फिल्मों की कहानियां समाज की जमीनी सच्चाई से ही निकलती हैं. इसी तरह की एक सच्ची कहानी बागपत जिले के गांव ढिकाना की है. डॉक्टर अगर आपसे कहे कि आपकी बहन को कैंसर है और जल्द से जल्द ऑपरेशन करने की जरूरत है वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. इस स्थिति में आप क्या करेंगे? जाहिर है अपने रिश्तेदारों के पास मदद के लिए जाएंगे. लेकिन अगर आपका किसी के ऊपर जायज बकाया हो तो पहले वहीं का रुख करेंगे. लेकिन वह देने में आनाकानी करे तब आप क्या करेंगे? आत्महत्या!
बात पिछले साल 12 सितंबर की है. बैंक के कर्ज और मेहनत का मेहनताना न मिलने के चलते गांव ढिकाना के 32 वर्षीय गन्ना किसान राहुल ने खुद को गोली मारकर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था. उनकी छोटी बहन पारुल कैंसर से पीड़ित थीं जिनका तीन महीने से दिल्ली में इलाज चल रहा था. बहन के इलाज का खर्च उठाते-उठाते राहुल के परिवार पर भारी कर्ज हो गया था. राहुल के परिवार के पास 32 बीघे जमीन थी जिसमें गन्ना उगाया जाता था. हाड़ कंपाती ठंड में जिस फसल को बोया और काटा, मिल तक ले जाने का प्रबंध किया उसी का मेहनताना उन्हें नहीं मिल पाया. राहुल का जिले के मलकपुर मिल पर तीन लाख रुपये का बकाया था जिसका भुगतान नहीं किया जा रहा था. जिस दिन राहुल ने आत्महत्या की उसी दिन उनकी बहन पारुल का ऑपरेशन होना था. लेकिन पैसों का प्रबंध न हो पाने के कारण राहुल कुंठा से भरे हुए थे.
12 सितंबर की दोपहर जब राहुल खेत से घर आए तब उनकी पत्नी नीशू खाना बना रही थीं. अंदर आने के बाद उन्होंने कपड़े उतारे और अलमारी में रखी बड़े भाई रूपेश की लाइसेंसी राइफल निकालकर अपने सिर में गोली मार ली. पति को लहुलूहान देख नीशू की चीख निकल गई. राहुल अपने पीछे 13 लोगों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए, जिसमें उनके सात और चार साल के दो छोटे बच्चे भी हैं. इस घटना ने प्रदेश के गन्ना किसानों के गुस्से की आग का और भड़का दिया. भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में किसानों ने प्रदेश में जगह-जगह प्रदर्शन किए.
‘न मोदी सरकार कुछ कर रही है, न ही सपा सरकार. किसान बेचारा मेहनत करके कड़ाके की ठंड में मरकर जो फसल उगाता है अगर उसकी मूल लागत भी न मिले तो वह क्या करे?’
राहुल के बड़े भाई रूपेश ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘सुनने में आ रहा है कि प्रशासन अब बकाया भुगतान दिलाने जा रहा है.’ रुंआसे होकर रूपेश आगे कहते हैं, ‘क्या जो मरेगा उसी का पेमेंट होगा? हमें नहीं चाहिए पैसे, हमें सिर्फ हमारा भाई चाहिए.’ घाव पर नमक छिड़कने का काम बागपत के अपर जिला अधिकारी संतोष कुमार शर्मा करते हैं. संतोष कुमार कहते हैं, ‘15 दिन पहले टीकरी में जिस रामबीर ने खुदकुशी की उसके परिवार को पैसे का भुगतान मिल गया है. ढिकाना में जिसने आत्महत्या की है उसके भुगतान का चेक भी तैयार है और कभी भी सौंप दिया जाएगा.’ यहां सवाल उठता है कि क्या जो आत्महत्या करेगा उसी के बकाये का भुगतान किया जाएगा?
