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भूख से बच्चों का मरना मानवता पर दाग

santoshi

पूरी दुनिया में विभिन्न देशों में लाखों $गरीब बच्चे गरीबी, भूख और कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। गरीबी का दायरा बढ़ रहा है। भूखे लोगों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। आपको याद है पिछले ही महीने अपने देश के एक प्रदेश झारखंड में ग्यारह साल की संतोष कुमारी प्रदेश में थोपी गई भुखमरी के चलते पांच दिन से भात-भात की गुहार लगाती आखिरकार मर गई। क्या आपको याद हैं वे तस्वीरें जो 30 दिन के सीरियाई शिशु की थीं। उसका नाम था सहर दोफ्ता वह युद्ध में तबाह सीरिया में कुपोषण (दूध न मिलने से) के कारण मरी। उसके शरीर में कुछ भी नहीं था। उसके कंकालनुमा शरीर में सिर्फ हड्डियां थीं। उसकी पसलियां किस तरह बाहर को आ रही थीं। आप ने चित्रों में हज़ारों रोहिंग्या शरणार्थियों को बांग्लादेश में भोजन और पानी के लिए लंबी-लंबी कतारों में खड़े देखा होगा। उनकी बेबसी और उनकी असहायता से आपके मन में क्या कोई बेचैनी कभी नहीं हुई। क्या आपको तनिक भी भय नहीं लगा। आज तो ये हैं, कल को हम या हमारा कोई हो सकता है।
यदि हम देश के अंदर ही विस्थापित हुए लोगों के आंकड़े देखें तो वर्ष 2016 में यह संख्या सर्वाधिक है। एक जगह से दूसरी जगह जाने का नतीजा यह है कि विस्थापित हुए लोगों के सिर पर छत नहीं होती। वे किसी कोने में गठरी बने दुबके रहते हैं। इन पर शरणार्थी होने का तमगा टंग जाता है।
दरअसल एक के बाद दूसरी खबर भूख से मरने की आई। मैं एकदम असहाय सी बैठ गई। मुझे बेहद परेशानी हुई। उस रात मैंने टेलीविज़न चलाया और देखा बांग्लादेश की सीमा पर रोहिंग्या शरणार्थी बच्चों को सिख कार्यकर्ता आहार देते हैं। मुझे धक्का सा लगा क्योंकि जिस अंधेरे दौर से हम गुज़र रहे हैं उसमें ऐसा कुछ दिखना वाकई दुर्लभ है।
उत्सुकता में मैंने ऐसे दुर्लभ लोगों के बारे में छानबीन शुरू की। मुझे जानकारी मिली कि ये खालसा एड के कार्यकर्ता हैं जो मानव धर्म निभाने में कभी किसी जाति, रंग या देश की परवाह नहीं करते। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि अमुक जगह मानव खाना, छत, दवा, कपड़ों से वंचित है और सहयोग चाहता है, वे तुरंत राहत का सामान लेकर वहां पहुंच जाते हैं और कमज़ोर, दुखी, भूखे लोगों की मदद करने लगते हैं।
नई दिल्ली में खालसा एड वालंटियर मनप्रीत सिंह ने कहा, ‘जब भी हमें कहीं, किसी भी संकट का पता चलता है। जहां तरह-तरह की विपदा में लोग खुद को असहाय महसूस करने लगते हैं, परिवार, बच्चे भूख से पीडि़त होते हैं, कपड़ों से लाचार होते हैं, दवा की उन्हें ज़रूरत होती है। वहां हमारे लोग उनकी हर तरह से मदद करते हैं। मदद की गुहार किसी भी जाति, समुदाय, देश से हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथ, गुरू ग्रंथ साहिब में लिखा है कि सबसे बड़ा धर्म मानवता की सेवा है। मानवीय होना ही ईश्वर सेवा है।
उसकी बात सुन कर मैं तो हतप्रभ रह गई। आज के समय में भारत के युवा सिखों का एक समूह इस तरह का भी है जो ज़रूरतमंदों की मदद करने को आतुर रहता है। बांग्लादेश से लौटे मनप्रीत ने बताया यदि सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करें तो करीब 50 हज़ार रोहिंग्या लोगों में अनाथ बच्चे और गर्भवती महिलाएं हैं जो शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। मैं और खालसा एड के मेरे सहयोगी कुलबीर सिंह, जीवन ज्योत और अमरप्रीत सिंह, सीमा पर उन शिविरों के लोगों के लिए मदद का काम कर रहे हैं। उन बेघर, बेसहारों की छोटी-छोटी ज़रूरतों को हम पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।
कोई यह नहीं सोच सकता कि कितनी तकलीफदेह जि़ंदगी ये लोग शरणार्थी शिविरों में जी रहे हैं। इन शिविरों में कुछ दिनों पहले सात साल की एक बच्ची अपने दो साल के भाई को लेकर पहुंची। उसका भाई आधा जला हुआ था। उसकी मां के साथ सामुहिक दुष्कर्म हुआ फिर उसे गोली मार दी गई। पिता को उसके सामने ही मार दिया गया था और बच्चे को जलती भट्टी में फेंक दिया गया। उसे बच्ची ने किसी तरह वहां से निकाला। मनप्रीत ने कहा, उसकी तस्वीर मेरीे आंखों के सामने आ जाती है। जो मेरे मानस पटल पर ठहरी रहती है।
ऐसी ही तकलीफदेह कई घटनाओं का मनप्रीत ने किस्सा सुनाया। उसने कहा, नई दिल्ली के एक हिंदू परिवार से उसे मदद की गुहार मिली थी। उनकी छोटी बच्ची की तबीयत बहुत खराब थी और उसे चिकित्सा की ज़रूरत थी। खालसा दल के कार्यकर्ताओं ने उसकी तबियत का पूरा ब्यौरा फेसबुक साइट पर डाला। उसकी मदद को आगे आए हरभजन सिंह सिद्धू। वे नई दिल्ली के उस अस्पताल में पहुंचे जहां बच्ची दाखिल थीं। उन्होंने उसकी चिकित्सा के पूरे बिल अदा किए।
खालसा एड की यह एक टीम है जो विपदा से जूझ रहे लोगों की मदद के लिए हमेशा सक्रिय रहती है। इसके पहले वे मुजफ्फरनगर हिंसा में शिकार बेघर हुए लोगों तक पहुंचे। श्रीनगर में जब बाढ़ आई तो ये वहां भी पहुंचे। इस समर्पित टीम के अध्यक्ष है रवि सिंह जो यूके के हैं। अमरप्रीत सिंह एशिया देखते हैं और दिल्ली में ही रहते है। इनकी टीम में कई सौ वालंटियर (स्वयंसेवक) हैं जो इनकी अपील पर कहीं भी जाकर सहयोग देने को हर पल तैयार रहते हैं।
यह बड़ी राहत की बात है कि आज जब हर कहीं अंधे युग का माहौल हैं उसमें भी कुछ सहायता करने और मदद करने वाले हैं। विभिन्न राजनीतिक विचार धाराओं के चलते समाज में विभाजन कराने वाली ताकतों को याद कीजिए पहले अंग्रेजों ने यह किया फिर सत्ता पार्टी ने, पर हमें सजग रहते हुए इन सहयोगी संगठनों को बढ़ावा देना चाहिए।
मशहूर लेखक खुशवंत सिह ने मुझसे बातचीत करते हुए कई बार कहा था कि इन फासीवादी ताकतों से मुकाबले के लिए सिख और मुसलमानों में एकता होनी चाहिए। विभाजन से जो दूरियां बनी हंै वे पाटी जानी चाहिए। मुझे जब रॉकफेलर स्कालरशिप, ‘हिस्ट्री ऑफ सिखÓ लिखने के लिए मिली तो मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की बजाए अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय गया। वजह थी कि दोनों समुदायों में आई दूरी मिटाई जाए। जो कुछ भी घट रहा है उस पर बुद्धिजीवियों को बिना डरे लिखना-बोलना चाहिए। इन समुदायों को एक-दूजे का साथ देते हुए फासीवादी ताकतों को हराना चाहिए।

