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भाजपा की पूर्ण बहुमत की फिर बनेगी सरकार : मोदी

पांच साल से देश का प्रधानमंत्री रहने के दौरान नरेंद्र मोदी ने भले एक भी प्रेस कांफ्रेंस न की हो, शुक्रवार को मोदी ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ एक साझी प्रेस कांफ्रेंस की। हालांकि, इस प्रेस कांफ्रेंस में भी ओपनिंग रिमार्क्स देकर मोदी ने पत्रकारों का एक भी सवाल नहीं लिया और सारे जवाब शाह ने ही दिए जिससे पत्रकारों को भी निराशा हाथ लगी। मोदी ने अपने रिमार्क्स में भरोसा जताया कि ”दोबारा भाजपा (एनडीए) की सरकार बनेगी”। कुछ ऐसा ही दावा शाह ने भी किया।
शाह ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पीएम की चुनाव सभाओं की जानकारी दी साथ ही दावा किया कि भाजपा ३०० सीटें जीतेगी और इसमें राय नहीं कि एनडीए की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनेगी। इस प्रेस कांफ्रेंस की ख़ास बात यही रही कि पीएम मोदी ने इस प्रेस कांफ्रेंस में एक भी सवाल नहीं लिया। सारे सवालों के जवाब शाह ने ही दिये।
इससे पहके अपने ओपनिंग रिमार्क में कहा – ”यह सकारात्मक भाव से लड़ा गया शानदार चुनाव रहा। हमें विश्वास है कि हम पूर्ण बहुमत के साथ वापसी करेंगे। मेरा मत है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार पांच साल पूरे करके वापस आए, यह देश में लंबे अरसे के बाद हो रहा है।”
मोदी ने कहा – भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसकी सबसे बड़ी ताकत क्या है? यह किसी राजनीतिक पार्टी का काम नहीं है। मेरा मानना है कि हमें देश को दुनिया के सामने ले जाना चाहिए। साल २००९ और २०१४ के चुनाव ऐसे रहे कि  आईपीएल मैच को भी बाहर ले जाना पड़ा। सरकार सक्षम हो तो आईपीएल भी हो, रमजान भी हो, बच्चों के एग्जाम भी होते हैं, नवरात्र भी होते हैं।”
पीएम ने २०१४ के लोकसभा चुनाव के वक्त सट्टा बाज़ार का जिक्र अपने रिमार्क्स में किया – १६ मई को पिछली बार (२०१४) चुनाव नतीजे आए थे और १७ मई को बहुत बड़ी कैजुअल्टी हुई थी। सट्टा खोरों को उस दिन अरबों रुपयों का नुकसान हुआ था। पहले जो सट्टा बाजार चलता था वो कांग्रेस की १५० सीटों के लिए और भाजपा के लिए  ११८  और १२० सीटों के लिए चलता था। शायद ईमानदारी की शुरुआत १७ मई (२०१४ ) को हुई थी।”
उधर भाजपा अध्यक्ष ने पीएम मोदी की भरपूर तारीफ की।  कहा – , ‘‘आज एक बहुत लंबे, परिश्रमी, सफल और विजयी चुनाव अभियान के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। आजादी के बाद जितने भी चुनाव अभियान हुए, यह सबसे बड़ा चुनावी अभियान रहा है। जनता हमसे आगे रही है। मोदी सरकार को फिर से लाने के लिए जनता का परिश्रम सबसे आगे रहा है।’’
शाह ने कहा, – ”हमारी सरकार को पांच साल समाप्त होने को आए हैं। इन पांच सालों   में नरेन्द्र मोदी प्रयोग को जनता ने स्वीकारा है। मैं विश्वास से कह रहा हूं कि विगत चुनाव से भी ज्यादा बहुमत से नरेन्द्र मोदी सरकार फिर से बनने जा रही है।”
दिलचस्प  यह रहा कि जब मोदी-शाह प्रेस कांफ्रेंस में थे, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। अपनी इस प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने पीएम मोदी को संबोधित करते हुए उनसे सवाल पूछा – ”पिछले पांच साल में वो (पीएम मोदी) ने प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। मैंने उन्हें डिबेट के लिए चैलेंज किया वो नहीं आये। मुझे बताया गया कि इस समय वे प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं। मैं इसमें ही उनसे लाइव सवाल पूछ रहा हूं, आपने राफेल के मुद्दे पर मुझसे खुली बहस क्यों नहीं की?”

छंटने लगा है अब कुहासा…

अब आखिरी दौर बचा है देश में आम चुनाव का। बदलाव का शोर है। देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पार्टियों के नेता इस तैयारी में हैं कि चुनावी नतीजे के आने के बाद ही वे आम राय से नेता चुन लें। देश के अगले पांच साल जनता के लिए फिर प्रयोग के ही होंगे। गठबंधन में शामिल दलों का एक नया दिलचस्प खेल। इस बार के चुनावों में ईवीएम के जरिए मतदान पर बार-बार संदेह उठे। चुनाव आचारसंहिता का खूब पक्ष-विपक्ष ने हनन।

भाजपा ने 2014 में बहुमत पाने के बाद अपने सहयोगी दलों के साथ गठबंधन राज चलाया। अपने दम पर उसकी 282 सीटें थीं। सहयोगी दलों की मजबूरी थी उससे जुड़कर खुद को समसामर्थक बनाए रखना। लेकिन अब 2019 का आम चुनाव भाजपा के लिए बहुत सहज नहीं जान पड़ता।

जनता में बीते पांच साल की स्मृतियां काफी बेचैनी भरी रही हैं। उस बेचैनी के चलते तमाम लोकतंत्रिक संस्थानों में भय, अविश्वास और अनिश्चय बढ़ता गया। भूखे किसान, बेरोज़गार युवा, बंद उद्योग-धंधे, भ्रष्टाचार, असहिष्णुता इतनी ज्य़ादा बढ़ी कि जनता ने इस चुनाव में न केवल अपना नया विकल्प सोचा बल्कि यह बताने की तैयारी भी कर ली कि देश में आम आदमी की जिंदगी का कितना महत्व है क्योंकि वह खेतों में मेहनत करता है। बेरोज़गार युवा कितनी मेहनत से अपनी डिग्री पाता है, उसे रोज़गार चाहिए। समाज और शासन में फैला भ्रष्टाचार खत्म होना चाहिए सिर्फ प्रस्ताव पर्याप्त नहीं। समाज में हर आदमी का सम्मान है। उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की मूलभूत ज़रूरतें मसलन बिजली, पानी, सड़क, सीवेज आदि की व्यवस्था उस सरकार की जिम्मेदारी है जिसे उसने चुना है।

फिलहाल जो तस्वीर बनती दिख रही है उसमें आम आदमी समाज में शांति और सद्भाव के पक्ष में है। वह शांति से एक बेहतर जि़ंदगी जीना चाहता है। हालांकि पद, अहंकार और ताकत का मद केंद्र में सत्ता संभाल रही भाजपा संघ परिवार और सहयोगी दलों पर हावी है। भाजपा अध्यक्ष कहते हैं कि उनकी पार्टी को तीन सौ सीटें मिलेंगी क्योंकि देश की जनता न सुशासन देखा है।

इस बार चुनावों में भाजपा ने बतौर मुख्य मुद्द देश हित, संप्रदाय, जातिवाद और पांच साल के कुछ कामों का खूब जि़क्र किया। इस बार पूरा चुनाव भाजपा के नाम पर कम, पार्टी नेता नरेंद्र मोदी के नाम रहा। पार्टी से भी बड़े नेता के रूप में मोदी उभरे। चुनावी रैलियों में उन्होंने अपने भाषणों में नए प्रतिमान स्थापित किए। उनके भाषणों में जम्मू धमाका, बालाकोट और नेहरू गांधी खानदान चुनाव में बोफोर्स घोटाला और उसकी मौजूदगी पर अपनी टिप्पणियां कीं। अपने पांच साल के दौर में लगभग हर रोज़ वे कहते भी थे, हम ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत बनाएंगे।

अब आम चुनाव 2019 का नतीजा 23 मई को आना शुरू होगा उसमें यह जाहिर होगा कि भारत वाकई कितना कांग्रेस मुक्त या कांग्रेसमय हुआ है। इस चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल के साथ ही उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा ने जो खासा प्रचार किया। खुद को हमलों से जोड़ा। भाजपा को पिछले आम चुनाव में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में 71 सीटें हासिल हुई थीं। तब भाजपा ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर और देश के भ्रष्टाचार मुक्त करने, बेरोज़गारी खत्म करने और कांग्रेसमुक्त भारत बनाने के वादे किए थे। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी वक्तृता से पूरे देश की जनता को मोहित कर लिया था।

लेकिन अब कुहासा छंट रहा है। देश की जनता ने अपने तरीके से नए भारत का सपना देखा है। उसे वह किस तरह बनाने को है। यह जाहिर होगा 23 मई को।

फिलहाल देश में चार बड़े गठबंधन सक्रिय हैं। भाजपा व सहयोगी दलों का गठबंधन, कांग्रेस समाॢभत युनाइटेड इंडिया, माकपा व वामदलों का गठबंधन और भाजपा का फेहरल फ्रंट से सभी हवा का रु ख देख रहे हैं।

आम चुनाव 2019 के पांचवें चरण के खत्म होते ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसी राव ने कांग्रेस-भाजपा से अलग ‘फेडरल फ्रंट’ बनाने की बात पर फिर ज़ोर देने के लिए अपनी गतिविधि तेज की। एक साल पहले उन्होंने यह पेशकश रखी थी जिसमें तब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ओडीसा के मुख्य नवीन पटनायक ने खासी दिलचस्पी ली थी। लेकिन तभी यह शोर हुआ कि शायद भाजपा के लिए राव एक मोर्चा बना रहे हैं। इसके बाद राव कुछ ठिठक से गए। ममता अलग हो गई।

पिछले साल ममता बनर्जी ने कोलकाता परेड ग्राउंड में एक बड़ी रैली आयोजित की। इसमें आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी पूर्व प्रधानमंत्री एचके देवगौड़ा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, तमिलनाडु से द्रमुक नेता स्टालिन, कांग्रेस नेता पल्लिकार्जुन खडग़े, गुजरात से पहुंचे जिग्नेश मेवाणी आदि शामिल दिखे। यह विशाल रैली ‘युनाइटेड इंडिया’ नाम से हुई।

इसके समा तांतर उसी दिन कोलकाता परेड ग्राउंड में ही माकपा के नेतृत्व में सभी वामपंथी दलों की विशाल रैली हुई यह भी काफी बड़ी रैली थी। इसमें विभिन्न वामपंथी रूझानों के लोग शामिल हुए। इस वामपंथी समागम से भी जनता में उम्मीदें जगीं। कुछ समय बाद ‘युनाइटेड इंडिया’ की एक और बैठक बंगलूरू और फिर दिल्ली में हुई। इसमें वामपंथी नेता सीताराम येचुरी और भारतीय पार्टी के नेता डी.राजा ने भी भाग लिया और आंदोलन में भागीदारी की।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसी राव की दिलचस्पी वामपंथियों को भी साथ लेने की लगती है। उन्होंने इसी कारण केरल में मुख्यमंत्री ने पिनारााई विजयन से भी मुलाकात की।  चेन्नई में द्रमुक नेता स्टालिन से 15 मई को परस्पर सहयोग के लिए बात की। यह बातचीत करीब एक घंटे भर चली। लेकिन इस बैठक के जो संकेत सामने आए हैं उनके अनुसार स्टालिन ने इस फ्रंट को अपनी पार्टी का सहयोग देने से इंकार कर दिया है। इसके पहले राव की बैठक आंध्र प्रदेश की वाईएसआर के नेता जीवन से बातचीत हो चुकी है। ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी उनकी सद्रभावनापूर्ण बातचीत हो चुकी है।

जानकारों का अनुमान है कि राव चाहते हैं कि राज्य तेलंगाना में उनकी बेटी कमान संभाले और वे देश के प्रधानमंत्री बनें। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों से उनका तालमेल हमेशा बढिय़ा रहा है। ज्योतिष और शास्त्रों में उनकी आस्था इतनी ज्य़ादा है कि अभी तेलंगाना विधानसभा चुनावों में जीत हासिल हो जाने के बाद भी शुभ मुहूर्त के इंतजार में राज्य मंत्रिमंडल का शपथग्रहण और विभाग वितरण समारोह महीनों वे टालते रहे ।

देश में भाजपा और उसके सहयोगी दलों के गठबंधन को ही महत्व देने वाले भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे गठबंधनों को चुनावी रैलियों में महामिलावटी कहते हैं। लेकिन अब समय ही बताएगा कि केंद्र की सत्ता पर कौन सा गठबंधन हावी होता है। हाल फिलहाल सत्ता के गलियारों में सभी दलों और विभिन्न गठबंधनों के पैरोकर खूब ताज़गी के साथ अपना जनसंपर्क बढ़ा रहे हैं।

पिछले आम चुनाव में 282 सीटें लानी वाली भाजपा के प्रवक्ता इस बार तीन सौ सीटों को लाने का दावा भले कर रहे हों लेंकिन राह आसान नहीं हैं। दैनिक ”नया इंडिया’ के संपादक हरिशंकर व्यास के अनुसार इस बार यह 165 से 180 के बीच अटकेगी। इसके सहयोगी दल निश्चय  ही फिर इससे दूर हो जाएंगे। वे तभी साथी रहेंगे यदि भाजपा अकेले अपने बल पर 225 सीटें ले पाए। हालंाकि  300 सीटें लाने का मोदी-शाह का यह प्रचार भरोसा नहीं देता क्योंकि जब 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा की सुपर भाजपा सुनामी में भी सपा-बसपा-रालोद के वोट (दलित, मुस्लिम, यादव) यूपी में भाजपा से आगे थे। आज यही गठबंधन भाजपा को परेशान किए हुए है। हां, यदि ईवीएम मशीनों की धांधली हुई तो भाजपा 72 ही नहीं 74 सीटों पर जीत हासिल कर लेगी। आज तो गठबंधन है इसलिए भाजपा को 15 सीट भीमुश्किल लगती है। फिर भी भाजपा को उत्तरप्रदेश में 20 से 25 सीटें हासिल हो सकती हैं।

ध्यान रहे कि 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी उत्तर भारत की बदौलत ही थी। इसमें तीन राज्यों की 134 सीट में से उत्तरप्रदेश(71), बिहार (22), और झारखंड (12) में भाजपा को 105 सीटें जीती थीं।  लेकिन इस बार विपक्षी गठबंधन ने भाजपा को सांसत में रखा है।

