हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिला में सोमवार (९ अप्रैल) की शाम एक स्कूल बस के करीब २०० फुट गहरी खाई में गिर जाने से २६ स्कूल बच्चों सहित २९ लोगों की मौत हो गयी। शाम करीं ४.४५ पर यह हादसा हुआ। हादसा नूरपुर उपमण्डल के मलकवाल गाँव के पास हुआ।
मिली जानकारी के अनुसार यह हादसा वजीर राम सिंह पठानिया मैमोरियल स्कूल की बस के खाई में गिरने से हुआ। इस बस में में ४० छात्र सवार थे और छुट्टी के बाद घर जा रहे थे। ये सभी बच्चे नजदीकी के गांवों के थे। हादसे में सात बच्चों ने मौके पर दम तोड़ दिया जबकि अन्य की मौत नूरपुर अस्पताल में हुई। गंभीर रूप से घायल बच्चों को टांडा अस्पताल रेफर किया गया है।
तहलका की जानकारी के अनुसार हादसे में बस चालक मदन लाल (67) के अलावा दो शिक्षकों की भी मौके पर ही मौत हो गई। हादसे की सूचना मिलते ही स्थानीय प्रशासन और पुलिस मौके पर पहुंचे और राहत और बचाव कार्य शुरू किया। स्थानीय लोगों ने राहत में मदद की और बस के नीचे दबे बच्चों को अस्पताल पहुंचाया। सूचना मिलते ही नूरपुर के विधायक राकेश पठानिया, एसडीएम आबिद हुसैन सादिक के अलावा डीसी कांगड़ा संदीप कुमार और एसपी कांगड़ा संतोष पटियाल अस्पताल मौके पर पहुंचे।
मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने बस हादसे पर शोक जताते हुए इसकी न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। इसके अलावा उन्होंने खाद्य और आपूर्ति मंत्री किशन कपूर को घटनास्थल पर भेजा है। सीएम ने कांगड़ा जिला प्रशासन को राहत और बचाव कार्य मे तेजी लाने को कहा है और पीड़ित परिवारों को हर सम्भव सहायता का भी भरोसा दिलाया है। मंडी में चल रही भाजपा की कार्यसमिति की बैठक में बस हादसे पर दो मिनट का मौन रखा गया।
इस दिल दहला देने वाले हादसे के वाद पूरे इलाके में शोक फैला हुआ है। मासूमों के अंग हादसा स्थल पर बिखरे पड़े थे और वहां परिजनों की चीख-पुकार गूँज रही थी। नूरपुर उपमंडल के चुवाड़ी मार्ग में हुए इस हादसे ने 26 मासूमों की जान ले ली जबकि दो शिक्षकों सहित बस चालक की भी मौत हो गई। हादसे में 29 की जान गई है जबकि कुछ अभी भी घायल हैं जिन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया है। यह सभी बजीर राम सिंह पठानिया मैमोरियल स्कूल से संबंधित थे।
हादसे पर राज्यपाल आचार्य देवव्रत, मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और वीरभद्र सिंह ने गहरा शोक व्यक्त किया है। राज्यपाल ने कहा कि यह एक दुःखद घटना है, जिसमें मासूम स्कूली बच्चों की जानें गई हैं। कांग्रेस विधायक दाल के नेता मुकेश अग्निहोत्री ने भी हादसे पर शोक जताया है।
हिमाचल हादसे में २६ स्कूल बच्चों सहित २९ की मौत
कर्नाटक चुनावः बीजेपी ने जारी की 72 उम्मीदवारों की पहली सूची
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी ) ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए 72 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दी है।
बीजेपी ने मुख्यमंत्री उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा को शिकारीपुरा से चुनाव लड़ेंगे।
दिल्ली में पार्टी मुख्यालय पर केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के बाद उम्मीदवारों की सूची जारी की गई है।
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में हुई बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, कर्नाटक के पूर्व सीएम बीएस येदियुरप्पा के साथ पार्टी के कई और नेता भी शामिल रहे।
चुनाव में 224 सीटों वाली विधानसभा के लिए 150 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर उतर रही भाजपा ने प्रधानमंत्री और अमित शाह समेत अपने सभी स्टार प्रचारकों को कर्नाटक में प्रचार में लगाया है।
12 मई को कर्नाटक में एक ही चरण में मतदान होंगे और 15 मई को नतीजे आएंगे। कर्नाटक में 56 हजार पोलिंग स्टेशन होंगे।
शिक्षा केंद्रों की स्वायत्तता या बाजारीकरण
केंद्र की भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार ने देश के 62 माने हुए शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता का तमगा देते हुए इनकी अचल संपत्तियों के लिहाज से अब इनका पूरी तौर पर निजीकरण करने का फैसला लिया है। हालांकि स्वायत्तता का मतलब यह नहीं है कि अब इनमें ज़्यादा वैचारिक आज़ादी होगी, शोध के लिए अपार फंड होगा और राज्य व सरकारी नियंत्रण कम होगा।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह घोषणा करके यह ज़रूर जता दिया कि बाधाओं के बाद भी वे नीतियां अमल में ला सकते हैं। अब जिन्हें पढऩा है वे पैसा खर्च करें। मुफ्त में कुछ नहीं।
विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता होगी लेकिन एकेडेमिक आज़ादी का अभाव रहेगा। सरकारी शिक्षण संस्थानों में पहले संवैधानिक आदेशों के तहत शिक्षण व्यवस्था थी, अच्छे नागारिक बनाने का संकल्प था, आपस में खुला विवाद होता था। छात्र-छात्राओं को कम लागत में अच्छी शिक्षा सुलभ होती थी।
लेकिन अब स्वायत्त शिक्षण संस्थान के छात्र-छात्राओं को देश, धर्म, संस्कृति से लगाव रखना होगा। बाजार की ज़रूरतों के अनुसार ही खुद को वे योग्य बनाएंगे। एकेडेमिक ऑटोनॉमी के तहत ऐसे शोधों की संभावना बढ़ेगी जैसे सरकार की नई नीतियां और उनका प्रभाव या नई सरकारी नीतियों का बाजार पर असर आदि जैसे ढेरों विषय। यानी अब कारपोरेट उद्योग और एकेडेमिक विभागों में ज़्यादा तालमेल होगा। सही तौर पर स्वायत्तशासी यूनिवर्सिटी वह होगी जहां छात्र और अध्यापक देश विरोधी न हों सरकारी नीतियों का विरोध न करते हों और देशभक्ति संबंधी नीतियों को अमल में लाएं।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने 20 मार्च को स्वायत्तता का ऐतिहासिक घोषणा पत्र जारी किया। इसके पहले तकरीबन एक महीने पहले गजट नोटिफिकेशन किया गया था। जिस का शीर्षक था यूजीसी कैटागराइजेशन ऑफ यूनिवर्सिटीज फार ग्रांट ऑफ ग्रेडेड ऑटोनॉमी रेगुलेशंस 2018और कन्फर्मेंट ऑफ ऑटोनॉमस स्टेट ऑफ कॉलेजेज रेगुलेशंस 2012 इन रेगुलेशंस की तुलना में नई स्वायत्तता की बात कहीं अलग है। रेगुलेशंस का ज़ोर ऐसी नीति पर है जिसके तहत गुणात्मक शिक्षा में फंड जाएं।
