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नवीन पटनायक के समक्ष गढ़ बचाने की चुनौती

लोकसभा चुनाव के चौथे चरण में नौ राज्यों की 71 सीटों पर मतदान संपन्न हो गए। इनमें ओडिशा की छह लोकसभा सीटें- केंद्रापाड़ा, जगतसिंहपुर, जाजपुर, भद्रक, बालेश्वर, मयूरभंज और इनके तहत आने वाली 41 विधानसभा सीटों पर भी मतदान हुआ। ओडिशा में मतदान का यह अंतिम चरण था। बीजू जनता दल (बीजद) उम्मीदवार की मृत्यु के बाद सिर्फ पत्कुरा विधानसभा सीट पर 19 मई को मतदान होंगे। चौथे चरण के चुनाव में ओडिशा के दो प्रमुख नेताओं भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और केंद्रापाड़ा लोकसभा सीट से उम्मीदवार बैजयंत पांडा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और भंडारीपोखरी विधानसभा से उम्मीदवार निरंजन पटनायक मैदान में हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ओडिशा से भी भाजपा की खास उम्मीदें जुड़ी हैं। उसे यकीन है कि सूबे में राज्य सरकार के खिलाफ परिवर्तन की लहर चल रही है। वैसे इस बार सत्ताधारी बीजद को विपक्षी दलों से कड़ी चुनौती मिल रही है। नतीजतन ओडिशा के चुनावी नतीजे बेहद चौंकाने वाले होंगे। परिणाम शायद साल 1995 जैसे भी हो सकते हैं। उस चुनाव में भी बीजू पटनायक के खिलाफ कोई लहर नहीं दिख रही रही थी। इसके बावजूद कांग्रेस के हाथों उन्हें करारी शिकस्त खानी पड़ी।

क्या बरकरार रह पाएंगी सीटें

ओडिशा में विधानसभा की कुल 147 सीटें हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजद को 43.4 फीसद मत मिले थे और 117 सीटों पर उसे कामयाबी मिली। कांग्रेस को 25.7 प्रतिशत मत और 16 सीटें मिली थी। जबकि भाजपा को 18 फीसद मत और 10 सीटें मिली। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजू जनता दल को 44.10 फीसद वोट मिले थे और उसके खाते में सूबे की इक्कीस सीटों में से बीस सीटें आईं थी। भाजपा को 21.50 फीसद वोट और एक सीट मिली थी,जबकि उसके नौ उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस को 26 फीसद वोट मिले लेकिन कोई सीट उसके हिस्से नहीं आई। लेकिन तीन साल बाद फरवरी 2017 में हुए ग्राम-पंचायतों के चुनाव में भाजपा को बड़ी कामयाबी मिली। राज्य की 846 जिला परिषदों में बीजद को सबसे अधिक 473 सीटों पर जीत मिली,जबकि भाजपा जिला परिषद की 297 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। वहीं कांग्रेस को सिर्फ 60 सीटें मिलीं।

हालांकि इस बार के चुनाव में हालात बदले हुए नजर आ रहे हैं। लोकसभा के चुनाव में जहां अधिकांश सीटों पर सत्ताधारी बीजद और भाजपा में लड़ाई है, वहीं विधानसभा के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले के आसार हैं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि प्रदेश चुनाव में नवीन पटनायक सरकार की वापसी होगी, लेकिन लोकसभा की कई सीटों का नुकसान हो सकता है। जबकि कई लोग यह भी मानते हैं कि ओडिशा त्रिशंकु विधानसभा की तरफ जाएगी। 2014 में कांग्रेस को विधानसभा की सोलह सीटें मिली थी, लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी शून्य पर सिमट गई। ऐसे में कांग्रेस के लिए इस बार अपनी सीटें बरकरार रख पाना एक बड़ी चुनौती है।

भुवनेश्वर-पुरी में दिलचस्प लड़ाई

राजधानी भुवनेश्वर और पुरी संसदीय सीटों पर चुनाव संपन्न हो गए। भुवनेश्वर पच्चीस वर्षों से बीजद के कब्जे में है। यहां लंबे समय से जीत का ख्वाब देख रही भाजपा ने पूर्व आईएएस अधिकारी अपराजिता सारंगी को मैदान में उतारा है। जबकि बीजद ने पूर्व आईपीएस अधिकारी अरूप पटनायक पर दांव खेला है। मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर रहे पटनायक की पहचान एक तेज-तर्रार अधिकारी की रूप में रही है। वहीं ओडिशा में कई जिलों में कलेक्टर रहीं सारंगी वर्ष राज्य शिक्षा विभाग की सचिव और भुवनेश्वर महानगर पालिका की आयुक्त भी रह चुकी हैं। सारंगी पिछले साल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर भाजपा में शामिल हुई थी। भुवनेश्वर से सबसे अधिक आठ बार कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत हुई है। जबकि बीजद 1998 से लगातार यहां जीतती आई है। भुवनेश्वर से पांच बार सांसद रहे प्रसन्ना कुमार पटसानी का टिकट काटकर अरूप पटनायक को उम्मीदवार बनाना नेताओं के साथ-साथ जनता के लिए भी हैरान करने वाला फैसला था। भुवनेश्वर की तरह पुरी में भी रोचक चुनावी नतीजे आने की उम्मीद है। यहां भाजपा उम्मीदवार संबित पात्रा का मुकाबला बीजद से लगातार पांच बार सांसद रहे पिनाकी मिश्रा से है। जबकि कांग्रेस के सत्यप्रकाश नायक मैदान में हैं। ओडिशा में सवर्णों की आबादी कम है,लेकिन सूबे की सियासत में उनका प्रभावी दखल रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सवर्णों को दस फीसद आरक्षण मिलने से भाजपा को ओडिशा में इससे फायदा होने की उम्मीद है। यहां सवर्णों की आबादी करीब पंद्रह फीसद है। इनमें क्षत्रिय सात प्रतिशत,ब्राह्मण पांच प्रतिशत और कायस्थ तीन प्रतिशत हैं।

भाजपा में बाहरी नेताओं की आमद

ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से पहले बीजू जनता दल के कई बड़े नेताओं ने भाजपा का दामन थामा। इनमें सबसे बड़ा नाम सांसद बैजयंत पांडा का है। भाजपा ने उन्हें केंद्रापाड़ा से ही उम्मीदवार बनाया है। इसके अलावा बीजद सरकार में कृषि मंत्री रहे दामा राउत को भाजपा ने पारादीप विधानसभा से मैदान में उतारा है। वहीं कंधमाल से बीजद सांसद प्रत्यूषा राजेश्वरी सिंह भी पिछले महीने भाजपा में शामिल हुईं। नायगढ़ राजपरिवार से जुड़ीं प्रत्यूषा का कंधमाल और आस-पास के इलाकों में काफी असर है। नबरंगपुर से बीजद के पूर्व सांसद रहे बलभद्र मांझी इस बार बतौर भाजपा उम्मीदवार चुनावी समर में हैं। कुछ समय पहले कांग्रेस के पूर्व सांसद विभु प्रसाद तराई ने भी पाला बदला और भाजपा में शामिल हुए। पार्टी ने उन्हें जगतसिंहपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है।

कांग्रेस खेमे में उदासीनता

करीब दो दशकों से बीजू जनता दल ओडिशा की सत्ता में है। वामफ्रंट के नाम पश्चिम बंगाल में लगातार चौंतीस वर्षों तक शासन करने का कीर्तिमान है। कमोबेश ऐसी ही महत्वाकांक्षा मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी रखते हैं। बीजद से जुड़े नेता सत्ता विरोधी लहर से जुड़े सवालों को तव्वजो नहीं दे रहे हैं। लेकिन प्रदेश में सरकार के खिलाफ ‘एंटी-इनकंबैंसी फैक्टर’ को खारिज भी नहीं किया जा सकता। मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को इसका फायदा मिलना चाहिए था,लेकिन नेताओं की उदासीनता और आपसी गुटबाजी से इसका लाभ भाजपा को मिलता दिख रहा है। एक तो ओडिशा कांग्रेस में सशक्त नेतृत्व का अभाव है,वहीं दूसरी तरफ नेताओं-कार्यकर्ताओं में आपसी समन्वय का अभाव है। भाजपा पिछले दो दशकों से राज्य में सांगठनिक विस्तार पर जोर दे रही है। पश्चिम बंगाल की तरह उसने ओडिशा के ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ बनाई। ग्राम-पंचायतों के चुनाव को भाजपा ने आधार बनाया,जबकि कांग्रेस इस मामले में निष्क्रिय बनी रही। भाजपा के चुनाव-प्रचार पर गौर करें तो उसने आक्रामक और सुनयोजित तरीके से इसे अंजाम दिया। राष्ट्रीय स्तर के उनके कई नेता रोजाना अलग-अलग जिलों में जनसंपर्क किया, जबकि कांग्रेस इस मामले में काफी पीछे रही। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ओडिशा में कम

रैलियां की यही राहुल गांधी कालाहांडी-रायगढ़ा में वेदांता के खिलाफ नियमगिरि आंदोलन से जुड़े डोंगरिया कोंध आदिवासियों की लड़ाई को अपनी लड़ाई बताया था। उन्होंने खुद को दिल्ली में तैनात ‘नियमगिरि का सिपाही’ करार दिया था। कांग्रेस को यकीन था कि इसका लाभ साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मिलेगा। लेकिन फायदा तो दूर की कौड़ी साबित हुई, इसके उलट साल 2009 में जीतीं अपनी छह संसदीय सीटें भी कांग्रेस नहीं बचा पाई। पांच साल बाद भी कांग्रेस खेमे की उदासीनता खत्म नहीं हुई। नतीजतन इस बार भी कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा इसकी गुंजाइश कम है।

पटनायक की खामोशी पर उठते सवाल

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एक गंभीर नेता और अपने सधे बयानों के लिए जाने जाते हैं। हालांकि उनकी खामोशी पर कांग्रेस सवाल उठा रही है। पार्टी का आरोप है कि बीजद और भाजपा का परोक्ष रूप से गठबंधन है। इन आरोपों को मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के उस बयान से बल मिला,जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य के हितों की खातिर बीजेडी केंद्र में बनने वाली किसी भी सरकार के साथ जाने पर विचार कर सकती है। इससे पहले मुख्यमंत्री पटनायक हमेशा भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाए रखने की बात कहते रहे। इन आरोपों की सच्चाई चाहे जो हो,लेकिन नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक-एयर स्ट्राइक पर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने केंद्र सरकार के खिलाफ कभी कोई बयान नहीं दिया। यहां तक कि उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के उप-सभापति के चुनावों में भी बीजद ने भाजपा का समर्थन किया था। गत लोकसभा चुनाव में बीजद को ओडिशा की कुल इक्कीस में से बीस सीटें मिली थी। इन नतीजों से राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी प्रमुख नवीन पटनायक का कद बढ़ा है। साथ ही दो दशकों से मुख्यमंत्री हैं,लेकिन फिर राष्ट्रीय मुद्दों पर उनका चुप रहना कई तरह के कयासों को जन्म देता है। यह पूछना तो लाजिमी है ऐसे मामलों में उनका और पार्टी का क्या रूख है ? ओडिशा की लाइफलाइन कही जाने वाली महानदी पर जब छत्तीसगढ़ में डैम बना उस समय भी मुख्यमंत्री नवीन पटनायक खामोश रहे।