प्रदेश के गन्ना किसान चीनी मिलों पर बकाया अपने अरबों रुपये का भुगतान न होने से परेशान हैं. गन्ना एक नकदी फसल है जिसके भुगतान से किसान अपनी बहन-बेटियों की शादी और बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम करते हैं. अगर उनकी एकमात्र उम्मीद इस फसल का बकाया भी नहीं मिल पाएगा तो उनकी आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक स्थिति में उथल-पुथल होना लाजिमी है.
बागपत के छपरौली निवासी गन्ना किसान सहदेव की बहू की मौत समय पर इलाज न हो पाने से हो गई. 23 अक्टूबर 2015 को उन्होंने जिलाधिकारी कार्यालय में अधिकारियों की मौजूूदगी में फांसी लगाकर आत्महत्या करने की कोशिश की. लेकिन वहां मौजूद लोगों ने तत्परता दिखाते हुए उन्हें बचाया. उसी समय एडीएम ने डीसीओ को उनका भुगतान करने का निर्देश दिया. हमारे देश में प्रशासन तभी जागता है जब कोई अनहोनी हो जाए. इसी तरह सरकार की गलत नीतियों के चलते बागपत के सूजती गांव के किसान ने अपनी खड़ी फसल में आग लगा दी और उसमें कूदकर खुदकुशी करने का प्रयास किया. लेकिन ग्रामीणों की सूझबूझ ने उसे बचा लिया. इसी तरह का मामला लखीमपुर में भी सामने आया जहां किसान सत्यपाल ने 50 हजार का भुगतान न होने के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. सत्यपाल ने अपने सुसाइड नोट में गन्ने का भुगतान न होने और कर्ज के बारे में लिखा था.
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यह सरासर झूठ है कि घाटे में चल रही हैं चीनी मिलें
गन्ना किसानों की परेशानी चीनी मिलों की ब्लैकमेलिंग से शुरू होती है. यह आज की बात नहीं है, पिछली सरकारों को भी चीनी मिलों ने ब्लैकमेल किया है. चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं, यह सरासर झूठ है. सरकारें भी इस झूठ में उनके साथ हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश, पंजाब या फिर केंद्र की सरकार ही क्यों न हों. केंद्र की मोदी सरकार ने तो कमाल ही कर दिया है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी बोलते हैं किसानों को भगवान या सरकार के भरोसे नहीं होना चाहिए. लेकिन जो बात वह नहीं बोलते हैं वह यह है कि किसानों को सिर्फ इंडस्ट्री के भरोसे होना चाहिए. अब अगर यह होगा तो किसानों का भला कैसे होगा? हमें यह समझना होगा कि सरकार की मंशा सिर्फ इंडस्ट्री की मदद करने की है. वैसे भी चीनी मिलें हमेशा फायदे में रहती हैं, जब बंद अर्थव्यवस्था थी तब उन्होंने खूब मुनाफा कमाया और आज जब खुली अर्थव्यवस्था है तब भी वह अपना मुनाफा कम नहीं होने देना चाह रही हैं. किसानों की परवाह उन्हें नहीं हैं. यही नहीं किसानों की परवाह तो उनकी यूनियनों को भी नहीं है. वैसे तो वह बड़ा आंदोलन करते हैं, लेकिन चुनावों के समय राजनीतिक पार्टियों के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं. इससे किसानों का भला नहीं होने वाला है. अब यूनियनों को सबक लेने की जरूरत है.
देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
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गन्ना किसानों की समस्या पर जब ‘तहलका’ ने भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत से बात की तो उन्होंने कहा, ‘न मोदी सरकार कुछ कर रही है, न ही सपा सरकार. किसान बेचारा इतनी मेहनत करके कड़ाके की ठंड में मरकर जो फसल उगाता है अगर उसकी मूल लागत भी न मिले तो वह क्या करे? मोदी सरकार जय जवान जय किसान के नारे के साथ बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई थी लेकिन अब किसानों की चिंता किसी को नहीं है.’ समाजवादी पार्टी की मंशा पर सवाल उठाते हुए टिकैत ने कहा, ‘राज्य सरकार ने भी प्रदेश के किसानों की समस्याओं से मुंह मोड़ा हुआ है. जबसे सपा सरकार आई है एक भी बार गन्ने का दाम नहीं बढ़ाया गया. जबकि गन्ना उगाने की लागत कई गुना बढ़ चुकी है. एक क्विंटल गन्ना बोने में लागत 400 रुपये के करीब पड़ रही है. हम तो फिर भी 350 रुपये की मांग कर रहे हैं.’