 भाजपा की सीटों का दूसरा ब्लाक 91 सीटों का है। जो राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में है। भाजपा को तब 88 सीटें मिली थीं। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने या तो बराबरी की टक्कर दी या तीन  राज्यों में भाजपा को हरा कर अपनी सरकार बनाई। इस ब्लाक में भाजपा को कम से कम 27 सीटों पर नुकसान है। तीसरा ब्लाक महाराष्ट्र, कर्नाटक का है। यहां की 76 सीटों में से भाजपा को 2014 में 44 सीटें मिली थी। यहां इसे   कम से कम 15 सीटों को नुकसान होगा।

अब देखिए पर्वोत्तर यानी छोटे प्रदेशो और शासित 17 प्रदेशों की 49 सीटें। भाजपा अध्यक्ष कहते थे यदि उत्तरपद्रेश में सीटैं कम हुई तो इस ब्लाक से पश्चिम बगाल और ओडिसा से वे भरपाई कर लेंगे। इस ब्लॉक मे पश्चिम बंगाल, ओडिसा और दक्षिण भारत के राज्य भी जोड़े ंतो ब्लॉक की कुल सीटें 242 बनती हैं। इसी ब्लाक से भाजपा तीस सीटों की ‘जंप’ का ख्याल बनाए हुए है। अपना आकलन है कि इस ब्लाक की अपनी मौजूदा 49 सीटों में से जो सीटें (असम, गोवा, चंडीगढ़, लक्षद्वीप, हरियाणा, दिल्ली आदि में एक-एक, दो-दो का जो नुकसान ओगा) गंवाएगी उसकी भरपाई बंगाल, ओडिसा से हो जाए तो भी गनीमत है।

चुनावी गणित को मेरे विश्लेषण में भाजपा का कुल आंकड़ा 165 सीट या मोटे तौर पर 160-180 सीटों के बीच कहीं अटकेगा।

दरअसल यह भी सोचा जाना चाहिए कि उत्सुकता के चलते 2014 में भाजपा के नरेंद्र मोदी को 2014 में वोट मिले थे। लेकिन आज वह स्थिति नहीं है। उस समय दलितों, जाटव, यादव, मुसलमान तक ने मोदी को अपना पोट दिया । लेकिन आज पांच साल बाद ऐसा संभव नहीं दिख रहा है। यूपी में लड़ाई का फैसला इस बात पर है कि 2014, फिर 2017 के विधानसभा चुनाव, फिर 2018 के गोरखपुर, फूलपुर, कैराना, उपचुनाव में जितना वोट सपा, बसपा, रालोद का था वह क्या विपक्षी गठबंधन को मिल रहा है। यानी यदि उलटी गंगा बही तो भाजपा साफ है।

बंगाल की बात करें तो वहां से अमित शाह कहते हैं भाजपा को 23 या ज़्यादा सीट मिल सकती हैं। इसी तरह वे ओडिसा मे 15 से 12 सीट जीतने की बात कह रहे हैं। ममता बनर्जी कभी अमित शाह का हेलिकॉप्टर रोककर या मोदी का हेलिकॉप्टर रोककर, उनके भाषणों पर अपनी प्रतिक्रिया देकर बांग्ला जनता में जो उभार पैदा कर रही है उसका लाभ लेकर भाजपा 23 से ज़्यादा सीट जीतने का सपना देख रही है।

लेकिन ममता ने जिस साहस, ताकत और दूरदृष्टि से बंगाल में सारी लोकसभा सीटों पर अपनी धमक बढ़ाई है। उसमें नरेंद्र मोदी-अमित शाह पांचवे  चरण में ही थक चुके थे। फिर चुनावी बूथों पर नाटक भाजपा नेताओं ने अति उत्साह में किए। मसलन आसनसोन में इसके उम्मीदवार की पोलिंग बूथ में दादागिरी, बंगाल भाजपा अध्यक्ष का जबरन पोलिंग बूथ में जाना। इन सबके बावजूद वहां भारी मतदान यह संकेत नहीं दे रहा है कि ये वोट भाजपा को ही आ रहे हैं या तृणमूल को। बंगाल में केंद्र से आए सुरक्षा दस्तों और राज्य के सुरक्षा बलों के जवानों ने हिंसा पर काबू पाने की बजाए उसे और हवा सी दी। इतनी लंबी चुनावी प्रक्रिया रखने के पीछे मुख्य चुनाव आयुक्त का तर्क था हर जगह आसानी से केंद्रीय बलों को पहुंचा सकें। लेकिन यहां तो हालात और भी बिगड़े दिखे।

बारह महीने में तेहर पूजा ही तो बंगाल की परंपरा है। बंगाल में कई सौ साल से हर हिंदू उत्सव चाहे वह दुर्गा पूजा हो, काली पूजा हो, सरस्वती पूजा हो सब बड़े स्नेह से मनाने का अद्भूत रिवाज है। इसमें समाज के सभी वर्ग शिरकत करते हैं। भाजपा के केंद्रीय नेता यहां रैलियों में जिस तरह इन पूजाओं के  न होने की बात कहते थे उससे उनकी अज्ञानता पर स्थानीय हिंदु समुदाय सिर्फ खुश होता था।

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) के नेता और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता  राममाधव को यकीन है कि भाजपा अपने दम पर 272 सीटें हासिल कर लेगी। इसके बाद सहयोगी दलों के कारण भाजपा की सरकार वैसे ही चलेगी जैसी 2014 से चली।

एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने कहा कि वे तो प्रचारक रहे हैं। अचानक सन दो हजार में उन्हें गुजरात भेजा गया। वहां उन्होंने केशु भाई के साथगठबंधन सरकार चलाई। दिल्ली में भी वे गठबंधन सरकार ही चलाते रहे हैं। अपने को गठबंधन सरकार चलाने का महारथी बताने वाले प्रधानमंत्री को अब ऐसा कहना ही क्यों पड़ रहा है। जबकि 2014 में उनके ही नेतृत्व में भाजपा को उत्तर भारत में बहुमत से ज़्यादा मत मिले। ऐसा पहले कभी हुआ ही नहीं था।

एक सोच यह भी है कि क्यों न भाजपा की नई गठबंधन सरकार की जिम्मेदारी ऐसे व्यक्ति को सौंपी जाए जो सबको साथ लेकर चले सके। ऐसे नेताओं में नितिन गडकरी और राजनाथ सिहं हैं।  दोनों ही संघ के अपने भरोसे के हैं और राजकाज में निपुण भी हो सकता है कि नरेंद्र मोदी को इस बदलाव का अंदेशा हो इसलिए उन्होंने  साक्षात्कार में  उन्हें यह कहना पड़ा कि वे भी गठबंधन सरकारे चलाने की कला में पटु रहे हैं।

ल्ेकिन यह बात साफ है कि भाजपा और आरएसएस में नए गठबंधन की तैयारियां शुरू हो गई हैं। ओडिसा में अभी आए फैनी तूफान में 34 लोग मारे गए और कम से कम दो हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। प्रधानमंत्री ने तूफान से निपटने मेें मुख्यमंत्री की खासी तारीफ की। इसे संबंध बेहतर बनाने की पहल तो मानना ही चाहिए।

बहरहाल देश पिछले पांच साल में नोटबंदी, जीएसटी, के चलते भंयकर बेरोजग़ारी, छोटे कल-कारखानों, हस्तशिल्प वगैरह के बंद होने से खासी परेशानी में पहुंच गया था। देखना है कि बेहतरी के लिए देश की जनता क्या फैसला बताती है।

पंजाब में कैप्टन बनाम अन्य

गदर फिल्म के हीरो सनी देओल को अपने पाले में लाकर पीएम मोदी ने ट्वीटर पर लिखा – ”हिन्दोस्तान था, हिन्दोस्तान है, हिन्दोस्तान रहेगा”। गदर फिल्म में सनी देओल पाकिस्तान में दुश्मनों को ध्वस्त करते हुए यह डॉयलाग बोलते हैं। जाहिर है यह डायलॉग रिपीट करते हुए मोदी गदर में सनी की छवि को हाल के ”एयर स्ट्राइक” से जोड़कर अपनी ”दुश्मन के घर में घुसकर मारने वाली” वाली छवि से जोड़कर चुनावी तारतम्य बैठाना चाहते होंगे। लेकिन इस चुनावी राष्ट्रभक्ति में तड़का लगाने में मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह भी पीछे नहीं रहे। बोले – ”वो (सनी) फिल्मी फौजी हैं, मैं असली फौजी हूँ।”

पंजाब में भाजपा के पास खोने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है। पाने के लिए मैदान खुला है। जितना पा सकेगी, उतना अपना। असली फौजी, यानी कैप्टेन अमरिंदर सिंह के सामने दो साल पहले जीती 77 (एक उपचुनाव जीतकर अब 78) विधानसभा सीटों के बूते अकाली-भाजपा गठबंधन को रोके रखने की चुनौती है। अभी तक अमरिंदर सरकार के खिलाफ कुछ सत्ताविरोधी रुख जनता के बीच दिखता नहीं, लिहाजा कांग्रेस से ज्यादा अपनी स्थिति बेहतर करने की चुनौती अकाली-भाजपा गठबंधन के सामने है।

आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव से पहले जिस तेजी से अपनी जगह पंजाबियों के दिल में बनाई थी, उतनी ही तेजी से चुनाव नतीजे आने के बाद खो दी। इस बार आप के सामने 2014 में जीती सीटों के बराबर का प्रदर्शन कर पाना बड़ी चुनौती होगी। मुख्य मुकाबला कांग्रेस और अकालीदल-भाजपा गठबंधन में ही दिखता है। आप पंजाब में एकाध सीट निकलने के लिए दिल्ली-हरियाणा-पंजाब का साझा गठबंधन करना चाहती थी, जो सिरे नहीं चढ़ा। पंजाब में तो कैप्टेन अमरिंदर ने साफ मना कर दिया और आलाकमान को भरोसा दिया कि हम अपने बूते जीत जायेंगे।

साल 2014 में तो मोदी लहर थी। तब भी भाजपा पंजाब में 13 में 2 सीटें ही निकाल पाई थी। यह अलग बात है कि विनोद खन्ना के देहांत के बाद खाली हुई गुरदासपुर सीट को उपचुनाव में कांग्रेस के सुनील जाखड़ जीत गए थे। इस प्रकार इस समय पंजाब से लोकसभा में -कांग्रेस, आप और आकालियों के चार-चार सांसद हैं। जबकि भाजपा का एक सांसद है। इस बार तो मोदी लहर जैसा कुछ नहीं। अकाली दल ने तब चार सीटें जीती थीं। इस बार भाजपा के सामने यह दो सीटें बचाने और दल के सामने 4 सीटें बचाने की बड़ी और मुश्किल चुनौती है।

पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस सरकार मई 2017 से सत्ता में है। पार्टी ने विधानसभा चुनाव में कुल 117 सीटों में से 77 सीटों पर जबरदस्त जीत दर्ज की। तब तक कुछ जानकार आप की बड़ी जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे। लेकिन कैप्टेन का जादू लोगों के सर चढ़कर बोला।

हालांकि, आप दूसरे नंबर पर रही और उसके सामने अपनी स्थिति मजबूत करने और पंजाब में एक ताकत बनाने का बेहतर अवसर था। लेकिन आप इसमें विफल रही है। पंजाब विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी आप में पिछले 3-4 साल में कई वरिष्ठ नेताओं को या तो पार्टी से निलंबित कर दिया गया है या फिर उन्होंने पार्टी छोड़ दी है।

इससे पहले 2014 के आम चुनाव में पंजाब ने राष्ट्रीय ट्रेंड के विपरीत आप और कांग्रेस में ज्यादा भरोसा जताया था।

अकाली-भाजपा गठबंधन सूबे की 13 लोकसभा सीटों में से केवल छह ही जीत पाई। अकाली दल को चार मिलीं और भाजपा के हिस्से आई महज दो। आप को पंजाब की मार्फत देश में पहली बार चार लोकसभा सीटों पर प्रतिनिधित्व का अवसर मिला जिसे उसने अब कमोवेश गंवा दिया है। कांग्रेस को तब तीन सीटें मिली थीं और 2014 में गुरदासपुर में उपचुनाव जीतकर उसने इसे चार कर लिया।

आप के दो सांसद धर्मवीर गांधी और हरिंदर सिंह खालसा मार्च 2015 से पार्टी से निलंबित चल रहे हैं। भाजपा, अकाली दल और आप जैसी पार्टियां तैयारी कर रही हैं, लेकिन कांग्रेस को भरोसा है कि इस दौड़ में वह आगे है।

पिछले समय में अकाली दल में भी कुछ उठापटक रही है। कुछ वरिष्ठ नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। पिछले साल के आखिर में अकाली बागियों ने ”शिरोमणि अकाली दल (टकसाली)” नाम से नई पार्टी बना ली। शिअद प्रमुख सुखबीर सिंह बादल इस नए दल को गंभीरता से नहीं लेते। वो कहते हैं – ”उनका कोइ अस्तित्व नहीं, न जनता में कोइ असर है।” हालांकि, जानकार कहते हैं वे सेंध तो अकाली मतों में लगाएंगे।

पंजाब में अपनी स्थिति से भाजपा वाकिफ है। वह फ्रंटफुट पर न खेलकर अकाली दल को मुख्य चेहरा बनाकर चुनाव में है। कांग्रेस सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी जैसे संवेदनशील मुद्दों पर अकाली दल को निशाने पर रखे हुए है।

आप के जमीनी कार्यकर्ता असंतुष्ट और निराश हो चुके हैं। साल 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहराना इस बार आप के लिए काफी मुश्किल होगा। पार्टी का जनता में जो समर्थन 2014 में था, उसे उसने पिछले पांच साल में काफी हद तक गँवा दिया है। आप ने एसएडी टकसाली के साथ गठबंधन की कोशिश भी की। छह छोटी पार्टियों के नेताओं ने हाल ही में पंजाब डेमोक्रैटिक गठबंधन (पीडीए) बनाया है।

पंजाब में उम्मीदवारों में कांग्रेस में सुनील जाखड़, परनीत कौर, मनीष तिवारी, शेर सिंह गुबाया, अकाली दल से सुखबीर सिंह बादल और हरसिमरत कौर बादल, प्रेम सिंह चंदूमाजरा, भाजपा से सनी देयोल, आप से भगवंत मान और पंजाब एकता पार्टी (पीईपी) के नेता सुखपाल सिंह खैरा प्रमुख हैं।

