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एनएसजी में भारत को फिर नहीं मिल सकी सदस्यता

NSG 1क्या है मामला?

हाल ही में दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में हुई परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की दो दिवसीय पूर्ण बैठक भारत की सदस्यता के मुद्दे पर बिना किसी सहमति के समाप्त हो गई. चीन और कुछ अन्य देशों के विरोध के कारण उसकी सदस्यता के आवेदन पर फैसला अगली बैठक तक लिए टाल दिया गया. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने चीन का नाम लिए बगैर कहा कि एक देश विशेष की ओर से लगातार विरोध के कारण भारत को 48 देशों के इस समूह में इस बार भी जगह नहीं मिल पाई. इस दौरान चीन के अलावा छह अन्य देशों ने भी भारत की सदस्यता का विरोध किया. वहीं बैठक के दौरान भारत की सदस्यता के आवेदन पर कोई निर्णय नहीं किए जाने पर कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जमकर निशाना साधा. कांग्रेस ने कहा कि मोदी को यह समझने की जरूरत है कि कूटनीति में गहराई और गंभीरता की आवश्यकता होती है सार्वजनिक स्तर पर तमाशे की नहीं.

क्या है एनएसजी?

एनएसजी की स्थापना मई 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद की गई थी. इसकी पहली बैठक नवंबर 1975 में हुई. एनएसजी ऐसे देशों का संगठन है जिनका लक्ष्य परमाणु हथियारों और उनके उत्पादन में इस्तेमाल हो सकने वाली तकनीक, उपकरण, सामान के प्रसार को रोकना या कम करना है. परमाणु संबंधित सामान के निर्यात को नियंत्रित करने के लिए दो श्रेणियों के दिशा-निर्देश बनाए गए हैं. वर्ष 1994 में स्वीकार किए गए एनएसजी दिशा-निर्देशों के मुताबिक कोई भी सप्लायर उसी वक्त ऐसे उपकरणों के हस्तांतरण की स्वीकृति दे सकता है जब वह संतुष्ट हो कि ऐसा करने पर परमाणु हथियारों का प्रसार नहीं होगा. समूह में 48 देश सदस्य हैं. एनएसजी की वेबसाइट के मुताबिक एनएसजी दिशा-निर्देशों का क्रियान्वयन हर सदस्य देश के राष्ट्रीय कानून और कार्यप्रणाली के अनुसार होता है. संगठन में सर्वसम्मति के आधार पर फैसला होता है. फैसले एनएसजी प्लेनरी बैठकों में होते हैं. हर साल इसकी एक बैठक होती है.

कैसे मिलती है सदस्यता?

एनएसजी के दरवाजे सभी देशों के लिए खुले हैं लेकिन इसके बाद भी नए सदस्यों को कुछ नियम मानने होते हैं. सिर्फ उन्हीं देशों को मान्यता मिलती है जो एनपीटी या सीटीबीटी जैसी संधियों पर हस्ताक्षर कर चुके होते हैं. एनएसजी की सदस्यता किसी भी देश को न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और कच्चा माल ट्रांसफर करने में मदद करती है. भारत ने एनपीटी या सीटीबीटी जैसी संधि पर साइन नहीं किए हैं. जुलाई 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने भारत के साथ नागरिक परमाणु आपूर्ति के लिए कानूनों में बदलाव की मंजूरी दी थी. 2008 में अमेरिकी कांग्रेस ने भारत के साथ परमाणु व्यापार से जुड़े नियमों में बदलाव किया. 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत को एनएसजी में प्रवेश देने का समर्थन किया.  देश में ऊर्जा की मांग पूरी करने के लिए भारत का एनएसजी में प्रवेश जरूरी है. अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो परमाणु तकनीक मिलने लगेगी. परमाणु तकनीक के साथ देश को यूरेनियम भी बिना किसी विशेष समझौते के मिलेगा.

ममता कुलकर्णी : कभी दर्शकों को थी, अब पुलिस को है तलाश

फोटो साभारः बॉलीवन डॉट कॉम/शांतनु शौरी
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फोटो साभारः बॉलीवन डॉट कॉम/शांतनु शौरी

इस साल अप्रैल के महीने में ठाणे पुलिस ने सोलापुर में एक फार्मा कंपनी एवॉन लाइफसाइंसेज लिमिटेड की एक इकाई से तकरीबन 20 टन ‘एफिड्रिन’ बरामद की थी जिसकी अनुमानित कीमत 2000 करोड़ रुपये बताई गई. एफिड्रिन एक प्रतिबंधित ड्रग है जिसका इस्तेमाल दमा और खांसी की दवाइयां तैयार करने में किया जाता है. महत्वपूर्ण बात ये है कि इसका प्रयोग नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की निगरानी में ही होता है. हालांकि तस्कर अवैध रूप से इसका इस्तेमाल ‘क्रिस्टल मेथ’ नाम की एक पार्टी ड्रग तैयार करने में करते हैं. बहरहाल इस मामले में पुलिस ने 23 जून को दूसरी चार्जशीट दाखिल की है, जिसमें गुजरे जमाने की अभिनेत्री ममता कुलकर्णी और उनके कथित पति अंतरराष्ट्रीय ड्रग तस्कर विकी गोस्वामी का नाम आरोपी के तौर पर शामिल किया है. अब पुलिस को उनकी तलाश है.

पुलिस के अनुसार, इस रैकेट का सरगना मनोज जैन है, जो कि एवॉन लाइफसाइंसेज लिमिटेड कंपनी में निदेशक था. ठाणे जिला एवं सत्र न्यायालय में दाखिल चार्जशीट में पुलिस ने मनोज जैन, पुनीत श्रृंगी और केमिस्ट बाबा साहब धोत्रे समेत पांच लोगों के नाम शामिल किए हैं. इसके अलावा पुलिस को ममता कुलकर्णी, विकी गोस्वामी, डॉ. अब्दुल्ला और उनके दो सहयोगियों समेत कुल सात लोगों की इस मामले में तलाश है. पुलिस ने अदालत को बताया है कि केन्या में हुई एक मीटिंग में मनोज जैन, गुजरात के एक पूर्व कांग्रेस विधायक के बेटे किशोर राठौड़ और मामले के दूसरे आरोपियों ने ममता कुलकर्णी, विकी गोस्वामी और डॉ. अब्दुल्ला से मुलाकात की थी. ठाणे पुलिस के अनुसार, गुजरात से 30 टन एफिड्रिन केन्या भेजी जानी थी.

इस मामले के बाद से ही ममता कुलकर्णी लगातार चर्चा में बनी हुई हैं. 1992 में राजकुमार और नाना पाटेकर की फिल्म ‘तिरंगा’ से बॉलीवुड में पदार्पण करने वाली ममता का जन्म मुंबई के एक मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ था. उनके पिता आरटीओ में थे. उनकी दो बहनें मिथिला और मोलीना हैं. बॉलीवुड में वह आशिक आवारा, वक्त हमारा है, क्रांतिवीर, करन अर्जुन, सबसे बड़ा खिलाड़ी, बाजी, बेकाबू और छुपा रुस्तम : अ म्यूजिकल थ्रिलर जैसी हिट फिल्में देने के लिए जानी जाती हैं. ‘आशिक आवारा’ के लिए उन्हें ‘फिल्मफेयर न्यू फेस अवॉर्ड’ मिला. हालांकि एक पक्ष यह भी है कि ममता की फिल्मों से ज्यादा चर्चा उन पर फिल्माए गए गानों की होती थी. फिल्मों में बोल्ड गाने और डांस उनकी पहचान थे. कभी समकालीन अभिनेताओं और निर्देशकों से संबंधों की वजह से तो कभी फिल्मों में अपने बोल्ड अभिनय की वजह से ममता कुलकर्णी लगातार चर्चा में बनी रहती थीं.

ममता कुलकर्णी की फिल्मों से ज्यादा चर्चा उन पर फिल्माए गए गानों की होती थी. फिल्मों में बोल्ड गाने और डांस उनकी पहचान थे

बोल्डनेस उनकी पहचान थी. उस दौर में आम तौर पर मुख्यधारा की अभिनेत्रियां जब बोल्ड दृश्यों से परहेज करती थीं तब ममता ने बेहिचक ऐसी कई फिल्में कीं. इसके अलावा वह तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और बंगाली भाषाओं में भी फिल्में कर चुकी थीं. बॉलीवुड में आने से पहले वे तेलुगु भाषा की फिल्म ‘डोंगा पुलिस’ (1991) और ‘प्रेमशिखरम’ (1992) में नजर आ चुकी थीं. बंगाली भाषा में उन्होंने ‘भाग्य देबता’ (1995) और ‘बंशधर’ (2001) नाम की फिल्में दीं.

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ड्रग तस्करी और ममता कुलकर्णी-विकी गोस्वामी का विवादित संबंध

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वर्ष 2002 में अपनी आखिरी फिल्म करने के बाद ममता कुलकर्णी पूरी तरह से गायब हो गईं. इसके तकरीबन 12 साल बाद वर्ष 2014 में केन्या से एक खबर आई कि ममता कुलकर्णी को वहां की पुलिस ने ड्रग तस्करी के आरोप में ड्रग तस्कर विकी गोस्वामी के साथ हिरासत में लिया है. केन्या के मोम्बासा में दोनों से पूछताछ के बाद पुलिस ने यह कार्रवाई की थी. इस ऑपरेशन को यूनाइटेड स्टेट ड्रग इनफोर्समेंट एजेंसी (डीईए) और मोम्बासा पुलिस विभाग की ओर से अंजाम दिया गया था. इस ऑपरेशन में चार लोगों को गिरफ्तार किया गया. मामले में गिरफ्तार सबसे बड़ा नाम बकताश अकाशा का है, जो केन्या का सबसे बदनाम ड्रग माफिया है. इसके अलावा मारे जा चुके ड्रग तस्कर इब्राहिम अकाशा का बेटा भी गिरफ्तार किया गया है. कोर्ट ने विकी गोस्वामी को बकताश अकाशा का अहम सहयोगी करार दिया है.

विकी गोस्वामी और ममता कुलकर्णी के विवादित संबंधों की पड़ताल से पहले विकी गोस्वामी के अंतरराष्ट्रीय ड्रग तस्कर बनने की कहानी जानना जरूरी है. अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विकी गोस्वामी का जन्म गुजरात पुलिस में कार्यरत आनंदगिरी गोस्वामी के यहां उत्तर गुजरात के साबरकांठा जिले में हुआ था. पिता के डीएसपी पद से रिटायर होने के बाद पूरा परिवार अहमदाबाद के पाल्दी स्थित कृष्णा कुंज सोसाइटी में शिफ्ट कर गया. गोस्वामी के 14 भाई-बहन हैं.

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ड्रग तस्करी मामले में ममता कुलकर्णी का नाम सामने आने के बाद मीडिया से बातचीत में विकी गोस्वामी ने इस अभिनेत्री को सिर्फ अपना शुभचिंतक बताया है

विकी गोस्वामी ने तस्करी की शुरुआत शराब से की थी. इस तरह की खबरें भी हैं कि बेटे के शराब की तस्करी में संलिप्त होने की वजह से आनंदगिरि को निलंबित कर दिया गया था. शराब तस्करी की वजह से विकी पर अक्सर केस दर्ज होता रहता था और अहमदाबाद में मारपीट की घटनाओं में उसका नाम आने से वह कुख्यात हो चुका था. पाल्दी में ही विकी की मुलाकात बिपिन पांचाल से होती है, जो उसका परिचय मेथाक्वालोन यानी मैनड्रेक्स नाम की नशीली दवा से कराता है. इसके बाद से विकी मैनड्रेक्स की तस्करी शुरू कर देता है. 90 के दशक आते-आते उसका तस्करी का साम्राज्य अफ्रीकी देशों तक फैल चुका था क्योंकि मैनड्रेक्स नशा करने की वजह से इन देशों में काफी चर्चित थी. 1993 में पांचाल की गिरफ्तारी के बाद विकी मुंबई चला गया और यहां ड्रग सप्लाई करने लगा.
विकी बॉलीवुड का बड़ा फैन था और फिल्में देखने की वजह से अक्सर अपने पिता से मार खाता था. पुलिस के अनुसार, मुंबई पहुंचने के बाद उसने मैनड्रेक्स की सप्लाई हाई प्रोफाइल पार्टियों में करनी शुरू कर दी और उसकी पहुंच बॉलीवुड के साथ अंडरवर्ल्ड तक हो गई. यहां उसके दाउद इब्राहिम और छोटा राजन से अच्छे संबंध बन गए. ऐसा कहा जाता है कि बॉलीवुड की कुछ नामचीन हस्तियों के फोन के स्पीड डायल में विकी गोस्वामी का नंबर दर्ज रहता था. इसी दौरान विकी की मुलाकात ममता कुलकर्णी से हुई. उस वक्त ममता का करिअर ढलान पर आ चुका था और राजकुमार संतोषी और उनके बीच विवाद के बाद अंडरवर्ल्ड से उनके रिश्ते की बात भी सबके सामने आ चुकी थी.

बताया जाता है कि 90 के दशक के आखिर तक ममता और विकी गोस्वामी रिलेशनशिप में थे. हालांकि दोनों की शादी को लेकर निश्चित तौर पर अब भी कुछ नहीं कहा जा सकता है. उनकी शादी को लेकर अलग-अलग तरह की कहानियां अक्सर चर्चा में रहती हैं. शादी की खबरों को लेकर विकी जहां इनकार करता है वहीं ममता इसे जाहिर तौर पर कई बार स्वीकार कर चुकी हैं. बहरहाल, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट कहती है कि 90 के दशक में मैनड्रेक्स सबसे चर्चित पार्टी ड्रग हुआ करती थी. यह एक तरह की अवसादरोधी औषधि है जिसकी एक बूंद खून में मिलने के बाद उसे लेने वाला तनाव मुक्त (गहरी नींद यानी नशे में) हो जाता है. अफ्रीकी देशों में यह बहुत प्रचलित थी. वहां के स्कूल-कॉलेजों के छात्र इसके सबसे बड़े उपभोक्ता थे. यही वजह थी कि विकी मुंबई से जांबिया शिफ्ट हो गया. यहां कुछ प्रभावशाली लोगों की मदद से उसने एक कंपनी बनाई ताकि मैनड्रेक्स बनाई जा सके. हालांकि विकी यहां ज्यादा दिन नहीं रह सका. ड्रग निर्माण और तस्करी की भनक जांबिया के अधिकारियों को लगते ही विकी दक्षिण अफ्रीका भाग निकला. दक्षिण अफ्रीका के एक साप्ताहिक अखबार ‘द मेल एंड गार्जियन’ के अनुसार विकी ने यहां ड्रग का बड़ा नेटवर्क स्थापित किया.

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उसने इससे करोड़ों रुपये की संपत्ति बनाई जिसमें महंगी गाड़ियां और प्राइवेट जेट भी शामिल थे. यहां भी वह ज्यादा दिनों तक नहीं रह सका. जांबिया की तरह दक्षिण अफ्रीका में भी पुलिस का शिकंजा कसते ही वर्ष 1996 के आखिरी महीनों में विकी दुबई भाग आया, जो उस समय तक मुंबई अंडरवर्ल्ड का नया ठिकाना बन चुका था. दुबई में विकी पुलिस की गिरफ्त में आ सका. 1997 में ड्रग तस्करी के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया और उसे 25 साल की सजा सुनाई गई. इसके बाद विकी के संबंध में एक-दो अपुष्ट खबरें चर्चा में आईं. जैसे- दुबई की जेल में रहने के दौरान उसने इस्लाम कुबूल कर लिया और जेल में रहते हुए ही उसने ममता कुलकर्णी से इस्लामी रीति-रिवाज से शादी कर ली. हालांकि विकी इन दोनों ही बातों का खंडन करता है. ठाणे के ड्रग तस्करी मामले में ममता कुलकर्णी का नाम सामने आने के बाद मीडिया से बातचीत में उसने इस अभिनेत्री को सिर्फ अपना शुभचिंतक बताया है. नवंबर 2012 में उसे रिहा कर दिया गया और वह दुबई से केन्या शिफ्ट हो गया. इसके बाद अक्टूबर 2014 में केन्या से ड्रग तस्कर बकताश अकाशा के साथ उसे गिरफ्तार किया गया. बाद में उसे जमानत मिल गई. अब ठाणे में 2000 करोड़ रुपये की ड्रग तस्करी के एक मामले में विकी गोस्वामी और ममता कुलकर्णी दोनों के नाम सामने आए हैं[/symple_box]

तकरीबन एक दशक लंबे करिअर में ममता कुलकर्णी की चर्चा फिल्मों से ज्यादा विवादों के कारण हुई. 1992 में बॉलीवुड में कदम रखने के अगले साल ही उन्होंने फिल्म मैगजीन ‘स्टारडस्ट’ के लिए टॉपलेस फोटोशूट देकर सबको चौंका दिया. यह वर्ष 1993 का सितंबर महीना था. यह उस समय की बात है जब भारत में इंटरनेट प्रचलन में नहीं था. इसी वजह से कहा जाता है कि मैगजीन का वह विवादित अंक ब्लैक में बेचा जाता था! बाजार में इस मैगजीन के आते ही हंगामा मच गया था. कॉलेज और हॉस्टलों में स्टूडेंट इस मैगजीन को छिप-छिपाकर देखा करते थे. यह टॉपलेस तस्वीर बॉलीवुड के प्रख्यात फोटोग्राफर जयेश सेठ ने खींची थी. ‘द क्विंट’ वेबसाइट के साथ बातचीत में जयेश बताते हैं, ‘उस समय संपादकीय मीटिंग में तय हुआ था कि मैगजीन की कवर फोटो के लिए कुछ ऐसा किया जाएगा जो सुंदर होने के साथ सेक्सी भी हो. उस दौर के हिसाब से यह एक साहसिक कदम था. हमें एक अभिनेत्री की तलाश थी जो सेक्सी होने के साथ मासूम दिखती हो. इसके लिए हमने माधुरी, जूही जैसी कुछ शीर्ष अभिनेत्रियों से संपर्क किया लेकिन इंडस्ट्री का स्थापित चेहरा होने की वजह से इन अभिनेत्रियों ने मना कर दिया. इसके बाद हमने किसी नई लड़की की तलाश शुरू की. तब हमारी नजर ममता पर गई. हमने उनसे संपर्क किया तो एकबारगी वे भी चौंक गईं.’ जयेश आगे बताते हैं, ‘ममता काफी नर्वस थीं. उन्होंने कहा- मैं नहीं जानती कि इसमें कितना जोखिम है. अगर ये रिस्क काम करता है तब तो ठीक है, लेकिन अगर इसका उल्टा असर हुआ तो मुझे फिल्म इंडस्ट्री के साथ ही घर से भी बाहर निकाल दिया जाएगा.’ जयेश के अनुसार, ‘इस फोटोशूट से मैगजीन को बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिला. मैगजीन 20 रुपये की थी, लेकिन इसे ब्लैक में 100 रुपये तक में बेचा जाता था. इंडस्ट्री में आमिर खान से लेकर अनिल कपूर तक ने इसकी तारीफ की कि यह फोटोशूट बोल्ड होने के साथ ब्यूटीफुल भी है.’ फिलहाल जयेश ममता कुलकर्णी पर एक फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं.