जिन 62 विश्वविद्यालयों को स्वायत्त बनाने की बात की जा रही है उनमें जेएनयू, बीएचयू, और एएमयू प्रमुख हैं। इन सभी का परिसर काफी लंबा-चौड़ा है जिस पर अर्से से बाजार की निगाहें हैं। स्वायत्तता शब्द के बहाने देश की जनता को भ्रम में रखने की पहल केंद्र सरकार ने की है। मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि देश में उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता देने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। इन्हें स्वायत्तता प्रदान करना इनकी अर्थव्यवस्था को उदार बनाना है। इन्हें फिर शिक्षा में अपना स्तर और ऊँचा करने के लिए यूजीसी(यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन) का मुंह नहीं देखना होगा।
उनके अनुसार इन 62 विश्वविद्यालयों को कोई कोर्स शुरू करने ,नया विभाग खोलने , कोर्स की फीस तय करने और ऑफ लाइन परिसर बनाने के लिए किसी अनुमति की ज़रूरत नहीं होगी। ये विदेशी विश्वविद्यालयों से समझौता (एमओयू) करके विदेश से अनुभवी प्राध्यापकों को ऊँचा वेतन देते हुए बुला सकते हैं। विदेशी छात्रों को अपने यहां प्रवेश दे सकते हैं। वेतन आयोग की सिफारिशें भी इनके लिए बहुत महत्व की नहीं होंगी। यूजीसी इनका निरीक्षण और परिक्षण भी नहीं करेगी। उन्होंने बताया कि संसद में पास कानून के जरिए इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मैनेजमेंट को ऐसी सुविधा पहले से ही हासिल है।
भारत सरकार चाहती है कि देश के बीस शिक्षण संस्थान तेजी से खुद को विकसित करें जिससे विश्वस्तर पर वे गिने भी जाएं। सरकार ने राज्यों में पांच केंद्रीय विश्व विश्वविद्यालय जेएनयू (हैदराबाद यूनिवर्सिटी) जाधवपुर यूनिवर्सिटी (कोलकाता), यूनिवर्सिटी ऑफ जम्मू, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (दिल्ली), सावित्री बाई फुले (पुणे) विश्वविद्यालय इन्हें सरकार ने शिक्षण विश्वविद्यालयों और संस्थानों को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रिडिटेशन कौंसिल (एनएएसी) की रैकिंग के आधार पर चुने हैं। जिन्हें 305 और उससे ज़्यादा पहली कैटेगरी में स्थान हासिल हुए उन्हें पूर्ण स्वायत्तता दी गई। जिन विश्वविद्यालयों का नतीजा 3.5 से कम रहा उन्हें दूसरी कैटेगरी में रखा गया और उन्हें आंशिक स्वायत्तता दी गई। कुछ मुद्दों पर इन्हें जरूर अपनी गतिविधियों में यूजीसी से अनुमति लेनी होगी और विदेशी विश्वविद्यालयों से कांट्रेक्ट की पहल करनी होगी। इनमें मध्यप्रदेश के सागर में डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय है जिसके पास अच्छा बड़ा परिसर है और जहां अपनी स्थापना के समय से ही कई ऐसे विषय पढ़ाए जाते रहे हैं,जो तब देश के किसी और विश्वविद्यालय में पढ़ाए ही नहीं जाते थे।
सूची में शामिल निजी विश्वविद्यालयों में ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी सोनीपत, पंडित दीन दयाल पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी गांधीनगर, वेल्लोर इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी और मणिपाल एकेडेमी भी है।
सरकार ने आठ कॉलेजों को भी स्वायत्तता दी है। इनमें यशवंत राव चव्हाण इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस, सतारा, श्री शिव सुब्रमण्यम नाडार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, कला-वक्कम, जी नारायम्मा इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी साइंस, हैदराबाद, विवेकानंद कॉलेज, कोल्हापुर, श्री वसावी इंजीनियरिंग कॉलेज पश्चिम गोदावरी, बोनम वेंकट चलमाय्या इंजीनियरिंग कॉलेज पूर्व गोदावरी, जयहिंद कॉलेज ऑफ कामर्स, और श्री विल पार्ल कलावानी मंडल मिठिबाई कॉलेज ऑफ आर्ट्स मुंबई हैं। ये तमाम कॉलेज अपने कोर्स तैयार करेंगे, परीक्षा लेंगे और छात्रों की योग्यता तय करेंगे । लेकिन ये डिग्री नहीं देंगे। यह काम विश्वविद्यालय करेंगे।
अखिल भारतीय तौर पर दो कैटेगरी में जांचे परखे गए विश्वविद्यालय में पहली कैटेगरी में दो विश्वविद्यालय और दूसरी कैटेगरी में तीन केंद्रीय विश्वविद्यालय यानी कुल पांच केंद्रीय विश्वविद्यालय हुए। राज्य विश्वविद्यालयों में पहली कैटेगरी में 12,दूसरी कैटेगरी में नौ यानी 21 राज्य विश्वविद्यालय हुए। इसी तरह डीम्ड विश्वविद्यालयों की पहली कैटेगरी में 11, दूसरी कैटेगरी में 13 यानी कुल 24 डीम्ड विश्वविद्यालय हुए। निजी विश्वविद्यालयों में दूसरी कैटेगरी में दो ही चुने गए। ऑटोनॉमस कालेजों में कोई भी पहली और दूसरी कैटेगरी में नहीं आ पाया। लेकिन आठ को सूची में रखा गया। इस तरह 60 शिक्षण संस्थान स्वायत्तता के क्षेत्र में अब चुन लिए गए हैं। जहां अब शिक्षण महंगा ज़रूर हो जाएगा।
केजरीवाल का माफी मांग कर जताना पश्चाताप!
पंजाब में अरविंद केजरीवाल की इज्जत का खत्म होना और उनकी आलोचना सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे द्वारा होना संकेत है शिरोमणि अकाली दल की मजबूत वापसी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अभी पिछले ही दिनों पंजाब के पूर्व मंत्री बिक्रमजीत सिंह मजीठिया से बिना शर्त माफी मांगी। पंजाब में हुई एक रैली में केजरीवाल ने यह आरोप लगाया था कि मजीठिया खुद मादक पदार्थों के तस्करी में लिप्त हैं। मजीठिया को बिना प्रमाण आए ऐेसे बयान से काफी पीड़ा हुई और उन्होंने मानहानि का एक मुकदमा अरविंद केजरीवाल पर दायर किया। इसमें कहा गया कि आरोप गलत हैं।
इसके पहले अकाली दल के वरिष्ठ नेता और विधायक मजीठिया ने मीडिया युद्ध जीता था। तब अंग्रेजी ‘ट्रिब्यूनÓ ने अपने पहले पन्ने पर तीन कॉलम में एक खबर छापी थी जिसका शीर्षक था मादक द्रव्यों के घोटाले में बिक्रम सिंह मजीठिया के प्रमाण नहीं। इसमें बिक्रम सिंह का चित्र भी 25नवंबर 2014 के हवाले से 25.11.2014 और 10.03.2015 को ‘इस खेद प्रकाश में छपा था।Ó जांच पड़ताल में यह पता चला कि बिक्रम सिंह मजीठिया किसी भी मादक द्रव्यों के व्यापार में शमिल नहीं हैं। ट्रिब्यून को इस बात पर बहुत अफसोस है कि इस आरोप के कारण बिक्रम मजीठिया की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची और उनके पारिवारिक जनों और शुभचिंतकों को तकलीफ हुई। ऐसी स्थिति में ट्रिब्यून का यह बिना शर्त माफीनामा माना जाए।