हिन्दी कहानी की निरंतर यात्रा

कथा और कहानी का विस्तार ज्यों-ज्यों आकार लेता गया त्यों-त्यों कहानी के शिल्प की बुनावट बदलती गई। कहानी के विषय बदले और कहानी में सघनता, प्रभाव की बात महत्वपूर्ण हो गई। कहानी सन 70 के बाद वैश्विक समस्याओं से ही नहीं जूझती बल्कि अकेलेपन और नगरीय जीवन की बहस में भी शामिल होती है। इसी काल में क्षण की अनुभूति या कौंधने वाले क्षण के महत्व से जुड़ी कहानियाँ भी सामने आईं।
छठे-सातवें दशक में सचेतन कहानी, समानांतर कहानी, अकहानी आन्दोलन आकार लेते हैं जो आगे जाकर जनवादी कहानी, सहज कहानी में तब्दील होते नजर आते है। इस काल के प्रमुख कहानीकार अमरकांत, दूधनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, रवीन्द्र कालिया, गंगा प्रसाद विमल हैं वहीं आंचलिक कहानियों में फणीश्वर नाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कंडेय आदि महत्वपूर्ण हैं।
क्षेत्रीयता का समावेश इस काल से कहानियों में दिखता है और इसी क्रम में पहाड़ इस काल की सम्वेदना में दाखिल होता है और आर्थिक कठिनाइयों के कारण बनते वर्ग संघर्ष को पहाड़ की श्रमशील जिन्दगी में भी जगह मिलने लगती है। शेखर जोशी की कहानियाँ एक ओर दाज्यू के माध्यम से बच्चे की आहत सम्वेदना और अलगाव को दर्शाती हैं तो दूसरी ओर बदबू कहानी मात्र बदबू के अहसास से ही जीने के अहसास को दिखाती है असल में अलगाव और मध्यवर्गीय संस्कारिकता के कारण त्रिशंकु हो जाने की पीड़ा इस काल से कहानी का मुख्य स्वर बनकर उभरने लगती है।
अकेलेपन का यह विस्तार नगर से वैश्विक धरती तक निर्मल वर्मा की कहानियों में आता है। समाज से असम्पृक्त व्यक्ति, रहस्य और मृत्युबोध निर्मल के साथ ही चला आता है और रूनी की शक्ल में ‘दहलीजÓ से गुजर कर हमारी चेतना पर छा जाता है और रूनी की तरह जैसे चेतना यह घोषणा करती है कि ‘देखती नहीं,मैं मर गई हूँ!Ó बहुत बाद में यह मृत्यु बोध अपनी पूरी भयावहता के साथ स्वदेश दीपक की कहानियों में मूर्त हो उठता है।
आंचलिक कहानियों में रेणु कहानी का शिल्प बदलते हैं। प्रेम की रोमानी छुअन और लोक का मिश्रण हिरामन और हीराबाई से होते हुए लाल पान के बेगम के माध्यम से एक केवल लोक जीवन की भाषा और सहजता का आभास ही नहीं कराता बल्कि गाँवों देहातों के भीतर के आदमी की तरलता को मूर्त कर देता है । रेणु की दुनिया में आदमी सहज है जिसकी बहुत कम जरूरतें हैं जो मेले जाने से लेकर सीता मैया की नौटंकी देखकर जी सकता है और हार जाने पर तीसरी कसम उठा सकता है, कभी नौटंकी वाली औरत को साथ न ले जाने की, और गीत बजता रह जाता है ‘सजनवा बैरी हो गए हमारÓ।
ज्ञानरंजन की कहानियों में पिता और घन्टा जैसी कहानियाँ संबंधों के एक नए दायरे को विस्तार देती हैं जहाँ शहर की अजनबियत सम्बन्धों पर हावी हो जाती है। नई कहानी से अलग होने की इच्छा यहाँ अकहानी के रूप में दिखाई देती है जहाँ पुरानी सी लगने वाली कहानी से मुक्ति की इच्छा भी प्रबल है और शहरी संवेदनहीनता के प्रति असहजता भी! ज्ञानरंजन की कहानी अनुभव इसी तिक्त और खोखले अनुभव को मूर्त करती है जहाँ क्लर्क के भीतर चिपचिपाहट है और भैंस के समान उसका पाँव भी! लेखक उसे मनहूस मानता है और अपने घर को आश्रम। जहाँ रहने से उसका मन घबराता है। वेश्याओं के पास जाने से लेकर हँसने और शोर मचाने के सारे असफल प्रयास उसके कड़वे अनुभव को और विस्तृत करते हैं ।
उदय प्रकाश की कहानियाँ मानव के क्षितिज को विस्तार देती हैं। कल्पना की दुनिया से यथार्थ को बदलने की मुहिम यथार्थ के दु:ख को और अधिक सघन कर देती है। ये कहानियाँ अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की कल्पना से इस अर्थ में भी भिन्न हैं कि पहले कल्पना लोक की दुनिया हमें यथार्थ की भयावहता से निकलने में सहायता करती थी और परियों की दुनिया के माध्यम से कुछ क्षणों के लिए यथार्थ से मुक्त कर देती थीं पर उदय प्रकाश की कहानियाँ दु:ख और अन्धकार के भीतर ले जाती हैं छप्पन तोले की करधन पढ़ते हुए ह््रदय काँप जाता है और दादी का जादू टोना (जो कहानी में कहीं नहीं दिखता) हमारी चेतना पर छा जाता है शायद इसीलिए वह किसी और को अपनी चपेट में नहीं लेता पर पिता उससे निकलते नहीं खुद ही उसके भीतर समा जाते हैं। समाज का कालापन उनकी कहानियों पर छा जाता है और आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। तिरिछ कहानी के पिता का मरना हमारी संवेदना पर गहरी चोट करता है और कहानी हतप्रभ कर जाती है। इसे जादुई यथार्थ की संज्ञा दी गई। निराशा और उदासी के बीच पिता का मरना जैसे मजबूर करता है कि हाथ बढ़ाकर पिता का मरना रोक दिया जाए बैचेनी भी होती है कि अंत तक कहीं कोई भी पिता को पहचानने वाला नहीं आता पर बाद में हर कोई दावा करता है रपट की तरह कि वह घटना का साक्षी है। साक्षी और साक्ष्य की यह लड़ाई पिता को मरने से नहीं बचाती बल्कि हर सपने को और भयावह कर देती है। गैब्रिएला मार्खेज की तरह जिसकी कहानियों से गुजरना एक ऐसे जादू से गुजरना है जिसके शिकार होना आपकी नियति है और आप स्वयं उस नियति का शिकार होकर कुछ और संवेदनशील हो उठते हैं।
कहानियों की इस बदलती भाषा और शैली ने एक नए कठोर यथार्थ के लिए जगह बनाई। अब भी कहानियों के पात्र आम मध्यवर्गीय पात्र ही थे, मजदूर और गरीब ही थे पर प्रेमचंद की परम्परा की भांति अब कहानी किसी निष्कर्ष को प्रस्तावित नहीं करती बल्कि जूझने के लिए मजबूर करती है आप उससे मुक्त नहीं हो सकते मुक्तिबोध के शब्दों में ‘उठाने ही होंगे सारे खतरे, तोडऩे ही होंगे सारे दुर्ग और मठÓ
कहानी का यह अंदाज विकसित होता है काशीनाथ सिंह की लोक जीवन की लोक कथाओं से उपजी कहानियों में! काशीनाथ की कहानी जंगल जातकम एक किस्सा कथा या जातक कथा की तरह चलती है और ठीक उसी अंदाज में बूढ़े पेड़ के द्वारा नए युवा पेड़ों को शिक्षा दी जाती है ‘बेंत न बननाÓ पर युवा पेड़ बहकने और कटने की स्थिति में आ चुके हैं ये कहानी धन्य हैं श्रीमान धन्य हैं। आपको घोड़ा खींच रहा है। आप समेत घोड़े को मनुष्य खींच रहा है फिर यह कैसे मान लें कि आप मनुष्य के हित के लिए यहाँ पधारे हैं? जैसे किस्सात्मक वाक्यों के जरिये देहाती ठाठ को बरकरार रखते हुए आबादियों के विस्थापन और मनुष्य की स्वार्थपरता का उद्घाटन करती है जहाँ घमोच जैसे लोग वर्गीय हित साधन के लिए युवा पेड़ों को बहकाकर अपनी ओर करते हैं- ‘जब पेड़ हाथ मिलाता है आदमी से। पेड़ के खिलाफ लोहा। लोहे के खिलाफ आदमी। आदमी के खिलाफ सबके सब कटते हैं जंगल पेड़ों से पटते हैं लम्बी तानते हैं, श्रीमानÓ।
इसी क्रम में दो अन्य महत्वपूर्ण कहानीकारों अखिलेश और विजयदान देथा का जिक्र करना आवश्यक है गल्पकार के लिए जिस किस्सागोई का बुनना अनिवार्य है उस किस्सागोई के माध्यम से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को मूर्त करने का गुण इन कहानीकारों के पास है। अखिलेश की एक कहानी है ‘चि_ीÓ। किस्सागोई के अंदाज में यह कहानी युवा लड़कों के झूठे स्वप्नों और सपनों में जीते इन लडकों के हाथ से निकलती जिन्दगी यहाँ क्षण-क्षण क्षरित होती साफ दिखती है। पढ़ाई और स्त्रियों के यौवन के सपने देखते यह दोस्त दुनिया को बदलने की इच्छा भी रखते हैं। एक क्षण के लिए याद आ जाते हैं अपने साथ पढ़े-लिखे वो सारे चेहरे जो गाँव-देहात और दूर-दराज के इलाकों से आए, संघर्ष किया पर व्यवस्था के क्रूर हाथों में पिसकर वे लौट गए अपनी अपनी कंदराओं में! ये दोस्त भी इसी व्यवस्था के हाथों टूटते है और लौटते हैं कभी दुबारा न मिलने के लिए!
‘उस दिन अलग होने के पहले हमने तय किया ‘हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा।लंबा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चि_ी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चि_ी नहीं लिखी है।Ó (चि_ी)
कहानी की परिणिति अत्यंत उदासी में होती है पर यही तो सत्य है और यही उदासी जीवन में दिखाई देती है
वहीं दूसरी ओर विजयदान देथा की कहानियाँ एक अलग तरह के तेवर और शिल्प की जमीन तैयार करती हैं जहाँ राजस्थानी बोली की मिठास भी है और लोक जीवन की जीवन्तता भी! उनकी कहानी है ‘वैतरणीÓ जिसका अंश है…
उसके बाद घर में किसी से कहे सुने बिना ही छोटे बेटे ने आसपास के गाँवों और ढाणियों में ढूँढ़-ढाँढ़कर हूबहू अपने सपने सरीखी सफेद गाय खरीदी। गीतों से बधाकर घर में लिया। हाथ के गुलाबी छापे लगाए। नाम रखा बगुली। बगुलों को भी मात करे जैसा सफेद रंग। रेशम जैसी कोमल रोमावली। छोटा मुँह। कुण्डलिया सींग। छोटे कान। छोटी दन्तावली। सुहानी गलकंबल। चौड़ी माकड़ी। छोटी तार। पतली लम्बी पूँछ। एक सरीखे गुलाबी थन।Ó
