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सिद्धार्थ लौटे हैं बुद्ध बनकर

बुद्ध द्वार पर आए लौटकर

लम्बे समय बाद

द्वारपाल अभिमंत्रित

तकते रहे देर तक

मंत्रमुग्ध हतप्रभ भी!

सिद्धार्थ लौटे हैं बुद्ध बनकर

महत और ईश्वरत्च कर उपाधि से विभूषित

द्वारपाल सारे गिर गए चरणों में

प्रभु भी वही, परात्पर भी अब!

हर घर में भिक्षा लेने आए प्रभु स्वयं

दाता अब दान लेने की भूमिका में

उतरे स्वयं!

हर व्यक्ति उत्साहित, अभिमंत्रित

उनकी उदारता से!

महल के द्वार पर आ पहुंचे बुद्ध

आ गया वह क्षण

जिसकी प्रतिक्षा थी किसी स्त्री को

बरसों बरस से!

दान लेने वाला प्रभु

कभी पति था उसका!

आज प्रभु की भूमिका में गया बदल,

स्त्री और कोई नहीं

थी वही राजकुमारी जिसकी गोद में डाल कुमार

सिद्धार्थ चले गए थे बुद्ध बनने!

अमरत्व की उपासना में

एक स्त्री को छोड़ गए थे

नश्वरता की दुनिया के भीतर अकेला

सारे प्रश्नों से जूझने के लिए!

द्वार पर भिक्षा का कटोरा भर लाई

बुद्ध देखते रहे करुणा से भरकर उस स्त्री मुख को!

स्त्री मुख था शांत और सहज

भिक्षा का पात्र भर दिया उसने बुद्ध का!

‘कुछ और तो नहीं चाहिए प्रभु!’

इतना धैर्यवान स्वर सुन चौंके बुद्ध भी!

‘राहुल भी हो पन्थ में दीक्षित

इतना ही, यदि संभव हो देवी’

‘ले जाइए पुत्र है आपका’

मैं जानती थी, होगा यही,

पुत्र आपका है, लेने आएंगे आप ज़रूर!

पुत्र पर हक पिता का ही मानता है समाज

आप भी हैं इसी समाज का भाग!

परम-ईश्वर हो जाएंगे आप

इस समाज के लिए और मेरे लिए भी!

पुत्र आपका, शरण भी आपकी!

पर बस मेरी भी मानेंगे एक प्रार्थना

संभव हो अगर!’

बुद्ध सुन रहे थे मौन

‘मेरे लिए भी कोई राह हो तो

बता दो प्रभु।

तुम मुझे मुक्त कर सको या नहीं

मैं मुक्त करती हूं तुम्हें

अपने से सदा के लिए!’

कहते तो पहले ही कर सकती थी

पर अब तुम दुनिया के लिए राह बनाओ मुक्ति की

ये स्त्री मुक्त करती है तुम्हें अपने किसी भी बंधन से!

मेरी चिंता न करना, तुम्हारे पास है इससे बड़े काम!

मैं जीना चाहती हूं अब कुछ क्षण

बस स्त्री बनकर

तुम्हारे इन्तज़ार के लिए नहीं,

तुम्हारे इन्तज़ार से गुजऱकर

खुद से मिलकर

खुद को पहचानना चाहती हूं!’

मौन खड़े थे बुद्ध प्रभु

हाथ जोड़ लिए स्त्री ने

प्रभु मुड़ गए

खड़ी थी स्त्री अभी भी

हाथ जोड़कर वैसे ही

अपने ही मौन में मग्न

अपनी ही पीड़ा में पूर्ण

अपनी ही सीमाओं से अतिक्रमितडा. हर्षबाला शर्मा

गिरना नीम केपेड़ों का

अंधड़ तूफान की थी वह रात। हम फिर भी उस पुरानी जर्जर कोठी के बरामदे में बैठे ही रहे। हिले तक नहीं। नीम के घने बड़े पेड़ देखते हुए। तेज हवाओं के साथ पेड़ों की टहनियां और पत्ते तेजी से सरसराते हुए हिल-डुल रहे थे। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि खानदानी लोगों को कितना भरोसा था चिकित्सा के लिहाज से नीम पर। मेरे रिश्तेदारों में कई का तो हाल यह था कि अपने नामों के पहले ‘हकीम’ जोड़ लेते थे। वे नीम की छाल, निमौनी, पत्तियों और फूल आदि के चिकित्सकीय उपयोग के बारे में पढ़ते-लिखते और सोचा करते। उनकी सूची में नीम दीमकों से लकड़ी बचाने, मधुमेह से इंसानों को बचाने, दांतों को गिरने से रोकने इन्फेक्शन से बचाव तक यानी हर परेशानी में रामबाण थी।

अचानक हुआ एक हादसा। नीम का एक पेड़ गिर गया। एकदम धम सा। कुछ खास मजबूत नहीं था। यह गिरा तो झाडिय़ों पर। फिर भी इसकी इतनी तेज आवाज़ थी मानो मेरी नानी आमना हुसैन साहिबा की चीखी हो। उनकी फिर चीख निकलती उसके पहले ही नीम का दूसरा पेड़ भी लहराता हुआ गिर गया। गिरे हुए पेड़ों का मुआयना करती हुई वे हमें और खुद को ढांढस बंधाती हुई कहतीं, ‘ये अपने आप गिर गए। हमने न तो इनकी टहनियां काटीं और न पेड़ ही। शाह हुसैन ने एक बार ऐसा किया… क्या मंजर था दोजख का।’

अहाते में नीम के बढ़ रहे तने से निकली फुनगियों से बनी पतली डालों को उनके छोटे भाई ने काट डाला था, ‘वह उन्हें काट इसलिए रहे थे क्योंकि पेड़ से उनके घर में सूरज की रोशनी के आने में खासी बाधा थी। नाराज़गी में उन्होंने पास की ही ऊंची शाखाओं को काटना शुरू किया। कुल्हाड़ी पेड़ के तने पर पड़ी, दिखा कुल्हाड़ी पर खून… जी हां, खून टपकने लगा। यहां रह रहे माली और चौकीदार अचानक चीखे, इस पेड़ पर जिन्न रहते थे।’

‘क्या नीम के पेड़ पर जिन्न रहा करते हैं?’

‘उन शाखाओं पर जिन्न रहते थे लेकिन वे बदला नहीं लेते थे। जिन्न कोई जल्लाद थोड़े होते हैं। वे मेरे भाई की जल्दबाजी भी समझते थे। हैं…. लेकिन फिर भी हमने हरजाना भरने की राह निकाली। अपनी ओर से, जितना ज्य़ादा से ज्य़ादा संभव होता प्यार से नीम का ही पौधा लगाते। कभी नीम को सताओ मत, उसमें बदला लेने की क्षमता है।’

‘बदला लेने की क्षमता?’

‘काबिलियत के साथ!’

उस रात नीम का दूसरा पेड़ भी गिरा। तमाम कोशिशें की गई कि उम्रदराज हकीम हैदर हुसैन साहिब को उनकी हवेली से बुलवा लिया जाए। सामूहिक तौर पर शोक जताने के लिए। एक रिक्शे की व्यवस्था की गई उन्हें लाने के लिए। आखिर उस खानदान में वे अकेले बचे बुजुर्ग थे। वे एक टार्च और लालटेन लेकर आए। वे कुछ थक से गए थे। सबसे पहला काम उन्होंने किया कि वे तीन गिरे हुए पेड़ों तक गए। उन्हें देखा। फातिहा बुद बुदा रहे थे या शोक जता रहे थे या फिर दोनों ही। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया हम भोर होने तक उनसे जिन्न की कहानियां सुनते रहे।

उन्होंने हमारी खानदानी कोठी मे महज कुछ घंटे गुजारे। कोई भी उन्हें जाने नहीं देना चाहता था। वे खासे उतावले हो गए थे और तनाव में भी थे क्योंकि उनकी पत्नी ने एक पेज की चिट्ठी एक बेरोज़गार नौजवान जेब के हाथों भेजी थी। जेब उनकी हवेली के बाहरी कमरों में से किसी एक में रहता था। इस जोड़े के पास न तो कार थी और न टेलिफोन। एक दूसरे से बातचीत का और कोई जरिया भी नहीं था। इसीलिए यह चिट्ठी पहले ही भिजवा दी गई थी।

फिर वे आई एक दूसरे रिक्शे से। नाराज़ निगाहों से उसे देखते हुए वे फूट पड़ी, ‘आपने मुझे पीछे छोड़ दिया। जबकि मैं आपका इंतज़ार करती रही। आप यहां आराम फर्मा रहे हैं। बहुत हुआ। पौधे, पेड़ और लताएं सभी आपका इंतज़ार कर रही हैं।’

हम सब ओठों पर मुस्कुराहट लिए से रह गए। लेकिन वे तनिक भी खुश नहीं दिखे। तत्काल वे उठे और पत्नी के साथ लौटने के लिए खड़े हो गए। हमने कुछ जिद भी की, उनकी पत्नी और वे रूक जाएं। पर उन्होंने तब अपने पौधों के बारे में ऐसे बताया जैसे वे उनके अपने बच्चे हों।

बाहर कदम रखने से पहले उन्होंने पूछा कि क्या मेरी बहनें और मैं उनकी हवेली में चंद दिन गुजारना चाहेंगी। आओ… साथ ही चलते हैं। वहां तरकारियां जो भी उगी हुई हैं उनकी सब्जी बनाएंगे। हमारी हवेली में रौनक भी हो जाएगी… हमारे बच्चे नहीं हैं तो इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि हम हंसी पसंद ही नहीं करते।

राहत सी हुई जब रिक्शा हवेली के फाटक पर पहुंचा। बाहर भी हरियाली खासी थी सुबह की चाय के समय से पहले तक यह जोड़ा अपने पौधों के झाडिय़ों, लताओ और पेड़ों के इर्द-गिर्द लगभग घूमता रहता। रबर के पाइप से उन्हें पानी देता रहता। कई जगह से जो टूटता सा दिखता।

रसोई घर से बाहर आई कमज़ोर मेज पर रखे प्यालों में भरी हुई थी चाय और प्लेट में थे बिस्किट जिन्हें चाय में डुबो कर कर खाते। हम सभी साथ बैठ कर बड़े ध्यान से सुनते पेड़ों की पत्तियों की खासियत। ‘जामुन की ये पत्तियां ब्लड शुगर का लेवल दुरूस्त रखती हैं। पान का पत्ता पाचन के लिए बहुत अच्छा होता है। बेल पत्थर से आंते साफ होती हैं। अमरूद के पत्तों से गले की तमाम समस्याओं का निदान होता है।’

हम सभी हर पेड़े-पौधे की पत्तियों के उपयोग से होने वाले लाभ की लंबी सूची सुनते रहते जब तक और भी लोग आ जाते। मोहल्ले के हताश-परेशान लोग भी इस सुबह-ए-महफिल में आ जुटते। इनमें किसी को दर्द है, चमड़ी का कोई रोग है, फोड़े-फुंसियां हैं। वह महिला और हकीम साहब इस उस पौधे से उन्हें पत्ते और फूल तोड़ कर,इस-उस इलाज के लिए देते साथ में उनकी कमेंटरी चलती रहती। ‘प्रकृति की गोद में हर रोज की अनियमितताओं के निदान की क्षमता हैं।’ आस-पास देखते हुए वे कहते, ‘एक ज़माना था जब इन मोहल्लों में क्या रईसी थी लेकिन आज तो सिर्फ $गरीबी है।’

उस रात अहाते में हम चारपाइयों पर सोए। एक अजीब सी खामोशी हर कहीं। कहीं आसपास से ही आ रही थीं। रह-रह कर कराहटे और चीखे। इस बुजुर्ग जोड़े ने भरोसा दिया, ‘जब की बेगम की डिलीवरी का समय बेहद करीब है… चिंता की कोई बात नहीं… एक नई जि़ंदगी को आने में समय और कुछ कोशिशें तो ज़रूरी हैं।’

उन्होंने हवेली के बाहर बने कमरों की ओर देखते हुए कहा। जहां जेब, अपनी बीवी के साथ रहता था। मिनट भर में ही यह जोड़ा एक जवान महिला को अंदर ले आया। वह पूरे पेट से थी। उसे एक चारपाई पर लिटा कर वे उसके हाथों और तलवों को सहलाते रहे। फिर उसकी सलवार-कमीज उस पर ही डाल दी।

हम लोगों को दिलचस्पी लेते देख कर उन्होंने हमें फौरन अंदर जाने और बैठकखाने में जाकर सोने की हिदायत दी।

‘हम अंदर क्यों सोएंगे?’

‘क्योंकि बच्चा आने को है… जिसे तुम सुबह ही देख सकोगे। हम लोग तो उसी काम में फंसे रहेगे।’

‘आपकी मदद क्या हम नहीं कर सकते?’