किधर जाएंगे दलित-आदिवासी

हालिया कुछ वर्षों में कुछ राज्यों में दलितों के साथ उत्पीडऩ की कई घटनाएं हुईं। इसके विरोध में दलित संगठनों ने देशव्यापी आंदोलन भी किए। वर्ष 2014 के चुनाव में दलितों का समर्थन भाजपा को मिला था। नतीजतन उत्तर प्रदेश में भाजपा को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी। लेकिन इसके बरक्स ओडिशा में ‘मोदी लहर’ काम नहीं आई। पिछले चुनाव में दलित और आदिवासी मतदाताओं ने बीजद का समर्थन किया। राज्य में दलितों की जहां आबादी 16.5 है, वहीं आदिवासियों (अनुसूचित-जनजातियों) की संख्या 22.85 है। ओडिशा की चुनावी राजनीति में इनकी अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि राज्य में दो दशकों से बीजद के एकछत्र राज के पीछे दलितों और आदिवासियों की बड़ी भूमिका है। इस बार सियासी हालात कई मामलों में अलग हैं। ‘प्रधानमंत्री उज्जवला योजना’ पर भले ही विपक्षी पार्टियां तंज कसती हों, लेकिन प्रदेश के आदिवासी इलाकों में लोगों को इसका लाभ मिला है। ओडिशा में ‘ग्राम रक्षा दल’ से जुड़े लोगों में ज्यादातर दलित हैं, लेकिन इनकी तनख्वाह सिर्फ 1800 रुपये है। वेतन विसंगतियों को लेकर बीजद सरकार से इनकी नाराज़गी है। मुख्य विपक्षी पार्टी होने के बावजूद भी कांग्रेस इस मुद्दे पर शांत रही। जबकि भाजपा सदन से लेकर सड़क तक इस मुद्दे पर मुखर रही। उसने चुनावी रैलियों में भी ‘ग्राम रक्षा दल’ से संबद्ध लोगों के वेतन में वृद्धि का वादा किया। सुंदरगढ़, क्योंझर, मयूरभंज, नबरंगपुर और कोरापुट अनुसूचित जनजातियों के लिए जबकि भद्रक, जाजपुर और जगतसिंहपुर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित है। 2014 में सुंदरगढ़ से भाजपा उम्मीदवार जुएल उरांव को छोड़ शेष सातों सीट बीजद के खाते में गई थी। लेकिन इस बार बीजद को यहां कड़ी चुनौती मिल सकती है।

भ्रष्टाचार की आंच

ओडिशा के चुनावों में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां इसे लेकर बीजद सरकार पर हमलावर हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ओडिशा में भी चिटफंड घोटाले को लेकर भाजपा मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर हमलावर रही। इसके अलावा राज्य सरकार द्वारा संचालित कई योजनाओं पर भी विपक्षी पार्टियां सवाल उठा रही हैं। इस समय ओडिशा में कुल 60 योजनाएं चल रही हैं। इनमें 18 योजनाएं साल 2018 में शुरू हुई जबकि 17 स्कीम 2017 में। भाजपा और कांग्रेस का आरोप है कि चुनावी फायदे के लिए दो वर्षों में चौंतीस योजनाएं शुरू की गई हैं। इनमें कई स्कीम सिर्फ कागजों पर चल रहे हैं और नौकरशाहों को इससे फायदा हो रहा है। भाजपा ने तो सत्ता में आने पर नवीन सरकार में शुरू हुईं सभी योजनाओं की जांच करने की बात कही है।

बीजद में महिलाओं को तरजीह

स्वयं सहायता समूहों से बीजू जनता दल को काफी उम्मीदें हैं। राज्य में ऐसे समूहों की संख्या करीब सत्तर लाख है। राज्य सरकार की तरफ से इन्हें वित्तीय मदद भी मिलती है। इससे बीजद ने गंझम लोकसभा से प्रमिला बिशोई को उम्मीदवार बनाया है। ओडिशा में स्वयं सहायता समूहों को लोकप्रिय बनाने में इनकी बड़ी भूमिका है। ग्रामीण महिलाओं को स्वाबलंबी बनाने में इन समूहों का बड़ा योगदान है। बीजद ने इस बार 33 फीसद महिलाओं को लोकसभा उम्मीदवार बनाया है और सात महिलाओं को टिकट दिया है। लेकिन विधानसभा में इस अनुपात में टिकट नहीं दिए गए। नवीन पटनायक इस बार हिंजली और विजयपुर दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं।

किसान आत्महत्या पर घिरी सरकार

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक किसानों की बेहतरी का दावा करते हैं,लेकिन उनके 19 वर्षों के कार्यकाल में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की। ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ के मुताबिक बीते दो दशकों में ओडिशा में 3,800 किसानों ने खुदकशी की। सर्वाधिक आत्महत्याएं पश्चिमी और तटीय ओडिशा में हुई हैं। हैरानी की बात यह है कि राज्य सरकार की तरफ से मृत किसानों के शोक-संतप्त परिवारों को आर्थिक मुआवजा नहीं मिलता। राज्य में आत्महत्या की मुख्य वजह कजऱ् और फसलों का नाकाम होना है। मुख्यमंत्री बनने पर नवीन पटनायक ने दावा किया था कि सभी प्रखंडों में 35 फीसद भूमि सिंचित होगी। लेकिन 19 साल बाद भी ओडिशा के सभी खेतों तक पानी नहीं पहुंचा। जुलाई 2015 में ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ शुरूआत हुई थी। सभी राज्यों में सिंचाई प्रणाली मजबूत बनाने के लिए वित्त मंत्रालय ने वर्ष 2017-18 में 8,200 करोड़ रुपये का आवंटन किया था। ओडिशा के हिस्से में भी ठीक-ठाक धनराशि आई थी। बावजूद इसके राज्य की 65 फीसद कषि भूमि अब भी सिंचित नहीं है। पिछले 19 वर्षों के दौरान राज्य में कोई बड़ी सिंचाई परियोजना नहीं बनी।

गंगा सफाई कोष से धन ही जब जारी नहीं हुआ, तो कैसे साफ हो गंगा!

स्वच्छ निर्मल गंगा की सफाई के लिए दिसंबर 2018 तक रुपए 243.27 करोड़ ‘क्लीन गंगा फंड’ में आए थे। लेकिन अब तक सिर्फ रुपए 45.26 करोड़ मात्र ही खर्च हो पाए। यह खर्च भी दफ्तर, स्टॉफ और विज्ञापनों पर ही हुआ। इसकी मुख्य वजह यह थी कि इस फंड के बोर्ड के ट्रस्टियों की बैठक 2015 के बाद से अब तक सिर्फ दो बार हुई।

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार गंगा की सफाई के लिए ‘क्लीन गंगा फंड’ (सीजीएफ) का गठन नरेंद्र मोदी सरकार ने किया ज़रूर लेकिन कुल कोष का सिर्फ 18 फीसद ही खर्च हो सका। सितंबर 2014 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गंगा सफाई पर सीजीएफ के निर्माण पर सहमति दी। इसके तहत आम जनता से भी चंदा लेने की बात तय थी। जिनसे इस मिशन में दान लिया जाना था उनमें निजी और सार्वजनिक उपक्रम, गैर भारतीय और भारतीय मूल के लोग थे।

दिसंबर 2018 से कुल राशि रुपए 243.27 करोड़ तो हो गई, लेकिन गंगा की सफाई के नाम पर महज रुपए 45.26 करोड़ मात्र खर्च हो सके। यानी कुल रकम का महज 18 फीसद। ‘द क्राम्पट्रोलर एंड आडिटर जनरल’ (सीएजी) की रपट नेशनल फार क्लीन गंगा (एलएमसीजी) में चेतावनी दी गई है कि सीजीएफ के तहत मिले कोष से बहुत कम राशि ही खर्च हो सकी है। इसी रपट में सलाह दी गई है कि गंगा सफाई का काम तेज करने के लिए उस कोष का उपयोग किया जाना चाहिए।

केंद्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली के नेतृत्व में ट्रस्ट बना जिससे सीजीएफ की राशि का उपयोग हो। ट्रस्टियों में वित्त और आर्थिक मामलों के सचिव भी थे, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा शुद्धिकरण मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, वन और मौसम परिवर्तन और एमएमसीजी के सीईओ हैं। इस ट्रस्ट की जिम्मेदारी थी कि यह सीजीएफ के तहत गंगा की सफाई के काम को मंजूरी दे। लेकिन जो भी दस्तावेज आरटीआई के जरिए उपलब्ध हुए हैं उनसे पता चलता है कि बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज़ की कोई बैठक ही नहीं हुई। इसके चलते विभिन्न परियोजनाओं को मंजूरी नहीं मिली और फंड खर्च नहीं हो सका। ट्रस्ट की अब तक दो बैठकें ही हुई। जिसमें ट्रस्टियों की भागीदारी रही। एक बैठक 29 मई 2015 को जबकि दूसरी चार मई 2018 को। लेकिन इन बैठकों के मिनट्स से पता लगता है कि बोर्ड के सदस्यों की उपलब्धता न होने से बैठकें नहीं हुई। जबकि नियम यह है कि हर तीन महीने में एक बैठक तो होगी ही।

चार मई 2018 की बैठक के मिनट्स से जानकारी मिलती है कि ’29 मई 2015’ की बैठक के बाद यह कोशिश की गई कि 13 फरवरी और 28 फरवरी को भी बैठकें वित्तमंत्री अरूण जेटली की अध्यक्षता में हो जाएं और परियोजनाओं पर उनकी मंजूरी सीजीएफ के लिए जो जाए लेकिन प्रशासनिक वजहों के चलते यह संभव नहीं हुआ। आगे बताया गया कि वित्तमंत्री की घनघोर व्यस्तता के चलते और बोर्ड के ट्रस्टियों के समय न निकाल पाने के कारण बैठकों का आयोजन नहीं हो सका। कोरम पूरा करने के लिए भी न्यूनतम संख्या भी कभी पूरी नहीं हो पाती थी।

साभार: बायर

अब सातवें चरण में जीत की रस्साकशी

वाराणसी संसदीय क्षेत्र में जबरदस्त मुकाबला है। यहां विजय नहीं बल्कि सांस्कृतिक-राजनीतिक-धार्मिक मूल्यों की लड़ाई है। यहां ऐतिहासिक मशहूर गलियां नष्ट कर दी गईं। पुराने मंदिर जो घरों में थे वे नष्ट कर दिए गए। बाबा विश्वनाथ को मुक्त हवा देने का दावा किया गया। रोजग़ार खत्म हुआ विकास के नाम पर विनाश हुआ।

काशी कुरुक्षेत्र का रण बन गई है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह छठे चरण का मतदान खत्म होते ही वाराणसी पहुंच गए। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे रहे हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा का 15 मई को शानदार प्रभावी रोड़ शो रहा। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती भी रैली में जल्दी ही आने को है।

लोकसभा चुनाव के सातवें चरण में जिन 59 सीटों पर चुनाव होना है उनमें पूर्वांचल की 13 सीेटें हैं। इन सब पर 2014 में भाजपा का कब्जा था। तब 12 सीटें तो भाजपा को, एक सीट उसकी सहयोगी अनुप्रिय पटेल को मिली। तब सपा,बसपा और कांग्रेस का सफाया हो गया था।