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इस सबके इतर इस फोटोशूट से जमकर हंगामा भी मचा. ममता कुलकर्णी के घर के बाहर कुछ संगठनों की ओर से विरोध-प्रदर्शन किए गए. उनके खिलाफ केस दर्ज किया गया. मामला वर्ष 2000 तक चलता रहा और इसी साल उन्हें दोषी ठहराया गया. उन पर 15 हजार रुपये का जुर्माना भी लगा था. ऐसी भी खबरें हैं कि उन्हें इसके लिए जेल भी जाना पड़ा था. इस मामले को लेकर विवाद तब और बढ़ गया जब सुनवाई के दौरान वे कोर्ट में बुर्का पहनकर पहुंच गईं. इससे इस्लामी रूढ़िवादियों की त्योरियां चढ़ गईं. उनके खिलाफ फतवा जारी किया गया. उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई. बाद में उन्होंने इसकी सफाई देते हुए कहा था कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि मीडिया और फोटोग्राफरों की नजरों से बचकर कोर्ट पहुंच सकें.

टॉपलेेस फोटोशूट की वजह से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोगों ने उनसे सार्वजनिक माफी मांगने की बात कही थी. फैशन और फिल्म आधारित वेबसाइट ‘पिंकविला’ की रिपोर्ट के अनुसार, ‘इतने विरोध के बाद उन्होंने घर से निकलना बंद कर दिया था और सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने की बात भी स्वीकार कर ली थी. इससे पहले ही एक सार्वजनिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए माधुरी दीक्षित के सेक्रेटरी रिक्कू राकेशनाथ का उनके पास फोन आया. ममता ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना भी बंद कर दिया था लेकिन इस आमंत्रण को वे अस्वीकार नहीं कर सकीं. ममता उस कार्यक्रम में गईं. इस दौरान राकेश ने उन्हें स्टेज पर बुलाया. उनके स्टेज पर पहुंचते ही युवाओं ने उन पर फूलों की बौछार शुरू कर दी और चिल्लाने लगे- ममता! वी लव यू (ममता! हम तुम्हें चाहते हैं.)’

ममता को इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. उनके करिअर ने करवट बदल ली थी और इससे उनकी जिंदगी पूरी तरह से बदल गई. वे इंडस्ट्री की नई सेक्स सिंबल के तौर पर उभर चुकी थीं. एक प्यारी और घरेलू लड़की अब बॉलीवुड की नई सनसनी थी. वे लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रियाओं पर ध्यान नहीं देती थीं. उनके इंटरव्यू बोल्ड और चौंका देने वाले होते थे. उनका नया मंत्र था- जोखिम भरा अभिनय, जोखिम भरी बातें और सबसे बड़ी बात हमेशा सेक्सी दिखते रहना. उनके पास फिल्मों की लाइन लग गई. अपने छोटे-से करिअर में वे बॉलीवुड के तीनों मशहूर ‘खान’ अभिनेताओं के साथ काम कर चुकी थीं. इस लिहाज से वर्ष 1995 उनका सबसे सफल वर्ष कह सकते हैं. इस साल उनकी सबसे ज्यादा सात फिल्में रिलीज हुईं. इसी वर्ष वे फिल्म ‘बाजी’ में आमिर खान के साथ और फिल्म ‘करन अर्जुन’ में सलमान खान और शाहरुख खान के साथ नजर आईं. इसके अलावा अक्षय कुमार के साथ उन्होंने फिल्म ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ में अभिनय किया. यह उनकी बोल्ड फिल्मों में से एक है. इसके बाद उनका नाम बॉलीवुड की सफल अभिनेत्रियों में शुमार हो चुका था.

राजकुमार संतोषी, ममता को फिल्म से हटाना चाहते थे लेकिन अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन का फोन संतोषी के पास आया और उनको कदम पीछे खींचने पड़े

हालांकि उनकी यह सफलता बहुत दिनों तक टिक नहीं सकी. वर्ष 1998 आते-आते ममता का करिअर ढलान पर आ चुका था. इसी समय राजकुमार संतोषी ने उन्हें अपनी फिल्म ‘चाइना गेट’ के लिए साइन किया था और तब उनके नाम के साथ एक और विवाद जुड़ गया. यह एक ऐसा विवाद था जिसके बारे में लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी. इस बार ममता कुलकर्णी के अंडरवर्ल्ड से संबंध की बात सामने आई. बताया जाता है कि फिल्म शुरू होने के बाद संतोषी उन्हें फिल्म से हटाना चाहते थे, जिसके बाद अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन का फोन संतोषी के पास आया और संतोषी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म फ्लॉप हुई जिसके बाद ममता ने संतोषी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, जिसका संतोषी ने खंडन किया था. फिल्म रिलीज होने के बाद भी यह विवाद नहीं थमा. ममता ने संतोषी पर आरोप लगाया कि फिल्म में उनके रोल के साथ बुरी तरह से काट-छांट की गई है और फिल्म का एकमात्र आइटम सांग ‘छम्मा-छम्मा’ उर्मिला मातोंडकर को दे दिया गया. इस विवाद के बाद ममता का करिअर फिर वैसा नहीं रह सका. अंडरवर्ल्ड से उनके कथित संबंधों के चलते निर्देशकों और अभिनेताओं ने उनसे किनारा करना शुरू कर दिया था. इसके बाद वर्ष 2002 में फिल्म ‘कभी तुम कभी हम’ करने के बाद वे बॉलीवुड से गायब ही हो गईं.

फिल्म ‘चाइना गेट’ से जुड़ा एक और विवाद ममता के नाम दर्ज है. यह फिल्म के एक्शन डायरेक्टर टीनू वर्मा और ममता के बीच संबंधों से जुड़ा मामला है. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, टीनू वर्मा की पत्नी वीना ने दोनों को आपत्तिजनक हालत में ममता के मेकअप मैन के कमरे से पकड़ा था. तब मीडिया से बातचीत में ममता ने इसे एक साधारण मुलाकात बताया था. हालांकि बाद में इस बात का खुलासा हुआ कि टीनू और ममता के बीच न सिर्फ संबंध थे बल्कि दोनों ने गुपचुप तरीके से शादी भी कर ली थी. बाद में उनके संबंधों में कड़वाहट आ गई और दोनों के बीच सार्वजनिक तौर पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला. ममता से जुड़ा एक विवाद यह भी रहा है कि बिहार में एक विधायक के कार्यक्रम में उन्होंने भारी-भरकम रकम के एवज में परफॉर्म किया था. बाद में यह विधायक चारा घोटाले में गिरफ्तार किया गया था. इसके अलावा बीच में उनके साध्वी बनने की खबर भी उछली थी. उन्होंने मीडिया से बातचीत में स्वीकार भी किया था कि वे साध्वी बन चुकी हैं. इस दौरान उन्होंने एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन योगिनी’ है. बहरहाल, ममता कुलकर्णी और विकी गोस्वामी फिलहाल केन्या में ही हैं. दोनों ने ड्रग तस्करी के आरोप का सिरे से खंडन किया है. उधर, ठाणे पुलिस ममता कुलकर्णी और विकी गोस्वामी के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी करने की योजना बना रही है.

क्या डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड में सीबीआई किसी नतीजे पर पहुंच पाएगी?

फोटो साभार : नरेंद्र दाभोलकर के फेसबुक पेज से
फोटो साभार :  नरेंद्र दाभोलकर के फेसबुक पेज से
फोटो साभार : नरेंद्र दाभोलकर के फेसबुक पेज से

बीते 11 जून की शाम के तकरीबन पांच बज रहे थे. पुणे के शिवाजीनगर कोर्ट में न्यायाधीश एनएन शेख का कोर्टरूम खचाखच भरा हुआ था. कोर्ट में पुलिस का अच्छा-खासा बंदोबस्त था. तकरीबन 67 पुलिसकर्मी परिसर और उसके गेट पर पहरा दे रहे  थे. कोर्टरूम के भीतर मौजूद पत्रकार टकटकी लगाए बैठे थे कि आरोपी को कोर्ट में कब लाया जाएगा.  छुट्टी के दिन कोर्ट में पत्रकारों और पुलिस का मजमा इसलिए लगा हुआ था क्योंकि सीबीआई पुणे के चर्चित डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड में गिरफ्तार किए गए एक आरोपी डॉ. वीरेंद्र सिंह तावड़े को पेश करने वाली थी. आरोपी तावड़े सनातन संस्था से संबंध रखते हैं और उस दिन दिखने में बेहद शांत नजर आ रहे थे. सीबीआई की मानें तो डॉ. दाभोलकर की हत्या की साजिश रचने में तावड़े की भूमिका अहम है.

अदालत में हुई बहस के दौरान अधिवक्ता बीपी राजू ने सीबीआई का पक्ष रखते हुए बताया, ‘तावड़े ईमेल के जरिए इस मामले से जुड़े कुछ अन्य आरोपियों के संपर्क में थे. तर्कवादियों डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या में काले रंग की एक होंडा मोटरसाइकिल इस्तेमाल हुई है जो कि तावड़े की मोटरसाइकिल जैसी ही है.’ उन्होंने बहस में यह भी कहा, ‘कोल्हापुर में गोविंद पानसरे की हत्या उस घर के सामने हुई जिसमें तावड़े रहते थे. तीनों ही हत्याओं में एक ही तरह के कारतूस और एक ही तरह की पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ था.’ बहस के दौरान सीबीआई की तरफ से यह भी बताया गया कि तावड़े की गतिविधियों को प्रमाणित करने के लिए उनके पास एक गवाह भी है. इसके बाद न्यायालय ने तावड़े को 16 तारीख तक के लिए सीबीआई की हिरासत में रखने का आदेश दे दिया.

20 अगस्त, 2013 की सुबह सवा सात बजे पुणे के शनिवार पेठ इलाके के पास ओंकारेश्वर पुल पर मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात लोगों ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या कर दी थी. वे घर से टहलने के लिए निकले थे. जहां उनकी हत्या हुई वहां से शनिवार पेठ पुलिस चौकी की दूरी 100 मीटर भी नहीं थी

16 जून को सीबीआई ने डॉ. वीरेंद्र सिंह तावड़े को जूडिशियल मजिस्ट्रेट वीबी गुलावे पाटिल की कोर्ट में पेश किया और उनकी हिरासत आठ दिन बढ़ा दिए जाने की मांग की थी. सीबीआई ने अदालत में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि डॉ. दाभोलकर की हत्या के तीन माह पूर्व तावड़े को एक अनजान व्यक्ति के जरिए एक ईमेल मिला था जिसमें लिखा था कि वे दाभोलकर के ऊपर अपना काम केंद्रित करें. हालांकि तावड़े ने उस ईमेल का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सीबीआई को शक है कि उसने ईमेल में दिए निर्देश के अनुसार काम किया और दाभोलकर की हत्या की योजना बनाई. सीबीआई के वकील ने अदालत में यह भी कहा कि तावड़े जांच में मदद नहीं कर रहे हैं और उसे टालने के लिए सिरदर्द और उल्टी का बहाना बनाते रहते हैं. सीबीआई द्वारा करवाई गई मेडिकल जांच में वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं.

सीबीआई ने कोर्ट में कहा कि कोल्हापुर के रहने वाले एक गवाह ने तावड़े और सारंग आकोलकर की इस मामले में पहचान की है. सीबीआई का मानना है कि हत्या को अंजाम देने में इस्तेमाल हुए हथियारों और गोलियों का प्रबंध तावड़े ने किया था और ये गोलियां कर्नाटक के बेलगाम से लाई गई थीं. सीबीआई ने कोर्ट में यह भी बताया कि तावड़े ने साल 2009 में सांगली और गोवा में सनातन संस्था द्वारा लगाए गए हथियारों के प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षण भी लिया था. इसके अलावा सीबीआई ने अपनी दलील में यह भी कहा कि तावड़े और आकोलकर के बीच ईमेल द्वारा हुए कई संवादों में दो ईमेल ऐसे हैं जिसमंे उन्होंने दाभोलकर के बारे में चर्चा की है. इनमें हथियारों की फैक्टरी स्थापित करने के साथ-साथ ही हिंदुओं के खिलाफ काम करने वाले संगठनों के खिलाफ 15,000 लोगों की एक सेना बनाने का भी जिक्र है.

बताया जाता है कि तर्कवादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के अगले दिन सनातन संस्था के मुखपत्र ‘सनातन प्रभात’ में लिखा गया, ‘गीता में लिखा है- जो जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल भोगेगा इसलिए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को इस तरह की मौत मिली है. वे भाग्यशाली हैं कि किसी बीमारी के चलते बिस्तर पर नहीं मर गए’

वहीं तावड़े के वकील संजीव पुनालेकर ने कहा कि तावड़े और आकोलकर के बीच हुआ ईमेल का आदान-प्रदान 2009 का है, जबकि दाभोलकर की हत्या 2013 में हुई है. सिर्फ शक के अाधार पर इस मामले में किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने तावड़े को 20 जून तक सीबीआई की हिरासत में भेज दिया था. 20 जून को हुई सुनवाई में कोर्ट ने वीरेंद्र तावड़े को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया. 

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क्या है सनातन संस्था?

सनातन संस्था की स्थापना करने वाले जयंत बालाजी आठवले को संस्था से जुड़े लोग भगवान नारायण का अवतार मानते हैं. संस्था का उद्देश्य एक हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना है. आठवले ने ‘क्षात्रधर्म साधना’ नाम की एक किताब लिखी है.  सनातन संस्था का अपना मुखपत्र भी है, जिसका नाम ‘सनातन प्रभात’ है
सनातन संस्था की स्थापना करने वाले जयंत बालाजी आठवले को संस्था से जुड़े लोग भगवान नारायण का अवतार मानते हैं. संस्था का उद्देश्य एक हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना है. आठवले ने ‘क्षात्रधर्म साधना’ नाम की एक किताब लिखी है. सनातन संस्था का अपना मुखपत्र भी है, जिसका नाम ‘सनातन प्रभात’ है

साल 1990 में जयंत बालाजी आठवले ने मुंबई में सायन स्थित अपने घर में सनातन भारतीय संस्कृति संस्था नाम के संगठन की शुरुआत की थी. उन्होंने यह घोषणा की थी कि समाज से दुर्जनों के नाश के लिए और धरती पर ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए संस्था की स्थापना की है. आठवले ने असल में डॉक्टरी की पढ़ाई की है, जिसके बाद उन्होंने सम्मोहन विद्या सीखी और 197० तक महाराष्ट्र और गोवा के कई इलाकों में वे इसका सामूहिक प्रदर्शन करते थे. इसी दौरान उनकी मुलाकात कुंदा बोरवणकर से हुई, जिनसे उन्होंने शादी कर ली और सम्मोहन पर शोध करनेे के लिए लंदन चले गए. वे करीब सात साल लंदन में रहे और फिर 1978 में भारत आकर आठवले ने क्लीनिकल हिप्नोसिस की क्लिनिक मुंबई में अपने घर से शुरू की.

सनातन संस्था के बारे में जानकारी रखने वाले एक मनोवैज्ञानिक ने नाम न लिखने की शर्त पर बताया, ‘लोगों का इलाज करते-करते आठवले अध्यात्म और साधना की ओर इतने आकर्षित हो गए कि वे अपने मरीजों से कहने लगे कि वे भगवान से बातें कर सकते हैं और लोगों की समस्याएं सुलझाने के लिए भगवान की सलाह ले सकते हैं. धीरे-धीरे वे लोगों की मनोवैज्ञानिक तकलीफों को सम्मोहन से ठीक करने के बजाय धार्मिक अनुष्ठानों के जरिए ठीक करने की कोशिश करने लगे, उन्हें जप करने के लिए प्रेरित करने लगे और फिर उन्होंने सनातन भारतीय संस्कृति संस्था की शुरुआत की जिसका नाम आगे जाकर सनातन संस्था हो गया.’

वे आगे बताते हैं, ‘सनातन संस्था से जुड़े लोगों को साधक और साधिका कहा जाने लगा, जो आठवले को भगवान की तरह मानते हैं. आठवले सम्मोहन के जरिए लोगों को भ्रमित करने में कामयाब रहे और उनके मानने वालों की संख्या बढ़ती गई. महाराष्ट्र और गोवा में बहुत-से लोग आठवले के पास आने लगे और उनके समर्थक बनते गए.’

साल 2000 में आठवले ने अपनी संस्था के मुखपत्र ‘सनातन प्रभात’ की स्थापना की, जिसमें देश और धर्म की खबरें होती थीं. इसमें साधकों से निरंतर यह कहा जाता था कि देश और धर्म खतरे में है और उन्हें उसे बचाने के लिए कुछ करना है. साधकों से कहा जाता कि आठवले ईश्वर का अवतार हैं और उनका जन्म ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए हुआ है. ‘सनातन प्रभात’ में साधकों के लिए सुझाव और अादेश दिए जाते हैं जिन्हेंे हर साधक को मानना  होता है. आठवले का अपने साधकों पर इतना प्रभाव माना जाता है कि उनके कहने पर वे अपना जीवन तक त्यागने के लिए तैयार हो जाते हैं. आठवले अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए अक्सर कहा करते थे कि साधक समाज से दुर्जनों के नाश के लिए और  धरती पर ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए कार्य कर रहे हैं और एक ऐसा राज्य बनाएंगे जहां न तो भ्रष्टाचार होगा और न ही लोकतंत्र. ‘सनातन प्रभात’ के जरिए आठवले अपने साधकों से कहते हैं कि महात्मा गांधी, नेहरू और महात्मा फुले ठीक नहीं थे. उन्होंने देश का कुछ भला नहीं किया और उनके चलते आज समाज को भुगतना पड़ रहा है.

