‘लग रहा था कि विदेश नीति में कुछ चमत्कार-सा होने जा रहा है लेकिन सब कुछ मोर का नाच साबित हुआ’

China

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ​ही अद्भुत कार्य किया था. सारे पड़ोसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को निमंत्रण दिया था कि उनके शपथ ​लेने के समय भारत आएं. ऐसा संकेत उनके पहले भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने ​नहीं दिया था. उस अवसर की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ यहां आए थे. जिन दो देशों के बीच संबंध बहुत ही विषम हैं, वहां से कोई प्रधानमंत्री यहां आ जाए तो इसका मतलब शुरुआत बड़ी अच्छी है. उसके पश्चात नरेंद्र मोदी का दूसरा अनन्य योगदान यह है कि जिस देश में भी गए उन्होंने कोशिश की कि वहां रहने वाले हमारे भारतीय लोग इकट्ठा हों, सभा में उपस्थित हों, भाषण सुनें, मिलें-जुलें.

ऐसा आज तक किसी प्रधानमंत्री ने व्यवस्थित तौर पर कभी नहीं किया. हुआ तो है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी भी जाते थे तो लोगों से मिलते थे. लेकिन सभाएं हों, जिसमें पांच-दस, बीस हजार लोग इकट्ठा हों, ये सब पहली बार हुआ. इसका विदेश नीति पर गजब का असर पड़ता है. विदेशों में हमारे लोग रहते हैं. उन देशों के शासक भी जानते हैं कि वे इतनी बड़ी सभा अपने देशवासियों को लेकर बुलाना चाहें तो नहीं बुला सकते, जैसी हमारे प्रधानमंत्री ने बुलाई. तो उन पर भी बड़ा रौब रहता है और अपने लोगों को भी प्रेरणा मिलती है. उससे भी विदेश नीति के लक्ष्य सिद्ध होते हैं. मोदी ने इतने कम समय में इतने देशों की यात्राएं कीं, एक-एक यात्रा में वे तीन-तीन, चार-चार देश निपटाते रहे. ऐसे-ऐसे देशों में गए जहां भारत के प्रधानमंत्री अब तक नहीं गए थे. इस मामले में मोदी का हमारी विदेश नीति पर अनन्य योगदान रहा और उसका प्रचार भी खूब जमकर हुआ. चैनल लगातार दिखाते रहे, देश और विदेश के अखबारों में भी खूब छपा. इन्हीं सब बातों को देखते हुए लग रहा था कि विदेश नीति में कुछ चमत्कार-सा होने जा रहा है. लेकिन ये सब कुछ मोर का नाच साबित हुआ.

ये सब ऐसा लगा कि सब बाहरी तौर पर किया जा रहा है और अंदर उसके कोई खास तत्व है नहीं. मुझे तो उस वक्त भी खुशी भी हो रही थी लेकिन मैं इस कमी को सूंघ भी रहा था और मैं ​लिख भी रहा था. अब दुर्भाग्य यह है कि वही सब हो रहा है. नेपाल जो हमारे सबसे करीब होता था, जिसकी हम लोगों ने इतनी जबरदस्त मदद भूकंप के समय की थी, उस नेपाल ने आज अपने राजदूत को वापस ​बुला लिया. वहां का प्रधानमंत्री हमारे खिलाफ बोल रहा है. वहां की रूलिंग पार्टी के प्रचंड हमारे खिलाफ बोल रहे हैं. वहां की नेपाली कांग्रेस से भी हमारा संबंध ऐसा नहीं है कि हम मधेशियों के मामले में उनसे अपनी बात मनवा सकें. नेपाल में हमारा कोई नहीं. जो सबसे नजदीक का दोस्त है, वही सबसे दूर जा रहा है.

