बात साल 2007 की है. मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. सावन के महीने में एक दिन अचानक दोस्त के साथ झारखंड के देवघर में शिवजी को जल चढ़ाने के लिए निकल पड़ा. सफर ऐसा था कि सुल्तानगंज पहुंचते-पहुंचते बदन का हर हिस्सा हिल चुका था. शरीर थक चुका था. कांवड़ में गंगाजल लेकर आगे की पैदल यात्रा मुश्किल लग रही थी, लेकिन मन में जगी आस्था कह रही थी कि हर मुश्किल आसान है.
सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर 100 किमी. से ज्यादा पैदल यात्रा कर देवघर जाकर शिवलिंग पर ये जल चढ़ाना होता है. मेरा साथी सुमन मुझसे कहीं ज्यादा उत्साहित था. रास्ते में छोटी-बड़ी हजारों टुकड़ियां बोल-बम और हर-हर महादेव का जयकारा लगाते नजर आ रही थीं. सुमन ने मुझे ऐसे ही एक समूह के बारे में बताया जिसे ‘डाक-बम’ कहा जाता है. ‘हम ‘बोल-बम’ हैं मतलब महादेव तक पहुंचने के लिए हमारे लिए समयसीमा निर्धारित नहीं है लेकिन डाक-बम को 24 घंटे के भीतर हर हाल में मंदिर पहुंचना ही होता है वरना ये वीआईपी लाइन से दर्शन नहीं कर पाएंगे. तब इन्हें सबसे निचली श्रेणी यानी बोल-बम वाली श्रेणी से ही महादेव के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे मतलब पुण्य कम मात्रा में प्राप्त होगा.’
तभी मेरी नजर एक श्रद्धालु पर पड़ी जिसके दोनों पैर नहीं थे पर वह बोल-बम, बोल-बम कहते हुए दो बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाते हुए मंदिर जा रहा था. मैंने सुमन से पूछा इसे किस श्रेणी का पुण्य मिलेगा? लेकिन सुमन बिना कोई जवाब दिए ही चलता रहा. रास्ते में एक और बुजुर्ग श्रद्धालु मिले जिनके हाथ में एक लकड़ी थी. वे जमीन पर लेटते और जहां तक उनका हाथ पहुंचता, वहां लकड़ी से निशान लगाकर खड़े हो जाते. ऐसे तरह-तरह के श्रद्धालुओं और कदम-कदम पर भिखारियों को देख मैं स्तब्ध और शांत आगे बढ़ता जा रहा था. सुमन कहता, ‘ये धोखेबाज भिखारी हैं. रूई में नीली-पीली दवाई भिगोकर लपेटे हुए हैं.’ मैं देख रहा था कि सड़क किनारे दुकानों में बैठे ‘भक्त’ कैसे गांजे के धुंए का गुंबद बना रहे थे. धर्मशालाओं में देर रात अपने परिजनों से बिछड़ीं औरतों का रात गुजारना ‘भक्त’ कैसे मुश्किल किए हुए हैं. यही ‘भक्त’ युवतियों को कैसी ‘श्रद्धा’ से एकटक निहार रहें हैं. भक्ति के उस पथ पर लोगों के पर्स और सामान चोरी हो रहे थे. मेरे मन में आस्था से जगी शांति में अब खलबली मच चुकी थी और धर्म-आस्था से जुड़े तमाम सवाल कौंधने लगे थे. अब मैं सिर्फ आते-जाते लोगों की गतिविधियों को ध्यान से देख रहा था. इस बीच सुमन कहीं छूट गया था. मैं अकेला देवघर के नजदीक शिव-गंगा के सामने खड़ा था. यहां से स्नान के बाद ही महादेव-दर्शन किया जाता है. शिव-गंगा के बीचों-बीच महादेव की विशाल मूर्ति देखकर शरीर में झुरझुरी दौड़ गई. जैसे डरना और अभिभूत होना दोनों चीजें एक साथ घटी हों. पर जैसे-जैसे डुबकी लगाते भक्त बटुवा गंवा रहे थे, चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे महादेव की मूर्ति मेरी नजरों में ढह रही थी. अब मैं मंदिर के प्रांगण में क्यों प्रवेश कर रहा था मुझे पता नहीं था! लाखों की भीड़ में बच्चे-बूढ़े और महिलाएं रौंदे जा रहे थे. पंडे और पुलिस लाइन में आगे जगह देने के नाम पर भक्तों से पैसे ऐंठ रहे थे. प्रांगण में बस एक मंदिर था जो खाली था. मैंने अपने भीतर झांका तो देखा कि मन में बसी महादेव की मूर्ति पूरी तरह से ढह चुकी थी. मैंने इसी अकेली मूर्ति पर जल चढ़ाया और लौट आया.
जैसे-जैसे चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे मेरी नजरों में महादेव की मूर्ति ढह रही थी
तब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ के भगत सिंह को नहीं जानता था, न मार्क्स को और न ही बुकानिन को. देवघर के अनुभव से मुझे यह समझ आने लगा कि इतनी श्रद्धा और आस्था के बावजूद बैसाखी पर चलने वाले व्यक्ति, गरीब बुजुर्ग, भिखारियों का भाग्य कभी नहीं बदलने वाला है. वहां सक्रिय चोर-उचक्कों को देखकर यह सवाल जेहन में अटक गया कि अन्याय और गलत चीजों को रोक पाने में असमर्थ महादेव पूजनीय कैसे हो सकते हैं!
इसी सवाल ने मुझे नास्तिकता के करीब पहुंचा दिया. अपने सोचने-समझने के तरीके पर लगातार आलोचना झेलने के बावजूद इतना तो मैं जानता हूं कि मेरा भविष्य चाहे जिस करवट मुझे सुलाए पर यह तो तय है कि न तो मैं किसी बाबरी-विध्वंस की भीड़ का हिस्सा बनूंगा, न किसी गोधरा कांड, मुजफ्फरनगर दंगे या किसी मंदिर की स्थापना के नाम पर खेली जा रही खून की होली में रहूंगा. मेरी नजर में अहमियत होगी तो सिर्फ इंसानियत की.
(लेखक शोधार्थी हैं और वर्धा में रहते हैं)