आठवले द्वारा लिखी गई किताब ‘क्षात्रधर्म साधना’ के अनुसार, उनके ईश्वरीय राज्य का संविधान महाभारत और रामायण के मुताबिक होगा. उनके राज्य में सालाना बजट नहीं पेश किया जाएगा और शेयर मार्केट नहीं होगा. वे भारतीय लोकतंत्र को पसंद नहीं करते और न ही उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था और पुलिस पसंद है. वे कहते है कि उनका ईश्वरीय राज्य स्थापित होने के बाद वे नई न्यायपालिका बनाएंगे जिसका नाम ‘ईश्वरीय न्याय व्यवस्था’ होगा जहां साधक न्यायाधीश होंगे और वर्तमान में विभिन्न अदालतों में काम करने वाले वकील मुजरिम होंगे और उन पर मुकदमे चलाए जाएंगे. किताब में आठवले ने बताया है कि गुरु और शिष्य का ही रिश्ता जीवन में असली रिश्ता है बाकी माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी सब नकली रिश्ते होते हैं, इनका कोई अर्थ नहीं होता. आठवले अपने साधकों को अपने गुरु के सामने नग्नावस्था में जाने को कहते हैं. उनका कहना है कि सभी राजनीतिक पार्टियों और उनके अनुयायियों को खत्म करके ही ईश्वरीय समाज की स्थापना की जा सकती है. किताब में यहां तक कहा गया है कि समाज में साधक होते हैं और दुर्जन होते हैं, ये दुर्जन साधकों को साधना नहीं करने देते और ऐसे लोगों को  टुकड़े-टुकड़े करके मार देना चाहिए. अगर साधक ऐसे दुर्जनों को मारेंगे तो उनकी आध्यात्मिक शक्तियां बढ़ेंगी और उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा.

आठवले अपने साधकों को ‘क्षात्रधर्म साधना’ करने को कहते हैं. वे कहते हैं, ‘मार दो उन लोगों को जो दुर्जन हैं, जो धर्मद्रोही हैं, जो राष्ट्रद्रोही हैं. ऐसे दुर्जनों का अंत कर दो. दुर्जनों से लड़ने को तैयार हो जाओ और अपनी मृत्यु का भय मत रखो.’ कहा जाता है कि संस्था की नजर में हर वह व्यक्ति दुर्जन है जो आठवले को नहीं मानता और साधक नहीं है. साधकों को लाठी, तलवार, बंदूक चलाना भी सिखाया जाता है और ऐसे साधकों को शास्त्रवीर कहा जाता है. गौरतलब है कि सनातन संस्था में ऐसे कई साधक और साधिकाएं हैं जो परिवार से रिश्ते-नाते तोड़कर आठवले की शरण में रहते हैं. उल्लेखनीय है कि ‘सनातन प्रभात’ के जरिए  सनातन संस्था के आश्रम में साधकों को कहा जाता है कि वे खाली माचिस की डिब्बी, भगवान की फोटो, आठवले द्वारा लिखित कुछ साहित्य या फिर उनके कंबल के टुकड़े अपने अंतर्वस्त्र में रखंे जिससे कि कोई ‘शक्ति’ उन पर हमला न कर सके. कई साधकों को ऐसा भ्रम होता है कि कोई उनके साथ बलात्कार कर सकता है और इससे बचने के लिए उन्हें इस तरह के उपाय बताए जाते हैं. किसी साधक या साधिका की काम इच्छा का बढ़ जाना आठवले उन पर ‘शक्तियों’ का हमला मानते हैं और उसका उपचार करने के लिए कई बार उन्हें गर्म सलाख से भेदा जाता है. मिर्ची पाउडर को जलाकर उसका धुआं उन पर उड़ाया जाता है. उन्हें खंभे से बांध दिया जाता है और पीटा भी जाता है.

आठवले अपने साधकों से यह भी आह्वान करते हैं कि वामपंथी, नक्सलवादियों को खत्म करने के लिए उन्हें हिंदू नक्सलवादी बन जाना चाहिए. पिछले कई वर्षों में कई हिंसक घटनाओं से लेकर बम विस्फोट तक की घटनाओं में सनातन संस्था का नाम आया है. वर्ष 2006 में छह जनवरी को रत्नागिरी के एक ईसाई परिवार के घर के बाहर बम धमाका किया गया था और परिवार के एक लड़के की चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई थी. आरोप संस्था पर आया था. कहा जाता है कि सनातन संस्था के लोग इस बात से नाराज थे कि उस परिवार ने धर्मांतरण करके ईसाई धर्म अपना लिया था. 17 अक्टूबर, 2009 को सनातन साधकों ने गोवा के मडगांव में नरकासुर दहन के खिलाफ दिवाली के दिन बम धमाका किया था. इस धमाके में मालगोंडा पाटिल और योगेश नाईक नाम के दो साधक मारे गए थे. स्कूटर से बम निकालते वक्त ही वह फट गया था. मामले की जांच नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी कर रही है. मामले के दो आरोपी सारंग अाकोलकर और रुद्र पाटिल फरार हैं. जहां अाकोलकर के तार डॉ. दाभोलकर हत्याकांड से जुड़े हैं, वहीं पाटिल के तार पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं से जुड़े हुए हैं. सिर्फ देश नहीं विदेशों में भी सनातन संस्था का नाम विवादित है.  गौरतलब है कि यूरोपीय देश सर्बिया स्थित सनातन संस्था के आश्रम पर स्थानीय निवासियों ने हमला कर दिया था और वहां की सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था.[/symple_box]

गौरतलब है कि अदालत ने गोविंद पानसरे हत्याकांड की जांच कर रही स्पेशल इनवेिस्टगेशन टीम को भी पानसरे हत्याकांड की जांच के सिलसिले में तावड़े को हिरासत में लेने के आदेश दिए हैं. यही नहीं, कर्नाटक सीआईडी भी 30 अगस्त, 2015 को कर्नाटक के धारवाड़ में हुई प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या के सिलसिले में तावड़े की हिरासत की मांग करने वाली है.

सीबीआई के सूत्रों के अनुसार रिटायर सब इंस्पेक्टर मनोहर कदम भी दाभोलकर हत्याकांड के आरोपी तावड़े से साल 2012-13 के दौरान निरंतर संपर्क में थे. सीबीआई को शक है कि न सिर्फ कदम ने डॉ. दाभोलकर पर गोली चलाने वालों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया था बल्कि उन्हें हथियार भी उपलब्ध कराए थे. सीबीआई के अनुसार, कदम ने सारंग आकोलकर और रुद्र पाटिल को साल 2009 में हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया था. हालांकि सीबीआई ने इस मामले में अभी तक कदम से कोई भी अाधिकारिक पूछताछ नहीं की है.

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डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को हुए लगभग तीन साल हो चुके हैं और मामले में सीबीआई की ओेर से यह पहली गिरफ्तारी है. इसके पहले मामले  में वर्ष 2014 की जनवरी में मनीष नागौरी और विकास खंडेलवाल नाम के दो हथियार तस्करों  को महाराष्ट्र एटीएस ने गिरफ्तार किया था. ये दो युवक अगस्त 2014 से अन्य अापराधिक मामलों में पुलिस हिरासत में थे. बाद में इन्हें दाभोलकर हत्याकांड के सिलसिले में भी गिरफ्तार किया गया. उस वक्त पुणे पुलिस के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (अपराध) शाहजी सालुंके ने इन दोनों की गिरफ्तारी को लेकर कहा था कि  बैलिस्टिक रिपोर्ट के अनुसार डॉ. नरेंद्र दाभोलकर पर चलाई हुई गोली नागौरी और खंडेलवाल से जब्त की गई 7.55 बोर की पिस्तौल से चलाई गई है. इन दो गिरफ्तारियों को लेकर बवाल तब मचा जब एक पेशी के दौरान कोर्ट में नागौरी ने तत्कालीन एटीएस प्रमुख राकेश मारिया पर आरोप लगाया कि उन्होंने नागौरी को 25 लाख रुपये की पेशकश देकर दाभोलकर हत्याकांड में अपना जुर्म कबूल करने के लिए कहा था.

गौरतलब है कि 20 अगस्त, 2013 की सुबह सवा सात बजे पुणे के शनिवार पेठ इलाके के पास ओंकारेश्वर पुल पर मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात लोगों ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या कर दी थी. वे घर से टहलने के लिए निकले थे. जहां उनकी हत्या हुई वहां से शनिवार पेठ पुलिस चौकी की दूरी 100 मीटर भी नहीं थी.

शुरुआती दौर में यह मामला पुलिस के पास था लेकिन पुलिस की निष्क्रियता देखते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने पत्रकार केतन तिरोडकर की ओर से दाखिल एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी. हालांकि सीबीआई का हाल भी पुलिस से कुछ ज्यादा बेहतर नहीं था. मई 2014 में मामला सीबीआई के पास जाने के बाद जांच के प्रति एजेंसी के लचर रवैये को लेकर खुद दाभोलकर परिवार बॉम्बे हाई कोर्ट में आपत्ति उठा चुका है. डॉ. दाभोलकर की बेटी मुक्ता दाभोलकर की ओर से हाई कोर्ट में दायर की गई याचिका में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि शुरुआती दौर में सीबीआई इस मामले की जांच करने के खिलाफ थी लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद उसे यह जांच करनी पड़ी. उन्होंने याचिका में यह भी लिखा था कि सीबीआई ढंग से मामले की जांच नहीं कर रही है और उसके अफसरों के बीच कोई तालमेल नहीं है. इसके अलावा इसी साल मई में बॉम्बे हाई कोर्ट भी मामले की ढीली जांच को लेकर सीबीआई को फटकार लगा चुकी है. इसके बाद पहली बार इस मामले में किसी की गिरफ्तारी हुई है. हालांकि अभी भी यह मामला किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है. इस हत्याकांड को सुलझाने के लिए एजेंसी की ओर से सिर्फ चार सदस्यों की एक टीम बनाई गई है.

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मलून समिति के संस्थापक थे और ताउम्र एक तर्कवादी के रूप में अंधश्रद्धा और जादू-टोने  जैसी कुरीतियों के खिलाफ काम करते रहे. इस वजह से उन पर कई बार हमले भी हो चुके थे. उनको अक्सर धमकियां मिलती थीं. लेकिन अंधश्रद्धा के खिलाफ विधानसभा में कानून पारित करने हेतु उनकी पहल के बाद धमकियों का सिलसिला लगातार बढ़ गया था. उन्हें जान से मारने की धमकी भी मिलने लगी थी. साल 2003 में डॉ. दाभोलकर ने अंधश्रद्धा और जादू-टोना विरोध विधेयक का प्रारूप तैयार किया था और विधानसभा में इस विधेयक को पारित कराने हेतु भरसक प्रयास किया था. उनके इस विधेयक को महाराष्ट्र के वारकरी समुदाय के साथ-साथ शिवसेना और भाजपा जैसी पार्टियों का विरोध भी झेलना पड़ा था. विधेयक का विरोध करने वालों के अनुसार, यह विधेयक हिंदू संस्कृति और रीति-रिवाजों का विरोध करता है. डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को इस बात का इल्म था कि उनकी जान को खतरा है. इसके बावजूद उन्होंने कभी पुलिस का संरक्षण नहीं लिया था. उनकी हत्या के कुछ दिन बाद ही तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने अंधश्रद्धा और जादू-टोना विरोधी विधेयक विधानसभा में पारित कर दिया था. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या में इस्तेमाल की गई गोलियां पुणे स्थित खड़की एम्युनिशन फैक्टरी की बनी हुई हैं. सभी गोलियों के पीछे ‘केएफ’ लिखा है, जिसका मतलब है- खड़की फैक्टरी. हालांकि कभी इस बात की जांच नहीं की गई. गौरतलब है कि हत्या के इन तीनों ही मामलों में गोलियों की बैलिस्टिक रिपोर्ट बनाने का जिम्मा स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस को दिया गया है. इसके अलावा इन तीनों ही हत्याओं में ‘सनातन संस्था’ नाम का संगठन सवालों के घेरे में है.

 डॉ. दाभोलकर और सनातन संस्था

बताया जाता है कि डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के पहले सनातन संस्था की वेबसाइट पर उनका एक चित्र लगा हुआ था जिस पर लाल रंग का निशान बना था. उनकी हत्या के बाद यह चित्र वेबसाइट से हटा लिया गया. यही नहीं, उनकी हत्या के अगले दिन सनातन संस्था के मुखपत्र ‘सनातन प्रभात’ में लिखा गया, ‘गीता में लिखा है- जो जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल भोगेगा इसलिए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को इस तरह की मौत मिली है. वे भाग्यशाली हैं कि किसी बीमारी के चलते बिस्तर पर नहीं मर गए.’

अंधश्रद्धा के खिलाफ डॉ. दाभोलकर की ओेर से चलाई जा रही मुहिम की सनातन संस्था शुरुआती दौर से ही प्रखर विरोधी रही है. सनातन संस्था के साधक मालगोंडा पाटिल, जिसकी गोवा के मडगांव में एक बम विस्फोट को अंजाम देने के दौरान मौत हो गई थी, ने ‘सनातन प्रभात’ में एक लेख लिखा था, जिसमें डॉ. दाभोलकर के बारे में टिप्पणी करते हुए उनके काम की आलोचना की गई थी. उनकी मौत के बाद भी ‘सनातन प्रभात’ में उनके और महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मलून समिति के खिलाफ लगातार टिप्पणियां की जाती रही हैं.

डॉ. दाभोलकर की हत्या के आरोप में सीबीआई की ओर से गिरफ्तार किए गए डॉ. वीरेंद्र सिंह तावड़े सनातन संस्था की शाखा हिंदू जनजागृति समिति के सदस्य हैं. तावड़े पेशे से एक ईएनटी (आंख-नाक-गला) डॉक्टर हैं और साल 2002 से हिंदू जनजागृति समिति के लिए काम कर रहे हैं. वे 2002 से 2007 तक कोल्हापुर में कार्यरत थे

डॉ. दाभोलकर की हत्या के आरोप में सीबीआई की ओर से गिरफ्तार किए गए डॉ. वीरेंद्र सिंह तावड़े सनातन संस्था की शाखा हिंदू जनजागृति समिति के सदस्य हैं. तावड़े पेशे से ईएनटी (आंख-नाक-गला) डॉक्टर हैं और साल 2002 से हिंदू जनजागृति समिति के लिए काम कर रहे हैं. तावड़े 2002 से 2007 तक कोल्हापुर में कार्यरत थे. उसके बाद 2007 से 2009 तक सतारा में रहे. इसके बाद 2009 से मुंबई के नजदीक पनवेल में रह रहे थे. बीते एक जून को सीबीआई ने तावड़े के पनवेल स्थित घर में और सनातन संस्था के एक अन्य सदस्य सारंग अाकोलकर (जो 2009 में गोवा में हुए मडगांव बम विस्फोट में आरोपी है) के पुणे स्थित घर में छापा मारा था. इसके बाद तावड़े की गिरफ्तारी हुई. गौरतलब है कि सारंग अाकोलकर के तार गोवा बम विस्फोट से जुड़े हुए हैं और वह 2009 से फरार है. मडगांव बम विस्फोट की जांच कर रही नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) अाकोलकर की तलाश में है. एनआईए ने अाकोलकर के खिलाफ इंटरपोल का रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी कर रखा है लेकिन वह उसे पकड़ने में अभी तक नाकामयाब रही है. सीबीआई भी सारंग अाकोलकर की दाभोलकर हत्याकांड में तलाश कर रही है. उल्लेखनीय है कि पुणे पुलिस की ओर से डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड की जांच के दौरान जारी किया गया स्केच अाकोलकर से मेल खाता है.

‘तहलका’ से बातचीत के दौरान सीबीआई  के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, ‘तावड़े और अाकोलकर के बीच ईमेल द्वारा बातचीत किए जाने के पुख्ता सबूत मिले हैं. तावड़े और अाकोलकर के बीच साल 2008 से 2013 तक ईमेल के जरिए बातचीत हो रही थी. तावड़े की ओर से भेजे गए एक ईमेल में लिखा था कि ‘देसी’ और ‘विदेशी साहित्य’ के लिए एक कारखाना बनाना पड़ेगा और एक दूसरे ईमेल में यह भी लिखा है कि ‘देसी साहित्य’ मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में मिलेगा जबकि ‘विदेशी साहित्य’ असम में मिलेगा.’ सीबीआई के अनुसार, ‘देसी साहित्य’ और ‘विदेशी साहित्य’ का मतलब देसी और विदेशी पिस्तौल से था.

सीबीआई से जुड़े एक सूत्र के अनुसार, डॉ. दाभोलकर की हत्या की साजिश रचने के पीछे  हिंदू जनजागृति समिति का हाथ है. इसमें चार लोग अहम भूमिका में थे. दो ने साजिश रची है और दो ने हत्या को अंजाम दिया है. मौजूदा जानकारी के अनुसार तावड़े  साजिश रचने में  एक अहम किरदार है और दाभोलकर की हत्या को अंजाम देने में अाकोलकर का हाथ है.

डॉ. दाभोलकर के पुत्र हमीद दाभोलकर ‘तहलका’ से बातचीत में कहते हैं, ‘तावड़े ने मेरे पिता के कार्यों का कोल्हापुर और सतारा दोनों ही जगह प्रखर विरोध किया है, नदियों में गणेश  चतुर्थी के दौरान मूर्तियां विसर्जित करने के खिलाफ उनकी मुहिम का तावड़े ने बढ़-चढ़ कर विरोध किया था. इसके अलावा सनातन संस्था के वकील संजीव पुनालेकर जो कि इस मामले में तावड़े की पैरवी कर रहे हैं सारंग अाकोलकर के लगातार संपर्क में हैं.’  दरअसल तावड़े और अाकोलकर के घरों पर सीबीआई के छापों के बाद मुंबई में हिंदू जनजागृति समिति द्वारा की गई एक पत्रकार वार्ता के दौरान सनातन संस्था के वकील संजीव पुनालेकर ने अाकोलकर के उनसे संपर्क में बने रहने की बात कही थी. हमीद यह भी कहते हैं, ‘इस मामले में वैसे ही आरोपियों को पकड़ने में बहुत देर हो चुकी है. तावड़े से तो शुरुआत हुई है लेकिन अब जांच एजेंसी और सरकार को जल्द से जल्द मामले की तह तक पहुंचकर बाकी अपराधियों को गिरफ्तार करना चाहिए.’

पुनालेकर  ‘तहलका’ से बातचीत के दौरान कहते हैं,  ‘अाकोलकर एक आरोपी हैं और कोई भी आरोपी कानूनी रूप से अपने वकील के संपर्क में रह सकता है. जहां तक तावड़े के खिलाफ सीबीआई के गवाह की बात है तो उसके बारे में हमें पूरी जानकारी है कि वह गवाह कौन है. उनके खिलाफ धोखाधड़ी और महिलाओं के उत्पीड़न के मामले दर्ज हैं. वे खुद एक हिंदूवादी संगठन में थे लेकिन पैसों के हेर-फेर के आरोप में उन्हें संगठन से निकाल दिया गया था. हम आने वाले दिनों में इससे पर्दा उठाएंगे.’