यही हाल आप देखिए कि श्रीलंका में है, यही हाल मालदीव के साथ है. यही हाल हमारा और पड़ोसी देशों के साथ है. छोटे-मोटे सभी देशों का जिक्र मैं नहीं कर रहा. कोई बहुत ही अद्भुत बात किसी भी देश के साथ हुई हो और चल रही हो, ऐसा तो लगता नहीं. पाकिस्तान के साथ तो हमारी नीति बिल्कुल विफल है. वह पल में माशा पल में तोला है. वह कब बदल जाएगी, कब पटकनी खा जाएगी, सिर के बल चलते-चलते पांव के बल चलने लगेगी, पांव के बल चलते-चलते कब सिर के बल चलने लगेगी, कुछ मालूम ही नहीं. एक मामूली बहाने के आधार पर हम वार्ताएं स्थगित कर देते हैं और एक मामूली निमंत्रण पर कहीं से कहीं चले जा रहे हैं. कब काबुल से दौड़े चले गए लाहौर. इससे यह प्रकट हो रहा है कि विदेश नीति में तात्कालिकता है, कोई दूरदृष्टि नहीं है. इसके अलावा आप यह भी देखिए कि महाशक्तियों से संबंध बनाने में मोदी ने बाह्य आडंबर बहुत फैलाया. ओबामा को ‘बराक-बराक’ कहकर बुला रहे थे, चीनी राष्ट्रपति के साथ पलना झूल रहे हैं. जापान जा रहे हैं तो 30 बिलियन डाॅलर, 40 बिलियन डालर यहां से आएंगे, वहां से आएंगे. कहां आ रहे हैं, कुछ पता ही नहीं.

नेपाल जो हमारे सबसे करीब होता था, वहां सब हमारे खिलाफ हैं. अब वहां हमारा कोई नहीं. जो सबसे नजदीक का दोस्त है, वही सबसे दूर जा रहा है

यही बात अमेरिका के साथ हो रही है. अमेरिका के साथ इतने समझौते हो रहे हैं, लेकिन कोई ठोस रूप हम देख ही नहीं पा रहे. सब चीजें निर्गुण-निराकार. इन्हीं देशों के साथ जो संबंध हमारे होने चाहिए थे, वे नहीं हैं. अफगानिस्तान के साथ हमारी कोई नीति नहीं. हम दो बिलियन डाॅलर वहां खर्च कर चुके हैं. अपने कई लोग वहां जान दे चुके हैं. लेकिन न वहां की सरकार पर गहरा प्रभाव है, न वहां के विपक्ष पर. न ही तालिबान में हमने कोई सेंध लगाई. हम अपने आपको क्षेत्रीय महाशक्ति कहते हैं. लेकिन हममें कोई दमखम ही नहीं. इसका मतलब कोई विदेश नीति है ही नहीं. यह मामला सिर्फ इन्हीं देशों तक सीमित नहीं है. जैसे हमारे प्रधानमंत्री यूएई गए. क्या मिला वहां? अब तक कुछ पता ही नहीं. बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं कि लाख करोड़ रुपये वे हमको दे देंगे. अरे हम रुपये का क्या करेंगे? कुछ काम करके तो दिखाएं जमीन पर. यह मेक इन ​इंडिया हो गया, स्वच्छता अभियान हो गया, ये सब कागज पर हैं. कुछ जमीन पर भी तो उतरना चाहिए न! सारा मामला हमें तो ठीक रास्ते पर चलता दिखाई नहीं दे रहा है.

हालांकि, सुषमा स्वराज काफी अच्छी विदेश मंत्री हैं. वे भाषण अच्छा देती हैं. अपनी बात बहुत ढंग से रखती हैं. लेकिन मुझे लगता है कि उनको फ्री हैंड नहीं रखा है. वे अपनी बात स्वयं नहीं रख सकतीं. उनको मोदी के इशारे पर नाचना पड़ता है और मोदी अफसरों के इशारों पर नाचते हैं. मोदी को विदेश नीति की कोई समझ है, इसकी जानकारी हमें आज तक तो हुई नहीं. अब तो भगवान भरोसे है विदेश नीति. हमारे विदेश सचिव जयशंकर बहुत पढ़े-लिखे हैं, मैं बचपन से जानता हूं, लेकिन पता नहीं दोनों में से किसकी चलती है. पूरी विदेश नीति में जो पारंपरिक आंतरिक तत्व होते हैं, ऐसा लगता है कि ​सारे निष्कर्षों में, सारे निर्णयों में, उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो रही है. जैसी मर्जी होती है वैसी नीति हम चला रहे हैं.

