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बाराणसी में प्रियंका, मोदी का गाँधी परिवार पर हमला

पिछले पांच साल में पीएम मोदी का नेहरू-गांधी परिवार पर हमेशा निशाना रहा है। अब जबकि लोक सभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है, मोदी के निशाने पर अभी भी गांधी ही हैं। प्रियंका गांधी के उनके गढ़ बाराणसी में धावा बोलने की देर थी कि मोदी ने ट्वीट करके फिर गांधी परिवार पर निशाना साधा। जाहिर है प्रियंका के यूपी दौरे का असर दिख रहा है। मोदी ने गांधी परिवार पर हमला किया और कहा कि उनके कार्यकाल के दौरान कई काम ऐसे हुए हैं जो कांग्रेस सरकारों के दौरान नहीं हुए थे।
यूपी के मामले में भी देखा जा रहा है कि भाजपा का पूरा फोकस बसपा-सपा गठबंधन से ज्यादा कांग्रेस पर हो गया है। भाजपा का हर नेता या तो प्रियंका गांधी को लेकर टिप्णियां कर रहा है या फिर गांधी परिवार को कोस रहा है। इसी कड़ी में प्रियंका जब मोदी के गढ़ माने जाने वाले बाराणसी पहुँची तो पीएम मोदी भी हमले पर उतर आये।
मोदी ने बुधवार सुबह ब्लॉग लिखा। इसमें उन्होंने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए वंशवाद की बात फिर कही। मोदी ने लिखा – ”इमरजेंसी लागू कर कांग्रेस ने साबित किया कि वह एक वंश की रक्षा करने के लिए किस हद तक जा सकती है।  देशवासी २०१४ में इस बात से बेहद दुखी थे कि हम सबका प्यारा भारत आखिर फ्रेजाइल फाइव देशों में क्यों है? क्यों किसी सकारात्मक खबर की जगह सिर्फ भ्रष्टाचार, चहेतों को गलत फायदा पहुंचाने और भाई-भतीजावाद जैसी खबरें ही हेडलाइन बनती थीं।”
मोदी ने लिखा कि तब आम चुनाव में देशवासियों ने भ्रष्टाचार में डूबी उस सरकार से मुक्ति पाने और एक बेहतर भविष्य के लिए मतदान किया था। वर्ष २०१४ का जनादेश ऐतिहासिक था। भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर वंशवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था। ”जब कोई सरकार फर्स्ट फैमिली की बजाए इण्डिया फर्स्ट  की भावना के साथ चलती है तो यह उसके काम में भी दिखाई देता है।
पीएम ने लिखा कि यह हमारी सरकार की नीतियों और कामकाज का ही असर है कि बीते पांच वर्षों में, भारत दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया है। पीएम  ने ब्लॉग में संसद के कामकाज, प्रेस की अभिव्यक्ति, संविधान-न्यायालय और सरकारी संस्थानों के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरा। उन्होंने कहा – ”लोकसभा में गैर वंशवादी सरकार थी इसलिए काम हुआ जबकि राज्यसभा में काम नहीं हुआ पाया क्योंकि वहां हंगामा होता रहा।”

चुनाव नहीं लड़ेंगी मायावती

यूपी की राजनीति में प्रियंका गांधी की एंट्री के बाद काफी दिलचस्प चीजें देखने को मिल रही हैं। अब बसपा प्रमुख मायावती ने ऐलान किया है कि वो खुद लोक सभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी। मायावती के इस फैसले के पीछे कारण बसपा की सीटों पर ज्यादा समय देना माना जा रहा है क्योंकि भाजपा के लिए मोदी-शाह की जोड़ी के अलावा कांग्रेस के लिए प्रियंका की प्रचार के कारण मायावती कोइ रिस्क नहीं लेना चाहतीं।
मायावती ने बुधवार एक  प्रेस कांफ्रेंस में कहा – ”फिलहाल मैं लोकसभा नहीं चुनाव लडूंगी, आगे जहां से चाहूं सीट खाली कराकर चुनाव लड़कर संसद जा सकती हूं। मेरे चुनाव लड़ने पर कार्यकर्ता मना करने के बावजूद मेरी लोकसभा सीट पर प्रचार करने जाएंगे, इससे बाकी सीटों पर चुनाव प्रभावित होगा। मैंने इसी वजह से यह फैसला किया है।”
हालांकि जानकार मान रहे हैं कि प्रियंका गांधी के मैदान में आने के बाद यूपी के मतदातों में उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखने से बसपा के वोट बैंक में सेंध लग सकती है। अगला लोक सभा चुनाव मायावती के लिए बहुत ज्यादा अहम है क्योंकि पिछले लोक सभा चुनाव में यूपी में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी।
इस तरह बसपा और मायावती को इस चुनाव में ”जीरो” से शुरू करना है। इसी दवाब में वे सपा से समझौता करने को भी मजबूर हुईं हैं। मायावती चतुर राजनीतिक हैं और स्थिति को अच्छी तरह से समझती हैं। भले वे पीएम की दौड़ में अपने लोगों के जरिये खुद को आगे रखने की रणनीति पर काम कर रही हैं, इसके पीछे असली मकसद यूपी में बसपा की प्रसांगिकता बनाये रखना है।
कांग्रेस से उनके दूरी रखने और कांग्रेस को लगातार कोसने के पीछे भी यही बजह मानी जा रही है कि प्रियंका के आने को मायावती बसपा के लिए खतरा मान रही हैं। अब उनके चुनाव में न उतरने से वे अपने बाकी उम्मीदवारों को ज्यादा वक्त दे पाएंगी।
मायावती ने आज कहा – ”अभी हमारे गठबंधन की स्थिति अच्छी है, फिलहाल लोकसभा का चुनाव नहीं लडूंगी। आगे जरूरत पड़ने पर किसी भी सीट से चुनाव लड़ सकती हूं।” मायावती ने कहा कि पार्टी सुप्रीमो होने की वजह से उन्हें कई फैसले लेने पड़ते हैं।

भारत में अकेली महिला होने के खतरे

कल्पना कीजिए जब आप सोचते हैं कि आपने अपनी उपलब्धियों से अपनेए अपने परिवार और देश को गौरवान्वित किया है, तो आप अपने आस-पास के लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे आपकी उपलब्धियों कीप्रशंसा करेंगे। वे आपके काम की प्रशंसा करेंगे लेकिन एक ही सांस में आपसे पूछेंगे

‘वैसे तो आपने यह सब हासिल कर लिया है, लेकिन आप घर कब बसा रहे हैं?’ उनके लिए घर बसाने का मतलब है शादीकरना और बच्चे पैदा करना। यह अपने करियर, अपनी महत्वाकांक्षा, अपने सपनों और अपने परिवार और समाज के लिए कुछ करने के लिए अपनी प्रतिब)ताओं के साथ अन्याय है। यदि आप एक निश्चित आयुतक शादी नहीं करते हैं तो यहां तक कि करीबी रिश्तेदार भी इसी बहस का हिस्सा बन जाते हैं।

यह बड़ा सवाल है कि भारत में हर महिला को अपने व्यक्तित्व की व्याख्या करने के लिए शादी के रटे-रटाये पारम्परिक रास्ते का ही सहारा क्यों लेना पड़ता है। नोबेल पुरस्कार विजेताए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है- ‘जितनी जल्दी हो सके एक महिला को शादी कर लेनी चाहिए। और एक पुरुष चाहे जब तक अविवाहित रह सकता है।’ यह सोच है एक पुरुष प्रधान समाज की।

शादी पर इतना ज़ोर देने के विपरीत ज़मीनी हकीकत इस डाटा से जाहिर होती है कि आज की तारीख में देश में लगभग 741 लाख महिलाएं या तो तलाकशुदा हैं या पतियों से अलग रहने को मजबूर हैं, विधवा हैंया फिर उनकी कभी शादी ही नहीं हुई। भारत में युवतियों के लिए विवाह एकमात्र स्वीकार्य भाग्य क्यों बना दिया गया है? जबकि 30. 34 आयु वर्ग की एक जापानी महिला और 11फीसद श्रीलंकाई महिलाएँ एकलहैं जबकि इस आयु में तीन फीसद से भी कम भारतीय महिलाएँ एकल हैं।

यह भी बड़ा सवाल है कि क्यों चाहे खुद के फैसले या परिस्थितिवश एकल महिलाएं, भले पेशेवर रूप से सफल हों, पर समाज की सवालिया निगाह रहती है। क्या भारत में एकल होना पाप है?