‘वीरेंद्र तावड़े के खिलाफ गवाही देने वाले व्यक्ति का नाम सादविलकर है. यह एक भ्रष्ट व्यक्ति है. सादविलकर ने कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर में चांदी का रथ बनाने में घोटाला किया था. ऐसे व्यक्ति की गवाही मानना सीबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है और यह भाजपा सरकार के लिए भी बदनामी की बात है’ 

इसके बाद 17 जून को हुई पत्रकार वार्ता में सनातन संस्था की ओर से दावा किया गया कि सनातन साधक वीरेंद्र सिंह तावड़े के खिलाफ दाभोलकर हत्याकांड में सीबीआई का गवाह बनने वाला खुद एक अपराधी है और कोल्हापुर में अपनी असामाजिक गतिविधियों  के लिए मशहूर है. सनातन  संस्था के प्रवक्ता अभय वर्तक कहते हैं, ‘वीरेंद्र तावड़े के खिलाफ गवाही देने वाले व्यक्ति का नाम सादविलकर है. यह एक भ्रष्ट व्यक्ति है, ऐसे व्यक्ति की गवाही मानना सीबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है और यह भाजपा सरकार के लिए भी बदनामी की बात है.’ सनातन संस्था के अनुसार, सादविलकर ने कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर में चांदी का रथ बनाने में घोटाला किया था. सनातन संस्था की शाखा हिंदू विधिनिद्य परिषद के वकील संजीव पुनालेकर के अनुसार, सादविलकर ने जमीन हड़पने, खनन परमिटों का गलत इस्तेमाल करने और महालक्ष्मी मंदिर सहित पश्चिम महाराष्ट्र देवस्थान समिति के तहत आने वाले 3,066 मंदिरों की राशि में हेर-फेर किया है. पुनालेकर कहते हैं, ‘हिंदू विधिनिद्य परिषद ने सादविलकर के भ्रष्टाचारों की पोल खोली थी. मुख्यमंत्री को परिषद द्वारा सौंपी गई याचिका में सादविलकर के नाम का विशेष रूप से वर्णन था, जिसके चलते इस घोटाले में मुख्यमंत्री ने सीआईडी जांच के आदेश दिए हैं और इसी वजह से सादविलकर संस्था को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.’

सनातन संस्था के पदाधिकारियों ने बताया कि सादविलकर ने इस तथ्य का फायदा उठाया है कि वीरेंद्र सिंह तावड़े कोल्हापुर में रहते थे और शायद उनकी सादविलकर से जान-पहचान थी. सादविलकर ने हिंदू जनजागृति के कार्यक्रमों में अक्सर खलल डाला है. उनके खिलाफ हिंदू जनजागृति समिति के कार्यकर्ता को मारने की धमकी देने की भी शिकायत दर्ज है. 

गौरतलब है कि सनातन संस्था की शाखा हिंदू विधिनिद्य परिषद उसके मुकदमे लड़ती है. इस परिषद की स्थापना 2012 में गोवा में हुई थी और इनके पास वकीलों की एक फौज है जो मुफ्त में मुकदमे लड़ती है. सनातन संस्था के प्रवक्ता अभय वर्तक कहते हैं, ‘वीरेंद्र तावड़े की गिरफ्तारी गलत है और मुझे 100 प्रतिशत विश्वास है कि डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड से उनका कोई लेना-देना नहीं है, जल्द ही वे बाइज्जत बरी हो जाएंगे.’        

जम्मू-कश्मीर : अघातक हथियार, घातक वार

All Photos : Faisal Khan
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21 अप्रैल को बारपोरा, पुलवामा के 23 साल के हिलाल अहमद एक स्थानीय कब्रिस्तान में हुई तोड़-फोड़ के विरोध में युवाओं के साथ प्रदर्शन कर रहे थे कि पुलिस द्वारा एयर गन से चलाई गई पैलेट (एक तरह की नकली गोली जिससे जान नहीं जाती. यह बंदूक से छर्रों के रूप में निकलती हैं) उनके चेहरे, सिर और सीने पर लगीं और वे घायल हो गए. उन्हें फौरन श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने बताया कि पैलेट लगने से उनकी दाईं आंख की रोशनी चली गई है. उनके माता-पिता को इस बात पर यकीन नहीं हुआ इसलिए वे हिलाल को चंडीगढ़ के एक नेत्र अस्पताल में लेकर गए, जहां के डॉक्टरों ने भी वही बात दोहराई. फिर श्रीनगर में उनकी बाईं आंख का ऑपरेशन किया गया. डॉक्टरों के अनुसार, 70 प्रतिशत दृष्टि लौट सकती थी, पर ऑपरेशन भी उतना कारगर नहीं रहा. हिलाल की बाईं आंख की सिर्फ 30 प्रतिशत दृष्टि वापस आई. अपने हालात से नाखुश हिलाल अब अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं और छोटी-सी-छोटी जरूरत के लिए अपने घरवालों पर आश्रित हैं. उनके पिता गुलाम मोहम्मद कहते हैं, ‘अब हम क्या करें? चंद कदम चलने के लिए भी हिलाल हम पर ही निर्भर है. मेरी परेशानी यह नहीं है कि वो अब हमारे लिए कुछ नहीं कर सकेगा बल्कि ये है कि हमारे बाद उसका क्या होगा.’

हिलाल कश्मीर में विरोध-प्रदर्शनों को काबू में करने में पैलेट गन के अनियंत्रित प्रयोग को दर्शाता महज एक आंकड़ा भर हैं. ये बंदूकें दंगा नियंत्रण उपकरणों में से एक हैं, जिन्हें अघातक श्रेणी में रखा गया है. पर 2010 से (जब से इनका प्रयोग कश्मीर में शुरू हुआ) तमाम युवा अपनी दोनों या एक आंख की रोशनी खो चुके हैं. सैकड़ों ऐसे भी हैं जो घायल हुए तो कुछ की मौत हो गई. इन हथियारों को ‘अघातक’ की श्रेणी में रखना कहीं न कहीं अपने अर्थ के विपरीत ही साबित हो रहा है, जो घातक हथियारों के प्रयोग से ज्यादा खतरनाक है. एक ओर जहां घातक हथियार जिंदगी छीन लेते हैं, ये हथियार जिंदगी तो बख्श देते हैं पर जीना ही मुश्किल कर देते हैं.

यहां के दो बड़े अस्पतालों, श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल और बेमीना स्थित शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (स्किम्स) के पिछले सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो मामले की गंभीरता पता चलती है. अक्टूबर 2014 से नवंबर 2015 के बीच श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के नेत्र चिकित्सा विभाग में 38 ऐसे रोगी आए जिन्हें पैलेट गन से चोट पहुंची थी. इनमें से 32 को आंख में गंभीर चोटें आई थीं, जिनकी बाद में सर्जरी की गई. चूंकि इनमें से कोई दोबारा इलाज या सलाह के लिए नहीं पहुंचा तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि कितनों की दृष्टि बची या नहीं. इसी तरह जनवरी 2015 से दिसंबर 2015 तक स्किम्स, बेमीना के नेत्र चिकित्सा विभाग में नौ ऐसे मरीज पहुंचे. इनमें से दो पूरी तरह से दृष्टिहीन हो गए, तीन की एक आंख की रोशनी गई और एक की दृष्टि आंशिक रूप से वापस लाई जा सकी.

श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2010 से अब तक पैलेट गन से चोटिल होने के तकरीबन 500 मामले अस्पताल में आ चुके हैं. गौरतलब है कि 2010 में पांच महीनों तक चले उपद्रव के बाद ही इस हथियार को पहली बार प्रयोग में लाया गया था. उस साल इस अस्पताल में करीब 45 युवाओं ने इन बंदूकों से लगी चोटों के चलते अपनी एक या दोनों आंखों की रोशनी गंवाई थी. अस्पताल के नेत्र विभाग के अध्यक्ष मंज़ूर अहमद कांग बताते हैं, ‘हमने ये अध्ययन 2010 में उपद्रव के उन पांच महीनों में किया था. इन आंकड़ों में घाटी के अन्य अस्पतालों में भर्ती हुए घायलों की संख्या नहीं है.’ उस उपद्रव में घाटी के 120 युवाओं की मृत्यु हुई थी, जिनमें से कई की मौत का कारण सिर पर आंसू गैस के गोले का लगना था. आंसू गैस के गोले को भी अघातक श्रेणी में ही रखा जाता है.

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गौरतलब है कि श्रीनगर शहर के 16 साल के तुफैल मट्टू की मौत, जिस पर घाटी में खासा संघर्ष हुआ था, भी सिर पर आंसू गैस का गोला लगने से हुई थी. उसके बाद से मौतों और दृष्टिहीनता का ये आंकड़ा बढ़ता ही गया है. और यह सिर्फ राज्य के आंकड़ों से स्पष्ट नहीं होता. पड़ोसी राज्यों के आंकडे़ भी पैलेट गन से लगी घातक चोटों की गवाही देते हैं. चंडीगढ़ एक प्रमुख केंद्र है जहां पैलेट से घायल हुए युवाओं को इलाज के लिए ले जाया जाता है. वहां के डॉ. सोहन सिंह अस्पताल में कश्मीर में किसी उपद्रव या विरोध-प्रदर्शन के समय पैलेट से घायल औसतन 25 मरीज हर महीने अपनी आंखों के इलाज के लिए आते हैं.

डॉ. विपिन कुमार विज इस अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर हैं. वे बताते हैं कि 2015 में उन्होंने पैलेट से घायल 25 लोगों की सर्जरी की हैं. उनके अनुसार, ‘मेरे अनुमान से यहां पिछले पांच सालों में इस अस्पताल में कश्मीर से इलाज के लिए आए लगभग 50 लड़कों ने अपनी दृष्टि खोई है. ये आंकड़ा अधिक भी हो सकता है क्योंकि लोग यहां के अलावा कई दूसरे अस्पतालों में भी जाते हैं, जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर है. मेरी इन लड़कों और कश्मीर के लोगों से पूरी सहानुभूति है. कई लड़कों की आंखों में काफी गंभीर चोटें आई थीं. उन बच्चों की दोनों आंखों की रोशनी चली गई. हम कुछ नहीं कर पाए. मैं ये कभी नहीं भूल सकता. ये बहुत दुखद है.’

ऐसा ही कुछ हाल चंडीगढ़ के डॉ. ओम प्रकाश आई इंस्टिट्यूट का है. वहां भी हर महीने कश्मीर से पैलेट द्वारा लगी चोट का एक मामला आता ही है. पैलेट से आने वाली गंभीर चोटों से जुड़े इस मुद्दे पर सार्वजनिक और राजनीतिक रूप से हो-हल्ला शुरू हुआ पर इसके बावजूद इसका प्रयोग बदस्तूर जारी है. अक्टूबर 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, जो तब विपक्ष में थीं, ने इस हथियार के प्रयोग पर विरोध जताते हुए सदन से वॉकआउट किया था. पर सत्ता में आने के बाद उन्होंने पुलिस को सिर्फ संयम बरतने को कहा है.

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पिछले साल मई में जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन के दो ही महीने हुए थे, उसी वक्त घाटी के पल्हालन गांव के 16 साल के हामिद नज़ीर भट पैलेट से लगी चोट के चलते अपनी दाईं आंख की रोशनी गंवा चुके थे. फिर उनकी सूजी हुई आंख, पैलेट से छलनी हुए चेहरे की तस्वीर सामने आई, जिसने इन ‘अघातक’ हथियारों के प्रयोग से होने वाले नुकसान को और स्पष्ट रूप से दिखाया. भट के चेहरे और सिर में करीब सौ से ऊपर पैलेट के टुकड़े लगे थे. पेशे से बढ़ई उनके पिता नज़ीर अहमद उन्हें इलाज के लिए अमृतसर ले गए थे. पर दो सर्जरियों के बाद भी भट की बाईं आंख की दृष्टि नहीं लौटी.

नौहट्टा, श्रीनगर के 19 साल के साहिल ज़हूर को भी एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान ऐसी ही पैलेट की बौछार का सामना करना पड़ा था. उनका उसी रोज ऑपरेशन किया गया पर कोई फायदा नहीं हुआ. वह अब अपनी बाईं आंख से नहीं देख सकते. कश्मीर के हाजिन इलाके के 22 वर्षीय फारूक मल्ला अपनी दोनों आंखें खो चुके हैं. मार्च 2014 में एक विरोध-प्रदर्शन खत्म होने के बाद अपने भाई के साथ टहलने निकले मल्ला पैलेट से घायल हुए थे. वे बताते हैं, ‘मैं हाजिन पुल पर खड़ा झेलम को देख रहा था कि ऐसा लगा कि कुछ उड़ते हुए मेरी तरफ आ रहा है. पंछियों के तेज से चिल्लाने जैसी आवाज आई और ये छोटे-छोटे छर्रे जिन्हें मैं देख भी नहीं सका मेरी आंखों में आकर लगे.’

अपनी व्यथा बताते हुए वे बताते हैं, ‘अब मैं कुछ नहीं देख सकता. मैं अंधेरे का आदी होता जा रहा हूं. पर मैं हमेशा चाहता हूं कि कुछ तो देख सकूं. मैं अपने परिवार को नहीं देख सकता, अपने दोस्तों को नहीं देख सकता, अपने कमरे को, खुद को नहीं देख सकता. मुझे नहीं पता कि कभी वापस देख भी पाऊंगा या नहीं. कई बार मुझे बहुत गुस्सा भी आता है, पर दुख ज्यादा होता है कि मैं किस हाल में आ गया हूं.’ मल्ला इस हादसे से पहले अपने पिता के साथ लकड़ी काटने की टाल पर काम किया करते थे. वे कहते हैं, ‘पहले मैं अब्बा और अपने भाई के काम में मदद किया करता था, पर अब मैं खुद से एक गिलास पानी भी लेकर नहीं पी सकता.’

शांति के ‘हथियार’

घाटी में इन अघातक हथियारों का प्रयोग 2010 में तब शुरू हुआ जब उपद्रवों के समय की जा रही फायरिंग में करीब 50 युवाओं की मौत हो गई. तब तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने केंद्र से पुलिस को ऐसे हथियार सप्लाई करने के लिए लिखा था. उस समय की एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘उमर के इस निवेदन के बाद जबलपुर की आयुध फैक्टरी ने इस पर संज्ञान लेते हुए राज्य की पुलिस को ऐसी राइफलें बनाकर दीं जिनसे भीड़ पर नियंत्रण किया जा सके.
14 अगस्त, 2010 को सोपोर के सीलो इलाके में करीब 3000 लोगों की भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए पहली बार पंप एक्शन राइफल का प्रयोग किया गया. उस वक्त भी इससे कुछ लोग घायल हुए थे. पर जल्द ही एक ओर घातक हथियारों के इस्तेमाल से मौतों की संख्या बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर अघातक हथियारों ने बहुत-से लोगों को अंधा बनाया. अगले तीन महीनों में घातक हथियारों से 70 लोगों की मौत हुई.

इसके अगले साल लगातार बढ़ते विरोध- प्रदर्शनों को नियंत्रित करने की मंशा से जम्मू कश्मीर राज्य में अघातक हथियारों को अपग्रेड किया गया. इन हथियारों की सूची काफी लंबी है. आंसू गैस छोड़ने की मशीन वाले वाहन, विस्फोट करने वाले कारतूस, बेहोश करने वाले ग्रेनेड आदि. इसके अलावा पुलिस को बॉडी प्रोटेक्टर, पॉलीकार्बोनेट शील्ड, पॉलीकार्बोनेट लाठियां, हेलमेट, बुलेटप्रूफ बंकर, पंप एक्शन बंदूकें, वॉटर कैनन, एंटी-रायट राइफल और रबर व प्लास्टिक की गोलियां भी दी गई हैं. अघातक हथियारों की इस फेहरिस्त में डाई-मेकर ग्रेनेड और रंगीन वॉटर कैनन के नए नाम भी जुड़े हैं. हालांकि पुलिस ज्यादातर पैलेट और पेपर स्प्रे का ही इस्तेमाल करती है. लेकिन बाकी सबको छोड़कर सिर्फ पैलेट गनों से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. घाटी के सैकड़ों युवा अपने शरीर में पैलेट के छर्रे लिए जीने को मजबूर हैं. कइयों के शरीर में फंसे ये छर्रे उनकी अक्षमता का कारण बन रहे हैं. इन छर्रों के छोटे होने के कारण इन्हें शरीर से बाहर निकाल पाना मुश्किल होता है. डॉक्टरों के अनुसार शरीर में बचे ये टुकड़े आंतरिक अंगों के काम को प्रभावित कर सकते हैं. लेकिन अब तक सबसे बड़ा नुकसान सैकड़ों युवाओं की दृष्टि का ही हुआ है.

फोटो साभार : कश्मीर लाइफ
फोटो साभार : कश्मीर लाइफ

डॉ. विज बताते हैं, ‘अगर आंख में एक बार पैलेट का टुकड़ा लगा तो आंख फिर कभी पहले जैसे सामान्य काम नहीं कर सकती. ये सामने से किए गए हमले जैसा होता है. पैलेट से आंख में कुछ गिरने या सामान्यतः लगी किसी चोट से कहीं ज्यादा नुकसान होता है.’ इसका कारण इनका बंदूक से बहुत ही तेज गति से निकलना है. ये काफी तेजी से निकलकर टुकड़ों में बंटती हैं और बिखर जाती हैं, जिससे इनसे घायल या चोटिल होने वालों की संख्या बढ़ जाती है. जब ये आंख में लगती हैं तब न केवल ये आंख को छेदती हैं बल्कि तेज गति में होने के कारण घूम भी रही होती हैं, जिससे बीच में आने वाले तंतु भी खराब हो जाते हैं. डॉ. विज बताते हैं, ‘ये पैलेट आंख को भेदती हुई तंतुओं के बीच में जाकर फंस जाती है. ये तंतु किसी नस के भी हो सकते हैं या आंख के मुख्य भाग जिसे मैक्युला कहते हैं, उसमें लग सकते हैं. बहुत-से युवा ऐसे रहे जिन्हें इलाज के बाद ठीक होने में कठिनाई हुई.’ श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर के अनुसार, आंख के साथ ऐसा होना बिल्कुल वैसा है जैसे पानी से भरे गुब्बारे का कुछ चुभते ही फूट जाना. वे बताते हैं, ‘बंदूक से निकलने के बाद पैलेट कई बार टुकड़ों में बंट जाती है. ये टुकड़े जमीन और दीवार पर लगते हैं और फिर लौटकर मौजूद लोगों के शरीर पर लगते हैं. कई बार सीधे सिर, आंख या किसी और अंग पर भी लगते हैं.’

सामाजिक विरोध

पैलेट से घायल हुए युवाओं की बढ़ती संख्या ने घाटी में इन अघातक हथियारों के इस्तेमाल पर बहस शुरू की है. दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी बहसें चल रही हैं. ऐसा माना जा रहा है कि ‘अघातक’ शब्द जान-बूझकर इन हथियारों के जानलेवा रूप को छिपाने के लिए प्रयोग किया गया है. 2013 में राज्य के मानवाधिकार आयोग ने इंटरनेशनल फोरम फॉर जस्टिस नाम के एक एनजीओ द्वारा दायर की गई एक याचिका के जवाब में पैलेट गनों के प्रयोग को मानवाधिकारों का हनन कहा था. एनजीओ की इस याचिका में ऐसी घटनाओं का विस्तृत ब्योरा था जिनमें दस लोगों ने पैलेट लगने से आंखों की रोशनी गंवाई थी. पिछले साल मई में पैलेट लगने से हामिद नज़ीर भट के दृष्टिहीन होने के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी राज्य सरकार से पैलेट गनों के उपयोग को बंद करने की अपील की थी. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की ओर से जारी बयान में कहा गया, ‘जम्मू कश्मीर प्रशासन को प्रदर्शनों में भीड़ को नियंत्रित करते समय पुलिस द्वारा पैलेट गनों के प्रयोग को निषिद्ध करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना स्वाभाविक रूप से गलत और विवेकहीन है.’