दो करोड़ से ज्यादा मतदाता

पंजाब में इस बार लोकसभा चुनाव में दो करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं। युवा मतदाताओं की संख्या भी बढ़ी है। ढ़ाई लाख से अधिक युवा पहली बार वोट डाल सकेेंगे। राज्य में अंतिम चरण में मतदान से राजनीतिक दलों का चुनाव अभियान करीब दो माह चलेगा। युवा मतदाताओं पर राजनीतिक दलों की सबसे अधिक नजर है। इस सबके बीच पंजाब की सीमा पाकिस्तान से लगने के कारण चुनाव प्रक्रिया के दौरान सुरक्षा भी कड़ी चुनौती होगी। पंजाब में इस बार 2,55,887 लाख युवा मतदाता बने हैं। पंजाब में लोकसभा चुनाव में कुल मतदाता 2,03,74,375 है जबकि इनमें पुरुष 10754157 जबकि महिलाएं 969711 हैं। दिव्यांग और मूक बधिर मतदाता 68551 हैं जबकि थर्ड जेंडर 507 मतदाता हैं। पोस्टल बैलेट 100285 हैं। प्रदेश में कुल 23213 मतदान केंद्र बनाये गए हैं।

पंजाब के मुख्य चुनाव अधिकारी के करुणा राजू के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार 200 से ज्यादा कंपनियां मांगी गई हैं। उन्होंने कहा कि पंजाब में चुनाव पर 243 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है, जिसमें से 60 करोड़ रुपये सुरक्षा-व्यवस्था पर खर्च होंगे। राज्य में 3.61 लाख लाइसेंसी हथियार हैं, जिनमें से 2.04 लाख पंचायत चुनाव के समय जमा कराए गए थे, वे अभी लौटाए नहीं गए हैं। अब इन्हें चुनाव के बाद ही लौटाया जाएगा।

छह लोकसभा हलके अमृतसर, गुरदासपुर, जलंधर, पटियाला, लुधियाना, बठिंडा को संवेदनशील घोषित किया गया है। इनमें अतिरिक्त फ्लाइंग स्क्वॉड तैनात किए जाएंगे। इस बार अभी संवेदनशील और अति संवेदनशील बूथों की संख्या घोषित नहीं की गई है। सभी 23,213 मतदान केंद्रों बूथों पर ईवीएम, वीवीपैट मशीनें लगेंगी। इनमें से 50 फीसद बूथों पर वेब कास्टिंग होगी। तीस फीसद ईवीएम रिजर्व में रहेंगी।

पंजाब के मुद्दे

साल 2016 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ था, पंजाब में ”चिट्टे का कारोबार” सबसे बड़ा मुद्दा था। अब पंजाब में कांग्रेस सरकार दावा कर रही है कि प्रदेश में ड्रग्स की चेन को तोड़ दिया गया है। लेकिन विपक्ष कहता है कुछ नहीं हुआ।

आम आदमी पार्टी तो अपने प्रमुख अरविंद केजरीवाल के पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से माफी मांगने के बाद से ही बैकफुट पर है। चुनाव के पास पार्टी ने फिर मोर्चा जरूर खोला है, इसका ज्यादा असर दिख नहीं रहा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने कहा – ”ड्रग्स अब कोई मुद्दा नहीं है। इसकी सप्लाई चेन तो तोड़ दी गई है।” नशे को लेकर प्रदेश भाजपा नेता श्वेत मलिक का आरोप है कि कैटेन सरकार ने ड्रग्स के नाम पर केवल प्रोपेगेंडा किया है। ”अगर जमीनी स्तर पर ड्रग्स की सप्लाई चेन टूटी होती, तो इतनी बड़ी मात्रा में ड्रग्स की रिकवरी नहीं होती।” आप प्रदेश अध्यक्ष भगवंत मान कहते हैं ड्रग्ज का इशू जिंदा है और यही पंजाब एकता पार्टी के अध्यक्ष सुखपाल सिंह खैहरा का भी कहना है।

”चिट्टा” को 2016 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनाने वाले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सत्ता में आते ही ड्रग्स को रोकने के लिए एसआइटी का गठन किया। सरकार ने ड्रग्स के कारोबार को खत्म करने के लिए ताबड़तोड़ कदम उठाए। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का दावा है कि ड्रग्स की कमर तोड़ दी गई है। दो साल में पुलिस ने 575 किलो हेरोइन पकड़ी है। और जो अब पकड़ी जा रही है वह सरकार की सख्ती का ही नतीजा है। सरकार का दावा है कि एनडीपीएस एक्ट के 21,049 मामलों में 25,092 लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

पंजाब में किसानों के मुद्दे भी बहुत अहम रहे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सरकार का कहना है कि पंजाब सरकार की किसान कर्ज राहत योजना के तहत चार जिलों में 1,09,730 सीमांत किसानों को वाणिज्यिक बैंकों के 1,771 करोड़ रुपये के कर्ज से राहत दी गयी। सरकार ने 2.5 से 5 एकड़ जमीन वाले किसानों के लिए छूट योजना में विस्तार किया है। ”यह रकम सीधे किसानों के वाणिज्यिक बैंकों के खाते में स्थानांतरित की गयी। योजना के इस चरण में शामिल किसान पाटियाला, लुधियाना, संगरूर और फतेहगढ़ साहिब जिलों के हैं। यह कर्ज माफी योजना का पहला चरण था। पंजाब सरकार का कि अब तक 35,000 करोड़ रुपए किसानों की कर्ज माफी पर खर्च कर चुकी है।

हालांकि भारतीय किसान यूनियन लक्खोवाल के महासचिव हरिंदर सिंह लक्खोवाल का आरोप है कि कांग्रेस सरकार ने 2017 विधानसभा चुनाव से पहले अपने मैनीफेस्टो में वादा किया था कि उनकी सरकार बनते ही पंजाब को नशा मुक्त और छोटे-बड़े सभी किसानों को कजऱ्ामुक्त कर दिया जाएगा, लेकिन दो वर्ष बीतने के बावजूद सरकार की ओर से न तो किसानों का कर्जा माफ किया गया और न ही पंजाब को नशा मुक्त किया गया। उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव में कोई भी राजनीतिक पार्टी अपना चुनावी मैनीफिस्टों जारी करने से पहले मतदाताओं को भरोसा दिलाए कि जीत के बाद उनके द्वारा किए वायदे कितने समय में पूरे किए जाएंगे।

यदि वोट फीसद की बात की जाये तो 2012 में पंजाब में 70.89 फीसदी वोट पड़े थे।

प्रदेश में विकास ठप्प: सुखबीर बादल

पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री और शिअद प्रमुख सुखबीर सिंह बादल का आरोप है कि कैप्टन ने सत्ता संभालने के बाद सारा विकास ठप करके रख दिया है। बेअदबी पर उनका कहना है – ”हम हमेशा ही गुरुओं का सम्मान करते हैं और हमने कभी भी धर्म के नाम पर सियासत नहीं की”। सुखबीर का कहना है कि कैप्टन सरकार लोगों को झूठ बोलकर सत्ता में आई है और सत्ता में आने के बाद सारे वादे भूल गए हैं। लोगों को अकाली सरकार के समय दी गई सभी सहूलियतें बंद कर दी गई हैं। हम प्रदेश की सभी सीटों पर जीत हासिल करेंगे।

विनोद खन्ना की पत्नी कविता नाराज़

विनोद खन्ना ने गुरदासपुर में भाजपा का जो रंग जमाया वो अनुकरणीय है। वो लगातार तीन बार यहाँ से जीते, बिना एक बार भी हारे। दो साल पहले उनका निधन हो गया तो उपचुनाव कांग्रेस ने जीत लिया। अब भाजपा यहाँ से एक और एक्टर सनी देओल को ले आई है तो दिवंगत एक्टर विनोद खन्ना की पत्नी कविता खन्ना भाजपा से सख्त नाराज हैं। गुरदासपुर सीट से टिकट नहीं मिलने पर कविता ने नाराज़गी जताई है। उनका कहना है – ”किसी ने मुझे पार्टी के लिए प्रचार करने तक को नहीं कहा। मुझे नामांकन के दौरान पार्टी जॉइन करने को कहा गया था और यह भरोसा दिया गया था कि मुझे टिकट दिया जाएगा। अब इस बात से मैं बहुत ज्यादा आहत हूं।” कविता खन्ना का कहना था कि जो हुआ है वह दोबारा नहीं होना चाहिए। विनोद खन्ना गुरदासपुर सीट से जब भी खड़े हुए सीट उन्होंने जीती। अब जबकि मैदान में उतारा है तो कविता का कहना है – ”सनी देओल ने मुझसे चुनाव प्रचार करने के लिए नहीं कहा है। मैं चाहती हूं कि वह गुरदासपुर सीट से जीतें।”

अमरिंदर बनाम सिद्धू

ट्वीटर पर फॉलो किये जाने वाले पंजाबी नेताओं में सबसे आगे हैं नवजोत सिंह सिद्धू। पाकिस्तान के साथ मित्रता के पक्षधर हैं और भाजपा के निशाने पर सबसे ज्यादा रहते हैं। दिलचस्प यह कि सीएम अमरिंदर सिंह भी सार्वजानिक रूप से खिंचाई करते रहे हैं। हालांकि, जानकारों का यही मानना है कि चुनाव में सिद्धू पार्टी के लिए पूरी ताकत से प्रचार कर रहे हैं। यह अलग बात है कि यह प्रचार प्रदेश के दूसरे सूबों में ज्यादा है।

सभी 13 सीटें जीतेंगे: अमरिंदर

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को पूरा भरोसा है कि कांग्रेस राज्य की सभी सीटें जीतेगी। उन्होंने कहा – ”इस बार न कोई मोदी लहर है, न भाजपा के पास दिखाने के लिए कोई उपलब्धि। भाजपा का जनाधार पूरी तरह खिसक गया है और उसे सत्ता से उखाड़ फेंका जाएगा।” अमरिंदर ने कहा कि पंजाब का मूड 2014 के मुकाबले पूरी तरह बदल चुका है और कांग्रेस अपने मिशन-13 को अंजाम तक पहुंचाएगी। जनता सभी 13 सीटें राहुल गांधी को देगी।” उनके मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जल्दी ही पंजाब में चुनाव प्रचार करेंगे। गुरदासपुर में अभिनेता सनी देओल के भाजपा उम्मीदवार के रूप आने से वे कांग्रेस उम्मीदवार सुनील जाखड़ को कोइ खतरा नहीं मानते। कैप्टेन ने कहा – ”सुनील गुरदासपुर में ज़मीन पर काम कर रहे हैं, जबकि देओल की यहां कोई स्थिति नहीं बनती है। सनी देओल बॉलीवुड भाग जाएंगे और गुरदासपुर के लोगों के लिए मौजूद नहीं रहेंगे।”

हिमाचल में सत्ता में बैठी भाजपा को कांग्रेस की चुनौती

देश के बड़े नेताओं के प्रचार में जुटने के साथ ही प्रदेश में चुनावी सरगर्मी उफान पर पहुँच चुकी थी। चार सीटों वाले हिमाचल में 19 मई को मतदान के साथ ही 45 प्रत्याशियों का भाग्य ईवीएम में कैद हो गया। मुख्य मुकाबला भाजपा-कांग्रेस में है जबकि कुछ निर्दलीय और अन्य दलों के उम्मीदवार भी मैदान में हैं।

सबसे ज्यादा उम्मीदवार मंडी सीट पर हैं, जहां 17 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सबसे कम छह उम्मीदवार शिमला सुरक्षित सीट पर हैं जबकि कांगड़ा और  हमीरपुर संसदीय क्षेत्रों में 11-11 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। भाजपा, कांग्रेस के अलावा  माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय क्रांतिकारी पार्टी, स्वाभिमान पार्टी और बसपा ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं।

सभी उम्मीदवार पिछले करीब एक महीने से पूरी ताकत से अपनी जीत सुनिश्चित करने में जुटे रहे हैं। देश के अन्य हिस्सों में चुनाव प्रचार से निपटते ही नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, अमित शाह, प्रियंका गांधी जैसे बड़े नेता हिमाचल में प्रचार करने पहुंचे हैं।

नामांकन के ही बीच दो बड़ी राजनीतिक ”घटनाएं” हुई हैं। एक तो यह कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह मंडी से कांग्रेस प्रत्याशी आश्रय सिंह के चुनाव प्रचार में जुट गए हैं इससे पूर्व कहा जा रहा था कि वे आश्रय को टिकट दने से खुश नहीं हैं, और दूसरा यह कि दो बार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और तीन बार सांसद रहे बिलासपुर के सुरेश चंदेल भाजपा छोड़ कांग्रेस में आ गए हैं।

पहले जिक्र मंडी का। यह मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का गृह जिला है। उनके सामने अपनी गृह सीट मंडी ही नहीं पिछली बार जीती चारों सीटें भाजपा की झोली में डालने की चुनौती है। भाजपा ने पिछली बार जीते राम स्वरुप शर्मा को ही मैदान में उतारा है। प्रदेश में 2014 जैसी मोदी लहर नहीं है। जनता करीब डेढ़ साल की जयराम सरकार के कामकाज के अलावा देश के मुद्दों पर वोट करेंगी।

हाल ही में विधानसभा सत्र में सरकार ने एक सवाल पर यह चिंताजनक जानकारी जाहिर की थी कि इस गरीब प्रदेश में बेरोज़गारों का आंकड़ा 7.50 लाख (सरकारी दफ्तरों में दर्ज बेरोज़गार) के आसपास पहुँच चुका है। पूरे देश की तरह इस पहाड़ी सूबे में भी बेरोज़गारी सबसे बड़ा मुद्दा है। परवाणू-राजमार्ग पर सड़क निर्माण में मजदूरी कर रहे पच्छाद के सुरेंद्र ने कहा – ”मैंने दसवीं पास की है लेकिन नौकरी नहीं मिलने पर मजदूरी कर रहा हूँ। मेरा बीए पास भाई भी बेरोज़गार है। सभी नौकरी का वादा करते हैं लेकिन हकीकत में यह झूठ है।”

राजनीतिक विश्लेषक बीडी शर्मा भी बेरोज़गारों की इस भीड़ को चिंता की नजर से देखते हैं – ”इस प्रदेश में सरकारी क्षेत्र ही रोज़गार का सबसे बड़ा सहारा है। निजी क्षेत्र सीमित है। कुछ उद्योग हैं लेकिन वहां 70 फीसद रोज़गार हिमाचल के लोगों को देने के सरकारी फैसले का पालन पूरी तरह नहीं होता। बेरोज़गारी हर चुनाव में मुद्दा रहती है जो जाहिर करता है कि सभी दल इसपर उतना फोकस नहीं कर पाए जितनी ज़रुरत है।”