मुझे लगता है कि आंतरिक मामलों में भी जो वादे किए गए थे, उनको निभाने की दिशा में बहुत कम ठोस कदम उठे हैं. हालांकि, सरकार ने कई अच्छे काम किए हैं, करने का दावा भी कर रही है. जैसे नितिन गडकरी धुआंधार सड़कें बना रहे हैं. बढ़िया काम है. इसी तरह से और भी कई काम इस सरकार ने शुरू किए हैं. जैसे मुझे यह काम बहुत अच्छा लगा कि एलपीजी सिलेंडर गरीब लोगों को कम दाम पर दिए जा रहे हैं और प्रधानमंत्री की प्रेरणा से लाखों लोगों ने एलपीजी ​सब्सिडी छोड़ दी. इस तरह के काम काफी अच्छे हुए हैं. ऐसे कामों को बढ़ाना चाहिए. हर क्षेत्र में लोगों से संकल्प करवाना चाहिए कि न रिश्वत देंगे, न रिश्वत लेंगे. स्वभाषा का प्रयोग करेंगे.

मोदी के आने से शिक्षा में कोई फर्क नहीं आया. स्वास्थ्य में कोई फर्क नहीं आया. आज भी गरीब आदमी अस्पतालों में जा नहीं सकता. 80 प्रतिशत लोग आज भी बिना दवाई के जीवन बिता रहे हैं. यही हाल शिक्षा का है. अंग्रेजी का बोलबाला है. मोदी स्वयं अंग्रेजी नहीं बोल सकते, लेकिन अंग्रेजी का मोह उनको पैदा हो गया है. क्योंकि अंग्रेजीदां नौकरशाहों ने उनको घेर रखा है और वही उनको नाच नचाते हैं. तो जो नाच नचाता है उसकी बात तो सुननी पड़ेगी. उसके प्रभामंडल में आप आ ही जाएंगे. मोदी की अपनी छाप हमारी आंतरिक नीतियों पर पड़ नहीं रही. इसका मुझे बड़ा दुख है.

रिश्वतखोरी जस की तस चल रही है, शराबखोरी जस की तस चल रही है, पशुओं का वध जस का तस चल रहा है. अभी कोई बड़ा परिवर्तन, जिसके बारे में हम खुलकर बोल सकें, वे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं. दो-तीन, छोटे-मोटे अच्छे काम हुए हैं, उनका जिक्र हमने कर दिया. मैं यह समझता हूं अब सरकार के पास तीन साल बचे हैं. आखिरी के साल में छह महीने तो चुनाव में चले जाते हैं. नीतियां बनाने और उनको लागू करने का समय ही नहीं मिल पाता. अब जो भी दो-ढाई साल का समय बचा है, उसमें नरेंद्र मोदी अपने को ठीक रास्ते पर चलाएंगे, यह इंप्रेशन हटाएंगे जनता के मन से कि ये एक आदमी की सरकार है, बाकी सब अनुवर्ती हैं. एक इंजन है, बाकी सब डिब्बे हैं. यह बात जब तक खत्म नहीं होगी, सब लोगों को सम्मान और स्वत्व नहीं मिलेगा, तो मुझे लगता है दो-ढाई साल बाद बहुत ही दुर्गति होगी. इससे एक राजनीतिक शून्य भारत में पैदा होगा. क्योंकि कोई वै​कल्पिक नेतृत्व देश में दिखाई नहीं दे रहा है. मोदी का नेतृत्व अगर जल गया, जो कि साल भर में होता हुआ लग रहा है मुझे, तो इस देश में कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन चलेगा तो शायद देश में कोई परिवर्तन हो. वरना मुझे तो भविष्य बहुत ही अंधकारपूर्ण और कांटों से भरा लग रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)