वहीं दूसरी ओर, जम्मू कश्मीर पुलिस के पास इन हथियारों का कोई विकल्प नहीं है. कश्मीर के आईजी जावेद मुज्तबा गिलानी कहते हैं, ‘जान-माल के ज्यादा नुकसान से बचने के लिए इन हथियारों का इस्तेमाल जरूरी है. हमारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है.’ गौरतलब है कि नवंबर 2014 में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने पैलेट गन पर बैन लगाने के लिए दायर की गई कुछ याचिकाओं को खारिज करते हुए पुलिस द्वारा बचाव के इस तरीके को मंजूरी दी थी. कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘याचिकाकर्ताओं ने इन जनहित याचिकाओं को किसी आनुभविक रिसर्च के बिना ऐसे ही लापरवाह तरीके से दायर किया था. ये याचिकाएं जनहित याचिकाओं के मानक पर सही नहीं थीं न ही विधिसम्मत थीं.’

इस तरह इन अघातक हथियारों के उपयोग को कानूनी मंजूरी भी मिली हुई है. लेकिन ऐसा कहा जाता था कि इससे महबूबा मुफ्ती के इन हथियारों के विरोध पर फर्क नहीं पड़ता. उन्होंने वादा किया था कि जब वे सत्ता में होंगी तो इन पर रोक लगेगी. लेकिन अब जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन सत्ता में है, इन हथियारों पर पूर्णतः रोक तो दूर इनके प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए भी कम ही प्रयास हुए हैं. बावजूद इस तथ्य के कि अक्टूबर 2014 से दिसंबर 2015 तक 64 युवा पैलेट से गंभीर रूप से घायल हुए हैं, जिनमें से ज्यादातर की आंख में चोट आई है.

राजनीतिक पहलू

क्या महबूबा अपना वादा पूरा कर पाएंगी? इस मुद्दे पर अभी उनका कोई बयान आना बाकी है. इसके साथ ही न ही उनकी सरकार की ओर से इन हथियारों के नियंत्रित प्रयोग, जिससे आमजन को कम से कम नुकसान हो, को लेकर किसी प्रतिबंधात्मक नीति को बनाने के लिए कोई कदम ही उठाया गया है.
इस बीच उनके सत्ता ग्रहण करने के 15 दिन बाद ही पैलेट से जख्मी हुए हिलाल अहमद अपनी दृष्टि गंवा चुके हैं. श्रीनगर के कमरवारी इलाके के सुहैल अहमद की भी यही कहानी है. जनवरी में नेशनल फूड सिक्योरिटी ऐक्ट के विरोध में प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर पुलिस द्वारा चलाई गई पैलेट की चपेट में आकर सुहैल भी अपनी एक आंख की रोशनी खो चुके हैं. ये हथियार जितने कहे जाते हैं उससे कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं. अघातक हथियारों के उपयोग से अपनी आंखों की रोशनी खो चुके कश्मीरी युवाओं पर डॉ. विज अपना अध्ययन प्रकाशित करने वाले हैं. वे कहते हैं, ‘इन हथियारों के बारे में कुछ भी ‘अघातक’ नहीं है. महज 20 साल की उम्र में अपनी एक या दोनों आंखों को खो देना मौत से भी बदतर है.’

पटना आर्ट कॉलेज में अराजकता

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टाॅपर की फैक्ट्री सरीखा काॅलेज चलाने वाले बच्चा राय जेल में हैं. बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के पूर्व प्रमुख लालकेश्वर प्रसाद भी जेल में हैं. उनकी पत्नी पूर्व विधायक उषा सिन्हा भी जेल में हैं. इन सबके साथ अटपटे तरीके से बिहार में इंटर की टाॅपर रही रूबी राय भी जेल भेज दी गई हैं. रूबी राय क्यों जेल गईं यह अधिकांश बिहारवासियों को अब तक समझ नहीं आया. बिहार के शिक्षा जगत की तमाम बातें आजकल लोगों को समझ में नहीं आ रहीं. लोगों को यह बात भी समझ नहीं आ रही कि पिछले कुछ सालों में 200 से अधिक ऐसे काॅलेजों को मान्यता कैसे मिल गई जो कहीं किसी एक कमरे में चल रहे हैं या चल भी नहीं रहे. शिक्षा को लेकर उठ रहे तमाम सवालों के बीच नीतीश सरकार यह भी दिखाना चाह रही है कि वह सख्त है और शिक्षा में सुधार करके रहेगी. इस सबके बीच पिछले दो महीने से पटना आर्ट कॉलेज में चल रहे एक आंदोलन को लेकर सन्नाटा है. न तो बिहार सरकार ने इस मामले में अब तक कोई हस्तक्षेप किया है, न ही मीडिया ने इस आंदोलन को प्रमुखता दी.

पटना आर्ट कॉलेज में छात्रों की कथित प्रताड़ना, उन पर जातिसूचक टिप्पणियां करने और उन्हें पुलिस से लेकर गुंडों से पिटवाने तक के आरोप झेल रहे प्रिंसिपल चंद्रभूषण श्रीवास्तव फिलहाल छुट्टी पर हैं. कुछ छात्र जेल से बाहर आ गए हैं, कुछ अब भी जेल में हैं. छात्र अपनी मांगें माने जाने तक आंदोलन जारी रखने की जिद पर अड़े हैं. बिहार के सियासी गलियारे और मीडिया में इस मसले पर चुप्पी है. राष्ट्रीय मीडिया में यह आंदोलन जगह नहीं पा सका. बिहार में फिलहाल टॉपर घोटाले पर तो खूब शोर-शराबा है, लेकिन पटना आर्ट कॉलेज के आंदोलन पर आश्चर्यजनक चुप्पी है. छात्रों की कहीं सुनवाई न होने पर हाल ही में एक छात्र नीतीश पासवान ने आत्महत्या करने की कोशिश की पर किस्मत से उसे बचा लिया गया.

आत्महत्या की कोशिश करने वाले नीतीश पासवान ने बताया, ‘हमारी मुख्य मांग थी कि प्रिंसिपल को हटाया जाए. चंद्रभूषण श्रीवास्तव प्रभारी प्रिंसिपल हैं. उनके पास योग्यता भी नहीं है. वे फाइन आर्ट्स के छात्र भी नहीं रहे हैं. हम लोग इस नियुक्ति को स्वीकार नहीं करेंगे. उनकी डिग्री एमए इन पेंटिंग है. उनको कला की कोई जानकारी नहीं है. जो कला पर बोल भी नहीं सकते उनको प्राचार्य बना दिया गया है. उनको अंग्रेजी नहीं आती, न ही ठीक से हिंदी आती है. पटना यूनिवर्सिटी से जो पत्र वगैरह आते हैं अंग्रेजी में आते हैं. यूनिवर्सिटी से आया पत्र न पढ़ पाने के कारण हमारे छह साथियों का दो साल बैक लगा क्योंकि उनका फॉर्म ही नहीं भरवाया. यूनिवर्सिटी ने रूल भेजा था, लेकिन छात्रों को नहीं बताया गया. बाद में छात्रों पर ही इल्जाम लगा दिया कि हमने नोटिस निकाला था, छात्रों ने फॉर्म ही नहीं भरा. उन छह छात्रों का दो साल का नुकसान हुआ, लेकिन इन्होंने कुछ किया ही नहीं.’

पटना आर्ट कॉलेज का गौरवशाली इतिहास रहा है. यहीं के छात्रों ने 500 रुपये के नोट का डिजाइन तैयार किया था, जो आज देश भर में चल रहा है

कुछ इसी तरह के आरोप लगाते हुए गौरव कहते हैं, ‘हमारी बस दो ही मांगें थीं. प्रिंसिपल साहब को हटाया जाए और छात्रों का निलंबन वापस लिया जाए. प्रिंसिपल साहब को हटाने की मांग इसलिए नहीं की गई कि उन्होंने उस दिन कार्रवाई की. उनके किस्से काॅलेज में हर कोई बता देगा. अव्वल तो वे आर्ट काॅलेज के प्रिंसिपल बनने की योग्यता नहीं रखते. क्लास लेने आते हैं तो सिगरेट पीते हुए पढ़ाते हैं.’

बिहार और झारखंड के इस इकलौते कला महाविद्यालय की स्थापना 1939 में हुई थी. भारत के पहले राष्ट्रपति डाॅ राजेंद्र प्रसाद कॉलेज की मैनेजमेंट कमेटी के पहले सदस्य थे. 1949 में इसे बिहार सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर कला और शिल्प का पांच वर्षीय कोर्स शुरू किया. 1977 से यह पटना विश्वविद्यालय के अधीन है.

गौरव बताते हैं, ‘यहां पिकासो से लेकर दुनिया के कई श्रेष्ठ और नामचीन कलाकारों के ओरिजिनल वर्क थे. अब अधिकांश गायब हैं. किसने गायब किया-करवाया, यह खुला रहस्य है. इसी काॅलेज के छात्र-छात्राओं ने 500 रुपये के नोट का डिजाइन तैयार किया था, जो आज देश भर में चल रहा है. इस संस्थान का गौरवशाली इतिहास रहा है लेकिन पिछले दो माह से यह संस्थान प्रशासनिक अराजकता का शिकार है.’

गौरव संक्षेप में बताते हैं, ‘हुआ यह था कि पटना आर्ट काॅलेज में निर्माण कार्य चल रहा था. निर्माण कार्य के लिए वे बच्चों के हाॅस्टल से बिजली लेते थे. एक-दो बार बिजली कनेक्शन लिया तो बच्चों को परेशानी हुई. फिर एक बार शाॅट सर्किट से एक बच्चे की पेंटिंग जल गई. 21 अप्रैल को जब एक बार फिर ठेकेदार के लोग बिजली लेने आए तो बच्चों ने अपने कमरे से बिजली का कनेक्शन देने से मना कर दिया. इस पर ठेकेदार के लोग बच्चों को पीटने लगे. जितेंद्र नारायण नाम के एक छात्र को जमकर पीटा गया. शिकायत काॅलेज के प्रिंसिपल चंद्रभूषण श्रीवास्तव तक पहुंची. प्रिंसिपल साहब के चैंबर में भी ठेकेदार के लोग घुसे, वहां भी उनके सामने ही उस छात्र को पीटा. इस घटना के बाद कई बच्चे समूह बनाकर प्रिंसिपल साहब के पास गए कि ऐसा क्यों हुआ? उनका जवाब था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. कोई पीटा नहीं गया. अगर ऐसा कुछ हुआ है तो लिखकर दो. लिखकर दिया गया, लेकिन उन्होंने कोई एक्शन नहीं लिया. जब प्रिंसिपल साहब ने कोई कदम नहीं उठाया तो 25 अप्रैल को हम लोगों ने आपस में मीटिंग की. मीटिंग करने का खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि पटना के बुद्ध काॅलोनी थाने में हम छात्रों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया गया.’

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पटना आर्ट कॉलेज के प्रिंसिपल के खिलाफ रचनात्मक तरीके से विरोध-प्रदर्शन करते छात्र-छात्राएं

छात्रों के मुताबिक उन्होंने 29 अप्रैल को प्रिंसिपल, गर्वनर, शिक्षा मंत्री और कला मंत्री को लिखकर शिकायत की लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद दो जून से छात्रों ने पोस्टर प्रदर्शनी लगाकर अपना विरोध शुरू किया. गौरव बताते हैं, ‘हम कला के छात्र हैं, तो इसी तरह अपना विरोध दर्ज करा सकते थे. दो जून को हमारा विरोध शुरू हुआ, उसी दिन आठ छात्रों को काॅलेज से निलंबित कर दिया गया. नौ दिनों तक धरना चला, दसवें दिन से अनशन शुरू हुआ. इस बीच हम लोगों पर एफआईआर दर्ज करवा दी गई.’

गौरव बताते हैं, ‘यह सब होता रहा और इस बीच परीक्षा को लेकर प्रिंसिपल साहब ने नया विवाद खड़ा कर दिया. उन्होंने बिना किसी नोटिस के परीक्षा फाॅर्म भरवाना शुरू कर दिया. कोई 200 छात्र-छात्राओं में से मात्र 20 बच्चे यह जान सके कि फाॅर्म भरा जा रहा है. उन्होंने फार्म भरा. फिर एक रोज अचानक परीक्षा की तारीख नोटिस बोर्ड पर चिपका दी कि कल से परीक्षा होगी. अचानक नोटिस बोर्ड पर यह सूचना देख सभी छात्र हैरत में पड़ गए कि कल से परीक्षा कैसे दे सकते हैं. अधिकांश ने तो फाॅर्म भी नहीं भरा था और कोर्स भी पूरा नहीं हुआ था. विरोध हुआ तो कहा गया कि फिर से फार्म भरा जाएगा. 15 जून से परीक्षा होगी लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ. चार जून से ही परीक्षा शुरू हो गई. चार जून को हम लोगों ने परीक्षा का विरोध किया. करीब 20 लड़के परीक्षा देने को तैयार हुए, 180 विरोध में रहे. फिर छह जून को परीक्षा हुई. हम लोगों ने फिर विरोध किया. विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर (वीसी) से संपर्क करने की कोशिश करते रहे. कोई फायदा नहीं हुआ. परीक्षा शुरू हुई तो हम लोग विरोध करने पहुंचे. तभी छात्र समागम के कुछ लोग वहां पहुंचे और विरोध कर रहे छात्रों के साथ मारपीट की. छात्राओं के साथ बदतमीजी की. नीतीश पासवान को टारगेट किया और कहा कि प्रिंसिपल पर केस करता है, इसको मारो. पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में विरोध कर रहे छात्रों को पीटा गया.’

इसकी तस्दीक करते हुए नीतीश प्रभारी प्रिंसिपल पर कई गंभीर आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘उन्होंने मुझे बार-बार जातिसूचक टिप्पणी करके अपमानित किया. वे लड़कियों को भद्दी बातें कह देते हैं. कैंपस में खुलेआम सिगरेट पीते हैं जबकि कैंपस के आसपास सिगरेट या नशे की चीजें बेचना भी मना है. कैंपस से हरे पेड़ कटवा कर बेच दिए. बुद्ध पार्क को तुड़वा दिया. छात्रों के लिए जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके उन्हें अपमानित किया. हम लंबे समय से उनकी प्रताड़ना झेल रहे हैं. हर जगह शिकायत की लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं है. उन्होंने मेरे घर फोन करके कहा कि अपने बेटे को ले जाइए, यहां नेतागिरी करता है, हीरो बनता है. मुझे कहा कि आरक्षण से आकर यहां हीरो बनते हो. तुम चमार-दुसाध की क्या औकात है, हमको पता है. अब अगर वे ऐसा बोलते हंै तो क्या मैं शिकायत नहीं करता? हमने अनुसूचित जाति आयोग में शिकायत की, शिक्षा मंत्री से शिकायत की, विश्वविद्यालय के वीसी से भी शिकायत की, लेकिन कोई सुनने वाला ही नहीं है.’

परीक्षा के विरोध में प्रदर्शन के दिन का हाल बताते हुए गौरव कहते हैं, ‘उस दिन नीतीश पासवान को ज्यादा निशाने पर लिया गया. वजह थी कि नीतीश ने पिछले साल ही प्रिंसिपल साहब पर केस किया था. प्रिंसिपल साहब उस पर बार-बार जातीय टिप्पणी करते थे. नीतीश ने इसे लेकर केस किया था लेकिन उस केस पर कोई सुनवाई या कार्रवाई नहीं हुई. उस दिन नीतीश पासवान इतना आहत हुआ कि वह अपने कमरे में खुदकुशी करने चला गया. शुक्र है कि किसी ने उसे देख लिया गया और वह बचा लिया गया. उस दिन छात्रों पर हमला हुआ तो कई छात्र घायल होकर अस्पताल पहुंचे. छात्रों के इलाज के बीच उन पर उल्टा केस दर्ज करा दिया गया. हम लोगों ने वीसी साहब से बात करने की कोशिश की. उनके घर गए लेकिन वहां पर गार्डों ने फायरिंग की. इस फायरिंग में एक लड़की के सिर के बगल से गोली निकल गई जिससे वह दहशत में आकर बेहोश हो गई.’ अभिषेक, विशाल और नीतीश भी इन आरोपों की पुष्टि करते हैं.

विशाल कहते हैं, ‘बात इतनी ही नहीं है. पहली बार पटना आर्ट काॅलेज के इतिहास में ऐसा हो रहा है कि किसी भी सत्र की परीक्षा लेने के पहले एकेडमिक काउंसिल की बैठक तक नहीं की गई, जबकि यह नियम रहा है कि परीक्षा की तारीख घोषित करने के पहले काउंसिल की बैठक में सभी शिक्षकों से पूछा जाता था कि क्या आपने कोर्स पूरा कर दिया है? कोई शिक्षक अगर आपत्ति करता था कि अभी उसका कोर्स पूरा नहीं हुआ है तो फिर परीक्षा की तारीख तय नहीं होती. लेकिन इस बार एकेडमिक काउंसिल की बैठक तक नहीं हुई. इतना ही नहीं, इस बार पहली बार हुआ जब पहले प्रैक्टिकल का एग्जाम नहीं हुआ, बल्कि लिखित परीक्षा ले ली गई.’
गौरव के मुताबिक, ‘हम अपने अधिकारों को लेकर आंदोलन करते रहे. हम पर मुकदमे होते रहे. निलंबित लड़कों की बहाली तो हुई नहीं, उल्टे आठ लड़कों को जेल भेज दिया गया, जो अब तक वहां बंद हैं. हम लोग अस्पताल में इलाज के लिए गए तो वहां भी पुलिस परेशान करती रही. बाद में बात आगे न बढ़े इसके लिए फिर से परीक्षा की तारीख बढ़ाकर से परीक्षा लेने की बात कही गई. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बाद में वीसी साहब ने बातचीत के लिए डेलिगेशन भेजा. इतनी फजीहत के बाद भी हम वार्ता को तैयार हो गए. वीसी साहब के सामने हम लोगों ने सिर्फ यही मांग रखी कि हमारे साथियों का निलंबन वापस करवाइए. जो छात्र जेल में बंद हैं, उन्हें रिहा करवाइए और प्रिंसिपल साहब को हटाकर दूसरा प्रिंसिपल नियुक्त कीजिए. वीसी ने कहा कि निलंबन वापस करवा देंगे, मुकदमा वापस लेकर छात्रों को जेल से भी छुड़वा देंगे लेकिन प्रिंसिपल साहब को बदलना हमारे वश में नहीं. अब प्रिंसिपल साहब छुट्टी पर चले गए हैं. उन्हें हटाया नहीं गया. प्रिंसिपल श्रीवास्तव की छुट्टी को विश्वविद्यालय ने मंजूरी दे दी और उनकी जगह मशहूर कवि और साहित्यकार अरुण कमल कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिए गए.’