हमारे सवालों का जवाब वे दे पाते इसके पहले ही उस युवती की चीखें बढ़ती जा रही थीं। उसके बाद तो न जाने कितनी बार घर में इन दोनों ने अंदर-बाहर के कमरों तक आना-जाना किया। हम सभी अंदर आ गए थे। जेब वहीं था। उसे भी बगीचे में कभी इधर कभी उधर जाना पड़ता। कभी नीम और कभी अमरूद की पत्तियां वह लाता फिर उन्हें खौलाया जाता। इस सारे बंदोबस्त के दौरान न जाने कितनी बार हमें अंदर जाने को कहा जाता रहा। हम अंदर चले भी जाते लेकिन हम एक बड़ी खिड़की से देखते रहते उस औरत को तकलीफ में तड़पते हुए। यह जोड़ा उस औरत के उभरे हुए पेट पर तरह-तरह की जड़ी-बूटियों का लेप लगाते रहते और उसके पांवों की मालिश लेप से करते रहते। यह सब करते हुए वह जोड़ा थक जाता। वे ठहर जाते। थके हुए ये लंबी सांस लेते रहते। अकेला जेब अपनी पत्नी की मालिश करने लगता।

अचानक ज़ोरों की एक चीख फिर तनाव भरी शांति। सुनाई देता है नवजात शिशु का रोना। इसके बाद तो हम सब दौड़े बाहर की ओर। उस चारपाई की और जहां इस बुजुर्ग जोड़े ने शिशु को हाथ में ले रखा था। जबकि जेब अपनी पत्नी के पेट और टांगों के भीतरी हिस्सों पर इमली का लेप लगा कर मालिश कर रहा था। खून के धब्बे उछल कर उसके कपड़ों पर पड़े थे लेकिन उसे उसकी परवाह नहीं थी। उस माहौल में हर कहीं अस्तव्यस्त बिखरे कपड़े और साज-सामान भी उसने संभाल रखा था। और पत्नी की हल्की हो रही कराहट पर भी ध्यान दे रहा था। हर तरह से उसका वह ध्यान रखने की कोशिश कर रहा था। यह कहना मुश्किल है कि बच्चे के पैदा होने की समय की भयंकर तकलीफें नवजात शिशु को देखने के बाद खत्म सी हो गईं। जो हो, वह उसकी अच्छी देखभाल कर रहा था। उसकी पीठ पर मालिश कर रहा था। उसके बालों को सहला रहा था। तभी पास के ही मोहल्ले से एक बुजुर्ग महिला आई उसे नीम की पत्तियां और इमली की जड़ों की ही नहीं, बल्कि अपनी बिटिया के प्रसव में सहयोग की ज़रूरत थी और किसी दाई का बंदोबस्त नहीं हो सका था।

हकीम साहब और उनकी पत्नी ने अपनी ‘बुरी तरह थके’ होने की बात बताई। लेकिन अचानक उन्होंने जेब को साथ ले जाने की सलाह दे दी। ‘लेकिन वह तो मर्द है… क्या मेरी बेटी को इस हालत में पूरी तौर पर नंगा देखना उसके लिए उचित होगा?’

‘वह उसकी आंखें ढांप देगा… लेकिन वह एक नई जि़ंदगी इस दुनिया में लाने में तुम्हारी मदद करेगा।’

शायद यह बात जंच गई।

उस दिन के बाद से बेरोज़गार जेब किसी रोज़गारी की तुलना में ज्य़ादा कामयाब था।

उसकी पूरे शहर में चर्चा होने लगी। बच्चे का जन्म कराने वाला मर्द नौजवान!

खुला

उसे मौत आए, हैजा हो जाए, मेरी बेटी के सर पर सौत लाकर बिठा रहा है… भोली-भाली मेरी प्यारी बेटी को बदचलन बताता फिरता है। बढ़ईगीरी करने वालों के घर में बेटी देकर हमने बहुत बड़ी गलती की। मैंने तो यह सोचकर उस घर में बेटी दी थी कि लड़का पढ़ा-लिखा है, उसका चाल-चलन भी लोग अच्छा ही बताते हैं। लेकिन जबसे शादी हुई है, तभी से बेचारी मुसीबतें ही मुसीबतें झेल रही है। लड़की को बहुत सताता है वह। यह तो फूल-जैसी अच्छी-भली अपनी लड़की का गला दबाना हुआ। सामने पडऩे वाले हर आदमी से इसका याराना होने की बात कहता है। उसका खानदान का खानदान खाक हो जाय…’ अपने दामाद को कोसती हुई रंजीदा अ$फज़ल बी बरामदे में गेरू से लिपाई कर रही है।

”अजी… यह क्या शोर मचा रही हो…’’ करीम ने पुकारा।

”जुबेदा सवेरे की बस से आई है। हुसेन ने उसे फिर मारा है…’’

”या अल्ला… मैं क्या करूँ… रोपनी के दिनों में ही, उसे भेजा था न… दो महीने भी नहीं हुए, फिर से झमेला करना शुरू कर दिया उस कमबख्त ने…’’

”…’’

”चार दिन ठहर बेटी, इस बार उसे खूब डाँट पिलाने के बाद ही तुझे भेजूँगा। रोपनी वाले मजदूर आए हैं। जल्दी से खाना दो जी, मुझे खेत पर जाना है…’’

बेटी जुबैदा ने दस्तरखान बिछाया, तो अ$फज़ल बी ने र$काबियाँ रखीं और लोटे और गिलास में पानी भर लाई। फिर चावल और सेजन मिलाकर बनाये गोश्त दालचे में चम्मच डालकर दस्तरखान पर रख दिया। करीम नहाकर आया और ताबड़तोड़ दो-चार निबाले पेट में डालकर खेत की ओर चला गया।

”सत्यानास हो उसके खानदान का… लड़की को जीने नहीं देगा क्या वह? यह कहाँ की इनसानियत है? भाभी, अपनी ही बस्ती में रिश्ता करते, तो लड़की हमारी आँखों के सामने ही रहती… वहाँ मारेगा-पीटेगा या प्यार से रखेगा, क्या पता?’’ सिर पर पल्लू खींचे और ‘बुर्र-बुर्र’ नाक सुड़कती हुई जहीरा बी बात मालूम होते  ही दौड़ी-दौड़ी आई थी।

जहीरा बी अ$फज़ल बी की देवरानी है।

ज़हीरा बी जुबेदा को जन्म देने वाली अम्मा है तो अ$फज़ल बी उसे पाल-पोसकर बड़ी करने वाली अम्मा।

”दुल्हन, फिकर न कर। वह कैसे रास्ते पर नहीं आएगा, यह हम भी देखेंगे। अपनी बच्ची हम पर बोझ है क्या? बात जियादा बढ़ गई है, तो हम भी चुप थोड़े रहेंगे? तुम्हारे भाई जान खेत पर गए हैं। भैया से भी फौरन जाने को कह।’’ अ$फज़ल बी बोली।

”घर में ही हो, बेटी?’’

”आओ लच्चम्मा मौसी, आओ। दिखाई नहीं पड़ी इधर कई दिन से…’’

”यहीं थी, बेटी? कहीं नहीं गई। कुछ सोर सुना अभी… कोई बात है, बेटी?’’

”मौसी, बच्ची को बहुत सता रहा है वह। क्या करूँ… रो-रोकर लड़की की आँखें फूटी जा रही हैं।’’

”घर में इतना बखेड़ा हो, तो बेचारी इस्कूल कैसे जाती होगी बेटी!’’

”स्कूल से ही तो अब उसने यह बखेड़ा शुरू किया है।’’

”कैसे…?’’ लच्चम्मा ने नाक पर उँगली रख ली।

”जब से पेट में रसौली हो गई थी, बेटी को माहवारी के बखत पेट में बहुत दर्द होने लगा है। साँप की तरह मरोड़ खा जाती है बेचारी। स्कूल तक बसें तो चलती नहीं। पैदल जाओ या जीप में। जीप वाला भी सवेरे एक और साम में अंधेरा होने के बाद एक दो ही चक्कर लगाता है। उस दिन एक बजे के बखत पेट में ज़ोर का दरद उठा था और कुछ भी करने से कम नहीं हो रहा था तो खाजा मास्टर साहब की साइकिल पर यह घर आ गई थी। वही बड़ा गुनाह हो गया। तब से बात-बेबात में बेटी को जो मुँह में आए बकता रहता।… उसे मौत आए।’’

”पेट मेें दरद की बात पहले भी करती थीं तुम। वही दरद क्या, बेटी?’’

”हाँ, मौसी…’’

”कोई गोली-वोली दी कि नहीं बेटी?’’

”गोली-वोली खाने से जाने वाला दरद नहीं है मौसी यह। उसके पीछे लंबी कहानी है।’’

”ऐसा क्या हुआ है बेटी।’’

”इसकी किस्मत फूटी थी कि सादी के बाद सात की साल में चार बार पेट गिर गया। जल्दी-जल्दी तीन जचगियां भी हुईं। बसुमती डॉक्टरनी कहती है कि बच्चेदानी कमज़ोर हो गई है। गोलियां तो खा रही है। लेकिन बीमारी का रास्ता बीमारी का और गोलियां का रास्ता गोलियां का… यही हो रहा है…।’’

”घर में हमेशा खटपट हो, तो बेचारी को क्या आराम मिलेगा?’’

”और क्या, मौसी…’’

”पिछली बार जब आई थी, तो मैंने देखा था जुबेदम्मा को। अब कुछ मोटी हुई जान पड़ती है। पहचान नहीं पाई मैं।’’

”हाँ, जरा भारी तो हो गई है मौसी…जचगी के बाद कोई औरत थोड़ी-बहुत मोटी हुए बगैर कैसे रहेगी? तुम ही बताओ, मौसी।’’

”माँ के पेट से जैसे आते हैं, वैसे ही रहते हैं क्या हम हमेशा बेटी… आज एक तरह से हैं तो कल दूसरे तरह से….’’

”थू है मौसी, उसके मूँह पर…’’

”और भी कोई बात है क्या बेटी…?’’

”कहता है कि जुबेदा मोटी है। उसकी आँखों को सुहाती नहीं है। और कहता है, तू देखने में अच्छी लगती थी तो सादी कर ली। अब थुलथुल हो गई है, बस्ती में मेरे दोस्त हँसते हैं। अब तेरे साथ जि़ंदगी गुजारना मेरे बस की बात नहीं। ऐसी बातें बोल-बोलकर रात-दिन उसकी जान खाता रहता है, मौसी! आग लगे उसके मुँह में!’’

”अरे, कैसी अजीब बात है। वह पाजी सादी के बखत-जैसा दिखता था, आज भी वैसा ही दिखता है क्या? आगे-पीछे तोंद और चूतड़ निकल नहीं आए हैं क्या बाहर?’’

”बात इतनी ही नहीं है, मौसी। उसका मतलब कुछ और ही है… जब से मस्तान की बेटी के पीछे पड़कर आवारगी करने लगा है, तभी से यह बकवास करने लगा है… यह बात जुबेदा जबान पर न लाए, इसलिए उसने दूसरे तरीके से उसे सताना शुरू कर दिया है। यह रोती है तो मार-पीट करता है… बर्दाश्त नहीं हुआ, तो भाग आई है बेचारी यहाँ…’’

”कैसा खराब ज़माना आया है री बेटी…’’

”तुम्हारे दामाद ने पिछली बार मौसी… छोटे-बड़े सबको इकट्ठा करके हुसेन को समझाया था। खूब समझा-बुझाकर ही जुबेदा को भेजा था वहाँ…’’

”चाय पियो नानी!’’ चाय लेकर आई जुबेदा ने कहा।

”अरे, चाय मेरे लिए भी बना लाई हो जुबेदम्मा?’’

”ठंडी हो जाएगी, पियो न नानी।’’

”सुना कि तेरा आदमी फिर झमेला कर रहा है?’’ लच्चम्मा ने जुबेदा से पूछा।

”नानी, तुम ही बताओ, जहां नौकरी करते हैं, वहां चार लोगों के साथ हिल-मिलकर रहना तो पड़ता ही है न। दुआ सलाम, बातचीत तो करनी ही पड़ती है। इतनी-सी बात पर हर आदमी के साथ मेरा रिश्ता जोड़ता है वह?’’