गौरवशाली अतीत

वैदिक काल में भारत में महिलाओं को जीवन के सभी पहलुओं में पुरुषों के साथ समान दर्जा प्राप्त था। महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और वे ‘स्वयंवर’ या ‘गंधर्व’ विवाह नामक लिव-इनरिलेशनशिप में अपने पति का चयन करने के लिए स्वतंत्र थीं। एक पुरुष को अपनी पत्नी को छोडऩे की अनुमति नहीं थी। एक पति और पत्नी के बीच संपत्ति का कोई विभाजन नहीं था क्योंकि वे एक साथ अटूटरूप से जुड़े हुए थे और संपत्ति उनकी साझी मिलकियत होती थी। पत्नी उपहार दे सकती थी और अपने दम पर परिवार की संपत्ति का उपयोग कर सकती थी। इसी तरह सम्पति बेटियों को भी विरासत के हिस्सेके रूप में मिलती थी। इसके अलावाए ‘पुराणों’ में, प्रत्येक भगवान को अपनी पत्नियों के साथ में दिखाया गया है .

ब्रह्मा को सरस्वती, विष्णु को लक्ष्मी और शिव को पार्वती के साथ। भगवान और देवी की मूर्तियों को दोनों लिंगों के लिए समान

महत्व के साथ चित्रित किया गया है।  पुरदाह प्रणाली और जौहर ज़रूर अपवाद हैं।

संवैधानिक गारंटी

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 अखिल भारतीय महिलाओं को समानता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 16 ने अवसर कीसमानता की अनुमति दी जबकि अनुच्छेद 39 (डी) ने समान कार्य के लिए समान वेतन दिया। हाल के दिनों में, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीडऩ (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 उनकेकाम के स्थान पर महिलाओं को यौन उत्पीडऩ से बचाने के लिए पारित किया गया था। यह अधिनियम 9 दिसंबर 2013 से लागू हुआ। बाद में एक संशोधन ने एसिड हमलों को 10 साल से कम कारावास की सजाके साथ एक विशेष अपराध बना दिया और जो आजीवन कारावास और जुर्माना के साथ बढ़ सकता है। 22 अगस्त 2017 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल ट्रिपल तालक (तलाक-ए-बिद्दत) कोअसंवैधानिक माना। साल 2018 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक कानून को $खत्म कर दिया जिसमें एक पुरुष के लिए एक विवाहित महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बिना यौन संबंध बनाना अपराधहोगा।

भारतीय सशस्त्र बलों ने 1992 में महिलाओं को गैर-चिकित्सा पदों पर भर्ती करना शुरू कियाए जबकि सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने 2013 में महिला अधिकारियों की भर्ती शुरू की। 25 मार्च 2017 को तनुश्रीपारीक बीएसएफ द्वारा कमीशंड पहली महिला अधिकारी बन गईं।

पिछले साल के ‘मी टू’ आंदोलन और सबरीमाला विरोध के रूप में, भारतीय महिलाएं अपने विद्रोह को आवाज दे रही हैं। क्या इसलिए कि महिलाओं को लंबे समय से दबा दिया गया है और उनके शैक्षिक स्तर मेंसुधार ने उन्हें अपनी क्षमता का एहसास कराया है? ‘स्कूल चलें’ ने बालिका शिक्षा में एक बदलाव लाया है और अब तो शिक्षा के क्षेत्र में भी लड़कियाँ अपने पुरुष समकक्षों से बेहतर कर रही हैं। 2018 में, कक्षा12वीं सीबीएसई परीक्षा में, सभी स्ट्रीम-विज्ञान, मानविकी और वाणिज्य में 78.99 फीसद लडक़ों की तुलना में 88.31 फीसद लड़कियां उत्तीर्ण हुईं।

महिलाओं को 19 फीसद कम वेतन

उनसे यह भेदभाव क्यों? क्यों भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में 19 फीसद कम कमाती हैं? एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारत में महिलाओं का लिंगानुपात अभी भी बहुत अधिक है, क्योंकि देश मेंमहिलाएं पुरुषों की तुलना में 19 फीसद कम कमाती हैं और पुरुषों के पक्ष में वेतन असमानताएं मौजूद हैं। नवीनतम मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स (एमएसआई) के अनुसार, भारत में वर्तमान लिंग वेतन अंतर 19 फीसदहै जहां पुरुषों ने महिलाओं की तुलना में 46.19 रुपये अधिक कमाए। 2018 में भारत में पुरुषों के लिए औसत सकल वेतन 242.49 रुपये थाए जबकि महिलाओं के लिए यह लगभग 196.3 रुपये था। सर्वेक्षण केअनुसारए प्रमुख कंपनियों में वेतन अन्तर लिंग के आधार पर है। आईटी और आईटीईएस सेवाओं ने पुरुषों के पक्ष में 26 फीसद का बड़ा अंतर दिखाया, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में पुरुष महिलाओं की तुलना में 24 फीसद अधिक कमाते हैं। आश्चर्यजनक रूप से, यहां तक कि स्वास्थ्य सेवाए देखभाल सेवाओं और सामाजिक कार्यों जैसे क्षेत्रों में भी, पुरुष महिलाओं की तुलना में 21 फीसद अधिक कमाते हैं।

                वित्तीय सेवाओं, बैंकिंग और बीमा ही एकमात्र ऐसा उद्योग है जहाँ पुरुष सिर्फ  2 फीसद अधिक कमाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, लिंग आधारित वेतन भुगतान का अंतर अनुभव के वर्षों के साथ बढ़ता है।प्रारंभिक वर्षों में, लिंग वेतन अंतर मध्यम है लेकिन कार्यकाल बढऩे के साथ काफी बढ़ जाता है। 10 से अधिक वर्षों के अनुभव वाले लोगों के लिएए पुरुषों के पक्ष में अन्तर चरम पर पहुंच जाता है, पुरुषों मेंमहिलाओं की तुलना में 15 फीसद अधिक कमाई होती है। 2018 में, 2017 के 20 फीसद की तुलना में यह मात्र एक फीसद कम हो पाया है। एमएसआई मॉन्स्टर इण्डिया का पेचेकण्इन (वेजइंडिकेटर फॉउंडेशनके प्रवंधन में) के सहयोग के साथ एक पहल है और आईआईएम. अहमदाबाद इसमें रिसर्च पर्टनर के रूप में जुड़ा है।

मॉन्स्टरण्काम ने भारत की कामकाजी महिलाओं और उनके कार्यस्थल की चिंताओं को समझने के उद्देश्य से वुमन ऑफ़ इंडिया इंक का सर्वेक्षण भी किया है जिसमें कहा गया है कि 71 फीसद पुरुषों और 66 फीसद महिलाओं को लगता है कि लैंगिक समानता उनके संगठनों के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इसमें 60 फीसद कामकाजी महिलाओं को लगा कि उनके साथ काम में भेदभाव किया जाता है।सर्वेक्षण कहता है कि ऐसी धारणा है कि महिलाएं शादी के बाद काम के प्रति कम गंभीर होती हैं। लगभग 46 फीसद महिलाओं को लगता है कि मातृत्व को लेकर  एक आम धारणा है की वे अब इस्तीफा दे देंगी।लगभग 46 फीसद महिलाओं का यह भी मानना है कि ऐसी धारणा है कि महिलाएं कार्य में उतना समय नहीं दे सकतीं जितना पुरुष दे सकते हैं।

नौकरियों में योग्यता

एक अन्य असमानता को साफ देखा जा सकता है। कक्षा 10 या 12 की योग्यता वाले युवा मैकेनिक, ड्राइवर, बिक्री प्रतिनिधि, डाकिया और उपकरण मरम्मत करने वाले के रूप में नौकरी पा सकते हैं लेकिन इनमेंसे कुछ ही अवसर महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि बिना स्कूली शिक्षा वाली 48 फीसद महिलाएं अकेले स्वास्थ्य केंद्र नहीं जाती हैं, कॉलेज के स्नातकों के लिए अनुपात केवल 45फीसद से थोड़ा कमहै।

यह भारत के लिए दोहरी मार है क्योंकि भारत को दुनिया की सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में जाना जाता है। भारत ने महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश होने का दोहरा ‘अलंकरण’ हासिल कियाहै। 11 जुलाई, 2018 को जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय अब फ्रांस को पछाड़ कर दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गयी है। चीन, जापानए जर्मनी और ब्रिटेन के बादअमेरिका सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में तालिका में शीर्ष पर हैं। हालाँकि, हाल ही के एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारत महिला यौन हिंसा और स्लेव मजदूरी के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश है।

वैश्विक सर्वेक्षण के अनुसार, पर्यटन मंत्रालय ने भारतीय मिशनों के प्रमुखों को एक पत्र भेजा है, जिसमें महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए देश ने कई पहल की हैं। पर्यटन सचिव के छह जुलाई, 2018 केपत्र ने सर्वेक्षण को चुनौती देते हुए कहा कि ‘परिणाम किसी भी प्रकार के उचित आंकड़ों से प्राप्त नहीं हुए हैं और केवल 548 उत्तरदाताओं के व्यक्तिपरक राय पर आधारित हैं’।

