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जोधपुर में है खास लड़ाई का भारी ‘शोर’

आप जैसे ही जोधपुर में प्रवेश करते हैं तो मालूम हो जाता है कि आप गहलोत के ठिकाने में हैं। शहर मुख्यमंत्री गहलोत के बेटे और कांग्रेस उम्मीदवार वैभव गहलोत के पोस्टर, कटआउट और बोर्डों से अटा पड़ा है। तभी एक नज़र देख लगता है मानो बेटे के लिए जोधपुर से दिल्ली की सत्ता का रास्ता साफ है। राहुल गांधी और कांग्रेस भी पोस्टर, हार्डिंग में बहुत प्रमुखता से है। जैसे उत्तर प्रदेश या दिल्ली में चौतरफा नरेंद्र मोदी के फोटो मिलते है वैसे जोधपुर की सड़कों पर राहुल गांधी मुस्कुराते हुए सर्वत्र मिलते हैं। और हां, राजस्थान में यही अकेला शहर मिला जहां ‘चुनाव’ का शोर भी सुनाई दिया।

जोधपुर की लड़ाई को चुनाव 2019 की प्रमुख लड़ाई माना जाना चाहिए। वैभव गहलोत कांग्रेस का चेहरा हैं, और भाजपा के मौजूदा सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत दूसरी तरफ है। दोनों के बीच यह बड़ा और कांटे का मुकाबला है। दोनों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है और यह लड़ाई इसलिए भारी है क्योंकि प्रदेश के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री से परोक्ष मुकाबले में हर कोई मान रहा है। लड़ाई के लिए जिस तरह का करो-मरो बना हुआ है उससे वह समझा जा चुका है कि मुकाबला कोई आसान नहीं है।

गजेंद्र सिंह शेखावत पर दबाव उनके आत्मविश्वास के रूप में देखा जा सकता है। चुनाव प्रचार के उनके और पार्टी के कुछ प्रचार बोर्ड देख कर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। वैभव के अचानक इस सीट पर आ जाने को लेकर उनके भीतर की बेचैनी, उत्तेजना और आवेश छिपा नहीं रह रहा है। यह उनकी चिंता को दर्शाने के लिए काफी है। गजेंद्र सिंह ने 2014 में जोधपुर सीट चार लाख दस हजार इक्यावन वोटों के अंतर में जीती थी। उनकी ऐसी ज़ोरदार जीत का कारण तब मोदी लहर थी। लेकिन आज मोदी लहर गायब है और वैभव गहलोत का चेहरा सामने है। जोधपुर में अपने नए घर पर नया इंडिया के साथ एक मुलाकात में गज्जू बन्ना (आमतौर पर उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता है) ने कहा – जोधपुर के लोगों से मेरा जुड़ाव सहज और पुराना है और इसीलिए मुझे पूरी उम्मीद है कि लोग मुझे पहले की तरह ही जिताएंगे।

क्या उन्हें वैभव गहलोत के चुनाव में उतरने से चुनौती नहीं मिल रही है, यह पूछे जाने पर गज्जू बन्ना कहते हैं – कोई खतरा या चुनौती नहीं है, सिर्फ एक बाधा है।

वे वैभव को अशोक गहलोत की छाया के रूप में देखते हैं, इसलिए उन्हें कोई खतरा नजर नहीं आता। वे इस बात को भी मानने को तैयार नहीं हैं कि यहां मोदी लहर नहीं है। बल्कि गज्जू बन्ना तो यह कहते हैं  कि अगर 2014 में मोदी लोगों के लिए उम्मीद की एक किरण थे तो आज 2019 में यह उम्मीद की किरण एक विश्वास में तब्दील हो चुकी है। इसलिए उन्हें इस बात को लेकर पूरा विश्वास है कि नरेंद्र मोदी और जोधपुर की जनता से उनका पुराना जुड़ाव उन्हेें इस सीट पर एक बार फिर अच्छी  जीत दिलाएगा।

लेकिन भाजपा में हर किसी के भीतर ऐसा भरोसा नज़र नहीं आ रहा है जैसा गज्जू बन्ना में है। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं को इस बात का अहसास हो गया है कि इस बार भाजपा के लिए यहां की लड़ाई आसान नहीं है। ये मान रहे है कि इस बार यहां मोदी की पहली जैसी हवा नहीं है। तभी पार्टी कार्यकर्ताओं में भी कोई खास उत्साह नहीं है, बल्कि हताशा का भाव ही नज़र आ रहा है, खासतौर से उन लोगों के भीतर जो संघ से जुड़े रहे हैं। लोगों से बात करे तो उसमें भी लगता है कि हालात आज 2014 से उलट हैं।

तब नरेंद्र मोदी का जलवा अपने आप बनता चला गया था, जबकि आज वैसा ही जलवा बनाने के लिए कार्यकर्ताओं को जमकर मशक्कत करनी पड़ रही है, खासा वक्त और ऊर्जा लगानी पड़ रही है। जोधपुर में भी फिर से जाति के नाम चुनाव हो रहा है और यही सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है।

इन सबसे गज्जू बन्ना इत्तेफाक नहीं रखते है। वे इन सारे दावों को खारिज करते हैं। उनका स्पष्ट तौर पर स्थानीय मुद्दों में नंबर एक पर मानना है कि पीने के साफ पानी का मुद्दा सबसे बड़ा है। मोदी के संकल्प पत्र में नल से जल का वादा पूरा करने की बात है। वे अपना अभियान इसी के इर्दगिर्द चला रहे हैं। लेकिन हाल में जरा पटरी से उतर गए और एक चुनावी भाषण में उन्होंने राजस्थान सरकार के अफसरों को धमकी दे डाली। इससे वे आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में घिर गए और चुनाव आयोग ने उन्हेें नोटिस थमा दिया। मैं जिस दिन उनसे मिली थी, उस दिन वे इस नोटिस का जवाब तैयार करने के लिए अपनी टीम के साथ काम में जुटे थे। एक पीडि़त के तौर पर वे बोले – देखिए, मेरे खिलाफ सरकारी मशीनरी का कैसा दुरु पयोग किया जा रहा है।

तब ऐसे में क्या अशोक गहलोत को वे एक खतरे के रूप में देखते हैं? क्या अशोक गहलोत का निजी आकर्षण उनकी जीत के लिए रोड़ा बनेगा? उससे अवसर क्या मुश्किल बने है?

इस पर गज्जू बन्ना ने कहा – 22 अप्रैल को नरेंद्र मोदी जोधपुर आ रहे हैं। तब आपको पता चल जाएगा कि किसके अवसर मुश्किल या आसार है? कौन किसको झटका देगा?

क्या किसान बनाएंगे अगली सरकार?

किसानों, कृषि उपज का कारोबार करने वाले और कृषि और कृषि पर आधरित उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले अधिकतर लोगों के परिवार लाचारी और बेबसी का जीवन जीने को विवश हैं। यह उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि देश खाद्यन्न के मामले में पूरी तरह आत्म निर्भर है।

खेती देश में रोजगार देने वाला सबसे बड़ा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें 56 फीसदी लोग रोजगार में जुटे हैं। यदि हम इसमें कृषि उपज उद्योगों और सड़क, रेल, वायुमार्ग और जल मार्ग से कृषि उपज और कृषि उपज से बने सामान की ढुलाई करने के काम में लगे सभी तरह के तबके को जोड़ दे तो न केवल रोजग़ार की दृष्टि से कृषि सबसे बडा जरीया है बल्कि सकल घरेलू उत्पादन में उक्त सभी क्षेत्रों के योगदान को जोड़ा जाये तो जीडीपी में भी खेती का सर्वाधिक योगदान ही दिखेगा।

एक तरफ देश में कृषि उपज व कृषि उपज से बने सामान का कारोबार करने वाले, कृषि उपज पर निर्भर उद्योग चलाने वाले और सड़क, रेल, वायुमार्ग व जल मार्ग से कृषि उपज और कृषि उपज से बने सामान की ढुलाई का काम करने धनवान होते जा रहे हैं। यही नहीं, खेती के काम में जुटे तबके के वोटों से बनने वाले सांसद और विधायक भी धनवान होते जा रहे हैं, जबकि दूसरी तरफ खेती में जुटा बड़ा तबका लाचार और बेबस होकर निजी सूदखोरों और बैंकों से कजऱ् लेकर न केवल कजऱ्दार बन जाते हैं बल्कि कर्ज के बोझ तले दबकर कुछ लोग आत्महत्या तक कर बैठते हंै। भारतीय किसान मजदूर संयुक्त यूनियन का साफ मानना है ऐसी व्यवस्था हमको मंजूर नहीं है। खेती के काम में जुटे तबके की मेहनत और देश के विकास में उसके योगदान को देखते हुए यूनियन वर्षों से खेती में लगे इस तबके को सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर आमदनी की गारंटी की मांग करती आ रही है।

2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि केन्द्र में उनकी सरकार बनने पर सबके खाते में 15-15 लाख रुपये आएंगे, हर सल दो करोड़ युवाओं को रोजगार मिलेगो, किसानों को लागत का डेढ गुना दाम देंगे, सबके अच्छे दिन और गंगा को पवित्र करने का वादा किया था। पिछले पांच वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने इनमें से किसी भी वादे को पूरा नहीं किया।

