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आसां नहीं डगर कर्नाटक की

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एक रैली में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या को सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री बताने के चक्कर में गलती से अपने ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येदियुरप्पा का नाम ले बैठे। हालांकि बगल वालों ने उन्हें उनकी गलती का अहसास करवा दिया। इस पर अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इतने समय से येदियुरप्पा जी उनके साथ हैं। कर्नाटक में 12 मई को चुनाव होने को हैं। प्रदेश में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में है लेकिन चुनाव मैदान में जेडी(एस) और दूसरी पार्टियां भी हैं।
कर्नाटक क/े मुख्यमंत्री सिद्धारामैया ज़मीनी स्तर पर मतदाताओं को कांग्रेस के साथ जोडऩे में सिद्धहस्त हैं लेकिन उनका मुकाबला उस पार्टी से है जो कम सीटें पाकर भी अपनी सरकार बनाने में सक्षम है। यह पार्टी बूथ स्तर से ही अपने कार्यकर्ताओं को संगठित करने और हार को जीत की हवा में तब्दील करने में माहिर है लेकिन मुख्यमंत्री ने राज्य के 17 फीसद लिंगायत समुदाय को साथ लेने के लिए हिंदुओं से अलग धर्म और अलग झंडा (19 मार्च) को देने की घोषणा की है वह केंद्र के पाले में है। अल्पसंख्यक की जो घोषणा है उसका अच्छा लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। हालांकि खुद येदियुरप्पा भी लिंगायत हैं लेकिन कई मुद्दों पर लिंगायत आज उनसे असहमत भी हैं। खुद उन्होंने ही लिंगायत को अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग 2013 में की थी। उस समय केंद्र में यूपीए सरकार थी। अब सिद्धारमैय्या ने फैसला लेकर एनडीए में शासित केंद्र के पाले में गेंद डाल दी है।
भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में एनडीए की सरकार है। कर्नाटक में अर्से से भाजपा के केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और पीयूष गोयल ने कमान संभाल रखी है। इनका हाथ बंटाने के लिए राजीव प्रताप रूडी और स्मृति ईरानी प्रदेश की जनता में अपनी छाप छोड़ते रहे हैं। जानकारों के अनुसार येदियुरप्पा भाजपा के प्रस्तावित मुख्यमंत्री ज़रूर हैं लेकिन सरकार बनाने की स्थिति में यह जिम्मेदारी किसी युवा नेता को भाजपा आलाकमान दे सकता है।
यह अंदेशा अभी हाल हिमाचल में दिखा था। भाजपा के कद्दावर नेता प्रेम कुमार धूमल के नाम पर राज्य में चुनाव लड़ा गया। धूमल खुद चुनाव हार गए और मौका मिला एक युवा नेता जयराम ठाकुर को । यों भी येदियुरप्पा को अपने खास प्रत्याशी चुनाव में उतारने का मौका नहीं दिया गया है।
इसके ठीक विपरीत कांग्रेस ने मुख्यमंत्री सिद्धारामैया पर पूरा यकीन किया है और उन्हें ही राज्य में चुनाव रणनीति बनाने की जिम्मेदारी भी सौंपी है। अपने पूरे कार्यकाल में सिद्धारामैया ने कांग्रेस चुनाव घोषणा पत्र के 90 फीसद कार्यों को अमली जामा पहनाया है। कृषि से लेकर पोषक आहार और शहरों में साफ-सफाई और विकास में उनकी मुहर दिखती है। इसके ठीक विपरीत येदियुरप्पा की तस्वीर एक किसान की तो है लेकिन उन पर भ्रष्टाचार के ढेरों आरोप भी रहे हैं। सिद्धारामैया ने कर्नाटक के दूर-दराज गांवों में ‘अन्न-भाग्यÓ आहार सुरक्षा योजना चलाई जिसे जनता ने बहुत पसंद किया। उन इलाकों में भाजपा समर्थक भी इस योजना को बहुत पसंद करते हैं।
कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक में चुनाव की घोषणा के पहले तीन बार दौरे किए। उनके दौरों में जनता की खासी भीड़ रही। भाजपा जहां प्रदेश में मतदाता को धर्म और जातियों में अलग कर वोट इक_ा करने की रणनीति में जुटी है, वहीं राहुल गांधी मंदिरों में जा रहे हैं। साथ ही वे मस्जिद , गिरजाघर वगैरह में भी जा रहे हैं। उन्होंने प्रचार अभियान में अपनी गंभीरता बनाए रखते हुए भाजपा की नीतियों की आलोचना करते हुए जनता का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के पक्ष में किया है।
कांग्रेस ने कर्नाटक में स्थानीय मुद्दों और पार्टी के अच्छे काम को जनता के सामने सबूत के तौर पर रखा हैं जबकि भाजपा का प्रचार में खासा आक्रामक रुख है। चुनावी रणनीतिकार मानते हैं कि जद (एस) का भाजपा के साथ अंदरूनी तालमेल है। हालांकि कर्नाटक के कई शहरों और गांवों में बिहार-बंगाल में अभी हाल में हुई हिंसा की घटनाओं से बेचैनी भी है।
भाजपा और संघ परिवार के लोग राज्य में बिगड़ती कानून-व्यवस्था को मुद्दा बना रहे हैं। वे मानते है कि धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण से जीत के आसार बढ़ेंगे। जबकि कांग्रेस का जोर सांप्रदायिक शांति और विकास पर है। काफी समय से विभिन्न पार्टियों के चुनाव प्रचार से कर्नाटक में मतदाता ने अपना मन लगभग बना लिया है। मई महीने में ही 18 तारीख को नतीजों के आने पर पता चलेगा कि कौन जीत की ओर है।

बिहार में आ ही गई नई मुसीबत

बिहार ने 23 मार्च को अपने अस्तित्व में आने के 106 साल पूरे होने के अवसर पर जोर-शोर से बिहार-दिवस मनाया। लेकिन ठीक इसी समय, राज्य के कई शहरों में सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी है। वे दंगों की स्थिति का सामना कर रहे हैं। क्या बिहार के पास दंगों और उपद्रव का कोई नया दौर देखने का समय बचा है? क्या इसे इन चीजों में वक्त गंवाना चाहिए। जातिवाद से झुलस रहे इस राज्य में मज़हबी जनून इसे और भी पीछे ले जाएगा।

वैसे तो राज्य की सरकार ने बिहार दिवस के अवसर पर राज्य के विकास का ख्ूब ढिंढोरा पीटा है और विकास दर, व्यापार की सहूलियत और सड़क से लेकर इनफ्रास्ट्रक्चर के विकास वे सारे दावे किए जो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के प्रचलित जुमले हैं।

बिहार की बदहाली को जानने के लिए सबसे पहले वहां की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालनी चाहिए। कालेज और विश्वविद्यालयों की हालत काफी खराब है। विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षक की नियुक्ति की बात जाने दीजिए, काम कर रहे शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। रिक्तियों की संख्या काफी बढ गई है और उनके भरने के कोई आसार नहीं हैं। सत्र भी दो से तीन साल की देरी से चल रहे हैं।

अगर बिहार के विकास की असली तस्वीर देखनी हो तो आप रेलगाडिय़ों और प्लेटफार्मो पर खड़ी रहने वाली भीड़ को देख सकते हैं। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, आपको टिकट खिड़की पर एक न एक बिहारी मिल जाएगा। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक किसी भी बड़े या मंझोले शहर में रिक्शा-ठेला खींचने वाले, सब्जी-भाजी और पान की दुकान चलाने वालों में उत्तरप्रदेश और अब बिहारियों की एक बड़ी संख्या है।

इस यात्रा में सिर्फ यहां का निम्नवर्ग शामिल नहीं है। यहां के मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी जीवन भर चलते रहने वाले यात्री बन कर ही रह गए हैं। नौकरी के लिए उन्हें बाहर जाना ही पड़ता है। स्कूल-कालेजों की बुरी हालत के कारण पढाई के लिए भी उन्हें, अपने बच्चे देश के दूसरे इलाके भेजने पड़ते हैं। कोटा में चल रहे कोचिंग संस्थान हों या महाराष्ट्र, कर्नाटक या दूसरे किसी राज्य, उनके इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कालेजों की कमाई बिहारी छात्रों के जरिए होती है। पहले लोग इस पर बहस भी करते थे। प्रतिभा तथा श्रम का पलायन बिहारी समाज को परेशान करता था। लेकिन अब इसे सामान्य मान लिया गया है।

मानव विकास सूचकांक पर यह राज्य वर्षों से अंतिम पायदान पर है। बाल विकास दर में भी राज्य बहुत नीचे है। साक्षरता के मामले में भी यह लंबे समय से राष्ट्रीय औसत से नीचे के स्तर पर बना हुआ है। पिछले साल पब्लिक अफेयर्स इंडेक्स बताने वाली रिपोर्ट आई थी जिसमें वित्तीय प्रबंधन से लेकर कानून-व्यवस्था तक के दस मानकों के आधार पर राज्यों की स्थिति का मूल्यांकन किया गया था और उन्हें उस हिसाब से दर्जा दिया गया था। इसकी रिपोर्ट में केरल को पहला और बिहार को आखिरी स्थान दिया गया था। इससे बिहार के सुशासन के बारे में कई सालों से किए जा रहे दावों का खुलासा हो जाता है।

बिहार जैसे राज्य में सांप्रदायिक हिंसा किस तरह की स्थिति ला सकती है इसका अंदाजा अस्सी के दशक के अंत (1989) में हुए भागलपुर के दंगों में हज़ार से ज्यादा मारे गए मुसलमानों व हिन्दुओं को हुई जानमाल की हानि से लगाया जा सकता है।

अब यह साफ दिखाई देता है कि जाति तथा वर्ण के पेंच को सुलझाने में यहां का समाज असमर्थ साबित हुआ है और इसने इसे बदहाली में पहुंचाने में खासी भूमिका निभाई है। औपनिवेशिक शोषण का माकूल जवाब देने में यह राज्य इसलिए असमर्थ रहा कि जाति तथा वर्ण ने उसके पैरों में भारी जंजीर डाल रखी है। यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी कायम रहा। अतीत में बुद्ध से लेकर कबीर तक के संघर्ष के बाद भी जाति की सीढी टूटी नहीं। वर्तमान में गांधी, लोहिया, आंबेडकर और मार्क्स-लेनिन के विचारों की मजबूत उपस्थिति के बाद भी सामाजिक विषमता अभी भी कायम है। कई बार जाति की पकड़ ढीली होती दिखाई देती है, लेकिन यह फिर से प्रभावी हो जाती है और शोषण के नए रूप लेकर आ जाती है।

अंग्रेज़ों की लूट के बाद गरीब हुए बिहार को फिर से उठकर खड़ा होने का मौका ही नहीं मिल रहा है। अंगं्रेजों के आने के पहले परंपरागत कारीगरी पर आधारित इन व्यवसायों में पिछड़ों तथा दलितों का बड़ा हिस्सा शामिल था। संपन्न खेती, खूबसूरत जंगलों तथा नदियों की चंचल धाराओं ने बिहार को दुनिया के सर्वाधिक संपन्न इलाकों में बदल रखा था। भारत प्राचीन और मध्य काल में अगर कभी पहले तो कभी दूसरे नंबर (चीन तथा भारत में पहले नंबर के लिए प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी) की अर्थव्यवस्था थी तो इसमें बिहार का महत्वपूर्ण योगदान था इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि मगध में शक्तिशाली साम्राज्य पैदा हुए।