गोदान की कथा-भाषा का स्मरण कराती यह भाषा लोक जीवन की बानगी ही नहीं देती बल्कि शोषण के चित्र भी साकार कर देती है साथ ही शोषण के खिलाफ खड़े होने का साहस भी!
अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय समाज नजर आता है ऐसा समाज जो अपने ही भीतर जूझ रहा है धर्म को वे समाज में साम्प्रदायिकता फैलाने का आधार मानते हैं उनकी ग्राम सुधार कहानी का पात्र कहता है ‘पहले दंगे शहरों में ही हुआ करते थे। गाँव उससे अछूते ही थे किन्तु गाँवों में अब यह बीमारी फैल गई है। गाँव में इस बीमारी को फैलाने में धर्म के ही ठेकेदारों का ही हाथ है ऐसे लोग लोगों के दिलों में साम्प्रदायिकता की भावना को इस कदर भर देते हैं ……लोग जल और पानी में भी फर्क करने लगते हैंÓ भोगे हुए यथार्थ की पीड़ा ने उनके अनुभव और कैनवास को विस्तृत किया है जहाँ वर्ग संघर्ष, जाति और मजहब की पीड़ा और वर्ण भेद इस सीमा तक फैले हुए हैं कि मनुष्य इससे चाह कर भी पार नहीं पा सकता। उनकी कहानियों में सिर्फ धार्मिक भेद ही नहीं बल्कि एक धर्म के भीतर भी तनाव की हदें यहाँ दिखाई देती हैं । एक कहानी ‘जीना तो पड़ेगाÓ का पात्र किसी अस्पताल में नहीं जाना चाहता क्योंकि उसके भीतर यह डर है कि उसके मुस्लिम होने के कारण उसे हिन्दू डॉक्टर जहर की सुईं लगाकर मार देगा पर तभी एक पात्र रहस्य-उद्घाटन करते हुए जैसे कहता है ‘अरे मामू अभी मैंने क्या कहा? तुम्हें किसी मुसलमान औरत ने भी तो मारा हैÓ कहानियों का यह क्षण जैसे कौंध कर रह जाता है और कहानी बस रुक जाती है और सोचने पर मजबूर करती है कि कब तक जाति और धर्म की इस बहस के आगे मनुष्यता हारती रहेगी ।
ब्रेख्त ने एक स्थान पर लिखा है कि मनुष्य के साथ सबसे बड़ा खतरा सत्ता को यही महसूस होता है कि वह सोच सकता है आज की कहानियाँ इसी सोच और वैचारिकता की कहानियाँ है ।
इसी सोच और वैचारिकता से अस्मिता मूलक कहानियों का जन्म होता है जहाँ अपनी अनुभूति को अपनी जिह्वा से कहने और व्यक्त करने की जद्दोजहत भी है और अपना सौंदर्यशास्त्र स्वयं रचने की इच्छा भी! स्त्रियाँ अपने अस्मिता बोध को अपने अकेलेपन और संसार के समानांतर सूत्र तलाशते हुए ढूंढती हैं।इस सूत्र की तलाश मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती प्रमुख हैं । मन्नू भंडारी की कहानियों में यही सच है जहाँ स्त्री मन और क्षण के सत्य को जोड़ती है । वहीं एक कमजोर लड़की की कहानी स्त्री को पुरातन बने बनाए नियमों में बंधे रहने और प्रेम के द्वंद्व को दर्शाती है। यह कहानियाँ बदलते समाज और पुरातन समाज की द्वंद्वात्मक स्थिति को दिखाती है जहाँ बदलने की इच्छा भी है और पुरातनता का दबाव भी!
कृष्णा सोबती का लेखन बने-बनाए नियमों से भिन्न एक मांसल, बोल्ड और साहसी स्त्री की छवि प्रस्तुत करता है जिसे आलोचकों द्वारा सहज स्वीकार नहीं किया जा सका पर खारिज करने का साहस भी जुटाया नहीं जा सका । कृष्णा की स्त्री शाहनी हैं जो सिक्का बदलने का अर्थ जानती है और ‘रब राखाÓ कहकर अपना सब छोड़कर आगे बढ़ जाती है मित्रों अपना निर्णय लेकर उसका भुगतान करने के लिए भी तैयार रहती है पर अपनी देह की सीमाओं को तोडऩे का साहस जुटाती है, इसीलिए मरजानी बनकर जीती है पर समझौता नहीं करती!
राजी सेठ, जया जादवानी, मृदुला गर्ग, अनामिका जैसी सजग और निरंतर लेखन कर रहीं रचनाकार स्त्री स्वप्नों को रच रही हैं और हर रचनाकार स्त्री स्वप्न को तलाशने का अपना सूत्र विकसित कर रही है जैसे राजी सेठ की कहानियाँ धर्म और दर्शन को समाजशास्त्रीय नजरिये से परिभाषित करती है । स्त्री होना और स्त्री होने की जिद से लिखना दो अलग तर्क है, और राजी सेठ अपने संग्रह स्त्री हूँ इसीलिए में रचनामूल्यों और मनुष्यता के आयामों को व्याख्यायित करता है। स्त्री होने के नाते वह स्त्री को ही सही मानकर उसकी पक्षधरता नहीं करती बल्कि क्रूर तटस्थता के साथ हर घटना और परिस्थिति को सामने रख देती है। हर घटना पर वह टिप्पणी नहीं करती बल्कि पाठक के विवेक पर छोड़ देती हैं। पाठ के रूप में इन कहानियों से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे अपने मन के भीतर की खाइयों से ही गुजर रहे हों और कई बार लगता है जैसे भीतर के सत्य को उधेड़ और अनावृत करके रख दिया हो। अपने विरुद्ध कहानी जहां श्याम के भीतर के पुरुष को अनावृत करती है वहीं एक लेखक (लेखिका!) के खत्म होने और कुछ न कह पाने के दर्द को उभारती हैं । अंधे मोड़ से आगे कहानी ‘उसकेÓ सारे बंधन को तोड़ते हुए जीवन को जीने की पहल की अदम्य इच्छा को रखती है। अनावृत्त कौन जहां स्त्री के भीतर के ममत्व क्षेत्र का विस्तार करती है और पति को ही जीवन के सत्य के रूप में न स्वीकार करके रिश्तों की परिभाषा का विस्तार करती है. वहीं गलत होता पंचतंत्र संतान के दायित्व और माता-पिता की भूमिका को रेखांकित करती है. ‘मेरे मन में किसी सौन्दर्य सूत्र ने जन्म नहीं लिया. मेरा अव्यक्त क्षोभ दूसरों के कन्धों पर सर पीटता रहा और कभी समझ नहीं पाया कि रचना केवल जीवन के हाथों होती है जीवन से बचकर नहीं….Ó
दलित रचनाधर्मिता भी कहानियों के माध्यम से स्व-अनुभूति की राह तलाश रही है आग ही जानती है जलने का दर्द। यह वाक्य ही दलित रचनाकारों के भीतर के आक्रोश को व्यक्त करने में समर्थ है अजय नावरिया, मोहनदास नैमिशराय, ओम प्रकाश वाल्मीकि जैसे कहानीकार इस पीड़ा को व्यक्त कर रहे हैं। अजय नावरिया लिखित एक कहानी की है न्याय- कथा जो जातिगत ढांचे पर बहस करती है इस कहानी का नायक रविदास जो एक दलित है कहता है जब तक हमारी पहचान नहीं खुलती तब तक ही हम योग्य, स्वच्छ और स्वीकार्य होते हैंÓ व्यवस्था के क्रूर चेहरे को अनावृत करती यह कहानियाँ अपने होने की लड़ाई लड़ रही हैं अस्मिता का यह बोध कहीं कहीं अत्यंत व्यंग्यात्मक हो उठा है पर जातिगत पीड़ा से गुजरकर लिखी यह कहानियाँ आत्म अभिव्यक्ति का मार्ग तलाश रही हैं जिसका आरंभिक रूप निजता की पहचान का संघर्ष और समानता के अधिकार के लिए संघर्ष ही हो सकता है ।
एक अन्य रचनाकार स्वदेश दीपक का जिक्र किए बिना यह लेख पूरा नहीं हो सकता। उनकी कहानियाँ किसी एक पेड़ का नाम लो, बाल भगवान, रफूजी, क्योंकि हवा पढ़ नहीं सकती, महामारी, किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं जैसी कहानियाँ व्यवस्था के विरोध की कहानियाँ मात्र न होकर आंतरिक अवरोध और अंतर-बहस का माध्यम बन कर आती हैं। स्वयं स्वदेश ने एक साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि उनकी कहानियाँ पढ़कर पीजीआई के डॉक्टर ने कहा था कि यह आदमी या तो जीनियस हो सकता है या पागल! देश विदेश में जीनियस क्षमता को पागल कहकर ही तो खारिज किया जाता रहा है और यही स्वदेश के साथ हुआ पर उनकी कहानियाँ बेचैनी की कहानियाँ हैं जो होंट करती हैं परेशान करती हैं और कुछ न बदल पाने की स्थिति में होने पर कायर होने का अहसास भी दिलाती हैं । उनकी कहानियों की आत्मा और पाठक की आत्मा की साझेदारी होना निश्चित है और ऐसे में ये कहानियाँ हम-कदम हो उठती हैं मात्र एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूँगी —किसी एक पेड़ का नाम लो कहानी, यूं तो माया बख्शी और स्क्वार्डन लीडर अजय के मध्य प्रेम और अंत में अजय को फांसी देने के मध्य की स्थितियों को बयाँ करती है पर कथा कहने का अलग अंदाज एक आत्मा के तप्त सोखे को दूसरी आत्मा के संकेत चिह्न पहुंचा देता है।
न पेड़ों की टहनियाँ हिलती हुई, न हवा उन्हें छेड़ती हुई आकाश ने पेड़ों की ऊपरवाली टहनियाँ को छुआ-कि-छुआ। सब कुछ स्तब्धत-शिथिल इस दो एकड़ में बनी कोठी में अजय को कहाँ तलाशे? एक हिस्से में सब्जियाँ, दूसरे हिस्से में फलों के पेड़। कोठी की आयु साठ वर्ष से ऊपर, कई भीमकाय पेड़ भी इतने ही बूढ़े। दिसंबर की हवा चले-न-चले। होती तो निर्दय है न। घात लगा कर बैठी हवा। उसने साँस रोकी। आत्मा से संकेत मिले। लेकिन मस्तिष्क आत्म संकेतों को ग्रहण नहीं कर रहा। दोनों में तादात्मय नहीं हुआ न।
कहानी कला का विकास अनेक रूपों और शैलियों में लगातार होता रहा है और आज भी हो रहा है । नए-नए रचनाकार इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और सभी अपने अपने अंदाज में युग बोध से लेकर आत्म बोध तक कहानियों की दुनिया का विस्तार कर रहे हैं। यह रचनात्मकता की अपनी दुनिया है जिसमें आखिरी कही जा चुकी कहानी को भी फिर एक नए रचनात्मक अंदाज में कहा जा सकता है …सदी के अंत तक कहानियाँ रची जाती रहेंगी और इनका विशद संसार यह भरोसा मजबूत करता रहेगा कि कहानी अपने यथार्थ और कल्पना के मिलन बिन्दुओं से एक नया संसार बनाती रहेगी जिसमें हम सब का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा होगा ।
अगले अंक में एक नई विधा पर।