वाराणसी सीट का खासा प्रभाव पूर्वांचल के महराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, बांसंगांव, धोसी, सलेमपुर, बलिया, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, मिर्जापुर और राबटर््गंज में 19 मई को मतदान होगा। इनमें भाजपा 11 सीटों पर चुनाव लड़ रहीं है। मिर्जापुर और राबटर््सगंज से उसकी सहयोगी ‘अपना दल’ लड़ रही है। जबकि सपा  आठ और बसपा पांच सीटों पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस 11 और उसकी सहयोगी जन अधिकार पार्टी एक सीट चंदौली से चुनाव लड़ रही है।

भाजपा को सपा-बसपा से कड़ी चुनौती मिल रही है। तब उन्हें सीट भले न मिली हों लेकिन दूसरे -तीसरे स्थान पर वही थे। 13 में दो-तीन पर कांग्रेस भी कामयाब हो सकती है। प्रधानमंत्री अपनी छह रैलियों को पूरे इलाके में करेंगे और वाराणसी वास करेंगे। भाजपा अध्यक्ष 15 दिन में तीसरी बार वाराणसी आए हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ बनारस एक किए हुए हैं। अपनी पूरी-ताकत अब भाजपा ने यहां लगी हुई है। पूर्वांचल का यह चुनावी रणक्षेत्र खासा महत्वपूर्ण है। भाजपा और इसके सहयोगी महाबलियों का मुकाबला कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी और महासविच प्रियंका गांधी, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती से है।

भाजपा के ही एक सहयोगी दल रहे भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर एक महीने पहले ही अलग हुए। भाजपा का ही एक और सहयोगी ‘अपना दल’ भी टूट चुका है। इसका एक हिस्सा कांग्रेस के साथ है। उधर भाजपा ने निषादपार्टी से समझौता कर लिया है।

कांग्रेस की ओर से अजय राय और सपा-बसपा गठबंधन से शलिनी यादव मैदान में हैं। वीएसएफ में रहते हुए, काम करने वाले जवानों को जो खाना दिया जाता है उसकी शिकयत पर बर्खास्त जवान तेज बहादुर भी दोनों पक्षों के हित में प्रचार कर रहे हैं।

काशी में सांड, साधु और संन्यासी ही नहीं, किसान, जवान और बेरोजग़ार भी हैं मुद्दे

सात चरणों के भारतीय चुनावी उत्सव में बनारस-वाराणसी-काशी संसदीय क्षेत्र का चुनाव आखिरी चरण में अति महत्वपूर्ण बन गया है। सब जगह चुनाव प्रचार से खाली हुए संघ परिवार के सदस्य अब काशी में बड़ी उत्सुकता से सांड, साधु और संन्यासियों का मन टटोलने में जुट गए हैं। वे घर-घर और कान-कान में फुसफुसाते हैं ‘अबकी फिर मोदी सरकार।’

काशी के सांड तो संघ परिवार के सदस्यों को उनके गले में केसरिया उत्तरीय और फूलमाल देख कर बड़े अंदाज से अपनी सींगे हिलाते हुए उनकी ओर बढ़ते हैं। साधु इन्हें देखते हैं तो कमंडल उठा कर कहते है, ‘राममंदिर नही ंतो अबकी नहीं।’ सन्यासी अपने खल्वाट पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाते है,’ न जाने कितने मंदिर, घर बाजार नष्ट कर दिए।’ वाराणसी संसदीय क्षेत्र में बड़ी तादाद में हैं परेशान भूमिहीन और छोटे किसान जिनके बैंक के खातों में अब तक कोई राशि नहीं पहुंची। वाराणसी, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि के भी जवान यही हैं जो देश की विभिन्न सशस्त्र बलों में हैं। लेकिन भोजन और अपने अधिकारियों के रवैए से बेहद खिन्न हैं। शिक्षा की नगरी कही जाने वाले वाराणसी में बड़े पैमाने पर बेरोजग़ार नौजवान हैं। जिन्हें नहीं पता उनके ‘अच्छे दिन कब आएंगे।’ तेज धूप में गमछा लपेटे ये बेरोजग़ार नौजवान संघ परिवार की बहुरूपिया बनी टोली को देखते ही गंगा तट की ओर चले जाते हैं। ऐसा तो है हाल क्योटो बनते पुराने शहर बनारस का!

एक दौर था जब वाराणसी संसदीय क्षेत्र के ही एक पूर्व प्रधानमंत्री ने देश को ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। उस पूर्व प्रधानमंत्री को वाराणसी ससंदीय क्षेत्र की जनता आज भी बड़े आदर भाव से याद करती है। तब के समाज में इतने ज़्यादा विभाजन नहीं हुए थे जो आज पांच साल में वाराणसी संसदीय क्षेत्र में बहुत साफ नजऱ आते हैं। तब एक मज़बूत राष्ट्र की कल्पना थी। आज मज़बूती की सिर्फ चर्चा है।

राष्ट्रीय चुनाव आयोग ने अपनी भेदभरी निगाहों के चलते उस जवान को इस संसदीय क्षेत्र में चुनाव लडऩे की अनुमति नहीं दी। इससे देश का लोकतंत्र क्या मज़बूत हुआ? उस जवान ने शायद यही बताना चाहा कि देश की रक्षा में जुटे जवान की तस्वीरें ही दिलकश होती हैं। उन्हें समुचित पुष्ट आहार भी नहीं दिया जाता। उस जवान को अच्छी तरह पता था कि उसके पास न धनशक्ति है, न उसके नाम का जयकारा करने वाले समर्थक हैं, और न वाराणसी की सड़कों पर शोभायात्रा करने की चमक-दमक। वह तो एक प्रतीक के तौर पर देश के लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिहाज से चुनाव लडऩा चाहता था।

छोटे और भूमिहीन किसानों ने जब लोकतंत्र को मनमाने तंत्र में बदलते देखा तो उन्हें अपने खेतों में ही पुरजा-पुरजा होकर मरना पसंद आया, क्योंकि महाराष्ट्र में नासिक से मुंबई तक की पदयात्रा दो बार करने के बाद भी सिर्फ कोरे आश्वासन मिले। भूखे-प्यासे किसान तमिलनाडु से दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचे। अपनी दुर्दशा की कहानी उन्होंने खुद को नंगा कर कंकालों केे जरिए सौ दिन तक जताई लेकिन न कहीं राजा था और न बेताल। किसी ने आंसू तक नहीं पोंछे।

तमिलनाडु के एक सौ ग्यारह किसानों ने वाराणसी संसदीय क्षेत्र से नामांकन दाखिल करने की सोची लेकिन कौन कान सुनता? उधर तेलंगाना के 185 किसानों ने अलबत्ता नामांकन दाखिल किया। उनकी लंबी सूची पर मतदान के प्रबंध की भी सोची गई। पर सब खारिज। वाराणसी संसदीय क्षेत्र तो अति महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र है न! यह है देश का लोकतंत्र जहां नौकरशाही हावी है। सारी रोक-टोक के बाद अलबत्ता जग-जाहिर हो गया कि भाजपा किसानों के लिए किए अपने ही वादे पूरे नहीं कर पाई।

क्या हरियाणा और पंजाब के किसान और जवान ये सारी बातें पिछले पांच साल में होते नहीं देखते रहे हैं। सिर्फ पार्टियों का ज़ोर रहा हैै, मतदाताओं और उम्मीदवाारों के चयन में जाति, धर्म का आधार। इस 17वें आम चुनाव में प्रधानमंत्री उनकी पार्टी के अध्यक्ष ने लगातार देशप्रेम, सेना, नेहरू-गांधी, खानदान, धर्म और जाति केंद्रित चुनाव प्रचार किए। भाषा जितनी भी कटु और गाली-गलौच भरी हो सकती थी वह रखी। ग्यारह-बारह शिकायतों पर राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग ने सुना ही नहीं कर्रावाई तो दूर। जनता सब देखती सुनती और समझती है। उसे आज नही ंतो जल्दी ही इन सारी गलत बातों के विरोध में खड़े होना ही होगा। ऐसा नहीं है कि ये बातें भाजपा और संघ परिवार समझ नहीं रहा है। लेकिन वे लाचार हैं। न मार्ग दर्शक मंडल की कहीं चलती है और पार्टी के तपे-तपाए बुजुर्ग नेताओं से ही कोई समान स्तर पर बातचीत ही करता है। पार्टी के अंदर कई स्तरों पर भयंकर घमासान है। जिसे संघ से आए हुए लोग समझते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे खुद जनता से मत का दान लेने में सक्षम नहीं हैं।

वाराणसी संसदीय क्षेत्र में प्रधानमंत्री केंद्रीय प्रोजेक्ट विश्वनाथ कॉरिडोर और गंगा व्यू को अमल में लाने के लिए रुपए 600 करोड़ मात्र की परियोजना पर काम शुरू हुआ। एक चरण पूरा किया गया है। शिव और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ी गई। मंदिर, घर, गलियां आज विशाल मैदान बन गई हैं। श्रद्धालुओं का काशी विश्वनाथ दरबार में पहुंच पाना और गंगा किनारे पहुंचना बेहद श्रम साध्य हो गया है। कभी इन्ही ऐतिहासिक गलियों में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी गई थी। आज चंद ही गलियां हैं जिन पर संतोष भी नहीं किया जा सकता।

बनारस यानी काशी की संस्कृति सांड, साधु और संन्यासी की रही है। आज वह संस्कृति न तो पारंपरिक हैं और न यह जापानी क्योटो ही बना जिसका आश्वासन सिर्फ तस्वीरों में दिया गया था। नदी किनारे के दूसरे शहरों की ही तरह वाराणसी में भी सिर्फ गंगा आरती होती है। आरती उस गंगा की जिसमें आज भी सीवेज के 81 नाले गिर रहे हैं। एनजीटी के आदेशों की यहां धज्जियां उड़ाई जाती हैं। गंगा आज भी मैली है। कोई नहीं जातना कब -कौन भगीरथी फिर साफ गंगा का प्रवाह काशी में कर पाएगा। जबकि काशी अति महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र वाराणसी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

परचा काशी वासियों का

काशी है महादेव, मां अन्नपूर्णा,

मोैलाना अल्वी, शेख अली हाजी,

बुद्ध, रैदास, पाश्र्वनाथ, कबीर का

काशी नहीं फजऱ्ी फकीर का

तआलल्लाह बनारस चश्म-ए बद्दूर

बहिश्त-ए-खुर्रम-ओ-फिरदौस-ए-मामूर

इबादतखान-ए-नाकूसियां अस्त-ए-हमाना

काबा-ए-हिंदोस्तां अस्त

(हे परमात्मा, बुरी नजऱ से बनारस को दूर रखना क्योंकि यह आनंदमंय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों यानी हिंदुओं का पूजा स्थान है। यानी यही हिंदुस्तान का काबा है।)मिजऱ्ा गालिब