सर्वेक्षण के अनुसार, युद्धग्रस्त अफगानिस्तान और सीरिया महिलाओं के मुद्दों पर लगभग 550 विशेषज्ञों के थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण में दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। इनके बाद सोमालिया औरसऊदी अरब का स्थान है। शीर्ष 10 में एकमात्र पश्चिमी राष्ट्र संयुक्त राज्य अमेरिका थाए जिसे संयुक्त तीसरे स्थान पर रखा गया था जब उत्तरदाताओं से पूछा गया था कि महिलाओं को यौन हिंसा, उत्पीडऩ औरयौन संबंध में सबसे अधिक खतरा कहाँ महसूस होता है। विशेषज्ञों ने कहा कि मतदान के भारत के शीर्ष पर जाने से पता चलता है कि दिल्ली में एक बस में एक छात्रा के बलात्कार और हत्या के पांच साल सेअधिक समय के बाद भी इस खतरे का सामना करने के लिए कुछ भी पर्याप्त नहीं किया गया है।

सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं से पूछा गया कि संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्यों में से कौन से पांच देश महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक थे और कौन सा देश स्वास्थ्य सेवा, आर्थिक संसाधनों, सांस्कृतिक या पारंपरिकप्रथाओं, यौन हिंसा और उत्पीडऩए गैर-यौन हिंसा और मानव तस्करी के मामले में सबसे खराब था। उत्तरदाताओं ने मानव तस्करी के मामले में महिलाओं के लिए भारत को सबसे खतरनाक देश का दर्जा दियाएजिसमें सेक्स गुलामी और घरेलू दासता और जबरन शादी, पत्थरबाजी, और कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथा भी शामिल हैं।

‘मी टू’ कैम्पेन

भारत का प्रदर्शन जबकि इस सर्वेक्षण में खराब रहाए विशेषज्ञों ने कहा कि महिलाओं के लिए शीर्ष 10 सबसे खतरनाक देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए आश्चर्यजनक वृद्धि मी टू और समय के साथ यौनउत्पीडऩ और हिंसा के खिलाफ अभियान में कमी आई है जो महीनों से सुर्खियों में हावी हैं। भारत, लीबिया और म्यांमार को वैश्विक अपराध में मानव तस्करों द्वारा शोषित महिलाओं के लिए दुनिया का सबसेखतरनाक देश माना जाता था, जिसकी अनुमानित लागत 150 अरब डालर प्रति वर्ष थी। 548 लोगों का मतदान ऑनलाइन, फोन द्वारा और 26 मार्च और 4 मई के बीच यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका, दक्षिण पूर्वएशिया, दक्षिण एशिया और प्रशांत क्षेत्र में फैला हुआ था। उत्तरदाताओं में सहायता पेशेवरए शिक्षाविदए स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी, गैर-सरकारी संगठन कार्यकर्ता, नीति-निर्माता, विकास विशेषज्ञ और सामाजिकटीकाकार शामिल थे। सर्वेक्षण के अनुसार महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देश भारत (1), अफगानिस्तान (2) और सीरिया (3), सोमालिया (4), सऊदी अरब (5), पाकिस्तान (6), डेमोक्रेटिकरिपब्लिक ऑफ कांगो (7) हैं। यमन (8), नाइजीरिया (9) और संयुक्त राज्य अमेरिका (10)।

यूएनडीपी सूचकांक

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का लैंगिक असमानता सूचकांक भारत को 130 वें स्थान पर दिखाता है, जबकि नॉर्वे पहले नंबर पर, स्विट्जरलैंड दूसरे नंबर पर और चीन सातवें नंबर पर है। असमानता लैंगिकअसमानता मानव विकास के लिए एक प्रमुख बाधा बनी हुई है। लड़कियों और महिलाओं ने 1990 के बाद से बड़ी प्रगति की है, लेकिन उन्होंने अभी तक लिंग इक्विटी हासिल नहीं की है। महिलाओं और लड़कियोंको होने वाले नुकसान असमानता का एक प्रमुख स्रोत हैं। सभी अक्सर, महिलाओं और लड़कियों के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, श्रम बाजार आदि में भेदभाव किया जाता है। उनकी क्षमताओं केविकास और उनकी पसंद की स्वतंत्रता के लिए नकारात्मक परिणामों के साथ। जीआईआई एक असमानता सूचकांक है। यह मानव विकास के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं में लैंगिक असमानता को मापता है. प्रजननस्वास्थ्य, मातृ मृत्यु अनुपात और किशोर जन्म दर द्वारा मापा जाता है, महिलाओं के कब्जे वाली संसदीय सीटों के अनुपात और 25 साल और उससे अधिक उम्र की वयस्क महिलाओं और पुरुषों के अनुपात कोकम से कम कुछ माध्यमिक शिक्षा के साथ मापा जाता है और आर्थिक स्थितिए श्रम बाजार की भागीदारी के रूप में व्यक्त की गई और 15 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिला और पुरुष आबादी के श्रम बलकी भागीदारी दर से मापी गई।

जीआईआई ने 160 देशों में महिलाओं की स्थिति पर नई रोशनी डालीय यह मानव विकास के प्रमुख क्षेत्रों में लिंग अंतराल में अंतरदृष्टि देता है। घटक संकेतक महत्वपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता वालेक्षेत्रों को उजागर करते हैं और यह महिलाओं के व्यवस्थित नुकसान को दूर करने के लिए सक्रिय सोच और सार्वजनिक नीति को प्रोत्साहित करता है।

बेहतर पुलिसिंग

सर्वेक्षण में भारत की खराब रैंकिंग के कई कारण हो सकते हैं लेकिन महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने में भारत को दोहरी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भारत प्रति 100,000 लोगों में सेलगभग 130 पुलिसकर्मियों के साथ दुनिया के सबसे कम पुलिस देशों में से एक है, जबकि पाकिस्तान में 207, संयुक्त राज्य अमेरिका में 256 और ब्रिटेन में 300 हमसे अधिक हैं। सडक़ों पर अधिक पुलिसकर्मीमहिलाओं के खिलाफ अपराध के खिलाफ एक मजबूत निवारक उपाय होगा। अन्य समस्या पितृसत्तात्मक मानसिकता है क्योंकि कन्या भ्रूण हत्या जारी है और लगातार जनगणना में तिरछी महिला अनुपात कादृश्य-पुरुष अनुपात है। रूढि़वादिता का पर्दा उठाने और महिलाओं को सम्मानए समानता देने के लिए भारत की ज़रूरत है।

अकेली मगर कामयाब

मदर टरेसा बिना शर्त प्यार की शक्ति की एक राजदूत थी। भारत में ‘‘मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी ऑफ कोलकत्ता’’ के संस्थापक के रूप में उन्होंने एक वैश्विक आंदोलन का नेतृत्व किया जिसने बीमार, अनाथ मरतेऔर गरीबों की सेवा की। यह सच है कि वह एक नन थी और उन्हें तकनीकी रूप से शादी की अनुमति नहीं थी। लेकिन इसने उसे दुनिया को यह दिखाने से नहीं रोका कि किसी भी महिला को जीत हासिल करनेके लिए पुरुष की ज़रूरत नहीं है।

भारत की स्वर कोकिला लता मंगेश्कर को भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। वह अपनी सुरीली आवाज़ से सबको आकर्षित करती है जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी शामिल हैं। क्या भारत मेंएकल महिला की शक्ति का इससे बेहतरीन कोई और प्रमाण हो सकता है।  बुकर पुरूस्कार विजेता किरण देसाई ने साहित्यिक दायरे में अपने लिए एक मुकाम बनाया है। भारत में टीवी उद्योग को पुनर्जीवितकरने का श्रेय एकता कपूर के बालाजी टेलीफिल्मस को जाता है।

मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन ने एक बार कहा था, ‘मुझे अपने जीवन में हीरों के लिए किसी पुरुष की ज़रूरत नहीं है। मैं उन्हें खुद पा सकती हूं।’ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश की पूर्वमुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की मायावती इस बात के उदाहरण है कि अधिकतर मामलों में हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है लेकिन इन महिलाओं के पीछे उनके स्वंय के अलावा कोई नही है।