हिमाचल से सेना में बड़ी संख्या में जवान (अधिकारी भी) हैं। कुछ रोजग़ार की ज़रुरत  इसका कारण है, कुछ देशभक्ति का अनोखा जज्बा। क्या चुनाव में बेरोज़गारी मुद्दा है,  इस सवाल पर सुनिए मंडी-कुल्लू मार्ग पर औट में बीए पढ़े भलखू राम ने क्या कहा – सरजी, सच बताऊँ। चुनाव में रोजगार मज़ाक का मुद्दा है। कोई इस मसले गंभीर नहीं।” क्या वो राहुल गांधी की 72,000 वाली ”न्याय योजना” के बारे में जानते हैं, भलखू राम ने कहा – ”राहुल सत्ता में आते हैं तो मेरा सुझाव है कि उन्हें देश के हर बेरोज़गार के लिए न्यूनतम वेतन देने वाली एक कानूनी योजना लानी चाहिए।”

क्या भाजपा का राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बनाना सही है, इस सवाल पर काँगड़ा के गगरेट में राम सिंह परमार का कहना था – ”हमारे संयुक्त परिवार में छह सदस्य आर्मी में हैं। पिता और तायाजी भी सेना से रिटायर हुए। जिस खराब तरीके से पीएम और भाजपा के नेता चुनाव में सेना के नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है मानों देश की सेना उनकी निजी सेना हो। इस तरीके से सेना का मान घटा है।”

हालांकि, ज्वालामुखी के बस अड्डे पर अशोक शर्मा का मत कुछ ऐसा था – ”सेना को चुनावी राजनीति में नहीं लाना चाहिए था। यह गलत है लेकिन मोदी धाकड़ नेता हैं इसमें दो राय नहीं।”

लोगों में राहुल गांधी की ”न्याय योजना” की जानकारी टीवी के जरिये ही पहुँची है। कांग्रेस के लोग अब चुनाव सभाओं में इसका जि़क्र करने लगे हैं लेकिन ठीक से लोगों को समझा नहीं पाते। ”ऐसा लगता है वे कोई खैरात बाँटने की बात कर रहे हों। $गरीबी से निबटने और मार्केट को मदद करने में यह योजना कारगार हो सकती है लेकिन कांग्रेस के स्थानीय नेता ही इसके बारे में बेहतर तरीके से नहीं जानते तो लोगों को क्या समझायेंगे,” यह कहना था भगवान सिंह परसीरा का, जो कालेज से लेक्चरर  रिटायर हुए हैं।

भाजपा को इस चुनाव से पहले एक झटका लगा है। उसके दो बार प्रदेश अध्यक्ष और तीन बार सांसद रहे सुरेश चंदेल अपना राजनीतिक करियर बचाने के लिए कांग्रेस  गए। वो हमीरपुर से लोकसभा टिकट चाहते थे। खूब जुगाड़ भी किया लेकिन दाल नहीं गली। कांग्रेस ने पहले भी तीन बार हार चुके अपने पुराने महारथी पूर्व मंत्री राम लाल ठाकुर पर भरोसा जताया।

चंदेल अब कांग्रेस में आ गए हैं क्योंकि भाजपा में उनका कमोवेश हर रास्ता बंद हो चुका था। लेकिन उनकी एक और दिक्कत है। कांग्रेस में उनके गृह जिले बिलासपुर से लेकर दूसरी जगह के कांग्रेसी भी उनको दिल से अपना नहीं रहे। बिलासपुर के विधायक बम्बर ठाकुर तो खुले रूप से उनका विरोध कर चुके हैं।

भाजपा के बिलासपुर में एक नेता ने नाम न छपने की शर्त पर कहा – ”चंदेल ऑउटडेटेड हो चुके हैं। उनके नाम पर न तो कोई वोट देगा न उनके जाने से हमारी पार्टी पर कोइ फर्क पड़ेगा।” हालांकि, सच यह भी है कि जब चंदेल की राजनीति का इकबाल ऊंचा था, उन्हें मुख्यमंत्री पद का गंभीर उम्मीदवार माना जाने लगा था। लेकिन ”पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने ” वाले स्टिंग ने उनके राजनीतिक जीवन पर ग्रहण लगा दिया और करीब दस साल से वो राजनीति के बियाबान में ही गोते लगा रहे थे।

हिमाचल में चार सीटें हैं लोक सभा की लेकिन जिन दो सीटों पर सबकी सबसे ज्यादा नज़र है वे हैं हमीरपुर और मंडी। मंडी में तो कांग्रेस की तरफ से पूर्व केंद्रीय मंत्री सुख राम के पोते आश्रय मैदान में हैं। आश्रय के पिता अनिल शर्मा ने भाजपा सरकार में मंत्री पद से तो इस्तीफा दे दिया लेकिन अभी भी वे भाजपा के ही विधायक हैं। इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की बहुत पकड़ है। वैसे खुद वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह इस सीट पर वीरभद्र सिंह के बूते दो बार सांसद रह चुकी हैं। वैसे वो दो बार हारी भी हैं।

वीरभद्र सिंह को सुख राम का दशकों पुराना विरोधी माना जाता है। कांग्रेस के भीतर लोगों का मानना है कि यदि वीरभद्र सिंह पूरी ताकत से आश्रय के पक्ष में आ जाएँ तो भाजपा के राम स्वरुप के लिए आश्रय बहुत मजबूत प्रतिद्वंदी साबित हो सकते हैं। वीरभद्र सिंह ने आश्रय के नामांकन में शामिल होकर सबको चैंका दिया।

मुख्यमंत्री और सुख राम दोनों मंडी जिले से हैं लिहाजा न्यूट्रल हलकों से जिसे ज्यादा वोट पड़ेंगे उसका पलड़ा भारी रहेगा। जय राम को मुख्यमंत्री होने के नाते मंडी के सराज से बड़ा समर्थन मिलने की उम्मीद है। सुख राम संचार क्रांति के दौरान इलाके के लोगों को दी गईं नौकरियों के भरोसे हैं।

सुख राम के दल बदलने से जरूर कुछ लोगों में नाराज़गी है। जोगिन्दर नगर में ललित कुमार ने कहा – ”वो अपने समय में बड़े नेता थे इसमें कोइ शक नहीं। लेकिन जिस तरह उन्होंने परिवार मोह में दल बदले हैं, उसे मैं अच्छा नहीं मानता। दूसरे मुख्यमंत्री होने के नाते जयराम ने मंडी जिले में बहुत काम किये हैं जिसका लाभ भाजपा को  मिलेगा।”

भाजपा ने वीरभद्र सिंह के गढ़ रामपुर में छह बार के विधायक सिंघी राम को अपने पाले में करके जरूर कांग्रेस के इस मजबूत इलाके में वोटों में सेंध लगाने की कोशिश की है।

हालांकि कुल्लू जिले के आनी में कुशल और रामपुर में विकास धोलता ने एक सी बात कही – ”राजासाहब (वीरभद्र सिंह) के ऊपर निर्भर है आश्रय की जीत। राजासाहब ने खुले मन से साथ दिया तो रामसरूप (भाजपा प्रत्याशी) के लिए दिक्कत पैदा हो सकती है।” वैसे रामस्वरूप के समर्थकों को उम्मीद है कि जयराम के मुख्यमंत्री होने और उनकी ईमानदार नेता की छवि के बूते वे जीत जाएंगे।

दूसरी वीआईपी सीट हमीरपुर है जहाँ भाजपा के युवा तुर्क माने जाने वाले तीन बार के सांसद अनुराग ठाकुर मैदान में हैं। हिमाचल में इसी सीट पर लोगों की सबसे ज़्यादा नजऱ है। अनुराग को भाजपा में भविष्य का नेता माना जाता है। लोकप्रिय भी हैं और गतिशील भी। क्रिकेट में हिमाचल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नक्शे पर लाने का श्रेय अनुराग को ही जाता है।

नादौन में वरिष्ठ पत्रकार कपिल बस्सी ने कहा – ”अनुराग निश्चित ही हैवीवेट कैंडिडेट हैं। रेल विस्तार से लेकर क्रिकेट और केंद्रीय योजनाओं को अपने हलके में लाने का श्रेय उन्हें जाता है। उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम धूमल का पूरे हलके में खासा जनाधार हैं जिसका लाभ भी अनुराग को मिलेगा।”

हालांकि बिलासपुर में रामनाथ जोगी ने कहा – ”कांग्रेस के राम लाल इस सीट पर तीन बार हार चुके हैं लिहाजा जिले में लोगों के मन में उनके प्रति सहानुभूति है।” वैसे ऊना से लेकर हमीरपुर तक अनुराग के समर्थक ज्यादा दिखे और वे उन्हें एक ऊर्जावान एमपी मानते हैं।

कांगड़ा सीट पर इस बार दिग्गज शांता कुमार की भूमिका भाजपा के लिए वोट मांगने तक सिमट गई है। पार्टी ने इस उम्रदराज नेता को इस बार टिकट नहीं दिया। उनकी जगह उनके ही समर्थक माने जाने वाले गद्दी समुदाय के किशन कपूर को मैदान में उतारा गया है जो भाजपा सरकार में मंत्री भी हैं।

इस सीट पर जातिगत समीकरण बहुत अहम् रहेंगे। कांग्रेस ने चैधरी (ओबीसी)  समुदाय के पवन काजल को टिकट दिया है। पवन विधायक हैं और जिस काँगड़ा हलके से वे जीते हैं वहां चैधरी समुदाय में उनकी गहरी पैठ मानी जाती है।

वैसे तो कांगड़ा से भाजपा प्रत्याशी किशन कपूर को पूर्व मुख्यमंत्री और कांगड़ा सीट से वर्तमान सांसद शांता कुमार का समर्थक माना जाता है, लेकिन कहा जाता है कि शांता इस सीट से राजीव भारद्वाज को टिकट की वकालत कर रहे थे जो उनके नजदीकी माने जाते हैं।

जातिगत जमा-जोड़ की बात की जाए तो कांगड़ा में करीब 4.50 लाख के करीब चैधरी (ओबीसी) आबादी है और इतने ही राजपूत हैं जबकि तीसरे नंबर पर ब्राह्मण आबादी है। गद्दी करीब 1.50 लाख हैं जो कांगड़ा जिले के अलावा चम्बा के चुराह और भटियात में भी हैं।

भाजपा टिकट के दावेदार राजपूत नेता कृपाल परमार भी थे जो पहले राज्य सभा के सदस्य रहे हैं। उनकी पूरी कोशिश के बावजूद टिकट उन्हें नहीं मिला। उधर कांग्रेस में चैधरी नेता और एक बार सांसद रह चुके चंद्र कुमार टिकट चाहते थे लेकिन नहीं मिल पाया। पिछले दो विधानसभा चुनावों में पवन काजल कांगड़ा जिले में नए चैधरी नेता के रूप में उभरे हैं।

किशन कपूर को टिकट मिलने से गद्दी समुदाय में खुशी है। जिला प्लानिंग बोर्ड के सदस्य चुन्नी लाल भंगालिया कहते हैं – ”पूरा समुदाय किशन के समर्थन में खड़ा है। यह खुशी की बात है कि भाजपा ने उनके समुदाय से किसी को टिकट के लिए चुना।”

हालांकि, काँगड़ा बस अड्डे पर खुशी राम ने कहा – ”काजल ने पिछले छह साल में काफी काम किये हैं। लोक सभा में उनके जाने से हमारी कॉम्यूनिटी को मजबूत आवाज मिलेगी।”

कांगड़ा सीट पर गद्दी और चौधरी समुदाय के बाहर के मतदाता जीत-हार का फैसला करेंगे। यदि पवन अपने समुदाय के वोटों में सेंध लगने से बचा सके तो काँगड़ा जिले में वे किशन कपूर को मुश्किल में डाल सकते हैं।

शिमला सीट प्रदेश की इकलौती आरक्षित सीट है। यहाँ समीकरण दिलचस्प हैं। कांग्रेस के विधायक उम्मीदवार धनी राम शांडिल सुख राम की खत्म हो चुकी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस ( हिविकां) से 1999 जबकि 2004 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में लोक सभा का चुनाव जीत चुके हैं। डोगरा रेजिमेंट से कर्नल रिटायर हुए धनी राम की छवि एक ईमानदार और मिलनसार नेता की है। पूर्व सैनिकों में उनकी पैठ है।

भाजपा ने यहाँ से पच्छाद विधानसभा हलके से लगातार दूसरी बार जीते सुरेश कश्यप को टिकट दिया है। सुरेश भी सेना की पृष्ठभूमि के हैं और नान कमीशंड आफिसर रहे हैं। धनी राम और सुरेश दोनों की छवि बेदाग है। दोनों कोली कश्यप जाति से आते हैं जिनकी इस सीट पर सबसे ज्यादा वोट हैं।

वोटों का गुना-भाग इस सीट पर बड़ा दिलचस्प है। कांग्रेस ने हाल में नालागढ़ के मजबूत लीडर बाबा हरदीप सिंह को पार्टी में वापस ले लिया है। विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने से बागी हुए हरदीप निर्दलीय मैदान में उतर कर 9000 के करीब वोट ले गए थे। कांग्रेस को उम्मीद है कि यह वोट बाबा के पक्के वोट हैं जो कांग्रेस के खाते में आ सकते हैं।

सोलन जिले की तीन विधानसभा सीटों पर इस समय कांग्रेस के विधायक हैं जिनमें एक अर्की में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह शामिल हैं। शिमला जिले की ग्रामीण सीट पर भी वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह विधायक हैं। वीरभद्र सिंह का शिमला जिले में जबरदस्त जनाधार माना जाता है।

इसके अलावा ठियोग सीट माकपा के राकेश सिंघा के पास है। माकपा का इस सीट पर कोइ उम्मीदवार नहीं लिहाजा माना जाता है कि माकपा का परम्परागत वोटर भाजपा को वोट नहीं डालता। इस लिहाज से यह वोट कांग्रेस के खाते में जा सकता  है।

हालांकि इसके यह मायने नहीं कि भाजपा यहाँ कुछ नहीं कर रही। विधानसभा अध्यक्ष राजीव बिंदल नाहन से विधायक हैं और मजबूत पकड़ वाले नेता माने जाते हैं। कहते हैं वे मंत्री बनना चाहते थे लेकिन पार्टी का फैसला उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाने का हुआ। ”तहलका” की जानकारी के मुताबिक भाजपा पूरी ताकत इस सीट को बरकरार रखने के लिए लगा रही है।

लोगों से बातचीत करने पर लगता है कि लोग शांडिल की छवि से काफी प्रभावित हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि सुरेश कश्यप को प्रदेश में भाजपा की सरकार होने का फायदा मिलेगा।