”क्या करें बेटी, औरत का जनम ही खराब है। कैसी-कैसी बातें सुननी पड़ती हैं। कुछ भी करो, निकालने वाले गलती निकालते ही हैं। औरत और सब कुछ बर्दास्त कर सकती है, लेकिन सक्की खसम के साथ निबाहना बहुत मुश्किल है।’’

”मौसी, तुम एक बात बताओ, मेरी बेटी क्या इतनी बेसरम हो गई है कि बदमासी करेगी? सारी खराबी होती है, देखने वाले की आँख में। आँखों में काँटे गड़े उसके। हर तरह से… लड़की को मुसीबतों में घसीटता है।’’ अ$फज़ल बी बीच में बोल पड़ी।

”नानी, ख्वाजा मास्टर साहब अच्छे आदमी हैं। आजकल सगा भाई भी इतना $खयाल नहीं करता। भाभी भी कोई-न-कोई चीज भेजती ही रहती हैं। मैं भी भाभी को भेजती हूँ। भाभी और मुझ में खूब पटती है।’’ जुबेदा कहने लगी।

”बस…बस…! काबू रख जबान पर!…’’ अ$फज़ल बी ने जुबेदा को झिड़क दिया। फिर लच्चम्मा की तरफ मुड़कर बोली, ”हुसेन इसे फुसलाकर बातें उगलवाता है तो यह इसी तरह बड़बड़ करती रहती है मौसी। वह घुन्ना आदमी मज़े में इसकी ऐसी बातों का मन मरजी मतलब निकाल लेता है और सब दिमाक में रख लेता है। इस लड़की की वजह से मैं तो मरी ही जा रही हूँ, मौसी! जरा-सा फूँक दो, तो बस, फूल जाती है। किसी ने जरा अच्छी तरह से बात की तो बस, दिल में जो कुछ है, सब बढ़-बढ़ कर बताने लग जाती है। मैंने कितनी बार इसे समझाया है कि हमारा साया भी हमें दगा दे जाता है री। लेकिन कभी सुनती है मेरी बात? मुझे पागल ही समझती है। मैंने हजार बार कहा कि सगी माँ को छोड़कर और किसी से मन की बात कभी मत कह। माथापीट-पीट कर समझाती रहती हूँ। खसम तो खसम ही होता है। उसे खाया-पिया, थूका-मूता… सब कोई बताता है क्या? जीना तो आया ही नहीं अभी तक इसे।’’

”उसे कुछ मत बोलो बेटी। हमारी इतनी उमर हो गई। हजार बार मार खाई है। फिर भी हमको ही कितना मालूम है? इस बेचारी को तो कुछ तजुरबा भी नहीं…। जिंदगी को क्या जानती है बेचारी…।’’

”मैं यह कहती हूं मौसी… इसका आदमी बड़ा चालाक है। इसे पागल बनाता जा रहा है। अपनी गलती छिपाने के लिए इसके ऊपर इल्ज़ाम लगा रहा है। अपनी बदचलनी को इसके मत्थे डाल रहा है। सुन-सुनकर इधर यह रोने-धोने लगती है और उधर वह मजे-मजे मेें अपना ऐब छिपा लेता है। नास हो उसकी चालाकी का। औरत को जूती के नीचे रखने की मंसा से ही यह सब खुराफात करता है…’’

”जाने दे, बेटी…’’

”जाने क्या है मौसी, जब से यह पैदा हुई है, तब से ही मेरी मुसीबतें शुरू हो गई हैं। मेरी सादी के बाद दस बरस तक भी मेरा कोई बच्चा नहीं हुआ। मेरी देवरानी जहीरा बी के तीनों ही लड़कियां हुईं। तीन बच्चियों को पालने का उसका हौसला नहीं था। यह तब पोतड़ों की बच्ची थी, पोतड़ों में ही मैं ले आई इसे…’’

”तुम्हारा बबुवा कब पैदा हुआ था बेटी?’’

”याद नहीं है, मौसी? जुबेदा को ले आने के चार साल बाद ही तो… हाँ एक बात बताना भूल ही गई। इसकी माँ जहीरा बी ने एक तमासा किया था तब…’’

”क्या किया उसने, बेटी…?’’

”आकर बोली, ‘भाभी जान, तुम्हारे बेटा हुआ है। अब तुम मेरी बेटी की परवरिस क्या करोगी… मैं अपनी बेटी ले जाती हूँ’  ऐसे बोली जैसे उस पर कोई पहाड़ टूट पड़ा हो। मैं बोली, बेवकूफी की बातें मत कर। उसकी परवरिस में क्या कमी की है मैंने? हाथों पर रखकर पाला है मैंने इसे। खिला-पिलाकर, इसकी टट्टी-पेसाब साफ करके बड़ा किया है मैंने। कौन कहता है कि यह मेरी बेटी नहीं है? मैंने फटकारा तो चुप हो गई। मैंने इसे इस्कूल भेजा, तो वह कहती फिरी कि मैं इसे खराब कर रही हूँ।’’

”लाख मुसीबतें झेलकर मैंने इसे सहर भेजा और इंटर करा दिया। और क्या कहूँ… इसका बाप भी मना करता रहा बार-बार। लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि यह मेरी तरह बर्तन माँजते, गोबर पाथते जिंदगी काटे। इसलिए मैंने इसकी टीचर ट्रेनिंग करा दी। उन दिनों मेरे पटेल भाई का बड़ा रोब-दाब था, तो कलट्टर साहब को दस हजार खिलाकर इसे टीचर की नौकरी लगवा दी…’’

”तब सब लोग उछल-उछलकर कहने लगे कि अपने ही गाँव में इसका रिस्ता कर दो। लेकिन गाँव में ऐसा कौन था? मैंने एक ही जिद पकड़ी कि मिट्टी-गारे में काम करने वाले किसी लंगोटिये को तो अपनी बेटी नहीं दूँगी।’’

”कसाई मदार की छोटी बहिन के बेटे हुसेन की बात आई। … गांव में आता-जाता था … पैदा होने के बाद से ही देखते आए हैं। डिग्री तक पढ़ा है। दवाइयों की दुकान करता है। खाते-पीते लोग हैं.. यह खयाल करके वह रिश्ता किया। दहेज में पैंतीस हजार और पांच तोला सोना,बिस्तर, पीढ़ा, पलंग..सब देकर निकाह किया।’’

”अब ये बरबादी के लच्छन कहां से आ गए? लड़के का दादा बढ़इगीरी करता था न बेटी..’’ लच्चम्मा ने कुछ याद करते हुए पूछा।

”हां मौसी! लेकिन वे काम अब कौन कर रहा है? उसमें भी लोग गलती निकालते रहे। कहते रहे-अफजल बी इतना करके भी बेटी बढ़ईगीरी  करने वाले के घर में दे रही है..’’

”अरे..लोग सौ बातें कहते रहते हैं बेटी.. दुनिया है न ..’’ हाथ हवा में तेजी से नचाते हुए लच्चम्मा ने कहा।

”इनके घर में दो बीवियों का रिवाज चलता है, मौसी..’’

”अच्छा ..? लच्चम्मा का मुंह खुल गया।

”हुसेन का चाचा याकूब चार लड़कों का बाप होने के बाद भी कुम्हार सारय्या की लड़की के पीछे पड़ गया…बरसों बाद भी उसे छोड़ नहीं रहा था। तुम्ही बताओ मौसी, गांव में लोग बातें नहीं करेंगे क्या?’’

”क्यों नहीं करेंगे बेटी?’’

सारय्या ने सोर मचाया। हुसेन की बुढिय़ा दादी तब जिंदा थीं बड़ी चालाक औरत थी वह मौसी! घर का भेद सबके सामने खुल न जाए, इसलिए बहू के लिए अलग मकान बनवा दिया .. हमारे गांव का चोबदार रामुलु नहीं है, उसकी चार एकड़ ज़मीन का टुकड़ा खरीदकर बहू के नाम करके उसका मुंह बंद कर दिया और फिर  सारय्या की बेटी को हमारे लोगों में मिलाकर उससे निकाह करा दिया .. ऐसा निकम्मा खानदान है इन लोगों का! मिट्टी में मिल जाए सारा खानदान, दाने-दाने को तरसे , मेरी बेटी की जिंदगी को दोजख बना डाला है।’’

”तुम लोगों के यहां आदमी चार-चार सादियां  कर सकता है, ऐसा कहते हैं बेटी।’’

”पता नहीं क्या-क्या करके मरते हैं ये लोग, मौसी। बदमास आदमी हर जात में होता है। मेरे -बाप ने की थी क्या दूसरी सादी? मेरे फूफा  ने की थी क्या? तुम्हारे दामाद ने  की है क्या?’’

”तुम ठीक ही कहती हो, बेटी! अब मैं चलती हूं। मेरी एक बात याद रखना । पंचायत वाले दिन अपने मौसा को भी बुलाना। मुसलमान और हिंदू सब थूंके उसके मुंह पर, तो उस कंबखत की अक्कल ठिकाने आ जाएगी।’’

”ठीक है मौसी अरे, साड़ी के पीछे सब गेरू लग गया है’’

लच्चमा ने मुड़कर देखा और बोली,”तुम लोग गेरू से लिपाई करते हो बेटी’’

”हां मौसी.. पीढ़ा देना ही भूल गई मैं..चबूतरे पर ही बिठा दिया तुमको ..’’

”कोई बात नहीं बेठी .. घर जाकर बदल लूंगी।’’

ज्ुबेदा की बेटी हाथों में मेंहदी लगाने लगी। अफज़ल बी ने पानदान हाथ में लेकर पान की बीड़ा मुंह में रख लिया। फिर उगलदान पास खींचकर जुबेदा से बोली, ”बेटा, सवेरे से मैं अपने ही झमेलों में फंसी रही। तू क्या सोचती है? अब क्या करें, कैसे करें, बता।’’

”अम्मी, फातिमा को घर ही ले आया है वह। कहता है, हम दोनों को एक ही जगह रहना है।’’

”मस्तान को सरम क्यों नहीं आती? पहले से जिस आदमी की बीवी है, उसे अपनी बेटी कैसे देगा वह? वह लड़की भी कितनी बेसरम है री! ज़्यादा ही मस्ती चढ़ी है उसे, तो कह दे कि कोठे पर जाकर बैठे।’’

”अम्मी, अपना आदमी सही होता, तो दूसरों को कुछ कहने की ज़रूरत क्यों होती? खराबी सब उसी आदमी में है। हया, सरम, तो उसे होनी चाहिए। मुफ्त में लड़कियां मिल रही हैं, तो फुदकता फिर रहा है। फातिमा को कुछ कहने से क्या फायदा, और मस्तान को भी कुछ कहने से क्या फायदा?

”कंगले हंै। खाने को तरसते फिरते हैं सात बच्चे हैं घर में। हुसेन बार-बार वहां जाकर हंसी -मजाक करता रहता है। लड़की को फंसाने के लिए उसे कपड़े खरीद देता है। मिठाई ले जाकर देता हैं .. ख्वाब दिखाता है.. उस लड़की की जिं़दगी में है ही क्या बताओ .. यह सब ख्वाब में भी देखा नहीं होगा उसने। खाने के लाले पड़े रहते हैं घर में हमेशा। शादी दूसरी हो या चैथी बेटी पेट भर खा तो लेगी न, यही सोचा होगा, उन कमीनों ने।’’

”सोलह साल की लड़की को ख्वाब के सिवा जिं़दगी का क्या मालूम होता है, अम्मी!’’

”जाने क्या है बेटा! उन हरामियों की अक्कल को जाने कौन ठिकाने लगाएगा .. जाने कैसी कंगाली है और कैसी भूख है कि अपने बच्चों को बेचते हुए भी तरस नहीं’’

”अम्मी, तुम एक बात सोचो। फातिमा नही ंतो किसी दूसरे मस्तान की बेटी हुसेन को मिल जाएगी। कितने लोगों को कोसती फिरेंगी हम? किस-किस बात को लेकर रोती रहेंगी?’’

”बेटा, ऐसे बदमासों को यों ही नहीं छोड़ देना चाहिए। ऐसा करना चाहिए कि वह फिर औरत के काम का ही न रहे।’’

रोपाई खत्म होने के बाद तीसरे दिन करीम ने पंचायत करवाई।

तीन गांवों के लोग इक_े हो गए।

बरामदे में बेंचें डाली गई। मंडवे में बान की चारपाइयां बिछाई गई।

बरामदे के पीछे की कोठरी में चटाइयों पर पल्लू सिर पर लिए औरतें बैठ गई।

पटेल साहब, अमीन साहब .. मौलाना साहब

हिंदुओं के तीन सयाने लोग बेंच पर बैठे हैं। मस्जिद होकर आए हुए कुछ मुसलमान टोपियां पहने चारपाइयों पर बैठे हैं।

जगह कम पडऩे से कुछ लोग टट्टर के साथ तो कुछ लोग पत्थरों पर बैठे है।।

पंचायत शुरू हुई

”हुसेन, यह क्या तरीका है तेरा? इस लड़की के साथ क्या करना चाहता है?’’ एक सयाने आदमी ने पूछा।

हुसेन कुछ बोला नहीं। गूंगा बना खड़ा रहा।

”हमारी तरफ़ टुकुर-टुकुर क्या देखता है बोल न!’’