यह सूची अंतहीन है और यह बताती है कि भारतीय एकल महिलाएं दुनिया भर में अपने समकक्षों की तुलना में किसी भी तरह से कम नहीं है जो कि अधेड़ अविवाहिता को नए सिरे से परिभाषित करता है।अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित अभिनेत्री डायन कीटन ने एक बार कहा था, ‘मुझे नहीं लगता कि मैंने शादी नहीं की है, इसलिए मैंने अपने जीवन को कमतर बना दिया है। यह एक पुराना मिथक कचरा है।’ ओपरा विनफ्रे ने कहा,‘‘ आपके पास जो कुछ भी है उसके लिए आभारी रहें, आप और अधिक की चाहत में सब समाप्त कर देंगे। आपके पास जो नहीं है यदि उस पर आप ध्यान केंद्रित करेंगे तो आप कभी भीसंपूर्ण नहीं होंगे।’ प्रसिद्ध नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुसान बी एंथनी ने कहा, ‘‘मैं यह घोषणा करती हंू कि महिला को पुरुष की सुरक्षा पर निर्भर नहीं होना चाहिए, लेकिन खुद की रक्षा करना सिखाया जानाचाहिए।’’

भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार यहां 714 लाख एकल महिलाएं है जो कुल महिला आबादी का 12 फीसद है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में एकल  महिलाओं की संख्या में 39 फीसद कीवृद्धि हुई जो 2001 में 512 लाख मिलियन से बढक़र 2011 में 714 लाख हो गई। 25-29 साल की एकल महिलाओं की संख्या में  2001 और 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे बड़ी वृद्धि (68 फीसद) देखी गई है।शहरी क्षेत्रों  में स्थिति समान है। 123 लाख एकल  महिलाएं है जिन्होंने कभी शादी नहीं की। कुल मिलाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 444 लाख एकल महिलाएं हैं। भारत में लगभग 62 फीसद एकल महिलाएं हैं, यद्यपिग्रामीण एकल महिलाएं अपने शहरी समकक्षों से आगे हैं। लेकिन शहरी एकल महिलाओं की संख्या में 58 फीसद की वृद्धि हुई जो 2001 में 171 लाख से बढक़र 2011 में 270 लाख हो गईं।

उत्तरप्रदेश में सबसे ज़्यादा 120 लाख एकल महिलाएं हैं जिनमें से अधिकतर ने कभी शादी नहीं की, महराष्ट्र में 62 लाख और इसके बाद आंध्रपद्रेश में 47 लाख  हैं। महिलाओं के नेतृत्व वाले घरों की तालिका मेंउत्तरप्रदेश में 25 लाख इसके साथ  ही आंध्रपदेश (25 लाख) और इसके बाद तमिलनाडु (24 लाख) का नंबर है।

एकल महिला अधिकारों की रिपोर्ट से राष्ट्रीय स्तर पर एकल  महिलाओं की समस्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है,‘‘ग्रामीण क्षेत्रों में एकल महिलाओं को लगातार सामाजिक पक्षपात से जूझना पड़ता है औरअस्तित्व के लिए लड़ाई लडऩी पड़ती है।’’ एनएफएसडब्ल्सू के निष्कर्ष बताते हैं कि ‘‘उदाहरण के लिए झारखंड में आदिवासी महिलाओं के नाम पर खुद की ज़मीन नहीं हो सकती, और हम लोग कानून कोबदलने के लिए लड़ रहे हैं।’’ यहां तक कि जहां पर महिलाओं को कानूनी अधिकार प्राप्त भी हैं वहां भी सच यह है कि ज़मीन पर वास्तविक कब्जा और नियंत्रण कई लोगों के लिए दूर का सपना है।

यह खुशी की बात है कि कई महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने ऐसे समाज में पुरुषों को  पछाड़ दिया है जो कि दिल से पितृसत्तात्मक है।

क्या भारत महिला और पुरुष में बराबरी ला पाया?

इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2019 का विषय था बराबरी बेहतरी के लिए, सारी दुनिया मेें औरत मर्द कीलैंगिक बराबरी रहे। आज जबकि राजनीतिक दल भारत में आम चुनाव की तैयारी के कोलाहल में उलझे हैं।‘तहलका’ ने तय किया, ‘भारत में अकेली औरत के संकटों पर आवरण कथा दी जाए। उसमें इस बात का भीजायजा लिया जाए कि महिलाओं ने काफी कुछ हासिल किया लेकिन अभी भी उनके सशक्तिकरण के लिएकाफी कुछ बाकी है।’

अभी हाल ही में केरल में जन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी दस लाख महिलाओं ने कंधे से कंधा मिला कर 620किलोमीटर लंबी ‘महिला दीवार’ बनाई। इनकी मांग समानता और पुनर्जागरण के मूल्यों के मुद्दों पर मर्द-औरतमें बराबरी की थी। इन महिलाओं ने पूरे  देश में इतिहास रचा है।

अफसोस की बात है कि व्यापार में महिलाओं के नेतृत्व निभाने की भूमिका में भारत तीसरे नंबर पर है। यहजानकारी मिली उस सर्वे में जिसे ‘ग्रांट थ्रांटन महिलाएं व्यापार में: नया परिदृश्य’ के तहत कराया गया था जोनतीजे सामने आए, वे चौंकाते हैं। भारत में सिर्फ 17 फीसद महिलाएं ही वरिष्ठ अधिकारी की भूमिका में हैं।जबकि 41 फीसद व्यापारिक प्रतिष्ठानों मेें कोई महिला नेतृत्व की भूमिका में नहीं है। भारत में वरिष्ठ प्रबंधकों कीभूमिका में भी महिलाओं का आंकड़ा सात फीसद है। इससे यह जाहिर है कि आज ज़रूरत है कि इस असमानताको दूर किया जाए। जो भी लोग फैसला लेने की स्थिति में हैं भले ही वे व्यापार, समुदाय, सरकार में हों ज़रूर इससंबंध में अपना नज़रिया बदलें।

इसी तरह मुद्दा जब राजनीतिक ताकत का होता है तो यह साफ दिखता है कि दुनिया भर नेताओं में सात फीसदसे भी कम महिलाएं हैं। 24 फीसद महिलाएं कानून बनाने (यानी जनप्रतिनिधि के रूप में) की हैसियत में होती हैं।संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार राष्ट्र प्रमुखों के रूप में चुनी गई महिलाओं का फीसद पहले 7.2फीसद था। यह अब 2017-2018 में घट कर 6.6 फीसद रह गया। इसी अवधि में सरकार में प्रमुख रही महिलाओंकी तादाद 5.7 फीसद से घट कर 5.2 फीसद ही रह गई।

अब यह बात साफ है कि जब तक भेदभाव खत्म नहीं होता तब तक विकास संभव नहीं है तब तक औरतों औरमर्दों में समानता नहीं होती। इसलिए मांग की गई कि लैंगिक न्याय और बराबरी हो। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अपने‘फिफथ सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल’ का लक्ष्य भी लैंगिक समानता रखा है। महिलाएं चाहती हैं कि उसे फैसलेलेने के विभिन्न स्तरों पर उन्हें नेतृत्व संभालने का मौका मिले साथ ही आर्थिक स्रोतों में बराबरी के अधिकार हों,उत्तराधिकार हो, जमीन पर स्वामित्व और नियंत्रण का अधिकार हो। साथ ही समाज में उसका समादर औरउसकी भूमिका के आधार पर महिलाओं का सशक्तिकरण किया जाए।

एक ऐसा समाज जहां प्रकृति और ऊर्जा के उपयोग में महिलाओं की महती भूमिका को नकार कर सर्वां विकासके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता हो। यह मां-बाप की जिम्मेदारी है कि वे बेटे और बेटियों को शिक्षित करें।जिससे वे ऐसे भाषाई प्रयोग भी न करें कि ‘यह तो महिलाओं का काम है।’ और कुछ काम को नीचा दिखाएं।आज महिलाओं के बारे में दकियानूसी उक्तियों का कोई मायना नहीं मतलब नहीं रह गया है। महिलाओं कोदुनिया पर जीत हासिल करने के लिए पुरु षों की ज़रूरत भी नहीं है।

देश में आम चुनाव की तारीखें घोषित, सभी दल तैयार

आखिर भारत के निर्वाचन आयोग ने आम चुनाव-2019 की घोषणा कर दी। उन्होंने पहले की ही तरह ईवीएम (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) की तकनीकी क्षमता की तारीफ की। लेकिन यह कहा कि हर बूथ परवीवीआईपीटी की वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट दल मशीनें भी होगी। यह भी कहा गया कि सोशल मीडिया की चुनावी हिस्सेदारी पर नजर रखी जाएगी। एक कमेटी को पूरी जिम्मेदारी सौंपी भी गई है। जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव होंगे चुनाव को ध्यान देने के लिए तब लोगों की कमेटी भी होगी। लेकिन विधानसभा चुनाव नहीं होंगे। तकरीबन सात राज्यों में सात और नए चरणों में चुनाव कराए जाएंगे। जम्मू-कश्मीर में पांच चरण में देश को 17वीं लोक सभा के लिए मतदान का पहला चरण 11 अप्रैल को शुरू होगा और आखिरी चरण 19 मई को समाप्त होगा। कुल सात चरणों के चलते इस आम चुनाव के नतीजे 23 मई से आने शुरू हो जाएंगे। इस बार मतदाताओं में नए युवा डेढ़ करोड़ मतदाताओं की खासी बड़ी संख्या है। यह ध्यान रखा गया है कि हर चुनाव के बाद दूसरे चुनाव हर चुनाव में सात दिन बाद से हों। जिससेसुरक्षा दस्तों की तैनातगी में असुविधा नहीं होगी। इसके साथ ही सुरक्षा दस्तों की यह जिम्मेदारी भी बढ़ जाएगी कि लंबी अवधि तक मतदान के उपयोग में लाई गई मशीनें समुचित पहरे में रखी जाएं।

