दिल्ली के बावाना औद्योगिक क्षेत्र में शनिवार को एक दो मंजिला कारखाने में आग लगने से 10 महिलाओं सहित 17 लोगों की मौत हो गई।
अग्नि सेवाओं के अधिकारी ने पुष्टि की है कि 13 लोगों की पहली मंजिल पर, भूमि पर तीन और तहखाने में एक की मौत हुई।
पुलिस के पास दर्ज शिकायत के अनुसार आग में दो लोग घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया।
एक कर्मचारी, आग से बचने के लिए, दूसरी मंजिल से कूद गया और उसका पैर टूट गया। पुलिस ने बताया कि लोग या तो झुलस गए या उनकी दम घुटने से मौत हो गयी।
हालांकि हादसे का कारण अभी तक पता नहीं लगा है मगर कारखाने की आग पर क़ाबू पा लिया गया है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उत्तर दिल्ली की मेयर प्रीती अग्रवाल स्थिति का जायज़ा लेने मौके पर पहुंचे। दिल्ली सरकार ने इस घटना की जांच का आदेश दे दिया है ।
दिल्ली के मंत्री सत्येंद्र जैन ने ट्वीट किया, “बावन में एक निजी फैक्ट्री में एक गंभीर आग की घटना के बारे में पता चला। कई मौतें हुईं। जांच का आदेश आदेश की जांच दिया गया है (एसआईसी)।”
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का हवाला देते हुए प्रधान मंत्री कार्यालय ने ट्वीट किया, “मेरा विचार उन लोगों के परिवारों के साथ है, जिन्होंने अपनी जान गंवा दी है।
एक अधिकारी ने बताया कि दिल्ली फायर सर्विसेज को करीब 6.20 बजे कारखाने में आग लगने की सुचना मिली और 10 फायर टेंडर मौके पर भेजा गया।
अधिकारी के मुताबिक फटाके फैक्टरी के ऊपर दूसरी मंजिल पर एक रबर कारखाना है।
अधिकारी ने कहा, “कारखाने दिल्ली राज्य औद्योगिक और इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (डीएसआईआईडीसी) के अंतर्गत है।”
दिल्ली के एक कारख़ाने में आग लगने से 17 लोगों की मौत
चुनाव आयोग ने आप के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की करी मांग
चुनाव आयोग ने शुक्रवार को दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) के 20 विधायकों को लाभ का पद धारण करने की बिना पर अयोग्य घोषित किये जाने की राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से सिफारिश की।
सूत्रों ने बताया कि कोविंद को भेजी गई अनुशंसा में आयोग ने कहा है कि 13 मार्च 2015 को संसदीय सचिव बनाये गये आप के 20 विधायक 08 सितंबर 2016 तक लाभ के पद पर रहे इसलिये दिल्ली विधानसभा के विधायक के तौर पर इनको अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक राष्ट्रपति आयोग की अनुशंसा मानने को बाध्य हैं। विधायकों या सांसदों को अयोग्य घोषित करने की मांग वाली याचिकाओं पर अंतिम फैसला लेने से पहले राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय लेते हैं। चुनाव आयोग की राय के मुताबिक ही राष्ट्रपति इन याचिकाओं पर फैसला करते हैं।
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्तमान मामले में 21 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की याचिका दी गई थी लेकिन एक विधायक ने कुछ महीने पहले ही विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था फिलहाल आयोग ने इस बारे में कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है।
हालांकि तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव कार्यक्रम को घोषित करने के लिये गुरुवार को आयोजित संवाददाता सम्मेलन में मुख्य चुनाव आयुक्त ए के जोती ने इस बारे में पूछे जाने पर कहा था कि यह मामला अभी आयोग में विचाराधीन है, इसलिए वह इस मुद्दे पर कोई बयान नहीं देंगे।
याद रहे कि 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में 67 सीटों के प्रचंड बहुमत से जीती आप के लिये आयोग की सिफारिश करारा झटका जरूर है लेकिन राष्ट्रपति द्वारा 20 विधायकों की सदस्यता रद्द किये जाने के बावजूद दिल्ली की केजरीवाल सरकार को कोई खतरा नहीं होगा।
आप विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बाद भी पार्टी की विधानसभा में सदस्य संख्या 45 रहेगी, जो कि बहुमत के आंकड़े (36) से अधिक है। इस बीच लाभ के पद मामले में आरोपी आप के सात विधायकों ने दिल्ली उच्च न्यायलय में याचिका दाखिल कर मीडिया रिपोर्टों का हवाला देते हुए राष्ट्रपति को भेजी गयी सिफारिश पर संज्ञान लेने की अपील की है।
पार्टियों की प्रतिक्रिया
आयोग की अनुशंसा से नाराज आप ने कहा कि आयोग ‘इतना नीचे कभी नहीं गिरा’ था। पार्टी नेता आशुतोष ने ट्वीट किया, ‘‘निर्वाचन आयोग को पीएमओ का लेटर बॉक्स नहीं बनना चाहिए। लेकिन आज के समय में यह वास्तविकता है।’’ आशुतोष ने कहा, ‘‘(टी एन शेषन) के समय में रिपोर्टर के तौर पर चुनाव आयोग कवर करने वाला मेरा जैसा व्यक्ति कह सकता है कि निर्वाचन आयोग कभी इतना नीचे नहीं गिरा।’’
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक़ कांग्रेस और भाजपा ने आयोग के फैसले का स्वागत किया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने कहा कि अब मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
माकन ने ट्वीट किया, ‘‘केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। उनके मंत्रिमंडल के लगभग 50 फीसदी मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में हटा दिया गया। मंत्रियों का भत्ता प्राप्त कर रहे 20 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।’’
भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने आप के विधायकों के खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों का उल्लेख करते हुए दावा किया कि इंडिया एगेंस्ट करप्शन आंदोलन से शुरू हुई राजनीतिक यात्रा अब ‘आई एम करप्शन’ का रूप ले चुकी है।
पात्रा ने आरोप लगाया कि आप सबसे भ्रष्ट राजनीति पार्टी बनने को अग्रसर हो रही है। उन्होंने कहा कि केजरीवाल मंत्रिमंडल के कई सदस्यों को इस्तीफा देना पड़ा । उनके 15 विधायकों के खिलाफ मामले चल रहे हैं और विभिन्न आरोपों में कई विधायकों को गिरफ्तार भी किया गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या केजरीवाल सरकार को सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार है ।
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा कि पार्टी की दिल्ली इकाई ‘‘किसी भी पल चुनाव के लिए तैयार है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘हम ‘आप’ के 20 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की सिफारिश का स्वागत करते हैं। अरविंद केजरीवाल को इस नैतिक हार की जिम्मेदारी लेकर अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।’’
लाभ के पद मामले के घेरे में आये आप के विधायकों के नाम:
आदर्श शास्त्री (द्वारका),
अल्का लांबा (चांदनी चौक),
अनिल बाजपेयी (गांधी नगर),
अवतार सिंह (कालका जी),
कैलाश गहलोत (नजफगढ़),
मदन लाल (कस्तूरबा नगर),
मनोज कुमार (कोंडली),
नरेश यादव (महरौली),
नितिन त्यागी (लक्ष्मी नगर),
प्रवीण कुमार (जंगपुरा),
राजेश गुप्ता (वजीरपुर),
राजेश ऋषि (जनकपुरी),
संजीव झा (बुराड़ी),
सरिता सिंह (रोहतास नगर),
सोमदत्त (सदर बाजार),
शरद कुमार (नरेला),
शिव चरण गोयल (मोतीनगर),
सुखबीर सिंह (मुंडका),
विजेन्द्र गर्ग (राजेन्द्र नगर)
जरनैल सिंह (तिलक नगर)।
‘पहाड़’ के हाथ से खिसकी सत्ता!