”मुझे दोनों ही औरतें चाहिए,’’ सीना जरा तानकर हुसेन ने कहा।

कोठरी में से झांक कर दो औरतें बोल पड़ी-”सब कुछ तेरी मरजी से ही होगा क्या?’’ उनकी आवाज़ में तल्खी थी।

”औरतें चुप रहें, हम लोग पूछताछ कर रहे हैं न ‘‘

औरतों के सिर अंदर चले गए।

”यह कैसे हो सकता है?’’ पटेल साहब ने हुसेन से पूछा।

”पटेल साहब दोनों को पालने का हौसला रखता हूं। पीछे नहीं हटूंगा।’’

प्ंाचों ने एक-’दूसरे की तरफ देखा।

इतने में एक कोने में मस्तान दिखाई पड़ा।

”क्या है रे मस्तान! दुबककर बैठा है कोने में। बोलता क्यों नहीं?’’ अमीन साहब ने झिड़क दिया।

मस्तान सिर ज़मीन में गढ़ाए बैठा रहा। कुछ बोला नहीं। चुप्पी साधे रहा। लाचार मस्तान की आंखों से ढुलके गरम आंसुओं को धरती मां ने संजो लिया।

”फातिमा, इधर आ शादीशुदा आदमी से ब्याह करके कौन-सा ऐश-आराम भोगने की उम्मीद कर रही है तू बता’’

दीवार के पीछे दुबकी फातिमा चुन्नी से दोनों कंधों को पूरा-पूरा ढंकते हुए निश्चयपूर्वक बोली,”मुझे हुसेन चाहिए।’’

पंच कुछ देर आपस में बात करते रहे।

”दोनों को पालने की बात तो कह रहा है, क्या करें फिर?’’ पटेल साहब ने कहा।

”दोनों में से जिसे भी अलग करेंगे, उसकी जि़ंदगी खराब हो जाएगी। हुसेन का दोनों को रखना ही मुनासिब होगा।’’ मौलवी साहब ने पटेल साहब के मत का समर्थन

किया।

”मामू जरा ठहरो’’ जुबेदा तेजी से बाहर निकल आई सिर से फिसलते पल्लू को कमर में खोंसकर वह बोली- ”आज मैं इस आदमी के काम की नहीं रही। फातिमा को ले आया है, कल को फातिमा से भी इसका जी फिर जाएगा तो कोई और औरत ले आएगा, मैं भी एक मां के पेट से ही पैदा हुई हूं, मैं भी हाड़-मांस की ही बनी हंू, जीने की हिम्मत रखती हूं, बीबी के सामने ही जो आदमी एक दूसरी औरत को ले आया है, उस आदमी के  साथ मैं क्यों रहूं? पल-पल जान खानेवाला खसम, सवेरे-शाम शक करके खून चूसन वाला खसम मुझे नहीं चाहिए, मैं आराम से सांस ले सकंू, इसके लिए मुझे ‘खुला’

चाहिए।’’

अनुवाद: जेएल रेड्डी

संकलन: तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियां

प्रकाशन: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

क्या कभी कभार, कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है

हम गाढ़े अंधेरे में

यों तो हाथ-को-हाथ नहीं सूझता

लेकिन साफ-साफ नज़र आता है

हत्यारों का बढ़ता हुआ हुजूम

उनकी खूंखार आंखें

उनके तेज धारदार हथियार

उनकी भड़कीली पोशाकें

मारने नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह

उनके सधे सोचे-समझे कदम

हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिम्मत नहीं है

और न हमारी आँखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।

फिर भी हमको यह सब साफ नज़र आ रहा है

यह अजब अंधेरा

जिसमें सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है।

जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य

हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है

और न ही अन्त:करण का कोई आलोक:

यह हमारा विचित्र समय है

जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के

हमें गाढ़े अंधेरे में गुम भी कर रहा है

और साथ ही उसमें जो हो रहा है

वह दिखा रहा है:

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: ‘गाढ़े अंधेरे में’ आपकी कविता। यह कविता आपने कब लिखी?

अशोक वाजपेयी: मेरा ख्याल है उस ज़माने में, जिस ज़माने में बाबरी मस्जिद के बाद गुजरात के दंगे हुए थे। उस सय इस तरह का माहौल बन रहा था। लेकिन अंधेरा तो हमारे यहां वर्षों से फैल रहा है। अंधेरे के बारे में बात करना थोड़ा कम हो गया है। लोग चकाचौंध से बहुत मोहित होते है। चकाचौंध पिछले चार-पांच-छह वर्षों में बहुत बढ़ी है। वह चकाचौंध अंधेरे को छुपाने वाली है। वह रोशनी नहीं है। कम-से-कम मुझे ऐसा लगता है। राजनीतिक चेतना नहीं है।

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: इस दौर में लिखना भी मुश्किल हो गया है।

अशोक वाजपेयी: लेखक वही होता है जो हर मुश्किल के बावजूद लिखने की हिकमत निकाल लेता है। वह लेखक क्या जो अंधेरे से डर जाए। दुनिया में और हिन्दुस्तान में भी सारी पाबन्दियों के बावजूद लोगों ने लिखा है। लिखना अपने आप में एक रोशन काम है अगर लेखक इसकी हिम्मत करता है। दूसरी बात यह कि जिस दौर में लोगों ने लिखा उस दौर में हम में से ज्य़ादा लोग युवा थे। किसी भी दौर में सबसे अधिक प्रमाणिक आवाज़ युवा की होती है।

हमारे दौर में दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। हम लोग जो बूढ़े लोग हैं, अधेड़ लोग हैं हम लिख रहे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि इस अंधेरे की शिनाख्त कर सकें। हम बता सकें उन्हें जो भी हमारी बात सुनें। इस अंधेरे को भेदना ज़रूरी है। इसके आर-पार देखे बगैर हम रोशनी की तरफ नहीं जा सकते। लेकिन जो युवा हैं उनमें यह सजगता नहीं है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है।

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: ऐसा क्यों?

अशोक वाजपेयी: देखिये, इस समय हिन्दी प्रदेश जो है वो काहे की चपेट में हैं। धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, नफरत, भाईचारे के आभाव और आपसदारी का लोप। यह सब हिन्दी अंचल में बड़े पैमाने पर है। क्योंकि हम इतने बड़े अंचल हैं। दूसरी जगह भी थोड़ा बहुत होता है। सबसे ज्य़ादा यहां होता है। अब हिन्दी भाषा ही इन सब की भाषा बन गई है। गाली गलौज की भाषा बन गई है। संवाद नहीं है। उसमें विवाद नहीं है। हम आपस में मिलकर एक दूसरे से असहमत हों, फिर भी मिलकर बात तो कर सकते हैं।

विजय देव नारायण साही और नामवर सिंह एक दूसरे से असहमत थे। लेकिन दोनों का एक दूसरे से संवाद किये बिना काम नहीं चलता था। मैं और नामवर सिंह वर्षों एक दूसरे से असहमत थे लेकिन हमारा काम बिना एक दूसरे से बहस किये बगैर नहीं बनता था। यह प्रक्रिया थी प्रश्न पूछने की। हर एक को यह भ्रम होता है कि प्रश्न पूछना ही बन्द हो गया है। कौन से प्रश्न हैं जो आप पूछ रहे हैं। अपने समाज के अपनी भाषा के बारे में। यह तो कोई प्रश्न नहीं हो सकता है कि किसको कितना पुरस्कार मिला या नहीं मिला। फलाने को मिल गया। उसने तिकड़म से पा लिया। यह कोई प्रश्न है और ज्य़ादा गंभीर प्रश्न है जैसे इस देश का भविष्य, इस देश की नियति। लोकतंत्र और संविधान की नियति आज दांव पर हैं। युवा कोई प्रश्न नहीं पूछेंगे। वह भी साहित्य में नहीं तो फिर कहां पूछेंगे। साहित्य में प्रश्न पूछना जो है वह काफी परोक्ष ढंग से चालाक ढंग से। लेखक चालाक और चौकन्ने दोनों हो सकते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं या ऐसी हिकमत नहीं कर पाते है तो युवाओं पर यह बहुत बड़ा गंभीर राजनैतिक चूक का आरोप है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: आप जिस तरह से परिस्थिति को रख रहे हैं। उसमें हम नया परिवर्तन देख रहे हैं जो सवाल खड़े कर रहे हैं मौजूदा वक्त उसकी इजाजत नहीं दे रहा है। साहित्य कर्म से जुड़े हुए शख्स को किस बात की इजाज़त चाहिए। आप कह रहे हैं कि जागरूकता नहीं है। समझ ही विकसित नहीं हो पा रही है। क्या है यह सब?

अशोक वाजपेयी: ऐसे युवा लेखक विकसित करना या खोजना आज मुश्किल है। ऐसे प्रश्नवाचक हों, जिनमें प्रश्न करने का साहस हो।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: साहस क्यों न हो।

अशोक वाजपेयी: देखिये, हिन्दी में आज व्यापक लेखक समाज है। उसमें जो अधेड़ और वरिष्ठ वर्ग है और महत्वपूर्ण लोग हैं उनमें से किसी ने अपना पाला नहीं बदला। जिस राह पर वे पहले थे, जिन मूल्यों को लेकर वे संघर्षरत थे उस पर आज भी है। कुल मिलाकर उन्हीं मूल्यों से वे बंधे हुये हैं। जो युवा वर्ग आया है इसमें उस तरह के मूल्य बोध की कमी है और संघर्ष की भी। इसलिए इक्का-दुक्का अपवाद मिल जायेंगे। मुझे यह लगता है कि ये जो युवा है वह हिन्दी भाषा, हिन्दी समाज और हिन्दी राजनीति इन तीनों को नज़रअंदाज करता हुआ वर्ग है। मैं अतिश्योक्ति करते हुए कहना चाहूंगा कि इनमें साथ विश्वासघात करता वर्ग भी है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: किनके साथ?

अशोक वाजपेयी: हिन्दी समाज के साथ, हिन्दी साहित्य परम्परा के साथ, हिन्दी साहस के साथ और हिन्दी की अपनी जो संस्कृति है उसके साथ। बतौल्त ब्रेख्त ने कहा था, ‘जिस जुर्म के बारे में आप चुप हैं। फिर आप उसमें शामिल हैं। आपकी चुप्पी अगर चतुर चुप्पी है, आत्मरत चुप्पी है, चालाक चुप्पी यह अवसरवादी चुप्पी है। तो यह चुप्पी साहित्य के लिए उचित नहीं हो सकती, ये अनैतिक चुप्पी है।’ लेकिन ऐसा वक्त हो सकता है। जब चुप्पी भी दहाड़ हो। अज्ञेय ने कहा था आपातकाल के दौरान ‘चुप की दहाड़।’ चुप रहकर भी आप दहाड़ सकते हैं।

ऐसा क्यों हुआ कि चार लेखक बुद्धिजीवी मारे गये वो वे सभी विंध्याचल के नीचे के थे। ऐसा क्यों हुआ कि सबसे ज्य़ादा हत्याएं और इस तरह का दंगा फसाद हिन्दी अंचल में होता है। लेकिन हिन्दी अंचल में तो कोई मारा नहीं गया। हिन्दी लेखकों को जेल में नहीं ठूंसा गया। हिन्दी में कौन सा युवा लेखक है जिन्होंने नौकरी गंवा दी। मुझे यह अवसरवादिता लगती है। एक तरह की चतुर राजनीतिक प्रतीक्षा। अगर वक्त बदला तो हम शुक्र है कि इसमें शामिल हो जायेंगे। नहीं बदला तो यह चुप्पी रहेगी।

पुण्य प्रसून वाजपेयी:मुझे लगता है खतरे और बढ़ेंगे। जो नज़र आ रहा है उससे भी बड़ा खतरा होगा या तो चीज़ें बदल जाएंगी या फिर लेखक बदल जाएंगे। क्या यह सिर्फ अवसरवादिता है?

