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दिल्ली का कश्मीर की जनता से कोई संवाद ही नहीं हो रहा

सभी फोटो : फैसल खान
सभी फोटो : फैसल खान

कश्मीर में 2010 में जैसे हालात बने थे, अब परिस्थिति उससे ज्यादा कठिन और ज्यादा विकट हो गई है. ऐसा इसलिए हुआ है कि 2008-09 और 10 में जो घटनाएं हुई थीं, उससे न मनमोहन सरकार ने, न ही मोदी सरकार ने कोई सबक सीखा. सितंबर, 2010 में हमारी वार्ताकार समिति ने जब काम शुरू किया था, हमें एक साल के अंदर रिपोर्ट देनी थी. हम जम्मू और कश्मीर के हर जिले में गए थे. हम करीब 700 डेलीगेशन से मिलेे यानी छह हजार से ज्यादा लोग. सिर्फ हुर्रियत से हमारी बात नहीं हुई. जहां-जहां हम जाते थे, उसकी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को देते थे. पुलिस अफसरों और सीआरपीएफ के लोगों से भी हमारी बातचीत हुई थी.

इसके बाद हमने सबसे पहली जो रिपोर्ट दी थी, उसमें कहा था कि जन प्रदर्शन को रोकने के लिए न अधिकारियों की सुनवाई का तरीका सही है, न प्रदर्शन रोकने की उनकी कार्रवाई पर्याप्त है, इसके लिए कुछ कीजिए. उसके बाद थोड़ी-बहुत कार्रवाई हुई थी, लेकिन जिस तरह से अब (बुरहान वानी प्रकरण के बाद) लोग मारे गए हैं, मुझे नहीं लगता कि वहां उस सिफारिश पर अमल हुआ है. शुरुआत यहां से है कि कैसे आप जन प्रदर्शन को हैंडल करते हैं. दूसरे, जन प्रदर्शन में भी अब काफी परिवर्तन आया है. पहले सिर्फ पत्थरबाज थे, लेकिन अब प्रदर्शनकारी सुरक्षा बलों के सामने औरतों और बच्चों को भेजते हैं. उनकी हत्या करते हैं, उन पर अटैक करते हैं. पहली बार हमने देखा है कि पुलिस स्टेशन और कई सुरक्षा संस्थानों पर हमले हुए हैं. प्रदर्शन में ये बदलाव आया है. मिलिटेंसी में तो काफी बड़ा परिवर्तन आया है. एक तो ये जो 18 से 23-24 साल वाला आयुवर्ग है, ये बच्चे मध्यम वर्ग से आते हैं, स्कूलों में और कॉलेजों में पढ़ते हैं. प्रोफेशनल बनना चाहते थे. ये सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं, जो कि पहले नहीं था. और ये बहुत अतिवादी हुए हैं. ये जो तीन-चार फैक्टर नजर आ रहे हैं, उसका विश्लेषण ठीक से हुआ है या नहीं हुआ है. लेकिन मैं समझता हूं कि 2010 में जो स्थिति थी, अब उससे ज्यादा उलझाव आ गया है.

पहले आतंकियों के समर्थन में थोड़े-बहुत गांववाले आते थे, लेकिन अभी जिस संख्या में लोग आ रहे हैं, पचास हजार से दो लाख बताया जा रहा है. एक रिपोर्ट आई है कि सिर्फ सात हजार लोग थे. आंकड़ों के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन अचानक इतनी बड़ी तादाद में किसी आतंकी के अंतिम संस्कार में जिस तरह लोग आ रहे हैं, यह भी एक नया फैक्टर है.

पी. चिदंबरम ने मुझसे कहा था कि इस रिपोर्ट पर कैबिनेट में डिस्कस किया जाएगा, उसके बाद वह रिपोर्ट संसद में पेश की जाएगी. सभी पार्टियां उस पर बहस करेंगी. लेकिन उस रिपोर्ट पर न कोई बात हुई, न संसद में पेश की गई

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कश्मीर में हालात सुधरने की जगह और बिगड़ रहे हैं, क्योंकि अभी तक जो अप्रोच रही है दिल्ली की, वह डबल अप्रोच है. हमने कहा था कि एक तो आतंकवाद को खत्म करने के लिए जितना फोर्स इस्तेमाल कर सकते हो, करो. बॉर्डर पर पाकिस्तान के जो हमले हैं उस पर जल्दी से रोक लगाओ. दूसरा, मिलिटेंसी को जल्दी से जल्दी पूरे स्टेट से हटाने का प्रयास करो. यह एक पक्ष होगा. तीसरा, विकास पर फोकस करो. ये त्रिपक्षीय कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसके साथ ही साथ जो भावनात्मक जुड़ाव वाले राजनीतिक मुद्दे हैं, उन पर अगर ध्यान नहीं दिया तो इस तरह के मसले खड़े होते रहेंगे. थोड़ी शांति हो जाएगी तो दोबारा कहीं न कहीं और विरोध फूट पड़ेगा. यह भी देखना चाहिए.

हमने रिपोर्ट में भी कहा था कि सबसे गंभीर परिस्थिति घाटी में है, लेकिन अगर आपको सचमुच संपूर्णता में स्थिति देखनी है तो लद्दाख और जम्मू के लोगों की भी काफी आकांक्षाएं हैं, उसकी ओर भी ध्यान देना चाहिए. यह गौर करने लायक है कि पंडितों के बारे में सालों से कहा जा रहा है कि उनके लिए कुछ करो, किसी सरकार ने थोड़ा-बहुत आवंटन बढ़ा दिया, किसी ने ये कर दिया, किसी ने वो कर दिया, लेकिन असली बात ये है कि पंडितों को भी नजरअंदाज किया गया है. सिर्फ पंडित ही नहीं, वहां से काफी सिख परिवार भी बाहर निकल गए हैं, कई मुस्लिम परिवार भी निकल गए हैं. आप जितना नजरअंदाज करोगे, वह उत्प्रेरक का काम करेगा. उसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होगी. अगर इस पर आप ध्यान नहीं देंगे तो इस तरह की समस्या तो होगी ही.

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हमारे यहां जिस तरह से लोग उग्रवाद की ओर बढ़े हैं, जिस तरह से इनके वैश्विक संपर्क सामने आ रहे हैं, पूरे मुस्लिम जगत से उग्रवादी तत्व उभर कर आ रहे हैं, इनके क्या संपर्क हैं, इन बातों का क्या असर होगा? बांग्लादेश में तो आप देख ही रहे हैं. हमारे यहां भी अलग-अलग हिस्सों में स्लीपर सेल की बात हो रही है. मैं समझता हूं कि आज मोदी जिस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, वह उस परिस्थिति से ज्यादा गंभीर है जिसका सामना मनमोहन ने किया था.

कश्मीर की असली समस्याएं दो हैं. यह बंटवारे की विरासत है. पाकिस्तान कभी नहीं मानेगा कि एक मुस्लिम बहुल राज्य भारत का हिस्सा हो सकता है. दूसरा, कोई रास्ता नहीं है कि भारत की कोई भी सरकार स्थिति में बदलाव के लिए यथास्थिति बनी रहने देना चाहेगी. यह हो ही नहीं सकता. तो मूलत: ये समस्या है. वहां पहुंच बनाने की जरूरत है. आज (14 जुलाई को) छह दिन हो चुके हैं लेकिन कोई विधायक अपने क्षेत्र में जाकर लोगों से बात नहीं कर रहा. कोई राजनीतिक दल वहां नहीं जा रहा है. सिविल सोसाइटी, बिजनेस कम्युनिटी, छात्रों का समूह कोई वहां जा ही नहीं रहा है. राजनीतिक संस्थाओं का लोगों के साथ जुड़ाव होना चाहिए, लेकिन वो नहीं हो रहा है. दिल्ली में और कश्मीर में भी, वहां के लोगों से क्या जुड़ाव है, उनसे क्या संवाद हो रहा है, किसी को पता नहीं है. वहां स्थिति मुश्किल है यह सब मानते हैं, लेकिन आप कहीं से शुरुआत तो कीजिए.

कश्मीर में पहुंच बनाने की जरूरत है. कोई विधायक अपने क्षेत्र में जाकर लोगों से बात नहीं कर रहा. कोई राजनीतिक दल वहां नहीं जा रहा है. सिविल सोसाइटी, बिजनेस कम्युनिटी, छात्रों का समूह कोई वहां जा ही नहीं रहा है

कश्मीर पर सिर्फ हमारी रिपोर्ट नहीं थी. मनमोहन सिंह ने छह और वर्किंग ग्रुप बनाए थे. उनकी रिपोर्ट है सरकार के पास और उनमें बड़े-बड़े लोग थे. सी रंगराजन, एमएम अंसारी जैसे लोगों की भी रिपोर्ट है. लेकिन उन रिपोर्टों पर कोई कार्यान्वयन नहीं हुआ. मुझे पता नहीं है कि उन्हें किसी ने देखा भी है कि नहीं. एक नेता का मुझे फोन आया कि आपकी रिपोर्ट कहां मिलेगी. हमने कहा आप ही के मंत्रालय में मिल जाएगी. आप वहां पर देखिए. बहुत सारी रिपोर्टें इंटरनेट पर भी हैं. मेरी पूरी रिपोर्ट पीडीएफ फॉर्म में इंटरनेट पर पड़ी हुई है.

असली स्थिति तो यह है. हम सबने जो सिफारिशें की थीं, उन पर कुछ भी नहीं हुआ. पी चिदंबरम ने मुझसे कहा था कि इस रिपोर्ट पर कैबिनेट में बात की जाएगी, उसके बाद वह रिपोर्ट संसद में पेश की जाएगी. सभी पार्टियां उस पर बहस करेंगी. हमने उनसे कहा था कि भाई सिफारिशें हमारी हैं लेकिन आपको जो बातें उनमें से ठीक लगें, वह ले लीजिए. जो अच्छा न लगे, उसे हटा दीजिएगा. न उस रिपोर्ट पर कोई बात हुई, न वह संसद में पेश ही की गई. अब कश्मीर के अलगाववादी और आतंकवादी कह रहे हैं कि हमें पता है कि आपको क्यों नियुक्त किया गया था. सरकार का मकसद सिर्फ मसला टालना था, इसलिए आपको नियुक्त किया गया था. मेरी धारणा यह है कि अगर आपने कुछ किया ही नहीं तो उनका आरोप सच हो जाता है. मैं नहीं मानता कि यह सच है, लेकिन उनकी राय ऐसी बनी है, वह भी एक तथ्य है.

(लेखक जम्मू कश्मीर पर मनमोहन सरकार द्वारा 2010 में नियुक्त वार्ताकार समिति के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

‘बिहार में लालू-नीतीश से ही पिछड़ों-दलितों की राजनीति की शुरुआत नहीं होती. मैं पिछड़े जमात से बना पहला मुख्यमंत्री था’

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आप तो बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं. राज्य में अधिकांश लोग जानते तक नहीं कि मांझी, लालू, राबड़ी, जगन्नाथ मिश्र के अलावा आप भी यहां के मुख्यमंत्री रहे हैं. जो आपको जानते हैं वे कहते हैं कि आप तो दो से तीन दिन के मुख्यमंत्री थे.

चलिए कोई दो दिन का मुख्यमंत्री कहता तो है न, बाकी ज्यादातर तो एक दिन का ही कहकर निपटा देते हैं और मैं तो अपने बारे में यही जानता हूं कि मैं 27 जनवरी, 1968 से पांच फरवरी, 1968 तक बिहार का मुख्यमंत्री था और पिछड़े समुदाय से आने वाला पहला सीएम था. वैसे अब उम्र 83 साल की हो गई है और अब तो ये इच्छा भी नहीं रही कि लोग मुझे जानें.

आप राजनीति में कैसे आए और मुख्यमंत्री कैसे बने? क्या आप किसी राजनीतिक परिवार से हैं?

मेरा पारिवारिक परिवेश और वह भी राजनीतिक! बाप रे बाप, क्या कह रहे हैं आप. हुआ ऐसा था कि हम बड़े घराने से ताल्लुक रखते हैं. खगड़िया जिले में गांव है मेरा. गांव का नाम था कुरचक्का. एक बार बाढ़ में बह गया उसके बाद 1976 में उसको फिर से बसाया गया था. तो उसका नाम लोगों ने खुद से ही ‘सतीश नगर’ कर दिया है यानी मेरे ही नाम पर. तो हुआ ऐसा कि मैंने अंतरजातीय विवाह कर लिया था तो घर से लोगों ने मुझे निकाल दिया. भाइयों ने मुझसे किनारा कर लिया. हम लोगों के पास 400 बीघा की जोत थी. उसका बंटवारा हो गया. मैं उस समय बीएससी में पढ़ रहा था. हमारी एक चैरिटेबल डिस्पेंसरी भी चलती थी. अगले साल विधानसभा चुनाव था तो मैंने अपने हिस्से का खेत बेचा और परबत्ता क्षेत्र से स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ गए. राजनीति में आया तो घरवालों ने कहा कि कुलअंगार घर से निकल गया. नाश कर देगा सब. बहरहाल, चुनाव में कुल 17 हजार वोट मिले और मैं कांग्रेस की सुमित्रा देवी से चुनाव हार गया. फिर 1964 में उपचुनाव हुआ तो निर्दलीय खड़ा हुआ. इसमें दो हजार वोट से हार गया. घर में भाई से लेकर बाहर तक सब लोग कुलअंगार कहते रहे और मैं खेत बेच-बेचकर राजनीति करता रहा.

1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुझसे संपर्क किया. इस बार 20 हजार वोट से जीत मिल गई. बात जहां तक मेरे मुख्यमंत्री बनने की है तो महामाया बाबू बिहार के मुख्यमंत्री थे. रईस आदमी थे. हमारे स्वास्थ्य विभाग में मेरे एक परिचित डॉक्टर थे. उन्हें प्रोफेसर बनना था लेकिन बनाया नहीं गया. तब मैंने 17-18 विधायकों को जुटाया और महामाया बाबू के यहां पहुंच गया कि उन्हें उनका अधिकार नहीं मिला तो विरोध करेंगे. इसके बाद मेरे परिचित डॉक्टर को प्रोफेसर बना दिया गया. यह बात धुरंधर नेता केबी सहाय तक पहुंची तो उन्होंने मुझे मिलने को बुलाया. मैं गया तो उन्होंने कहा कि थोड़ा और मेहनत कीजिए सतीश बाबू. 16-17 विधायक जुटा ही ले रहे हैं तो यह संख्या 35-36 कर दीजिए, फिर राज्य के मुखिया आप! मैं बोला कि क्या फालतू बात कर रहे हैं. 318 विधायक में 35-36 से क्या होगा. वे बोले कि 156 मेरी ओर से आपका साथ देंगे, हमारे विधायक हैं. इसके बाद मैंने मेहनत करके 36 विधायक जुटा लिए. इसके बाद उनकी सरकार गिर गई और मैं मुख्यमंत्री बन गया. 27 जनवरी, 1968 से पांच फरवरी, 1968 तक.

इतने दिनों के मुख्यमंत्री काल में आप क्या कुछ कर भी सके?