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पटना विश्वविद्यालय के कुलपति वाईसी सिम्हाद्री इस पूरे विवाद पर कहते हैं, ‘इस काॅलेज में जो कुछ हुआ या हो रहा है, उसे जल्द ही दुरुस्त कर दिया जाएगा. हम जो भी करेंगे काॅलेज के हित में ही करेंगे. नए प्रभारी प्राचार्य चर्चित कवि अरुण कमल ने कई दफा छात्रों से बातचीत की है.’
वहीं अरुण कमल कहते हैं, ‘हमको विश्वविद्यालय ने बड़ी जिम्मेदारी दी है. कोशिश रहेगी कि छात्रों की समस्याओं का समाधान हो और काॅलेज में फिर से अध्ययन-अध्यापन का माहौल बने. हमसे जो और जितना संभव होगा, उतना करने की कोशिश करेंगे.’

अरुण कमल बहुत कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं. वे जानते हैं कि उन्हें बस एक महीने का प्रभारी प्राचार्य बनाया गया है. चंद्रभूषण श्रीवास्तव वापस आ सकते हैं, इसकी पूरी संभावना है. चंद्रभूषण श्रीवास्तव की वापसी होगी तो फिर काॅलेज एक नए किस्म के युद्ध का अखाड़ा बनेगा, यह तय है. इसलिए आंदोलनरत छात्र किसी भी हाल में प्राचार्य से बर्खास्तगी से कम पर आंदोलन समाप्त करने को तैयार नहीं हैं. छात्र अभिषेक आनंद कहते हैं, ‘अरुण कमल को प्रभार देना एक नौटंकी है. उनको स्थायी क्यों नहीं कर दिया? चंद्रभूषण को हटाया नहीं गया है. मामले को रफा-दफा करने के लिए अरुण कमल को लाया गया है लेकिन जब तक हमारी सभी मांगें मानी नहीं जातीं, हम आंदोलन जारी रखेंगे.’

पिछले दो दशक से इस काॅलेज को बचाने और आगे बढ़ाने की लड़ाई लड़ रहे चर्चित कलाकार संन्यासी रेड कहते हैं, ‘श्रीवास्तव का प्रिंसिपल बनाया जाना ही अवैध है. हाईकोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाकर चंद्रभूषण श्रीवास्तव को नियुक्त किया गया था. पटना विश्वविद्यालय के वीसी थे शंभूनाथ सिंह, उन्होंने मनमर्जी कर जैसे-तैसे लोगों को नियुक्त कर दिया था. ये श्रीवास्तवजी उन्हीं की देन हैं, जो राज्य के सबसे प्रतिष्ठित काॅलेज के प्रिंसिपल हैं. दुर्भाग्य तो यह है कि नीतीश कुमार कला को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं और पटना के बेली रोड में एक विशाल कला म्यूजियम भी बना रहे हैं लेकिन ड्रीम प्रोजेक्ट वाले नए संग्रहालय में भी चंद्रभूषण श्रीवास्तव जैसे लोगों को प्रदर्शनी समिति का अध्यक्ष बना दिया गया है. समझ सकते हैं कि आगे उसका भविष्य क्या होने वाला है.’

रोजाना पटना के बुद्धिजीवी भी इस आंदोलन को समर्थन देने काॅलेज कैंपस पहुंच रहे हैं लेकिन अभी बिहार की सरकार जिस तरह से शिक्षा विभाग के ही विवाद में फंसी हुई है, उसे देखते हुए लगता है कि पटना आर्ट काॅलेज की समस्या का समाधान जल्दी नहीं होने वाला.

‘प्रिंसिपल ने सिर्फ नीतीश को जातीय तौर पर प्रताड़ित नहीं किया. काॅलेज कैंपस में बने बुद्ध पार्क को तुड़वाना भी उनके दलित विरोधी होने पर मुहर लगाता हैे’

आंदोलन में छात्रों का साथ दे रहे पटना के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर कहते हैं, ‘1990 के बाद से जो इस काॅलेज की लय लड़खड़ाई, तब से फिर पटरी पर नहीं आ सकी. यह लड़ाई सिर्फ एक प्रिंसिपल चंद्रभूषण श्रीवास्तव के खिलाफ नहीं है बल्कि इसके पहले भी 1996-97 में एक और प्रिंसिपल के खिलाफ काॅलेज में लंबी लड़ाई लड़ी जा चुकी है. लेकिन तब लालू प्रसाद यादव ने मामले में सीधे हस्तक्षेप किया था. नीतीश कुमार को भी इस मामले में सीधे हस्तक्षेप करना चाहिए. मामले को नजरअंदाज किया जा रहा है, लेकिन अंदर ही अंदर विस्फोट की जमीन तैयार हो रही है. उस दिन नीतीश पासवान ने फांसी लगाई. अगर मर जाता तो दूसरा रोहित वेमुला होता.’

अनीश भी आरोप लगाते हैं, ‘प्रिंसिपल चंद्रभूषण श्रीवास्तव अपनी सोच से ही सामाजिक न्याय और दलित विरोधी हैं. उन्होंने सिर्फ नीतीश पासवान को ही जातीय तौर पर प्रताड़ित नहीं किया, बल्कि काॅलेज कैंपस में बने बुद्ध पार्क को तुड़वाना भी उनके दलित विरोधी होने पर मुहर लगाता है. इसके अलावा उनके खिलाफ दर्जनों शिकायतें हैं. अगर उन्हें नहीं हटाया जाता तो आने वाले दिनों में वे बिहार सरकार के लिए नासूर बन सकते हैं.’

आर्ट कॉलेज में चल रहे आंदोलन को समर्थन देने के लिए जेएनयू छात्रसंघ के पदाधिकारी भी वहां पहुंचे थे. जेएनयू छात्रसंघ उपाध्यक्ष शहला राशिद बताती हैं, ‘हम लोग पटना गए थे. नीतीश ने आत्महत्या की कोशिश की थी, उससे मिले. हमने उसको साथ लेकर प्रोग्राम किया, मार्च किया. उससे स्पीच दिलवाई. लेकिन बिहार का मीडिया बड़ा अजीब-सा है. इस मसले पर वहां के मीडिया में कोई कवरेज नहीं हुई. वहां का जो प्रिंसिपल है वह बिल्कुल गुंडा है. वह नीतीश कुमार का आदमी है. लड़कियों के साथ बदतमीजी करता है. बोलता है कमरे पर आओ. कौन-सी क्रीम लगाई है, कौन-सा परफ्यूम लगाया है. तुम तो आज बहुत सुंदर लग रही हो. दलित छात्रों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जा रहे हैं, जातिसूचक टिप्पणियां की जाती हैं. एक छात्र का सब सामान कपड़े वगैरह तीन महीने के लिए बाथरूम में बंद कर दिए. ये सब चल रहा है वहां. छात्रों पर फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में डाला जा रहा है. कुछ छूटे हैं और कुछ अभी जेल में हैं. हमने मार्च किया तो हमें गांधी मैदान के पास रोक दिया गया. विधानसभा से भी कोई मिलने भी नहीं आया, न ही कोई कार्रवाई हुई.’

वहां के छात्र भी इस आरोप की तस्दीक करते हैं कि लड़कियों के प्रति प्रिंसिपल चंद्रभूषण श्रीवास्तव का व्यवहार गली के गुंडों से भी बुरा है. हाल ही में जेल से बाहर आए छात्र अभिषेक आनंद कहते हैं, ‘जब आप तंत्र के खिलाफ लड़ते हैं तो वहां पर बैठा व्यक्ति अपनी शक्ति का इस्तेमाल करता है, भले ही वह गलत क्यों न हो. वे अपनी गलती को सही बताने के

लिए अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हैं. इस सिस्टम में गलत के खिलाफ लड़ने वालों की जगह तो जेल ही है.’ आखिर प्रशासन इन समस्याओं का हल निकालने की जगह छात्रों को जेल में डालकर क्या हासिल करना चाहता है?’

‘वॉट्सऐप या मेल पर तलाक कैसे दे सकते हैं? क्या अल्लाह बैठकर वॉट्सऐप चेक कर रहे हैं कि किसने किसे क्या भेजा है?’

साभार : बीएमएमए
साभार : बीएमएमए
साभार : बीएमएमए

तकरीबन सारी दुनिया में, जिसमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं, तीन तलाक का मौजूदा स्वरूप समाप्त हो चुका है. मेरा तो मानना है कि मुल्क में महिलाओं के लिए बराबर का अधिकार होना चाहिए. उनके लिए सक्रिय कानून होने चाहिए, जो एक स्तर पर हैं भी कि अगर आप चाहें तो उसके तहत विभिन्न कानून की धाराओं का इस्तेमाल करके कोर्ट जा सकते हैं. लेकिन अगर हम इस्लाम को भी नजर में रखकर देखें तो इस्लाम के अंदर या कुरान के अंदर तीन तलाक का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है. ये तो जिस वक्त मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाया गया, उसमें इसका प्रावधान किया गया और इसे बनाने वाले कौन हैं? वे सब के सब पितृसत्तात्मक सोच वाले मर्द हैं.

हमारे पास घरेलू हिंसा के या आपसी विवाद के मामले आते हैं तो हम पहले दोनों के साथ बैठकर बातचीत करते हैं और सुलझाने की कोशिश करते हैं. अगर लगता है कि सुलझ रहा है तो लिखित में जिम्मेदारी लेने को कहते हैं. यही व्यवस्था कुरान में भी है कि पहले पति-पत्नी खुद सुलझाने की कोशिश करें. नहीं हो पाता तो दोनों तरफ के गवाहों से साथ बैठकर बातचीत हो. तब भी सुलह नहीं हो पाती तो सोचने के लिए दो महीने का टाइम दिया जाए. तीन तलाक की तीन महीने की प्रक्रिया है. एक ही बार में तलाक-तलाक-तलाक कह देना, इसका तो कोई वजूद ही नहीं है. यह बस बन गया है और अमल में लाया जा रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसे खत्म किया जाना चाहिए. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने 50 हजार लोगों के साइन लिए हैं, यह तो बहुत ही कम लोगों तक पहुंचा है. लाखों महिलाएं हैं जो तीन तलाक को खत्म करने की पक्षधर हैं. धर्म के ठेकेदार धर्म की व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं. जिस वक्त उनको जो सुविधाजनक लगता है, वही बोल देते हैं. वॉट्सऐप पर या मेल पर तलाक कैसे दे सकते हैं? क्या अल्लाह वहां बैठकर वॉट्सऐप चेक कर रहे हैैं कि किसने किसे क्या भेजा है? मर्द वही करता है जो वह करना चाहता है, दो-चार मौलवी भी मिल जाते हैं जो उनको सपोर्ट कर देते हैं. जो पर्सनल लॉ बने वो अंग्रेजों के समय बने. उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसके आधार पर जायज-नाजायज का फैसला दे दिया जाता है.

धर्म के आधार पर समाज चलाना तार्किक तो बिल्कुल नहीं है, लेकिन समान नागरिक संहिता समेत तमाम चीजों का इस्तेमाल देश में सिर्फ राजनीतिक ध्रुवीकरण और माहौल बनाने के लिए किया जाता है. समान नागरिक संहिता का हमेशा उसी तरह इस्तेमाल हुआ है और यह दक्षिणपंथियों व भाजपाइयों ने किया है. जब भी मुसलमानों को गाली देनी हो, समान नागरिक संहिता की बात करने लगते हैं. अगर हम लैंगिक न्याय कानून की बात करें तो ये लोग सबसे पहले भागेंगे. अगर हम समान नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं तो दलितों, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सबके लिए बराबरी की बात कैसे नहीं होगी? लेकिन भाजपा की विचारधारा में तो बराबरी है ही नहीं. वे तो वर्ण व्यवस्था की बात करते हैं. वे समान नागरिक संहिता का सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं. इसका सबसे अच्छा तरीका मैं ये मानती हूं कि हर समाज में समय के साथ सुधार की जरूरत होती है. किसी भी समुदाय में जो भी समस्या है, उस पर आप कानून बनाइए और लागू कीजिए जिसमें विकल्प हो. जैसे, अगर मुसलमान औरत के साथ मारपीट हो रही है तो जरूरी थोड़े है कि वह मुस्लिम पर्सनल लॉ में ही जाए. वो घरेलू हिंसा कानून के तहत कोर्ट में जाए, उसे कोई रोक थोड़े सकता है! बहुत सारी मुसलमान औरतें गई भी हैं और न्याय मिला.

मैंने बच्चा गोद लेने के लिए आठ साल केस लड़ा. मैं हर मुसलमान से यह नहीं कह सकती कि तुम बच्चा गोद लो. लेकिन एक लड़ाई लड़कर एक कानून आ गया. अंडर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में यह बात जोड़ दी गई कि अब कोई भी नागरिक बच्चा गोद ले सकता है. मुसलमान नहीं कर रहा तो नहीं कर रहा है. हो सकता है कि कभी यह डिबेट यहां तक पहुंचे कि बच्चा गोद लेना चाहिए. जब तक नहीं हो रहा, तब तक एक कानून लागू है. जिसको गोद लेना है, उसके लिए कानून मौजूद है. जरूरी है कि हमारे पास नागरिक कानून हों कि जो नागरिक चाहे, उसे इसका फायदा मिले. अभी ऐसा बहुत सारे मामलों में है, बहुत सारे मामलों में नहीं है. जहां तक मर्दों की ओर से तीन तलाक देकर महिला को छोड़ देने का मसला है तो यह ज्यादातर मुस्लिम देशों में भी खत्म हो चुका है. मुझे तो बहुत उम्मीद है कि अब यह केस सुप्रीम कोर्ट में है तो इसका कुछ न कुछ अच्छा ही नतीजा निकलेगा.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

(बातचीत पर आधारित)

जब कुरान तीन तलाक की इजाजत नहीं देता तो पर्सनल लॉ बोर्ड कौन होता है इसकी पैरवी करने वाला : ज़किया सोमन

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बीएमएमए द्वारा प्रधानमंत्री को तीन तलाक पर बैन लगाने को लेकर पत्र लिखा गया था?

हां, पर उस पत्र में सिर्फ तीन तलाक की बात नहीं है बल्कि मुस्लिम फैमिली लॉ को विधिवत करने की बात है, उसमें सुधार लाने की जरूरत है तो ये सुधार क्या होंगे ये हमने सुझाया था. जैसे शादी के लिए एक उम्र सीमा तय हो, एकतरफा, जुबानी तलाक बंद हों, बहुविवाह पर रोक लगे. प्रधानमंत्री की तरफ से तो कोई जवाब नहीं आया पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दवे और जस्टिस गोयल की बेंच ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार से पूछा है कि महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय खासकर मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे तीन तलाक पर उनकी क्या राय है. सरकार की तरफ से तो अभी प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई पर पिछले दिनों देश भर में हमने तीन तलाक पर कानूनी पाबंदी को लेकर एक अभियान चलाया जिस पर पूरे देश से सकारात्मक प्रतिक्रिया आई है, जिसके बाद हमने एक मेमोरेंडम तैयार करके राष्ट्रीय महिला आयोग में भेजा है. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग से भी उनकी इस मुद्दे पर स्पष्ट राय मांगी है. तो हमें वहां से आश्वासन दिया गया है कि वे लोग मुस्लिम महिलाओं की परेशानी समझेंगे और वे क्या चाहती हैं, उनकी मांगों को ध्यान में रहेंगे.

पर पिछले ही दिनों ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की एक महिला सदस्य ने इन सब मांगों को गलत बताया है. उन्होंने कहा कि वर्तमान के कानून मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए हैं, अगर कोई व्हाट्सऐप पर तलाक भेजता है तो अच्छा है, महिलाओं के पास तलाक का सबूत तो रहेगा.

ये सब निहायत ही वाहियात और दकियानूसी बातें हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बनाए कानून 1400 साल पुराने हैं, जिनका कुरान में कोई जिक्र नहीं है. आज देश की आजादी को भी सत्तर साल होने जा रहे हैं और देखिए अब भी तीन तलाक हो रहे हैं, हलाला हो रहा है. ये सदस्य महिला होकर भी ये पुरुषप्रधान सोच का समर्थन कर रही हैं, अन्य महिलाओं के अधिकारों के हनन पर चुप हैं तो इनका सिर्फ शरीर महिला का है, प्रतिनिधित्व ये उसी दकियानूसी पुरुषप्रधान सोच का कर रही हैं. जब कुरान तीन तलाक की इजाजत नहीं देता है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कौन होता है इसकी पैरवी करने वाला? ये अपनी पितृसत्ता से भरी सोच को धर्म के नाम पर खपा रहे हैं.

धर्म के नाम पर कैसे?

कुरान के चार मूलभूत सिद्धांत हैं- इंसाफ, नेकी, रहमदिली और समझदारी. तो इन चारों को अपने व्यवहार में रखें. सब्जी ठीक नहीं बनी, नमक कम पड़ा, तूने मेरी बात नहीं मानी जा मैं तुझे तलाक देता हूं… ये सब कुरान में है ही नहीं. ये बेअक्ली है. ये किसी भी तरीके से न्यायिक नहीं है और जो बात न्यायिक नहीं है उसकी पैरवी न तो इस्लाम करता है न ही कुरान. इस्लाम का, इसकी शिक्षाओं का प्राथमिक स्रोत कुरान रहा है और दूसरा पैगंबर साहब की जिंदगी, उनका आचरण. पैगंबर साहब ने तीन तलाक देने पर कड़ी नाराजगी जताई है. इसे अल्लाह की मर्जी के खिलाफ बताया है. उन्होंने कहा है कि अल्लाह इससे नाखुश होता है. कुरान के मुताबिक शादी एक सामाजिक करार है जहां पति-पत्नी दोनों को अपनी शर्तें, अपनी मांगें सामने रखने का हक दिया गया है और जहां इन्हें लिखित रूप में दर्ज किया जाता है वो निकाहनामा कहलाता है. तो कुरान महिला पुरुष दोनों को बराबर के हक देता है. पर ऐसा समाज में होता नहीं है. वहीं कुरान में भी कई ऐसी आयतें हैं जहां साफ लिखा है कि छोटी-सी बात पर तलाक न करें. शादी एक गंभीर सामाजिक और जज्बाती रिश्ता है, इसे ऐसे खत्म न करें. अगर कोई अनबन है तो पहले बातचीत से मसले को सुलझाने की कोशिश करें. ये बातचीत, ये कोशिश कम से कम चार महीने तक होनी चाहिए. अगर ये कोशिश नाकाम होती है तो दोनों के परिवार से एक-एक सदस्य मध्यस्थ के रूप में आए और मामले को सुलझाने की कोशिश करें. अगर ये प्रक्रिया नाकाम रहती है, लगता है निबाह नहीं हो पाएगा तो अलग हो जाएं. तलाक के बाद पत्नी के जो भी अधिकार हैं वे उसे मिलें. तीन तलाक का कुरान में कोई जिक्र भी नहीं है.

तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा, आपके अनुसार इन गैर-कुरानी कानूनों को बनाए रखने की क्या वजह है?

चूंकि उन्हें अपना वर्चस्व बरकरार रखना है, इसलिए ये कानून थोपे जा रहे हैं. शायरा (बानो) पहले से ही कितनी प्रताड़ित रही हैं, उन्हें ये ऐसे कानूनों से और परेशान कर रहे हैं. वो बहुत हिम्मत वाली हैं जो इन सबसे लड़ रही है. हम भारत के संविधान के अनुसार नागरिक हैं, आप कौन होते हैं हमें कानून सिखाने वाले?

आपको बीएमएमए की मांगों पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया मिली?

प्रतिक्रिया सीधे तो नहीं मिली, पर टीवी डिबेट वगैरह में वे हमसे खूब तू-तू, मैं-मैं करते हैं. वो जानते हैं कि अगर कोई उनसे लड़ाई कर सकता है तो वो हम हैं. इसलिए अब वे हम पर निजी हमले भी कर रहे हैं. मेरे खिलाफ वॉट्सऐप पर एक मैसेज लगातार घूम रहा है जिसमें मुझे काफिर करार दिया गया है. मेरे पति और बेटे को भी इसमें घसीटा है. मेरी तस्वीर भी लगाई है और लिखा है हम इस्लाम के खिलाफ हैं. एक जगह नूरजहां को भी गाली दी है. ये पितृसत्ता और रूढ़ियों से भरे लोग हैं. इन्हें पढ़ी-लिखी, समझदार, एम्पावर्ड औरतों से डर लगता है. हम इन्हें चुनौती देते हैं कि आप बिचौलिए हैं और बिचौलियों के लिए हमारे मजहब में कोई जगह नहीं है.

 ऐसा भी कहा गया कि आप आरएसएस एजेंट हैं.

आरएसएस का एक उद्देश्य है यूनिफाॅर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता… अगर किसी ने खुलकर इसका विरोध किया है तो वो हम हैं. हम अगर आरएसएस के साथ होते तो इसका विरोध क्यों करते! हमने तो इस पर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली है, जिसमें साफ कहा गया है कि हम इस आइडिया को सिरे से खारिज करते हैं. हमारे मुताबिक ये हमारी यानी मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं का हल नहीं है.

वो कैसे?

देखिए, आजादी के समय इसको लाने का माहौल और पृष्ठभूमि अलग थी. संविधान बना तो उसकी नजर में सब नागरिक एकसमान हो गए, पर हमारे समाज में धर्म की गहरी पकड़ है और महिलाओं को उन धर्मों के अनुसार विवाह, संपत्ति आदि में अधिकार नहीं थे. तब सोचा गया कि एक यूनिफाॅर्म सिविल कोड होना चाहिए पर संविधान सभा में संस्कृति को बचाने की बात कहकर हिंदुओं ने इसका काफी विरोध किया था. उस विरोध के चलते नेहरू और आंबेडकर को ये विचार छोड़ना पड़ा. पर फिर धीरे-धीरे कुछ ही सालों में हिंदू मैरिज ऐक्ट, हिंदू सक्सेशन ऐक्ट जैसे पारिवारिक और सामाजिक कानून बने, जो महिलाओं के पक्ष में थे. फिर सभी अल्पसंख्यक समुदायों, चाहे पारसी हो या क्रिशि्चयन सभी ने अपने-अपने धर्म के दायरे में ही औरतों के लिए कानून में सुधार किए, सिवाय इस्लाम के. इस्लाम में आज भी 1937 में बने कानून लागू हैं जो इन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वालों की वजह से हुआ है. मुस्लिम महिलाओं को इतने सालों से उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. हमें हमारे आधारभूत अधिकार नहीं प्राप्त हैं और आप एक नया कानून लाने की बात कर रहे हैं.  ये सिर्फ राजनीतिक दलों के चोंचले हैं.

तो आपके अनुसार ये सिर्फ कोरी राजनीति है.

बिल्कुल. 1986 (शाहबानो फैसले का समय) और 2016 में फर्क यही है कि आज मुसलमान जागरूक हो चुका है. वो सब समझता है. उसके पास जानकारी है. उसे बेवकूफ बनाना आसान नहीं है. अब वो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सच्चाई अच्छी तरह से पहचान गया है कि वो अपने अलावा किसी की मदद नहीं करते हैं. ये गलत लोग हैं. उन्हें आम मुसलमान की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है. मैं अहमदाबाद से हूं. दंगों के वक्त मैंने कितना काम किया है ये मुझे बताने की जरूरत नहीं है, पर सवाल ये है कि उस वक्त मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कहां था? वहां तो कोई नहीं आया, किसी को देखने तक नहीं भेजा गया कि वहां मुसलमानों का क्या हाल था. तो अब उनका फरेब और दकियानूसी बातें नहीं चलेंगी. हम पिछले दस साल से जो भी काम कर रहे हैं वो कुरान और इस्लाम के दायरे में ही कर रहे हैं.

‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का आम मुसलमान की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है. मैंने अहमदाबाद दंगों के वक्त काम किया है, पर जरूरत के उस वक्त पर्सनल लॉ बोर्ड कहां था?’

पूरी दुनिया में मुहिम चल रही है ‘जेंडर जस्टिस इन इस्लाम’, उसमें दुनिया भर के कई विद्वान हैं जो कुरान को पढ़कर उसकी व्याख्याएं लिख रहे हैं, उसका अनुवाद कर रहे हैं. अब मुसलमान जान रहा है कि हमारे मजहब में ‘जेंडर जस्टिस’ की बात कही गई है. पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो आयतों का अर्थ निकाला है वो झूठ है. उन्होंने आज तक सिर्फ इस्लाम का और मुसलमानों, दोनों का नुकसान किया है.

आपका अभियान लंबे समय से चल रहा है. मुस्लिम समाज की इस पर कैसी प्रतिक्रिया मिली?

आज की तारीख में मुझे दिन भर में कम से कम 15-20 ईमेल आते हैं मुसलमान लोगों से. छह से सात कॉल आते हैं कि हमने आपके बारे में फलानी जगह पढ़ा और हमारी ये आपबीती है. हमारी मदद कीजिए. सोशल मीडिया पर भी लोग लगातार जुड़ते हैं. ये सिर्फ मेरे पास का आंकड़ा है. नूरजहां और बाकी राज्यों के संयोजकों की गिनती अलग है. तो कहने का अर्थ यह है कि बदलाव की प्रक्रिया हमेशा लंबी होती है, लेकिन बदलाव की शुरुआत तो हो. बीएमएमए बस वही शुरुआत है. अब तक कोई नहीं था जो इस सबके खिलाफ खड़ा होता, पर अब हम हैं और उम्मीद है कि आने वाले दिनों और लोग भी साथ आएंगे जो तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाएंगे.

अपने अभियान की असली कामयाबी कब मानेंगी?

हम तो इसे ही कामयाबी मानते हैं कि महिलाएं खुद हक के लिए जागरूक हो रही हैं, उसके लिए लड़ रही हैं. हमने शायरा को नहीं कहा कि कोर्ट जाओ, वे खुद गई हैं. आफरीन को नहीं कहा. उसने कोर्ट जाने के बाद हमें बताया था. तो महिलाएं खुद के लिए खड़ा होना सीख रही हैं. दूसरी जरूरी बात है कि अब मुस्लिम समाज में ये पब्लिक ओपिनियन बन चुकी है कि तीन तलाक गैर-कानूनी है. यहां तक कि गैर-मुस्लिम भी समझ रहे हैं कि इस्लाम वो नहीं है जो अब तक बताया गया. इस्लाम भी महिलाओं की बराबरी की बात कहता है. हमारे लिए ये भी उपलब्धि है. हां, असली कामयाबी तो तब ही होगी जब तीन तलाक, हलाला आदि पर कानूनी तौर पर पाबंदी लगाई जाएगी.

तीन तलाक पर पाबंदी लगने की बहस शुरू होने के बाद उत्तर प्रदेश के एक मौलाना साहब ने कहा था कि ये इस्लाम का मजहबी मसला है, इस पर किसी को बोलने का हक नहीं है.

तो क्या हम सब महिलाएं मुसलमान नहीं हैं? हम कुरान में पूरा यकीन रखते हैं. और वैसे भी कुरान में किसी मौलाना को कोई विशेष स्थान नहीं है. हर मुसलमान और अल्लाह के बीच एक अपना रिश्ता है और वो मुसलमान कयामत के रोज अपने-अपने कर्मों का हिसाब उसे देगा. इसमें मौलाना कहीं नहीं है. किसी भी मौलाना को बोलने का उतना ही हक है जितना मुझे या किसी आम महिला को है.

कुरान में आयतें हैं जहां साफ लिखा है कि महिला-पुरुष बराबर हैं. कुरान में जो मानव जाति की उत्पत्ति की परिकल्पना है वहां अल्लाह साफ कहता है हमने पृथ्वी पर मनुष्य का सर्जन किया और साथ में उसका एक जोड़ीदार भी बनाया. वहां स्त्री-पुरुष या कौन सुपीरियर, ऐसी कोई बात नहीं कही गई है. यहां सिर्फ मानव के सर्जन की बात है. हमने इन आयतों का जिक्र सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका में भी किया है. अमरीकी स्कॉलर अमीना वदूद ने कुरान पर काफी काम किया है. वो भी इसी बात का समर्थन करती हैं कि जब गैर-बराबरी का कोई जिक्र कुरान में नहीं है तो समाज में क्यों है.

इन सब बुराइयों के समाज में अब तक बने रहने का कारण अशिक्षा भी है. कई बार महिलाएं कोई आर्थिक संबल न होने के कारण अपमान झेलती रहती हैं.

ये बिल्कुल सही बात है. जब सच्चर समिति कहती है कि देश का मुसलमान समाज पिछड़ा है, गरीब है तो महिलाओं की हालत सोचिए. माइनॉरिटी विदइन माइनॉरिटी वाला मसला है. इस अशिक्षा और गरीबी का सबसे ज्यादा खामियाजा मुस्लिम महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है. औरत पति के अत्याचार इसीलिए सहती रहती है कि वो पढ़ी-लिखी नहीं है, अपने पैरों पर खड़ी नहीं है. ये तीन तलाक का मसला, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. पर बीएमएमए इस पर भी काम कर रहा है. देश के सात शहरों में हमारे ‘कारवां’ सेंटर हैं जहां महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है. स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों को कंप्यूटर की ट्रेनिंग देते हैं. महिलाओं को कौशल

विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है. उनको रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाते हैं. पिछले दिनों भोपाल कारवां में महिलाओं ने तो अपने सिले गए कपड़ों की एक प्रदर्शनी लगाई थी जिससे उन्हें ठीक-ठाक आमदनी भी हुई. बीएमएमए के मिशन में दो ही बातें हैं- एक तो महिलाओं के नागरिक अधिकार दिलाना, दूसरे उनके कुरानी अधिकार दिलाना.

इस्लाम में महिला के अबॉर्शन करवाने को गलत माना गया है. अगर उसे लगता है कि उसे बच्चा नहीं चाहिए या वो उतनी सेहतमंद नहीं है जितना होना चाहिए तो क्या उसे ये फैसला करने का हक नहीं होना चाहिए?

मेरी जितनी इस्लाम की समझ है उसके मुताबिक विज्ञान और इस्लाम दोनों साथ-साथ चलते हैं. ऐसे में महिलाओं को परिस्थिति को देखते हुए समझदारी से फैसला लेना है कि उनके लिए क्या बेहतर होगा.

‘मुस्लिम मर्दों को अगर कोई चिंता है तो यह कि पत्नी पिटाई और महिला उत्पीड़न के नाजायज हक में कहीं कोई कमी न आ जाए’

Muslim brides sit as they wait for the start of a mass marriage ceremony in Ahmedabad

मुस्लिम महिलाएं सड़क-मुहल्लों से लेकर देश के स्तर तक मर्दों को मारने-पीटने वाले गिरोहों से लंबी लड़ाई लड़ रही हैं, और दूसरी तरफ मुसलमान मुल्ला-मर्द हैं जो घर के अंदर महिलाओं को पीटने और पीड़ित करने के हक को जारी रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं. मुजफ्फरनगर से लेकर गुजरात तक बलात्कार हुए लेकिन ये मुल्ला गिरोह इस मुद्दे पर कभी सड़कों पर नहीं उतरे, लेकिन तीन तलाक और बहुविवाह के अधिकार में कमी आए तो इनकी बर्दाश्त जरूर जवाब दे जाती है.

मुस्लिम मर्दों को अगर कोई चिंता एकजुट कर रही है तो यह कि घर में पत्नी पिटाई और महिला उत्पीड़न के नाजायज हक में कहीं कोई कमी न आ जाए. कहीं कोई ऐसा कानून न बन जाए जिससे उन्हें पत्नी उत्पीड़न के अधिकार से वंचित होना पड़े. तीन तलाक, हलाला, पत्नी पिटाई, पत्नी के साथ जबरन शारीरिक संबंध, बहुपत्नी प्रथा, लड़कियों का बाल विवाह जैसे मर्दवादी विशेषाधिकार पर चिंतित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत, जमात, तंजीमें- सब मुस्लिम महिलाओं पर जुल्म को जारी रखने पर एकमत हैं. ये चालाक-चतुर सुजान टीवी की बहसों में गाल बजाते है कि तीन तलाक अपराध है, लेकिन इस अपराध को रोकने के किसी भी कदम का विरोध भी उसी सांस में करते हैं. तीन तलाक देने वाले पति की पिटाई कभी नहीं करते, लेकिन पत्नी पिटाई पर मूक सहमति जारी रखते हैं.

लेकिन हर खास-ओ-आम से मेरी गुजारिश है कि आप इन मुस्लिम मर्दों के गिरोहों से सिर्फ एक सवाल पूछिए कि भाईजान, आज तक आप लोगों ने मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न के विरुद्ध कोई लड़ाई लड़ी है क्या? क्या तलाकशुदा बेसहारा महिलाओं के लिए कोई सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम शुरू किया है? या आपने सिर्फ पतियों को एकतरफा तीन तलाक पर समर्थन दिया है? क्या अधिक बच्चे पैदा करके अपनी सेहत गंवा रही मुस्लिम महिलाओं को फैमिली प्लानिंग अपनाने पर भी समर्थन दिया है? क्या एक पत्नी के रहते दूसरी-तीसरी शादी करने वाले अय्याश-संवेदनहीन पतियों के विरुद्ध कार्रवाई की मांग की है कभी? क्या तलाकशुदा पत्नी का हलाला के नाम पर पुनर्विवाह कराके उसे बार-बार नए मर्दों के हाथों में सौंपने के विरुद्ध कानून बनाने की बात की है आपने? क्या 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी पर कानूनी रोक की मांग की है? क्या कभी आपकी तंजीम ने मुस्लिम महिलाओं को घर के अंदर हक दिलाने की कोई लड़ाई लड़ी है?

तो सवाल ये है कि घर के बाहर इन्हें पीटने वालों से भी हम लड़ें और घर के अंदर हमें पीटने वालों से भी हम ही लड़ें? तो पहले किससे लड़ें?

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

‘मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल नहीं होना चाहिए’

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इस्लाम में तलाक का जो तरीका बताया गया है उसमें यह नहीं है कि एक बार में तीन तलाक दिया जाए. ये एक बार में तीन तलाक देने का जो तरीका लोगों ने अपना लिया है वह इस्लाम की शिक्षाओं और कुरान की हिदायतों के बिल्कुल खिलाफ है. इस्लाम ये कहता है कि अगर आपस में कोई विवाद हो जाए तो पहले शौहर और बीवी आपस में इसे सुलझा लें. अगर मामला नहीं बनता है तो किसी की मध्यस्थता से इसे ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए. फिर भी अगर बात नहीं बनती है और दोनों अलग-अलग रहना चाहते हैं तो तरीका यह है कि पहले एक तलाक दिया जाए. एक महीने का इंतजार किया जाए. उस दरमियान बीवी पति के साथ ही रहे ताकि उनके बीच में सुलह हो सके. फिर एक महीने तक बात नहीं बनती है तो दूसरी बार तलाक दिया जाए. इस तरह से तीन महीने गुजर जाने के बाद तलाक की प्रक्रिया पूरी होती है. इस दौरान बीवी अपने शौहर के साथ रहे. इससे यह मौका मिलता है कि अगर आपने गुस्से में या किसी दूसरे ऐसे ही गैरजरूरी कारण से तलाक दिया है तो आपस में सुलह हो जाए. अगर ऐसा नहीं हो तो अलगाव हो जाना चाहिए. यही इस्लाम में तलाक का जायज तरीका है.

अब कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस तरीके को अपनाए बिना एक बार में तीन तलाक दे देते हैं. इस तरीके को हम गलत मानते हैं. यह इस्लाम विरोधी भी है. जिस बात को लेकर मतभेद है, वह यह है कि कुछ उलेमा कहते हैं अगर तीन तलाक एक बार में दे दिया जाए तो उसे एक ही मानना चाहिए. कुछ उलेमा यह मानते हैं कि अगर तीन तलाक एक बार में दिया जाए और देने वाला यह कहे कि हमने सोच-समझकर एक बार में तीन तलाक दिया है तो उसको तीन तलाक मान लिया जाए. अब तलाक को लेकर दो मत हैं और दोनों मतों को लेकर कुरान और हदीस की दलीलें मौजूद हैं. सबसे बड़ी बात है कि देश में दोनों तरीके प्रचलन में हैं और दोनों तरीकों से लोग तलाक ले रहे हैं.

जहां तक बात मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने की है तो ये बात सच है कि हमारे समाज में महिलाओं के साथ ज्यादती होती है. सही ये होगा कि गलत तरीकों को रोका जाए. उन्हें इज्जत दी जाए, लेकिन जो बहनें 50 हजार आॅनलाइन हस्ताक्षर के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर मांग कर रही हैं कि तीन तलाक को एक कर दिया जाए, मेरे हिसाब से यह बात सही नहीं है कि दोनों मतों में से एक मत पर कानून के जरिये रोक लगा दी जाए. हम एक मत को मानने पर कानून के जरिये कोई बात थोप देंगे तो यह सही नहीं होगा. यह अदालत का मसला नहीं है. यह मामला लोगों को सही बात बताने का है. अगर अदालत तीन तलाक को एक मान भी लेगा तो जरूरी नहीं है कि औरतों के ऊपर अत्याचार बंद हो जाएगा. जो लोग इस बात को हवा दे रहे हैं वे लोग मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करना चाहते हैं और समान नागरिक आचार संहिता को लागू करवाना चाहते हैं. मुस्लिम समाज हमेशा कहता रहा है कि उसके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. हमें संविधान के जरिये ये अधिकार दिया गया है. इस देश में हर आदमी अपने मजहब, अपने रीति-रिवाजों के साथ रह सकता है.