सबसे रोचक बात यह है कि इस बार देश में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों की ऐसी व्यवस्था की गई है कि राज्य में पूरा निर्वाचन सात चरण में पूरी हो जाए। देश के सबसे ज्य़ादा प्रधानमंत्रीइसी प्रदेश से आए हैं। मतदान का विस्तृत सिलसिला उन राज्यों के साथ भी है जो छोटे हैं लेकिन महत्वपूर्ण हैं। मसलन महाराष्ट्र, यहां है तो 48 सीटें लेकिन यहां चार चरण में चुनाव होंगे। परिश्चम बंगाल में 42 सीटेंहैं लेकिन सातों चरणों में चुनाव होंगे। हो सकता है आबादी के घनत्व के कारण चुनाव आयोग ने ऐसा सोचा हो। उत्तरप्रदेश मे 80 सीटें है। यही स्थिति बिहार के साथ है जहां कुल सीटें 40 हैं। झारखंड में 14 सीटें हैंलेकिन चार चरणों में चुनाव होंगे। ऐसा ही है मध्यप्रदेश में जहां 29 सीटें है और ओडिशा में 21 सीट हैं। वहीं, तमिलनाडु में 32 सीट है – आंध्रप्रदेश में 25 सीट हैं और तेलंगाना, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान में एकही चरण में चुनाव हो जाएंगे।

बंगाल, केरल और बिहार में कानून और व्यवस्था की हालत बहुत खराब है। यहां कब और कहां राजनीतिक हिंसा छिड़ जाएगी कि हालत अनुमान लगा पाना कठिन है। भाजपा का बंगाल में आरोप है कि पंचायतचुनावों में यहां बहुत हिंसा हुई। भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ हिंसा का दौर-दौरा रहता है। भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं को चुनावी प्रचार में बहुत बाधा होती है। इन सब बातों का देश के चुनाव आयोगने इस बार केरल में भी पूरा ख्याल रखा है। चुनाव की तारीखें के पहले से हर कहीं सुरक्षा दस्ते तैनात हो जाएं इसकी पूरी व्यवस्था इस बार खास तौर पर की गई है।

इसी तरह झारखंड, ओडिशा और मध्यप्रदेश में माओवादी सक्रियता की खबरें आती रही हैं। इनकी सक्रियता को किस तरह समाज कल्याण और बातचीत के आधार पर थामा जाए इस पर किसी राज्य सरकारया केंद्र सरकार ने कभी न सोचा और न अमल किया। इसके चलते इन इलाकों से हिंसा की खबरें आती हैं और बड़े पैमाने पर तबाही होती है। चुनाव आयोग सुरक्षा दस्तों के जरिए यहां मतदान की प्रक्रिया कीमहज खानापूर्ति ही करता रहा है।

जम्मू-कश्मीर ऐसा ही राज्य है जहां खासी अशांति और तनाव का माहौल है। केंद्र सरकार की नीतियां भी यहां अब तक नाकाम ही रही हैं। इस समय राज्य में राष्ट्रपति शासन है। निर्वाचन आयोग वहां फिलहाललोकसभा चुनाव कराना चाहता है। यहां पांच चरणों में चुनाव होंगे। पहले चरण की शुरूआत छह अप्रैल से है और अंतिम चरण छह मई को है। यहां राजनीति दलों की मांग थी कि विधानसभाओं के भी चुनावलोकसभा के ही साथ करा दिए जाएं क्योंकि पंचायत और निकाय चुनाव भी हो चुके हैं। तब तो राज्य की हालत भी खासी खराब थी।

विधानसभा चुनाव आंध्र प्रदेश, अरूणंचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम में साथ-साथ कराए जाएंगे। सुरक्षा वजहों से जम्मू-कश्मीर मेें फिलहाल चुनाव नहीं होंगे। इसके बारे में फैसला जल्दी ही होगा। सेवानिवृतआईएएस अधिकारी नूर मोहम्मद और विनोद जुत्शी के अलावा सेवानिवृत आईपीएस एएस गिल की टीम को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि ये जम्मू-कश्मीर मेें जाएं और वहां के हालात का जाया लें और उन सभीसे राय-मश्विरा करें जिनकी सलाह राज्य में चुनावों के लिहाज से ज़रूरी है। फिर उनकी रपट के आधार पर चुनाव आयोग अगली कार्रवाई करेगा।

देश के मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिए बड़ी तादाद में सुरक्षा दस्ते चाहिए। हम जब वहां गए थे और वहां सबसे आम बात की थी तो इस बड़ी ज़रूरत काएहसास बढ़ा था। पूरी घाटी में सुरक्षा बलों की तैनातगी ही जब मुद्दा बनने लगा तो विधानसभा चुनाव टालने पड़े।

मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि चुनाव में तटस्थता हो इसलिए सोशल मीडिया मसलन ट्विटर, फेसबुक, गूगल आदि कंपनियों के प्रतिनिधियों से आयोग की एक कमेटी बातचीत करेगी। प्रतिनिधियों ने यह भरोसादिया है कि वे ही राजनीतिक विज्ञापन प्रसारित हों जिन्हें आयोग ने मॉडेल कोड के तहत मंजूरी दी है।

इसी तरह आयोग ने यह भी व्यवस्था की है कि विभिन्न राजनीति पोस्टरों पर सैनिकों या सर्जिकल स्ट्राइक संबंधी घटनाओं का चुनावी इस्तेमाल न पिछले दिनों एक सांसद को सैनिक वर्दी में मोटर साइकिल चलातेचुनावी रैली करते देखा गया। राजस्थान में एक पार्टी के दो पोस्टरों पर वायुसेना के अधिकारी अभिनंदन की तस्वीर के साथ सांसदों-विधायकों की तस्वीरें थीं। ऐसे पोस्टरों को चुनाव आयोग मान्य नहीं कर रहा है।क्योंकि देश का सैनिक अपनी ड्यूटी निभाता है और पूरे देश की सेवा में जगा रहता है। किसी पार्टी का सैनिकों को अपने पोस्टर में रखना चुनाव आयोग की चुनाव संहिता के विरोध में जाता है।

चीन ने फिर आतंकवादी को काली सूची से बचाया

संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में चीन ने जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख आतंकवादी अजहर मसूद को चौथी बार बचा लिया। उसे आतंकवादियों की वैश्विक काली सूची में नहीं पहुंचने दिया। हालांकि अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन ने उसे खतरनाक आतंकवादी माना है। भारत ने राजनयिक स्तर पर विभिन्न देशों से इस संबंध में खासा संपर्क किया था। लेकिन मुहिम सफल नहीं हुई।

दुनिया के नक्शे में भारत की तस्वीर थोड़ी धुंधली ज़रूर हुई। लेकिन चीन ने अपनी काफी रणनीतिक राजनयिक सूझबूझ के अनुरूप कदम उठाया है। अपने हितों के मद्देनजऱ उसने आतंकवादी अजहर मसूद को काली सूची में रखना पसंद नहीं किया। भारतीय उप महाद्वीप में सामरिक लिहाज से चीन की अपनी एक महत्वपूर्ण स्थिति है। भारत को वह कतई इस स्थिति में नहीं चाहता कि अरब सागर, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में वह कोई अहम भूमिका निभाए। यानी आंतरिक तौर पर भारत में अशांति के चलते, चीन एशिया में महत्वपूर्ण ताकत बना रहेगा।

भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने चीन के उस प्रस्ताव पर आश्चर्य जताया है जिसमें कहा गया है कि इस मसले का वही हल उचित होगा जिसे सभी माने। यही उचित हल है। आतंकवादी अजहर मसूद को वैश्विक आतंकवादियों की काली सूची में डालने की मांग भारत सरकार ने सबसे पहले 2009 में फिर 2016 में की थी लेकिन चीन ने तब इसे रोका। बाद में 2017 और 2019 की मार्च में फिर रोक दिया। अब छह महीने बाद ही इस मुद्दे पर फिर संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा कमेटी के प्रस्ताव 12, 6, 7 के तहत बातचीत हो सकती है। पिछले दस साल से चीन अकेला ही अजहर मसूद पर वैश्विक आतंकवादी बतौर पावंदी लगाने का विरोध करता रहा है।