अशोक वाजपेयी: इसे सिर्फ अवसरवादिता नहीं कहा जा सकता। इसमें और भी गंभीर संकट शामिल हैं। गंभीर संकट यह है कि वह लेखक अपनी सांस्कृतिक जिम्मेदारी न समझे। सिर्फ समाज के बने बनाये फार्मूले ज्य़ादातर वामपंथी और समाजवादी किस्म के फार्मूले बरतकर आप अपनी समाज निष्ठा प्रकट नहीं कर सकते। दूसरा यह कि जब मौका है तो आप आवाज़ उठा सकते है। आप आवाज़ उठायें और उस आवाज़ उठाने की कीमत चुकायें। जो भी कीमत होती हो, तब चुप रहना एक गहरे संकट की ओर इशारा करता है। यह अवसरवादिता ही नहीं बल्कि कायरता है। मैं हिन्दी का ही लेखक हूं। 60 वर्ष से इसी में मर खप रहा हूं और इसी में मेरी अंत्येष्टि भी होगी। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस भाषा ने मुझे बहुत कुछ दिया विवेक दिया, हिम्मत भी दी और साहस भी। अकेलेपन में जोखिम में पड़ जाने और जोखिम उठाने का अवसर और हौसला भी दिया। जिससे भाषा में नफरत का विरोध न हो। धर्मान्धता का विरोध न हो। व्यवस्था का विरोध न हो। पिछले 60 बरस साहित्य के सभी चारित्रिक गुण हैं।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: समाज पर बहस आपके दौर में ज्य़ादा होती होगी। चौक-चौराहे पर बैठ कर लोग ज्य़ादा चर्चा करते होंगे। हम लोगों ने भी शायद देखी है। लेकिन ये सारी चीजें धीरे-धीरे खत्म हो गई। जि़ंदगी जीने के तरीके बदल गये। क्या शिक्षण संस्थानों की पढ़ाई इसकी वजह हो सकती है?

अशोक वाजपेयी: देखिये, हिन्दी अंचल के विश्वविद्यालयों पर ज़रा नज़र डालिये। उनमें से एक आध ही बनारस हिन्दू विद्यालय या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही ऐसे दो विश्वविद्यालय हैं जहां थोड़ी हिम्मत और कुछ खुलापन अब भी है। बाकी हमारे सारे विश्वविद्यालय ध्वस्त हो चुके हैं। विश्वविश्वविद्यालय ही थे जो ज्ञान का केन्द्र थे। विवाद और बहस के चौक थे। जहां ढंग से सोचने की लोगों में हिम्मत थी। पुराने के आने पर प्रश्न चिन्ह उठाते थे। पुराने को ठीक से जानने की कोशिश भी करते थे। यह विश्वविद्यालय का ही काम था। अब विश्वविद्यालयों की हालात क्या है? उनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका साहित्य में कोई नाम भी जानता हो। कई विभागाध्यक्ष हैं पता नहीं वे आचार्य हैं या प्रोफेसर हैं जो भी हैं। अपने-अपने तर्क से हुए हैं। बड़ी-बड़ी तन्ख्वाहे मिलती हैं। लगभग निरपवाद रूप से साहित्य और भाषा के प्रति अपनी जिम्मेदारी इनमें से कोई नहीं निभाता। कोई निभाता भी होगा तो मैं जानता नहीं। ये लोग बुलाते हैं तो मैं जाता रहता हूं। अज्ञान का ऐसा घटाटोप अगर सिर्फ राजनीति में होता और अज्ञानता के साथ विकसित होता तो आप राजनीति को दोष दे सकते थे। लेकिन आज अज्ञान इस कदर घटाटोप पैदा कर रहा है कि विश्वविद्यालयों में भी प्रश्न पूछना गलत है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: जब आप लोगों ने चार साल पहले साहित्य सम्मान वापस करने का निर्णय लिया तो क्या आपने कुछ महसूस किया था। क्या आपको नहीं लग रहा था कि आज भी वैसी ही प्रक्रिया है। फिर हमारा समाज आन्दोलन में नहीं जा रहा है। खामोश है। यह खामोशी या चुप्पी है वह दहाड़ में बदल भी नहीं रही है। क्यों आपको लगता है कि साहित्य के भीतर से निकलते हुए शब्दों को अब सड़क पर निकलने का वक्त आ गया है।

अशोक वाजपेयी:मेरा ख्याल है कि सविनय अवज्ञा यानी नये नागरिक अवज्ञा का समय है। पिछले पांच एक बरस में विभिन्न प्रदेशों में उपलब्धियां क्या हैं। पहले से ज्य़ादा नफरत, पहले से ज्य़ादा आपस में बंटबारा, पहले से ज्य़ादा एक दूसरे पर शक, पहले से ज्य़ादा डर, पहले से ज्य़ादा पाबंदियां का घेरा। पहले से ज्य़ादा, सारी संस्थाओं का कद और अधिकार में कटौती करने की कोशिश। ये सब पहले से ज्य़ादा है। ऐसा नहीं था कि पहले सब अनुकूल ही था। पर तब प्रतिरोध भी था। आखिर हमारे यहां शिक्षा की जो हालत है, शैक्षणिक क्षेत्र में जो हो रहा है तरह-तरह के नियम लागू किये जा रहे हैं, नये आरक्षण के नियम, फलाने नए नियम आ जाते हैं और इतना बड़ा शिक्षक समाज इसका एक प्रतिशत भी उनके विद्धध या पक्ष में अपनी आवाज़ नहीं उठाता। लाखों अध्यापक हैं, वे शिक्षा की इस बदहाली पर मौन हैं। उनमें एक प्रकार की संकीर्णता लायी जा रही है। उसमें विचित्र भारत की कल्पना की जा रही है।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : लेखक के तौर पर आप समाज को कैसे देखते हैं। हम देखते हैं कि शिक्षक का आंदोलन रोस्टर पर, पर्मानेंट करने पर दिखता है। छात्रसड़क पर उतरते हैं कि इतने को फ ेल क्यों कर दिया गया यूनिवर्सिटी में। इस दौर में आपका नज़रिया क्या बन रहा है इस समाज को लेकर। हम लोग किस दिशा में जा रहे हैं।

अशोक वाजपेयी : देखिए, मैं कहना तो नहीं चाहता। लेकिन मुझे अंधेरा बढ़ता नज़र आ रहा है। अंधेरे का प्रतिरोध तो सजग नागरिक ही करेंगे ना और अधिक सजगता नागरिकों के किस वर्ग में होनी चाहिए जो पढ़े-लिखे लोग हैं और जो ज्ञानी हैं। अगर आप हिंदी अंचल देखें तो वहां साक्षरता बढ़ती गई है। उसी अनुपात में धर्मांधता और सांप्रदायिकता भी बढ़ती है। पहले था कि पढ़े-लिखे लोग होंगे तो उनका दिमाग कुछ रोशन होगा, खुला होगा, दुनिया जहां की बातें सीखी समझी जाएंगी। किसी तरह की संकीर्णता में वे गिरतार नहीं होंगे। उस ज़माने में थोड़ी बहुत वैचारिक संकीर्णता भी थी । अगर आप कानपुर के कायस्थ हैं तो आप कायस्थ को ज्य़ादा बढ़ावा देंगे या नियुक्ति देंगे। दूसरी बात थी वैचारिक । अगर आप माक्र्सवादी हैं, फलाने हैं तो आप ठीक हैँ, नहीं तो आप गलत हैं। यह सब पहले भी होता था। परन्तु इसका इतना दुष्प्रभाव पाठ्यक्रमों पर नहीं पड़ता था। लोग फि र भी किसी न किसी तरह से एक व्यापक दृष्टि रख के पढ़ लेते थे।

अब हालत यह है कि एक नया चोंचला पैदा हो गया है वह है सोशल मीडिया और गूगल। आपको ज्ञान की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि सारा ज्ञान वहां है। तो हम धीरे-धीरे कमतर किस्म के नागरिक बनने पर मज़बूर हो रहे हैं। अपने लिए इस समय नागरिकता का अनिवार्य कत्र्तव्य प्रतिरोध है। जबकि नागरिकता का एक बहुत बड़ा हिस्सा मंथन, प्रंशसा और भक्ति में लगा हुआ है। हमारे जो भक्ति काव्य हैं उनमें भी प्रश्न पूछा गया है। तुलसीदास ने मानस में कहलवाया है कि अयोध्या में राम राज्य स्थापित होने के बाद, अयोध्या के नागरिकों के लिए कहलवाया है कि ‘मेरे भाईयों तुहें लगता है कि अगर मैं कोई अनीति कर रहा हूं तो बिना डर के मुझे टोकना।’ यह तुलसीदास ने लिखा है। हमारी परंपरा में तो हमने राम को भी नहीं बशा है कि तुम गड़बड़ करोगे तो हम पूछेंगे। आज इतनी अनीति व्यापक है कि नीति की तो जगह ही नहीं रह गई। इस समय अल्पसंयक क्या है। सिर्फ जातियां और भाषिक सप्रदाय नहीं है। अल्पसंयक है सच अल्पसंयक हैं अहिंसा, अल्पसंयक है ज्ञान। ये सब अल्पसंयक हो गए। यह विचित्र समय है। इनको अल्पसंयक बनाकर ये हाशिए पर चले जाएं। कुछ भी कोई कह सकता है और कह कर इतिहास की, राजनीति की तरह-तरह की व्याया है। पहले भी व्याया अलग-लग हो गई थी, परन्तु इसमें वाद-विवाद हो सकता था। परन्तु आज गाली-गलौच होती है। क्योंकि तू फ लांना है। तेरा फ लाना अतीत है। इसलिए तेरा प्रश्न पूछना गलत है। लोकतंत्र प्रश्नवाचकता पर आधारित होता है। लोकतंत्र प्रश्नवाचकता मात्र पर नहीं इसमें भागीदारी और हिस्सेदारी समझने पर आधारित होता है। जो प्रश्न पूछेगा नहीं वह लोकतांत्रिक हो नहीं सकता। इस अर्थ में लोकतंत्र हर व्यक्ति को राजनीतिक बना देता है। क्योंकि उसे प्रष्न पूछने की आज़ादी है। अब प्रश्न पूछने की इच्छा ही मर गई है अगर मान लीजिए व्यापक समाज में प्रश्न पूछना ज़रूरी नहीं रह गया है और सारे उत्तर मिल रहे हैं तो कम-से-कम साहित्य में तो प्रश्न पूछने से गुरेज नहीं होना चाहिए।

पुण्य प्रसून वाजपेयी : इंदिरा से लेकर मौजूदा मोदी काल तक के वक्त में कौन-कौन से अंधेरे थे? किस से आपको लगता है कि उस दौर में साहित्य बहुत उभर कर आया। अंधेरे में ही साहित्य को रोश्नी मिली?

अशोक वाजपेयी : देखिए, एक तो आपातकाल था। आपातकाल में कुछ लोगों ने स्पष्ट विरोध किया। ये मत भूलिए कि कुछ वामपंथी लेखक ों ने समर्थन भी किया। पर कुल मिलाकर उस दौर में रधुवीर सहाय, धर्मवीर शास्त्री, श्रीकांत वर्मा। श्रीकांत वर्मा का ‘मगध’ कविता संग्रह उसी दौरान लिखा गया है। उस समय वह कांग्रेस पार्टी में महासचिव थे। वे बड़े शक्तिशाली थे। उन्होंने लिखा कौशल अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। कौशल में विचारों की कमी है। यह श्रीकांत वर्मा कह रहे हैं अस्सी के दशक में। अपनी मृत्यु से पहले।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : उनका सवाल वसन्त सेना को लेकर था?