अलवर बलात्कार कांड ने उठाए कई सवाल

अलवर जिले के थानागाजी इलाके में पति को बंधक बनाकर पत्नी से सामूहिक बलात्कार की घटना निश्चित रूप से शर्मनाक थी। सरकार और पुलिस प्र्रशासन के स्त्री सुरक्षा के दावों के लिए भी इसलिए बड़ा सवाल है कि इसने प्रदेश की महिलाओं को बुरी तरह दहला दिया है। अगर आप मानते हैं कि,’इस कहर के पीछे गहलोत सरकार के सुरक्षा बंदोबस्त की कोताही थी या चुनावी माहौल बिगडऩे के अंदेशे में 26 अप्रैल को हुई घटना केा छिपाए रखने की मंशा थी तो इन तथ्यों पर गौर करना होगा। पीडि़ता के पति का कहना था कि,’घटना से हम पति-पत्नी इस कदर डरे-सहमे हुए थे कि,बदनामी के कारण किसी को नहीं बताया । इसके बाद मैं जयपुर चला गया। पति का कहना था,’घटना को अंजाम देने के बाद भी दरिन्दे बेखौफ रहे । उन्होंने मुझे फोन कर इस धमकी के साथ दस हजार रुपए मांगे कि,’नहीं देने पर इस निर्लज्जता का वीडियो वायरल कर दिया जाएगा…।’’ अलवर के पुलिस अधीक्षक राजीव पचार के पास भी पीडि़त दंपत्ति दो मई को तब पहुंचे जब, वारदात का वीडियो वायरल हो चुका था। इस स्थिति ने उन्हें बदहवास कर दिया । इस मामले में गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव राजीव स्वरूप का कहना है कि, ‘पीडि़त दंपत्ति के बताए अनुसार,’आरोपी एक बार उनसेे रकम ऐंठ चुके थे । खून उनके मुंह लग चुका था, इसलिए उन्होंने फिर पैसों का तकाजा किया। इस बार पीडित उनकी मांग पूरी नहीं कर सका। नतीजतन आरोपियों ने वीडियो वायरल कर दिया। यानी वारदात का खुलासा पीडि़त ने नौ दिन बाद दो मई को किया । एसपी राजीव पचार के अनुसार इस संबंध में पति-पत्नी दोनों मेरे पास दो मई को आए थे। मैंने उसी समय रिपोर्ट दर्ज करने के आदेश दे दिए। एक टीम थानागाजी स्तर पर और पुलिस की एक टीम अलवर स्तर पर गठित कर दी। मामला थानेदार ने क्यों दर्ज नहीं किया ? थाना प्रभारी सरदार सिंह का कहना था कि,’मामला एससी (दलित) महिला का था। इसलिए इस पर कार्रवाई के लिए उच्च अधिकारी ही अधिकृत थे ।

यह घिनौनी वारदात थानागाजी कस्बे के गांव लालबाड़ी और तालवृक्ष के रास्ते में 26 अपै्रल को दोपहर तीन बजे उस वक्त हुई जब पीडि़ता अपने पति के साथ बाइक पर दुगार चैगान वाले रास्ते पर थी। वारदात करने वाले पांच गुर्जर युवक थे। बाइक पर सवार युवकों ने पति-पत्नी के आगे बाइक लगाकर उन्हें रोक दिया। बाद में टीलों के पीछे ले जाकर वारदात की । इस मामले में चुनावी राजनीति ने जिस कदर हलचल मचाई, उससे कहीं ज़्यादा दलित उत्पीडऩ की लहरें भी उछली । लेकिन इस हकीकत को किसी ने नहीं टटोला कि,’इस क्षेत्र में यह कोई पहली वारदात नहीं थी, बल्कि लंबी फेहरिश्त में ना जाने कौन से नंबर पर जाकर यह वारदात टिकी होगी ? कहा जाता है कि यह इलाका गुर्जरों के उत्पात और उन्माद से थर्राया हुआ है । गुर्जर बिरदारी के सिरफिरों ने इस हद तक आतंक फैला रखा है कि लोग उनके खिलाफ जुबान खोलने से भी डरते हैं । कहा तो यह भी जाता है कि विधान सभा चुनावों के दौरान इस इलाके के लोग महज इस ख्याल तक से थर्राए हुए थे कि अगर गुर्जर नेता सचिन पायलट मुख्यमंत्री बन गए तो इनका हौसला उनके लिए तबाही ला सकता है । गहलोत सरकार तो महज 6 माह से ही अस्तित्व में आई है, जिसमें आम चुनावों के मद्देनजर सरकार को काम करने का कितना मौका मिला ? कहने की जरूरत नहीं है। इस घटना को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की प्रतिक्रिया चैंकाती है कि ऐसे जघन्य अपराध कांग्रेस सरकार के महिला और बेटियों को सुरक्षित माहौल देने की पोल खोल रहे हैं। जबकि राजस्थान के थानों में दर्ज दुष्कर्म और महिला अपराधों के आंकड़ों को खंगाला जाए तो राजे के पास इस बात का क्या जवाब है कि,’वर्ष 2018 में चुनावों से पहले तक प्रदेश में चार हजार 335 दुष्कर्म के केस दर्ज हुए यानी 12 वारदातें रोज़? और अलवर में तो महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित थी।

मुख्यमंत्री गहलोत ने इस मामले के मद्देनजर जो सख्त कदम उठाते हुए एक नई व्यवस्था कायम की कि,’थाने में अगर एफआईआर दर्ज नहीं होती है तो थाना प्रभारी पर तो कार्रवाई होगी ही लेकिन तब एफआईआर पुलिस अधीक्षक दर्ज करेंगे। गहलोत की घोषणा के मुताबिक महिला उत्पीडऩ सरीखे मामलों की जांच के लिए हर जिले में सर्किल आफिसर स्तर का अलग अधिकारी तैनात होगा । यह अधिकारी सिर्फ महिलााओं के अपहरण, दुष्कर्म सरीखे अन्य मामलों की मानीटरिंग करेगा। उन्होंने कहा कि पिछली सरकार ने ऐसे मामलों को संजीदगी से लिया ही नहीं । बहरहाल पुलिस ने पाचों आरोपियों को पकड़ लिया है और मामला जेरे तफ्तीश है । लेकिन चुनावी माहौल में इस आग को हवा देने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पीछे नहीं रहे। उन्होने बसपा सुप्रीमों मायावती को उकसाने की कोशिश की कि उन्हें दलितों से प्यार है तो गहलोत सरकार से समर्थन वापस क्यों नहीं ले लेती ? मायावती ने पलटवार करते हुए कहा, ‘पहले मोदी भाजपा शासित राज्यों में दलित अत्याचारों की नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दें ? क्या मोदी उत्तर प्रदेश में दलितों को नहीं चाहते ? बहरहाल बताते चलें कि गहलोत सरकार बसपा के समर्थन से नहीं चल रही बल्कि पूर्ण बहुमत से चल रही है ।

गर्त में डूब रही हैं सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाएं

सत्ता की सियासत को सुगढ़ बनाने वाली योजनाओं को साधने के लिए संकल्प की आवश्यकता होती है और जब संकल्प बिखरता है तो यही योजनाएं सरकार की अन्त्येष्टि की अर्थी तैयार कर देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की योजनाओं का सत्य यदि इसी अवधारणा के सन्निकट है तो सरकार का ‘राम नाम सत्य है…’’ का मर्सिया सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’ बाज़ादी के बाद के भारत के शासक अब तक इतिहास से ही सीखते-समझते आए हैं लेकिन मोदी सरकार इस इतिहास की उलटबांसी में जुटी रही। सरकार की योजनाओं का सत्य बांचने और उनके अमल का खाता-बही जांचने वाले मंत्रालय ने अपनी रपट में जो लेखा-जोखा सांैप दिया उसके मुताबिक सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं के बेड़े में 14 योजनाएं बुरी तरह फ्लाप हो चुकी हैं। खबरिया चैनलों पर ऊंचे सुर में मोदी सरकार की जिन योजनाओं के गुणगान में कसीदे पढ़े गए, उनमें प्रधानमंत्री जन आवास योजना देश के 27 राज्यों में राह से भटक चुकी थी। योजना में कर्ज वापसी की अक्षमता और ओैपचारिकताओं की घुमावदार गलियों ने उस ‘गरीब’ को किनारे कर दिया जिसके लिए कथित रूप से यह योजना बनाई गई थी। लोगों के आसपास यह बहस बुरी तरह खदबदाती रही और फट पडऩा चाह रही है कि,’गरीब’ मेरी प्राथमिकता का आलाप करने वाले मोदी असहमति का स्वर क्यों सुन नहीं पाए?

आठ करोड़ गरीब महिलाओं को मुफ्त कनेक्शन देने का लक्ष्य लेकर चली जिस ‘उज्जवला योजना’ को भावुकता से सने लफ्जों के साथ मोदी ने अपनी मां की पीडा को आत्मसात किया कि,’इस योजना के पीछे मुझे मेरी ‘मां’ का बेहाल चेहरा नजर आता है, जो धुएं की धोंकनी बर्दाश्त करती हुई मेरे लिए रोटी बनाती थी, अब इस योजना से गांव-गुवार में रहने वाली करोड़ों ‘माताओं’ को दम घोंटू, धुएं से निजात मिल सकेगी। क्या ऐसा हुआ? जबकि पेट्रो कंपनियों के ढुलमुल रवैये और केरोसीन वितरण में लाभार्थी पहचान की नाक घुसडऩे की कोशिश ने योजना को दौडऩे से पहले ही कुंद कर दिया, नतीजतन ‘मोदी गाथा’ का जाप करने वाली यह योजना गांवों की तरफ जाने वाली पगडंडियों पर ही ठिठक गई? अब इस हकीकत को क्या कहा जाए कि दीनदयाल ज्योति योजना बावजूद ‘सौभाग्य योजना’ के जोड़ -घटाव के बाद भी 15 राज्यों में फिसड्डी बनी रही? फसल योजना ने अगर भला किया तो कंपनियों का ! सीएजी रिपोर्ट तो इस योजना को किसानों का बंटाढार करने का सर्टिफिकेट दे चुकी है। कितना कड़वा सच है कि बीमा कंपनियां फसल बीमा योजना का 32 हजार करोड़ डकार गई और सरकार उन चेहरों को भी नहीं पहचान पाई? भाजपा को सत्ता में पहुंचाने में जिस किसान की अहम भूमिका रही, वो आज भी सड़कों पर है? किसानों को भरोसा दिया गया था कि फसल की लागत का उन्हें 50 फीसदी मुनाफा दिया जाएगा, लेकिन साल से सरकार इसी समीकरण में उलझी रही कि ‘लागत की परिभाषा क्या हो? कांग्रेस सरकार के दौरान कृषि के क्षेत्र में 4.2 फीसदी की तुलना में अब तक की सबसे कम 1.9 फीसद वृद्धि आंकी गई। जिस मनरेगा को कभी मोदी ‘मौत का स्मारक’ कह कर कोस चुके थे, उस पर वे हजार बार निसार रहे और इसकी सफलता भी हड़पने में कोताही नहीं बरती।

‘स्मार्ट सिटी’ शायद मोदी सरकार की सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी योजना रही, लेकिन अव्वल तो इसके खांचे में ही खोट था। शहरों को आधुनिक संचार व्यवस्था से परिपूर्ण करने का लक्ष्य लेकर चली इस योजना की प्रगति अब तक सिर्फ दो फीसद की पूर्ति के साथ ही चौंकाती रही। यह योजना निकाय, निजी कंपनियों और परामर्शकों के तितरफा हाथों में तो विभाजित थी ही, फिर शहरी विकास का दायित्व भी निकाय और निगम दो भागों में बंटा हुआ रहा नतीजतन योजना का बंटाढार तो होना ही था। इस योजना में चयनित शहरों में प्रत्येक को दो सौ करोड़ किए दिए गए। लेकिन उपयोग सिर्फ 8.5 फीसद रकम का ही हो पाया। जो योजना केन्द्र, राज्य और निजी क्षेत्रों में बंटी हुई हो, उसका भविष्य क्या हो सकता था, क्यों इस बात पर मंथन नहीं किया गया? मुद्रा योजना में एक व्यक्ति को औसतन 17 हजार रुपए का कर्ज मिल पाता है। इस रकम से उसका अपना गुजारा तो संभव है, लेकिन दूसरों के लिए रोजगार उत्पन्न करना तो कल्पना से परे है। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ में तो नेताओं की कैमरापरस्ती ही ज्यादा हावी रही। नतीजतन अभियान में शिरकत करते नेताओं की फितरत तस्वीरों की शक्ल में उनके घरों में टंग गई, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट ने यह कहते हुए हकीकत बेपर्दा कर दी कि ‘दुनिया के सबसे 15 प्रदूषित शहरों में 14 शहर भारत के हैं और इनमें दिल्ली भी शामिल है। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को लागू करने से पहले इसे प्रयोग के धरातल पर परखा जाना चाहिए था। बगैर ऐसा किए, इसे पूरे देश में एक साथ लागू करने का क्या औचित्य था? पांच सालों में अगर देश के गिनती के क्षेत्र ही शौच मुक्त हो पाए तो इस योजना की विश्वसनीयता क्या रही?