एक अखबार के इस तरह खेद प्रकाश करने के बाद ही दिल्ली के मुख्यमंत्री की बिना शर्त माफी याचना आई। अमूमन अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेडऩे वाला व्यक्तित्व माना जाता रहा है। लेकिन उन्हीं को अपने शब्द वापस लेने पड़े। चाय के प्याले में तूफान की तरह आम आदमी पार्टी की पंजाब इकाई में हड़कंप मच गया। आप के सांसद और पंजाब पार्टी के अध्यक्ष भगवंत मान ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया उनके साथी अमन अरोड़ा ने भी अरविंद केजरीवाल की इस कार्रवाई को बहुत शर्मनाक माना। इस माफीनामे से साफ होता है कि पार्टी की राजनीति का स्तर कितना छिछला हुआ है और इसकी इज्जत कितनी घटी है। यह सभी जानते हैं कि आप में विपक्षियों की तादाद कहीं ज़्यादा है और नेतृत्व में यह कमजोरी है कि वे नतीजों का सामना नहीं कर पाते।
बिक्रम सिंह मजीठिया से क्षमा याचना के बाद केजरीवाल ने केंद्रीय मंत्री नीतिन गडकरी पर लगाए गए अपने आरोपों और कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल के पुत्र अखिल सिब्बल पर लगाए गए अपने आरोप वापस ले लिए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का पंजाब के पूर्व मंत्री से माफी मांगना जिसमेंं उन्हें मादक पदार्थों का भागीदार बताया गया था। उस पर चुटकी ली सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने। उन्होंने कहा किसी को ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहिए जिसके चलते आगे माफी मांगनी पड़े।
केजरीवाल पर मानहानि के कुल 33 मुकदमे चल रहे हैं। उनके करीबी सहयोगियों ने उन्हें सलाह दी है कि बेमतलब के मामलों को वे रद्द करें और प्रशासन पर ध्यान दें। विपक्षियों को लगता है कि आप उनके लिए चुनौती है इसलिए मानहानि के 33 मामलों में वे एक न एक मामले में उलझे ही रहें। उनके विरोधी यह मानते हैं कि उन्होंने अरविंद को एक पिंजरे में बंद कदने में कामयाबी पा ली है। राजनीतिक तौर पर आप की छवि के पंजाब में विघटन के मायने होंगे शिरोमणि अकाली दल की वापसी।
‘निजी सेनाओं’ की ज़रूरत क्या
राजनैतिक दल और लोग लोकतंत्र में अपनी-अपनी सेनाएं क्यों बनाते है? पिछले कुछ सालों में दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों ने अपनी-अपनी सेनाएं खड़ी करनी शुरू कर दी हैं और उनसे इस पर सवाल करने की हिम्मत किसी में नहीं है। जब पुलिस और अर्धसैनिक बल मौजूद हैं तो ‘निजी सेना’ क्यों?
‘निजी सेनाÓ रखने की इज़ाज़त कौन देता है? उन पर आने वाले खर्च कौन वहन करता है? उन पर नियंत्रण किसका होता है? उन्हें दुश्मन पर निशाना साधने के लिए कौन प्रशिक्षण देता है? इनमें कौन लोग लिए जाते हैं और क्यों? राजनीतिक माफिया और इनमें क्या अंतर है? क्या ये सेनाएं उसी माफिया का हिस्सा हैं जिसने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान मेें उत्पात मचा रखा है? क्या अल्पसंख्यक समुदायों के पलायन के लिए ये जिम्मेवार नहीं हैं?
फिरौती, अपहरण और दंगों के मामलों में इन सेनाओं की भूमिका की जांच होनी चाहिए। पर यह सवाल कौन उठाएगा जब कि ये सारे काम सत्ताधारी दल के संरक्षण में होते हैं।
कुछ दिन पहले जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव क्षेत्र गोरखपुर का भ्रमण कर रहे थे तो मैंने यह जानने की कोशिश की कि उनकी ‘निजी सेनाÓ हिंदू युवा वाहिनी (एचवाईवी) की इसमें क्या भूमिका है? मुझे बताया गया कि पूरा इलाका ही उस सेना के घेरे में है। इससे स्थानीय लोगों में भारी भय का वातावरण बन गया। वे लोग इस सेना के हर हुक्म और निर्देश को मानने पर बाध्य हैं।
यह कहने कि ज़रूरत नहीं कि इसका सबसे ज्य़ादा प्रभाव इलाके के दलितों, ईसाईयों और मुसलमानों पर हुआ। यह कहना बचपना होगा कि उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक हिंदुत्व के एजेंडे के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। उन्होंने ने बताया कि अल्पसंख्यकों ने चुप रह कर अपने खिलाफ बोले जा रहे नारों को सहने में ही बेहतरी समझी है। कई लोगों ने कासगंज के दंगों और उनमें हिंदू ब्रिगेड की भूमिका को भी याद किया। बहुत बड़ी गिनती में उत्तरप्रदेश के मुसलमानों ने खुद को दूसरी या तीसरी श्रेणी का नागरिक मान लिया है। इस पृष्ठभूमि में राजनीतिक टिक्काकारों की यह टिप्पणी हास्यस्पद लगती है कि आदित्यनाथ के शासन में मुस्लिम ठीक हैं कहीं कोई विद्रोह की आवाज़ तक नहीं उठ रही। क्या अभागे और असहाय नागरिकों के पास कोई विकल्प है? अगर वे योगी और उनके आदमियों को दबाने की कोशिश करते हैं तो क्या उनके बीवी बच्चों को गोलियों से नहीं भून दिया जाएगा? ‘निजी सेनाÓ की दहशत इतनी है कि कोई भी सूर्यास्त के बाद घर के बाहर निकलने का साहस नहीं करता। उत्तरप्रदेश में लगातार मुठभेड़ें चल रही है। मार्च 2017 से जनवरी 2018 के बीच 1,142 मुठभेड़ें हुई और 38 कथित अपराधी मारे गए। यहां जो प्रश्न पूछा जा रहा है कि इनमें से कितनी मुठभेड़ें व्यक्तिगत और राजनैतिक विरोध के कारण अपना हिसाब चुकता करने के लिए कराई गई थी?
ऐसे बहुत से मामले सामने आ रहे हैं जिनमें ‘निजी सेनाÓ ने उन लोगों पर हमले किए जो सरकार की आलोचना कर रहे थे या केवल किसी विषय पर प्रश्न उठा रहे थे। इनको पुलिस का भी डर नहीं। वे लोग पुलिस की मौजूदगी में भी आम लोगों पर हमला बोल देते हैं। वैसे भी माफिया गिरोहों को हमला करने के लिए केवल एक इशारा चाहिए।
जिस तरह से ये ‘सेनाएंÓ या ‘वाहिनियांÓ देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है। हम इस बात की अनदेखी कैसे कर सकते हैं कि इन सेनाओं को हमले और मुकाबले का पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है जिसके बाद ये अपने ही देश के लोगों पर हमले करते हैं। यहां तक कि जब2016 में समाचारपत्रों में खबरें और चित्र छपे कि किस तरह से नोयडा, वाराणसी और अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं तब भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। इनमें भी जिन पुतलों को ‘दुश्मनÓ दिखा कर उन पर हमले करवाए जा रहे थे उन पुतलों के सिरों पर भी मुस्लिम टोपियां थीं।
यह सब कोई एक रात में नहीं हुआ। यह बिना रु कावट खुले आम चलता जा रहा है। मैं हैरान हूं कि जब राजनैतिक माफिया हमारे सामने लोकतांत्रिक मूल्यों को तहस-नहस कर रहा है तो भी हम डरे-सहमे खामोश क्यों बैठे हैं? हम अपनी निगाहें दूसरी ओर क्यों घुमा देते हैं?