बिहार का इतिहास संघर्षों से भरा है। बंगाल में जब नवजागरण चल रहा था तो बिहार के किसान जमींदारी में पिस रहे थे और इससे मुक्ति के लिए छटपटा रहे थे। सन् 1912 में बिहार को बंगाल से अलग करने के समय बिहार एक गरीब राज्य बन चुका था। एक समय कारीगरी तथा हुनर से लैस बिहार के लोग मज़दूर बन चुके थे। पलायन का न थमने वाला सिलसिला शुरू हो चुका था। बिहार के लोकगीतों में कलकत्ते के लचकते पुल से लेकर वहां की हर सड़क और सोनागाछी जैसे सेक्स के बाजार का इतना जीवंत चित्रण है कि साहित्य में इसे रख ले।

बिहार बनने के ठीक पांच साल बाद यहां के पीडि़त किसान महात्मा गांधी को ढूंढ ले आए। उनकी खोज चंपारण तक ही नहीं थमी, नए विचारों को अपनाने का बिहार का यह प्रयास जारी रहा। साम्यवादी तथा समाजवादी विचारों को भी राज्य ने खुले दिल से अपनाया। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन और फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, इस समाज ने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। आज़ादी के बाद भी यह खोज जारी रही। डा लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर चारू मजुमदार तक इस समाज को प्रेरित करने वालों की लंबी सूची है। सभी विचारधाराओं का प्रयोग-क्षेत्र रहा है बिहार।

कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की ताकतों का उदय हुआ और फिर लालू प्रसाद ने पिछड़े-दलितों की सम्मानजनक राजनीति शुरू की तो लगा कि अब सामाजिक जकडऩ कमजोर हो जाएगी। उन्होंने हिंदुत्व की उभरती ताकत को मात देने लायक सामाजिक समीकरण भी बनाया, लेकिन परिवारवाद और अवसरवाद के दलदल में वे फंस गए। वे सभी पिछड़ों की आंकांक्षा पूरी करने में भी सफल नहीं हो पाए। पिछड़े-दलितों को साथ रखने में विफलता के कारण ही समता पार्टी और फिर जद(यू) जैसे दल उभर कर आए और नीतीश कुमार-भाजपा का गंठजोड़़ सामने आया।

नीतीश कुमार का महागठबंधन छोड़ कर फिर से भाजपा के साथ आने और हिंदुत्व की शक्तियों को देशव्यापी उभार के कारण बिहार में इन शक्तियों को नई ताकत मिली है। राज्य साप्रदायिक हिंसा की चुनौती का सामना कर रहा है। औरंगाबाद, समस्तीपुर, भागलपुर तथा मुंगेर में स्थिति विस्फोटक बनती जा रही है। रामनवमी के अवसर पर औरगांबाद में बड़े पैमाने पर आगजनी और हिंसा भी हुई है। बाकी जब जगहों पर झड़प हुई और हिंसा हुई। भागलपुर में एक बड़े भाजपा नेता के बेटे की उपस्थिति से मामला और भी पेंचीदा हो चुका है।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अरिजीत शाश्वत के खिलाफ प्राथमिकी होने के बाद भी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका। वह कानूनी दांचपेंच का सहारा ले रहे हैं और केंद्र व राज्य की पुलिस लाचार दिखाई दे रही है। लोगों को लग रहा है कि नौकरशाही पहले की तरह काम नहीं कर रही है। राज्य के नए राजनीतिक समीकरण उसके कामकाज पर असर डाल रहे हैं। इससे अल्पसंख्यगकों के बीच असुरक्षा बढती जा रही है।

बिहार में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने रामनवमी के अवसर का इस्तेमाल आक्रामक हिंदुत्व को आगे बढ़ाने के लिए किया। हथियारों के साथ जुलूस निकालने का सुनियोजित कार्यक्रम अपनाया गया। इन जुलूसों में भड़काने वाले नारे लगाए गए और उन्हें अल्पसंख्यकों के इलाके से ले जाया गया।

जाति के संघर्ष के कारण बिहार अपने पिछड़ेपन को दूर करने में विफल रहा है। यह उसे विपन्नता और बदहाली से निकलने नहीं देती है। नक्सलवाद और लोहियावाद के लंबे संघर्षो के बाद भी बिहार जिस तरह के जातिभेद, स्वार्थ और शोषण में फंसा है उसकी तुलना किसी भी राज्य की सामाजिक बनावट से नहीं हो सकती है। इसने दलितों पर अत्याचार के ऐसे कारनामे किए हैं जिसे इतिहास में शायद ही कभी भुलाया जा सके।

कोढ़ में खुजली की तरह सांप्रदायिकता भी अब इसमें घुस आई है। देश की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। शोषण और बेरोजगारी, गरीबी तथा बीमारी से ध्यान हटाने का इससे अच्छा उपाय अभी की सरकार को नज़र नहीं आ रहा है।

ठेकेदारी और भ्रष्ट तंत्र के सहारे पैसा कमाने वाला वर्ग इसका नेतृत्व कर रहा है। वह जातिवादी है और सांप्रदायिक भी। इसे राजनीति और नौकरशाही का संरक्षण मिला हुआ है। यह अपनी सुविधा से कभी जेडीयू, कभी आरजेडी और कभी बीजेपी में चला जाता है। हिंदुत्व इन्हीं शक्तियों को इक_ा कर रहा है।

बिहार में आज नई चुनौतियां हैं। सांप्रदायकिता से नीतीश लड़ते हैं या हथियार डालते हैं, यह देखना है। वे बिहार को विशेष दर्जा दिला पाते हैं या नहीं वे राज्य की आर्थिक स्थिति सुधार पाते हैं या नहीं। अपने नेताओं के नेतृत्व में बिहार सालों पीछे जा रहा है।

 

दिल्ली लाए गए लालू

राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को पुलिस पहरे में ट्रेन से नई दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में विशेष इलाज के लिए 28 मार्च को एडमिट किया गया।

लालू इस समय 71 साल के हैं और 23 दिसंबर से बिरसा मुंडा जेल में हैं। उनके स्वस्थ्य की समुचित देखभाल के लिए उन्हें रांची में राजेंद्र इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज में 17 मार्च को दाखिल किया गया था। लालू डायबिटीज, ब्लडप्रेशर किडनी इंफेक्शन और हाई क्रिएटिनिनि लेवेल की शिकायत है।

लालू प्रसाद पर मुख्यमंत्री रहते हुए चारा घोटाला कांड के आरोप रहे हैं। उन्हें चारा घोटाले के चार मामलों में 2013 से सीबीआई की विशेष अदालत ने सजाएं दी हैं। अभी हाल उन्हेंं 14 साल की सजा दुमका टेजरी मामले पर सुनाई गईं थी। हालांक अदालत ने कहा है कि उन्होंने पैसे नहीं लिए। उनकी जमानत याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट को छह अप्रैल को सुनवाई करनी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमों के बीच पहले बिहार चुनाव के समय महागठबंधन बना था। मुख्यमंत्री के उस गठबंधन को तोड़ कर भाजपा के साथ जाने से लालू प्रसाद यादव की मुश्किलें अब बढ़ गई हैं। उनके परिवार के हर सदस्य पर केस हैं और उनकी पत्नी और बच्चों को सरकारी एजंसियां बुला कर पूछताछ करती रहती हैं। लालू प्रसाद हमेशा बहुजनों में एकता और सामाजिक न्याय की बात करते रहे हैं।

सुशासन बाबू नीतीश में भी बेरूखी!

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अब एनडीए में सहयोगी की बजाए बेरूखी पर उतर गए हैं। उन्होंने शुक्रवार (22 मार्च) को सांप्रदायिक शांति किसी भी कीमत पर बनाने के मुद्दे रखने पर भाजपा की खिलाफत की।

राज्य में अभी हाल ही हुई पराजय के बाद से भाजपा के नेता सांप्रदायिक हिंसा छेड़ रहे हैं। तमाम प्रयासों के बाद उप चुनावों मेें तीन सीट पर हुए मुकाबले में राजग (एनडीए)केवल एक ही सीट पर जीत सका। इसके बाद से अररिया, दरभंगा और भागलपुर जिलों में सांप्रदायिक तनाव घिनौना रूप ले रहा है। प्रशासन की चुस्ती के चलते पूरे मामले को किसी तरह संभाला जा सका लेकिन तनाव तो है ही।

राष्ट्रीय जनता दल ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधा है। मुख्यमंत्री उत्तेजित होकर साफ कहते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ में जिस तरह खड़ा हूं उसी तरह मैं सांप्रदायिक हिंसा नहीं फैलने दूंगा। उन्होंने पटना में हुए एक जलसे में भाजपा को झिड़काते हुए कहा, हम सहयोगी पार्टी हैं और मैं इस सरकार का नेतृत्व करता हूं।

उन्होंने एक ही दिन पहले केंद्रीय मंत्री और एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान के इस बयान का समर्थन किया था जिसमें पासवान ने मांग की थी कि भाजपा मुसलिम विरोधी अपनी छवि को छोड़े। नीतीश ने कहा, पासवान छोटे नेता नहीं है जो भी उन्होंने कहा है। मैं उनका समर्थन करता हेू। वे मुझसे मिले और हमने कई मुद्दों पर बातचीत की। हम एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करते हैं।

पासवान केंद्र में एनडीए सरकार में उपभोक्ता मामले, आहार और जन विरतण के केंद्रीय मंत्री है। उन्होंने रविवार को कहा था कि भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार का मूलमंत्र (एजंडा) है सबका साथ, सबका विकास, लेकिन जब अल्पसंख्यकों की बात आती है वहां मूलमंत्र पीछे रह जाता है। कहीं बेहतर होगा कि यह मुसलिम विरोधी छवि खत्म करे क्योंकि 2019 के चुनाव में एनडीए के लिए यही ठीक रहेगा।

उन्होंने गोरखपुर और फूलपुर मेें भाजपा की हार पर मन की बात की। नीतीश कुमार ने कहा कि वे मोर्चो में हैं लेकिन ऐसी कारगुजारी में साथ नहीं हैं। मैं कभी अल्पसंख्यकों के  मुद्दे पर समझौता नहीं कर सकता। मैंने हमेशा अपनी शर्तों पर राजनीति की है। देश प्यार, सहनशीलता और आपसी

सहयोग पर ही बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि भाजपा ने बहुत जोर दिया तभी हम इस उपचुनाव में उतरे। हम तो लडऩा ही नहीं चाहते थे। जद(यू) कभी किसी जनप्रतिनिधि के निधन से खाली हुई सीट पर चुनाव नहीं लडऩा चाहती। लेकिन भाजपा का दबाव था। हमें नतीजों का पूर्वाभास था इसलिए हम इन सीटों पर नहीं लडऩा चाहते थे।

कांग्रेस का भविष्य अब युवा सबको साथ लेकर चलेंगे

सात साल बाद आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन में पहली बार बतौर अध्यक्ष मुखातिब राहुल गांधी पूरी तरह मोदी सरकार पर हमलावर रहे। उन्होंने 2019 के चुनाव को रूपक की तरह गढ़ते हुए ‘धर्मयुद्ध’ की संज्ञा दी। खुशदिल श्रोताओं को बड़ी बेबाकी से इत्मीनान दिलाते हुए राहुल ने कहा कि ‘देश अब झूठी उम्मीदों पर नहीं जिएगा?’ नवविहान की किस्सागोई शैली में उन्होंने कहा,’सारा दारोमदार नई टीम पर होगा जो सबको साथ लेकर चलेगी…. अंतर्विरोधों को खारिज करते हुए उन्होंने शिद्दत से अहसास दिलाया कि,’अब कांग्रेस का भविष्य युवा है….’