तगाबी नाम का ऋण हुआ करता था, उसे हटवा दिया. और अगर मेरे मुख्यमंत्री रहते हुए मेरे असर की बात करते हैं तो इतना जान लीजिए कि मैं मुख्यमंत्री बना तभी बिहार में पिछड़ों-दलितों के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ. मेरे बाद भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर आदि पिछड़े समुदाय से मुख्यमंत्री बने. मेरे बाद के 12 मुख्यमंत्री तो अब दुनिया से विदा हो चुके हैं. और मेरे मुख्यमंत्री बनने या राजनीति में आने का असर जानना चाहते हैं तो सुनिए, जिस मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद देश की राजनीति बदली और मंडलवादी राजनीति की शुरुआत हुई, उस मंडल कमीशन के अध्यक्ष बीपी मंडल का समय तो खत्म हो चुका था और समय बढ़ नहीं रहा था. मैंने इंदिरा जी से व्यक्तिगत आग्रह करके मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरा करवाने के लिए छह माह का समय बढ़वाया था. आज नीतीश और लालू कूद रहे हैं और कह रहे हैं कि जो किया सब उन्हीं दो लोगों ने किया लेकिन इसमें बहुतों का योगदान रहा है.

राजनीति में आया तो घरवालों ने कहा कि कुलअंगार घर से निकल गया. नाश कर देगा सब. लेकिन मैं खेत बेचकर राजनीति करता रहा. 1967 में 20 हजार वोट से जीत मिल गई

नीतीश-लालू कूद रहे हैं और क़ह रहे हैं कि जो किया उन्होंने किया, आपकी इस बात का क्या आशय है?

मैं बस सच्चाई बता रहा हूं. सामाजिक न्याय की लड़ाई को 1990 से देखा जाता है और मीडिया भी दिखाती है लेकिन सबको यह जानना चाहिए कि लालू से पहले बिहार में मैं, दारोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, बीपी मंडल, रामसुंदर दास, कर्पूरी ठाकुर जैसे लोग मुख्यमंत्री बन चुके थे. सब पिछड़े और दलित वर्ग से ही थे. लोगों को यह जानना चाहिए कि लालू प्रसाद के आने या नीतीश के आने के बाद सामाजिक न्याय का यह अध्याय बिहार में शुरू नहीं हुआ है. राममनोहर लोहिया 1967 में ही ‘सौ में पिछड़ा पावे साठ’ का नारा देकर माहौल बदल रहे थे. इसलिए बार-बार लालू-नीतीश का नाम ले रहा हूं, नहीं तो ऐसा कोई शौक नहीं मुझे. इन लोगों ने भ्रम फैलाया है. अरे इन लोगों ने तो लोहिया जी का मूल सिद्धांत ही खत्म कर दिया. लोहिया जी ने नियम बनाया था कि कोई भी विधान पार्षद, पार्टी का वरिष्ठ पदाधिकारी, राज्यसभा सांसद मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं बनेगा लेकिन देखिए इन लोगों को विधानसभा चुनाव तो लड़ते ही नहीं और मंत्री बन जाते हैं. एक बार बिहार सरकार में रामानंद तिवारी, भोला सिंह और बीपी मंडल मंत्री बने तो तीनों में से कोई विधायक नहीं था. हम लोगों ने तब लोहिया जी से शिकायत की कि आपका बनाया गया नियम तोड़ा जा रहा है. मैंने उसी समय उनसे कह दिया था कि पार्टी का नियम टूट रहा है मैं विरोध करूंगा और मैंने किया भी.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव से आप नाराज नजर आ रहे हैं. इसकी क्या वजह है?

वजह क्या है? अरे, दोनों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थोड़े ही है. व्यक्तिगत दुश्मनी होगी भी क्यों? न कभी बात-मुलाकात है, न मेरी उनसे कभी कोई अपेक्षा रही है. नाराजगी तो है कि राजनीति में अजीब सड़ांध मचाए हुए हैं और जो सड़ांध है, उससे आगे क्या होगा राजनीति में. आजकल दोनों का पसंदीदा काम भाजपा को गाली देना है और दोनों ही भाजपा के सौजन्य से बिहार की सत्ता संभाल चुके हैं.

लालू प्रसाद यादव भी भाजपा का सहयोग लेकर सत्तासीन हुए और नीतीश कुमार तो लंबे समय तक राज किए. अब भाजपा सांप्रदायिक लग रही है. फिर क्या हुआ कि नीतीश कुमार दस साल तक लालू को गाली देते रहे और जब सत्ता पाने में संकट मंडराने लगा तो उन्हीं के साथ मिल गए. अब देखिए, नई कहानी. नीतीश कुमार दस साल तक गांव-गांव शराब की दुकान खुलवाते रहे और अब रोज ढिंढोरा पीट रहे हैं कि शराबबंदी करवाकर उन्होंने ऐतिहासिक काम किया है. ये कह रहे हैं कि पूरा देश उनके मॉडल को क्यों नहीं मान रहा है. शराबबंदी अच्छी बात है लेकिन नीतीश इतना अकुला क्यों रहे हैं. पहले दस साल में बिहारियों को शराब की जो लत लगवाए हैं, उसे पहले बिहार में तो बंद ठीक से करवा दें, फिर देश भर में अपने मॉडल को स्थापित करवाने के लिए परेशान हों.

लालू और नीतीश तो कहते हैं कि सांप्रदायिकता से बिहार को बचाने के लिए और सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए एक हुए. अब तो नीतीश को फिर से पीएम प्रत्याशी की तरह पेश किया जा रहा है!

सांप्रदायिकता को वो लोग क्या दूर करेंगे जो खुद भाजपा की मेहरबानी से बिहार में सत्तासीन हुए हैं और राज भोग रहे हैं. रही बात सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने की तो उसमें दोनों लोग पिछड़ी जाति का ढिंढोरा पीटते हैं. पिछड़ी जाति से तो बिहार का पहला मुख्यमंत्री मैं था. कर्पूरी ठाकुर से भी पहले मैं मुख्यमंत्री बना था. पिछड़ी जाति की राजनीति में कैसे उभार किया जाता है, उसमें लोहिया जी सबसे तेज नेता थे लेकिन नीतीश हों चाहे लालू, लोहिया जी के विचार को तो ताक पर रख दिया गया. और आप कह क्या रहे हैं, पिछड़ा-पिछड़ा का राग गाएंगे और नरेंद्र मोदी बन जाएंगे तो नींद हराम हो जाएगी. नीतीश कुमार को फिर से पीएम प्रत्याशी की तरह पेश किया जा रहा है. अखबार में मैं भी ये सब पढ़ रहा हूं. अब चाहूं तो मैं भी खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करवा सकता हूं. कोई रोक-टोक नहीं है, लेकिन नीतीश कैसे बनेंगे प्रत्याशी पहले ये स्पष्ट कर दें. कांग्रेस तो इनको अपनी पार्टी से प्रत्याशी बनाएगी नहीं. भाजपा भी ऐसा ही करेगी. तो ले-देकर मोर्चा बनाना ही एक विकल्प है. मोर्चा तीन साल से बना रहे हैं. संयोजक बनाए मुलायम सिंह यादव को, लेकिन
वे पहले ही अलग हो चुके हैं. बताइए, संयोजक भाग जाए तो मोर्चा कैसा बनेगा समझ सकते हैं. बिहार में तो मोर्चा इसलिए बन गया क्योंकि लालू चुनाव लड़ने के योग्य रह नहीं गए थे, नहीं तो नीतीश कभी उनसे गठबंधन नहीं करते.

लालू-नीतीश से इतना ही नाराज हैं तो बताइए कि दूसरा कौन-सा नेता आपको दिखता है जो उम्मीद जगाता है? क्या बिहार में भाजपा का राज आ जाता तो आपको शिकायत नहीं रहती?

मेरे कहने का ये मतलब नहीं है और न ही मैं किसी से नाराज हूं. मुझे लगता है बिहार को नई राजनीति चाहिए. वैसे लोग जब खुलकर राजनीति करेंगे, जो राजनीति में तो रुचि रखते हैं लेकिन आर्थिक कारणों से या दूसरी वजहों से राजनीति में नहीं आ रहे, तब सब कुछ बदलेगा. नहीं तो अब यही होगा कि जिसके पास पैसा होगा वह अपना तिकड़म भिड़ा लेगा. प्रशांत किशोर को लेकर आएगा और फिर पैसा झोंक देगा. राजनीति में विचार या सिद्धांत भी एक चीज होती है, वह खत्म हो जाएगा और सारा जोर किसी तरह बस चुनाव जीतने भर का रहेगा, जो बिहार के लिए खतरनाक होगा.

आप तो बाद में कांग्रेसी भी हो गए थे.
हां, कांग्रेस से तो मैं एक बार खगड़िया का सांसद भी रहा. भारी वोट से जीता था. हुआ यह कि 1980 में लोकसभा चुनाव होने वाला था. मेरे कई दोस्तों ने बोला कि तुमको इंदिरा जी जानती ही हैं, टिकट के लिए अप्लाई कर दो तो मैंने कर दिया. जगन्नाथ मिश्र नहीं चाहते थे कि मुझे टिकट मिले. कांग्रेसी नेता दिल्ली जाकर मिल रहे थे. वे हमारा नाम कटवाना चाह रहे थे लेकिन इंदिरा जी ने पूछ लिया कि इस समय वहां से कौन प्रत्याशी है तो कोई कुछ बताने की स्थिति में नहीं था. इंदिरा जी ने मुझसे पूछा ‘चुनाव लड़ोगे?’ मैंने हां कहा तो उन्होंने पूछा, ‘जीत जाओगे?’ मैंने कह दिया, ‘जी.’ इसके बाद चुनाव लड़ा और जीत गया.

राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय रहना था, इसलिए सोचा कि फिल्म बनाई जाए. इसके बाद मैंने ‘जोगी और जवानी’ नाम से एक फिल्म बनानी शुरू की जो कभी भी रिलीज नहीं हो सकी

आपने बीच में फिल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया था. एक फिल्म भी बनाई थी. इसकी वजह?

हां, बनाया था न. लेकिन वह फिल्म कहां थी, खबर में बने रहने के लिए ऐसा किया था. जगजीवन राम के एक चेले हरिनाथ मिश्रा ने मेरे खिलाफ केस दर्ज करवा दिया था. धनबाद में पाटलीपुत्र मेडिकल कॉलेज खुला था. मैं उसके संस्थापकों में था. उसी कॉलेज के ट्रस्ट के सचिव की मदद से मेरे खिलाफ केस दर्ज करा दिया गया. आर्यावर्त अखबार और इंडियन नेशन में इसकी खबर भी प्रकाशित कर दी गई. मुझ पर गड़बड़ी का आरोप लगाया गया था. इसके बाद मुझे लगा कि अब तो मेरे खिलाफ अखबार में छप गया है, अब तो लोग मुझे भूल जाएंगे. राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय रहना था, इसलिए सोचा कि फिल्म बनाई जाए. इसके बाद मैंने ‘जोगी और जवानी’ नाम से एक फिल्म बनानी शुरू की जो कभी भी रिलीज नहीं हो सकी.

बाकी सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को तो आलीशान बंगला मिला हुआ है. आपको तो एक कोने में डाल दिया गया है और स्टाफ भी नहीं हैं. क्यों?

अरे, मुझे तो जो मिला, वह भी ले लिया गया. मेरा पटना में अपना कोई घर है क्या? नहीं. मैं तो ज्यादातर गांव या फिर दिल्ली में अपने बच्चों के पास रहता हूं. पटना में अपना कोई घर नहीं बनाया. सरकार की ओर से सबको जमीन भी मिली है, मेरे पास तो कोई जमीन भी नहीं है. और यह जो आवास है, वह तो मुझे सब पूर्व मुख्यमंत्री लोग के लालच के चलते मिल गया है.

जगन्नाथ मिश्र ने सबसे पहले यह व्यवस्था की कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास मिलेगा. लालू आए तो उन्होंने व्यवस्था कर दी कि उसी को मिलेगा जो कम से कम पांच साल रहा हो. अब उसमें खाली लालू ही फिट बैठते थे लेकिन उनकी चाल सफल नहीं हुई. राज्यपाल ने इस फैसले को नहीं माना. बाद में नीतीश को लगा तो उन्होंने किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री के लिए मुख्यमंत्री आवास के साथ आठ स्टाफ और 12 हाउस गार्ड वाला प्रावधान जोड़ दिया. जीतन राम मांझी को मिला तो मुझे भी मिल गया. मुझे जो आवास मिला वह तो सबकी आपसी लड़ाई की वजह से मिला. इससे पहले मुझे कभी कोई आवास या स्टाफ वगैरह नहीं मिला था सो जो मिला तुरंत आकर रहने लग गया.

अब करते क्या हैं? समय कैसे काटते हैं?

अब तो गांव जाता हूं, खेती करता हूं. कुछ समय किताबें पढ़ने में बिताता हूं. हालांकि ज्यादातर समय खेती करने में ही लगाता हूं. कुछ दिन पटना में रहता हूं. फिर दिल्ली बच्चों के पास चला जाता हूं.

आपके बच्चों में से कोई भी राजनीति में नहीं आया.

यह सवाल ही नहीं पैदा होता. यह मुझे पसंद भी नहीं कि अनुकंपा पर बच्चे राजनीति करें और मैं नेता था तो मेरा बेटा मेरा उत्तराधिकारी बने. कोई कह नहीं सकता कि कभी मैंने अपने लिए या अपने बेटे के लिए कुछ भी मांग की हो. मैंने कभी किसी से नहीं कहा कि मुझे फलां पद दे दीजिए या कहीं एडजस्ट करवा दीजिए.

कैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा किसी भी कीमत पर जीत को बेकरार है…

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भाजपा ने 2014 में लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की. इस चुनाव में उसने उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से 71 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था. अब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में एक साल से कम समय बचा है. अगली सर्दी के मौसम में राज्य में चुनावी माहौल पूरी तरह से गर्म होगा. यह चुनाव भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर आएगा. प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है. मुख्य विपक्षी बसपा भी जोर-शोर से मैदान में है. इसके बावजूद इस समय भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद उसका अपना प्रदर्शन है, जो उसने लोकसभा चुनाव में दिखाया है. इसलिए हाल में जब उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. इस बैठक में एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य में चुनाव अभियान का श्रीगणेश ही कर दिया.

इस बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा, ‘बदलाव होते रहते हैं, लेकिन हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए. हमें हमेशा नए आइडिया पर विचार करते रहना चाहिए. जो कार्यकर्ता हमारे साथ जुड़ा है, उसको एकजुट करके आगे बढ़ना है. हमारे देश में 80 करोड़ युवा हैं. उनके मन को पढ़ते हुए जरूरी बदलाव करना होगा.’ उन्होंने कहा, ‘प्रयाग का नाम ही सबसे बड़ा है. यहां बहुत बड़ा यज्ञ होने की वजह से ही नाम प्रयाग पड़ा था. अब यहां फिर से विकास का यज्ञ होगा. विकास का यज्ञ अहंकार, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, अनैतिकता, बेईमानी की आहुति लेकर सफल होता है.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दौरान कार्यकर्ताओं व पार्टी नेताओं को सेवाभाव, संतुलन, संयम, समन्वय, सकारात्मकता, सद्भावना और संवाद कायम रखने संबंधी सात मंत्र भी दिए. वहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना होगा. यहां कानून का नहीं माफिया का राज चल रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम साबित हुई है. मथुरा और कैराना का मामला सबके सामने है. इसमें सीधा दोष राज्य सरकार का है.’ इस बैठक में यह भी साफ हो गया कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बीच का श्रम विभाजन स्पष्ट है. मोदी विकास के मंत्र का जाप करेंगे और शाह मथुरा, कैराना जैसे भावनात्मक मुद्दों को उछाल कर जनता का समथन हासिल करने की कोशिश करेंगे.

इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह प्रयाग में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक पर कहते हैं, ‘भाजपा की इस कार्यकारिणी में शामिल होने संगम आए नेता पुण्य कमाते नजर आए. ज्यादातर नेताओं ने संगम में स्थान, बनारस में बाबा विश्वनाथ के दर्शन और विंध्याचल में मां विंध्यवासिनी की पूजा की. इन नेताओं ने पुण्य चाहे जितना कमाया हो पर सियासी रूप से कार्यकारिणी का कोई बड़ा फैसला नहीं दिखा. प्रधानमंत्री मोदी विकास की माला जपते रहे तो अध्यक्ष अमित शाह कैराना और मथुरा के इर्द-गिर्द ही सिमटे रहे. उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए किसी ठोस घोषणा या भावी मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम तक इस कार्यकारिणी में तय नहीं हो पाया.’

‘हमारा अभी का नारा ‘हर बूथ पर बीस यूथ’ का है. इसी नारे पर काम चल रहा है. इसके तहत एक बूथ अध्यक्ष और 20 युवाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है. इसके अलावा अनुभवी और पुराने कार्यकताओं को भी जोड़ा गया है. इसके बाद हम हर गांव में कम से कम 20 समर्पित युवाओं को पार्टी के प्रचार की कमान सौंपेंगे. अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर इन बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे हैं’

गौरतलब है कि भाजपा के कट्टर समर्थक भी यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से काफी भिन्न होंगे. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी जब चुनाव प्रचार के लिए उतरे थे, तब वे मतदाताओं से कोई भी वादा करने के लिए स्वतंत्र थे. उन्होंने इस दौरान ढेर सारे वादे भी किए. विदेशों से काला धन वापस लाकर हर देशवासी की जेब में 15 लाख रुपये डालना, भ्रष्टाचार मिटाना और तेजी के साथ देश की अर्थव्यवस्था का विकास, युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करना और कीमतें घटाने का वादा उनमें से प्रमुख हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव आते-आते मोदी सरकार के कार्यकाल के भी लगभग तीन साल पूरे होने वाले होंगे. इस दौरान सरकार का प्रदर्शन भी जनता के सामने होगा और जनता इस आधार पर अपना निर्णय सुनाएगी.

भाजपा को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम से बड़ा सबक भी मिल चुका है. दिल्ली में उसने लोकसभा की सातों सीटें जीती थीं लेकिन एक साल के भीतर ही उसकी यह हालत हो गई कि विधानसभा चुनाव में उसे 70 सीटों में से केवल तीन पर सफलता मिल सकी. बिहार में बड़े जोर-शोर से प्रचार और पूरे संसाधन झोंक देने के बाद भी उसे हार का सामना करना पड़ा. इसलिए उत्तर प्रदेश में वह बहुत सावधानी के साथ कदम बढ़ा रही है.

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प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता का कारण मोदी-केंद्रित प्रचार था. इससे सबसे अधिक प्रभावित और उत्साहित नौजवान हुए थे क्योंकि उन्हें लगा था कि भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा, उनका रोजगार पाने का सपना पूरा होगा, कीमतों में कमी आ जाएगी, महंगाई खत्म होगी. अब तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वही नौजवान मतदाता देखेगा कि कितने रोजगार पैदा हुए. कीमतों में कितनी गिरावट आई, भ्रष्टाचार में कितनी कमी आई.’
जानकार कहते हैं कि इसी डर के चलते भाजपा विकास के साथ उन मुद्दों को भी नहीं छोड़ना चाहती है जिससे मतदाताओं को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जा सके. इसके संकेत भी इलाहाबाद में हुई कार्यकारिणी की बैठक में मिल चुके हैं. हालांकि इसमें प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की मौन सहमति भी उसे मिल रही है. समाजवादी पार्टी को यह लगता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति में उसे भी फायदा होगा क्योंकि सुरक्षा की तलाश में मुसलमान उसकी शरण में आएंगे. पर अभी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वे मायावती की बहुजन समाज पार्टी के पास नहीं जाएंगे.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर आफताब आलम कहते हैं, ‘अल्पसंख्यकों में वोट को लेकर अभी भ्रम की स्थिति है. अभी वे सपा से नाराज हैं, कांग्रेस के पास जाने का विकल्प सुरक्षित नहीं है. क्योंकि अल्पसंख्यक मतदाताओं की दिक्कत यह है कि वे उसी पार्टी को एकमुश्त वोट देते हैं जो सरकार बनाने की स्थिति में होती है. कांग्रेस इस स्थिति में अभी दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में बसपा बेहतर विकल्प है. लेकिन जिस तरह की परिस्थितियां अभी चल रही हैं उस हिसाब से लगता है कि प्रदेश में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने जा रहा है. लंबा वक्त है, अगर प्रदेश में चुनाव से पहले गठजोड़ बनता है जैसे बसपा और कांग्रेस के बीच में तो स्पष्ट है मुसलमान मतदाता इस ओर आकर्षित होंगे.’

‘उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की संभावना तो है. लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. हम अगर लोकसभा से विधानसभा चुनाव में करीब दस प्रतिशत वोट की गिरावट मानें तब भी भाजपा फायदे में है. अब हमें यह देखना होगा कि राज्य में मुकाबला कैसे होता है. विपक्ष एकजुट होता है या नहीं. अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय रहा तो निश्चित रूप से भाजपा को फायदा होगा’

हालांकि ऐसी परिस्थितियां अभी भाजपा के लिए फायदेमंद दिख रही हैं. कांग्रेस अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह प्रदेश की राजनीति में कोई जादू दिखा सके. उसकी समस्या दोनों स्तरों पर है. कार्यकर्ताओं की कमी के साथ-साथ प्रदेश में पार्टी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो उम्मीद जगा सके. चुनावी मैनेजमेंट के गुरु प्रशांत किशोर की सेवाएं भी स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को लुभाने में असफल रही हैं. प्रदेश की जनता ने पिछली दो विधानसभा चुनावों में दोनों बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों का भी कार्यकाल देख लिया है. दोनों के शासनकाल में कुछ बेहतर होने के साथ बहुत कुछ बुरा भी रहा है. लेकिन, लगता है भाजपा उत्तर प्रदेश की लड़ाई के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही. पार्टी उत्तर प्रदेश में जीत के लिए निर्णायक मुद्दा और निर्णायक चेहरा ही नहीं तलाश पा रही है लेकिन पार्टी के नेता इस बात से इनकार कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि अभी हमारे पास वक्त है और पार्टी अपनी कमियों को दूर करने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है.

भाजपा ने अगले साल यूपी विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए कई प्लान बनाए हैं. इस पर काम भी जारी है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि चुनाव में जीत के लिए पूरे राज्य को छह हिस्सों में बांटा गया है- अवध, कानपुर-बुंदेलखंड, गोरखपुर, बृज, काशी और पश्चिम. इसके लिए हर क्षेत्र में एक अध्यक्ष होगा. इसके लिए आरएसएस बैकग्राउंड रखने वाले भाजपा नेताओं को चुना गया है. इसके साथ ही संघ का महासचिव इनका नेतृत्व करेगा. इनका चुनाव हो गया है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक रत्नाकर पांडे (काशी), शिवकुमार पाठक (गोरखपुर), बृज बहादुर (अवध), ओम प्रकाश (कानपुर-बुंदेलखंड), भवानी सिंह (बृज) और चंद्रशेखर (पश्चिम) कमान संभालेंगे. इनमें से ज्यादातर नेताओं ने एबीवीपी के लिए काम किया है.

इसके अलावा पार्टी का लक्ष्य राज्य के हर चुनावी बूथ पर अपनी पकड़ मजबूत करना है. इस काम में अमित शाह खुद दिलचस्पी ले रहे हैं. इसमें उनका साथ पार्टी के राज्य प्रभारी ओम प्रकाश माथुर और प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य दे रहे हैं. पार्टी से जुड़े लोगों का कहना है कि पूरे राज्य में हर बूथ के अध्यक्ष और 20 समर्पित कार्यकर्ताओं की सूची तैयार हो गई है. अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उन्हें आगे की रणनीति समझा रहे हैं. इसके लिए कानपुर, बाराबंकी, बस्ती समेत कई जगहों पर बूथ स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं.

‘जब तक बाबरी मस्जिद बनी हुई थी तब तक वह इसके नाम पर लोगों को एकजुट कर लेती थी. जब से यह मस्जिद गिरी है तब से इसके नाम पर वोट लेने की क्षमता भी घटती गई है. आज की स्थिति यह है कि अयोध्या के नाम पर वोट मिलना संभव नहीं है. भाजपा इस मुद्दे का जितना दोहन कर सकती है वह कर चुकी है. अब लोग मंदिर के नाम पर जान नहीं देने वाले हैं. ऐसे में भाजपा के पास मुद्दे की कमी है’

कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर कहते हैं, ‘पार्टी का मुख्य जोर संगठन को मजबूत करने का है. हम हर बूथ पर करीब 20 ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज तैयार कर रहे हैं जो लोगों को पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित कर सकें. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रदेश अध्यक्ष इस काम में जोर-शोर से लगे हैं. हर दिन रैलियां हो रही हैं. जनता पूरे उत्साह में है. हमारा मुख्य मुकाबला सपा से है और इस बार हम उसकी सरकार को उखाड़ फेंकेंगे.’

वहीं उत्तर प्रदेश भारतीय जनता युवा मोर्चा के सोशल मीडिया संयोजक और बस्ती के रहने वाले भावेश पांडेय कहते हैं, ‘पार्टी के कार्यकर्ताओं में भरपूर ऊर्जा है. हमारा अभी का नारा ‘हर बूथ पर बीस यूथ’ का है. इसी नारे पर काम चल रहा है. इसके तहत एक बूथ अध्यक्ष और 20 युवाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है. इसके अलावा अनुभवी और पुराने कार्यकर्ताओं को भी जोड़ा गया है. इसके बाद हम हर गांव में कम से कम 20 समर्पित युवाओं को पार्टी के प्रचार की कमान सौंपेंगे. अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर इन बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे हैं. हम प्रदेश की अपनी सफलता को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हैं.’
पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया के सहारे जीत हासिल की थी. इस बार भी वह इसी फिराक में है. कार्यकर्ताओं और नेताओं को इस बारे में संकेत दिए जा चुके हैं. भावेश कहते हैं, ‘हमारी सोशल मीडिया पर तगड़ी पकड़ है. राज्य के कोने-कोने में हमारा कार्यकर्ताओं से संवाद हो रहा है. सबसे अच्छी बात है कि ये पेड वर्कर नहीं हैं जैसे कांग्रेस में लोगों को भर्ती किया जा रहा है. ये लोग अपना पैसा खर्च करके हमसे जुड़ रहे हैं. यह हमारी ताकत है. इसी के सहारे हम 2017 में मिशन 265 प्लस को साकार करेंगे.’

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प्रदेश भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि चुनावी तैयारियों में पार्टी का ध्यान पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर ज्यादा है. पार्टी ने लोकसभा चुनावों में यहां बेहतर प्रदर्शन किया था. अब उसे दोहराने की कोशिश भी जारी है. इस तरफ के नेता इस तरह की तैयारियों में लगे हुए हैं. इसकी कमान कैराना से सांसद हुकुम सिंह, केंद्रीय मंत्री डॉ. महेश शर्मा, आगरा के सांसद रामशंकर कठेरिया, मुजफ्फरनगर सांसद संजीव बालियान और सरधना से विधायक संगीत सोम ने संभाल ली है. इन सभी नेताओं की पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर अच्छी पकड़ है. ये नेता अलग-अलग मुद्दों के आधार पर पार्टी की जीत के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में आखिरी बार भाजपा की सरकार 2002 में थी. 08 मार्च, 2002 को पार्टी नेता राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से प्रदेश में कभी कमल नहीं खिल पाया है. अभी अपने हाल के भाषणों में राजनाथ सिंह बार-बार जनता से 14 साल के वनवास को खत्म करने की मांग करते हुए नजर आए हैं. पार्टी के कार्यकर्ताओं में भी इस बार उत्साह दिख रहा है. विश्लेषक इसके पीछे कुछ कारण बताते हैं. दरअसल केंद्र में पहली बार भाजपा की बहुमत वाली सरकार आई है. इसमें उत्तर प्रदेश की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर पार्टी के कार्यकर्ता जनता के बीच जा रहे हैं. इलाहाबाद कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने भी पार्टी नेताओं से कहा है कि वे सरकार की गरीबों और आम लोगों से जुड़ी योजनाओं को सोशल मीडिया और आधुनिक तकनीक के जरिए फैलाएं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष एचके शर्मा कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में जो समीकरण बन रहे हैं उससे भाजपा को फायदा मिल रहा है. राज्य में क्षेत्रीय पार्टियों सपा और बसपा का जो हालिया शासन रहा है वह बहुत ही स्वेच्छाचारी रहा है. इस दौरान प्रदेश का विकास पूरी तरह से ठप रहा है.

मतदाताओं के दिमाग में यह बात है कि हमने केंद्र में भाजपा को एक बार मौका दिया है तो राज्य में भी यह दिया जाना चाहिए. भाजपा को वोट देने का फायदा यह है कि अगर प्रदेश का नेतृत्व सही ढंग से काम नहीं कर रहा है तो केंद्र का मजबूत नेतृत्व उसे दुरुस्त कर देगा. उस पर अंकुश लगाएगा. भाजपा के पास बहुत अच्छा केंद्रीय नेतृत्व है जिससे लोगों को बहुत उम्मीद है. अभी तक भ्रष्टाचार का कोई मामला केंद्रीय सरकार के खिलाफ नहीं आया है. इसका फायदा निश्चित रूप से राज्य के चुनाव में मिलेगा.’

भाजपा जब उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता में आई थी तो उसका नारा था कि वह औरों से अलग है लेकिन बाद में पार्टी ने राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन से लेकर दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ तक का सहारा लिया. इससे उसकी छवि को बट्टा लगा. बाद में जमीनी नेता कल्याण सिंह के पार्टी से अलगाव ने भाजपा का बंटाधार कर दिया. वे पिछड़े वर्ग के नेता थे और उनका राज्य में बेहतर जनाधार था

उत्तर प्रदेश में चार प्रमुख दलों भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच मुकाबला होने की उम्मीद है. विश्लेषक कहते हैं कि अगर चुनाव पूर्व भाजपा विरोधी दलों के बीच किसी तरह का गठबंधन नहीं होगा तो इसका फायदा मिलेगा. अभी प्रदेश में जो हालात हैं उसे देखकर यही लग रहा है कि सभी दल अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेंगे. कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि सपा जितनी मजबूती से चुनाव लड़ेगी उतना ही फायदा भाजपा को होगा, क्योंकि इससे बसपा और कांग्रेस का सीधा नुकसान होगा.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की संभावना तो है. लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. हम अगर लोकसभा से विधानसभा चुनाव में करीब दस प्रतिशत वोट की गिरावट मानें तब भी भाजपा फायदे में है. अब हमें यह देखना होगा कि राज्य में मुकाबला कैसे होता है. विपक्ष एकजुट होता है या नहीं. अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय रहा तो निश्चित रूप से भाजपा को फायदा होगा.’