वहीं राष्ट्रीय किसान मंच के विनोद सिंह का कहना है, ‘गन्ना किसानों के लिए 280 रुपये प्रति क्विंटल का समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, लेकिन जब चीनी बनती है तो वह 32 रुपये किलो बिकती है. जब तक कच्चा माल और तैयार प्रोडक्ट के लाभ का बंटवारा बराबर नहीं किया जाएगा, तब तक किसान परेशान रहेंगे, सड़क पर उतरते रहेंगे, प्रदर्शन करते रहेंगे. हमारे यहां जिस तरह की व्यवस्था है उसमें कुल लाभ में किसानों को 30 प्रतिशत हिस्सा मिलता है, जबकि बाकी 70 प्रतिशत हिस्सा बिचौलिए खा जाते हैं. इसके अलावा सरकार ने किसानी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी भी कम कर दी है. अभी के हालात ये हैं कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को गन्ना किसानों की परवाह नहीं है.’
सपा सरकार द्वारा इस साल भी गन्ने के मूल्य में वृद्धि न करने के चलते भाकियू ने किसानों के साथ मिलकर एक फरवरी को एनएच-58 पर चक्काजाम किया था जिसके चलते लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा था. इस विरोध प्रदर्शन पर टिकैत कहते हैं, ‘आंदोलन करने में हमें कोई खुशी नहीं मिलती. जनता परेशान होती है तो हमें भी दुख होता है. लेकिन सोई हुई सरकार को जगाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.’
चीनी मिलें भुगतान क्यों नहीं करतीं, इस पर टिकैत कहते हैं, ‘चीनी मिल वाले भी अपना रोना रोते रहते हैं. उनका कहना है कि मिल चलाने का खर्च भी नहीं निकल पा रहा भुगतान कैसे करें. बाजार में चीनी के दाम गिर रहे हैं जिससे उत्पादन लागत भी नहीं निकल पा रही है. वे मिल बंद करने की बात भी दोहराते रहते हैं.’
भाकियू अध्यक्ष आगे कहते हैं, ‘हमारी केंद्र सरकार और राज्य सरकार से मांग है कि किसानों के हित को ध्यान में रखकर ही नीतियां बनाएं. हमारा देश कृषि प्रधान देश है लेकिन यहां की सरकारों को किसानों की ही चिंता नहीं है. अगर देश का किसान अपनी मर्जी चलाने पर आ गया तो देश भूखा बैठा रहेगा.’
समस्या की गंभीरता पर बोलते हुए टिकैत कहते हैं, ‘अपने बच्चों की पढ़ाई, शादी वगैरह के लिए किसान सरकार द्वारा तय कीमत से भी कम कीमत पर गन्ना बेचने को मजबूर होते हैं. जबकि सरकार को चाहिए कि गन्ना मूल्य पहले से ही घोषित कर दे. जो रेट सरकार मंजूर करती है अगर उनकी घोषणा पहले हो जाए तो किसान समय से फसल की बुवाई-कटाई करके सही दाम पर अपनी फसल बेच सकेगा.’ विरोध प्रदर्शन का क्या परिणाम मिला इस पर टिकैत ने सरकार की तरफ से आश्वासन मिलने की बात कही. एक वक्त था जब प्रदेश के किसान आजीविका के लिए नकदी फसल गन्ने पर निर्भर रहते थे. राज्य की चीनी मिलें भी गन्ने के खेतों पर नजरें गड़ाए रहती थीं और दिन-रात गन्ने की सप्लाई के लिए ताकती रहती थीं. मगर अब हालात बिल्कुल बदल चुके हैं. आज आलम यह है कि कुछ गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार गन्ना उगाने की लागत 325 रुपये प्रति क्विंटल पड़ रही है जबकि किसान को सिर्फ 280 रुपये मिल रहे हैं. उसके लिए भी किसानों को विरोध प्रदर्शनों का सहारा लेना पड़ता है. पिछले चार साल से सपा सरकार ने गन्ना मूल्य में खास बढ़ोतरी नहीं की है.