अर्की में रत्ती राम ने कहा – ”शांडिल बहुत मजबूत उम्मीदवार हैं। उनकी छवि बहुत ईमानदार और शांत नेता की है। दो बार एमपी रहने के कारण वो पूरे क्षेत्र से वाकिफ हैं। एक बार मंत्री भी रहे हैं।” हालांकि,  नाहन में कविता शर्मा ने कहा बड़ी दिलचस्प बात कही – ”वोट तो मोदी के नाम पर पडऩा है। कोइ उम्मीदवार नहीं देखेगा न पार्टी। जो भाजपा को देंगे वो मोदी के नाम पर देंगे और जो कांग्रेस को देंगे वो मोदी के खिलाफ देंगे।’

दांव पर छवि

यह लोक सभा चुनाव मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए एक बड़ी चुनौती है। सुख राम अपने पोते आश्रय के लिए जिस ताकत से मैदान में जुटे गए हैं उससे जयराम को अपने गृह जिले मंडी में ज्यादा वक्त देना पड़ रहा है। भाजपा को यहां कल्पना से  कहीं ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। जयराम डेढ़ साल से मुख्यमंत्री होने के बावजूद वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल या शांता कुमार की तरह प्रदेशव्यापी छवि वाले नेता नहीं हैं। कांग्रेस में वीरभद्र सिंह प्रदेश के किसी भी हिस्से में अपनी पार्टी के लिए वोट जुटाने की क्षमता रखते हैं और धूमल भी उसी श्रेणी के नेता हैं जिन्हें निचले और ऊपरी हिमाचल दोनों में बराबर का जनसमर्थन हासिल है। हालांकि सेब क्षत्रों में सीएम रहते आंदोलनकारियों पर गोली चलने का आदेश देने वाले शांता को ऊपरी हिमाचल में समर्थन नहीं रहा फिर भी वे व्यापक जनाधार वाले नेता अपने जमाने में रहे हैं। जयराम के सामने प्रदेश की चारों सीटों को फिर जीतने की कठिन चुनौती है। भाजपा के ज्यादातर उम्मीदवार पीएम मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं। हमीरपुर में  जरूर अनुराग ठाकुर मोदी के नाम के साथ-साथ व्यक्तिगत छवि का भी लाभ उठा सकते हैं। तीन कबाइली इलाकों लाहौल स्पीति, किन्नौर और भरमौर का क्या रुख रहता है यह भी दिलचस्प रहेगा। परम्परागत रूप से कांग्रेस यहाँ मजबूत रही है।

दुनिया का सबसे ऊंचा मतदान केंद्र

दुनिया में सबसे ऊंचाई पर स्थित मतदान केंद्र हिमाचल में ही है। यह कबाइली जिले लाहौल स्पीति के टाशीगांग का मतदान केंद्र है। वहां मतदाताओं की संख्या महज 49 है और यह 15256 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इससे पहले भी दुनिया का सबसे ऊंचा मतदान केंद्र लाहौल स्पीति में ही हिक्किम में स्थित था जो समुद्र तल से 15 हजार फुट की ऊंचाई पर है। तिब्बत की सीमा से सटे लाहौल और स्पीति जिले के इस गांव की जनसंख्या महज 483 है जिनमें 333 मतदाता हैं। इन दोनों मतदान केंद्रों पर मतदाता 19 मई को अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। गौरतलब है कि भारी बर्फबारी के कारण यह इलाका छह महीने दुनिया से कटा रहता है और इसे शीत मरुस्थल के नाम से भी जाना जाता है।

कुल 7723 मतदान केंद्र, 53,30,154 मतदाता

पहाड़ी प्रदेश हिमाचल में कुल 7723 मतदान केंद्र बनाए गए हैं। लाहौल स्पीति जिले का किंगर सबसे छोटा मतदान केंद्र है, जहां केवल 37 मतदाता हैं। प्रदेश में मतदाताओं की संख्या 53,30,154 है जिनमें 27,24,111 पुरुष और 26,05,996 महिला मतदाता हैं जबकि 47 थर्ड जेंडर मतदाता भी दर्ज हैं। इस बार नए मतदाताओं की संख्या 52,390 है। वैसे हिमाचल में तीस साल से कम आयु के मतदाताओं की संख्या 13,34,823 है। हिमाचल के मुख्य चुनाव अधिकारी देवेश कुमार के मुताबिक प्रदेश में 100 साल से ज्यादा उम्र के 999 मतदाता हैं। उनके मुताबिक – ”हमारे इन बुजुर्ग वोटर्स को मतदान केंद्रों तक लाने के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। प्रदेश में इस बार 136 ऐसे मतदान केंद्र होंगे जिन्हें सिर्फ महिला कर्मी संचालित करेंगी और 10 मतदान केंद्र केवल दिव्यांग मतदान कर्मियों के लिए बनाए गए हैं।” प्रदेश के तीन  मंडी, हमीरपुर और लाहौल स्पीति ऐसे जिले हैं, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक है। हमीरपुर में यह संख्या 1042 प्रति 1000 पुरुष मतदाता है, जबकि लाहौल स्पीति और मंडी में यह संख्या 1009 प्रति 1000  मतदाता हैं। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में 1874 मतदान केंद्र हैं, जहां मतदाताओं की कुल संख्या 1427338 होगी। मंडी संसदीय क्षेत्र में 2079 मतदान केंद्र और 1281462 मतदाता जबकि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में 1764 मतदान केंद्रों और 1362269  मतदाता और शिमला संसदीय क्षेत्र में 2006 मतदान केंद्र और 1250085 मतदाता हैं। निष्पक्ष मतदान के लिए प्रदेश में 207 फ्लाइंग स्क्वायड बनाए गए हैं।

और गरमाया मौसम,बाज़ार से गायब शरबत

हर बार गर्मी प्रचंड होने के साथ ही बाज़ार से गायब हो जाते हैं तमाम तरह के देसी शरबते-आजम। अगर कहीं मिले भी तो कीमत भी गर्मी के तापमान के अनुरूप बढ़ी हुई। उधर दिल्ली मिल्क स्कीम (डीएमएस), मदर डेयरी और अमूल की लस्सी दही भी सहज नहीं मिलती।

लोगों की मांग के अनुसार भारत देश मेें सप्लाई नहीं है इसलिए हो रही बिचौलियों की कमाई। फिर, देश मेें चुनावी सरगर्मी है। न दफ्तरों में कहीं नौकरशाह हैं जो कुछ कर सकें।

अलबत्ता आफिस के बार भिनभिनाती मक्खियों के साथ बर्फीला शरबत, कटे खीरे-तरबूज-ककड़ी मिल जाती हैं। कहीं-कहीं आम, बेल, नींबू के शरबत बिकते दिखते हैं। दोपहर की छुट्टी हो तो लोग पेड़ों की छांव तले इन ठेलों के इर्द-गिर्द ठहरे नज़र आते हैं।

इन दिनों रमजान-उल-मुबारक का मुकद्दस(रमादान) का महीना चल रहा है। बाज़ारों में रौनक है। लेकिन देश में सुशासन की जिम्मेदारी निभाने वाले नौकरशाह भी बेखबर हैं। पार्टियां जिताने में लगे हैं। उन्हें इसकी भी परवाह नहीं कि गर्मी में लोग प्यासे तो न रहें। लेकिन सुनना किसे है? पहले शाम को रूह-अफजा का एक ठंडा ग्लास जब हलक के नीचे उतरता था तो जान में जान आती थी। उसकी नकल मेें आई ठंडे शरबत की कई कंपनियों का अपना धंधा ज़रूर चोखा है इस गर्मी में लेकिन वे उस गुणवत्ता को हासिल नहीं कर सकीं।

एक दौर था जब देश में गंगा-जमुनी तहजीब थी। संस्कृत-अरबी-फारसी और हिंदी-उर्दू में आपसी मेल और सद्भाव था। खान-पान में भी तब खासा मेल-जोल था। आज़ादी की लड़ाई में दोनों कौमों ने मिल कर आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। आपस में खूब दिल्लगी भी होती रहती थी। हिंदुस्तानी मसाले और इत्र की पेरिस, इटली में खासी धूम थी। आज घर-घर में दीवारें खड़ी हैं। जहां हवा भी सहमी-सहमी रहती है। गंगा और यमुना नदियां भी अब तेज़ धूप में और ज्य़ादा तेज़ी से सिकुड़ती जा रही हैं। बेइंतहा गाद और गंदगी के बावजूद बनारस में बड़े एसी स्टीयर जहाज तस्वीरों में तैरते दिखते हैं। लगता है आने वाले पांच सालों में समुद्री ठगों और डकैतों के नए अवतार यूपी, बिहार, बंगाल की पट्टी पर हावी दिखेंगे। भारत में मास विकास के दौर में सौ साल पुरानी भारतीय हमदर्द कंपनी मांग के अनुरूप रूह-अफजा की सप्लाई न कर पा रही है। शासन के बस का तो नहीं, लेकिन सिविल सोसाइटी के लोगों को ज़रूर हमदर्द पर दबाव बनाना चाहिए कि रमजान के महीने में लोगों के हलक सूखे न रहें।

रूह ऐ अफजा बाज़ार से गायब है। कहते हैं इसे बनाने वाली कंपनी ‘हमदर्द’ के मालिकों में संपत्ति को लेकर-अनबन है इसका असर उत्पादन पर पड़ा है। हालांकि कंपनी इसे अफवाह बता कर खारिज करती है। उसका कहना है कि रूह अ$फजा की ऑनलाइन बिक्री जारी है लेकिन वहां इसकी कीमत आसमान छू रही है।

पाकिस्तान की हमदर्द कंपनी के एमडी उसामा कुरैशी ने ट्विटर पर लिखा है ‘रमजान में भारत को रूह अ$फजा और रूह अफजा गो मुहैया करा सकते हैं। भारत सरकार इजाज़त दे तो बाघा बोर्डर से रूह अफजा ट्रक से भेज सकते हैं।’

दरअसल 1906 में यूनानी चिकित्सक हाफिज अब्दुल मजीद ने पुरानी दिल्ली में ‘हमदर्द’ नाम का दवाखाना खोला। बाद में यूनानी तरीके से पुराने जमाने में बनने वाले शीतल पेय की उन्होंने तलाश की। उन्होंने इसे खुद बनाया और पाया कि लोगों को यह रास आ रहा है। 1947 में देश का बंटवारा हुआ। हाफिज अब्दुल मजीद की मौत के बाद उनके छोटे बेटे पाकिस्तान चले गए। कराची से हमदर्द की शुरूआत हुई। आज वहां रूह अ$फजा और रूह अफजा गो दोनों ही शीलत पेय उत्पाद खासे लोकप्रिय हैं।

भौहें तनीं, जब चीफ जस्टिस को मिली क्लीन चिट

भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को ‘सेक्सुअल हरैस्मेंट’ के मामले में अदालत की इन हाउस कमेटी ने क्लीन चिट दे दी। इस पर भौहें तनीं ज़रूर। इस इन हाउस कमेटी में थे जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी। कमेटी ने अदालत की ही एक कर्मचारी की शिकायत में कोई सत्यता नहीं पाई। शिकायतकर्ता ने ‘नेचुरल जस्टिस (सहज प्राकृतिक न्याय) के उसूलों पर अमल न होने की बात कही थी और खुद ही इस जांच कमेटी से इस आधार पर अलग हो गई थी क्योंकि इन हाउस कमेटी की सुनवाई के दौरान उसके वकील को पेश होने की अनुमति नहीं मिली। पहले, इन हाउस कमेटी ने शिकायतकर्ता के बयान के आधार पर जांच शुरू की लेकिन वह तो उससे अलग ही हो गई। दूसरे, इन हाउस कमेटी ने शिकायतकर्ता की उस मांग को दरकिनार कर दिया, जिसमें वह एक वकील के साथ आती और बंद कमरे में हो रही सुनवाई की वीडियो रिकार्डिंग भी की जाती। तीसरे, कमेटी अपने निर्णय को सार्वजनिक करने में नाकाम रही।

आरोप लगाने वाली वह महिला (36 वर्ष) मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के आवास में बने दफ्तर में तैनात थी। उसने ‘सेक्सुअल हरैस्मेंट के आरोपों की सूची बना रखी थी। उसने अपना एफिडेविट (हलफनामा) एपेक्स कोर्ट के बाइस जजों को 19 अप्रैल को भेजा था। अदालत ने तीन सदस्यों की एक जांच समिति बना दी थी। इसने छह मई को मुख्य न्यायाधीश को तमाम आरोपों से बरी कर दिया था।

एफिडेविट में पूर्व कर्मचारी ने दावा किया था कि उसने जब मुख्य न्यायाधीश की पहल को तवज्ज़ो नहीं दी तो उसे और उसके परिवार को लगातार सताया गया और उसकी भी नौकरी जाती रही। असल सवाल यही है कि क्या शिकायतकर्ता को यह भी अधिकार नहीं है कि कमेटी ने जो सुनवाई की और जिस नतीजे पर पहुंची उसकी सुनवाई के ब्यौरे की एक प्रति उसे दी जाती? जिससे वह समिति की कार्यप्रणाली को जानती और समझती। उस कमेटी ने यह निष्कर्ष निकाला कि उसके आरोपों में काई तथ्य नहीं है। यदि इन हाउस कमेटी के निष्कर्ष कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप हैं तो इस फैसले को शिकायतकर्ता को न बताने पर इस पूरे मामले की आलोचना ही हुई है।

विचित्र है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई विशाखा कमेटी ही नहीं है। जबकि निशाने पर जज खुद हो। इन हाउस कमेटी ने पूरी प्रक्रिया उस नियमावली पर आधारित थी जो 1999 की बनी हुई है। इसमें दो मत नहीं कि एपेक्स कोर्ट के जज लाचार है क्योंकि उन्हें संविधान की रक्षा करनी है, कानून की व्याख्या भी करनी है और उस साजिश की भी जांच करनी है जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश को इसमें फंसाया गया। लेकिन उस पुरानी घिसीपिटी प्रणाली को सुधारना चाहिए क्योंकि देश में ‘मी टू’ आंदोलन भी हुए और समय-समय पर न्यायाधीशों खिलाफ साथ सेक्सुअल हरैस्मेंट के मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं।

इसके पहले बेंच पर मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी और उनकी मौखिक दखलंदाजी और अपनाई गई प्रक्रिया पर भी सवाल उठे थे। कहावत है कि न केवल न्याय हो बल्कि न्याय हुआ है यह दिखना भी चाहिए।

अब महिला कार्यकर्ताओं ने मुख्य न्यायाधीश को मिली ‘क्लीन चिट’ के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया है। उधर बार कौंसिल के नेता भी इस मुद्दे पर आपस में बंटे हुए हैं।