जानेमाने लेखक खुशवंत सिंह की मृत्यु से कुछ हफ्ते पहले जब मैं उनसे मिली थी तो मैंने पूछा था आपको जीवन से कोई शिकायत या कोई पछतावा है क्या? उन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूं कि मुझे इन संघियों के खिलाफ ज्य़ादा आक्रामक होना चाहिए था क्योंकि ये देश का सत्यानाश कर देंगे। मैं शुरू से इनका विरोधी रहा हूं पर मुझे इन्हें अपनी लेखनी में ज्य़ादा नंगा करना चाहिए था। खुशवंत सिंह दक्षिणपंथियों की ‘निजी सेनाओंÓ के भी खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, ‘मुझे इस बात का भारी दुख है कि सांप्रदायिक दलों ने अपनी ‘निजी सेनाएंÓ बना ली हैं। कोई सरकार जो राजनैतिक दलों की’निजी सेनाओंÓ को छूट देती है वह देश को फासीवादी की ओर ले जाती है। यहां फासीवाद आ गया है।
योगी सरकार के एक साल बाद भी विकास को तरसती जनता
लगभग साल ही पहले भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) के तेज तर्रार नेता योगी आदित्यनाथ ने देश की सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रुप से महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया था। तब वे संघ परिवार के सबसे पसंदीदा विकल्प के रूप में उभरे थे।
आरएसएस ने योगी को विभिन्न राज्यों में हिंदुत्व के ब्रांड एंबेसडर के रूप में पेश किया और बड़े पैमाने पर योगी की संगाठनिक क्षमता का विस्तृत प्रयोग गुजरात, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना व त्रिपुरा में किया गया। अब इसका कर्नाटक के होने वाले चुनावों में भी उपयोग कर रहे हैं। भाजपा के हलकों ने यह दृढ़ता से महसूस किया गया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हुई बड़ी रैलियों ने 2019 के विधानसभा और संसदीय चुनावों के लिए योगी का मार्ग प्रशस्त किया है।
ध्रुवीकरण की आलोचना और हिंदू धर्म के प्रति कट्टरता ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को अपनी मुस्लिम विरोधी छवि को बदलने की महत्वपूर्ण चुनौती दी। मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर में अपनी पहली रैली में उन्होंने कहा,’मैं मुस्लिम विरोधी नहीं हूं। लेकिन पिछली सरकार की नीतियों के खिलाफ हूं जो उनको खुश करने के लिए थी।Ó मेरी सरकार सबका विकास एक समान करेगी परन्तु कोई भी तुच्छ नहीं। हालांकि कुछ समय बाद इस तरह की नरमी गायब हो गई और वे पिछली बयानबाजी में वापिस चले गए।
आदित्यनाथ जो अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर बनाने के मज़बूत समर्थक हैं, उन्होंने उत्तरप्रदेश में भाजपा के हिंदुत्व अभियान का नेतृत्व किया और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उसे जारी रखा। उन्होंने अयोध्या में सरयू नदी के किनारे 1.70 लाख दीपक जलाकर दिवाली मनाई। बाद में होली और देव दीपावली मनाने के लिए बरसाना और वाराणसी गए। जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि दिवाली और होली मनाने के बाद क्या वह ईद भी मनाएंगे। तब उनकी प्रतिक्रिया काफी उग्र थी। ‘मैं ईद क्यों मनाऊंगा मैं एक हिंदु हूंÓ उन्होंने कहा। उनकी इस प्रतिक्रिया की भारी आलोचना हुई। क्योंकि यह बयान एक मुख्यमंत्री का था जिन्होंने सविधान को बनाए रखने की शपथ ली थी। जिनसे धर्म निरपेक्ष रहने की अपेक्षा थी। बाद में उन्होंने अपने बयान में सुधार करते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म, रीति-रिवाज को मानने के लिए स्वतंत्र है।
उत्तरप्रदेश चुनावों में प्रचार के दौरान योगी ने दावा किया कि भगवा पार्टी राज्य में राम मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। वह पार्टी के हिंदूत्व में लिपटे विकास के एजेंडे का तावीज है। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे गोरखपुर के प्रसिद्ध मठ मंदिर के महंत (मुख्य पुजारी) बने रहे। वह बहुत महत्वपूर्ण समारोह के दौरान मठ में उपस्थित रहे। यह मठ संतों के ‘नाथÓ संप्रदाय से जुड़ा है जिसकी दूसरे राज्यों में भी मज़बूत उपस्थिति है।
योगी निजी सेना ‘हिंदू युवा वाहिनीÓ (एचवाईवी) के अध्यक्ष भी हैं जो ‘वेलेंटाइन डेÓ और ‘पश्चिमी कपड़ोंÓं का विरोध करने के लिए मशहूर है। यह हिंदू संगठन विशेष रूप से राज्य के पश्चिम में महराजागंज, बस्ती, देवरिया, कुशीनगर, संत कबीर नगर और सिद्धार्थ नगर में सक्रिय है।
भाजपा ने 2017 में लोगों के कल्याण की श्रृंखला और विशेषकर किसानों और युवाओं को लक्ष्य बना कर सत्ता हासिल कर ली थी। सरकार ने अपने शासनकाल का एक साल पूरा कर लिया है और पांच साल के कार्यकाल का दूसरा बजट भी पेश किया है। पिछले बजट में कृषि कजऱ् के 36,000 करोड़ रुपए और सांतवें वेतन आयोग को लागू करने के बोझ ने अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं को वास्तव में कम कर दिया। मौजूदा बजट में भी उनके चुनावी वादों और कल्याण योजनाओं को पर्याप्त वित्तीय सहायता नही दी गई है।
चुनावों के दौरान सबसे प्रचारित योजना थी छात्रों को कंप्यूटर देने की थी। इसे अभी तक वित्तीय (मौद्रिक) समर्थन नहीं मिला। इसी तरह सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को मुफ्त वाई-फाई और बिना पक्षपात के सभी छात्रों को लैपटाप और एक जीबी डाटा देने का भी वादा था। 50 फीसद अंक पाने वाले छात्रों को स्नातक तक मुफ्त शिक्षा देने का वादा भी संसाधनों की कमी के कारण लागू नहीं हो पाया है। इसके साथ ही घरों में 24 घंटे बिजली, गांवों को मिनी बस सेवा से जोडऩे जैसे कई वादे और योजनाएं सत्ता के गलियारों में धूल ही चाट रहे हैं।
किसान अब सरकार की नीतियों से निराश हैं क्योंकि उनकी आय नहीं बढ़ी और अब गन्ना, आलू, गेंहू, चावल, दालों की फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर निर्धारित नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की आय दुगुना करने का वादा किया था। परन्तु कजऱ् के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राज्य में योगी सरकार बनने के बाद भी लगभग 100 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बुंदेलखंड सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्र है जहां आंधी तूफान के कारण फसलें बर्बाद हो गई थी। इस कारण कजऱ् के बोझ से दबे दर्जन से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। बुंदेलखंड क्षेत्र के भारतीय किसान यूनियन के प्रधान एसएनएस परिहार ने यह जानकारी दी।
