेय
फोटोः विजय पांडेय

मुझे लगता है कि सरकार कृषि के बारे में शायद भूल ही गई है. अक्सर देखा गया है कि चुनाव के पहले सरकारें किसानों की बात करती हैं और सत्ता में आने के बाद सिर्फ कॉरपोरेट की बात करती हैं. बहुत उम्मीद थी मुझे कि सरकार किसानों की तरफ ध्यान देगी, क्योंकि पिछले चुनाव में वोट सारे देश से मिला था. आम तौर पर माना जाता था कि भाजपा शहरों की पार्टी है लेकिन भाजपा को पूरे देश से वोट मिला था, मुझे लगा था कि भाजपा किसानों पर ध्यान देगी. लेकिन कृषि की जो हालत है वह बेहद दयनीय है. शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट का कि उसने फटकार लगाई तो सरकार को इस बात का एहसास हुआ कि सूखा पड़ा हुआ है. इसमें सिर्फ सरकार ही नहीं, मीडिया का भी रवैया वैसा ही है. मीडिया और सरकार दोनों एक जैसे चलते हैं. मीडिया में भी अगर आईपीएल पर कोर्ट का निर्णय नहीं आया होता तो शायद उसका भी ध्यान इस ओर नहीं जाता.

2015 का साल कृषि के लिए पिछले 15-20 सालों में सबसे बेहतर साल था. लेकिन इससे पहले 2014 में किसानों की आत्महत्या का रोजाना का औसत 42 था. 2015 में यह बढ़कर 52 हो गया. मुझे तो कोई ऐसी चीज नजर नहीं आ रही है कि किसानों की जीविका या कमाई में बदलाव आया हो.

पिछली सरकारों की तरह वर्तमान सरकार यह मानकर चलती है कि विकास तभी होगा जब शहरों को सारे संसाधन दे दिए जाएं. जब गांव के विकास की हम बात करते हैं तो सिर्फ बात करने से नहीं होगा. मूलभूत बदलाव करने की जरूरत है. सरकार इसमें फंसी हुई है कि गांव के लोगों को जब तक हम वहां से बाहर नहीं निकालेंगे तो विकास नहीं होगा. विकास की यह तो सोच है. पिछली सरकार का भी यही सोचना था. दूसरा यह है कि ग्रामोद्योग वगैरह की जो बातें करते हैं तो यह तब तक नहीं होगा जब तक रिवर्स माइग्रेशन न हो. गांव से जो लोग शहर की ओर आ रहे हैं वे शहर से गांव की ओर जाएं, जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक मुझे नहीं लगता कि गांवों का विकास होगा.

गांव का उद्योग खेती से जुड़ा हुआ है. 60 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं. जब तक खेती को आप फायदे का काम नहीं बनाएंगे तब तक विकास कैसे होगा? अब ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ एक पुराना स्लोगन हो चुका है. (पीएम बनने के बाद मोदी ने पैदावार बढ़ाने के लिए यह नारा दिया था) ये कंपनियों के स्लोगन हैं. यह मोंसैंटो का स्लोगन है. ये कहते हैं कि नीम कोटेड यूरिया होना चाहिए. अच्छी बात है, होना चाहिए, लेकिन उससे आय तो नहीं बढ़ती. दूसरा नारा है, ‘हर खेत को पानी’, वह तो जिंदगी भर नहीं हो सकेगा. समस्या पानी नहीं है, समस्या आय की है. किसान की आय हमने जान-बूझकर ऐसी रखी है कि उसे तो मरना ही मरना है. वह उत्पादन और पानी रोकने से नहीं हो सकता.

आपको उदाहरण दूं कि अमेरिका में गेहूं, धान, मक्का आदि फसलों का जितना उत्पादन है, उससे ज्यादा उत्पादन पंजाब में है. अमेरिका में 11.4 प्रतिशत एरिया इन फसलों के उत्पादन के लिए उपयोग में आता है, हमारे पंजाब में यह 98 प्रतिशत है. उसके बावजूद किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अब तो पंजाब महाराष्ट्र से आगे निकल रहा है. इसका क्या कारण है? कारण यह है कि आपने किसान को आमदनी नहीं दी. पंजाब में खेती से जो किसान की वास्तविक आय है वह एक हेक्टेयर पर तीन हजार रुपये है. चपरासी की जो बेसिक सैलरी है वह 18 हजार रुपये है, जिसे सरकार 21 हजार करने जा रही है. और किसान की आय तीन हजार रुपये है. इसको कोई एड्रेस नहीं करना चाहता. सब अपना माल बेचने में लगे हुए हैं. उत्पादन बढ़ाने की बात करने का मतलब है कि किसी की कंपनी आएगी, नई तकनीक आएगी, नए बीज आएंगे, वह बेचेगा. किसान की आय तो तब बढ़ेगी जब उसको उत्पादन का सही दाम मिले.

एक समय था जब दुनिया भर में लोकतंत्र ‘जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए’ होता था. अब लोकतंत्र की परिभाषा बदल गई है. अब यह ‘उद्योगों का, उद्योगों द्वारा, उद्योगों के लिए’ हो गया है

खेती को लेकर हमारी जो सोच है वह एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) सेक्टर के प्रति है. वह अगर बढ़ेगा तो हमारी खेती बढ़ रही है. यह पूरी तरह फाइनैंशियल सोच है. मूलत: खेती को बढ़ावा देने की बात नहीं है. वह तो एफएमसीजी सेक्टर को बढ़ाने की बात है. सरकार कहती है कि बारिश अच्छी होगी तो फसल अच्छी होगी, अर्थव्यवस्था ऊपर जाएगी. अब बारिश होगी तो फील गुड फैक्टर तो है ही, लेकिन उससे उन लोगों की सेल बढ़ेगी. उसमें किसान का भविष्य थोड़ा अच्छा हो जाएगा. 