जन-धन योजना, मोदी के इस संकल्प के साथ शुरू की गई कि, ‘आर्थिक गतिविधियों में जनता की भागीदारी सरकार का उत्तरदायित्व है…..’’ फिर ऐसा क्यों हुआ कि इस योजना में 50 फीसद खाते तो आज भी ‘जीरो बैलेंस’ बने रहे। सूत्रों के मुताबिक यह 76.81 प्रतिशत रही। इस योजना की सबसे बड़ी खामी रही इसकी पात्रता के दायरे में आने वाले लोग जिनका अपना गुजारा ही बमुश्किल से होता हो, वो खाते में जमा करवाने के लिए रकम लाते कहां से? फिर सरकार ही इन खातों में रकम जमा करवाने के अपने दायित्वों से कैसे मुकर गई?

मेक इन इंडिया’ के अभियान की शुरूआत इस दावे के साथ बड़े जोशोखरोश से की गई कि भारत को ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाया जाएगा। इसमें नवाचार को बढ़ावा देने और कोैशल विकास की वृद्धि का दावा भी शामिल था, लेकिन जब विश्व व्यापार में हिस्सेदारी ही 0.8 फीसदी पर अटकी रही और निवेश के तमाम रास्ते बंद रहे तो कैसे बनता भारत वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग हब? इस योजना पर अंदेशों की परतें तो शुरूआती दौर में ही चढ़ गई थी जब मोदी और संघ की आर्थिक विचार धारा में टकराव की स्थितियां उत्पन्न हो गई थी। संघ ने स्वामित्व के अधिकारविहीनता की गोटी को यह कहकर कैच कर लिया कि,’दिहाड़ी मजदूर आखिर कैसे विकास का मॉडल हो सकता है? नतीजतन इस योजना पर अप्रत्यक्ष रूप से मोदी ओैर संघ के बीच साझा चुप्पी ही बनी रही। ‘मेक इन इंडिया’ का सीधा रिश्ता कौशल विकास के अलावा शिक्षा से भी है, लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय ने पाठ्य पुस्तकों के भगवाकरण के फेर में इन अवसरों को मु_ी से फिसल जाने दिया?

आयुष्मान भारत योजना की शुरूआत इस दावे के साथ की गई कि इस योजना के तहत बीपीएल परिवारों का बीमा किया जाएगा और उन्हें अस्पतालों में कैशलेस इलाज उपलब्ध करवाया जाएगा। लेकिन क्या समय रहते योजना का खाका तैयार हो पाया? डिजिटल भुगतान की बात सुनने में अच्छी लग सकती है, लेकिन लागू होना बेहद जटिल रहा। प्रश्न है कि फुटकर कारोबार और दिहाड़ी रोजगार की बहुतायत वाले इस देश में आखिर डिजिटल भुगतान कैसे संभव था? इस योजना की प्रगति के आंकड़े ही इसकी मुखालफत करते नजर आते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते लिंगानुपात की खाई को पाटने और स्त्री शिक्षा संवर्द्धन के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना तो तथाकथित प्रगति के घाट पर जल्दी ही फिसल गई। बालिका जन्म दर में इजाफा होने की बजाय आठ फीसद की गिरावट आ गई। स्किल इंडिया योजना के तहत साल 2022 तक 40 करोड़ युवाओं को कौशल विकास के जरिए हुनरमंद बनाने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन योजना के काम-काज पर निगरानी रखने वाली समिति ने ही इन लक्ष्यों की आपूर्ति की संभावना पर सवालिया निशान लगा दिए? मोदी सरकार हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा कर सत्ता में आई थी, लेकिन सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकोनामी का सर्वेक्षण कहता है कि इस योजना में सरकार प्रगति के पायदान तय नहीं कर पाई। इस मामले में लेबर ब्यूरो का आंकड़े जारी नहीं करना और चुप्पी साध लेना अंदेशों को बल देता है। सांसद आदर्श ग्राम योजना संभवत: अफरातफरी में शुरू की गई होगी, अन्यथा कोई भी योजना लक्ष्यविहीनता के बगैर कैसे शुरू हो सकती है। इस योजना में प्रगति के आंकड़े उबासी लेेते सांसदों की तस्वीर सामने लाते हैं। हैरत की बात है कि पांच साल बीत गए लेकिन 80 फीसदी सांसदों ने गांवों का चयन तक नहीं किया, ऐसे में आदर्श ग्राम योजना का भविष्य सांसदों की नाफरमानी का अक्स खींच देता है?

नकदी पर चलने वाली सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में अगर काला धन काबू में करने के लिए नोटबंदी की गई तो छोटे कारोबार और कुटीर उद्योग तो डूबे ही, देश को भी अनंतकाल के लिए मंदी की अंधी गुफा में धकेल दिया गया। सेंटर फॅार मानीटरिंग इकोनामी के अनुसार नोटबंदी के कारण 15 लाख नौकरियां भी अंधकूप में चली गई। अलबत्ता नोटबंदी तो तभी लागू होती है जब देश की साख डूब रही हो, क्या नौबत ऐसी आ गई थी? जीएसटी ने हर उस जगह पर कामगारों के घुटने तोड़ दिए, जहां उन्हें रोटी-रोजगार मिला हुआ था? लोगों को मोदी से रोजगार और महंगाई सरीखे दो बड़े मुद्दों पर लीक तोडऩे की उम्मीद थी लेकिन मोदी के जुमले जमीन पर ही नहीं उतर पाए? खुद मोदी भी जुमलों को नुमाइशी बता चुके है कि, ‘चुनावी माहौल में कह दी जाती है कई बातें?’अच्छे दिन’ लाने के वादे के साथ मोदी सरकार कामयाबी का पैमाना गढऩे के इरादों पर फोकस करती तो पांच साल बाद अपनी सफाई देने वाले ‘साफ नीयत, स्पष्ट विकास’ का नाकारा नारा गढऩे की जरूरत नहीं पड़ती अलबत्ता असफलता के अहसास के साथ योजनाओं का कोई स्पष्ट ‘रोड मैप’ दिखाते तो कोई बात बनती। मोदी सरकार की नाकामी तो इसी मोड़ पर साबित हो जाती है कि,’अच्छे दिन का वादा करने वाली सरकार अच्छे दिनों का अहसास तक नहीं करा सकी।’

वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हंै कि किसी भी सरकार के लिए भरोसा सबसे बड़ी पूंजी होती हीै। आधिकारिक तथ्यों पर भरोसा करके ही सारे कामकाज निपटाए जाते हैं। न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय कारेाबारी और नीति नियंता सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही योजनाएं बनाते और उन्हें मूर्त रूप देते हैं। ऐसे में यदि सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी किए गए तथ्यों पर सवाल खड़े हो जाएं तो बड़ा संकट उत्पन्न हो सकता है। भारत सरकार के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने यह खुलासा करके हंगामा मचा दिया कि ‘नई श्रृंखला’ में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) की गणना के लिए मंत्रालय के पोर्टल से जिन कंपनियेां केा शामिल किया गया है उनमें करीब एक तिहाई (38 फीसदी) का कहीं अता-पता नहीं है। इस पर विवाद शुरू हो गया है कि क्या ऐसा करने से जीडीपी के आंकड़ों को बढ़ाकर दिखाया जा सकता है? सरकार का दावा है कि इन कंपनियों के आंकड़ों को शामिल करने केे बावजूद जीडीपी के आकलन में कोई गड़बड़ी नहीं है। हालांकि सरकार ने इस मामले का अध्ययन करने की बात भी कहीं। इस मुद्दे पर राजनीति गरमा जाना स्वाभाविक है। पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने तो सरकार पर जीडीपी अनुमान को ज्यादा दिखाने के लिए केन्द्रीय सांख्यिकी मंत्रालय पर आंकड़ों में जानबूझकर गड़बड़ी करने का आरोप लगाया है। सरकार के दावों के विपरीत एनएसएसओ के रोजगार के आंकड़ों पर पहले भी हंगामा हो चुका है।

कोठारी कहते हैं कि जीडीपी को लेकर सरकार के अंाकड़ों पर सबसे पहले शक उस समय व्यक्त किया गया था जब 2015 में ‘नई शंृखला’ के आंकड़े पहली बार जारी किए गए। तब जीडीपी में तेज उछाल दर्ज किया गया था। सरकार का दावा था कि यह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में सबसे ज्यादा है। तब पहली बार जीडीपी की गणना के लिए उत्पादों के व्यापक सर्वेक्षण के स्थान पर कंपनियों के लाभ को शामिल किया गया। वैसे तो कुछ विशेषज्ञ इसे ज्यादा वैज्ञानिक तरीका मानते हैं क्योंकि कंपनी मामलों के मंत्रालय के पास कंपनियों की वित्तीय गतिविधियों के आंकड़े आसानी से उपलब्ध होते हैं। लेकिन एनएमएसओ का यह खुलासा कि इन अंाकड़ों में शामिल एक तिहाई कंपनियां फर्जी हंै, एकबारगी जीडीपी की पूरी गणना पर सवाल खड़े कर रहा है। भारतीय सांिख्यकी विभाग के आंकड़ों पर पहले कभी ऐसे सवाल खड़े नहीं हुए थे। यह संदेश ऐसे समय प्रकट हो रहा है जब आर्थिक विकास और रोजगार, चुनाव में राजनीतिक मुद्दे बने हुए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर तरह-तरह की आशंकाओं के कारण विदेशी निवेशक पूरी तरह निश्चित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में सामने आई कथित गड़बड़ी के बाद भरोसे का संकट और गहरा सकता है। इसलिए अब यह ज़रूरी हो जाता है कि आंकड़ों की गणना को राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंकाओं से दूर रखने के हर संभव उपाए किए जाएं। कोठारी कहते हैं कि, चुनाव के बाद जो नई सरकार बनेगी उसके कंधों पर यह जिम्मेदारी भी होगी कि भारत सरकार की विश्वसनीयता के साथ यदि खिलवाड़ किया गया है तो उसकी जांच कराएं और भविष्य के लिए सांख्यिकी विभाग को राजनीतिक हस्तक्षेप में दूर रखने का तंत्र विकसित करे।

भोपाल में हिंदुत्व का नया परीक्षण

भाजपा ने भोपाल को अपनी हिंदुत्व विचारधारा के चलते भूकंप केंद्र सा बना दिया है। भोपाल लोकसभा सीट पर उसने आतंक आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बतौर उम्मीदवार उतारा है। इससे भोपाल अचानक देश की वैज्ञानिक और चुनावी जंग का एक रोचक केंद्र बन गया है।