भाजपा ने अपने चुनावी अभियान के दौरान बेहतर कानून व्यवस्था का वादा अपने नारे ‘न गुंडाराज, न भ्रष्टाचारÓ के साथ किया था। लेकिन राज्य में कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार की स्थिति अच्छी नहीं है। अपराध के बढ़ते ग्राफ के साथ मुख्यमंत्री ने अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस को अधिक शक्ति दी। इस शक्ति के दुरूपयोग के कारण मानव अधिकार कमीशन आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव राजीव कुमार को नोटिस जारी किया कि क्या कथित मुठभेड़ें अपराध को खत्म कर देंगी।
भाजपा के शासन काल में उत्तरप्रदेश पुलिस ने अपराध को रोकने के लिए 1309 ऑपरेशन किए जिनमें 42 अपराधी मारे गए और 3068 को पकड़ लिया गया। पुलिस के डीजी (डिप्टी जनरल) ने बताया कि अच्छे कार्य के लिए हमने 1574 पुलिस कर्मचारियों को पुरस्कृत किया। पुलिस में सुधार के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को लागू करने के बारे में डीजी ने कहा कि पहले मैं इनका अध्ययन करूंगा फिर जवाब दूंगा।
कानून व्यवस्था में सुधार का दावा करने के बाद भी राज्य के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदयिक हिंसा की घटनाएं सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं के उकसाने और सरकारी मशीनरी की हिंसा को रोकने में हुई लापरवाही के कारण हुई।
लगभग 45 वर्षीय आदित्यनाथ गोरखपुर से पांच बार सांसद बने। उनकी प्रतिष्ठा उनके द्वारा खाली की गई संसदीय सीट के लिए हुए उप-चुनाव में दांव पर थी। 1998 से वे इस संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जब वे सिर्फ 26 वर्ष के थे। अपनी विशेष राजनीतिक शैली के लिए वे उत्तरप्रदेश के पूर्वी इलाकों में काफी लोकप्रिय हैं। जहां उन्होंने हिंदू भावनाओं को उकसाने और मज़बूत करने के लिए अपने अभियानों ‘घर वापसीÓ और ‘लव जिहादÓ को राष्ट्रव्यापी बनाया।
योगी ने गायों के वध का विरोध किया और इसे उत्तरप्रदेश में प्रतिबंधित भी किया। लेकिन पूर्वी उत्तरप्रदेश में यह अवैध रूप से चलता रहा। इसने उन्हें गाय सतर्कता आंदोलन का नेता बना दिया उन्होंने गाय वध और अवैध कसाई घर बंद करवा दिए। इस सांप्रदायिक उन्माद ने दादरी मामला और गाय जागरूकता के नाम पर सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दिया। यह सही है कि गाएं फसलों के लिए बहुत खतरा हो गई क्योंकि वे फसलों को नष्ट कर देती थीं जिससे किसानों को भारी वित्तीय नुकसान होने लगा।
योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार उत्तरप्रदेश में 2017 में बनी लेकिन उनकी सरकार किसानों, शिक्षा स्वास्थ्य देखभाल, भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था के प्रति किए गए अपने वादे पूरे नहीं कर पाई। उनका प्रदर्शन पूरी तरह से हिंदुत्व के एजेंडे के लिए प्रतिबद्ध था। बेरोज़गारी और आजीविका जैसे वास्तविक मुद्दे पीछे रह गए। अधिकांश समय नेता हिंदू-मुस्लिम विवादों में ही उलझे रहे। हालांकि सरकार ने नौकरी सृजन को बढ़ावा देने के लिए निवेशकों का एक सम्मेलन आयोजित किया और उत्तरप्रदेश में औद्योगिकरण को तेज करने के लिए 4.23 लाख करोड़ के समझौते वास्तव में एक बड़ा लक्ष्य और अत्यंत कठिन कार्य है।
बिना बहस के बजट पास कराने का नुस्खा
यह शायद ही कभी सुना गया कि सरकारें संसद में बिना बहस के बजट पास करा लेती हैं। लेकिन इसी महीने यह भारत की लोकसभा में हुआ। विधायिका का सबसे महत्वपूर्ण कागजात वित्तीय विधेयक होता है जिसमें पूरे साल भर देश की वित्तीय मार्गदर्शिका होती है जो बिना किसी बहस के लोकसभा में पास हो गई। किसी ने भी ‘डोंटÓ का न तो तकिया कलाम सुना और न ही इसके लिए तय ढर्रों और नजीरों को ही पलटा गया।
अभी हाल लोकसभा ने बिना किसी बहस के वित्तीय विधेयक 2018 को दोनों सदनों से पास करा लिया। इसी दौरान पहली अप्रैल से शुरू हो रहे अगले वित्त वर्ष में 89.25 लाख करोड़ के खर्च की योजना भी बहुमत से पास करा ली गई। न विपक्ष था, न कोई बहस। यह सब महज 25 मिनट में निपट गया। इस विधेयक के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से थे 2018-19 के कर प्रस्ताव वे भी बहुमत से पास हो गए। इसी तरह एप्रोप्रिशन बिल भी जिसमें 99 सरकारी मंत्रालयों और विभागों के खर्च का पूरा ब्यौरा था वह भी पास हो गया। तकनीकी तौर पर बजट पास तो हो गया लेकिन हाल के वर्षों में यह पहली बार ही हुआ है जब लोकसभा में उस पर न कोई चर्चा हुई और न मतदान। किसी एक मंत्रालय के लिए और ज़्यादा पैसों की मांग की भी कही कोई सुनवाई नहीं हुई।
राज्यसभा ने भी सारे एप्रोप्रिएशन बिल पास कर दिए। कई कट मोशन ज़रूर विपक्षी दलों से आए थे। उन्हें खारिज करते हुए ये पास हुए।
यह सब उस दौरान हुआ जब विपक्ष पंजाब नेशनल बैंक और दूसरे सरकारी बैंकों में हुए सबसे बड़े बैंक घोटालों के आरोपियों को देश से बाहर सुरक्षित तौर पर निकल भागने के आरोपों पर बहस के लिए ज़ोर दे रहा था। कावेरी जल विवाद और आंध्र प्रदेश को ‘स्पेशल पैकेजÓ की मांग भी विपक्ष ने उठा रखी थी लेकिन इसी दौरान सरकार ने बजट पेश करने का फैसला लिया और उसे बिना बहस मंजूर करा लिया। इसी के जरिए सांसदों, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के वेतन भी खासे बढ़ाने पर मंजूरी भी हासिल कर ली गई। संसद सत्र अभी छह अप्रैल तक चलना है लेकिन संसद ठप्प हैं । विपक्ष चलने नहीं दे रहा। यह कहना है तीन चौथाई बहुमत पाने वाले दल के नेताओं का।
मुख्य विपक्षी दलों में कांग्रेस, एनसीपी, टीएमसी, सदन में वाकआउट करते हैं जबकि टीडीपी, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस सदन के वेल में नारेबाजी करते हैं। लेकिन इन बातों का कोई असर वित्त विधेयक की मंजूरी पर लोकसभा में नहीं पड़ा जहां वित्त विधेयक बहुमत से पास हो गया। रिकार्ड के लिए यह हो गया कि 85,315 करोड़ रुपया उन राज्यों को मिलेगा जिन्हें जीएसटी लागू करने से नुकसान हुआ है।
भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सत्ता चला रही एनडीए का लोकसभा में पूर्ण बहुमत हैं। वित्त बिल और एप्रोप्रिएशन बिल के पास होने से बजट को मंजूर करने की प्रक्रिया पूरी हो गई। नियमों के अनुसार दोनों ही विधेयकों को राज्यसभा के हवाले कर दिया गया। चूंकि ये मनी बिल हैं यदि राज्य सभा इसे चौदह दिन में वापस नही करती तो से पास माने जाएंगे। बजट पर संसद की मुहर का लगना संवैधानिक दायित्व हैं जिसके बिना सरकार अपने कामकाज में एक भी पैसा खर्च नहीं कर सकती। इस कारण इस पर बहस होती है और आम राय से इसे पास किया जाता है लेकिन उस पूरी प्रक्रिया को इस बार नज़रअंदाज किया गया। बजट पास मान लिया गया।
मोदी सरकार का तर्क है कि जब विपक्ष सदन में हल्ला हंगामे में जुटा था तो कैसे बजट पर बहस कराई जाती। इसी कारण तय प्रक्रिया का अनुगमन नहीं किया गया। लेकिन सरकार के इस तर्क को कोई मानने को तैयार नहीं है सिवा सत्ता चला रही पार्टी के। अनुशासनहीनता की बातें तो संसद के गलियारे में दशकों से सुनाई देती रही हैं। लेकिन इस तरह बजट पास कराने की बात आम तौर पर सुनाई नहीं देती,ऐतिहासिक तौर पर सरकारें संसद के अधिकारों को सर्वोच्च मानती हैं और आम राय बनाने की कोशिश करती हैं। ऐसा शायद ही कभी हुआ है जैसा इस साल संसद में दिखा।
ज़रूरत है कि भाजपा सरकार लोगों का भरोसा संसद में जगाए । विधायिका के प्रति अविश्वास न बढ़ाए जैसा कि बजट को बिना बहस पास करा कर किया। सरकार को साथ लेते हुए अपनी भूमिका जतानी चाहिए थी।
विपक्षी दलों ने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को एक कड़ा पत्र भेजा जिसमें पूछा गया कि सरकार ने विपक्ष को बिना पूर्व सूचना दिए बगैर केंद्रीय बजट पर मतदान कैसे करा लिया। विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस के अनुसार टीडीपी और एआईडी एमके का विरोध प्रदर्शन तो सरकार की ओर से कराया जाता रहा है। क्योंकि वे एनडीए में भी हैं। ऐसा इसलिए किया गया जिससे नीरव मोदी घोटाले पर से लोगों का ध्यान बांटा जा सके। यह पत्र सुमित्रा महाजन को सौंपा सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने जिसमें मल्लिकार्जुन खडगे, ज्योतिरादित्य सिंधिया, माकपा सांसद मोहम्मद सलीम, आर जेडी सांसद जेपी यादव आदि थे। विपक्षी एकता में दरार तब दिखी जब तृणमूल के सांसदों ने इस पत्र पर दस्तखत नहीं किए।
विपक्षी नेताओं का आरोप था कि पिछली बिजिनेस एडवाईजरी कमेटी की बैठक में सरकार ने छह मंत्रालयों जिनमें कृषि भी था उस पर बहस के लिए समय नियत करने की बात कही थी लेकिन बजट पर मतदान करने के लिए तारीख और समय तय नहीं हुआ था। इससे पता चलता है कि सरकार में कितना अंहकार और अहं है जिसके चलते तमाम वित्तीय मामलों पर संसद में बहस कराने की बजाए उससे बचने की कोशिश होती है।
विपक्षी दलों ने अध्यक्ष को यह भी याद दिलाया कि वे अभी हाल हुए नीरव मोदी द्वारा किए गए बैंकों में वित्तीय घोटालों पर बहस की मांग कर रहे हैं। सरकार इस मामले पर आगे नहीं आ रही है जिससे सदन की कार्रवाई सामान्य तौर पर चल सके। दूसरी ओर सरकार इस बात पर आमादा है कि पूरा बिल (केंंद्रीय बजट) बिना बहस के पास हो जाए।
लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा कि टीडीपी और अन्नाद्रमुक, एआईए, डीएमके के विरोध प्रदर्शन तो एनडीए सरकार की ओर से चलाए जा रहे प्रदर्शन हैं जिससे बहस इस मुद्दे पर न हो कि कैसे नीरव मोदी ने सरकारी पंजाब नेशनल बैंक को 12,000 करोड़ से भी ज़्यादा का चूना लगा दिया। आखिर फिर संसद सत्र बुलाने की वजह ही क्या है जब बिना बहस मुबाहिसे के केंद्रीय बजट बहुमत से ही पास कराना है। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश को गुमराह कर रही है कि विपक्ष ही सदन नहीं चलने दे रहा।
खडग़े ने कहा जब टीडीपी सांसद प्लेकार्ड लेकर आते हैं तो मिनटों में सदन स्थगित हो जाता है जबकि सस्पेंड होना चाहिए। प्रधानमंत्री भी कतई कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह संसदीय मामलों के मंत्री की जिम्मेदारी है कि वह भाजपा के सहयोगियों, भविष्य में बनने वाले सहयोगियों और समर्थकों को लेकर सदन सुचारू रूप से चलाएं।
लगभग इसी मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए माकपा सांसद मोहम्मद सलीम ने कहा, नियंत्रित लोकतंत्र का उदाहरण संसद होता है। बजट के लिए एक छोटा रास्ता अपनाना वर्तमान शासन की एक महत्वपूर्ण नजीर है।
लेकिन विजयी होंगे नरेंद्र भाई ही
भाजपा की उपचुनावों में हार, एनडीए गठबंधन में टूट, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की रैलियों में भीड़ के बावजूद ऐसा अंदेशा है कि 2019 में भाजपा शायद ही हारे। इसकी वजह यही है कि विपक्ष अभी एकजुट नहीं है। वजह अभी भी नरेंद्र दामोदर दास मोदी तमाम विपक्षी दलों के नेताओं के बरक्स काफी ताकतवर हैं, मन से, धन से, और प्रभाव से। यह अनुमान है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के नेताओं का। इन नेताओं का कहना है कि भारत के विपक्षी दलों में भाजपा को हराने के लिए जो एकता ज़रूरी है वह नहीं बन पा रही है।
इस साल या फिर अगले साल होने वाले आम चुनाव में भाजपा को परास्त करने में विपक्ष कामयाब नहीं होगा। वजह यह है लोकसभा चुनावों में राज्यवार तरीके से जब तक भाजपा विरोधी मतों को इक_ा नहीं किया जाता तब तक 2019 में जीत की उम्मीद पालना बेकार है। विपक्ष के बड़े नेताओं की यह आलोचना भले ही विपक्षी एकता की बात कर रहे नेताओं और बुद्धिजीवियों को नागवार लगे लेकिन इसमें दम है। अमेरिकी संवाद एजेंसी ब्लूमबर्ग का तो कहना है कि यदि विपक्ष का ऐसा हाल रहा तो 2029 तक भाजपा राज करेगी।
अभी पिछले दिनों त्रिपुरा में पराजय के बाद नई दिल्ली में माकपा की पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी की बैठक हुई। इस बैठक में भी शामिल माकपा के बड़े नेताओं ने देश की हालत और विपक्षी पार्टियों का पूरा रवैया जाना-परखा। हालांकि पार्टी ने कोई प्रेस बयान नहीं जारी किया। प्रेस कांफ्रेंस भी नहीं की। लेकिन पार्टी मुख्यपत्र, ‘पीपुल्स डेमोक्रेसीÓ के संपादकीय से यह जान पड़ता है कि पार्टी में महासचिव सीता राम येचुरी अब एक किनारे हो गए हैं। वे पहले यह मानते थे कि भाजपा को परास्त करने के लिए कांग्रेस के साथ न्यूनतम कार्यक्रम पर तालमेल रखा जा सकता है। त्रिपुरा में हुई करारी हार भी बदलाव एक वजह हो सकती है।