यह एक ऐसा करारा जवाब था जो बेशक बेहिसाब सवालों की झड़ी लगा रहा था कि, ‘साल 2019 का लोकसभा चुनाव हम जीतेंगे….!’ आंतरिक शक्ति के साथ खड़े राहुल गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू के इस शाश्वत कथन को तरोताजा कर रहे थे कि,’इतिहास में ऐसे क्षण दुर्लभ होते हैं, जब हम पुराने से नए में जाते हैं। जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय से दमित सोच को नई अभिव्यक्ति मिलती है।ÓÓ कांग्रेस के महाधिवेशन में सवालों को समेटने के लिए राहुल गांधी ने उस उत्कंठा को चुनने की पहल की कि,’…..मंच को खाली क्यों रखा गया है?’ उन्होंने इसे युवाओं के लिए’नज़रानाÓ परिभाषित करते हुए कहा,’यह मंच नौजवानों के लिए खाली रखा गया है ….’ उन्होंने तथ्यों और तर्कों के ज़रिए कहा, हम युवा और बुजुर्गों का तालमेल कर अपनी पूंजी बनाएंगे और साल 2019 में बताएंगे कि चुनाव कैसे जीते जाते हैं?ÓÓ उनके आह्वान में चुटीली खनक खासा तंज कसने वाली थी कि,’देश झूठी उम्मीदों पर जियेगा या सच का सामना करने वालों का साथ देगा?’ पार्टी पुरोधाओं का चित्रविहीन मंच साफ तौर से कांग्रेस में युग परिवर्तन के मंसूबों पर मुहर लगाने वाला था कि,’कांग्रेस अपना युवा भविष्य गढऩे को तत्पर है…’

‘वक्त है बदलाव काÓ थीम पर आधारित इस महाधिवेशन में राहुल गांधी ने भाजपा की परिकल्पना कौरवों और कांग्रेस की पांडवों से करते हुए अपने सुरों को तीखा किया ‘लोकसभा चुनाव सत्य और असत्य का महासंग्राम होगा जिसमें एक तरफ कौरवों की तरह अहंकार के मद में चूर भाजपा है तो दूसरी ओर सब कुछ हारे हुए पांडव हैं जिनके पास विनम्रता, साहस और शौर्य है।

हालांकि राहुल गांधी का भाषण अपनी नई टीम के गठन, सबको संग-साथ लेकर चलने की रूपरेखा और राजनैतिक मुद्दों के इर्द-गिर्द ज्यादा सिमटा रहा लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर राहुल पूरी तरह हमलावर रहे। कार्यकर्ताओं की नेताओं पर नकारात्मक निर्भरता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, ‘हम बीच की इस दीवार को तोड़ देंगे। अमित शाह का नाम लिए बिना उन्होंने हमलावर तेवर दिखाए कि, ‘वे ऐसे शख्स को अपना अध्यक्ष स्वीकार कर सकते हैं, जिनके ऊपर हत्या का आरोप है। लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि यह सच का संगठन है। राहुल ने नीरव मोदी और ललित मोदी के उपनामों को लेकर तंज कसते हुए कहा कि,’मोदी नाम भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर मुद्दा बदलकर समस्याओं से ध्यान हटाने का आरोप लगाते हुए कहा कि, ‘क्या आप प्रधानमंत्री से ऐसी अपेक्षा कर सकते हैं, जो मरते हुए किसानों को छोड़कर योग करने के लिए इंडिया गेट चलने को कहते हों? उनके भाषण का एक महत्वपूर्ण पहलू संघ पर लक्षित यह विश्लेषण था कि,’आदिवासियों,मुस्लिमों और तमिलों पर उनकी जीवन शैली और भिन्नताओं को लेकर मीन मेख तथा भेदभाव क्यों? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं कि वे अपने तरीके से भरपूर जीवन जी सकें? उन्होंने पार्टी की अतीत की गलतियों को स्वीकार कर अपनी तरफ से लोगों को खुश कर दिया। उन्होंने कहा, ‘हमने लोगों की भावनाओं का सम्मान नहीं किया जिसकी सजा हमें बदस्तूर मिली।

उनकी दलील थी कि,’कांग्रेस का हाथ का निशान देश को जोड़कर रख सकता है। जीवन मूल्यों के प्रति भाजपा के नकारात्मक भाव पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा,’देश में गुस्सा फैलाया जा रहा है, लोगों को बांटा जा रहा है।Ó वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदों की जड़ें जमाने की कोशिश में अपनी मंशा को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा, ‘हम प्यार और भाईचारे का प्रसार करेंगे। कांग्रेस बनाम भाजपा के संदर्भ में उन्होंने कहा,’प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश थका हुआ महसूस कर रहा है। राहुल ने मोदी को प्रधानमंत्रित्व और पूंजीपतियों के बीच सांठ-गांठ एवं भ्रष्टाचार का प्रतीक बताया।

बतौर अध्यक्ष अपने 53 मिनट के भावनात्मक भाषण में राहुल गांधी ने ज़ज्बाती होते हुए यूपीए सरकार की तमाम खामियां गिनाईं और बड़ी हिम्मत से जता दिया कि,’हमसे गलतियां हुई, लोगों की भावनाओं को हम समझ नहीं पाए। नतीजतन हमें सजा दी गई और नकार दिया गया। कांग्रेस की नई पहलकदमी का खाका खींचते हुए राहुल युवाओं का दिल जीतने की कोशिश में नजर आए कि,’हम काबिल नौजवानों को आगे लाएंगे। उन्होंने रूपक गढ़ते हुए बड़े पेचीदा ढंग से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि मोदी का नाम क्रोनी कैपिटलिज़्म और पीएम के बीच सांठ-गांठ का प्रतीक है।ÓÓ उनका सवालिया अंदाज तंज भरा था कि,’मोदी ने मोदी को आपके तीस हजार करोड़ रुपए दे दिए। बदले में मोदी ने मोदी को मोदी की मार्केटिंग और चुनाव लडऩे के लिए पैसे दिए….इस पैसे से मोदी ने चुनाव जीता। मोदी पर आक्रामक होते हुए राहुल के शब्द पैनी धार में सने दिखाई दिए कि,’आपने मोदीजी के चेहरे में बदलाव देखा? अब वे सूट नहीं पहनते। उन्हें लग रहा है, गुजरात तो निकल गया, लेकिन 2019 फंस जाएगा? राहुल के तेवर बहुत तीखे थे और लोग ऐसे तालियां पीट रहे थे जैसे उन्होंने कोई नया राहुल देख लिया जो शब्दों से गेंदबाजी के हुनर तराश रहा हो?

राहुल करेंगे कार्यसमिति का चयन

इस महाधिवेशन में राहुल गांधी में नई टीम के विचार को भी आकार लेते देखा गया। कार्यसमिति को अधिक प्रभावी बनाने के लिए इस बात पर सहमति बनी कि,’अब कार्यसमिति में 24 सदस्यों का चयन राहुल गांधी ही करेंगे। अब तक 12 सदस्य मनोनीत किए जाते थे और बाकी 12 सदस्य चुनकर आते थे। कांग्रेस में कार्यसमिति अहम फैसले लेने वाला शीर्ष निकाय है। इस नई व्यवस्था के क्या कारण रहे? सूत्रों का कहना था, ‘पार्टी को राहुल के नेतृत्व में एकजुट होकर मोदी का सामना करना है, ऐसी स्थिति में 12 सीटों के लिए चुनाव तर्कसंगत नहीं होगा। राहुल गांधी ने मोदी सरकार की विदेश नीति की कड़ी आलोचना की। इस संदर्भ में लिए गए एक प्रस्ताव में कहा गया कि,’सरकार ने ऐसे हालात पैदा कर लिए हैं कि चीन को घुसपैठ का मौका मिल गया है। महाधिवेशन में कई पत्रिकाएं भी बांटी गई जो सीधे तौर पर मोदी पर हमलों से भरी थी। ऐसी ही एक पत्रिका का शीर्षक था, ‘सूट-बूट और लूट की छूट? राहुल ने कांग्रेस संस्कृति में यह कहते हुए नई परम्परा की आधारशिला रखी कि,’पार्टी पैराशूट नेताओं को नहीं बल्कि जमीनी कार्यकर्ताओं को टिकट देगी।

गहलोत को लेकर दस्तक

राहुल गांधी की इस पटकथा में महाधिवेशन के दौरान दिग्गजों की पहली कतार में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सशक्त उपस्थिति, राजस्थान की सियासी पृष्ठभूमि में उन्हें खेवनहार की तरह उकेरती रही। गहलोत दिग्गजों की पहली पांत में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निकट खड़े हैं, जबकि मनमोहन सिंह सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ नजर आ रहे हैं। राजनीतिक रणनीतिकार इस जुगलबंदी को तटस्थ नजरिए से देखने की बजाए राजस्थान में नेतृत्व से जुड़े अंर्तसंबंधों के रूपक की तरह देख रहे हैं। इस सिनेरियो पर नीम चुप्पी साधने की अपेक्षा रणनीतिकार अनकही कड़ी की तरह संभावनाओं पर मुहर लगाते नजर आते हैं कि, ‘प्रदेश की रेतीले राजनीति में कांग्रेस के नेतृत्व की अटकलें चौखट लांघ चुकी है। रणनीतिकार कहते हैं कि,’नेतृत्व को लेकर अंदर ही अंदर बहती धारा पूरी तरह गहलोत को मुख्यमंत्री पेश करने के पक्ष में है जो जन आकांक्षाओं को पूरे आवेग से प्रतिध्वनित कर रही है। महाधिवेशन में आखिरी छोर तक बैठे लोगों ने इस सिनेरियो को संतुलित उम्मीदों के साथ देखा।

सोनिया का ‘अहंकार पर वार’

बेशक प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा सरकार की सर्वाधिक कटु आलोचना उनके अहंकार को लेकर थी। सोनिया गांधी ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा,’हम अहंकारी सरकार के भ्रष्टाचार का सबूतों के साथ खुलासा कर रहे हैं। कांग्रेस के 84वें महाधिवेशन में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मिशन 2019 का आगाज करते हुए कहा, ‘अहंकारी मोदी सरकार ने कांग्रेस को मिटाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन हमें मिटाया नहीं जा सकता। उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा,’लोग समझ गए हैं कि, ‘ना खाऊंगा और ना खाने दूंगाÓ सरीखे वादे सिर्फ ड्रामेबाजी, वोट और कुर्सी हथियाने की चाल थी। साम-दाम,,दंड-भेद का खुला खेल चल रहा है। लेकिन कांग्रेस न झुकी है और न झुकेगी? यह कहते हुए उनके उत्साह को सीमा में नहीं बांधा जा सकता था कि,’हम प्रतिशोध, पक्षपात और अहंकार मुक्त भारत बनाने के लिए संघर्ष करेंगे। उन्होंने कहा, मोदी जी, मीडिया को नजरअंदाज करने का माद्दा रखते हैं, यहां तक कि यूपीए सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं को भी, लेकिन हम 2019 में उन्हें सबक सिखाकर रहेंगे।