अशोक वाजपेयी : वह भी है। ‘मगध’ काव्य संग्रह है। रधुवीर सहाय, विष्णु खरे ऐसे बहुत सारे कवि थे। अज्ञेय में स्वयं अलग ढंग से रोशनी को व्यक्त किया । दूसरा बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ उसके बाद हम में कई का अन्त:करण विचलित हुआ। हम में से अनेक ने लिखा। तीसरा काल आता है जब 2002 के दंगे होते हैं। उस समय महाश्वेता देवी, के सच्चिदानंदन, अपूर्वानंद और हम गुजरात के दौरे पर गए थे। हालत देखने और उसके बाद फि र बहुतों ने उसके बारे में लिखा। उसके बाद फि र समय बदल गया। लेकिन इस बीच जो लगातार होता रहा है उसमें वह तीन बातें हैं। एक भारतीय प्रशासन जिसकी शुरूआत इंदिरा गांधी के ज़माने से शुरू हुई और प्रशासन धीरे-धीरे पालतूपन यानी एक तरह की स्वामी भक्ति बढ़ी। धीरे-धीरे उसके निर्णय की स्वतंत्र बुद्धि को प्रभावित करने लगी।

सामूहिक रूप से, अपवाद इधर-उधर थे सो हमेशा थे। दूसरी बात हुई राजनीति में विचारों की विदाई। राजनीति प्रबन्धन का मामला हो गया। कौन कैसे मैनेज कर सकता है उसमें विचारों की भूमिका लगभग नहीं है। ये बात हुई। तीसरी बात जो हुई एक तरह से उत्साह जनक हुई कि दलित स्त्रियों ने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की। फि र उसके इर्द-गिर्द वोट बैंक की राजनीति घुस गई। ये तीनों बातें होती रही।

इस बीच साहित्य और उपन्यासकार बड़े-बड़े लेखक थे। कृष्णा सोबती, बालदेव वैद, श्रीकांत शुक्ल वगैरह। इन सबने अपने को समाज में क्या हो रहा है बिना आत्मबोध को गवाए हुए, बिना अपनी आत्मिक अद्विता से कोई समझौता किए हुए सबने कुछ-न-कुछ ऐसा किया। कहानी में हुआ, कविता में हुआ। जब यूपीए की सरकार ढगमगाने लगी, भ्रष्टाचार आदि के आरोप लगे। एक भी आरोप आज तक तो सिद्ध नहीं हुआ आरोपों का एक घटाटोप तैयार कर दिया गया था।

तब एक नया दौर आया जिसमें कुछ लोगों को लगा कि यह दौर असहिष्णुता बढ़ाने वाला होगा। हमारे समाज में अनेक तरह की असहिष्णुता शुुरू से ही रही है। लेकिन उस असहिष्णुता का इस तरह से मुखर वाचाल होने का, सक्रियता का और सत्ता द्वारा चुप रहकर उसका समर्थन करने का अवसर भारतीय राजनीति में पहले कभी नहीं था। अवसरवादी राजनीति हो या वामपंथी । लोग भले उससे सहमत रहे हो लेकिन नक्सलवादी हिंसा का समर्थन कभी नहीं करते थे। हिंसा के लिए राज्य को भले ही वह दोषी ठहराते हों, लेकिन वामपंथियों ने कभी नहीं कहा कि वे हत्या कर रहे हैं तो ठीक है, जायज है, मगर हम चुप रहे। आज अब यह दौर आया जहां जैसे लेखक चुप हैं वैसे ही सत्ता भी। बहुत सारी चीजों पर लेखक चुप हैं। उसकी अनदेखी होने लगी लोग मारे जाने लगे। जो मारा गया उसके हत्यारों का पकडऩे की बजाए उसके रिश्तेदारों को ही पकडऩे लगे। यानी वह मारा क्यों गया। जैसे उसके मारे जाने में भी उसका दोष हो, हत्यारों का नहीं। वगैरह-वगैरह ऐसी घटनाएं हुई।

2015 में हम लोगों को लगा कि अब इसका विरोध करना ज़रूरी है। अब लेखकों के पास विरोध करने के साधन क्या हैं। देखिए लिखे को पढऩे वाले कितने हैं? व्यापक समाज में लेखक कुछ कहना चाहते हैं ये बात आए कैसे? नयनतारा सहगल ने मुझसे बात की न उदय प्रकाश ने हमसे कुछ कहा। हम तीन लोग थे, आगे बढ़े सबसे पहले । और बाद में जिन्होंने वापस किया उनमें से किसी ने हमसे बात नहीं की। कोई संवाद किसी से नहीं हुआ। लेकिन अपने आप 60 ये अधिक लेखकों ने अपने पुरस्कार वापस किए। कुछ लोगों ने कहा कि ये पुरस्कार साहित्य अकादमी का है। लेकिन साहित्य अकादमी भी तो भाारत सरकार द्वारा ही घोषित संस्था है। वह अगर लेखकों की हत्या पर चुप रहती है। तो हम उसका विरोध कर रहे है।

उनमें से कुछ पहले पृष्ठ पर आते ही नहीं, अगर वह मर न जाते। अमूमन जीवित लेखक प्रथम पृष्ठ पर नहीं आते और न टीवी चैनल पर आते हैं। उन दिनों जाना था फ्र ांस और कनाडा। सो चला गया था। यही या नहीं ज्.यादातर वक्त । लेकिन फि र भी यह था लेखकों का स्वत: स्फूर्त अभियान। जिसे सत्ताधारियों ने कहा, ‘मैनुफै क्चर्ड इंटालरेंस’ है। जबकि अपनी जगह जाकर सब कह रहे हैं। हमारे यहां कोई असहिष्णुता नहीं है। विश्व की फ ोरम पर जाकर लोग कह रहे हैं। आखिर आज तक कलबुर्गी, पंसारे, गौरी लंकेश की हत्या के किसी कथित अपराधी की पहचान नहीं की गई। चार पांच बार सुप्रिम कोर्ट, हाईकोर्ट पुलिस को फ टकार लगा चुकी है। लेकिन कुछ हुआ नहीं । यह क्या लेखकीय मुद्दा नही? यह एक व्यापक मुद्दा था।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : ये आप सही कह रहे हैं लेकिन आपको मौजूदा वक्त को देखते हुए जो एक गुस्सा हुआ। जो भी त्रासदी थी। वह लेखन के तौर पर क्यों न आ सकी। आपने इस दौर में क्या लिखा है। कविता के तौर पर। जिस अंधेरे का जि़क्र हम बार-बार कर रहे हैं । इसमें यह भी आ रहा है कि युवा तबका कुछ लिख ही नहीं रहा है। जो रोशनी दिखा दे।

अशोक वाजपेयी : आई कुछ तो आई। इस दौर में मैं तो एक साप्ताहिक स्तंभ भी लिखता रहा।

उमीद का घर

उन्होंने सब कुछ ढहा दिया है

और अब जगह बिल्कुल साफ ़ है

वहां पहले क्या था

इसका कोई निशान बाकी नहीं रह गया है

हमारे समय में

कोई जगह खाली नहीं छोड़ी जाती थी

सो देर सवेर

प्रस्तुति: गोविंद झा

साभार: सूर्य टीवी चैनल

‘जम के दूत बड़े मरदूद’

जब होवेगी उमर पूरी ….और हम सबको एक दिन उड़ जाना है अकेले संत और निर्मोही हंस की तरह सब कुछ और विराट माया महाठगिनी को छोड़कर

स्व शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली यानी पंडित कुमार गन्धर्व जी का आज जन्मदिन है उन्हें प्रणाम, 8 अप्रैल 1924 को जन्में कुमार जी एक विलक्षण व्यक्तित्व थे, आज उनकी स्मृतियों को बहुत सघनता से महसूस करते हुए कोमलता से आरोह अवरोह में खड़ा भीग रहा हूँ

उनकी स्मृति अक्षुण्ण है , देवास में चलते फिरते, सब्जी लेते, आम आदमी से मिलते, अपने घर के बड़े से झूले पर बैठे सुपारी काटते, मल्हार स्मृति मन्दिर के मंच पर लम्बा आलाप लेते बाबा की यादें अंदर तक सुरक्षित हैं

राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर और बाबा डीके के संग ठठ्ठा लगाकर हंसते और अचानक गम्भीर बात कहते बाबा याद आ जाते हैं जब देर रात सुनता हूँ कौन नगरिया लूटल हो ठगवा कौन नगरिया ….

भारत भवन बन रहा है, देवास के छत्रपति गणेश मण्डल के वार्षिकोत्सव में मंच पर जो स्वनाम धन्य गायक या वादक गा – बजा रहें है वे भानुकुल से आये हैं बाबा के संग तांगे में बैठकर और कह रहे है कुमार के शहर में गाने का मज़ा ही कुछ और है , वसन्त निरगुने हो या अशोक वाजपेयी, सुदीप बैनर्जी या कोई और मुरीद

मित्र राजेश जोशी के घर उसके पिताजी के संग खारी बावड़ी के पास रँग पंचमी पर ठंडाई छन रही है और सब बाहर बैठकर ओटले पर रंगों से सरोबार हैं ग्लास भरे जा रहे हैं और कुमार जी कहते हैं यार एक बार ऐसा हुआ – किस्सागोई चालू है और हम हतप्रद से सुन रहें हैं औचक होकर

घर जाओ तो बाहर के हाल में पंखा नही पर लकड़ी की दीवारों से बना कमरा पदम सम्मानों से सजा है और वे कहते है – ये आला, बस इथे, काय शिकला आहे, संगीत मध्ये कुठला राग आवडतो, गुरुजी बरोबर गेला होता, कुठे, दिलीप भेटला कां

नईम कहते थे – कुमार गाता तो अच्छा है, एक फेफड़े से गाकर कबीर को खोल देता है, साला बंधुआ बना दिया है सबको, देवास में कुमार के नाम पर कुछ भी कर लो – गर्दन हिलाते लोग आकर बैठ जायेंगें सबके सब बंधुआ हैं, पर उच्चारण दोष बहुत हैं सु में सू हो जाता है इतना लंबा आलाप लेता है, मैं ठहरा हिंदी का मास्टर, उच्चारण दोष सह  नही पाता

एक सुबह सब खत्म, लोग रो रहे हैं, पहले भानुमति गई, उस युवा दिवस अर्थात 12 जनवरी को कुमार, फिर एक दिन वसुंधरा भी चली गई, मुकुल तो उनके जीते जी घर से चला गया था, उनका पुजारी शिवराम मुंगी भी – टेकड़ी के रास्ते पर बनें कर्नाटकी संगीत के आधार का मालवी संस्कृति में रचा और पगा, अपनत्व और वात्सल्य की कुटी बना घर अब संगीत की स्मृतियों का जलसाघर है जहाँ से वीणा वादिनी रूठ गई है

जम के दूत बड़े मरदूद जम से पड़ा झमेला – अब कबीर बाजार में तो है पर सिर्फ अपनी ख़ैर मांग रहा है चुनाव से लेकर लक्ष्मी की छाया में सहोदरों की भीड़ खोजते बेहद अकेला हो गया है कबीर, जब मिला तो मैंने पूछा कैसा गाते थे तुम्हे कुमार तो बोला – बहुत अच्छा, यकीनन कुमार अच्छा गाते थे पर उन्ही के साथ कबीर भी खत्म हो गया जो बचा था वह मुकुल शिवपुत्र के पास धरोहर है , बाकी तो कैसेट सुनकर घराने बनाने और कबीर को महफिलों में बेचने पर लगे है लोग

लिंडा हेस आती है कभी शबनम वीरमणि, कभी आये थे गुणाकर मुले अभी तक सैंकड़ों लोगों को उस द्वारे ले जा चुका हूँ पर अब ना शहर रहा जहां संगीत की स्वर लहरियाँ बहती थी रसधार के साथ, सूख गई क्षिप्रा क्षरित हो रही है टेकड़ी और सुर कर्कश हो गए है, शहरों की हवा कलुषित हो गई है कबीर मंडलियां खत्म होकर दर्दनाक दास्तानों में तब्दील हो रही हैं अब कोई नही कहता या गाता – ‘हिरणा समझ बुझ बन चरना’ और हम देवास वासी अब नही सुनते प्रभाती सुबह चार बजे से जो टेकड़ी पर बजती थी – ‘कुदरत की गत न्यारी या झीनी झीनी चदरिया या भोला मन जाने रे अमर मेरी काया भोला…’

पंडित जसराज जब उसी मंच से गाने आये और हम लोगों ने शाल ओढ़ाई तो बोले – माँ कालिका की गोद में बैठा हूँ और यह शाल मेरे पीछे मेरे अवगुणों को ढाँक देगी, कुमार का फोटो मुस्कुरा रहा है और जो गाया जसराज ने – ‘माता कालिका भवानी, जगत जननी भवानी’ उस दिन मंच से वैसा फिर कभी गा नही पाएं, इस मंच पर शोभा गुर्टू ने गाया हो, वसंतराव देशपांडे या बिस्मिल्ला खां साहब ने बजाई हो शहनाई या किरण देशपांडे का तबला या किशोरी अमोनकर या यूं कि कोई एक नाम बताओ बाबू साहब जो संगीत के आसमान पर उभरा और यहां दस्तक देकर ना गया हो

हिंदी के बड़े कवि अग्रज अशोक वाजपेयी जी से मुआफी सहित

तुम यहाँ से चले गए हो

पर

थोड़े नही पूरे के पूरे यहीं रह गए हो

[तटस्थ]

चुनावी फिल्मों का मौसम!