जबकि वादों के विपरीत सुप्रीम कोर्ट में किसानों को लाभ देने के मामले में सुनवाई के वक्त मोदी सरकार ने शपथ-पत्र देते हुए कहा कि उसके लिए किसानों को डेढ गुना लाभ दे पाना संभव नहीं है और दूसरे, देश की आजादी के 66 वर्ष बाद भूमि अधिग्रहण के लिए बने कानून ”उचित मुआवजे का अधिकार,

पुनस्र्थापन, पुनर्वास और भूमि पारदर्शिता अधिनियम 2013’’ को अध्यादेश जारी कर तीन बार कमज़ोर करने का प्रयास किया। जिससे कि वह देश के किसान-आदिवासियों की ज़मीन छीनकर अपनी चहेती कंपनियों को दे सकें। यही नहीं मोदी सरकार एक तरफ फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए किसानों की फसलों की बीमा राशि से बीमा कंपनियों की तिजोरियां भरती जा रही हैं और दूसरी तरफ आवारा पशु गोवंश देशभर में हमारे किसानों की फसलें चौपट कर रहे हैं और बीमा कंपनियां आवारा गोवंशों से हो रहे फसलों के नुकसान के मुआवजे की एक रुपये की भी भरपाई नहीं करती हैं।

यही नहीं छह जून 2017 को मंदसौर, मध्यप्रदेश में किसान आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी के वादे के मुताबिक लागत मूल्य में 50 फीसदी लाभ के समर्थन मुल्य की मांग को लेकर सड़क पर उतरे थे तो उन किसानों में शामिल 6 किसान तत्कालीन शिवराज सिंह चैहान की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के राज में पुलिस फायरिंग में मारे गए। जिसके कारण न केवल देशभर के किसान संगठन लामबंद हुए बल्कि किसानों के बीच भी मोदी की कथनी और करनी में जो अंतर वह भी बेनकाव हुआ। देशभर में किसान आंदोलनों के कारण किसान संगठित और सोशल मीडिया के कारण जागरूक हो चुका है। इसलिए अब किसानों को अन्नदाता कहकर उनकी उपज और मतदाता कहकर झूठे वादे कर खेती के काम में जुटे तबके के वोट ठगना सरल नहीं रहा।

चुनाव के मौसम में रंग चुके देश में खेती कर लाचारी और विवशता में जीवन जीने वाला तबका भी अब आदमी आदमी नहीं रहा वह वोटर हो चुका है। वोटर होते-होते वह कुछ चतुर-चालाक भी हो गया है। पहले वह गीता-कुरान उठाकर इस या उस दल को अपना वोट देने के लिए बंध जाता था। फिर वादा एक से और वोट दूसरे को देने लगा। वह वोट के जरिए उम्मीदवारों को हराने-जिताने और सत्ता में बैठे दल की सत्ता छीनने-सत्ता हासिल करने वाले दल को सत्ता दिलाने की अपनी ताकत को पहचान चुका है।

राजनीति दल भी अब खेती के काम में जुटे तबके की ताकत को जान चुके हैं और मान चुके है कि उनके एक-एक उम्मीदवार का भाग्य इस तबके की मु_ी में कैद है यही नहीं राजनेता यह भी जान चुके हैं कि केन्द्र में सरकार भी इस तबके के वोट और समर्थन के बगैर बना पाना असंभव है।

2014 के आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी द्वारा किये गए वादों में एक भी वायदे को 5 वर्षों के दौरान पूरा न करना, सुप्रीम कोर्ट में किसानों को लाभ देने के मामले में सुनवाई के वक्त मोदी सरकार का किसानों को डेढ गुना लाभ दे पाने में असमर्थता व्यक्त करना, देश की आजादी के 66 वर्ष बाद भूमि अधिग्रहण के लिए बने कानून ”उचित मुआवजे का अधिकार, पुनस्र्थापन, पुनर्वास एवं भूमि पारदर्शिता अधिनियम 2013’’ को अध्यादेश जारी कर तीन बार कमजोर करने का प्रयास करना और मंदसौर में लाभकारी मुल्य की मांग करने वाले 6 किसानों को पुलिस फायरिंग में मरवाने, फसल बीमा कंपनियां आवारा गोवंशों से हो रही किसानों की फसलों के नुकसान के मुआवजे की एक रुपये की भी भरपाई नहीं करती हैं।

किसान सरकार से नाराज़ हैं। मोदी सरकार किसानों की नाराजगी कितना कम कर पाएगी यह तो चुनाव के नतीजे आने के बाद ही पता लग सकता है लेकिन एक बात साफ है 17 रूपये रोजाना की मदद से न तो किसान सक्षम हो सकते हैं, न उन किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई हो सकती है जिनकी फसलों को आवारा गोवंश नष्ट कर देते हैं, न उन किसानों का भला होने वाला है जिनके बच्चे बेरोजग़ार घूम रहे हैं। इस तरह की योजना को नोट फॉर वोट जरूर कहा जा सकता है। भारतीय किसान मजदूर संयुक्त यूनियन का मानना है कि मोदी की अगुवाई में एनडीए सरकार किसानों को 17 रूपये प्रति दिन देकर चुनाव में सफलता हासिल करके उन्हें पक्का भिखारी बनाने के लिए 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर कर किसान-आदिवासियों की जमीन छीनकर अपने चहेते उद्योगपतियों को देने का ख्वाब देख रहीे है। यूनियन मोदी सरकार के इस ख्वाब को किसी भी दशा में पूरा नहीं होने देगी।

मोदी सरकार के विपरीत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अगुआई में यूपीए गठबंधन है, जो देश के 20 फीसदी गरीबों को न्याय योजना 6 हजार रूपये मासिक देने का वादा कर चुका 6000रूपये मासिक मदद से न केवल गरीब किसान-मजदूरों के परिवारों को न्याय मिलेगा बल्कि राहुल गांधी की उक्त न्याय योजना से बाबा साहब के सामाजिक न्याय, आखिरी पायदान पर बैठे व्यक्ति को न्याय देने के महात्मा गांधी के सिद्धांत को अमली जामा पहनाने और गंणतंत्र दिवस की सार्थकता को धरातल पर उतारने का लोकतांत्रिक निर्णय भी है।

लेखक: भूपेन्द्र सिंह रावत

भारतीय किसान मजदूर संयुक्त

यूनियन का राष्ट्रीय प्रवक्ता

हाथी, घोड़ा, पालकी ..जय कन्हैया लाल की

बेगूसराय पूरे देश में एक ऐसा संसदीय क्षेत्र है जहां आप यदि पहुंचे तो पाएंगे कि यहां पूरा हिंदुस्तान इक_ा है। हर प्रदेश, हर भाषा, हर धर्म के लोगों को बिहार के इस संसदीय क्षेत्र में आप देखेंगे और चकित होंगे। अद्भूत मिलन स्थली हैं बेगूसराय।

जहां तीखी गर्मी में भी लोग देस-विदेस से एकजुट हुए हैं। ये सभी यहां सच को जीत दिलाने और देश को बचाने की कोशिश में न जाने कहां-कहां से पहुंच गए हैं। ये वह देस बनाना चाहते हैं जहां प्यार हो, संतोष हो, लोग दो जून की रोटी संतोष से खा सकें। जाति, धर्म और भाषाई संकीर्णता से अलग एक ऐसा देश बने जहां किसी पर भी किसी तरह का कोई दबाव न हो।

स्टेशन से जैसे ही आप कन्हैया कुमार के बारे में पूछते हैं। सुबह आठ बजे ही आप को हंसते-खिलखिलाते – भागते-कूदते छोटे-छोटे बच्चे गाते दिखेंगे। ‘हाथी, घोड़ा, पालकी , जय कन्हैया लाल की।’ बस, आप इस बाल टोली के साथ-साथ चलते रहिए। बच्चे आपको पीछे आते देखते रहेंगे। आपस में गुपचुप कुछ कहेंगे। ढेरों बाल निगाहें आपको देखेंगी फिर टोली के बच्चे मुस्कारते ,  हंसती-गाती उस रैली में जा मिलेंगे जहंा बड़े पेड़ की छांव में एक लाल गाड़ी में माला पहले कन्हैया खड़े होकर अपनी बात कह रहे हैं। इक_ा ग्रामीण जन समुदाय कन्हैया की बातों पर हंसता है, खिलखिलाता है। नारे लगाता है, कन्हैया तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। झांसे में न आओ तुम, कान्हा को हम जिताएंगे।

कन्हैया प्रतीक है उस छात्र आंदोलन का जिसे देशभक्ति के नाम पर कुचला गया।  झूठे आरोप लगाए गए, युवाओं को जेल में बंद रखा गया। दूसरों के साथ ऐसा न हो इसलिए  कन्हैया ने आंदोलन की राह ली। उन्होंने निडरता से जाति, धर्म, के नाम पर भेद करने का विरोध किया। शिक्षा को लगातार मंहगा किए जाने के खिलाफ आवाज़ उठाई। सही, सरल सच्ची भाषा से देश की जनता में अपनी जगह बनाई। बेगूसराय के अपने बच्चे और नौजवान हैं कन्हैया। उनके समर्थन में पूरे देश से विभिन्न आंदोलनों के नेता और समर्थक भी आ जुटे हैं। यह जुड़ाव संकेत देता है बिहार की धरती से एक बदलाव का।

बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में कन्हैया कुमार उम्मीदवार तो हैं सीपीआई के। लेकिन विभिन्न वामदलों ने उन्हें समर्थन दिया है। यहां उनके मुकाबले में भाजपा के हिंदुत्व समर्थक गिरिराज सिंह हैं। यह लड़ाई खासी तीखी है। हर तबके की यहां की  जनता आज बेरोजग़ारी, नोटबंदी और मंदिर – मस्जिद की राजनीति से उकता गई है। वह फसलों की सही कीमत, बच्चों को रोजग़ार और इलाके में स्कूल, अस्पताल चाहती है। जिसका भरोसा कन्हैया देते हैं।

एक ज़माना था जब बेगूसराय वामपंथी गतिविधियों का बड़ा केंद्र था। आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही स्वामी सहजानंद सरस्वती ने यहां किसान आंदोलन को एक ऊँचाई दी थी।  स्वामी सरस्वती खुद भूमिहर ब्राहमण थे। लेकिन उन्होंने बेगूसराय में किसानों को ज़मींदरों के खिलाफ एकजुट किया।

सीपीआई बेगूसराय में 1996 तक जीतती रही। सात विधानसभा क्षेत्रों में तीन तो बेगूसराय लोकसभा सीट के तहत है।। जो 2004 तक बलिया सीट  का हिस्सा थे। सीपीआई 1996 तक यहां जीतती रहीं। इसके बाद आरजीडी,जनता दल (यू), और एलजपी (लोक जनता पार्टी) एक-एक बार जीती। फिर बलिया लोकसभा सीट और इसकी विधानसभा सीटें दूसरी निर्वाचन क्षेत्रों में जोड़ दी गई। फिर 2014 में चुनाव हुआ। पहली बार बेगूसराय से भाजपा जीती। यह सीट खाली हुई जब अक्तूबर में ?? सिंह का निधन हुआ।

बेगूसराय 30 लाख लोगों का संसदीय क्षेत्र है। यहां से चुनावी मुकाबले में खड़े युवा नेता कन्हैया कुमार इस बार पांच लाख वोटों से जीत कर एक नया रिकॉर्ड बना सकते हैं। यह दावा है अमन समिति के संयोजक और आम आदमी पार्टी के प्रदेश मीडिया प्रभारी धनंजय कुमार सिनहा का। बिहार के इस जि़ले के लोग धर्म, जाति और पार्टी से ऊपर उठ कर कन्हैया कुमार का समर्थन कर रहे हैं।

भाजपा के बेगूसराय से उम्मीदवार गिरिराज सिंह ने हरे रंग पर ही पाबंदी लगाने की मंाग की है। भाजपा के हिंदुत्व के प्रबल समर्थक गिरिराज सिंह हैं। उनके इस बयान पर भाजपा की ही सहयोगी पार्टी जद(यू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने चुनाव आयोग से कहा है कि सिंह के चुनाव लडऩे पर पाबंदी लगनी चाहिए। लेकिन आयोग के दिखावे के दांत अलग हैं और खाने के अलग। इसलिए आयोग इस मुद्दे पर खामोश रहेगा।

बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल की नेता राबड़ी देवी  ने पिछले दिनों गिरिराज सिंह को कलिया नाग कहा था। धनंजय सिनहा का कहना है कि इसे विषमुक्त अब कन्हैया कुमार ही करेंगे।

उग्र हिंदुत्व की पहचान बने गिरिराज सिंह की कतई इच्छा नहीं थी कि बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से वेे लड़ें। वे अपनेे नवादा से लडऩा चाहते थे। लेकिन उनकी चली नहीं। बेगूसराय में अब वे अपना भाग्य आजमा रहे हैं। उनकी शोभायात्रा जब बेगूसराय पहुंचती है तो उनकी मंडली नारा लगाती है,’देखो, देखो  कौन आया, हिंदुओं का शेर आया।’ यह बात और है कि शेर को देखने भी लोग नहीं जुटते। फिर भी अपनी जहरीली बातों से कुछ बुजुर्ग रसिया उनकी सभा में पहुंच जाते हैं। और ताली बजा कर खिलखिलाते हैं।

 एक समय था जब गिरिराज की बात सुनने के जिए भीड़ जुट जाती थी। लेकिन पिछले पांच साल में ही बेगूसराय विकास की दौड़ में काफी पिछड़ गया । यहां एक सरकारी कारखाना है लेकिन वह भी बंदी की कगार पर है।

कन्हैया के मुकाबले यहां आरजेडी के तनवीर अहमद और भाजपा के गिािरराज सिंह लगभग हाशिए पर हैं। यहां दंगा न हो इस कोशिश में तनवीर और उनके समर्थक पूरा प्रयास कर रहे हैं।

पूरा इलाका भूमिहारों का है इसलिए भाजपा ने अपना उम्मीदवार भी भूमिहर रखा है। इस पूरे इलाके में महादलितों की भी अच्छी तादाद है। उनके बीच चंद्रशेखर सिंह ने काफी काम किया है। खुद कन्हैया जिस गांव में जन्मे वह भी पिछड़ा गांव ही कहा जाता है।

बेगूसराय संसदीय क्षेत्र गऱीबी, भुखमरी, बेरोजग़ारी और अशिक्षा से अब आज़ादी चाहता हे। कन्हैया को देख कर यहां के लोगों की आखों में आज़ादी की चमक दिखती है।

पहली बार भाजपा प्रत्याशियों की गिनती कांग्रेस से अधिक

यह पहली बार हुआ है कि किसी लोकसभा चुनाव  में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के मुकाबले अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है। भाजपा ने 2009 में 433, 2014 में 428 और 2019 में इन चुनावों में 437 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं।  जबकि इस बार कांग्रेस के 423 प्रत्याशी मैदान में हैं। 2014 की मोदी हवा के दौरान भाजपा ने 428 प्रत्याशी खड़े किए थे जबकि कांग्रेस के 464 प्रत्याशी थे। तब बहुजन समाज पार्टी ने 503 उम्मीदवार खड़े किए थे। 2009 में भी बहुजन समाज पार्टी के 500 उम्मीदवार थे, पर इस बार उसके केवल 139 प्रत्याशी ही मैदान में हैं।

भाजपा के सबसे अधिक प्रत्याशी होने का अर्थ यह है कि देश में इसकी कितनी प्रासंगिकता और इसका यह दावा भी कि यह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है। यह लेख लिखते समय लोकसभा की आधी सीटों पर वोट पड़ चुके हैं। इन चुनावों और उनके नतीजों को समझने के दो तरीके है। बहुत से चुनाव सर्वेक्षण यह बताते है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं। वह प्रधानमंत्री बनने के प्रमुख दावेदार है। उनके समर्थन का कारण है कि वे फैसले लेने में मजबूत दिखते हैं और उनके खिलाफ कोई विकल्प नहीं है। पर इसके साथ ही कांग्रेस का उभार और क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत भी देखी जा सकती है।

कांग्रेस के फिर से उभरने और कुछ क्षेत्रीय दलों के साथ आने से भाजपा के लिए एक चुनौती है, खासतौर पर उस समय जब केंद्र में इनकी सरकार के खिलाफ वादे पूरे न कर पाने के पुख्ता आरोप हैं। कुछ स्थानों पर टिकट न मिल सकने के कारण भाजपा के लोगों के बागी तेवर भी दिख रहे हैं। कई स्थानों पर विपक्ष के प्रत्याशी ज़्यादा मजबूत हैं।

जहां तक मुद्दों की बात है तो ये राष्ट्रवाद बनाम रोज़ी रोटी पर टिके हैं। बेरोजग़ारी और किसानों की भुखमरी भी बड़े मुद्दे हैं।  भाजपा की ताकत मोदी की लोकप्रियता है। पर क्या यह आर्थिक समस्याओं पर भारी पड़ेगी।

437 प्रत्याशियों को खड़ा करना देश में भाजपा के विकास को दर्शाता है। 2014 का चुनाव देश के राजनैतिक जीवन का एक मोड़ साबित हुआ। कांग्रेस के बराबर भाजपा खड़ी हो गई। इन चुनावों ने कांग्रेस को 44 पर समेट दिया। कांग्रेस का यह सबसे बुरा प्रदर्शन था। 437 सीटों पर चुनाव लडऩा यह भी दिखाता है कि भाजपा बाकी दलों के साथ तालमेल करने में असफल रही है। तेलंगाना और आंध्रपदेश में पार्टी ने सभी 42सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। 2009 में भाजपा ने 433 सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि कांग्रेस 440 पर अपना दावा कर रही थी। उस समय भाजपा को 116 और कांग्रेस को 206 सीटें मिली। 2014 में भाजपा ने 428 सीटें लड़ी और 282 में जीत दर्ज की।

अब एक नजऱ भाजपा और कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्रों पर। भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र के मुख्य पृष्ठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की और अंतिम पृष्ठ पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, और अटल  बिहारी वाजपेयी की तस्वीरें है। इसके साथ ‘सर्जीकल स्टाईक’’, ‘आतंकवाद के खिलाफ ज़ीरों टालरेंस’ जैसे शब्द भी दिखाई देते हैं। भाजपा का मुख्य निशाना राष्ट्रवाद और बालाकोट जैसे भावनात्मक मुद्दों पर है। पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र ‘संकल्प पत्र’ के नाम से आया है। इसमें  देश की सुरक्षा को भी रखा गया है। पार्टी ने हिंदुत्व का कार्ड खेलते हुए एक बार फिर राममंदिर की बात की है। इसमें धारा-370 को हटाने का कोई जिक्र नहीं पर धारा 35(ए) को हटाने की बात ज़रूर कही गई है। साथ ही कृषि क्षेत्र में 25 लाख करोड़ के निवेश की बात भी है। महिलाओं को भी 33 फीसद आरक्षण देने का वादा भी घोषणापत्र में हैं