पिछले दिनों लखनऊ में मुख्य सचिव आलोक रंजन की अध्यक्षता में गन्ना मूल्य निर्धारण समिति की बैठक हुई थी जिसमें इस साल भी गन्ने का मूल्य न बढ़ाने का फैसला किया गया. बैठक में किसानों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे जिन्होंने गन्ने का मूल्य 300 से 340 रुपये के बीच रखने की मांग की थी. लेकिन उनकी मांग पर कोई ध्यान देने के बजाय सरकार ने चीनी मिलों के हितों की रक्षा की. चीनी मिलों की ओर से यूपी एस्मा (इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष सीबी पटोदिया ने बैठक में कहा, ‘चीनी उद्योग अब भी संकट के दौर से गुजर रहा है और गन्ने के दाम इस साल भी नहीं बढ़ाए जाने चाहिए.’
इस फैसले के पीछे गन्ना शोध परिषद के निदेशक डॉ. बीएल शर्मा की वह रिपोर्ट भी थी जिसमें दावा किया गया था कि गन्ने की उत्पादन लागत 245 रुपये प्रति क्विंटल आ रही है. हालांकि विनोद सिंह इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘यह रिपोर्ट पूरी तरह से छलावा है. इन्हें सरकार से भुगतान मिलता है इसलिए ये सरकार की भाषा बोलते हैं. ऐसी रिपोर्ट से किसानों का तो भला नहीं होने वाला है.’ प्रदेश में लगभग 50 लाख गन्ना किसान हैं जिन पर करीब चार करोड़ लोगों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है. चीनी मिलों पर इनका आठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है.
सपा सरकार ने पेराई सत्र 2012-13 में गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) 275, 280 और 290 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया था. ये रेट क्रमशः अस्वीकृत, सामान्य और अगेती प्रजाति के लिए थे. 2013-14 और 2014-15 में भी गन्ना किसानों को इसी दर पर भुगतान किया गया. 2015-16 के गन्ना मूल्य में भी कोई बढ़ोतरी नहीं की गई. दूसरी तरफ राज्य सरकार ने चीनी मिलों को 35 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से राहत पैकेज देने की घोषणा की है.
भुगतान न होने की समस्या पर ‘तहलका’ ने मुजफ्फरनगर जिले के बुडिना कला गांव निवासी गन्ना किसान धीरज से बात की. धीरज ने बताया, ‘हमारे पास कुल 20 बीघा जमीन है. तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स में हम गन्ने की सप्लाई करते हैं. इस मिल पर किसानों का करीब 80 करोड़ रुपये बकाया है. मेरा खुद का करीब एक लाख रुपये बकाया है. नियम के मुताबिक हमें गन्ने की सप्लाई के 15 दिन के भीतर भुगतान मिल जाना चाहिए. मगर पिछले साल का बकाया तो अब तक नहीं मिला. इस साल जो गन्ना दिया है उसके भुगतान के बारे में तो अभी सोच भी नहीं सकते.’ गौरतलब है कि गन्ना अधिनियम (पूर्ति तथा खरीद विनियमन) के मुताबिक किसानों को गन्ना सप्लाई करने के 15 दिन के भीतर उसका भुगतान कर दिया जाना अनिवार्य है. लेकिन हमारे देश में कानून के पालन की किसे परवाह है.