अपने देश में साहित्य-संगीत-कला के विभिन्न रूपों में सक्रिय लोगों का हमेशा मान रहा है। इसकी एक वजह यह है कि समाज को स्वस्थ दिशा देने में इन कलाओं की अहम भूमिका रही है। भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार अचानक 2014 में सत्ता में पहुंची। इसके जिम्मेदार व्यक्तित्व को उभारना और इसे सत्ता में शाश्वत रखने की इच्छा से प्रभावित कई अभिनेता, गायक, फिल्म निर्माता और निदेशकों ने रातो रात उस पर फिल्में बनाईं और वे उनकी रिलीज़ चुनाव के दौरान ही चाहते हैं। जिससे जनता सोचे।

ऐसी फिल्मों को रिलीज़ कराने के लिए एक राजनीतिक दल और उससे जुड़ी दूसरी पार्टियों ने भी मुहिम छेड़ रही है। जबकि विपक्ष लगातार विरोध कर रहा है। केंद्रीय चुनाव आयोग भी फिल्मों की रिलीज़ के पक्ष में नहीं है। गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। सवाल यह है कि यदि समकालीन घटनाओं पर जबर्दस्त और कला के लिहाज से ये वाकई अद्वितीय फिल्में हैं तो इन्हें चुनाव खत्म होने पर देखना समाज के लिए कहीं ज्य़ादा उपयोगी होगा। उससे सीख भी हासिल होगी और आगे वाली चुनौतियों से निपटा भी जा सकेगा।

देश की सुरक्षा, देशभक्ति पर एक से एक अच्छी फिल्में एक ज़माने में बालीवुड में बनती रही हैं। लेकिन उन्हेें बनाने वाले प्रचार फिल्में नहीं बना रहेे थे। ऐसी ऐतिहासिक फिल्मों में उपकार आज भी मील का पत्थर है।

सम-सामाजिक घटनाओं पर अभी हाल प्रदर्शित फिल्म थी ‘ऊरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ यह फिल्म सर्जिकल स्ट्राइक का महत्व बताती है। इसे विषय के नएपन की बेहतर प्रस्तुति के लिहाज से काफी सराहा गया। बॉक्स आफिस पर कामयाब भी रही। इस फिल्म के जोश का राजनीतिक उपयोग हुआ।

इसके बाद विवादों के घेरे में रही फिर भी रिलीज़ हुई ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’। इसमें चर्चित अभिनेता अनुपम खेर ने देश के पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की भूमिका निभाई। इसके बाद ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी’ फिल्म को रिलीज होने से चुनाव आयोग ने रोक दिया है। जिस पर अब फिल्म निर्माता सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे हैं।

कतार में भाजपा हैं, सेंसर बोर्ड की कमेटी में एक सदस्य मिहिर भूरा। उनकी कृति है ‘मोदी: जर्नी ऑफ ए कॉमन मैन’ है। वे 32 साल से प्रधानमंत्री को जानते हैं। तकरीबन एक महीने पहले जब आदर्श चुनाव संहिता अमल में भी नहीं आई थी तब गुजराती में उनकी एक फिल्म ‘हू नरेंद्र मोदी बनवा मांगू छू’ रिलीज हो गई थी।

अभी हाल, एक और फिल्म के बारे में निर्देशक महावीर जैन ने जानकारी दी है कि ‘बालाकोट स्ट्राइक’ नाम की उनकी फिल्म रिलीज के लिए कतार में है। इन्होंने 2018 मेें एक छोटी फिल्म ‘चलो जीतते हैं’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बचपन पर बनाई भी थी।

चुनावी मैदान में ही रिलीज होने की कतार में एक और फिल्म है, ‘मेरा नाम है रागा’। इसकी रिलीज की तारीख अभी तय नहीं है। इस फिल्म के निर्देशक रूपेश पाल हैं। वे पहले पत्रकार थे। उनकी पहले एक फिल्म थीं, माई मदर्स लैपटाप’।

‘ताशकंद फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म है जो भारत-पाक के बीच 1965 में हुए युद्ध के बाद सोवियत संघ के ताशकंद में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान के बीच हुई बातचीत पर है। इस बातचीत के बाद समझौते पर हुए दस्तख्त के बाद लाल बहादुर शास्त्री जब अपने कमरे में लौटे तो वहीं उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। इस फिल्म के निर्देशक-निर्माता विवेक अग्निहोत्री हैं। भाजपा के वे सक्रिय समर्थक हैं और सेंसरबोर्ड के सदस्य भी हैं।

कांग्रेस के पूर्व सचित अनिल शास्त्री के पोते ने पिछले दिनों विवेक अग्निहोत्री को कानूनी नोटिस दी है और बताया है कि इस फिल्म बनाने की मंशा ठीक नहीं है। यह पूरी फिल्म ऐतिहासिक तथ्यों के मूल आधार से एकदम अलग है जिसे बनाने की वजह भी स्पष्ट नहीं है। इसे रिलीज नहीं किया जाना चाहिए। फिल्म निर्माता का तर्क है फिल्म प्रेरक फिल्म है!

यह अच्छा है कि बॉलिवुड में आज एक से बढ़ कर एक निर्माता-निर्देशक और कलाकार हैं। ये सेंसर बोर्ड में भी हैं। लेकन बहती गंगा में हाथ धोने वालों से सजग रहने की आज ज़रूरत है फिल्में देखने वाले वर्ग को।

टीम में विजय शंकर को जगह, पंत की छुट्टी

अगामी क्रिकेट विश्व कप के लिए भारतीय टीम की घोषणा कर दी गई है। विजय शंकर को छोड़ कर सभी खिलाड़ी वही हैं जिनकी उम्मीद थी। इंग्लैंड के मौसम और विकेट की हालत को देखते हुए चयनकर्ताओं ने तीन तेज़ गेंदबाजों का चयन किया है। जसप्रीत बुमराह, भुवनेश्वर कुमार और मोहम्मद शमी तेज़ गेंदबाजी को संभालेंगे। भारत की जीत के लिए बुमराह का फार्म में रहना बहुत ज़रूरी है। यह एक ऐसा गेंदबाज है जो किसी भी स्थिति में टीम को जीत की ओर ले जा सकता है।

बल्लेबाजी का भार शिखर धवन, केएल राहुल, कप्तान विराट कोहली और उपकप्तान रोहित शर्मा पर रहेगा। इनके साथ पांच नंबर पर विकेटकीपर धोनी भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। केदार जाधव और विजय शंकर भी हरफनमौला खिलाडिय़ों की श्रेणी में आते हैं। लगता है कि पहले पांच बल्लेबाज तो हर मैच में खेलेंगे ही। इसके बाद पांच गेंदबाज भी खिलाने होंगे। गेंदबाजी के विकल्प देखने से लगता है कि तेज़ गेंदबाजों के साथ एक या दो स्पिनर भी खिलाए जाएंगे। हरफनमौला रविंद्र जाडेजा के अलावा टीम को कुलदीप यादव और युजवेंद्र चाहल का भी साथ मिलेगा।

देखने में टीम पूरी तरह संतुलित लगती है। इसमें युवा और अनुभवी दोनों ही तरह के खिलाड़ी हैं। पर मध्यक्रम में एक बांए हाथ के बल्लेबाज की कमी ज़रूर खलेगी। किसी भी गेंदबाज की लय और दिशा को भ्रमित करने के लिए मध्यक्रम में एक बांए हाथ के बल्लेबाज का होना ज़रूरी होता है। इसके अलावा भी मध्यक्रम में भरोसेमंद बल्लेबाज की कमी है। निचले क्रम में रविंद्र जाडेजा , केदार जाधव, धोनी, विजय शंकर या हार्दिक पांड्या अच्छा कर सकते हैं, पर पूरा भरोसा किस पर हो यह देखना पड़ेगा। इसके अलावा टीम में बांए हाथ के ‘आर्थोडॅाक्स’ स्पिनर की भी कमी नजऱ आ रही है। कुछ खास हालात में जब रनों पर अंकुश लगाने की ज़रूरत हो उस समय दांए हाथ के बल्लेबाज के खिलाफ बांए हाथ का पारंपरिक स्पिनर काफी प्रभावशाली साबित होता है।

टीम की घोषणा के बाद मुख्य चयनकर्ता एमएसके प्रसाद ने कहा कि चयनसमिति ने एक संतुलित टीम चुनी है और खेल के हर विभाग पर पूरा ध्यान दिया है। चयनकर्ताओं ने ऋषभ पंत और अंबाती रायडू को टीम में जगह नहीं दी है। टीम में हरफनमौला खिलाड़ी विजय शंकर को ऐसे बल्लेबाज के रूप में शामिल किया है जो कुछ गेंदबाजी भी कर सकता है। प्रसाद ने कहा कि पिछले एक साल से भी ज़्यादा समय से कलाई के दोनों स्पिनर काफी अच्छा कर रहे हैं। विकेट कुछ ज़्यादा सूखी हो सकती है पर जाडेजा अच्छा कर सकता है। उन्होंने बताया कि चैंपियंस ट्राफी के बाद हमने मध्यक्रम के लिए कुछ नए चेहरों को आजमाया हमने रायडू और विजय शंकर को मौके दिए। यदि बादल घिरे हों तो शंकर अच्छी गेंदबाजी कर सकता है और वह गज़ब का क्षेत्र रक्षक है।

प्रसाद ने कहा कि टीम में सात गेंदबाज हैं। हमें हर तरह से संतुलित टीम तैयार की हैं। उन्होंने कहा कि बैठक में खलील अहमद और नवदीप सैनी के नामों पर भी विचार हुआ और उन्हें आरक्षित तेज़ गेंदबाज के तौर पर रखा गया है। यदि ज़रूरत हुई तो उन्हें बुला लिया जाएगा।

असल में विश्व कप की तैयारी दो साल पहले इंग्लैंड में खेली गई चैपियंस ट्राफी के बाद ही शुरू हो गई थी। वहां भारत फाइनल में पाकिस्तान से हार गया था। उस समय चयनकर्ताओं ने कलाई के दो स्पिनरों यजुवेंद्र चाहल और कुलदीप यादव पर ध्यान दिया। पिछले महीने विजय शंकर पर भी नजऱ पड़ी।

इससे पूर्व प्रसाद और विराट कोहली ने कहा था कि आईपीएल में प्रदर्शन का इन चयन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 2018 में भारत ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ सीरिज़ जीती और एशिया कप जीता, वेस्टइंडीज को हराया। आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में सीरीज़ जीती पर इंग्लैंड में हारा। इसके साथ ही प्रथम तीन बल्लेबाजों ने खूब रन बनाए। पर इस समय शिखर धवन की फार्म चिंता का विषय है। इन हालात में सारा दारोमदार विराट कोहली और रोहित शर्मा पर होगा। यह भी उम्मीद करनी होगी कि जो खेल धोनी ने आस्ट्रेलिया से खेलना शुरू किया था वह जारी रहेगा। वहां उसने तीन एक दिवसीय मैचों में तीन अर्धशतक बनाए थे।

भारतीय टीम इस प्रकार है:-

विराट कोहली (कप्तान), रोहित शर्मा (उपकप्तान), शिखर धवन, केएल राहुल, एमएस धोनी (विकेट कीपर), केदार जाधव, विजय शंकर, दिनेश कार्तिक (विकेट कीपर), कुलदीप यादव, युजवेंद्र चाहल, जसप्रीत बुमराह, हार्दिक पांड्या, रविंद्र जाडेजा, मोहम्मद शमी, भुवनेश्वर कुमार।

आईपीएल में रनों की बरसात पर गेंदबाज भी चमके

इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) हमेशा रनों के अंबार और चौकों, छक्कों के लिए ही जाना जाता है। लेकिन इस बार इस लीग में गेंदबाज भी बल्लेबाजों की तरह चमक रहे हैं। इस सीजन के लगभग 22 मैच खेले जा चुके हैं और इन मैचों में कई बार गेंदबाजों ने ही अपनी टीम को जीत दिलाई है। इन मैचों में तेज गेंदबाजों के साथ-साथ स्पिनर भी कहर ढा रहे हैं।

सीजन का पहला मैच जो कि चेन्नई सुपर किंग्स और आरसीबी के मध्य खेला गया था। इसमें अनुभवी हरभजन सिंह ने 20 रन देकर तीन विकेट लिए। हरभजन ने चार मैचों में सात विकेट लिए हैं। भज्जी के पावरप्ले में पांच विकेट भी हैं। चेन्नई सुपर किंग्स और कोलकाता नाइट राइडरर्स के के बीच खेले गए मैच में भज्जी ने यह उपलब्धि हासिल की। कप्तान धोनी ने दूसरे ही ओवर में गेंद भज्जी को पकड़ा दी। भज्जी ने भी इस भरोसे को कायम रखते हुए पहले ही ओवर में नारायण को आउट कर दिया। इस मैच में दो विकेट लेने के अलावा भज्जी ने दो कैच पकड़े और एक रन आउट किया। इस सीजन में पावरप्ले के पहले छह ओवरों में भज्जी के पांच विकट हो गए है।

भज्जी के अलावा दीपक चाहर भी अपनी टीम की जीत में अच्छी भूमिका निभा रहे हैं। दीपक ने छह मैचों में आठ झटके हंै। चाहर इस टूर्नामेंट में एक पारी में सर्वाधिक डॉट गेंद डालने वाले गेंदबाज भी बने। चेन्नई सुपर किंग्स और कोलकाता नाइट राइडर्स के बीच खेले गए मैच में चाहर ने अपनी 24 में से 20 गेंद डॉट डालकर आशीष नेहरा के 19 गेंद  डॉट डालने का रिकॉर्ड भी तोड़ा है। उन्होंने इस मैच में चार ओवरों में 20 रन देकर तीन विकेट लिए।