माकपा का यह कहना है कि टीडीपी, टीआरएस, और बीजेडी भी कांग्रेस के नेत्तृव में आपसी तालमेल नहीं चाहती। खुद माकपा भी कांग्रेस के साथ भाजपा विरोधी एकता के पक्ष में नहीं रही है। केरल में कांग्रेस और माकपा का सीधा-सीधा मुकाबला रहा है। यानी क्षेत्रीय पार्टियों का जहां कांग्रेस से मुकाबला है वे कतई सीटों पर तालमेल या कांग्रेस से तालमेल नहीं रखेंगी। हालांकि तृणमूल का नाम नहीं लिया गया है। फिर भी पश्चिम बंगाल में तो टीएमसी की प्रमुख प्रतिद्वंदी माकपा-कांग्रेस ही है। जाहिर है ममता बनर्जी ऐसा कभी नहीं चाहेंगी। इसलिए वे भाजपा- कांग्रेस के बिना वैकल्पिक मोर्चे के पक्ष में उत्साहित भी दिखती हैं।
तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में वैकल्पिक मोर्चा पर भी माकपा खासे संदेह में है। वजह साफ है कि ममता ऐसा मोर्चा चाहती है जिसमें कांगे्रस न हो (सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों के नेताओं को भोजन पर बुलाया था उसमें वे शामिल भी नहीं हुई थीं)। भाजपा विरोधी वोट जुटाने में राजद और द्रमुक पार्टियां ज़रूर कामयाब होंगी क्योंकि वे कांग्रेस विरोधी हमेशा रही हैं। इनकी राजनीति भी बड़ी साफ है।
माकपा का मानना है कि मोदी विरोधी वोटों के लिए ज़रूरी है कि राज्यवार एका पर जोर गंभीरता से हो। उत्तरप्रदेश में सपा -बसपा तालमेल एक बेहतर नमूना है भाजपा को पलटी देने में। अगर उत्तरप्रदेश में ज़्यादातर सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की हार होती है तो सदन में उनका बहुमत नहीं हो सकता। लेकिन दिन बीतने के साथ पार्टियों के आपसी अंतर्विरोध बढ़ेगें। इन्हें तेज करने में तमाम ताकतों की मदद ली जाएगी और भाजपा कामयाब होगी अंतविरोधों की आंच पर अपनी रोटियां पकाने और खाने में। यादव अखिलेश-मायावती तालमेल भी टूट जाएगा। उत्तरप्रदेश में 80 सीटें हैं। सपा-बसपा में जातिवादी और वर्गवादी भेद परंपरा से बहुत गहरे हैं। सपा के यादवों के ओबीसी एलायंस और बसपा के दलितों में गठबंधन को कभी भी टिकाऊ न होने देने में भाजपा और कांग्रेस के जातिवादी नेता हमेशा अड़ेंगे लगाएंगे। इसकी वजह जनता का पढ़ा-लिखा न होना और गंगा जमुनी तहजीब को अनिवार्य न मानना है। भाजपा ने चार साल मे जो गलतियां सुशासन के तौर पर की हैं और पूरे देश में असंतोष फैलाया है। उससे जनता केा गुमराह करने में भाजपा और संघ परिवार तमाम राज्यों में लगातार सक्रिय है।
लगभग ऐसी ही समस्या बिहार में राजद और जद(यू) के साथ है। पहले एक महा-गठबंधन बना था लेकिन भाजपा-संघ परिवार के नेताओं का प्रयास कामयाब नहीं रहा।
यह सही लगता है कि कांग्रेस भाजपा को कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की कुल 65 सीटों पर जोरदार टक्कर दे। इन राज्यों में कांग्रेस का लगभग सीधा मुकाबला है। लेकिन इन राज्यों की जनता के बीच अन्य विपक्षी दलों ने कभी ज़मीनी स्तर पर न संपर्क बनाए हैं और न उनकी दिलचस्पी ही रही। इन सभी प्रदेशों में मोदी के पुराने भाषणों से ही काम चल जाएगा। जमीनी स्तर पर संघ परिवार लंबे समय से सक्रिय है ही।
विपक्ष में आज भी नेताओं में परस्पर ईगो जनता के बीच निष्क्रियता, और क्षेत्रीय किस्म के दबावों और जातिवादी उन्मादों का असर ज़्यादा है। इसके चलते भाजपा और संघ परिवार की सक्रियता के चलते 2019 में भी मोदी -शाह की जोड़ी कामयाब रहेगी।
भाजपा का राज्यसभा में अब बहुमत
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का अब लोकसभा ही नहीं, राज्यसभा में भी अच्छा खासा बहुमत है। उत्तर भारत और उत्तर पूर्व में भाजपा की ऐतिहासिक विजय के चलते भाजपा सदन में बहुत अच्छी स्थिति मेें है। राज्यसभा में यह अब बड़ी पार्टी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेतली, भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिंह राव, सपा की जया बच्चन (सभी उत्तरप्रदेश से), कांगे्रस के नेता अभिषेक मल्ल सिंघवी (पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांगेे्रस के समर्थन से) और राजीव चंद्रशेखर (कर्नाटक से)विजयी हुए। माकपा के नेतृत्व वाले एलडीएफ के वीरेंद्र कुमार जो जनतादल (यू) की केरल इकाई के अध्यक्ष हैं वे कांग्रेस को हराकर जीते।
उत्तरप्रदेश में राज्यसभा की दस सीटों में से आठ तो भाजपा को मिलनी ही थीं। नौंवी सीट पर विधायकों के दिल शायद नहीं मिले इसलिए बसपा के ही विधायक ने पार्टी ह्विप का उल्लंघन किया और भाजपा को अपना वोट दिया। निर्दलीय राजा भैया पहले शायद इस गठबंधन के हक मेें थे लेकिन बाद में उन्होंने मतदान में भाग ही नहीं लिया। लाभ भाजपा को हुआ। व्यक्तिगत नफा नुकसान और बदलती राजनीति के गुणाभाग में भाजपा को उत्तरप्रदेश से राज्यसभा में एक और सीट पर कामयाबी हासिल हुई।
भाजपा के प्रत्याशी अनिल अग्रवाल ने बसपा उम्मीदवार भीमाराव अंबेडकर को हराया। इस एक सीट को पाने के लिए सपा-बसपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा व समर्थकों के बीच क्रासवोटिंग और दूसरे प्रबंधन प्रयास भरपूर हुए लेकिन जीत भाजपा प्रत्याशी की ही हुई।
सवालों को लांघती राजनीति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण के बाद कहा था कि,Óतेलंगाना को पृथक राज्य बनाने की मंजूरी देकर कांग्रेस ने अपना चुनावी स्वार्थ साधा और जल्दी की। यह मोदी का कहना आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू द्वारा ‘भाजपाÓ से गठबंधन तोड़ लेने की धमकी के परिपेक्ष्य में तुष्टीकरण का ही वाक्य था।
नरेंद्र मोदी जैसे दूरदर्शी प्रधानमंत्री ने इस बीज़ वाक्य के जरिए भारतीय जनता पार्टी की तेलंगाना की लंबी राजनीति परंपरा को समर्थन देने की बात नकार दी। जिसके तहत भाजपा के सत्ता में आते ही सौ दिनों के भीतर तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने की आडवाणी -घोषणा अमल में लाने की बात कही। उधर सुषमा स्वराज ने संसद में तेलंगाना के उग्र छात्र आंदोलन को खुला समर्थन दिया।
‘तेलंगानाÓ जनता का आंदोलन था। इंदिरा गांधी के ज़माने में बंदूक के बल पर इसे दबा दिया गया था। हाल ही में तेलंगाना आंदोलन के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में नई चुनौतियों को स्वीकार कर आग के मैदान में उतरा था, और सफल हुआ। आज के चंद्रशेखर राव तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं।