हिमाचल में पहली बार यह हुआ है कि सत्ता के केंद्र में शिमला कहीं नहीं। मुख्यमंत्री से लेकर सत्ता पक्ष भाजपा और विपक्ष कांग्रेस दोनों के सत्ता केंद्र इस विधानसभा चुनाव के बाद निचले हिमाचल को हस्तांतरित हो गए हैं। पिछले चार दशक में ऐसा कभी नहीं हुआ। मुख्यमंत्री निचले हिमाचल के मंडी जि़ले से हैं तो हाल ही में कांग्रेस ने अपने विधायक दल का नेता जिन मुकेश अग्निहोत्री को चुना है वे भी निचले हिमाचल के ही ऊना जि़ले से हैं। यही नहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती भी ऊना के ही रहने वाले हैं जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सुक्खू निचले ही हिमाचल में हमीरपुर के रहने वाले हैं।
कांग्रेस के अब तक के सभी तीन मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार, राम लाल और वीरभद्र सिंह ऊपरी हिमाचल के हैं जबकि भाजपा के दोनों मुख्यमंत्री शांता कुमार (काँगड़ा) और प्रेम कुमार धूमल (हमीरपुर) निचले हिमाचल से रहे हैं। सत्ता के अलावा विपक्ष की भूमिका भी निचले हिमाचल में चले जाने से आने वाले सालों में हिमाचल की राजनीति दिलचस्प होगी। वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह पहली बार विधायक बने हैं। कांग्रेस की राजनीति की मुख्य भूमिका में आने में उन्हें अभी बक्त लगेगा। लिहाजा ऊपरी हिमाचल के लिए कांग्रेस में बड़ी भूमिका संभालने वाला कोई नहीं दिखता। भाजपा की राजनीति तो शुरू से ही निचले हिमाचल के इर्द-गिर्द रही है। ऐसे में आने वाले सालों में कांग्रेस की राजनीति भी निचले हिमाचल में चले जाने की पूरी सम्भावना है।
वीरभद्र सिंह को छोड़ दिया जाए तो वर्तमान राजनीति में माकपा के राकेश सिंघा को ही ऊपरी हिमाचल में ताकतवर नेता माना जा सकता है, भले विधानसभा में पार्टी के वे इकलौते विधायक होंगे। जिस हलके से वे जीते हैं वहां से आठ चुनाव जीत चुकीं विद्या स्टोक्स का इस बार नामांकन ही रद्द हो गया था। 90 साल की विद्या वैसे भी अब चुनाव राजनीति से संन्यास की बात कर चुकी हैं। कांग्रेस ही नहीं भाजपा में भी वीरभद्र सिंह के बाद ऊपरी हिमाचल का अब ऐसा कोई नेता नहीं जो उनके कद की बराबरी करता हो। लिहाजा सिंघा के पास मौका है अपने कद को देखते हुए पार्टी का इस क्षेत्र में विस्तार करें।
सत्ता का निचले क्षेत्र में हस्तांतरण होने से कांग्रेस के बीच निचले क्षेत्र से मुख्यमंत्री पद के दावेदारी की जंग शुरू होगी। चूँकि इस इलाके से पहले कभी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नहीं दिया, विधायक दल के नेता चुने गए मुकेश अग्निहोत्री के पास इन पांच सालों में खुद को बेहतर नेता साबित करने का अवसर है। विधायक दल का नेता होने के कारण वही विपक्ष के भी नेता होंगे लिहाजा इस दौरान एक नेता के तौर पर उनकी परीक्षा होगी। यदि वे इसमें सफल रहते हैं तो उनके लिए भविष्य में मुख्यमंत्री बनने की बहुत अधिक सम्भावना रहेगी।
मुकेश को पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का बेहद करीबी माना जाता है लिहाजा सिंह का समर्थन मिलने से उनकी ताकत विधायक दल में मजबूत रहेगी। हां, कांग्रेस संगठन में वीरभद्र सिंह विरोधी सुखविंदर सुक्खू के होने से ज़्यादा सम्भावना यही है कि पार्टी में पहले जैसी स्थिति बनी रहेगी। यानी विधायक दल एक तरफ और पार्टी संगठन एक तरफ। यह देखने वाली बात होगी कि 54 साल के मुकेश अग्निहोत्री संगठन से किस तरह का रिश्ता बना पाते हैं। फिलहाल संगठन के भीतर उनका अपना कोई गुट नहीं है लेकिन तय है कि वीरभद्र सिंह के तमाम समर्थक उनसे ही जुड़ेंगे।
वीरभद्र सिंह आज तक विधायक दल की ताकत के ही बूते कांग्रेस में सरताज रहे हैं। इस समय भी 21 में से 17 विधायक उनके ही समर्थक हैं और अग्निहोत्री को चुने जाने से पहले इन विधायकों ने बाकायदा दस्तखत करके आलाकमान से वीरभद्र सिंह को ही दल का नेता चुने जाने की मांग की थी। लेकिन आलाकमान ने 84 साल के वीरभद्र सिंह की जगह युवा मुकेश को इसलिए तरजीह दी क्योंकि भाजपा ने 73 साल के प्रेम कुमार धूमल की जगह 52 साल के जय राम ठाकुर को भविष्य के हिसाब से मुख्यमंत्री का जिम्मा सौंप दिया था। इसमें दो राय नहीं कि मुकेश को चुने जाने का पक्ष वीरभद्र सिंह ने ही लिया था, यह देखकर कि वे नहीं तो उनका कोई समर्थक ही विधायक दल का नेता बने।
साल 2012 में जब यह लग रहा था कौल सिंह मुख्यमंत्री बनने के करीब पहुँच रहे हैं वीरभद्र सिंह ने पास पलट दिया था। कोई ज़माना था जब कौल सिंह वीरभद्र सिंह के समर्थक थे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उनके तेवर बदले और वे वीरभद्र सिंह विरोधी खेमे में जा खड़े हुए। दरअसल वे वीरभद्र की छाया से बाहर निकलकर प्रदेश अध्यक्ष के नाते अपनी अलग पहचान बनाना चाहते थे, लेकिन वीरभद्र सिंह ने इसे पसंद नहीं किया और कौल सिंह 2012 में कांग्रेस की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री की जगह मंत्री ही बने क्योंकि चुनाव से ऐन पहले वे प्रदेश अध्यक्ष बन गए थे।
ऐसी स्थिति मुकेश के सामने भी आ सकती है। विधायक दल के नेता के नाते वे कुछ नया और अपने हिसाब से करना चाहेंगे। यदि वीरभद्र सिंह इस पर अलग राय रखते हैं और मुकेश को रोकने की कोशिश करते हैं तो मतभेद जैसी स्थिति भी पैदा हो सकती है। हालांकि मुकेश जिस मजबूती से हाल के सालों में वीरभद्र सिंह के साथ खड़े रहे हैं, उससे उनके वीरभद्र सिंह के विरोध की सम्भावना कम ही नजर आती है।
जयराम के सामने चुनौतियाँ
जहाँ तक नई सरकार और नए मुख्यमंत्री की बात है, उनके सामने चुनौतियों की कमी नहीं। इससे भी असुखद स्थिति जाहिर होती है कि मंत्रियों के विभागों का बंटवारा उन्हें आलाकमान के अनुसार करना पड़ा। भाजपा के बीच के लोगों का कहना है कि संघ और भाजपा आलाकमान के पूरे आशीर्वाद के बावजूद विधायकों में असंतोष है। कुछ मंत्री अपने महकमों से खुश नहीं जो मंत्री नहीं बन पाए वे अलग से नाखुश हैं। यह आम चर्चा रही है कि राजीव बिंदल, रमेश धवाला, नरेंद्र ब्रागटा जैसे सीनियर विधायक अपनी नज़रअंदाजी पर परोक्ष में नाराज़गी खुलकर जाहिर करते हैं।
जानकारों के मुताबिक भाजपा की टिकट पर हारे नेता इस बात का विरोध कर रहे हैं कि उनके हलकों में भाजपा का विरोध करके जो उम्मीदवार निर्दलीय जीते हैं उन्हें भाजपा में शामिल न किया जाए। देहरा से हारे वरिष्ठ नेता रविंद्र रवि भी इस तरह का विरोध करने वाले नेताओं में शामिल हैं जिन्हे हलके की भाजपा समिति का पूरा समर्थन है।
भाजपा में अब यह भी चर्चा है कि आलाकमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बदल सकती है। वर्तमान अध्यक्ष सतपाल सत्ती ऊना सीट से चुनाव हार गए थे। वैसे वे अपेक्षाकृत युवा हैं लेकिन हो सकता है कि संघ इस पद पर अपने किसी व्यक्ति बिठाना चाहे। इस बात की बहुत चर्चा है कि मुख्यमंत्री का चयन भाजपा अध्यक्ष की मजऱ्ी से ज्यादा संघ की मर्जी से हुआ है। यह सही है कि नए मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर की छवि साफ सुथरी है। बड़ा सवाल यह है कि क्या संघ के कन्धों पर सवार होकर वे अपनी चाल चल पाएंगे ?
अनुभव की दृष्टि से जयराम भले प्रेम कुमार धूमल के मुकाबले 19 हों, उनके सामने अफसरशाही को नियंत्रण में रखने की बड़ी चुनौती रहेगी। हरियाणा में संघ से सीधे मुख्य्मंत्री बिठाने का भाजपा का अनुभव उतना अच्छा नहीं रहा है। यह इस बात से साबित हो जाता है कि पिछले तीन साल में दर्जन बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को हटाने की चर्चा चल चुकी है। मंत्रियों से लेकर विधायक तक उनकी कार्यप्रणाली पर अपनी नाराज़गी छिपाते नहीं। जय राम के सामने आने वाले महीनों में इस तरह की दिक्कतें आ सकती हैं।
जय राम के सामने एक और बड़ी समस्या है। उन्हें दो पूर्व मुख्यमंत्रियों शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल को भी नाराज़ नहीं होने देना है। शांता की भले अब उतनी पकड़ न रही हो धूमल अभी भी प्रदेश की राजनीति में काफी वजन रखते हैं। साल 2019 के संसदीय चुनाव में प्रदेश में वे मुख्यमंत्री न होने के बावजूद जयराम के मुकाबले भाजपा के लिए ज्यादा मह्त्वपूर्ण रहेंगे। पार्टी और विधायकों पर तो धूमल की पकड़ जयराम और सत्ती के मुकाबले आज भी ज़्यादा है ही, जनता पर भी उनकी मज़बूत पकड़ है। यह बहुत दिलचस्प बात है कि धूमल के चुनाव हारने को लेकर अभी तक आम लोगों में यही धारणा है कि धूमल हारे नहीं थे, उन्हें हरवाया गया था। लोग यह भी खुले आम कहते हैं कि भाजपा ने धूमल को आगे न किया होता तो कांग्रेस की सरकार दुबारा बन गयी होती। जिस तरह जयराम ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी धूमल को महत्व दिया है उसी से जाहिर हो जाता है जयराम भी इस तथ्य को मानते हैं कि धूमल को नाराज़ करना महंगा पड़ सकता है।
इधर धूमल के राजनीतिक भविष्य को लेकर कयासबाजियों का दौर जारी है। मीडिया में उनके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने से लेकर केंद्र में मंत्री और राज्यपाल बनने की अटकलें लगातार लगती रहती हैं। खुद धूमल बार बार यह कह चुके हैं कि वे किसी पद के पीछे नहीं।