इस सीजन में दिल्ली केपिटल के कगीसो रबादा ने 11 विकेट लेकर पर्पल कैप पर अपनी दावेदारी काफी मज़बूत कर रखी है। रबादा ने आरसीबी के खिलाफ 21 रन देकर चार विकेट लेकर दिल्ली को जीत दिलाई । दिल्ली की जीत में इस गेंदबाज की अहम भूमिका है।

मुंबई के युवा तेज गेंदबाज अल्जारी जोसफ ने 11साल पुराना रिकॉर्ड तोडा। उन्होंने सनराइजर्स हैदराबाद के खिलाफ 12 रन देकर छह विकेट लेकर यह चमत्कार किया। आईपीएल में उनका यह श्रेष्ठ प्रदर्शन है। इससे पहले 2008 में सोहेल तनवीर ने 14 रन देकर छह विकेट लिए थे।

आईपीएल के इस सीजन में पहली ‘हैटट्रिक’ किंग्स इलेवन पंजाब के सैम कुरैन ने लगाई। कुरैन ने दिल्ली कैपिटल के खिलाफ 11रन देकर 4 विकेट लिए थे। इसमें यह हैटट्रिक भी शामिल थी।

राजस्थान रॉयल के श्रेयस गोपाल ने अभी तक खेले पांच मैचों में आठ विकेट लिए हंै। श्रेयस ने  का सबसे शानदार प्रदर्शन आरसीबी के खिलाफ था। आरसीबी के खिलाफ गेंदबाजी करते हुए इस खिलाडी ने 12 रन देकर तीन विकेट लिए। कोहली और डेविलियर्स जैसे बल्लेबाज भी इस युवा स्पिनर की गुगली को नहीं समझ सके।

इमरान ताहिर पर्पल कैप के दावेदारों में नौ विकेट लेकर दूसरे नंबर पर हैं। चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाडी इमरान ताहिर ने अभी तक छह मैच खेले हैं और इनमें उनका शानदार प्रदर्शन आरसीबी के खिलाफ था। इस मैच मेें ताहिर ने नौ रन देकर तीन विकेट अपनी झाली में डाले थे।

इस सीजन में अफगानी स्पिनरों मोहम्मद नवी और राशिद खान की जोड़ी भी धमाल कर रही है। सनराइजर्स हैदराबाद की टीम की तरफ से खेलते हुए नवी ने चार मैचों में सात विकेट झटके ह।ैं नवी ने आरसीबी के खिलाफ चार ओवरों में 11 रन देकर चार विकेट लिए थे। राशिद खान ने छह मैचों में पांच विकेट लिए हैं।

सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज को दी जाने वाली पर्पल कैप के दावेदारों में अभी तक सबसे आगे रबादा हैं इसके बाद चेन्नई सुपर किंग्स के इमरान ताहिर, तीसरे नंबर पर युजवेंद्र चहल हैं। चैथे और पांचवें दावेदार दीपक चाहर और श्रेयस गोपाल हैं।

जहां तक टीमों के प्रदर्शन की बात है तो चेन्नई सुपर किंग्स बढ़त पर है। उसने अब तक खेले छह मैचों में से पांच में जीत दर्ज कर के 10 अंक हासिल कर लिए हैं। कोलकाता नाइटराइर्डस छह मैचों में से चार जीतकर आठ अंक के साथ दूसरे और किंग्स इलेवन पंजाब की टीम भी इतने ही अंक लेकर तीसरे स्थान पर बने हुए है।

सबसे खराब हालत रॉयल चैलेंजर बैंगलोर की है। इस टीम ने छह मैच खेल कर कोई भी अंक नहीं बटोरा है। इसने छह के छह मैच हारे हैं। इधर सन राइजर्स हैदराबाद, मुंबई इंडियंस और दिल्ली कैपिटल की टीमें छह-छह अंक लेकर चौथे, पांचवे और छठे स्थान पर हैं। राजस्थान रॉयल  के पांच मैचों में दो अंक हैं। मुंबई इंडियंस भी पांच मैच ही खेली है। इस प्रकार आईपीएल लगभग अपना आधा सफर तय कर चुका है। यहां हर टीम को 14-14 मैच खेलने हैं। इस तरह अभी आधे से ज़्यादा मैच बाकी हैं। पांच मई तक चलने वाले इस मुकाबले में बाकी के मैचों में कौन सी टीम क्या करेगी सभी कुछ उस पर निर्भर करेगा। आज आठ में से छह टीमें एक दूजे के कंधे के साथ कंधा मिलाकर खड़ी हैं इनमें एक टीम के 10 अंक हैं, दो के आठ-आठ और तीन के छह-छह अंक हैं। राजस्थान रॉयल जिसके दो अंक हैं और रॉयल चैलेंजर बैंगलोर जिसका कोई अंक नहीं, फिलहाल मुकाबले से बाहर दिखती हैं, पर बाकी की छह में से कोई भी यह मुकाबला जीत सकती है।

बुरा गधा नहीं, बुरा है गधे जैसा होना

हम गर्दभ बिरादरी से हैं। पर क्या यह ज़रूरी है कि हम सदा ‘गधे’ ही रहें। क्या हम ‘गधों’ से इंसान नहीं बन सकते? यदि इंसान गधा बन सकता है, मौके पर गधे को बाप बना सकता है तो क्या हम मानव नहीं बन सकते? बन सकते हैं और बन भी रहे हैं। तभी हम अब सत्ताधारी दल का साथ छोड़ कर विपक्षी दलों की ओर मुंह कर रहे हैं। भला हो, केंद्रीय जांच एजेंसियों का जिन्होंने हमें दिखा दिया कि सारी धन-दौलत तो विपक्षी नेताओं उनके रिश्तेदारों और समर्थकों के पास है। बेचारे विजय माल्या, नीरव मोदी वगैरा तो वैसे ही बदनाम हैं। वे तो देश से बाहर गए हैं (भागे नहीं) विदेशों के साथ व्यापारिक रिश्ते बनाने और हमारे विपक्षी मित्र पता नहीं क्या-क्या अफवाहें उड़ाने में लगे हैं।

हमें इन एजेंसियों पर तरस भी आता है चार-पांच साल बाद एक दिन अचानक इन्हें ऐहलाम होता है कि फलां नेता या उसके दूर पार के रिश्तेदार के पास अकूत धन संपत्ति है, मारो छापा। फिर दावे होते हैं जैसे सारा काला धन बाहर आ गया हो। सत्ताधारी दल के समर्थक कूद-कूद कर विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं, उन्हें फांसी तक देने की मांग करते हैं। खूब हो हल्ला होता है, और मतदान खत्म होते-होते यह कथित काला धन फांसी तक पहुंचा सकने तक का मामला सभी ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते है, कभी बाहर न निकलने के लिए। तो विपक्ष में रहो और आपार धन इक_ा करो।

बस यही खतरा है। नहीं तो पूरे पांच साल तक आप उस धन का उपयोग कर सकते हो। एक सवाल फिर भी दिमाग में आता है कि जब यह घोषणा कर दी जाती है कि सारा काला धन बैंकों में वापिस आ चुका है। काले धन की कमर टूट चुकी है। तो फिर यह धन और नोट कौन से हैं जो विपक्षी नेताओं के रिश्तेदारों या नज़दीकियों के घरों से और दुकानों से निकल रहे हैं। यह धन कहां से आया? इतना तो हमने अखबारों में पढ़ा और टीवी पर सुना है कि देश के विकास में अतुल्यनीय योगदान देने वाले कुछ महान लोग बैंकों का अरबों रुपया डकार कर विदेशों में जा बैठे हैं। यह सवाल हास्यस्पद है कि वे देश से कैसे निकले? उस समय देश की चौकीदारी करने वाले सो रहे थे क्या? एक सज्जन तो बाकायदा हाजरी लगा कर गए। फिर भी इन महान आत्माओं के पास जो पैसा है वह बैंकों का ‘सफेद’ रुपया है, ‘काला’ धन नहीं। इसलिए वे उतने बड़े अपराधी नहीं जितने बड़े उन्हें दिखाया जा रहा है।

इस सारी प्रक्रिया में एक और ‘विकल्प’ भी है। जब आप पर ज़्यादा छापेमारी होने लगे तो चुपचाप सत्ताधारी दल में चले जाओ, बस आप बच गए। अब आप न तो भ्रष्ट हैं और न ही बेईमान और देशद्रोही। आपको पार्टी टिकट भी मिलेगा और आप जीत भी जाओगे, क्योंकि हमारे प्रबुद्ध मतदाता जब वोट डालता है तो उसकी नजऱ तो धर्म, जाति वगैरा पर होती है। इतिहास इस बात का गवाह है। ज़रूरी नहीं कि आपका पूरा खानदान सत्ताधारी दल में जाए। बस आप खुद चले जाइए। कठिनाई तब होती है जब केंद्र में एक दल की सरकार हो और राज्य में दूसरे दल की। फिर भी विकल्प है। खुद एक पार्टी में जाओ, बेटे को दूसरी पार्टी में रखो यदि वह वहां मंत्री भी है तो कोई बात नहीं, पर अपने पौत्र को अपनी पार्टी का चुनावी टिकट दिलवा दो। अब छापे पडऩे बंद। केस का तो पता ही नहीं कब ठप्प कर दिया जाए। ये लोग जो खुद को हमसे ज़्यादा अक्लमंद समझते हैं, सारी बातें दो दिन में भूल जाते हैं।

आज किसे याद है गऱीबी हटाओ का नारा। किसे याद है ‘अच्छे दिन’। आज सांप्रदायिक ताकतों को हराने का दावा करने वाले नेता लोकतांत्रिक ताकतों को कमज़ोर करने उत्तर से दक्षिण में पहुंच गए हैं। पर बेचारे क्या करें अब जब एक जगह जीत सुनिश्चित न हो तो हाथ-पैर तो मारने ही पड़ेंगे। बिना कुर्सी के रहना बहुत कठिन है। ख़ैर हमें क्या, हम तो गधे हैं। गधे तो हैं पर उस हर इंसान से ज़्यादा समझदार हैं जो अंधे हो कर सामने दिख रही खाई को भी नहीं देख पाते। जिन्हें न सूरज की रोशनी दिखाई देती है न तमिर का अंधेरा। गलियों, मुहल्लों में लोग जब एक-दूजे का सर फोड़ रहे होते हैं तो हम अपने खूंटों से बंधे इस बात पर संतोष करते हैं कि अच्छा है हम ‘गधे’ हैं गधों जैसे इंसान नहीं।

तिवारी के बेटे रोहित की मौत पर हत्या का मामला दर्ज़

उत्तर प्रदेश के दिवंगत के मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के बेटे रोहित शेखर की संदिग्ध हालात में हुई मौत की चर्चा के बीच शुक्रवार को सामने आया है कि शेखर की मौत संभवता नेचुरल (सामान्य) नहीं थी। इसे लेकर अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ हत्या का   मामला दर्ज़ किया गया है और दिल्ली क्राइम ब्रांच को जांच का जिम्मा सौंपा गया है।
 शुक्रवार को ही रोहित की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आई जिसके बाद मामले की जांच दिल्ली क्राइम ब्रांच को सौंपी गई है। रोहित की संदिग्ध मौत के मामले में अज्ञात के खिलाफ हत्या की धारा में केस दर्ज किया गया है। याद रहे १६ अप्रैल को रोहित को साकेत स्थित मैक्स अस्पताल लाया गया था, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था।
पुलिस ने कहा था कि रोहित की नाक से खून निकल रहा था। इस बात की जानकारी नौकर ने उसकी मां उज्ज्वला तिवारी को दी थी। रोहित की मां घर पर नहीं थीं। वह चेकअप के लिए अस्पताल गई हुई थीं। हालांकि, उज्ज्वला ने कहा था कि बेटे की मौत स्वाभाविक है। उन्हें इसमें कोई भी शक नहीं है और वे रोहित की मृत्यु के कारणों का खुलासा बाद में करेंगी कि किन हालत में ऐसा हुआ।
गौरतलब है कि २०१४ में लम्बे विवाद के बाद एनडी तिवारी ने रोहित को अपना बेटा स्वीकार किया था। रोहित लंबे समय तक चले पितृत्व विवाद को लेकर तब खूब चर्चा में रहे थे। लम्बे इंकार के बार आखिर २०१४ में तिवारी ने अदालत के आदेश के बाद रोहित को अपना बेटा स्वीकार कर लिया था। तिवारी (९३) का १८ अक्टूबर, २०१८ को निधन हो गया था। अब शेखर की मौत के विवाद में आने के बाद पुलिस इस मसले की जांच करेगी।