सोनिया गांधी ने खासकर इस सवाल पर कि साल 2019 के चुनाव में कांग्रेस के मुद्दे क्या होंगे? उन्होंने बीते दिनों मुंबई में एक निजी कार्यक्रम में दिए गए जवाब ही दोहराए कि ‘भाजपा के वादे बेशक जनता को हसीन सपने दिखाते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत तो पूरी तरह जुदा है। लोग आज भी अच्छे दिनों की बाट जोह रहे हैं। लेकिन भाजपा के अच्छे दिनों का हश्र तो वाजपेयी के कार्यकाल के ‘शाइनिंग इंडियाÓ सरीखा ही होगा।

गरीबी हटाने का संकल्प फिर

अधिवेशन में वैचारिक मंथन के लिए गरीबी उन्मूलन, फसल बीमा और बेरोजगारी सरीखे मुद्दे थे। गरीबी उन्मूलन का संकल्प दोहराते हुए कहा गया कि, ‘इसके लिए गरीबी उन्मूलन कोष बनाया जाएगा और सबसे अमीर भारतीयों पर पांच प्रतिशत उपकर लगाया जाएगा। इस राशि से दलितों और अल्पसंख्यकों के बच्चों को छात्रवृति दी जा सकेगी। मोदी सरकार के ‘स्किल इंडियाÓ पर निशाना साधते हुए कहा गया कि,’इसके तहत सिर्फ दस फीसदी प्रशिक्षित युवाओं को ही रोजगार मिल सका है। पार्टी ने एक मजबूत तंत्र बचाने की बात करते हुए कहा कि,’रियल एस्टेट को पुनर्जीवित करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे। गरीबी उन्मूलन पर पारित प्रस्ताव में कहा गया कि,’सत्ता में आने पर पार्टी किसानों की कर्ज माफी योजना फिर से लाएगी। किसानों को जमीन की नीलामी से बचाने के लिए वसूली के वैकल्पिक तरीके तलाश किए जाएंगे। मछुआरों के लिए अलग से मंत्रालय का गठन किया जाएगा। महाधिवेशन में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि,’कांग्रेस 2019 के चुनाव में समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों से हाथ मिला सकती है। एक अन्य प्रस्ताव में भाजपा पर आरोप लगाया गया कि,’भाजपा सरकार ने हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने का वादा तोड़ कर उनके साथ विश्वासघात किया है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों को साथ कराने को कपट की संज्ञा देते हुए अव्यावहारिक बताया गया। राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि, ‘चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता बहाल करने के लिए चुनाव आयोग को पुरानी परम्परा लागू रखने का आग्रह किया जाएगा। आरएसएस को निशाने पर लेते हुए कांग्रेस ने अपने संकल्प में कहा कि,’आरएसएस और भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने के साथ धर्म की गलत व्याख्या कर रहे हैं। धर्म ओैर राजनीति का यह मिश्रण समावेशी राजनीति के लिए जबरदस्त खतरा पैदा कर रहा है।

महाधिवेशन में ‘सच की शक्तिÓ पैनल चर्चा में मीडिया पर व्यापारिक घरानों पर नियंत्रण तोडऩे की मांग भी उठी। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा,’जिनके आर्थिक व्यापारिक हित हैं, वे इन दिनों मीडिया हाउस चला रहे हैं। उन्हें सत्ताधारियों से भय सता रहा है कि ‘कहीं उनका नुकसान ना हो जाए?Ó नतीजतन प्रतिपक्ष चाहे भी तो उसका रहस्योद्घाटन नहीं हो सकेगा? ऐसे में हकीकत जनता के सामने आएगी भी तो कैसे? उन्होंने संकल्प करने का आह्वान किया कि,’कांग्रेस सत्ता में आएगी तो मीडिया ओैर व्यापार के गठबंधन को तोड़ देगी। चर्चा में शामिल पत्रकार मृणाल पांडे का सुझाव था कि,’राजनेता भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को महत्व देने का प्रयास करें।Ó

महाभारत ही है अगला आम चुनाव

कांग्रेस के पूर्ण सत्र में महाभारत के अंदेशे के बारे में राहुल गांधी ने बड़े साफ तौर पर इशारा किया था। उन्होंने भाजपा को कौरव और कांग्रेस को पांडव बताया। राहुल ने अगले चुनाव के लिए अपना कार्यक्रम भी तय किया। अगले चुनाव को महाभारत बताने से यह बात साफ हो गई कि आगामी आम चुनाव भी कौरवों और पांडवों के बीच महाकाव्य में हुए महाभारत की ही तरह होगा। पांडव संख्या में कम ज़रूर थे लेकिन वे सही दिशा में थे।

राहुल गांधी अपनी बात में आक्रामक थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में भाजपा की भूमिका पर व्यंग्य किया, कथित क्रोनी पूंजीवाद और हिंदू मिथकों के संदर्भों को याद करते हुए उन्होंने भाजपा के उन्मादी रवैए को कौरवों का और खुद को पांडव बताया।

आगे हैे जबरदस्त लड़ाई

इसी से यह साफ हुआ कि हम बेहद कठिन चुनावी लड़ाई की ओर बढ़ रहे हैं। इसके पहले सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं के लिए रखे भोज में मेजें सजाते हुए यह संकेत दिया था। इसमें वे तमाम बातें थी जो राहुल गांधी के नेत्तृव में कांग्रेस के पुनर्जीवन को बताती थीं। उन्होंने बताया कि ‘भारत के विचारÓ मुद्दे पर और वर्तमान सरकार की शैली पर यह जंग होगी। भारत क्या भय और धमकी की संस्कृति बर्दाश्त करेगा, हिंसा पर उतारू भीड़ को सहेगा और वैज्ञानिक चेतना का उपहास उड़ाना पसंद करेगा। उन्होंने उपचुनावों में भाजपा की परेशानी बढ़ाते हुए अभी हाल हुए उप चुनावों में उसकी हार का उल्लेख भी किया।

अब राहुल गांधी ने खुद को उनकी तरह ही सोचने वाली पार्टियों के समर्थन से प्रधानमंत्री को चुनौती देने वाला बना लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर निजी हमले करते हुए उन्होंने यह भी साफ किया कि कांग्रेस बिना थके प्रचार करेगी और मोदी सरकार को विभिन्न मुद्दों पर घेरेगी।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अजेयता

सभी यह मानते हैं कि इस साल कर्नाटक, राजस्थान में होने वाले और इसी साल के अंत में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में होने वाले चुनावी नतीजों पर ही निर्भर करता है आम चुनाव। भाजपा के अजेय रहने के मिथक पर उत्तरप्रदेश में अभी हाल हुए उपचुनाव से सवाल उठा है। कांग्रेस का पूर्ण सत्र तब हुआ जब भाजपा और कांग्रेस का विरोध कर रही पार्टियों ने आपस में तालमेल बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने गैर भाजपा औैर गैर कांग्रेसी मोर्चा बनाने का प्रस्ताव दिया और तत्काल उनके प्रस्ताव को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाथों-हाथ लिया। इसके साथ ही यह बात साफ हुई कि सभी दल इस मुद्दे पर एकमत नहीं है। हालांकि ममता की तृणमूल कांग्रेस और राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी ज़रूर भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ होने के अलावा कई मुद्दों पर एक जान पड़ती है। इससे कांग्रेस को भी भाजपा विरोधी तमाम पार्टियों से तालमेल करने और भाजपा के 2014 के ‘अच्छे दिनÓ के वादे की सच्चाई बताने का मौका मिलता है।

सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी अब वाकई उस दौर में आ गए हैं जहां से वे चुनौती दे सकें? या आज भी वे पार्टी की वंशवादी विरासत के ही प्रतीक हैं? या क्या वे ऐसे राजनेता के तौर पर विकसित हो गए हैं कि वे राजनीति में युवाओं को साथ लेकर चल सकते हैं। अभी हाल गुजरात में उनकी यानी एक व्यक्ति की मेहनत दिखी थी जिसके बाद ही कांग्रेस का पूर्ण सत्र हुआ था। इसमें उन्होंने कुलीन नेता होने की अपनी छवि बदल दी थी। वे एक कार्यकर्ता के रूप में दिख रहे थे।

हाल में उनके प्रयासों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 132 साल पुरानी कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी अब जनता की आकांक्षाओं को समझने लगे हैं और संभावित सहयोगियों की पहचान भी उन्हें होने लगी है। इस पूर्ण सत्र में वे अगले आम चुनावों में कांग्रेस की रणनीति को बड़े ही साफ तरीके से समझा सके और उन्होंने संयुक्त मोर्चे की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया। नए नेतृत्व की योजना है कि वे राजनीतिक सृजनात्मकता को और तेज़ करें। ‘डिजिटलÓ के लिहाज से सतर्क हों और पार्टी की आंतरिक मज़बूती को और अधिक बढ़ा सकें जिसे सभी देखें और परखें।

कांग्रेस पार्टी की चुनावी युद्ध की तैयारी से यह साफ है कि वे चाहते हैं कि वैचारिक मतभेदों को दरकिनार रखते हुए भाजपा के सहयोगियों के सीमित हो रहे आधार क्षेत्रों का उपयोग कर सकें। राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब था जब उन्होंने अपनी चुप्पी छोड़ दी और मां सोनिया गांधी की छाया से अलग हो गए। सोनिया ने उस पर कहा था ‘आज वे मेरे भी बॉस हैंÓ। इसे लेकर कहीं कोई ऊहापोह नहीं होना चाहिए। यह एक रणनीतिक बयान था जिसके जरिए पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह संदेश दिया गया कि वे राहुल गांधी को अपना समर्थन दें।

राहुल ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बयान दिया जिसमें उन्होंने यह माना कि कांग्रेस लोगों की उम्मीदों को समझ नहीं पाई और उससे गलतियां हुई। यह कहने के पीछे आशय था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को यह जता देना कि उन्हें नए सिपहसालार से अब चुनौती मिल रही है।

कांग्रेस ने आगे की चुनावी लड़ाई के लिए अपने कार्यकर्ताओं में खासी स्फूर्ति भरी। यह भी जताया कि यह पार्टी ही भाजपा का विकल्प है। साथ ही यह बात भी साफ हुई कि वह उन सभी पार्टियों के साथ सहयोग की इच्छुक है जो मोदी सरकार को2019 के लोकसभा चुनावों में सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं।

पार्टी कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी ने वादा किया है कि उनकी शिकायतों पर ध्यान दिया जाएगा। चुनाव में टिकट देने के समय बहुधा वास्तविक समर्पित कार्यकर्ताओं की बजाए नेताओं को टिकट बांट दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया पर अब रोक लगेगी। उन्होंने कहा कि पार्टी नेताओं से कार्यकर्ताओं का मिलना अब ज़्यादा सहज होगा और युवाओं को ज़्यादा टिकट दिए जाएंगे। यह भी सच्चाई है कि कई राज्य इकाइयों में कांग्रेस में ही खासी गुटबाजी है और वे पुराने ढर्रे पर ही चलना चाहते हैं। राहुल ने इस पर संकेत दिया कि वे अनुशासन चाहते है। जिससे पार्टी की जीत के आसार किसी भी तरह कम न हों। दूसरा बदलाव जो दिखा वह था कार्यकर्ता को केंद्र में रखा जाना। राहुल गांधी ने कहा कि उन्होंने मंच को इसीलिए खाली रखा है जिससे पार्टी के अंदर के और बाहर के नौजवान जिनमें योग्यता हैं, वे यहां आएं। मंच पर इस बार लोग बैठे नहीं थे। सिर्फ नेतागण भाषण देने आते और भाषण देकर लौट जाते।