धूमल ने पिछले कुछ दिनों से उन्हें लेकर लगाए जा रहे क्यासों पर विराम लगाने के लिए स्वयं सामने आना ही उचित समझा। धूमल ने कहा है कि कुछ लोग हर रोज कोई न कोई भ्रामक और तथ्यहीन प्रचार करने में जुटे हैं। कभी मुझे राज्यपाल बनाकर तो कभी कुछ और पद देने जैसा प्रचार विभिन्न माध्यमों से करते रहते हैं। धूमल ने कहा कि कुछ पार्टी विचाराधारा के कट्टर विरोधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी एक पवित्र संस्था को चुनावों में मेरे खिलाफ काम करने जैसा दुष-प्रचार करने में जुटे हुए हैं जोकि सर्वदा तथ्यों के विपरीत ही नहीं बल्कि पूरी तरह से निराधार और भ्रामक प्रचार है और पार्टी के खिलाफ जहर उगलने के समान है।
धूमल ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा राष्ट्र को सुदृढ़ और देश को दुनिया के मानचित्र पर शिखर पर देखने के सपने को साकार करने की दिशा में काम करता है। मुझे गर्व है कि संघ का आशीर्वाद तथा सहयोग सदा मुझे मिला है। मैं 1964-65 से भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता रहा हूं। धूमल ने कहा कि मुझे पार्टी ने बहुत कुछ दिया है आज मेरे पास जो भी मान-सम्मान है वह सब पार्टी का दिया हुआ है। मैं पार्टी की ओर से दिए गए सम्मान से पूरी तरह से संतुष्ट हूं। उन्होंने कहा है कि इस तरह की भ्रामक बातों से कार्यकर्ताओं और पार्टी समर्थकों ही नहीं जनता के बीच भी गलत सन्देश जाता है। उन्होंने कहा कि वे भाजपा के आम कार्यकर्ता की तरह हैं और इससे संतुष्ट हैं।
अपनी कमियां दूर करेगें : मुकेश
चार बार के विधायक मुकेश अग्निहोत्री पत्रकारिता से राजनीति में आये। उन्होंने अब तक जो चार चुनाव लड़े, वे सभी अच्छे अंतर से जीते। वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी माने जाने वाले मुकेश को आक्रामक नेता के तौर पर जाना जाता है और विधानसभा के भीतर भी उन्हें पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने वाला नेता माना जाता है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा की ही तरह कांग्रेस ने भी अगले 20 साल तक राजनीति कर सकने वाला नेता चुना है। ‘तहलकाÓ ने मुकेश से उनके नेता चुने जाने से लेकर भाजपा और अन्य तमाम मुद्दों पर बातचीत की।
कांग्रेस को इस बार करारी हार झेलनी पड़ी। आपके ख्याल से क्या कारण रहे।
हिमाचल का रिकार्ड रहा है कि यहाँ हर बार सत्ता बदल जाती है। वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने अथाह विकास पिछले पांच साल में किया था। जो कमियां रहीं उन्हें दूर करने की कोशिश करेंगे। पार्टी मजबूत और रचनात्मक विपक्ष की भूमिका के लिए तैयार है। हमारा ध्यान जनता से जुड़े तमाम मुद्दों पर रहेगा और सकारात्मक राजनीति की पूरी कोशिश होगी।
नए मुख्यमंत्री और भाजपा आरोप लगा रहे है कि वीरभद्र सिंह सरकार ने वित्तीय अनुशासन नहीं बरता जिससे हिमाचल पर 45,000 करोड़ रुपये का भारी भरकम कर्ज चढ़ गया है।
हिमाचल के पास आय के बहुत सीमित संसाधन हैं। भाजपा और नए मुख्यमंत्री दोनों यह जानते हैँ। जब वे पिछली सरकार पर आरोप लगाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि 2012 में जब वीरभद्र सिंह ने भाजपा से सरकार का जिम्मा संभाला था तो प्रदेश पर 30,000 करोड़ का भारी कर्ज था। मुझे लगता है कि प्रदेश को अपने संसाधन बढ़ाने होंगे। यहाँ दूसरे प्रदेशों के मुकाबले सरकारी कर्मचारी ज्यादा हैं क्योंकि निजी क्षेत्र छोटा है। कांग्रेस सरकार और बतौर उद्योग मंत्री मैंने निजी क्षेत्र के विकास की काफी कोशिश की और इसके परिणाम स्वरुप निवेश भी अच्छी मात्रा में आया जिससे यहाँ के युवाओं को रोजगार के ज्यादा अवसर मिले।
आप कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए। क्या रणनीति रहेगी आपकी। वीरभद्र सिंह जैसे वरिष्ठ नेता की मौजूदगी में क्या आप स्वतंत्रता से काम कर पाएंगे।
मैं कांग्रेस आलाकमान का मुझ पर भरोसा जताने के लिए आभार करता हूँ। हमारे पास विधानसभा में 21 की संख्या है और आम जनता से जुड़े मुद्दों के लिए हम विधानसभा के भीतर और बाहर पूरी ताकत से लड़ेंगे। संगठन और विधायक दल की ताकत मिलकर एक मजबूत विपक्ष से भाजपा सरकार का सामना रहेगा। भाजपा की क्षेत्रवाद और धर्म-जातिवाद पर आधारित राजनीति की कांग्रेस हमेशा विरोधी रही है और राहुल गाँधी के युवा नेतृत्व में देश और प्रदेश में विकास, किसान, महिला और युवा आधारित राजनीति हम पूरी ताकत से करते रहेंगे। वीरभद्र सिंह प्रदेश में कांग्रेस की हमेशा सबसे बड़ी ताकत रहे हैं। वे प्रदेश के सबसे अनुभवी नेता हैं। छह बार मुख्यमंत्री रहे हैं लिहाजा उनका मार्गदर्शन तो हमारी सबसे बड़ी ताकत है। मेरा सौभाग्य है कि राजनीति में हमेशा उनका आशीर्वाद मुझ पर रहा है। सरकार के रवैये के अनुरूप ही विपक्ष जवाब देगा। विकास और सेवा के एजेंडे पर सरकार को हरसंभव सहयोग पार्टी देगी। हाँ, अगर कांग्रेसी नेता, कार्यकर्ता या आम लोगों के खिलाफ प्रतिशोध भावना से सरकार काम करेगी तो कांग्रेस उसका मुंहतोड़ जवाब देगी।
यह माना जाता है कि प्रदेश कांग्रेस संगठन और विधायक दल में हमेशा खाई बनी रही है। आप इसे कैसे पाटेंगे। दूसरा विधायक दल के नेता के नाते आपके तात्कालिक क्या लक्ष्य हैँ।
ऐसी कोइ खाई है ही नहीं। संगठन और विधायक दल एक इकाई हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व में 2019 में केंद्र में कांग्रेस सरकार बनाना हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य है। इस समय चारों सीटें भाजपा के पास हैं। हम जनता से जुड़े मुद्दे पूरी ताकत से उठाकर दुबारा उसका भरोसा जीतने के लिए जी जान लड़ा देंगे ताकि 2019 में भाजपा से यह सीटें छीन सकें।
किसानों -मज़दूरों के लिए लड़ते रहेंगे: सिंघा
माकपा भले एक ही सीट विधानसभा में जीत पाई लेकिन राकेश सिंघा की जीत ने उसमें एक नई ताकत फूंक दी है। विधायक बनाने के बाद से सिंघा बहुत सक्रिय दिखने लगे हैं। माकपा सूत्रों का कहना है कि पार्टी को प्रदेश में नए सिरे से ताकत देने की कोशिश शुरू हो गयी है। सिंघा तेज तर्रार नेता माने जाते हैं और यदि पार्टी संगठन के स्तर पर कोशिश करें तो प्रदेश की आध दर्जन सीटों पर खुद को मजबूत करने की स्थिति में बन सकती है। चुनाव जीतने के बाद सिंघा ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कुल्लू में दसवें दो दिवसीय जिला सम्मेलन में शिरकत की जिससे आभास मिलता है कि वे संगठन को ज्यादा सक्रिय करने की कोशिश में हैं। वे इस समय माकपा के राज्य सचिवालय के भी सदस्य हैं।
‘तहलकाÓ से बातचीत में सिंघा ने पार्टी की रणनीति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि प्रदेश में जनता की मूलभूत सुविधाओं शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली का निजीकरण किया गया है, जिससे जनता पर महंगी शिक्षा, महंगे इलाज और महंगी बिजली-पानी का बोझ बढ़ गया है। किसानों की ज़मीन से बेदखली ज्यादातर गरीब और दलित किसान परिवारों को कानून को ताक पर रखकर की जा रही है। सांप्रदायिक हमलों को रोकने के लिए जनता को जागरूक करना होगा। उन्होंने आश्वासन दिया कि कुल्लू की जनता की समस्याओं को भी विधानसभा में उठाएंगे। सिंघा ने कहा कि देश में जब से भाजपा की सरकार आई है, तब से अल्पसंख्यकों, दलितों पर हमले बढ़े हैं।
केंद्र सरकार आरएसएस के हिन्दुत्व के एजेंडे को लागू कर रही है। गौ रक्षक दल रोजमर्रा मजबूर लोगों पर हमले कर रहे हैं। देश में साम्प्रदायिकता फैलाई जा रही है। दूसरी तरफ जनता के ऊपर महंगाई का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। उन्होंने कहा कम्युनिस्ट पार्टी को सरकार की जनता विरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन को तेज करने की ज़रूरत है। कुल्लू के दो दिवसीय सम्मेलन में पार्टी के वरिष्ठ नेता ओंकार शाद ने भी भाग लिया। सम्मेलन में बढ़ती महंगाई, ज़मीन को नियमित करने श्रम कानूनों में संशोधन के खिलाफ, दलित व महिलाओं के उत्पीडऩ के खिलाफ, शिक्षा के साम्प्रदायिकरण व व्यापारीकरण के खिलाफ प्रस्ताव परित किए गए। सिंघा ने प्रदेश में किसानों पर गहराते कृषि संकट और उसके प्रभाव पर भी गहरी चिंता जताई है। सिंघा ने कहा कि जो किसान फल और सब्जियों का उत्पादन करते हैं वह इस संकट से पूरी तरह प्रभावित हैं। राज्य और केंद्र की सरकारें इस संकट का समाधान करने के बजाय ऐसी नीतियां लागू कर रही हैं, जिससे यह संकट और भी गहरा हो रहा है। जीएसटी लागू करने और पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि ने राज्य के किसानों की रीढ़ तोड़ दी है। कहा कि पार्टी चुनाव से पहले स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की बात करने वाले प्रधानमंत्री की ओर से अभी तक रिपोर्ट को लागू न करने की निंदा करती है। प्रधानमंत्री को अब बताना चाहिए कि उन्होंने चुनावों के दौरान सेब पर आयात शुल्क घटाने का वादा किया था, अब उसे क्यों नहीं पूरा किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सीपीआई (एम) का मानना है कि केंद्र और राज्य सरकारें प्रदेश में बढ़ रही सेब आर्थिकी का गला घोंट रही हैं। भविष्य में इन नीतियों की वजह से आर्थिकी में गिरावट की संभावना है। उन्होंने कहा कि आढ़ती एपीएमसी से सांठगांठ कर कृषि और बागवानी उत्पाद विपणन कानून 2005 की सरेआम धज्जियां उड़ा रहे हैं। किसानों से तय मजदूरी के स्थान पर ओवर चार्ज किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया तो प्रदेश भर में प्रदर्शन किए जाएंगे। सिंघा ने कहा कि एक अनुमानित सर्वे के अनुसार राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों के उत्पादन की लागत में 22 से 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकारों की वैकल्पिक साधनों के निर्माण में असफलता के कारण किसानों को परिवहन के जरिये अपने उत्पादों को बाजार में पहुंचाना पड़ता है जो पूरी तरह डीजल पर निर्भर है। पार्टी को लेकर उन्होंने कहा कि जनता का पार्टी पर भरोसा है यह चुनाव नतीजे से जाहिर हो जाता है। सिंघा ने कहा कि माकपा लोगों के मुद्दों को राजनीति से ज्यादा तरजीह देती है। हमने कभी राजनीति के लिए लोगों के मुद्दे नहीं छोड़े। हम जनता के लिए लडऩे में विश्वास रखते हैं। पिछले सालों में जब विधानसभा में हमारा कोई प्रतिनिधित्व नहीं था हमने ही तमाम राजनितिक दलों के मुकाबले जनता के मुद्दों की लड़ाई लड़ी। किसानों के मुद्दों हों, मजदूरों के मुद्दे हों या गुडिय़ा से दुष्कर्म और हत्या का मुद्दा हो। हम सदा लड़ाई लड़ते रहे हैं और लड़ते रहेंगे।