धीरज ने तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स पर आरोप लगाते हुए कहा, ‘किसानों को भुगतान के लिए इनके पास पैसे नहीं हैं वहीं हरियाणा में कंपनी ने एक नया प्लांट लगाया है.’ हरियाणा में प्लांट लगाने की सच्चाई जानने के लिए जब ‘तहलका’ ने तितावी शुगर कॉम्प्लेक्स के एजीएम (क्वालिटी कंट्रोल) मनोज धवन से बात की तो उन्होंने कहा, ‘हरियाणा में नया प्लांट लगाने जैसी तो कोई बात नहीं है. मिल पर कितना बकाया है इस बारे में मेरे पास कोई जानकारी नहीं है.’
इसके अलावा विधानसभा चुनावों की आहट के चलते उत्तर प्रदेश में गन्ने को लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब साठ से सत्तर और पूरे उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ सौ विधानसभा सीटों पर हार जीत गन्ना किसान ही तय करते हैं. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नोएडा में हुए किसान सम्मेलन में गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और मुख्य विपक्षी बसपा पर जमकर आरोप लगाए. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में आई सरकारों ने चीनी मिल मालिकों से गठजोड़ कर लिया है और इसी के चलते राज्य में किसानों को गन्ने का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है.
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किसानों को कम नहीं मिल रहा है गन्ने का दाम
गन्ना किसानों को उनकी उपज की पूरी कीमत मिल रही है. हमने जो कीमत तय की है वह कम नहीं है. दरअसल केंद्र सरकार दूसरे देशों से चीनी मंगा रही है. इससे चीनी के दाम में गिरावट आ गई है. अब अगर चीनी का दाम कम रहेगा, तो मिल मालिक कहां से भुगतान कर पाएंगे? प्रदेश सरकार ने इसी को ध्यान में रखते हुए इस बजट में 1,336 करोड़ रुपये की राशि भी आवंटित की है. इसका मकसद किसानों को पैसा देकर उनके हितों की रक्षा करना है. पिछले साल भी अखिलेश सरकार ने तीन हजार करोड़ रुपये की राशि किसानों को बचाने के लिए आवंटित की थी. मेरा साफ कहना है कि प्रदेश में गन्ना किसानों की दुर्दशा के लिए केंद्र सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं. अगर वह विदेशों से चीनी मंगाना बंद कर दे, तो किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य मिलना शुरू हो जाएगा. प्रदेश में जब भी हमारी सरकार आई तब हमेशा गन्ना के खरीद मूल्य में इजाफा हुआ है. किसानों का हमेशा ध्यान रखा गया है. लेकिन केंद्र सरकार की नीतियों के चलते गन्ना किसान बेमौत मरने के लिए मजबूर हैं.
विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह,
कृषि मंत्री, उत्तर प्रदेश
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गन्ना किसानों की समस्याओं पर उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी का कहना है, ‘केंद्र सरकार के ऊपर गन्ना किसानों की परवाह न करने का आरोप लगाना बिल्कुल गलत है. गन्ने के मूल्य भुगतान का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है. केंद्र सरकार ने अभी देशभर में गन्ना किसानों के बकाया भुगतान के लिए 6,000 करोड़ रुपये की ब्याज मुक्त राशि चीनी मिलों को दी है. यह राशि सीधे किसानों के खातों में भेजी गई है. इसके अलावा केंद्र सरकार ने किसानों के लिए फसल बीमा योजना की शुरुआत की है. अब यह प्रदेश की सपा सरकार है जो किसानों को उनका वाजिब हक नहीं दिला पा रही है. आप ही बताएं पिछले दो सालों से राज्य में किसान वर्ष मनाया जा रहा है और उत्तर प्रदेश में किसानों के आत्महत्या की खबरें भी आ रही हैं. हमारी पार्टी का किसान मोर्चा इसे लेकर पूरे राज्य में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है.’