दूसरी और कांग्रेस ने ‘गऱीबी हटाओ’ जैसा नारा देते हुए देश को गऱीबी से मुक्त करने की बात कही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ‘न्यूनतम आय योजना’, गऱीबों के लिए एक न्यूनतम आय देने की बात करती है। इस योजना के तहत हर घर में कम से कम 12000 रुपए महीना की आय सुनिश्चित की जाएगी। सरकार उस कमी को पूरा करेगी जो 12,000 रुपए से कम होगी। मिसाल के तौर पर यदि किसी परिवार की आय 6000 रुपए बनती है तो सरकार उसे 6000 रुपए प्रतिमाह अपने पास से देगी। इसी प्रकार यदि कोई परिवार 10,000 रुपए प्रतिमाह कमाता है जो उसे सरकार 2,000 रुपए महीने के देगी। हालांकि आज़ादी के बाद देश ने तरक्की की है पर वह उम्मीदों से कम है। बेरोजग़ारी  बढ़ रही है और गऱीबी पर किसी का ध्यान नहीं है। कांग्रेस पार्टी भी वादे करके उन्हें पूरा न करने के लिए जानी जाती है। कई अर्थशास्त्री अभी समझ नहीं पाए हैं कि सरकार किस प्रकार देश के सबसे गऱीब 20 फीसद लोगों को 72,000 रुपए प्रति वर्ष दे पाएगी।

कुछ सवाल समाज से

बहुत हुआ। इन साधु-साध्वियों से देश को बचाओ। कभी हिंदू धर्म में कभी एकोउ हूं द्वितीयोनास्ति नहीं था। हमेशा विचारों को मान्यतों में इतनी बहुलता थी जितनी दूसरे धर्मों में भी नहीं है। सनातन धर्म की कुरीतियों को दूर करने की कोशिश में महर्षि दयानंद ने आर्य समाज बना।

आज यह भी पदाधिकारियों की कुरीतियों,धन का लालच और ईष्र्या का शिकार हो गया है। समय के साथ इतना ही बदलाव है कि भाजपा के सत्ता में आ जाने के बाद सभी दोनों हाथ उलीच रहे है। हिंदू धर्म और इसकी शाखाएं-उपशाखाएं खूब बढ़ीं लेकिन जनता तक नहीं पहुंची।

ऐसा कभी नहीं था कि सनातन धर्म यह दावा करे कि सभी समस्याओं का निदान उसके पास है और सीधे ईश्वर से इसे संदेश मिलते है। लेकिन बदलते हुए समाज में सही शिक्षा के अभाव में तमाम तरह के नए-नए अंधविश्वास, अनपढ़ ज्योतिषाचार्य, साधु और साध्वियां धर्म के नाम पर फैला रही हैं। ढेरों संस्थाएं कुकरमूत्तों की तरह पूरे देश में उभर आई हैं। इनके प्रतिनिधियों का किसी को श्राप देना, धर्म के नाम पर आतंक फैलाना और खुद को महत्वपूर्ण जताना  हिंदू धर्म के विकास के लक्षण कतई नहीं हैं।

अब भाजपा नेताओं की धर्म भीरू राजनीति के चलते प्रज्ञा ठाकुर जो हिंदू आतंक के लिए जेल मेें थीं अब जमानत पर हैं। वे भोपाल से चुनाव लड़ रही हैं वह भी सांसद का। उनका मुकाबला है मध्यप्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह से। दिग्विजय सिंह ने जब नर्मदा परिक्रमा (1100 किमी) पैदल करने की ठानी तो प्रदेश तत्कालिन मुख्यमंत्री ने भी नर्मदा पूजन शूरू किया। अपने मंत्रिमंडल में उन्होंने चार साधुओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया। सारी सुविधाएं दीं। इसका लाभ राज्य को हुआ या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन वे और पार्टी अलबत्ता विधानसभा चुनाव हार गई। अब उन्होंने लोकसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह को परास्त करने के लिए प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा का उम्मीदवार बनवाया है। जिसे पार्टी ने भी मंजूरी दी है। हिंदू धर्म में साधुओं और साध्वियों को हमेशा मृदुभाषी, वेदपाठी और संतोषी होने की बात नहीं गई है। लेकिन आज की साध्वियां श्राप देती हैं, ढांचा तोडऩे में सक्रिय होती हैं और गर्व से ये बातें बताती भी हैं।

प्रज्ञा ठाकुर जीतें या हारें। मुद्दा यह नहीं है। मु्द्दा यह है कि आतंकवाद से मुकाबले की बात करने का दावा करने वाली पार्टी आतंकवाद की कथित अभियुक्त को आज संसद का चुनाव लड़वा रही है। अभी भी उस पर आतंकवादी  होने का कथित आरोप है। अदालत से अभी वह बरी नहंी हुई है। आने वाले दिनों में लोग इसकी वजह क्यों नहीं पूछेंगे। क्या भाजपा अध्यक्ष की इस पर सहमति सवाल नहीं खड़े करती। क्या आतंक के एक आरोपी को चुनाव में टिकट दे कर एक नजीर नहीं बनी। देश के विकास के लिए क्या यह जिद आवश्यक है? क्या दूसरी पार्टियों ने प्रतिवाद किया? चुनाव आयोग ने किस आधार पर अनुमति दी?

इन सवालों का जवाब राजनीतिक पार्टियों को आने वाले दिनों में देना ही चाहिए। देश के संविधान की अनदेखी क्या हमेशा होनी चाहिए। देश क्या वाकई बदल रहा है हर तरह से?

इन मुद्दों पर भोपाल मेें और लोगों से भी बातचीत की गई। आइए, सुनते हैं उनकी बात। ‘बहुत हुआ। देश को धर्म के आडम्बर से बचाओ।’ कहते हैं ऋषिकेश के मशहूर पदयात्री योगी बंधु। हिंदू धर्म हमेशा एक आंदोलन रहा है। यह ऐसा शांत आंदोलन है जो सबको साथ लेकर चलता है। यदि इसका यह आदर्श नहीं होता तो सदियों से आज तक हिंदू कैसे एक अलग धर्म के तौर पर बचा रहा और पुष्पित-पल्लवित होता रहे। नश्वर देह की ही तरह हर मान्यता, दया, अंहकार और विचार एक दिन मिट्टी हो जाते हैं। इसीलिए हिंदू धर्म में धीरज, संतोष और ह्दय की अद्भुत विशालता पर ज़ोर है। एक विविधता है। कहीं कोई बंदिश नहीं है। अपने- अपने तरीके से धर्म के पालन करने की सबको आज़ादी है। कहीं कोई बंधन या अनुशासन नहीं है।

‘लेकिन सूर्योपासना योग वगैरह को पांच साल में आंदोलन क्यों बनाया गया? स्कूलों में अनिवार्य किया गया।’ पूछते है सुरेंद्र शर्मा जो आदेश कालोनी में सनबीन स्कूल में सातवीं में हैं। उनका कहना है कि ‘यदि यह ऐच्छिक होता तो शायद मैं मन लगा कर करता।  लेकिन इससे बचने के लिए स्कूल समय पर नहीं पहुंच पाता तो सज़ा दी जाती है।’ ‘धर्म के प्रति अतिरिक्त उत्साह के चलते मां-बाप भी किशोरों के मन पर दबाव डाल कर उसका पालन कराते ठीक हैं। यह ठीक नहीं है। दुनिया के विकसित देशों में किशोर बच्चों पर कभी दबाव नहीं दिया जाता। दुनिया में विज्ञान, गणित, ग्रह भूगोल, जीव विज्ञान ऐसे विषय है जहां धर्म की कहीं ज़रूरत नहीं। समाज और देश के विकास में इन विषयों की ज़रूरत कहीं ज्य़ादा है। धर्म की गहराई या संस्कृत की नहीं।’ बताते हैं भारत की यात्राा कर रहे ब्रिटिश फोटोग्राफर  वाल्टर एलैन। वे भोपाल से खजुराहो भी जाने को हैं।

भारतीय समाज को अलग-अलग जाति और धर्म में बांटने का जो सिलसिला पिछले पांच साल में दिखा। उससे वह देश का विकास तो कतई नहीं हुआ। यदि देश में आदमी और आदमी में परस्पर प्रेम नहीं होगा तो न्यूजीलैंड में और श्रीलंका में जो नरसंहार हुआ वह यहां भी हो सकता है। क्या हमारी सुरक्षा सेनाओं में भी अलग-अलग जाति और धर्म के लोग नहीं हैं। उनसे कैसे उम्मीद करेंगे कि वे दुविधा में नहीं होंगे यदि कभी उपद्रव की स्थिति हुई।

देश चलाने वालों को कुर्सी बचाने की चिंता छोड़ कर देश की महानता, एकता और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखना चाहिए। जिससे देश वाकई प्रगति के पथ पर चले। देश की बहुसंख्यक गरीब जनता भी रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वस्थ जीवन पर ज्य़ादा ध्यान दे सके। देश बचेगा तो प्रगति और विकास होगा और खुशहाली भी आएगी।