तालमेल का प्रयास

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव में सहयोग पर जोर है साथ ही न्यूनतम साझा कार्यक्रमों पर परस्पर सहयोग की बात है जिससे भाजपा-आरएसएस को अगले आम चुनाव में परास्त किया जा सके और भाजपा की आर्थिक नीतियों को बदला जाए।

पार्टी के राजनीतिक, आर्थिक, विदेशी मामलों और कृषि, बेरोजगारी और गरीबी के जरिए समाज के विभिन्न वर्गों की चिंताएं दूर करने की कोशिश की गई। पार्टी अध्यक्ष ने अपने समापन भाषण में युवाओं और किसानों के दो वर्गों को जो मोदी सरकार से काफी निराश हो चुके हैं और वे जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, उनका भी आहवान किया।

ऐसा साफ दिखा कि राहुल गांधी पूरी तौर पर प्रभुत्व में हैं। उन्होंने अपनी नई टीम भी बनानी शुरू कर दी थी। पार्टी में इस्तीफा देने का दौर दौरा भी शुरू हो गया। ऐसी खबरें भी आई कि अभिनेता राजनीतिज्ञ राजबब्बर को अपने पद पर तब तक बने रहने को कहा गया है जब तक पार्टी राज्य इकाई का नया प्रमुख नहीं चुन लेती। राजबब्बर के उदाहरण से साफ है कि पार्टी पुराने सिपहसालारों में हताशा दिखती नज़र आ रही है जबसे राहुल ने कांग्रेस प्रमुख का पद संभाला है। अभी हाल गोरखपुर और फूलपुर में लोकसभा चुनाव हुए। गोरखपुर का प्रतिनिधित्व पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ करते थे और फूलपुर लोकसभा सीट पर उनके उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का प्रतिनिधित्व था। वहां चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के प्रदर्शन से कांग्रेस अध्यक्ष काफी निराश हैं। इसी तरह गुजरात कांग्रेस के प्रमुख भारत सिंह सोलंकी ने भी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अपना इस्तीफा सौंप दिया। रिपोर्ट है कि पार्टी के और भी कई बड़े नेता आने वाले दिनों में अपने इस्तीफे देंगे।

इसके पहले गोवा कांग्रेस के अध्यक्ष शांताराम नायक (71 वर्ष) ने कहा था कि वे राहुल गांधी के भाषण से बहुत प्रभावित हुए हैं। वे पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं जिन्होंने तब इस्तीफा दे दिया जब राहुल गांधी ने कहा कि वे चाहते हैं कि युवा पीढ़ी को आगे आने और पार्टी का नेतृत्व संभालने का मौका दिया जाना चाहिए। नायक ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को अपना इस्तीफा भेज कर गोवा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने आठ जुलाई 2017 को यह पद संभाला था। उन्होंने लुई जीनो फेलेरियो से शपथ ली थी। नायक 1984 में उत्तर गोवा लोकसभा सीट पर विजयी हुए थे। राज्यसभा में भी वे दो बार रहे थे।

राहुल गांधी को जब कांग्रेस कार्यसमिति में मनोनयन करने का मौका मिला तब कुछ ही दिनों में यह सिलसिला शुरू हो गया। ऐसा समझा जाता है कि अखिल भारत कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के प्रतिनिधियों ने हाथ उठा कर गांधी से कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव करने को कहा था।

अब समझदार हैं राहुल

कांग्रेस का जब पूर्ण सत्र होने को था, उसके पहले से ही राहुल गांधी परिपक्व हो चले थे। उनके बेहद अच्छे पल बर्कले यूनिवर्सटी (2017-18) के थे। उन्होंने तब यह माना था कि घमंड के कुछ तत्व ज़रूर कांग्रेस में घुस आए हैं। यह दौर यूपीए दो का था। यूपीए सरकार जो 2004 में बनी थी उसका पूरा दौर दस साल का ही था। राहुल ने सोशल मीडिया के महत्व को माना और अपनी सोशल मीडिया टीम को यह निर्देश भी दिया कि ‘इन पोस्टÓ की और ‘ऑफिस ऑफ आर जीÓ की परवाह भी करें।

‘सूट-बूट की सरकारÓ कह कर उन्होंने यह जता दिया था कि वे प्रधानमंत्री के सूट पर कटाक्ष कर सकते हैं। ‘गब्बर सिंह टैक्सÓ जो जल्दबाजी में लिया गया केंद्र का फैसला था। उस पर व्यंग्य उन्होंने गुजरात चुनावों से ठीक पहले ही गढ़ा था। उनके कटाक्ष के बाद ही सरकार ने 200 मदों से जीएसटी दरें कम कर दीं और 50 फीसद मदों पर 28 फीसद टैक्स दरों में कांट-छांट भी कर दी। उन्होंने विपदाग्रस्त कृषि के दौरान विमुद्रीकरण के सरकारी फैसले की निंदा की थी। उन्होंने अपने दम पर चुनाव प्रचार किया और दूसरे गुटों के लोगों को साथ जोडऩे की कोशिश की। उनकी इस पहल का नतीजा हुआ कि भाजपा को अपने बड़े नेताओं को मैदान में उतारना पड़ा और उन्हें एहसास हुआ कि 22 साल पुराना किला इस बार धसक रहा है।

राहुल ने अचानक मंदिरों में जाने का फैसला लिया और बताया कि वे शिव के उपासक हैं। यह संदेश चारों तरफ फैला और गुजरात के हिंदू मतदाताओं पर उसका असर पड़ा। रणनीतिक तौर पर उन्होंने अपनी चुनावी रैलियों में मुसलमानों का नाम तक नहीं लिया क्योंकि उन्हें इस बात का अनुमान था कि वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे। उनके इस कदम से यह भ्रम भी टूटा कि कांग्रेस ‘मुसलमानों का तुष्टिकरणÓ करती है। उन्होंने बहुत साफ तौर पर यह बात साफ कर दी कि वे किस तरह पार्टी को चलाते हैं जब खासे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘नीच किस्म का आदमीÓ कहा तो उनसे पार्टी की ‘प्राइमरी सदस्यता छीन ली गई।

राहुल गांधी जब आक्रामक रूप लेते है तो उनकी आवाज में तल्खी आ जाती है। जब वे भाजपा पर उसकी अलगाववादी नीतियों पर और प्रशासनिक मामलों पर आलोचना करते हैं तो संभलते हुए तीखा बोलते हैं। उन्होंने भाजपा की प्रतिबद्धता को पूरे देश के बजाए एक संगठन के प्रति बताते हुए उसकी आलोचना की है।

यदि आर्थिक प्रस्ताव में बीच की राह निकाल गई है तो राजनीतिक प्रस्ताव में यह अपील की गई है कि समान न्यूनतम कार्यक्रमों पर दूसरी पार्टियों के साथ काम किया जाएगा। राहुल गांधी भले ही बहुत अच्छे वक्ता न हो लेकिन वे न तो उत्तेजित होते हैं और न ही अभिनय करते हैं। वे साधारण तरीके से अपनी बात ज़रूर रख देते हैं। राहुल गांधी में ज़रूर अपनी बात साफ-साफ रखने की कुछ कमी ज़रूर है और मोदी की उस पर नज़र भी है। वे हमला बोलने की बजाए एक अच्छे भले इंसान की तरह अपनी बात रखते हैं। एक दौर था जब भाजपा ने तमाम सोशल मीडिया पर कब्जा कर लिया था और राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस नींद में थी लेकिन राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस आज सोशल मीडिया में भी पूरी आक्रामकता और तर्कों के साथ सक्रिय है।

राहुल गांधी अब न तो ‘पप्पूÓ हैं। जिसे कह कर मोदी और भाजपा मजाक उड़ाते थे और पूरे देश को बताते थे कि देखो वह है जोकर! आज राहुल एकदम बदले हुए व्यक्तित्व हैं। उनमें आत्मविश्वास है, वे मजाक भी करते हैं और उनका रवैया दोस्ताना है। उनके नेतृत्व को लेकर उनके विपक्षी अब पृष्ठभूमि में चले गए हैं।

भाजपा ने पूरी कोशिश की है कि आज़ादी की लड़ाई की विरासत को कांग्रेस से छीन ले लेकिन राहुल उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हुए और कामयाब भी हैं। राहुल हर बार अपनी आलोचना करते है। और हर बार एक नया और फुर्तीला राहुल सामने आता है। कांग्रेस को भविष्य की पार्टी बताते हुए उसे ही ताकतवर भाजपा से लोहा जो लेना है।

दिल्लीवासियों के लिये यात्रा दुर्लभ: पेट्रोल और डीज़ल के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर

दिल्ली में पेट्रोल और डीज़ल के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गए हैं और इसी के साथ ही सरकार से इन पर एक्साइज़ टैक्स कम करने की मांग भी उठने लगी है।

रविवार को पेट्रोल 73.73 रुपये प्रति लीटर हो गया जो बीते चार सालों में सबसे महंगा है, और डीज़ल के दाम 64.58 रुपये प्रति लीटर यानी अब तक की सबसे ज़्यादा कीमत पर पहुँच गए हैं।

सरकारी तेल कंपनियां बीते साल जून के महीने से बाज़ार के दाम देखते हुए रोज़ाना पेट्रोल और डीज़ल के दाम तय करती हैं. दाम के संबंध में जारी सूचना के अनुसार रविवार को कंपनियों ने दिल्ली में पेट्रोल और डीज़ल के दाम 18 पैसे प्रति लीटर बढ़ा दिए।

इससे पहले 14 सितंबर 2014 को पेट्रोल सबसे महंगा था जब इसकी क़ीमत 76.06 रुपये प्रति लीटर थी. डीज़ल की कीमतों को देखें तो इससे पहले 7 फरवरी 2018 को डीज़ल सबसे महंगा था. तब कीमत 64.22 रुपये प्रति लीटर थी।

तेल मंत्रालय ने इस साल के शुरू में पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले एक्साइज़ ड्यूटी को कम किए जाने की मांग की थी, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती तेल कीमतों से राहत मिल सके. लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी के अपने बजट में तेल मंत्रालय की इस मांग को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया.

पिछले साल अक्तूबर में केंद्र सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी में दो रुपये की कटौती की, उस वक्त पेट्रोल की कीमतें 70.88 रुपये प्रति लीटर थी और डीज़ल की कीमत 59.14 रुपये प्रति लीटर थी. एक्साइज़ ड्यूटी कम होने से ये दाम घटे- पेट्रोल 56.89 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 68.38 रुपये प्रति लीटर तक आ गए. लेकिन बाद में महीनों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से दिल्ली में भी तेल की कीमतें बढ़ गईं.

एक्साइज़ ड्यूटी में दो रुपये की कटौती के कारण सरकर को सालान राजस्व में 26,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई जबकि मौजूदा वित्त वर्ष में इस कारण 13,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई. नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिरती तेल कीमतों का लाभ उठाने के लिए सरकार ने नौ बार पेट्रोल और डीज़ल की एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाई.