प्रदेश में आर्थिक संकट
विशेष संवाददाता
आने वाले दिनों में प्रदेश गंभीर आर्थिक संकट में घिर सकता है यदि केंद्र इसकी मदद को आगे नहीं आता है। प्रदेश पर 45,000 करोड़ से ज्यादा के कर्ज के अलावा खराब आर्थिक स्थिति की हालत इस बात से समझी जा सकती है कि पिछले दो माह में कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करने के लिए भी कर्ज लेना पड़ा है। मेडिकल कालेज, मण्डी में नर्सों को समय पर वेतन का भुगतान करवाने के लिये प्रदेश हाई कोर्ट से आदेश करवाने पड़े । सामाजिक सुरक्षा पैंन्शन का भुगतान भी समय पर करने के लिए प्रदेश उच्च न्यायालय को ही दखल देना पड़ा। इस तथ्य को मुख्यमंत्री जयराम ने स्वीकार किया है। उन्होंने कबूल किया है कि उनके सामने आर्थिक संकट समेत कई चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों से पार पाते हुए उनकी सरकार आगे बढ़ेगी और राज्य में विकास के नए आयाम स्थापित करेगी। उन्होंने कहा कि राज्य के आर्थिक संकट से कैसे निपटना है। इसका पूरा प्लान बनाया जा रहा है और केंद्र सरकार से भी उदार वित्तीय मदद मांगी जाएगी और बेल आउट पैकेज की कोशिश की जाएगी।
भारत सरकार के वित्त विभाग ने 27 मार्च, 2017 को प्रदेश के वित्त सचिव के नाम भेजे पत्र में स्पष्ट कहा था कि राज्य सरकार वर्ष 2016-17 में केवल 3540 करोड़ का ही कर्ज़ ले सकती है। बजट दस्तावेजों के मुताबिक 31 मार्च 2015 को कुल कर्जभार 35151.50 करोड़ था और उसके बाद 2015-16, 2016-17 और 2017-2018 में बजट आंकड़ो के मुताबिक यह कर्ज 15 हजार करोड़ के करीब लिया गया और 31 मार्च 2018 को निश्चित रूप से यह आंकड़ा 50 हजार करोड़ से ऊपर हो जाएगा। जबकि दूसरी ओर से प्रतिवर्ष सरकार की टैक्स और गैर टैक्स आय में कमी होती जा रही है। वर्ष 2012-13 में प्रदेश की गैर कर आय कुल राजस्व का 46.28 फीसद थी जो कि 2016-17 में घटकर 41.95 फीसद रह गयी है। इसी तरह से 2012-13 में करों से आए कुल राजस्व का 5.68फीसद थी जो कि 2016- 17 में घटकर 4.59: रह गई है। यह सारे आंकड़े विधानसभा में प्रस्तुत बजट दस्तावेजों में दर्ज है।
जयराम ने कहा कि राज्य पर इस समय 46,500 करोड़ रुपए का कर्ज है और इससे पार पाना चुनौती है। इसके लिए वे अपने दिल्ली दौरे में पीएम नरेंद्र मोदी से चर्चा कर चुके हैं। उन्होंने इसके लिए विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा है। उन्होंने इस संबंध में केंद्रीय वित्त मंत्री से भी बात की है और वहां से पूरी मदद का आश्वासन मिला है। उन्होंने कहा कि इसके बारे में वित्त विभाग से विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। उनका कहना था कि राज्य की लोन की सीमा भी पूरी हो गई है और ऐसे में स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विकास किसी भी तरह के प्रभावित नहीं होगा।
जयराम ठाकुर ने कहा कि पूर्व कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में राजनीतिक लाभ के लिए कई घोषणाएं की और शिलान्यास किए। आलम यह था कि एक साथ सौ-सौ शिलान्यास किए गए। इससे वित्तीय हालात खराब हुए। इसके अलावा कई तैनातियां गैर ज़रूरी की गई थी। उनका कहना था कि इससे राज्य की वित्तीय स्थिति तहस-नहस हुई थी। अब सत्ता परिवर्तन के बाद वह दौर निकल चुका है। उन्होंने कहा कि राज्य की नई सरकार केंद्र से विशेष पैकेज की मांग करेगी और वहां अधिक से अधिक प्रोजेक्ट भेजेंगे। उन्होंने कहा कि प्रशासनिक फेरबदल की प्रक्रिया जारी है और यह नई सरकार के गठन के बाद ज़रूरी भी था।
ठाकुर ने कहा कि धर्मशाला में विधानसभा अब भावनात्मक रूप से जुड़ गई है और उनकी सरकार हर भावना का सम्मान करती है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने इसे जिस लाभ के लिए खोला था, उसे उसका लाभ नहीं मिला। उनका कहना था कि जब कांग्रेस सरकार ने धर्मशाला में विधानसभा का सत्र करवाने का ऐलान किया था तो वह चुनाव हार गई थी। उन्होंने कहा कि पहले भी राज्य को विशेष औद्योगिक पैकेज मिला था। उनका कहना था कि राज्य में पर्यटन विकास की अपार संभावनाएं हैं और धार्मिक और एडवेंचर टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाएगा।
मुख्यमंत्री ने कहा कि कैबिनेट की हर बैठक में एक-एक, दो-दो विभागों की प्रेजेंटेशन दी जाएगी। इसके माध्यम से मंत्री जान पाएंगे कि उनके विभागों का कामकाज कैसा है उसमें क्या-क्या किया जाता है। उन्होंने कहा कि इसके लिए सभी विभागों को आदेश दे दिए गए हैं। एनजीटी के शिमला को लेकर आए आदेश के मद्देनजर सरकार विधि विभाग कि राय ले रही है उसके मुताबिक आगे काम किया जाएगा।
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में चुनाव की रणभेरी
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में होने वाले विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा गुरुवार को चुनाव आयोग के तरफ से कर दी गयी। मुख्य चुनाव आयुक्त एके ज्योति ने पत्रकार सम्मलेन में इन चुनावों की घोषणा की।
उन्होंने बताया कि तीनों राज्यों में चुनाव दो चरणों में होंगे। पहले चरण के लिए त्रिपुरा में 18 फरवरी को चुनाव होगा। दूसरे चरण के लिए मेघालय और नागालैंड में 27 फरवरी को चुनाव होंगे। उन्होंने बताया कि तीनों राज्यों में चुनावी नतीजे एक ही दिन यानी 3 मार्च को घोषित किए जाएंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त एके ज्योति ने कहा कि तीनों राज्यों में होने चुनावों के लिए पूरी तरह से ईवीएम और वीवीपैट का इस्तेमाल किया जाएगा और उम्मीदवार ईवीएम को जांच भी सकेंगे।
मुख्य चुनाव आयुक्त ने बताया कि तीनों राज्यों में गुरुवार से ही आचार संहिता भी लागू हो गई है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने बताया कि उम्मीदवारों का चुनावी खर्च 20 लाख रुपए तय किया गया है। उन्होंने कहा कि सभी राजनीतिक कार्यक्रमों की वीडियोग्राफी करवाने के साथ-साथ बॉर्डर चैकपोस्ट पर भी सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। बता दें कि तीनों ही राज्यों में 60-60 विधानसभा सीटें हैं जिनमें से पहले चरण के लिए त्रिपुरा में 18 फरवरी और दूसरे चरण के लिए मेघालय और नागालैंड में 27 फरवरी को चुनाव होंगे।
मणिपुर में पहले ही सत्ता में आ चुकी भाजपा पार्टी का विस्तार करना चाहती है और उसकी नजर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों पर भी है। पूर्वोत्तर में सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही भाजपा ने इस बार के चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। इसी योजना के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 जनवरी को राज्य में दो चुनावी रैलियों को संबोधित करेंगे। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हाल ही में त्रिपुरा का दौरा कर चुके हैं। फिलहाल त्रिपुरा में माणिक सरकार की अगुवाई वाली वामपंथी सरकार सत्ता पर काबिज है।
हिमाचल में जयराम सरकार
जयराम के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही हिमाचल की राजनीति में नए युग का सूत्रपात हो गया। राज्यपाल देव व्रत ने जय राम को प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। यह कार्यक्रम ऐतिहासिक रिज पर आयोजित किया गया। मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, जगत प्रकाश नड्डा, प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार उपस्थित थे। दिलचस्प यह है कि केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा के बिलासपुर और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कमर धूमल के हमीरपुर जिले से किसी को मंत्री नहीं बनाया गया है। मुख्यमंत्री के अलावा 11 मंत्रियों ने शपथ ली। हिमाचल में 68 सदस्यों की विधानसभा है और इतने ही मंत्री बनाये जा सकते हैं।
धूमल के भविष्य को लेकर अभी कयास हैं। उन्हें या तो केंद्र में मंत्री या राज्यपाल बनाया जा सकता है। वे इस चुनाव में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे लेकिन आशचर्यजनक रूप से चुनाव हार गए। नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को बुधवार को राज्यपाल देवव्रत ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री इस शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद हैं। जयराम ठाकुर के साथ महेन्द्र सिंह, किशन कपूर, सुरेश भारद्वाज, अनिल शर्मा, सरवीन चौधरी, राम लाल मार्कण्डय, विपिन सिंह परमार, वीरेंद्र कंवर, विक्रम सिंह, गोविंद सिंह और राजीव सहजल ने भी मंत्री पद की शपथ ली। भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को हराकर सत्ता हासिल की है। भाजपा ने 68 सदस्यीय विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत के करीब 44 सीटें हासिल की है। कांग्रेस ने 21 सीटों पर जीत हासिल की है।