सरकार की अनदेखी से जेट एअरवेज ज़मीन पर, कर्मचारी बेहाल

शेयर बाज़ार को 25 साल पुरानी जेट एअरवेज ने जानकारी दी कि कंपनी के चेयरमैन ने पंजाब नेशनल बैंक के पास अपने 2.95 करोड़ शेयर यानी 26.1 फीसद की हिस्सेदारी रखी है। जेट एअरवेज (इंडिया)लिमिटेड द्वारा लिए गए नए कजऱ् की सुरक्षा गारंटी है। ऋ ण समाधान योजना के तहत नरेश गोयल और उनकी पत्नी अनीता गोयल कंपनी के निदेशक मंडल से हटे फिर भी बैंकों का समूह नए कजऱ् पर राजी न हो सका।

जानकारों के मुताबिक, इसी जून गोयल और उनकी पत्नी अनिता गोयल के 5.79 करोड़ से अधिक शेयर जारी किए गए। ये शेयर एअरलाइन द्वारा कजऱ् की सुरक्षा के लिए न बिकने की श्रेणी में रखे गए। नरेश गोयल एअरलाइन में हिस्सेदारी के लिए शुरूआती बोली जमा कर सकते हैं। एसबीआई बैंक ने आठ अप्रैल को जेट एअरवेज में हिस्सेदारी बिक्री के लिए (लेटर ऑफ इन्टेंट) अभिरुचि पत्र आमंत्रित किया। उसने अंतिम बोली जमा करने की तारीख 10 अप्रैल से बढ़ा कर 12 अप्रैल कर दी। नरेश गोयल ने 25 मार्च को चेयरमैन पद छोड़ा था।

कुल मिला कर जेट एअरलाइन के विमान जमीन पर हैं। कंपनी के लगभग 17 हजार कर्मचारियों के छह महीने से दो महीने तक के वेतन अभी दिए जाने हैं। देश में चुनाव है। कर्मचारियों का विरोध प्रर्दशन जारी है।

 देश जब आज़ाद हुआ तो आकाश में कई निजी कंपनियों के विमान उड़ते थे। इनमेें ओडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पिता बीजू की कलिंग एअरवेज भी थी। टाटा की कंपनी टाटा एअरलाइंस थी। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1953 में इन सबका राष्ट्रीयकरण किया और इंडियन एअरलाइंस बनाई। बाद में विदेश के लिए एअर इंडिया बनी।

उस ज़माने में नरेश गोयल विदेशी एअरलाइंस के टिकट बेचने का बड़ा काम करते थे। उनकी अच्छी साख थी। उन्होंने देश के प्रधानमंत्रियों के साथ ही अपना प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ाया। नौकरशाहों से जब पता लगा कि सरकार यह नागरिक विमान क्षेत्र खोलने जा रही है तो उन्होंने संपर्कों से अपना कार्ड आगे कर दिया। फिर दमानिया एअरवेज, एअर सहारा, ईस्ट वेस्ट एअर लाईंस, किंगफिशर भी जेट एअरलाइंस के साथ ही मैदान में आ गए।

लेकिन यह आसान उद्योग नहीं हैं। भारत जैसे देश में तो और भी नहीं। जहाज उड़ाने में लगने वाला ईंधन, विमान का रख-रखाव, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप तैयारी खासी खर्चीली थी। ज्य़ादातर नई कंपनियां जो उड़ान के क्षेत्र में आई थीं वे इस क्षेत्र से निकल गई। एअर सहारा और कुछ दूसरी एअरलाइंस तो जेट एअरलाइंस में जुड़ गईं।

फिर दौर आया सस्ती विमान सेवाएं देने वाली छोटे विमानों की एअरलाइंस जैसे स्पाइसजेट एअर इंडिगो, गो आदि की इनमें यात्रियों को चाय वगैरह मिलती थी लेकिन उनके पैसे देने होते थे। जेट एअरलाइंस के यात्री घटने लगे। फिर भी हमने मुकाबला किया। वित्तीय संकट बढ़ता गया। किंग फिशर ने एअर डेक्कन खरीद लिया। जेट एअरलाइंस अपनी सेवाओं के लिए जानी जाती रही। भारतीय आकाश में इसकी 44 फीसद की हिस्सेदारी हो गई।

जेट एअरवेज को कुछ और राहत मिली जब अंतरराष्ट्रीय रूट पर उड़ान भरने की अनुमति भारत सरकार ने दी। उसमें जेट एअरवेज की भागीदारी बढ़ी। किंग फिशर मैदान छोड़ गया।

इसके बाद प्रबंधन की गड़बडिय़ां जेट एअरलाइंस में उभरने लगीं। इस पर रुपए आठ हजार करोड़ मात्र का कजऱ् चढ़ गया। इसका नया विदेशी भागीदार भी अब पैसा लगाने को तैयार नहीं था। बैंक अपनी उगाही के लिए बेताब हो रहे थे। कोई खरीददार भी इस बड़ी कंपनी को लेने के लिए नहीं मिला। कजऱ् देने वाले बैंकों ने इसे खुद चलाने की सोची लेकिन जोखिम के नाम पर हिचकते रहे। आखिरकार अब जेट एअरलाइंस ज़मीन पर है। जब 2007 में एअर सहारा बुरी हालत में पहुंची तो जेट एअरवेज ने रु पए 1450 करोड़ मात्र में उसे खरीदा। इसका नाम बदला। इसे एअर जेट लाइट रखा। उन्होंने 2008 में करीब 13 हजार कर्मचारियों में से दो हजार की छटनी की। बाद में उन्हें दु़बारा रखा भी। जेट एअरवेज घरेलू विमानन सेवा में पिछड़ती गई। एक नई कंपनी इंडिगो हावी हुई। अरब अमीरात (यूएई) की एतिहाद ने जेट के 24 फीसद शेयर खरीद लिए। गोयल के पास तब 51 फीसद शेयर थे। फिर 2018 में एअरलाइंस को नुकसान और बढ़ा। इंडिपेंडेंट डायरेक्टर रंजन मथाई ने इस्तीफा दे दिया। कर्मचारियों का वेतन ठहरने लगा। कंपनी की रेङ्क्षटंग गिरने लगी।

उधर बंद किंगफिशर एअरलाइंस के मालिक और भारतीय बैंकों से रु पए नौ हजार करोड़ मात्र की धोखाधड़ी के आरोप में फंसे और लंदन में रह रहे विजय माल्या ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि उसे जेट एअरवेज की उसी तरह मदद करनी चाहिए जिस तरह यह एअरइंडिया की करती रही है। अपने एक ट्वीट में उसने लिखा, एक ज़माने में जेट तो किंगफिशर की बड़ी प्रतिद्वंद्वी थी। लेकिन आज इसे नाकाम देख कर दुख हो रहा है। जबकि एअरइंडिया को सरकार ने रु पए 35 हजार करोड़ मात्र की सहायता राशि दी है।

भारत सरकार ने किंगफिशर के संकट में भी निवेश नहंी किया था जबकि सबसे ज्य़ादा पुरस्कार इसे मिले और यह देश की सबसे बड़ी एअरलाइंस थी।

किंगफिशर जब 7500 करोड़ रु पए (ब्याज 18 फीसद) हो गया तो इसकी मुश्किलें बढ़ीं। भारी कजऱ् खत्म करने के लिए भारत सरकार से ‘बेल आउट’ (जनता के पैसे में अनुदान) का अनुरोध किया गया। सस्ती दर पर कजऱ् और ईंधन की अपील की। लेकिन अनसुनी हुई। उस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। यदि एक बार ऐसा किया जाता तो एअर इंडिया समेत दूसरी विमानन कंपनियों को भी वैसी सुविधा देनी होती। उन्होंने इंकार कर दिया। लेकिन नौकरशाही और कुछ मंत्रियों के दबाव में भारत सरकार ने भारतीय विमानन कंपनियों को 26 फीसद तक की हिस्सेदारी की छूट का प्रस्ताव दिया। सरकार ने टाटा की सिंगापुर एअरलाइंस से संयुक्त उपक्रम को योजना को मंजूरी तब नहीं दी। फिर विमान कंपनियों को विदेश में ईंधन खरीदने की छूट दी गई।

किंगफिशर तब रु पए बाहर सौ करोड़ मात्र की कंपनी थी। बैंक तैयार नहीं हुए। जीवन बीमा निगम ने दस फीसद की हिस्सेदारी ली। निजी इक्विटी फंड भी विकल्प माना गया। हालांकि उसके लिए माल्या तैयार नहीं हुए। मामला अटका रहा। बैंकों का कंसोर्टियम जेट को बतौर इमरजेंसी भी रु पए 983 करोड़ मात्र की फंडिंग के लिए भी राजी नहीं हुआ। 18 अप्रैल से जेट एअरलाइंस के पायलट कर्मचारी, हवाई और ग्राउंड स्टॉफ जिन्हें अच्छे दिनों की उम्मीद थी वे सभी पिछले छह महीने बाद तकरीबन एक लाख पारिवारिक सदस्यों की चिंताएं भी पूरी करने में एकदम अक्षम हो गए हैं। लेकिन सरकार कोई समाधान नहीं ढंूढ पा रही है।

