बुरा गधा नहीं, बुरा है गधे जैसा होना

हम गर्दभ बिरादरी से हैं। पर क्या यह ज़रूरी है कि हम सदा ‘गधे’ ही रहें। क्या हम ‘गधों’ से इंसान नहीं बन सकते? यदि इंसान गधा बन सकता है, मौके पर गधे को बाप बना सकता है तो क्या हम मानव नहीं बन सकते? बन सकते हैं और बन भी रहे हैं। तभी हम अब सत्ताधारी दल का साथ छोड़ कर विपक्षी दलों की ओर मुंह कर रहे हैं। भला हो, केंद्रीय जांच एजेंसियों का जिन्होंने हमें दिखा दिया कि सारी धन-दौलत तो विपक्षी नेताओं उनके रिश्तेदारों और समर्थकों के पास है। बेचारे विजय माल्या, नीरव मोदी वगैरा तो वैसे ही बदनाम हैं। वे तो देश से बाहर गए हैं (भागे नहीं) विदेशों के साथ व्यापारिक रिश्ते बनाने और हमारे विपक्षी मित्र पता नहीं क्या-क्या अफवाहें उड़ाने में लगे हैं।

हमें इन एजेंसियों पर तरस भी आता है चार-पांच साल बाद एक दिन अचानक इन्हें ऐहलाम होता है कि फलां नेता या उसके दूर पार के रिश्तेदार के पास अकूत धन संपत्ति है, मारो छापा। फिर दावे होते हैं जैसे सारा काला धन बाहर आ गया हो। सत्ताधारी दल के समर्थक कूद-कूद कर विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं, उन्हें फांसी तक देने की मांग करते हैं। खूब हो हल्ला होता है, और मतदान खत्म होते-होते यह कथित काला धन फांसी तक पहुंचा सकने तक का मामला सभी ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते है, कभी बाहर न निकलने के लिए। तो विपक्ष में रहो और आपार धन इक_ा करो।

बस यही खतरा है। नहीं तो पूरे पांच साल तक आप उस धन का उपयोग कर सकते हो। एक सवाल फिर भी दिमाग में आता है कि जब यह घोषणा कर दी जाती है कि सारा काला धन बैंकों में वापिस आ चुका है। काले धन की कमर टूट चुकी है। तो फिर यह धन और नोट कौन से हैं जो विपक्षी नेताओं के रिश्तेदारों या नज़दीकियों के घरों से और दुकानों से निकल रहे हैं। यह धन कहां से आया? इतना तो हमने अखबारों में पढ़ा और टीवी पर सुना है कि देश के विकास में अतुल्यनीय योगदान देने वाले कुछ महान लोग बैंकों का अरबों रुपया डकार कर विदेशों में जा बैठे हैं। यह सवाल हास्यस्पद है कि वे देश से कैसे निकले? उस समय देश की चौकीदारी करने वाले सो रहे थे क्या? एक सज्जन तो बाकायदा हाजरी लगा कर गए। फिर भी इन महान आत्माओं के पास जो पैसा है वह बैंकों का ‘सफेद’ रुपया है, ‘काला’ धन नहीं। इसलिए वे उतने बड़े अपराधी नहीं जितने बड़े उन्हें दिखाया जा रहा है।

इस सारी प्रक्रिया में एक और ‘विकल्प’ भी है। जब आप पर ज़्यादा छापेमारी होने लगे तो चुपचाप सत्ताधारी दल में चले जाओ, बस आप बच गए। अब आप न तो भ्रष्ट हैं और न ही बेईमान और देशद्रोही। आपको पार्टी टिकट भी मिलेगा और आप जीत भी जाओगे, क्योंकि हमारे प्रबुद्ध मतदाता जब वोट डालता है तो उसकी नजऱ तो धर्म, जाति वगैरा पर होती है। इतिहास इस बात का गवाह है। ज़रूरी नहीं कि आपका पूरा खानदान सत्ताधारी दल में जाए। बस आप खुद चले जाइए। कठिनाई तब होती है जब केंद्र में एक दल की सरकार हो और राज्य में दूसरे दल की। फिर भी विकल्प है। खुद एक पार्टी में जाओ, बेटे को दूसरी पार्टी में रखो यदि वह वहां मंत्री भी है तो कोई बात नहीं, पर अपने पौत्र को अपनी पार्टी का चुनावी टिकट दिलवा दो। अब छापे पडऩे बंद। केस का तो पता ही नहीं कब ठप्प कर दिया जाए। ये लोग जो खुद को हमसे ज़्यादा अक्लमंद समझते हैं, सारी बातें दो दिन में भूल जाते हैं।

आज किसे याद है गऱीबी हटाओ का नारा। किसे याद है ‘अच्छे दिन’। आज सांप्रदायिक ताकतों को हराने का दावा करने वाले नेता लोकतांत्रिक ताकतों को कमज़ोर करने उत्तर से दक्षिण में पहुंच गए हैं। पर बेचारे क्या करें अब जब एक जगह जीत सुनिश्चित न हो तो हाथ-पैर तो मारने ही पड़ेंगे। बिना कुर्सी के रहना बहुत कठिन है। ख़ैर हमें क्या, हम तो गधे हैं। गधे तो हैं पर उस हर इंसान से ज़्यादा समझदार हैं जो अंधे हो कर सामने दिख रही खाई को भी नहीं देख पाते। जिन्हें न सूरज की रोशनी दिखाई देती है न तमिर का अंधेरा। गलियों, मुहल्लों में लोग जब एक-दूजे का सर फोड़ रहे होते हैं तो हम अपने खूंटों से बंधे इस बात पर संतोष करते हैं कि अच्छा है हम ‘गधे’ हैं गधों जैसे इंसान नहीं।