ठाकुर को उम्मीदवार बनाना बहुतों के लिए आश्चर्य ही रही। भाजपा में ऐसे कदावर नेता कम नहीं है जो मध्यप्रद्रेश में कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह को चुनौती न दे सकें। सिंह राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर एक दशक सक्रिय भी रहे हैं। चामत्कारिक उमा भारती से वे 15 साल पहले परास्त हुए। वे भी यह मुकाबला कर सकती थीं। वैसे ही पूर्व मुख्यमंत्री हैं बाबूलाल गौर जिन्होंने राज्य विधानसभा में दस सूत्रों तक अपनी सीट लगातार मतों में बढ़ोतरी के साथ जीतने का कीर्तीमान बनाया।

फिर भी भाजपा ने ठाकुर को चुना जिस पर आतंक के एक मामले पर मुकदमा चल रहा है। मालेगांव धमाका 2008 में हुआ था। इसमें छह मारे गए थे और 101 लोग घायल हुए थे। भाजपा ने ठाकुर में हिंदुत्व के शुभंकर की पहचान की। हालांकि भाजपा का यह भी आरोप है कि इसकी पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने ठाकुर और दूसरे कट्टरपंथी हिंदू कार्यकर्ताओं को झूठे मामलों में फंसाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठाकुर की उम्मीदवारी को प्रतीकात्मक जवाब बताया है जिन्होंने  हिंदुओं पर आतंकवादी होने के झूठे आरोप लगाए। भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीज़ तो साफ तौर पर कहते हैं, ‘कांगे्रस ने तो यह बताने की कोशिश की है कि हिंदू भी आतंकवादी हो सकते हैं। अब इसका जवाब हिंदुओं को वोट के जरिए जवाब देना हैं।’

हालांकि आरएसएस खुद को राष्ट्र निर्माता बताने में गर्व महसूस करती है लेकिन सिंह जैसे विपक्षी इस पर हिंसा और सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाते हैं। भोपाल से उनकी उम्मीदवारी भाजपा के लिए खुली चुनौती थी जो इस सीट पर 1989 से जीतती रही है। इसका पुराना रूप जो जनसंघ का रहा है, उसके भी कार्यकाल को जोड़ें तो लगभग 20 साल तक इस राज्य में उसका शासन चला। हालांकि पांच महीने पहले यह सत्ता से बाहर हुई। हालांकि इसने कांग्रेस से ज्य़ादा वोट पाए थे।

कांग्रेस जब अपनी भुजाएं फड़काती है तो भाजपा अपने फन फैलाती है। इसे पता है कि सिंह के मुकाबले ठाकुर को खड़ा करने से धु्रवीकरण होगा। यह इसका वैचारिक राजनीतिक एजंडा भी है। ठाकुर इस समय 49 साल की है। उसने अखिल भारतीय विधार्थी परिषद की कार्यकर्ता बतौर चंबल घाटी के अपने गृहजिले भिंड में राजनीतिक जीवन शुरू किया था। लेकिन आरएसएस इसके लिए खासा रूढि़वादी साबित हुआ। उसने एक दूसरे हिंदू संगठन से अपनी सक्रियता तेज की जो कहीं ज्य़ादा उग्रवादी है।

महाराष्ट्र की एटीएस टीम ने इसे 2008 में मालेगांव धमाकों में ‘एक प्रमुख षडय़ंत्रकारी’ के तौर पर गिरफ्तार किया। उसने तकरीबन नौ साल जेल में काटे। जब 2015 में भाजपा सत्ता में आई तो एनआईए ने उस पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया। हालांकि अदालत ने एनआईए के फैसले को मानने से इंकार कर दिया और उसके खिलाफ आतंकवादी होने, आपराधिक साजिश रचने और हत्या के आरोप बरकरार रखे। चार साल पहले सरकारी दबावों के चलते सरकारी वकील ने इस मामले से खुद को अलग कर दिया।

आरएसएस के कर्मठ कार्यकर्ता सुनील जोशी की 2007 में हत्या हुई। इसमें कथित अभियोगी ठाकुर को गिरफ्तार किया गया। उनके साथ सात और भी गिरफ्तार हुए। अदालत ने आठों आरोपियों को दो साल पहले छोड़ दिया।

अपने चुनाव प्रचार में हिंदुत्व की खारित ठाकुर खुद को ‘शिकार’ बताती है। पुलिस हिरासत में खुद के नंगा किए जाने, उल्टा लटकाए जाने और दूसरे तरह की यातनाओं का रैलियों में वे हवाला देती है। बताती हैं कि एक बार तो पूछताछ के दौरान वे बेहोश हो गई। अमानवीय अत्याचारों के ही चलते उन्हें कैंसर हो गया। उनका कहना है कि अब वे गौ माता के मूत्रपान से हुई चिकित्सा के कारण पूरी तौर पर स्वस्थ हैं।

मध्यप्रदेश भाजपा के समझदार हिंदुत्व समर्थक नेताओं को दिग्विजय की काट के लिए प्रज्ञा ठाकुर बेहतर उम्मीदवार जान पड़ीं। एक बैठक में तो उन्होंने कहा कि हेमंत करकरे की मौत उनके ‘श्राप’ देने से हुई। हेमंत करकरे महाराष्ट्र में एटीएस के माने हुए अधिकारी थे। मुंबई आतंकवाद 2008 में हुआ। इस घटना में बहादुरी के साथ लड़ते हुए मारे गए थे। उन्हें देश के सबसे बड़े वीरता सम्मान अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था लेकिन प्रज्ञा का कहना है कि उन्होंने जेल में उसे यातना देने में कोई कसर नहीं छोड़ी इसलिए उनकी मौत के लिए उन्होंने श्राप दे दिया। उनकी इस बात से पूरे देश में खासी सनसनी फैली। लोगों का हेमंत के बारे में प्रज्ञा के इस कथन का खासा विरोध किया। इसके बाद प्रज्ञा ने  बतलाया कि कैसे वह बाबरी मस्जिद पर चढ़ी और उसने कैसे इसे तोड़ा। हमने देश पर लगे धब्बे को मिटा दिया।

चुनाव आयोग ने उसे नोटिस दी। उसने जवाब दिया। आयोग ने उसे चुनाव प्रचार रोकने के लिए कहा। लेकिन वह चुनाव प्रचार करती रही। चुनाव प्रचार के दौरान प्रज्ञा हिंदुत्व को केंद्र में रख कर अपना प्रचार करती रही।

उधर सिंह बड़ी ही सावधानी से विकास के मुद्दे के साथ अपना चुनाव प्रचार कर रहे हैं। वे हिंदुत्व का सामना करते हुए अपनी बात रख रहे हैं। यह वाकई रोचक है क्योंकि जब वे मुख्यमंत्री थे तो उनकी मान्यता थी कि राजनीतिक प्रबंधन और सोशल इंजीनियरिंग से ही चुनाव जीते जा सकते हैं।

सिंह ने खुद में हिंदू की फिर नई तलाश की है। मंदिरों में जाकर उन्होंने अपना चुनाव प्रचार शुरू किया। ऐसा सुना जाता है कि मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके कार्यकर्ताओं ने नर्मदा के पवित्र जल को मतदाताओं में बांटा। सिंह ने पिछले साल 192 दिन की पैदल नर्मदा परिक्रमा भी की। उन्हें उम्मीद है कि पदयात्रा करके की गई परिक्रमा से उनकी हिंदू विरोधी छवि धुंधली हो जाएगी जिसे उनके विरोधियों ने उन पर थोप रखा है।

सिंह निजी जिंदगी में श्रद्धालुु हिंदू हैं। वे जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने पूरे मंत्रिमंडल के साथ मथुरा जाकर 24 किमी पैदल एक पवित्र पहाड़ी की परिक्रमा की थी। भाजपा के एक बुजुर्ग नेता ने टिप्पणी की कि आरएसएस के हिंदुत्व की कसौटी है भोपाल चुनावी हमने एक बड़ी जोखिम लिया है। यदि हम हारे तो यह जाहिर होगा कि मतदाता ने हिंदुत्व को नकार दिया है। यदि यहां जीते तो जग जीते।

चुनाव आयोग पर उठ रही उंगलियां

भारत के लोकतंत्र में चुनाव आयोग का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह आयोग ही है जिसे देश में चुनाव कराने की जिम्मेवारी हमारे संविधान ने सौपी है। संविधान की धारा – 324(1) चुनाव आयोग को संसद और हर राज्य की विधानसभा  के सभी चुनाव कराने, मतदाता सूचियां तैयार करने की निगरानी करने, निर्देशन तथा नियंत्रण करने का अधिकार देती है।

पिछले 70 साल से आयोग ने इस जिम्मेवारी को बहुत अच्छे तरीके से निभाया है। इससे भारत की साख बढ़ी है। स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीेके से चुनाव कराने के लिए आयोग का रिकार्ड काफी अच्छा और विश्वसनीय रहा है। ऐसा नहीं है कि उसके काम में कहीं कमज़ोरी या  कमी नहीं रही पर उनमें से काफी चीजों के लिए आयोग को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कारण यह है कि अपना काम कराने के लिए आयोग को उन नौकरशाहों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो खुद पूरी तरह अनुशासन में नहीं रहते। इसके अलावा  आयोग पर राजनैतिक दवाब भी पड़ता है। कई बार उसे सत्ताधारी पार्टी के साथ टकराव भी लेना पड़ता है। इन सबके बावजूद आयोग ने कमोवेश अच्छा काम ही किया है। इस पृष्टभूमि के होते हुए आयोग जो 2019 के लोकसभा चुनाव करवा रहा है, उस पर उंगलियां उठ रही हैं। आयोग से यह उम्मीद रहती  है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान वह आदर्श चुनाव आचार संहिता को पूरी सख्ती से लागू करवाएगा।  इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखेगा कि सत्ताधारी दल चुनाव के लिए सरकारी तंत्र का दुरूपयोग नहीं करे। सभी पार्टियों को बराबरी के मौके मिलें। इसके साथ ही धन बल के दुरूपयोग पर अंकुश लगाना भी चुनाव  आयोग का ही काम है।

मौजूदा चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा के अलावा दो और सदस्य भी हैं। आयोग पर अपने काम में कोताही बरतने का आरोप विपक्षी दल लगा रहे हैं। सबसे आम शिकायत यह है कि आयोग आदर्श चुनाव आचार संहिता के परिपालन और विशेष तौर पर प्रधानमंत्री के मामले में उसे लागू करने में कोताही बरत रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में दिए भाषणों में बार-बार आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन किया है। एक बार उन्होंने अपने भाषण में कांग्रेस पार्टी पर हिंदुओं का अपमान करने का आरोप लगाया और घोषणा की कि लोग इसके लिए चुनाव में उसे सज़ा देंगे। वे बार-बार बालाकोट हवाई हमले और पुलवामा  के शहीदों के नाम पर वोट मांगते रहे हैं। सशस्त्र सेनाओं की कार्रवाई की दुहाई और इसके लिए श्रेय का दावा करना उनके भाषणों में रहा और आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें आयोग को मिलती रही पर आयोग ने कभी भी उन पर ध्यान नहीं दिया।