तहलका ब्यूरो

मुख्य न्यायाधीश की जांच के लिए बनी समिति

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे आरोपों की पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायधीशों की एक पीठ बनी है। अमूमन ऐसे आरोपों के घेरे में न्यायाधीश विभिन्न मामले-मुकदमों में अपने फैसलों के चलते आ ही सकते हैं। लेकिन यह भी कम नहीं कि प्रधान न्यायाधीश ने एक व्यवस्था दी है जिससे आरोपों की तह तक जाने की कोशिश हो। साथ ही सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा भी बनी रहे।

जो जांच कमेटी बनी है उसमें जस्टिस एसए बोबदे, एनवी रामना और इंदिरा बनर्जी है। यह एक तरह से इन हाउस एन्क्वाएरी है। यह कमेटी विभागीय जांच पड़ताल करेगी। इस कमेटी के गठन को प्रशासनिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट की पूरी बेंच ने मान्य किया है। यह कमेटी उस आरोप पत्र की जांच करेगी जिसमें मुख्य न्यायाधीश पर सेक्सुअल हैरासमेंट के आरोप लगाए गए हैं।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश खुद यह चाहते थे कि आरोपों की जांच हो। यह बात खुद जस्टिस एसए बोबदे ने बताई। उन्होंने कहा कि,’मैंने तब जस्टिस रामना और जस्टिस इंदिरा बनर्जी को भी इस कमेटी में शामिल किया।’

जस्टिस बोबदे सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जस्टिस हैं। जब मुख्य न्यायाधीश नवंबर महीने में सेवानिवृत होंगे तो उनकी जगह वे लेंगे। जस्टिस रामना दूसरे नंबर पर वरिष्ठ जस्टिस हैं। जस्टिस बनर्जी उन तीन महिला न्यायाधीशों में एक हैं जो सुप्रीम कोर्ट में हैं।

इस ‘इन हाउस जांच’ के लिए शिकायतकर्ता को नोटिस दे दिया गया है और सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को भी जानकारी दे दी गई है। जिससे वे भी जांच कमेटी की मौजूदगी में सारी कार्रवाई देखें।

प्रधान न्यायाधीश पर सेक्सुअल हैरासमेंट का आरोप लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट में कार्य करने वाली महिला ने घटना की तारीख पिछले साल अक्तूबर की दी है। उसका कहना है कि उसने जब विरोध किया तो उसे उसके पति और उसके देवर को नौकरी से ‘सस्पेंड’ कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट की ‘इन हाउस कमेटी’ का गठन ‘इन हाउस प्रोसीजर्स’ के ही तहत हुआ जिसमें मुख्य न्यायाधीश की जांच के लिए कोई निर्धारित व्यवस्था नहीं है। इसलिए इस पूरे मामले को न्यायिक दिशा में रखने की बजाए प्रशासनिक स्तर पर ही आरोपों की छानबीन होगी।

सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल को एक वकील को नोटिस दिया। उसका कहना था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को पद से त्यागपत्र देने की साजिश रची जा रही है। उन पर गलत आरोप लगाए जा रहे हैं, वह भी सेक्सुअल हैरासमेंट का। वकील का दावा था कि उसे बहुत बड़ी धनराशि देने का लालच भी दिया गया यदि वह सुप्रीम कोर्ट में काम करने वाली महिला का मामला ले ले और प्रेस कांफ्रेंस करवा दे। जिससे यह मामला और ज़्यादा सार्वजनिक किया जा सके।

जस्टिस अरूण मिश्र, आरएफ नरिमन और दीपक गुप्ता ने वकील उत्सव बैंस की एफिडेविट पर सुनवाई शुरू की और कहा कि वह खुद अदालत में आए और अपनी बात के पक्ष में सबूत भी दें। जिससे दावों को संगत माना जाए। जब साढ़े दस बजे सुबह अदालत शुरू हुई तो बैंस अदालत में नहीं पहुंचे थे। अदालत ने आदेश जारी कर दिया कि वे अपनी बातों के पक्ष में सबूत अदालत में पेश करें। अदालत ने इस बात को भी संज्ञान में लिया कि वकील ने अपनी सुरक्षा को खतरा बताया है। अदालत ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर का उचित सुरक्षा के लिए कहा।

मुख्य न्यायाधीश को बेअसर करने की यह साजिश है। मेरा यह छिछलापन होगा यदि मैं इस आरोप को नकारते हुए कुछ कहंू। बतौर न्यायाधीश मैंने बीस साल निस्वार्थ काम किया है। मेरे खाते में आज रुपए छह लाख अस्सी हजार मात्र हैं। रुपए के लेनदेन का मुझ पर कोई आरोप नहीं लग सकता। लेकिन लोगों को कुछ तो करना ही है। उन्हें लगा कि यह आरोप ज़्यादा ठीक है, इसे लगाते हैं।

मुख्य न्यायाधीश ने शानिवार (20 अप्रैल) को सुप्रीम कोर्ट की एक विशेष सुनवाई आयोजित की। तीन जज की बेंच में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस अरूण मिश्र, जस्टिस संजीव खन्ना थे। एपेक्स कोर्ट की एक पूर्व महिला कर्मी ने बाइस जज को ब्यौरे वार एफीडेविट जजों के निवास पर भेजा था। इसे भेजने वाली महिला अदालत में पहली मई 2014 से 21 दिसंबर 2018 तक कार्यरत थी। वह मुख्य न्यायाधीश के घर में आफिस में भी काम करती थी। उसका आरोप है कि उसे बिना कारण बताए नौकरी से निकाल दिया गया।

उसका आरोप है कि उसकी सेवाएं खत्म करने के बाद उसके पति और उसके देवर को भी जो दिल्ली पुलिस में बतौर हेडकांस्टेबल नौकरी कर रहे थे- उन्हें भी सस्पेंड कर दिया गया। उसका सगा भाई जो सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त था उसकी भी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। उसका आरोप है कि इच्छा पूरी न करने के कारण उसके और उसके परिवार के साथ ऐसा किया गया।

इस एफीडेविट का पूरा ब्यौरा शुक्रवार की शाम को मीडिया के चार ऑनलाइन मीडिया चैनेल में आ गया। मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि इन मीडिया आउटलेट ने उन्हें शनिवार की सुबह सात बजे तक का समय भी दिया था।

सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल एसएस कलगाँवकर ने पत्र के इस दावे का खंडन किया। अपने ब्यौरेवार ईमेल में संबंधित महिला के तमाम आरोपो को आधारहीन उन्होंने बताया। सेक्रेटरी जनरल ने लिखा कि उसने सोच-समझ कर उपयुक्त समय पर ये आरोप लगाए हैं। ऐसा लगता है कि ये गलत आरोप एक तरह की दबाव डालने की कोशिश है। क्योंकि गलत काम करने पर उसके और उसके परिवार पर कानून के तहत कार्रवाई शुरू हो गई है।

यह भी संभव है कि इसके पीछे गलत ताकतें हों जिनका इरादा संस्थान को ही बदनाम कर देने का हो। आरोप है कि उस महिला ने किसी से रुपए 50हजार मात्र यह लालच देकर लिए कि वह सुप्रीम कोर्ट में उसकी नौकरी लगवा देगी।

शनिवार को हुई सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा कि उनके खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं। वह न्यायापालिका को बदनाम करने के लिए हैं। मैं बेंच पर बैठ कर अपनी जिम्मेदारी बिना किसी भय के निभाता रहूंगा। कोई कोई बुद्धिमान आदमी जज होना चाहेगा। हम सबके पास तो सिर्फ आदर-सम्मान ही है और उसे भी बर्बाद करने की कोशिश हो रही है। यदि जज के लिए ये सब शर्तें हैं तो अच्छे लोग कभी भी न्यायापालिका में नहीं आएंगे। जस्टिस खन्ना भी बेंच के हिस्सा थे। उन्होंने कहा कि ऐसे आरोप रूकावट तो डालते ही हैं।

एटार्नी जनरल (एजी) वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल और सोलीसिटर जनरल तुषार मेहता भी इस दौरान मौजूद थे। वेणुगोपाल ने कहा चूंकि वे सरकार की हिमायत करते हैं तो उनके खिलाफ दूसरे वकील बेमतलब की बातें करते हैं। मेहता ने अदालत से अनुरोध किया कि उनकी ओर से एक मामला दर्ज किया जाए।

अदालत ने कोई न्यायिक आदेश जारी नहीं किया लेकिन मीडिया को यह ताकीद ज़रूर की कि वह इस जिम्मेदारी के साथ काम करे कि ऐसे आरोपों से न्यायापालिका की निष्पक्षता पर कोई आंच नहीं आए। इस फैसले में मुख्य न्यायाधीश मौजूद नहीं थे। जस्टिस मिश्र और जस्टिस खन्ना ने परामर्श लिखा।

‘ताकतवर और रईस जान लें सुप्रीमकोर्ट पर काबिज होना आसान नहीं’