इसके अलावा जहां तक बीवी को हर्जाना देने की बात है तो इस्लाम में अगर तलाक हो गया, आप शौहर-बीवी नहीं रह गए तो इस्लामी कानूनों के हिसाब से आप शौहर के ऊपर हर्जाने के लिए दबाव नहीं डाल सकते हैं. यह इस्लाम के खिलाफ है. वैसे यह समाज की जिम्मेदारी है कि महिला का भरण-पोषण सही तरीके से हो. महिलाओं के पास इसके लिए मेहर की रकम की व्यवस्था की गई है. अगर महिलाओं को शादी के समय मेहर की रकम नहीं मिली है तो वह तलाक के समय दिलाई जाती है. इसके अलावा महिलाओं को जो संपत्ति में अधिकार मिले हैं वे उन्हें ले सकती हैं. इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत सारे प्रावधान हैं. खराब बात यह है कि लोग इस समय उन प्रावधानों को भूल रहे हैं. लोग इन सारे प्रावधानों पर जोर नहीं दे रहे हैं. उनका ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि कैसे एक शौहर-बीवी जो अलग-अलग रह रहे हैं, उन पर हर्जाने का दबाव डाला जाए.

दरअसल, इस मसले को राजनीतिक फायदे के लिए उठाया जा रहा है. हाल ही में मेरी मुलाकात शायरा बानो से हुई जिन्होंने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. हमने उनसे पूछा कि क्या अगर सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक को एक मान लेता है तो वे अपने पति के साथ रहेंगी. उनका जवाब था नहीं. वैसे भी अगर किसी पुरुष ने महिला पर ज्यादती की है तो हमारे देश में कानून है. पर्सनल लॉ सिर्फ निकाह और तलाक के लिए है. अगर शारीरिक हिंसा, मानसिक हिंसा या उत्पीड़न का मामला बनता है तो इसके लिए आप कानूनी तरीके से शिकायत कर सकते हैं. तलाक की सजा सिर्फ औरत को मिलती है ऐसा नहीं है. पुरुष भी इसकी सजा भुगतते हैं. ये मसले इसलिए खड़े हुए हैं कि इस्लाम में महिलाओं को जो जगह दी गई है वह हमने अपने समाज में सही से लागू नहीं किया है. अगर ऐसा होता तो ऐसे मसले सामने ही नहीं आते.

(लेखक  जमात-ए-इस्लामी-हिंद के महासचिव हैं )

(बातचीत पर आधारित)

‘मुताह एक तरह की कानूनी वेश्यावृत्ति है, जिस पर मुस्लिम समुदाय को बात करने में भी शर्म आती है…’

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Photo : Tehelka Archives

तीन तलाक के खिलाफ अभियान से मुस्लिम समुदाय के लोगों या मौलवियों को आहत नहीं होना चाहिए क्योंकि जिस तरह से आज के दौर में तीन तलाक हो रहा है, वह पूरी तरह इस्लाम के खिलाफ है. इससे इस्लाम के जो पांच सिद्धांत हैं, जो हिदायत है, उसमें कोई तब्दीली नहीं होती. जो चीज थोड़ी-सी बदल रही है, वह शरीयत है. अब शरीयत बाद की चीज है, कुरान के डेढ़ सौ साल बाद की. उसका मकसद यही है कि कुरान को समझने और विश्लेषण करने में मदद करे. आज भी हम लोग कुरान को विश्लेषण कर सकते हैं कि आज के दौर में क्या जरूरी है. इस मामले में तो कुरान में बिल्कुल साफ निर्देश हैं कि तीनों तलाक के बीच में एक महीना दस दिन, एक महीना दस दिन का गैप होना चाहिए. तो इसमें समाज को आहत होने या तीन तलाक का बचाव करने की कोई गुंजाइश ही नजर नहीं आती.

एक चीज इसमें और जोड़ना चाहती हूं. इसके बिना ये मांग अधूरी  है. मेरे ख्याल से इस मांग में ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि औरत को भी उतनी ही आसानी हो खुला लेने में, जितना कि मर्द को है. औरत भी तीन बार ये कह सके और तलाक हो जाए. क्योंकि औरत अगर खुला मांगती है तो अंतत: देता मर्द ही है. अगर वह नहीं चाहे तो उसे मनाना पड़ता है किसी बुजुर्ग से, दोस्त से, या समाज से दबाव डलवाना पड़ता है या कुछ संपत्ति वगैरह देकर मनाना पड़ता है. बच्चों से मिलने का अधिकार छोड़ना पड़ता है या मेहर की रकम छोड़नी पड़ती है. इस तरह कुछ चीजें छोड़कर महिला को तलाक मिलता है. इस सबके बावजूद जो फाइनल प्रोनाउंसमेंट है तलाक का, वह पुरुष ही देता है. महिला सब कुछ दे दे, तब भी तलाक-तलाक-तलाक का घोषणा पुरुष ही करता है. तो मैं समझती हूं कि इसके बिना बात अधूरी रहेगी. इसे न छोड़ा जाए. इस मांग में ये चीज जोड़ी जानी चाहिए कि औरत भी अगर तीन महीने का वक्त लेकर तीन बार तलाक कह दे तो उसे तलाक मान लिया जाना चाहिए.

औरत के खुला मांगने के मामले शायद ही कभी सुनने को मिलते हैं, क्योंकि उसमें वक्त बहुत लगता है. जब महिला को खुला लेना हो तो उसे एक से दूसरे मौलवी के पास जाना पड़ता है. कभी बरेलवी के पास, कभी दारुल उलूम के पास. वह मौलवी के पास जाती है तो वे हजारों वजहें पूछते हैं कि तुम क्यों खुला लेना चाहती हो. जबकि मर्द को कोई वजह नहीं देनी पड़ती. औरत वजह भी बताए तो उसे खारिज कर देते हैं कि ये वजह तो इस काबिल है ही नहीं कि तुम्हें खुला दिया जाए. इसमें आठ-साल दस साल लग जाते हैं.

मौलवी लोगों के फैसले ज्यादातर महिलाओं के खिलाफ इसलिए होते हैं क्योंकि वे मुख्य धर्मग्रंथ कुरान को मानते ही नहीं हैं. बुनियादी तौर पर यह लड़ाई तीन तलाक की लड़ाई नहीं है, यह कुरान शरीफ को आधार मानने की लड़ाई है. कुरान को मानने की जगह वह शरिया और क्या-क्या चलन है, ये सब बताया करते हैं. जैसे, जो निकाहनामा है उसमें ये लिखा होना चाहिए कि औरत भी अगर चाहे तो वह तलाक ले सकती है लेकिन उसे काट दिया जाता है. कहा जाता है कि निकाह के वक्त तलाक की बात करना अपशकुन है. वे असली कुरान कभी कोट ही नहीं करते.

मेरे पास जो भी है वह अल्लाह का दिया हुआ है. अगर अल्लाह की ये ख्वाहिश होती कि मैं इसे छिपाकर रखूं तो वे उसका कुछ न कुछ इंतजाम करते. मुझे सिर से अपना पूरा चेहरा ढककर रखने की क्यों जरूरत है? बुरके से ढकी हुई औरतें घर में भी कहां सुरक्षित हैं? वे कौन लोग हैं जो इस तरह के लिबास या रहन-सहन को ही इज्जत की नजर से देखते हैं?

औरत जात को बचपन से इतना डराया जाता है कि अगर वह शरीयत और मौलवी के खिलाफ जाती है तो ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा. जबकि कुरान खुद सबसे पहले यह कहता है कि तुम खुद पढ़ो और समझो. लेकिन वहां तक बात पहुंचती ही नहीं है. मौलवियों ने व्याख्या करने की बात अपने हक में कर ली है. ईरान में एक बेचारी कुर्रतुल ऐन ने दावा किया था कि कुरान में लिखा है कि आखिरी नबी हजरत मुहम्मद होंगे लेकिन मैं तो नादिया (महिला नबी) हूं. उसके बारे में तो कुरान कोई बात कहता नहीं है इसलिए नादिया तो हो ही सकती है. लेकिन उस बेचारी को तो मार दिया गया.

अभी मैंने अपनी किताब ‘डिनाइड बाइ अल्लाह’ लिखी तो तलाक, हलाला, खुला, मुताह आदि पर सच्ची कहानियों के सहारे तमाम सारे सवाल उठाए कि कुरान क्या कहता है, शरीयत क्या कहती है, संविधान क्या कहता है और हो क्या रहा है, तो उस पर फतवा जारी हो गया कि ये तो मुसलमान हैं ही नहीं. इन्हें ये सब कहने का कोई हक नहीं है. हमारा तो कहना है कि हम मुसलमान हैं या नहीं हैं, लेकिन हमारे साथ जो हो रहा है उस पर हम क्यों टिप्पणी नहीं कर सकते. जब रूपकंवर को जलाया गया और उसे सती का नाम दिया गया, हम हर विरोध और हर जुलूस में शामिल थे. इस तरह अगर कोई हिंदू या ईसाई भी है तो वह क्यों नहीं बोल सकता?

तलाक तो एक अहम मुद्दा है कि जल्दबाजी में किसी ने तलाक दे दिया और उसे भी अलगाव मान लिया गया, लेकिन एक और मुद्दा जो इससे जुड़ा है, वो है हलाला. इसमें ये व्यवस्था है कि मर्द ने जल्दबाजी में तलाक दे दिया, अब वह पछता रहा है, अपना फैसला वापस लेना चाहता है तो वह ऐसा कर नहीं सकता. उस औरत की पहले किसी और से शादी हो और वह अमल में लाई जाए. फिर या तो उसका तलाक हो या वह मियां मर जाए, तब पहला शौहर उससे शादी कर सकता है. ये प्रथा बीते कुछ सालों में बहुत ज्यादा बढ़ गई है. एक बार तलाक हो गया और फिर मियां-बीवी चाहें तो भी उनके पास सूरत नहीं है, सिवाय एक प्रताड़ना भरी प्रक्रिया से गुजरने के. औरतों की वह प्रताड़ना जब बढ़ी है तो औरतें एक होकर आगे आ रही हैं. वे चाहती नहीं कि हड़बड़ी में तलाक हो जिसे सुधारने के लिए हलाला झेलना पड़ता है. ये बहुत शर्मनाक है कि अपने पति के पास ही वापस जाने के लिए एक रात किसी और मर्द के साथ रहें. इस पर बात होनी चाहिए. मुस्लिम महिलाओं की मानसिक बुनावट ऐसी है कि वे जल्दी आवाज नहीं उठातीं. अब सूरत ऐसी बन गई है कि पचास-साठ हजार पढ़ी-लिखी महिलाएं इकट्ठा होकर विरोध में आगे आ रही हैं.

दूसरी एक प्रथा है मुताह. वह एक तरह का फौरी विवाह है. उसके दिन तय होते हैं कि वह दस दिन, सौ दिन या कुछ निर्धारित दिन का हो सकता है. हालांकि, इसके ऐतिहासिक संदर्भ पर मुझे शक है लेकिन माना जाता है कि जब फौजें चलती थीं तो जहां फतह मिलती थी,  सैनिक वहां की औरतों से बलात्कार करते थे. अगर बच्चे हो जाते थे तो वे नाजायज कहे जाते थे. इसलिए फौरी विवाह का सिस्टम बनाया गया. इसमें जितने दिन का करार होगा, उसके बाद वह खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा. हाल में कई मामले ऐसे सामने आए हैं कि खाड़ी देशों से महीने-दो महीने के लिए मर्द वापस आते हैं तो उनको वक्त बिताने के लिए कोई चाहिए. जिम्मेदारी भी नहीं निभानी है. दूसरे उनको इस्लाम का भी डर है कि जन्नत मिलेगी कि नहीं मिलेगी. मजा भी करना है. तो वे यहां आकर इस तरह की फौरी शादियां करते हैं. इसमें तो एक बार कोई लड़की फंस गई तो उसकी शादी कभी नहीं होती. फिर उसे मुताही बोलते हैं. जैसे-जैसे उसकी जवानी ढलती है, उसके पैसे घटते जाते हैं. यहां तक होता है कि कई औरतों को सिर्फ खाने-कपड़े पर रखा जाता है, उनका यौन उत्पीड़न किया जाता है और  वे घर का काम भी करती हैं. यह एक तरह की कानूनी वेश्यावृत्ति है. इसमें मौलवी भी खबर रखते हैं कि किसके घर की लड़की सयानी हो गई है और किसके घर का लड़का लौटने वाला है. वे इसमें बिचौलिये की भूमिका निभाते हैं. अब ये सब मसले कभी नहीं उठते कि मुस्लिम समुदाय को भी इस पर बात करने में शर्म आती है. इसे सिर्फ महिलाएं झेलती हैं. 

तलाक के साथ एक अहम मुद्दा है हलाला. इसमें ये है कि मर्द ने जल्दबाजी में तलाक दे दिया, अब वह अपना फैसला वापस लेना चाहता है तो वह ऐसा कर नहीं सकता. उस औरत की पहले किसी और से शादी हो और वह अमल में लाई जाए. फिर या तो उसका तलाक हो या वह मियां मर जाए, तब पहला शौहर उससे शादी कर सकता है. ये बहुत शर्मनाक है

दूसरी बात ये है कि तलाक के अलावा जितनी रूढ़ियां हैं पर्दा वगैरह, इनको कभी तार्किक ढंग से चुनौती नहीं दी गई. आप सीधे-सीधे बहस में उतरिए, बातचीत कीजिए. मैं कहती हूं कि मेरे पास जो भी है वह अल्लाह का दिया हुआ है. अब उसको देखते हुए मेरा चेहरा तो अल्लाह ने दिया है. तो अगर अल्लाह की ये ख्वाहिश होती कि मैं इसे छिपा कर रखूं तो वे उसका कुछ न कुछ इंतजाम करते. मुझे सिर से अपना पूरा चेहरा ढंककर रखने की क्यों जरूरत है? ये सब बेकार की बातें हैं कि औरत घर में रहेगी तो सुरक्षित रहेगी, खुद को ढंककर रखेगी तो सुरक्षित रहेगी. बुरके से ढंकी हुई औरतें घर में भी कहां सुरक्षित हैं? हमारे समाज में मर्द कहता है कि तुम ऐसे रहो तो सुरक्षित हो. औरतों में आत्मविश्वास की कमी है, इसलिए वे भी मान लेती हैं कि हम इसी तरह सुरक्षित हैं. वे सोचती हैं कि जैसा कहा जा रहा है, वे वैसे ही रहेंगी तो उनको इज्जत की नजर से देखा जाएगा. वे कौन लोग हैं जो इस तरह के लिबास या रहन-सहन को ही इज्जत की नजर से देखते हैं? उनकी सोच और उनकी मानसिक बनावट पर कभी बात नहीं होती जो कहते हैं कि उसका मुंह खुला था, पहुंचा ऊंचा था या बाजू खुली थी, इसलिए उसे छेड़ा गया.

दो बातें मुसलमान औरतों के पक्ष में जाती हैं. वे बाकी समुदायों की औरतों के बराबर में रह रही हैं. आज उसके पास सब अधिकार हैं. संविधान हमें बराबरी देता है. जो हक हिंदू औरत को है, वही हक मुसलमान औरत को भी है और उसे यह मिलना चाहिए. हम अपनी लड़ाई इस्लाम के नजरिये से न लड़कर इस्लाम और संविधान दोनों के मद्देनजर लड़ेंगे. और संविधान कहीं भी कुरान के आड़े नहीं आ रहा है. वह कहीं से भी खतरे में नहीं आ रहा है.

आंबेडकर से किसी ने पूछा था कि पर्सनल लॉ का अलग से प्रावधान क्यों रखा गया है, क्या सभी के लिए एक-समान कानून अच्छा नहीं होगा? उसके जवाब में उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें कहा कि समान नागरिक संहिता इतनी बेहतरीन चीज है कि समुदाय भी कुछ समय बाद इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि हमें समान नागरिक संहिता को अपनाना चाहिए, न कि पर्सनल लॉ को अपनाना चाहिए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अब वजह जो भी रही हो. कम से कम मुसलमानों में तो बिल्कुल नहीं हुआ. अब काफी सारी चीजें आज के दौर में देखते हैं कि काफी कुछ बदलाव शुरू हो गया था. उसे तगड़ा झटका लगा 1986 में, जब शाहबानो के केस को पलट दिया गया. उससे हम लोगों को बहुत नुकसान हुआ.

दो चीजें एक साथ हुईं. इधर शाहबानो के केस को पलट दिया गया. उधर पाकिस्तानी तानाशाह जियाउल हक ने 1981-82 में हुदूद कानून लागू किया. उसके तहत बहुत सारी ऐसी चीजें पाकिस्तान में हुईं जो औरतों के खिलाफ गईं. इससे यहां के मौलवियों को यह कहने का मौका मिला कि देखो पाकिस्तान में शरीयत मान ली गई है और तुम लोग नहीं मान रहे हो. शाहबानो का केस उसी का नतीजा था. जबकि आप नंदिता हक्सर की किताब पढ़िए तो सारी मुसलमान औरतें शाहबानो के पक्ष में खड़ी थीं कि उसे उसका हक मिलना चाहिए.

देखिए, धर्मगुरु किसी भी धर्म का हो, वह मौका लपकने की फिराक में रहता है. शाहबानो के समय का मौका भी मौलवियों ने लपक लिया. उस समय के मंत्री थे जेडआर अंसारी. उन्होंने धमकी दी कि मैं संसद के सामने आग लगा लूंगा तो सारे मर्द घबरा गए कि नहीं-नहीं, कुछ भी हो जाए लेकिन मर्द किसी कम्युनिटी का नहीं जलना चाहिए. औरतें दहेज के लिए या दूसरी वजहों से जलाई जाएं तो जलें. लेकिन मर्द नहीं जलना चाहिए. मौलवी लोग कहते हैं कि मुसलमान के मसले पर सिर्फ मुसलमान बोलें. शाहबानो के केस को कोर्ट में जस्टिस चंद्रचूड़ हेड कर रहे थे. वे जज हैं, इस्लामिक लॉ पर डिग्री है, लेकिन आप कहेंगे कि नहीं, वे हिंदू हैं इसलिए वे अथॉरिटी नहीं हैं. इससे काम नहीं चलेगा. बात-बहस से कोई रास्ता निकलेगा.

(बातचीत पर आधारित)