फिर जब 15 अपै्रल को देश की सर्वोच्च अदालत ने आयोग को पूछा कि वह नफरत फैलाने वाले भाषणों के मुद्दे पर क्या कर रहा है तब कहीं आयोग ने मायावती, आदित्यनाथ, आज़म खान और मेनका गांधी के भाषणों पर कार्रवाई की और उनके चुनाव प्रचार करने पर दो से तीन दिन तक की रोक लगाई। लेकिन नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। उसी बैठक में आयोग ने गुजऱात भाजपा के अध्यक्ष वधानी पर भी उकसावेपूर्ण भाषण के लिए प्रचार से तीन दिन दिन के लिए रोक लगाई। लेकिन, इस फैसले का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि इस रोक से पहले ही 23 अप्रैल को गुजरात में वोट पड़ चुके थे।  मतलब यह कि रोक मात्र एक औपचारिकता थी।

हुआ यह था कि जब प्रधानमंत्री के खिलाफ लगातार आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन के बावजूद चुनाव आयोग सुस्त बना रहा तो कांग्रेस पार्टी की एक सांसद ने सर्वोच्च न्यायालय  में एक याचिका दाखिल की थी। इसके बाद ही 30 अपै्रल को आयोग ने बैठक की और प्रधानमंत्री के वर्धा के भाषण के बारे में फैसला लिया। आयोग का फैसला था कि इसमें आदर्श चुनाव संहिता या जन प्रतिनिधित्व कानून का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।

चुनाव आयोग नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में संशस्त्र बलों का दुरूपयोग किए जाने के बारे में दायर शिकायतों पर विचार करने से इंकार करता रहा है। यह सब उस स्थिति में है जब इस तरह का दुरूपयोग खुद चुनाव आयोग के इस ठोस निर्देश के खिलाफ है कि चुनाव प्रचार में सुरक्षाबलों की भूमिका को नहीं घसीटा जाना चाहिए। नौ अपै्रल को लातूर के अपने चुनावी भाषण में प्रधानमंत्री ने फिर सेना को खींचा  पर आयोग की चुप्पी बदस्तूर जारी है। अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए सैन्य बलों का इस्तेमाल करने में तो अमित शाह ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। देखा जाए तो इस मामले में वे मोदी से भी आगे निकल गए। अपनी कार्यशैली से तो आयोग यही दिखा रहा है कि वह सत्ताधारी दल के खिलाफ कार्रवाई करने से झिझक रहा है। इससे यह सोच बन रही है कि आयोग प्रधानमंत्री के समक्ष काफी बौना है। एक संस्थान के रूप में चुनाव आयोग एक महत्वपूर्ण संस्था है। इसे कार्यपालिका की दया पर  नहीं छोड़ा जा सकता।

तहलका ब्यूरो

चुनाव: धर्मानुराग बनाम धर्मयुद्ध

”धर्म और धार्मिक जीवन के क्षेत्र में यह स्वतंत्रता, हमारी ज्ञान परंपरा से ही निर्मित हुई है। इसी के कारण यह संभव हो सका कि भारत में राज्य-सत्ता की भांति धर्म ने स्वंय को एकसत्ता नहीं बनने दिया और धार्मिक जीवन का रूप संगठनिक नहीं हो पाया।

डा. कपिल तिवारी

भारतीय लोकतंत्र की आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह ”युद्ध’’ और ”चुनाव’’ के बीच के अंतर को समाप्त करता जा रहा है। युद्ध फिर वह भले ही ”धर्मयुद्ध’’ ही क्यों न हो अपने विचारों को बलात् थोपने या स्थापित करने का प्रयास है। वहीं ”चुनाव’’ किसी व्यक्ति की निजी प्राथमिकता होती है। दक्षिणपंथी ताकतें कभी भी ”चुनाव’’ की सुविधा देने की पक्षधर नहीं रही। वहीं धुर वामपंथी ताकतें भी चुनाव के बहुत पक्ष में नहीं दिखाई पड़ी। वामपंथी शासन व्यवस्था का 80 साल में विलुप्ति के कगार पर पहुंच जाना यह दर्शाता है कि एक बेहतर विचार धारा में असहमति को नकारना कितना आत्मविध्वंसभ होता है। ठीक ऐसा आज भारत की दक्षिणपंथी ताकतें कर रहीं हैं। वे ज़्यादा तेजी से अपने विलुप्त होने के सामान तैयार कर रही हैं। इसकी एक वजह यह है कि उनके पास असहमति को नकारने के लिए ”धर्म’’ का आधार मौजूद है और इसी वजह से यह इन्हें अधिक विध्वंसक भी बना रहा है।

उपरोक्त संदर्भ में यदि हम भोपाल, लोकसभा क्षेत्र के चुनाव को लें तो बहुत सारी स्थितियां परिस्थितियां स्वंयमेव ही स्पष्ट हो जाती हैं। यहां 12 मई को मत डाले जाने हैं। गौरतलब है इसी शहर में तीन दिसंबर 1984 को भयानक गैस त्रासदी हुई थी और उससे संबंधित प्रकरण अभी भी न्यायालय में अटके पड़े हैं और हजारों लोग असमय मृत्यु का शिकार होते जा रहे हैं। परंतु राजनीति में बीता कल मायने नहीं रखता और आने वाला कल केवल सत्ता में काबिज होने के लिए बना है। बीच के काल में सिर्फ आम आदमी को पहुंच रही यातनाएं हैं, जो कि विशेष रूप से भारतीय नागरिक झेल रहे हैं। राजनीति में करो या मरो की स्थिति कम ही बन पाती है और समझदार व दूरदर्शी राजनीतिज्ञ इससे बचते हैं। परंतु नव-धनाढ्य की तरह नवराजनीतिज्ञ भी अंदर से डरे रहते हैं। क्यों? इसमें अपने-अपने कारण होते हैं। भोपाल में कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के समक्ष प्रज्ञा सिंह ठाकुर को चुनाव मैदान में उतार कर भाजपा ने अपने सीमित संसाधनों की वास्तविकता आम जनता के सामने ला दी है। प्रज्ञा सिंह ठाकुर कब, क्यों, किसलिए साध्वी बनी यह कुतुहल का विषय है। साध्वी बनने के बावजूद उन्होंने अपने मूल नाम से नाता नहीं तोडऩा भी आश्चर्य का विषय है। मामा शिवराज ने ही उन्हें एक आरएसएस प्रचारक की हत्या के आरोप में गिरफ्तारी को स्वीकारा था। तब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे अब वे प्रज्ञा ठाकुर के सबसे बड़े हितैषी। यही विरोधाभास भारतीय राजनीति को एकसाथ रोचक व भ्रष्ट दोनों ही बनाता है। प्रज्ञा ठाकुर का साध्वी के रूप में कभी भी बहुत नाम नहीं रहा। वे अन्य कारणों जैसे मालेगांव बम कांड या सुनील जोशी हत्याकांड से ज़्यादा चर्चा में रही।

मध्यप्रदेश के भिण्ड जि़ले में जन्मी प्रज्ञा अब करीब 49 वर्ष की हैं और इतिहास में एमए हैं परंतु इतिहास की उनकी समझ एकांगी और इसमें विश्लेषण का अभाव साफ नजऱ आता है। यह समस्या सभी हिंदूवादी समुदायों के साथ है। वे आज़ादी के पहले के करीब 1,000 साल के इतिहास से आंख चुराते हैं और अपने आप को ”बाबरी मस्जिद’’ के बनने और ढ़हने के आगे कहीं पहुंचाना भी नहीं चाहते। ऐसा ही साध्वी प्रज्ञा ने भी किया। पहले उन्होंने पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे को बुरा-भला कहा और बाद में बाबरी मस्जिद तोडऩे का भार अपने कंधों पर उठा लिया। वे एक ऐसी साध्वी प्रतीत होती है, जिनका संसार से कभी मोह छूटा ही नहीं। वास्तविकता तो यही है कि धर्म और राजनीति का मेल हमेशा ही नकारात्मक परिणाम लाता रहा है। अतएव भविष्य में इसके परिणाम सकारात्मक निकलेंगे इसके आसार भी कम ही हैं।

वहीं दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपना पूरा जीवन राजनीति को समझने और समझाने में बिताया है। उनकी हार जीत के बारे में यही कहा जा सकता है कि दिग्विजय को सिर्फ दिग्विजय ही हरा सकते हैं और कोई नहीं। शिवराज सिंह चैहान और उमा भारती दोनों उन्हें पानी पी-पी कर कोसते रहे। उन्हें मिस्टर बंटादार निरपित करते रहे लेकिन उनके सामने चुनाव लडऩे का साहस नहीं जुटा पाए। दिग्विजय सिंह आधी लड़ाई तो यहीं जीत गए थे। अब बाकी आधी जीत के लिए (साध्वी) प्रज्ञा सिंह ठाकुर उनके सामने हैं। चुनावी संघर्ष को अब पूरी तरह से धार्मिक उन्माद की ओर ढकेलने का प्रयास उनके द्वारा किया जा रहा है। वे उन्हें दी गई कथित यातनाओं को अपना ”यूएसपी’’ बना कर चुनाव जीत लेना चाहती हैं। अपने सन्यासी जीवन में वे महामण्डलेश्वर अवधेशा नंद के संपर्क में भी रहीं हैं। इसके बावजूद उनमें ओजस्विता का अभाव साफ नजऱ आता है। वे व्हील चेयर पर बैठकर नामांकन पत्र भरने गई। परंतु कुछ ही समय पश्चात बेहद फुर्ती से चलती फिरती भी नजऱ आ गई। वे मतदाताओं को प्रभावित करने के बजाय सम्मोहित करने की ओर ज़्यादा ध्यान दे रही हैं। भाजपा की समस्या यह है कि अब प्रधानमंत्री स्वंय अपने सर्वश्रेष्ठ कार्यों जैसे नोटबंदी, जीएसटी का उल्लेख तक नहीं कर रहे हैं। दावानल की तरह बढ़ती बेरोजग़ारी को नकार रहे हैं, कृषि की बर्बादी उन्हें दिखाई ही नहीं दे रही, शिवराज सिंह चैहान के राज में हुए पोषण आहार घोटाले को कांग्रेस की झोली में डाल रहे हैं। व्यापम घोटाला पीछा नहीं छोड़ रहा हो आदि-आदि ऐसे में प्रज्ञा ठाकुर या देश भर के अन्य भाजपा प्रत्याशियों के सामने कुछ भी करने को रह ही नहीं जाता। यही स्थिति भोपाल में प्रज्ञा ठाकुर की बन गई है। उनका अपना कोई सामाजिक या राजनीतिक योगदान भोपाल तो क्या पूरे मध्यप्रदेश में कहीं भी दिखाई नहीं देता और भाजपा ने बताने या गुणगान लायक कुछ किया नहीं ऐसे में सिवाय आरोप लगाने, चुनाव को युद्ध में बदलने और राम मंदिर को फिर मुद्दा बनाने के कुछ नहीं बचता। मज़ेदार बात यह है कि स्वंय भाजपा के लिए इस चुनाव में राममंदिर मुख्य मुद्दा नहीं है।

वहीं दूसरी ओर भोपाल लोकसभा में बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाताओं की उपस्थिति दिग्विजय सिंह को आशवस्ति प्रदान कर रही है। प्रदेश में कांग्रेस सरकार की मौजूदगी भी एक तरह से उनके लिए साहस बढ़ाने का काम कर रही है। दिग्विजय ने स्वंय को हिंदू बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी परंतु उनकी संतुलन बनाने की असाधरण क्षमता उन्हें प्रज्ञा ठाकुर से मीलों आगे खड़ा कर रही है। प्रशासनिक तबकों में उनकी पैंठ अभी भी मौजूद है। वहीं दूसरी ओर साध्वी को टिकट देने और हिंदुत्व वादी राजनीति के लिए भोपाल को केंद्र बनाने से, भोपाल के नागरिकों का बड़ा समूह विचलित हो उठा है। तमाम सारे ऐसे लोग जो भले ही दिग्विजय सिंह के प्रशंसक न हों, वे भोपाल को हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला के रूप में विकसित नहीं होने देना चाहते अतएव अनिच्छा से ही सही वे भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ हो गए हैं।