लोकतांत्रिक देश में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा खासी महत्वपूर्ण होती है। इसकी निष्पक्षता, विश्वसनीयता और सच्चाई को बनाए रखने के लिए जस्टिस, पूर्व जस्टिस और एडवोकेट अब बेहद सक्रिय हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की ही एक कर्मचारी ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर आरोप लगाया ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट’ का। मुख्य न्यायाधीश ने फौरन अदालत की विशेष बैठक बुलाई। एक इन हाउस कमेटी बनी जिससे जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रामना, और जस्टिस इङ्क्षदरा बनर्जी थीं। कमेटी ने शिकायतकर्ता को नोटिस भेजी। उसने एक पत्र लिखा जिसमें चाहा कि यह कमेटी विशाखा गाइडलाइंस के अनुरूप सुनवाई करे। पत्र में ही कहा गया कि जस्टिस रामना का मुख्य न्यायाधीश से पारिवारिक संपर्क है इसलिए उसे लगता है कि उसने साक्ष्य और एफिडेविट के साथ न्याय नहीं हो सकेगा। जस्टिस रामना ने खुद ही यह कमेटी छोड़ दी। उनकी जगह जस्टिस इंदु मल्होत्रा हुईं।

दूसरी ओर वकील उत्सव बैंस ने सुप्रीम कोर्ट में अपना एफिडेविट दायर करके कहा था कि यह सब मुख्य न्यायाधीश को फंसाने की चाल है। ‘सेक्सुअल हेरॉसमेंट’ का उन पर मामला बनाने और प्रेस से बात कराने के लिए खुद उन्हें लगभग रु पए डेढ़ करोड़ मात्र तक की रकम देने का प्रस्ताव दिया गया था। इस आरोप के पीछे बड़े कॉरपोरेट हैं। इस मामले पर एक बेंच जस्टिस अरु ण मिश्र, जस्टिस आर एफ नरिमन और जस्टिस दीपक गुप्ता की बनी। वकील को बेंच ने साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा। जवाब में वकील ने लिखा कि उसके पास साक्ष्य हैं और वे पेश किए जाएंगे लेकिन उसकी जान को खतरा है।  दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को बुला कर समुचित सुरक्षा व्यवस्था के लिए कहा गया।

बाद में मुद्दे की गहराई को जानते समझते हुए इस बेंच ने सेवानिवृत्त जस्टिस एके पटनायक को साजिश के दावों की पड़ताल की जि़म्मेदारी सौंपी। उन्हें सहयोग देने के लिए दिल्ली के पुलिस कमिश्नर इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक और सीबीआई प्रमुख को इस काम में पूरा सहयोग देने के लिए आमंत्रित किया गया।

बेंच ने यह बात ज़रूर साफ कर दी जो जांच जस्टिस पटनायक करेंगेे उसका कोई असर किसी भी तरह ‘सेक्सुअल हेरॉसमेंट’ की शिकायत के मामले पर न पड़े।

जस्टिस पटनायक अब वकील बैंस के आरोपों की सत्यता की पड़ताल करेंगे। वकील बैंस का आरोप था कि मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्ट कारपोरेट, दलाल, और अदालत के निलंबित नाराज़ कर्मचारी दबाव में लेने की कोशिश कर रहे है। अपनी जांच के आधार पर जस्टिस पटनायक इस अदालत को अपनी एक रपट पेश करेंगे। उस रिपोर्ट के मिल जाने के बाद कोर्ट सुनवाई करेगा।

अपनी एफिडेविट में बैंस ने कहा उसे सूचना मिली थी कि कुछ दलाल लोग जो अवैध तरह से नकदी के बदले फैसले जारी कराने में लग रहते हैं। वे इस साजिश में शामिल हैं कि मुख्य न्यायाधीश ने ऐसे दलालों के खिलाफ कर कमर कस ली है।

फैसला सुनाते हुए जस्टिस मिश्र ने कहा कि ‘बड़े ही सुनियोजित तरीके से अदालत को प्रभावित  करने की कोशिश हो रही है। अब समय आ गया है जनता और देश के ताकतवर रईस समझ लें कि वे इस अदालत पर काबिज नहीं हो सकते। आप आग से नहीं खेल सकते।’

एडवोकेट उत्सव बैंस के आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट आरोपों की तह तक जाकर पूरी छानबीन करेगा। जस्टिस बैंस ने कहा था कि कुछ लोगों ने उससे संपर्क किया था। वे चाहते है कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौनिक प्रताडऩा का झूठा आरोप अदालत में और प्रेस कांफ्रेस के जरिए लगाया जाए। आरोप लगाने वाले वे कॉरपोरेट के लोग हैं।

इस पर सुनवाई के लिए सुप्रीमकोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच गठित हुई। इसमें शामिल जस्टिस अरूण मिश्र, रोहिन्टन नरिसन और जस्टिस दीपक गुप्ता हैं। जस्टिस मिश्र ने कहा, हम पूरे कथित मामले की जांच करेंगे। हम ऐसे तमाम मामलें की तह तक नहीं गए तो हममें  कोई बचेगा भी नहीं। हमारी व्यवस्था में इस तरह की ‘फिक्सिंग’ की कोई भूमिका नहीं है। हम इस पूरे मामले को फिर खत्म करेंगे।

बेंच इस पूरे मामले की सुओ-मोटो सुनवाई कर रही है। जिसकी याचिका एडवोकेट बैंस ने लगाई थी। उनका कहना था कि कुछ खास लोग मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में फंसाना चाहते हैं। इस संबंध में उन्होंने एफीडेविट दायर की थी जिसमें यह दावा किया गया था कि उनसे अजय नाम के व्यक्ति ने संपर्क किया था और डेढ़ करोड़ रु पए की पेशकश भी की थी। उनसे कहा गया था कि वे सुप्रीमकोर्ट की पूर्व महिला कर्मचारी का मामला उठाएं जिसने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पर उसे परेशान करने का आरोप लगा रखा है। बैंस ने बुधवार को एफिडेविट दाखिल किया था।

तहलका ब्यूरो

‘जांच से पहले ही मेरी चरित्र हत्या’

सुप्रीमकोर्ट की जांच कमेटी (मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोप पर) को लिखे अपने पत्र में अदालत में ही पहले काम करने वाली महिला ने जो चिट्ठी में भय और आशंकाएं जताई हैं। इन हाउस जांच कमेटी को लिखे पत्र में बताया है कि मुख्य न्यायाधीश ने शनिवार को सुनवाई की थी जिसमें उसके पत्र को उन्होंने अपने खिलाफ एक ‘बड़ी साजिश’ करार दिया था।

पत्र में लिखा है कि विशाखा गाइड लाइंस के तहत ही मामले की सुनवाई होनी चाहिए। गाइड लाइंस के तहत जांच कमेटी में पुरु षों की तुलना में महिलाओं की संख्या ज्य़ादा हो।

इन हाउस जांच की पहली कमेटी में जस्टिस एमए बोबडे, एनवी रामना, और इंदिरा बनर्जी थे। शिकायत कर्ता ने मंगलवार को अदालत से मिले नोटिस के जवाब में जो चिट्ठी भेजी है उसमें वित्त मंत्री अरूण जेटली के ब्लाग (रविवार ) का भी हवाला है, ‘उन्होंने इन घटनाओं के लिए मेरी निंदा की है। मैं काफी डरी हुई हूं और अलग-थलग पड़ गई हूं और हताश हूं।’

मैं सिर्फ यही चाहती हूं कि मेरी सुनवाई के समय मेरे डर और आशंका का ध्यान रखा जाए। मैंने बहुत कुछ झेला है। मुझे उम्मीद है कि मेरी तकलीफों और मेरे परिवार का सताना बंद हो। मुझे यह जानकारी है कि मेरा कोई स्थान या दर्जा नहीं हैं। मेरे पास सिर्फ सच है जो मैं आपके सामने रखने को हूं।

शिकायतकर्ता ने दावा किया कि जस्टिस रामना मुख्य न्यायाधीश के करीबी हैं। उनके पारिवारिक सदस्य जैसे है। इसलिए उसे डर है कि उसकी एफिडेविट और साक्ष्यों पर ध्यान नहीं दिया जा सकेगा। इस पत्र में 20 अप्रैल को हैदराबाद में हाईकोर्ट की इमारत के 100 साल  होने पर जस्टिस रामना ने जो भाषण दिया था। उससे भी पत्र में उदधारण है। जस्टिस रामना की जगह अब जस्टिस इंदू मल्होत्रा जांच कमेटी में हैं।

सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से ‘न्याय’

बतौर न्यूनतम वेतन, आमदनी की गारंटी इन दिनों कई देशों में है। कुछ यूरोपीय देशों में तो अपने नागरिकों को न्यूनतम वेतन प्रदान करने की ऐसी योजना कई वर्ष से चल रही है। इस योजना पर अमल के लिए काफी बारीकी से डाटा का अध्ययन करना पड़ेगा और समर्पित समाज कल्याण अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को तैनान करना पड़ेगा जो जनता की आर्थिक हालत की ईमानदारी से खुद जांच-पड़ताल कर सकें जिन्हें इस आमदनी की ज़रूरत है।

यह अच्छा होगा यदि ऐसा ही कुछ भारत जैसे देश के लोगों के लिए किया जा सके। लेकिन बाधाएं वे ही खड़ी कर देते हैं जिन्हें यह अरूचिकर लगता है। वित्तीय बोझ पर अभी हाल वल्र्ड ‘इनइक्वेलिटी लैब’ की ओर से नितिन भारती और लुकास चान्सेल ने कुछ रोचक संख्याएं सुझाई। ये लेखक यह अनुमान कर रहे हैं कि ‘न्यूनतम आमदनी’ का अंतर क्या है। यानी वह अंतर (गैप) जो न्यूनतम आमदनी , वास्तविक आमदनी और आमदनी के सभी स्त्रोतों को जोडऩे पर भी कुल न्यूनतम आमदनी से कम होता है। यानी साल भर में रुपए 72 हजार मात्र का न्यूनतम वेतन से अंतर कुल सकल घरेलू उत्पाद का 1.3 फीसद होता है। यह जानकारी खासी महत्वपूर्ण है। लेकिन यह हमें नहीं बताती कि सालाना न्यूनतम रुपए 72 हजार देने की गारंटी में खर्च क्या आएगा। यह सिर्फ इतना बताती है कि यदि ऐसा करते हुए लक्ष्य हासिल हो जाता है और इस राशि को पहुंचाने में कोई बड़ा खर्च नहीं आता तो सारी लागत कुल सकल घरेलू उत्पाद की तो मात्र 1.3 फीसद ही होगी।