महिलाएं भी अब एशियाई चैंपियन

Indian_Womens_Team-PTI

पुरु षों का अनुसरण करते हुए भारतीय महिला हाकी टीम ने भी एशिया कप हाकी पर कब्ज़ा जमा लिया। उन्होंने हर मैच में एक से जोश और जनून का प्रदर्शन किया। पूल मैचों में जैसे भारतीय लड़कियों के सामने कोई चुनौती थी ही नहीं। उन्होंने पहले मैच में सिंगापुर की कमज़ोर टीम को 10-0 से परास्त कर अच्छी शुरूआत की। इसके बाद उन्होंने चीन की मज़बूत मानी जाती टीम पर 4-1 से जीत दर्ज कर सभी को हैरान कर दिया। इस मैच में गुरजीत कौर ने 19वें मिनट में, नवजोत कौर  ने 32वें, नेहा गोयल ने 49वें मिनट और टीम की कप्तान रानी रामपाल ने 58वें मिनट में गोल किए। चीन का एक मात्र गोल क्युशिया कुई ने पेनाल्टी कार्नर में 38वें मिनट में दागा। भारत ने 19वें मिनट में गुरजीत कौर के गोल से बढ़त ली जिसे नवजोत ने 32वें मिनट में दोगुना कर दिया (2-0) आधे समय के कुछ देर बाद 38वें मिनट में क्युशिया कुई के पेनाल्टी कार्नर के गोल की बदौल इस बढ़त को कम कर दिया (1-2)। इसके बाद भारतीय लड़कियों ने चीन को अपने गोल पर निशाना नहीं साधने दिया और दो गोल और दाग कर स्कोर अपने हक में 4-1 में पहुंचा दिया।
इससे अगला मैच भारत का कज़ाकिस्तान के साथ था। इसमें उसे कुछ ज्य़ादा ज़ोर नहीं लगाना पड़ा। यहां भारतीय टीम 7-1 से विजयी रही। अपने अंतिम मुकाबले में भारत की टक्कर मलेशिया के साथ थी। यह मैच वह 2-0 में जीत गया। इस प्रकार उसने अपने मूल में सभी चार मैच जीत का पूरे 12 अंक हासिल किए। उन्होंने इन चार मैचों में 23 गोल किए और केवल दो गोल खोए।
सेमीफाइनल में भारत का मुकाबला पिछली विजेता और सबसे मज़बूत टीम जापान से हुआ। इस मैच में भारत की सही फार्म नज़र आई और उसने आक्रामक हाकी खेलते हुए जापान को 4-2 से परास्त कर फाइनल में जगह बना ली। भारत के लिए गुरप्रीत कौर, नवजोत कौर लालरेममियामी ने गोल बनाए।
चीन के खिलाफ भारत का फाइनल मैच देखने योग्य था। हालांकि मूल मैच में भारत चीन को 4-1 से हरा कर अपनी धाक जमा चुका था और मनोवैज्ञानिक रूप से ज्य़ादा प्रबल लग रहा था, पर चीन भी बदला लेने की नियत से उतरा था। दोनों टीमों ने सर्वश्रेष्ठ हाकी का प्रदर्शन किया। भारत के लिए पहला गोल नवजोत कौर ने 25वें मिनट में किया। इसे 47वें मिनट में चीन की नियनतियान लुओ ने पेनाल्टी कार्नर पर बनाया (1-1)। मैच शूट आउट पर चला गया। भारत के लिए उसकी गोलकीपर सविता नायक साबित हुई। कप्तान रानी रामपाल ने देश के लिए दो और मोनिका, लिलिमा मिंज और नवजोत कौर ने एक-एक गोल किया। इस प्रकार भारत ने यह मैच 5-4 से जीत कर एशिया कप अपनी झोली में डाल लिया।
इस जीत से भारत की टीम मैरिट के आधार पर अगले वर्ष होने वाले विश्व कप के लिए क्वालीफाई भी कर गई। भारतीय गोल रक्षक सविता को सर्वश्रेष्ठ गोल रक्षक चुना गया।

राजनीतिक चक्रव्यूह में घिरा मैसूर का टाइगर

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नासा के वल्लोप्स फ्लाइट्स फैसिलिटी, यानी जहाँ से राकेट परीक्षण होता है वहां 1780 के एंग्लो मैसूर युद्ध का चित्र लगा हुआ है। यह एक युद्ध दृश्य को दर्शाता है जिसकी पृष्ठभूमि में कुछ रॉकेट उड़ रहे हैं। ”इस पेंटिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया क्योंकि रॉकेट लॉन्च करने वाले पक्ष पर सैनिक गोरे नहीं थे, बल्कि दक्षिण एशिया में पाई जाने वाली नस्लीय विशेषताओं के साथ काली चमड़ी वाले थे। टीपू सुल्तान की सेना अंग्रेज़ों से लड़ रही है। यह चित्र अमेरिका में टीपू सुल्तान की उस उपलब्धि को उजागर करती है जिसे अपने देश में लोग लगभग भूल चुके हैं,ÓÓ पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा में यह उल्लेख किया है।
18वीं शताब्दी में मैसूर के शासक हैदर अली और उनके बेटे और उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने 1780 और 1790 के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सफलतापूर्वक पहले लोहा-युक्त रॉकेट का इस्तेमाल किया। कंपनी के साथ उनके संघर्ष ने ब्रिटिश को इस तकनीक से अवगत कराया। जिसका उपयोग 1805 में कॉनरेव रॉकेट के विकास के साथ यूरोपीय रॉकेट्री के लिए किया जाता था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि रॉकेट और अंतरिक्ष जहाज की तकनीक पश्चिम को भारत से मिली है और इसमें टीपू सुल्तान की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
मैसूर के शासक की एक नायक के रूप में प्रशंसा करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हाल ही में कहा, ”टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। वे युद्ध में मैसूर रॉकेट के विकास और उपयोग में अग्रणी भी थे। यह तकनीक बाद में यूरोपियों ने अपनाई।ÓÓ कर्नाटक के ”दुर्जेय सैनिकÓÓ पर राष्ट्रपति कोविंद की टिप्पणी, हालांकि, भाजपा को पसंद नहीं आई क्योंकि भगवा पार्टी के अनुसार टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल में बहुत से हिन्दुओं की हत्या की थी और अनेक हिन्दुओं को अपना धर्म बदलने के लिए मजबूर किया था।
हाल में भाजपा के एक मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने टीपू सुल्तान को ”एक कू्रर हत्यारा, नीच कट्टरपंथी और सामूहिक बलात्कारीÓÓ कहा और ”मैसूर टाइगरÓÓ की जयंती के उपलक्ष्य में हो रहे कार्यकर्मों में भाग लेने से इनकार कर दिया था। हिंदू कट्टरपंथियों ने जाहिर तौर पर अपना दावा 18वीं सदी के पिछले दो दशकों में अंग्रेजी अधिकारियों, लेखकों, कलाकारों और कार्टूनिस्टों द्वारा टीपू सुल्तान के विरुद्ध प्रचारित आरोपों पर आधारित किया है। जब टीपू ने युद्ध में अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी तो अंग्रेज़ों ने उनको बदनाम करने के लिए उन्हें एक कट्टरपंथी मुसलमान के रूप में पेश किया और कहा कि इस राजा ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा और हिंदू और ईसाई को अपने धर्म को बदलने के लिए मजबूर करता रहा है। कहा कि केवल अंग्रेज ही मैसूर की प्रजा को बचा सकते हैं। टीपू को अयोग्य साबित करके ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी छवि सुधारना चाहती थी।
हिन्दू कट्टरपंथी भले ही टीपू सुल्तान को क्रूर शासक बताएं मगर भारतीय इतिहास की पुस्तकों में उनको अच्छे शब्दों में याद किया जाता रहा है और एक आदर्श के रूप में दर्शाया गया है। 19वीं शताब्दी में उनकी मृत्यु के बाद कई कन्नड़ लोक गीतों, जिन्न्हें लवनीस भी कहते हैं, उन्हें गाकर  युद्ध के मैदान में उनकी वीरता का बखान करते रहे। इनमें से कई आज भी प्रचलित हैं। दिलचस्प है कि ऐसे लोकगीत कर्नाटक के किसी और राजा के लिए नहीं गाए गए। 19वीं शताब्दी और 20वीं सदी के अंत में पूरे राज्य में मैसूर शासक पर हजारों नाटकों का मंचन किया गया था। इतिहास की पुस्तकें और लोकप्रिय साहित्य, जैसे कि अमर चित्र कथा कॉमिक्स, ने उन्हें स्पष्ट रूप से एक बहादुर योद्धा कहा है।
आरएसएस ने 1970 के दशक के अंत में टीपू सुल्तान पर एक संक्षिप्त कन्नड़ जीवनी प्रकाशित की थी जो उन्हें देशभक्त और वीर व्यक्तित्व के रूप में दर्शाती है और उसमें उनके ऊपर कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। 2012 के अंत में भाजपा छोडऩे के बाद अपनी पार्टी बनाने के लिए कर्नाटक जनता पक्ष के नेता बी एस येदियुरप्पा ने एक समारोह में टीपू सुल्तान जैसी पगड़ी पहनकर और हाथ में एक तलवार लेकर मैसूर शासक की प्रशंसा करते हुए मुसलमान मतदाताओं से समर्थन की मांग की थी। दो साल बाद जब भाजपा में वापस लौटे तो येदियुरप्पा कर्नाटक में टीपू जयंती के जश्न के विरुद्ध सबसे आगे दिखाई दिए। ऐसा प्रतीत होता है मानों 18वीं शताब्दी के मैसूर शासक के विरोध महज़ दक्षिण भारत में राजनीतिक स्थान बनाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए ऐतिहासिक चिह्नों का उपयोग तो अब वैसे भी आम बात है।
कोई ठोस ऐतिहासिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है जिनसे जानकारी मिलती हो कि टीपू सुल्तान ने युद्ध में जीते हुए हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया था। मगर ऐसे लिखित प्रमाण बहुत हैं जो ये सिद्ध करते हैं कि टीपू ने अपने राज्य में कई धार्मिक स्थानों की मरम्मत करवाई थी और उनकी आर्थिक सहायता की थी। श्रृंगेरी के शारदा मंदिर के पास एक दस्तावेज है जिसके मुताबिक जब मराठा सरदारों ने एक बार मंदिर को लूट लिया तो स्वामी श्री सच्चिदानंद भारती तृतीय ने टीपू सुल्तान से मदद मांगी थी। मैसूर शासक ने मंदिर की बहाली के लिए उदारता से धन भेजा था और श्री शारदा की मूर्ति को फिर से स्थापित किया गया था। मंदिर ने अपने पुरालेखों में टीपू सुल्तान के साथ अपना पत्राचार सुरक्षित रखा है। इसमें उन पत्रों को भी शामिल किया गया है जिसमें टीपू ने स्वामी से दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने में मदद करने के लिए सतचंडी और सहस्त्रचंडी जाप करने के लिए अनुरोध किया था। दक्षिण कन्नड़ जिले के कोल्लूर में श्री मुकाम्बिका मंदिर हर रोज़ मैसूर टाइगर के नाम पर एक विशेष पूजा करता है जिसे ‘सलाम मंगलराठीÓ कहते हैं।
मैसूर के निकट नानजानगढ़ के श्रीकांतेश्वर मंदिर में टीपू सुल्तान द्वारा दान किए गए पन्ना की एक शिवलिंग है। मंदिर के साहित्य के अनुसार मंदिर में अनुष्ठान करने के बाद टीपू का एक पालतू हाथी, जो अंधा हो गया था, उसकी दृष्टि बहाल हो गई। स्थानीय देवता को हकीम नानजुंडा के नाम से संबोधित करते हुए टीपू सुल्तान ने दान किया था। हिंदू मंदिरों के कई अन्य उदाहरण हैं जहां मैसूर शासक या तो आर्थिक मदद की है या वहां गए थे। मैसूर गजट के संपादक श्रीकानातायह ने 156 मंदिरों को सूचीबद्ध किया है जिनको टीपू ने नियमित रूप से वार्षिक अनुदान दिया था।
ये सच है कि मैसूर शासक ने हिंदू और ईसाई समुदाय को कभी कभी निशाना बनाया। परन्तु इतिहासकार केट ब्रैटबैंक के अनुसार, ”यह आक्रमण किसी समुदाय विशेष के प्रति द्वेष के कारण नहीं बल्कि उन्हें सबक सिखाने के लिए थे। जो लोग अंग्रेज़ों का समर्थन करते थे उन्हें मैसूर राज्य के विश्वासघाती के रूप में देखा जाता था। टीपू ने महादेविज जैसे मुस्लिम समुदायों के खिलाफ भी कार्रवाई की थी जो ब्रिटिश सरकार का समर्थन करते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के लिए काम करते थे।ÓÓ इतिहासकार सुसान बेयली कहती हैं, ”उन्होंने हिंदू और ईसाइयों के साथ अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने की पूरी कोशिश की। दिलचस्प है कि टीपू के दाहिना हाथ कहे जाने वाले मुख्यमंत्री एक हिंदू थे। उसका नाम पूर्णिया था।
टीपू सुल्तान, ताजमहल और बाबरी मस्जिद पर चल रहे विवाद इस ओर इशारा करते हैं कि आजकल के राजनीतिक अपने फायदे के लिए इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करने से भी नहीं चूकते।