सुप्रीम कोर्ट के लिए यह परीक्षा की घड़ी है क्योंकि संस्था और इसके प्रमुख की साख दांच पर लगी है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में यह क्षमता है कि अपने घर को वे सही रख सकें।

एक प्रणेता की घर वापसी

ऐसे समय जब भारतीय राजनैतिक धरातल पर अपशब्द कहने वालों की होड़ सी दिखने लगी है, किस तरह की भाषा बोली जाए, कैसे शब्दों का उपयोग हो इसकी तहज़ीब खत्म हो गई है, मोहिंद्रनाथ सोफत जैसे दिग्गज नेता का हिमाचल प्रदेश की भाजपा में लौटना, समय की ज़रूरत है। उम्मीद करनी चाहिए कि सोफत के आने से प्रदेश भाजपा का वातावरण बदलेगा। तोल कर शब्द बोलने वाले सोफत की वाणी और भाषण अक्सर उनके विरोधियों को भी पसंद आते रहे है। किसी की आलोचना करते हुए किस तरह मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए, यह सोफत से ज्य़ादा कौन जान सकता है। सोफत में वही शालीनता है जो देश के साम्यावादी नेताओं में अक्सर देखने की मिलती है।

हर आदमी के लिए घर लौटना काफी सुखद होता है। हर व्यक्ति घर लौटने पर राहत की सांस लेता है। उस व्यक्ति के लौटने का प्रभाव उसके घर पर पड़ता है। घर का वातावरण बदलता है। कई बार आदमी खुद घर लौटता है तो कई बार उसे मना कर लाया जाता है। वैसे भी कहते है ‘फटे को सीएं नहीं और रूठे को मनाएं नहीं’ तो काम नहीं चलता। कमोवेश यही पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दिग्गज नेता और शांता कुमार के निकटतम सहयोगियों में शामिल मोहिंद्र नाथ सोफत को कुछ साल पहले पार्टी छोडऩी पड़ी थी। सोफत का पार्टी छोडऩा कोई आम घटना नहीं थी। उनका वापिस लौटना भी कोई आम घटना नहीं है। उनके साथ बहुत से लोग पार्टी से बाहर आए। उनमें से कुछ जल्दी लौट गए पर कुछ ने हिमाचल प्रदेश लोकहित पार्टी का गठन किया। मोहिंद्रनाथ सोफत जो कि शांताकुमार की सरकार में परिवहन न पर्यटन जैसे विभागों के मंत्री रह चुके हैं, ने अपने उन उसूलों को छोडऩे से इंकार कर दिया जिस कारण वे पार्टी से बाहर आए थे। सोफत न केवल एक अच्छे वक्ता, समय के पाबंद, गज़ब के संगठनकर्ता या आयोजक हैं बल्कि सदा तथ्यों के आधार पर बात करने वाले नेता हैं।

सोफत ने कभी अपनी दक्षिण पंथी विचारधारा के साथ कोई समझौता नहीं किया लेकिन बहुत युवा अवथा से ही पार्टी के बड़े-बड़े नेता भी उन्हें अपने लिए चुनौती समझते थे। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब हिमाचल में पार्टी के प्रभारी थे, तब भी सोफत अपना पक्ष पूरी मज़बूती के साथ उनके सामने रखते रहे। सोफत का यही साहस जहां उन्हें आम लोगों में शिखर की ओर ले जा रहा था वहीं राज्य और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के लिए एक चुनौती बनता जा रहा था।

खैर, बहुत लंबे समय उपरांत जब प्रदेश भाजपा नेतृत्व में कई बड़े बदलाव आए, प्रेमकुमार धूमल चुनाव हार गए, जयराम ठाकुर ने मुख्यमंत्री पद संभाल लिया। जयराम ठाकुर एक युवा मुख्यमंत्री हैं उन्होंने आते ही सोफत को पार्टी में वापिस लाने का प्रयास शुरू कर दिया। पर मुश्किल यह थी कि उनके व्यक्तित्व के हिसाब से उन्हें कौन सा पद दिया जाए। इसके साथ उनके कट्टर विरोधी राजीव ङ्क्षबदल और उनके साथी सोफत की घर वापसी में रोड़े अटका रहे थे। सोफत किन शर्तों पर भाजपा में लौटे हैं इनका खुलासा अभी नहीं हुआ है। मुख्यमंत्री जयराम और सोफत दोनों ही अभी पत्तों को छुपाए बैठे हैं। हालांकि सोफत का यह कहना है कि वे बिना शर्त पार्टी में लौटे हैं, पर इस बात का कोई उत्तर नहीं मिल रहा कि यदि बिना शर्त ही लौटना था तो अब तक क्या सोच रहे थे? अटकलें है कि उन्हें राज्य बिजली बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जा सकता है। पर फिलहाल के लिए वे केवल पार्टी के कार्यकर्ता हैं। उम्मीद है कि चुनावों में उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है।

दूसरी ओर शांता कुमार ने सोफत के पार्टी में लौटने पर राहत की सांस ली है। उनका कहना है पार्टी से किसी भी पुराने सदस्य को नहीं निकाला जाना चाहिए। सोफत को पार्टी से निकालने और उसे दरकिनारा करने के मुद्दे पर मीडिया में शांता कुमार की भूंिमका पर कई सवाल उठे थे। 1990 में विधायक बने मोहिंदर सोफत को 1998 के विधानसभा चुनाव में सोफत को बड़े नाटकीय और गैर कानूनी तरीके से हरवा दिया गया। ”गैरकानूनी’’ इसलिए क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने सोफत की चुनाव याचिका पर सोलन की सीट से कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णामोहनी का चुनाव रद्द कर दिया था। हुआ यह था कि मतगणना के बाद चुनाव अधिकारी ने सोफत को एक वोट से जीता हुआ घोषित कर दिया पर फिर से हुई गिनती में 26 वोटों से पराजित करार दिया। इस पर सोफत ने चुनाव याचिका दायर की और सुप्रीमकोर्ट तक अकेले इसे लड़ा और जीता। इस सीट के खाली होने पर जब 2000 में यहां उपचुनाव हुआ  तो भाजपा ने अपना टिकट सोफत को नहीं दिया। कारण स्पष्ट था कि उस समय प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री बन चुके थे, और वे चाहते थे कि टिकट उनके अपने वफादार राजीव बिंदल को मिले, क्योंकि सोफत के व्यक्तित्व से पार्टी के बड़े नेता भी ख़ौफज़दा रहते थे। इस कारण टिकट बिंदल को मिल  गया। पार्टी के कार्यकताओं और उनके मित्रों ने बहुत आग्रह किया कि सोफत निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ें पर सोफत ने शांता कुमार के कहने पर ऐसा करने सही नहीं समझा और चुनाव से हट गए। उन्होंने पार्टी का अनुशासन तो नहीं तोड़ा पर बागियों का एक संगठन बना लिया जिसे उन्होंने ‘मित्र मंडल’  का नाम  दिया। इसके बाद उन्होंने निर्दलीय के रूप में चुनाव भी लड़ा। जिसमें वे लगभग 1000 वोट से हारे। यदि उन्होंने यही काम सन् 2000 में किया होता तो शायद हिमाचल प्रदेश की सियासी तस्वीर ही कुछ और होती।

मेहिंदर नाथ सोफत के घर लौटने से अब भी यह उम्मीद करनी चाहिए कि प्रदेश में पार्टी का चरित्र कुछ बदलेगा। भाजपा की राजनीतिक विचारधारा में तो बदलाव नहीं होगा क्योंकि सोफत उसी विचारधार में पैदा हुए और पले, पर उम्मीद है कि उनके आने से गिरते राजनैतिक मूल्यों में ज़रूर सुधार होगा। जो भी हो राज्य भाजपा में एक नीतिज्ञ की वापसी हो चुकी है।

आदरणीय शांता जी,

सादर नमस्कार

पिछले कल के समाचार पत्रों मे आपका भावुक बयान पढा। यह बात ठीक है कि आपके पूरे प्रयास के बावजूद दो हजार मे मेरे साथ न्याय नही हो सका था। आप चुनाव समिति की बैठक मे अपने मंत्रालय की व्यस्तता मे से समय निकाल बिलासपुर पहुंचे थे। आपके और तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष जी के कारण ही टिकट का मामला दिल्ली जा सका था। वहां भी आपने मेरी खूब पैरवी की थी। परन्तु यह समय था या मेरी किस्मत का फेर था कि आपके पूर्ण आशीर्वाद के बाद भी मै उस उपचुनाव मे भाजपा का प्रत्याशी नही बन सका था। मेरी आपसे पहली मुलाकात आपतकाल मे नाहन जेल मे हूई थी। मै वहाँ पर बंद राजनीतिक कैदियों मे सबसे छोटा था। इसलिए आप लोगों से सबसे ज्यादा स्नेह मुझे मिला था। मै सभी नेताओं मे से आपके व्यक्तित्व से प्रभावित था। मै कैसे भूल सकता हूँ कि 1980 मे भाजपा के गठन के बाद मै आपके आशीर्वाद से ही सबसे छोटी उम्र मे कार्यसमिति का सदस्य बनाया गया था। उस समय श्री गंगा सिंह जी प्रदेश अध्यक्ष थे। जब आप हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष बने तो आपने मुझे प्रदेश सचिव के नाते अपनी टीम मे जगह दी। इसके अतिरिक्त सोलन और सिरमौर का प्रभार भी मुझे सौंपा। इसी दौरान मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा। सगंठन के कार्य को गभींरता से करना समय की पाबंदी यह सब आपने सिखाया है। 1990 मुझे आपने सोलन से टिकट दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आपने ही चुनाव लडने के लिए प्रेरित किया था। जब प्रदेश के भाजपा प्रत्याशी आपके दो घण्टे के समय के लिए तरस रहे थे। आपने मेरे निर्वाचन क्षेत्र को तीन दिन दिये थे। उस समय आप अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। आपके आशीर्वाद से ही मै विधायक बन सका था। उसी दौरान मुझे आप हिमाचल युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। जिसे मैंने अपने चुनाव क्षेत्र की व्यवस्ता को देखते हुए स्वीकार नहीं किया था। हालांकि पार्टी का निर्णय था की पहली बार विधायक बनने वाले को मंत्रीमण्डल मे शामिल नही किया जायेगा । परन्तु मै अपवाद था । सोलन जैसे छोटे जिले जहां से हमारे तीन विधायक थे उसमे से दो महत्वपूर्ण विभागों के साथ मत्री थे। यह सोलन का ऐसा इतिहास है जिसकी कभी पुनरावृत्ति हो उसकी सम्भावना नही दिखाई देती है। जहां तक दो हजार मे निर्दलीय चुनाव न लडने की बात है तो यह ठीक कि मुझ पर मेरे समर्थको और कार्यकर्ताओं का खूब दबाव था। आपने मुझे भाजपा के नेता के तौर पर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मुझे लडऩे से मना किया और मैने एक शिष्य के नाते अपने गुरु के आदेश का पालन किया। अब भी लोग चुनाव न लडऩा मेरी भूल बताते है और कहते कि वह चुनाव आप अवश्य जीत जाते। परन्तु मुझे उसका तनिक भी मलाल नही है। मुझे तो आपके आदेश के पालन करने का सन्तोष है। आप भी कोई भार अपने मन पर न रखे। आपने जो अपने बयान मे कहा उससे मेरा सन्तोष और बढ़ गया। किसी कार्यकर्ता के काम को इससे अधिक और क्या मन्यता मिल सकती है। आदर सहित।

आपका अपना

महिन्द्र नाथ सोफत

बंगाल में भी होने लगी धर्म के बहाने हिंसा

चुनाव और धर्म के बहाने बार-बार होने वाली हिंसक घटनाओं नेे पश्चिम बंगाल को गंभीर राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह बना दिया है। विशेषकर पिछले कुछ महीनों में और हमें हिंदी की कहावत याद दिलाई है -”पाप से धरती फटी, अधर्म से आसमां, अत्याचार से कांपी मानवता, राज कर रहा हैवान’’। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है कि पाप के कारण पृथ्वी फट रही है, अनैतिकता ने आकाश में विस्फोट कर दिया है,विश्वासघात ने मानवता को कांपा दिया है और चारों तरफ राक्षस घूम रहे हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीतिक धरती पर अपनी जड़ें गहरी करने की दौड़ में भाजपा ने अपने नियंत्रण में मौजूद सभी साधन झोंक दिए है, जिसमें केंद्र सरकार की मशीनरी भी शामिल है। इसका प्रमुख लक्ष्य तृणमूल कांग्रेस की लोकतांत्रिक रूप से चुनी और ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार को विस्थापित करना है।

निस्संदेह कभी-कभी तनाव और राजनीतिक पार्टियों के बीच राजनीतिक मतभेद होने के कारण हिंसा एक सामान्य घटना हो। फिर भी आम चुनाव से पहले इसने पश्चिम बंगाल में भयानक रूप ले लिया है। टीएमसी और भाजपा के बीच भ्रष्टाचार, केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के उपयोग और राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा सामाजिक कल्याण की योजनाओं की सफलता पर परस्पर विरोधी दावों को लेकर टीएमसी और भाजपा के बीच आरोपों का आदान -प्रदान हुआ है। कहा जाता है कि भाजपा और टीएमसी दोनों एक दूसरे पर हत्या, मारपीट, बर्बरता और पुलिस पर झूठे आरोप लगा रहे हैं। इस वर्ष जनवरी मे ंटीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा कथित तौर पर भाजपा की एक सार्वजनिक बैठक को बाधित करने के मद्देनजऱ भाजपा के कार्यकर्ताओं ने जवाबी कार्रवाई में टीएमसी के कार्यकर्ताओं की पिटाई की, उनके वाहनों को तोड़ दिया और उनके पार्टी कार्यालय को जला दिया। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार,” भाजपा के एक स्थानीय नेता ने पार्टी कार्यकर्ताओं को नसीहत दी,’खड़े होकर विरोध करो, तृणमूल कांग्रेस डर के मारे भाग जाएगी।’

पश्चिम बंगाल राज्य 42 लोकसभा सीटों के साथ, केंद्र में सरकार बनाने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के लिए बहुत महत्व रखता है। वर्तमान लोकसभा में टीएमसी के 34, कांग्रेस के चार और भाजपा और माकपा के दो-दो सांसद हैं। 2014 से पहले चुनावी मैदान से बाहर होने के बाद, 2014 के आम चुनाव में दो सीटों पर बेहतर मतदान के साथ जीतने के बाद भाजपा राजनीतिक रूप से अधिक महत्वाकांक्षी बन गई है और स्थानीय पंचायत चुनावों में इसका अच्छा प्रदर्शन ने पार्टी का मनोबल बढ़ाने वाला साबित हुआ है। अचानक हिंदी हार्ट लैंड में इसके समपूर्ण सफाए के बाद 2019 के आम चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल में उच्च दांव पर है।