वहीं जानकार अमित शाह के चुनावी प्रबंधन को भाजपा की मजबूती बताते हैं. उनका मानना है कि अमित शाह किसी भी चुनाव में अपना सब कुछ झोंक देते हैं. वे इस विधानसभा चुनाव की तैयारी लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद से कर रहे हैं. इसी योजना के तहत प्रदेश से बहुत सारे नेताओं को मंत्री बनाया गया. वे लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे थे. तब समर्पित कार्यकर्ताओं की बनाई गई सूची को उन्होंने अब और विस्तार दे दिया है.

भाजपा कार्यकर्ता और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के नेता राघवेंद्र सिंह कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में एक बार जब अमित शाह उत्तर प्रदेश आ गए तब से वे वापस नहीं गए हैं. उनकी सबसे अच्छी खूबी यह है कि वे कार्यकर्ताओं से सीधे जुड़ रहे हैं. उनका मैनेजमेंट लाजवाब है. दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद विरोधी भले ही उन पर सवाल उठाएं लेकिन इससे पहले भाजपा के चुनाव प्रचार में कभी इतना उत्साह नजर नहीं आता था.’

राघवेंद्र की इस बात से नीरजा चौधरी भी सहमत हैं. वे कहती हैं, ‘भाजपा जमकर चुनाव मैदान में उतर रही है. यह उसके लिए फायदेमंद है. यह चुनाव उनके लिए जीने-मरने वाली बात है. यह विधानसभा चुनाव अगले लोकसभा चुनाव की दिशा को तय करेगा. अगर भाजपा इसमें बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो पार्टी के अंदर से भी लोग छूरियां निकाल लेंगे. मोदी-शाह की जोड़ी पर सवाल उठना शुरू हो जाएगा.’

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हालांकि सारे लोग इससे सहमत हों ऐसा नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि आज की स्थिति में उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है. ऐसा भी नहीं है कि भाजपा नंबर एक पर आने वाली है. हाल में उन्होंने जिस तरह की राजनीति की है उससे तो मामला और भी खराब हुआ है. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता के आधार पर आप सरकार नहीं बना सकते हैं. बस वोट में बढ़ोतरी हो सकती है. योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज और अमित शाह स्वयं इसी तरह की राजनीति करते नजर आ रहे हैं. जबकि मोदी ने जब 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा था तो उन्होंने स्वयं इस तरह की कोई राजनीति नहीं की थी. उन्होंने विकास और भ्रष्टाचार जैसे मसले उठाए थे.’

भाजपा जब उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता में आई थी तो उसका नारा था कि वह औरों से अलग है लेकिन बाद में पार्टी ने राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन से लेकर दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ तक का सहारा लिया. इससे उसकी छवि को बट्टा लगा. बाद में जमीनी नेता कल्याण सिंह के पार्टी से अलगाव ने भाजपा का बंटाधार कर दिया. वे पिछड़े वर्ग के नेता थे और उनका राज्य में बेहतर जनाधार था. उनके बाद कोई उतना बड़ा जनाधार वाला नेता भाजपा में सामने नहीं आया. इसके अलावा भाजपा में जो भी बड़े नेता थे वे सिर्फ कागजी शेर थे या फिर क्षेत्र विशेष या जातीय नेता के रूप में ही स्थापित होते रहे.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जात और जमात एक हकीकत है. ऐसे में हर पार्टी को इस हिसाब से अपनी रणनीति बनानी होती है. भाजपा इसमें बुरी तरह से असफल रही. वह अब भी ठाकुरों, ब्राहमणों और बनियों की पार्टी बनी हुई है. बीच-बीच में उसका यह जनाधार भी खिसकता रहा. इसका सीधा असर पार्टी के प्रदर्शन पर दिखता है. 1991 में पार्टी ने 221 सीटों पर जीत दर्ज की थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने थे. करीब डेढ़ साल बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद 1993 में हुए चुनाव में पार्टी सपा और बसपा के गठजोड़ को भेद पाने में असफल रही और 177 सीटों पर जीत हासिल की. हालांकि प्रदेश में सरकार सपा और बसपा की बनी. 1996 के चुनाव में भाजपा को 174 सीटें मिलीं. इस दौरान उसने बसपा के साथ गठबंधन और बाद में बसपा में तोड़फोड़ करके राज्य में सरकार बनाई. हालांकि इस दौरान कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्त और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने. इसके बाद 2002 के चुनाव में पार्टी की बुरी गत हुई. उसे मात्र 88 सीटों पर जीत हासिल हुई. इस चुनाव के बाद से पार्टी कभी लय नहीं पकड़ पाई. 2007 के चुनाव में पार्टी ने 51 तो 2012 के चुनाव में मात्र 47 सीटों पर जीत दर्ज की.

उत्तर प्रदेश में बन रही सांप्रदायिक छवि से बड़ी समस्या राज्य में भाजपा के खुद के चेहरे की है. पार्टी में इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है. भाजपा का एक धड़ा उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित किए बिना ही नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की बात कर रहा है. इस धड़े का मानना है कि इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह रहेगा और एकजुटता भी मजबूत होगी

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘जब तक बाबरी मस्जिद बनी हुई थी तब तक वह इसके नाम पर लोगों को एकजुट कर लेती थी. जब से यह मस्जिद गिरी है तब से इसके नाम पर वोट लेने की क्षमता भी घटती गई है. आज की स्थिति यह है कि अयोध्या के नाम पर वोट मिलना संभव नहीं है. भाजपा इस मुद्दे का जितना दोहन कर सकती है वह कर चुकी है. अब लोग मंदिर के नाम पर जान नहीं देने वाले हैं. ऐसे में भाजपा के पास मुद्दे की कमी है. अब कभी वह लव जिहाद, कभी मुजफ्फरनगर, कभी गोहत्या या फिर सांप्रदायिकता बढ़ाने वाले दूसरे मुद्दे उठा रही है लेकिन इससे जनाधार में इजाफा होता नजर नहीं आ रहा है.’
भाजपा द्वारा सांप्रदायिकता के मुद्दे को भुनाने की कोशिश पर ज्यादातर विश्लेषक सहमत दिखते हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भाजपा की संभावना पूरी तरह से ध्रुवीकरण पर आधारित है. अगर वह यह कराने में सफल रहती है तो उसकी सरकार बनेगी. उत्तर प्रदेश में अभी विकास मुद्दा नहीं है. भाजपा के पास न तो सपा, बसपा से इतर कोई मुद्दा है और न ही कोई चेहरा है. विकास की बातें सारी पार्टियां करती हैं. जातीय राजनीति में भी भाजपा सपा और बसपा से पीछे है.’ वहीं एचके शर्मा कहते हैं, ‘भाजपा अब भी ध्रुवीकरण की राजनीति से बाहर नहीं आई है. यह स्पष्ट तौर पर भाजपा को नुकसान पहुंचाएगा. दूसरी बात प्रदेश में भाजपा का संगठन अब भी बहुत मजबूत नहीं है. यहां कार्यकर्ताओं की कमी है. कार्यकर्ताओं के लिए भाजपा अब भी संघ पर निर्भर है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा के साथ पहले भी रहे हैं लेकिन इससे मत प्रतिशत में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है.’

जानकार इस मुद्दे पर भाजपा को नुकसान होने की संभावना जता रहे हैं. आफताब आलम कहते हैं, ‘भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि वह अभी सपा सरकार को घेरने के लिए कोई खास मुद्दा तलाश नहीं पाई है. अभी उनका पूरा ध्यान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर है. वह इसी को आगे बढ़ा रही है. योगी आदित्यनाथ, हुकुम सिंह, संगीत सोम, साक्षी महाराज जैसे लोग इस पर लगातार बोल रहे हैं. मजेदार यह है कि जब ये लोग कुछ उल्टा-सीधा बोल देते हैं तो पार्टी इसे इनका निजी बयान बताकर पीछे हट जाती है. यह एक तरह से टेस्टिंग करती है कि यह उसके लिए कितना फायदेमंद है. यह मसला उसकी छवि को नुकसान पहुंचा रहा है. दरअसल भाजपा के पास विकास का कोई ऐसा मॉडल नहीं है जिसके सहारे वह प्रदेश में अपनी राजनीति चमकाए.’

उत्तर प्रदेश भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा की प्रभारी रुमाना सिद्दीकी इससे इनकार करती हैं. वे कहती हैं, ‘उत्तर प्रदेश की जनता सपा सरकार की गुंडागर्दी से त्रस्त हो चुकी है. इस बार प्रदेश में भाजपा की सरकार आएगी. जहां तक हमारे ऊपर आरोप लगता है कि हम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं तो यह बिल्कुल बेबुनियाद और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है. भाजपा इस तरह की राजनीति में बिल्कुल विश्वास नहीं रखती है. हम मुस्लिम हैं और हमने आज तक ऐसा नहीं देखा कि पार्टी में सांप्रदायिक बातों को बढ़ावा दिया जाता हो. दूसरी पार्टी वाले कुछ भी बोलें और चिल्लाएं इससे हमें फर्क नहीं पड़ता है.’

हालांकि उत्तर प्रदेश में बन रही सांप्रदायिक छवि से बड़ी समस्या राज्य में भाजपा के खुद के चेहरे की है. पार्टी में इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है. भाजपा का एक धड़ा उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित किए बिना ही नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की बात कर रहा है. इस धड़े का मानना है कि इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह रहेगा और एकजुटता भी मजबूत होगी. लेकिन पार्टी में ज्यादातर कार्यकर्ताओं की इच्छा है कि उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के नाम पर उसके पास एक चेहरा जरूर हो. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ही इस मुद्दे को लेकर अलग-अलग मौके पर अलग-अलग राय जाहिर कर चुके हैं. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में और भी कनफ्यूजन पैदा हो रहा है. पार्टी के कुछ लोग कहते हैं कि अभी वे अपने नए प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य का चेहरा जनता के बीच ले जाना चाहते हैं. अगर अभी ही मुख्यमंत्री का चेहरा सामने आ गया तो मौर्य का प्रभाव फीका पड़ जाएगा.

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उत्तर प्रदेेश में भाजपा नेताओं के समर्थकों ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर फेसबुक पर अभियान चला रखा है.

मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भाजपा ने अभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. उसे इसका नुकसान होगा. राज्य की जनता ने अखिलेश और मायावती दोनों का राज देखा है. इन दोनों के शासनकाल में कुछ कमियां सामने आईं तो कुछ खूबियां भी रही हैं. मायावती को आज भी लोग कानून व्यवस्था के लिए याद करते हैं. अखिलेश यादव की व्यक्तिगत तौर पर छवि बहुत अच्छी है. पार्टी के बाहर के भी लोग उन्हें पसंद करते हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में भाजपा अब भी राम मंदिर के लिए याद की जाती है, जबकि इस मुद्दे को देखते-सुनते एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई है. पार्टी के जितने भी चेहरे हैं वे सब गुटबंदी के शिकार हैं. अगर राजनाथ सिंह उम्मीदवार बनते हैं तो खेल पलट सकता है. लेकिन जाति का मसला फंसेगा.’

भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरे का सवाल उठते ही अलग-अलग कोनों से अलग-अलग चेहरों की बात सामने आने लगती है. कभी बेहद बुजुर्ग हो चुके राज्यपाल कल्याण सिंह की बात आती है तो कभी तेजतर्रार स्मृति ईरानी की. उमा भारती वाला दांव तो पिछले विधानसभा चुनाव में ही फुस्स हो गया था. हालांकि उनके समर्थक मानते हैं कि उन्हें सही तरीके से जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई थी इसलिए ऐसा हुआ है. इस बार उनके नाम पर माहौल बन सकता है. इसके अलावा गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ और सुल्तानपुर के वरुण गांधी को लेकर उनकेे समर्थक बहुत उत्साहित हैं. दावेदारों में केंद्र सरकार में मंत्री मनोज सिन्हा, कलराज मिश्र और महेश शर्मा से लेकर राज्यसभा सांसद विनय कटियार तक का नाम चर्चा में है. लेकिन इनमें से कोई भी चुनावी कुंभ में बसपा और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व जितना वजनी नहीं है, ऐसी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व के ही एक वर्ग की राय है.

वैसे मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा में एक बड़ा नाम राजनाथ सिंह का भी है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में और प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वे अपना राजनीतिक कौशल दिखा भी चुके हैं. हालांकि राजनाथ सिंह स्वयं इस दावेदारी को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. इस प्रश्न के उत्तर में अब तक उन्होंने जो कुछ भी कहा है उससे ऐसे ही संकेत मिलते हैं. हाल ही में उन्होंने कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही काम करना चाहते हैं. जहां-जहां वे जाएंगे वहां-वहां हम भी जाएंगे.
ऐसे में यह माना जा रहा है कि केंद्रीय राजनीति का आनंद ले रहे राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति में वापसी के लिए जरा भी उत्सुक नहीं हैं और शायद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी इस स्थिति में नहीं हैं कि उन्हें इसके लिए निर्देशित कर सकें. इन स्थितियों और भीतरी अंतर्द्वंद्वों के कारण उत्तर प्रदेश में चेहरा चुनने और न चुनने के मुद्दे ने भाजपा के लिए ऊहापोह की स्थिति बना दी है. हालांकि भाजपा नेतृत्व का कहना है कि उत्तर प्रदेश में वह मुद्दों पर आधारित चुनाव लड़ेगी न कि चेहरे पर आधारित. मगर बिहार में चेहरा न चुनने के नुकसान और असम में चेहरा चुन लेने के फायदे देख चुकी भाजपा उत्तर प्रदेश के लिए तो फिलहाल चेहराविहीन ही दिख रही है.

‘भाजपा ने अभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. उसे इसका नुकसान होगा. राज्य की जनता ने अखिलेश और मायावती दोनों का राज देखा है. इन दोनों के शासनकाल में कुछ कमियां सामने आईं तो कुछ खूबियां भी रही हैं. मायावती को आज भी लोग कानून व्यवस्था के लिए याद करते हैं. अखिलेश यादव की व्यक्तिगत तौर पर छवि बहुत अच्छी है. पार्टी के बाहर के भी लोग उन्हें पसंद करते हैं’

शरत प्रधान कहते हैं, ‘जहां तक मुख्यमंत्री के चेहरे का सवाल है तो पार्टी इस स्थिति में है ही नहीं कि वह अपने दम पर सरकार बना सके. इसके बाद उसके पास राजनाथ सिंह के अलावा ऐसा कोई विश्वसनीय चेहरा भी नहीं है जो कुछ उम्मीद जगा सके. योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी, वरुण गांधी जैसे जो बाकी नाम अभी चल रहे हैं वे सर्वमान्य नहीं हैं. अब राजनाथ सिंह के सामने समस्या यह है कि वे खुद को दिल्ली की राजनीति से बाहर नहीं करना चाहते हैं. शायद दिल्ली में बैठे उनके विरोधी उन्हें वहां से बाहर करने के लिए ये चाल चल रहे हैं. अगर वे मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं तो वे उत्तर प्रदेश में ही रह जाएंगे और हार जाते हैं तो फिर भी वह दिल्ली से बाहर हो जाएंगे. उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘जहां तक फायदे-नुकसान की बात है तो यह चेहरे पर निर्भर करता है. अगर उन्हें बेहतर चेहरा नहीं मिलता है तो वे बिना किसी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के मैदान में जाएं. खराब उम्मीदवार को चेहरा बनाने से पार्टी का भला नहीं होने वाला है. ऐसा नहीं है कि भाजपा किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाती है तो रसातल में चली जाएगी या किसी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बना देगी तो वह बड़ी जीत हासिल कर लेगी.’