जयराम ठाकुर के शपथ लेते ही वहां जय श्रीराम के नारे लगने लगे। रिज पर बड़ी संख्या में भाजपा समर्थक उपस्थित थे और मोदी-मोदी के अलावा जय श्री राम के नारे लगा रहे थे।
मुख्यमंत्री के बाद मोहिंदर सिंह ठाकुर ने मंत्री पद की शपथ ली। वह मंडी की धर्मपुर सीट से विधायक बने है। वह 1990 से लगातार सातवीं बार विधायक बने हैं। इनका पांच अलग-अलग दलों से जीतने का रिकॉर्ड है, साथ ही वे मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के भी बेहद करीबी हैं। किशन कपूर ने भी मंत्री पद की शपथ ली। वे दो बार हिमाचल सरकार में मंत्री रह चुके हैं। वरिष्ठ नेता सुरेश भारद्वाज ने भी मंत्री पद की शपथ ली। वे शिमला शहरी सीट से विधायक बने। इससे पहले वे राज्यसभा सांसद थे। जबकि 1997, 2007 और 2012 में भी विधायक रह चुके हैं।
चुनावों से थोड़ा समय पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा में घुसे अनिल शर्मा को मंत्री बनाया गया। शर्मा मंडी सीट से विधायक हैं। वे तीन बार विधायक और एक बार राज्यसभा सांसद रह चुके हैं। कांगड़ा के शाहपुर से विधायक सरवीन चौधरी ने मंत्री पद की शपथ ली। सरवीन शाहपुर से 2007 से लगातार विधायक हैं। वे धूमल सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री भी रह चुकी हैं।
रामलाल मार्कण्डे ने मंत्री पद की शपथ ली। वह लाहौल स्पीति सीट से विधायक बने हैं। 1998 और 2007 में भी विधायक बन चुके हैं। 1998 में वह कैबिनेट मंत्री भी थे।
विपिन परमार ने मंत्री पद की शपथ ली। वे सुल्लाह विधानसभा सीट से चुनाव जीते हैं। दो बार हिमाचल बीजेपी के महासचिव रहे हैं। कांगड़ा-चंबा बीजेपी युवा मोर्चा के अध्यक्ष हैं। वीरेंद्र कंवर ने मंत्री पद की शपथ ली। वह ऊना की कुटलेहड़ सीट से चुनाव जीते हैं। 2003 से लगातार विधायक चुने गए हैं। साथ ही धूमल के लिए सीट छोडऩे को तैयार थे।
विक्रम सिंह ने मंत्री पद की शपथ ली। वह जसवां प्रागपुर सीट से विधायक हैं। 2003 और 2012 में विधायक चुने जा चुके हैं। गोविंद ठाकुर ने संस्कृत में मंत्री पद की शपथ ली। वह कुल्लू की मनाली सीट से चुनाव जीते हैं। लगातार तीसरी बार विधायक बने हैं। गोविंद ठाकुर पूर्व मंत्री कुंज लाल ठाकुर के बेटे हैं। राजीव सैजल ने भी मंत्री पद की शपथ ली। वे सोलन की कसौली सीट से चुनाव जीते हैं। कसौली सीट से लगातार तीसरी बार विधायक बने, सैजल अनुसूचित जाति से हैं।
कांग्रेस ने ही हराया हिमाचल में कांग्रेस को: राहुल गांधी
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिमाचल पहुंच कर यह कहा कि आपसी गुटबाजी के कारण हिमाचल विधानसभा में इतनी खराब हार हुई। गुजरात में तो पार्टी एकजुट थी और उसने कड़ा मुकाबला किया। लेकिन हिमाचल में तो कांग्रेस ने ही कांग्रेस को हरा दिया। उन्होंने राज्य कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिहं और प्रदेश कमेटी अध्यक्ष सुखविंदर सिंह के गुटों की और इशारा किया। हम यदि एकजुट होकर लड़ते तो जीत भी सकते थे। पार्टी को विधानसभा की 68 सीटों में से 21 सीटें ही मिली। उन्होंने चेतावनी दी कि जिन्होंने पार्टी के खिलाफ काम किया है उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें लिखा है कि गुटबाजी के कारण कांग्रेस चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा पर हावी न हो सकी। इस बैठक में हाईकमान के पर्यवेक्षक और पार्टी के राज्य प्रभारी सुशील कुमार शिन्दे और रंजीत रंजन भी थे।
चुनाव की रणनीति बना लें या फिर राज करें
अगले लोकसभा चुनावों यानी 2019 से पहले 2018 में ही देश के आठ-नौ राज्यों में चुनाव होने हैं। इन चुनावों की तैयारी में विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल के मंत्री अपनी पार्टी उम्मीदवारों की जीत में जुट जाएंगे। गुजरात चुनावों में केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधे से ज्यादा मंत्री और प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और बड़े लोग वहां मोर्चे पर डटे रहे। अब तो राजनीति में कार्यरत हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी मौका मिलेगा ज़मीनी स्तर पर मुद्दों को उछालते हुए सक्रिय राजनीति में आने का। लगातार सामाजिक सक्रियता से राजनीति में आना तो होता ही है। हालांकि मसले जहां के तहां ही रह जाते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अभी हाल दिल्ली में आंदोलन चला सफल रहा। दिल्ली चुनावों में एकदम नए लोगां की आम पार्टी बनी। लगभग पांच ही साल में सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह बड़ी जीत रही। अभी हुए गुजरात चुनावों में पाटीदार आरक्षण, दलित और ओबीसी के मसलों के चलते कांग्रेस को भरोसे लायक नौजवान नेता ज़रूर मिल गए और मज़बूत विपक्ष बन सका। हिमाचल प्रदेश में वामपंथी उभार एक सीट पर सीमित रहा। लेकिन इस जीत ने बताया कि ज्य़ादातर वामपंथी लोग सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाते हैं। इनकी और कांग्रेसी रणनीति के चलते भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हार गए हालांकि पार्टी जीत गई। आम चुनाव अब 2019 में हैं और उसकी तैयारी में केंद्र की सत्ता संभाल रही पार्टी पहले से ही सक्रिय है, लेकिन इस साल की चुनावी तैयारी में केंद्र व राज्य सरकारों का कामकाज तो होता रहेगा लेकिन सुशासन नहीं होगा।
अभी पुणे में हुई हिंसा के जवाब में महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में जिस तेजी से हिंसा फैली उससे यह एहसास हुआ कि राजनीतिक आकांक्षा पूरी करने की ललक में किस तरह ज़मीनी सक्रियता काम करती है। जब राजनीतिक अवसर ठीक से नहीं मिलते तो उस ज़मीनी सक्रियता को असीम सभावनाओं के लिए उपयुक्त माना जाता है।
इस साल त्रिपुरा छत्तीसगढ़, कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में चुनाव होने हैं। पूरे देश में आरोपों प्रत्यारोपों का शोर होगा और सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति में अपने प्रवेश को सुगम बनाने के लिए सक्रिय रहेंगे।
हर विपक्षी दल के लिए सत्ता पार्टी की आलोचना करना उचित है। राहुल तो 2019 के चुनावों के पहले अपने तौर तरीके भी बदल चुके हैं। अब उनकी निगाहें नए उभरते लोगों पर हैं। उन्होंने कुछ मुद्दों पर मज़बूत रुख लेने की शुरूआत भी कर दी है। उनके इस बदलाव से भाजपा में अब संशय घना हुआ है।
भाजपा ने जीएसटी, विमुद्रीकरण, उजाला (एलईडी बल्ब के इस्तेमाल से अच्छी रोशनी हो) सौभाग्य(चार करोड़ घरों में बिजली पहुंचाना वह भी ग्रामीण क्षेत्रों और अर्ध शहरी इलाकां में) आदि योजनाएं शुरू कीं। भाजपा के नेतृत्व में चल रही एनडीए सरकार की यह प्रगतिशील योजनाएं साबित भी हुई हैं। इसी तरह उड़ान (क्षेत्रीय हवाई अड्डों को विकसित करना जिससे अर्धशहरी और ग्रामीण इलाकों में आवागमन बढ़े) यह योजनाएं कामयाब रही हैं। इसलिए उनके नतीजे भी आ रहे हैं। कई ऐसी ही योजनाएं पहले भी घोषित हुई लेकिन सात दशक बीत गए। बात बनी नहीं इन योजनाओं को लागू करने के तरीके पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन इरादों पर नहीं।
मतदाताओं के एक वर्ग को साथ लिया जा सके इसका अभ्यास हर राजनेता करता है। ज्य़ादा मत पाने की चाह में जाति, वर्ग, समुदाय को साथ लेने की कोशिश में हिंसा का दौर होता है और आम आदमी की मौत भी होती है। उसे ज़मीनी स्तर पर संभालना ही वह कला है जो सामाजिक कार्यकर्ता जानता है। आज निहायत छोटे स्तर पर ज़मीनी सामाजिक कार्यकर्ता महत्वपूर्ण है।
विपक्षी दल जब राजनीतिक कार्यकर्ता की खोज में आते हैं तो उन्हें मीडिया भी सहयोग करता है। यह देश को विभाजित करने की कोशिश करते हैं। यह तरीका इसलिए खतरनाक है क्योंकि इसे होने वाले नुकसान का असर दीर्घकाल तक रहता है। भले कोई भी पार्टी सत्ता में हो। आज की राजनीति मानो देश को 70 और 80 के दशक में ले जा रही है जब आरक्षण, कर्जमाफी, भाषा,धर्म और वोट बैंक राजनीति ही ज़रूरी मुद्दे थे।
आप देखिए गुजरात के पाटीदार और हरियाणा -राजस्थान के जाटों का आरक्षण के लिए प्रदर्शन आंदोलन सिर्फ भावनाएं भड़काने का ही प्रयास था। इसे सत्ता और विपक्ष हवा देता रहा। आंदोलन चलाने वाले छोटे-बड़े नेता भी जानते हैं कि अब आरक्षण की गुंजाइश नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने बढ़ावा दिया। इसी तरह दलितों का आंदोलन है। उनके नेता जिग्नेश मेवाणी गुजरात विधानसभा में विधायक हैं। उनकी खासियत यह है कि सत्ता पाने के लिए वे समाज में युद्ध करा दें। वे खुद को 98 फीसद राजनीतिक और दो फीसद सक्रिय कार्यकर्ता बताते भी हैं। उन्हें कांग्रेस ने समर्थन भी दिया।
अब कर्नाटक में हिंदू समुदाय से लिंगायत को अलग कराने का आंदोलन हिंदू समुदाय का ध्रुवीकरण कर रहा है। चुनाव जीतने की यह भी एक कोशिश है। अलग-अलग छोटे समुदायों में हिंदुओं को अलग करके क्या हिंदू भी अल्पसंख्यक नहीं हो जाएंगे। लेकिन यह बात चुनावी रणनीति में महत्व नहीं रखती।