कनाडा में राजनीतिक दल का नेता बना सिख

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मिलिए जगमीत सिंह से। इन्होंने इतिहास रचा। ये पहले सिख हैं जिन्होंने कनाडा में राजनीतिक पार्टी बनाई। इस पाटीं को हलके में नहीं लिया जा सकता। उन्होंने ‘न्यू डेमोक्रेटिकÓ पार्टी को नया जोश दिया है।
अभी हाल जगमीत सिंह, अखबारों की सुर्खियां सहसा तब बने जब उन्होंने कहा कि पंजाब को ‘आत्मनिर्णयÓ का अधिकार मिलना चाहिए। इस पर पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने खासी नाराज़गी जताई। उन्होंने मांग की कि कनाडा के अधिकारी इस तरह के तत्वों के बयान को गंभीरता से लें। भारत में इस तरह भारत विरोधी साजिशें रची जा रही हैं जिनसे असंतोष फैले।
जगमीत सिंह 38 साल के नौजवान सिख वकील हैं। वे अक्तूबर 2019 में होने जा रहे संघीय चुनाव में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो के मुकाबले में चुनाव भी लड़ेंगे। मजेदार बात यह है कि वे कनाडा में उसकी विभिन्नता बनाए रखने के लिए खुद के अल्पसंख्यक दर्जे के होने का इस्तेमाल करेंगे। हालांकि वे खास तौर पर नए एशियाई मतदाताओं की ताकत के चलते जीतते रहे हैं। उनकी इस जीत के लिए जिम्मेदार हैं ‘न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता।
यह एक बड़ी जीत थी। मतदान के पहले नतीजों की घोषणा टोरंटों के मेट्रापॉलिटन बालरूम में हुई थी। जगमीत सिंह बक्त पर थे। वे उस पचास फीसद की रेखा के भी पार पहुंच गए थे जो कनाडा की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतृत्व को पाने के लिए ज़रूरी था। अब वे एनडीपी (न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी) का नेतृत्व अक्तूबर 2019 तक संभालेंगे। सिंह ने अपनी जीत को अमूल्य सम्मान बताया। एक श्रद्धालु सिंह होने के नाते वे पगड़ी पहनते हैं और कमर में कृपाण लटकाए रखते हैं। वे पहले रंगीन व्यक्ति हैं कनाडा के इतिहास में। विश्व संगठन ने इस जीत को ऐतिहासिक बताया है। कनाडा के सिख लोगों के लिए यह ऐतिहासिक मील का पत्थर है। ‘कुछ पीढिय़ों पहले हमारे समुदाय के लिए कभी ऐसी कोई बात सोची भी नहीं गई। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई अपने धर्म की निशानियां पहने हुए जीतेगा और इतनी गरमाहट से लोग उसे स्वीकार भी करेंगे।Ó संगठन के लोगों ने एक बयान में यह कहा।
जगमीत सिंह ने घोषणा की कि ‘2019 की शुरूआत ही कनाडा में जीत के मुकाबले से होगी। कनाडा के लोग ऐसी सरकार चाहते हैं तो उन संघर्षों के मायने भी समझती है जिनका लोग फिलहाल मुकाबला कर रहे हैं। कनाडा की जनता को ऐसी सरकार की ज़रूरत है जो संघर्ष का अर्थ समझती हो। उसे ऐसी सरकार चाहिए जो काम पूरा करे। इसी कारण मै आधिकारिक तौर पर कनाडा का अगला प्रधानमंत्री होने के लिए अपना चुनाव प्रचार शुरू कर रहा हूं।Ó
नेतृत्व के मुकाबले में हमारे उम्मीदवार थे। जैसे ही तीन नामों की घोषणा हुई। यह तय हो गया कि सिंह की जीत हुई है। तकरीबन 66 हजार वोट पड़े। सिंह को 35 हजार से भी ज्य़ादा वोट हासिल हुए। यानी बाकी उम्मीदवारों से तीन गुणा ज्य़ादा। ओंटारियो के सांसद चार्ली एंगल को 12,205 मत मिले। नैशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का नेतृत्व जीतने के बाद जगमीत सिंह कनाडा की रिच डाइवर्सिटी के नए ब्रांड एंबैडसर हो गए। यह उस देश की महानता है कि उसने अल्पसंख्यक को अपना नेता कबूल किया। वे पहले गैर अश्वेत राजनीतिज्ञ हैं। जो कनाडा के राष्ट्रीय मंच पर चमकते नज़र आएंगे।
एक नई हवा के साथ एक मजबूत संदेश जाता है कि यहां की राजनीतिक प्रणाली में एक नई ताकत और नजरिया सक्रिय रहेगा।
अभी से ही उन्हें जस्टिन त्रूदो के संभावित मुकाबले में माना जाने लगा है। एनडीपी के नेता के लिए राह आसान नहीं होती। उसे एक ऐसी पार्टी को और ऐसा सुगठित करना है जो 1961 में स्थापित हुई थी। इसके अपने अच्छे क्षण थे। लेकिन जब 1972 से 1974 के दौरान इसने पिएर त्रूदो के साथ सत्ता में भागीदारी की तब इसका भी विकास हुआ। अब जगमीत सिंह पर सबसे कठिन काम होगा कि यह एनडीपी के पारंपरिक श्वेत आधार को मजबूत करे और अल्पसंख्यकों के बीच ताकतवर आधार बनाएं। जगमीत सिंह को अब अपनी स्थिति मजबूत कर लेनी चाहिए और अपनी छवि को अधिक गंभीर और समझदार नेता के तौर पर बनानी चाहिए क्योंकि कनाडा जैसे विशाल और विभिन्नताओं वाले देश को संभालना भी आना चाहिए।
शुक्रिया न्यू डेमोक्रेटस, प्रधानमंत्री पद के लिए मुकाबला अब होना है। उन्होंने 54 फीसद वोट पाए थे और एनडीपी के नए नेता बने थे। उन्होंने टामस म्येलकेयर का पद संभाला। टोरंटो क्षेत्र के राजनीतिक जिनसे उम्मीद थी कि वे पार्टी में नई जिंदगी का संचार करेंगे। वे 2011 से ही करिश्माई नेता जैक लेटन की मौत के बाद से ही पार्टी को संभाल रहे थे।
सिंह का जीवन परिचय तब महत्वपूर्ण हुआ जब उन्हें एक वीडियों में शोर मचाने वाले को प्यार से समझाते हुए देखा गया। पंजाब से आए और स्कारबोरो में बसे एक आव्रजक परिवार के घर में जन्में सिंह ने सेंट जॉस, न्यू फाउंड लैंड, लैब्राडोर और विंडसर में पढ़ाई लिखाई की। उन्होंने 2001 में वेस्टर्ल ओंटारियो से बॉयोलॉजी से बैचलर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की और यॉर्क यूनिवर्सिटी के ओस गुडे हाल लॉ स्कूल से 2005 में कानून की डिग्री पाई। उन्होंने ग्रेटर टोरंटो एरिया में फौजदारी के मामले बतौर सरकारी वकील लेने शुरू किए फिर वे राजनीति में आ गए। कनाडा की जनसंख्या में सिखों की तादाद 1.4 फीसद है।।
त्रुदो के लिए 2019 में अपने नए विरोधी सिंह है जिनसे मुकाबला सहज नहीं है। एक चीज जो उनके पक्ष में है वह है एनडीपी का ऐतिहासिक तौर पर किया गया कामकाज। सिंह अब समर्थकों को साथ लेकर रैलियां करते हुए केंद्र- वाम मतदाताओं को निशाने पर लेंगे जिन्होंने त्रूदो के उदारपंथियों को 2015 में महत्वपूर्ण जीत दिलाई थी। जब कुछ समय बीता तब नेतृत्व का मुकाबला हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि करिशमाई राजनीतिक नेता के लिए आगे अभी लंबी सड़क है बशर्ते वह वामपंथी एनडीपी हाउस ऑफ कॉमन्स में सीटें जीतना चाहे। तो उन्हें यह जानना-समझना होगा कि एनडीपी से अलग इसके राजनीतिक विरोधी हैं खासतौर पर प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो और उनकी लिबरल पार्टी।
अब सिंह के सामने 2019 का चुनाव एक अलग चुनौती है। एक बात जो उनके पक्ष में है वह है एनडीपी का ऐतिहासिक कामकाज। लगातार चुनावों में पार्टी चुनाव में उतरी और पार्टी ने न केवल वोट बल्कि सीट की हिस्सेदारी भी हारी। पार्टी के 2011 के नतीजों के अनुसार एनडीपी को 44 सीटें हासिल हुई और 19.5 प्रतिशत शेयर वोटों की हिस्सेदारी 2015 के संघीय चुनाव में मिली। इसका यह दूसरा और तीसरा सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन था। सिंह के सामने तब पहाड़ पर चढऩे का मौका था। जो पूर्व नेता टॉम म्यूलकेयर के लिए उपयुक्त नहीं था। उसने उम्मीदों पर पहले ही तुषारपात कर दिया था जब वह जीता था और डगलस और लेटन के बाद अकेला तीसरा व्यक्ति बना था। उसे एनडीपी का नेतृत्व मिला था मतदान में। उसे ऐसी अच्छी सोहबत में रख कर न्यू डेमोक्रेटस को यह उम्मीद करनी चाहिए कि वह उम्मीदों को निराशा में बदलता रहेगा।