इसके पहले कांग्रेस पार्टी ने बतौर एक अवतार न्यूनतम आमदनी गारंटी (एमआईजी) की पेशकश की थी। वह भी इसी तरह के ऊँचे नमूने पर आधारित थी। इसके पीछे की विचार प्रक्रिया थी कि सरकार सीधे-सीधे आमदनी में जो अंतर है उसे पूरा कर देगी। यानी न्यूनतम आमदनी और घर-घर की वास्तविक आमदनी। यह इसलिए अवास्तविक थी क्योंकि इसके तहत ज़रूरत थी घर-घर की आमदनी का ब्योरा पाना जिसे इक_ा करना फिलहाल लगभग असंभव है। फिर इससे स्पष्ट प्रोत्साहन की समस्याएं भी होती हंै। एक संभावित जवाब तो यह है कि अंतर के जोड़-घटाव का आधार आमदनी नहीं हो बल्कि यह एक तरह की कटी-छटी आमदनी हो। आमदनी यानी ऐसा एक आकलन जो एक घर की कुल आमदनी पर आधारित हो। उसके सारे खर्चों का अध्ययन हो मसलन शिक्षा, ज़मीन का स्वामित्व आदि। इस तयशुदा आमदनी में सबसे बड़ा दोष स्पष्टता का अभाव है जिसका असर बड़े समावेश और बहिष्कार की भूलों में दिखता है।

इन या दूसरी कई वजहों से यह टॉप अप फार्मूला भी छोडऩा पड़ा और ‘न्याय’ की घोषणा ‘यूनिफार्म कैश ट्रांस्फर वह भी रुपए 72,000 मात्र सालाना की घोषणा की गई। यानी हर महीने छह हजार रुपए मात्र की। यानी देश की कुल गऱीब आबादी के बीस फीसद को ही मिल सकेगी यह राशि। जब 2011 में जनसंख्या आकलन हुआ था, तो पहले यह दबाव बना कि ‘न्याय’ से बारह हजार मात्र की गारंटी का भूत हटाया जाए, क्योंकि ज़्यादातर परिवार तो किसी तरह खुद ही छह हजार मात्र तक तो कमा ही लेते हैं। हालांकि यह अनुमान भी गलत है। दरअसल भारती और चांसेल के अनुमान से देखें तो भारत में ज़्यादातर यानी 33 फीसद घर तो 2011-12 में रुपए छह हजार मात्र से भी कम कमा पाते हैं। इसके साथ ही इस अनुपात में आज इससे तो नीचे नहीं होगा। यानी संक्षेप में कहें तो ‘न्याय’ एक तरह से ‘नकदी से मदद’ की योजना है। जिसमें हर महीने रुपए छह हजार मात्र मिलते हैं- न कम न ज़्यादा उन ज़रूरत मंदों को मिलते हैं। इसे एक तरह से व्यापक पेंशन योजना भी कह सकते हैं। जिसमें खुद को कुछ भी नहीं देना पड़ता।

जाहिर है ‘न्याय’ का प्रस्ताव किसी भी दूसरे टॉप अप से कहीं ज़्यादा खर्चीला है। फार्मूले के तहत प्रति वर्ष रुपए 3,60,000 लाख मात्र या आज के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दो फीसद ज़रूरत पड़ेगी। जिससे यह योजना जारी रखी जा सके। भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद हर साल सात फीसद की दर से बढ़ रहा है। यानी लागत हर हाल में कुल 1.4 फीसद ही सकल घरेलू उत्पाद पर आएगी। यदि यह राशि देश के बेहद गऱीब घरों में जा पाती है तो ‘न्याय’ सबसे उपयुक्त मॉडल है। न्याय का लाभ अब किन लोगों को मिल सकता है उसे बड़ी ही सावधानी से देखा जाना चाहिए।

आमतौर पर गऱीब की पहचान, कथित ‘गऱीबी की रेखा’ से नीचे के लोगों में से है। उन्हें बीपीएल की संज्ञा मिलती है। लेकिन बीपीएल सर्वे भी दुरूस्त नहीं हैं। तीन सर्वे तो यह बताते हैं कि ग्रामीण भारत में आधे से ज़्यादा गऱीब घरों में तो यानी 2004-05 में बीपीएल कार्ड भी नहीं थे। अभी हाल के वर्षों में ‘फूड सब्सीडी’ (आहार सहयोग) पाने वालों की पहचान के लिए ‘नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट’ के तहत ‘फूड सब्सीडी देने की पहचान के लिए सर्वे हुआ था। कुछ राज्यों ने तो एकदम अलग तरीका अपनाया। इसे ‘एक्सक्लूजन एप्रोच’ कह सकते हैं। इसमें खाते-पीते-अच्छे घरों को छोड़ते हुए सीधा-सरल और ‘ट्रांस्पेरेंट क्राइटेरिया’ यह अपनाया गया कि इस योजना में हर किसी का स्वागत है। सह तरीका बीपीएल सर्वे के समय अपनाए गए तरीके से बेहतर है। लेकिन जब ऐसे घरों की संख्या कम हो यानी 20 या 25 फीसद ही हो। तो बचे अस्सी फीसद के लिए ‘न्याय’ बेमानी होगा।

जिन घरों को लक्ष्य मान कर ‘न्याय’ से पैसा देने की बात की जा रही है वह बीपीएल के लक्ष्य में आए घरों से कहीं ज़्यादा हैं। भले ही झटका लगे लोगों को पेशन भी देते रहने का सिलसिला चलता रह सकता है। राजनीतिकों को तो नारे चाहिए। सीधे और सरल। हर साल रुपए 72 हजार मात्र देश के बीस फीसद लोगों के लिए लगता भी सही नारा। इससे मकसद भी पूरा हो रहा है लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि इसके साथ ही दरवाजा बंद न हो जाए। दूसरी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के लिए भी काम हो।

फ्रांसीसी अर्थशास्त्री

प्रोफेसर अर्थशास्त्र विभाग

रांची विश्वविद्यालय

पुरी से टकराया फैनी, भारी बारिश

सुबह नौ बजे पुरी के तट से टकराने के बाफ फैनी ने अब तक श्रीकाकुलम में २० मकानों को तबाह करने के अलावा काफी नुक्सान किया है हालाँकि किसी जान-माल के नुक्सान की खबर नहीं है।
अभी तक की ख़बरों के मुताबिक चक्रवाती तूफान फैनी ओडिशा में पुरी के तट से टकरा गया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक निचली बस्तियों में पानी भर गया है। वहां करीब १७५ किलोमीटर की रफ्तार से हवाएं चल रही हैं। भुवनेश्वर, बेरहामपुर, बालूगांव में फैनी का जबर्दस्त असर, कई पेड़ गिरने की खबर है। राज्य के ज्यादातर तटवर्ती इलाकों में जोरदार बारिश हुई है। चक्रवात के असर से आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम में तेज हवाओं के साथ बारिश हुई है।
इसका असर अभी तक दिख रहा है। मौसम विभाग के मुताबिक, यह बंगाल से होता हुआ बांग्लादेश की तरफ बढ़ेगा ऐसे में पश्चिम बंगाल के तटवर्ती इलाकों में भी चेतावनी जारी कर दी गई है। चक्रवात पुरी के बाद पश्चिम बंगाल का रुख करेगा। इसका असर आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के  उत्तर-पूर्व इलाकों में भी दिखेगा। चक्रवात से ओडिशा के १४ जिले प्रभावित होंगे। इसमें पुरी, जगतसिंहपुर, केंद्रपारा, बालासोर, भदरक, गंजम, खुर्दा, जाजपुर, नयागढ़, कटक, गाजापटी, मयूरभंज, ढेंकानाल और कियोंझार शामिल हैं। इन जिलों के करीब १० हजार गांव चक्रवात से प्रभावित होंगे।
ओडिशा में एहतियात के तौर पर १५ जिलों से ११ लाख लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचा दिया गया है। यह २० साल में ओडिशा से टकराने वाला सबसे खतरनाक तूफान है। एनडीआरएफ ने एडवायजरी में कहा कि तूफान के बाद क्षतिग्रस्त भवनों में न जाएं। बिजली के खुले तारों को न छुएं। मछुआरे अतिरिक्त बैटरी के साथ रेडियो सेट रखें। एनडीआरएफ ने प्रभावित क्षेत्रों में राहत-बचाव का काम शुरू किया।
लोगों के लिए इमरजेंसी नंबर जारी किये गए हैं जो ओडिशा के लिए  06742534177, गृह मंत्रालय का 1938 और सिक्युरिटी का 182 है। ी नंबर पर फोन करके जानकारी ली जा सकती है जा सकती है।