 अलग -अलग राजनीति

पश्चिम बंगाल की राजनीतिक स्थिति यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, केरल या तमिलनाडु से भिन्न है। जहां सत्ताधारी दल या गठबंधन बार-बार बदलते हैं और लोकसभ की किस्मत नाटकीय रूप से बदलती रहती है। ऐसा कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल में जाति आधारित राजनीति नहीं है और यही कारण है कि यहां बिहार, यूपी की राष्ट्रीय जनता दल(आरजेडी) समाजवादी पार्टी(सपा) और बहुजन समाज पार्टी(बसपा) जैसी जाति आधारित पार्टियों का विकास नहीं हो सका। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार पश्चिम बंगाल में कम से कम आठ जाति समूह हैं जिनमें ब्राहमणों के कम से कम 13 और वैद्य की चार किस्में शीर्ष पर हैं और सबसे नीचे 13किस्म के दलित हैं।

1970 के दशक के प्रारंभ में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के शासनकाल में बरगा आंदोलन की शुरूआत छोटे और सीमांत किसानों को भूमि आवंटिक करने के लिए की गई थी। प्रत्येक ब्लाक में एक सलाहकार समिति थी जिसमें अन्य लोगों के अलावा ब्लॉक विकास अधिकारी और एक स्थानीय पार्टी प्रतिनिधि शामिल थे और इस समिति को कहा जाता था कि वे गांव और मुहल्ले के हर घर तक पहुंचे। इसके बाद पश्चिम बंगाल में वाम शासन के तहत जाति को पृष्ठभूमि में बदल दिया गया और केवल वर्ग को अर्थशास्त्र द्वारा परिभाषिक किया गया। वाम शासन के तहत इस समिति ने पारिवारिक विवादों सहित सभी मुद्दों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी। चारे और उर्वरकों के वितरण सहित गांव के मामलों के प्रबंधन में गांव समिति की बढ़ी हुई शक्तियां, ग्रामीण राजनीति के लिए वामपंथी कैडरों को पूरा समर्थन देती हैं। ग्रामीण और शहरी सभ्रांत अभिजात वर्ग पार्टी के प्रति वफादारी के बदले प्रशासनिक और अन्य नौकरियों में लीन था। टीएमसी की पंचायतों के माध्यम से धीरे-धीरे प्रवेश की नीति और 2008 में पंचायत में इसकी जीत ने इसे 2011 में वामदलों से मुकाबला करने के लिए सक्षम बनायां

टीएमसी का सामरिक स्तर

2008 तक टीएमसी ने वामदलों से पंचायतों को जीतने में सफलता हासिल की और दुर्जेय गांव संगठनों पर अधिकार करना शुरू कर दिया और 2011 में टीएमसी के सत्ता में आने के बाद ”लेफ्ट कैडर’’ दीदी का साथी बन गया। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाल टीएमसी ने सिंगूर और नंदीग्राम के खिलाफ जन आंदोलन के दौरान, मां,माटी और मानुष के नारे के आधार पर सत्ता हासिल की थी। 2011 में सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने कन्याश्री, जैसे कल्याणकारी उपायों, शिक्षा के माध्यम से बालिकाओं को सशक्त बनाने की योजना, और राज्य में 90 फीसद लोगों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दो रुपए में चावल उपलब्ध कराने की योजना शुरू की ।टीएमसी शासन की लोकप्रियता ने 2016 में राज्य विधानसभा में बढ़ती सीटों के साथ दूसरी बार सत्ता में रहने में मदद की। फिर भी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार टीएमसी सरकार रोजग़ार प्रदान करने के सवाल पर पीछे है। बड़ी संख्या में शिक्षित और अशिक्षित, कुशल और गैर-कुशल लोग रोजग़ार के लिए दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।

भाजपा की गतिशीलता

2014 में दो लोकसभा सीटें जीतने के साथ-साथ अपने वोट शेयर में 2009 के नौ फीसद हिस्सेदारी के मुकाबले 17 फीसद की बढ़ोतरी के साथ बंगाल में भाजपा का परचम लहरा गया। हालांकि वोट की हिस्सेदारी की यह बढ़ोतरी अल्पकालिक साबित हुई क्योंकि 2016 के राज्य स्तरीय चुनावों में भाजपा का वोट शेयर 10 फीसद तक गिर गया। फिर भी पार्टी नेतृत्व ने पश्चिम बंगाल में अपनी ऊंची चुनावी उम्मीदों को कायम रखा।

उत्तर में हुए नुकसान की भरपाई करने की कोशिश में भाजपा नेतृत्व पश्चिम बंगाल में समर्थन पाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है और इस कोशिश मे ंमोदी-शाह की जोड़ी और पार्टी को ममता बनर्जी के साथ टकराव के रास्ते पर खड़ा कर दिया है।पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों में रैलियों को संबोधित करने की बढ़ती संख्या के साथ मोदी-शाह की जोड़ी ने भाजपा को प्रमुख विपक्षी दल के रूप में पेश करने की कोशिश की है, यहां तक की भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी वोटों के लिए भ्रदलोक के धार्मिक जुनून को भुनाने की कोशिश की है। कुछ विशषज्ञों के अनुसार भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के भाषणों ने अक्सर राज्य की हिंदू आबादी के बीच भावनात्मक स्पर्श का संकेत यह कह कर दिया कि पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश में गायों की तस्करी नहीं की जाएगी। हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता कैसे मिलेगी। सीमापार बांग्लादेशियों की घुसपैठ कैसे रुकेगी। राजनीतिक-व्यपारिक सिंडिकेटस के लिए भुगतान आदि समाप्त हो जाएंगे।

कुछ विशषज्ञों के अनुसार भाजपा के शीर्ष नेता और खुद प्रधानमंत्री तीन भावनात्मक मुद्दों- नागरिकता (संशोधन) विधेयक, राष्ट्रीय रजिस्टर आयोग और बांग्ला देशी आव्रजन को रैलियों में अपने भाषण में मुख्य मुद्दा बनाकर मतदाताओं को प्रभावित कर रहे हैं। निस्संदेह ममता के खिलाफ भाजपा के मुख्य आरोपों में से एक उसकी तुष्टिकरण की राजनीति के बारे में हैं , फिर भ्ी कुल आबादी में मुस्लिम वोटिंग का 27 फीसद टीएमसी के लिए एक ठोस समर्थन आधार का गठन करता है। इसके अलावा ममता बनर्जी एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने में सबसे आगे रही है ।

आर्थिक विकास को गति देने और किफायती आवास के साथ-साथ रोजग़ार प्रदान करने के अपने राष्ट्रीय एजेंडे पर ज़ोर देने के बजाए पश्चिम बंगाल में भाजपा टीएमसी पर भ्रष्टाचार और ममता बनर्जी पर तानाशाही का आरोप लगाने पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रही है। मीडिया ने बड़े पैमाने पर कहा है कि राज्य के भाजपा नेतृत्व ने खुलेआम कार्यकर्ताओं को कहा ह कि ”अगर गुंडे डंडे और बांसों से आप पर हमला करते हैं तो तुम भी उन्हें मारो।’ स्थानीय नेता आक्रामक भाषा बोल रहे हैं। 2017 के बाद 2019 की शुरूआत में ये गतिविधियां और अधिक स्पष्ट हो गई हैं।

प्रधानमंत्री मोदी का हालिया दावा कि टीएमसी के 40 विधायक उनके संपर्क में थे यह लोकतांत्रिक रूप से चुनी टीएमसी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास और भाजपा की हताशा का संकेत है। भाजपा अध्यक्ष को उम्मीद है कि उनकी पार्टी 20 से अधिक लोकसभा सीटें जीत सकती है। हालांकि कई विशेषज्ञ इस मूल्यांकन को स्वीकार नहीं करते कि 2014 के भाजपा वोट हिस्सेदारी जो 17 फीसद था औा जो 2016 में 10 फीसद गिर गया था। इसके साथ पार्टी का उस जादुई संख्या तक पहुंचना एक बड़ा काम है। इन विश्लेषकों को कहना है कि अकेले जीतने के लिए भाजपा को न केवल प्रचार मंच बल्कि राजनीतिक बुनियादी ढांचे को भी उपयुक्त बनाने की आवश्यकता है। इसके अलावा सत्तारूढ टीएमसी को कड़ी टक्कर के बिना मैदान जीतने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह देखते हुए कि इस आम चुनाव में भाजपा का वोट शेयर बढ़ेगा फिर भी विश्लेषकों को मानना है कि भाजपा अधिकतम पांच सीटें ही जीत पाएगी।

न्यूज़ 24 के कार्यकारी संपादक और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं।

क्या केंद्रीय सुरक्षाबलों की मौजूदगी से चिंतित है ममता?

चौथे चरण के मतदान तक पश्चिम बंगाल में में 18 संसदीय सीटों पर वोटिंग पूरी हो चुकी है। मुर्शिदाबाद में एक हत्या को छोड़ राज्य में हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई। पिछले कई चुनावों की तुलना में इस बार बंगाल में कम रक्तपात हुआ है। निश्चित रूप से इसका श्रेय चुनाव आयोग और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों को जाता है।

जबकि इसी बंगाल में पिछले वर्ष ग्राम-पंचायतों के चुनाव में 100 से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुईं थी। ज्यादातर हत्याएं राज्य में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं की हुई थी। ग्राम-पंचायतों के चुनावों में खौफ का आलम इस कदर था कि कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम के उम्मीदवारों ने तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ पर्चा तक दाखिल नहीं किया। इस तरह दक्षिण बंगाल में तकरीबन 15 फीसद सीटों पर तृणमूल प्रत्याशी निर्विरोध जीत गए।

केंद्रीय वाहिनी से क्यों खफा हैं ममता

2014 के लोकसभा और 2016 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले बंगाल इस बार काफी हद तक मतदाता भयमुक्त हैं। बीते चार चरणों के चुनावों में केंद्रीय अर्द्ध सैनिक बलों ने उपद्रवियों के मंसूबों को नाकाम गया है। वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप है कि केंद्रीय सुरक्षाबलों के जवान उनके समर्थकों को डराते-धमकाते हैं। अपने चुनावी रैलियों में भी मुख्यमंत्री बनर्जी बार-बार दोहरा चुकी हैं ‘अमार केंद्रीय वाहिनी के कौनो भोय लागछे ना’ ( मुझे केंद्रीय बलों को कोई भय नहीं है। चुनाव कार्यों में लगे सुरक्षाबलों पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप बेबुनियाद है। शायद उन्हें बखूबी याद होगा,जब राज्य में वामफ्रंट का शासन था तब ममता बनर्जी केंद्रीय सुरक्षाबलों की निगहबानी में चुनाव कराने के लिए धरने पर भी बैठी थी। साम्यवादी हिंसा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली ममता आज हिंसा की राजनीति को मान्यता दे रही हैं। उनका यह रवैया वाकई हैरान करने वाला है।

कम मतदान होने से चिंतित ममता

सत्रहवीं लोकसभा के लिए चार चरणों के मतदान पूरे हो गए। पश्चिम बंगाल में देश के बाकी राज्यों के मुकाबले मतदान प्रतिशत ज्य़ादा है। लेकिन, आपको जानकर हैरानी होगी कि 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार बंगाल में मतदान प्रतिशत में कमी आई है। 11 अप्रैल को राज्य के कूचबिहार और अलीपुरद्वार लोकसभा सीटों पर वोटिंग हुई थी। जहां पिछले चुनाव के मुकाबले चार फीसद कम वोटिंग हुई थी। दूसरे और तीसरे चरण में क्रमश: तीन और पांच संसदीय सीटों पर मतदान हुए,यहां भी पिछले चुनाव के मुकाबले तीन-चार फीसद कम वोट पड़े। कल यानी 29 अप्रैल को बंगाल की आठ सीटों पर वोट मतदान हुए। पिछली बार यहां 83.3 फीसद मत पड़े थे, लेकिन इस बार 76.72 फीसद मत पड़े। चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि अधिक मतदान होने से सत्ताधारी दल को नुकसान होता है। इस लिहाज से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मुत्तमईन रहना चाहिए,जबकि वे चिंतित नजर आ रही है। उनकी चिंता की वजह है बंगाल में वोगस वोटिंग पर प्रभावी अंकुश लगना और यह संभव हुआ है केंद्रीय सुरक्षाबलों की अतिरिक्त तैनाती की वजह से।

मतदान कर्मियों ने मांगी थी सुरक्षा

पंचायत चुनाव में हिंसा से सहमे मतदान कर्मियो ने इस बार फैसला किया कि जिन मतदान केंद्रों पर पर्याप्त अर्द्धसैनिक बल नहीं होंगे,वहां वे चुनाव ड्यूटी में हिस्सा नहीं लेंगे। उनकी मांग का समर्थन बंगाल की सभी विपक्षी पार्टियों ने भी किया था। पिछले साल पंचायत चुनाव के दौरान उत्तर दिनाजपुर जिले में एक मतदान अधिकारी की हत्या कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि इस बार पश्चिम बंगाल में पिछले कई चुनावों के मुकाबले केंद्रीय सुरक्षाबलों की अतिरिक्त कंपनियां तैनात हैं। साथ ही चुनाव आयोग ने ऐसे कई जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों का तबादला किया जिनके उपर सत्ताधारी दल को परोक्ष रूप से मदद पहुचाने के आरोप लगे थे।

आगामी तीन चरणों की चुनौती

पश्चिम बंगाल में अगले तीन चरणों में राज्य की शेष 24 सीटों के लिए मतदान होने हैं। ऐसे में चुनाव आयोग और अर्द्धसैनिक बलों के समक्ष 12 मई को होने वाले मतदान में (छठे चरण) चुनौतियां बड़ी हैं। इसके तहत प्रदेश की आठ लोकसभा सीटों पर मतदान होंगे, जिनमें तामलुक संसदीय सीट अंतर्गत नंदीग्राम, पूर्वी मिदनापुर जिले के कांथी, पुरुलिया, मेदिनीपुर, झारग्राम, बांकुड़ा और घाटल क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं। ग्राम-पंचायतों के चुनाव में सबसे ज्यादा खूनी संघर्ष व हत्याएं इन्हीं क्षेत्रों में हुई थी। पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम में केंद्रीय बलों को ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत है। सियासी रंजिश का आलम यह है कि यहां सत्ताधारी टीएमसी के अलावा किसी दूसरे-दलों का कोई पर्चा-पोस्टर आपको नहीं दिखेगा। इसी महीने की छह तारीख को बारह वर्षों बाद नंदीग्राम में सीपीएम का दफ्तर खोला गया। लेकिन अगले ही दिन तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यालय को काले झंडों से पाट दिया। वर्ष 2007 में भूमि अधिग्रहण विरोधी हिंसा में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम कार्यालय को आग के हवाले कर दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता अमिताभ चक्रवर्ती के मुताबिक,बंगाल में हिंसा की जो राजनीति वामफ्रंट ने शुरू की थी,उसी रास्ते पर आज तृणमूल कांग्रेस है। नंदीग्राम में जिस तरह का खौफ आज देखा जा रहा है,वैसी ही दहशत कभी सीपीएम सरकार के समय थी।