भारत में आहार की नीति और राजनीति

poverty

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा
कवि दुष्यंत कुमार

आहार और भूख महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनकी विकसित हो रहे देश में चर्चा होती है। 70 साल से आज़ाद देश भारत की क्या स्थिति है उसे यदि ‘ग्लोबल हंगर इंडैक्सÓ में देखे तो निराशा होती है। ‘इंटरनेशनल पालिसी रिसर्च इंस्टीच्यूटÓ की जारी रपट के अनुसार 119 देशों में भारत 100वें स्थान पर है। ‘ग्लोबल हंगर इंडैक्सÓ ने इस स्थिति के लिए देश में कुपोषण, शिशु मौतों, शिशु विकास में रुकावट आदि को दोषी माना है। इन सब क्षेत्रों में भारत का प्रदर्शन काफी खराब है। इन तमाम मोर्चों पर भारत का स्तर आबादी में ज्य़ादा ऊंचा नही बढ़ा। खुद को ताकतवर और विकसित कहने वाला यह देश आज ज्य़ादातर अफ्रीकी देशों कई मध्यपूर्व राष्ट्रों से भी नीचे और एशिया में सबसे खराब पाकिस्तान और अफगानिस्तान से थोड़ा ऊपर है।
इसके बाद ही खबर आई कि तीन-चार दिनों की भूखी ग्यारह साल की संतोषी कुमारी की मौत भूख से हो गई है। जो ‘भात-भातÓ कहती हुई चल बसी। इसके परिवार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए राशन नहीं मिल रहा था। क्योंकि इनका आधार कार्ड राशनकार्ड से जुडा़ नहीं था। इसके बाद ही एक और बैजनाथ रविदास रिक्शा चालक की मौत भूख से हो गई। उसके पास न तो राशन कार्ड था और न आधार कार्ड।
इन मौतों से आंकड़ें ज़रूर बनते हैं ये मन को छूने वाले और दर्दनाक हैं। इन दोनों ही मामलों में से यह ज़रूर साबित हुआ गड़बड़ी पूरी प्रणाली में ही है। जिस प्रणाली से यह पूरी नाकामी उजागर हुई उससे उम्मीद थी कि इससे लोगों की मदद होगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
राशन कार्ड को आधार से जोडऩा, फिर राशन की दुकानों से राशन देना काम की दुहरी प्रक्रिया है। इसमें पहले कार्ड को आधार से जोड़ा जाता है फिर राशन की दुकानों से राशन पाने वाले इसकी तसदीक करते हैं। हालांकि लोगों की शिकायत है कि बहुधा स्कैनिंग मशीनें और कंप्यूटर नेटवर्क, बिजली न होने से काम ही नहीं करते। रविदास के परिवार का आरोप है कि कई बार बाबुओं, अधिकारियों के पास गुहार लगाने पर भी राशन कार्ड जारी नहीं हुए क्योंकि बिचौलियों ने बीच में अडंग़ा लगा दिया था।
भारत ने एक लंबे अर्से से गरीबी की माप को कैलोरी की खपत से जोड़ रखा है। गरीबी और विकास मापने का यह रवैया भी राजनीतिक है। दूसरे देशों में तो सरकारें गिर जाती हैं। भोजन के लिए दंगे और हिंसा व लूटपाट होने लगती है। ऐसा तब होता है जब समाज में भूख उस स्तर तक पहुंच जाती है जिस पर लोग बेताब हो उठते हैं।
इतिहास पलटें तो भारत में 1942-44 30वें और 40वें दशक में जो अकाल पड़ा उससे आज़ादी के संग्राम में लोगों की भागीदारी और बढ़ी।
लोगों ने यह माना कि आज़ाद देश में ऐसी
दुरावस्था नहीं होगी। अपना राज होगा। भूख के ही चलते फ्रांस, रूस और चीन में जनता ने आज़ादी के लिए क्रांति का सहारा लिया। उस समय एक मुहावरा चल निकला था जो एक राजा के वाक्य पर आधारित था कि ‘यदि लोगों को भूख लगी है तो उन्हें ब्रेड की जगह केक खाना चाहिएÓ। यही प्रतीक बना क्रांति का। भूखे लोगों में तनाव और भड़का और उन्होंने हिंसा का सहारा लेकर सत्ता उखाड़ फेंकी। बंदूकों, तोपों और सिपाहियों की संख्या पर गर्व करने वाले या तो मारे गए या फिर जेलों में पहुंच गए। पिछले कुछ दशकों से मध्यपूर्व में भी यही हाल है। आप याद कीजिए मिस्र में 1977 में कितना विशाल दंगा हुआ था रोटी के लिए। भोजन न मिलने की कई वजहें सरकार और उनके महकमे बताते हैं क्योंकि उनकी ही करतूतों के चलते किसान खेती से दूर हो जाते हैं। खेतों तक पानी न पहुंचने से फसलें नहीं होती। फसलों का सही दाम नहीं मिलता। संसाधन सूखने लगते हैं किसान हताश होता है। इन तमाम बातों के लिए अफसरशाही, भ्रष्टाचार और सरकारें ही होती हैं।
इसलिए सरकारें ऐसी रणनीतियां और नीतियां बनाती है जिससे भूख पर काबू पाया जाए और खाद्यान्न की सप्लाई लाइन बाधित नहीं हो और कीमतें न बढ़ें। खाद्यान्न की बेहतर वितरण की व्यवस्था बनी रहे। कीमतों में अनुदान की
व्यवस्था रखी जाए। यह सब वे ज़रूरी बातें हैं जिन पर विभिन्न देशों की सरकारें अपने-अपने देशों के नागारिकों की सुविधा के लिए ध्यान देती हैं। देशों के बीच खाद्यान्न राजनयिक संवादों का आधार भी होते हैं। खाद्यान्न को सहायता बतौर एक देश से दूसरे देश को देने की परंपरा भी है। बहुधा किसी भी प्राकृतिक विपदा या आपात स्थिति में ऐसा किया जाता है।
भोजन सुरक्षा के लिए भारत में कई कार्यक्रम चलते हैं। ‘नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्टÓ (एनएफएसए) 2013 काफी महत्वपूर्ण कानून है जिसके जरिए 80 करोड़ लोगों को सस्ती दरों पर अनाज मिलता है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के साथ जुड़ा है। जिसके चलते चावल,चीनी,मिट्टी का तेल और दूसरी ज़रूरी चीजों को राशन की दुकानों से वितरित किया जाता है। इसी के तहत दोपहर के भोजन की योजना भी जुड़ी हैं। यह स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए है। इसके तहत उन्हें पुष्ट आहार देने की बात है। इसके अलावा नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट के तहत विशेष व्यवस्था बेहद गरीब और गर्भवती महिलाओं के लिए पौष्टिक आहार की विशेष योजना है। ग्रामीण भारत में महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े मामलों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इसे देखती हैं, और उपयुक्त व्यवस्था अमल में लाती हैं।
सरकार ने विभिन्न योजनाओं को आधार कार्ड से जोड़ दिया है इससे समस्याएं खड़ी हो गई हैं। आधार को राशनकार्ड से जोडऩे से समस्याएं बढ़ गई हैं। इन योजनाओं पर ठीक से अमल नहीं होता। मशहूर अर्थशास्त्री जॉन ड्रेज ने अभी हाल एक साक्षात्कार में झारखंड में आधार पर आधारित बॉयोमेट्रिक अथेंटिकेशन (एबीबीए) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर कहा था कि इसका लाभ ज़रूरतमंद लोगों को नहीं मिल रहा है। जन वितरण प्रणाली के अफसर और बाबू प्रणाली की असुविधाओं को हल करने की बजाए नई से नई समस्याएं खड़ी कर रहे हैं जिसके चलते जन साधारण लोगों में जिन 10 फीसद लोगों के पास राशन कार्ड थे उन्हें भी राशन नहीं मिल पा रहा है और जिनके पास राशनकार्ड ही नहीं है वहां तो हालात और खराब हैं। राशन विक्रेता इस स्थिति का लाभ बाजार में उठा रहे हैं।
भूख के चलते झारखंड में हुई कुछ मौतें ही सामने आई हैं लेकिन यह तादाद वास्तव में कितनी है कोई नहीं जानता। लेकिन इसका असर प्रदेश की राजनीति में दिख सकता है। खबरों के अनुसार झारखंड सरकार ने तो आधार कार्ड को राशनकार्ड से जोडऩे की अनिवार्यता खत्म कर दी है। इस राज्य में शिशुओं और बच्चों में कुपोषण और स्वच्छ पेय जल का अभाव है और राज्य के बड़े हिस्से में बिजली भी नहीं है।
कुपोषित बच्चों के विकसित होने का मतलब होता है कि वे मेहनत का कोई काम नहीं कर पाते। खराब स्वास्थ्य का असर बच्चों के दिमाग पर भी पड़ता है। बच्चे स्कूल नहीं जाते, श्रमिक काम पर नहीं जाते। आहार की बजाए वे नशा आदि लेने लगते हैं। पूरे राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं चौपट हैं। इसलिए कोई इलाज भी संभव नहीं। एक देश जो पूरी दुनिया में खुद को आर्थिक तौर पर सुपरपावर कहलाना चाहता है उसे अपने झारखंड राज्य के गांव-गांव में बिखरे सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुपोषण और भूख भोजन की नियमित उपलब्धता से दूर हो सकती है। राज्य को इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। राष्ट्र का स्वास्थ्य बनाने के लिए उसे ऐसी बहुउद्देशीय रणनीति बनानी चाहिए जिसमें जनता को साफ-सफाई मिले और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो सके। नियमित तौर पर उन्हें राशनकार्ड और बगैर राशन कार्ड भी खाद्यान्न मुहैया कराया जाए और उन परिवारों पर ध्यान दिया जाए जो बीमारियों के शिकार हैं।