अब एक डेढ साल ही है लोकसभा चुनावों में हर ज़मीनी कार्यकर्ता राजनीति में आने के लिए नए-नए भड़काऊ मुद्दों की तलाश कर रहा हैं। उसे शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास नहीं चाहिए। राहुल गांधी और गुजरात में उनकी तिकड़ी गुजरात में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में कामयाब रही। कुछ और राज्यों में मेहनत करें तो यह और मज़बूत होगी। देखना यह है कि राहुल के ही खिलाफ कब यह तिकड़ी होती है।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाते हुए सत्ता पा गए। अब राज्यसभा में जिन्हें उम्मीदवार बनाया उनमें एक नेता ने तो महज एक दिन पहले कांग्रेस छोड़ी थी। उनकी अभी हाल बनी पार्टी पंजाब में हारी, गुजरात में उसके सभी उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई। दिल्ली कांगेस के हाथों से सरकी और अब आप के हाथों में से भी खिसक रही है। लेकिन क्या हुआ। लोकतंत्र में जीतता है सही सामाजिक कार्यकर्ता ही।
बदलाव लाने का ककहरा सीख लिया राहुल ने
मेरे कांग्रेसी भाइयों और बहनों। आपने जो कुछ किया उस पर मुझे गर्व है। उनकी तुलना में आप कहीं अलग दिखे जिनसे आप लड़े। आपने अपने गौरव के अनुरूप गुस्से का मुकाबला किया। आपने हर किसी को यह बता दिया कि कांग्रेस की आज भी सबसे मजबूत ताकत है इसकी ताकत शालीनता और साहस है।Ó
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी के नम्रता भरे ये शब्द हैं। इन्हीं के चलते राहुल गांधी आज के संतुलित, नियंत्रित और अच्छे रणनीतिकार साबित हुए। ऐसा जो पहले कभी देखा न गया। राजनीतिक तौर पर ‘पप्पूÓ कहलाने वाला, अब परिपक्व नेता बन कर उभरा दिख रहा है।
देश में 18 दिसंबर को गुजरात और हिमाचल की विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे। गुजरात में नतीजे आ रहे थे और कांगे्रस गुजरात में नया सवेरा लाने की कोशिश में थी। तभी यह आभास हुआ कि कुछ बदलाव तो हो रहा है। जिस सुबह के आने की बात थी वह गलत साबित होने लगी। वह सुबह राहुल गांधी के ताकतवर चुनाव प्रचार से बनी थी। आखिर में ऐसा लगा, मानो गांधी खानदान के इस सितारे में अपनी जिम्मेदारी न केवल पार्टी बल्कि उसमें अपनी विरासत ही नहीं, बल्कि उन लोगों के प्रति भी समझदारी है जो उन्हें संसद में ले गए। उसने ज़मीन को टटोलते हुए कहा – ‘गुजरात मॉडेल उतना भी लोकतांत्रिक नहीं है जितना दावा किया जा रहा था। राज्य में कहीं ज्य़ादा असामानता है।Ó
चुनाव अब खत्म हो गए हैं। कांग्रेस की पराजय ज़रूर हुई। पुरानी हताशा अब फिर लौटी आई है। लेकिन क्या राहुल आराम करेंगे या फिर नई शुरूआत करेंगे। क्योंकि यही वह क्षण है जिसे उन्होंने खुद के लिए और पार्टी के लिए चुना था वह भी 2019 के आम चुनाव के ऐन पहले।
अब मौका है कि राहुल यह मानें कि उन पर ही अब सारा दारोमदार है। पार्टी के कार्यकर्ताओं में आई चेतना को लगातार उन्हें ही बनाए रखना है। क्योंकि भाजपा के हाथों लगातार पराजय झेलते हुए अब वे हताश हो चुके हैं। राहुल आज ऐसे आधार हैं जो ऐसे कार्यकर्ताओं की फौज तैयार कर सकते हैं जो मजबूत ही नहीं बल्कि रचनात्मक भी हों। उनके कार्यकर्ता अब आक्रामक ही नहीं, बल्कि अपनी आग को खुद ही संजोए रखते हुए सक्रिय दिखेंगे मैदान में।
गुजरात चुनाव के दौरान यह बात भी साफ हुई कि राहुल गांधी अब बहन प्रियंका गांधी वाद्रा की छाया से भी कोसों दूर हैं। एक जमाना था जब उसकी सहज उन्मुक्त हंसी और खूबसूरती की झलक पाने के लिए हज़ारों की भीड़ मैदानों में जुट आती थी।
लेकिन इस बार राहुल के पास ऐसा कोई नहीं था जो उन्हें रोकता-टोकता। सिवा उन अनुभवी रणनीतिककार अशोक गहलोत के। जो तभी टोकते हैं। जब ज़रूरत पड़ती है। राहुल ने उनके अनुभवों का लाभ भी लिया। गुजरात में नवसर्जन की शुरूआत की।
चुनाव प्रचार के दौरान लोगों ने देखा कि राहुल शांत हैं और सामने से आ रही हर चुनौती का सौम्य, व्यवहार कुशल तौर पर जवाब देने के लिए तैयार हैं। उनके जो प्रयास दिखे उससे उनका व्यक्तित्व काफी अलग और कुलीन दिखा। चाहे वह ट्विटर हो या फेसबुक पर यह बेहद कम जटिल था। उनसे हर कोई संवाद कर सकता है।
अब 2017 बीत चुका है और 2018 में आठ राज्यों में चुनाव की जिम्मेदारियां हैं। जिन बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। उनमें कर्णाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश हंै। कांग्रेस को अब 2017 में हासिल आत्मविश्वास को बनाए रखते हुए जनता में अपनी लोकप्रियता बढ़ानी है। राहुल को अब कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं से काम लेना आ गया है। उन्हें अब लगातार सक्रिय रहना है।
मर्यादाहीन राजनीति पर चुनावी मुहर
गुजरात के चुनावों ने भारत की मयार्दाहीन होती चुनावी राजनीति का चेहरा ही दिखाया है। अगर कांग्रेस के फिर से प्रभावी होने और राहुल गांधी के एक भरोसेमंद तथा मजबूत विपक्षी नेता के रूप में उभरने जैसे नतीजों को छोड़ दिया जाए तो गुजरात के चुनाव और इससे आए परिणाम भारतीय राजनीति को लेकर कोई भरोसा नहीं देते। यह जाहिर करता है कि देश को चलाने वाले ज्यादा उच्श्रृंखल तथा गैर-जिम्मेदार हरकतों और असामान्य आचरण के बाद भी अपनी लोकप्रियता बनाए रख सकते हैं। इसने उस भारतीय समाज के लगातार पतनशील होते जाने की सच्चाई ही पुष्टि करता है जिसे सहिष्णु तथा प्रगतिशील बनाने में महात्मा गांधी ने अपनी जान दी। गुजरात के चुनाव परिणाम यही बताते हैं कि राजनीति और समाज की यह गिरावट शहरी मध्यवर्ग के व्यवहार में ज्यादा दिखाई देती है। उसने भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के विभाजनकारी और लगभग खुले हिंदुत्व का जमकर समर्थन किया है। चुनाव परिणाम बताते हैं कि शहरी क्षेत्रों में भाजपा का वोट प्रतिशत काफी ज्यादा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि गुजरात का समाज धार्मिक आधारों पर बंटा हुआ है और भाजपा के लंबे शासन काल में यह विभाजन करीब-करीब संस्थाबद्ध हो चुका है। मुसलमानों की हालत परिया जैसी है और इतिहास और संस्कृति के पक्षपाती चित्रण ने हिंदुओं को कठ्ठर बन दिया है। इस मायने में गुजरात बाकी राज्यों से एकदम अलग है। उसकी तुलना देश के बाकी राज्यों सेे नहीं हो सकती है। वही एक ऐसा राज्य है जहां शहरों में मुसलिम आबादी अलग इलाकों में रहती है और इन इलाकों का शहर की मुख्यधारा में शाण्द ही कोई भूमिका है।
सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस तथा राहुल गांधी ने समाज तथा राजनीति पर भाजपा के संगठित हमले का मुकाबला किया है? इसका जबाब नहीं में आएगा। कांग्रेस लंबे समय से उनके सामने हथियार डाले रही है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राज्य का नेतृत्व शंकर सिंह वाघेला जैसे आदमी को दे रखा था जो आरएसएस तथा भारतीय जनसंघ के दर्शन को आत्मसात कर राजनीति में आगे बढ़े थे। ऐसे व्यक्ति से किसी हिंदुत्व-विरोधी दर्शन को आगे बढ़ाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस बार भी राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर भटकना और अपने को जनेऊधारी हिंदु बताना वाघेला वाली राजनीति को ही आगे बढ़ाने जैसा है। इसकी जड़ें इंदिरा गांधी के नरम हिंदुत्व से की जा सकती है उन्होंने आपातकाल के बाद सत्ता मे अपनी वापसी के बाद अपनाया था। यह न तो कांगं्रेस की गांधीवादी परंपरा से मेल खाता है और न ही नेहरू की परंपरा से। गांधी भारत तथा दुनिया की दूसरी आध्यात्मिक परंपराओं का सहारा लेकर एक देशी सेकुलरिज्म का निर्माण कर रहे थे जिसका लक्ष्य इस गुलाम देश की मुक्त और गरीब तथा वंचित जनता को उसके मानवीय हक दिलाना था। गांधी ने भिन्न आस्थाओ के कारण समाज में होने वाले विभाजन को मिटाने का तरीका ढ़ूंढ़ लिया था। इसलिए उन्हें मंदिर या मूर्ति के स्थूल प्रतीकों की जरूरत नहीं थी। आधुनिक विचार वाले नेहरू राज्य की सत्ता के सेकुलर बनाए रखने के पश्चिमी विचार का ईमानदारी से पालन करते थे। इसमें राज्य की संस्थाओं के मजहबी होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। राहुल गांधी को गुजरात मे अपनाया तरीका दोनों तरीकों को छोड़ता नजर आता है। राहुल इस मामले में फिसल गए और यह फिसलन कांग्रेस को भाजपा के सही विकल्प के रूप में उभरने में बाधा पैदा करेगा।
इस फिसलन के बावजूद राहुल ने गुजरात के चुनाव अभियान में मौजूदा राजनीति में एक नई दृष्टि डालने की कोशिश की और उसे पटरी पर लाने की कोशिश की। वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर सभी पार्टियों ने देश में चल रही आर्थिक नीतियों का विरोध करना लगभग छोड़ ही दिया था। कांग्रेस तो इन नीतियों को जन्म देने वाली ही है। लेकिन राहुल ने इन पर जमकर हमले किए। कारपोरेट समर्थक अर्थव्यवस्था पर राहुल का यह हमला कांग्रेस की नीतियों में परिवर्तन का संकेत देता है बशर्ते उसे कांग्रेस के वैचारिक और सैद्धांतिक विमर्श का मुख्य हिस्सा बनाया जाए। गुजरात में राहुल के ओर से शुरू हुए विमर्श को आगे बढ़ाने का मतलब है कि कांगेस अपनी मनमोहन-चिदंबरम वाली वैचारिकता से बाहर आएगी। राहुल गांधी इसे कितना कर पाते हैं यह एक अलग मसला है। लेकिन यह साफ हो गया कि कांग्रेस यह मानने लगी है कि उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध ही उसे जनता के करीब ला सकता है। गुजरात के चुनावों की यह बड़ी उपलब्धि है।