हिंसा की राजनीति ‘शेर की सवारी’ जैसा

हिंसा के जरिए सत्ता प्राप्त करना ‘शेर की सवारी’ जैसा है। पश्चिम बंगाल में वामफ्रंट की सरकार ने इस यथार्थ को भोगा है। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि बंगाल में वाम हिंसा के खिलाफ ममता बनर्जी ने एक मुहिम चलाई। लेकिन सत्ता मिलने के बाद हिंसा की मुखालफत करने की बजाय उसे शह दे रही हैं। उन्नीस वर्षों से पड़ोसी राज्य ओडिशा में भी बीजू जनता दल की सरकार है। जाहिर है उसे भी अपनी सत्ता कायम रखने का हक है,लेकिन सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं ने हिंसा का सहारा नहीं लिया। कल चौथे चरण के साथ ही ओडिशा में लोकसभा की 21 और विधानसभा की 146 सीटों पर मतदान पूरा हो गया। लेकिन राज्य में हिंसा की कोई बड़ी घटनाएं नहीं हुईं। आज जब चुनाव आयोग की सूझबूझ और केंद्रीय सुरक्षाबलों की चैकस निगहबानी में बंगाल में जारी लोकसभा चुनाव हिंसक घटनाओं से महफूज है तो इसमें तृणमूल सरकार को भला परेशानी क्यों हो रही है। क्या खुद ममता बनर्जी नहीं चाहती कि हिंसा से अलग राज्य की एक अच्छी छवि बननी चाहिए?

दार्जिलिंग में दो गोरखाओं की लड़ाई से किसे फायदा?

लोकसभा चुनाव चुनाव में पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग की लड़ाई सबसे दिलचस्प मानी जा रही है। पिछले दस वर्षों से भाजपा इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रही है। हालांकि पार्टी ने इस बार मौजूदा सांसद एस.एस.आहलूवालिया की जगह मणिपुरी मूल के गोरखा राजू सिंह बिष्ट को उम्मीदवार बनाया है। विपक्षी पार्टियां इसे स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा बना रही हैं। लेकिन पहाड़ की राजनीति में यह कोई मुद्दा नहीं है,क्योंकि दार्जिलिंग में बाहरी को उम्मीदवार बनाना कोई नई बात नहीं है।  सही मायनों में दार्जिलिंग की लड़ाई भाजपा और तृणमूल के बीच नहीं,बल्कि दो गोरखाओं में हो रही है। ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के दो गुटों द्वारा भाजपा और तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिए जाने से यहां की लड़ाई रोचक हो गई है। वैसे इस पर्वतीय सीट के परिणाम जो हों, लेकिन इतना तय है कि गोरखा नेता विमल गुरूंग और विनय तमांग का राजनीतिक भविष्य इस बार के नतीजे तय करेंगे।

2017 में बांग्ला भाषा थोपे जाने के सवाल पर साथ मिलकर आंदोलन की शुरूआत करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरूंग और विनय तमांग की राहें अब जुदा हो गई हैं। जबकि 2014 के चुनाव में ये दोनों नेता भाजपा उम्मीदवार एस.एस आहलूवालिया की हिमायत कर रहे थे। साल 2017 का आंदोलन 104 दिनों तक चला। इस दौरान पहाड़ का संपर्क देश से कट गया। बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें डेढ़ दर्जन लोग मारे गए। बंद की वजह से स्थानीय कारोबार और पर्यटन को काफी नुकसान हुआ। लेकिन बगैर किसी ठोस नतीजे के आंदोलन खत्म हो गया। इसके साथ ही गोरखालैंड आंदोलन से जुड़े दोनों बड़े नेता एक दूसरे के खिलाफ हो गए।

गोरखालैंड में ‘गोरखालैंड’ मुद्दा नहीं

उत्तर बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चार जनसभाएं हुईं,लेकिन इस बार उनके भाषणों में गोरखाओं से जुड़े मुद्दे नहीं थे। जबकि 2014 की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने गोरखाओं के सपने को अपना सपना बताया था। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (विनय तमांग गुट) की मानें तो भाजपा ने गोरखाओं को सिर्फ सब्जबाग दिखाया है,उनके लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ है। वहीं ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ (विमल गुरूंग गुट) के मुताबिक काफी अर्से से चल रहे पहाड़ की समस्याओं के स्थायी निराकरण का भरोसा इस बार भाजपा ने दिया है। अपने घोषणा-पत्र में गोरखा समुदाय की 11 जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया है। तृणमूल कांग्रेस का समर्थन कर विनय तमांग ने गोरखाओं के साथ विश्वासघात किया है। यह जानते हुए कि तृणमूल सरकार अलग गोरखालैंड के खिलाफ है। विनय तमांग के एजेंडे में अगर गोरखालैंड होता,तो वह कभी टीएमसी से हाथ नहीं मिलाते। बांग्ला भाषा थोपे जाने के खिलाफ सवा तीन महीनों तक पहाड़ पर बंद रहा। राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमन-च्रक चलाया। लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कभी हाल-चाल जानने दार्जिलिंग नहीं आईं।

पहाड़ों पर कब किसका प्रतिनिधित्व

दार्जिलिंग लोकसभा का अस्तित्व देश के दूसरे संसदीय चुनाव में आया था। बतौर कांग्रेस उम्मीदवार टी.मेनन ने 1957 में जीत दर्ज की थी। इस संसदीय सीट से कांग्रेस अब तक पांच बार विजयी हुई है। 1971 के चुनाव में माकर््सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को यहां पहली बार कामयाबी मिली और रतनलाल बाह्मणिक विजयी हुए। दार्जिलिंग लोकसभा में सबसे अधिक छह बार माकपा उम्मीदवारों को जीत मिली। 1989 के चुनाव में पहली बार दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र से गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के उम्मीवार इंद्रजीत खुल्लर विजयी हुए थे। जबकि 1967 में निर्दलीय उम्मीदवार एम.बसु को जीत मिली। गोरखाओं की मदद से पहाड़ की चुनावी राजनीति में भाजपा पहली बार 2009 में कामयाब हुई और जसवंत सिंह को जीत मिली। उसके बाद 2014 के चुनाव में एस.एस.आहलूवालिया ने तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार वाइचुंग भूटिया को करीब पौने लाख मतों से पराजित कर जीत दर्ज की। इस बार भाजपा ने यहां राजू सिंह बिष्ट को चुनावी मैदान में उतारा है,जबकि तृणमूल कांग्रेस ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता व दार्जिलिंग के मौजूदा विधायक अमर सिंह राई को अपना उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस की तरफ से माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र से विधायक शंकर मालाकार मैदान में हैं।

तृणमूल का दार्जिलिंग जीत का सपना

दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस, सीपीएम, जीएनएलएफ, भाजपा यहां तक कि निर्दलीय उम्मीदवार भी जीत चुके हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस को अभी तक इस पर्वतीय सीट से जीत नहीं मिली है। 1998 से तृणमूल कांग्रेस की दार्जिलिंग विजय कोशिशें जारी हैं। इस बार पहाड़ों पर जैसे हालात बने हैं उससे पार्टी की उम्मीदें बढ़ी हैं। इससे पूर्व तृणमूल कांग्रेस को गोरखाओं के प्रभावी दलों का समर्थन नहीं मिला था। लेकिन इस बार गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (विनय गुट) के बड़े नेता अमर सिंह राई तृणमूल के निशान पर चुनावी मैदान में हैं। गोरखा नेता विनय तमांग के जरिए पहाड़ों पर टीएमसी की पैठ हुई है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस का सफर कितना लंबा चलेगा। यह तो दार्जिलिंग के चुनावी नतीजे तय करेंगे,लेकिन इतना जरूर है कि इन परिणामों का असर सबसे अधिक गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विनय तमांग के भविष्य की राजनीति पर पड़ेगी।

हिंसा नहीं समस्याओं का हल चाहिए

‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ के नेता सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में 1986 में करीब दो वर्षों तक आंदोलन चला। इस दौरान कई लोगों की मौतें हुईं और स्थानीय कारोबार प्रभावित हुआ। गोरखाओं के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं का कद बढ़ता गया। आज गोरखालैंड की लड़ाई लडऩे वाले कभी सुभाष घीसिंग के साथ थे। 2017 में यही लोग साथ मिलकर आंदोलन शुरू किया,लेकिन अब दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। अगले चुनाव में ये किनका साथ देंगे कोई नहीं जानता। 2017 के आंदोलन से पहाड़ के छोटे कारोबारियों का धंधा चैपट हो गया। ढाई महीने की बंदी का असर बड़े कारोबारियों ने झेल लिया। लेकिन छोटे व्यापार से जुड़े हजारों लोग तबाह हो गए। यही कारण है कि गोरखाओं को आंदोलनों से डर लगता है। हिंसा और आगजनी से गोरखालैंड की समस्याएं हल नहीं होगी। इसलिए गोरखाओं के अधिकारों से जुड़े नेताओं को स्थायी राजनीतिक हल के बारे में सोचना होगा,ऐसा यहां के लोगों का मानना है।

गोरखाओं की राजनीति और हिंदी भाषी

दार्जिलिंग में गोरखाओं से इतर राजनीति नहीं हो सकती। यहां की सियासत गोरखाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती है। लेकिन हिंदी भाषी राज्यों खासकर बिहार,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के लोगों की संख्या भी कहीं-कहीं निर्णायक स्थिति में हैं। अंग्रेजों के समय से यहां उत्तर भारतीय लोग रहते हैं। चाय बागानों से लेकर होटल-रेस्तरां के कारोबार में इनका ठीक-ठाक दखल है। कभी देश और दुनिया में दार्जिलिंग की पहचान टी,टिम्बर और टूरिज्म से होती थी। लेकिन धीरे-धीरे इसकी पहचान कम हो रही है। यहां के चाय बागान लगातार बंद हो रहे हैं,जो चालू हैं वहां के श्रमिक वेतन विसंगतियों के शिकार हैं। 1986 के आंदोलन में जंगलों को काफी नुकसान हुआ,क्योंकि आंदोलन चलाने के लिए धड़ल्ले से इमारती पेड़ों की कटाई होने लगी। टिम्बर स्मगलिंग पहाड़ों की एक बड़ी समस्या बन चुकी है। गोरखालैंड आंदोलन से जुड़े प्राय: सभी नेता इससे जुड़े हुए हैं। हालांकि इस चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं है। पहाड़ों में पानी की एक बड़ी समस्या है और लोगों को टैंकरों से पानी खरीदना पड़ता है। गंदगी और ट्रैफिक की समस्या भी विकराल होती जा रही है। लेकिन इस पर कभी कोई बात नहीं करता।

डीजीएचसी बरास्ता जीटीए

गोरखालैंड की मांग 1980 में शुरू हुई थी,लेकिन गोरखाओं की राजनीतिक पहचान के लिए संघर्ष 1907 में शुरू हुआ था। 1986 में ‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ( जीएनएलएफ) के नेता सुभाष घीसिंग की अगुवाई में दार्जिलिंग में करीब दो वर्षों तक आंदोलन चला। तब विमल गुरूंग और विनय तमांग भी उस आंदोलन का हिस्सा थे। 1988 में पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बीच एक समझौता हुआ और, ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल’ (डीजीएचसी) का गठन हुआ। इसके तहत गोरखाओं के लिए  कुछ विशेष प्रावधान किए गए। उसके पहाड़ों पर कई वर्षों तक शांति बनी रही। सुभाष घीसिंग के कजजोर पडऩे पर विमल गुरूंग और विनय तमांग 2007 में ‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ से अलग होकर ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’(जीजेएमएम) बनाया। गोरखाओं में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इन्होंने गोरखालैंड की मांग को हवा दी। इसका सीधा असर वहां के पर्यटन और उससे जुड़े लोगों पर पड़ा। तीन वर्षों के आंदोलन के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ से वार्ता के लिए तैयार हुई। 18 जुलाई 2011 को तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के नेताओं विमल गुरूंग, विनय तमांग और रौशन गिरि साथ समझौता हुआ। इस कऱार के बाद ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल’(डीजीएचसी) को भंग कर ‘गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन बोर्ड’ (जीटीएबी) का गठन किया गया।

दार्जिलिंग लोकसभा सीट का समीकरण

दार्जिलिंग में कुल मतदाताओं की संख्या 14,37,126 है। इसके तहत पहाड़ की तीन विधानसभाएं कलिम्पोंग, दार्जिलिंग और कार्सियांग, जबकि माटीगाड़ी-नक्सलबाड़ी, सिलिगुड़ी, फांसीदेबा और चोपरा मैदानी क्षेत्र की विधानसभा सीटें हैं। पहाड़ों पर कुल मतदाताओं की संख्या करीब छह लाख हैं और शेष मतदाता मैदानी इलाकों में हैं। दार्जिलिंग में हार-जीत में पहाड़ी क्षेत्र की तीन विधानसभाओं की बड़ी भूमिका मानी जाती हैं। इसकी वजह है गोरखा समुदाय के मतदाता। मैदानी इलाकों में अमूमन राजनीतिक दलों के बीच मतों का विभाजन होता है। लेकिन पहाड़ की तीन विधानसभाओं का वोट गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की हिमायत वाली पार्टी को जाता है। इस बार गोजमुमो में दो फाड़ हो चुका है। दस वर्षों से गोरखाओं का एकमुश्त समर्थन पाने वाली भाजपा के समक्ष गोरखा नेता विनय तमांग ने थोड़ी मुश्किलें पैदा की हैं। जीएनएलएफ के अध्यक्ष मन घीसिंग गोरखाओं के बड़े नेता सुभाष घीसिंग के बेटे हैं। दार्जिलिंग में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के अलावा सीपीएम से समन पाठक, कांग्रेस से शंकर मालाकार और जन अधिकार पार्टी से हरका बहादुर क्षेत्री चुनावी मैदान में हैं।