इस बार की बैठक में भारतीय प्रस्ताव के पक्ष में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी के अलावा 13 और देश पोलैंड, बेल्जियम, इटली, जापान, आस्ट्रेलिया, मालदीव, बांग्लादेश,भूटान, इक्वेटोरियल, गिन्नी आदि देश थे। यह समर्थन भारतीय राजनयिक सूझबूझ थी जिसके कारण कई बड़े-छोटे देश भारतीय प्रस्ताव के समर्थन में एकजुट हुए थे। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरूद्दीन ने इन सभी देशों के प्रतिनिधियों से समर्थन के लिए आभार जताया।

भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भारत की ओर से पाकिस्तान में बालाकोट एयर स्ट्राइक पर चीन जाकर विदेशमंत्री वांग यी और दूसरे महत्वपूर्ण लोगों से बातचीत भी की थी। लेकिन चीन ने अपनी सामरिक नीतियों और एशिया के लिहाज से बनती -बिगड़ती स्थितियों के लिहाज से वह फैसला किया जो उन्हें ज़्यादा वाजिब लगा।

पाक पर हवाई हमला क्या मोदी के लिए बढ़त है?

राजस्थान के चूरू की जनसभा में आक्रमक अंदाज में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा कि ‘देश सुरक्षित हाथों में है’ तो यह साफ  हो गया कि पुलवामा की घटना के बाद भारत की पाकिस्तानी की सीमा केभीतर जाकर आतंकियों के ठिकाने पर की गई हवाई कार्रवाई (एयर स्ट्राइक) ने दो महीने बाद होने वाले चुनाव की धारा को बदल दिया है।

निश्चित रूप से, पुलवामा हमले और भारत की प्रतिक्रिया का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक 2.0 आने वाले दिनों और महीनों में निश्चित ही चर्चा के केंद्र में रहेगी।

इस सब से भाजपा के लिए पटकथा कैसे बदलेगी, यह तब स्पष्ट हो गया था जब  प्रधानमंत्री ने 2014 के चुनाव प्रचार के लिए गीतकार प्रसून जोशी लिखित भाजपा  गान का पाठ किया था – ‘सौगंध मुझे इस मिट्टीकी, मैं देश नहीं मिटने दूंगा, मैं देश नहीं रुकने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा।’ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी ट्वीट किया – ‘हमारे सशस्त्र बलों की बहादुरी और वीरता को बधाई और नमन। कार्रवाई बताती हैकि भारत पीएम नरेंद्र मोदी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व में सुरक्षित है।’

पिछले साल तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में भाजपा को झटका देने के बाद कांग्रेस आम चुनाव में अपने पुनरुथान की उमीद कर रही थी। साल के शुरू में कांग्रेस अध्यक्ष राहुलगांधी ने मास्टरस्ट्रोक खेला और बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को महासचिव बनाकर 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया के साथ सूबे में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का जिमासौंपा। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी  ने उत्तर प्रदेश में एक मजबूत गठबंधन बनाया । तृणमूल कांग्रेस ने विपक्षी एकता के लिए ‘सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम’ का एक विचार सामने रखा।

भाजपा जानती है कि एक भावनात्मक मुद्दा ही उसे जीत दोहराने का अवसर दे सकता है, और जनता के सामने वादा करने के लिए यह भी मुद्दा है कि उसके पास राष्ट्र को सुरक्षित और एकजुट रख सकने वालानेतृत्व है। पुलवामा हमले के बाद जनता में जबरदस्त गुस्सा था और तमाम देशभक्त भारतीय चाहते थे कि  पाकिस्तान को करारा जवाब देते हुए सीआरपीएफ के 40 जवानों की शहादत का बदला लिया जाए।वायुसेना के पाक के भीतर आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले ने इस गुस्से को शांत किया है। देश में मोदी को उनके समर्थकों ने एक निर्णायक नेतृत्व के रूप में उभारा है। इसके लिए वे एक पीएम के रूप में उनकेसाहस दिखाने और सेना को ळी हैण्ड देने का उदहारण देते हैं। भाजपा नेता पहले से ही कहते रहे हैं कि ऐसा साहस 56 इंच सीने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। हाल की इन घटनाओं से भाजपा ने देश में यहसन्देश दिया है राष्ट्र को एक सशक्त नेतृत्व चाहिए। वैसे भी विपक्ष के पास एयर स्ट्राइक की प्रशंसा करने के अलावा कोई चारा नहीं है, भले वे इसका श्रेय मोदी को नहीं देते। निसंदेह मोदी और भाजपा को इनपरिस्थितियों ने बढ़त प्रदान की है। हालांकि, यह भी सत्य है कि देश की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए हर राज्य के अपने स्थानीय मुद्दे भी हैं, जो चुनावों में भूमिका निभाते हैं। फि र भी भारत में कुछ चुनावएक अकेले कारक के कारण जीते या हारे गए हैं। नए हालत में विपक्ष को अपनी चुनावी रणनीति और मुद्दों में परिवर्तन करना होगा। हो सकता है हाल में ताकत से उभरे राफेल, किसानों के मसले, नौकरियों कीकमी, जीएसटी, नोटबंदी, अल्पसं[यकों में उभरा गुस्सा और असहिष्णुता जैसे ज्वलंत मुद्दे परदे के पीछे चले जाएं। विपक्ष अच्छी तरह जनता है कि भाजपा के इस राष्ट्रवाद का विरोध उस पर ‘’राष्ट्र विरोधी’’ होने काठप्पा चस्पा सकता है।

पुलवामा के बाद भाजपा नेता शहीदों के अंतिम संस्कार में शामिल हो रहे हैं और उनके परिजनों से मिल रहे हैं। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक 25 फ रवरी को राष्ट्र को समर्पित किया गया। सोशल मीडिया पहले से ही इनसंदेशों से भरा पड़ा है जिसमें कहा गया है कि कांग्रेस 26/11 के बाद चुप रही, मोदी सरकार ने उड़ी और पुलवामा के बाद सर्जिकल स्ट्राइक करके बदला लिया। हवाई हमले अंतिम परिणामों में कितना अंतर लातेहैं, अभी कहना मुश्किल है, लेकिन सत्य यह है कि चुनाव से ऐन पहले चुनाव की धारा बदल गई है।

लोकसभा के साथ जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव नहीं तो केंद्र ने अपनी कश्मीर नीति नहीं बदली

जम्मू-कश्मीर पर अपनी नीति की समीक्षा करने को केंद्र अब भी तैयार नहीं लगता। पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 से ज्य़ादा कर्मी मारे गए। लेकिन ऐसा लगता है कि पुरानी नीति पर ही अमल करने पर ज़ोर है। पुलवामा धमाके के बाद केंद्र सरकार ने राजनीतिक-धार्मिक गुटों पर धावा बोला। जमात-ए-इस्लामी की सुरक्षा हटा दी और दूसरे राजनीतिक अलगाववादियों को दिया गया सुरक्षा चक्र भी खत्म कर दिया। अभी हाल नेशनल इंनस्टिगेशन एजंसी (एनआईए) ने हुर्रियत एम के अध्यक्ष मीरावाइज उमर फारूख और नसीम गिलानी (बड़े अलगाववादी सैयद अलीशाह गिलानी के पुत्र) को पूछताछ के लिए नई दिल्ली बुलाया। तकरीबन 15 दिन पहले एनआईए ने इनके घरों पर छापे मारे थे।

मीरवाइज को नर्ह दिल्ली में पूछताछ के लिए बुलाना भी गज़ब का कदम है। अभी तक केंद्र सरकारों ने तो मीरवाइज को जेल में रखना भी बंद कर दिया था। वे धार्मिक नेता हैं साथ ही अलगाववादी भी। वे सदियों पुराने धार्मिक संस्थान के प्रमुख हैं इसलिए सरकार ने उन्हें घर में ही नजऱबंद रखा था। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व की सरकार ने यह सिलसिला तोड़ दिया है। उधर मीरवाइज  ने सुरक्षा वजहों से एनआईए के सामने नई दिल्ली जाने से इंकार कर दिया है।