हालांकि भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश में मिशन 265 प्लस पूरा करने के लिए सुयोग्य चालक की तलाश भले ही नहीं कर पा रहा है लेकिन मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर अभी से नेता अपनी-अपनी दावेदारी पेश करते हुए नजर आ रहे हैं. हालांकि, यह दावेदारी नेता सीधे तौर पर पेश नहीं कर रहे, बल्कि उनके समर्थक इस काम में लगे हुए हैं. हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक सुल्तानपुर से भाजपा सांसद वरुण गांधी के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने की मांग कर रहे हैं.

उनके समर्थकों का दावा है कि भाजपा-आरएसएस के सर्वे में वरुण गांधी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हैं. वरुण पिछले एक साल से राज्य में दौरा कर रहे हैं और अलग-अलग जिलों के गांवों में बैठक कर रहे हैं. हालांकि उनके सहयोगी आधिकारिक तौर पर इससे इनकार कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के समर्थन के लिए दौरे कर रहे हैं. कुछ दिन पहले ऐसे ही कुछ पोस्टर इलाहाबाद में भी नजर आए थे. जिनमें लिखा था, ‘स्मृति ईरानी हुई बीमार. उत्तर प्रदेश की यही पुकार, वरुण गांधी अब की बार.’ इतना ही नहीं वरुण के कुछ सहयोगी फेसबुक अकाउंट बनाकर वरुण को भाजपा सीएम उम्मीदवार बनाए जाने के लिए समर्थन भी मांग रहे हैं.

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हालांकि सोशल मीडिया पर सिर्फ वरुण गांधी के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी, केशव प्रसाद मौर्य समेत सभी नेताओं के समर्थक ऐसी बातों को हवा दे रहे हैं.

इन सबसे इतर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण को सही तरीके से सेट करने में भाजपा बुरी तरह से असफल रही है. हालांकि भाजपा नेताओं को अब भी यह भरोसा है कि उसके साथ प्रदेश में अगड़ी जाति के लोग बने हुए हैं. यह वही वोट बैंक है जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को एकमुश्त वोट दिया था. इसके अलावा भाजपा को यह भी लगता है कि प्रदेश का बनिया वर्ग भी उसके ही साथ है. भाजपा को यह भरोसा है कि इन सभी वर्गों के लोगों के सामने सपा-बसपा के साथ जाने का विकल्प नहीं है इसलिए यह वोट बैंक तो उसके हाथ में है ही.

लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह भी एहसास है कि सिर्फ इसी वर्ग के बूते वह सूबे में अपनी सरकार नहीं बना सकती. इसलिए भाजपा अपने लिए नए समर्थक वर्गों की तलाश में भी है. इसका कारण यह है कि 2007 में मायावती ने दलित और ब्राह्मण का मेल बनाकर सफलता पाई तो 2012 में अखिलेश यादव की युवा छवि के साथ पिछड़ा और मुसलमान गठजोड़ ने सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई थी.

हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस दिशा में एक कदम भी उठा लिया है. शाह का जोगियापुर में बिंद परिवार के यहां जाकर भोजन करना उसी दिशा में एक अहम कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. बिंद सहित 17 जातियां ऐसी हैं जो उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा वर्ग में हैं. इन जातियों के बारे में कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि वे उसकी प्रतिबद्ध वोटर हैं. जहां मायावती दलितों के बीच मजबूत हैं तो वहीं मुलायम सिंह की मुस्लिम और यादव समुदाय में गहरी पैठ है. लेकिन 17 जातियों का यह वोट बैंक अभी किसी दल के साथ एकमुश्त नहीं जुड़ा है.

भाजपा को प्रदेश में यहीं अपने लिए एक अवसर दिख रहा है. उसे लगता है कि अगर कोशिश की जाए तो इन 17 जातियों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ा जा सकता है और अगर ऐसा हो सका तो 2017 के विधानसभा चुनावों में वह सपा-बसपा को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में रहेगी. संभावना जताई जा रही है कि इस वर्ग को अपने साथ लाने की कोशिश में आने वाले दिनों में भाजपा इन जातियों से जुड़े कुछ मुद्दे प्रमुखता से उठाएगी.

हाल ही में राजनाथ सिंह ने पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को दो-दो श्रेणियों पिछड़े व अति पिछड़े और दलित व अति दलित में बांटने के बात कही. मऊ में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘आरक्षण समाज के सभी वर्गों को मिलना चाहिए बशर्ते वह तार्किक हो. हम सरकार नहीं, समाज बनाने के लिए राजनीति करते हैं. हमारी सरकार गरीबों, दलितों, पिछड़ों को समर्पित है.’

‘भाजपा को सभी वर्गों और जातियों का समर्थन मिल रहा है. प्रदेश ने दलित नेता मायावती का बदतर शासनकाल देख रखा है. भाजपा से ज्यादा अनुसूचित जातियों के हितों के लिए किसी पार्टी ने काम नहीं किया है. इस बार हमारी लहर है, जनता हम पर भरोसा जताएगी. प्रदेश में हम अपनी हार से उबर चुके हैं. हमारी सबसे अच्छी बात यह है कि हमने उत्तर प्रदेश में कभी जातीय राजनीति नहीं की है’

दरअसल गृहमंत्री के इस बयान के पीछे असल मंशा मुलायम और मायावती को कमजोर करने की है. भाजपा को लगता है कि पिछड़े तबके के 27 फीसदी आरक्षण कोटे का असली फायदा यादव उठा रहे हैं जिनकी आबादी करीब 10 फीसदी है. इसी तरह दलित आरक्षण का फायदा मुख्य रूप से जाटव जाति के लोग उठा रहे हैं. वाल्मीकि, मेहतर, डोम, खटीक आदि जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण कोटे का लाभ नहीं मिल पाता है.

अमित शाह ने भी इसके संकेत दिए. सिर्फ जोगियापुर जाकर ही नहीं बल्कि इलाहाबाद से लौटकर बनारस में उन्होंने जो बैठकें कीं उनमें भी. इन बैठकों में शामिल भाजपा नेता बताते हैं, ‘उन्होंने साफ तौर पर तो यह नहीं कहा कि हमें किस-किस वर्ग को आधार बनाकर चुनावी रणनीति तैयार करनी है लेकिन इस बारे में स्थानीय नेता उन्हें सुझाव देते रहे और इन सब पर उन्होंने एक तरह से सहमति व्यक्त की. देखने वाले को यह लग सकता है कि वे यही सब सुनना चाहते थे. उन्होंने जो कहा उससे यह तो स्पष्ट है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह चाहता है कि पार्टी सिर्फ खास वर्गों में ही सिमटी नहीं रह सकती बल्कि उसे अपने आधार का विस्तार करना होगा. जाहिर है कि पार्टी का आधार तब ही बढ़ेगा जब पार्टी और नेता पार्टी के परंपरागत समर्थक वर्ग के दायरे से बाहर निकलेंगे.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘बिंद समाज लंबे समय से खुद को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग करता रहा है. संभव है भाजपा के बड़े नेताओं की ओर से आने वाले दिनों में यह कहा जाए कि अगर वे सत्ता में आए तो यह काम कर देंगे. ऐसी ही कुछ और कोशिशें आपको आने वाले दिनों में दिख सकती हैं.’

इन संकेतों को आपस में जोड़ें तो पता चलता है कि जिस मकसद से भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद ब्राह्मण समुदाय के लक्ष्मीकांत वाजपेयी से लेकर पिछड़े वर्ग के एक नेता केशव प्रसाद मौर्य को दिया था, उसे अब वह जमीन पर उतारने में लग गई है. जब मौर्य अध्यक्ष बनाए गए थे तब भी कई जानकारों ने संभावना जताई थी कि भाजपा उत्तर प्रदेश का चुनाव सिर्फ अगड़ों के बूते नहीं बल्कि पिछड़ों को साथ लाने की कोशिश करते हुए लड़ेगी. अब अमित शाह के समरसता भोज और इसके बाद पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को उनके द्वारा दिए जा रहे निर्देशों ने इस बात की पुष्टि कर दी है.

हालांकि इन कोशिशों से भाजपा को कितना फायदा होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन भाजपा नेताओं से बात करने पर तो ऐसा लगता है कि उन्हें अमित शाह की इन कोशिशों से काफी उम्मीदें हैं. इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रभारी गौतम चौधरी कहते हैं, ‘भाजपा को सभी वर्गों और जातियों का समर्थन मिल रहा है. प्रदेश ने दलित नेता मायावती का बदतर शासनकाल देख रखा है. भाजपा से ज्यादा अनुसूचित जातियों के हितों के लिए किसी पार्टी ने काम नहीं किया है. हमने एक पौधा जनसंघ के जमाने में लगाया था, अब यह बड़ा हो गया है. इस बार हमारी लहर है जनता हम पर भरोसा जताएगी. प्रदेश में हम अपनी हार से उबर चुके हैं. हमारी सबसे अच्छी बात यह है कि हमने उत्तर प्रदेश में कभी जातीय राजनीति नहीं की है. हमारा फोकस विकास और गुड गवर्नेंस पर हमेशा रहा है.’

प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा जीत के लिए सब कुछ झोंक रही है. इसके लिए वह सांप्रदायिकता से लेकर जातीय कार्ड खेल रही है. विकास का नारा दे रही है और गुड गवर्नेंस का वादा कर रही है लेकिन अब भी जनता उसमें विश्वास नहीं जता पा रही है. इसका कारण उसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं और सही मुद्दों की कमी है. अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि भाजपा अभी हवाई प्रचार में ही सिमटी दिख रही है. आम आदमी तक उसकी बात पहुंच नहीं पा रही है. यह उसके लिए नुकसानदेह है. भाजपा को अगर मिशन 265 को पूरा करना है तो इन बातों पर गंभीरता से विचार करना होगा. युवाओं को साथ जोड़ना होगा. हमें याद रखना होगा अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है.’

‘बे’ रंगमंच!

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फोटोः तहलका अार्काइव

सतीश मुख्तलिफ पिछले 15 सालों से रंगमंच से जुड़े हैं. काफी समय से दिल्ली में जुंबिश आर्ट्स नाम का समूह बनाकर नाटक कर रहे हैं. इनका नाटक ‘एकलव्य उवाच’ काफी चर्चित भी रहा है. लेकिन इसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी सतीश के किसी नाटक का मंचन दिल्ली में थियेटर का गढ़ कहे जाने वाले मंडी हाउस में नहीं हुआ. क्यों? सतीश बताते हैं, ‘ये तो सभी जानते हैं कि थियेटर में पैसा नहीं है. लोग इसे अपने जुनून की वजह से ही कर पाते हैं. ऐसे में यदि नाटक के मंचन के लिए किसी ऑडिटोरियम को 30-50 हजार रुपये किराये में देने पड़ें तो हम जैसे छोटे ग्रुप के लिए ये कैसे संभव है? हम यूनिवर्सिटी कैंपस में चंदा लेकर नाटक कर सकते हैं पर चंदे से मंडी हाउस पहुंचना मुमकिन नहीं है. शो करना तो दूसरी बात है, हमारे पास रिहर्सल करने की भी जगह नहीं है. मैं अपनी स्कॉलरशिप से मिले पैसों से थियेटर कर रहा हूं.’ सतीश दिल्ली के ऑडिटोरियम के बढ़ते किराये से परेशान होने वालों में अकेले नहीं हैं. दिल्ली के चर्चित ‘बहरूप’ थियेटर ग्रुप से लंबे समय से जुड़े हादी सरमादी भी सतीश की बात से इत्तफाक रखते हैं. हादी बताते हैं, ‘शौकिया तौर पर नाटक करने वाले किसी ग्रुप का तो मंडी हाउस पहुंच पाना मुमकिन ही नहीं है. अगर हम बहरूप की ही बात करें तो हमने स्वतंत्र रूप से लगभग तीन साल से मंडी हाउस में कोई नाटक नहीं किया है. किसी महोत्सव के चलते ही हमारे नाटक वहां हुए हैं. वजह सिर्फ वहां के ऑडिटोरियमों का आसमान छूता किराया है. कुछ सालों पहले तक जब किराया 10 से 15 हजार रुपये के बीच होता था तब हम किसी तरह वहां तक पहुंच जाते थे पर 50 हजार रुपये देना हमारे बस की बात नहीं है. बहरूप अपने नाटकों में टिकट नहीं रखता है. हमारे लिए ये आमदनी का जरिया नहीं है.’

रंगमंच को अभिनय की पाठशाला माना जाता है. हर साल देश में रंगमंच के कई आयोजन होते हैं जहां देश के कई हिस्सों से रंग समूह आकर अपने नाटकों का प्रदर्शन करते हैं, सम्मान भी दिए जाते हैं. लेकिन देश की राजधानी में रंगमंच का गढ़ माने जाने वाले मंडी हाउस और बाकी ऑडिटोरियमों में किसी रंग समूह के लिए अपने नाटक का प्रदर्शन करके जनता के बीच पहुंच पाना इतना आसान नहीं है. कला में अर्थ यानी धन के बढ़ते प्रभुत्व ने रंगकर्मियों और दर्शकों के बीच एक खाई खड़ी कर दी है. अगर शुरुआत से देखा जाए तो रंगकर्म का उद्देश्य कभी पैसा या मुनाफा कमाना नहीं रहा. रंगकर्मी सामाजिक सरोकारों से जुड़े संदेशों के वाहक के रूप में ही काम करते रहे हैं, पर पिछले कुछ सालों में जिस तरह से थियेटर का बाजारीकरण हुआ है उसका सबसे ज्यादा नुकसान रंगकर्मियों को ही उठाना पड़ा है.

गौरतलब है कि मंडी हाउस के प्रसिद्ध ऑडिटोरियमों में किराये की रकम काफी ज्यादा है जिसके चलते रंगकर्मियों के एक बहुत बड़े वर्ग का दिल्ली के नाट्य प्रेमी दर्शकों से नाता टूट-सा गया है. लिटिल थियेटर ग्रुप (एलटीजी) हो या श्री राम सेंटर, सभी जगह किराये की न्यूनतम राशि 15 से 20 हजार रुपये है, जिसे बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के वहन करना इन थियेटर समूहों के लिए संभव नहीं है.

पर क्या इन ऑडिटोरियमों के बढ़ते किराये के कारण वहां नाटकों का मंचन होना बंद हो गया है? ‘नहीं,’ बहरूप से जुड़े जेएनयू के एक छात्र चंद्रभान बताते हैं. वे कहते हैं ‘ऐसा नहीं है कि वहां नाटक नहीं हो रहे हैं. ऐसे कई थियेटर समूह हैं जिनके पास अच्छा-खासा पैसा है और वे खास तरह के दर्शकों के लिए नाटक कर रहे हैं. ऐसे दर्शक जिनके लिए थियेटर देखना स्टेटस सिंबल है. वे ऐसे हल्के-फुल्के विषयों या अंग्रेजी में नाटक करते हैं जिसे कुछ लोग पसंद करते हैं. टिकट लेकर देखने आते हैं और फिर कुछ समूहों के पास स्पॉन्सर भी हैं.’ तो क्या इन समूहों की प्रस्तुति को रंगकर्म नहीं माना जा सकता? चंद्रभान इस तरह के नाटक करके धन कमाने को गलत नहीं मानते. उनका मानना है, ‘अभिनय या ड्रामा का प्रशिक्षण लिए व्यक्ति के पास आजीविका कमाने के लिए नाटक करने के अलावा और कोई साधन नहीं होता, ऐसे में वे क्या करें? तो अगर किसी भी तरह का नाटक करना उसको आमदनी देता है तो मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ बुरा है.’