उन्हें पता था कि चंद्रबाबू के मोह में मोदी तेलंगाना जन आंदोलन के इतिहास को नकार कर उसकी स्थापना में कांग्रेस की दया को आज आधार बना रहे हैं। यही आक्रोश और वजह राव ने अपने भाषण में जताया भी था। जिस पर भाजपा ने हंगामा किया। दरअसल तेलुगु भाषा में करीम नगर में जहां वे बोल रहे थे वहां ‘वाडूÓ (वो) ईडू (मे) वाडू यानी मोदी के प्रति संबोधन में प्रयुक्त शब्द और ईडू अर्थात कांग्रेस के प्रति उदबोधन शब्द केसीआर के मुख से जन सभा में निकले।
मुख्यमंत्री राव का कहना था कि तेलंगाना के लिए ‘वोÓ क्या कर देगा और ये क्या करेंगी? भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपने दिल पर पत्थर रख कर मुद्दा बनाया, हालांकि मोदी के तेलंगाना नकार के बाद भीतरी रूप से बगारू,दत्तात्रेय, किशन रेड्डी, राजा सिंह, लक्ष्मण राव आदि भाजपा नेता नाराज़ थे।
केसीआर को तेलंगाना जनता का आज समर्थन प्राप्त है। वे जनता की ओर से ही बोल रहे थे। ऐसा टीआरएस का कहना था। लेकिन नलगोडा में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह द्वारा पार्टी के हित में आगामी चुनावी सेंध लगाने के बाद टीआरएस में हलचल का पैदा होना स्वाभविक है क्योंकि टीआरएस ने स्थानीय एमआईएम पार्टी के सहयोग से यह स्वप्न पाल रखा है कि ज्योति बसु की तजऱ् पर केसीआर का राज 25 वर्षों तक अडिग़ और अचल रहेगा और असदुद्दीन ओवैसी से आपसी सहयोग भी जारी रहेगा ।
के चंद्रशेखर राव ने ‘उने इने अरे तूरेÓ की राजनीति के चलते भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का अपमान किए जाने की माफी की मांग पर अपनी पार्टी द्वारा जवाबी हमले जारी रखें। मुख्यमंत्री के पुत्र केटीआर द्वारा गलती-स्वीकार की स्थिति के बावजूद यह मुद्दा छाया रहा।
दरअसल आज संसद से लेकर जन सभाओं तक राजनीतिक भाषणों की भाषा मर्यादा की सीढिय़ों से उतर रही है चाहे प्रधानमंत्री द्वारा रेणुका चौधरी के प्रति व्यक्त टिप्पणी हो, या केसीआर द्वारा व्यक्त अपने शब्द। कुल मिलाकर यह विवाद सिमट गया है किंतु इसके गर्भ से जो मतभेद उभरे हैं उससे आज के चंद्रशेखर राव वैकल्पिक तीसरे मोर्चे की संभावना से जुड़े हैं। असदुद्दीन ओवैसी द्वारा आनन फानन में तीसरे मोर्चे की बात छेडऩे और केसीआर को उसके अध्यक्ष की पेशकश करने से राजनीति गर्मा गई है। ममता और अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भी अपना समर्थन के चंद्रशेखर राव को देने का ऐलान किया है।
इधर इस बात के तूल पकडऩे पर अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों और सभ्रांत जातियों के प्रतिनिधियों ने ‘प्रगति भवनÓ मे जाकर हज़ारों की संख्या में मुख्यमंत्री राव से भेंट की और उन्हें अपना समर्थन बिना शर्त देने की घोषणा की।
इधर भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं में यह उम्मीद थोड़ी-थोड़ी नज़र आने लगी है कि त्रिपुरा के चुनाव परिणामों की तजऱ् पर उनके भाग्य की झोली में 2019 के चुनाव में तेलंगाना आ सकता है।
भारतीय जनता पार्टी के प्रादेशिक और स्थानीय नेताओं से बातचीत करने पर भान होता है कि दक्षिण में ‘भाग्यवादÓ पर टिकी भाजपा अब भविष्य के सपने देख रही है। उसके पास विरोध में उठाने के लिए तेलंगाना में न मुद्दे ही हैं न कोई चुनावी रणनीति। सबके सब बिखरे पड़े हैं और अमित शाह के चमत्कार के फेर में उलझे है।
कुछ का कहना है कि बंडारू दतात्रेय को मोदी ने सत्ता से निष्कासित कर दिया है। इसके चलते वे अब खामोश हो गए हैं। मोदी द्वारा मेट्रो रेल के उद्घाटन पर भी वे समारोह में नहीं आए थे। ऐसी स्थिति में सिर्फ विधायक किशन रेड्डी का चेहरा मुख्य रूप से भाजपा की ओर से 2019 के चुनाव में आगे रहेगा। मोदी और अमित शाह दोनों तेलंगाना में युवा नेतृत्व ही चाहते हैं।
इधर तेलंगाना सरकार की फाँस बने हैं कोदण्ड राम रेड्डी जो तेलंगाना संयुक्त कार्य समिति के नेता हैं और इन दिनों तेलंगाना सरकार के खिलाफ बड़े स्तर पर आंदोलन छेड़ रहे हैं। उनकी लड़ाई के मूल में केसीआर द्वारा छात्रों की अवहेलना और उन्हें रोज़गार देने के मामले में अधिकारों से वंचित रखा जाना बताया जाता है। हाल ही में पुलिस दमन का एक उदाहरण तेलंगाना में देखने में आया है और वह है कोदण्ड राम के मिलियन मार्च को कुचल देने वाला। ऐसे में कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी भी केसीआर के पीछे हाथ धोकर पड़ी है।
इन सब के चलते टीआरएस की रातों की नींद उड़ गई हैं क्योंकि चुनावी बदलाव की चिंगारियां, भावी राजनीति का विकास करती हैं। तेलंगाना में कौन सी खिचड़ी पक रही है, सब जानते हैं। विशेष कर अमित शाह के आगमन के बाद बस्ती-बस्ती में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय खुल रह हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं का समर्थन उन्हें पृष्ठभूमि में प्राप्त हो रहा है।
फिलहाल एमआईएम के समर्थन से केसीआर ने राज्य सभा के चुनाव में अपने भांजे संतोष कुमार, लिंगैया यादव और बी प्रकाश को मैदान में उतारा है। ऐसे में अपने दम पर कांग्रेस के राज्य सभा उम्मीदवार जीतने के स्थिति में नहीं है। टीआरएस की तीसरी सीट पर असदुद्दीन ओवैसी का पूरा दखल है। यह मामला आपसी तौर पर सुलझ जाएगा।
फिलहाल तेलंगाना विधानसभा और विधानपरिषद में बजट सत्र चल रहा है जिसमें किसानों के अलावा जन कल्याण की योजनाओं, विकास के कार्यक्रमों को बल दिया गया है।
इस त्रिशंकुवादी राजनीतिक हलचलों में भारतीय जनता पार्टी का हस्तक्षेपी चेहरा सबसे ताकतवर नज़र आ रहा है, क्योंकि यह एक ऐसा मोड़ है जिसमें इतिहास को एक बार और खंगाला जाएगा । अमित शाह ने अपनी पिछली यात्रा में रज़ाकार (देश द्रोही) आंदोलन में मरने वालों और निज़ाम के विरुद्ध रहे सेनानियों से मिलकर हिंदू मतों के एकीकरण का प्रतिमान गढ़ा था। देखना है वह के चंद्रशेखर राव के मुस्लिम समर्थित तेलंगाना के भविष्य को कितना सुरक्षित कर पाएगा। इस सवाल के पीछे वर्तमान बोलता है और जीत की संभावना के द्वार तक तीसरे हाथ के पहुंचने से भी इंकार नहीं कर सकता है। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की कूटनीति अपनी पार्टी का भविष्य गढऩे में औरों की अपेक्षा अधिक सक्रिय दिखाई देती है। जहां उनके पास इतिहास की आग भी है और वर्तमान की साख भी है।
स्वार्णिम तेलंगाना के सपने स्थानीय जनता उन्हें लेकर ही देख रही है क्योंकि शांतिपूर्वक हिन्दू मुस्लिम एकता वादी जीवन की मिसाल सिर्फ चंद्रशेखर राव ही कायम कर सकते हैं।