उनके वकील के अनुसार दिल्ली में सुरक्षा का उग्र माहौल है। ऐसी हालत में मेरे मुवक्किल की अपनी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है इसलिए बेहतर यही है कि उन्हेें दिल्ली न बुलाया जाए। मीरवाइज के वकील एजाज अहमद डार ने एनआईए को सूचना भेजी। इसी सूचना से वकील डार ने यह भी बताया है कि मीरवाइज उमर फारूख कश्मीर के 13वें मीरवाइज हैं जो जम्मू-कश्मीर के लोगों की खातिर सच्चाई और न्याय की परंपरा निभाते आए हैं। उनका नजीरिया बहुत साफ है। उन्होंने हमेशा कहा है कि कश्मीर का मुद्दा राजनीतिक और मानवीय है। इसका राजनीतिक समाधान संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव के तहत तीनों पक्षों भारत-पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के लोगों के बीच बातचीत से ही सुलझ सकता है।

दूसरी तरफ सरकार ने जमात के ढेरों नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया है। सरकार ने संस्थान की करोड़ों की संपत्ति पर जब्ती की सील लगा दी है। जबकि पहले आदेश था कि जमात के स्कूलों और मस्जिदों पर ही पाबंदी होगी। बाद में सरकार ने सफाई दी कि उनकी जब्ती और सीलिंग में कोई दिलचस्पी नहीं है। जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रवक्ता राहुल कंसल ने कहा, च्पाबंदीशुदा संगठन के दफ्तरों, संपत्ति और दूसरे साजो सामान पर कार्रवाई की गई है।ज् यह पाबंदी पांच साल के लिए है।

इस कार्रवाई से पूरी घाटी में डर का माहौल है। च्कश्मीर में भाजपा की दमन की जबरदस्त नीति की नाकामी के बादज् यह उम्मीद थी कि सरकार शायद अपनी कश्मीर नीति पर फिर विचार करेगी। राजनीतिक टिप्पणीकार गौहर गिलानी ने कहा, च्लेकिन यह तो ज़ोर शोर से पुरानी नीति को अमल में ला रही है और एक अलग नतीजे की उम्मीद कर रही है। लेकिन इस से राज्य का ही अलगाव बढ़ेगा।ज्

जमात के खिलाफ कार्रवाई से पूरे राज्य में बेचैनी तो बढ़ी है। यह कार्यकर्ता-आधारित धार्मिक पार्टी है। पिछले तीस साल से इसने राजनीति छोड़ कर सिर्फ धर्म पर ही ध्यान दिया है। यह अब नेपथ्य में चला गया संस्थान है। इसने आतंकवाद से खुद को अलग लिया है हालांकि अपनी लगाववादी विचारधारा से इसका जुड़ाव है।

जमात की अपनी राजनीतिक धार्मिक क्रियाकिलापों से समाज में हमदर्दी और सदस्यों के बीच अपनी एक जबर्दस्त तस्वीर बनी हुई है। स्कूलों के जरिए इसका एक विशाल नेटवर्क कश्मीरी समाज में है। 90 के दशक में घाटी में मदरसों के चलन से एकदम अलग। शिक्षा के मामलों में जमात ज्य़ादा प्रगतिशील है। धार्मिक बातों का प्रशिक्षण इन स्कूलों में बेहद ज़रूरी है लेकिन मदरसों की तुलना में इसकी शिक्षा में कट्टरपन नहीं है। मदरसों से शिक्षित होकर निकले युवाओं की तुलना में जमात हो डाक्टर, इंनीनियर, वैज्ञानिक, विद्वान, और प्रशासक निकले।

इस कारण जमात के खिलाफ हुई कार्रवाई का असर कश्मीरी समाज पर पड़ा है। साथ ही इसने अलगाववादी गुटों से केंद्र की बातचीत के मौके बंद कर दिए हैं। गिलानी कहते है, च्यदि कल को केंद्र विरोधी कश्मीरी गुटों से बातचीत करना चाहे तो इसे शायद ही राज्य में वार्ताकार मिल सके। फिर नई दिल्ली की सरकार ने ढेरों वरिष्ठ हुर्रियत नेताओं को जेल में बंद कर दिया है।ज्

जेल में बंद हुर्रियत नेताओं में शब्बरीर शाह, अल्ताफ अदम शाह, फंतूश गिलानी(सैयद अली गिलानी के दामाद)। ऐयाज अकबर, राजा मेराजुद्दीन कलवल, पीर सैफुल्ला, अफताब हिलानी शाह, उर्फ शाहिद उल इस्लाम, नईम खान और फारूख अहमद डार उर्फ बिट्टा करारे आदि हैं।

संदेश बड़ा साफ है। सरकार चाहती है कि अलगाववादी लोगों के खिलाफ माहौल बने ताकि और घाटी मे बिगड़ रहे हालात पर काबू पाया जाए।

कश्मीर पर्यवेक्षकों के अनुसार इन गिरफ्तारियों का मकसद है कि केंद्र ने राज्य के असंतुष्ट गुटों में बातचीत का सिलसिला खत्म कर दिया है और यह पूरी तौर पर राज्य के मुद्दों को हल करने में ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हैं। लेकिन घाटी में फिलहाल जो हालात हैं उनसे जाहिर है कि इस नीति से कोई जमीनी बदलाव नहीं होना है।

यह नीति भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दौर में शुरू हुई। लेकिन इससे कोई बदलाव आने की बजाए कश्मीर में हालात और ज्य़ादा खराब हुए हैं, कहते हैं नसीर अहमद जो कश्मीर पेंडिंग किताब के लेखक हैं। हुर्रियत नेताओं की झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तारियों करके केंद्र ने अलगाववादी राजनीतिक संगठन तक अपनी पहुंच भी सीमित कर ली है। सेना ही इस सरकार का ऐसा औजार है जिससे यह कश्मीर को सुलझाना चाहती है।

कश्मीर में गहराती राजनीतिक शून्यता को और ज्य़ादा बढ़ाते हुए भारत सरकार के निर्वाचन आयोग ने जम्मू-कश्मीर में हो रहे लोकसभा चुनावों के साथ-सथ विधानसभा चुनाव कराने से इंकार कर दिया है। उससे राज्य में केंद्र सरकार का राज ही बढ़ा है जिसे माना जा रहा है कि राज्य में भाजपा का वैचारिक एजंडा ही अमल में आ रहा है। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने विधानसभा चुनावों को देर से करने पर अपनी नराजग़ी जताई है। नेशनल कांफे्रंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ऊमर अब्दुल्ल ने विधानसभा चुनावों को टालने को पाकिस्तान के सामने मोदी का घुटने टेकना बताया है।  स्थानीय मीडिया ने भी इस फैसले का विरोध किया है।

दरअसल ऐसी कोई वजह नजऱ नहीं आती जिसके चलते निर्वाचन आयोग ने कश्मीर में चुनाव टाले। यदि यह मान भी लें कि सुरक्षा कारणों से ऐसा हुआ तो भी इतिहास गवाह है कि इससे खराब हालात में भी राज्य में चुनाव हुए है। एक स्थानीय दैनिक ने अपने संपादकीय में लिखा। यदि राज्य सरकार जमीनी स्तर पर पंचायत और शहरी निकायों के चुनाव कराने में कामयाब रहती है और हिंसा में कोई बढ़ोतरी नहीं होती,यहां तक कि दक्षिण कश्मीर में भी। ऐसे में कोई वजह नहीं है कि विधानसभा चुनाव आम चुनाव के साथ ही क्यों नहीं कराए जा रहे?

‘नफरत हारेगी, सच्चाई जीतेगी’ गुजरात से किया कांग्रेस ने चुनाव प्रचार

राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी ने तकरीबन नवासी साल पहले नमक सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था। इसे दंाडी मार्च भी कहते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अर्से के बाद गांधी की कुटिया को नमन कर ‘नफरतहारेगी, सच्चाई जीतेगी’ आंदोलन 12 मार्च से शुरू किया।

कांग्रेस की गांधीनगर में हुई भारी ‘जनसंकल्प रैली’ में बड़ी तादाद में लोग थे। सालों बाद आए कांगेस के राष्ट्रीय नेताओं को देखकर जन उत्साह चरम पर था। भारतीय जनता पार्टी चूंकि नेता बनाती नहीं इसलिएउसी दिन उसने फिर कांग्रेस के चार विधायकों को पार्टी में शामिल कर अपनी पीठ थपथपाई। हालांकि इससे भाजपा के बुजुर्ग हो रहे उन नेताओं की बेचैनी ज़रूर बढ़ी होगी इस बार किसी आसन की उम्मीद मेंकतार में थे। वहीं गुजरात के युवा पटेल नेता हार्दिक पटेल को कांग्रेस ने गुजरात में अपना झंडा बुलंद किया।