चंद्रभान की बात हादी सरमादी आगे बढ़ाते हैं, ‘देखिए, जब हम कोई अच्छा संगीत सुनते हैं, कोई अच्छी कला देखते हैं तो हमारे दिमाग में कुछ तब्दीलियां आती हैं और यही उस कला का असर होता है. तो अगर कोई कला ये असर नहीं डालती तो कहीं तो कुछ गलत है. यहां लोगों के पास पैसा तो है पर कहने को कुछ नहीं है. वे कुछ पुराने नाटकों को ही मुंबई के किसी बड़े अभिनेता को बुलवाकर करते हैं और मुनाफा कमाते हैं. मैं ये मानता हूं कि थियेटर एक तरह का पॉलिटिकल स्टैंड है. जितनी समस्याएं सामाजिक या राजनीतिक नाटक करने वालों को पेश आती हैं, बाकी किसी को नहीं होतीं और कहीं न कहीं ये हुक्मरानों की गलती है.’ सतीश का अनुभव भी कुछ यही कहता है, ‘थियेटर को केवल मनोरंजन का माध्यम मान लिया गया है. ऐसा सोच लिया गया है कि ये एंटरटेनमेंट से ज्यादा कुछ नहीं है. ऑडियंस भी यही चाहती है कि कुछ ऐसा देखा जाए जो सोचने पर मजबूर न करे. हम सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर नाटक करते हैं. तो हमारे लिए इस पैमाने पर खरा उतर पाना संभव नहीं है. एक रंग महोत्सवों का ही सहारा है पर वहां भी आपके नाटक के थीम को देखकर ही नाटक की अनुमति मिलती है. आपके नाटक का थीम वहां की समिति में बैठे लोगों की मानसिकता के अनुसार होना चाहिए. कुछ समय पहले मैंने देश के एक बड़े रंग महोत्सव में आवेदन किया था. यह नाटक जातिवाद पर आधारित था. जाहिर है मैं वहां नहीं पहुंच पाया.’

‘सरकार द्वारा सस्ती जमीन देकर कमानी और श्री राम सेंटर जैसे ऑडिटोरियम बनाए गए. इनका किराया 80-90 हजार रुपये तक हो गया है. ये पैसा कहां जाता है?’

यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि केंद्र सरकार की ओर से हर साल कुछ निश्चित राशि रंगकर्मियों को अनुदान के रूप में दी जाती है. इस पर सतीश बताते हैं, ‘इसके लिए आपके रंग समूह को रजिस्टर करवाना पड़ता है जो देश में होने वाले हर सरकारी काम की कागजी प्रक्रिया की तरह बहुत जटिल काम है. मैं मूल रूप से हरियाणा का हूं तो जब मैं दिल्ली में रजिस्ट्रेशन के लिए गया तब मुझे हरियाणा का मूल निवासी होने की बात कहकर वापस भेज दिया गया. पर जब मैं हरियाणा में अपने थियेटर ग्रुप को रजिस्टर करवाने पहुंचा तो उन्होंने कहा कि आप दस साल से राज्य से बाहर रह रहे हैं, दिल्ली में ही रंगकर्म करते हैं तो दिल्ली में ही रजिस्ट्रेशन होगा. इस तरह की मुश्किलों का कोई अंत नहीं है.’

थियेटर में अनुदान की प्रक्रिया पर अभिनेता और रंगकर्मी मानव कौल कहते हैं, ‘अनुदान की सबसे ज्यादा जरूरत उन्हें है जो युवा हैं, मेहनत से अपना पैसा लगाकर थियेटर कर रहे हैं. ऐसे कल्पनाशील युवा रंगकर्मी जहां कहीं भी काम कर रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्हें किस तरह का अनुदान चाहिए. कुछ समय पहले एक नाटककार ने कश्मीर पर एक नाटक किया. अब अगर वह वहां रहकर कुछ रिसर्च करना चाहता है तो क्या उसके लिए हमारे यहां कोई अनुदान है? यहां नाटककार से पूछा जाना चाहिए कि आपको किस तरह का अनुदान चाहिए. पर होता क्या है, आप उस नाटककार को यह समझाने में लग जाते हैं कि यह कागज चाहिए, वह कागज चाहिए. मेरे जैसे लोगों के लिए यह प्रक्रिया तकलीफदेह है, इसलिए मैंने कभी किसी अनुदान के लिए आवेदन नहीं किया. यहां अनुदान पाने की पूरी प्रक्रिया ऐसी है जो किसी सार्थक काम करने वाले रंगकर्मी को हतोत्साहित करती है.’

राजेश चंद्र पिछले दो दशकों से रंगमंच से जुड़े हैं. वे नाटककार होने के साथ-साथ आलोचक भी हैं. साथ ही रंगमंच पर एक त्रैमासिक पत्रिका ‘समकालीन रंगमंच’ का प्रकाशन भी करते हैं. उनके अनुसार मंडी हाउस इलाके के ऑडिटोरियमों के किराये का बढ़ना एकदम अतार्किक है. ऐसा कहा जाता है कि सरकार द्वारा इन ऑडिटोरियमों के लिए ये जमीनें बहुत ही न्यूनतम मूल्य पर कला की उन्नति के लिए लीज पर दी गई थीं पर अब ये कॉरपोरेट हितों के लिए काम करते हुए रंगमंच और कला की ही जड़ों को खोखला कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘ऑडिटोरियम मालिकों की सामाजिक जवाबदेही बनती है. वे बिना किसी क्राइटेरिया के किराया बढ़ा रहे हैं. अगर देखा जाए तो ये सत्ताधारियों की थियेटर को कंट्रोल करने की कोशिश है क्योंकि उनकी शह पर ही ऑडिटोरियम मालिक किराया बढ़ा सकते हैं. रंगमंच हमेशा से एक स्थायी प्रतिपक्ष के रूप में काम करता आया है. यहां दो धाराएं काम करती हैं, एक सत्तापक्षीय दूसरी विरोधी. सरकार की कुछ अघोषित नीतियां हैं. अगर आप उनके अनुसार चलेंगे तो शायद आपको कोई परेशानी न हो पर यदि आप सवाल खड़े करते हैं, खुशामद नहीं करते हैं तो आपके लिए ही मुश्किलें बढ़ेंगी.’

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सरकार को बुनियादी सुविधाएं देनी चाहिए तभी आगे बढ़ेगा थियेटर

Manav-Kaulwebमानव कौल, अभिनेता और रंगकर्मी
मैं ऐसा मानता हूं कि दिल्ली महानगर को किसी नाट्य महोत्सव की जरूरत नहीं है. चाहे वो भारत रंग महोत्सव हो या महिंद्रा फेस्टिवल. सरकारी सहयोग से होने वाले सभी नाट्य महोत्सव हमेशा छोटे शहरों में होने चाहिए. इससे छोटे शहरों के रंगकर्मियों को देश के सर्वश्रेष्ठ रंगमंच को देखने का मौका मिलेगा और उस शहर की जनता थियेटर करना शुरू करेगी. विश्व में कहीं भी देख लीजिए थियेटर के जितने बड़े महोत्सव हैं वे हर साल अलग-अलग शहरों में आयोजित होते हैं. हम अपने सभी बड़े महोत्सव महानगरों में आयोजित करते हैं और खुद ही अपनी पीठ थपथपा लेते हैं. इन महोत्सवों को एक भी नया दर्शक नहीं मिलता और न ही इससे थियेटर की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ता है. छोटे शहरों में थियेटर को प्रोत्साहित करने की जरूरत है.
दूसरी समस्या है कि हमारे पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) जैसा कोई अन्य राष्ट्रीय प्रशिक्षण संस्थान मौजूद ही नहीं है. यह सवाल आज भी अनुत्तरित है कि जिन रंगकर्मियों को यहां प्रवेश नहीं मिल पाता वे क्या करें. मुझे ऐसा लगता है कि जिन रंगकर्मियों को एनएसडी आने का अवसर नहीं मिल पाता उनके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि अगर वे नियमित रंगमंच करते हैं तो उन्हें साल में एक निश्चित राशि अनुदान के रूप में दी जाए. किसी अनुदान का आधार इसे न बनाया जाए कि वह रंगकर्मी एनएसडी से प्रशिक्षित है या नहीं. उनके काम को ही अनुदान का आधार बनाया जाना चाहिए.
रंगमंच में अभ्यास बहुत मायने रखता है. आज कई महानगरों में रंगकर्मियों के पास पूर्वाभ्यास की कोई जगह नहीं है और अगर जगह है तो उसका खर्च भी बहुत है. सरकारी स्कूल हर जगह हैं तो सरकार क्यों न ये प्रावधान करे कि शाम के समय इन स्कूलों का कोई हॉल या बड़ा कमरा नाट्यदलों को अभ्यास के लिए दे. सरकार को थियेटर को ऐसी बुनियादी सुविधाएं देनी चाहिए तभी थियेटर आगे बढ़ेगा. अनुदान या पुरस्कार का उद्देश्य भी प्रोत्साहन देना ही होता है पर आप किसी को बुढ़ापे में पुरस्कार दे रहे हैं तो इसका कोई मतलब नहीं है. आम तौर पर जिन रंगकर्मियों को अवाॅर्ड मिलता है, थियेटर उनके जीवन से जा चुका होता है. जब आपके जीवन में, आपके खून में, दिनचर्या में थियेटर बस रहा है, आप सबसे ज्यादा काम कर रहे हैं, आपको उसी वक्त सहयोग और सम्मान की जरूरत रहती है. अगर उस वक्त रंगकर्मियों को प्रोत्साहित किया जाए तो आप देखिएगा कि एक साल में ही वह अपने काम से देश का नाम रोशन कर देगा. आप उसे तब पूछते हैं जब वह खत्म हो चुका होता है, जब उसके पास नया कुछ रचने की ऊर्जा और साहस नहीं होता.

(समकालीन रंगमंच पत्रिका में छपे लेख से साभार)[/symple_box]

रंगमंच में हमेशा से दो धाराएं रही हैं. एक पूंजीवादी जिसके पास संसाधन हैं पर कहने को सार्थक कुछ नहीं है न ही उसका कोई असर होता है. वहीं दूसरी धारा के पास कोई संसाधन नहीं है बस कथ्य है और सामाजिक जिम्मेदारी है. वैसे इन रंगकर्मियों का यह भी मानना है कि सरकार से अनुदान मिलने के बाद रंगकर्मी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूलकर सिर्फ धन के बारे में ही सोचते हैं. हादी सरमादी कहते हैं, ‘जब आपको किसी भी रूप में पैसा मिलेगा, चाहे वो अनुदान हो या स्पॉन्सर तब आप क्यों बेहतर करने की सोचेंगे? न ही फिर आप अपने साथियों की सोचेंगे जिनकी संसाधनों तक कोई पहुंच नहीं है.’ राजेश भी यही कहते हैं, ‘अनुदान के प्रलोभन में फंसते ही रंगकर्मी सरकार पर आश्रित होकर दर्शकों व अपने रंगकर्म के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी भूल जाता है और उसका सारा ध्यान ज्यादा से ज्यादा अनुदान हासिल करने में लगा रहता है. उसके नाटकों की धार कम हो जाती है, उनका स्वर मंद हो जाता है और वे ऐसे नाटकों से पूरी तरह पीछा छुड़ा लेता है जो व्यवस्था पर सवाल उठाते हों.’

अनुदान की वर्तमान स्थिति बताते हुए राजेश कहते हैं, ‘सरकारी या गैर-सरकारी अनुदान की बैसाखियों पर खड़े होकर औने-पौने दल भी नगरों-महानगरों में नाट्योत्सव आयोजित कर रहे हैं जिनमें ‘बैंड-बाजा-बाराती’ सभी हैं- सिवाय उस अवाम को छोड़कर जिसे लेकर दावेदारी की जाती है. अनुदान की लालसा ने नाटककार को ‘मैनेजर’ और नाटक को ‘ब्रोशर एक्टिविटी’ तक सीमित कर दिया है. ये नाट्योत्सव जनता के पैसों से जनता के नाम पर मध्यवर्ग की गुदगुदाहट का सामान बनकर रह गए हैं. भूख और रोटी का जिक्र भी यहां इस तरह होता है कि ये बेचैनी की जगह मनोरंजन का सबब बनकर रह जाते हैं.’ सतीश भी इस बात का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं, ‘इन सबकी प्रक्रिया में घुल पाना ही मुश्किल है. हम इस तरह की ‘मैनेजरी’ ही करते रहेंगे तो थियेटर कब करेंगे? जो सिर्फ बेहतर काम करना चाहता है उसके लिए बस परेशानियां ही परेशानियां हैं.’

राजेश की पत्रिका का एक अंक रंगमंच में अनुदान की स्थितियों पर ही केंद्रित था जहां देश के विभिन्न वरिष्ठ रंगकर्मियों ने इस विषय पर अपना नजरिया साझा किया. एक लेख में देश के प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी अनुदान से रंगमंच पर पड़ने वाले प्रभाव की बात पर बाकियों से अलग राय रखते हुए कहते हैं, ‘हमारे यहां मनोरंजन और प्रश्न की जो परंपरा थी वह मनोरंजन और प्रश्नवाचकता को गूंथकर चलती थी. पंडवानी में तीजनबाई को देखें तो वे कथा महाभारत की कह रही हैं पर कहते-कहते वे आसपास की जिंदगी-राजनीति पर टिप्पणी भी करती चलती हैं. अगर अनुदान से इस तरह की प्रश्नवाचकता पर कोई दृष्टिगत प्रभाव पड़ता है तो अनुदान की बंदिश उतनी नहीं है जितना स्वयं रंगदलों की अपनी कमजोरी है कि उन्होंने मान लिया है कि ऐसा करने से शायद अनुदान के लिए उनकी अनुकूलता बढ़ जाएगी.’

रंगकर्मियों की परेशानियों में ऑडिटोरियम के बढ़े किराये, रिहर्सल के लिए उपयुक्त जगह न होना, नाटकों के मंचन से पहले ड्रामेटिक परफॉरमेंस ऐक्ट के तहत पुलिस से अनुमति लेना, प्रशिक्षण संस्थानों की कमी, नाट्य विद्यालय से निकलने के बाद आजीविका के स्रोत जैसी तमाम दिक्कतें शामिल हैं पर इनका कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा गया है. सरकार के स्तर पर बात करें तो राष्ट्रीय बजट का नाममात्र अंश संस्कृति के हिस्से आता है.

प्रख्यात रंगकर्मी रामगोपाल बजाज एक लेख में कहते हैं, ‘संस्कृति के हिस्से में राष्ट्रीय बजट का एक प्रतिशत भी नहीं आता. जिस उद्देश्य से सरकार द्वारा सस्ती जमीन देकर कमानी और श्री राम सेंटर जैसे ऑडिटोरियम बनाए गए, वह आज पूरा नहीं हो रहा है. इनका किराया बढ़कर 80-90 हजार रुपये तक हो गया है. पर न सरकार टोकती है न लोग. ये लोग इन ऑडिटोरियमों के मालिक बने बैठे हैं. ये ट्रस्ट के तहत बनाए गए थे. ये पैसा जमा होकर कहां जा रहा है, इसकी तहकीकात होनी चाहिए. आज मोदी जी कह रहे हैं कि हम देश में इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करेंगे तो क्या उस इंफ्रास्ट्रक्चर में सब वाणिज्य और सिनेमा के लिए ही होगा? मॉल ही बनेंगे? फिर संस्कृति का क्या होगा? संस्कृति मंत्रालय को मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के अंतर्गत होना चाहिए क्योंकि संस्कृति शिक्षण और नाट्य-कर्म मानव विकास का हिस्सा हैं.’