भाजपा तथा आरएसएस ने गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला में प्रचारित कर रखा है और मोदी ने उसे विकास का माडल देने वाले राज्य के रूप में प्रचारित किया। दोनों के नतीजे पिछले दिनो साफ उभर कर आए हैं। एक ने एक बड़ी आबादी, मुसलमानों को देश की राजनीति से बाहर कर दिया है और दूसरे ने किसानों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ही नहीं बल्कि छोटे और मझोले उद्योग चलाने वालों को भी हाशिए पर ला दिया है। गुजरात में पटेल इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। अर्थ और राजनीति में ताकतवर रहीं जातियां जैसे जाट, मराठा, पटेल आदि आज सड़कों पर हैं। राहुल गांधी ने उदारवादी आर्थिक नीतियों पर हमलों के जरिए तथा किसानों तथा पटेल समेत बाकी जातियों का पक्ष लेकर नई राजनीति के संकेत दिए। यह निश्चित तौर पर विदेशी पूंजी के नेतृत्व में चलने वाली अर्थव्यवस्था के विरोध में खड़ी होने वाली राजनीति है। लेकिन इसे गुजरात की जनता ने किस हद तक स्वीकारा यह देखने लायक है। भाजपा ने शहरों में जिस तरह वोट बटोरे हैं उससे जाहिर हो जाता है कि राहुल की इस राजनीति को उन्होंने पूरी तरह खारिज कर दिया है। लेकिन गांवों में कांग्रेस को जैसा समर्थन मिला है वह यही बतलाता है कि देश में उम्मीद की किरण वहीं से निकल सकती है। क्या कांग्रेस और राहुल इस जोखिम भरी राजनीति पर चल सकते हैं जिसमें नेतृत्व गांव के गरीब और वंचित समाज का हो? इसके लिए कांग्रेस को अपने फिर से अन्वेषित करना होगा। ऐसा करने के कोई संकेत कांग्रेस ने अभी तक नहीं दिए हैं।
गुजरात के चुनावों से एक और बात सामने लाई है वह है। यह देश की राजनीति के विविधतावादी स्वरूप का लोप। राज्य में भाजपा ने कांग्रेस विरोधी विपक्ष को काफी पहले निगल लिया था। कांगेस भी भाजपा-विरोधी अपने पार्टियों और संगठनों को अपने अनेक रूपों में उपस्थित रहने में कोई मदद नहीं की। इसे हम एनसीपी जैसी किसी पार्टी के साथ समझौता नहीं करने और आदिवासी नेता छोटुभाई वसावा के साथ सिर्फ आधा-अधूरा समझौता करने में देख सकते हैं। वसावा को मदद देकर कांग्रेस आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा को बखूबी रोक सकती थी। इसके अलावा, छोटी-पार्टियों का नहीं होना केंद्रीयतावादी राजनीति को ही आगे बढ़ाता है जो भाजपा के लिए लाभ की बात है।
राजनीति के इकहरे होने का एक और नमूना गुजरात में दिखाई दिया। देश को परेशान करने वाली स्थितियों और विमर्श को जन्म देने वाले इस राज्य में उनकी चर्चा नहीं हो पाई। इनमें मानवीय सूचकांकों का कम होना, अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन जैसे सवाल महत्वपूर्ण थे। मानवीय सूचकांकों पर राज्य की गिरती हालत की थोड़ी चर्चा तो राहुल ने की। लेकिन मानवधिकारों के उल्लंघन तथा अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर उन्होंने खामोशी अख्तियार कर ली। यह नरम हिंदुत्व के सामने आत्मसमर्पण की रणानीति का ही नतीजा था। स्पष्ट है कि समाज में इसे स्वीकार किए जाने की कम संभावना को देखकर ही कांग्रेस ने यह रूख अख्तियार किया। सच पूछा जाए तो देश की बड़ी और पुरानी पार्टी का इस मामले में बचाव की मुद्रा में होना एक अशुभ संकेत है।
गुजरात ने सत्ता परिवर्तन के कुछ संकेत तो दिए हैं लेकिन भारतीय समाज और राजनीति के पीछे खिसकते जाने की स्थिति को ही दर्शाया है। यह पहली बार हुआ कि कोई प्रधानमंत्री अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर वोट मांग रहा हो और उसे उभारने की हर संभव कोशिश कर रहा हो।
इस सबसे बुरा पक्ष तो यह रहा कि चुनाव आयोग की संस्था ने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दी और ने चुनाव में सुधार के सारे पिछले प्रयासों पर पानी फेर दिया। दोनों ही प्रतिद्वंद्वी दलों से यह उम्मीद नहीं थी कि वे चुनाव को बेहतर बनाने के लिए कुछ करते, लेकिन मीडिया तथा चुनाव आयोग से यह उम्मीद तो थी ही कि वे ऐसा करने के प्रयास करेंगे। मीडिया तो भाजपा के प्रचार अभियान का हिस्सा ही रही और उसने प्रकारांतर से राम मंदिर, लवजिहाद, तीन तलाक से लेकर हाफिज सईद को सामने रखकर कठ्ठर हिंदुत्व को केंद्र में रखने का भरपूर प्रयास किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी रामजन्मभूमि विवाद की सुनवाई शुरू कर यही दिखाया कि उसे देश में चल रही राजनीति से हो रहे नुकसान की कोई परवाह नहीं है। चुनाव आयोग ने सरकार को आचार संहिता के उल्लंघन का पूरा मौका दिया। यह सिर्फ मजहबी राजनीति को आगे बढ़ाने वाले बयानों की अनदेखी में ही नजर नहीं आया, बल्कि ऐन चुनावों के बीच जीएसटी में सुषार की घोषणा में भी नजर आता है।
चुनवा आयोग ने बाढ राहत में बाधा के नाम पर चुनाव की तिथियें की घोषणा हिमाचल प्रदेश के साथ नहीं की और राज्य तथा केंद्र सरकार को गुजरात में नई-नई घोषणाओं और शिलान्यास तथा उद्घाटन को भरपूर मौका दिया। उसका पक्षपात तो तभी जाहिर हो गया जब उसने चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद राहुल गांधी को तो नोटिस दे दिया, लेकिन मोदी और भजपा के ऐसे कार्यों पर चुप्पी साधे रहा। पराकाष्ठा तो तब हुई जब ऐन मतदान के दिन प्रधानमंत्री ने रोड शो कर लिया। मीडिया की जिम्मेदारी इन सवालों को उठाने की थी लेकिन उसने इसे उसे उठाने के बदले सत्ता पक्ष के प्रवक्ता के रूप में काम किया। गुजरात में चुनाव खर्च को लेकर न तो मीडिया ने कोई सवाल किया और न ही चुनाव आयोग ने। ईवीएम पर उठ रहे संदेहों को दूर करने के बदले आयोग ने अपना पुराना रूटीन तरीका अपनाया। लोकतंत्र में लोगों को भरोसा बनाए रखने के लिए इस सवाल का उत्तर आवश्यक है। हम भले ही कांग्रेस के पुनजीर्वित होने की संभावनाओं में कुछ सकारात्मकता जरूर है, लेकिन अपनी संपूर्णता में इस चुनाव ने लोकतंत्र के आगे बढऩे का कोई रास्ता नहीं दिखाया है।
हंगामा क्यूं बरपा भीमा कोरेगांव पर
पुणे-अहमदनगर हाइवे पर है छोटा सा गांव भीमा कोरेगांव। नए वर्ष का पहला दिन 1 जनवरी 2018 यहां के 75 फुट ऊंचे विजयस्तंभ को सलामी देने महाराष्ट्र भर के दलित पहुंच चुके थे। तिल भर की जगह नहीं थी। लोग अनुशासन, आदर से विजय स्तंभ को सलामी देकर भीड़ में विलीन हो रहे थे। इस दफा भीड़ हमेशा से अधिक थी। क्योंकि इस भीमा कोरेगांव के जय स्तंभ के इतिहास को 200 साल पूरे हो रहे थे। पिछले दस-पंद्रह साल से हम लोग आते रहे हैं, लेकिन पहली दफा हमने गौर किया कि इस गांव को और इस ओर आनेवाले रास्तों की दुकानें बंद थी, गांववालों का रवैया बिलकुल अलग था। सुबह 11 बजे के करीब हम लोगों ने भीमा नदी के पार धुंआ उठता देखा। बाद में लोग दौड़ते-दौड़ते आए और बताने लगे कि जहां गाडिय़ा पार्क थी उनमें आग लगा दी गई और पत्थरबाजी हो रही है। हम सब उस ओर दौड़। देखते-देखते वातावरण बदल गया तनावग्रस्त हो गया। हमने इस बारे में पुलिस को भी इत्तला की लेकिन उनकी भूमिका पर अचरज होता है। कहते हैं कि विलास साठ्ये जो भारत मुक्ति मोर्चा से जुड़े हैं। मुंबई से गए अशोक गज्जेटी भारिप के कार्यकर्ता बताते हैं, ‘हम लोग वहां से बडु बुद्रुक गांव की तरफ जाने लगे। स्थिति और भी खतरनाक हो गई थी कई नौजवान गाडिय़ां जला रहे थे। दौड़ रहे थे, पत्थर फेंक रहे थे। ऊंचे मकानों की छतों से। बाइक जल रही थी। गाडिय़ों के कांच बिखरे पड़े थे…. एक बड़ा मॉब हमारी तरफ आता दिख रहा था। भगवा झंडा उनके पास था, जय शिवाजी, जय भवानी के वे नारे लगा रहे थे, भगदड़ मच गया था चारों तरफ यही तस्वीर भीमा कोरेगांव को जोडऩेवाले अन्य रास्तों पर थी। अहमदनगर की ओर जानेवाली सड़क पर स्थिति सणसवाड़ी गांव में भी गाडिय़ां चल रही थी, पथराव हो रहा था। भीमा कोरेगाव, वडु बुद्रूक और सणसवाड़ी तीनों गांव अब हिंसा की चपेट में थे। इस बीच एक युवक की मौत की खबर ने इसे और तनावग्रस्त बना दिया।
भारिप के प्रकाश आंबेडकर का आरोप है कि एक तारीख को जो कुछ हुआ वह पूर्व नियोजित था। हालांकि 31 दिसंबर एक दिन पहले जब हमें पता चला कि कुछ लोग एक जनवरी के कार्यक्रम के खिलाफ मन बना रहे हैं तो हमने वहां के स्थानीय लोगों से संगठनों से बातचीत की और सौहाद्र बनाए रखने की अपील की उन लोगों ने भी हमारी बातों को गंभीरता से लिया और आश्वासन दिया कि कोई गड़बड़ी नहीं होगी, लेकिन कुछ अवांछित तत्वों ने हिंदुत्व के नाम पर रोटी सेंकने वालों ने बवंडर फैलाया।
‘एक है संभाजी भिडे, सांगली में उनका ‘शिव प्रतिष्ठानÓ नामक हिंदुत्ववादी संगठन है और दूसरा है पुणे का मिलिंद एकबोटे जिसका संगठन है ‘समस्त हिंदू आघाड़ीÓ। गुरुजी के नाम से जाने जाने वाले संभाजी भिड़े ने इस इलाके के लोगों को मुख्य रूप से नवयुवकों का ब्रेन वाश किया… उन्हें इतिहास तोड़-मरोड़कर पिलाया। जहर भरा। जिसका असर एक जनवरी को दिखाई दिया… उनके खिलाफ मामला दर्ज हुआ हैं लेकिन गिरफ्तारी नहीं हुई है। हमारी मांग है उन पर मुकदमा चले, सजा मिले। कहते हैं प्रकाश आंबेडकर।
दरअसल देखा जाए तो एक जनवरी को भीमा कोरेगांव में हुए फसाद और उसके प्रतिउत्तर में दिन ‘महाराष्ट्र बंद और तोडफ़ोड़ की घटना के पीछे बुडु बुद्रुक गांव में कुछ समय पहले से तेजी से घटित हो रही सामाजिक तानेबाने की चूलें हिला देनेवाली और इतिहास के साथ छेड़छाड़ करनेवाली घटनाएं हैं। भीमा कोरेगांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर बसे वडु गांव का इतिहास से नाता है। यहां पर संभाजी राजा की समाधि है। औरंगजेब ने छल-कपट से संभाजी को गिरफ्तार किया और मौत की सजा दी, लेकिन यह मौत की सजा बड़ी क्रूर थी। 11 मार्च