इस बीच यह साफ तौर पर तो नहीं कहा जा सकता कि साध्वी को उतारना हिंदू आतंकी ब्रिगेड की स्थापना है, लेकिन इससे अतिवादी समूहों को नई प्राणवायु अवश्य मिल रही है। हाशिये पर पड़े तमाम कार्यकर्ता जहां सामने आए हैं वहीं वास्तविक राजनीतिक कार्यकर्ताओं का भविष्य खतरे में पड़ गया है। चूंकि विकास और बढ़ती आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषमताएं भाजपा के चुनावी मुद्दे नहीं रह गए हैं और दिग्विजय सिंह ने उनकी ओर बखूबी ध्यान दिया है, साथ ही भोपाल को एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) की तरह विकसित करने का प्रस्ताव सामने रखा है तो इसके भी सकारात्मक परिणाम कांग्रेस को मिलने की संभावना है।

रवींद्रनाथ टैगोर भारत के बारे में कहते हैं,”अपने इतिहास के आरंभिक दौर में भारत सभी तरह की मुठभेड़ों व षड्यंत्रों के प्रति तटस्थ रहा। उसके घर, उसके खेत, उसके मंदिर, उसके विद्यालय, यहां विद्यार्थी तथा शिक्षक सरलता, धर्मानुराग व विद्यार्जन के भाव से इक_े रहते थे। उसके स्वशासन के सरल कानून व शातिपूर्ण प्रशासन से युक्त गांव- यह सब उसका वास्तविक स्वरूप है। उसके सिंहासन उसकी चिंता के कारण नहीं रहे। वे तो उसके सिर के ऊपर से बादलों की तरह गुजर जाते रहे हैं। ये बादल अपने साथ विध्वंस ज़रूर लाते हैं। लेकिन प्राकृतिक विपदाओं की तरह शाीघ्र ही भुला दिए जाते हैं।’’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसी भावना से काम किया है। आरएसएस व भाजपा आज फिर बीती शताब्दियों के सिहासनों की याद दिला कर भविष्य के सिंहासन पर कब्जा करना चाहती है। भारतीय जनता यदि इंदिरा गांधी को अस्वीकार कर पुन: स्वीकार कर सकने की क्षमता रखती है तो वह नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर उन्हें अस्वीकार करने का माद्दा भी रखती है।

भोपाल लोकसभा के चुनावों को भारत के भविष्य से जोडऩा एक हद तक ही वाजिब है। यह परिवर्तन भारी सि़द्ध नहीं होगा क्योंकि भोपाल अकेला भारत नही है। इसकी विविधता ही इसकी पहचान है और बनी रहेगी। इसमें उतार-चढाव आते रहेंगे। दिग्विजय व प्रज्ञा ठाकुर का चुनावी संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण घटना ज़रूर सिद्ध हो सकता है। भोपाल की जनता इस चुनाव में हमें धर्मानुराग व धर्मयुद्ध के बीच का अंतर ज़रूर समझा सकती है। परंतु आखिरकार हम सब कयास ही लगा सकते हैं, निर्णय तो 23 मई ही बताएगी। तब तक सजग बने रहें। जो विध्वंसकारी राजनीति के पैरोकार हैं वे खुर्शाीद उल इस्लाम के इस शेर पर ध्यान दें-

देखा उन्हें करीब से हमने तो रो दिये,

जिन बस्तियों को आग लगाने चले थे हम।

अलगाव नहीं, मेल चाहिए पंजाब को

बचपन में मैंने एक लोक गीत सुना था। इसमें वे गिद्धा नाचते हुए गाती थीं, ‘नचां मैं पटियाला, मेरी धमक जालंधर पैंदी।’ यानी नाचती तो मैं पटियाला में हूं लेकिन मेरे नाचने की गूंज जालंधर तक सुनाई देती है।

लेकिन अब समय के साथ गाने में बदलाव है। पिछले साल ही मैंने सुना, ‘मोगे नाचन जागो/मेरी पैंदी धमक शिकागो विच’ (मैं मोगा की जागो में नाच रही हूं। लेकिन मेरी गूंज शिकागो में भी गूंजती है)

यहां यह एकदम उलटा भी हो सकता है। यानी पंजाबी लड़कियां शिकागो में नाच रही हों और उनके नाचने की गंूज मोगा में सुनाई दे रही हो। आज दुनिया भर में तकरीबन डेढ़ सौ देशों में पंजाबी बसे हैं। वे जहां भी बसते हैं उनके दिल में पंजाब धड़कता है। आधुनिक पंजाबी कविता के जबर्दस्त हस्ताक्षर हैं प्रोफेसर पूरन सिंह। उन्होंने सही कहा कि पंजाब बड़ी-बड़ी बैठकों और बड़े विभाजनों की भूमि है। सीमाई सूबा होने के नाते ढेरों जातियों और संस्कृतियों का आज केंद्र है।

महान सूफी-संतों का यह अनोखा पवित्र मिलन स्थल रहा है जहां अलग-अलग स्थानों, संप्रदायों और जातियों के लोग आए। इनमें मुस्लिम सूफी थे बाबा फरीद जिनके माता-पिता काबुल से आकर बसे थे। बिट्ठल देव के शिष्य बाबा नामदेव, संत कबीर और संत रविदास वाराणसी से यहां आए। कृष्ण भगत जयदेव बंगाल से, राजस्थान से धन्ना भगत और न जाने कितने और। ये सब अलग-अलग क्षेत्रों, धर्मों और जातियों के लोग थे। ये सिख गुरूओं के साथ बैठ कर गाते थे। एक तरह का यह दैनिक आरकेस्ट्रा था। एक भव्य अंतर्जातीय महोत्सव जो दिन-रात खुले आसमान के नीचे रात दिन चलता रहता था। गुरू नानक के ग्रहों के राष्ट्रीय गीत में आता है : गगन में थाल नवी चांद दीपक बने/तारिका मंडल जनक मोती/धूप मलियानों पवन चंवरों करें/सगल बनराई फूलंत ज्योति।

यह बैठक सिर्फ जातियों व धर्मों की नहीं थी बल्कि यह नक्षत्र और रोशनी की भी थी।

सबसे बड़ा अलगाव हुआ 1947 में। सीरिल जॉन रेडक्लिफ ने नक्शे पर एक लाइन खींची जो कश्मीर की सीमाओं से शुरू हुई और रावी के बीच से होती हुई इसने अमृतसर से लाहौर को अलग किया। न जाने कितने गांवों को उनके खेतों से अलगाया। नदियों को नहरों से अलग किया सिखों को उनके पवित्र स्थानों से अलग किया और बहावलपुर की सीमा पर जाकर ठहर गईं।

इस लाइन से न केवल ज़मीन का विभाजन हुआ बल्कि लोगों के दिल भी बंट गए। इस ज़मीन की बेटियों के शरीर भी बंट गए। पांच नदियों का पानी भी 1947 मेें पंजाबियों की विरासत पर लगे धब्बे नहीं धो सका। खून की प्यासी वह लाइन कुछ ही दिनों में साठ लाख पंजाबियों को निगल गई। तकरीबन एक करोड़ बीस लाख पंजाबी अपने घर खो बैठे और उन्हें सीमा पार करनी पड़ी। दस लाख बेटियां अपने परिवारों से बिछड़ गईं।

और फिर आया 1984 का साल।

मातम, हिंसा, खौफ, बेबसी ते अन्याय

एह ने आजकल मेरे पंजा दरियावां दे नाम।

मुझे याद आती है डा. नूर की प्रेम कविता: तेथो विछड़ के/मैं विछड़ता ही चला गया। (तुमसे अलग होकर। मैं बार बार बिछड़ता ही गया।)

यह छोटी सी प्रेम कविता पंजाब के संदर्भ मेें भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसलिए नहीं कि इसके हज़ारों बेटे और बेटियां विदेशी ज़मीनों को जा रहे हैं बल्कि इसलिए क्योंकि हमारी कीमत के रखवाले भले वे धर्म, राजनीति और शिक्षा से जुड़े रहे हों, हमारे साथ उन्होंने नाइंसाफी की। हम तथाकथित बुद्धिजीवी आज पलायन की राहें तलाश रहे हैं पंछी तान उड़ गए ने। रु ख वी सलाहान करन/चलो इत्थो चलिए(चिडिय़ां पहले ही उड़ गई हैं। अब तो पेड़ भी बात कर रहे हैं। चलो हम भी चलें कहीं और)

फिर एक और बड़ा अलगाव उन स्कूलों में हैं जो उस ज़मीन पर बने हैं जहां होता है हमारी भाषा का तिरस्कार। जान-बूझ कर क्योंकि सज़ा होनी नहीं। नौजवान बेटे-बेटियों को हतोत्साहित किया जाता है। उन पर जुर्माना लगा दिया जाता है यदि वे अपनी भाषा में कुछ भी बोलते हैं। यह रवैया बढ़ाता है चिंता, चुप्पी और हमारे बच्चों में हीन भावना। मैं अंग्रेज़ी सीखने के खिलाफ नहीं हूं लेकिन मातृभाषा के अलावा भाषा को सीखने का सही तरीका बताया है भाषाविदों ने मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों ने। हमें उसी वैज्ञानिक तरीके से मातृभाषा के जरिए सीखनी चाहिए वह भाषा। इससे हमारे बच्चों में सृजनशीलता बढ़ेगी, आत्मविश्वास बढ़ेगा।

सरकार अपने ही स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने से गुरेज करती है जिससे गली-मोहल्ले में खुलते जा रहे हैं निजी स्कूल। हाईकोर्ट के न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने अपने एक आदेश में उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव को 18 अगस्त 2015 को कहा था कि वे एक आदेश निकालें जिसके तहत सभी सरकारी अधिकारी, लोकप्रतिनिधि और न्यायाधिकरण के लोग अपने बच्चों की पढ़ाई सिर्फ सरकारी स्कूलों में कराएं।

इसी साल हम लोग गुरू नानक देव जी की 550वीं जन्मतिथि मना रहे हैं: ‘नीचन अंदर नीच जात/नीची हू अट्ट नीच/ नानक तीन के संग साथ/वाड्या सियो क्या रीस/जित्थे नीच समालियान/तित्थे नाठर तेरी बख्शीश’(नानक नीची जाति से भी और नीच लोगों का साथ चाहता है। वह अमीर लोगों से मुकाबले की कोशिश क्यों करे। जहां लोगों की चिंता होती है। वहीं ईश्वर के आशीर्वाद की बारिश होती है।)

पंजाब जो बड़े-बड़े मिलन और अलगाव की भूमि रही है उसने ढेरों बड़े-बड़े विभाजन देखे हैं। आज इसे फिर एक बड़े मिलन की ज़रूरत है। ‘होवन इक दिन/राग, शायरी, हुस्न, मोहब्बत अते न्याय/मेरे पंज दरियांवां दे नाम’ (हमें उम्मीद करनी चाहिए, प्रार्थना करनी चाहिए और तैयार रहना चाहिए संगीत, कविता, सौदर्य, प्रेम और न्याय को ही अपनी पांच नदियों के नाम करने को)

लेखक पंजाब कला परिषद के अध्यक्ष हैं