लक्ष्मीकांत बाजपेयी गन्ना किसानों की परेशानी को लेकर केंद्र सरकार और अपनी पार्टी को पूरी तरह से पाक-साफ बता रहे हैं. लेकिन हाल ही में जब अमित शाह दोबारा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए तब उनके फेसबुक पेज पर बधाई देने के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान इस बात की तरफ भी उनका ध्यान दिला रहे थे कि किसानों को उनका भुगतान नहीं मिला है और वह तकलीफ में हैं.
इस मुद्दे पर राजनीति करने वालों में सिर्फ भाजपा ही अकेली नहीं है. प्रदेश की सभी पार्टियों ने अपने तीर कमान से निकाल लिए हैं. अभी कुछ ही महीने पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सहारनपुर में पदयात्रा कर चुके हैं. जबकि पार्टी के राज्यसभा सांसद प्रमोद तिवारी का कहना है, ‘सरकार और मिल मालिकों की साठ-गांठ के चलते प्रदेश में गन्ना किसानों को सही तरीके से भुगतान नहीं मिल रहा है. इस पर कठोर कदम उठाए जाने की जरूरत है. प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाए का तत्काल भुगतान किया जाना चाहिए. वैसे भी गन्ना राजनीति का विषय नहीं है, यह लोगों की जीविका से जुड़ा है. सारे पक्षों को मिल बैठकर इसका जल्द समाधान निकालना चाहिए.’
गन्ना मूल्य निर्धारण समिति की बैठक में इस साल गन्ने का मूल्य न बढ़ाने का फैसला किया गया. गन्ना किसानों की मांग पर कोई ध्यान देने के बजाय सरकार ने चीनी मिलों के हितों की रक्षा की
प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बसपा भी इस मुद्दे को लेकर समय-समय पर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करती रहती है. राष्ट्रीय लोकदल ने भी राज्य की वर्तमान सपा सरकार पर गन्ना मिल मालिकों के हाथों में खेलने का आरोप लगाया है. हालांकि प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस तरह के आरोपों को पूरी तरह से खारिज करते हुए कहते हैं कि राज्य सरकार किसानों के हित में हरसंभव कदम उठा रही है. राज्य सरकार ने 2016-17 के लिए पेश किए गए अपने चुनावी बजट में गन्ना मूल्य भुगतान के लिए 1,336 करोड़ रुपये की राशि भी आवंटित की है. हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि किसानों या मिल मालिकों में से किसका भला होता है.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘सरकारें गन्ना किसानों के लिए तो सब्सिडी की घोषणा करती हैं पर इसका एक बड़ा हिस्सा मिल मालिकों के पास चला जाता है. यदि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार गन्ना किसानों के मुद्दे का सही ढंग से समाधान नहीं करती है तो यह आगामी चुनाव में निश्चित रूप से इनके खिलाफ जाएगा. वैसे किसान अभी किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं हैं. पार्टियां इसे लेकर समय-समय पर अपने राजनीतिक हितों को पूरा करती हैं. यह समस्या लंबे समय से बनी हुई है. आज भी किसानों की हालत चिंताजनक है पर किसी को इसकी परवाह नहीं है. हालांकि गन्ना किसानों का संघर्ष हमें एक राह भी दिखाता है कि बाकी फसलों के किसान इससे जुड़कर अपने लिए कुछ बेहतर तलाश सकते हैं.’
फिलहाल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक होने के चलते गन्ने पर जमकर राजनीति हो रही है. राजनेताओं ने भी किसानों के गन्ने को अपनी राजनीति की लाठी बना ली है, जिसका सहारा लेकर वह चुनावी वैतरणी पार करना चाह रहे हैं. पर सवाल वहीं बना हुआ है कि इस सबसे गन्ना किसानों का कितना भला होगा? क्या आत्महत्या का सिलसिला रुकेगा? क्या फिर गन्ना किसानों को सड़क पर उतरना नहीं पड़ेगा? क्या वह राष्ट्रीय राजमार्ग जाम करने के बजाय खेतों में काम करके हरियाली की चमक बिखरेंगे?