न्याय के लिए भटकते 1984 के दंगा पीडि़त

SIKH RIOTS2

पूरे देश में 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इन दंगों को बढ़ावा देने वालों को सजा नहीं मिली। ये दंगा पीडि़त परिवार आज भी घनघोर आर्थिक परेशानियों से जूझ रही हैं। कुछ विधवाओं को छोटी सरकारी नौकरी मिली, जो अब नहीं रही। कुछ बेवाएं तो घरेलू नौकरानियों का काम करके किसी तरह घर चला रही हैं। वहीं इनके बच्चे उचित पढ़ाई लिखाई औैर मार्गदर्शन न मिलने के कारण गलत सोहबत में पड़ गए हैं। कुछ को तो मादक द्रव्यों की लत लग गई है।
देश और दिल्ली में इतनी सरकारें आईं लेकिन कभी किसी ने ठीक से इस समस्या के उचित हल के बारे में नहीं सोचा। दिल्ली में आप सरकार ने जो एसआईटी व्यवस्था की थी। वह तब बंद खाते में चली गई। जब एनडीए सरकार ने फरवरी 15 में एसआईटी गठित की जिसे छह महीने में तमाम मामलों की जांच पड़ताल करनी थी। बाद में इसकी तारीख फरवरी 2016 तक की गई और फिर अगस्त 2017 तक कर दी गई। लेकिन अब तक नतीजा सिफर ही है। अगस्त 2017 के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसकी तहकीकात के लिए एक पेनल बनाया।
सिख विरोधी दंगे तब भड़के थे जब 31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। अकेले दिल्ली में 2,433 लोंगों को बेतरह मौत के घाट उतार दिया गया। तब के ये ज़ख्म आज तक नहीं भरे।
यह ज़रूर है कि विभिन्न सरकारों ने दंगों की छानबीन के नाम पर दस आयोग गठित किए। इनकी सिफारिशों पर कितना कुछ अमल हुआ यह सरकार ही जानती है। लेकिन जिन पर आरोप थे उनमें से एक फीसद को भी सजा नहीं मिली। हरकिशन लाल भगत तो बिना मामले -मुकदमें के चल बसे लेकिन सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और कमलनाथ आज भी खुले आम घूम रहे हैं। रंगनाथ मिश्र आयोग ही पहला ऐसा आयोग था जिसे इस सामूहिक हिंसा की जांच की जिम्मेदारी मिली थी। इसने हिंसा के शिकार हुए लोगों के बयान रिकार्ड किए और प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को किसी भी जिम्मेदारी से बरी किया।
भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मई 2000 में नानावटी आयोग नियुक्त किया। इसकी रपट तब आई जब मनमोहन सिंह की सरकार आई। इस पैनेल ने रपट दी जिसमें हिंसा को सहसा हुई नाराजगी बताया गया पर वह दरअसल एक सुनियोजित और संगठित हिंसा थी। आयोग ने कहा कि इस बात के पुख्ता सबूत हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि स्थानीय नेता और तत्कालीन सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कैसे इसे अंजाम दिया। इनमें से कई के खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिशें भी होती रही हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की ओर से देश से माफी मांगी। टाइटलर जो बड़े आरोपी माने जाते थे उन्हें मंत्रिमंडल से जाना पड़ा। लेकिन इसके सिवा कुछ खास नहीं हुआ। सिर्फ अभी हाल एक ऐसे ही मामले में गवाह रहे अभिषेक वर्मा ने दिल्ली पुलिस में एक शिकायत दर्ज कराई कि उसकी सुरक्षा बढ़ाई जाए क्योंकि उसे एक ई-मेल मिला है जिसमें कहा गया है यदि उसने टाइटलर के खिलाफ गवाही दी तो उसे और उसके परिवार को भून कर रख दिया जाएगा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने जीपी माथुर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है। यह मामले को देखेगी। पैनेल ने सिफारिश की है कि एक विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित किया जाए जो दंगों के तमाम मामलों की फिर से पड़ताल करे। एसआईटी पुलिस स्टेशन और पहले की कमेंटियों की फाइलों की जांच के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जिन मामलों के प्रमाण पाए जा चुके हैं उनमें 241 मामलों को बंद कर दिया जाए।
मानव अधिकारों के वकील एचएस फुल्का जो सिख विरोधी दंगों के शिकार लोगों के लिए पहले दिन से लड़ रहे हैं यदि वे सक्रिय नहीं रहे होते तो 1984 के सामूहिक हत्याकांड के कई मामले काफी पहले ही छिपा दिए जाते। ‘हम तब तक न्याय के लिए लड़ते रहेंगे जब तक हमें न्याय मिल नहीं जाता-फुल्काÓ। उन्होंने अभी हाल में दंगों के शिकार लोगों के मामले उठाने के लिए पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा भी दे दिया है। लगभग उसी तरह जैसे साइमन वेजेंथल ने किया था। उन्होंने 63 साल तक नाजियों की तलाश की। आखिर उसने दोषी कमांडेंट को हवालात के पीछे ढकेल दिया वह भी विश्व युद्ध खत्म होने के लगभग 50 साल बाद। न्याय की खोज करने वाले सरकारों और न्याय व्यवस्था पर 30 साल बाद भी दबाव बनाए रखते हैं। यह उनकी ही अनथक कोशिश है जिसके कारण व्यवस्था मृतकों को कानूनी फाइलों में बंद नहीं कर पाती।
सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में अपने पूर्व न्यायाधीश जेएम पांचाल और पूर्व न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन को उस सुपरवाइजरी पैनेल का सदस्य बना दिया, जो 1984 दंगों से संबंधित 241 फाइलों को दुबारा खोलने और उनकी जांच परख करने के लिए बना था। इन फाइलों को एसआईटी ने बंद कर दिया था। इसका गठन एनडीए सरकार ने किया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने मार्च में हत्याकांड से जुड़े उन पांच मामलों को फिर खोलने का आदेश दिया था जिन्हें 1986 में बंद कर दिया गया था। पूर्व विधायक महेंद्र सिंह यादव के सहयोगी को दंगों में अभियुक्त पाया गया था लेकिन उसे 1986 में छोड़ दिया गया। उससे दिल्ली हाईकोर्ट ने मुकदमे के संबंध में पूछताछ भी की थी।
सांसदों के एक समूह ने प्रधानमंत्री मोदी को लिख कर आश्चर्य जताया है कि तीन दशक से भी ज्य़ादा हो जाने के बाद भी दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों को कोई सजा नहीं दी जा सकी है। उनसें अपील की गई है कि वे इस मुद्दे को प्राथमिकता दें और इसके शिकार लोगां को न्याय दिलवाएं।
लेकिन सिर्फ समुदाय और राजनीतिक दबाव से कुछ खास नहीं होगा जब तक कि मन से यह इरादा न हो कि 1984 के सिख दंगों के शिकार लोगों को हर हाल न्याय में दिलाएगें।

उम्मीदों भरी फिल्म ‘करीब करीब सिंगल’

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भारतीय समाज ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में भी लगभग तय है नौकरी, शादी और बच्चों के लिए उम्र। पहले प्यार की अपनी अहमियत है। जब कुछ लोग इसके खिलाफ जाते हैं तो हर सुबह भय खाते हैं संस्कृति के स्वयंभू रक्षकों से।
ऐसी ही समस्या पर बातचीत की कोशिश है नई फिल्म ‘करीब करीब सिंगलÓ में। यह फिल्म एक अनूठे विषय पर है। पुरु ष और स्त्री दोनों ही उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर हैं। उन्हें पहले शायद वे गंभीर तौर पर घर बसाने का फैसला कर नहीं पाए। हालांकि उन दोनों की अपनी-अपनी जि़ंदगी में प्यार भी हुआ। घर बसा। अलगाव भी हुआ। हालांकि मन में चाहत बनी रही। फिर नई मुलाकात हुई। दोनों के मन में पिछली अनुभूतियों की अनगिनत तस्वीरें हैं। ये दोनों मित्र हरिद्वार, राजस्थान, ऊटी, दार्जिलिंग और गंगटोक वगैरह अपने तरीके से घूमते-खुद को विभिन्न तस्वीरों में रचे-बसे दिखते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर नए-नए अपरिचित लोगों से मुलाकातें, प्राकृतिक छटाओं के बीच खुद को खुश रखने का सिलसिला इस फिल्म की खासियत है। यानी सब कुछ हो रहा है और नहीं भी हो रहा है।
फिल्म के हीरो हैं इरफान और हीरोइन हैं पार्वती। इरफान के अभिनय की खासियत है खुद को सीधे-सादे तौर पर पेश करना और कम बोले संवाद को ही एक ऊँचाई पर ले जाना। फिल्म में उनका प्रेम न तो छिछले तौर पर रोमैंटिक है और न ही वह उस चिड़चिड़ाहट में बदलता है जो अमूमन एक उम्र पार कर गए युवाओं में महसूस किया जाता है।
मलयाली अभिनेत्री पार्वती आकर्षक, जिंदादिल, युवा लड़की की भूमिका में अच्छी और प्रभावशाली है। एक ताजी हवा सा अंदाज है उनके अभिनय में। मलयालम फिल्म ‘टेक ऑफÓ में उनकी भूमिका काफी अच्छी रही है। संबंधों को दोनों ही अभिनेताओं ने बड़ी खूबसूरती से ‘करीब करीब सिंगलÓ में पिरोया है। यह फिल्म बदलते समाज में बनती नई अनिवार्यताओं के लिहाज से एक बेहतर फिल्म है।