जनसंपर्क रैली में ही कांग्रेस की ओर से अभी हाल नियुक्त पूर्वी उत्तरप्रदेश की नई महासविच प्रियंका गांधी ने अपना पहला राजनीतिक भाषण दिया। प्रियंका ने अपने भाषण में राष्ट्रपिता के शंाति, सदभावना, अहिंसा और प्रेम के संदेश को याद करते हुए जन समुदाय से कहा कि प्रेम के मुद्दों पर यह देश बना। लेकिन आज जो कुछ हो रहा है उससे दुख होता है। आप झूठे वादों पर यकीन न करें। यह देखें कि आपकावोट एक ऐसा हथियार है। जिसको सोच समझ कर इस्तेमाल करें। उन्होंने कहा आज देश में 45 फीसद बेरोजग़ारी हैं।  महिलाओं की सुरक्षा का वादा किया गया था। क्या आज वे सुरक्षित हैं? किसानों कीसमस्याएं हल नहीं हुई। इससे बड़ी कोई देशभक्ति नहीं है कि आप अपने वोट को हथियार मान कर प्रयोग में लाएं। इससे किसी को चोट नहीं लगती बल्कि यह आपको मज़बूत बनाता है। क्योंकि आप अपनेभविष्य को चुनने जा रहे हैं। आपके लिए महत्वपूर्ण है कि युवाओं को रोजग़ार कैसे? महिलाएं आगे कैसे बढ़ेंगी। किसानों के लिए राहत चाहिए । ये मुुद्दे हैं जिन पर सोच समझ कर फैसला लें। जिन्होंने रोजग़ार देने, बैंक खाते में लाखों लाने की बात की वे कहां हैं? सच्ची देशभक्ति नारे बाजी नहीं होती।

 कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, देश में आज दो विचारधाराएं हैं। एक है महात्मा गांधी की जिन्होंने अहिंसा और शांति का संदेश देते हुए देश बनाया। यह देश गुजरात के छोटे व्यवसायों और किसानोंका है जिन्होंने इसे बनाए रखा। दूसरी विचारधारा है जो देश को दो भारत में बदलना चाहती है। एक रईस और भव्य भारत और दूसरा गऱीब और कमज़ोर ।

देश में लोगों को बांटा जा रहा है। नफरत फैलाई जा रही है। पढ़ालिखा योग्य नौजवान बेरोजग़ारी से हताश है। वह रोजग़ार के लिए अलगअलग क्षेत्रों में आवेदन कर रहा है। कहा गया था दो करोड़ युवाओं कोरोजग़ार देंगे। आज 45 फीसद नौजवान रोजग़ार के लिए भटक रहे हैं।

किसानों का मुद्दा लीजिए। उनके के कजऱ् माफ नहीं किए गए। हमने किसानों से बात की। किसानेां ने हमें समर्थन दिया। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के किसानों के कजऱ् दस दिन में माफ हो गए। आप कोभी आज ज़रूरत है। क्या 15 लाख रुपए आपके खातों में आए?

देश की अच्छी भली अर्थव्यवस्था थी। रातोंरात नोटबंदी की घोषणा कर दी। बैंकों के बाहर लाइन में कोई बड़ा उद्योगपति नही खड़ा था। साधारण लोग खड़े थे। जो घर में बचे-खुचे नोट बदलवाने बैंक पहुंचे थे।

आप जीएसटी (गब्बर सिंह टैक्स) को ही ले लीजिए। ‘एक राष्ट्र, एक टैक्स’ कहा गया था। लेकिन हुआ क्या। पांच-पांच तरह के टैक्स लगाए गए। आज भी गांधीनगर, सुरेंद्र नगर के छोटेछोटे व्यापारी इस जीएसटीसे परेशान हैं। वे मुझ से शिकायत करते हैं।आपने सरकार में आने का मौका हमें दिया तो तय मानिए हम इसे बेहद सरल करेंगें। पांच अलग-अलग टैक्स नहीं लगाएंगे।

कांग्रेस की सरकार आई तो यह बेरोजग़ारों, गरीबों, छोटों को न्यूनतम आमदनी भत्ता देगी। यह हमारा जनता के लिए संकल्प है। हम यानी कांग्रेस 2019 में हर गरीब को मिनियम गारंटी इनकम के तहत उसकेबैंक के खाते में पैसे डालेगी। यह कांग्रेस ही कर सकती है।

यहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन बैठे हैं। उन्होंने राफेल सस्ती कीमत पर खरीदने की बात की। उनके रख-रखाब, मरम्मत की व्यवस्था सरकारी एचएएल में करने पर जोर दिया। प्रधानमंत्री मोदी पेरिस गए। साथ मेंअनिल को ले गए। राफेल की कीमत बढ़ गई। तय पाया कि अनिल की फैक्टरी में उनका रख-रखाब होगा। विमान बनाने का उनका अनुभव   नहीं । वे कागज़ का विमान भी नहीं बना सकते लेकिन उन्हें वायुसेनाका करोड़ों रुपया दे दिया गया।

आपने देखा, गुजरात में चुनाव हुआ। आपने हमेशा सहयोग दिया। लेकिन पूरा प्रदेश जानता  है कैसे भाजपा बचते -बचाते निकली। ये सब नफरत फैला रहे हैं। गांधी प्यार की, सद्भावना की, अहिंसा की बात करतेथे। वे साथ बैठ कर समस्याओं को हल करने की दिशा में बात करने पर ज़ोर देते थे। लेकिन आज कुछ बरसों में कभी हुआ है। आज भी ये क्या कर रहे हैं पूरा गुजरात जानता है।

आज ज़रूरत है कि कांग्रेस का एक-एक कार्यकर्ता एक-एक गांव, एक-एक जि़ले, एक-एक शहर में एक-एक घर में जाए। उन्हें बताए गुजरात का गौरव। उन्हें  बताए कि पांच साल में जो-जो वादे नरेंद्र मोदी नेकिए चाहे वह बैंक खातों में 15 लाख लाने की बात हो, मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान हो उनका हाल क्या है?  जबकि कांग्रेस ऐसी पार्टी रही है जिसने जो कहा वह करके दिखा दिया।

आप देखिए जो लोग भारत में बैंकों से पैसा लूट कर ले गए उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कहते हैं नीरव भाई, ललित भाई। अखबारों में आपने भी पढ़ा होगा । ब्रिटिश सरकार ने नीरव के लदन में होने के बारे मेंभारत सरकार को बकायदा जानकारी दी थी और उनसे आरोप पत्र मांगे थे। लेकिन ब्यौरे भेजे ही नहीं गए। बड़े व्यापारियों के भारी भरकम कर्ज़ यह सरकार माफ कर देती है। लेकिन छोटे किसानों के कजऱ्माफ नहीं करती।  बापू के विचारों के विपरीत है कांग्रेसी संस्कृति: मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी के विचारों के ठीक विपरीत ठहराया हैं कंाग्रेसी की संस्कृति। कांग्रेस के सारे आला  नेता जब महात्मा गांधी के दांडी मार्च के मौके पर अहमदाबाद में थे उसी दिन प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी दिल्ली में अपने ब्लॉग में लिख रहे थे कि समाज को विघटित करने में कांग्रेस की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने कहा पिछले पांच साल में महात्मा गांधी की शिक्षाओं का हमेशा उनकी सरकार ने पालन कियाहै।

गांधी ने सिखाया था कि उस गरीब की तकलीफों की चिंता करो। हम जानते है कि हमने कितना कुछ उस गरीब के लिए किया है। कैसे हमारा काम उसे प्रभावित करता है। देश में किस तरह गरीबी दूर होगी औरसंपन्नता आएगी। यह हमारी सरकार जानती है।

अपने ब्लॉग में उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने हमेशा समाज को विघटित किया। भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। भ्रष्टाचार आज कांग्रेस का पर्यायवाची है। कांग्रेसी नेता कितनी विलासिता में रहते हैं यह सब जानतेहैं। इस पार्टी की कोई लोकतांत्रिक आस्था नहीं है। यह हमेशा परिवारवाद को बढ़ावा देती है।

धन्यवाद इस बात का है कि आज केंद्र में ऐसी सरकार है जो बापू की दिखाई राह पर चल रही है और जनशक्ति उनके सपनों को पूरा कर रही है।  वे चाहते थे कि कांग्रेस की संस्कृति से देश आज़ाद हो। अपनेब्लॉग की शुरूआत में ही उन्होंने लिखा है कि आप जानते हैं कि दांडी मार्च की कल्पना किसके दिमाग की उपज थी? यह महान व्यक्तित्व सरदार पटेल ने दांडी मार्च की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। उन्हें अंग्रेजोंने दांडी मार्च के पहले ही गिरफ्तार कर लिया था।

गंाधी  ने कहा था असमानता और जातिवाद में उनका भरोसा नहीं है। लेकिन कांग्रेस समाज को बांटती है। सबसे ज़्यादा अलगाव और दंगे, दलित विरोधी फसाद कांग्रेसी राज में हुए।