एक समय था जब दुनिया भर में लोकतंत्र ‘जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए’ होता था. अब लोकतंत्र की परिभाषा बदल गई है. अब यह ‘उद्योगों का, उद्योगों द्वारा, उद्योगों के लिए’ हो गया है. चाहे वह अमेरिका हो, चाहे यूरोप हो या फिर भारत हो, हमारी सरकारें सिर्फ उद्योगों के लिए काम करती हैं. जब तक ये अपना स्वरूप नहीं बदलेंगी, तब तक ‘सबका साथ सबका विकास’ नहीं हो सकता. सवाल है कि किसानों की आत्महत्या क्यों नहीं रुक रही. इसमें दो चीजें हैं. एक तो मीडिया- एक लड़की मर जाती है जेसिका लाल तो टाइम्स आॅफ इंडिया वगैरह दो-दो पेज की कवरेज दे रहे थे. टीवी पर सारा दिन चलता था. टीवी चैनलों ने खुद जाकर कैंडल मार्च कराया था. यहां किसानों की तीन लाख आत्महत्याएं हो चुकी हैं, इस पर कभी कोई बात ही नहीं होती. फालतू का अगस्ता डील पर लगे हैं. सबको मालूम है कि उसमें कुछ नहीं होना है. चैनल रोज बहस करा रहे हैं क्योंकि उनको टाइम पास करना है. अब तो मुझे लगता है कि देश में किसी को कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं है. सबको बोलो कि भारत माता की जय. किसानों को भी चाहिए कि भारत माता की जय बोलें. सरकार का तो संदेश यही है.

राष्ट्रवाद का अभियान तो योजना के तहत चलाया जाता है. ये जानते हैं कि किन समस्याओं पर बात करनी चाहिए लेकिन चाहते नहीं हैं. मेरा मानना है कि आप हम सब जानते हैं कि राजनेता कैसे हैं, लेकिन उससे ज्यादा अर्थशास्त्री और वैज्ञानिकों को दोष दीजिए. नेता मुख्यमंत्री बनता है तो कमेटी बनाता है. कमेटी ही गलत दिशा में ले जाएगी तो क्या करेंगे आप? समस्या अर्थशास्त्रियों की है. उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता, हम नेताओं को दोष देते हैं. उनके बारे में तो हम जानते हैं कि उनका स्तर क्या है. लेकिन मुख्य भूमिका तो ब्यूरोक्रेटों और अर्थशास्त्रियों की है.

किसानों की आत्महत्या को लेकर नेता मजाक उड़ाते हैं. समाज भी मजाक उड़ाता है. हमारी जो शिक्षा व्यवस्था है उसने हमारे दिमाग में यह भर दिया है कि गरीब आदमी देश पर बोझ है. हम यह मानकर चलते हैं कि जो भी हम गरीब आदमी के लिए करते हैं, वह उस पर मेहरबानी कर रहे हैं. यह कोई नहीं बताता कि असली बोझ तो कॉरपोरेट तबका और अमीर तबका है. हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने लिखा है कि ‘इट इज चीप टू बी रिच इन इंडिया’. सारा मध्य वर्ग सरकारी सब्सिडी पर रहता है और दोष देता है गरीब आदमी को. यह एक सोच बना दी गई है. आर्थिक विकास का जो मॉडल है हमारा, उसकी यह सोच है कि आप अमीर हैं तो आप बड़े क्षमतावान हैं. कुछ दिनों पहले मुझे किसी ने ट्विटर पर लिखा कि ‘जिसने मन की बात सुनकर नहीं काम किया, और वो आत्महत्या करता है तो उसे कर लेना चाहिए.’ अब इसका क्या जवाब है. यह हमारी सोच है कि गरीब हमारे ऊपर बोझ है. हम गरीबी के चक्र से निकल आए तो हम बहुत क्षमतावान हैं.

हम आरक्षण को दोष देते हैं. लेकिन सरकारी कर्मचारी से ज्यादा आरक्षण कौन लेता है. कोई काम नहीं करता और इनको सातवां वेतन आयोग मिल रहा है. यह क्यों मिल रहा है, मुझे समझ में नहीं आता. पंजाब में 365 दिनों में से 200 दिन छुट्टियां हैं. सोचिए ये क्या काम करते होंगे. आरक्षण अन्याय है और यह अन्याय नहीं है? इन्हें सातवां वेतन आयोग किसलिए मिल रहा है? इस पर कोई बोलता नहीं है क्योंकि इससे सब लाभ ले रहे हैं. यह मानसिकता बनाई गई है. आपके मीडिया ने इसे और आगे बढ़ाया. किसान मर रहे हैं तो वह इस व्यवस्था की डिजाइन है. अगर आप उनकी आमदनी नहीं होने देंगे तो वे मरेंगे ही. उन्हें वंचित रखा जाता है और सरकारी कर्मचारी को सातवां वेतन आयोग दिया जाता है.

(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)