1689के दिन उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर इस गांव में डाल दिए थे। साथ में फरमान जारी कर दिया कि जो उनके शरीर को छुएगा उसका सिर कलम कर दिया जाएगा। इसी गांव के गोविंद गोपाल महार नामक व्यक्ति ने उनके छिन्न-भिन्न शरीर के टुकड़ों को एकत्रित किया और उनका अंतिम संस्कार किया। संभाजी के साथ कवि कलश का भी अंतिम संस्कार किया। गाविंद गोपाल महार की समाधि राजा संभाजी की समाधि से कुछ दूरी पर है।
एक जनवरी को भीमा कोरेगांव आकर जयस्तंभ को सलामी देनेवाले बौद्ध आंबेडकर अनुयायी वडु गांव जाकर संभाजी राजे और गोविंद गोपाल महार की समाधि के दर्शन भी करते हैं। कुछ लोगों ने गोविंद गोपाल महार की समाधि के पास चौथरे का निर्माण किया एक छत्री भी लगा दी थी साथ ही एक फ्लैक्स बैनर भी जिसमें गोविन्द महार के बारे में जानकारी दी गई थी।। एक जनवरी 2018 के तीन दिन पहले 29 दिसंबर 2017को गोविंद महार की समाधि को खंडित कर तोडफ़ोड़ की कोशिश की गई। जिसके चलते गांव में तनाव निर्माण हो गया। इस मामले में गांव के 49 युवकों के खिलाफ एट्रोसिटी के अंतर्गत मामला दायर किया गया। सूत्रों के अनुसार इस मामले को यह कहकर प्रचारित किया गया कि एट्रोसिटी के तहत मराठों को निशाना बनाया गया। हालांकि इन युवकों में मराठों के साथ ओबीसी व अन्य समाज के युवक भी हैं। वडु के अलावा आस पास के गांव में भी लोगों को एट्रोसिटी के नाम पर भड़काया गया जिसकी परिणति एक जनवरी के दिन जय स्तंभ को सलामी देने आए लोगों पर पत्थरबाजी और उनकी गाडिय़ों से आगजनी की गई।
29 दिसंबर 2017 के पहले से वडु गांव में इतिहास के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही थीं। यहां पर प्रचारित किया जा रहा था कि संभाजी महाराज के मृतदेह के टुकड़ों का जमा कर अंतिम संस्कार गोविंद गोपाल महार ने नहीं बल्कि गांव के शिवले देशमुख मराठा ने किया। उनके अनुसार वह लोग मूलतरू शिर्वेहृ थे। उनके वंशजों ने राजा संभाजी के छिन्न-भिन्न देह के टुकड़ों की अच्छी तरह से सिलकर उनका अंतिम संस्कार किया जिसके चलते वह शिवले देशमुख हो गए। हालांकि उनके इस दावे का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। गोविंद गोपाल महार का उल्लेख कई इतिहासकारों ने अपने संशोधन में किया है। इतिहासकार बीसी बेंद्रे के तथ्यों के आधार पर संभाजी महाराज की समाधी से लगे बोर्ड पर गोविंद गोपाल महार के कार्य का उल्लेख किया है। लेकिन दो साल पहले पुराने बोर्ड को हटा कर नया बोर्ड लगाया गया है जिससे गोविंद गोपाल महार की जगह ‘शिवले ग्रामस्थÓ लिखा गया है। आरोप है संभाजी महाराज स्मृति समिति ने संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे के इशारे पर किया गया हालांकि भिडे इस बात को तथ्यहीन बताते हैं। इस कांड की जांच सीबीआई से कराने की मांग करते हुए उन्होंने कहा कि यदि वह दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें कानूनन सजा दी जाए।
प्रतिशोध का उन्माद दो सौ साल बाद भी!
अजीबो गरीब बात है कि प्रतिशोध का उन्माद दो सौ साल बाद भी अपना असर दिखाए। मारपीट-आगजनी-हिंसा देखते-देखते भयावह हो जाए। दूसरे दिन महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों में भी पथराव-तोडफ़ोड़, हिंसा का फैलाव हो। इन सबके लिए राज्य का पुलिस प्रशासन और खुफिया एजंसियां जि़म्मेदार हैं। मुख्यमंत्री ने ज़रूर न्यायिक जांच बिठा दी है लेकिन क्या यह समाधान है? यह मामला राज्यसभा में भी उठा। जिस पर सदन स्थगित हुआ।
महाराष्ट्र के पुणे मेें आठ-दस हजार की आबादी का गांव है कोरेगांव-भीमा। यहां दो सौ साल पुराना युद्ध स्मारक है। हर साल की तरह इस साल भी पहली तारीख को युद्ध स्मारक के आस-पास मेला जुड़ा। भाषण हुए। विचित्रानुष्ठान हुए। अचानक मारपीट हुई और वहां खड़ी गाडिय़ों में आग लगा दी गई। वहां मौजूद पुलिस-होमगार्ड भी तमाशबीन बने रहे। यहां हुई हिंसा का फैलाव महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों में दिखा। राजधानी मुंबई के कई इलाके इसकी चपेट में आए। तीसरे दिन इन घटनाओं के विरोध में ‘बंदÓ हुआ। शाम को यह ‘बंदÓ वापस लिया गया। लेकिन कई शहरों में दो सौ साल से बनी जातीय एकजुटता की चूलें हिला गया। यदि राज्य प्रशासन पहले से सक्रिय रहा होता तो यह नौबत ही नहीं आती। पुणे की देहात पुलिस के क्षेत्र में आता है पिंपरी पुलिस स्टेशन। पुलिस ने भिडे, एकबोटे और उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया है। इसमें हिंदूवादी मिलिंद एकबोटे है जो समस्त हिंदू अगाडी के ही हैं और ‘शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तानÓ के सामाजी भिडे है। इन पर भीमा कोरेगांव के युद्ध की दो सौवीं वर्षगांठ पर हिंसा भड़काने का आरोप है।
भिडे इस समय 85 साल के हैं और सांगली निवासी हैं। जबकि एकबोटे साठ साल के हैं और पुणे में ही रहते हैं। दोनों का महाराष्ट्र में खासतौर पर युवा वर्ग में काफी प्रभाव है। इस मारपीट, पथराव, आगजनी और हिंसा में इन्होंने खासी भूमिका निभाई।
नए साल पर मंगलवार को कई नेता मसलन दलित नेता और भारतीय रिपब्लिकन पार्टी, बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर ने इन दोनों हिंदूवादियों पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया जिसमें 30 साल के एक नौजवान की मौत हो गई। पिंपरी पुलिस स्टेशन में भिडे, एकबोटे और उनके समर्थकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज है और इन्हें पुणे देहात पुलिस के हवाले कर दिया गया है। जिसकी सीमा क्षेत्र में कोरेगांव भीमा है। यह कार्रवाई सामाजिक कार्यकर्ता अमित रवींद्र साल्वे की शिकायत पर दर्ज की गई जो बहुजन रिपब्लिक सोशलिस्ट पार्टी की सदस्य हैं।
अपनी शिकायत में साल्वे ने लिखा है कि जब वह अपनी मित्र के साथ भीमा कोरेगांव सोमवार को पहुंचीं तो कुछ लोगों ने उनसे झंडे छीने और उनमें आग लगा दी। मैंने खुद आरोपी ‘भिडेÓ एकबोटे और उनके समर्थकों को आगजनी करते हुए, पत्थर फेंकते हुए देखा है। इन्होंने पुलिस पर भी हमला किया।
भिडे को भिडे गुरूजी के नाम से पूरे महाराष्ट्र में जाना जाता है। वे शिवाजी के अनुयायी हैं और उनके भक्तों में कई सौ नौजवान हैं। भिडे ने अपना संगठन चलाने से पहले पुणे में किसी कॉलेज में कुछ समय पढ़ाया भी। पहले से उनके संगठन के सदस्यों के खिलाफ कई मामले पुलिस में दर्ज हैं। एकबोटे पहले कारपोरेटर थे। उसके संगठन ने कई ऐसी गाडिय़ां पकड़ी जिनसे गाएं ले जाई जाती थीं। इन पर हत्या, दंगा करने और प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी कानून की धाराएं भी हैं।
इस बीच दक्कन पुलिस स्टेशन में गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू के छात्र उमर खालिद जो एल्गार परिषद के शनिवाखडा में 31 दिसंबर को बोल रहे थे उनके खिलाफ उत्तेजक भाषण देने की शिकायत दर्ज की गई है। इसे अक्षय बिक्कड (22) और आनंद घोंड (25) ने दायर किया है। इन्होंने मांग की है कि इनके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई हो।
भीम कोरेगांव झड़पों का मुद्दा ज़ोरदार तरीके से राज्यसभा में उठा। जबकि बहस द मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑफ मैरीज) बिल 2017 पर होनी थी। यह तीन तलाक के बतौर भी जाना जाता है। यह पहले ही लोकसभा में पास हो चुका है। विपक्षी सदस्यों ने शून्य काल में यह मामला उठाया और सदन दो बजे तक स्थगित कर दिया गया। पहले अध्यक्ष ने सदन के स्थगन की अनुमति नहीं दी फिर सदस्यों ने विशेषाधिकार प्रस्ताव पेश किया।
तकरीबन दो सौ साल पहले भीमा कोरेगांव युद्ध पुणे जि़ले में हुआ था। यहीं ईस्ट इंडिया कंपनी ने पेशवा की सेना को हराया था। नए साल पर सोमवार को हिंसा की घटनाओं से पुणे शहर में जबदस्त तनाव रहा। इसमें एक मौत हुई और कई घायल हो गए।
इस हिंसा के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भाजपा-आरएसएस को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि उनकी निगाह में ऐसा भारत है जिसमें भारतीय समाज में दलित सबसे नीचे के पायदान पर हैं। ट्विटर पर उन्होंने लिखा ‘आरएसएस व भाजपा के फासीवादी दृष्टिपत्र में ऐसा भारत बताया गया है जहां दलित भारतीय समाज में सबसे नीचे रहेंगे। ऊमा, रोहित वेमुला और भीम कोरेगांव उसी प्रतिरोध के प्रतीक हैं।Ó
इस हिंसा का असर मुंबई पर भी पड़ा। चेंबूर, मुलंड खासे उपद्रवग्रस्त रहे। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने तत्काल जांच के आदेश दे दिए हैं। इस बीच मरिया बहुजन महासंघ (बीबीएम) के नेता प्रकाश अंबेडकर ने बुधवार (तीन जनवरी को) हिंसा न रोक पाने में राज्य सरकार की नाकामी पर विरोध जताने के लिए ‘बंदÓ का आयोजन किया जो पचास फीसदी से ज्य़ादा प्रभावी रहा है। महाराष्ट्र सरकार की न्यायिक जांच के आदेश को प्रकाश अंबेडकर ने मानने से इंकार कर दिया है।
अंबेडकर का कहना है कि हिंसा के लिए हिंदू एकता अधाडी के लोग जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र डेमोक्रेटिक फ्रंट, महाराष्ट्र लेफ्ट फ्रंट और ढाई सौ संगठनों ने बुधवार को बंद रखा। पुणे में हुई हिंसा के चलते महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से हिंसा की खबरें हैं।