रंगकर्म के लिए बनाई गई संस्थाओं का भी इन समस्याओं के प्रति गंभीर न होना इसका एक बड़ा कारण है. सतीश और राजेश तो यही मानते हैं. सतीश कहते हैं, ‘बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे लोग जब तक गंभीर नहीं होंगे तब तक कोई बदलाव नहीं हो सकता. और बदलाव को लेकर अगर कोई बात उनके कानों तक पहुंचती भी है तो बदलाव के नाम पर अगले रंग महोत्सव का डेकोरेशन बदल देते हैं! उनके लिए यही बदलाव है. असल में वे लोग इस क्षेत्र के हैं ही नहीं इसलिए उनकी थियेटर में कोई दिलचस्पी ही नहीं है.’ राजेश बताते हैं, ‘कुछ समय पहले दिल्ली सरकार की साहित्य कला परिषद ने एक रंग महोत्सव में दो साल तक एक बड़े निर्देशक द्वारा चार करोड़ रुपये के दो नाटक करवाए. निर्देशक के चुनाव में कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई और नाटकों में भी कोई नवीनता नहीं थी. बस पुराने नाटकों को भव्यता के साथ दिखाया गया. इसका काफी विरोध भी हुआ था. जानकारों की मानें तो इस तरह के रंग महोत्सव इन संस्थानों को मिले बजट की अधिकांश राशि खपाने के लिए किए जाते हैं. दिल्ली सहित देश में बड़ी तादाद ऐसे रंगकर्मियों की है जिनके पास न नाटकों की रिहर्सल के लिए जगह है, न प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त और सस्ती जगह. पर इससे किसे सरोकार है? बिना खुशामद के सिर्फ अपना काम करने वाले के लिए तो ऐसी व्यवस्था है कि वह संसाधनों तक पहुंच ही न सके. आपके पास दो विकल्प हैं- या तो बाजार के हिसाब से चलिए या सरकार के संस्थानों के हिसाब से.’

ये सब परेशानियां लंबे समय से थियेटरकर्मियों के सामने हैं पर क्या कभी उन्होंने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई? सतीश के अनुसार रंगकर्मियों का एकजुट होना मुश्किल है. वे कहते हैं, ‘देखिए सबका अपना दायरा होता है. जिसे मौका मिल रहा है, वो क्यों शिकायत करेगा? गैर-राजनीतिक या हल्के-फुल्के नाटक करने वालों को कभी परेशानी नहीं होती. जो ग्रुप किसी रंग महोत्सव में शामिल हो चुका है तो उसे वहां न पहुंचने वाले की चिंता क्यों होगी?’ राजेश का कहना है कि सबसे पहले तो तो सरकार द्वारा कोई सांस्कृतिक नीति बनाई जानी चाहिए. साथ ही संसाधनों का विकेंद्रीकरण करना भी जरूरी है पर इसके लिए एक मंच पर सभी रंगकर्मियों का साथ आना सबसे बड़ी शर्त है जो पूरी नहीं होती.

हादी सरमादी का भी ऐसा ही मानना है. वे कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि बिना एकजुट हुए कोई परिवर्तन नहीं हो सकता पर यहां तो हाल ये है कि दिल टूटने पर दिल के इतने टुकड़े नहीं होते होंगे जितने यहां रंगकर्मियों के बीच हो गए हैं. यहां हाल कम्युनिस्ट पार्टी जैसा है. हर समूह समझता है कि इंकलाब आएगा तो सिर्फ हमारे झंडे के तले आएगा, अगर दूसरे के झंडे तले आया तो असली इंकलाब वो नहीं होगा. कुछ लोग मठाधीश बनने की कोशिश करते हैं. ऐसे में कैसे किसी एक मुद्दे को लेकर एकमत या फिर एकजुट होंगे, कैसे कोई मुहिम छेड़ी जाएगी?’

प्रकाशन की मंडी में जिसके पास कलम है, लेकिन पैसा नहीं, वह नहीं छपेगा : नीलोत्पल मृणाल

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डार्क हॉर्स आपकी पहली किताब है. पुरस्कार की दौड़ में तमाम किताबें रही होंगी, लेकिन साहित्य अकादेमी पुरस्कार आपको मिला. इस बारे में क्या कहेंगे?

निश्चित रूप से यह किसी नए लेखक के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. पहली किताब वाले सवाल पर तो कहूंगा कि किसी भी रचनाकार को उसकी पहली किताब या उसकी लिखी किताबों की संख्या के आधार पर नहीं मापना चाहिए. कई लोग दस किताब के बाद एक अच्छी रचना दे पाते हैं, और कई लोगों की पहली ही रचना एक अच्छी रचना हो सकती है. मामला रचना का है. पहली या आखिरी का नहीं है. दूसरी बात है कि निश्चित तौर पर स्पर्धा में कई किताबें होंगी, वे निर्णय समिति के सामने आई होंगी. कई लेखक निश्चित रूप से प्रतिभाशाली रहे होंगे, सबकी प्रतिभा का सम्मान है, लेकिन चूंकि दौड़ में रचना होती है, उसमें अगर डार्क हॉर्स ने बाजी मारी, तो यह मेरी रचना के लिए, मेरे और मेरे प्रकाशन के लिए अच्छी खबर है.

आम तौर पर हम लोगों ने देखा है कि साहित्य अकादेमी जो भी पुरस्कार देती है, उस पर विवाद होता है कि लॉबिंग की गई, वगैरह-वगैरह. डार्क हॉर्स को यह पुरस्कार मिलने से क्या यह धारणा ध्वस्त होती है?
मैंने साहित्य अकादेमी का कार्यालय सिर्फ एक बार देखा है जब मैं अखबार में विज्ञापन देखकर अपने प्रकाशक के साथ किताब जमा करवाने गया था. मेरे जैसे लेखक की ओर से मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि उस संस्थान में मेरा कोई परिचय नहीं है, लेकिन साहित्य अकादेमी ने किताब पढ़ी और पुरस्कृत किया. मेरी साहित्य जगत में भी कोई पहचान नहीं है, मैं अपने पाठकों की वजह से जाना जाता हूं. इस किताब की कोई ढंग की समीक्षा भी नहीं हुई है. आलोचकों की नजर में मैं कहीं हूं ही नहीं. मेरी पृष्ठभूमि झारखंड की है, जो साहित्यिक मामले में पीछे है. अगर ऐसे लेखक की किताब को पुरस्कार मिला है तो साहित्य अकादेमी बधाई की पात्र है. साहित्य अकादेमी के लिए यह बात प्रसारित होनी चाहिए कि निष्पक्ष आकलन होता है.

आपने कहा कि आलोचकों ने अभी इस किताब पर कुछ नहीं लिखा. ढंग से समीक्षा भी नहीं हुई. ये कैसे होता होगा कि कोई नया लेखक है जिस पर आलोचक बात ही नहीं करते?
असल में, आलोचकों ने बात नहीं की, रचना की समीक्षा नहीं हुई और साहित्य अकादेमी मिल गया तो यह पाठक की क्षमता की विजय है. यह पाठक की शक्ति का प्रतीक है. लेखक को पाठक ही बनाता है. यह एक आश्वस्ति है. मुझे पाठकों का स्नेह मिला. सोशल मीडिया पर इसका खूब प्रचार-प्रसार हुआ. लोगों ने पढ़कर वहां अपनी प्रतिक्रियाएं दीं. अब साहित्य अकादेमी हो या कोई दूसरा संस्थान, वह सोशल मीडिया से अछूता तो नहीं है. हो सकता है कि यह बयार वहां तक पहुंची होगी और समिति ने ध्यान दिया होगा. आलोचकों की एक सीमा है कि चर्चित किताबों को पढ़ने की परंपरा रही है. मैं बहुत साफ टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हूं, लेकिन जो चर्चित किताबें हों, आलोचक उन्हीं को पढ़ते हैं. अब हो सकता है कि आलोचक भी इसे पढ़ें और आलोचना करें.

इतनी सारी किताबें छपती हैं. हो सकता है कि आलोचकों तक किताब पहुंचती ही नहीं या किसी सिफारिश पर पहुंची तो वे लिख देते हैं. नए का संज्ञान नहीं लेते.
इस बारे में ईमानदारी से कहूंगा कि साहित्य की इस परिपाटी का मुझे जरा भी भान ही नहीं था. अभी तक मैं ये समझ नहीं पा रहा था कि किसी के द्वारा किताब की सिफारिश होती है तो उसे पढ़ा जाता है. मैं और मेरा प्रकाशक दोनों नए हैं, हमारी प्राथमिकता यही रही कि पाठक के पास कैसे पहुंचा जाए. मेरे मन में एक नए लेखक और नए प्रकाशक के तौर पर यही था कि पाठक ही तो किताब पढ़ते होंगे. आलोचक प्राथमिकता में नहीं रहे. अब हमारा ध्यान इस ओर गया है कि आलोचक भी इसे पढ़ेंगे. मेरे लिए तो सब कुछ पाठक ही हैं.

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अगर आपको यहां तक पाठकों ने ही पहुंचाया तो क्या वह अवधारणा ध्वस्त नहीं हो जाती कि हिंदी में पाठक नहीं हैं?
मैं ऐसा सुनता रहा हूं, लेकिन यह अतिशयोक्ति है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. हिंदी में किताब की पहुंच की समस्या है. गाजीपुर, बलिया, देवरिया, जहानाबाद या दूरदराज गांव में बैठे पाठक तक हिंदी किताबों का पहुंचना मुश्किल है. अंग्रेजी के लेखक शहर में रहते हैं, शहर में इंटरनेट की सुविधा है, अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन शॉपिंग सेवाएं उपलब्ध हैं, उनका पाठक भी शहर में रहता है. लेकिन हिंदी के पास संसाधन की कमी है. हिंदी में पाठक हैं लेकिन उन पाठकों के पास किताबें पहुंचें कैसे? यह मेरे लिए और मेरे प्रकाशक के लिए भी चुनौती है. हम मेहनत करके यह अंतर पाटना चाहते हैं. हिंदी को सोशल मीडिया, अमेजन, फ्लिपकार्ट या अन्य कूरियर सेवाओं से जोड़ना होगा. हिंदी के प्रकाशक को अंग्रेजी के पुस्तक वितरण सिस्टम जितना स्मार्ट होना होगा. ऐसा हो जाए तो इस धारणा में ज्यादा दम नहीं दिखता कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. जिसके हाथ में किताब पहुंचती है, वह पढ़ता है और सराहता है. अभी भी मैला आंचल और गोदान भारतीय रेलवे की हर बोगी की शान हैं.

आप लेखन में नए हैं. लेखन की दुनिया का अनुभव कैसा रहा?
मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती रही कि मैं जो लिख रहा हूं वह साहित्य की ओर जाएगा या उपन्यास लेखन के नाम पर जो स्टोरी राइटिंग का चलन आया है, उस ओर जाएगा. मेरे लिए सबसे बड़ा खतरा वही था कि कहीं यह उपन्यास के ढांचे से अलग तो नहीं हो जाएगा. इसके लिए मैंने कई बड़े लेखकों को पढ़ा. उनसे सीखा, और समझने की कोशिश की. हालांकि, मैं साहित्यकार होने का दावा नहीं करता, लेकिन उसकी जो बनावट हो, वह हिंदी साहित्य की उपन्यास परंपरा के अगले चरण का विस्तार हो, यह कोशिश मैंने की. इस चुनौती से पार पाने के बाद अब मुझे अच्छा लग रहा है कि यदि आप ईमानदारी से यथार्थ को पन्ने पर उतारते हैं तो यथार्थ धुंधला है, मैला है, चमकीला है, यह मायने नहीं रखता. मायने यह रखता है कि आपने कहां का यथार्थ उतारा है. पूरी ईमानदारी, सरलता, सहजता से उतारा है कि नहीं. आप जो दिखाना चाह रहे हैं, चाहे गंदगी, चाहे सफाई, चाहे अच्छाई, चाहे बुराई, जो भी दिखाना चाह रहे हैं, उसे दिखाने में आप ईमानदार हैं कि नहीं. यहां पर अगर लेखक कृत्रिम होगा तो उसकी लेखनी कमजोर हो जाएगी.

प्रकाशकों को लेकर मेरा अनुभव दिलचस्प रहा. नए लेखक को खारिज किया जाए या स्वीकार किया जाए, ये मामला तो बाद में आता है, सबसे बड़ी चुनौती है कि उसको पढ़े कौन. लेखक कैसे एक प्रामाणिक व्यक्ति के पास गुहार लगाए और उसे इस बात के लिए तैयार कर ले कि आप मेरी किताब को पढ़ें. पढ़ने के बाद यह मुहर लगवाना कि वह छपने लायक है कि नहीं. इस गफलत में कई नए लेखक भटकते हैं, ये सबसे त्रासद होता है कि आपको कोई पढ़ता ही नहीं. खारिज करने के लिए भी पढ़ना जरूरी होता है. पहला अनुभव मेरा यही रहा जो बेहद कठिन था. दूसरा आश्चर्यजनक अनुभव यह रहा कि हम जैसे लोगों की कल्पना में यह नहीं था कि किताब छपाने के लिए पैसा देना पड़ता होगा. प्रकाशन की मंडी में जिसके पास सिर्फ कलम है, रचनात्मकता है लेकिन मुद्रा नहीं है, वह नहीं छपेगा. यह चुनौती मेरे सामने थी, इसलिए मैं ऐसा प्रकाशक ढूूंढ़ रहा था जो रचना देखकर प्रकाशक होने का दायित्व निभाए. वह प्रकाशन को व्यवसाय जरूर बनाए, लेकिन रचना को बाजारू नहीं बना दे कि आप पैसा दीजिए, फिर हम कुछ भी छाप देंगे. ये जानना रोचक था कि पैसा देकर कुछ भी छप सकता है और पैसा न हो तो अच्छी रचना भी नहीं छपेगी. मुझे दर-दर भटकना पड़ा. अधिकतर लोग ऐसे ही मिल रहे थे कि अगर आपको छपवाना है तो इतना शुल्क दे दीजिए, छप जाएगा. यह मुझे स्वीकार नहीं था क्योंकि तब मेरी रचना का मूल्यांकन ही नहीं हो पाता. जब प्रकाशक ही मेरा मूल्यांकन नहीं कर पाता तो आगे पाठक के पास जाने का मेरा नैतिक बल कहां था. मेरा यह तय करके मैदान में उतरना कि रचना का मूल्य पहचाना जाए, न कि मूल्य देकर रचना छपवाई जाए, इसका परिणाम सकारात्मक रहा. मैंने शब्दारंभ प्रकाशन को रचना भेजी तो उन्होंने रचना पढ़ी और छापने को तैयार हो गए. हमारे बीच कोई सौदेबाजी नहीं हुई. अब मैं यह कह सकता हूं कि अगर मैं बिना पैसा दिए छप सकता हूं और पाठकों तक पहुंच सकता हूं, तो बाजार में ऐसे भी प्रकाशक हैं जो अच्छी रचनाओं को बिना पैसा लिए छाप सकते हैं. पूरी तरह से निराशा नहीं है.