इन पंद्रह महीनों के भीतर पेट्रोल की कीमतें 11.77 रुपये प्रति लीटर बढ़ीं जबकि डीज़ल की कीमतें 13.47 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ीं. इससे सरकार को वित्त वर्ष 2016-17 में 242,000 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2014-15 में 99,000 करोड़ रुपये का फायदा हुआ।

लाभ के पद मामले में २० आप विधायकों को दिल्ली हाईकोर्ट से राहत

लाभ का पद मामले में आप के २० विधायकों को दिल्ली हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिली है साथ ही मोदी सरकार को इससे झटका लगा है। हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह इन २० विधायकों की अर्जी की दुबारा सुनवाई करे। आयोग के इस सिलसिले में फैसले पर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद जो अधिसूचना जारी हुई थी उस पर रोक लगने से फिलहाल इन २० विधायकों की सदस्यता कोर्ट के अगले फैसले तक बहाल हो गयी है। सदस्‍यता रद्द करने की अधिसूचना को दिल्‍ली हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है।
आप के यह विधायक हैं – शिवचरण गोयल (मोती नगर), शरद कुमार (नरेला), सोमदत्त (सदर बाजार), आदर्श शास्त्री (द्वारका), अवतार सिंह (कालकाजी), सरिता सिंह (रोहतास नगर), जरनैल सिंह (तिलक नगर), नितिन त्यागी (लक्ष्‍मी), अनिल कुमार बाजपेयी (गांधी नगर), मदन लाल (कस्‍तूरबा नगर), प्रवीण कुमार (जंगपुरा), विजेंद्र गर्ग विजय (राजेंद्र नगर), अलका लांबा (चांदनी चौक), शिवचरण गोयल (मोती नगर), राजेश गुप्ता (वजीरपुर), संजीव झा (बुराड़ी), राजेश ऋषि (जनकपुरी), सुखबीर सिंह दलाल (मुंडका), मनोज कुमार (कौंडली), कैलाश गहलोत (नजफगढ़) और
नरेश यादव (महरौली हलका) ।
गौरतलब है कि इसी १९ जनवरी को दिल्ली के आप 20 विधायकों को पद का गलत प्रयोग करने के आरोप में अयोग्य घोषित किया गया था। चुनाव आयोग की ओर से विधायकों के अयोग्य करार दिए जाने के बाद आयोग की सलाह पर खुद राष्ट्रपति ने इस पर मुहर लगाई थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को सुनवाई पूरी होने और फैसला आने तक उपचुनाव नहीं कराने के लिए कहा है। इस तरह अगले फैसले तक इन विधायकों की सदस्यता बहाल हो गयी है।
कोर्ट में अपनी दलील में आप विधायकों ने राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती देकर इसे रद्द करने की मांग की थी। कोर्ट में दायर याचिका में आप विधायकों ने कहा कि संसदीय सचिव रहते हुए उनको किसी तरह का वेतन, सरकारी भत्ता, गाड़ी या अन्य सुविधा नहीं मिली है, लिहाजा लाभ के पद का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
चुनाव आयोग ने 19 जनवरी, 2018 को आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को लाभ के पद मामले में अयोग्य करार देने की सिफारिश की थी। आयोग ने उन्हें संवैधानिक तौर पर अयोग्य करार दिया था।   राष्ट्रपति की तरफ से चुनाव आयोग की सिफारिशों को मंजूर कर लिया गया था जिसके बाद अधिसूचना जारी कर इन विधायकों की सदस्यता खारिज हो गयी थी।
याद रहे आप पार्टी की दिल्ली में सरकार ने मार्च, 2015 में 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर तैनाती दी थी। इसे लाभ का पद बताते हुए एक वकील प्रशांत पटेल ने राष्ट्रपति के पास शिकायत की थी। पटेल ने इन विधायकों की सदस्यता खत्म करने की मांग की थी। हालांकि विधायक जनरैल सिंह के पिछले साल विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद इस मामले में फंसे विधायकों की संख्या 20 हो गई है।
कोर्ट के फैसले ने आम आदमी पार्टी के खेमे में खुशी भर दी है। कोर्ट का फैसला आते ही सोशल मीडिया पर भी लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं देनी शुरू कर दी। कुछ लोगों ने लिखा कि यह मोदी सरकार के लिए झटका है जबकि कुछ अन्य ने कहा कि आप को इससे ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए। एक व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर लिखा कि यह फैसला जाहिर करता है कि मोदी सरकार चुनाव आयोग का दुरूपयोग कर रही है। काफी लोगों ने कोर्ट के फैसले को सही ठहराया है।

कहानी उस दुर्लभ साहसी बेटी की

मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपनी अदम्य भावना के लिए जाने वाली आसमां जहांगीर, भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत मज़बूत नेताओं में से एक थीं। उनका निधन न केवल अपने देश पाकिस्तान के लिए हैं बल्कि दक्षिण एशिया का है जहां उन जैसी साहसी महिला की ज़रूरत है। शायद ही यह कभी भारत और पाकिस्तान के मामले में होता है कि एक उपलब्धि की दोनों ओर प्रशंसा की जाती है। 11 फरवरी आसमां जहांगीर की अचानक मौत पर निस्संदेह सबसे बहादुर पाकिस्तान ही नहीं,बल्कि दक्षिण एशिया की इस बेटी की मौत पर दोनों देशों में उसके कई शुभचिंतक और प्रशंसकों ने शोक मनाया। मानवाधिकार के लिए उनकी चाहत के न केवल पाकिस्तान बल्कि भारत में भी बड़ी तादाद में प्रशंसक थे।

वह मानवाधिकारों और लोकतंत्र के संरक्षण के लिए जमकर लड़ी। वह दृढ़ता से सैन्य प्रतिष्ठान के एक निर्वाचित सरकार के काम में हस्तक्षेप के खिलाफ मज़बूती से खड़ी रहीं। यही नहीं उन्होंने खुफिया एजेंसियों का सत्तारूढ़ शासन के आलोचकों को आतंकित करने के लिए अल्पसंख्यकों को धर्म के नाम पर उकसाने और चरमपंथ को विदेश नीति में एक साधन के रूप में उपयोग करने का जमकर विरोध किया।

भारत में उनकी लोकप्रियता भी उनकी दो पड़ोसियों के बीच मैत्रीवूर्ण संबंधों को बनाने की पक्षधर होने के नाते थी। उनके इस परिदृश्य से गायब होने से भारत-पाक के बीच शांति की संभावना कमज़ोर हो गई है। आसमां उस समय अचानक दुनिया से विदा हो गईं जब उनके अंत की कोई कल्पना भी नहीं कर रहा होगा। इतने करीब होने के नाते भी कोई नहीं जानता था कि वह दिल से जुड़ी बीमारी से खासी पीडि़त थीं। ऐसी कोई रिपोर्ट भी नहीं जो यह बताती हो कि वे हृदय रोग से पीडि़त थीं। शायद, उनके दिल की उचित जांच कभी नहीं हुई थी। उन्हें जब दिल का दौरा पड़ा वे अदालत की अवमानना के एक मामले में एक मंत्री का प्रतिनिधित्व करने पर सहमत हो गई थीं। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन पर वादा किया था कि वे इस मामले में लडऩे के लिए तैयार हैं लेकिन इस बीच उन्होंने बात करनी बंद कर दी। उस समय नवाज शरीफ अपने लाहौर घर में एक वकील के साथ बैठे थे। उन्हें आसमां के अचानक बात बंद कर देने पर हैरानी हुई क्योंकि वे इस तरह के व्यवहार के लिए नहीं जानी जाती थी।

इसके बाद नवाज शरीफ ने कम से कम 25 बार उससे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। किसी और ने जब बाद में शरीफ का फोन सुना तो उन्हें बताया कि 66 वर्षीय आसमां अब नहीं रही। शरीफ से बात करते करते ही खतरनाक हृदयघात से उनकी मौत हो गयी थी।

जल्द ही उनकी बेटी मुनिजे जहांगीर जो एक टीवी पत्रकार हैं उसने ट्विटर पर दुखद संदेश दिया कि वे अपनी मां के अचानक निधन से हतप्रभ हैं। जल्दी ही हम उनके अंतिम संस्कार की तारीख घोषित करेंगे। हम अपने रिश्तेदारों के लाहौर लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं

एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपने 40 साल के शानदार कैरियर में आसमां देश की पहली महिला थी जो पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की बार एसोसिएशन की अध्यक्ष बनीं। उन्होंने1987 में पाकिस्तान मानवाधिकर आयोग की सह-स्थापना की और सेवा की 1993 तक महासचिव के रूप में जि़म्मेदारी संभाली जब उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने इस जि़म्मेदारी को पूरी निष्ठा और योग्यता से निभाया। वैसे आयोग का गठन उनके ही दिमाग की उपज थी ताकि वे मानवाधिकार के संरक्षण, खासकर अल्पसंख्यकों के लिए काम कर सकें। आसमां का जन्म 1942 में लाहौर में हुआ और उन्होंने 1978 में पंजाब विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। एक वकील के रूप में वकालत करना शुरू कर दिया और उनका पूरा फोकस मानव अधिकारों पर रहा। वह दृढ़ता के साथ उन लोगों के लिए लड़ी जिन्हें या तो सत्ता की तरफ से दबाया जा रहा था या चरमपंथियों की तरफ से उनके धार्मिक विश्वास का फायदा उठाकर उनका शोषण किया जा रहा था। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक, दुनिया के मुकाबले सबसे अधिक प्रताडि़त किए गए हैं।

वह ऐसे पीडि़तों के अधिकारों की रक्षा करने से कभी डरी नहीं। कभी-कभी अपने जीवन को खतरे में डालने की कीमत पर भी उन्होंने चरमपंथी तत्वों से लोहा लिया। उन लोगों के लिए सहायता प्रदान करने के लिए उसकी निर्विवाद प्रतिबद्धता की वजह उनकी यह सोच भी थी कि सत्य का किसी भी कीमत पर बचाव किया जाना चाहिए।

आसमां का लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अतृप्त प्रेम था जिसके लिए वह जनरल जि़या-उल-हक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ जैसे कू्रर सैन्य तानाशाहों को भी चुनौती दे सकीं। उन्होंने इन शासकों के हर प्रकार के प्रलोभनों की पेशकशों को अस्वीकार कर दिया, और कभी इसके नतीजों को लेकर घबराई नहीं। उन्होंने जनरल जिया के शासनकाल के दौरान लोकतंत्र की रक्षा के लिए पूरी ताकत झोंक दी। उन्होंने उत्साहपूर्वक उस समय जनतंत्र की बहाली के लिए मार्च में हिस्सा लिया। इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी जब तानाशाह सरकार ने 1983 में उन्हें कैद में डाल दिया। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और सैन्य तानाशाही के खिलाफ मुखर रहीं।

उतने ही ज़ोरदार तरीके से वे बर्खास्त मुख्य न्यायाधीश इफ्तिरखार चौधरी की बहाली के लिए लड़ीं। जनरल परवेज मुशर्रफ की अध्यक्षता वाली तानाशाह सरकार के खिलाफ वकीलों की लड़ाई में भी वे मुखर हो कर सामने आईं। आश्चर्य की बात नहीं कि मुशर्रफ शासन के दौरान 2007 में उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया गया। जब उन्हें कैद से मुक्त किया गया था उसने 2012 में आरोप लगाया था कि पाकिस्तान का खुफिया नेटवर्क उनकी हत्या करना चाहता था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जासूसी एजेंसियां पूरी तरह पाकिस्तान में ‘लापता लोगोंÓ के मुद्दे के लिए जिम्मेदार है।

उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि कौन उनकी गतिविधियों से खुश है और कौन नाखुश।

उनके प्रशंसकों को समाज के हर वर्ग में पाया जा सकता है। न केवल पाकिस्तान में बल्कि दक्षिण एशिया भर में। अगर वह सैन्य प्रतिष्ठान की निर्वाचित सरकारें गिराने की मुख्य आलोचक रहीं तो वह न्यायिक सिस्टम के एक्टिविज़्म के भी विरोध में भी थी क्योंकि उनका मानना था कि इससे न्याय प्रणाली को नुकसान पहुंचा है। यही कारण है कि वे कई अवसरों पर पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना से भी पीछे नहीं हटी।

आसमां ने पनामा पत्रों के मामले में नवाज शरीफ को अयोग्य घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया और कहा कि इसका कोई औचित्य नहीं था। आसमां ने 2014 में लाइवलीहुड अवार्ड, 2010 में फ्रीडम अवार्ड, 2010 में ही हिलाल-ए-इम्तियाज़ और सितारा-ए-इम्तियाज जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड जीते। यह अवार्ड उनके काम और उसके प्रति उनकी निष्ठा को प्रतिविम्बित करते हैं। उनके जैसे व्यक्ति जिसने अपने विचारों को व्यक्त करने में कभी संकोच नहीं किया, का अब पाकिस्तान मे मिलना मुश्किल है। कवि इकबाल ने कहा था,’ हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता चमन में दीदावर पैदा’।

बैंक अफसरों ने आरबीआई को जिमेदार ठहराया

आज जब देश कई तरह के बैंक घोटालों से जूझ रहा है और करोंड़ों रुपए दांव पर लग गए हैं तो ‘ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कन्फेड्रेशन (एआईबीओसी) ने सरकार से कहा है कि वह उन पर आरोप लगाने की बजाए नई व्यवस्था लागू करने और बैंकों के सुपरवीजन में असफल रहने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर डाले।

सेंट्रल बैंक समेत सभी नियामक एजेंसियों को ज़्यादा सतर्क होने की ज़रूरत है। साथ ही ‘ऑडिटरोंÓ की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए। बैंकों का ऑडिट बहुत बार होता है, इसलिए एक ऐसी नियामक एजेंसी होनी चाहिए जो यह ध्यान रखे कि ऑडिटर अपनी भूमिका सही तरीके से निभाएं। नीरव मोदी -पंजाब नेशनल बैंक घोटाले सेे यह स्पष्ट हो गया कि जो लोग इसके लेन-देन पर नज़र रख रहे थे वे अपनी भूमिका सही तरीके से निभाने में असफल रहे हैं। यह याद रखा जाए कि यूएस की एनर्जी कंपनी एनरॉन के घोटाले के बाद मशहूर एकाउंटिग कंपनी आर्थर एंड्रसन को बंद कर दिया गया था। यहां भी ऑडिट करने वाली कंपनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके साथ राज्यों द्वारा चलाए जा रहे बैंकों को भी ज़्यादा स्वायत्ता दी जाए। मिसाल के तौर पर बैंक प्रमुख की नियुक्ति सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जो अपेक्षाकृत नए बैंक बोर्ड ब्यूरो को करनी होती है। इसकी बजाए यह नियुक्ति वित्तमंत्री के दायरे में रखी गई। मौजूदा हालात में इन सभी बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।

इससे पूर्व एआईबीओसी ने बैंकों पर आधार कार्ड बनाने की जिम्मेदारी डालने का भी विरोध किया था। अब घोटाले में लिप्त अफसरों को दंड मुक्ति मिलने से यह मुद्दा बहुत ही खतरनाक हो गया है। इसके अलावा बैंक अधिकारियों ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं।

एआईबीओसी के महासचिव डीटी फ्रांको ने कहा,’ नीरव मोदी-पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के बाद बैंकों में हो रहे घोटालों पर बहुत कुछ लिखा, और बोला जा रहा है। पर आरबीआई, वित्त मंत्रालय, केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीबीसी) और बाकी लोग तभी क्यों उठते हैं जब कोई बड़ा घोटाला हो ही जाता है। वे व्यवस्था की नाकामी का विश्लेषण क्यों नहीं करते, व्यवस्था की विफलता और घोटालों में सरकार और उसकी नीतियों की क्या भूमिका है, यहां हर्षद मेहता घोटाला, केतन पारिख घोटाला और एनपीए घोटाला हो चुके हैं लेकिन सरकार या आरबीआई ने आज तक उन्हें ‘घोटालाÓ नहीं माना है क्योंकि व्यवस्था में इतनी खामियां हैं कि इन्हें घोटाले की परिभाषा नहीं दी सकती। भारत में बैंकों की अंदरूनी नीतियों पर राजनैतिक अर्थव्यवस्था भारी पड़ती है। इसे राजनैतिक हस्तक्षेप भी माना जा सकता है।

नीरव मोदी के घपले के मामले में ‘लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) के गलत इस्तेमाल पर फ्रांको ने कहा कि जब खरीददार को उधारी उपलब्ध है तो आयातकर्ताओं के लिए आरबीआई ने एलओयू क्यों जारी किया जो विदेशी बैंकों में प्रचलित भी नहीं है। आरबीआई को आयात को प्रोत्साहित करने और बाहर से उधार लेने वाले को सस्ती दरों पर उधार देने की ज़रूरत क्या है? इसकी बजाए यह लाभ भारतीय बैंकों को मिलना चाहिए। ऐसा होने से देश को कर भी ज़्यादा मिलेगा। यह जग जाहिर है कि90 के दशक से ‘स्विफ्टÓ का इस्तेमाल घोटालों के लिए किया गया है। फिर सरकार और आरबीआई ने इसे ठीक करने के लिए इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? इसके अलावा पर्यवेक्षण और लेखा परीक्षण का क्या हुआ? पर्यवेक्षण में आरबीआई क्यों पूरी तरह विफल रहा? क्या इसका कारण है कि आरबीआई नोटबंदी जैसे दूसरे कार्यों में व्यस्त रहा? क्या वे एक साल बाद तक भी केवल नोट ही गिनते रहे? क्या आरबीआई ने अपनी स्वायत्ता खो दी है? बैंक अधिकारियों ने बैंकों में तबादलों और नई नियुक्तियों पर भी बड़े सवाल खड़े किए। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक में किसी दूसरे आदमी को प्रबंध-निदेशक बनाने पर भी सवाल किया क्योंकि यह काम बैंकिग बोर्ड ब्यूरो का है जिसके प्रमुख विनोद राय हैं। कमज़ोर पर्यवेक्षण पर एआईबीओसी ने कहा- बैंकों को दूसरी गतिविधियों जैसे आधार को जोडऩा, आधार कार्ड बनाना, सरकार की पेंशन योजना को बेचने जैसे कामों में क्यों डाला गया? इन्हीं के कारण पर्यवेक्षण कमज़ोर हुआ है।

आरबीआई आज भी उन लोगों की सूची क्यों नहीं छाप रहा जो बैंकों के पैसे डकारे बैठे हैं? इस तरह से उन्हें देश से भागने का मौका मिल रहा है। प्रधानमंत्री ऐसे व्यापारियों को क्यों अपने साथ विदेशी दौरों पर ले जाते हैं जोकि इस व्यवस्था का गलत इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं? विदेशों में उन्हीं लोगों को ठेके मिलते हैं? विदेशों में इन लोगों को क्यों भारत का चेहरा बनाकर पेश किया जाता है? इनका चयन प्रधानमंत्री कार्यालय या वित्तमंत्री क्यों करते हैं? जबकि यह कार्य उद्योग एसोसिएशन का है। शुरू से यही परंपरा थी एओईबीओसी के अनुसार मार्च 2016 तक बैंकों ने जो कजऱ् दिया उसका 38 फीसद केवल 11,643 लोगों के पास है। उनके अनुसार एनपीए के केवल 12 अकाउंट हैं जिनके खिलाफ 2.50 लाख करोड़ रुपए हैं जबकि 84फीसद एनपीए ‘कॉरपोरेटÓ घरानों के हैं। बैंक हर साल ‘कॉरपोरेटसÓ के हज़ारों करोड़ बट्टे-खाते में डालते हैं, सबसे बड़ा घोटला तो यही है। ‘फिक्कीÓ और एसोचैम को चाहिए कि वे बैंकों के निजीकरण की मांग करने की बजाए अपने सदस्यों से कहें कि वे ईमानदारी से कजऱ् वापिस करें।

आरबीआई पर एनपीए के उधारियों की सूची न जारी करने का आरोप लगाते हुए बैंक अधिकारियों का कहना है कि उसने ‘कॉरपोरेट्सÓ को लाभ पहुंचाने के लिए एक नया तरीका चलाया है। आरबीआई ने ‘कॉरपोरेट कजऱ् पुनर्गठन (सीडीआर), सामरिक कजऱ् पुनर्गठन (एसडीआर) स्ट्रेटिजक कजऱ् पुनर्गठन, सस्टेनेबल स्ट्रकचरिंग ऑफ स्ट्रेसड एसेटस या एस4 ए, ऐसेट क्वालिटी रिव्यू (एयूआर) और प्रापंट कोरैक्टिव एक्शन (पीसीए)जैसे तरीकों से कारपोरेट्स को मदद की है। इनमें से किसी ने बैंकों को लाभ नहीं दिया बस कॉरपोरेट्स को फायदा मिला। नए मानदंडों के अनुसार बैंकों को दो लाख करोड़ ज़्यादा एनपीए घोषित करने होंगे और 50 फीसद उनके लिए रखे जाएंगे। इससे देश के सारे बैंक कजऱ् में डूब जाएंगे। उससे देश में वही संकट पैदा होगा जो 2008 में अमेरिका में हुआ था। उस समय सरकार बैंक आपातकाल घोषित कर बैंकों को कारपोरेट्स के हाथों में दे देगी। यह लोकतंत्र के लिए भी एक खतरा होगा।

सार्वजनिक बैंकों के साथ पांच साल तक एनपीए का मुद्दा चलने के बाद न तो मनी मार्केटस पर कोई दवाब पड़ा और विकास पर भी सीमित असर दिखा। इसके कई कारण है। इसमें सबसे बड़ा कारण था कि बैंकों की मलकीयत सरकारी थी जिस वजह से बाज़ार का विश्वास बैंक प्रणाली में बना रहा।

निजीकरण का विरोध

सार्वजनिक बैकों के निजीकरण का विरोध करते हुए बैंक अधिकारियों का कहना है कि हमें बेहतर बैंकिंग, बेहतर रिपोर्टिग, बेहतर पर्यवेक्षण और बेहतर तकनालोजी चाहिए। हमें बैंकों के निजीकरण के लिए मच रही हाय तौबा की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए। सार्वजनिक बैंकों के खिलाफ खराब प्रबंधन का आरोप लगता है जिसके कारण एनपीए बढ़ते हैं। डाटा जो है वह इस परिकल्पना के खिलाफ है। हांलाकि यहां कुछ मामले गड़बड़ी के हो सकते हैं पर ये अत्याधिक नहीं हैं और एनपीए के बढऩे का कारण भी नहीं हैं। दूसरे बैंकों में खराब शासन का असर केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही नहीं बल्कि विश्व भर में निजी क्षेत्र के बैंकों में भी यह समस्या आती रहती है। ‘ग्लोबल रेगुलेटरीÓ हर साल उन बैंकों पर अरबों डालर का जुर्माना लगाती रहती है।