कला फिल्म पर भी विवाद

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बालीवुड में एक बड़े बजट की कला फिल्म ‘पद्मावतीÓ पहली दिसंबर से रिलीज होने को है। निर्माण के दिनों से ही इस फिल्म पर विवाद छिड़ा रहा। इस फिल्म को कला फिल्म कहना इसलिए उचित जान पड़ता है क्योंकि इतिहास की किताबों में रानी पद्मावती का उल्लेख ज्य़ादा नहीं है। राजस्थान में रानी पद्मावती और उसके जौहर की कहानी लोक गीतों और लोककथाओं में ज़रूर अमर हो गई। उसी पर आधारित यह फि ल्म आज विवाद के घेरे में है।
‘पद्मावतीÓ के निदेशक संजय लीला भंसाली का कहना है कि फिल्म का विरोध बेबुनियाद है। फिल्म में रोमेंटिक दृश्य पर विवाद है जबकि वह वस्तुत: सपना है जिसे फिल्मांकित किया गया है। फिल्म की प्रमुख अदाकार दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह में कोई मिलन कहीं नहीं दिखाया गया है। भंसाली का कहना है कि ‘पद्मावतीÓ का अभिनय रूप बड़ी ही सावधानी और जिम्मेदारी से तैयार किया गया है। उसकी अपनी कहानी से मैं प्रभावित रहा हूं और यह फिल्म उसके साहस, सम्मान और बहादुरी के प्रति एक श्रद्धासुमन है। हालांकि कुछ अफवाहों, गलतफहमियों के चलते इस फिल्म को बेवजह विवाद में डाल दिया गया। हमने राजपूतों  की आन, बान और शान का पूरा ख्याल रखा है।
इस फिल्म पर भाजपा को ज्य़ादा आपत्ति है। भाजपा विधायक और जयपुर के शाही परिवार के सदस्य दिव्या कुमारी का कहना है कि फिल्म ‘पद्मावतीÓ के प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए यदि इसमें इतिहास की अनदेखी की गई है। तमाम तथ्यों की छानबीन फिल्म निर्माता संजय भंसाली को इतिहास के विशेषज्ञों के एक पैनेल से करा लेनी चाहिए। जिससे किसी भी समुदाय की भावनाओं को इस फिल्म से ठेस नहीं पहुंचे।
उधर बजरंग दल और राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने इस फिल्म के रिलीज़ होने के विरोध में जयपुर कचहरी पर धरना-प्रदर्शन किया। इनकी मांग थी कि फिल्म पर पाबंदी लगा दी जाए। राजस्थान के मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को एक ज्ञापन भी इन लोगों ने दिया।

थाने में पुलिस ने कवि के जज्बात जाने

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‘गोवा पुलिस को एक कवि की कुछ ऐसी कविताएं पसंद नहीं आई जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। उन्हें वे अश्लील लगीं। नतीजा बेचारा कवि हवालात में। ऐसा ही होगा जब साहित्य का आकलन पुलिस के दरोगा, हवलदार और सिपाही करेंगे। हम यह खबर पढ़ ही रहे थे कि पुलिस ने हम पर ऐसे दबिश दी जैसे किसी आतंकवादी के अड्डे पर ‘रेडÓ की हो। 15-20 पुलिस वाले हथियारों से लैस, हम पर टूट पड़े। जितनी भी कमांडो ट्रेनिग उन्हें कभी मिली होगी उसका इस्तेमाल हम पर हुआ। हमारे घर में दरवाजा तो है पर कोई सांकल नहीं है, इसलिए सीआईडी के ‘दयाÓ की तरह उन्हें दरवाजा तोडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ी। हम पर कंबल डाल कर किसी बोरी की तरह पुलिस की गाड़ी की पिछली सीट पर धकेल दिया गया।
बंदूकों के साए में हमें दरोगा के आगे पेश कर दिया गया। हमने हाथ जोड़ कर पूछा,’हजूर आखिर हमारा क्या कसूर हैÓ? दरोगा ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए हमें घूर कर देखा और फिर सिपाही से मुखातिब हो कर बोला,’जा साहब बहादुर को खबर कर दे कि उसे काबू कर लिया है अब सारे षडय़ंत्र का पता चल जाएगा।Ó फिर हमारी तरफ देख कर गुर्राया,’ क्यों बे बहुत चर्बी चढ़ गई है। देशद्रोह का मामला बना है तेरे खिलाफÓ। सारी उम्र चक्की पीसेगाÓ। ‘पर जनाब हमार अपराध तो बताओÓ हमने फिर गुजारिश की। इस बार दरोगा ने एक कागज का टुकड़ा हमारी ओर बढ़ाया, ‘ये सब तूने लिखा है? हमने कागज लेकर पढ़ा, ‘साहब यह तो कविता है। ‘कविताÓ! दरोगा चिल्लाया। हां जी, मैने लिखी है। ‘इसका मतलब हमें भी समझा,’ दरोगा फिर भड़का। ‘साहब यह तो स्पष्ट ही है- ‘जो देखी वह बात लिखेंगे, हम अपने ज़ज़्बात लिखेंगेÓ। दरोगा,’अब बता तूने क्या देखा? कहां देखा? किसी देशभक्त नेता का एमएमएस देखा? पूरी जानकारी दे। हमने कहा-‘जनाब यह तो मेरी अपनी कल्पना है।Ó ‘ओए, कल्पना हो या विमला हमें तो तू सच-सच बता मामला क्या है?Ó पर जनाब जब यह लिखा ही कल्पना के साथ है तो ….। हमारी बात बीच में काट दरोगा दहाड़ा,’ अच्छा तो कल्पना भी तेरी ‘गैंगÓमें है। ओए रामफल, ले इससे कल्पना का ‘अडरेस लेÓ उठा उसे भी। सालों ने पूरा ‘गैंगÓ काम पर लगा रखा हैÓ। ‘तू ज़रा अगली लाइन तो पढ़Ó दरोगा का आदेश था। – जी, हजूर, सिपाही पढऩे लगा – ‘हम अपने ज़ज़्बात लिखेंगेÓ। दरोगा,’ ये ज़ज़्बात क्या होता है?Ó ऐसा लफ्ज हमने तो कभी नहीं सुनाÓ। ‘मैने भी नहीं जनाबÓ, सिपाही बोला- ‘हजूर ये कोई ‘कोड वर्डÓ है इसे थर्ड डिग्री दो जी। सब बताएगा। हम घबरा गए। हाथजोड़ कर हमने कहा,’ माई बाप, ज़ज़्बात का मतलब होता है अपनी फीलिंग जो हम महसूस करते हैंÓ। ‘तो तूने सीधा क्यों नहीं लिखा ‘फीलिंगÓ ये अंग्रेजी में ज़ज़्बात क्यों लिख दिया। हजुर ‘ज़ज़्बातÓ अंग्रेजी का नहीं ‘उर्दूÓ का शब्द है- हमने बात को स्पष्ट किया।Ó
इतने में रामफल उछला, ‘जनाब यह लिखता है -‘शब्द जाल में बहुत लिख लिया अब हम बिल्कुल साफ लिखेंगे।Ó हमारे दो तमाचे जड़ते दरोगा चिल्लाया,’ ये कौन से जाल बुन रहा है तूÓ। हमने अपना गाल सहलाते हुए कहा,’ जनाब यह तो सिर्फ शब्दों का जाल हैÓ। ‘अच्छा हमें मूर्ख समझता है, शब्दों का भी कोई जाल होता है? तू साफ-साफ लिखने को कह रहा है। अगर तूने नेता जी और सत्तो बाई के बारे में कुछ लिखा तो फेर देख तेरा क्या होगा। ‘पर जनाब मैं तो सिर्फ सच लिखता हूंÓ हमने समझाने की कोशिश की।Ó ओए तभी तो कह रहा हूं क्योंकि हमें सच पता है। इतने में रामफल फिर उछला, Óजनाब यह कोई साधारण अपराधी नहीं, इसकी योजना तो खून खराबा करने की हैÓ। ये साफ लिख रहा है- ‘अश्क हमारे सूख चुके हैं, अब लहू के साथ लिखेंगेÓ। रामफल ये ‘अश्क’ क्या होता है। जो सूख गया है? ‘जनाब मेरे ख्याल में तो खेत हो सकते हैÓ क्योंकि किसान खेत सूखने पर ही खून खराबे की बात करता है। फिर दरोगा ने हमें घूरा और बोला-‘अच्छा तेरी नीयत तो समाज में दहशत फैलाने की है। तू करेगा खून खराबा।Ó मैंने कहा, ‘हजूर ‘अश्कÓ का मतलब होता है- ‘आंसूÓ। ‘अच्छा तो तेरे आंसू सूख गए। रामफल टिका इसके दो ल_ ‘आंसूÓ तो निकाल ज़रा कहता है सूख गए हैं। फेर भाई तू ‘अश्कÓ क्यों लिखता है सीधा आंसू लिखÓ। हमने हाथ जोड़ कहा हजूर आगे से आंसू ही लिखूंगा।
आगे की लाइन पढ़ते ही रामफल चौंका उसने दरोगा की तरफ देख कर कहा-‘जनाब इसका ताल्लुक तो डाकू गज्जन सिंह के गिरोह से लगता है।Ó तुझे कैसे पता? दरोगा घबरा कर बोला। ‘जनाब इसने नंदपुर वाली डकैती का जि़क्र किया है। यह लिखता है- किसने लूटा, कौन लुटा मानव का इतिहास लिखेंगे। Ó तो हजूर हमारे इलाके में तो गज्जन सिंह ही है और नंदपुर में ही डकैती पड़ी थी। पर इसे कैसे पता कि किसने लूटा, और कौन लुटा। लुटा तो लाला गिरधारी लाल था। पर हजुर कहीं इसे ये तो नहीं पता कि उस लूट का हिस्सा किस-किस को गया था, ऐसा करते हैं इसका ‘एनकांउटरÓ कर देते हैं ताकि ‘न रहे बांस न बजे बांसुरीÓ। अब दरोगा मंूछों पर ताव दे कर बोला,’तुझे तो मरना ही पड़ेगा क्योंकि हम अपने पीछे कोई सबूत नहीं छोड़ते। हमने रोनी सी आवाज़ में कहा,’जनाब हमने तो नंदपुर का नाम तक नहीं सुना। -अच्छा नाम नहीं सुनाÓ दरोगा दहाड़ा, फिर तुझे ‘लूटÓ वाली बात कैसे पता चली? हमने कहा,’ हम तो इंसानी लूट की बात कर रहे थे। ‘अच्छा, देख तू सच बता नहीं रहा, और हमने सच जानना है। रामफल ले चल इसे कोठड़ी में। आज हम सलाखों के पीछे बैठे सोच रहे हैं, कि अब देखते हैं बाकी कवि कब साथ रहने आते हैं, क्योंकि दरोगा कह रहा था कि अभी और भी कई कविताएं पढऩी हैं।