आपको खूब पाठक मिले और पुरस्कार भी. जाहिर है कि आपसे उम्मीदें बढ़ गई हैं. इस उम्मीद को कैसे आगे ले जाएंगे?
मैं यही मानता हूं कि पुरस्कार आपके लिए उपहार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है. एक लेखक के तौर पर मेरी जिम्मेदारी बढ़ी है. मैं कोशिश करूंगा कि आगे बेहतर लिखूं और किसी समाज, किसी वर्ग के जीवन को बड़ी ईमानदारी से उकेर पाऊं, यही प्रयास करूंगा. एक और उपन्यास लिख रहा हूं जो एक गांव की कहानी है. इसमें मैं दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि 30-40 के दशक में जो ग्रामीण समाज प्रेमचंद के साहित्य में था, आज 21वीं सदी में वही गांव, वही समाज, वही प्रथा, वही शोषण, वही उत्सव, वही भारत एक युवा लेखक की नजर में कैसा है. अब वह कहां तक पहुंचा है. उम्मीद है कि आप सबकी, पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतरूंगा.

चंद सेकंड पहले जो वृद्धा मदद की गुहार लगा रही थी, वो अब चंदे के लिए मुझे धमकाए जा रही थी…

इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव

ग्वालियर में पारा 47 डिग्री को छू रहा था. इस साल मई के महीने में भीषण गर्मी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. गर्मी के चलते मेरी भी तबीयत गड़बड़ थी. उस दिन चेकअप कराके बाइक से घर वापस आ रहा था. कहने को तो सुबह के 10 बज रहे थे लेकिन सूरज की तपिश बदन को झुलसा रही थी. अचानक रास्ते में किसी महिला ने मुझे आवाज दी. बाइक के ब्रेक ढंग से काम नहीं कर रहे थे. इसलिए अचानक ब्रेक मारने पर बाइक कुछ दूरी पर जाकर रुकी.

पीछे मुड़कर देखा तो एक 55-60 साल की वृद्धा मुझे रुकने का इशारा कर रही थी. पास आने पर वे हांफते हुए बोलीं, ‘बेटा यहां डॉक्टर के पास आई थी पर आज रविवार होने की वजह से उन्होंने कहीं और अपना कैंप लगा लिया है, मैं वहीं जा रही हूं. बड़ी देर से ऑटो-तांगे का इंतजार कर रही हूं पर कोई मिल नहीं रहा. गर्मी इतनी ज्यादा है कि मुझसे सही नहीं जा रही.’ पहनावे और बातचीत से वह महिला पढ़ी-लिखी नजर आ रही थी. मैंने कहा, ‘बाइक पर बैठ जाइए, मैं आपको छोड़ दूंगा.’

बाइक पर बैठने के बाद रास्ते भर वे मुझे धन्यवाद देती रहीं और साथ ही साथ मुझसे मेरे बारे में जैसे- काम-धंधा, पगार आदि पूछती रहीं. उन्होंने अपने बारे में बताया कि वे शिक्षा विभाग में लॉ एनफोर्समेंट ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं. फिर मेरा नाम पूछने के बाद उन्होंने खुद को भी ब्राह्मण बताते हुए मुझसे जातीय रिश्ता भी बना लिया. इस बीच वह पड़ाव आ गया जहां वृद्धा को जाना था. जैसे ही मैंने उन्हें बाइक से उतारा, वे बताने लगीं कि वे किसी संस्था से जुड़ी हुई हैं जो उन वृद्ध मां-बाप की देख-रेख करती है जिन्हें उनके बच्चे घर से बाहर कर देते हैं. मैंने उनके प्रयासों की सराहना की तो उन्होंने मुझसे सहयोग की मांग की.

आजकल किसी की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता. कारण यह है कि जरूरतमंद की पहचान करना बड़ा ही मुश्किल है

मैंने उन्हें सहयोग का आश्वासन दिया और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए कहा कि बेझिझक आप कभी भी मुझसे संपर्क कीजिएगा. लेकिन इतने पर वे बिफर पड़ीं और कहने लगीं कि भूखे को भूख अभी लगी है और आप कार्ड थमाकर कहो कि मुझे फोन लगाना, तब खाना खिलाऊंगा, ये कहां की बात हुई? मैंने उनसे पूछा, ‘आप कहना क्या चाहती हैं?’ वे बोलीं, ‘जो सहयोग करना है अभी करो.’ मैंने असमर्थता जताई तो बोलीं, ‘तुम भी ब्राह्मण हो तो मैंने तुमसे सहयोग मांगा बेसहारा बुजुर्गों के लिए.’ मैंने उन्हें आश्वासन देना चाहा कि आप मुझे फोन कीजिएगा जो सहयोग बन सकेगा करूंगा. इस पर वे बोलीं, ‘अरे थोड़ा ही कर दो. जेब में जो भी हो, दे दो. परशुराम जयंती पर ब्राह्मणों ने कितना खर्च किया है और तुम कैसे ब्राह्मण हो? और जो कार्ड दे रहे हो, तो सुनो मुझे जरूरत नहीं कि किसी को फोन करूं. अभी एक आवाज दूं तो दान देने वालों की लाइन लग जाएगी. अपना कार्ड अपने पास रखो. हमारी संस्था दान इस तरह नहीं लेती कि रसीद काटकर दिखावा करे. बोलो सहयोग करोगे या नहीं?’ उनका लहजा धमकाने वाला था. मैं अवाक रह गया. फिर वे बोलीं, ‘अगर मैं कहूं कि मुझे अभी खाना खाना है तो खिलाओगे नहीं और कहोगे कि कार्ड लो और बाद में फोन करना, बताओ.’ मैंने कहा, ‘अगर आपको भूख लगी है तो चलिए आपको खाना खिलवा दूं.’ इस पर वे भड़क गईं. बोलीं, ‘मुझे नहीं खाना, बहुत हैं खिलाने वाले. तुमसे ज्यादा तनख्वाह मिलती है मुझे. बोलो अभी कुछ पैसे देते हो या नहीं?’ यह सब चौंकाने वाला था. चंद सेकंड पहले जो वृद्धा गर्मी से लाचार, थकी-हारी मदद की गुहार लगा रही थी, वह अब मुझे धमकी भरे लहजे में सुनाए जा रही थी. मैं अपनी बाइक चालू करके आगे चल दिया. पीछे वह बड़बड़ाती रही.

इस पूरे घटनाक्रम से पता चलता है कि आखिर आजकल लोग क्यों किसी की मदद को आगे नहीं आते. कारण यही है कि जरूरतमंद की पहचान बड़ी ही मुश्किल है. जिसे हम जरूरतमंद समझ उसकी सहायता करते हैं, वह बहुरूपिया निकलता है. देखकर भी अनदेखा करने की प्रवृत्ति इसीलिए बढ़ती जा रही है. जो सही मायने में जरूरतमंद हैं, उन्हें भी शक की निगाह से देखा जाता है. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ. अक्सर मेरे मन में आता है कि लोगों की मदद के लिए आगे न आने में ही भलाई है. फिर यह भी लगता है कि चंद धूर्तों के कारण कभी कोई सच्चा जरूरतमंद न छूट जाए.

(लेखक पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

तरुण सहरावत : एक साथी और भी था…

पत्रकारिता करने की एकमात्र प्रेरणा आपको इस काम के प्रति अपने जज्बे से मिलती है. तहलका के फोटो जर्नलिस्ट तरुण सहरावत की जिंदगी इसी जज्बे की बानगी है. महज 23 साल की उम्र में यह नौजवान अपने तीन साल के करिअर में इतना काम कर गया जो बड़े-बड़े लोग अपने कई सालों के करिअर में भी नहीं कर पाते. 2012 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के गढ़ अबूझमाड़ गए तरुण को वहां सेरेब्रल मलेरिया हो गया था, जिसके बाद कई दिनों तक अस्पताल में इससे जूझने के बाद वे जिंदगी की जंग हार गए. बीते 15 जून को तरुण की चौथी पुण्यतिथि थी.
यूं तो तरुण फोटोग्राफर था पर रिपोर्टिंग के लिए उसका जुनून उसके काम में दिखता था. रिपोर्टर और फोटोग्राफर का काम सुर-ताल जैसा ही होता है, ट्यूनिंग बिगड़ी तो काम भी बिगड़ा, पर तरुण हर रिपोर्टर का चहेता था. हर समय काम के लिए तैयार. आदिवासी क्षेत्रों में जाने के लिए कई बार वरिष्ठ भी झिझकते हैं पर तरुण इसके लिए उत्साहित रहता था. शायद यही कारण था कि अपने तीन साल के छोटे-से करिअर में वो 10-12 बार छत्तीसगढ़ गया था. अपने आखिरी असाइनमेंट पर भी वह छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ गया था.
अबूझमाड़ से लौटने के बाद बुखार होने के बावजूद वह रात में ही ऑफिस आ गया था और रात भर अपनी तस्वीरों पर काम करता रहा. उस असाइनमेंट के लिए उसे नई कैमरा किट भी मिली थी तो वह अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहता था. वो रिपोर्ट उस हफ्ते के अंक की आवरण कथा थी. इसलिए बीमार होते हुए भी तरुण रोज ऑफिस आकर काम करता रहा. उसने कभी फोटोग्राफी की कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग नहीं ली पर काम को लेकर इतना गंभीर था कि आजकल ट्रेनिंग लेकर आ रहे बच्चे भी उतने गंभीर नहीं होते. अगर आज वह होता तो अपने काम के साथ कई कीर्तिमान गढ़ चुका होता. तरुण में गजब की कल्पनाशीलता थी. शायद उसे पता भी नहीं था कि वह फोटोग्राफर बनेगा. जब वह तहलका से जुड़ा तब वह अकाउंट विभाग में बैठता था. फोटोग्राफी के प्रति उसमें एक स्वाभाविक रुझान पहले से था. फिर परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उसने फोटोग्राफी करना शुरू किया. इसके बाद फोटोग्राफी उसका जुनून बन गया. तरुण की याद में हम उनकी खींची कुछ तस्वीरें साझा कर रहे हैं.
इसमें से एक तस्वीर की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा. जिसमें एक बच्चा रेडियो के साथ नजर आ रहा है. यह साल 2012 की तस्वीर है. इसके तकरीबन दो साल बाद दिसंबर, 2014 में आई फिल्म पीके में आमिर खान लगभग इसी अंदाज में नजर आते हैं. ये फोटोग्राफी के प्रति उसकी ललक और बेजोड़ कल्पनाशीलता को दर्शाती है. तरुण आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसकी तस्वीरें हमेशा इस बात की गवाही देंगी कि वह अब भी हमारे बीच है. इसके अलावा उसका काम हमेशा प्रेरणा देता रहेगा.

(लेखक तहलका के डिप्टी फोटो एडिटर हैं)

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तरुण सहरावत
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अबूझमाड़ का रामकृष्ण आश्रम
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ताड़मेटला (छत्तीसगढ़) में सलवा जुडूम के बाद जले घर से झांकता मासूम
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अबूझमाड़ के रामकृृष्ण आश्रम में पढ़ाई के साथ बच्चों के खेलने की सुविधा भी है
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अबूझमाड़ के एक घर में खेलता बच्चा
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अबूझमाड़
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अबूझमाड़
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ताड़मेटला (छग) में सलवा जुडूम के बाद जले घर

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पंजाब में ड्रग के नशे में डूबा एक नौजवान
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कोरापुट, ओडिशा के एक गांव में एसओजी टीम के एक सर्च ऑपरेशन के दौरान

ट्रांसजेंडर शादियां जायज

पाकिस्तान में कम से कम 50 मौलवियों ने फतवा जारी करके कहा है कि ट्रांसजेंडर शादियां कानूनन जायज हैं. ‘तंजीम इत्तेहाद-ए-उम्मत’ से जुड़े इन मौलवियों ने फतवे में कहा है कि ‘पुरुष होने की निशानी रखने वाले’ ट्रांसजेंडर व्यक्ति ‘महिला होने की निशानी रखने वाले’ ट्रांसजेंडर से शादी कर सकते हैं और इसी तरह ‘महिला होने की निशानी रखने वाली’ ट्रांसजेंडर ‘पुरुष होने की निशानी रखने वाले’ ट्रांसजेंडर व्यक्ति से शादी कर सकती हैं. हालांकि इस फतवे में यह भी कहा गया है कि ‘दोनों लिंग की निशानी रखने वाले’ ट्रांसजेंडर किसी से शादी नहीं कर सकते. इन्होंने ट्रांसजेंडर को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से दूर रखने को गैर-कानूनी करार दिया और कहा कि जो मां-बाप अपने ट्रांसजेंडर बच्चों को संपत्ति से महरूम करते हैं वे ‘खुदा के खौफ’ को दावत देते हैं. मौलवियों ने सरकार से आह्वान किया कि ऐसे मां-बाप के खिलाफ कार्रवाई की जाए.

खत्म होगी आठवीं तक फेल न करने की नीति

लंबे इंतजार के बाद आखिरकार केंद्र सरकार ने संकेत दे दिए हैं कि नई शिक्षा नीति का स्वरूप कैसा होगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के अहम बिंदु सरकार द्वारा जारी कर दिए गए हैं. हालांकि केंद्र सरकार के ट्विटर हैंडल माईगव इंडिया पर मसौदा जारी करते हुए यह साफ नहीं किया कि बिंदु कैसे तैयार किए गए. पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में बनाई गई मसौदा समिति की रिपोर्ट की इसमें कोई चर्चा नहीं है. न ही यह बताया गया कि इसे जारी करने से पहले राज्यों से कोई चर्चा हुई या नहीं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से जारी अहम बिंदु या ‘इनपुट’ में स्कूलों में छात्रों के सीखने के स्तर पर गंभीर चिंता जताई गई है. इसमें साफ तौर पर कहा गया कि आठवीं तक बच्चों को फेल नहीं करने की मौजूदा नीति को बदला जाएगा क्योंकि इससे छात्रों के अकादमिक प्रदर्शन पर गंभीर असर पड़ा है. इसे पांचवीं तक सीमित किया जाएगा. इसी तरह प्रस्ताव किया गया है कि आईएएस और आईपीएस की तरह शिक्षा व्यवस्था के लिए अलग अखिल भारतीय कैडर तैयार किया जाए जिसका नियंत्रण मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास हो.

बढ़ रहा है भारतीय बैंकों का डूबा कर्ज

भारतीय बैंकों का डूबा कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है. रिजर्व बैंक ने चेतावनी देते हुए कहा कि ऐसे हालात देश को कड़ी चुनौती देंगे. फेडरल स्टेबिलिटी रिपोर्ट में आरबीआई ने कहा कि सितंबर 2015 तक भारतीय बैंकों की 5.1 फीसदी संपत्ति डूबी हुई थी. मार्च 2016 तक यह बढ़कर 7.1 फीसदी हो गई. अक्टूबर में रिटायर होने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने फंसे या डूबे कर्ज से मुक्ति पाने पर खास ध्यान दिया है. राजन डूबे कर्ज खातों को या तो बंद करना चाहते थे या फिर पैसा डकारने वालों को डिफॉल्टर की सूची में डालना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 2017 की समयसीमा रखी थी. अपनी रिपोर्ट में आरबीआई ने कहा है, ‘भारत का वित्तीय तंत्र टिकाऊ बना हुआ है, हालांकि बैंकिंग सेक्टर अहम चुनौतियां झेल रहा है.’ रिजर्व बैंक ने 2015 में बैंकों से अपनी संपत्ति की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने को कहा था. उसमें चौंकाने वाली बातें सामने आईं. वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक सरकार डूबे कर्ज से बाहर निकलने के लिए बैंकों को 25 अरब रुपये पूंजी के तौर पर देगी.