2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकारी बैंकों में एनपीए के कारणों का अध्ययन किया गया। इसका सबसे बड़ा कारण विकास के नाम पर दिए गए कजऱ् इसके ‘मैक्रो इकोनोमिक Ó और ‘रेगुलेटरीÓ इसके मुख्य कारण रहे। भ्रष्टाचार और दुराचार इसके मुख्य मुद्दे नहीं थे। 2008 में यूरोप और अमेरिका के निजी बैंकों को सरकार ने धन देकर बचाया। जिनको सरकारी सहायता ने बचाया उनके कुछ ऐसे नाम भी है जो व्यापार की दुनिया में बहुत बड़ा नाम रखते हैं। 2007-08 को यह संकट सरकारी बैंकों या भ्रष्टाचार की वजह से नहीं अपितु निजी बैंकों के लालच की वजह से आया था।

यह स्वामित्व की बात नहीं पर ‘रेगुलेशनÓ की गुणवत्ता, रिपोर्टिंग प्रबंधन की है जो बैंकिग दक्षता को बढ़ता है। अपने देश में भी निजी क्षेत्र के बैंक ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और बैंक ऑफ राजस्थान को भी राज्य की सहायता से बचाया गया था। कारण स्पष्ट है बैंकिंग कोई स्टील या होटल का धंधा नहीं है। एआईबीओसी के अनुसार देश में बैंकिंग ‘बेलआऊटÓ काफी आसान है। आईएमएफ के मुताबिक 1970 से 2011 के बीच ‘बेलआऊट’ ‘जीडीपी’ का 6.8 फीसद था। इमरजिंग कोस्ट जीडीपी का 10 फीसद थी। इसी अवधि में भारत में बैंकों का ‘बेलआऊटÓ खर्च मात्र एक फीसद था जो किसी गिनती में नहीं आता।

जो लोग बैंकों के निजीकरण पर ज़ोर दे रहे हैं उनका तर्क है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर सरकार का नियंत्रण रहता है और राजनैतिक लोग उसका पूरा लाभ उठाते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक निश्चित तौर पर सरकारी प्रभाव में रहते हैं और कारपोरेटस भी उनमें जोड़-तोड़ कर लेते हैं। इनसे बैंकों की प्रणाली में आई कमियों का लाभ कुछ भ्रष्ट बैंक अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर लालची व्यापारी उठा लेते हैं। बैंकों की इस प्रकार की कमियों को दूर करने की ज़रूरत है न ही उनके निज़ीकरण की। मंदी का मुख्य कारण अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की विफलता थी। 2008 की मंदी के अलावा भी बैंकों में हुई गड़बड़ी के कारण बैंकों पर ताले पड़ गए थे।

सरकार क्या करे?

निजीकरण बैंको को पेश आ रही समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। यह सत्य है कि सरकारी बैंकों के काम के तरीके वगैरा में भारी बदलाव लाने की ज़रूरत है। सरकार को पूरे बैंकिंग सैक्टर को फिर से खड़ा करने के लिए गंभीरता से सोचना चाहिए। निजीकरण निश्चित रूप से कोई रामबाण नहीं है।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही क्यां?

यह बताना ज़रूरी है कि 1955 में जब सरकार ने इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण कर उसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का नाम दे दिया गया था, तभी से बैंक व्यवस्था का महत्व बढ़ गया था। जब 1969 और 1970 में राष्ट्रीयकरण हुआ तो इसे और ताकत मिल गई।

सरकारी बैंकों का आधार सिकुडऩे के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था में इनका महत्व बना हुआ है। इन बैंको की दूर दराज तक फैली शाखाओं के ज़रिए इनकी पहुंच देश की सबसे ज़्यादा आबादी तक है। सरकार के सरकारी एजेंडे की रीढ़ की हड्डी भी ये बैंक है। जनधन योजना के मामले में भी ये बैंक अग्रणी हैं।

किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में बैंकों की भूमिका मात्र बैंक की ही नहीं है बल्कि वहां के विकास में भी इनका बड़ा योगदान है। ग्रामीण लोगों लिए बीमा और वित्तीय शिक्षा जैसे कार्य भी यही बैंक कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि देश में सरकारी बैंकों का महत्व कम नहीं किया जा सकता। भारतीय अर्थव्यवस्था में एक मज़बूत बैंकिंग व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। यही देश के विकास की रीढ़ की हड्डी है।

फडऩवीस सरकार झुकी, किसानों ने ‘लांग मार्च’ वापिस लिया

महाराष्ट्र में छह दिन से चल रहा 200 किलोमीटर ‘लांग किसान मार्चÓ खत्म हो गया। इसमें 35 से 50 हज़ार किसानों ने हिस्सा लिया। इनमें महिलाएं भी बड़ी संख्या में थीं। लगभग 200 किलोमीटर चलने से उनके पावों में छाले पड़ गए पर उन्होंने इसकी परवाह किए बगैर मार्च जारी रखा। नासिक से अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में चले किसानों की ज़्यादातर मांगे मान ली गई। इनमें किसानों को जंगलात की ज़मीन पर अधिकार और कजऱ् माफी जैसी मांगे भी शामिल हैं। 12 तारीख को किसानों ने मुंबई में विधानसभा का घेराव किया था। मांगे मानने की घोषणा दोपहर में किसानों की रैली में की गई। शाम को किसान सभा के नेताओं ने कहा कि आंदोलन को वापिस ले लिया गया है। इस अवसर पर माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी भी मौजूद थे। उन्होंने किसानों से लौट जाने का अनुरोध किया। मार्च के दौरान मुंबई के डिब्बे वालों ने उन्हें भोजन और पानी दिया। इसके अलावा भी कई सामाजिक संगठन किसानों की सहायता के लिए आगे आए।

किसान सभा नेताओं के अनुसार उनकी मांग कजऱ् माफी योजना को लागू करने की थी जो पिछले साल शुरू की गई थी, इसके अलावा वन अधिकार कानून 2006 को लागू करवाना और जिन किसानों की फसलें बरबाद हुई उन्हें सहायता राशि देना भी मांगों में था। सरकार ने इन्हें मान लिया है। इससे पूर्व येचुरी ने चेतावनी दी थी कि यदि किसानों की मांगे न मानी गईं तो उनमें केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को उखाड़ फेंकने की क्षमता है।

दूसरी ओर वन अधिकार के बारे में मुख्यमंत्री फडऩवीस ने कहा कि इससे संबंधित सभी अपीलें और सहायता राशि के मामले अगले छह महीनों में निपटा लिए जाएंगे। किसानों के कजऱ् के मामले में मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्होंने 46 लाख किसानों के लिए पैसा बैंकों में जमा करा दिया है और 30 लाख 50 हज़ार किसानों को इसका लाभ मिल चुका है। एमएस स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने के बारे में उन्होंने कहा कि इस विषय में वे केंद्र सरकार के साथ बात करेंगे।

छोटे किसानों के ‘लांग मार्चÓ की अगवानी की मुंबई वासियों ने, इसके स्वागत में तमाम पार्टियों के नेता भी पहुंचे।

महाराष्ट्र के किसानों ने बारह मार्च का अपने लांग मार्च के तहत मुंबई विधानसभा पर घेरा डाल दिया। छह मार्च से नासिक से चले कुछ हज़ार किसान जब मुंबई पंहुचे तो उनकी तादाद 40 हज़ार हो गई। इस लांग मार्च में शामिल किसानों के स्वागत में उद्धव ठाकरे (शिवसेना), राज ठाकरे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) एनसीपी और आप पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी पहुंचे।

किसानों की मांग थी कि सरकार कजऱ् माफ करे। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करे, बिजली के बिल माफ करे और वनाधिकार दे। अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) की ओर से आयोजित यह बड़ी यात्रा छह मार्च को शुरू हुई थी। इस ‘लांग मार्चÓ में किसान सभा के नेता अशोक ढावले, विजुकृष्णन, जेपी गावित, किसन गुर्जर और अजित नवाले आदि हैं जुलूस में पीडब्लूपी, सीटू और एटक के कार्यकर्ता,नेता और राज्य में आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों के बच्चे भी शामिल रहे।

‘लांग मार्चÓ में शामिल लंबे जुलूस में लाल झंडे और बैनर्स लिए हुए औसतन 15 किलोमीटर रोज यह जुलूस चलता। पूरे रास्ते में पडऩे वाले गांवों के लोग जुलूस में शामिल लोगों को बताशा और पानी देते। कुछ किलोमीटर साथ जुलूस में चलने का हौसला भी बांधते हैं। इस यात्रा में शामिल महिलाएं और पुरूष नाचते, गाते, नारे लगाते और गांव-गांव में अपनी बात कहते आगे बढ़ते हैं।

किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक ढावले का कहना है कि नदी जोड़ परियोजना में ज़रूरी बदलाव किए जाएं जिससे नासिक, ठाणे और पालघर में आदिवासी गांवों को डूब में आने से बचाया जा सके। वहीं कृषि भूमि जबरन राष्ट्रीय परियोजनाओं में लेने का भी विरोध किया गया। किसान नेता राजू देसले ने कहा कि राष्ट्रीय राजमार्ग, बुलेट ट्रेन आदि के नाम पर किसानों की ज़मीनें जबरन छीनने का सिलसिला थमे। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रोका जाए।

औसतन लांग मार्च में शामिल किसान हर सुबह छह बजे से शाम छह बजे तक रोज 15-20 किलोमीटर चलते रहे। इन लोगों ने नासिक से मुंबई तक की लगभग 180 किलोमीटर की दूरी लगभग पांच दिनों में पूरी की। ठाणे और मुंबई में पुलिस ने यातायात के नए निर्देश भी जारी कर दिए जिससे कहीं कोई अनहोनी न हो और सामान्य शहरी कामकाज होता रहे।

माकपा की अखिल भारतीय किसान सभा ने इस लांग मार्च का आयोजन किया। इसमें बाद किसान और मज़दूर पार्टी और भाकपा की किसान शाखाओं के नेता और कार्यकर्ता जुड़े। ‘आपÓ पार्टी के कार्यकर्ता और नेता भी इसमें आए।

शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडऩवीस सरकार में वरिष्ठ मंत्री एकनाथ शिंदे ने आंदोलन के नेताओं से बातचीत की और ‘लांग मार्चÓ का स्वागत किया। अखिल भारतीय किसान सभा के सचिव अजित नवाले ने उनसे कहा कि वे खुद किसान हैं राज्य सरकार में मंत्री हैं। उन्हें कम से कम सरकार को किसानों की समस्याओं को समझते हुए एक फैसला भी लाना चाहिए था। फिर भी वे आए हम उनके आभारी है। उन्होंने बताया कि किसानों की मांगें हैं कि किसानों का पूरा फसली कजऱ् माफ किया जाए। वह वन भूमि जहां बरसों से किसान खेती करते रहे हैं उसके कागज पत्र बनाए जाएं और वनभूमि किसानों के नाम की जाए। स्वामीनाथन समिति की तमाम सिफारिशें तत्काल लागू की जाएं। अपनी मांगों के साथ लंबी पदयात्रा के किसानों ने मुंबई में अपना डेरा डाल दिया था।